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रह ही नहीं सकता । विशेषत्वसे उन उन धातुवों का विशेष कार्य होता रहता है।
पचन कार्य में पाचकपित्त, क्लेदककफ व समानवायु के स्थूलस्वरूप की सहायता मिलती है । इनकी सहायता होकर अन्न में मिश्र हुए विना अन्न पचता नहीं है एवं शरीर में अन्नरसका शोषण नहीं होता है । रसधातु बनता नहीं । एवं रससे रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओज व परमओज यहांतक के स्थूल धातु बनते नहीं है। विपाक के बाद अन्नरस तैयार होता है । उस में त्रिधः । के अंश मिले हुए रहते हैं, उसे रसधातु संज्ञा प्राप्त होती है। अन्नरस में त्रिधातु का मिश्रण होकर वहां रसका पचन होता है । रसधातुका पचन होकर रक्तांश तैयार होते हैं व उनका रक्तमें मिश्रण होकर रक्त बनता है, उसमें भी त्रिधातु रहते हैं। रक्तसे आगे आगेके धातु बनते हैं । इसके लिए भी त्रिधातुवोंकी सहायता की आवश्यकता है । पूर्व धातुसे परधातु जब बनता है, उस समय पूर्वधातुके अपने अंशको लेकर आत्मसात् करनेका कार्य परधातु में चलता है । यह कार्य त्रिधातुवोंके कारणसे ही होता है । भूतांशोंका पचन धात्वग्निके कारणसे होता है, इस प्रकार मुक्त अन्नसे धातु-स्नेह परंपरा चालू रहती है । भोज्य व धातुवोंकी परिवृत्ति यह चक्रके समान चालू रहती है । ( सततं भोज्यधातूनां परिवृत्तिस्तु चक्रवत ) इसे ही धातुपोषणक्रम कहते हैं । धातुवोंके पोषणसे अवयव घटक व परमाणु पुष्ट होते हैं। इन सब परिपोषणोंकलिए वायु, पित्त, व कफ कारणीभूत हैं। ये ही प्रतिमूल [रसरक्त मांसादिक धातुवोंके परिपोषण क्रममें सहायक होते हैं । उसी प्रकार अपने स्वतःका भी परिपोषण करलेते हैं।
धातु परिपोषणके एक प्रकारका ऊपर वर्णन किया गया है। वायु, पित्त व कफ, इन त्रिधातुवोंका स्वतः भी परिपोषण होनेकी आवश्यकता है। उनकी समस्थितिमें रहने की बडी जरूरत है । रोजके दैनंदिन व्यापार में उनका व्यय होता रहता है । यदि उनका पोषण नहीं हुआ व वे समस्थितिमें न रहे तो उनका हास होकर आरोग्य विगडता है। इनका भी पोषण आहारविहारादिकसे होता है । षड्रस अनके विपाकमें जो रस निर्माण होता है उससे अर्थात् आहारद्रव्योंके वीर्यसे इनकी पुष्टि होती है । शरीरमें पहिलेसे स्थित त्रिधातुद्रव्योंके समान गुणोंकी आहारके समान गुणात्मक रसोंसे, वीर्यसे व प्रभावसे वृद्धि होती है । यह कार्य स्थूल, सूक्ष्म व अतिसूक्ष्मस्वरूपके धातुपर्यंत चलता है । धातुवोंके समानगुणोंके आहारादिकसे जब वृद्धि होती है तो असमानगुणोंके आहारादिकसे उनका क्षय होता है । रोजके रोज होनेवाली कमीकी पूर्ति समान रसवीयोंसे होती है ।
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