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MANORRENORRORomerememorronomo
॥श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।। ।। प्रात्मकमललब्धि भवनतिलकसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। पूज्य महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज कृत + अध्यात्मसार ॥
टीकाकार : पूज्य स्व. आचार्य श्रीमविजय लब्धिसरि म. के पट्ट प्रभावक पूज्य स्व. धर्मदिवाकर आचार्य श्रीमद्घिजय भुवनतिलकसूरीश्वरजी म. के
पट्टालंकार पूज्य कर्नाटक केशरी आचार्य श्रीमविजय
___* भद्रकरसूरीश्वरजी महाराज * comenexpecremeconocorrecome
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प्रकाशक :
To.
बध्यात्मसार:
भुवन-मद्रकर साहित्य प्रचार केन्द्र
Co V. V. VORA No. 34, Krisnappa Naieken Tank st.
MADRAS-600079
सब्धि-भुषम जैन साहित्य सदन C/0 नटवरलाल चुनिलाल शाह p-छापो, जि.-BARODA
(गुजरात) 391740
॥२॥
मुल्य-२० रुपये वीर-सं० २५११ विक्रम-सं० २०४१ मब्धि-सं २४
-: मुद्रक :
ज्ञानोदय प्रिटींग प्रेस,
पिण्डवाडा
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मध्यात्म पारा
कडो
शाहपुरा
- श्रुतभक्ति द्वारा सुकृत के सहयोगी ES ३०००-श्री प्रादिनाथ जैन मन्दिर, चीकपेट बैंगलोर पू.पं. म. पद्मविजयजी म. के सदूपदेश से १५००--श्री जैन श्वे. मूतिः सघ
कराड
१००-श्री जैन संघ, १५००-श्री जैन श्राविका संघ १५००-श्री जैन श्वे. मूति. संघ इस्लामपुर 10.--स्व. पू. रसिकवि.म. एवं स्व.पू. गुणाकर वि. २५००-श्री प्रात्मानन्द जैन सेवा समिति
म.की पुण्य स्मृति निमित्त प्र.साध्वी सुबताश्री लक्ष्मीपुरी कोल्हापुर
एवं साध्वी उमंगभी को प्रेरणा से, १५:८-श्री जैन श्वे. मति. संघ शाहपुरी
गुरु भक्ति प्रिय बहनो, १५..-श्री जैन श्वे. मति. संघ गुजरी ,
५.०-पू. माध्यो अंजनाश्रीजी म. को १५ बी १०००-स्व. प्र.म. विजय भुवनतिलक सू. म के
पुण्यतिथि निमित्त साध्वी० सुव्रता थी प्रेरणा सदुपदेश से तत्त्वन्यायविमाकर के ग्रंथ
से माविकों के तरफ से, प्रकाशन में से, श्री जैन संघ, कोट्टर पू. पं. श्री अशोकविजयजी म. एवं पं. श्री
:-श्री मनमोहन पार्श्वनाथ जैन मंदिर ट्रस्ट गुजरी
इचलकरंजी अभयषिजयजी म. के सदुपदेश से २१८०-श्री जैन श्वेताम्बर संघ
१०१-श्री संभवजिन महिला मण्डल, बोटा १५००-श्री जैन श्वे. मति. संघ बंगारपेठ
१५१-श्री वसुमति बहन व्रजलाल उढाई साध्वी ५००-श्री जैन श्वे, मति. संघ बल्लारि
कुवलयमालाश्री के पांचसोप्रायम्बिल निमित्त
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-
সন্ধায়ঙ্কীয়
.
6) प्रकाशकीय प्रापके समक्ष 'अध्यात्मसार ग्रंथरत्न प्रकाशित करते हुए हमारा तनमन में पानन्द की लहर मच गई।
अध्यात्मसार को एक हि टीका थी। वे भी अलभ्य मोर गहन थी। इस लिये पू० कर्नाटक केसरी प्राचार्य देव श्रीमद्विजय भटकरसरीश्वरजी महागजने अपने स्व० सद्गुरुभगवंत प्राचार्य भगवान श्रीमद्विजय भुवनतिलकसूरीश्वरजी महाराज साहब को अन्त समय में वाकदान रूप में दो नई टीका बनाने को कहाँ था । उस पुण्य स्मति में वह एक भुवनसिलकाख्य नामक अध्यात्मसार की टीका माज प्रस्तुत कर रहे है । और दुसरी प्रानंद की यह बात है को भूवन तिलकास्य नामक अध्यात्मउपनिषत अप के० उपर भी नवीन टीका तैयार हुई है वह भी थोडे ही समय में प्रकाशित होगी.
इस महाप्रय रत्न प्रकाशित करने में पू. उपाध्याय पुण्यविजयजी म., पंन्यास वीरसेन विजयजी म. एवं मुनिवयं विक्रमसेन विजयजी म. का सहयोग सराहनीय रहा।
अनेक संघो एवं महानुभावों के प्राधिक सहकार प्रन्थ रत्न के प्रकाशन में बहुमल्य रखता है। प्रतः उन सबको श्रुतमक्ति को हम बार अनुमोदना कर धन्यवाद देते है । ज्ञानोदय प्रिन्टींग प्रेस के मेनेजर कर्मठ कार्यकर श्री शंकरदासजी ने भी शीघ्र प्रफ प्रादि भेजकर हमे प्रोत्साहित बनाया । इसलिये यहां पर उनको मो कैसे भूले?
अध्यात्मरसोकवर्ग इस महाकाय पंचरत्न का बांचन-परिशीलन द्वारा प्रच्छा लाभ उठावे ऐसो शुभाश! रखते है। जिससे सूत्रकार, टीकाकार प्रादि का पम कृतार्थ बनें।
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अध्यात्म
सारः
॥ ५ ॥
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* प्रस्तावना * ऍ - स्वतन्त्रचिच्छक्ति-मुद्रितस्व विभूतये अव्यक्तव्यक्तरूपाय, कस्मैचिन्मंत्रमूर्तये
il
ज्ञानविज्ञानयोगेन तपसा च आध्यात्मिकता, आनन्दप्रदा अनुभृतिभूता चित्तरंजना हि दृश्यते । आध्यात्मिक प्रकर्षेण तपःपूनः तपस्वी त्यागी मनीषी किमपि वक्ति तद् वरेण्यतां वरिष्ठतां विशिष्टतां विबुधविनोद ममलंकरोति ।
श्रमण संस्कृतिषु श्रीयशोविजय प्रमुख वाचकाः गीतार्थज्ञानशौर्येण क्रमेण न्यायमार्गेषु प्रमेथपु जपावनाः बभूवुः । स्याद्वाद सिद्धान्तसम्पादने तेषां प्रतिभा सदेव स्वयम्प्रभा सहजानन्दोज्ज्वला ज्योतिमती जाता । अन्योन्य दर्शनेषु पाटवं प्रतिपाद्य स्वोपज्ञग्रन्थेषु योगलतया तद्दिव्यरूपं हृदयाब्जकोशधनं शाश्वतिकं चक्रुते ।
श्री - वाचकवल्लभाः यशोविजयतल्लाजाः आध्यात्मिकता साहित्यमयीं विधाय ज्ञानरसपेशलेन 'अध्यात्ममारः' इति नाम्ना नूतनं ग्रन्थं निजानुभवकमानं स्वात्मभास्वररूपं श्रुतसारशुद्धं चरणकरणानुयोग-प्रथितं सम्यक्त्वसारस्वत सत्यं सम्पादयाश्चक्रिरे ।
नमः
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॥ ५ ॥
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अध्यात्मसारः
'अस्मिन्नध्यात्मसारे' निम्भिकर्ता लक्ष्यीकृत्य दग्भत्यागदुष्करत्वे प्रागल्भ्यं पुरस्कृतम् -
"मुत्यजं रसलाम्पटयं, सुत्यजं देहभूषनम् ।
मुत्यजाः कामभोगाद्या, दुस्त्यजं दम्भसेवनम् ॥" आध्यात्मिकानन्दधामनि चिदेकरसेऽद्वितीये निमग्नानाम् निग्रन्थानाम् जीवनं बन्दारुजनमान्यं लोकपूज्यं भवति । तेषां मूलोत्तरगुणपालने कृतार्थता कृतज्ञता कोविदना स्पष्टीकृता ।
आत्मार्थिना ततस्त्याज्यो. दम्भोऽनर्थ निबन्धनम् ।
शुद्धिः स्याहजुभूतस्ये-त्यागमे प्रतिपादितम् ॥१९॥ ___ यथा भगवता महावीरेण 'उत्तराध्ययने' निगदितं- 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई' तथैव म्वीकृतम् वाचकवरः ।
संमागेऽयं न सुखमयः धृमौषमयो, वह्निमयः, कूटघटनानाम् कागगारः, प्रेतवन महशोभानि । क्षणे क्षणे ग्लानि र्जायते, मानहानि भवति विषवृक्षतुल्योऽयं मनुजलोकः, नात्र माधुर्य न च दाक्षिण्यम् !
वैराग्ये या रतिः, मा नाम आध्यात्मिकता, रम्या, रूचिपदा. हृदयंगमा, योगिजनप्रिया, बोधप्रदीपा, प्रेक्षणीया, माननीयचरिता, श्रुतसफलकामा विद्यते । तां स्वीकृत्य माधवः शुष्कतकादिकं न्यजन्ति, श्रद्धा सेवन्ते सौमनस्यम् प्रसारयन्ति गर्वोष्माणं निन्दन्ति प्रशमाऽमृतपाबनाः श्रमणाः व्यावहारिकनैश्चयिकचारित्रयोः मागें तात्विकं प्रज्ञानं गणयन्ति
॥
६
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अध्यात्मसार:
७
॥
'बहिनिवृतिमात्र स्याच्चारित्रं व्यवहारिकम् ।
अन्तः प्रवृतिसारं तु, सम्यक प्रज्ञान मेव हि ॥ जन्मविषये वाचकविबुधवरेण्यानां श्रीयशोविजयातल्लजानाम् कथनं कमनीयं वर्तते
"धतो योगोन ममता, हता न समताऽहता।
न च जिज्ञासितं तवं, गतं जन्म निरर्थकम् ॥" अध्यात्मवैरिणी ममता यदि न नाशिता समता च जीवनसंकल्प सम्यक्तया न आहता, आध्यात्मिकतायाः पीयुषमधुरं तत्त्वं न जिज्ञामितम् तर्हि मानुपं जन्म निरर्थकं निष्प्रयोजनम् ।
अध्यात्मप्रकर्षण समता शनैः शनैः साध्यते, सा समता ज्ञानविज्ञानयो दिव्याञ्जनशलाका मोक्षस्य मार्गदर्शिका समाधे र्गाम्भीर्यमयी मुद्रा । तां समतामासादयितु चित्तम्य संशोधनम् स्वाभाविक । आत्मेश्वराणां स्थैर्य निर्विकल्पस्य मनसः पारिणामिकमौदार्यम् विद्यते । अतः श्रीमहोपाध्यायेन शास्त्रागमविज्ञेन अध्यात्मसारे उक्तं
"गलितदुष्ट विकल्पपरम्परं घतविशुडिमनो भवतीहशाम् । धृतिमुपेत्य ततश्च महामतिः समधिगच्छति शुभ्रयशःश्रियम्" 11७॥ महामतिः प्रतिभापुनित विकल्पो धृतिमुपेत्य शुभ्रमशः श्रियं लभते । इत्थं 'अध्यात्मसारे' श्री
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अध्याससारा
॥
८
॥
वाचकवरेण प्रचुर पाण्डित्यं निगमागमनिष्कर्ष कर्मणः मौष्ठवं, सिवान्तस्य रहस्य, आर्जवेन शास्त्रीयमर्यादया सर्व समीचीनं-सुन्दरं-शिवमयं-प्रतिपादितम् ।
___ अत एव सदागमनिष्णातनैष्ठिकं निर्ग्रन्धनयनिपुणं श्रीवाचक पुगवं पुनः पुनः स्मृतिषटले स्थापयित्वा किमपि वच्मि
यदब्रह्मवादिभिरूपासितवन्धपादे विद्या तपो व्रतनिधौ तपसां वरिष्ठे । देवास्कृतस्त्वन्धि मया विनयोपचारस्तत्र प्रसीद भगवन्नयमजलिस्ते।
"अध्यात्मसारस्य" सुवोधमयी-टीका आचार्य श्री भद्रंकरमूरिणा मनोज्ञमूर्तिना शास्त्रकलाकोविदेन सरसतरा कृता । महानुभावानां श्रीसूरिशेखराणां वात्मल्येन मया यत्किमपि लिखितं तत्सर्व विबु. धजनभूषणानां कृते पटीयसी चपलता विद्यते । तदपि साहित्यम्य गौरवमनुस्मृत्य विरमामि ।
दाने शोर्ये कवित्वे वा, पाण्डित्ये साधुतार्जने ।
सुयशः प्रपितं येषां, जन्मवन्तस्त एव को॥ वि० सं० २०४०
- इति निवेदयति - कातिको राका मास्कर.
विदुषामनुचरः पं. गोविन्दरामो व्यासः वि०२०-१०.८३
मु-हरजी जि.-जावालिपुर (राज.)
C
॥
८
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बमात्मा सार
* प्रास्ताविकम् * प्रत्येक-दर्शनादि परम्परायां रूपे द्व दृश्येते यथा दर्शने धमौं विचाराचारी सिद्धान्तव्यवहारौ परन्तु भारतीयार्य-संस्कृतिमध्ये उपर्युक्तद्वैतस्या पूर्वः समन्वयः समीक्ष्यते.
वैदिक परम्परायां पूर्वमीमांसा चोत्तरमीमांसा, पुर्वोक्ततत्त्वमेव प्रकाशयतः, तथा च पूर्वमीमांसा कर्मार्थादाचार, उत्तरमीमांसा तु ज्ञानयोगं समर्पयतश्च समर्थयतः ।
पूर्वमीमांसा, कर्मकाण्डसंज्ञया प्रसिद्धयति, उत्तरमीमांसा, ज्ञानकाण्ड संजया प्रसिद्धयति । सांख्ययोग सम्बन्धेऽप्येवमेव वस्तुतत्त्वम । सांख्यो ज्ञानपक्षं योगस्त्वाचारपक्षं विदधातीति.
सांख्यः पुरुषप्रकृतिद्वयस्य भेद-विज्ञाने बलवान् वर्तते, योगस्तु चित्तस्य शुद्धि च समाधि प्रति, अधिकाधिकं बलं प्रयुङक्ते ।
.: वौद्धपरम्पराऽपि पक्षद्वय विभक्ताऽस्ति होनयान-महायान भेदात, हीनयानपक्षो जीवनाचारपक्षे भारं मुञ्चति, महायान पक्षे जीवनविचारपक्षे भोरमधिकं मुञ्चति, परन्तु प्रत्येकपरम्परा केनचिद्रूपेण विचारं 'चाचारं प्रतिपद्यते नियतम् ।
in Edition tema
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अध्यात्म
सारः
॥ १० ॥
जैनीयपरम्परायास्तु मूलभूती विचाराचारौज्ञानक्रिये, योजनाविकासौ च परस्पराभावे जीवनपुरको न भवतः, अनेकान्ताधीन विचारस्या हिंसाचीनाचारस्य समन्वित मार्गः, जीवनविकास याचते, आध्यात्मिकं मार्गयति ।
ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति यत सारमध्यात्ममार्गस्य तदेवाध्यात्मसारमथवा जीवनस्य यत्साफल्यरूपं सारं तदेवाध्यात्मसारम् ।
एतादृशस्य महतोऽध्यात्मसार नामक ग्रन्थस्य निर्माता, न्यायाचार्य कलिकालकेवलि समान पू. महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी गरिणवरो विजयतेतराम् ।
अध्यात्मरूप परमपावनी गङ्गा यत्र प्रवहमानाऽस्ति एतादृशापूर्व ग्रन्थरत्नस्योपरि पू. संस्कृतविशारद, पंचप्रस्थानाराधक कर्णाटककेसरि आचार्य श्रीमद विजय भद्रंकरसूरीश्वरजी महाराजेनाऽतिपरिश्रमं विधाय गोवरि गिरायां श्लोके श्लोके चारुविवेचनं प्रस्तुतं कृतं विद्यते, चलन चलत भो भी महाभागा ! एतादृश महाग्रन्थ रत्नस्येष पदव्यास्वादनं कुर्मो वयमिति
( पं. विरसेन वि. गणी. )
॥ १० ॥
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वन्यात्म-5
* विशिष्टविषयानुक्रमः *
(रचयिता.-पू. श्रा. श्री भदंकर सू म.) प्रथमः प्रबन्धः-प्रथमाधिकारे-जैनजगति पञ्चती रूपेण प्रसिद्धान् नामेयाचिरेयशैवेयवामेय. त्रैशलेयसंज्ञकान नीर्थकरान प्रथमं प्रणम्यान्यजिनान नमस्कृत्य गुरूनपि वन्दित्वाऽध्यात्ममार-प्रक्रियाप्रकटकरणविषयकोत्माहवानहमम्मि शास्त्रतः परितश्चयनान्विता, गणधराचार्यादि-धीमत-सम्यग सम्प्रदायरूपगरुक्रमपरिचिता स्वमंवेदनानमररूपयोगतः परिचितां अपवा प्रक्रियां कथयित प्रतिजानीते ग्रन्थकार अर्थात् येनाध्यात्ममारप्रक्रिया पठनां वाचकानां शास्त्रपरिचयः धीमत्सम्यक्सम्प्रदाय-परिचयो, ऽनुभवयोगपरिचयः प्राप्यते इत्याशयः.
। एषा प्रक्रिया पद्यात्मिका योगिनीतिकारिकेच. अध्यात्मशास्त्रास्वादसुख-सागगग्रता, दिव्यादि-कामसुखं विन्दतल्यं अध्यात्मशास्त्रप्रयोज्या
गणित-सुखशाली, चक्रेश-शक्रेशादिकं न गणयति. . • अभ्यात्मशास्त्रशिक्षाशून्यो न पण्डितोऽपितु मृढ एष.
सारल्य-मौहार्द-सम्यक्त्वादिजनकमध्यात्मशास्त्रमेव.
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अध्यात्म
सार:
• आत्मशास्त्र सुराज्ये-स्वराज्ये वा सर्वोपद्रवाभावः. • यदि हदि, अध्यात्मशास्त्रार्थतत्त्वं निष्ठितं तदा रागादिक्लेशाभावः. • आत्मशास्त्रार्थज्ञानं विना निर्दयकामपीडितः पण्डितोऽपि भवेत् .
मनो-वर्धमान तृष्णाऽध्यात्मशास्त्र-दात्रेण, परमर्षि-छेद्येच. ध्वान्ते तेजोवत्कलावध्यात्मशास्त्रं सुदुर्लभं धन्यैः प्राप्यत एव. अन्यशास्त्रवेत्ता क्लेशमनुभवति, अध्यात्मशास्त्री रसमनुभवत्येव. अध्यात्मशास्त्रज्ञास्तु निर्विकारनयनाः मन्तो वदन्ति. अध्यात्मशास्त्रहमाचलमथितागमसागराद् विबुधा गुणरत्नानि लभन्ते एव. कामे भोगपर्यन्तो रसः, सद्भक्ष्ये भोजनान्तो रसोऽध्यात्मशास्त्रसेवायामनन्तो रसः अध्यात्मग्रन्थमेषजाद विकारिणी दृष्टि निर्मलीभवत्येव. अध्यात्मवजितशास्त्रं पाण्डित्यहप्तानां संसारवृद्धय एव. अन्तिमप्रेरणा=अध्यात्मशास्त्रमेवाध्ययन-भावनाविषयीकर्तव्यं पुनः पुनः, तदर्थश्चानुष्ठेयः, योग्यस्य देयः कस्यचिदिति ॥
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अध्यात्म सारः
द्वितीयाधिकारे अध्यात्मस्वरूपनिर्णयः, सर्वयोगेष्वध्यात्मम्य व्यापकता । चतुर्दशगुणस्थानेषु क्रमशुद्धा क्रियाऽध्यात्ममयी । अध्यात्मवैरिणीक्रियावर्णनं, भवाभिनन्दि स्वरूपं, अध्यात्मगुणवर्धिनी क्रिया,
क्रमशो दर्श्यमानाऽध्यात्मक्रियाया असङ्ख्य कर्मनिर्जराकारित्वं । शुद्धज्ञानक्रियांशद्वयात्मकमध्यात्मम् । कुत्र । * कुत्र गुणस्थाने निश्चयो वा व्यवहारो वा अध्यात्मं मन्यते । अपुनर्वन्धकस्य शमयुता क्रिया दर्शनभेदेन
चित्रा । धर्मविनक्षयाय सदाशयादशुद्धाऽपि क्रियाशुद्ध क्रियाहेतु भवति । मार्गप्रवेशाय मिथ्याशा द्रव्यसम्यक्त्वमागेप्य व्रतदानम् , दीक्षा योग्यताया वणनं, अशुद्धक्रियाया अनादरोऽभ्यासदशायां न कत्र्तव्यः। दीक्षादातृविशिष्टगुगे दोषाऽसम्भवः । विषय (लक्ष्य) शुद्धं-कर्म आन्म (म्वरूप) शुद्धं कर्म । अनुबन्ध शुद्ध कर्म, मोझाशयाद् द्रव्यक्रियाप्यादरणीयैव, अन्ते ज्ञानक्रियारूपमेवाध्यात्मम् ॥
तृतीयोऽधिकार:-दम्भाशोऽपि मल्लिनाथादीनां महतां स्त्रीत्वरूपानर्थ-निवन्धनं भवति, मुक्तिक्रियाऽध्यात्म सुखजानव्रतप्रतिबन्धको दम्भः । दौर्भाग्यकाम-व्यसनजनको दम्भः । व्रतादिधारणं कृत्वा | परमपदेच्छां दम्भो निष्फलो-करोति । दम्मो यदि यस्य न गतस्तस्य व्रततपत्रादि निरर्थकं, भिक्षोः शुभाचारः
सर्वो दम्भेन दुष्यत एक कामभोगादिः सर्वः सुत्यजः परन्तु दुस्त्यजं दम्भसेवनम् दम्भो मूढान गौरवादिना प्रलोभ्य नरकादिदुर्गतौ पातयति । वेषभृतां व्रतं दम्भेनाऽव्रत वृद्वयर्थ भवति । दम्भे दृढं विश्वस्ता जानाना अपि मूढाः प्रतिपदं स्खलन्ति । दम्भेन मोहेन दीक्षा लुम्पन्ति मूढाः । धर्मे दम्भ उपद्रवः । साधुगुणपालने
॥१३॥
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अध्यात्म
सार:
॥१४॥
ऽसमर्थस्य साधोः सुश्रावकता युक्ता न तु दम्भेन जीवनम् । दम्मिनां साधनां नामाऽपि पापाय । ये यतना न कुर्वते यति-नस्ते कथं ? सर्वथा हीनोऽपि धृतदम्भः विश्वं तृणाय मन्यते । स्वोत्करतश्च परनिन्दातो दम्भी योगबाधकं निकाचितं कर्म वध्नाति । शुद्धिः स्यादृजुभृतस्यातोऽनर्थ हेतु दम्भस्त्याज्यः। जिन किश्चिन्नानुमतं न निषिद्धयपि तु कार्येऽदल्भेन भाव्यमिति पारमेश्वरीत्याज्ञा । दम्भाशोऽपि नोचितः सम्यगगादीनां ॥
चतुर्थाधिकारे=भवस्वरूपचिन्तनस्यमाहात्म्यं । सागर-बहिन-सूनास्थान-निशाचर-वन-कूटघटना कारागार-श्मशान-विपतरु-भिन्नभिन्नविषमतापूर्णस्थान-सुखस्थितिशून्यगृह ग्रीष्मतु -इत्युपमाभिः संसारस्य तोलनम् , स्वार्थरतजने संसारे भवसुखरसिकता का ? विश्वासघातको भवः । आश्चर्यरूपा मोहकृता भवभानवेषम्यघटना । अपूर्वाऽध्यात्मिककुटुम्बयोजना। भवेऽस्मिन प्रेमविषये आदिमध्यावमानाऽवस्थासु दुःखान्येव मोहमहाराजस्य युद्धभृमिर्भवः । भवे मोहोन्माद निर्मित विरुद्ध विविधहमनादि प्रकारविकाराः । अपूर्णविद्यादिवद् ब्रीडात्मक भवीयक्रीडा ताचिका हृदयं दहनि । विकल्पविरतानां स्थितप्रज्ञानां माधूनां स्वप्न वद् भवोऽयं मिथ्यारूप: पूर्व मवरसेन सुधाघटितो भव इति बुद्धिगमीदिदानी ज्ञात-तत्वरहस्यानामस्माकं भवेऽरतिः स्वात्मनि रतिर्जाताऽस्ति । अविद्याजन्य-भवप्रपञ्चेभ्यः पूर्णविरामोऽस्तु । ततः स्वाधीनं कस्त्यजति ॥१४॥ सम्वमिनछत्यथ परम । कति भवीय पराधीन यिणि विषयतष्णाप्रवाहमलिने भयस्थाने सखे रमन्ते बधा- AI
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अध्यात्म-15 सार:
तद्विपरीते, आध्यात्मिक-मुखे रमन्ते । जगदभयदाने शमसुखनिदाने भवस्वरूपचिन्नने स्थिरो भवेत्यन्ते उपदेशः॥
पञ्चमाधिकारे, द्वितीयप्रवन्धः भवस्वरूपवित्रानजन्य-निगुणताजन्य-तद् द्वेषरूप हेतुद्वयात भवेच्छाया उच्छेदरूपं वैगम्यं जायते । सर्वविषया-प्रसिद्धितः विषयसुखस्य सिद्धया वैराग्य प्राप्ति खंडनम् । अनन्तशः प्राप्त कामभोगेषु (अपेक्षया सर्वविषय प्राप्त्याऽपि) अप्राप्तत्व भ्रान्तितो मूढानां समीहा-शान्ति ने भवति । विषयेन्धनः कामपावकी वर्धमान शक्ति यएव वर्धते । विषयेषु प्रवृत्तानां बैंगग्यं सुदुर्लभम् । विषयत्यागाऽपथ्य त्यागं विना वैराग्याऽऽरोग्यं कुतः ? विषयविषारते चित्ते वैराग्यामृतं कुतः १, अमावास्यायां यदीन्दुः स्यात्तदा विषयलग्नचित्तै वैराग्य सङ्क्रमः स्यात् । भव-नैगुण्यदर्शन जन्यविषयाऽप्रवृत्तितः। भवहेतून प्रति दृढद्वेषान् निराबाध वैराग्यम् । वैराग्यक्रमः भवनैगुण्यदर्शनम् , ततो भवद्वेषः, विषयेषु अप्रवृत्तिः । विशिष्टदशासम्पन्न सम्यग्दृष्टिप्रमातायनासक्तिरूप वैराग्य सम्भवः । विच्छिन्न भवेच्छस्य विरक्तस्य कर्म भावजन्य प्रवृत्तिर्वर्तते । निकाचित-भोग्यावलि-शुभकमों दयतो विषयेषु बाह्यतः प्रवर्तते न तु मनसा रमते । माया जलममान भोगान तत्वतः पश्यन निरासकती भुञ्जानोऽपि परं पदं प्रयाति । मोग तत्वस्य न भवोदधिलनम् । भोगकर्दममग्नस्यमनागगि मोक्ष मार्गे न गतिः । भोगयोगो बलीयसी धर्मशक्ति न हन्त्येव । कर्म बन्धे आत्यन्तिक विषयासक्ति हेतु न विषयाः । कर्मणां बन्धेऽज्ञानमबन्धे ज्ञानं
1
॥१५॥
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अध्यात्म
सार:
॥ १६ ॥
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हेतुर्न विषयमात्रम् । विषयसेवनाऽसेवनव्यतिक्रमे परमार्थः, उत्तमानां तीर्थकराणां गर्भादारभ्य वैराग्यमविच्छिन्नम् । सततं विषयेभ्यो विमुखीकृतेन्द्रियैः प्रशान्त चित्तविकाराणां यद् वैराग्यं भवतितच्चारुवेयमेव प्राप्ते राजमार्गः । स्वयं तृप्तैः विषयनिवृत्तैरुदीरणा नियंत्रण रहितैरिन्द्रियैर्यद् वैराग्यं तस्य मार्ग एकपदी मार्गः । ज्ञानगर्भवैराग्यं बिना क्रियादम्भतः, आत्मानं धार्मिकाभागाः क्षिपन्ति नरकावटे । इन्द्रियवञ्चनप्रकारविधिः । श्रमसंकल्पशून्यं वैराग्यमद्भुत वैराग्यं । योगिनां दारुयंत्रस्थ- पश्चाली नृत्यतुल्याः प्रवृत्तयो नो बाधाये । इयं च योगमाये ति गीयते परैः । सिद्धान्तेऽपवाद पदे योगमायावत् चर्चा औदासीन्यफलक परिपक्व ज्ञानेसति चतुर्थगुणस्थाने विशिष्टवैराग्यम् ॥
षष्ठेऽधिकारे दुःखगर्भ-मोहगर्भ ज्ञानगर्भ-भेदात्त्रिविधं वैराग्यं । विषयाऽप्राप्तेदु 'खगर्भित-वैराग्यं पुष्टज्ञानाभावजन्य शरीरमनसोः खेदे सति स्वेष्टपदार्थलाभे दुःखगर्भ वैराग्य वर्ता विनिपातो भवति । पूर्वमेव पातानन्तरं स्वनिवासादि-योजनां कृत्वैव व्रतं गृहणन्ति । दुःखगर्भिणा तर्कवैद्यक ज्योतिषादि-ग्रन्थाम्यासः । दुःखगर्भिणां स्वल्पज्ञानं गर्वोष्णत्वं । वेषमात्रभृतो दुःखगर्भिणो गृहस्थान्नातिरशेते । उदरभरणमर्थो दुःखगर्मस्य । मोहगर्मवैराग्यं बालतपस्विनां । जमात्यादि-आभिनिवेशिक मिध्यान्विनां मोह गर्म - वैराग्यम् । संसारमोचकादिवत्तेषां शुभोऽपि परिणामो न तात्रिकः । जिनाज्ञारुचिस्थितेरभावात् । atri anise दोष-पोषायैव । मोहगर्मित वैराग्यस्यै कोनविंशनिर्लक्षणानि । तच्चपस्विच्छेदिनः स्याद्वा
॥ १६ ॥
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दिनः मोक्षमार्गम्पर्शिनः तत्वदर्शिनः ज्ञानगर्भवैराग्यम् । मीमांमा-मांसला यस्य स्वपरागमगोचरा बुद्धिअध्यात्म-RI म्तम्य ज्ञानगर्भमुन्नतं भवति । ज्ञानगीं चारित्रम्य मा शुद्धसम्यक्त्वमेव प्राप्नोति । बहिनिवृतिमात्रं पार
व्यावहारिक चारित्रं; अन्तमुबीभ्यान्तः प्रवृत्ति मारं चारित्रं नैश्चयिकमिति तयोर्मेंदः । शुद्ध सम्यक्त्वे
मर्व-द्रव्य पर्यायालोचना । एक द्रव्यं सर्वपर्यायमयं कथमित्यालोचना । पटत्वादिपरपर्थापा अपि घटस्य ॥१७॥ स्वपर्यायीभवने युक्त-प्रक्रिया । अतादात्म्येऽपि परपर्यायाणां स्वत्वं धनस्यैव व्यज्यते । मिन्नाअपि पर्याया
उपयोगद्वारा स्वकीया एव । ययोईयोरतादात्म्यं तयोद्धयोरपि व्यवहारोपयोगिनोः सतोः सम्बन्धः । म्वाऽन्यपर्याय-सम्बन्धन प्रत्येक वस्तु सर्वपर्यायमयमस्ति । सम्यग्दृष्टि महात्मा, सम्मुखस्थं पर्यायमेकमर्थ विदन्नपि भावादखिलं वेत्ति । श्रद्धावलेन सम्यग्दृष्टिः वस्तुनिष्ठाननन्तपर्यायान् मन्यतेऽतो जानाति । आगमार्थोपनयनतः प्राज्ञस्य ज्ञानं सर्वगम् । एकान्तेन जैनामासस्य विरक्तस्याऽपि कुग्रहः पापकारी । ज्ञानगर्भ-वैराग्यविरोधी कुग्रहः । स्वागमेऽन्यागमार्थानां नावतारकौशल्यं न तदा ज्ञानगर्भता । ममम्त नयेषु माध्यस्थ्यं न तदा न ज्ञानगर्भता । आज्ञया युक्तितो वा स्थाने पदार्थयोजना न न तदा ज्ञानगर्भता । मुख्यतया गीतार्थस्यैव ज्ञानगर्भ-वैराग्यं । ज्ञानगर्भित-वैराग्यस्य लक्षणावली । निजा ध्यात्मप्रमादनः दुःखमोहयोद्रीकरणतः कदाचित् ज्ञानगर्भ वैराग्यजनने दुःखगर्भ मोहगर्भयोरुपयोगः स्यादिति ।
॥ १७॥
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अध्यात्म
सार:
।। १८ ।।
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सप्तमोऽधिकारः = विषयगुणभेदात् वैराग्यं द्विविधं प्रथममपरं द्वितीयं परं । दिव्यमानुष्यविषयतो वैराग्यं । निशिष्टशब्दतो वैराग्यम् । विशिष्टरूपसौन्दर्य- वैराग्यं । सुगन्धविषयतो वैराग्यं । शीलसौरमं परं शाश्वतं सौरभं । विशिष्टरसतो वैराग्यं । रसलोमिनां मधुररसमाप्य रसनाजलं निष्पतेत् । विचार्य fauri विरतानां च दृशोर्जलं पतति । विशिष्टस्पर्शसुखवैराग्यं दिव्य विषय त्यागरूपं वैराग्यं । स्वर्गेऽपि देवानां दुःखं । देवानां हृदयं च्यवनचिन्ताऽपि दहति तत्र किं सुखम् १ स्वलब्धिरूप गुणनिःस्पृहतारूपं वैराग्यं । अमङ्गाऽनुष्ठानगतानां चेतसि शिवेऽपि न लुब्धता |
तृतीयः प्रबन्धः = अष्टमाऽधिकारे = वैराग्य- स्थिरताकारक ममतात्यागोऽस्ति विषयत्यागी न त्यागी परन्तु ममतात्यागी त्याग्येव । ममता राक्षसी कष्ट साध्य प्रगुणित गुणग्रामं यौगपद्येन भक्षयति । nara tari रमयति । सर्व मम्बन्धकल्पको ममताया अतिशयः । ममता बीजतो भवप्रपञ्चम्य कल्पना | स्वजनममत्व त्यागः । धन-ममत्व त्यागः । सर्वत्र जगत्यशरणता । पापेनार्जितैधनैरे कोऽन्यान् पुष्णन्नरकदुःखानां मोढा । स्त्रीममत्वत्यागः । अपत्यममता त्यागः । ममत्वतः अमेयेऽपि मेध्यन्व । ममत्वतोऽनियत सम्बन्धो नियतन्वेन भासते । मत्यद्रष्टुः स्वरूपम् | स्वपरभेदज्ञानादहंता - ममतयोः पलायनम् । तच्च-जिज्ञासया ममनाया अस्थितिः । तच्चजिज्ञासोतन्वप्राप्ति विनान क्वचिद् रतिः | तत्त्वजिज्ञासा प्रतिबन्धिका तव बुद्धिः । तच्वजिज्ञासा-समतारहितस्य जन्म निरर्थकं । जिज्ञासा-विवेकाभ्यां ममतैव विनाश्या ।
॥ १८ ॥
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अध्यात्म
सार
नवमोऽविकार:-ममतान्यागजन्या समता स्वतः प्रथमाना भवति । अर्थगतेष्टानिष्टत्व-व्यवहारकल्पनानाशेन स्नैमिन्यं समता । अर्थान् प्रति विकल्पजन्यन्वे रागादेः सत्ता, तदभावे रागादेरभावः । सकार्य मिद्धिः स्वाधीना तदा बाह्यार्थगतमंकल्पसमुत्थानं हतम् । स्वभावे लब्धे भ्रमक्षयात् रागद्वेषाभाव जन्य ममता, अविच्छिन्ना। जगज्जीवेषु कर्मनिर्मितद्वविध्यं नो भाति तदा साम्य मनाहतम् । कूटस्थ-नित्येकान्माऽभिन्नगुणादिध्यानतः साम्यमनुत्तरम् । समतापरिपाके विषयग्रह शून्यतया निन्दकम्तावकयोस्तुल्य-मनोवृत्तः । नित्य-वैरिबैर-शामक समता साधोः स्तुमः । एकैव समता सेव्या किमन्यैः । समतायाः सुखं स्पष्टं प्रत्यक्षं । समताऽमृत मज्जनेन कामविषक्रोधतापाविनयमलादिदोषनाशः । एकैव समतासुधा शान्तिजनिका । एकसमताऽऽलम्बना मोक्षावाप्तिः । नरकद्वार प्रतिबन्धमोक्षमार्ग प्रकाश-गुणरत्नमग्रहफला ममता। आत्मरूप-साक्षात्कार विरोधि दोषनाशिका समता । समता वाचामगोचर सुखप्रापिका । लोको योगिनां समता-सुखं न वेत्ति । समता कवचरूपेण रक्षिका । ममता जन्मजन्मान्तरनिचित कर्मक्षय कारिका क्षणात् । समता रत्नत्रयफल जननद्वारा भावजनता-जनिका। नयस्थानावतारि-ज्ञानस्य फलं समतैव । चारित्र पुरुषस्य प्राणाः समतेव । ममतां विना कृतमकृतं कष्टं वा भवति । मुक्तरूपाय एका समतैव । समतायाः स्वानुभवः सामध्य नामा पारं प्रापयति । 15॥१९॥ पगत्परं निगूढं तचमात्मनः ममतैव ।
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अध्यात्म
॥ २०॥
दशमोऽधिकारः समताया 'अन्धयादनुष्ठानं परिशुद्ध भवति । विषगराननुष्ठानतदे॒त्वमृतभेदात पञ्चविधं अनुष्ठानं । आहारादिकामनया कृतमनुष्टानं विषानुष्ठानं । सच्चितहननादैहिकभोगाऽऽशया, कृतमनुष्टानं विषानुष्ठानं । दिव्यभोगाभिलाषतः कृतमनुष्ठानं गरानुष्ठानं । विषगरनिषेधाय सर्वत्राऽ. निदानन्वं जिनेन्द्रः प्रतिपादितम् । अनध्यवमायेन ओधलोक संज्ञया कृतमननुष्ठानं । यदि शुद्धमपि भावरहितं द्रव्यावश्यकम् । गतानुगतिकत्वतः मूत्रक्रियाद्वयलोपः । गतानुगत्या, मूत्रवर्जितमोघतोलोकतः कृतमनुष्ठानमननुष्टानं । कायक्लेशतः, अकामनिर्जराया अङ्गमननुष्ठानं । चरमावर्ते मत्यानुष्ठानरागेण कृतं तद्हेतुनामानुष्ठानम् । चरमावर्तकालो धर्मयौवनकाली यत्र सतक्रियारागः । धर्मयुवकस्य धर्मगगेणाऽसतक्रिया लज्जाये । शुद्धक्रियाकारिणो दृष्टवा बहुमान-प्रशंसाभ्यां शुद्धक्रियाचिकीर्षा बीजनहेतु अनुष्ठानम् । शुद्धक्रिया-चिकीर्षाया निर्मलानुबन्धः अङकुर तहेतुअनुष्ठानम् । शुद्धक्रियासंपादकोपायानां गवेषणा स्कन्ध-तहेतुअनुष्ठानम् । मद्गुरुयोगादिपायेषु विविधा प्रवृत्तिः पत्रादितहेतु अनुष्ठानम् । गुरुयोगादिरूपहेतुप्राप्तिरूपं पुष्प-तद्हेतुअनुष्ठानम् । सद्देशनादिना सम्यक्त्वादिभावधर्मप्राप्तिरूपं फलसदहेतु अनुष्ठानम् । सहजशुद्धसम्यक्त्वादिभावधर्मगर्भितमनुष्टानमृतानुष्ठानम् । जिनाज्ञापूर्वकं चित्तशुद्धि साकृतात्यन्त-संवेग गर्भममृतानुष्ठानम् । मम्यक् सूत्रार्थविचारपूर्वकं कर्मणि प्रणिधानं कालाद्यङ्गाऽविपर्यासोऽमृतानुष्ठानम् । तद्धेतु अमृतनामकानुष्ठानद्वयं सत् , विषगराननुष्ठानत्रय
A
॥३०॥
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अध्यात्मसार:
।। २१॥
ममत । यद्येऽपि अमृतानुष्ठानं सर्वोत्तम मोहो-प्रविषनाशनात् । आदरः, करणे प्रीतिः, विध्नाभावः, सम्पदागमः, जिज्ञामा, तज्ज्ञसेवेति लक्षणं सदनुष्ठानस्य । सदनुष्ठानं इच्छादिभेदभिन्नं योगरूपं । इच्छा प्रवृत्तिस्थिरता सिद्धयो, योगसंज्ञिताः । क्षयोपशमभेदतः श्रद्धाप्रीतिधृतिधारणादियोगेन इच्छादियोगा, विविधभेद संपन्नाः इच्छायोगग्यानुकम्पा, कार्यम् । प्रवृतियोगम्य' निर्वेदः कार्यम् । स्थिरतायोगस्य संवेगः पर कार्यम् । सिद्धयोगस्य प्रशमः कार्यम् । यत्र श्रद्धादिभावाः सन्ति तत्राऽ-नुष्ठानेष्विच्छादियोगः सफलो । भवति । इच्छादिलेश रहिताना कायोत्सर्गादिसूत्राद्यनुष्ठानदाने महामृपावादः । इच्छादि योग-लेशरहितानां कार्योत्सर्गादि कारणे उन्भागोन्थापनम् । शुद्ध-चेतस्क-महात्मना त्रिधा सदनुष्ठानमादेयम् ॥
एकादशोऽधिकार. सदनुष्ठानचिकीर्षणां पूर्व मनःशुद्धिः कार्या, रक्ते व्दिष्टे परजने रत्यरतिविकारशुन्यं मनो निर्मलम् । इष्टा-ऽप्राप्तेष्टप्राप्तपदार्थे सति मनमा शोचति मनसा स्मयते । चारित्रयोग शमरमादि विषये चपलमनःकपे विचित्रं चापल्यं । मनस्तुरगो गुण-नियंत्रितोऽपि न तिष्ठति । अहह कोऽपि मनः पवनो बली । यदि भ्रमत्यति मत्तमनोगजस्तदा व कुशलं । दुष्टमनो दहनो व्रातरूम् दहति । मनोनिग्र हाभावजन्यं दुरन्त भवभ्रमणमेव । हि मनोऽनिग्रही कुविकल्पमात्रतो तन्दुलमत्स्यवन्नरकगामी । मनश्चंचलतरं स्वं वा जगद् वंचयते । मनः शुद्धिरेव शिवसुन्दयां अभेषजवशक्रिया । उदितमदज्वरविनाशो 16॥२१॥ महौषधीभूता हृदयशुद्धिः । सकलकर्म कलंक विनाशिका मनःशुद्धि । मनःशुद्धरूपायःशुभविकल्पमयव्रत
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अध्यात्म
सार:
॥२२॥
सेवयाऽशभविकल्प-निवृत्तिः । पूर्वोक्तदेशनिवृत्तिरपि मनसाप्रथमं स्फुटा गुणकरी | मनो यत्र शभप्रतिमादौ लगति तदालम्बनं शुभं मतम् । तदनु काचन निश्चयकल्पना भवति सर्वनिवृत्ति-समाधये । ततो निर्विकल्पकं हदयं प्रसरति । ततोऽसंगमन्तःकरणं भवति । ततो मनोऽनुभवत्यहो गलितमोहतमःपरमं महः। ततो निर्विकल्पशुद्ध मनसःशुभ्र यशः श्रीः ।।
द्वादशोऽधिकार:वास्तवी मनः शुद्धिः सम्यक्त्वे सत्येव । सम्यक्त्व सहिता, दानादि क्रियाःशुद्धाः। नान्धो जयति वैरिणम् । मिथ्याष्टिन सिद्धयति । सर्व-धर्म-कर्मणां सम्यक्त्वं सारः। जिनशासने तत्त्व श्रद्धानं सम्यक्त्वं, सूत्रे सर्वे जीवान हन्तव्या इति तत्त्वमिष्टम् । धर्म रुच्यात्मकं सम्यक्त्वं । ज्ञेयत्वाद्यर्थापेक्षया नवतत्व विषयक श्रद्धा सम्यक्त्वम् । जैनशामने शुद्धाऽहिमापि तत्वमुच्यतेथात सूत्रप्रामाण्य स्वीकारः सम्यक्त्वम् । अहिंसायां सर्वदर्शनानामेकवाक्यता, तच्छूद्धता ज्ञानं संभवादि विचारतः । अहिंसायां सर्वद निनामेकवाक्यता नवभिःश्लोकःमाध्यते । शन्दमेदेऽपि अहिंसादि धर्मेषु ऐकवाक्यत्वात सर्वदर्शनशास्त्रं धर्मशास्त्रं कथ्यते । कुत्रग्रन्थे शुद्धाऽहिमा संभव इति विचारणीयम् । शुद्धाहिंसानिश्चये प्रमाणलक्षणादेरुप योगो न ।प्रमाणानि प्रसिद्धानि व्यवहारश्च तत्कृतः प्रसिद्धः । एकान्तात्म नित्यत्वगदि सारख्यदर्शने हिंसादयः कथं धटन्ते ।। सांख्यमताऽभिमत विशिष्ट मनोयोगध्वंसरूप मरणस्य खंडनम । बद्धिगतदःखोत्पाद हिंसापदार्थस्य खण्डनम् । नाशाऽपरपर्यायं हिंसापदं एकान्त- नित्यात्मनि न घटतेऽनुभव.
1
। २२॥
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अध्यात्मसार:
॥२३॥
चापाकत्वात । आत्मन एकान्त नित्यत्वे शरीरेणापि सम्बन्धोऽसम्भवी विभुत्वे च संसाराभावः । अदृष्टजन्य शरीर संबन्धादि जन्मोपपपयादि कल्पना-खण्डनम् । आत्मनि क्रियां विना मिताणुग्रहण संयोगभे दादि कल्पना कथं? । कथंचिन्मूर्ततास्वीकारे वपुः मंक्रमव्यापारयोगावात्मनः । आत्मनो निष्क्रियत्वेनहननाघमावेन हिंसाद्यनुपपत्तिः । अनिन्यै कान्तपक्षेऽपि हिंसादीनाम-ऽसंभवः । सन्तानविचित्रताया जनको हिंसको न । अहिंसाया अभावेऽवशिष्टसत्यादीनि कुतः। जैनेन्द्रशासनेऽहिंसादि सर्व तत्त्वतो घटते । द्रव्यार्थत आत्मा नित्योऽस्ति पर्यायार्थ आत्मा-ऽनित्योऽस्ति, हिंसक हिंस्य-तत्तज्जन्यफलान्यनुभवत्मात्मेत्यादि सर्व स्याद्वादे धटते । स्याद्वादे अन्वयव्यतिरेक विषयकोऽनुभवः साक्षी विद्यते जैन- धर्मे त्रिधा हिंसा न कल्पिताऽपितु सहेतुका । हन्तुहिमनीयहिंसायाः पापं कथं लगेन ? । हिंसकाहिंसा पदार्थस्य सिद्धिः । श्री जैनशासन एव हिंसानिवृत्तिरूपाऽहिंसा कथं घटते ? । अपवर्गतरो बीज मुख्याऽहिंसा । जैनशासन एवं शुद्धाऽहिंसासम्भवस्तथाऽहिंसाया अनुबन्धादिशुद्धिरप्यत्रेव वास्तवी । सम्यग्दृष्टे महात्मनो ज्ञानयोगेन हिंमा न हिंसानुबन्धिनी । यतनाभक्ति शालिनां जिनपूजादिकर्मणि अहिंसाया अनुबन्धः । मिथ्याप्टेरज्ञानशक्ति योगेन, हिंसाऽहिंसे हिंसानुबन्धिन्यौ स्तः । निह्नवादि नाम हिमाऽपि हिंसानुबन्धिनी । अप्रमत्तसाधनां हिंसाप्यहिंसानु बन्धिनी । एकस्यामपि हिंसायामहिंसायां सुमहदन्तरम् । हिंसा हिंसयोर्विविध-बन्धमपेक्ष्य भेदास्तथा विपाकमपेक्ष्य भेदाःपतन्ति । जिनपूजादिकर्मणि
॥२३॥
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अध्यान्म
मार
॥२४॥
हिमाऽप्युत्तरकालीन विशिष्टगुणा संक्रमात, त्यक्ताऽविध्यनुबन्धवादहिमेवाऽतिभक्तितः । शतमेद भिन्न शुद्धाऽहिंसा यत्र तत्सवांश-परिशुद्धं जिनशामनं प्रमाणं । सम्यक्त्वस्याऽऽस्तिक्यं परमं चिहनम् । शमादि- . परिष्कृतमविच्छिन्नमास्तिक्यक्त्वं स्थिरसम्यक्त्वं ।
चतुर्थ प्रबन्धः त्रयोदशोऽधिकारः मिथ्यात्वत्यागतः सम्यक्त्वं शुद्धं, मिथ्या त्वस्य षट् स्थानानि । मिथ्यात्व षस्थानः शुद्धव्यवहारविलंधनम्,सद्पषट-पदैः मिथ्यान्वध्वंसः, शुद्धव्यवहार संप्राप्तिः। नास्ति स्वादि ग्रहे उपदेशोपदेशकाभावपूर्वकोपकाराभावः निश्चयनयाभिप्रायदर्शनपूर्वक व्यवहारनयाभिप्राय-दर्शनम्। दानादिशुद्धव्यवहार लोपे नास्तित्वविशिष्टानां पण्णां पदानां मिथ्यात्वरूपत्वं । नास्त्येवात्मेति वादिचार्वाक मत प्रतिपादनम् । चार्वाक-मत खण्डनम् । अहंता न शरीरस्य धर्मः । शरीरं नात्मद्रव्यं । इन्द्रियाणि नात्मा गजग्डकादि । वैचित्र्यं न स्वाभाविकमपित्वात्मकृत-कर्मजन्यं । मद्याऽगेभ्यो मदव्यक्तिरपि मेलक विनानो. आगमादात्मा गम्यते । अभ्रान्तानां प्रवृत्तयो, न विफलाः । संशयादेवात्मनः सिद्धिः । जीव निषेधकाजीवशब्दत आत्मत्व सिद्धिः । वस्तुःपदार्थः सर्वथा निषिध्यते न किन्तुनत्तमयोगादि निषिध्यते । शुद्ध जीवपदन जीवसिद्धिः । बौद्धमतस्य प्रतिपादनम् । बौद्धमतस्य खण्डनम् । एकद्रव्यान्वयाऽभावान्न वासना संक्रमः । कुर्वद्रुप- विशेषे न प्रवृत्तिनानुमा । एकता विषयकं । प्रत्यभिज्ञानं क्षणिकत्वं बाधत एव । एकान्ता ऽनित्यवादे बहुन् दोषान् प्रदय कथं चिन्नित्यात्मेति स्वीकारोपदेशः । बुद्धदर्शनमपि त्याज्यम् । सांख्य
॥२४॥
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मतरय प्रतिपादनम् । साउख्यमताऽभिमत पञ्चविंशतिस्तत्त्वानि । पुरूषस्य प्रकृतेश्च तत्त्वस्य सिद्धिः । अध्यात्म-18
बुद्धितचमान्यताया अनिर्वार्यावश्यकता | अहङकार-तत्वम्य तन्मात्रादि षोडशगणस्य सिद्धिः । बुद्धा सार:
पारः कृतिकरणरूपोऽस्ति एतस्मा बुद्धेस्त्रयोंऽशाः सन्ति । अनवच्छिन्नं चैतन्यं मोक्षः, कत्त बुद्धिगते सुखदःखे पुरुषे उपचारतः । कती भोक्ता च नो तस्मादात्मा नित्यो निरज्जनः । साङख्यमतस्य खण्डनम् । X जडप्रकृतौ धादिस्वीकारे घटादो तादृग् धौन्वयः कथं न ? । कृति भोगी बुद्धेश्चद् बन्धमोक्षौ नात्मनः । पुरुषे बन्धमोक्षयोरुपचरितत्वे मोक्षशास्त्रं वृथाऽखिलम् । तम्मात्कापिलानां मते रति चिता । नास्ति नि वीणमिति याज्ञिकमत प्रतिपादनम् । जीवकर्मणोरनादित्वे नानन्तत्वेनात्मनो मोक्षो न । याज्ञिकमत खण्डनम् मन्तानाऽनादिता बीजांकुरवत् । अनादि सन्तते नाशः स्वर्णमलयोरिख । जीवकर्मणोः सम्बन्धो भव्येषुअनादिसान्तोऽभव्येष्वनाद्यनन्तः । जीवत्वेममानेऽपि भव्याभव्यभेदःद्रव्यत्व समानेऽपि जीवाऽजीवत्वभेदो यथा । स्वाभाविकं भव्यत्वं तन्नाशो मोक्षे । भव्योच्छेदो न चैवस्याद्गुर्वानन्न्यान्नभोंशवत् । यस्तु सिद्धयति सोऽवश्यं भव्य एवेति । प्रध्वंसवन्मोक्षस्य वर्तमानस्थिति जन्यत्वेऽप्यनन्ता । ज्ञानादेः कर्मनाशे नात्मनो जायतेऽधिकम् । कर्माणुसम्बन्धान्मुक्तस्य कथं मुक्तता ? । यस्य तारतम्यं तेन प्रकर्पण भाव्यम् । पष्टपदं-मोक्षोपायो नास्तीति माण्डलिकमतमण्डनम् । नियताऽवधौ समाप्ते, कस्मादेव मोक्ष इति मतस्य खण्डनम् । मोक्षो पायो रत्नत्रयीरूप एव सुनिर्णीतोऽस्ति । भवतत्कारणयोविरोधि मोक्षतत्कारण निश्चयः।
॥२५॥
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अध्यात्म
सारः
॥ २६ ॥
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शिवसाधने दृढैव सम्यक्त्वादि क्रियोपयुज्यते । तथाभव्यतया कर्मलाघवं ततः सम्यग्दर्शनादिगुणाः समुदिता ra मोक्ष कार्य जनयत्येव । भव क्षयं प्रति ज्ञानदर्शनचारित्राणि उपायाः समुदिताः । मिथ्यात्वजनकानि आत्मा नास्तीत्यादि षट्पदानि त्याज्यानि । आत्माऽस्तीत्यादि षट् पदानि तत्प्रतिलोमतः सम्यक्त्वस्य पदानि साध्यान्येव ॥ चतुर्दशोऽधिकारः = मिध्यात्वशामककदाग्रह त्यागो विधेयः । कदाग्रहाऽग्नौ - तवनिश्चयलता - प्रशान्तपुष्पाणि- हितोपदेश फलानि क्व १ । ज्ञानलवदुर्विदग्धाः कदाग्रहतः पंडितमानिनो वाणीरहस्य रहिता भवन्ति । कदाग्रहिभि मनिभिर्जडै वितण्डा पाण्डित्येन त्रिलोकी कदर्थ्यते । कुष्णपक्ष स्थायी कदाग्रहः । कदाग्रहाच्छन्नमतिः किं पापं न कुर्यात् ? । कदाग्रहमये चित्ते सद्भावविशुद्धबोधौ न तिष्ठतः । व्रतादि पिण्डशुद्धीनां फलं नाऽभृन्निहनवानां तत्र कदाग्रहस्याऽपराधः । कदाग्रहिण उपदेशाऽनर्हाः । गुरूकृपया लभ्यमानमर्थ कदाग्रही न गृह्णाति । योऽसद्ग्रहात् पामर संगतिं कुर्वन्ति तेषां न रतिबुधेषु । कदाग्रही यत्र युक्तिस्तत्र मतिं न यत्र च मतिस्तत्र युक्ति नियुक्ते । कदाग्रहिणो दीयमानं श्रुतं न प्रशस्यम् । कदाग्रहिमतेः श्रुतात्प्रदत्तादुभयोर्विनाशः । कदाग्रहिणे विशदागमार्थ दत्ते स खिद्यते । कदाग्रही महाविवेचकत्वाभिमानी भवति । कदाग्रहस्थानां विपरीत सृष्टि गुणानाम् । कदाग्रहिणां मित्रमनु मदुःखितं भवति । कदाग्रहाद् गुणा विनाशं यान्ति । कदाग्रहिणां स्वार्थः प्रियः, मृटेषु मैत्री ॥
पंचम प्रबन्धः = पंचदशोऽधिकारः, कदाग्रहत्यागतो मिध्यात्वत्यागस्ततः सम्यग्दर्शनं समक्त्ववतो
॥ २६ ॥
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अध्यात्म
सारः
॥२७॥
ऽध्यात्मशुद्धिस्ततोयोगः । कर्मज्ञानभेदेन योगो द्विविधः । पुण्यलक्षणकर्मकारकःसद्गगात् कर्मयोगः । आवश्यकादिरागेण भागवतवाणीवात्सल्यतः स्वर्गकारकः कर्मयोगः ज्ञानयोगस्तु आत्मरतिलक्षणो मोक्षसाधकः । अत्र ज्ञानयोगे शुभक्रियाऽपि वैराग्याद् व्याक्षेपकारिका न । परेषां साक्षिपूर्वक साधूनामप्रमत्तानी क्रियाऽपि शुभा न नियता । ध्यानालम्बिनि ज्ञानयोगिनि हर्षशोकयो वकाशः । किया शुभा ज्ञानिनोऽसंगान्नैव ध्यानघातिनी । फलभेदादाचारक्रियाऽप्यस्य विभिद्यते । ध्यानार्था क्रिया सेयमात्मज्ञानाय कल्पते । स्थिरीभूतमनसः पुनश्चलत्वे स्थिर क्रियां कुयति । नित्यं संयमयोगेषु व्या पृताऽत्मा भवेद् यतिः । निश्चयव्यवहारदशास्थानां क्रियाव्यवस्था । ज्ञानयोगिनः श्रद्धामेधादियोगतः शुद्ध कर्मणोऽपि मुक्तिहेतुत्वमक्षतम् । कर्मयोगज्ञानयोगयोः सक्रिया शममर्यादा । योगारूढस्य लक्षणम् । कर्मज्ञानयोगयो गुणप्रधानमावेन दशाभेदः, चित्तशोधककर्मयोगाऽनन्तरं ज्ञानयोगस्यौचित्यं । पूर्व कर्मयोगः पश्चाच्च ज्ञानयोग इति क्रमो जिनोक्तोऽस्ति । तत्क्रमस्य कारणम् । अज्ञानिनां तु यत्कर्म न ततश्चित्तशुद्धिः । स्वरूपतः सावद्यत्वात् यज्ञयागादि कर्मयोगो वाङमात्ररूपः । वेदविहितमपि स्वरूपतः । सावद्यं कर्मचित्तशोधकं न भवति । सावधं कर्म नोपादेयं बुद्धि-विप्लवात् । कर्माऽप्याचरतो ज्ञातुर्मुक्तिभावोन हीयते । जैनमते कर्माकर्मविषयकभंगानां वैचित्र्यं । ज्ञानयोगी भोगै न लिप्यते जलजदलमिव जलेन । अनन्यपरमात साम्यात ज्ञानयोगीभवेन्मुनिः । विषयेषु समं रूपं विदन् वीतरागो ज्ञानी न लिप्यते । ज्ञानयोग्येवात्मवान् ज्ञानवान् वेदधर्मब्रममयः । विषमतायाधर्मब्रह्ममूलमज्ञानयोगतो नश्यति । ज्ञान.
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॥२७॥
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अध्यात्म
मारः
ज्ञानयोगिनो ज्योतिष्मन्तः । साधोरित्थंभूतस्य पययिक्रम-वृद्धितस्तेजोलेश्यावृद्धिः । विषमेऽपि समत्वददर्शनी जीवन्मुक्तः । साम्यविषये भगवद्गीतोक्ताःश्लोकाः । कर्मयोगवत्या दशायां वैषम्ये साम्यदर्शनंदोषाय, ज्ञानयोगवत्यां दशायां तदेव रागद्वेषक्षयाय । रागद्वेषक्षय-प्रयुक्ताविषय-शून्यता-पूर्णोज्ञानयोगी।' श्लोकाष्टकं यावज्ज्ञानयोगम्वरूपम् । आचारांगसूत्रे ज्ञानयोगस्य श्रेष्ठत्वम् । ज्ञानयोगस्य श्रेष्ठतरतायाः कारणम् । अभेदोपासना भागवती सर्वभेदोपासनाभ्यो गरीयसी । ज्ञानयोगिनो निरञ्जनाव्ययरूपे देवे तन्मयता-भक्तिः। विशेषाऽज्ञानतः कुग्रहविरहतः सर्वज्ञसेवी सामान्ययोगी। मुख्यसकताप्रतिपत्तिः। सर्वज्ञप्रतिपत्तिरूपांशात्तल्यता सर्व योगिनाम् । मध्यस्थसर्वबुधैरिष्टा सेवा देवताऽतिशयस्य । सांख्यमती, कालातीतोऽपि विषयेऽम्मिन सप्तश्लोकीं यावत् कथयति । संक्षिप्तरुचिजिज्ञासो विशेषानवलम्बनं परम्परयाप्रान्तेऽत्रोपयुज्यते । परमात्मतत्वजिज्ञासाऽपि सतां न्याय्या । भगवद्गीतोक्तेश्वरोपासकानां चतुर्विधत्वम् : ज्ञानिभक्तस्य विशेषता । संशयाऽऽत्मा विनश्यति । ध्यानयोगिस्वरूपम् । कर्मयोगज्ञानयोगध्यानयोगादितःक्रमेण मुक्तियोग-प्राप्तिः॥
षोडशोऽधिकारः स्थिराध्यवसायो ध्यानम् । अस्थिर चित्तं भावनाऽनुप्रेक्षा-चिन्ताभेदात त्रिविधं । मुहृत्तान्तरेकार्थे मनमः स्थितिया॑नम् । बहुविषयसंक्रमे दीर्धाप्यच्छिन्ना ध्यानभेदी संततिः। आर्तरौद्र धर्म्यशुक्ल-भेदाच्चतुर्धा ध्यानम् प्रथमो द्वौ भेदो भवस्य कारणं । पश्चिमी द्वौ मोक्षस्य कारणम् । आर्तस्य
॥२८॥
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अध्यात्मसार
॥ २९॥
चत्वारःप्रकाराः आर्तेऽशुभलेश्या । आर्तस्य लिंगानि । कार्यभूनलिंगानि । आतम्य विशेषहेतवः ? आर्त्त प्रमत्नान्तं तिर्यग्गतिप्रदम् । रौद्रं च चतुर्धा देशविरनिं यावत् । रौद्रेऽतिसंक्लिष्टाशुभलेश्या । रौद्रग्य कार्यभूतलिंगानि । अशुभध्यानं दुग्न्तं । कृताभ्यासी शुभध्यानाराहयोग्यः । प्रशस्तध्यानाय चित्तस्य द्वाद शभावनादिवस्तुभिः शिक्षणम् । ज्ञानादिभावनानां चतसृणां क्रमशः फलानि । भावनाभिः स्थिरचित्तो ध्यानयोग्यः । एषा वार्ता भगवद्गीतायामुक्त्ताऽम्ति । वैराग्याभ्यामौ भावनामाविताऽत्मनि घटेते । धर्मध्यानस्य चित्तपमाधिप्रदावेव योग्यदेशकालो जिता काप्यवस्था ध्यानोपघातिनी न । नियता योगसुम्थता । वाचनादि क्रिया-सद् धमविश्यकानि धर्मध्यानालम्बनानि सूत्रादिवाचनाद्यालम्बनाश्रितः सद्ध्यानमारोहति । आलम्बनादरोत्पन्न-विघ्नविध्वंसद्वारा ध्यानाधारोहण-ध्वंसो नो । जिने मनोरोधादिको ध्यान-प्रतिपत्ति क्रमः शेषेषु यथा-योगं मनः समाधिः । धर्मध्यानिनां ध्यातव्यं चतुर्विधम् आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानभेदात् । ध्यातद्वारम् । स्थितप्रज्ञस्य लक्षणावली भगवद्गीतोक्ता । शुक्लध्यानस्य भिन्नभिन्नध्याता ध्यानस्य प्राणभूतभावना ध्यानोपरमे भाव्या । धर्मध्यानिनां लेश्यालिङगादिः । धर्मध्यानस्य फलं स्वर्ग प्राप्तिः । शक्लध्यानस्य ध्यातव्यद्वारं, ध्यानद्वारं । शुक्लस्य चत्वाराः पादाः । शुक्लम्याच पादयोःफलं सुरलोकप्राप्तिरन्त्ययोस्तु महोदयः । शुक्लस्यानुप्रेक्षाः । शुक्लस्य द्वयोः लेश्या शुक्ला, तृतीये परमशुक्ला, चतुर्थ-पादो लेश्याऽतीनः । शुक्लस्य लिङगानि । शुक्लध्यानाभ्यामी कलावपि संपूर्णाऽध्यात्मविद् ॥
॥२९॥
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अध्यात्म
सार:
सप्तदशोऽधिकारः-स्वप्रकाशसुखबोधमयं तत् परिपक्वं ध्यानमेव भवनाशित्वेन भजध्वम् । ध्यानवानेव तृप्तो विषयरागं न प्राप्नोति । या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । सर्वकर्मफलाना सिद्धि व्यनित वए । सर्वथाऽऽत्मनिलीनो ध्यानी सर्वबाधाविरही। ध्यानमस्तु शिवशर्मगरिष्ठं । ध्यानिना ग्पमात्मप्रकाशरहस्यं भाति । ध्यानमित्रं चिरविरहिणी शमरति प्रेयसी योजयति । ध्यानधाम्नि लभते सुखमात्मा, ध्यानधाम्नि आत्माऽतिथिपूजा । आत्मपरमात्मनोरमेदकारको ध्यानसन्धितः । मृत्युजयाऽमृतं ध्यानेऽस्त्येव ध्यानकृतनिश्चलत्वेऽपूर्वमधुररसास्वादनम् । ध्यान एव रतिं कुर्यात् ॥
षष्ठपषन्धः अष्टादशोऽधिकारः आत्मज्ञानं मोक्षदम् । य आत्मानं वेत्ति तस्य ज्ञेयं भूयो नाव. शिष्यते । नवतस्वचानमान्मज्ञानायैव । आत्म-परमेदं तु कश्चन विरलो वेसि । मेदाभेदनयत आत्मज्ञानं हितावहम् । निश्चयनयतः-मानदिभ्य आत्माऽभिन्नः । ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां न भेद आत्मनः। व्यवहार आत्मलक्षणयोमेंदं मन्यते । आत्मतद्गुणयो भेदो न तात्त्विकः । पद्धतिभेदेन निश्चयव्यवहाराभ्यामात्मस्वरूपानुभवदर्शनम् । गुणाना स्वरूपं नात्मनःपृथग् चैतन्यपरसामान्यादात्मनः सर्वाऽऽत्ममिः महाऽमेदः । व्यवहारत आत्मना नानात्वम् , नामकर्मप्रकृतिजो भूतग्रामादिमेदो न तु स्वभावतः । जन्मादिकोऽपि कर्मणां हि नियतःपरिणामः । कर्मकृत विकृतिमात्मन्यारोप्य ज्ञानभ्रष्टा भ्रमन्ति भवे । अज्ञानी आत्मनिकर्मकृतभेदाऽभिमानी । उपाधिकर्मजो व्यवहारो नास्त्यकर्मणि । एक क्षेत्रस्थितोऽप्येति
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बध्यात्म
सार
॥३१॥
नात्मा, कर्मगुणसम्बन्धम् । व्यवहारी त्वेकमेवाऽऽत्मानमनेकधा मन्यते । सदृशताया अस्तित्वमेकमविरुद्धमात्मनि । दर्शयत्येकतारत्नं सतां शुद्धनयमित्रम् । भिन्नैःपर्यायहाति नैकन्वमात्मद्रव्यं सदाऽन्वयि । नरनारकादिभावेषु एक एवात्मा निरञ्जन । कर्म क्रियास्वभावं, आत्मा त्वजस्वभाववान् । आत्मकर्मसंयोगजेऽपि संसारे, आत्मनि संसारजनकक्रिया नास्ति । एतद्विषये दृष्टान्तचतुष्टयम् । शुद्धनयाऽयत्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि शुद्धनया आत्मानं प्रत्यग परमात्म (एकशुद्ध)ज्योतिषमाहुः प्रसिद्ध । भगवन्नात्मन शुद्धरूपं प्रकाशयेति प्रार्थनाऽऽत्मानं प्रति । व्यवहारे देहेन सहेकत्वमात्मनः । व्यवहारेण कथंचिन्मूर्त आत्मा। निश्चये मूर्त आत्मेति भ्रमः । यतो मूर्तलक्षणाभावात् । स्वप्रकाशमात्मरूपं तस्य कानाम मृता । पश्यत्याश्चर्यवज्ञानी, वदत्याश्चर्यवद् वचः । वेदना मूर्त्तत्वाधीना न, किन्त्रशुद्धस्वशक्तिजा । स्वयं परिणमत्यात्म वेदनामयम् । विपाक कालाप्राप्त्यनन्तरं वेदनापरिणाम्यात्मा । कर्मफलसंज्ञावती वेदना चेतनेतिव्यवहारः तथा ज्ञानाख्या चेतना चोधः, रागद्वेषौ कर्माख्या चेतना । नाऽऽत्मा ऽमृतत्वं चैतन्यं चातिवर्तते । मनिकृष्ट-विप्रकृष्टपदार्थेभ्यो भिन्नताऽऽत्मनः । गुणमेदेनाजीवेभ्य आत्मनो भेदः। द्रव्यभावप्राणाभावविवक्षया सिद्धसंसारिजीवयोरजीवत्वम् । द्रव्यप्राणानां संख्या, दश । शुद्धजानादि भावप्राण जीवत्यात्मा सदा। जीवानां जीवनपद्धति श्चित्रा । पुण्यपाप-तत्त्वतो भिन्ना आत्मा । 15॥३१॥ कर्मणि पारतन्त्र्यसामान्येन फलमेदो न सुखुदुःखयो भेदस्तु नामापेक्षया न तु फलापेक्षया । दुःख
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4
सार:
प्रतीकारे विमूढानां सुखत्वधीः । परिणामात् , तापात् , संस्कारात , गुणवृत्ति विरोधात् पुण्यजं सुखं अध्यात्म-18 दुःखम् । भोगभवविलासः सर्वो भयजनकः । अशुद्धरूप आत्मेति मिथ्यावच इति शन्दनयाः। फलतः
पुण्यपापयोरेकत्वं मन्वानस्य भवोदधिः सान्तः । दुःखैकरूपयोः पुण्यपापयो मिन एवात्मा। आत्मनः -
सच्चिदानन्दरूपं चतुर्थदशाव्यङ्ग्यमावरण क्षयात् । सामान्यं चिदानन्दरूपं सर्वदशान्वयि । अक्षजन्य ॥३२॥ चित्र धी सुखवृत्तिभिर्नात्मनोऽनुभूतिपराभूती। सुषुप्तौ यथा निरहंकृतं भानमन्तरात्मनस्तथा शुद्धविवेक
तदतिस्फुटम् । शुद्धनिश्चयत आत्मा सच्चिदानन्दभावस्य भोक्ता, अशुद्ध निश्चयत आत्मा कर्मकृत सुखदुःख भोक्ता । निरूप चरिताऽसद्भुत व्यवहारतः कर्मणो भोक्ता, आत्मा, उपचरिता सद्भुत नयतः स्रगादि-भोगोपभोग भोक्ता । भवभवान्त कारणाशुद्ध शुद्ध चित्तवृत्तिः । शुद्धपर्यायिरूपम्तदात्मा शुद्ध म्वभावकर्ता । पर्यायास्तिकनया:सम्यग् दर्शनादि धर्माणामुत्पत्ति ।, द्रव्यस्तिकनया:सम्यगद मन्ति, आवरणतस्तेषामव्यक्तिं कथयन्ति । यं यं भावं यदा यदा म्वयमेव परिणमति तदा तदा तं तं भावं स आत्मा करोतीतिपर्यायार्थिक ऋजुत्रनयः । म्वगतं कर्म स्वफलं नाति वर्तते । ऋजुसूत्रनयः परभावानां कर्तुत्वं नाऽभ्युपगच्छति । प्रमादि यत-मानयोरेव शरीरिणामवधवधयो हिंसादये मवतः । कर्मणा बद्धयतेऽज्ञानी, ज्ञानांस्तु न लिप्यते । रागद्वेपाशयाना तु कर्तेष्टाऽनिष्टवस्तुषु । रागद्वेषाऽनुविद्धस्य कर्मबन्धः । निश्चयतो भावकर्म सृजनात्मा, व्यवहारात् पुद्गल कर्मकृत् । द्रव्यकर्मरूपव्यापारः
आदि धर्मा
39
॥३२॥
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( G
अध्यात्ममारः
OOK
॥३३॥
फलपर्यन्तः परिदृष्टोयदात्मनः । नाऽऽत्मनो विकृतिं दत्तं तदेषा नयकल्पना । पुद्गल कर्मस्था विक्रियाऽऽत्मनि बालिशै-रुपचर्यते । आत्मनः कल्पनाऽतीतं रूपमकन्पक एव पश्यति । कल्पनामूढः प्राणी विपरीतदर्शनं करोति । शुद्धस्वरूपम्यान्मनो ध्यानं परमात्मध्यानं । शरीरादिमिवर्णिते वीतरागस्य वास्तवी नोपवर्णना । व्यवहार निश्चय स्तुतिः । मुख्यगौण धर्माणां विवेकेन स्तुतिः कार्या । वस्तुस्पर्शितया शुभकल्पना न्याय्याऽपेक्षया । पुण्यपापरहितमात्मत्तत्वम् । आश्रवसंवर भिन्न आत्मा। मिथ्यात्वादिभावाश्रवः । भावनादिधर्मा भावसंवरः । फलभेदादाश्रव-संवस्योर्मेंदः । व्यवहारविमूढस्तु परप्राणिगतपर्यायान् बाह्यरूपान् हिंसाऽहिंसादीन् आश्रवसंवरत्वेन मन्यते, बाह्यक्रियारतमना निश्चयस्यगूढतत्वं न पश्यति । भावापेक्षया यावन्त आश्वास्तावन्तः परिश्रवाः । मावानां वैचित्र्यादात्मैवाश्रव-संवरौ । अज्ञानाद् अध्यते न तु विषयैः ज्ञानाद्विमुच्यते न तु शास्त्रादिपुद्गलात् । शास्त्रादिकं व्यवहारतः संवराङ्गम् । योगाशत आश्रवः उपयोगांशतः संवरः। सम्यक्त्व-प्राप्त्यनन्तरं ज्ञानधारा शुद्धैव । उपयोगयोगधारयोः सर्वतः शुद्धयोः सत्योः सर्वसंवरः । यद् यावच्च स्थिरत्वं संवरः, यद् यावद् योग-चाञ्चल्यं आश्रवः । संमारि-सिद्धयोः शुद्धनयतो न भेदः । शुद्धज्ञानसमन्वितं द्वादविधं सत्तपः । यत्र कषायरोधः, ब्रह्मचर्य, जिनध्यानं तत्तपःशद्धं । निपुणज्ञान-तादात्म्यरूपं तपो निरापदं नान्यत् । कर्मातापकरं ज्ञानं तपः । ज्ञानतपो युक्तः तत्क्षणेनैव सर्व कर्मक्षयाय । ज्ञानयोगस्तपः शुद्धम् । ज्ञानमय शुद्ध तपस्वी भावनिर्जरा । कर्मात्म
॥३३॥
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अध्यात्म
मार
॥३४॥
।
संश्लेषो द्रव्यबन्धः, तद् हेतुभूताध्यवसायो मावबन्धः । तथामव्यतया प्रेरितो जन्तः परिणामतः पुण्यपापबन्धकः । भवस्थित्यनुसारेणात्मनो बन्धेऽपि प्रवृत्तिः । तन्वविषयक अवण-मनन-वारंवार स्मरण-साक्षादनुभवादिप्रक्रियया न बन्धबुद्धिरत आत्माऽबन्धः प्रकाशते योगिनां । कर्मद्रव्यक्षयो द्रव्यमोक्षः, तद्हेतुभूताऽऽत्मा रत्नत्रयाऽन्वयी भावमोक्षः । रत्नत्रयं मोक्षस्तदभावे न कृतार्थता । भावलिङ्गरताः सर्वसारविदः सिद्धयन्ति । भावलिङग हि मोक्षाङग । यथाजात--दशालिङग न मोक्षाङगम् । केवलिनो मूर्ध्नि वस्त्रक्षेपणेन केवलज्ञानपलायनं कथं ? । भावलिङगतो मोक्षो ध्रुनो भिन्नलिङगेपि । शुद्धाशुद्ध-निश्चयनयाभ्यामबद्धाऽमुक्ती बद्धमुक्तौ । अन्वयव्यतिरेकाम्यामात्मतच विनिश्चयं विद्वान कुर्यात नवतत्त्वेभ्योऽपि । निश्चयत आत्मतत्त्वचिन्तनं परमामृतज्ञानयोगरूपं । जानांश-दुर्विदग्धानां तत्त्वमेतदनर्थकृत । पूर्व व्यवहारकुशलो भूत्वा पश्चान्निश्चय जिज्ञासा कार्या। कृतव्यवहार-विनिश्चयः ततः शुद्धनयाश्रितः आत्मज्ञानरतो भूत्वा परमसाम्याश्रितो भवति ।
एकोनविंशोऽधिकार:-श्री जिनशासनं विशिष्ट जलनिधि श्रये । सदा विजयते विशिष्ट स्याद्वादकल्पद्रमः । विजयते विशिष्टमन्दरो जैनागमः । विशिष्ट-रविरूपो जैनागमो नन्दतात् । सोऽयं विशिष्ट जिनशासनाऽभृतरुचिः कस्यैसि नो रुच्यताम् जैनी दृष्टीरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते । सर्वपरदर्शनरूपनयेः सर्वथाऽऽदरणीयोऽयं जिनेन्द्रागमः । नायं कोपक्रमः सर्वहितावहे जिनमते तत्वप्रसिद्धयर्थिनाम् । नश्चेतो नितमा लीनं जिनेन्द्रागमे । जैनेन्द्रे तु मते शब्दार्थविषयक संदेहव्यथा न जात्यन्तरार्थ
15॥३४॥
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बध्यात्म
स्थितेः । लोकोत्तरभङ्गपद्धतिमयीं स्याद्वादमुद्रा स्तुमः । तं जैनागम माकलय्य न वयं व्याक्षेपभाजः क्वचित् । मार 18 मुलं सर्व-वचोगणस्य विदितं जैनेश्वरं शासनम् । उन्मादत्यागपूर्वकमनेकान्त वादरचना श्रोतव्याऽतः सिद्धान्तरहस्यविद् भवति । म्याद्वादी सर्वनया-न-विभक्तान् कुर्वन् स्याद्वाद-सुपथे निवेशयन विजयते ॥
सप्तमप्रवन्धे-विंशतितमोऽधिकारः प्रियमनुभवक-वेद्यं रहस्यम् । लीनमप्युत्तरलं मनः । ॥३५॥
पञ्चप्रकारं चेतो सुज्ञातयोगैरभिमतं क्षिप्तमृढ विक्षिप्तेकाग्र निरुद्ध मेदात । विषयानुगतं बहिमुखं . चितं 'क्षिप्तम्' । क्रोधादिमिविरुद्धकृत्येषु व्याप्तं निर्विवेकं चितं विक्षिप्तम् ' अद्वेषादि गुणवता खेदादि दोष क्षयात्सदृशप्रत्यय संगत'मेकाग्रं' चित्तम् । विकल्पवृत्तिशून्यं धारणादिसंगतं शुद्धं आत्माराममुनीना 'निरूद्ध' चित्तम् । एकाग्रनिरूद्ध भेद द्वयं समाधावुपयोगि । विक्षिप्ते' कदाचिद् योगारम्भः. क्षिप्तमढयो व्युत्थानम् । अभ्यासे चलं मन इष्टम् । अभ्यासदशायां यातायातं सातिचारमपि चित्तमदुष्टम् । बाह्य रथैः प्रलोम्य निगृह्णीयाच्चेतः । अभिरूपजिनप्रतिमादिरूपसदालम्बन विशेषाः कथ्यन्ते । सदालम्बनस्य परमः प्रभाव । मनसो निरालम्बकरणे विशिष्टक्रमोल्लेखः । मनस उपशमने द्वितीयः पन्थाः। शोकादि दोपक्षयः आत्मनः सहज शान्तज्योतिः प्रकाशते शान्तमनसि । परमात्माऽनुध्येयः सन्निहितो
01॥ ध्यानतो भवति । कायादि बहिरात्मा । कायाद्याधिष्ठितः कायभिन्न आत्मा अन्तरात्मा। गत निःशेषोपाधिः परमात्मा । आत्मगुणमनोवृत्ति-विवेक ज्ञानी कुशलानुबन्धी ब्रह्मत्वं प्राप्नोति । ब्रह्मविदः वचनेनाऽपि
५॥
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अध्यात्मसार:
ब्रह्म विलासाननुभवामः । ब्रह्मयोगी परमः सः । पूर्ण ब्रह्मयोगिनि गुरुत्वबुद्धितः सुतरः संसारसिन्धुः। इच्छायोगालम्बन पूर्वकं भक्त्या परममुनिमार्गानुसरणम् । इच्छायोगेऽल्पयतनाऽपि निर्दमा शुभानु बन्धकरी। परमालम्बनभूतो दर्शनपशोऽयमस्माकम् । दर्शनपक्षस्याकारः । इच्छायोगे विधिकथनादि कृत्यरूपशक्यारम्भः। पूर्णक्रियाऽभिलाषश्चेति द्वयमात्मशुद्धिकरम् । शक्यारम्मच शुद्धपक्षश्च शुभानुबंधी। बाह्यक्रिययाचरणाऽभिमानिनो ज्ञानिनोऽपि न ते बाह्याचार-मात्र सतां न प्रमाणम् । अध्यात्मानुभवजन्यनिगूढ नवनीत शिक्षारूप उपसंहारः।
एकविंशतितमोऽधिकार: सज्जन स्तुतिः सन्तः सन्तु मयि प्रसन मनसः । सज्जनाः कृपातः सुकविकृत ग्रन्थार्थान् प्रथयन्ति । सुहृदयानां सदयानां कृपासन्निहिताकार्यायतो दुर्जनोगुणनाशको न भवेत् । दृष्टाव्यवस्थाः सताम् आध्यात्मिकी कथां श्रुत्वा सन्तः सुखं गाइन्ते । न प्रमदावहा तनुधियां गृढा कवीनां कृतिः । एषा कवि कृतिमहिच्छन्नदृशां तनुधियां न चेतश्चमत्कारिणी । सकलगुणनिधीन् सज्जनान् नमामः । काव्यमेघवर्षणतः सुहृदां मनः सरःप्रेमपू: प्लाव्यते । सत्कविर्लब्धयशः सश्चयः सहृदय वर्ण्यते । विशिष्टामृतं सर्वपेयमिति ज्ञात्वाऽतितरी स्मितेन मोदते सज्जनः। निपुण नयेन कवीन्द्रकृत श्लोकाः सत्परीक्षिता दीप्यन्ते । इक्षद्राक्षारसौधरूपं कविवचनं मादकं पिबन्ति सन्तः । नव्योऽस्माकं प्रबन्धोऽप्यनणुगुणभृतां सता प्रभावाद् विख्यातः स्यात् । भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजय बुधाः सज्जनबातधुर्याः । प्रशस्तिः। अस्मिन ग्रंथे जिनाज्ञादि विरुद्धं स्यात् तन् मिथ्या मे दुष्कृतम् भूयाद् ॥ समाप्त।
॥३६॥
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अध्यात्म
सारः
॥ १ ॥
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|| श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥
ऍ नमः
॥ सूरि श्रात्मकमललब्धिभुवनतिलकगुरुभ्यो नमः ॥ न्यायाचार्य महामहोपाध्यायश्रीमद्यशोविजयजी - विरचितः
* अध्यात्मसार:
विजय भद्रं करसूरिकृत भुवनतिलकाऽऽख्यया संस्कृतटीकया समलंकृतःअध्यात्ममाहात्म्यनामकः प्रथमोऽधिकारः
* मङ्गलाचरणम् *
स्मृत्वा शान्ति जगन्नाथं, शान्तिदं छणिमण्डनम् । नत्वा च वर्धमानेशं, जिनेशं शासनेश्वरम् ॥ १॥ गौतमादीन् गणेशांश्च, प्रणम्य सूरिपुङ्गवान् । हेमहरिप्रमुख्यांश्व प्रसिद्धाऽध्यात्मयोगिनः ॥२॥ न्यायाचार्यादिना सिद्धान्, यशोवाचकशेखरान् । श्रुतकेवलिसाम्यादथान्, स्मृत्वा वादिजयाऽश्चितान् ॥३॥ श्री लब्धिसूरिपट्टेशान्, भुवनतिलकाभिधान् । सूरीन् स्मृत्वा सदाऽध्यात्म-सारग्रन्थस्य भक्तितः ||१४|| भुवनतिलकाऽऽख्याऽऽढ्या, स्मारिका गुरुनामतः । मया प्रतन्यते टीका, भद्रंकरेण सूरिणा ||५||
॥ १ ॥
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अध्यात्म
सार:
॥ २ ॥
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॥ श्री नाभिनन्दनप्रभुस्तुतिः ॥
ऐन्द्रश्रेणिनतः श्रीमान्नन्दतान्नाभिनन्दनः । उद्धार युगादौ यो, जगदज्ञानपङ्कतः ॥ १ ॥ टीका:- नाभिनन्दनो नन्दतात् ऋषभस्वामी समृद्धिमान् भवतु जयतु इति यावत्,
स कीदृशः १ ऐन्द्रश्रेणिनतः इन्द्रस्येयं श्रेणि: - ऐन्द्रश्रेणिः, तया नतः = भक्तिप्रह्नचतुष्षष्टिसुरेन्द्र मनविषयीकृतः पूजितपूज्योऽतः सुतरां जगत्पूज्यो देवाधिदेव इत्यर्थः, अनेन विशेषणेन भगवतः पूजाविशयः प्रकटितः । स पुनः कीदृश: ? श्रीमानितिः श्रीः प्रातिहार्यादिरूपतीर्थकृल्लक्ष्मीर्वाऽष्टो तरसहस्रलक्षणप्रभृत्यतिशयादिरूपशोभा, अस्ति अस्मिन् भगवतीति श्रीमान्, अर्थाद् बाह्याभ्यन्तररूपाहार्यानाहार्यसमस्वश्रीसम्पन्नो वर्त्ततेऽत एव विश्वोपकारायालं भवति, अश्रीकः कस्यचिदुपरि नोपकारी भवति, अनेन ज्ञानातिशयवचनातिशयौ प्रदर्शितौ, यो - नाभिनन्दनः, ऐन्द्रश्रेणिनतः श्रीमान्, युगादौ - यौगलिक धर्म समाप्त्यनन्तरं, चतुर्थारकरूषसत्ययुगस्यादौ पूर्वे तृतीयारकान्तरूपे युगादौ उद्दघार जगदज्ञानपङ्कतः = विश्वविश्व, आर्यनीतिमार्ग मोक्षमार्गादि विषयकाज्ञानख्पकद्दमतः, नीतिधर्ममार्गादिविषयकज्ञानप्रकाशनद्वारा उद्घृतवानर्थादनन्तकरुणारसाकरो भगवानादिनाथो विश्वस्योपरि परमपथप्रदर्शनेन बोधिबोधादिदानेन परममनन्तमुपकारं कृतवानिति [ प्रथमं तावत् पृथिवीनाथाऽपेक्षया भरतादीनां द्विसप्ततिकलाः, ब्राह्म्यादीनां चतुषष्टिकलास्तथा शिल्पशतान्यपि शिक्षितवानिति ] ॥ १॥
॥ २ ॥
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अध्यात्मसार:
॥३॥
|| श्री शान्तिप्रभुस्तुतिः ॥ श्रीशान्तिस्तान्तिभिद् भूयाद्, भविनां मृगलाञ्छमः ।
गावः कुवलयोल्लासं, कुर्वते यस्य निर्मलाः ॥२॥ टीका:-श्रीशान्तिर्भविना तान्तिभिद् भूयात्-श्री शान्तिनाथो भव्यजीवानां भवसन्तानाज्ञानान्धकारभेदकारको भूयादिति सण्टङ्कः, कीदृशः श्रीशान्तिः ? मृगलाञ्छनः स्वोरुगतमृगस्य लाञ्छनेन विशिष्टः, अतः षोडशस्तीर्थकृदेवेति व्यज्यते यतोऽन्येषां तीर्थकृतां मृगलाञ्छनत्वं नास्त्येवेति, लोके तु मृगलाञ्छनपदेन साक्षाचन्द्र इति गृह्यते यतो यस्याऽपि गावः-रश्मयः, कुदलयस्य कुमुदस्य कमलस्योल्लासंविकासं कुर्वते, तथाऽत्रापि मृगलाञ्छनपदेन जैनशासने शान्तिनाथः प्रभुरेव विवक्षितोऽतो यस्य-शान्तिनाथस्य निर्मला गावः [जन्म-शासन-समवसरणाद्यपेक्षया प्रकाशरूपा रश्मयः, गोपदोपलक्षितचतुष्पद द्विपदादि जीवविशेषाः, प्रवचनवाचः] कुवलयस्य-पृथिवीमण्डलस्य 'तास्थ्यात्तदिति न्यायेन पृथ्वीवर्तिजनगणस्य, उल्लासं कुर्वते प्रकाशं, जामृति, स्वात्मविकासमानन्दं च जनयन्ति तथा च गर्भापेक्षया शान्तिकरत्वेन च चक्रवर्तित्वेन तीर्थकृत्त्व प्रसिद्धो भगवान् षोडशस्तीर्थकदहन मृगलाञ्छनः सन् प्रकाश पृथ्वीरक्षणप्रवचनवचननामकगोरूपेण जगन्मण्डलमानन्दयन् जगतोऽभ्युदयनिःश्रेयसरूपं विकासं कृतवानिति ॥२॥
॥३॥
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अध्यात्म
सारः
॥४
॥
... श्रीनेमिप्रभुस्तुतिः। श्रीशैवेयं जिनं स्तौमि, भुवनं यशसेव यः । मारुतेन मुखोत्थेन, पाञ्चजन्यमपूपुरत् ॥३॥
टीकाः-श्रीशैवेयं जिनं स्तौमि-श्रीसमन्वितं शिवानन्दनं नेमिनाथमहन्तं स्तुतिविषयीकरोमीत्यर्थः, या नेमिनाथः कौमार्येऽपि मित्रमण्डलप्रेरितो लीलाकौतुकरहितोऽपि कृष्णवासुदेवायुधशालायां वासुदेवीयं पाञ्चजन्यनामकं शङ्खराज वदननिःसृतेन वायुना यथाऽपूपुरत पूरितवान् , तथा बाल्यतो ब्रह्मव्रतसाधुवृत्तितीर्थङ्करनामकर्मसम्पादितविश्वोपकारजन्यचन्द्रोज्ज्वलेन सर्वदिग्गामुकेन यशसा भुवनं जगत् , भरितवान् , तथाच तीर्थङ्कराणां भगवतां विश्वविश्वोपकारकाणां यशो वैमानिकज्योतिष्कव्यन्तरभवनपतिसत्कदेवदेवीभिः पञ्चकल्याणकादिदिनेषु समहोत्सवं गीयतेऽतो भगवन्तो भुवनत्रयव्यापकमहायशसो भवन्तीत्यर्थः ॥३॥
श्रीपाश्र्वप्रभुस्तुतिः जीयात् फणिफणप्रान्त-संक्रान्ततनुरेकदा। उद्धर्तुमिव विश्वानि, श्रीपाश्र्वो बहुरूपभाक् ॥
टीकाः-श्रीपाश्चों जीयादिति-त्रयोविंशतितमस्तीर्थकरः पार्श्वनाथस्वामी जयवान् भूयादित्यर्थः, श कीदृशः श्रीपाश्वः ? फणिफणप्रान्तसङ्क्रान्ततनुः-फणिनां फणमणिप्रान्तेषु प्रतिबिम्बितकायः, स पुनः
॥४॥
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अध्यात्मसार:
॥५॥
कीदृशः ? बहुरूपभागिति अत एव बहूनि रूपाणि-शरीराणि भजते इति बहुरूपभाक् , नानाकायविशिष्टइत्यर्थः, तथा च फणिमणिधरफणप्रान्तेषु श्रीपाश्वनाथशरीरस्य प्रतिबिम्बनाव कविरुत्प्रेक्षते, जाने श्रीपार्श्वः करुणावरुणालय एकदा-युगपद् विश्वानि-जगन्ति, उद्धत्तु मुपकत्तु मिव बहुरूपभागिति । यथा समवसरणस्थश्चतुर्मुखतां दधज्जिनो भगवान् युगपच्चतुर्दिकस्थसंसारिजीवोद्धारकरणचतुरो भवति तथाऽत्रापि यत एकेन रूपेणेकं जगदुद्धारविषयकं तथा बहुभीरूपैविश्वानि, उद्धारविषयकाणि कथं न भवेयुरिति ?॥४॥
__श्री महावीरप्रभुस्तुतिः जगदानन्दनः स्वामी, जयति ज्ञातनन्दनः। उपजीवन्ति यद्राव-मद्यापि विबुधाः सुधाम् ॥५॥ ___टीका-स्वामी ज्ञातनन्दनो जयतीति सण्टङ्गः, अर्थाद् वर्धमानो भगवान् सर्वोत्कर्षेण वर्त्तते, सकीदृशो ज्ञातनन्दनः १ जगदानन्दनः जगद्-विश्वमानन्दयतीति, द्रव्यभावदानेन वाञ्छितदानेन चोन्नति नयतीत्यर्थः, विना तीर्थङ्करं नान्यःकश्चित् सत्यार्थतया त्रिभुवनं प्रीणयितु प्रभवति, तत्र हेतुमाहअद्यापि-महावीरशासनसाम्राज्यविशिष्टवर्तमानकालेऽपि कलिकालेऽपि, विबुधाः-देवा इव विविक्तप्रतिभाप्रपन्नाः, पुरुषपुङ्गवाः, सुधामिव पीयूषवत् , शान्तरसाऽऽस्वादमयीं, यद्वाचं यस्य-ज्ञातनन्दनस्य वाचं-वर्धमानवदनाऽरविन्दतो निःसृतामर्थरूपां तदीयगणधरेन्द्रेण रचितां सूत्ररूपां-जिनागमाऽभिधां,
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अध्यात्मसार:
विबुधाः आचार्यादयो गीतार्थाः, उपजीवन्ति-जीवन्तीं कुर्वते, अर्थात् स्वकीयजीवने वीरवाणीमुत्तार्य-आराध्य, जीवजीवनेन जीवन्ति, जीवन्मुक्ता इव भवन्ति, परेभ्योऽपि ददतीत्यपि समीचीनोऽर्थो यतो वीरवाणीसुधां स्वयं पिबन्ति, परानपि देशनादिसाधनद्वारा पाययन्तीति उपजीवनसारांशः॥५॥
मङ्गलाचरणपूर्वकमध्यात्मसारस्य प्रकटनम्एतानन्यानपि जिनान्नमस्कृत्य गुरूनपि । अध्यात्मसारमधुना प्रकटीकर्तु मुत्सहे ॥६॥
टीकाः ‘एतानि ति नामग्राहं गृहीतान् पञ्च तीर्थङ्करान् , 'अन्यानपि जिनानि' ति, गुणवत्तया समानानन्यानजितादीन जिनान् , 'गुरूनपी'ति गुरुगुणसम्पन्नान् गौतमादीन् सर्वान् गुरून् 'नमस्कृत्येति मावमङ्गलत्वेन नमस्कार्यतया समानान् सर्वजिनान् सर्वगुरूंश्च हृदि निधाय, 'अधुने' त्यनन्तरं, अन्वर्थनामकं 'अध्यात्मसारं [अध्यात्ममेव सारं-श्रेष्ठं निष्कर्षो वा यत्र तच्छास्त्र] 'प्रकटीकतु मुत्सहे' प्रादुष्कत्तुं महोपाध्यायन्यायाचार्ययशोविजयाभिधानोऽहमपूर्ववीर्योचासवानस्मीत्यर्थः ॥६॥
त्रिभिःकारणैः परिचितापूर्वप्रक्रियाया:प्रादुष्करणम् शास्त्रात् परिचितां सम्यक्सम्प्रदायाच्च धीमताम् । इहानुभवयोगाच्च प्रक्रियां कामपि ब्रुवे ॥७॥
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अध्यात्म
सारः
टीका:-प्रक्रिया कामपि ब्रुवे अद्भतां संक्षिप्तां वाऽध्यात्मसारख्या प्रक्रिया-प्रकरणं ब्रवे-वक्ष्यामीत्यर्थः, कीदृशीं प्रकियां ब्रुवे ? इति चेदाह 'शास्त्रात सम्यक् परिचिता' मिति, 'शास्त्रादिति, 'शासनात् त्राणशक्तेश्च बुधैः शास्त्र निरुज्यते वचनं वीतरागस्य तत्तु नान्यस्य कस्यचिदित्यादिनिरुक्तलक्षणविशिष्टशास्त्रात 'सम्यगि' ति सम्पूर्णतया परिचयविषयीकृतामित्यर्थः, पु० की. प्रक्रियां ब्रुवे ? इति चेदाह 'धीमतां सम्प्रदायाच्चेति गीतार्थानामनुयोगधराणामाम्नायाच्च 'स्यात् पारंपर्यमाम्नायः सम्प्रदायो गुरुक्रमः' इत्यभिधानकोशोक्तः, परिचितामित्यर्थः, पु० की. प्र. ब्रुवे ? इति चेदाह, 'इहानुभवयोगाच्चेति, इह-जैनशासने, अध्यात्मविषये वा स्वात्मनिष्ठतात्पर्यजन्यबोधस्वारस्यरूपाऽनुभवयोगान् परिचितामित्यर्थः ॥७॥
योगिनीतिप्रदं पद्यमध्यात्माऽमृतमयं भवति-- योगिनां प्रीतये पद्यमध्यात्मरसपेशलम् ।
भोगिनां भामिनीगीतं, सङ्गीतकमयं यथा ॥८॥ टीका:-'यथा भोगिनामिति' भोगोपभोगशालिना [उपभुज्यते-पौनःपुन्येन सेव्यत इत्युपभोगोभवनवसनवनितादिः, परिभुज्यते-सकृदासेव्यते इति परिभोगः-आहारकुसुमविलेपनादिः, व्यत्ययोवा व्या
॥७॥
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अध्यात्म
सारः
॥८॥
ख्येय इति उ०६० सू० अ०टी०] एवं परिभोगोपभोगवतामप्यर्थात कामभोगादिविषयरसरसिकाना, 'सङ्गीतकमयं' रासादिसहितं नृत्यवाद्यादिसहितं 'भामिनीगीतं'-कामिनीनां गानं 'प्रीतये' आनन्दफलप्रदं भवति, तथा 'योगिनां योगवतां (मोक्षोपायो योगो ज्ञान-श्रद्धानचरणात्मकः) इत्यभिधानकोशप्रतिपादितयोगार्थशालिनामित्यर्थः । 'मोक्षेण सहयोजनाद्योगः' इत्यभियुक्तोक्तेः, मोक्षयोजकसामग्रीसहितयोगलग्नानां 'अध्यात्मरसपेशलं, वैराग्यशान्तरसादिनानाविधात्मगुणाऽनुभवरसरुचिरं 'पद्यंप्रीतये'काव्यरचनामयं पद्यं महानन्दाय भवतीति ॥८॥ वैषयिकसुखाध्यात्मिकसुखयोर्महदन्तम्
कान्ताऽधरसुधाऽऽस्वादाद यूनां यज्जायते सुखम् ।
बिन्दुः पार्वे तदध्यात्म-शास्त्राऽऽस्वादसुखोदधेः ॥१॥ टीकाः-'यूनामिति-युवाऽवस्थावता कामरसलम्पटाना ‘कान्ताऽधरसुधाऽऽस्वादादिति-कविकल्पनाऽपेक्षया, कान्तायाः-प्रियतमायाः, 'अधरसुधायाः-अधःस्थौष्ठचुम्बनरूपसुधाया आस्वादाद् य आनन्दो जायते तदध्यात्मशास्त्रास्वादसुखोदधेः पावें विन्दुरिति-तत कामसुखं, आत्मस्वरूपपरिचायकशास्त्रार्थपरिणमनजन्यप्रशमसुखसागरस्य समीपे बिन्दुरूपं वैषयिक सुखं क्य, सागररूपमाध्यात्मिकं सुखं
॥८
॥
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अध्यात्म
सारः
॥९॥
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क्व, इति द्वयोरन्तरं महद् भूतलाकाशयोरिव किञ्चाssध्यात्मिकं सुखं सर्वस्मिन् काले ज्ञानिभिः स्वतन्त्र - तया निर्भयतयाऽऽत्मन्यात्मनाऽनुभूयतेऽतः सत्यं नित्यं तत्प्रति सदादृष्टि देया, न पुनः पराधीने क्षयिणि समये पौद्गलिके पशुक्रियारूपे सुखाभासे विषयसुखे कदाचिदपि दृष्टिर्देयेति सूच्यते ० ॥९॥ आध्यात्मिक सुखशाली महावैषयिकसुखशालिनं न गणयत्येवश्रध्यात्मशास्त्रसम्भूत-सन्तोषसुख शालिनो । गणयन्ति न राजानं, न श्रीदं नाऽपि वासवम् | १० | टीकाः - अध्यात्मशास्त्रसम्भूतसन्तोषसुखशालिनः' इति = आत्मस्वरूपनिरूपकशाखाभ्यासादिद्वारा तत्सुपरिचयजन्यपरमसन्तोपसु खवन्तो मुनयः, पुण्यद्वारा कोऽपि मनोज्ञः पुद्गल आगतस्तत्र न कोऽपि हर्षोत्कर्षः, स न मदीयोऽपि तु परकीय एवेति संवेदनात् पापोदयद्वारा कोऽपि, चारुपुद्गलो गतोऽथवाऽमनोज्ञः प्राप्तस्तत्र नार्त्तध्यानं, पापविपाकस्य समतया सहनात् पापाऽपगमो भविष्यतीति संवेदनात् इत्यादिका - ध्यात्मशास्त्र शिक्षण जाताऽत्यन्त शान्तिसुखधारिणः, 'गणयन्ति न राजानं न श्रीदं नाऽपि वासवमिति =न राजानं गणयन्ति अर्थात् स्वसुखस्याग्रतः कश्चक्रवर्तितुल्यो भूपतिर्यतो राजाऽप्यसन्तुष्टः, 'न श्रीदं कुबेरं गणयन्ति - अर्थाद्मत्सन्तोषसुखस्याग्रतः कः श्रीदः १ यतः स वाह्यश्रियाऽऽश्रितोऽपि स्वात्मश्रिया विनाकृतः, 'नाऽपि गणयन्ति वासवमिति मम सन्तोषशमसुखिनोऽग्रतः को देवेन्द्रः १ यतो देवानां स्वाम्यपि विषयाशाया दास इति मन्यन्ते ॥ १० ॥
,
॥ ९ ॥
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अध्यात्म
सारः
112011
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शिक्षिताऽध्यात्मशास्त्र: पण्डितो नान्यः - यः किलाशिक्षिताऽध्यात्मशास्त्रः पाण्डित्यमिच्छति । उत्क्षिपत्यङगुलीं पङ्गुः स स्वद्रुमफलेप्सया ||११||
टीकाः - अध्यात्मशास्त्राऽध्ययन शिक्षणशून्यो यः कश्चित् पाण्डित्यमिच्छति स किल पङ्गुः- चरणशक्तिविकलः कल्पवृक्षफलजिघृक्षयाऽङ्गुलीमुत् क्षिपति - ऊर्द्ध वां करोति तथा चाध्यात्मशास्त्रशिक्षण जन्यत - वान्तशाली यः कश्चित् तत्त्वानुगपण्डानामकप्रतिमाप्रगल्भतो भवति, स चरणशक्तिमानिव स्वद्रुमफलेछया कृतेन प्रयत्नेन फलवान् भवतीति ॥ ११॥
अध्य|मशास्त्रस्य गुणा:
दम्भपर्वतदम्भोलिः, सौहार्दाम्बुधिचन्द्रमाः ।
अध्यात्मशास्त्रमुत्ताल- मोहजालवनानलः
॥१२॥
टीका दम्भपर्वत दम्भोलिरिति = मायारूपपर्वतस्य भञ्जने वज्रिवज्रसमानमध्यात्मशास्त्रम्, 'सौहार्दाऽम्बुधिजन्द्रमा' इति = सुहृद्भावरूपसमुद्रमुत्तरङ्गीकर्तुं शशिसमानमध्यात्मशास्त्रम्, 'उत्तालमोहजालवना. ऽनलः' इति महाभयङ्करमोहवासनारूपेन्द्रजालसदृशवनं ( मोहरूपनवकालिका समुदायात्मकं वनं ) दग्धुमग्निसमानमध्यात्मशास्त्रं - आत्मस्वरूपशास्त्रीयं ज्ञानं सन्तिष्ठते एवेति ॥ १२ ॥
॥१०॥
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अध्यात्म
सार
॥१२॥
अध्यात्मशास्त्रस्य स्वराज्ये शिवाभाव:अध्वा धर्मस्य सुस्थः स्यात्, पापचौरः पलायते ।
अध्यात्मशास्त्रसोराज्ये, न स्यात्कश्चिदुपप्लवः ॥१३|| टीका:-अध्यात्मशास्त्रमौराज्ये' इति आत्मविषयकशास्त्रस्य न्यायसम्पन्नसम्यग् राज्ये (स्वराज्यत्वे स्वसत्तायांवा) ये केचिद् वसन्ति तेषां 'अन्वा धर्मस्य सुस्थः स्यादिति-धर्मस्य मार्गों निर्भयोऽथवा सर्वथासर्वव्यवस्थास्वस्थतासम्यन्नो भवति, 'पापचौरः पलायते'-सर्वाशुभकर्मरूपलुण्टाकः पलायनं कुरुते , अर्थाद् धर्ममार्गसुस्थतया पापचौरपलायनतः, अध्यात्मशास्त्रसौराज्यस्थितानां महात्मनां 'न कश्चिदुयप्लवः स्या' दिति-आधिव्याध्युपध्यादिरूपोपद्रवमात्रस्याऽभावः स्यादिति ॥१३॥
- तत्त्वपरिणतज्ञानिनां सर्वक्लेशाऽभावःयेषामध्यात्मशास्त्रार्थ-तत्त्वं परिणतं हृदि ।
कषायविषयावेश कलेशस्तेषां न कहिंचिद् ।।१४।। टीकाः-येषां हृदि अध्यात्मशास्त्रार्थतत्त्वं परिणतमिति येषामन्तरात्मनां स्वयावदात्मप्रदेशावच्छेदेनऽऽत्मस्वरूपनिर्वाचकशास्त्रप्रतिपादितार्थतात्पर्य परिणामरूपेणस्थितम् , 'तेषां कर्हिचिन कषायविषयावेश
॥११॥
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अध्यात्मसार:
॥१२॥
क्लेशः' इति तेषां-महात्मनां क्रोधादिकषायस्य, शब्दादिविषयस्य च, आवेशः तीब्रोदयस्तस्य क्लेश:सन्तापो न कदाचिद् भवत्येव, अत्रात्मतत्त्वपरिणतिरतिरेवाऽवधार्येति व्यज्यते ॥१४॥
आत्मशास्त्रज्ञानकृपया कामचण्डालपीडापरिहार:निर्दयः कामचराडालः पण्डितानपि पीडयेत् ।
यदि नाऽध्यात्मशास्रार्थ-बोधयोधकृपा भवेत् ॥१५॥ टीकाः- 'यदि नाध्यात्मशास्रर्थबोधयोधकृपाभवेदिति-आत्मतत्त्वप्रतिपादकशास्त्रप्रतिपाद्याऽर्थविषयकयोधरूपयोधस्य कृपा प्रमादो न भवेत्तदा 'निर्दयः कामचण्डालः पण्डितानपि पीडये' दिति-चतुर्दशविद्यासकलश्रुतसागरपारङ्गतान् धुरन्धरान् पण्डितान् तत्त्वानुगामिमतिरूपपण्डामण्डितान् अपि अन्येषां तु का कथा ! इति, निर्दयः कामचण्डाला-क्रूरकर्मकारित्वेन निर्दयः, वेदनामकमोहनीयकर्मोदयरूपः कामः, स एव चण्डालः, यतश्चण्डा लतुन्यनीचातिनीचकार्यकारी भवति, ततो निर्दयः कामचण्डालः, पीडयेत् नरकादिदुर्गतौ पीडयेत्-पीडितान कुर्यात् पीलयेद्वेति-चतुर्गतिरूपयन्त्रे मोहिजनांश्चूर्णयेत् । अतोऽध्यात्मज्ञानं, अतीवाऽतीव सर्वदावर्धनीयमन्यथा क्रूरनीचकामचण्डालविषाक्तदृष्ट्या जडज्ञानिनो महामञ्छिताः क्रियन्ते इति धन्यते ॥१५॥
॥१२॥
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अध्यात्म
सार:
1॥१३॥
अध्यात्मज्ञानद्वारा विषयतृष्णाया उच्छेदःविषवल्लीसमा तृष्णां वर्धमानां मनोवने ।
अध्यात्मशास्त्रदात्रेण, छिन्दन्ति परमर्षयः ॥१६॥ टोकाः-परमर्षयः' इति-ऋषिषु चक्रवर्तिनः, 'मनोवने वर्धमानामिति-मन एव वनं, तस्मिन्हृदयरूपोपवने वृद्धि लभमानां, विषवल्लीसमा तृष्णामिति-विपलतासदृशीं विषमविकारवर्धिनी कामभोगादिविषमयाऽऽशां 'अध्यात्मशास्त्रदात्रेणेति-चलवदात्मशास्त्रजन्यतीक्ष्णबोधरूपदात्रेण, 'छिन्दन्तीति-विच्छेदक्रियाविषयां कुर्वन्तीति, अर्थात् कदाचिदपि पुनरुत्थानं न लभेतेति कुर्वन्ति ।।१६॥
___कलिकालेऽध्यात्मवाङ्मयं दूर्लभम्वने वेश्म धनं दौस्थ्ये, तेजो ध्वान्ते जलं महौ ।
दुरापमाप्यते धन्यैः, कलावध्यात्मवाड्मयम् ॥१७॥ टीकाः-'वने वेश्म दुरापमिति-गहनवने गच्छतां मार्गतो भ्रष्टानां यथा गृह दुर्लभम् , 'तेजो धान्ते' इति यथाऽसितपक्षीयरजन्यां घोरतमसि प्रकाशकं तेजो दुर्लभम् , 'जलंमरौ' इति-म्रियते जलेनविना यत्र स मरुः, तस्मिन् , यथा मरुदेशे जलं दुर्लभम् , तथा 'धन्यैः कलौ दुरापमध्यात्मवाङ्मयमा
॥१॥
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Tad प्यते' इति-पृण्यानुबन्धिपुण्यशालिभिः, कलिकाले, आत्मविषयनिरूपकं शास्त्रं दुर्लभं लभ्यते; ॥१७॥ अध्यात्म
अध्यात्मशास्त्रवेत्तुरेव रसानुभवः सारः
वेदाऽन्यशास्त्रवित् क्लेशं, रसमध्यात्मशास्त्रवित् ।
भाग्यमृद् भोगमाप्नोति, वहते चन्दनं खरः ॥१८॥ ॥१४॥
अन्यशास्त्रविदिति--आत्मशास्त्रभिन्नाऽन्यशास्त्रविद् , 'क्लेशंवेदेति-रसविरुद्धचित्तक्लेशं वेत्त्यनु भवति, 'अध्यात्मशास्त्रविदिति आत्मतत्वविधायकशास्त्रपरिशीलनकारी 'वेदेति-अपरिमेयरसराजरूपशान्तरसमनुमवत्येव, विश्वेऽस्मिन्नेतादृश एव न्यायो विज़म्मजे यथा 'वहते चन्दनं खरः' इति-रासभश्चन्दनकाष्ठमारमुत्पाटयति परन्तु 'भाग्यभृद् भोगमाप्नोतीति-भाग्यसम्भारमास्वरः पुरुषपुङ्गव एव चन्दनविलेएनादिभोगं लभते, अत्र शान्तरसलालसान्वितैरध्यात्मशास्त्राध्ययनरसिकेरनलसैः सदा स्थातव्यमिति व्यज्यते ॥१८॥
अध्यात्मशास्त्रिणां भाषणेऽप्यविकार:भुजाऽऽस्फालनहस्ताऽऽस्य-विकाराऽभिनयाः परे । अध्यात्मशास्त्रविज्ञास्तु वदन्त्यविकृतेक्षणाः ॥१||
॥१४॥
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क
टीका:-'परे' इति-अध्यात्मशास्त्रविरहेण भाषणपरायणाः, 'भुजाऽऽस्फालनहस्ताऽऽस्यविकाराऽअध्यात्म-रा मिनयाः' इति-भुजाया आस्फालनेन, हस्ताऽङ्गुल्यायवथवानां ऊर्ध्वाधः करणद्वारा, हास्यादिसहिता सारः मुखेन, विकारसूचकाः येऽमिनयास्तद्वन्तोऽन्ये भवन्ति परन्तु 'अध्यात्मशास्त्रविज्ञास्तु' इति आत्मतत्त्व
रहस्याऽभिप्रायकज्ञानसम्पत् समन्वितास्तु ‘अविकृतेक्षणा वदन्तीति-चाक्षुषविकारांशविरहिताः सन्त एव माषन्ते, अत्र निपीताऽध्यात्मपीयुषा महात्मानोऽङ्गप्रत्यङ्गविकाराभिनयं विना स्वीयरुचिरहृदयङ्गमनैसर्गिक शेल्या एतादृशीं भारतीजाह्मवीं प्रवाहयन्ति यथा श्रोतारस्तद् गङ्गाजलेन पावनेन प्लाविता अमृतस्नाता इवाऽमन्दानन्दमेदुराः सन्तः प्रभाविता न तद्गिरं कदापि विस्मरन्तीति धन्यते ॥१९॥
अध्यात्मज्ञानिनामागमसागरात् सद्गुणरत्नसम्प्राप्तिः
अध्यात्मशास्त्रहेमाद्रि- मथितादागमोदधेः ।
भूयांसि गुणरत्नानि, प्राप्यन्ते विबुधै न किम् ॥२०॥ 'अध्यात्मशास्त्र हेमाद्रिमथितादिति-अध्यात्मशास्त्ररूपसुवर्णाचलेन दण्डरूपेण मन्थनविषयीकृतात् 'आगमोदधे' रिति=सदागमरूपसागरात् , 'भूयासि गुणरत्नानि प्राप्यन्ते विबुधैर्न किमि'ति-बहूनि
॥१५||
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अध्यात्मसार:
॥१६॥
विविधानि दर्शनादिरूपगुणरत्नानि, देवैरिव पण्डितैः किं न लभ्यन्ते ? अपितु प्राप्यन्त एव, पुराणेषु ।। श्रूयते येकदा स्वर्गिभिः सागरो मथितस्तत्र मेरु मन्थानदण्डं विधाय तद्दण्डं नागराजवासुकिना बद्ध्वा मन्थनमारब्धं सम्यङ्मथनाऽनन्तरं चतुर्दशमहारत्नानि प्रादुर्भूतानि च गृहीतानीति, तद्वद् विबुधा अप्येवं कुर्वन्ति, अध्यात्मशास्त्रमेरुणाऽऽगमसागरं मध्नन्ति, तदनन्तरं तेऽप्यनन्तकल्याणकारिगुणरत्नानि किं न प्राप्नुवन्ति ? अपि तु प्राप्नुवन्त्येवेति ॥२०॥
अध्यात्मशास्त्रसेवाजन्यो रसो निरवधिरेषरसो भोगाऽवधिः कामे. सद भक्ष्ये भोजनाऽवधिः ।
अध्यात्मशास्त्रसेवायां रसो निरवधिः पुनः ॥२१॥ विश्वेऽस्मिन् जगज्जनानां त्रिविधो रसो भवति, तत्र रसद्वयं साऽवधिक, एको सो निरवधिकः, प्रथमं क्षणिकमावेदयनि, 'रसो भोगाऽवधिः कामे' इति कामभोगविषयको रस-आनन्दः, भोगावधि भोगपर्यन्तस्तस्यान्तोऽत्यन्ताऽसमाध्युवेगादिदुःखराशिदो भवति 'सद् भक्ष्ये रसो भोजनावधिः' इति=
।।१६।। स्वादुतमसुरभिमिष्टान्नपक्यान्नरूपचारुभक्ष्यभोज्यपदार्थविषयको रसो यावद् भोजनमर्थाद्गलास्कव
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अध्यात्मसार:
लोऽधस्तादुत्तीर्णोऽनन्तरं पङ्के पङ्कः पतित इवात्यन्तक्षणिकोऽयं रसस्तत्र को मोहो यतो दुःखप्रतिकाररूपायां क्रियायां सुखाऽऽभासरूपो मिथ्यारसोऽस्तीति, 'अध्यात्मशास्रसेवायां रसो निरवधिः पुनः' इति आत्मतत्चनिदर्शकशास्त्रस्याऽध्ययनमननचिन्तनपरिशीलनादिरूपसेवायामाराधनायां प्रशमादिजन्याऽऽत्मिकरस आनन्दोऽनन्तादिरूपनिरवधिको निरुपाधिको भवति, अतोऽध्यात्मशास्त्रं सातत्येन सेवनीयं यतः परमानन्दोऽवश्यं भवत्येवेति ॥२१॥
___ अध्यात्मशास्त्रं भावनेत्राऽञ्जनसमानम् कुतर्कग्रन्थसर्वस्व- गर्वज्वरविकारिणी ।
एति हग निर्मलीभाव-मध्यात्मग्रन्थभेषजात् ॥२२॥ ___ कुतर्कग्रन्थसर्वस्वगर्वज्वरविकारिणीति-कुत्सिततर्कयुक्तिमतो ग्रन्थस्याध्ययनस्य सर्वस्वभूत गर्वरूपज्वरविकारवती,
'दृगिति-आभ्यन्तरकुदृष्टिरूपमिध्यादृष्टिः, 'अध्यात्मग्रन्थभेषजादिति-आत्मतत्त्वबोधकसुयुक्तिमद्- ग्रन्थाऽञ्जनरूपभेषजात् , निर्मलीभावमेतीति सहजमलमोहदोषविरहप्रयुक्तशुद्धतां प्राप्नोति, शुद्धसम्यग् । दृष्टिमानात्मा भवतीति ॥२२॥
१७॥
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अध्यात्मसारः
॥१८॥
अध्यात्मवर्जितशास्त्रं संसारवर्धकं भवतिधनिनां पुत्रदारादि, यथा संसारवृद्धये ।
तथा पाण्डित्यहप्तानां, शास्त्रमध्यात्मवर्जितम् ॥२३॥ ___ 'धनिनां पुत्रदारादि यथासंसारवृद्धये' इति यथा समृद्धिशालिनां पुत्रश्व दाराश्चादिना शरीरपरीवारयोवनप्रभुतासांसारिकसुखसाधनसामग्रीमानं च, 'यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता, एकैकमायनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्' इति श्लोकोक्तिवदनाय-संसारस्य वृद्धये भवति, 'तथा पाण्डित्यदृप्तानामध्यात्मवर्जितं शास्त्र' मिति तथा मिथ्यात्वदशायां पण्डितत्वमदमत्तात्महितकारितत्त्वविधायकताशून्यं शास्त्रं, भीषणचातुर्गतिकरूपानन्तजन्मजरामरणादिदुःखप्रचुरसंसारचक्रस्य वृद्धये भवति, 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयन' मिति श्लोकोक्तिवत् पुनः पुनर्जन्मादिचक्रं दुरन्तं वर्धते ॥२३॥
अध्यात्मशास्त्राध्ययनसंस्कारतदर्थानुष्ठानादिषु सत्प्रेरणाधोषणा
अध्येतव्यं तदध्यात्म-शास्त्रं भाव्यं पुनः पुनः । अनुष्ठेयस्तदर्थश्च, देयो योग्यस्य कस्यचित् ॥२४॥
॥१८॥
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अध्यात्म
'तदध्यात्मशास्त्रं पुनः पुनरध्येतव्यं भाव्यमिति-तस्मात्कारणाद् भृयोभ्य आत्महितप्रदं शास्त्र, अभ्यासविषयीकर्तव्यं, मनसि भावना-संस्कारविषयीकर्तव्यं, 'अनुप्ठेयस्तदर्थश्चेति=किश्च शब्दरूपाऽ. ध्यात्मशास्त्राध्ययनभावनादिद्वारा लब्धतात्पर्यरूपोऽर्थः (आत्मपरिणतिरूपोऽर्थोऽपि) आचारविषयीकर्त्तव्योऽर्थात स्वजीवनसात् कर्तव्यो 'देयो योग्यस्य कस्यचिदिति यतो यादृशतादृशजनस्य प्रदानान्महती हानिरुभयत्र भवतीति ।।२४॥
सारः
इत्याचार्य श्रीमद्विजय लम्धिसूरीश्वरपट्टधर भुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरम,करसूरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे
भुवनतिलकाख्यायां टीकायामभ्यात्ममाहात्म्यनामकः प्रथमोऽधिकार. समाप्तः ।
॥१९॥
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अध्यात्म
सार:
॥२०॥
द्वितीयोऽधिकारोऽध्यात्मस्वरूपनामकःप्रभो? प्रथमाऽधिकारे भवद्भिः कथितं फलरूपमध्यात्ममाहात्म्यं सुचारुरूपेणाऽवगतमपि तु स्विरूपं तावदध्यात्ममिति विशेषतो जिज्ञासा जागति, यतः फलस्वरूपहेतुत्रयविज्ञानादेकस्मिन्नपि साध्ये कार्य सम्पूर्णोत्साहेन प्रयत्नो विधीयतेऽतस्तज्जिज्ञासोपशान्तये गुरुशिष्यप्रकारः प्रश्नोत्तररूपः प्रथमः श्लोकः प्रतन्यते ।।
भगवन् किं तदध्यात्म, 'यदित्थमुपवर्यते ।
शृणु वत्स ! यथाशास्त्र, वर्णयामि पुरस्तव ॥१॥ 'भगवन् यदित्थमुपवर्ण्यते तदध्यात्म किमिति-हे पूज्य ! एतादृशमनीदृशमध्यात्ममाहात्म्यं भवद्भिः स्तृयते तदध्यात्म किं ? अर्थात् किं क्रियामात्रलक्षणं? किं ज्ञानमात्र लक्षणं? किं ज्ञानक्रियोभयलक्षणं ? किंवाऽन्यलक्षणं कथ्यते ? तभिरुच्यतां कृपया, 'वत्स ! शणु यथाशास्त्रं वर्णयामि पुरस्तवे'ति-हे जिज्ञासो। शिष्य ! कर्ण दत्वा श्रवणोत्सुको भव तवाऽग्रतोऽहं शास्त्रमनतिक्रम्य तदध्यास्मस्वरूपं कथयन्नस्मीति ॥२५॥
___ अध्यात्मस्वरूपनिर्णय:-- गतमोहाधिकाराणा-मात्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा, तदध्यात्म जग जिनाः ॥२॥
||२
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अध्यात्मसार
॥२१॥
'आत्मानमधिकृत्येति सच्चिदानन्दमयमात्मानमुद्दिश्य-लक्ष्यीकृत्य या शुद्धा='यस्मात् क्रियाःप्रति. फलन्ति न भावशून्याः' इति वचनाद् भावशुद्धिमपेक्ष्याऽथवा 'वचनसापेशव्यवहारसाचो कह्यो इत्यानन्द धनमहर्षिवचनाज्जिनवचनसापेक्षसत्यव्यवहारशुद्धिमपेक्ष्य शुद्धा, 'गतमोहाधिकारणामिति-गतो मोहस्याधिकारः-सत्ता येषां, तेषां विनष्टमोहमहाराजसत्चाकानां मन्दीभूतमोहबलवजनानां वाऽऽत्माधिकारप्रविष्टाना 'प्रवर्त्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्म जगुर्जिनाः' इति-पूर्वोक्तस्वरूपा शुद्धा क्रिया प्रवर्त्तमाना यदा भवति, तदध्यात्मं, जिनाः कथयन्ति स्म तथाच गतमोहाधिकारकपुरुषककात्मोद्देशकज्ञानभावादिप्रयुक्तक्रियावत्वं भावाऽध्यात्मलक्षणमायातमिति ।।२।।
सर्वेषु योगेष्वध्यात्मतत्त्वव्यापकता वर्तते सामायिकं यथा सर्वचारित्रेष्वनुवृत्तिमत् ।
अध्यात्म सर्वयोगेषु, तथाऽनुगतमिष्यते ॥३॥ यया सामायिक सर्वचारित्रेष्वनुवृत्तिमदिति सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातादिसर्वचारित्रभेदेषु यथा सामायिकमनुवृत्तिमद्-व्याप्तिमद् भवति, 'तथा सर्वयोगेष्वध्यात्ममनुगतमिष्यते' इति तथा मोक्षोपायभूतेषु सर्वेषु भेदप्रभेदमिन्नेषु योगेषु, अध्यात्ममनुगत-मालायां गुणवदनुस्यूतं व्याप्तं मन्यते इति ॥३॥
रा ॥२१॥
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अध्यात्म सारः
॥२२॥
सर्वगुणस्थानेष्वध्यात्ममयक्रियाया व्यापकता अपुनर्बन्धकाद् यावद्, गुणस्थानं चतुर्दशम् ।
क्रमशुद्धिमती तावत् . क्रियाऽध्यात्ममयी मता ॥१॥ ___ 'अपुनर्बन्धकाद् यावद् गुणस्थानं चतुर्दशमिति प्रथमगुणस्थानकीया पुनर्बन्धकदशात आरम्य
चतुर्दशगुणस्थानपर्यन्ता यावती धार्मिकी क्रिया विद्यते सोत्तरोत्तरमधिकाऽधिकं विशुद्धथमाना तावती * क्रमतः शुद्धिविशिष्टा क्रियाऽध्यात्मप्राचुर्यवत्वेन सर्वथाऽभीष्टा-सर्वशिष्टपुरुषपुङ्गवैः सम्मता ॥४॥
का कोदशी केन वा कृता क्रियाऽध्यात्मवैरिणी भवति तस्या निरूपणम्
आहारोपधिपूजर्द्धि-गौरवप्रतिबन्धतः ।
भवाभिभिनंदी यां कुर्यात् क्रियां साऽध्यात्मवैरिणी ॥५॥ 'भवाभिनन्दी या क्रियामाहारोपधिपूजद्धिंगौरवप्रतिबन्धतः कुर्यादि'ति-वक्ष्यमाणस्वरूपो भवाऽमिनन्दी विचित्रजीवः, 'आहारतः'-मद्भक्ष्यभोजनरसाऽऽसक्तितः, 'उपधितः'वस्त्रपात्रादिरूपोपधिमृतिः, 'पृजातः सन्मानसत्कारादिपूजाबुद्धितः, 'ऋद्धितः' 'द्धितः =आमोषधीप्रभतिलब्धिऋद्धीनां
॥२२॥
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मदतः, ऋद्धिरससातरूपगौरवत्रयस्य प्रतिवन्धतः-ममत्वतः या क्रियां कुर्यात 'साऽध्यात्मवैरिणी' ति= अध्यात्मस्वरूपमात्रप्रतिबन्धिकोच्यते, भवामिनन्दिना भौतिकसुखकाम्यया बाह्याचाररूपा धार्मिक क्रियाऽपि क्रियमाणाऽध्यात्म नियमतःप्रतिवघ्नात्येव ।।५।।
अध्यात्म
सारः
॥२३॥
भवाऽभिनन्दिनः स्वरूपम् क्षुद्रो लोभरतिदींनो, मत्सरी भयवान् शटः ।
अज्ञो भवाभिनन्दी स्यानिष्फलारम्भसङ्गतः ॥६॥ 'क्ष'अगम्भीरताकृपणतासंकुचितताऽऽदिदोषदुष्टः, 'लोमरतिः' सांसारिकसुखतत्सामग्रीमात्रविषयकाऽसंतोषसंयुतः, 'दीन: इष्टस्याऽप्राप्तित इष्टवियोगतश्च दीनतासम्पन्नः, 'मत्सरी अन्यस्य शुभंदृष्ट्वा हृदयदाहदग्धः, 'भयवान्' पापाचारतो निरन्तरं भयशङ्काव्याप्तः, 'शठः'मायाकरणपटुः, 'अज्ञः' मोर्व्यतो बालिशः, 'निष्फलारम्भसङ्गतः =कुतत्त्वविषयकाग्रहबलेन निष्फलक्रियासु सर्वधा लग्नो यो भवति स भवाऽभिनन्दी-भवं निसर्गनिःसारमपि मिष्टानादिललनादिभोगोपभोगाभ्यां सारभूत मन्यमानस्तत्रैव रसिकतया रममाणो भवाऽभिन्दी कथ्यते ॥६॥
॥२३॥
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अध्यात्मसार:
॥२४॥
अध्यात्मगुणस्य वृद्धिकारिका क्रिया शान्तो दान्तः सदा गुप्तो, मोक्षार्थी विश्ववत्सलः ।
निर्दम्भां यां क्रियां कुर्यात् साऽध्यात्मगुणवृद्धये ॥७॥ 'शान्तः क्रोधादिमोहेनाऽसंस्पृष्टः, 'दान्तः' इन्द्रियादिजन्यविषयैरपराजितः, 'सदागुप्तः =सुरक्षितयोगत्रयो वा गुप्तित्रयाऽन्वितः, 'विश्ववत्सल' विश्ववर्जिजीवमात्र प्रति वात्सल्यपरिपूतः, 'मोक्षार्थी' मुक्तिमात्रप्रयोजनवानन्तरात्मा, यां दम्भरहिता क्रियां कुर्यात् साऽध्यात्मनामकगुणस्य वृद्धिकारिका भवेदिति ॥७॥
क्रमशो दर्यमानाऽध्यात्मक्रियाया असङ्ख्यकर्मनिर्जराकारित्वम्
श्रत एव जनः टच्छोत्पन्नसंज्ञः पिपृच्छिषुः । साधुपावं जिगमिषु धर्म पृच्छन् क्रियास्थितः ॥८॥ प्रतिपित्सुः सृजन पूर्व, प्रतिपन्नश्च दर्शनम् । श्राद्धो यतिश्च त्रिविधोऽनन्तांशक्षपकस्तथा ॥१॥
॥२४॥
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अध्यात्म
सारः
॥२५॥
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मोक्षपको मोह - शमकः शान्तमोहकः क्षपकः क्षीणमोहश्च, जिनोऽयोगी च केवली ॥१०॥ यथा क्रमममी प्रोक्ता श्रसङ्ख्यगुणनिर्जराः । यतितव्यमतोऽध्यात्म-वृद्धये कलयाऽपि हि ॥११॥
‘अतएव जनः' = अध्यात्मक्रियात वृद्धिहेतुतत्प्रतिबन्धकादिनिरूपणाऽनन्तरमेवाऽध्यात्मरुचिर्जनः, सम्यग्दर्शनप्राप्तिरूपप्रथमगुणश्रेण्या अवान्तरभेदरूपाः सप्ताऽध्यात्मक्रिया दर्श्यन्ते, तदनन्तरं देशविरति - रूपद्वितीयगुणश्रेण्या अवान्तरविभागरूपास्तिस्रोऽध्यात्मक्रिया दर्श्यन्ते, एवं सर्वविरत्याद्येकादशगुणश्रेणिषु दर्श्यमानाऽध्यात्मक्रिया असख्यगुणनिर्जरा इति क्रमतो वर्ण्यन्ते तथाहि: - प्रथमगुण श्रेण्या अवान्तरीभूताः सप्ताऽध्यात्मक्रियाः - (१) 'पृच्छोत्पन्नसंज्ञ: ' - धर्मं प्रष्टुमुत्पन्ना ज्ञानाऽऽत्मकसंज्ञा यस्य स जनः 'पृच्छोत्पन्नसंज्ञकः' उच्यते (२) 'पिपृच्छिषु : ' = प्राग्ग् जानाति पश्चादिच्छति-धर्मप्रश्नज्ञानानन्तरं धर्मपृच्छेच्छा भवति, प्रष्टुं येच्छा, तद्विशिष्टः, (३) 'साधुपार्श्व जिगमिषुः = गीतार्थगुरोः सन्निधि गन्तुमिच्छुः (४) 'धर्म्यं पृच्छन् क्रियास्थितः' विनयादिक्रियायां स्थित्वा धर्मविषयकप्रश्न करणे वर्त्तमानः, (५) 'प्रतिपित्सुः' = सम्यग्दर्शनधर्मं प्रतिपत्तुमिच्छुः, (६) 'सृजन् पूर्व' = सम्यग् दर्शनप्रतिपत्तिक्षणे
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अध्यात्म
सार:
॥२६॥
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सम्यग्दर्शनं प्रतिपद्यमानः, (७) 'प्रतिपन्नश्च दर्शनम् ' = सम्यग् दर्शनधर्मप्रतिपत्तिविशिष्टः सम्यग् दर्शनीति प्रथमगुणश्रेणिः द्वितीयगुणश्रेण्या अवान्तरीभृतभेदरूपास्तिस्रोऽध्यात्मक्रिया :- (१) देशविरति धर्मप्रतिपित्सुः, (२) देशविरतिधर्मप्रतिपत्तिः (३) देशविरतिधर्मं प्रतिपन्नः इति द्वितीयगुणश्रेणिः । एवं (१) यतिधर्मप्रतिपित्सुः (२) सर्वविरतिधर्मप्रतिपत्तिः (३) यतिधर्मं प्रतिपन्नः इति तृतीय गुणश्रेणिः । 'त्रिविधोऽनन्तशक्ष' पकः- त्रिविध इति पदमग्रेऽपि गुणश्रेण्यां योज्यम् (१) अनन्तानुबन्धिकषायक्षपच्छुः (२) तत् क्षपणप्रतिपत्तिः (३) तत् क्षपणां प्रतिपन्न इति चतुर्थी गुणश्रेणिः 'दृङ् मोहक्षपकः'= (१) दर्शन मोहक्षपणप्रतिपित्सुः, (२) दर्शनमोहक्षपणां प्रतिपद्यमानः ( ३ ) दर्शनमोहक्षपणां प्रतिपन्नः, इति दशात्रयवती पञ्चमी गुणश्रेणिः, 'मोहश 'मकः' - तदनन्तरं मोहनीयकर्मणः शेषैकविंशतिप्रकृतीनामुपशामको भवेदिति षष्ठी गुणश्रेणि: 'शान्तमोहक : ' = मोहनीयैकविंशतिप्रकृत्युपशान्तिनामकाऽवस्थासम्पन्न:, इति सप्तमी गुणश्रेणि: । ' क्षपक:' - मोहनीयै कविंशतिप्रकृतिक्षपणा करणपरः, मोहक्षपणावस्थासम्पन्न इत्यष्टमी गुणश्रेणिः, 'क्षीण मोह:'- यदाऽऽत्मा मोहक्षयकारको भवेत्तदा तस्य महात्मनः क्षीणमोहावस्थारूपा नवमी गुणश्रेणिः, 'जिनः 'सयोगी केवलीजिनः इति दशमी गुणश्रेणिः, 'अयोगी" च केवली = चतुर्दशगुणस्थानवर्ती, अयोगी केवलीतिकथ्यते इत्येकादशी गुणश्रेणिः, इत्येवं प्रत्येकाध्यात्मक्रियाया या अवस्थाः प्रोक्तास्ता उत्तरोत्तरं ( क्रमशः) असख्यातगुणनिर्जरावत्यो भवन्ति, अतोऽध्या
