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क्षुद्ररोगाधिकारः ।
नेत्रपraचिकित्सा.
पार्क सशोफमपरं च शिरोविमोक्षः । संशोधनैरपि जयेदिदमंजन स्यात् ॥
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महाजन.
सर्पिस्ससैंधवफलाम्लयुते सुताम्र- । पात्रे विघृष्टमुषितं दशरात्रमत्र ॥ २७९ ॥
जातिमतीतकुसुमानि विडंगसारे शुंठी संधयुता सहपिप्पलीका || तैलेन मर्दितमिदं महदंजनाख्यं । नेत्रप्रपाकमसकुच्छमयत्यशेषम् ॥ २७२ ॥
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और दस दिन उसी में
भावार्थ:- - शोफसहित आक्षिपाक व निःशोथ आक्षिपाक रोग को शिरामोक्षण व संशोधन से जीते। उस के लिए नीचे लिखे अंजन भी हितकर है । वृत, सेंधालोण अम्लफल के रस इन को ताम्बे के बर्तन में डालकर रगडें । पडे रहने दें । फिर उसमें जाईका फूल, वायविडंग का सार शुंठी, सेंधालोण, पीपल मिलाकर तेलसे मर्दन करें तो वह उत्तम अजन बनता है । इस अंजन का नाम महांजन है । इसे नेत्रपा रोग में शीघ्र शमन करता है ।। २७१ ।। २७२ ॥
(३७५)
पूयालसप्रक्लिन्नवर्त्मचिकित्सा
पूयालले रुधिरमोक्षणमाशु कुर्यात् । पत्रोपनाहमपि चार्द्रकसद्रसेन ॥ कासीस सैंधवकृतांजन कैर्जयेत्तान् । मक्लिन्नवर्त्म सहिताखिलनेत्ररोगान् ॥ २७३ ॥
भावार्थ:- यास रोगमें शीघ्र रक्तमोक्षण करना चाहिये और पत्तियोंसे उपना [ पुल्टिश ] भी करना उचित है । परिक्लिनवत्र्मादि समस्त नेत्र रोगोंको अद्रक के रस, कसीस व धालोणसे तैयार किये हुए अंजनसे उपशम करना चाहिये ॥ २७३ ॥
अथ शस्त्रप्रयोगाधिकारः । नेत्ररोगों में शस्त्र प्रयोग.
शस्त्र प्रसाध्य बहुनेत्रगतामयान- । प्युष्णवशकलेन घृतप्रलिप्तान् ॥
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