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शास्त्रसंग्रहाधिकारः।
(५५७)
शुभकामना. सन्दव्योद्भासमानस्फुटतरमहितस्सेव्यमानो विशिष्टैः । वीराराजितैरूर्जितनिजचरितो जैनमार्गापमानः ।। . आयुर्वेदस्सलोकव्रतविधिरखिलपाणिनिःश्रेयसार्थ ।
स्थेयादाचंद्रतारं जिनपतिविहिताशेषतत्वार्थसारम् ।। ९२ ॥ भावार्थ:-जो द्रव्यों के स्वरूप को स्पष्टरूप से बतलानेवाला है, भले प्रकार से पूजनीय है, उज्वल वीर्यवान् महापुरुष भी जिसको सेवन (मनन अभ्यास धारण आदि रूप से) करते हैं जिस का चरित [कथन] जैन धर्म के अनुसार निर्मल है, दोषरहित है, ऐसे आयुर्वेद नामक व्रतविधान लोक के समस्तप्राणियों के अभ्युदय के लिये जबतक इस पृथ्वी में सूर्य, चंद्र व तारा रहे तबतक स्थिर रहें । यह साक्षात् जिनेंद्र भगवंत के द्वारा कथित समस्त तत्वार्थ का सार है ॥ ९२ ॥
शुभकामना. भूयाद्धात्री समस्ता चिरतरमतुलात्युत्सवोद्भासमाना । जीयाद्भर्मों जिनस्य प्रविमलविलसद्भव्यसत्वैकधाम ।। पायाद्राजाधिराजस्सकलवसुमती जैनमागोनुरक्तः ।
स्थेयाज्जैनेंद्रवैद्य शुभकरमखिलप्राणिनां मान्यमेतत् ।। ९३ ॥ भावार्थः-आचार्य शुभकामना करते हैं कि यह भूमण्डल चिरकालतक अतुल आनंद व उत्सव मनाते रहें । भव्य प्राणियोंके आश्रयभूत श्री पवित्रा प्रकाशमान जिन धर्म जयशील होकर जीते रहे । राजा अधिराजा लोग इस पृथ्वी को जैनमार्ग में अनुरागी होकर पालन करते रहें। इसी प्रकार समरत प्राणियोंको हितकरनेवाला मान्य यह जैन चैद्यक ग्रंथ इस भूमण्डल में स्थिर रहें ॥ ९३ ॥
अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः। सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो ।
निमृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ९४ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे
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