________________
(२९०)
कल्याणकारके
-AA.
..RAAMAN
अर्बुद लक्षण। पवनरूधिरपित्तश्लेष्ममेदप्रकोपा- ।
द्भवति पिशितपेशीजालरोगार्बुदाख्यम् ॥ • अतिकफबहुमेदोव्यापृतात्मस्वभावा- ।।
न भवति परिपाकस्तस्य तत्कृच्छसाध्यः ॥ २२ ॥ भावार्थ:-वात, रक्त, पित्त, कफ व मेदके प्रकोपसे मांस पेशियोमें मांसपिण्डके समान शरीरके किसी भी प्रदेशमें उत्पन्न ग्रांथ या शोथको अर्बुद रोग कहते हैं। वह अत्यधिक कफ व मेदो विकारसे युक्त होने के कारण पक अवस्थाको नहीं पहुंचता है, इसलिये उसे कष्टसाध्य समझना चाहिये ॥ २२ ॥
अर्बुद चिकित्सा. तमिह तदनुरूपप्रोक्तभैषज्यवर्गः । परुषतरसुपत्रोदनासक्तमोक्षैः ॥ अनुदिनमनुलपस्नहपत्रोपनाहै-॥
रुपशमनविधानः शोधनैः शोधयत्तः ॥ २३ ॥ भावार्थः -पहिले कहे गये उसके अनुकूल औषधिग्रयोग, कटिन पत्रोंसे घर्षण ( रगडना) रक्तमोक्षण (फरत खोलना ) प्रतिदिन औषधि लेपन, स्नेहन ( सिद्ध वृत तैल लगाना ) पत्तियोंका पुल्टिश एवं अन्य उपशमन विधियों द्वारा उस अर्बुद रोगकी चिकित्सा करनी चाहिये तथा शोधन करनेवाली औषधियोंसे ( जब आवश्यकता हो) शुद्धि भी करें ॥ २३ ॥
ग्रंथिलक्षण व चिकित्सा। रुधिरसहितदोषैः मांसमदस्सिराभि- । स्तदनविहितलिंगा ग्रंथयोऽगे भवति ॥ असकृदभिहितैस्तै दोपभैषज्यभेद-। प्रकटनरविशेषः साधयेत्तद्यथोक्तः ॥ २४॥
१ रक्त इत्यादिके विकारसे उत्पन्न ग्रंथियां सात प्रकारकी है ऐसा ऊपरके कथनसे ज्ञात होता है। लेकिन तंत्रांतरोमें वातज, पित्तज, कफज, मेदज, सिराज, इसप्रकार ग्रंथियोंके भेद पांच बतलाये हैं। हमारी समंजसे ) ऊपरका कथन साधारण है । इसलिये, मांस रक्तसे ग्रंथि उत्पन्न नहीं होती है केवल वे दूषित मात्र होते हैं । ऐसा जानना चाहिये ॥ अथवा उमादित्याचार्य प्रथिके सात ही भेद मानते होंगे । ऐसा भी हो सकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org