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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(२७९)
भावार्थ:-~~~-जो भारी और स्थिर [ घटने बढने वाली न हो ] हो जिसमें पीडा थोडी होती हो, अत्यधिक खुजली चलता हो व कठिन हो इन लक्षणोंसे संयुक्त अण्डवृद्धि कफज कहलाती है । जो महान भृदु ताडके काल के समान जिसकी आकृति हो, अत्यंत खुजली चलती हो उसे मेदज अण्डवृद्धि कहते हैं ॥ ७६ ॥
मूत्रजवृद्धिलक्षण। स गच्छतः क्षभ्यति वारिपूरिता-। दृतियथा मूत्रनिरोधतस्तथा ॥ महातिकृच्छाधिकवेदनायुतो । मृदुनृणां मूत्रविवृद्विरुच्यते ॥ ७७ ॥
भावार्थ:--जो सूजन चलते समय पानीस भरी हुई दृति (मशक) जिस प्रकार क्षोभको [चं चल] प्राप्त होती है, उसी प्रकार क्षोभायमान होती है । मूत्रकृच्छ व अधिक पीडासे युक्त है, व मृदू है वह मूत्र जवृद्धि कहलती है। यह मूत्राके रोकनेसे उत्पन्न होती है ॥ ७७ ॥
अंत्रज वृद्धिलक्षण। यदांत्रमंतर्गतवायुपीडितं । त्वचं समुन्नम्य विध्य वंक्षणम् ॥ प्रविश्य कोशं कुरुतेऽतिवेदनाम् । तदात्रवृद्धि प्रतिपादयेद्भिषक् ॥ ७८ ॥
भावार्थ:---जिससमय अंदर रहनेवाला वात अत्रको पीडित करता है. ( संकुचित करता है ) तब वह त्वचाको नमाकर बंक्षण संधि ( राङ) को कम्पित करते हुए ( उसी वक्षण संधि द्वारा) अण्डमें प्रवेश करता है। तभी अंडकी वृद्धि होती है इसे वैद्य अत्रज वृद्धि कहें ॥ ७८ ॥
सर्व वृद्धि में वर्जनीय कार्य । तथोक्तवृद्धिष्वखिलासु बुद्धिमान् । विवर्जयेद्वेगनिरोधवाहनम् ।। व्यवाययुद्धायभिघातहेतुकं । ततश्च तासां विदधीत तत्क्रियाम् ।। ७९ ।।
भावार्थ:--उपर्युक्त सर्व प्रकार के वृद्धिरागोंमें बुद्धिमान रोगीको उचित है कि वह शरीरको आघात पहुंचाने वाली मैशुनसेवन, वेगनिरोध ( मल मूत्रादिक निरोध ) वाहन में बैठना, युद्ध करना आदि क्रियावों को छोडनी चाहिये । फिर उसकी चिकित्सा कराना चाहिये ॥ ७९ ॥
वातवृद्रि चिकित्सा। अथानिलोत्याधिकवृद्धिमातुरं । विरेचयेस्निग्धतमं प्रपाययेत् ।। सदुग्धमेरण्डजतलमेव वा । निरूहयद्वाप्यनुवासयभृशम् ॥ ८० ॥
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