Book Title: Panchsangrah
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .18 पञ्चसंग्रहः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला [ प्राकृत ग्रन्थाङ्क-१० ] OMANANAVNAININANIMANIMANANAINAINARINANINNIMANANANANANAMANNAINAKAMANANININANINNINNINAKAIRANKINNAINA M em. पञ्चसंग्रहः [ संस्कृतटीका-प्राकृतवृत्ति-हिन्दीभाषानुवादसहितः ] 2.BHARATIYA JNANA PITH -सम्पादक पण्डित हीरालाल जैन, सिद्धान्तशास्त्री भा र ती य ज्ञा न पी ठ, का शी प्रथम आवृत्ति । ११०० प्रति भाद्रपद, धीर नि०२४८७ नि. गं० २०१० अगस्त १६६० मुल्य Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवीकी पवित्र स्मृतिमें तत्सुपुत्र साहू शान्तिप्रसादजी द्वारा संस्थापित भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन-ग्रन्थमाला ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ प्राकृत ग्रन्थाङ्क १० ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ इस ग्रन्थमालामें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड, तामिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन साहित्यका अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन और उसका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदिके साथ प्रकाशन होगा। जैन भण्डारोंकी सुचियाँ, शिलालेख-संग्रह, विशिष्ट विद्वानोंके अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित होंगे। Swwwwwwwwwwww w xHNAMMMMMAASAMMANIANIMANIMAMINAWANIMIMINAMANANAMAANINNN ग्रन्थमाला सम्पादक डॉ. होरालाल जैन, ___ एम० ए०, डी० लिट० डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, एम० ए०, डी. लिट. प्रकाशक मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी मुद्रक बाबूलाल जैन फागुल्ल, सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी स्थापनाब्द विक्रम सं० २००० सर्वाधिकार सुरक्षित फाल्गुन कृष्ण ६ वीर नि० २४७० १८ फरवरी सन् १९४७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी स्वगाय मवियमानश्व साह आदि प्रमाद जन 93 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JNANAPĪTHA MURTIDEVI JAINA GRANTHAMĀLĀ PRAKRIT GRNTHA, No. 10 OMWWWWWWWWMMMMMMMMWWMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMMWMA PANCASANGRAHA SANSKRIT TĪKĀ, PRĀKRIT VRITTI AND HINDI TRANSLATION EDITOR Pandit HIRALAL JAIN Siddhantashastri Published by BHARATIYA JNANAPĪTHA, KASHI na 170, Price First Edition 2 1100 Copies BLAÐRAPAN, VIRA SAMVAT 2 V.S. 2017 AUGUST 1960 34/- Rs. 15/ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATIYA JNANAPITIA Kashi SAHU SHANTIPRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE BENEVOLENT MOTHER MMN FOUNDED BY SHRI MURTIDEVI BHARATIYA JNANAPITHA MURTIDEVI JAIN GRANTHAMĀLĀ IN THIS GRANTHAMALA CRITICALLY EDITED JAIN AGAMIC, PHILOSOPHICAL, PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRANSHA, HINDI, PRAKRIT GRANTHA No. 10 General Editors Dr. Hiralal Jain, M. A., D. Litt. Dr. A. N. Upadhye, M. A., D. Litt. KANNADA, TAMIL ETC., WILL BE PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES CATALOGUES OF JAIN BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES OF COMPETENT SCHOLARS & POPULAR JAIN LITERATURE WILL ALSO BE PUBLISHED. Founded on Phalguna krishna 9. Vira Sam. 2470 AND Secy, Bharatiya Jnanapitha, Durgakund Road, Varanasi All Rights Resreved Publisher Vikrama Samvat 2000 18 Febr. 1944. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकों का वक्तव्य कर्म और कर्मफलका चिन्तन मानव जीवनकी एक प्राचीनतम प्रवृत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति यह देखना और जानना चाहता है कि वह जो कुछ करता है उसका क्या फल होता है। इसी अनुभव के आधारपर वह यह भी निश्चित करता है कि किस फलकी प्राप्ति के लिए उसे कौन-सा काम करना चाहिए। इस प्रकार मानवीय सभ्यताका समस्त ऐतिहासिक, सामाजिक व धार्मिक चिन्तन किसी-न-किसी प्रकार कर्म और कर्मफलको अपना विषय बनाता चला आ रहा है। कर्म व कर्मफल सम्बन्धी चिन्तनकी दृष्टिसे संसारके समस्त दर्शनों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - एक वे दर्शन हैं जो कर्मफल सम्बन्धी कारण कार्य परम्पराको इस जीवन-भर तक चलनेवाली ही मानते हैं। वे यह विश्वास नहीं करते कि इस देहके विनष्ट हो जानेपर उसके कार्योंकी कोई परम्परा आगे चलती है। ऐसी मान्यता रखनेवाले दर्शनोंको भौतिकवादी कहा जाता है, क्योंकि उसके अनुसार जीवन सम्बन्धी समस्त प्रवृत्तियाँ पञ्च भूतोंके मेलसे प्राणीके गर्भ या जन्म कालसे प्रारम्भ होती हैं और आयुके अन्तमें शरीरके विनष्ट होकर पञ्चभूतोंमें मिल जानेपर उसकी समस्त प्रवृत्तियोंका अवसान हो जाता है । इसके विपरीत दूसरे प्रकारके वे दर्शन हैं जो मानते हैं कि पञ्चभूतात्मक शरीर के भीतर एक अन्य तत्त्व, जीव व आत्मा, विद्यमान है जो अनादि और अनन्त है । उसकी अनादि कालीन सांसारिक यात्राके बीच किसी विशेष भौतिक शरीरको धारण करना और उसे त्यागना एक अवान्तर घटनामात्र है । आत्मा ही अपने भौतिक शरीरके साधनसे नाना प्रकारकी मानसिक, वाचिक व कायिक क्रियाओं द्वारा नित्य नये संस्कार उत्पन्न करता, उसके फलोंको भोगता और उन्हींके अनुसार एक योनिको छोड़ दूसरी योनिमें प्रवेश करता रहता है, जब तक कि वह विशेष क्रियाओं द्वारा अपनेको शुद्ध कर इस जन्म-मरण रूप संसारसे मुक्त होकर सिद्ध नहीं हो जाता। ऐसी ही मुक्ति व सिद्धि प्राप्त करना मानव जीवनका परम उद्देश्य होना चाहिए और इसी उद्देश्यको पूर्ति के लिए आचायोंने धर्मका उपदेश दिया है। इस प्रकारकी मान्यताओंको स्वीकार करनेवाले दर्शन अध्यात्मवादी कहलाते हैं । जैन दर्शन अध्यात्मवादी है और कर्म सिद्धान्त उसका प्राण है। जैन कर्म सिद्धान्तमें यह चिन्तन बड़ी गम्भीरता, सूक्ष्मता और विस्तारसे किया गया है कि विश्वके मूल तत्व क्या हैं और उनमें किस प्रकारके विपरिवर्तनों द्वारा प्रकृति और जीवनके नाना रूपोंकी विचित्रता उत्पन्न होती है। जैन मान्यतानुसार विश्वके मूल तत्व दो हैं—जीव और अजीव अथवा वेतन और जड़ निर्जीव अवस्थामें पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु मे सब एक ही जड़ तत्त्वके रूपान्तर हैं, जिसे जैन दर्शन में पुद्गल कहा गया है। आकाश और काल भी जड़ तत्त्व हैं, किन्तु वे उपर्युक्त पृथ्वी आदिके समान मूर्तिमान् नहीं अमूर्त है। जीव व आत्मा इन सबसे पृथक् तत्त्व है जिसका लक्षण है चेतना । वह अपनी सत्ताका भी अनुभव करता है और अपने आस-पास के पर पदार्थोंका भी ज्ञान रखता है। उसको इन्हीं दो वृत्तियोंको जैन सिद्धान्त में दर्शन और ज्ञानरूप उपयोग कहा गया है। दैहिकावस्था में यह जीव अपनी रागद्वेषात्मक मन-वचन-कायको प्रवृत्तियों द्वारा सूक्ष्मतम पुद्गल परमाणुओंको ग्रहण करता है और उनके द्वारा नाना प्रकारके आभ्यन्तर संस्कारोंको उत्पन्न करता है। जिन सूक्ष्म परमाणुओंको जीव ग्रहण करता है उन्हें ही जैन सिद्धान्त में कर्म कहा गया है। उनके आत्म-प्रदेशोंमें आ मिलनेकी प्रक्रियाका नाम आस्रव है, और इस मेलके द्वारा जो शक्तियाँ व आत्म-स्वरूपकी विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं उनका नाम बग्ध है। कर्मबन्धकी इसी प्रक्रियाको विधिवत् समझाना जैन कर्म सिद्धान्तका विषय है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसंग्रह जैन-साहित्यमें कर्म-सिद्धान्तका सबसे प्राचीन प्रतिपादन पूर्वोमें किया गया था। जैन-धर्मके अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरने जो उपदेश दिया उसको उनके गणधरों व साक्षात् शिष्योंने बारह अंगोंमें विभक्त किया। इन्हें ही द्वादशांग श्रुत या जैनागम कहा जाता है। बारहवें श्रुतांगका नाम दृष्टिवाद है और उसीके भीतर विद्यमान चौदह खण्डोंका नाम 'पूर्व' है। वे पूर्व इस कारण कहलाये कि भगवान् महावीरने उन्हींका सर्वप्रथम उपदेश दिया था। नाना उल्लेखोंपरसे यह भी अनुमान किया जाता है कि उनमें भगवान महावीरसे भी पूर्वके तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तोंका समावेश किया गया था, और इसीलिए वे पूर्व कहलाये । दुर्भाग्यसे वे पूर्व नामक ग्रन्थ कालक्रमसे विनष्ट हो गये। तथापि जैन-समाजके दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दोनो सम्प्रदाय इस सम्बन्धमें एकमत हैं कि उक्त १४ पूर्वोमें दूसरा पूर्व आग्रायणीय नामक था और उसीके भीतर कर्म-सिद्धान्तका सूक्ष्म विवेचन किया गया था। उसीके आधारसे पश्चात्कालमें दिगम्बर सम्प्रदायके क्रमशः षट्खण्डागम व उनकी धवला टीका, कषायप्राभूत और उसकी चूणि व जयधवला टीका, गोम्मटसार व उसकी टीकाएँ तथा प्राकृत व संस्कृत पञ्चसंग्रह नामक ग्रन्थोंकी रचना हुई, तथा श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी कर्मप्रकृति, पञ्चसंग्रह तथा उनके कर्म-ग्रन्थों का निर्माण हुआ। ... प्रस्तुत पञ्चसंग्रह नामक ग्रन्थ कर्म-सिद्धान्तको उक्त दिगम्बर परम्पराको एक विशिष्ट रचना है, जो हाल ही प्रकाशमें आई है। उसके पाँच प्रकरणों के नाम हैं-जीवसमास, प्रकृति-समुत्कीर्तन, कर्मस्तव, शतक और सत्तरी । इनमेंसे प्रथम तीन अधिकारों के नाम तो उनके विषयको सूचित करनेवाले हैं, किन्तु शतक और सत्तरी विषयको नहीं, किन्तु विषयको प्रतिपादन करनेवाली मूल सौ और सत्तर गाथाओंको देखकर रख दिये गये हैं। यथार्थत: ये नाम मूल ग्रन्थमें पाये भी नहीं जाते। शतककी प्रथम मूलगाथामें कहा गया है कि यह बन्ध-समास प्रकरण संक्षेप रूपसे कर्मप्रवाद नामक श्रुतसागरका निस्यन्दमात्र वर्णन किया गया है। इसी प्रकार सत्तरीकी प्रथम मूलगाथामें कर्ताने कहा है कि मैं यहाँ बन्धोदय व सत्त्व प्रकृति-स्थानों को दृष्टिवादके निस्यन्द रूप संक्षेपसे कहता हूँ तथा ७१ वी मूलगाथामें कहा है कि मैंने उक्त विषयका प्रतिपादन उस दृष्टिवादके आधारसे किया है जो दुर्गमनीय, निपुण, परमार्थ, रुचिर और बहुभङ्गी युक्त हैं। . ____श्वेताम्बर पञ्चसंग्रहमें भी अन्तिम दो प्रकरणों के नाम ये ही शतक और सत्तरी पाये जाते हैं । उसके प्रथम तीन प्रकरणों के नाम सत्त्वकर्मप्राभृत, कर्मप्रकृति और कषायप्राभूत ध्यान देने योग्य हैं। दिगम्बर परम्परामें कषायप्राभूत गुणधर आचार्यकृत गाथात्मक रचना है और उसमें रागद्वेषात्मक बन्धहेतुओं का ही प्ररूपण किया गया है। षट्खण्डागमकी धवला टीकाके अनुसार दृष्टिवादके द्वितीय पूर्व आग्रायणीयके पांचवें , अधिकारका नाम च्यवनलब्धि था और उसके २० पाहुड़ोंमेंसे चतुर्थ पाहुड़का नाम था कर्म-प्रकृति । इसी कर्म-प्रकृति पाहड़के अन्तर्गत कृति, वेदना आदि २४ अधिकार थे जिनका संक्षेप परिचय षट्खंडागम व उसकी धवला टीकामें कराया गया है और उसे संतकम्मपाहुड़ भी कहा गया है। इस प्रकार जहाँ तक कर्मसिद्धान्तका सम्बन्ध है, न केवल विषयकी दष्टिसे किन्तु अपने प्राचीनतम ग्रन्थोंके नामों तकमें दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके बीच कोई विशेष भेद नहीं पाया जाता । प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके पांचों अधिकारोंमें मूल गाथाओंको संख्या ४४५ तथा भाष्यगाथाओंकी संख्या ८६४ कूल १३०९ दिखाई देती है। प्रथम दो अधिकारोंमें भाष्यगाथाएँ नहीं है, तथा दूसरे प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तनमें गाथाएँ केवल १० ही है, किन्तु कर्म प्रकृतियोंको गिनानेवाला बहुत-सा अंश प्राकृत गद्यमें है, के प्रथम खंड जोवट्ठाणकी प्रकृति-समुत्कीर्तन नामक प्रथम चूलिकासे प्रायः जैसेका-तैसा उद्धृत किया गया है और अधिकारका नाम भी वही है। समस्त रचना गोम्मटसारसे भी खूब मेल खाती है । गोम्मटसारका भी दूसरा नाम पञ्चसंग्रह है। वहाँ भी जीवकाण्डकी प्रथम गाथामें 'जीवस्य परूवणं वोच्छं' रूपसे अधिकारके विषयका निर्देश किया गया है जो इस संग्रहमें भी जैसाका तैसा पाया जाता है। उसी प्रकार कर्मकाण्डके आदिमें 'पयडिसमुकित्तणं वोच्छं' रूपसे जैसी अधिकारकी सुचना की गई है ठीक वैसी ही यहाँपर पाई जाती है। गोम्मटसारका तीसरा अधिकार 'बंधदयरात्तजुत्तं ओघादेसे थवं वोच्छं' इस Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकोंका वक्तव्य प्रकार कर्मस्तव अधिकारकी सूचनासे प्रारंभ होता है और यहाँ 'बंधोदयसंतजयं वोच्छामि थवं णिसामेह' इस प्रतिज्ञा वाक्यके साथ । चतुर्थ अधिकार कर्मकाण्डकी ७८५ वीं गाथामें 'पयडीणं पञ्चयं वोच्छं' के प्रतिज्ञा-वाक्यसे प्रारम्भ होता है, और यहां 'जं पच्चइओ बंधो हवइ' । पाँचवाँ प्रकरण दोनोंमें उक्त प्रकार व्यवस्थित रीतिसे मेल नहीं खाता । गोम्मटसारकी कुल गाथा संख्या १७०५ है, जिनमें की बहुत-सी, विशेषतः प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके आदिके दो-तीन भागोंमें क्रमबद्ध जैसीकी तैसी पाई जाती हैं । यही कारण है कि इसके संस्कृत टीकाकार सुमतिकीतिने अपनी पुष्पिकाओंमें इसे गोम्मटसार व लघुगोम्मटसार सिद्धांतके नामसे उल्लिखित किया है। जो भी हो किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि गोम्मटसार और प्रस्तुत पञ्चसंग्रहमें असाधारण मेल है। बीस प्ररूपणाओं द्वारा जीव समास निरूपण इन दोनोंमें समान है। गोम्मटसारके कर्ता नेमिचंद्र सिद्धांत-चक्रवर्ती और उसका रचना-काल १०वीं शतीके सम्बन्धमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके कर्ता और उनके रचनाकालका कोई निश्चय नहीं पाया जाता। प्रस्तुत ग्रंथकी भूमिकामें सम्पादकने कल्पना की है कि इसकी एक गाथा धवला टीकामें भी पाई जाती है, इसलिए इसकी रचना उससे पूर्वकालकी होनी चाहिए, तथा कर्मप्रकृतिके कर्ता शिवशर्म ही श्वेताम्बर पञ्चसंग्रह अंतर्गत शतकके रचयिता भी माने जाते हैं, अतः उसका रचनाकाल इसको पूर्वावधि कहा जा सकता है, और इस प्रकार इसकी रचना विक्रमकी ५वीं और ८वीं शतीके मध्यवर्ती कालमें हुई है। किन्तु पूर्वोक्त समस्त ग्रन्थ-परम्पराके प्रकाशमें यह कल्पना निर्णायक नहीं मानी जा सकती। विषयकी दृष्टिसे सम्पादकने हमारा ध्यान इसकी कुछ गाथाओंको ओर आकर्षित किया है। इसके प्रथम अधिकारको गाथा १०२-१०४ में द्रव्यवेदोंकी विपरीतताका उल्लेख किया गया है, जबकि धवलाकारने स्पष्ट कहा है कि वेद अन्तर्मुहुर्तक नहीं होते, क्योंकि जन्मसे लेकर भरण पर्यन्त एक ही वेदका उदय पाया जाता है। यही बात अमितगतिने अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहकी गाथा १९१ में कही है। उसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम प्रकरण १९३ को गाथामें सम्यग्दृष्टि जीवकी छह अधस्तन पृथिवियों, ज्योतिषी, वाणव्यंतर और भवनवासी देवों तथा समस्त स्त्री पर्यायोंके अतिरिक्त बारह मिथ्यावादोंमें भी उत्पत्तिका निषेध किया गया है। किन्तु धवला और गोम्मटसारमें एक ही प्रकारसे उक्त निरूपण किया गया है जिसमें बारह मिथ्यावादका कोई उल्लेख नहीं है। यथार्थतः ये दोनों प्रकरण उक्त रचनाको धवलासे पूर्वको नहीं, किन्तु उससे पश्चात्कालीन इंगित कर रहे हैं। धवलाकारने अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्त ग्रन्थोंका यत्र-तत्र स्पष्ट उल्लेख किया है। यदि यह पञ्चसंग्रह उनके सम्मुख होता तो कोई कारण नहीं कि वे उसका उल्लेख न करते, विशेषतः बीस प्ररूपणाओंके प्रसंगमें जहाँ उन्हें शंका-समाधान रूपमें कहना पड़ा है कि उनके निर्देश सूत्रोंमें नहीं है। अन्य किन्हीं रचनाओंमें भी इस ग्रन्थका उल्लेख प्रकाशमें नहीं आया। संस्कृत पञ्चसंग्रहके कर्ता अमितगतिके सम्मुख कोई पूर्व-रचित पञ्चसंग्रह अवश्य था, जिसके अन्तिम दो प्रकरणोंके नाम शतक और सत्तरी थे। यह बात माने बिना उनके द्वारा स्वीकार किये गये इन नामोंको सार्थकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि वहाँ स्वयं इन प्रकरणोंमें सौ और सत्तर पद्योंसे अधिक पाये जाते हैं । सम्भव है प्रस्तुत पञ्चसंग्रहका मूलगाथा भाग ही उनके सम्मुख रहा हो । यदि यह बात ठीक हो तो इसके मूल रचनाकी उत्तरावधि वि० सं० १०७३ सिद्ध होती है, क्योंकि यही उस संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचनाका काल है। किन्तु इन दोनों रचनाओंमें जो अनेक भेद पाये जाते हैं जिनका उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थके सम्पादकने अपनी भूमिकामें किया है, उन्हें देखते हुए यह बात भी सर्वथा सन्देहके परे नहीं कही जा सकती। इस प्रकार इस रचनाका काल-निर्णय अभी भी विशेष अध्ययनकी अपेक्षा रखता है। हो सकता है कि मूलतः ये पाँचों प्रकरण पृथक् स्वतन्त्र गाथा-संग्रह थे, जिन्हें एकत्र कर व अन्य कुछ गाथाएँ जोड़कर भाष्यकारने पञ्चसंग्रह नामसे प्रगट किया हो। इस सम्बन्धमें यह भी विचारणीय है कि जब पूर्वो व पाहड़ोंकी परम्परामें षट्खण्डागम व धवला टीकाके काल तक कर्मसिद्धान्तका विवेचन बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध विधान इन चार अधिकारों द्वारा ही किया जाता रहा, तब यह पांच अधिकारोंकी परम्परा कब कहांसे चल पड़ी। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पञ्चसंग्रहका यह सर्व-प्रथम प्रकाशन है और उसमें उस समस्त साहित्यका समावेश कर दिया गया है जो मूल संग्रहके आश्रयसे निर्मित हुआ है। इसमें मूल और भाष्य गाथाओंके अतिरिक्त १७वीं शतीमें सुमतिकीर्ति द्वारा रचित टीका भी है, एक प्राकृत वृत्ति भी है तथा श्रीपालसुत डड्डकृत संस्कृत पञ्चसंग्रह भी है। मूलका पाठ हिन्दी अनुवाद, पादटिप्पण तथा गाथानुक्रमणी व भूमिका परिश्रमसे तैयार किये गये है, जिसके लिए हम इसके सम्पादक पं० हीरालाल शास्त्रीको हृदयसे धन्यवाद देते हैं । इस प्रकाशनके लिए ज्ञानपीठके अधिकारी अभिनन्दनीय हैं । इस ग्रन्थके द्वारा जैन कर्म-सिद्धान्तके अध्ययनको और भी अधिक गति मिलेगी, ऐसी आशा है। हीरालाल जैन, शोलापुर आ० ने० उपाध्ये १५-६-६० प्रधान सम्पादक Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य पन्द्रह वर्षसे भी अधिक हुए, जब मुझे प्राकृत पञ्चसंग्रहकी मूल प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन व्यावरसे प्राप्त हुई और तभी मैंने उसकी प्रतिलिपि कर ली। उसके पश्चात् अन्य कार्यों में व्यस्त रहनेसे इच्छा रहनेपर भी मैं उसका अनुवाद प्रारम्भ नहीं कर सका। दिनाङ्क ८-३-५३ को अनुवाद करना प्रारम्भ किया, पर वह भी लगातार चालू नहीं रह सका और बीच-बीचमें व्यवधान पड़ता रहा। अन्तमें सन् १९५७ के दिसम्बरमें वह पूरा किया जा सका और उसके पश्चात वह प्रकाशनार्थ भारतीय ज्ञानपीठ काशीको सौंप दिया गया। सम्पादक-मण्डलकी स्वीकृति मिल जानेपर ग्रन्थ प्रेसमें दे दिया गया । इसी समय पञ्चसंग्रहकी अधूरी संस्कृत टीका हस्तगत हुई और उसके प्रकाशनार्थ भी सम्पादक-मण्डलको लिखा गया। उसके भी प्रकाशनकी स्वीकृति मिलनेपर मूल और अनुवादके साथ नवमें फार्मसे उसका छपना प्रारम्भ कर दिया गया। इसी बीच प्राकृतवृत्तिको प्रति आमेरके भण्डारसे और डडाकृत संस्कृत पञ्चसंग्रहकी प्रति ईडरके भण्डारसे प्राप्त हुई । दोनोंको उपयोगिता समझकर उनके भी प्रकाशनार्थ सम्पादक-मण्डलने स्वीकृति दे दी और अनुवादके अन्तमें दोनोंको मुद्रित करनेका निर्णय किया गया। फलस्वरूप १८ मासमें यह सम्पूर्ण ग्रन्थ भुद्रित हो सका है । इस प्रकार पूरे पन्द्रह वर्षके पश्चात् पञ्चसंग्रहके सानुवाद-प्रकाशनकी भावना पूर्ण हुई। इसके लिए मैं भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक, संचालक और सम्पादक-मण्डलका आभारी हूँ। ग्रंथके सम्पादनमें पहले मूलगाथा दी गई है, उसके नीचे संस्कृत टीका ( जहाँसे वह उपलब्ध हुई) और उसके नीचे हिन्दी अनुवाद दिया गया है। अमितगतिकृत मुद्रित मूल-संस्कृत पञ्चसंग्रहके जो श्लोक मूल गाथाके छायानुवाद रूप हैं, उन्हें गायारम्भमें रोमन अङ्कोंके द्वारा टिप्पण-अङ्क देकर टिप्पणीमें सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। दूसरे ग्रन्थों में पायी जानेवाली या समता रखनेवाली गाथाओंके ऊपर हिन्दी अङों टिप्पण-अङ्क देकर उसके नीचे टिप्पणीमें स्थान दिया गया है। तदनन्तर प्रतियोंमें प्राप्त होनेवाले पाठ-भेदोंको (+) इत्यादि प्रकारके चिह्न-विशेष देकर टिप्पणीमें स्थान दिया गया है । इन तीनों प्रकारकी टिप्पणियोंमें से प्रथम प्रकारको टिप्पणीको ग्रन्थारम्भसे लेकर ग्रन्थ-समाप्ति तक चाल रहनेके कारण प्रथम स्थान देना उचित समझा गया है। ___ संस्कृत टीका-गत जो पद्य जिस ग्रन्थके रहे हैं, उनकी सूचना टिप्पणीमें यथास्थान कर दी गई है। डड्डाकृत संस्कृत पञ्चसंग्रहमें जो टिप्पणियाँ दी गई हैं, वे सब आदर्श प्रतिके हासियेपर लिखी हुई प्राप्त हुई हैं। प्रतिकी प्राचीनता, लेखनकी समता और अर्थ-बोधकी सरलता आदि कई बातें ऐसी हैं जो हमें यह कहनेके लिए प्रेरित करती हैं कि इन टिप्पणियोंको स्वयं ग्रन्थकार श्री डड्डाने ही लिखा है। पञ्चसंग्रह जैसे प्राचीन एवं दुर्गम ग्रन्थके अनुवादका काम कितना कठिन रहा है, यह उसके अभ्यासियोंसे छिपा न रहेगा। मैने शक्ति-भर पूरी सावधानी रखी है, फिर भी यदि कहीं कोई चूक रह गई हो, तो विद्वान् पाठकोंसे निवेदन है कि वे उसका सुधार कर लेवें और उससे मुझे सूचित करें। किसी भी ग्रन्थकी प्रस्तावना लिखनेका कार्य अनुवादसे अधिक कठिन होता है। फिर जिसके कर्ता आदिका पता न हो, और दि० श्वे० दोनों सम्प्रदायोंमें मान्य रहा हो, तथा जिसपर दोनों सम्प्रदायके आचार्योंने स्वतन्त्र चणि और टीका-टिप्पण आदि लिखे हों, उसकी प्रस्तावना लिखनेका कार्य तो और भी अधिक गुरुतर एवं समय-साध्य होता है। उसके लिए पर्याप्त समय और पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री अपेक्षित है। मेरे लिए समय और साधन दोनोंकी कमी रही है, इसलिए चाहते हए भी मैं उन सब बातोंपर प्रकाश नहीं डाल सका हूँ, जिनपर कि उसको आवश्यकता थी। फिर भी कुछ महत्त्वपर्ण बातोंको मैने प्रस्तावनामें चर्चा की है और आशा करता हूँ कि इस विषयके अधिकारी विद्वान अपेक्षित सभी मख्य बातोंपर अनुसन्धान करेंगे और उसे Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पाठकोंके सामने रखेंगे। खास तौरसे वे 'पञ्चसंग्रहकार कौन हैं, उनका समय क्या रहा,' इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नके समाधानके लिए अपनी अनुसन्धान-प्रवृत्तिको आगे बढ़ावें, ऐसा मेरा नम्र निवेदन है। प्रस्तावनाके लिए ग्रन्थको और आगे रोकना मैंने उचित नहीं समझा और इसलिए जैसी भी सम्भव हो सकी है, वैसी लिखकर उसे पाठकोंके सम्मुख उपस्थित करना ही उचित समझा है। प्रतियोंकी प्राप्तिके लिए मैं श्री ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन व्यावर, दि० जैन पंचायती मन्दिर, खजूर मस्ज़िद दिल्ली, दि० जनशास्त्र-भण्डार ईडर और श्रीमहावीर-शास्त्र-भण्डार जयपुरके संचालकों और व्यवस्थापकोंका आभारी हैं, जिन्होंने कि अपने-अपने भण्डारोंसे अलभ्य प्राचीन प्रतियाँ प्रस्तुत संस्करणके लिए भेजी हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीने भी अपनी हस्तलिखित मूल प्रति और प्राकृतवृत्ति मिलानके लिए दी, इसलिए मैं उनका भी आभारी हूँ। ग्रन्थके अधिकार-विभाजनमें श्री पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त-शास्त्रीने समय-समयपर समुचित परामर्श दिया और संस्कृत टीकाके भी साथमें प्रकाशनार्थ प्रेरणा दी, इसके लिए मैं उनका भी आभारी हूँ । ग्रन्थगत अनेक संदिग्ध पाठोंके निर्णय करने में तथा अनवाद-सम्बन्धी कितनी ही गत्यियोंके सुलझाने में श्री पं० फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका सदैवकी भांति पूर्ण साहाय्य प्राप्त हआ है, इसलिए मैं उनका भी बहत आभारी हूँ। सिद्धान्त ग्रन्थोंके गहरे अभ्यासी श्री० ब्र० रतनचन्द्रजी नेमिचन्द्रजी सहारनपुरसे भी समयसमयपर समुचित सूचनाएँ मिलती रही हैं, और श्री० पं० महादेवजी चतुर्वेदी, व्याकरणाचार्य काशीसे अनेक संदिग्ध पाठोंके संशोधनमें भरपूर सहयोग मिला है; एतदर्थ मैं उनका भी आभारी हूँ। ग्रन्थ-मुद्रणके समय प्रूफ़-संशोधनार्थ मुझे भारतीय ज्ञानपीठ काशीमें तीन बार लम्बे समय तक ठहरना पड़ा। उस समय मेरो सुख-सुविधा एवं मुद्रण आदिको समुचित व्यवस्था करनेमें ज्ञानपीठके व्यवस्थापक और उनके स्टाफके समस्त सदस्योंका जो प्रेममय व्यवहार रहा है, उसके लिए में किन शब्दोंमें अपनी कृतज्ञता व्यक्त करूँ। सन्मति-मुद्रणालयके कम्पोजीटर्स और कर्मचारियों तकका मेरे साथ मधुर व्यवहार रहा है, इसके लिए मैं उन सबका आभारी हूँ। श्रावक-शिरोमणि श्रीमान साह शान्तिप्रसादजी द्वारा संस्थापित एवं सौ० श्री रमारानी द्वारा संचालित यह भारतीय ज्ञानपीठ अपने पवित्र सदुद्देश्योंकी पूर्तिमें उत्तरोत्तर अग्रेसर रहे, यही अन्तिम मङ्गल-कामना है। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, २९-४-६० -हीरालाल शास्त्री साढूमल ( झांसी) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मूलग्रन्थ प्रति-परिचय प्रा यह प्रति श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन व्यावरकी है । प्राकृत पञ्चसंग्रहकी जितनो भी प्रतियां हमें मिल सकी, उनमें यह सबसे प्राचीन है और अत्यन्त शुद्ध भी है। हमने इसीको आधार बनाकर पञ्चसंग्रहकी प्रतिलिपि की, अतः यह हमारे लिए आदर्श-प्रति रही है। इस आदर्श-प्रतिका आकार १३४५ इंच है। पत्र-संख्या ७५ है। पत्रके प्रत्येक पृष्ठपर पंक्ति-संख्या १० है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या लगभग ५० के है । इस प्रकार पञ्चसंग्रहकी समस्त गाथाओं, अंकसंदष्टियों और गद्यांशोंका श्लोक-प्रमाण लगभग ढाई हजार है। प्रतिके प्रथम पत्रके ऊपरी पृष्ठपर 'पंचसंग्रह ग्रंथ, दिगम्बर जैन मन्दिर मोजगढ़, राज सवाई जैपुर' लिखा है। प्रतिके अन्तमें लेखक-प्रशस्ति इस प्रकार पाई जाती है "संवत् १५३७ वर्षे आषाढ़ सुदि ५ श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीजिनचन्द्रदेवास्तच्छिष्यमुनिश्रीभुवनकीत्तिस्तदाम्नाये खंडेलवालान्वये राउकागोत्रे साधु थेल्हा तद्भार्या थेल्हसिरी, तत्पुत्रास्त्रयो धीरा दानपूजातत्पराः साधु नापा, द्वितीय माणा, तृतीय घेता। नापा-भार्या गोगल, तत्पुत्र दासा । एतेषां मध्ये साधु नापाख्येन इदं ग्रन्थं लिखाप्य बाई गजरिजोगु दत्तं विद्वद्भिः पठ्यमानं चिरं नंदतु ॥०॥श्री॥" उक्त प्रशस्तिसे सिद्ध है कि यह प्रति ४८० वर्ष प्राचीन है। इसे खंडेलवाल-वंशीय एवं रांवकागोत्रीय नापासाहुने लिखवाकर किसी ब्रह्मचारिणी बाई गूजरिजोगुके पठनार्थ प्रदान किया है। नापासाहुने अपने जन्मसे किस नगर या ग्रामको पवित्र किया, इस बातका पता उक्त प्रशस्तिसे नहीं लगता है। संभव है कि प्रशस्तिमें दी गई भट्टारक-परम्पराकी विशेष छान-बीन करनेपर नापासाहुकी जन्म-भूमि आदिका कुछ पता लग जावे। ब यह प्रति भी श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवनकी है। उपलब्ध प्रतियोंमें प्राचीनताकी दृष्टिसे इसका दूसरा स्थान है और यह भी पूर्व प्रतिके समान शुद्ध है। हाँ, प्राकृत भाषा-सम्बन्धी अनेक पाठभेद इसमें पाये जाते हैं, जिन्हें हमने यथास्थान टिप्पणमें ब संकेतके साथ दिया है । दोनों प्रतियोंमें एक मौलिक अन्तर है। शतक-प्रकरणकी गाथा नं० ६ आदर्शप्रतिमें नहीं है, जबकि वह इस प्रतिमें तथा इसके अतिरिक्त उपलब्ध अन्य अनेक प्रतियोंमें पाई जाती है। इस प्रतिका आकार लेना हम भूल गये । पत्र-संख्या १०६ है । पत्रके प्रत्येक पृष्ठपर पंक्ति-संख्या १० है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ३४-३५ के लगभग है। इस प्रतिमें ग्रन्थ-समाप्तिकी सूचना करते हुए निम्न गद्य-सन्दर्भ भी पाया जाता है "इति पंचसंग्रहः समाप्तः ॥ श्री ।। * ॥ वासपुधत्तं त्रयाणामुपरि नवानां मध्यं ४-५-६-७-८-९।। श्री क्वचित्समाप्तौ चेति दृश्यते ।।७।८।। अंतःकोडाकोडिसंज्ञा सागरोपमैककोट्युपरि कोटीकोटीमध्यं । अन्त:कोडाकोडिसंज्ञा गोमटसारटीकायां समयूणकोडाकोडिप्पदि समयाहियकोडि त्ति ।" इस गद्य-सन्दर्भमें किसी पाटकने तीन बातोंकी जानकारी दी है--पहली बातमें वर्षपृथक्त्वका प्रमाण बतलाया है कि तीन वर्षसे ऊपर और नौ वर्षसे नीचेके मध्यवर्ती कालको वर्षपृथक्त्व कहते है। दूसरी बात 'इति' शब्दके सम्बन्धमें बतलाई है कि इति शब्दका प्रयोग कहीं 'समाप्ति के अर्थमें भी देखा जाता है। तीसरी बात जो बतलाई गई है, वह एक सैद्धान्तिक मत-भेदको व्यक्त करती है। एक मतके अनुसार एक सागरोपम कोटि वर्षसे ऊपर और एक सागरोपम कोटाकोटि वर्षसे नीचेके कालको 'अन्तःकोडाकोडी' कहते हैं। किन्तु गोम्मटसारकी टीकामें एक समयाधिक कोटिवर्षसे लेकर एक समय-कम कोटाकोटिवर्ष तकके कालको अन्त:कोडाकोडी कहा गया है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पञ्चसंग्रह इसके पश्चात् लेखकने अपनी प्रशस्ति इस प्रकार दी है "॥श्री।। संवत् १५४८ वर्षे आसो सुदि ३ शनी सागवाडाशुभस्थाने श्री आदिनाथ चैत्यालये श्री मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्री विजयकीत्ति तच्छिष्य आ. श्री अभयचन्द्रदेवा: तच्छिष्य मु० महीभूषणेन कर्मक्षयार्थं स्वयमेव लिखितं ॥छ।। शुभं भवतु ।।" ॥श्री ॥ श्री ।। श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ इस प्रशस्तिमें लेखकने प्रायः सभी आवश्यक बातोंकी जानकारी दे दी है । तदनुसार यह प्रति आजसे ४६९ वर्ष पूर्वकी लिखी हुई है। इसके लेखक मुनि महीभूषणने सागवाड़ाके श्री आदिनाथ चैत्यालयमें बैठकर कर्म-क्षयके लिए स्वयं ही अपने हाथसे इसे लिखा है । इस दृष्टि से इस प्रतिका महत्त्व बहुत अधिक है कि वह एक मुनिके हाथसे लिखी हुई है और उस समय-जब कि जीवराज पापड़ीलाल जैसे सम्पन्न गृहस्थ सहस्रों जैन मूत्तियोंके निर्माण और प्रतिष्ठापनमें लग रहे थे, तब एक साधु कर्म-सिद्धान्तके एक प्राचीन ग्रन्थको लिखकर कर्म-क्षयके लिए अपनी आत्म-साधनामें संलग्न थे। आज भी यह अनुकरणीय है। उक्त प्रशस्तिके पश्चात् भिन्न वर्णकी स्याही और बारीक कलमसे लिखा है"मुनिश्रीरविभूषणस्तच्छिष्य ब्रह्मगणजीष्णोरिदं पुस्तकं ॥" तत्पश्चात् भिन्न कलमसे 'ब्र० वछराज' लिखा है। तदनन्तर इसके नीचे अन्य स्याही और अन्य कलमसे लिखा है "इदं पुराणं आचार्य श्री रामकीतिको छै” । ऊपरके इन उल्लेखोंसे पता चलता है कि मुनि महीभूषणके पश्चात् उक्त प्रति मुनि श्री रविभूषणके शिष्य ब्रह्मगण जिष्णुके पास रही है। तदनन्तर ब्रः वच्छराजजीके अधिकारमें रही है, जो कि अपना नाम तक भी शुद्ध नहीं लिख सकते थे। उनके पश्चात् यह प्रति 'श्री रामकीति' के पास रही है। उनके ज्ञान और भावनाका अनुमान इस जरा-सी पंक्तिसे ही हो जाता है कि वे पंचसंग्रह जैसे कर्म-सिद्धान्तके ग्रन्थको एक पुराण ही समझते हैं और इसपर अपना अधिकार बतलानेके लिए स्वयं ही अपने आपको "आचार्यश्री" बतलाते हुए “रामकीत्तिको छै" लिख रहे हैं। ये आचार्य नहीं, किन्तु कोई ऐसे भट्टारक प्रतीत होते हैं, जिन्हें उक्त पंक्तिके प्रारम्भिक 'इदं' पदका 'अस्ति' क्रियाके साथ सम्बन्ध जोड़ने और पद-विभक्तिको शुद्ध लिखनेका भी संस्कृत ज्ञान नहीं था। उपरि-निर्दिष्ट दोनों प्रतियोंके अतिरिक्त हमें जयपुर-शास्त्र भण्डारकी दूसरी दो और प्रतियाँ भी श्री कस्तू रचन्द्रजी काशलीवालकी कृपासे प्राप्त हुईं, जो कि ऐलक सरस्वती भवनकी प्रतियोंके बादकी लिखी हई हैं। इनमें प्रायः वे ही पाठ उपलब्ध हुए, जो कि ऊपरकी दोनों प्रतियोंमें पाये जाते हैं। किन्तु अपेक्षाकृत ये दोनों प्रतियाँ कुछ स्थलोंपर अशुद्ध लिखी दृष्टि-गोचर हुई, अतएव उनके साथ प्रेस-कापोका मिलान करनेपर भी उनके पाठ-भेद देना हमने आवश्यक नहीं समझा और इसीलिए उन प्रतियोंका कोई परिचय भी नहीं दिया जा रहा है। संस्कृत टीका प्रतिका परिचय द यह प्रति श्रीदि० जैन पंचायती मन्दिर खजूर मस्जिद दिल्लीके प्राचीन शास्त्र-भण्डारकी है । यद्यपि यह प्रति अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण और खण्डित है, तथापि उक्त शास्त्रभण्डारके संरक्षकोंने उसका जीर्णोद्धार करके उसे पढ़ने और प्रतिलिपि करनेके योग्य बना दिया है। वर्तमान प्रतिमें प्रारम्भके दो पत्र तथा १८१ और १९४ का पत्र तो बिलकुल ही नहीं हैं, १८२ वाँ पत्र आधा है और २४-२५वाँ पत्र खण्डित एवं गलित है तथा बीचके कितने ही पत्रोंमें पानी लग जानेके कारण स्याही फैल गई है। इस प्रतिके अन्तमें पत्र-संख्या यद्यपि २०१ दी हुई है तथापि उसकी प्रतिलिपि करते समय ज्ञात हुआ कि प्रारम्भसे लेकर ५४वें पत्रके उत्तरार्धकी १३वीं पंक्ति तक तो पञ्चसंग्रहकी केवल मूल गाथाएँ ही लिखी गई हैं, टीकाका प्रारम्भ तो इस पत्रके उत्तरार्धकी १३वीं पंक्तिके 'खीयंति ।।