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________________ महामयाधिकारः। (२०३) प्रमेह पिडिका का उपसंहार । एवं सर्वमुदीरितं व्रगमिमं ज्ञात्वा भिपक्छोधनैः । शाध्यं शुद्धतरं च रांपणयुतैः कल्कैः कषायैरपि ॥ क्षाराण्यौपधशस्त्रकर्मसहितों येन साध्यो भवे त्तेनैवात्र विधीयते विधिरयं विश्वामयेष्वादरात् ॥ ५७ ॥ भावार्थ:---इस प्रकार उपर्युक्त सर्व प्रकारके व्रण व उनके भेद को जानकर कुशल वैद्यको उचित है कि वह शोधनप्रयोगोंके द्वारा उन व्रणोंका शोधन करें। जब व्रण शुद्ध हो जाय तब कषाय, कल्क आदि रोपण प्रयोगोंके द्वारा रोपण करना चाहिये । एवं क्षार, औषधि, शस्त्रकर्म आदि प्रयोग जो जिससे साध्य हो उसका उपयोग करना चाहिये ॥ ५७ ॥ कुष्ठरोगाधिकार ! कुष्ठं दुष्टसमस्तदोषजनितं सामान्यतो लक्षणः ॥ दोषाणां गुणमुख्यभेदरचितैरष्टादशात्मान्यपि ॥ तान्यत्रामयलक्षणैः प्रतिविधानाद्यैः सरिष्टक्रमैः । साध्यासाध्यविचारणापारणतर्वक्ष्यामि संक्षेपतः ॥ ५८ ॥ भावार्थ:-कुष्ट सामान्य रूपस दृषित वात पिन कफों ( त्रिदोष ) से उत्पन्न होता है । फिर भी दोषोंके गौण मुख्य भेदोंसे उत्पन्न लक्षणोंसे युक्त हैं । इसीलिए अठारह प्रकार से विभक्त हैं । उन अठारह प्रकार के कुष्टोंको लक्षण, चिकित्साक्रम, मरणचिन्ह व साध्यासाव्य विचार सहित यहां पर संक्षेप से कहेंगे ॥ ५८ ॥ कुष्ठकी संप्राप्ति। आचारतोऽपथ्यनिमित्ततो वा, दुष्टोऽनिलः कुपितपित्तकफौ विगृह्य । यत्र क्षिपत्युछूितदोपभेदात्तत्रैव कुष्ठमतिकष्टतरं करोति ॥ ५९ ॥ भावार्थ:----दुष्ट आचार (देव गुरु शास्त्रकी निंदा आदि) से अथवा अपथ्य सेवन से, दूषित वात, कुपित कफ पित्त को लेकर, जिस स्थान में क्षेपण करता है, अर्थात् रुक जाता है उसी स्थान में, उदिक्त दोषोंके अनुसार अति कष्टदायक, दुष्ट कुष्ठकी उत्पत्ति होती है । ॥ ५९॥ कुष्ठका पूर्वरूप. प्रस्वेदनास्वेदनरोमहर्षा- स्सुप्तत्वकृष्णरुधिरातिगुरुत्वकडूः ॥ पारुष्यविस्पंदनरूपकाणि । कुष्ठे भविष्यति सति प्रथमं भवंति ॥ ६॥ त्याल्पो इसि पाठाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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