||२६||
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अध्यात्मसार:
॥२७॥
स्मवृद्धिकृते कलयाऽप्यंशतोऽपि सातत्येन प्रयत्नवता भाग्यवता भाव्यमित्युपदेशलेशः ॥८-९-१०-१२।।
अंशद्वयाऽऽत्मकाऽध्यात्मस्वरूपम्ज्ञानं शुद्धं क्रिया शुद्धे-त्यंशो दाविह सङ्गतौ ।
चक्रे महारथस्येव पक्षाविव पतत्रिणः ॥१२॥ 'ज्ञानं शुद्ध' =भावादिना, प्रकाशकत्वादिना वा सम्यग् ज्ञान मित्येकोंऽशः, 'क्रिया शुद्धा' अविध्यादिदोषरहिता क्रिया समीचीनेति द्वितीयोऽशः, इहांशी द्वौ सङ्गतो' अध्यात्मतत्त्वे, शुद्धज्ञानक्रियाऽऽत्मको द्वित्वविशिष्टौ नत्वेकः, अतो द्वावंशौ-भेदाऽऽत्मकप्रदेशी, अभेदेन योगवन्तो, शुद्धज्ञानक्रियाऽऽत्मकाशद्वयाऽभिन्नमध्यात्ममित्यायातम, 'चके महारथस्येव' यथा महारथस्य चक्रद्वयं सङ्गतमन्यथा महारथस्य गतिर्न स्यादिति, पक्षाविव पततत्रिणः =यथा पक्षिणः पक्षी सङ्गतौ यतः पक्षद्वयशून्यत्वेन पक्षिणो विहायसि गमनमसिद्धं स्यादिति, तथा शुद्धज्ञानक्रियाद्वयाभावेनाऽध्यात्मतत्त्वस्याऽसिद्धिरेव, शुद्धज्ञान क्रियाद्वयसत्वेनैवाऽध्यात्मसत्ता, नाऽन्यथेति ॥१२॥
अध्यात्मविषयकमान्यतायां नयविभागः तत्पञ्चमगुणस्थानादारभ्यैवैतदिच्छति । निश्चयो, व्यवहारस्तु पूर्वमप्युपचारतः ॥१३॥
॥२७॥
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अध्यात्म
सारः
॥२८॥
'निश्चयः, तत्पश्चमगुणस्थानादारभ्यैवैतदिच्छति' निश्चयनयः, पञ्चमगुणस्थानादारभ्य शुद्धज्ञानक्रियाऽऽत्मकमध्यात्ममस्ति, तस्मात् कारणाद् देशविरतिनामकपञ्चमगुणस्थानमवधीकृत्याऽभिव्याप्य यावच्चतुर्दशं, प्रत्यक्षतो निरूपितमध्यात्मं मन्यते, परन्तु व्यवहारस्तु प्रथमगुणस्थानीया पुनर्बन्धकावस्थायां थगुणस्थानीयाऽविरतसम्यग्दृष्टिदशायर्या चाऽध्यात्मं मन्यते, यतः पञ्चमगुणस्थानादिसत्काध्यात्मक्रियारूपं कार्य प्रति, अपुनर्बन्धकीयाविरतसम्यग् दृष्टिसत्कशुभक्रियाः कारणम् , अतः कारणे कार्यस्योपचारं कृत्वाऽध्यात्म मन्यते इति व्यवहारनयमतम् ।।१२।।
__ व्यवहारनयः स्वमतं समर्थयते चतुर्थेऽपि गुणस्थाने, शुश्रुषाद्या क्रियोचिता ।
अप्राप्तस्वर्णभूषार्णा रजताऽभूषणं यथा ॥१४॥ 'चतुर्थेऽपि गुणस्थाने शुश्रुषाद्या क्रियोचिता' यद्यपि विरतिसम्बद्धा उच्चतमक्रिया अत्र न सम्भवन्ति तथाऽपि चतुर्थगुणस्थानीया धर्मशास्त्रश्रवणतीव्ररागचारित्रधर्मविषयकतीव्राभिलाष-जिनसाधुसेवानियमादिरूपा उचिता:-शुभक्रियाः सम्भवन्त्येव तथाऽत्र सम्भवन्तीः शुभकिया निषेद्धकोऽलं प्रभवेदान्न कोऽपि. 'यथाऽप्राप्तस्वर्णभूषाणां रजताऽऽषणं'सौवर्णभूषणप्राप्तिशून्यानां रजतसत्कमाभूषणमुचितं
॥२८॥
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अध्यात्मसारः
॥२९॥
तथाऽत्रापि विरतिसम्बन्धिशुभक्रियाया अभावेऽपि चतुर्थगुणस्थानीयजैनशासनप्रभावनादिशुभक्रिया युक्तियुक्तैवेति ॥१४॥
___पुनरपि व्यवहारनयः स्वमतं समर्थयते श्रपुनर्बन्धकस्याऽपि या क्रिया शमसंयुता ।
चित्रा दर्शनभेदेन, धर्मविघ्नक्षयाय सा ॥१५॥ यथा चतुर्थे गुणम्थाने सुदेवसुगुरुसुधर्मसेवादिक्रियारूपमध्यात्म वर्त्तते, तथा प्रथमगुणस्थानीयापुनर्बन्धकाऽवस्थासम्पन्न आत्माऽपि (अतः परं भवचक्रे कदाचिदपि सप्ततिकोटाकोटीसागरोपमप्रमाणां मोहनीयकर्मण उत्कृष्टस्थितिं न पुनर्बध्नातीत्येवं शीलोऽपुनर्बन्धक उच्यते) शमसंवेगादिरूपान्तरक्रि यावान् सम्भवति, 'चित्रा दर्शनभेदेन, धर्मविध्नक्षयाय सा'=सा-शमादि संयुता क्रियाऽपि दर्शनभेदेन चित्रा अनेकरूपा सती 'धर्मविध्नक्षयायेति'विरत्यादिरूपधर्मप्राप्ती, आगन्तुकविघ्नानामन्तरायाणां ध्वंसकरणद्वारा विरतिक्रियात्मकमध्यात्म प्रति पूर्वोक्तक्रिया कारणं भवति, व्यवहारस्तूपचारप्रधानोऽस्ति, तस्मात् स्वमते कार्यभृतविरतिक्रियारूपाऽध्यात्मं प्रति तत्कारणभूतशमादिक्रियाऽप्यध्यात्माऽऽत्मिकैवेति मन्यते व्यवहारनयेनाऽपुनर्बन्धकादावप्यध्यात्मसिद्धिः कृतेति ॥१५॥
॥२९॥
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अध्यात्मसार:
॥३०॥
अशुद्धाऽपि क्रिया शुक्रियाया अपेक्षया कारणम् श्रशुद्धापि हि शुद्धाया क्रियाहेतुः सदाशयात् ।
ताम्र रसानुवेधेन स्वर्णत्वमधिगच्छति ॥१६॥ ननु अपुनर्गन्धकाद्यात्मना क्रिया न सम्यग्ज्ञानपूर्विका, यदशुद्धिभूयस्त्वभृताऽशुद्धक्रिया, विरतिधर्मरूपशुद्धक्रिया प्रति कथं हेतुः स्यात् , हेतोरभावात् कारणे कार्योपचारन्यायस्यापितु का वातेति चेन 'अशुद्धाऽपि हि शुद्धायाः क्रियाहेतुः सदाशयात् 'मोक्षविषयकाऽमिलापरूपशुभाशयं प्रतीत्याऽर्थात् संवेगरसातिशयसहिताऽशुद्धक्रियाऽपि शुद्धक्रियां प्रति हेतु भवत्येव, यथा तानं धातुवादसम्बन्धिशास्त्रोक्त विधिना सुवर्णरसमनुविध्य सुवर्णभावं प्राप्नोति, तानं सुवर्ण भवति, तथाऽत्रापि, अशुद्धक्रियास्थानीयं तानं सुवर्णरसस्थानीयो मोक्षाऽमिलापः, तथा शुद्धक्रियास्थानीयं सुवर्ण वोध्यमिति ॥१६॥
पूर्वकथितं विषयं द्रढयति । श्रतो मार्गप्रवेशाय, व्रतं मिथ्यादृशामपि ।
द्रव्यसम्यक्त्वमारोप्य, ददते धीरबुद्धयः ॥१७॥ 'अतो धीरबुद्धयो मिथ्याशामपि' =अशुद्धाऽपि क्रिया, सदाशया , शुद्धक्रियाहेतु भवतीति वस्तु । लक्ष्यीकृत्य, निश्चलबुद्धिविशिष्टा गीतार्थगुरुवः, मिथ्यादृष्टीनामपि, अपिनाऽन्येषां तु का वार्तेत्यर्थः, मार्ग
॥३०॥
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अध्यात्मसारः
॥३१॥
प्रवेशाये' ति=मोक्षमार्गरूपाऽध्यात्ममार्गे, प्रवेशमुद्दिस्य, 'द्रव्यसम्यकत्वमारोप्य व्रतं ददते' इति-सुदेवादेविषयकद्रव्यसम्यक्त्वस्याऽऽरोपणं कृत्वा पश्चादणुमहाव्रतादिकं व्रतमात्रमर्पयन्ति नाऽन्यथेति ॥१७॥
बताय योग्यताविशेषस्य वर्णनम् यो बुद्धवा भवनैर्गुण्यं, धीरः स्याद् व्रतपालने ।
स योग्यो भावभेदस्तु, दुर्लक्ष्यो नोपयुज्यते ॥१८॥ 'यो भवनैगुण्यं बुद्धवा व्रतपालने धीरः स्यात्स योग्य' संसारोऽयमसारः प्रकृतितो निगुणोनीरस इति सम्यग ज्ञानबलेन जानन-जाग्रत , व्रतपालनविषये धीरः 'विरुद्ध हेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः' इत्यभियुक्तोपतेः, विरुद्धनिमित्तोपस्थितावपि सुनिश्चलचेताः पुण्याऽऽत्मा व्रतदान योग्यो भवति, नाऽन्यो वैराग्यविरहितो योऽधीरः कश्चिदपि भवाभिन्नदी, ननु विरतिरूपोऽन्तरङ्गभाव आत्मनि स्पृष्टो नवास्पृष्ट इति चिन्तनीय एवेति चेदाह 'भावमेदस्तु दुर्लक्ष्यो नोपयुज्यते' अस्मादृशां छमस्थानामान्तरो भावविशेषो ज्ञातुमशक्योऽस्ति, भावभेदस्य दुर्लक्ष्यत्वाद् , व्रतविषयिणी योग्यतां ज्ञातु भावविशेषो नोपयोगविषयो भवति, अत एव पूर्वोक्तभवनैगुण्यज्ञानपूर्वकं व्रतपालनधैर्य दृष्टवैव व्रतदानस्य योग्यता निर्णयपथं नेयेति ॥१८॥
॥३१॥
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अध्यात्म सार:
॥३२॥
।
भावभेदं संलक्ष्य दीक्षादानस्य सिद्धान्तीकरणे प्रत्युत दोक्षाऽदानापत्तिः
नो चेद् भावाऽपरिज्ञानात्, सिद्धयसिद्धिपराहतेः ।।
दीक्षाऽदानेन भव्यानां, मार्गोच्छेदः प्रसज्यते ॥१६॥ प्रथमं तावदभिमुखव्यक्तौ यदा शुभ आन्तरो भावो ज्ञातश्चेत्तदा तस्य दीक्षादानं, न ज्ञातश्चेतदा दीक्षाया अदानमित्याग्रहे सति, अस्मादृशां छहस्थानामान्तरो भावो ज्ञातुमशक्यत्वाद् दीक्षाया अदानापत्तिः, (१) अन्यत्तु यस्य विरतिपरिणामो ज्ञातश्चेत्तदा तस्य दीक्षादानं परन्तु तत्र विरतिपरिणामो वर्त्तते नवा तज्ज्ञातुमशक्यं, यद्येवं तदा द्विधा काठिन्यमापतति, एकं तावद् , यत्राऽऽत्मनि विरतिरूप आन्तरो भावः सिद्धश्वेत्तदा तस्य दीक्षादानमनावश्यकम् , यतो यस्य सिद्धिर्जाता, तस्य का साधना १, साधनात्वसिद्धसाधनरूपा, द्वितीयं तावद् यत्राऽत्मनि विरतिरूपो भावो न सिद्धः, तस्य तु सुतरां दीक्षादानमशक्यं यत आन्तरं भावमज्ञात्वा दीक्षादानं भवन्तो निषेधयन्ति, अर्थाद् भावस्य सिद्धौ चासिद्धौ द्विधा मन्यानां दीमादानस्य सर्वथा प्रतिबन्धोऽतो दीक्षामार्गस्योच्छेदापत्तिः (२) तस्माद व्रतस्य योग्यताया निर्णयो भावपरिनानेन न कर्त्तव्योऽपितु भवनैगुण्यव्रतपालनधैर्याभ्यां कर्त्तव्य इति ॥१९॥
॥३२॥
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अध्यात्मसार:
॥३३॥
अभ्यासदशायामशुद्ध क्रियाया अनादरो न कर्त्तव्यः अशुद्धाऽनादरेऽभ्यासा-योगानो दर्शनाद्यपि ।
सिद्धयेनिसर्गजं मुक्त्वा, तदप्याभ्यासिकं यतः ॥२०॥ यद्येवंरीत्याऽशुद्धक्रियाया अनादरे बालजीवेषु क्रियाया योऽभ्यासः सोऽसिद्धः स्याद् यतोऽभ्यासकालीना क्रिया तु अशुद्धैव स्याद् यद्येवरीत्याऽभ्यासकालीनक्रियाऽसिद्धा भवेत्तदा नैसर्गिकसम्यक्त्वं विहाय शेषाऽधिगमसम्यक्त्वाद्यपि, असिद्धं भवेद् यतोऽधिगमसम्यकत्वाद्यपि, अभ्यासदशयैव साध्यमस्ति(निसर्गसम्यक्त्वादि. तद्भवीयामभ्यासदां विना प्राप्यते) अभ्यासकालीनाऽशुद्धाऽपि क्रियाऽभ्यासदशायामादरणीयैव यतो मोक्षाऽभिलाषरूपसदाशयपूर्विका, अशुद्धाऽपि क्रिया, शुद्धक्रियां प्रति हेतुभूत्वाऽध्यात्मस्वरूपा भवति ॥२०॥
दीक्षादातृत्वविशिष्टगुरौ दोषसम्भवाऽभावःशुद्ध मार्गानुरागेणा-शानां या तु शुद्धता ।
गुणवत्परतन्त्राणां, सा न क्वाऽपि विहन्यते ॥२१॥ दम्भिनां दीक्षादानेऽथवाऽयोग्यस्य योग्यकथने गुरौ कथं न मृषावादोऽथवा विरतिपरिणामाऽभावे निर्दम्भस्याऽपि दीक्षादाने मृषावादादिदोषः कथं न ? विरतिपरिणामशून्यस्य विरतिपरिणामभावकथनं कथं न
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अध्यात्म-13 सार:
॥३४॥
मृपावादः ? इत्यादिप्रश्नानुत्तरयति, 'शुद्धमार्गाऽनुरागेणाऽशठाना या तु शुद्धता, गुणवत्परतन्त्राणां न क्वापि विहन्यते' इति=जिनेन्द्रप्रवचननिष्ठदृढतमाऽनुरागेण, येऽशठा:-मायाप्रयोगतः शून्याः सरलाः, ये च गुणगणसम्पन्नगुरुवर्गादिपराधीनास्तेषां विशिष्टगुरूणां या निर्दोषताऽस्ति साक्वापि-तादृशदीक्षादानादिप्रसङ्गेऽपि न विहन्यतेन विधातविषया भवति, अर्थादेतादृशगुरौ मृपावादादिदोषरूपाऽशुद्धिर्न सम्भवतीति ॥२१॥
त्रिधा कर्म शुद्धं भवति । विषयाऽऽत्माऽनुबन्धैर्हि, त्रिधा शुद्धं यथोत्तरम् ।
अवते कर्म तत्राद्य मुकत्यर्थ पतनाद्यपि ॥२२॥ विषयाऽऽत्माऽनुबन्धेर्हि विधा यथोत्तरं शुद्धं कर्म ब्रुवते'=(१) विषयशुद्धं कर्म-यस्य कर्मणो विषयः (साध्यो लक्ष्योवा) शुद्धो भवति, तत्कर्म विषयशुद्धं कथ्यते, यथा मोक्षं लक्षीकृत्य काशीं गत्वा करपत्रकमो चनादि, अत्र कर्मणो विषयो मोक्षोऽस्ति, स तु शुद्ध एव, तस्मात् कर्म विषयशुद्धं कथितं, (२) आत्म (स्वरूप) तः शुद्धं कर्म, (३) अनुबन्धशुद्धं कर्म, अनयो द्वयो वर्णनमग्रे वक्ष्यमाणमस्ति, ॥२२॥
द्वितीयमात्मशुद्ध कर्म, तृतीयं चानुबन्धशुद्ध कर्म अज्ञानिनां द्वितीयं तु, लोकदृष्टया यमादिकम् । तृतीयं शान्तवृत्त्या तत् , तत्त्वसंवेदनाऽनुगम् ॥२३॥
॥३४॥
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अध्यात्मसार:
॥३५॥
'अज्ञानिनां द्वितीयं तु लोकदृष्टया यमादिकम् ' यत्कर्मणः स्वस्वरूपं लोकदृष्टया शुद्धमस्ति, तत्कर्म, स्वरूपशुद्धं कथ्यते, अज्ञानिना=सम्यग ज्ञानशून्यानामात्मनां यमनियमादिकर्म, तत्सर्व स्वरूपशुद्धं' अत्र यमनियमादिकर्माणि स्वतः (स्वरूपतः) शुद्धान्येव (३) 'तृतीयं शान्तवृत्या तत् , तत्त्वसंवेदनाऽनुगम्' यत्र चित्तम्य प्रशान्तवाहिता स्याद् , यो ज्ञेयं ज्ञेयत्वेन, हेयं हेयत्वेनोपादेयमुपादेयत्वेन जानाति, यश्च हेयम्य हानमुपादेयस्योपादानं प्रतिपद्यते, तस्य सर्वविरतस्यात्मनः, तत्वसंवेदननामकतृतीयं [ज्ञानपूर्वकं यत्कर्म, तदनुबन्धशुद्धं कर्म, अनेन कर्मणोत्पद्यमानशुभकर्मादेः परम्पराऽपि शुद्धा भवति, तस्मादेतत्कर्माऽनुबन्धशुद्धं कथ्यते, इदमत्र हृदयम् , तत्राऽनुबन्धो नाम भावस्य बीजभूता शक्तिः, शुभानुबन्धो नाम शुभभावजनिका बीजश क्तः, अशुभानुबन्धो नामाशुभभावकारिका बीजभूजा शक्तिः, भावाऽऽत्मकधर्मजन्यकर्मानुबन्धेनैव स्थितप्रज्ञता प्राप्यते, अतएवाऽऽध्यात्मिकविशालवत्तु लस्यातिसूक्ष्मो मध्यबिन्दुस्तु तद्भावाऽऽत्मकं शुभं मन एवाऽस्ति यदा यस्यां यादृश्यां तादृश्यां पुण्यपापयो र्बाह्यक्रियायामनुबन्धस्तु पुण्यस्य सत्को भृत्वाऽन्ततः शान्ति समाधि मुक्तिञ्चामोधां ददात्येव, अन्यच्च कदाचिदात्मा कर्मणो निकाचितं बन्धं करोति, तदा ते कर्मबन्धा उदयाऽऽगमनं विना न चलन्ति यतो निकाचितवन्धस्योपरि करणाष्टकमध्यतः किमपि करणं न लगति, परन्त्वनुबन्धस्य वार्ताऽतो विपरीतैव, यतो निकाचितकर्मबन्धस्तु न त्रुट्यति, तथाऽपि कदाचिदस्यानुबन्धास् त्रुटयन्ति एवमुपमितिकारेणोक्तं हि 'त्रिपृष्ठ
॥३५॥
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अध्यात्म
सार:
॥३६॥
वासुदेवभवमध्ये भगवता महावीरदेवाऽऽत्मना शय्यापालकस्य कर्णयो र्धगधगायमानसीसकस्य रसो निक्षिप्तस्तदा पापानुबन्धिपापकर्म निकाचितं कृतं स कदाचिनिकाचितकर्मबन्ध आसीत् , तस्मानन्दनर्षिसत्कपश्चविंशतितमभवस्य धोरतमसाधनाकाले स उदयं नागतश्चातः सप्तविंशतितमे भवे कमैतत् पूर्णवलेनोदयमागतश्च ततः कर्णमध्ये कीलका लग्नाः, परन्तु तदा परमात्मनेपदपि नैव दुर्ध्यातम् , वस्तुत एतत्पापकर्म, पापानुबन्धिपापकर्मासीत् , अर्थादस्योदयेऽवश्यं दुर्ध्यानं भाव्यम् , परन्तु परमात्मना, प्रागेव तपस्त्यागरूपया घोरतमसाधनयेषोऽनुबन्धस् वोटित आसीदेवाऽत एव निकाचितपापकर्मणो बन्ध उदयमागतोऽप्यस्य पापाऽनुवन्धो निष्फलतां गतः । तत्त्वसंवेदनज्ञानं यत्तत्त्वं यद्रपेणास्ति तद्रपेण हेयहानादिरूपेण परिणतिमज्ज्ञानं तत्तत्त्वसंवेदनरूपज्ञानं सर्वविरतस्यैव भवति ॥२३॥ किं कर्माणि त्रीण्येव शुद्धानि, अथवैकं वा व्यमिति शङ्काया निराकरणम्
श्राद्यान्नाज्ञानबाहुल्या-न्मोक्षबाधकबाधनम् ।
सद्भावाशयलेशेनो-चितं जन्म परे जगुः ॥२४॥ विषयशुद्धं कर्म, विषयाऽपेक्षया शुद्धमस्तु, तथाऽपि तदध्यात्मस्वरूपं न कथ्यते; यत एतत्कर्मवत्यात्मनि, अज्ञानस्य मात्रा प्रचुरा विद्यतेऽविद्यायाः प्रबलः प्रभावोऽस्ति, अतो ये मोक्षस्य बाधका:प्रतिबन्धका योगाः (संसारभावाः) तेषां बाधनस्य-निराकरणस्य सामर्थ्य नास्त्येव, यद्येतत्कर्मणि सामर्थ्य ।
॥३६॥
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अध्यात्म
सार:
॥३७॥
स्यात्तदाऽनुबन्धशुद्धकर्मणः कारणभवनद्वारतत्कर्माऽध्यात्मस्वरूपं भवेत् परन्त्वेवं नास्त्येव 'सद्भावाशयलेशेनोचितं जन्म परे जगः' इति--परे-केचिदेवं कथयन्ति हि यद्यपि विषयशुद्धं कर्मः मोक्षं प्रति स्वतः कारणं न भवति, तथाऽपि तत्कर्मणि मोक्षाऽमिलापरूपमद्भावाशयलेशो विद्यते एव तम्माज्जन्मान्तरे मोक्षानुकूलकुलजात्यादि विशिष्ट स्थाने जन्म भवति, ततो मोक्षः प्राप्यते, इति मोक्षाऽनुकूलकर्म प्रति विषयशुद्धकम कथं कारणं न भवेत् , इति परेणोक्तं वचनं प्रति ग्रन्थकारस्य परमाऽरुचि यते यतो विषयशुद्धं कर्माऽत्यन्तमावद्यं भवति तदत्यन्तनिरवद्यमोक्षं प्रति हेतुः कथं समथों भवेत् , सामान्येन निरवद्यकार्य प्रति निरवद्यकारणं भवति, परन्तु कर्मकर्तर्याऽऽमनि, निरवद्यमोक्षाऽभिलाष एव हेतुरस्त्येवं कथ नीयमेव ।।२४॥
द्वितीयाद्दोषहानिः कोदृशो' ? तृतीयाच्च दोषहानि; कोदृशी ? द्वितीयादोषहानिः स्यात् , काचिन्मगडूकचूर्णवत् ।
श्रात्यन्तिकी तृतीयात्तु, गुरुलाघवचिन्तया ॥ २५ ॥ _ 'द्वितीयादोषहानिः स्यात् , काचिन्मण्डूकचूर्णव'दिति-द्वितीयात् स्वरूपशुद्धकर्मतः, काचिदंशतो दोषहानि भवति, यथा मृतमण्डूकशरीरस्य कृतचूर्ण वालुकासु मिलितमपि यदा यदा मेघो वर्षति तदा तच्चूर्णस्य प्रत्येककणेभ्य एक एको मण्डूको जायते, एवमेकमण्डूकस्य तत्कालं विनाशेऽपि वर्षाजल
॥३७॥
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अध्यात्म-1
सार
॥३८॥
संस्पर्शेन मण्डकानां लक्षमुत्पद्यतेऽर्थाजन्मान्तरेषु निमित्तप्राप्त्यनन्तरं युगपदनेके दोषा उद्भवन्ति, परन्तु 'आत्यन्तिकी तृतीयात्तु गुरुलाधवचिन्तया' सर्वप्रयोजनेषु तत्तत्कालादिवलालोचनेन प्रारब्धुमिष्टेषु प्रथमत एव मतिमता गुरोः-भूयसो गुणलाभपक्षस्य, लयोश्च तदितररूपस्य भावो गुरुलाघवं तस्य चिन्तया (ततो बहुगुणप्रयोजने प्रवृत्तिः 'अप्पेण बहुमेसेज्जा एवं पंडियलक्खणं, सव्वासु पडिसेवासु एव अद्रुपदं विऊ' अल्पेन बहु एषेत, एतत्पण्डितलक्षणं सर्वासु प्रतिषेवासु एतदर्थपदं विदुः) तृतीयात् अनुबन्धशुद्धकर्मतः, आत्यन्निको-सर्वथा सर्वदोपहानिः सञ्जायते यतोऽत्र शास्त्रीयगौरवलाघवसम्बन्धिज्ञानयोगो विद्यते यथा मण्डूकदेहचूर्णस्याग्निना भस्मीकरणं तथा लाशो वर्षाजलसंयोगेऽपि एकोऽपि मण्डूको नोत्पत्त शवनोति ॥२५॥
स्वरूपसिद्ध कर्माऽध्यात्मस्वरूपमपि भवतियपि स्वरूपतः शुद्धा, क्रिया तस्माद् विशुद्धिकृत् ।
मोनीन्द्रव्यवहारेण, मार्गबीजं दृढादरात् ॥ २६ ॥ 'तस्मादिति मोक्षाऽभिलाषरूपसदाशयादशुद्धाऽपि क्रिया, शुद्धक्रियाहेतुस्तदा त्वाऽध्यात्मस्वरूपा, ततः कारणाद् यमनियमादेः स्वरूपतः शुद्धक्रियाऽपि मोक्षं प्रति दृढादरवशात् , सम्यग् दर्शनादिरूप- मोक्षमार्गस्य बीजं भवति, तस्माद् दृढादरान्मुनीन्द्रजिनेन्द्रदेवसत्को निश्चयमुखो व्यवहारधर्मः प्राप्यते,
॥३८॥
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IS तादृशव्यवहारधर्मत आत्मशुद्धिर्जायते, इत्येवमनुबन्धशुद्ध कर्मवत् , स्वरूपशुद्ध कर्माऽपि परम्परयाऽऽत्मअध्यात्म- विशुद्धिकरं भवति, तस्मात्तदध्यात्मस्वरूपं कथ्यते ।।२६॥ सारः
सदाशयाद् द्रव्यक्रियाऽप्यादरणीयैव तत्र हेतुर्दश्यते
गुर्वाज्ञापारतन्त्र्येण, द्रव्यदीक्षाग्रहादपि । ॥३९||
वीर्योल्लासक्रमाप्राप्ता, बहवः परमं पदम् ॥२७॥ अशुद्धाऽपि द्रव्यक्रिया सदाशयादादरणीय वेति वस्तु सत्यमस्ति यतोऽनन्ता एतादृशा अप्यात्मानोऽभवन् येषु केवलं गुरुपारतन्यनामकः सदाशय आसीद् येश्च तत्सदाशययोगेनागणितदोषेऽपि द्रव्यदीक्षा गृहीता, तथापि तत्सदाशयकारणेनापूर्ववीर्योल्लासाऽऽविर्भावक्रमेण शुद्धक्रियां प्राप्यानन्ताऽऽत्मानो मुक्तिरूपं परमं पदं प्राप्ताः ॥२७||
___ अध्यात्माऽभ्याससमयेऽपि क्रियाज्ञानसम्भवोक्तिःअध्यात्माऽभ्यासकालेऽपि, क्रिया काऽप्येवमस्ति हि ।
शुभौघसंज्ञाऽनुगतं, ज्ञानमप्यस्ति किञ्चन ॥ २८ ॥ अध्यात्माऽभ्यासदशायामपुनर्बन्धकादावपि, शमादियता काचित , शुद्धक्रिया सम्भवति. ज्ञानमपि
॥३१॥
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शुभोघसंज्ञाव्याप्तं किश्चित् सम्भवति, शुभज्ञानमत्र वस्तुतत्त्वस्य विपर्यासविरहितं ज्ञेयम् , ओघज्ञानमत्रअध्यात्म-XI
वस्तुतत्त्वस्य बहूनां विशेषाणामवधारणाऽसमर्थमत एव सामान्यज्ञानमोघज्ञानं कथ्यते ॥२८॥ सार:
ज्ञानकियारूपमेवाऽध्यात्मम्
यतो ज्ञानक्रियारूपमध्यात्म व्यवतिष्ठते । ॥४०॥
एतत्प्रवर्धमानं स्यान्निर्दम्भाचारशालिनाम् ॥२१॥ अपुनर्वन्धकादिदशावर्तिषु जीवेष्वपि ज्ञानक्रियारूपमध्यात्मं तिष्ठति, अत एव सर्वत्र गुणस्थानके ज्ञानक्रियारूपमध्यात्म व्यवस्थितं वर्तते, एतदध्यात्म प्रकर्षण वर्धमानं तु निर्व्याजाचारविशिष्टानामेव स्यान्नतु मकपटाचारवतां कदापीति व्यज्यते ॥२९॥
इत्याचार्यश्रीमद्विजयलब्धिमूरीश्वरपट्टधरश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रङ्करमूरिणा कृतायामऽध्यात्ममारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायामध्यात्मस्वरूपो द्वितीयोऽधिकारः समाप्तः ॥५५||
दम्भत्यागरूपस्तृतीयोऽधिकारोऽधिक्रियते
कीदृशो दम्भः ? दम्भो मुक्तिलतावहिर्दम्भो राहुः क्रियाविधौ । दौर्भाग्यकारणं दम्भो, दम्भोऽध्यात्मसुखागला ॥ १ ॥
४॥४०॥
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अध्यात्मसार:
१४॥
'निर्दम्भाचारशालिना' मित्यनन्तरश्लोकोक्तवाक्येनोक्तं हि यो निष्कपटक्रियाकारी तस्याऽध्यात्म प्रकर्षण वर्धमानं स्यानान्यथेत्येवं प्रसङ्गमङ्गन्या ग्रन्थकारो दम्भत्यागाधिकारमुपक्रमते तथाहि (१) दम्भो हि मुक्तिरूपसाध्यभावनामकलतादहनायाऽलं भवति, दम्भवतां संवेगरङ्गोऽदृश्यतां याति (२) दम्भो हि क्रियारूपचन्द्रग्रासे राहुभूतोऽस्ति, अध्यात्मांशभूतक्रियाभञ्जनकारी (३) दम्भो हि दौर्भाग्यासाधारणकारणम , मायया जनो जगति दौर्भाग्यभारभाग भवति (४) दम्भो हि अध्यात्मजन्यसुखविषयेऽर्गलाऽर्थात् प्रतिबन्धको भवति, दम्भेनाऽध्यात्मसुखजानन्दस्याऽत्यन्ताऽभावः ॥१॥
पुनः कीदृशो दम्भः? दम्भो ज्ञानादिदम्भोलिदम्भः कामाऽनले हविः ।।
व्यसनानां सुहृद् दम्भो, दम्भश्चोरो व्रतश्रियः ॥ २ ॥ (५) दम्भो हि ज्ञानरूपपर्वतस्य चूर्णने वज्रतुल्यः, अध्यात्मांशभृतज्ञानविध्वंसकोऽस्ति, (६) कामरूपाऽग्नौ घृताहूतिरिव दम्भः, दम्भहविषा कामनामकोऽग्निः पुनः पुनरभिवर्धते एव, (७) व्यसनानां विपदां वेदनानां वा मित्रं दम्भः, दम्भेन दुखोदधिनिर्मर्यादमुच्छलत्येव (८) व्रतरूपाया लक्ष्म्याश्चौरो दम्भः, दम्भो हि महादुर्लभव्रतरूपां महालक्ष्मी चोरयत्येव अतो दम्भत्यागायाऽध्यात्मानुरागिभिः प्रयतितव्यम् ।।२।।
॥४॥
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अध्यात्म
सार:
||४२॥
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दम्भेन व्रतधारणं कृत्वा परमपदेच्छा वन्ध्या भवति'दम्भेन व्रतमास्थाय यो वाञ्छति परं पदम् । लोहनावं समारुह्य, सोधेः पारं यियासति ॥ ३ ॥
यो नो दम्भपूर्वकं व्रतं प्रतिपद्य परं पदं मोक्षपदं वाञ्छति, स एतादृशो मृढो भवति हि लोहस्य नावं समारू, अन्धेः- समुद्रस्य पारं परकूलं यातुमिच्छति सेच्छा कदाचिदपि पूर्णतां नायाति प्रत्युतो - न्मादप्रकारो भात्येव ॥ ३॥
दम्भो जीवन् व्रततपोजपादिकं निष्फलं करोत्येवकिं व्रतेन तपोभिर्वा, दम्भश्चेन्न निराकृतः । किमादर्शन किं दो-येद्यान्ध्यं न दृशोर्गतम् ॥ ४ ॥
यदि दम्भो व्रतादिरूपजीवनतो न निष्काशितस्तदा व्रतेन किं तपोभिः किमर्थात्तपोत्रतादिकं निरर्थकमेव तद् वस्तु दृष्टान्तेन द्रढयति-यदि नयनयोः स्थितमन्धत्वं न गतं तदाऽऽदर्शन -दर्पणेन किं, दीपैः किमर्थाद् दर्पणदीपादिसहकारिरूपसाधनं निरर्थकं साध्यसिद्धौ दम्भाऽभावो मुख्यसाधनं, तत्र तपोव्रतादिकं सहायकसाधनं द्रष्टव्यम्, यथा दर्शनविधौ चक्षुः परं कारणं, प्रकाशकदीपादिकं निमित्तकारणम् ||४||
॥४२॥
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अध्यात्म
सारः
॥४३॥
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दम्भेन सर्वः शुभाचारो दृष्यत एव'केशलोचधराशय्या - भिक्षाब्रह्मत्रतादिकम् दम्भेन दूयते सर्वं
त्रासेनैव महामणिः ||५||
टीका:- केशस्य लोचः - लुञ्चनं पृथिव्यां शयनं धरारूपशय्या वा, निर्दोषभिक्षणशीला मिक्षा, ब्रह्मत्रतादिकं सर्व, आचरणमेकेन दम्भेन दूष्यते दूषितं क्रियते, यथा महामूल्यवान् महामणिः, त्रासनामकमणिदोषेण दूषितः सन् मूल्यरहितो भवतीति ॥१५॥
दम्भस्याचरणं दुःखेन त्यक्तु ं शक्यते'सुत्यजं रसलाम्पटयं सुत्यजं देहभूषणम् ।
सुत्यजाः कामभोगाद्या, दुस्त्यजं दम्भसेवनम् ||६||
टीका:- रसनाया रसविषयक परमासक्तिः सुखेन त्यक्तु ं शक्यते, रसलाम्पटयनिवारणं सुशकम्, देहस्यालङ्कारादिकभूषणं सुखेन त्यक्तु ं शक्यते, कामभोगादयः सुखेन त्यक्तु ं शक्यन्तेऽपितु दम्भसेवनं महादुःखेन त्यक्तु' शक्यते, निःस्पृहतायोगेन दम्भत्यागो दुष्करोऽपि सुकरो भवति ॥६॥
॥ ४३ ॥
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अध्यात्म-1 मारः
॥४४॥
मूढानामेव दम्भेन महती कदर्थना'स्वदोषनिह्मवो लोक-पूजा स्याद् गौरवं तथा ।
इयतैव कदर्थ्यन्ते, दम्भेन बत बालिशाः ॥७॥ टीका:-'स्वदोषनिहनवो' आत्मना कृताना दोषाणामपलापः स्थगनमावरणमिति यावद् , एष दोषो दम्भेन भवतीत्येका विडम्बना, दम्भेन 'लोककृतसत्कारसन्मानादिरूपा पूजा भवतीति द्वितीया कदर्थना, 'स्याद् गौरवं तथा' यथा पूजा तथा जगति जनकृतगुरुभावो, गुरुरेषोऽस्माकमिति जनकृतोचतरस्थानतेति तृतीया विडम्बना, एताभिस्तिसृभिर्विडम्बनाभिर्वालिशा दम्मेन कदर्थनाविषयाः क्रियन्ते, महावृत्तों दम्भो मृढान गौरवादिना प्रलोभ्य, नरकादिदुर्गती पातयतीति, मूढा गौरवादिके प्रलोभने लुन्धप्रसन्ना दम्भं शरणं गच्छन्ति ॥७॥
वेषधारिणां व्रतमपि दम्भोऽवतवर्धकं करोत्येव'असतीनां यथा शील-मशीलस्यैव वृद्धये ।
दम्भेनाऽव्रतवृद्धयर्थ, व्रतं वेषभृता तथा ॥८॥ टीका:-यथाऽसतीनां वेश्यानां कुलटानां वा परेषामाकर्षणहेतवे पालितमपि शीलमशीलस्य
॥४४॥
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मारः
रूपमूलगुणान् करणसप्ततिरूपानुत्तरगुणान् (अथवामहाव्रतरूपमूलगुणसहायकभावनादिरूपानुत्तरगुणान्) अध्यात्म-18
धतु --पालयितु नाऽलं-नसमर्थः, तस्य साधोः सुश्राद्धता (परमश्रावकों नंदीषणवत् ) युक्तिसम्पन्ना ४परन्तु दम्मेन-साधुताशून्यवेषमात्रेण, जीवन-साधुवेषेण जीवनं मर्वथाऽनुचितमेवेति ॥१२॥
साधुवेषपरिहाराऽसमर्थस्य संविज्ञपाक्षिकरूपा स्थिति र्यक्ता-- 'परिहतु' न यो लिङ्गमप्यलं दृढरागवान् ।
संविज्ञपातिकः स स्यानिर्दम्भः साधुसेवकः ॥१३॥
टीका:-केचिदात्मानो भवन्त्येतादृशा यतो ये साधुवेषस्योपरि हढं रागं बिभ्रति चातः साधुवेषस्य त्यजनं तेषां स्वशक्तेर्बाह्य कार्य भवति, अस्तु साधुवेषस्तथापि तादृशैः साधुवेषं विभ्रद्भिः 'संविज्ञ (ग्न) साधु' रूपां स्वप्रसिद्धिं त्यक्त्वा 'संविज्ञपाक्षिक' रूपा स्वस्थितिः कर्त्तव्या, तथा सुविहितसाधुसेवकीभूय निर्दम्भत्वं सेवनीयम् ॥१३॥
संविज्ञपाक्षिकस्य स्वल्पाऽपि यतना निर्जरा दत्ते-- 'निर्दम्भस्याबसन्नस्या-प्यस्य शुद्धार्थभाषिणः । निर्जरां यतना दत्ते, स्वल्पाऽपि गुणरागिणः ॥१४॥
कर
॥४५॥
॥४५॥
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अध्यात्म सार:
॥४६॥
दुराचारस्य वृद्धि विधत्त एव तथा वेषधारकाणां व्रतं दम्भद्वाराऽव्रतस्यैव-व्रताऽभावस्यैव वृद्धये भवतीति दम्भो व्रतमव्रते परिवर्तयत्येव दम्भः सर्वशुभमशुभं कत्तु प्रत्यलः ॥८॥
दम्भे विश्वस्ता बालिशाः प्रतिपदं स्वलन्त्येवजानाना अपि दम्भस्य, स्फुरितं बालिशा जनाः ।
तत्रैव दृढविश्वासाः प्रस्खेलन्ति पदे पदे ॥१॥ टीका० अहो कीदृशा मूर्खाः ! मायाया प्रपञ्चलीला जानन्तोऽपि वालिशाः, तस्मिन् दम्भ एव दृढविश्वासाः-दृढप्रतीति धारकाः सन्तः पदे पदे-स्थाने स्थाने प्रस्खलन्ति-पतनं प्राप्नुवन्त्येव-हानिमन्तो, दुःखभाजो भवन्त्येवेति ||
दम्भो मोहस्य माहात्म्यप्रकटने साहाय्यं करोत्येव 'अहो मोहस्य माहाल्यं, दीक्षा भागवतीमपि।
दम्भेन यद्विलुम्पन्ति, कजलेनैव रूपकम् ॥१०॥ टीकाः-महदाश्चर्यमिदं लोके, पश्यत लोकाः । अहो ! मोहस्य माहात्म्यं-प्रभावो यतो भागवतींपारमेश्वरी प्रव्रज्या दम्भेन बालिशा विलुम्पन्ति-विनाशयन्ति, यथा कज्जलेन रूपकं-शुभचित्रं विलोपविषयीभवति. ॥१०॥
॥४६॥
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अध्यात्म-18 सारः
॥४७||
षभिरुपमाभि धर्मे दम्भ उपप्लव:'अब्जे हिमं तनौ रोगो, वने वहिन दिने निशा।
ग्रन्थे मौख्यं कलिः सौख्ये. धर्मे दम्भ उपप्लवः ।।११।। टीकाः-(१) सहस्त्रदले कमले हिमस्य पातो यथोपप्लवो-महाभयम् , (२) सौष्ठवशालिनि शरीरे रोगो यथोपप्लवो महाभयरूपः, (३) वृशावलिमहामनोहरेऽपि वने वहिनयथोपप्लवो-महाभयम् (४) दिवसे भयङ्करपुष्कलवादलजनितान्धकारनिशारूप उपप्लवः, (५) स्वविरचितपुस्तकरूपग्रन्थे मूर्खता-बुद्धिविकलता, उपप्लवः, (६) कुटुम्बिस्नेहिजनसत्कसुखममये स्नेहिमिः सह मिथःकालरुपप्लधः, तथाऽऽचाररूपे धर्मे दम्भ उपप्लव उपद्रवभृतमहाभयम् , अतो धर्मसम्बन्धिचरणकरणरूपक्रियामात्रे दम्भः समूलमुन्मूलनीयः ॥११॥
मूलोत्तरगुणपालनेऽसमर्थस्य साधोः सुश्रावकता युक्ता'अत एव न यो धतु, मूलोत्तरगुणानलम् ।
युक्ता सुश्राद्धता तस्य, न तु दम्भेन जीवनम् ॥१२॥ टीकाः -एतावती भयानकता दम्भस्य विद्यतेऽत एवैवं कथयितु शक्यते यतो यो साधुश्चरणसप्तति
॥४७॥
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अध्यात्म-1
मारः
|॥४८॥
टीकाः-(१) निर्दम्भस्य दम्भरहितस्य, यादृशः स्वयमस्ति तादृशस्वरूपदर्शकस्य, (२) शुद्धार्थ भाषिणः=जिनेश्वरप्रणीतप्रवचनोक्तस्यात एव शुद्धसूत्रार्थप्ररूपकस्यार्थाच्छुद्धप्ररूपणाकारकस्य (३) गुणरागिणः-गुणवन्निष्टगुणपक्षपातिनः, अस्य-संविज्ञपाक्षिकरूपस्य, 'अबसन्नस्याऽपि' चारित्राचारे शैथिल्यवतोऽपि, बकुशकुशीलसदृशस्याऽपि, 'स्वल्पाऽपि यतना'-अत्यन्ताऽल्पोऽपि शुद्धश्चारित्रविषयकप्रयत्नो 'निर्जरा दत्ते-कर्मनिर्जरारूपं फलं करोत्येवेति ॥१४॥
दम्भिनां यतिनां नामाऽपि पापाय कल्पते'व्रतभाराऽसहत्वं ये, विदन्तोऽप्यात्मनः स्फुटम् । दम्भाद यतित्वमाख्यान्ति, तेषां नामाऽपि पाप्मने ॥१५॥
टीकाः-महाव्रतानां मेरुभारमुत्पाटयितु स्वीय आत्मा, सर्वथासमर्थत्वाभाववानस्तीति सम्यग् जानन्तोऽपि ये वेषविडम्बका विश्वं वश्चयितु स्वं 'सुविहितो यतिरह' इति दम्भेन प्रख्यापयन्ति, तेषां नामाऽपि पापायवाऽन्यस्य तु का वार्ता ? ॥१५॥
ये यतनां कुर्वते ते यतिनः, ये यतनां न कुर्वते ते यतिनः कथंस्युः ? कुर्वते येन यतनां सम्यककालोचितामपि । तैरहो यतिनाम्नैब दाम्भिकैर्वच्यतेजगत् ॥ १६ ॥
॥४८॥
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अध्यात्मसार:
॥४९॥
टीका० "तत्तत्कालोचितामपि यतनाम्-तत्तत्कालकरणीयतारूपेणोचितषडावश्यकादिरूपसाधुक्रियापालनरूपं प्रयत्नं सम्यग-सुविधिना ये वेषविडम्बका न कुर्वते, अहो तैम्मिकै-र्वश्चर्यतिनाम्नैवनाममात्रयतिशब्देनैव विश्वं वञ्च्यते ॥१६॥
हीनोऽपि दम्भो विश्वं तृणाय मन्यतेधर्मीतिख्यातिलोभेन प्रच्छादितनिजाश्रवः ।
तणाय मन्यते विश्वं हीनोऽपि धृतकैतवः ॥१७॥ टीका:-'धर्मीति ख्यातिलोभेनेति लोकानां मध्ये स्वं 'धर्मीतिप्रसिद्धि प्रज्ञापयितु महत्त्वाऽऽकाङ्क्षया, 'प्रच्छादितनिजाश्रवः स्थगितनिजपापमालिन्यः, कपटपटावृतः, धर्महीनोऽपि हीनताभागपि, विश्वं-जगत , तृणाय-तृणवत्तच्छं मन्यते, श्रेष्ठताहीनोऽपि स्वं श्रेष्ठं गणयन् , विश्वं तृणाय मन्यते कपटपटुः ॥१७॥
__ दम्भी योगप्रतिबन्धकं कठिनकर्म बध्नातिश्रात्मोत्कर्षात्ततो दम्भी परेषां चाऽपवादतः । बध्नाति कठिनं कर्म बाधकं योगजन्मनः ॥१८॥
टीकाः, ततः विश्वं तृणाय मन्यते कपटी, तत्कारणात् , आत्मोत्कर्षात्='अहमेवोत्कृष्टो नाऽन्यः' अर्थाद् दम्भी स्वस्य महत्त्वप्रशंसया, 'परेषां चापवादतः' अन्येषां च निन्दया, अर्थान्मत्तः सर्वोऽपकृष्टः'
O॥४९॥
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अध्यात्म सार:
||५०॥
इति मान्यतया 'योगजन्मनो बाधकं कर्म कठिनं बध्नाति'मोक्षमार्गनामकसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राऽऽत्मकयोगस्योत्पत्ति प्रति प्रतिबन्धकं कठिनं (निकाचित) कर्म बध्नात्येवेति, दम्भिनां मोक्षमार्गयोगो दुर्लभः ॥१८॥
आत्माऽर्थिना दम्भाऽऽरम्भाभावः कर्त्तव्यःश्रात्माऽर्थिना ततस्त्याज्यो दम्भोऽनर्थनिबन्धनम् । शुद्धिः स्यादृजुभूतस्ये त्यागमे प्रतिपादितम् ॥११॥
टीकाः=ततः दम्भस्य मोक्षमार्गरूपयोगस्य प्रतिबन्धकत्वात् , 'आत्मार्थिना=आत्मा-स्वस्वरूपं, अर्थः प्रयोजनमस्त्यस्मिन्नित्यात्मार्थी, तेन, आत्मश्रेयोऽर्थिनेत्यर्थः, 'अनर्थनियन्धनं दम्भस्त्याज्यः' दुःखदुर्गत्यादिरूपाऽनर्थमूलकारणभूतो दम्भस्त्यागविषयीकर्त्तव्यः, यत उत्तराध्ययनसूत्ररूपागमे 'शुद्धिः । स्याद् ऋजुभूतस्येति सरलात्मन्येव धर्मः स्थिरो भवतीति प्रतिपादितं भूयो भूयो स्मर्त्तव्यमेव ॥१९॥
काऽऽज्ञा पारमेश्वरी? जिनै नाऽनुमतं किञ्चि-निषिद्धं वा न सर्वथा । कार्ये भाव्यमदम्भेने त्येषाऽऽज्ञा पारमेश्वरी ॥२०॥
॥५०॥
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अध्यात्म-
सार:
॥५१॥
टीकाः--जिनः तीर्थकरैः, सर्वथा एकान्तेन 'किञ्चिन्नानुमत'=न किश्चिद् विहितं, एकान्तेन किञ्चिन्न निषिद्धं-प्रतिषिद्धं, परन्तु परमेश्वरेणैषाऽऽज्ञा शासनं प्रकटितं, यद् यद् विहितं-शास्त्रे विहितं सर्व विधातव्यम् , यद् यन्निषिद्धं सर्व न कर्त्तव्यमपितु तत्र सर्वत्र कार्याकार्यमध्ये सर्वथा दम्भरहितेन भाव्यं नाऽन्यथेति, यदि दम्भश्चेत्तत्र तदा सर्व निष्फलं, तस्माद् दम्भस्य त्यजनं सर्वस्मात् प्रथमं निरन्तरमावश्यकमनिवार्य कार्य तिष्ठत्येवेति ॥२०॥
__ आत्मार्थिनां स्वल्पोऽपि दम्भो नोचितःअध्यात्मरतचित्तानां दम्भः स्वल्योऽपि नोचितः । छिद्रलेशोऽपि पोतस्य, सिन्धु लङ्घयतामिव ॥२१॥
टीकाः --अध्यात्मामृतभावे रममाणमानसानां स्वल्पोऽपि अत्यन्ताऽल्पोऽपि दम्भो--मायाभावो, नोचितः-नौचित्यमञ्चति, सर्वथा मनसायस्पर्शनीयो दम्भोऽस्ति, यथा सिन्धु-सागरं, लङ्घयता--पारमुत्तरतां सांयात्रिकानां वा, पोतस्य-प्रवहणस्य छिद्रस्य-विवरस्य लेशोऽपि-छिद्रांशोऽपि नोचितः ।।२१॥
___महतामपि दम्भांशो महानर्थहेतुः-- 'दम्भलेशोऽपि मल्ल्यादेः, स्त्रीत्वाऽनर्थनिबन्धनम् । अतस्तत्परिहाराय यतितव्यं महात्मना ॥२२||
॥५
॥
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अध्यात्मसार:
॥५२॥
टीकाः- एकोनविंशतितमतीर्थकरमल्लिनाथादीनां महतामपि त्वरूपमहाऽनर्थमूलकारणं दम्भलेशोऽपि जातः, गणनाऽतीतदम्भस्य तु का वार्तेत्यपि शब्दार्थः, अतो महात्मनाऽन्तरात्मना, तद्दम्भमात्रपरिहाराय यतितव्यमेव, दम्भाऽऽरम्भजन्यदुरितदरीकरणाय सातत्येन यत्नो विधेयः ॥२२॥
___ इत्याचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टघरश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टघरभद्रङ्करमरिणाऽध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायाँ दम्भत्यागाख्यस्तृतीयोऽधिकारः समाप्तः ॥७॥
चतुर्थो भवस्वरूपचिन्ताऽधिकारः प्रस्तूयतेऽधुना-- भवस्वरूपचिन्तनस्यापूर्वमाहात्म्यम्-- 'तदेवं निर्दम्भाऽऽचरणपटुना चेतसि भवस्वरूपं संचिन्त्यं क्षणमपि समाधाय सुधिया । इयं चिन्ताऽध्यात्मप्रसरसरसी नीरलहरी,
सतां वैराग्याऽऽस्था प्रियपवनपीना सुखकृते ॥१॥ टीकाः-तस्मादेवंपद्धत्या दम्भस्याऽऽत्यन्ताभावपूर्वकसदाचरणे पटुना-कुशलेन, सुधिया--समीचीन- बुद्धिवेभवशालिना पुरुषेण क्षणमपि चेतसि--आत्मनि, समाधाय-समाहितो भूत्वा, भवस्य स्वरूप-अध्यात्म
॥५२॥
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अध्यात्म
सारः
॥५३॥
प्रसरगरूपसरस्या नीरलहरी, वैराग्यविधायकश्रद्धारूपप्रियपवनेन पीना सती सतां सुखकृते एव, यथा सरोवरस्य नीरतरङ्गः, अनुकूलसुमधुरपवनेन विलसितः सतां सुखाय भवति, तथा भवस्वरूपचिन्तारूपाध्यात्मप्रसारः, वैराग्यसम्यगदर्शनोभयतः परिपुष्टः सतामध्यात्मरसिकानां सुखाय--आनन्दाय जायत एवेति ॥१॥
संसारसागरस्याऽतिभयानकता'इतः कामौर्वाऽग्नि ज्वलति परितो दुःसह इतः, पतन्ति ग्रावाणो विषयगिरिकूटाद् विघटितः । इतः क्रोधावर्तो विकृतितटिनीसङ्गमकृतः
समुद्र संसारे तदिह न भयं कस्य भवति ? ॥२॥ टीकाः-इतः, एकतो दुःसहः कामनामको वडवानलः परितः-समन्ताज्ज्वलति, अत्र कामरूपवडवानलः, संसारसागरे मुख्यमहाभैरवः, इतः पश्य भाग्यवन् ! विषयनामकगिरिशिखराद् विघटितास्त्रुटिताः प्रस्तराः पतन्ति, इतो विकारनामकनदीनां सङ्गमेन कृता-सृष्टः क्रोधरूप आवत्तॊ भयङ्करः, तत्-तस्मादिहसंसारसागरे कस्य ज्ञानिनो भयं न भवति १ अर्थात् सर्वस्य सम्यग्दर्शिनो भवत्येवेति ।।२।।
वह्मिस्वरूपसंसारदर्शनम्
॥५३॥
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अध्यात्म
सार:
॥५४॥
प्रियाज्याला यत्रोदवमति रतिसन्तापतरला कटाक्षान् धूमोघान कुवलयदलश्यामलरुचीन् । यथाऽङ्गान्यङ्गाराः कृतबहुविकाराश्च विषयाः
दहन्त्यस्मिन् वो भववपुषि शर्म क्व सुलभम् ॥३॥ टीका:-अहो ! किंरिशिष्टो भवाग्निः प्रदीप्तो दृश्यते ? पश्यत भो भव्या यत्र-भवाऽग्नौ रतिजन्यसन्तापेन चञ्चला सती प्रियानामकज्याला, नीलकमलदलश्यामलकान्तिविशिष्टान, कटाक्षनामकधमसमदायान , उद्वमति-ऊर्ध्व क्षिपति, 'अथाऽङ्गान्यङ्गाराः' 'कृतबहु विकाराश्चविषयाः यथाऽङ्गारा अङ्गानि दहन्ति तथा विषयरूपा अङ्गारा, शरीरादिरूपद्रव्याऽङ्गाध्यात्मिकज्ञानादिरूपभावाऽङ्गानि दहन्ति, एतादृशेऽस्मिन् संसारशरीरे (रूपे) वमो 'क्व शर्म सुलभम्'-कुत्र कुतो वा शर्म-सुखं सुलभं ? अर्थाद् दुःखमेव सुलभम् ॥३॥
ससारनामकवधस्थानवर्णनम्'गले दत्त्वा पाशं तनयवनितास्नेहघटितम् , निपीड्यन्ते यत्र प्रकृतिकृपणाः प्राणिपशवः ।
॥५४॥
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अध्यात्मसार:
॥५५॥
नितान्तं दुःखातों विषमविषये आंतकभी
र्भवः सूनास्थानं तदहह महासाध्वसकरम् ॥४॥ टीकाः--यत्र--भवरूपे सूनास्थाने पुत्रस्त्रीसम्बन्धिस्नेहेन निर्मितं पाशं गले दत्त्वा 'प्रकृति कृपणाः'= निसर्गतो दीनरङ्काः, दःखार्ताः, 'प्राणिपशवः'-जीवरूपाः पशवः, विषमविषयनामकै तिकमटेःसौनिकजने नितान्तं-मातत्येन, निपीड़यन्ते-निविडपीडाविषयीक्रियन्ते, तत-तस्मात , अहहेति खेदे, महासाध्वसकरं-महाभयङ्करं भवरूपं सूनास्थानं पश्यतर भो भो भव्याः ॥४॥
भवरूपनिशाचरचित्रम्'अविद्यायां रात्रौ चरति वहते मूर्ति विषमम् कषायव्यालोघं क्षिपति विषयास्थीनि च गले । महादोषान् दन्तान् प्रकटयति वक्रस्मरमुखो
न विश्वासार्होऽयं भवति भवनक्तञ्चर इति ॥५॥ टीकाः-अहो कीदृशो निशाचरः ? पश्य पश्याधुना परिदयमानं विशेषण भवनिशाचरं, (१) एष भवनिशाचरः, अविद्यायां आत्मविषयकाऽज्ञानतानामकघनश्यामायां रात्रिरूपायां, चरति-भ्रमति भक्ष
॥५५॥
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अध्यात्म
सारः
॥५६॥
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यति वा, मृर्ध्नि = मस्तके (मस्तिष्कान्तः) विषमं कषायनामकसर्पसमूहं वहते धत्ते, गले व विषय नामकान्यस्थीनि क्षिपति-परिधत्ते, किश्च वक्रं स्मर एव मुखं यस्य स = वक्रकामसंज्ञारूपमुखः सन् महादोषनामकान् दन्तान्, प्रकटयति--दर्शयति, एतादृशोऽयं भवनिशाचरः कथमपि न विश्वासयोग्यो- प्रीतिप्रतीतिपात्रं भवत्येव विश्वजनाऽविश्वनीय एवैष भवनक्तञ्चरः ||५||
जना
अस्यां भवाटव्यां विना सहायेन गमनमनुचितम् - लब्ध्वा धर्मद्रविणलवभिक्षां कथमपि वामाक्षीस्तन विषमदुर्गस्थितिकृता
प्रयान्तो
विलुट्यन्ते यस्यां कुसुमशर भिल्लेन बलिना,
भवाटव्यां नास्यामुचितमसहायस्य गमनम् ॥६॥
टीका:--केचिजना मार्गदर्शकगुरोः कस्यचित् साहाय्यं विना भववनं पारयितुं साहसं कृतवन्तः, कथमपि धर्म नामक द्रव्यलवस्य भिक्षां लब्ध्वा प्रयान्तः, 'वामाक्षीस्तन विषम दुर्गस्थितिकृता- कामिनीकाश्चनकुम्भकल्पस्तनरूपविषम दुर्गनिवासकारिणा 'कुसुमशरभिल्लेन बलिना' = कामदेवनामकभिल्लेन बलवता, यस्यां भवाटव्यां, विलुटयन्ते = चौर्यविषयीक्रियन्ते, पथिकानां धर्मधनादिपदार्थाः सर्वेऽपहियन्ते, अतोऽस्यां भव नाम काटव्यां, सहाय रहितस्यैककस्य गमनं नोचितं ॥ ६ ॥
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॥५६॥
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अध्यात्मसारः
॥५७||
अयं संसारः कूटघटनाप्रचुरः'धनं मे गेहं मे मम सुतकलत्रादिकमतो विपर्यासादासादितविततदुःखा अपि मुहुः । जना यस्मिन् मिथ्यासुखमदभृतः कूटघटना
मयोऽयं संसारस्तदिह न विवेकी प्रसजति ॥७॥ टीकाः--धनं मदीयं, गृहं मम, मे पुत्रवनितादिकं, 'अतो विपर्यासात्' मिथ्याज्ञामरूपविपरीतयुद्धितो, मुहुः--वारंवारं, 'आसादितविततदुःखाः'बहुविधविस्तृतदुःस्वपरम्परासम्पन्ना जनाः, कूटघटनामये यस्मिन् संसारे 'मिथ्यासुखमदभृतः सुखाभासस्य सुखत्वेनाऽभिमानं बिभ्रतो भवन्ति, तस्मादयं संसारः, 'कूटघटनामयः असत्यरचना-कल्पनामयः, कल्पितोऽस्ति, ततोऽसद्--भ्रमाऽऽत्मके भवेऽस्मिन् 'विवेकी न प्रसजति' विवेकविशिष्टो न प्रकर्षण सक्ति करोत्येवेति ॥७॥
संसारोऽयं कारागार एव'प्रियास्नेहो यस्मिन्निगडसहशो यामिकभटो-- पमः स्वीयो वर्गो धनमभिनवं बन्धनमिव ।
॥५७॥
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अध्यात्म.
सार:
॥५८॥
मदामेध्याप्पूर्ण व्यसनविलसंसर्गविषमम् ,
भवः कारागेहं तदिह न रतिः क्वापि विदुषाम् ॥८॥ ___टीकाः-यस्मिन् संसारकारागृहे निगडसदृशः प्रेमवत्याः स्नेहोऽस्ति प्राहरिकभटस्थानीयः स्वीयो वर्गः स्वजनवर्गः, नवीनबन्धनस्थानीयं धनं वर्त्तते 'मदामेध्यापूर्ण' =अभिमाननामकापवित्रपदार्थेन, आसमन्तात् पूर्ण, 'व्यसनबिलसंसर्गविषमम्' विपत्तिवाररूपबिलानां संसर्गेण विषमं भवनामककारागेहमस्ति, तत्-तस्मादिह-अस्मिन् भवकारागेहे क्वापि-कुत्राऽपि, विदुषां सम्यग्ज्ञानिनां, न रतिः-रमणताऽस्ति, विद्वांसो भवचारके कुत्रचिदपि न रमन्ते ॥६॥
श्मशानसमानसंसारप्रदर्शनम् - 'महाक्रोधो गृनोऽनुपरतिशगाली च चपला, स्मरोलूको यत्र प्रकटकटेंशब्दः प्रचरति । प्रदीप्तः शोकाग्निस्ततमपयशो भस्म परितः,
श्मशानं संसारस्तदभिरमणीयत्वमिह किम् ॥६॥ टीकाः-यत्र-प्रेतवनभूतसंसारे, महाक्रोधनामकदूरदृक् , उड्डयते, अविरतिनामकशृगाली चापल्यवती सती धावन्ती व टिलकामवासनारूपाऽमङ्गलकारिकाकारिः, अपशुकनकर कटुशब्दं प्रकट
॥५८॥
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अध्यात्मसार:
॥५९॥
यन् प्रचरात च, शोकनामकोऽग्निः प्रदीप्तः, अपकीर्तिरूपं भस्म, परित:-समन्तात , ततं विस्तृतमस्ति, एतैः कारणेः संसारः श्मशानमेव, तत-तस्मादिह-भवप्रेतगहे किमभिरमणीयत्वं? अर्थात न किमप्यभितो रमणीयत्वमस्ति ।
विषवृक्षेण सह संसारस्य तोलनम्'धनाशा यच्छायाऽप्यति विषममूर्छाप्रणयिनी, विलासो नारीणां गुरुविकृतये यत्सुमरसः । फलाऽऽस्वादो यस्य प्रसरनरकव्याधिनिवह
स्तदाऽस्था नो युक्ता भवविषतरावत्र सुधियाम् ॥१०॥ टीका:-यस्य-भवविषतरो र्धनाशानामकच्छायाऽपि (छायात इतरस्य तु का कथेत्यप्यर्थः) अत्यन्तविषममूर्छा-(चैतन्यामाव) प्रणयिनी 'यत्सुमरसः' यस्य भवविषतरो नारीणां-विलासिनीनां हावभावकटाक्षादिरूपविलासनामकः पुष्परसः 'गुरुविकृतये' अनन्तजन्ममरणादिवर्धकत्वेन दुरन्तत्वेन महाविकाराय प्रगल्भते, यस्य-भवविषतरोः प्रसर-व्यापकनरकान्तर्गतकोटिकोटिमितव्याधिसमुदायनामको रसास्वादो निगद्यते, तत्-तस्मादत्र भवविषतरौ सुधियां-सम्यग् ज्ञानवता, 'आस्था'-स्थितिर्विश्वासो वा, 'नो युक्ता'-युक्तिमती नेत्यर्थः। ॥१०॥
॥५
॥
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अध्यात्म.
सारः
॥६॥
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भवस्याऽनेकरङ्गत्वेन विविधविषमता'क्वचित् प्राज्यं राज्यं व्वचन धनलेशोऽप्यसुलभः, क्वचिज्जातिस्फातिः क्वचिदपि च नीचत्वकुयशः । क्वचिल्ला व राय श्री रतिशयवती क्वापि न वपुः । स्वरूपं वैषम्यं रतिकरमिदं कस्य नु भवे ? || ११ | 'क्वचित् ' = व्यक्ति विशेषे प्राज्यं विशालं राज्यं
11
"
धनस्य लेशोऽपि न सुलभ :जातेरुच्चवं यशो वृद्धिश्व
नीचजातित्वं कुचशश्व
क्वचिद् व्यक्तिविशेषेऽतिशयवती, रूपलावण्यश्रीः अर्थात् सर्वाऽतिशायिरूपलावण्य सुषमा, क्वचिदूव्यक्तिविशेषे कुब्जं - लक्षणविहीनं शरीरं वर्त्तते जाने न वपुः-न शरीरमिव दृश्यते, अस्मिन् भवे स्वरूपं विषमतामयमिदं कस्य - पुरुषस्य रतिकरं - सुखकरं स्यादर्थान कस्यापीत्यर्थः । प्रकटसुखर हितभवनामकधाम -
॥११॥
'इहोद्दामः कामः खनति परिपन्थी गुणमहीमविश्रामः पाश्र्वस्थितक परिणामस्य कलहः
"
11
""
دو
I
॥६०॥
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अध्यात्म
सारः
बिलान्यन्तःकामन्मदफणभृतां पामरमतम् ,
वदामः किं नाम प्रकटभवधामस्थितिसुखम् ॥१२॥ टीकाः-इह-संसाररूपगृहे कामनामकः परिपन्थी-शत्रुः, उद्दामः-उच्छृङ्खलः सन् । गुणरूपपृथिवीं खनति, अत्र ज्ञानादिगुणकामयोः परस्परं शत्रुत्वमावेदितम् , यत्र कामो न तत्र ज्ञानादिगुण इति बोध्यम् , किश्च 'पार्श्वस्थितकुपरिणामस्य कलहोऽविश्रामः' प्रातिवेश्मिकाशुभपरिणतिरूपकुमतेः कलहो-वागयुद्ध, विरामविरहितो वर्तते, तथाचाऽन्तःकामतामन्तःप्रविशतां मदाष्टकरूपाणां फणिनां पिलानि दृश्यन्ते, 'पामरमतं प्रकटभवधामस्थितिसुखं किं नाम वदामः =अज्ञानिमिर्मतं, संसाररूपग्रहस्थितेः सुखं प्रकटं कदाचिकिमपि नेत्येव वदामः, पामरमतं न प्रतिपत्तव्यं, परमपुरुषमतं तु माननीयमेवेति ॥१२॥
भीमभवरूपग्रीष्मतु वर्णनम्'तृषार्ताः खिद्यन्ते विषयविवशा यत्र भविनः, करालक्रोधार्काच्छमसरसि शोषं गतवति । स्मरस्वेदक्लेदग्लपितगुणमेदस्यनुदिनम् , भवग्रीष्मे भीष्मे किमिह शरणं तापहरणम् ॥१३॥
॥६शा
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अध्यात्म
सार:
टीका:-यत्र-भवनामकग्रीष्मे त्रयोविंशतिविधेन्द्रियविषयविवशा भविनः, तृषार्ताः-तृष्णया तृषिताः, खिद्यन्ते खिन्ना भवन्ति, 'करालक्रोधाऽर्कात् प्रचण्डक्रोधनामकचण्डकिरणात् , 'शमसरसि शोषं गतवति'= उपशमरूपकमलाकरे शुष्कता प्राप्तवति, अनुदिन-प्रतिदिनं 'स्मरस्वेदक्लेदग्लपितगुणमेदसि' कामवासनारूपस्वेदातया शोषितगुणनामकमेदोरूपधातुविशेषे, इह भवनामके भीष्मे-भयङ्करे ग्रीष्मे निदाघे तापहरणं शरणं किं ? न किमपि शरणमस्ति, अतोऽशरणोऽयं भवग्रीष्मः ॥१३॥
स्वार्थपरायणत्वेन भवसुखस्य रसत्यागः श्रेयान्'पिता माता भ्राताऽप्यभिलषितसिद्धावभिमतो, गुणग्रामज्ञाता न खलु धनदाता च धनवान । जनाः स्वार्थस्फातावनिशमवदाताशयभृतः,
प्रमाता कः ख्याताविह भवसुखस्याऽस्तु रसिकः ॥१४॥ टीका:-'अभिलषितसिद्धौ' अभीष्टस्वार्थसिद्धौ सत्यामेव पिता पितृत्वेन, माता मातृत्वेन, भ्राता भ्रातृत्वेनाऽभिमतः-मानितो नान्यथा, यत्र च वसन् धनवान् न गुणग्रामज्ञाता खलु-निश्चये न धनदाता, यत्र 'जनाः स्वार्थस्फातौ-स्वार्थद्धिमपेक्ष्य सुष्ट्रव्यवहारकरणेकाभिप्रायवन्तः सन्ति, इह-संसारे भवसुख
॥६२।।
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अध्यात्मसारः
॥६३॥
स्यैतादृशी ख्यातिः-प्रसिद्धिरस्ति तदा का प्रमाता-सम्यग्दृष्टिरात्मा, भवसुखस्य रसिकोऽस्तु ? न कोऽपि प्रमाता भवसुखरसिकः स्यादिति ||१४||
विश्वासघातकोऽयं भवः'पणैः प्राण गहणात्यहह महति स्वार्थ इह यान , त्यजत्युच्चैलॊकस्तृणवदघणस्तानपरथा । विषं स्वान्ते वक्त्रेऽमृतमिति च विश्वासहतिकृद ,
भवादित्युवेगो यदि न गदितः किं तदधिकैः ॥१५॥ टीका:-अहहेत्याश्चर्ये, इह-संसारे महति स्वार्थ उपस्थिते लोकः, पणैः प्राणैः प्राणान् मुक्त्वाविक्रीय, यान्-पुरुषान् गृणाति-स्वसात् करोति, अपरथा स्वार्थसमाप्ती सत्यां लोकः, अघृणः-निर्दयः सन् , तान् स्वार्थे सिति ये प्राणवद् गृहीतास्तान् पुरुषान् उच्चैः-सर्वथा तृणवत् त्यजति-क्षिपत्येव, किञ्चैतादृशदाम्भिकहृदये विष-हलाहलं मुखेऽमृतमिति भेदभूतमायामयाद् विश्वासघातकारिभवाद् यदि निर्वेदरूपोद्वेगो न भवेत्तदा ततोऽधिकैर्गदितैः कि? अर्थादलं विशेषकथनेनेति ॥१५।।
मोहस्य भवभवनवषम्यघटना'दृशां प्रान्तैः कान्तैः कलयति मुदं कोपकलितैरमीभिः खिन्नः स्याद् घनधननिधीनामपि गुणी ।
।।६३॥
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अध्यात्म सार:
६४॥
उपायैः स्तुत्यायैरपनयति रोषं कथमपी ।
त्यहो मोहस्येयं भवभवन वैषम्यघटना ॥१६॥ टीका:-'धनधननिधीनाम्' =कुबेरसदृशां महतां श्रीमतां दृशां नयनानां 'प्रान्तः कान्तैः'-सौम्यरम्यैः प्रान्तभागैः 'अपि गुणी'-गुणसम्पन्नोऽपि मुदं-हर्ष, कलयति-अनुभवति, अमीभिः दृशां प्रान्तैरमीभिः, कोपकलितैः सद्धिः, गुणशाल्यपि खेदसम्पन्नो भवेत् , तथा च कथमपि चटुलचाटुशतैः प्रशंसागर्भित प्रशस्तिप्रभृतिभिरुपायैः रोषमपनयति'-क्रोधमपाकरोति, 'इत्यहो मोहस्येयं भवभवनवैषम्यघटना' अहो ! इत्याश्चयें संसाररूपगृहस्य मोहनाम्ना राज्ञा घटिता कीशी वैषम्यवैचिच्यचित्रिता घटनानाटक नटीपटिका ? ॥१६॥
अपूर्वाऽऽध्यात्मिककुटुम्बकम्'प्रिया प्रेक्षा पुत्रो विनय इह पुत्री गुणरतिः, विवेकाख्यस्तातः परिणति रनिंद्या व जननी । विशुद्धस्य स्वस्य स्फुरति हि कुटुम्बं स्फुटमिदम् , भवे तन्नो दृष्टं तदपि बत संयोगसुखधीः ॥१७॥
1॥१४॥
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अध्यात्म
सारः
॥६५॥
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टीका :- इह - अध्यात्मजगति, प्रियास्थानीया तत्वचिन्तनरूपा प्रेक्षा (बुद्धिविशेषः) पुत्रस्थानीयो गुरुजनादर बहुमानादिरूपो विनयो (धर्म प्रति मूलभूतो विनयोऽस्ति ) पुत्रीस्थानीया गुणरतिः - गुणिजनगणगुणाऽनुरागः) 'विवेकाऽऽख्यस्तात : ' = सारासारादिविवेचनशक्तिरूपः पिता, 'परिणतिर निन्द्या च जननी' = पवित्रप्रशस्ता परिणतिः -- परिणामधारा, जननी -मातृस्थानीया 'विशुद्धस्य स्वस्य स्फुरति कुटुम्बं हि स्फुटमिदं ' = विशुद्धिविशिष्टस्य स्वस्याऽऽत्मनः, हीति निश्वये, इदं स्पष्टं प्रेक्षाप्रियादिरूपं कुटुम्बं स्फुरति विलसति, तत्-- स्वाऽऽत्मकुटुम्बं 'भवे नो दृष्टं ' = अदृष्टपूर्वमिदमाध्यात्मिक कुटुम्बमस्ति, 'तदपि त संयोगसुखधीः' - तथापि खेदजनिकेयं कथा यत् पौद्गलिकसंयोगेषु दुःखपरम्पराजनकेषु सुखाभावेषु सुखबुद्धि भ्रमात्मिकां जीवः करोति, पुद्गलद्रव्यस्य न गुणः सुखं, चेतनस्य गुणः सुखं सुखाभाववति संयोगात्मक मनोज्ञपुद्गलद्रव्ये सुखकल्पना भ्रमः, यथा रजतत्वाभाववत्यां शुक्तिकायां रजतमिदमिति बुद्धि मिथ्याज्ञानाऽऽत्मिका भ्रान्ता ॥१७॥
अस्मिन् संसारे क्वचिदपि सुखं न'पुरा प्रेमारम्भे तदनु तदविच्छेदघटने, तदुच्छेदे दुःखान्यथ कठिनचेता विषहते
॥६५॥
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अध्यात्मसा:
॥६६॥
विपाकादापाकाहितकलशवत्तापबहुला
ज्जनो यस्मिन्नस्मिन् क्वचिदपि सुखं हन्त न भवे ॥१८॥ टीका:-पुरा--प्रथमं तावत् प्रेम्ण आरम्मे--प्रेमसृष्टेरादौ दुःखानि, तदनु--प्रेमाऽऽरम्भानन्तरं 'तदविच्छेद घटने'तस्य प्रेम्णोऽविच्छेदघटने-अखण्डितत्वकरणे दुःखानि, अथ 'तस्य--प्रेम्ण उच्छेदे-- प्रियपात्रवियोगे सति पापोदये वा परपाक्षिकप्रेमविनाशे दुःखानि कठिनमना विषहते, 'आपाकाहिंतकलशवत्' --इष्टकापाकस्थानाऽग्निना परिपक्वरक्तघटवत् 'तापबहुलाद् विपाकाद्' प्रचण्डतापरूपोग्रपापकर्मोदयात् , यस्मिन् भवे वजवकठिनचेताः सन् , जनस्तादृशदुःखानि, विशेषतः सहते, तस्मादस्मिन्
नि हन्तति खेद, न सुखमानन्दोऽपितु, अन्ततो गत्वा दुःखमेव सर्वत्र जम्भते ॥१८॥ महामोहराजमात्रस्य रणभूमि भव:'मृगाक्षीदृग्वाणैरिह हि निहतं धर्मकटकम् , विलिप्ता हृदेशा इह च बहुलै रागरुधिरैः । भ्रमन्त्यूचं करा व्यसनशतगृघ्राश्च तदियम् , महामोहक्षोणीरमणरणभूमिः खलु भवः ॥१९॥
॥६६॥
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अध्यात्मसार
टीकाः-हीति निश्चये, इह-संसाररूपसमराङ्गणे 'मृगाक्षीदृग्वाणैनिहतं धर्मकटकम्' ललनानयनाऽपाङ्गदर्शनवेधककटाक्षलझबाणवणे धर्मनामकं सर्वथा संरक्षणीयसेनाकदम्बकं निहतं-खण्डखण्डशः कृतं, 'इह च बहुलै रागरुधिरै विलिप्ता हृद्देशाः' इह-यत्र भवसमराङ्गणे धर्मसैनिकानां हृदयप्रदेशा बहले रागनामकरुधिरै विलिप्ताः-खरण्टिताः, किश्च 'व्यसनशतगृघ्राश्च भ्रमन्त्यूचं कराः' विपत्तिशतनामकगृघाः ऋराःसन्त ऊर्ध्व भ्रमन्ति, यत्र संसारसमराङ्गणे तत-तस्मादियं खलु--निश्चये विजयहेतवे महामोहरूपमहाराजस्य रणभूमिरूपभव एवेति न संशयः ॥१९॥
भवे मोहोन्मादस्य प्रदर्शनम्'हसन्ति क्रीडन्ति क्षणमथ च खिद्यन्ति बहुधा' रुदन्ति क्रन्दन्ति क्षणमपि विवादं विदधते । पलायन्ते मोदं दधति परि नृत्यन्ति विवशाः,
भवे मोहोन्मादं कमपि तनुभाजः परिगताः ॥२०॥ टीका:-'भवे कमपि मोहोन्मादं परिगतास्तनुभाजः'अस्मिन् संसारे वचनाऽतीता मोहस्योन्मत्तता सर्वतः परिगताः शरीरिणः, विवशाः-विहवलाः सन्तः, क्षणं इसन्ति-हास्यं कुर्वन्ति, क्रीडन्ति-क्रीडा
॥६७|
॥६७॥
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अध्यात्म सार:
॥६८॥
विदधति, अथ च क्षणं बहुधा-बहुभिः प्रकारैः खिद्यन्ति--विषादवन्तो भवन्ति, क्षणमपि रुदन्ति, क्रन्दन्तिपरिदेवनं कुर्वन्ति, क्षणं विवाद-कलहं विदधते, क्षणं पलायन्ते-द्रुतं द्रुतं धावन्ति, क्षणं मोहं--मृढतां दधति धारयन्ति, क्षणं परिनृत्यन्ति=विविधैः प्रकार हर्षेण नृत्यं कुर्वन्तिः ॥२०॥
भवक्रीडा दहति हृदयं तात्त्विकदृशाम्-- 'अपूर्णा विद्यव प्रकटखलमैत्रीव कुनयप्रणालीवाऽऽस्थाने विधववनिता यौवनमिव । अनिष्णाते पत्यो मृगद्दश इव स्नेहलहरी,
भवक्रीडाब्रीडा दहति हृदयं तात्त्विकदृशाम् ॥२१॥ टीका:--'अपूर्णा विद्येव'--पूर्णताविहीनज्ञानवत् (अल्पज्ञानं महाहानिकर ), 'प्रकटखलमैत्रीव' = नामाऽङ्कितदुर्जनेन सह मित्रतावत् 'कुनयप्रणालीवाऽऽस्थाने' सभायां न्यायतो विपरीतपद्धतिवत् , 'विधववनितायौवनवत्'-मृतपतिकाया वनिताया यौवनवत् 'अनिष्णाते पत्यो मृगदृश इव स्नेहलहरी"= शृङ्गाररसविविधप्रकाराऽनभिज्ञे स्वामिनि प्रियायाःस्नेहलहरीवद् व्रीडा लज्जाऽऽत्मिका, भवक्रीडा--कर्मकृतभवीयविविधलीला, ताचिका -तत्वपर्यन्तगामुकदृष्टिकाना, सम्यगदृशां, पूर्वकथितदृष्टान्तवद् दहति हृदयं--अशान्तं करोत्येव, व्रीडात्मकमवक्रीडात्याग एव हृदयं शीतं शान्तं शुद्धं जनयत्येवेति ॥२१॥
।।६८॥
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अध्यात्म सारः
भवोऽयं मिथ्यारूप:'प्रभाते सआते भवति वितथा स्वापकलना, दिचन्द्रज्ञानं वा तिमिरविरहे निर्मलदृशाम् । तथा मिथ्यारूपः स्फुरति विदिते तत्त्वविषये,
भवोऽयं साधूनामुपरतविकल्पस्थिरधियाम् ॥२२॥ टीकाः-यथा प्रभाते सञ्जाते स्वापकलना=स्वप्नगतसमृद्धिर्वितथा-अथवा सुन्दर स्वप्नानां समृद्धि वितथाऽसत्या भवति, यथा वा तैमिरिकरोगस्य विरहे निर्मलदृशां पूर्वीथद्विचन्द्रज्ञानं मिथ्या भवति, तथा तचभूतविषये विज्ञाते सति, उपरता विकल्पा येषां तेऽतएव स्थिरा धी येषां तेषां साधूनां सत्पुरुषाणां भवोऽयं मिथ्यारूपो-मायारूपः स्फुरति--भासते ।।२२।।
इदानीं तु स्वात्मनि रतिरेव'प्रियावाणी वीणाशयनतनुसम्बाधनसुखै-- भवोऽयं पीयूष घटित इति पूर्व मतिरभूत् ।
॥६९॥
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अध्यात्म
सारः
अकस्मादस्माकं परिकलिततत्त्वोपनिषदा
मिदानीमेतस्मिन्नरतिरपि तु स्वात्मनि रतिः ॥२३॥ टीकाः-प्रेयसीमधुरप्रियवाचा, वीणावादित्रादिश्रवणेन शय्याकोमलस्पर्शेन शरीरशुश्रूषासंस्कारसुगन्धपरिकर्मादिभिः जन्यैः सुखैः, अयं संसारः, पीयूषैरमृतै घटितो-निर्मापितोऽस्ति विधात्रेति मे-मदीया मति बुद्धिः पूर्वमभूदासीत् , अकस्माद्-निसर्गतो, परिकलिततचोपनिषदा-सम्यगवगततत्त्वरहस्यानाम स्माकमिदानीमधुना, एतस्मिन् प्रत्यक्षरूपेऽस्मिन् भवे न रती रमणता, अपितु-परन्तु, स्वात्मनि स्वाऽऽत्मस्वरूपे रतिरानन्द एवेति ॥२३॥
भवप्रपञ्चेभ्यो विरतिरस्तु'दधानाः काठिन्यं निरवधिकमाविद्यकभवप्रपञ्चाः पाञ्चालीकुचकलशवन्नातिरतिदाः । गलत्यज्ञानाऽभ्रे प्रसमररुचावात्मनि विधौ, चिदानन्दस्यन्दः सहज इति तेभ्योऽस्तु विरतिः ॥२४॥
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अध्यात्मसार:
॥७१॥
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टीका:- अविद्यायां भवमाविद्य', आविद्यमेवाऽऽविद्यकमर्थात्, 'नित्यशुच्यात्मताख्यातिर नित्याशु चयनाऽत्मसु, अविद्येति लक्षणरूपाऽविद्याजन्या भवप्रपञ्चाः पाश्चालीकुचकलशवत्, निरवधिकं - निः सीमं काठिन्यं दधानाः, 'नातिरतिदाः = अतीव रतिं न ददतीत्येवंशीलाः, नातिरतिदाः, सामान्यरतिकरा भवन्ति परन्तु यदाऽज्ञाननामके - वार्दले गलति सति, प्रसृमररुचौ -विसारिकलाकिरणवति, आत्मनि विधौ - आत्मनामकचन्द्रे (आत्मनामकचन्द्रतः ) चिदानन्दस्यन्दः - ज्ञानाऽऽनन्दप्रवाहः सहजो भवतीति स्थिते 'तेभ्योऽस्तु विरति : ' = अविद्याजन्यभवप्रपञ्चेभ्यो विरामो भवत्वितीच्छा ॥२४॥
को मूर्खः स्वाधीनं सुखं त्यक्त्वा पराधीनं सुखमिच्छेत् ? 'भवे या राज्यश्री जतुरगगो सङ्ग्रहकृता, न सा ज्ञानध्यानप्रशमजनिता किं स्वमनसि बहिर्याः प्रेयस्यः किमु मनसि ता नाऽऽत्मरतयः, ततः स्वाधीनं कस्त्यजति सुखमिच्छत्यथ परम् ॥ २५॥
टीका :- भवे संसारे या गजतुरगगोसङ्गह- परिग्रहेण कृता राज्यश्रीरस्ति सा राज्यलक्ष्मीः स्वमनसि ज्ञानेन ध्यानेन प्रशमेन जनिता किं न १ अर्थाद् गजादिपरिग्रहकृतभवीयबाह्यराज्यलक्ष्मीतो ज्ञानादि
॥७१॥
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अध्यात्मसार:
॥७२॥
जनितात्मीयाऽऽभ्यन्तरीयराज्यलक्ष्मीः शाश्वती सत्या स्वतन्त्रैवेति बोध्यम् , या बहिः प्रेयस्यः--कान्तास्ता मनसि-आत्मनि, आत्मरतयः--आत्मस्वरूपरमणतानामिकाः प्रेयस्यः किमु न? अर्थात् , आत्मन आत्मरमणतानामकप्रेयसीं मुक्त्वा नाऽन्या, शाश्वतशर्मदायिनी प्रेयसी विद्यते, ततः तेन हेतुना स्वाधीनं सुखं करत्यजति ? अथ परमन्यत्सुखं क इच्छति ? न कोऽपीच्छति ॥२५॥
पराधीने सुखे को रमते च स्वाधीने सुखे के रमन्ते ?-- 'पराधीनं शर्म क्षयि विषयकाक्षौघमलिनम्, भवे भीतेः स्थानं तदपि कुमतिस्तत्र रमते । बुधास्तु स्वाधीनेऽक्षयिणि करणौत्सुक्यरहिते,
निलीनास्तिष्ठन्ति प्रगलितभयाऽऽध्यात्मिकसुखे ॥२६॥ टीकाः-भवीयं सुखं विशेषयति, तथाहि-भवे-भवीयं शर्म (१) पराधीनं-स्वात्मभिन्नपुद्गलपदार्थसापेक्षं, (२) क्षयि-क्षणविनश्वरं, (३) विषयकाङ्क्षौघमलिनं-विषयविषयकरसाऽऽसक्तितो मलिनम् , (४) भीतेः स्थानं-रोगादिदुर्गत्यादिमयस्य स्थानमधिष्ठानम् , समस्ति तदपि-तथापि, कुमतिः-दृष्टदृष्टिसृष्टिविशिष्टः, तत्र भवसुखे रमते-रमणतां कुरुते, परन्तु बुधाः-सम्यग्दृष्टिज्ञप्तिसम्पन्नाः, (१) स्वाधीने
॥७२॥
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अध्यात्ममार:
स्वात्ममात्रसापेक्षे, (२) अशयिणि शाश्वते (३) करगौत्सुक्यरहिते-इन्द्रियाणामाकुलतामुक्ते (४) प्रगलितभयाऽऽध्यात्मिकसुखे सर्वथासर्वभयरहिताऽऽध्यात्मिकसुखे निलीनास्तिष्ठन्ति-प्रलग्नाः सन्ति ॥२६॥
भवस्वरूपचिन्ताप्रकरणस्योपसंहारः-- 'तदेतद् भाषन्ते जगदभयदानं खलु भवस्वरूपाऽनुध्यानं शमसुखनिदानं कृतधियः । स्थिरीभूते यस्मिन्विधुकिरणकपुरविमला,
यशः श्रीःप्रौदा स्याज्जिनसमयतत्त्वस्थितिविदाम् ॥२७॥ टीका:-त-तस्मात् , कृतधियः विद्वांसः, खलु-निश्चये, जगदभयदानं जगज्जन्तुभ्योऽभयस्य दानं यस्मात्तत् , संवेगतो निरपेक्षतया जगति भयदानाऽभावः, 'शमसुखनिदानं' शमनामकसुखस्य निदानंमूलकारणं, वैराग्यतो-बैतृष्ण्यतः प्रशमाऽऽनन्दनिदानं, एतद्भवस्वरूपाऽनुध्यानं-प्रत्यक्षतो दृश्यमानं भवस्वरूपचिन्तनं भाषन्ते, यस्मिन्-भवस्वरूपचिन्तने मनसि स्थिरीभूते सति, 'जिनसमयतत्वस्थितिविदा' =सर्वज्ञप्रणीतसिद्धान्तरहस्यस्थितिवेत्तणां, विधुकिरणकपूरविमला यशाश्रीः प्रौढा स्यादिति ॥२७॥
इत्याचार्यश्रीमद्विजयलब्धिमूरीश्वरपट्टघराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रङ्करसूरिणा कृतापामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां भवस्वरूपचिन्ताऽऽख्यश्चतुर्थोऽधिकारः समाप्तः ॥
॥७३॥
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अध्यात्म सार:
॥
४॥
अथ पैराग्यसम्भवाधिकारः पञ्चमः प्रारभ्यते
पैराग्यशक्षणं निरूप्यते-- 'भवस्वरूपविज्ञानार् द्वेषान्नैर्गुण्यदृष्टिजात् ।
तदिच्छोच्छेदरूपं दाग वैराग्यमुपजायते ॥१॥ ___टीका:-'भवस्वरूपविज्ञानात्'-पूर्वाधिकारवर्णितभवस्वरूपविज्ञानजन्यं, 'नैगुण्यदृष्टिजाद् द्वेषात्'=भवो निर्गुणः-सदोषोऽस्तीति दृष्टिः सञ्जायते, भवनैगुण्यदृष्टितो भव-भवसुखं तत्साधनानि प्रति द्वेषोअरुचिः-रसाभावो जायतेऽत एव भवद्वेषजन्यं, 'तदिच्छोच्छेदरूपं वैराग्यं द्राग् जायते' नैगुण्यदृष्टिजन्यभवद्वेषजन्यं, 'तदिच्छोच्छेदरूपं वैराग्यं द्राग जायते' नैगुण्यदृष्टिजन्यभवद्वेषतो संसारभोगस्येच्छानाशो जायते, भवेच्छानाशरूपं-मोक्षतत्साधनमिन्नवैषयिकपुद्गलपदार्थमा प्रति रसासक्तिभावस्य नाशरूपं चैराग्यं झटिति सञ्जायते, वैराग्यस्योत्पत्तिक्रमश्चेत्थं (१) भवस्वरूपस्य विज्ञानं (२) ततो भवं प्रति नैगुण्यदृष्टिः (३) ततो भवं प्रति पूर्णद्वेषः (४) ततः भवीयसुखतत्साधनभोगेच्छानाशरूपं वैराग्यम् ॥ -विषयसौख्यसिद्धया वैराग्यमिति कमतस्य खण्डनम्
'सिद्धया विषयसौख्यस्य वैराग्यं वर्णयन्ति ये । मतं न युज्यते तेषां यावदर्थाऽप्रसिद्धितः ॥२॥
॥७
॥
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अध्यात्मसार:
॥७५॥
टीकाः केचिदेवं कथयन्ति यत् 'भवस्वरूपविज्ञानाद् वैराग्यं न प्रादुर्भवति परन्तु प्रियविषयसौख्यस्य सिद्धया-प्राप्त्या विषयान् प्रति वैराग्यं भवति' अर्थाद ये विषयसौख्यस्य सिद्धया वैराग्यं वर्णयन्ति तेषां मतं न युज्यते, कथमिति चेत् 'याबदाऽप्रसिद्धितः' यावन्तोऽया-विषयास्तेषामप्रसिद्धितोऽसिद्धितः, अर्थात सर्वेषामर्थानामप्राप्तिरूपाऽसम्भवतः कथं वैराग्यं भवेत , कारणाऽभावप्रयुक्तोऽत्र कार्याऽभावो ज्ञेयः, विषयसौख्यसिद्धितो वैराग्यं भवतीति न वक्तव्यमपितु भवस्वरूपविज्ञानादिक्रमसिद्भितो वैराग्यमेव भवति नाऽन्यथेति वक्तव्यमिति ॥२॥
पूर्वकथितं विषयं पुनदयति'अप्राप्तत्वभ्रमादुच्चै-रखाप्तेष्वप्यनन्तशः ।
कामभोगेषु मूदानां समीहा नोपशाम्यति ॥३॥ टीका:-अनन्तभवाऽपेक्षयाऽनन्तशः-अनन्तवारान् , कामभोगेषु प्रत्येकविषयसुखेषु, अवाप्तेषुप्राप्तपूर्वेषु सत्सु, 'अप्राप्तत्वभ्रमात्' इमे कामभोगा अभिनवा मया प्राप्ता इति मोहजनितमहाभ्रमवशात् , मृदानां मोहमूढानां 'कामभोगेषु समीहा नोपशाम्यति'-अनन्तशः प्राप्तकामभोगविषयकभवेच्छा न शान्ता भवति प्रत्युतोद्दीप्यमाना भवति
॥७५॥
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अध्यात्म
भार:
||७६॥
विषयोपभोगेन पुनः कामो वर्धमानो भवति'विषयः क्षीयते कामो नेन्धनैरिव पावकः ।
प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्ति-भूय एवोपवर्द्धते ॥४॥ टीकाः-इन्धनैः पावको न शाम्यति यथा, तथा विषयैः-कामभोगैः कामः वेदाऽऽख्यवासना न क्षीयते, 'प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्ति' कामवासनाक्षयस्तु दरेऽस्तु प्रत्युत कामानामुपभोगेन प्रवर्धमानशक्तिशाली कामनामकः पावको 'भूय एवोपवर्द्धते'-पुनरेवाऽभिवर्धते, कामनाशं प्रति विषयसिद्धि न कारणम् , कामस्योत्तरोत्तरवृद्धि प्रति कामोपभोगः कारणम् , ॥४॥
विषयेष्ठ प्रवृत्तानां वैराग्यं दुर्लभम् - सौम्यत्वमिव सिंहानां, पन्नगानामिव क्षमा ।
विषयेषु प्रवृत्तानां, वैराग्यं खलु दुर्लभम् ॥५॥ ____टी० 'सिंहानां सोम्यत्वमिव'-सिंहेषु प्रकृतितः शान्तत्वं नास्ति ततः कथ्यते यथा सिंहेषु सौम्य त्वं दुर्लभम् , ‘पन्नगानामिव समा'-क्रोधप्रकृतीनां सर्पाणां क्षमा-सहनशीलता दुर्लभा, तथा खलु-निश्चये 'विषयेषु प्रवृत्तानां स्पर्शादिविषयेषु प्रवृत्तिशीलाना, वैराग्यं दुर्लभं-दुःखेन लभ्यत' इति ॥५॥
७६।
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अध्यात्मसारः
॥७७॥
वैराग्यं प्रति विषयत्यागः कारणम्'अकृत्वा विषयत्यागं यो वैराग्यं दिधीर्षति ।
थपथ्यमपरित्यज्य, स रोगोच्छेदमिच्छति ॥६॥ टीका:-'अकृत्वा विषयत्यागे' विषयाणामुपभोगं कृत्वा 'यो वैराग्यं दिधीति' यो वाह्यतो वैराग्यं दिधीति'-धत मिच्छति, 'सोऽपध्यमपरित्यज्य रोगोच्छेदमिच्छति' =कुपथ्यमत्यक्त्वा स मृखों रोगस्य समलमुच्छेदमिच्छति यथा रोगस्योच्छेदं प्रति कुपथ्यत्यागः कारणम् , तथा दैराग्यं प्रति विषयोपभोगत्यागः कारणम् ॥६॥
विषयाऽऽसक्ते चित्ते वैराग्यं न तिष्ठति'न चित्ते विषयासक्ते, वैराग्यं स्थातुमप्यलम् ।
श्रयोघन इवोत्तप्ते, निपतन् बिन्दुरम्भसः ॥७॥ टीका:-'न चित्ते विषयाऽऽसक्ते वैराग्यं स्थातुमयलम्'-विषयरसरसिके चित्ते-आत्मनि, वैराग्य-भवेच्छानाशरूपं वैराग्यं स्थातुमपि नाऽलं-क्षणमपि स्थिति कत्तुं न समर्थ, 'उत्तप्तेऽयोधने अम्भसो निपतन् बिन्दुरिव'-उत्कृष्टाग्नितापतप्ते लोहगोलके जलस्य बिन्दुर्निपतन्न स्थातु यथा समर्थस्तथाऽत्रापि ज्ञेयम् ॥७॥
॥७७1
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अध्यात्म सार
॥७८||
विषयाधीने चित्ते वैराग्यप्रतिबिम्बाऽभावः'यदीन्दुः स्यात् कुहूरात्रौ, फलं यद्यवकेशिनि ।
तदा विषयसंसर्गिचित्ते वैराग्यसक्रमः ॥८॥ टीका:-'यदीन्दुः कुहूरात्रौ स्यात्' -यदा चन्द्रोऽमावास्यारात्रौ भवेत् , 'यद्यवकेशिनि फलं स्यात्' यदा फलवन्ध्यवृक्षे फलं भवेत् , 'तदा विषयसंसर्गिचित्ते वैराग्यसङ्कमः' विषयरससम्पृक्तमानसे-विषयवासनावासिताऽत्मपरिणामे वैराग्यप्रतिबिम्बसम्भवो भवेत् , विषयरागविरागयोः छायाऽऽतपवत् परस्परमेकत्राऽनवस्थानरूपविरोधः ॥८॥
निराधाधवैराग्यविवेचनम्‘मवहेतुषु तवेषा-द्विषयेष्वप्रवृत्तितः ।
वैराग्यं स्यान्निराबाधं, भवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥६॥ टीकाः-'तद् भवनैगुण्यदर्शनात्' तस्मात् पूर्वकथनानुसारेण भवगतगुणा भावस्य प्रत्यक्षतः, 'भव-15 हेतुषु तद्वेषात्' संसारहेतुभूतमिथ्यात्वादीन्-संसारसुखहेतून् बनितादीन् प्रति तीव्रतमतिरस्कारात् , 'विषयेष्वप्रवृत्तितः संसारसुखजनकविषयेषु प्रवृत्तिप्रतिबन्धतः, वैराग्यं निराबाधं स्यात'भवसुखेच्छा
॥७८॥
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अध्यात्मसारः
॥७९॥
नाशरूपं वैराग्यमविच्छिन्नं भवेदेव नाऽन्यथा, निराबाधवैराग्यं प्रति द्वे हेतू सम्भवतः, (१) प्रथमो हेतुः, भवनैगुण्यदर्शनम् (२) द्वितीयो हेतुः, विषयेषु प्रवृत्तेरभावः ॥९॥
भवनैगुण्यदर्शनजन्यत्वरूपवैराग्यलक्षणेऽन्वय व्यभिचारः'चतुर्थेऽपि गुणस्थाने, नन्वेवं तत् प्रसज्यते ।
युक्तं खलु प्रमातृणां, भवनैगुण्यदर्शनम् ॥१०॥ टीका: ननु सम्यक्त्वनामकचतुर्थगुणस्थानेऽपि भवेच्छानाशरूपं वैराग्यं प्रसज्यते-अतिप्रसनापन्नं भवति, यतः चतुर्थगुणस्थाने प्रमातॄणां सम्यग्दृष्टिमतां भवनैगुण्यदर्शनं तु विद्यत एव, भवनैगुण्यदर्शनं तु वैराग्यरूपकार्य प्रति कारणमस्त्येव, सति कारणे कार्येण भाव्यम् , परन्तु चतुर्थे गुणस्थानके विशिष्टविषयवैराग्यं नास्त्येव यतस्तत्र विषयेषु प्रवत्तिरस्ति विषयेषु प्रवृत्तानां वैराग्यं कुतः । तथापि भवनैगुण्यदर्शनरूपकारणे विद्यमाने तत्र भवेच्छानाशरूपवैराग्यरूपकार्यापत्तिरिति चेत ?
अन्वयव्यभिचारदोषनिवारणम्-- 'सत्यं, चारित्रमोहस्य, महिमा कोऽप्ययं खलु । यदन्यहेतुयोगेऽपि, फलाऽयोगोत्र दृश्यते ॥११॥
1॥७९॥
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सार:
टीका:-'सत्यं' युष्माकं कथनं सत्यं यत् 'समग्रसामग्रीरूपभवस्वरूपविज्ञानजन्यभवनैर्गुण्यादिअध्यात्म-II
सत्त्वेऽपि वैराग्यकार्यरूपफलस्याऽभावोऽत्र-चतुर्थगुणस्थाने दृश्यते इत्येवं भवने कोऽपि-महाबलवान् , चारित्रमोहस्य चारित्रमोहनीयकर्मणो महिमा विद्यतेऽर्थात् , भवनैगुण्यदर्शनरूपकारणसत्तायामपि वैराग्य
कार्य न निष्पद्यते तत्र तेषां सम्यग्दृष्टिरूपप्रमातॄणामत्युग्रचारित्रमोहनीयकर्मण उदयः प्रबलप्रतिबन्धको||८||
ऽस्त्येव तथा च कार्य प्रति सकलकारणसत्वेऽपि कश्चित् प्रपलः प्रतिबन्धक उपस्थितो भवेत्तदा सर्व कारणानि सम्भूय कार्य न जनयन्त्येव तस्मान्नैयायिकैः प्रतिबन्धकाऽभावोऽपि कारणत्वेन गणितोऽस्ति, एवं च सम्यग्दृष्टिप्रमातृगा भवनैगुण्यदर्शनम् , ततो भवद्वेपो, विपयेष्वप्रवत्तिरपि च कारणानि माव्यानि परन्तु तेषां सम्यग्दृष्टीनां विषयेषु प्रवृत्तिरस्ति, भवनैगुण्यदर्शनसत्त्वेऽपि, अत्युत्कटवैराग्यं नास्ति, यतस्तत्र चारित्रमोहनीयकर्मणो वलवदुदयरूपः प्रतिबन्धको विद्यमानोऽस्ति ॥११॥ विशिष्टदशासम्पन्ने सम्यग्दृष्टिप्रमातरि वैराग्सम्भवः
दशाविशेषे तत्रापि न चेदं नास्ति सर्वथा ।
स्वव्यापारहताऽऽसङ्ग तथाच स्तवभाषितम् ॥१२॥ टी० ये सम्यग्दृष्टयः षष्ठीयोगदृष्टिप्राप्तिरूपाऽवस्थासम्पन्नाः सन्ति तेषु भवनैगुण्यदर्शनजन्यं मवेच्छानाशस्वरूपं वैराग्यं सम्भवत्येव विषयप्रवृत्ती सत्यामपि, तथाच
शिष्ट विशददशा
।।८।।
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अध्यात्मसारः
11८
॥
यामपि सर्वथा वैराग्यमनासक्तिरूपं न भवतीति नाऽपितु भवत्येव 'स्वव्यापारहताऽऽसड्ग' वैराग्यवासिताऽध्यात्मक्रियाद्वारा हत-नष्टासक्तिरूपं वैराग्यं विशिष्टमम्यगदृष्टिप्रमातरि विद्यते एवार्थात्तेषु विषयप्रवृत्तेष्वप्यनासक्तिरूपं वैराग्यम प्रतिहतं भवत्येव, तथाच स्तवभाषितम्' भगवद्भि हेमचन्द्रसूरीश्वरैवीतरागस्तवे तथाच भाषितमस्ति ।।१२।।
-वीतरागस्तवस्य साक्षिरूपा गाथा - यदा मरुन्नरेन्द्रश्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते ।
यत्र तत्र रति नाम विरक्तत्वं तदापि ते ॥१३॥ टीकाः-हे देवाधिदेव ? नाथ ! त्वया यदा सुरेन्द्रम्य नरेन्द्रस्य च श्रीरैश्वर्यमुपभुज्यते, तदाऽपि । यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्तत्व-वैराग्यं ते-तव विद्यतेऽर्थाद् या काऽपि रति येत्र कुत्र दृश्यते तत्र सर्वत्र परमात्मनो वैराग्यमेव, स्वकीयसम्यम्प्रकृष्टदृष्टिबलात्प्रभू रागस्थानमपि वैराग्यस्थाने परिवर्त्तयते ॥१३॥
विरक्तस्य सर्वत्र रतिः शुभवेद्यत एव भवति भवेच्छा यस्य विच्छिन्ना, प्रवृत्तिः कर्मभावजा। रतिः साऽस्य विरक्तस्य, सर्वत्र शुभवेद्यतः ॥१४॥
ML
८१॥
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सार
टीकाः-यस्य सम्यग्दृष्टेः प्रमातु भवेच्छा-विषयसुखविषयिणी लालसा विच्छिन्ना=विच्छेदमापना, अध्यात्म-6 तस्य भवेच्छाविच्छेदमापन्नस्य विशिष्टसम्यक्त्वसम्पन्नस्य, विरक्तस्य-वैराग्यवतो, विषयेषु प्रवृत्ति निकाचि
तकर्मोदयप्रभावतो भवति, तत एव कथ्यते, विरक्तस्य यत्र यत्र रतिभावस्तत्र सर्वत्र शुभवेद्यतो दृश्यते, सातवेदनीयकर्मण उदय एव मुख्य कारणं भवति, विशिष्टज्ञानदशास्थिताः सम्यग्दृष्टयो निकाचितभोग्या
वलिकर्मोदयेन सांसारिकविषयेषु बाह्यतो रमन्ते न तु मनसा ।।१४॥ ||८२||
-- अस्मिन् विषये आक्षेपकज्ञानतो भोगसान्निध्येऽपि न शुद्धिक्षयः
'श्रतश्चाक्षेपकज्ञानात् कान्तायां भोगसन्निधौ ।
न शुद्धिप्रक्षयो यस्माद्धारिभदमिदं वचः ॥१५॥ टीका:-'अतश्चाक्षेपकज्ञानात् 'रागवत्यामवस्थायां रममाणं मानसं, तत आक्षिपदाकर्षयद् विषयान् । प्रति सविवेकं ज्ञानं 'आक्षेपकज्ञान' तस्माद् , विशिष्टसम्यग् दृष्टीना ‘कान्तायां भोगसन्निधौ' कान्तानामकषष्ठीयोगदृष्टौ कामिन्यादिभोगोपभोगसामग्रयाः सान्निध्येऽपि 'शुद्धिप्रक्षयो न' वैराग्यादिरूपमानसिकनैर्मल्यस्य प्रकर्षेण क्षयो न भवत्यर्थाद् भोगस्य पाखें कायस्य सत्तायामपि मनस्तु मोझादौ रमते, योगदृष्टिसमुच्चये कान्तानामकषष्ठीयोग दृष्टौ भगवतो हरिभद्रसूरेरिदं वचोऽस्ति तदनेतनश्लोकेषु श्रूयताम् ॥१५॥
८२॥
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अध्यात्मसार:
1८३1
__ हारिभद्रवचःसाक्षिकगाथा 'मायाऽम्भस्तत्त्वतः पश्यन्ननुद्विग्नस्ततो द्रुतम् ।
तन्मध्येन प्रयात्येव यथा व्यावातवर्जितः ॥१६॥ टीकाः-पष्ठीकान्तादृष्टो कथितमस्ति यन्मायाऽम्भः-मायारूपजलं मरुमरीचिकातत्वतः-मायाजलत्वेन जलाभासत्वेन, पश्यन्-सम्यग जाननात्मा, 'अनुद्विग्नः उद्वेगशन्यः सन् , यथा व्याघातवर्जितस्ततो द्रतं तन्मध्येन प्रयात्येव'ततस्तन्मायाजलमध्येन यथा बाधारहितः सन् स्वकमार्गेऽस्खलितगत्या प्रयाणं करोत्येव ॥१६॥
- तदेवाधिक स्पष्टयति-घटयति च - 'भोगान् स्वरूपतः पश्यं-स्तथा मायोदकोपमान ।
भुञ्जानोऽपि ह्यसङ्गः सन् प्रयात्येव परं पदम् ॥१७॥ ___टीकाः-'तथा मायोदकोपमान्' पूर्वोक्तदृष्टान्तवत्तेन प्रकारेण, मायाजलसदृशान् ‘स्वरूपतः' प्रकतितः, भोगान् मायारूपेण 'पश्यन्' तत्वदृष्टितो जानानो भुञ्जानोऽपि हि निःसङ्गोऽनासक्तः सन्, परं पदं प्रयात्येव , भोगे रागरसाभावो दुर्लभः दशाविशेषे सुलभस्ततो यः कोऽपि निःसङ्गः स परं पदं प्रयात्येवेति नियमः 'सङ्गः सर्वाऽऽत्मना त्याज्यः' इति भगवद्गीतोक्त्याऽपि त्याग एव श्रेयानिति ॥१७॥
॥८३॥
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अध्यात्म
सार:
11८४॥
भोगाऽभिनन्दिनो जीवस्य भवसागरतस्तरणं न भोगतत्त्वस्य तु पुनर्न भवोदधिलखनम् ।
मायोदकदृढावेशा-तेन यातीह कः पथा ॥१८|| टीका:-पुनः किञ्च, तुर्भेदे, 'भोगतत्त्वस्य' भोग एव तत्वं-सारं यस्य तस्य भोगतत्त्वस्य, 'मायोदकदृढावेशात्' मायाजलरूपभोगे सत्यजलमुखत्वेन दृढ़-परिपक्वभ्रमबुद्धिहेतुतः 'न भवोदधिलङ्घनम्' संसारसागरानिस्तारो न भवत्येव तस्मादिह जगति कः, सत्यजलरूपमोक्षसुखविषयकबुद्धिमान उत्तमः पुरुषः, तेन मायोदकसमभोगवता मार्गेण याति ? न कोऽपि सत्यज्ञानी कदाचिदपि यातीत्यर्थः ॥१८॥
भोगतत्त्व स्थितस्य जीवस्य मोक्षमार्गे गतिर्न 'स तत्रैव भयोदविग्नो यथा तिष्ठत्यसंशयम् ।
मोक्षमार्गेऽपि हि तथा भोगजम्बालमोहितः ॥११॥ टीका:-मायाजलं सत्यत्वेन मन्यमानः स बहिरात्मा-भोगतत्त्वः सभयः सोद्वेगः सन् , तत्रैव= मायोदकामभोगतत्त्वे निःसंशयं तथा तिष्ठत्येव यथा भोगरूपकर्दमे मोहमूढः सन् मोक्षमार्गेऽपि पदमपि पुरतो गन्तु न शक्नोतीति ॥१६॥
॥८४॥
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अध्यात्मसार:
॥८५॥
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- कान्तादृष्टिस्थसम्यग्दृशां भोगयोगो बलीयसीं धर्म्मशक्ति न हन्त्येव 'धर्मशक्ति न हन्त्यत्र भोगयोगो बलीयसीं ।
हन्ति दीपाsपो वायुर्ज्वलन्तं न दवानलम् ||२०||
आत्यन्तिकबलवत्त्वात्,
टीकाः दशाविशेषमापन्नानां सम्यग्दृशां 'मोगयोगः' विषयेषु प्रवृत्तिमान्, आत्मीयधर्मशक्ति न हन्त्येव, भोगयोगो धर्मशक्तिं हन्तीति सामान्यम्, परन्तु भोगयोगो बलीयसीं धर्मशक्ति न हन्त्येवेति विशेषः, 'यथा दीपापहो वायुः' अल्पशक्तिकं दीपं वायुर्हन्ति परन्तु ज्वलन्तं दावानलं वायुर्नहन्ति तथाऽल्पशक्तिवतीं धर्मशक्तिं भोगयोगोऽवश्यं हन्ति परन्तु बलीयसीं न हन्त्येव ॥ २० ॥ • कर्मबन्धे विषयासक्तिरेव हेतुर्न विषयमात्रम् बध्यते बाढमासक्तो यथा श्लेष्मणि मक्षिका ।
शुष्कगोलकवदश्लिष्टो, विषयेभ्यो न बध्यते ॥ २१ ॥
टीका:-विषयेषु बाढमत्यन्तमासकृतः कर्मभिर्बध्यते यथा श्लेष्मणि मक्षिका, कर्मबन्धं प्रति राग:अश्लिष्टोऽनासक्तो विषयेभ्यो न बध्यते विषयमात्रेण कर्मभिर्न बध्यते, यथा शुष्कगोल
स्नेहः कारणम्, कोबा पुष्करपलाशवन्निर्लेपो भवतीति ॥२१॥
-
||८५||
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-योगस्य स्वामिनां प्रवृत्तिरपि निवृत्तिरिव नो दुष्टाअध्यात्म
'बहुदोषनिरोधार्थमनिवृत्तिरपि क्वचित् । सार:
निवृत्तिरेव नो दुष्टा, योगाऽनुभवशालिनाम् ॥२२॥
टीका:-'योगानुभवशालिनाम् =योगस्य योऽनुभवस्तद्विशिष्टानां 'बहुदोषनिरोधार्थ'बहूनां दो||८३॥
पाणां निरोधमुद्दिश्य, 'अनिवृत्तिरपि-विषयेषु प्रवृत्तिरपि 'क्वचिद्' अपवादपदे पुरुषविशेषाणां वा 'निवृतिरिव-महादोषस्य निवृत्तिरिख नो दुष्टा'-नो दोषावहा, विशिष्टाऽन्तरात्मा विषयेषु प्रवृत्तोऽपि, अनासक्तिरूपवैराग्येण सुवासितस्तिष्ठत्येव ॥२२॥
- येन यस्य कदाचनाऽशुडिस्तेन तस्य कदाचिच्छुद्धिः'यस्मिन्निषेव्यमाणेऽपि यस्याऽशुद्धिः कदाचन ।
तेनैव तस्य शुद्धिः स्यात्, कदाचिदिति हि श्रुतिः॥२३॥ टीकाः-श्रुतावपि कथितमस्ति यद् यस्मिन्-भोगे निषेव्यमाणेऽपि यस्याऽऽत्मनः कदाचना8 ऽशुद्धिः-कर्मलेपो भवति, कदाचिद् विशिष्टापूर्वाऽवस्थाप्राप्त्यनन्तरं, तस्याऽऽत्मनः, तेन-भोगेन, शुद्धिः ।
निर्लेपता स्यादिति ॥२३॥
॥८६॥
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अध्यात्म
सार:
11८७||
कर्मवन्धं प्रति नियमाऽनियमविवेकः 'विषयाणां ततो बन्ध-जनने नियमोऽस्ति न ।
अज्ञानिनां ततो बन्धो ज्ञानिनां तु न कहिचित् ॥२४॥ टीकाः-ततो-तस्मात्कारणाद् 'बन्धजनने'-कर्मबन्धं प्रति विषयाणां-विषयप्रवृत्तेर्न नियमोऽ र्थाद् विषयसम्बन्धमात्रेण कर्मबन्धोऽवश्यं भवतीति न नियमः-एकान्तः, परन्तु 'अज्ञानिनां-आत्मादितत्त्वज्ञानविवेकरहितानां विषयेषु प्रवृत्तावप्रवृत्ती का सत्यां कर्मबन्धोऽवश्यं भवति, ज्ञानिनां तु, आत्मादितत्त्वविशेषज्ञानिनां तु विषयेषु प्रवृत्तावप्रवृत्तौ वा सत्यां कर्मबन्धोऽवश्यं कदाचिन भवति, कर्मबन्धाऽनन्धविषये ज्ञानाऽज्ञानयोः कोऽप्यपूर्वः प्रभावः ॥२४॥
विषयसेवनाऽसेवनव्यतिक्रमे परमार्थः सेवतेऽसेवमानोऽपि सेवमानो न सेवते ।
कोऽपि परजनो न स्या-दाश्रयन परजनानपि ॥२५॥ टीका:-यो मिथ्यागवानी विषयानसेवमानोऽपि (कायेन) विषयान् सेवत एव (मनसा) यदा यः सम्यग् दृग् ज्ञानी विषयान् सेवमानोऽपि वस्तुतो न सेवते, विशिष्टदशापन्नः सम्यग् दृगात्मा
।।८७॥
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अध्यात्म
सार:
11८८॥
संसारस्याश्रयमात्रेण संसारी न भवत्येव, कारणवशात् , परजनानप्याश्रयन् कोऽपि परजनो न स्यादेवेति ॥२५॥
उत्तमोत्तमानां सर्वत्र वैराग्यं न हन्यत एव 'अत एव महापुराय-विपाकोपहितश्रियाम् ।
गर्भादारभ्य वैराग्यं नोत्तमानां विहन्यते ॥२६॥ टीका:-'अत एव'-विशिष्टज्ञानी सम्यगहगात्मा, विषयान सेवमानोऽप्य सेवमानो वैराग्यवान भवत्यत एव 'महापुण्यविपाकोपहितश्रिया' =पुण्यानुबन्धिपुण्यशिरोमणिभूततीर्थङ्करनामकर्मविपाकत उपनीतव ह्याभ्यन्तरपरमैश्वर्य-परमविभूतिसम्पन्नानामुत्तमानां, 'गर्भादारभ्य' गर्भावस्थात आरभ्य 'वैराभ्यं न विहन्यते भवेच्छानाशरूपं वैराग्यमप्रतिहतं विद्यत एव ।॥२६॥
__-वैराग्यलाभस्य राजमार्ग एष'विषयेभ्यः प्रशान्तानामश्रान्तं विमुखी-कृतैः ।
करगौश्वारुवैराग्य-मेष राजपथः किल ॥२७॥ टीका:-'अश्रान्तं सातत्येन विषयेभ्यो-शब्दादिविषयेभ्यो विमुखीकृतैः-समाहृतः, करणैरिन्द्रियर: प्रशान्ताना-उपशान्तचित्तविकाराणां, यद्वैराग्यं तच्चारुवैराग्यं भवतीत्येष किल वैराग्यप्राप्ते राजपथः--
11८८॥
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अध्यात्मसारः
||८
॥
राजमार्ग एवेति अत्र ग्रन्थकारेण महर्षिणैवं सूचितमस्ति यदिन्द्रियविषयेभ्यो निवृत्तिरेव वैराग्यस्य राजपथः ॥२७॥
वैराग्यलाभस्यैकपदीरूपमार्गः'स्वयं निवर्तमानस्त-रनुदीर्णैरयन्त्रितैः ।
तृप्तर्ज्ञानवतां तत् स्या-दसावेकपदी मता ॥२८॥ टीका:-ज्ञानवता' =विशिष्टज्ञानातिशयशालिनां, 'अन्त्रितैः विषयान् प्रति गच्छत्स्विन्द्रियेषु नियन्त्रणरहितः, 'अनुदीण विषयेभ्यः प्रतिनिवृत्यर्थ प्रयत्नरहितैः, तृप्तैः स्वयं निवर्तमानैस्तैः' सदा सन्तुष्टैः स्वयं विषयेभ्यो निवर्तमानैस्तैरिन्द्रियै यद् वैराग्यं स्यादसौ-वैराग्यलाभस्यायमेकपदीरूपोमार्गः, राजमार्गः सर्वैःसाधारणतया सेवनीयः स्यात् , क्वचित् केनचित् समर्थेनामुकसंयोगेषु गन्तु शक्यतेऽसावेकपदीमार्गः ॥२८॥
घलेन न करणानि दमनोयानि-- _ 'बलेन प्रेर्यमाणानि, करणानि वनेभवत् ।
न जातु वशतां यान्ति, प्रत्युताऽनर्थवृद्धये ॥२६॥
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टीका:-बलेन--बलात्कारेण दमनरूपं नियन्त्रणं प्रति प्रेर्यमाणानि करणानीन्द्रियाणि 'वनेभवत्'अध्यात्म-17 वन्यहस्तिवन कदाचित् स्वशे यान्ति प्रत्युताऽनर्थानां वृद्धये भवन्ति-भयङ्करोत्पादने क्षमाणि भवन्ति ॥२९॥ सार:
सम्यग्ज्ञानगर्भितवैराग्यं विना क्रियादम्भो नरकायैव'पश्यन्ति लजया नीचे दुनिं च प्रयुञ्जते ।
श्रात्मानं धार्मिकाभासाः क्षिपन्ति नरकावटे ॥३०॥ ____टीका:--'पश्यन्ति लज्जया नीचे बहुलज्जिता सर्वथा नीचे दृष्ट्वा गच्छन्ति परन्तु हृदयान्तदुनि=आत्तरोद्रात्मकं दुर्ध्यानद्वयं 'प्रयुञ्जते' प्रयोगविषयीकुर्वतेऽर्थाद् ये स्वचित्तमध्येऽर्थकामविषयकविषयवासनावनिसाद् भवन्ति ते 'धार्मिकाऽऽभासा:'-वेषतो दम्भक्रियातो वा धार्मिकवद् भासमानाः, बाह्यतो लज्जया नीचैः पश्यन्तो हृदि च दुर्ध्यानं कुर्वाणा धार्मिकाभासा आत्मानं नरकावटे क्षिपन्ति--नरककूपके नयन्ति ॥३०॥
अद्भुतवैराग्यवाने वेन्द्रियवञ्चको भवति
'वचनं करणानां तद्विरक्तः कत मर्हति । सद्भावविनियोगेन, सदा स्वाऽन्यविभागवित् ॥३१॥
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अध्यात्मसार:
॥९
॥
टीका:-'सदा स्वाऽन्यविभागवि'दिति-निरन्तरं, किं स्वं ? किं स्वतोऽन्यत्तस्य विभागं-भावनादिद्वारा भेदं वेत्तीत्यर्थः, अर्थात् परं परत्वेन स्वं च स्वत्वेन विभजन् विरक्त आत्मा, प्रतिबोधयतीन्द्रियाणि 'भो इन्द्रियवर्ग ! विषयरूपे परवस्तुनि कथं त्वं रज्यसि तेन सह रागसम्बधेनाऽलमेर सम्बोध्येन्द्रियाणां भोगविषयिणी याचनां शमयतीत्येतद् वञ्चनं करणैः सह विरक्ताऽऽत्मनाम् , प्रकारान्तरेण वेन्द्रियाणामाहा. रादिरूपादिविषयकलोभस्योपस्थितौ वीतरागदेवजिनवचनादिसद्भावेषु योजनरूपमृ/करणं कर्त्तव्यमित्येवं विषयपात्रविनिमयेन करणानि वञ्चनीयानीति चातुर्यविशेष दर्शयति कथमिति चेत १ स स्वाऽन्य विभागविदस्ति--स्वपरभेदविज्ञानस्वामी वर्तते यतः ॥३१॥
अत्यदभुतविरागताया लक्षणम्
'प्रवृत्तेर्वा निवृत्तेर्वा न सङ्कल्पो न च श्रमः ।
विकारो हीयतेऽक्षाणामिति वैराग्यमद्भुतम् ॥३२॥ ____टीकाः-यत्र विषयेषु प्रवृत्ति विधातु सङ्कल्पो-विचारो न, विषयेभ्यः करणानि निवर्तयितु न श्रमःप्रयासः कत्त युज्यते, तथापि निसर्गतस्तद्विकारो हीयते-क्षीयत एव तद्वैराग्यमद्भतकोटिकं भवेदिति, अर्थाच्चारुवैराग्यसत्कराजपथे, इन्द्रियाणि विषयेभ्यो निवर्तयितु परिश्रमो विद्यते, वैराग्यस्य चैकपदीमार्गे विषयेषु प्रवृत्तो भवितु सङ्कल्पो विद्यते, द्वयमिदं यत्र न विद्यते तथापि यत्र वैराग्यं तदद्भुतं वैराग्यं कथ्यते ॥३२॥
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अध्यात्मसार:
।।९२॥
ज्ञानिनां लोकवर्तिनां योगिनां विषयगतप्रवृत्तयो नो वाधायै'दारुयन्त्रस्थपाञ्चालीनृत्यतुल्याः प्रवृत्तयः ।
योगिनो नैव बाधाये, ज्ञानिनो लोकवर्तिनः ॥३३॥ टीकाः-संसारस्था अप्याक्षेपकज्ञानस्वामिनः कान्तादृप्टेरवस्थास्थाविरतसम्यग्दृष्टियोगिनो विषयभोगादिविषयकप्रवृत्तयः सर्वा अपि दारुयन्त्रस्थपाञ्चालीनृत्यतुल्या भवन्ति यथा काष्ठपाञ्चाल्यो नृत्यन्ति क्रीडन्ति तिष्ठन्ति च सर्वत्र क्रियासु हृदये न हप्शोको भवतो यतः सूत्रधारेण प्रेरिताः काष्ठपाञ्चाल्यः सर्वक्रियां कुर्वते, तथा विशिष्टज्ञानदृष्टिसम्पन्ना योगिनस्तथाविधा भवन्ति, भोगस्य सर्वप्रवृत्तिषु योगिनां केऽपि रागादिभावा न प्रायःस्पृशन्ति, परन्तु निकाचितभोगावलि भोग्य)कर्मरूपसूत्रधारेण प्रेरिता योगिनो भोग भोगिनो भवन्ति अर्थाद्विषयेषु प्रवृत्ती सत्या विरक्तौ च सत्यामेतेषां योगिनां भोगभोगप्रवृत्तिरपि कदाचिन्न बाधाय प्रत्युत कर्मनाशायैव भवति ॥३३॥
इयं च 'योगमायेति कथ्यते परैः--
'इयं च योगमायेति प्रकटं गीयते परैः। लोकानुग्रहहेतुत्वान्नास्यामपि च दूषणम् ॥३॥
॥१२॥
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अध्यात्मसार:
टीका परैः-दर्शनान्तरीयैः, इयं च परमात्मशक्तिः, 'योगमाये' ति सन्देन प्रकटं गीयते-परिभाष्यते, ते कथयन्ति च यद् दुष्टं कंसं हन्तु परमात्मशक्तिः कृष्णरूपं प्रतिपद्य देवकीतो जन्म प्राप्य दुष्टं कंसं जघान अत्र दुष्टकमसंहारद्वारा, लोकस्योपर्यनुजग्राहैतदनुग्रहदृष्टयैतद् दुष्टवधप्रवृत्तावपि न किश्चिपणम् , ॥३४॥
__सिद्धान्तद्वारतद् विषयसमर्थनम् 'सिद्धान्ते श्रूयते चेयमपवादपदेष्वपि ।
मृगपर्षत्परित्रासनिरासफलसङ्गता ॥३॥ टीका:-'इयं चापवादपदेषु सिद्धान्तेऽपि श्रूयते'–दुष्टबधादिरूपलोकानुग्रहकारकप्रवृत्तिः सिद्धान्तेऽपवादपदेषु श्रूयते, मृगपर्षत्परित्रासनिरासफलसङ्गता-धर्ममयान्वितागीतार्थताऽममभावोपेतसंमारस्थाऽऽत्मरूपमृगपर्षद्वारा [दुष्टसमूहद्वारा] जैनधासनस्योपरिविहिताक्रमणं [परित्रासः] यदाऽऽगच्छेचदातदाऽऽक्रमणप्रतिनिवर्तनफलं, अपवादपदस्थ सेवनरूपप्रवृत्ति, आगच्छति, भगवान् कालकाचार्यः, साव्या उपरि (शासनस्योपरि) आगत आक्रमणे सति तत् प्रतिकारार्थ, अपवादपदभूता प्रवृत्तिः प्रसिद्धैवेति ? (३५) (सिद्धान्ते जिनकल्पसूत्रे, सप्ताधिकाशीतितमगाथायां तच्चूर्णिमध्ये विषमपवृत्तौ]
-चतुर्थगुणस्थानेऽपि विशिष्टवैराग्यं वियत एव
॥१३॥
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अध्यात्मसार:
॥१४॥
‘श्रौदासीन्यफले ज्ञाने, परिपाकमुपेयुपि । . चतुर्थेपि गुणस्थाने, तद्वैराग्यं व्यवस्थितम् ॥३६॥ टीका:-औदासीन्यफले-स्वपरविवेकज्ञानजन्यमौदासीन्यं समता वा माध्यस्थ्यं, फलं यस्य तस्मिन्, परिपाकमुपेयुषि-परिपक्वा सम्प्राप्ते ज्ञाने सति चतुर्थेऽपि गुणस्थाने पूर्वोक्तसम्यग दृष्टिमतामात्मना विशिष्टयोगदृष्टिसम्पन्नानां विषयजन्यसुखादिषु तद्विशिष्टं वैराग्यं व्यवस्थितम् , अर्थादेतादृशोदासीन्यप्राप्त्यनन्तरमपि ते सम्यग्दृष्टिमहात्मानो विषयेषु यो प्रवृत्ति कुर्वन्ति तत्र निकाचितभोग्यकर्मैव हेतु ज्ञेयः, विषयसुखप्रवृत्तावपि चतुर्थगुणस्थानेऽपि वैराग्यमप्रतिहतमेव ॥३६॥
इत्याचार्यश्रीमदविजयलब्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद् विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रङ्करमरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां वैराग्यसम्भवाख्यः पञ्चमोऽधिकारः समाप्तः ! श्लो. सं. १३८ ।
अथ वैराग्यभेदनामकःषष्ठोऽधिकारः प्रक्रम्यते
-वैराग्यस्य भेषत्रयस्य वर्णनम्तदवैराग्यं स्मृतं दुःख-मोहज्ञानाऽन्वयात् त्रिधा। तत्राद्य विषयाऽप्राप्तेः, संसारोगलक्षणम् ॥१॥
॥१४॥
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॥१५॥
टीकाः-तद्-पूर्वोक्तलक्षणलक्षितं वैराग्यं दुःखगर्भ-मोहगर्भज्ञानगर्भमेदात् त्रिधा-त्रिविधं, तत्र त्रिविअध्यात्म-X धवैराग्यमध्ये, आद्य-प्रथमं दुःखगर्भ बैराग्यं, 'विषयाऽप्राप्तेः' सांसारिकेन्द्रियसुखादिसाधनरूपविषयाणां सार: प्राप्तेरभावजन्याद् दुःखात् संसारत उद्वेग-खेदलक्षणं कथ्यते दुःखगर्भितं वैराग्यमिति ॥९॥
दुःखगर्भवैराग्यवतां विनिपातोऽपि जायते 'अत्रागमनसोः खेदो, ज्ञानमाप्यायकं न यत् ।
निजाऽभीप्सितलाभे च. विनिपातोऽपि जायते ॥२॥ टीका अत्र दुःखगर्भवैराग्ये दुःखात् संसारं त्यजतां जीवानां केशलुञ्चनविहारादिकष्टतः कायस्य 1 च गुर्वानापारतन्त्र्यतः सततं मनसः खेद उद्वेगो वर्त्तते, यतो दुःखभीरुभ्यो न कष्टानि रोचन्ते, यकि
श्चिच्छास्त्रज्ञानमल्पीयस्तरं प्राप्तमस्ति, तदपि स्वात्मानं प्रीणयितु नाऽलमत एवापुष्टज्ञानं शरीरमनसोविषयाभावप्रयुक्तं खेदं जनयितु समर्थ, किश्च दुःखगर्भवैराग्यवता स्वमनोमनीषितपदार्थसार्थस्य लाभे सति 'विनिपातोऽपि जायते' त्यागिदशासूचकवेपत्यागाऽनन्तरमधःपातोऽपि जायते, सर्वेषां दुःखगभितवैराग्यवतां विनिपात एच जायते इत्यपि न परन्तु 'विनिपातोऽपि' अत्रापिशब्देनैवं सूचितं यत् केषाश्चिद विनिपातोऽपि जायते ॥२॥
॥९॥
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अध्यात्म सार
-दुःखगर्भवैराग्यवन्तः पूर्वमेव यत्कर्षन्ति तवर्णनम्'दुःखादिर क्ताः प्रागेवे-च्छन्ति प्रत्यागतेः पदम् ।।
अधीरा इव समामे प्रविशन्तो वनादिकम् ॥३॥ टीकाः 'दुःखाद विरक्ता--उद्विग्नास्त्यकृतसंसारा अत्यन्तकष्टं भविष्यति सम्भाव्य साधुवेषप्रतिपत्तेः पूर्वमेव साधत्वे यदा कष्टपातो भवेचदा साधत्वतः प्रतिनिदस्य 'प्रत्यागतेः पदमेवेच्छन्ति'-प्रत्यागत्य स्थिरतार्थ स्थानं पूर्वमेव निधिन्वन्त्येव यथा सझामेऽधीराः कातरा योग्यसमयं प्राप्य ततो नंष्ट्वा कुत्रचित प्रविश्य निलीय स्थिरतार्थ यथा कमलवनादि स्थानं पूर्वमेव निश्चितं कुर्वन्ति तथाऽत्रापि नेयम् ।।३।।
दुःखगर्मवैराग्यवन्तः शुष्कतर्कादिकं पठिन्त स्वार्थाय 'शुष्कतर्कादिकं किञ्चिदैद्यकादिकमप्यहो ।
पठन्ति ते शमनदी, नतु सिद्धान्तपद्धतिम् ॥४॥ टीका:-दुःखगर्भवैराग्यविशिष्टा जीवाः शुष्कतादिकमहो इत्याश्चर्ये किञ्चिद् वैद्यकज्यौतिपादिकमपि पठन्ति--मणन्ति परन्तु ते-दुःखगर्मितविरागिणोरशः, 'अमनदीं'चमनीरमरितनदीरूपां सिद्धान्तपद्धति शास्त्रशासितमार्गरूपा प्रणालिकां न स्पृशन्त्यपि ॥४॥
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अध्यात्म
सारः
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ग्रन्थानामुपर्युपरिबोधेन दुःखगर्भविरागिणो गर्विष्ठा भवन्तिग्रन्थपलवबोधेन, गर्वोष्माणं च विभ्रति ।
तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, प्रशमाऽमृतनिर्भरम् ||५||
गर्योष्माणं- गर्वस्योष्णतां
टीका:- 'ग्रन्थपल्लवबोधेन' = ग्रन्थानामुपर्यपरि-अन्तरङ्ग रहस्यरहितबोधेन विभ्रति धारयन्ति परन्तु एते दुःखगर्भितवेराग्याधीनाः, 'प्रशमाऽमृतनिर्भरं' = प्रशम एवामृतं तस्य निर्भरसमं ‘तत्वान्तं=ग्रन्थानां सारभूतमन्तं सिद्धान्तभृतरहस्यं नैव गच्छन्ति' = नैव प्राप्नुवन्ति ॥५॥
दुःखगर्भितवैराग्यवन्तो गृहस्थान्नातिशेरते 'वेषमात्रभृतोऽप्येते, गृहस्थान्नाऽतिशेरते न पूर्वोत्थायिनो चरमा - न्नापि पश्चान्निपातिनः ॥ ६ ॥
I
टीकाः–'वैषमात्रभृतोऽप्येते'–दुःखगर्भितवैराग्यास्त्वेते साधुवेपमात्रधारिणः साधुताशून्याः 'गृहस्थान्नाऽतिशेरते' = गृहस्थादधिकतां न भजन्ते, 'यस्मान्न पूर्वोत्थायिनः, गृहस्थत्वतो न पूर्वमुत्थितवन्त:गृहस्थभावतो न निर्गता इत्यर्थः, 'नाऽपि पश्चान्निपातिन: ' = गृहस्थधर्मतः पश्चात् साधुधर्मे न प्रविष्टा हृदयतः, परन्तु मस्तकमात्र मुण्डितं न मनो मुण्डितमिति रीतिमन्तस्ते || ६ ||
॥९७॥
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अध्यात्म.