३३।। च्छ्वासा: ४ प्रत्येकशरीर से होता है। इस स्थलको देखते Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हुए यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इस प्रतिके लेखकको भी प्रस्तुत टीका प्रारम्भसे नहीं प्राप्त हुई है, प्रत्युत मूल पञ्चसंग्रह और उसकी संस्कृत टीकाकी खण्डित प्रतियाँ ही प्राप्त हई हैं और लेखकने उसकी पूर्वापर छान-बीन किये विना ही प्रतिलिपि करते हुए एक ही सिलसिलेसे पत्रोंपर अङ्क-संख्या डाल दी है। पत्र ५४के जिस स्थलसे टीकाका 'प्रत्येकशरीरं' अंश प्रारम्भ होता है, वह यह सूचित करता है, कि इस प्रतिके लेखकके सामने प्रस्तुत टीकाका प्रारम्भिक अंश नहीं रहा है। गहरी छान-बीनके बाद ज्ञात हुआ कि टीकाका जो अंश उपलब्ध हो रहा है, वह पञ्चसंग्रहके तीसरे कर्मस्तवको ४० वीं गाथाके चतुर्थ चरणका टीकांश है । इस प्रकार यह निष्कर्ष निकला कि पञ्चसंग्रहके समग्र प्रथम, द्वितीय प्रकरणोंकी, तथा तृतीय प्रकरणके प्रारम्भसे लेकर ४० गाथाओंकी टीका अनुपलब्ध है। फिर भी यह उचित समझा गया कि जहाँसे भी टीका उपलब्ध है, वहाँसे ही मुद्रित कर देना चाहिए। अन्यथा कालान्तरमें यह अवशिष्ट अंश भी नष्ट हो जावेगा। उपलब्ध प्रतिका आकार ८१४४१ इञ्च है । पत्र-संख्या २०१ है। प्रत्येक पत्रमें पंक्तिसं० पत्र ५५ तक १६ और आगे १५ है। प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ५०-५२ है। यदि प्रारम्भकी अप्राप्त टीकाके पत्रोंकी संख्या ५४ ही मान ली जाय तो प्रस्तुत टीका १० हजार श्लोक प्रमाण सिद्ध होती है। इसमेंसे यदि मूल ग्रन्थको गाथाओंका लगभग दो हजार प्रमाण कम कर दिया जावे, तो टीका परिमाण आठ हजार श्लोकप्रमाण ठहरता है। प्रस्तुत प्रतिके अन्तमें निम्न पुष्पिका पाई जाती है "सं० १७११ वर्षे शाके १५७६ प्रवर्तमाने आश्विन सुदि ९ सोमवासरे श्रीपणानगरे चतुर्मासि कृता। श्रेयोऽर्थ कल्याणमस्तु ।" प्रतिके इस लेखनकालसे ज्ञात होता है कि यह टीका-प्रति टीका-रचनाके ठीक ९१ वर्षके बाद लिखी गई है । यद्यपि लेखक या लिखानेवालेका इसमें कोई उल्लेख नहीं है तथापि 'चतुर्मासि' कृता पदसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि किसी अच्छे ज्ञानी साधु, भट्टारक या ब्रह्मचारीने पटना नगर में किये हुए चौमासे में इसे लिखा है। इस प्रतिके अक्षर अत्यन्त सुन्दर हैं और प्रायः सभी संदृष्टियोंकी रेखाएँ लाल स्याहीसे खींची गई हैं। इस टीका-प्रतिको देखते हुए ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस प्रतिके लिखे जानेके पश्चात् किसी विद्वान्ने उसे पढ़ा है और संशोधन भी किया है जो कि हासियेपर भिन्न स्याही और भिन्न कलमसे अंकित है। प्राकृतवृत्ति-परिचय संस्कृत-टीकाकी प्रशस्तिके पश्चात् परिशिष्ट रूपमें जो प्राकृत वृत्ति-सहित मूल पंचसंग्रह मुद्रित ( पृ० ५४७ई० ) किया गया है, उसकी दो प्रतियाँ हमें उपलब्ध हुई-एक श्री कस्तूरचन्द्रजी काशलीवालकी कृपासे जयपुर शास्त्र-भण्डारकी और दूसरी पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी कृपासे-जिसपर कि ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बईकी मुहर लगी हुई है। इन दोनोंमें पहली बहुत प्राचीन है और दूसरी एक दम अर्वाचीन । वस्तुतः इसे नवीन ही कहना चाहिए, क्योंकि यह १५-२० वर्ष पूर्वकी ही लिखी हुई है और बहुत ही अशद्ध है। इस प्रतिके लेखकने जिस प्राचीन प्रति परसे उसकी प्रतिलिपि की, वह सम्भवतः प्राचीन लिपिको ठीक पढ़ नहीं सका और इसीलिए उसकी प्रत्येक पंक्ति अशुद्धियोंसे भरी हुई है। जयपुर-शास्त्र-भण्डारकी जो प्रति प्राप्त हुई, उसके आधारपर ही प्राकृत-वृत्तिकी प्रेस कापी की गई है। प्रतिलिपि करते हुए हमें यह अनुभव हुआ कि जहाँ एक ओर वह प्रति उपरिनिर्दिष्ट समस्त प्रतियोंमें सर्वाधिक प्राचीन है, वहाँपर उसकी लिखावट भी अति दुरूह है। इसके लिखने में-खासकर नहीं पढ़े जा सकनेवाले सन्दिग्ध पाठोंके शुद्ध रूपकी कल्पना करने में हमें पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा है, तथापि कितने ही स्थल संदिग्ध ही रह गये और उनके स्थानपर या तो [ ] इस प्रकारके खड़े कोष्ठकके भीतर कल्पित पाठ लिखा गया, अथवा ( ? ) ऐसे गोल कोष्ठके भीतर प्रश्नवाचक चिह्न देकर छोड़ देना पड़ा। इस प्रतिका आकार १२४४३ इंच है और पत्र संख्या ९८ है । वेष्टन नं० १००४ है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पञ्चसंग्रह प्रतिके अन्तमें जो लेखक-प्रशस्ति पाई जाती हैं, वह इस प्रकार है "संवत् १५२६ वर्षे कातिक सुदि ५ श्रीमूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्रीपद्मनन्दिस्तत्पट्टे भ० श्रीशुभचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीजिनचन्द्रदेव भ० श्रीपद्मनन्दिसिक्ष ( शिष्य ) मु० मदनकीर्तिस्तच्छिष्य ब्र० नरसिंघ तस्योपदेशात् खण्डेलवालान्वये वाकुल्या वालगोत्रे सं पचाइण भार्या केलू तयो त्र जैता भार्या जैतश्री तयोः पुत्र जिणदास सं० पचाइणाख्येन इदं शास्त्रं लिखापितम् ।" इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इस प्रतिको ब्र० नरसिंहके उपदेशसे खण्डेलवाल वंशीय और बाकलीवालगोत्रीय संघी या संघपति पचाइणने लिखवाया । प्राकृतवृत्तिके पश्चात् (पृ० ६६३ ई०) श्रीडड्ढाकृत संस्कृत पञ्चसंग्रह मुद्रित किया गया है। इसकी एक मात्र प्रति ईडरके शास्त्र-भण्डारसे प्राप्त हुई है जिसका वेष्टन नं० २१ है। इसका आकार १२४५ इञ्च है । पत्र-संख्या ९५ है। प्रति-पृष्ठ पंक्ति-संख्या १० और प्रति-पंक्ति अक्षर-संख्या ३५-३६ है। प्रति साधारणतः शुद्ध है, किन्तु पडिमात्रा और गुजराती टाइपकी अक्षर-बनावट होनेसे पढ़ने में दुर्गम है। कागज बाँसका और पतला है। प्रतिके अन्तमें लेखन-काल नहीं दिया है, तथापि वह लिखावट आदिकी दृष्टिसे, ३०० वर्षके लगभग प्राचीन अवश्य है। पञ्चसंग्रह-परिचय समस्त जैन वाङ्मयमें पंचसंग्रहके नामसे उपलब्ध या उल्लिखित ग्रन्थोंकी तालिका इस प्रकार है (१) दि० प्राकृतपञ्चसंग्रह-उपलब्ध सर्व पञ्चसंग्रहों में यह सबसे प्राचीन दि० परम्पराका ग्रन्थ है। मूल प्रकरणोंके समान उनके संग्रह करनेवाले और उनपर भाष्य-गाथाएँ लिखनेवाले इस ग्रन्धकारका नाम और समय अभी तक अज्ञात है। पर इतना तो निश्चय पूर्वक कहा ही जा सकता है कि श्वेताम्बराचार्य श्री चन्द्रर्षिमहत्तरके द्वारा रचे गये पंचसंग्रहसे यह प्राचीन है। मूलप्रकरणोंके साथ इसकी गाथा-संख्या १३२४ है । गद्यभाग लगभग ५०० श्लोक प्रमाण है । यह प्रस्तुत ग्रन्थ पहली बार प्रकाशित हो रहा है। (२) श्वे० प्राकृत पञ्चसंग्रह-कर्मसिद्धान्तकी जिन मान्यताओंमें दिगम्बर-श्वेताम्बर आचार्योका मतभेद रहा है, उनमेंसे श्वे० परम्पराके अनुसार मन्तव्योंको प्रकट करते हुए प्राचीन शतक आदि पांच ग्रन्थोंका संक्षेप कर स्वतन्त्ररूपसे इस ग्रन्थकी रचना की गई है। इसमें शतक आदि मूलग्रन्थोंकी गाथाएँ नहीं हैं। समस्त गाथा-संख्या १००५ है। रचना कुछ क्लिष्ट होनेसे ग्रन्थकारने इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है। जिसका प्रमाण आठ हजार श्लोक है। इसपर मलयगिरिकी संस्कृत टीका भी है। यह ग्रंथ उक्त दोनों टीकाओंके साथ मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोइ (गुजरात) से सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ है । श्वे० मान्यतासे इसका रचनाकाल विक्रमकी सातवीं शताब्दी है। ३) दि० संस्कृत पञ्चसंग्रह ( प्रथम ) दि० प्रा० पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर उसे यथासम्भव पल्लवित करते हए आ० अमितगतिने इसकी संस्कृत श्लोकोंमें रचना की है। इसके पाँचों प्रकरणोंकी श्लोकसंख्या १४५६ है । लगभग १००० श्लोक-प्रमाण गद्य-भाग है। इसका रचना-काल वि० सं० १०७३ है । यह मूल रूपमें सर्व-प्रथम माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे सन् १९२७ में प्रकाशित हुआ और पीछे पं० वंशी. धरजी शास्त्रीके अनुवादके साथ सोलापुरसे प्रकाशित हुआ है। (४) दि० सं० पञ्चसंग्रह ( द्वितीय )-इसकी रचना भी दि० प्रा० पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर की गई है। इसमें अमितगतिके सं० पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा अनेक विशेषताएँ हैं जिनका दिग्दर्शन आगे कराया जायगा। इसके रचयिता श्रीपालसुत श्री डड्डा हैं, जो एक जैन गृहस्थ हैं। इसकी समस्त श्लोक-संख्या १२४३ है और गद्य-भाग लगभग ७०० श्लोक प्रमाण है। इसका रचनाकाल अनुमानतः विक्रमकी सत्तरहवीं शताब्दी है। इसकी एकमात्र प्रति ईडरके भण्डारसे प्राप्त हुई। यह पहली बार इसी ग्रन्थके साथ परिशिष्ट रूप में प्रकाशित हो रहा है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (५) दि० प्रा० पश्वसंग्रह टीका-दि० प्राकृत पञ्चसंग्रहपर यह एकमात्र संस्कृत टीका उपलब्ध हई है, वह भी अपूर्ण । इस प्रतिका विशेष परिचय प्रति-परिचयमें दिया जा चुका है। टीका बहत सरल है; मलके भावको उत्तम रीतिसे प्रकट करती है। टीकाकारने अर्थको स्पष्ट करनेके लिए मूल प्राकृत या संस्कृत पञ्चसंग्रहमें दी गई संदृष्टियोंके अतिरिक्त अनेकों और भी संदृष्टियाँ लिखी हैं। इस टीकाके रचयिता श्री सुमतिकीत्ति हैं, जो सम्भवतः भट्टारक थे। इस टीकाकी रचना वि० सं० १६२० के भादों सुदी १० को हुई है। (६ ) दि० प्राकृत पञ्चसंग्रह मूल और प्राकृत वृत्ति-प्रा० पञ्चसंग्रहके मूल आधार जो पाँच मूल ग्रन्थ हैं, उनके ऊपर श्री पद्मनन्दिने प्राकृत वृत्तिकी रचना की है, जिसकी शैली प्राचीन चूणियोंके समान है। यह मूल और वृत्ति दोनों ही अपनी एक खास महत्ता रखती है, यह आगे बताया जायगा । इसके मूल प्रकरणोंकी गाथा-संख्या ४१८ है और प्राकृतवृत्तिका परिमाण लगभग ४००० श्लोक है। ये दोनों ही प्रथम बार इसी ग्रन्थके साथ परिशिष्टमें प्रकाशित हो रहे हैं। प्राकृतवृत्तिका रचनाकाल भी अभी तक अज्ञात ही है। इनके अतिरिक्त और भी अनेक पंचसंग्रहोंका उल्लेख मिलता है। उनमेंसे गोम्मटसार जीवकांडकर्मकाण्डको भी पञ्चसंग्रह कहा जाता है; उनमें भी उक्त ग्रन्थोंके समान बन्धक, बन्धव्य, आदि पाँचों विषयोंका प्रतिपादन किया गया है। दि० प्राकृत पञ्चसंग्रहके संस्कृत टीकाकार तो इसी कारण इतने अधिक भ्रमित हुए हैं कि उन्होंने प्रत्येक प्रकरणकी समाप्ति करते हुए "इति श्रीपञ्चसंग्रहापरनाम लघुगोम्मटसार टीकायां' लिखा है और टीकाके अन्तमें भी "इति श्री लघुगोम्मटसार टीका समाप्ता' लिखा है। श्री हरि दामोदर बेलंकरने अपने श्री जिनरत्न कोशमें 'पञ्चसंग्रह दोपक" नामके एक और भी ग्रन्थका उल्लेख किया है। इसके रचयिता श्री इन्द्र वामदेव हैं। उन्होंने इसे गोम्मटसारका पद्यानुबाद बतलाया है और उसके पांचों प्रकरणोंकी श्लोक-संख्या क्रमशः ८२५ + १४१ + १२५+ १८७ + २२. दी है, जिनका योग १४९८ होता है। यह अभी तक मेरे देखने में नहीं आई, इसलिए इसके विषयमें इससे अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता है । उक्त जिनरत्नकोशमें हरिभद्रसूरि-द्वारा बनाये गये एक और पञ्चसंग्रहका उल्लेख किया गया है। पर हरिभद्रसूरि-रचित ग्रन्थोंकी जितनी भी सूचियाँ मेरे देखने में आई हैं, उनमेंसे किसीमें भी मैंने इस ग्रन्थका नाम नहीं देखा । इसके प्रकाशमें आनेपर ही उसके विषयमें कुछ विशेष जाना जा सकेगा। उपर्युक्त विवेचनसे इतना तो स्पष्ट है कि पञ्चसंग्रहके आधारभूत बन्ध, बन्धक आदि पाँचों द्वार जैन दर्शनके लक्ष्यभूत मुख्य विषय हैं और इसीलिए दोनों सम्प्रदायके आविर्भाव होनेके पहलेसे ही जैन आचार्योंने उनपर प्रकरण-ग्रन्थोंकी रचना की और उनके आधारपर दोनों ही सम्प्रदायोंके आचार्योंने 'पञ्चसंग्रह' यही नाम देकर उनपर तदाधारसे स्वतन्त्र ग्रन्थोंकी रचनाएँ की और अनेक टीका-टिप्पणियों और चणियोंको लिखा। जैन वाङ्मयमें पञ्चसंग्रह नामके अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमेंसे कुछ प्राकृतमें और कुछ संस्कृतमें रचे गये हैं। इनमेंसे कुछ दिगम्बराचार्यों के द्वारा रचे गये हैं और कुछ श्वेताम्बराचार्योंके द्वारा । यहाँ एक बात खास तौरसे ज्ञातव्य है और वह यह कि इन दोनों सम्प्रदायोंके द्वारा रचे गये या संकलन किये गये पंचसंग्रहोंमें जिन पाँच ग्रंथों या प्रकरणोंका संग्रह है, उनमेंसे एकाधको छोड़कर प्रायः सभी ग्रन्थों या मल प्रकरणोंके रचयिताओंके नामादि अभी तक भी अज्ञात हैं और इसीसे उन मूल ग्रन्थोंकी प्राचीनता माणित होती है । मूलग्रन्थोंके अध्ययन करनेपर ऐसा ज्ञात होता है कि उनकी रचना उस समय हई है, जबकि जैन-परम्परा अक्षण्ण थी और उसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसे भेद उत्पन्न नहीं हए थे। कालान्तरमें जब इन दोनों भेदोंने जैन-परम्परामें अपना स्थान दृढ़ कर लिया, तब पूर्व-परम्परासे चले आये श्रुतको उन्होंने अपनी-अपनी मान्यताओंके अनुरूप निबद्ध करना प्रारम्भ किया । संस्कृत-ग्रन्थोंमें जैसे तत्त्वार्थसूत्र अपनी-अपनी मान्यता-गत पाठ-भेदोंके साथ दोनों सम्प्रदायोंमें सम्मानित है और दोनों ही सम्प्रदायोंके आचार्योंने उसपर टीका-टिप्पण और भाष्यादि लिखे हैं, ठीक उसी प्रकार प्राकृत ग्रन्थोंमें हमें एकमात्र पंचसंग्रह ही Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पञ्चसंग्रह ऐसा ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध हुआ है, जिसके मूल प्रकरण दोनों सम्प्रदायोंमें थोडेसे पाठ भेदोके साथ समानरूपसे सम्मान्य हैं और दोनों ही सम्प्रदायके आचार्यों ने उसपर प्राकृत भाषामें भाष्य-गाथाएँ और पूर्णियाँ तथा संस्कृत भाषामें टोका और वृत्ति आदि रची हैं। दोनों सम्प्रदायोंके इन पञ्चसंग्रहोंमें निबद्ध, संकलित या संगृहीत वे पाँच ग्रन्थ या प्रकरण कौनसे हैं, पाठकों को यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है, अतः सर्वप्रथम उन प्रकरणोंका परिचय दिया जाता है। दि० पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणोंके नाम दो प्रकारसे मिलते हैं, जो इस प्रकार हैं प्रथम प्रकार १ जीवसमास २ प्रकृतिसमुत्कीर्तन ३ बन्धस्तव ४ शतक ५ सप्ततिका ० पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणों के नाम दो प्रकारसे मिलते हैं, जो कि इस प्रकार हैं द्वितीय प्रकार प्रथम प्रकार १ सत्कर्मप्राभूत २ कर्मप्रकृति ३ कथायाभूत द्वितीय प्रकार १ बन्धक २ बध्यमान ३ बन्धस्वामित्व ४ शतक ५ सप्ततिका १ बन्धक २ बन्धव्य ३ बन्ध-हेतु ४ बग्ध-विधि ५ बन्ध - लक्षण दि० परम्पराके पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकारवाले पाँचों प्रकरण संग्रहकारके बहुत पहलेसे स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें चले आ रहे थे । संग्रहकारने देखा कि उनकी रचना संक्षिप्त या सूत्रात्मक है, तो उसने पूर्व - परम्परागत ग्रन्थोंके नामोंको और उनकी गाथाओंको ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रखकर और उन गाथाओंको मूलगाथाका रूप देकर उनपर भाष्य-गायाओंकी रचना की। दूसरे प्रकार के नाम मिलते हैं अमितगतिके पञ्चसंग्रह में, जिन्होंने पूर्वोक्त प्राचीन प्राकृत पञ्चसंग्रहका संस्कृत भाषामें कुछ पल्लवित पद्यानुवाद किया है । परन्तु उन्होंने भी प्रत्येक प्रकरणके अन्तमें नाम वे ही प्राचीन दिये हैं। द्वितीय प्रकारके नामोंका तो उल्लेख उन्होंने ग्रन्थके प्रारम्भमें किया है । परन्तु अर्थकी दृष्टिसे द्वितीय प्रकारके नामोंकी संगति प्रथम प्रकारके नामोंके साथ बैठ जाती है । यथा ४ बन्ध-कारण ५ बन्ध-भेद १ वन्धक नाम कर्मके बांधनेवालेका है, जीवसमास में कर्म-बंध करनेवाले जीवोंका ही चौदह मार्गेणा और गुणस्थानोंके द्वारा वर्णन किया गया है । २. बध्यमान नाम बंधनेवाले कमोंका है; प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक द्वितीय अधिकारमें उन्हीं कमकी मूलप्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियोंका वर्णन किया गया है । ३. बन्ध-स्वामित्व और बन्धस्तव एकार्थक ही हैं । ४. शतक यह नाम वस्तुतः गुण-कृत नहीं, गाथाएँ १०० ही है, इसलिए इसे शतक कहते हैं ये दोनों नाम भी परस्परमें संगत बैठ जाते हैं । अपितु संख्षाकृत है अर्थात् इस प्रकरणको मूल प्राचीनऔर इसमें कर्मबन्धके कारण आदिका ही वर्णन है, अतः ५. सप्ततिका यह नाम भी संख्याकृत है, क्योंकि इस प्रकरणको मूल-गाथाएं भी ७० ही है और उनमें कर्मबन्ध योग, उपयोग लेश्या आदिकी अपेक्षा भेदों या भंगों का वर्णन किया गया है। इस प्रकारसे दि० परम्पराके पञ्चसंग्रहों में पाये जानेवाले दोनों प्रकारके नामोंमें कोई मौलिक अन्तर या भेद नहीं है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना किन्तु श्वे० पञ्चसंग्रहकी स्थिति कुछ भिन्न है। उसके रचयिताने स्वयं ही दोनों प्रकारके नाम दिये हैं । जिनमें प्रथम प्रकारके नामोंका उल्लेख करते हुए कहा है कि यतः इस ग्रन्थ में शतक आदि पाँच ग्रन्थ यथास्थान संक्षिप्त करके संग्रह किये गये हैं, अतः इस ग्रन्थका नाम पञ्चसंग्रह है। अथवा इसमें बन्धक आदि पाँच अधिकार वर्णन किये गये हैं, इसलिए भी इसका पंचसंग्रह यह नाम यथार्थ या सार्थक है । प्राकृत और संस्कृत पञ्चसंग्रहकी तुलना आ० अमितगतिने अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना यद्यपि प्राकृत पञ्चसंग्रहके आधारपर ही की है, तथापि उनकी रचना में अनेक विशेषताएँ या विभिन्नताएँ हैं, जिनका विश्लेषण हम निम्नप्रकारसे कर सकते हैं ( १ ) मौलिक मतभेद या विशेष मान्यताओंका निरूपण ( २ ) पल्लवित वैशिष्ट्य (३) व्युत्क्रम या आगे-पीछे वर्णन ( ४ ) स्खलन या विषयका छोड़ देना ( ५ ) शैली-भेद ( ६ ) कुछ विशिष्ट ग्रन्थ या ग्रन्थकारोंके उद्धरण उल्लेख आदि १. मौलिक मतभेद या विशेष मान्यताओंका निरूपण १. प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें वेदमार्गणा के भीतर द्रव्य और भाववेदकी जीवों के विसदृशता वर्णन करनेवाली दो गाथाएँ इस प्रकार हैं दोनों गाथाएं अर्थकी दृष्टिसे प्रायः समान हैं, एक श्लोक रचा है तिब्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हु दव्वभावादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकमं सव्वे ॥ १०२ ॥ इत्थी पुरिस णडंसब वेषा खलु दव्व-भावदो होंति । ते चैव य विवरीया विवरीया हवंति सच्चे जहाकमसो ॥ १०४ ॥ १. ३ स्त्रीपुन्नपुंसका जीवाः सदशाः द्रव्य-भावतः । जायन्ते विसदृताश्च कर्मपाकनियन्त्रिताः ॥ १३२ ॥ ऊपरकी दोनों गाथाओंका और इस श्लोकका अर्थ एक ही है कि जीव कर्मोदयसे द्रव्य और भाववेदकी अपेक्षा स्त्री, पुरुष और नपुंसकरूपमें कभी सदृश भी होते हैं और कभी विसदृश भी होते हैं । किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारके सम्मुख संभवतः अन्य मान्यता भी उपस्थित थी और इसलिए प्रा० पञ्चसंग्रह में उसके नहीं होते हुए भी उन्होंने उसे यहाँ स्थान दिया, जो कि इस प्रकार है इसलिए अमितगतिने दूसरी गाथाके आधारपर केवल नान्तमौहूर्त्तिका वेदास्ततः सन्ति कषायवत् । आजन्ममृत्युतस्तेषामुदयो दृश्यते यतः ॥ १६१ ॥ कपायोंके उदयके समान वेदोंका उदय अन्तर्मुहर्तमात्र कालावस्थायी नहीं है; क्योंकि जन्मसे लेकर मरण - पर्यन्त एक जीवके एक ही वेदका उदय देखा जाता है । १७ सदृशता और स्थगाइ पंच गंधा जहारिहं जेण एस्थ संखिता । दाराणि पंच अड़वा तेण जहस्थाभिहाणमिणं ॥ ( श्वे० पंचसं० द्वा० १ गा० २ ) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह २. पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें गुणस्थानों की प्ररूपणाके पश्चात् जीवसमासोंका निरूपण करते हुए अमितगति कहते हैं- १८ चतुर्दशसु पञ्चाचः पर्याप्तस्तत्र वर्तते । एतच्छास्त्रमतेनाचे गुणस्थानद्वयेऽपरे ॥ ६६॥ पूर्णः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी चतुर्दशसु वर्तते । सिद्धान्तमततो मिथ्यादृष्टौ सर्वे गुणे परे ॥ ६७॥ 1 अर्थात् इस शास्त्र के मतसे आदिके दो गुणस्थानोंमें सभी जीवसमास होते हैं । किन्तु सिद्धान्तके मत से | केवल मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें ही सर्वजीवसमास होते हैं । ३. दूसरे प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामके प्रकरण में प्रा० पञ्चसंग्रहकारने बन्धयोग्य प्रकृतियोंकी संख्या १२० और उदय योग्य प्रकृतियोंकी संख्या १२२ बतलाई है और यह मान्यता दि० और वे सभी कर्मविषयक ग्रन्थोंके अनुरूप ही है। पर इस स्थलपर सं० पञ्चसंग्रहकार उक्त मान्यतानुसार वन्य और उदयके योग्य प्रकृतियोंकी संख्या बतलानेके अनन्तर लिखते हैं मतेनापरसूरीणां सर्वाः प्रकृतयोऽङ्गिनाम् । बन्धोद्र्यौ प्रपद्यन्ते स्वहेतुं प्राप्य सर्वदा ॥ कुछ आचार्योंके भतसे सभी अर्थात् १४८ प्रकृतियां ही अपने-अपने निमित्तको पाकर बन्ध और उदयको प्राप्त होती हैं । ४. सं० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरण में स्थितिबन्धका वर्णन करते हुए श्लोका २०८ के नीचे एक गद्य भाग इस प्रकारका मुद्रित है "पञ्चसंग्रहाभिप्रायेणेदं सिद्धान्ताभिप्रायेण पुनरायुषोऽयाबाधो नास्ति; स्थितिः कर्मनिषेचनम् " । प्रयत्न करनेपर भी मैं इस पंक्तिके द्वारा सूचित किये गये पंचसंग्रह और सिद्धान्तके अभिप्राय भेदको नहीं समझ सका । यहाँ प्रकरण यह है कि आयुकर्मके सिवाय शेष सात कर्मोंका जो स्थितिबन्ध हुआ है, उसमें से उनका आबाधा काल घटाकर जो स्थितिबन्ध शेष रहता है, उतना उनका कर्म-निषेककाल होता है किन्तु आयुकर्मका जितना स्थितिबन्ध होता है, उतना ही कर्म निषेककाल होता है (देखो प्रा० पंचसंग्रह प्रकरण चौथेकी गा० ३९५ ) । इसी गाथाके आधारपर जो श्लोक इस स्थलपर अमितगतिने दिया है, वह भी गाथाके छायानुवाद रूप ही है । वह गाथा और श्लोक इस प्रकार हैं गाया - आवाधूण हिदी कम्मणिसेओ होइ सत्तकम्माणं । ठिदिमेव णिया सच्चा कम्मणिसेओ य भउस्स ॥ ३६५॥ श्लोक - आवाधो नास्ति सप्तानां स्थितिः कर्मनिषेचनम् । कर्मणामायुषो वाचि स्थितिरेव निजा पुनः ॥२०८॥ गाथाके अनुसार ही पलोकका अर्थ भी है, फिर यह विचारणीय बात है कि इसी श्लोकके नीचे मत भेदको सूचक उपर्युक्त पंक्ति दी हुई है। माणिकचन्द प्रन्थमालासे प्रकाशित पञ्चसंग्रह में जो उक्त लोक मुद्रित है उसपर गौर करनेसे पाठककी दृष्टि उसके प्रथम चरण और उसपर दी गई टिप्पणीकी ओर जानेपर इस समस्याका समाधान सहजमें हो जाता है । प्रथम चरण इस प्रकार मुद्रित है "आवाधो नास्ति सप्तानां" - ज्ञात होता है कि इसके सम्पादकको आदर्श प्रतिमें भी ऐसा ही पाठ उपलब्ध हुआ और इसीलिए इसके नीचे की पंक्तिको प्रमाण मानकर उन्होंने भी एक टिप्पणी इसपर दे दी, जो इस प्रकार है"अपर सिद्धान्ताभिप्रायेण सप्तकर्मणामाबाधो नास्ति । तर्हि किमस्ति ? कर्मनिषेचनम् । पञ्चसंग्रहाभिप्रायेण सप्तानां कर्मणामायाधारित आयुष्कर्मणोऽपि ज्ञातव्यम् ।” X X X Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस टिप्पणीके देने में सम्पादक-महोदयको उक्त श्लोकके नीचे दी गई उक्त पंक्ति ही प्रेरक हुई है और उस पंक्तिको उन्होंने सं० पञ्चसंग्रहके रचयिता आ० अमितगतिकी ही लिखी समझ ली है। पर वास स्थिति इसके प्रतिकूल है । यथार्थ में यह पंक्ति किसी पुराने पाठकने उक्त अशुद्ध पाठको शुद्ध मान करके और उस पाठपर चिह्न लगाकर टिप्पणीके तौरपर प्रतिके हासियेपर लिखी होगी। कालान्तरमें उस प्रतिकी प्रतिलिपि करनेवाले लेखकने उसे मूलका अंश समझकर उसे उक्त श्लोकके पश्चात् ही लिख दिया । इस प्रकार मूलपाठ 'आबाधो नास्ति' इस पदकी (आबाधा + ऊना + अस्ति ) सन्धिको नहीं समझ सकनेके कारण जैसी भूल पुराने पाठकसे हो गई थी, ठीक वैसी ही भूल अशद्ध पाठ और उक्त पंवितके सामने होनेपर इसके सम्पादकसे भी हो गई है और उसीके फलस्वरूप उन्होंने भी उक्त भ्रमोत्पादक टिप्पणी दे दी है। इस सारे कथनका निष्कर्ष यह है कि इस स्थलपर उक्त पंक्ति न तो सं० पञ्चसंग्रहका अंग है और न उसे वहाँपर होना चाहिए। फिर उसके आधारपर दी गई टिप्पणीकी व्यर्थता तो स्वत: सिद्ध हो जाती है । पञ्चसंग्रहादि कर्मग्रन्थ और सिद्धान्तग्रन्थ सभी उक्त विषयमें एक मत हैं । २. पल्लवित वैशिष्ट्य प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें ज्ञान मार्गणाके भीतर अवधिज्ञानका वर्णन केवल दो गाथाओंमें किया गया है। पर अमितगतिने उसे पर्याप्त पल्लवित किया है और षटखण्डागम तथा धवला टीकाके आधारसे चार श्लोकोंके द्वारा कितनी ही नवीन बातोंकी सूचना की है। जैसे-तीर्थङ्कर, देव और नारकियोंके अवधिज्ञान सर्वाङ्गसे उत्पन्न होता है, किन्तु शेष जीवोंके यदि वे मिथ्यादष्टि हैं तो नाभिके नीचे सरट, मकंट काक, खर आदि अशभ चिह्नोंसे प्रकट होता है और यदि वे सम्यग्दष्टि हैं, जो नाभिके ऊपर शंख, पदा, श्रीवत्स आदि शुभ चिह्नोंसे उत्पन्न होता है । ( देखो सं० पञ्चसंग्रह, प्रथम प्रकरण, श्लोक २२३-२२५ ) इसी प्रकारका पल्लवित वैशिष्टय संस्कृत पञ्चसंग्रहमें अनेक स्थलोंपर दष्टिगोचर होता है, जिसकी तालिका इस प्रकार है प्रथम जीवसमास प्रकरणमें अनन्तके नौ भेद ( श्लोक ६-७ ), ग्यारह प्रतिमाएँ ( श्लो० २९३२), वर्ग, वर्गणा और स्पर्धक ( श्लो० ४५-४६ ), गुणस्थानोंमें औदार्यकादि भाव ( श्लो० ५२-५८), गुणस्थानोंमें जीवोंकी संख्या आदि ( श्लो० ५९-९१), चतुर्गतिनिगोद ( श्लो० १११ ), स्थावरकायिक जीवोंके आकार ( श्लो० १५४ ) त्रसनालीके बाहिर त्रसोंकी उपस्थिति (श्लो० ११६ ) तेजस्कायिक और वायुकायिक आदि जीवोंकी विक्रिया आदि ( श्लो० १८१-१८५ ), द्रव्य-भाववेदकी अपेक्षा नौ भेद (श्लो० १९३-१९४), तीनों वेदवालोंके चिह्न-विशेष ( श्लो० १९५-१९८), मति, श्रुत अवधिज्ञानके भेद-प्रभेद ( श्लो० २१४-२२६ ), कषाय, नोकषाय और क्षायोपशमिकचारित्र ( श्लो० २३४-२३७), द्रव्य-भावलेश्याओंका वर्णन ( श्लो० २५४-२६३ ), पञ्च लब्धियोंका विस्तृत स्वरूप ( श्लो० २८६ से २८९ तक तथा इनके मध्यवर्ती विस्तृत गद्य भाग ) और तीन सौ तिरेसठ पाखण्डवादियोंका विस्तृत विवेचन ( श्लो० ३०९-३१६ तथा इनके बीचका गद्य भाग ) किया गया है । प्रा० पंचसंग्रहमें चारों संज्ञाओंका केवल स्वरूप ही कहा गया है। किन्तु अमितगतिने प्रकरणोपयोगी होनेसे स्वरूपके साथ ही यह भी बतलाया है कि किस गुणस्थान तक कौन-सी संज्ञा होती है। (देखो संक पञ्चसंग्रह प्रक० १, श्लो० ३४५-३४७) प्रा० पञ्चसंग्रहके दूसरे प्रकरणमें उद्वेलना-प्रकृतियोंकी केवल संख्या ही गिनाई गई है। किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारने साथमें उद्वेलनाका लक्षण भी दे दिया है, जो कि प्रकरणको देखते हुए बहुत उपयोगी है। प्रा० पञ्चसंग्रहके तीसरे प्रकरण में चूलिकाधिकारके भीतर नौ प्रश्नोंका उत्तर प्रकृतियोंके नाममात्र गिनाकर दिया गया है । किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारने इस स्थलपर गद्य और पद्य भागके द्वारा प्रत्येक प्रश्नका सहेतुक विस्तृत वर्णन किया है, जो कि अभ्यासी व्यक्तिके लिए अत्युपयोगी है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पञ्चसंग्रह सं० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें अमितगतिने जिन विशिष्ट विषयोंकी चर्चा की है उनका संस्कृतटीकाकारने यथास्थान निर्देश कर उन श्लोकोंको भी अधिकांशमें उद्धृत कर दिया है। इसके लिए देखिएगा० १०२,१०३-१०४,१४०,१७८-१७९,२१५,२२६,२८८,३०४,३६३-३९४,३९५,४६६,४८९,४९५, ५०२,५१४-५१५ और ५१६-५१९की संस्कृतटीका और हिन्दी अनुवाद । इसी चौथे प्रकरणमें स्थितिबन्धका उपसंहार करते हुए आयुर्बन्ध-सम्बन्धी अन्य कितनी ही बातोंका वर्णन सं० पञ्चसंग्रहकारने किया है । ( इसके लिए देखिए श्लो० २५८-२६०) प्रा० पञ्चसंग्रहकी गा० ४६६ में शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके स्वामियोंका वर्णन किया गया है। गाथा-पठित 'शेष' पदसे कितनी और कौन-सी प्रकृतियां प्रकृतमें ग्राह्य है, इसका भी उहापोह अमितगतिने श्लो० २९० से २९२ तक किया है, जिसकी चर्चा उक्त गाथाके विशेषार्थमें इन श्लोकोंके उद्धरणके साथ कर दी गई है। प्रा० पञ्चसंग्रहके पांचवें प्रकरणमें समुद्घातगत केवलीको अपर्याप्त मानकर नामकर्मके बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थानोंका वर्णन नहीं किया गया है। किन्तु अमितगतिने ( पृष्ठ १७९ पर ) 'उदये विशतिः' श्लोकको आदि लेकर 'प्रत्रकत्रिशतं स्थानं' श्लोक तक समुद्घातगत केवलोके सर्व उदयस्थानोंका वर्णन किया है । ( देखो, प्रकरण ५, श्लोक ५७४ से ५८३ तक ) ३. व्युत्क्रम वर्णन प्रा० पञ्चसंग्रहकारने प्रथम प्रकरणका आरम्भ करते हए जिन बीस प्ररूपणाओंके कथनकी प्रतिज्ञा की है, उनका वर्णन भी उन्होंने अपने उसी क्रमसे किया है। तदनुसार सं० पञ्चसंग्रहकारको भी इसी क्रमसे चाहिए था। गो. जीवकाण्डमें भी इसी क्रमको अपनाया गया है। किन्तु अमितगतिने ऐसा नहीं किया। उन्होंने बीस प्ररूपणाओंकी संख्या गिनाते हुए ग्रन्थके आरम्भमें (श्लो० नं० ११ में ) प्राणोंको पर्याप्तियोंसे पूर्व और संज्ञाको प्राणोंके पश्चात् न गिनाकर उपयोगके पश्चात् गिनाया और उन संज्ञाओंका वर्णन भी क्रम-प्राप्त पांचवें स्थानपर न करके अपने क्रमके अनुसार बीसवें स्थानपर किया है। इस क्रम-भंगका क्या कारण या रहस्य रहा है। वे ही जानें । प्राकृत पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणको अन्तिम (२००-२०६) सात गाथाओंमें वर्णित विषयका वर्णन भी संस्कृत पञ्चसंग्रहकारको प्रकरणके अन्तमें ही करना चाहिए था । पर उन्होंने वैसा न करके गाथाङ्क २०० का विषय श्लोकाङ्क ३२७ में, गा० २०१ का श्लो० ३०१ में, गा० २०२ का श्लो० २९४ में, गा० २०३ का श्लो० २९५ में, गा० २०४ का श्लो० २९६ में और गा० २०५ का श्लो० ३३९ में किया है। प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें लेश्याओंका समग्र वर्णन क्रम-प्राप्त लेश्या मार्गणामें न करके कितनी ही बातोंका वर्णन बीसों प्ररूपणाओंका वर्णन कर देने के बाद प्रकरणका उपसंहार करते हुए किया है। प्रा० पञ्चसंग्रहकारका यह क्रम-भङ्ग कुछ खटकता-सा है। सं० पञ्चसंग्रहकारको भी सम्भवतः यह बात खटकी और उन्होंने उक्त दोनों स्थलोंका वर्णन एक ही क्रम-प्राप्त स्थान लेश्यामार्गणाके भीतर कर दिया। अतएव मूलग्रन्थको देखते हुए यह व्युत्क्रम-वर्णन भी अमितगतिकी बुद्धिमत्ताका सूचक हो गया है। (देखो प्रा० पञ्चसंग्रह गा० १४२-१५३ तथा १८३-१९२ और सं० पञ्चसंग्रह श्लो० २५३-२८२) प्रा० पञ्चसंग्रहके इसी प्रथम प्रकरणमें कौन-सा संपम किस गुणस्थानमें या किस गुणस्थान तक होता है, इस बातका वर्णन गा० १९५ में किया गया है । अमितगतिको यह क्रम-भङ्ग भी खटका और उन्होंने इस विषयका वर्णन भी संयममार्गणामें यथास्थान ही कर दिया। प्रा० पञ्चसंग्रहके तीसरे प्रकरणकी गा० ४४ में वर्णित विषयको उदीरणा वर्णन करनेके प्रारम्भमें न कहकर अन्तमें किया है । ( देखो सं० पञ्चसंग्रह ३, ६० ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रा० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें मार्गणा, जीवसमास और गुणस्थानोंमें योग, उपयोग और प्रत्यय आदिका वर्णन जिस क्रमसे किया गया है, सं० पञ्च संग्रहकारने उस क्रममें भी कुछ परिवर्तन करके विषय का संदृष्टियोंके साथ विस्तृत गद्य भागके द्वारा वर्णन किया है। दोनोंके वर्णन क्रमका अन्तर इस प्रकार है प्राकृत पञ्चसंग्रह १ मार्गणाओंमें जीवसमास २ जीवसमासोंमें उपयोग ३ मार्गणाओंमें " ४ जीवसमासोंम योग ५ मार्गणाओं में ६ गुणस्थान 39 ७ गुणस्थान में उपयोग ८ योग प्रत्यय "1 "" ९ 33 १० मार्गणाओंमें प्रत्यय संस्कृत पञ्चसंग्रह १ मार्गणाओंमें जीवसमास २ ३ ४ "" ५ जीवसमासोंमें उपयोग योग " " ६ 31 ७ गुणस्थानोंमें उपयोग ८ गुणस्थान उपयोग योग 11 योग प्रत्यय १० मार्गणाओंमें प्रत्यय इस प्रकार पाठक देखेंगे कि प्रारम्भके छह वर्णनोंके क्रममें कुछ अन्तर है, शेष चार वर्णन समान हैं । २१ ४. स्खलन या विषयका छोड़ देना प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें मिथ्यात्व गुणस्थानका स्वरूप बतलाते हुए उसके भेदादिका भी वर्णन दो गाथाओंके द्वारा किया गया है । किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारने उसे छोड़ दिया है। इसी प्रकार प्रथम प्रकरण की गा० १२ २८-२९, १२८, १३५-१३६, १४२-१४३, १६२-१६६, १८२-१८४ और २०६ वीं गाथामें वर्णित विषयोंकी भी अमितगतिने कोई चर्चा नहीं की है । प्रा० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें गाधाङ्क ३२५ के द्वारा यह सूचना की गई है कि ओघकी अपेक्षा बतलाया गया बन्ध-प्रकृतियों का स्वामित्व आदेशकी अपेक्षा भी जान लेना चाहिए। मूलगाथाकी इस सूचना के अनुसार भाष्यगाथाकारने गा० ३२६ से लगाकर गा० ३८९ तक उक्त वर्णन किया है । पर अमितगति इतने लम्बे सारे के सारे प्रकरणको ही छोड़ दिया है, शायद उन्होंने इस स्थलपर अपने पाठकोंको इसके कथनकी आवश्यकता का ही अनुभव नहीं किया । किन्तु ग्रन्थ- समाप्ति के पश्चात् उन्हें अपनी यह बात खटकी और उन्होंने तब निम्न मंगल एवं प्रतिज्ञा - श्लोक के साथ उसकी रचना को वह श्लोक इस प्रकार हैनवा जिनेश्वरं वीरं बन्धस्वामित्वसूदनम् । वषयाम्योध विशेषाभ्यां बन्धस्वामित्वसम्भवम् ॥ १॥ (सं० पञ्चसं० पृ० २२६ ) प्रा० पञ्चसंग्रहके पाँचवें प्रकरण में गतिमार्गणाके भीतर नामकर्मके उदयस्थानोंको कहकर गा० १९१ से लेकर २०७ गाथा तक इन्द्रियादि शेष तेरह मार्गणाओं में भी नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण किया गया है । किन्तु अमितगतिने इस सर्व वर्णनको छोड़ दिया है । सम्भवतः सुगम होनेसे उन्होंने यह वर्णन अनावश्यक समझा । इसी प्रकरण में गा० ४३२ से लगाकर ४७१ तककी गाथाओंके विषयको भी कोई वर्णन नहीं किया है, केवल निम्नलिखित एक लोक द्वारा उसे आगमानुसार जान लेनेकी सूचना भर कर दी है। यह श्लोक इस प्रकार है Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पञ्चसंग्रह सर्वासु मार्गणास्वेवं सत्संख्याद्यष्टकेऽपि च । बन्धादित्रितयं नाम्नो योजनीयं यथागमम् ।। (सं० पश्चसं० ५,३७) इसी पांचवें प्रकरणके अन्त में गा० ५०१ से लगाकर ५०४ तककी जो चार मूलगाथाएँ हैं, उनका वर्णन भी सं० पञ्चसंग्रहकारने नहीं किया है। ५. शैली-भेद प्रा० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें गाथाङ्क १०५ से लगाकर गा० २०३ तक जो गुणस्थानोंमें बन्धप्रत्ययोंके भङ्गोंका वर्णन किया गया है, उसका अधिकांश वर्णन गद्य या पद्यमें न करके अमितगतिने अङ्कसंदृष्टियोंके द्वारा ही प्रकट किया है। ( इसके लिए देखिए-सं० पञ्चसंग्रहके पृ० ९२ से ११० तक दी गई संदृष्टियाँ ।) ६. कुछ विशिष्ट ग्रन्थ या ग्रन्थकारादिके उल्लेख अमितगतिने सं० पञ्चसंग्रहमें कुछ श्लोक 'अपरेऽप्येवमाहुः' इत्यादि कहकर उद्धृत किये हैं; जिनसे ज्ञात होता है कि उनके सामने संस्कृत भाषामें रचित कोई कर्म-विषयक ग्रन्थ रहा है। ऐसे कुछ उल्लेखोंका निर्देश यहाँ किया जाता है१. तीसरे प्रकरणमें पांचवें श्लोकके पश्चात् 'तदुक्तम्' कहकर निम्न श्लोक दिया है परस्परं प्रदेशानां प्रवेशो जीव-कर्मणोः । एकत्वकारको बन्धो रुक्म-काञ्चनयोरिव ॥६॥ मेरे उपर्युक्त अनुमानकी पुष्टि खास तौरसे इस श्लोकसे होती है। क्योंकि इसी अर्थका प्रतिपादन करनेवाली गाथा प्रा० पञ्चसंग्रहके इसी तीसरे प्रकरणमें दूसरे नम्बरपर इस प्रकार पाई जाती है कंचण-रुप्पदवाणं एयत्तं जेम अणुपवेसो नि। अण्णोण्णपवेसाणं तह बन्धं जीव-कम्माणं ॥२॥ २. चौथे प्रकरणमें बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करने के पश्चात् अमितगति लिखते हैं "इति प्रधानप्रत्ययनिर्देशः । अपरेऽप्येवमाहुः-और इसके पश्चात् ३२२ से ३२५ तकके निम्न चार श्लोक दिये हैं मिथ्यात्वस्योदये यान्ति षोडश प्रथमे गुणे । संयोजनोदये बन्धं सासने पञ्चविंशतिः ॥ कपायाणां द्वितीयानामुदये नियंते दश । स्वीक्रियन्ते तृतीयानां चतस्रो देशसंयते ॥ सयोगे योगतः सातं शेषः स्वे स्वे गुणे पुनः। विमुच्याहारकद्वन्द्वतीर्थकृत्वे कषायतः ॥ षष्ठिः पञ्चाधिका बन्धं प्रकृतीनां प्रपद्यते । ३. पाँचवें प्रकरणमें प० २२२ पर उपशमश्रेणीमें नोकषायोंके उपशमनका प्ररूपण करते हुए 'शान्तः पतः' इस तिरपनवें श्लोकके पश्चात् 'उक्तं च' कहकर निम्न-लिखित दो श्लोक पाये जाते है पार्यते नोदयो दातुं यत्सत् शान्तं निगद्यते । संक्रमोदययोर्या तनिधत्तं मनीषिभिः ॥५४॥ शक्यते संक्रमे पाके यदुत्कर्षापकर्पयोः । चतुपु कर्म नो दातुं भण्यते तनिकाचितम् ॥५५॥ इन श्लोकोंमें उपशम, निधत्ति और निकाचित करणका स्वरूप बतलाया गया है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दोनों प्राकृत पञ्चसंग्रहोंमें प्राचीन कौन ? दि० और श्वे० प्राकृत पञ्चसंग्रहमेंसे प्राचीन कौन है, यह एक प्रश्न दोनोंके सामने आनेपर उपस्थित होता है । इस प्रश्नके पूर्व हमें दोनोंके पांचों अधिकारोंके नाम जानना आवश्यक है। दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके पाँच प्रकरण इस प्रकार हैं १-जीवसमास, २-प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३-बन्धस्तव, ४-शतक और ५-सप्ततिका । श्वे० प्रा० पञ्चसंग्रहके ५ संग्रह या प्रकरणोंके बारेमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं ग्रन्थकार ही किसी एक निश्चयपर नहीं है और इसीलिए वे ग्रन्थ प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं: सयगाई पंच गंथा जहारिहं जेण एत्थ संखित्ता । दाराणि पंच अहवा तेण जहस्थाभिहाणमिणं ॥२॥ इस गाथाका भाव यह है कि यतः इस ग्रन्थमें शतक आदि पाँच प्राचीन ग्रन्थ यथास्थान यथायोग्य संक्षेप करके संगृहीत हैं, इसलिए इसका ‘पञ्चसंग्रह' यह नाम सार्थक है। अथवा इसमें बन्धक आदि पाँच द्वार वर्णन किये गये हैं । इसलिए इसका 'पञ्चसंग्रह' यह नाम सार्थक है। ग्रन्थकारके कथनानुसार दोनों प्रकारके वे पाँच प्रकरण इस प्रकार हैंप्रथम प्रकार द्वितीय प्रकार १.-शतक १-बन्धक द्वार २-सप्ततिका २-बन्धव्य द्वार ३-कषायप्राभूत ३--बन्धहेतु द्वार ४--सत्कर्मप्राभृत ४-बन्धविधि द्वार ५-कर्मप्रकृति ५-बन्धलक्षण द्वार दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके जिन पाँच प्रकरणोंके नाम ऊपर बतलाये हैं उनके साथ जब हम श्वे० पञ्चसंग्रहोक्त पाँचों ऑधकारोंका ऊपरी तौरपर या मोटे रूपसे मिलान करते हैं तो शतक और सप्ततिका यह दो नाम तो ज्यों-के-त्यों मिलते हैं। शेष तीन नहीं। किन्तु जब हम वणित-अर्थ या विषयको दृष्टिसे उनका गहराईसे मिलान करते हैं तो दिगम्बरोंका जीवसमास श्वेताम्बरोंका बन्धक द्वार है और दिगम्बरीका प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार श्वेताम्बरोंका बन्धव्यद्वार है। इस प्रकार दो और द्वारोंका समन्वय या मिलान हो जाता है। केवल एक द्वार 'बन्धलक्षण' शेष रहता है। सो उसका स्थान दिगम्बरोंका 'बन्धस्तव' ले लेता है। इस प्रकार दोनोंके भीतर एकरूपता स्थापित हो जाती है। दोनों प्रा० पञ्चसंग्रहोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके भीतर यतः संग्रहकारने अपनेसे पूर्व परम्परागत पाँच प्रकरणोंका संग्रह किया है और यद्यपि उनपर भाष्य गाथाएँ स्वतन्त्र रूपसे रची हैं तथापि पर्वाचार्योंकी कृतिको प्रसिद्ध रखने और स्वयं प्रसिद्धिके व्यामोहमें न पड़ने के कारण उनके नाम ज्यों-के-त्यों रख दिये हैं। दि० प्रा० पञ्चसंग्रहकारने प्रत्येक प्रकरणके प्रारम्भमें मंगलाचरण किया है । यहाँतक कि जहाँ सारा प्रकृतिसमुत्कोर्तनाधिकार गद्य रूपमें है वहाँ भी उन्होंने पद्यमें ही मंगलाचरण किया है। पर श्वे० पञ्चसंग्रहकार चन्द्रषिने ऐसा नहीं किया। इसका कारण क्या रहा, यह वे ही जानें। पर दोनोंके मिलानसे एक बात तो सहजमें ही हृदयपर अंकित होती है वह है दि० प्रा० पञ्चसंग्रहके प्राचीनत्वकी। दि० पञ्चसंग्रहकारने श्वे० पञ्चसंग्रइकारके समान ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की है कि मैं पञ्चसंग्रहकी रचना करता हूँ, जब कि चन्द्रषिने मंगलाचरणके उत्तरार्धमें ही 'वोच्छामि पंचसंगह' कहकर पञ्चसंग्रहके कथनकी प्रतिज्ञा की है। इस एक ही बातसे यह सिद्ध है कि उनके सामने दि० प्रा० पञ्चसंग्रह विद्यमान था और उसमें भी प्रायः वे ही शतक, सित्तरी आदि प्राचीन ग्रन्थ संग्रहीत थे जिनका कि संग्रह चन्द्रपिने किया है । पर दि० पञ्चसंग्रहकी कितनी ही बातोंको वे अपनी श्वे. मान्यताके विरुद्ध देखते थे और इस कारण उससे वे सन्तुष्ट नहीं थे। फलस्वरूप उन्हें एक स्वतन्त्र पञ्चसंग्रह रचनेकी प्रेरणा प्राप्त हुई और Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पश्चसंग्रह मतभेदवाले मन्तव्योंको श्वेताम्बर आगमानुमोदित या स्वगुरु-प्रतिपादित ढंगसे उन्हें यथास्थान निबद्ध करते हुए एक स्वतन्त्र पञ्चसंग्रह निर्माण किया। चन्द्रपिने जिन शतक आदि पाँच प्राचीन ग्रन्थोंको अपने पञ्चसंग्रहमें यथास्थान संक्षेपसे निबद्ध कर संगृहीत किया है उनमेंसे सौभाग्यसे चार प्रकरण स्वतन्त्र रूपसे आज हमारे सामने विद्यमान हैं और वे चारों ही अपनी टीका-णि आदिके साथ प्रकाशित हो चुके हैं। उनमेंसे कषायपाहड दिगम्बरोंकी : कर्मप्रकृति श्वेताम्बरोंकी ओरसे प्रकाशमें आये हैं, और दोनों सम्प्रदाय एक-एकको अपने-अपने सम्प्रदायका ग्रन्थ समझते हैं । शतक और सप्ततिका दोनों सम्प्रदायोंके भण्डारोंमें मिली हैं और दोनों ही सम्प्रदायोंके आचार्योने उनके विवादग्रस्त विषयोंका अपनी-अपनी मान्यताओंके अनुसार मूल पाठ रखकर चणि, टीका और भाष्य गाथाओंसे उन्हें समृद्ध किया है। केवल एक सत्कर्मप्राभूत ही ऐसा शेष रहता है जिसकी स्वतन्त्र रचना अभीतक भी प्राप्त नहीं हुई है। श्वे० परम्परामें तो इसका केवल नाम ही उपलब्ध है। किन्तु दि० परम्पराके प्रसिद्ध ग्रन्थ षट्खण्डागमकी धवला टीकामें अनेक बार 'संतकम्मपाहुड'का उल्लेख आया है और उसके अनेकों उद्धरण भी मिलते हैं। श्वे० प्रा० पञ्चसंग्रहके कर्ता चन्द्रषि और धवला टीकाके कर्ता वीरसेनके सम्मख यह सत्कर्मप्राभृत था। यह बात दोनोंके उल्लेखोंसे भलीभांति सिद्ध है। दूसरी बात जो सबसे अधिक विचारणीय है वह है शतकादि प्राचीन ग्रन्थोंके संक्षेपीकरण की। जब हम शतक आदि प्राचीन ग्रन्थोंकी गाथा-संख्याको सामने रखकर श्वे० पञ्चसंग्रहके उक्त प्रकरणकी गाथासंख्याका मिलान करते हैं तो संक्षेपीकरणकी कोई भी बात सिद्ध नहीं होती। यह बात नीचे दी जानेवाली तालिकासे स्पष्ट है:दि० प्राचीन शतक गाथा १०० श्वे० पञ्चसंग्रह शतक और सप्ततिका प्राचीन सप्ततिका गाथा ७० सम्मिलित गाथा-संख्या १५६ १७० परिशिष्ट गाथा १६७ प्राचीन शतक और सप्ततिकाकी गाथाओंका योग १७० होता है। श्वे० पञ्चसंग्रहमें दोनों प्रकरणोंको सम्मिलित रूपमें ही रचा गया है। पृथक्-पृथक् नहीं। तो भी उनकी गाथा-संख्या मय परिशिष्टके १६७ होती है। इस प्रकार कुल तीन गाथाओंका संक्षेपीकरण प्राप्त होता है। यहाँ इन गाथाओंके संक्षेपीकरणमें यह बात भी खास तौरसे ध्यान देनेके योग्य है कि प्राचीन शतक आदि ग्रन्थोंमें मंगलाचरण एवं अन्तिम उपसंहार आदि पाया जाता है। तब चन्द्रर्षिने वह कुछ भी नहीं किया। शतक प्रकरणमें ऐसी मंगलादिको प्रारम्भिक गाथाएँ दो हैं और उपसंहारात्मक गाथाएँ तीन हैं। इसी प्रकार सप्ततिकामें भी प्रारम्भिक गाथा एक और उपसंहारात्मक गाथाएँ तीन हैं। इन पांच और चार-९ गाथाओंको छोड़ देना ही संक्षेपीकरण माना जाय तो बात दूसरी है। अब लीजिए प्राचीन कम्मपयडी ( कर्मप्रकृति ) के संक्षेपीकरणकी बात । सो उसकी भी जाँच कर लीजिए। दोनोंके प्रकरणोंकी गाथा-संख्या इस प्रकार है :प्राचीन कर्मप्रकृति गाथा-संख्या श्वे० पञ्चसंग्रहान्तर्गत कर्मप्रकृति, गाथा-संख्या बन्धनकरण १०२ ११२ संक्रमकरण १११ ११९ उद्वर्तना० १० उदीरणा० ८९ उपशमना० निधत्ति ३८६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस मिलानसे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि प्राचीन कर्मप्रकृतिके किसी भी प्रकरणकी गाथाओंका संक्षेपीकरण नहीं हुआ है, प्रत्युत वृद्धिकरण ही हुआ है। यहाँ यह बात खास तौरसे विचारणीय है कि जब प्राचीन कर्मप्रकृति में उदय और सत्ता नामके दो अधिकार पृथक् पाये जाते हैं और जिनके कि गाथा संख्या ३२ और ५७ है, उन्हें श्वे० पञ्चसंग्रहकारने क्यों छोड़ दिया ? यदि इन दोनों समूचे प्रकरणोंको छोड़ देना ही उनका संक्षेपीकरण माना जाय तो बात दूसरी है । श्वे० पञ्चसंग्रहके अधिकारोंकी स्थिति भी बडी विलक्षण है। ग्रन्थकारने ग्रन्थके प्रारम्भमें जैसी प्रतिज्ञा को है उसके अनुसार शतक आदि प्राचीन पाँच ग्रन्थोंके संक्षेपीकरणवाले पाँच ही अधिकार स्पष्ट या पृथक रूपसे इस पञ्चसंग्रहमें होने चाहिए थे। सो उनमेंसे केवल दो ही अधिकार मिलते हैं-एक कर्मप्रकृतिसंग्रहके नामसे और दूसरा सप्ततिका संग्रहके नामसे। जिनका इस प्रकार विश्लेषण किया जा सकता है कि कर्मप्रकृति संग्रहमें कर्मप्रकृतिके अतिरिक्त कषायप्राभूत और सत्कर्मप्राभृतका भी संक्षेपीकरण कर लिया गया है और सप्ततिका-संग्रहमें सप्ततिका और शतकका संक्षेप किया गया है। परन्तु सप्ततिका-संग्रहमें दोनों ग्रन्थोंका संक्षेप कोई अर्थ नहीं रखता, क्योंकि ऊपर बतलाया जा चुका है कि मूल रूपसे मात्र तीन गाथाओंका ही अन्तर है । इस प्रकार शतक एवं सप्ततिकाके दो प्रकरणोंके स्वतन्त्र दो अधिकार न बना कर एकमें संग्रह करना कोई खास महत्त्व नहीं रखता है। रह जाती है कर्मप्रकृति-संग्रहमें कषायप्राभृत आदि प्राचीन तीन ग्रन्थोंके संक्षेपीकरणकी बात। सो ग्रन्थके प्रारम्भमें की गयी प्रतिज्ञाके अनुसार उत्तम तो यही होता कि ग्रन्थकार कर्मप्रकृति, कषायप्राभूत और सत्कर्मप्राभूतके संक्षेप करनेवाले तीन ही प्रकरण पृथक् निर्माण करते और सप्ततिका शतकवाले दो प्रकरण स्वतन्त्र रचते । तो इन पांच ग्रन्थोंके संक्षेपीकरणके रूपसे 'पंचसंग्रह' यह नाम सार्थक होता । जैसा कि दि० पंचसंग्रहकारने किया है कि प्राचीन पाँच ग्रन्थोंको संग्रह करके और उनके कठिन या संक्षिप्त स्थलोंके स्पष्टीकरणार्थ भाष्य-गाथाएँ रचकर प्राचीन नामोंको ही अधिकारोंका नाम देकर 'पंच संग्रह' नामको चरितार्थ किया है और स्वयं अपने नाम-ख्यातिके प्रलोभनसे इतने दूर रहे हैं कि कहीं भी उन्होंने अपने नामका उल्लेख करना तो दूर रहा, संकेत तक भी नहीं किया है । अस्तु । थोड़ी देरके लिए उक्त पांच ग्रन्थोंका संग्रह दो ही प्रकरणोंमें मानकर सन्तोष कर लिया जाय और ग्रन्थकारकी इच्छाको ही प्रधानता दे दी जाय, पर यह जाँच करना तो शेष ही रह जाता है कि कर्मप्रकृति आदि तीन ग्रन्थोंका उन्होंने कर्मप्रकृति-संग्रहमें क्या संक्षेपीकरण किया। जहाँ तक कर्मप्रकृतिके प्रकरणोंका है हम ऊपर बतला आये हैं कि वह कुछ महत्त्व नहीं रखता। रह जाती है कर्मप्रकृतिवाले संग्रहमें कषायप्राभूत और सत्कर्मप्राभतके संक्षेपीकरणकी बात । सो जाँच करनेपर वैसा कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। दुर्भाग्यसे आज हमारे सामने सत्कर्मप्राभूत-जैसा कि आचार्योंके उल्लेखों आदिसे सिद्ध होता है-मूल गाथाओंके रूपमें उपस्थित नहीं है। या यह कहना अधिक उचित होगा कि उपलब्ध नहीं है। इसलिए उसके विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता कि चन्द्रषिने अपने पञ्चसंग्रहमें उसका क्या कितना संक्षेपीकरण किया है। पर सौभाग्यसे कषायप्राभृत आज उपलब्ध ही नहीं, अपितु मूल रूप में अपनी चूर्णि और उसकी टीका अनुवाद आदिके साथ प्रकाशित भी हो चुका है। उसको सामने रखकर जब हम पंचसंग्रहके इस कर्मप्रकृति-संग्रहवाले प्रकरणकी छानबीन करते हैं तो संक्षेपीकरणके नामपर हमें निराश ही होना पड़ता है। __ यहाँ एक विशेष बात यह ज्ञातव्य है कि जहाँ दि० पञ्चरांग्रहमें पूर्व-परम्परागत प्रकरणोंकी गाथाओंको संकलित करके उनके दुरूह अर्थवाली संक्षिप्त गाथाओंके ऊपर ही अपनी भाष्य-गाथाएँ रची है, वहाँ चन्द्रषिने स्वतन्त्र रूपसे गाथाओंकी रचना करके अपने पञ्चसंग्रहका निर्माण किया है। दि० के० पञ्चसंग्रहोंके ऊपर एक दण्टि डालनेपर राहजमें ही जो छाप हृदयपर अंकित होती है वह उनके सरल और कठिन रचे जानेकी । दि० पञ्चसंग्रहकी रनना जितनी सरल, सुस्पष्ट और सुगम है, वे० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पञ्चसंग्रहकी रचना उतनी ही क्लिष्ट, कठिन और दुर्गम है। जिन्होंने प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थोंकी रचनाओंका मौलिक रूपसे गहराईके साथ अध्ययन किया है वे इस बातसे सहमत हैं, कि सर्वप्रथम जिन ग्रन्थोंकी रचना की गयी वह अत्यन्त सरल शैलीकी रही है। पीछे-पीछे उनमें प्रौढ़ता एवं दुर्गमता आई है। इस विषयमें कुछ ग्रन्थ अपवाद भी हैं, पर उनका उद्देश्य दूसरा था। कसायपाहुड़, सप्ततिका आदि जैसे प्रकरणोंकी रचना सर्वसाधारणको दृष्टि में रखकर नहीं की गयी है। प्रत्युत उच्चारणाचार्य या व्याख्यानाचार्योको दृष्टिमें रखकर की गयी है। दूसरे ये ग्रन्थ उस विस्तीर्ण पूर्व साहित्यके संक्षिप्त बिन्दु रूपमें रचे गये हैं जिसे कि 'श्रुतसागर' कहा जाता है। अतः कसायपाहुड़ आदि जैसे ग्रन्थ वस्तुतः एक संकेतात्मक बीजपद रूपसे रचे गये ऐसे ग्रन्थ हैं जिन्हें आचार्य अपने प्रधान शिष्योंको पढ़ाकर और कण्ठस्थ कराकर उस पर उनके द्वारा सूचित या उनमें निबद्ध या निहित रहस्यका व्याख्यान देकर अपने शिष्योंको उनका यथार्थ अर्थबोध कराते थे। ये ग्रन्थ अभ्यासियों एवं जिज्ञासुओंके लिए एक प्रकारके नोट्स थे, जिनके आधारपर वे गुरु-प्रदत्त ज्ञानका अवधारण कर लेते थे। इसलिए इस प्रकारके ग्रन्थोंको छोड़कर सर्वसाधारणके लिए जो रचनाएँ हमारे महषिगण करते रहे हैं वे अत्यन्त सरल भाषामें रची गयी हैं। इसे हम इस प्रकार भी विभाजन करके कह सकते हैं कि उस कालमें दो प्रकारकी रचना-शैलियाँ रही हैं। एक सूत्र-शैली, दूसरी भाष्य-शैली। कसायपाहुड़, संतकम्मपाहुड़, सित्तरी आदि सूत्र-शैलीकी रचनाएँ हैं। इनके अर्थका मौखिक अवधारण जब असम्भवसा दिखने लगा तब मौखिक भाष्य-शैलीके स्थानपर लेखन रूप भाष्य-शैली प्रतिष्टित हई। उस समय उन सूत्ररूप मूल गाथाओंपर भाष्य-गाथाओंकी रचना की गयी। जब उतनेसे काम चलता दिखाई नहीं दिया, तब उनपर चणियोंके लिखे जानेका क्रम अपनाया गया। यह बात हमें कसायपाहुड़, सित्तरी आदिको मूल-गाथाओं, भाष्य-गाथाओं और उनपर लिखी गयी चूणियों आदिके देखनेसे सहजमें ही समझमें आ जाती है। श्वे० पञ्चसंग्रहको रचना करते हुए चन्द्रषिके सम्मुख कम्मपयडी, कसायपाहुड़, संतकम्मपाहुड़, सतक और सित्तरी आदि ग्रन्थ तो थे ही, पर दि० प्रा० पञ्चसंग्रह भी था और उसके नामके आधारपर ही उन्होंने अपने ग्रन्थका पञ्चसंग्रह-यह नाम रखा। साथ ही यह प्रयत्न भी किया कि दि० पञ्चसंग्रहमें जो ग्रन्थ संग्रह करनेसे रह गये हैं उन सबका भी संग्रह इस नवीन रचे जानेवाले संग्रहमें कर दिया जाय । फलस्वरूप उन्होंने उन सबका संग्रह अपने पञ्चसंग्रहमें करना चाहा। पर उनके इस पञ्चसंग्रहमें उनके ही शब्दोंके अनुसार संग्रह तो नहीं हुआ है, हाँ, संक्षेपीकरण कहा जा सकता है। और प्रकरण-विभाजनको दृष्टिसे हम उसे पञ्चसंग्रह न कहकर सप्त-संग्रह या अष्ट-संग्रह जरूर कह सकते हैं । अन्यथा उन्हें चाहिए यह था कि जैसे बन्धक आदि पाँच द्वारोंका स्वतन्त्र निर्माण कर "दाराणि पंच अहवा" रूप प्रतिज्ञाका निर्वाह किया है उसी प्रकार सतक, सित्तरी, संतकम्मपाहुड़, कम्मपयडी और कसायपाहुड़, इन पाँचों ग्रन्थोंके संग्रह या संक्षेपीकरण रूपसे पाँच ही संग्रह स्वतन्त्र बनाने थे और तभी ग्रन्थारम्भकी पहली और दूसरी गाथामें की हुई प्रतिज्ञाका भली-भाँति निहि हो जाता। पर उन्होंने ऐसा न करके ऊपर बतलाये गये क्रमानुसार सात ही प्रकरण या द्वार रूपमें अपने पञ्चसंग्रहकी रचना की । ऐसा उन्होंने क्यों किया और संग्रह-संख्याकी विसंगति क्यों की, यह एक ऐसा प्रश्न है, जो कि ग्रन्थके किसी भी गहरे अभ्यासी और अन्वेषकके हृदयमें उठे विना नहीं रहता और सम्भवतः यही या इसी प्रकारका प्रश्न स्वयं चन्द्रषिके भी मनमें उठा है और उसका उन्होंने यह लिखकर स्वयंका और शंकालुओंका समाधान किया है कि ग्रन्थकर्ता अपनी रचना किस ढंगसे करे या कौन-सी बात पहले और कौन-सी पीछे कहे इसके लिए वह स्वतन्त्र होता है। स्वयं ग्रन्थकार ग्रन्थारम्भकी तीसरी गाथाको स्वोपज्ञवृत्तिमें शंका उठाते हुए कहते हैं: "अम्र कश्चिदाह-कोऽयं द्वारोपन्यासे क्रमः ? यतः कर्तुरधीनत्वात् सर्वासां क्रियाणां" । इत्यादि आश्चर्यकी बात तो यह है कि यदि प्रतिज्ञात पांच द्वारों में किसी द्वारको आगेगीछे को तब तो ग्रन्थाकारकी इच्छाको प्रधानता दी जा सकती थी, पर वैसा न करके ग्रन्थकारने प्रतिज्ञात पाँचोंबारोंमेंसे कोई Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भी द्वार पहले न कहकर योगोपयोग नामक एक और ही नये द्वारकी कल्पना ही नहीं की, सृष्टि भी कर डाली और उसकी पुष्टिमें इसी पहले द्वारकी तीसरी गाथाकी स्वोपज्ञ वृत्तिमें लिखा है, “यतः बन्धक जीवका परिज्ञान योग, उपयोगको जाने विना नहीं हो सकता, अतः उनका वर्णन पहले किया जाता है। इससे भी अधिक लक्ष्य देने की बात और देखिए-प्रतिज्ञात प्रथम द्वारको रचनामें दूसरा, प्रतिज्ञात द्वितीय द्वारको रचनामें तीसरा, प्रतिज्ञात तृतीय द्वारको रचनामें चौथा और प्रतिज्ञात चतुर्थ द्वारको रचनामें पांचवां स्थान देकर कर्मप्रकृति और सप्ततिका संग्रह वाले दो नये ही द्वार बनाये। प्रतिज्ञात 'बन्धलक्षणद्वार' कहाँ गया ? यदि कहा जाये कि इसका समावेश कर्मप्रकृति और सप्ततिका-संग्रहमें कर दिया गया है तो भी यह बात विचारणीय रहती है कि उन दो संग्रहोंको पृथक्-पृथक क्यों रचा ? एक हीमें क्यों नहीं रचा जिससे कि ग्रन्थके पाँच ही द्वार बने रहते ।। इस सब स्थितिको देखते हुए कोई भी पाठक निस्संकोच इस निष्कर्षपर पहुँचेगा कि वास्तवमें ग्रन्थकार चन्द्रपि अपने संग्रहके नामकरणमें अटपटा गये हैं। किये गये विभागोंके अनुसार उन्हें पट्संग्रह या सप्तसंग्रह आदि किसी अन्य ही नामको रखना था। अथवा वे अधिकारोंका विभाजन ठीक तौरसे नहीं कर सके। यदि ऐसा नहीं है तो मैं पूछता हूँ कि जब शतक और सप्ततिका यह दो ग्रन्थ स्वतन्त्र थे और दोनोंका विषय भी चौथे और पांचवें द्वारके रूप में भिन्न-भिन्न था तो फिर दोनोंका एक ही अधिकार में संग्रह क्यों किया गया ? इस प्रकार बहुत छानबीन और ऊहापोह करने पर भी हम किसी समुचित समाधानपर नहीं पहुँच सके। यदि अन्य कोई विद्वान् मेरे प्रश्नका समुचित समाधान करेंगे, तो मैं उनका आभारी होऊँगा । दि० श्वे० पञ्चसंग्रह-गत कुछ विशिष्ट मत-भेद दि० पञ्चसंग्रह और चन्द्रषि महत्तरके पञ्चसंग्रहमें जो मत-भेद है उनमेसे कुछको तालिका इस प्रकार है: १-दि० ग्रन्थकारोंने देवायु और नारकायुकी जघन्य स्थिति १० हजार वर्षको और तीर्थकरप्रकृतिकी अन्तःकोटाकोटि सागरोपमकी बतलाई है। किन्तु चन्द्रषिने तीर्थकरप्रकृतिको उक्त स्थिति-सम्बन्धी मान्यताके विरुद्ध अपने पञ्चसंग्रहमें लिखा है सुर-नारयाऊआणं दसवाससहस्स लघु सतित्थाणं । (५,४६) अर्थात् देव और नारकायुके समान वे तीर्थकर प्रकृतिको भी जघन्य स्थिति १० हजार वर्षकी बतलाते है । ग्रन्थकारकी इस मान्यतापर संस्कृत टीकाकार मलयगिरि आपत्ति करते हुए लिखते हैं-"इह सूत्रकृता कस्याप्याचार्यस्य मतान्तरेण तीर्थकरनाम्नो दशवर्षसहस्रप्रमाणा जघन्या स्थितिरुक्ता, अन्यथा कर्मप्रकृत्यादिपु जघन्या स्थितिस्तीर्थकरनाम्नोऽन्तःसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणवोच्यते-केवलमुत्कृष्टान्तःसागरोपमकोटीकोट्याः सा संख्येयगुणहीना द्रष्टव्या । तथा चोक्तं कर्मप्रकृतिचूणौँ- “आहारग-तित्थयरनामाणं उक्कोसो ठिइबंधो अंतोकोडाकोडी भणिो। तओ उक्कोसाओ ठिइबंधामो जहन्नओ ठिइबंधो संखेजगुणहीणो, सो वि जहन्नओ अंतोकोडाकोडी चेव ।" शतकचूर्णावप्युक्तं-आहारगसरीर-आहारगअंगोवंग-तित्थयरणामाणं जहण्णो ठिइबंधो अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ, अंतोमुत्तमाबाहा, उक्कोसाओ संखेजगुणहीणो जहण्णो ठिइबंधो त्ति ।। (पञ्चसंग्रह स्वो वृ० पृष्ठ २२५४१) २-इसी प्रकार श्वे० पञ्चसंग्रहकारने आहारक-द्विकको जघन्य स्थिति भी कर्मप्रकृति आदि प्राचीन कर्मग्रन्थोंसे भिन्न बतलाई है। यथा "आहारग विग्यावरणाणं किंचूणं।” (५, ४७) स्वयं ही इसकी व्याख्या करते हए ग्रन्थकार लिखते है-"भाहारकशरीरं तदंगोपांगं विघ्नं पंचप्रकारमन्तरायं आवरणं पंचप्रकारं ज्ञानावरणं तत्सहचरितं दर्शनावरणचतुष्कमेतासां पोडशानां प्रकृतीनां किञ्चिदनं मुहत जघन्या स्थितिः, इति गाथार्थः।" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पञ्चसंग्रह __ अर्थात ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके समान आहारकशरीर और आहारकअंगोपांगकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त होती है। चन्द्रषिके इस कथनपर आपत्ति करते हुए मलयगिरि लिखते हैं-"अत्राप्याहारकद्विकस्य जघन्या स्थितिरन्तमुहूर्तप्रमाणोक्ता मतान्तरेण, अन्यथा सान्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा द्रष्टव्या, कर्मप्रकृत्यादिषु तथाभिधानात् ।” यतः मलयगिरि कर्मप्रकृतिके भी टीकाकार हैं और अन्य कर्मग्रन्थकारोंके मतोंसे भी परिचित हैं। अतः मूल पञ्चसंग्रहकारके मतके विरुद्ध होते हुए भी 'मतान्तरेण' कहकर उनकी रक्षाका प्रयत्न कर रहे हैं । जब कि मूलमें मतान्तरका कोई संकेत नहीं है। ३-निद्रादिपञ्चककी जघन्य स्थिति भी श्वे० पञ्चसंग्रहकारने पूर्ववर्ती कार्मिक ग्रन्थोंसे भिन्न ही बतलाई है। यथा "सेसाणुक्कोसायो मिच्छत्तठिइए जं लद्धं ।' (५, ४८) इसको वे स्वयं व्याख्या करते हैं शेषाणां शेषप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धात् मिथ्यात्वोत्कृष्टस्थित्या यल्लब्धं सा जघन्या स्थितिरिति । एवं च निद्रापञ्चके त्रयः सप्त भागाः ७।३-इत्यादि। (श्वे० पञ्चसंग्रह पृ० २२६।१) इस कथनपर आपत्ति करते हुए मलयगिरि कहते हैं इदं च किल निद्रापञ्चकादारम्य सर्वासां प्रकृतीनां जघन्यस्थितिपरिमाणमाचार्येण मतान्तरमधिकृत्योक्तमवसेयं, कर्मप्रकृत्यादावन्यथा तस्याभिधानात् । कर्मप्रकृतौ तु वग्गुक्कोस ठिईणं मिच्छत्तक्कोसगेण लहूं । सेसाणं तु जहन्नो पल्लासंखेजगेणूणो ॥ सागरोपमस्य त्रयः सप्तभागाः, ते पल्यासंख्येयभागहीना निद्रापञ्चकासातवेदनीययोजघन्या स्थितिः। ४--द्वीन्द्रियादि जीवोंकी उत्कृष्ट स्थितिके विषयमें श्वे० पञ्चसंग्रहकार कर्मप्रकृति आदिकी पुरानी मान्यतासे विरुद्ध निरूपण करते हैं पणवीसा पन्नासा सय दससयताडिया इगिदिठिई । विगलासपणीण कमा जायइ जेट्ठोव इयरा वा ॥ (४, ५५) अर्थात् एकेन्द्रियोंके जघन्य या उत्कृष्ट स्थितिबन्धको २५,५०,१०० और १००० से गुणित करनेपर क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। पर उसकी यह मान्यता पुरातन कार्मिकोंके विरुद्ध है। इसलिए मलयगिरिको भी उक्त गाथाका अर्थ करते हुए लिखना पड़ा कर्मप्रकृतिकारादयः पुनरेवमाह:-एकेन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः पञ्चविंशत्या गुणितो द्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो भवति । पञ्चशता गुणितस्त्रीन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः, शतेन गुणितश्चतुरिन्द्रियाणां, सहस्रण गुणितोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम् । एष एवानन्तरोक्तद्वीन्द्रियादीनामात्मीय-आत्मीय उत्कृष्टस्थितिबन्धः पत्योपमसंख्येयभागहीनो जघन्यः स्थितिबन्धो वेदितव्य इति । तत्वं पुनरतिशयज्ञानिनो विदन्ति ।" (पृष्ठ २३१२) ५---श्वे० पञ्चसंग्रहके चतुर्थ द्वारकी १८वीं गाथाको स्वोपज्ञवृत्तिमें चतुरिन्द्रियादि-जोवोंके बन्ध-हेतओंका प्रतिपादन करते हुए चन्द्रपिने तीनों वेद बतलाये हैं। किन्तु यह बात कर्मप्रकृति एवं दि० कर्मग्रन्थोंके विरुद्ध है । अतः मलयगिरि इस सम्बन्धमें लिखते हैं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ૨૬ "इह संज्ञिपश्चेन्द्रियव्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वेऽपि संसारिणो जीवाः परमार्थतो नपुंसकाः। केवलमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः स्त्री-पुंल्लिङ्गाकारमात्रमधिकृत्य स्त्रीवेदे [ पुरुषवेदे] च प्राप्यन्ते, इति तत्र यो वेदाः परिगृहीताः । चतुरिन्द्रियादीनां पुनर्याशस्त्रीपुंल्लिङ्गाकारमात्रमपि न विद्यते, तत इह नपुंसकवेद एव द्रष्टव्यः ।" (श्वे. पञ्चसं० वृ० पृ० १८३२) इन सब उल्लेखोंको देखते हए यह सम्भव है कि चन्द्रषि महत्तरने अपनी इन मान्यताओंको प्रतिष्ठित करनेके लिए ही स्वतन्त्र रूपसे अपने पञ्चसंग्रहकी रचना की और मूलमें जिन बातोंका निर्देश नहीं किया जा सका उनके स्पष्टीकरणार्थ उसपर उन्होंने स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी। प्राकृत पञ्चसंग्रहके कुछ महत्त्वपूर्ण पाठ सम्यग्दृष्टि जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न नहीं होता, इस प्रश्नके उत्तरमें एक ही गाथाके तीन रूप तीन ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं । यथा १-छसु हेहिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्व-इत्थीसु। वारस मिच्छावादे सम्माइटिस्स गस्थि उव्वादो ॥ (प्रा० पञ्चसंग्रह १, १९३) २-छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव-इत्थीम् । णेदेसु समुप्पजइ सम्माइट्ठी दु जो जीतो ॥ (धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०६) ३-हेहिमछप्पुढवाणं जोइसि-वण-भवण-सव्व-इयाणं । पुण्णिदरे ण हि सम्मो, ण सासणो णारयापुण्ण ॥ (गो० जीव गाथा १२७) उक्त तीनों ही गाथाओंमें पूर्वार्द्धके प्रायः एक रहते हुए भी उत्तरार्धमें पाठ-भेद है। जिनमेंसे संख्या १ और २ की गाथाओंमें स्पष्टरूपसे एक ही बात बतलाई गयी है कि सम्यग्दष्टि जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न नहीं होता । फिर भी धवलाकी गाथाके पाठसे सम्यक्त्वीके एकेन्द्रियादि असंज्ञी पञ्चेन्द्रियान्त तिर्यञ्चोंमें उत्पादका निषेध-परक कोई पद नहीं है। यह एक कमी उस गाथामें रह गयी है, या पाई जाती है। पर यह गाथा धवलाकारने अपने कथनकी पुष्टिमें उधत किया है। गो० जीवकाण्डकी गाथा उसके कर्ता द्वारा रची गयी है। यद्यपि उसका आधार पहली या दूसरी गाथा ही रही है। फिर भी उन्होंने उसे अपने ढंगसे वर्णन करते हुए स्वतन्त्र रूपसे ही रचा है और इसीलिए उत्तरार्धमें खासकर 'ण सासणो णारयापुणे' यह पद जोड़ा है। इस विशेषताके प्रतिपादन करनेपर भी उसके तीन चरणोंमें जो बात कही गयी है उससे सम्यक्त्वी जीवके एकेन्द्रियादि जीवोंमें उत्पन्न होनेका निषेध नहीं होता । यह एक कमी उसमें भी रह गयी है। पर प्राकृत पञ्चसंग्रहका जो पाठ है वह अपने अर्थको सामस्त्यरूपसे प्रकट करता है और उसके 'वारस मिच्छावादे' पदके द्वारा उन सब तिर्य चोंका निषेध कर दिया गया है जिनमें कि बद्घायुष्क भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होता है । इस दृष्टि से प्रा० पञ्चसंग्रह की इस गाथाका यह पाठ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आचार्य अमितगगतिने प्राकृत पञ्चसंग्रहका ही संस्कृत रूपान्तर किया है। उन्होंने उक्त गाथाका जो रूपान्तर किया है, वह इस प्रकार है निकायत्रितये पूर्वे श्वभ्रभूमिपु षट्स्वधः । वनितासु समस्तासु सम्यग्दृष्टिन जायते ॥ (सं० पञ्चसंग्रह १, २६७) इस श्लोकको देखते हुए ऐसा ज्ञात होता है कि उनके सामने प्रा० पञ्चसंग्रहवाला पाठ न रहकर धवलावाला पाठ रहा है । अन्यथा यह सम्भव नहीं था कि वे इतनी बड़ी बात यों ही छोड़ जाते । दि० श्वे० शतकगत पाठभेद १-श्वे० शतकम 'तेरस चउसु' आदि १३ वें नम्बरको गाथा न दि० मूल शतक है और न प्राकृत सभाप्य शतको ही। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह २-दि० श्वे. मल शतकोंमें जहाँ कहीं पाठ-भेद है वह पाठ-भेद प्रायः सर्वत्र सभाप्य शतकसे समता रखता है, मूल शतकसे नहीं। ३-श्वे० शतकमें 'बंधट्ठाणा चउरो' इत्यादि गाथा गाथांक २६ के बाद मुद्रित तो है पर उसपर अंक-संख्या नहीं दी, जिससे ज्ञात होता है कि वह मूल-बाह्य करार दी गयी है। दि० शतकमें यह गाथा नहीं पाई जाती। ४-दि० शतककी गाथा 'अविह सत्त छबंधगा'का उत्तरार्ध श्वे० शतककी गाथा-संख्या २७से मिलता है । किन्तु सभाप्य शतकमें उसके स्थानपर नया ही पाठ है । ५-श्वे० शतकमें पाई जानेवाली गाथा-संख्या ३८ और ३९ का सभाष्य शतकमें पता भी नहीं है। ६-श्वे० शतको संख्या ५२, ५३ पर जो गाथाएँ पाई जाती हैं उनके स्थानपर दिगम्बर शतक और सभाग्य शतको तदर्थ-सूचक अन्य ही गाथाएँ पाई जाती है। ७-श्वे० शतकमें गाथांक ५३ के बाद जो 'बारस अंतमुहुत्ता' आदि गाथा दी है और जिसपर चूणि . भी मुद्रित है; आश्चर्य है कि उसे मूल गाथामें क्यों नहीं गिना गया? दि० शतकमें वह मूलरूपसे ही दी है और सभाष्य शतकमें भी। ८-श्वे० शतकमें संख्या ७२, ७३ पर पाई जानेवाली दोनों गाथाएँ दि० शतकसे समता रखती हैं, पर सभाष्य दि० शतकसे नहीं। वहाँ दोनों गाथाएँ अर्थ-साम्य रखते हुए भी पाठ-भेदसे युक्त हैं। यह भी एक विचारणीय बात है । ( देखो गाथा ७०, ७१ मूल ) ९-श्वे० शतककी गाथा संख्या ८० दिगम्बर शतककी इसी गाथासे समता रखती है पर सभाप्य शतकमें २० के स्थानपर मिश्रको मिलाकर सर्वघातिया २१ प्रकृतियाँ बतलाई गयी है। यह पाठभेद भी उल्लेखनीय है कि प्राकृतवृत्तिमें मिश्रको क्यों नहीं गिनाया गया। १०-श्वे० शतकमें गाथा ८१ में देशघाती प्रकृतियाँ २५ ही बतलाई है, यही बात दि० मूल शतकमें भी है। पर सभाष्य शतको अन्तर स्पष्ट है। वहाँ पर २६ देशघातियाँ प्रकृतियाँ वतलाई गयी हैं। यह भी अन्तर महत्त्वपूर्ण है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सप्ततिकागत पाठभेद १-गाथांक ७ दिगम्बर श्वे दोनों सप्ततिकाओंमें समान है, पर सभाष्य सप्ततिकामें उसके स्थानपर 'णव छवक' आदि नवीन ही गाथा पायी जाती है। २-गाथांक ८के विषयमें दोनों समान हैं। किन्तु सभाष्य सप्ततिकामें उसके स्थानपर नवीन गाथा है। ३-गा० ९ की दिगम्बर श्वे० मल सप्ततिकासे सभाष्य सप्ततिकामें अर्द्ध-समता और अर्द्धविषमता है। ४-गा० १० ( गोदेसु सत्त भंगा ) सभाष्य सप्ततिका और दि० मूल सप्ततिकामें है । पर श्वेताम्बर सप्ततिकामें वह नहीं पायी जाती है । ५-गा० १५ दि० श्वे० सप्ततिकामें समान है। पर सभाष्य सप्ततिकामें भिन्न है। ६-श्वे० सप्ततिकाके हिन्दी अनुवाद एवं सम्पादक 'दस बाबीसे' इत्यादि गाथा १५ को तथा 'चत्तारि' आदि णव बंधएसु इत्यादि गा० १६ को मूल गाथा स्वीकार करते हुए भी उन्हें सभाष्य सप्ततिका मूल गाथा माननेसे क्यों इनकार करते हैं ? यह विचारणीय है। ७-गाथा १७ का उत्तरार्ध दि० श्वे० गुप्ततिकामें समान है । पर सभाप्य सप्ततिकामें भिन्न है। ८-'एक्कं च दोणि व तिणि' इत्यादि गाथांक १८ न खे० राप्ततिकामें है और न सभाप्य राप्ततिकामें। इसके स्थानपर श्वे० सप्ततिकामें 'एतो च उबंधादि' इत्यादि गाथा पाई जाती है। पर राभाष्य राप्ततिकामें तत्स्थानीय कोई भी गाथा नहीं पायी जाती । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३१ ९-श्वे० सणि सप्ततिकामें मुद्रित गा० २६, २७ न दि० सप्ततिकामें ही पाई जाती है और न सभाप्य सप्ततिकामें । यह बात विचारणीय है। १०-दि० सप्ततिकामें गा० २९ 'तेरस णव चदु पण्णं' यह न तो श्वे० सप्ततिकामें पाई जाती है और न सभाष्य सप्ततिकामें ही। मेरे मतसे इसे मूल गाथा होनी चाहिए। ११---'सत्तेव अपज़्जत्ता' इत्यादि ३५ संख्यावाली गाथाके पश्चात् श्वे० और दि० सप्ततिकामें 'णाणंतराय तिविहमवि' इत्यादि तीन गाथाएं पाई जाती हैं किन्तु वे सभाप्य सप्ततिकामें नहीं। उनके स्थानपर अन्य ही तीन गाथाएँ पाई जाती हैं । जिनके आद्य चरण इस प्रकार है णाणावरणे विग्घे (३३) व छक्कं चत्तारि य (३४) और उवरयबन्धे संते (३५)। १२-श्वे० सचूणि सप्ततिकामें गा० ४५ के बाद 'बारस पण सट्ठसया' इत्यादि गाथा अन्तर्भाष्य गाथाके रूपमें दी है। साथमें उसकी चूणि भी दी है। यही गाथा दि० सप्ततिकामें भी सवृत्ति पाई जाती है। फिर इसे मूल गाथा क्यों नहीं माना जाय ? १३-गा० ४५ दि० सप्ततिको और सभाष्य सप्ततिकामें पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध व्युत्क्रमको लिये हुए है। पर ध्यान देनेकी बात यह है कि वह श्वे० सचूणि सप्ततिकाके साथ दि० सप्ततिकामें एक-सी पाई जाती है। सत्कर्मप्राभृत संतकम्मपाहुड या सत्कर्मप्राभृत क्या वस्तु है यह प्रश्न अद्यावधि विचारणीय बना हुआ है । श्वे० ग्रन्थकारों और चर्णिकारोंने इनके नागका उल्लेख मात्र ही किया है। पर दि० ग्रन्थकारोंमें जयधवलाकारने बीसों वार संतकम्मपाहुडका उल्लेख किया है और अनेकों स्थलोंपर कसायपाहुड आदिके अभिप्रायोंसे उसकी विभिन्नताका भी निर्देश किया है। जिससे ज्ञात होता है कि धवला और जयधवलादिके रचे जानेके समय तक यह ग्रन्थ उपलब्ध था और सैद्धान्तिक-परम्परामें अपना विशिष्ट स्थान रखता था। यहाँ हम कुछ अवतरण दे रहे हैं जिनसे सिद्ध है कि संतकम्मपाहुडका उपदेश कसायपाहडके उपदेशसे कितने ही विषयोंमें भिन्न रहा है १-धवला पुस्तक १ पृ० २१७ पर नवम गुणस्थानमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली १६ और ८ प्रकृतियोंके मत-भेदका उल्लेख आया है। धवलाकार कहते हैं कि संतकम्मपाहुडके उपदेशानुसार पहले सोलह प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है और पीछे आठ प्रकृतियोंकी। पर कसायपाहुडका उपदेश है कि पहले आठ प्रकृतियोंकी व्युच्छि त्त होती है, पीछे सोलहकी। इस बातकी शंकाका उद्भावन करते हुए धवलाकार कहते हैं"एसो संतकम्मपाहुडउवएसो । कसायपाहुड उवएसो पुण” इत्यादि (धवला पुस्तक १, पृ० २१७) २-पुनः शिष्य पूछता है कि इन दोनोंमेंसे किसे प्रमाण माना जाय ? संतकम्मपाहुड और कसायपाहड इन दोनोंको ही सूत्र रूपसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है, इन दोनोंमेंसे कोई एक ही सूत्र रूपसे या जिनोक्त वचनरूपसे प्रमाण माना जा सकता है ? आयरियकहियाणं संतकम्म कसायपाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि चे ''इत्यादि (धवला पुस्तक १, पृ० २२१) अन्तमें धवलाकार समाधान करते हुए लिखते हैं कि आज वर्तमानकालमें केवली या श्रुतकेवली नहीं है जिनसे कि उक्त मत-भेदमेंसे किसी एककी सच्चाई या सूत्रताका निर्णय किया जा सके। दोनों ही ग्रन्थ वीतराग आचार्योके द्वारा प्रणीत है, अतः दोनोंका ही संग्रह करना चाहिए। धवलाकारके इस निर्णयसे दो बातें गट स्परो गिद्ध होती हैं-एक तो उनके सामने गंतकम्मपाहडके या उगके उपदेशके प्राप्त होनेकी और दुरारी बात सिद्ध होती है उसकी प्रामाणिकताकी । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पञ्चसंग्रह ३-एस्थ एदेसिं चउण्हमुवकमाणं जहा संतकम्मपय डिपाहुडे परूविदं, तहा परूवेयध्वं । जहा महाबंधे परूविदं, तहा परूवणा एत्थ किष्ण कीरदे ? ण, तस्स पढमसमयबन्धम्मि चेव वावारादो। (धवला क पत्र १२६७) ४-संतकम्मपाहुडके विषयमें स्वयं ही शंका उठाते हुए धवलाकार लिखते हैं "पुणो एदेसि चउण्हं पि बन्धणोवकमाणं अस्थो जहा संतकम्मपाहुडम्मि उत्तो तहा वत्तव्वो ? संतकम्मपाहुडमिदि णाम कदमं? महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउबीस-अणिओगहारेसु चउत्थ-छहम-सत्तमणियोगद्दाराणि दव्व-काल-भाव-विहाणणामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्मपयडिपाहुडस्स पंचमो पयडिणामाहियारो । तत्थ चत्तारि अगियोगद्दाराणि अटकम्माणं पयडि-हिदि-अणुभाग-पदेससत्ताणि परूविय सूचिदुत्तरपयडिटिदिअणुभागपदेससत्तादो । एदाणि संतकम्मपाहुडं णाम । (धवला पुस्तक १५, पंजिका पृ० १८, परि०) ५-इसी बातको स्पष्ट करते हुए जयधवलामें भी लिखा है "संतकम्ममहाहियारे कदि-वेदणादि चउवीसणियोगहारेसु पडिबद्धेसु उदओ णाम अस्थाहियादो हिदि अणुभाग-पदेसाणं पयडिसमणिण्णयाणमुक्कस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णुदयपरूवणे य बाबारो।" (जयधवला अ. ५१२) 'भवोपग्गहिया' पदकी व्याख्या करते हुए जयधवलाकार लिखते हैं-'संतकम्मपाहुडे वित्थारेण भणिदो।' (जयप० मैनु० पृ० ६५८) ६-वर्गणा खण्डके पश्चात् धवलाकारने जिन १८ अनुयोगद्वारोंका वर्णन किया है उनके ऊपर किसी त आचार्य ने पंजिका नामक एक वृत्तिको रचा है। उसे रचते हुए वे कहते हैं-"पुणो तेहिंतो सेसट्टारसाणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परविदाणि, तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुचेयण पंजियसरूरवेण भणिस्सामो।" (धवला पुस्तक १५, पृष्ठ १) इन उल्लेखोंसे सिद्ध होता है कि महाकम्मपयडिपाहुडके जिन शेष १८ अनुयोगद्वारोंका पटखण्डागममें वर्णन नहीं किया जा सका उन्हीं के वर्णन करनेवाले मूलसूत्ररूप ग्रन्थका नाम सन्तकम्मपाहुड रहा है। ७-यह ग्रन्थ गद्य-सूत्रोंमें रहा, या पद्य-गाथाओंमें, यह एक प्रश्न पाठकोंके हृदय में सहज ही उत्पन्न ता है। धवला और जयधदलाके भीतर जितने भी उल्लेख मिलते हैं उनसे इस विषयपर कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं पड़ता है। किन्तु सप्ततिकाचूर्णिमें दिये गये एक उल्लेखसे यह ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ गाथा-निबद्ध रहा है। वह उल्लेख इस प्रकार हैसन्तकम्मे भणियं-णिद्दादुगस्स उदओ खीणग खवगे परिचज । (सप्ततिका चूर्णि गाथा १) ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागमके वेदना और वर्गणा खण्डमें जो सूत्रगाथाएँ पाई जाती है वे सम्भवतः इसी संतकम्मपाहुडकी रही है और उन्हें ही आधार बनाकर षट्खण्डागमकारने अपने जीवस्थान आदि अधिकारोंकी रचना की है। ८--धवला पुस्तक ६ के पृष्ठ १०९ पर वीरसेनाचार्य एक शंकाका उद्भावन कर उसका समाधान करते हुए लिखते हैं 'विगलिंदियाणं बंधो उदओ वि दुस्सरं चेव होदि त्ति ।' । अर्थात विकलेन्द्रियोंसे दुःस्वर प्रकृतिका ही बन्ध होता है और उसका ही उदय रहता है। जो भ्रमर आदिके स्वरको मधुर मानकर विकलेन्द्रिय जीवोंके सुस्वर नामकर्मके उदयका प्रतिपादन करते हैं, उनका मत ठीक नहीं है। किन्तु चणिमें मंतकामपाहुडका जो उल्लेख आया है, उसमें गवलाकारके मतसे सर्वथा भित या प्रतिकुल ही मत पाया जाता है। वह उल्लेख इस प्रकार है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना " अण्णे भगति सुस्सरं विगर्हिदियाणं णत्थि । तण्ण, संसकम्मे उक्तत्वात्।" - ( सित्तरी चूर्णि० गा० २५ पत्र २१ ।१ ) अर्थात् जो लोग यह कहते हैं कि विकलेन्द्रियोंके सुस्वर कर्मका उदय नहीं होता है, तो उनका यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि संतकम्मपाहुडमें विकलेन्द्रिय जीवोंके सुस्वर कर्मका उदय कहा गया है। इस शंका-समाधान से यह निष्कर्ष निकलता है कि संतकम्मपाहुडके सभी उपदेश वीरसेनको मान्य नहीं रहे हैं। इस बातकी पुष्टि एक अन्य उद्धरणसे भी होती है धवला पुस्तक ९ पृ० ३१८ पर वीरसेनने कहा है........मध्याबहु सोलसवदिय अप्पाबरण सह विरुमदे" तेणेत्थ उवएसं लहिय एगदरणिओ कायवी संतकम्मपयडिपाहुडं मोसूण सोलसपदिय अप्पाबहुअदंड पहाणे कड़े।" अर्थात् संतकम्मपाहुडके उपदेशको छोड़कर इस सोलहपदिक उपदेशकी मुख्यतासे इस विवक्षित अल्पबहुत्वका निर्णय करना चाहिए । ऊपर दिये गये अन्तिम दो उल्लेखोंसे यह बात भलीभांति सिद्ध होती है कि कितनी ही बातों में संतकम्मपाहुडका उपदेश कसाय पाहुड, कम्मपवडी आदिके उपदेशोंसे भिन्न रहा है और धवलाकारको जहाँ जो बात उचित जँची है वहाँ उसका समर्थन या निषेध कर दिया है । अथवा तुल्य बलवाली बातों में दोनोंको प्रमाण मानकर उनके उपदेशको संग्रह करनेका भी विधान कर दिया है। उक्त विवेचनके प्रकाशमें जब हम नं० ४ और नं बातें विचारणीय हो जाती है ५ के उद्धरणोंका मिलान करते हैं, तो बहुत-सी - ३३ १. महाकम्पड पाहुडके जिन उदय आदि शेष अट्ठारह अनुयोग द्वारोंको संतकम्मपाहुड माननेकी सूचना धवला और जयधवलाकारने की है, क्या वह ठीक है ? २. संतकम्मपाहुडके नामसे जितने भी मतभेद धवला, जयधवला और सित्तरी चूणि आदिमें मिलते हैं, वे सब क्या उक्त अट्ठारह अनुयोग द्वारोंगे उपलब्ध हैं? यदि नहीं, तो फिर उन्हें संतकम्मपाहुड क्यों माना जाय ? ३. नं० ७ पर दिये गये उद्धरणके अनुसार संतकम्मपाहुडको गाथा निवद्ध होना चाहिए पर उक्त १८ अनुयोग द्वारोंके जितने भी सूत्र मिलते हैं, वे सब गद्यरूप हैं। पद्यरूपमें उनके भीतर एक भी प्राप्त नहीं है। ऐसी दशामें यही क्यों न माना जाय कि षट्खण्डागमको जो संतकम्मपाहूढ मानते हैं उनकी धारणा भ्रममूलक हैं । दो दिगम्बर संस्कृत पञ्चसंग्रह प्राकृत पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर जिस संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना आचार्य अमितगतिने की है उसका परिचय पहले दिया जा चुका है। उसी प्राकृत पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर श्री श्रीपालसुत ढड्ढाने अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना की । अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रह के होते हुए उन्हें एक और संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना क्यों आवश्यक प्रतीत हुई यह एक विचारणीय प्रश्न है। दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेपर उक्त प्रश्नका उत्तर हमें मिल जाता है। आचार्य अमितगतिने मूल प्राकृत पञ्चसंग्रहका शब्दशः अनुकरण नहीं किया। कितने ही स्थलोंपर उन्होंने मूलके अंश को छोड़ा है और कितने ही स्थलोंपर कुछ नवीन बातोंको जोड़ा भी है। इस बात की चर्चा हम पहले स्वतन्त्र रूपसे कर आये हैं । अमितगतिकी यह बात सम्भवतः डड्डाको अच्छी नहीं लगी और इसीलिए उन्हें एक स्वतन्त्र पद्यानुवादकी प्रेरणा प्राप्त हुई उड्डाने सर्वत्र मूलका अनुगमन किया है जहाँ अमितगतिने अनावश्यक या अतिरिक्त वर्णन किया है उसे प्रायः डड्ढाने छोड़ दिया है। हाँ, कहीं-कहीं कुछ आवश्यक बातोंका निरूपण १ देखो, धवला पुस्तक सं० १ की प्रस्तावना | Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अवश्य उन्होंने यथास्थान किया है। दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंकी तुलना संक्षेपमें इस प्रकार की जा सकती है १-कितने ही स्थलोंपर स्थानकी उपयुक्तता डड्डाकृत पञ्चसंग्रहमें पाई जाती है वह अमितगतिके पञ्चसंग्रहमें नहीं है। (क) संज्ञाओंके स्वरूप उड्डाने यथास्थान दिये हैं किन्तु अमितगतिने जीवसमास प्रकरणके अन्तमें दिये हैं। (ख) साधारण वनस्पतिका लक्षण डडाकृत सं० पञ्चसंग्रहमें प्रा० पञ्चसंग्रहके समान यथास्थान दिया गया है। किन्तु अमितगतिने उसे यथास्थान न देकर उससे बहत पहले दिया है। (देखो जीवसमास प्रकरण श्लो० १०५ आदि ।) (ग) जीवसमास प्रकरणमें ज्ञानमार्गणाका वर्णन डडाने प्रा० पञ्चसंग्रहके ही अनुसार किया है। किन्तु अमितगतिने इसे कुछ परिवधित किया है, अतः मत्यज्ञान आदिका स्वरूप मुलके अनुसार यथास्थान न होकर स्थानान्तरित हो गया है। २-कितने ही स्थलोंपर डड्डाकी रचना अमितगतिकी अपेक्षा अधिक सुन्दर है। देखो मार्गणाओंके नामवाले दोनोंके श्लोक : अमितगति पञ्चसंग्रह श्लोक १, १३२, १३३ डड्डा १,६८ ३-डड्डाकी रचना मूल गाथाओंके अधिक समीप है, अमितगतिकी नहीं। देखो प्रथम प्रकरणमें चारों गतियोंका स्वरूप तथा कायमार्गणा और कषायमार्गणाके श्लोक आदि । ४-प्राकृत पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें 'अण्डज पोतज जरजा' इत्यादि गाथा दी हुई है। पर अमितगतिने इसका अनुवाद नहीं दिया, जब कि डड्डाने दिया है। (देखो श्लोक १,८६)। इसी प्रकार संयममार्गणामें ११ प्रतिमावाली गाथाका भी। (देखो श्लोक १, १७१)। ५-जीवसमासकी ७४वीं मूल गाथाका पद्यानुवाद जितना डड्डाका मूलके समीप है उतना अमितगतिका नहीं। (देखो १,१५१ और १,१८७)। ६-अमितगतिने जीवसमासकी 'साहारणमाहारो' इत्यादि तीन गाथाओंका (प्रकरण १, गाथा ८७ आदि ) जहाँ स्पर्श भी नहीं किया, वहाँ डड्डाने उनका सुन्दर पद्यानुवाद किया है। समझमें नहीं आता कि अमितगतिने उक्त गाथाओंको क्यों छोड़ दिया। ७-उक्त स्थलपर अमितगतिने गोम्मटसार जीवकाण्डकी 'उववाद मारणंतिय' इत्यादि गाथाका आश्रय लेकर उसका अनुवाद किया है जबकि जीवसमासके मूलमें बह गाथा नहीं है और इसीलिए डड्डाने उसका अनुवाद नहीं किया। ८-कितने ही स्थलोंपर डड्राने अमितगतिकी अपेक्षा कुछ विषयोंको बढ़ाया भी है। यथा :( क ) प्रथम प्रकरणमें धर्मोका स्वरूप । (ख) योगमार्गणाके अन्तमें विक्रियादिका स्वरूप । ९-अमितगतिने 'मनःपर्ययदर्शन क्यों नहीं होता' इस प्रश्नपर भी प्रकाश डाला है। यतः यह बात मूल गाथामें नहीं है अत: डड्डाने उसपर कुछ प्रकाश नहीं डाला। (देखो दर्शनमार्गणा प्रकरण १)। १०-अमितगतिने प्रथम प्रकरणमें सम्यक्त्व मार्गणाके भीतर गोम्मटसार कर्मकाण्डके आधारसे ३६३ पाखंडियोंकी चर्चा की है। पर मूलमें न होनेसे डड्डाने उसकी चर्चा नहीं की ११-अमितगतिने तीसरे प्रकरणके श्लोक संख्या ८२, ८७ आदिके पश्चात् जिस बातको संस्कृत गद्यके द्वारा स्पष्ट किया है वैसा डझाने नहीं किया। सम्भवतः इसका कारण यह ज्ञात होता है कि वे मलसे बाहरकी बातको नहीं कहना चाहते हैं। " Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंके सम्बन्धमें कुछ विचारणीय बातें १–अमितगतिने पांचवें प्रकरणमें पृष्ठ १७४के नीचे 'उक्तं च' कहकर 'असम्प्राप्त' इत्यादि १६५ वाँ श्लोक दिया है। ठीक इसी प्रकारसे इसी स्थलपर डडाने श्लोक १४८ के नीचेवाली गद्य के पश्चात् 'उक्तं च' कहकर "अयशःकी." इत्यादि अमितगतिसे भिन्न ही श्लोक दिया है। यहाँ विचारणीय बात यह है कि जब दोनों ही श्लोक अर्थ-साम्य रखते हुए भी शब्द-साम्य नहीं रखते, तो फिर 'उक्तं च'का क्या अर्थ है ? क्या यह 'मक्षिकास्थाने मक्षिकापात:' नहीं है ? यही बात आगे भी दृष्टिगोचर होती है। २-अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रहके पृष्ठ २०४ पर 'एतदुक्तम्' कहकर 'चतुःषष्ठ्या ' इत्यादि ३५० वाँ श्लोक है। तथैव डड्डाके पञ्चसंग्रहमें सप्ततिकामें श्लोकाङ्क ३१७ 'उक्तं च' कहकर दिया गया है। खास बात यह है कि अर्थ-साम्य होते हुए भी दोनों श्लोकोंमें शब्द-साम्य नहीं है। ३-डड्डाकृत सप्ततिकाके श्लोक संख्या २४९ के पश्चात् 'अत्र वृत्तिश्लोकाः पञ्च' वाक्य दिया है। उसका आधार क्या है ? यह विचारणीय है। यदि इन श्लोकोंका आधार पञ्चसंग्रहकी संस्कृत वृत्ति ही है तो यह सिद्ध है कि डड्डा संस्कृत टीकाकारके पीछे हुए हैं। ४-अमितगतिसे उड्डाके पञ्चसंग्रहमें एक विशेषता यह भी है कि जहाँ अमितगतिने सप्ततिकामें पृष्ठ २२१ पर श्लोकांक ४५३ में शेष मार्गणाओंके बन्धादि-त्रिकको न कहकर मूलके समान ही 'पर्यालोच्यो यथागमं' कहकर छोड़ दिया है, वहाँ डड्डाने श्लोकांक ३९० में 'बन्धादित्रयं नेयं यथागम' कहकर भी उसके आगे समस्त मार्गणाओंमें उसे आधार बनाकर बन्धादि-त्रित के पूरे स्थानोंको गिनाया है जो कि प्राकृत पञ्चसंग्रहके निर्देशानुसार होना ही चाहिए । अमितगतिने उन्हें क्यों छोड़ दिया ? यह बात विचारणीय है। सभाध्य पञ्चसंग्रह पञ्चसंग्रहमें संगृहीत पांचों प्रकरणोंके मूल रूपोंको देखनेपर सहजमें ही यह अनुभव होता है कि प्रत्येक प्रकरणको मूल-गाथा-संख्या अल्प रही है और संग्रहकारने उनपर भाष्यगाथाएँ रचकर उन्हें पल्लदित । परिवधित कर प्रस्तुत संकलनका नाम 'पञ्चसंग्रह' रखा है। प्रस्तुत ग्रन्थमें संग्रहकारने जिन पाँच प्रकरणोंका संग्रह किया है, उनके नाम इस प्रकार हैं-१ जीवसमास, २ प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३ कर्मस्तव, ४ शतक और ५ सप्ततिका । इनमें से अन्तिम तीन प्रकरण अपने मूलरूप और उसकी प्राकृत चूणि एवं संस्कृत टीकाओंके साथ विभिन्न संस्थाओंसे प्रकाशित हो चुके हैं। उनके साथ जब हम प्रस्तुत ग्रन्थमें संगृहीत इन प्रकरणोंका मिलान करते हैं, तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि संग्रहकारने किस प्रकरणपर कितनी भाष्य-गाथाएँ रची हैं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कर्मस्तवको कर्मबन्धस्तव या बन्धस्तव भी कहते हैं। श्वे० सम्प्रदायमें इसकी गणना प्राचीन कर्मग्रन्थोंमें की जाती है। अभी तक भी इसके संग्रहकर्ता या रचयिताका नाम अज्ञात है। श्वे० संस्थाओंकी ओरसे जो इसके संस्करण प्रकाशित हुए हैं, उनमें इसकी गाथा-संख्या ५५ पाई जाती है। और प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तमें मुद्रित प्राकृतवृत्ति-युक्त पञ्चसंग्रहमें इसकी गाथा-संख्या ५४ पाई जाती है। किन्तु इसपर रची गई भाष्य-गाथाओंको देखते हुए इस प्रकरणकी मल-गाथा-संख्या ५२ ही सिद्ध होती है, अतः हमने तदनुसार ही गाथाके प्रारम्भमें यही मूल-गाथा-संख्या दी है। संग्रहकारने सभी मूल-गाथाओंपर भाष्य-गाथाएँ नहीं रची हैं, किन्तु उन्हें जो गाथाएँ क्लिष्ट या अर्थ-बहल प्रतीत हईं, उनपर ही उन्होंने भाष्य-गाथाएँ रची हैं । इस प्रकार १२ गाथाएँ ही इस प्रकरण में भाष्य-गाथाओंके रूपमें उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकरणके अन्तमें एक चूलिका प्रकरण भी है जो श्वे० संस्थाओंसे प्रकाशित बन्धस्तवमें नहीं पाया जाता । प्राकृतवृत्तिमें उसकी गाथा-संख्या ३४ है। किन्तु सभाष्य-कर्मस्तवमें चुलिका रूपसे केवल १३ गाथाएं ही मिलती हैं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन दोनों चूलिकाओंमें विषय-गत समता होते हुए भी गाथागत कोई | Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ . पञ्चसंग्रह समानता नहीं है। प्रत्युत ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त १३ गाथाओंको सामने रखकर उनके भाष्यरूपमें ३४ गाथाओंका निर्माण किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थके चौथे प्रकरणका नाम शतक है। यतः इसकी मूल-गाथाएँ १०० ही रही हैं, अत: इसका नाम गाथा-संख्याके आधारपर शतक ही प्रसिद्ध या प्रचलित हो गया है। श्वे० संस्थाओंसे मुद्रित शतक प्रकरणमें इसकी गाथा-संख्या १०६ पाई जाती है। प्राकृतवृत्तिके अनुसार इसको गाथा-संख्या १३९ है। किन्तु सभाष्य शतकके अनुसार इसकी गाथा-संख्या १०५ ही सिद्ध होती है। यद्यपि दोनों सम्प्रदायोंके अनुसार इस प्रकरणकी मूल-गाथाएँ १०० से अधिक मिलती हैं, पर ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारम्भकी उत्थानिकागाथा और अन्तको उपसंहारात्मक-गाथाओंको न गिननेपर विवक्षित विषयकी प्रतिपादक गाथाओंको लक्ष्य करके 'शतक' यह नाम प्रख्यात हुआ है । भाष्यकारने इन मूल-गाथाओंपर जो भाष्य-गाथाएँ रची हैं, उन्हें मिलाकर इस प्रकरणकी गाथा-संख्या ५२२ हो जाती है, जिसका यह निष्कर्ष निकलता है कि इस प्रकरणकी भाष्यगाथा-संख्या ४१७ है। पांचवें प्रकरणका नाम सप्ततिका है । प्राकृत भाषामें इसे सित्तरी या सत्तरी भी कहते हैं। इस प्रकरणका भी नाम-करण उसको गाथा-संख्याके आधारपर प्रसिद्ध हआ है। सित्तरी या सप्ततिका नामको देखते हुए इसकी मूल-गाथा-संख्या ७० ही होनी चाहिए। श्वे० संस्थाओंसे प्रकाशित प्रतियोंके अनुसार इसकी गाथासंख्या ७२ है। प्राकृतवृत्तिमें उसको गाथा-संख्या १९ पाई जाती है। परन्तु भाष्यगाथाकारके अनुसार ७२ ही सिद्ध होती है । इसकी यदि आदि और अन्तकी उत्थानिका और उपसंहार-गाथा रूप २ गाथाओंको छोड़ दिया जावे, तो विवक्षित अर्थको प्रतिपादन करनेवालो ७० गाथाएँ ही रह जाती है और तदनुसार इसका सित्तरी या सप्ततिका नाम भी सार्थक हो जाता है। भाष्य-गाथाकारने इन मूल-गाथाओंपर जो भाष्य-गाथाएँ रची हैं, उनके समेत इस प्रकरणकी कुल गाथा-संख्या ५०७ है और इसके अनुसार भाष्य-गाथाओंकी संख्या ४३५ सिद्ध होती है। उक्त दोनों प्रकरणोंपर ही संग्रहकारने सबसे अधिक भाष्य-गाथाओंकी रचना की है। यतः विषयकी दृष्टिसे ये दोनों प्रकरण ही दुर्गम एवं अर्थ-बहुल रहे हैं, अतः उनपर अधिक भाष्य-गाथाओंका रचा जाना स्वाभाविक ही है। पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणका नाम जीवसमास है । इस नामका एक ग्रन्थ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलामकी ओरसे सन् १९२८ में एक संग्रहके भीतर प्रकाशित हुआ है, जिसकी गाथा २८६ है। नाम-साम्य होते हए भी अधिकांश गाथाएँ न विषय-गत समता रखती हैं और न अर्थगत समता ही। गाथा-संख्याकी दृष्टिसे भी दोनोंमें पर्याप्त अन्तर है। फिर भी जितना कुछ साम्य पाया जाता है, उनके आधारपर एक बात सुनिश्चित रूपसे कही जा सकती है कि श्वे० संस्थाओसे प्रकाशित जीवसमास प्राचीन है। पञ्चसंग्रहकारने उसके द्वारा सूचित अनुयोग द्वारोंमेंसे १-२ अनुयोग द्वारके आधारपर अपने जीवसमास प्रकरणकी रचना की है । इसके पक्षमें कुछ प्रमाण निम्न प्रकार है १. श्व० संस्थाओंसे प्रकाशित जीवसमासको 'पूर्वभत्सुरिसूत्रित' माना जाता है। इसका यह अर्थ है कि जब जैन परम्परामें पूर्वोका ज्ञान विद्यमान था, उस समय किसी पूर्ववेत्ता आचार्यने इसका निर्माण किया चनाके देखनेसे ऐसा ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ भतबलि और पुष्पदन्तसे भी प्राचीन है और वह षट्खण्डागमके जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्डको आठों प्ररूपणाओंके सूत्र-निर्माणमें आधार रहा है, तथा यही ग्रन्थ प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके जीवसमास नामक प्रथम प्रकरणका भी आधार रहा है। इसकी साक्षीमें उक्त ग्रन्थकी एक गाथा प्रमाण रूपसे उपस्थित की जाती है जो कि श्वे. जीवसमासमें मंगलाचरणके पश्चात ही पाई जाती है। वह इस प्रकार है णिस्खेव-णिरुत्तोहिं य छहिं अहिं अणुभोगदारेहिं । गइभाइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतव्वा ॥२॥ इसमें बतलाया गया है कि नामादि निक्षेपोंके द्वारा; निरुक्तिके द्वारा, निर्देश, स्वामित्व आदि छह Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना और सत्, संख्या आदि आठ अनुयोग-द्वारोंसे तथा गति आदि चौदह मार्गणा-द्वारोंसे जीवसमासको जानना चाहिए। इसके पश्चात उक्त सूचनाके अनुसार ही सत-संख्यादि आठों प्ररूपणाओं आदिका मार्गणास्थानोंमें वर्णन किया गया है । इस जीवसमास प्रकरणकी गाथा-संख्याको स्वल्पता और जीवट्ठाणके आठों प्ररूपणाओंकी सूत्र-संख्याकी विशालता ही उसके निर्माणमें एक दूसरेकी आधार-आधेयताको सिद्ध करती है।। जीवसमाराकी गाथाओंका और षट्खण्डागमके जीवस्थानखंडकी आठों प्ररूपणाओंका वर्णन-क्रम विषयकी दृष्टिसे कितना समान है, यह पाठक दोनोंका अध्ययन कर स्वयं ही अनुभव करें। प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके जीवसमास प्रकरणके अन्तमें उपसंहार करते हुए जो १८२ अंक-संख्यावाली गाथा पाई जाती है, उससे भी हमारे उक्त कथनकी पुष्टि होती है । वह गाथा इस प्रकार है णिक्खेवे एयढे णयप्पमाणे णिरुक्ति-अणिओगे । मग्गइ वीसं भेए सो जाणइ जीवसभावं । अर्थात् जो पुरुष निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति और अनुयोगद्वारोंसे मार्गणा आदि बीस भेदोंमें जीवका अन्वेषण करता है, वह जीवके यथार्थ सद्भाव या स्वरूपको जानता है। पाठक स्वयं ही देखें कि पहली गाथाकी बातको ही दूसरी गाथाके द्वारा प्रतिपादित किया गया है । केवल एक अन्तर दोनोंमें है। वह यह कि पहली गाथा उक्त प्रकरणके प्रारम्भमें दी है, जब कि दूसरी गाथा उस प्रकरणके अन्तमें। पहले प्रकरण में प्रतिज्ञाके अनुसार प्रतिपाद्य विषयका प्रतिपादन किया गया है, जब कि दूसरे प्रकरणमें केवल एक निर्देश अनुयोग द्वारसे १४ मार्गणाओंमें जीवकी विंशतिविधा सत्प्ररूपणा की गई है और शेष संख्यादि प्ररूपणाओंको न कहकर उनके जाननेकी पूचना कर दी गई है। २. पृथिवी आदि षट्कायिक जीवोंके भेद प्रतिपादन करनेवाली गाथाएँ भी दोनों जीवसमासोंमें बहुत कुछ समता रखती हैं। ३. प्राकृत वृत्तिवाले जीवसमासकी अनेक गाथाएँ उक्त जीवसमासमें ज्यों-की-त्यों पाई जाती हैं। उक्त समताके होते हुए भी पञ्चसंग्रहकारने उक्त जीवसमास-प्रकरणको अनेक गाथाएँ जहाँ संकलित की हैं, वहाँ अनेक गाथाएँ उनपर भाष्यरूपसे रची है और अनेक गाथाओंका आगमके आधा स्वतन्त्र रूपसे निर्माण किया है। ऐसी स्थितिमें उनकी निश्चित संख्याका बतलाना कठिन है। प्राकृत वृत्तिवाले जीवसमासमें गाथा-संख्या १७६ और सभाष्य पञ्चसंग्रहमें २०६ पाई जाती है। इनमें कई गाथाएँ एकसे दूसरेमें सर्वथा भिन्न एवं नवीन भी पाई जाती हैं, जिनका पता पाठकोंको उनका अध्ययन करनेपर स्वयं लग जायगा। पञ्चसंग्रहके दूसरे प्रकरणका नाम प्रकृति समुत्कीर्तन है। प्रकृतियोंके नामोंका समुत्कीर्तन गद्यके द्वारा ही किया गया है। यह गद्य-भाग षटखण्डागमके जीवट्ठाण खण्डके अन्तर्गत प्रकृति समत्कीर्तन अधिकारके न है और दोनोंकी स्थिति देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पञ्चसंग्रहकारने वहाँसे ही अपने इस प्रकरणका संग्रह किया है। इस प्रकरणके आदि और अन्तमें जो १२ गाथाएँ पायी जाती हैं उनमेसे कुछ तो पूर्व परम्परागत हैं और शेषका निर्माण पञ्चसंग्रहकारने किया है। प्राकृतवृत्तिके इस प्रकरणमें गद्यभाग तो समान ही है। गाथाओंमें प्रारम्भ की ४ गाथाओंको छोड़कर कोई समता नहीं है। उसमेंकी अनेक गाथाएं इधर-उधरसे संकलित की गई ज्ञात होती है, जब कि पहलेकी गाथाएं संग्रहकार-द्वारा रची गई प्रतीत होती हैं । श्वे० सम्प्रदायमें इस नामवाला कोई प्रकरण देखने में नहीं आया। हाँ, इस विषयके जो कर्म विपाक आदि प्रकरण रचे गये हैं, ये सब अर्वाचीन हैं और गाथाओंमें हैं। अतः उनके साथ प्रस्तुत संग्रहको रचना-समानताकी बात करना व्यर्थ है। भाष्य गाथाओंके साथ समस्त गाथाओंकी संख्या १३२४ है। गद्य-भाग इससे पृथक है। जिसका १. जीवसमासकी गाथासंख्या २८६ है, जब कि षट् खण्डागमके जीवाणकी सूत्रसंख्या ढाई हजारके लगभग है। -सम्पादक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसंग्रह कि परिमाण ५०० श्लोकोंसे भी अधिक है। पांचों ही प्रकरणोंके प्रारम्भमें स्वतन्त्र मङ्गलाचरण किया गया है और उसके साथ ही प्रतिपाद्य विषयके निरूपणकी प्रतिज्ञा की गई है। पाँचों प्रकरणोंकी उपर्युक्त स्थितिमें यह बात असंदिग्ध रूपसे सिद्ध हो जाती है कि प्रस्तुत ग्रन्थमें संगृहीत पाँचों ही प्रकरण संग्रहकारको पूर्व परम्परासे प्राप्त थे और उन्हें संक्षिप्त एवं अर्थ-बोधकी दृष्टिसे दुर्गम देखकर उन्होंने उनपर भाष्य-गाथाएँ रची, और उन पूर्वागत पाँचों प्रकरणोंके वही नाम रखकर अपने संग्रहको पञ्चसंग्रहका रूप दिया। पर जहाँ तक मेरी जानकारी है, संग्रहकार या भाष्य-गाथाकारने अपने शब्दोंमें 'पञ्चसंग्रह' ऐसा नाम कहीं भी प्रकट नहीं किया है। उक्त प्रकरण एक साथ एक ही आचार्यके द्वारा के साथ निबद्ध होनेके पश्चात ही परवर्ती विद्वानोंके द्वारा 'पञ्चसंग्रह' नाम प्रचलित हआ प्रतीत होता है। पञ्चसंग्रहकार कौन ? प्रस्तुत ग्रन्थके पांचों मूल प्रकरणोंके रचयिताओंके नाम अभी तक अज्ञात ही हैं। हाँ, श्वेताम्बर विद्वान् शिवशर्मको शतकका निर्माता मानते हैं। शतकको मुद्रित चूणिके प्रारम्भिक अंशसे भी इस बातकी पुष्टि होती है । किन्तु शेष चारों प्रकरणोंके रचयिताओंका कुछ भी पता नहीं चलता है। साथ ही जिन शतक और सप्ततिका इन दो प्रकरणोंपर प्राकृत चूणियाँ उपलब्ध हैं, उनके रचयिताओंका भी अभी तक कोई पता नहीं है। इससे पञ्चसंग्रहके मूल प्रकरणों और उनकी चूर्णियोंकी प्राचीनता, प्रामाणिकता और उभय सम्प्रदायमें मान्यता सिद्ध है। पञ्चसंग्रहके ऊपर भाष्य-गाथाएँ रचनेवाले और पांचों प्रकरणोंको एकत्र निबद्ध करनेवाले आचार्यका नाम भी अभीतक अज्ञात ही, जब तक कोई आधार या प्रमाण स्पष्ट रूपसे सामने नहीं आ जाता है, तब तक उसके कर्ताके विषयमें कल्पना करना कोरी कल्पना ही समझी जायगी। इसलिए उसपर विचार न करके यह विचार करना उचित होगा कि पञ्चसंग्रहके ऊपर भाष्य-गाथाएँ रचनेवाले आचार्य किस समयमें हुए हैं ? प्रस्तुत ग्रन्थके पांचों मूल प्रकरणोंको रचना कर्मप्रकृति या कम्मपयडीके आस-पास होना चाहिए। और यतः कर्मप्रकृतिके रचयिता शिवशर्म ही शतकके भी रचयिता माने जाते हैं, और इनपर रची गई चूणियाँ भी यतः इनके कुछ समय बाद ही रची गई प्रतीत होती हैं, अत: उन मूल प्रकरणोंकी रचनाका काल भी शिवशर्मके लगभगका माना जा सकता है। इस प्रकार शिवशर्मके कालको मूल पञ्चसंग्रहकारके कालकी पूर्वावधि कहा जा सकता है। धवला टीकामें जीवसमास नामके साथ जिस 'छप्पंचणवविहाणं' इत्यादि गाथाका उल्लेख आया है । वह गाथा ज्यों-की-त्यों प्रस्तुत ग्रन्थके जीवसमास प्रकरणमें पायी जाती है, अतः उक्त प्रकरणका रचना-काल धवला टीकासे पूर्व होना चाहिए। यतः श्वे० पञ्चसंग्रहकार चन्द्रषिके सामने दि० सभाध्य पञ्चसंग्रह विद्यमान था, जैसा कि हम पहले सिद्ध कर आये हैं, अत: उनके पूर्व इसकी रचनाका होना सिद्ध है । शतक चूर्णिमें एक स्थलपर जो गाथा-गत पाठ-भेदका उल्लेख किया गया है, उससे सिद्ध होता है कि उक्त चूणिके पूर्व सभाष्य पञ्चसंग्रह रचा जा चुका था । शतक-गत वह गाथा इस प्रकार है आउक्कस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उक्कोसगे जोगे ॥