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________________ (६३०) कल्याणकारके व स्वेदन करा कर, मल मूत्र का विसर्जन करावें । पश्चात् इस रोगी को वातरहित मकान के बीच जिस के सुलक्षणों को पहिले कह चुके हैं, स्वच्छभूमि के तलपर शयन कराकर मध्यान्ह के समय विधिपूर्वक निरूहबस्ति का प्रयोग, बरितविधान को जाननेवाला वैद्य करें ॥ १४८ ॥ ११९ ।। सुनिरूढलक्षण. यस्य च द्रवपुरीषसुपित्तश्लेष्मवायुगतिरत्र सुदृष्टा । वेदनाप्रशमनं लघुता चेत्येष एव हि भवेत्सुनिरूहे ॥ १५० ॥ . भावार्थ:-निरूहबस्ति का प्रयोग करनेपर जिस के प्रयोग किया हुआ द्रव, मल, पित्त, कफ व वायु क्रमशः बाहर निकल आवे, रोग की उपशांति हो, शरीर भी हल्का हो तो समझना चाहिये कि निरूहबस्ति का प्रयोग ठीक २ होगया है । अर्थात् ये सुनिरूढ के लक्षण हैं ॥ १५० ॥ सम्यगनुवासन व निरूहके लक्षण. व्याधिनिप्रहमलातिविशुद्धिं स्वद्रियात्ममनसामपि तुष्टिम् । स्नेहबस्तिषु निरूहगणेष्वप्येतदेव हि सुलक्षणमुक्तम् ॥ १५१ ।। भावार्थ:-जिस व्याधि के नाशार्थ बस्ति का प्रयोग किया है उस व्याधि का नाश व मलका शोधन, इंद्रिय, आत्मा व मन में प्रसन्नता का अविर्भाव, ये सम्यगनुवासन व सभ्यग्निरूह के लक्षण हैं ॥ १५१ ॥ वातघ्ननिरूहबस्ति. तत्र वातहरभेषजकल्ककार्थतैलघृतसैंधवयुक्ताः । साम्लिकाः प्रकुपितानिलकाये बस्तयरसुखकरास्तु सुखोष्णाः।।१५२॥ भावार्थ:-~-यदि रोगी को वात का उद्रेक होकर उस से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाय तो उस अवस्था में वातहर औषधियों के कल्क क्वाथ, तैल, घृत व सेंधालोण व आम्लवर्गऔषधि, इन से युक्त, सुखोष्ण [ कुछ गरम ] [ निरूह बस्ति का प्रयोग करना सुग्वकारक होता है। [इसलिये वातोद्रेक जन्य रोगों में ऐसे बस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ १५२ ।। . 'व्याधितानिह' इति पाठांतरम्. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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