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________________ (१८७) कल्याणकारके marwariharanAAAA विषमभिवीक्ष्य तत्क्षणविरागविलोचनता । भवति चकोरनामविहगश्च तथा म्रियते ।। पुनरपि जीवनिजीवक इति क्षितिमल्लिखति । पृषतगणोऽति रौति सहसैव मयूरवरः ॥ १९ ॥ भावार्थ:-विषयुक्त भोजन द्रव्य आदि को देखने से चकोर पक्षी के आंख का रंग बदल जाता है । जीवनजीवक पक्षी मर जाते हैं । पृषत् (सामर) भूमि को खुरचने लगता है । मौर अकस्मात् शब्द करने लगता है ॥ १९ ॥ विषचिकित्सा. इति विषसंप्रयुक्तबहुवस्तुषु तद्विषतां । प्रबलविदाहदरणश्वयथुप्रकरैः॥ विषमवगम्य नस्यनयनांजनपानयुतैः। . विषमुपसंहरेद्वमनमत्र विरेकगणैः ॥ २० ॥ भावार्थः-प्रबल दाह, दरण [ फटजाना ] सूजन आदि उपद्रवों से उपरोक्त अनेक वस्तुवो में विषका संसर्ग था ऐसा जानकर उन पदार्थों के उपयोग से उत्पन विष विकारों को, उन के योग्य मस्य, नेत्रांजन, पानक, लेप आदिकों से एवं वमन व विरेचन से विष को बाहर निकाल कर उपशमन करना चाहिये ॥ २० ॥ क्षितिपतिरात्मदक्षिणकरे परिबंध्य विषं। क्षपयति मूषिकांजरुहामपि चागतं ॥ हृदयमिहाभिरक्षितुमनास्सपिबत्पथमं । घृतगुडमिश्रितातिहिमशिंबरसं सततम् ॥ २१ ॥ १ मृग पक्षियोंसे भी विष की परीक्षा कीजाती है। इसलिये राजावों को ऐसे प्राणियों को रसोई घर के निकट रखना चाहिये । २ मुद्रिकामिति पाठांतरं। इस पाठके अनुसार अनेक औषधियोंसे संस्कृत व विघ्नविनाशक रत्नोपरत्नों से संयुक्त अंगूठी को पहिनना चाहिये । श्लोकमें “परिवंध्य" यह पद होनेसे एवं ग्रंथातरो में भी “ मूषिका का पाठ होने से उसी को रखा गया है ! ३ चांतगतमिति पाठांतरं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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