१३॥ इस गाथाको चूणिमें "अन्ने पढंति आउक्कस्स छ त्ति'...."अन्ने पढंति मोहस्स णव उ ठाणाणि" इस प्रकारसे आयुकर्म और मोहकर्म सम्बन्धी स्थानोंके दो पाठ-भेद आये है। ये दोनों पाठ-भेद दि० पञ्चसंग्रहके चौथे शतक प्रकरणमें इस प्रकार पाये जाते हैं १. केण कयं ?...'अणेगवायसमालद्धविजएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कयं इत्यादि, (शतक चूर्णि गा० १, पत्र । २. धवला पु. ४, पृ० ३१५। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आउक्कस्स पदेसस्स छच्च मोहस्स णव दु ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाभो बंधइ उक्कोसगे जोगे ॥४,५०२॥ यद्यपि शतकचूणिके निर्माणका काल अभी तक निश्चित नहीं है, तथापि वह चूणि-युगमें ही रची गई है, इतना तो निश्चित है और इसी आधारपरसे उसे कम-से-कम विक्रमकी सातवीं शताब्दीसे पूर्वकी तो मान ही सकते हैं। उक्त आधारोंके बलपर इतना कहा जा सकता है कि सभाष्य प्राकृत पञ्चसंग्रहकी रचना विक्रमकी पांचवीं और आठवीं शताब्दीके मध्यवर्ती कालमें हई है प्राकृतवृत्तिगत पञ्चसंग्रह। प्रस्तुत ग्रन्यमें सभाष्य पञ्चसंग्रहके पश्चात् प्राकृत दृत्ति-सहित पञ्चसंग्रह भी मुद्रित है। प्रकरणोंके नाम वे ही हैं, जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। किन्तु उनके क्रममें अन्तर है और गाथा-संख्यामें भी। गाथा-संख्याका अन्तर पहले बतला आये हैं । क्रमका अन्तर यह है कि इसमें पहले प्रकृति समुत्कीर्तन, पुनः कर्मस्तव और तदनन्तर जीवसमास प्रकरण निबद्ध किये गये मिलते हैं। अन्तिम दोनों प्रकरण दोनोंमें समानरूपसे चौथे और पांचवें स्थानपर निबद्ध हैं। तीसरा अन्तर अन्तिम प्रकरणके मंगलाचरणका है, जब कि प्रथम चार प्रकरणोंकी मंगल-गाथाएं समान हैं। उपर्युक्त स्थितिको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्राकृत-दृत्तिकारको उक्त प्रकरण स्वतन्त्र रूपसे ही अपने स्वतन्त्र पाठोंके साथ प्राप्त हुए और उन्होंने पञ्चसंग्रहके अन्यत्र प्रसिद्ध बध्य, बन्धेश, बन्धक, बन्धकारण और बन्धभेद इन पाँच द्वारोंके अनुसार उनका संकलन कर व्याख्या करना उचित समझा है। गाथाओंके संकलनको देखते हुए ऐसा लगता है कि वृत्तिकारको सभाष्य पञ्चसंग्रह नहीं उपलब्ध हआ और इसीलिए उन्होंने प्राचीन चूणियोंको शैलीमें ही अपनी प्राकृत वृत्तिकी रचना की है। प्राकृत वृत्ति और वृत्तिकार इस वृत्तिके रचयिता श्री पद्मनन्दि मुनि हैं, यह बात शतक नामक चौथे प्रकरणके मध्यमें दी गई गाथाओंसे ज्ञात होती है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं जह जिणवरेहिं कहियं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म । आयरियकमेण पुणो जह गंगणइपवाहुब्व ॥ तह पउमणंदिमुणिणा रइयं भवियाण बोहणट्राए । श्रोधादेसेण य पयढीणं बंधसामित्तं ॥ छ उमत्थयाय रइयं जं इस्थ हविज पवयणविरुद्धं । तं पवयणाइकुसला सोहंतु मुणी पयत्तेण ॥ इन गाथाओंका भाव यह है कि जो कर्म-प्रकृतियोंका बन्धस्वामित्व जिनेन्द्रदेवने कहा, जिसे गणधर देवोंने गूंथा और जो गंगानदीके प्रवाहके समान आचार्य-परम्परासे चला आ रहा है, उसे मुझ पद्मनन्दी मुनिने भव्योंके प्रबोधनार्थ रचा है। इसमें मेरे छद्मस्थ होने के कारण जो कुछ भी प्रवचन-विरुद्ध कहा गया हो, उसे प्रवचनमें कुशल मुनिजन सावधानीके साथ शुद्ध करें। इस उल्लेखके अतिरिक्त उक्त वृत्तिमें अन्यत्र कोई दूसरा उल्लेख नहीं मिलता है, जिससे कि उसके रचयिताकी आचार्य-परम्परा आदिके विषयमें कुछ विशेष जाना जा सके। हां, वृत्तिमें उद्धृत पद्योंके आधारपर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे अकलङ्कदेवसे पीछे हुए हैं; क्योंकि उनके लघीयस्त्रयकी 'ज्ञानं प्रमाणमित्याहः' इत्यादि कारिका पाई जाती है। पद्मनन्दि नामके अनेक मुनि हुए हैं। उनमेंसे किसने इस प्राकृतवृत्तिको रचा, यह यद्यपि निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है, तथापि जम्बुद्वीपपण्णत्तीके रचयिता पद्मनन्दिकी ही अधिक सम्भावना Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह दिखती है। साधनाभावसे हम कोई निर्णय करनेमें असमर्थ हैं । अनुमानतः विक्रमको दशवीं शताब्दीसे पूर्व में ही इसका रचा जाना अधिक संभव है। वृत्तिकारने अपनी रचनामें कसायपाहुडकी चूणि और धवला टीकाकी शैलीका अनुसरण किया है। विषय-प्रतिपादनको देखते हए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि वे जैनसिद्धान्तके अच्छे वेत्ता रहे हैं। उनके द्वारा दी गई अनेक परिभाषाएं अपूर्व है, क्योंकि उनका अन्यत्र दर्शन नहीं होता है। वृत्तिकारने सभी गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी है, किन्तु चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके समान उन्हें जिस गाथापर कुछ कहना अभीष्ट हआ, उसीपर ही उन्होंने लिखा है । यतिवृषभके समान ही उन्होंने गाथाओंकी समुत्कीर्तना कर 'एत्तो सधपयडी बन्धवुच्छेदो कादवो भवदि । तं जहां-इत्यादि वाक्योंको लिखा है। प्राकृतवृत्तिके आदिमें ग्रन्थको उत्थानिकाके रूपमें जो सन्दर्भ दिया हुआ है, वह धवला-जयधवलाकी उत्थानिकाका अनुकरण करते हुए भी अपनी बहुत कुछ विशेषता रखता है। पर इसके विषयमें एक बात खासतौरसे विचारणीय है और वह यह कि जहाँ धवला या जयधवलाकार उस प्रकारको उत्थानिकाके अन्तमें प्रतिपाद्य -विवक्षित ग्रन्थका नामोल्लेख करके उसके नामकी सार्थकता आदिका निरूपण करते हैं, वहाँ इस प्राकृतवृत्तिमें पञ्चसंग्रहका कोई नामोल्लेख आदि नहीं पाया जाता । प्रत्युत 'आराधना'का नाम पाया जाता है । वह इस प्रकार है __ 'तत्थ गुणणामं आराहणा इदि किं कारणं ? जेण भाराधिज्जते अणभा दंसण-णाण-चरित्ततवाणि त्ति ?' इस उद्धरणमें स्पष्टरूपसे 'आराधना'का नाम दिया गया है और उसकी निरुक्तिके द्वारा यह भी बतला दिया गया है कि जिसके द्वारा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपकी आराधना की जाती है उसे आराधना कहते हैं। इस उल्लेखको देखते हुए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि इसके पूर्वका और आगेका समस्त उत्थानिका-सन्दर्भ 'भगवती आराधना'की उस प्राकृत टीकाका है, जिसका उल्लेख अपराजित सूरिने अपनी टीकामें अनेक वार किया है। दुग्यिसे आज वह उपलब्ध नहीं है, फिर भी इसे कम सौभाग्य नहीं माना जा सकता कि इस रूपमें उसको 'बानगी' या 'नमूना हमें देखनेको मिल गया है। भगवती आराधनामें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों हो आराधनाओंका वर्णन किया गया है, यह उसके मंगलाचरण एवं उसके आगेवाली गाथासे ही सिद्ध एवं सर्वविदित है। भ० आराधनाकी वे दोनों गाथाएं इस प्रकार हैं सिद्धे जयप्पसिद्ध चउविह आराहणा फलं पत्ते । वंदित्ता अरहंते वोच्छं आराहणा कमसो ॥१॥ उज्जोवणमुज्झवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दसण-णाण-चरित्त-तवाणमाराहणा भणिया ॥२॥ ऐसा ज्ञात होता है कि पञ्चसंग्रहकी प्रतिलिपि करनेवाले किसी लेखकको उक्त भ० आराधनाकी प्राकृत टीकाका उक्त अंश उपलब्ध हुआ और उसे उसने लिखकर उसके आगे सवृत्ति पञ्चसंग्रहकी प्रतिलिपि करना प्रारम्भ कर दिया। जिससे वे दोनों एक ही ग्रन्थके अंश समझे जाने लगे। यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि अभी तक प्राकृत वृत्तिकी एक ही प्रति मिली है। यदि आगे किसी अन्य भण्डारसे कोई दूसरी प्रति उपलब्ध होगी, तो उससे उक्त बातपर और भी अधिक प्रकाश पड़ सकेगा। १. देखो प्रस्तुत ग्रन्थके पृष्ट ५६६ आदि । २. देखो प्रस्तुत ग्रन्थका पृष्ठ ५४३ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंका रचना-काल प्राकृत सभाष्य पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर दि० सम्प्रदायमें दो संस्कृत पञ्चसंग्रह रचे गये हैंएकके रचयिता हैं अनेक ग्रंथोंके निर्माता आ० अमितगति और दूसरेके निर्माता हैं श्रीपालसुत उड्डा । इनमें पहलेवाला पञ्चसंग्रह माणिकचंद ग्रन्थमालासे सन् १९२७ में प्रकाशित हो चुका है। आ. अमितगतिका समय निश्चित है। उन्होंने अपने इस सं० पञ्चसंग्रहकी रचना मसूतिकापुरमें वि० सं० १०७३ में की है, यह बात उसमें दी गई अन्तिम प्रशस्तिके इस श्लोकसे सिद्ध है त्रिसप्तत्यधिकेदानां सहस्र शकविद्विषः । मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्र मनोरमम् ॥६॥ प्रा० पञ्चसंग्रहके साथ अमितगतिके इस सं० पञ्चसंग्रहको रखकर तुलना करनेपर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि उन्होंने प्राकृत पञ्चसंग्रहका ही संस्कृत पद्यानुवाद किया है। पर आश्चर्यकी बात तो यह है कि उन्होंने समग्र ग्रन्थ भरमें कहीं ऐसा एक भी संकेत नहीं किया, कि जिससे उक्त बात ज्ञात हो सके। इसके विपरीत उन्होंने ग्रन्थके प्रत्येक प्रकरणके अन्तमें इलेषरूपसे अपने नामको अवश्य व्यक्त किया है। यथा-- , सोऽश्नुतेऽमितगतिः शिवास्पदम् । (१,३५३) २ याति स भव्योऽमितगतिरष्टम् ॥ (२,४८) ३ ज्ञानात्मकं सोऽमितगस्युपैति । (३,१०६) ४ सिद्धिमबन्धोऽमितगतिरिष्टाम् । (४,३७५) ५ सोऽस्तु तेऽमितगतिः शिवास्पदम् । (५,४८४) इस सबके पश्चात् प्रशस्तिमें तो स्पष्ट ही कहा है कि मसूतिकापुरमें इस शास्त्रको रचना हुई है। आ० अमितगति-द्वारा रचे गये अन्य ग्रन्थोंमें भी यही बात दृष्टिगोचर होती है। क्या अपने नामप्रसिद्धिके व्यामोहमें दूसरेके नामका अपलाप पाप नहीं है ? यह ठीक है कि प्रा० पञ्चसंग्रहके रचयिता अज्ञात आचार्य रहे हैं। परन्तु यथार्थ स्थितिसे अपने पाठकोंको परिचित रखनेके लिए कमसे कम उन्हें प्राकृत पञ्चसंग्रहके अस्तित्वका और उसके आधारपर अपनी रचना रचनेका उल्लेख तो करना ही चाहिए था। यही गनीमतकी बात है कि उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ और उसके प्रकरणोंका नाम नहीं बदला और प्राकृत पञ्चसंग्रहके समान वे ही नाम अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहमें दिये । यह संस्कृत पञ्चसंग्रह लगभग २५०० श्लोक प्रमाण है। दूसरे संस्कृत पञ्चसंग्रहको एक मात्र प्रति ईडरके भण्डारसे ही सर्वप्रथम प्राप्त हुई है। इसके रचयिता श्रीपाल-सुत डड्डा हैं। इन्होंने अपनी रचनामें तीन स्थलोंपर जो परिचयात्मक पद्य दिये हैं, उनमेंसे दो तो बिलकुल शब्दशः समान हैं । एकके उत्तरार्धमें कुछ विभिन्नता है। वे दोनों पद्य इस प्रका १. श्रीचित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते । श्रीपालसुतगड्ढेन स्फुटार्थः पम्चसंग्रहः ॥ ४,३३॥ ५,४२८ २. श्रीचित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते ।। श्रीपालसुतण्ड्ढेन स्फुटः प्रकृतिसंग्रहः ॥ (५,८५) (मुद्रित पृ० ७४२) इन उपर्युक्त दोनों ही पद्योंमें रचयिताने अपना संक्षिप्त परिचय दिया है, उससे इतना ही विदित होता है कि चित्रकूट ( सम्भवतः चित्तौरगढ़) के निवासी, प्राग्वाट (पोरवाड़ या परवार ) जातीय वैश्य श्रीश्रीपालके सुपुत्र डड्डाने इस सं० पञ्चसंग्रहकी रचना की है। इतने मात्र संक्षिप्त परिचयसे न उनके समयपर प्रकाश पड़ता है और न उनके गुरु आदिकी परम्परा पर ही। परन्तु पञ्चसंग्रहको संस्कृत टीकाका Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पञ्चसंग्रह प्रभाव श्रीडा पर रहा है, यह बात उनके द्वारा दी गई संदृष्टियोंसे अवश्य हृदयपर अंकित होती है। संस्कृतटीकाकारने अपनी रचनाका काल विक्रम सं० १६२० दिया है अतः इसके बाद ही इस दूसरे सं० पञ्चसंग्रहकी रचना हुई है। प्राप्त प्रतिकी स्थिति और लिखावट आदि देखते हुए वह ३०० वर्ष प्राचीन प्रतीत होती है-यह बात हम प्रति-परिचयमें बतला आये हैं अतः इसके विक्रमकी सत्तरहवीं शताब्दी में रचे जानेका अनुमान होता है । दि० परम्परामें पं० आशाधरजी, पं० मेधावी और पं० राजमल्लजीके पश्चात् संस्कृत भाषामें ग्रन्थरचना करनेवाले सम्भवतः ये अन्तिम विद्वान् प्रतीत होते हैं । ये गृहस्थ थे, यह बात अपनी जाति और पिताके नामोल्लेखसे ही सिद्ध है। ये प्रतिभाशाली एवं कर्मशास्त्रके अच्छे अधिकारी विद्वान् रहे हैं, ऐसा उनकी रचनाका अध्ययन करनेपर सहज ही अनुभव होता है। अमितगतिके सं० पञ्चसंग्रहके होते हुए इन्होंने क्यों पुनः सं० पञ्चसंग्रहकी रचना की, यह बात पहले इसी प्रस्तावनामें स्पष्ट को जा चुकी है। यह सं० पञ्चसंग्रह लगभग २००० श्लोक-प्रमाण है। प्रा० पञ्चसंग्रहकी संस्कृत टीका प्राकृत पञ्चसंग्रहके ऊपर जो संस्कृत टीका उपलब्ध हुई है यह प्रस्तुत ग्रन्थमें दी गई है। दुर्भाग्यसे इसका प्रारम्भिक अंश उपलब्ध नहीं हो सका और न दूसरी कोई प्रति ही मिल सकी, जिससे कि उस खण्डित अंशकी पूर्ति की जा सकती। यद्यपि यह टीका तीसरे प्रकरणकी ४०वीं माथातक त्रुटित है, तथापि उसके भी विनाशके भयसे व्याकुल होकर एवं श्रुत-रक्षाकी भावनासे प्रेरित होकर ज्ञानपीठके संचालकों और उसके सम्पादकोंने उसे प्रकाशमें लाना उचित समझा और इसीलिए जहाँसे भी वह उपलब्ध हुई, वहींसे उसे प्रकाशित करनेकी व्यवस्था की गई है। टीका अपने आपमें साङ्गोपाङ्ग है। प्रत्येक स्थलपर अग्निम वक्तव्यकी उत्थानिका देकर और गाथाको पुरा उधत कर टीका लिखी गई है। प्रत्येक आवश्यक स्थलपर अंक-संदष्टियाँ दी गई है, जिससे उसकी उपयोगिता और भी अधिक बढ़ गई है। बीच-बीच में अपने कथनकी पुष्टिमें अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रहके अनेकों श्लोक एवं गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्डकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। टीकाकी भाषा अत्यन्त सरल और प्रसादगुण-युक्त है। टीकाकार ___ इस टीकाके रचयिता सूरि ( सम्भवतः भट्टारक ) श्री सुमतिकीति हैं। इन्होंने अपनी इस टीकाको वि० सं० १६२० के भाद्रपद शुक्ला दशमीके दिन ईलाव (?) नगरके आदिनाथ-चैत्यालयमें पूर्ण किया है, यह बात टीकाके अन्तमें दी गई प्रशस्तिसे स्पष्ट है । टीकाकारने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है, उसके अनुसार वे मूलसंघ और बलात्कारगणमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामें उत्पन्न हुए पद्मनन्दी, देवेन्द्रकीत्ति, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण और प्रभाचन्द्रके पश्चात् भट्टारक पदपर आसीन हुए हैं। हंस नामक किसी वर्णीके उपदेशसे प्रेरित होकर उन्होंने प्रस्तुत टीकाका निर्माण किया है। इसका संशोधन उनके गुरु ज्ञानभूषणने किया है। संस्कृत टीकाकारकी एक भूल .पञ्चसंग्रहके टीकाकार समतिकीति समग्र ग्रन्थकी संस्कृत टीका करते हुए भी एक बहुत बड़ी भल प्रस्तुत ग्रन्थके यथार्थ नामको नहीं समझ सकनेके कारण उसके अध्याय-विभाजनमें कर गये हैं। गोम्मटसारका दूसरा नाम पञ्चसंग्रह उसके टीकाकारोंने दिया है। सकलकोत्तिने देखा कि गो० जीव काण्डका विषय प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम प्रकरण जीवसमासमें आया है। किन्तु गो० जीवकाण्डमें तो७३३ गाथाएं है और इसमें केवल २०६ ही । अतः यह लधु गो० जीवकाण्ड होना चाहिए। इसी प्रकार गो० कर्मकाण्डके प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारमें ९० के लगभग गाथाएँ पाई जाती है, पर इसमें तो केवल १२ ही हैं। इसी प्रकार आगे भी गो० कर्मकाण्डके जिस प्रकरणमें जितनी गाथाएँ हैं, उससे प्रस्तुत ग्रन्थके विवक्षित प्रकरणमें कम ही गाथाएँ दृष्टिगोचर हो रही Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हैं; अतः यह लघु गो० कर्मकाण्ड होना चाहिए । इस प्रकारके मति - विभ्रम हो जानेके कारण उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थको लघु गोम्मटसार ही समझ लिया और इसीके फलस्वरूप अधिकारोंके अन्तमें जो पुष्पिका वाक्य दिये है, उसमें उन्होंने सर्वत्र उक्त भूलको दुहराया है। यहाँ हम इस प्रकारको पुष्पिका के दो उद्धरण देते हैं१. इति श्रीपनसंग्रह | परनामलघु गोम्मटसार सिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डे बन्धोदयोदीरणसरवप्ररूपणो नाम द्वितीयोऽध्यायः । ( देखो, पृ० ७४ की टिप्पणी ) २. इति श्रीपञ्चसंग्रहगोम्मट्टसार सिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डे जीवसमासादिप्रत्ययप्ररूपणो नाम चतुर्थोऽधिकारः । ( देखो, पृ० १७४ की टिप्पणी ) इस प्रकारकी भूल सभी अधिकारोंमें हुई है । उक्त दोनों उद्धरण गो० कर्मकाण्डके नामोल्लेख वाले दिये गये हैं, गो० जीवकाण्डके नामवाले नहीं। इसका कारण यह है कि प्रारम्भके दो प्रकरणोंपर अर्थात् जीवसमास और प्रकृति समुत्कीर्तनपर संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं है। जो आदर्श प्रति प्राप्त हुई है, उसके प्रारम्भके ३७ पत्र नहीं मिल सके हैं जिनमें उक्त दोनों प्रकरणोंकी संस्कृत टीका रही है। लेकिन प्राप्त पुष्पिकाओंके आधारपर यह निश्चय - पूर्वक कहा जा सकता है कि जीवसमासकी समाप्तिपर टीकाकार-द्वारा जो पुष्पिका दी गई होगी, उसमें उसे 'लघु गोम्मटसार जीवकाण्ड' अवश्य कहा गया होगा। साथ ही आगेके अधिकारोंके विभाजनको देखते हुए यह भी निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि उसके भी अधिकारोंका दिना जन उन्होंने ठीक उसी प्रकार किया होगा, जिस प्रकारसे कि गो० जीवकाण्ड में पाया जाता है । इसके प्रमाण में हम उपलब्ध पुष्पिकाओंसे दिये गये अधिकारोंकी क्रम संख्याको प्रस्तुत करते हैं। प्रा० पञ्चसंग्रहका कर्मस्तव तीसरा अधिकार है । पर उसके अन्तमें जो पुष्पिका दी गयी है, उसमें उसे दूसरा अध्याय कहा गया है। ( देखो, पृ० ७४ की ऊपर दी गई पुष्पिका ) इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक दूसरे अधिकारको प्रथम अधिकार समझा है और यतः गो० कर्मकाण्ड में प्रकृति- समुत्कीर्त्तन नामका प्रथम और बन्धोदयसत्त्व प्ररूपणावाला द्वितीय अधिकार पाया जाता है, अत: टीकाकारने प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारसे लेकर आगे के भागको गो० कर्मकाण्डका संक्षिप्त रूप मान लिया, और उसके पूर्ववर्ती भागको गो० जीवकाण्डका । अतः उन्होंने तदनुसार ही अधिकारोंका विभाजन करना प्रारम्भ कर दिया । यदि उन्हें यह विभ्रम न होता, तो वे पञ्चसंग्रहके मूल अधिकारोंके समान ही अधिकारों का विभाजन करते और उनके अन्तमें ही अपनी पुष्पिका देते । उक्त विभ्रमकी पुष्टिमें दूसरी बात यह है कि प्रारम्भके दो अधिकारोंको टीकाको छोड़कर शेष अधिकारोंपर जो टीका की गई है, उसपर मूल अधिकारोंके समान ही अधिकारोंकी अंक संख्या दी जानी चाहिए थी। किन्तु हम देखते हैं कि पाँचवें सप्ततिका अधिकारकी समाप्तिपर सातवें अध्याय के समाप्तिका निर्देश किया गया है । । टीकाकारने मूल-गाथा और भाष्य - गाथाका अन्तर न समझ सकनेके कारण कहीं-कहीं मूल और भाष्यगाथाकी टीका एक साथ ही की है। पर मैंने सर्वत्र मूल गाथासे भाष्य-गाथाको पृथक् रखा है और तदनुसार पृथक् रूपसे ही उसका अनुवाद किया है। इससे २१ स्थलोंपर अनुवाद कुछ असंगत-सा दिखाई देने लगा है (देखो, पृ० ४१५ इत्यादि ) । परन्तु मूल-गाथाओंकी भिन्नता प्रकट करनेके लिए उनका पृथक् अनुवाद करना अनिवार्य रूपसे आवश्यक था । जिस प्रकार आ० अमितगतिने श्लेषरूपमें प्रत्येक अधिकारके अन्तमें अपने नामका उल्लेख किया है ठीक उसी प्रकारसे संस्कृत टीकाकारने भी किया है और इसलिए अमितगतिके सं० पञ्चसग्रहका अपनी टीका में भरपूर उपयोग करते हुए एवं पर्याप्त संख्यामे उसके श्लोकोंको उद्धृत करते हुए भी उन्होंने उनके Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अधिकार समाप्तिपर दिये गये इलोकोंमें थोड़ा-बहुत शब्द-परिवर्तन कर स्व-रचितके रूपमें उपस्थित किया है । उदाहरण के लिए एक बानगी इस प्रकार है ४४ बन्धविचारं बहुतमभेदं यो हृदि धत्ते विगलितखेदम् । याति स भव्यो व्यपगतकष्टां सिद्धिमबन्धोऽमितगतिरिष्टाम् ॥ ( सं० पञ्चसं० पृ० १४६ ) बन्धविचारं बहुविधिभेदं यो हृदि धते विगलितपापम् । याति स भव्यः सुमतिसुकीतिं सौख्यमनन्तं शिवपदसारम् ॥ दोनों पद्योंमें एक ही बात कही गई है, शब्द और अर्थ साम्य भी है । परन्तु 'अमितगति' के नामपर अपने 'सुमतिकीत्ति' नामको प्रतिष्ठित कर दिया गया है जो स्पष्टरूपसे अनुकरण है । विषय - परिचय जैसा कि इस ग्रन्थके नामसे प्रकट है, इसमें पाँच प्रकरणोंका संग्रह किया गया है । उनके नाम इस प्रकार हैं- जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धस्तव, शतक और सप्ततिका । ( प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० २३३ ) ――――― १ जीवसमास -- इस प्रकरणमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग, इन बीस प्ररूपणाओंके द्वारा जीवोंको विविध दशाओंका वर्णन किया गया है। मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले जीवोंके परिणामोंके तारतम्यरूप क्रम विकसित स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान चौदह होते हैं -- मिध्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अदिरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्व - करण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली । इनका स्वरूप प्रथम प्रकरणके प्रारम्भमें बतलाया गया है । दूसरी जीवसमास प्ररूपणा है । जिन धर्मविशेषोंके द्वारा नाना जीव और उनकी नाना प्रकारको जातियाँ जानी जाती हैं, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं । जीवसमासके संक्षेपसे चौदह भेद हैं और विस्तारकी अपेक्षा इक्कीस, तीस, बत्तीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चौवन और सत्तावन भेद होते हैं । इन सर्व भेदोंका प्रथम प्रकरण में विस्तारसे विवेचन किया गया है। तीसरी पर्याप्तिप्ररूपणा है । प्राणोंके कारणभूत शक्तिकी प्राप्तिको पर्याप्ति कहते हैं । पर्याप्तियाँ छह प्रकारकी होती हैंआहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति । एकेन्द्रियजीवोंके प्रारम्भकी चार, विकलेन्द्रिय जीवोंके प्रारम्भकी पाँच और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं । चौथी प्राणप्ररूपणा है । पर्याप्तियोंके कार्यरूप इन्द्रियादिके उत्पन्न होनेको प्राण कहते हैं । प्राणोंके दस भेद हैं—स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास । इनमेंसे एकेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास; ये चार प्राण होते हैं । द्वीन्द्रियजीवोंके रसनेन्द्रिय और वचनबल इन दोके साथ उपर्युक्त चार प्राण मिलाकर छह प्राण होते हैं । त्रीन्द्रियजीवोंके इन्हीं छह में घ्राणेन्द्रिय मिला देनेपर सात प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवोंके इन्हीं सात में चक्षुरिन्द्रिय मिला देनेपर आठ प्राण होते हैं । असंज्ञी पञ्चेन्द्रियजीवोंके इन्हीं आठमें कर्णेन्द्रिय मिला देनेपर नौ प्राण होते हैं । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके इन्हीं नौ प्राणोंमें मनोबल और मिला देनेपर दस प्राण होते हैं । पाँचवीं संज्ञा - प्ररूपणा है । जिनके सेवन करनेसे जीव इस लोक और परलोकमें दुःखोंका अनुभव करता है, उन्हें संज्ञा कहते हैं । संज्ञाके चार भेद हैं-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रह संज्ञा । एकेन्द्रियसे लगाकर पञ्चेन्द्रिय तकके सर्व जीवोंके ये चारों ही संज्ञाएँ पायी जाती हैं । जिन अवस्थाविशेषों में जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं । मार्गणाओंके चौदह भेद हैं- गतिमार्गणा, इन्द्रियमार्गणा, कायमार्गणा, योगमार्गणा, वेदमार्गणा, कषायमार्गणा, ज्ञानमार्गणा, संयममार्गणा दर्शनमार्गणा, For Private Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५५ लेश्यामार्गणा, भव्यमार्गणा, सम्यक्त्वमार्गणा, संज्ञिमार्गणा और आहारमार्गणा। प्रथम प्रकरणमें इन चौदह मार्गणाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। बीसवीं उपयोग-प्ररूपणा है। वस्तुके स्वरूपको जाननेके लिए जीवका जो भाव प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकारका होता है-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । साकारोपयोगके आठ और अनाकारोपयोगके चार भेद होते हैं। इस प्रकार पहले जीवसमास प्रकरणमें बीसप्ररूपणोंके द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। __२ प्रकृतिसमुत्कीर्तन-यह पञ्चसंग्रहका द्वितीय प्रकरण है। इसमें कर्मोकी मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियोंका निरूपण किया गया है। मूलप्रकृतियां आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानबे, दो और पांच है। जो सब मिलाकर १४८ होती हैं। इनमें से बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ १२०, उदययोग्य प्रकृतियाँ १२२, उद्वेलन-प्रकृतियाँ ११, ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ ४७, अध्रुवबन्धी ११, परिवर्तमान प्रकृतियाँ ६२ तथा सत्त्वयोग्य प्रकृतियाँ १४८ हैं। पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणोंमें यह सबसे छोटा प्रकरण है। यतः कर्म-विषयक अन्य ग्रन्थोंमें कर्म-प्रकृतियोंका विस्तृत विवेचन किया गया है, अतः ग्रन्थकारने प्रकृतियोंके नाम-निर्देशक अतिरिक्त अन्य कुछ वर्णन करना आवश्यक नहीं समझा है। ३ कर्मस्तव-यह पञ्चसंग्रहका तृतीय प्रकरण है। कुछ आचार्य इसे बन्धस्तव और कुछ कर्मबन्धस्तवके नामसे भी इसका उल्लेख करते हैं । इस प्रकरणकी मूलगाथाओंकी संख्या ५२ और भाष्यगाथाओं तथा चूलिका गाथाओंकी संख्या मिलाकर सर्व गाथाएँ ७७ है। इस प्रकरणमें चौदह गुणस्थानोंमें बंधनेवाली, नहीं बँधनेवालो और बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका; तथा सत्त्व-योग्य, असत्त्व-योग्य और सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गथा है और अन्तमें चूलिकाके भीतर नो प्रश्नोंको उठाकर उनका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि किन प्रकृतियोंकी बन्ध-ज्युच्छित्ति, उदय-व्युच्छित्ति और सत्त्व-व्युच्छित्ति पहले, पीछे या साथमें होती है। इस नवप्रश्नरूप चूलिकाके द्वारा कर्मप्रकृतियोंकी बन्ध, उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति सम्बन्धी कितनी ही ज्ञातव्य बातोंका सहजमें ही बोध हो जाता है । 