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________________ (२०६) कल्याणकारके भावार्थ:-~-स्रावसहित, स्निग्ध, अत्यंत काला व मंडल सहित कुष्ठको किटिभ कहते हैं । करतलमें जो कुष्ठ होता है उष्णता, शोष व तुदन जैसी दर्दसे युक्त होता है उसे चर्मदल कुष्ठ कहते हैं । जिस में तीव्र खाज चलती हो, पीपका स्राव होता हो, तीव्र उष्णता से युक्त हो, ऐसे दोनों पादोमें उत्पन्न होने वाली पिटिकाओंको पामाकुष्ठ कहते हैं। वही यदि, हाथ, ब चूतडमें पैदा हो तो उसे आयुर्वेदशास्त्रज्ञ विद्वान् कच्छु कहते हैं ।। ६८ ॥ ॥६ ॥ असाध्यकुष्ठ। अन्यत्किलासाख्यमपीहकुष्ठं कुष्ठात्परं त्रिविधदोषकृतं स्वरूपम् ॥ त्वक्स्थं निरासावि विपाण्डुरं त-त्तवर्णमाप्तसहजं च न सिद्धिमेति ॥७० भावार्थ:----किलास, 4 त्रिदोषोत्पन्नकुष्ठ एवं खावरहित, पांडुवर्ण युक्त, ऐसे स्वचा में स्थित, तथा जो सहज [ जन्म के साथ होने वाले ] कुष्ठ ये सब असाध्य होते हैं । ७० ॥ वातपित्त प्रधान कुष्ठलक्षण । त्वग्नाशशोषस्वरभंगुराद्याः । स्वापे भवंत्यनिलकुष्ठमहाविकाराः । भूकर्णनासाक्षतिरक्षिरागः । पादांगुलीपतनसक्षतमेव पित्तात् ॥ ७१॥ भावार्थ:-बातजकुष्टमें त्वचाका स्वाप ( स्पर्शज्ञान शून्य होना ) शोष, स्वरभंग व निद्राभंग आदि विकार होते हैं । भ्र, कान, नाकमें जखम होना, आंखे लाल होना, पैरके अंगुलियोंका गलना, व जखम होना ये विकार पैत्तिक कुष्ठमें होते हैं ॥७१॥ कफ प्रधान, व स्वस्थ कुष्टलक्षण । कुष्ठमें कफका लक्षण। सस्त्रावकण्डूगुरुगात्रतांग- शेत्यं सशोफमखिलानि कफोद्भवानि । रूपाण्यमून्यत्र भवंति कुष्ठे। त्वक्स्थे स्ववर्णविपरीतविरूक्षणं स्यात् ॥७२॥ भावार्थ:-- स्राव होना, खुजली चलना, शरीर भारी होना, शीत व सूजन होना ये सब लक्षण कफज कुष्ठ में होते हैं । त्वचामें स्थित कुष्ठमें त्वचासे विपरीत वर्ण व रूक्षण होता है ॥ ७२ ॥ रक्तमांसगत कुष्ठ लक्षण । पस्वेदनस्वापविरूपशोफा । रक्ताश्रिते निखिलकुष्ठविकारनाम्नि ।। सत्वाविला: स्फोटनमारसुतीनाः । संधिष्वतिपयलमांसगतोरठे ।। ७३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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