सार:
।। ९८ ।।
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दुःखगर्भवैराग्यस्य लक्षणम् गृहेऽन्नमात्र दौर्लभ्यं लभ्यन्ते मोदका व्रते । वैराग्यस्यायमर्थो हि दुःख गर्भस्य लक्षणम् ॥७॥
टीका:-गृहेऽन्नमात्रस्य दुर्लभता, 'व्रते' - साधुत्रते मोदका लभ्यन्ते हि वैराग्यस्याऽयमर्थः ' - वैराग्य शब्दार्थज्ञानं, एतादृशोऽर्थ एव दुःखगर्भस्य लक्षणम् ॥७॥
मोहगर्भितवैराग्यस्य स्वरूपवर्णनम् 'कुशास्त्राऽभ्याससम्भूत-भवनैर्गु रायदर्शनात् । मोहगर्भ तु वैराग्यं मतं बालतपस्विनाम् ||८||
टीका:- बौद्धादीनामेकान्तवादिनां कुशास्त्राणामेकान्तनित्यत्वादिवादस्याऽस्यासतो जातभवस्य दर्शनाद्यद्वैराग्यं भवेत् तन्मोहगर्भ वैराग्यं कथ्यते, अत्र मोहस्यार्थोऽज्ञानं मिथ्याज्ञानं वा ततो निष्पन्नं वैराग्यं मोहगर्भ, मोहगर्भवैराग्यस्य स्वामिनो बालतपस्विनः सन्ति ||८|
सिद्धान्तस्य नाम गृहीत्वा विरुद्धार्थ भाषिणां मोहगर्भमेव वैराग्यम् 'सिद्धान्तमुपजीव्याप, ये विरुद्धार्थ भाषिणः । तेषामप्येतदेवेष्टं कुर्वतामपि दुष्करम् ॥६॥
।। ९८ ।।
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अध्यात्मसार:
॥१९॥
टीका:-'सिद्धान्तमुपजीव्यापि'='यदहं कथयामि तदेव जैनमतमस्तीति रीत्या जैनसिद्धान्तस्य नाम गहीत्वैव 'ये विरुद्धार्थभाषिणः =ये मोहगर्मिता जिनसिद्धान्तविरुद्धार्थप्रतिपादनपराः 'तेषामपि दुष्करंकुवंतामप्येतदेवेष्टं' =तेषां सिद्धान्तविरुद्धार्थभाषिणामपि, जमालिप्रभृतिवदाभिनिवेशिकमिध्यात्विना दुष्करतपश्चर्याब्रह्मचर्यादिकारकाणामपि मोहगर्मितवैराग्यमेव मतमेव नान्यद् वैराग्यमिति ॥९॥
आभिनिवेशिकमिथ्यात्विनां शुभोऽपि परिणामो न तात्त्विकः
'संसारमोचकादीना-मिवैतेषां न तात्त्विकः ।
शुभोऽपि परिणामो य-ज्जाता नाज्ञारुचिस्थितिः ॥१०॥ टीका:--'संसारमोचकादीनामिवैतेषां शुभोऽपि परिणामो न तात्विकः =यथा संसारमोचकमतानुसारिणां जीवानां जीवदयादिपरिणामः शुभोऽपि न तात्विक:--सत्यः, तथैतेषां--आभिनिवेशिकमिथ्यात्विना मोहगभिंत--वैराग्यवतां बाह्यदृष्टया शुभोऽपि परिणामो न वास्तविकः, यतस्तेषामन्तरात्मनि जिनाज्ञा प्रति रुचि:--श्रद्धा प्रीतिर्वा न स्थिरस्थितिका भवतीत्येतेषां तपआदिप्रवृत्तिरपि स्वकल्पनाकल्पितैव न जिनाऽऽज्ञारुचिपूर्विकैवेति 'संसारमोचकस्यैवं मतमस्ति यत् 'प्रत्येकजीवानां भवा नियता एवेति कथनानुसारत एव दुःखार्तानां शीघ्रमारणे तस्य जीवस्यैको भवः शीघ्रतया समाप्तो मवेत , चिरकालं च दुखभोगो न
॥१९॥
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अध्यात्म
सार:
॥१००॥
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भवेदेवंरीत्या संसाराज्जीवः शीघ्रतया मुक्तो भवेदत्र स्थूलदृष्टयैतन्मन्तव्यं जीवदयाभावतः प्रेरितं दृश्यते तथाऽपि वस्तुतो दयाभावो नास्ति' || १०||
- मोहगर्भितवैराग्यवतां प्रशमोऽपि दोषपोषायैव'श्रमीषां प्रशमोऽप्युच्चै र्दोषपोषाय केवलम् । अन्तर्निलीन विषमज्वरानुद्भवसन्निभः
॥११॥
टीका:--' अमीषा' - आभिनिवेशिकमिध्यात्ववतां बाह्यतो दृश्यमानः 'उच्चैः केवलं दोषपोपाय' - वस्तुतः स्वात्मनि दोषाणां पोषणमात्रं कत्तु प्रशम इति चेदुच्यते ' अन्तर्निलीन विषमज्वरानुद्भवसन्निभः = रुग्णस्य ज्वर (एकान्तरितज्वर) स्याप्रकटभावसमानो भवति ॥ ११ ॥
'प्रशमोऽपि - शान्तभावोऽपि, प्रत्यलो भवति, किं तुल्यः स शरीराऽन्तर्गत निलीन - गुप्तविपम
- मोहगर्भितवैराग्यस्य लक्षणाssवली'कुशात्रार्थेषु दक्षत्वं, शास्त्रार्थेषु विपर्ययः । स्वच्छन्दता कुतर्कच, गुणवत्संस्तवोज्झनम् ॥१२॥
॥१००॥
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अध्यात्मसारः
॥१०॥
श्रात्मोत्कर्षः परद्रोहः, कलहो दम्भजीवनम् । श्राश्रवाच्छादनं शक्त्यु-लङ्घनेन क्रियाऽऽदरः ॥१३॥ गुणानुरागवैधुर्यमुपकारस्य विस्मृतिः । अनुबन्धाद्यचिन्ता च, प्रणिधानस्य विस्मृतिः ॥१४॥ श्रद्धामदुत्वर्मोद्धत्य-मधैर्यमविवेकिता ।
वैराग्यस्य द्वितीयस्य स्मृतेयं लक्षणावली ॥१५॥ टीका:-(१) कुशास्त्रार्थेषु दक्षत्व' अध्यात्मशास्त्रविरुद्धकुत्सितशास्त्रार्थेषु निपुणत्वं, (२) 'शास्त्रार्थेषु विपर्ययः'-सत्यशास्त्राणामर्थेषु नै पुण्याऽभावो मिथ्यामतिकल्पितत्वं वा (३) 'स्वच्छन्दता'-गुरुशास्त्राज्ञाऽऽद्यनुपमालम्बनस्य परतन्त्रताया अभावः, (४) कुतर्कः-असत्तर्कादिकरणे परमप्रियता, (५) 'गुणवत्संस्तवोज्झनम्'-ये गुणवन्तः स्युस्तेषां परिचयपरित्यागः, (६) 'आत्मोत्कर्षः-स्वकीयोत्कर्षस्य गाने पूर्णपरायणता, (७) 'परद्रोह'-परस्य नीचैःपातनसर्वविनाशादिकरणे प्रसक्तत्वं (८) 'कलहः -नारदवत्कलहकरणकचित्तत्वं (९) 'दम्भजीवनम्'-मायापूर्वकाऽऽयुःकालनिर्वहणम् , (१०) 'आश्रवाच्छादनम्' पापा- नामाच्छादने प्रयत्नः, (११) 'शक्त्युल्लकानेन क्रियादर:-शक्तिमतिक्रम्य क्रियां कत मादरः, (१२) र
१०१॥
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अध्यात्म
सार:
॥१०॥
'गुणाऽनुरागवैधुर्यम्'-गुणवमिष्ठगुणान् प्रति प्रीतिरहितत्वम् (१३) 'उपकारस्य विस्मृति-स्वात्मानं प्रत्युपकारकारिणामुपकारस्य महतोऽपि विस्मरणम् (१४) 'अनुषन्धाधचिन्ता'-माविन्या अनर्थपरम्परायाचिन्तायाः शून्यत्वम् (१५) 'प्रणिधानस्य विस्मृति-धर्मयोगे चित्तस्यैकाग्रतायाः स्मरणामावः, (१६) श्रद्धामृदुन्वम्' सामान्यनिमित्तमाप्य प्रतिज्ञादिखण्डनशीला शिथिलीभृता श्रद्धा, (१७) 'औद्धत्यम्'नम्रताया विरुद्धत्वम् (१८) 'अधैर्यम्'-विरुद्धनिमित्तसद्भावे धीरताया असद्भावः (१९) 'अविवेकिता' सारासारादिविवेचनपटुरूपविवेकदीपकविध्यापनम् , इत्येवं, द्वितीयस्य-मोहगर्मितवैराग्यस्य 'स्मृनेयं लक्षणावली'-एकोनविंशतिर्लक्षणानि कथितानीति ॥१२॥१३॥१४॥१५॥
-तृतीयस्य ज्ञानगभिंतवैराग्यस्य स्वरूपवर्णनम्
'ज्ञानगर्भ तु वैराग्य, सम्यक् तत्त्वपरिच्छिदः ।
स्यावादिनः शिवोपायस्पर्शिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥१६॥ टीकाः--'सम्यक् तत्वपरिच्छिदः'=सर्वज्ञप्रणीतत्वेन सम्यक्तन्वपरिच्छेदकस्य, 'स्याद्वादिनः' स्यादवादपद्धतिपूर्णपरिचयवतः शिवोपायस्पर्शिनः'मोक्षोपायभूतरत्नत्रयीस्पर्शकारकस्य, 'तत्त्वदर्शिनः' सत्यसारदर्शनपरस्य, एतादृशविशेषणविशिष्टस्यात्मनो यद्वैराग्यं तज्ज्ञानगर्भ वैराग्यं निरुच्यते ॥१६॥
॥१०२॥
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अध्यात्म
सारः
॥१०३॥
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-मीमांसा सुदृढप्रतिभावतो ज्ञानगर्भवैराग्यविवृद्धि:'मीमांसा मांसला यस्य, स्वपरागमगोचरा । बुद्धिः स्यात्तस्य वैराग्यं, ज्ञानगर्भमुदञ्चति ||१७||
टीका: - 'यस्य मीमांसा मांसला' - यस्यात्मनो विचारणया परिपुष्टा, 'स्वपरागमगोचरा' - स्वकीय परकीयशास्त्रविषयिणी, 'बुद्धि: स्यात्तस्य' प्रतिभा स्यात्तस्यात्मनः, 'ज्ञानगर्भ वैराग्यमुदञ्चति' – ज्ञानगमित वैराग्यमुन्नतिं गच्छतीति ॥१७॥
- स्वपरावगाहिबुद्धिरहितानां निश्चयसारमनुष्ठानस्य न प्राप्नोतिन स्वाऽन्यशास्त्रव्यापारे, प्राधान्यं यस्य कर्मणि । नाsसौ निश्चयसंशुद्धं सारं प्राप्नोति कर्मणः 118=11
टीका:- पूर्वोक्तं यज्ज्ञानगर्भितवैराग्यहेतोः स्वपरागमावगाहिनी प्रतिभाऽऽवश्यकी विद्यते, इत्येत द्विधानमनुलक्ष्य निश्चयनयदृष्टयाऽत्र श्लोके कथ्यते, यथाहि 'यस्य कर्मणि प्राधान्यं ' 'चारित्रवत आत्मनोऽनुष्ठान एव प्राधान्यं दृश्यते 'न स्वाऽन्यशास्त्रव्यापारे' - स्वपरागमावगाहनरूपे व्यापारे प्राधान्यं न दृश्यतेऽतोऽसौ - चारित्रवानात्मा 'निश्चयसंशुद्धं कर्मणः सारं न प्राप्नोति - निश्चयनयदृष्टयात्यन्तशुद्धं कर्मणोऽनुष्ठानस्य सारं फलं न प्राप्नोतीति ॥१८॥
॥ १०३ ॥
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अध्यात्म
सार:
||१०४॥
-तत्र किमनुष्ठानस्य सारं ? इत्येतत्प्रश्नस्य प्रत्युत्तरम्'सम्यक्त्वमौनयोः सूत्रे, गतप्रत्यागते यतः ।
नियमो दर्शितस्तस्मात् , सारं सम्यकत्वमेव हि ॥११॥ टीकाः-'सूत्रे सम्यक्त्वमौनयोर्गतप्रत्यागते यतो नियमो दर्शितः =आचारांगनामके सूत्रे सम्यक्त्वमौनयोः समव्याप्ते नियमो दर्शितोऽस्ति, अर्थाद् यदेव सम्यक्त्वं तदेव मुनित्वं, यदेव मुनित्वं तदेव सम्यक्त्वमित्येतनियमतो निश्चितमेवं स्याद् यच्चारित्रस्य सारं सम्यक्त्वमेव, इदमत्रहृदयं-निश्चयनयदृष्टया सम्यक्त्वं सप्तमगुणस्थान एव सम्भवति यतः कर्मणः-चारित्रस्य सारं शुद्धसम्यक्त्वमेव, किञ्चैतच्छुद्धसम्यक्त्वं स्वपरागमावगाहनजन्यबोधं विना प्राप्तु न शक्यते ॥१९||
-सम्यक्त्वचारित्रयोः समव्याप्तिं समर्थयति'अनाश्रवफलं ज्ञान-मव्युत्थानमनाश्रवः ।
सम्यक्त्वं तदभिव्यक्ति-रित्येकत्वविनिश्चयः ॥२०॥ टी. 'अनाश्रवफलं ज्ञानं'=(१) अनाश्रवः फलं यस्य तज्ज्ञानमज्ज्ञिानस्य फलमनाश्रवो विरति- रित्यर्थः, (२) 'अव्युत्थानमनाश्रवः'सर्वपापाश्रवेष्वप्रवृत्तिरर्थाच्चारित्रं (३) तदभिव्यक्तिः सम्यक्त्वं' =
॥१०४।।
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सारः
॥१०५॥
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तस्य चारित्रस्याऽभिव्यक्तिः प्राकटयं सम्यक्त्वमेव, 'इत्येकत्वविनिश्चयः' इत्येवं सम्यक्त्वज्ञानचारित्राणां त्रयाणामेकत्वविनिश्चयो ज्ञेयः, इदमत्र हृदयं यत्र ज्ञानं तत्र तस्य कार्येण चारित्रेण भवितव्यमेव, चारित्रस्य चाभिव्यञ्जकं सम्यक्त्वमस्ति ततो यत्र चारित्रं तत्र सम्यक्त्वसत्वमेव, अभिव्यञ्जकोऽपि विनाऽभिव्यङ्गयं न सम्भवति, अतो यत्र सम्यक्त्वसत्ता तत्र चारित्रसत्चैवेत्येवं निश्चयनयदृष्टया पूर्वश्लोकदर्शितचारित्रसम्यक्त्वयोः समव्याप्तिः स्थिरत्वेन समर्थितेति ||२०||
- व्यावहारिक नैश्चयिक चारित्रयोर्भेदतो वर्णनम् - 'बहिर्निवृत्तिमात्रं स्या- चारित्रं व्यावहारिकम् 1 अन्तः प्रवृत्तिसारं तु सम्यक ज्ञानमेव
॥२१॥
टीका:- ननु चतुर्थगुणस्थाने सम्यक्त्वमस्ति तत्र किं चारित्रमस्ति ? सप्तमे च गुणस्थान एव सम्यक्त्व चारित्र समव्याप्तिरस्ति ततः षष्ठगुणस्थाने यच्चारित्रमस्ति तत्र किं सम्यक्त्वं नास्तीतीति चेन्न, स्थाने चरित्रमस्ति तत्तु बाह्यपदार्थनिवृत्तिमात्र स्वरूपं व्यवहारतएव चारित्रं कथ्यते, अत एव तच्चारित्रं व्यावहारिकमुच्यते, तत्र व्यावहारिकं सम्यक्त्वमपि भवत्येव, तथापि तत्र निश्चयनयदृष्टया सम्यक्त्वं सम्यक्प्रज्ञानं भवितुं नार्हति यतः सम्यक्त्वं सम्यक्प्रज्ञानं तु 'अन्तःप्रवृत्तिसारं ' आत्मनि
॥१०५॥
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सार:
॥१०६॥
रमणतैव सारं-फलं यस्य तदन्तः प्रवृत्तिसारवत्सम्यक्प्रज्ञानमेव सम्यक्त्वं ज्ञेयं, अन्तः प्रवृत्तिस्तु सप्तमगुणस्थान एव सम्भवति तस्माद्व्यावहारिकचारित्रेण सह निश्चयसम्यक्त्वं न सम्भवति, अर्थादेकता प्राप्तानि निश्चयशुद्धानि सम्यक्त्वचारित्रज्ञानानि सप्तमगुणस्थानत एव सम्भवन्ति ततोऽधस्तेषामसम्भवः ॥२१॥
-निश्चयनयदृष्टयैकान्तेन षटकायश्रद्धानेऽपि न शुद्धता'एकान्तेन हि षट्काय-श्रद्धानेऽपि न शुद्धता ।
सम्पूणपर्ययालाभाद्, यन याथात्म्यनिश्चयः ॥२२॥ टीकाः-एकान्तेन षड् जीवनिकायस्य श्रद्धानकरणे निश्चयनयस्य शुद्धसम्यक्त्वं न सम्भवति, (१) 'पडेव जीयाः सन्ति कायश्चास्ति' इत्येतदेकान्तश्रद्धानमस्ति, यतो जीवानां च तेषां कायानां समूहमपेक्ष्य तदेकैकमेवास्ति, षड् न सन्ति (२) अथ यदि 'षड्जीवनिकायोऽस्ति' इत्येतस्मिश्रद्धाने षड् जीवनिकाये जीवत्वं मन्येत तदप्यसद् यतो जीवपुद्गलाः परस्परं क्षीरनीरवदेकत्वमापन्नाः सन्ति जीवे जीवत्वमस्ति तथा पुद्गलत्तमप्यस्ति, (३) षड्जीवनिकायस्य श्रद्धाने 'षण्णां जीवानां समुदाये निकायत्वं यदा मन्येत तदप्यसद् यतः समुदाये निकायत्वे सति प्रत्येकजीवस्य पृथकत्वेन प्रधानतया विवक्षा क्रियेत तदा तेपो समूहो न भवेदात्तेषु तदपेशयाऽनिकायत्वप्यागच्छेदित्येवमेवकारं 'षड्जीवनिकाये' भिन्नभिन्नरीत्या संयोज्य यद्येकान्तो ग्राह्यस्तदैतदेकान्त श्रद्धानमेव शुद्धसम्यकृत्वं नास्ति, निश्चयनयत एष आत्मा मिथ्या
।।१०६॥
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अध्यात्मसार:
॥१०७॥
दृष्टिरेव कथ्येत, कुत इति चेद् यतः पदार्थोऽनन्तपर्यायमयोऽस्ति (१) अतः 'जीवे जीवत्वस्ति तथाऽजीवत्वमप्यस्ति (२) षड्जीवनिकाये षट्त्वमस्ति तथैकत्वमप्यस्ति (३) निकायत्वमस्ति तथाऽनिकायत्वमप्यस्ति, एवं रीत्या पदार्थस्य यद् यथार्थस्वरूपं यत् ‘पदार्थः सर्वपर्यायवानस्ति तस्य निश्चयामावादर्थात् सम्पूर्णपर्ययाऽलाभाद् यथार्थत्वविनिश्चयामावादेतादृशमेकान्ततावत् षड्जीवनिकायश्रद्धानं शुद्धसम्यक्त्वरूपं न भवति ॥२२॥
-जगतः किञ्चनाऽप्येकमेव द्रव्यं सर्वपर्यायमयमस्तीति साधना'यावन्तः पर्यया वाचा, यावन्तश्वार्थपर्ययाः ।
साम्प्रताऽनागतातीतास्तावद् द्रव्यं किलैककम् ॥२३॥ टीकाः-शब्दसमभिरूढेवभूतनया अथवा शब्दादिनयत्रयेण वाच्या वस्त्वंशा वस्तुनो 'वचनपर्यायाः' सङ्ग्रहादिनया अथवा तद्वाच्या वस्त्वंशा वस्तुनो 'अर्थपर्यायाः' उच्यन्ते, प्रत्येकवस्तुनोऽनन्तानन्ता वचनपर्यायाः सन्ति, अर्थपर्यायाश्चाऽपि सन्ति, यतोऽतीतादिकालत्रयवर्तिनः सर्वपर्यायाः प्रत्येकद्रव्यस्य भवन्ति, तथाहि घटद्रव्यस्य कालत्रयवर्तिनः पर्यायाः, यथा वर्तमानघटद्रन्यस्य तथा तस्यैव घटद्रव्यस्य पटादिसर्वद्रव्यागां सर्वं पर्याया अपि सन्त्येव कमिति चेत् ? पटादिपर्याया अपि घटादिद्रव्ये, नास्तित्वरूपेणाऽन्योऽन्यमनुगता भवन्ति, एवमेकमेव द्रव्यं सर्वद्रव्याणां सर्वकालीनसर्वपर्यायमयं युगपत्क्रमेणाऽपि च भवति ॥२३॥
॥१०७॥
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अध्यात्म सार:
||१०८॥
__ -स्यात् सर्वमयमिति विषयस्य प्रतिपादनम्'स्यात् सर्वमयमित्येवं, युक्तं स्वपरपर्ययः ।
अनुवृत्तिकृतं स्वत्वं, परत्वं व्यतिरेकजम् ॥२४॥ टीकाः-एवं रीत्यैकैक द्रव्यं सर्वैः स्वपर्यायः सर्वेश्च परपर्याययुक्तत्वात् सर्वपर्यायमयं भवति, शङ्का पर्यायनिष्ठं किं स्वत्वं परत्वं च किं ? अर्थाद् घटस्याऽमुकाः पर्यायाः स्वत्वेनामुकाश्च परत्वेन कथ्यन्ते तत् किं ? समाधानं येषां पर्यायाणां घटेऽनुवृत्तिः (स्ववृत्तित्व) ते पर्याया घटस्य स्वपर्यायाः कथ्यन्ते, किश्च घटे वृत्तित्वाभावजन्या (व्यतिरेकजाः) घटस्य ये पर्याया भवन्ति ते पर्याया घटस्य परपर्यायाः कथ्यन्ते यथा घटे घटत्वपर्यायोऽस्ति तस्मिन्नेव घटे पटत्वपर्यायोऽप्यस्ति विशेषस्त्वेतावानेव यद्घटत्वपर्यायो घटस्य स्वपर्यायोऽस्ति तदा पटत्वपर्यायो घटस्य परपर्यायोऽस्ति घटस्येमो द्वौ घटस्यैव स्वपर्यायपरपर्यायौ कथ्येते, अर्थाद् येषां पर्यायाणां घटेऽस्तित्वमस्ति ते सर्वे पर्याया अस्तित्वसम्बन्धेन घटस्य स्वपर्याया उच्यन्ते, येषां च पर्यायाणां घटे नास्तित्वमस्ति ते सर्वे पर्याया नास्तित्वसम्बन्धेन घटस्य परपर्यायास्तथाच येन केनचित् सम्बन्धेन भवन्तो घटस्य स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च सर्वे घटस्यैव पर्याया जाता अत एव घटद्रव्यं सर्वपर्याय नयं' जातं, एवं रीत्या प्रत्येकद्रव्यमनुवृत्त्या (सद् भावतः) अस्तित्वसम्बन्धेन, व्यतिरेकतश्च (असत्त्वेन) नास्तित्वसम्बन्धेन सर्वपर्यायमयं भवतीति ॥२४॥
||१०८॥
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अध्यात्म
सारः
॥१०९॥
- पटत्वादिपरपर्याया अपि घटस्य स्वपर्यायीभवने सिद्धिः'ये नाम परपर्यायाः, स्वाऽस्तित्वाऽयोगतो मताः ।
स्वकीया अप्यमी त्याग-स्वपर्यायविशेषणात् ॥२५॥ टीका:-ननु घटस्य ये घटत्वादिपर्यायाः सन्ति, ते तु निश्चयतो घटस्य स्वपर्यायाः कथनीयास्तत्तु स्पष्टं ज्ञायते परन्तु ये पटत्वादिपरपर्याया घटस्य न सन्ति ते तु घटस्य पर्यायाः कथं कथ्यन्ते ? पटस्वादयो घटस्य परपर्याया इति कथ्यन्ते च ते घटस्य पर्यायाः कथं ? यदि घटस्य पर्यायाः स्युस्ते घटस्य परपर्यायाः कथं? इति चेदुच्यते घटस्य ये घटत्वादिपर्यायाः सन्ति, तेषां घटेऽस्तित्वमस्ति, ततः कारणात स्वाऽस्तित्वसम्बन्धेन घटत्वादिपर्याया घटस्य स्वपर्यायाः कथिताः, घटादन्यत्र सर्वेषु पटादिद्रव्येषु ये पटत्वादयोऽनन्तपर्यायाः सन्ति ते यद्यपि घटेऽस्तित्वसम्बन्धेन तु न सन्ति तथाऽपि घटस्य ये परपर्यायास्ते, घटस्य स्वपर्यायत्यागरूपविशेषणवन्तो भूत्वा घटस्यैव स्वपर्याया भवन्ति-इदमत्र हृदयमस्ति-घटत्वादयः पटत्वादयश्च सर्वे घटस्य स्वपर्यायाः सन्ति परन्तु घटस्वादिस्वपर्यायाः स्वपर्यायस्वीकारविशिष्टास्तदा पटत्वादिपर्यायाः स्वपर्यायत्यागविशिष्टाः सन्ति, अर्थात् स्वपर्यायस्वीकाररूपविशेषणवन्तो घटत्वादिपर्याया घटस्य स्वपर्यायाः कथ्यन्ते, स्व (घटत्व) पर्यायत्याग
॥१०९॥
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अध्यात्म
सार:
॥ ११०॥
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रूपविशेषणवन्तः पटत्वादिपर्याया घटस्यैव स्वपर्यायाः कथ्यन्ते, पटत्वादयो नास्तित्वसम्बन्धेन घट एव तिष्ठन्त्यत एव घटस्य पर्याया मन्तव्या एव || २५ ||
- अतादात्म्येऽपि परपर्यायाणां स्वत्वं धनस्येव व्यज्यते - 'श्रतादात्म्येऽपि सम्बन्ध-व्यवहारोपयोगतः तेषां स्वत्वं धनस्येव व्यज्यते सूक्ष्मया धिया
1
॥२६॥
टीका:- ननु घटत्वादिपर्यायाणान्तु घटे तादात्म्यमस्ति तस्माद् घटत्वादिपर्याया घटपर्यायाः कथ्यन्ते तच्चारु, परन्तु येषां पटत्वादिपर्यायाणां घटे किमपि तादात्म्यं नास्ति तेषां पटत्वादीनां घटसत्कस्वपर्यायत्वकथनं कथं चार्विति चेटुच्यते यथा द्वयोरभिन्न ( तादात्म्यवद्) वस्तुनोः सम्बन्धो भवति तथा द्वयो भिन्न (अतादात्म्यवद्) वस्तुनोरपि सम्बन्धो भवत्येव यथाहि = एकः पुरुषोऽस्ति तस्य च गृहे पुष्कलं धनमस्ति पुरुषघनयोः सर्वथा भिन्नयोः सतोः 'पुरुषस्य धन' मिति किं न व्यवह्रियते १ तथा घटपटादिपर्याययोः सर्वथा भिन्नयोः सतोः 'पटत्वादिपर्याया घटस्येति कथं न कथनीयाः स्युः ९ एष विषयः सूक्ष्मया बुद्धया व्यज्यते प्रकटीक्रियते एकं वस्तु द्वितीयवस्तुतो भिन्नं सदपि तस्योपयोगि स्यात्तदा तवस्तु द्वितीयवस्तुनो भवति यथा देवदत्तधनयो:- सर्वथा भिन्नयोः सतो र्यद्धनं देवदत्तस्योपयोग्यस्ति तद्धनं देवदत्तस्य कथ्यते एवं रीत्या घटस्य स्वपर्यायाणां त्यागविशिष्टपटत्वादयः परपर्यायत्वेन
॥११०॥
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अध्यात्मसार
॥११॥
रूपेणोपयोगिनो भवन्ति, तथाहि-यदा 'यटमानये' ति व्यवहारो भवति सदा 'घटत्ववान् घट एवाऽऽ. नीयते परन्तु पटादयो नानीयन्ते, एतस्माद् व्यवहारात सिद्धयति यत् पटादिषु घटस्य स्वपर्यायाभावः पतितः, तस्मात्ते पटादयस्तदा नानीयन्ते, यत्र घटस्य स्वपर्यायोऽस्ति, तदेव घटद्रव्यमेवाऽऽनीयतेऽर्थादेबंरीत्या घटस्य परपर्याया अपि घटानयनादिव्यवहारे उपयुज्यन्ते तस्मात्तेषां पटादिपरपर्यायाण घटेन सह सम्बन्धो भवति तस्मात्ते पटादिपर्याचा घटस्यैव स्वपर्याया उच्यन्ते ॥२६॥
-भिन्ना अपि पर्याया उपयोगद्वारा स्वकीया एव मन्यन्ते'पर्यायाः स्युमुने नि-दृष्टिचारित्रगोत्रराः ।
यथा भिन्ना अपि तथो-पयोगाद् वस्तुनो ह्यमी ॥२७॥ टीका:-यथा ज्ञानदर्शनचारित्रविषयाः सर्वे द्रव्यपर्याया मुने भिन्नाः सन्तोऽपि मुनेरेव कथ्यन्ते कस्मादिति चेदुच्यते यतम्ते द्रव्यपर्यायाः श्रद्धेयत्वेन केचिज्ज्ञेयत्वेन केचन च त्यागद्वाग, केऽपि ग्रहणद्वारा, चारित्रक्रियायामुपयोगित्वेन मोक्षनामकलक्ष्यसिद्धावुपयुज्यन्तेऽर्थात् स्वकार्यसिद्धायुपयोगिभवनद्वारा सर्वे । ज्ञानादिपर्याया मुनेर्भिन्नाः सन्तोऽपि मुनेरेव पर्याया उच्यन्ते तथा घटादिवस्तुनः पटत्वादिपर्याया घटादे मिनाः सन्तोऽपि घटादेः स्वपर्यायाणा त्यागविशिष्टाः परपर्याया अपि व्यवहारे उपयोगिभवनद्वारा घटादेः स्वपर्यायाः कथ्यन्ते ॥२७॥
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अध्यात्म
सार:
॥११२॥
-ययोयोरतादात्म्यं तयोईयोरपि व्यवहारोपयोगिनोः सतोः सम्बंध:'नो चेदभावसम्बन्धाऽन्वेषणे का गति भवेत् ।
थाधारप्रतियोगित्वे द्विष्ठे न हि पृथग द्वयोः ॥२८॥ टीका-ययो द्वयो वस्तुनोरतादात्म्यमस्ति, तयोद्वयो वस्तुनोरपि सम्बन्धो भवतीत्येतं विषयं यूयं न स्वीकुरुथ तदा युष्माकमापत्तिरागमिष्यति, तथाहि घटाभाववद् भृतलमित्यत्र यूयं घटाभावस्य भृतलेन सह सम्बन्धं मन्यध्वे तदा वयं पृच्छामः, भूतलेन सह घटाभावस्य सम्बन्धान्वेषणे का गति भवेत् , यदि युष्माभिः कथ्यते च तावद् घटाभावस्याधारो भृतलमस्ति, प्रतियोगी च घटोऽस्ति तस्माद् घटाभाव आधारतासम्बन्धेन भूतलेन सह सम्बध्नाति, प्रतियोगितासम्बन्धेन घटेन सह सम्बध्नाति ययमत्रापि जानीत यदेषाऽऽधारता, प्रतियोगिता च क्रमेणानुयोगिनि च प्रतियोगिनि वर्तेते, अर्थाद् घटाभावस्याधारता, आधाररूपे भूतल एव तिष्ठति, परन्तु, आधारतानिरूपकघटाभावे न तिष्ठति, एवं रीत्या घटाभावस्य (घटाभावनिरूपित) प्रतियोगिता प्रतियोगिनि घट एवं तिष्ठति, परन्तु प्रतियोगितानिरूपकघटाभावे न तिष्ठति, इदमत्र हृदयम्=अनुयोगिता वा प्रतियोगिता न द्विष्टा, परन्तु आधारे वा प्रतियोगिन्येव तिष्ठति, तस्मादाधारताप्रतियोगिते, आधारता निरूपकघटाभावप्रतियोगितानिरूपकघटाभावाभ्यां भिन्ने एव स्तः, घटामावस्याधारताप्रतियोगिते न घटाभावे तिष्ठतः, घटाभावाभिन्ने स्तः, तथापि ययमतादात्म्यवती, आधारता प्रतियोगितां च घटाभावसम्बन्ध
११२॥
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अध्यात्मसार:
॥११३॥
स्वरूपपर्यायत्वेन प्रतिपद्यध्वे, भूतले वा घटे तादात्म्यवन्तौ सन्तावपि तेन सह सम्बन्धात्मको पर्यायौ भवतस्तदा तौ युष्माकं मतेन कया रीत्या भवतः १ अर्थाद् युष्माभिरेष विषयः सम्मतश्चेत्तदा ययो ईयोरतादात्म्यमस्ति तयोर्द्वयोरपि व्यवहारे उपयोगे सति सम्बन्धो भवितुमर्हति, एवं सति पटत्वादिपर्यायः सह घटस्याऽतादात्म्यमस्ति तथापि घटबोधस्य व्यवहारे पटत्वादय उपयोगिनः सन्ति तस्माद घटेन सह पटत्वादेः सम्बन्धः किं सम्भवेदर्थादेतेऽपेक्षया पटत्वादयः बटस्य स्वपर्यायाः किं न सम्भवेयुः ॥२८॥ -स्वाऽन्यपर्यायसम्बन्धेन प्रत्येक वस्तु सर्वपर्यायमयमस्ति तत्र सूत्रस्य प्रामाण्यं प्रदर्श्यते
'स्वान्यपर्यायसंश्लेषात् , सूत्रेऽप्येवं निदर्शितम् ।। __ सर्वमेकं विदन् वेद, सर्वे जानंस्तथैककम् ॥२॥
टीकाः-अनया रीत्यैकस्मिन् द्रव्ये स्वपरपर्यायसम्बन्धेन, श्रीमदाचाराङ्गसूत्रेऽपि कथितमस्ति यत् , 'य एकं जानाति स वस्तुतः सर्व जानाति, यः सर्व जानाति स एकं जानाति' इति, किञ्चनाऽप्येकं वस्तु स्वपरपर्यायानन्नात्मा लोकालोकगतं सर्व वस्तु सर्वस्वपरपर्यायै युक्तं जानाति यतः सर्ववस्तूनां सर्वपर्यायविषयकज्ञानं विनैकं वस्तु ज्ञातुमशक्यम् , प्रत्येकं वस्तु सर्वस्वपरपर्यायमयमस्ति, अथ सर्वपर्यायविषयकज्ञानं विना सर्वपर्यायमय मेकं वस्तु कया रीत्या ज्ञातु शक्यते ? सर्वपर्यायान् ज्ञातु सर्ववस्तु ज्ञेयमेव, यद्येवं स्यात्त
११३॥
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अध्यात्मसार:
॥११४॥
देकं वस्तु ज्ञातु शक्यते, अर्थादेकं जानन् सर्व जानातीति निःशकमेवं कथयितु शक्यम् , एवंरीत्या सर्वजानन्ने जानाति, यत एकस्याऽप्यज्ञाने सर्व ज्ञातं न सम्भवति, अनया रीत्या सर्वज्ञानं बिना सर्वपर्याय मयमेकं ज्ञातु न शक्यते, एकमपि च न ज्ञायते, तदा सर्व कथं ज्ञातुं शक्यते प्रोक्तं च 'सर्व विदन्नेवैकं चैकं जानन्नेव सर्व जानाति' ||२९||
सम्यग्दृष्टिरात्मा, सम्मुरवस्थं पर्यायमेकमर्थ विदन्नपि भावादखिलं वेत्ति 'यासत्तिपाटवाऽभ्यास-स्वकार्यादिभिराश्रयन् ।
पर्यायमेकमप्यर्थ, वेत्ति भावाद बुधोऽखिलम् ॥३०॥ ___टीका:-यन पूर्वोक्तं 'सम्यग्दृष्टिरात्मा प्रत्येकवस्तुनोऽनन्तान् पर्यायान् वेत्त्येयं अत्रायं विशेषःविवक्षितकाले सम्यगदृष्टिात्मा मम्मुखस्थघटस्य घटत्वपर्यायं पश्यन्नपि भावतस्तु तदापि तं घटमनन्तपर्यायमयं मन्यानोऽस्ति, मिथ्याष्टिरेवं न मन्यते, ननु यदि सम्यग्दृष्टिरात्मा सम्मुखस्थं घटमनन्तपर्यायमयं पश्यति, तदास स्थलदृष्टयेकं घटत्वपर्यायमेव स्वदृष्टिसम्मखस्थं कथं पश्यति ? इति चेदच्यते, आसत्तिपाटवाऽभ्याभस्वकार्यादिभिराश्रयन्' = (१) आसत्तिः सम्बन्ध, यथा छात्रव्राह्मणयोरध्ययनक्रियया सम्भवन सम्बन्धः छात्रोपाध्याय सम्बन्धः, तेन सम्मुखस्थे ब्राह्मणे सति उपाध्यायत्वपर्यायं पुरस्कृत्य 'मम पाठकाः समागताः' इति छात्रणोच्यते (२) बुद्धिपाटवम्-द्वितीयोऽप्यतिवुद्धिशाली, तं सम्मुखस्थं
॥११४।
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अध्यात्मसार:
॥११५॥
ब्राह्मणं दृष्ट्वा वेषदर्शनमात्रेण शीघ्रं कथयति 'एप ब्राह्मण आगतः' इत्यत्र ब्राह्मणत्वपर्यायो मुख्यो जातस्तत्र बुद्धिपाटबं कारणम् ।
(३) अभ्यामः तृतीयो जनः, सम्मुखस्थं ब्राह्मणं प्रतिदिनभिक्षादानाभ्यासाद् दृष्ट्वैव कथयति 'भिक्षुक आगतः' इत्यत्र भिक्षुकत्वपर्यायपुरम्कारेऽभ्यासः कारणम् , (४) चतुर्थेन जनेन कथाकारणप्रयोजनेन म ब्रामण आहतोऽस्ति, तं च प्रतीक्षमाणः सन्नुपविष्टोऽस्ति, तं ब्राह्मणं सम्मुखस्थं निरीक्ष्य वदति 'कथाकार आगनः' इत्यत्र कथकवपर्यायः पुरस्कृतस्तत्र प्रयोजनमेव हेतुर्जातः इत्येवमासत्यादिभिरनन्तपर्यायमयवस्तुनी एकः पर्यायः सम्मुखीभवति, तदापि सम्यग्दृष्टिगत्मा, भावतस्तु तद्वस्तु, अनन्तपर्यायमयमेव जानानि, परन्तु मिथ्या स्तुि तदापि भावतोऽपि वस्तुन एकमेव पर्यायं जानाति, नानन्तपर्यायानिति ॥३०॥ श्रद्धाघलेन सम्यग्दृष्टिः प्रत्येकवस्तुनिष्ठाननन्तपर्यायान् भावतोऽवश्यमेव मन्यते जानाति च
अन्तरा केवलज्ञानं, प्रतिव्यक्तेन यद्यपि । क्वाऽपि ग्रहणमेकांश-द्वारं चातिप्रसक्तिमत् ॥३१॥ अनेकान्तागमश्रद्धा, तथाऽप्यस्खलिता सदा । सम्यगदृशस्तव स्यात्, सम्पूर्णाऽर्थविवेचनम् ॥३२॥
॥११॥
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अध्यात्म
सारः
॥११६॥
टीका:-यद्यपि केवलज्ञानं विना, 'वस्तुमात्रेऽनन्तपर्यायाः सन्ति' इति प्रत्यक्षज्ञानं कस्यचिदपि न सम्भवति अनन्तपर्यायमयवस्तुनश्च क्वाऽपि, एकांशद्वारं ग्रहणं एकांशविषयक-ज्ञानं भवेत्तदा तदतिप्रसङ्गदोषाऽन्वितं स्यात्तथापि सम्यग्दृष्टेरात्मनोऽनेकान्तमूलके जिनेन्द्रागमे सुनिश्चला श्रद्धा वर्त्तत एव, तयैव श्रद्धया वस्तुमात्रनिष्ठाननन्तपर्यायान् भावतो मन्यते जानाति च, ये पदार्था येन रूपेण केवलिना प्रत्यक्षदृष्टास्तान पदार्थास्तेन रूपेण सम्यग् दृष्टिर्न साक्षात् पश्यति तथाऽपि केवलिनां वचनेषु सम्पूर्णश्रद्धाद्वारा सदा-सर्वकाले सम्पूर्णार्थविवेचनम् वस्तुमात्रस्याऽनन्तपर्यायमयताया विवेचनमवश्यं कर्तु शक्यते ॥३१॥३२।।
____ आगमार्थोपनयनद्वारा प्राज्ञस्य ज्ञानं सर्वव्यापीति 'भागमार्थोप नयनाद्, ज्ञानं प्राज्ञस्य सर्वगम् ।
कार्यादेर्व्यवहारस्तु, नियतोल्लेखशेखरः ॥३३॥ टीका:- आगमाऽर्थान् सम्पूर्णश्रद्धया सह पुरस्कृर्वतः सम्यग्दृष्टेरात्मनो ज्ञानं सर्वव्यापीति कथ्यते, यथा केवलिनो ज्ञानं सर्वपदार्थविषयकमस्ति सम्यग्दृष्टे निमप्यागमार्थश्रद्धाद्वारा सर्वगतमेवास्ति, (केवली साक्षाददृष्टवा-यथाऽनन्तकायेऽनन्तान जीवान कथयति केवलिवचनश्रद्धयैवैनं विषयं सम्यगदृष्टिः कथयति) ननु यद्येवं वस्तुन्यनन्तपर्यायवति ज्ञाते सति सम्मुखस्थे वस्तुनि घट इति व्यवहारः कथमिति
| ||११६॥
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अध्यात्म
सारः
॥११७॥
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चेदुच्यते, तत्र तत्र विवक्षितवस्तुनि घटादिरूपेण तत्र तत्र काले नियतोल्लेखप्रधानो व्यवहारो भवति पूर्वोक्ताऽऽसत्यादिकारणेन जायते निश्चयनयेन निश्चितं यत् प्रत्येकवस्त्वनन्तपर्याय मयताया दर्शनमेव सम्यग्दर्शनम्, तदेव सम्यग् ज्ञानमस्ति तादृशसम्यग्दर्शनादि, सप्तमगुणस्थाने सम्भवति तस्मात् सम्यग् दर्शनं सम्यक् चारित्रमस्ति, त्रयमेकस्वरूपं स्थितम् ||३३||
- एकान्तेन जैनाभासस्य विरक्तस्याऽपि कुग्रहः पापकृत्'तदेकान्तेन यः कश्चिद विरक्तस्याऽपि कुग्रहः 1 शास्त्रार्थबाधनात् सोऽयं, जैनाभासस्य पापकृत् ॥ ३४ ॥
टीका:- पूर्वोक्तं यत् षड्जीवनिकायस्यैकान्तेन श्रद्धानमपि शुद्धसम्यक्त्वं न कथ्यते, इत्येवं विषयमुपसंहत्याऽस्मिन, श्लोके ग्रन्थकारो ज्ञापयति यद् विरक्तस्याप्येकान्तेन यः कश्चित् कुग्रहः स्यात्, सोऽयं शास्त्रार्थ बाघ नाज्जैनाभासस्य पापकृत् = पापकर्मबन्धकृद् भवति ||३४|| - ज्ञानगर्भ वैराग्यविरोधी कुग्रहः
'उत्सर्गे वाsपवादे वा व्यवहारेऽथ निश्चये ।
ज्ञाने कर्मणि वाऽयं चेन्न तदा ज्ञानगर्भता ॥३५॥
॥११७॥
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अध्यात्म-
सार
॥११८॥
टीका:-यस्य कस्यचिद् विरक्तस्यापि जैनाभासस्य, उत्सर्गेऽथवाऽपवादविषये, व्यवहारेऽथवा निश्चये, ज्ञाने वा कर्मणि-क्रियायां वा, एकान्तेन ग्रहश्चेत्तदा शास्त्रार्थवाधनाम ज्ञानगर्भतेति ॥३५॥
-स्वागमे परागमाऽर्थानां नावतारकुशलत्वं तदा न ज्ञानगर्भता'स्वागमेऽन्यागमार्थानां शतस्येव परायके ।
नावतारबुधत्वं चेन तदा ज्ञानगर्भता ॥३॥ टीका:-यथा परायके पराय॑नामकमहासंख्या शतस्य-शतसङ्ख्याया अवतार:-समावेशः सुगमः, तथा स्त्रागमे जैनागमे, अन्यागमार्थाना=जनेतरशाखनिरूपितपदार्थाना, अवतारबुधत्वसमावेशविचक्षणवं, न चेत्तदा विरक्तस्याऽपि जैनामासस्य ज्ञानगर्भवैराग्यभावो नेति ॥३६॥
___-समस्तनयेषु मध्यस्थता न तदा न ज्ञानगर्भता'नयेषु स्वार्थसत्येषु, मोघेषु परचालने ।
माध्यस्थ्यं यदि नाऽयातं, न तदा ज्ञानगर्भता ॥३७॥ टीका:-सर्वे नयाः स्वाऽभिप्रेतार्थप्रतिपादने लग्नाः स्युस्तदा तेषां प्रतिपादनं सत्यं भासते परन्तु Inven तत्सम्मुखं तस्य प्रतिपक्षी नयो यदा तस्य खण्डनं कर्तुं लगेत्तदा पूर्वपक्षीयो नयोऽसत्यो मासते यथा ।
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अध्यात्मसार:
॥११॥
निश्चयनयः स्वाऽभिप्राय पूर्णवलेन स्थापयति तदा स एव सत्यो भासते परन्तु यदा परनयेन-व्यवहारनयेन खण्ड्यते तदा प्राक्तनो नयोऽसत्यो भासते, तस्मिन् काले नयेषु स्वार्थसत्येषु परचालने-परद्वारा खण्डने सति मोघेषु-निष्फलेषु यदि माध्यस्थ्यं-अपेक्षाद्वारा समन्वं नाऽयातं तदा न ज्ञानगर्भतेति ॥३७॥
-आज्ञया चा युक्तितः पदार्थानां योजकत्वं न, म तदा ज्ञानगर्भता'श्राज्ञयाऽऽगमिकार्थानां, यौक्तिकानां च युस्तितः ।
न स्थाने योजकत्वं चे-न तदा ज्ञानगर्भता ॥३८॥ टीकाः-हेतुबादागमवादाभ्यां द्विवियो वाद उच्यते, (१) प्रथमो हेतुवादस्तु पदार्थानां सिद्धिकृते प्रत्यक्षादिप्रमाणे हेतुभिश्च जायमानो वादः ‘युक्तिवादः' (२) द्वितीय आगमवादः यत्राऽगमभिन्नप्रमाणानां हेतूनां युक्तीनां च नाऽवकाशः, परन्तु मात्राऽऽतोक्तिरूपागमवचनप्रामाण्येन पदार्थसिद्धिर्येन वादेन जायते स 'आगमवादः', केचित्पदार्था युक्त्या साधयितु शक्यन्ते तत्र हेतुवाद एव योज्यः, केचित् पदार्था अतीन्द्रियविशेषा--अतिसूक्ष्मविशेषा आगमवचनमात्रसाध्यास्तत्राज्ञा (आगम) वादो योजनीयः, यथा जीवपदार्थे चैतन्यसिद्धिहेतुवादेन कार्या, निगोदशरीरे त्वनन्तजीवसिद्धिरागमवादेन कर्त्तव्या, अर्थात् पदार्थोऽथवा पदार्थाशो येन वादेन साधयितु शक्यः, स पदार्थोऽथवा पदार्थाशस्तेन वादेन साधनीयः योग्यस्थाने योग्यवादेन योजयेत् यौक्तिकपदार्थे युक्तिवादः, आगमिकपदार्थे, आगमवादो योज्यः परन्तु
॥११९॥
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अध्यात्म सार:
॥१२०॥
यदि यौक्तिकपदार्थे आगमवादश्चेत्तदा वैपरीत्यं-न समीचीना पदार्थसिद्धिपद्धतिः, आगमिकार्थे युक्तिवादश्चेत्तदा चैपरीत्यं-न समीचीनपदार्थसिद्धिपद्धतिः, अर्थात् विपरीतपद्धत्या न ज्ञानगर्भतेति ॥३८॥
___ -गीतार्थस्यैव ज्ञानगर्भितवैराग्यस्यास्तित्वम्'गीतार्थस्यैव वैराग्य, ज्ञानगर्भ ततः स्थितम् ।
उपचारादगीतस्या-प्यभीष्टं तस्य निश्रया ॥३॥ टीकाः-ततः उपरि निरुक्तवादयीयोग्यस्थाने नियोजनादिकर्मकी शक्तिः, स्वपरसमयज्ञातरि गीतार्थे सम्भवति, नाऽन्यत्र, तत एतद्वस्तु स्थितं यज्ज्ञानगर्भ वैराग्यं गीतार्थस्यैवेति निश्चयनयवार्ता, उपचारात्व्य वहारनयतस्तु तस्य-गीतार्थस्य निश्रया-निश्रां प्रतिपन्नस्यागीतस्याऽपि अगीतार्थस्याऽपि ज्ञानगर्भ वैराग्यमभीष्टं-सम्मतमस्तीति ।।३९॥
-ज्ञानगर्भितवैराग्यविशिष्टानां महात्मनां लक्षणानि'सूक्ष्मेक्षिका च माध्यस्थ्यं, सर्वत्र हितचिन्तनम् । क्रियायामादरो भूयान् , धर्मे लोकस्य योजनम् ॥४॥ चेष्टा परस्य वृत्तान्ते, मूकाऽन्धबधिरोपमा । उत्साहः स्वगुणाऽभ्यासे. दुःस्थस्येव धनार्जने ॥४१॥
॥१२०॥
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अध्यात्म
सारः
॥१२१॥
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मदसम्मर्द मर्दनम् समताऽमृतमज्जनम् ॥४२॥ चलनं, चिदानन्दमयात्सदा वैराग्यस्य तृतीयस्य, स्मृतेयं लक्षणावली
स्वभाव
॥४३॥
टीकाः-(१) सूक्ष्मेक्षिका-नोपरित्वेन, न स्थूलत्वेन दर्शनमपितु गम्भीरतया सूक्ष्मतया वस्तुविवेचनम् (२) माध्यस्थ्यं = एकपक्षस्थितिविरहेण निष्पक्षत्वम् (३) सर्वत्र हितचिन्तनम् - सर्वजीव विषयक हितचित - रूपमैत्रीभावः (४) क्रियायामादरो भूयान् = जिनप्रणीतकल्याणकारिक्रियां प्रति महान् बहुमानभावः, (५) धर्मे लोकस्य योजनम् - धर्मविमुखलोकस्य धर्म सम्मुखीकरणम्, (६) परस्य वृत्तान्ते मुकाऽन्धवधिरोपमा चेष्टा=आत्मवस्तुभिन्नस्य परस्य पौद्गलिकस्य पदार्थस्य वृत्तान्तेऽर्थात् कथने मूकवच्चेष्टा, दर्शनेऽन्धवच्चेष्टा, श्रवणे वधिवच्चेष्टा, (७) धनार्जने दुःस्थस्येव स्वगुणाऽभ्यासे उत्साहः यथा निर्धनस्य धनार्जने उत्सातथाऽऽत्मनो दर्शनादिगुणगण विकासाऽस्यासेऽपूर्व वीर्योल्लासरूप उत्साहविशेषः (८) मदनोन्मादवमनम् = कामवासनाया उन्मादस्य निष्फलीकरणम् (8) मदसम्मर्दमर्दनम् = मानस्य युद्धस्य च भञ्जनभाव इत्यर्थः, (१०) अस्यातन्तुविच्छेदः - अन्यगुणदूषणरूपासूयाया अथवा मात्सर्येर्ष्यादिकस्य तन्तो विच्छेदः - विनाशः
मदोन्मादवन', असूयातन्तुविच्छेदः
॥१२१॥
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अध्यात्म
सार
॥१२॥
(११) समताऽमृतमज्जनम् शान्तरसरूपसमतानामकेऽमृते स्नानम् , (१२) सदा चिदानन्दमयात् स्वभावानैव चलनम् सर्वकालाऽवच्छेदेन चिन्मयादानन्दमयात्स्वभावादात्माभिनविशेषोपयोगाद , आत्मस्वरूपविषयकज्ञानात् आत्मनिष्ठस्वैश्चर्यपूर्णतादर्शनजन्यादखण्डानन्दान चलनं-च्युतिः, इयं लक्षणावलीद्वादशलक्षणानि, तृतीयस्य-ज्ञानगर्भवैराग्यस्य, स्मृता-दर्शिता परमर्षिभिः ॥४०॥४१॥४२॥४३॥
-वैराग्यभेदस्योपसंहारःज्ञानगर्भमिहादेयं, दयोस्तु स्वोपमर्दतः ।
उपयोगः कदाचित् स्या-निजाऽध्यात्मप्रसादतः ॥४॥ टीका:-त्रिषु वैराग्यभेदेषु निश्चयतो ज्ञानगर्भवैराग्यमेवोपादेयं, परन्तु दुःखतो वा मोहतः संसारत्यागी भवेत , सस्य इयोस्तु-दुःखगर्भमोहगर्मवैराग्ययोः, स्वोपमदतः दुःखस्य वा मोहस्य दूरीकरणतः, ज्ञानगर्भवैराग्यं भवेत्तदा 'कदाचित् निजाध्यात्मप्रसादतउपयोगः स्यात्-दुःखादिगर्भवैराग्यस्याऽपि कदाचित् कस्यचिद् विरक्तस्य ज्ञानगर्भितवैराग्यजनने उपयोगः स्यात् परन्तु तदर्थ निजाध्यात्मभावमहाराजस्य प्रसादःपरमावश्यकः ॥४४॥ ___ इत्याचार्यश्रीमद्विजयलन्धिसूरीश्वरपट्टघराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रकरमरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां वैराग्यभेदाख्यः षष्ठोऽधिकारः समायः॥१८॥
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॥१२२॥
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अध्यात्म. सार
॥१२३॥
-वैराग्यविषयकोऽधिकारः सप्तमः
-विषयगुणभेदाद् वैराग्यं विविधम्'विषयेषु गुणेषु च द्विधा, भुवि वैराग्यमिदं प्रवर्तते ।
अपरं प्रथम प्रकीर्तितं. परमध्यात्मबुधैर्दितीयकम् ॥१॥ टीकाः-इन्द्रियविषयान् प्रति वैराग्यं-रागाभावो विषयवैराग्यमेकं, तपश्चर्यासंयमसाधनादिजन्या लन्धीः प्रति वैराग्यं गुणधैराग्यं, पृथिव्यां द्विविधमिदं वैराग्यं प्रवर्त्तमानमस्ति, प्रथमं वैराग्यमपरं, द्वतीयं वैराग्यं परं, अध्यात्मशास्त्रविशारदैः प्रकीर्तितमिति ।।१।।
उपलम्भविषयानुभ्रविकरूपेण विषया विकारिणोऽपि विरक्तान् न विकुर्वते
'विषया उपलम्भगोचरा, अपि चानुश्रविका विकारिणः ।
न भवन्ति विरक्तचेतसां विषधारेव सुधासु मज्जताम् ॥२॥ टीका:-इन्द्रियजन्यप्रत्यक्षेणाऽनुभूयमानाः शब्दादिविषयाश्चानुश्रविकाः-शास्त्रवाक्यतो विज्ञायमाना देवलोकगता दिव्या विषयास्तथा चैवंभूता विषया आत्मानं प्रति विकारकरणशीला अपि, वैराग्यरसवासितमनसो न विकारिणो भवन्ति, सुधाकुण्डे स्नानं कुर्वतां यथा विषस्य धारा न विकरोति तथाऽत्रापि ज्ञेयम् ।।२।।
॥१२३॥
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अध्यात्म
सार:
||१२४॥
- कर्णेन्द्रियविषयान् प्रति योगिनां मानसम् - 'सुविशालरसालमञ्जरी-विचरत्कोकिलकाकलीभरैः ।
किमु माद्यति योगिनां मनो निभृताऽनाहतनादसादरम् ॥३॥ टीका:-अत्यन्तविशालस्याग्रस्य मञ्जरीषु विचरतः सत आनन्दमनुभवतः कोकिलस्य सूक्ष्ममधुरसमहैः, आत्यन्तिकानाहतनामकनादश्रवणे सादरं ससत्कारं योगिनां मनः किमु माद्यति-प्रमोदमत्तं भवति ? अर्थान्न भवत्येवेति ॥३॥
__-पुनरेनं विषयं समर्थयते'रमणीमृदुपाणिकङ्कण-क्वणनाकर्णनपूर्णघूर्णनाः ।
अनुभूतिनटीस्फुटीकृत-प्रियसङ्गीतरता न योगिनः ॥१॥ टीकाः-अनुभूतिनट्या=चिदानन्दरूपस्वस्वरूपानुभवनामकनटीद्वारा स्पष्टीकृतप्रियसङ्गीते रतिमन्तो योगिनः, रमण्याः कोमलकरस्थितकङ्कणानां क्वणनस्य--शब्दस्याकर्णनेन-श्रवणेन पूर्णघूर्णनाः-मस्तकधृननादिक्रियावन्तो न भवन्त्येवेति ॥४॥
8॥१२४॥
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अध्यात्मसार:
॥१२५॥
-कर्णेन्द्रियविषयविरागविषयो वर्तमानोस्ति- . 'स्खलनाय न शुद्धचेतसां, ललनापञ्चमचारुघोलना ।
यदियं समतापदावली- मधुरालापरतेन रोचते ॥५॥ टीका:-शुद्धचेतसां निर्मलमानसानां योगिना, ललनापश्चमचारुघोलना-युवतिजनस्य पञ्चमस्वरेण कृता चारुसंगीतस्य पुनः पुनरावृत्तिरूपा धोलना, न खलनाय भवति यद् इयं यत इयं विशिष्टघोलना, समतापदावलीमधुरालापरतेः वैराग्योत्तेजकसमतावाचकपदानामावलीनां मधुरालापे रति यस्य तस्य मुनेर्न रोचते-रुचिविषया न भवति ॥५॥
-चक्षुरिन्द्रियविषयरूपवैराग्यम्'सततं क्षयि शुक्रशोणित-प्रभवं रूपमपि प्रियं नहि ।
अविनाशिनिसर्गनिर्मल-प्रथमानस्वकरूपदर्शिनः ॥६॥ टीका:-शुक्रशोणितप्रभवं=पितुः शुक्रेण, मातुश्च शोणितेन जनितं मानवदेहसत्कं सततं क्षयि= निरन्तरविनश्वरं रूपसौन्द्रर्यमपि, अविनाशिनिसर्गनिर्मलप्रथमानस्वकरूपदर्शिनः अच्युतस्वतोविशुद्धविस्तृत- स्वात्मरूपसौन्यदर्शिनो योगिनो नहि प्रियं भवतीति ।।६।।
॥१२५||
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अध्यात्मसार:
॥१२६॥
- पुना रूपवैराग्यवर्णनम् - 'परदृश्यमपायसङ्कुलं, विषयो यत् खलु चर्मचक्षुषः ।
नहि रूपमिदं मुदे, यथा निरपायाऽनुभवैकगोचरः ॥७॥ टीका:-रूपमिदं दैहिकसौन्दर्यरूपं, परदृश्यं परैरपि दर्शनीय दर्शनद्वारा सरूपं भुज्यते, अपायस डकुलं-रोगजराद्यपायैः सर्वकालं संव्याप्तं, यतखलु चर्मचक्षपो विषयः यतो निश्चयतश्चर्मचक्षपो-बाह्यचक्षपो विषयोऽस्ति ततो मानवादिदेहगतं रूपं योगिनां नहि मुदे-हर्षाय भवति, यथा निरपायाऽनुभवैकगोचरः= अपायमात्रेण शून्यं अनुभव नामकान्तरनयनेनैकेन गम्यविषयरूपं स्वात्मस्वरूपं मृशं हर्षाय भवतीति ॥७॥
-ललनानां गतिहास्यादिचेष्टासु वैराग्यम्'गतिविभ्रमहास्यचेष्टितैर्ललननामिह मोदतेऽबुधः ।
सुकृताऽदिपविष्वमीषु नो, विरतानां प्रसरन्ति दृष्टयः ॥८॥ टीकाः-इह-जगति, ललनाना=क्रीडावतीना युवतीना, मत्तेभगतिविभ्रमवामनयनस्मितहास्यहावभावादिचेष्टित मोहमूढो मोदते-हर्षान्वितो भवति, परन्तु, अमीषु गत्यादिविकारिचेष्टितेषु, सुकृताद्रिपविषु
श॥१२६॥
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अध्यात्म सार
॥१२७||
पुण्यनामकपर्वतानां भजने वज्ररूपेषु अर्थात् समुपार्जितधर्मपुण्यविनाशकत्वेन, ललनानां गत्यादिचेष्टितेषु, विरताना सर्वसावद्ययोगतो विरताना-वैराग्यवता, दृष्टयः-नेत्राणि, नो प्रसरन्ति-नो गतिमाप्नुवन्तीति ॥८॥
___ -घाणेन्द्रियविषयगन्धवैराग्यम्'न मुदे मृगनाभिमल्लिका-लवलीचन्दनचन्द्रसौरभम् ।
विदुषां निरुपाधिवाधित-स्मरशीलेन सुगन्धिवर्मणाम् ॥१॥ टीकाः-'निरुपाधिबाधितस्मरशीलेन सुगन्धिवर्मणां विदुषां' सर्वोपाधिरहितेन, कामेच्छामात्रप्रतिबन्धकेन शीलेन-ब्रह्मचर्येण शोभनगन्धसुरभितशरीगणां वैराग्यविशिष्टसम्यगज्ञानिनां योगिनां मृगनामे:कस्तुर्याः, मल्लिकायाः-विचकिलस्य, चन्दनस्य, चन्द्रम्य-कपूरस्य सौरभं मुदे-आनन्दाय न भवतीति ॥९॥
-शीलसौरभं हि परं सौरभम्'उपयोगमुपैति यच्चिर, हरते यन्न विभावमारुतः ।
न ततः खलु शीलसौरभा-दपरस्मिन्निह युज्यते रतिः ॥१०॥ टीका:- उपयोगमुपैति यच्चिर' यच्छीलनामक-सौरभं चिरं-बहुकालं यावत् उपयोगापेक्षया स्वसमीपे IPS ||१२७॥ तिष्ठति, यतः शीलसौरभभिन्नं सौरभं क्षणिकम् , 'हरते यन्न विभावमारुतः स्वभावभिन्नपरभावनामकः
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अध्यात्मसार:
॥१२८॥
पवनः यच्छीलसौरभं नान्यत्र नयति, यतः शीलसौरभं परमस्थिरं, न कोऽपि तदधोघटयितु क्षमः, ततःतस्माच्छीलसौरभादपरस्मिन्-द्वितीयस्मिन् सौरभे इह-संसारेऽस्मिन् , निश्चयतो, रती रागो न युज्यते ॥१०॥
-रसनेन्द्रियविषयभूतरसवैराग्यम्'मधुरैर्न रसैरधीरता, कचनाध्यात्मसुधालिहां सताम् ।
अरसैः कुसुमैरिवाऽलिना, प्रसरत् पद्मपरागमोदिनाम् ॥११॥ टीका:-प्रसरत् पद्मपरागमोदिनां सर्वत्र व्यापकैः कमलपरागै (तद्रजोभिः) मोर्दशालिनामलिनाभ्रमराणां 'यथाऽरसैः कुसमैः-रसरहितः पुष्पै न धीरताऽर्थाद रसरहितसुमनांसि प्रति गमनोत्सुकता न तथाऽध्यात्मसुधालिहा सता ज्ञानगर्भितवैराग्यनामकाध्यात्माऽमृतपानरसिकानां विरक्तानां मुनीनां मधुरै 'रसैर्नाऽधीरता'-मधुररसवतपदार्थान-पुद्गलविशेषान् प्रति पाप्तिकृते मानसिक स्थिरताया अभावो न, भोगोपभोगान् प्रति स्वौत्सुक्याभावः ॥११॥
___-शान्तरससरसि निमग्नानां रसनारसैरलम्'विषमायतिभिर्नु किं रसैः, स्फुटमापातसुखैर्विकारिभिः । नवमेऽनवमे रसे मनो, यदि मग्नं सतताऽविकारिणि ॥१२॥
॥१२८॥
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अध्यात्मसार:
॥१२॥
टीका:-'सतताऽविकारिणि' नैरन्तर्येण विकारविरहिते अविकारके वा 'नवमेऽनवमे रसे यदि मनो मग्नं'-शङ्गारादिनवसु रसेषु मध्ये, तृष्णाक्षयरूपस्थायिभावजन्ये शान्तरसनामके नवमे, सर्वोत्तमे, रसे यदि चित्तं मग्नं स्यात्तदा, 'स्फुटमापातसुखैः स्पष्टं प्रारम्भे सुखरूपैः 'विषमायतिमिः उत्तरकाले-भविष्यकाले विषम भयङ्करदःखरूपैः, 'विकारिभिः' -विकारकारिभिः 'रसनु किं'-मधुरादिरसभ मिष्टान्न-पक्वामादिभिः, नीरसीभावं मनसि सम्प्राप्य त्यागबुद्धिरूपापेक्षया कथितं किं-पर्याप्त-सृतमित्यर्थः ॥१२॥
रसविषये रसलोभिनां विरक्तानामपि जलं पतति'मधुरं रसमाप्य निष्पतेद, रसलोभिनां जलम् ।
परिभाव्य विपाकसाध्वसं, विरतानां तु ततो दृशोर्जलम् ॥१३॥ टीकाः='मधुरं रसमाप्य'-मधुरादिरसपरिपूर्णान् पदार्थान् भोज्यवस्तूनि प्राप्य 'रसलोभिनां रसनातो जलं निष्पतेत' रसलम्पटानां स्वजिह्वातः सुगन्धागमनाऽनन्तरं जलं मुखतो बहि निर्गच्छेत, 'विरतानां तु'वैराग्यवतां त्यागिनां तु, 'परिभाव्य विपाकसाध्वसं'-उत्तरकालीनमहाभयरूपं परिणाम परितो विचार्य, ततः मधुरादिरसवत्पदार्थप्राप्त्यनन्तरं 'दृशोर्जलम्' नयनयुगलतो जलमश्रुनामकजलं पतति यतो रसरागस्य कीदृशः करुणविपाक आगच्छतीति ॥१३॥
॥१२॥
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अध्यात्म
सार:
P
।। १३०॥
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- स्पर्शनेन्द्रिय विषयवैराग्यम्
'इह ये गुणपुष्पपूरिते, धृतिपत्नीमुपगुह्य शेरते । विमले सुविकल्पतरूपके, क्व बहिःस्पर्शरता भवन्तु ते
113811
टीका: --- इह संसारे ये योगिनः गुणनामकपुष्णैः पूरिते विमले निर्मले सुविकल्प तल्पके- शुभशुक्लध्यानरूपशय्यायां घृतिनामकपत्नीमुप गुझ-परिरभ्य योगिनः शेरते- शयनं कुर्वते, 'बहिःस्पर्शरताः' बाह्यजगतो ललनादिकोमलस्पर्शपरायणास्ते योगिनः 'क्व भवन्तु' - कुतः कथं वा भवन्तु अर्थात् कुत्रापि कथमपि न भवेयुः ॥ १४॥
- स्पर्शनेन्द्रियविषयस्पर्शसत्क वैराग्यं वर्तमानमस्ति - 'हृदि निरृतिमेव विभ्रतां, न मुदे चन्दनलेपनाविधिः । विमलत्वमुपेयुषां सदा, सलिलस्नान कलाऽपि निष्फला ॥१५॥
टीका:-हृदि - आत्मनि, निवृतिमेव- चिदानन्दमेव बिभ्रतां धारयतां योगिनां चन्दनलेपनाविधिः' - चन्दनद्रवविलेपनक्रिया 'न मुदे' - हर्षाय न भवति 'विमलत्वमुपेयुषां सदा' – सर्वकालं ब्रह्मचर्यादिपरम
॥१३०॥
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अध्यात्म
|| शुद्धिजन्यविमलत्वं प्राप्तानां योगिनां 'सलिलस्नानकलाऽपि निष्फला' जलीयस्नानस्याऽशोऽपि निरुप
योग्येवेति ॥१॥ सार:
-योगिनां भोगिनां च दृष्टेमहदन्तरम्
'गणयन्ति जनुः स्वमर्थवत् सुरतोल्लाससुखेन भोगिनः। ॥१३१
मदनाहिविषोग्रमूर्च्छनामयतुल्यं तु तदेव योगिनः ॥१६॥ टीका:-'भोगिनःसुरतोल्लाससुखेन' भोगरसिका जीवाः स्पर्शनेन्द्रियजन्यविषयसुखानुभवजनितोल्लाससुखेन 'स्वजनुरर्थवद् गणयन्ति-स्वकीयं जन्म सार्थक गणयन्ति, योगिनस्तु तदेव' तदेव भोगिनो जन्म, 'मदनाहिविषोग्रमूर्छनामयतुल्यं-कामरूपसर्पविषजातभयङ्करमूर्छाप्राचुर्यपूर्णेन सहसमानं गणयन्त्येव ॥१६॥
___-ऐहिकपारलौकिकविषया विरक्तानां हर्षाय न'तदिमे विषयाः किलैहिका, न मुदे केऽपि विरक्तचेतसाम् ।
परलोकसुखेऽपि निःस्पृहाः, परमानन्दरसाऽलसा श्रमी ॥१७॥ टीकाः-'तदिमे विषयाः किलैहिकाः' तस्मादिमे-इन्द्रियसम्बन्धिनः किलेहलौकिकाः केऽपि मनोहराद्या अपि विषया 'विरक्तचेतसा न मुदे वैराग्यवासितमानसानां न हर्षाय भवन्ति 'अमी परमानन्दर
॥१३
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अध्यात्म
सार:
।। १३२ ।।
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सालसाः'=एते ज्ञानगर्भितवैराग्यवन्तः परमाध्यात्मिकशान्तरसजन्यानन्दरसास्वादैकलीनाः, अत एव 'परलोकसुखेऽपि निःस्पृहाः’=पारलौकिकस्वर्गादिगतसुखानन्दर सेऽपि स्पृहाशून्याः, अर्थात् सांसारिकस योगिकवैषयिकसुखमात्रे निःस्पृहाः, परमानन्दरसालसत्वान्मोक्षैककामिनः || १७||
-आनुश्रविकविषयत्यागरूपवैराग्यवर्णनम् - 'मदमोहविषादमत्सर-ज्वरबाधाविधुराः सुरा श्रपि । विषमिश्रितपायसान्नवत्, सुखमेतेष्वपि नैति रम्यताम् ॥१८॥
|टीका: ननु देवलोकेषु दिव्यविषया इन्द्रियजन्याः किमानन्ददायिनो न ? इति चेदुच्यते 'सुरा अपि मदमोहमत्सरज्वरबाधाविधुराः ' देवा अपि किमुताऽन्य इत्यपि शब्दार्थः, अभिमानमोहनीय कर्मोदयरूपमोहेरूपज्वरजन्यपीडाभिः पीडिताः सन्ति, तादृशदेवेषु दिव्यविषयसुखं वास्तविकं सुखं कथं १ यतो मदादिदोष प्राचुर्यं परिणामकटुता तत्रास्ति अत एव 'विषमिश्रितपायसाम्नवत् ' = तालपुटविषकखेनाऽपि मिश्रितपायस( पयसानिष्पन्न दुग्धपाकरूप) क्षैरेयीभोजनतुल्यं, 'एतेष्वपि सुखं न रम्यतामेति' - देवसम्बन्धिविषयेष्वपि, किमुताऽन्यविषयेष्वपिशब्दार्थः, रमणीयतारहितसुखं, अर्थाद् योगिनामानुषविक देवसत्कविषयभ्यो वैराग्यमेव, देवसुखं न रम्यसुखमपितु परिणामतो दुःख दुर्गतिदत्वेन दुःखरूपमेवेति योगिन एव जानन्ति ॥ १८ ॥
।। १३२ ।
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अध्यात्मसार
॥१३३॥
-स्वर्गेऽपि देवानां सुस्वस्य सम्भवो न'रमणीविरहेण वह्मिना, बहुबाष्पाऽनिलदीपितेन यत् । त्रिदशै दिवि दुःखमाप्यते, घटते तत्र कथं सुखस्थितिः ॥१९॥
टीकाः--बहुबाष्पाऽनिलदीपितेन' =बहूणनिःश्वासवायुप्रज्वलितेन रमण्या विरहरूपाऽग्निना, यत् त्रिदशै देवैः दिवि--स्वर्गे दुःखमाप्यते, आर्त्तध्यानजन्यं दुःखं लभ्यते, तत्र कथं सुखेन स्थितियुज्यते ? ॥१६॥
-देवानां हदर्य व्यवनचिन्ताऽपि दहति तत्र किं सुख ? 'प्रथमानविमानसम्पदा, व्यवनस्यापि दिवो विचिन्तनात् ।
हृदयं नहि यदिदीर्यते, द्यु सदा तत्कुलिशाणुनिर्मितम् ॥२०॥ टीका:-'प्रथमानविमानसम्पदा घुसा' विस्तारवद्विमानसम्बन्धिमहेश्वर्यमाहत्म्यशालिना नाकिना 'दिवश्चयवनस्याऽपि विचिन्तनात्' स्वर्गतश्च्यवनस्य--मरणस्याऽपि (च्यवनभिन्नस्य तु का वार्तेत्यपिशब्दार्थः) कल्पनातो हृदयं यम्नहि विदीर्यते तद् हृदयं वज्रस्याऽणुभिनिर्मितमिति मन्तव्यम् ॥२०॥
॥१३३॥
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अध्यात्म-19
सार:
॥१३४॥
-सकलगतिगतविषयेषु शिवार्थिनो नो रतिः'विषयेषु रतिःशिवार्थिनो, न गतिष्वस्ति किलाऽखिलास्वपि ।
घननन्दन-चन्दनार्थिनो, गिरिभूमिष्वपरद्रुमेष्विव ॥२१॥ टीका:--'शिवार्थिनः' मोक्षपुरुषार्थरूपप्रयोजनकनिश्चयपूर्णरसशालिनो वैराग्यमूर्ते नेः 'किलाऽ. खिलासु गतिषु विषयेषु न रतिरस्ति'-सकलदेवादिगतिषु स्थितेषु इन्द्रियसत्कशब्दादिविषयेषु न रतिः-- ग्मणता नास्ति यथा 'घननन्दनचन्दनार्थिनः'सान्द्रनन्दनवनचन्दनस्पृहावतः 'गिरिभूमिष्वपरद्रुमेषु' पर्वतीयभूमिगतविवक्षितचन्दनभिन्नापरवृक्षेषु न रतिः--प्रेम तथात्राऽपि विज्ञेयमिति ॥२१॥
-स्वलब्धिरूपगुणनिःस्पृहतारूपं परवैराग्यम्'इति शुद्धमतिस्थिरीकृताऽपरवैराग्यरसस्य योगिनः ।
स्वगुणेषु वितृष्णताऽऽवहं, परखैराग्यमपि प्रवर्त्तते ॥२२॥ टीका-इति शुद्धमतिस्थिरीकृतापरवैराग्यरसस्य योगिनः' पूर्वोक्टरीत्याऽत्यन्तनिर्मलमननशील मतिबलेनकान्तसुदृढीकृत विषयवैराग्यनामकमध्यमकोटीकाऽपरवैराग्यरसिकतास-पन्नस्य साधोः, 'स्वगुणेषु वितृष्णतावह' साधनारूपप्रयत्नजन्या गुणरूपलब्धीःप्रति तृष्णाया अभावरूपं वैराग्यं परमुत्कृष्टवैराग्यं प्रवर्तते ॥२२॥
॥१३४॥
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अध्यात्म
सार:
॥१३५॥
-परवैराग्यवतां विपुलर्डिप्रभृतयो लब्धयो न मदाय'विपुलदिपुलाक चारण-प्रबलाऽऽशीविषमुख्यलब्धयः ।
न मदाय विरक्तचेतसा-मनुषङ्गोपनताः पलालवत् ॥२३॥ टीकाः-विपुलर्द्धिविशिष्टपुलाकलब्धिश्च चारणलवधिश्च प्रयलाशीविपलब्धिश्च ता मुख्याः-आद्या लब्धयः विपुलदिपुलाकचारणप्रबलाशीविषमुख्यलब्धयः, अनुपङ्गोपनता:-साधकानामानुषङ्गिक्य इति मन्वानानां विरक्तचेतसा न मदायाऽभिमानाय जायन्ते, यथा धान्यरूपमुख्योद्देश्यमुद्दिश्य कृषि कुर्वता कपिवलाना पलाल-तृणादिप्राप्तिरानुषङ्गिकी न मदाय तथाऽत्रापि ज्ञेयम् ॥२३॥
--आत्मरतिकारिणां वैराग्याऽऽदयानां गुणवजो न मदकारी-- 'कलिताऽतिशयोऽपि कोऽपि नो, विबुधानां मदकृद् गुणवजः ।
श्रधिकं न विदन्त्यमी यतो, निजभावे समुदञ्चति स्वतः ॥२४॥ टीका:-विबुधानां सम्यगात्मज्ञानिना, 'कलिताऽतिशयोऽपि कोऽपि गुणवजः'अपूर्वोऽतिशयसम्पन्नोऽपि लब्धिसमूहो 'मदकृन्नो' मदकारी न भवति, 'यतः स्वतो निजभावे समुदश्चति' स्वतः-- आत्मतः, आत्मरमणता- स्वभावे वर्धमाने विकसति वा सति-ऊद्धर्व गते वा सति, अमी-ज्ञानगर्भवैराग्य
||१३५॥
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अध्यात्मसार:
॥१३६॥
वन्तो विबुधा अधिकं न विदन्ति-स्वरूपस्थितिमेव जानन्ति, आत्मरमणताज्ञानमिनजगन्माननिरपेक्षाः, आत्मरमणतां विहायाऽधिकज्ञानेऽपेक्षाया अभावः ॥२४॥
--असङ्गाऽनुष्ठानगतानां चेतसि शिवेऽपि न कामना-- 'हृदये न शिवेऽपि लुब्धता, सदनुष्ठानमसङ्गमङ्गति ।
पुरुषस्य दशेयमिष्यते, सहजाऽऽनन्दतरङ्गसङ्गता ॥२५॥ टीका:--यदा महात्मना सदनुष्ठानं, असङ्गानुष्ठाने परिणमतेऽर्थात् सदनुष्ठानमसङ्गमङ्गति तदाऽसगानुष्ठानवता 'हृदयेन शिवेऽपि लुब्धता'मोक्षेऽपि मोक्षभिन्नविषये तु का कथा ? इत्यपिशब्दार्थः, न कामनाऽर्थादसङ्गाऽनुष्ठानतः पूर्वकाले वचआद्यनुष्ठाने शिवविषयकलुब्धता त्वासीदधुनाऽत्र नेति अत एवासङ्गाऽनुष्ठानस्वामिनः, 'सहजाऽऽनन्दतरङ्ग सङ्ग ता पुरुषस्य दशेयमिष्यते' स्वभावभूतचिदानन्दस्य तरङ्गः सहाखण्डसङ्गाऽभिन्नेयं दशा मुमुक्षविशेषपुरुषस्येष्यते नान्यस्येत्यर्थः ॥२५॥
-वैराग्ये विलसच्चेतसं यशः श्रियो वरीतुमुपयन्ति'इति यस्य महामते भवेदिह-वैराग्यविलासभृन्मनः । उपयन्ति वरीतुमुच्चकै-स्तमुदारप्रकृतिं यशःश्रियः ॥२६॥
॥१३६॥
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___
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अध्यात्म सारः
॥१३७॥
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टीकाः इति एवमिह जगति, यस्य महामतेमु' मुझो वैराग्यविलासभृन्मनः' वैराग्ये विलासे रतिं विनश्चितं भवेत्तं 'वैराग्यविलासिचेतस्कमुदारप्रकृतिं उदात्तस्वभावं यशः श्रिय उच्चकै वरीतुमुपयन्ति समीपं यान्ति ||२६|| इत्याचार्यश्रीमद् विजयलब्धिसूरीश्वर पट्टधराचार्य श्रीमद् विजयभुवनतिलकसूरीश्वर पट्टधरभद्रङ्करसूरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां वैराग्यविषयाख्यः सप्तमोऽधिकारः समाप्तः || २०८ ॥ अथ ममत्वत्यागनामकोsटमोऽधिकारः
- ममतारहितस्यैव वैराग्यं स्थिरं भवति'निर्ममस्यैव परित्यजेत्ततः
स्थिरत्वमवगाहते ममतामत्यनर्थदाम्
113 11
टीका:- सर्वथा ममतारहितम्यैव, ममतासहितस्य नेत्यर्थः, किं ? पूर्वोक्तज्ञानगर्भवैराग्यं, 'स्थिरत्वमगाहते'=स्थायिभावं प्राप्नोति, ततः तस्मात्कारणात्, 'प्राज्ञोऽत्यनर्थदाँ ममतां परित्यजेत्' =सम्यग्ज्ञानसम्पन्नः, बलवदनर्थरूप नरकादिदुर्गतिप्रदानदक्षां, ममतानामकभावरूप सर्वथा त्यागविषयां ममतां कुर्यादिति ॥ १॥ .. - जाग्रन्ममतावता किं त्यक्तैर्विषय:विषयः किं परित्यक्तै र्जागर्ति ममता यदि । त्यागात् कञ्चुकमात्रस्य भुजङ्गो नहि निर्विषः ॥ २॥
वैराग्यं प्राज्ञो
1
॥१३७॥
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अध्यात्म
सार:
॥१३८॥
टीका:--'यदि ममता जागर्ति यदि ममभावो मुमुक्षोरन्तःकरणे जीवन विद्यते तदा 'किं विषयैः परित्यक्तः' चामविषयाणां त्यागस्य कोऽर्थः १ 'भुजङ्गो नहि निर्विषः, कञ्चुकमात्रस्य त्यागात्'=सपें ऽहित्वग्रूपकञ्चुकमात्रस्य त्यागाद्धि न निर्विषो भवति, तथाऽत्रापि बहिरङ्गीयवस्तुत्यागतो बाह्यवस्तुगतममतात्यागरूपोऽन्तरङ्गीयत्यागः श्रेष्ठश्रेयस्करः, ममतात्यागेनैव विषयत्यागस्य मोक्षफलदायित्वेन सफलता नाऽन्यथेति ॥२॥
--ममताराक्षसी गुणग्रामं योगपद्येन भक्षयति-- 'कष्टेन ' हि गुणग्राम, प्रगुणीकुरुते मुनिः
ममताराक्षसी सर्व, भक्षयत्येकहेलया ॥३॥ टीका:-मुनिसाधकः साधनाकाले भयङ्करःखानि सहित्वा स्वात्मनि गुणगणं 'प्रगुणीकुरुते'-एकत्रितं करोति पिण्डितं व्यवस्थितं वा रचयति परन्तु ममतारूपिणी राक्षसी सर्वगुणग्राममेकहेलया-एकलीलामात्रेण सद्यो भक्षयति-समूलमुन्मूलयत्येवेति ॥३॥
--ममतापत्नी जीवरूपपति रमयति'जन्तुकान्तं पशूकृत्य, द्रागविद्योषधीवलात् । उपायै बहुभिः पत्नी-ममता क्रीडयत्यहो ॥४॥
|१३८॥
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अध्यात्मसार:
॥१९॥
टीका:-ममतानामिका पत्नी, सटिति, अविद्या-अतत्त्वबुद्धिरूपौषधीबलेन, 'पशुकृत्य जन्तुकान्त'= जीवरूपपति बलीवर्दादिरूपचतुष्पदादिना पशुकृत्वाऽज्ञानवन्तं दृष्ट्वा नानाविधैः साधनैः क्रीडयति-रमयति व्यङ्गयतो मारयति वेति ॥४॥
-ममतायाःसम्बन्धेनैव सर्ववाद्यसम्बन्धनिर्माणम्-. 'एक: परभवे याति, जायते चैक एव हि ।
ममतोदेकतः सर्व, सम्बन्धं कल्पयत्यथ ॥५॥ टीकाः-जीवस्य कीदृशी रङ्कता पश्य २ एकक एव जीवो याति परभवे-भवान्तरे, चैकक एव हि जायते--उत्पद्यते तथाप्यथ जननमरणमध्यवर्ती जीवः, 'ममतोद्रेकतः ममताया आधिक्यतः, सर्व बाह्यसम्बन्धं कल्पयति-निर्मिमीते निर्मापयति च ॥५॥
--ममतानामकबोजतो भवप्रपञ्चस्य रचनासृष्टिः'व्याप्नोति महती भूमि, वटबीजाद्यथा वटः ।
तथैकममताबीजाप्रपञ्चस्यापि कल्पना ॥६॥ टीका:-यथा वटवृक्षो बटबीजा-न्महतीं-विशाला भूमि व्याप्नोति तथा, एकस्मान्ममतानामकबीजाज्जीवस्य संसाररूपप्रपश्चस्य जन्मादिकर्मादिप्रपश्चस्यापि तन्मध्यस्थस्याऽपि का वार्तेत्यपिशब्दार्थः ॥३॥
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अध्यात्मसार:
॥१४०॥
-स्वजनममत्वत्यागः-- 'माता पिता मे भ्राता मे, भगिनी वल्लभा च मे । पुत्राः सुता मे मित्राणि, ज्ञातयः संस्तुताश्च मे ॥७॥ इत्येवं ममताव्याधि वर्द्धमानं प्रतिक्षणम् ।
जनः शक्नोति नोच्छेत्तु, विना ज्ञानमहौषधम् ॥८॥ टीका:-मम माता, मे पिता, मे भ्राता, मे भगिनी, मे वल्लभा-प्रिया, मे पुत्राः, मे सुता:-पुथ्यः, मे मित्राणि, ज्ञातयो- एकज्ञातीयवर्गाः, मे, मे संस्तुताः--परिचिता इत्येवं प्रतिक्षणं बर्द्धमानं ममतानामकव्याधि, ज्ञानरूपं महौषधं विना, जन उच्छेत्त न शक्नोति--समर्थो न भवतीति ॥७॥८॥
-धनममत्वत्याग:ममत्वेनेव निःशङ्क-मारम्भादौ प्रवर्तते ।
कालाकालसमुत्थायी, धनलोभेन धावति ॥॥ टीकाः -स्वजनादिममत्वहेतुना निःशडकं प्रभुपापदुर्गतिप्रभृतिभयं विना, जीव आरम्भादौ--जीव- हिंसादिघोरपापकर्मणि प्रवर्तते--प्रवृत्ति कुरुते, 'कालाऽकालसमुत्थायी' काले काले च समुत्थानशीलः,
॥१४॥
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अध्यात्म
सारः
॥१४॥
अर्थाद्धनस्य कालोऽस्ति वाऽकालोऽस्तीति किमप्यदृष्ट्वैव, धनस्य लोभेन धावति-द्रुतं द्रुतं गच्छतीति ॥९॥
___ -अशरणं जगत्'स्वयं येषां च पोषाय, खिद्यते ममतावशः ।
इहामुत्र च ते न स्युस्राणाय शरणाय वा ॥१०॥ टीकाः--च-किच, स्वयं येषां स्वजनादीनां पोषाय--पोषणाय ममतापरवशो जीवः खिद्यतेदुःसदानि कष्टानि तीव्रान् संतापतापश्चि सहते, ते स्वजनादयः, इह--अस्मिन् वर्तमाने भवे 'न त्राणाय शरणाय वा स्युः तस्य जीवस्य वृद्धाद्यवस्थातो रोगाद्यापत्तितो रक्षणाय शरणाय-अवलम्बनाय न भवेयुः 'अमुत्र'-परलोके -भवांतरे च न रक्षणायाबलम्बनाय-निर्भयं जीवनयापनायाधारभूताय स्युरिति ॥१०॥
-पापेनाऽर्जितैर्धनै रेकोऽन्यान्पुष्णन्नरकदुःखानां सोढा'ममत्वेन बहून लोकान् , पुष्णात्येकोर्जितैर्धनैः ।
सोढा नरकदुःखाना, तीव्राणामेक एव तु ॥११॥ टीकाः--ममताहेतुनाऽष्टादशपापस्थानकद्वाराऽजितैर्धनैः स्वजनादीन बहून् लोकानेकः पुष्णाति, स तु पापोपार्जकः पोषक एकक एव तीव्राणामतुलानां नरकसम्बन्धिदशविधवेदनादुःखानां सोढा-- सहनकर्ता भवत्यवश्यमिति ॥११॥
X॥१४॥
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अध्यात्म-18 सार
।।१४२॥
जात्यन्धममतान्धयो महदन्तरम्-- 'ममताऽन्धो हि यन्नास्ति, तत्पश्यति, न पश्यति ।
जात्यन्धस्तु यदस्त्येत-भेद इत्यनयोर्महान् ॥१२॥ ___टीका:-जात्यन्धस्तु--जन्मनाऽन्धस्तु, विश्वेऽस्मिन् यदेतद् रूपादिकं रूपादिववस्तु 'यदस्ति'-- यद् विद्यते तन्न पश्यति, चर्मचक्षपोरभावाद्, 'ममतान्धस्तु'रागान्धस्तु यनास्ति (यथा स्वजनादिकं स्वकीय नास्ति तत् (स्वकीयत्वेन) पश्यति भ्रमात्मकदृष्टित्वात , इति अनयोः'-जात्यन्धममतान्धयो 'महान् भेदः'-महदन्तरमिति ॥१२॥
-अहो स्त्रोममत्वं कीदृशम् ? पश्य २ 'प्राणानभिन्नताध्यानात् , प्रेमभूम्ना ततोऽधिकाम् ।
प्राणापहां प्रियां मत्वा, मोदते ममतावशः ॥१३॥ टीकाः-ममतावशो जीवः शरीरादिप्राणान् स्वात्मना सहाभिन्नताध्यानात् , प्राणैः सहात्मैकतामनुभवति, अथवा स्वीयप्रिया प्राणाभिन्ना कल्पते तत्तु वरं परंतु 'प्रेमभूम्ना ततोऽधिका' प्रेम्णो बाहुल्येनाधिक्येन प्रियां प्राणेभ्योऽप्यधिको महतीं, वस्तुतः 'प्राणापहाँ' प्राणहरीमपि (सूर्यकान्तावत) मत्वा ममतान्धः पति मोदते इति ॥१३॥
॥१४२॥
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अध्यात्मसार
॥१४३||
- ममतामूढः स्त्रीणामबयवान् कीदृशान् मनुते १ पश्य २ - 'कुन्दान्यस्थीनि दशनान, मुखं श्लेष्मगृह विधु ।
मांसग्रन्थी कुचौ कुम्भौ, हेम्नो वेति ममत्ववान् ॥१४॥ टीकाः-अहो एतस्या ममतायाः कार्मणं कीदृशं विचित्रम् ? 'कुन्दान्यस्थीनि दशनान्' अस्थिस्वरूपान् दन्तान् कुन्दनामकपुष्पकलिकात्वेन, श्लेष्मगृहं मुखं विधु' कफस्य गृहं मुखं विधुत्वेन-चन्द्रत्वेन, 'मांसग्रन्थी कुची हेम्नः कुम्भौ'-मांसकोशरूपौ कुचौ-स्तनौ सौवर्णकलशरूपत्वेन ममत्ववान-ममताशाली जीवः, वास्तविकता निहनूय भ्रमदृष्टिकत्वेन परपदार्थेऽपि कलपनाशीलकविवत, अतिशयोक्ति कृत्वा विष. रीततत्त्वं वेत्ति-जानातीति ॥१४॥
- ममत्वाक्रान्तो लोलाऽक्षी सतीत्वेन मन्यते - 'मनस्यन्यदचस्यन्यत्, क्रियायामन्यदेव च ।
यस्यास्तामपि लोलाक्षी, साबी वेत्ति ममत्ववान् ॥१५॥
टीका:-यस्याः विलासवत्याः, मनसि-चित्तेऽन्यद्वस्तु चिन्त्यमानमस्ति, वचसि-वचनेऽन्यद् वस्तु कथ्यमानस्ति, क्रियायां-कायस्य प्रवृत्ती क्रियमाणमन्यद वस्त्वस्ति. 'तामपि'-भिन्नभिन्नमनोवाकायवतीमपि (अभिन्नमनोवाक्कायवत्याः सत्यास्तु का वार्तेत्यपि शब्दार्थः) 'लोलाक्षी' यत्र तत्र सर्वत्र
॥१४३॥
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अध्यात्म.
सारः
॥ १४४॥
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लज्जां विहाय नेत्रगोलकान् भ्रामयन्तीं चपलाक्षीं, 'साध्वीं वेत्ति ममत्ववान्' = सतीत्वेन रूपेण जानाति मनाभूताविष्टः || १५ |
-
- ममम्वाऽन्धो दुवृत्तामपि स्त्रीं मुग्धामेव मन्यते । रोपयत्यकार्येऽपि रागिणं प्राणसंशये 1
'या
दुर्वृत्तां स्त्रीं ममत्वाऽन्ध-स्तां मुग्धामेव मन्यते ॥१६॥
टीका:-अरेरे ममत्वान्धस्य महामूर्खतां तु पश्य २, या स्त्री रागिणं पुरुषं प्राणसंशयवत्यकार्येऽपि रे. पयति = अकार्यरूपगर्तायां यथा क्षिपति यत्र प्राणा उड्डयेरन्, तां दुषृतां दुराचारिणीं स्त्रीं ममत्वान्धो, मुग्धामेव सरला भीरुमेव मन्यते || १३ ||
-
स्त्रीषु प्रियत्वं यत्तन्मोहनटनर्तितम् - 'चर्माच्छादितमांसाऽस्थि-विरामूत्रपिटरीष्वपि ।
वनितासु प्रियत्वं यत् तन्ममत्वविजृम्भितम् ॥१७॥
टीका:- चर्मणाऽऽच्छादितमसाऽस्थिविष्ठामूत्रस्थाली भूतासु वनितासु यत् प्रियत्वं - प्रेमास्पदत्वं 'तन्ममत्व विजृम्भितं ' = तन्मोहराज नीलाविलासरूयमिति ॥ १७॥
।। १४४ ।।
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अध्यात्म
सारः
।। १४५।।
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अपत्य ममतायां विपरीतं कथन विज्ञानं च
1
'लालयन् वेत्ति च
बालकं ताते-त्येवं ब्रूते ममत्ववान् श्लेष्मणा पूर्णा- मङ्गुलीममृताऽञ्चिताम् ॥ १८॥
टीका: - जीव ! पश्य २ कीदृशीयमद्भुतता, यन्ममत्ववान् जीवः, बालकं - स्वतन्धयं' स्नेहेन लालयन् रमयन् २ बालं प्रति हे तात ! इत्येवं विपरीतं पुत्रं पितृत्वेन ब्रूते-कथयति च किञ्च श्लेष्मणाकफेन पूर्णा- भरितामङ्गुलीममृताऽश्चितां सुधासिक्तां वेति जानातीति ||१८|| कोदृशी ममताया लीला नृत्यकला 'पङ्कामपि निःशङ्कः, तमङ्कान्न चति ।
—
तदमेध्येऽपि मेध्यत्वं जानात्यम्बा ममत्वतः ॥ ११ ॥
टीकाः-अम्बा-माता, ममताभावतो निःशङ्कतया 'पङ्काद्रमपि ' - कर्दमखरण्टितमपि सुतं - पुत्रं, अङ्कादुत्सङ्गान्न मुञ्चति, तत् तस्मात्कारणात्, 'अमेध्येऽपि ' - तस्य पुत्रस्य विष्ठायामपि मेध्यत्वं - पवित्रत्वं जानाति का ममतालीला ! इति ॥ १९॥
- ममत्वतोऽनियतसम्बन्धी नियतत्वेन भासते
ममत्वतः ।
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॥१४५॥
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अध्यात्मा सार:
॥१४६॥
___ दृढभूमीभ्रमवतां नैयत्येनावभासते ॥२०॥ टीकाः-ममत्वदोषेण यो मातापित्रादिसम्बन्धः सर्वथाऽनियतोऽस्ति सोऽपि नियतत्वेन-सर्वथा स्थायित्वेनाऽवभासते तत्र कारणं तु 'दृढभूमीभ्रमवतां अनियतवस्तुनि नियतताया विपरीतता-रूपो भ्रमो दीर्घकालपर्यन्तं नैरन्तर्येणाऽत्यन्तप्रेम्णा सेवितोऽत एव दृढा भूमिर्यस्य भ्रमस्य स दृढभूमीभ्रमस्तद्वतां दृढभमीभ्रमवत्वेन नैयत्येन-नियतत्वेनाऽवभासते-पश्यति जानाति च ॥२०॥
-सत्यस्य द्रष्टुः स्वरूपम्-- 'भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो, विभिन्नाः पुद्गला श्रपि ।
शून्यः संसर्ग इत्येवं, यः पश्यति स पश्यति ॥२१॥ टीका:-भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो' =सर्वे जीवा व्यक्तिमपेक्ष्य भिन्नाः, 'विभिन्नाः पुद्गला अपि'= परमाणस्कन्धादिका पुद्गला अपि सर्वे भिन्नभिन्नव्यक्तिकाः, केन जीवादिना सह कस्यचित् पुद्गलादिकस्य कोऽपि तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो नात एव शून्यःसंसर्ग इत्येवं यः पश्यति म पश्यति-सत्यदर्शनवानस्ति नान्य इति ॥२॥
-स्वपरभेदज्ञानादहंताममतयोः पलायनम्'श्रहन्ताममते स्वत्वस्वीयत्व भ्रमहेतुके ।
॥१४६॥
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भेदज्ञानात् पलायेते, रज्जुज्ञानादिवाहिभीः ॥२२॥ अध्यात्म
टीकाः-स्वत्वाभाववति स्वत्वविषयकभ्रमजन्या, 'अहंता' =अहं शरीरी-मनुष्यो-देवः-श्रीमान्सारः
राजा-देवेन्द्र इत्याकारिका, स्वीयत्वाभाववति स्वीयत्वविषयकभ्रमजन्या-'ममता' =ममेदं शरीरं-धनं च
राज्यं समग्रसुखसाधनादिकमित्याकारिका, ते अहंताममते स्वत्वादिभ्रमात्मकबुद्धिजन्ये 'भेदज्ञानात् =नाहं ॥१४७॥ न ममेति भेदज्ञानात् , पलायेते-प्रणश्यतः यथाऽहिभी:-सर्पभयं रज्जुज्ञानात् पलायते, तथाऽत्रापि
'अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदाध्यकृत् । अयमेव हि नपूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ।। इत्यपि गेयमत्र ॥२२॥
- अप तत्त्वजिज्ञासया ममताया अस्थितिः - 'किमेतदिति जिज्ञासा, तत्त्वाऽन्तर्ज्ञानसम्मुखी ।
व्यासङ्गमेव नोत्थातु, दत्ते क ममतास्थितिः ॥२३॥ ____टीका:-'किमेतदिति जिज्ञासा'-एतज्जगद्वा वस्तु किं स्वरूपं ? इति तत्वविषयकान्तर्ज्ञानसम्मुख४ कारिणी, अथवा तत्त्वनिर्णयरूपसम्यग्दर्शनज्ञानसम्मुखकारिणी जिज्ञासा, 'व्यासङ्गमेव नोत्थातु दत्ते'
आसक्तिमुत्थितां न कुरुते-अनुत्थानहतदशापन्नरागभावं करोति, ततः 'क्क ममतास्थितिः'रागभावाभाव कारकजिज्ञासाप्रतिपन्ने पुरुषे कुतः ममतास्थितिरान ममता तिष्ठत्येवेति ।।२३।।
||९४७॥
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अध्यात्म
सार:
।। १४८ ॥
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--तस्वजिज्ञासोस्तत्त्वप्राप्तिं विना न क्वचिद्वति:'प्रियार्थिनः प्रियाप्राप्तिं, विना क्वापि यथा रतिः । न तथा तत्त्वजिज्ञासो स्तत्त्वप्राप्तिं विना क्वचित् ॥२४॥
टीका:- प्रियायाः कान्ताया अर्थिनः - स्पृहयालोः प्रियायाः प्राप्तिं विना यथा क्वाऽपि - क्वचिदपि स्थाने वस्तुनि वा न रती रागो भवति, तथा तत्वस्य जिज्ञासो :- तत्वज्ञानविषयकप्रत्रलेच्छोः तत्त्वस्य प्राप्तिं विना क्वचिन्न रतिर्भवतीति ||२४||
-- तत्त्वजिज्ञासाप्रतिबन्धिका ममत्वबुद्धि:-- 'श्रत एव हि जिज्ञासां विष्टम्भति ममत्वधीः ।
विचित्राऽभिनयाऽऽक्रान्तः, सम्भ्रान्त इव लक्ष्यते ॥२५॥
टीका:-'जिज्ञासां हि ममत्वधीर्विष्टम्मति' = तत्त्वजिज्ञासां निश्वयतो ममत्वषुद्धिः प्रतिबध्नाति अत एव ममत्वान्धो जीवः मातापितृपत्न्यादिसम्बन्धिवर्गं प्रति 'विचित्राऽभिनयाऽऽक्रान्तः = विविधजातीयविकारिचेष्टाभिः सहितः 'सम्भ्रान्त इव लक्ष्यते ' = सम्भ्रमवानुन्मत्त इव ज्ञायते इति ॥ २५ ॥
तत्वजिज्ञासा समताइयरहितस्य ममतासहितस्य जन्म निरर्थकम् -
॥१४८॥
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अध्यात्म
सारः
॥१४९॥
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'घृतो योगो न ममता, हता न समताऽऽदृता ।
न च जिज्ञासितं तत्त्वं गतं जन्म निरर्थकम् ॥२६॥
टीका:- येन बाह्यसंसारत्यागरूपो योगो धृतः पत्न्यादिसम्बन्धविषयिणी 'ममता न हता' - मनः प्रदेशात् पृथक्कृता न, 'समता च नादृता' - समतां प्रति न सद्भावः स्वीकृतः, 'तत्त्वं न जिज्ञासितं'= स्वस्वभावो न ज्ञानेच्छाविषयीकृततः 'तस्य जन्म निरर्थकं गतम् ' तस्य पुरुषस्य जीवनं निष्फलं गतं, योग वरस्य सर्वथा ममतामारणसमताधारण- तत्वजिज्ञासापूर्णस्य पुरुषपुङ्गवस्यैव जन्म सर्वथा सफलमेव नाऽन्यथेति भावः ||२६||
- जिज्ञासाविवेकाभ्यां ममतैव विनाश्या
'जिज्ञासा च विवेकश्व, ममतानाश कावुभौ
तस्ताभ्यां निगृह्णीया-देनामध्यात्मवैरिणीम् ॥२७॥
टीका:-- 'जिज्ञासा च विवेक ' = तत्त्वजिज्ञासा च देहात्मभेदज्ञानरूपविवेकश्व, 'उभौ ' = जिज्ञासाविवेको द्वौ, 'ममतानाशको ' = ममताया विनाशकौ कथितौ स्तः, 'अतस्ताभ्यां ' - जिज्ञासाविवेकाय, 'अध्यात्मवैरिणीमेन = अध्यात्मभावस्य प्रतिपक्षभूतामेना-ममतां निगृह्णीयात् निग्रहं नयेत् ॥ २७॥ इत्या
॥१४९॥
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अध्यात्म
सार:
॥१५॥
चार्यश्रीमद्-विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टघराचार्य श्रीमद्-विजय-भुवनतिलकसूरीश्वर-पट्टघरभद्रकरमरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां ममत्वत्यागनामकोऽष्टमोऽधिकारः समाप्तः । २३५॥
अथ समतानामको नवमोऽधिकारः - प्रतिबन्धकाभावे समतायाः स्वतः प्रादुर्भावः - 'त्यक्तायां ममतायां च, समता प्रथते स्वतः ।
स्फटिके गलितोपाधौ, यथा निर्मलतागुणः ॥१॥ टीकाः-ममतायां च त्यक्तायां ममतायाम्त्यागे सत्येव 'स्वतः समता प्रथते स्वयमेव समता बिलसति वर्धते च, 'गलितोपाधो स्फटिके रक्तवर्णकजपानामकपुष्षरूपोपाधौ गलिते-विनप्टे यथा स्फटिके निर्मलतागुणः स्वतो विकसति तथाऽत्रापि विज्ञेयम् , समता प्रति ममतारूप उपाधिः प्रतिबन्धकः, ममताया अभावे समतोदेति नान्यथेति ॥१॥
- याद्यपदार्थनिष्ठप्रियाऽप्रियत्वकल्पनानिरासः समता - 'प्रियाऽप्रियत्वयो र्याऽर्थे र्व्यवहारस्य कल्पना । निश्चयात्तद्व्युदासेन, स्तमित्यं समतोच्यते ॥२॥
॥१५०॥
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अध्यात्म सार:
॥१५॥
टीका:-अर्थ:-पदार्थैः सह प्रियाऽप्रियत्वयोः इष्टानिष्टत्वयोर्व्यवहारस्य या कल्पना-सड़कल्पअन्यारोपणा, 'निश्चयात्तद्व्युदासेन' निश्चयनयदृष्टया पूर्वकथितकन्पनाया निरासेन 'स्तैमित्यं समतोच्यते' चित्तचञ्चलताया अभावरूपं स्थैर्य समता कथ्यते ॥२॥
निश्चयत इष्टानिष्टत्वकल्पना, कल्पनामात्रफलैव 'तेष्वेव द्विषतः पुंसस्तेष्वेवार्थेषु रज्यतः ।
निश्चयात्किञ्चिदिष्टं वाऽनिष्टं वा नैव विद्यते ॥३॥ टीकाः-एकपुरुषापेक्षया 'येष्वेवाऽर्थेषु द्विषतः पुसस्तेष्वेवार्थेषु रज्यतः' यत्पदार्थनिष्ठो द्वेषस्तत्पदार्थनिष्ठो रागः, यद्रागद्वेषकल्पना पुरुषस्य भवति, यतो निश्चयतः' निश्चयनयतः, वस्तुतः, किश्चिद्वस्त, इष्टं वाऽनिष्टंवा नैव विद्यते' कस्यचित्पुरुषस्य किञ्चिदिष्टं सदाऽथवा किश्चिदनिष्टं नियतं नास्त्येव कालादिभेदेनेष्टमनिष्टं वाऽनिष्टमिष्टं भवतीति ॥३॥
एकस्मिन् विषये भवतो रागद्वेषयोः कारणम् 'एकस्य विषयो यः स्या-स्वाभिप्रायेण पुष्टिकृत् । अन्यस्य दवेष्यतामेति स एव मतिभेदतः ॥१॥
॥१५॥
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अध्यात्मसारः
।।१५२।।
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विकल्पकल्पितं तस्माद् द्वयमेतन्न तात्त्विकम् । विकल्पोपरमे तस्य द्वित्वादिवदुपतयः ||५||
टीका:- एकस्य पुरुषस्य यो विषय 'स्वाऽभिप्रायेण पुष्टिकृत् ' = चित्तस्याऽभिप्रायेण रागस्य विषयो भवति स एव विषयोऽन्यस्य पुरुषस्य मतिभेदतो-- मनसो भेदतो 'द्वेष्यतामेति' = द्वेषस्य विषयो भवति इदमहृदयम् = मनोनिष्ठा पदार्थान् प्रति या रागद्वेषविषयिणी प्रक्रिया भवति सा मनसः स्वविकल्पानवलम्ब्यैव, यदा रागादिजनकस्य विकल्पस्य नाशो भवति तदा तस्य रागादेरपि नाशो भवति; उदाहरणमत्र - सम्मुखं पुस्तकद्वयं पतितमस्ति तदा बुद्धया (नैयायिकमते पुस्तकद्वये द्वित्वनामको गुण उत्पद्यते यदा तत्र पुस्तकद्वयत्वेन रूपेण दर्शना -- पेक्षा नश्यति तदा तत्र पुस्तकद्वये जातं द्वित्वमपि नश्यति, विकल्पसत्तायां रागादेः सत्ता, विकल्पनाशे रागादेर्नाशो भवति, रागद्वेषयोर्मध्यादेकोऽपि न तात्त्विकः- शाश्वतः रागश्च द्वेपवन तात्विकraft विकल्पजातौ स्त इति ॥ ४५ ॥
- सङ्कल्पसमुत्थाननाशस्योपायः - 'स्वप्रयोजनसंसिद्धिः, स्वायत्ता भासते यदा । बहिरर्थेषु सङ्कल्प- समुत्थानं तदा हतम् ॥ ६ ॥
॥१५२ ।।
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अध्यात्म-18 सार:
॥१५३॥
टीका:-यावत् 'स्वकार्यसंसिद्धि द्यपदार्थाऽवलम्बने' ति बुद्धिः प्रवर्त्तते तावदात्मा बाह्यपदार्थेषु धावति, तदा 'स्वप्रयोजनसंसिद्धिः स्वाऽऽयत्तेति भासते तदा 'बहिरर्थेषु सङ्कल्पसमुत्थानं हतम्' बाह्यपदार्थानवलम्ब्योत्थीयमानसङ्कल्पा हता एव यतः स्वकार्यसिद्धिः स्वाधीनैव न परपदार्थसापेक्षेति ॥६॥
भ्रमस्य भङ्गे रागद्वेषाभावप्रयुक्ता समताऽप्रतिहता भवति-- 'लब्धे स्वभावे कराठस्थ स्वर्णन्यायाझमक्षये ।
रागदवेषाऽनुपस्थानात , समता स्यादनाहता ॥७॥ टीका-'कण्ठस्थस्वर्णन्यायात्' सौवर्ण भूषणं कण्ठस्थं सदपि यदा यस्यास्तित्वविषये भ्रम उत्पद्यते तदा स जीवोऽरतिमान् भवति यदा तद्भूषणं तु कण्ठ एव तिष्ठद्वर्त्तते' तादृशे भाने जायमाने भ्रमे निरस्ते पुनः स्वास्थ्यमायातं भवति, वस्तुतस्तु भूषणं न गतमेव परन्तु नष्टस्य भ्रमक्षये जातारतिनश्यति, स्वस्थता स्थिरा भवति, एवं रीत्या बहिरर्थेषु, इष्टानिष्टभ्रान्तिर्यदा क्षीणा भवेत्तदनन्तरं रागद्वेषविकाराः शाम्यन्ति तत्राप्रतिहता ममता प्रादर्भवति ॥७॥
-कर्मनिर्मित विध्य (पैविध्य) भानामावे साम्यमनाहतम् 'जगजीवेषु नो भाति, दुवैविध्यं कर्मनिर्मितम् । यदा शुद्धनयस्थित्या तदा साम्यमनाहतम् ॥८॥
॥१५३॥
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अध्यात्म सार:
॥१५४॥
टीकाः--सामान्यतः संसारिजीवेषु, जीवस्य स्वकर्मणा निर्मितमुञ्चत्वनीचत्वरूपं शिष्टत्वदुष्टत्वरूपमित्यादिनानारूपं द्वैविध्यं (द्वैतभावो) भासते परन्तु यदा 'शुद्धनयस्थित्या'निश्चयनयदृष्टया सर्वे जीवाः शुद्धात्मस्वरूपमया दृश्यन्ते तदेतद्वैविध्यं न भाति तदा च तस्य जीवस्य साम्यमनाहत-मप्रतिहतं भवति ॥८॥
-कूटस्थनित्यात्मद्रव्यगुणादिध्यानतःसाम्यमनुत्तरम्-- 'स्वगुणेभ्योऽपि कोटस्थ्यादेकत्वाऽध्यवसायतः ।
श्रात्मारामं मनो यस्य, तस्य साम्यमनुत्तरम् ॥१॥ टीका:--एक आत्मा नित्योऽस्ति, अन्यजीवेभ्यश्च सदा भिन्न एव तथाऽपि स्वज्ञानादिगुणेभ्योऽपि कूटस्यनित्यत्वात् , स्वगुणापेझयाऽपि कूटस्थनित्यत्वात् , स्वगुणापेक्षयाऽपि सर्वथा शुद्ध आत्माऽस्ति, एकमेवाऽऽत्मद्रव्यं कूटस्थनित्यमस्ति (अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरेकस्वभावःकूटस्थः) एकत्वाध्यवसायतः गुणगुणिनोरभेदनिश्चयतः, 'आत्मारामं मनो यस्य' यस्य-योगिनः कूटस्थस्वगुणाऽभिन्नाऽऽत्मनि रममाणं मनोऽस्ति तस्य योगिनः माम्यमनुत्तरं-परमोत्तमं भवति ।।९॥
--परिपक्वायां समतायां वासोचन्दनतुल्यता'समतापरिपाके स्याद् विषयग्रह-शून्यता ।
॥१५४॥
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अध्यात्म सार:
११५५॥
यया विशदयोगानां, वासीचन्दनतुल्यता ॥१०॥ टीका:--'समतापरिपाके स्याद् विषयग्रहशून्यता'समत्वनामको भावो यदा परिपाकदशामापत्रः स्यात्तदा विषयनिष्ठेष्टानिष्टताविषयककल्पनाज्ञानस्याऽऽत्यन्तिकाभावःस्यात् , 'यया विशदयोगाना वासी-- चन्दन--तुल्यता' विषयग्रहशून्यताविशिष्टसमतया निर्मलतरयोगगरिष्ठानां महात्मनां वास्या-येन शस्त्रविशेषेण चर्मच्छिद्यते, अथवा चन्दनेन लिप्यते, वास्या वा चन्दने तुल्यताऽर्थात् , निन्दकस्तावकपुरुषयोस्तुल्यमनोवृत्तिरूपसमतासिद्धिः॥१०॥
__-नित्यवैरिवैरशामक-समतां साधोः स्तुमः'किं स्तुमः समतां साधो-र्या स्वार्थ-प्रगुणीकृता ।
वैराणि नित्यवैराणामपि हन्त्युपतस्थुषाम् ॥११॥ टीका:--'साधोः समता किं स्तुमः १ कया रीत्या मुनेः समभावं वयं स्तुमः ? 'या स्वार्थप्रगुणीकृता'= स्वात्महितायेवाधिकाधिक्येन पुष्टकरणेन प्रवृद्धा समता, साधोपावें उपतस्थषां--उपस्थितिं कुर्वता. 'नित्यवैराणां'अहिनकुलादि-नित्यवेरवतामपि (नित्यवैररहितानां का कथेत्यपि शब्दार्थः) प्राणिनां वैराणि-पारस्परिक--वैमनस्यानि हन्ति-दूरीकरोति, स्वस्य कृते क्रियमाणा साधना परेषां वैरविनाशाय कल्पते ॥११॥
॥१५॥
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अध्यात्म.
सारः
॥१५६।।
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- एकैव समता सेव्या किमन्ये:
'किं दानेन तपोभिर्वा, यमैश्च नियमैश्च किम् । एकैव समता सेव्या, तरी संसारवारिधौ
॥१२॥
टीका:- संसाररूपवारिधितरणे तरी- नौकारूपा, एकैव समता सेव्या सेवनीया, समतारहितेन किं दानेनार्थात् दानफलाभावः, समतारहितैः किं तपोभिरर्थात् तपः फलाभावः, समतारहितै यमैर्नियमैश्व किमर्थाद् यमनियमयोः फलाभावः ॥ १२ ॥
- समतायाः सुखं स्पष्टं दृष्टं
मुक्ति-पदवी सा दवीयसी दृष्टं स्पष्टं तु समतासुखम्
दूरे स्वर्गसुखं मनः सन्निहितं टीका:- स्वर्गस्य सुखमानन्दो दूरे समस्ति सा मुक्तिपदवी - मोक्षस्थानं वर्त्तते, परन्तु मनः सन्निहितं मनसि स्थितं समतासुखं तु स्पष्टं दृष्टं सर्वथा प्रत्यक्षम् ||१३|| समताऽमृतमज्जनेन कामक्रोधमदा दिदोषध्वंसः ।
दृशोः स्मरविषं शुद्धयेत् क्रोधतापः क्षयं व्रजेत् ।
9
-
1
॥१३॥
दवीयसी - अत्यन्तदूरे
॥१५६॥
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अध्यात्मसारः
॥१५७॥
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चौद्धत्यमलनाशः स्यात्, समताऽमृतमज्जनात् ॥ १४॥
टीका:- समतानामकामृतस्नानेन नयनयुगलनिष्टं कामरूपं विषं शुष्कं वा शुद्धं भवेत्, क्रोधनामकस्तापः क्षयं व्रजेत्-प्राप्नुयात्, औद्धत्य- उन्मादरूपमलस्य नाशः स्यात् ||१४|| एका समव सुखाय जायते 'जरामरणदावाऽग्निज्वलिते भवकानने । सुखाय समतैकैव, पीयूषघनवृष्टिवत् ||१५||
टीका:- जरामरणरूप दावानलेन ज्वलिते दग्धे, भवरूपे कानने - वने 'पीयुपधन वृष्टिवत्'- सुधाया महामेघस्य वेगवद्दृष्टिसमाना, एका समतेव सुखाय भवत्येव ॥ १५ ॥ - एकसमताSSलम्बना मोक्षप्राप्तिः'याश्रित्य समतामेकां निवृता भरतादयः नहि कष्टमनुष्ठान-मभूत्तेषां तु किञ्चन ॥१६॥
1
टीका :- 'आश्रित्य समतामेकां रागद्वेषपरिणत्य भावरूपामेकां समतामालम्ब्य 'निवृता भरतादयः ' भरत आदियेषां ते भरतरूपप्रथमच कार्यादयः, निवृतिं प्राप्ताः 'तेषां तु नहि किश्चन कष्टमनुष्ठानमभूत् '= तेषां भरतादीनां तु किञ्चिदपि बाह्यतप आदिरूपं कष्टकार्यनुष्ठानं जातं नहि ||१६||
॥१५७॥
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अध्यात्मसार:
॥१५८॥
-किंफला समता - 'अर्गला नरकद्वारे, मोक्षमार्गस्य दीपिका ।
समता गुणरत्नानां, सङ्ग्रहे रोहणावनिः ॥१७॥ टीका:--समता कीदृशी ! 'नरकद्वारेऽर्गला' नरक द्वारप्रतिबन्ध-की-भूतप्रतिधस्वरूपा समता, 'मोक्षमार्गस्य दीपिका' मोक्षमार्गप्रकाशकदीपिका समता, ज्ञानादिगुणरत्नानां सङ्ग्रहणे रोहणपर्व. तस्यावनिभूता समता, अर्थात् नरकद्वारप्रतिबन्ध-मोक्षमार्ग-प्रकाश गुणरत्नसङग्रहरूपफलानि समतयैव प्राप्यन्ते ॥१७॥
-दोषनाशकरी समता'मोहाच्छादितनेत्राणा-मात्मरूपमपश्यताम् ।
दिव्याञ्जनशलाकेव, समता दोषनाशकृत् ॥१८॥ टीका='मोहाच्छादितनेत्राणाम्' मोहेनाच्छादिते नेत्रे विवेक दृष्टिरूपे भावनेत्रे येषां तेषामत एवत्मरूपमपश्यतां'स्वाऽऽत्मस्वरूपसाक्षात्कारमकुवंतां पुरुषाणां "दिव्याञ्जनशलाकेव'लोकोत्तराऽञ्जनशलाकासमाना समता मोहादिरूपदोषनाशकरी भवतीति ॥१८॥
॥१५॥
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वष्यात्म सारः
॥१५९॥
-समतयाऽनिर्वचनीयमुखसम्माप्तिः'क्षणं चेतः समाकृष्य, समता यदि सेव्यते ।
स्यात्तदा सुखमन्यस्य, यद् वक्तु नैव पार्यते ॥११॥ टीकाः-क्षण-क्षणपर्यन्तं रागद्वेषपरपदार्थादिविषयेभ्यश्चेतो-मनः, समाकृष्य-प्रत्याहृत्य 'यदि समता सेव्यते तदा सुखं स्यात्' अनन्यादृशं चेतश्चमत्कारिमहानन्दोऽनुभूयेत, यत्सुखमन्यस्य जनस्य वक्तु नैव पार्यते-पारं प्राप्यते ॥१९॥
___ - भोगिभूत संसारिलोकः समतामुख नैव वेत्ति-: 'कुमारी न यथा वेत्ति, सुखं दयितभोगजम् ।
न जानाति तथा लोको योगिनां समता-सुखम् ॥२०॥ टीकाः यथा कुमारिका 'दयितभोगजं सुखं पतिमोगजन्यं सुखमनुभवाऽपेक्षया न जानाति, तथा तथा लोकः-भोगिसंसारी लोकः, योगिनां--अध्यात्मयोगिनां महायोगरूपं--समताजन्यं सुखमनुभवतो न जानात्येवेति ॥२०॥
. ..समता, वर्मणा सह तोल्यते. 'नतिस्तुत्यादिकाऽऽशंसा-शरस्तीवः स्वमर्मभित् ।
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अध्यात्म. सार:
॥१०॥
समतावर्मगुप्तानां, नाऽतिकृत्सोऽपि जायते ॥२१॥ टीका:-तीव्रः स्वमर्मभित् , नतिस्तुत्यादिकाऽऽशंसाशर तीक्ष्णः, स्वात्ममर्मभेदकः, जनगणविहितनमन-स्तवनादिविषयकलालसारूपो बाणः, 'समतावर्मगुप्ताना' समता-नामकवर्मणा रक्षितानां महात्मनां 'सोऽपि नाऽऽर्तिकृजायते' पूर्वकथितवाणोऽपि पीडाकारी न जायते ॥२१॥
समता, जन्मान्तरप्रचितानि कर्माणि क्षिणोति 'प्रचितान्यपि कर्माणि, जन्मनां कोटिकोटिभिः ।
तमांसीव प्रभा भानोः, क्षिणोति समता क्षणात् ॥२२॥ ___टीका:-'जन्मनां कोटिकोटिभिः'-कोटिभिगुणिताः कोटयः कोटिकोटयः, ताभिः, कोटिकोटिजन्मभिः, 'प्रचितान्यपि कर्माणि' आत्मसाद् कृतानि-बद्धान्यपि कर्माणि यथा भानोः प्रभा तमांसि क्षणात क्षिणोति-नाशयति, तथा समता भवभवांतरमध्ये बद्धानि कर्माणि क्षयं प्रापयति क्षणात ॥२२॥
समतयैव भावजैनता सिध्यति 'अन्यलिङ्गादिसिद्धाना-माधारः समतैव हि । रत्नत्रयफलप्राप्तेर्यया स्याद् भावजैनता ॥२३॥
॥१६०॥
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अध्यात्मसार
टीकाः--यया समतया दर्शनज्ञान चारित्ररूपरत्नत्रयस्य फलरूप सिद्धावस्थायाः प्राप्तिर्भवति, किचतत्प्राप्ति विनि भवनहेतुत्वेन या या, अन्यलिङ्गिषु मावजनता सा समतेवाऽन्यलिङ्गगहिलिङ्गादिसिद्धानामाधारो भवतीनि ॥२३॥
ज्ञानस्य फलं समतैव 'ज्ञानस्य फलमेषेव, नयस्थानाऽवतारिणः ।
चन्दनं वह्निनेव स्यात् , कुग्रहेण तु भस्म तत् ॥२४॥ टीका:-.'नयस्थानाऽयतारिणः' सकलनयामितविषयेषु अवतरणशीलस्य 'ज्ञानस्य फलमेषेव'विशिष्टज्ञानस्य फलं समतैव, अन्यथा--समताया अभावे सति, एकस्मिन्नपि नयविषये 'कुग्रहेण भस्म तत्' कदाग्रहेण सुन्दरमपि ज्ञानं भस्मसाद् भवति, यथा चन्दनं शैन्यमर्पयति परन्तु वमिना सह सम्बन्धेन ज्वलितत्वाद् भस्म भवति तथाऽत्राऽपि ज्ञेयम् , अत्र ज्ञानं चन्दनम्थानीयं, कुग्रहश्च वलिस्थानीयः ॥२४॥
समतानामानः, चारित्रपुरुषप्राणाः 'चारित्रपुरुषप्राणाः, समताऽख्या गता यदि । जनाऽनुधावनावेशस्तदा तन्मरणोत्सवः ॥२५॥
॥१६
॥
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अध्यात्म सार:
॥१६२॥
टीका:-यदि चारित्रनामकपुरुषस्य प्राणा: समतानामका गताः अस्तं गता यावनष्टा स्तदा 'जनानुधावनावेशः'जनानामनुधावनस्याडम्बरः, 'तन्मरणोत्सवः समताख्यप्राण विहीनस्य तस्य मरणमहोत्सवो ज्ञेयः ॥२५॥
समतां विना कृतमकृतं कष्टरूपं वा भवति'सन्तज्य समतामेकां, स्याद्यत्कष्टमनुष्ठितम् ।
तदीप्सितकरं नैव, बीजमुप्तमिवोषरे ॥२६॥ ____टीका:-एका समता सन्त्यज्य-विहाय यत्कष्टं यत् कष्टकारिफर्माऽनुष्ठितं--कृतं स्यात् 'तदीप्सितकरं नैव तत्कार्यमिष्टसिद्धिकरं नैव, बीजमप्तमिवोपरे उपरभूम्यां निक्षिप्तं यथा बीजं कष्टरूपमतएव नेष्टसिद्धिकरं तथाऽत्रापि बोध्यम् ॥२६॥
मुक्तरुपाय एका समतेव 'उपायः समतेवैका, मुक्तेरन्यः क्रियाभरः ।
तत्तत्पुरुषभेदेन, तस्या एव प्रसिद्धये ॥२७॥ टीका:-'उपायः समतेवैका, मुक्तेः'-मुक्ते मोक्षस्योपाय एका समतेव, मोक्षोपायभूतसमताया
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१६२॥
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अन्यः क्रियामरः किमर्थमिति चेदुच्यते 'अन्यः कियाभरः तत्तत्पुरुपमेदेन तस्या एव प्रसिद्धये' -
तस्य तस्य पुरुषस्य भेदेन-'मिन्नभिन्नव्यक्ति प्रगह्यान्यः कियासमूहः, समताया एव प्रकर्षण सिद्धये अध्यात्म-10
वर्तते, समताजनकत्वेन क्रिया सक्रियेति सूच्यते ॥२७॥ सार
___ समतायाः स्वानुभव एव पारं प्रापयति
दिङ्मात्रदशेने शास्त्रव्यापारः स्यान्न दूरगः । ॥१६३॥
अस्याः स्वानुभवः पारं, सामर्थ्याख्योऽवगाहते ॥२८॥ ___टीका:--'शास्त्रस्य व्यापारः दिडमात्रदर्शने स्यान्न दुग्गः =शास्त्रस्य प्रवर्तनरूपो व्यापारः, दिशामात्रदर्शन--सूचने स्यात्परन्तु दिड्मात्रमूचनाद् दूरेऽग्रतो न गच्छति, अत एव 'अस्याः म्यानुभवः'=समतायाः स्वानुभवरूपमामयनामकयोगः 'पारमवगावहने' माध्यशास्त्रार्थपारावगाहको भवति ॥२८॥
परात्परंनिगूढं नत्वमात्मनः समतैव परात्परमेषा यन्निगूढं तत्त्वमात्मनः ।
तदध्यात्मप्रसादेन, कार्योऽस्यामेव निर्भरः ॥२६॥ ... टीका:-'आत्मनो निगूढं तत्त्वं यत् परात्परमेषा-आत्मसम्बन्धि अत्यन्तं गुप्तं तत्त्वरूपं रहस्य यत् परात्पररूपमेषा समतेव, तत्समतारूपं तत्त्वं वा ततः 'अध्यात्म'प्रसादेन कार्योऽस्यामेव निर्भरः'-अध्या
....
॥१६३॥
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अध्यात्म
सारः
॥१६॥
त्मबोधकृपया, समतासिद्धावेव पूर्णः प्रयत्न कर्त्तव्य इति ।।२९॥ ___इत्याचार्यश्रीमद् विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रकरसूरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकार्या समतानामको नवमोऽधिकारः समाप्तः ॥२५४॥
सदनुष्ठाननामको दशमोऽधिकारः
- शुद्धानुष्ठानम् - 'परिशुद्धमनुष्ठानं जायते समताऽन्वयात् ।
कतकक्षोदसक्रान्तः, कलुषं सलिलं यथा ॥१॥ टीका:-'अनुष्ठान' =मलिनमपि धर्माऽनुष्ठानं 'समताऽन्वयात्'समतानामकपरिणामस्य सततसम्बन्धान , 'परिशुद्धं जायते' परितो निर्मलं भवति ‘यथा कतकशोदसङ्क्रान्तेः कलुपं सलिलं परिशुद्धं' यथा मलयतं जलं कतकीयचूर्णसङ्क्रमणतः परितोऽत्यन्तं वा शुद्धं जायते ॥१॥
- अनुष्ठानस्य भेदा:विषं गरोऽननुष्ठानं, तद्धेतुरमतं परम् । गुरुसेवाद्यनुष्ठानमिति पञ्चविधं जगुः ॥२॥
॥१६॥
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अध्यात्मसारः
टीका:-गुरुसेवाऽऽदिस्वरूपमनुष्ठानमैहिकपारलौकिकसुखादिविषयकाशयमेदेन पञ्चविधं भवति तन्नामानीमानि यथा-विषनामक गराख्यमननुष्ठानाभिधं तद्धेतुगोत्रकममृतसंज्ञकं पञ्चविधमनुष्ठानम् ॥२॥
-विषनामकाऽनुष्ठानवर्णनम् - 'श्राहारोपधिपूजद्धि-प्रभृत्याशंसया कृतम् ।
शीघ्र सच्चित्तहन्तृत्वादिषानुष्ठानमुच्यते ॥३॥ टीका:-आहारविषयकाशंसया, उपकरणरूपोपधिविषयकाशंसया, पूजासत्कारविषयककामनया, समृ. द्विसंपत्तिमत्तादिकविषयकेहिकफलाशंसया मह क्रियमाणगुरुसेरादिस्वरूपमनुष्ठानं, शीघ्र-तत्कालं 'सच्चित्तहन्तृत्वात्' =सम्यग्भावरूपचित्तशुद्भिहननकत्तत्वाद्विपानुष्ठानं कथ्यते ॥३॥
- तदेव विषानुष्ठानं सदृष्टान्तं विभज्यते - 'स्थावरं जङ्गमं चापि, तत्क्षणं भक्षितं विषम् ।
यथा हन्ति तथेदं स-च्चित्तमैहिकभोगतः ॥४॥ यथा स्थावरं चापि जङ्गममुभयविधं विषं भक्षितं सत् तत्क्षणं द्रव्यप्राणान् हन्ति, तथेदं-विपानुठानं पूर्वोक्तिहिकभोगेच्छया 'सच्चित्तं-भावशुद्धिरूपान भावप्राणान हन्ति ॥४॥
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अध्यात्म
सार:
।। १६६॥
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गरानुष्ठानस्वरूपवर्णनम्
'दिव्य भोगाऽभिलाषेण, कालान्तरपरिक्षयात् । स्वादृष्टफलसम्पू,
गरानुष्ठानमुच्यते
॥५॥
टीका:- 'दिव्य भोगाऽभिलाषेण ' = पारलौकिक देवसम्बन्धिभोगस्याऽभिलाषेण क्रियमाणं गुरुसेवादिरूपमनुष्ठानं गरानुष्ठानं कथ्यते, 'स्वादृष्टफलसम्पूर्तेः ' = पूर्वोक्ताऽनुष्ठानजन्यं स्वकृतादृष्ट-स्वनिर्मित पुण्यकम, तस्य भोगस्य सम्पूरणतः, 'कालान्तरपरिक्षयात् ' = अन्यकाले देवादिभवकाले चित्तशुद्धिरूपभावप्राणपरिक्षयतो गरानुष्ठानमुच्यते ||५||
- पुनरपि गरानुष्ठानं सदृष्टान्तं दर्श्यते-'यथा कुद्रव्यसंयोग - जनितं गरसंज्ञितम् । विषं कालान्तरे हन्ति, तथेदमपि तत्त्वतः ॥ ६ ॥
टीका: यथा काचानां शकलादिरूपकुत्सितद्रव्याणां संयोग मिश्रणतो जनितं गरसंज्ञितं विषं कथ्यते, तादृशभक्षकस्य तादृशं विषं 'कालान्तरे' = द्विचतुर्द्वादशमासान्तरे हन्ति, तथा दिव्यभोगादिप्राप्ते निंदानपूर्वकं कृतमनुष्ठानं वस्तुतः कालान्तरे चित्तशुद्धिं हन्ति ततस्तदनुष्ठानं गरानुष्ठानं कथ्यते ॥६॥ अनिदानत्वं प्रतिपादितमेव
॥१६६॥
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वन्यात्मसार
॥१६७||
'निषेधायाऽनयोरेव. विचित्राऽनर्थदायिनोः ।
सर्वत्रैवाऽनिदानत्वं, जिनेन्द्रः प्रतिपादितम् ॥७॥ टीका:-'विचित्रानर्थदायिनोः'विविधजातीयानर्थसार्थदायकयोः 'अनयोरेव निषेधाय' विषानुष्ठानगरानुष्ठानयोरेव प्रतिषेधाय 'सर्वत्रैव जिनेन्द्ररनिदानत्वं प्रतिपादितं सर्वेष्वनुष्ठानेष्वनिदानत्वम नाशंसत्वमेव जिनानामिन्द्रः प्रतिपादितमस्ति ॥७॥
- अननुष्ठानस्वरूपम् - 'प्रणिधानाद्यभावेन, कर्माऽनव्यवसायिनः ।
संमूर्छिमप्रवृत्त्याभमननुष्ठाननमुच्यते ॥८॥ टीकाः-'अनध्यवसायिनः' =अध्यवसायशून्यस्याऽऽत्मनः, 'प्रणिधानाद्यमावेन' =यै चित्तस्काग्रताऽऽदिभावस्याऽभावपूर्वकं 'सम्मृच्छिमजीवानां प्रवृत्तिसदृशं यत्कर्म तदननुष्ठानमुच्यते ॥८॥
- अननुष्ठानकर्मणि हे संज्ञे उपयुज्यते - 'श्रोघसंज्ञाऽत्र सामान्य-ज्ञानरूपा निबन्धनम् । लोकसंज्ञा च निर्दोष-सूत्रमार्गाऽनपेक्षिणी ॥६॥
॥१६॥
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अध्यात्म-
सारः
॥१६॥
टीका:-अत्रअस्यामननुष्ठानकप्रवृत्ती संज्ञाद्वयं कारणं भवति, प्रथमौघसंझा-सामान्यज्ञानरूपा, द्वितीया लोकसंज्ञा तु 'निर्दोषसूत्रमार्गानपेक्षिणी' दोषरहितशास्त्रमार्गस्याऽपेक्षाशन्येत्यर्थः ॥६॥
___ - ओघसंज्ञायाः स्वरूपनिरूपणम् - 'न लोकं नापि सूत्रं नो गुरुवाचमपेक्षते ।
अनध्यवसितं किञ्चित, कुरुते चौघसंज्ञया ॥१०॥ टीका:-'ओघसंज्ञयाऽनध्यवसितं किञ्चित्कुरुते' चित्तस्य शून्यतया सहौवसंज्ञया जीवो यत्किश्चित्करोति नत्र लोकं नाऽपेक्षते जीवः, नाऽपि सूत्रं चाऽपेक्षते, गुरोर्वाचमपि नाऽपेक्षतेऽर्थात् , लोकसूत्रगुरुवाक्पनिरपेक्षं सर्वथा चित्तशून्यतापूर्वकं यत् किश्चिदावश्यकाद्यनुष्ठानमोघसंज्ञायाः प्रभावः ॥१०॥
- लोकसंज्ञास्वरूपवर्णनम् - 'शुद्धस्याऽन्वेषणे तीर्थोच्छेदः स्यादिति वादिनाम् ।
लोकाचारादरश्रद्धा लोकसंज्ञेति गीयते ॥११॥ टीकाः केचित् कथयन्ति यत् 'शुद्धानुष्ठानमेव यदि दृश्यते तदाग्रहश्चैव रक्षिष्यते' तदा तीर्थोच्छेदः प्रसज्यते, यतः शुद्धानुष्ठानमशक्यप्राय तस्माल्लोको यथारीत्याऽविधिवदशद्धमनुष्ठानं कुर्वन्नास्ते तथैव
॥१६८॥ ।
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अध्यात्म
सार
॥१६॥
रीत्या पुनः पुनः कर्त्तव्यमिति वादिना लोकस्याविधिवत्स्वाचारेषु बहुमानपूर्विका श्रद्धा 'लोकसंज्ञे' ति गीयते, एतादृश्या लोकसंज्ञया क्रियमाणावश्यकादिकर्मानुष्ठानमननुष्ठानम्मुच्यते ॥११॥
.. अशुद्धकत्तव्यक्रियापक्षखण्डनम् .. 'शिक्षितादिपदोपेत-मप्यावश्यकमुच्यते'
व्यतो भावनिर्मुक्त-मशुद्धस्य तु का कथा॥१२॥ टीका:-'शिशितादिपदोपेतं भावनिमुक्तं द्रव्यन आवश्यकमुच्यते' अस्खलितादिगुणसम्पन्नपदैः महितं शुद्धमपि भावेन रहितं सद् द्रव्यावश्यकमुच्यते, 'अशुद्धस्य तु का कथा' -पाठोच्चारणादावप्यशद्ध स्यावश्यककर्मणस्तु का कथा ? अर्थादेतत्तु द्रव्यावश्यकमपि न कथ्यते ॥१२॥
शुद्धस्यैवाऽऽग्रहे तीर्थोच्छेदप्रसङ्ग इति पक्षखण्डनम् 'तीथोच्छेदभिया हन्ता-विशुद्धस्येव चादरः । .
सूत्रक्रियाविलोपः स्याद् गतानुगतिकत्वतः ॥१३॥ टीका:--'शुद्धक्रियाया एवाऽऽग्रहे केनाऽपि तादृशक्रियायाः क मशक्यत्वात्तीर्थोच्छेदः प्रसक्तो की भविष्यतीत्येवमुक्त्वाऽशुद्धकर्मण्यादरः कार्य इति यत्कथित' तदत्यन्ताऽसम्बद्धवचनं यतो रीत्याऽनया, अशुद्धौ
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अध्यात्म सार:
॥१७॥
स्वोदितक्रियापाठी एक आत्मा कुरुते, तन्निरीक्ष्य श्रुत्वा च द्वितीयस्तथैव कुरुते, तथैव तृतीयादिः करोत्येवं गताऽनुगतिकत्वतोऽशद्धक्रियापाठप्रवचनप्रवर्तनप्रसिद्धिता सूत्रकथितशुद्धक्रियापाठविलोपः स्यात, वस्तुतस्तु अशुद्धादरे सूत्रविहितक्रियाविलोपद्वारा तीर्थोच्छेदसंभवः कथं न १ ॥१३॥
बहुभिः कृतं यत्तत्कर्त्तव्यमिति मतस्य खण्डनम् 'धर्मोद्यतेन कर्त्तव्यं कृतं बहुभिरेव चेत् ।
तदा मिथ्यादृशां धर्मो त्याज्यः स्यान्न कदाचन ॥१४॥ टीकाः--बहुभिर्लोके यया रीत्या कृतं तया रीत्यैव धर्मोद्यतेनात्मना कर्त्तव्यमिति न समीचीनम् , यत उक्तमतसमर्थने मिथ्याशा क्रियाकाण्डरूपो धर्मः सदा सेवनीयः स्यात , कदाचनाऽपि त्याज्यो न म्याद् यतो बहुमिलोंके सेवितोऽभिमतश्चेति ॥१४॥
अननुष्ठानकर्मण उपसंहारः 'तस्माद् गतानुगत्या च, यत् क्रियासूत्रवर्जितम् ।
श्रोघतो लोकतो वा तदननुष्ठानमेव हि ॥१॥ टीकाः-'तस्माद्' पूर्वोक्तकथनतः, 'ओधतो लोकतो वा'=ोधसंज्ञया लोकसंज्ञया वा यत्कर्म,
॥१७॥
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'सूत्रवर्जितं' सूत्रविधाननिरपेक्षं 'गताऽनुगत्या'चातानुगतिकत्वतः क्रियते, हि-खलु, तदनुष्ठानमननुयस्यास्य
ष्ठानमेव शेयमिति ॥१५॥ सार
अननुष्ठानकर्मणः फलम्
'कामनिर्जराङ्गत्वं, कायकलेशादिहोदितम् । ॥१७॥
सकामनिर्जरा तु स्यात् , सोपयोगप्रवृत्तितः ॥१६॥ टीकाः-इह-अस्मिमननुष्ठानकर्मणि, 'कायकलेशात्' कायस्य कष्टरूपत्वात् , सोपयोगप्रवृत्तरIN/ भावात , 'अकामनिर्जगत्वं' अकामनिर्जगयाः माघनत्वमुदितं-कथितं अस्याऽननुष्ठानस्य फलम
कामनिर्जरा कायक्लेशद्वारा भवति, सकामनिर्जरा तु मोक्षाशयपूर्विकाया उपयोगसहितायाः प्रवृत्तितो भवति नाऽन्ययेति ॥१६॥
तरतुनामकसक्नुष्ठानस्वरूपम् 'सदनुष्ठानरागेण तद्धेतुर्मार्गगामिनाम् ।
एतच्च चरमाऽऽवर्तेऽनाभोगादे विना भवेत् ॥१७॥ टीका:-'मार्गगामिना' मार्गाऽनुसारिणां जीवानां 'सदनुष्ठानगगेण सदनुष्ठानं प्रति रागहेतुना जायमानं, 'अनाभोगादेविना-अनाभोगसहसाकारितादोषरहितं तद्धेतनामकं सम्यगनुष्ठानं 'एतच्च'
१७१॥
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अध्यात्म
सारः
॥ १७२॥
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इदमनुष्ठानं च 'चरमावर्त्ते मवेत्' = चरमावर्त्तकालप्रविष्टानां जीवानां भवेनाऽन्येषामचरमावर्त्तवर्तिनाम् ||१७|| सतक्रियारागः कदा १ असत् क्रियारागः कदा ? भवचाल दशाऽपरा
'धर्मयौवन कालोऽयं
1
अत्र स्यात् क्रियारागोऽन्यत्र चाऽसत्क्रियाऽऽदरः ॥ १८॥
टीका:- चरमावर्त्तकाले प्रवेशाऽनन्तरं सतक्रियारागो जीवस्य जायते यतोऽयं चरमावर्त्तकाल ra afer aratni: 'अन्यत्र ' = चरमावर्त्तादिन्यत्र - अचरमावर्त्तकाले, 'अपरा' द्वितीया भवस्य बालदशा भवति यतस्तत्राऽसकियां प्रत्येवाऽऽदरो भवतीति ||१८||
धर्मयौवनकालप्रविष्टानां धर्मरागेणाऽसतुक्रिया लज्जाये
'भोगरागाद् यथा यूनो, बाल क्रीडा खिला हिये । यूनस्तथा धर्मरागेणाऽसत्क्रिया हिये ||११||
धर्मे
टीका: - यथा यूनो भोगरागाद् बालक्रीडा हिये' = युवावस्थासम्पन्नस्य पुरुषस्य भोगरागे जाते सति, समस्ता बाल्यवयः कालीन धूलिक्रीडादिरूपबालक्रीडा लज्जायें भवति, तथा धर्मस्य यौवनकाले प्रविष्टस्यात्मनो धर्मरागे जाते प्राक्तन्योऽसतु क्रियाः सर्वा लज्जाकृतेऽतो हेया एव ।। १९ ।
॥ १७२ ॥
Na
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अध्यात्म सार
॥१७३||
चरमावर्त एच तहेतुनामकं चतुर्थमनुष्ठानम् 'चतुर्थ चरमावर्ते तस्माद् धर्मानुरागतः ।
अनुष्ठानं विनिर्दिष्टं, बीजादिक्रमसङ्गतम् ॥२०॥ टीकाः-इदं हि-निश्चितं यत् सक्रियारागश्वरमावर्तकाल एव ततश्च सक्रियारूपमद्धर्मानुरागतो जायमानं चतुर्थ तद्वेतुनामकमनुष्ठानमपि चरमावर्तकालीनमेवेदमनुष्ठानं वक्ष्यमाणबीजादिक्रममङ्गतं विनिर्दिष्टं वत्तते ॥२०॥
बीजरूपतःतुनामकानुष्ठानस्वरूपम् 'बीजं चेह जनान् दृष्टवा, शुद्धानुष्ठानकारिणः ।
बहुमानप्रशंसाभ्यां, चिकीषा शुद्धगोचरा ॥२१॥ टीकाः-इह-अस्मिस्तध्धेत्वनुष्ठाने बीजमित्थं वयेते, शुद्धिविशिष्टानुष्ठानकारकान् जनान् दृष्टवा । हृदयतो बहुमानेन वाचा प्रशं मया सह 'तादृशं शुद्धानुष्ठानं मयाऽपि विधेयम् ' एतादृशी शुद्धविषया कत्तमिच्छारूपा चिकीर्षा बीजरूपं तत्विनुष्ठानम् ॥२१॥
॥१७॥
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अध्यात्न
सारः
॥१७४॥
अकुररूपं स्कन्धरूपं च तदूषेत्वनुष्ठानम् 'तस्या एवानुबन्धश्वा-कलङ्कः कीत्यतेऽङ्करः ।
तधेत्वन्वेषणा चित्रा स्कन्धकल्पा च वर्णिता ॥२२॥ टीका:-'तस्या एवाऽकलङ्कोऽनुबन्धः =शुद्धगोचरायाश्चिकीर्षाया एव निर्मलसततपरम्परारूपोऽ कुनः तत्विनुष्ठान कीय॑ते-कथ्यते, कैरुपायैः शुद्धा क्रिया संभवेदिति विचार्य तेषां हेतूना 'चित्राऽन्वेषणा - विविधा निरीक्षणपरीक्षणसमीक्षणरूपाऽन्वेषणा 'कन्धकम्पा च वर्णिता' = स्कन्धरूपं तद्घेत्वनुष्ठानमुच्यते ॥२२॥
पत्रादिरूपं पुष्परूपं च तद्घत्वनुष्ठानम् 'प्रवृत्तिस्तेषु चित्रा च, पत्रादिसदृशी मता ।।
पुष्पं च गुरुयोगादि-हेतुसम्पत्तिलक्षणम् ॥२३॥ टीका:-शुद्धा क्रियां प्राप्त ये ये सद्गुरुयोगादय उपायास्तानुपायानुपलब्धु चित्रा विविधा प्रवृत्तिः मा पत्रम्थानीयं तद्धत्वनुष्ठानं कथ्यते 'गुरुयोगादिहेतुसम्पत्तिलक्षणं पुष्पं च' -सुगुरुयोगादि.
IR ॥१४॥ रूपसम्पत्तिप्राप्तिरूपं पुष्पस्थान यं तद्धत्वनुष्ठानं ज्ञेयम् ॥२३॥
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अध्यात्म.
सारः
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फलरूपं तदुघेत्वनुष्ठानस्वरूपम्
'भावधर्म्मस्य सम्पत्ति, र्या च सद्दशनादिना ।
फलं तदत्र विज्ञेयं नियमान्मोक्षसाधकम् ॥२४॥
टीकः - सद्गुरुयोगे सति तन्मुखतः सद्धर्मदेशनायाः श्रवणतो मिथ्यात्वमोहनीय कर्मणः क्षयोपशमादिर्भवेत्तस्मात् सम्यक्त्वादिभावधर्मस्य या सम्पत्तिः सम्प्राप्तिः, सा तद्धेत्वनुष्ठानस्य फलं विज्ञेयं यनियमात् अवश्यमेव मोक्षसाधकम् ||२४||
अमृतानुष्ठानस्वरूपम्
'सहजो भावधर्मो हि, शुद्ध श्वन्दनगन्धवत् । एतद्गर्भमनुष्ठानममृतं सम्प्रचक्षते
॥२५॥
टीकाः = यथा चन्दनस्य गन्धः सहजो गुणः तथाऽऽत्मनः सम्यक्त्वादिरूपभावधर्मः शुद्धः सहजो गुण उच्यते तादृशभावधर्म गर्भितं विशिष्टमनुष्ठानममृतानुष्ठानं कथ्यते, एवं तद्धेत्वनुष्ठानस्य फलममृतासुष्ठाने परिणमते ||२५||
अमृतानुष्ठानस्य प्रथमं लक्षणम्
'जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य प्रवृत्तं चित्तशुद्धितः 1
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अध्यात्म सार:
॥१७॥
सम्बेगगर्भमत्यन्त-ममृतं तदिदो विदुः ॥२६॥ टीकाः अमृतानुष्ठानविषयकज्ञानवन्तः कथयन्ति यज्जिनस्याज्ञा पुरस्कृत्य-अग्रतः कृत्वा, चित्तस्य शुद्धितः प्रवृत्तं प्रवृत्तिविषयीकृतं 'अत्यन्तं सम्वेगगर्भ = उत्तरोत्तरवर्द्धमानमोक्षाऽभिलाषेण विशिष्टं 'अमृत' = अमृतनामकमनुष्ठानं तज्ज्ञाः कथयन्ति स्म ॥२६॥
___ अमृताऽनुष्ठानस्य द्वितीयं लक्षणम् शास्त्रार्थाऽऽलोचनं सम्यक् , प्रणिधानं च कर्मणि ।
कालाद्यङ्गाऽविपर्यासोऽमृताऽनुष्ठानलक्षणम् ॥२७॥ टीकाः-शास्त्राऽर्थाऽऽलोचनं सम्यक् प्रणिधानं च कर्मणि' अमृतनामके कर्मणि सूत्रविषयकस्याऽर्थस्याऽनुप्रेक्षणरूपमालोचनम्, चित्तस्यैकाग्रता, अप्रमत्तता वा प्रणिधानं, कालविनयादिरूपाणामङ्गाना साधनानामविपर्यासः% अन्यथाऽऽचरणाऽभावः, अमृताऽनुष्ठानस्य लक्षणम् ॥२७॥
सक्नुष्ठानमसदनुष्ठानं च विभजते 'दयं हि सदनुष्ठान त्रयमत्राऽसदेव च । तत्रापि चरमं श्रेष्ठ, मोहोगविषनाशनात् ॥२८॥
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अध्यात्म
सार
॥१७७॥
टीकाः-अत्र-अनुष्ठानपश्चकमध्ये 'द्वयं हि-तद्धेतुनामकाऽमृतनामकानुष्ठानद्वयं 'सद्' सत्फलकारकत्वेन सदेव, 'त्रयमसदेव' = विषनामकगरनामकाननुष्ठाननामकाऽनुष्ठानानि त्रीणि, 'अमदेव' असतफलजनकत्वेनाशुभान्येच, 'तत्राषि चरमं श्रेष्टं' - सदनुष्ठ नद्वयमध्येऽपि चरम-अमृतानुष्ठानं सर्वोनममेव यतः 'मोहोपविषनाशनात्' % मोहनीयकमणो मिथ्यात्वादिरूपमूलसंस्कारविषरूपस्योगविषम्य नाशनाद. मृतं श्रेष्टं वर्तते, अत्र मिथ्यात्वादिरूपमोहोगविषं नाश्यम् , अमृताऽनुष्ठानं नाशकं ज्ञेयमिति ॥२८॥
सदनुष्ठानस्य लक्षणानि 'श्रादरः करणे प्रीति-रविघ्नः सम्पदागमः ।
जिज्ञासा तज्ज्ञसेवा च, सदनुष्ठानलक्षणम् ॥२६॥ टीका:- 'आदरः' = मुमुक्षोमोक्ष एवेष्टं वस्तु, एनदिष्टाप्तये क्रियाया प्रयत्नाऽतिशयरूप आदर:: (२) 'करणे प्रीतिः' - सम्यक क्रियायाः करणे मानसं प्रेम (३) 'अविघ्नः' = पुण्यानुवन्धिपुण्यसामर्थ्यत एतन्क्रियाकरणे न कश्चिद्विधनागमः (१) 'सम्पदागमः शुभभावजन्यपुण्यतोऽलोलताऽनिष्ठुरतादिगुणरूपयोगसम्पदामागमः, (५) 'जिज्ञासा' = भोक्षात्मकस्येष्टस्य स्वरूपं ज्ञातुमिच्छा (५) तज्ज्ञसेवा' ॥ मोक्षात्मकस्य परमतत्वस्य ज्ञाता भगवा सेवादिकं कृत्वा कृपा विशिष्टा लभ्या, इत्येवं सदनुष्ठानलक्षणानि बोध्यानि ॥२९॥
1
॥१७॥
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अध्यात्म सार:
॥१७८॥
'एतत् सदनुष्ठान योगस्वरूपम्'भेदैभिन्नं भवेदिच्छा-प्रवृत्तिस्थिरसिद्धिभिः ।
चतुर्विधमिदं मोक्ष-योजनाद्योगसंज्ञितम् ॥३०॥ टीकाः-'इदं इच्छाप्रवृत्तिस्थिरसिद्धिभिर्भदै मिन्नं चतुर्विध'=इदं सदनुष्ठानं, इच्छाभेदेन. प्रवृत्तिमेदेन, स्थिर भेदन, सिद्धिभेदेन, चतुर्भिः प्रकार युक्तम् , मोक्षेण सह योजनाद् योगसंज्ञायुतं ज्ञेयम् , अर्थादिच्छा योगसदनुष्ठानं, प्रवृत्तियोगसदनुष्ठानं, स्थिरयोगमदनुष्ठानं सिद्धियोगसदनुष्ठानमेयं चतुर्विधमिदं सदनु प्ठानम् , ॥३०॥
- इच्छाप्रवृत्तिरूपयोगद्वयस्य निरूपणम्'इच्छा तत्कथाप्रीति-युक्ताऽविपरिणामिनी ।।
प्रवृत्तिः पालन' सम्यक् सर्वत्रोपशमाऽन्वितम् ॥३१॥ टीकाः-(१) इच्छायोगः-स्थानवाऽऽलम्बनप्रणिधानरूपेच्छा कथ्यते 'तद्वत्कथा, प्रीतियुक्ताऽविपरिणामिनी'-पूर्वोक्तसर्वेच्छावना कथा, प्रीतियुक्ता-हर्वाऽन्विता येच्छा सेच्छायोगः, किञ्चेषेच्छा, सविधिक्रियाकारकामामुपरि बहुमानभावपूर्वकस्वोन्लामतः, स्वल्पमपि समभ्यासदशासक विचित्रशुभपरिणामं दधती, इदमत्रहृदयम् द्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीपूर्णताया अभावेऽपि शास्त्रीयक्रियां दृढतापूर्वक कर्तुमिच्छया ।
15॥१८॥
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अध्यात्म
सार
॥ १७९॥
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सह यथाशक्ति स्थानादियोगा आचरणीयास्तस्मात्ते स्थानादयः पञ्चेच्छा योगा उच्यन्ते, (२) प्रवृत्तियोगः = सर्वास्ववस्थासु प्रशमाऽन्वितं यथाशास्त्रविधिस्थानादियोगानां पालनं 'प्रवृत्तियोगः', उल्लासातिशयमपेक्ष्य, सर्वाण्यङ्गानि प्राप्य क्रियमाणा ये स्थानादयस्ते प्रवृत्तियेोगरूपा ज्ञेया इति ॥ ३१ ॥ - स्थिरतासिद्धियमद्वयस्य स्वरूपम्
'सत् क्षयोपशमोत्कर्षा - दतिचारादिचिन्तया रहितं तु स्थिरं सिद्धिः,
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परेषामर्थ साधकम् ॥३२॥
टीका:- यदा स्थानादि, प्रवृत्तियमरूपमस्ति, तदतिचारस हितत्वेन बाधकचिन्तया सहितं भवति, परन्तु यदा तत्राऽत्यन्तसम्यगम्यासो भवेत्तदाऽतिचारदोषसम्भवस्य चिन्ता न भवत्यर्थात्तादृशबाधकचिन्तासुक्तिसम्भवे, तदेव स्थानादि, स्थैर्ययमरूपं कथ्यते, 'सिद्वियमः' - स्वात्मन्युत्कृष्टक्षयोपशमादिफलोत्पादकं तत् सर्वस्थानादि, स्वसन्निधावागतेषु, योगशुद्धिरहितेष्वात्मस्वपि स्वसिद्धोपशमादिसदृशफलमुत्पादयति तदा तत्स्थानादि, 'सिद्धियमत्वेन कथ्यते, अत एव यथा परमसत्यवादिनां पार्श्वेऽसत्यप्रियो जनोऽपि, मिथ्या वक्तु ं न शक्नोति तथा पूर्वोक्तपरमाहिंसादिभावयुतानां योगिनां पार्श्वे हिंसाप्रकृतयो नित्यवैरिणो जीवा अपि तत्राऽहिंसाभाववन्तः सन्त उपविशन्तीति ॥ ३२ ॥
॥ १७९ ॥
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-क्षयोपशमभेदत इच्छायोगादीनां विचित्रभेदाःअध्यात्म
'भेदा इमे विचित्राःस्युः, क्षयोपशमभेदतः । सारः
श्रद्धाप्रीत्यादियोगेन, भव्यानां मार्गगामिनाम् ॥३३॥ ॥१८॥
टीका:-इच्छादयश्चत्वारो योगा भिन्ना अपि स्वस्वस्थाने तेष्वे कैकस्याऽसंख्याता भेदा भवन्ति, To स्थानादियोगस्योपरि श्रद्धा=इदमेवमेवाऽस्तीति निश्चयरूपा, स्थानादियोगस्य प्रीतिः तदाचरणकर्तरुपरि
हर्षोद्रेकः, तथा धृतिधारणादेयों गेन तेषां २ जीवानां तादृशस्तादृशः क्षयोपशमः प्राप्तो भवति, तत् क्षयोपशमेन च तादृशः २ इच्छादियोगः प्राप्यते, यदि मन्दश्रद्धादि स्यात्तदा मन्दादिः क्षयोपशमो. लभ्यते, तस्माच्च मन्दकोटिक इच्छादियोग आसाद्यते, मध्यमद्धादिमता मध्यमकोटिकश्वोत्कृष्टश्रद्धादिसम्पन्नाना, उत्कृष्ट प्रकारक इच्छादियोगः प्राप्यते, एतेषां श्रद्धादीनां मन्दतादयोऽप्यसंख्यभेदभिन्ना भवन्तिः, तीतुना ततो जायमानाः क्षयोपशमा अप्यसंख्यका एव; ततस्ते क्षायोपशमिका इच्छादियोगा अप्यसंख्यप्रकारका एवाऽर्थात् श्रद्धादियोगा असंख्यकास्वद्धतुनाऽसंख्यानाः क्षयोपशमास्तस्मादेवाऽसंख्याता इच्छादियोगाः सन्तिः इत्येवंरीत्या, इन्छादियोगं प्राप्य ये जीवा मार्ग प्रावतन्त, तेषां सूक्ष्मबोधाऽभावेऽपि तेषा मार्गानुमारिता केनाऽपि न वाध्यते ॥३३॥
॥१८॥
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सारा
॥१८॥
- इच्छादीनां चतुण्णां योगानामनुभावा:-कार्याणि_ 'अनुकम्पा च निर्वेदः, संवेगः प्रशमस्तथा ।
एतेषामनुभावाः स्यु-रिच्छादीनां यथाक्रमम् ॥३४॥ टीकाः-एतेषामिच्छादीनां यथाक्रमं (१) अनुकम्पा द्रव्यतो भावतो वा यथाशक्ति दुःखितस्य दुःखप्रहाणेच्छारूपाऽनुकम्पाः (२) निर्वेदः। संसारस्य नैगुण्यज्ञानतो जायमानविरागतारूपो निर्वेदः (३) संवेगः-मोक्षपदविषयको वेगवानभिलाषः, (४) प्रशमा भौतिकतृष्णोच्छलत्तरङ्गोपशमरूपाप्रशमः: अर्थादिच्छादियोगानामनुकम्पाद्या अनुभावाः कार्याणि स्युः, इदमत्र हृदयम्सम्यक्त्वप्राप्तित इच्छादियोगप्रवृत्तितश्व, अनुकम्पादीनि चत्वारि कार्याणि निष्पद्यन्ते, आस्तिक्यशून्यानुकम्पादिकार्याणि प्रति सम्यक्त्वरहितेच्छादियोगः कारणम् , आस्तिक्यसहितानुकम्पादिकार्याणि प्रति सम्यक्त्वसहितेच्छादियोगः कारणम् , केवलेच्छादियोगतो मार्गानुसारिणि जीवेऽनुकम्पादिभावाः प्राप्यन्ते, सम्यक्त्वशालिनि जीवे, आस्तिक्यसहिताऽनुकम्पादिभावाः प्राप्यन्ते, एवमनुकम्पादीनि कार्याणि सम्यक्त्वशालिनां च मार्गानुसारिणां च भिन्नानि भिन्नानि यानीति ॥३४॥
-अष्टादिमावत इच्छादियोगे साफल्यम्
॥१८॥
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अध्यात्मा
सारः
॥१८२॥
'कायोत्सर्गादिसूत्राणां श्रद्धामेधाऽदिभावतः ।
इच्छादियोगे साफल्य, देशसर्वव्रतस्पृशाम् ॥३॥ टीका:-देशविरतानां सर्वविरतानां चेच्छादियोगेषु साफल्यं तदा स्याद् यदा 'अरिहंत चेहयाणं... श्रद्धाए मेहाए' इत्यादिकायोत्सर्गादिसूत्रेषु श्रावकसाधूनां श्रद्धा-मेधा-धृतिधारणादिभावा भवन्ति, यत्र श्रद्धादिभावाः सन्ति -----------दियोगः सफलो भवतीति ॥३५॥
-पुरुषान्तरे इच्छादिभावानां भेदेऽपि न दोष:'गुडखण्डादिमाधुर्यभेदवत्पुरुषान्तरे ।
भेदेऽपीच्छादिभावानां, दोषो नार्थाऽन्वयादिह ॥३६॥ टीकाः गुडखण्डादिमधुरपदार्थेषु तारतम्येन यथा मधुरताभेदेऽपि माधर्य वर्त्तते तथा भिन्नभिमपुरुषेषु, इच्छादिभावाना मेदेऽपि सर्वत्र योगरूपोऽर्थाऽन्वयो वर्तते एवाऽतो न दोषः, इदमत्रहृदयम्= इच्छादियोगानामल्पत्वे वाऽधिकत्वे भिन्नभिन्नस्थानेषु विद्यमानेऽपीच्छादियोगः, सर्वत्राऽस्ति, यतः सर्वत्र योगरूपाऽर्थस्यान्वयोऽस्त्येवार्थादत्यन्ताऽल्पश्रद्धादिजन्यच्छादियोगो यत्राऽस्ति तत्रेच्छादियोगोऽल्पीयानपि मन न कश्चिदपि दोषः ॥३६॥
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मध्यात्म-IN सारा
॥१८३॥
-इच्छादिलेशरहितानां कायोत्सर्गायनुष्ठानदाने महामृषावादः
'येषां नेच्छादिलेशोपि, तेषां वेतत्समर्पणे । ___ स्फुटो महामृषावाद इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥३७|| ___टीकाः-'येषां नेच्छादिलेशोऽपि' येषां स्थानादिस्वरूपेच्छादियोगलेशोऽपि न सम्भवति, तेषां सम्मृछिमजीववत्कायचेष्टाकारकाणां त्वेतत्समर्पणे' =एतत्कायोत्सर्गादिसूत्राद्यनुष्ठानदाने 'स्फुटो महामृषावादः'='तावकार्य ठाणेणं मोणेणं झाणेणं' इत्यादिप्रतिज्ञापाठपूर्वककृतकायोत्सर्गादीनां स्थानादियोगस्य स आत्मा मङ्गं करोति, प्रतिज्ञाया भजनमेतन्महामृषावादरूपमेव, ये स्थानादिकं शुद्धरूपमनुष्ठान न कुर्वते, परन् हिकपारलौकिकसुखाशंसासहितमनुष्ठानं विदधता तेषामपि, मोक्षेच्छापूर्वक क्रियाकरणप्रतिज्ञापूर्वकाण्येतान्यनुष्ठानानि विपरीतप्रयोजनानि भूत्वा विषाद्यनुष्ठानानि भवन्ति तस्मान्महामृषावादानुबन्धं कुर्वन्त्यतोऽपि महामृषावादरूपोऽस्ति, एवमाचार्या हरिभद्रादिसूरयः, कथयन्ति ॥३७॥
-इच्छादियोगलेशरहितानां कायोत्सर्गादिकारणे उन्मार्गोत्थापनम्
'उन्मागोत्थापनं बाढ-मसमञ्जसकारणे । भावनीयमिदं तत्त्वं जानानैर्योगविंशिकाम् ॥३८||
॥१८३॥
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अध्यात्म
सारः
॥१८४॥
टोकाः-इच्छादियोगलेशसत्तारहितानामभव्यादिजीवानामादरादिभावरहितत्वेन कायोत्सर्गादिक्रियाफारकत्वेन बाढमसमञ्जसकारणे 'उन्मार्गोत्थापन' अशुद्धक्रियारूपोन्मार्गस्य जाग्रत्कारणं भवति, एवं रीत्या तु सूत्रस्य च क्रियाया नाशो भवति, 'योगविंशिका' हरिभद्रसरिरचितं योगिविंशिकाख्यं ग्रन्थं जानाने महात्मभिरिदं तस्त्र भावनीयमेवेति ॥३८॥
-पवित्रमानसेन त्रिधा सदनुष्ठानमुपादेयम्'त्रिधा तत्सदनुष्ठान-मादेयं शुद्धचेतसा ।
ज्ञात्वा समयसभावं, लोकसंज्ञां विहाय च ॥३॥ टीकाः-समयसभावं ज्ञात्वा' सिद्धान्तरहस्यभूतमर्थ ज्ञात्वा, 'लोकसंज्ञा विहाय च' लोकसंज्ञा च * त्यक्त्वा. 'शद्धचेतसा' पवित्रभावभावितेन, महात्मना "विधा' मनसा, वचसा, वपुषा 'तत्सदनुष्ठानमादेयंपूर्वोक्तं सम्यगनुष्ठानं सादरमादेयम् ॥३९॥
४
॥
इत्याचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरमद्रंकर-परिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां सदनुष्ठाननामको दशमोऽधिकारः समाप्तः ॥३०३।
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बध्यात्मसार
॥१८५॥
-श्रथ मनःशुद्धिनामक एकादशोऽधिकार:
-मनसो निर्मलीकरणम्उचितमाचरणं शुभमिच्छताम् , प्रथमतो मनसः खलु शोधनम् ।
गदवतां ह्यकृते मलशोधने, कमुपयोगमुपैतु रसायनम् ॥१॥
टीकाः-'उचितमाचरणं शुभमिच्छता' =उचितमत एव सदनुष्ठानं कर्तुमिच्छावां जनानां 'प्रथमतोमनसः खलु शोधनम् ' पूर्व मनः शुद्धं कर्त्तव्यं यतः 'मनःपूतं समाचरेदिति सूक्तिश्चरितार्था भवेत् , 'गदवतां प्रकृते मलशोधने' निश्चयतः 'गदवता-रोगवतां मलस्य शोधनेऽकृते सति, 'कमुपयोगमुपेतु रमायनम्' रसायनं निरुपयोग-निष्फलं भवतीति ॥१॥
-निर्विकारं मनो निर्मलं कथ्यते'परजने प्रसभं किमु रज्यति, द्विषति वा स्वमनो यदि निर्मलम् । विरहिणामरते जंगतो रतेरपि च का विकृति विमले विधौ ॥२॥
टीका:-यदि स्वमनो निर्मलं-निर्विकारं तदा प्रसभं परजने रज्यति-रागवति सति वा-अथवा द्विपतिद्वेषवति सति किमु-किमिति, अर्थान्मनो हर्षशोकविकाराभ्यां न लिप्यते, यथा विमले विधौ-चन्द्र विरहवा
१८५॥
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अध्यात्म
सार:
।। १८६ ।।
जनानामरतेरपि च जगतः प्रीतितः का विकृतिः, अर्थाद् गगनस्थे निर्मले चन्द्रमसि पृथ्वीस्थान स्त्रीणां पुंसां वा विरहजन्यारतिकारणतः, अविरहवतो जगतो रतिरूपहेतुतो न काऽपि विकृति वैपरीत्यमपितु प्रकृतिस्थितिः 'प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानामित्युक्तेः ||२|| - मनः कृते शोकहास्ये एव
'रुचितमाकलयन्ननुपस्थितं स्वमनसैव हि शोचति मानवः ।
उपनते स्मयमानमुखः पुनर्भवति तत्र परस्य किमुच्यताम् ||३|| टीका:-रुचिविषयमिष्टमप्राप्तं वस्तु मन्यमानो मानवो हि स्वमनसैव शोकं करोति, पुनरुपन ते प्राप्ते वस्तुनि 'स्मयमानमुखः भृशं हसितमुखो भवति तत्र - एतादृशवस्तुस्थितेः सर्जने मन एव कारणम्, तत्र परस्य किमुच्यतां ९ अर्थान्मनोभिन्नपरस्य निमित्तं नोच्यत एव ॥ ३ ॥ - चारित्रशमरसादिविषये मनः कपेर्विचित्रं चापल्यम्
'चरणयोगघटान् प्रविलोठयन् शमरसं सकलं विकिरत्यधः ।
S
चपल एष मनःकपिरुच्चकैः, रसवणिग् विदधातु मुनिस्तु किम् ||४||
'टीका: - 'चरणयोगघटान् प्रविलोठयन् ' = सप्ततिविध - चारित्रव्यापाररूपघटान् प्रस्फोटयन्, 'सकलं शमरसं चारित्रयोगघटस्थं समग्रं शान्तरसं 'चपल एव मनः कपिरुच्चकैरधो विकिरति' एष चापल्यसम्पन्न
॥ १८६॥
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अध्यात्म सारः
॥१८७||
मनोनामककपिः, अधो-भुमेरुपरि वाऽत्मभुमेरधस्तात प्रक्षिपति तत्र रसबणिगरूपो मुनिस्तु किं करोतुः अर्थात् किमपि कत्तु नाऽलं भवेत् ॥४॥ .