'स्तव' नाम विवेच्य वस्तुके विवेचन करनेवाले अधिकारका है, अतः यह मूल प्रकरण दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें कर्मस्तव या बन्धस्तव नामसे प्रसिद्ध है। ४ शतक-पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणका नाम शतक है। यतः इस प्रकरणके मल गाथाओंकी संख्या सौ है, अतः यह प्रकरण 'शतक' नाससे ही दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सन्प्रदायोंमें प्रसिद्ध है। इस प्रकरणमें चौदह मार्गणाओंके आधारसे जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग और योगका वर्णन करके तदनन्तर कम-बन्धके कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति आदि बन्ध-प्रत्ययोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है । साथ ही मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंकी अपेक्षा सम्भव संयोगी भंगोंका विस्तृत विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका वर्णन किया गया है । पुनः कर्मबन्धके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका स्वामित्व आदि अनेक अधिकारोंके द्वारा विस्तारसे साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। इस प्रकरणके मलगाथाओंकी संख्या १०५ है और उनके साथ भाष्यगाथाओंकी संख्या ५२२ है। ५ सप्ततिका-पञ्चसंग्रहके पांचवें प्रकरणका नाम सप्ततिका है। यतः इस प्रकरणके मूलगाथाओंकी संख्या सत्तर है, अतः यह प्रकरण दोनों ही सम्प्रदायोंमें 'सित्तरी' या 'सप्ततिका'के नामसे प्रसिद्ध है । इस प्रकरणमें मुलकर्मों और उनके अवान्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंका स्वतन्त्ररूपसे एवं चौदह जीवसमास और गुणस्थानोंके आश्रयसे विवेचन कर उनके संभव भंगोंका विस्तारसे वर्णन करते हुए अन्तमें कर्मोकी उपशामना और क्षपणाका विवेचन किया गया है। इस प्रकरणकी मूलगाथाएं अतिसंक्षिप्त एवं दुरूह हैं, इस बातका अनभव करके ही भाष्यगाथाकारने उनका विवेचन भाष्यगाथाएँ रचकर अतिसुगम कर दिया है । इस प्रकरणको मूलगाथा-संख्या ७२ है और उनके साथ भाष्यगाथाओंकी संख्या ५०७ है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसंग्रह शतक और सप्ततिका इन दोनों ही प्रकरणोंमें भंगोंका निरूपण करनेवाली अनेकों भाष्यगाथाएँ शब्दशः समान हैं, जिन्हें उनके रचयिताने दोनों ही प्रकरणोंकी स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण रखनेके लिए दोनों ही प्रकरणोंमें निबद्ध किया है और इसीसे यह सिद्ध होता है कि इन प्रकरणोंके भाष्यगाथाओंके रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। -हीरालाल शास्त्री Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-विषय-सूची १जीवसमास-अधिकार मंगलाचरण और वस्तु-निरूपणकी प्रतिज्ञा जोवप्ररूपणाके भेद गुणस्थानका स्वरूप और भेद मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप सासादनगुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान अविरतसम्यक्त्वगुणस्थान, देशविरतगुणस्थान , प्रमत्तसंयतगुणस्थान अप्रमत्तसंयतगुणस्थान , अपूर्वकरणगुणस्थान , , अनिवृत्तिकरणगुणस्थान , सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान उपशान्तकषायगुणस्थान ,, क्षीणकषायगुणस्थान , सयोगिकेवलिगुणस्थान - , अयोगिकेवलिगुणस्थान सिद्धोंका स्वरूप जीवसमासका स्वरूप जीवसमासोंके भेद पर्याप्तिप्ररूपणा प्राणप्ररूपणा संज्ञाप्ररूपणा आहारसंज्ञाका स्वरूप भयसंज्ञा मैथुनसंज्ञा परिग्रहसंज्ञा , मार्गणाका स्वरूप और भेद आठ सान्तरमार्गणा गतिका स्वरूप नरकगति , पृष्ठ मनुष्यगति स्वरूप १-४३ देवगति सिद्धगति , इन्द्रियमार्गणाका वर्णन और इन्द्रियका स्वरूप इन्द्रियोंके आकार एकेन्द्रियादि जीवोंके इन्द्रिय-निरूपण इन्द्रियोंके विषय एकेन्द्रिय जीवका स्वरूप द्वीन्द्रियजीवोंके भेद त्रीन्द्रिय जीवोंके भेद चतुरिन्द्रिय जीवोंके भेद पंचेन्द्रिय जीवोंके भेद अतीन्द्रिय जीवोंका स्वरूप कायमार्गणाका वर्णन और कायका स्वरूप पृथिवीकायिक जीवोंके भेद जलकायिक अग्निकायिक वायुकायिक वनस्पतिकायिक .. साधारणवनस्पतिकायिक जीवोंका वर्णन त्रसकायिक जीवोंके भेद अकायिक जीवोंका स्वरूप योगमार्गणाका वर्णन और योगका स्वरूप मनोयोगके भेद और उनका स्वरूप १८-१९ वचनयोगके भेद और उनका स्वरूप औदारिक काययोगका औदारिक मिश्रकाययोग वैक्रियिककाययोग वैक्रियिकमिश्रकाययोग आहारककाययोग आहारकमिश्रकाययोग १३ कार्मणकाययोग १३ अयोगि जीवोंका स्वरूप १३ वेदमार्गणाका वर्णन और वेदका स्वरूप or rrrrrr"""377urur 9999 P.mmxAX222222 مہ مہ ~ ہ ~ ० ० ० ० wwNNY Y Y Y Y ४ ww w r ہ ~ ہ ~ ~ तिर्यग्गति , Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पश्चसंग्रह س س س س س س س س س २४ ३३ वेदके भेद और वेद-वैषम्यका निरूपण भाववेद और द्रव्यवेदका कारण वेद-वैषम्यका कारण स्त्रीवेदका स्वरूप पुरुषवेदका स्वरूप नपुंसकवेद , अपगतवेदी जीव कषाय मार्गणा, कषायका स्वरूप कषायोंके भेद और उनके कार्य क्रोध कषायकी जातियाँ और उनका फल मान कषायकी , माया कषायकी ,, लोभ कषायकी , चारों जातिकी कषायोंके कार्य अकषायिक जीवोंका स्वरूप ज्ञानमार्गणा, ज्ञानका स्वरूप मत्यज्ञानका स्वरूप श्रुताज्ञान विभंगज्ञान , मतिज्ञान श्रुतज्ञान , अवधिज्ञान , अवधिज्ञानके भेद मनःपर्ययज्ञानका स्वरूप केवलज्ञान संयममार्गणा, द्रव्यसंयमका स्वरूप भावसंयमका स्वरूप सामायिक संयम ,, छेदोपस्थापना , परिहारविशुद्धि , सूक्ष्मसाम्पराय , यथाख्यात संयमासंयम , संयमासंयमका विशेष स्वरूप देशविरतके भेद असंयमका स्वरूप दर्शनमार्गणा, दर्शनका स्वरूप चक्षुदर्शनका अवधिदर्शन २२ केवल दर्शन लेश्यामार्गणा, लेश्याका स्वरूप लेश्याके स्वरूपका दृष्टान्त-द्वारा स्पष्टीकरण २३ कृष्णलेश्याका लक्षण २३ नोललेश्या " २३ कापोतलेश्या २३ तेजोलेश्या २३ पद्मलेश्या २४ शुक्ललेश्या , २४ अलेश्यजीवोंका स्वरूप भव्यमार्गणा, भव्यका स्वरूप २४ भव्य और अभव्य जीवोंका विशेष निरूपण भव्यत्व और अभव्यत्वसे रहित जीवोंका वर्णन सम्यक्त्वमार्गणा, सम्यक्त्वप्राप्तिकी योग्यता ३४ सम्यक्त्वका स्वरूप ३४ २५ क्षायिकसम्यक्त्व, ३४ २५ वेदकसम्यक्त्व , उपशमसम्यक्त्व, तीनों सम्यक्त्वोंका गुणस्थानोंमें विभाजन सासादनसम्यक्त्वका स्वरूप सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें सर्वोपशम और २७ देशोपशमका नियम २७ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके पश्चात् मिथ्यात्व प्राप्तिका नियम संज्ञिमार्गणा, संज्ञी और असंज्ञीका सामान्य स्वरूप ३६ संज्ञी असंज्ञीका विशेष स्वरूप आहारमार्गणा, आहारकका स्वरूप आहारक और अनाहारक जीवोंका विभाजन उपयोग प्ररूपणा, उपयोगका स्वरूप और भेद साकार उपयोग अनाकार उपयोग युगपद् उभयोपयोगी जीवोंके कालका निरूपण २९ जीवसमास अधिकारका उपसंहार २९ छहों लेश्याओंके वर्ण नरकोंमें लेश्याओंका निरूपण ३० तिर्यञ्च और मनुष्योंमें ,, गुणस्थानोंमें orror الله الله الله الله V V V V Vaa لله الله الله الله Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थ-विषय-सूची ४१ ४१ ४१ لعل الله س له سه देवोंमें लेश्याओंका निरूपण ४० गुणस्थानोंमें मूल प्रकृतियोंकी उदीरणाका निरूपण ५३ पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवोंकी लेश्याओंका निरूपण ४० दशवें और बारहवें गुणस्थानमें उदीरणाका नियम ५३ विग्रहगतिको प्राप्त , , , ४० गुणस्थानोंमें मूल प्रकृतियोंके सत्त्वका निरूपण लेश्या-जनित भावोंका दष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण ४० गुणस्थानोम बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवालो सम्यग्दृष्टि जीव मरकर कहाँ-कहाँ उत्पन्न नहीं होता ४१ प्रकृतियोंका वर्णन एक जीवके कौन-कौनसी मार्गणाएँ एक साथ बन्धके विषयमें कुछ विशेष नियम ५४ नहीं होती मिथ्यात्व गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली संयमोंका गणस्थानोंमें निरूपण ४१ प्रकृतियाँ समुद्घातके भेद सासादन गुणस्थानमें केवलिसमुद्घातका निरूपण अविरत गुणस्थानमें केवलिसमुद्घातमें काययोगोंका वर्णन ४२ देशविरत गुणस्थानमें केवलिसमुद्घातका नियम ४२ प्रमत्तविरत गुणस्थानमें , सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रतकी प्राप्तिका नियम ४२ अप्रमत्त विरत गुणस्थानमें अपूर्वकरण गुणस्थानमें दर्शन मोहके क्षयका अधिकारी जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें ,, क्षायिक सम्यग्दृष्टिके संसार-वासका नियम ४३ सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें ,, दर्शन मोहके उपशमका अधिकारी जीव सयोगि केवलीके सम्यक्त्व आदिके विरह-कालका नियम ४३ गुणस्थानोंमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंनारकियोंके विरह-कालका नियम ४३ की संख्याका निरूपण. २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन-अधिकार ४४-५० कुछ विशेष प्रकृतियोंके उदय-विषयक नियम मंगलाचरण और प्रकृति समुत्कीर्तन करनेकी प्रतिज्ञा ४४ आनुपूर्वीके उदय-विषयक कुछ विशेष नियम ६०. प्रकृतियोंके भेद मिथ्यात्व गुणस्थानमें उदयसे व्यच्छिन्न होनेवाली - प्रकृतियाँ मुल प्रकृतियोंके नाम मूल प्रकृतियोंके स्वभावका दृष्टान्त द्वारा निरूपण ४४ सासादन गुणस्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्तर प्रकृतियोंके भेदोंका पृथक्-पृथक् वर्णन बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ अविरत सम्यक्त्वमें देशविरतमें बन्धके अयोग्य प्रकृतियाँ उदयके अयोग्य प्रकृतियां प्रमत्त विरतमें अप्रमत्तविरतमें उद्वेलना-योग्य प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ अपूर्वकरणमें अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ अनिवृत्ति करणमें परिवर्तमान प्रकृतियाँ सूक्ष्म साम्परायमें उपशान्त मोहमें ३. कर्मस्तव अधिकार ५१-७९ क्षीण मोहमें मंगलाचरण और कर्मोके बन्ध-उदयादि सयोगि केवलीके कथनकी प्रतिज्ञा अयोगि केवलीके बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्त्वका स्वरूप ५१ उदय और उदीरणामें तीन गुणस्थान-गत गुणस्थानोंमें मूल प्रकृतियोंके बन्धका निरूपण ५२ विशेषताका निरूपण गुणस्थानोंमें मूल प्रकृतियोंके उदयका निरूपण ५२ गणस्थानोंमें प्रकृतियोंके क्षयका क्रम * * * * * * ५० ५१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० - पञ्चसंग्रह "" ওও छठे ७७ ७८ ७८ कुछ विशेष प्रकृतियोंके सत्त्व-असत्त्व-विषयक नियम ६९ शतककार-द्वारा गुणस्थानोंमें योग-निरूपण अनिवृत्ति करणमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ ७१ भाष्य गाथाकार-द्वारा उक्त अर्थका स्पष्टीकरण १०४ सूक्ष्मसाम्परायमें , , ७२ बन्ध-प्रत्ययोंके भेदोंका निर्देश १०५ क्षीणकषायमें गुणस्थानोंमें मूल बन्ध-प्रत्ययोंका वर्णन १०५ अयोगि केवलीके द्विचरम समयमें ,, गुणस्थानोंमें उत्तर-प्रत्ययोंका निरूपण १०६ अयोगि केवलीके चरम समयमें , किस गुणस्थानमें कौन-कौनसे उत्तर प्रत्यय कर्मस्तवको अन्तिम मंगल-कामना नहीं होते मार्गणाओंमें बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण १०८-११३ बन्ध-उदयादि-सम्बन्धी नवप्रश्न-चूलिका नौ प्रश्नोंमेंसे द्वितीय प्रश्नका समाधान गुणस्थानोंकी अपेक्षा एक जीवके एक समयमें तृतीय सम्भव, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट प्रथम बन्ध-प्रत्ययोंका निर्देश पांचवें ७७ काय-विराधना-सम्बन्धी गुणकारोंका निरूपण चौथे ११४-११६ मिथ्यादृष्टिके भी अवस्था-विशेषमें एक आवली आठवें कालतक अनन्तानुबन्धी कषायका उदय सातवें नहीं होता नवें ॥ ७९ मिथ्यादृष्टिके दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंका ४. शतक अधिकार ८०-२६३ निरूपण ११७ मिथ्यादृष्टिके ग्यारह मंगलाचरण और वस्तु-कथनकी प्रतिज्ञा जिनवचनामृतकी महत्ता तेरह प्रतिपाद्य विषयके सुननेके लिए श्रोताओंको " -------- .१२२ चौदह १२४ सम्बोधन पन्द्रह .... " प्रतिपाद्य विषयका निर्देश शतककार-द्वारा मार्गणा स्थानोंमें जीवसमासोंका १२८ निरूपण सत्रह " " " . १२९ अट्ठारह " , १३१ भाष्य गाथाकार-द्वारा , , , ८२-८६ शतककार-द्वारा जीव समासोंमें उपयोगका निरूपण ८७ सासादन सम्यग्दृष्टिके बन्ध-प्रत्यय-गत विशेष निर्देश भाष्य गाथाकार-द्वारा , १३२ , , ८७ भाष्य गाथाकार-द्वारा मार्गणा स्थानोंमें , ८८-९२ सासादन सम्यग्दृष्टिके दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंका निरूपण शतककार-द्वारा जीवसमासोंमें योगोंका वर्णन ९२ सासादन सम्यग्दृष्टिके ग्यारह १३३ भाष्य गाथाकार-द्वारा , , ९३ भाष्य गाथाकार-द्वारा मार्गणाओंमें योगोंका बारह ,, १३४ वर्णन ९४-९७ तेरह , शतककार-द्वारा मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका निरूपण भाण्य गाथाकार-द्वारा , , ९८-१०२ शतककार-द्वारा गुणस्थानोंमें उपयोगका वर्णन १०२ भाष्यगाथाकार-द्वारा उक्त अर्थका विशद सम्यग्मिथ्यादृष्टिके नौ , १४१ विवेचन १०२-१०३ दश , ११९ १२० बारह ".. १२६ सोलह ८१ १३२ चौदह " पन्द्रह ॥ सोलह ॥ सत्रह " uv १४० , १४१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थ-विषय-सूर ५१ १४२ तेरह , चौदह " २४७ " १५० १७४ ग्यारह , बारह " तेरह " चौदह " " १५१ सम्यग्मिध्यादृष्टिके ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी वेदनीय कर्म के विशेष बन्ध-प्रत्यय वर्णन १६८ - भंगोंका निरूपण दर्शन मोहनीय कर्मके सम्यग्मिथ्यादृष्टिके बारह , चारित्र मोहनीय कर्मके ,, नरकायु कर्मके १७० १४५ तिर्यगायु कर्मके १७० पन्द्रह , , , १४६ मनुष्यायु कर्मके १७१ सोलह, ". " देवायु कर्मके १७१ असंयत सम्यग्दृष्टिके बन्ध-प्रत्ययगत विशेषताका नाम कर्मके १७२ निरूपण १४८ गोत्र कर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण १७२ असंयत सम्यग्दृष्टिके नौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी अन्तराय कर्मके , " " १७३ भंगोंका निरूपण कर्मोके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण अनुभागअसंयत सम्यग्दृष्टिके दस , बन्धकी अपेक्षासे जानना चाहिए कर्मोके बन्ध, उदय और सत्त्व स्थानोंका निरूपण १७४ शतककार-द्वारा गुणस्थानोंमें मूल कर्मोके बन्ध१५२ स्थानोंका वर्णन १७४ १५३ भाष्य गाथाकार-द्वारा उक्त अर्थका स्पष्टीकरण १७५ पन्द्रह ,, १५४ शतककार-द्वारा गुणस्थानोंमें, उदयस्थानोंमें उदयसोलह, , ,.. १५५ स्थानोंका निरूपण १७५ देशसंयतके सम्भव बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी गुणकार १५६ भाष्य गाथाकार-द्वारा उदीरकोंका कथन १७६ देशसंयतके आठ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंका शतककार-द्वारा उदीरकोंका विशेष निरूपण १७६-१८० - निरूपण १५७ प्रकृति बन्धसे सादि-अनादि आदि नौ भेदोंका देशसंयतके १५७ कथन १८१ दश " , १५८ उक्त बन्ध-भेदोंका स्वरूप १८२ ग्यारह " " " ११० मूल प्रकृतियोंके सादि-आदि बन्धोंका निरूपण १८२ उत्तर प्रकृतियोंके , १६१ ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका निरूपण चौदह , १६२ निष्प्रतिपक्ष अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ प्रमत्तसंयतके बन्ध-प्रत्यय-गत विशेषताका निरूपण १६२ सत्प्रतिपक्ष अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ १८४ प्रमत्तसंयतके पाँच बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंका मूल प्रकृतिस्थान और भुजाकारादिका निरूपण १८४ निरूपण १६३ उत्तर प्रकृतियोंके प्रकृतिस्थान और प्रमत्तसंयतके छह Na .७९ " " " भुजाकारादिका वर्णन १८६ प्रमत्तसंयतके सात , दर्शनावरण कर्मके बन्धस्थानोंका वर्णन १८६ अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण संयतके बन्ध दर्शनावरण कर्मके भुजाकार बन्धोंका वर्णन १८६ - प्रत्यय और उनके भंगोंका निरूपण १६४ दर्शनावरण कर्मके बन्धस्थानोंका गणस्थानोंमें अनिवृत्तिकरण संयतके बन्ध-प्रत्यय और उनके निरूपण भंगोंका निरूपण १८७ १६५ मोहकर्मके बन्धस्थान और भजाकारादिका वर्णन १८८ सूक्ष्मसाम्परायादि शेष गुणस्थानोंके बन्ध-प्रत्यय और उनके भंगोंका निरूपण मोहकर्मके दश बन्धस्थानोंका निरूपण १८८ ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मके विशेष बन्ध उक्त बन्धस्थानोंका प्रकृति निर्देशपूर्वक प्रत्यय वर्णन गुणस्थानोंमें वर्णन १८८-१९१ बारह तेरह १८३ ॥ १८३ १८३ mro १६७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पञ्चसंग्रह वर्णन २०० मोहकर्मके भुजाकार बन्धोंका निरूपण १९२ सासादन गुणस्थानमें बन्धसे व्यच्छिन्न होनेवाली मोहकर्मके अल्पतर और अवक्तव्य बन्धोंका वर्णन १९४ प्रकृतियाँ २१७ नामकर्मके बन्धस्थान आदिका निर्देश १९६ अविरत आदि चार गुणस्थानोंमें बन्धसे व्युच्छिन्न नामकर्मके बन्धस्थानोंका निरूपण होनेवाली प्रकृतियाँ २१७-२१८ नामकर्मके भुजाकार बन्धस्थानोंका वर्णन १९६-१९८ अपूर्वकरण गुणस्थानमें बन्धसे , २१९ नामकर्मके अल्पतर और अवक्तव्य बन्धस्थानोंका नवें और दशवें गुणस्थानमें , , २२० १९८-१९९ तेरहवें गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली नामकर्मके चारों गतियोंमें सम्भव बन्ध प्रकृतिका निर्देशकर प्रकृत अर्थका उपसंहार २२१ स्थानोंका निरूपण शतककार-द्वारा मार्गणाओंमें बन्ध व्युच्छिन्न . नरकगति युक्त बँधनेवाले अट्ठाईस प्रकृतिक प्रकृतियोंको जाननेका निर्देश २२२ स्थानका वर्णन २०१ भाष्यगाथाकार-द्वारा नरकगतिमें बन्धसे व्युच्छिन्न तिर्यगति युक्त बँधनेवाले प्रथम तीस प्रकृतिक होनेवाली प्रकृतियोंके निरूपण २२३-२२४ ___ स्थानका वर्णन २०२ तिर्यग्गतिमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण २२५ तिर्यग्गति युक्त बंधनेवाले द्वितीय और तृतीय मनुष्यगतिमें , " " २२६ . प्रकारके तीस प्रकृतिक स्थानोंका वर्णन २०३ । देवगतिमें २२७ तिर्यग्गति युक्त बँधनेवाले तीनों प्रकारके उनतीस धवनत्रिक देव और सर्व देवियोंके बन्धादिका - प्रकृतिक बन्धस्थानोंका निरूपण २०४ निरूपण २२८ तिर्यग्गति युक्त बंधनेवाले छब्बीस प्रकृतिक बन्ध कल्पवासी देवोंके बन्धादिका निरूपण २२९ स्थानका वर्णन २०५ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्धादिका तिर्यग्गति युक्त बँधनेवाले प्रथम पच्चीस प्रकृतिक वर्णन - २३० स्थानका वर्णन २०५ कायमार्गणाकी " २३१ तिर्यग्गति युक्त बँधनेवाले द्वितीय प्रकृतिक बन्ध योगमार्गणाकी २३२-२३४ - स्थानका वर्णन २०६ वेदमार्गणाकी २३५ तिर्यग्गति युक्त बँधनेवाले तेईस , कषायमार्गणाकी , २३६ मनुष्यगति युक्त बंधनेवाले तीस , २०८ ज्ञान, संयम और दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा प्रकृ. " बंधनेवाले प्रथम उनतीस ,, २०९ तियोंके बन्धादि जाननेका निर्देश २३६ बँधनेवाले द्वितीय लेश्या मार्गणाकी अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्धादिका ,, बंधनेवाले तृतीय वर्णन २३७-२४० ,, बँधनेवाले पच्चीस २११ भव्य और सम्यक्त्व मार्गणाकी अपेक्षा , २४१ देवगति युक्त बँधनेवाले इकतीस २१२ शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा वन्धादि जाननेका . बँधनेवाले तीस २१२ - निर्देश २४२ . बँधनेवाले प्रथम उनतीस कर्म प्रकृतियोंके स्थिति बन्धके नव अधिकारोंका ,, बंधनेवाले द्वितीय निरूपण २१३ ,, बंधनेवाले प्रथम अट्ठाईस मूल प्रकृतियोंके स्थिति बन्धका वर्णन २४३ ,, बँधनेवाले द्वितीय कोंके आबाधाकालका निरूपण २४४ ,, बँधनेवाले एक " , कर्म-निषेधका निरूपण २१४ २४५ गुणस्थानोंकी अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्ध-स्वामित्वका कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निरूपण २१५-२१६ विशद वर्णन २४६-२४९ मिथ्यात्व गुणस्थानमे बन्धसे व्यच्छिन्न होनेवाली कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका प्रकृतियाँ विस्तृत वर्णन २४९-२५२ २०७ २०९ २१० २१३ २४३ TP , २१४ २१६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-विषय-सूची २८० मूल प्रकृतियोंके जघन्यादि बन्ध-सम्बन्धी प्रदेश बन्धका वर्णन सादि-आदि भेदोंकी प्ररूपणा जीवके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले कर्मरूप उत्तर प्रकृतियोंके सादि आदि भेदोंकी प्ररूपणा २५४ पुद्गल द्रव्यका प्रमाण २८० कर्मोकी स्थितियोंमें शुभ और अशुभपनेका प्रति समय आनेवाले कर्म-पिण्डका आठ कर्मों में निरूपण २५५ विभाजन २८१ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध-गत कुछ विशिष्ट प्रकृतियोंके मूलकर्मोके उत्कृष्टादि प्रदेश बन्धके सादि आदि स्वामियोंका निरूपण २५६ भेदोंका वर्णन २८२ शेष उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकोंका उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेश बन्धके सादि आदि निरूपण २५७-२५८ भेदोंका वर्णन २८२-२८३ जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका निरूपण २५८-२५९। गुणस्थानोंकी अपेक्षा मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका निरूपण २६० प्रदेश बन्धके स्वामित्वका निरूपण २८४ मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि भेदोंमें सम्भव मूलप्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश बन्धके स्वामित्वका सादि आदि अनुभागबन्धका निरूपण २६१ वर्णन २८५ उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि भेदोंमें उत्तर प्रकृतियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके स्वामित्वका सम्भव सादि आदि अनुभाग बन्धकी वर्णन २८६ प्ररूपणा उत्कृष्ट प्रदेश बन्धकी सामग्री विशेषका निरूपण २८७ मूल और उत्तर प्रकृतियोंके स्वमुख-परमुख उत्तर प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्ध और उनके विपाकरूप अनुभागका निरूपण ६४ . स्वामित्वका निरूपण २८८ प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धका चारों बन्धोंके कारणोंका निर्देश २८९ वर्णन २६५ चारों बन्धोंका स्वरूप २९० तीव्र अनुभाग बन्धके स्वामित्वका निरूपण २६५ योगस्थान, प्रकृति-भेद, स्थिति बन्ध्याध्यवसाय प्रशस्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश २६५ स्थान, अनुभाग बन्ध्याध्यवसाय स्थान और अप्रशस्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश । २६६ प्रदेश बन्धादिके अल्पबहुत्वका निरूपण २९१ कुछ विशिष्ट प्रशस्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग शतककार-द्वारा ग्रन्थका उपसंहार और अपनी बन्ध करनेवाले जीवोंका वर्णन २६७ लघुताका प्रदर्शन २९२ अप्रशस्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करने प्रकृत ग्रन्थके अध्ययनका फल २९३ _वाले जीवोंका वर्णन २६८ ५. सप्ततिका अधिकार २६४-५४० जघन्य अनुभाग बन्धके स्वामित्वका निरूपण २७०-२७४ । भाष्य गाथाकार-द्वारा मंगलाचरण और प्रतिज्ञा २९४ सर्वघाति प्रकृतियोंका निरूपण २७४ ७४ सप्ततिकाकार-द्वारा बन्ध, उदय और सत्त्व स्थानोंके देशघाति , , २७५ कथनकी प्रतिज्ञा २९४ पुण्य और पापरूप प्रकृतियोंका वर्णन बन्ध, उदय और सत्त्व-सम्बन्धी भंगोंको जाननेकी चतुःस्थानीय-त्रिस्थानीय आदि अनुभागबन्धका . सूचना निरूपण २७६ मूल प्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्व स्थानोंके। पुण्य और पापरूप प्रकृतियोंके अनुभागका दृष्टान्त- सम्भव भंगोंका निरूपण २९६ पूर्वक वर्णन २७६ चौदह जीव समासोंमें बन्ध, उदय और सत्त्व प्रत्ययरूप अनुभागबन्धका निरूपण २७७ स्थानोंके संयोगी भंगोंका निरूपण २९७ पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवविपाकी गुणस्थानोंमें बन्धादि-त्रिसंयोगी भंगोंका निरूपण २९८ प्रकृतियोंका निरूपण २७८ मूल प्रकृतियोंके समान उत्तर प्रकृतियोंमें भी जीवविपाकी प्रकृतियोंका निरूपण २७९ बन्धादि-त्रिसंयोगी भंगोंको जाननेकी सूचना २९९ २७५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके बन्धादि त्रिकके संयोगी भंगोंका निरूपण दर्शनावरण कर्मके बन्धादि त्रिकके संयोगी भंगों का वर्णन भाष्य गाथाकार द्वारा उक्त भंगों का स्पष्टीकरण वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मके बन्धादि विकके संयोगी भंगोंका वर्णन गोत्र कर्मके भंगों का स्पष्टीकरण वेदनीय कर्मके भंगोंका स्पष्टीकरण नरका कर्मके भंगों का वर्णन तिर्यगायु कर्मके मनुष्यायु कर्म के देवायु कर्मके 13 33 27 मोहनीय कर्मके बन्धस्थानोंका निरूपण भाष्य गाथाकार द्वारा उक्त बन्धस्थानोंका स्पष्टीकरण उक्त बन्धस्थानोंके अंगोंका निरूपण मोहनीय कर्मके उदयस्थानोंका निरूपण भाष्य गाथाकार द्वारा उक्त उदय स्थानोंकी प्रकृतियोंका निर्देश मोहनीय कर्मके सत्त्व स्थानोंका निरूपण भाष्य गाथाकारद्वारा सत्व स्थानोंकी प्रकृतियोंका निर्देश मोहनीय कर्मके बन्ध स्थानोंमें उदयस्थानोंका निरूपण भाष्य गाथाकार द्वारा उक्त अर्थका स्पष्टीकरण पञ्चसंग्रह ३००-३०२ २९९ मोहके बन्धस्थानोंमें सम्भव उदय स्थानोंका निरूपण मोहके उदयस्थानोंके मंगोंका निरूपण मोहके उदय-विकल्पोंके प्रकृति-परिवर्तन जनित भंगोंका परिमाण मोहकर्मके समस्त उदय-विकल्प और पदवृन्दोंका प्रमाण मोहकर्मके बन्धस्थानों में सत्व स्थानके भंगोंका सामान्य कथन उक्त भंगोंका विशेष कथन नामकर्म के बन्धस्थानोंका निरूपण ३०० ३०३ ३०५-२०७ ३०८ ३०९ ३११ ३१२ ३१४ ३१५ ३१६ ३१८ ३१९ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३२३-३२५ ३२६ ३२७-३२८ ३२९ ३२९ ३३० ३३०-३३५ ३३५ नामकर्मके चारों गतियोंमें सम्भव बन्धस्थानोंका वर्णन नामकर्मके उक्त बन्धस्थानोंका स्पष्टीकरण नामकर्मके नरक गति संयुक्त बंधनेवाले अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थानकी प्रकृतियाँ नामकर्मके तिर्यग्गतियुक्त बँधनेवाले प्रथम तीस प्रकृतिक बन्धस्थानकी प्रकृतियाँ नामकर्मके द्वितीय तीस प्रकृतिक बन्धस्थानका वर्णन नामकर्मके तृतीय तीस प्रकृतिक बन्धस्थानका वर्णन नामकर्मके उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानका निरूपण नामकर्मके छब्बीस प्रकृतिक वन्पस्थानका निरूपण नामकर्मके प्रथम पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थानका वर्णन नामकर्मके द्वितीय पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थानका वर्णन नामकर्मके तेईस प्रकृतिक बन्धस्थानका वर्णन मनुष्यगति युक्त बंधनेवाले तीस प्रकृतिक बन्धस्थानका निरूपण मनुष्यगति युक्त बँधनेवाले प्रथम, द्वितीय और तृतीय उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानोंका निरूपण मनुष्यगति युक्त बंधनेवाले पच्चीस प्रकृतिक बन्धस्थानका निरूपण देवगति संयुक्त बँधनेवाले इकतीस प्रकृतिक बन्धस्थानका निरूपण देवगति संयुक्त बँधनेवाले तीस प्रकृतिक बन्धस्थानका निरूपण ३३६ २३६ देवगति संयुक्त बंधनेवाले प्रथम और द्वितीय उनतीस प्रकृतिकबन्ध स्थानका निरूपण देवगति संयुक्त बँधनेवाले प्रथम और द्वितीय अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थानका निरूपण नामकर्मके एक प्रकृतिक बन्धस्थानका निरूपण सप्ततिकाकार द्वारा नामकर्मके उदयस्थानोंका वर्णन ३३७ ३३७ ३३८ ३३९ ३३९ ३४० ३४१ ३४४-३४५ ३४१ ३४२ ३४३ ३४५ २४६ ३४६ ३४७ ३४८ ३४८ ३४९ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-विषय-सूची ३६३ थाना भाष्य-गाथाकार-द्वारा नरकगति संयुक्त नामकर्म- उद्योतके उदयसे रहित छब्बीस प्रकृति उदयके उदयस्थानोंका वर्णन ३४९ स्थानका वर्णन नरकगति संयुक्त इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थानका उद्योतके उदयसे रहित अट्राईस " " Ex वर्णन ३४९ उद्योतके उदयसे रहित उनतीस " नरकगति संयुक्त पच्चीस प्रकृतिक ३५० उद्योतके उदयसे रहित तीस " " ३६५ नरकगति संयुक्त सत्ताईस " ३५० उद्योतके उदयवाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके उदयनरकगति संयुक्त अट्ठाईस " ३५१ स्थानोंका निरूपण मरकगति संयुक्त उनतीस " उद्योतके उदय-सहित उनतीस प्रकृतिक उदयतिर्यग्गतिमें नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण ३५२ स्थानका कथन सामान्य एकेन्द्रिय जीवके नामकर्मके उदयस्थानों- उद्योतके उदय-सहित तीस ३६७ का वर्णन ३५२ उद्योतके उदय-सहित इकतीस " ३६७ सामान्य एकेन्द्रिय जीवके इक्कीस प्रकृतिक " ३५२ तीस और इकतीस प्रकृतिक उदयस्थानोंके सामान्य एकेन्द्रिय जीवके चौबीस " ३५४ कालका निरूपण ३६७ सामान्य एकेद्रिय जीवके पच्चीस " " ३५४ सर्व तिर्यञ्चोंके नामकर्मके उदयस्थानोंके समस्त सामान्य एकेन्द्रिय जोवके छब्बीस " " ३५५ भंगोंकी संख्याका निरूपण ३६७ आतप और उद्योत प्रकृतिके उदयवाले एकेन्द्रिय मनुष्यगतिमें नामकर्मके उदयस्थानोंका वर्णन ३६८ जीवोंके उदयस्थानोंका निरूपण ३५५-३५६ मनुष्यगतिके उदयस्थान-गत विशेषताका निरूपण ३६९ विकलेन्द्रिय जीवोंके नाभकर्मके उदयस्थानोंका मनुष्यगति-सम्बन्धी इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थाननिरूपण का वर्णन द्वीन्द्रियजीवके इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थानका मनुष्यगति-सम्बन्धी छब्बीस ३७० निरूपण ३५८ मनुष्यगति-सम्बन्धी अट्ठाईस ३७० द्वीन्द्रियजीवके छब्बीस ३५८ मनुष्यगति-सम्बन्धी उनतीस द्वीन्द्रियजीवके अट्ठाईस ३५९ मनुष्यगति-सम्बन्धी तीस " ३७१ द्वीन्द्रियजीवके उनतीस ३५९ आहारक शरीरवाले मनुष्यके उदयस्थानोंका द्वीन्द्रियजीवके तीस ३५९ निरूपण उद्योतके उदयवाले द्वीन्द्रियके उदयस्थानोंका आहारक शरीरवाले मनुष्यके पच्चीस प्रकृतिक निरूपण ३६० उद्योतके उदयवाले द्वीन्द्रियके उनतीस प्रकृतिक उदयस्थानका वर्णन ३७२ उदयस्थानका निरूपण आहारक शरीरवाले मनुष्यके सत्ताईस ३७२ उक्त जीवके तीस प्रकृतिक उदयस्थानका वर्णन ३६० आहारक शरीरवाले मनुष्यके अठ्ठाईस ३७२ " इकतीस " " " ३६० __ आहारक शरीरवाले मनुष्यके उनतीस " ३७३ द्विन्द्रिय जीवके समान त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तीर्थङ्कर प्रकृतिके उदय-युक्त सयोगिजिनके इक जीवोंके उदयस्थान जाननेकी सूचना ३६१ तीस प्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण ३७३ विकलेन्द्रिय जीवोंके तीस और इकतीस प्रकृतिक तीर्थङ्कर प्रकृतिके उदय-युक्त अयोगिजिनके नौ उदयस्थानोंके कालका वर्णन प्रकृतिक उदयस्थानका वर्णन ३७४ पञ्चेन्द्रिय तिर्यचके उदयस्थानोंका निरूपण ३६२ तीर्थडर प्रतिके उदय-रहित अयोगिजिनके आठ उद्योतके उदयसे सहित और रहित पञ्चेन्द्रिय प्रकृतिक उदयस्थानका कथन तिर्यञ्चके उदयस्थानोंका कथन ३६२ मनुष्यगति-सम्बन्धी उदयस्थानोंके सर्व भंगोंका उद्योतके उदयसे रहित इक्कीस प्रकृतिक उदय निरूपण ३७४ स्थानका वर्णन ३६२ देवगति-सम्बन्धी उदयस्थानोंका निरूपण ३७१ ३६० Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह देवगति-सम्बन्धी इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थानका बन्धस्थानको आधार बनाकर उदयस्थान और वर्णन ३७६ सत्त्वस्थानका निरूपण ३९१ देवगति-सम्बन्धी पच्चीस ३७७ भाष्य गाथाकार-द्वारा उपर्युक्त अर्थका स्पष्टीकरण ३९२ देवगति-सम्बन्धी सत्ताईस ३७७ अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वदेवगति-सम्बन्धी अट्ठाईस ३७८ की विशिष्ट दशामें सम्भव स्थान विशेषोंका निरूपण देवगति-सम्बन्धी उनतीस ३७८ उक्त बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानगत देवगति-सम्बन्धी उदयस्थानोंके सर्वउदय विकल्पोंका निरूपण ३९४ दूसरी विशेषता ३७८ चतुर्गति-सम्बन्धी नामकर्मके उदयस्थानोंके सर्व उक्त बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानगत भंगोंका निरूपण ३७८ तीसरी विशेषता ३९५ , इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा सामान्य एकेन्द्रिय उक्त बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानगत जीवोंके उदयस्थानोंका वर्णन । ३७९ चौथी विशेषता ३९५ विकलेन्द्रिय जीवोंके उदयस्थानोंका वर्णन उवत बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानगत पञ्चेन्द्रिय " पांचवीं विशेषता ३९५ कायमार्गणाकी अपेक्षा स्थावरकाय और त्रसकाय उक्त बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानगत जीवोंके उदयस्थानोंका वर्णन छठी विशेषता योगमार्गणाको अपेक्षा मनोयोगियों और वचन उक्त बन्धस्थानमें उदय और सन्वस्थानगत योगियोंके उदयस्थानोंका वर्णन ३८० सातवीं विशेषता ३९६ काययोगियोंके उदयस्थानोंका निरूपण ३८०-३८१ उक्त बन्धस्थानमें उदय और सत्वस्थानगत वेद और कषायमार्गणाकी अपेक्षा उदयस्थानोंका आठवीं विशेषता वर्णन ३८१ उनतीस और तीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें उदय ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मत्यज्ञानियों और श्रुता सत्त्वस्थानोंका निरूपण ज्ञानियोंके उदयस्थानोंका निरूपण ३८१ उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें इक्कीस प्रकृतिक शेष ज्ञानवाले जीवोंके उदयस्थानोंका कथन ३८१ उदय स्थानके साथ तेरानबे और इक्यानबे संयममार्गणाकी अपेक्षा नामकर्मके उदयस्थानोंका प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामीका निरूपण ३९८ वर्णन ३८२ उक्त बन्धस्थान और उदयस्थानके साथ बानबे दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा नामकर्मके उदयस्थानोंका। और नब्बे प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी कथन ३८२ का निरूपण ३९८ लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा नामकर्मके उदयस्थानोंका उक्त बन्धस्थान और उदयस्थानके साथ अट्ठासी, कथन ३८२ चौरासी और बयासी प्रकृतिक सत्त्वस्थानके भव्यत्व आदि शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा नामकर्मके स्वामीका वर्णन उदयस्थानोंका निरूपण ३८३ उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें चौबीस प्रकृतिकसप्ततिकाकार-द्वारा नामकर्मके सत्त्वस्थानोंका उदयस्थानके साथ वानबे, नब्वे आदि पाँच वर्णन ३८५ सत्त्वस्थानोंके स्वामीका निरूपण भाष्य गाथाकार-द्वारा नामकर्मके सर्व सत्त्वस्थानों उक्त बन्धस्थानमें पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थानके की प्रकृतियोंका निरूपण ३८५-३८७ साथ तेरानबे आदि सात सत्त्वस्थानोंके गणस्थानोंमें नामकर्मके सत्त्वस्थानोंका निरूपण ३८८ स्वामियोंका कथन सप्ततिकाकार-द्वारा बन्धस्थान, उदयस्थान और उक्त बन्धस्थानमें छब्बीससे लेकर तीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान इन तीनोंको एकत्र मिलाकर उदयस्थानोंके साथ तेरानबे आदि सात कहनेकी सूचना सत्त्वस्थानोंके स्वामियोंका कथन ४०० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्य-विषय-सूची मनुष्यायुके देवायके " " " " उक्त बन्धस्थानमें इकतीस प्रकृतिक उदयस्थानके गुणस्थानों में दर्शनावरणके बन्धादि स्थानों का साथ बानबे; नब्बे, अठासी, चौरासी और . निरूपण ४२५-४२६ बयासी प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामियोंका सप्ततिकाकार-द्वारा वेदनीय, आय और गोत्रकर्मके वर्णन ४०० बन्धादि स्थान सम्बन्धी भंगों का निरूपण ४२७ तीस प्रकृति बन्धस्थानमें संभव उदयस्थानों और भाष्यगाथाकार-द्वारा वेदनीयकर्मके भंगोंका वर्णन ४२७ सत्त्वस्थानोंका वर्णन गुणस्थानों में आयुकर्मके भंगसंख्यादिका वर्णन उक्त स्थानोंम संभव विशेषताका निरूपण ४०२-४०३ ४२८-४२९ सप्ततिकाकार-द्वारा शेष बन्धस्थानोंमें संभव नरकायुके भंगोंका वर्णन ४२९ उदय और सत्त्वस्थानोंका निरूपण ४०४ तिर्यगायुके " " ४३० भाष्य गाथाकार-द्वारा उक्त अर्थका स्पष्टीकरण ४०५ ४३० उपर्युक्त बन्धादि तीनों प्रकारके स्थानोंका जीव ४३१ समास और गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्व.... आयुकर्मके ११३ भंगोंका स्पष्टीकरण ४३१-४३४ जाननेकी सूचना ४०६ गुणस्थानोंमें गोत्रकर्मके भंगोंका निरूपण ४३४ जीवसमासोंमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके उपर्युक्त भंगोंका स्पष्टीकरण ४३५-४३६ बन्धादि स्थानोंके स्वामित्वका निर्देश ४०७ सप्ततिकाकार-द्वारा गुणस्थानोंमें मोहकर्मके बन्धदर्शनावरणकर्मके बन्धादि स्थानोंके स्वामित्वगत स्थानोंका निरूपण ४३६ भंगोंका जीवसमासोंमें निर्देश, वेदनीय, उक्त अर्थका भाष्य गाथाकार-द्वारा स्पष्टीकरण ४३७ आयु और गोत्रके स्थानो के भंग जाननेका भाष्यगाथाकार-द्वारा मोहकर्मके उदयस्थानोंका संकेत और मोहकर्मके भंग-निरूपणकी निरूपण ४३८ प्रतिज्ञा ४०८ मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्भव मोहकर्मके उदयभाष्यगाथाकार-द्वारा वेदनीय, आय और गोत्र स्थानोंका वर्णन ४३८ कर्मके भंगोंकी संख्याका निर्देश ४१० सासादनादि गुणस्थानोंमें उपर्युक्त स्थानोंका वेदनीयकर्मके भंगोंका जीवसमासो में निरूपण ४१० वर्णन ४३९-४४० आयकर्मके भंगों का जीवसमासों में निरूपण सप्ततिकाकार-द्वारा प्रत्येक गुणस्थानमें सम्भव ४११ गोत्रकर्मके भंगों का जीवसमासों में निरूपण उदयस्थानोंका निरूपण . ४४१ ४१४ सप्ततिकाकार-द्वारा जीवसमासों में मोहकर्मके सप्ततिकाकार-द्वारा गुणस्थानोंमें उदयस्थानोंके भंगोंका वर्णन भंगों का निरूपण ४४२ ४१५ भाष्यगाथाकार-द्वारा उक्त अर्थका स्पष्टीकरण ४१६ भाष्य गाथाकारद्वारा उपयुक्त अथका स्पष्टासप्ततिकाकार द्वारा जीवसमासों में नामकर्मके करण ४४३-४४४ .. बन्ध उदय और सत्त्वस्थान सम्बन्धी भंगों- सर्वगुणस्थानोंके मोहकर्म सम्बन्धी उदयका निरूपण ४१७ विकल्पोंका निरूपण भाष्यगाथाकार-द्वारा उक्त अर्थका स्पष्टी गुणस्थानोंमें उदयस्थानोंकी प्रकृतियोंका तथा करण ४१८-४२२ उनके पदवन्दोंका निरूपण ४४५-४४८ सप्ततिकाकार-द्वारा ज्ञानावरण और अन्तराय- सप्ततिकाकार-द्वारा योग, उपयोग और लेश्यादि कर्मके बन्धादि-स्थानों का गुणस्थानों में वर्णन ४२३ को आश्रय करके मोहकर्मके उदयस्थानदर्शनावरण कर्मके बन्धादि स्थानों का गुणस्थानोंमें सम्बन्धी भंगोंको जाननेकी सूचना ४४८ वर्णन ४२४ भाष्यगाथाकार-द्वारा गुणस्थानोंमें योगोंका भाष्यगाथाकार-द्वारा उक्त स्थानों का स्पष्टीकरण ४२४ निरूपण ४४८ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. पबासंग्रह * " " " ४६९ मिथ्यादृष्टिके योगसम्बन्धी भंगोंका निरूपण ४४९ अप्रमत्तविरत और अपूर्वकरणमें उपयोगकी अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टिके " ४५० उदयप्रकृतिगत पदवृन्दोंका निरूपण ४६९ सम्यग्मिथ्यादृष्टिके " ४५० अनिवृत्तिकरणमें अविरत सम्यग्दृष्टिके ४५० सर्वगुणस्थानोंके उक्त पदवन्दोंका योग ४६९-४७० देशविरतके ४५० लेश्याओंकी अपेक्षा गुणस्थानों में मोहके उदयस्थान प्रमत्त विरतके ४५१ जाननेकी सूचना और उनमें सम्भव लेश्याओंअप्रमत्त विरतके " ४५१ का निरूपण ४७०.