SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महामयाधिकार: (.२३१) श्लेष्मादियुक्त व सुप्तवात चिकित्सा । श्लेष्मपित्तरुधिरान्वितवायो । तत्प्रति प्रवरभेषजवगैः ।। सुप्तवातममृजः परिमोक्ष- । र्योजयेदुपशपीक्रययापि ॥ ५ ॥ भावार्थ:-यदि बात कफ, पित्त व रक्तसे युक्त हो तो उसके लिये उपयोगी श्रेष्ठ औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये । मुप्तवातके लिये रक्तमोक्षण करना व उसके योग्य उपशम क्रिया करना उपयोगी है ॥ ६ ॥ कफ पित्त युक्त वात चिकित्सा । तापबंधनमहोष्मनिजाख्यः । स्वेदनः कफयुताद्भुतवातम् ॥ स्वेदयेद्रुधिरपित्तसमेतं । क्षीरवारिघृतकांजिकमित्रैः ॥ ६ ॥ भावार्थ:-ताप, बंधन [ उपनाह ] ऊष्म, और द्रव, इस प्रकार स्वेद के चार भेद हैं ।। यदि वात कफयुक्त हो तो ताप, बंधन, और उपनाह के द्वारा स्वेदन करना ( पसीना निकालना ) चाहिये । रक्त व पित्त युक्त हो तो दूध, पानी, बी और कांजी मिलाकर द्रवस्वेद के द्वारा पसीना निकालना चाहिये। इसका विशेष इस प्रकार है। (१) तापस्वेदः-बालुकी पोटली हथेली, वस्त्र, ईंट आदि को गरम कर के, इन से, शरीरको तपाकर ( सेककर ) जो पसीना निकाला जाता है उसे तापस्वेद कहते हैं।... (२) उपनाह बंधन ] स्वेदः-वातघ्न औषधि, तैल, ताक, दही, दूध, अम्ल पदार्थ आदिसे सिद्ध किये हुए औषध पिण्ड से तत्तदंगो में मोटा लेप कर उसके ऊपर कम्बल, कपडा, वातघ्न एरण्ड अकादि पत्तियोंको बांधकर [ इसी को पुलाटश बांधना कहते हैं ] जो पसीना निकाला जाता है उसे उपनाह व बंधन कहते हैं । . (३) ऊमस्वेदः ----१ लोहेका गोटा, ईंठ आदिकोंको तपाकर उस पर छाछ, कांजी आदि स्वादर छिडकना चाहिये । रोगीको कम्बल आदि उढाकर उस तपे हुए गोले व ईंठसे सेके तो उसके बाप्पसे पर्माना आता है। वातान दशमूल आदि औषधोंक काढा व रसको एक घडेमें भरकर तपाय घड़े का मुह बंद करके और उसके पेटमें छिद्र बनाकर उसमें लोहा बांस आदिसे बनी हुई एक नलो लगावे । रोगीको वातन तेल मालिश करके कम्बल आदि ओढाकर बैठाये । पश्चात् घडेकी नलीके मुंहको रोगीके कपडे के अंदर करें तो उसके वाफसे पसीना आता है । . १ देखो श्लोक नंबर ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy