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क्षुद्ररोगाधिकारः।
विषूचिका लक्षण. वमथुतृड्भ्रमशूलविवेष्टनैः । परिविमूर्छनतातिसारकैः। चलनज़ंभणदाहविवर्णकैहृदयवेदनया तु विचिका ॥ २७ ॥
भावार्थ-जिसमें वमन, तृषा, भ्रन, शूल, उद्वेष्ट [ गीले कपडे से ढका हुआ जैसा अनुभव ] मूछी, अतिसार, कम्प, जंभाई, दाह, विवर्ण, हृदयपीडा आदि विकार प्रकट होते हैं उसे विघूचिका ( हैजा ) रोग कहते हैं ॥ २७ ॥
__ अजीर्ण चिकित्सा. वमनतापनवर्तियुताग्निदीपनकरौषधपानविधानतः ॥ प्रशमयेद्गतमन्नमजीर्णतामनशनाहिमवायुपयोगतः ॥ २८ ॥
भावार्थ:-बमन, स्वेदन, वर्तिप्रयोग [औषध निर्मित बत्तीको गुदामें रखना] अग्निदीपन करनेवाली औषधियोंका सेवन, पान, लंघन (उपवास) और गरम पानी पीना, आदि क्रियाविशेषोंसे अजीर्ण रोगको उपशमन करना चाहिए ॥ २८ ॥
___ अजीर्ण में लंघन. अनशनं त्विह कार्यमजीर्णजि- । तुषित एव पिबेदहिमोदकम् ॥ अशनभेषजदोषगणान्स्वयं । न सहते जठराग्निरभावतः ॥ २९ ॥
भावार्थः- अजीर्ण को जीतने के लिये लंघन अवश्यमेव करें अर्थात् अजीर्ण के लिये लंघन अत्यंत श्रेष्ठ है। प्यास लगने पर ही गरम पानी पीयें । क्यों कि अजीर्ण रोगी की जठराग्नि अतिक्षीण होने से वह भोजन, औषध और दोषों को पचाने में समर्थ नहीं होती है। ।। २९ ।।
___अजीर्ण नाशक योग. सततमेव पिबेल्लवणोदकं । गुडयुतानपि सर्षपकानपि ॥ त्रिकटुसैंधवहिंगुविचूर्णमि- । श्रितफलाम्लमिहोष्णमजीर्णवान् ॥३०॥
भावार्थ:-अनार्ण रोगी सदा सेधानमक को गरमपानी में डाल कर पीवें । तथा सरसों और इन दोनों को गुड मिलाकर खावें । अथवा त्रिकटु सेंधालोण हींग इन के चूर्ण को खट्टे फलों के गरम रस में मिलाकर पीना चाहिये ॥ ३० ॥ .
___ अजीर्णहृद्रोगाय. मगधजामहिमांबुयुतां पृथक् । प्रवरनागरकल्कमथाभयालवणचूर्णमिति त्रितयं पिबे- । दुदरवन्हिविवर्द्धन कारणम् ॥ ३१ ॥
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