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(२३०)
कल्याणकारके
अथ द्वादशः परिच्छेदः
वातरोगचिकित्सा।
मंगल व प्रतिज्ञा। देवदेवपाभिवंद्य जिनेंद्र । भावितामखिलवातचिकित्सां ॥ श्रावयामि वरभेषजयुक्तां । सावशेषकथितां सहरिष्टैः ॥ १ ॥
भावार्थ:---देवाधिदेव श्री जितेंद्र भगवतको नमस्कार कर पूर्वऋषियों के द्वारा .. आज्ञापित वात चिकित्सा के संबंधमे पूर्वोक्त प्रकरण से शेषविषयों को औषधविधान व रिष्ट वगैरहके साथ कहेंगे ॥ १ ॥
वातरोग का चिकित्सासूत्र । यत्र यत्र नियताखिलरोगः । तत्र तत्र विदधीत विधानम् ॥ तैललेपनविमदनयुक्त- । स्वदनोपनहनैरनिलघ्नैः ॥ २ ॥
भावार्थ:-शरीरके जिस २ अवयवमें जो २ रोग हो उसी भागमें बात नाशकरनेवाले औषधियोंसे सिद्ध तेललेप, उबटन, स्वेदन, और उपनाहन [ पुलटिस बांधना ) के द्वारा तदनुकूल चिकित्सा करनी चाहिये ॥ २ ॥
- त्वसिरादिगतवातचिकित्सा | त्वक्सिरापिहितसंश्रितवाते । रक्तमोक्षणमथासत्कृटुक्तम् ।। अस्थिसंधिधमनीगतमास्वं- । द्याशु बंधनविधिं विदधीत ॥ ३ ॥
भावार्थ:-यदि वात वचा व शिरागत हो तो वार २ रक्त मोक्षण (खूब निकालना) करना चाहिये । यदि अस्थि संवि व धमनीमें प्राप्त हो सो शीघ्र स्वेदन क्रियाकर बंधन करना चाहिये ॥ ३ ॥
___ अस्थिगत वातचिकित्सा। अस्थिसंश्रितमथावयवस्थं । शृंगमाशु जयतीह नियुक्तम् ॥ पाणिमन्थनविदारितमस्थ्या । व्यापयनलिकया पवनं वा ॥४॥
भावार्थ:-वह वायु अस्थ्यवयवमें प्रविष्ट हो तो सीग लगाकर रक्त निकालनेसे वह ठीक होता है अथवा हाथसे मलकर व चीर कर नळीसे वायुको बाहर निकालना चाहिये ॥ ४ ॥
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