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________________ (१७४.) कल्याणकारके.. . भरकर पुनरावर्तन । शीतांबुपानशिशिरासनभोजनाद-। व्यायाममारुतगुरुप्लवनाभिघातात् ॥ शीत्र ज्वर: पुनरुपैति नरं यथेष्ट-- ।. चारित्रो ज्यविमुत्तमपीह तविः ॥ ८५ ॥ भावार्थ:---एक दफे अर टूट जानेपर भी ठंडे पानी पीनेसे, ठंडे जगहमें बैठनेसे, अत्यत शीतवीर्थयुक्त भोजन पान आदि करनेसे, अतिव्यायाम करने से, हवा लगने से, विशेष तरनेस, नोट लगनसे, इत्यादि व स्वछंद वृत्तिसे वह पुनः लौट आता है ॥ ८१ ॥ पुनरागत उबर का दुष्टफल। दावानलो दहति काष्ठमिवातिशुष्कं । पन्यागती उबविगतामह ज्वरोऽयं ।। तस्मा रातुर इब घरवक्तगात्रः। रक्ष्या निजाचरणभांजनभषजायेः ॥ ८२ ॥ भावार्थः ----जिस प्रकार अग्नि सूखे लकडीको शीघ्र जलाता है उसी प्रकार उस ज्वरमुक्तको लौटा हुआ यर पीडा देता है, शरीरको नष्टभ्रष्ट करता है । इसलिये उवरागमनके समय जिस प्रकार उसकी रक्षा करते है उसी प्रकार ज्वरमुक्त होनेपर मी निजाचरण, भोजन, औषधिगद्वारा उसकी रक्षा करनी चाहिये ।।८२।। अथ अतिसाराधिकारः । अतिसारनिदान । पित्तं विदग्धमरजा कफमारुताभ्यां । युक्तं मलाशयगत शमितोदराग्निम् ।। क्षिप्रं मलं विमृजति द्रवतामुपेतम् ।। तं व्याधिमाहतियामिनि प्रवीणाः ॥ ८३ ॥ भावार्थ:---स्वकारणले स्वपित्त, , कफ, वायुसे मिलकर जब मलाशय में पहुंच जाता है वहां उदराग्निकाम कर देता है। फिर रम मे गमला रोते लगता है इसे महर्षि लोग अतिसार रोग कहते हैं ॥ ८३ ॥ ...वातातिसार लक्षण शूलान्वितो मलमपानरुजा प्रगाढं ! यस्तोयफेनसहित सहज समद्रम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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