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( २७८ )
कल्याणकारके
वृद्धि उपदंश आदिके वर्णन की प्रतिज्ञा ।
अतः परं वृध्युपदंशश्लीपद । प्रतीतवल्मीकपदापचीगल - ॥ प्रलंबगण्डार्बुदलक्षणैस्सह । प्रवक्ष्यते ग्रंथिचिकित्सितं क्रमात् ॥ ७२ ॥ भावार्थ:- - अत्र अण्डवृष्यादिक रोग, उपदंश, श्लीपद, अपच, गलगण्ड, अर्बुद, ग्रंथि आदि रोगों का लक्षण व चिकित्सा के साथ वर्णन किया जाता है ॥ ७२ ॥ सप्त प्रकारकी वृषणवृद्धि ।
क्रमाच्च दोषै रुधिरेण मेदसा । प्रभूतम्त्रांत्रनिमित्ततोऽपि वा ॥ सनामधेया वृषणाभिद्धयो । भवंति पुंसामिह सप्तसंख्यया ।। ७३ ।।
भावार्थ:- क्रमसे वात, पित्त, कफ, रक्त व मेदके विकारसे एवं मूत्र और आंत्र के विकारसे, दोषोंके अनुसार नामको धारण करनेवाली (जैसे वातज वृद्धि, पित्तज वृद्धि आदि ) वृष वृद्धि सातण प्रकारकी होती हैं ॥७३॥
वृद्धि संप्राप्ति ।
अथ प्रवृत्तोन्यतमोऽनिलादिषु । प्रदुष्टदोषः फलकोशवाहिनी || समाश्रितोऽसौ पवनः समंततः । करोति शोफं फलकोशयोरिव ॥ ७४ ॥
भावार्थ::- वात आदि दोषोंमें कोई भी एक दोष स्वकारण से प्रकुपित होकर अण्डकोश में वहनेवाली धमनी को प्राप्तकर वायु की सहायता से अण्डकोश में फलकोशके समान सूजन को उत्पन्न करता है । इसे अण्डवृद्धि कहते हैं ||७४ ||
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वात, पित्त, रक्तज वृद्धि लक्षण ।
मरुत्मपूर्णः परुषो महान्परः । सकण्टकः कृष्णतरोऽतिवेदनः ॥ स एव शोफोनिवृद्धिरुच्यते । ज्वरातिदाहैः सह पित्तरक्तजा || ७५ ||
भावार्थ:- जो परिपूर्ण हो, कठिन बायुसे हो, कण्टक ( कांटे जैसे ) से युक्त हो, कालांतर में जिस में अत्यंत वेदना होती हो, उस सूजनको वातोत्पन्न अण्डवृद्धि, अर्थात् वातजवृद्धि कहते हैं । वही अण्डवृद्धि, यदि उवर और अत्यंत दाहसे युक्त हो तो उसे पित्तज व रक्तज समझना चाहिए ॥ ७५ ॥
कफ, मेदजवृद्धि लक्षण |
गुरुस्थ मंदरुजtग्रण्डुरो । बृहत्करो यः कफवृद्धिरुच्यते ॥ महान् मृदुस्तालफलोपमाकृतिः । सतीत्रकण्डूरिह मेदसा भवेत् ॥ ७६ ॥
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