-मनोरूपतुरङ्गो नियन्त्रित एष न तिष्ठति'सततकुट्टितसंयमभूतलो--त्थितरजोनिकरैः प्रथयंस्तमः ।
अतिदृढेश्च मनस्तुरगो गुगौ-रपि नियन्त्रित एष न तिष्ठति ॥५॥ टीका:-'सततकुट्टितसंयमभूतलोत्थितरजोनिकरैः' निरन्तरं कुट्टितं संयमनामकं भूतलं तेनोथिता रजसां निकरः, 'तमः प्रथयन्'-अन्धकारं विस्तारयन, मनोनामकस्तुरगः 'गुणैरतिदृढेरपि नियन्त्रित एप न तिष्ठति' अत्यन्तदृढैः गुणैः-रज्जुभि, गुणरज्जुभिः; नियन्त्रित एष-मनस्तुरगो न तिष्ठति परन्तु दूतं धावत्येवेति ||५||
- अहह कोऽपि मनःपवनो बली - जिनवचोधनसारमलिम्लुचः, कुसुमसायकपावकदीपकः ।
अहह कोऽपि मनः पवनो बली, शुभमतिद्रुमसन्ततिभङ्गकृत् ॥६॥
टीका:-जिनवचनरूपका रप्रत्युत्क्षेपकः, कामनामकपावक (वमि) दीपकः, शुभमतिरूपवृक्षपरम्पराभञ्जनजनकः अहह कोऽपि मनोरूपपवनो बली वर्त्तते ॥६॥
॥१८७॥
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अध्यात्म
सार:
॥१८८।।
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यदि भ्रमत्यतिमत्तमनोगजस्तदा क्व कुशलम्
'चरणगोपुरभङ्गपरः स्फुरत्, - समयबोधतरूनपि पातयन् ।
भ्रमति यद्यतिमत्तमनोगजः क्व कुशलं शिवराजपथे तदा ॥७॥
-
टीकाः – 'चरणगोपुरमङ्गपरः' = चारित्ररूपपूर्द्वारमञ्जनपरायणः, 'स्फुरत्समयबोधतरूनपि पातयन् ' - स्फूर्तिमदागम - बोधरूप - वृक्षानपि भूमिसात् कुर्वन्, 'शिवराजपथे यद्यतिमत्तमनोगजो भ्रमति तदा क्व कुशलं’=शिवस्य-मोक्षस्य सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्ररूपराजमार्गे यदि, अत्यन्तमदयुतमनो नामकगजो भ्रमति-भ्रमणं कुरुते तदा क्व कुशलं ९ कुतः क्षेमं स्यादिति ||७||
- दुष्टमनोरूपदहनो व्रततरून दहति
व्रततरून् प्रगुणीकुरुते जनो, दहति दुष्टमनोदद्दनः पुनः । ननु परिश्रम एष विशेषवान्, क्व भविता सुगुणोपवनोदयः ॥ ८ ॥
टीका:- एकतो मुनिजनः 'व्रततरून् प्रगुणीकुरुते' = व्रतनामकवृक्षान् सेचंसेचं ज्ञानक्रियारूपजलादिभिः मज्जीकरोति--रक्षित्वा युवकान् करोति, अन्यतस्तदा पुनर्दुष्टमनोनामकदहनो दहति-मस्मसात करोति, निश्चितं यदेष परिश्रमोऽधिक एवास्ति, अर्थाद् व्रतवृक्षादिदहनानन्तरं कृतः सुगुणरूपारामस्योदयो भविष्यतीति, न कुतो भविष्यत्येवेति ॥८॥
-
॥१८८॥
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अध्यात्म
सार
॥ १८९॥
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- मनोनिग्रहस्थाऽभावेन दुरन्तभवभ्रमणमेव
'निगृहीतमना विदधत्पराम्, न वपुषा वचसा च शुभक्रियाम् । गुणमुपैति विराधनयाऽनया, बत दुरभवभ्रममञ्चति
118 11
,
टीका:-न निगृहीतं मनो यस्य सोऽनिगृहीतमनाः सन् वपुषा - शरीरेण च वचसा वचनेन, परामुत्कृष्टां शुभक्रियां विदधन-कुन मुमुक्षुः अनया - मनसोऽनिग्रहीकरणरूपया विराधनया-आराध नाविरुद्ध क्रियया, 'न गुणमुपैति' न लाभं प्राप्नोति 'वत' खेदे प्रत्युत 'दुरन्तमवभ्रममञ्चति' दुखतो नाश्यभवस्य भ्रमणं गच्छतीति ॥ ९ ॥
-7
मनोनिग्रहणन् कुविकल्पमात्रतो नरकगामी -
'श्रनिगृहीतमनाः कुविकल्पतो, नरकमुच्छति तन्दुलमत्स्यवत् ! इयमभक्षणजा तदजीर्णताऽनुपनतार्थं विकल्पकदर्थना ॥१०॥
टीका:- अनिगृहीतमना मुमुक्षुस्तन्दुल मत्स्यवत्कुविकल्पजन्यपापतो नरकगते घोरदुःखानि प्राप्नोति, तस्मादियं, बिना भक्षणं जाताऽजीर्णता, अप्राप्याऽप्युपभोगयोग्यपदार्थान् 'विकल्पस्य कदर्थना' = मनोमात्र जन्या, विचित्रविडम्बना कीयती च कीदृशी ? सा विचारणीयैव ॥ १० ॥
-
॥ १८९ ॥
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अध्यात्म
सार:
- मनश्चञ्चलतरं स्वं वा जगदूवश्नयते 'मनसि लोलतरे विपरीतताम् , वचननेत्रकरेगितगोपना ।
ब्रजति धूर्ततया ह्यनयाखिलं, निबिडदम्भपरैर्मुषितं जगत् ॥११॥ टीकाः-मनसि लोलतरेऽत्यन्तचञ्चले सति, 'वचननेत्रकरेङ्गितगोपना' वचोगुप्तिरूपगोपना, नेत्रविविकारतारूपगोपना, करस्य चेष्टायां यतनारूपगोपना, 'विपरीततां व्रजति' सद्गतिरूपफलदानस्यस्थाने दुर्गतिफलास्वादनद्वारा सर्व यत् सत्तच्चञ्चलं मनो विपरीतं करोति, हि-निश्चयेऽनया धृततया 'निविडदम्भपरेः' = भयङ्करदाम्भिकेरखिलं जगन्मुषितं-चोरितमिति ॥११॥
- मनःशुडिरेघ शिवसुन्दर्या अनौषधा वशक्रियामनस एव ततः परिशोधनम् , नियमतो विदधीत महामतिः ।
इदमभेषजसंवनन मुनेः, परपुमर्थरतस्य शिवश्रियः ॥१२॥
टीकाः- 'ततो महामतिनियमतो मनस एव परिशोधनं विदधीत' = पूर्वकथितवचनतो महाधीमान्, एकान्ततो मानसस्यैव परिशुद्धिः कार्या, 'परपुमर्थरतस्य मुनेः' मोक्षनामकपरमपुरुषार्थे परायणस्य मुनेः इदं शिवश्रियोऽभेषजसंवननं मोक्षलक्ष्म्या मनसः परिशोधनमिदं, अनौषधं वशीकरणमिति ॥१२॥
॥१९॥
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बध्यात्मसार
॥१९॥
- अतिभयङ्करमदमहाज्वरविनाशने महौषधोभूता हृदयशुद्धिः - प्रवचनाऽब्जविलासरविप्रभा, प्रशमनीरतरङ्गतरङ्गिणी ।
हृदयशुद्धिरुदीर्णमज्वर-प्रसरनाशविधौ परमौषधम् ॥१३॥ टीका:-जैनशासनरूपकमलविकासे सूर्यप्रभासमाना, प्रशान्तिरूपनीरतरङ्गानां नदीरूपा, 'उदीर्णमदज्वरप्रसरनाशविधौ' परमौषधम्' प्रकटितमदनामकज्वरवेगस्य नाशक्रियायां परमौषधीभूता हृदयशुद्धिः॥१३॥
- सकलकर्मकलंकविनाशिनी मनः शुद्धिःअनुभवाऽमृतकुण्डमनुत्तर-व्रतमरालविलासपयोजिनी ।
सकलकर्मकलङ्क-विनाशिनी मनस एव हि शुद्धिरुदाहृता ॥१४॥ टीका:-अनुभवरूपामृतस्य कुण्डतुल्या, 'अनुत्तरव्रतमरालविलासपयी जिनी'महाव्रतरूपहंसराजस्य विलासाय कमलिनीसमाना, सर्वकर्मरूपकलङ्क-विनाशिनी, हि-निश्चये मनसःशुद्धिरेवोदाहता प्ररूपितेति ॥१४॥
... - मनशुडेरुपाय: - 'प्रथमतो व्यवहारनयस्थितोऽशुभविकल्पनिवृत्तिपरो भवेत् । शुभविकल्पमयव्रतसेवया, हरति कराटक एव हि कराटकम् ॥१५॥
॥१९॥
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अध्यात्म-10 सारः
॥१९॥
टीका:-यश्चित्तशुद्धिं कतमिच्छति स प्रथमतो व्यवहारनयमार्ग स्थितः सन् , शुभविकल्पाना प्राचुर्यवर्य-महावतोपासनया, अशुभानां विकल्पाना निवृत्ती परायणो भवेत् , हि-यतो हरत्येव कण्टक कण्टक इति ॥१॥
-प्रथमतो मनसो देशनिवृत्तिरपि स्फुटा गुणकरी - 'विषमधीत्य पदानि शनैः शनैः, हरति मन्त्रपदावधि मान्त्रिकः ।
भवति देशनिवृत्तिरपि स्फुटा, गुणकरी प्रथम मनसस्तथा ॥१६॥ टीका:-मन्त्रपदान्यधीत्य यथा मान्त्रिकः मन्त्रवेत्ता, शनैः शनैः 'मन्त्रपदावधि' =शरीरस्य दष्टावयवस्थाने यावद् विषं हरति = अन्यतो विषं हत्वा मुश्चति, तस्मिन्समये दष्टावयवस्थानेऽद्यापि विषं तु विद्यत एव, तथाऽपि दष्टावयवस्थानवर्ज समस्तशरीरतो विषं निवृत्तमेव, एतावती विषनिवृत्तिरपि यथा गुणकरी भवति नथा शमविकल्पाना सेवनद्वारा मानसिकाऽशुभविकल्पनिवारणरूपदेशनिवृत्तिरपि मनमः प्रथमं स्फूटा गुणकरी भवतीति ।१६॥
___ - मनो यत्र प्रतिमादौ लगति तदाऽऽलम्बनं शुभं मतम् - 'च्युतमसद्विषयव्यवसायतो, लगति यत्र मनोऽधिसौष्ठवात् । प्रतिकृतिः पदमात्मवदेव वा तदवलम्बनमत्र शुभं मतम् ॥१७॥
||१९२।।
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अध्यात्म
सारः
॥१९३॥
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टीका: - 'असद्विषयव्यवसायतश्च्युतम् ' = अशुभविषयविषयकव्यापारतचलितम् ; 'अधिसौष्ठवाद्यत्र लगति’=अत्यन्तसुष्ठुत्वेन यत्र विषये मनो लगति, 'प्रतिकृतिः पदमात्मवदेव वा' स विषयः परमात्मनः प्रतिमारूपोऽथवा आत्मसम्बद्धं पदमाध्यात्मिकपदमथवाऽऽत्मपदस्यैव शुद्धमसमस्तपदं यथाऽऽत्मपदमिति वा तद्विषयरूपमवलम्बनमत्र शुभं मतम् अत्रोपलक्षणतः पिण्डस्थपदस्थादिध्यानस्यालम्बनान्यपि ज्ञेयानि ||१७||
- काचन निश्चयकल्पना भवति सर्वनिवृत्तिसमाधये - तदनु कान निश्चयकल्पना, विगलितव्यवहारपदावधिः । न किमपीति विवेचनसम्मुखी भवति सर्वनिवृत्तिसमाधये ? ॥ १८ ॥
टीका:- एवं रीत्याऽशुभविकल्पाः शुभैर्विकल्पैविंजिता अपोदानी-मवशिष्टशुभविकल्प - विशिष्टो व्यवहारस्तु संयमादिजीवने स्थितोऽस्ति ततस्तदनु 'विगलितव्यवहारपदाऽवधिः काचन 'निश्चयकल्पना'= व्यवहारमार्गस्य स्थानमर्यादामुल्लंघमानाऽपूर्वकोटीका निश्चयकल्पना सम्पद्यते, अत्राधुना शुभसङ्कल्पा अपि न तिष्ठन्ति एषा निश्चयकल्पनाऽऽत्मतत्वविवेचनसम्मुखी भवति, अर्थात् सर्व-विकल्पमात्र निवृत्तिजन्यसमाधि प्रापयत्येवेति ||१८||
॥ १९३॥
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अध्यात्म
सारः
॥१९४॥
-निर्विकल्पं हृदयं प्रसरति - 'इह हि सर्वबहिर्विषयच्युतम् , हृदयमात्मनि केवलमागतम् ।
चरणदर्शनबोधपरम्परा-परिचितं प्रसरत्यविकल्पकम् ॥१९॥
टोकाः-हि-एकान्तेनाऽत्र 'सर्वबहिर्विषयच्युतम् सकलबाह्यविषयमात्रतो विरहितं, 'आगतं केवलमात्मनि' चिदानन्दरूपे चेतने केवलं स्थिरीभूतम् , 'चरणदर्शनबोधपरम्परापरिचितम' सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रपर्याय-परम्परया भावितम् , 'अविकल्पकम्'-शुभाशुभोभयविकल्पशून्यं, 'हृदयं प्रसरति' अन्तः करणं विशुद्धं विकसतितरामेवेति ॥१९॥
- असङ्गाऽन्तः करणस्वरूपम् - 'तदिदमन्यदुपैत्यधुनाऽपि नो, नियतवस्तुविलास्यपि निश्चयात् ।
क्षणमसङ्गमुदीत-निसर्गधीहतबहिर्ग्रहमन्तरुदाहृतम् ॥२०॥
टीका:-'नियतवस्तुविलास्यपि' नित्यवस्तुरूपात्मनि विलासशीलमपि 'निश्चयात् तदिदमन्यदु-र पैत्यधुनाऽपि तनो' निश्चय स्तदिदं मनोऽधुनाऽपि, अन्यद्-बाह्यवस्तुजातमुपैति नो नो समीपं गच्छति, एतादृशं मनः क्षणं अन्तमुहर्त यावत 'असगं निःसङ्गता प्राप्तं, 'उदीतनिसर्गधीहतबहिर्ग्रह' स्वभावरमणताविषयकबुद्धरुदयतो बाह्यपदार्थविषयकज्ञानशून्यमन्तः करणं कथितं भवति महर्षिमिरिति ॥२०॥
१९४॥
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अध्यात्म
सारः
॥१९५।।
-
• मनोनिग्रही गलितमोहतमः परमं महोऽनुभवत्यहो
'कृतकषायजयः सगभीरिम, प्रकृतिशान्तमुदात्तमुदारधीः
1
समनुगृह्य मनोऽनुभवत्य हो, गलितमोहतमः परमं महः ॥२१॥
,
टीकाः - ' कृतकषायजयः - क्रोधादिकषायजयकारी, 'उदारधीः' उदारबुद्धिस्वामी महामना महात्मा, मनो निगृह्याथवा 'सगमीरिम' = गम्भीरतायुतं, 'प्रकृतिशान्तं ' = स्वभावतः शान्तियुतम् औदाभ्ययुतमुदातादृशं मनः समनुगृह्य-सम्पाद्य, अहो ! 'गलितमोहतमः 'परमं महोऽनुभवति' = मोहनामक महाऽन्धकारं विनाश्य परमं ज्योतिरनुभवति मन इति ||२१||
निर्विकल्पं शुद्ध मनो भवेत्तदा यशः श्रीः
'गलितदुष्टविकल्पपरम्परम् धृतविशुद्धि मनो भवतीदृशम् ।
धृतिमुपेत्य ततश्च महामतिः, समधिगच्छति शुभ्रयशः श्रियम् ॥ २२ ॥
"
-
टीका: - 'गलितदुष्टविकल्प परम्परं ' - गलिता - नष्टा दुष्टानां विकल्पानां परम्परा येन तत्, 'धृतविशुद्धि' विशुद्धिर्येन तत् अर्थाद् शुभविकल्पधाराविनाशविशुद्धधारणानन्तरं निर्विकल्पकं विशुद्धमीदृशं मनो यदा भवति, तदा महामतिर्महात्मा, धृतिं- सस्थैर्यधैर्यमुपेत्य शुभ्रयशः श्रियं समधिगच्छति - प्राप्नोतीति ॥२२॥
।।१९५।।
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अध्यात्म सार:
॥१९६॥
इत्याचार्य श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरमद्रङ्करमूरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां मनःशुद्धिनामक एकादशोऽधिकारः समाप्तः ॥३२॥
अथ सम्यकत्वनामको द्वादशोऽधिकारः
--सति सम्यक्त्वे मनःशुद्धिः समीचीना'मनःशुद्धिश्च सम्यकत्वे, सत्येव. परमार्थतः ।
तदिना मोहगर्भा सा, प्रत्यपायाऽनुबन्धिनी ॥१॥
टीकाः-निश्चयनयदृष्टया पूर्वकथिता मनः शुद्धिः, सम्यगदर्शनसत्तायामेव, सम्यग्दर्शनाऽभावे तु दृश्यमाना मनः शुद्धिस्तु मोहनामकाऽज्ञानगर्भिताऽस्ति, यतः सा 'प्रत्यपायाऽनुवन्धिनी' =अनेकानर्थपरम्परासर्जिका भवति ॥१॥
-सम्यकत्वसहिता एव दानादिक्रियाः शुद्धा'सम्यक्त्वसहिता एव, शुद्धा दानादिकाः क्रियाः । तासां मोक्षफले प्रोक्ता, यदस्य सहकारिता ॥२॥
१९६॥
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अध्यात्म-1 सार
॥१९७॥
टीका:-दानादिकाः क्रियाः सम्यकन्वसहिता एव शुद्धा भवन्ति, यद्-'यतस्तासां मोक्षफले = दानादिक्रियाणां मोक्षनामकफले जननीये, अस्य-सम्यक्त्वस्य सहकारिताऽपेक्षा कथिता, तस्मात सम्यक्त्वं विहाय दानादिकाः क्रिया मोक्षफलदाने न प्रत्यला इति ॥२॥
___ -नाऽन्यो जयति वैरिणम् - 'कुर्वाणोऽपि क्रियां ज्ञाति-धनभोगांस्त्यजन्नपि । दुःखस्योरो ददानोऽपि नाऽन्धो जयति वैरिणम् ॥३॥ कुर्वन्निवृत्तिमप्येवं कामभोगांस्त्यजन्नपि ।
दुःखस्योरो ददानोऽपि, मिथ्यादृष्टिर्न सिद्धयति ॥४॥ (युग्मम् ) टीकाः 'ज्ञातिधनभोगान्' =ज्ञातिश्च धनं च भोगश्च ज्ञातिधनभोगास्तान् , त्यजनपि-त्यागविषयान् कुर्वनपि, अर्थात् स्वजनसम्पत्तिभोगत्याग्यपि, क्रियां कुर्वाणोऽपि-क्रियाकार्यपि, 'दुःखस्योरो ददानोऽपि' दृढे नोरसा दुःखानि प्रति योद्धसज्जः सन् प्रतिकरोति तथाप्यन्धो वैरिणं न जयतीति ॥३॥
- एवं मिथ्यादृष्टि न सिडयति - एवंरीत्या 'कामभोगांस्त्यजमपि-शन्दादिककामभोगत्याग्यपि, निवृत्तिमार्गे गन्तुसज्जोऽपि स्यात , आगन्तुकदुःखानि प्रतिकुर्वमपि मिथ्यादृष्टिर्न सिद्धयति ॥४॥
॥१९७॥
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सारः
__ - सर्वेषां धर्मकर्मणां सारः सम्यक्त्वमुच्यते -- अध्यात्म-II
'कनीनिकेव नेत्रस्य, कुसुमस्य सौरभम् ।।
सम्यकत्वमुच्यते सारः, सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ॥५॥
टीका:-'नेत्रस्य कनीनिकेत्र'-चक्षुषस्तारातुन्यम् , कुसुमस्येव सौरभम् ' पुष्यस्य सुरभिसमान, सर्वेषां ॥१९८॥ धर्मकर्मणां सारभृतं-प्राणभूतं सम्यकत्वमुच्यते ॥५॥
___ - सम्यकत्वस्य प्रथमं लक्षणम् - तत्त्वश्रद्धानमेतच्च, गदितं जिनशासने । सर्वे जीवा न हन्तव्याः. सूत्रे तत्त्वमितीष्यते ॥५॥
टीका:-तत्वश्रद्धानरूपमेतत् सम्यक्त्वं जिनशासने तच्चश्रद्धानं सम्यक्त्वस्य प्रथमं लक्षणं कथितं वर्तते, मूत्र-आचाराङ्गादिमूत्रे 'सर्वे जीवा न हन्तव्याः' इति तत्वमिष्यते-मन्यते 'तच्चश्रद्धानं सम्यकत्वमुच्यते इति ।।६।।
- धर्मरुच्यात्मकमपि सम्यक्त्वमुच्यते - 'शुद्धो धर्मोऽयमित्येतद्धर्मरुच्यात्मकं स्थितम् ।
18॥१९८॥
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अध्यात्मसार:
॥१९॥
शुद्धानामिदमन्यासां, रुचीनामुपलक्षणम् ॥७॥
टीका:-'अयं शुद्धो धर्मः'पूर्वोक्त एपोऽहिंसाधर्मः, शुद्धोऽस्ति, इत्येतद्धर्मरुच्यात्मकं स्थितम्' = एतादृशी या धर्मारुचिः सा धर्मरुच्याऽऽत्मकं सम्यक्त्वमुच्यते, 'इदमन्यासां शद्धाना रुचीनामुपलक्षणम्'इदं धर्मरुच्यात्मकं सम्यकन्वमिति पदमन्यासां शुद्धानां रुचीनामुपलक्षणंबोधक (स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वमुपलक्षणस्य लक्षणम्) ॥७॥
- सम्यक्त्वस्य द्वितीयं लक्षणम् - 'अथवेदं यथा तत्त्व- माज्ञयेव तथाऽखिलम् । नवानामपि तत्वाना-मिति श्रद्धोदिताऽर्थतः ॥८॥
टीका:-अथवेति पक्षान्तरे, यथेदं सर्वे जीवा न हन्तव्याः' अर्थात् 'अहिंसाऽऽत्मकः शुद्धो धर्मः' इनीदं तवं जिनानामाज्ञयव, तथाऽखिलं तत्वमज्जिनामेतादृश्याज्ञा यद् 'सर्वे जीवा न हन्तव्या' अत इदं तवं, तद् विधेयभूतो जीव इति तत्वम् , तथाऽर्थतो-नव जीवादीनि तत्वानि जिनाज्ञयैव तत्वानि भवन्ति, तेषु नवतत्वेषु श्रद्धा सम्यक्त्वमुच्यते ॥८॥
- सम्यकृत्वस्य तृतीयं लक्षणम - 'इहैव प्रोच्यते शुद्धाऽ-हिंसा वा तत्त्वमित्यतः ।
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अध्यात्म सारः
॥२०
॥
___ सम्यकत्वं दर्शितं सूत्र-प्रामाण्योपगमात्मकम् ॥१॥
टीकाः-'इहैव-अस्मिन्नेव जैनशासने शुद्धाऽहिंसा प्रोच्यतेऽथवा तत्त्वं प्रोच्यतेऽत ईदृशं जैनशास्त्रमेव प्रमाणमर्थाच्छास्त्रेऽस्मिन् यदुक्तं तदेव प्रमाणं, एवंविधसूत्रप्रामाण्यस्य यः स्वीकारस्तदात्मकं सम्यकत, यत्र शुद्धाया अहिंसायाः प्रतिपादनं तद्विषयकसूत्रस्य प्रामाण्यमेवेति ॥९॥
- अत्राप्यन्योऽन्याश्रयदोषं दर्शयति - 'शुद्धा हिंसोक्तितः सूत्र-प्रामाण्यं, तत एव च ।
अहिंसा शुद्धधीरेवमन्योऽन्याश्रयभीर्ननु ॥१०॥ टीका:-'ननु शुद्धाऽहिंसोक्तितः प्रामाण्यं =यदि सूत्रे शुद्धाऽहिंसा कथिता भवेत्तदा तत्सूत्रप्रामाण्यातिपत्तिः स्यात् , परन्तु यदि सूत्र प्रामाण्यस्य (इदं सूत्रं प्रमाणमिति) प्रतिपत्तिः स्यात्तदा तस्मिन् कथिताऽहिंसा शुद्धाऽम्त्येवं कथनीयं स्यादथ मूत्रं प्रमाणमस्तीति विषयस्तदैव सिद्धयेद् यदा तस्मिन् सूत्रे कथिनाऽम्तीति सिद्धिस्तदा भवेद् यदा तत्सूत्रं प्रमाणभृतमस्तीनि निश्चितं भवेदर्थात सूत्रप्रामाण्यप्रतिपत्ति विना सूत्रोक्ताऽहिंसा शुद्धाऽस्तीनि प्रतीति न भवेत् , शुद्धाऽहिंसायाश्च प्रतीति विना सूत्र. प्रामाण्यविषयकज्ञानं न भवेन , अतोऽन्योऽन्याश्रयदोषमयमुपस्थितं किं न ? अर्थादुपस्थितमेवेति ॥१०॥
RA॥२०॥
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अध्यात्म
सारः
॥२०१ ॥
पूर्वकथित दोषस्य निरसनम्
'नैवं यस्मादहिंसायां तच्छुद्धताऽवबोधश्व, सम्भवादिविचारणात्
॥ ११॥
टीका: - - ' नैवं' - पूर्वोक्तान्योऽन्याश्रयदोषपोषकं कथनं न सम्यग्, 'यस्मादहिंसायां सर्वेषामेक वाक्यता ' = 'अहिंसा परमो धर्मः इत्येतत्तस्ये तु सर्वदर्शनानामैकमत्वमस्ति तच्छुद्धताऽवबोधश्च सम्भवादिविचारणात्'–परन्तु तैस्तैर्दर्शन र हिंसाघर्मस्य स्वरूपं यत् प्रतिपादितं, तत् प्रतिपादनं तत्र कथिताऽहिंसायां शुद्धतासाधकं भवति वानवेति निर्णयोऽवशिष्टः यत्र धर्मसूत्रे शुद्धाहिंसायाः प्रतिपादनं कृतं तत्सूत्रं प्रमाणनीयं, अथाsस्मिन् विधाने नाऽन्योऽन्याश्रयदोषः सम्भवति, यतोऽहिंसायां शुद्धतायाः प्रतीतिः, अहिंसाप्रतिपादकसूत्रस्य प्रामाण्यं न स्वीकरोति किन्तु अग्रतो वक्ष्यमाण - 'सम्भवादि- विचारणात् = या शास्त्रे कथिताऽहिंसा, सम्भवादिविचारणान्तः शुद्धा सिद्धयेत्तदा सूत्रं प्रमाणं भवेत् एवं स्थिते नान्योऽन्याश्रयदोषभयं तिष्ठति ॥ ८१ ॥
"
-
- अहिंसायां सर्वधर्माणामैकमत्यं नवभिः श्लोकः समर्थयते - 'यथाऽहिंसादयः पञ्च व्रतधर्मयसादिभिः I पदैः कुशल धर्माद्यः कथ्यन्ते स्वस्वदर्शने ॥१२॥
-
-
सर्वेषामेकवाक्यता ।
॥२०१ ॥
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अध्यात्मसार:
।।२०२॥
टीकाः- 'यथाऽहिंसादयः पञ्च. व्रतधर्म यमादिभिः' अहिंमादयः पञ्च, तत्तदर्शनग्रन्थेषु, भिन्नभिन्न नामभिः सम्बोधिताः सन्त्येवः भागवते व्रतपदेन, मांख्ये यमादिपदेन, बौद्धधर्मे कुशलधर्मपदेन, अत्र यमादिस्थितादिपदेन ब्रह्मपदं ग्राह्यम् . अहिंसादयो वैदिकब्रह्मपदेन मुच्यन्ते. अर्थात्स्वस्वदर्शने भिन्नभिन्नसंज्ञाभिरहिंसादय उच्यन्ते इति ॥१२॥
- भागवतपाशुपताभ्यामहिंसादयो व्रतयमाऽऽदिभिः सूच्यन्ते - 'प्राहुर्भागवतास्तत्र व्रतोपव्रतपञ्चकम् ।
यमांश्च नियमान् पाशु--पता धर्मान् दशाऽभ्यधुः ॥१३॥ टीका:-भागवताः पौगणिका अहिंसाऽऽदिपश्चकं, 'व्रतोपव्रतपश्चक'='अहिंसासूनृताऽस्तेयब्रह्माऽकिश्वनता यमाः' नियमाः शौचमन्तोषौ स्वाध्यायतपसी अपि देवताप्रणिधानं' यमपञ्चकं व्रतपश्चकं, नियमपञ्चकमुपव्रतपश्चकं भागवता भाषन्ते, पाशुपता न्यायिका यमनियमरूपान् दश धर्मान् कथयन्ति स्म ॥१३॥
- अहिंसादिपञ्चकमक्रोधादिपञ्चकं नामग्राहं कथ्यन्ते - 'अहिंसा सत्यवचन-मस्तैन्यं चाप्यकल्पना । ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधो ह्यार्जवं शौचमेव च ॥१४॥
२०२॥
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अध्यात्मसार:
॥२०३।।
सन्तोषो गुरुशुश्रूषा, इत्येते दश कीर्तिताः ।
निगद्यन्ते यमाः साङ्ख्यैरपि व्यासानुसारिभिः ॥१५॥ टीका:-अहिंसा, सत्यवचनं, अम्तैन्यं, अकल्पना-निष्परिग्रहता, ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधः, आर्जवं, शौचं, सन्तोषः, गुरुशुश्रूषेति दशविधा धर्माः पाशुपतेरुच्यन्तेऽथ न्यासानुसारिभिः साङ्ख्यैरपि यमा निगद्यन्ते ॥१४, १५॥
- विशेषतो यमनियमवर्णनम् - 'अहिंमा सत्यमस्तैन्यं, ब्रह्मचर्य तुरीयकम् । पञ्चमोऽव्यवहारश्चे-त्येते पञ्च यमाः स्मृताः ॥१६॥ अक्रोधो गुरुशुश्रूषा शौचमाहारलाघवम् ।
अप्रमादश्च पञ्चैते. नियमाः परिकीर्तिताः ॥१७|| टीका:-अथ व्यासानुसारिभिः माढयैरपि यमा निगद्यन्ते तथाहि-अहिंसा, सत्यमस्तैन्यं, ब्रह्मचर्य, अव्यवहारश्च पञ्च यमाः स्मृताः । अक्रोधः, गुरुशुश्रूषा, शौचं, आहारलाघवं, अप्रमादश्च पञ्च नियमाः स्मृताः ॥१६॥१७॥
॥२०॥
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अध्यात्म
सार
॥२०४॥
- पौडः कुशलधर्माश्च दशेष्यन्ते, तेत्रोच्यन्ते -- 'बोद्धेः कुशलधर्माश्च दशेष्यन्ते यदुच्यते, । हिंसाऽस्तेयाऽन्यथाकाम, पैशुन्यं परुषाऽनृतम् ॥१८॥ सम्भिन्नाऽऽलापव्यापाद-मभिध्याहगविपर्ययम् ।
पापकर्मेति दशधा, कायवामानसैस्त्यजेत् ॥११॥ टीकाः-चौद्धैः कुशल-धर्माश्च दशेष्यन्ते, तथाहि (१) हिंसात्यागः (२) स्तेय-चौर्यत्यागः, (३) (४) पेशुन्य-दौजन्यत्यागः (५) परुषानृत-कठोरासत्यवचनत्यागः (६) सम्भिन्नालाप-असम्बद्ध-भाषणत्यागः (७) व्यापाद-द्रोहचिन्तनत्यागः (E) अभिध्या-परधनेच्छात्यागः (१) हग विपर्यय-विपरीतदृष्टिमिथ्याऽभिनिवेशत्यागः (१०) पापकर्मत्यागः, मनसा, वचसा, वपुषा कार्य इत्येवं दशविधाः कुशलधर्मा कुशलधर्मा ज्ञेया इति ॥१८॥१९॥
- वैदिकरहिंसादोनि ब्रह्मादिपदवाच्यानीति कथ्यन्ते निगमनवाक्यम - 'ब्रह्मादिपदवाच्यानि तान्याहु वैदिकादयः । अतः सर्वेक वाक्यत्वाद, धर्मशास्त्रमदोऽर्थकम् ॥२०॥
॥२०॥
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अध्यात्म-18 सार
डा
॥२०५॥
टीका:-'तानि वैदिकादयो ब्रह्मादिपदवाच्यान्याहुः' तानि-अहिंसादीनि वैदिकादयो ब्रह्मादिपदैच्यानीति कथयन्ति, 'अतः' सर्वेकवाक्यत्वात' अस्मात् कारणादहिंसाविषये सर्वेषां शास्त्राणामेक वाक्यत्वाद् 'धर्मशास्त्रमदोऽर्थकम् ' =अहिंसादिषदार्थनिरूपकत्वेन धर्मशास्त्रं निश्चीयत एवेति ॥२०॥ - शास्त्रपरीक्षाऽर्थे सर्वधर्मग्रंथेषु कुत्र शुद्धाहिंसासम्भव इत्यन्वेषणीयम् -
'क्व चैतत् सम्भवो युक्त इति चिन्त्यं महात्मना ।
शास्त्र परीक्षमाणेना-व्याकुलेनान्तरात्मना ॥२१॥ टीका:-'शास्त्र परीक्षमाणेन'-पर्वात्मना शास्त्रस्य परीक्षा 'कुर्वता 'अव्याकुलेनाऽन्तरात्मना महात्मना' स्वस्थचित्तेन सम्यग्दृष्टिप्रभृतिगुणवदन्तरात्मना महापुरुषेण 'क्व चैतत्सम्भवो युक्त इति चिन्त्य कस्मिन् धर्मग्रन्थे शुद्धत्वविशिष्टाया अहिंसायाः सम्भवो युक्तः ? इति चिन्तनीयमेवेति ॥२१॥
- नात्र प्रमाणलक्षणादेरुपयोगः - 'प्रमाणलक्षणादेस्तु नोपयोगोत्र कश्चन ।
तन्निश्चयेऽनवस्थानादन्यार्थस्थितेर्यतः ॥२२॥ टीकः--'अत्र' =कुत्र धर्मशास्त्र शुद्धाहिंसासम्भव इति निर्णये, 'प्रमाणलक्षणादेस्तु' प्रत्यक्षाऽनुमाना
1॥२०५||
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अध्यात्म
सारः
॥२०६॥
दीनि प्रमाणान्युच्यन्ते तेषां लक्षणानि भिन्नानि कथ्यन्ते तथाप्यत्र प्रमाणलक्षणानि नोपयुज्यन्ते किश्चित् 'तनिश्चयेऽनवस्थानात्' यदि प्रमाणनिश्चायकप्रमाणनिश्चयः केनचिदपरेण प्रमाणेन निश्चीयते, तनिश्चयोऽपरेण केनचित प्रमाणेन निश्चीयते, तविश्वयस्तृतीयेन प्रमाणेन करिष्यते इत्येवं प्रमाणलक्षणनिश्चयेऽनवस्थादोषः, 'अन्यथाऽर्थस्थितेर्यतः =यद्यनिश्चितप्रमाणलक्षणेन निश्चिन्वत्प्रमाणमर्थग्रहणे उपयुज्येत तदा प्रमाणलक्षणेन किं ? विना प्रमाणलक्षणमर्थसिद्धि मवेद् यतः-इदं श्री सिद्धसेनदिवाकरेणोक्तं च तथाहि ॥२२॥
-प्रसिहानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतःप्रसिद्धानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः ।
प्रमाणलक्षणस्योक्ती, ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥२३॥ टीका:-श्री सिद्धसेनदिवाकरेणोक्त (श्लोकस्य 'यतः' शब्दस्यानुसन्धाने' च यत् प्रमाणानि तु लोकेषु स्वत एव रूढानि-प्रसिद्धानि, अर्थात प्रमाणलक्षणप्रणेता बचनसाध्यानि न, किश्च प्रमाणेनकृतस्नानपानादिव्यवहारस्तु प्रमाणलक्षणान्यजानत्सु गोपालेषु प्रसिद्धः, प्रमाणलक्षणस्योक्तो न प्रयोजन ज्ञायते, शास्त्राणि तु कषादिभिः परीक्ष्यन्ते ॥२३॥
||२०६॥
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अध्यात्मसार
॥२०७||
एकान्तनित्यत्वादिसाङ्ख्यदर्शने कथं हिंसादयो घटन्ताम् - 'तत्राऽऽत्मा नित्य एवेति, येषामेकान्तदर्शनम् ।
हिंसादयः कथं तेषां, कथमप्यात्मनोऽव्ययात् ॥२४॥ टीका:-'साङ्ख्यादिरूपप्रत्येकैकान्तवादिदर्शनेषु तत्तद् दर्शनाभिप्रेताऽहिंसायां शुद्धरसम्भव इति परीक्ष्यमाणविषयं साधयति ग्रन्थकारो महर्षिरिति भूमिकारूपकथनम् , 'आत्मा नित्य एव' इति येषामेकान्तप्रतिपादकं दर्शनमस्ति तेषां साङ्ख्यानां मते न हिंसादयो घटन्ते, यत एकान्तनित्यस्याऽऽत्मनः कदाचिन्नाशस्य न सम्भवः सर्वदाऽव्ययो-अविनाशी विद्यते, यदि हिंसाया असम्भवश्चेदहिंसादिधर्मस्य तु का वार्ता १ ॥२४॥
-साख्यमताऽभिमतविशिष्टमनोयोगध्वंसरूपमरणस्य खण्डनम्
मनोयोगविशेषस्य, ध्वंसो मरणमात्मनः ।
हिंसा, तच्चेन्न तत्त्वस्य, सिद्धेरर्थसमाजतः ॥ २५ ॥ टीका:-पूर्वपक्ष: लोके व्यक्ते यन्मरणमुच्यते तद्व्यक्तेश्वरमात्ममनःसंयोगोऽथवेन्द्रियमनःसंयोगोऽस्ति तस्य यो ध्वंसो-हिंसा, सा लोकैरात्मनो हिंसा कथ्यते, हिंसाकारको हिंसक उच्यते, एवमस्या
॥२०७||
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अध्यात्म
सार:
॥२०८॥
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कल्पनायां वस्तु आत्मनो हिंसा नास्ति तथापि हिंसापदार्थ उपपद्यते, ततस्तादृशहिंसाऽकरणरूपाऽहिं साधर्मोऽप्यस्मन्मते उपपन्नो भवति ।
उत्तरपक्षः = नेदं सम्यग् युष्माभिश्वरममनः संयोगध्वंसरूपा या हिंसा कथिता, साऽर्थसमाजतः = द्वितीयसामग्रीजः सिद्ध्यति, अर्थादेतच्चरममनः संयोगतो ज्ञानमुत्पद्यते, तथापि तज्जन्यसंस्कार तो भाविनि न स्मरणं न जायते, तत्कारणं तुद्बोधकाऽभावोऽस्ति, किञ्चैष मनःसंयोगध्वंसो जातः सोऽपि भिन्नभिन्नसंयोगानामिव द्वितीयक्षणे स्वत एव नश्यति एवं च तादृशध्वंसरूपा हिंसा यदि हिंसात्वेन गण्यते तदा तादृशहिंसानिरुक्तार्थसमाजतः सिद्धा भवत्यतः कश्चिदन्यस्तु जीवो हिंसको न भवत्येवाऽर्थात् कश्चिद् हिंसको न कथ्यते; एवं च यदि हिंसैव न तिष्ठेत्तदाऽहिंसाधर्मकथनेन किं प्रयोजनम् १ इदमत्र हृदयं, कञ्चिदन्यजीवं बिना स्वत एवार्थसमाजतश्चरममनः संयोगध्वंसरूपा हिंसा सिद्धयति, ततस्तादृशध्वं प्रकर्त्ता कश्चिद् व्यक्तिरूपो जीवो न सिद्धयत्येवेति ||२५||
साङ्ख्यमताऽभिमतबुद्धिगतदुःखोत्पादहिंसा पदार्थस्य खण्डनम् नेति बुद्धिगता दुखोत्पादरूपेयमौचितीम् । पुंसि भेदाग्रहात्तस्याः परमार्थाऽव्यवस्थितेः ||२६||
1120611
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अध्यात्म
सारः
॥२०९।।
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टीका:- पूर्वपसः - पश्चविंशतितश्वमध्ये बुद्धिनामकं यज्जडतश्वमस्ति तद्बुद्धौ दुखोत्पादरूपो हिंसापदार्थ उपपद्यते उत्तरपक्षः - नेदमुचितं तथाहि - युष्मन्मते पुरुषे बुद्धेः प्रतिविम्वं पतति, ततश्च पुरुष एवं जानाति 'अहं बुद्धिश्चैकरूपी स्तः' एवं स्थिते बुद्धौ यो दुःखोत्पादो जातः स पुरुषस्य स्वस्मिन्नैवभासते, एवं रीत्या पुरुषे दुःखोत्पादरूपा हिंसा साक्षात न घटते परन्तु बुद्धेः प्रतिविम्बोदयकारणेन जायमानमेाऽग्रहणरूपभ्रम हेतुना दुःखोत्पादरूपहिंसापर्यायो बुद्धेः पुरुषे ज्ञायते, अर्थात् वस्तुतस्तु हिंसा पुरुषस्येति न सिद्धं, अन्यच्च पुरुषे बुद्धिगतदुः खोत्पादात्मक हिंसाया आरोपः कृतो यःस उपचारः, हिंसारूपवस्तुस्वरूपनिर्णये नोपयुज्यते ॥२६॥
हिंसापदं नाशर्यायवाचकं जीवस्यैकान्तनित्यत्वे जीवे न घटते, अनुभवबाधक
त्वात्
न च हिंसापदं नाश- पर्यायं कथमप्यहो ।
जीवस्यैकान्तनित्यत्वेऽनुभवाबाधकं भवेत् ॥२७॥
टीका:- किश्व हिंसापदं तु नाशपर्यायवाचकं पदं, यद्यात्यैकान्तनित्य एव स्यात्तदा तत्र केनचित्कारन तस्य नाशपर्याय उत्पत्तुम शक्यस्तत आत्मनि हिंसा न घटते सर्वथा तथापि युष्माभिरेकान्तनित्य आत्मनि हिंसादं प्रयुज्यते, तदनुभवबाधकत्वेनै कान्तनित्यस्यात्मनो नाशोऽसंभवीति ॥२७॥
॥२०९॥
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अध्यात्म सार:
॥२१
एकान्त नित्यत्वे शरीरेणाऽपि सम्बन्धोऽसम्भवी, आत्मनो विभुत्वे संसाराभावः
शरीरेणापि सम्बन्धो, नित्यत्वेऽस्य न सम्भवी ।
विभुत्वे न च संसारः, कल्पितः स्यादसंशयम् ॥ २८ ॥ ___टीका:-आस्तां दूरे धनादिना सह सम्बन्धः, परन्तु 'अस्य' आत्मन एकान्तनित्यत्वे शरीरेण सह सम्बन्धोऽसम्भवी, त्यागाऽत्यागरूपविकल्पद्वयेन शरीरसम्बन्धोऽसम्भवी, प्रथमविकल्पे पूर्वरूपत्यागक्रिया कर्तुं शक्तश्चेदेकान्तनित्यता कथं ? यत एकान्तनित्ये तु क्रियामात्रस्याऽसम्भवः, द्वितीयविकल्षे पूर्वरूपत्यागं विना शरीरेण सह सम्बन्धश्चेत् पूर्वस्वभावेन सह विरोधस्योपस्थिते शरीरेण सह सम्बन्धोऽसम्भवी, एवमात्मन एकान्तनित्यत्वे शरीरेण सम्बन्धोऽसम्भवी, पूर्वपक्षः यथाऽऽत्मैकान्तनित्यस्तथा विभुरप्येव, यः सर्वगो भवति तस्यामकस्थानात् स्थानान्तरेण सह सम्बन्धस्य प्रश्नोऽपि कथं ? एवं क्रियां विनैवात्मन शरीरेण सह सम्बन्धः सम्भवी.
उत्तरपक्षः यद्येवमेकान्तनित्यात्मनो विभुत्वे संसारामावाऽऽपत्तिः, यद्यात्मनः सर्वगतत्वे तु तस्य परलोकगमनं कुतः, परलोकगमनमेव तु संसारः, तदभाचे तदभावः, चातुर्गतिकसंसारस्वीकारहेतुः कल्पित एव संसारो मन्तव्यः स्यात् , निरुपचरितसंसारस्य सिद्धयभावः स्यात् , एवमनेकापत्तिपातत आत्मन एकान्तनित्यत्वं विभुत्वं च सर्वथा युक्तिविरहितं विज्ञेयमिति ॥२८॥
२१०।।
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अध्यात्म
सारः
॥२११॥
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एकान्तनिष्क्रयत्वेनाऽऽत्मनो हननाद्यभावेन हिंसादेरनुपपत्तिश्रदृष्टाद्देहसंयोगः स्यादन्यतरकर्मजः ।
इत्थं जन्मोपपत्तिश्चेन्न तद्योगाऽविवेचनात् ॥ २१ ॥
टीकाः एकान्तेनात्मा, निष्क्रियः स्यात्तदा तस्य शरीरेण सम्बन्धोऽनुपपन्नो भवेत् (१) यदि विभुश्वेत्तदा देवादिगतौ जन्मादिप्रपञ्चस्यानुपपत्तिः, इत्यापत्तिद्वयं निवारणायैवं ब्रूमः, (२) आत्मनः कूटस्थ - नित्यत्वेन तत्र क्रियाया अभावः स्यात्तथापि आत्मनि, अदृष्टविशेषो विद्यते एव, अनेनाऽदृष्टविशेषे या तत्तस्परमाणुषु क्रिया भवत्येव यत्परमारशूनां शरीरं तत्तदात्मना सुखादिभोगाय गृह्यते, तत्परमाणुषु क्रियोत्पद्यते, ततस्ते परमाणवस्तदात्मना सह सम्बध्य तस्य शरीरं भवति एवमात्मनि क्रियाया असम्भवतोऽप्यन्यतरपरमाणोः क्रियासम्भवतः शरीरेण सहात्मनः सम्बन्ध उत्पद्यते (३) एवं भवनेन चातुर्गतिकसंसारे तज्जन्मोपपत्तिर्भविष्यति आत्मनो विभुत्वेनोर्ध्वलोकादौ सर्वत्र व्याप्तिरस्ति, तत्राप्यदृष्टविशेषे या देवादिशरीर योग्यपरमाणुभिः संयोगो भविष्यति, अत एवं कथ्यते, यदाऽऽत्मा देवत्वेनोत्पन्न एवं रीत्या मानवीय शरीरारम्भ परमाणव विभोरात्मतो विभक्तास्तदैवं कथ्यते, एष आत्मा मानवत्वेन मृतः, एवमात्मनो विभुत्वेऽवाधिते जन्माद्युपपत्तिरपि जायते ।
( उत्तरपक्षः) एवं रीत्याऽऽत्मना सह देहस्य यः संयोगः कथितः, तत्संयोगस्य विवेचनमशक्यमेव,
।।२११॥
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अध्यात्म
सार:
॥ २१२ ॥
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अत्रभवन्तं पृच्छामो वयं = किं देहात्मसंयोगो देहात्मना सह भिन्नो वाऽभिन्नः ! यदि भिन्नः स्यात्तदा भिन्नः संयोगः केन सम्बन्धेन शरीरात्मनि स्थितोऽस्ति ? येन सम्बन्धेन स्थितोऽस्ति स सम्बन्धः किं भिन्नोऽस्ति वाsभिन्नः १ यदि भिन्नः स्यात्तदा तस्य सम्बन्धस्य वसने कोऽपि सम्बन्धो वाच्यः स्यादेवमनवस्थादोषाssपत्तिः, अथ यद्येवं कथ्यते स संयोगो देहात्मना सहाभिभोऽस्ति तदा स संयोगो देहरूपो वाऽऽत्मरूपो वा स्थितः, तदनन्तरं संयोगसदृशं किमपि वस्तु पृथक्त्वेन न लभ्यते, एवं देहात्मसंयोगस्य विवेचनमेव न शक्यते, ततः कल्पनैषा सर्वाऽसंगतेति ॥ २९ ॥
आत्मनि क्रियां विना मिताणुग्रहणाद्यनुपपत्ति:
श्रात्मनि क्रियां विना स्या, न्मितागुग्रहणं कथं ? । कथं संयोगभेदादि कल्पना चाऽपि युज्यते ? ॥ ३० ॥
टीका:- अथ यद्येवं रीन्या, आत्मनि क्रियां विना; अमुकशरीरोत्पादक परिमितपरमाणुग्रहणं कथं स्यात् ! किचात्मनो विपक्षं सर्वैरभिः सह सम्भोऽस्ति ततः किमर्थः, अमुकसम्बद्धानामेवाऽणून ग्रहणं कुर्यात् ! शेषमम्बद्धाऽणून ग्रहणं न कुर्यादिति, वस्तुनः सर्वसम्यद्धाऽणुनां ग्रहणं कर्त्तव्यमथवा कस्यचिदपि ग्रहणं न कर्तव्यमथ स सर्वसम्बद्धाऽणुग्रहणं कुर्यात्तदा तज्जन्य सर्वशरीरैः सहोपभोगः सर्वसंसारिजीवैः कर्तव्यः स्यादेषा महत्यापति: (पूर्वपक्ष:, स स आत्माऽदृष्टविशेषेणा मुकैरेवाऽणुभिः सह सम्बध्नाति,
॥२१२ ॥
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अध्यात्मसार:
॥२१॥
तत्तदणुजन्यत्वेन चैकेन शरीरेण सहोपभोगं करोति एवमेक एवाऽऽत्मा, अमुकैरणुभिः सह सम्बध्नाति अथवाऽमुकाऽणनामेव मेदं करोति, अतः शरीरभोगाऽऽपत्तिर्नास्त्येव (उत्तरपक्षः) एवं मताऽपेक्षणेत्वनन्ताऽणुभिः सहानन्तसंयोगस्य चानन्तभेदस्य कल्पने गौरवं महद् यदचितं नास्ति, एतत्सर्वाऽऽपत्तिनिवारणाय, आत्मनः क्रियावच्च मन्तव्यम् ॥ ३० ॥
कथंश्चिन्मूर्ततास्वीकारे वपुःसंक्रमव्यापारयोगौकथंचिन्मूर्त्तताऽऽपत्तिं विना वपुरसङक्रमात् ।
व्यापाराऽयोगतश्चैव, यत्किञ्चित्तदिदं जगुः ॥ ३१ ॥ ___टीकाः--आत्मनि क्रियावच एव प्रतिनियतशरीराऽऽरम्भकपरमाणुग्रहणं घटते, किश्चात्मनोऽविभुत्वभावोऽत एव मृतत्वं मन्तव्यम् , यतो मूर्तत्वस्य द्वे लक्षणे स्तः, क्रियावद् द्रव्यं मृत इत्येकं लक्षणं, परिच्छिन्नपरिमाणवद् द्रव्यं मूर्त इति द्वितीयं लक्षणं, संयोगभेदादिसंग्रहायाऽऽत्मनि मूर्तता कल्पनीया, अतो यद्यरीत्याऽऽत्मनि कथश्चिन्मूर्तताथा अस्वीकारे कूटस्थनित्यतास्वीकारे च शरीरे आत्मनोऽसङ्कमापत्तिरागच्छेच्च विभुत्वपक्षे पूर्वोक्तसंयोगमेदादिरूपव्यापारस्याऽभावाऽऽपत्तिरागच्छेत्तस्मादेवाऽऽत्मा कूटस्थनित्यस्तथा विभुने स्वीकरणीयः॥ ३१ ॥
॥२१
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अध्यात्म सारः
॥२१४॥
आत्मनो निष्क्रियत्वेन हननाद्यभावेन हिंसाचनुपपत्तिः
निष्कियोऽसौ ततो हन्ति, हन्यते वा न जातुचित् ।
कश्चित्केनचिदित्येवं न हिंसाऽस्योपपद्यते ॥३२ ॥ टीका:-आत्मनो निष्क्रियत्वेन कश्चिन्न हन्ति, स जातुचिकेनचिन्न हन्यते, इत्यात्मनि हिंसाया अनुपपत्तिः, युष्मन्मते हिंसाऽनुपपत्तावहिंसाऽनुपपत्या, सायशास्त्रोक्ताऽहिंसा नास्ति शुद्धाऽहिंसा, इत्येकान्तनित्यात्मवादे शुद्धाया अहिंसाया असम्भवो दृश्यते ॥ ३२ ॥ एकान्ताऽनित्यात्मवादिौडमतेऽपि शहाहिंसाया असम्भव:
अनित्येकान्तपक्षेपि, हिंसादीनामसम्भवः ।
नाशहेतोरयोगेन, क्षणिकत्वस्य साधनात् ॥ ३३ ॥ टीका:-शून्यवादी म्वमतं पुष्णन वदति केनचिदपरेण वस्तु नैकं वस्तु न स्यादीत्येतन्मतं न वास्तविक यथा दण्डेन घटध्वंसो जायत इत्येवं वदतः प्रति बौद्धाः पृच्छन्ति, किं घटध्वंसो घटाद्भिन्नो वाऽभिन्नः ! यदि भिन्नस्तदा घटस्तदवस्थ एव भवेत् यतो घटो भिन्नो, घटनाशश्च भिन्नः, यद्यभिन्नस्तदा घटधंसो घटस्वरूप. एव जात एवमुभयथा दण्डेन घटध्वंमोऽसम्भवी अर्थाद् घटादिमावाः स्वभावत उत्पद्यन्ते, उत्पादाऽनन्तरं च विनश्यन्ति, एवं प्रतिक्षणमुत्पादविनाशधारा प्रचलति, अर्थादनित्यवादपक्षस्यैवं मन्तव्यमस्ति
॥२१४॥
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अध्यात्मसारः
॥२१५॥
चेत्तदा तन्मते हिंसानामकः पदार्थः कुत्र स्थितः ? यतो न कश्चित्कश्चिन्नाशयितु शक्तः, कथमिति चेद् , वस्तु स्वयं विनाशप्रकृतिकमिति ॥ ३३॥ __ सन्तानविचित्रताया जनको हिंसको न भवत्येव
'न च सन्तानभेदस्य, जनको हिंसको भवेत् ।
सांवृतत्वादजन्यत्वाद् , भावत्वनियतं हि तत् ॥ ३४ ॥ टीकाः-(पूर्वपक्षः बौद्धः) पदार्थमात्रं हि स्वतः सततमुत्पादविनाशशालि, एक रीत्या घटादिद्रव्यस्य सजातीयवस्तुनि 'घटः, घटः, घटः, इत्यादिरूपज्ञानधारा प्रचलति, यदा दण्डादिना स हन्यते, तदा विजातीयठिकरिका, इत्यादिरूपा ज्ञानधारा प्रचलति, घटादिविषयकसजातीयज्ञानधारा त्रुटयति, तादृशविजातीयमन्तानविशेष य उत्पादयति स हिंसक इत्युच्यतेऽर्थात् सदृशधाराभेदको विसदृशधाराजनक एव हिंसक उच्यते, तादृशविजातीयधारोत्पाद एव हिंसेत्यर्थः ।
(उत्तरपक्षः) नेदं कथनं सम्यक् तथाहि-सन्तानभेदस्तु सांवृतो (काल्पनिकः) भवति किञ्चैको लुब्धकः सूकरं हिनस्ति, स सूकरो मृत्वा मनुष्यो भवति, युष्मन्मत एवं ज्ञाप्यते च लुब्धकः सूकरस्य सजातीयधाराया मेदं कृत्वा, मनुष्यविजातीयधारामुत्पादयत्यतो लुब्धको हिंसको जातः, परन्तु लुब्धकादिः सूकरस्य धारां वोटयित्वा, मनुष्यस्य विजातीयधारामुत्पादयितुं न शक्नोति, यतो भावात्मकं
| ॥२१॥
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अध्यात्म
सार:
॥२१६॥
वस्त्वेवोत्पद्यते. सन्तानस्तु काल्पनिकः, अतः शशशृङ्गवदसन्नस्ति, स कथमुत्पद्यते ? अर्थाद् यःसांवृतः सन् जायते यतो भावात्मकमेव वस्तु जायते ॥ ३४ ॥
एतदेव समर्थयत्राह'नरादिक्षणहेतुश्च, सूकरादेन हिंसकः ।
सूकराऽन्त्यक्षणेनैव, व्यभिचारप्रसङ्गतः ॥ ३५ ॥ टीका:-किञ्च सूकरो मृत्वा मनुष्यादिरूपेणोत्पद्यते तदासूकरः३, इतिरूपसजातीयधारा त्रोटयित्वा नरः ३, इति विजातीयधारा लुब्धकेनोत्पादिताऽतो लुब्धको हिंसकःकथ्यते, एवं कथिते सति तस्यार्थ एवागतो यतः सूकगदे हिंसकास कथ्यते, नगदिक्षण (पदार्थ) स्य हेतु भवेत् , अथैवं रीत्या सूकरस्याऽन्त्यक्षणोऽस्ति सोऽपि नरादेर्भाविप्रथमक्षणस्य हेतुरम्ति, तदा तस्याऽपि हिंमकत्वापत्तिाद् , हिंसकत्वं सूकराऽन्त्यक्षणे व्यभिचरितं, एवंभूते नरादिरूपस्वस्य सूकरादिरूपः स्व एव हिंसकःस्यात्ततो नरादिक्षणस्य हेतुभूतो लुब्धको हिंसको न कथ्यते ॥ ३५ ॥
" तदेव विशेषेण निरूप्यते'अनन्तरक्षणोत्पादे, बुद्धलुब्धकयोस्तुला ।। नैवं तद्विरतिः क्वाऽपि, ततः शास्त्राद्यसङ्गतिः ॥ ३६ ॥
॥२१६॥
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अध्यात्मसारः
टीका:-यदि पूर्वोक्ताऽऽपत्नय दृष्टापत्तयः म्युम्तदा युप्मा भगवान बुद्धोऽपि सूकरहिंसक आपद्यते, यतः सूकरस्य विजातीयधारारूपनरादिक्षणोत्पादे यथा तत्क्षणपूर्ववत्ती लुब्धकोऽम्ति अनः म हेतुतिः, तथा तन्क्षणपूर्ववती भगवान बुद्धोऽप्यस्ति, बुद्धलुब्धकयोयोः कोऽपि विशेषो नास्ति, एवं बुद्धोऽपि सूकरम्य हिमको भविष्यति एतदेव युष्माकमिष्टं नाम्न्येव, अर्थाद् युष्माभिः केनाऽपि हेतुना हिंमान्मकः पदार्थः कथमपि न निश्चीयते यदा हिंसा न सिद्धा, तदा हिंसाविरतिरूपाऽऽहिंसा कथं निरूप्यते ? तथा युष्मदीयशास्त्रोक्तं 'सत्वेऽस्य संति दण्डाना मवेसि जीवियं प्रियं, अत्तानं उपमं कत्तानेव हन्ने न घातये इति शास्त्राद्यसंगतिरेव स्यात् , अर्थादे कान्तानित्यवादेऽपि हिंमा न सम्भवति तदाऽहिंसायाः कुनः मम्भवः ?
॥२१७॥
अहिंसाया अभावेऽवशिष्टप्सत्यादीनि कुतः ? 'घटन्ते न विनाऽहिंसां, सत्यादीन्यपि तत्त्वतः ।
एतस्या वृतिभूतानि, तानि यद् भगवान जगौ ॥ ३७ ।। टीकाः-एवं यदाऽहिंसा न घटते, तदा शेषसत्यादिवतानि न घटन्ते, यत एतानि सत्यादिवतान्येतस्या अहिंसाया वृतिभृतानि रक्षणकारकाणि सन्तीत्येवं भगवान जगौ-कथयामास, अर्थादहिंसाया अनुपपत्ता सत्यां शेषसत्यादिवजानामनुपपत्तिः ॥ ३७ ।।
॥२१॥
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अध्यात्म
मार:
।।२१८ | '
1- जैनेन्द्रशासनेऽहिंसादि सर्व तत्त्वतो घटते'मौनीन्द्रे च प्रवचने. युज्यते सर्वमेव हि ।
नित्यानित्ये स्फुटं देहाद् भिन्नाभिन्ने तथात्मनि ॥३८॥
टीका:- एवमेकान्तनित्यवादे वैकान्ताऽनित्यवादेऽहिंसादि न घटते, परन्तु अहिंसादि सर्वमेव मौनीन्द्र प्रवचने- जिनेन्द्रचन्द्रशासन एव युज्यते यतो नित्यानित्य आत्मनि तथा देहाद् भिन्नाभिन्ने आत्मनि स्फुटमहिंसादि सर्व जिनेन्द्रशामने घटत एव ॥३८॥
- आत्मा कथं नित्यो वाऽनित्यो वा कथमुभयरूपः १'श्रात्मा द्रव्यार्थतो नित्यः, पर्यायार्थाद् विनश्वरः । हिनस्ति हन्यते तत्तत् - फलान्यप्यधिगच्छति ॥३१ ॥
टीका:- पूर्वपक्ष:- एक एवाऽऽत्मा नित्योऽपि स्यादनित्यश्वापि स्यात् कथं १ एकस्मिन वस्तुनि विरोधिधर्मद्वयं कथं घटेत ? उत्तरपक्ष = एकस्मिन् वस्तुनि विरोधिधर्मद्वयं एकयाऽपेक्षयान घटतेऽपि तु भिन्नभिन्नापेक्षा तोऽवश्यं विरोधिधर्मद्वयं घटते एव तथाहि आत्मा द्रव्यार्थिकनयाऽपेक्षया नित्योऽस्ति, पर्यायार्थिकन यापेक्षया चाऽनित्योऽस्ति, आत्मनि तत्तन्मनुष्यत्वादिपर्याया उत्पद्यन्ते, अतस्ततन्मनुष्यत्वादिपर्यायस्वरूपेण [SSत्मा विनश्यति, तस्मादात्माऽनित्योऽस्ति परन्तु तस्मिन् समयेऽपि शुद्धात्मद्रव्यम
॥२१८॥
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अध्यात्म
सारः
॥२१९॥
विनश्यदेव तिष्ठति, तस्मादात्मा नित्योऽप्यस्ति, अर्थादात्मनि कस्यचिद् हिंसाक्रियापर्याय उत्पद्यते (आना हिनस्ति कश्चित्) 'आत्मा हन्यते केनचित्'-आत्मनि केनचित् घातनद्वारा नाशपर्यायोऽप्युत्पद्यते, किञ्चेषोऽनित्याऽऽत्मा, हिंसाऽऽदिजन्यानि तत्तन्नकादिदुर्गत्यादिफलान्यधिगच्छति-प्राप्नोति ॥३९॥
-नित्यानित्यवादे विशिष्टानुभव एव साक्षी'इह अनुभवः साक्षी, व्यावृत्त्यन्वयगोचरः ।
एकान्तपक्षपातिन्यो, युक्तयस्तु मिथो हताः ॥१०॥ टीकाः-अस्मिन् पूर्वकथितविषये विशिष्ट-व्यावृत्त्यन्वयविषयकोऽनुभवः साक्षी-साक्षाद्रष्टा, . अर्थात् प्रत्यक्षेणैवैवं दृश्यते हि भूतकालाऽवच्छेदेनैक आत्मा, बालपर्यायवानासीत , सोऽद्य बालपर्यायान्मुक्तो भूत्वा (व्यावृत्या) युवपर्यायवान् वर्तते, एवमत्र बालपर्यायवत्त्वविशिष्टस्यात्मनो नाशो दृश्यते, तथाप्युभयावस्थायां, आत्मद्रव्यन्त्वस्त्येव, (अन्वयः) तस्मादात्मनस्तु नाशो न दृश्यते, एकान्तपक्षपातिन्यो युक्तयस्तु मिथः-परस्परं हताः-असङ्गता भृत्वा हता इव हताः ॥४०॥
-जैनदर्शने हिंसा काल्पनिको न परन्तु सहेतुकाऽस्ति'पीडाकर्तृत्वतो देह-व्यापत्त्या दुष्टभावतः ।
॥२१९॥ त्रिधा हिंसाऽऽगमे प्रोक्ता, न हीथमपहेतुका ॥४१॥
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अध्यात्मसार:
॥२२०||
टीकाः-शङ्का जैनदर्शनेऽप्याऽऽत्मनः सर्वथा नाशस्तु नास्त्येव, ततो वास्तवी हिंसा कथं सम्भवेत् ? समाधानं जिनागमे त्रिधा हिंसा कथिता वर्तते तथाहि= (१) पीडाकत त्वतः अन्येषां पीडाकरणतो हिंसा भवति (२) देहव्यापच्या देहस्य विनाशेन हिंमा भवति (३) दृष्टभावतः अहमन्यान हन्यामिति हिंसा. न्मकदृष्टभावतो हिंसा भवति
एषा दर्शिता त्रिविधा 'नहीथमपहेतुका' एवंप्रकारा हिंसा न काल्पनिकी परन्तु सहेतुका-हेतुजन्याऽस्ति । ४१॥
- हन्तु हिंसनीयहिंसायाः पापं कथं लगेत?'हन्तु र्जाग्रति को दोषो, हिंसनीयस्य कर्मणि ।
प्रसक्तिस्तदभावे चाऽन्यत्राऽपीति मुधा वचः ॥४२॥ टीका:-हिमनीयम्म तः कर्मणि जाग्रति-उदयमागते मनि म म्रियते, तदा हिंमकस्य हिंसायाः पापं कथं लगेत यनः म तु नम्य कर्मणा प्रेग्नित्वात्परतन्त्रः, यदि विना कर्मोदयमेको जनो म्रियेत, तम्य च हिमाऽन्येषां सर्वेषामहिमनीयजीवानां हिमायाः पापं तम्य कथं न लगेन ? यद्येवं म्यात्तदा हिमाया अमंभावना कुत्रचिदपि न तिष्ठेत , नतो हिंमाया अमम्भावनाप्रतिपादकं वचो निष्फलं भवेदिति ॥४२॥
-हिंसकहिंसापदार्थस्य सिडि:
॥२२०॥
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अध्यात्म
सारः
॥२२१॥
यद् - दुष्टाशयनिमित्तता
9
'हिंस्य कर्मविपाके
1
हिंसकत्वं न तेनेदं वैद्यस्य स्यादरिपोरिव ॥४३॥
टीका:-यदा मंत्र : ( हिंस्यस्य ) आयुष्कर्मणोऽन्तिमदलिकानामुदयःस्यात्तदा हिंसकम्य मनसि 'अहमेतं हन्या 'मिति दुष्टाशय उत्पद्यते ततश्च तं हिनस्ति, अस्यां हिंसायां मुख्यं कारणं मरणोन्मुखव्यक्तेः कर्मोदयोsस्तु परन्तु तस्यां हिंमायां हिंसकव्यक्ति दुष्टाशयद्वारा निमित्तकारणमवश्यं भवति, एनां हिंसा प्रति यो निमित्तभावः स एव हिंसकतेति कथ्यते, हिंसायां निमित्तभूतो जीवो हिंसकः कथ्यते, यदैवं दुष्टाशयद्वारा जायमानहिंसायां निमित्तभूतो हिंसक उच्यतेऽत एवं रिपुः - शत्रु हिंसकः कथ्यते परन्तु तद्वद् वैद्यो हिंसको न कथ्यते, तद् वैद्यद्वारा कस्यचिदेकस्य जनस्य हिंसाऽपि भवेत्तथापि वैद्यराजस्य मनसि तद् व्यक्ते हिंसां कर्त्तु दुष्टाभिप्रायो नास्ति, अर्थाद् दुष्टाशयप्रयुक्तहिंसायां स निमित्तकारणं न भवति ॥४३॥ - श्री जैनशासन एव हिंसानिवृत्तिरूपाऽहिंसा कथं घटते !'इत्थं सदुपदेशादेस्तन्निवृत्तिरपि स्फुटा । सोपक्रमस्य पापस्य नाशात् स्वाशयवृद्धितः ॥ ४४ ॥ टीका:- अथाऽत्राऽहिंसां साधयति, तथाहि आत्मा हि परिणामी - पर्यायवानस्ति, अतस्तस्य 'हिंसा'
॥२२९॥
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अध्यात्म
सार:
॥२२२।।
सञ्जाता, तथा (१) हिंसायाः, तत्स्वरूपस्य तत्फलस्य च सदुपदेशादितः, आदिना (२) 'मोपक्रमस्य पापम्य नाशात् अपवर्तनीयानां चारित्रमोहनीयपापकर्मणां नाशात् (३) अहं कश्चिन्न हन्या' मिति स्वीयशुभाशयवृद्धितः, हिंसाया निवृत्तिरपि भवति, एषा हिंसानिवृत्तिरूपाऽहिंसाऽस्ति ॥४४॥
-मोक्षरूपवृक्षस्य बीजमहिंसा'अपवर्गत्तरोर्षीजं, मुख्याहिंसेयमुच्यते ।
सत्यादीनि व्रतान्यत्र, जायन्ते पल्लवा नवाः ॥४५॥ टीका:-'अपवर्गतरो /ज' मोक्षरूपवृक्षस्य बीजभूता, 'मुख्या' निरुपचरितधर्मविशेषरूपेयमहिंसोच्यते, अहिंसारूपवीजतो जातानि शेषाणि सत्यादीनि व्रतानि, अत्राऽहिसारूपवृक्षे नवाः पल्लवा इव जायन्तेउत्पद्यन्ते यावत् स्फुटन्ति ॥४॥ -श्री जैनशासन एव शुद्धाऽहिंसासम्भवस्तथाऽहिंसाया अनुषन्धादि-शुद्धिरप्यत्रैव वास्तवी
'अहिंसासम्भवश्चेत्थं, दृश्यते त्रैव शासने ।
अनुबन्धादिसंशुद्धि-रप्यत्रैवाऽस्ति वास्तवी ॥४६॥ टीका:-'अत्रैव शासने चेस्थमहिंसासम्भवः' जेनेतरमते शुद्धाहिंसाया असम्भवं दयित्वा, जैन
॥२२२॥
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अध्यात्मसारः
1॥२२३।।
शासन एव शुद्धाहिंसासम्भवः साधितः, अहिंसाया अनुबन्धादिसंशुद्धिरत्रैव-श्रीजैनशासन एव वास्तवीसत्या, नाऽन्यत्र ॥४६॥
- सम्यगदृष्ट महात्मनो ज्ञानयोगेन हिंसा न हिंसाऽनुवन्धिी'हिंसाया ज्ञानयोगेन, सम्यगदृष्टे महात्मनः ।
तप्तलोहपदन्यास-तुल्याया नाऽनुबन्धनम् ॥४७॥ टीका:-ये सम्यगदृष्टयो ज्ञानयोगेन महात्मानः श्रावकाद्याः सन्ति ते संसारसत्कं यत् किश्चिद्गृहनिर्माणादि कार्य कुर्वन्ति, तद् भृशं दुःखितहृदयेन, यद्यत्यन्तमावश्यकं तदा तप्तलोहे पादस्थापन बत् , अन्तरेच्छां विना कृताया हिंसाया अनुबन्धो (अशुभकर्मपरम्परा) न भवति, दुष्टाशयरूपहिंसाऽत्र नास्ति, परपीडाकरणपरदेहविनाशरूपहिंसाद्वयमस्ति ॥४७॥
-यतनाभक्तिशालिनां जिनपूजाऽऽदिकर्मणि अहिंसाया अनुषन्धः'सतामस्याश्च कस्याश्चिद्, यतनाभक्तिशालिनाम् ।
अनुबन्धो ह्यहिंसाया, जिनपूजादिकर्मणि ॥४॥ टीका:-जीवान प्रति यतनावतां जिनेश्वरान्प्रति भक्तिभावशालिना 'सतां' सम्यग्दृशामन्तरात्मनां
॥२२३॥
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अध्यात्म
सार:
॥२२४॥
जिनपूजादिकर्मणि 'अस्याश्च कस्याश्चित' कस्याश्चिद , हिंसायाः सद्भावेऽपि तेषां गहाऽऽरम्भादे हिंसावन निरनुबन्धमात्रा, अपितु सा हिंसा, अहिंसाया अनुवन्धं-स्वरूपशुभकर्म परम्परां जनयत्यर्थादेषां हिंमाऽप्यहिंसाफलानुसन्धानवत्येवेति ॥४८॥
-मिथ्यादृष्टेरज्ञानशक्तियोगेन, हिंसाऽहिंसे हिंसाऽनुबन्धिन्यौ स्तः'हिंसाऽनुबन्धिनी हिंसा. मिथ्यादृष्टेस्तु दुर्मतेः ।
अज्ञानशक्तियोगेन, तस्याऽहिंसाऽपि तादृशी ॥४॥ टीका:-मिथ्यादृष्टेस्तु दुर्मते हिमा, हिंमाऽनुबन्धिनी' एकान्तवादाभिनिविष्टबुद्धमिध्यादृष्टेहिंसा, हिंसाऽनुवन्धविशिष्टा भवति, 'अज्ञानशक्तियोगेन' मिथ्याज्ञानसहित शक्तियोगेन 'तस्य' मिथ्यादृष्टेः 'अहिंसाऽपि ताशी' दृश्यमानाहिंमाऽपि हिमानुबन्धविशिष्टा भवतीति ।। ४९ ॥ निवादीनामहिंसाऽपि हिंसानुचन्धिनी
येन स्यानिवादीनां दिविषदुर्गतिः क्रमात् ।
हिंसैव महती तिर्यङ-नरकादि-भवान्तरे ॥ ४० ॥ टीका:-येन निमवादीनां दिविषदुर्गतिः क्रमात्' यस्मात् कारणात , निह्मवानामभव्यादीनां साधुजीवनस्य याऽहिंसाऽस्ति, माऽपि देवलोके किल्बिषिकादिजीवनस्य दुःखदां गतिं प्रापयति ततःक्रमात् ,
OCRA
||२२४||
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अध्यात्म-1 सार
॥२२५॥
अग्रेतनभवे तिर्यक्त्वनरकत्वादिदुर्गतिमर्पयति, एष मर्वोऽशुभगतेग्नुवन्धस्तेषामहिंसातः प्राप्तः, अशुभाऽनुबन्धषातिनी साऽहिंसा, हिसैव नास्ति परन्तु महती डिमेवाऽस्ति ॥ ५० ॥ -अप्रमत्तसाधूनां हिंसाऽप्यहिंसाऽनुवन्धिनी
'साधूनामप्रमत्तानां. सा चाहिंसाऽनुबन्धिनी ।
हिंसाऽनुबन्धविच्छेदाद गुणोत्कर्षो यतस्ततः॥ ५१ ॥ टीका:-'साधनामप्रमत्तानां सा चाऽहिंसाऽनुबन्धिनी' प्रमादरहिताना सोपयोगयतनावता नद्यतारादिक्रियायां या हिंसाऽस्ति साऽहिंसाया अनुबन्धं कारयति, हिंसाऽनुबन्धविच्छेदाद् गुणोत्कर्षो यतस्ततः तेषां तयाऽहिंसया हिंसाऽनुबन्धस्य विच्छेदो भवति यतस्तयाऽहिंसया गुणस्योत्कर्षोभवतीति ॥५१॥ -मुग्धानां सा हिंसा कदाचिदपि, अहिंसाऽनुबन्धिनी न भवति
मुग्धानामियमज्ञत्वात् , साऽनुबन्धा न कहिंचित् ।
ज्ञानोदेकाप्रमादाभ्या-मस्या यदनुबन्धनम् ॥ ५२ ॥ टीका:-ज्ञानोद्रेकाप्रमादाभ्यामस्या यदनुवन्धनम् हिंसाऽप्यहिंसाऽनुबन्धिनी तदैव भवेद् यदा नया हिंसया सह विशिष्टकोटिकं ज्ञानं प्रमादाभावश्च युज्येयाता: मुग्धानामियमज्ञत्वात साऽनुबन्धा न कहि
॥२२५॥
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अध्यात्म
सारः
॥२२६॥
चित-ये मुग्धाः सन्ति तेऽज्ञानवन्तः, अतस्तेषां हिंसा कदाचिदपि अहिंसाऽनुवन्धविशिष्टा न भवतीति ॥५२॥ -एकस्यामपि हिंसायामहिसायामुक्तं सुमहदन्तरम्
एकस्यामपि हिंसाया-मुक्तं सुमहदन्तरम् ।
भाववीर्यादिवैचित्र्या-दहिंसायां च तत्तथा ॥ ५३ ॥ टीकाः-एकस्यामपि हिंसायामुक्तं सुमहदन्तरम्'-पूर्वोक्तवर्णनत इदं फलितं भवति यदेकविधा जीव. हिंसामनेके जीवाः कुर्वन्ति, तथाऽपि तया मर्वया हिंसया जायमाने कर्मबन्धे च तज्जन्यफलविशेषेऽत्यन्तं मह. दन्तरमापतति यतस्तत्र चित्तस्य दुष्टक्लेशस्याऽसंख्येयभेदास्तथा वीर्यादेग्ल्पाऽधिकवलतीव्रतामन्दताऽऽदिज्ञाताऽज्ञातादयोऽनेके हेतवः सम्भवन्ति, अहिंसायामपि समीचीना एते एवाऽनेके भेदा आपतन्ति ॥५३।। -हिंसाऽहिंसयोविविधयन्धमपेक्ष्य भेदास्तथा विपाकमपेक्ष्य भेदाः पतन्ति
सद्यः कालान्तरे चैतद्-विपाकेनापि भिन्नता।
प्रतिपक्षाऽन्तरालेन, तथाशक्तिनियोगतः ॥ ५४ ॥ टीका:-यथेकविधाया अहिंसाया बन्धे भाववीर्यादिवेचिच्याद् मेदाः पतन्ति, कस्यचित्सद्यः-तत्कालं फलं भवति, कस्यचिच्च कालान्तरे भवति, एवं भवने, एकं कारणमेतदस्ति, यत, हिंसाजनितकर्मवन्धाऽ.
॥२२६॥
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अध्यात्म
सारः
॥ २२७॥
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नन्तरमहिंसापालनतः, तस्याः फलमपि विपाकमानयेदनन्तरं पूर्वकृतहिंसायाः फलोदयः स्यात्तदा हिंसायाः फलं कालान्तरे आगतं, प्रतिपक्षस्यान्तराले व्यवधानं न स्यात्तदा तस्या हिंसायाः फलं प्रागागच्छेत् इदं वस्त्वहिंसायामपि ज्ञेयम्, अन्यत्कारणमप्यस्ति यद्, हिंसाऽऽदेः कर्मबन्धाऽवसरे बध्यमानरसोऽत्यन्तोग्रतावान्न भवेचदा कालान्तरे फलं दद्यात् ।। ५४ ॥
- जिन पूजाऽऽदिक्रियाहेतुतो जायमाना हिंसाऽप्यहिंसा'हिंसाऽप्युत्तरकालीन - विशिष्टगुणसङ्क्रमात् । त्यक्ताऽविध्यनुवन्धत्वा- दहिंसैवाऽतिभक्तितः ।। ५५ ।
टीका:-जिन पूजादिक्रियायाः कारणेन जायमाना या पुष्पादिजीवहिंसाऽस्ति, तस्यां स्वरूपतो जीवहिंसायां सत्यामपि वस्तुतस्तु साऽहिंसैवाऽस्ति यत एतस्या हिंसाया अनन्तरं जिनेश्वरदेवानामात्यन्तिकमहाभक्त्या यापूर्वी पूजा भवति, तेन कारणेन, भक्तेरुच्छलत्तरङ्गे जायमानोऽविधिरपि निरनुबन्धोअशुभ कर्मानुत्पादको भवति, अतोऽहिंसा कथ्यते, अतिभक्तितो 'हिंसाऽप्युत्तरकालीन विशिष्टगुणसङ्क्रमादहिंसैव' = तस्मादतिभक्त आत्मनि शुद्धसम्यक्त्वादिविशिष्ट गुणसङ्क्रमणतो हिंसाऽप्य हिंसा फलं ददात्येवेति ॥५५॥ - एवंरीत्या भङ्गशतभेदोपेताऽहिंसावर्णनं यत्र तजिनशासनं प्रमाणम् -
॥२२७॥
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अध्यात्म
मार:
॥२२८॥
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'भङ्गशतोपेताऽ-हिंसा यत्रोपवरार्यते 1
सर्वां परिशुद्धं तत्, प्रमाणं जिनशासनम् ॥ ५६ ॥
टीका:- एवं रीत्याऽहिंसाया भङ्गाः - भेदाः शतशः पतन्ति, एतद्भङ्गशतपूर्विकाऽहिंसायाः, तदनुबन्धादेर्यजिनशासने सुचारुरूपेण वर्णनं कृतं, तत्सर्वथा परिशुद्धं जिनशासनं प्रमाणमेव, हृदमत्र हृदयम, सम्भवानुबन्धादिविचारणया शुद्धाऽहिंसा, दर्शितपूर्वा, मा शुद्धाऽहिंसा जिनागम एवाऽस्ति, तस्माज्जिनशासनप्रमाणभूतं, अत्राधिकारे दशमे श्लोके योऽन्योऽन्याश्रयदोष उद्भावितः स दूरीकृतः, श्रीमज्जिनशासने प्रामाण्यस्वीकार इति विषयः स्थिरीकृतः ॥ ५६ ॥
सम्यक्त्वस्याssस्तिक्यं परमं चिह्न
'अर्थोऽयमपरोऽनर्थ इति निर्द्धारणं हृदि ।
श्रास्तिक्यं परमं चिह्न सम्यक्त्वस्य जगुर्जिनाः ॥ ४७ ॥
टीका:- एषा शुद्धाऽहिमैव तत्त्वमस्ति, एतस्य श्रद्धानमेव सम्यक्त्वमस्ति, सम्यक्त्वस्य मुख्यं लक्षणमास्तिक्यमेव, 'आस्तिक्यं - जिनोक्तवचनमेवाऽर्थरूपं तदेव परमार्थरूपमस्ति, शेषं सर्व निरर्थकमिति हृदये सर्वथा निर्धारण - निश्चलनिश्वयः ॥ ५७ ॥
।। २२८ ।।
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वन्यात्मसार:
॥२२९॥
सम्यक्त्वस्थिरताप्राप्तिवर्णनम्
शमसम्वेगनिदा नुकम्पाभिः परिष्कृतम् ।
दधतामेतदच्छिन्न, सम्यकत्वं स्थिरतां व्रजेत् ॥ ५८ ॥ टीकाः-शमसम्बेगनिदानुकम्पारूप: कार्यैः समलङ्कृतं, 'एतदास्तिक्यमच्छिन्नं =अविच्छेदेन- र सातत्येनाऽऽस्तिक्यं दधता जनानां सम्यक्त्वं स्थिरतां ब्रजेत्-स्थिरं भवेदर्थात् , शमसम्वेग--निवेदानुकम्पाभिः सहितमास्तिक्यं यदि सततं वर्तमानं तदा सम्यक्त्वं निश्चलं भवति नाऽन्यथेति भावः॥ ५८ ।।
इत्याचार्य श्रीमद्विजयलब्धिमूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकमूरीश्वरपट्टधरभद्र करमूरिणा कृतायाभध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां सम्यक्त्वनामको द्वादशोऽधिकारः समाप्तः ॥३८३॥
-अथ मिथ्यात्वत्यागनामकस्त्रयोदशोऽधिकार:
-मिथ्यात्वत्याग:मिथ्यात्वत्यागतः शुद्धं, सम्यकत्वं जायतेऽङ्गिनाम् ।
अतस्तत्परिहाराय, यतितव्यं महात्मना ॥ १ ॥ टीका:-जीवानां मिथ्यात्वस्य त्यागतः शुद्धं सम्यक्त्वं जायते-भवति, अतस्तत्परिहाराय अस्मात
॥२२॥
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अध्यात्मसार
॥२३०॥
कारणान तन्मिथ्यात्वस्य परिहारार्थ महात्मना यतितव्यम्'–उत्तमाऽऽत्मना, सर्वथा प्रयत्नः कर्तव्यः ॥१॥ मिथ्यात्वस्य षस्थाना
'नास्ति नित्यो न कर्ता च, न भोक्ताऽऽत्मा न निव॒तः ।
तदुपायश्च नेत्याहु-मिथ्यात्वस्य पदानि षट् ॥ २ ॥ ___टीका:-(१) नास्ति जीव इति प्रथमं पदम् पश्चभिभू तेव्यतिरिक्तः, भवान्तरगामी, कोऽपि स्वतन्त्र आत्मा नास्तीति चार्वाकमतम् । (२) आत्मा नित्यो नेत्ति द्वितीयपदम् आत्मा त्वस्ति किन्तु नित्यो नास्ति क्षणिकोऽस्ति, इति बौद्धमतम. (३) आत्मा कर्ता नेति तृतीयं पदम् आत्माऽस्ति, नित्योऽस्ति, परन्तु कर्मकर्ता नास्तीति, सांख्यमतम्. (४) आत्मा भोक्ता नेति चतुर्थ पदम् नित्याऽऽत्मा नास्ति, कर्ताप्यस्ति, भोक्ता नास्ति यतः कार्य
कृत्वा क्षणान्तरे विनश्यतीति बौद्धमतम् , अथवा नित्याऽऽत्मा, कर्ता नास्ति, परन्तु भोक्ताऽपि
नास्ति, प्रकृतिवदात्मा कर्ता, भोक्ता तु भवितु नाहनीति साङ्ख्यमतम् . (५) 'आत्मा न निवृतः' इति पञ्चमं पदम् आत्मा, कर्मणा न बध्यते, ततः का वार्ता मोक्षस्य ? अथवा
गगादिस्वरूपोऽयमात्माऽस्ति, आत्मा, नित्योऽस्ति, ततो रागादयोऽपि नित्याः, अतो रागादित आत्मनो मोक्षो नास्तीति याज्ञिकमतम् ।
X॥२३०॥
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अध्यात्मसार:
॥२३॥
(६) तदुपायश्च नेति षष्ठम् मोक्षस्तु विद्यते, परन्तु तदुपायः-मोक्षस्योपायो नास्ति, कश्चिदपि हेतु विनानिर्हेतुकोऽकस्मादेव मोक्षो भवतीति माण्डलिकमतम् ।। २ ॥ इति मिथ्यात्वस्य षट् पदानीति. -आत्मा नास्तीत्यादिषट्पदः शुद्धव्यवहारविलङ्घनम्
'एतैर्यस्माद् भवेच्छुद्ध-व्यवहारविलवनम् ।
श्रयमेव च मिथ्यात्र-ध्वंसी सदुपदेशतः ॥ ३ ॥ टीका:-आत्मा नास्तीत्यादिभिः पूर्वोक्तैः षटपदेर्दानादिविषयकोपदेश-विषयकशुद्ध व्यवहारोलचनमापद्येत, यतो यद्यात्मादिर्नास्ति तदा दानादिका धर्माः किमर्थ ? तदुपदेशोऽपि किमर्थकः १ 'अयमेव च मिथ्यात्वध्वंसी सदुपदेशतः =अयमात्मैव सन्-अस्ति स नित्योऽस्ति, कर्मणःकर्ता, कर्मफलभोक्ता स निवृतः निवृ तेरुपायोऽस्तीति सद्रपपदानां योजना स्यात्तदा दानाद्याद्युपदेशादिशुद्धव्यवहारा युक्तियुक्ताः स्युः, ततो जीवाः शुद्धव्यवहारं पालयेयुः, ततस्ते मिथ्यात्वध्वंसिनो भवेयुः, इदमत्र हृदयम् आत्मा नास्तीत्यादिषट्पदानि, दानादिकशुद्धव्यवहारविध्वंसद्वारा मिथ्यात्वजनकानि, आत्माऽस्तीत्यादिसद्पषट्पदानि दानादिशुद्धव्यवहारोपपादनद्वारा मिथ्यात्वप्रध्वंसकानीति ॥ ३॥
- पूर्वोक्तशुद्धव्यवहारविलोपविषयं स्पष्टयति
।
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अध्यात्म सारः
॥२३२॥
'नास्तित्वादिग्रहे नवो-पदेशो नोपदेशकः ।
ततः कस्योपकारः स्यात् सन्देहादिव्युदासतः ॥ ४ ॥ टीका:-सर्वथाऽऽत्मा, नास्तीत्यादिविषयककदाग्रहे सति, 'नवोपदेशो नोपदेशकस्ततः'=उपदेशकोपदेशौ विना, भवभ्रमणं कुर्वत्सु जीवेषु क उपकारः सम्भवेत् , यत उपकारस्तु तत्तज्जीवविषयकान् , आत्मादिसम्बन्धितान संशयान् निराकत मुपदेश एव साधीयानस्ति ॥ ४ ॥ - निश्चयनयाऽभिप्रायदर्शनपूर्वकं व्यवहारनयाऽमिप्रायदर्शनम् -
'येषां निश्चय एवेष्टो, व्यवहारस्तु सङ्गतः । विषाणां म्लेच्छभाषेव, स्वार्थमात्रोपदेशनात् ॥ ५ ॥ यथा कवलमात्मानं, जानानः श्रुतकवली। श्रुतेन, निश्चयात्सर्व, श्रुतं च व्यवहारतः ॥ ६ ॥ निश्चयाऽर्थोऽत्रनो साक्षादवक्तु केनाऽपि पार्यते । व्यवहारो गुणदारा, तदर्थाऽवगमक्षमः ॥ ७ ॥
| ॥२३२॥
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अध्यात्म
सारः
।।२३३||
प्राधान्यं व्यवहारे चेत्, तत्तेषां निश्वये कथम् । परार्थस्त्रार्थते तुल्ये, शब्दज्ञानात्मनोद्रयोः ॥ ८ ॥
"
टीका:- 'येषां निश्रय एवेष्टः ' = निश्चयनयवादिनां निश्चयनय एवेष्टो - अभिमतः, व्यवहारो नाभिमतः, व्यवहारस्तु विप्राणां म्लेच्छभाषेव स्वार्थमात्रोपदेशनात् सङ्गतः 'व्यवहारनयस्तु निश्चयार्थमात्रस्योपदेशन - द्वारा सङ्गतः - उपयोगी स्यात् यथा ब्राह्मणो म्लेच्छभाषां न भाषेते' ति वचनाद्, विप्रा म्लेच्छभाषा न भाषन्ते तथाऽपि स्वभाषया संस्कृतभाषया सम्मुखस्थम्लेच्छव्यक्ति स्वाऽभिप्रायं विज्ञापयितुं न शक्नुवन्ति तदा स्वाभिप्रायं व्यञ्जयितु ं म्लेच्छभाषोपयोगं कुर्युः, एवं व्यवहारनयो, निश्वयार्थविज्ञापन परत्वेनोपयोगी भवेदिति स्वपक्षसमर्थनार्थनिश्चयवादी सोदाहरणं वदति यद् श्रुतकेवलीत्युक्ते कोऽर्थः ? निश्रयो वक्तीदं ‘यथा केवलमात्मानं जानानः श्रुतकेवली श्रुतेन" - श्रुतज्ञानबलेन यथा केवलं सम्पूर्ण, आत्मानं योजानाति स श्रुतकेबलीत्युच्यते अथ श्रुतकेवलिपदार्थस्य यदिदं शुद्धस्वरूपमस्ति तत्प्रतिपादयितुमशक्यम् यतः सम्पूर्ण एक आत्माऽनेन ज्ञात इति कया रीत्या कथयितुं शक्यते अत आत्मनस्तद्गुणस्वरूपश्रुतज्ञानस्य भेदं कृत्वा, व्यवहारनय एवं वदति य आत्मा सर्वश्रुतं जानाति स श्रुतकेवलीति कथ्यते, अथैतद्भेदपरं प्रतिपादनं तु शक्यम्, अर्थादनया रीत्या निश्रयार्थरूप केवलित्यप्रतिपादको व्यवहारो भवति, तस्मादेतावदपेक्षया व्यवहारनस्य प्राधान्यं मन्तव्यम्, निश्चयनयो वदति वस्तुतस्तु श्रुतज्ञानस्य भेदं कृत्वा तच्छ्रुतज्ञानगुणद्वारा
॥२३३॥
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अध्यात्म
सार:
॥२३४|
स व्यवहारनयोः निश्चयार्थप्रतिपादनपरोऽस्तु तावत् , तथाऽपि श्रतज्ञानमपि विचार्यमाणं सद् वस्तुत आत्मैव यतो गुणस्तु गुणिनः स्वरूपमेव, किश्च तत्प्रतिपादनं निश्चये पर्यवस्यति, अन्ततो गत्वा व्यवहारो निश्चयपर्यवसायीत्यतो निश्चयो हि मुख्यो न व्यवहारः, व्यवहारनयवादी-यद्येवं व्यवहारनयं सर्वथा गौणरूपेणाऽपि न स्वीकुर्यात्तदा युष्मन्मते निश्चयनये प्राधान्यं कथमागच्छेत १ यतः प्राधान्यं गौणसापेक्षं, गौणश्चे. तदा तदपेक्षयेदं प्रधानं वाच्यम् , यदि व्यवहारो गौणोऽपि न भवेत्तदा निश्चयः कस्याऽपेक्षया प्रधानो वाच्यः स्यात् ? किन ज्ञानाऽऽत्मकनिश्चयनयस्य यावन्तः स्वार्थाः सन्ति ते सर्वे, शन्दात्मकव्यवहार नयस्य पदार्थाः, अनयैव रीत्या व्यवहारनयस्य यावन्तः स्वार्थाः सन्ति ते सर्वे निश्चयनयस्य परार्थाः एवमेकैकस्य स्वार्थाश्च परार्थास्तुल्या भवन्ति, अथ यो निश्चयनयः स्वस्थाने प्रधानो भवति, तत्र तदा व्यवहारनयः गौणो भवति, तथा व्यवहारनयोऽपि स्वस्थाने (निश्चयस्य स्वार्थः स्वार्थवत्त्वात्) प्रधानोभवति तत्र निश्चयश्च गौणो भवति, एवं द्वो नयो स्वस्वर यानेऽतुलबलवन्तौ भवतः, परस्थाने सर्वथा निर्बलो भातोऽतो निश्चय एवाऽस्ति, व्यवहारस्तु नास्त्येव, निश्चयः सर्वथा प्रधानोऽस्ति, व्यवहारः सर्वथा हेयः'एवं विधानि विधानानि सत्यरहितान्येवेति वक्तव्यम् । ५॥६॥७॥८॥
- दानादिशुडव्यवहारलोपे पूर्वोक्तनास्तित्वविशिष्टानां षण्णां पदाना मिथ्यात्व. रुपता
॥२३४॥
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अध्यात्म
सार:
॥२३॥
'प्राधान्याद् व्यवहारस्य, ततस्तच्छेदकारिणाम् ।
मिथ्यात्वरूपतैतेषां, पदानां परिकीतिी ॥ १ ॥ टीका:-एवं यदा दानादिशुद्धव्यवहाराणामपि स्वस्थाने प्राधान्यमस्तीति विषयः स्थिरीकृतः, तदा सद्दानादिव्यबहारच्छेदकारिणां पूर्वोक्तानामेकान्तेनाऽऽत्मा नास्तीत्यादीनां षण्णां पदाना मिथ्यास्वरूपता परिकीर्तिता-कथितेति ॥१॥ - चार्वाकमतप्रतिपादनम् -
'नास्त्येवाऽऽत्मेति चार्वाकः, प्रत्यक्षाऽनुपलम्भतः ।।
श्रहंताव्यपदेशस्य, शरीरेणोपपत्तितः ॥ १० ॥ ___टीका:-आत्मा नास्त्येव, कथमिति चेत् , प्रत्यक्षप्रमाणेनानुपलभ्यमानत्वात् , यद्यस्ति चेत् प्रत्यक्षेणोपलभ्येत, चाक्षषप्रत्यक्षेणाऽऽत्मा न दृश्यते, अहं सुख्य दःखीत्यादियोऽनुभवो भवति, तत्राऽहम्पदवाच्यः कः पदार्थ इति चेदुच्यते अहंताव्यपदेशस्य शरीरेणोपपत्तितः'अहन्तारूपव्यवहारः, शरीरार्थेनोपपद्यते, अहमित्युक्ते शरीरमेव वेयमिति ॥ १०॥
- मिलितेभ्यो भूतेभ्यो ज्ञानाऽभिव्यक्ति: -
॥२३५॥
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अध्यात्मसार:
॥२३६॥
'मद्याऽङगेभ्यो मद व्यक्तिः प्रत्येकमसती यथा।
मिलितेभ्यो हि भूतेभ्यो, ज्ञानव्यक्तिस्तथा मता ॥ ११ ॥ टीकाः-यथा प्रत्येकमसती मद्याऽङ्गेभ्यो मदव्यक्तिर्भवति, तथा पृथिव्यादिभूतपञ्चके प्रत्येकममनी ज्ञानव्यक्ति मिलितेभ्यो भृतेम्यो भवतीति ॥ ११ ॥ -राजरकाऽऽदिवैचित्र्यं स्वभावजम् -
'राजरङ्काऽऽदिवैचित्र्यमपि नात्मबलाहितम् ।
स्वाभाविकस्य भेदस्य, ग्रावाऽऽदिष्वपि दर्शनात् ॥ १२ ॥ टीका:-अयं गजा, रङ्कोऽयमित्यादिवैचित्र्यं यद् दृश्यते तन्म कर्मवदात्मवलेन कृतं परन्तु यथा ग्रावाऽऽदिषु-कश्चित प्रम्तरः कोमलस्पर्शः कश्चित् कर्कशस्पर्शी दृश्यते, तत्र स्वभावकृतो भेद एव परिज्ञेयः, तथाऽत्रापि ज्ञेयः, कर्मणा नात्माऽनुमीयते अनुमानप्रमाणेन नात्मा सिद्धयति ॥ १२ ॥ - नागमप्रमाणेनाऽत्मसिद्धिः
'वाक्यैर्न गम्यते चात्मा, परस्परविरोधिभीः । दृष्टवान्न चकोऽप्येनं प्रमाणं यवचो भवेत् ॥ १३ ॥
॥२३६॥
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अध्यात्म-1 सार:
॥२३७॥
टीकाः 'परम्पर विरोधिमिर्वाक्य नाऽऽत्मा गम्यते' भट्टो वदति यथा जले बुबुदो जलाज्जायते, जले च विलीयते, तथाऽऽत्मा भूतेभ्य उत्पद्य भृतेषु च विलीयते परलोकादि न किश्चिदस्ति वेदेऽप्युक्तं 'आन्मा नित्योऽस्ति म स्वर्गादिपरलोके याति तस्मात्स्वर्गकामोऽग्निहोत्रं कुर्यादित्यादिभिः परस्परविरोधिभिक्यिनामा गम्यतेऽतः परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादका आगमा न प्रमाणभृताः, किन 'दृष्टवान्नच कोऽप्येनं प्रमाणं यद्वचो भवेत् =आगमस्य प्रणेता कोऽप्येनं आत्मानं न दृष्टवान् अतः आत्मानमदृष्टवतो वचः प्रमाणं न भवेत् , आत्मानं दृष्टवतो वचः प्रमाणं भवेदन्यथा नेति ॥ १३ ॥ - भूतभिन्न स्वतन्त्रात्मपक्षकाराः कथं न वश्चकाः -
'यात्मानं परलोकं च, क्रियां च विविधां वदन् ।
भोगेभ्यो भ्रंशयत्युच्चै, लॊकचित्तं प्रतारकः ॥ १४ ॥ टीकाः-भूतेभ्यो भिन्नं स्वतन्त्रमात्मानं वदन् , स्वर्गनरकादिकं परलोकं वदन् , परलोके सुखीभवितु त्यागतपादिरूपां विविधां क्रियां वदन् , प्रतारको-वञ्चको, लोकस्य चित्तं भोगेभ्य उच्चभ्रशयति वियोजयतीति ॥ १४ ॥ - भस्मीभूतेषु भूतेषु प्रत्यागमनस्पृहा न कार्या -
त्याज्यास्तन्नैहिकाः कामाः कार्या नानागतस्पृहाः ।
॥२३७।।
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अध्यात्मा सारः
॥२३८॥
भस्मीभूतेषु भूतेषु, वृथा प्रत्यागतिस्पृहा ॥१५॥ टीका:-तत्-तस्मात्कारणात् , ऐहिकाः कामाः इहलोकसम्बन्धिनः कामभोगा न त्याज्याः, 'कार्या नानागतस्पृहा'अनागताना = परलोकभाविकामभोगानां स्पृहा न कार्या, भस्मीभूतेषु भूतेषु वृथाप्रत्यागतिस्वृहा' भृतेषु पञ्चसु भस्मासाद् भृतेषु सत्सु, भूताऽव्यतिरिक्त आत्माऽपि भस्मीभूतः, पश्चान्मनुष्यादिसद्गतिप्राप्तिरूपप्रत्यागतिस्पृहा वृथा'मुधैव-निरर्थिकेति ॥ १५ ॥ -चार्वाकमतवण्डनम्
तदेतदर्शनं मिथ्या, जीवः पत्यक्ष एव यत् ।।
गुणानां संशयादीना, प्रत्यक्षाणामभेदतः ॥ १६ ॥ टीकाः-तदेतदर्शनं मिथ्या-तस्मादेतच्चाकदर्शनं सर्वथा मिथ्या 'जीवः प्रत्यक्ष एव' जीव आत्मनि प्रत्यक्ष एवाऽस्ति; यद्गुणानां संशयादीनां प्रत्यक्षाणाममेदतः' = यतो ये संशयादिज्ञानस्वरूपा गुणाः सन्ति, ते प्रत्यक्षा:-म्बसंवेदनप्रत्यक्षा(मानसप्रत्यक्षा) एच, गुणानान्तु गुणिनः कथंचिदभेदादान्मनो ज्ञानगुणप्रत्यक्ष तु गुणिरूप आत्माऽपि प्रत्यक्ष एवेति ॥ १६ ॥
-अहन्ता न शरीरस्य धर्म:
॥२३८॥
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अध्यात्म
सारः
॥२३९॥
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न चाऽहम्प्रत्ययादीनां शरीरस्यैव धर्म्मता I नेत्रादिग्राह्यताssue--नियतं गौरवादिवत् ॥ १७ ॥
टीका: - यद्यहमित्युक्ते शरीरस्य ग्रहणं स्यात्तदाऽहन्ता शरीरस्यैव धर्मः स्यात्, परन्तु अहम्प्रत्ययादौ शरीरस्यैव धर्मता न कथमिति चेदुच्यते यथा गुरुतालघुतादयः शरीरस्यैव धर्माः सन्ति, ये शरीरस्यैव धर्माः सन्ति ये शरीरधर्मास्ते सर्वे नेत्रादीन्द्रियग्रह्माः प्रत्यक्षविषया भवन्ति, यद्यहन्ताऽपि शरीरस्य धर्मः स्यात्तदा सोऽपि नेत्रादीन्द्रियग्राह्यो मान्यः, परन्त्वेवं न भवत्येव ततोऽहन्ता, शरीरधर्म्मत्वेन न प्रतिपत्तव्या, 'अहं सुखी' त्यत्र स्थले यदहम्पदमस्ति तन्न शरीरवाचकमपि तु शरीराऽतिरिक्तं किमपि द्रव्यमेवाऽहम्पदवाच्यं मान्यं तद्द्रव्यमात्मैवाऽस्तीति ॥ १७ ॥
- शरीरं नात्मद्रव्यम् -
'शरीरस्यैव चाऽऽत्मत्वे, नानुभूतस्मृतिर्भवेत् ।
लत्वादिदशभेदा-तस्यैकस्याऽनवस्थितेः ॥ १८ ॥
टीकाःशरीरस्यात्मत्वे चाल्यकाले बालेन यदनुभूतं, तदनुभूतस्य स्मरणं युवाऽवस्थायां न भवेदित्यापत्तिरागमिष्यति यत एतादृशो नियमोऽस्ति यद्योऽनुभवति स एव स्मरति, यद्येष नियमो न स्वी
॥२३९ ।।
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अध्यात्मसार:
॥२४॥
क्रियेन तदा यज्ञदत्तेनाऽऽम्रग्साऽऽस्वादोऽनुभूतः, मित्रदत्ते तद्रसाऽनुभूतिस्मृतेरापत्तिरागच्छेव, तत एष नियमः प्रतिपत्तव्यः, अथ बाल्ये यच्छदीरमस्ति, तत्त युवाऽवस्थायां नास्त्येव; यतः शरीरे तु प्रतिक्षणं केचित् पुद्गसा गलन्ति, केचिचु नवाः पुद्गला मिलन्ति, अर्थाद् चल्याऽवस्थायाः शरीररूप आत्मा युष्माभिरभिमतो भिन्नः, युवाऽवस्थायाः शरीररूप आत्मा भिनश्च, अथ वाल्याऽवस्थावच्छरीराऽऽत्मना योऽनुभवः कृतः तं युवाऽवस्थास्थशरीराऽऽमा, कथं स्मत्तु शकनुयाद् ? एनामापत्ति दूरीकत्त, बालशरीग्युवशरीराभ्यां भिन्नः, शरीरयोद्धयोनिवसन् , एक एव स्वतन्त्र आत्मा, युष्माभिर्मन्तव्यः, अनेनात्मनैव बाल्यशरीरे स्थित्वैकस्य वस्तुनः, अनुभवः कृत आसीद , स एवाऽऽत्मा युवशरीरे स्थित्वा वस्त्वेतत् स्मरतीति ॥ १८ ॥ -चक्षुरादीनीन्द्रियाणि नात्मा- नाऽऽत्माऽग, विगमेऽप्यस्य तल्लब्धाऽनुस्मृतिर्यतः ।
व्यये गृहगवाक्षस्य तल्लब्धार्थाऽधिगन्तृवत् ॥११॥ टीका:-शरीरस्य च चक्षराधगमध्यात्मपदार्थत्वेन नोच्यते, विगमेऽप्यस्य तल्लब्धाऽनुस्मृतिर्यतः' यतः शरीरस्याऽगभूतस्य चक्षरादेर्विगमेऽपि-विनाशानन्तरमपि तस्याऽऽत्मनस्तेनाङ्गेनाऽनुभूतस्य प्रत्यक्षदृष्टस्य वस्तुनः स्मरणं भवति, यथा कश्चिद् गृही स्वपृहगवाक्षे स्थित्वाऽमुकं वस्तु पश्यति, ततोऽक
॥२४॥
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अध्यात्मसार:
॥२४॥
स्माद्गृह गवाक्ष ऋटिते मति, तेन गृहगवाक्षेण यदृश्यं चक्षुषा दृष्टं तस्य गृहिणम्तम्य स्मरणमवश्यं भवति, प्रकृतेऽप्येवं ज्ञेयम् , अथ चक्षरिन्द्रियाद्यात्मकमङ्गमेवाऽऽत्मा चेद् भवेत्तदा तस्याङ्गस्य नाशेऽपि तेनेन्द्रियेणाऽनुभृतस्य स्मरणं भवितु न शक्यते परन्तु स्मरणं तु भवत्येव तस्मात् तच्चक्षराद्यङ्गमपि नात्मा, आत्मा तु तदिन्द्रियव्यतिरिक्तः स्वतन्त्र आत्मपदार्थोऽम्तीति मन्तव्यमेव ॥ १९ ॥ -दोषस्य परिहारो दुर्निवार:
न दोषः कारणात्कार्ये, वासनासंक्रमाच्च ।।
भ्र गास्य स्मरणापत्ते-रम्बानुभवसक्रमात् ॥ २० ॥ टीका:-नन्वस्तु तावच भृताऽवयवानां विनाश::, परन्तु तेन यदनुभृतं तम्य या वासना, तस्मिन् पतिताऽऽसीत तस्या वामनायाः सङक्रमो देहे भवति, ततश्च देहम्वरूपस्यात्मन इन्द्रियादिनाऽनुभूतस्य पदार्थस्य स्मरणं भवति कारणभृताया वा सनायाः कार्ये सङक्रमोऽवश्यं भवति कारणमत्र चक्षहस्ताद्यङ्गं कार्यभृतं शरीरमिति चेन्न, एवं कथने तु कारणमस्ति माता, कार्य मम्ति गर्भस्थो घालः, अथ मात्रा चक्षुरादिना यदनुभृतं तस्य वासना तन्मातुः शरीरे पतिता; तद्वासनायाः कार्यस्वरूपे वाले सङ्क्रमो भविष्यति, यद्येवं भवेत्तदा मात्राऽनुभृतस्य वस्तुनः, स्मरणं गर्भस्थबालस्य भविष्यतीत्यापत्तिरागमिष्यति ततो वासनासक्रमकथनेन पूर्वोक्तदोषो दुर्निवारः ॥ २० ॥
॥२४॥
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अध्यात्मा
सारः
॥२४२।।
नोपादानोपादेयभावो यत्र तत्र वासनासक्रमः
नोपादानादुपादेय-वासनास्थैर्यदर्शने ।
करादेस्तु तथात्वेना-योग्यत्वाप्तेरणुस्थितो ॥ २१ ॥ ___टीकाः ननु यत्र कार्यकारणभावस्तत्र वासनासक्रम इति न बमः परन्तु यत्र कारणमुपादानं कार्य चोपादेयं तत्र वामनामङ्कम इति ब्रमः, मातृवालकमध्ये कार्यकारणभावे सत्यपि नोपादानोपादेयभावोऽतो न पूर्वोक्तापत्तिरिति चेन्न क्षणिकदर्शने तु पूर्वस्मात्परमाणुपुञ्जादुत्तरपरमाणुपुञ्ज उत्पद्यते, तत्र तु नम्योपादानस्य वामनायाम्तम्योपादेये संक्रमो भवेत, परन्तु स्थिरपरमाणुवादपक्ष इदं न घटते, इदमत्र हृदयम्=परमाणव एव तत्वमिति मान्यताया, 'अवयत्रीति न वस्तु. इति वादे, उपादानस्वरूपपूर्वपरमाणुपुञ्जस्य चोपादेय उत्तरपरमाणपुञ्जोऽस्तीति पक्षे तदनन्तरमेवमुच्यते, यत्पूर्वोत्तरपरमाणुभावो मातरि वाले च नास्ति, तम्मात्तत्र वामनासंक्रमाऽऽपत्तिनास्ति, तम्न समञ्जमम् , यतः स्थिरपक्षे परमाणुस्तु नित्य एव, तत्र च परमाणी उपादेयत्वं कथं घटेत ? यन्नित्यं तदुपादेयं जन्यं कथं भवेत् १ (शङ्का) यत्रावयवावयविभावस्तत्रोपादानोपादेयभावो ग्राह्यस्तत्रैव वासनामंकमी वाच्यः, मातृबालमध्येऽवयवाऽवयविभावो नास्ति, ततो वामनामंक्रमाऽऽपत्तिनागमिष्यतीति चेत (समाधानं) यच्छिन्नहस्ताद्यस्ति, तत्र तद्धस्तादि, एतच्छरीरस्योपादानं नास्ति, एवं तत्रोपादानोपादेयभावो नास्ति, तथापि विच्छिन्नकरादिना
॥२४२॥
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अध्यात्मसार
॥२४३11/
ऽनुभूतस्य खण्डावयविशरीरे स्मरणं भवत्येव, यत्राऽवयवाऽवयविभावस्तत्रत्य एवोपादानोपादेयमावे यदि वासनामंक्रमस्य नियमः स्यात्तदाऽत्र शरीरस्य विच्छिन्नकगनुभृतम्य स्मरणाभावाऽऽपत्तिरागमिष्यति, इदमत्र मारम् =निन्य परमाणुत्वेन येषां स्थितिस्तत्रोपादानोपादेयभावस्यैवाऽयोग्यताऽस्ति, विच्छिन्नकरादौ च खण्डशरीरम्योपादानत्वाभावेनोपादानोपादेय भाव एव नास्ति, ततस्तत्राऽम्मरणापत्तिरागच्छेत् , ततः स्थैर्य दर्शने, उपादानोपादेयमावो वासनासंक्रमस्य निगमको न वक्तु शक्यते, एवं स्थिते पुनर्मातुरनुभवम्य, वासनाया बाले सङ्क्रान्तो तस्य स्मरणापत्तिः स्थितेवेति ॥२१॥
-मद्याऽगेभ्यो मदव्यक्तिरपिनो मेलक विना'मद्याऽगेभ्यो मदव्यक्ति-पि नो मेलकं विना।
ज्ञानव्यक्तिस्तथा भाव्याऽन्यथा सा सर्वदा भवेत् ॥२२॥ टीकाः-किश्च 'मद्याऽङ्गसमुदाये सति मदशक्तिवत्पश्चभूतसमुदाये चैतन्यम्य यो विषयः पूर्वोक्तः स तु न सत्यः यतो मदिराया उपादानभूताऽङ्गानां सत्त्वमात्रेण तत्र मदो नोत्पद्यतेऽन्यथा सर्वदा मदः किं नोत्पद्यत ? ततस्तत्राऽपि, एतेषामङ्गानां मेलकः कश्चित्पुरुषोऽवश्यं तिष्ठत्येव, एवंरीत्या पञ्चभूतानां मेलकारिका काचिज्ज्ञान (चेतन) व्यक्तिरवश्यं तिष्ठत्येव, स व्यक्तिरूप आत्मैव, एवं युष्मद्दत्तदृष्टान्तेन प्रत्युत स्वतन्त्रस्याऽऽत्मनः सिद्धिर्भवतीति ॥२२॥
॥२४३॥
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अध्यात्म सार:
॥२४४॥
-राजरकादिवैचित्र्यं न स्वाभाविकमप्यात्मकृतकर्मजन्यं'राजरङ्कादिवैचित्र्यं-मप्यात्मकृतकर्मजम् ।
सुखदुःखादिसंवित्ति-विशेषो नाऽन्यथा भवेत् ॥२३।। टीकाः-तथा च युष्माभी राजरकादिवैचित्र्यं स्वाभाविकं कथितं नन्न समचतुरस्रम् , यतो । यद्यम्य वैचित्र्यस्य पृष्ठे न कोऽपि हेतुर्भवेत्तदा जगतः सर्वे जना गजानः किं न भवेयुः? अथवा सर्वे रङ्काः किं न म्युः ? इदृशं तु नास्त्येव, ततो विचित्रकार्य प्रति विचित्रं कारणमिति मन्तव्यमेव, यत्कारणं तदेव कर्म, यादृशं यम्य कर्म, तादृशं तस्य फलम् , शरीरेऽसम्भवत्कर्म, तदधिकरणं शरीराद् भिन्न आत्मैव हा स्यान्नाऽन्यः, यद्यवं न मन्येत तदा भिन्नभिन्नजीवानां सुखदःखादिविषयिण्यश्चित्रा अनुभूतयो या भवन्ति ताः मथा न घटन्ते, सुखदुःखादिमंवित्तिविशेः कर्माऽनुमीयते, तत्कर्माधिकरणमात्मा सिद्धः ॥२३॥
- आगमादात्मा गम्यते 'यागमाद् गम्यते चात्मा, दृष्टेष्टार्थाविरोधिनः । तद्रक्ता सर्वविच्चैन, दृष्टवान्वीतकश्मलः ॥२४॥
२४४।
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अध्यात्म
सार:
||२४५॥
टीक जी.श्च 'आगमेषु परस्पर विरोध दर्शयित्वाऽऽगमप्रमाणत आत्मा न सिद्धयतीति यत्कथितं तन्त्र युक्तम् , यतो जिनोक्तमागमवचनं रष्टेष्टार्थाऽविरोधि वर्तते, सर्वे दृष्टार्थाः-प्रत्यक्षादिसर्वप्रमाणे: प्राप्यार्थाः, इष्टार्थाः आगमवचनतः एतेऽर्थाः कथितास्त इष्टार्थाः, यद्वस्तु यारशं दृश्यते, तद्वस्तु तादृशमेव शास्त्रोक्तं भवेत्तदा तु वस्तु दृष्टं चेदं कथ्यते, दृष्टेष्टार्थाऽविरोधिन आगमस्य वक्ता सर्वज्ञोऽस्ति, एतेन वीतरागमर्वनाऽऽत्मा प्रत्यक्षेण दृष्टोऽप्यस्ति, एवमविरुद्धजिनागमप्रमाणतोऽप्यात्मा सिद्धयति ॥२४॥
-अभ्रान्तानां प्रवत्तयो न विफला:'अभ्रान्तानां च विफला नाऽऽमुष्मिक्यः प्रवृत्तयः ।
परवञ्चनहेतोः कः, स्वाऽऽत्मानमवसादयेत् ॥२५॥ टीकाः-यद् युष्माभिरुक्तं च 'आन्मादिमत्कवार्ताकारका धूर्ताः सन्तीति तत् सर्वथा मूलरहितं यत आत्मादितत्त्वप्रणेतारः सर्वज्ञा वीतरागा आसन , सर्वज्ञगतं ज्ञानमभ्रान्तं, अभ्रान्तज्ञानिनः सर्वज्ञाः स्वर्गापवर्गमाधिकाः परलोकहितसम्बद्धप्रवृतीरुपादिशन्ति, ताः प्रवृत्तयो विफला न भवन्ति, किच ये वीतरागास्ते परान वञ्चयितु कदाचिदपि न प्रवर्तन्ते, वीतरागता चेत्कथं माया, माया चेत्कथं वीतरागतां द्वयोमिथा महान् विराधः ॥२५॥
PA॥२४५||
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अध्यात्म सारः
॥२४६॥
-संशयादेवाऽऽत्मनः सिद्धि:'सिद्धिः स्थागवादिवद्व्यक्ता, संशयादेव चाऽऽत्मनः ।
श्रसो खरविषाणादो, व्यस्तार्थविषयः पुनः ॥२६॥ टीका:-नियमः यस्य संशयस्तद्वस्तु क्वचिदपि विद्यत एव, दूरस्थे वृक्ष स्थाणुर्वा पुरुषो वेति सन्देह एनं विषयं साधयति यत पुरुषात्मकं वस्तु जगन्यवश्यं विद्यत एव, यदि पुरुषात्मकं वस्तु कुत्र चिन्न स्यात्तदा घृक्षे पुरुषविषयकः सन्देहो न स्यात् , एवंरीत्या 'आत्माऽस्ति किं नवा ? इति संदेहावस्थेवं कथयति आत्माऽऽत्मक वस्तु स्वतन्त्रतया कुत्राऽप्यवश्यमस्त्येव ननु जगति 'खरविषाणमस्ति नवा इति संशयस्य विषयः खरविषाणं ग्राम्य विषाणं जगति न विद्यते. संशयस्य विषयम्यास्तित्वं कथं नति चेदस्य संशयस्य विषयः खरस्य विषाणं नास्ति, परन्तु खरस्य मस्तके विषाणस्य समवायोऽस्ति यतः खविषाणमस्ति नवा ? इत्येतस्य प्रश्नस्याकार एवं भवति यत् 'खरस्य मस्तके विषाणस्य समवायोऽस्तिनवा'? एवमत्र विषाणस्य समवायविषयकः संदेहोऽस्ति, एतम्य सन्देहस्य विषयो विषाणस्य समवायो जगति गवादिमस्तके प्रसिद्धोऽस्त्येव 'खरविषाणमस्ति नवा ? एतादृशमंशयविषये खरविषाणरूपपदद्वयं ममम्तमस्ति, एतत्पदद्वयस्य योजकः समवाय इति व्यस्तं पदं, यतः समवायपदं पूर्वोक्तममासस्य पदत्वेन
Kath
॥२४६॥
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अध्यात्मसारः
१२४७॥
न ब्रायते, एतव्यस्तसमवायपदस्याऽर्थः समवायसम्बन्धोऽस्ति, अत्र व्यस्तार्थरूपविषाणसमवायसम्बन्ध विषयकमंशयोऽस्ति, तस्मादेष संशयो व्यस्तार्थविषयकः कथ्यते इति ॥२६॥
-जीवनिषेधकाऽजीवशन्दत आत्मत्वसिद्धिः'अजीव इति शब्दश्च, जीवसत्तानियन्त्रितः ।
असतो न निषेधो यत् , संयोगाऽऽदिनिषेधनात् ॥२७॥ टीका:-अजीवशब्दोऽपि प्रतिषेधमुद्रया जीवस्याऽस्तित्वं साधयत्येव, यदि जीवो नास्तित्वाच्छिनो भवेत्तदा तस्य प्रतिषेधोऽजीवपदेन न सून्येत, मतो निषेध इति न्यायः, केनचिदेवं न कदाचित्कथ्यते यत् 'खरविषाणं न दृश्यते' यतः खरस्य विषाणमेवाऽसदस्ति, असतो न निषेधो भवति-अविद्यमान वस्तुनो निषेषो भवितु नाहति, यतस्तत्र तु संयोगादिसम्बन्धस्यैव निषेधो भवति, यथा 'खरविषाणं नास्त्यत्र खरस्य मस्तके विषाणस्य समवायसम्बन्धो नास्तीत्यर्थः ॥२७॥
-वस्तुतः पदार्थः सवर्था न निषिष्यते किन्तु तत्तत्संयोगादिनिषिध्यते
संयोगः समवायश्च, सामान्यं च विशिष्टता । निषिद्धयते पदार्थानां, त एव न तु सर्वथा ॥ २८ ॥
।२४७॥
in
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अध्यात्म
सार:
॥२४८॥
टीका:-वस्तुतः सत्पदार्थस्य निषेधः सर्वथा न भवति परन्तु वस्तुनिष्ठसंयोगसमवायसामान्यविशे षाऽन्यतमो निषेधः, तथाहि संयोगनिषेधा-शरीरे जीवो नास्तीति वाक्यं, सर्वथा जीवं न निषेधति अर्थाज्जगति कुत्रापि जीवो नास्तीति न प्रतिषेधति, परन्तु शरीरे जीवसंयोगसम्बन्धो नास्तीति निषेधं करोति तत एवं सिद्धयति शरीरादन्यत्र जीवोऽवश्यं विद्यते, समवायनिषेध ' एवमेव रीत्या कपाले घटो नास्तीत्यत्रापि कपाले घटस्य समवायसम्बन्धो नाम्ति, एष एवार्थो भवति एवमत्रापि घटस्य मर्वथा निधो नाम्ति परन्त घटममवायस्येव कपाले निषेधो जातोऽस्ति 'सामान्यनिषेधः =द्वितीयचन्द्र आकाशे नास्तीत्यत्र विद्यमानचन्द्रादन्यत्र चन्द्रसामान्यनिषेधः क्रियते, न तु सर्वेषां चन्द्राणां सर्वथा निषेधो जातोऽस्ति, विशेषनिषेधः =घटप्रमाणानि मौक्तिकानि न सन्ति अत्र घटानां वा मौक्तिकानां न निषेधः क्रियते परन्तु मौक्तिके घटे. यत्तारूपप्रमाणनाविशेषस्यैव निषेधःकृतः, इदमत्र सारंपदार्थस्य निषेधो वस्तुतः पदार्थस्य सर्वथा निषेधरूपो नास्ति परन्तु पदार्थस्य तत्तत्संयोगादिसम्बन्धनिषेधपर्यवसायी भवतीति ॥२८॥
जोवपदेन जीवसिद्धिः'शुद्धं व्युत्पत्तिमज्जीवपदं सार्थ घटादिवत् । तदर्थश्च शरीरं नो पर्यायपदभेदनः ॥ २१ ॥
॥२४८
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अध्यात्म सार
||२४९॥
टीका:-यत्पदं व्युत्पत्तिमाच शुद्धं भवति. तत्पदं मार्थ यथा घटादिकं, घटपदं शुद्धं समासरहितं व्युत्पत्तिमतव्युत्पत्तिविशिष्टं, यथा घटते-चेष्टते जलाहरणादिकायेंषु इति घटः, एतादृशी व्युत्पत्ति र्घटस्य प्रमिद्धाऽस्ति, ततो घटपदवाच्योऽथों यो घटः, स घटो जगत्पवश्यं विद्यते एवं अनयैव रीन्या जीवपदमध्यममम्तत्वेन शुद्धपदम् , किश्चाऽजीवज्जीवति जीविष्यतीति तम्य व्युत्पत्तिरपि भवति ततोजीवपदवाच्योऽथोंजीवः, जगति विद्यत एव, डित्थडवित्थादिपदानि, अममम्तपढत्वेन शुद्धानि सन्त्यपि तेषां काचिद् व्युत्पत्तिन भवति, अत एतानि यादृच्छिकानि पदान्युच्यन्ते. ततो डिन्थादिपदवाच्यः कश्चिदर्थो जगति न विद्यते. 'शशशङ्गपदं व्युत्पतिमत्पदमस्ति परन्तु समस्तत्वेन नास्ति शुद्धं अतस्तद्वाच्यभूतशशशजरूपोऽर्थोऽपि जगति न विद्यते, अर्थाद् यच्छुद्धं व्युत्पत्तिमच्च पदं भवति तद्वाच्योऽथों जगति विद्यमानएव जीवपदमपि तारशमेवाऽस्ति अतस्तद्वाच्योऽथों जगति विद्यमानः सिद्धयति. ननु जीवपदवाच्योऽर्थः शरीरं कथं न ? इति चेदच्यते "नदर्थव शरीरं नो पर्यायपदभेदतः' यदि शरीरमेवाऽऽन्मा स्यात्तदाऽभिधानकोशादी शरीरात्मानो द्वो शब्दो पर्यायवाचकत्वेन कथितौ स्याताम् , तथा तो पर्यायौ न स्तः, शरीरपर्यायवाचकाः शब्दा भिन्नाः, कथितास्तत्रात्मरूपशब्दो न वर्णितः, आत्मपर्यायवाचकशब्देषु न शरीरशब्द उपन्यत: २९ ॥
- चार्वाकदर्शनं सर्वथा त्याज्यम्
२४९॥
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अध्यात्म सार:
॥२५॥
थात्मव्यवस्थितेस्त्याज्यं, ततश्चार्वाकदर्शनम् ।
पापाः किलैतदालापाः, सद्व्यापारविरोधिनः ॥३० ॥ टीका:-अनया रीत्या यदा शरीरतः कथश्चिद्भिन्नस्वरूपस्य स्वतन्त्रस्यात्मनोऽस्तित्वं सिद्धं भवति तदाऽऽत्मानमपहनुवानं चार्वाकदर्शनं त्यागयोग्यं भवत्येव मोक्षमाधकसदनुष्ठानविरोधिन एतस्य दर्शनस्य वासि स्वरूपतः पापानि पापानामालापानां श्रवणेऽपि पापं यत एतस्य फलानि, दुर्गतेः पापानुवन्धरूपान्येवेति ॥ ३० ॥ बौद्धमतस्य प्रतिपादनम् -
'ज्ञान क्षणाऽऽवलीरूपो, नित्यो नाऽऽत्मेति सौगताः। क्रमाक्रमाभ्यां नित्यत्वे, युज्यतेऽर्थक्रिया नहि ॥३१॥ स्वभावहानितोऽधौव्यं, क्रमेणार्थक्रियाकृतौ ।
अक्रमेण च तद्भावे, युगपत्सर्वसम्भवः ॥ ३२ ॥ टीकाः-बौद्धः शरीरादात्मा, स्वतन्त्रः पदार्थोऽस्तीति वयमवश्यं स्वीकुर्मः, परन्तु स आत्मा नित्योऽस्तीति न स्वीकुमः, यत आत्मा तु ज्ञानक्षणावलिस्वरूपोऽस्ति, अर्थात् ज्ञानक्षणसन्तानस्वरूप आत्माऽस्ति,
॥२५॥
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अध्यात्मसार
॥२५॥
यस्मिन् क्षणे एष आत्मोत्पद्यते तस्मिन क्षणे स तिष्ठति द्वितीयक्षणे तु स सर्वथा विनश्यति एवं क्षणे क्षणे नवं नवं ज्ञानमुत्पद्यमानमस्ति, एतादृशी या ज्ञानक्षणानां धारा स एवाऽत्माऽस्ति, बौद्धप्रश्न: युष्मदमिमता नित्य आत्माऽथक्रियां करोति, म कि क्रमेण चाऽक मेण करोति ? क्रमेण कथ्यमाने प्रथमक्षणे तस्याऽमुककार्यकरणस्वभावो य आसीत् स तु नष्टो, द्वितीयक्षणे च द्वितीयकार्यकरणस्वभाव उत्पन्नः, सोऽपि पश्चान्नष्टः, तृतीयक्षणे तृतीयकायकरणस्वभाव उत्पन्नः, अथ यद्यनया रीत्या प्रतिक्षणं स्वभावस्य हानिभवने तु, आत्मा स्वत एव क्षणिकः सिद्धो मवेदेव, स्वभावनाश एवाऽऽत्मनाशः कथ्यते यतः स्वभावं विना वस्तुनः सत्ता भवितुनाऽहति, यदि नित्य आन्मा योगपद्येन कार्य करोति इत्येवं कथनं भवेत्तदा प्रथमक्षण एव युगपद्-अक्रमेणाग्रेतनमर्वक्षणानामर्थक्रियायां तत्रैव पूर्णताऽऽपत्तिरागच्छेत , एवं क्रमेण वाऽक्रमेणाऽपि नित्याऽऽत्मनि, अर्थक्रियाकारित्वं न घटत एच, तत आत्मा क्षणिको मन्तव्यः ॥३१॥३२॥ - वुर्वेदुरूपविशेषिते क्षणिके न दोपः
क्षणिके तु न दोषोऽस्मिन् , कुर्वपविशेषिते ।
ध्रुवे क्षणोत्थतृष्णाया निवृत्तेश्च गुणो महान् ॥ ३३ ॥ टीका:-ननु क्षणिक आत्मा प्रतिपलं किं कार्यकरणस्वभाववानस्ति १ इति चेनाऽऽत्मा कुद्रूपेण विशिष्टो यदा भवति तदेव कार्यमुत्पादयत्यन्यथा न, कुर्वद्रूपत्वं तु कार्यकरणशक्तिलक्षणं, यस्मिन् क्षणे
॥२५॥
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अध्यात्म
मार:
॥२५२॥
ऽयक्रिय भवति, तम्याः पूर्वक्षणे, आत्मा कुद्पेण विशिष्ठो भवति किन य आत्मानं क्षणिकत्वेन न मन्यत तेषां तु 'अहमस्मि' इति तादृशं ध्रवनिरीक्षणरूपमात्मदर्शनमवश्यं भवत्येव तथा तस्य पुनर्जन्महेतुभूनताणाऽपि भविष्यति. अर्थात्तस्याऽऽत्मन उपरि स्नेहो भाव्येव ततः स, आत्मा सुखस्य साधनानि प्रति द्रुतं २ गच्छत्येव यद्याऽऽत्मानं ये क्षणिकत्वेन मन्यन्ते तेषामहमस्मीति आत्मदर्शनं न भविष्यति तत आत्मोपरि स्नेहो न भावी ततः सुखसाधनानि प्रति द्रुतं २ न गमनं भावि एवं नित्याऽऽत्मदर्शनं वैराग्यस्य विधि भवति यदा क्षणिकाऽऽत्मदर्शनं तृष्णानिवृत्तिरूपं गुणं प्रापयत्येवेति ॥ ३३ ॥ बौडमतस्य वण्डनम्
मिथ्यात्ववृद्धिकृन्नूनं, तदेतदपि दर्शनम् ।
क्षणिके कृतहानिर्य-तथाऽऽत्मन्यकृतागमः ॥ ३४ ॥ टीका:-'मिथ्यात्ववृद्धिकृन्ननं तदेतदपि दशनम्' यथा पूर्वोक्तं चार्वाकदर्शनं मिथ्यात्वं-मिथ्याबुद्धिं वर्द्धयने, तथैतदपि चौद्धदर्शनं मिथ्यामतो वृद्धि कगेत्येव, यद्यात्मा, मर्वथा क्षणिको भवेत्तदाऽन्मुकक्षणे येन कृतानि पुण्यादिकार्याणि तेषां फलाना हानि भविष्यति, येवागामिक्षणेषु फलं भावि, तेषु क्षणेषु त्वेष आत्मा न स्थित आसीत , किश्चाऽनन्तरमणेषु यो नव आत्मोत्पन्न आमीत , तेन तु धर्मादिकार्याणि न कृतानि तथापि तस्य सुखादिफलप्राप्तिर्भविष्यति, एवं प्रथमक्षणस्थेन कृतधर्मादिकार्येणाऽऽत्मना न
||२५२॥
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सास
॥२५३॥
तत्फलं प्राप्स्यते, अकृतधर्मादिकृत्यो नव आत्मा, तत्सुखादिफलं भोक्ष्यति कृतधर्मादिकृतजन्यफलध्वंस:, धर्मादेरकरणेऽपि अकृतकृत्यफलस्वरूपसुखादिफलागम इति द्वौ दोषावागमिष्यतः, इति ॥३४।। एकद्रव्याऽन्वयाभावान वासनासक्रमः
एकदव्याऽन्वयाऽभावाद्, पासनासंक्रमश्च न ।
पौर्वापय्यं हि भावानां, सर्वत्रातिप्रसक्तिमत् ॥ ३५ ॥ टीका:-ननु अस्माकं क्षणिकाऽऽत्मवादेकृतनाशाऽकृतागमरुपो द्वौ दोषो नाऽऽगमिष्यतः, यतो वयं वासनासक्रमं मन्यामहे तथाहि आत्मन एकान्तक्षणिकत्वेन प्रत्येकक्षणेषु नाशो भवतु परन्तु तत्तरक्षणरूप आत्मा, स्वस्थानां बासनानामुत्तरोत्तरक्षणेषु सङ्क्रमं करोत्येव पूर्वक्षणीयधर्मादिवासनारूपे कारण आगते, तस्याः मुखादिफलमवश्यं स भुक्ते इति चेदुच्यते; युष्मन्मते प्रत्येकक्षणरूपम्य प्रत्येकात्मनो निरन्वयनाशो भवति, अथ यदा प्रथमक्षणीय आत्मा, सर्वथा नष्टस्तदा तस्य नष्टस्यात्मनो वासना कथं द्वितीयक्षणे नवोनाऽऽत्मनि सङ्क्रान्ता भविष्यति ? यदि प्रत्येकात्मनो निरन्वयनाशो नाऽभविष्यत्तदाऽवश्यमान्मद्वयमध्ये कश्चित् सम्बन्धोऽभविष्यत् , ततश्च तद्वारा वासनासक्रमोऽपि स्यात , परन्तु तादृशः कश्चिदेकद्रव्यस्यान्वयस्तु नास्त्येव, तस्माद् वासनासक्रमोऽसम्भवाऽऽक्रान्तः, किञ्चैकः पूर्वेक्षणरूप आत्माऽस्ति, द्वितीयश्रोत्तरशणरूपात्माऽस्ति, तादृशं यद्यात्मादिभावानां पौर्वापर्य यूयं मन्यच्चे तदा ततः
४॥२५३॥
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अध्यात्म
सार:
॥२५४॥
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कश्चिद् वासनासङ्क्रमो नोपपद्यते, यतो यथाऽमुककनामकात्मन उत्तरक्षणे तस्य कनामकात्मनः सजातीय आत्माsस्ति, तथा द्वितीयखनामकादय आत्मानोऽपि कुतो न सन्ति १ एवं भवने कनामकाऽऽत्मखनामात्मनोर्मध्येऽपि पौर्वापर्यभावे सति कनामक्रात्मनोवासनाया, उत्तरक्षणीयखनामकात्मनि सङ्क्रमाऽतिप्रसक्तिरूपपत्तिरागच्छेत् एवं यस्मिन् कस्मिविदुत्तररूपात्मक्षणे यस्य कस्यचित्पूर्वक्षणीयाऽऽत्मक्षणस्य वामनासकमस्याऽतिप्रसक्तिरूपापत्तिरापद्येतेति ||३५||
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- कुवंरूपविशेषे च न प्रवृत्तिर्नवाऽनुमाकुद्रपविशेषे च प्रवृत्तिमा श्रनिश्चयान्नवाऽध्यक्षं, तथा चोदयनो जगौ ॥ ३६ ॥
टीका:- ननु यः पूर्वक्षणीयात्मनि, उत्तरक्षणीयाऽऽत्मनः स्मरणानुकूलः कुर्वद्रूपविशेषो भवेत्, तत्पूर्वक्षणीयाऽऽत्मनो वासनाया एव तदुत्तरक्षणीपतदात्मनि संक्रमो भवतीति ब्रूमो यथा कुशूलस्थे बीजेऽङ्कुरोत्पादानुकूलकुर्वद्रूप विशेषो नास्ति, यदा क्षेत्रस्थे बीजे तादृशः कुर्वद्रूपविशेपोऽस्ति तस्मादेवाऽकरोत्पादो भविष्यति, एवं कुवंरूपविशेषविशिष्टस्तत्तन्पूर्वक्षणीयक्षणिक पदार्थस्वीकारे यस्य कस्यचित्पूर्वक्षणीयान्मानुभवस्य वासनाया यस्मिन् कस्मिंश्चिदुत्तरक्षणाऽऽत्मनि सङ्क्रमाऽऽपत्तिर्न भविष्यतीति चेम, कुर्वद्रूपविशेषवति क्षणिकपदार्थे कश्चिन्न प्रवर्त्तते इदं क्षणिकत्रीजं कुर्वद्रूपविशेषवदस्ति' इति, तवस्तस्मिन्न
॥२५४॥
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अध्यात्म
सार:
॥२५५॥
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कुरोद्देशेन प्रवृत्तिं कुर्यामिति कस्यचिदपि न प्रतिभाति (१) यथा कुर्वद्रूपविशेषवति क्षणिकपदार्थे न कोsपि प्रवर्त्तते तथा क्षणिक पदार्थस्य क्षणिकत्वस्यानुमानं तत्र न प्रवर्त्तते (२) क्षणिकत्वविषयकनिश्चयंसविकल्पज्ञानं विना क्षणिकत्वस्य निर्विकल्प प्रत्यक्षमपि न सम्भवतीति (३) एवं क्षणिकवादे प्रवृत्तेरभावः, अनुमितेरभावः, प्रत्यक्षस्याभावश्च मन्ति ततः कयाऽपि रीत्या पदार्थे क्षणिकत्वस्य सिद्धिर्न भवतीति ॥ ३६ ॥ - उदयनाचार्येण कुसुमाञ्जलिग्रन्थस्य प्रथमस्तबके षोडश्यां कारिकायां यः श्लोको रचितोऽस्ति स एव श्लोक उपाध्यायजीमहाराजेनोक्त विचारस्य साक्षित्वेनाऽथोल्लिरूयते'न वैजात्यं विना तत् स्यान्न तस्मिन्ननुमा भवेत् ।
विना तेन न तत्सिद्धि र्नाऽव्यक्षं निश्चयं विना ||३७||
टीका :- (बौद्धा:) कुमूलस्थाद् बीजादङ्कुरो नोत्पद्यते तद्बीजं च क्षेत्रे पतितं यदा ततोऽकुर उत्पद्यते तत्र किं कारणम् १ नैयायिकाः = पृथ्वीजल पूर्यकिरणादिसहकारिकारणानि क्षेत्रे मिलितानि तानि कारणानि कुसूले न विद्यन्ते ततः क्षेत्रे तत् बीजपतनाऽनन्तरं तत्तत्सहकारिकारणैरङ्कुरः स्फुटति, कुम्ले तु न (बौद्धाः ) - यदि कुसूलस्थं बीजं क्षेत्रस्थं बीजमेकमेव भवेत् तदा तद्वीजं क्षेत्रगमनाऽनन्तरं कथमङ्कररूपं कार्यमुत्पादयेत् १ यद्यङ्करोत्पादस्वभाववद् भवेत्तदा प्रथमत एव कुमले तत् बीजमासीत् ॥२५५॥ सदैव किमकुरं नोत्पादयेत् १ ततो मन्तव्यमेव बीजमेकं नास्ति, कुसूलस्थं यद् बीजमस्ति तदेव बीजं
,
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अध्यात्मसारः
॥२५६॥
क्षेत्रे नास्ति, परन्तु बीजदयं सर्वथा भिन्नमेव, यो जियोरेकताया यन्बानं भवति तद् भ्रमात्मकं, पदार्थमात्र क्षणिकमस्ति प्रथमे क्षणे उत्पद्य द्वितीयक्षणे सर्वथा विनश्यति, नैयायिका:-यद्येवं स्यात्तदा व्रत यूयं कुसूलस्थात् क्षणिकाद् बीजाद?रकार्य किं न जातम् १ वयन्तु कथयिष्यामस्तत्र भूजलसंयोगादिरूपसहकारिकारणाभाव आसीत् (बौद्धाः) कुम्लस्थे बीजे कुर्वद्रूपनामकोऽतिशयः (वैजात्यं) नाऽऽसीत , तद्धेतना ततोऽकुरकार्य न जातं क्षेत्रस्थे बीजे सोऽतिशय आसीत् , ततोऽङ्कुरकार्य जातम् , नैयायिका: वैजात्यं स्वीकृत्य वस्तुमात्रे क्षणिकत्वं सिद्धं कुर्वद्भिरपि वैजात्यस्वीकारेणेव क्षणिकत्वं साधयितुन शक्यते, तथाहि-यथा धूमबीजादिकारणेषु तेजात्यमङ्गी कृतं तथा वह्नि-अङ्कुरादिकार्येष्वपि तैवेंनान्यं स्वीकरणीयमेव, यतो विजातीयधृमादिभिर्यः कश्चिदग्निः (अग्नि-सामान्य) उत्पद्येताऽर्थात् कारण विशेषेण कार्यविशेष एव जायेत (कार्यमामान्यं न) एवं स्वीकागपत्तिरेव, एवं कारणविशेषेण कार्यविशेषस्यैवाऽनुमानं स्यादिति निश्चयो जातोऽर्थात् कारणमामान्येन कार्यसामान्यस्याऽनुमानोच्छेदो जातः, अतोऽथ प्रश्नो भवति यत् क्षणिकत्वस्य सिद्धिःकयारीत्या कार्या ? 'यत्सत् , तत् क्षणिकमिति सामान्य विषयकमनुमानं तैर्न कथनीयं स्यात् , यद् वैजात्यस्वीकारं विना क्षणिकत्वं न स्वीकरणीयं स्थात , तद्वै जात्यस्वीकार कृतेऽनुमानोच्छेद आगतः अर्थादनुमानसामान्यं विना क्षणिकत्वस्य पदार्थेऽनुमानमपि न भवेदिति (बौद्धाः)-माऽस्तु पदार्थेऽनुमानतः क्षणिकत्वस्य सिद्धिः परन्तु निर्विकल्प
॥२५६॥
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अध्यात्मसारः
॥२५७
प्रत्यक्षतस्तु क्षणिकत्वस्य मिद्धिर्भविष्यति, कथं न भविष्यति ? निर्विकल्पकप्रत्यक्षन्तु वयं प्रमाणं मन्यामहे नैयायिका:-विकल्प-निबयं विना तु निर्विकल्पप्रत्यक्षं प्रमाणभूतं भवितुनाईति, क्षणिकत्वस्य च विकल्पो-निश्चयस्तु न भवति, ततो निर्विकल्पकप्रत्यक्षेण पदार्थे क्षणिकत्वस्य सिद्धि ने भवति, अतो युष्मदीयः क्षणिकवादो मिथ्येति निश्चितम् ॥३७॥
-एकताविषयकं प्रत्यभिज्ञानं क्षणिकत्वं बाधत एव'एकताप्रत्यभिज्ञानं, क्षणिकत्वं च बाधते ।
योऽहमन्वभवं सोऽहं स्मरामीत्यवधारणात् ॥३८॥ टीका:-किश्चाऽऽत्मैवमवधारयति यत 'योऽहमन्वभवं सोऽहं स्मरामी'त्यत्र भूतकालीनवर्तमानकालीनाऽत्मन्येकताया-अभेदस्य यो निश्चयो भवति, एवमेकताप्रत्यभिज्ञानमेवं दर्शयति यदात्मा क्षणिको न भवति, यद्येवं स्यात्तदाऽनुभवकर्ता, स्मरणकर्ता च द्वौ एक एव न भिन्नावित्यवधारणमसम्मवीति ॥३८॥
-आत्मन्येकताविषयस्य वाधाभाव:'नास्मिन विषयबाधो यत्, क्षणिकेऽपि यथैकता । नानाज्ञानाऽन्वये तद्धत्, स्थिरे नानाक्षणाऽन्वये ॥३॥
॥२५७॥
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अध्यात्मसार
॥२५८॥
टीका:-आत्मनि, एकताया विषयस्य बाध:-अमावो नास्त्येव, यतो यथा युष्मन्मते ज्ञानस्य झणिकत्वेऽपि 'नानाज्ञानाऽन्वये अनेकज्ञानसन्ततो यथैकताया भानं बाधितं नाऽस्ति तथा स्थिराऽऽत्मबादेऽपि 'नानाक्षणा,न्वये अनेकज्ञानसम्बन्धवति स्थिर आत्मनि, एकता किं न घटेताऽर्थात् सर्वथा घटत एव, एवं यदाऽऽत्मनि, एकतायाः प्रत्यभिज्ञानं सिद्धं जातं, अथ तत्र क्षणिकत्वं न सम्भवतीति ॥१९॥
-नित्याऽऽत्मनि, अर्थक्रियाकारित्वस्य स्याद्वारसंनिवेशेन विरोधो न'नानाकायैक (क्य) करणस्वाभाव्ये च विरुद्ध्यते ।
स्यादादसंनिवेशेन, नित्यत्वेऽर्थक्रिया नहि ॥४०॥ __टीका:-ननु नित्याऽऽत्मवादेऽर्थक्रिया न घटते इति चेन्न, 'स्याद्वादमनिवेशेन' स्याद्वादमाश्रित्य, 'नानाकार्यककरण स्वाभाव्ये अनेककार्यकरणे एकः-केवलः स्वभाव आत्मनोऽस्ति, अर्थादात्मन एतादृशः केवलस्वभावोऽस्ति यत्सोऽनेककार्याणि क्रमेण कगेत्येव, एवमथ नित्याऽऽत्मनि, अर्थक्रियाकारित्वनामककार्यजनकत्वरूपस्वभावस्य विरोधगन्धोऽपि नास्तीति 'तद्भावाऽव्ययं नियमित्यपि स्मरणीयमत्र ॥४०॥
___-एकस्मिन् द्रव्येऽनेकस्वभावा युष्माभिरपि मन्तव्या:'नीलादावप्यतभेद-शक्तयः सुवचाः कथम् । परेणापि हि नाऽनेक-स्वभावोपगमं विना ॥४१॥
॥२५८॥
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बारः
॥२५॥
टीका:-किन नित्याऽऽत्मवादिनो वयं बोद्धान् पृच्छामः, यद् यद्येकस्मिभनेकस्वभावस्याऽस्वीकारे, त युष्माकमापतिरागमिष्यति, तथाहि-नीले नीलभिन्ना ये पीतादयः सन्ति, तेषामनेकपीतादीनामनेकमेदा नीले वर्त्तन्ते, एता अनेकभेदशक्तयः-स्वभावविशेषा नीले कया रीत्या युष्माभिः स्पष्टीकरिष्यन्ते १ अत एकस्मिभनेकस्वभावा युष्माभिरपि मन्तव्या एवेति ।।४।।
-अन्न क्षणिकवादे तु प्रेमनिवृत्तिनामको गुणोऽस्तीति विषयवण्डनम्'ध्रुवेक्षणेऽपि न प्रेम, निवृत्तमनुपप्लवात् ।
प्राह्याकार इव ज्ञाने, गुणस्तन्नात्र दर्शने ॥४२॥ टीकाः-चौद्धः कथितं यत् 'आत्मनि ध्रुवताया दर्शनेन तदुपरि रागो भवति, क्षणिकताया दर्शनेन रागस्य निवृत्तिरूपो गुणो भवति' तन्न चारु 'ध्रुवेक्षणेऽपि न प्रेम निवृत्तमनुपप्लवा' आत्मनि नित्यतायाः स्वीकारेऽपि तदुपरि प्रेम न सम्भवति प्रत्युत संक्लेशाऽमावे सत्युत्पद्यमानवैराग्यभावनया प्रेमैतभिवृत्तं भवति, एताहक्कश्चिनियमो नास्त्येकश आगतं वस्तु पश्चान्न निवर्तते यथा ज्ञानसन्ततो भिन्नभिन्न विषयाणा माकाग ग्राह्या भवन्तीति यूयं मन्यच्चे, ते च माझाऽऽकारा निवृत्ताः किं न भवन्ति ? यथा ज्ञानसन्तता बागच्छम्तो प्रायविषयाणामाकारा निवृत्ता भवन्ति तथा धूवाऽऽत्मनि प्रेमाऽपि निवृत्तं भवति, अर्थात 'अस्मिन क्षणिकवादे तु प्रेमनिवृत्तिनामकोगुणोऽस्ति' इति वस्तु सर्वथा न समञ्जसम् ॥४२॥
॥२५९॥
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अध्यात्मसार:
॥२६॥
- एकान्ताऽनित्यवादे बहुन् दोषान् प्रदश्यं कथंचिमित्यात्मा स्वीकायः -
'प्रत्युताऽनित्यभावे हि, स्वतः क्षणजनुर्द्धिया।
हेत्वनादरतः सर्व-क्रियाविफलता भवेत् ॥ ४३ ॥ टीका: एवमात्मनो नित्यत्वस्वीकारे तु न कश्चिद्दोष आगच्छति, प्रत्युताऽऽत्मादिकस्यैकान्ताऽनिन्यन्नस्वीकारे बहवो दोषा उपतिष्ठन्ते यतोऽत्र लोका एवं मन्यन्ते यत , आत्मा स्वत उत्पद्यते तदनन्तरं स्वती विनश्यति, अर्थादस्मदीयहिंसातः कोऽपि न म्रियते, रक्षणात कोऽपि न रक्ष्यते, अभयदानतः कोऽपि न जीव्यते किश्व-शुभकर्मबन्धतः सुखप्राप्तिः, अशुभकर्मबन्धतो दुःखप्राप्तिरित्यादिका अभिप्राया अपि भ्रान्ता भवन्ति शुभाऽशुभकर्मवन्धक आत्मा त्वनन्तरं नश्यति; ततः सुखादिकं कोऽनुभवेन् ? अथ यद्येवं सुग्वादावप्राप्ते सति शुभकर्मबन्धिका धर्मक्रिया अपि कः कुर्यात?
एवं सुखादिहेतुभूनकर्मणोऽनादेग्सति सर्वक्रियाणां निष्फत्वाऽऽपत्तिरप्यागच्छति, एतत् सर्वाऽऽपत्तिदरीकरण एक एवोपायोऽस्ति यत् आत्मा कञ्चित्रित्य इति स्वीकर्तव्य इति ।। ४३ ।। - बुडदर्शनमपि त्याज्यम्
तस्मादिदमपि त्याज्य मनित्यत्तस्य दर्शनम् । नित्यसत्यचिदानन्द-पदसंसर्गमिच्छता ॥ ४४ ॥
॥२६॥
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अध्यात्म
१२६१॥
टीका:-तस्मात्-पूर्वोक्तकारणात , नित्यसत्यचिदानन्दपदसंसर्गमिच्छता' अविनाशिसच्चिदानन्दस्वमावस्थानसम्बन्धं स्पृहयता मुमुक्षणा 'इदमपि त्याज्यमनित्यत्वस्य दर्शनम्' =पूर्ववदिदं शून्यवादप्रधानं बुद्धदर्शनं त्यागयोग्यमिति ।। ४४ ॥ - सारूयमतस्य प्रतिपादनम्
'न कर्ता, नाऽपि भोक्ताऽऽत्मा, कापिलानां नु दर्शने।
जन्यधर्माश्रयो नायं, प्रकृतिः परिणामिनी ॥ ४५ ॥ टीकाः-साङ्ख्या आत्मानं पुरुषपदेन सम्बोधयन्ति, पुरुषः शुभाऽशुभकर्मणां कर्ता न, भोक्ताऽपि न. कमलदलवनिर्लेपः, संसारस्य कारणं प्रकृतिनामकं तत्त्वं, एषा प्रकृतिः पुरुषात् सर्वथा भिन्नास्ति, अचेतनप्रकृतेः प्रतिबिम्ब चेतने पुरुषे पतति, तत एतादृश एवं पुरुषस्य भ्रमो भवति यदई प्रकृतिरस्मि, एवं रीत्या प्रकृतेनं मो भवति पुरुषोऽहमस्मि' एवं सर्वथा भिमताविषयकज्ञानस्याऽभावात्-अभिन्नताया भ्रमस्य हेतुना पुरुषस्य संसार उत्तिष्ठते, यदैतस्य भ्रमस्य भङ्गो भवति, तदा प्रकृतिपुरुषो मिनी भवतः, एषैव पुरुषस्य मोक्षाऽवस्थाऽस्ति, एष पुरुष एकान्तनित्यत्वेन सर्वथा निष्क्रियोऽस्ति, तस्मिन् कोऽपि जन्यधर्म उत्पादाऽनों भवति, ज्ञानादयोऽखिलजन्यधर्मास्तस्या जडप्रकृतेरेव सन्ति, यतः सा प्रकृतिः परिणामिनी, पुरुषश्चेत् परिणामी स्याचदा सोऽनित्यो भवेद , सोऽपरिणामी सर्वथा मतोऽस्ति, अथ पूर्वो
४॥२६॥
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अध्यात्म
RP:
॥२६२॥
क्तरीत्या प्रतिविम्बोदयवशात्, प्रकृतिपुरुषयोरमेदभ्रमो भवति, अत एव प्रकृतौ क्रियासुखादों जाते सति, पुरुषस्यैवं मासते, अहं क्रियां करोमि सुख्यस्मि प्रकृतौ पुरुषत्वाऽभावे सत्यपि अमेदस्य भ्रमहेतुना तस्याः प्रकृतेरपि एवमेव भासते "क्रिया न करोमि" अहं सुख्यस्मीत्यादि, इदमत्र हृदयम् = बुद्धयहंकारादयो मे धर्माः प्रकृतेः सन्ति ते धर्माः पुरुषस्य निजे भासन्ते इति भ्रमो भवति, पुरुषे च यच्चैतन्यमस्ति जडप्रकृतौ स्वस्यां मासनभ्रमो भवति एतद्भ्रमस्य मूलकारणं पुरुषप्रकृतयोर्भेदाऽवहः ॥ ४५ ॥ सायमताऽभिमतानि पञ्चविंशतिस्तत्त्वान्युच्यन्ते'प्रथमः परिणामोsस्या बुद्धिर्धर्माष्टकाऽन्विता । ततोऽहङ्कारतन्मात्रे-न्द्रियभूतोदयः क्रमात् ॥ ४६ ॥
-
णामः,
टीका:- (१) पुरुषोऽपरिणामी (२) प्रकृतिः परिणामिनी, नित्या, (3) बुद्धि: - प्रकृतेः प्रथमः परिधर्माष्टकाऽन्विता-धर्म-ज्ञान-वैराग्यैश्वधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्यात्मकधर्माष्टकाऽन्विता, (४) अहस्कारः बुद्धिजन्यं तत्वं (५) षोडश गण: = अहङ्कारजन्यः (शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मिका - तन्मात्रा (५) श्रोत्रादीनि पञ्चेन्द्रियाणि बुद्धीन्द्रियाणि (५) वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मकानि कर्मेन्द्रियाणि (१४) सङ्कल्पस्वरूपं मनः (१६)पश्ञ्चतन्मात्राऽऽत्मकशब्दस्पर्शरूपरसगन्धेभ्यः क्रमश आकाशवायुतेजोजल पृथिव्यो जायन्ते ॥४६॥
॥२६२॥
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बध्यात्व
॥२५३॥
- पुरुषस्य प्रकृतेम तत्त्वस्य सिरि:
'चिपपुरुषो बुद्धेः, सिद्धयै चैतन्यमानतः ।
सिद्धिस्तस्या विषयावच्छेदनियमाचितः ॥ १७ ॥ टीकाः-पुदी 'अहं ज्ञानी-चेतन सुखीत्यादि यद्भ्रमात्मकं ज्ञानं भवति, तच्चेतनस्य स्वीकार बिनाउनपपन्नं भवति, यदि चेतन्यं कुत्राऽपि सत्यत्वेन विद्यमानं न भवेत्तदा तस्य बुद्धी भ्रमो भवेत , यदबस्त वाऽविद्यमानं भवेत्तस्य कुत्रापि भ्रमी न भवेत् , बुद्धी चैतन्यस्य भ्रमो जायते, तदपपश्यर्थ वेतनतत्वमनिवार्यतया मन्तव्यम् , ननु बुद्धः सवें जन्यधर्माः सुखादयश्चेतन एव स्वीकर्तव्यास्ततो बुद्धिकम्पनमनावश्यकमिति चेत्र, चेतनस्तु सर्वथा निष्क्रियोऽस्ति, यतः स एकान्तनित्योऽस्ति, अर्धा चेतने बाधादिविषयविषयकवानादिक्रिया न सम्भवति, चेतनः कमपि विषयं नावच्छिनत्ति, 'अविषयाऽवच्छेदनियमविषयाऽनवच्छेदनियमोऽस्ति, तथाऽपि तस्य विषयस्याऽवच्छेदरूप ज्ञानकरणस्य भ्रमस्तु भवत्येव, अर्था- . तत्सर्व वस्तुतः बुद्धौ विद्यत एव; एवं स्वीकारे एव तया सहामेदभ्रमहेतुना चेतनेऽपि तदुभासते, एवं चेतनस्य जायमानभ्रमउपपद्यते, तस्माज्जन्यधर्माणां वास्तविकाऽऽश्रयरूपेण बुद्धितत्वमपि मन्तव्यम् , इदमत्र हृदयम् वृद्धौ जायमानचैतन्यभ्रममुषपादयितु प्रमाऽऽत्मकं चैतन्यं कुत्राऽपि मान्यमेच, यत्र चैतन्यं सत्यं
|
॥२६३॥
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अध्यात्म.
सारः
॥२६४॥
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स एव पुरुषः पुरुषे जायमानविषयात्वच्छेद भ्रममुपपादयितु' प्रमात्मको विषयावच्छेदः कुत्र स्वीकर्त्तव्यः, यत्र सत्यो विषयावच्छेदः, सा बुद्धिः स्वीकर्त्तव्येति ॥ ४७ ॥
-
बुद्धितत्वमान्यताया अनिवार्यावश्यकता
-
'हेतुत्वे पुस्प्रकृत्यर्थे - न्द्रियाणामत्र निवृत्तिः ।
दृष्टादृष्टविभागश्च व्यासङ्गश्च न युज्यते ॥ ४८ ॥
टीका :- (१) विषयावच्छेदे पुरुषस्य न हेतुः = यदि नित्यः पुरुषो नित्यं विषयाऽवबोधं कुर्यातदा कदाचिदपि तस्य न मोक्ष एव न स्याद् यतो विषयाऽवबोधक्रियाकरणस्य स्वभावः पुरूषस्य भवेत्, स्वमाय कदापि नष्टो न भवति ( २ ) प्रकृतिरपि विषयावच्छेदं कर्त्तुं न शक्नोति = यदि प्रकृति विषयाऽवच्छेदकरणस्वभावा भवेत्तदा पुरुषाद् वियोगरूपो यस्तस्या मोक्षोऽस्ति तस्या मोक्षाऽभवनरूपाऽऽपत्तिरागच्छेत्, (३) घटादिपदार्थाश्चैतन्यसम्बन्धिनो भूत्वा विषयावच्छेदिनो न भवन्ति = यदि घटादिपदा
स्वभाव एताशोऽस्ति, यस्मात्स्वभावात्ते सर्वपदार्थाश्चैतन्यसम्बन्धिनो भवन्ति, तत्पश्चाद् 'घटो मया दृष्टः ' 'पटो मया न दृष्टः एतादृशो दृष्टादृष्टविभागो जगति विद्यते, मोऽनुपपन्नो भविष्यति, यतोऽधुना तु सर्वेषां घटपटादिपदार्थानां चैतन्यसम्बन्धित्वभवनस्वभावात् सर्वे चैतन्यसम्बन्धिनो भूत्वा दृष्टा एव भविष्यन्ति, न कोऽप्यदृष्टस्तिष्ठेदिति, ननु एतद्दोषाऽऽपच्या घटादिपदार्थान् साक्षाच्चैतन्य
.
