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धान्यादिगुणागुणविचार
दोषों का संचयप्रकोप |
श्लेष्मा कुप्यति सद्संतसमये हेमंतकालार्जितः । प्रावृष्येव हि मारुतः प्रतिदिनं ग्रीष्मे सदा संचितः ॥ पित्तं तच्छरदि प्रतीतजलदव्यापारतोत्युत्कटं तेषां संचयकोपलक्षणविधर्दोषांस्तदा निर्हरेत् ॥ ८ ॥ भावार्थ हेमंत ऋतु में संचित कफ वसंतऋतु में कुपित होता है । ग्रीष्मऋतु में संचित वायुका प्रावृट् ऋतुमें प्रकोप होता है । और वर्षाऋतुमें संचित पित्त का प्रकोप शरत्काल में होता है । यह दोषोंका संचय, व प्रकोप की विधि है । इस प्रकार संचित दोषोंको इनके प्रकोप समयमें बातको बस्तिकर्मसे पित्तको विरेचनसे, कफ को वमनसे शोधन करना चाहिये । अन्यथा तत्तदोषोंसे अनेक व्याधियांकी उत्पत्ति होती हैं ॥ ८ ॥
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विशेष --- आयुर्वेद शास्त्र में दो प्रकारसे ऋतुविभागका वर्णन है इनमेंसे एक तो चैत्रमास आदिको लेकर वसंत आदि छह विभाग किया है जिसका वर्णन आचार्य श्री. स्वयं श्लोक नं. ६ में कर चुके हैं । द्वितीय प्रकारके ऋतुविभाग की सूचना श्लोक ७ में दी है। 1 इसीका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ।
भाद्रपद आश्वयुज ( कार ) मास वर्षाऋतु, कार्तिक मार्गशीर्ष (अगहन ) मास शरदऋतु, पुष्यमाघमास हेमंतऋतु, फाल्गुन चैत्रमास वसंतऋतु, वैशाख ज्येष्ठमास ग्रीष्मऋतु और आषाढ श्रावणमास प्रावृट्ऋतु कहलाता है ।
प्रावृट् व वर्षाऋतु में परस्पर भेद इतना है कि पहिले और अधिक वर्षा जिसमें वरसता हो वह प्रावृट् हैं और इसके पीछे ( प्रथम ऋतुकी अपेक्षा ) थोडी वर्षा जिसमें वरसता हो वह वर्षाऋतु है ।
इन दोनोंमें प्रथम प्रकारका ऋतु विभाग, शरीरका बल, और रसकी अपेक्षाको लेकर है। जैसे वर्षा, शरद, हेमंतऋतु में अम्ललवण मधुररस बलवान होते हैं और प्राणियोंका शरीरबल उत्तरोत्तर बढता जाता है इत्यादि । उत्तर दक्षिण अयनका विभाग भी इसीके अनुसार है ।
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द्वितीय विभाग दोषोंके संचय, प्रकोप, व संशोधन की अपेक्षाको लेकर किया है । इस श्लोक में दोषोंके, संचय आदिका जो कथन है वह इसी ऋतुविभाग के अनुसार
है । इसलिये सारार्थ यह निकलता है कि, भाद्रपद आश्वयुजमासमें पित्तका,
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कफ का, और वैशाख ज्येष्ठमास में बातका, संचय ( इकठ्ठा) होता है ।
कार्तिक मार्गशीर्ष में पित्त, फाल्गुन चैत्रमें कफ, और आषाढ श्रावणमें वात प्रकु - पित होता है ।
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