________________
(५२६)
कल्याणकारके त्वच्छिरोअस्थिसंधिधमनीजठरादिकमीनर्मल- ।
स्नायुयुताष्टभेदनिजवासगणाः कथिता रुजामिह ॥ ३ ॥ भावार्थ:-रोगों के उत्पत्ति के लिये वात, पित्त, कफ, रक्त, सन्निपात [ त्रिदोष] न अभिघात इस तरह छह प्रकार के कारण हैं। अभिघातजन्य रोग को छोड कर बाकी के रोगों के पांच प्रकार के ( बात पित्त कफ रूप सन्निपातजन्य ) लक्षण होते हैं । त्वक् [त्वचा] शिरा अस्थि [हड्डि ] सांध (जोड ) धमनी, जठरादिक ( आमाशय, पकाशय, यकृत्, प्लीहा आदि) मर्म व स्नायु ये आठ प्रकार के रोगोंके अधिष्ठान हैं, ऐसा महर्षिोंने कहा है ॥ ३ ॥
साठप्रकार के उपक्रम व चतुर्विधकर्म. सर्वचिकित्सितान्यपि च षष्टिविकल्पविकस्पिता- । नि क्रमत्रो ब्रवीमि तनुशोषणलेपनतन्निषेचना-॥ भ्यंगशरीरतापननिधनलेखनदारणांग वि- । म्लापननस्यपानकबलग्रहवेधनसीवनान्यपि ॥ ४ ॥ स्नेहनभेदनैषणपदाहरणास्रविमोक्षणांगसं-। पीडनशोणितस्थितकषावसुकल्कघृतादितैलनि- ॥ पिणमंत्रवर्तिवमनातिविरेचनचूर्णसत्रणो । ध्दूपरसक्रियासमवसादनखोद्धतसादनादपि ॥ ५॥ छेदनसोपमाहमिथुनाज्यविषघ्नशिरोविरेचनो- । त्पत्रसुदानदारुणमृदकरणाग्नियुतातिकृष्णक-॥
र्मोत्तरयस्तिविषघ्नसुबूंहगोग्रसक्षारसिन । क्रिमिघ्नकरणान्नयुताधिकरक्षाणान्यपि ॥ ६ ॥ तेषु कपायवर्तिघृततैलसुकल्करसक्रियाविचू- । र्णनान्यपि सप्तथैव बहुशोधनरोपणतश्चतुर्दश- ॥ षष्टिरुपक्रमास्तदिह कर्म चतुर्विधमाग्नशस्त्रस-।
क्षारमहौषधैरखिलरोगगणप्रशमाय भाषितं ॥ ७ ॥ भावार्थ:-उन रोगों का समस्त चिकित्साक्रम साठ प्रकार से विभक्त है जिन १ "रोग" यह सामान्य शब्द लिखने पर भी, समझना चाहिये कि ये साठ उपक्रम व्रण रोग को जीतने के लिये हैं। क्यों कि तंत्रांतर में "बणस्य षष्टिरुपक्रमा भवंति"ऐसा उल्लेख किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org