॥२६४॥
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अध्यात्म
सारः
॥२६५॥
सम्बन्धित्वस्वभाववतो न स्वीकुर्मः परन्तु, इन्द्रियमात्रद्वारा (मनोविना) चैतन्यसमन्धित्वस्वभाववतः स्वीकुर्मः, अर्थाद ये घटादयोऽर्था इन्द्रियद्वारा चैतन्यसम्बन्धिनो भवन्ति, ते दृष्टाः, अन्येऽदृष्टा भविष्यन्ति एवं दृष्टाऽदृष्टविभाग उपपमो भविष्यतीति चेन्न (४) इन्द्रियाणि विषयावच्छेदं कत' न शक्नुवन्ति यदि केवलेन्द्रियद्वारा घटादौ चैतन्यसम्बन्धित्वं स्वीकृतं स्यात्तदा व्यासङ्गोऽनुपपन्नो भविष्यति, व्यासङ्गश्च ज्ञानोत्पत्तौ विलम्ब इत्यर्थः, एकमिन्द्रियं घटपदार्शन सह सम्बन्धं करोति तदपि घटपदार्थविषयकं ज्ञानं न भवति, कदाचिन् पदार्थेन सहेन्द्रियसम्बन्धे सत्यपि पदार्थज्ञानोत्पत्ती विलम्बो भवति, अथ यदीन्द्रियद्वाराघटादिपदार्थश्चैतन्यसम्बन्धि-भवनम्वभाववान मवेत्तदा तत्कालमेव तम्य पदार्थ ज्ञानोत्पत्तिः स्यादेवं च भवनेादेतादृशो ज्ञानोत्पत्तिविलम्बरूपव्यासङ्गोऽनुपपन्नो मवेदित्याऽऽपत्तिरागच्छेत , एतं व्यासङ्गाभावमुपपादयितु मनोऽपि मन्तव्यं स्यात् , यावन्मनःसहकृतं न स्यात्तावत्तत्तत्पदार्थज्ञानोत्पत्तौ विलम्बः स्यात्तथाप्यनया रीत्येन्द्रियं मत्वा मत्वा बुद्धिनामकपदार्थो न स्वीक्रियेन तथाऽपि सिद्धिर्न भवति, यतः - सुषुप्तौ इन्द्रियमनसो र्व्यापाराभावे सत्यपि तत्र श्वासनिःश्वासादिकक्रिया भवति, तस्या निमित्तत्वेन बुद्धिनामक तत्वमवश्यं मन्तव्यम् , अर्थाद् विषयावच्छेदकारक बुद्धितत्त्वं कथं न मान्यं स्यात् । एवं रीत्या वृद्धितत्वस्य सिद्धि भवति, पुरुषः प्रकृतिश्चार्थश्चेन्द्रियाणि विषयावच्छेदकारकाणि नेति विषयोऽपि स्थिरो जात इति ॥ ४८ ॥
॥२६॥
in Education inte
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अध्यात्म
माः
।। २६६ ॥
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अहङ्कारतत्त्वस्य सिद्धि:
'स्वप्ने व्याघ्रादिसङ्कल्पा- नरत्वाऽनभिमानतः । श्रहङ्कारश्च नियत - व्यापारः परिकल्प्यते ॥ ४९ ॥
टीका:- प्रसुप्तस्य स्वप्नदशायां 'व्याघ्रोऽहं वराहोऽहमित्यादिमानाऽवसरे 'नरोऽह' मिति मानं न भवति, अर्थात्रेन्द्रियमनसो व्र्व्यापारोऽस्ति, नरत्वस्य स्वस्मिन् सन्निधानमप्यस्ति तथापि तस्य 'नरोऽहमिति भानं न भवति, व्याघ्रोऽहमथवा वराहोऽहमिति भानं भवति, 'नरोऽह' मिति भानाभावे यस्य व्यापारस्य विरहः कारणमस्ति, तस्य व्यापारस्य सद्भावो 'नरोऽह' मिति मानकारणमस्ति इति मन्तव्यमेवात एवाSeङ्कारपदार्थसिद्धिः यदि स्वप्नदशायामहङ्कारस्य व्यापारः स्यात्तदा 'नरोऽहमिति नियतं भानं स्यात्, एकदैक एव व्यापारो नियतस्तिष्ठति, एवं नियतव्यापारवान हङ्कारनामकः पदार्थः सिद्धयतीति ॥ ४९ ॥ - तन्मात्रादिषोडशगणस्य सिडि:'तन्मात्रादिक्रमस्तस्मात्प्रपचोत्यत्तिहेतवे
1
इत्थं बुद्धिर्जगत्कर्त्री, पुरुषो न विकारभाक् ॥ ५० ॥
टीकाः- पूर्वोक्ताऽहङ्कारना मकतत्त्वतस्तन्मात्रादिषोडशतस्त्रानि, पूर्वकथिताऽनुसारेणोत्पद्यन्ते एवं मन्तव्यमेव, यतस्तन्मात्रादिक्रमं विना प्रपञ्चरूपसंसारस्योत्पत्तिर्नघटते, एवं पश्चविंशतिस्तत्त्वान्यवश्यं स्वी
॥२६६॥
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।
अध्यात्म-IA
मार:
॥२२॥
रा कत्र्तव्यान्येव, अनया रीत्या बुद्धिर्जगत्क त्वरूपेण सिद्धयति, पुरुषो निर्विकारी अपरिणामी समस्तीति
निर्विकारत्वेन पुरुषः सिद्धयति, इदमत्रहृदयम् बुद्धि घटादिज्ञानरूपेण परिणमन्ती वर्त्तते, बुद्धिसम्बद्धो विषयश्च स्वरूपमाच्छादयति, एषैव पुरुषस्य संसाराऽवस्था, यदा बुद्धर्नाशः समुत्पनो भवति तदा विषयाऽवच्छेदो न भवति, अर्थात् पुरुषस्योपरितनं तदाच्छादनं विघटते, एस एव पुरुषस्य मोक्षः, यदा 'अहं प्रकृतितः (बुद्धितः) अत्यन्तं मिमोऽस्मि, अमेदम्य ज्ञानमेतत्तु भ्रान्तिरूपमस्ति, तादृशं मानं पुरुषस्य मवति, तदा नित्यप्रकृतितो नित्यःपुरुषो वियुक्तो मवति, एतत् प्रकृतिपुरुषयो वियोगवत्यवस्थेव मोक्षः॥५०॥
-बुद्ध ापारः कृतिकरणरूपोऽस्ति एतस्या बुडेखायोंऽशाःसन्ति'पुरुषार्थोपरागो दौ, व्यापारावेश एव च ।
यत्रांशो वेदम्यहं वस्तु, करोमीति च धीस्ततः ॥५१॥ ___टीका:-'वेम्यहं वस्तु' तादृशोऽभ्यवसायो बुद्धे र्भवति, तदनन्तरं कृतिसत्क एतादृशोऽध्यवसायो भवति यन्'ममेदंकर्तव्यमिति (१) 'ममे'त्यंशः पुरुषोपरागरूपोऽस्ति, योऽतात्त्विकोऽस्ति, यतः पुरुषेण सह बुद्धेर्चस्तुतो भेदोऽस्ति, तथापि तेन सहाभेद भ्रमहेतुना बुद्धे 'ममे' तादृशोऽध्यवसायो भवति, दर्पणे मुखस्य सम्बन्धरूपोपरागसमानः, बुद्धिरूपदर्पणे पुरुषस्य सम्बन्धोऽस्ति, वस्तुतो दर्पणे मुखस्याऽमेदस्य भानं भ्रान्तमस्ति, तथा चुढे पुरुषात् स्वयमभिन्नोऽस्मीति मानं भ्रान्तमस्ति, तस्माद् बुद्धिगतो 'ममेत्यंशोऽतात्विकोऽस्ति
॥२६७॥
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GR
मारः
(२) 'इदं' विषयोपरागरूपोंऽश एषः, इन्द्रियद्वारा पुद्धिर्बहिनिर्गत्य तत्तद् घटादि विषयरूपेण परिणअध्यात्म-10
मति, एषा ज्ञानपरिणतिस्ताविकी, दपणे मुखस्य निःश्वासेन यन्मलिनत्वं पतति, तद् यथा तत्विकं तथा मलिनत्वममाना ज्ञानपरिणतिरपि तात्त्विकी, बुद्धिनामको दर्पणोऽस्ति. यस्योमयपार्श्वतो वस्तुनः प्रतिविम्ब पति, एकतः पुरुषः प्रतिबिम्बितो भवति, अन्यतो विषयाः प्रतिबिम्बतः परिणमन्ति, (३) 'कर्तव्यमिति तृतीयोऽशो व्यापारावेशरूपोऽस्ति, अर्थात् शुद्धः कनेरध्यवसायरूप एष व्यापारावेशस्ताविकोऽस्ति, यतो बुद्धौ कृतिगुणो वर्तते, बुद्रौ विषयस्य यज्ज्ञानं भवति, तद् बुद्धिरूपे दर्पणे, लग्नं मलरूपमस्ति, पुरुष एतद्दपणे प्रतिबिम्बतोऽस्ति, अर्थात् स मलः पुरुषस्य लग्नो दृश्यते, यथाऽऽदर्श स्वमुखस्य द्रष्टुर्दर्पण लग्नो मलः बभूखस्योपरि भासते, वस्तुतस्तु दर्शकम्याऽऽस्यं स्वच्छ मेवाऽस्ति, तथापि, आदर्शस्थितो
मलो मुखं मलिनं दर्शयति, तस्मान्मुखस्योपरि लीनो मलो यथा वस्तुतस्तु भ्रान्तोऽस्ति तथा विषयोपराग१४ स्वरूपं ज्ञानं, यन्मुखस्थानीय पुरुषे ज्ञायते तदताविकमप्ति ॥५१॥
-अनवच्छिन्नं चैतन्यं मोक्ष इष्यते'चेतनोऽहं करोमीति, बुद्धे भेदाऽग्रहात्स्मयः ।
एतन्नाशेऽनवच्छिन्नं, चैतन्यं मोक्ष इष्यते ॥५२॥ टीका:-पुरुषस्यैवं भ्रमो जातोऽस्ति, यद् 'अ बुद्धरमिनोऽस्मीति बुद्धया सह भेदाऽग्रहहेतुना
| ॥२६८॥
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अध्यात्मसार:
॥२६॥
'चेतनोऽहं करोमीति तस्य पुरुषस्य यः कृतेरध्यवसायोऽम्ति, स भ्रान्तोऽस्ति, अत्र चेतने चैतन्यगुणस्त वर्चत एव, तस्माच्चैतन्यांश एष ताच्चिकोऽस्ति, किन्तु 'कृत्यंशम्तु' प्रताविकः, यदा बुद्धिः ‘याऽहंकरो. मि, साऽहं चेतनः' एवं वाक्यं वदति, तदाऽत्राऽपि चेतनतः स्वम्य यो मेदोऽस्ति तस्याऽज्ञानमेव, तस्यैताशमानभवने हेतुरस्ति, अत्र बुद्धिः स्वस्या कृत्यंशं मन्यते, तत्र काऽपि भान्ति र्नास्ति, परन्तु स्वस्या चैतन्यांशस्याऽभावेऽपि सा 'चेतनोऽहं' मिति वदति, तदा तत्र तम्या अवश्यं भ्रान्तिरस्ति, अद बुद्धिग्दिं वाक्यं यदा वदति तदा चैतन्यांशो भान्तो भवति, कृत्यंशश्च ताविको भवति, पुरुषस्याऽध्यवसायगणनायां विपरीतं भवति, यदाऽमेदज्ञानं नष्ट भवति, अर्थात पुरुषस्येवं भवति यद् 'अहं बुद्धितः सर्वथा भिन्नोऽस्मि तदैव 'अनवच्छिन्न सकलविषयविषयकज्ञानरूपाऽवच्छेदस्यात्यन्ताभावविशिष्टं चैतन्यमेव पुरुषस्य मोक्ष इष्यत इति ॥५२।।
-कतंबुधिगते सुखदुःस्वे पुरुषे उपचारतः'कर्तबुद्धिगते दुःखसुखे पुंस्युपत्रारतः ।
नरनाथे यथा भत्य--गतो जयपराजयौ ॥५३॥ टीकाः-कृतिस्तु बुद्धे गुणोऽस्ति, तस्माद् बुद्धिरेच की, ततो बुद्धावेव वस्तुतः सुखादिरुत्पद्यते परन्तु तत्सुखादेरुपचारः पुरुष भवति, यथा युद्धे सैनिका जयपराजयो लभन्ते तथापि तयोरुपचारो नर
॥२६॥
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अध्यात्म
सार:
॥२७०॥
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नाथे भवतः, राजा जयति पराजयते च तथा वस्तुतस्तु पुरुषे सुखादिकं नास्त्येवः तथाप्यनया रीत्योपचारमात्रेण पुरुषे सुखादिकं स्यादिति ॥ ५३ ॥
- कर्त्ता भोक्ता च नो तस्मादात्मा नित्यो निरञ्जन:'कर्त्ता भोक्ता च नो तस्मादात्मा नित्यो निरञ्जनः । श्रध्यासादन्यथाबुद्धि-स्तथा चोक्तं महात्मना प्रकृतेः क्रियमाणानि, गुणैः कर्माणि सर्वथा । ग्रहङ्कारविमूढात्मा, कर्त्ताऽहमिति मन्यते ।। ५५ ।।
॥५४॥
टीका:- तस्मादात्मा नो कर्त्ता च नो भोक्ता परन्तु नित्यो निरञ्जन:- सर्वथा रागाद्यञ्जनरहितस्तथाऽपि प्रकृत्या सहाभेदग्रहरूपाऽध्यासजन्याऽन्यथाबुद्धिरेवं भवति यत् 'सुख्यहं दुःख्यहं करोम्यहं' इत्यादि तथा च महात्मना कपिलेनोक्तं 'प्रकृतेः सत्वरजस्तम आदिगुणैः क्रियमाणानि सर्वथा कर्माणि भवन्ति, तथापि, अहङ्कारण विमूढाऽऽत्मैवं मन्यते यत् 'तत्कर्मकर्त्ताऽहमस्मि', वस्तुतस्तु पुरुषः पुष्करपलाशवनिर्लेपोऽस्ति, अकर्त्ताऽस्ति, अभोक्ताऽस्ति, परन्तु बुद्धया सहाऽ मेदाऽध्यासात् 'कर्त्ताऽहं भोक्ताऽहमिति मूढतां करोति ॥५४॥ ५५ ॥
॥२७०॥
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अध्यात्म
सारः
॥२७॥
-साडयमतस्य खण्डनम्'विचार्यमाणं नो चारु, तदेतदपि दर्शनम् ।
कृतिचैतन्ययोळक्तं, सामानाधिकरण्यतः ॥५६॥ टीका:-पूर्वोक्त बौद्धमतवत् साङ्ख्यमतमपि युक्तियुक्तं न, यतश्चेतने चैतन्यमस्ति, कृत्यादयश्च गुणा बुद्धौ' वर्तन्ते इति वैयधिकरण्यं न सम्यग , यत एतादृशी नियमोऽस्ति यच्चैतन्यस्य कृतेश्चैकाधिकरणवृत्तित्वमेव ॥५६॥
-सांख्यमतखण्डनम्बुद्धिः की च भोकत्री च नित्या चेन्नास्ति निर्वृतिः।
थनित्या चेन्न संसारः प्राग धर्मादरयोगतः । ॥५७) टीकाः-यदा जडबुद्धिः की च भोक्त्री तदेवं पृच्छयतेऽस्माभिः, कि सा बुद्धि नित्यावाऽनित्या? यदि मा बुद्धिनित्या स्यात्तदा कदाचिदपि पुरुपस्य मोक्षो न भवेदित्याऽऽपत्तिरागमिष्यति यतो बुद्धिध्वंसे पुरुषस्य मोक्षः स्यादिति भवदीयः सिद्धान्तोऽस्ति, यदि बुद्धिध्वंसस्वीकारे 'बुद्धि नित्ये' ति सिद्धान्तो विलीनो भवेत् , अथ बुद्धिररनित्ये ति पने बुद्धिरुत्पादस्वभावा, यावद् बुद्धि!त्पन्ना, तावद् बुद्धि
॥२७॥
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अध्यात्म
सारः
॥२७२॥
स्थायिनो धर्माऽधर्माऽऽदयोऽपिनोत्पत्स्यन्ते, तदानीं पुरुषस्य संसारः कुतः १ तथा पुरुषस्य मोक्षो जातः स्याद , यतो धर्माऽधर्माभ्यामेव संसारः सम्भवति, यदि स पुरुषो धर्माऽधर्मादिशुन्यः कदाऽप्यासीसदानीं तस्य मोक्षः किं न सञ्जातः ? तस्मिन् समये एनं पुरुष संसारभावे गृहीत्वा पन्धनकर्ता क आसीत् ? इति ।।५७॥
-प्रकृतौ धर्मादिस्वोकारे घटादौ तादृगधर्माऽन्वयः कथं न ?प्रकृतावेव धर्मादि-स्वीकारे बुद्धिरेव का? ।
सुवचश्च घटादो स्या-दीग धर्माऽन्वयस्तथा ॥५॥ टीका:-ननु प्रकृतिस्तु परिणामिनीत्यऽस्ति, तत्र धर्माऽधर्मादिस्वीकारे नित्यस्थायिनो धर्माऽऽदयोऽपि प्रवाहतो नित्याः सञ्जाता अर्थात् पूर्वोक्ताऽऽपत्तिर्न स्थास्यतीति चेन्न यदि नित्यप्रकृतावेव धर्मादिस्वीकारः स्यात्तदा प्रश्न एषोऽस्ति यद् धर्मादिगुणशून्या बुद्धिः किमर्थ मान्या स्यात ? अर्थाद् बुद्धितत्वमट्टीनं भवति, किन यद्यनया रीत्या जडप्रकृतावपि धर्माऽधर्मादयो गुणाः स्थातु शक्या भवेयुस्तदा घटादिजडपदार्थष्वपि धर्मादेरन्वयः-सम्बन्धी भवितु शक्य एवं सुष्टु रीत्या कथनीयं स्यादिति ॥५ ॥
॥२७२।।
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11२७३।।
-कृतिभोगौ बुद्धश्चेद् पन्धमोक्षौ नाऽऽत्मन:'कृतिभोगौ च बुद्धेश्चेद्-बन्धो मोक्षश्च नात्मनः।
ततश्चात्मानमुद्दिश्य, कूटमेतदयदुच्यते ॥५॥ टीकाः-यदि कत्तृत्वं च भोक्तृत्वं च बुद्धेरेव गुणत्वेन गण्येते तदा निरुपचरितत्वेन बन्धश्च मोक्षो नात्मनो भवेता, तत आत्मानमुद्दिश्य कपिलेन यद् वक्ष्यमाणमस्ति तन्कूटमुच्यते ॥९॥
-कपिलेनात्मानमुद्दिश्य यत्प्रोक्तं तदुच्यते'पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र यत्राऽऽश्रमे रतः।
जटी मुगडी शिखी चाऽपि, मुच्यते नात्र संशयः ॥६॥ टीका:-कपिलमुनिना कथितं यद् 'पञ्चविंशतिमख्याकतत्वज्ञः सन् कुत्रचिदपि गृहस्थाश्रमादिकाश्रमचतुष्के रतःपरायणः, जटाधारी स्यान्नवा, जटाशून्यो मुण्डीवा, शिखाधारी स्यान्नवा स पुरुषो मुच्यते-मोक्षवान् भवति, अत्र विषये न संशयः, केवलं पञ्चविंशतितत्वज्ञः पुरुषो मोक्षायेष्ट एवेति ॥१०॥
-पुरुषे पन्धमोक्षयोरुपचरितत्वे मोक्षशास्त्र वृथाऽखिलम्
२७३॥
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अध्यात्ममार:
॥२७॥
'एतस्य चोपचारत्वे मोक्षशास्त्रं वृथाखिलम् ।
अन्यस्य च विमोक्षार्थे, न कोऽप्यन्यः प्रवर्त्तते ॥६॥ टीका:-ननु पुरुषस्य बन्धमोक्षौ तूपचारत्वेन कथ्येते वस्तुतस्तु बुद्धिरेव बध्यते मुच्यते च तथाऽपि तयोरुपचारः पुरुष भवति, पुरुषस्तु सदा मुक्त एव, पुरुषस्य बन्धमाक्षी न स्तः इति चेन, यदि पुरुषे बन्धमोक्षावुपचरितो' भवेतां तदा मोक्षस्य प्रतिपादनं कुर्वतां भवतां मोक्षशास्त्र समस्तं वृथा-निरर्थकं सिद्धं भवति यतः पुरुषाद् भिन्नाया बुद्धे निरुपचरितमोक्षाय पुरुषः कथं प्रयत्नं कुर्यात् १ यज्ञदत्तस्य मोक्षाय सोमदत्तस्यागतपश्चर्यादिकं नैव कुर्यात् तद्वदत्रापि योध्यमिति ॥६॥
-तस्मात्कापिलानामस्मिन् मते रतिर्नवोचिता'कापिलानां मते तस्मा-दस्मिन्नवोचिता रतिः ।
यत्राऽनुभवसंसिद्धः, कर्ता भोक्ता च लुप्यते ॥६२|| टीकाः-एतादृशे साङ्ख्यानां मतेऽस्मिन् रतिः-न रुचिः सर्वथा नोचिता-न युक्ता, यतो यत्रानुभवप्रमाणेन संसिद्धस्य कर्म कर्तु स्तत्फलभोक्तुरात्मनो विलोपः क्रियते ।।६२॥
(५) नास्ति निर्वाणमिति याज्ञिकमतप्रतिपादनम्
[
॥२७४॥
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अध्यात्म सार:
||२७५॥
'नास्ति निर्वाणमित्याहु-रात्मनः केऽप्यवन्धतः ।
प्रापश्चाद् युगपद् वापि, कर्म-बन्धाऽव्यवस्थितेः ॥६३|| टीकाः-आत्मनो नास्ति निर्वाणम् , यतो यो बध्यते स मुच्यते, आत्मा, कर्मणा न बध्यते एव, तदा तम्य मोक्षस्तु कथं भवेत् ? यद्यात्मा कर्मणा बध्यमानो भवेत्तदा प्रश्नत्रयी उपस्थीयते तथाहि (१) किमात्मन उत्पत्तेः पूर्वमेव कर्मोत्पद्यते ? तेन कर्मणा स किं बध्यते १ यद्येवं वस्तुस्थितिः स्यात्तदा तत्सर्वथाऽ- ६ संगतं भवति यत आत्मकत्वहेतुना कर्मणि कर्मत्वमायाति, आत्मैव नास्ति तदा कर्तुत्वं विना, कर्मवस्तु, अस्तित्वाभाववद् भवति, कर्म विनाऽऽत्मनो बन्धो न भवति, बन्धं विना मोक्षोऽपि नैव० (२) किमान्मा, प्रागुत्पद्यते ? पश्चात्तं कर्म किं बध्नाति ? एष विषयोऽपि न समीचीनो यतो, यतः केनाऽपि हेतुना विना कथमात्मोत्पद्यते ? उत्पत्ती केनाऽपि कारगेन भवितव्यं किं न १ (३) किमात्मा कर्मच युगपदत्पद्यते? एतदपि न समीचीनम् , यतो युगपदुत्पन्ने वस्तुद्वये, एकः कर्ता, द्वितीयं कार्य, एवं कतत्व कार्यत्वं च न घटेते, गोसम्बन्धिशङ्गद्वये मिथः कत्तत्वकार्यत्वे न घटेते एवात्मनि कर्मबन्धः कयाऽपि रीत्या न मञ्जाघटीति, आत्मनो मोक्षस्य वार्ताऽपि न सम्भवतीति ॥३३॥
- जीवकर्मणोरनादि सम्बन्धेऽनन्तत्वेनाऽत्मनो मोक्षो-न -
२७५॥
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अध्यात्म
सार:
॥२७६॥
'अनादि-यदि सम्बन्ध–इष्यते जीवकर्मणोः । ___तदानन्त्यान्न मोक्षः स्या-त्तदाऽत्माऽऽकाशयोगवत् ॥६॥
टीका:-ननु जीवकर्मणोरनादितः सम्बन्धोऽस्ति, ततः प्रापश्चाद् युगपद् विषयकोत्पत्तेः प्रश्नो न सम्भवतीतिचेन्न, यदि जीवकर्मणोः सम्बन्धोऽनादिर्भवेत्तदा स सम्बन्धोऽनन्तोऽपि भवति, यस्याऽऽदिन तम्याऽन्तोऽपि न भवति, यथाऽऽत्माऽऽकाशयोगः, यतोऽनादिरस्ति ततोऽनन्तोऽस्ति, तथाऽत्रापि ज्ञेयमिति मोक्षो न स्यादेवेति ॥६४॥
- अमोक्षवादियाज्ञिकमत खण्डनम् - 'तदेतदत्यसम्बद्ध, यन्मिथा हेतुकार्ययोः ।
सन्तानाऽनादिता बीजा-कुरवदेहकर्मणोः ॥६५॥ टीका:-तदेतत् सर्व याज्ञिकमतमसङ्गतम् , या आत्माऽहेतुरस्ति, कमैंतत्कार्यमस्ति, कमैंतत्कारण मात्मनश्च विभिन्नपर्यायाः कार्यमस्ति. कर्मणा भिन्नभिन्नस्वरूपा भवाः प्राप्यन्ते, एतेषु च भवेषु कर्म बध्यते, पुनरेतेन कर्मणा भवाः प्राप्यन्ते, एवं द्वयोदेहकर्मणो देहिकर्मणोर्वा परस्परं कार्यकारणभावोऽस्ति, यथा चीजाकुरयोः, कार्यकारणभावः सन्तानतःप्रवाहतोऽनादिरस्ति तथाऽऽत्मर्मणोदेहकर्मणो कार्यकारणभावोऽपि सन्तानाऽनादिरूपोऽस्ति ॥६५॥
॥२७६॥
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॥२७७॥
- सदृष्टान्तं जीवः कर्मकर्ता, तत्फलभोक्ता चेति निरूपणम् - 'कर्ता कर्माऽन्वितो देहे, जीवः कर्मणि देहयुक् ।
क्रियाफलोपभुक कुम्भे दराडान्वितकलालवत् ॥६६॥ टीका:-(१) सकर्मा जीवो देहस्य कर्ता, (२) सदेहो जीवः कर्यकर्ता भवति, (३) सदेहकर्मा जीवः कर्मणः सुखादिफलस्य मोक्ता भवति, यथा मदण्डः कुलालो घटस्य कत्र्ता, सकुम्भः कुलालो घटफलभोक्ता मवति, तथा जीवः कर्मकर्ता, कर्मफलभोक्ता च भवतीति विषयः सिद्धो भवति ||१६||
- सोदाहरणमनादिसन्तते शो भवतीति वर्णनम - 'अनादिसन्तते शः, स्याद् बीजाऽङ्कुरयोरिख ।
कुक्कुटयराडकयोः स्वर्ण-मलयोरिव वाऽनयोः ॥६७॥ टीका:-किचानादिसन्ततेरन्तो न भवतीत्येतद् यभिरूपित, तन्न सम्यग् , बीजाऽङ्कुरयोरिव, कुक्कुटयण्डकयोरिव, स्वर्णमलयोरिव सन्ततेरनादित्वे सत्यपि विभिन्नोपायेनानादिसन्तते न शो भवति, तथा प्रकृतेऽपि जीवकर्मणोरनादिसन्ततेः-प्रवाहतोऽनादि-सम्बन्धस्योपायविशेषेण नाशो भवतीति ॥१७॥
- अनादिसान्त भङ्गविशिष्टव्यवस्था भव्येष्वेव -
॥२७॥
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अध्यात्म
सार:
१२७८||
'भव्येषु च व्यवस्थेयं, सम्बन्धो जीवकर्मणोः ।
अनाद्यनन्तोऽभव्यानां, स्यादात्माऽऽकाशयोगवत् ॥८॥ टीका:-जीवकर्मणोरनादिसम्बन्धो नाश्यो भवतीत्यनादिसान्तमङ्गविशिष्टा, पूर्वोक्तव्यवस्था भव्यजीवेष्वेवाऽस्ति, यदाऽभव्यजीवेषु जीवकर्मणोरनादिसम्बन्धः कदाचिन्नाश्यो न भवतीति जीवकर्मणोः सम्पन्ध आकाशाऽऽत्मसम्बन्धवदनाद्यनन्तमङ्गविशिष्टोऽस्ति ॥६८॥
- जीवभावसमानेऽपि भव्याऽभव्यत्वयोर्भेदः - 'द्रव्यभावे समानेऽपि जीवाऽजीववभेदवत् ।
जीवभावे समानेऽपि, भव्याऽभव्यत्वयो निंदा ॥६॥ टीकाः-ननु जीवत्वं भव्यामव्ययोः समानमस्ति, तथाऽप्येको जीवो भव्योऽन्यो जीवोऽमन्यः कभ्यते तत्र किं कारणमिति चेदुच्यते. यथा जीवाजीवयो द्रव्यत्वं समानमस्ति, तथाऽप्येकं द्रव्यं जीव अन्यद्रव्यमजीव इति कथ्यते, तथाऽत्रापि चोध्यमिति ॥१९॥
-स्वाभाविकं भव्यत्वं मोक्षे भव्यत्वनाशो भवति
X॥२७८॥
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॥२७९॥
'स्वाभाविकं च भव्यत्वं, कलशप्रागभाववत् ।
नाशकारणसाम्राज्याद, विनश्यन्न विरुद्धयते ॥७॥ टीका:-ननु जीवस्य भव्यत्वं-मुक्तिगमनयोग्यत्वं स्वाभाविकमस्ति, ततः पश्चाज्जीवस्य मोशे जाते तम्य भव्यत्वस्य नाशः कथं? किं स्वभावस्य नाशो भवति इति चेदुच्यते घटस्य प्रागभावः (अमावविशेपः) स्वाभाविकोऽस्ति तथाऽपि तस्य प्रागमावस्य नाशकारणानां दण्डकुलालघटादीनामुपस्थितो तु तव प्रागभावस्य नाशो भवति तथा प्रस्तुतेऽपि भव्यत्वनाशकारणभूतमुक्तिभावस्य प्राप्ती भव्यत्वनाशे न कश्चिद् विरोधः, ननु जीवे स्वाभाविकं जीवत्वमप्यस्ति, तदा मोक्षप्राप्ती किं जीवत्वस्यापि नाशो भवेदिति चेदुच्यते, जीवत्वमेतदुपादानकारणमस्ति, भव्यत्वमेतच्च सहकारिकारणमस्ति, मोक्षकार्योत्पत्तौ मत्या भव्यत्वरूपसहकारिकारणं गच्छति, जीवत्वरूपोपादानकारणन्तु नैव गच्छति, यथा घटस्योत्पत्ती सन्या, घटसहकारिकारणभृतदण्डादिकं गच्छति, परन्तूपादान कारणीभूतमृत्तिका तु सहेव तिष्ठति, अर्थाद्घटरूपेण परिणमतीति ॥७०॥
-: भव्योच्छेदो नैवं स्याद् गुर्वानन्त्यानभोऽशवत् :'भव्योच्छेदो न चैवं स्याद् , गुर्वानन्त्यानभोंऽशवत् । प्रतिमादलवत् क्वापि, फलाभावेऽपि योग्यता ॥७॥
।
॥२७॥
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अध्यात्म
सार:
॥२८०||
___टीका :-ननु यदि भव्येषु मोक्षगमनयोग्यता भवेत्तदाऽनन्तकालानन्तरमप्येतादृशः समय आगमिष्यति, तदाऽस्मिन् संसारे, एकोऽपि भव्यो जीवो न स्थास्यति, एकाकिभिरभव्यजीवें भृतः संसारः किं भविष्यति ? अथाऽत्रैवं कदाचित्समाधानं कुर्याद् यत् 'केचिद् भव्या मोक्षगता भविष्यन्ति, केचिन्न' तदैवं प्रश्न: स्यात्तदा तेषु भव्येषु स्थितस्य भव्यत्वस्य कोऽर्थः । भव्यत्वस्य निष्फलताऽऽपत्ति भवेदिति चेन यथाऽऽकाशस्य प्रदेशास्तथा भविष्यत्कालस्य समया अष्टमेऽनन्ते स्थायिनो भवन्ति तेषां कदाचिदप्यन्तो नाऽऽयाति, तथा भव्यजीवा अप्यष्टमेऽनन्ते तिष्ठन्ति, कस्मिंश्चिदपि काले भव्यैः शून्यः संसारो भविष्यतीत्यापत्ति न गमिष्यति, भाविन्यनन्तकाले यदाऽपि कश्चिद् भव्याऽऽत्मा, केवलिनं भगवन्तं पृच्छेद् यत् ‘अद्यपर्यन्ताः कतिपयसंख्याका भव्या मोक्षं प्राप्ताः स्युः १ तस्येकमेवोत्तरं सदा दास्यति भगवान, यद् यावन्तो भव्याः सन्ति, तेषामनन्ततमो भागः सिद्धिपदं प्राप्तोऽस्ति, किन-के चिदेतादृशा भव्याः सन्ति, ये जात्या भव्याः-जातिभव्याः कथ्यन्ते, तेषु सत्यपि भव्यत्वे ते कदाचिदपि मोक्षं न गमिष्यन्ति, एतावन्मात्रमपि न परन्तु ते जीवाः प्रत्येकतिर्यकत्वमपि कदाचिदपि न प्राप्स्यन्ति, ततो मनुष्यो भूत्वा मंयमव्रताधाराध्य मोक्षगमनस्यापि का वार्ता ? ननु सतः पश्चात्तेषां भव्यत्वं किं न निष्फलं मोक्षे कदापि न गच्छेयुस्तदा तेऽभव्याः किं न कध्यन्ते ? इति चेन्न, स्वयंभूरमणसमुद्रस्याऽन्तस्तले स्थिते पापाणे प्रतिमाभवनयोग्यताऽवश्यमस्ति, अस्तु तावत् पाषाणतः कदाचि
॥२८॥
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अध्यात्म
सारः
१२८१॥
प्रतिमा न भवेत्तथाऽपि तस्या योग्यतायाः कथं नाशः स्यात् ? यदा कदा जातिभव्या मोक्षसामग्री प्राप्नुयुस्तदा तेषां मोक्षप्राप्तिः स्यात् , अमव्येषु तथा न भवति, तेषां बाघमोक्षसामग्रीसमावेऽपि मोक्षो न भवतीति ॥७२॥
-: यस्तु सिख्यति सोऽवश्यं भव्य एवेति नो मतम् :'नेतद् वयं वदामो यद्-भव्यः सोऽपि सिद्धयति ।
यस्तु सिद्धयति सोऽवश्यं, भव्य एवेति नो मतम् ॥७२॥ टीकाः-वयमेतत्र वदामः ‘यावन्तो भव्याः स्युस्ते सर्वे मोक्षमवश्यं गमिष्यन्त्येव परन्तु 'ये मोक्षं गताः सर्वे ते भव्या एवेति बदामो वयमा योग्यताऽपेक्षया तादृशा अपि बहवो भव्याः सन्ति, ये कदाचिदपि मोक्षगमिनो नैवेति ॥७२॥
-: प्रध्वंसवन्मोक्षस्य वर्तमान स्थितिजन्यत्वेऽप्यनन्ता :'ननु मोक्षेपि जन्यवाद विनाशिनी भवत्स्थितिः ।
नैवं, प्रध्वंसवत्तस्या-निधनत्वव्यवस्थितेः ॥७३॥ टीकाः-ननु मोक्षेऽपि भवत् स्थिति जन्याऽस्ति, मोक्षाऽवस्थानस्यैकदिवसे नाशो भविष्यति, यतो यज्जन्यं तद् विनाशीति नियमो वर्तते, यदि मोक्षं भवत् स्थितिर्विनाशिनी भवेत्तदा मुक्तस्य.
॥२८१॥
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अध्यात्म-10
सारः
॥२८२।
पुनर्भवाऽऽपत्तिः स्यादिति चेन यथा घटादेव॑सो जन्योऽस्ति तथाऽपि स विनाशी नाऽस्ति, किन्तु नित्योऽस्ति यतो ध्वंसस्य धंसो नास्त्येव, तस्मात्तादृशो नियमो नाऽस्ति 'यञ्जन्यं तद् विनाशी' ति' एवं मोक्षे जायमानस्थितेर्जन्यत्वेऽपि, प्रध्वंसवद् , अनिधनत्व-अनन्तत्वव्यवस्था, तस्य-मोक्षस्य वर्तते, . तस्मान्मुक्तस्य न पुनर्भवाऽऽपत्तिरिति ॥७॥
___- ज्ञानादेः कर्मणो नाशे सत्यात्मनि किमधिकं भवति ? :'थाकाशस्येव वैविकृत्या, मुद्गरादे र्घटक्षये ।
ज्ञानादेः कर्मणो नाशे, नात्मनो जायतेऽधिकम् ॥७॥ टीका:- ननु किमाऽऽत्मा कर्मणो मुक्तो भवेत्तदा तस्मिन् किमप्यधिकं न भवतीति चेन मुद्गरादिना घटस्य वंसे कृते घटात्मकस्याऽऽवरणस्य गमने नभोऽपि किश्चिदपि महन्न भवति तथा ज्ञानादितः कर्मणो नाशे कर्मनामकावरणे विगते सति, आत्मनि किमप्यधिकं न भवति, अस्यात्मनो यदनन्त. चिदानन्दमयं स्वस्वरूपं प्रकाशते एवेति ॥७॥
कर्मनामकाणुसम्बन्धान्मुक्तस्य कथं मुक्तता? 'नच कर्माऽणुसम्बन्धा-न्मुक्तस्याऽपि न मुक्तता । योगानां बन्धहेतूना-मपुनर्भवसम्भवात् ॥७॥
॥२८२॥
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बध्यात्म
सार:
२८३||
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टीका:- न च युष्मन्मते कर्मपुद्गलभृता अणवश्चतुर्दशरज्ज्यात्मके लोके सर्वत्र पूर्णतया मृताः पतिताः सन्ति, लोकाग्रे स्थितानां सिद्धानामपि कर्माऽणुर्ना सम्बन्धो भविष्यत्येव तस्मात्तेषां कर्माणुसम्बन्धान्मुक्तानां मुक्तता नेति वाच्यम्, यतः कर्मबन्धर्हेतुभूता ये रागादिभावा मनोवाक्कायनामका योगाश्च स्युस्तेषु मुक्तेषु कस्यचिदपि बन्धहेतोरपुनर्भवसम्भवात् पुनः कर्मबन्धस्याऽवकाशोऽपि नास्त्येव कर्माणमम्बन्धरूपस्पर्शमात्रेण मुक्ता अमुक्ता न भवन्त्येवेति ॥७५ ||
-: यस्य तारतम्यं तेन प्रकर्षेण भाव्यम् ;'सुखस्य तारतम्येन प्रकर्षस्याऽपि सम्भवात् । अनन्तसुखसंवित्तिर्मोक्षः सिद्धयति निर्भयः ॥७६॥
टीका:- संसारेऽस्मिन् सुखिषु जीवेष्वपि सुखस्य तारतम्यं- न्यूनाधिक भावो दृश्यते, एकस्माद् द्वितीयोऽधिकः सुखी, द्वितीयस्मात्तृतीयोऽधिकः सुखीत्येवमुत्तरोत्तरं सुखमधिकं दृश्यते, तस्मात् सुखस्य पराकाष्ठारूप: प्रकर्षः कुत्र सम्भावनीय एव यत्र सर्वोत्कृष्ट प्रकृष्टाऽनन्तसुखस्य संवेदनं भवेत् स एव मोक्षः कथ्यते नाsन्य इति मोक्षसिद्धिः ॥ ७६ ॥
- नास्तिकाभानां भ्रान्तानामात्मसत्ता निषेधकं हेयं वचः
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अध्यात्म
सार:
||२८४||
'वचनं नास्तिकाभाना-मात्मसत्तानिषेधकम् ।
भ्रान्तानां तेन नादेयं, परमार्थगवेषिणा ॥ ७७ ॥ टीका:-तस्माद् भ्रान्तानां नास्तिकामानां वस्तुतस्त्वात्मसत्तानिषेधकं वचनं परमार्थगवेषिणा तेन नाऽऽदेयम् , आत्मनः कर्मणो बन्धं च मोक्षं चाऽमन्वानाः, श्रीग्रन्थकारेण नास्तिका इति न कथयता 'नास्तिकाऽऽभा:' कथ्यन्ते, यत एते जीवाः स्थूलदृष्टया विचार्यमाणे त्वात्मानं मन्यन्त एवं दृश्यते, तथाऽपि सहव सूक्ष्मदृष्टया विचारयता ग्रन्थकारेण ज्ञातं यत् , ते आत्मसत्तामेव च न मन्यन्ते,यतो ये आत्मनो मोक्षं न मन्यन्ते, त आत्मनः कर्मणो बन्धमपि नैव मन्यन्ते, अत आत्मनः कर्मबन्धहेतुभृतं रागादिकमपि नैव मन्यन्ते, एवं सति रागादिमयस्य संसारिण आत्मनः सत्ताया लोप एव कृतः, किश्च वीतरागस्वरूपमात्मानमपि ते न मन्यन्ते, यत एषा तु आत्मनो मोक्षाऽवस्थाऽस्ति, आत्मनो मोक्षं तु ते न मन्यन्ते, एवं द्विधा
फलितो भवति, अर्थात् सूक्ष्मदृष्टया तु ते आत्माऽस्तित्वप्रतिषेधकाः नास्तिका एच कथ्यन्ते, यदा स्थूलदृष्टया नास्तिकामासाः कथ्यन्ते, यत आत्मानं तु मन्यन्ते इति ॥७७।।
-षष्ठपदं मोक्षापायो नास्तीति-माण्डलिकमतमण्डनम्'न मोक्षोपाय इत्याहुरपरे नास्तिकोपमाः। कार्यमस्ति न हेतुश्चेत्येषा तेषां कदर्थना ॥ ७८ ॥
X||२८४॥
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अध्यात्म
॥२८५॥
टीकाः केचिन्माण्डलिकमताऽनुयायिनः, मोक्षरूपकार्य तु मन्यन्ते, मोक्षस्योपायं न मन्यन्ते, एते लोका अपि नास्तिकसदृशा एव, मोक्षाऽऽत्मक कार्य स्वीकार्य च तस्योयायस्तु न स्वीकार्य इत्येषा कीरशी तेषां मोहकृतकदर्थना ! एषां लोकानामेतादृशं मन्तव्यमस्ति यदुपायं विनैव मोक्षः प्राप्यते, नियतित एव मोक्षःसाध्योऽस्ति, यदि नियतिबलीयसी न भवेत्तदा मोक्षोपायशतेनाऽपि किमपि न सिद्धयतीति ॥ ७८॥
-नियतावधी समाप्तेऽकस्मादेव मोक्ष इति मतस्य स्वण्डनम्'अकस्मादेव भवतीत्यलीकं नियतावधेः ।
कादाचिरकस्य दृष्टवाद , वभाषे ताकिकोऽप्यदः ॥ ७९ ॥ __टीकाः-एतन्मताऽनुयायिनामेतत् कथनमस्ति यत् 'जीवस्य मोक्षगमनाय योऽवधि नियतोऽस्ति तदवधौ समाप्तेऽकस्मादेव जीवस्य मोक्षो भवतीति-अथ माण्डलिकमतखण्डनम्
एतत् पूर्वोक्तं सर्व सर्वथाऽसत्यमस्ति, यतः 'यत्कार्यस्यावधिनियतोऽस्ति, तत्कार्य सर्व कादाचिस्कं भवति, यतकायंकादाचित्कं (कदाचिद् भवत) भवति, तत सदाकालं सहेतुकं (हेतुजन्यं) मवति, एषा वार्ता साफिकेगोदयनाचार्येणाऽपि कुसुमाञ्जलिग्रन्थे कथिताऽस्ति तथाहि-॥ ७९ ॥
'हेतुभूतिनिषेधो न स्वानुपाख्याविधिन च । स्वभाववर्णना नैव-मवधेनियतत्वतः ॥ ८० ॥
| ॥२८५॥
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सारः
टीका:-कार्यस्याऽकस्माद् भवनमित्युक्ते कोऽर्थः १ अवधेनियतत्वतः, पश्च विकल्पाः प्रस्तूयन्तेऽथ अध्यात्म-19] तावत् , (१) हेतुनिषेधो न-यदि हेत्वभाव एव कार्य स्यात्तदा सर्वदा कार्य स्यादेव, एवन्तु न भवति,
कदाचिदेव कार्य भवति, (२) भूतिनिषेधो न-अकस्माद्मवनस्यार्थो यदि हेतुजन्यकार्यभवनाभावो भवे
तदा कदाचिदपि कार्य न भाव्यमेव, एषा वार्ताऽप्युभयमतसम्मता नास्ति, यतः कार्य कदाचित्तु भवत्येव ॥२८६॥
(३) स्वविधि नै अकस्माद् भवनमर्थाद्हेतुभिन्नात् कार्याद् भवनं-कार्यात् कार्यस्य भवनमिति स्वीकारे कार्यात्पूर्व कार्यस्थित्यापत्तिः स्यात् , एतत्तु कथं भवेत् १ कार्योत्पत्तेः पूर्व कथं कार्य तिष्ठेत् ?
(४) अनुपाख्यविधिर्न=अकस्माद् भवनमर्थाद् हेतुमिन्नाद् भवनं अनुपाख्यादलीकाद्भवनं, अली. कपदार्थास्तु सदा वर्तन्ते, तस्मात् प्रागेव तानि कार्याणि कि न भवन्ति ! एवं स्थिते कार्यस्य सदातनभवनाऽऽपत्तिर्भवेत् , वस्तुतस्त्वलीक वस्तु कस्यचित् कार्यस्य जनकं न भवत्येव, यतस्तस्मिन् कार्यजनकत्वं (अर्थक्रियाकारित्वं) नास्त्येव सद्वस्तुन्येव कार्यकारित्वं स्यात् ।
(५) स्वभाववर्णना न-स्वभाववर्णनतः-कथनतः कार्य न भवत्येव, स्वभाव इत्युक्ते धर्मो वाच्यः स्यात्तदा त्विष्टापत्तिरेव, यतः कारणतारूपधर्मतः कार्य भवत्येवैवं पश्चानां विकल्पानामर्थो न घटते एव, यतः प्रत्येक कार्य नियतावधिमदेव भवति, तस्मादकस्मान्मोक्षस्य भवन-उत्पतिरिति कथनमन्मत्त प्रलापप्रार्य बेयमिति ॥ ८ ॥
॥२८६।।
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बच्यात्म
॥२८७॥x
-सर्वव्यापकमोक्षस्याऽभावो यतः संसारोऽपि दृश्यते'न च सार्वत्रिको मोक्षः, संसारस्यापि दर्शनात् ।
न चेदानीं न तद् व्यक्ति-wञ्जको हेतुरेव यत् ।।८॥ टीका:-किन यदि मोमोऽस्मादमावी स्यात्तदा सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य मोझो भतकाले मचातो मवेदपितु नास्त्येवं यतः संसारिजीवानामपि संसारो दृश्यते एव, ननु वर्तमानकाले मोक्षमावस्य व्यक्तिस्तु नास्त्येवेति चेन, अस्तु तावदत्र मोक्षभावो नाऽमिन्यज्यते परन्तु मोक्षस्य रत्नत्रयीरूपो हेतु रभिव्यजको विद्यत एवेति ।।८१॥
-मोक्षोपायो रत्नत्रयीरूप एव सुनिणींत एव'मोक्षोपायोऽस्तु किन्त्वस्य, निश्चयो नेति चेन्मतम् ।
तन्न, रत्नत्रयस्यैव, तथाभावविनिश्चयात् ।। ८२ ॥ टीका:-ननु प्रत्येकदर्शनं, मोक्षस्य विविधानुपायान् दर्शयति, तस्मान्मोक्षस्योपायो जगति विद्या मानोऽस्ति, तथापि को मोचस्योपायः सत्य इति निश्चयोऽद्य यावन्न जातोऽस्तीति मतं चेन, सम्यग्दर्शनझानचारित्ररूपा रत्नत्रय्येव मोक्षस्योपायोऽस्ति, यत आप्तपुरुपपुङ्गवैमोक्षस्योपायत्वेन रत्नत्र स्यैव विनिश्चयो निर्दिष्टो वर्तते ॥ ८२ ॥
| ॥२८७॥
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अध्यात्म
सारः
॥२८८॥
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:-भवतत्कारणयोर्विरोधिमोक्षतत्कारणनिरूपणम्'भवकारण रागादि- प्रतिपक्षमदः खलु
1
तद् विपक्षस्य मोक्षस्य कारणं घटतेतराम् ॥ ८३ ॥
टीका :- यदि संसारोऽस्ति, तस्य च रागादिमिथ्यादर्शनादीनि कारणानि सन्ति, यदा च संसारस्य विरोधी मोक्षोऽप्यस्ति तदा संसारकारण मिथ्यादर्शनादिविरुद्धेन मोक्षकारणेन भवितव्यम्, तत्कारणं च सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयमेवेति यथा रोगतत्कारण कुपथ्यादिविपक्षारोग्यतत्कारण सुपथ्योषधाद्यप्यत्र चिन्त्यम् ॥ ८३ ॥ - पूर्व सेवाSS दिजन्यकर्मलघुर्तव मोक्षकारणमस्तु किं रत्नत्रयेण -- 'प्रथ रत्न त्र्यप्राप्तेः प्राक्कर्मलघुता तथा । पश्तोऽपि तथैव स्यादिति किं तदपेक्षया ॥ ८४ ॥
टीका:- मोक्षकार्य प्रति रत्नत्रयं कारणं माऽस्तु यतो रत्नत्रयप्राप्तेः प्रागपि जीवस्य पूर्व सेवादिकारणजन्यकर्मलघुना भवन्ती समागताऽसीत्, तादृशीं कर्मलघुतां विना रत्नत्रयप्राप्तिर्न भवति, ततोऽधुनैषैव पूर्वसेवादिकारणकर्मलघुता, वर्धमाना २ यावत् सर्वकर्मक्षयो भवेदिति वाच्या, अथ सर्वकर्मक्षयकृते रत्नत्रयं नाssवश्यकं परन्तु एतत्पूर्व सेवाऽऽदिजन्यकर्म लघुतैव मोक्षं प्रति कारण मस्त्विति चेत् ॥८४॥
॥२८८॥
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अध्यात्म
मारः
॥२८९।।
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- तस्मात् सम्यक्त्वादिक्रिया दैव शिवसाधने
नैवं यत्पूर्व सेवेव, मृदी नो साधनक्रिया । सम्यक्त्वादिक्रिया तस्मादेव शिवसाधने ॥ ८५ ॥
टीका:- मार्गानुसारिताया गुणप्रापिकाः पूर्वसेवादिक्रियाः सन्ति ता अतिशयमृद्वयो भवन्ति, arers: कोमलक्रिया मोक्षाय साधीयस्यो न भवन्ति, मोक्षस्य साधने त्वत्यन्तदृढा एव क्रिया आवश्यक्यस्तादृश्यस्तु रत्नत्रयस्याराधनारूपा अतिदृढसम्यक्त्वादिक्रिया एव तस्मात्पूर्वसेवा दिक्रियाभिर्मोक्षप्राप्ति रापास्तेव ॥ ८५ ॥
-अथ वेत्युक्त्वा पक्षाऽन्तरमाह
गुणाः प्रादुर्भवन्त्युच्चे-रथवा कर्मलाघवात् ।
तथा भव्यतया तेषां कुतोऽपेक्षानिवारणम् ॥ ८६ ॥
टीका:- अथवा तत्तजीवानां तथाभन्यत्वपरिपः कवलतः कर्मणो लाघवं भवत्येव, कर्मलघुताया बलत उच्चैः सम्यग्दर्शनादयो गुणाः प्रादुर्भवन्ति, सम्यग्दर्शनादिगुणानां वलतो मोक्षो भवति, अथ वस्तुस्थिति - रेतादृश्येव यदा तदा तेषां सम्यग्दर्शनादिगुणरूपकारणानां कुतः कस्मादपेक्षानिवारणम् ९ अर्थान्मोक्षकारणतयाऽवश्यं सम्यग्दर्शनादिगुणाः सर्वथाऽपेक्षिता एवेति ॥ ८६ ॥
॥२८९॥
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अध्यात्म
सार:
||२९||
-अन्योऽन्यसहकारित्वेन तथाभव्यत्वपाक-कर्मलाघव-सम्पगुदर्शनःविगुणाः समुदितत्वेन मोक्ष प्रति हेतवः
तथाभन्यतयाऽऽक्षेपाद् गुणा न च न हेतवः।
अन्योऽन्यसहकारित्वाद, दण्डचक्रभ्रमादिवत् ॥७॥ टीका:-ननु आक्षेपकतथामन्यतया सम्यगदर्शनादिभावा आक्षिप्यमाणा भवन्ति, तथाऽपि मोक्षं प्रति तत् सम्यगदर्शनादयः कथं कारणं ? सम्यग्दर्शनादिभावान् य आक्षिपति स तथामव्यत्वादिरेव हेतुः । स्वीक्रियताम् . मोक्षं प्रति सम्यग्दर्शनादिहेतु मा स्वीक्रियतामिति चेन्न, तथाभन्यत्वपरिपाकः, कर्मलघुता च तथा सम्यग्दर्शनादयश्च गुणाः सर्वेऽन्योऽन्यसहकारित्वेन हेतवो भूत्वैव मोक्षकार्यमुत्पादयन्ति, यथा दण्डचक्रभ्रम्यादयः सर्वे सम्भूय घटकार्यमुत्पादयन्ति तथाऽत्रापि ज्ञेयम् , अर्थाद्घटं प्रति दण्डेनोत्पद्यमानायाश्चक्र भ्रमः कारणता न निषेच्या, तथा मोक्षं प्रति तथामव्यत्वादितो जायमानसम्यग्दर्शनादेः कारणताऽपि कथं प्रतिषेच्या म्यादपितु नेव प्रतिषेच्या स्यादिति ॥ ८७ ॥
-भवक्षयं प्रति ज्ञानदर्शमचारित्राण्युपायाः
॥२९॥
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अध्यात्म
सारः
॥२११॥
'ज्ञानदर्शनचारित्रा-गयुपायास्तद्भवक्षये ।
एतनिषेधकं वाक्यं, त्याज्यं मिथ्यात्ववृद्धिकृत् ॥८॥ टीकाः-तत्-तस्मादेव सुनिवितं स्थितं यत् 'मोक्षोऽस्ति, तस्योपायाः सन्ति' मोक्षोपायत्वेन ज्ञानदर्शनचारित्राण्येव सुनिश्चितानि यतस्ते उपाया एव संसारस्य क्षयं कत्तु प्रत्यलाः, एवं निश्चये सत्यपि यदि यः कश्चिदिदं सत्यं प्रतिक्षिपेत्तदा तनिषेधकं वाक्यं सदा सर्वथा त्याज्यं यत ईदृशं वचनं मिभ्यात्वस्य वृद्धि कुर्वदाऽऽस्ते ।। ८८ ॥
___ -मिथ्यात्वत्यागस्योपसंहारः'मिथ्यात्वस्य पदान्येता-न्युत्सृज्योत्तमधीधनः।
भावयेत्रातिलोम्येन, सम्यकत्वस्य पदानि षट् ॥ ८ ॥ टीका:-'उत्तमधीधनः' =अपूर्वनिर्मलबुद्धिरूपधनसम्पनो महात्मा, मिथ्यात्वस्येतानि षट् पदान्युसज्य-विहाय 'प्रातिलोम्येन'='आत्मा नास्तीत्यादीनां मिथ्यात्वस्य षण्णां पदानां प्रतिपक्षस्वेन 'आत्माऽस्ती'त्यादीनि सम्यक्त्वस्य षट्पदानि भावयेदनुप्रेक्षेत-भावनापथं नयेदिति यावत् ॥ ८६ ||
इत्याचार्य श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभवन तिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रङ्करसूरिणा कृतायामध्मात्मसारग्रन्थे भवनतिलकाख्यायां टीकायां मिथ्यात्वत्यागनामकस्रयोदशोऽधिकारः समाप्तः ।।४७२॥
॥२९॥
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अध्यात्म
मार
॥२२॥
- अथ कवाग्रहत्यागनामकचतुर्दशोऽधिकार -
-कदाग्रहत्यागः सर्वथा कर्तव्य:'मिथ्यात्वदावानलनोखाहमसद्ग्रहत्यागमुदाहरन्ति ।
श्रतो रतिस्तत्र बुधैर्विधेया, विशुद्धभावैः श्रुतसारवद्भिः ॥१॥ ____टीका:-यत्र यत्र चित्ते कदाग्रहस्तत्र तत्र मिथ्यात्वभावः, यत्र यत्र चित्ते कदाप्रहत्यागस्तत्र तत्र मिथ्यात्वपरिहार इति व्याप्तिः, मिथ्यात्वरूपदावानलप्रशमने महामेषरूपपुष्करावर्त्तमसद्ग्रहत्यागमुदाहरन्ति-कथयन्ति महर्षिपुगवा. अतः अस्मात्कारणात् , तत्र-असद्ग्रहत्यागे, 'रतिः' अपूर्वोऽनुरागः, 'श्रुतसारवद्धिः जिनेन्द्रप्रवचनमक्तिरूपश्रुतिरहस्यसंपन्नः, विशुद्धभावैः' मैयादिसुदेवादितचविषयकमुपवित्राव्यवसायमहद्धिक धेः-तत्त्वज्ञानिभिषिधेया-कर्तव्येति ॥१॥ - कदाग्रहज्वलिताऽन्तःकरणे लोकोत्तरलतापुष्पफलप्रत्याशा का ? -
'असदग्रहाग्निज्वलितं यदन्तः, क तत्र तत्त्वव्यवसायवल्लिः ।
प्रशान्तपुष्पाणि हितोपदेश-फलानि चान्यत्र गवेषयन्तु ॥२॥ टीका:-'असद्ग्रहाग्निज्वलितं यदन्तः यदन्तःकरणं कदाग्रहरूपाऽग्निना ज्वलितं, तबाऽन्तःकरणे क तत्त्वन्यवसायवलि'सत्यतत्त्वविषयकनिश्चयरूपा लता कुतो दृश्यमानास्यात् ,'प्रशान्तपुष्पाणि हितो
॥२९२७
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सारः
॥२९३॥
पदेशफलानि च स्व-प्रशमरमास्वादकभावनामकपुष्पाणि कुतो दृश्यमानानि स्युः १ च हितकारकोपदेशरूपफलानि कुनो दृश्यमानानि म्युः १ अर्थात्कदाग्रहान्वित आन्मनि नचनिश्चयप्रशमभावहितोपदेशानामसम्मवः, तस्मादन्यत्र कदाग्रहरहित आत्मनि नवनिश्चयादीन गवेषयन्तु-पश्यन्तु, यनस्तत्रैव तत्वनिश्चयादीनां सम्मवोऽस्ति ।। २ ॥ ज्ञानलवदुर्विदग्धाः कदाग्रहिणः पण्डितमानिनो वचोरहस्यरहिता भवन्ति ।
'अधीत्य किञ्चिच्च निशम्य किञ्चिदसदग्रहात्पण्डितमानिनो ये ।
मुखं सुखं चुम्बितमस्तु वाचः, लीलारहस्यं तु न तैर्जगाहे ॥३॥ टीकाः-स्वल्पमधीत्य च म्वन्पं श्रुत्वा, ये ज्ञानलवदुर्विदग्धा 'असद्ग्रहात् पण्डितमानिनः' आत्मानं पण्डितमिव मन्यन्ते ये, 'वाचश्चुम्बिगं मुखं सुखमस्तु'-वाण्या मुखस्यर्शजन्यसुखमात्रमस्तु परन्तु वाण्याः सङ्गमजलीलाया:-क्रीडाया रहस्यं ते:-पण्डितमानिभि ने जगाहे-नावगाढमिति ॥ ३ ॥ - कदाग्रहिभिर्मानिभिर्जवितण्डापाण्डित्येन त्रिलोकी विडम्म्यते
'असद्ग्रहोत्सर्पदतुच्छद-ोघांशताऽन्धीकृतमुग्धलोकैः । विडम्बिता हन्त जडेवितगडापाण्डित्यकगडूलतया त्रिलोकी ॥४॥
१२९३॥
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अध्यात्म-10
॥२९४॥
____टीका:-असद्ग्रहोत्सर्पदतुच्छदः कदापहोच्छलदमानाभिमानवद्भिः, 'बोधांशताऽन्धीकृतमुग्धलोकैः जानलवेनाऽन्यीकता मुग्धा लोका यस्तैः, 'जडेवितण्डापाण्डित्यकण्डलतया'मुखै निरर्थकजन्पनादविषयकपाण्डित्यकण्डूलतया (कपिकच्छूनामककण्डूलतयाऽथवाकण्डूलस्य भावः कण्डूलता, तयेत्यर्थः) (कौनतिभाषायां, खाज-खाज इति भाषायां) हन्तेति खेदे त्रिलोकी-त्रिभुवनं, विडम्बिता-कदर्थितेति ॥१॥
- भसद्ग्रहः कोऽपि कुहूविलासः - 'विधोविवेकस्य न यत्र दृष्टिस्तमोघनं तत्त्वरविविलीनः ।
अशुक्लपक्षस्थितिरेष नूनमसदग्रहःकोऽपि कुहूविलासः ॥५॥ टीका:-पत्र-पस्मिन्नसद्ग्रहे तत्त्वरूपो रविविलीनः अस्तङ्गतः, यत्र तमोधनं अज्ञानरूपं तमो गाढं, यत्र विवेकनामकचन्द्रस्य दृष्टिर्न, नूनमेषोऽसद्ग्रहः कदाग्रहः, 'अशुक्लपक्षस्थितिः' =अचरमावर्तरूपकृष्णपक्षे स्थितियम्य स कदाग्रहः, कोऽपि-अपूर्वः ‘कुहूविलासः'मा नष्टेन्दुःकुहुकुहूः' इत्यभिधानकोशप्रमाणेन चन्द्रशन्याऽमावास्याया विलासवद् विलासो यस्य सोऽर्थात् भावप्रकाशशून्यः कदाग्रहः, वस्तुतोऽचरमावर्तेऽसद्ग्रदो वर्त्तते तत्र तत्वाऽदर्शनविवेकलोपगाढाज्ञानादयो दोषा विलसन्तीति ॥ ५ ॥
- कदाग्रहाच्छन्नमतिर्मनुष्पः किं पापं न कुर्यात् !
॥२९४||
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॥२९॥
'कुतर्कदात्रेण लुनाति तत्त्व-वल्ली रसात् सिथति दोपवृक्षम् ।
क्षिपत्यधः स्वादुफलं शमाख्य-मसदग्रहच्छन्नमतिर्मनुष्यः ॥६॥ ___टीकाः-'असद्ग्रहच्छन्नमतिर्मनुष्यः'=कदाग्रहाच्छादिता (नष्टा) मतिर्यस्य, स मनुष्यः, 'कुतकात्रण तत्वबन्ली लुनाति' कुतर्कनामकदात्रद्वारा तत्वरूपलतां छिनत्ति, कुतर्कीभूत्वा रहस्योच्छेदकारी भवति, रसात सिञ्चति-दोषवृक्षं प्रान्तरमलिनभावरस जलात , दोषरूपवृक्षं सिथति मलिनभावरूप. रसद्वारा दोषवृद्धिमान् भवति, 'शमाख्यं स्वादुफलमधः क्षिपति' शमनामकं सुमधुरस्वादविशिष्टं फलमधस्ताद क्षिपति, अर्थात् कदाग्रही मनुष्यः, भ्रष्टमतिको भूत्वा कुतर्कनिमित्तद्वारा तत्त्वश्रद्धाहीनः सन् , रसापेक्षया दोषवृद्धिमान् , प्रशमनामकफलशून्पो भवति ॥ ६ ॥ - कदाग्रहनामकपाषाणमये चिते सद्भावविगुरुयोधौ न भवतः -
श्रसदग्रहणावमये हि चित्ते, न काऽपि सद्भावरसप्रवेशः।
इहाकुरश्चित्तविशुद्धबोधः, सिद्धांतवाचां वत कोऽपराधः?॥७॥ टीका:-'असद्ग्रहग्रावमये हि चित्ते' निश्चयतः कदाग्रहरूपपाषाणघटिते चित्ते 'न क्वापि सद्भाव- रसप्रवेशः' कुत्रचिदपि तादृशे प्रस्तरघटिते चित्ते शोमनभावरूपधर्मभ्यानरूपजलस्य प्रवेशो न, 'इहा
॥२९५||
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अध्यात्म
सारः
।।२९६ ॥
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ऽक्कुरश्चित्तविशुद्धबोधः 'इह कदाग्रह शिलामये चित्ते, आध्यात्मिकविशुद्धबोधनामकाङ्कुरो नाविर्भवति, तत्र 'सिद्धान्तवाचां - जिनेन्द्रवरागमवचनानां बतेतिनिश्वये कोऽपराधः १ एषोऽपराध एतस्या भूमेरेवेति ॥७॥ are: पिण्डीनां फलं नाऽभूमिवानां स कदाग्रहस्याऽपराधः
'व्रतानि चीर्णानि तपोऽपि तप्तं कृता प्रयत्नेन च पिण्डशुद्धिः । श्रभूत्फलं यत्तु न निह्नवाना-मसदग्रहस्यैव हि सोऽपराधः ॥ ८॥ टीका:--यैर्निह्नवैर्वतानि - महाव्रतान्यपि चीर्णानि आहतानि विहितानि च तपोऽपि तप्तं, पिण्डसोऽपराशुद्धिः- आहारशुद्धिय प्रयत्नेन कृता, यत्तु तेषां निह्नवानां व्रततपः पिण्ड शुद्धीनां फलं नाऽभूत्, थोऽनुग्रहस्यैवेति ॥ ८ ॥
-
कदाग्रहिणां कुन उपदेश: ?
'स्थालं स्वबुद्धिः सुगुरोश्च दातु- रुपस्थिता काचन मोदकाली । असद, ग्रहःकोऽपि गले ग्रहिता, तथाऽपि भोक्तु ं न ददाति दुष्टः ॥१॥
टीका:- स्थालं स्वबुद्धि:'= स्वबुद्धि रूपं स्थालमस्ति, 'सुगुरोश्च दातुरुपस्थिता काचन मोदकाली' = दानकर्त्त': सुगुरोः प्रसादकारकस्यापूर्वी मोदकानां लड्डकानामावली, उपस्थिता उपदेशरूपेण प्रत्यक्षमागता,
॥२९६॥
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अध्यात्म
सार:
H२९७।।
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तथाऽपि कोऽप्यग्रहो दुष्टः, गले ग्रहिता- गलक एतादृशस्तेन गृहीतो यतः स बुद्धिस्थालस्थगुरूपदेशरूपलड्डकान् भोक्तु न ददाति ॥ ९ ॥
-
गुरुकृपया लभ्यमानमर्थं कदाग्रही न गृह्णाति -
-
'गुरुप्रसादी क्रियमाणमर्थं, गृह्णाति नाऽसद्ग्रहवांस्ततः किम् ।
द्राक्षा हि साक्षादुपनीयमानाः क्रमेलकः कण्टकभुड्न भुङ्कते ॥१०॥
टीका:- असद्ग्रहवान् 'गुरुप्रसादी क्रियमाणमर्थ' = कदाग्रह कुग्रहग्रस्तो गुरुकृपया सम्प्राप्यमाणमर्थमान गृहणाति, ततः किं १ सत्यमस्ति हि 'साक्षादुपनीयमाना द्राक्षा : ' = प्रत्यक्षेण खलु दीयमाना द्राक्षावली: 'कण्टकसुग्-'कण्टक भोजनव्यसनी 'क्रमेलकः' उष्ट्रो न भुढफ्ते न मक्षयति ॥ १० ॥ असद्ग्रहात् पामरसङ्गति ये कुर्वन्ति तेषां न रतिबु घेषु 'असदग्रहात्पामरसङ्गतिं ये, कुर्वन्ति तेषां न रति बुधेषु । विष्ठासु पुष्टा किल वायसानो, मिष्टान्ननिष्ठाः प्रसभं भवन्ति ॥ ११ ॥
--
-
टीका:- 'असद्ग्रहात्पामरसङ्गति ये कुर्वन्ति ' = कदाग्रह हेतुना ये नीचपुरुषैः सह संगतिं कुर्वन्ति, 'तेषां न रतिबुधेषु ' = कदाग्रहिणां परमपुरुषेषु न रति र्भवति, किल 'विष्टासु पृष्टा वायसा' अशुचिषु पुष्टा:
॥२९७ ॥
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अध्यात्म
मार:
॥२९८॥
रस्नाः काकाः 'प्रसभं मिष्टाननिष्ठा नो भवन्ति' =बलादपि मिष्टान्नं प्रति रुचिमन्तो नो भवन्ति ॥ ११ ॥
- यत्र युक्तिस्तत्रमतिं न, यत्र च मतिस्तत्र युक्ति नियुङ्क्ते सः - 'नियोजयत्येव मतिं न युक्तो, युक्ति मतो यः प्रसभं नियुङ्कते ।
सद्ग्रहादेव न कस्य हास्योऽजले घटारोपणमादधानः ॥१२॥ ___टीकाः-असद्ग्रहादेव शास्त्रयुक्तौ स्वमति न नियोजयति, मतौ-स्वबुद्धौ च यदूचितं तदनुसारेण येन केन प्रकारेण शास्त्रयुक्ति नियोजयितु यः प्रसभं प्रयतते, सोऽजले-जलरहितमरुमरीचिकायां जलभरणाय घटस्य स्थापनमादधानः, कस्य हसनयोग्यो न स्यात् ? अपि तु स्यादेवेति ॥ १२ ॥
___ - असद्ग्रहगृहीतस्य दीयमानं श्रुतं न प्रशस्यम् - 'असद्ग्रहो यस्य गतो न नाशं, न दीयमानं श्रुतमस्य शस्यम् । न नाम वैकल्यकलङ्कितस्य, प्रौढा प्रदातु घटते नृपश्रीः ॥१३॥
टीकाः-यस्याऽमद्ग्रहोऽसन नार्थाद् विद्यते, तस्य कदाग्रहिणो दीयमानं शास्त्रसत्कं श्रुतं न श्रेयस्कर, शरीरस्याऽवयव गतवैकल्येन-विकलाङ्गत्वेन कलङ्कितस्य राजकुमारस्य प्रोढा समृद्धा, राजश्रीः, प्रदातु सर्वथा न नाम घटते-नौचित्यमञ्चति ॥ १३ ॥
॥२९८।।
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अध्यात्मसारः
॥२९॥
- कदाग्रहग्रस्तमतेः श्रुतात्प्रदत्तादुभगोविनाश: - 'श्रामे घटे वारि घृतं यथा सद् विनाशयेत्स्वं च घटं च सद्यः ।
असदग्रहग्रस्तमतेस्तथैव, श्रुतात्प्रदत्तादुभयोविनाशः ॥१४॥
टीकाः--यथाऽऽमेऽपरिपक्वे घटे वारि-जलं धृतं सत् , स्वं जलं च तदाधारं घटं च सद्यः-तत्क्षणादेव विनाशयेत्तथैवासद्ग्र हग्रस्तमतेः. प्रदत्तश्रुतशास्त्रादुभयोः श्रुतश्रुतदात्रोविनाशोऽवश्य भाष्येवेति ॥१४॥
- असा हा स्तमतिरुपदेशस्याऽन) भवति -
असद्ग्रहास्तमतेः प्रदत्ते, हितोपदेशं खलु यो विमूढः। शुनीशरीरे स महोपकारी, कस्तूरिकालेपनमादधाति ॥१५॥
टीकाः-यः खलु विशेषेण मूढः-विमूढः, असद्ग्रहग्रस्तमतेहितोपदेशं प्रदत्ते, स महोपकारी ? (महाऽपकारी) शून्याः शरीरे कस्तूरिकालेपनमादधाति--करोतीत्यर्थः ।। १५ ॥
- योऽसद्ग्रहदूषिताय विशदागमार्थ दत्ते स खिद्यते - 'कष्टेन लब्धं विशदाऽऽगमार्थ, ददाति योऽसद्ग्रहदूषिताय । स खिद्यते यत्नशतोपनतं, बीजं वपन्नूपरभूमिदेशे ॥१६॥
॥२१॥
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अध्यात्म
सार:
॥३०॥
टीका:-योऽसद्ग्रहिताय कष्टेन लन्धं विशदागमायं ददाति, स खिद्यते, पयोषरमिदेशे पन्नानां शतेनोपनीतं बीजं वपन खिधते तथानापि विज्ञेयम् ॥१५॥
- भसग्रहवान् महाविवेचकत्वोऽभिमानी भवति - 'शृणोति शास्त्राणि गुरोस्तदाा, करोति नाऽसदग्रहवान कदाचित् । विवेचकत्वं मनुते त्वसार-प्राही भुवि स्वस्य च चालनीवत् ॥१७॥
टीका:-कदाचित् कदाग्रही गुरोः सकाशाच्छास्राणि शणोति, 'तदाझा कदाचिन करोति'=गुरोराब कदाचिन्न प्रतिपद्यते, अहमेव महान् विवेचकोऽस्मीत्यभिमानं कुरुते, 'असारग्राही भुवि स्वस्य च पालनीवद् विवेचकत्वं मनुते' सारं त्यजन्नसारं गृहणानः कोऽपूर्वो विपरीतो विवेकी अर्थात् सम्पूर्णोऽवि. बेकी भवत्ययमिति ॥ १७ ॥
- असद्ग्रहस्थानां विपरीता सृष्टिगुणानाम् - 'दम्भाय चातुर्यमघाय शास्त्र, प्रतारणाय प्रतिभापटुत्वम् ।
गर्वाय धीरत्वमहो गुणाना-मसद्ग्रहस्थे विपरीतसृष्टिः ॥१८॥ टीका:-कदाग्रहिणां चातुर्य-चतुरता, मायारूपफलाय भवति, शास्त्रमधाय' धर्मशास्त्रमप्य
॥३०॥
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अध्यात्म
सारः
॥३०१॥
भाय-पापफलजनक भवति, 'प्रतारणाय प्रतिमापदुत्वम्'पटुप्रतिभाया उपयोगः परेषां प्रतारणहेतुर्भवति, 'धीरत्वं गर्वाय' निश्चलत्वं गर्वरूपफलजनकं भवति. अहो इत्याश्चयें, 'असग्रहस्ये गुणानां विपरीतसष्टिः' कदाग्रहिणां विपरीतसृष्टिर्नाम गुणानामपूर्वशीर्षासनम् ॥ १८ ॥
- कदापहिणां मित्रमनुपमदुःखि भवति - श्रसद्ग्रहस्थेन समं समन्तात्, सौहार्द भृदुःखमवैति ताहग् ।
उपेति याक्कदली वृक्ष-स्फुटतत्रुटत्कराटककोटिकीर्णा ॥१॥ टीकाः-असद्ग्रहस्थेन समं समन्तात् , सौहार्दभृत्-मैत्रीधरः, तादृग् दुःखमवैति-अनुभवति, 'यादृक्
मककोमलतरुः सकण्टकवृक्षासम्बन्धहेतोस्ततः स्फुटता, त्रुटतां कण्टकाना कोटिभिः कीर्णा च्याप्ना सती दुख-पासमुपैति ॥ १९॥ .
- असग्रहाद् गुणा विनाशं यान्ति - __ 'विद्या विवेको विनयो विशुद्धिः, सिद्धान्तवाल्लभ्यमुदारता च ।
असद्ग्रहाद यान्ति विनाशमेते, गुणास्तृणानीव कणाद दवाग्नेः ॥२०॥ टीका:- यथा दबाग्नेः-दावानलस्य कणमात्रेण तृणानि-तृणपुजा विनाशं यान्ति, तथाऽसद्ध
R॥३०॥
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अध्यात्मसारः
॥३०२||
हान् , 'विद्या-अभ्याससाध्यज्ञान विशेषः, विवेकः- सदसदादिपदार्थपृथक्करणशक्तिविशेषः, पिनयोशास्त्रानुसारिनमनवृत्तिः, विशुद्धिः-विशिष्टात्मादिशुद्धिः, 'सिद्धान्तवालम्यं सर्वज्ञप्रणीतसिद्धान्तप्रियता, 'उदारता'-कृपणताया अभावपूर्वकदानपरिणामः, इत्यादयः सर्वे गुणा विनाश यान्ति-गच्छन्तीति ॥२०॥
- कवाग्रहिणां कः प्रियः ?, केषु मैत्री १, का स्थितिः ? - ___'स्वार्थः प्रियो नो गुणवांस्तु कश्चिन्मूढेषु मैत्रो न तु तत्त्ववित्सु ।
श्रसद्ग्रहापादितविश्रमाणां, स्थितिः किलासावधमाधमानाम् ॥२१॥ टीका:- कदाग्रहिणां स्वार्थ:-स्वेच्छितकार्यविशेषः प्रियो भवति, परन्तु कश्चिद् गुणवानात्मा प्रियो । न भवति, मृठेषु-कर्तव्याकर्तव्यमोहमढेषु-मुर्खजनेषु मैत्री-मित्रता भवति, तत्त्वज्ञानिषु न मित्रत्वं, असद्ग्रहहेतुना आपादित:-प्रापितः स्वसाधनाया इतिश्रीरूपो विश्रमो-विरामो येषां, ते 'अधमाऽधमानां' अधमेभ्योऽप्यधमाना किलाऽसौ-स्थितिरेताहशी स्थितिर्विचित्रा वर्तते इति ॥ २१ ॥
- कदाग्रहत्यागविषयक उपसंहारः - 'इदं विदस्तत्त्वमुदारबुद्धि-रसद्ग्रहं यस्तृणवजहाति । जहाति नैनं कुलजेव योषिद्गुणानुरक्ता दयितं यशःश्रीः ॥२२॥
॥३०२॥
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अध्यात्म-1
सारः
॥३.३॥
टीका:- य इदं तत्त्वं-कदाग्रहत्यागाऽत्यागाभ्यां कृतगुणदोषात्मकमिदं तत्वं विदन्-जानन् , उदारबुद्धिः' मागसारस्वीकारपरिहारसमर्थविचारशक्तिमान् , 'तृणवदसद्ग्रहं तृणतुल्यं कदाग्रह, जहातित्यजति, अतो यथा गुणाऽनुरागिणी कुलजा योषित-स्त्री, दयितं-पतिं न जहाति, तथैनं कदाग्रहत्यागिनं महात्मानं यशःश्री-कीर्तिलक्ष्मीनं जहातीति ॥ २२ ॥
____ इत्याचार्यश्रीमद्विजयलन्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमविजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रङ्करसूरिणाकृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाऽऽख्यायां टीकायां कदाग्रहत्यागनामकश्चतुर्दशोऽधिकारः समाप्तः ४६४ ।
- अथ योगस्वरूपनामा पञ्चदशोऽधिकारः - .. - योगस्वरूपस्य निरूपणम् -
'असद्ग्रहव्ययाद्वान्त-मिथ्यात्वविषविपुषः ।
सम्यक्त्वशालिनोऽध्यात्मशुद्धेर्योगः प्रसिद्धयति ॥ १ ॥ टीकाः-पूर्वमसद्ग्रहत्यागस्ततः परं मिध्यात्वनामकविषविन्दूना वमनं भवति ततः परं सम्यग्दर्शनं भवति कमतः, अतः सम्यकूत्ववतो. याऽध्यात्मशुद्धिः-शुद्धात्मभावः, ततोऽध्यात्मशुद्धेः-अध्यात्म- शुद्धिप्रयुक्तो योगः-मोक्षमार्गः प्रसिद्धो भवतीति ॥ १ ॥
॥३०३॥
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अध्यात्म
सार:
॥३०४॥
.. योगस्य कमज्ञानभेदेन प्रकारवयम्
कर्मज्ञानविभेदेन स द्विधा तत्र चादिमः ।
श्रावश्यकादिविहित-क्रियारूपः प्रकीर्तितः ॥२॥ टीकाः-स-योगः, कर्मज्ञानविमेदेन द्विधा' एकाकर्मयोगो द्वितीयो ज्ञानयोग इति मेदेन, प्रकारह. यभिन्नः, 'तत्र चादिम:-प्रकारद्वयमिन्ने योगे प्रथमः 'आवश्यकादिविहितक्रियारूपः प्रकीर्तितःजिनेश्वरदेवप्रणीतावश्यकादिक्रियारूपः कर्मयोगः, अत्राऽऽदिपदेन मोक्षहेतुभूतो यः कश्चिदात्मव्यापारो भवेत् , स सर्वव्यापारो योगोऽथवा स्थान-पद्मासनाद्यासनविशेषः, वर्ण:-वर्णोच्चाररूपः, अर्थः, पालम्बनं बाह्यजिन प्रतिमाद्यालम्बनविषयकं ध्यानम् , निरालम्बनं-समाधिस्वरूपं ध्यानम् , इति योगपश्चकमध्ये प्राक्तनी हो कर्मयोगे, शेषास्त्रयो ज्ञानयोगे समाविशन्ति ॥ २॥
कर्मनामकयोगस्य लक्षणम् - 'शारीरस्पन्दकमोऽत्मा, यदयं पुरायलक्षणम् ।
कर्माऽऽतनोति सदरागात् , कर्मयोगस्ततः स्मृतः ॥३॥ टीका:-'यत् सद्रागात् पुण्यलक्षणं कर्माऽऽतनोति' यस्मान् कारणात् सुदेवसुगुरुप्रभृतितारक
||३०४॥
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अध्यात्मसारः
॥३०५॥
सम्बन्धिप्रशस्तगगहेतुजन्यं पुण्यनामकं कर्म करोति, शारीरस्पन्दकर्माऽऽत्मा शरीरसम्बन्धिचलनरूपकर्मस्वरूपोऽयं कर्मयोगः स्मृत:-कथितः ॥ ३ ॥
कर्मयोगस्य फलम्'श्रावश्यकादिरागेण, वात्सल्याद् भगवगिराम् ।
प्राप्नोति स्वर्गसौख्यानि, न याति परमं पदम् ॥४॥ टीका:-आवश्यकादिक्रियाया उपरि गगहेतुना, 'भगवगिर्ग वात्मल्यात्'जिनेश्वरदेवानां वाहमयवहमानरूपावात्मल्यात , शुभकर्म पुञ्जवन्धतः, स्वर्गस्य सौख्यानि प्राप्नोति, 'परमं पदं न याति = मोक्षस्थानं न गच्छतीति ॥४॥ ज्ञानयोगस्य स्वरूपं फलं च
'ज्ञानयोगस्तपःशुद्ध-मात्मरत्येकलक्षणम् ।
इन्द्रियाऽर्थोन्मनीभावात् स मोक्षसुखसाधकः ॥५॥ टीका:-इन्द्रियाणां विषयेभ्य उन्मनीभावान्मनोभावस्याभावात् 'आत्मरत्येकलक्षणं' सच्चिदानन्दमय rajw३०५॥ आत्मनि रमणतारूपैकलक्षणलक्षितं शुद्धं तपः-'ज्ञानयोगः कथ्यते, सज्ञानयोगोमोक्षसुखसाधको भवतीति ॥५॥
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अध्यात्म सार
॥३०६॥1
- शुभं कर्माऽपि नैवाऽत्र व्याक्षेपायोपजायते -
__ 'न परप्रतिबन्धोऽस्मिन्नल्पोऽप्येकात्मवेदनात् ।
__ शुभं कोऽपि नेवाऽत्र, व्याक्षेपायोपजायते ॥ ६ ॥ टीका:-ज्ञानयोगी महात्मा, एकात्मवेदनरूपात्मरमणतामात्रे सर्वथा लीनोऽस्ति, अस्मिन्महात्मनि परद्रग्यमानं प्रति स्वल्पोऽपि ममतारूपप्रतिवन्धो नाऽस्ति, अत एवैतस्यावश्यकादिक्रियास्वपि रागो न वर्तते, कदाचिद् भिक्षाटनावश्यकादिक्रियाकरणरूपं शुभं कर्म करोति तदपि तत प्रति विना रागभावं करोति यतःशुभकर्मकनन्धो न भवति. अर्थात् तदावश्यकादिशुभकर्माऽपि एकस्याऽतस्याऽऽत्मनो वेदनरूपानुभवकार्य प्रति व्यापाय-बाधाय नोपजायत इति ।। ६ ।। परेषां साक्षिपूर्वकं साधूनामप्रमत्तानां क्रियाऽप्यावश्यकादिका न नियता
'नाप्रमत्तसाधूनां क्रियाऽऽप्यावश्यकादिका । नियता, ध्यानशुद्धत्वाद्यदन्यैरप्यदःस्मृतम् ॥ ७ ॥ यस्त्वाऽऽत्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । श्रात्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ ८ ॥
॥३०६॥
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अध्यात्मसार:
॥३०७॥
नेव तस्य कृतेनाऽर्थो, नाऽकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु, कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १ ॥ टीका:-अप्रमत्तभावे रममाणानां सप्तमादिगुणस्थाने च निर्विकन्पदशायां रममाणानां ज्ञानयोगिना महात्मना, आवश्यकादिक्रिया न नियता भवति, यतस्ते ध्यानस्वरूपेण तपसा शुद्धाः सन्ति, अतिचाररहितत्वेनाऽतिचारशुद्धिकरणरूपाऽऽवश्यकादिक्रियाया नियतं प्रयोजनं नास्ति अन्यैरपि वस्त्विदं कथितं स्वशास्त्रे तथाहि 'यः तु सामय आत्मज्ञाननिष्ठ आत्मरतिः आत्मनि एव रति ने विषयेषु यस्य स आत्मरतिः, एव स्याद् भवेद् आत्मतृप्तः च आत्मतृप्तश्च आत्मना एवं तृप्तो न अन्नरसादिना मानवोमनुष्यः संन्यासी, आत्मनि एव च सन्तुष्टः । संतोपो हि बाबार्थलामे सर्वस्य भवति तम् अनपेक्ष्य आत्मनि संतुष्टः सर्वतो वीततृष्ण इति एतत । य ईरश आत्मवित तस्य कार्य-करणीयं न विद्यते-न अस्ति इत्यर्थे 'भगवद्गीतायां शाकूर-भाष्यम्' न एच तम्य परमान्मग्नेः कृतेन कर्मणां अर्थः प्रयोजनं अस्ति । अस्तु तर्हि अकृतेन अकरणेन प्रत्यवायाख्यः अनर्थः ।
न अकृतेन इह लोके (तस्य) कश्चन कश्चिद् अपि प्रत्यवायप्राप्तिरूप आत्महानिलक्षणो वा (अनर्थप्राप्तिः) न एव अस्ति । न च अस्य सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु भूतेषु कश्चिद् अर्थव्यपाश्रयः (सम्बन्धः) 'भगवद्गीतायां शाङ्करभाष्यम्' 'यद् यावन्मनुष्यः स्वचित्तस्याऽऽत्यन्तिकी शुद्धिं कृत्वा 'स्थितप्रज्ञो' न
॥३०७॥
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PC
अध्यात्म
सारः
॥३०८॥
भवति, तावत्तस्य जन्मनः कृतार्थता न प्राप्यते, तावत्तस्य च किश्चित्कर्त्तव्यं किञ्चिच्च न कर्त्तव्यमिति शेषं प्रतिभाति, तथापि यदा स स्थितप्रज्ञो भवति तदाऽऽत्मरतिरेवात्मतृप्तश्चात्मन्येव सन्तुष्टो मानवो भवति, तस्य कार्य न विद्यते, कर्मद्वारा प्राप्तव्यमवशिष्टं नास्ति । तस्य च कृतेन कर्मणाऽकृतेन कर्मणा नेह मानवे कश्चनार्थः-प्रयोजनं फलं अथवा चित्तशुद्धौ काचिद्वृद्धिः, काचिच्च हानिर्न भवतः, किश्चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयो न भवति, अर्थात् कार्याऽपेक्षा न भवतीति ॥७॥८॥९॥ ध्यानाश्रयतो ज्ञानयोगिनि हर्षशोकयो वकाश:
'श्रवकाशो निषिद्धोऽस्मिन्नरत्यानन्दयोरपि ।
ध्यानाऽवष्टम्भतः क्वाऽस्तु, तत्-क्रियाणां विकल्पनम् ॥ १० ॥ टीकाः-एष आत्मरतिरात्मा, ज्ञानयोगाराधनकाले धर्मशुक्लद्वयाऽन्यतरे ध्याने तादृशो लीनो भवति, यस्मात्तस्य भौतिकपदार्थस्य गन्धोऽपि नायाति, अत एव मनोज्ञाऽमनोज्ञपदार्थेष्पनतेषु हर्षशोकयोरवकाशो निषिद्धो-न सम्भवतीत्यर्थः 'क्वाऽस्तु तत् क्रियाणां विकल्पनम् 'दावश्यकादिक्रियाकलापविषयकमनःकर्मरूपविकल्पस्य कुतः सम्भवः ? अर्थादसम्भव एव ॥ १० ॥
क्रिया सा ज्ञानिनोऽसङ्गान्नव ध्यानघातिनी
॥३०८॥
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अध्यात्मसारः
॥३०॥
'देहनिर्वाहमात्रार्था, यापि भिक्षाटनादिका ।
क्रिया, सा ज्ञानिनोऽसङ्गान्नैव ध्यानविघातिनी ॥ ११ ॥ टीकाः-देहनिर्वाहमात्रप्रयोजनवती याऽपि भिक्षाटनादिका क्रिया, विद्यते साऽसङ्गतः-विरागता. भावहेतुतः, ज्ञानिनो ज्ञानयोगिनः क्रिया, 'नैव ध्यानविघातिनी' ध्यानं हन्तु नैव शक्नोति, यथा वृक्षस्य पणे निश्चेष्टे सत्यपि वायु-वेगेन व्योम्न्युट्टीय भ्रमति, प्रारब्धकर्माऽऽयत्तो ज्ञानयोगी मिक्षाटनादिको क्रियां करोति ॥ ११॥
- फलभेदादाचारक्रियाऽप्यस्य विभिद्यते - 'रत्नशिक्षागन्या हि तन्नियोजनहग् यथा।
फलभेदात्तथाऽऽचारक्रियाऽप्यस्य विभिद्यते ॥ १२ ॥ टीका:-यथा रत्नवणिपुत्रो रत्नानि पश्यति गुणदोषान ज्ञातु, ततश्च रत्नसत्कज्ञानार्जनरूपं फलं प्राप्नोति, यदा स एव पुत्र आपण उपविश्य व्यापार करोति, तदा रत्नानि विक्रतु कश्चित् पुरुषस्तत् सबिधावागच्छति तदा तद्रत्नक्रयसमयेऽपि प्रागयया रीत्या रत्नानि पश्यति स्म, तया रीत्या स पुत्रोरत्नानि पश्यति, तथाऽपि पाकतनदर्शनदृष्टौ चाऽधुनासनदर्शनष्टो महदन्तरं पतति, पूर्वीय दृष्टौ तु रत्नानां गुण
RECa
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अध्यात्मसार:
॥३१॥
दोपविषयकज्ञानरूपं फलं लब्ध्वा विरमति, यदाऽधुना ततोऽप्यने गत्वा रत्नानां क्रयणादिद्वारा धनार्जनरूपफललामस्य तस्य लक्ष्यमस्ति, एवमुभयसमये दर्शनक्रियायाः समानत्वेऽपि फलमेदेन क्रियामेदो भवति. तथाऽत्रापि प्रमत्तभावस्याऽभ्यासदशासत्कभिक्षाटनादिक्रियायामाप्रमत्तभावीयमिक्षाटनादिक्रियायाःप्रत्यक्षतयैकसमानत्वेऽपि योःफले मेदः पतति, प्रमत्तभावीया सरागाऽवस्था, अप्रमत्तभावीयविशिष्टावस्थाsपेक्षयाऽल्पनिर्जराकारिका प बहपुण्यवन्धकारिका भवति यतः, स्वर्गादिसुखफलप्रापिका भवति-यदाऽप्रमतभाचीया सैव क्रियाऽत्यन्तप्रकृष्टकर्मनिर्जराकारिका भूत्वा मोक्षफलजनिका भवत्येवं फलमेदेनाऽऽचारक्रियाया अपि मेदो विज्ञेय इति ॥ १२॥ - ध्यानार्षा हि क्रिया सेयं -
ध्यानार्था 'हि क्रिया सेयं, प्रत्याहृत्य निजं मनः ।
प्रारब्धजन्मसङ्कल्पा-दात्मज्ञानाय कल्पते ॥ १३ ॥ टीकाः-एषा मिक्षाऽटनादिक्रिया, ध्यानविक्षेपिका न भवति, प्रत्युत ध्यानप्रयोजनजनिका भवति, एतावन्मात्रमपि नो परन्तु ज्ञानयोगी तु रढमेव विमृशति 'जन्मतत् प्रारब्धकर्मणा प्राप्तमित्येवं विशिष्टसाकन्पबलान्महात्मा स स्वीयं मनो विषयेभ्यः प्रत्याहृत्य-समाहत्याऽसङ्गभावतो भिक्षाटनादिका क्रिया करोति, तम्माता अपि क्रिया आत्मज्ञानसम्पादिका भवन्ति ॥ १५ ॥
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॥३१॥
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अध्यात्मसार:
॥३११॥
- स्थिरीभूतमनसः पुनश्चतत्वे स्थिरीकरणप्रक्रिया - 'स्थिरीभूतमपि स्वान्तं, रजसा चलतां व्रजेत् । प्रत्याहृत्य निगृहणाति, ज्ञानी, यदिदमुच्यते ॥ १४ ॥ शनैः शनैरुपरमेद् , बुद्धया घृतिगृहीतया । श्रात्मसंस्थं मनः कृत्वा, न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ १५ ॥
मग. गी.६-२५ यतो यतो निःसरति. मनश्वञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ १६ ॥ भ. गी. ६-२६ टीका:-आत्मनि स्थिरीभृतं मनोऽपि रजोभावस्योदये (मोहोदये) कदाचिच्चलता व्रजेत् परन्तु तदा यो ज्ञानयोगी महात्माऽस्ति, म तु मनो विषयेभ्यः प्रत्याहृत्य निगृहणात्येन, अनया रीत्या प्रत्याहारोमनसः करणीय इति भगवद्गीतायामुक्तं हि-शनैः शनैः न सहसा उपरमेद् उपरतिं कुर्यात् । कया, बुद्धया किं विशिष्टया घृतिगृहीतया, धृत्या धैर्येण गृहीतया धृतिगृहीतया धैर्येण युक्तया इत्यर्थः । आत्मसंस्थम्'-आत्मनि संस्थितम् , आत्मा एव सर्व न ततः अन्यत् किश्चिद् अस्ति, इति एवम् आत्मसंस्थं मनः
॥३११॥
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अध्यात्म
सार:
||३१२॥
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।। शाङ्करभाष्यम् भगवद्गीतायां
कृत्वा न किश्चिद् अपि चिन्तयेद् एष योगस्य परमो विधिः ६।२५। तत्र एवं आत्मसंस्थं मनः कत्तु प्रवृत्तो योगी
'यतो यतो यस्माद्यस्माद् निमित्तात् शब्दादेः निश्वरति निर्गच्छति स्वभावदोषाद् मनः चञ्चलम् - अत्यर्थ चलं अत एव अस्थिरं ततः ततः तस्मात् तस्मात् शब्दादेः निमित्ताद् नियम्य तत् तद् निमित्तं याथात्म्यनिरूपणेन आभासीकृत्य वैराग्यभावनया च एतद् मन आत्मनि एव वशं नयेद् आत्मवश्यताम् आपादयेत् । एवं योगाऽम्यावलाद् योगिन आत्मनि एव प्रशाम्यति मनः ।। शाङ्करभाष्यम् भगवद् गीतायां । २६
'शनैः शनैधृतिगृहीतया= धैर्येण सहितया बुद्धया 'उपरमेत्' = विरतिकार्यं कुर्यात्, अनया रीत्या मनो विषयेभ्यः प्रत्याहरणीयं ततो मन आत्मसंस्थं कृत्वा न किश्चिदपि चिन्तयेत् । यदा यदा चञ्चलमस्थिरं मनः सद् आत्मगृहाभिःसृत्य विषयेषु गच्छेत्तदा तन्मनो बुद्धया नियम्यात्मन्येव वशं नयेत्
।। १४ ।। १५ ।। १६ ।
चलचित्तो महामति मनोवशाय शास्त्रोदितां सक्रियां कुर्यात् 'अत एवाऽदृढस्वान्तः कुर्याच्छास्त्रोदितां क्रियाम् । सकलां विषयप्रत्या- हरणाय महामतिः ।। १७ ॥
-
॥३१२॥
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अध्यात्मसार:
॥३१३॥
टीका:-'अत एवाऽदृढस्वान्तः' शिथिलमना निमित्तवशाच्चलचित्तो वा महामति विषयप्रन्याहारमहिश्य 'शास्त्रीदिता-जिनागमविहितां 'सका क्रियां कुर्यात्'-कर्तव्यबुद्धया सकलाऽऽवश्यकादिका क्रियाऽऽचरणीया तत एव विषयादितो मनःप्रत्याहारो भवेनान्यथेति ॥१७॥ - नित्यं संयमयोगेषु व्यापताऽऽत्मा भवेद् यतिः -
'श्रुत्वा पैशाचिकी वार्ता, कुलववाश्च रक्षणम् ।
नित्यं संयमयोगेषु व्यापृताऽऽत्मा भवेद यतिः ॥ १८ ॥ ___टीका:-'श्रुत्वा पैशाचिकी बातो' एकम्य श्रेष्ठिन उपरि प्रसन्नेन पिशाचेन कथितं यत् 'यदा कार्य' न दास्यति नदा त्वां भक्षयिष्यामीति एकदा कार्य सर्व समाप्त, श्रेष्ठी भृशमाकुलो जातः, तथापि बुद्धि मान श्रेष्ठयामी , निःश्रेणीमानीय पिशाचं दत्वोक्तं यावद् द्वितीयं कार्य नाऽर्पयामि तावत्वया निःश्रेणी पुनः पुनः आरुह्यतामवरुह्यता मिति पैशाचिकी बातां श्रुत्वा 'कुलवध्वाश्च रक्षणम्' एकस्या नवोढायाः पति देशाऽन्तरं गतोऽस्ति, बहुमासव्ययाऽनन्तरं नवोढा कामवासनाऽऽक्रान्ता, श्वशुरस्तत्प्रवृत्तिं ज्ञातवान् , श्वशुरेण गृहस्य सर्वा दास्यो निष्काशिताः, सर्वकार्यस्य भारो नवरचा उपरि मुक्तः, निशायामापतितायामपि कार्य समाप्तं न भवति, सर्व कार्य समाप्य भृशं परिश्रान्ता सती निद्राधीना जायते, सा वामना
॥३१३॥
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अध्यात्म-IN सारः
॥३१४॥
कुत्रापि विनष्टा जातेति कुलवधाश्च रक्षणं श्रुत्वा यतिमुनिः, नित्यं संयमसम्बन्धियोगेषु व्यापूताऽऽत्मा' = क्रियावानात्मा भवेत , कदापि निष्कर्मा न तिष्ठेदिति ॥ १८ ॥ - निश्चयव्यवहारदशायां क्रियाव्यवस्थाविभागः -
'या निश्चयैकलीनानां, क्रिया नातिप्रयोजनाः ।
व्यवहारदशास्थाना, ता एवातिगुणावहाः ॥ ११ ॥ टीकाः-निश्चयधर्म एवाऽऽत्मनि मावितो येस्तेषां निश्चयैकलीनानां महात्मना या आवश्यकादिकाः क्रिया 'नातिप्रयोजनाः =अत्यन्तप्रयोजनरहिताः, व्यवहारदशास्थानां ता एव'=ता आवश्यकादिकाः क्रिया एव अतिगुणावहा:-अत्यन्तलाभकारिका एवेति ॥ १९ ॥ __ अहामेधाऽऽदियोगतः शुद्धस्य कर्मणोऽपि मुक्तिहेतुत्वमक्षतम्
कर्मणोऽपि हि शुद्धस्य; श्रद्धामेधाऽऽदियोगतः।
अक्षतं मुक्तिहेतुत्वं, ज्ञानयोगाऽनतिक्रमात् ॥ २० ॥ टीका:-ननु किमन्ततो गत्वा ज्ञानयोगस्यैव मुक्तिहेतुत्वं न क्रियाया इति चेत्र शुद्धायाः कायोसर्गादिरूपक्रियाया अपि वधमान-श्रद्धा-मेधा-धृति-धारणाऽनुप्रेक्षासहकृताया मुक्तिहेतुत्वं सङ्गतिमङ्गति यतः शुद्ध कर्मणि ज्ञानयोगस्याऽतिक्रमो न भवति, ज्ञानयोगस्य तु तत्रामतत्वं वर्तत एवेति ॥२०॥
॥३१४॥
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अध्यात्म
सार:
५३१५।।
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कर्मयोगज्ञानयोगयोर्मर्यादा
'श्रभ्यासे सत्क्रियाऽपेक्षा, योगिनां चित्तशुद्धये । ज्ञानपाके शमस्यैव यत्परैरप्यदः स्मृतम् ॥ २१ ॥ श्रारुरुक्षो मुने र्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते || २२ ||
टीकाः- योगाऽभ्यासकाले योगिनां चित्तशुद्धये, आवश्यकादिका सत्क्रियाऽपेक्षा वर्त्तते, किश यदा यदा तत् सत् क्रियायां सत्यां परिपक्वज्ञानदशा (उपशान्तदशा) पुनः पुनः कृतायामेव प्राप्यते तदा तत् सत्क्रिया नाऽपेक्ष्यते, मात्रं सम्प्राप्तेन्द्रियमनसोः शमनमपेक्ष्यते (भगवद्गीतायां व्यासमुनिनाऽप्युक्तं हि-'आरुरुक्षोः आरोढुम् इच्छतः अनारूढस्य ध्यानयोगे अवस्थातुम् अशक्तस्य एवेत्यर्थः, कस्य जारुरुक्षोः, सुनेः कर्मफलसंन्यासिन इत्यर्थः किमारुरुक्षोः योगं, कर्म कारणं साधनम् उच्यते । योगारूढस्य पुनः तस्य एव शम उपशमः सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणं योगारूढत्वस्य साधनम् उच्यते इत्यर्थः । यावद् यावत् कर्मभ्य उपरमते तावत् तावद् निरायासस्य जितेन्द्रियस्य चित्तं समाधीयते । तथा सति स झटिति योगाast भवति तथा चोक्तं व्यासेन- नैतादृशं ब्राह्मणस्याऽस्ति वित्तं यथैकतासमतासत्यता च शीलं स्थिति
॥३१५॥
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अध्यात्मसारः
॥३१६॥
दण्डनिधानमार्जवं ततस्ततश्योपरमः क्रियाभ्यः ॥ महा० शान्ति• १७५।३७ इति• शाङ्करभाष्यम् भग: वद्गीतायां ॥३॥
सङ्कल्पसन्यासरूपयोगमारोदुमिच्छोः साधकमुनेः सतक्रियारूपं कर्मकारणत्वेनाऽपेक्षितं यदा योगारहस्य तस्य मुनेः कर्मणोऽपेक्षा नास्ति, परन्तु कर्मयोगप्राप्य (प्राप्त) शमस्यैवापेक्षा वर्तत एव शमयोग एव योगारूढदशायां तं मुनि स्थिरीकरोति, योगारूढस्यात्मनःसर्वथा सङ्कल्पा विनाशं न गताः सन्ति, परन्तूपशान्ता एव, यतःक्षीणदोषा योगातीता उच्यन्ते अर्थाद्योगारूढस्योपशान्तसङ्कल्पस्य (सन्न्यस्तसङ्कल्पस्य) पुनः सङ्कन्पोन्थानस्य शक्यतयाऽनुत्थानकृते सङ्कल्पस्य शमभावोऽत्यन्ताऽऽवश्यक एवेति ॥२१॥२२॥ - योगारूदस्य वर्णनम् -
'यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्यते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी, योगारूदस्तदोच्यते ।।२३।। टीकाः-यदा समाधीयमानचिनो योगी हि इन्द्रियाऽर्थेषु इन्द्रियाणाम् अर्थाः शब्दादयः तेषु इन्द्रियार्थेषु कर्मसु बनिन्यनैमित्तिककाम्यप्रतिषिद्धेषु प्रयोजनाऽभावबुद्धया नाऽनुपज्यते अनुषङ्ग कर्तन्यताबुद्धिं न करोति इत्यर्थः । सर्वसङ्कल्पसंन्यासी सर्वान सहकल्पान् इहामुत्रार्थकामहेतून संन्यसितु शीलं अस्य इति सर्व सङ्कल्पसंन्यासी, योगारूडः प्राप्तयोग इति एतत् तदा तस्मिन् काले उच्यते । सर्व
॥३१६॥
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बण्यात्म
बार
॥३१७॥
संकल्पसंन्यामी इति वचनान् मर्वान् कामान् सर्वाणि च कर्माणि संन्यसेद् इत्यर्थः। संकल्पमूला हि सर्वे कामाः-संकल्पमूलो कामो वे यज्ञाः संकल्पसंभवा' (मनु० २।३) 'काम ! जानामि ते मूलं संकल्पाचं हि जायसे । न त्वा संकल्पयिष्यामि तेन मे न भविष्यसि ॥' (महा० शान्ति० १७७१२५) इत्यादिस्मृतेः।
'सर्वकामपरित्यागे च मर्वकर्मसंन्यासः सिद्धो भवति 'म यथाकामो भवनि तत् ऋतु भवति, यत्क्रतु भवति तत्कर्म कुरुने (बृह० ५।४।४।५) इत्यादिश्रुतिभ्यः यद्यद्धि कुरुते कर्म तत्तत्कामस्य चेष्टितम्' (मनु. ॥ इत्यादिम्मृतिभ्यः च । न्यायात च न हि सर्वसंकल्पसंन्यासे कश्चित् स्पन्दितुम् अपि शक्तः । तस्मात् सर्वसंकल्पसंन्यासी इति वचनात् सर्वान् कामान् सर्वाणि कर्माणि च त्याजयति भगवान् ॥६। ॥ भगवद् गीतायां शाङ्करभाष्यम् ॥
हीतिनिश्चये, यदेन्द्रियाणामर्थेषु-विषयेषु यो नाऽनुषज्यते नाऽऽसक्तो भवति कर्मसु (तत्कर्मफलेषु च नानुषज्यते रागवान्न भवति, तदा सर्वसंकल्पमंन्यासी योगारूढः स उच्यते-उपशान्तसर्वसंकल्पो योनारूढो ज्ञेयः ॥२३॥ - ज्ञानकर्मयोगयोगुणप्रधानभावेन दशाभेदः -
'ज्ञानं क्रियाविहीनं न, क्रिया वा ज्ञानवर्जिता । गुणप्रधानभावेन, दशाभेदः किलैनयोः ॥२४॥
॥३१७॥
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सार:
॥३१८॥
टीकाः-जानक्रिययो मिलित्वैव-समुदितयोक्तिहेतुत्वमांन केवलं ज्ञानं क्रियाविहीनं मुक्ति प्रति हेतुः, न केवला क्रिया ज्ञानवर्जिता मोक्षं प्रति हेतुः, परन्तु 'किलैनयोः अनयो निक्रिययोगुणप्रधानभावेन दशाभेदो वयेते, कर्म योगदशा-यत्र क्रियायाः प्राधान्यं ज्ञानस्य च गुणत्वं (ज्ञानं गौणं) तत्र कर्म प्रधानो योगः कर्मयोगः । ज्ञानयोगदशा यत्र दशायां ज्ञानस्य प्राधान्यं कर्मणच गुणत्वं (कर्म गौणं) तत्र ज्ञानप्रधानो योगो ज्ञानयोगः, अत्र कर्मस्वरूपो योगः कर्मयोगः ज्ञानस्वरूपो योगो शानयोग इति व्युत्पत्तिर्न विज्ञेया वा कर्तव्येति तचं ॥२४॥ - चित्तशोधककर्मयोगाऽनन्तरं ज्ञानयोगौषिती -
'ज्ञानिना कर्मयोगेन. चित्तशुद्धिमुपेयुषाम् ।
निरवद्यप्रवृत्तीनां, ज्ञानयोगौचिती ततः ॥ २५ ॥ टीका:-ये कर्मयोगेन, चित्तशुद्धिं प्राप्नास्तेषां निष्पापप्रवृत्तीनां कर्मयोगिनां ज्ञानिनां ततः-कर्मयोगानन्तरं बानयोगं माधयितुमुचितं नान्यथा यथा गेगिणामन्त्राणि निर्मलानि दृढानि च कत'पद्जलानन्तरं पृष्टये दुग्धं दीयते तथाऽत्राऽपि मुद्गजलसमः कर्मयोगः, दुग्धसमो ज्ञानयोगो विज्ञयः॥२५॥ ___- पूर्व कर्मयोगः पश्चाच्च ज्ञानयोग इति क्रमो जिनोक्तोऽस्ति
॥१८॥
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अध्यात्म सारः
श्रत एव हि सुश्राद्ध-चरणस्पर्शनोत्तरम् ।
दुष्पालश्रमणाचार-प्रहणं विहितं जिनैः ॥ २६ ॥ टीकाः-अन एव जिनेश्वरैः, प्राक् , सुश्राम्य-समीचीनदेशविरतस्य-श्रावकस्य, सम्यक्त्वमूलद्वादशव्रतादिदेशविरतिरूपचारित्रस्य म्पर्शनाकालादनन्तरं दुप्पालश्रमणाचारग्रहणं विहितं' दुःसाध्यजैनसाधुसत्कपंचमहाव्रतादिपालनरूपाचारम्य ग्रहणं निरूपितं देशविरतस्य जीवनमपेक्षया कर्मयोगप्रधानमस्ति, मुनिजीवनमपेक्षया ज्ञानयोगप्रधानमस्ति ज्ञेयमिति ॥२६॥ - एवं निरुक्तक्रमस्य कारणं प्रदर्यते -
एकोद्दे शेन संवत्तं कर्म यत् पौर्वभूमिकम् ।
दोषोच्छेदकरं तत् स्यात् , ज्ञानयोगप्रवृद्धये ॥ २७ ॥ टीका:-एवं क्रमस्य कारणमस्ति यद् 'विरतिरूपमेकमुद्देश्यं कृत्वा देशविरतिरूपपूर्वभूमिकायां यत्कर्म संवृत्तं'-स्थूलप्राणातिपातादिविरमणरूपव्रतपालनबन्यं यत्कर्म जातं वा प्रवृत्तं तत्कर्म, पुरस्तात् सिध्यतज्ञानयोगस्य प्रवृद्धये, 'दोषोच्छेदकरं स्यात्' अन्तरागत्य प्रतिबन्धकराणां दोषाणामुच्छेदकर भवेद् वस्तुस्थितिरेतादृश्येव, तस्माज्यानयोगं सिसाधयिषुभिर्वाधिकदोषप्रक्षालनाय प्राक् कर्मयोग एव प्रतिपत्तव्य इति ॥ २७ ॥
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अध्यात्म
सार:
॥३२०॥
- अज्ञानिनां तु यत्कर्म न ततश्चित्तशुद्धिः -
_ 'श्रज्ञानिनां तु यत्कर्म, न ततश्चित्तशोधनम् ।
__यागादेरतथाभावात् , म्लेच्छादिकृतकर्मवत् ॥ २८ ॥ टीका:-अत्रकं वस्तु लक्ष्यं नेतव्यं यद् यस्य कस्यचिदभिमतः कर्मयोगश्चित्तशोधको न भवति, यतोऽज्ञानिनां कर्मयोगश्चित्तशुद्धिं कत नाऽलं तत्रेदं कारणमस्ति तथाहि-यज्ञयागस्नानशौचादिकर्मयोगानामत्यन्तसावद्यस्वरूपत्वाच्चित्तस्य शोधनमकृत्वा तच्चित्तं प्रशमपरिणामवजनयितुं न शक्यते, यथा म्लेज्छादिजनैर्देवदेव्यादीनां समक्षं भवत्पशुवधाऽऽदिकं कर्म चित्तशोधकं न भवितुमर्हति, यत्कर्म चित्तशोधनाय नाऽलं तत्कर्म, कर्मयोगत्वेन कथयितुन पार्यते इति ॥ २८ ॥ - स्वरूपतः सावद्यत्वाद् यज्ञयागादिकर्मयोगो वाङ्मात्ररूपः -
'न च तत् कर्मयोगेऽपि, फलसङ्कल्पवर्जनात् ।
संन्यासो ब्रह्मबोधादा, सावद्यत्वात्स्वरूपतः ॥ २१ ॥ टीका:-ननु यज्ञणगादिकर्मयोगेऽपि चित्तदोषत्यागो भवति, यतस्तत्रापि यदि स्वर्गादिफलसङ्कल्पवर्जनं भवेदथवाऽऽत्मज्ञानं सञ्जातं भवेत्सदा दोषत्यागः किं न स्यात् । अनया रीत्या दोषत्यागे
॥३२॥
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सति चित्तशुद्धिरपि भवेत्ततो ज्ञानयोगोऽपि प्राप्तः स्यादिति चेन्न यो यज्ञयागादिर्वाङ्मात्रः कर्मयोगोऽस्ति अध्यात्म-IXI यतः स आत्माऽज्ञानभावतोऽथवा स्वरूपतः (हिंसाऽऽत्मकत्वेन) सावद्यो-अवद्यसहितोऽस्ति, तस्मात्ततो सार
दोषसन्न्यासश्चित्तशुद्धिश्च न भवितु शक्येते यत्र चित्तं हिंसाऽऽत्मकप्रवृत्तिकरणसंक्लिष्टपरिणामोऽस्ति,
तत्र चित्ते तादृश्या प्रवृत्त्या कुतः शुद्धिसम्भवः स्याद् ? इति ॥ २९ ॥ ॥३२॥ - वेदविहितमपि स्वरूपतः सावयं कर्म चित्तशोधकं न भवति -
'नो चेदित्थं भवेच्छुद्धिोहिंसाऽऽदेरपि स्फुटा ।
श्येनाद्वा वेदविहिताद् विशेषाऽनुपलक्षणात् ॥ ३० ॥ ___टीकाः-यदि वेदमानिनामेतादृश आग्रहः स्याद् यद् 'स्वरूपतः सावद्यमपि यज्ञादिकर्म चित्तशुद्धि जनयत्येवेति, तदा स्वेष्ट देवतासमक्षं म्लेच्छादिमि यद्गोवधादिकं कर्म क्रियते तदपि चित्तशुद्धिं किं न जनयेत ? ततो ज्ञानयोगोऽपि कि न सिद्धयेत ? तत्राऽपि तु युष्माकमपि निषेधो वर्तते, ननु तत्र तु वेदविहितं नास्त्यतो निषेधोऽस्ति परन्तु यत्कर्म वेदविहितं भवेत्तत्स्वरूपतः सावद्यमपि भवेत्तथाऽपि ततश्चित्तशुद्धिरवश्यं भवेदिति चेत्र, एवं सुष्टु तथापि श्येनयागस्तु वेदविहितोऽस्ति 'येन शत्रवधः कर्त्तव्यस्तेन श्येनयागः, कर्तव्योऽस्ति एतादृशं वेदोक्तमस्ति, एष श्येनयागः, दुर्गतेग्नुबन्धस्य भयंकरतादिं दृष्ट्वा
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अध्यात्मसारः
२२॥
ऽतिनिन्धकर्मत्वायुष्माकं शिष्टपुरुषैः स हेयत्वेनोद्घोषितोऽस्ति श्येनयागस्य कर्म वेदविहितत्वेऽपि पिचशुदिन जनयत्येव एवं स्वरूपतः सावद्यकर्मरूपा म्लेच्छानां गोहिंसाश्येनयागादिकर्मतोऽपि चित्तदोषसंन्यासः कथं भवेत १ अपितु न सम्भवति यतो यज्ञयागादौ च गोहिंसादौ कर्मणि सावधतादृष्ट्या न किमप्यन्तरमस्ति अतः स्वरूपतः सावद्यकर्माणि, चित्तशोधकानि न भवेयुरेवं मन्तव्यमेव ततोऽज्ञानिना यत्रयागादिकर्माण्यपि स्वरूपसावद्यानि सन्ति, ततस्तानि चित्तशोधकानि न भवन्तीति प्रतिपत्तव्यमेव, यानि कर्माणि चित्तशोधकानि न भवन्ति तानि कर्मयोगत्वेन न कथ्यन्ते, कर्मयोगस्तु चित्तशुद्धिबननद्वारा ज्ञानयोगस्य साधको भवतीति ॥ ३० ॥
- सावधं कर्म, तस्मान्नादेयं बुरिविप्लवात् । 'सावद्य कर्म नो तस्मा-दादेयं बुद्धिविप्लवात् ।
कर्मोदयाऽऽगते स्वस्मि-नसङ्कल्पादबन्धनम् ॥ ३१ ॥ टीका:-तस्माद् यज्ञयागादि यावत् साऽवद्यं कर्म नादेयं नोपादेयं यावनादरणीयम् यतः बुद्धिविप्लवात' मावद्यानि कर्माणि चित्ते हिंसाऽऽन्मकपरिणामजननद्वारा, सद्बुद्धिविध्वंसकारकाणि भवन्ति, ननु ज्ञानयोगी कदाचिदपि सावद्यं कर्म न सेवेतेति चेत्र, असातवेदनीयकर्मोदयेनाऽसह्यरोगादेरुपद्रवो यदाऽऽपतेत्तदा कदाचिदाधाकर्मादिसावद्यकर्मसेवनस्याऽभियोग आपतेत्तदाऽपि तत्सावद्यकर्मसेवनाय मनोवृत्ति
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॥३२२॥
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वन्यात्य
५३२३॥
स्तु नास्त्येव, मनो विनाऽपि तत्कर्म सेवनमापतति तस्मात्ततसावद्यकर्मसेवनतः पापकर्मणामनुबन्धो न पतति यत्कर्मणोऽशुभाऽनुवन्धो न पतति तत्कर्मणः सावद्यत्वेऽपि वस्तुतः सावधं न कथ्यतेऽशुभत्वेऽपि न वस्तुतोऽशुभं कथ्यते इति ॥ ३१ ॥
- कर्माऽप्याचरतो ज्ञातुर्मुक्तिभावो न होयते - कर्माऽप्याचरतो ज्ञातुर्मुक्तिभावो न हीयते । तत्र सङ्कल्पजो बन्धो गीयते यत्परैरपि ॥ ३२ ॥ कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान मनुष्येषु, स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ ३३ ॥ टीका:-यो ज्ञाताऽस्ति तस्यापवादमार्गेण सावध कर्माचरतोऽपि मुक्तिभावो न बाध्यते यत आत्मनि कर्मणो वन्धो, हिंसादेः सड़कन्पतः पतति यत्परैरपि गीयते भगवद्गीतायां कर्मणि कर्म क्रियते इति व्यापारमात्रं तस्मिन् कर्मणि अकर्म कर्माभावं यः पश्येद्, अकर्मणि च कर्माभावे क तन्त्रत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्त्योः । वस्तु अप्राप्य एव हि सर्व एव क्रियाकारकादिव्यवहारः अविद्याभूमौ एव कर्मयः पश्येत् पश्यति स बुद्धिमान् ॥३२३॥ मनुष्येषु स युक्तो योगी कृत्स्नकर्मकृत् समस्तकर्मकत च स इति स्तूयते कर्माऽकर्मणोः इतरेतरदर्शी ।
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अध्यात्म
AR:
॥३२४॥
य एवं (तत्त्वतः) कर्माऽकर्मविभागज्ञः स बुद्धिमान् पण्डितो मनुष्येषु स युक्तो योगी कृत्स्नकर्मकृत च सः अशुभाद् मोक्षितः कृतकृत्यो भवति इत्यर्थः । इति भगवद्गीतायां शाकरभाष्यांशा उद्धृताः।। 'यः पुरुषः कर्म चाऽकर्म सम्यग् जानाति स योगयुक्तः सञ्जातेपु मत्कर्मसु बन्धनं न पश्यति, तस्मात् स कर्मणि अकर्ग पश्यति, चाऽकर्मणि कर्म पश्यति, अर्थानिष्कियेऽज्ञानतः स बन्धनकारकं कमैंव जानाति प्राज्ञा एतादृशाः पुरुषाः सर्वप्रवृत्तौ पूर्ण प्रतिभावन्तो भवन्त्यतो यद् विकर्म न भवेत् तादृशं सर्व कर्म योगतः कुर्वन्ति ॥३२॥३३॥ - जैनमते कर्माऽकर्मविषयकभङ्गानां पैचित्र्यं दर्शयति -
'कर्मण्यकर्म वा कर्म, कर्म यस्मिन्नुभे श्रपि ।
नोभे वा भङ्गवैचित्र्या-दकर्मण्यपि नो मते ॥ ३४ ॥ . टीका:-'नो मते' -अस्माकं जैनमते पूर्वोक्तौ द्वौ भङ्गो केवलं न स्तोऽपि तु भङ्गानां वैचित्र्यकारणेन वहवो भङ्गा भवन्त्येव तथाहि=(१) कर्मणि अकर्मदर्शनरूपो योगः (२) कर्मणि कर्मदर्शनरूपो योगः (३) कर्मणि कर्माऽकर्मदर्शनरूपयोगः (४) कर्मणि कर्माभावाऽकर्माभावदर्शनरूपयोगः (५) अकर्मणि अकर्मदर्शनरूपयोगः (६) अकर्मणि कर्मदर्शनरूपयोगः (७) अकर्मणि कर्माऽकर्मदर्शनयोगः () अकणि कर्माभावाऽकर्मामावदर्शनरूपयोगः ॥ ३४ ॥ ।
॥६२४॥
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मध्यात्म
सार
॥३२५॥
- ज्ञानयोगी भोगैर्न लिप्यते जलजदलमिव जलेन -
'कर्मनकर्म्यवैषम्यमुदासीनो विभावयन ।
ज्ञानी न लिप्यते भोगैः पद्मपत्रमिवाऽम्भसा ॥ ३५ ॥ टीकाः-पूर्वकथितकर्माऽकर्मविषयकभङ्गानां वैषम्यं विभावयन-विचारणे विषयीकुच्चन ज्ञानी, कदाचित क्रियमाणेषु सांसारिककर्ममदासीनस्तिष्ठति. तस्माच भुज्यमान भोगन लिप्यते यथाऽम्भमा जलेन पद्मपत्र-कमलदलं न लिप्यते तथाऽत्रापि ज्ञेयमिति ।। ३५ ॥ - अनन्यपरमात् साम्यात् , ज्ञानयोगो भवेन्मुनिः -
'पापाऽकरणमात्राद्धि, न मौनं विचिकित्सया ।
अनन्यपरमात् साम्यात, ज्ञानयोगी भवेन्मुनिः॥३६ ॥ टीकाः- अपवादमार्गे आधाकर्मादिसावद्यकर्मणः सेवनमप्यापतेत्तथापि यदि तदानीं चित्त कश्चिद्रागादिसंक्लेशो न भवेत् , अनन्यपरमात साम्यान' असाधारणोत्कृष्टसमतासम्भृतो भवेत्तदा तज्ज्ञानयोगिनि सत्यमुनित्वमवश्यं वाच्यं भवेत् , परन्तु पापफनरूपदुर्गतिमंशयमावतः पापाऽकरण मात्रतः पापस्याऽकर्तरि सत्यमुनित्वं न कथनीयं स्यात् ॥ ३६॥
॥३२५॥
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अध्यात्म
सारः
॥३२६॥
विषयेषु समं रूपं विदन् ज्ञानयोगी न लिप्यते
'विषयेषु न रागी वा द्वेषी वा मौनमश्नुते । समं रूपं विदंस्तेषु ज्ञानयोगी न लिप्यते ॥ ३७ ॥
टीका:-यस्य विषयान् प्रति नास्ति रागो नास्ति च द्वेषः, तस्यैव मुनित्वप्राप्तिर्वषतव्या, विषयासेवनरूपपापाऽकरण मात्रान्मुनित्वस्वीकारो निश्चयनयतो दोषावहः कथ्यते, सर्वेषु पुद्गलेषु कुत्रापीष्टत्ववुद्धिरनिष्टत्वबुद्धिर्वा नैतादृशं यच्चित्तस्य संवेदनं स एव ज्ञानयोगोऽस्ति तादृशज्ञानयोगविशिष्टो महात्मा, अपवादमार्गेणाssधाकम दिसेव्यपि कर्मणा न लिप्यते ।। ३७ ।।
-
-
ज्ञानयोग्येवाSSत्मवान् ज्ञानवान् वेदधर्मब्रह्मयो भवति 'सतत्व चिन्तया यस्याऽभिसमन्वागता इमे । श्रात्मवान् ज्ञानवान् वेदधर्मब्रह्ममयो हि सः ॥ ३८ ॥
टीका :- यस्याऽभिसमन्वागता इमे सतवचिन्तया - येनोपनता विषयभोगाः केवलं दुःखकारणत्वेन परिज्ञया स्वभावचिन्तनेन विज्ञाताः, ततो येन प्रत्याख्यान परिज्ञया स्वरूपचिन्तनवलेन प्रत्याख्यातास्त्यकनाः, स आत्मा निश्चयत आत्मवान् (स्त्ररूपवान् ) विद्यते (१) स ज्ञानवान् = वस्तुस्वरूपज्ञावृत्वाज्ज्ञान
-
॥३२६ ॥
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अध्यात्मसार:
॥३२७॥
वानस्ति (२) स वेदवान् आचाराङ्गाद्यागमरूपवेदवेत्तृत्वाद् वेदवानस्ति (३) स धर्ममयःस्वर्गाऽपवर्गमार्गस्वरूपस्य दुर्गतिपतज्जन्तूनां रक्षकस्य च धर्मस्य ज्ञातृत्वाद्धर्मविदस्ति (४) स ब्रह्ममयः सर्वथा निष्कल. कस्य योगसुखस्य ज्ञातृत्वाद् ब्रह्मविद्-ब्रह्ममयोऽस्ति, एतादृशबिशिष्टात्माऽपवादमार्गेण विषयस्य सावद्यकर्मणो वा सेवनमात्रेण कथं कर्मणा लिप्येत १ अपितु न लिप्यत एवेति ।। ३८ ॥ - विषमताथा मूलमज्ञानं ज्ञानयोगेन नश्यति -
वैषम्यबीजमज्ञानं, निघ्नन्ति ज्ञानयोगिनः ।
विषयांस्ते परिज्ञाय, लोकं जानन्ति तत्त्वत ।। ३१ ॥ टीका:-विषयनिष्ठेष्टत्वाऽनिष्टत्वादिवैचित्र्यस्य वीजं मूलकारणभूतमज्ञानं आत्मादितचाज्ञानं ज्ञानयोगिनो निघ्नन्ति' स्वप्रतिभाप्रकाशेन दूरतः क्षिपन्ति, अत एष वैषम्यदर्शनं दरे भवति, एवं स्थिते इष्टस्वाऽनिष्टत्वभानविरहितास्ते विषयाणां वास्तविकी प्रकृति क्षणविनश्वरस्वभावं विज्ञाय महात्मानस्तत्त्वतो लोकं जानन्ति-समस्तलोकस्वरूपमात्रस्य ज्ञातारो भवन्तीति ॥ ३९ ॥ - ज्ञानयोगिनो ज्योतिष्मन्तो भवन्ति -
इतश्चापूर्वविज्ञानाच्चिदानन्दविनोदिनः । ज्योतिष्मन्तो भवन्त्येते, ज्ञाननिषूतकल्मषाः॥ ४० ॥
॥३२७॥
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अध्यात्म-1
सार:
॥३२८॥
टीकाः-तादृशापूर्वविज्ञानप्रयोज्यचिदानन्दविपयका पूर्वविनोदप्रमोदवन्तः 'ज्ञाननिधू तकल्मषाः' = ज्ञानवलेन पापवासनानां विनाशं कृतवन्तः, एते ज्ञानयोगिनो महात्मानो 'ज्योतिष्मन्तो भवन्ति' आत्मनो विशेषज्ञानरूपप्रकाशस्य देदीप्यमानपुश्चमया भवन्तीति ॥ ४० ॥ - पर्यायक्रमवृद्धितस्तेजोलेश्याविवृद्धिरित्थंभूतस्यैव -
तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, पर्यायक्रमवृद्धितः ।
भाषिता भगवत्यादो सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥ ११ ॥ ___टीका:-यथा यथा मुनेः संयम पर्यायो वर्धमानो भवति, तथा तथा तस्य मुनेरुपरितनोपरितनबैमानिकदेवलोकस्य शुद्धशुद्धतरशुद्धतमतेजो (शुभ-शुद्ध) लेश्याप्रयुक्तानि साध्यानि चित्तस्य सुखदसंवेदनानि, सातिशय विशिष्टात्मतृप्तिसन्तुष्टिं च ज्ञानयोग्येवानुभवति, एवं श्रीभगवत्यादिमूत्र यदुक्तं तदेतादृशविशिष्टज्ञानयोगनि मुनिवरे घठते नान्यत्रेति ॥ ११ ॥ - विषमेऽपि समत्वदर्शनं विशिष्टापूर्वगुणावहम् -
विषमेऽपि समेक्षी यः, स ज्ञाता स च पगिडनः। जीवन्मुक्तः स्थिरं ब्रह्म तथा चोक्त परैरपि ॥ ४२ ॥
11३२८॥
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अध्यात्मसार:
॥३२॥
टीका:-कनिर्मितविद्याजातिकुलादिरूप विषमेऽपि यसमानत्वं यः पश्यति, स ज्ञानी स च पण्डितः, स जीवन्मुक्तःसासारिकस्थितिकारकद्रव्यप्राण रश्चितोऽपि मुवत व मुवतात्माऽस्ति पुष्करपलाशनिलेबो. ऽस्ति, स एव स्थिरं ब्रह्मा कूटस्थात्मरूपं) विद्यते तथा चोक्तं परेरपि-भगवहीतायामुक्तं ॥ ४२ ॥
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः समदर्शिनः ॥ ४३॥ १० गी० ५।१८ टीका:-विद्याविनयसंपन्ने विद्या च विनयः च विद्याधिनयो, विद्या आत्मनो बोधः, विनय उपशमः, ताभ्यां विद्याविनयाभ्यां संपन्नो विद्याविनयसंपन्नो विद्वान विनीतः च यो ब्राह्मणः तस्मिन बामणं गवि हस्तिनि शनि च एव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः, विद्याविनयसंपन्ने उत्तमसंस्कारवति ब्राह्मणे सात्त्विक मध्यमायां राजस्यां गवि संस्कारहीनायां अत्यन्तम् एवकेवल तामसे च सवादिगुणैः तज्ज्ञः संस्कार तथा राजसैः तथा तामसैः च संस्कारैः अत्यन्तम् एव अस्पृष्टं समम् एकम् अविक्रियं ब्रह्म द्रष्टु' शीलं येषां ते पण्डिताः समदर्शिनः ॥१८।। भगवद्गीतायां शाङ्करभाष्यम् ॥४३॥
'इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोषं हि समं ब्रह्म, तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥४४॥ भ. गी. ५।१९
॥३२९॥
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अध्यात्मसारः
॥३३०॥
___टीका:-इह एव जीवद्भिः एव तैसमदर्शिभिः पण्डितैः जितो वशीकृतः सों जन्म येषां साम्ये सर्वभूतेषु ब्रह्मणि समभावे स्थितं निश्चलीभूतं मनः अन्तःकरणम् । निर्दोषं यद्यपि दोषवत्सु श्वपाकादिषु मृढे। तदोषः दोषवद् इव विभाव्यते तथापि तद्दोषैः अस्पृष्टम् इति । निर्दोष दोषवर्जितं हि यस्मात् । अतः समं ब्रम एकं च तस्माद् ब्रह्मणि एव ते स्थिताः तस्माद् न दोषगन्धमात्रम् अपि तान् स्पृशति, देहादि संघाताऽऽत्मदर्शनाऽभिमानाऽभावात् इति शाङ्करभाष्यांशा भगवद्गीतायां । ४४॥
यस्माद् निर्दोष समं ब्रह्म आत्मा तस्मात्'न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य, नोदिजेत् प्राप्य चाऽप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो, ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ ४५ ॥ टीकाः-न प्रहृष्येद् न प्रहर्ष कुर्यात् प्रियम् इष्टं प्राप्य लब्ध्वा, न उद्विजेत् प्राप्य एव च अप्रियम् अनिएं लब्ध्वा, देहमात्राऽऽत्मदर्शिना हि प्रियाऽप्रियप्राप्ति हविषादस्थाने न केवलात्मदर्शिनः तस्य प्रियाप्रियप्राप्त्यसंभवात् किञ्च सर्वभूतेषु एकासमो निर्दोष आत्मा इति स्थिरा निविंचिकित्सा बुद्धिर्यस्य स स्थिरबुद्धिः । असंमूढः संमोहवर्जितः च स्याद् यथोक्तो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः, अकर्मकृत् सर्वकर्मसंन्यासी इत्यर्थः ।।
इति शाङ्करभाष्यम् भगवद्गीतायां 'अनया रीत्या येषां साम्ये स्थितं मनः' यैःसर्वत्र ब्रह्म रटं तैस्त इहैव अस्मिन् मनुष्यजन्मनि स्थित्वैव 'सगोंजितः' जन्ममरणसंसाररूपसर्गः, तीर्ण उत्तीर्णः, अर्थात् महा
॥३३॥
जकल
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अध्यात्म सार:
॥३३१॥
मृत्युस्थानतो निर्गत्यामृतपदं प्राप्तम् , यतः सर्वत्र ब्रह्म समं निर्दोष चास्ति, एप ज्ञानयोगी सर्वत्र समत्वंपश्यति, 'तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः'-तस्मात कारणात् समत्वस्वरूपे निदोषे ब्रह्मणि, आत्मज्ञानिनस्ते, सदास्थिरत्वसम्पना वर्तन्ते इति ।
टीका:-"प्रियं प्राप्य न प्रहायेत्'-यदिष्ट लम्वा तस्मिन्न लीनो भवेद् , 'नोद्विजेद प्राप्य चाप्रियं% अनिष्ट प्राप्य तस्माद् दीनो न भवेदतएव स 'स्थिरबुद्धिः स्थैर्यविशिष्टवुद्धिमान् भवति, "असंम्ढसंमोहाऽमावविशिष्टो भवति 'ब्रमवित्' वस्तुतः आत्मनोऽमृतपदवेत्ता भवति, 'ब्रह्मणि स्थितः'-चिदानन्दादि स्वरूपे स्थिरतावान् भवतीति ॥४५॥
निरपेक्षमुनीनां तु वैषम्ये साम्यदर्शनं रागोषक्षयाय'अर्वागदशायर्या दोषाय वैषम्ये साम्यदर्शनम् । निरपेक्षमुनीनां तु रागद्वेषक्षयाय तत् ॥ ४६॥
टीका:-ननु तत्तदात्मनि जातिकुलादिसत्कोच्चतानीचताजनितविषमता तु विद्यते एव तथाऽपि तद्विषमताया दर्शनं न कर्त्तव्यं च सर्वत्र सर्व समत्वेन दर्शनीयमित्येष किं दोषो नास्ति ? इति चेन्न वैषम्ये साम्यदर्शनमित्येतद्दोषरूपं विद्यते 'अग्दिशायां दोषाय वैषम्ये साम्यदर्शनम्' अर्थात् पूर्वावस्थायां कर्मयोगस्याराधनायां तद वैषम्ये साम्यदर्शनं दोषाय कन्पते परन्तु अर्वागदशामतिक्रम्याग्रे गता ये ज्ञानयोगिनः सन्ति
॥३३१॥
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अध्यात्मसार:
॥३३२॥
तेषां 'निरपेशमुनीना =निःस्पृहिणां महात्मनां तु वैषम्ये साम्यदर्शनं दोषाय न भवति प्रत्युत रागद्वेषाजननद्वारा गुणायैव प्रभवति ॥४६।।
रागद्वेषक्षयप्रयुक्तविषयशून्यतापूर्णो ज्ञानीभवति'रागद्वेषक्षयादेति ज्ञानी विषयशून्यताम् छिद्यते भिद्यते वाऽयं, हन्यते वा न जातुचित् ॥४७॥
टीकाः-वैषम्ये साम्यस्य दर्शनं कुर्वतां ज्ञानिनां रागद्वेषक्षयो भवति, अर्थात् तेषां ज्ञानिना हृदयं विषयान गहणाति परन्तु इष्टानिष्टत्वरूपेण तान् विषयान् ग्रहीतु तु तेषां चित्तं सर्वथा शून्यं भवति, तत्पश्चाज्ज्ञानयोगिनः स्वस्य शरीरं केनचिन्छिद्यमानं भिद्यमानं हन्यमानं भवेत्तथाऽपि तत्सर्वमनिष्टमनिष्टत्वेन तच्चित्तं न गृहाति, अर्थात् कदाचिदपि स आत्मा, वस्तुतस्तु न च्छिद्यते न भिद्यते न हन्यते इति ॥४७॥ - श्लोकाष्टकं यावज्ज्ञानयोगिस्वरूपं निरूप्यते
'अनुस्मरति नातीतं नैव कातत्यनागतम् । शीतोष्णसुखदुःखेषु समो मानोऽपमानयोः ॥ ४८ ॥
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बच्यात्म-1X सारा
॥३३३।।
टीका:-'नातीतमनुम्मरनि'-ज्ञानयोगी पूर्वानुमृतं सुखादिकं न स्मरति, 'नवाऽनागतं कामति' = भाविजन्यसुखादिक नेच्छति, शीते चोणे, सुखे च दुःखे, माने चापमाने सदा ममतावान भवति, कुत्राऽपि न विषीदति च न प्रमीदति ॥४८॥
जितेन्द्रियो जितक्रोधो, मानमायाऽनुपद्रुतः ।
लोभसंस्पर्शरहितो, वेदखेदविवर्जितः ॥ ४ ॥ टीका: 'यो ज्ञानयोगी, इन्द्रियविषयविजेता भवति, क्रोधविजेता भवति च, लोभसंस्पर्शेन रहितो, मानस्य मायायाश्चोपद्रवशून्यो भवति, पुरुषवेदादेर्भयंकरोदयजन्यखेदस्य विशेषेण वर्जन विशिष्टोऽर्थान्मोक्ष. मार्ग प्रति द्रुत गच्छतस्तस्य ग्लानि भवतीति "६॥
सन्निरुद्धयाऽऽत्मनाऽऽत्मानं, स्थितः स्वकृतकर्मभिन् ।
हठप्रयत्नोपरतः, सहजाऽऽचारसेवनात् ॥ ५० ॥ टीका:-शुद्धोपयोगस्वरूपेणाऽऽत्मना, भावमनःस्वरूपसङ्कल्पात्मकमात्मानं सम्यक्तया निरुदय च सदा सर्वकालमात्मस्वरूपे स्थितः-स्थिरतावान् भवेत् , 'स्वकृतकर्मभित्' पूर्वोपार्जित-स्वकर्मभेदकारी भवेत् , निकाचितकर्मबलात् महजरीत्या प्रवर्तमानो ज्ञानयोगी, इन्द्रियादीनां प्रत्याहाराय मनसि हठप्रयत्नरूपबलात्कारपूर्वकप्रवृत्तितः सर्वथा उपरतो-विरतो भवत्येवेति ॥५०॥
॥३३३॥
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अध्यात्म-1
सारः
॥३३४॥
लोकसंज्ञाविनिर्मुक्तो. मिथ्याचारप्रपञ्चहृत् ।
उल्लसत्कराडकस्थानः, परेण परमाश्रितः ॥ ११ ॥ टीका: एष ज्ञानयोगी तु लोकस्य गताऽनुगतिकतायाः सर्वथा विनिर्गतः, तत एव लोकानां 'मिथ्याचारप्रपञ्चहत्'अपत्यभूतस्याचारस्य प्रपञ्चं हरन् 'उल्लसत्कण्डकस्थानः' संयमधर्मस्याऽस
ख्याताध्यवसायस्थानानां निःश्रेणीसोपानेषु द्रतं द्रतमुत्प्लुत्योत्तरोत्तरं वर्धमानतया गच्छन्नेवास्ति, उत्कटशुभमनोयोगेनाऽत्यन्तोज्ज्वलाऽऽत्मभावं प्राप्तवान् ज्ञानयोगी वर्तते ॥५१॥
"श्रद्धावानाज्ञया युक्तः, शस्त्राऽतीतो यशस्त्रवान् ।
गतोऽदृष्टेषु निर्वेद-मनिहनुतपराक्रमः ॥५२॥ टीका:-एव ज्ञानयोगी, जिनेन्द्रप्रवचनवचनस्योपरि निश्चलानन्यश्रद्धासमृद्धः स्यात् , जिनाज्ञापालनेऽपि प्रकामोलसितयोगसम्पत्संपन्नः स्यात्. 'शस्त्रातीतः' अशुभाऽध्यवसायरूपाऽऽत्मघातितीक्ष्णशस्त्रेभ्योऽतीतः स्यात्, अत एव दुर्गतिप्रापकबाह्याधिकरणरूपशस्त्रा-भाववान् स्यात् , 'गतोऽदृष्टेषु निर्वेदम्' अदृष्टस्वर्गा दीच्छाशून्योऽत एव सम्मुखोपनतधनादिरूपदृष्टेषु पदार्थेष्वपि महानिदै गत उदासीनःस्यात् 'अनिनुतपरा- क्रमः'निहनवमकृत्वा पश्चाऽऽचारपालने-द्भुतपराक्रमस्फूर्तिसम्पनो भवेदिति ॥५२॥
॥३३॥
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बच्चास्म-1
'निक्षिप्तदण्डो ध्यानाऽग्निदग्धपापेन्धनबजः ।
प्रतिस्रोतोऽनुगत्वेन, लोकोत्तरचरित्रभृत् ॥ ५३॥ टीकाः-एष ज्ञानयोगी, निक्षिप्तदण्डः' मनोवाक्कायनिष्ठाशुभव्यापाररूपदण्डत्रयनिक्षेपणकारी स्यात् , 'ध्यानाऽग्निदग्धपापेन्धनव्रजः' ध्याननामकाऽग्निना पापकाष्ठसमूहं दग्धं कृतवानस्ति, 'प्रतिस्रोतोऽनुगत्वेन लोकोत्तरचरित्रभृत्'सांसारिकमोहरूपाचारनदीपूरस्य प्रवाह प्रति सम्मुखगमनस्य शिक्षणं प्रतिपन्नोऽस्ति, यतो लोकोत्तराचाररूपचरित्रस्य स्वामी वर्त्तते ॥५३॥
'लब्धान् कामान बहिष्कुर्वन्नकुर्वन् बहुरूपताम् । स्फारीकुर्वन् परं चक्षुरपरं च निमीलयन् ॥ ४ ॥
पश्यन्नन्तर्गतान् भावान्, पूर्णभावमुपागतः ।
भुआनोऽध्यात्मसाम्राज्यमवशिष्टं न पश्यति ।। ५५ ॥ टीकाः-अपूर्वदशा गतोऽयं ज्ञानयोगी, सम्मुखमागत्य समुपस्थितान् ‘कामान्' कान्तप्रियभोगान् , मनः- 01 सदनतोऽपि 'बहिस्कुचन्' बहिष्कारपूर्वकं पृष्टतः कुर्खन्, 'अकुर्वन् बहुरूपताम्' क्षणं तुष्टः, क्षणरुष्टः क्षणं ॥३३५।। रागी क्षणं विरागीत्यादीनि बहनि रूपाणि-वेषान्तराणि न कुन वर्ततेऽर्थादेकरूपतां न त्यजति 'स्फारीकुर्वन
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अध्यात्म-10
मारः
परं चक्षुरपरं च निमीलयन्' चर्मचक्षुषी निमीलयन् , आन्तरचक्षुषी विकासिते उद्घाटिते कुर्वन् भवति, 'अन्तगतान भावान् पश्यन् पूर्णभावमुपागतः' = आत्मप्रदेशेषु विस्तारितान् विशद्धान् भावान् निरीक्षमाणोऽयं ज्ञानयोगी पूर्णत्वप्राप्तिमान् भवति 'अध्यात्मसाम्राज्यं भुञ्जानोऽवशिष्टं न पश्यति' आध्यात्मिक चक्रवर्तित्वसत्तां भुञ्जानः सन् ततोऽवशिष्टं-शेपीभृतं न पश्यति, पूर्णता प्राप्तोऽपूर्ण किमपि शेष नास्तीति पश्यनि-पूर्ण दृष्टिं धारयति, सर्व प्राप्तव्यं मया प्राप्तमेव निश्चिनोतीति । ५४||५५।।
-आचारांगसूत्रे ज्ञानयोगस्य महात्म्यम्
'श्रेष्ठो हि ज्ञानयोगोऽयमध्यात्मन्येव यज्जगौ । बन्धप्रमोक्षं भगवान् लोकसारे सुनिश्चितम् ॥५६॥ उपयोगेकसारत्वादाश्वसंमोहबोधतः ।।
मोक्षाऽऽप्ते युज्यते चैतत्तथा चोक्तं परैरपि ॥५७ ॥ टीका:-अध्यात्ममार्गे त्वेष ज्ञानयंग एव श्रेष्ठः परमोमतः, यतः परमात्मना महावीरदेवेनाऽऽचारांगसूत्र लोकसारनामके पश्चमेऽध्ययने, ज्ञानं योगात्मकमिदं 'वन्धप्रमोक्षं-कर्मवन्धनतोऽवश्यं मोचकमितिकथितं, तत्र परमात्मना महावीरदेवेन कथितमस्ति यत् 'उपयोगकसारत्वात'एष ज्ञानयोगः केवलमान्त
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अध्यात्म-रा
सारः
॥३३७॥
रोपयोगमयोऽम्त्यतस्तत एच 'आश्वसम्मोहबोधनः-झटिनि आत्मनोऽभ्रान्तबोधप्राप्तिर्भवनि, ततो मोक्षपदप्राप्तिर्भवन्यतः शिवपदप्राप्त्या सहैव ज्ञानयोगी युज्यनेऽन्मोक्षण महान्मनो योजकत्वादयं ज्ञानयोगो भवति, नथा चोक्तं परैरपि भगवद्गीतायामुक्तं तथादि
'तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योप्यधिको मतः ।
कमिभ्याश्चाधिको योगी, तस्माद् योगी भवाऽर्जुन ॥८॥ म. गी. ६।४८ टीका:-'तपस्विभ्यः अघिको योगी, जानिभ्यः अपि ज्ञानम् अत्र शास्त्रपाण्डिन्यं तद्वद्धयः अपि मतो ज्ञानः अधिकः श्रेष्ठ इति कर्मिभ्यः अग्निहोत्रादिकम तद्वद्भयः अधिकी योगी विशिष्टो यम्मात तस्माद योगी भव अजुन ! इतिभगवद्गीतायां शाङ्करभाष्यम् ।
ठमः शीतोष्णादिवेदनामात्रसहिष्णुभ्यस्तपस्विभ्य एप ज्ञानयोगी, अधिको-महानस्ति, शास्त्रादिचर्चाकरणनिपुणेः शुष्कशद्रज्ञानिभ्योऽप्येष ज्ञानयोगी अधिको महानस्ति, सम्यगज्ञानं विना शुष्कक्रियाकाण्डिभ्योऽपि ज्ञानयोगी महात्माऽधिकः श्रेष्ठोऽस्ति नम्मादर्जुन ! त्वं योगी--ज्ञानयोगी भवेनि ॥५६॥२७॥५८॥
-ज्ञानयोगस्य श्रेष्ठतायाः कारणं दश्यते
P
X॥३७॥
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अध्यात्म
मार:
॥३३८॥
'समापत्तिरिह व्यक्तमात्मनः परमात्मनि ।
श्रभेदोपासनारूपस्ततः श्रेष्ठतरो ह्ययम् ॥५६॥ टीकाः-'इह'अस्मिन् ज्ञानयोगे 'परमात्मनि आत्मनः समापत्तिय॑क्तं' परमात्मना सहात्मनः समापत्ति:- अभेदरूपता (एकताप्राप्तिः) व्यक्तं-स्पष्टं यथा स्यात्तथा भवति, अतोऽभेदोपासनारूपो ज्ञानयोगम्ततोऽयं हि श्रेष्ठतर सर्वयोगेभ्यः सर्वथा श्रेष्ठनरः प्रगण्यते इति ॥५९। - उपासना भागवती सर्वाभ्योऽपि गरीयसी
'उपासना भागवती, सर्वाभ्योऽपि गरीयसी । महापापक्षयकरी तथा चोक्तं परैरपि ॥६॥ योगिनामपि सर्वषां. मदगतेनाऽन्तरात्मना ।।
श्रद्धावान भजते यो मां, स मे युक्ततमो मतः ।। ६१ ॥ टीकाः-परमाऽऽत्मना सह जातेषाऽभेदोपासना, अन्याभ्यः सर्वाभ्यो भेदोपसनाभ्यो गरीयसीगरिष्ठाऽम्ति, यन एपा भागवती-मगवदभिन्नोपासनव 'महापापक्षयकरी जन्मजन्मान्तगगतभयङ्करपामकर्मजालनायकरणाऽलंकर्मीणा भवनि, 'तथाचोक्तं परैरपि तथाच भगवद्गीतायामुक्तं हि-'योगिनाम
॥३३८.1
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अध्यात्म
मार:
॥३३॥
अपि सबपां रुद्राऽऽदित्यादिध्यानपराणां मध्ये मद्गतेन-मयि वासुदेवे ममाहितेन अन्तरात्मना अन्त:करणेन श्रद्धावान् श्रद्दधानः मन भजते सेवते यो मा स मे-मम युक्ततमः अनिशयेन युक्तो मनः अभियनः । भगवद्गीतायां शाङ्करमाध्यमिति
मां योगिनामपि यो मद्गतेनाऽन्तरात्मना मां श्रद्धावान् भजते स मे युक्ततमो मतोऽर्थाद् भक्तयोगी परमेश्वरम्याऽतिशयेन प्रियोऽस्ति, सर्वेषु योगिषु यः परमेश्वरे चित्तं नियोज्य श्रद्धासहिता परमश्वरीय भक्निं कंगनि म परमेश्वरस्य प्रियतमोऽस्ति. भक्तिं विना योगोऽपि व्यर्थ एवेति ध्वन्यते ॥३०॥६॥ -ज्ञानयोगिन्यपि विशिष्टा भक्तिः प्रशस्यते
'उपास्ते ज्ञानवान देवं, यो निरञ्जनमव्ययम् ।
स तु तन्मयता याति, ध्याननिषू तकल्मषः ॥ ६२ ॥ टीका:-यो ज्ञानवान-ज्ञानयोगी, निरञ्जनं-वीतरागं अव्ययं-अविनाशिस्वरूपं देव-देवाधिदेवं. उपास्ते-अभेदोपामनां कुरुते, तेन स्वरूपेण सह मत्स्वरूपमभिन्नतयाऽऽगधयति, 'ध्याननियूतकल्मप:'तादृशविशिष्टध्यानबलप्राबल्यतः सर्वमलिनकर्मपरमाणन निय, 'स तु तन्मयतां यानि' स निरञ्जनत्वेनाऽव्ययत्वेन देवोपासकः वीतरागपरमात्मस्वरूप लीना भवति, वीनरागमयो भवतीति ॥३२॥
-सामान्ययोगिरूपज्ञानयोगिनः स्वरूपम्
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अध्यात्ममारः
॥३४॥
'विशेषमप्यजानानो यः कुग्रहविवर्जितः ।
सर्वज्ञ सेवते सोऽपि, सामान्ययोगमाश्रितः ॥ ६३ ॥ टीका:-व्यक्तिरूपममुकं सर्वज्ञमजानानोऽपि यः कदाग्रहग्रहविरहतः कश्चिदप्यात्मा, कश्चिदपि सर्वज्ञं देवं निरञ्जननिराकारसर्वज्ञत्वेन ज्ञात्वा सेवमानो भवेत् , निरञ्जनत्वादिगुणान् वेत्ति गुणिनं विशिष्टव्यक्तिं न वेत्ति, तथापि सामान्यतो गुणाधारो भाव्य एव यतो गुणानामाधारः सर्वज्ञत्वेन धायः इतिसोऽपि सामान्यतः सर्वज्ञं मन्यमानोऽपि सामान्ययोगवान योगी महात्मा कथ्यते इति ॥३३॥
-सवज्ञो मुख्य एक एव
'सर्वज्ञो मुख्य एकस्तत् , प्रतिपत्तिश्च यावताम् ।
सर्वेऽपि ते तमापन्ना, मुख्यं सामान्यतो बुधाः ॥ ६४ ॥ टीकाः-वस्तुतो मुख्यः मनस्त्वेक एवाऽम्ति, बहवः सर्वज्ञा न सन्ति, अर्थात् सामान्यतस्तु तत्तद्दर्शनानां ये भावुकात्मानो बुधाःसर्वचं प्रतिपद्यन्ते सेवन्त, ते सर्वे वस्तुतस्तु मुख्यमेकं सर्वज्ञमेव स्वीकुर्वन्ति, नन्पश्चान कश्चिन्महादेवनाम्ना वा महावीग्देवनाम्ना तं मर्वज्ञत्वेन म्बीकुर्यात् तद्वरं, यदा मुख्यः सर्वज्ञ एकोऽस्ति तदा तस्य नामभेदोऽस्तु तथाऽपि ततः सर्वज्ञस्य नानात्वं न भवति, अनेकनामभिरपि सर्वनं. मन्यमाना वस्तुतस्तु मुख्यं सर्वनमेकमेव प्रतिपद्यन्ते यतो मुख्या-सर्वज्ञस्त्वेक एवेति ॥६॥ ।
३४०॥
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अध्यात्म
॥३४॥
- पूर्वोक्तं कथनं स्पष्टयति
'न ज्ञायते विशेषस्तु, सर्वथाऽसर्वदर्शिभिः ।
अतो न ते तमापन्ना, विशिष्य भुवि केचन ॥ ६५ ॥ टीका:-किश्च तत्तदर्शनाऽनुयायिनः सर्वज्ञा न मन्ति, यद् यम्मान्कारणान तं मुख्यं मर्वज्ञ. कालि. कानन्तपर्यायविषयकज्ञानादिविशिष्टत्वेन स्पेण ते बात' ममर्था भवेयः, एते सर्वे मदर्शिनः अमर्वत्राः सन्ति, तम्मान्मुख्यं मर्वनं विशेषम्वरूपण त्वम्मिन जगति कश्चनाऽपि प्राप्तु न शक्नुयात् . नथा च सामान्यता नानाविधनामभिरेव तमेवं मुख्यं मर्वज्ञमनेके बुधा मानुकान्मानः म्बीकुर्वन्ति तत्र किमपिनाचर्यमिनि ॥६५॥
-सर्वज्ञप्रतिपत्तिरूपांशात्तुल्यता सर्वयोगिनामस्ति
'सर्वज्ञपतिपत्त्यंशात्तुल्यता मर्वयोगिनाम् ।
दूरासन्नादिभेदस्तु तद्भूत्यत्वं निहन्ति न ॥ ६ ॥ टीकाः--एवं सर्वेऽपि योगिनः (नानानामभिरपि) सर्वज्ञं तु म्बीकुर्वन्त्येव, अर्थान सर्वयोगिनामात्मनि सर्वज्ञस्य प्रतिपतिरस्त्येव, अनेन सर्वज्ञप्रतिपतिरूणांऽशेन स योगिनम्तुन्या भवन्त्येव, अस्तु पश्चान्नाम्ना
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अध्यात्म-
सारः
॥३४॥
मुख्यं सर्वशं त्रैकालिकानन्तपर्यायविषयकज्ञानादिविशिष्टत्वेन जानाना भगवन्महावीरानुयायिनः स्युः अथया मुख्यसर्वज्ञस्य तादृशविशिष्ट स्वरूपबोधाऽपेक्षयाऽत्यन्तदूरस्थाः, महादेवादिनाम्ना सम्बोधयन्तोऽन्ये भावुकात्मानः स्युः, मुख्यसर्वज्ञतो दगस्थत्वसमीपस्थत्वविषये न किश्चिद्वैशिष्टयं वर्तते, दूरस्था वा निकटस्था वा मऽपि योगिनः सर्वज्ञस्यावश्यमुपासका एवं कथ्यन्ते, यथा देशाऽपेक्षया राज्ञः समीपत्वे प्रधानादयः सन्ति, गजो दूरत्वे द्वाःस्थादयः सन्त्यपि म राज्ञः सेवकाः सन्त्येव, यतः मर्वे राज्ञ आज्ञामाश्रिताः, पश्चात्तव समीपस्थत्वदरस्थत्वविषयेण मेवकत्वे भेदी न पतत्येव, प्रधानोऽपि राजसेवकः, द्वाःस्थोऽपि राजसेवकः, तथाऽनया रीत्या सर्वदर्शनस्य भगवद्भक्ताः, दूरस्था वा समीपस्थाः सर्वे भक्तयोगिनः, मुख्यमेकं सर्वज्ञमाश्रयन्तः सर्वज्ञसेवका एवोच्यन्ते ॥६६॥
-मध्यस्थौः सर्वैर्बुधैरिष्टा सेवा देवताऽतिशयस्य
'माध्यस्थ्यमवलम्ब्यव, देवतातिशयस्य हि । सेवा सर्वेर्बु धैरिष्टा, कालाऽसीतोऽपि यज्जगो ॥ ६७ ॥ अन्येषामप्ययं मार्गो, मुक्ता विद्यादिवादिनाम् । श्रभिधानादिभेदेन, तत्त्वनीत्या व्यवस्थितः ॥ ६८ ॥
॥३४॥
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टाका
अध्यात्मसार
॥३३॥
टीका-विविधदेवानां पूजाविषये माध्यस्थ्यमवलम्ब्यैव देवतत्त्वस्यातिशयस्वरूपशुद्धदेवत्वस्यैव सेवा कर्तव्या, एषा सबैचु धरिष्टैव मांख्यमताऽनुयायी कालातीतोऽपि वक्ष्यमाणैः सप्तभिः श्लोकैरेनं विषय यज्जगी तत्कथ्यते तथाहि योऽस्माभिरीश्वरः कथ्यते स मुक्तादिरूपैभिन्नभिन्ननामभिरथवाऽनादिशुद्धादिस्वरूपभेदै भिन्नभिन्नदार्शनिकः प्रत्याय्यते, किश्च यदस्माभिर्मवकारणमिष्यते, तद्-अविद्यादिमिमिन्नभिन्ननामभिस्तनदर्शनबादिभिः प्रज्ञाप्यते, सर्वेषां च वादिनामीश्वरविषये तच्चतस्तु मार्ग एप व्यवस्थितोऽस्ति यद् देवताऽतिशय एवैकः सेव्योऽस्ति, अर्थाद, शुद्धदेवत्वस्यातिशय-प्रकरवानेक एव देवोऽस्ति म एवं मेव्यः ॥६७।६८॥ -ईश्वरस्याऽभिधानभेदस्य नैरर्थक्यम्
'मुक्तो बुद्धोर्हन् वाऽपि, यदेश्वर्येण समन्वितः।
तदीश्वरः स एव स्यात, संज्ञाभेदोऽत्र केवलम् ॥६॥ टीकाः-झालानीतः कथयति यद् ब्रह्मवादिनो यं 'मुक्तः' इति कथयन्ति, बौद्धास्तु यं 'बुद्धः' इति ब्रवते, जैनाम्तु यं 'अहन इति वदन्ति, यत्नत्रामवानपि य ऐश्वर्येण समन्वितोऽस्ति, स ईश्वरनामा
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अध्यात्मसार:
॥३४४॥
पदार्थः, म एक एव, मुक्तादिनामभेदेनापि न भिन्नः, अनया रीत्याऽनेकसंज्ञया किमेकमीश्वरतस्वमनेकस्वरूपं भवेन ? अर्थादेक एवेश्वरः ।।६।।
-ईश्वरस्य स्वरूपभेदस्य वैययम् - 'अनादिशुद्ध इत्यादि योभेदो यस्य कल्प्यते । तत्तत्तन्त्रानुमारेण, मन्ये सोऽपि निरर्थकः ॥७॥ विशेषस्याऽपरिज्ञानाद् युक्तीनां जातिवादतः ।
पायो विरोधतश्चैव, फलाभेदाच्च भावतः ॥७॥ टीका: तस्यैकस्य ब्रह्मस्वरूपेश्वरस्य भेदं कुर्वन् , शैवमतानुयायी, तं 'अनादिशुद्धः' इति कथयति, बौद्रस्त 'प्रतिक्षणं विनाशी' इति वदति, कश्चित्तं 'सर्वगतः' इति वक्ति, कश्चित्तं 'विशिष्टस्थानस्थः' इति अते. एपा सर्वा तत्तदर्शनाऽनुसारेणेश्वरीया स्वरूपभेदानां या कल्पनाऽस्ति साऽपि व्यर्थेति मन्येऽह मिति तथा कथने कारणमेतदस्ति यत् (१) सर्वेषां दार्शनिकानामीश्वरस्वरूपादिविषयकं यज्ञानमस्ति तत्त सामान्यमेवेश्वरीयं विशिष्टस्त्ररूपज्ञानन्तु न भवति (२) स्वाऽभिमतेश्वरपुष्टये दीयमाना अनुमानादियुक्तयोऽसियादिहेतुना युक्त्याभासरूपा (जातिवादा असन्युक्तिरूपाः) भवन्ति (३) वेदान्तादिदर्शनेषु
४२
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अध्यात्म सार
॥३४५॥
परस्परमीश्वरस्वरूपनिर्णयसम्बन्धे विरोधो दृश्यमानो लम्बते (७) अस्मिन् सलणवत्पलले एकान्तनित्यत्वेकान्ताऽनित्यादिधर्मान् मिअभिमान मत्वाऽपि तेः क्रियमाणाया आराधनायाः फलं तु भावनः सर्वक्नेशशयरूपमेकमेवाऽऽयानि, इन्यतः सर्वैः कारणवस्तुतस्तु गुणप्रकर्षवत् पुरुषम्य बहुमानमेव फल भवनि, एतेश्चतुर्मिः कारण रेयं प्रतिभाति यन 'प्रकृष्टगुणवत् पुरुषस्यैव सेवेवोचिता, तत्र तेषामभिधानादिमेदः मर्वथा व्यर्थतामेतीति ॥७०॥७॥
- भवस्य कारणविषये नामभेवस्य व्यर्थत्वम् – अविद्याक्लेशकर्मादि, यतश्च भवकारणम् ।
ततः प्रधानमेवत-त् संज्ञाभेदमुपागतम् ॥७२॥ ___टीका:-यश्वरमत्कानि विविधानि नामानि कृतानि सन्ति तथा तेस्तैर्दार्शनिक भवकारणभूतपदार्थवाचकानि विविधानि नामानि विचितानि सन्ति (१) वेदान्तिनो भवहेतु 'अविद्य' ति नामतः कथयन्ति (२) मास्यास्तं 'क्लेशेति शन्दनः महरल्यान्ति (३) जैनास्तं 'कति संज्ञातो ज्ञापयन्ति (४) आदिपदेन बौदाः 'वामने' नि पदेन बदन्ति नम (५) शेवास्तु 'पाशे' ति वचनतश्चाचक्षते तम् , येनकेनाऽपि नाम्ना भवहेतु कथयन्नु नथाप्येकम्यैव वस्तुनो बहनि नामानि भवन्ति-तैनामभिनानाविध ना
॥३४५॥
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अध्यात्म
मार:
॥३४६॥
वस्तूनि न भवन्ति भवकारणन्त्वेकमेव यद भवकारणं तद्वयं 'प्रधाने ति नामधेयेन कथयामोऽतस्तदेष नामभेदोऽपि निरर्थकः-अभिनवार्थको नेत्यर्थः ॥७२॥
- भवकारणगतस्वरूपभेदोऽपि निरर्थकः - 'यस्याऽपि योऽपरो भेद-श्चित्रोंपाधिस्तथा तथा । .
