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________________ विषरेगाधिकारः। (४८८) भावार्थ:-राजा अपने दाहिने हाथ में मूषिको और अजहाँ नामक औषध विशेष को बांधलेवें तो उस हाथ से अव आदि कोई भी विषयुक्त पदार्थ का स्पर्श करने पर वे निर्विप हो जाते हैं। विषसे हृदय को रक्षण करने की इच्छा रखनेवाला राजा प्रथम घी व गुडसे मिश्रित अत्यंत ठंडा शिम्बी धान्यका रस [यूष हमेशा पीवें ॥२१॥ विषघ्न घृत. समधुकशर्करातिविषसहितेंद्रलता।. त्रिकटुकचूर्णसंस्कृतघृतं प्रविलिह्य पुनः ।। नृपतिरशंकया स गरमप्यभिनीतमरं । सरसरसान्नपानमवगृह्य सुखी भवति ॥ २२ ॥ भावार्थ:--मुलैठी, शक्कर, असीस, इंद्रलता, त्रिकटु इनके कषाय कल्क से संस्कृत घृत को विषपीडितको चटा देवें । उस के बाद अच्छे रससहित अन्नपानके साथ भोजन करावें जिससे विषकी पीडा दूर होती है ॥ २२ ॥ विषभेदलक्षणवर्णन प्रतिज्ञा अथ विषभेदलक्षणचिकित्सितमप्याखिलं । विविधविकल्पजालमुपसंहृतमागमतः ॥ सुविदितवस्तुविस्तरमिहाल्पवचोविभवः । कतिपयसत्पथैर्निगदितं प्रवदामि विदाम् ॥ २३ ॥ भावार्थ:--अब अनेक प्रकार के भेदोंसे युक्त सम्पूर्ण विष के भेद, लक्षण व चिकित्साको आगम से संग्रह करके, जिसका अत्यंत विस्तृत वर्णन होनेपर भी संक्षिप्त रूप से जैसे पूर्वाचार्योनें अनेक शुभ मागोंसे कथन किया है उसी प्रकार हम भी कथन करेंगे ॥ २३ ॥ - १ यह रोमवाली काली चूहेकी भांति होती है । २. इस का कंद सफेद छोटी २ फुन्सी के सदृश उठावसे युक्त होता है। उस को भेद करने पर सुरमा के सदृश काला दिखता है। ग्रंथांतर में कहा है। कदंःश्वतः सपिडको भेदे यांजनसन्निभः । गंधलेपनपानैस्तु विषं जरयते नृणां । दष्टानां विषपीतानां ये चान्ये विषमोहिताः। विषं जरयते तेषां तस्मादजरुहा स्मृता । मूषिका लोमशा कृष्णा भवेत् सापि च तद्गुणा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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