________________
(२००)
कल्याणकारके
भावार्थ:----उपरोक्त प्रकार में आहार, विहार, औषध आदि द्वारा प्रमेह रोगीकी चिकित्सा न की जावें तो उसके शरीरके नीचले भाग में नाना प्रकारकी दुस्सह, पूर्वकथित पिटिकायें निकलती हैं ॥ ४३ ॥
प्रहपिटिका चिकित्सा । अतस्तु तासां प्रथमं जलायुका - निपातनाच्छोणितमोक्षणं हितम् । विरेचनं चापि मुतीक्ष्णमाचरेन्मधुप्रमेही खलु दुर्तिरिच्यते ॥ ४४ ॥
भावार्थः ....इसलिए सबसे पहिले हितकर है कि उन पिटकोंके ऊपर मोक लगाकर रक्तमोक्षण करना चाहिए उसके बाद तीक्ष्ण विरेचन कराना चाहिए । मधु प्रमेहीको विरेचन कष्टसे होता है ॥ ४४ ॥
विलयन पाचन योग। मुसर्पपं मूलकबीजसंयुतं । स सैंधवोष्णीमधुशिगुणा सह ॥ कटुत्रिकोष्णाखिलभेषजान्यपि । अपाचनान्यामविलायनानि च ॥ ४५ ॥
दारणशोधनरापणाक्रया । पपीडनालेपनबंधनादिकान् । क्रियाविशेषानभिभूय यदलात् ।।
स्वयं प्रपकाः पिटिका भिषग्वरो । विदार्य संशोधनरोपजेयत् ।।४६॥ - भावार्थ:-पाचन करनेवाले एवं आम विकारको नष्ट करनेवाले सरसौं, मूलीका बीज, सेंधालवण, संजन व त्रिकटु इन औषधियों ने पीडन, आलेपन, बंधन आदि क्रियावोंको करनी चाहिए, जिससे वह पिटक स्वयं पक जाते हैं। जब वैद्यको उचित है कि उसका विदारण [ चीरना ] करें । तदनंतर उस व्रणको स्वच्छ रखनेवाली
औषधियोंसे संशोधन कर, फिर ब्रण भरकर आने योग्य औषधियोंसे भरनेका प्रयत्न करें ।। ४५-४६॥
হাঁঘন আঁধাঘস্থা। करंजकांनीरनिशाससारिवाः । सनिवपाठाकटुरोहिणींगुदी ॥
सराजवृक्षेद्रयवेंद्रवामणी पटोलजातीव्रणशोधने हिताः ॥४७॥ ... मावार्थ:-- करंज, जीरा, हटदी, सारिख, नीम पाठा, कुटकी, इंगुद, अमलतास, इंजौ, इंद्रायन, जंगली परबल, चमेली, ये सब त्रणशोधन (पीप आदि निकालकर शुद्धि करने ) में हितकर औषधियां हैं ॥ ४०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org