४७१ अपूर्वकरणके ४५१ मिथ्यात्व और सासादनमें लेश्याओंकी अपेक्षा मोहके योग सम्बन्धी सर्व भंगोंका निर्देश ४५२ उदय-भंग ४७१ सासादन गुणस्थानों में योगसम्बन्धी भंग-गत मिश्र और अविरतमें " " ४७२ विशेषताका निरूपण ४५३ देश,प्रमत्त और अप्रमत्त विरतमें अविरत गणस्थानमें उक्त विशेषताका निरूपण ४५३ अपूर्वकरणमें " " " ४७३ अनिवत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अनिवृत्तिकरणमें " " "सान योग सम्बन्धी भंगों का निरूपण ४५५, उपर्यक्त सर्व उदय-विकल्पोंका प्रमाण ४७३ गुणस्थानोंमें सम्भव सर्व योग-भंगों का उपसंहार ४५६ लेश्याओंकी अपेक्षा मोहकर्मके पदवन्दोका निरूपण४७४ गणस्थानों में योगके पदवृन्दों का निरूपण ४५६ mm मिथ्यात्व और सासादनमें " " मिथ्यादष्टिके योगसम्बन्धी पदवन्दोंका निरूपण ४५७ मिश्र और अविरतमें " " सासादन गणस्थानमें " " " ४५८ देशविरत और प्रमत्तविरतमें ". " ४७४ मिश्र गुणस्थानमें " ४५८ अप्रमत्तविरत और अपूर्वकरणमें " " ४७४ अविरत गुणस्थानमें ४५९ अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्परायमें" देशविरत गुणस्थानमें ४५९ उपर्युक्त सर्व पदवृन्दों का परिमाण प्रमत्तविरत " ४५९ ४६० वेदको अपेक्षा मोहकर्मके उदय विकल्पों का अपूर्वकरण ".. ४६० निरूपण ४७६ उक्त सर्वगुणस्थानों के पदवृन्दों के प्रमाणका वेदकी अपेक्षा मोहकर्मके पदवृन्दोंका वर्णन ४७७ निरूपण ४६० संयमकी अपेक्षा मोहकर्मके उदय-विकल्पोंका सासादन गुणस्थानगत विशेष भंगों का निरूपण ४६१ निरूपण ४७८ अविरत - " " " " ४६२ संयमको अपेक्षा मोहकर्मके पदवृन्दोंका वर्णन ४७९ मोहकर्मके योगों की अपेक्षा सम्भव सर्वभंगों का सम्यक्त्वकी अपेक्षा मोहकर्मके उदय-विकल्प ४८० निरूपण सम्यक्त्वकी अपेक्षा मोहकर्मके पदवृन्दोंकी संख्या ४८१ उपयोगकी अपेक्षा गुणस्थानों में मोहकर्मके उदय- सप्ततिकाकार-द्वारा गणस्थानोंमें मोहकर्मके स्थानगत भंगोंका निरूपण ४६५-४६७ सत्त्वस्थानोंका निरूपण ४८२ गुणस्थानों में उपयोगकी अपेक्षा मोहकर्मकी उदय भाष्यगाथाकार-द्वारा उक्त कथनका स्पष्टीकरण प्रकृतियोंकी संख्या जाननेकी सूचना ४६७ ४८३-४८५ मिथ्यात्व और सासादनमें उपयोगकी अपेक्षा सप्ततिकाकार-द्वारा गुणस्थानोंमें नामकर्मके बन्ध, उदय प्रकृतिगत पदवृन्दोंका निरूपण ४६८ उदय और सत्त्वस्थानोंका निर्देश मिश्र और अविरतमें " " " ४६८ भाष्य गाथाकार-द्वारा उक्त विसंयोगी स्थानोंका। देशविरत और प्रमत्तविरतमें" " " ४६९ स्पष्टीकरण ४८७ अप्रमत्तविरत " " Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व गुणस्थानमें नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान सासादन मिश्र अविरत देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत अपूर्व करण अनिवृत्तिकरण " 37 33 निरूपण योग मार्गणामें वेदमार्गणा में कषायमार्गणामें ज्ञानमार्गणा में संयममार्गणा में दर्शनमार्गणा में लेवामार्गणाम भग्यमार्गणा में 23 " 33 31 "" 11 11 33 " " 23 33 "3 "1 "" 31 21 33 "1 13 सूक्ष्मसाम्पराय क्षीणकषाय सयोगिकेवली अयोगिकेवली सप्ततिकाकारद्वारा मार्गणाओंमें नामकर्मके बन्धादि स्थानोंका निर्देश करते हुए गति मार्गणा में निरूपण 23 71 37 37 33 27 13 " भाष्यगाथाकार द्वारा नरक गतिमें उक्त बन्धादि स्थानोंका निरूपण " 17 31 13 ४९३ तिर्यग्गतिमें नामकर्मके बन्धादि स्थानोंका निरूपण ४९४ मनुष्यगतिमें देवगति में सप्ततिकाकार द्वारा इन्द्रिय मार्गणाओंमें उक्त स्थानोंका निर्देश भाष्यगाथाकार द्वारा एकेन्द्रिय जीवोंमें उक्त स्थानोंका निर्देश 11 "1 विकलेन्द्रिय जीवोंमें उक्त स्थानोंका निर्देश पंचेन्द्रिय जीवोंमें कायमार्गणा में नामकर्मके बन्धादि स्थानोंका 11 " 33 33 33 "7 " 23 " 31 33 "3 11 19 33 17 37 27 " प्रन्थ विषय-सूची 31 "" ४८७ ४८७ ४८८ ४८८ ४८९ ४८९ ४९० ४९० ४९१ ४९१ ४९१ ४९१ ४९२ ४९३ 4 ४९४ ४९५ ४९६ ४९६ ४९७ ४९७ ४९८ ४९९-५०१ ५०१ ५०२ ५०२-५०३ ५०४-५०६ ५०६ ५०७-५०८ ५०८-५०९ सम्यक्त्वमार्गणा में नामकर्मके बन्धादि स्थानोंका निरूपण संज्ञिमार्गणा में आहारमार्गणा में 37 "" "" 17 "" संस्कृत टीकाकार द्वारा चौदह मार्गणाओंमें नामकर्मके उक्त बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंकी अंकसं दृष्टि ५०९-५११ ५११-५१२ ५१२-५१३ 37 सप्ततिकाकार द्वारा उपर्युक्त अर्थका उपसंहार और विशेष जानने के लिए आवश्यक निर्देश ५१८ इकतालीस प्रकृतियोंमें उदयकी अपेक्षा उदीरणागत विशेषताका निरूपण उक्त इकतालीस प्रकृतियोंका नाम-निर्देश उक्त इकतालीस प्रकृतियोंमें नामकर्म सम्बन्धी गौ प्रकृतियों का निरूपण सप्ततिकाकार द्वारा गुणस्थानोंमें कर्मप्रकृतियोंके बन्धका वर्णन भाष्यगाथाकार द्वारा मिथ्यात्व और सासावन में बंधनेवाली प्रकृतियोंका वर्णन असंयत देशसंयत और प्रमत्तसंयतके बंधनेवाली प्रकृतियों का वर्णन अप्रमत्त और अपूर्वकरण के बंधनेवाली प्रकृतियोंका वर्णन ५१३-५१८ ५३ "" भाष्यगाथाकार द्वारा उक्त अर्थका स्पष्टीकरण सप्ततिकाकारद्वारा दर्शन मोहकर्मके उपशमन करनेका विधान सप्ततिकाकार द्वारा चरित्र मोहके उपशमन करनेका विधान भाष्यगाथाकार द्वारा उपशान्त होनेवाली प्रकृतियोंके क्रमका निरूपण सप्ततिकाकार द्वारा कर्मप्रकृतियों के क्षपणका विधान भाष्यगाथाकार द्वारा अयोगिकेवलीके द्विचरम समय और चरम समयोंमें क्षय होनेवाली प्रकृतियों का नाम-निर्देश ५१९ ५२० ५२२-५२३ ५२१ अनिवृत्तिकरण आदिके सप्ततिकाकार द्वारा मार्गणाओंमें भी बन्धस्वामित्वको जाननेकी सूचना सप्ततिकाकार-द्वारा चारों गतियोंमें कर्म प्रकृतियोंके सत्त्वका निरूपण ५२४ ५२४ ५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२८ ५२८ ५२९ ५३० ५३१-५३३ ५३४-५३६ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पश्वसंग्रह अयोगिकेवलीके उदयमें आनेवाली प्रकृतियोका सप्ततिकाकार-द्वारा अपनी लघुताका प्रदर्शन ५३९ निरूपण ५३६-५३७ संस्कृतटीकाकारको प्रशस्ति ५४० अयोगि जिनके मनुष्यानुपूर्वीका उदय किस क्षण तक रहता है, इस बातका सयुक्तिक परिशिष्ट ७४५-७८४ निरूपण ५३७ १ संदष्टियाँ ७४५-७५४ कर्म-क्षयसे प्राप्त होनेवाली अवस्था विशेषका २ सभाष्य प्रा०पञ्चसंग्रह-गाथानुक्रमणिका ७५५-७६६ वर्णन ५३८ ३ संस्कृतटीकोद्धृत-पद्यानुक्रमणी ७६७ सप्ततिकाकार-द्वारा प्रकरणका उपसंहार और ४ प्राकृत वृत्तिगत-पद्यानुक्रमणी ७६८-७७३ आवश्यक ज्ञातव्य तत्त्वका निर्देश ५३८ ५ संकृत पञ्चसंग्रहस्थश्लोकानुक्रमः ७७४-७८४ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-विवरण आचा०नि०-आचाराङ्ग नियुक्ति क० पा० गा०-कसायपाहुड गाथा कर्मवि०-कर्मविपाक (गर्गर्षिप्रणीत ) कर्मस्त०-कर्मस्तव ( श्वेताम्बर ) गो० क०-गोम्मटसार कर्मकाण्ड गो० जी०-गोम्मटसार जीवकाण्ड जीवस०-जीवसमास प्रकरण ( पूर्वभद्-रचित ) द-ऐलक सरस्वती भवन ब्यावरकी प्रति सं०१५४८ वाली धव०-षट्खण्डागमकी धवला टीका प-पंचायती मन्दिर खजूर मस्जिद दिल्लीको प्रति ब-ऐलक सरस्वती भवन ब्यावरकी प्रति सं० १५३७ वाली मूला०-मूलाचार शतक०-शतक प्रकरण ( भावनगर-मुद्रित ) षट्खं० प्र० स० चू०-षट्खण्डागम प्रकृति समुत्कीर्तन चूलिका स्था० सू०-स्थानाङ्गसूत्र Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्च संग्रह Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह प्रथम अधिकार जीवसमास मंगलाचरण और वस्तु-निरूपणकी प्रतिक्षा1छद्दव्व-णवपयत्थे दन्वाइचउन्विहेण जाणंते । वंदित्ता अरहंते जीवस्स परूवणं वोच्छं ॥१॥ द्रव्यादि चार प्रकारसे छह द्रव्य और नौ पदार्थोंको जाननेवाले अरहन्तोंको नमस्कार करके जीवकी प्ररूपणा कहूँगा ॥१॥ अस्स णमोकारस्स विवरणं । तं जहा-2दग्वेण सपमाणादो सब्वे जीवा केत्तिया, अणंता। खेत्तेण सम्वे जीवा केत्तिया, अणंता लोका । कालेण सब्वे जीवा केत्तिया, अतीदकालादो अणंतगुणा । भावेण सव्वे जीवा केत्तिया, केवलणाणस्य अणंतिमभागमित्ता। 3पुग्गल-काल-आगासाणं जीवमंगो। गवरिविसेसो, जीवरासीदो पुग्गलरासी अणंतगुणा । पुग्गलरासीदो कालरासी अणंतगुणा । कालरासीदो आगासं अणंतगुण त्ति वत्तव्वं । 4धम्माधम्मा दो वि दव्वेण असंखेजा। खेत्तेण लोगपमाणा। कालेण अदीदकालस्स अणं तिमभागोश । भावेण केवलणाणस्स अणंतिमभागो। ओहिणाणस्स दो वि असंखेजदिमभागो। णवण्हं पयत्थाणं मझे जीवाजीवाणं पुव्वभंगो। पुण्ण-पावा दो वि दवेण असंखिज्जा । खेत्तेण घणंगुलस्स असंखिजदिमभागो। कालेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागोगा आसवाइपंचण्हं पयत्थाणं दव्वेण अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणा । अहवा सिद्धाणमणं तिमभागो। खेत्तेण अणंता लोगा। कालेण अदीदकालस्स अणंतगुणो + । भावेण केवलणाणस्स अणंतिमभागो। 1. सं० पञ्चसं० १,३। 2. १, ४-५ । ३. १,८। 4. १,६। * ब -भागो।।ब-दिमभागो। +ब-गुणा । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह इस नमस्काररूप गाथासूत्रका विवरण इस प्रकार है:-द्रव्यकी अपेक्षा स्वप्रमाणसे सर्व जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। क्षेत्रकी अपेक्षा सर्व जीव कितने हैं ? अनन्त लोक-प्रमाण हैं। कालकी अपेक्षा सर्व जीव कितने हैं ? अतीत कालसे अनन्तगुणित हैं । भावकी अपेक्षा सर्व जीव कितने हैं ? केवलज्ञानके अनन्तवें भागमात्र हैं। पुद्गल, काल और आकाश द्रव्यका परिमाण जीवद्रव्यके प्रमाणके समान है। विशेषता केवल यह है कि जीवराशिसे पुद्गलराशि अनन्तगुणित है, पुद्गलगशिसे कालराशि अनन्तगुणित है और कालराशिसे आकाशद्रव्य अनन्तगुणित है, ऐसा कहना चाहिए । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों ही द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यात हैं । क्षेत्रकी अपेक्षा लोकप्रमाण हैं। कालकी अपेक्षा अतीत कालके अनन्तवें भाग हैं। भावकी अपेक्षा केवलज्ञानके अनन्तवें भाग हैं और दोनों ही द्रव्य अवधिज्ञानके असंख्यातवें भाग हैं। नौ पदार्थों के मध्यमें जीव और अजीव पदार्थका परिमाण पूर्वके भंग है अर्थात् जीवादि द्रव्योंके परिमाणके समान है। पुण्य और पाप ये दोनों ही पदाथ द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यात है। क्षेत्रकी अपेक्षा धनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । कालकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं। भावकी अपेक्षा अवधिज्ञानके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। आस्रवादि पांचों पदार्थोंका प्रमाण द्रव्यकी अपेक्षा अभव्यसिद्धांसे अनन्तगुणित है। अथवा सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र है। क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्त लोकप्रमाण है। कालकी अपेक्षा अतीतकालसे अनन्तगुणित है और भावकी अपेक्षा केवलज्ञानके अनन्तवें भागमात्र है। जीव-प्ररूपणाके भेद 'गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ॥२॥ . १४।१४।६।१०।४।१४ (४।५।६।१५।३।१६।८।७४।६।२।६।२।२ ) १२ । गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएं और उपयोग; इस प्रकार क्रमसे ये बीस प्ररूपणा कही गई हैं ॥२॥ गुणस्थानके १४, जीवसमासके १४, पर्याप्तिके ६, प्राणके १०, संज्ञाके ४, मार्गणाके १४ और उपयोगके १२ भेद हैं। इनमेंसे १४ मार्गणाओं के अवान्तर भेद इस प्रकार हैं-गति ४, इन्द्रिय ५, काय ६, योग १५, वेद ३, कषाय १६, ज्ञान ८, संयम ७, दर्शन ४, लेश्या ६, भव्यत्व २, सम्यक्त्व ६, संज्ञित्व २ और आहार २ । गुणस्थानका स्वरूप और भेद जेहिं दु लक्खिजंते उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं ।। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्टा सव्वदरिसीहिं ॥३॥ अमिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो व देसविरदो य । विरदो पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य ॥४॥ उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य। चोदस गुणट्ठाणाणि य कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥५॥ 1. सं० पञ्चसं० १, ११ । १. १, १२ । 3. १, १५-१८ । १. गो० जी० २ । २. धवला. भा. १, पृ० १६१ गा० १०५, गो० जी० ८।३. गो. जी है। ४. गो० जी० १०; परं तन्त्र तृतीयचरणे 'चोहस जीवसमासा' इति पाठः । * ब-उग्गो । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास दर्शनमोहनीयादि कर्माकी उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओंके होने पर, उत्पन्न होनेवाले जिन भावोंसे जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियोंने 'गुणस्थान' इस संज्ञासे निर्देश किया है । १ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व), ४ अविरतसम्यक्त्व, ५ देशविरत, ६ प्रमत्तविरत, ७ अप्रमत्तविरत, ८ अपूर्वकरणसंयत, ६ अनिवृत्तिकरणसंयत, १० सूक्ष्मसाम्परायसंयत, ११ उपशान्तमोह, १२ क्षीणमोह, १३ सयोगिकेवलिजिन और १४ अयोगिकेवली ये क्रमसे चौदह गुणस्थान होते हैं। तथा सिद्धोंको गुणस्थानातीत जानना चाहिए ॥३-५॥ १ मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप 'मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होइ । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं पि रसं जहा जरिदो ॥६॥ तं मिच्छत्तं *जमसद्दहणं तिचाण होदि अत्थाणं । संसइद x मभिग्गहियं अणभिग्गहियं तु तं तिविहं ॥७॥ मिच्छादिट्ठी जीओ उवइहं पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भाव उवइष्टं अणुवइट्ठ + च ॥८॥ मिथ्यात्वकर्मको वेदन अर्थात् अनुभव करनेवाला जीव विपरीतश्रद्धानी होता है । उसे धर्म नहीं रुचता है, जैसे कि ज्वर-युक्त मनुष्यको मधुर (मीठा) रस भी नहीं रुचता है जो सात तत्वों या नव पदार्थोंका अश्रद्धान होता है, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। वह तीन प्रकारका है-- संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत । मिथ्याष्टि जीव जिन-उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता है। प्रत्युत अन्यसे उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव अर्थात् पदार्थके अयथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करता है ॥६-८॥ २ सासादनगुणस्थानका स्वरूप सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो> मिच्छभावसमभिमुहो । णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो ॥६॥ सम्यक्त्वरूप रत्न-पर्वतके शिखरसे च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमिके समभिमुख ओर सम्यक्त्वके नाशको प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नामवाला जानना चाहिए |Hell ३ सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप दहिगुडमिव वामिस्सं पिहुभावं ' णेव कारिदुं सकं । एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो" ॥१०॥ जिस प्रकार व्यामिश्र अर्थात् अच्छी तरहसे मिला हुआ दही और गुड़ पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता, उसी प्रकारसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके मिश्रित भावको सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए । यह सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका सम्मिश्रण उन दोनों के स्वतंत्र आस्वादसे एक भिन्न-जातीय रूपको धारण कर लेता है, अतएव उसको अपेक्षासे मिश्रभावको एक स्वतन्त्र गुणस्थान माना गया है । ॥१०॥ 1. सं० पञ्च सं० १, १६।.१, २०।.१, ३२। १. धवला, भा० १, पृ० १६२ गा० १०६ । गो० जी०१७ । २. ध० भा० १, पृ० १६३ गा० १०७ । ३. गो. जी. १८, ६५५ । ४. ध० भा० १ पृ० १६६ गा० १०८ । गो० जी० २० । ५. ध० भा० १, पृ० १७० गा०५०६ । गो० जी० २२। *ब-जं असहहणं । बि-तचाण । - ब-मवि । +ब-वा। >ब-सिहरगओ। वनय । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ४ अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानका स्वरूप- पञ्चसंग्रह 'णो इंदिएस विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि * । जो सद्दह जिणुत्तं सम्माहट्ठी अविरदो +सो ॥११॥ सम्माट्ठी जीवो उवहट्ठ पवयणं तु सद्दहदि । सदहइ असम्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ॥१२॥ जो पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवोंके घातसे ही विरक्त है, किन्तु केवल जिनोक्त तत्त्वका श्रद्धान करता है, वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि है । सम्यग्दृष्टि जीव जिन उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् ( सद्भावको ) नहीं जानता हुआ गुरुके नियोग ( उपदेश या आदेश ) से असद्भावका भी श्रद्धान कर लेता है ।११-१२॥ ५ देशविरतगुणस्थानका स्वरूप जो ताउ विरदो णो विरओ अक्ख थावरवहाओ X / पडिसमयं सो जter विरयाविरओ जिणेकमई || १३ || जो जीव एक मात्र जिन भगवान् में ही मति ( श्रद्धा ) को रखता है, तथा त्रस जीवोंके घातसे विरत है और इन्द्रिय-विषयोंसे एवं स्थावर जीवोंके घातसे विरक्त नहीं है, वह जीव प्रति समय विताविरत है । अर्थात् अपने गुणस्थान के कालके भीतर हर क्षण विरत और अविरत इन दोनों संज्ञाओंको एक साथ एक समय में धारण करता है ||१३|| ६ प्रमत्तसंयत गुणस्थानका स्वरूप- 'वत्तावत्तपमाए जो वसइ पमत्तसंजओ होइ । सयलगुणसी लकलिओ महव्वई चित्तलायरणो ॥१४॥ विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदुचदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ॥१५॥ जो पुरुष सकल मूलगुणोंसे और शील अर्थात् उत्तरगुणोंसे सहित है, अतएव महाव्रती है; तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रमादमें रहता है, अतएव चित्रल-आचरणी है; वह प्रमत्त संयंत कहलाता है । चार विकथा ( स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा, अवनिपालकथा ) चार कपा ( क्रोध, मान, माया, लोभ) पाँच इन्द्रिय ( स्पर्शन, रसना, नासिका, नयन, श्रवण ) एक निद्रा और एक प्रणय ( प्रेम या स्नेह-सम्बन्ध ) ये पन्द्रह ( ४+४+५+१+१ = १५ ) प्रमाद होते हैं ॥१४-१५॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २३ । 2. १, २४ । ३. १,२८ । 4. १, ३३ । १. ६० भा० १ ० १७३ गा० १११ । गो० जी० २६ । २. ६० भा० १ पृ० ३७३ गा० ११० । गो० जी० २७ । ३. ध० भा० १ पृ० १७५ गा० ११२ । गो० जी० ३१ । ४. घ० भा० १ पृ० १७८ गा०११३ । गो० जी० ३३ । ५. ध० भा० १ पृ० १७८ गा० ११४ । गो० जी० ३४ । * गो०जी० 'वापि' । + अरहंते य पदत्थे भविरदसम्मो दु सद्दहदि । इति प्राकृतवृत्तौ मूलगाथापाठः । x थूले जीवे वधकरणवज्जगो हिंसगो य इदराणं । एक्कम्हि चेव समए विरदाविरदुति णादव्वो ॥ इति प्राकृतवृत्तौ मूलगाथापष्ठः । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ७ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानका स्वरूप 'णट्ठासेसपमाओ वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी । अणुवसमओ x अखवओ झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो॥१६॥ जो व्यक्त और अव्यक्तरूप समस्त प्रकारके प्रमादसे रहित है, महाबत, मूलगुण और और उत्तरगुणोंकी मालासे मंडित है, स्व और परके ज्ञानसे युक्त है, और कषायोंका अनुपशमक या अक्षपक होते हुए भी ध्यानमें निरन्तर लोन रहता है, वह अप्रमत्तसंयत कहलाता है ॥१६॥ ८ अपूर्वकरणसंयतगुणस्थानका स्वरूप भिण्णसमयट्टिएहिं दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एयसमयट्टिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥१७॥ एयम्मि गुणहाणे विसरिससमयट्ठिएहिं जीवेहिं । पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥१८॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं । मोहस्सऽपुव्वकरणा खवणुवसमणुञ्जया भणिया ॥१३॥ इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोंमें करण अर्थात् परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किन्तु एक समयवर्ती जीवोंमें सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं । इस गुणस्थानमें यतः विभिन्न-समय-स्थित जीवोंके पूर्व में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं; अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं। इस प्रकारके अपूर्वकरण परिणामोंमें स्थित जीव मोहकर्मके क्षपण या उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा गलित-तिमिर अर्थात् अज्ञानरूप अन्धकारसे रहित वीतरागी जिनोंने कहा है ।।१७-१६।। ६ अनिवृत्तिकरणसंयतगुणस्थानका स्वरूप "एक्कम्मि कालसमए संठाणादीहि जह णिवट्ठति । ण *णिवट्ठति तह चिय परिणामे हिं मिहो जम्हां ॥२०॥ होति अणियट्टिणो ते पडिसमयं जेसिमेकपरिणामा। विमलयर झाणहुयवहसिहाहिं णिद्दड्डकम्मवणा ॥२१॥ इस गुणस्थानके अन्तर्मुहूर्त-प्रमित कालमें से विवक्षित किसी एक समयमें अवस्थित जीव यतः संस्थान (शरीरका आकार ) आदिकी अपेक्षा जिस प्रकार निवृत्ति या भेदको प्राप्त होते हैं, उस प्रकार परिणामोंकी अपेक्षा परस्पर निवृत्तिको प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं। अनिवृत्तिकरण गणस्थानवी जीवोंके प्रति समय एक ही परिणाम होता है। ऐसे ये जीव अपने अति विमल ध्यानरूप अग्निको शिखाओंसे कर्मरूप वनको सर्वथा जला डालते हैं ।।२०-२१॥ 1. सं० पंचसं० १, ३४ । 2. १, ३५-३७ । B. १, ३८-४०।। १. ध० भा० १ पृ. ५७६ गा० १५५। गो० जी० ४६ । २. ध० भा० १ पृ० १८३ गा० ११६ । गो० जी० ५२ । ३. ध० भा० १ पृ० १८३ गा० ११७ । गो. जी. ५१ । ४. ध भा० १ पृ० १८३ गा० ११८ । गो० जी० ५४ । ५. ध० भा० १ पृ० १८६ गा० ११ । गो० जी० ५६ । ६. ध० भा० १ पृ० १८६ गा० १२० । गो० जी० ५७ । ४द ब -यखवओ। ब -निव०। ब-दर । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह १० सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानका स्वरूप 'कोसुंभो जिह राओ अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य । एवं सुहुमसराओ सुहुमकसाओ त्ति णायव्वो ॥२२॥ पुव्वापुव्वप्फड्डयअणुभागाओ अणंतगुणहीणे + । लोहाणुम्मि य द्विअओ हंदि सुहुमसंपराओ य ॥२३॥ जिस प्रकार कुसूमली रंग भीतरसे सूक्ष्म रक्त अर्थात् अत्यन्त कम लालिमावाला होता है, उसी प्रकार सक्षम राग-सहित जीवको सुक्ष्मकषाय या सूक्ष्मसाम्पराय ज जानना चाहिए। लोभाणु अर्थात् सूक्ष्म लोभमें स्थित सूक्ष्मसाम्परायसंयत पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकके अनुभाग से अनन्तगुणितहीन अनुभागवाला होता है ।।२२-२३।। V विशेषार्थ--अनेक प्रकारकी अनुभाग शक्तिसे युक्त कार्मणवर्गणाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं। जो स्पर्धक अनिवृत्तिकरणके पहले पाये जाते हैं, उन्हें पूर्वस्पर्धक कहते हैं। जिन स्पधकोंका अनिवृत्तिकरणके निमित्तसे अनुभाग क्षीण होता है, उन्हें अपर्वस्पर्धक कहते हैं। सूक्ष्मकषाय-सम्बन्धी स्पर्धककी अनुभाग-शक्ति उक्त दोनों ही स्पर्धकोंकी अनुभाग-शक्तिसे अनन्तगुणी हीन होती है। ११ उपशान्तकषायगुणस्थानका स्वरूप "सकयाहलं जलं वा सरए सरवाणिय व जिम्मलयं । सयलोवसंतमोहो उवसंतकसायओ होई ॥२४॥ कतकफल (निर्मली )से सहित जल, अशवा शरद् कालमें सरोवरका पानी जिस प्रकार निर्मल होता है, उसी प्रकार जिसका सम्पूर्ण मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया है, ऐसा उपशान्तकपायगुणस्थानवी जीव अत्यन्त निर्मल परिणामवाला होता है ॥२४॥ १२ क्षीणकषायगुणस्थानका म्वरूप अणिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो । खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं ॥२५॥ जह सुद्धफलिहभायणखित्तंणीरं खु +णिम्मलं सुद्धं । तह ४ णिम्मलपरिणामो खीणकसाओ मुणेयव्वो ॥२६॥ मोहकर्मके निःशेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके विमल भाजनमें रक्खे हुए सलिलके समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रन्थ साधुको वीतगगियोंने क्षीणकपायसंयत कहा है । जिस प्रकार निर्मली, फिटकरी आदिसे स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वच्छ स्फटिकमणिके भाजनमें नितरा लेनेपर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकपायसंयतको भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणामवाला जानना चाहिये ।।२५-२६।। 1. सं० पं० सं० १, ४१-४४ । . १, ४७।३.१, ४८। १. गो. जी. ५६, परं तत्र प्रथम-द्वितीयचरणयोः 'धुदकोसुंभयवत्थं होदि जहा सुहमरायसंजुत्तं' ईक् पाठः । २. ध० भा० १ पृ० १८८ गा० १२१ । ३. गो० जी० ६१, परं तत्र प्रथमचरणे 'कदकफलजुदजलं वा' इति पाठः। ४. ध० भा० १ ० १६० गा० १२३ । गो. जी. ६२ । +बहीणो । * व नीरं । ब -निम्मलं । x ब -निम्मल । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ सयोगिकेवलिगुणस्थानका स्वरूप १४ अयोगिकेवलिगुणस्थानका स्वरूप जीवसमास 'केवलणादिवायरकिरणकलावप्पणासिअण्णाणो । णवकेवललधुग्गमपावियपरमप्पववसो ||२७|| जं णत्थि राय-दोसो तेण ण बंधो हु अत्थि केवलिणो । जह सुक्ककुड्डुलग्गा वालुया सडइ तह कम्मं ॥ २८ ॥ असहायणाण- दंसणस हिओ वि हु केवली हु× जोएण । जुत्तोति सजोइजिणो अणाइणिहणारिसे वृत्तों ॥२६॥ केवलज्ञानरूप दिवाकर ( सूर्य ) की किरणों के समूहसे जिनका अज्ञानान्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है, जिन्होंने नौ केवल लब्धियोंके उद्गमसे 'परमात्मा' संज्ञा प्राप्त की है और जो पर-सहायसे रहित केवलज्ञान-दर्शन से सहित हैं, ऐसे योग-युक्त केवली भगवान्‌को अनादिनिधन आर्षमें सयोगिजिन कहा है । केवली भगवान्‌ के यतः राग-द्वेप नहीं होता, इस कारण से उनके नवीन कर्मका बन्ध भी नहीं होता है । जिस प्रकार सूखी भित्तीपर आकरके लगी हुई वालुका तत्क्षण झड़ जाती है, इसी प्रकार योगके सद्भावसे आया हुआ कर्म भी कषायके न होनेसे तत्क्षण झड़ जाता है ॥२७-२६ ॥ सेलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसओ जीवो । कम्मरयविमुको गयजोगो केवली होड़ || ३०॥ जो जीव शैलेशी अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, अर्थात् शैल (पर्वत) के समान स्थिर परिणामवाले हैं; अथवा जिन्होंने अठारह हजार भेदवाले शीलके स्वामित्वरूप शीलेशत्वको प्राप्त किया है, जिनका निःशेप आस्रव सर्वथा रुक गया है, जो कर्म-रजसे विप्रमुक्त हैं और योगसे रहित हो चुके हैं, ऐसे केवली भगवान्‌को अयोगिकेवली कहते हैं ||३०|| १५ गुणस्थानातीत सिद्धोंका स्वरूप अविकम्मवियडा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । ७ अट्टगुणा कयकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥३१॥ जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, क्षायिक सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोकके अग्रभागपर निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं ||३१|| इस प्रकार गुणस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई । अब दूसरी जीवसमासप्ररूपणाका वर्णन करते हैं-"जेहिं अणेया जीवा णअंते बहुविहा वि तजादी | पुण संगहिदत्था जीवसमासे + ति विष्णेया ॥३२॥ 1. सं० पञ्चसं० १, ४६ । २.१, ५० । ३. १, ५१ 11. १, ६३ । १.६० भा० १ पृ० १६१ गा० १२४ । गो० जी० ६३ । २. ध० भा० १ पृ० १६२ गा० १२५ । गो० जी० ६४ । ३. ध० भा० १ पृ० १६६ गा० १२६ । गो० जी० ६५ । परं तत्र 'सीलेसि' इति पाठः । ४ ० भा० १ ० २०० गा० १२७ गो० जी० ६८ । ५. गो० जी० ७० । x द व केवलाहिं | ॐ व गोरिसे । व -समासा । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह जिन धर्म-विशेपोंके द्वारा नाना जीव और उनकी नाना प्रकारकी जातियाँ जानी जाती हैं, पदार्थोका संग्रह करनेवाले उन धर्मविशेषोंको जीवसमास जानना चाहिये ।।३।। जीवसमासोके भेदोंका वर्णन जीवद्वाणवियप्पा चोइस इगिवीस तीस बत्तीसा । छत्तीस अट्ठतीसाऽडयाल चउवण्ण सयवण्णा ॥३३।। जीवों के स्थानोंको जीवसमास कहते हैं। जीवस्थानोंके भेद क्रमशः चौदह, इक्कीस, तीस, बत्तीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चौवन और सत्तावन होते हैं ।।३३।। चौदह भेदोका निरूपण वायरसुहुमेगिंदिय-वि-ति-चउरिंदिय-असण्णि-सण्णी य । पज्जत्तापजत्ता एवं ते चोदसा होंति ॥३४॥ बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और संज्ञिपंचेन्द्रिय, ये सातों ही पर्याप्तक और अपर्याप्तक रूप होते हैं। इस प्रकार जीवसमासके चौदह भेद होते हैं ॥३४॥ ( देखो संदृष्टि सं० १) इक्कीस भेदोंका निरूपण चोद्दस पुव्वुदिहा अलद्धिपज्जत्तया य सत्तेव । इय एवं इगिवीसा णिदिवा जिणवरिंदेहि ॥३॥ पूर्वोद्दिष्ट चौदह भेद, तथा लब्ध्यपर्याप्तक-सम्बन्धी उपर्युक्त सातों ही भेद, इस प्रकार जीवसमासके ये इक्कीस भेद जिनवरेन्द्रोंने कहे हैं ॥३५।। ( देखो सं० सं० २) तीस भेदोंका निरूपण 'पंच वि थावरकाया दादर-सुहुमा पज्जत्त इयरा य । दस चेव तसेसु तहा एवं जाणे हु तीसा य ॥३६॥ पाँचों ही स्थावरकायिकजीव बादर-सूक्ष्म और पर्याप्तक-अपर्याप्तकके भेदसे बीस भेदरूप होते हैं। तथा त्रसजीवोंमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और संज्ञिपंचेन्द्रिय इन पाँचोंके ही पर्याप्तक-अपर्याप्तकके भेदसे दश भेद होते हैं । इस प्रकार स्थावरोंके बीस,त्रसोंके दश ये दोनों मिलकर तीस भेद जानना चाहिये ॥३६।। ( देखो सं० सं० ३) बत्तीस भेदोंका निरूपण पुव्वुत्ता वि य तीसा जीवसमासा य होंति णवरं तु । सुपरिट्ठिय दो सहिया जीवसमासेहिं बत्तीसा ॥३७॥ पूर्वोक्त जो तीस जीवसमास हैं, उनमें केवल वनस्पतिकायिक-सम्बन्धी सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित ये दो भेद और मिला देनेपर बत्तीस जीवसमास हो जाते हैं ॥३७॥( देखो सं० सं०४) 1. सं० पञ्चसं० १, ६८-६६ । '. १,६४-६५। ३. १, १००। 1. १, १०१-१०२ । 5.१, १०३-१०४ । १. गो. जी. ७२ । * ब -अडतीसा । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास छत्तीस भेदोका वर्णन चउ-इयरणिगोएहिं जुआ बत्तीसा य होइ छत्तीसा । बादर-सुहुमेहिं तहा पञ्जत्ता इयरसंखेहि ॥३८॥ पूर्वोक्त बत्तीस भेदोंमें बादर चतुर्गतिनिगोद पर्याप्तक, बादर चतुर्गतिनिगोद-अपर्याप्तक, बादरनित्यनिगोद पर्याप्तक और बादर नित्यनिगोद-अपर्याप्तक ये सप्रतिष्ठितके चार भेद और मिलानेपर छत्तीस जीवसमास हो जाते हैं ॥३८॥ (देखो सं० सं० ५) अड़तीस भेदोंका वर्णन "पुव्वुत्ता छत्तीसा अट्टत्तीसा य सा होइ । अपइट्ठिएहिं सहिया दो जीवसमासएहि च ॥