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________________ कल्याणकारके अथ षोडशः परिच्छेदः मंगलाचरण. सुंदरांगमभिवंद्य जिनेंद्र । वंद्यमिंद्रमहितं प्रणिपत्यः ॥ . पंधुरानननिबंधनरोगान् । सन्दधाम्यखिललक्षणयुक्तान् ॥ १॥ भावार्थ:--परमौदारिक 'दिव्य ‘देहको धारण करनेवाले, इंद्रसे पूजित श्रीजिनकी वंदना कर ऐसे अनेक रोगोंको जिनके लिए मुख कारणीभूत है उसके सम्पूर्ण "लक्षण व कारण के साथ वर्णन करेंगे ॥ १ ॥ प्रतिक्षा. श्वासकासविरसातिपिपासा । छर्घरोचकखरस्वरभेदो-॥ दातिवर्तनिजनिष्टुरहिका- 1 पीनसायतिविरूपविकारान् ॥२॥ भावार्थ:-श्वास, कास, विरस, छर्दि अरोचकता, कर्कश स्वरभेद उदावर्त, कठोर हिक्का पीनस विरूप आदि रोगोंका वर्णन करेंगे ॥ २ ॥ लक्षितानखिललक्षणभेदैः । साधयेत्तदनुरूपविधानः। साध्ययाप्यपरिवर्जयितव्यान् । योजयेदधिकृतक्रमवेदी ॥ ३ ॥ भावार्थ:-अपने २ विविध प्रकार के लक्षणोंसे संयुक्त उपरोक्त रोगोंको उनके अनुकूल चिकित्सा क्रमको जाननेवाला वैद्य साध्य करें । लेकिन साध्य रोगोंको ही साध्य करें । याप्य को यापन करें । वर्जनीय को तो छोड देवें ॥३॥ अथ श्वासाधिकारः। श्वासलक्षण. श्वास इत्यभिहितो विपरीतः । प्राणवायुरुपरि प्रतिपन्नः ॥ होमणा सह निपीड्यंतरं तं । श्वास इत्यपि स पंचविधोऽयम् ॥४॥ भावार्थ:--प्राणवायु की गति विपरीत होकर जब वह केवल अथवा कफ के 'साय पीडन करती हुई ऊपर जाता है. इसे श्वास कहते हैं । यह श्वास पांचे प्रकार का " होता है ॥ ४॥ १ महाश्वास, ऊर्षश्वास, दिलश्वास, तमकदनास, सुश्वास, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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