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________________ - সন্ধায়ঙ্কীয় . 6) प्रकाशकीय प्रापके समक्ष 'अध्यात्मसार ग्रंथरत्न प्रकाशित करते हुए हमारा तनमन में पानन्द की लहर मच गई। अध्यात्मसार को एक हि टीका थी। वे भी अलभ्य मोर गहन थी। इस लिये पू० कर्नाटक केसरी प्राचार्य देव श्रीमद्विजय भटकरसरीश्वरजी महागजने अपने स्व० सद्गुरुभगवंत प्राचार्य भगवान श्रीमद्विजय भुवनतिलकसूरीश्वरजी महाराज साहब को अन्त समय में वाकदान रूप में दो नई टीका बनाने को कहाँ था । उस पुण्य स्मति में वह एक भुवनसिलकाख्य नामक अध्यात्मसार की टीका माज प्रस्तुत कर रहे है । और दुसरी प्रानंद की यह बात है को भूवन तिलकास्य नामक अध्यात्मउपनिषत अप के० उपर भी नवीन टीका तैयार हुई है वह भी थोडे ही समय में प्रकाशित होगी. इस महाप्रय रत्न प्रकाशित करने में पू. उपाध्याय पुण्यविजयजी म., पंन्यास वीरसेन विजयजी म. एवं मुनिवयं विक्रमसेन विजयजी म. का सहयोग सराहनीय रहा। अनेक संघो एवं महानुभावों के प्राधिक सहकार प्रन्थ रत्न के प्रकाशन में बहुमल्य रखता है। प्रतः उन सबको श्रुतमक्ति को हम बार अनुमोदना कर धन्यवाद देते है । ज्ञानोदय प्रिन्टींग प्रेस के मेनेजर कर्मठ कार्यकर श्री शंकरदासजी ने भी शीघ्र प्रफ प्रादि भेजकर हमे प्रोत्साहित बनाया । इसलिये यहां पर उनको मो कैसे भूले? अध्यात्मरसोकवर्ग इस महाकाय पंचरत्न का बांचन-परिशीलन द्वारा प्रच्छा लाभ उठावे ऐसो शुभाश! रखते है। जिससे सूत्रकार, टीकाकार प्रादि का पम कृतार्थ बनें। :: प्रकाशक: For Private & Personal use only Jain Education Interation! www.jainelibrary.org
SR No.600054
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadrankarvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Spiritual, Religion, & Philosophy
File Size24 MB
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