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( ६१६ )
कल्याणकारक
प्रवृत्तद्रव को नीचे ले आवें । बस्ति को बहुत ही धीरे दबानेसे द्रव अंदर ( पक्काशय में ) न जाकर बाहर आजाता है । बार २ दबाने से पेट में वायु जाकर अफरा और अत्यंत पीडा [ दर्द ] को उत्पन्न करती है । ऐसा होने पर वातनाशक उत्तमबरित का प्रयोग करना चाहिये । बहुत देर करके दबाने से अर्थात् ठहर २ करके दबाने से रोगों की उत्पत्ति अथवा वृद्धि होती है और रोगी को वह द्रव कष्ट पहुंचाता है । इसलिये रोगशांति के लिये हमेशा शास्त्र में कथित योग्य औषध, और सिद्ध साधनों द्वारा उपचार करना चाहिये ||१७|| || १८ || || ९९ ॥ ॥ १०० ॥ ॥ १०१ ॥
औषधदोषजव्यापत्ति और उसकी चिकित्सा.
प्रयोजित स्नेहगणीऽल्पमात्रिका | भवेदकिंचित्कर एव संततम् । तथैव मागधिकतामुपागता । प्रवाहिकामावहतीति तत्क्षणात् ॥ १०२ ॥ प्रवाहिकायामपि तत्क्रियाक्रमः । सुशीतलं चोष्णतरं च भेषजम् । करोति वातप्रबलं च पैत्तिकं । गुदोपतापं लवणाधिकं द्रवम् ॥ १०३ ॥ अथात्र संशोधनबास्तरुत्तमं विरेचनं च क्रियतेऽत्र निश्चितैः ।
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भावार्थ - जिस बस्ति में अल्पप्रमाण में तैलादिकका प्रयोग किया हो उससे कोई उपयोग नहीं होता है । इसी प्रकार औषध जरूरत से ज्यादा प्रमाण में प्रयुक्त हो तो वह भी शीघ्र प्रवाहिका रोग को उत्पन्न करता है । प्रवाहिका उत्पन्न होनेपर उसकी जो चिकित्सा कही गई हैं उसी का प्रयोग करें। यदि वस्ति में अतिशीतल औषधि का प्रयोग करे तो वात उद्रेक होकर उदर में वातज व्याधियों ( विबंध आध्मान आदि ) को उत्पन्न करता है | यदि अत्यंत उष्ण औषधि का प्रयोग किया जाय तो पैत्तिक व्याधि ( दाह अतिसार आदि ) यों को उत्पन्न करता है । अधिक नमक मिले हुए द्रव की बस्ति देवे तो गुदा में जलन पैदा करता है। ऐसा हो जाने पर तो अर्थात् वातज रोगों की उत्पत्ति हो तो उत्तम संशोधन बस्तिका प्रयोग करें । पित्तजव्याधि में विरेचन का प्रयोग करें ॥ १०२ ॥ ॥ १०३ ॥
शय्यादोषजन्य व्यापत्ति व उसकी चिकित्सा.
अथोऽवशीर्षेप्यतिपीडिते क्रिया प्यथोत्तरस्यादपि वर्णितं बुधैः (१) ॥ १०४ ॥ अथोच्छ्रिते चापि शिरस्यतष्टिव: [१] करोति वस्ति घृततैलपूरितम् । पीतश्च सस्नेहमिहातिमेहय-- त्यतत्र तत्रोत्तरवस्तिरौषधम् ॥ १०५ ॥ भावार्थ:—बस्तिकर्म के समय नीचा शिर कर के सोने से अति पीडित के समान दोप होते हैं और उसी के समान इसकी चिकित्सा करनी चाहिये ॥ १०४ ॥
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