गीयतेऽतीतहेतुभ्यो. धीमतां सोऽप्यपार्थकः ॥७३॥ टीका:- अविद्यादिनामवतामेषां भवकारणानां विविधानि स्वरूपाणि तेस्तैर्दार्शनिकैयन्ते तथाहि= कंचिद् भवहेतु मत्तत्वेन केचिदमृत त्वेन दर्शयन्त्यत एते सर्वे चित्रा उपाधयोऽपि, प्रस्तुतेऽधिकारे एकसप्रांततम श्लाक कथितानां चतुण्णा हेतूनामाश्रयतो विदुषां कृते सर्वथा निरर्थका एव सर्वाणि च भवकारणानि हेयतयाऽभिमतानि यनस्तेषां मृततादिविषयिणी चिन्ता निरथिका यथा मुक्तबुद्धादिरूपस्य देवनाविशेषस्य चिन्ता व्यर्थति तथाऽत्रापीति ॥७३॥ ..
- देवादिभेदानां निरूपणन यासोऽयथारथानेऽस्ति - 'ततोऽस्थानप्रयासोऽयं, यत्तभेदनिरूपणम् । मामान्यमनुमानस्य, यतश्च, विषयो मतः ॥७॥
॥३४॥
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अध्यात्ममारः
॥३४७॥
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टीका:- कालातीतः कथय = तत्तद्दार्शनिकानां बुद्धाऽईदादिविशेषस्य देवता मेदस्य देवत्वेन निरूपण - कृते प्रयासोऽस्थानेऽयोग्योऽस्ति देवता स्वतीन्द्रियं वस्तु वर्त्तते, तत् सिद्धयेऽनुमानं सम्भवेच्च य ऐश्वर्यवान् स ईश्वरः' इतीश्वरविशेष्यकमामान्याऽनुमानं सम्भवेत् इश्वरविशेषानुमानं न सम्भवेद् यथा धूमेन वह्निसामान्यविषयकानुमानं भवेन तस्य विशेषज्ञानाय तु वह्निविषयकं प्रत्यक्षज्ञान मावश्यकं स्यादिति ॥७४॥ संक्षिप्तरुचिजिज्ञासो विशेषाऽनवलम्बनम् - संक्षिप्तरुचिजिज्ञासो विशेषाऽनवलम्बनम् I चारि सञ्जीवनीचार- ज्ञातादत्रोपयुज्यते
॥७५॥
टीका एवं संक्षिप्तरुचित ईश्वरतच्चं ज्ञातुमिच्छुमुमुक्ष देवविशेषाऽवलम्बनं कुर्याच्च देवसामान्य सर्वदेवान् सर्वज्ञत्वेन रूपेण सेवेत, तदा तदपि देवविशेषाऽनवलम्बनं 'चारिसञ्जीवनीचारज्ञातादत्रोषयुज्यते' चारिसज्जीवनी चाररूपो दृष्टान्त सोपनय उच्यते तथाहि स्वपत्नी वृषभीभूतं स्वपति सर्वा वनस्पती यति, तदन्तः पतिताऽऽवश्यकवनस्पतिरपि भक्षिता, ततथ वृषभरूपं त्यक्त्वा पुनः पुरुषः सजातः एवं रीत्या देवसामान्यं सर्वज्ञन्वेन पूजयन् योगी, अमुकस्य मुख्यमवज्ञस्य वीतरागसर्वजम्याऽवलम्बनं न गृह्णीयात् तदपि वरं तथाऽपि परम्पराऽपेक्षया तु तदवलम्बनं तस्य प्राप्तं भवेदेव ततस्तस्य देवविशेषस्यानवलम्वनमपि प्रान्ते तूपयुज्यत एवेति ॥७५॥
-
॥३४७॥
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अध्यात्म
सारः
॥३४८॥
- परमात्मतत्वजिज्ञासाऽपि सतां न्याय्या - 'जिज्ञासाऽपि सतां न्याय्या, यत्परेऽपि वदन्त्यदः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य, शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥७॥ टीकाः-योगस्य साधनाऽनीव सुन्दराऽस्ति परन्तु योगं ज्ञातुमिच्छाऽपि सुन्दराऽस्ति भगवद्गीतायामप्युक्तं हि 'जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माऽतिवर्तते' शब्दशास्त्रिणः पण्डिता विशेष चतुग भवेयुम्तथाऽपि चातुर्य शाब्दिकमात्रमेव, तेभ्योऽपि योगसाधनाया जिज्ञासुरपि श्रेष्ठतरोऽस्ति यतो योगजिजास योगदिशं प्रनि काश्चित प्रगतिं कुर्वन्नास्ते, यदा मात्रशब्दशास्त्री-शब्दब्रह्मवादी काश्चिदध्यात्मगति कनन प्रभवनीति योगम्य जिज्ञासुरपि शब्दब्रह्मतोऽतिवर्तते इति ॥७६॥
- ईश्वरोपासकानां चतुर्विधत्वं भगवद्गीताकथितं पर्यते - थार्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति चतुर्विधाः ।
उपासकास्त्रयस्तत्र धन्या वस्तुविशेषतः ॥७७॥ ___टी. (?) आतः संमारदुःखदावानलदग्धो जीवोऽथवा परमात्मतत्वप्नाप्तये वेदनाऽऽनुरः (२) | जिज्ञासुः निष्कामः सन् परमात्मनोऽनुग्रहं प्राप्य परमात्मतत्वविषयकज्ञानेच्छुः (३) अर्थार्थी अर्थस्य
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||३४८॥
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अध्यात्मसार:
॥३४९॥
घनस्याऽथवा परमात्मतस्वरूपस्यैकस्य साध्यस्यार्थी जीवः (४) ज्ञानी-कर्मभक्तियोगाभ्यां परमात्मानमेव परमसत्यत्वेन स्वीकृत्य तस्यैवाऽस्तित्वं जगति वर्तते. एतादृशज्ञानसम्पमो ज्ञानी चतुर्विधेविश्वरोपासकेषु प्राथमिकास्त्रयो धन्याः सुकृतिनोऽतो धन्यवादार्हाः, यतस्तेषां त्रयाणामुपासकानां वस्तुलक्ष्यरूपं वस्त परमात्माऽस्ति, अर्थादमुवस्तुविशेषमपेक्ष्य प्राथमिकास्खयो धन्याः सन्ति अत्रेदं नेयं धनादीनामर्थे परमात्म मक्तिं कुर्वतां भक्तिरूपमनुष्ठानं विषाऽनुष्टानं भवति तथाऽप्यत्र स एव धनार्थी भक्तो धन्यत्वेन कथ्यते यद्यपि धन्यतेषा, धनार्थित्वेन नास्ति परन्तु वस्तु-विशेषतोऽस्ति, धनस्यार्थित्वेऽपि जनस्यैतस्य धनाय नाऽन्यत्र कुत्र याचा कुर्वतः परमात्मनि भक्तिरनन्याऽस्ति, अर्थात्तत्रैतेन यल्लक्ष्यं गृहीतमासीत्तदेवतस्य धन्यताया निमितं वर्तते नो धनार्थिता, यस्य परमात्मतो धनस्योपरि राग आत्यन्तिको वर्तते स धनाय यदि परमात्मभक्तिं कुर्यात्तदा मा भक्तिविषानुष्ठानरूपा कथ्येत नाऽन्यथेति ॥७७॥
- चतुर्थस्थानीयज्ञानिरूपोपासकस्य वर्णनम् - 'ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो, नित्यभक्ति विशिष्यते ।
अत्यासन्नो ह्यमो भर्तु-रन्तरात्मा सदाशयः ॥७८|| टी. चतुर्थस्थानीयेश्वरोपासको ज्ञानीतु कीदृशोऽयं ज्ञानी ? इति चेदुच्यते 'शान्तविक्षेपः रागादिरूपचिक्षेपाणामुपशान्तिविशिष्टः, पुनः की. सः ! 'नित्यभक्तिः' निरन्तरभक्तियोगविशिष्टः, विशेषणद्वयविशिष्टो
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Al॥३४॥
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अध्यात्म
मार:
॥३५॥
बानी, पूर्वोक्तेभ्यस्त्रिभ्य ईश्वरोपासकेभ्योविशिष्यतेऽतिशायी भवति, एषोऽत्यन्तविशिष्टकोटिक ईश्वरोपासकोऽस्ति, यतो देहादिबाह्यपदार्थेषु साक्षित्वेन स्थितः, 'अन्तरात्मा'सम्यग्दर्शनादिगुणसम्पन्नः, सदा शयः'प्रशस्तमना भूत्वा भतरत्यासन'ब्रह्मस्वरूपस्य परमाऽऽत्मनोऽत्यन्तसमीपस्थो भवतीति ॥७८॥
- अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयाऽऽत्मा विनश्यति - . कर्मयोगविशुद्धस्तत्ज्ञाने युञ्जीत मानसम् ।
अज्ञश्चाऽश्रद्दधानश्च संशयाऽऽत्मा विनश्यति ॥७१।। टी० तत्-तस्मात् कर्मयोगतो विशुद्धो महात्मा, ज्ञाने-ज्ञानयोगे मानस-चित्तं युजीत-निवेशयेत्, यो ज्ञानयोगी भवति स एव परमा शान्तिमधिगच्छति यो ज्ञानी नाऽस्ति, स च धर्मतत्वमश्रद्दधानः संशयाऽऽन्मा विनश्यति-विनाशमश्नुते 'अज्ञश्चाऽश्रद्दधानः च संशयाऽऽमा च विनश्यति 'अज्ञाश्रद्दधानौ यद्यपि विनश्यतः तथापि न नथा यथा संशयाऽऽत्मा, संशयात्मा तु पापिष्ठः सर्वेषा' शाडकरभाष्ये इदम् ॥७९॥
- ध्यानयोगिनः स्वरूपं दर्शयति - 'निर्भयः स्थिरनासाग्र-दत्तदृष्टिव्रते स्थितः । सुखासनः प्रमन्नाऽस्यो दिशश्चानवलोकयन् ॥८॥
||३५०||
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देहमध्यशिराग्रीवमवकं धारयन् बुधः ।। दन्तरसंस्पृशन्. दन्तान , सुश्लिष्टाधरपल्लवः ॥८॥ धार्तराद्रे परित्यज्य. धर्मे शुक्ले च दत्तधीः ।।
अप्रमत्ता रताध्यान, ध्यानयोगी भवेन्मुनिः ॥८॥ टी. कर्मयोग संसाध्य ज्ञानयोगी यो जातः स महान्मा. यदा ध्यानयोगं प्राप्नुयाचदा म निभयो भवन , किन नामिकाया अग्रभागस्योपरि दसस्थिर दृष्टिको भवेत , व्रते स्थितो भवेत् सुखासनः म्यात, प्रसन्नवदना मवेत , दिशश्चानवलोकयन . (कटिरूपं) देहमध्यं शिरश्च ग्रीवा च-देहमध्यशिरोग्रीवं, अवर्कमग्लं धाग्यन बधः, दन्तै दन्तानसंम्पृशन. सुश्लिष्टाधरपल्लवः सन . आर्तगैद्राने परित्यज्य धर्म च शुक्ले भ्याने दत्तधी:-विनिविष्टयुद्धकः, अप्रमतो-प्रमादपराङ्मुखः ध्याने रतः-सदापरायणः, मुनि नयोगी भवेत् ८०॥८१॥८२।।
-: सक्रम कर्मादियोगान् प्रपद्यते योगा :'कमेयागं समभ्यस्य, ज्ञानयोगममाहितः । ध्यानयोगं ममालय, मुक्तियोगं प्रपद्यते ॥८३॥
॥३५१॥
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अध्यात्म
मारः
॥३५सा
टीका:- सम्यग् रीत्या कर्मयोग समभ्यस्य-पुनः पुनः प्रवृत्तौ मुक्त्वा कर्मयोगस्य सिद्ध्यनन्तरं, ज्ञानयोगे सम्यक् प्राप्तपमाधिर्महात्मा, ततो ध्यानयोगं समारुह्य-ध्यानयोगे समारूढो भूत्वा मुक्तियोगं मुक्त्या मह माद्यनन्तमरूपेण सम्बन्धं प्रपद्यते, प्रकर्षेण स्वीकरोति, एष कर्मयोगोऽभ्यासदशारूपेण, ज्ञानयोगः ममाधिदशारूपेण, ध्यानयोगः क्षपकश्रेणीगतसाधनारूपेण भूत्वाऽन्ततो सिद्धिप्राप्तिरूपो मुक्तियोगो जायते इति ॥८॥
इत्यचार्य श्रीमद् विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टघराचार्य श्रीमद् विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रंकर सुरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टोकायर्या योगस्वरूपनिरू
. पणनामकः पञ्चदशोऽधिकार समाप्त ॥५७७॥ - अथ ध्यानस्वरूपनामकः षोडशोऽधिकार आरभ्यते -
ध्यानस्य सभेद लक्षणम् 'स्थिरमध्यवसानं यत्. तद् ध्यानं चित्तमस्थिरम् ।
भावना चाऽप्यनुप्रेक्षा चिन्ता वा तत् त्रिधा मतम् ॥१॥ टीका:-यचित्तस्य स्थिरमध्यवसानं तद् ध्यानं लक्ष्यते, यदस्थिरं चित्तं तद् भावनाऽनुप्रेक्षाचिन्ताभेटन त्रिधा मतमर्थाद् (१) भावनाध्यानविषयकाऽभ्यासक्रिया (२) अनुप्रेक्षा-स्मृतिध्यानाद् भ्रष्टस्य चिनम्य तत्र प्रतिनिवर्तनम् (३) उक्तप्रकारद्ववरहितं चिन्तनमिति ॥१॥
A॥३५२॥
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अध्यात्म
मार:
॥३५३॥
__- ध्यानस्य कालस्थितिः - मुहर्ताऽन्तर्भवेत् ध्यानमेकार्थे मनसः स्थितिः ।
बह्यर्थसक्रमे दीर्घाऽप्यच्छिन्ना ध्यानसन्ततिः ॥२॥ टीका-एकस्मिन्नर्थ-विषयेऽन्तर्मुहूर्त यावन्मनसश्चित्तस्य स्थितियानमुच्यते, बहवयसक्रमे नानाविधेषु विषयेषु सङ्क्रामन्ती चित्तस्य दीर्घस्थितिका याऽविच्छिमध्यानपरम्परा सा ध्यानसन्ततिः कथ्यते॥२॥
- चतुर्विधेष्ठ ध्यानेष्वायव्यमन्तिमवयं च भवस्य च मोक्षस्य कारणम् -
'थाः रोद्रं च धर्म च शुक्लं चेति चतुर्विधम् ।
तत् स्याद भेदाविद दो दो कारणं भवमाक्षयोः ॥३॥ टीका:-आतं रौद्रं च धर्म च शुक्ल च चतुर्विधं ध्यानं, चतुर्ष च्यानेषु मध्ये आद्यद्वयमा रोद्र च ध्यानं भवस्य कारणं, अन्तिमद्वयं च धर्म च शुक्ल भ्यानं मोक्षस्य कारणम् ॥३॥
- चतुष्प्रकारकस्यातध्यानस्य वर्णनम् - 'शब्दादीनामनिष्टानां वियोगासम्प्रयोगयोः । चिन्तनं वेदनायाश्च, व्याकुलत्वमुपेयुषः ॥४॥
॥३५॥
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अध्यात्म
मार:
।।३५४॥
इष्टानां प्रणिधान च, सम्प्रयोगांरियोगयोः ।
निदानचिन्तन पापमार्त्तमित्थं चतुर्विधम् ॥५॥ टीका (१) अनिष्टसंयोगवियोगचिन्ता=(1) अनिष्टप्राप्तशब्दादिविषयकषियोगचिन्ता (ii) अनिष्टा प्राप्तशब्दादिविषयकसंयोगो मा भूदिनि चिन्ता वत्तमानकालवियणी प्रथमा, द्वितीया भविष्यत् कालविषयिणी. योऽनिष्टविषयस्य वियोगो जातः, किश्च यस्य संयोगो भूतकाले नाऽऽसीत् , तद्विषये 'एतद्वरं जात' मेवं विचारणं तदतीतकालविर्षायणी चिन्ता, प्रस्तुतात्तध्यानप्रथम भेदस्य त्रयो विभागाः, (२) गंगचिन्ता रोगादिजन्यव्याकुलतायां वेदनायाश्चिन्तनम् यथा वेदनेषा कदा शमिष्यतीति, वेदनायो शान्तायां पुनभवनाभावस्य चिन्ता, वेदनोपशमे 'वरमेतज्जातं' इति चिन्ता, (३) इष्टसंयोगवियोगचिन्ता=अप्राप्तेष्टविषयाणां मंयोगो भवत्विति चिन्ता, प्राप्तेष्टविषयाणा वियोगो मा भूदिति चिन्ता, (४) निदानचिन्ता तपः संयमादेः फलरूपेणाऽज्ञानादियोगतः स्वगदिः समृद्धेः प्रार्थना, एतस्यां चतुष्प्रकारायां चिन्तायामाचे द्वे चिन्ते, द्वेषमालिन्यजन्ये, तृतीया चिन्ता गगमालिन्यजा, चतुर्थी चिन्ता मोहमालिन्यजन्येति ॥४॥
- आर्सध्यानेऽप्यशुभलेश्यासम्भवः - कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र सम्भवः ।
॥३५४॥
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अध्यात्म
मार
॥३५५॥
श्रनतिक्लिष्टभावाना कर्मणां परिणामतः ॥६॥ टी. गद्रध्यानिवदार्तध्यानति कापोतनीलकृष्णानामशमलेश्यानां सम्भवः, तथापि ता लेश्या गेद्रध्यानिवदनिमंक्लिष्टपरिणामवत्यो न भवन्ति, यतस्ता अनतिक्लिष्टमावरूपरसवतां कर्मणां परिणामस्वरूपिण्यो भवन्ति ॥६॥
___-- आर्तध्यानस्य लिङ्गानि - 'कन्दन रुदनं प्रोच्चैः, शोचने परिदेनवम् ।
ताडनं लुचनं चेति, लिङगान्यस्य विदुर्बुधाः ॥७॥ टी. यत्राऽऽध्यानं तत्र प्राच्चैः क्रन्दन रुदनं च शोचनं, परिदेवनं-विलापः, मस्तकताडनं, मम्त केशानां लुञ्चनं-कर्पणं, वास्ताडनमित्यादीनि, अस्य-आतंध्यानम्य लिङ्गानि-ज्ञापकचिहानि विबुधाः-पण्डिताः ज्ञापयन्ति म्मेति ॥७॥
- अन्यान्यपि कार्यभूतानि लिगानि कथ्यन्ते - 'मोघं निन्दन् निजं कृत्यं, प्रशंसन् परसम्पदः । विस्मितः प्रार्थयन्नेताः प्रसक्तश्चैतदर्जने ॥८॥
॥३५५॥
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अध्याना मार
॥३५६॥
टी. शिल्पवाणिज्यादिसम्बन्धि निजं कृर्त्य-कार्य मोघं सत् निन्दन, परेषा बोत्कृष्टाः सम्पदःविभूती: प्रशंसन, विस्मितः सन्नेता:-परसम्पत्तीः प्रार्थयामिलपन, 'एतदर्जने प्रसक्तः परसम्पदामजने प्रकर्षण पगयण इति कार्यालङ्गानीति ॥८॥
___- आर्तध्यानस्य हेतवः - 'प्रमत्तश्चेन्द्रियार्थेषु, गृद्धो धमपराङ्मुखः ।
जिनोक्तमपुरस्कुर्वन्नाटयाने प्रवर्तते ॥६॥ टी, इन्द्रियाणामषु-विषयेषु प्रमत्तः-प्रकरेंण मदान्वितः, अत एव गृद्धः उत्कृष्टत्वेन लुन्धः, 'धर्मपराङ्मुखः' कल्याणकाग्धिर्मतः पराङ्मुखः-विमुखः, 'जिनोक्तमपुरस्कुर्वन्' जिनशासनरूपजिनवचनमग्रता नहि कुर्चन-जिनवचनमनपेक्ष्य म्बमतिकल्पना पुरतः कुर्वनाध्याने प्रवर्त्तमानो भवतीति, अर्थादातध्याननो द्गतः स्थातुमिच्छता तस्येमानि विशेषकारणानि हर्त्तव्यानीति ।।९।।
आसध्यानं तियगगतिप्रदत्वात्सर्वप्रमादमूलत्वातत्याज्यम - 'प्रमत्ताऽन्तगुणस्थाना-नुगतं तन्महात्मना । सर्वप्रमादमूलत्वात्त्याज्यं तिर्यगगतिप्रदम् ॥१०॥
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टी० प्रमत्तनामकपष्ठगुणस्थानकपर्यन्तव्याप्तिमत् , मर्वेषां प्रमादानां मूलत्वात तिर्यगगतिं प्रददात्येवं IX शीलं, तदात्तनामक व्यानं महात्मना-सर्वविरतिवरेण त्याज्यमिति ॥१०॥ अध्यात्म-IN
- चतुर्भेदं रौद्रध्यान वर्ण्यते - सार:
'निर्दयं वधबन्धादि-चिन्तनं निबिडधा ।
पिशुनाऽमभ्यमिथ्यावाक. प्रणिधान च मायया ॥११॥ 11३५७॥
चौर्यधीनिरपेक्षस्य, तीव्रक्रोधाऽऽकुनम्य च ।
सर्वाऽभिशङ्काकलुषं, वित्तं च धनरक्षण ॥१२॥ टी. (१) हिंसाऽनुबन्धिरौद्रध्यानं 'निबिडक्रधा' गाढतमक्रोधेन, निर्दयं दयारहितं यथा स्यातथा, पश्वादीनां वधबन्धनमारणादिविषयिणी चिन्ताऽर्थात नभ्य सर्वस्य कदाचिदकरणेऽपि तादृशकरणे दृढः सङ्कल्पः, एतादृशाऽध्यवसायविशिष्टो जीवोऽतिक्रोधी भवेत , दुष्टविपाकान् प्राप्नुवन्नस्ति (२) मृषाऽनुबन्धिरोद्रध्यानम् 'पिशुनाऽमभ्यमिथ्यावाक् प्रणिधानं च मायया पैशून्यविशिष्टोऽसभ्यताविशिष्टोऽसत्यवचनविषयकोऽध्यवसायः 'जहि' 'मारय' 'कृन्तेत्यादिवचनोच्चारणम् , एतादृश आत्माऽतिमायावी, गृढपापवान , तथाऽऽत्मश्लाघी च परनिन्दको भवेदिति० (३) स्तेयानुवन्धिगेद्रध्यानं पारलौकिकाऽपायतः सर्वथा निरपेक्षम्य प्रचण्डक्रोधाऽग्निना व्याकुलस्य, समये जीवधातकरणेऽपि समग्र
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॥३५७॥
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बचात्म
॥३५८॥
तत्परतासम्पनमनसो मालिन्येन सह चौर्यकरणविषयकोऽभ्यवसायः (४) परिग्रहानुबन्धिरौद्रध्यानम् सर्वस्य स्वजनादेरुपरि 'किं ते मम धनं हरिष्यन्ती' ति स्वरूपया शङ्कया तेषां सर्वेषां हिंसाकरणककलुषितचित्ते वनरक्षणविषयकचिन्तेति ॥११॥१२॥
__ - रौद्रध्यानस्योपसंहारः - 'एतत् सदोषकरण-कारणाऽनुमतिस्थिति ।
देशविरतिपर्यन्तं, गैद्रध्यानं चतुर्विधम् ॥१३॥ टी० एतद् गैद्रध्यानं सदोषस्य-दोषयुक्तहिंसाऽऽदिकार्यस्य करणेन, कारणेनाऽनुर्मातिद्वारा, तिष्ठतिजायते,पूर्वोक्तं चतुर्विधं-चतुष्प्रकारं रौद्रध्यानं, देशविरतिनामकं पञ्चमगुणस्थानकं यावद् विद्यते इति॥१३॥
- रौद्रध्यानेऽशुभलेश्यासम्भवः - कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र सम्भवः ।।
अतिसंक्लिष्टरूपाणां कर्मणां परिणामतः ॥१४॥ टी• अत्रौद्रध्यानेऽस्मिन , तद्वति वा, अत्यन्तसंक्लेशविशिष्टरसवतां कर्मणा परिणामतो लभ्यतीवरसवतीना कापोतनीलकृष्णाऽन्यतमलेश्यानां सम्भव इति ॥१४॥
||३५८॥
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१३५९॥
- रौद्रध्यानस्य कार्यभूतानि लिङ्गानि - 'उत्मन्नबहुदोषत्वं नानामारणदोषता । हिमाऽऽदिषु प्रवृत्तिश्च, कृत्वाऽधं स्मयमानता ॥१५।। निर्दयत्वाऽननुशयो बहुमानः परापदि ।
लिङ्गान्यत्रेत्यदो धीर-स्त्याज्यं नरकदुःखदम् ॥१६॥ टी(१) हिमाद्यनेकदोषवन्यतमदोषस्य सेवनाऽनन्तरं पुनः पुनः तद्दोषसेवनम् (२) हिंसाधनकपःपस्थानेवनकशः प्रवर्तनम् , (३) हिंसाऽऽदेरुपायभृतन्वक् छेदनाद्यनेकदोषेषु प्रवृत्तिः, (४) मम्मस्वस्थो जनो यावन्न म्रियत तावत्सम्य शस्त्रादिना मारणम् (५) अधं पापं कृत्वा स्मयमानता हास्यमदाभिमानादिप्रकटनम् (६) पगन प्रति दयाशून्यता (७) कृतपापविषयकपश्चात्तापरहितत्वम् (८) परगनविपत्ता सत्यां भृशमान्तगनंदतरलता, अंत्येतानि मर्वाणि रौद्रध्यानस्य कार्यलिङ्गानि ज्ञेयानि, तम्मानरकःखपदमेतद् गेद्रध्यानं धीरे-धेयमम्पबपुरुषः सदा त्याज्य मेवेति ॥१५॥१६॥
- अशुभध्यानस्य दुरन्तता शुभध्यानस्य च योग्यता - 'यप्रशस्ते इमे ध्याने, दुरन्ते चिरसंस्तुते ।
11३५॥
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अध्यात्म
मारः
||३६०॥
प्रशस्तं तु कृताऽभ्यासो, ध्यानमारोढुमर्हति ॥१७॥ ___टी. आत्तरौद्रनामके द्वे ध्याने अप्रशस्ते चिरपरिचयवशादुरन्ते दु खेनान्तताविशिष्टे-दुष्प्रणाशे म्तः, येन भावनादिभिश्चित्तं भावितं-पुनः पुनः शिक्षितमत एव कृतोऽभ्यासो येन स कृताभ्यासः प्रशम्तं ध्यानं धर्मशुक्लाऽन्यतरद् ध्यानमारोढुमारोहणं कर्तुमर्हति-योग्यो भवतीति ॥१७॥ - प्रशस्तध्यानयोग्यतायै चित्तस्य द्वादशभिर्भावनादिवस्तुभिः शिक्षणम् -
भावना देशकालो च, स्वासनाऽऽलम्बनक्रमान् ।
ध्यातव्यधात्रनुप्रेक्षा. लेश्या लिङ्गफलानि च ॥१८॥ टी० चित्तस्य द्वादश शिक्षाः= (१) ज्ञानादिरूपाश्चतुर्विधा भावनाः, (२) धर्मध्यानोचितो देशः (३) धर्मादिध्यानाद्यचितः कालः (४) धर्मादिध्यानोचितं स्वासनम् (५) धर्मादिच्याने वाचनादेरा लम्बनम् (५) मनोनिरोधादेः क्रमः, (७) आज्ञाविचयादिरूपेण ध्यातव्यम् (८) अप्रमादादिगुणयुतो ध्याता (९) अनुप्रेक्षाया अनित्यत्वादिभावनाया आलोचनम् (१०) शुभलेश्या (११) श्रद्धादिलिङ्गानि (१२) म्वर्गाऽपवादिरूपं फलमित्यादिद्वादश वस्तूनि नाममात्रेण निर्दिष्टानि सन्तीति ॥१८॥
- भावनारूपं चित्तस्य प्राक् शिक्षणम् - ‘ज्ञात्वा धयं ततो ध्यायेच्चतस्रस्तत्र भावनाः ।
॥३६॥
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अध्यात्मसारः
॥३६॥
ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्याऽऽख्याः प्रकीर्तिताः ॥१६॥ टी. ततः-द्वादशभावनादिवस्तुभिः चित्तस्य शिक्षणाऽनन्तरं धर्मादनपेतं धयं धर्मध्यानं ज्ञात्वा ध्यायेत-ज्ञानानन्तरं तदेव ज्ञानमेव स्थिरं सद् ध्यानं भवतीति सूचितम् , 'तत्र'=धर्मध्याने, 'चतस्रो ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्याख्या भावना प्रकीर्तिता': ज्ञाननामकभावनादर्शननामकभावनाचारित्र-नामक भावनावैराग्यनामकभावना एवं चतुःसङख्या अनुप्रेक्षाः प्रकीर्तिताः ॥१९॥
- पूर्वोक्तानां चतसृणां भावनानां क्रमशः फलानि - 'निश्चलत्वमसंमोहो, निर्जरा पूर्वकर्मणाम् ।
सङगाऽऽशंसाभयोच्छेदः, फलान्यासां यथाक्रमम् ॥२०॥ ___टी० (१) ज्ञानभावनाफलम्-निश्चलत्वम्-सम्यक् श्रुतज्ञानमाराधयन्नात्मा, अशुभयोगतो मनो निरुद्धय, शुभे चित्तम्यावस्थापनकरणरूपां विशिष्ट भावनां स्पृशत्येव, मूत्राओं शोधयति, भवनिर्वेद प्राप्नोन्यती भ्यातुश्चित्तं निश्चलं भवत्येव (२) दर्शनभावनायाः फलमसंमोहः दर्शनभावनाया अभ्यासात शङ्कादिपणहीनः सन, प्रशमस्थैर्यादिगुण विशिष्ट आन्मा, तच्चविषयकभ्रान्तिशून्यो भवति (३) चारित्रभावनायाः फलं पूर्वकालीनकर्मनिर्जरा-एतस्या भावनायाः परिपाकामवानां कर्मणामग्रहणं पुराण
॥३६॥
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अध्यात्म
सार:
॥३६॥
कर्मणा निजरणं च शुमानुबन्धिकर्मग्रहणमनायासेन प्राप्यते (४) सङ्गाशंसामयोच्छेदरूपं वैराग्य भावनायाः फलम , लोकस्वभावं सम्यग जाननात्मा, वैराग्यभावनाया पुनः पुनरावृत्त्या निःसङ्गो भवति जीवितमरणाघाशंसाविहीनो भवति. इहलोकादिमयसप्तकान्मुक्तो भवतीति ॥ २० ॥ भावनाजन्यचित्तस्थैयधारा ध्यानस्य योग्यो भवति
'स्थिरचित्तः किलेताभिर्याति ध्यानस्य योग्यताम् ।
योग्यतैव हि नाऽन्यस्य, तथा चोक्तं परैरपि ॥ २१ ॥ टी० किलेताभिः पूर्वोक्तज्ञानादिकचतुर्विधभावनाभिः स्थिरचित्त आत्मा, ध्यानस्य-शुभध्यानस्य योग्यता-पात्रता याति-गच्छति 'अन्यस्य हि योग्यतैव नभावनाभिरस्पृष्टस्याऽस्थिरचित्तम्य योग्यतैव नाऽऽयाति तथा नोक्तं परपि भगवद्गीतायामप्येषेव वार्ता कथिताऽस्ति वक्ष्यमाणश्लोकत्र येणेति ॥२१॥ भगवद्गीतोक्साइलोकत्रयी
चञ्चलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढम् । तस्याऽहं निग्रहं मन्ये, वायोरिव सुदुष्करम् ॥ २२ ॥
॥
२॥
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अध्यात्म
मारः
३६३।।
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श्रसंशयं महाबाहो | मनो दुर्निग्रहं चलम् । श्रभ्यासेन तु कौन्तेय! वैराग्येण च गृह्यते ॥ २३ ॥ संयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । वश्याऽऽत्मना तु यतता, शक्योऽवाप्तुमुपायतः || २४ ||
टी० 'चञ्चलं हि मनः कृष्ण इति कृपतेः विलेखनार्थस्य रूपं भक्तजन पापादिदोषकर्पणात कृष्ण ! केवलम् अत्यर्थं चञ्चलं प्रमाथि च प्रमथनशीलं प्रमथ्नाति शरीरम् इन्द्रियाणि च विश्चिपति परवशीकरोति । किञ्च बलवद्न केनचिद् नियन्तु ं शक्यम् । किश्व दृढं तन्तुनागवद् अच्छेद्यम । तस्य एवंभूतस्य मनसः अहं निग्रहं निरोधं मन्ये वायोः इव । यथा वायोः दुष्करो निग्रहः ततः अपि मनसो दुष्करं मन्ये इनि अभिप्रायः ||३ | ३४ ॥
'असंशयं न अस्ति संशयो मनो दुनिग्रहं चलम् इत्यत्र हे महाबाहो । किन्तु अभ्यासेन तु अभ्यासो नाम fan कचित् समानप्रत्ययाऽऽवृत्तिः चित्तस्य । वैराग्यं नाम दृष्टाऽदृष्टेष्ट भोगेषु दोषदर्शनाऽभ्यासाद्वैतृष्ण्यं तेन च वैराग्येण गृह्यते निगृह्यते निरुध्यते इत्यर्थः ।। ६ । ३५ ।।
असंयतात्मना अभ्यामवैराग्याभ्याम् असंयत आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयम्, असंयताssमना, योगो दुष्प्रापो दुःखेन प्राप्यते इति मे मतिः । यः तु पुनः वश्यात्मा, अभ्यासवेगग्याभ्यां वश्य
॥३६॥
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अध्यात्म
मार:
॥३६४॥
त्वम् आपादित आत्मा मनो यस्य सः अयं वश्याऽऽत्मा, तेन वश्यात्मना तु यतता भृयः अपि प्रयत्न कुर्वता शक्यः अवाप्तु योग उपायतो यथोक्ताद् उपायात् ॥ ६॥३६ ॥ इति शाङ्करभाष्यम् 'अजुन उवा च हे कृष्ण ! हि मनश्चश्चलमत्यन्तचपलम् , प्रमाथि आत्मानं प्रकण मनातीत्येवं शीलं, दृढं दृढतासम्पन्नं पूर्णहठत्वापन्न, बलवत घोरसामर्थ्य विशिष्टं वर्ततेऽतोऽहं तस्य-मनसो निग्रहं वशयोग्यत्वं वायोरिव निग्रहं सुदुष्करं मन्ये ।
हे महाबाहो। असंशयं-संशयरहितं यथा स्यात्तथा, चलं मनोनिग्रह-दखेन निग्रहीतु शक्यं वर्तते. तु परन्तु हे कौन्तेय कुन्तीपुत्र ! अभ्यासेन वैर ग्येण गृह्यते-निग्रहविषयीक्रियते हे अर्जुन ! असंयतात्मना अस्ववशीकृतचित्तेन, साम्यबुद्धिपो योगः सुदुष्प्राप इति मे-मम मतिरस्ति परन्तु स्ववशीकृतचित्तेन, योगप्रयत्नशीलेन भावनायुपायतो योगः सुलभी भवतीति । २२॥ २३ ॥ २४ ॥ भावनाभाविताऽऽत्मनि धर्मध्यानयोग्यमन आदि सर्व घटत एव ।
सदृशप्रत्ययाऽऽवृत्त्या, वैतृष्णयाद् बहिरर्थतः ।
एतच्च युज्यते सर्व, भावनाभाविताऽत्मनि ।। २५ ॥ टी. 'सदृशप्रत्ययाऽऽवृत्या'='अहमित्यादिममानवानरूपप्रतीतेः पौनःपुन्येनाऽभ्यासतः वैतृष्णयाद् बहिरर्थन:' चैतन्यशन्यवापदार्थ-विपयविषयककृष्णाया अत्यन्ताभावतः, पूर्वोक्तभावनाभिर्भावित आत्मनि
॥३६४
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अध्यात्म
सारः
॥३६५॥
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'एतच्च सर्व' =ज्ञानादिभावनाऽभ्यासवैराग्यादिद्वारा धर्मध्यानयोग्यचित्तादि सर्वं युज्यत एव ॥ २५ ॥ धर्मध्यस्य योग्यो देश:
'स्त्री शुक्लीवदुः शील- वर्जितं स्थानमागमे । सदा यतीनामाज्ञप्तं ध्यानकाले विशेषतः स्थिरयोगस्य तु ग्रामेऽविशेषः कानने वने तेन यत्र समाधानं स देशो व्यायतो मतः ॥ २७॥
।
॥२६॥
टी० विजातीय स्त्रीभिः पशुभिर्न सकेँ दुःशीलैश्य वर्जितं स्थानमेव यतीनां साधूनां ध्यानस्य काले सदा विशेषत आगमे जिनेराज्ञप्तं - आज्ञाविषयीकृतं, धर्मशुक्लरूपध्यानस्य प्रारम्भिकदशाकाले, परन्तु महात्मा योगे स्थिरचित्तः सञ्जातः, तस्य तु सजने विजने वने वोपवने विशेषो न भवति, अर्थाद् यस्य यत्र कुत्रचिदपि चित्तम्य समाधिर्वर्त्तते, तस्य कश्चिदपि देशो ध्यातु यग्यिो मतः ||२६||२७|| - धर्मध्यानस्य विधातुरिष्टः कालः
'यत्र योगसमाधानं कालोऽपीष्टः स एव हि । दिनरात्रि चणादीनां ध्यानिनो नियमस्तु न ॥२८॥
॥ ३६५॥
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अध्यात्मसारः
॥३६६॥
टी. यस्मिन् काले योगविषयकः समाधिरखण्डो भवति स धर्मध्यानस्येष्टः कालो ज्ञेयः, ध्यानकतुम्तुदिनरात्रिक्षणादीनां न नियमः, अर्थात् कालबन्धनं ध्यानिनां न सम्भवतीती ॥२८॥
-जिता या काप्यवस्था ध्यानोपघातिनी न भवतियैवाऽवस्था जिता जातु, न स्याद्ध्यानोपघातिनी ।
तया ध्यायेन्निषण्णोवा, स्थितो वा शयितोऽथवा ॥२६॥ टी० याऽऽमनमुद्राद्यवस्थानरूपाऽवस्था जिता-स्ववशीकृता यावत् सिद्धा, तदा जातु-कदाचिदपि 'भ्यानोपघातिनीध्यानविक्षेपिणी न स्यात्, तदनन्तरं तयाऽवस्थया, वीरासनादौ निषण्णः कायोन्मगें स्थितो वो स्थितो अथवा दण्डवच्छयितः सुप्तः सन् ध्यायेत् ध्यानमाचरेत् ॥२६।।
-ध्यानाय देशकालाऽवस्थासु नियमो न किन्तु नियता योगसुस्थता
'सर्वासु मुनयो देशकालावस्थासु केवलम् ।
प्राप्तस्तन्नियमो नाऽऽसां, नियता योगसुस्थता ॥३०॥ टी. 'सर्वासु देशकालाऽवस्थासु अर्थात् सर्वस्मिन काले सर्वस्मिन् देशे सर्वस्यां मुद्राऽऽसनाद्यवस्थायां मनयोऽतीताऽनन्तकालावच्छेदेन केवलज्ञानं प्राप्ताः-प्राप्तवन्तोऽतो ध्यानाय देशकालवस्थानां
॥३६६॥
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अध्यात्म सार:
॥३६७॥
बन्धनं न भवितुमर्हति, अत्रैतावानेत्र नियमोऽस्ति यत् प्रत्येकयोगिनां स्वयोगे सुस्थता-ममाधिः, अवश्यमावश्यकी येन व्यक्तिविशेषेण यद्देशाद्याश्रित्य योगे सुस्थता सम्प्राप्यते तस्य व्यक्तिविशेषस्य तद्देशादेनियमोऽस्त्येवेति वाच्यम् ॥३०॥
-धर्मध्यानाय योगयोऽऽलम्बनानि'वाचना चैव पृच्छा च, परावृत्त्यनुचिन्तने ।
क्रिया चाऽऽलम्बनानीह, सद्धर्माऽऽवश्यकानि च ॥३१॥ टी० (१) वाचनारूपाऽऽलम्बनम-सूत्रार्थोभयदानरूपा वाचना (२) पृच्छारूपाऽऽलम्बनम् सति संशये तदपनोदाय प्रच्छनम् (३) परावृत्तिरूपाऽऽलम्बनम्-पठितस्याऽवि स्मरणाय च कर्मनिर्जरणाय पुनः पुनः परावर्तनम् (४) अनुचिन्तनरूपाऽऽलम्बनम्=पूर्वकृतपाठस्याऽविस्मरणाय सूत्रार्थोभयस्मरणानु चिन्तनरूपानुप्रेक्षणम् (५) प्रत्युत्प्रेक्षणादिप्रतिलेखनादिरूपक्रियालम्बनम् प्रतिलेखनादिरूपा क्रिया च सामायिकादिसद्धर्मा-वश्यकानि, इह-धर्मध्याने, आलम्बनानि यानि, वाचनादीनि चत्वार्यालम्बनानि श्रुतधर्माऽन्तर्गतानि, प्रत्युत्प्रेक्षणादिक्रियाऽऽत्मकं सामायिकादिसद्धर्मावश्यकात्मकं च चारित्रधमोऽन्तर्गतमालम्बनम् ॥३१॥
-सूत्राद्यालम्बनाऽऽश्रितः सद्ध्यानमारोहति'आरोहति दृढ-द्रव्या-लम्बनो विषमं पदम् ।
॥३६७॥
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अध्यात्मसार:
॥ ३६८ ॥
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तथाऽऽरोहति सद्ध्यानं, सूत्राद्याऽऽलम्बनाऽऽश्रितः ॥ ३२ ॥
टी० यथा सुरज्ज्वादिरूपद्रव्याऽऽलम्बनवान्, विषमं पदमारोहति तथा सूत्रादिवाचनाऽऽदिरूपपूर्वोक्ताऽऽलम्बनाश्रितः पुरुषो धर्म- शुक्लरूपं सद्ध्यानमारोहतीति ॥३२॥
- आलम्बनादरजन्य विघ्नविध्वंसद्वारा ध्यानाऽऽरोहणाऽखण्डितयाश्रालम्बनादरोद्भूत- प्रत्यूहक्षययोगतः
I
ध्यानाद्यारोहण शो, योगिनां नोपजायते ॥३३॥
टी० पूर्वोक्तसूत्रवाचनादिरूपाऽऽलम्बनानि प्रति भक्तिबहुमानरूपादरेण विशुद्धभावेन 'उद्भूतप्रत्यूहक्षय योगतः ' उत्पन्नविघ्नविध्वंसयोगतः, ध्यानादियोगमारोहतां महात्मनां ततोऽधःपातो नोपजायते इति ॥३३॥
- जिने मनोनिरोधादिको ध्यानप्रतिपत्तिक्रमो न शेषेषु'मनोरोधादिको ध्यानप्रतिपत्तिक्रमो जिने । शेषेषु तु यथायोगं, समाधानं प्रकीर्तितम् ॥३४॥
टीका० मुक्तिगमनकालेऽन्तिमाऽन्तमुहूर्ते सयोगिकेवली भगवान् प्रागू चादरकाययोगेन बादरवचन
॥ ३६८ ॥
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अध्यात्म
मारः
१३६१॥
योगादिक्रमेण योगनिरोध कगेति यावदन्तिमशुक्लध्यानस्य चतुर्थभेदं चतुर्दश गुणस्थाने प्राप्नोति, एष भ्याननिपत्तिक्रमी जिने-केवलिनि बोध्यः, अन्येषां जीवानां विषये तु तदध्यानप्रतिपत्तिमो नाऽस्ति, यम्य यन्क्रमण मन आदेनिरोधद्वारा योगे स्थय भवेन , स तस्य ध्यानप्रतिपनिक्रमो विजय इनि ||३४||
धर्मध्यानगतमनसां ध्यानयोग्यं चतुष्प्रकारं ध्यातव्यम्श्राज्ञाऽपायविपाकानां संस्थानस्य च चिन्तनात् ।
धर्मध्यानोपयुक्तानां, ध्यातव्यं स्याच्चतुर्विधम् ॥ ३५ ॥ टीका-ध्यातम्यद्वारम् धर्मध्यानोपयुक्तेन महात्मना (१) देवाधिदेवम्याज्ञा पुनः पुनर्मननीया (२) रागादिरूपा अपाया विचारपथं नेयाः (३) कर्पणां विचित्रो विपाको भावनीयः (४) लोकसंस्थानम्वरूपं मानसे स्मरणीयम् ॥ ३५ ॥ आजाविचयनामकः प्रथमो धर्मध्यानप्रकार:
'नयभङ्गप्रमाणाऽऽढयां, हेतूदाहरणाऽन्विताम् ।
श्राज्ञां ध्यायेज्जिनेन्द्राणामप्रामाण्याऽकलङ्किताम् ॥३६॥ टीका-साभिनयः सप्तभिर्भगः प्रत्यक्षपरोक्षरूपेण प्रमाणद्वयेनाऽऽढयां, हेतुभिश्वोदाहरणैरन्विताम् ,
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अध्यात्म
मारः
॥३७० ॥
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'अप्रामाण्याऽकलङ्किताम् = पूर्णतया प्रामाण्यसमन्वितां 'जिनेन्द्राणामाज्ञां ध्यायेत् ' = समग्रं सर्वमङ्गलकल्याणकारणं जिनशासनं ध्यानविपयीकुर्यादिति । ३६ ।।
अपायविषयनामको द्वितीयो धर्मध्यानभेदः
'रागदेषकषायादि- पीडितानां जनुष्मताम् । ऐहिकामुष्मिक स्तस्तान् नानाऽपायान् विचिन्तयेत् ||३७||
टीका- रागेण द्वेषेण कपायादिभिः पीडिते' जन्मिभिरनुभूयमानान ऐहिकान- इहलौकिकान्, आमुष्मिकान्- पारलौकिकान् तांस्तान = सर्वान् तत्तत्त्रासादिकान नानाsपायान् = अनेकविधहानिमहाहानिरूपानपायान विचिन्तयेदिति ।। ३७ ।।
"
विपाकविनामकस्तृतीयो धर्मध्यानभेदः
ध्यायेत्कर्मविपाकं च तं तं योगानुभावजम् ।
प्रकृत्यादिचतुर्भेदं शुभाशुभ विभागतः ॥ ३८ ॥
टीका-मनोयोगादिरूपयोगस्यानुभावेन प्रभावेण जातं, प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशाऽऽरूप चतुर्भेदभिन्नं are, as वर्गनरकादिरूपः 'शुभाशुभविभागतः =अयं स्वगादिरूपः शुभो विपाकः सुखद उदयः, एष
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बध्यात्ममारः
॥३७१॥
नरकनिगोदादिरूपोऽशुमो विपाको दुःखद उदय इति विभज्य तं तं कर्मविपाकं ध्यायेत-चिन्तनविषयीकादिति ॥ ३८ ॥ -इलोकानां दाविंशत्या संस्थान विचयनामकचतुर्थभेदभिन्नस्य धर्मध्यानस्य वर्णनम्
'उत्पादस्थितिभङ्गादिपर्यायर्लक्षणैः पृथक् ।
भेदैर्नामादिभिर्लोकसंस्थानं चिन्तयेद्भुतम् ॥ ३१ ॥ टीका-उत्पादस्थिति-भङ्ग(विनाश) प्रभृतिपर्यायैर्लक्षणरूपै तम् , नामादिभिर्भेदैः पृथक्-नामलोकस्थापनालीक-द्रव्यलोक-भावलोकैः पृथक-भिन्न लोकसंस्थानं चिन्तयेदिति ॥ ३९ ॥ -लोकस्थजीवद्रव्यस्य चिन्तनम्
'चिन्तयेत्तत्र कर्तारं भोक्तारं निजकर्मणाम् ।
अरूपमव्ययं जीवमुपयोगस्वलक्षणम् ॥ ४० ॥ टीका-तत्र लोक निजकर्मणां कर्तारं, मोक्तारं-कर्मफलम्य भोक्तारं, अरूपं रूपरसगन्धस्पर्शादिरूप. पुद्गलरूपरहितम् , अव्ययं स्वस्वरूपादनम् , उपयोगस्वलक्षणम् =ज्ञानदर्शनरूपोपयोगनामकम्बकीयलक्षणवन्तं जी-जीवत्वविशिष्पं चिन्तयेद्-भावयदिति ॥ १० ॥
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अध्यात्म
मार:
-पञ्चभिःश्लोकः संसारसागरस्य दुस्तरत्वेन वर्णनम्'तत्कर्मजनितं .. जन्म-जरामरणवारिणा । पूर्ण मोहमहावर्तकामौर्वानलभीषणम् ॥ ४१ ॥ श्राशामहाऽनिलापूर्ण-कषायकलशोच्छलत् । श्रसद्विकल्पकल्लोल-चक्रं दधतमुद्धतम् ॥ ४२ ॥ हृदि स्रोतसिकावेलासम्पातदुरतिक्रमम् । प्रार्थनावीचिसंतान.. दुष्पूरविषयोदरम् ।। ४३ ॥ अज्ञानदुर्दिनं व्यापद्-विद्युत्पातोद्भवद्भयम् । कदाग्रहकुवातेन, हृदयोकम्पकारिणं ॥ ४४ ॥ विविधव्याधिसम्बन्ध-मत्स्यकच्छपसंकुलम् ।
चिन्तयेच्च भवाऽम्भोधिं चलदोषाऽद्विदुर्गमम् ॥ ४५ ॥ टीका-भवाऽम्भोधिं चिन्तयेत् संसारसागरं (विशेष्यपदं) चिन्तयेत , की० भ० १ (१) तत्कर्मजनितम्
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अध्यात्म सार:
॥३७३॥
तत्तज्जीवस्य तत्तत्कर्महेतुनोत्पन्नम् पु० की० भ० १ (२) जन्मजरामरणवारिणा पूर्णम् जन्मजरामरणरूपदुःखाऽवस्थारूपजलेन सर्वतो भृतम् , पु० की० भ० १ (३) मोहमहावर्तकामौर्वाऽनलभीषणम्-मोहनामकमहावर्तेन च कामनामकवडवानलेन मयाऽऽवहम् , पृ० की. भ. १ (४) आशामहानिलाऽऽपूर्णकषायकलशोच्छलदसदविकल्पकल्लोलचक्रं दधतमुदतम् आशानामकप्रचण्डपवनेनाऽऽसमन्तात पूर्ण भारतकषायनामकपातालकलशेभ्य उच्छलदुष्टविकल्पनामककल्लोलचक्रं दधतमत एवोद्भुतमुन्मत्तम् , पु० की० म०१ (५) हृदि सोनसिकावेलासम्पातदुरतिक्रमममनसि जातेन्द्रियबामनारूपस्रोतसिका (दोष-अतिचार-स्खलना रूपस्रोतमिका) नामकजलवृद्धिसम्पातेन दुर्लङ्घनीयम् , पु. की. म १ (६) प्रार्थनावीचिसन्तानम् = विषयसुवादिविषयकयाचनादिलहरीपरम्परोन्नतम् पु. की० भ० (७) 'दुष्पूरविषयोदरम'दखेन पूरणीयविषयनामकोदरमध्यभागवन्तम् , पु. की म० (८-8) अज्ञानदुर्दिनं व्यापद्विद्युत् पातोद्भवद्भयम्' अज्ञाननामकमेघजनितान्धकारविशिष्टमत एव विविधविपत्तिनामकविद्यतां पतनेन जायमानमयवन्तम् , पु० की. भ. ? (१०) कदाग्रहकुवातेन हृदयोत्कम्पकारिणम्' कदाग्रहनामककुत्सितपवनेन हृदयस्योकम्पनकारिणम् पु० की० भ० (११) 'विविधव्याधिसम्बन्धमत्स्यकच्छपसङकुलम् नानाविधरोगसम्बन्धनामकर्मत्स्यैः कच्छपैश्च संव्याप्तम् , पु० की० भ० ? (१२) चलद्दोषाद्रिदुर्गमम्' जङ्गमदोषनामकः पर्व तहें तुभिदुर्गमम्-दुष्प्रवेशम् - भवाम्भोधिं चिन्तनमार्ग नयेदिति ॥४१॥४२॥४३॥४४॥४५॥
॥३७३॥
in Edan inte
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अध्यात्म मारः
॥३७४॥
-पञ्चभिः श्लोकः संसारसागरसन्तरणोपायो दर्यते
'तस्य सन्तरणोपायं सम्यक्त्वदृढबन्धनम् । बहुशीलाऽङ्गफलकं ज्ञाननिर्यामकाऽन्वितम् ॥ ४६ ॥ संवरास्ताश्रवच्छिद्र, गुप्तिगुप्तं समन्ततः । श्राचारमराडपोद्दीप्ता-पवादोत्सर्गभूद्वयम् ॥ ४७ ॥ अमङ्खयैर्दुधर्योधै दुधृष्यं सदाशयः । सद्योगकूपस्तम्भान-न्यस्ताऽध्यात्मसितांशुकम् ॥ ४८ ॥ तपोऽनुकूलपवनोदभूतसंवेगवेगतः । वैराग्यमार्गपतितं, चारित्रवहनं श्रिताः ॥ ४१ ॥ सदभावनाख्यमंजूषा-न्यस्तसच्चित्तरत्नतः ।
यथाऽविघ्नेन गच्छन्ति, निर्वाणनगरं बुधाः ॥ ५० ॥ टी० 'तस्य' संसारसागरस्य सन्तरणोपायभूतं चारित्रनामकवहनं श्रिता इति विशेष्यपदम् , पुनः कीदृशं
॥३७४॥
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अध्यात्म-18
सार
॥३७५
चारित्रवहनं १ (१) सम्यक्त्वदृढवन्धनम् =शुद्धसम्यक्त्वनामकरज्ज्वादिदृढबन्धनविशिष्टम , पु. की. चा० व०१ बहुशीलाङ्गफलकम् =अष्टादशसहस्रशीलाङ्गनामकफलकविशिष्टम् , पु. की. चा०व० ज्ञाननिर्यामकाऽन्धितम्'-ज्ञाननामकेन निर्यामकेन-नाविकेन संयुतम् , पु. की. चा. व०१ संवराऽस्ताश्रवच्छिदम्' =सप्तपश्चाशद्मभिन्नेन संवरेण सम्पूर्णपूर्णाश्रवनामकच्छिद्रविशिष्टम् , पृ० की० चा०व० ? गुप्तिगुप्तं समन्ततः समन्तान्मनोगुप्त्यादिगुप्तिभिगुप्तम्-रक्षितम् , पु० की. चा०व० ? आचारमण्डपोद्दीप्तापवादोत्सर्गभृद्वयम्'ज्ञानाचारादिपञ्चा चारनामकमण्डपेनोद्दीप्त-देदीप्यमानोत्सर्गापवादनामकभूमिकाद्वयम् , पृ० की. चा० ५० १ असङ्ख्यैर्दु धेरै र्योधैः सदाशयदु प्रधृष्यम्' =शुभाऽध्यवसायनामकै रसङ्ख्यैदु धेरै योधैहें तुभिः,, रागादिग्पुिगण रपराजेयम् , पु० की. चा० २० १ सद्योगकूपस्तम्भाऽनन्यस्ताऽध्यात्मसितांशुकम्' = शुभयोगनामककूपस्तम्भस्याऽग्रभागे न्यस्त-ज्ञानक्रियाऽऽत्मकाऽध्यात्म-नामकसितांशुकम् , पु० की. चा०व०? 'तपोऽनुकूलपवनोद्धतसंवेगवेगतो वैराग्यमार्गपतितं' = तपोनामकानुकूलपवनतो जातसंवेग ( मोक्षाऽभिलाप ) नामकवेगतः, वैराग्यमार्ग पतित-चटितं, एतादृशचारित्रनामकं प्रवहणं श्रिताः-तदाश्रयेण स्थिता बुधाः पण्डिताः, सद्भावनाऽऽख्यमञ्जूषान्यस्तसच्चित्तरत्नतः' = समीचीनभावनानामिकायां मञ्जूषायां स्थापितं यत सच्चित्त-सदाशयनामकं रत्नं तस्मात , अविध्नेनविघ्नस्याऽत्यन्ताऽभावपूर्वकं, अग्रे वक्ष्यमाणः श्लोकेर्यथा निर्वाणनगरं गच्छन्ति तथा महात्मभि विचिन्त
॥३७५॥
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अध्यात्म
सारः
॥३७६॥
नीयमिति प्रस्तोष्यमाणैकादशश्लोकगणेन सह सम्बन्धो योज्यः ॥४६॥४७४८१४६।५०॥
-- अर्थकादशभिःश्लोक मोहराजस्याऽऽक्रमणपराजययोर्वर्णनम्'यथा च मोहपल्लीशे, लब्धव्यतिकरे सति । संसारनाटकोच्छेदा-शङ्कापकाऽऽविले मुहुः ॥५१॥ मज्जीकृतस्वीयभटे, नावं दुर्बुद्धिनामिकाम् । श्रिते दुर्नीतिनौवृन्दा--रूढशेषभटाऽन्विते ॥५२॥ श्रागच्छत्यथ धर्मेश-भटोघे रणमण्डपम् । तत्वचिन्ताऽदि-नागच-सज्जीभूते समाश्रिते ॥५३।। मिथो लग्ने रणाऽऽवेशे, सम्यग् दर्शनमन्त्रिणा । मिथ्यात्वमन्त्री विषमां प्राप्यते चरमां दशाम् ॥५४॥ लीलयैव निरुद्धयन्ते कषायचरटा अपि । प्रशमादिमहायोधैः शीलेन स्मरतस्करः ॥५५॥
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वध्यात्म
सारः
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हास्यादिषट्कलुण्याक- वृन्दं वैराग्यसेनया निद्रादयश्च ताढ्यन्ते श्रुतोद्योगादिभिर्भयैः भाभ्यां धर्मशुक्लाभ्या - मार्त्तरौद्राऽभिधो भटौ । निग्रहणेन्द्रियाणां च जीयते द्रागसंयमः क्षयोपशमतचक्षुदर्शनावरणादयः नश्यन्त्य सात सैन्यं
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॥ ५६ ॥
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सह
च पुण्योदयपराक्रमात् ॥५८॥ गजेन्द्रे, रागकेसरिणा तथा । सुतेन मोहभूपोऽपि धर्मभूपेन हन्यते ॥ ५६ ॥ ततः प्राप्तमहानन्दा, धर्मभूपप्रसादतः यथा कृतार्था जायन्ते, साधवो व्यवहारिणः विचिन्तयेत्तथा सर्वं धर्मध्याननिविष्टधीः गन्यदपि न्यस्तमर्थ जातं
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दाग
||६०||
||६१||
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अध्यात्म
मार:
॥३७८॥
टी. 'चारित्रवहनं श्रिता बुधा निर्वाणनगरं गच्छन्तीति लब्धव्यतिकरे-सम्प्राप्तवत्तान्ते सति 'मुहुः संसारनाटकोच्छेदाशङ्कापकाऽऽविले मोहपल्लीशे सति' पुनःपुनः संसारनामक-नाटकस्योच्छेदस्याशका-चिन्तानामकपङ्केन मलिने मोहनामकपल्लीपती सति, पु०की मो०प. ? सज्जीकृतस्वीयभटे दुर्बुद्धिनामिका नावं थिते, 'दुर्नीतिनौवृन्दारूढ-शेषभटाऽन्विते'म्बीयभटानां सज्जीकरणानन्तरं दुष्टलेश्यानामकनावं श्रिने, दुष्ट नीतिनामक-नौसमृहारूढशेषसुभटैगन्विते मोहपल्लीपती, आगच्छति सति, अथेत्यनन्तर-मितो 'धर्मेशभटोघे 'तत्वचिन्तादिनाराच-सज्जीभूते रणमण्डपं समाश्रिते' तत्त्वचिन्ताऽऽदि-नामकसुतीक्ष्णबाणावलीभिः सज्जीभूते धर्ममहाराजस्य भटानामोधे-समुदाये युद्धमण्डपं समाश्रिते सति 'मिथो लग्ने रणाऽऽवेशे' परस्परं रणस्य रङ्गे लग्ने सति. सम्यग्दर्शननामकमन्त्रिणा, मिथ्यात्वनामको मन्त्री, विषमा चरमा दश प्राप्यते-गम्यते प्रापितश्च क्रियते. 'लीलयैव प्रशमादिमहायोधः कषायचरटा अपि निरुद्ध यन्ते शीलेन म्मरतस्कर:-क्रीडामात्रेण कषायनामकाश्चरटा:-चोराः प्रशमविनयाजवमार्दवनामके महायोधै निरुद्धयन्ते, शीलनामकेन महायोधेन कामनामकोऽपि तस्करो निरुद्धयते, तथा वैराग्यनामकसेनया हाम्यादिषटक लुण्टाकवृन्दं निरुद्धयते, श्रुतविषयकोद्योगादि-नामके भेटे निंद्रादयस्ताब्यन्ते, धर्मशुक्लनामकशुभध्यानमटाभ्यामागेद्रनामको भटो जीयेते 'इन्द्रियाणां निग्रहेण च झटिति जीयतेऽमंयमो भटः, क्षयोपशमनामकभावभटतश्चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणादयो नश्यन्ति, अमातवेदनीयनामकं सैन्यं च. पुण्योदयस्य पराक्रमानश्यति, द्वेषगजेन्द्रेण सुतेन तथा रागकेसरिणा सुतेन मह मोहभृपोऽपि धर्मभृपेन
॥३७८॥
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tema
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अध्यात्म
सार:
॥३७९॥
हन्यते इननविषयीक्रियते, ततो धर्ममहागजस्य प्रपादत:-कृपया, समारमहोदधेः पारं गन्तुचारित्रवहनं श्रिताः सर्वे व्यवहारिणः प्राप्तमहानन्दाः सजाताः, यथा धर्मराजम्य प्रसादतः सर्वे साधवो व्यवहारिणः कृतार्था:-कृतकृत्या अमृतपदारूढा जायन्ते, तथा 'धर्मध्याननिविष्टधीः'धर्मध्यानकस्थापितबद्धिः, महात्मा सर्व विचिन्तयेन् । एतावन्मात्रमपि न परन्तु ईदगन्यदपि, अप्रमत्तताऽऽदिभावस्य कथनं, यनागदत्तकथाद्वारा 'यदागम= आवश्यकमूत्रादिरूपे जिनागमे न्यस्तमर्थजातं तदपि धर्मध्यानध्यायिना महात्मनोहनीयमित्यत्र ध्यातव्यनामकं मप्तमं द्वारं समाप्तम् ॥५११५२१५३/५४१५५।५६३५७५८।५९/६०।६।। अथाष्टमं ध्यातृद्वारं कथ्यते
'मनमश्चेन्द्रियाणां च जयाद्यो निर्विकारधीः ।
धर्मध्यानस्य स ध्याता, शान्तो दान्तः प्रकीर्तितः ।। ६२।। टी. मनमश्चेन्द्रियाणां जयाद्' चित्तस्य चेन्द्रियाणां संयमनरूपजयद्वारा 'यो निर्विकारधी:विकारशून्यबुद्धिसमृद्धिमान् 'शान्तो दान्तः' स धर्मध्यानस्य ध्याता, शमदमगुणसम्पनो-धर्मध्यानस्य ध्यातरूपोऽधिकारीति कथ्यते ।। ६२॥
पराऽभिमतस्थितप्रज्ञस्य लक्षणं धर्मध्यानध्यातरि घटते इति वर्णनम्
श॥३७९॥
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अध्यात्म
मारः
॥ ३८० ॥
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परैरपि यदिष्टं च स्थितप्रज्ञस्य लक्षणम् । घटते ह्यत्र तत्सर्वं तथाचेदं व्यवस्थितम् ॥ ६३ ॥ प्रजहाति यदा कामान्, सर्वान् पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवाऽऽत्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ६४ ॥
टी० परैर्दर्शनाऽन्तरीयैरपि यत् स्थितप्रज्ञस्याऽऽत्मनो लक्षणमिष्टं तत्सर्वमंत्र - धर्मध्यान कर्तर्यात्मनिघटतेऽर्थाद्धर्मध्यानी स्थितप्रज्ञ उच्यते तथा चेदं भगवद्गीतायां व्यवस्थितं तद्दर्श्यते ।
,
प्रजहाति प्रकर्षेण जहाति परित्यजति यदा यस्मिन् काले सर्वान् समस्तान् कामान् इच्छाभेदान् हे पार्थ! मनोगतान् मनसि प्रवृष्टान् हृदि प्रविष्टान् । सर्वकामपरित्यागे पुष्टि - कारणाभावात् शरीरधारणनिमित्तशेषे सति उन्मत्तप्रमत्तस्य इव प्रवृत्तिः प्राप्ता इति अत उच्यते-आत्मनि एव प्रत्यगात्मस्वरूपे एव आत्मना स्वेन एवं बाह्यलाभनिरपेक्षः तुष्टः परमार्थदर्शनाऽमृतरसलाभेन, अन्यस्माद् अलंप्रत्ययवान् स्थितप्रज्ञः स्थिता प्रतिष्ठिता आत्मानात्मविवेकजा प्रज्ञा यस्य स स्थितप्रज्ञो विद्वान् तदा उच्यते। त्यक्तपुत्रविचलोक एष संन्यासी आत्माराम आत्मक्रीडः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः ।
इति शाङ्करमाण्यम्
||३८०||
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अध्यात्मसार:
॥३८॥
पार्थ ! हे अर्जुन ! मनोगतान-मनसि जातान स्थितान् सर्वान् कामान-मनोऽभीष्टमोगमनोरथान , यदा प्रजहाति-अपुनर्भवत्वेन रूपेण जहानि-प्रत्यजति, आत्मन्येव-स्वात्मद्रव्ये, आत्मना-स्वभावरूपाऽऽऽऽन्मना, तुष्ट:-प्रमन्त्रः, तदा स्थितप्रज्ञ उच्यते ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ पुनरपि भगवद्गीतोक्तश्लोकत्रयी कथ्यते
'दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः, सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोध स्थितधीमुनिरुच्यते ॥ ६५ ॥ यः मर्वत्राऽनभिस्नेह-स्तत्तत् प्राप्य शुभाऽशुभम् । नाऽभिनन्दति न वोष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६६ ॥ यदा संहरते चाऽयं, कूमोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य स्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६७ ॥ टी० दुःखेषु-कार्यकारणरूपदुखेषुपस्थितेषु अनुद्विग्नं मनो यस्य सोऽनुद्विग्मना अर्थाद् दुःखस्य कारणानि प्राप्य न दीनो, मनोऽपेक्ष्य, सुखेषु कार्यकारणरूपेषु सुखेषु विगतस्पृहः स्पृहारहितः, अर्थात् सुखसुखसाधनानि प्रति निःस्पृहः-अलीनमनाः, 'वीतरागभयक्रोधः'रागेण भयेन, क्रोधेन शून्यः चित
॥३८१॥
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अध्यात्म
सार:
॥ ३८२॥
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दोषरूपरागभयक्रोधरहितो मुनिः स्थितप्रज्ञ उच्यते ॥ ६५ ॥
' तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ' = इष्टाऽनिष्टवस्तुमात्रं प्राप्य यः सर्वत्र शुभाशुभाऽऽत्मके वस्तुन्यनभिस्नेहः- वीतराग उदासीनः समः सन् नाभिनन्दति=न रक्तो भवति, न द्वेष्टि=न द्विष्टो भवत्यतस्तस्य = समतालङ्कृतस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता = प्रतिष्ठा प्राप्ता, स्थिरता प्राप्ता कथ्यते ॥ ६६ ॥
'कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः' यथा कूर्मोऽङ्गान्युपाङ्गानि सर्वतः संहरते - सङ्कोचयति तथा चायं मुनिः, इन्द्रियविषयेभ्य इन्द्रियाणि संहरते - प्रत्याहरति स मुनिः स्थितप्रज्ञ उच्यते ||६७ ||
'शाङ्करभाष्यमत्र = दुःखेषु आध्यात्मिकादिषु प्राप्तेषु न उद्विग्नं न प्रक्षुभितं दुःखप्राप्तौ मनो यस्य सः अयम् अनुद्विग्नमनाः । सुखेषु प्राप्तेषु विगता स्पृहा तृष्णा यस्य न अग्निः इव इन्धनाद्याधाने अनुवते स विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधो रागः च भयं च क्रोधः वीता विगता यस्मात्स वीतरागभयक्रोधः, स्थितधीः स्थितप्रज्ञो मुनिः संन्यासी तदा उच्यते ( २५६) 'यो मुनिः सर्वत्र देहजीवितादिषु अपि अनभिस्नेहः अभिस्नेहवर्जितः तत्तत् प्राप्य शुभाशुभं तत्तत् शुभं अशुभं वा लब्ध्वा न अभिनन्दति न द्वेष्टि शुभं प्राप्य न तुष्यति न रुष्यति अशुभं च प्राप्य न द्वेष्टि इत्यर्थः । तस्य एवं हर्षविषादवतस्य विवेकजा प्रज्ञा प्रतिष्ठिता भवति || २|५७॥
'यदा संहरते सम्यग् उपसंहरते च अयं ज्ञाननिष्ठायां प्रवृत्तो यतिः कूर्मः अङ्गानि इव सर्वशो यथा
||३८२ ।
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मध्यास्मसारः
।।३८३॥
कूर्मो भयान् स्वानि अङ्गानि उपसंहरति सर्वत एवं ज्ञाननिष्ठ इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः सर्वविषयेभ्य उपसंहरते । तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता इति उक्तार्थवाक्यम् (२०५८) -सिडस्य हि स्वभावो यः सैव साधकयोग्यता
'शान्तो दान्तो भवेदीह-गाऽऽत्मारामतया स्थितः ।
सिद्धस्य हि स्वभावो यः, सैव साधकयोग्यता ॥६॥ ___टी० एवं य आत्मा शान्तो भवेत् , दान्तो भवेत् , अनया रीत्या चाऽऽत्मारामतया स्थितो भवेत् , स एवाऽऽत्मा, धर्मध्यानध्याता भवितु योग्योऽस्ति, यतोऽप्रमत्तसप्तमादिगुणस्थानस्थितस्य सिद्धयोगिनो यः स्वभावोऽस्ति स एवेतस्य साधकस्य योग्यता (बीजरूपता) ज्ञेयाऽर्थात् , सिद्धयोगिनि या गुणानां पूर्णता भवेत , तेषामेव गुणानामंशाना-अंशरूपगुणानामस्तित्वरूपयोग्यता साधके सम्भावनीयेति ॥६॥
-शुक्लध्यानस्य को ध्याता ?'ध्याताध्यमेव शुक्लस्या-प्रमत्तः पादयोर्द्ध योः । पूर्वविद् योग्ययोगी च, केवली परयोस्तयोः ॥६॥
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अध्यात्मसार:
॥ ३८४॥
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टी० यो धर्मध्यानस्य योग्यो ध्याता कथितः सोऽयमेव शुक्लध्यानस्य चतुर्षु पादेषु मध्ये पादयो द्वयोः पूर्वयोरप्रमत्त आत्मा ध्याताऽधिकारी भवेत्तदा स पूर्वधरो महात्मैव ज्ञेयः, शुक्लध्यानस्य तृतीयपादध्याता योगी केवली भवति, चतुर्थपादभ्याताऽयोगी केवली भवतीति ॥ ६६ ॥
- नवमद्वारभूता धर्मध्यानिनामनुप्रेक्षा:'श्रनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा,
ध्यानस्योपरमेऽपि हि
भावयेन्नित्यमभ्रान्तः प्राणा ध्यानस्य ताः खलु ॥७०॥
टी० 'ध्यानस्योपरमे हि' - अस्माद् ध्यानयोगाभिवृत्तिः स्यात्तदा अभ्रान्तः सदाश्रमाऽनाक्रान्तआत्मा, अनित्यत्वादिरूपा अनुप्रेक्षा भावना भावयेद्यतः 'ध्यानस्य ताः खलु प्राणा: ' = भावना ध्यानस्य प्राण उच्यन्तेः त्रुटितामपि ध्यानधारामनुसन्धातु भावनाः प्रभवन्तीति ॥ ७० ॥ - धर्मध्यानिनां लेश्या दशमद्वारभूताः -
'तोत्रादिभेदभाजः स्युर्लेश्यास्तिस्र इहोत्तराः 1 लिङ्गान्यत्राऽऽगमश्रद्धा विनयः सद्गुण स्तुतिः
॥७१॥
टी० 'तीव्रादिमेदभाजः स्पुर्लेश्यास्तिस्र इहोत्तराः ' = धर्मध्यानिनां मुनीनां परिणामापेक्षया तीव्रतीव्रतर - तीव्रतम प्रकारभिन्ना स्तेजः पद्मशुक्लाऽऽख्यास्तिस्रो लेश्या भवन्ति अत्र धर्मध्यानप्रसङ्गे धर्मध्यानि
| ॥ ३८४ ॥
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अध्यात्म
सारः
॥३८५।।
नामेकादश (११) द्वारभृतानि त्रीणि लिङ्गानि मन्ति तद्यथा (१) आगमश्रद्धा-सर्वज्ञप्रणीतागमप्ररूपितद्रव्यपटक-पश्चास्तिकायनवनवादिमवतच्चपदार्थेषु निरुपमाऽप्रतिहतश्रद्धा. (२) सुदेवसुगुर्वादिपूज्यमानं प्रति अभ्युत्थानादिनाऽऽदग्बहुमानादिकग्णस्वभावो "विनयः' (३) सद्गुणस्तुतिः-सुदेवादिपूज्यानां मद्सम्यग ( विद्यमान ) गुणानां स्तवनरूपा स्तुतिः एतानि श्रीणि धर्मध्यानिन कायलिङ्गानि ज्ञेयानि, यस्मिन धर्मध्यानमम्ति तस्मिन लिङ्गत्रयं दृश्यते ॥७१||
__-द्वादशद्वाग्भूतं धर्मध्यानम्य फलं कथ्यते'शीलसंयमयुक्तस्य, ध्यायतो धर्म्यमुत्तमम् ।
स्वर्गप्राप्तिं फलं प्राहुः, प्रौदपुण्यानुवन्धिनीम् ॥७२॥ टी० शीलेन संयमेन च युक्तो महात्मतादृशं धम्यध्यानं यो ध्यायति तस्य 'प्रौढपुण्याऽनुबन्धिनी स्वर्गप्राप्तिं फलं प्राहुः' अन्ततो गत्वा शिवसम्पत्कारकपुण्यानुबन्धिपुण्यजन्यस्वर्गप्राप्तिरूपं फलं कथयन्तिमहर्षयः ।।७२||
-अथ शुक्लध्याननिरूपणम्'ध्यायेच्छुक्लमथ तान्ति-मृदुत्वार्जवमुक्तिभिः । छद्मस्थोऽणो मनो धृत्वा, व्यपनीय मनो जिनः ॥७३॥
1३८५॥
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अध्यात्म
सार:
॥३८६॥
टी. श्रीमान ग्रन्थकार: शुक्लध्याननामके विषये पूर्वोक्तद्वादशद्वाराणि निरूपयति तत्र द्वादशद्वारेषु पूर्वाणि चत्वारि द्वाराणि धर्मध्यानतुल्यान्येव तस्मात्त न्यकथयन पञ्चमाद्यालम्बनादिद्वाराण्यवतारयति (५) पश्चममालम्बनद्वारम् जिनेन्द्राणां मते प्रधानभृतान क्षमा-मार्दवावनिर्लोभतादिगुणानालम्म्य छद्मस्थो ध्याता शुक्लध्यानशिखरमागेहति, (६) षष्ठ क्रमाऽऽख्यं द्वाग्म-छद्मस्थस्याऽऽत्मन पूर्व मनस्तु त्रीणि भुवनानि विषयीकृत्याऽपि ततः क्रमतस्तन्मनमो विषयान संक्षिपन् २ आत्मा, परमाणो मन आनीय मुश्चति. एवं रीत्या शुक्ल ध्यानं ध्यायति, यदा जिनो-केवली मनोयोगं निरुद्धय शुक्लं ध्यानं ध्यायेत , ब्रह्मस्थम्य शुक्लध्यानं मप्तमादिगुणस्थानवर्तिनो भवेत , यदा जिनस्य शुक्लध्यानं त्रयोदशगुणस्थानस्याऽन्तपर्यन्तम , तथा चतुर्दशगुणस्थाने भवेत् ॥७३॥
- सप्तम ध्यातव्यद्वारं तथाऽष्टमं ध्यातृद्वारम्'सवितर्क सविचारं, सपृथकत्वं तदाऽऽदिमम् । नानानयाऽऽश्रितं तत्र वितर्कः पूर्वगं श्रुतम् ॥७॥ अर्थव्यञ्जनयोगाना, विचारोऽन्योऽन्यसक्रमः । पृथकवं द्रव्यपर्याय-गुणाऽन्तरगतिः पुनः ॥७॥
|३८६॥
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अध्यात्म
सार:
॥ ३८७ ||
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त्रियोगयोगिनः साधो -वितर्काद्यन्वितं ह्यदः ईषच्चल तरङ्गाऽब्धेः
क्षोभाभावदशानिभम्
॥७६॥
टी० शुक्लध्यानस्य चत्वारः पादा ध्यातव्यास्तेषां चतुष्णां पादानां नामानि यथा ( १ ) सवितर्क विचारं पृथक्त्वम्, (२) सवितर्क सविचारमेकत्वम् (३) सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति, (४) ममुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति तत्र सवितर्कसविचार- सपृथकत्वरूपप्रथमपादस्य वर्णनम् = तत्र वितर्कः = अनेकनयाऽऽश्रितं पूर्वानुमारितं वितर्क उच्यते, विचार:- 'अर्थव्यञ्जनयोगानामन्योऽन्यसङ्क्रमः' = अर्थतः शब्दे, शब्दतो द्रव्ये, मनोयोगतो वचनयोगे वा काययोगेऽथवा वचनयोगतो मन आदियोगे, एवं मिथो जायमानः सङ्क्रमो विचार उच्यते, पृथक्त्वमद्रव्यपर्यायगुणान्तरगतिः, पृथक्त्वमर्थाद् द्रव्यतो द्रव्यान्तरे गमनं, पर्यायतोऽथ पर्यायान्तरे गमनम् गुणतो गुणान्तरे गमनम् पृथक्त्वमुच्यते, शुक्लध्यानस्य प्रथमे पादे वितर्कविचारपृथक्त्वरूपास्त्रयो विषया गोचरीक्रियन्तेऽतस्तद्ध्यानं सवितकं सविचारं सपृथक्त्वमुच्यते, मनोवचः काययोगरूपयोगत्रयव्यापारवतो मुने वितर्कविचारपृथकृत्वाऽन्वितं हि ध्यानमिदं ( मनइदमेकाग्रतायुतं ) 'ईषच्चलत्तरङ्गान्धेः क्षोभाऽभावदशानिभम्' = किश्चित् किश्चिच्चल तरङ्गवतोऽपां पतेर्या क्षोभशून्या दशा, तत्समानं ध्यानं वा मनो भवतीति ॥ ७४ ॥ ७६ ॥ ७६ ॥
- शुक्लध्यानस्य द्वितीयपादरूपस्य सवितर्कस विचारकत्वस्य वर्णनम् -
I
॥३८७॥
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अध्यात्म
सार:
॥३८८॥
'एकत्वेन वितर्केण, विचारेण च संयुतम् ।
निर्वातस्थप्रदीपाऽऽभं, द्वितीयं त्वेकपर्ययम् ॥७७॥ टी. अत्र वितर्कविचारी पूर्ववद् माव्यौ परन्तु द्रव्यपर्यायगुणाऽन्तरगतिरूपं पृथक्त्वं न, एकत्वेन संयुतं वितण मंयुतं, विचारेण संयुतं ध्यानं मवितकं सविचारमेकत्वं, द्वितीयं शुक्लध्यानमेकपयायवत मन , निर्धानम्थप्रदीपाऽऽभं' पवनरहितम्थानस्थदीपकतुल्यं निश्चलं ज्ञेयमिति ॥७७॥
-शुक्लध्यानस्य तृतीयपादरूपं सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ति ध्यानम्'सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्त्याख्यं, तृतीयं तु जिनस्य तत् ।
श्रद्धरुद्धाऽङ्गयोगस्य, रुद्धयोगदयस्य च ॥७८|| ... टी. 'रुद्धयोगद्वयम्य' =रुद्धं सूक्ष्मवचन मनायोगाऽऽत्मकयोगद्वयं येन म तम्य, 'अर्द्धरुद्धाऽङ्ग योगस्य च' मूक्ष्मवादग्भेटद्वययत काययोगमध्यादर्द्धपकाययोगो रुद्धो येन मोऽरुद्धाऽङ्गयोगस्तम्याऽसद्धाऽङ्गयोगम्य च जिनम्य, अर्थाद् यत्राचन्वामादिरूपायाः मूक्ष्मकाययोगम्य क्रियाया अनिवृत्तिः (मत्ता ) अग्ति, अतः मूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिनामक ध्यानं तृतीयं त्रयोदशगुणस्थानस्याऽन्तिमाऽन्तमुहनस्थस्य केवलिनी भगवती भवतीति ।।७८।।
।।३८८॥
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अध्यात्म-1 सार
॥३८॥
- शुक्लध्यानस्य चतुर्थपादरूपं समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपानिध्यानम् - 'तुरीयं तु समुच्छिन्न-क्रियमप्रतिपाति तत् ।
शैलवनिष्पकम्पस्य, शैलेश्यां विश्ववेदिनः ॥७॥ टी० 'समृच्छिन्नक्रियम् समुच्छिना-निवृत्ता, उच्छ्यामादिरूपा सूक्ष्मकायिकक्रिया यम्माद् ध्याना तत 'समुच्छिन्नक्रियम अप्रतिपाति' सिद्धावस्थाप्राप्तिपर्यन्तं प्रतिपतनाऽभावादप्रतिपाति, शुक्लध्यानस्य चतुर्थपादरूपं नव्यानं शैलेश्यवस्थायां शैलवनिप्रकम्पस्य विश्ववेदिन:-चतुर्दशगुणस्थानस्थस्याऽयोगिनः केवलिनो भगवतो भवतीनि ॥७९॥
-पथमपादद्वयस्य चाऽन्तिमपादयस्य किं फलम् :'एतच्चतुर्विधं शुक्लध्यानमत्र द्वयोः फलम् ।
श्राद्ययोः सुरलोकाप्ति-रन्त्ययोस्तु महोदयः ॥८॥ टी० चतुर्विध प्रकारचतुष्टयाऽवच्छिन्नमेनच्छुक्लध्यानमस्ति 'अत्र'चतुर्विधशुक्लध्याने द्वयोराद्ययोः सवितकमविचारसपृथक्त्वमवितर्कसविचारकत्वयोः, छअस्थस्य फलं सुरलोकाप्तिः-देवलोकप्राप्तिः, 'अन्त्ययो- ईयोस्तु'-मूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिसमुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपातिनोईयोस्तु फलं महोदयः निःश्रेयस प्राप्तिरिति ॥८॥
॥३८९।।
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अध्यात्म
मार
॥३९॥
-नवमदारभूताः शुक्लध्यानस्याऽनुप्रेक्षा:'श्राश्रवाऽपायसंसारा-नुभावभवसन्ततीः
अर्थे विपरिणामं वाऽनुपश्येच्छुक्लविश्रमे ॥१॥ ____टी० (१) आश्रवाऽपायमनुपश्येत्=मिथ्यात्वाद्याश्रवजन्यान् अपायान् ( आत्महितरूपहानिमहाहानिरूपान् ) अनुप्रक्षेत, (२) संसारानुभावमनुपश्येत् कर्मरूपम्य वा तज्जनितजन्मजरामरणरूपस्य संसारम्यानुभावं-रमं प्रभावमनुप्रेक्षत (३) भवसन्ततिमनुपश्येन भवस्याऽनुवन्धपरम्परां-उत्तरोत्तररूपजन्माऽऽविवाहं विचारयेत् , (४) अर्थे विपरिणाममनुपश्येत-इन्द्रियविषये, पुद्गलादिपदार्थेऽथवा स्वीपुत्रादिप्रयोगादावर्थे विपरीत-विचित्रपरिणाममनुप्रेक्षेत, एतत्सर्व शुक्लध्यानाद् विश्रामे प्राप्ते सति चिन्तनीयम् , एताश्चतस्त्रोऽनुप्रेक्षाः, शुक्लध्यानस्य प्रथमद्वितीयपादध्यानाद् विरमणाऽनन्तरं सम्भवन्ति, यतः शेषाऽन्तिमपादद्वयम्य ध्यानन्तु विरामं विनैव मुक्ति प्रापयतीति ॥१॥
-दशमद्वारभूताः शुक्लध्यानस्य लेइया:'द्रयोः शुक्ला तृतीये च, लेश्या सा परमा मता । चतुर्थशुक्लभेदस्तु, लेश्याऽतीतः प्रकीर्तितः ॥२॥
॥३९॥
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अध्यात्मसार
॥३१॥
शुक्लध्यानम्य प्रथमपादद्वये शुक्ललेश्या वर्तते. तृतीयपादस्य ध्याने परमा शुक्ललेश्या विद्यते, चतुर्थपादस्य तु ध्यानं कुन महात्मा 'लेश्याऽतीतः' लेश्यातः परः कथ्यते ॥८२॥
- एकादशद्वारभूतानि शुक्लध्यानिनां चत्वारि लिङ्गानि कार्यरूपाणि - 'लिङ्ग निर्मलयोगस्य. शुक्लध्यानवतोऽवधः ।
श्रमम्मोहो विवेकश्च, व्युत्तर्गश्चाऽभिधीयते ॥३॥ टी. 'शुक्लध्यानवतो निर्मलयोगस्य'=शुक्लध्यानशालिनः परमपवित्रमनोवचःकाययोगस्य लिङ्ग मुच्यते तद् यथा (१) अवधः (२) असम्मोहः (३) विवेकः (४) व्युत्सर्ग इत्येतेषां चतुण्णां लिङ्गाना विवेचनमग्रतो वक्ष्यमाणमस्ति ।।३।।
-विविच्यन्ते कार्यलिङ्गानि शुक्लध्यानिनाम्'श्रवधादुपसर्गेभ्यः कम्पते न बिभेति च । श्रसम्मोहान्न सूक्ष्माऽर्थे, मायास्वपि न मुह्यति ॥४॥ विवेकात सर्वसंयोगा-भिन्नमात्मानमीक्षते । देहोपकरणाऽसङ्गो, व्युत्सर्गाजायते मुनिः ॥५॥
ग
३११॥
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अध्यात्म
मारः
1॥३१२॥
टी. (१) अबधाद्-अहिंसाऽऽत्मककार्यलिङ्गाद् , शुक्लध्यानी, देवादिकृतेग्य उपसर्गेभ्यो न कम्पते. च न विमति, निष्पकम्पो निर्भयश्च भवतीति (२) असम्मोहात-मिथ्यात्वादिसम्मोहाऽभावरूपकार्यलिङ्गात् 'मुझमाउथे' =अतीन्द्रियगहननिगोदादिसूक्ष्माऽथे. देवादिकृतासु मायास्वपि 'न मुद्यति'= शुक्लध्यानी न मोहमाप्नोति (३) विवेकान हेयोपादेयविवे वनजन्यहानोपादानरूपविवेकात् बाधाऽ. भ्यन्तररूपशरीरकर्मादिपुद्गलसंयोगरूपसंयोगाद् , भिन्न-पृथगरूपमात्मानं-स्वद्रव्यमीक्षने-पश्यति शुक्लध्यानी. (४) व्युन्मांतविशेगन उन्मर्जनरूपन्यागात , देहे चोपकरणेऽसङ्गनावान-निरपेक्षतावान , मुनिः शुक्लध्यानी जायने इति ।।८४॥८५॥
--द्वादशद्वारभूतं शुक्लध्यानस्य फलम्-- 'एतद्ध्यानफलं शुद्धं, मत्वा भगवदाज्ञया ।
यः कुर्यादेतदभ्यास, सम्पूर्णाऽध्यात्मविदभवेत् ॥८६॥ टी. 'भगवदाजया'-जे नशामनाऽनुसारतः, एतम्य शुक्लध्यानम्य शुद्धं क्रम-विधि मत्वा-ज्ञात्वा श्रद्धाय वा, यः, एनम्य शुक्लध्यानस्याऽभ्यास-पुनः पुनः प्रतिदिनकर्तव्यरूपमभ्यासं कुर्यात् , स IM३९२॥ शुक्लध्यानाऽभ्यामी, कलावपि मंपूर्णतया-माङ्गोपाङ्गतयाऽध्यात्मविद् भवेदिति ॥८६॥
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अध्यात्मसार:
॥३९३॥
-इत्याचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपदृवरभद्रग्सूरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायो कार्या ध्यानम्वरूपनामकः षोडशोऽधिकारः समाप्तः ॥६६३॥
-अथ ध्यानस्तुतिनामकः सप्तदशोऽधिकारः-ध्यानमेव भवनाशि भजध्वम्'यत्र गच्छति परं परिपाक, पाकशासनपदं तृणकल्पम् ।
स्वप्रकाशसुखबोधमयं तत् , ध्यानमेव भवनाशि भजध्वम् ॥१॥ टो. 'यत्र पर्व परिपाकं गच्छति'-यदा ध्यानयोगः प्रकृष्टाऽवस्थारूपं परिपाकं प्राप्नोति तदा 'पाकशासनपदं तृणकल्पं' पुरन्दर-इन्द्र पदं तृणतुल्यमेवाऽवभासते स्वज्योतिर्मयं स्वानन्दमयं स्वरोधमयं सध्यानमेव भो भव्या भवनाशित्वेन रूपेण भजचम्-सेवध्वम्
--ध्यानवानेव तृप्तः विषयरागं न प्राप्नोति'श्रातुरैरपि जडैरपि साक्षात् , सुत्यजा हि विषया न तु रागः । ध्यानवाँस्तु परमद्य तिदर्शी, तृप्तिमाप्य न तमृच्छति भूयः ॥२॥
॥३९३३॥
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अध्यात्म.
सारः
॥ ३९४ ॥
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टी० पारवश्येनातुरा अपि = पान्द्यमापन्ना अपि, जहा :- मूर्खत्वमापन्ना अपि 'साक्षात् ' = प्रत्यक्षत इन्द्रियविषयान- भौतिकवाद्यविभवादन सुखेन प्रत्यजन्ति परन्तु विषयगगं त्यक्तु नालंकर्मीणाः, ध्यानवाँस्तु परमद्युनिदर्शी=परमात्मनः परमज्योतिर्द्रष्टा सन् परमां तृप्तिमात्मनि प्राप्य भूयः - पुनः, तंविषrरागं न लभत इति ॥२
-- या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी
'या निशा सकलभूतगणानां, सर्वतः सकलकर्मफलानाम् ।
यत्र जाग्रति च तेऽभिनिविष्टा, घ्यानिनो भवति तत्र सुषुप्तिः ||३|| टी० प्राणिगणानां त्वन्धकारमयी भवति, तत एवं कथ्यते ते सकलभूतगणा तत्त्वदृष्टिरूपनिशायां निद्रायमाणा एव तिष्ठन्ति परन्तु तस्यामेव तत्त्वदृष्टौ ध्यानी-संयतात्मा, जाग्रदस्ति, तदर्थे तु मा दृष्टि दिनमदोत्मनसमा विद्यते, येऽभिनिविष्टा यस्यां मिथ्यादृष्टौ संसारिणो जाग्रति-निर्निद्रा भवन्ति, तस्यां मिध्यारो ध्यानिनः - मंयमिनो भवति सुषुप्तिः, तन्मिथ्यादृष्टितो ध्यानी पराङ्मुखः मन् सन्तिष्ठते तत्र निद्रायमाण इवाऽऽम्न इति भावः ॥ ३ ॥
[ या निशा रात्रिः सर्वपदार्थानाम् अविवेककरी तमःस्वभावत्वात् किं तत् परमार्थतन्त्रम् स्थितप्रज्ञस्य विषयः । यथा नक्तंचराण अहः एव सद् अन्येषां निशा भवति तद्वद् नक्तंचरस्थानीयानां अज्ञानां
॥ ३९४ ॥
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अध्यात्मसारः
॥३९५॥
सर्वभूतानां निशा इव निशा परमार्थतत्वम् अगोचरत्वाद् अतबद्धीनाम् । तम्यां परमार्थनवलक्षणायाम् अज्ञाननिद्रायाः प्रबुद्धो जागर्ति मंयमी-संयमवान जितेन्द्रियो योगी इत्यर्थः । यस्यां ग्राह्यग्राहकमेदलक्षणायां अविद्यानिशायां प्रसुप्तानि एव भृतानि जाग्रति इति उच्यते, यम्यां निशायां प्रसुप्ता एव स्वप्नदृशः मा निशा अविद्यारूपवान , परमार्थतत्वं पश्यतो मुनेः अतः कर्माणि अविद्याऽवस्थायाम् एव चोद्यन्ते न विद्याऽवस्थायां । विद्यायां हि मत्या उदिते सवितरि शार्वरम् इव तमः प्रणाशम् उपगच्छति अविद्या । भ.गी. शाङ्करभाष्यम् १६९]
-सर्वकर्मफलानां सिद्धि ानत एव भवति-- सम्प्लुतोदकमिवान्धुजलानां, सर्वतःसकलकर्मफलानाम् ।
सिद्धिरस्ति खलु यत्र तदुच्चैः, ध्यानमेव भवनाशि भजध्वम् ॥४॥ दी. खलु-निश्चये, यत्र-यस्मिन् ध्याने सति, 'सर्वतः सकलकर्मफलानां सिद्धिरस्ति' समन्तात् मर्वक्रियाफलानां मिद्धिरस्ति 'सम्प्लुतोदकमिवान्धुजलानां' कूपे जलमिद्विभूमो वहमानोच्छलज्जल निझरणप्रभावतो भवति तथाऽत्रापि ध्यानप्रवाहत एव सर्वकर्मफलसिद्धिः । पाठान्तरेणा 'ध्यानमेव परमार्थनिदानम्' तद् उच्चैानमेव परमपदस्य मूलकारणमिति ॥४॥
॥३९५॥
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अध्यात्म
मार:
- सर्वथाऽऽत्मनि लीनो ध्यानवान् सर्ववाधाविहीनोऽस्ति'बाध्यते न हि कषायममुत्थैः, मानसै नै ततभूपनमद्भिः ।
अत्यनिष्टविषयैरपि दुःखै-ानवान्निभृतमात्मनि लीनः ॥५॥ .टी. ध्यानवान महात्मा निभृतमान्मनि लीन:, 'कषायममुर्मानसर्नहि बाध्यते' क्रोधादि कषायजन्यैर्मनोविकार्न बाध्यते, 'ततभूपनमद्भिः'महद्भि विशाल भूपैर्नमद्भिर्न वाध्यते, 'अन्यनिष्ट. विपयपि दःखः-बलबदनिष्टानुबन्धिन्वेन अत्यन्ताऽनिष्टविषययोगजन्यैस्तीबदुःखैरपि न वाध्यते इति ॥५॥
- शिवशमंगरिष्ठं ध्यानमस्तुस्पष्टदृष्टसुखमम्भृतमिष्टं ध्यानमस्तु शिवशर्मगरिष्ठम ।
नास्तिकस्तु निहतो यदि न स्यादेवमादिनयवाङमयदराडात् ॥६॥ टी. ध्यानपरमबलेन 'म्पर्ण प्रत्यक्ष' मिति प्रत्यक्षतयाऽनुभूनसुखरूपानन्देन मम्यग भृतं ध्यानं, पुनः की.ध्या? शिवशर्मगरिष्टं' अंशतो मोक्षसुखाऽनुभवाऽपेक्षया गुरुवरं ध्यानं, पु. की. ध्या.? 'इष्टं' परमेच्छाविषयमम्तु-पूर्णप्रेमाम्पदमस्तु 'एवमादिनयवाङमयदण्डात' इत्यादिन यर्मितवाणीमयशास्त्रदण्डान , यदि नास्तिकम्तु निहतो न स्यान भवेदान्मनिश्चयी, अर्थाद ध्यानयोगप्रभावतः स्व
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बध्यात्म सार
॥३९७॥
संवेदनात्मकप्रत्यक्षप्रमाणोपलभ्यात्मादिपदार्थोपलब्धिन आत्माऽऽनन्दोऽपर्यादो भवति-पूर्वोक्तदण्डानिहतो नास्तिकोऽपि ध्यानवलादास्तिको भवतीति ॥६॥
___ परमात्मप्रकाशरहस्य घ्यानिनां भातियत्र नार्कविधुतारकदीप-ज्योतिषां प्रसरतां नावकाशः ।
ध्यानभिन्नतममामुदितात्मज्योतिषां तदपि भाति रहस्यम् ।।७।। टीका. यत्र-परमात्मज्योतिपि, प्रमरता-चलता मूर्यचन्द्रतारकदीपकज्योतिषां नाऽवकाशः, 'ध्यानभिन्नतम मामुदिताऽऽन्मज्योतिषा' =ध्यानेन भिन्न-हतमाऽत्माज्ञानरूपं तमो येषां तेषां ध्यानभिन्नतममा. उदितं आन्मनो ज्ञानरूपं ज्योतियेंपो, तेपां-उदितात्मज्योतिषां तद् रहस्यं भाती'ति-तत परमात्मज्योतिपो रहस्यं भामने इति ॥७॥
___- ध्यानमित्र चिरविरहितां प्रशमरति प्रेयसी योजयति - योजयत्यमितकालवियुक्तां, प्रेयसी शमरति त्वरितं यत् ।
ध्यानमित्रमिदमेव मतं नः, किं परै जगति कृत्रिममित्रैः ।।८।। टी. न:-अम्मा, इदं-प्रत्यक्षं ध्याननामकं मित्रमेव मतमिष्टमिच्छाविषयभूतं जगति-लोके
॥३९७॥
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अध्यात्म
सारः
॥३९८॥
किमलं कृत्रिममित्रः परः यद्-यतोऽमितकालवियुक्ता'अनन्तकालतो विरहिणी, शमरतिनामिका प्रेयसींप्रियतमा त्वरितं-विना विलम्बन योजयत्यान्मना सह ध्यानमित्रमिति ॥८॥
-ध्याननामके धाम्नि लभते सुस्वमात्मा'वारितस्मरबलातपचारे, शीलशीतलसुगन्धिनिवेशे ।
उच्छिते प्रशमतल्पनिविष्टो, ध्यानधाम्नि लभते सुखमात्मा ॥१॥ टी. ध्यानरूपगेहे लभते सुखमान्मा, की. ध्या. धाम्नि ? 'वारितस्मरबलातपचारे' वारितः स्मरबलकामबलरूपातपम्य चागे-गनियस्मिस्तत्र, पु. की.ध्या धा. १ शीलशीतलसुगन्धिनिवेशे-शीलमेव शीतलमुगन्धि वस्तु वर्तने तम्य निवेशो-रचना यस्मिस्तत्र, पु. की०या०धा ? 'उच्छ्तेि ' एकाग्रताऽपेक्षया, कीदृश आन्मा? 'प्रशमतल्पनिविष्टः' उपशमनामकमहाशय्यायां निविष्टः-स्थितः, अर्थात ताशविशेषणविशिष्ट ध्यानधाम्नि लभते सुखमात्मेति ॥९॥
--ध्यानधाम्नि स्फुटमात्मन आहूतपूतपरमाऽतिथिपूजा भवति-- 'शीलविष्टरदमोदकपाद्यपातिभागेसमतामधुपकैः । ध्यानधाम्नि भवति स्फुटमात्माहूतप्तपरमाऽतिथिपूजा ॥१०॥
॥३९८॥
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अध्यात्म-15
सार
॥३९॥
टी. शीलनामसिंहासनेन. दम-दन्द्रियदमननामकोदकरूपपाद्येनाऽर्थात पादप्रक्षालनजलेन, केवलज्ञानाधस्तनवर्तिशुद्धिप्रकाप्राप्तमतिज्ञानस्वरूपप्रातिभनामकाजलरूपाध्येण ममतानामकदध्यादिमिश्रितमधुरूपमधुपर्केणाऽर्थाच्छील विष्टग्दमोदकपाद्यप्रातिभाध्यममतामधुपर्कः, आत्माऽभिधानो य आहृनःआमन्त्रितश्च पूनः-पवित्रोऽनिथिविशेषोऽस्ति, तस्य पूजा, ध्यानधाम्नि स्फुटं भवतीति ।।१०।।
___- आत्मपरमात्मनोरभेदकारको ध्याननामकः सन्धिदूतः - 'श्रात्मनो हि परमाऽऽत्मनि योऽभूद. भेदबुद्धिकृत एव भेदः ।
ध्यानसन्धिकदमु व्यपनीय, दागभेदमनयोर्वितनोति ॥११॥ टी. हीति निश्रये, आत्मनो यः परमाऽऽत्मनि भेदज्ञानेन कृत एव विवादो योऽभूत् , परन्तु ध्याननामकसन्धिकारः सन्धिद्तः, 'अमु"-भेदबुद्धिकृतमेव विवादं व्यपनीय-दूरीकृत्य द्राग , अनयोरात्मपरमात्मनोरभेद-भेदाभावमेकत्वं, वितनोति-करोत्ये वेति ॥१२॥
__-मृत्युञ्जयामृतं ध्यान एवास्ति'क्वाऽमृतं विषभृते फणिलोके, कय क्षयिगयपि विधौ त्रिदिवे वा। क्वाऽप्सरोरतिमतां त्रिदशानां, ध्यान एव तदिदं बुधपेयम् ॥१२॥
॥३९
in Eda
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टी० (१) 'विषमते फणिलोके क्वाऽमृतं ?' विषेण भूते नागलोके कुतोऽमृतं ! यतो विषामृतयोअध्यात्म-IAL
रेकर स्थिति विरुद्धेति नामृतसम्भवोऽपि० (२) 'क्व झयिण्यपि विधौ'-क्षयशीलेऽपि चन्द्रे कुतोऽमृतं ? सारः सिताऽसितपक्षयोः क्रमशः क्षयभाजि चन्द्रममि सुधालेशसम्भवोऽपि न यतोऽमृतत्वक्षययोर्विरोधात (३)
'अप्सरोरतिमा त्रिदशानां वा क्षयिणि त्रिदिवे' अप्सरोभी रति-क्रीडां कुर्वतां त्रिदशानां तृतीयदशाविशि
ष्टानां त्रिदिवे-स्वर्गे क्षयशीले कुतोऽमृतत्वमजराऽमरत्वं सम्भवेत् , यदि त्रिदिवेऽमृतं स्यात्तदा म्वर्वधूभिः ॥४०॥
सह रतिकरणाऽनन्तरं त्रिदशानामतृप्ति न स्यात्ततोऽमृतं कुत्राऽस्ति ? इति प्रश्मस्य प्रत्युसरं ग्रन्थकारः करोति यथा 'ध्यान एव तदिदं बुधपेयम्' अर्थात् योगिनामेकाग्रतासहितज्ञानरूपच्यानवता परमप्रियं मादकपानमिव ध्यानरूपाऽमृतपानमस्ति यतः, तत्वानाऽनन्तरं सम्यग् ध्यानिनो मृत्यु जयन्त्येवेति ॥१२॥
- ध्यानजन्यनिश्चलतायामपूर्वमधुररसाऽऽस्वादनम् - 'गोस्तनीषु न सितासु सुधायां नाऽपि नाऽपि वनिताधरविम्बे ।
तं रसं कमपि वेत्ति मनस्वी, ध्यानसम्भवघृतौ प्रथते यः ॥१३॥ ____टी. 'ध्यानसम्भवधृतो' एकाग्रतापूर्वकज्ञानरूपध्यानजन्यनिश्चलतानामकधृतो योऽनुपमो रसः प्रथते-विस्तारं प्राप्नोति, तं-विशिष्टं, कमपि-लोकोत्तरं रसं मनस्वी प्रशस्तमनोजन्यशुमध्यानी, वेत्ति
॥20॥
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गण्यास्थ
सारः
180211
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जानाति नान्यः, तादृशोऽपूर्वमधुररसो न गोस्तनीषु - द्राक्षासु नापि सितासु शर्करासु, नाऽपि सुधायां - अमृने, नापि वनिताsधरबिम्बे सम्भवतीति ॥१३॥
ध्यानस्तुतिनामकाSधिकारस्योपसंहारः -
'इत्यवेत्य मनसा परिपक्वच्यानसम्भवफले गरिमाणम् ।
तत्र यस्य रतिरेनमुपैति प्रौदधामभृतमाशु यशः श्रीः || १४ ||
-
टी० इत्येवंरीत्या पूर्वोक्तं 'परिपक्व ध्यान सम्भवफले' = परिपाकविशिष्टध्यानजन्यफलविषयकं गरिमाणं महत्वं मनसा - हृदयेन, अवेत्य-ज्ञात्वा तत्र = महिमशालिनि ध्याने, यस्य जनस्य, रतिःरागो भवति एनं - ध्यानविषयकरागवन्तमिमं जनं, 'प्रौढधामभृतं ' = विशालतेजोधारिणमाशु यशः श्रीः = कीर्तिलक्ष्मीः उपति=समीपं यातीति० ॥ १४ ॥
( रथोद्धताच्छन्दोऽत्र 'रनरल्गारथोद्धता'
छन्दोऽनुशासने)
इत्याचार्य श्रीमद्विजयलब्धि सूरीश्वर पट्टधराचार्य श्रीमद्विजयभुवनतिलक सूरीश्वरपट्ट्घरभद्रङ्करेण सूरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाssव्यायां टीकायां ध्यानस्तुतिनामकः सप्तदशोऽधिकारः समाप्तः ||६७७ || आत्मनिश्चयनामकोऽष्टादशोऽधिकारः
-
-
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________________
अध्यात्म
सारः
।।४०२॥
- आत्मज्ञानं च मोक्षवम् - "यात्मज्ञानफलं ध्यान-मात्मज्ञानं च मुक्तिदम् ।
थात्मज्ञानाय तन्नित्यं, यत्नः कार्यो महात्मना ॥१॥
टी. ननु किमात्मा, ज्ञानप्रभृतितो भिन्नोऽथवाऽभिन्नोऽस्ति ? अजीवादितोऽप्यात्मा, किं मिनो वा 2 ऽभिन्नोऽस्ति ? इति चेद् व्यवहारनयमतेनाऽऽत्मा, ज्ञानादितो मिन्नोऽस्ति, शुद्धनिश्चयनयमतेनाऽऽत्मा,
ज्ञानादिना सहाऽभिन्नोऽस्ति, अजीवादितो भिन्नोऽस्तीति, अन्यदपि कियज्ज्ञातव्यमत्रोल्लिख्यते (१) द्रव्याथिकनयं मन्यमानेन शुद्धनिश्चयनयेनाऽऽत्मा, पर्यायमयोऽस्ति, सुखमयोऽस्ति, कर्ता च भोक्ता नास्ति इति इति स्वीक्रियते, (२) पर्यायार्थिक-नयं मन्यमानेन चाशुद्धनिश्चयनयेनात्मा, पर्यायवानस्ति, गगादिपर्यायतः सुखादिमानस्ति । कर्ता च भोक्ताऽस्तीति स्वीक्रियते ।
(३) अनुपरितव्यवहारनयमतेनाऽऽत्मा, कर्ममयोऽस्ति, कर्मतः सुखदुःखवानस्ति, पुण्यादिकर्मण: कर्ता च तत्फलभोक्ताऽम्तीति (४) उपचरितव्यवहारनयमतेनाऽऽत्मा, देहमयोऽस्ति, शरीरधनादितः सुखदुःस्ववानम्ति. शरीगदेः कर्ता च भोक्नाऽम्तीति किश्चिज्ज्ञातव्यं विज्ञाप्य श्लोकाऽर्थोऽधुना कथ्यते
टी. 'आत्मज्ञानफलं ध्यानम्'आत्मज्ञानं फलं यस्य तदात्मज्ञानफलं ध्यानमर्थात् प्राक्तनाऽधिकारकथितधम्यशुक्लध्यानत आन्मज्ञानरूपं फल प्राप्यते ध्यानं विनाऽऽत्मज्ञानं न भवति आत्मज्ञानरूपं
४०२॥
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अध्यात्म
सार:
॥४०॥
कार्य प्रनि धHशुक्लध्यानं कारणं भवति, तथाचाऽऽत्मज्ञानं मुक्तिदम्' कृत्स्नकर्मक्षयजन्यस्वम्वरूपाऽवस्थानरूपा मुक्ति ददानीनि मुक्तिदम् , अर्थादात्मज्ञानेन मुक्तिः प्राप्यते, तत्-तस्मात कारणान् मुमुक्षुणा महात्मना आन्मज्ञानाय-आन्मतच्च सम्बन्धिज्ञानम्य हेतवे, नित्यं-नैरन्तर्येण यत्नः-वीर्थोल्लासपूर्वकः प्रकृष्टो यत्नः कार्य-कर्तव्य इति ||2|
- य आत्मानं जानानि तम्य ज्ञानव्यं नाऽन्यदवशिष्यते - 'ज्ञाते ह्यात्मनि नो भृयो, ज्ञातव्यमवशिष्यते ।
अज्ञाते पुनरेतस्मिन् , ज्ञानमन्यन्निरर्थकम् ॥२॥ टी-येनाऽऽन्मा ज्ञातः सर्वाऽऽत्मना तेन सर्व ज्ञातमन्यत किमपि ज्ञातव्यं नाऽवशिष्टमस्ति, पुनरतस्मिन्नात्मन्यज्ञाते सर्वमन्यज्ज्ञातमप्यज्ञातमिवानिष्टकारकत्वात स्वपूर्ण कार्याऽमाधकम् ॥२॥
__ - नवतत्वविषयकज्ञानमपि सम्पूर्णाऽऽत्मज्ञप्तय एव - 'नवानामपि तत्त्वानां ज्ञानमात्मप्रसिद्धये ।
येनाजीवादयो भावाः, स्वभेदप्रतियोगिनः ॥३॥ टी० नवसङ्ख्याकनवानामपि ज्ञानमात्मप्रसिद्धये-आत्मनः प्रकण-सर्वतः सिद्धय एब, यत
॥४.३॥
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अध्यात्म
सार:
॥४०४ ॥
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एकात्मतत्वज्ञप्तये जीवस्य मेदवन्तो— यत्र जीवत्वं नास्ति तानि सर्वाण्यजीवादिरूपाणि तत्त्वानि बोद्धव्यानि, जीवोऽजीवादिरूपेतरेभ्यो भिद्यते, ज्ञानादिचैतन्यवत्त्वादिति समासत आत्मानं सर्वात्मना ज्ञातुमजीवादित - विषयकं ज्ञानमावश्यकमजीवादीनज्ञात्वा जीवस्य पूर्ण स्वरूपमज्ञेयं स्यादेव, 'घटो न पट इति वज्जीवो नाजीवादिरित्यजीवादिभ्य इतरेभ्यो भिद्यते, अजीवादिभेदवान् जीवोऽस्ति, जीवेऽजीवादे भेदोऽस्ति, तस्माद् भेदस्य प्रतियोगिनः (यस्याभाव: स प्रतियोगी) अजीवादयोऽभवन, स्वपदेनाऽजीवादयो ग्राह्याः, तेषां भेदस्य (जीवो नाजीवादय इति भेदस्य ) प्रतियोगिनोऽजीवादयो जाताः, अर्थात्, स्वभेदप्रतियोगित्वेन रूपेणाऽजीवादयो भावा वर्त्तन्तेऽतोऽजीवादि मेदज्ञानपूर्व कमाऽऽत्मज्ञानं कर्त्तव्यमतो नवानामपि तच्चानां ज्ञानमात्मप्रसिद्धये इति वाक्यं व्यवस्थितं सञ्जातमेवेति ॥ ३॥
आत्मपर भेदं तु कश्चन विरलो वेति
-
'श्रुतो ह्यात्मपराऽभेदोऽनुभृतः संस्तुतोऽपि वा 1 निसर्गादुपदेशादा, वेत्ति भेदं तु कश्चन
11811
टी० हीति कल, आत्मनश्च परस्य - देहादिपदार्थस्य अभेदः = आत्मपराऽभेदः, भूतकालाऽवच्छेदेन श्रुतः श्रवणविषयीकृतः, अनुभूतः = अनुभवविषयीकृतः, संस्तुतो वा चिरपरिचितो वा, परन्तु 'आत्मपर - विपयकभेदं' = आत्मनो देहादिः परो भिन्नोऽस्ति देहादिरूपपरत आत्मा, भिन्नोऽस्तीति भेदं, 'निसर्गादुपदे शाद्वा' = स्वभावतोऽथवा गुर्वादिजनोपदेशात्, 'कथन' = कोऽपि विरल आत्मा 'वेत्ति ' = जानाति नान्य इति ॥४॥
||४०४ ।।
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अध्यात्म
सारः
॥४०५॥
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• भेदनयतश्चाभेदनयत आत्मज्ञानं हितावहम्-
'तदेकत्व पृथकत्वाभ्यामात्मज्ञानं हितावहम् 1 वृथैवाऽभिनिविष्टाना-मन्यथा-धी विडम्बना ॥ ५ ॥
टी. तत् तस्मात्कारणात् एकत्वपृथक्त्वाभ्याम् = मेदाभेदाभ्यां भेदप्रधाननयतोऽभेदप्रधानयतश्वा'त्मज्ञानं' = आत्मस्वरूपाऽवच्छिनाऽऽत्मज्ञानं 'हितावहं ' = हितप्रदं कल्याणकार्येव ज्ञेयम्,
अन्यथा = भेदाऽभेद नयपूर्वकमात्मज्ञानं न स्यात्तदा 'वृथैवाऽभिनिविष्टाना' मुधैवैकान्तवादक दाग्रहगृहीता घी' र्ज्ञानं, विडम्बना- कष्टरूपैवेति
अत्रेदम्बोध्य मेषोऽखिलोऽधिकारः प्रायो निश्चयनयदृष्टयाऽऽत्मस्वरूपनिश्चयविषयकोऽस्ति, व्यवहारनयस्त्वात्मानं स्वज्ञानादिगुणेभ्यश्च नारकादिपर्यायेभ्यो भिन्नं मन्यते एतावन्मात्रमपि न परन्तु सर्वाऽत्मसु प्रत्येकं परस्परं भेदमपि मन्यते, व्यवहारनयतो भिन्नं कथयति, निश्चयस्तथाहि - (१) आत्मा, ज्ञानादिपर्यायेभ्यो भिन्नो नास्ति, गुणगुणिनोरभेदाद्, ज्ञानाऽऽत्मनोरैक्यम् (२) एक आत्माऽस्त, अन्याssत्मभ्यो भिन्नो नास्ति यतः स्वरूपं चैतन्यपरसामान्यमेकमस्ति ० व्यवहारनयमतम् निश्चयनयमतम् (१) आत्मा, ज्ञानादिभ्यो भिन्नोऽस्ति (२) आत्मा, अन्याssस्मभ्यो भिन्नोऽस्ति
[१] आत्मा, ज्ञानादिभ्योऽभिन्नोऽस्ति, [२] आत्मा, अन्यात्मभ्योऽभिभोऽस्ति
॥४०५॥।
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क
अध्यात्म
सारः
॥४०६॥
[३] आत्मा, देहकर्माऽजीवपुण्यपापाः | [३] आत्मा, देहकर्माजीवपुण्यपापाश्रव. श्रवसंवरादिभ्योऽभिन्नोऽस्ति
संवरादिभ्यो भिन्नोऽस्ति -ज्ञानादिभ्य आत्माऽभिन्न:‘एक एव हि तत्राऽऽत्मा, स्वभावसमवस्थितः ।
ज्ञानदर्शनचारित्र-लक्षणः प्रतिपादितः ॥६॥ टी. हीति निश्चये, तत्राऽऽत्मनिश्चयाऽधिकारे, निश्चयनयापेक्षयाऽऽत्मा त्वेक एव स्वभावे स्थिरीभृतः, ज्ञान-दर्शनचारित्ररूपलक्षणसम्पन्नः (अत्राऽसाधारणधों हि लक्षणम् ) परमर्षिभिः प्रतिपादितोऽस्ति. ॥६॥
-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपलक्षणानां न भेद आत्मन:"प्रभानैर्मल्यशक्तीनां, यथा रत्नान्न भिन्नता ।
ज्ञानदर्शनचारित्र-लक्षणानां तथाऽऽत्मनः ॥७॥ टी. यथा रत्नात मणितः, स्वभूतरत्नस्य प्रभायाः कान्तिरूपायाः, नर्मल्यस्य-निर्मलतायाश्च ज्वरहरणादिरूपाणां शक्तीनां भिन्नता-भेदो न, तथा ज्ञानरूपलक्षणस्य, दर्शनरूपलक्षणस्य, चारित्ररूप
॥४०६॥
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अध्यात्म सारः
॥४०७॥
लक्षणस्यान्मनः जीवान भेदोऽपि त्वभेदः, यतो लक्षणलक्षणवतोधर्मधर्मिणोरभेदान् ॥७॥
-व्यवहार आत्मलक्षणयो भेदो मन्यतेधात्मनो लक्षणानां च, व्यवहारो हि भिन्नताम् ।
षष्ठयादिव्यपदेशेन, मन्यते न तु निश्चयः ॥८॥ टी. हीनि किल, ' आन्मनो लक्षणानां च भिन्नतां, पिठ्यादिव्यपदेशेन' भेददर्शकषष्ठीविभक्तिप्रयोगेण, व्यवहारनयों मन्यने यथा मम गृहम , अत्राऽऽत्मगृहयोर्मेद इवाऽऽत्मलक्षणयो भेदः, परन्तु शुद्धनिश्चयनयस्त्वात्मलक्षणयोरभेदं मन्यते, व्यवहारस्त जीवस्य ज्ञानं, जीवस्य दर्शनं चारित्रं च व्यवहरति, निश्चयनयरतु आत्पैव ज्ञानं आत्मैव दर्शनं आत्मय चारित्रमिति ब्रूते ॥८॥
___-आत्मतद्गुणयो भेंदो न तात्त्विकः । 'घटस्य रूप मित्यत्रयथा भेदो विकल्पजः ।
श्रात्मनश्च गुणानां च, तथा भेदो न तात्त्विकः ॥९॥ टी० यथा व्यवहारेण कथ्यते यद् 'घटस्य रूपमित्यत्र प्रयोगे षष्ठीविभक्तितो यो घटरूपयोर्मध्ये भेदः सूचितः, विकल्पजन्योऽथवा बुद्धिजन्योऽस्ति, तथाऽऽत्मनश्च गुणानां भेदो विकल्प-मनोजनितो.
