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________________ (६१२) कल्याणकारके उदेक ( उठाव ) मालूम पडे तो तत्पश्चात् श्रेष्ठ बस्तियोंके प्रयोग से उपचार कर दोषोंको जीतें । विबंधका लक्षण-वमन विरेचनकारक औषधिके सेवन से, शरीर संशुद्ध (वमन अथवा विरेचन ) हो रहा हो, उस हालत में, अत्यंत शतिलपान, हवा आदि को सेवन करता हो तो, उस के स्रोतों में दोषसमूह विलीन होकर संघात (गाढापने) को प्राप्त होता है और वह मल मूत्र, वात को निरोधन करते ( रोकते ) हुए, वमन विरेचन की प्रवृत्ति को रोक देता है । तथा अग्नि भी स्वयं मंद हो जाती है। इस से पेट में गुडगुडाहट, ज्वर, दाह शूल मूी आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं [इसे बिबंध कहते हैं ] । विबंध की चिकित्सा- ऐसा होनेपर, उस रोगी को,वमन कराकर निरूहबस्ति [आस्थापन बस्ति ] देनी चाहिये एवं अनुवासनवस्ति भी देनी चाहिये ।। ८२ ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ ___कुछ व्यापत्तियोंका नामांतर. विरेचने या परिकर्तिरुक्ता गलाक्षतिः सा वमने प्रदिष्टा । अधः परिस्रावणमूवभागे कफपसेको भवतीति दृष्टः ॥ ८६ ॥ प्रवाहिकाधः स्वयमेव चोर्ध्व भवेत्तथोद्गार इतीह शुष्कः। इति क्रमात्पंचदश प्रणीताः सहौषधैापद एव साक्षात् ॥ ८७ ॥ भावार्थ:-विरेचन की व्यापत्ति में जो गुदा में परिकर्तिका कही है उसी के स्थान में, वमन में गलक्षति[ कंठ मे छीलने जैसी पीडा होना] होती है । विरेचन में जो अधःपरिस्राव होता है उस के जगह वमन में कफप्रसेक ( कफ का चूना ) होता है । इसीप्रकार विरेचन की प्रवाहिका के जगह वमन में शुष्कउद्गार होता है । इस प्रकार क्रमशः वमन विरेचन के पंद्रह प्रकार की व्यापत्तियों का वर्णन उन के योग्य औषध च चिकित्सा के साथ २ कर दिया गया है ।। ८६ ।। ॥८७॥ १ यस्तुर्वमधो वा प्रवृत्तदोषः शीतागारमुदकमनिलमन्यद्वा सवेत । इति ग्रंथातरे कथितन्वात. २ विवध्यते वमनविरेचनयोः प्रवृत्ति निवारयंतीत्यर्थः ( मुश्रुत) ३ इस का तात्पर्य यह है कि वमन और विरेचन के अतियोग के कारण, एक २ के पंद्रह २ प्रकार की व्यापत्ति होती हैं ऐसा पहले कहा है । लेकिन परिकर्तिका नामक जो व्यापत्ति विरचन के ठीक २ न होने पर ही होती है, वह वमन में नहीं हो सकती है । इसी प्रकार परिस्राव आदि भी वमन में नहीं हो सकती । यदि उन को वमनव्यापत्ति में से हटा देते तो वमन की पंद्रह व्यापत्तियों की पूर्ति नहीं होती। इसलिये इन के आतिरिक्त वमन में कोई विशिष्ट व्यापत्ति ओ कि विरचन में नहीं होती हो होनी चाहिये । इसी को आचार्य ने इस श्लोकसे स्पष्ट किया है कि परिकर्तिका के स्थान में गलक्षति होती है आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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