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________________ (५२) कल्याणकारके दोषोंका संशोधन जिस ऋतुमें प्रकुपित होता है उस ऋतुके द्वितीय मासमें करना चाहिये । अन्यथा दोषोंके निग्रह अच्छी तरहसे नही होता है । इसलिये वातका श्रावण में, पित्तका, मार्गशीर्षमें, कफका, चैत्रमें, संशोधन करना चाहिये । वस्ति आदिके प्रयोगसे संशोधन तब ही करना चाहिये, जब कि दोष अत्यधिक कुपित हो । मध्यम या अल्पत्रमाणमें कुपित हो तो, पाचन लधन आदिसे ही जीतना चाहिये । प्रकुपित दोषोंसे व्याधिजनन क्रम । क्रुद्धास्ते प्रसरति रक्तसहिता दोषास्तथैकैकशो। द्वन्द्वी काप्यथवा त्रयस्त्रय इमे चत्वार एवात्र वा । अन्योन्याश्रयमाप्नुवंति विसृता व्यक्तिप्रपन्नाः पुनः ॥ ते व्याधि जनयंति कालवशगाः षण्णां यथोक्तं बलम् ॥ ९ ॥ भावार्थ---पूर्वकथित कारणोंसे प्रकुपित दोष कभी एक २ ही कभी दो २ मिलकर कभी तीनों एकसाथ कभी २ रक्तको साथ लेकर, कभी चारों एक साथ, मिलकर शरीरमें फैलते हैं । इस क्रमसे दोषोंका प्रसर पंद्रह २ प्रकारके होते हैं । इस तरह फैलते हुए स्रोतोंके वैगुण्यसे जिस शरीरावयवको प्राप्त करते हैं तत्तदवयवोंके अनुसार नाना प्रकारके व्याधियोंको उत्पन्न करते हैं जैसे कि यदि उदरको प्राप्त करें तो, गुल्म, अतिसार अग्निमांद्य, अनाह, विशूचिका आदि रोगोंको पैदा करते हैं, बस्तिको आश्रय करें प्रमेह मूत्रकृछु, मूत्राघात, अश्मरी आदिको उत्पन्न करते हैं इत्यादि । तदनंतर व्याधियोंके लक्षण व्यक्त होता है जिससे यह साधारण ज्ञान होता है कि वह ज्वर है अतिसार है, वमन है आदि । इसके बाद एक अवस्था होती है जिससे व्याधिके भेद स्पष्टतया मालूम होता है, कि यह वातिक ज्वर है या पैत्तिक! पित्ततिसार है या कफातिसार आदि । इस प्रकार तीनों दोष कालके वशीभूत होकर व्याधियोंको पैदा करते हैं । दोपोंके संचय, प्रकोप, प्रसर, अन्योन्याश्रय, ( स्थानसंश्रम ) व्यक्ति, और भेद इन छह अवस्थाओंके बलाबलको शास्त्रोक्त रीतिसे जानना चाहिये । विशेष-जैसे एक जलपूर्ण सरोवरमें और भी अधिक पानी आ मिल जाय तो वह अपने बांधको तोडकर एकदम फैल जाता है वैसे ही प्रकुपित दोष स्वस्थान को उल्लंघन कर शरीरमें फैल जाते हैं । इसीको प्रसर कहते हैं । __ पंद्रह प्रकार का प्रसर--- १ वात २ पित्त ३ कफ ४ रक्त (दो) ५ वातपित्त ६ वातकफ. ७ कफपित्त । तीनों ) ८ वातपित्तकफ ( रक्तके साथ ) ९ वातरक्त १० कफरक्त ११ पित्तरक्त १२ वातपित्तरक्त. १३ यातकफरक्त. १४ कफापत्तरक्त. १५ (चारों ) वातपित्तकफरक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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