________________
कल्याणकारके
कवित्व के गर्व से, या हमारे ऊपर मनुष्यों के प्रेम हो, इस आशय से, इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना नहीं की है। लेकिन यह समस्तकर्मीको नाश करनेवाला महान् जैनसिद्धांत है, ऐसा स्मरण करते हुए इस की रचना की है ॥ ८८ ॥
मुनियों को आयुर्वेद शास्त्र की आवश्यकता.
आरोग्यशास्त्रमधिगम्य मुनिर्विपश्चित् । स्वास्थ्यं स साधयति सिद्धसुखैकहेतुम् ।। अन्यस्स्वदोषकृतरोगनिपीडितांगो।
बध्नाति कर्म निजदुष्परिणामभेदात् ।। ८९ ॥ भावार्थ:-जो विद्वान् मुनि आराग्यशास्त्र को अच्छीतरह जानकर उसी प्रकार आहार विहार रखते हुए स्वास्थ्य रक्षा कर लेता है, वह सिद्धसुखके मार्गको प्राप्त कर लेता है। जो स्वास्थ्यरक्षाविधान को न जानकर, अपने आरोग्य की रक्षा नहीं कर पाता है वह अनेक दोषों से उत्पन्न रोगों से पीडित होकर अनेक प्रकार के दुष्परिणामों से कर्मबंध कर लेता है ॥ ८९ ॥
आरोग्य की आवश्यकता. न धर्मस्य कर्ता न चार्थस्य ही न कामस्य भोक्ता न मोक्षस्य पाता । नरो बुद्धिमान् धीरसत्वोऽपि रोगी यतस्तद्विनाशाद्भवेन्नैव मर्त्यः ॥२०॥
भावार्थ:-मनुष्य बुद्धिमान्, दृढमनस्क हानेपर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है न धन कमा सकता है और न मोक्षसाधन कर सकता है। अर्थात् रोगी धर्मार्थकाममोक्षरूपी चतुःपुरुषार्थ को साधन नहीं कर सकता । जो पुरुषार्थ को प्राप्त नहीं कर पाता है वह मनुष्यभव में जन्म लेने पर भी, मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है । क्यों कि मनुष्य भव की सफलता, पुरुषार्थ प्राप्त करने से ही होती है ॥९०॥
इत्युग्रादित्याचार्यवर्यप्रणीतं शास्त्रं शस्त्रं कर्मणां मर्मभेदी। . ज्ञात्वा मत्यैस्सर्वकर्मप्रवीणः लभ्यतैके धर्मकामार्थमोक्षाः ॥ ९१ ।।
भावार्थः- इस प्रकार उग्रादित्याचार्यवर्यके द्वारा प्रतिपादित यह शास्त्र जो कर्मों के मर्मभेदन करने के लिये शस्त्रके समान है। इसे सर्वकर्मों में प्रवीण कोई २ मनुष्य जानकर, धर्म, अर्थ, काम मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् इस श स्त्र में प्रवीण होकर इस के अनुसार अपने आरोग्य को रक्षण करके, पुरुषार्थों को प्राप्त करना चाहिये ॥९१॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org