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________________ ( ४८५ ) कल्याणकारके भावार्थ:- विषयुक्त द्रवपदार्थों में पतित प्रतिबिम्ब एक के बजाय दो दीखने लगता है या अन्य विकृतरूप से दिखता है अथवा बिलकुल दीखता ही नहीं । भोजन विशेष [ भात, रोटी आदि ] शाक, दाल वगैरे विषदूषित होनेसे शीघ्र ही विरस फैले हुए अथवा फटे जैसे बासीके समान हो जाते हैं ॥ १३ ॥ दंतकाष्ठ, अवलेख, मुखवास व लेपगतविषलक्षण. विषयुतदंतकाष्ठमविशीर्णविकूचयुतं । भवति ततो मुखश्वयथुरुग्रविपाकरुजः ।। तदिव तदावलेखमुखवासगणेऽपि नृणां । स्फुटितमसूरिकाप्रभृतिरप्यनुलेपनतः ॥ १४ ॥ भावार्थ:- दतोन में विषका संसर्ग हो तो वह फटी छिदी या बिखरी हुईसी व कूचीसे रहित हो जाती है । ऐसे विषयुक्त दतोन से दांतून करनेसे मुंह में सूजन भयं - कर पाक, ( पकना ) व पीडा होती है । विषयुक्त अवलेख [ जीभ आदिको खुरचने की सलाई ] व मुखवास ( मुंह को सुगंधित करने का द्रव्य, सुगंधित दंतमंजन आदि ) के उपयोग से पूर्ववत् मुख में सूजन, पाक व पीडा होती है । विषयुक्त लपेनद्रव्य [ स्नोसेंट, चंदन आदि ] के प्रलेपन से मुख फट जाता है या स्फोट [फफोले ] मसूरिका आदि पिडकायें उत्पन्न होती हैं ॥ १४ ॥ वस्त्रमाल्यादिगतविषलक्षण. बहिरखिलांगयोग्य वरवस्तुषु तद्वदिह । प्रकटकषायतोयवसनादिषु श्रोफरुजः ॥ शिरसि सकेशशात बहुदुःखमिहास्रगति - । विवरमुखेषु संभवति माल्यविषेण नृणाम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:- सर्व अंगोपांग के [ श्रृंगार आदि ] काम में आनेवाले, जल, वस्त्र, आदि विषजुष्टं पदार्थों के व्यवहार से सर्वशीर में सूजन व विषयुक्तमाला को शिर में धारण करने से, सिर के बाल गिर जाते हैं, पीडा होती है । रोमछिद्रों में से खून गिरने लगता है ॥ १५ ॥ मुकुटपादुकागत विषलक्षण. मुकुटशिरोब लेखन गणेष्वपि माल्यमिव । प्रविदितलक्षणैः समुपलक्षयितव्यमिह । Jain Education International For Private & Personal Use Only सुगंध कषाय पीडा होती है । सिर में अत्यंत www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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