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________________ सर्वोष धकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । तेनैव बस्तिमथ चोत्तरबस्तिमद्यतैलेन संप्रति कुरु प्रमदाहिताय । निश्शेषदोषशमनं नवमेऽपि मासेऽप्येवं कृते विधिवदत्र सुखं प्रसूते ॥२६॥ भावार्थ:---आठवें महीने में खरैटी से साधित तैल [ बला तैल ] में घी दही व दूध को मिलाकर आस्थापन बस्तिका प्रयोग करना चाहिये । एंव आठ प्रकार के मधुर औषधियों से सिद्ध तैल से आस्थापन अनुवासन प्रयोग करना हितकर है । आस्थापन बस्ति देकर अनुवासन बस्ति देना चाहिये, एवं उसी तैल से उत्तरबस्तिका प्रयोग करना चाहिये, जिस से गर्भिणी को हित होता है । इसी. प्रकार नव में महीने में भी समस्त दोषों के शमनकारक आहार औषधादिकों का उपयोग करना चाहिये । इस प्रकार विधि पूर्वक नौ महीने तक गर्भिणीका उपचार करनेपर वह सुखपूर्वक प्रसव करती हैं ॥ २५ ॥ २६ ॥ निकटप्रसवा के लक्षण और प्रसवविधि. कट्यां स्वपृष्ठनिलयेऽप्यतिवेदना स्याच्छेष्मा च मूत्रसहितः प्रसरत्यतीच । सद्याप्रमूत इति तैरवगम्य तैलेनाभ्यज्य सोष्णजलसंपरिषेचितांताम् ।।२७॥ स्वप्यात्तथा समुपसृत्य निरूप्य चालीं प्राप्तां प्रवाहनपरां प्रमदां प्रकुर्यात। यत्नाच्छनैः क्रमत एव ततश्च गाढं साक्षादपायमपहत्य सुखं प्रसूते ॥२८॥ - भावार्थ:-जब स्त्रीके प्रसव के लिये अत्यंत निकट समय आगया हो उस समय उस के कटिप्रदेश में व पीठपर अत्यंत वेदना होती है और मूत्रके साथ अत्यधिक कफका । कफ और मूत्र दोनों अधिक निकलते हैं ) निर्गमन होता है । इन लक्षणोंसे शीघ्र ही वह प्रसव करेगी, ऐसा समझकर उसे तैल से अभ्यंग कर उष्ण जल से स्नान करावें । तदनंतर उस स्त्रीको सुख शय्या [ बिछौना] पर दोनों पैरों को सिकुडाते हुए चित सुलावें और शीघ्र ही ज्यादा उमरवाली [ बुड्ढी ] व बच्चा जनवाने में कुशल दाई को खबर देकर बुलाकर प्रसूतिकार्य में लगाना चाहिये । दाई भी जब प्रसव निकट हो तो पहिले धीरे २ एकदम समय निकट आनेपर [ पतनोन्मुख होनेपर ] जोर से प्रवाहण कराते हुए बहुत ही यत्न के साथ प्रसूति करावे । ऐसा करने से वह सम्पूर्ण अपायों से रहित होकर सुखपूर्वक प्रसव करती है ।। २७ ॥ २८ ॥ जन्मोत्तर विधि जातस्य चांबुकमुसैंधवसर्पिषा तां संशोध्य नाभिनियतामति शुद्धितांगां। अष्टांगुलीमृतरायतमूत्रबद्धां छित्वा गले नियमितो कुरु तैललिप्तां ॥२९॥ नालिं इति पाठांतरम्. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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