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गर्भोत्पत्तिलक्षणम्
(२५)
भावार्थ:-इस प्रकार बहुत यत्न पूर्वक सात्म्य लक्षणको प्रतिपादन कर अब गर्भलक्षण, जातिस्मरण के कारणादिकके विचारसे युक्त मनुष्योंकी प्रकृतियों के संबंध कहेंगे ॥ ४१ ॥
ऋतुमती स्त्री के नियम । यदर्तुकालं वनिता मुनिव्रता । विसृष्टमाल्याभरणानुलेपना। शरावपत्रांजलिभोजनी दिने । शयीत रात्रावपि दर्भशायिनी ॥ ४२ ॥
भावार्थ:-जब स्त्री रजस्वला होजावें तब वह मुनियोंके समान हिंसा आदि पंचापापोंका बिलकुल त्याग करें और मौन व्रत आदि से रहें एवं तीन दिनतक पुष्पमाला, आभरण, सुगंधलेपन आदिको भी छोडना चाहिये । दिनमें वह सरावा, पत्र या अंजुलि से भोजन करें एवं रात्रीमें दर्भशय्या पर सोवें ॥ ४२ ॥
गर्भाधानक्रम । विवर्जयेत्तां च दिनत्रयं पतिः। ततश्चतुर्थेऽहनि तोयगाहनः॥ शुभाभिषिक्तां कृतमंगलोज्वलां । सतैलमुष्णां कृशरानभोजनाम् ॥४३॥ स्वयं घृतक्षीरगुडप्रमेलितं-प्रभूतवृष्याधिकभक्ष्यभोजनः । . स्वलंकृतः साधुमना मनस्विनीं । मनोहरस्तां वनितां मनोहरीम् ॥४७॥ निशि प्रयायात्कुशलस्तदंगनां । सुतेऽभिलाषो यदि विद्यते तयो प्रपीड्य पाव वनिता स्वदक्षिणं । शयीत पुच्यामितरं मुहूतकम् ॥ ४५ ॥
भावार्थ:-तीन दिन तक पति उस स्त्रीका संस्पर्श नही करें । चौथे दिनमें वह स्त्री पानीमें प्रवेशकर अच्छीतरह स्नान करलेवें, तदनंतर वस्त्र, आभूषण व सुगंध द्रव्योंसें मंगलालंकार कर, अच्छीतरह भोजन करें जिसमें तैलयुक्त गरम खिचडी वगैरह रहें। पुरुष भी स्वयं उस दिन घी, दूध, शक्कर, गुड, और अत्यधिक वाजीकरण द्रव्यों से संयुक्त, भक्ष्यों को खाकर अच्छीतरह अपना अलंकार करळेवें, फिर रात्रिमें प्रसन्न चित्तसे वह सुंदर पुरुष उस प्रसन्न मनवाली पूर्वोक्त प्रकारसे संस्कृत सुंदरी स्त्रीके साथ संभोग करें। यदि उन दोनोंको पुत्रकी इच्छा है तो संभोग के बाद स्त्री अपने दाहिने बगलसे एक मुहूर्त सोवें, यदि पुत्रीकी इच्छा है तो बांये बगलसे एक मुहूर्त सोवे ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
ऋतुकालमें गृहीतगर्भका दोष कदाचिदज्ञानतयैवमंगना । गृहतिगर्भा प्रथमे दिने भवेत् अपत्यमेतन्म्रियते स्वगर्भतो द्वितीयरात्रावपि मूतकांतरे ॥ ४६ ॥ तृतीयरात्री म्रियतेऽथवा पुनः सगद्गदोधो बधिरोऽतिमिम्मिनः स्वभावतः क्रूरतरोऽपि वाऽभवेत् ततश्चतुर्थेऽहनि बीजमावहेत्॥४७॥
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