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महाभयाधिकारः ।
(२०७)
भावार्थ:-अधिक पसीना आना, अंगमें स्पर्श ज्ञान शून्य होना विरूप व सूजन उत्पन्न होना, यह सब रक्ताश्रित कुष्ठमें होनेवाले लक्षण है । मांसगत प्रबल कुष्ट में सावयुक्त तीत्र फफोले उठते हैं ॥ ७३ ॥
मदलिगम्नायुत कुलप्टक्षण । कौव्यं क्षतस्यापि विसर्पणत्व- मंगक्षति गमनविघ्नमिहावसादम् ।। मेदस्सिरास्नायुगतं हि कुष्टं । दुष्टवणत्वमपि कटतरं करोति ।। ७४ ।।
भावार्थ:--मेद, शिरा व स्नायुगत कुष्टमें हाथमें लंगडापना, जखम, फैलना, शरीरक्षति, चलने में विघ्न, अंगग्लानि ब दुष्टत्रण आदि अनेक विकार होते हैं ॥ ७४ ॥
मज्जास्थिगत कुष्ठलक्षण । तीक्ष्णाक्षिरोगक्रिमिसंभवपाटनाद्या । नासास्वरक्षतिरपि प्रबला विकाराः ।। मज्जास्थिसंप्राप्तमहोग्रकुष्ठे ते पूर्वपूर्वकथिताश्च भवति पश्चात् ॥ ७५ ॥
भावार्थ:-मज्जा व अस्थिगत भयंकर कुष्टमें तीक्ष्ण अक्षिरोग, क्रिमियोंकी उत्पत्ति, घटना, नाकमें जखम, स्वरभंग आदि प्रबल विकार होते हैं एवं पूर्व धातुगत कुष्ठके लक्षण उत्तरोत्तर कुष्ठोमें पाये जाते हैं ।। ७५ ॥
कुष्ठका साध्यासाच विचार । त्वग्रक्तमांसश्रितमेव कुष्ठं । साध्यं विधानं विहितौषधस्य । मेदोगतं याप्यमतोन्यदिष्टं । कुष्ठं कनिष्ठमिति सत्परिवर्जनीयम् ॥ ७६ ॥
भावार्थ:-वचा, रक्त, मांसमें आश्रित कुष्टमें औषविप्रयोग करें तो साध्य है । मेदोगत कुष्ठ याप्य है । शेष कुष्ट असाध्य समझकर छोडें ।। ७६ ॥
आसाध्य कुष्ट । यत्पुण्डरीकं सितपयतुल्यं । बंधूकपुष्पसदृशं कनकावभासम् ॥ विवोपम काकणकं सपित्त । नवर्जयेदितजन्मत एवं जातम् ।। ७७ ॥
भावार्थ:--जो सफेद काल के समान रहनेवाला पुण्डरीक कुष्ट है, बंधूक पुष्प व सोनेके समान एवं बिंवफलके सामान जिसका वर्ण है ऐसे पित्त सहित काकनक एवं जन्मगत कुष्ठ असाध्य समझकर छोडना चाहिए ॥ ७७ ।।
असाध्यकुछ व रिट्र। यत्कुष्ठिदुष्टार्तवशुक्रजाता-- पत्यं भवेदधिककुष्टिगतं त्वसाध्यम् ॥ - : "रिष्टं भवेत्तीव्रतराक्षिरोग-- नष्टस्वरव्रणमुखी गलितप्रपूयम् ॥ ७८ ॥
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