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________________ ( २२ ) कल्याणकारके क्रूर मृग हों कहीं बालू रेत सहित सूखी कुनटी ( मनः शिला ) का सस्य हों, कहीं प्रियंगु, चरक (जंगली मूंग ) कोदव आदि सस्य हों, कहीं मूंग, चना, शांतनु ( धान्यविशेष ) हों, कहीं कहीं खच्चर, घोडा, गाय, ऊंट आदि हों, कहीं बकरे, मेंढे आदि जनावर अधिक हों, कहीं गामके बाहर बहुत दूरमें कूआ हो और वह भी बहुत ऊण्डा हों, उसमें जल भी अत्यंत दुर्लभ हों उनमें से मनुष्य जल बहुत कठिनतासे यंत्रोंकी सहायतासे निकालते हों, एवं जहांपर स्वभावसे ही मनुष्योंका शरीर कृश व सिरासमूह से व्याप्त हों एवं शरीर स्थिर, रूखा, व कठिन रहता हों, उस देशको जांगल देश कहते हैं । वहांके रहनेवाले मनुष्योंमें अधिकतरह वातविकार से उत्पन्न रोग होते हैं, इसलिये वै वातहर प्रयोगों की योजना करें ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ अनूपदेश लक्षण | य एवमुक्तः स च जांगलस्ततः पुनस्तथानूपविधानमुच्यते । यथाक्रमाद्यत्र हि शीतलोदका । मही सदा कर्दमदुर्गमा भवेत् ॥ २५ ॥ स्वभावतो यत्र महातिकोमलास्तृणक्षुपागुल्मलतावितानकाः वटा विटंकोत्कटपाटलीनुमा । विकीर्णपुष्पोत्करपारिजातकाः ।। २६ ।। अशोककक्कोललंवगकंगुका विलासजातीवरजातिजातयः । समल्लिका यत्र च माधवी सदा । विलोलपुष्पाकुलमालती लता ।। २७ ॥ महीधरा यत्र महामहीरुहैरलंकृता निर्जरधौतसानवः । घनाघनाकंपितचंपकद्रुमा । मयूरकेकाकुलचूतकेतकाः ॥ २८ ॥ तमालतालीवरनालिकेरकाः क्रमाच्च यत्र क्रमुकावली सदा । सतालहिंतालवनानुवेष्टिता । हूदा नदा स्वच्छजलातिशोभिताः ।। २९ ॥ शरन्नभःखण्डनिभाश्व यत्र स - तटाकवापी सरितस्तु सर्वदा । बलाकहंसादयकुक्कुटोच्च लद्रिलालपद्मोत्पल षण्डमण्डिताः ॥ ३० ॥ प्रलंबतांबूललताप्रतानकः । समंततो यत्र च शालिमाषकाः । महेक्षुः वाटा परिवेष्टनोज्वला भवंति रम्या कदलीकदंबकाः ।। ३१ ।। विपक गोक्षीरसमाहिषोज्वलद्दधिमभूतं पनसाम्रजांबवम् । प्रकीर्णखर्जूरसनालिकेरकं गुडाधिकं यत्रःच मृष्टभोजनम् || ३२ || सदा जना यत्र च मार्दवाधिकाः ससौकुमार्योज्वलपादपल्लवाः । अतीव च स्थूलशरीरवृत्तयः कफाधिका वातकृतामयान्विताः ||३३|| ततश्च तेषां कफवातयोः क्रिया सदैव वैद्यैः क्रियतेऽत्र निश्चितः इतीत्थभानूपविधिः प्रकीर्तितः तथैव साधारणलक्षणे कथा ॥ ३४ ॥ १- महेवाटी इतिपाठांतरं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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