॥४०७॥
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अध्यात्म-12
सार:
॥४०८॥
ऽस्ति न ताचिकः, यतः यथा घटरूपयोरभेदोऽस्ति, तथाऽऽत्मगुणयोरमेदोऽस्ति शुद्धनिश्चयस्त्वताचिकं. न मन्यते ॥६॥ . -पडतिभेदेन निश्चयव्यवहाराभ्यामात्मस्वरूपानुभवदर्शनम्
'शुद्धं यदाऽऽत्मनो रूपं, निश्चयेनाऽऽनुभूयते ।
व्यवहारो भिदादारा-नुभावयति तत्परम् ॥१०॥ टी. निश्चयनयेन, यद्पमात्मनः शुद्धमभेदेनाऽनुभूयते, तदेव शुद्धज्ञानादिमयं स्वरूपं, व्यवहारनयो भेदद्वारा, परं-भिन्नं शुद्धज्ञानादिस्वरूपमस्तीत्यनुभवे कारणं भवतीति, आत्मा, ज्ञानादिमयोऽस्तीति निश्चयो मन्यते, आत्मा, ज्ञानादिमानस्तीति व्यवहारो मन्यते इति ॥१०॥
-गुणानां स्वरूपं स्वाऽऽत्मनो न पृथक'वस्तुतस्तु गुणानां तद्-रूपं न स्वात्मनः पृथक ।
श्रात्मा स्यादन्यथाऽनात्मा, ज्ञानाद्यपि जडे भवेत् ॥११॥ टी. वस्तुतस्तु स्वरूपभूता गुणा अथवा गुणानां स्वस्वरूपं स्वाऽऽत्मनः-स्वभृताऽऽस्मद्रव्यतो न पृथग-भिन्नम् , अन्यथा यद्यात्मनः सर्वथा स्वज्ञानादिगुणा मिनाःस्युस्तदान्मा, ज्ञानादिगुणशून्यत्व
४०८॥
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अध्यात्मसार:
॥४०९।।
माप्नुवन अनात्मा स्यान-घटादिवज्जडो भवेच्च ज्ञानाऽऽदयोऽपि, आत्मरूपाधारतः पृथगभृताः मन्तो जडा अथवा जडाश्रया भवेयुः, जडं सचेतनं म्यात . सचेतनो जडो भवेदिति दुर्निवारापनिः स्यात् ॥११॥
-आत्मनःसर्वाऽऽत्मभिः स हैकत्वम्
चैतन्यपरसामान्यात् , सर्वेषामेकताऽऽत्मनाम् ।
निश्चिता, कर्मजनितो, भेदः पुनरुपप्लवः ॥१२॥ टी० यथाऽऽत्मा, जानादिपर्यायरभिन्नोऽस्ति तथाऽऽन्मा पगऽऽन्मभिः मःमहाऽपि चैतन्यरूपपरसामान्यापेक्षया, (शुद्धसंग्रहनयाऽपेक्षया) अभिन्नोऽम्न्येव, तत्तत्कर्महेतुनः सर्वात्मरूपकात्मनि भिन्न २ आत्मा यो मन्यमानोऽस्ति, तन्मन्तव्यं तु व्यवहारनयाऽऽपादिना केवला भ्रान्तिरेवाऽस्ति, अज्ञानम्भितनाटकमिवेति ॥१२॥
- व्यवहारनयाभिप्रेतमात्मनां नानात्वम्'मन्यते व्यवहारस्तु, भूतग्रामादिभेदतः ।
जन्मादेश्व व्यवस्थातो, मियो नानात्वमात्मनाम् ।।१३।। टी० व्यवहारन यस्तु 'भूतग्रामादिभेदतः'=एकेन्द्रियादिसमूह भेदेन जीवानां चतुर्दशभेदत्वं, गति
शा
||४०९॥
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अध्यात्म
मारः
1182011
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चतुष्टय काय पट् केन्द्रियपञ्चकभेदेन जीवानां पञ्चदश- मेदत्वम् च, जन्ममरणादिव्यवस्थां (विविधावस्थां ) कृत्वाssenri मिथो नानात्वमनन्तत्वं मन्यते ॥ १३ ॥
- नामकर्मकृतिजो भूतग्रामादिभेदो न तु स्वभाव:'न चैतन्निश्वये युक्तं भूतग्रामो यतोऽखिलः । नामकर्मप्रकृतिजः स्वभावो नाऽऽत्मनः पुनः || १४ ||
टी० निश्वयनयो व्यवहारमतं न मन्यतेऽतस्तस्यैवं कथनमस्ति यत् - भूतग्रामादीनां भेदत एकाssन्मनोऽनन्तभेदाः पातितास्ते भूतग्रामादयस्तु नामकर्मप्रकृतिभिर्जाताः कर्मस्वभाव एष:, आत्मन एष स्वभाव एव नास्ति, तस्मात् परस्वभावत आत्मनि कश्चिद्भेदः कथं पात्येत ततः, शुद्धात्मा स्वेक एवेति ॥ १४ ॥ - जन्मादिकोsपि कर्मणां हि नियतः परिणामः'जन्मादिकोऽपि नियतः परिणामो हि कर्मणाम् ।
न च कर्मकृतो भेदः स्यादात्मन्यविकारिणि ॥ १४ ॥
टी० किश्च जन्ममरणादिहेतुना, एकस्मिन्नात्मनि नानाभेदाः पातितास्तेऽपि न वास्तविकाः, यतस्ते जन्मादयोऽपि, आयुरादिकर्मणां परिणाम:- विपाकः, एते सर्वे कर्मणां भेदाः सन्तु परन्तु तत्तत्कर्मबलेन कश्चिद विकारो निर्विकारिणयात्मनि भवितु' न शक्यस्तस्मादात्मैक एव ॥ १५ ॥
॥ ४१० ॥
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अध्यात्म सार:
॥४११॥
-कर्मकृतविकृतिमात्मन्यारोप्य ज्ञानभ्रष्टा भ्रमन्ति संसारे'यारोप्य केवलं कर्मकृतां विकृतिमात्मनि ।
भ्रमन्ति भ्रष्टविज्ञाना भीमे संसारसागरे ॥१६॥ टी. आयुरादिकर्मकृतां जन्मादिविकृति विकारविरहित आत्मनि केवलमारोप्य-विकल्प्य, विशिष्टज्ञानाद्भ्रष्टाः, विकागभाववत्यात्मनि विकारविकल्पकल्पनाऽप्यन्याय्या, अतो भीमे-भयङ्करे चतुर्गतिरूपे वा जन्मादिरूपे वा संसारमागरे भ्रमन्ति भ्रमात्मज्ञानजकम महापगधि प्राणिनः ॥१६॥
-अज्ञः कर्मकृतभेषमान्मन्येवाऽभिमन्यते'उपाधिभेदजं भेदं वेत्त्यज्ञः स्फटिक यथा ।
तथा कमकृतं भेद-मात्मन्येवाऽभिमन्यते ॥१७॥ टी. कोप्यज्ञो जनो रक्तपीताऽऽदिवर्णवतां पाटलचम्पकादिपुष्पाणां बहुनिकटत्वसम्बन्धवशाद् धवले म्फटिके रक्तत्वपीतत्वादिवर्ण विकल्पयति, एवमत्रापि स्वभावतो निर्मलताजनितश्वेतवर्ण एव परन्तु पुष्पोपाधिविशेषतो दृश्यमानरक्ततादिवर्ण कल्पते, एवंरीत्या कर्मणा कृतं भेदमज्ञो जन आत्मन्येव कल्पयितु-मोह मूढः कत्तु त्वरते, तथापि कर्माणि, भिन्नानि सन्ति, ततः किमात्मा भिन्नः स्यात् । तत आत्मैक
॥४१॥
१॥
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सारः
एव, अतः किं नारकात्मा, देवाऽऽत्मा, पुरुषात्मा, सीरूपात्मा, देवदत्तात्मा, यज्ञदत्तात्मा इत्यादिका अध्यात्म8 अनेके भेदाः पातयितु शक्याः १ अर्थाद् कर्मकृतभेद आत्मभेदं कत्तुं न प्रत्यल इति ।।१७।।
-उपाधिकर्मजो व्यवहारो नास्त्यकर्मणि
‘उपाधिकर्मजो नास्ति, व्यवहारस्त्वकर्मणः । ॥४१२॥
इत्यागमवचो लुप्त-मात्मवैरूप्यवादिना ॥१८|| टी. 'आत्मवरूप्यवादिना=य आत्मन्यनेकरूपतां मन्यते, तेनात्मरूप्यवादिना, आचारांगमत्ररूपागमवचो लुप्तम् यन 'उद्देशो पासगम्स नत्थि' अर्थात् ; अकर्मण आत्मन उपरि उपाधिरूपकर्मणा जातो देवमानवादिरूपव्यवहागे (शब्दप्रयोगोऽपि) नास्ति निश्चयनयदृष्टया तु, आत्मा, अकर्मा-कमरहितोऽस्ति, तम्मिन्नकर्मण्यात्मनि कर्मजो व्यवहारो न युक्तः । ['उद्देशो पासगस्स नत्थि' उद्दिश्यते नारकादिव्यपदेशेनेत्युद्द शः म 'पश्यकस्य' परमार्थदृशो न विद्यते' आ. लोकविजयाध्ययने षष्ठीद्देशकः) ॥१८॥
-एकक्षेत्रस्थितोऽप्येति नात्मा, कर्मगुणसम्बन्धम्'एकक्षेत्रस्थितोऽप्येति, नाऽऽत्मा कर्मगुणाऽन्वयम् । तथाऽभव्यस्वभावत्वाच्छुद्धो धर्माऽस्तिकायवत् ॥११॥
॥४१
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अध्यात्मसार:
॥४१३॥
टी• यस्मिन्नाकाशप्रदेशे, कर्मपरमाणुरस्ति, तस्मिन्नेवाकाशप्रदेशे, आत्माऽप्यस्ति, नथापि कर्मणा जायमानतत्तद्पादि-गन्यादिरूपधर्माऽत्मककर्मगुणस्यान्वयं-मम्बन्धं 'नत्यान्मा'-नाऽऽत्मा, प्राप्नोति यतः 'तथाऽभव्यस्वभावत्वान्'=म्वस्वरूपतः परस्वरूपे तम्याऽऽत्मनः परिणमनस्वभावो नास्ति तस्मात् कारणाद् धर्माऽस्तिकायवत, शुद्ध एक आत्माऽस्ति-स्वभावाऽव्ययवानम्ति, यथा जीवपुद्गलाभ्यां धर्माऽस्तिकायः संयुक्तःसन जीवपुद्गलगुणाऽन्वयं न करोति तथाऽत्रापि प्रकृतेऽप्यात्मनः कर्मसम्बन्धे ज्ञेयम् , तथाऽभव्यस्वभावाऽऽत्माऽस्तीत्यपि ज्ञेयम् ॥१६॥
-व्यवहारवादी त्वेकमात्मानमनेकत्वेन पश्यति'यथा तैमिरिकश्चन्द्र-मप्येकं मन्यते द्विधा ।
अनिश्चयकृतोन्मादस्तथाऽऽत्मानमनेकधा ॥२०॥ टी० यथाऽऽकाशे, तैमिरिकः-तिमिराख्यनेत्ररोगी एकमेव, चन्द्रं सन्तमनेकं चन्द्रदयं पश्यति, तथाऽऽत्मनि विषये यथार्थनिश्चयाभावबलतो जायमानोन्मादहेतुना, एकमेवाऽऽत्मानं व्यवहारवादी वनेकत्वेन मन्यते इति ॥२०॥
-सदृशताया अस्तित्वमेकमविरुद्धमात्मनि
॥४१३॥
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अध्यात्म
सार:
॥४१४॥
'यथाऽनुभूयते ह्य के स्वरूपाऽस्तित्वमन्वयात् ।
सादृश्याऽस्तित्वमध्येक-मविरुद्धं तथाऽऽत्मनः ॥२१॥ टी० यथा व्यवहारनयेनाऽपि देवदत्तेन बाल्य-कौमार्यवार्धक्यादिरूपासु भिन्नभिन्नावस्थासु पृथक्त्वं नानुभूयते स्वमेकमनुभूयते अर्थात् सर्वास्ववस्थासु देवदत्तोऽहं देवदत्तोहमिति प्रतीयते अथवा यथाऽत्रतासु सर्वाऽवस्थासु अन्वयात्' =आत्मादिसम्बन्धसभावात् , स्वरूपाऽस्तित्वमेकमेवाऽनुभूयते, तथा सर्वाऽऽत्मसु' आत्मत्वस्य-चैतन्यरूपपरसामान्यस्य, अन्वयसम्बन्धभावात , तेषां सर्वेषां सादृश्यस्य-सदृशताया अस्तित्वमपि विरोधाभावपूर्वमेकमनुभूयते प्रतीतिविषयीभवत्येव ॥२१॥
-दर्शयत्येकतारत्नं सतां शडनयमित्रम 'सदसद्धादपिशुनात् , सङ्गोप्य व्यवहारतः ।
दर्शयत्येकतारत्न, सतां शुद्धनयः सुहृत ॥२२॥ टी. 'सदसद्वादपिशुनाद्व्यवहारतः' आत्मा, कथंचित् सन्नस्ति, आत्मा कथंचिदसन्नस्ति, भेदाभेदवादसूचकाद् , उपचरिताऽनुपचरितव्यवहारनयतः सकाशात , दग्तो नीत्वा, शुद्धनिश्चय- X४१४॥ स्वरूपं मित्रं, आत्मनः ( चैतन्याऽपेक्षया) एकतारूपं रत्नं सतां दर्शयत्येवेति ॥२२॥
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सारः
॥४१५॥
भिन्नैः पर्याय जहाति नैकत्वमात्मद्रव्यं सदाऽन्वयि
ननारकादिपर्यायै-रव्युत्पन्नविनश्वरैः ।
भिन्ने जहाति नैकत्व-मात्मद्रव्यं सदाऽन्वयि ॥२३॥ टी. वरं सन्त्वान्मनो नरनारकादयः पर्यायाः, ते पर्याया उत्पन्नविनश्वरास्तथाऽपि तेपा पर्यायाणां भिन्नत्वेनाऽऽत्मा, भिन्नो न भवति, स्वगतमेकत्वं न जहाति, अजहदेकत्ववानात्माऽस्ति, यतो नरनारकादिपर्यायपु आत्मद्रव्यस्य सदाऽन्वयित्वेन-नित्यसम्बन्धित्वेनैकत्वमजहन सिद्धम् ॥२३॥
-नरनारकादिभावेषु एक एवाऽत्मा निरञ्जन:यथैकं हेम केयूरकुगडलादिषु वर्तते ।
नृनारकादिभावेषु, तथाऽऽत्मैको निरञ्जनः ॥२४॥ टी० यथा सुवर्णस्य विकारेषु-केयूग्कुण्डलादिषु हेम-सुवर्णमेकं वर्तते, तथा नरनारकादिभावरूपेषु पर्यायपु, निरञ्जन:-निर्विकार आत्मा त्वेक एवाऽवतिष्ठते, ते पर्याया भिद्यन्ते तद्भदेनाऽऽत्मा, न भिद्यते एवेनि ॥२४॥
म, क्रियास्वभाव, यदात्मा त्वजस्वभाववान
॥४१५॥
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अध्यात्म
सार:
॥४१६॥
'कर्मणस्ते हि पर्याया नाऽऽत्मनः शुद्धसाक्षिणः ।
कर्म क्रियास्वभावं यदात्मात्वजस्वभाववान् ॥२५॥ टी० हीति निश्चये, तेन्नरनारकादिपर्यायाः, 'कर्मणः कर्मोपादानकारणजन्याः, आत्मा तु शुद्धसाक्षिरूपोऽस्ति, तस्मादेते पर्याया नाऽऽन्मनः शुद्धसाक्षिणः, यत्-यतः 'कर्म, क्रियास्वभावं' क्रियेव स्वभावो यस्य तत् कर्म, क्रियास्वभावमर्थाद् भिन्न भिन्नपर्यायोत्पादकरणरूपक्रियायाः स्वभावः कर्मणोऽस्ति, 'आत्मात्वजस्वभाववान =सर्वथा क्रियारूपजन्मादानाभावरूपस्वभाववानात्माऽस्ति, अर्थात् कर्मणः पर्याया नाऽऽत्मनो भवितुमर्हाः, तस्मात कर्मपर्यायस्थभेदेनाऽपि, नाऽऽत्मनि भेदः पात्यते इति ॥२५॥
-भवसगः कयं 'नाऽणूनां कर्मणो वाऽसौ, भवसर्गः स्वभावजः ।
एकैकविरहेऽभावान्न च तत्त्वाऽन्तरं स्थितम् ॥२६॥ टी. नन्वात्मसम्बन्धं विना केवलकर्मणा जन्मरणादिः कथं घटेतेति चेन्नैष जन्ममरणादिरूपो यः मंमारोऽस्ति स केवलकर्मपरमाणक्रियास्वभावेन जनयितु न शक्यते, तथा जीवस्वभावमात्रणाऽपि न जनयितु शक्यते यतो द्वयोर्मध्ये एकस्याऽपि विरहे संसारोऽसम्भवतः, तस्माद् द्वयोः संयोगेनैव संसारो
॥४१६॥
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मध्यात्म-10
सारः
॥४१७॥
त्पादः, तथाऽपि न च तच्चाऽन्तरं स्थितम्'जन्मादिसंसानं प्रति कर्पगरमाणजीवयोः संयोगः कारणमत एव कर्मजीवयोः संयोगाद् भिन्नं तत्त्वान्तरं-द्वितीयं तत्वं-पृथकतचं नास्त्येव जैनप्रवचने, तच्चान्तरमान्यतायां तु निष्क्रियचेननेऽपि क्रियास्वभावत्वमापयेत, एतद्वस्तूदाहरण नागामिनि श्लोके माध्यत इति ॥२६॥ ___-आत्मकर्मसंयोगजे संसारेऽपि, आत्मनि संसारोत्पादिकाक्रियाया असिन्डि:
'श्वेतद्रव्यकृतं श्वैत्यं, भित्तिभागे यथा द्रयोः ।
भात्यनन्तर्भवच्छून्यं, प्रपञ्चोऽपि तथेक्ष्यताम् ॥२७॥ टी० यथेत्युदाहणे, भित्तिभागे श्वेतद्रव्यरूपसुधाकृतं वत्यं-धवलता, द्वयो-भित्तिभागे च सुधायां दृश्यते, यतः सुधाया भितिभागेन सह संयोगो जातस्तथाऽपि मा धवलता भित्तिभागस्य न भवति, भित्तिगता मा धवलताऽविहिताऽपि, सुधाया धवलता भित्तो, या, दृश्यते, सा, भ्रमाऽस्मिकाऽस्ति, तथाऽऽत्मना मह कर्म संयोगो जातोऽस्ति. अती या संसारोत्पादिका क्रिया जाना, मा क्रिया, केवलकर्मणोऽस्ति, (यथा 'धवलता, केवलसुधायाः एव) आत्मनस्तु नास्त्येव एवमेवाऽऽत्मकर्मसंयोगः, 11॥४१७॥ संसारोत्पादकोऽस्ति, तथाप्यात्मनि संसारोत्पादिका क्रिया न सिद्धयतीति ॥२७।।
42
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अध्यात्मसार:
॥४१८॥
-बितीयमुदाहरणम्'यथा स्वप्नाऽवबुद्धोऽर्थो, विबुद्धेन न दृश्यते ।
व्यवहारमतः सर्गो, ज्ञानिना न तथेक्ष्यते ॥२८॥ टी. यथा स्वप्नमध्ये दृष्टोऽर्थः, विबुद्धेन-जाग्रता न दृश्यते-न चक्षर्गोचरतां याति, 'व्यवहारमतः सर्गः'-सुषुप्ताऽवस्थातुल्यायो व्यवहारदृष्टौ यः संसार आत्मनि दृश्यते स जाग्रदयस्थातुल्यायां निश्चयदृष्टौ ज्ञानिना न तथेक्ष्यतेऽपि तु तस्याऽऽत्मा कर्ममुक्तः शुद्धस्वरूपमयो भासते, वस्तुस्थितिरेषेव ॥२८।।
-तृतीयमुदाहरणम्मध्याहने मृगतृष्णायां, पयःपूरो यथेक्ष्यते ।
तथा संयोगजः सर्गो, विवेकाख्यातिविप्लवे ॥२१॥ टी. निदाघे मध्याहने रविकरनिकरसम्बन्धानन्तरं दूरस्थग्णभूमो-मृगतृष्णायां पयःपूरो यथेक्ष्यते, तथा विवेकाख्यातिविप्लवे सति-विवेकामावरूपाज्ञानोत्पाते जाते सति, जीवकोभयक्रियासम्बन्धेन जानोऽयं मंमार इति भ्रमो जायते, वस्तुतः शुद्धनिष्क्रियजीवेन संसारोत्पादो न भवतीति ॥२९॥
- चतुर्थमुदाहरणम्
॥४१८॥
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अध्यात्मसारः
॥४१९॥
'गन्धर्वनगरादीना-मम्बरे डम्बरो यथा ।
तथा संयोगजः सर्गो विलासो वितथाऽकृतिः ॥३०॥ टी० यथा सायं समये गगने मेघमालानिष्पनगन्धर्वनगरादीनामाडम्बर:-आभासो दृश्यते, स भ्रमात्मकः, बस्तुतो गन्धवनगरादिर्नास्ति, तथा संयोगजःसर्गः-संसारः (सर्वो) बिलामः-लीलाम्वरूपः, वितथाऽऽकृतिः मिथ्याऽऽकारमयोऽस्तीति ॥३०॥
- इति शुद्ध नयाऽऽयत्तमेकत्वं प्राप्तमाऽऽत्मनि'इति शुद्धनयाऽऽयत्त-मेकत्वं प्राप्तमात्मनि ।
अंशादिकल्पनाऽप्यस्य, नेष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥३१।। टी० इत्येवं शुद्धनिश्चयनयेन सिद्धं भवति, यद् ‘आत्मनि ज्ञानादेश्चाऽन्यात्मनां यो भेदो व्यवहारनयेन मतोऽस्ति स भ्रान्तोऽस्ति, आत्मनि तु ज्ञानादेश्चाऽन्याऽऽत्मनामेकत्वमेव प्राप्तं भवति, किञ्चेष नयस्तु पूर्णस्वरूपमेव स्वरूपत्वेन वदन वर्ततेऽतोऽस्याऽऽत्मनः प्रदेशरूपांशादिकल्पनाऽपि 'नेष्टा' =न सम्मतिविषयीकृतेनि शुद्धनयस्तु पूर्णवाद्येव भवतीति ॥३१॥
॥४१९॥
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अध्यात्मसारः
॥४२०॥
-शुद्धनया आत्मानं प्रत्यगज्योतिषमाहुः'एक श्रात्मेति सूत्रस्या-प्ययमेवाशयो मतः ।
प्रत्यगज्योतिषमात्मानमाहुः शुद्धनयाः खलु ॥३२॥ टी. श्रीस्थानांगसूत्रेऽपि यदुक्तं 'एगे आया' अर्थादात्मा त्वेक एवाऽस्तीन्यस्य सूत्रस्याऽप्यय मेवा ऽऽशयो मतः, खलु-निश्चये, शुद्धनया:-निश्चयनयविशेषशुद्धसंग्रहनयाद्या बन्धमोक्षादिशून्यशुद्धरूपप्रत्यगज्योतिषमात्मानमेव प्रतिपद्यन्ते, एतद्विनाऽऽत्मनः स्वरूपं नास्तीत्येतेषां मतममस्तीति ॥३२॥
-हे भगवन्नात्मन् प्रसीद प्रकाशय शुद्धरूपम्'प्रपञ्चसञ्चयक्लिष्टा-न्मायारूपाद बिभेमि ते ।
प्रसीद भगवन्नात्मन् , शुद्धरूपं प्रकाशय ॥३३॥ टी० ग्रन्थकारः श्रीमान स्वमात्मानं प्रार्थयते, यद् 'भो भगवन्नात्मन मयि प्रसीद-प्रसयो भव, तेतव, संमागत्मकप्रपश्चसश्चयेन 'क्लिष्टात' क्लेशविशेषमहितात , कपटात्मकमायास्वरूपादहं विमेमिभयवान भवामि, तम्मात् कारणात भवन्तं विज्ञपयाम्यहं मो पूज्यरूप भो भगवन भवतः शुद्धं-कर्मानाविलं मौलिकस्वरूपं प्रकाशय-प्रादुष्कृतं कुरु कुरु ॥३३॥
॥४२०॥
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अध्यात्मसार:
॥४२॥
- अथाऽऽगामिषु श्लोकेषु व्यवहारनयसम्मतं, आत्मनो देहकर्मधन पुण्यादिभिः सहाऽभिन्नत्वमस्ति, तन्निराकृन्य देहादिभिः सहान्मनः पृथकत्वं साधयितु निश्चयनयः सज्जो भवति, अस्मिन निश्चयनयमतप्रतिपादने शेषोऽधिकारः पूर्णा भविष्यति
व्यवहारनयसम्मतदेहेन सहात्मन एकत्वमण्डनम्'देहेन सममेकत्वं, मन्यते व्यपहारवित् ।
कथञ्चिन्मूर्नतापत्ते वेदनादिममुद्भवात् ॥३॥ टी. व्यवहारनयः- व्यवहारवित्'व्यवहारनयवेत्ता, देहेन सहात्मन एकत्वं मन्यते, अर्थाद् व्यवहारनयः देहेन सहाऽऽन्माऽभिन्नोऽस्ति, यतो यदा देहे दण्डादिना घातो लगति तदा तज्जन्यवेदनाऽऽ. त्मन्युद्भवति, यत्र वेदनादेरुद्भवो भवति, तत्र मृततैव स्यात , अमूर्तता तु नैव, एबमात्मनि कथंचिन्मूसंता भवेच्च तन्मूत्तता हेतुनाऽऽन्मा देहेन महाऽभिन्नो मन्तव्यः, तथाप्रतिपत्तिं विनाऽऽत्मनि मृतता, नागच्छेदिति ॥३४॥
-व्यवहारसम्मतकथं चिन्मूर्ततां निश्चयः खण्डयति'तनिश्चयो न सहने, यदमूर्ती न मूर्त्तताम् । अंशेनाऽप्यवगाहेत, पावकः शीततामिव ॥३५।।
।४२१॥
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अध्यात्मसार:
॥४२२॥
टी. 'तनिश्चयो' आत्मनः कथंचिन्मूर्ततां निश्चयनयो न सहते निश्चयो ब्रूते-यतोऽमृर्तता आत्मा कदाचिदंशेनाऽपि मूर्ततां 'नावगाहेत'-न गच्छेत् , 'इव'-यथा पावकोऽग्निः, अंशेनाऽपि शीततां नावगाहेत-न गच्छेत्तथाऽत्रापि ज्ञेयम् ॥३५॥
-आत्मा मूर्त इति भ्रमः'उष्णस्याऽग्नेर्यथा योगाद् , घृतमुष्णमिति भ्रमः।
तथा मूर्ताऽङ्गसम्बन्धा-दात्मा मूर्त इति भ्रमः ॥३६॥ टी० यथोष्णस्याऽग्ने योगाद्-संयोगात , 'उष्णं घृत' मिति भ्रमः-भ्रान्तिः, तथा 'मृर्ताऽङ्गसम्बन्धात्'= रूपबदेहमयोगसम्बन्धात , मूर्त:-रूपी, आत्मा-जीव इति भ्रमः-भान्तिरूपं मिथ्याज्ञानमिति ॥३६॥
-आत्मनि मूर्तलक्षणस्याऽसंभव:'न रूपं न रसो गन्धो, न न स्पर्शो न चाऽऽकृतिः ।
यस्य धर्मो न शब्दो वा, तस्य का नाम मूर्तता ॥३७॥ टी० यस्य-आत्मनः सकाशे, सर्वथा 'न रूप-रूपमात्राभावः, 'न रसः' रसगुणपर्यायाभावः, 'न गन्धः गन्धगुणपर्यायाऽभावः, 'न स्पर्शो' स्पर्शगुणपर्यायाभावः, 'न चाकृतिः आकारमात्राभावः,
॥४२२॥
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जध्यात्ममा:
॥४२॥
(न धर्मः' मूर्तनिष्ठधर्मरूपमूर्त्तताम्वभावाऽभावः, अथवा मूर्तधर्मविशेषशब्दाभावः, 'तस्य का नाम मृर्तता' तस्याऽऽन्मनः सर्वथा रूपित्वाभावेनाऽमृर्त्तताऽस्ति ॥३७॥
-यद्रूपं स्वप्रकाशं तस्य का नाम मूर्ततादृशाऽदृश्यं हृदाग्राह्य, वाचामपि न गोचरः ।
स्वप्रकाशं हि यद्रूपं, तस्य का नाम मूर्तता ॥३८|| टी. 'दृशाऽदृश्य' चर्म चक्षुषा न दृश्यमानम् , 'हृदाऽग्राहयं =मनसा ग्रहणाऽयोग्यं 'वाचामपि न गोचरः' शब्दविशेषरूपवचनानामपि न विषयः, 'हीति निश्चये 'यद्रपं'-यस्यात्मनो रूपं-सहजं स्वरूपं, स्वप्रकाशं स्वम्य स्वरूपस्य वा प्रकाशो यत्र तद्रपं-स्त्रस्वामिकज्ञानप्रकाशं, स्वरूपं परमज्ञान--ज्योतिर्मयोऽयमात्माऽस्ति, तस्याऽऽत्मनः का नाम मर्नता-पुद्गलता ? अर्थात्तस्य ज्ञानात्मकस्याऽऽत्मनो नो रूपिता संभवतीति ॥३८॥
-किंविशिष्टोऽयमात्मास्तीति चेत् स विशेष्यते'श्रात्मा सत्यचिदानन्दः, सूक्ष्मात्सूक्ष्मः परात्परः । स्पृशत्यपि न मूर्त्तत्वं, तथा चोक्तं परैरपि ॥३॥
॥४२३॥
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अध्यात्म
सार:
॥४२४||
टी. कीदृशोऽयमात्मा =अयमात्मा, सत्योऽस्ति-कालत्रयाऽवच्छेदेनास्तित्ववानत एव सत्योनित्योऽस्ति पु. की. आ. इति चेच्चिद्रपोऽयमात्मा, सम्यकसम्पूर्णकेवलज्ञानमयोऽयमात्मा, पु. की. आ. इति चेदानन्द:-पूर्णानन्दमयोऽयमात्मा, पु. की. आत्मेति चेत् 'मूक्ष्मात् सूक्ष्मः' सर्वसूक्ष्मपदार्थेभ्यः सूक्ष्मः, यस्मात परतः कोऽपि सूक्ष्मो नास्ति, सर्वश्रेष्ठसूक्ष्म इति यावत् पु० की. आत्मेति चेत् 'परात्परः = सर्वोत्कृष्टेभ्योऽप्युत्कृष्टः-उत्कर्षाऽऽश्रयः, एतादृश आत्मा, मूत्वं-रूपित्वं, न स्पृशत्यपि-गच्छत्यपि, 'तथा चोक्तं परेरपि तथा च भगवद्गीतायां व्यासमुनिना यदुक्तं तदागामिश्लोके कथ्यमानमस्ति ॥३९॥
-भगवद्गीतोक्तोऽयं श्लोकः'इन्द्रियाणि परागयाहु-रिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसोऽपि परा बुद्धि-यो बुद्धः परतस्तु सः ॥४०॥ टी. शरीरमपरमश्रेष्ठमस्ति, ततः शरीरत इन्द्रियाणि पराणि-श्रेष्ठान्याहुः, इन्द्रियेभ्यः चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियेभ्यः, मनः. परं-श्रेष्ठं, 'मनसोऽपि-अन्तः करणतोऽपि बुद्धिः, परा-श्रेष्ठा, 'यो बुद्धेः परतस्तु सः तच्चविचारणफलवत्या बुद्धेः परः श्रेष्ठो योऽस्ति स आत्मैव इदमत्र हृदयम्-शरीरस्योपरीन्द्रियाणां मत्ताऽम्ति, इन्द्रियाणामुपरि मनसः स्वामित्वमस्ति, मनस उपरि बुद्धरधिकारोऽस्ति, बुद्धेपरि शासनमान्मनो विद्यते, एवं सर्वोपरिसत्ताधीश आत्माऽस्ति, अस्याऽऽत्मनः शासकसत्तामनुभृय, आत्मानं शान्तं
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४२४॥
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अध्यात्म
सार:
॥४२५॥
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वाय साधकेन जगद्विजयिस्ववैरिस्मरराजो विजेतव्य एवेति ॥४०॥ - पश्यत्याश्चर्यवज्ज्ञानी वदत्याश्चर्यवद्वचः-'विकले हन्त लोकेऽस्मिन्नमूर्ते मूर्त्तताम्रमात् । पश्यत्याश्वर्य वज्ज्ञानी, वदत्याश्चर्यवदवचः
॥४१॥
टी. हन्तेनि खेदे, ‘विकले लोकेऽस्मिन् ' = विवेकरहिते संसारेऽस्मिन् 'अमूर्त्ते मूर्त्तताभ्रमात् ' -अरूपि - यात्मनि मृत्ताया भ्रमाद् भ्रान्तितः अमृर्त्ताऽऽत्मनि मूर्त्तताभ्रान्ति ज्ञानी, 'आश्चर्यवद्- आश्चर्य समानां पश्यति जानाति, शृणोतीति यावद्, ज्ञानी, आश्चर्यतुल्यं वचनं 'अहो अहो अमूर्त्ताऽऽत्मनि मृर्त्तताया भानं कीदृशं विचित्रमिति वदति । (आश्चर्यवद् आश्चर्यम् अदृष्टपूर्वम् अद्भुतम् अकस्माद्दश्यमानं तेन तुल्यम् आश्चर्यवद् आश्चर्यम् इव एनं आत्मानं पश्यति कश्चिद् । आश्चर्यवद् एनं वदति तथा एव च अन्यः । आश्चर्यत्रत् च एनम् अन्यः शृणोति । श्रुत्वा दृष्ट्वा उक्त्वा अपि एनं वेद न च एव कश्चित् । अथवा यः अयम् आत्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्यो यो बदति यः च शृणोति सः अनेकसहस्रेषु कश्चिद् एव भवति, अनो दुध आत्मा इति अभिप्राय: ॥ भ.गी. शाङ्करभाष्यम् २ - २६) । ४१॥ - वेदना: पि न मूर्त्तत्वनिमित्ता स्फुटमात्मन: -
॥४२५॥
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अध्यात्म
सारः
।
॥४२६॥
वेदनाऽपि न मूर्त्तत्व-निमित्ता स्फुटमात्मनः ।
पुद्गलानां तदापत्ते, किन्तशुद्धस्वशक्तिजा ॥४२॥ ___टी० व्यवहारनयेन यदुक्तं 'आत्मनो वेदनादिविषयानुभवस्तस्मादात्मनि मूर्तता कल्पनीयेति तन्निश्चयो न सहतेऽपित वक्ति च 'मृतता भवेत्तदेव वेदनादिविषयकोऽनुभवो भवेदेवेत्याग्रहश्चेत्तदा परमाण्वादिपुद्गलेष्वपि मूर्तताऽस्ति तदा तेषु पुद्गलेषु. आघातादौ जायमाने वेदनादिकानुभवस्यापत्तिरागमिष्यति, अर्थात् सुखादिविषयकानुभवमात्रेणात्मनि न मृर्त्तता मन्तव्या
नन्वेवं सत्यात्मनि सुखादिवेढनाया अनुभवः कुतो भवतीति चेत किन्त्वशुद्धस्वशक्तिजा' अशुद्धा या स्वस्यात्मनः शक्तिस्तजन्या अशुद्धस्वशक्तिजा वेदना अर्थात् कर्मसंयोगोपाधिवशाद्, विशुद्धशक्तिरूपशुद्धोपयोगो मलिनः सज्जातस्ततोऽशुद्धस्वशक्तितो वेदनाया अनुभवो भवति, परन्तु मुर्तत्वाधीनो नो वेदनाऽनुभव इति । ४२॥
-स्वयं परिणमत्ययमात्मवेदानाम'अक्षद्वारा यथा ज्ञानं, स्वयं परिणमत्ययम् । तथेष्टानिष्टविषय-स्पर्शद्वारेण वेदनाम् ॥४३।।
॥४२६॥
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अध्यात्म
सार:
॥४२७॥
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टी० यथा, 'अक्षद्वारा 'इन्द्रियद्वारा जायमानं घटादिविषयकप्रत्यक्षज्ञानमात्मा, स्वयमात्मनि परिमयति 'घटादिज्ञान परिणामवानहमिति -
तथा, इष्टानिष्टाः - अनुकूल प्रतिकूला ये विषयास्तेषां म्पद्वारेण प्राप्तिद्वारा जायमानामनुभवरूपां वेदनामात्मा स्वयमात्मनि परिणमयति यथा 'सुखादिविषयका नुभव वेदना परिणाम परिणतोऽहमिति
अत्र ज्ञानादिपरिणामे शुद्धस्वशक्तिः कारणम् वेदनादिपरिणामे शुद्धस्वशक्तिः कारणम् इत्यन्तरं विज्ञेयम् अर्थाद् वेदनानामक परिणामं प्राप्तवन्यात्मनि, वेदनानिमित्त मूर्तताया मतं एगस्तमिति ॥ ४३ ॥ - विपाककालप्राप्त्यनन्तरं वेदनापरिणाम्यात्मा
विपाककालं प्राप्याsसौ, वेदनापरिणामभाक् ।
"
मूर्त निमित्तमात्रं, नो, घटे दवदव ||२४||
टी. यदा तत्तद्वेदना परिणाम भोगकालरूपविपाककाल आयाति तदा तदा तत्तद्वेदना परिणाममात्मा, वेदयते, अस्यां वेदनायां मृर्त्तद्रव्यरूपं कर्म, निमित्तमात्रमस्ति, परन्तु तत्कर्मात्मना सकत्वं प्राप्तमित्युक्त्वा कर्मणो वेदनाभोगस्याऽन्वयि - उपादानकारणं कर्म कथयितुं न शक्यते । यथा घटं प्रति मृत्तिकोपादानकारणमवश्यमस्ति, किन्तु दण्ड उपादानमन्वयिकारणं नास्ति, तथा मूर्त्तकर्माऽपि वेदना भोगं प्रति उपादानमन्वयिकारणं नास्त्येवेति ॥ ४४ ॥
॥४२॥
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________________
अध्यात्म सार:
॥४२८॥
-वेदनाया विशेषार्थ:ज्ञानाख्या चेतना बोधः, कर्माऽऽख्या दिष्टरक्तता।
जन्तोः कर्मफलाऽऽख्या सा, वेदना व्यपदिश्यते ॥१५॥ टी० जन्तोरात्मनो ज्ञानाऽऽख्या-ज्ञानलक्षणा चेतना बोध इति व्यपदिश्यते, आत्मनो द्विष्टरक्ततारागद्वेषरूपा 'कर्माऽऽख्या कर्मलक्षणा चेतनेतिकथ्यते जीवस्य या कर्मकलाख्या-कर्मफलनामिका चेतनाऽस्ति मा वेदनारूपेण व्यपदिश्यते-व्यवहियते अर्थाज्जीवस्य तृतीय भेदरूपा चेतनव वेदनोच्यते तस्माद् वेदनाया उद्भवहेतु नाऽऽत्मनि मृर्त्तत्वकल्पना कपोलकल्पनामात्रैव ॥४५।।
-नाऽऽत्माऽमूर्त्तत्वं चैतन्यं चातिवर्तते'नाऽऽत्मा तस्मादमूर्त्तत्वं, चैतन्यं चातिवर्तते ।
श्रतो देहेन नैकत्वं, तस्य मूर्तेन कहिंचित् ॥४६॥ . टी. आत्मा, अमूर्त्तनामुल्लध्य मृत्तों न भवति, तथा चेतन्यमुल्लध्य कदाचिञ्जडदेहरूपो देहादभिः नो न भवति तस्मादेवाऽऽत्मा, मृाद दहाद मिनोऽस्ति. अतः कुत्राऽपि-कदाचिन्मलेन देहेन सममेकत्वं न तस्याऽऽत्मनः, कदापि तादृशमन दहेन सह तस्यात्मनोऽभिन्नता-तादात्म्यं न सम्भवतीति ।।४६।।
||४२८॥
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अध्यात्म
M४२९॥
-सन्निकृष्टविप्रकृष्टपदार्थेभ्यो भिन्नताऽऽत्मनःसन्निकृष्टान्मनोवाणीकर्मादेरपि पुद्गलात् ।
विप्रकृष्टाद् धनाऽऽदेश्व, भाव्यैवं भिन्नताऽऽत्मनः ॥४७॥ टी. 'आत्मनः सन्निकृष्टाव-ममीपस्थान पुद्गलात-मर्तपुद्गलपरिणामात् , मनसो, वचसः, कर्मादेरपि भिन्नताऽऽत्मनो भाव्या, तथा चाऽऽस्मनो विप्रकृष्टात-दरस्थाद् धनादेः पुद्गलपरिणामाद् भिन्नताऽऽत्मनो भाव्येति ॥४७॥
-गुणभेदेन पुद्गलाऽऽत्मनो भेंदो दर्यते'पुद्गलानां गुणो मूत्ति-रात्मा ज्ञानगुणः पुनः ।
पुद्गलेभ्यस्ततो भिन्नमात्मद्रव्यं जगुजिनाः ॥४॥ टी० 'पुद्गलानां गुणो मूर्तिः'-ये मनोवर्गणाद्याः पुद्गलाः सन्ति तेषां गुणा मूर्तिः रूपरसगन्धस्पर्शादिरूपा मूर्तिरुच्यते 'रूपिणः पुद्गलाः' रूपिता-रूपं-पूर्तत्वं-मतिः-पुद्गलत्वमित्यादयः पर्यायशब्दाः । 'पुनरात्मा ज्ञानगुण:' =ज्ञानं गुणो यस्य म आत्मा ज्ञानगुण उच्यते, आत्मनो गुणो रूपादि स्त्येव, परन्तु ज्ञानं गुणोऽस्त्येव, ततः तस्मात्कारणात , पुद्गलेभ्यः परमाणस्कन्धतत्परिणामेभ्यः 'भिन्नमात्म
॥४२९॥
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अध्यात्म-1 सार:
॥४३०॥
द्रव्यं जगुजिंनाः'=गुणभेदप्रयुक्तपुद्गलद्रव्यभित्रमात्मात्मनामकद्रव्यं, जिनाः-रागद्वेषजेतारः सर्वज्ञाः कथितवन्त इति ॥४८॥
-धर्मास्तिकायात्मद्रव्ययो गुणभेदेन भेदः'धर्मस्य गतिहेतुत्वं, गुणो ज्ञानं तथाऽऽत्मनः ।
धर्माऽस्तिकायात्तद्भिन्न-मात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥४॥ टी० धर्माऽस्तिकायस्य गतिहेतुत्वं वर्त्तते तथाऽऽत्मनः गुणो ज्ञानमस्ति, यथा समस्तधनादिरूपाजीवद्रव्यपगलद्रव्यत आत्मद्रव्यं भिन्नमस्ति, तथा धर्मास्तिकायद्रव्याद् भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ।।४६॥
-अधर्माऽस्तिकायाऽऽत्मद्रव्ययो गुणभेदेन भेदः-- 'अधर्मे स्थितिहेतुत्वं, गुणो ज्ञानगुणोऽसुमान् ।
ततोऽधर्मास्तिकायाऽन्यदात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥५०॥ टी० अधर्मास्तिकायस्य गुणः स्थितिहेतुत्वमस्ति, यदाऽसुमान्-जीवो ज्ञानगुणोऽस्ति, अधर्माऽस्तिकायनामकाजीवद्रव्यतोऽपि, आत्मद्रव्यमन्यद्-भिन्नं जगुर्जिना इति ॥१०॥
-आकाशाऽस्तिकायाऽऽरमद्रव्ययोगुणभेदेन भेदः--
||४३०॥
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अध्यात्म
सार:
॥४३१॥
'श्रवगाहो गुणो व्योम्नो, ज्ञानं खल्वात्मनो गुणः ।
व्योमाऽस्तिकायात्तद्भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥५१॥ टी. 'व्योम्नः' आकाशाऽस्तिकायस्य गुणोऽवगाहोऽवकाशदानरूपोऽस्ति, आत्मनो गुणो ज्ञानमस्ति, तन-तत आकाशाऽस्तिकायनामकाजीवद्रव्यतो भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥५१॥
-कालद्रव्यात्मद्रव्ययो गुणभेदेन भेदः-- श्रात्मा ज्ञानगुणः सिद्धः, समयो वर्तनागुणः ।
तद्भिन्नं समयद्रव्या-दात्मदव्यं जगुर्जिनाः ॥५२॥ ____टी० वर्त्तना गुणो यस्य स वर्त्तनागुणः समयः, वर्तनानामकः परिणाम-विशेषः,-नवपुराणभावकरणरूपः-पौर्वापर्यभावकारणरूपः, यदाऽऽत्मा, ज्ञानगुणः सिद्धः, तत्-तस्मात्कारणात् , कालनामकाजीवद्रव्यतोऽप्यात्मद्रव्यं भिन्नं जगुजिनाः ॥५२।।
'व्यक्तिभेदनयाऽऽदेशाज्जीवेऽप्यजीवत्वमपीष्यते-- 'श्रात्मनस्तदजीवेभ्यो, विभिन्नत्वं व्यवस्थितम् । व्यक्तिभेदनयादेशादजीवत्वमपीष्यते ॥५३॥
४३१॥
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अध्यात्म
सार:
॥४३२॥
टी. अनया शैल्या 'पुद्गलादिपश्चकाजीवद्रव्यत आत्मा भिन्नोऽस्तीत्येतद्वस्तु निश्चयनयमतेन स्थिरीभृतमस्ति अर्थादात्मनि जीवत्वमेव, अजीवत्वं नास्त्येवेत्येतद्वस्तु स्थितमेव परन्तु 'व्यक्तिभेदनयादेशात व्यक्तीनां भेदो यत्र स नयः व्यक्तिभेदनयः, तस्यादेशादपेक्षया तु आत्मनि, अजीवत्वमपि मन्यते, अर्थाद् व्यक्तीनां भेदं पातयन्नयरूपादेशो व्यवहारनय उच्यते निश्चयदृष्टया तु सिद्धसंसारिरूपव्यक्तिद्वयस्वरूपो भेदो न पतति परन्तु व्यवहाग्नयः-जीवो द्विविधः सिद्धसंसारिभेदादित्येवं व्यक्तिभेदं प्रतिपद्यने, तस्मात्तदपेक्षया सिद्धे च संमारिणि जीवेऽजीवत्वमपि साध्यमानममास्तीति ।।५३।।
-द्रव्यभावप्राणाभावविवक्षया सिहसंसारिजीवयोरजीवत्वम्-- 'यजीवा जन्मिनः शुद्धभावप्राणव्यपेक्षया ।
सिद्धाश्च निर्मलज्ञाना द्रव्यप्राणव्यपेक्षया ॥५४॥ टी. शुद्धा (निरावरणा-निदोपा:-केवला) ये भावप्राणाः शुद्ध-ज्ञानादिगुणा उच्यन्ते, इन्द्रियाद्या दश द्रव्यप्राणा उच्यन्ते यदि ज्ञानादिगुणस्वरूप-शुद्ध-केवल-भावप्राणाऽपेक्षया जीवे जीवत्वं गण्यमानं चेनदा मिद्धेषु जीवेष्वेव जीवत्वं गण्येन, जन्मिधु-संसारिषु जीवेष्वजीवत्वं गण्येत, यतो जन्मिनां, शुद्धज्ञानादिगुणानामप्रादुर्भावात्तेषां ज्ञानादयः शुद्धभावरूपा न सन्ति, किश्च यदि द्रव्यप्राणै र्जीवे जीवत्वं
॥३२॥
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अध्यात्म
सार:
||४३३||
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गण्यमानं भवेत्तदा संसारिषु जीवेष्वेव जीवत्वमागच्छे निर्मलज्ञानेषु सिद्धात्मसु द्रव्य (अप्रधान) प्राणाभावात् अजीवत्वमागच्छेत् ॥ ५४ ॥
- नामभिः सह द्रव्यप्राणानां सङ्ख्या
'इन्द्रियाणि बलं श्वासोच्छ्वासो ह्यायुस्तथा परं । द्रव्यप्राणाश्चतुर्भेदाः पर्यायाः पुद्गलाऽऽश्रिताः ।। ५५ ।।
टी० चतुर्धा द्रव्यप्राणाः
मूलभेदा:
१ इन्द्रियाणि
२ बलं
३ श्वासोच्छ्वासः
४ आयुः
अवान्तरभेदाः
५ स्पर्शनादीनि पञ्चेन्द्रियाणि
३ मनोवचःकाय मेदात्रिविधं बलम्
१ एकविधः
१ एकविधम्
१०
एते चतुर्भेदा द्रव्यप्राणाः पुद्गलाऽऽश्रिताः - पौद्गलिकाः पर्यायाः - परिणामविशेषा इत्यर्थः ॥ ५५ ॥
।।४३३॥
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अध्यात्म मारः
॥४३४।।
-विकारिभिर्द्रव्यप्राणरात्मनो नास्ति स्वभावजीवनम्-- 'भिन्नास्ते ह्यात्मनोऽत्यन्तं, तदेतैर्नास्ति जीवनम् ।
ज्ञानवीर्यसदाऽऽश्वास-नित्यस्थितिविकारिभिः ॥५६॥ टी. 'ते'=निरुक्ताश्चतुर्भेदा द्रव्यप्राणाः, हीति निश्चये, 'आत्मनोऽत्यन्तं मिन्नाः स्वाऽऽत्मद्रव्यतः मर्वथा भिन्नाः, 'तत' तस्मात 'एतैः'द्रव्यप्राणैरेतरात्मनो नास्ति जीवनम , कथमिति चेत-ते द्रव्यप्राणा आत्मस्थज्ञानादिचतुःशक्तिविशेषाणां विकाररूपाः सन्ति तथाहि-ज्ञानवीर्यसदाऽऽश्वासनित्यस्थितिविकारिभिः = (१) इन्द्रियनामकद्रव्यप्राणाः, श्रात्मनः शुद्भज्ञानशक्तिसम्बन्धिविकाररूपाः (ज्ञानेन्द्रियाणि पश्च) (२) मनोवचोवपुभेदभिन्ना बलनामकप्राणाः आत्मनोऽनन्तवीर्यनामकशक्ते विकाररूपाः (३) श्वासोच्छवासनामकप्राणाः, 'आत्मनः सदाऽऽश्वासः'सन्सु आश्वासो-विश्वासः, तत्वनिर्णयरूपं झायिक सम्यग दर्शनम् • अथवा सदाऽश्वासः सदा श्वासक्रियाया अभावः अर्थादुपलक्षणतः सदाक्रियाऽभावरूपस्थिरताम्वरूपस्थिरतानामक निश्चयात्मकं चारित्रम् , क्षायिकदर्शनस्य विकाररूपा अथवा सदाश्वासाभावरूपनिष्क्रियतास्थिरतारूपचारित्रस्य विकाररूपाः, (५) आयुर्नामकद्रव्यप्राणाः, 'आन्मनो नित्यस्थितेःसाधनन्तरूपनित्यस्थितेर्विकारस्वरूपा विज्ञयाः आत्मा तु पुष्करपत्रवनिर्विकारोऽस्ति, अत एते विकाररूपा द्रव्यप्राणा आत्मनो न भवन्ति, तत एवाऽऽत्मनोऽत्यन्तं भिन्ना एव मन्ति, ये प्राणा आत्मनो भिन्नाः
॥४३४॥
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अध्यात्मसारः
॥४३५111
स्यूस्तरात्मनो जीवनं न सम्भवेदिति ॥५६॥
-शुद्धज्ञानादिभावप्राण जीवत्यात्मा सदा'एतत् प्रकृतिभूताभिः शाश्वतीभिस्तु शक्तिभिः ।
जीवत्यात्मा सदेत्येषा, शुद्धद्रव्यनयस्थितिः ॥५७॥ ___टी० एतत प्रकृतिभूताभिः' एताभि नवीर्य सदाऽश्वामनित्यस्थितिभिः, अथवैतश्याऽऽत्मनः प्रकृतिभूनाभिः, शाश्वतीभिः, शक्तिभिः, ज्ञानवीर्यसदाऽश्वासनित्यस्थितिरूपाभिरात्मा सदा जीवति, न तु विकारस्वरूप दशभिर्द्रव्यप्राणः शक्तिरूपैरिति, 'एपा शुद्रव्यनस्थितिः' निश्चयनयविशेषसंग्रह-- नयादिरूपशुद्धदव्यार्थिकनयानां स्थितिमर्यादेति ॥७॥
__ -जीवानां जीवनचरित्रं चित्ररूपं दृश्यते'जीवो जीवति न प्राणे-विना तैरेव जीवति ।
इदं चित्रं चरित्रं के हन्त ! पर्यनुयुञ्जताम् ॥ ५ ॥ टी. अस्मिन् संसारपर्याये जीवो थै द्रव्यप्राणे विना न जीवत्येव, ते द्रव्यप्राणे विना सिद्धत्वपर्याये जीवो जीवति, तथा येः शुद्धभावप्राणे विना सिद्धजीवो न जीवत्येव, तैः शुद्धकेवलभावप्राणे विना
॥४३५॥
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अध्यात्मसार:
॥४३६॥
संसारी जीवो जीवत्यपि इदं जीवानां जीवनसम्बन्धि चित्रं चरित्र के पंडिता 'हन्त ! पर्यनुयुञ्जताम्'= इदृशं कथमिति प्रश्न कत्त समर्था भवन्तु ! अपि तु न केऽपि प्रष्टुं समर्था भवेयुरिति, [ अत्र जीवस्याऽजीवात् नवतत्त्वेषु द्वितीयतत्वतो भेदनिरूपणं निश्चयनयदृष्टया पूर्ण जातमिति ॥५८||
-आत्मनः पुण्यपापतत्त्वतो भिन्नत्वं दयते'नाऽऽत्मा पुण्यं नवा पाप-मेते यत्पुद्गलात्मके ।
श्राद्यबालशरीरस्यो-पादानत्वेन कल्पिते ॥११॥ __टी. प्रात्मा, न पुण्यं कर्म नवा पापं कर्म, यत्-यत एते पुण्यपापकर्मणी द्वे पुद्गलात्मके-पौद्गलिके स्तः, मातः शरीरमध्ये बालरूपाऽऽत्मनः सर्वप्रथमं शरीरबन्धो-शरीररचना भवति, तस्योपादानकारणत्वेन पुण्यपापकर्मणी कल्पिते-अभिमते स्तः, अर्थादेतत्पुण्यपापमयकार्मणशरीरेणैव, तद्बालाऽऽन्मनः शुभाऽशुभाऽऽत्मकं शरीरं विश्यमानमस्ति ॥५६॥
-पुण्यं कर्म शुभं कथं ?-- 'पुण्यं कर्म शुभं प्रोक्तं, अशुभं पापमुच्यते । तत्कथं तु शुभं जन्तून् , यत्पातयति जन्मनि ॥६॥
॥४३६॥
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अध्यात्मसार:
॥४३७॥
未来未来非本未来中未未中非來來來來來來來來來來來非事
टी. व्यवहारनयमतेन, पुण्यं कर्म शुभं प्रोक्तं, पापं कर्माशुभमुच्यते, निश्चयनयवादिभिरुच्यते च 'यदस्माभिर्न ज्ञायते कथं पुण्यं कर्माऽपि शुभं कथ्यते ? यत्-यतो जन्तून दुःखरूपे जन्मनि पातयति पुण्यमपि कर्मे ति ॥६॥
- कर्मणि पारतम्यसामान्येन फलभेदो न-- 'न ह्या व सस्य बन्धस्य, तपनीयमयस्य च ।
पारतन्त्र्याऽविशेषेण, फलभेदोऽस्ति कश्चन ॥६१।। ___टी. हि-किल, आयसस्य-लौहम्य च 'तपनीयमयस्य' सौवर्णस्य बन्धस्य निगडरूपबन्धस्य, 'पारतच्याविशेषेण'लोहे वा सौवणे बन्धे परतन्त्रताया विशेषस्याऽभावेन कश्चन फलस्य भेदो नास्त्येव, अत्रापि प्रकृतेऽपि पुण्यपापकर्मणोः सौवर्णलौहनिगडसमानयोः, जन्मसत्कपारतन्त्र्यस्य विशेषाऽभावेन फलस्य भेदो नास्त्येवेनि ॥६१॥
-सुखदुःखयो |दस्तु नामापेक्षया नत्वर्थाऽपेक्षया-- 'फलाभ्यां सुखदुःखाभ्यां, न भेदः पुरायपापयोः । दुःखान्न भिद्यते हन्त ! यतः पुरायफलं सुखम् ॥६२||
॥४३७॥
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अध्यात्म
माम
।।४३८॥
.टी. ननु व्यवहारनयाऽपेक्षया 'पापस्य फलं दुःखमस्ति, पुण्यस्य च फलं सुखमस्तीति फल भेदेन पुण्यपापे भिन्ने एवेति चेन्निश्चयनयः प्रतिवदति, हन्तेति खेदे, यत् पुण्यस्य फलं सुखमस्ति तद् दुःखान्न भिद्यते, अर्थाद् दुःखादीपदपि भिन्न नास्त्येव, सुखरूपमनोहरनामदानेन दुःखत्वध्वंसो न भवतीति ॥६॥
-कर्मोदयकृतत्वरूपहेतुना पुण्यफलं दुःखमिति साध्यते-- 'सर्वपुरायफलं दुःखं, कमोंदयकृतत्वतः ।
तत्र दुःखप्रतीकारे विमूढानां सुखवधीः ॥६३॥ टी. 'कर्मोदयकृतत्वतः कर्मण उदयेन कृतत्वतः-जन्यत्वादोदयिकत्वात् सर्वपुण्यस्य फलं वस्तुतस्तु दुःखं दुःखरूपम् । इदमत्र हार्दम्-पूर्व तावत् क्षुधादिलं दुःखमुद्भवति पश्चात् स दुःखाव्याकुली भवति, ततश्च भोजनद्वारा तदुःखं प्रतिकृतं भवति, स्वयं मन्यते च सुख्यहं सञ्जात इति 'सुख्य सञात इत्युक्ते 'उत्थितमात्रदुःखस्य प्रतिकार एव कृतः एषोऽथों विज्ञेयः, क्षुधाऽऽतपपरिश्रमादीनां दुःखं यावत्पुष्कलं तावदेव भोजनच्छायाश्रयसुखग्रहणादिद्वारा विशिष्टं प्रतिकृतं भवत्यर्थात् सर्वदुःखाना प्रतिकारे सुखमिति विपर्यस्यति मतिः, वाङ्मात्रं पुण्य जन्यं सुखमप्येतद् दुःखप्रतिकाररूपमेवास्ति, नास्ति किञ्चिदन्यद, अम्मिन मिथ्यासुख-सुखाभासे भ्रान्ता विमूढाः सुखं कल्पन्त भो कर्मलीले ! तव कीदृशीयं माया ॥६॥
॥४३८॥
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अध्यात्म
पारः
॥४३९॥
(१) पुण्यजं सुखं दुःसत्वेन परिणामादिहेतुभिश्चतुर्भिः साध्यते'परिणामाच्च तापाच्च संस्काराच्च बुधै मतम् ।
गुणवृत्तिविरोधाच्च, दुःखं पुरायभवं सुखम् ॥४॥ टी० युधैः याज्ञपुरुषैः परिणामाच्च तापाच्च संस्काराच्च गुणवृत्तिविरोधाच्च पुण्यभवं सुखं दुःखंदुःखन्वेन मतमभिप्रेतमिति ॥१४॥
-परिणामतः पुण्यभवं सुखं दुःखमेव-- 'देहपुष्टे नरामर्त्य-नायकानामपि स्फुटम् ।
महाऽजपोषणस्येव, परिणामोऽतिदारुणः ॥६५।। टी. 'नरामर्त्य नायकानामपि' नरनायकाना-चक्रवादीनां निर्जरनायकानां-सुरेन्द्राणां, अपि:अन्यस्य च का वार्ता ? स्फुट-स्पष्टतया, 'देहपुष्टेः' पौगलिकविषयसुखभोगपुष्टिहेतुतः, 'परिणामोऽतिदारुणः =अत्यन्तभयङ्करनरकादिदुर्गतिदुःखप्राप्तिरूपाऽऽयतिफलरूपपरिणामो भवति 'महाऽजपोषणस्येव' यथा सानिकगहे पूर्वमनुकूलभोजनद्वाराऽज महान्तं सोनिकः करोति, पश्चान्महाऽतिथिममागमनाऽनन्तरं एकदा महाऽजगलेऽतितीक्ष्णकृपाणपतनाऽनन्तरमनन्तं दुःखं महाऽजोऽनुभवति, पश्य २ कीदृक्षोऽयं सुखपरिणामः, तथाऽत्रापि प्रकृते सङ्गमनीयमिति ॥६५॥
॥४३॥
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अध्यात्म
सार:
॥४४॥
-सोदाहरणं पुण्यसुख दुःखमिति विषयं द्रढयति'जलूकाः सुखमानिन्यः पिबन्त्यो रुधिरं यथा ।
भुञ्जाना विषयान् यान्ति, दशामन्तेऽतिदारुणाम् ॥६६॥ टी० यथा रुधिरं पिबन्त्यः 'सुखमानिन्यः' =सुखं मन्यमाना जलूकाः, अन्तेऽतिदारुणां दशा यान्ति, इदमत्र हृदयम्-शरीरस्थमपवित्रं रक्तं बहिनिष्कासयितु तत्र तत्र स्थाने वैद्या जलूका- उपवेशयन्ति, ता जलूका रुधिरं पिबन्ति, तस्मिन्नवसरे भृशमानन्दमनुभवन्ति, पश्चाद्रक्तं पीत्वा जाताः स्थूला जलूका रक्ततो रिक्ताः कुर्वन्ति, यदा तदा भृशं दुःखिन्यो जायन्ते, रुधिरपानजन्यं सुखं दुःखे परिणतमेव, तथा विषयसुखभोगकाले सुखं मन्यमाना जीवा अन्ते-परिणामे, नरकादिदुर्गतिमध्येऽतिभयङ्करदशामनुभवन्ति, तस्मात्कारणात् कथ्यते, पुण्यफलत्वेन लभ्य मानसुखे परिणामे दुःखता विद्यत एवेति ॥६६॥
(२) तापाऽपेक्षया पुण्यफलसुखं दुखमेव'तीवाऽग्निसङ्गसंशुष्यत्-पयसामयसामिव ।
यत्रोत्सुक्यात्सदाऽक्षाणां, तप्तता तत्र किं सुखम् ॥६७॥ टी० इव-यथा, 'तीवाऽग्निसङ्गमशुप्यत्पयसाम्'-तीव्रस्याग्नेः सङ्गेन संशुष्यत्पयो-जलं येषु तेषा
॥४४०॥
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अध्यात्म
सार
॥४४॥
मयमाम , अर्थान तीवाऽग्निसंयोगात्तप्त्वा सर्वथा महारक्तभृतेऽयसि जलसेकेन, जलं सर्वथा शुष्यत्येव, लोहं २ जाने तादृशं पूर्ववत्तप्तमेव तिष्ठति तथा 'यत्रोन्सुक्यात्सदाऽक्षाणां तप्तता'=सदेन्द्रियविषयाणां तीव्रभोगकामनारूपोत्सुक्याद् यत्रेन्द्रियेषु तपता तत्र किं ? अपि तु न किश्चिदपि सुखम् , अर्थादनया रीत्यैव, इन्द्रियविषयमकतीव्रभोगौत्सुक्यरूपाऽग्निना तन्वा महारक्तभृतेन्द्रियाणां मनाग रतिरूपजलक्षेपि तज्जलं कुत्रापि शुष्कं जातं, 'तथाऽपि तप्पना तु पूर्ववत्तादृशी, तादृश्येत्र स्थिता. ईपत्सुखाऽनुभवकालेऽपीन्द्रियाणां तथारूपे तापे सति किं सुखं ? न किमपि सुखं तु दुःखमेव ॥३७॥
-तापदुःखतामेव द्रदयति-- 'प्राकपश्चाच्चारतिस्पर्शात् पुटपाकमुपेयुषि
इन्द्रियाणां गणे तापव्याप एव न निर्वृतिः ॥६८।। - टी० पुटपाकमुपेयुपि' यत्रोषधी क्षिप्त्वा समन्तादाहो दीयते स पुटपाकः कथ्यते, तादृशे इन्द्रियाणां गणे मति, 'प्रापश्चाञ्चारतिस्पर्शात्' =पूर्व विषयसुखानुभवप्राप्तयेऽरतिसत्कप्रचण्डतापो भवेच्च तत्प्राप्त्यनन्तरं पुनस्तत्प्राप्त्यर्थकतीवेच्छाजन्यः प्रचण्डस्तापस्तूस्थित एवाऽस्ति, यथार्थतयेन्द्रियाणां गणः पुटपाकसमान एवाऽस्ति, येन समन्ततः प्रचण्डस्तापोऽनुभूयत एवाऽर्थात् तापव्याप्तिविशिष्टेऽक्षाणां गणे सति नितिः -शान्तिरेव नेति ॥६॥
॥४४॥
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अध्यात्मसार:
॥४४२॥
-सुखाऽनुभवकालेऽपि तापनिहतं मनः-- 'सदा यत्र स्थितो वेषोल्लेखः स्वप्रतिपन्थिषु ।
सुखाऽनुभवकालेऽपि तत्र तापहतं मनः ॥६६॥ टी. इन्द्रियाणां सुखाऽनुभवकालेऽपि 'यत्र स्वप्रतिपन्थिषु'स्वसुखसाधनश्वरूपेषु दुःखसाधनेषु 'द्वेषोल्लेखः सदा स्थितः'तीव्रद्वेषरूपाऽरुचिभावः सततं सदा स्थित एव भवति, तत्रैतद्वेषोल्लेखरूपसंक्लेशतापेन 'हतं मनः =दग्धं पुनरपि दग्धं चित्तमवश्यं भवति, तत्र तादृशस्थितौ सत्यामिन्द्रियैः सुखानुभवः कथं क्रियतेऽर्थान क्रियत एवेति ॥६॥
३-पुण्यजनितमुखे संस्कारदुःखता साध्यते-- स्कन्धात् स्कन्धान्तरारोपे भारस्येव न तत्त्वतः ।
अक्षाऽऽहलादेऽपि दुःखस्य संस्कारो विनिवर्तते ॥७॥ टी० भारमुत्पाट्यकस्मिन् स्कन्धे खिन्ने जाते तं भारं द्वितीयस्मिन् स्कन्धे स्थापयेत्सदैवं भासते 'यद् भारस्तु जाने दूरे गतः, परन्तु वस्तुतस्तद्भारसंस्कारस्तु न दरे गतः अनया रीत्यैव 'अक्षाऽऽह्लादेऽपि' इन्द्रियाणां विषयसुखोपभोगकालेऽप्येवं प्रतिभासतेऽतः परं दुःखं दीभृतमपि तु वस्तुतः स्वाऽऽन्मनि नवीनदुःखमालाया भूमिकैन विरच्यतेऽर्थाद् दुःखस्य संस्कारस्तु न रे जातः, सुखानु
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॥४४२॥
कैन विरुण अतिभासतेऽतरे गतः
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अध्यात्मसार
॥४४३॥
भवेन यो वासनासंस्कार उत्पन्नः, स भविष्यत्काले रागं स्मारयत्येव, ततो विषयान् प्रति रागो जायते, तथा स्थिते मनोयोगादियोगा विषयेषु प्रवर्त्तन्ते, सा प्रवृत्तिरशुभकर्माशयमुत्पादयत्येव, ततश्च जन्मजरादिदुःखानि प्राप्यन्ते, एवं विषयसुखानुभवोद्भूतः संस्कारो दुःखस्यैव जनको भवत्येव, तत इन्द्रियसुखं मन्यमानानां जनानां तत्र सुखानुभवस्य भ्रम एव भवत्येवेवं कथ्यते यतो वस्तुतो दुःखस्य संस्कारो न नश्यत्येवेति ॥७॥
(४) पुण्यजनितसुखे स्वाभाविकदुःखता'सुखं दुखं च मोहश्च, तिस्रोऽपि गुणवृत्तयः ।
विरुद्धा अपि वर्तन्ते, दुःखजात्यनिक्रमात् ॥७१॥ टी. अत्र पूर्वोक्ताः परिणामदुःखताचास्तिस्र औपाधिक्य आसन , अर्थात्तत्राऽन्यनिमित्तेन जनितपुण्यसुखे दुःखताऽऽसीत , यदैषा चतुर्थी दुःखता स्वाभाविकी वर्तते, सत्वरजस्तम आधास्त्रयो गुणाः सन्ति, सुखं दुःखं मोहश्च तिस्रो गुणवृत्तयः, सत्त्वगुणस्य कार्य सुखं, रजोगुणस्य कार्य दुःखं, तमोगुणस्य कार्य मोहश्च, यदा त्रयो गुणाः ममा भवन्ति तदा परस्पर विरुद्धा भवन्त्यर्थादेकस्याऽवस्थाने शेषौ द्वौ न तिष्ठतः, एतद्दृष्टया ते परस्परं विरुद्धाकध्यन्ते, परन्तु यावत्ते विषमाऽवस्थास्थायिनः स्युस्तदा ते त्रयो In४५३॥ गुणा एकस्मिन्नेव स्थाने तिष्ठन्ति, एतस्यां स्थितौ यद्यपि सत्त्वगुणेन सुखाऽनुभवो भवति तथाऽपि तत्सुख
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अध्यात्म
सारः
॥४४४॥
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मुद्धृतसच्वगुणेन, सांसारिक सुखानुभवो न भवति, परन्त्वेतत्सुखानुभवं प्रत्यनुद्भूतरजस्तमोगुणावपि कारणे भवत एव एवं भवनेनैतस्मिन् सुखे रजोगुणकार्यं दुःखं तमोगुण कार्य भूतो मोहव मिलत एवार्थादेतस्मिन् सुखे यथा सुखत्वमस्ति तथा दुःखत्वाऽद्यप्यस्त्येव, एवं सत्त्वाद्या गुणाः समावस्थायां परस्परं विरुद्धाः सन्तो विषमाऽवस्थायां सहैव त्रयस्तिष्ठन्ति, अर्थात् त्रयाणां कार्याणि सुखदुःखमोहरूपाणि युगपत् प्रादुर्भवन्ति, अतः सुखाऽनुभवकालेऽपि तत्सुखे दुःखत्व जातिस्तु वर्तत एवानतिक्रमाद् एवं स्वाभाविकी दुःखताऽपि पुण्यजसुखे सिध्देवेति ॥७२ ||
सर्वोऽपि भोगविलासो भयहेतुर्विवेकिनाम्-
'क्रुद्ध नागफणाभोगो - पमो भोगोद् भवोऽखिलः । विलासश्चित्ररूपोऽपि, भयहेतु विवेकिनाम् ॥७२॥
० 'अखिल चित्ररूपोऽपि भोगोद् भवोविलासः = समस्तो नानाविधता सम्पन्नोऽपि शब्दादिविषयभोगजन्यः सुखानुभवरूपविलासः, आपाततो दर्शनमात्रः सुन्दरोऽपि परिणामतो विवेकिनां 'क्रुद्धनागफणा भोगोपमः" = कोपाssटोपपरीतस्य सर्पस्य फणानां विस्तारस्य सादृश्यं यस्य सोऽखिल भोगविलासो विवेकबलशालिनां सज्जन शिरोमणीनां भयस्य हेतुरेवाऽर्थात् सर्व सांसारिक भोगविलासः क्रुद्धसर्पवद् भयङ्करो भासते विवेकनाम्, सर्पतोऽपि महाभयङ्करः पापजनको भोगविलासः, भोगतोऽतो भेतव्यम् ॥७२ ||
॥ ४४४ ॥
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अध्यात्म
सार
॥५४५॥
-फलतः पुण्यपापयोरेकत्वं जानानस्य भवोदधिः सान्त:'इत्थमेकत्वमापन्नं, फलतः पुरायपापयोः ।
मन्यते यो न मूढाऽऽत्मा, नाऽन्तस्तस्य भवोदधेः ॥७३॥ टी. श्रीग्रन्थकार उपसंहरन कथयनि-पुण्यम्य फलं मुखमपि परिणामादिभिश्चतुर्भिः कारणे दखरूपमेवाऽस्ति, तम्मात पुण्यपापाऽऽत्मकयोः कर्मणोः फलाऽपेक्षयाऽभेद सिध्ध्यन मन पुण्यपापयोः कर्मणो द्वयोरेकत्वमेव भवति, एवं स्थितेऽपि ये ऽनया रीत्या तयोः फलस्याऽभिन्नता न मन्यन्ते, ते पुण्यस्य फलं सखत्वेन मत्या पुण्यं पुन:पुनः कृत्वा संसारे संसरन्येव तेषां मूढाऽऽत्मना संसारोऽन्तरहितो भवतीति ॥७३||
-दुःखकरूपयोःपुण्यपापयो भिन्न एवाऽऽत्मा-- 'दुःखैकरूपयो भिन्नस्तेनाऽऽत्मा पुरायपापयोः ।
शुद्धनिश्चयतः सत्य-चिदानन्दमयः सदा ॥७४|| टी० पुण्यं च पापं च, पुण्यपापे द्वे एव दुःखैकफले मिद्धे एवाऽतः, शुद्धनिश्चयनयदृष्टयाऽऽत्मा, पुण्यपापात्मककर्म मात्रतो भिन्नोऽस्ति, अय मान्मा तु 'सदा सत्यचिदानन्दमयः' =सत्यघनः, चिद्धनः आनन्दघनश्चात्मैव ॥७॥
॥४१५॥
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अध्यात्मसारः
॥४४६॥
-आत्मनः सच्चिदानन्दरूपं चतुर्थदशाव्यङ्ग्यमावरणक्षयात्'तत् तुरीयदशाव्यङ्ग्यरूपमावरणक्षयात् ।
भात्युष्णोद्योतशीलस्य, धननाशाइवेरिख ॥७॥ ___टी. नन्वात्मनः सच्चिदानन्दमयं स्वरूपं कथं नाऽनुभूयते ? इति चेद् , घातिकर्मनामकज्ञानावरणादीनां क्षयादुज्जागरनामकचतुर्थदशाव्यङ्ग्यं तत् सच्चिदानन्दरूपं भाति-प्रादुर्भावेन प्रकाशते यथा 'घननाशात'-मेघनामकावरणक्षयात , 'उष्णोद्योतशीलस्य रवेरिव'-उष्णस्वभावस्य प्रकाशस्वभाव स्य च सूर्यस्य रूपं भाति तथाऽत्रापि विज्ञेयम् ॥७॥
-सामान्यं तु चिदानन्दरूपं सर्वदशाऽन्वयि'जायन्ते जाग्रतोऽक्षेभ्यश्चित्रा धीसुखवृत्तयः ।
सामान्यं तु चिदानन्द-रूपं सर्वदशाऽन्वयि ॥७॥ टी. 'जाग्रतोऽक्षेभ्यश्चित्रा धीमुखवृत्तयो जायन्ते' द्रव्यनिद्रातो मुक्तस्याऽऽत्मनो, इन्द्रियजन्या नानाविधा बौद्धिकमानसिकसुखादिकानुभूतिरूपधीसुखवृत्तयो जायन्ते, तदाऽपि स्वाऽऽत्मनःमच्चिदानन्दमयं स्वरूपमस्त्येव, 'सामान्यं तु चिदानन्दरूपं सर्वदशाऽन्वयि आत्मनस्तु चिदाऽऽनन्दरूपं-चैतन्यादि
॥४४६॥
in Eda
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अध्यात्मसार:
४४७||
रूपं सर्वासु दशासु, अन्वयि-अनुगतमत एव, सामान्य-व्यापकं, चिदानन्दरूपस्य कुत्राऽपि काचिदपि बाधा-हानिर्न भवतीति ॥७६॥
___-नाऽनुभूतिपराभूती अक्षजन्यचित्रधीसुखपत्तिभिरात्मनः-- 'स्फुलिङगैर्न यथा वहिनीप्यते ताप्यतेऽथवा ।
नाऽनुभूतिपराभूती तथैताभिः किलाऽऽत्मनः ॥७॥ __टी० यथा स्फुलिङ्गः-अग्निकणे वैलिन दीप्यते-न दीप्यमानो भवति, अथवेति-पश्चान्तरे न ताप्यते किश्चिदपि न ताप्यमानं वस्तु भवति ।
तथेताभिः किलाऽऽत्मनो नानुभूतिपराभूती' स्फुलिङ्गस्थानीया अक्षजन्यचित्रधीसुखवृत्तयो ज्ञेयाः, एताभिरान्मनः कोऽनुभवः १ कः पराभवः ? को लाभः ? का हानिः ? अर्थान्नानुभूतिपराभूती भवतः
अतितुच्छमिन्द्रियसुखं कमप्यानन्दं न ददाति, किश्च विषयवियोगजन्यं किश्चिद् दुःखं, आत्मनः कश्चिदपि परामवं न तनोति, अर्थादाऽऽत्मा तु स्वकीयसच्चिदान्दरूपे सदा मग्नो भवतीति ॥७॥
-अन्तरात्मनः सुषुप्तौ निरहंकृतं भानं शुद्धविवेकेऽतिस्फुटं भवति-- 'साक्षिणः सुखरूपस्य, सुषुप्तो निरहङ्कृतम् । यथा भानं तथा शुद्ध-विवेके तदतिस्फुटम् ॥७॥
॥४४७॥
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अध्यात्म
सार:
।।४४८ ।।
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टी० स्वापसुषुप्तिजागरोज्जागर मेदाच्चतस्रो दशा भवन्ति, सुखरूपस्य साक्षिण:- साक्षाद् द्रष्टुरन्तराऽऽत्मनः सुषुप्तिदशायां यथा 'निरहंकृतं ' = अहङ्कारशून्यं मानं भवति, तदेव भानमत्यन्तस्पष्टरूपेण 'शुद्धविवेके' निर्मलतम विवेकदशायां भवतीति ॥७८॥
-शुद्धाशुद्धनिश्चयनयाभ्यां कस्यात्मा भोक्तेति पृथक् क्रियते-'सच्चिदानन्दभावस्य भोक्ताऽऽत्मा शुद्धनिश्वयात् । शुद्ध निश्चयात् कर्म - कृतयोः सुखदुःखयोः ॥७९॥
टी० (१) शुद्ध निश्चयनयः - शुद्धनिश्चयनयाऽपेक्षया, आत्मा स्व सच्चिदानन्द भावरूप स्वरूपस्य भोक्ता - अनुभविता भवति (२) अशुद्ध निश्वयनयः - अशुद्ध निश्चयनयापेक्षया, कर्मकृतयोः सुखदुःखयो भक्ताऽऽत्मा भवति, यतोऽशुद्ध निश्चयनयस्तु केवलमात्मानं निरुपाधिकज्ञानादिस्वरूपमात्रं न मन्वानः कर्मोपाधिकृतसुखदुःखादिपर्यायमयमपि मन्यते, शुद्धनिश्चयस्तु कर्मोपाधिकृत रागादिपर्यायमयं वा सुखादिपर्यायमयमात्मानं न मन्यते, अशुद्ध निश्चयनयस्तूपाधिकृत भावमयमात्मानं मन्यते शुद्धाशुद्ध निश्चयनयोरभेदपरत्वमेवाsनयो निश्चयत्वमस्ति ज्ञानवानात्माऽथवा रागादिसुखादिमानात्मेति निश्चयनयपक्षे कोऽपि न मन्यते तन्मयत्वं निश्चयनयो वदति, तद्वत्वं व्यवहारनयो वदतीत्यनयोर्भेदः सुतरां दृश्यते ॥ ७६ ॥
||४४८ ॥
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अध्यात्म
सारः
॥ ४४९ ॥
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व्यवहारतः कर्मणोऽपि च स्रगादे भोगस्य भोक्तास्मा'कर्मणोऽपि च भोगस्य स्रुगादे र्व्यवहारतः नैगमादिव्यवस्थापि भावनीयाऽनया दिशा
1
115011
टी० निरुपचरिताऽसद्भूतव्यवहारनयतस्तु कर्मणोऽपि चात्मा, भोक्ताऽस्ति, उपचरिताऽसद्धृतनयतस्तु स्रुगादे भोगस्योपलक्षणतो भूषणादेरुपभोगस्याऽपि भोक्ताऽस्ति, एकशो भोग्यं भोगः, अनेकशो भोग्यमुपभोगः इत्यनयो भेदः, व्यवहारनयस्तु भेदप्रधानोऽस्ति, अत एवाऽऽत्मनः कर्म, आत्मनः पुष्पादिकमित्यादयो दधाना व्यवहाराः सम्पद्यन्ते तत्राप्यात्मनोऽमद्धृतवस्तुरूपं कर्म, निरुपचरितत्वेनामीयं कर्मेति निरुपचरिता सद्भूतव्यवहारनयस्तु मन्यते, एप निरुपचरिताऽसद्भूतव्यवहारः, पुष्पमालामात्मीयां न मन्यते, यतः साऽऽत्मन उपचारतोऽसद्भूतं वस्त्वस्ति यदोपचरिताऽमद्भूतव्यवहारस्तु पुष्पमालामन्यात्मनो मन्यते, अत एव निरुपचारिताऽसद्भूतव्यवहारनयमतेनाऽऽत्मा, कर्मणो भोक्ता भवति, यदोषचरिता सद्भूतव्यवहारनयतस्त्वात्मा, पुष्पमालाऽऽदिकस्यापि भोक्ता भवति 'नैगमाऽऽदि व्यवस्थाऽपि भावनीयाऽनया दिशा' = नैगमादिनयेभ्योऽप्याऽऽत्मनो भोक्तृत्वविषयिणी विचारणा कर्त्तव्या तथाहि = (१) नैगमनयतो दूरस्थस्य वा समीपस्थस्य, पौगलिकस्याऽऽत्मिकस्य कस्यचिदपि भोग्यवस्तु आत्मा, भोवताऽस्ति ( २ ) संग्रहनयतः = सर्व भोग्यवस्तु मङ्ग्रहरूपस्यैकस्यैव भोगस्याऽऽत्मा, भोक्ता -
॥ ४४९९ ॥
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अध्यात्म
सार:
॥४५०||
स्तीति (३) व्यवहारनयसम्मतं भोक्तृत्वं पूर्वोक्तमेव (४) जुसूत्रनयतः यः पदार्थो यदा भुज्यमानोऽ. स्ति, तस्य पदार्थस्य तदा स आत्मा मोक्ताऽस्ति, (५) शन्दनयतः सामान्यतः पुष्पमालाऽऽदिकमानाय्य तत्तत्पदार्थस्याऽऽत्मा भोक्ता भवति, (६) समभिरूढनयतः पुष्पमालायाः पृथक् पृथग पुष्पाणां पृथक् पृथग भोक्ताऽस्ति (७) एवंभृतनयतः यदा यस्याः पुष्पमालाया अथवा तत्पुष्पाणां साक्षाद् भोगः क्रियमाणः स्यात्तदाऽऽत्मा, तत्पदार्थस्य भोक्ताऽस्ति ॥८॥
-कर्ताऽपि शुद्धभावानामात्मा, शुद्धनयाद्विभुः-- 'कर्ताऽपि शुद्धभावानामात्मा, शुद्धनयादविभुः ।
प्रतीत्य वृत्तिं यच्छुद्धक्षणानामेष मन्यते ॥१॥ टी० शुद्धनयाद् विभु ( सकलशुद्ध-म्बम्वरूप-व्यापी) रात्मा, शुद्धभावानां कर्ताऽप्यस्ति, यत्यतः, एप:-शुद्धनयः, 'शुद्धक्षणानां वृत्ति प्रतीत्य मन्यते-आत्मनो वर्तनां पर्यायमाश्रित्येदृशं मतं धारयते इदमत्रहृदयम्-शुद्धनयः पर्यायार्थिकनयोऽस्ति, अर्थात् शुद्धसणाना (आत्मनो) पर्यायानपेक्ष्य विचारयते, पर्यायस्तु प्रतिक्षणं स्वयमेव स्वशुद्धभावानां कर्ता (उत्पादको) भवतीनि, अन्यत्रोक्तं हि निश्चयतो यद्यान्मा, पन्द्रव्यस्वरूपकर्ता भवेत्तदेष आत्मा, नियमतः परद्रव्यमयो भवेद् , अपि तु परद्रव्य
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॥४५॥
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अध्यात्मसारः
॥४५१।।
मयस्तु न भवत्येवान्मा, यतः किमपि द्रव्यं परद्रव्यमयं । भवेत्तदा तद्व्यस्य सो भवत्येवेति नियमोऽस्ति अर्थादेवं भवने आत्मद्रन्यस्य नाशभवनाऽऽपत्तिरागच्छेन , तत आत्मा, परद्रव्यस्वरूपस्य का नास्ति, शुद्धभावमात्रम्य कर्ताऽम्तीति ॥८॥
-आत्मा, शुद्वस्वभावानां जननाय प्रवर्तते'अनुपप्लवसाम्राज्ये विसभागपरिक्षये ।
थात्मा, शुद्धस्वभावानां, जननाय प्रवर्तते ॥२॥ टी. 'अनुपप्लवसाम्राज्ये भ्रान्तिरूपोपद्रवाऽभावरूपसाम्राज्ये सति, अर्थाद् यदा भ्रान्तदशाया दारे गमनं स्याच्चाऽभ्रान्त-सत्यपदार्थज्ञानम्याऽऽत्मन उपरि साम्राज्यं व्यापकं भवेत यदा 'विसभागपरिक्षये' =विसभाग-विभावदशायाः-कपायादिस्वरूपस्याऽऽत्मनो धारायाः यो भवेत्तदाऽऽत्मा, शुद्धस्त्रभावानां (समान-भागमंततीनां) जननाय प्रवर्सते ॥८॥
-संसारभवान्तकारणाऽशशडचित्तस्य वर्णनम्'चित्तमेव हि संसारो, रागक्लेशादिवासितम् । तदेव ते विनिमुक्तं, भवान्त इति कथ्यते ॥८॥
॥४५॥
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DXN
अध्यात्म-
सारः
॥४५२॥
टी. हीति निश्चये, 'रागक्लेशादिवासितं चित्तमेव संसारः =निश्चयनयतो रागद्वेषमूलककर्मादिरूपक्लेशादिवासनासहितं चित्तमेव, न तु चित्तभिन्न विभावरूपं संसारनामकतच्यम् , 'तै विनिमुक्तं तदेव भवान्त इति कथ्यते'-रागक्लेशादिमि विनिमुक्तं चित्तमेव भवान्तरूपो मोक्षः कथ्यते, अर्थाद यथा यथा समक्लेशादिशून्या चेतना भवेत्तथा तथाऽऽत्मा, ज्ञानादिशुद्धभावानां कर्ता भवतीति ॥८३॥
-यश्च चित्तक्षणः क्लिष्टो नाऽसावाऽऽत्मा विरोधतः-यश्च चित्तक्षणः क्लिष्टो नाऽसावात्मा विरोधतः ।
अनन्यविकृतं रूप-मन्वथं ह्यदः-पदम् ॥४॥ टी० 'अनन्यविकृतं रूपं नाऽन्येन विकृतं-विकृतिमद् रूपं-स्वरूपमवस्थाविशेषो भवति, अत्राऽनन्यविकृतं रूपं चित्तं, चेतना, आत्मेनि कथ्यते एवं चित्तपदमन्वर्थ-अर्थगम्भीरं वर्तते, डित्थडवित्थाऽऽदियदबन्नार्थरहितमस्ति, अत्र शब्दनयः कथयति-श्रत एव यः शुद्धः-असंक्लिष्टः-निर्विकारो भवेत्स एवाऽऽन्मा, कथ्यते यश्चित्तक्षण:-आत्मा. रागादिक्तीशः संक्लिष्टो जातो भवेत् , स आत्मा-चित्तमेव न कथ्यते, अर्थादात्मा, च स क्लेशाऽभिभूत इति दृयं विरुद्धं, एकस्मिन् विरुद्धं द्वयं न संभवति, अशुद्धआन्मा, आत्मा नेति नोमतं, शुद्ध आत्मैवाऽऽत्मेत्यस्माकं मतमिति ॥४॥
A||४५२॥
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अध्यात्म
मार:
॥४५॥
-अशुद्धरूप आत्मेति मिध्यावच इति शब्दनयः'श्रुतमनुपयोगश्चेत्येतन्मिथ्या यथा वचः ।
तथाऽऽत्माऽशुद्धरूपश्चेत्येवं शब्दनया जगुः ॥५॥ टी० 'यथा श्रुतमनुपयोगश्चेन्येतन्मिध्यावचः' यथा श्रुतज्ञानं नोपयोगः-अनुपयोगः, अर्थात् , श्रतज्ञानवान उपयोगशून्यो न सम्भवति, तथाऽपि कोऽपि जल्पेद्, 'श्रतमनुपयोगश्चेति वचो मिथ्याअसत्यं भवति, तथाऽऽन्माऽशद्धरूपश्चेत्येवं शब्दनया जगुः' तथा य आत्मा स्यात् स रागादिक्लेशतोऽ. शद्धरूपश्चेत्येवं कथनं मिथ्यावचोरूपमित्येवं शब्दनया:-शब्दप्रधाना नया जगुः-कथितवन्त इति ॥८५॥
-आत्मा, शद्धपर्यायरूपः शुद्धस्वभावकर्ता-- 'शुद्धपर्यायरूपस्तदात्मा, शुभस्वभावकृत् ।
प्रथमाऽप्रथमत्वादि-भेदोऽप्येवं हि तात्त्विकः ॥८६॥ टी. 'शुद्धपर्यायरूपस्तदाशुद्धस्वभावकृत' =तस्मात् कारणाद् यदाऽऽत्मा शुद्धपर्यायरूपोऽस्ति तत एव शद्धस्वभावानां कर्ताऽस्ति, पर्यायाऽऽत्मक आत्मा, प्रतिक्षणं नवो नत्र उत्पद्यते, 'प्रथमाऽप्रथमस्वादिभेदोप्येवं हि तात्त्विकः शास्त्रेष्वन्यत्र प्रथमममयसिद्धोऽप्रथमसमयसिद्ध इत्यादियों भेदः पतति,
॥४२३॥
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अध्यात्मसार:
॥४५४॥
तस्य निरूपणं द्रव्यार्थिकनयदृष्टया तत्र तत्र विहितमस्ति अथवाऽमुकसमयविवक्षया तत्रैव समये सिद्धानि सर्वाण्यात्मद्रव्याणि प्रथमसमयसिद्धानि कथ्यन्ते च तद्विवक्षितसमयादन्यसमयेषु सिद्धान्यात्मद्रव्याण्य प्रथमममयसिद्धानि कथ्यन्ते, इदानीमत्राऽऽत्मद्रव्येषु यः प्रथमाप्रथमसिद्धत्वविषयको भेदः पातितः स कालस्य विपक्षया पतितोऽस्ति एवमत्र सिद्धत्वेन द्रव्यत्वेन सर्वेषां सिद्धानां समानत्वेऽपि कालोपचारेण तेपु सिद्धद्रव्येषु भेदः पातितः अर्थाद् द्रव्यार्थिकनयदृष्टया भवन्नेतादृशः प्रथमाऽप्रथमसिद्धत्वमेदः कालोप चारिकः सञ्जातो यदा पर्यायार्थिकन यदृष्टया तु शुद्धपर्यायरूपो य आत्मा, यदा स्यात्तदा तत्र प्रथमसमयसिद्धत्वमायाच्चाऽनन्तरं स एवाऽऽत्मा, द्वितीयादिक्षणे नास्ति, किन्त्वपरशद्धपर्यायाऽऽत्मका आत्मानः सन्ति, एतेषु सर्वेस्वात्मस्वप्रथमसमयमिद्धत्वमायात , एवमत्राऽमुककालविवक्षाविधानं नास्ति, तस्मादेतत्पर्यायार्थिकन यदृष्टयेव शद्धपर्यायस्वरूपोऽयमात्मेति, अत एव प्रथमाप्रथमत्वादिभेदस्तात्विको नवोपचारिको भवतीति ॥८६॥
-द्रव्यार्थिकनयतः शुद्ध स्वभावकर्ताऽऽत्माऽस्तीति दिगम्बरोयमतखण्डनम्'ये तु दिकपटदेशीयाः, शुद्धद्रव्यतयाऽऽत्मनः । शुद्भस्वभावकर्तृत्वं, जगुस्तेऽपूर्वबुद्धयः ||८७॥
॥४५४॥
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अध्यात्म
मारः
॥४५५॥
टी. प्राक्तनश्लोकेषु परसु. अस्माभितिं च यद् 'शब्दनयापेक्षयाऽऽत्मा, शद्धस्वभावकर्ता भवति' परन्तु शुद्धनिश्चयनयतः शुद्धद्रव्यार्थिकनयत आत्मा, शुद्धस्वभावस्याऽपि कर्ता भवितु नार्हति, तथाऽप्यत्र दिगम्बरीयाः केचित कथयन्ति, यत् 'आत्मा, शद्धद्रव्यार्थिकनयतः शुद्धस्वभावकर्ताऽस्ति' इत्येतद् दिगम्बरीयाणां कथनं मत्यतः स्वेषामपूर्वबुद्धिमत्तायाः स्पष्टं प्रदर्शनं कृतमिति दृश्यते ॥७॥
-आगामिषु षट्सु इलोकेषु दिगम्बरीयमतखण्डनम् - 'द्रव्यास्तिकस्य प्रकृतिः, शुद्धा सङग्रहगोचरा ।
येनोक्ता सम्मतो श्रीम-सिद्धसेनदिवाकरैः ॥८॥ ___टी० श्रीमद्भिर्भगवद्भिः सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरैः 'सम्मतौ' सम्मनितर्कग्रन्थे कथितमस्ति यद् । 'सङ्ग्रहनयो द्रव्याऽऽस्तिकनयस्य शुद्धां प्रकृति प्रतिपद्यते' अर्थाद् द्रव्यार्थिकनयम्य या शुद्धा प्रकृतिः सा संग्रहनयेन विषयीक्रियते ॥८॥
-तन्मते च न कर्तृत्वं भावानां सर्वदाऽन्वयात्'तन्मते च न कर्तृत्वं भावानां सर्वदाऽन्वयात् । कूटस्थः केवलं तिष्ठत्मात्मा साक्षित्वमाश्रितः ॥१॥
॥४५॥
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___
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अध्यात्म-रा
।।४५६॥
टी० शुद्धप्रकृतिसङ्ग्राहकसङ्ग्रहनयस्य मते तु 'आत्मा, सदाशुद्धस्वभाव एव कथितोऽस्ति, यतः 'आत्मा शुद्धस्वभाव एष एक एव वस्तु वर्त्तते, आत्मा, सर्वदा भावाऽभिन्नोऽस्ति, एवं स्थित्या शुद्धस्वभावस्य कत्तत्वं शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन तु न शक्यम् , किञ्चैतन्मते त्वाऽऽत्मा, कूटस्थनित्यः-अप्रच्युताऽनुत्पन्न स्थिरैकस्वभावरूपः, अर्थात् साक्षित्वमात्रमाश्रितः कूटस्थः केवलं तिष्ठत्यात्माऽतः कारणादाऽऽत्मन्यस्मिन् शस्वभावस्योत्पत्तिक्रियाया असम्भव एवेति ॥८९॥
-कत्तुं व्याप्रियते नाऽयमुदासीन इच स्थितः'कत्तु व्याप्रियते नायमुदासीन इव स्थितः ।
थाकाशमिव पङ्केन लिप्यते न च कर्मणा ॥१०॥ टी० शुद्धद्रव्याथिकमते तु सर्वथाऽऽत्मोदासीनोऽस्ति, स किमपि कत्तुं न प्रवर्तत एव, यथाऽऽकाशं मर्वथा निष्क्रियमस्ति, तत आकाशे पङ्कलेपो न लगति, तथा सर्वथा निर्व्यापार आत्मनि कर्मलेपो न लगतीति ॥९॥
-स्वरूपं तु न कर्त्तव्यं ज्ञातव्यं केवलं स्वतः'स्वरूपं तु न कर्त्तव्यं, ज्ञातव्यं केवलं स्वतः । दीपेन दीप्यते ज्योतिर्न त्वपूर्व विधीयते ॥११॥
॥४५६॥
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अध्यात्म सारा
॥४५७॥
टी. अनेन द्रव्यार्थिकशुद्धसङ्ग्रहन येनेवं कथयितु न शक्यते एव यत् 'आत्मा स्वरूपस्य कर्ताऽ. स्ति' यतः स्वरूपं तु तन्मने कर्त्तव्यं नाऽम्त्येव, तत्त स्वतः केवलं ज्ञातव्यमेवाऽम्ति, यथा दीपेन दीप्यते ज्योतिरपि तु न किश्चिन्नवं क्रियते-नन्वपूर्व विधीयते एवमात्मा, ज्ञानाऽऽत्मक एव तिष्ठति, स तु किश्चि नवं न करोत्येव, तम्य नवीनं कारणं नास्त्येव ॥१॥
___-न च हेतुसहस्रणाऽप्यात्मता स्यादनाऽऽत्मन:'अन्यथा प्रागनात्मा स्यात्, स्वरूपाऽननुवृत्तितः ।
न च हेतुसहस्रेणा-प्यात्मता स्यादनात्मनः ॥१२॥ टी. यद्यात्मा, स्वरूपस्य कर्ता भवेत्तदा यत्र क्षणे तेनाऽऽन्मना तस्याऽऽन्मनः स्वरूपम्त्पादितम् , ततः पूर्वक्षणेषु तु तत्स्वरूपम्याऽनुवृत्ति विद्यमानता, नाम्न्ये वेवं निश्चीयमाने सति, पूर्वक्षणेषु निःस्वरूपः स आत्मा जडो भवेततश्च हेतूनां सहस्रणाऽप्यात्मता न स्यादनात्मनः एतदापत्तिनिरासायाऽऽत्मा, शुद्धद्रव्यार्थिकनिश्चयनयतः म्वरूपम्य कति-न मतिः म्थाप्येति ॥२॥
-शुद्धद्रव्यार्थिकनयमतेन शुद्धभावं विमात्मा'नये तेनेह नो कर्ता, किन्त्वात्मा शुद्धभावभृत्उपचारातु लोकेषु, . तत्कर्तृत्वमपीप्यताम् ॥१३॥
11४५७॥
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अध्यात्म
सार:
॥४५८॥
टी. 'नये तेनेह नो कर्ता' पूर्वोक्तेन तेन कथनेनास्मिन शुद्धद्रव्यार्थिकनिश्चयनये, आत्मनःशुद्धभावम्य, कत्तत्यं नेष्टं, केवलमात्मा शुद्धभावं बिभर्त्यव, परन्तु “लोकेषूपचारात्तु तत्कत्तत्वमिष्यताम्'= व्यवहारनयादितो लोकेषु तेषां-शुद्धभावादीनां कर्तृत्वमपि (भन त्वं वस्त्येवाऽपिशब्दार्थः) इष्यतां-इष्टं . भवतु अर्थादेवं निश्चितं जातं यद् 'आत्मा, शब्दनयः शुद्धस्वभावस्य कर्ता भवति, परन्तु शुद्धद्रव्यार्थिकनिश्चयनयतो नैव स्वरूपस्य कर्तेति ॥१३॥
(अथेदं पूर्वोक्तं विधानं मनसिकृत्य ग्रन्थकागे महर्षिः, पर्यायास्तिकऋजुमूत्रादिनयद्वारा विविधन्याऽऽ-मनि तत्ततका त्वं दर्शयति, किश्च तेन सहाऽऽत्मनि तदा तदा भिन्न भिन्न धर्मा मन्ति वा प्रादुभवन्तीनि तद्विषयमप्यागामिषु श्लोकेषु दर्शयिष्यति इत्यवतरणिका)
___ -उत्पत्तिमात्मधर्माणां विशेषग्राहिणो जगुः'उत्पत्तिमात्मधर्माणां, विशेषग्राहिणो, जगुः ।
अव्यक्तिरावृतेस्तेषां, नाभावादिति का प्रमा ॥४॥ टी. विशेषाः पर्यायाः, विशेषमात्रग्रहणशीलाः. विशेषग्राहिण:-पर्यायाऽऽस्तिकनयाः कथयन्ति यद् ) 'आत्मनि सम्यग दर्शनादयो गुणा नवन्वेनोत्पद्यन्ते' मामान्यग्राहिणो द्रव्यास्तिकनया:कथयन्ति यद
X॥४५८॥ 'आत्मान सदा सम्यगदशनादयो गुणाः मन्ति, तेषां गुणानां व्यक्तत्वेनाऽदर्शनस्य कारणन्तु तेषां
in
an inte
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अध्यात्म
सारः
॥४५९ ।।
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गुणानामुपरिष्टात, आगतं कर्माssवरणमग्ति पर्यायाऽऽस्तिकनयास्तु - पूर्व जीवस्य संसारनामक पर्या तद्गुणाऽभावप्रयुक्तं तद्गुणादर्शनं, अथ जीवस्य सिद्धत्व पर्याये ते गुणा उत्पन्ना अत एव ज्ञाता इत्यस्माकमुपपादनं प्रति न कोऽपि प्रतिवादः प्रामाणिकः अत एव न वाच्यम् 'पूर्व गुणा आसन्नपि तु न दृश्यमाना ज्ञायमाना आसन, तत्राऽदर्शने आवरणं कारणमस्ति ॥ ६४॥
- आत्मा ध्रुवोऽस्ति तद्भिन्नं सन्ताननामकवस्तु नास्ति, नत आत्मनो ज्ञानादिकगुणा उत्पादशीला इति मन्तव्यम् -
'सत्त्वं च परसन्ताने, नोपयुक्तं कथञ्चन 1 सन्तानिनामनित्यत्वात्सन्तानोऽपि न च ध्रुवः ||१५||
टी० ( मनसि धार्यतां चेदं = आत्मसन्कज्ञानादिगुणाननित्यत्वेन वदन्तो वादिनः आत्मानं तु नित्यमेव मन्यन्ते तथा तस्य ज्ञानादिगुणान् बौद्धानामिव क्षणिकत्वेन न मन्यन्ते) आत्मगुणोत्पत्तिवादिनः, बौद्धान् प्रति कथयन्ति यथाहि भवन्तो ज्ञानादिगुणान् क्षणिकत्वेन मन्यन्ते, ततस्तेषां निरन्वयनाशतः पौर्वापर्यक्रमस्मरणादिकं नोपपद्यते, तदुपपादयितु भवन्तो ज्ञानादिसन्तानं कल्पन्ते, एप सन्तानोऽस्मदभिमताऽऽत्मपदार्थतो भिन्नोऽस्ति, भवन्तो ज्ञानादिसन्तानं स्वीकुर्वते, तथापि, आत्मानं न प्रतिपद्यन्ते इति
॥ ४५९॥
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अध्यात्म
सार:
॥४६०॥
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प्रदर्शनम् । अथ बौद्धमतखण्डनं तथाहि भवद्भिरात्मनः परो यो ज्ञानादिसन्तानोऽभिमतः, तस्य कोऽप्येवोपयोगो नास्ति, ज्ञानादिसन्तानोऽस्त्यर्थाज्ज्ञानादिमन्तानविषयक सत्तास्वीकारतो न किमपि फलं वर्त्तते, यतः सन्ताननामकं किमपि वस्तु नास्त्येव, तथापि सन्तानस्य वस्तुत्वेन स्वीकारे प्रश्नो भवति, किं सन्तानः क्षणिकोऽस्ति वाऽक्षणिकः ? यदि क्षणिकः म स्यात्तदा ज्ञानादिगुणानामिव स सन्तानोऽपि क्षणजीवी जातः, तादृशः सन्तानो ज्ञानादीनां पौर्वापर्यक्रमं कथमुपपादयितुमलंस्यात् ? यदि सन्तानोऽ. क्षणिकस्तदा भवतां क्षणिकवादः क्षणिकः सन् विनष्टो भविष्यति, एवमुभयथा परसन्तानविषयकमत्ताऽनावश्यक्येव किञ्च सन्तानिज्ञानादिगुणा अनित्याः सन्ति ततः सन्तानोऽप्यनित्यः स्यादर्थादेतादृशाऽनित्यमन्तानतः प्रतिक्षणं निम्न्वयनाशशालिज्ञानाऽऽदिगुणानां मध्ये पौवापर्यभावः कथं घटेत १ तस्मात् परसन्तानमत्ताऽनिच्छनीया, सन्तानाऽभावे ज्ञानादिगुणानि प्रसन्तानित्वाभावः सुतरां सिद्धः । इदमत्र हृदयम् = आत्मा, ध्रुवोऽस्ति तद्भिन्नं परं किमपि सन्तानवद्वस्तु नास्ति तदात्मनो ज्ञानादिकगुणा उत्पादशीलाः सन्ति एतावदेव मन्तव्यमिति
॥६५॥
-नित्यता नाSSत्मधर्माणां व्योमदृष्टान्तबलादपि -- 'व्योमाऽप्युत्पत्तिमत्तत्तदवगाहात्मना ततः नित्यता नाऽऽत्मधर्माणां -
1
तद्दृष्टान्तच लादपि
118 11
||४६०॥
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अध्यात्म सार:
टी. 'तत्तदवगाहाऽऽग्मना व्योमाऽप्युत्पत्तिम' आकाशद्रव्यमपि (नित्यद्रव्यरूपमाकाशद्रव्यमपि) तत्तद्घटादिद्रव्याणामवगाहरूपेण-अवगाहदानरूपेणोत्पत्तिमद् भवति [घटाकाशमुत्पद्यते, पटाकाशं विनश्यति च) एवमाकाशस्य दृष्टान्तबलादपि, आत्मधर्मा ज्ञानादिकगुणाः मविषयका नित्या न सन्ति परन्तूत्पत्तिमन्तोऽनिन्याः सन्ति (अमुकपर्यायविषयाऽऽत्मनोत्पद्यते, अमुकपर्यायविषयात्मना विनश्यति च)॥९६॥
-ऋजुसूत्रनयस्तत्र कत्ततां मन्यते'ऋजुसूत्रनयस्तत्र, कर्तृतां तस्य मन्यते ।
स्वयं परिणमत्याऽऽत्मा, यं यं भावं यदा गदा ॥१७॥ . टी. आत्मनः कर्तृत्वविषये पर्यायार्थिक-ऋजुसूत्रनयस्तु कथयति यद् 'स्वयं परिणमत्यात्मा, यं यं भावं यदा यदा' यं यं भावं यदा यदा स्वयमेव परिणमति तदा तदा तं तं भावं स आत्मा करोत्येवेति ॥७॥
-ऋजुसूत्रनयः परभावानां कर्तृत्वं नाऽभ्युपगच्छति'कर्तृत्वं परभावाना-मसौ नाऽभ्युपगच्छति । क्रियादयं हि नैकस्य, द्रव्यस्याऽभिमतं जिनैः ॥१८||
॥४६॥
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अध्यात्मसार:
॥४६२॥
____टी० एष ऋजुमूत्रनामकः पर्यायार्थिकनय आत्मनि स्वभावानां कर्तृत्वमभ्युपगच्छति, परमावानां पोद्गलिकभावानां कर्तत्वमात्मनि नाऽभ्युपगच्छति, यतो यद्यातत्मा, स्वभावानां च परमावानां, उत्पत्ति क्रियारूपकत्त्ववानस्तीति मते 'एकस्मिन्नात्मनि क्रियाद्वयस्यापत्तिरागच्छेत् , किञ्च जिनैः-सर्वज्ञैरेकस्य द्रव्यस्य क्रियाद्वयं नाभिमतमर्थादात्मन्येकस्मिन् स्वभावक्रियापरभावकत्वरूपक्रियाद्वयं जिनैर्नाभिममिति, अत एवात्मनि स्वभावकत्तत्वं मन्यतेऽयं नयः ||८||
___- ऋजुसूत्रनये स्वाऽऽत्मद्रव्ये नवनवपर्यायभवनरूपक्रिया-- 'भूतिर्या हि क्रिया सैव, स्यादेकद्रव्यसन्ततौ ।
न साजात्यं विना च स्यात्, परद्रव्यगुणेषु सा ॥११॥ टी. अत्रेदं स्मरणीयं यद् एतस्य ऋजुसूत्रनयस्य मते पर्यायाऽऽत्मक आत्मा प्रतिक्षणं विनाश्यस्ति, तस्मिन्नात्मनि या स्वभावोत्पत्तिरूपक्रिया, कथिता पूर्वश्लोके सा क्रिया-स्वाऽऽत्मद्रव्यस्य नवनवपर्यायाऽऽत्मना, या भूति भवनं, मैवाऽस्ति, एषा क्रिया, एकस्याऽऽत्मद्रव्यस्यैव सन्ततो भवति, प्रत्येकक्षणाऽवच्छेदेनात्मद्रव्ये, स्वद्रव्यत्वमस्ति, अर्थात स्वद्रव्यत्वजात्यपेक्षया, तत्सर्वक्षणसम्बन्धिन्यात्मद्रव्ये साजात्यं वर्तने, यदा परपोद्गालिकद्रव्यगुणे तु स्वान्मद्रव्यत्वस्य साजत्यं नास्ति, तस्मातादृशं साजात्यं विना तस्य परद्रव्यस्य तथा परद्रव्यपर्यायाणां कत्त त्वं स्वात्मनि न घटमानमस्तीति ।९९॥
॥४६२॥
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अध्यात्म.
धारः
॥४६३।।
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- आत्मनः परभावाऽकर्त्तृत्वे कथं हिंसादीनामुपपत्तिर्भवेद्-'नन्वेवमन्यभावानां न चेत्कर्त्ता परो जनः 1 हिंसादयादान - हरणाद्यवस्थितिः
तदा
॥१००॥
टी० शङ्का = यद्यनया रीत्या परमावानां कर्त्ताऽऽत्मा, न भवेदर्थान् मात्रस्वभावानामेव कर्त्ताssत्मा भवेत्तदा परद्रव्याऽपेक्षया हिंमा दया दान- हरणादिभावानां कर्त्तवं स्वाऽऽत्मनि मतमस्तीति लौकिकी व्यवस्था वर्त्तने साऽनुपपन्ना भविष्यति तस्य किं प्रत्युत्तरं ? एवं मतस्थितौ परद्रव्यगतहिंसादिक्रियायाः कर्त्ताऽऽत्मा, न भवेत्तदा हिंसादिकत्तारं लक्ष्यीकृत्याऽमुको हिंसको दातेत्यादि कथनस्यानुपपत्तिरेव स्याद् ! भवन्मते किं कोऽपि हिंस को नास्ति ? किं कोऽपि चोरो नास्ति १ किं कोऽपि दाता नास्ति ? किश्च यद्यात्मा, परस्य हिंसादिकमकुर्व्वमस्ति तदा तस्य कर्मणो दुर्गत्यादिकफलमपि स कथं प्राप्स्यति ? अर्थाद्, हिंसादिकस्याव्यवस्थिति भाविनीति ॥ १०० ॥
- स्वगतं कर्म स्वफलं नातिवर्त्तते-
'सत्यं पराश्रयं न स्यात् फलं कस्याऽपि यद्यपि । तथाऽपि स्वगतं कर्म, नाऽतिवर्त्तते ॥१०१॥
,
स्वफलं
***
॥४३३॥
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अध्यात्म
मार:
॥४६॥
टी. सत्यमिति स्वीकारे, यद्भवद्भिरुक्तं, तत्सत्यं यत् 'पर-वध्यद्रव्यगतहिंसादि भवति, तस्य साक्षात कर्ताऽऽत्मा नास्ति, तस्मादेतस्य परस्य हिंसादेः फलं किश्चिदपि स्वात्मनि नायाति, तथाप्येतस्माद् , हिंसादिकादात्मनि यः शभाऽशमात्मकपरिणामो जायते, ततः कर्म समुत्पद्यते तस्य फलं न पराश्रयं स्यादर्थात् पराश्रितहिंसादिक्रियाकाले जायमानकर्मपरिणामेभ्यः समुत्पद्यमानं कर्म त्यात्म न्येवाऽस्ति तदा तत्र तस्य फलमपि भवेदेवेति ॥१०॥
-हिनस्ति न परःकोऽपि निश्श्रयान्न च रक्षति-- 'हिनस्ति न परः कोऽपि, निश्चयान च रक्षति ।।
तदाऽऽयुःकर्मणो नाशे, मतिर्जीवनमन्यथा ॥१०२॥ टी. 'निश्चयात्परः कोऽपि न हिनस्ति च कोऽपि परोन रक्षति'निश्चयनयाऽभिप्रायेण कोऽपि प्राणी कमपि परं प्राणवियुक्तं कत्तन समर्थोऽस्ति च कमपि परं प्राणिनं कोऽपि प्राणी जीवनरक्षणप्रवणो न भवति, यतो यदा यस्याऽऽयुःकर्मणो नाशो भवति तदा तस्य मृतिरेव-प्राणवियोगो भवत्येवा. ऽन्यथा आयुःकर्मणः सत्तायां प्राणयोगरूपं जीवनं वर्तते अर्थात , हिंसादिविषयिणी लौकिकी व्यवस्था कथं स्यात् ? ॥१०॥
४६॥
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अध्यात्म
सार:
॥४६५॥
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- फलं विचित्रमाप्नोति, परापेक्षां विना पुमान् ।
'हिंसादयाविकल्पाभ्यां स्वगताभ्यां तु केवलम् । फलं विचित्रमाप्नोति, पराऽपेक्षां विना पुमान् ॥१०३॥
टी० यदा हिंसाऽथवा दया क्रियते तदाऽऽत्मनि हिंसाया वा दयायाः परिणाम उत्पद्यते च स परिणाम एव सदसत्फलानि तमात्मानं दर्शयति, 'पराऽपेक्षां विना पुमान्, फलं विचित्रमाप्नोति' =अत्र परद्रव्यस्य काऽप्यपेक्षा नास्त्येवाऽर्थात् कोऽपि कमपि न हिनस्ति, कोऽपि कमपि न रक्षति, तथाऽपि हिंसकस्य रक्षकस्य वा हिंसाया वा रक्षायाः फलं यद् भवति, तत्त तादृशतादृशपरिणामद्वारैव भवति, परद्रव्यस्य भावाभावयोरपि हिंसादयादिविकल्परूपपरिणामो भवेत्तदा हिंसादीनां सदसत्फलं भवत्यवश्यमेवेति ॥ १०३॥
- प्रमादियतमानयोरेव शरीरिणामवधवधयोहिंसादये भवतः - 'शरीरी प्रियतां मा वा, ध्रुवं हिंसा प्रमादिनः । दयैव यतमानस्य वधेऽपि प्राणिनां क्वचित् ॥१०४॥
० निश्वयनयवादी वदति, यत् सम्मुखस्यो जीवो म्रियतो वा मा प्रियतां परन्तु प्रमादी - कषाय
॥ ४६५॥
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अध्यात्म
सारः
॥४६६॥
विषयविकथानिद्रादिपञ्चकयुक् प्रमादी स्यात्तस्य त्ववश्यं हिंसापापं लगत्येव, यतस्तस्य तदा कपायादि प्रमादोऽस्ति, प्रमादः स्वफलं प्रमादिनं प्रापयत्वेव किश्चाऽकस्मात्कदा शरीरी म्रियते तदापि यो यतनाया उपयोगधर्म परिणत आत्माऽस्ति, तस्य तु दयायाः फलं भवति, तस्मात्तदा स तु दयालुरेवाऽभिधीयते, एतद् विवेचनत इदं फलितं भवति यद् हिमादिपरिणाम एव हिंसादिरस्ति, तत्फलप्राप्तिरस्ति परन्तु हिमादिनन्फलप्राप्तिः परव्यक्तिघातादिस्वरूपक्रियातो नास्ति, तस्मादथात्मा, हिंसादिक्रियायाः कर्तव नास्ति, तथाऽपि तादृशताशपरिणामस्य कर्ताऽस्ति, ततः परिणामाऽनुसारेण सदसत्फलस्य भोक्ता भवतीत्येतत् सुनिश्चितमिति ॥१०॥
-परस्य युज्यते दानं हरणं वा न कस्यचित्'परस्य युज्यते दानं, हरणं वा न कस्यचित् ।
न धर्मसुखयो यत्ते, कृतनाशादिदाषतः ॥१०॥ ही० परस्य कस्यचिद् द्रव्यदानेन धर्मो न भवनि, परस्य कस्यचिद् द्रव्यहरणे न स्वस्य मुखं न भवति. यद्ययं भवेत्तदा तु स्वमत्कर्मणा यद्धनं लब्धं तत् परस्य दानेनार्थात्तद्धनेन या भोगप्राप्तिः स्वस्य भाविन्यासीत्तस्या नाशन कृतनाशनामकदोषाऽऽपत्तिरागच्छेत , एवं च कश्चित् सत्कर्माण्य कृत्वा परस्य
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॥४६६॥
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अध्यात्मसारः
॥४६७||
धनं हन्वा तद् धनेन भोगप्राप्तिं कुर्यादर्थादकृतागमदोषाऽऽपत्तिरागच्छेत , ततो दानहरणक्रियाभ्यां धर्माऽधर्मों भवत इति वार्ताऽप्ययोग्यवेति ॥१.५॥
-आत्मभिन्नाभ्यां भक्तवित्तादिपुद्गलाभ्यां दानहरणे कुतः ? - 'भिन्नाभ्यां भक्तवित्तादिपुद्गलाभ्यां च ते कुतः ।
स्वत्वोत्पत्तिर्यतो दान, हरणं स्वत्वनाशनम् ॥१०६॥ ____टी. निश्चयनयो वदति-यद् भोजनधनादिरूपपुद्गल पदार्था आत्मनः सर्वथा मिन्नाः, ते आत्मीयाः कथं भवितुमर्हन्ति ? यद्येते पुद्गला आत्मनो नो भवेयुस्तदाऽऽत्मनि, एतेषां पुद्गलानां स्वामित्वं पुद्गलेषु आत्मनः स्वत्वमेव नास्ति तस्मात् पुद्गलदानं स्वत्वोत्पत्तिस्वरूपमस्ति, हरणन्तु स्वत्वनाशनस्वरूपमस्ति, एतेद्वे च दानहरणे न सङ्गच्छेते, अर्थात परभावविषयकदानहरणयोः कत् त्वमात्मनि न सम्भवतीति ॥१६॥
-कर्मोदयाच तद्दानं हरणं वा शरीरिणाम-- 'कर्मोदयाश्च तदानं, हरणं वा शरीरिणाम् ।। पुरुषाणां प्रयासः क-स्तत्रोपनमति स्वतः ॥१०७॥
॥४३७॥
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अध्यात्म-4
सार
॥४६८॥
__टी. 'शरीरिणां कर्मोदयाच्च तदानं हरणं वा' जीवनिष्ठतादृशतादृशकर्मणामुदयहेतुना, परजीवोपरिवत्तमानानुग्रहबुद्धया, स्वस्य स्वकीयशुभोपयोगं ददाति, अथवा परस्योपरि, उपघातबुद्धद्या स्वयमेव स्वकीयशुभोपयोगं स्वस्य हरति, एवं कर्मोदयहेतुना तदानहरणरूपा क्रिया, स्वत आत्मनि परिणमति, तत्र तदा पुरुषाणां का प्रयास उपनमति-उपनतो भवति ? अर्थान कश्चित्प्रयासः ॥१०॥
-परनिरपेक्षावेवानुग्रहोपघाती भवतः-- 'स्वगताभ्यान्तु भावाभ्यां केवलं दानचोर्ययोः ।
अनुग्रहोपघातो स्तः, परापेक्षा परस्य न ॥१८॥ टी. परस्य दानहरण भावमात्रेण स्वस्योपरिष्टादात्मा, अनुग्रहोपघातौ करोति, अब परस्य काऽप्यपेक्षा नास्ति अर्थादर्थदानेन परस्योपर्यनुग्रहो भवेच्च हरणेन परस्योपयुपिघातो भवतीत्यादिवाया अवकाश एव न इदमत्रहृदयम्-दानादिक्रियामात्मा न करोत्येव, यतस्तथाकरणे तस्य प्रयोजनं न दृश्यते केवलं दयाहिमादेः शभाशुभाऽऽत्मकपरिणामावेव फलदाने प्रत्यलाविति ॥१०८॥
-कर्मणा षडयतेऽज्ञानी ज्ञानवांस्तु न लिप्यते-- 'पराश्रितानां भावानां, कर्तवाद्यभिमानतः । कर्मणा बद्धयतेऽज्ञानो, ज्ञानवांस्तु न लिप्यते ॥१०॥
॥४६८०
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टी० यदैवं सुनिश्चितं यद् 'आत्मा, पराश्रित भावानामथवा परभावाना कतैव नास्ति, तथाऽपि अध्यात्म To यदि कोऽपि भ्रमात्मकाज्ञानेन, परभावकर्तृत्वादि, मन्येत, सकर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यभिमानी, अत एवाऽज्ञानी, सार: कर्मणा बद्धथने, अभ्रान्तो ज्ञानी तु कर्मणा सह न लिप्यते ॥१०९।।
__-रागद्वेषाशयानां तु कर्तेष्ट ऽनि टवस्तुषु-- ॥४६॥
_'कर्तवमात्मनो पुराय-पापयोरपि कर्मणोः ।
रागद्वेषाशयानां तु, कर्तेष्टाऽनष्टवस्तुषु ॥११०॥ टी. यथाऽऽत्मा, पगश्रितभावानां कर्त्ता नास्ति, पुण्यपापयोरपि कर्मणोरेवं कर्ताऽऽन्मा नास्ति । परन्तु इटाऽनिष्टवस्तुषु जायमानानां गगद्वेषाशयानां कर्ताऽस्ति ॥११॥
-आत्मकृत रागद्वेषपरिणामतः कर्मभ्रमादारमनि युज्यते-- 'रज्यते वेष्टि वाऽर्थेषु, तत्तत्कार्यविकल्पतः ।
श्रात्मा यदा तदा कर्म-भ्रमादात्मनि युज्यते ॥११॥ टी० 'यदात्मा भ्रमान्' -विषयम्वरूपस्य मोहमूढत्वेन तनन्सुखादिकार्यविकल्पतः, अषु-मनोज्ञामनोज्ञपदार्थेषु, रज्यते वा द्वेष्टि रागद्वेषाऽन्यतरपरिणामवान् भवति, तदा तम्मिन्नात्मनि, कर्मबन्धो भवति, यादृशोऽयमात्मनो रागादिरूपः परिणामः, तादृशः कर्मबन्धो भवतीति ||१११ .
॥४६॥
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अध्यात्म
॥४७॥
-सोदाहरणं रागद्वेषाऽनु विडस्य कर्मवन्धवर्णनम्'स्नेहाऽभ्यक्ततनोरङ्ग, रेणुना श्लिष्यते यथा ।
रागद्वेषाऽनुविद्धस्य, कर्मबन्धस्तथा मतः ॥११२॥ टी० यथा 'स्नेहाऽभ्यक्ततनोः' तै लाऽभ्यजनयुक्तशरीरवतोऽङ्गमवयवो वा शरीरं, रेणुनारजसा, श्लिप्यते-श्लिष्टं भवति, तथा रागद्वेषाऽनुवेधयुक्तस्याऽऽत्मनः कर्मबन्धो मतः ॥११॥
___ -सदृष्टान्तं स्वक्रियया चित्रं कर्माऽभ्येत्यात्मसन्निधौ इति वर्णनम्-- 'लोहं स्वक्रिययाऽभ्येति, भ्रामकोपलसन्निधौ ।
यथा कर्म तथा चित्रं, रक्तद्रिष्टाऽऽत्मसन्निधों ॥११३॥ टी० यथा 'भ्रामकोपलसन्निधौ लोहचुम्बकसन्निधौ जडं लोहं म्बक्रिययाऽभ्येति' लोहचुम्बकमभिगच्छति-आगच्छति, तथा रागद्वेषसम्पन्नान्ममनिधी चित्रं-नानाविधं कर्म, रक्तद्विष्टात्मानमभि, आगच्छति-लगति, वल्गति नत आत्मनि, म्यकर्मबन्धनकियामतमनावश्यकमेवेति ॥११॥
-रागद्वेषाऽऽशयं सृजनात्मा, कर्मोपादानगोगेष्ट न व्याप्रियते--
218७॥
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अध्यारमा
सार:
॥४७॥
श्रात्मा न व्याप्तस्तत्र, राग षाऽऽशयं सजन् ।
तन्निमित्तोपनमेषु, कर्मोपादानकर्मसु ॥१४॥ टी० आत्मा तु भावकर्मरूपरागद्वेषाशयं मजन , तन्निमित्तोपनम्रपु'-रागद्वेपाऽऽशयं निमित्तीकृत्योपनमनशीलेषु 'कोपादानकर्मस' मनोवाककायक्रियाऽऽत्मकयोगकर्मरूपोपादानजन्यद्रव्यकर्मरूपपुदगलेष
'न व्यापूनः'व्यापाराभाववानात्मा भवति, यावत् त्रयोदशगुणस्थानं मनोवाक्कायानां योगोऽस्त्यत| स्तावदेव कर्मणो ग्रहणं भवति, ततः कर्मण उपादानं योगरूपं कमैंट कथ्यते ॥११४॥
-अपेक्षया भावकर्म सजन्नात्मा, पुद्गलकर्मकृत् कथ्यते'वारि वर्षन यथाऽम्भोदो, धान्यवर्षी निगद्यते ।
भावकर्म सृजनात्मा, तथा पुद्गलकर्मकृत् ॥११५।। टी० यथाऽम्भोदो-मेघः, वारि-जलं वर्षन , धान्यवर्षी-धान्यं वर्षन , निगद्यते-कथ्यते तथा रागादिरूपं भावकर्म सृजनात्मा, द्रव्यकर्मणःस्रष्टा कथ्यते यतः कारणे कार्योपचारो भवति, व्यवहारनयत आत्मा, द्रव्यकर्मकर्ता, अशुद्धनिश्चयनयतस्तु रागादिरूपभावकर्मकर्तेति ॥११५॥
, -फलं यावदव्यापार: परिदृष्टो यदाऽऽत्मन:--
॥४७॥
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अध्यात्म
सारः
॥४७॥
'नगमव्यवहारौ' तु, बतः कर्मादिकर्तृताम् ।
व्यापारः फलपर्यन्तः, परिदृष्टो यदाऽऽत्मनः ॥११॥ टी० पूर्व तावन्निश्चयनयदृष्टयाऽऽत्मनि कर्मादेः कर्तुत्वम् निषिद्धम् , नैगमव्यवहारनयदृष्टया त्वास्मा. रागादेवि को देरपि कर्ता भवत्येव, नैगमव्यवहारौ त्वत्र हेतु दर्शयन्तावाहतुः 'व्यापार: फलपर्यन्तः परिदृष्टो घदान्मनः' आत्मा, यद्रागादि विदधाति तस्य फलं सामान्यतोऽव्यवहितं नायाति, अथ यदि कालान्तरे फलमायाति, ततो गगादितत्फलरूपोभयमध्यकाले तादृशः कोऽपि व्यापारो मन्तव्यो यद् यः फलान्यावत्तिष्ठेन , किञ्च तया रीत्या सुखादिकफलं प्रति रागादेः पूर्ववृत्तितारूपकारणतामपि संग्क्षेत , एष व्यापार स एवाऽत्र द्रव्यकर्म, आत्मा पूर्व रागादिकं जनयेत , पश्चात्ततो द्रव्यकर्म जनयेत , ततश्च द्रव्यकर्मद्वारा, फलस्य विपाकं प्राप्नुयादेवं रागादितत्फलरूपद्वयमध्ये शृङ्खलारूपव्यापारस्य मतम्याऽ. निवार्यता भवति ॥ ११॥
-अन्योऽन्यानुगतजलदुग्धवद् रागादिपर्यायकर्मपुद्गलयोर्भेदः सुकठिन:'श्रन्योऽन्यानुगतानां कः तदेतदिति वा भिदा । तावच्चरमपर्याय, यथा पानीय-दुग्धयोः ॥११७||
४७२।।
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अध्यात्मसार
॥४७३||
टी. नैगमव्यवहारन यो कथयतश्च यद् , आन्मनि रागादेः पर्यायाः कर्मपुद्गलाश्चेति द्वयं पानीयदग्धवदन्योऽन्यानुगतं एकात्मतां गतं, नयोयोत्रिकर्मद्रव्यकर्मणोभिंदा-भेदोऽत्यन्तकठिनोऽस्ति, अर्थाद् यद्यात्मा, रागादेः कर्ता म्यात्तदा कर्मणोऽपि कर्ता कथं न स्यात? यावदात्मनश्चरमपर्यायरूपाऽन्तिममोक्षपर्यायो न भवेत्ताबदेपा वस्तुस्थिनिर्वतमाना तिष्ठत्येव, अर्थादात्मा, द्रव्यकर्मादेगपि कर्ताऽभ्युपगन्तव्य एवेति ॥११७॥
- एता नवनवानां नयानां कल्पना आत्मविकृतिकारिण्यो न'नाऽऽत्मनो विकृतिं दत्त, तदेषा नयकल्पना ।
शुद्धस्य रजतस्येव, शुक्तिधर्मप्रकल्पना ॥११॥ टी. नन्वेतास्तु कियज्जातीया नयकल्पनाः कल्पिताः ? कश्चित् कस्यचित् कर्तत्वं न मन्यते, कश्चिच शुद्धस्वभावस्याऽऽत्मनि कत्तु त्वं मन्यते, गगादेरकत त्वं मन्यते कश्चिच्च रागादेरपि कर्तत्वं मन्यते, कश्चितकमादेरपि कत्त त्वं मन्यते किमिदं ? किश्चिन्न ज्ञायते ? इति चेन्न, यावत्यस्तावत्यो भूयस्यो नयकल्पना भवन्तु, परन्तु ततो निर्विकारात्मन्यात्मनि काचिदपि विकृति याति, यथा कश्चिज्जनः शुद्धे रजते शुक्तित्वरूपशुक्तिधर्मस्य कल्पना कुर्यात्ततः किं रजते किश्चिदपि शुक्तित्वमायाति ? अपितु नायात्येव, तथा
॥४७३॥
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अध्यात्म
सार:
॥४७४॥
शुद्धनिश्चयनयतस्तु सदा निर्विकारस्वरूप एवाऽऽत्मनि, तदेपा नथाना कल्पना नात्मनो विकृति दत्ते यतः परधर्मप्रकल्पना स्वात्मनि कल्पनारूपैव न वास्तविकफलप्रदात्रीति ॥११८।।
-पुद्गले कर्मणि गतो विकारो पालिशैरात्यन्युपचर्यते"मुषितत्वं यथा पान्थ-गतं पथ्युपचय ते ।
तथा पुद्गलकर्मस्था, विक्रियाऽत्मनि बालिशैः ॥११॥ टी० यथा मार्गे गच्छन्तः केचिदध्वगाश्चोरे पितास्तदा 'मार्गेण वयं मुषिताः' इति यथोपचारेण तैः कथ्यते, तथाऽज्ञानिनो बालिशा जीवाः, कर्म पुद्गला विकृतिमन्तः सन्तः, तथाप्यात्मानं विकारवन्तं कथयन्तीति परन्तु सत्यं मनागपि बालिशा अपलपितु नेशाः, सत्यमिदं 'मार्गेण न मुषिता वयं चौरेमुपिता वयम्' इति तथा नाऽत्मा विकारी भवति, विकारि भवति हि कर्मेति ॥११९॥
-रागी द्वेषी चात्मा, पुण्यपापयोः संसर्ग:द भवति-- 'कृष्णः शोणोऽपि चोपाधे-नाशुद्धः स्फटिको यथा ।
रक्तो द्विष्टस्तथैवाऽऽत्मा, संसर्गात् पुरायपापयोः ॥१२०॥ टी० यथा स्फटिकः, कृष्णरक्तपदार्थोपाधिसन्निधानतः, कृष्णरूपवता वा शोणरूपवता सन्निहितोऽपि
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॥४७४॥
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अध्यात्मसार:
॥४७५॥
स्फटिको वर्णेरशुद्धो न भवति, तथा पुण्यपाप-शुभाशुभकर्मोपाधिसहचरित आत्मा, रागी द्वेषी चाऽऽत्मा दृश्यते, वस्तुतस्तु शुद्ध एवाऽस्ति, रागादिविरहित एवेति ॥१२॥
-आत्मनः कल्पनाऽतीतं रूपमकल्पक एव पइगति'सेयं नटकला तावद्, यावद्विविधकल्पना ।
तद्रूपं कल्पनाऽतीतं, तत्तु पश्यत्यकल्पकः ॥१२१॥ टी. अज्ञानवशेन यावद् विविधकल्पना, मानसमानममध्ये समुत्तिष्ठते, तावत् सेयं प्रत्यक्षा विविधकल्पना, नटकला-नटमायारूपोऽयमखिलसंसारः, 'तपं कल्पनाऽतीत आत्मनः कल्पनाऽती रूपं यन्निरजननिराकारस्वरूपमस्ति 'तत्त' तद्रूप-स्वरूपमात्मनः 'पश्यत्य कल्पकः = विविधकल्पनाविरहितो निर्विकल्पकपूर्णदशाप्राप्तः, पश्यात-आत्मप्रत्यक्षज्ञानतः पश्यतीति ॥१२॥
-- कल्पनामूढः प्राणी विपरीतदर्शनं करोति'कल्पनामोहितो जन्तुः शुक्लं कृष्णं च पश्यति ।
तम्यां पुनर्विलीनायामशुक्लाऽकृष्णमीक्षते ॥१२२॥ टी. 'कल्पनामोहितो जन्तुः' मोहजनितकल्पनाकरणतो जन्तुः स्वं शुक्लं-शुक्लबर्णरूपिणं च कृष्णं-कृष्णवर्णरूपिणं पश्यति-बहिरात्मभावजन्यवहिदृष्टया चर्मचक्षुपा वा पश्यति, 'तस्या पुनर्विलीनाया'=
॥४७५॥
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अध्यात्म
सार
॥४७६॥
मोहनिर्मितकल्पनायां विनष्टायां सत्यां 'अशुक्लाऽकृष्णमीक्षते' शुक्लवर्णरहितं कृष्णवर्णरहितं यावदरूपिणं सच्चिदानन्दस्वरूपशालिनमीक्षते-सूक्ष्मान्तदृष्टया विवेकजन्यदृष्टया पश्यति ॥१२२।।
- शुद्धात्मस्वरूपस्य चिन्तनमेव परमात्मध्यानादिकम्'तव्यानं सा स्तुति भक्तिः सैवोक्ता परमात्मनः ।
पुण्यपापविहीनस्य यद्रूपस्याऽनुचिन्तनम् ॥१२३॥ टी० तस्मादेव परमात्मनस्तदेव सत्यं ध्यान, सा च सत्या स्तुतिः, मैव सत्या भक्तिः, 'पुण्यपापविहीनस्य'-कांशमात्ररहितस्य यथा परमात्मनः, तथाऽत्मनो यद्रूपं-स्वरूपं, तस्य शुद्ध स्वरूपस्याऽनुचिन्तनमिति ॥१२३॥
__-शरीरादिभिर्वणिते वीतरागस्य वास्तवी नोपवर्णनाशरीररूपलावण्य-वप्रच्छत्रध्वजादिभिः
वणितै वीतरागस्य, वास्तवी नोपवर्णना ॥१२४॥ टी. श्रीमतो वीतरागदेवस्य निरामयत्वस्वेदमलोज्झितत्वाद्भनरूपगन्धवविशिष्ट शरीरणालांकि करूपेणानुपमलावण्येनापूर्ववत्र येण, छत्रत्रयेण रत्नमयध्वजेनेत्यादिना, चामीकरपङ्कजादिभिर्वणिते
॥४०६॥
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अध्यात्म-12 मार:
॥४७७॥
न वास्तवी म्नुतिरस्ति, परमाऽऽत्मनोऽत्यन्तभिन्नः शरीरसमवसरणादिभिर्या परमात्मनः स्तुतिः क्रियते सा निश्चयनयसम्मता वास्तवी कथं? अर्थाद व्यावहारिक्येव ॥१४॥
-व्यवहार-निश्चयनयस्तुतिवर्णनम्'व्यवहारस्तुतिः सेयं, वीतरागात्म-वर्तिनाम् ।
ज्ञानादीनां गुणानां तु, वर्णना निश्चयस्तुतिः ।।१२५।। टी. 'सेयं शरीगदिविपयिणी स्तुतिः, व्यवहाग्नयसम्मताऽन एवं व्यवहारस्तुतिः कथ्यने, वीतरागाऽऽत्मवर्तिनां ज्ञानादीनां गुणानां तु वर्णना निश्चयस्तुतिः'वीतरागत्वविशिष्ट आत्मनि वर्तमानानां केवलज्ञानादीनां गुणाना-विशिष्टधर्माणां स्तुति निश्चयनयसम्मता त एवं निश्चयस्तुतिः कथ्यते ॥१२॥
__ -पुरादिवर्णनाद्राजा स्तुतः स्यादपचारतःपुरादिवर्णनाद्राजा, स्तुतः स्यादुपचारतः ।
तत्त्वतः शोर्यगाम्भीर्य-धैर्यादिगुणवर्णनात् ॥१२६॥ टी० नगरोद्यानादिवर्णनतो, उपचारतः-व्यवहारतः, राजा, स्तुतः स्यात् , परन्तु शौर्यगाम्भीर्यधैर्यादीनां गुणानां वर्णनात् स्तुतो राजा, तत्वतो वस्तुतः स्तुत इन्युच्यते ॥१२६।।
॥४७७॥
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अध्यात्म
सार:
॥४७८॥
-मुख्यगौणधर्माणां विवेकेन स्तुतिः कर्तव्या'मुख्योपचारधर्माणा-मविभागेन या स्तुतिः ।
न सा चित्तप्रसादाय, कवितं कुकवेरिव ॥१२७॥ टी० परमाऽऽत्मनः स्वरूपं लक्ष्याकृत्याऽनन्त चतुष्टयाद्या मुख्या गुणस्वरूपधर्माः सन्ति ते मुख्यधर्माः, 'शरीगदीननुलक्ष्य चाष्टमहापातिहार्यादिकसमृद्धिरूग ये उपचाराः महापुण्यजन्या धर्मा अतिशयविशेषाः मन्ति, तेषामुभयधर्माणां कश्चिद्विभागमकन्वा या क्रियमाणा परमात्मस्तुतिः चित्तस्य प्रसन्नतायैमनमः शुद्धये नैव भवति इदमत्रहृदयम्प्रभुगतगुणानां स्तुतिस्तु निरुप चरितप्तुतित्वेनाऽष्टमहाप्राति हार्यादिवर्णनद्वाग जायमाना परमात्मस्तुतिस्तूपचरितस्तुतित्वेन भेदः कार्यः प्रतिपत्तव्यश्च, यामुपचरित स्तुति निरुपचरितस्तुतित्वेन मत्वा क्रियमाणा स्तुतिः कदाचिदानन्दाय न भवति, एवमेव यां निरुपच रितस्तुतिमुपचरितम्तुतिन्वेन मत्वा क्रियमाणा स्तुतिरपि कथमानन्दाय भवेदिति ? छन्दोऽनुप्रासादिमिश्रणतः क्रियमाणं कुकवेः कवित्वं कस्याऽनन्दाय भवेद् ? न कम्याऽप्यानन्दाय भवतीति ।।१२७।।
-अन्यथाऽऽग्रहतः प्रत्युताऽनीय कल्पते'अन्यथाऽभिनिवेशेन, प्रत्युताऽनर्थकारिणी । सुतीक्ष्णखड्गधारेव, प्रमादेन करे घृता ॥१२८||
॥४७८॥
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अध्यात्म
सार:
॥४७९॥
幸幸幸幸未来来来来来来来来来来来来来来来来来来
टी. नन्वष्टमहापातिहार्यादिरूपगौणधर्माणामुपचरितस्तुतिं निरुपचरितस्तुतित्वेन मताग्रहश्चेत्तदा 'प्रत्युतानर्थकारिणी' दुर्नयग्रहग्रस्तस्तुतीनामनर्थकारित्वं कथं न भवेत् ? यथा सुतीक्ष्णखड्गधारा, प्रमादेन करे घृता, प्रत्युतानर्थकारिणी तथाऽत्रापि ज्ञेयम् ॥१२८॥
___ -मणिप्रभामणिज्ञानन्यायेन शुभकल्पना न्याय्या. 'मणिप्रभामणिज्ञान-न्यायेन शुभकल्पना ।
वस्तुस्पर्शितया न्याय्या, यावन्नाऽनञ्जनप्रथा ॥१२॥ टी० मणिप्रभामणिज्ञानन्यायेन, मणिज्ञानं प्रति मणिप्रभाज्ञानं कारणमस्नि, मणिप्रभाज्ञानम्य मणिज्ञाने कारणत्वेन शुभकल्पना, मणिरूपवस्तुस्पर्शितया न्याय्या, प्राथमिकाऽवस्थायां व्यवहारस्तुतनिरुपचरितस्तुति प्रति कारणत्वेन निरुपचरितस्तुतित्वेन रूपेण बुद्धी शुभकल्पना, तीर्थकररूपवस्तुस्पर्शितया न्याय्या-न्यायादनपेता, 'यावन्नाऽनञ्जनप्रथा' निर्विकल्पदशा वा वीतरागनिरावरणशद्धावस्था यावन्न
भवति तावद् वस्तुस्पर्शितया स्तुत्यादि गता शभकल्पना न्याय्या, तत्फलरूपनिरञ्जनावस्थाप्राप्त्यनन्तरं कथं न्याय्या? यथा मणिप्राप्यनन्तरं मणिज्ञानादिरूपकारणताऽनावश्यकी अथवा निरञ्जन विषयकस्तुत्यादिरूपज्ञानादिगुणस्तुतिरूपप्रथा यावन्न भवति तावद्वस्तुम्पर्शित या व्यवहारस्तुतिगत- IA||४७९॥ निश्चयकल्पनारूपशुभकल्पना न्याय्या कारणे कार्योपचारापेक्षयेति ॥१२६॥
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अध्यात्म
सार:
॥४८॥
-पुण्यपापाभ्यां रहितमात्मतत्त्वम्'पुण्यपापविनिर्मुक्त, तत्त्वतस्त्वविकल्पकम् ।
नित्यं ब्रह्म सदा ध्येय-मेषा शुद्धनयस्थितिः ॥१३०॥ टी० शद्ध निश्चयनयस्य स्थितिरेषाऽस्ति यतः, आत्मना तत्वतः पुण्यपापनिमुक्तं विकल्पतः शून्यं नित्यं ब्रह्म-आत्मस्वरूपं सदा ध्येय-ध्यानविषयीकर्तव्यमिति ॥१३०॥
-आत्मा त्वाश्रवसंवराभ्यां भिन्न:'थाश्रवः संवरश्चापि, नाऽत्मा विज्ञानलक्षणः । यत्कर्मपुद्गलादान-रोधावाश्रवसंवरौ
॥१३१।। टी. आश्रवः संवस्थाऽपि नाऽऽत्मा, यत आत्मा, विज्ञान-चैतन्यरूपलक्षणोऽस्ति, यतः कर्मनामकपुद्गलम्य ग्रहणमाश्रवतत्वम् , कर्मनामकपुद्गलम्य निरोधरूपं संवरतच्चम् , तयोमिन आत्माऽस्ति ॥१३॥
-मिथ्यात्वाऽविरतिकषाययोगास्ते भावाश्रवाः'थात्माऽऽदत्ते तु ये र्भावः, स्वतन्त्रः कर्मपुद्गलान् । मिथ्यात्वाऽविरती योगाः कषायास्तेऽन्तराश्रवाः ॥१३२॥
ilg८०॥
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अध्यात्मसार:
॥४८॥
टी. य भावः स्वतन्त्र आन्मा, कम्पुद्गलानादत्ते-गृहणाति, ते-मिथ्यात्वमविरतियोगाश्च कपाया अन्तराश्रवाः-भावाश्रवाः, अशुनिश्चयनयतम्त एव वस्तुत आश्रवाः ॥१३२॥
-आश्रवोच्छेदिनो धर्मा आत्मनो भावसंवराः'भावनाधर्मचारित्र-परीषहजयादयः
। श्राश्रवोच्छेदिनो धर्मा, श्रात्मनो भावसंवराः ॥१३३॥ टी. पूर्वोक्तम्याश्रवस्य निरोधं कुर्वत आत्मनो भावनामाधुधर्म चारित्रपरीपहजयादयो भावरूपधर्मा भावसंवग्न्वेनोच्यन्ते, अशुद्धनिश्चयनयतस्त्वेष भावसंवर एव, वस्तुतः संवरोऽस्ति, व्यवहारनयस्य मतेऽस्मिन्नेव द्रव्यना भावतश्चैवं द्वौ भेदौ पतत इति ॥१३॥
-आश्रवः संघरो न स्यात् , संवरश्वाश्रवः क्वचित्'श्राश्रवः संवरो न स्यात् , संवरश्वाश्रवः क्वचित् ।
भवमोक्षफलाऽभेदोऽन्यथा स्याद्धेतुसङ्करात् ॥१३॥ टी. आश्रयः संवरो न भवति, संवरचाश्रवो न भवति, अन्यथा-यद्येवमपि भवेदर्थादेकस्य च परस्य हेतूनां, एकस्मिन् परस्मिश्च साङ्कर्येण, आश्रयस्य फले भवस्थाने मोशो भवेत , संवरम्य च फलं
१४८१॥
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अध्यात्म.
सार:
॥४८२ ॥
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संसारोऽपि भवेत् समासत आश्रवसंवरबोरमेदे जायमाने सति, तत्फलरूपयो भवमोक्षयोरभेदापत्तिर्भवेदिति ॥१३४॥
-आश्रवन् कर्म, संवृण्वन् कर्म, भिन्नैर्निजाध्यवसायैश्चात्मैव'कर्माऽऽस्रवन् च संवृगवन्, चात्मा भिन्नै र्निजाशयैः ।
करोति न परापेक्षा मलम्भूष्णुः स्वतः सदा ॥१३५॥
टी० भिन्नैः - नानाविधैः, निजाशयैः - स्वकीयैरध्यवसायैरात्मा, स्वयमेवाश्रवन् कुर्व्वन् कर्म, संवृण्वन-निरुन्धन् कर्म, तथाकरणे - आश्रव संवरकरणे चात्मा, स्वतः स्वयमेव सदाऽलम्भृष्णः नित्यसमर्थः, परापेक्षां - परपदार्थस्याऽपेक्षां न करोतीति ॥ १३५ ॥
- सर्वाः क्रिया आत्मनः स्वतन्त्र व्यापारे निमित्तमात्राः सन्ति..
