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है और ये पदार्थ भारतीयों के शरीर के लिए हितावह नहीं है । काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आयुर्वेद समारंभोत्सव में श्री कविराज गणनाथ सेन महामहोपाध्याय एम्. ए. विद्यानिधि ने इन मद्य मांसादिक का तीव्र निषेध किया था। ऑल इंडिया आयुर्वेद महासम्मेलन के कानपुर अधिवेशन में श्री कविराज योगींद्रनाथ सेन एम्. ए. ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि अंग्रेजी औषध प्रायः मद्यादिक मिश्रित रहते हैं । अतः वह भारतीयों के प्रकृति के लिए कभी अनुकूल नहीं हो सकते । इत्यादि अनेक भारतीय व विदेश के विद्वान् इन पदार्थोंको त्याज्य मानते हैं । वनस्पतियोंमें वह सामर्थ्य है जिस से भयंकर से भयंकर रोग दूर हो सकते हैं। क्या समंतभद्राचार्य का भस्मक रोग आयुर्वेदीय औषधिसे दूर नहीं हुआ ? महर्षि पूज्यपाद और नागार्जुन को गगनगमनसामर्थ्य व गतनेत्रों की प्राप्ति वनस्पति औषधोंसे नहीं हुई ? फिर क्यों औषधि के नाम से अहिंसा धर्म का गला घोंटा जाय ? आशा है कि हमारे वैद्यबंधु इस विषयपर ध्यान देंगे । उनको औषधि बहानेसे यम लोक में पहुंचने वाले असंख्यात प्राणियोंको प्राण दान देने का पुण्य मिलेगा | ग्रंथकार ने कई स्थलोंपर सश्रुताचार्यको स्याद्वादवादी लिखा है | सश्रुताचार्यकी द्रव्यगुण व्यवस्था जैनसिद्धांतते बिलकुल मिलती जुलती है । इस विषय पर ऐतिहासिक विद्वानों को गंभीर-नजर डालनी चाहिए ।
कृतज्ञता.
इस ग्रंथका संशोधन हमारे दो विद्वान् वैद्य मित्रोंने किया है। प्रथम संशोधन मुंबई के प्रसिद्ध वैद्य, दि. जैन औपवालय भूलेश्वर के प्रधान - चिकित्सक, आयुर्वेदाचार्य पं० अनंतराजेंद्र शास्त्री के द्वारा हुआ है । आप हमारे परमस्नेही होने के कारण आपने इस कार्य में अथक श्रम किया है । द्वितीय संशोधन अहमदनगर आयुर्वेद महाविद्यालय के प्राध्यापक व ला. मेंबर आयुर्वेदतीर्य पं. बिंदुमाधव शास्त्री ने किया है। श्रीवैद्य पंचानन पं. गंगाधर गोपाल गुणे शास्त्री ने प्रस्तावना लिखने की कृपा की हैं । धर्मवीरजीके स्वर्गवास होनेपर भी अपने पिता इस कार्यकी पूर्ति उनके सुपुत्र सेठ गोविंदजी रावजीने करने की उदार कृपा की है। इन सब सज्जनोंके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है । आशा है कि उनका मेरे साथ इसी प्रकार सतत सहयोग रहेगा । इसके अलावा जिन २ विद्वान मित्रोंने मुझे इस ग्रंथ के संपादन, अनुवादन, आदि में परामर्शादि सहायता दी है उनका भी मैं हृदयसे आभारी हूं ।
श्रीमंगलमय दयानिधि परमात्मा से प्रार्थना है कि प्रकृतग्रंथ के द्वारा विश्वके समस्त जीवोंको आयुरारोग्यैश्वर्यादिका लाभ हो, जिससे कि वे देश, धर्म व समाजके उत्थान के कार्य में हर समय सहयोग दे सकें । इति. विनीत---
सोलापुर
ता. १-२-१९४०
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वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री. संपादक.
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