1
'निमित्तमात्रभूतास्तु हिंसाऽहिंसादयोऽखिलाः ये परप्राणिपर्याया, न ते स्वफलहेतवः
॥१३६॥
टी० आत्मनः स्वतन्त्र व्यापारं प्रति हिंसाऽहिंसादपोऽखिलाः क्रिया निमित्तमात्रभूताः सन्ति, हिंसादयः परप्राणिपर्यायाः सन्ति यतः हिंसादयः - परप्राणिनां प्राणानां नाशादयः, ते तु परप्राणिगता एव
॥४८२ ॥
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अध्यात्मसार:
॥५८३॥
तिष्ठन्ति, 'ये परप्राणिपर्याया न ते स्वफलहेतवः' =ये परप्राणिगताः पर्यायास्ते स्वात्मनो दुःखादिकफलं प्रति हेतवः कथं स्युः ? यत्र कार्य भवेत् तत्रैव कारणेन भाव्यम् , आत्मगतदुःखादिफलं प्रति तु, आत्मनएव कश्चित पर्यायः कारणं सम्भवेत् तत आत्मनः स्वम्य शभाशमपरिणामस्वरूपपर्यायविशेषावाश्रवसंवरीवाच्यो, यतो यो आत्मगतदुःखादिफलहेतु स्तः, अर्थात् , हिंसादयो बाह्यक्रिया आश्रवसंवरत्वेन, वाच्यत्वेन, न युक्ताः ।।१३६।।
-जडमात्रक्रियापरायणचेतास्तत्त्वं निगूढं न पश्यति'व्यवहारविमूढस्तु हेतूंस्तानेव मन्यते ।
बाह्यक्रियारतस्वान्त-स्तत्त्वं गूदं न पश्यति ॥१३७॥ टी. व्यवहारविमूढस्तु जीवः, तानेव हेतून मन्यते' परप्राणिगतपर्यायान बाह्यरूपान् हिंसाऽहिंसादीन् , आश्रवसंवरत्वेन मन्यते, च तानेव मोक्षादिकफलं प्रति हेतून मन्यते, अत एव धर्माद्यर्थ, अहिंसादिबाह्यक्रियाप्रीतमनाः, निश्चयनयस्य निगूढ तत्व-विशिष्टभावतत्त्वं न पश्यत्यपीति ॥१३७॥
-यावन्त आश्रवाः प्राक्तास्तावन्तो हि परिश्रवाःहेतुत्वं प्रतिपद्यन्ते, नैवैतेऽनियमस्पशः । यावन्त श्राश्रवाः प्रोक्तास्तावन्तो हि परिश्रवाः ॥१३८||
॥४८३॥
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अध्यात्म
सारः
॥४८४॥
टो परमाणिगतपर्यायस्वरूपहिसाऽहिंसादीनां कृते तादृश ऐकान्तिको नियम एव नास्ति, यद भवहेतु-हिमेयाश्रयोऽम्ति, मोक्षहेतुरहिंसैव संवरोऽस्ति यतः श्रीमदाचारागसत्रे स्पष्टं कथितमस्ति, 'जे आसव्वा ते परिसच्या जे परिमव्वा ते आसन्या' इति, ततः परं, अधुना तु हिंसादिकः कथमाश्रवरूपः कथ्येत ! यतस्ते मोक्षस्याऽपि हेतुत्व-भवनशक्य योग्यतावन्तः स्युः, अर्थात् व्यवहारविमृढात्मनां बाह्यहिंसादिक्रियामाश्रित्या श्रवसंघररूपप सस्वीकारवृत्तिः सर्वथा भ्रान्तिमतीति ॥१३८॥
___-भावानां वैविध्यादात्मैवाश्रवसंवरी'तस्मादनियतं रूपं, बाह्यहेतुषु सर्वथा ।
नियतौ भाववैचित्र्या-दात्मैवाश्रवसंवरौ ॥१३॥ सी० एतद् वस्तु निश्चितमेव जातं यद् बाह्यकियारूपायां हिंसायां चाहिंसायामाश्रवत्वस्य संवरत्वग्य नियमो नाम्न्यव, नियमस्त्वेतावानेव स्थितः, यद् 'भावाश्रवः एवाश्रवो, अतः स नियमतः संसारस्य हेतुम्ति तथा भाववर एव संवरोऽस्ति, यतः स नियमतो मोक्षस्यैव हेतुरस्ति, एवं तस्य तस्य भावम्य चिच्यणान्मेवाश्रवसंबरी भवन इति ॥१३९॥
-ज्ञानाऽज्ञानाभ्यां मुक्तिबन्धौ न तु शास्त्रादिविषयाभ्याम्
1४८४॥
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अध्यात्मसार
॥४८५॥
'अज्ञानाद विषयासक्तो बध्यते विषयैस्तु न ।
ज्ञानाद्विमुच्यते चात्मा, न तु शास्त्रादिपुद्गलात् ॥१४०॥ टी० अज्ञानात-आत्माऽज्ञानान् , 'विषयासक्तः' इन्द्रियमन्कविषयसुखरसिको जीवो वध्यते-कर्मणा सह बद्धो भवति, न तु विषयमात्रेण, 'ज्ञानाद्'आत्मज्ञानाच्चान्मा, कमणा मुक्तो, भवति, परन्तु शास्त्रवेषवाद्यक्रियाविषयपुद्गलात न मुक्नो भवति, सत्यज्ञानवान-अनासक्तयोगी विषयभोगोपभोगसाधनसन्निधानेऽपि कर्मणा न बध्यते. स्थूल दृष्टया शास्त्राण्यधीयानोऽपि, अज्ञानी भवाऽभिनन्दी कर्मतो मुक्तो न भवतीनि ॥१४॥
-व्यवहार विशारवसम्मतानि संवराङ्गानि कथ्यन्ते'शास्त्रं गुरोश्च विनयं, क्रियामावश्यकानि च ।
संवराङ्गतया प्राहु-र्व्यवहारविशारदाः ॥११॥ टी. शास्त्र' च गुरोश्च विनयं, प्रतिलेखनादिबाह्यक्रियामानं चाऽऽवश्यकानि संवरस्थाऽङ्गत्वेन व्यवहारविशारदाः प्राहु:-कथयन्तीति, निश्चयनयस्त्वेवं न मन्यते यतो व्यवहारसम्मतानि संवराङ्गानि सर्वाणि सेवमानोऽभव्यादिरात्मा, मोक्षं न लभते, तस्मादान्तरमावरूपसंबर एव संवर उच्यते पूर्वकथिता बाह्यच्यापाग संवरं प्रति न निश्चितहेतवस्तस्मानिश्चयनयतस्तु ते संवरत्वेन न कथ्यन्ते ॥१४१॥
॥४८५॥
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अध्यात्म
सारः
॥४८६॥
-निश्चयनयसम्मतं संवरत्वं समुच्यते'विशिष्टा वाक्तनुस्वान्त-पुदगलास्तेऽफलावहाः ।
ये तु ज्ञानादयो भावाः, संवरत्वं प्रयान्ति ते ॥१४२॥ टी. निश्चयनयतस्तु पूवोक्तशास्त्रादौ मनोवचःकायसत्कपुद्गला ये बाह्यव्यापारविशिष्टा भवन्ति ते संवररूपफलं प्रति न जनका भवन्ति, ये तु ज्ञानादिरूपा आन्तग भावाः स्युस्ते, संवरफलं जनकत्वेन संवरत्वं प्रयान्ति-प्राप्नुवन्तीति ॥१४२॥
-व्यवहारिण आरोपितसंवरत्वं व्यवस्थाप्य सगर्वा भवन्ति'ज्ञानादिभावयुक्तेषु, शुभयोगेषु तद्गतम् ।
संवरत्वं समारोप्य, स्मयन्ते व्यवहारिणः ॥१३॥ टी० यत् संवरत्वं वस्तुत आत्मनिष्ठज्ञानादिभावेषु वर्तते, तस्याऽऽरोपं व्यवहारनयो ज्ञानादिभावयुक्तेषु बाह्यशुभयोगेषु करोनि, तया रीत्या तेषु बाह्यशुभयोगेषु संवरत्वमुक्त्वा, मिथ्या गर्व धारयति, अपि चस जानाति यद् बाह्ययोगेषु संवरत्वं कथयितु कथमपि न युज्यते यतो चाह्ययोगसेवनमात्रेण मोक्षो न भवति, ततस्तेन 'ज्ञानादिभावयुक्ततेति विशेषणमुक्तमरिन विशेषण मत्तायां चाहयोगे संवरत्वमागतम् , यदि च
॥४८६॥
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अध्यात्म सारा
॥४८७॥
तेन ज्ञानादिभानरूपविशेषणेन बाह्ययोगो विशिष्टो भवेत्तदा तेन शुद्धन केवलेन बाद्ययोगेन संवरो न भवेदिति व्यवहारनयेन प्रतिपन्नम् , निश्चयनय एवं कथयति यद् , झानादिभावे सत्येव बाह्यशास्त्राध्ययनादिक्रिया, संवरत्वमापन्ना भवति, असति ज्ञानादिभावे मा क्रिया, मंवगे न भवति, एवं स्थिते ज्ञानादि भावा एव संवररूपा इति मन्तव्यम् , ज्ञानादिभावयुक्ता बाह्यक्रिया संवग्न्वेन मन्वा मिथ्याऽभिमानं व्यवहारनयः किमर्थ धारयते? सोऽभिमानस्त्याज्य एव ।।१४३।। -व्यवहारिणो वदन्ति यद् ‘सरागचारित्रादौ शुभाश्रवत्वमारोप्य फलभेदः'
'प्रशस्तरागयुक्तेषु, चारित्रादिगुणेष्वपि ।
शुभाश्रवत्वमारोप्य, फलभेदं वदन्ति ते ॥१४॥ टी० प्रशस्तरागयुक्तेषु चारित्रादिगुणेष्वपि [ये व्यवहारण संवरत्वेन व्यवहियमाणेषु चारित्रादिगुणेष्वपि] 'शुभाश्रवत्वमारोप्य व्यवहारिणः फन भेदं ते बदन्ति' चारित्रमानं संवरत्वेन न हि कथयन्तः सरागचारित्रं शुभाश्रवन्वेन-पुण्यानुबन्धिपुण्यकर्मबन्थकत्वेन कथयन्ति ॥१४॥
-भवस्य निर्वाणस्य च हेतूनां वस्तुतो न विपर्ययःभवनिर्वाणहेतूनां वस्तुतो न विपर्ययः । श्रज्ञानादेव तद्भानं, ज्ञानी तत्र न मुह्यति ॥१४५।।
४८७॥
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अध्यात्मसार:
॥४८८॥
टी० वस्तुतस्तु ये भवस्य हेतवो भवेयुस्ते भवस्यैव हेतवो भवन्ति ये चारित्रादयो मोक्षस्य हेतवः स्युस्ते मोक्षस्यैव हेतवो भवन्ति, कार्यकारणयोगमध्येऽस्मिन् पूर्वोक्तरीत्या सरागता निमित्तीकृत्य चारित्रादौ शुभाश्रवत्वमारोप्य भवहेतुत्वकल्पनारूपो विपर्ययो न कदाचिदपि शक्यः, अर्थात्तत्त्वतस्तु, अज्ञानहेतुनेवं विपरीतभानं भवत्येव, नाऽन्यथा तत्र-भवनिर्वाणहेतविषयनिणये, ज्ञानी-निश्चयव्यवहारभेदज्ञानी न मुह्यतीति ॥१४५॥
शास्त्रं जिननामकर्म हेतुः सम्यक्त्वं, आहारकनामकर्म हेतुरप्रमत्तचारित्रं सरागतपःसंयमौ स्वर्गस्य हेतु इति यत्कथितं तत्कथं समञ्जसमिति शङ्कायाः समाधानाय द्वौ श्लोको विरच्येते
'तीर्थकृन्नामहेतुत्वं, यत् सम्यक्त्वस्य वार्यते । यच्चाहारकहेतुत्वं, संयमस्याऽतिशायिनः ॥१४६।। तपः संयमयोः स्वर्गहेतुत्वं यच्च पूर्वयोः ।
उपचारेण तदयुक्तं, स्याद् घृतं दहतीतिवत् ॥१४७|| टी० यत तीर्थकरनामहेतुत्वं सम्यक्त्वम्य मंवररूपम्य वर्ण्यते, यदाहारक-नामकर्म हेतुत्वं 'संयमस्य अतिशायिन''अप्रमत्तस्य मंयमस्य संवररूपस्य वयेते, यन पूर्वयोः-प्रशस्तरागयुक्तयोस्तपः संयमयोः
४८॥
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अध्यात्म भार:
॥४८९॥
संवररूपयोः म्वगहेतुत्वं वयेते, तदुपचारेणोक्तं युक्तं म्यान , यथा 'घृतं दहनीति वदुपचारेणेतत् सर्व कथितं जेयमिनि वस्तुतस्तु सम्यक्त्वादयः मर्वे संवरूपाः ॥१४६।।१४७॥
-योगोपयोगाभ्यामंशाऽऽत्मकाभ्यामाश्रवसंवरी'येनांशेनाऽऽत्मनो योगस्तेनांशेनाश्रवो मतः ।
येनांशेनोपयोगस्तु, तेनांशेनाऽस्य संवरः ॥१४८॥ टी. निश्चयनयेनैवं कथ्यते यद् येनांशेन-यावतांशेनात्मनो योगो-मनःकायादिव्यापागे मवेद, तेनांऽशेन-तावतांशेनाऽऽत्मनः कर्माश्रवः स्यादेव, येनांशेन-यावतांशेनोपयोगो-ज्ञानादिभावस्तेनांशेनतात्रतांशेनान्मनः कर्मसंवरः म्यादेव, एवमाश्रवसंवरद्वयं योगपद्येन तत्तदंशेषु भवति, अर्थाद् बाह्यहिंसादिकस्यामकस्याश्रयत्वेनैव कथनं अहिंमादिकस्यैव च संवरत्वेन कथनमनुचितं, तथैव संवररूपस्य सरागचारित्रम्य शुभाश्रवत्वेन कथनमनुचितं, चारित्रादो तु सरागमन आदियोग एवाश्रवः, उपयोगभाव एव संवरः, इदमत्र हृदयम् =चारित्रादयः सर्वे कथ्यमानाः शुभाश्रवा आश्रवरूपा न सन्ति परन्तु तस्य चारित्रादेः पालने यो योगभावोऽम्ति, स आश्रयोऽस्ति, यश्चोपयोगभावोऽस्ति म संवरोऽस्ति, एवं चारित्रादिशुभाश्रवाणामाश्रवसंवरोभयभाववानात्मा, भवतीति ॥१४८॥
-अंशव्याप्तावाश्रवसंवरी विभ्रदाऽऽत्माऽस्ति
॥४८॥
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अध्यात्म
सार:
॥४९॥
'तेनाऽसावंशविश्रान्तौ, बिभ्रदाश्रव-संवरौ ।
भात्यादर्श इव स्वच्छास्वच्छ-भागद्वयः सदा ॥१४॥ टी० तेन तस्मात् कारणादसौ, तत्तदंशविश्रान्तावाश्रवसंवरौ-योगांशोपयोगसंव्याप्तावाश्रवसंवरतवद्वयं विभ्रदू-धारयन्त्रात्मा, 'स्वाच्छास्वच्छ-भागद्वयः पवित्राऽपवित्रांशद्वयरूपभागआदर्श इव' दर्पण इव सदा संसारपर्याये भाति-दृश्यते ॥१४९॥
-शुद्धव ज्ञानधारा स्यात् , सम्यक्त्वप्राप्यनन्तरम् --- शुद्धैव ज्ञानधारा स्यात्-सम्यक्त्वप्राप्त्यनन्तरम् ।
हेतुभेदादिचित्रा तु, योगधारा प्रवर्तते ॥१५॥ टी० शुद्धसम्यक्त्वस्य प्राप्तेरनन्तरं शुद्धैव-अशुद्धत्वाभावविशिष्टशुद्धमात्रा, ज्ञानधारा-उपयोगात्मकज्ञानधारा स्यात् , परन्तु मन आदियोगधाग तु. हेतुभेदाद्-भिन्नभिन्ननिमित्तवशात , शुद्धाऽपि शुद्धाऽशुद्धाऽपि, अशुद्धाऽपि प्रवर्तते-प्रवत्तमाना भवति, अविरतस्य सम्यक्त्ववतस्तु मनोवचः कायमत्का योगधारा, अशुद्धा स्याद् , यदा सर्वविरतस्य सम्यक्त्ववतो योगधारा शुद्धाऽपि भवेदिति ॥१५०॥ । R
॥४९॥
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अध्यात्मसार:
॥४११॥
-सम्यग्दृशो मृदुमध्यादिभावस्तु क्रियावैचित्र्यतो भवेद्'सम्यगदृशो विशुद्धत्वं, सर्वास्वपि दशास्वतः ।
मृदुमध्यादिभावस्तु क्रियावैचित्र्यतो भवेत् ॥१५१|| टी. 'सर्यास्वपि दशासु'-कर्मकालादिकृतासु सुखदुःखादिद्वन्द्वाऽऽक्रान्तासु मास्वपि दशासु 'सम्यग् दृशो सम्यगण्टे विशुद्धत्वं प्रथमपक्षे. अथवा चतुर्थगुणस्थानकादारभ्य, चतुर्दशगुणस्थानकं यावत् , सम्यगदृष्टः मासु बाह्यशुभाशुभप्रवृत्तिा ज्ञानधाग विशुद्धेव, द्वितीयपक्ष अतः क्रियाचित्र्य-निमित्त वशाद् , मन्दमध्यमोत्कृष्टादिभेदभिन्नः क्षयोपशमादिभावम्त भवेद् प्रथमपक्षे तथाप्यतस्तम्यां विशुद्धा ब्राह्यक्रियाया विविधतारूपनिमित्तबलान , मन्दता-मध्यमता-उत्कृष्टताऽवश्यं भवेद् , अविरतम्य सम्यक्त्ववतो ज्ञानधाराया मन्दविशुद्धिः, अधिकाऽधिका प्रबला भवितुमर्हति, यथा यथोपयोगधाग, अधिकाऽधिकाऽविशुद्धा भवति, तथा तथा योगधाराऽप्यधिकाऽधिका भवतीति द्वितीयपक्षे ॥१५॥
-उपयोगयोगधारयाः सर्वतः शुद्धयोः सत्योः सर्वसंवरः'यदा तु सर्वतः शुद्धि, र्जायते धारयो दयोः । शैलेशासंज्ञितः स्थैर्यात् , तदा स्यात् सर्वसंवरः ॥१५२॥
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॥४९
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अध्यात्मसार:
॥४९२॥
टी. यदा तु द्वयो धरियोः सर्वतः शुद्धि र्जायते' यम्मिन् काले योगोपयोगधारयोः सर्वतःमम्पूर्णा शुद्धिः कर्मराहित्यरूपा निर्मलतोत्पद्यते वाऽविर्भवति, तदा-तस्मिन् काले मेरुसदृशाऽपूर्वस्थैर्यस्वरूपनैश्चल्याद् , 'शैलेशीसंज्ञितः' शैलेशीनामकः सर्वसंवरः स्यादिति ॥१५॥
___-आत्मनो यावद् योगचांचल्यस्थैर्वकृताश्रवसंवरौ'ततोऽर्वाग यच्च यावच्च, स्थिरत्वं तावदाऽऽत्मनः ।
संवरो, योगचाञ्चल्यं, यावत्तावक्तिलाश्रवः ॥५३॥ टी. शैलेशीनामकमर्व संवरप्राप्तः पूर्वस्मिन काले यः कश्चित संवरभावो भवति, स देशत एव भवति, यनचतुर्दशगुणस्थानकादधम्तनगुणस्थानकेषु नादृशविशिष्टापूर्वस्थ ये न सम्भवति, आत्मनो यच्च यावरच योगचाश्चल्याभावरूपं स्थिरत्वं, म तावान मंवरः, यच्च यावरच योगचाश्चल्यं तावानेवाश्रव इति ॥१५॥
-संसारिणां च सिडानां न शुद्धनयतो भिदा-- 'अशुद्धनयतश्चैवं, संवराश्रवसङ्कथा । संसारिणां च सिद्धानां, न शुद्धनयतो भिदा ॥१५४॥
॥४९॥
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अध्यात्म-100
मारः
टी. एवं पूर्वोक्तं सर्व विवरणमशुद्धनिश्चयनयं प्रतीत्य विज्ञेयं यतः स एव नय आत्मानमाश्रवसंवरपर्यायमयं मन्यते, शुद्धनिश्चयनयस्त्वात्मानं केवलं शुद्धज्ञानादिमयं मन्यतेऽर्थात्तन्मनेन, संमारिणां Tel च सिद्धानां न मिदा-भेदो वत्तते, आत्माऽद्वैतवादी शुद्धनिश्चयनयोऽस्ति ॥१५॥
-येन निर्जीयते कर्म, स भावस्त्वात्मलक्षणम्
निर्जरा कर्मणां शाटो, नात्माऽसौ कर्मपर्ययः । ॥४९३॥
येन निर्जीयते कर्म, स भावस्त्वात्मलक्षणम् ॥१५॥ __टी निर्जरा-आत्मतः कर्मपुद्गलानां दुर्गभवनं निर्जरोच्यते, कर्मणां शाटो, नात्मा आत्मस्वरूप18 रूपो नास्ति, परन्तु कर्मपर्यायोऽस्ति, तथाऽपि येन निर्जीयते कर्म, स भावोऽशुद्धनिश्चयनयतः-आत्मस्वरूपरूपोऽस्ति ॥१५५॥
-सत्तपो द्वादशविधं, शद्धज्ञानसमन्वितम्'सत्तपो द्वादशविधं, शुद्धज्ञानसमन्वितम् ।
श्रात्मशक्तिसमुत्थानं, चित्तवृत्तिनिरोधकृत् ॥१५६।। टी० 'शुद्धज्ञानसमन्वितम्' शुद्धेन ज्ञानेन समन्वितं द्वादशविधं सनपो भवेत्तदाऽऽत्मनः शक्ते रुन्यानं भवत्येव, चित्तस्य वृत्तिनिरोधो भवत्येवेति ॥१५६।।
। ॥४९३॥
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अध्यात्म-1
सार
॥४९४॥
-शुद्धतपसो लक्षणपूर्वकं विवेचनम्'यत्र रोधः कषायाणां, ब्रह्म ध्यानं जिनस्य च ।
ज्ञातव्यं तत्तपः शुद्धमवशिष्टं तु लवनम् ॥१५७।। टी० यत्र-तपसि, क्रोधादीनां कषायाणां रोधो-विष्कम्भनम् , 'ब्रह्म' यत्र तपसि मैथुनत्यागरूपस्य ब्रह्मचर्यस्य पालनम् , 'ध्यानं जिनस्य च' यत्र तपसि भगवतोऽहतो ध्यानमर्थाद् भगवति जिनेश्वरे विषये, एकविशिष्टज्ञानधारा. कषायनिरोधब्रह्मचर्यजनध्यानत्रयी, यत्र तपसि वर्तते तत्तपः शद्धं ज्ञातव्यंविज्ञेयम् , 'अवशिष्टं तु लङ्घनम्-कषायरोधादित्रयीशून्यमवशिष्टं शेष, अशद्धं तपो लङ्घनमुच्यते, तपोऽपि च न कथ्यते, तपो लङ्घनमुच्यते, तपो लङ्घनविशेषाभावादिति ॥१५७।
-देहकृशत्वादिभिस्तपान लक्ष्यते'बुभुक्षा देहकाय वा, तपसो नास्ति लक्षणम् ।
तितिक्षाब्रह्मगुप्त्यादि-स्थानं ज्ञानं तु तद्रपुः ॥१५८|| टी० बुभुक्षायाः क्षधाया मात्रसहनमथवा शरीरस्य कृशत्वं तपसो नास्ति लक्षणमसाधारणस्वरूपं तितिक्षा-सति मामयें क्षमा, ब्रह्मगुप्तयः ब्रह्मचर्यस्य नवगुप्तयः, अथवा ब्रह्मचर्य मनोगुप्त्यादि
॥४९४||
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T
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अध्यात्म
सारः
॥४९५।।
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शुद्धधर्मस्य स्थानमाधारः 'ज्ञानं तु तद्वपुः ' = ज्ञानं तस्य तपसो लक्षणं विज्ञेयं नान्यदिति ।। १५८|| - विशिष्टमेव तपो निर्जराहेतु र्न विलक्षणम्निपुणेनैक्य-माप्तं चन्दनगन्धवत् 1 निर्जरामात्मनो दत्ते तपो नान्यादृशं क्वचित् ॥१५६॥
'ज्ञानेन
दी०
'चन्दनगन्धवत्’=अभेदसम्बन्धाऽन्वित चन्दनगतगन्धतुल्यं, 'निपुणेन ज्ञानेनैक्यमाप्तं'= समर्थ सूक्ष्मज्ञानेन सहैकत्वं प्राप्तं तपो निर्जरामात्मनो दत्ते - तादृशतपसा निर्जरालाभान्वित आत्मा भवति, 'नाsन्यादृशं क्वचिद्' - निपुणज्ञानतादात्म्याऽप्राप्तं अन्यादृशं विलक्षणं तपो निर्जगं क्वचिदपि न दत्ते इति ॥। १५९ ।।
- प्रशस्त कार्यस्पृहस्तपस्वी, विपुलं पुण्यं बध्नाति - 'तपस्वी जिनभक्त्या च शासनोद्भासनेच्छुकः । पुरायं बध्नाति विपुलं, मुच्यते तु गतस्पृहः ॥ १६०॥
टी० तपःप्रतापी, जैनशासनप्रभावनाविषयक स्पृहावान्, जिनेश्वर देवविषयकपरमभक्तिकरणकारणानुमतिद्वारा 'विपुलं पुण्यं बध्नाति = विशिष्टपुण्यानुबन्धि पुण्यं बध्नाति 'मुच्यते तु गतस्पृहः'= तादृशस्पृहारहितश्चेत्तपस्वी, कर्ममात्रबन्धनतो मुक्तो भवतीति ।। १६० ।।
।। ४९५॥
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अध्यात्म
सार
४९६॥
-यत्तापयति कर्म तज्ज्ञानं तप एव'कर्मतापकरं ज्ञानं, तपस्तन्नैव वेत्ति यः ।
प्राप्नोतु स हतस्वान्तो, विपुलां निर्जरां कथं ? ॥१६१॥ टी. 'यज्ज्ञानं कम तापयति तज्ज्ञानमेव तपः, इत्यादिकं यः पुरुषो नेव जानाति, अज्ञानती हतं स्वान्तं यस्य म हतस्वान्तो-हतप्रतिहतमनाः सन् कथं विपुला निर्जरां प्राप्नुयादिति ? ॥१६१।।
-ज्ञानतपस्वी विशिष्टकर्मक्षयाय क्षमो भवति'यज्ञानी तपसा जन्म-कोटिभिः कर्म यन्नयेत् ।
अन्तं ज्ञानतपोयुक्तस्तत्क्षणेनैव संहरेत ॥१६२|| टी अज्ञानी-जिनाज्ञाऽनुसारितारहितोऽत एवाज्ञानी, 'जन्मनां कोटिभिः-भवकोट्यादि यावत् तपसा यत् कर्माऽन्तं-नाशं नयेत-प्रापयेत् , तत्कर्म, क्षणेन-घटिकायाः पष्ट-भागस्पकालविशेषणव, ज्ञानतपोयुक्तो महात्मा, मंहरेद् विनाशं कुर्यादिति ।। १६२।।
- ज्ञानयोग एव तपः शुडम्
POLI४९६॥
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O
अध्यात्म
सार:
॥४९७॥
'ज्ञानयोगस्तपः शुद्ध-मित्याहुमुनिपुङ्गवाः । तस्मानिकाचितस्याऽणि कर्मणो युज्यते क्षया ॥१६३|| यदिहापूर्वकरणं, श्रेणिः शुद्धा च जायते ।
ध्रुवः स्थितिक्षयस्तत्र, स्थितानां प्राच्यकर्मणाम् ॥१६॥ दी ज्ञानयोग एच शुद्धं तप इति मुनिपुङ्गवाः-गणधगदयो मुनीश्वरा आहुः कथयन्ति, तस्मात् ज्ञानयोगरूपातपसः, निकाचितस्याऽपि-अपिनाऽनिकाचितम्य तु का कथेति कथ्यते, कर्मणः क्षयो युज्यते-युक्तो भवतीति कथमिति चेत् उच्यते यद्-यत इह-ज्ञानयोग एवापूर्वकरणं द्वितीयाऽपूर्वकरणं च शणि :-क्षपकणि र्जायते--उत्पद्यते, तत्र--अपूर्वकरणक्षपकथेणिमध्य एव, स्थिताना--स्थितिमा प्राच्यकर्मणां स्थितेः क्षयो भ्रवः--निश्चयतो भवतीति ॥१६३-१६४||
-ज्ञानमयः शुद्धस्तपस्वीभावनिर्जरा'तस्माज्ज्ञानमयः शुद्धस्तपस्वी भाव निर्जरा । शुद्भनिश्चयतस्त्वेषा, सदा शुद्धस्य काऽपि न ॥१६५||
॥४९७॥
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सार
॥१९८॥
टीका-तस्मादिति- पूर्वकथित चर्चासारवशात , अशुद्धनिश्चयनयस्य दृष्टया, ज्ञानमयः--शुद्धस्तपस्याउ अध्यात्म-II न्वित आत्मैव भावनिर्जरा कथ्यते. शुद्धनिश्चयनयस्य दृष्टया त्वात्मा, सदा शुद्ध एवाऽस्ति, तन्मते भावनिजराऽपि न संभवतीति ।।१६५।।
-पन्धः कर्माऽऽत्मसंश्लेषः'बन्धः कर्माऽऽत्मसंश्लेषः, द्रव्यतः स चतुर्विधः ।
त त्वध्यवसायाऽऽत्मा, भावतस्तु प्रकीर्तितः ॥१६६॥ टीका कर्मण आत्मना सह यः संश्लेषरूपः सम्बन्धः म बन्धो लक्ष्यते, स द्रव्यतो बन्धः, प्रकृतिस्थितिरम--प्रदेशभेदाच्चतुर्विधः, तद् द्रव्यवन्धस्य हेतुभृतोऽध्यवमायरूपो बन्धः, भावतः प्रकीर्तितोऽयाद भाववन्ध उच्यते ।।१६६॥
-तत्तद्भावैः परिणतो बघ्नात्यात्मानमात्मना'वेष्टयत्याऽऽत्मनाऽऽत्मानं, यथा सर्पस्तथाऽसुमान् ।
तत्तद्भावैः परिणतो, बघ्नात्यात्मानमात्मना ॥१६७|| टी. अशुद्धनिश्चयनयो निरूपयति यद् 'आत्मा, द्रव्यकर्मस्वरूपो नास्त्येव, तादृशद्रव्यकर्मणा स
Tog९८॥
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अध्यात्म
सार:
।।४९९ ।।
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वध्यमानो नास्ति, आत्मा तु पूर्वोक्तभावबन्धस्वरूप एवाऽस्ति यथा सर्पः स्वशरीरेण स्वं वेष्टयति, तथाऽसुमान् = जीवोऽपि तत्तद्भावैः सह परिणनः = एकतां गतः स्वं आत्मानं स्वेन भावबन्धस्वरूपेण बनातीति ।। १६७ ॥
- अन्योदाहरणपूर्वकं पूर्वोक्त विषयसमर्थनम्'नाति स्वं यथा कोशकारकीटः स्वतन्तुभिः ।
श्रात्मनः स्वगतै र्भाव, बन्धने सोपमा स्मृता ॥१६८॥
टी० यथा कोशकारकीटः स्वतन्तुभिः = स्वमुखद्वारा, तन्तुरूपाभि निस्सारितलालाभिः स्वं बध्नाति, तथाऽऽत्माऽपि स्वत उत्पादितविभावरूपें मांगे --रात्मनो बन्धने 'सोपमा' - तदुदाहरणं ' स्मृता' कथितमिति कर्मादिवाह्यबन्धनैस्तु स आत्मा न बध्यमानोऽस्ति ॥ १६८ ||
-सापराधानां जन्तूनां वन्धकारो नहीश्वरः'जन्तूनां सापराधानां बन्धकारी नहीश्वरः I
तद्बन्धकाऽनवस्थानादवन्धस्याऽप्रवृत्तितः
॥ १६६ ॥
टी० अस्तु तावत् सापराधमात्मानं द्रव्यकर्म न बध्नीयात्परन्तु तमात्मानं बद्धुमीश्वरः कथं नेश्वर : १ अशुद्धनिश्चयः प्रत्युत्तरयति 'यदि 'साऽपराधजन्तुबन्धकारीश्वरोऽस्तीति मतस्वीकारे साऽपराबन्धक
।। ४९९ ।।
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अध्यात्म
सारः
ईश्वरोऽपि सापराव उच्यते, तद् बन्धकेश्वरमन्य ईश्वरो बद्धं करिष्यति एवं भवने तद्बन्धकाऽनवस्था भविष्यनि, किश्च य ईश्वरोऽबन्धोऽस्ति, स कमपि बघु कथं प्रवःतेति ? ॥१६६।।
-नत्वज्ञानप्रवृत्त्यर्थे ज्ञानवनोदना ध्रुवा'न त्वज्ञानप्रवृत्यर्थे, क्षानवन्नोदना घुवा ।
बुद्धिपूर्वकार्येषु, स्वप्नादौ तददर्शनात् ॥१७०|| री. यदीश्वरः माक्षात किश्चित्कत्त मीश्वरश्चेनदाऽज्ञानजनितपापादिकार्येषु ज्ञानवतो नोदना-- प्रेरणा न वा यतः, यथा स्वप्नादावज्ञानतो यादृशकायाणि कगेत्यान्मा, नत्र कस्यचिज्ज्ञानवतः पुरुषम्य नोदना न दृश्यते, नद्वदबुद्धिपूर्वककृतकार्येषु ज्ञानवन्नोदना न ध्रुवाऽर्थांदीश्वरप्रेरितो जन्तुः शुभाऽ. शभानि कर्माणि करोतीन्यपि न कथनीयमिति ॥१७०।।
-तथाभव्यतया जन्तु नोंदितश्च प्रवर्तते'तथाभव्यतया जन्तु-ौदितश्च प्रवर्त्तते । बघ्नन् पुरायं च पापं च, परिणामानुसारतः ॥१७॥
॥५०॥
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अध्यात्म-
टी. जीनस्तु स्वस्वतथाभव्यतया नोदितः--प्रेरितः, शुभाऽशभात्मकाध्यवसायमुत्पादयति, तनपरिणामाऽनुमारतः, पुण्यं--पुण्यकर्म, च पापं--पापकर्म च बनन-बन्धं कुर्वन्नम्तीति बोध्यम् ।।१७१॥
-शुद्धनिश्चयनयाऽपेक्षयाऽऽत्मा न यड:'शुद्धनिश्चयतस्त्वात्मा, न बद्धो बन्धशङ्कया ।
भयकम्पाऽऽदिकं किन्तु, रज्जावहिमतेरिव ॥१७२|| टी० एषा या सर्वा वार्ता कृता, साऽशुद्धनिश्चयनयतो ज्ञेया, शुद्धनिश्चयनयतस्तु स आत्मा, न बध्यते, कदाचिदात्मनि बन्धशङ्कायां सत्यां तस्य भयेन कम्पादिकं जायते, यथा रज्जो सर्पस्य बुद्धे भंयकरपादिकं जायते तथाऽत्रापीति ।।१७२।।
-भवस्थित्यनुसारेण परिणामतः कर्मबन्धः'रोगस्थित्यनुसारेण, प्रवृत्ती रोगिणो यथा ।
भवस्थित्यनुसारेण, तथा बन्धेऽपि वर्यते ॥१७३॥ टी० यथा रोगस्थित्यनुसारेण रोगवतः प्रवृत्तिः, तथा स्वस्वभवस्थित्यनुसारेणाऽऽत्माऽपि, तत्तत्परिणामानुत्पादयति, ततश्च शुभाऽशुभात्मककर्माणि बध्नातीति ॥१७३।।
५०१॥
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अध्यात्मसार:
||५०२॥
-अध्यात्मशास्त्रमिच्छन्ति श्रोतु वैराग्यरुचय:'दृढाऽज्ञानमयीं शङ्कामेनामपनिनीषवः ।
अध्यात्मशास्त्रमिच्छन्ति श्रोतु वैराग्यकाक्षिणाः ॥१७॥ टी. 'किमाऽऽत्मा बद्धोऽस्ति ? तादृशी 'दृढाऽज्ञानमयीं' गाढाविद्याप्रचुर्ग शङ्कामेनामपनेतुकामा 'वैराग्यकालिक्षण: संसाराऽसारतारूपवैराग्यवाञ्छका आत्मनोऽध्यात्मशास्त्रं श्रोतव्यमेवेति मनसिकृत्य श्रोतु कामयन्त इति ॥१७४।
-प्रत्यक्षविषयां शङ्का न हि हन्ति परोक्षधो:-- 'दिशः प्रदर्शकं शाखा-चन्द्रन्यायेन यत्पुनः ।
प्रत्यक्षविषयां शङ्कां, नहि हन्ति परोक्षधीः ॥१७॥ ___टी. परन्तु तैरात्मभिरेषा चातां मनाम रक्षणीया यद्अध्यात्मशास्त्रं शाखाचन्द्रन्यायेन, पुनरेवकारार्थकः केवलं दिशः प्रवर्तकं किन्त्वतीन्द्रियपदार्थान वर्णयदेतत् परोक्षज्ञानरूपाध्यात्मशास्त्रमात्मनो बन्धविषये पनिता प्रत्याशङ्कामपनेतु मामध्यं न धारयत्येव, चालस्य चन्द्रदर्शने चन्द्रस्य पङ्क्तावायान्ती वृक्षम्य शाखा दर्शनीया, नैकट्येन शाग्यो तत्कालमेव वालो द्रष्टुं शक्नोति, तम्या दर्शनद्वारा चन्द्रदर्शनदिशं प्राप्नोतीति ।।१७५।।।
॥५०॥
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अध्यात्मसार:
३५०३॥
HERERREERENA
-शास्त्रज्ञानेऽपि मिथ्याधीसंस्काराद् बन्धधी:'शङखेश्वैत्यानुमानेऽपि, दोषारपीतत्वधीर्यथा ।
शास्त्रज्ञानेऽपि मिथ्या-धीसंस्काराद् बन्धधीस्तथा ॥१७६।।। टी. 'शः श्वेत एव' एतादृशमनुमानेऽपि स्पटं ज्ञानं जानताऽपि कमलीदोषेण यथा प्रत्यक्षेण'शङ्कः पीतः' इति ज्ञायने, तथाऽऽत्माऽबद्धोऽन्तीति शास्त्रज्ञानसत्त्वेऽपि मिथ्यावुद्धिसंस्कारात 'म आत्मा बद्धोऽस्तीति प्रत्यक्षं प्रतिभासतेऽर्थादेना प्रत्यक्षविषयां शङ्का शास्त्रज्ञानमात्रं दीकर्नु न प्रभवतीति ॥१७॥
-ये तत्त्वं साक्षादनुभवन्ति तेषां न पन्धधीरात्माऽपन्धःप्रकाशतेश्रुत्वा मत्वा मुहुःम्मृत्वा, सानादनुभवन्ति ये ।
तत्त्वं न बन्धधास्तेषामात्माऽबन्धःप्रकाशते ॥१७७॥ टी. ये विशिष्टशास्त्रस्य तत्व-रहस्यं पुनः पुनः शण्वन्ति, तथैव मनन्ति च मुहमुहः स्मरन्ति साक्षादनुभवन्ति स्वसंवेदननः, तेषां महात्मना 'आत्मा, बद्धोऽस्ति वा बध्यते' इति बन्धविषयिणी बुद्धि न भवति, अन्तत आत्माऽबन्धः-बन्धमुक्तोऽस्नीति थी बुद्धिः प्रकाशते, आन्मा, बन्धतत्त्वतो भिन्नोऽ. 11५०३॥ स्तीति विचारः समामः ॥१७॥
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अध्यात्म
सार:
॥५०४॥
-भावमोक्षस्तु तहेतुरात्मा, रत्नत्रयाऽन्वयो'द्रव्यमोक्षः क्षयः कर्म-द्रव्याणां नाऽऽत्मलक्षणम् ।
भावमोक्षस्तु तद्धतुरात्मा रत्नत्रयाऽन्वयी ॥१७८|| टी. अशुद्धनिश्चयनयः कथयति यत् ‘कर्मरूपद्रव्याणां क्षयः-आत्मद्रव्योपरितः क्षयो द्रव्यमोक्षः, स आत्मनो लक्षणं न-स्वरूपं न, यतः स द्रव्यमोक्षस्तु कर्मणः पर्यायः, य आत्मनः सर्वथा भिन्न एवाऽस्ति, परन्तु नद्रव्यमोक्षं प्रति हेतुभृतो रत्नत्रयान्वित आत्मा, भावमोक्ष उच्यते, स च द्रव्यमोक्षतो भिन्न एवेति ।।५७८॥
-कर्माणि कुपितानीव भवन्याशु तदा पृथग'ज्ञानदर्शन-चारित्रैरात्मैक्यं लभते यदा ।
कमाणि कुपितानीव भवन्त्याशु तदा पृथक् ॥१७६।। टी. यिदाऽऽन्मा, ज्ञानदर्शनचारित्रेः महक्यं =यस्मिन् काले रत्नत्रयेण सह तादात्म्यं लभत आत्माऽज्ज्ञिानदर्शनचारित्रमयो भवेत्तदा-तस्मिन काले 'कुपितानीन्यादि' जाने आत्मन उपरि कोप
५०४॥
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सारा
By०५॥
हिनानीव पोद्गलिककर्माणि मवन्ति-तत्क्षण एवात्मनः सकलान्मप्रदेशेभ्यः पृथग् भवन्ति-वयवदव स्थावन्ति भवन्ति ।।१७९॥
-: अतो रत्नत्रयमेव मोक्षस्तदभाचे कृतार्थता न :श्रतो रत्नत्रयं मोक्षस्तदभावे कृतार्थना ।
पापण्डिगणलिङ्गश्च गृहिलिङ्गश्च कापि न ॥१८॥ ____टी. 'अतः'-द्रव्यमोक्षरूपकार्यजनकत्वेनाऽऽमनः कर्मभेदकत्वेन रत्नत्रयमेव मोक्षोऽस्ति, तदभावे पापण्डिगणलिङगैश्च गहिलिङ्गश्च न काऽपि कृतार्थता-रत्नत्रयम्याऽभावे सति, कस्याऽपि दर्शनम्य धर्मशास्त्रेण दर्शितस्य वेषम्य परिधानं निरर्थक, जैनलिङ्गमपि परिहितं भवेदथवा गहिलिङ्गमपि धारित भवेन ततोऽपि काऽपि कृतार्थता प्राप्ता न भवतीति ॥१८॥
-: समयसारस्य ज्ञातारो न पालवुडयः :'पापण्डिगणलिङ्गेषु, गहिलिङ्गेषु ये रताः ।
न ते समयसारस्य, ज्ञातारो बालबुद्धयः ॥१८॥ टी० ये पापण्डिनां गणस्य लिङ्गेषु गृहिणां लिङ्गेषु रताः-रतिमन्तः स्युस्ते बालबुद्धयो
+NENER
५.५॥
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अध्यात्म
सारः
॥ ५०६ ॥
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अज्ञानताविशिष्टमतिमन्तो जीवाः - आत्मानो समयसारस्य शास्त्ररहस्यस्य ज्ञातारो-वेदिनो न ज्ञेयाः, (पण्डितोऽपि भवेन्मूर्खो यस्य बुद्धिर्न तात्विकी इति वाक्यमपि न विस्मरणीयम् ॥ १८१ ॥ -: भावलिङ्गरता ये स्युः सर्वसारविदो हि ते :
'भाव लिङ्गरता ये स्युः सर्वसारविदो हि ते ।
लिङ्गस्था वा गृहस्था वा सिद्धयन्ति धृतकल्मषाः ॥१८२॥
टी० 'भावलिङ्गरता' इति - ये भावलिङ्गे - रत्नत्रयरूपे भावलिङ्गे परायणाः स्युः भवेयुस्ते सर्वशास्त्रस्य सारं रहस्यं विदन्तीति सर्वसारविदः कथ्यन्ते हि यतः लिङ्गस्था अथवा गृहस्था भावलिङ्गस्था अत एव सर्वसारविदः सन्तः ‘धृतकल्पषाः' - कर्मरहिताः - क्षीणकृत्स्नकर्माणः सिद्धयन्तीति--सिद्धा-भवन्तीति ।। १८२ ॥ -: आत्यन्तिक कान्तिकत्वेन भावलिङ्गमेत्र मोक्षाङ्गम् :'भावलिगं हि मोक्षाङ्गं द्रव्यलिङ्गमकारणम् द्रव्यं न्नात्यन्तिकं यस्मा - नाप्यैकान्तिकमिष्यते ॥ १८३ ||
टी होतिनिश्वये, रत्नत्रयरूपं भावलिङ्गमेव मोक्षं प्रत्यव्यवहितकारणं द्रव्यलिङ्गं न कारणमकारणंकारणतारहितं (अपेक्षातोऽन्यथासिद्ध) यतो द्रव्यं नात्यन्तिकं न नित्यं नाऽप्यैकान्तिकं = नियमतो न
॥५०६ ॥
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अध्यात्म सार
॥५.७॥
कारणमर्थात द्रव्यलिगे मनि मोक्षोऽवश्यं मवेदेवेन्यपि न, द्रव्यलिङ्गाभावे भोक्षो न भवत्तीन्यपि न परन्तु रत्नत्रयरूपभावलिडो मति मोक्षो भवत्येव, भावलिङ्गेऽमति मोक्षो न भवतीति मोक्ष प्रन्यन्ययन्यनिरेकाम्यां भावलिङ्गमेव कारणमिति विशिष्ट कार्यकारणभावो विज्ञेय इति ॥१८॥
-: दिगम्बराभिमत मतखण्डनम् :'यथाजातदशालिङ्गमर्थादव्यभिचारि चेत् ।
विपक्षबाधकाभावात्तद्धेतुत्वे का प्रमा ॥१८४|| टी. ननु 'यथाजातदशालिङ्गम'-या जन्मकालीनसर्वथानग्नाऽवस्थारूपं लिङ्ग अर्थादव्यभिचारि= मोक्षं प्रति व्यभिचारशून्यं कारणं कथं नेति चेत् , युष्माकं विरोधे कश्चिद्यान् निग्रन्थमुनिलिङ्गमेव मोक्षकारणमस्तीति तन्मम्मुखे प्रत्युत्तराय काऽपि बाधकयुक्तिरस्ति ? अर्थाद् विपक्षे बाधकामावान तद्धेतुत्वे का प्रमा? यदि नाम्ति विपक्षे बाधकयुक्तिस्तदा तु यथाजातलिङ्गस्य मोक्षस्य कारणम्य कथने किमपि प्रमाणं नास्त्येवेति ॥१८॥
-: तदेवाऽने स्पष्टयति :'वस्त्रादिधारणेच्छा चेनाधिका तस्य तां विना । धृतस्य किमवस्थाने, करादेरिव बाधकम् ॥१८५।।
Pol1५०७॥
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।
अध्यात्ममार:
॥५०८॥
___टी० ननु युष्माकं विरोधे प्रत्युत्तराय युक्तिरस्ति यथा 'मुनिलिङ्गमेव मोषस्य कारणं चेत्तदा वस्त्रादि धारयितुमिच्छा भवेदेवेच्छा च मोचप्रतिबन्धिकैवमिच्छेच युष्मदीयविपक्षं चाधितं कथं न. कुर्वीतेति चेत्तादृशवस्वादिविषयकेच्छा विनैव मुनिर्वस्त्राणि धारयेत्तदा न तस्य वस्त्रधारकस्य मुनेर्मोक्षप्राप्ती न कश्चित् प्रतिवन्धकोऽस्ति ? यथा विनेच्छा हस्तपादादिधारणे किमपि बाधकं नास्ति तथाऽत्रापीन्छो विना वस्त्रादिधारणे मोक्षजनने किमपि बाधकं नास्त्येवेति ॥१८॥
- पुनरपि तन्मतवानं विशदयति - 'स्वरूपेण च वस्त्रं चेत् केवलज्ञानबाधकम् ।
नदा दिकपटनीत्यैव, तत्तदावरणं भवेत् ॥१८॥ टी. ननु अस्तु नावदिच्छा विना वस्त्रं परिहितं नथाऽपि शरीरे तिष्ठद् वस्त्रं कथं केवलज्ञानप्रतिबन्धकं न ? इति चेद् धन्यवादाहा अहो अपूर्वा वार्ता कथं कूत उपनीता ? यद् यथा केवलज्ञानं प्रनि केवलजानावरणाख्यं कर्म प्रनिबन्धकं सर्वसम्मतमस्ति परन्तु नवीनदिकपटनीन्येव केवलज्ञानं प्रति वखावरणं कर्माऽलौकिकं वाधकं मृष्टं तदश्रुतपूर्वमाचिनपूर्व शास्त्रे तत्र दिक्पटनीनो शोभास्पदं नाऽन्यत्रेति ॥१८६॥
-: यदि कोऽपि केवलिनि पटं क्षिपेत् तदा तस्य केवलित्वं न स्यादेव :
an५०८॥
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अध्यात्म
सारः
॥५०९ ॥
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'इत्थं केवलिनस्तेन मूर्ध्नि क्षिप्तेन केनचित् । केवलित्वं पलायेतेत्यहो किमममञ्जसम् ॥ १८७॥
"
टी० है दिकूपट ! यदि पट एच केवलज्ञानं प्रतिबध्नीयात्तदा (दिकपट) केवलिनो मृध्नि केनचिद् भक्तेन क्षिप्तेन पटेन तत्कालमेव केवलित्वं पलायेत न निष्ठेदिति, अहो इत्याश्चर्ये 'किमसमञ्च' अहो किमयुक्तमप्रमाणकम् अत्राध्यात्मवादः कुत्र गतो - निश्वयवादः कुत्र गतः १ वाद्येन कदाचि दान्तरो भावो न वाध्यते एव, यदि बाध्येत तदा शरीरेण केवलज्ञानं बाधनीयमेव, यतो वस्त्रातः शरीरं निकटतममेवास्ति, अरे । शरीरतोऽप्यत्यन्त निकटवर्तिजडमृताघातिकर्म संस्पर्शन कथं केवलज्ञानं न पायेनेति प्रश्नो दिक्पर्ट प्रति मदीयोऽस्ति ॥ १८७॥
- भावलिङ्गात्ततो मोक्षो बाह्यभिन्न २ लिङगेष्वपि ध्रुवः
'भावलिङ्गात्ततो मोक्षो भिन्नलिङ्गेष्वपि ध्रुव :
कदाग्रहं विमुच्यैतद् भावनीयं मनस्विना ॥१८८॥
टी० गृहिलिङ्गादिसमस्तभेदभिन्नयथाजातदशादिकसम्पन्नस्य कस्यचिन्मोक्षजनने एकान्तनियमो नास्ति, परन्तु नियमस्त्वेतावानेव यद् यत्र कुत्रापि लिङगे सत्यपि दशायां वा सत्यामपि रत्नत्रयरूपभाव
।। ५०९॥
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अध्यात्म
सार:
लिङ्गे सत्येव मोक्षो भवत्येव, रत्नत्रयरूपमावलिङ्गाभावे मोक्षो न भवत्येव, अत्र ग्रन्थकारा मनम्विनः प्रति निवेदयति सस्नेहं भो भ्रातः कदाग्रहं विमुच्य, एषा सत्यवस्तुस्थिति वनीया, भवता मनस्विनाप्रशस्तमनःशालिनेति ॥१८८॥
-शुद्धाशुद्धनयाभ्यामबद्धमुक्तौ षडमुक्ताविति स्थिति:'श्रशुद्धनयतो ह्यात्मा, बद्धो मुक्त इति स्थितिः ।
न शुद्धनयतस्त्वेष, बध्यते नापि मुच्यते ॥१८॥ टी. अशुद्धनिश्चयनयतो ह्यात्मा, शुभाशुभमाव वध्यते, च शुद्धभावै मुच्यते, शुद्धनिश्चयनयतस्तु केनचिदप्यात्मा, न बध्यतेऽत एव न मुच्यते अत्राऽत्मनो मोक्षतच्चतो भेदविचारः पूर्णो जातः, तेन सहाऽऽन्मनोऽजीवाद्यष्टतवेभ्यो भेदनिरूपणं पूर्ण सञ्जातमिति ॥१८९॥
-आत्मतत्वविनिश्चयमेच कुर्याद्विचक्षणः'अन्वयव्यतिरेकाभ्यामात्मतत्त्वविनिश्चयम्
नवभ्योऽपि हि तत्त्वेभ्यः, कुर्यादेवं विचक्षणः ॥११०॥ टी. एवं रीत्या शुद्धनिश्चयनयतोऽजीवान्यजीवादितत्वेभ्यो विवक्षिताऽऽत्मनो व्यतिरेको भेदो विचारणीयो, व्यवहारनयादितश्चात्मनोऽन्वयोऽभेदः परामर्शनीयो विचक्षणेन पुरुषेणेति ॥१६॥
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५१०॥
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अध्यात्ममारा
॥५११॥
-निश्चयदृष्टयाऽऽत्मतत्त्वविचारमहिमा'इदं हि परमाध्यात्म-ममृतं ह्यद एव च ।
इदं हि परमं ज्ञान, यागोऽयं परमः स्मतः ॥११॥ टी. 'इदं हि' निश्चयदृष्टयाऽऽत्मतत्वचिन्तनम्, 'परमाध्यात्म' अतो विशेषतोऽध्यान्ममन्यन्ना. स्ति, सर्वाऽध्यात्मसार्वभौममध्यात्म 'ह्यद एव परममृतं' सर्वाऽमृताऽतिशायिसुधाम्वरूपं-सर्वोत्कृष्टममृनममृतपदकारित्वादेव, 'इदं हि परमं ज्ञान =अम्मिज्ञाने सर्व ज्ञातं, अम्मिश्चाज्ञाते सर्वमज्ञातमेच, 'अयं परमो योगः'अस्माद् विशिष्टः कोऽप्यन्यो योगो नास्ति, यतो मोशेण सहाऽव्यवहितत्वेन योजनादिति ।।१६।।
-पूर्वोक्तविषयमेव पुनढयति'गुह्याद् गुह्यतरं तत्त्वं-मेततसूक्ष्मनयाश्रितम् ।
न देयं स्वल्पबुद्धीनां, ते ह्येतस्य विडम्बकाः ॥११२॥ टी. शुद्धनिश्चयरूपमूक्ष्मनयदृष्टया शुद्धात्मस्वरूपचिन्तनमेतद् 'गुह्याद्गुह्यतरं तवम अत्यन्तगूढातिगृढतरं तत्वमस्ति, अत एवेतद् विद्वद्भिः स्वल्पबुद्धीनां-अतितुच्छमतीनां न देयम् , हिर्यत एतस्यनिगूढतत्वस्य ते-तुच्छबुद्धयः, विडम्बकाः विडम्बनाकारिणः स्युरिति ।।११।।
५११॥
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अध्यात्म
सार:
॥५१२॥
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- जनानामल्पबुद्धीनां नैतत्तत्वं हितावहम् -
'जनानामल्पबुद्धीनां, नैतत्तत्त्वं हितावद्दम् । निर्बलानां क्षुधार्त्तानां भोजने चक्रिणो यथा ॥११३॥
टी० 'अल्पबुद्धीनां जनानामेतत्तत्त्वम्' तत्त्वगामिबुद्धिशून्यानां जनानां शुद्धनिश्चयनयाऽपेक्षितशुद्धात्मस्वरूपतत्त्वं न हितावह' - न हितकारि यथा aerssर्त्तानां निर्बलानां मन्दजठराग्नीनां= 'चक्रिणो' = चक्रवर्तिनो भोजनं न हितावहं तथा प्रकृतेऽपि ज्ञेयमिति । । १९३ ॥
-ज्ञानवदुर्विदग्धानां तस्वमेतदनर्थकृत्'ज्ञानांशदुर्विग्धानां तत्वमेतदनर्थकृत् फणिरत्नग्रह यथा
1
शुद्ध मन्त्रपाठस्य,
॥१६४॥
० पुस्तकानामुपयुपरितनीयज्ञानलवेन पण्डितमानिनामेतत्तत्वमनर्थकारि भवति यथाऽशुद्धो मन्त्रपाटो धम्य तस्याऽशुद्धमन्त्रपाठस्य, फाणिनी रत्नस्य ग्रहणमनर्थकारीति तथाऽत्रापि ज्ञेयम् ॥ १६४ ॥
-: पूर्व व्यवहारकुशलो भूत्वा पश्चान्निश्चयनयजिज्ञासा कार्या :
।।५.१२ ॥
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अध्यात्मसार
11५१३॥
'व्यवहाराऽविनिष्णातो यो जीप्सति विनिश्चयम् ।
कासारतरणाऽशक्तः, सागरं स तितीर्षति ॥११५।। टी. यो व्यवहागऽविनिष्णातः'व्यवहारनयरूपदृष्टि पूर्णतया न ज्ञातु व्यवहन' वा न विशेषेण निष्णान: मन विनिश्चियं विशिष्टनिश्चयनयं जीप्मति-जातुमिच्छनि, स पुरुषः, कासारम्य-सरम्यास्तरणेऽशया-शानिरहितः सन सागरं तितीपति-तर्गतुमिच्छति, क्रमशः पूर्व व्यवहाग्नयेन व्यवहर्नव्यं ननोऽम्य परिपाक एव निश्चयनयतत्वविषयकज्ञानयोग्य भूमिकारूपो भवतीनि ॥१५॥
-: व्यवहारं विनिश्चित्य शुद्धनयाऽऽश्रय :'व्यवहारं विनिश्चित्य, ततः शुद्धनयाऽऽश्रितः ।
यात्मज्ञानरतो भूत्वा, परमं साम्यमाश्रयेत् ॥११६|| टी नतः तस्मात् कारणाद् व्यवहारनयं जीवनसान कृत्वा, योऽन्तरात्मा. शुद्धनिश्चयनयमम्मतदृष्टिरहस्यान्याश्रयते, सोऽन्तरात्मा, आत्मज्ञानरतः आत्मविषयक ज्ञाने परायणो वा रतिमान् भृत्वा 'परमं साम्पमाश्रयेत् परमशुद्धसमतारूपं निःश्रेयसमाश्रयेत-आश्रितो भवेदिति ॥१६॥ इत्याचार्य श्रीमद्विजयलब्धिमूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रकरमूरिणा कृतायामध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायामात्मनिश्चयनामकोऽष्टादशोऽधिकारसमाप्तः॥८७३॥
॥५१३॥
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अध्यात्मसार:
॥५१४॥
-: श्री जिनमतस्तुनिरूप एकोनविंशोऽधिकारः :
श्री जिनशासनं जलनिधिमाश्रये (शार्दूलविक्रीडितम्) उत्सर्पदव्यवहारनिश्चयकथाकल्लोलकोलाहलत्रस्यदुर्नयवादिकच्छपकुलं भ्रश्यत्कुपक्षाऽचलम् । उद्या क्तिनदीप्रवेशसुभगं स्यादादमर्यादया,
युक्तं श्रीजिनशासनं जलनिधि मुक्त्वा परं नाश्रये ॥१॥ टी. 'श्रीजिनशासनं जलनिधि मुक्त्वा परं नाश्रये इति सण्टङ्कः, कीदृशं जिनशासनं जलनिधि ? इति प्रश्न आह-'उन्सर्पदादितः कुलपर्यन्तं' उन्मपन्तः-उच्छलन्तो ये व्यवहारनिश्चयकथारूपाः कल्लोलाः महातरङ्गास्तेषां कोलाहलन-अव्यक्तकलकलमहाध्वनिविशेषेण, त्रस्यन्तो-भयभीता ये दर्नयवादिरूपाः कच्छपाः कुमास्तेषां कुलं मजानीयसमुदायरूपं) यत्र तं, पुनः की. श्रीजिन. जलनिधि इत्याह 'भ्रश्यतकुपक्षाऽचलम्'-त्रुट्यन्तः कुपक्षा एवाचला गिरयो यत्र तमिति, पुनः की. श्रीजिन जल.? इन्याह-उद्यद्यक्तिनदीप्रवेशमुभग'-अबाध्ययुक्तिरूपाणां नदीनां प्रवेशेन परमशोभावन्तमिनि• पु. की. श्री जि. ज.? म्याद्वादमर्यादया युक्तं' अनेकान्तवादरूपया समुद्रतटस्य पृथिव्या शोभिनमिनि.
॥५१४॥
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अध्यात्म-10
धारा
एतादृशविशेषणचतुष्टय विशिष्टं श्रीजिनशामनरूपं जलनिधि मुक्त्वा परं कमपि शासनजलनिधि नाश्रये न शरणं गच्छामीति ||
___ - सदा विजयते स्याद्वादकल्पद्रुमः :* पूर्णः पुण्यनयप्रमाणरचनापुष्पैः सदाऽऽस्थारसैः * तत्त्वज्ञानफलः सदा विजयते स्यादादकल्पद्रुमः । एतस्मात् पतितैः प्रवादकुसुमैः षड्दर्शनाऽऽरामभूः,
भूयः सौरभमुद्रमत्यभिमतैरध्यात्मवा लवैः ॥२॥ टी० सदा विजयते म्याद्वादकल्पद्रुम इति मण्टङ्कः की० स्या० क० ? इत्याह-'मदास्थासै:' = सम्यग्दर्शनरूपोग्सो यत्र तेः, 'पुण्यनयप्रमाणरचना पुष्पैः पूर्णः' निदोषाणां नयानां प्रमाणानां च रचना:स्त्ररूपलक्षणविभागादिभिर्निरूपणरूपा रचनास्तद्रूपैः पुष्पैरितः, पु० की० स्या० क० ? इत्याह-'तत्त्वज्ञानफल:'तात्पर्य विशिष्टतत्वज्ञानरूपं फलं यत्र स इति, पु. की० स्या० क.? इत्याह 'एतस्मान'= एतस्माद्वादरूपकल्पद्रुमात् , 'अभिमतैरिष्टेः 'अध्यात्मवार्तालवैः' =अध्यात्मविषयकवा या लेशो यत्र तैः, पतितः प्रवादकुसुमैः' तादृशद्रुमादधःपतितः निर्गतैर्वा प्रकृष्टवादनामकप्रवादकुसुमैः 'षड्दर्शना
॥५१५॥
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अध्यात्म
सारः
॥५१६॥
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रामभूः दर्शनपट्करूपस्यारामस्योपवनस्य भृः पृथिवी. 'भृयः सौरभमुद्वमति' - पुनः पुनः पुष्कलं वा सौरभमुत्कर्षण प्रसारयत्येवेति ॥ २ ॥
विजयते जैनागमो मन्दरः
चित्रोत्सर्गशुभापवादरचनासानुश्रियाऽलङ्कृतः, श्रद्धानन्दनचन्दनद्रुमनिभमज्ञोल्लसत्सौरभः । भ्राम्यद्भिः परदर्शनग्रहगणै रासेव्यमानः सदा, तर्कस्वर्णशिलोच्छ्रितो विजयते जैनागमो मन्दरः ||३||
टी० विजयते जैनागमो मन्दर इति सण्टङ्कः की. जे० मन्दरः ? इत्याह 'चित्रादितः श्रियालङ्कृतः इति यावत् = वैविध्यविशिष्टस्योत्सर्गमार्गस्य शुभत्वशोभितस्यापवादमार्गस्य च विशिष्टप्ररूपणरचनारूपशिखराणां श्रिया ममलङ्कृतोऽयम्, पु०की० जे०म० १ इत्याह श्रद्धानन्दन चन्दनद्रुमनिभप्रोल्लसन्सारभः सम्यक्व नामकनन्दनवनस्थ चन्दनतरुसामानसम्यग्ज्ञानद्वारा प्रसारितपरिमलवानयम् पु० की ० जै० म० १ इत्याह 'भ्राम्यद्भिः परदर्शनग्रह गणेश सेव्यमानः मदा' प्रदक्षिणया भ्रमणं कुर्वद्धिः परदर्शनरूपे ग्रहाणां गणैः सदाssसेव्यमानः आधारतयाऽऽराध्यमानोऽयम्, पृ० की. जे० मन्दरः ९ इत्याह 'तर्कस्वर्ण
-
-
।।५१६॥
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अध्यास्ममार
॥५१७॥
शिलोच्छिनः' मन्यन्याययुक्तिरूपाभिः सवर्गशिलाभिर्महोचतोऽयमिति नाशविशेषणचतुष्टयविशिष्टो जैनागमरूपी मन्दगे-मेरु विजयने इति ॥३॥
-रविजैनागमो नन्दतात'स्यादोषापगमस्तमांसि जगति क्षीयन्त एव क्षणात्, श्रध्धानो विशदीभवन्ति निबिडा निदा दृशो र्गच्छति । यस्मिन्नभ्युदिते प्रमाणदिवसप्रारम्मकल्याणिनी,
प्रौढत्वं नयगौ ददाति स रवि नागमो नन्दतात् ॥४॥ टी. स रवि नागमो नन्दतादिति मण्टङ्क:- (१) 'यस्मिन्नम्युदिते जगति दोषापगमः स्यादितियम्मिनग्यावुदिते मनि बाह्यजगति दोपाया गत्रेपगमः स्यात् परन्तु जैनागमरूपरवावुदिते आत्मरूपजगति मोहरूपदोषम्यागमो विनाशः स्यात (२) 'तमांसि क्षणादेव श्रीयन्ते यथा बाह्यतमांसि क्षीयन्ते बाह्य जगनि नथान्तरजगनि गापाज्ञानतमांसि एकक्षण एवं प्रनष्टानि भवन्ति । (३) 'अयानो विशदीभवन्ति' सूर्यपक्षे बाह्यमागाः स्पष्टीभवन्ति, जैनागमपक्षे मोक्षमार्गाः प्रकटीभवन्ति (४) दृशो निबिडा निद्रा गछति' सूर्यपक्षे चर्मचक्षपोर्गाढा निद्रा दरीभवति, जैनागमपक्षे सम्यग्दर्शनज्ञान
||५१७॥
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अध्यात्म
सार:
॥५१८॥
रूपयो र्व्यवहारनिश्चयरूपयो ज्ञानक्रियारूपयोरुत्सर्गापवादरूपयो विनयनयो मिथ्यात्वमोहरूपा गादनिद्रा निगच्छति (५) 'प्रमाणदिवसप्रारम्भकल्याणिनी प्रौढत्वं नयगौर्ददातीति-मूर्यपक्षे प्रमाणपूर्वक दिवसस्य प्रारम्भतः कल्याण-आरोग्यप्रदकिरणावली वृद्धि ददाति जैनागमपक्षे, प्रत्यक्षादिप्रमाणपूर्वकज्ञानदिवसम्य प्रारम्भतः भावारोग्यप्रदनयगर्मितवाणी वृद्धि ददात्येन एतादृशवैशिष्टयपश्चकदर्शको जैनागमरूपो रवि नन्दतात्-समृद्धिविजयवान् भवतादिति ॥४॥
-सोऽयं श्रीजिनशासनाऽमृतरुचि कस्यति नो रुच्यताम् । 'अध्यात्मामृतवर्षिभिः कुवलयोल्लासं विलासर्गवाम् । तापव्यापविनाशिभिर्वितनुते, लब्धोदयो यः सदा । नर्कस्थाणुशिरःस्थितः परिवृतः, स्फारैर्नयस्तारकैः,
मोऽयं श्रीजिनशासनाऽमृतरुचिः कस्यति नो रुच्यताम् ॥५॥ टी० (१) 'यः सदा लब्धोदयः सन , अध्यात्माऽमृतवर्षिभिः, तापव्यापविनाशिभिर्गवां विलासैः । कुक्लयोन्लामं वितनुते'यो निरन्तरं (मात्रशुक्लपक्षे न) उदयसम्पाः सन , अध्यात्मरूपामृतवार्षिभिः, आध्यादिरूपतापव्याप्तिविनाशिभिः, 'गाविलासः' वाचां वा रुचा वा विचेष्टितेः, पृथ्वीवलयस्य वा कमलस्य
॥५१८॥
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अध्यात्म
सार:
॥५१९॥
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वा विकासं कुरुते (२) पु की. श्री जि० अमृतरुचिः १ इत्याह 'तर्कस्थाणुशिरः स्थितः' न्याययुक्तिविशिष्ट तर्करूपशङ्करम्य शिर्शस - मस्तके भूषणरूपः (३) पु. की. श्रीजि. अ. १ इत्याह नयरूपैस्तारकैः परिवृतः, एतादृशः सोऽयं श्रीजिनशामनामृतरुचिः- श्रीजिनशासनरूपश्चन्द्रः कस्येति नो रुच्यताम्' कस्य पुरुषस्य रुचिविषयतां नैति ? अर्थात् सर्वजनस्य सोऽयं जिनशासनचन्द्र आनन्द विषयतामेत्येवेति ||५|| - जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुदीक्ष्यते'बौद्ध नामजुसूत्रत मतमभूद् वेदान्तिनां सङग्रहात् साङ्ख्यानां तत एव नैगमनयाद योगश्च वैशेषिकः । शब्दह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वर्नयेगुम्फिता जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्भीक्ष्यते ॥६॥
टी०
सूत्रयतो बौद्धानां मतं- दर्शनमभृत संग्रहनयतो वेदान्तिनां च साङ्ख्यानां कापिलानां मतं- दर्शनं प्रकटितं, नैगमनयतो योगः--नैयायिकः, वैशेषिकश्च प्रकटितो, शब्दनयतः शब्दब्रह्मविदो मतम भूत तत्त्वतः सबै गुम्फिता जैनी दृष्टि र्वर्त्तते, सर्वनयविषयकरचनाविशिष्टं जैनं दर्शनं विद्यते
2
॥३१९॥
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अध्यात्म
मारः
॥५२॥
इति-अस्मात्कारणादिह-जैनदर्शने सारतरता-आत्यन्तिकसारवत्ता, प्रत्यक्षं साक्षाद् उद्वीक्ष्यते-दृश्यते ॥६॥
-सर्वपरदर्शनरूपनयैःसर्वादरणीयोऽयं जिनेन्द्रागमः'ऊष्मा नार्कमपाकरोति दहनं, नैव स्फुलिङ्गावली, नाब्धि सिन्धुजलप्लवः सुरगिरि ग्रावा न चाभ्यापतन् । एवं सर्वनयैकभावगरिमस्थानं जिनेन्द्रागमम् ,
तत्तदशनसङ्कथांशरचनारूपा न हन्तु क्षमा ॥७॥ टी. ऊप्मा (उष्णवस्तु बाप्पो वा) नाऽकन सूर्यमपाकरोति, यतस्तज्जनकः मूर्योऽस्ति, स्फुलिङ्गावली--अग्निकणावली, दहनमग्नि नेवाऽपाकगेति, यतस्तज्जनकोऽग्निस्ति, अब्धि--मागरं, मिन्धुजलप्लव:नदीजलपूरी नाऽपाकगेति, यतः मनन्पतिरम्ति 'न चाऽभ्यापतन ग्रावा' गण्डशैलरूपो ग्राचा प्रस्तरः, अभित आपतन , सुरगिरि-मेरुगिरि नाऽपाकरोति यनः म तम्याऽऽश्रयोऽस्ति, एवमनया रीन्या 'सर्वनयकभावगरिमस्थानं सर्वेषां नयानामेकभावेन-एकत्वेन गुरुतायाः म्थानं-मुख्यमूलस्थानं जिनेन्द्रागम-जैनप्रवचनं, 'अंशरचनारूपा' जिनेन्द्रागमतोंऽशं गृहीत्वा प्ररूपणारूपा, तत्तदर्शनसङ्कथा, दर्शनविशेषाणां मम्यककथनरूपमकथा, सजनकाऽऽधारपनिविशेषरूपं न हन्तु --निरम्कन समा--ममर्था भवतीति॥७॥
॥२०॥
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अध्यात्म
मारः
॥५२१ ।।
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- नाऽयं कोपक्रमः सर्वहितावहे जिनमते तत्त्वप्रसिडयर्थिनाम् 'दु:माध्यं परवादिनां परमतक्षेपं विना स्वं मतम्, तत्क्षेप चकषायपङ्क कलुषं चेतः समापद्यते सोऽयं निःस्वनिधिग्रहव्यवसितः वेतालकोपक्रमः, नाऽयं सर्वहितावह जिनमते, तत्त्वप्रसिद्धयर्थिनाम् ||८||
टी० परव दिनां परेषां मतस्य क्षेपं खण्डनं बिना स्वं मतं दुःसाध्यं दुःखेन स्थापनीयं भवत्यर्थादसाध्यं भवति, तत्क्षपे - परम खण्डने च कपायरूपपड्केन कलुषं मलिनं, चेतः वित्तं समापद्यते समापन्नं भवति, सोऽयं =परमत तिरस्कार ( दिरूपो व्यापारोऽयं, 'निःस्वनिधिग्रह व्यवमितः 'निर्धनस्य निधानस्य ग्रहणे व्यवसायवान् -- उद्यमवान् 'वेतालकोपक्रमः ' = वेताल पिशाचादिकस्य क्रोधविधितुल्यो भवति, परन्तु अयं परमततिरस्कार-द्वेषादिव्यापारः, सहतकारके जिनमतं तत्त्वस्य प्रसिद्धेः प्रकृष्टसिद्धेरथिनां न दृष्टिपथार्होऽपि भवतीति ॥८॥ -नश्चेता निनमां लीनं जिनेन्द्राऽऽगमे'वार्त्ताः सन्ति सहस्रराः प्रतिमतं ज्ञानांशबद्धक्रमाः, चेतस्तासु न नः प्रयाति नितमां लीनं जिनेन्दाऽऽगमे ।
I
॥१२१॥
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अध्यान्म
माः
॥५२२॥
नोत्सर्पन्ति लताः कति प्रतिदिशं पुष्पैः पवित्रा मधौ,
ताभ्यो नैति रतिं रसालकलिकारक्तस्तु पुस्कोकिलः ॥६॥ टी. ज्ञानस्यांशेन बद्भः क्रमः (अनुक्रमो विधिर्वा) यासां ता वार्ताः प्रतिमतं--मते मते सहस्रशः-- महसप्रमाणाः सन्ति, तथाऽपि जिनेन्द्रागमे जेनेन्द्रप्रवचने, नितमा--सुतरां, लीनं--निमग्नं नश्चेतः-. अस्माकं मनः 'तासु वार्तासु न प्रयाति'-ता वार्ता:प्रति न प्रकर्षेण याति यतः सर्वज्ञशासनीयवार्ता अविसंवादिन्यः मधी- वसन्तती प्रतिदिशे--दिशि दिशि कति लता:- बन्लयः पुष्पैः पवित्रा नोत्सर्पन्ति न वर्धन्ते ? अपितु वर्धमाना एवं तिष्ठन्ति तथापि 'रमालकलिकारक्तः'चारुचूतमञ्जरीमधुरतामत्तःपुस्कोकिलः, ताम्यो लताभ्यो नैति रति-प्रीतिग्मं न प्राप्नोतीति ॥६॥
- जैनेन्द्रे तु मते शब्दार्थविषयकसंदेहव्यथा न जात्यन्तरार्थस्थितेः - शब्दो वा मतिरर्थ एव वसु वा जातिः क्रिया वा गुणः । शब्दाथः किमिति स्थिता प्रतिमतं सन्देहशङकुव्यथा। जैनेन्द्रे तु मते न सा प्रतिपदं जात्यन्तरार्थस्थिते, सामान्यं च विशेषमेव च यथा-तात्पर्यमन्विच्छति ॥१०॥
11५२२॥
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अध्यात्म
सारः
॥५२३॥
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टी० शब्दार्थः किं ? शब्दस्वरूपः ! मतिस्वरूपः १ अर्थस्वरूपः ? द्रव्यस्वरूपः १ जातिस्वरूपः १ क्रियास्वरूपः ? गुणस्वरूपः ? शब्दार्थः किमिति, प्रतिमतं- मते मते सन्देहरूपशङ्कु - (दारुविकारविशेष) व्यथा स्थिता वर्त्तते तु परन्तु जैनेन्द्रे मते, सा-सन्देहव्यथा, नास्ति, यतः प्रतिपदं - पदे पदे जात्यन्तरार्थस्थिते:, अर्थाज्जैनमते सा वेदना नास्ति यतः प्रत्येकपदार्थे जात्यन्तरवैशिष्टयं मन्यमानमस्ति यथा पदार्थः किं शब्दरूपो वाऽर्थरूपो वाऽस्ति ? इति प्रश्ने सति तत्प्रत्युत्तरदानमेवमस्ति कथंचिच्छन्दरूपः, कथंचिदरूपः पदार्थोऽस्ति पदार्थों केवला न शब्दत्वजाति नऽप्यर्थत्वजातिरपितृभयतो भिन्नजात्यन्तरस्वरूपविशिष्टोऽयं पदार्थः, यथा शुण्ठीगुडोभयसंयोगजाता. गुटिका न शुण्ठीमात्रा, नाऽपि गुडमात्रा कथ्यतेऽपि तु विलक्षणजान्यन्तररूपा, गुटिका कथंचिद् शुण्ठीस्वरूपा, कथंचिद् गुडस्वरूपाऽपि मुख्यतो जात्यन्तरस्वरूपविशिष्टा कथ्यते, तथा प्रकृतेऽत्र सुज्ञेयम् 'यथा तात्पर्य ' = तात्पर्य मनतिक्रम्य - तात्पर्यालम्बनविशिष्टं सामान्यं च विशेष मेवान्विच्छति, तात्पर्य सहितं सामान्यं विशेषं चान्वेषणान्वितं करोति, जैनमतं तात्पर्यरहितं सामान्यं त्रिशेषं च पदार्थतया न मन्यते तात्पर्यसहितं सामान्यं च विशेष पदार्थ तया मन्यते तात्पर्यस्य स्फोटोऽग्रे स्पष्टो भविष्यतीति ॥१०॥
-लोकोत्तर भङ्गपद्धतिमत्रों स्याद्वादमुद्रां स्तुमः'यत्रार्पितमादधाति गुणतां मुख्यं तु वस्त्वर्पितम्, तात्पर्याऽनवलम्बनेन तु भवेदबोधः स्फुटं लौकिकः
1
॥५२३॥
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अध्यात्म
॥५२४॥
सम्पूर्ण त्ववभासते कृतधियां कृत्स्ना विवक्षा क्रमात् ,
तां लोकोत्तरभङ्गपद्धतिमयीं स्यावादमुद्रां स्तुमः ॥११॥ ___टी० यत्र-यम्यां म्याद्वादमुद्रायां अनर्पित (असाझाद्) भावविशिष्टं वस्तु 'गुणतामादधाति' गौणभावं विभनि, तु-परन्तु अर्पित-अर्पितभाव (साक्षाद्) विशिष्टं वस्तु मुख्यं समुच्यते परन्तु तात्पर्यावलबनाभावपूर्वको घटादिपदार्थविषयको बोधः म्फुटं लोकिकः कथ्यते यत्र तात्पर्यस्याऽवलम्बनं क्रियते तत्र कृतधियां-व्युत्पन्नानां सकलविवक्षाणां क्रमतो यः पदार्थबोधो जातः सम्पूर्णतयाऽवभासते, तादृशी तां लोकोतरभङ्गानां पद्धतिमयीं--प्रणालिकामयीं स्याद्वादमुद्रां स्तुमः स्तुतिविषयां कुर्मः, अनन्तपर्यायाऽऽत्मकं वस्त्वेवंभृततात्पर्यमवलम्ब्य घटत्वधर्म मुख्यं कुर्वन , घटस्य चाऽन्यधर्मान् गोणीकृत्य सम्यग्दृष्टिगन्मा, घटस्य घटत्वधर्मस्य मुख्यतया विवश्शां करोति, तस्मात् सम्यगृहप्टे र्जायमानो घटबोधः सम्पूर्णो भवति, एप बोधः म्याद्वादपद्धत्या जायने ततो ग्रन्थकारः श्रीमान स्याद्वादमुद्रायाः स्तुति विदधानानि ॥११॥
___-तं जैनागममाकलयग न वयं गाक्षेपभाजः क्वचित्'यात्मीयाऽनुभवाऽऽश्रयार्थविषयोऽप्युच्चैर्यदीयक्रमो, ग्लेच्छानामिव संस्कृतं तनुधियामाश्चर्यमोहावहः ।
॥५२४॥
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अध्यात्म
सारः
॥५२५ ॥
व्युत्पत्तिप्रतिपत्तिहेतु - विततस्याद्वादवाग्गुम्फितम्,
तं जैनागममा कलय्य न वयं, व्याक्षेपभाजः क्वचित् ||१२||
टी. 'आन्मीयाऽनुभाश्रयार्थविषय:' आत्मकृताऽनुभवात्मकप्रमाणभृतज्ञानरूपाधि करण कपदार्थरूपविषयवान्, स्वानुभव प्रतीत्यार्थानुरूपप्ररूपकः, 'उच्चैर्यदीयक्रमः ' -उच्चकोटिको यज्जैनागमस्य व्यवस्थारूपक्रमोऽपि म्लेच्छानामिव संस्कृतं तनुधियामाश्चर्यमोहावहः ' -अनार्याणां आर्यभाषारूपसंस्कृतभाषा यथा आश्चर्य मोहकारिणी भवति तथा स्वल्पबुद्धीनामाश्रयमोहकारको भवतु तथापि सूक्ष्मतीक्ष्णमध्यस्थधिया rajमोहकारको न भवतीति व्युत्पत्तिभिः प्रतिपत्तिभि र्हेतुभि वितता - विस्तृता या स्याद्वादस्य वाग्-वाणी, तथा गुम्फितं--प्रणीतं, तं जैनागमं सर्वथा ज्ञात्वा प्रतिपद्य च, न वयं क्वचित्-- कुत्रचिदपि व्याक्षेपभाज:-- मतिमद्यवन्तो भवाम इति ॥ १२ ॥
- मूलं सर्ववचोगणस्य विदितं जैनेश्वरं शासनम् - 'मूलं सववचोगतस्य विदितं, जैनेश्वरं शासनम्, तस्मादेव समुत्थितैर्नयमतैः, तस्यैव यत् खण्डनम् । एतत् किञ्चन कौशलं कलिमलच्छन्नाऽऽत्मनःस्वाऽऽश्रिताम् । शाखां छेत्तुमिवोद्यतस्य कटुकोदय तकर्थिनः || १३||
॥५२५॥
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अध्यात्म
सार:
॥५२६॥
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टी सर्वनयरूपसर्वच चोगणस्य ( गतस्य - ज्ञानस्य ) मूलं जैनेश्वरं शासनं विदितं - प्रसिद्ध मस्ति, तस्मादेव जैनेश्वरशामनादेव, समुत्थितै- जाते र्नयमतैः -- नयरूपाभिप्रायविशेषः, तस्यैवेति--जैनेश्वर शासनस्यैव यत्खण्डनं 'कलिमलच्छन्नाऽऽत्मनः एतत्किञ्चन कौशलं' -क्लेशरूपमलेनाऽऽच्छादितजीवस्यैतत्कौशलं किञ्चन - कीशं विचित्रं १ यतः स्वाश्रितां शाखां छेत्तुमुद्यतस्यैव तर्कार्थिनः 'कटुकोदर्कायतार्किकस्य कटुकोत्तरकालीनफलाय भवतीति ॥१३॥
- उन्मादत्यागपूर्वकमनेकान्तवादरचना श्रोतव्याऽतः सिद्धान्तरहस्यं वेत्ति'त्यक्तोन्माद विभज्यवाद रचनामाकर्य कर्णामृतम्, सिद्धान्तार्थ रहस्यवित् क्व लभतामन्यत्र शास्त्रे रतिम् । यस्यां सर्वनया विशन्ति न पुनर्व्यस्तेषु तेष्वेव या, मालायां मायो लुठन्ति न पुनव्यस्तेषु मालाऽपि सा ॥ १४ ॥
टी० यस्त्यक्तोन्मादरूपकदाग्रहांः 'विभज्यवादरचनां कर्णामृतमाकर्ण्य = अनेकान्तवादस्य रचनास्वरूपं कर्णामृतं वा पीत्वा सिद्धान्तस्य गम्भीरार्थरहस्यस्य ज्ञाता, क्व - कुतोऽन्यत्र शास्त्ररतिं रुचि लभताम् ? अर्थात् कुत्रापि शास्त्रे न रुच्यतां लभते, विना जैनशास्त्रं यस्यां विभज्यवादरूपाने कान्तवाद
||५२६॥
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अध्यात्म-4 सारः
॥५२७॥
रचनायां म नया विशन्ति-प्रविशन्ति-समाविशन्ति, पुनश्च व्यस्तेषु-पृथक पृथगभूतेषु तेषु'=मर्वनयेषु या-अनेकान्तवादरचना नेवाऽम्ति, यथा मालायां मणयो लुठन्ति-निष्ठन्ति, पुनरपितु, व्यस्तेषु भिन्नभिन्नेषु-विकीर्णेषु मणिपु सा माला नैव विद्यते, तथाऽत्रापि सुष्ठुनया विज्ञेयमिति ॥१४॥
-स्याद्वादी सर्वनगानविभक्तान् कुर्वन् स्यादवादसुपथे विनिवेशयन् विजयते'अन्योऽन्यप्रतिपन्नभाववितथान ,स्वस्वार्थसत्यान नयान , नापेक्षाविषयग्रहै (याग्रहै) विभजते माध्यस्थ्यमास्थाय यः । स्यादवादे सुपथे निवेश्य हरते, तेषां तु दिङ्मूढताम् ,
कुन्देन्दुप्रतिमं यशो विजयिन स्तस्यैव संवर्द्धते ॥१५॥ टी० अन्योऽन्यस्य प्रतिपक्षभावेन परस्परं प्रति परस्परभिन्नभिन्नदृष्टया वितथान्-अन्यथारूपान , 'स्वस्वार्थसत्यान' स्वस्वदृष्टया जायमानार्थसङ्कटनया सत्यान , नयान-सर्वनयान य: स्याद्वादी 'माध्यस्थ्यमास्थाय' मध्यस्थभावं प्रतिपद्य, तत्तदपेक्षाया विषयाणामाग्रहर्वा ग्रहै --ज्ञानः, 'न विभजते' न विभक्तान् कुरुने परन्तु 'स्याद्वादे सुपथे निवेश्य'=अनेकान्तवादरूपे सन्मार्गे सम्यकस्थापयित्वा, 'तेषां तु दिङ्मूढतां'नयानां तु दिशोऽज्ञानतां हरते'--दरीकरोति, तस्यैव--स्यावादिन एव विजयिनः, कुन्देन्दु
॥
५२७॥
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अध्यात्म
मार:
11५२८॥
सदृशं निर्मलं यशः संवर्द्धते -वर्धमानं सदा विलसतीति ॥ १५ (अत्र श्लोके श्रीग्रन्थकारस्य नाम गर्मितं तथा काशीमध्ये पंडितमभायां स्याद्वादद्वारेव महापंडितविजयी जात इति स्वाऽनुभवोऽपि गर्भितो दृश्यते) इत्याचार्यश्रीमद्विजयलब्धिमूरीश्वरपट्टधराचार्य श्रीमद्विजय भुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधरभद्रङ्करमूरिणा कृतायामध्यान्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां जिनमतस्तुतिनामक एकोनविंशोऽधिकारः ममाप्तः॥८८८।।
अथ विंशतिमोऽधिकारः अनुभवस्वरूप-नामकः
-प्रियमनुभवैकवेद्य रहस्यमाऽविर्भवति'शास्त्रोपदर्शितदिशा, गलिताऽसद्ग्रहकषायकलुषाणाम्
प्रियमनुभवैकवेद्य रहस्यमाविर्भवति किमपि ॥१॥ दी. शास्त्रेणीपदर्शितया दिशा-दिङमात्रेण मार्गेण, गलितमसग्रहेण-कदाग्रहजनितं कषायस्य कलुएं- कलुषन्वं येषां ते--गलिताऽसद्ग्रहकपायकलुषाणां महात्मनामनुभवैकवेद्यं-स्वानुभूतिमात्रगम्यं, प्रियं प्रमाऽऽस्पदं, रहस्य- गुह्यमध्यान्ममारं किमपि किश्चिदप्यपूर्वमपि, आविर्भवति प्रादुर्भवतीनि ॥१॥
-लीनमप्युत्तरलं मनः कुरुने'प्रथमाऽभ्यासविलासादाविभू यैव यत्क्षणाल्लीनम् । चञ्चत्तरूणी-विभ्रमसममुत्तरलं मनः कुरुते ॥२॥
॥५२८॥
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अध्यात्म
सारा
॥५२९॥
टी. 'अनुभवैकगम्यं रहस्यमाविर्भवनि परन्तु रहस्यमेतत्मद्य आत्मनि लीनं-निलीनं भवति, चिरात-- स्थिरं न निष्ठति, यतःप्राथमिककक्षाया अभ्यासस्याऽयं विलासोऽस्ति, तथाप्येवं रीत्या लीनं जातमेतत्प्रियं रहस्यं 'मन उत्तग्लं कुरुने' चित्तं भृशमुत्सुकं विदधाति, पुनःपुनरेतद्रहस्यं लब्धुप्रचण्डं मनोरथं जागरयत्येवेति ।
__'चश्चत्तरूणीविभ्रमसमं यथा तरललोचनाया तरुण्या एक एव कटाक्षविशिखो युनः पुरुषम्य मनः मातन्यन मन्तापयति तादृशीदशा रहस्याऽभिलाषिणो योगिनो मनसो भवत्येवेति ॥२॥
-सुविदितयोगैरिष्ट पश्चप्रकारं चेतः'सुविदितयोगैरिष्टं, क्षिप्तं मूढं तथैव विक्षिप्तम् ।
एकाग्रं च निरुद्धं, चेतः पञ्चप्रकारमिति ॥३॥ टी० सुसम्यक्तया विदितो योगो येस्तैः-सुविदितयोगः, क्षिप्तं, मूढं, तथैव विक्षिप्त, एकाग्रं च निरुद्धमिति चेतः, पश्न प्रकारा यस्य तत्पश्चप्रकारमित्युच्यते ॥३॥
-क्षिप्तस्य चित्तस्य लक्षणम् 'विषयेषु कल्पितेषु च पुरःस्थितेषु च निवेशितं रजसा। सुखदुःख-युग् बहिर्मुख-माम्नातं क्षिप्तमिह चित्तम् ॥४॥
||५२९॥
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अध्यात्म-161 सार
टी. सुम्दत्वेन कल्पितेषु-कन्पनामात्रेण शिल्पितेषु पुरः स्थितेषु-स्वस्याऽग्रत उपनतेषु, एतादृशशब्दादिविषयेषु, रजोगुणाऽवलम्बनतो निवेशितं स्थापितं, विषयाऽनुभवे यत सुखदुःखसङ्कीर्णत्वं तदनुभवयुक्त बहिमुखचित्तमिह क्षिप्तं कथ्यते ॥४॥
-मूढस्य चित्तस्य लक्षणम्क्रोधादिभिनियमितं, विरुद्ध कृत्येषु यत्तमोभूम्ना ।
कृत्याकृत्यविभागा-सङ्गतमेतन्मनो मूढम् ॥५॥ __० तमोगुणबहुत्वेनोमय-लोकविरुद्धकृत्येषु, क्रोधादिभिर्यन्मनो व्याप्तं भवति, 'कृत्याऽकृत्यविभागाऽमङ्गतं' कर्तव्याकर्तव्यविषयक-विवेकज्ञानरहितमेतन्मनो मूढमुच्यते इति ॥५॥
-विक्षिप्तस्य चित्तस्य लक्षणम्'सत्त्वोदेकात् परिहृतदुःखनिदानेषु सुखनिदानेषु ।
शब्दादिषु प्रवृत्तं सदैव चित्तं तु विक्षिप्तम् ॥६॥ टी. 'सत्त्वोद्रेकात्' =सत्त्वगुणप्राकट्यानिशयात परिहृतदुःखनिदानेषु'-दीकृत-दुःखमूलसाधनेषु 'सुखसाधनेषु' भौतिकसुखसाधनेषु शब्दादिविषयेषु प्रवृत्तं-प्रवृत्तिमच्चित्तं तु विक्षिप्तमुच्यते इति ॥६॥
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अध्यात्मसारा
॥५३॥
__ -एकाग्रस्य चित्तस्य लक्षणम्-- 'श्रद्वेषादिगुणवतां, नित्यं खेदादिदोषपरिहारात् ।
सदृशप्रत्ययसङ्गत-मेकाग्रं चित्तमाम्नातम् ॥७॥ टी. 'अद्वैपादिगुणवता' मोक्षततसाधनदर्शकादीन प्रति रुचिभावोऽद्वेषः, तदादिरूपामयादिगुणवता महात्मना, खेदः जिनेन्द्रप्रणीतसक्रियाकरणे खिन्नता-परिश्रमस्तदादिदोपाणां परिहारात , 'सदृशप्रत्ययमङ्गल' एकसदृशशुमालम्बनरूपविषयसङ्गमवदे काग्रं चित्तमाम्नातं--आम्नायविषयीभूतमिति ॥७॥
___-निरुडस्य चित्तस्य लक्षणम्उपरतविकल्पवृत्तिक-मवग्रहादिक्रमच्युतं शुद्धम् ।
'श्रात्माराममुनीनां, भवति निरुद्धं सदा चेतः ॥८॥ टी० (१) उपरता:--विरता आर्तरौद्राऽऽत्मकविकल्परूपा वृत्तयो यस्मिस्तत्-चेतः 'उपरत विकल्पवृत्तिकम् ' (२) 'अवग्रहादिक्रमच्युतम्' अवग्रहेहादिक्रमतो रहितमर्थाद् धारणादिसम्बन्धि, (३) 'शुद्धम'-शुद्धता-मध्यस्थतासहितम् (४) 'सदाऽऽत्माराममुनीना' निरन्तरमात्मनिष्ठस्थिरतावा. मनीनां चेतो निरुद्धमुच्यते ॥८॥
EE५३२॥
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अध्यात्म
साः
॥५३२॥
-एकाग्रनिरुद्धभेदद्वयं समाधावुपयोगि भवति'न समाधावुपयोग, तिस्रश्चेतोदशा इह लभन्ते ।।
मत्त्वोत्कर्षात् स्थैर्यादुभे समाधिसुखातिशयात् ॥१॥ टी० क्षिप्तमूढविक्षिप्ताख्यास्तिनश्चेतोदशा इह समाधौ-समाधिप्राप्तावुपयोगं न लभन्ते, उभे-एकाग्रनिरुद्धभेदद्वयं चित्तस्य, सत्वगुणस्योत्कर्षरूपहेतोः-स्थिरतारूपहेतोः, समाधिमुखस्या तिशयाद'-योग्यता हेतोः समाधावुपयोगं लभेते ॥९॥
-विक्षिप्ते कदाचिद योगारम्भः, क्षिप्ते च मूढे व्युत्थानम्'योगाऽऽरम्भस्तु भवेदिक्षिप्ते मनसि जातु साऽऽनन्दे ।
क्षिप्ते मूढे चास्मिन् , व्युत्थानं भवति नियमेन ॥१०॥ टी. जात-कदाचिदानन्दसहिते मनसि सति विक्षिप्ते तु योगारम्भः-समाधिप्राप्नेरुपायानामारम्भो भवेद् , क्षिप्ते च मूढे चित्तं गगादिवामनाप्रचण्डताण्डवाडम्बरकलहमहाकलिरूपयुद्धे जायमाने नियमेनैकान्तेन ममाधितो 'व्युत्थान' मनसो विपरीनवृत्तिरूपं-मनमो विपरीतगतिरूपं व्युत्थानं भवतीनि ॥१०॥ -अभ्यासकाले योगसाधनायां चलमिष्टं मनः
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॥५३२॥
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अध्यात्म
सार:
B५३३॥
'विषयकषायनिवृत्त, योगेषु च सञ्चरिष्णु विविधेषु ।
गृहखेलबालोपममपि चलमिष्टं मनोऽभ्यासे ॥११॥ टी० (१) विषयतः कषायतश्च निवृत्त-विरतं मनः, (२) मोक्षस्योपायभूतसम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रादिरूपेषु योगेषु विविधेषु सञ्चरणशीलं मनः, (३) गृहे खेलतो वालम्योपमा-सादृश्यं यम्य तत् गृहखेलद् बालोपमादन्तमुखं भवन्मनः, एतादृशं चित्तं चलमप्यभ्यासकालीन योगसाधनार्थ योगिनाम पीष्टमिच्छाविषयीभृतं भवतीति ॥११॥
-अभ्यासदशायां यातायातं मनोऽदृष्टम्'वचनानुष्ठानगतं यातायातं च साति-चारमपि ।
चेतोऽभ्यासदशायां गजाऽङकुशन्यायतोऽदुष्टम् ॥१२॥ टी० वचननामकतृतीयाऽनुष्ठानगतं ततश्च 'यातायातं-पुनः पुनर्वहिर्गत्वाऽन्तरागच्छन् , 'साति चारमपि अतिचारसहितमपि चेतोऽभ्यासदशायां 'गजाऽकुशन्यायतो' यथोन्मार्गस्थो गजोंकुशेन स्वस्थान मागच्छति, विक्षिप्तं चित्तमदुष्ट-दोषरहितमिष्टमिति ।।१२।।
-अथ प्रलोभ्य यायै निगृहणीयात्तथा चेत:
॥३३॥
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अध्यात्म
मार:
॥५४॥
'ज्ञानविचाराभिमुखं यथा यथा भवति किमपि सानन्दम् ।
अर्थः प्रलोभ्य बाहयै-रनुगृहणीयात्तथा चेतः ॥१३॥ टी• यथा यथा ज्ञानपूर्वकविचारस्य-दिव्यविचारस्याऽभिमुखं सत् सानन्दं किमपि भवति, तथा तथाऽसदाऽऽलम्बनतो दूरीकरणार्थ 'वायरथैः प्रलोभ्य' बाह्यसुन्दरसदालम्बनानि प्रति प्रलोभ्य चेतोऽनुगृह्णीयात्'-चेतोनिग्रहरूपोऽनुग्रहः कर्त्तव्यः । चेतसोऽसत् पात्राणि परिवर्त्य चेतोविषयरूपसत्पात्ररूपोवीकरणं विधातव्यमिति ॥१३॥
सदाऽऽलम्बनविशेषाः कथ्यन्ते'अभिरूपजिनप्रतिमां, विशिष्टपदवाक्यवर्णरचनां च ।
पुरुषविशेषादिकमप्यत एवाऽऽलम्बनं त्रुवते ॥१॥ टी० बाह्यशुभार्थरूपालम्बनेषु चित्तं नीत्वा चेतस ऊर्वीकरणरूपो निग्रहः कत्त युज्यते, अत एव
सदाऽऽलम्बनानि-(१) अभिरूपजिनप्रतिमा मनःप्रसन्नताहेतुरूपचारुतमाऽनिमेषदर्शनीयजिनप्रतिमा, (२) विशिष्टपदवाक्यवर्णरचना='जयनि जगद्गुरुजिनः' इत्यादिवद् विशिष्टस्य पदस्य वाक्यस्य च रचनाम् ।
(३) पुरुषविशेषादिकं-पुरुषविशेषरूपान्-गणधरादीन् भगवतः आदिपदेन- जैनशासनदानजैनजनतासमाधिबोधिदानसमर्थान् पुरुषविशेषान् , आलम्बनं ब्रुवते ॥१४॥
LXI||५३१॥
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अध्यात्मसार
॥५३५॥
-सदालम्बनस्य परमप्रभाव:'श्रालम्बनेः प्रशस्तैः, प्रायो भावः प्रशस्त एवं यतः ।
इति मालम्बन-योगी, मनः शुभालम्बने दध्यात् ॥१५॥ टी० प्रशस्तैरालम्बनः प्रायो-भृम्ना भावोऽध्यवसायः प्रशस्तः--पुण्यानुबन्धिपुण्यजनकशुभो जायते अतः कारणात् , सालम्बनयोगी, शुभेऽभिरूपजिनप्रतिमादिरूपे प्रशस्ते आलम्बन एत्र मनश्चित्तं, दद्ध्यान--मुञ्चेदिति ॥१५॥
-मनसो निरालम्पनत्वकरणे प्रक्रियामार्गो दर्यते'सालम्बनं क्षणमपि, क्षणमपि कुर्यान्मनो निरालम्बम्।
इत्यनुभवपरिपाकादाकालं स्यान्निरालम्बम् ॥१६|| टी. क्षणं यावत्सालम्बनं कुर्यान्मनः, तदनन्तरं क्षणं यावनिरालम्ब--स्वात्मनिलीनत्वेन निरालम्बस्वात्मभिन्नवाह्यप्रशस्तालम्बननिरपेक्षं मनः कुर्यात् , इत्येवं पुनः पुनरभ्यासकरणद्वारा यदा स्वात्माऽलम्बनाभ्यासजन्यानुभवः परिपक्वदशाऽऽपनो भविष्यति तदा मनः आकालं-सदाकालं मनो निरालम्ब स्यादेवेति ॥१६॥
॥५३५॥
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अध्यात्म
मारः
॥५३६॥
-मनस उपशमने द्वितीया पद्धति र्दश्यते'बालम्ब्यैकपदार्थ, यदा न किञ्चिद्विचिन्तयेदन्यत् ।
अनुपनतेन्धनवह्निवदुपशान्तं स्यात्तदा चेतः ॥१७॥ ____टी० एकपदार्थमालम्ब्य-एकमभिरूपजिनप्रतिमादिरूपं पदार्थप्रत्ययमालम्ब्य, यदा न किञ्चिदन्यद् विचिन्तयेद-विचारयेत्तदा चेतः, न उपनतानि=अनुपनतानि इन्धनानि यत्र मो ऽनुपनतेन्धनश्चासौ वनिश्च, अनुपनतेन्धनबहनेरिव अप्रक्षिप्तेन्धनाग्निवदुपशान्तं म्यादेव, एकपदार्थालम्बनोऽनन्यमनाः सन् इन्धनप्रक्षेपाभावप्रयुक्तो वह्मिर्यथा शाम्यति तथा एकालम्बनयुक्तं विरुद्धान्यालम्बनाभावप्रयुक्तं शान्तं मनः स्यादिनि ।।१७।।
-शोकादिदोषाः क्षीयन्ते शान्तहृदामनुभव एवात्र साक्षी न:'शोकमदमदनमत्सरकलहकदाग्रहविषादवैराणि ।
क्षीयन्ते शान्तहृदा-मनुभव एवाऽत्र साक्षी नः ॥१८॥ टी. 'शान्तहृदा' =उपशान्तचेतसां योगिनां, शोकश्च मदश्च मत्सरश्च कलहश्च विषादश्च वैरं च= शोचनमुन्मोहसम्मेदाभिमानमन्मादुर्जननाविविधजातीययुद्धाऽमद्ग्रहविगंधरूपा दोषाः क्षीयन्ते-प्रण
In५३६॥ श्यन्ति अत्रानुभवः साक्षी-साक्षाद्रष्टा नोऽस्माकमिनि ॥१८॥
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अध्यात्म
पार:
॥५३७॥
-आत्मनःसहजं शान्तं ज्योतिः प्रकाशते शान्ते मनसि'शान्ते मनसि ज्योतिः प्रकाशते शान्तमात्मनः सहजम् ।
भस्मीभवत्यविद्या, मोहध्वान्तं विलयमेति ॥११॥ टी० शान्ते-निर्विकारे मनसि सति, आन्मनः सहज म्वाभाविकं, शान्त-शीतलं ज्योतिः प्रकाशते, 'भस्मीभवत्यविद्या' अविद्या-विपरीतज्ञानं 'नित्यशुच्यात्मताख्यातिनित्याशुच्यनात्मसु अविद्या' इति शास्त्रप्रमिद्धाविद्या, भम्मीभृता भवति, मोहनामकभावान्धकारं विनाशं प्राप्नोतीति ॥१९॥
--परमात्माऽनुध्येयः सन्निहितो ध्यानतो भवति'बाह्यात्मनोऽधिकारः, शान्तहदामन्तरात्मनां न स्यात् ।
परमाऽऽत्माऽनुध्येयः, सन्निहितो ध्यानतो भवति ॥२०॥ टी. शान्तं हृद येषां तेषामुपशान्तचेतसा अन्तरात्मनां, बाह्यदेहादिस्वरूपस्य बाद्यात्मनः बाह्यदेहादिस्वरूपस्य बाह्यात्मनः वाह्यात्मसम्बन्धी अधिकारः-शासनादिको न स्यादेव, अनुध्येयः-स्मर्तव्य परमात्मा, (परमात्मस्वरूपं) ध्यानतः, सन्निहितः-स्वसमीपस्थ एव भवतीति ॥२०॥
॥५३७॥
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अध्यात्म
मा:
-कायादिर्षहिरात्माकायादिबहिरात्मा, तदधिष्ठातान्तरात्मतामेति ।
गतनिःशेषोपाधिः, परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञः ॥२१॥ टी० परम्परातोऽपि पररूपसंयोगिकायगृहधनादिः, बहिरात्मेतिकथ्यते यतो बाह्यपरवस्तु , आत्माऽज्ञानतः आत्मनाऽऽत्मत्वेन मन्यते, 'तदधिष्ठाताऽन्तरात्मतामेति' तस्य कायादेरधिष्ठातृत्वेन-कायादितो भिन्नः सन्कायादिकमधिष्ठाय कर्मयोगेन, आत्माधिष्ठितकायादिचेष्टाप्रेरकत्वेन आत्मसंचालितकायादित्वेन सत्यम्वरूपात्मतत्वज्ञातृत्वेन स एवात्मा, अन्तरात्माति समुच्यते, 'गतनिःशेषोपाधिः' गतः-क्षीणः उपाधिः कमतद्विकाररूप स गतनिःशेषोपाधिः, 'तज्ज्ञैः' परमात्मस्वरूपप्रत्यक्षज्ञानिभिः सर्वज्ञैः 'परमात्मा कीर्तितः"स एवात्मा सर्वकमरहितत्वेन सर्वपरमगुणावस्थादिमान् परमात्मेत्युच्यते, कायादावेवात्मतत्त्वमतेनात्मा बहिगत्मा, कायादिगताधिष्ठातृत्वेन कायादिभिन्नत्वेनात्मनत्वमतेनान्तगत्मा, निःशेषोपाधिक्षयवत्वेन परमगुणावस्थाशक्तिमत्त्वेन परमात्मेति भेदविवेको ज्ञेयः ॥२१॥
-व्यक्तबहिरात्मस्वरूपम्'विषयकषायाऽऽवेशः, तत्त्वाऽश्रद्धा गुणेषु च द्वेषः । श्रात्माऽज्ञानं च यदा, बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ॥२२॥
॥५३८॥
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अध्यात्मसारः
।। ५३९ ।।
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टी० (१) यत्र विषयस्य पायस्य चाssवेशः- आवेगः, (२) जिनोक्तेषु तत्रेषु अश्रद्धा - श्रद्धाया अभाव:, (३) गुणेषु = गुणिनां गुणान् प्रति द्वेषः - अरुचि:, (४) आत्माऽज्ञानं यदा सत्यमूलभृताऽऽत्मनो ज्ञानाभावः स्यात्तदा कायादिभेदेनाऽऽत्मा व्यक्तः स्यादिति ॥ २२॥
-व्यक्तस्याऽन्तरात्मनः स्वरूपम् -
'तत्त्वश्रद्धाज्ञानं, महाव्रतान्यप्रमादपरता च
1
मोहजयश्च यदा स्यात्, तदाऽन्तरात्मा भवेद्रव्यक्तः ॥ २३॥
टी० (१) जिनप्रणीततच्चे श्रद्धासहितं ज्ञानं, (२) महान्ति च व्रतानि = महाव्रतानि, आचारविषये, (३) अप्रमादपरता च = प्रमादाऽभावकरणे परायणता, (४) मोहजयः - मिध्यात्व चारित्र मोहविषयक संस्कारमात्रसो, यदा स्यात् पूर्वोक्तं सर्वे तदाऽन्तरात्मा भवेद्वयक्तः ॥ २३ ॥
- व्यक्त परमाSSत्मस्वरूपम्
योगनिरोधः समग्रकर्म्महतिः ।
'ज्ञानं केवल संज्ञं सिद्धिनिवासश्व यदा, परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ||२४||
टी० क्रमशः प्रथमं (१) केवलज्ञानं घातिकर्मक्षयजन्या सर्वज्ञता (२) ततो मनोवचः कायाऽऽत्मकयोगनिरोध:- सर्वसंवरः ( ३ ) ततः समग्रकर्महतिः = सत्तातोऽपि सर्वांशतः सकलकर्मक्षय: ( ४ ) सिद्धिनिवासः =
॥ ५३९ ॥
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अध्यात्मसार:
1५४०||
सिद्धिगतिनामकस्थानविशेषरूपायां, सदापूर्णशुद्धस्वरूपस्थितिरूपायां, सिद्धत्वपर्यायरूपाय मिद्धौ निवास:अपर्यवमित-नित्यस्थितिः, यदा स्यात्तदा व्यक्तः परमाऽऽत्मा स्यादिति ॥२४॥
-कुशलानुषन्धयुक्तः प्राप्नोति ब्रह्मसायुज्यमसौ'यात्ममनोगुणवृत्ती-विविच्य य:प्रतिपदं विजानाति ।
कुशलानुबन्धयुक्तः, प्राप्नोति ब्रह्मभूयमसौ ॥२५॥ टी. 'आन्ममनोगुणवृत्ती' =आत्मनो ज्ञानादिगुणान , मनसः साविकवृत्तित्रयं (वृत्तीः) 'विविच्य यः प्रतिपदं विजानाति यः साधक आन्मा, पदे पदे गुणानां च वृत्तीनां च माम्यम्य वा वैषम्यम्य नानाविधं (एष आत्मगुणः, एषा मनोवृत्तिरिति भेदरूपं) स्वरूपं, विवेकतः सम्यक्तया जानाति-दृष्टौ रक्षति, जाग्रदान्मा, कुशलानुवन्धयुक्तः पुण्यानुबन्धिपुण्यरूपकार्ययुक्तो भवति, तत्तत कुशलानुवन्धिकमद्वारा 'असो ब्रह्मभ्यं प्राप्नोनि' एष महात्मा ब्रह्मस्वरूपं मोक्षं लभते इति ॥२५॥
-ब्रह्मविदां वचनेनाऽपि ब्रह्मविलासाननुभवामः'ब्रह्मस्थो ब्रह्मज्ञो, ब्रह्म प्राप्नोति तत्र किं चित्रम् । ब्रह्मविदां वचसाऽपि, ब्रह्मविलासाननुभवामः ॥२६॥
||५४०॥
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अध्यात्मसार:
॥५४॥
टी. ब्रह्मस्थो ब्रह्मज्ञः शुद्धज्ञानोपयोगेन परमात्मना महाऽभिन्नः, शुद्धतन्यम्बमाचं जानानो महात्मा, शुद्धस्वभावरूपं ब्रह्म पाप्नोति तत्र किंचित्रमाश्चर्य ? यतः, 'ब्रह्मविदां वचमाऽपि ब्रह्मविलासाननुभवामः वयन्तु विशुद्धचेतन्यस्वरूपविदामुपदेशवचनतोऽपि शुद्धचैतन्यरूपब्रह्माविलासान-सहजशान्त शीतलस्वप्रकाशाननुभवामः, तदा ब्रह्मस्थानां ब्रह्मज्ञानां तु का बालेति ॥२६॥
-स योगी ब्रह्मण: परम:'ब्रह्माध्ययनेषु मतं ब्रह्माष्टादशसहस्रपदभावैः ।
येनाऽऽप्तं तत् पूर्ण, योगी स ब्रह्मणः परमः ॥२७|| टी. श्रीमदाचारांगसूत्रस्य ब्रह्माध्ययनेषु ("नव चंभचेरा पण्णत्ता, तंजहा-मत्थपरिण्णा ? लोगविजओ २ सीओसणिज्ज ३ सम्मत्तं ४ आवंती ५ धुतं ६ विमोहायणं, उवहाणमुयं 'मह परिणाह" समवायांगसूत्र | "नव वंभरा पण्णता, तंजहा मत्थपरिन्ना, लोगविजओ जाव उवहाणसुयं महपरिण्णा ॥" -स्थानांगसूत्र । अष्टादशसहस्रपदभाव मतमिष्टं ब्रह्म (शीलं ब्रह्मचर्यादि) येन-महात्मना तत् पूर्णमाप्तं प्राप्तं, स ब्रह्मणः परमो योगी--परमब्रह्मयोगीति कथ्यते ॥२७॥
-पूर्णब्रह्मज्ञातरि गुरुत्ववहितःसुतरः संसारसिन्धरपि
॥५४१॥
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अध्यात्म
मारः
॥५४२॥
'ध्येयोऽयं सेव्योऽयं कार्या भक्तिः सुकृतधियाऽस्यैव ।।
अस्मिन् गुरुत्वबुद्धया, सुतरः संसारसिन्धुरपि ॥२८॥ टी• अयं--ज्ञातप्राप्नपूर्णत्रमाऽन्तरात्मा मुनिः, ध्येयः-ध्यानक्रियाया विषयः कर्तव्यः, अयं अष्टाद शमहस्रपदभावमिद्धशीलरूपब्रह्मस्थोऽन्तरात्मा मुनिः. सेव्यः--आरधनाया योग्यः, 'अस्यैव सुकृतधिया भक्तिः कार्या' पूर्णब्रह्मज्ञानस्थितिमतोऽस्यैव सुकृतबुद्धया सेवाभक्तिः कर्तव्या, अस्मिन--पूर्णब्रह्मज्ञान स्थितिमति, गुरुत्वबुद्धथा मंसासिन्धुरपि सुतरः-सुखेन तरणयोग्यो भवतीति ।।२८॥
-इच्छायोगमालम्ब्य परममुनीनां भवत्या मार्गाऽनुसरणम्'अवलम्ब्येच्छायोगं, पूर्णाचाराऽसहिष्णवश्व वयम् ।
भक्त्या परममुनीनां तदीयपदवीमनुसरामः ॥२६॥ टी. 'अबलम्ब्येच्छायोगं पूर्णाचारासहिष्णवो वयं शास्त्रयोगापेक्षया संपूर्णाचारपालनेऽसमर्थाश्च वयं, इच्छायोगाऽऽलग्बनं स्वीकृत्य, 'परममुनीनां मार्गमनुमरामो वयमिति ॥२९॥
-इच्छायोगेऽल्पयतनाऽपि निदंभा शुभानुबंधिनी
(२
॥५४॥
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अध्यात्म सार:
॥५४३॥
'अल्पाऽपि यांत्र यतना, निर्दम्भा सा शुभानुबन्धकरी। ___ अज्ञानविषव्ययकद्, विवेचनं चाऽऽत्मभावानाम् ॥३०॥
टी. 'याऽत्राऽल्पाऽपि यतना' इच्छायोगेऽस्मिन्नल्पाऽपि (अनल्पायास्तु का वात्यपि शब्दार्थः) या यतना-रत्नत्रयीविषयकप्रयत्नविशेषामिकाऽथवा जीवदयापालनामिका 'निर्दभा'मायात्मकशन्यशुन्या, तदा मा यतना, शुभानुबन्धकरी अवश्यमेव पुण्याऽनुबन्धकरी भवति, च:--किश्चाऽस्मिनिच्छायोगे, 'आत्मभावाना अज्ञानविषव्ययकृद्विवेचनं' चैतन्यादिरूपशुभशुद्धपरिणामानां तथा तद्विपरीताशुद्धाशुमभावरूप विभावानां रक्षणीयाऽरक्षणीयादिरूपविभागविवेकरूपं विवेचनं भवति अथवा, आत्मनिष्ठात्मी य भावानां प्रसादतः आत्माऽज्ञानरूपाज्ञानात्मकभावविषस्य व्ययरूपविनाशकारिविवेकदीपको दीप्यते इच्छायोगेऽस्मिन् यतना [बहुदोषवस्तुवर्जनाऽल्पदोषग्रहणरूपा) द्वारा पुण्यानुबन्धिपुण्यरूपं चाऽऽत्म य भावविवेकद्वाराऽज्ञानरूपविषक्षयरूपं फलं प्राप्यत इति ॥३०॥
___-परमाऽऽलम्बनभूतो दर्शनपक्षोऽयमस्माकम'सिद्धान्ततदङ्गानां, शास्त्राणामस्तु परिचयः शक्त्या । परमालम्बनभूतो, दर्शनपक्षोऽयमस्माकम् ॥३१॥
2||५४३॥
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अध्यात्म
सार:
॥ ५४४ ॥
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टी० 'सिद्धान्ततदङ्गानां मूघादिरूप सिद्धान्तस्य च तस्य सिद्धान्तस्य टीका माध्यनिरुक्तिचूर्णिरूपपञ्चाङ्गरूपाणां 'शास्त्राणां'-- सदागमानां बोधरूपः परिचयस्तु शक्त्या यथाशक्ति, अस्तु, अस्माकं मोक्षाय तु परमालम्बनभूतो दर्शन पक्ष एवं शास्त्र सिद्धतच्च श्रद्धानमतरूपपक्ष एवास्ति,
इदमत्र हृदयम् = शास्त्रीयज्ञानमस्मत्पार्श्वे यथाशक्ति सदपि शास्त्रयौगिकं जीवनं नास्त्येव, एवं सत्यपि शास्त्रोक्तस्यैतस्य तत्त्वस्य श्रद्धानन्तु, अस्मासु विद्यत एव तथा तदेवाऽस्माकं कृते परमालम्बनभूतमेवेति ॥ ३१ ॥ - दर्शन पक्षस्याऽभिनयः प्रदर्श्यते
विधिकथनं विधिरागो, विधिमार्गस्थापन विधीच्छूनाम् | प्रविधिनिषेधश्चेति, प्रवचनभक्तिः प्रसिद्धा नः
||३२||
टी० सुदर्शन पक्षोऽयमस्ति तथाहि = (१) विधिकथनं = विधिपद्धतिमार्गः कथनीयः, (२) विधिरागः = विधिमार्ग प्रति बहुमाना मक्तिधर्या, (३) विधीच्छूनां विधिमार्गस्य जिज्ञासूनां पुरतो विधिमार्गस्य क्रियासाधनादर्शनपूर्वं स्थापनं कार्यम् (४) अविधिनिषेश्वश्व= विश्विविपक्षेऽविविपक्षस्य निषेधः कर्त्तव्यः, इति इत्याकारिचैव नो- अस्माकं प्रसिद्धा प्रवचनभक्तिरस्त्येव यतः प्रवचनानुमारित्वेन जन्मयापनाय ( जीवनाय ) अस्मासु शास्त्रयोगरूपप्रत्र चनभक्तिस्तु नास्ति | |३२||
||५४४||
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अध्यात्म
मारः
॥५४५॥
-इच्छायोगे विधिकथनादिकृत्यरूपशक्यारम्भः, पूर्णक्रियाऽभिलाषश्चेति द्वयमात्मशुहिकरम्
'अध्यात्मभावनोज्ज्वलचेतोवृत्त्योचितं हि नः कृत्यम् ।
पूर्णक्रियाऽभिलाषश्चेति द्वयमात्मशुद्धिकरम् ॥३३|| टी. या विधिकथनादिरूपा प्रवचनभक्तिः कथिताऽस्ति, तत्कृत्यमिच्छायोगिनामस्माकं कृते समु. चितमेव गतः इच्छायोगेऽध्यात्मयोगभावनायोगी भवतश्व ताभ्यां योगाभ्यामुज्ज्वलस्याऽम्मदीय चेतसो वृत्त्या युक्तमिच्छायोगवतामस्माकं कृत्य-विधिकथनादिरूपं कर्त्तव्यमुचितम् , एवमिच्छायोगे यविधिक थनादिकृत्यं शक्यमस्ति, तस्याऽऽरम्भं कुर्मो वयमेतावदपि न परन्तु सामर्थ्ययोगस्य पूर्णा क्रिया याऽ. स्मतकृतेऽद्याऽशक्याऽस्ति तामभिलषामः, यथाशक्याऽरम्भश्वाऽधुनाऽशक्यपूर्णक्रियाऽभिलाषश्चेति द्वयमाऽऽन्मशुद्धिकरमस्त्येवेति ॥३३॥
__ अधुना शक्याऽरम्भश्च शुद्धपक्षश्च शुभानुवन्धः'द्वयमिह शुभाऽनुबन्धः, शक्यारम्भश्च शुद्धपक्षश्च ।
अहितो विपर्ययः पुनरित्यनुभवसङ्गतः पन्थाः ॥३४॥ A५४५॥ टी० यस्याऽनुष्ठानादेः शक्तिरस्ति, तस्य शक्यस्यारम्भः कर्त्तव्यः, यदशक्यं भवेतादृशशुद्धसम्पूर्णा
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अध्यात्म
सार:
॥५४६॥
ऽनुष्ठानस्य पक्षे स्थातव्यम् , शक्याऽऽरम्भः, शुद्धपक्ष इति द्वयमिह-इच्छायोगे शुभाऽनुवन्धः पुण्याऽनुबन्धकारी शक्यारम्भः शुद्धपक्षश्व, 'अहितो विपर्ययः पुनः'किश्च शक्यारम्मशुद्धपक्षोभयतो विपर्यय:अशक्यारम्भोऽशुद्धपक्षश्चेत्युभयरूपो विपर्ययः, अहितो-अहितकारी भवतीत्येवमनुभवेन सह सङ्गति मान् पन्थाः-मार्गः इति ॥३४॥
__-बाह्यक्रियया चरणाऽभिमानिनो ज्ञानिनोऽपि न ते'ये त्वनुभवाऽनिश्चितमार्गाश्चारित्रपरिणतिभ्रष्टाः,
बाह्यक्रियया चरणाऽभिमानिनो ज्ञानिनोऽपि न ते ॥३॥ टी. तुः--किश्च स्वकीयाऽनुभवेनाऽनिश्चितोऽध्यात्ममार्गो येषां ते--स्वकीयानुभवानिश्चितमार्गाः, अत एव चारित्रविषयकपरिणतिरूपपरिणामेन भ्रष्टाः, ये स्युस्ते, 'बाह्यक्रियया' बहिराचरणेन, 'चरणाऽभिमानिनः' =म्बं संयमित्वेन मन्यमानाः, वस्तुतः संयमिनो न सन्ति यनः सम्यग् ज्ञाने दम्भो न युज्यतेऽर्थाचरण विषयको मिथ्याऽभिमानो न घटते (भावचारित्रपरिणतिभ्रष्टाः मन्तो बाह्यक्रियावेषमात्रेण चारित्राभिमानिनः सम्यगश्रद्धाभ्रष्टाः सम्यगवानभ्रष्टाः कथं न ?) ॥३५।।
--बाह्याचारमात्रं सतां न प्रमाणम्
॥५४॥
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अध्यात्मसारः
॥५४७॥
लोकेषु बहिर्बुद्धिषु विगोपकानां बहिष्क्रियासु रतिः । श्रद्धां विना न चैताः, सतां प्रमाणं यतोऽभिहितम् ॥३६॥ बालः पश्यति लिङ्ग मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तम् ।
श्रागमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन ॥३७॥ __टी. 'लोकेषु बहियु द्विषु स्थूलबुद्धिषु लोकेषु सत्सु अत एव 'विगोपकानां'--वेषमात्रभृतां दाम्भिकानां बाह्यक्रियासु स्थलवुद्धिन्वेन बाह्यबुद्धिजनमनमि रतिः-प्रेम दृश्यते यतो लोका बहियं यः सन्ति, परन्तु तेषां तु यावत्त व्यव्यक्तीनां तत्तद्वाह्यक्रियासु मोक्षप्रापकसामर्थ्यस्य श्रद्धा न प्रभवेत्ता वदेता भावशून्याः क्रियास्तेषां न प्रमाणं यतोऽभिहितमस्ति
'बाल:'--स्थूलबुद्धिको लोकः, लिङ्ग-वेषमात्रं दृष्ट्वैव नमति, 'मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तम्' मध्यमबुद्धिको लोको वेषेण सह वृत्तं--महाव्रतादिरूपं सदाचारं विचार्य नमति 'वृधस्तु वेपमहाव्रताद्याचारेण सहागमतत्वं परीक्षते सर्व यत्नेन, बाह्याचारप्ररूपक शास्त्रतत्वं कपच्छेदतापादिभिः परीक्षतेऽर्थाच्छास्त्रमाश्रित्य क्रियमाणे बाह्याचारे बुधपुरुषस्य श्रद्धोत्पद्येत यत् 'एष वाद्याचारोऽवश्यं मोक्षप्रापकोऽस्ति इति श्रद्धायां जायमानायां सत्यां बुधपुरुषः 'सभाव एष बाह्याचाराप्रमाणमिति मत्वा नमतीति ॥३६॥३७॥
॥
४
॥
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अध्यात्म-IA
सार:
11५४८॥
-हितकारी ज्ञानवतामनुभववेद्यः प्रकारोऽयम्-अध्यात्मानुभवजन्यनिगूढनवनीतहितशिक्षारूपेण ग्रन्थस्योपसंहारः
'निन्द्यो न कोऽपि लोके, पापिष्ठेष्वपि भवस्थितिश्चिन्त्या । पूज्या गुणगरिमाख्या, धार्यो रागो गुणलवेऽपि ॥३८॥ निश्चित्यागमतत्त्वं, तस्मादुत्सृज्य लोकसंज्ञां च । श्रद्धाविवेकसारं, यतितव्यं योगिना नित्यम् ॥३॥ ग्राहयं हितमपि बालादालापर्न दुर्जनस्य द्वेष्यम् । त्यक्तव्या च पराशा, पाशा इव संगमा ज्ञेयाः ॥४०॥ स्तुत्या स्मयो न कार्यः, कोपोऽपि च निन्दया जनै कृतया। सेव्या धर्माचार्यास्तत्त्वं जिज्ञासनीयं च ॥४॥ शौचं स्थैर्यमदंभो, वैराग्यं चात्मनिग्रहः कार्यः ।। दृश्या भवगतदोषाश्चिन्त्यं देहादिवरूप्यम् ॥४२॥
IA५४८॥
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अध्यात्म
सार:
॥५४९॥
भक्ति भगवति धार्या, सेव्यो देशः सदा विविक्तश्च । स्थातव्यं सम्यक्त्वे, विश्वस्यो न प्रमादरिपुः ॥४३॥ ध्येयाऽऽत्मबोधनिष्ठा, सर्वत्रैवागमः पुरस्कार्यः । त्यक्तव्याः कुविकल्पाः, स्थेय वृद्धानुवृत्त्या च ॥४४|| साक्षात्कार्य तत्त्वं, चिद पानन्दमेदुरै र्भाव्यम् ।।
हितकारी ज्ञानवता-मनुभववेद्यः प्रकारोऽयम् ॥४५॥ (१) 'लोके न कोऽपि निन्द्यः' जगति वा जगद्वर्तिनि जने कस्यचिदपि निन्दा-परपरीवादो मात्सर्यमिश्रितं पराक्ष परस्य दोषकीर्तनं वा न कर्त्तव्यम् , (२) 'पापिष्वपि भवस्थितिश्चिन्त्या' क्रूरघोरपापकर्मकारकात्मस्वपि तिरस्कारं तिरस्कृत्य 'तेषां तादृशी भवस्थितिरस्तीति मनसि परामर्शः कार्यः, यतः यथा भवस्थिति जीवः कर्म करोति, कर्मकृति प्रति भवस्थिति हेतु भवति
(३) 'पूज्या गुणगरिमाढ्याः' गुणानपेक्ष्य गुरुत्वसमृद्धाः पूज्या:-यथाशास्त्रं पूजनीयाः, अत एव कथ्यते 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः'
(४) धार्यों रागो गुणलवेऽपि'=गुणस्य लवो-लेशो यत्र तत्र गुणलवेऽपि पुरुषे, परमाणुरूपे
॥५४९॥
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अध्यात्म
सार:
॥५५॥
परगुणेऽपि वा रागः-प्रेम, धार्य:-मनसि धारणीयः, अतः कथ्यते च 'गुणानुरागाद् गुणप्राप्तिः', तथाऽधिकगुणेषु सुनरी हृदयतो गगो विधातव्य एव, ॥३८॥
(५) 'निश्चित्यागमतत्वं'जिनप्रणीतशास्त्रस्य सारं निर्णीय तस्मानिीताऽऽगमतत्त्वतो 'लोक-. संज्ञा चोत्सृज्य'= गतानुगतिकता त्यक्त्वा 'श्रद्धाविवेकसारं श्रद्धायाश्च विवेकस्य प्रधानतापूर्वक 'योगिनां योगधारकेण-मोशसाधनबानादिरत्नत्रयीसमाराधनपरेण 'नित्यं यतितव्यम्' निरन्तरं योगविषये प्रयत्नः कर्त्तव्यः ॥३९॥
(६) बालादपि हितं ग्राह्यम्' वयोऽपेक्षया बालकादपि यद्यद्धितं-हितकारि-वचनमार्गदर्शनादिकं तत्तद् ग्राड्यं
हापर्न द्वेष्यम' मज्जनतारहितस्य दुष्टजनस्यालापैः-गाल्यादिवचनविशेष हेतुभिः 'न द्वेष्यम्' दुर्जनं प्रति द्वेषो न कर्त्तव्यः, (८) 'त्यक्तव्या च पराशा' कल्याण मित्रादिभिन्नाना देह्यादीनां देहादीनां परवस्तूनां सकाशादाशा-प्राप्तिरक्षणादिविषयकाऽऽशा, त्यागयोग्या, योऽनाथोऽस्ति स्वयं, स परान कथं नाथत्वेन रक्षेत ।
__(8) 'पाशा इच सङ्गमा ब्रेया: पाशा:-बन्धनविशेषा इव अध्यात्मामृतदाविशेषादिसंयोगभिन्नवाहसंयोगविशेषा ज्ञेयाः ॥४०॥
11५५०॥
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अध्यात्म-I सार:
॥५५१॥
(१०) 'स्तुत्या स्मयो न कार्यः परकृतप्रशंमागभिंतप्रशस्तितः, स्मयः-अमिमानविशेषो न कर्त्तव्यः
(१२) 'जनैः कृतया निन्दया कोपोऽपि चन कार्यः'बुधशिष्टसज्जनभिन्न जनैः कृतया विगानरूपनिन्दया कोपोऽपि च न करणीयः, अर्थाद् व्यक्तिमपेक्ष्य स्तुतिनिन्दाकाले समता धार्या, स्मयकोपाऽभावतः
(१२) 'सेव्या धर्माचार्याः'-धर्मदानापेक्षयाऽऽचार्याः धर्मस्याचार्या गणधरादयश्चाचार्याः सेव्याःआराध्या इत्यर्थः
(१३) 'तचं जिज्ञासनीय' जिनप्रणीतजीवादितत्त्वानेकान्तादितत्वविषयिणी जिज्ञासा कर्त्तव्या (१४) शौच-सर्वप्रकारकं पावित्र्यं रक्ष्यं (१५) स्थैर्य चञ्चलताऽभावेन प्रसन्नताऽऽगमनं, ततः स्वसनिधिस्थनिधिदर्शकत्वात्स्वगतपरिणामस्य स्थैर्य कार्यम् , (१६) अदम्मामायाशल्यशून्यता कर्त्तव्या,
(१७) वैराग्यं-अभयरूपं भवनैगुण्यविषयकज्ञानजन्यो भवीयसुखतत्साधनगतरागाभावो वैराग्यम् (१८) 'आत्मनिग्रहः कार्य:नागद्वेषमोहादिरूपविभावात्मकाऽऽत्मनो निग्रहः-शुभशुद्धभावरूपस्वभावात्मको भूत्वा परग्रहणोपरि शत्राविच निग्रहः कार्यः ।
(१९) दृश्या भवगतदोषाः जन्मजरामरणरूपभवगतदुःखमात्रदानादिदोषाः भावनेत्रपथं नेयाः, 'जन्म दुःखं जरादुःखं, मृत्युदुःखं पुनः पुनः, संसारसागरे दुःखं, तस्माज्जागृत' अर्थात् संसारमावान्-प्रति
॥५५॥
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दोपदृष्टि विधेया (२०) 'चिन्त्यं देहादिवैरूप्यम्' जात्याद्यपेक्षया नवादिसच्छिद्रद्वारै निर्यदशुचिप्रवाहाऽ
पेक्षया,
अध्यात्म मारः
|५५२॥
रोगविशेषादिप्रभवापेक्षया, शरीरांगोंपाङ्गादिगतं वैषम्यं-वैचित्र्यं चित्ते धारणीयम , (२१) 'भक्तिभगवति धार्या परमैश्चर्यादिसकलगुणाऽतिशयवति भगवति परमपरमेष्ठिरूपे परमेश्वरे भक्तिः आत्मादिसर्वसमर्पणशरणागतिबहमानहार्दिकविनयादिविशेषरूपा भक्तिर्धार्या अन्तःकरणे प्रतिपत्तव्या
(२२) सेव्यो देशः सदा विविक्तश्च'--सर्वथा स्त्रीपशुनपुंसकादिरहितः सन् विविक्तो देशः सदै. कान्तस्थानविशेषः सेव्यः-स्वीकरणीयः
(२३) स्थातव्यं सम्यक्त्वे-चिन्तामणिकल्पपादपाऽधिके, तत्वार्थश्रद्धान-तत्वनिर्णयरूपे अहंदादि सुदेवादितत्त्वत्र यश्रद्धानलक्षणे, निर्विघ्नत्वेनाजगमस्थानप्रापके सम्यक्त्वे आत्यन्तिकैकान्तिकस्थिरता कर्तव्या (२४) विश्वस्यो न प्रमादरिपुः-कदाचिदपि विषयादिप्रमादपंचकस्यात्मवंचकस्य भावमहाशत्रोन विश्वासः करणीयः
(२५) 'ध्येयाऽऽन्मयोधनिष्ठा=आत्मज्ञाने नितरां स्थितिरथवाऽऽत्मज्ञाने पूर्णता ध्यानविषया कर्तव्या (२६) सर्वत्रैवाऽऽगमः पुरस्कार्य:-मर्वकार्यक्रियादावेव शास्त्रमग्रतः कर्त्तव्यम् (२७) त्यक्तव्याः कुविकल्पाः प्रातरे द्रध्याने त्यागविषयीकर्तव्ये, धर्मशुक्लध्याने करणीये
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॥५५२॥
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सार
॥५५३॥
(२८) ग्थेयं वृद्धानुवृत्त्या च'आप्तवृद्धपुरुषमार्गदर्शनानुसारेण प्रवर्तितव्यं 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' इत्यभियुक्तोक्तेः
(२९) साक्षात्कार्य तत्व आत्मादि तत्वं प्रति स्वसंवेदनकझीकर्त्तव्यं - मानसप्रत्यक्षीकार्यम् (३०) निद्रुपाऽऽनन्दमेदुरै भर्भाव्यम्-चिदेव रूपं यस्य तेन चिद्रूपानन्देन दृढपुष्टैरात्मभिर्भाव्य-भावना विषयीकर्तव्यम् , अथवा चिद्रूपानन्दविषयकपुष्टानुभूतिपरे र्भाव्यम् , अयं प्रकारो ज्ञानवतामनुभववेद्यो हितकारी
॥४१-४२-४३-४४॥४५॥ इत्याचार्यश्रीमद्विजयलब्धिमूरीश्वरपट्टधराचार्यश्रीमद्विजयभुवनतिलकसूरीश्वरपट्टधराचार्यभद्रकरसूरिणाकृताया
मध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यागा टीकायामनुभव स्वरूपो विंशतितमोऽधिकारः समाप्तः॥९३३।।
॥५५॥
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अध्यात्मसार:
॥५५४||
-अथैकविंशतितमोऽधिकारः सज्जनस्तुतिनामकः
-सन्तः सन्तु मयि प्रसन्नमनस:'येषां कैरवकुन्दवृन्दशशभृत्--करिशुभ्रा गुणाः, मालिन्यं व्यपनीय चेतसि नृणां वैशद्यमातन्वते । सन्तः सन्तु मयि प्रसन्नमनसस्ते केऽपि गौणीकृत
स्वार्था मुख्यपरोपकारविधयाऽत्युच्छृङखलैः किं खलैः ॥१॥ ___टी० येषां सतां 'कैरवकुन्दवृन्दशशभृत् कपूरशुभ्रा गुणाः'=श्चेतकमलवत् , कुन्दवृन्दवद , चन्द्रवत् , घनसारवद् धवला-निर्मला गुणाः, 'व्यपनीय मालिन्यं नृणां चेतसि वेशद्यमातन्वते' मनोगतलिनता दरीकृत्य नराणां मानसे निर्मलतां कुर्वते 'मुख्यपरोपकारविधया गौणीकृतस्वार्थाः' -मुख्यतया परार्थकरणस्य विधया प्रकारेण, परित्यक्तस्वार्थाः, 'केऽपि ते ये केऽपि सन्तः सन्तो मयि प्रसन्नमनसः सन्तु-भवन्तु, "किमत्युच्छङ्कलैः खलै': अत्यन्तस्वच्छन्दवृत्तिभिदुर्जनैरप्रसन्नैः किम् ? अतिकपटकलाकुशलदुर्जनानां नो न भयं किश्चित् ॥१॥
॥५५४॥
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बध्यात्म
॥५५५॥
-सज्जनाः कृपातः सुकविकृतग्रन्थार्थान् प्रथयन्ति'ग्रन्थार्थान् प्रगुणीकरोति सुकविः, यत्नेन तेषां प्रथामातन्वन्ति कृपाकटाक्षलहरीलावण्यतः सज्जनाः । माकन्दद्रुममंजरीं वितनुते, चित्रा मधुश्रीस्तथा ।
सौभाग्यं प्रथयन्ति पञ्चमचमत्कारेण पुस्कोकिलाः ॥२॥ टी. 'सुकविः' काव्यकरणदक्षोऽपि सद्गुणाऽन्वितः, 'यत्नेन ग्रन्थार्थान् प्रगुणीकरोति' काव्यमध्ये ग्रन्थविषयकार्थान यत्नपूर्वकं सचिनोति-समुदितान करोति, तदनन्तरं 'सज्जनाः कृपाकटाक्षलहरीलावण्यतम्तेपा प्रथामातन्वन्ति' सौजन्यविशिष्टाः शिष्टाः पुरुषाः कृपाकटाक्षरूपलहरीजातवात्सल्यरूपलावण्यास्तेपा-ग्रन्थार्थानां प्रथा-प्रसिद्धिं कुर्वन्ति ____ 'चित्रा मधुश्रीः माकन्दद्रुममञ्जरी वितनुते अद्भुता वसन्ततु सुषमा सहकारतरुवरे मञ्जरी करोति-उत्पादयति, ततः 'पुस्कोकिलाः पञ्चमचमत्कारेण सौभाग्यं प्रथयन्तिः पुंस्त्वविशिष्टाः कोकिलाः, पञ्चमस्वरस्य चमत्कारेण-तन्मञ्जरीहेतु कपञ्चमस्वरनिष्ठमाधुर्यातिशयेन सहकारस्य सौभाग्यं-सुभमताया महिमानं विस्तारयन्ति ॥२॥
॥५५५॥
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अध्यात्मसार:
॥५५६॥
-सहृदयानां सतां कृपा सन्निहिता कार्या यतो दुर्जनो गुणनाशको न भवेत्
'दोषोल्लेखविषः खलाननविलादुत्थाय कोपाज्ज्वलन् , जिह्वाऽहिर्ननु के गुणं न गुणिनां. बालं क्षयं प्रापयेत् । न स्याच्चेत्प्रबल प्रभावभवनं दिव्योषधिः सन्निधौ ।
शास्त्रार्थोपनिषदिदां शुभहृदां, कारुण्यपुरायपथा ॥३॥ टी० दोपोल्लेखविपः कोपाज्वलन्'-दोषाणां प्रकाशनरूपविषसम्पन्नः, कोपरूपज्वलनेन ज्वलन् , ‘खलाननविलादुत्थाय' दुर्जनमुखविवरान्निर्गत्य, 'जिह्वाऽहि ननु गुणिना के गुणं वालं न क्षयं प्रापयेत्' = निश्रयतो रसनारूपः सर्पः, गुणवता के बालरूपं गुणं (नवीनं गुणवा) न अयं-विनाशं प्रापयेत्-नयेत् अर्थाद् गुणिनिष्टगुणरूपबाल दोपप्रकाशनद्वाग कोपदग्धः सन् दुर्जनमुखबिलवामी रसनानिष्ठदुर्वचननामकः मर्पः, भयं प्रापयत्येव परन्तु कदा न पापक्षयं ? प्रश्नमेनमुत्तस्यत्युत्तरार्द्ध
'शुभहृदां शास्त्रार्थोपनिषद्विदां कारुण्य-पुण्यप्रथा' परोपकरणकरणप्रवणहृदयवां सिद्धान्तीयार्थ रहम्यवेदिनां कामण्येन पवित्रप्रथारूपा, "प्रबलप्रभावभवनं दिव्योषधिः सन्निधौ चेनस्यात्' बलवत्प्रभावम्य भवनरूपा दिव्या-देववच्चमत्कारिणी, औषधिः सर्मापे यदि न स्याद्-भवेत्तदोपयुक्तोक्तिः मफला भवेदन्यथा नेति ॥३॥
॥५५६॥
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अध्यात्ममाग
॥५५७॥
-दृष्टा व्यवस्थाः सताम् - उत्तानार्थगिरां स्वतोऽप्यवगमात् , निःमारतां मेनिरे, गम्भीरार्थसमर्थने बत खलाः, काठिन्यदोषं ददुः । तत्को नाम गुणोऽस्तु कश्च सुकविः, किं काव्यमित्यादिकां,
स्थित्युच्छेदमति हरन्ति नियतां, दृष्टा व्यवस्थाः सताम् ॥४॥ टी० खलाः-दुर्जना, उत्तानार्थगि =मग्लार्थानां वाणीनां 'स्वतोऽप्यवगमात्'=निरपेक्षतया स्व. स्यापि ज्ञप्तिसम्भवात 'निःसारतां मेनिरे' काव्यगतवचयां सारशून्यतां मन्यन्ते स्म,
'गम्भीरार्थसमर्थने' काव्यगतवचमां गूढगम्भीरार्थसमर्थने सति 'बत खलाः काठिन्यदोषं ददुः' खलु दर्जनाः 'इदं काव्यं क्लिष्टं' इति काव्यवचनगतकाठिन्यात्मक दोष प्रकटयन्ति स्म, तत-तस्मात्कारणात 'को नाम गुणोऽस्तु ?' अर्थाज्जगति काव्यजगति गुणाभावः मर्वत्र ?, 'कश्च सुकविः' अर्थाज्जगति सुकवीनामसम्भवः', 'किंकाव्यम्'? कविकर्माभावः सूच्यते ? इत्यादिकां एवं भूतां कविनामकजगतः स्थिते:-अस्तित्वस्योच्छेदरूपप्रलयविषयणी मति नियतां हरन्ति सतां व्यवस्था दृष्टाः' अर्थाद् यदा सतां शुद्धसौजन्यभृताः काव्यगुणसुकवित्वादिव्याख्याप्रभृतिका व्यवस्था वयं पश्यामस्तदाऽमङ्गलमतिस्ततक्षणादेव विनश्यतीति ॥४॥
॥५५॥
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अध्यात्म
सार
॥५५८॥
-आध्यात्मिकी कथां श्रुत्वा सन्तः सुखं गाहन्ते'अध्यात्माऽमृतवर्षिणीमपि कथा-मापीय सन्तः सुखम् , गाहन्ते विषमुगिरन्ति तु खला, वैषम्यमेतत्कुतः । नेदं चाद्भुतमिन्दुदीधितिपिबाः प्रीताश्चकोरा भृशम् ,
किं न स्युर्बत चक्रवाकतरुणाः, त्वत्यन्तखेदातुराः ॥४॥ टी. अध्यात्मनामकदिव्यामृतवर्षिणीमपि 'कथामापीय' कल्याणीरूपा का श्रुत्वा 'सन्तः सुखं गाहन्ते'-अमन्दानन्दमेदुराः सन्तो भवन्ति, परन्तु खला:-दुर्जना दोषोल्लेखितकटुतर सरस्वतीग्रहाररूपं विषमुगिरन्ति-वमन्ति पुनः पुनः, 'एतद्वैषम्यं कुतः? कस्मात्कारणादेषा विषमतासज्जनदुर्जनमध्ये भेदरेखा समुत्पन्ना १ तत्र प्रत्युत्तरमिदम्='नेदं चाऽद्भुतम्' इदं चाश्चर्यजनकं न यतः इन्दुदीधितिपिवाः, भृशं प्रीताश्चकोरा:-चन्द्रकिरणामृतपायिनोऽत्यन्तमानन्दप्रीतिप्रमोदप्रमेदुराश्चकोरनामकपक्षिणो भवन्ति, बनेति खेदे, अमृतकिरणोदयेऽपि तरुणाश्चक्रवाकनामकपक्षिणम्तु किमत्यन्त शोकातुराः न स्युः १, अर्थात् प्राचुर्येण खेददुःखिनो भवेयुरेवेति ॥५॥ -न प्रमदावहा तनुधियां गूढा कवीनां कृतिः
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॥५५८॥
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अध्यात्मसार
॥५५९॥
'किश्चित्साम्यमवेक्ष्य ये विदधते, काचेन्द्रनीलाऽभिदाम् , तेषां न प्रमदावहा तनुधियां गूढा कवीनां कृतिः । ये जानन्ति विशेषमप्यविषमे, रेखोपरेखांशतः,
वस्तुन्यस्तु सतामितः कृतधियां, तेषां महानुत्सवः ॥६॥ ____टी० ये किश्चिच्चाकचिक्यरूपं साम्य-समानधर्ममवेक्ष्य-ज्ञात्वा 'काचेन्द्रनीलाऽभिदा विदधते' = कानस्य च नीलमणेश्चाभेदं कुबते-मन्यन्ते अर्थादन्यग्रन्थः सहेतस्याधिकृतस्य ग्रन्थस्य वर्णादिरचनाऽपेक्षया किश्चित्साम्यमवलोक्य ये सर्वग्रन्थं समानं मन्यन्ते, 'तेषां तनुधियाँ' पर्वग्रन्थ समानवादिनां स्वल्पबुद्धीनां जीवानां. 'न प्रमदाबहा गूढा कवीनां कृतिः' =विशिष्टकाव्यकर्तणां गूढार्थ-मर्मार्थतो महती कृतिःचना न प्रमोदकारिणी भवति ।
'ये विशेषमविषमेऽपि जानन्ति रेखोपरेखांशतो वस्तुनिरचनाविशिष्टे चित्रादिवस्तुनि, विषमतारहितेऽपि, तत्स्थमूक्ष्मातिसूक्ष्मविषयाणां विशेष, चित्रमध्ये सूक्ष्माऽतिसूक्ष्मरेखोपरेखांशग्रहणसमर्थदृष्टि बद् गहणन्ति तेषां कृतधियां सतां गूढा कवीनां कृतिरस्तु महानुत्सवः' तेषां संस्कृत-निपुणप्रतिभावतां विशेषज्ञानिनां सतामेवैषा गूढा कविकृतिः महानानन्दरूप उत्सवोऽस्तु इति ॥६॥
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'
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अम्यान्म
मार:
1५६०॥
-एषा कविकृतिर्मोहच्छचदृशां तनुधियां न चेतश्चमत्कारिणी-- 'पूर्णाऽध्यात्मपदार्थसार्थघटना, चेतश्चमत्कारिणी, मोहच्छन्नदृशां भवेत्तनुधियां, नो पण्डितानामिव । काकुव्याकुलकामगर्वगहन - प्रोदामवाकचातुरी.
कामिन्याः प्रमभं प्रमोदयति न, ग्राम्पान् विदग्धानिव ॥७॥ टी. 'पूर्णाऽध्यात्मपदार्थमार्थघटना' निश्चयव्यवहारनयमापेक्षद्रव्यभावोमयज्ञानक्रियोभयरूपसवांशत: पूर्णाऽध्यात्मपदार्थविषयका विशिष्ट कविकृतिरूपा घटना, पण्डितानामिव मोहरमनशां ननुधियां न चेतश्चमतकारिणी भवेत' तत्वानुगामिबुद्धिशालिनां यथा चेतश्चमतकारिणी भवति तथा मोहाच्छा दिनदृष्टीनां म्बन्पमतीनां चेतश्चमतकारिणी न भवेत ,
यथा 'कामिन्याःकाकुव्याकुलकामगर्वगहनग्रोहामवाक्चातुरी'कामशास्त्रप्रसिद्धध्वनि-विकार विशेषरूपव्याकुलाऽन एव कामसम्बन्धिमदमत्ताऽत एव निरङकुशा वाचां चातुरी, यथा विदग्धान-कामादिशास्त्रविचमणान प्रमोदयति-आनन्दयति तथा ग्राम्यान-कामशास्त्रानभिज्ञान ग्रामवास्तव्यान प्रसभंचालादपि न प्रमोदयतीति ॥७॥
X1५६०॥
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अमात्मसार:
-सकलगुणनिधीन सज्जनान् नमाम:स्नाता सिद्धान्तकुगडे विधुकरविशदाध्यात्मपानीयपूरे तापं संसारदुःखं कलिकलुषमलं लोभतृष्णां च हित्वा ॥ जाता ये शुद्ररूपा शमदमशुचिता-चन्दनाऽऽलिप्तगात्राः
शीलाऽलङ्कारमारा: मकलगुणनिधीन, सज्जनांस्तान्नमामः ||८|| टी. ये 'विधुकरविशदाऽध्यात्मपानीयपूरे सिद्धान्तकुण्डे स्नात्वा' चन्द्रकिरणनिर्मलोऽध्यात्म नामकजलसमूहो यत्र तादृशे जिनागमनामक कुण्डे म्नानं कृत्वा-सम्यगधीत्य-सम्यग्ज्ञानी भृत्वा, 'ता संसारदुःखं कलिकलुषमलं लोभतृष्णां च हित्वा' संसारस्य दुःखं तापकत्वात्तापं मंमारदःखरूपं ताप कलिकलुषरूपमलं, लोभरूपतृष्णां च हित्वा-त्यक्त्वा, ये शुद्ध रूपं येषां ते-शुद्धस्वरूपा जाताः, ततः 'शमदमशुचिताऽऽलितगात्रा'शान्ततादान्ततापवित्रतारूपचन्दनेनाऽऽसमन्तालिप्तं गात्रं-भावशरीरं येषां ते शमदमशुचिताचन्दनालिप्तगात्राः, ततः शीलाऽलङ्कारमारा:-शीलरूपपरमभूषणप्रधाताः जाताः, तान् सकलगुणनिधीन सर्वगुणविशेषतानिधानान सज्जनशिगेमणीन नमामः-नमस्कारं कुर्महे वमिति ॥८॥
-काव्यमेघवर्षणतः सुहृदां मनःसरः प्रेमपूरैः प्लाव्यते
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अध्यात्म
सार:
-॥५६॥
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'पाथोदः पद्यबन्धै र्विपुलरसभरं वर्षति ग्रन्थकर्त्ता, प्रेम्णां पूरैस्तु चेतः सर इह सुहृदां प्लाव्यते वेगवद्भि त्रुट्यन्ति स्वान्तबन्धाः पुनरसमगुणदेषिणां दुर्जनानाम् । चित्रं भावज्ञनेत्रात् प्रणयरसवशात् निःसरत्यश्रुनीरम् ॥१॥
टी० ' ग्रन्थकर्त्ता पाथोदः पद्यबन्धे विपुलरसभरं वर्पति' - प्रन्थकचैव सुकविमेषः पद्यबन्धैः- श्लोकात्मकरचनाविशेषैः, विपुलरसानां जलानामिव भरं समूहं वर्षति वृष्टिं करोति यदेह सुहृदां = सम्यक्चेतसां सतां मनःसरस्तु वेगवद्भिः-वेगपूर्वकं प्रेम्णां पूरैः वात्सल्यजलपूरैः प्लाव्यते-उच्छलत् क्रियते, तदैवेह चित्रमा यद्भवति तन्निशम्यतां, 'पुनरसमगुणद्वेषिणां दुर्जनानां स्वान्तबन्धास् त्रुट्यन्ति' = निरुपम गुण द्विषतां दुष्टजनानां हृदयस्य बन्धनानि भवन्ति भवन्ति परन्तु 'प्रणयरसवशाद् भावज्ञनेत्रादश्रनीरं निःसरति ' = काव्यस्योपरि विशिष्टप्रेमरसाधीनत्वेन काव्यान्तर्गतभावस्य ज्ञातवतां नयनत आनन्दाश्रनीरं निःसरतीति चित्रमिदं कुत्र बन्धास्त्रुटिताः कुतो नीरंनिःसृतमिति ॥९॥
- सत्कविर्लब्धयशः सञ्चयः सहृदये वण्यते'उद्दाम ग्रन्थभावप्रथनभव यशः सञ्चयः सत्कवीनाम् क्षीराब्धिर्मध्यते यः सहृदयविबुधैः मेरुणा वर्णनेन ।
॥५६२५।।
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एतडिराडीरपिराडा भवति विधुरुचेः, मण्डलं विग्रुषस्ताः, अध्यात्म
ताराः कैलासशैलादय इह दधते, वीचिविक्षोभलीलाम् ॥१०॥ सारः
___टी. यः 'उद्दामग्रन्थभावप्रथनभवयशासनयः सन्कवीनां झीरान्धिर्मध्यते सहृदयविबुधैरुणा २) वर्णनेन' ग्रन्थकर्तणां सत्कवीनां गूढार्थकग्रन्थभावप्रसारणजन्ययशःमञ्चयरूपक्षीरसागरः सज्जनजनरूप
निर्जरः प्रशंसारूपमेरुदण्डेन, मध्यते-मन्थन क्रियाविषयीक्रियते, 'एतहिण्डीरपिण्डो भवति विधुरुचे मण्डलं विप्रपस्ताराः तस्मात क्षीराब्धिमथनात डिण्डीरपिण्ड:-फेनसमुदायः, उच्छलन् व्योमनि गत्वा चन्द्रज्योत्स्नामण्डलं भवति-उत्पद्यते. ताः पिता उत्क्षिप्ताः सत्यो विप्रषः-जलविन्दवः व्योम्नि तारा भवन्ति, 'कैलासशैलादय इह दधते वीचिबिचोभलीला' कैलासः-स्फटिकाचलशैल आदि र्येषां तेऽथवा कैलासशेलप्रभृतयः पर्वतासंथनकाले (इह) समुद्रतरङ्गविक्षोभानकारिणो भवन्तीति ।।१०।
-विशिष्टामृतं सर्वपेयमिति ज्ञात्वाऽतितरां स्मितेन मोदते सज्जनः'काव्यं दृष्ट्वा कवीनां हृतममृतमिति, स्वःसदापानशङ्की, खेदं धत्ते तु मूर्ना मृदुतरहृदयः, सज्जनोऽव्याधुतेन ।
SARDAROO
॥५६३॥
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अध्यात्म-11
मार:
11५६४॥
ज्ञात्वा सर्वोपभोग्यं प्रसमरमथ तत्-कीर्तिपीयूषपूरम्,
नित्यं रक्षापिधानानियतमनितरां मोदते च स्मितेन ॥११॥ टी० 'काव्यं दृष्ट्वा कवीना हतममृतमिति स्वःसदापानशकी' यदा सज्जनः कवीनां काव्यं पश्यति तदेवं प्रतिभासते यदहो कविभिस्तु वःसदा-देवानाममृतमपहतं ! अथातः परं सुधाभुजः किं पास्यन्ति ? तादृशापानविषयकशङ्काकार्ग सज्जनो भवति तदानीं 'खेदं धत्ते तु मूर्ना मृदुतरहृदयः सज्जनोऽव्याधुतेन, कोमलतरहदयः सज्जनः स्तब्धमस्तकः सन ग्लानिं दधाति, पश्चात्
ज्ञात्वा सर्वोपभोग्यं प्रसमग्मथ नत्कीर्तिपीयूषपू' अथ सज्जनो यदा जानाति यत् कान्यकीर्तिरूपसुधाया वहमानपूरमात्रं न कविमात्रापभोग्यमपि तु देवादीनां सर्वेषामुपभोग्यमम्ति विशालविकासिप्रकृतिकमस्ति 'नित्यं रक्षापिधानाऽनियन' अर्थात् तन्कीर्तिपीयूषपूरोपरि न कस्यचिनियतस्वामित्वमस्ति, रक्षाय पिधान नियतं नास्ति, एतदमृतं मर्वथा मर्वव्यापि बन्धननिमुक्तमत एव 'अतितरां मोदते च स्मितेन तदा स सज्जनः स्मितेन हसदास्ये नाऽत्यन्तमानन्दितो भवतीति ॥११॥
-निपुणनयेन कवीन्द्रकृतश्लोकाः सत्परीक्षिता दीप्यन्ते'निष्पाद्य श्लोककुम्भं निपुणनयमृदा, कुम्भकाराः कवीन्दाः । दाढ्यं चारोप्य तस्मिन् किमपि परिचयात् , सत्परीक्षाऽर्कभासाम् ॥
॥५६४॥
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अध्यात्मसार
1.५६५॥
पक्वं कुवन्ति बादं गुणहरणमति-प्रज्वलदोषदृष्टि
ज्वालामालाकराले खलजनवचन-ज्वालजिवे निवेश्य ॥१२|| टी. 'कवीन्द्राः कुम्भकारा निपुणनयमृदा श्लोककुम्भं निष्पाद्य' कवीन्द्ररूपकुम्भकारा नैपुण्यपुण्यनयरूपमृत्तिकया, श्लोकरूपकुम्भं निष्पन्नं कृत्वा, 'मपरीक्षाऽभामा परिचयातम्मिन किमपि दाढ्य चागेप्य' =मता गुणदोषविवेकपरीक्षारूपमूर्य तेजसा मुटुसम्बन्धान तम्मिन श्लोककुम्भे सूर्यतेजःपरिचयरूपं किमपि- अपूर्व दृढत्वं रचयित्वा, गुणहरण मनिप्रज्वलद्दोपदृष्टिनालामालाभिः कराले-गुणापहार (स्थगन) प्रकृतिकमतिद्वारा, प्रकर्षेण ज्वलद्दोषग्राहिदृष्टिरूपज्यालामालाभिः कराले-भयंकरे खलजनवचनज्वालजिवे पाकस्थानेऽग्नी निवेश्य श्लोककुम्भं पक्वं कुर्वन्ति, कवीन्द्रकुम्भकाराः, एवं दुर्जना अपि कि नोपकुर्वन्ति ? व्यङ्ग्योक्तिरिति इति ।।१२।। -इक्षुद्राक्षारसौघरूपं कविवचनं मादकं पिबन्ति सन्त:
इचुदाक्षारसौघः कविजनवचनं, दुर्जनास्याग्नियन्त्रात् । नानार्थद्रव्ययोगात् समुपचितगुणो मद्यतां याति सद्यः ।
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अध्यात्मसार:
11५६६॥
सन्तः पीत्वा यदुव्र्दधति हृदि मुदं, घूर्णचन्त्यक्षियुग्मम् ,
स्वैरं हर्षप्रकर्षादपि च विदधते, नृत्यगानप्रबन्धान ॥१३॥ (टी०) 'इक्षुद्राक्षारसौघः कविजनवचनं दुर्जनास्याग्नियन्त्रात्' कविजनवचनरूप इक्षुद्राक्षारससमदायः, दुर्जनमुखरूपाग्नियन्त्रत उष्णतगे भूत्वा, 'नानार्थद्रव्ययोगात् समुपचितगुणो मद्यतां याति सद्यः' भिन्नभिन्नार्थकद्रव्याणां योगतः संवृद्धगुणो मद्यतां याति अर्थादिक्षुद्राक्षारमोघो विधिक्रमतो मद्यो भवति, 'सन्तःपीत्वा यदुरचैर्दधति हृदि मुदं पूर्णयन्त्यक्षियुग्मम्' यद्विशिष्टकोटिक मद्यं पीत्वा । हृदयमध्ये मुदमानन्दं सन्तो दधति-धारयन्ति, 'स्वैरं हर्षप्रकर्षादपि च विदधते नृत्यगानप्रबन्धान'-च-किंच, स्वेच्छापूर्व कमुत्कृष्टहर्षवशात् , नृत्यप्रबन्धान गानप्रबन्धाँच कुर्वते ॥१३॥ 'नव्योऽस्माकं प्रबन्धोऽप्यनणुगुणभृतां सतां प्रभावाविख्यातःस्यात्
नव्योऽस्माकं प्रबन्धोऽप्यनणुगुणभृतां सज्जनाना प्रभावात् । विख्यातःस्याद्धि सन्तो हितकरणविधौ प्रार्थनीया न किं नः । निष्णाता वा स्वतस्ते रविरुचय इवाम्भोरुहाणां गुणानां उल्लासेऽपेक्षणीया न खलु पररुचिः, क्वापि-तेषां स्वभावः॥१४॥
॥५६॥
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का
सारः
॥५६७॥
(टी०) अस्माकमेष प्रबन्धो नव्यःसन्नपि 'अनणुगुणभूता=निःसख्यपरमगुणशालिना 'सज्जननाना प्रभावात् ' सतां शक्तिमहिम्नां विख्यानःस्यात्' प्रसिद्धो भवेत् 'हि सन्तः' यतःकारणात् सज्जनाः, 'हितकरणविधी न नः प्रार्थनीयाः किम' परोपकरणकरणेऽम्माकं प्रार्थनाविषयाः किं न ? अर्थादवश्यमेव सन्तः प्रार्थनीयाः वा-अथवा यथा (विना प्रार्थना) रविरुचयः सूर्यकिरणा 'अम्भोरूहाणां' कमलानामुल्लासे-विकासने स्वतस्ते निष्णाता:-समर्थाः, तथा ते-सन्ती गुणाना-पग्गुणानां प्रसारणे स्वतः-निसर्गतो निष्णाता:-नैपुण्यशालिनोऽतः, प्रार्थना (दीनताख्या) अनावश्यकी कथं न ! 'अपेक्षजीया न खलु पररुचिः क्वाऽपि तेषां स्वभावः, परहितकरणयोग्ये क्वापि-कस्मिश्चित पुरुषे परेषा । रुचिः खलु-निश्चयतोऽपेक्षाविषयीभूता नेति तेषां-सज्जनानां स्वभावः-प्रकृतिः, 'प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमाना. मित्यप्यत्र स्मरणीयमिति ॥१४।।। भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजयबुधाः सज्जनवातधुर्या:
'यत्कीर्तिस्फूर्तिगानावहितसुरवधू-वृन्दकोलाहलेन, प्रक्षुब्धस्वर्गसिन्धोः पतितजलभरैः क्षालितः शैत्यमेति । अश्रान्तभ्रान्तकान्तग्रहगणकिरण-स्तापवान् स्वर्णशैलो, भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजयबुधाः सज्जनत्रातधुर्याः ॥१५॥
१५६७॥
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अध्यात्म
सार:
॥ ५३८ ॥
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( टी०) 'अश्रान्तभ्रान्तकान्तग्रहगणकिरणैस्तापवान् स्वर्णशैल : ' = अविरतं भ्रमणं कृतवन्तः कान्ताःतेजसा मनोहरा ग्रहाणां गणास्तेषां किरणैस्तप्तः (तापितः) स्वर्णशैलो - मेरुः 'यत्कीर्तिस्फूर्तिगा नावहितसुरधुवृन्दकोलाहलेन प्रक्षुब्धस्वर्गसिन्धोः पतितजल भरैः क्षालितशैत्यमेति' - येषां यशोमाहात्म्यगाने साबधानत्रिदशवधूसमुदायस्य कलकलेन प्रकृष्टक्षोभवत् स्वर्गङ्गातः पतितैर्जलपूरैः क्षालितः = प्रक्षालनविषयीभूतः सन् शीततां प्राप्नोति सज्जनगण धुरन्धरास्ते मुनीन्द्रा नयविजयनामकपण्डिता भ्राजन्ते - शोभन्ते ।। १५ ।। प्रशस्ति :
'चक्रे प्रकरणमेतत्पदसेवापरो यशोविजयः । अध्यात्मधृतरुचीना -- मिदमानन्दावहं भवतु ॥ १६ ॥
टी० एतत्पद् सेवापरः'=मज्जन धुर्यमुनीन्द्रगुरुवर्यनय विजय पण्डितचरणसेवापरायणः, 'यशोविजयः' न्यायाचार्यन्यायविशारद श्रुतके वलिकल्प महापाध्याय श्रीमद् यशोविजय महाराजः, इदं प्रकरणं चक्रे' श्री अध्यात्मसारग्रन्थनामकं प्रकरण मेकविंशत्यधिकाराऽलडकृतं कृतवान् 'अध्यात्मधृतरुचीनामानन्दावहं भवतु ' अध्यात्मी-आत्महितकारिज्ञानक्रियात्मक धर्मेरुचिर्येषां तेषां धृतरुचीनां प्रमोदप्रकर्षकर मस्तु || १६ ||
॥ ५६८॥
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________________
अध्यात्म
सार:
॥५६९||
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हत्याचार्यश्रीमद्विजयानन्द कमललब्धिसूरीश्वरपट्टधराचार्य श्रीमद्विजयभुवनतिल कसूरीश्वर पट्टधरभद्रसूरिणा कृताया मध्यात्मसारग्रन्थे भुवनतिलकाख्यायां टीकायां सज्जनस्तुतिनामकएकविंशतितमोऽधिकारः समाप्तः ॥ ९४९ ॥
टीकाकारस्यप्रशस्तिः किञ्चिनिवेदनरूपा प्रध्यात्मसार ग्रन्थेऽस्या भुवनतिलकाख्याया: संक्षिप्तटीकायाः भद्रङ्करसूरिकृताया प्रारम्भ करर्णाटकीयबेल्लूरनगरे कालवचनव्योमहस्तप्रमिते (२०३३) मे वर्षे पोषशुक्लपक्षे तृतीयस्यां तिथो जगवल्लभपार्श्वनाथ मण्डिते कोल्हापुर महानगरनि कटस्थे महाराष्ट्रदेशदिव्यभूषणं कुम्भोजगिरिमहातीर्थे समितिकालाकाशक रमिते (२०३५) वैक्रमे वर्षे समाप्तिः संज्जात्ता, विजयतां यावच्चन्द्रदिवाकरौ.
समास.
।।५६९॥
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________________
• शुद्धि दर्शनम् .
लाईन
पेज.नं
पेज नं.
लाईन २
अध्यात्म सारः
अशुद्ध पाख अध्याम कालिका
२३
१२ ११
अशुद्ध ऋद्धितः भिन्दी भूत सन्निधि
केन्सल मिनन्दी भूतं सन्निधि चतुर्थ
॥५७०॥
शुद्ध पाव अध्यात्म कलिका शास्त्र मध्या सम्पन्नो पप्लवः पाध्यादि शास्त्रार्य कर्हि शास्त्राथ
षण
भूषणं
क्रि
गुरुवं
गुरवं
दिश्य
नदी
अन्वा सम्यन्नो यप्लव: पध्यादि शास्त्रार्थ का शास्त्र शास्र तृष्णाया महौ पत्यान पुत्रख मवामिमि
नंदी
अभ्यास
कीदृशी
तृष्णाया मरी पक्वानत
अश्वास कीदृशी दोप द्रध्य गला
दोष द्रव्य गेला दुखो
पुत्रश्व
1811५७०॥
मवामि
४३ For Private & Personal use only
दुषित
दूषित
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________________
अध्यात्म
सारः
॥५७१॥
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४४
= = = = 5
21 20 9 1 1 1 x x 9 a wv.2**
• d b c d e s t t is k
४५
"1
11
४६
"
४८
४९
५१
५२.
"
५५.
६०
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६३
६
१३
४
७
१
१३
६
९
१०
१३
वौ
१२
४५ यक्ति हढ ४६ तस्थिन् ४०
येन
दम्भो
त्वरूप
बेण
पश्यतर
कुच
सिति
वषम्य
सङ्गद
མྦྷ རྦྦ རཱ ཝཿ བྷཱ ཚཱ སྠཱ ཎྜ བྷ, ཀྲྀ ནྡྲ ། ཎ ལཿ བྷཱ མ
स्त्रीत्वरूप
,,, = if f = = = = = =
७७
८५
९३
४
५.
११
५
९
१४
७
१०
८
१०
१०
१२
3
७
८
४
बाह्य
सङ्कमः
मत्र
गुणा मावस्य
गुण्य
प्रवत्ति
मवे
वर्ती
गोलक
ง
एष
दृष्ट
प्रतिकारार्थ
२ कताः
तार्थ
पठिन्त
पपरि
चरमा
बाह्यतो
सङ्क्रमः
भव
गुणाऽमावस्य
प्रवृत्ति
मवे
मर्ती
गोल
बेराग्यं
एषः
दुष्ट प्रतिकाराचं
रक्ताः
वार्थ
पठन्वि
पर
यस्मा
॥५७१॥
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________________
त्वमों
चित्तं
स्वमी शास्त्र
शास्त्र
अध्यात्म
मगाहते विषयः
मवगाहते विषयः
सारा
नेव
मारं सम्पूर्ण स्वमस्ति सम्मुम्ब
॥५७२॥
वह
666-5...
१४२५
चक्ष म्बकीय ऽधिका
मारं सम्पूर्ण स्वस्ति सम्मख दृस्ति पर्यायान पदार्था सौन्दर्य सौर्य मृर्श ललनना यफिचर मोद पान
पर्यायान पदार्था सौन्दर्य
चक्ष स्वकीयं ऽधिका कल्प
रूप
स्त्रीषु
स्त्रीषु
ललना यपिचरं
मान
कथन कयनं स्वतन्धयं स्तनन्धयं
चति मुश्चति पुरुषे पुद्धिः
1५७२॥
पान हृदयं
पुरुष
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________________
कृनतः
कृतः अर्थः
अर्थः
बमात्म
१८२
ह्मकृते
RER Mmmnk
I५७३॥
११
ष्ठान मोक्षा मोक्षा माघर्य माधुयं
कृते स्त्रीणां स्त्रीणां स्थिता त्थितः धन घन व्रत वन बत दुखतो
नेत्रनि शिव शिव मधर मदज्वर
१८८८ १८६६
कम
निष्ठा निष्ठान सदा यदा एकत्म एवास्म कुवतां
कुर्वतां योगिर्ना योगिनां कलुपं
कलुष वि विर्ष
कम ष्ठानन मुच्यते ष्ठानमुच्यते
केन्सल काग्रता म्य कामना सहौव सहध दृश्यते शश्यते क्रिया सक्रिया
कुतः तत्राषि तत्रापि
दुखतो
नेत्रवि
१०
१९१३
१७२
१७४
तनो निश्चय कुसुमस्य कम
निश्चयत कुसुमस्येव कम
॥५७३॥
१४८
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________________
२१४
अध्यात्मसार
24
॥५७४॥
२१३
धर्भः धर्मः स्वोकार स्वीकार विचारणान्तः विचारणातः सादिमिः मादिमिः दोनि दीनि वाक्यम वाक्यम् सर्वक सर्वक पदार्थ पदार्थ न्यार्थ । न्यथार्थ तृणां तणां न जायते जायते दुखो भवा भव पर्याय निष्क्रय निष्क्रिय विशेषे विशेषण
२२४ २२५
सम्यद्धा सम्बद्धा सम्भवः सम्भवः स्यादी स्यादि हिंसका हिसका वतीं वर्ती ब्रजा व्रता मात्मा मात्मा काल्पनिको काम्पनिकी नित निक भवेपु भवेषु महिसव अहिंसव सन्य तज्जन्य सम्का सम्यक द्या केन्सल नयोः नयो पदाना पदानां रुपता रूपता कीर्ति कीर्तिता
२०९
११
पर्याय
२३१ २३४
॥५७४॥
किमर्थः किमर्थ
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________________
अध्यात्म
सारः
॥५७५॥
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२३६
13
२३८
२३८
25
"2
२३६
२४०
31
11
**
२४२
२४५
21
२४७
१२
१३
૨
४
13
१०
२
३
ور
४
१४
३
१२
१३
११
=
19
भीः
चंकी
कामां
स्वृद्दा
भस्मा
आत्मनि
माझा :
यच्छदीर
पुद्गस
केचि
बल्या
भिनश्च
स्वपृद्द
स्थितो
रुपा
रागतां
स
ष्यते
भि:
चको
कामाः
स्पृहा
भस्म
आत्मानि
ग्राह्याः
यच्छरीर
पुद्गला
केचित्तु
बाल्या
भिन्नश्च
स्वगृह
स्थितौ
रूप
रागता
सर्वथा
ध्यते
२५०
२५१
२५२
२५३
२५४
२५८
२९
२६०
"
"
31
२६२
२६३
39
२६४
19
२६५
६
१०
११
६
८
१
५
८
"
१०
५
३
९
१
२
१
न्येवेति
दौपः
Sत्मुक
सकुक्रमः
नवा
कार्यक
बौद्धेः
स्वीकायः
बहवो
बन्धक
मबेन्
देर
वहः
च्चितः
नियम
वच्छेद
93
समन्धि
येवेति
दोषः
Sमुक
सङ्क्रमः
र्नवा
कार्येक
बौद्धः
स्वीकार्य :
बहवो
बन्धक
भवेत्
दरे
ग्रहः
न्वितः
नियमो
बच्छेद
"
सम्बन्धि
॥५७५॥
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________________
१२
अध्यात्म सार:
अर्थात्र भान्ति मान्तो धुद्धिरर घटादो दिन
मान्ने भ्रान्ति भ्रान्तो बुद्धिर घटादौ दिन
FREE:: :
रुषो
॥५७६॥
ऽऽत्ममणो ऽऽत्मकर्मणो मोक्षा मोक्षो यायस्तु पायस्तु
प्रोढा
प्रौढा दुखं योगाऽभ्या योगाऽभ्यास सपा
हरेण सजातेपु सखातेषु
रूपो कमांदि
कर्मादि ब्रहमयो ब्रह्ममयो वलेन
बलेन विपयका विषयका घठते घटते स.सारिक सांसारिक बाहमणे सर्वषां सर्वेषा पसना मकर्म पकमे युक्ति
युक्ति रथाने
कि
रत्नत्र रत्नत्रय वयो न्यो वल तो बनतो दशम दर्शन कण्डल कण्हूल चैतानि ब्रतानि तपः वप,
पासन
1५७६ः।
: *
स्थाने
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________________
दृष्टान्तः
योगया
दृष्टान्त राद्र
तया
बध्यात्मसारा
बह्यर्थ
बह्वर्थ
॥५७७॥
योग्या तता ध्याये दुःखेन दुःखेषू प्रतिष्ठा स्थिरता छन
অর্থ माक्षयोः देनवम् धम याने ध्यान
ति धात्र दुनिग्रह
३५६
ध्याये दुखेन दुखेषू प्रतिष्ठा स्थिरता छहम स्वम पथम
R
मोक्षयोः देवनम् धर्म ध्याने ध्यानं मति ध्यात्र दुर्निग्रहं सर्व स्त्रीभिः
M0.16
शुद्ध
.. ANGANW
प्रथम फलं शुद्ध मित्रं माध्य वत्त्वा
मित्र भाध्य कत्वा भदो
स्रीभिः
भंद
ग्यो
४०४ ४०७ ४११ ४१५
कम
ग्यिो तीती काल
॥५७७॥
तीति
जहाति भाव
कम जहाति मावं
काला
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st
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________________
४१६
कारणं
करणं
यस्थ रणादिः
यस्व मरणादिः
: ७८
अध्यात्म
मवेत
सार
20.
मवेत कतृत्वं गुणा तत्मा
कत्तत्वं
४२१
॥५७८॥
४२६
वेदानाम
wr
पौद्दा
गुण स्मा पौद्र माजात्यं द्यव्यव
साजत्यं दाब
4
४६३
४३६
ब.घो
च
४३
मतमम मतम
४५६ व्यप
व्यत्र
वेदनाम मात्मात्म मात्म मानममा मानम दम्या द्रन्या
बन्धः
नति भन्न
मिन भेदः चरिना
चरिता
मित्य
शुम ४५४
स्वात्म
वात्म ४५५१३ त्मात्मा त्यात्मा
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नि
२
या
ॐ
४६१
निष्ट
किया
४५२ ४५३
क्रिया रात्म संसर्गाद कल्पना
रात्य संसर्गद् कल्पना
A ||५७८।
४७५
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________________
ऽती
ऽनीत
नत्य
नात्य
अभ्यारणसार:
११
स्या निश्चय हिय बघ पयोगांश ब्राहय बन्धने पराध
.५७९॥
५११
स्था निश्चय हिय बन्थ पयोग ब्राह्य बन्धने परा ज्ञान हिता मनः कपषाः
००. in com
समञ्च समञ्जसं किश
कीदृश वस्त्रात: वस्त्रतः यागो योगो
तत्व फाणिनो फणिनो सामान समान जेना जैना शब्दायः शम्दाथ: ग्रहा: ग्रहः विंशतिमो विंशतितमो
५१५
५२२
६
सहिता स्मनः कल्मषाः
५२८
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w
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________________ अध्यात्म सार: गुरु गुण गीतम् 11580|| येषां सुबुद्धिविभया हतवादिवृन्दम् , चुम्वत्यवश्यमनिशं चरणारविन्दं / षड्दर्शनागम-विदो विजयन्त एव, आनन्दसुरिवृषभा विजयादिमाश्च // 2 // (व. ति. वृ.) सद्धर्मरक्षा सुनिबद्धकक्षाः, स्वाध्यायदक्षा जिनशास्त्र लक्षाः / जयन्ति जैने जगति प्रसिद्धाः, सूरीश्वराः श्रीकमलाभिधानाः // 2 // (उप.) घिपणया विषणं भुवि भूषणम् , जयति यो जिन-दृष्टिविभूषया / प्रमुदितः प्रणमामि सदा मुदा, विजयलब्धिकवीश्वररिपम् // 3 // (द्रु. वि.) पिबन्प्रेक्षापार्या प्रवचनवचः सुन्दरसुधा, उपाध्याधि-व्याधि-प्रशमनकरी शर्मजनिकाम् / समालम्ब्याऽऽबाल्याद् गुरुचरणसेवाऽतुलबलं, भुविश्लाध्यः सूरिभुवनतिलकाख्यो विजयते // 4 // (शिरवरिणी) 4580 // in an interna For Private & Personal use only M ainelibrary.org