३९॥ । पूर्वोक्त छत्तीस भेदोंमें अप्रतिष्ठित वनस्पतिके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास और मिला देनेपर अड़तीस जीवसमास हो जाते हैं ॥३६॥ ( देखो सं० सं० ६) अड़तालीस भेदोंका वर्णन-- "सोलस जीवसमासा अलद्धिपजत्तगेसु जे भणिया । तेहिं जुआ बत्तीसा अडदालीसा य सा होइ ॥४०॥ लब्ध्यपर्याप्तकोंमें जो पहले सोलह जीवसमास कहे गये हैं, उनसे बत्तीस जीवसमास युक्त करनेपर अड़तालीस भेद हो जाते हैं ॥४०॥ ( देखो सं० सं० ७) चौपन भेदोंका वर्णन 'अट्ठारसेहिं जुत्ता अलद्धिपज्जत्तएहिं छत्तीसा। जीवसमासेहिं तहा चउवण्णा *जाण णियमेण ॥४१॥ लब्ध्यपर्याप्तकोंके अठारह जीवसमासोंके साथ पूर्वोक्त छत्तीस जीवसमास युक्त करने पर चौपन भेद हो जाते हैं, ऐसा नियमसे जानना चाहिए ॥४१॥ ( देखो सं० सं० ८) सत्तावन भेदोंका वर्णन उणवीसेहि य जुत्ता अलद्धिपजत्तएहिं अडतीसा । जीवसमासेहिं तहा सयवण्णा सा य विण्णेया ॥४२॥ लब्ध्यपर्याप्तकोंके उन्नीस जीवसमासोंके साथ पूर्वोक्त अड़तीस जीवसमास युक्त करने पर सत्तावन जीवसमास हो जाते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥४२॥ ( देखो सं० सं० ६) इस प्रकार जीवसमासप्ररूपणा समाप्त हुई पर्याप्तिप्ररूपणा "जह पुण्णापुण्णाइं गिह-घड-वत्थाइयाई दव्वाई। तह पुण्णापुष्णाओ पजत्तियरा मुणेयव्वा ॥४३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, १०८-१०६। . १, ११२-११३ । 3. १, ११५। 4. १, ११६ । 5. १, ११७ | 6. १, १२७ । १. गो० जी० ११७ । * ब -जाणि । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पञ्चसंग्रह 'आहारसरीरिंदियपजत्ती आणपाणभासमणो । चत्तारि पंच छप्पि य एइंदिय-वियल-सण्णीणं ॥४४॥ जिस प्रकार गृह, घट, वस्त्रादिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकारके होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकारके होते हैं । पूर्ण जीवोंको पर्याप्त और अपूर्ण जीवोंको अपर्याप्त जानना चाहिए। आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनपान (श्वासोच्छास) भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ होती हैं। इनमेंसे एकेन्द्रियोंके आदिकी चार, विकलेन्द्रियोंके आदिकी पांच और संज्ञी पंचेन्द्रियोंके छहों पयोप्तियां होती हैं ।।४३-४४॥ इस प्रकार पर्याप्तिप्ररूपणा समाप्त हुई। प्राणप्ररूपणा बाहिरपाणेहिं जहा तहेव अब्भंतरेहि पाणेहिं । जीवंति जेहिं जीवा पाणा ते होंति बोहव्वा ॥४॥ पंचेविंदियपाणा मण-वचि-काएण तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण दस होति ॥४६॥ जिस प्रकार बाह्य प्राणोंके द्वारा जीव जीते हैं. उसी प्रकार जिन आभ्यन्तर प्राणों के द्वारा जीव जीते हैं, वे प्राण कहलाते हैं, ऐसा जानना चाहिए । स्पर्शन, रसन, घ्राण, नर ये पाँच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल और कायबल ये तीन बल, आयु और आनपान ये दश प्राण होते हैं ॥४५-४६।। विशेषार्थ-पौद्गलिक द्रव्येन्द्रियोंके व्यापारको बाह्यप्राण कहते हैं । बाह्यप्राणके निमित्तभूत ज्ञानावरण और अन्तरायकर्मके क्षयोपशमादिसे विजृम्भित चेतनव्यापारको आभ्यन्तर प्राण कहते हैं । इन दोनों ही प्रकारके प्राणोंके सद्भावमें जीवमें जीवितपनेका और वियोग होने पर मरणपनेका व्यवहार होता है, इसलिए इन्हें प्राण कहते हैं । ये प्राण पूर्वोक्त पर्याप्तियोंके कार्यरूप हैं और पर्याप्ति कारणरूप हैं। क्योंकि गृहीत पद्ल स्कन्ध-विशेषोंको इन्द्रिय, वचन ओदिरूप परिणमावनेकी शक्तिकी पूर्णताको पर्याप्ति और वचन-व्यापार आदिकी कारणभूत शक्तिको, तथा वचन आदिको प्राण कहते हैं। 'उस्सासो पजत्ते सव्वेसिं काय-इंदियाऊणि । वचि। पजत्ततसाणं चित्तवलं सण्णिपजते ॥४७॥ दस सण्णीणं पाणा सेसेगूणंतिमस्स वे ऊणा । पज्जत्तेसु दरेसु अ सत्त दुए सेसगेगूणा ॥४८॥ पुण्णेसु सण्णि सव्वे मणरहिया होंति ते दु इयरम्मि । सोदक्खिघाणजिब्भारहिया सेसिगिदिभासूणा ॥४॥ पंचक्ख-दुए पाणा मण वचि उस्सास ऊणिया सव्वे । कण्णक्खिगंधरसणारहिया सेसेसु ते अपुण्णेसु ॥५०॥ बीइंदियादिपजत्ते तु ४।६।७।८।६।१० । सण्णिपंचिंदियादि-अपजत्तेसु ७।७।६।५।४।३। 1. सं० पंचसं० १, १२८ । 2.१, १२३ । ३.१, १२४ । 4. १, १२५-१२६ । १. गो० जी० ११८ । २. ध० भा० १ पृ० २५६ गा० १४१ । गो० जी० १२८। ३.गो. जी० १२१ । ४. गो० जी० १३२ । * ब -याण ब -विचि । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास कायबल, इन्द्रियाँ और आयु ये प्राण सभी पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके होते हैं। श्वासोच्वास पर्याप्त स्थावर और सजीवीके होता है । वचनबल पर्याप्त सजीवोंके, तथा मनोबल संज्ञी पर्याप्त जीवोंके होता है । पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रियोंके दश प्राण होते हैं। शेष पर्याप्त जीवोंके एक-एक प्राण कम होता है और एकेन्द्रियोंके दो प्राण कम होते हैं । अपर्याप्त संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके सात प्राण होते हैं, और शेष जीवोंके एक-एक प्राण कम होता जाता है। पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियों के पाँचों इन्द्रियाँ, तीनों बल, आयु और आनपान ये दशों प्राण होते हैं। पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रियके मन-रहित शेष नौ प्राण होते हैं । पर्याप्त चतुरिन्द्रियके उक्त नौ प्राणों में से श्रोत्र-रहित शेष आठ प्राण होते हैं। पर्याप्त त्रीन्द्रियके उक्त आठ प्राणोंमें से चक्षु-रहित शेष सात प्राण होते हैं। पर्याप्त द्वीन्द्रियके उक्त सात प्राणोंमेंसे घ्राण-रहित शेष छह प्राण होते हैं । पर्याप्त एकेन्द्रियके उक्त छह प्राणोंमेंसे रसनाइन्द्रिय और वचनबल इन दो प्राणोंसे रहित शेष चार प्राण होते हैं । अपर्याप्त पंचेन्द्रिय-द्विकमें मनोबल, वचनबल और श्वासोच्छ्वास इन तीनसे कम शेष सात प्राण होते हैं । अपर्याप्त चतुरिन्द्रियके उक्त सातमें कर्णेन्द्रिय कम करनेपर शेष छह प्राण होते हैं । अपर्याप्त त्रीन्द्रियके उक्त छह में से चक्षुरिन्द्रिय कम करने पर शेष पाँच प्राण होते हैं । अपर्याप्त द्वीन्द्रियके घ्राणेन्द्रिय कम करने पर शेष चार प्राण होते हैं। अपर्याप्त एकेन्द्रियके रसना-रहित शेष तीन प्राण होते हैं । इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है ||४७-५८ ॥ 1 इस प्रकार प्राणप्ररूपणा समाप्त हुई । संज्ञाप्ररूपणा 'इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं सेवंता विय भए ताओ चत्तारि सण्णाओ ॥ ५१ ॥ जिनसे बाधित होकर जीव इस लोकमें दारुण दुःखको पाते हैं और जिनको सेवन करनेसे जीव दोनों ही भवोंमें दारुण दुःखको प्राप्त करते हैं, उन्हें संज्ञा कहते हैं और वे चार होती हैं—आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा ॥५१॥ आहारसंज्ञाका स्वरूप 'आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण +ऊणकुण | सादिरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु ॥ ५२ ॥ बहिरंगमें आहारके देखनेसे, उसके उपयोगसे और उदररूप कोठाके खाली होने पर तथा अन्तरंग में असातावेदनीयकी उदीरणा होने पर आहारसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५२॥ भयसंज्ञाका स्वरूप ११ अ + भीमदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणसत्तेण । भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चउहिं ॥५३॥ बहिरङ्गमें अति भयानक रूपके देखनेसे, उसका उपयोग करनेसे और शक्तिकी हीनता होने पर, तथा अन्तरंग में भयकर्मकी उदीरणा होने पर, इस प्रकार इन चार कारणोंसे भयसंज्ञा उत्पन्न होती है ||५३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, ३४४ । १.१, ३४८ । ३. १, ३४६ । १. गो०जी० १३३ । २. गो० जी० १३४ । ३. गो० जी० १३५ । ॐ द् -उभये । + ब -ओन, द भोमु । 1 ब - इय | X ब ऊन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह मैथुनसंशाका स्वरूप 'पणिदरसभोयणेण य तस्सुवओगेण कुसीलसेवाए। वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥५४॥ बहिरंगमें गरिष्ठ, स्वादिष्ट और रसयुक्त भोजन करनेसे, पूर्व-भुक्त विषयों के ध्यान करनेसे, कुशीलका सेवन करनेसे, तथा अन्तरंगमें वेदकर्मकी उदीरणा या तीव्र उदय होनेपर मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५४|| परिग्रहसंशाका स्वरूप ... उवयरणदंसणेण य तस्सुवओगेण मुच्छियाए व । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा ॥५॥ ___ बहिरंगमें भोगोपभोगके साधनभूत उपकरणोंके देखनेसे, उनका उपयोग करनेसे, उनमें मूर्छाभाव रखनेसे तथा अन्तरंगमें लोभकर्मकी उदीरणा होने पर परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५॥ ___ इस प्रकार संज्ञाप्ररूपणा समाप्त हुई। मार्गणाप्ररूपणा जाहि व जासु व जीवा मग्गिजंते जहा तहा दिवा । ताओ चोदस जाणे सुदणाणे मग्गणाओ त्ति ॥५६।। 'गई इंदियं च काए जोए वेए कसाय णाणे य । संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥५७।। जिन-प्रवचन-दृष्ट जीव जिन भावोंके द्वारा, अथवा जिन पर्यायों में अनुमार्गग किये जाते हैं, उन्हें मार्गगा कहते हैं। जीवोंका अन्वेषण करनेवाली ऐसी मार्गणाएँ श्रुतज्ञानमें चौदह कहीं गई हैं, ऐसा जानना चाहिए। वे चौदह मार्गणाएँ इस प्रकार हैं- १, गतिमार्गणा, २ इन्द्रियमार्गणा, ३ कायमार्गणा, ४ योगमागणा, ५ वेदमागेणा, ६ कषायमागेणा, ७ ज्ञानमार्गणा, ८ संयममार्गणा, ६ दर्शनमार्गणा, १० लेश्यामार्गणा, १२ भव्यमार्गणा, १२ सम्यक्त्वमार्गणा, १३ संज्ञिमार्गणा और १४ आहारमार्गणा ॥५६-५७॥ "मणुया य अपज्जत्ता वेउव्वियमिस्सऽहारया दोण्णि । सुहुमो सासणमिस्सो उवसमसम्मो य संतरा अट्ठल ।।५८॥ एत्थ एगो गईए १ । तितयं जोगे ३ । सुहुमो संजमे १ । तयं सम्मत्ते ३ । इदि अट्ट संतरा ८ । 1. सं० पंचसं० १, ३५० । १. १, ३५२ । ३. १, १३१ । 4. १, १३२-१३३ । 5. १, १३४-१३५ । १. गो० जी० १३६ । २. गो० जी० १३७ । ३. ध० भा० १ पृ० १३२ गा०८३ । गो० जी० १४०। ४. गो० जी० १४१ । * ब टिप्पणी-सत्त दिणा छम्मासा वासपुधत्तं च बारस मुहत्ता। पल्लासंखं तिण्हं वरमवरं एगसमओ दु॥१॥ पढमुवसमसहिदाए विरदाविरदीए चउद्दसा दिवसा । विरदीए पण्णरसा विरहिदकालो दु बोहब्वो ॥२॥ गो० जी० १४३-१४४ । उवसमेण सह अणुव्वयंतरं दिण १४। तेण सह महव्वयंतरं दिणं १५ । पेयादोसाभिप्पायादो तस्सेवंतरं दिण २४ । प्रथमोपशमसम्यक्त्वस्य ४० । अपर्याप्तमनुष्यस्य पल्योपमासंख्याततमभागः उत्कृष्टेन शून्यकालो भवति । आहारकद्वितयस्य सप्ताष्टी वर्षाणि । वैक्रियिकमिश्रे द्वादश मुहूर्ताः। सूक्ष्मसाम्परायसंयमस्य पण्मासाः । सासादन-मिश्रयोः पल्योपमासंख्याततमभागः । औपशमिकस्य सप्त दिनानि । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास अपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियिकमिश्रयोग, दोनों आहारक अर्थात् आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग, सूक्ष्मसाम्परायचारित्र, सासादनसम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और उपशमसम्यक्त्व ये आठ सान्तर मार्गणा होती हैं ॥ ५८ ॥ इनमें से गतिमार्गणा में एक, योगमार्गणा में तीन, संयममार्गणा में सूक्ष्मसाम्परायचारित्र तथा सम्यक्त्वमार्गणा में अन्तिम तीन, इस प्रकार आठ सान्तर मार्गणाएँ जानना चाहिए । अब गतिमार्गणाका वर्णन करते हुए पहले गतिका स्वरूप कहते हैं'गहकम्मविणिव्वत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छंति हु सा गतिनामा नामकर्मसे उत्पन्न होनेवाली जो चाहिए । अथवा जिसके द्वारा जीव नरक, तिर्यच, करते हैं, वह गति कहलाती है ||५६ || नरकगतिका स्वरूप 'ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य । अण्णोणेहि यणिचं तम्हा ते णारया भणियां ॥ ६० ॥ 118-11 तिर्यग्गतिका स्वरूप - गई होई ॥५६॥ चेष्टा या क्रिया होती है उसे गति जानना मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमें गमन यतः तत्स्थानवर्ती द्रव्यमें, क्षेत्रमें, कालमें और भावमें जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्परमें भी जो कभी भी प्रीतिको प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे नारक या नारकी कहे जाते १३ " तिरियंति कुडिलभावं विगयसुसण्णा किट्टमण्णाणा । अच्चतपावबहुला तम्हा ते तिरिच्छिया भणियाँ ॥ ६१ ॥ यतः जो सदा कुटिलभावका आचरण करते हैं, उत्कट संज्ञाओंके धारक हैं, निकृष्ट एवं अज्ञानी हैं, अत्यन्त पाप- बहुल हैं, अतः वे तिर्यश्व कहे जाते हैं ॥ ६१॥ मनुष्यगतिका स्वरूप ' मण्णंति जदो णिचं मणेण णिउणा जदो दु जे जीवा । मणउक्कडा य जम्हा तम्हा ते माणुसा भणिया ॥६२॥ यतः जो मनके द्वारा नित्य ही हेय उपादेय तत्त्व अतत्त्व और धर्म-अधर्मका विचार करते हैं, कार्य करनेमें निपुण हैं, मनसे उत्कृष्ट हैं, अर्थात् उत्कृष्ट मनके धारक हैं, और युगके आदिमें मनुओंसे उत्पन्न हुए हैं, अतएव वे मनुष्य कहलाते हैं ||६२|| देवगतिका स्वरूप 'कडंति जदो णिचं गुणेहिं अट्ठेहिं दिव्वभावेहिं । भासं दिव्य काया तम्हा ते वणिया देवा ॥६३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, १३६ | 2. १, १३७ । ३. १, १३८ | 4. १, १३६ । २.१, १४० । १. घ० भा० १ पृ० १३५ गा० ८४ । २. घ० भा० १ पृ० २०२ गा० १२८ । गो०जी० १४६ । ३. ध० भा० १ पृ० २०२ गा० १२६ । गो० जी० १४७ । ४. ध० भा० १ पृ० २०३ गा० १३० । गो०जी० १४८ । ५. ध० भा० १ पृ० २०३ गा० १३१ । गो०जी० १५० । परन्तु भयत्रापि ' की डंति' स्थाने 'दिव्वंति' पाठः । + द मनाणा | Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पश्वसंग्रह जो दिव्यभाव-युक्त अणिमादि आठ गुणोंसे नित्य क्रीडा करते रहते हैं और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहे गये हैं ॥६३॥ सिद्धगतिका स्वरूप 'जाइ-जरा-मरण-भया संजोय-विओय-दुक्ख-सण्णाओ। रोगादिया य जिस्से ण होति सा होइ सिद्धिगई ॥६४॥ जहाँ पर जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा और रोगादिक नहीं होते हैं, वह सिद्धगति कहलाती है ॥६४।। इस प्रकार गतिमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब इन्द्रियमार्गणाका वर्णन करते हुए पहले इन्द्रियका स्वरूप कहते हैं अहमिंदा जह + देवा अविसेसं अहमहं ति मण्णंता। ईसंति एकमेकं इंदा इव इंदियं जाणे ॥६॥ ___ जिस प्रकार अहमिन्द्रदेव विना किसी विशेषताके 'मैं इन्द्र हूँ, मैं इन्द्र हूँ' इस प्रकार मानते हुए ऐश्वर्यका स्वतन्त्ररूपसे अनुभव करते हैं उसी प्रकार इन्द्रियोंको जानना चाहिए । अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयके सेवन करनेमें स्वतन्त्र है ॥६॥ इन्द्रियोंके आकार-- "जवणालिया-मसूरी-चंदद्ध-अइमुत्तफुल्लतुल्लाई। इंदियसंठाणाई फासं पुण णेगसंठाणं ॥६६॥ श्रोत्रेन्द्रियका आकार यव-नालीके समान, चक्षुरिन्द्रियका मसूरके समान, रसनेन्द्रियका अर्ध-चन्द्रके समान और घ्राणेन्द्रियका अतिमुक्तक पुष्प अर्थात् कदम्बके फूलके समान है। किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय अनेक आकारवाली है ॥६६॥ 'एइंदियस्स फुसणी एक चिय होइ सेसजीवाणं । एयाहिया य तत्तो जिब्भाधाणक्खिसोत्ताई ॥६७॥ एकेन्द्रिय जीवके एक स्पर्शन-इन्द्रिय ही होती है। शेष जीवोंके क्रमसे जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये एक-एक इन्द्रिय अधिक होती हैं ॥६७।। इन्द्रियोंके विषय पुढे सुणेइ सदं अपुट्ठपुण वि पस्सदे रूवं । फासं रसं च गंधं बद्धं पुट्ट वियाणेइ ॥६॥ श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्दको सुनती है। चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूपको देखती है । स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय क्रमशः बद्ध और स्पृष्ट, स्पर्श, रस और गन्धको जानती हैं ॥६८।। सं. पंचसं० 1. १, १, १४१ । 2.१, १४२ । 3. १,१४३ । 4. १, १४४ । 5.१, १४५ । १. ध० भा० १ पृ. २०४ गा० १३२ । गो० जी० १५१ । २. ध० भा० १ पृ० १३७ गा० ८५। गो० जी० १६३। ३. मूला० गा० १०११ । ध० भा० १ पृ० २३६ गा० १३४ । ध० भा० १ पृ० २५८ गा० १४२ । गो. जी. १६६। ५. सर्वा० १, १६ । सब -जेस्से, द -जिस्सिं । + प्रतिषु 'जिह' पाठः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास 'जाणइ पस्सइ भुंजइ सेवइ फासिदिएण एकेण । कुणइ य तस्सामित्तं थावर एइंदियो तेण ॥६६॥ स्थावरजीव एक स्पर्शनेन्द्रियके द्वारा ही अपने विषयको जानता है, देखता है, भोगता है, सेवन करता है और उसका स्वामित्व करता है इसलिए वह एकेन्द्रिय कहलाता है ॥६६॥ द्वीन्द्रिय जीवोंके भेद खुल्ला वराड संखा अक्खुणह अरिडगा य गंडोला । कुक्खिकिमि सिप्पिआई णेया बेइंदिया जीवा ॥७॥ तुल्लक अर्थात् छोटी कौड़ी, बड़ी कौड़ी, शंख, अक्ष, अरिष्टक, गंडोला, कुक्षि-कृमि अर्थात् पेटके कीड़े और सीप आदि द्वीन्द्रिय जीव जानना चाहिए ॥७॥ त्रीन्द्रिय जीवोंके भेद कुंथु पिपीलय भकुण विच्छिय जूविंदगोवा गोम्ही य:। उत्तिंगमट्टियाई णेया तेइंदिया जीवा ॥७१॥ .. कुंथु (चीटी) पिपीलक (चींटा) मत्कुण (खटमल) बिच्छू , , इन्द्रगोप, (वीर-वधूटो) गोम्ही (कनखजूरा), उत्तिंग (अन्नकीट) और मृद्-भक्षी दीमक आदि त्रीन्द्रिय जीव जानना चाहिए ॥७२॥ चतुरिन्द्रिय जीवोंके भेद 'दंसमसगो य मक्खिय गोमच्छिय भमर कीड मकडया। __ सलह पयंगाईया णेया चउरिंदिया जीवा ॥७२॥ दंश-मशक (डांस, मच्छर) मक्खी, मधुमक्खी, भ्रमर, कीट, मकड़ी, शलभ, पतंग आदि चतुरिन्द्रिय जीव जानना चाहिए ॥७२॥ . . पंचेन्द्रिय जीवोंके भेद अंडज पोदज जरजा रसजा संसेदिमा य सम्मुच्छा। उभिदिमोववादिम णेया पंचेंदिया जीवा ॥७३॥ अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, स्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भोदिम, और औपपादिक जीवोंको पंचेन्द्रिय जानना चाहिये ॥७३।।। अतीन्द्रिय जीवोंका स्वरूप 'ण य इंदियकरणजुआ अवग्गहाईहिं गाहया अत्थे । णेव य इंदियसुक्खा अणिंदियाणतणाणसुहा ॥७४॥ 1. सं० पञ्चसं० १, १४६ । 2. १, १४७ । 3. १, १४८ । 4. १, १४६ । 5. १, १५० । 6.१, १५१ । । १. ध०भा० १ पृ० २३६ गा.१३५। २. ध०भा०१ पृ० २४१ गा० १३६ । तत्रेहक पाठःकुक्खिकिमिसिप्पिसंखा गंडोलारिह भक्खखुल्ला य । तह य वराडय जीवा णेया बीइंदिया एदे। ३. ध०भा० १ पृ. २४३ गा० १३७ । ४. ध० भा० १ पृ० २४५ गा० १३८ । परं तवायं पाठः-मकडय-भमर-महुवर-मसय-पयंगा य सलह गोमच्छी। मच्छी सदंस कीडा गेया चउरिदिया जीवा ॥ ५. ध० भा० १ पृ० २४६ गा. १३ । परं पत्र पाठोऽयम्--सस्सेदिम सम्मुच्छिम उब्भेदिम ओववादिया चेव । रस पोदंड जरायुज गेया बीइंदिया जीवा ॥ 3 ब -सेवई । नब-जु विंदु । -गुंभीया, ब-गुंभीय । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह जो इन्द्रियोंके व्यापारसे युक्त नहीं हैं, अवग्रहादिके द्वारा भी पदार्थों के ग्राहक नहीं हैं और जिनके इन्द्रिय-सुख भी नहीं है, ऐसे अतीन्द्रिय अनन्त ज्ञान और सुखवाले जीवोंको इन्द्रियातीत सिद्ध जानना चाहिये ।।७४॥ ___इस प्रकार इन्द्रियमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब कायमार्गणाका वर्णन करते हुए पहले कायका स्वरूप कहते हैं 'अप्पप्पत्तिसंचियपुग्गलपिंडं वियाण काओ त्ति । सो जिणमयम्हि भणिओ पुढवीकायाइयो छद्धा ॥७॥ योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिंडको काय जानना चाहिये । वह काय जिनमतमें पृथिवीकाय आदिके भेदसे छह प्रकारका कहा गया है ॥७५।। जह* भारवहो पुरिसो वहइ भरं गिहिऊण काउडियं । एमेव वहइ जीवो कम्मभरं कायकाउडियं ॥७६॥ जिस प्रकार कोई भारको ढोनेवाला पुरुष कावटिकाको लेकर भारको वहन करता है, इसी प्रकार यह जीव कायरूपी कावटिकाको ग्रहण करके कर्मरूपी भारको वहन करता है ॥७६|| पृथिवीकायिक जीवोंके भेद 'पुढवी य सक्करा वालुया य उवले सिलाइ छत्तीसा । पुढवीमया हु जीवा णिहिट्ठा जिणवरिंदेहिं ॥७७॥ पृथिवी, शर्करा, वालुका, उपल, शिला आदिके भेदसे छत्तीस प्रकार के पृथ्वीमय अर्थात् पृथिवीकायिक जीव जिनवरेन्द्रोंने निर्दिष्ट किये हैं॥७७।। जलकायिक जीवोंके भेद "ओसा य हिमिय महिया हरदणु सुद्धोदयं घणुदयं च । एदे दु आउकाया जीवा जिणसासणे दिट्ठा ॥७८॥ ओस, हिमिका (बर्फ), महिका (कुहरा), हरदणु, ( हरे तृण आदिके ऊपर अवस्थित जलबिन्दु) शुद्धोदक (चन्द्रकान्त, मणिसे उत्पन्न शुद्ध जल) घनोदक (स्थूल सघन जल) इत्यादि अप्कायिक (जलकायिक ) जीव जिनशासनमें कहे गये हैं ॥७॥ अग्निकायिक जीवोंके भेद इंगाल जाल अच्ची मुम्मुर सुद्धागणी य अगणी य । अण्णेवि एवमाई तिउक्काया समुद्दिट्टा ॥७॥ सं० पंचसं० 1. १, १५३ । १. १, १५२ । 3. १, १५५ । 4. १, १५६ । 5. १, १५७ । १. ध० भा० १ पृ० १३६ गा० ८६ । गो०जी० १८०, परं तनोत्तरार्धसाम्यमेव। २. ध० भा. १ पृ० १३६ गा० ८७ । गो० जी० २०१ । ३. मूला० गा० २०६ । आचा०नि० ७३ । ध० भा० १, पृ. २७२ गा० १४६ । ४. मूला० गा० २१० । आचा०नि० १०८ । ध०भा० १ पृ० २७३ गा० १५०। परं तत्र पूर्वार्ध पाठोऽयम्-ओसा य हिमो धूमरि हरदणु सुद्धोदवो घणोदो य। ५. मूलागा० २१२ । आचा०नि० १६६ । ध०भा० १ पृ० २७३ गा० १५२ । प्रतिषु 'जिह' पाठः ।। ब तेज०, द तेऊ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास अंगार, ज्वाला, अर्चि ( अग्निकिरण ), मुर्मुर (निर्धूम और ऊपर राखसे ढंकी हुई अग्नि) शुद्ध-अग्नि ( बिजली और सूर्यकान्तमणिसे उत्पन्न अग्नि) और धूमवाली अग्नि इत्यादि अन्य अनेक प्रकारके तेजस्कायिक जीव कहे गये हैं ।।७।। वायुकायिक जीवोंके भेद 'वाउब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महाघण तणू य । एदे दुवाउकाया जीवा जिणसासणे दिट्ठा ॥८॥ सामान्य वायु, उद्घाम (ऊर्ध्व भ्रमणशील ) वायु, उत्कलिका (अधोभ्रमणशील और तिर्यक बहनेवाली), मण्डलिका (गोलरूपसे बहनेवाली वायु ), गुंजा (गुंजायमान वायु ), महावात (वृक्षादिकको गिरा देनेवाली वायु), घनवात और तनुवात इत्यादिक अनेक प्रकारके वायुकायिक जीव जिनशासनमें कहे गये हैं ।।८०॥ वनस्पतिकायिक जीवोंके भेद "मूलग्गपोरबीया कंदा तह खंध बीय बीयरुहा।। सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया ये ॥१॥ मूलबीज, अग्रवीज, पर्वबीज, कन्दबीज, स्कन्धबीज, बीजरुह और सम्मूच्छिम, ये नाना प्रकार के प्रत्येक और अनन्तकाय (साधारण) वनस्पतिकायिक जीव कहे गये हैं ।।८।। साहारणमाहारो साहारण आणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥२॥ साधारण अर्थात् अनन्तकायिक वनस्पति जीवोंका साधारण अर्थात् समान ही आहार होता है और साधारण ही श्वास-उच्छासका ग्रहण होता है, इस प्रकार साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा गया है ॥२॥ 'जत्थेक मरइ जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं । चक्कमइ जत्थ एको तत्थक्कमणं अणंताणं ॥८३॥ साधारण जीवोंमें जहाँ एक मरता है, वहाँ उसी समय अनन्त जीवोंका मरण होता है और जहाँ एक जन्म धारण करता है, वहाँ अनन्त जीवोंका जन्म होता है ॥८३।। एयणिओयसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥८४॥ एक निगोदिया जीवके शरीर में द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा सिद्धोंसे और सर्वव्यतीत कालसे अनन्तगुणित जीव सर्वदर्शियोंके द्वारा देखे गये हैं ।।४।। 1. सं० पञ्चसं० १,१५८ । 2. १, १५९ । 3. १, १०५ । 4. १, १०७ । १. मूला० २१३ । ध०भा० १ पृ. २७३ गार १५२ । २. ध० भा० १ पृ. २७३ गा० १५३ । गो० जी० १८५। ३. ध० भा० १ पृ. २७० गा० १४५। गो० जी० १११। ४. ध० भा० १ पृ० २७० गा० १४६ । गो० जी० १६२ । ५. ध०, भा० १, पृ० २७० गा० १४७ । गो० जी० १५६ ।। दव -उकिल । ब -माण । ब द चकमणं तत्थ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अस्थि अनंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसत्तपरिणामो । भावकलंकसुपउरा णिगोयवासं ण मुंचति ॥८५॥ नित्य निगोद में ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं, जिन्होंने त्रस जीवोंकी पर्याय आजतक भी नहीं पाई है और जो प्रचुर कलंकित भावोंसे युक्त होनेके कारण निगोद-वासको कभी भी नहीं छोड़ते ॥८५॥ १८ सजीवोंके भेद - 'विहिं तिहिं चऊहिं पंचहिं सहिया जे इंदिएहिं लोयहि | ते तसकाया जीवा णेया वीरोवएसेणं ॥८६॥ लोक में जो दो इन्द्रियोंसे, तीन इन्द्रियोंसे, चार इन्द्रियांसे और पाँच इन्द्रियोंसे सहित जीव दिखाई देते हैं, उन्हें वीर भगवान्‌ के उपदेशसे त्रसकायिक जीव जानना चाहिए ॥ ८६ ॥ अकायिक जीवोंका स्वरूप 'जहां कंचणमग्गिमयं मुच्चइ किट्टेण कलियाए य । तह कायबंधमुका अकाइया झाणजोएण || ८७ ॥ जिस प्रकार अग्निमें दिया गया सुवर्ण किट्टिका ( बहिरंगमल ) और कालिमा ( अन्तरंगमल) इन दोनों प्रकारके मलोंसे रहित हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानके योगसे शुद्ध हुए और काय के बन्धन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए ||८७ इस प्रकार काय मार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ अब योगमार्गणाका वर्णन प्रारम्भ करते हुए पहले योगका स्वरूप कहते हैं'मणसा वाया कारण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्स |प्पणिओगो जोगो त्ति जिणेहिं णिदिट्ठो ॥ ८८ ॥ मन, वचन और काय से युक्त जीवका जो वीर्य परिणाम अथवा प्रदेश-परिस्पन्द रूपप्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥८॥ मनोयोगके भेद और उनका स्वरूप "सब्भावो सचमणो जो जोगो सो दु सचमणजोगो । aforaओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस त्ति ॥८॥ सद्भाव अर्थात् समीचीन पदार्थ के विषय करनेवाले मनको सत्य मन कहते हैं और उसके द्वारा जो योग होता है, उसे सत्यमनोयोग कहते हैं । इससे विपरीत योगको मृषामनोयोग कहते हैं । सत्य और मृषारूप योगको सत्यमृषामनोयोग कहते हैं ||८|| 1. सं० पञ्चसं० १, ११० । 2. १, १६० । ३. १, १६४ । 4. १, १६५ । 5. १६७ । १. ध० भा० १ पृ० २७१ गा० १४८ । गो० जी० १६६ । २. ध० भा० १ पृ० २७४ गा० १६७ । ३. ६० भा० १, पृ० २६६ मा २०२ । १४० गा० ८८ । स्था० सू० पृ० १०१ ५. ध० १५४ १५४ । गो० जी० ४. ६० भा० १ पृ० भा० १ पृ० २८१ मा * द सपउरा + प्रतिपु 'जिह' पाठः । ब द य निय० । १४४ । गो० जी० । गो० जी० २०७ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ण य सच्चमोसजुत्तो जो हु मणो सो असच्चमोसमणो । जो जोगो तेण हवे असमच्चमोसो दु मणजोगो ॥१०॥ जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो, उसे असत्यमृषामन कहते हैं। उस असत्यमृषामनके द्वारा जो योग होता है, उसे असत्यमृषामनोयोग कहते हैं ॥१०॥ वचनयोगके भेद और उनका स्वरूप 'दसविहसच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो । तव्विवरीओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस ति ॥११॥ जो णेव सच्चमोसो तं जाण असच्चमोसवचिजोगो । अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणीयादी ॥२॥ दश प्रकारके सत्य वचनमें वचनवर्गणाके निमित्तसे जो योग होता है उसे सत्यवचनयोग कहते हैं। इससे विपरीत योगको मृषावचनयोग कहते हैं। सत्य और मृषा वचनरूप योगको उभयवचनयोग कहते हैं । जो वचनयोग न तो सत्यरूप हो और न मृषारूप ही हो, उसे असत्यमृषावचनयोग कहते हैं । असंज्ञी जीवोंकी जो अनक्षररूप भाषा है और संज्ञी जीवोंकी जो आमंत्रणी आदि भाषाएँ हैं, उन्हें अनुभय भाषा जानना चाहिए ।।६१-६२॥ विशेषार्थ-जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, संभावनासत्य, भावसत्य और उपमासत्य ये दश प्रकारके सत्य वचन होते हैं। विभिन्न देशवासी लोगोंके व्यवहारमें जो शब्द रूढ हो रहा है, उसे जनपदसत्य कहते हैं; जैसे भक्त नाम अग्निसे पके हुए चावलका है, उसे कहीं 'भात' और कहीं 'कुलु' कहते हैं। बहुतसे लोगोंकी सम्मतिसे जो सत्य माना जाय, अथवा कल्पनासे जो सत्य हो, उसे सम्मतिसत्य या संवृतिसत्य कहते हैं, जैसे पट्टरानीके सिवाय किसी सामान्य स्त्रीको भी देवी कहना । भिन्न वस्तुमें भिन्न वस्तुके समारोप करनेवाले वचनको स्थापनासत्य कहते हैं; जैसे प्रतिमाको चन्द्रप्रभ कहना । दूसरी कोई अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहारके लिए जो नाम रखा जाता है, उसे नामसत्य कहते हैं, जैसे जिनदत्त । यद्यपि उसको जिनभगवान्ने नहीं दिया है तथापि व्यवहारके लिए उसे जिनदत्त कहते हैं । पुद्गलके रूपादिक अनेक गुणोंमेंसे रूपकी प्रधानतासे जो वचन कहा जाय, उसे रूपसत्य कहते हैं। जैसे किसी मनुष्यके केशोंको काला कहना, अथवा उसके शरीरमें रसादिकके रहनेपर भी उसे श्वेत, धवल, गौर आदि कहना । किसी विवक्षित पदार्थकी अपेक्षा दूसरे पदार्थके स्वरूप-वर्णनको प्रतीत्यसत्य या आपेक्षिक-सत्य कहते हैं, जैसे किसीको दीर्घ, स्थूल आदि कहना । नैगमादि नयोंकी प्रधानतासे जो वचन बोला जाय, उसे व्यवहार सत्य कहते हैं; जैसे नैगमनयकी अपेक्षासे 'भात पकाता हूँ' आदि वचन बोलना। असंभवताका परिहार करते हुए वस्तुके किसी धर्मके निरूपण करने में प्रवृत्त वचनको संभावनासत्य कहते हैं; जैसे इन्द्र जम्बूद्वीपको उलट-पलट कर सकता है आदि । आगम-वणित विधि-निषेधके अनु अतीन्द्रिय पदार्थों में संकल्पित परिणामको भाव कहते हैं, उसके आश्रित जो वचन बोले जाते हैं, उन्हें भावसत्य कहते हैं; जैसे सूखे, पके और अग्निसे तपे या नमक, मिर्च, खटाई आदिसे संमिश्रित द्रव्यको प्रासुक माना जाता है । यद्यपि प्रासुक माने जानेवाले द्रव्यके तद्र प अन्तर्वर्ती 1.सं० पञ्चसं० १,१६८-१७१ । १. ध० भा० १ पृ० २८६ गा० १५६ । गो० जी० २१८ । २. ध० भा० १ पृ० २८६ गा. १५६ । गो० जी० २१६ । ३. ध० भा० १ पृ. २८६ गा० १५७ । गो० जी० २२० । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पञ्चसंग्रह सूक्ष्म जीवोंको इन्द्रियोंसे देख नहीं सकते, तथापि आगमप्रामाण्यसे उसकी प्रासुकताका वर्णन किया जाता है । इस प्रकारके पापवर्ज वचनको भावसत्य कहते हैं । दूसरे प्रसिद्ध-सदृश पदार्थको उपमा कहते हैं । उपमाके आश्रयसे जो वचन बोले जाते हैं, उन्हें उपमासत्य कहते हैं; जैसे पल्योपम । पल्य नाम गरेका है, उसकी उपमासे पल्योपमका व्यवहार होता है। अनुभय भाषाके नौ भेद होते हैं, आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, आपृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, संशयवचनी, इच्छानुलोम्नी और अनक्षरगता । 'हे देवदत्त, यहाँ आओ', इस प्रकारसे बुलानेवाले वचनोंको आमंत्रणी-भाषा कहते हैं । 'यह काम करो' ऐसे आज्ञारूप वचनोंको आज्ञापनी भाषा कहते हैं 'यह मुझे दो', ऐसे याचना-पूर्ण वचनोंको याचनी-भाषा कहते हैं। यह क्या है। ऐसे प्रश्नात्मक वचनोंको आपृच्छनी भाषा कहते हैं । 'मैं क्या करूँ' ऐसे सूचनात्मक वचनोंको प्रज्ञापनी भाषा कहते हैं। मैं इसे छोड़ता हूँ' ऐसे त्याग या परिहाररूप वचनोंको प्रत्याख्यानी भाषा कहते हैं । 'यह वकपंक्ति है या ध्वजपंक्ति' ऐसे संशयात्मक वचनोंको संशयवचनी भाषा कहते हैं । 'मुझे भी ऐसा ही होना चाहिए' ऐसी इच्छाके व्यक्त करनेवाले वचनोंको इच्छानुलोम्नी भाषा कहते हैं । द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञिपंचेन्द्रिय तकके जीवोंकी बोलीको अनक्षरगता भाषा कहते हैं । ये नौ प्रकारकी भाषा अनुभयवचनरूप हैं, क्योंकि इनके सुननेसे व्यक्त और अव्यक्त दोनों अंशोंका बोध होता है, सामात्य अंशके व्यक्त होनेसे इन्हें असत्य भी नहीं कह सकते और विशेष अंशके व्यक्त न होनेसे सत्य भी नहीं कह सकते । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि सत्य और अनुभय वचनयोगका मूल कारण भाषापर्याप्ति और शरीरनाभकर्मका उदय है। तथा मृषा और अनुभयवचनयोगका भूल कारण अपना-अपना आवरणकर्म है ।।६१-६२।। काययोगके सात भेदों से औदारिककाययोगका स्वरूप 'पुरु महमुदारुरालं एय8 तं वियाण तम्हि भवं । ओरालिय त्ति वुत्तं ओरालियकायजोगो सो ॥६३।। पुरु, महत् , उदार और उराल ये सब शब्द एकार्थ-वाचक हैं । उदार या स्थूलमें जो उत्पन्न हो, उसे औदारिक जानना चाहिए । ( यहाँ पर भव-अर्थमें ठण् प्रत्यय हुआ है । ) उदार में होने वाला जो काययोग है, वह औदारिककाययोग कहलाता है । अर्थात् मनुष्य और तियेचोंके स्थूल शरीरमें जो योग होता है, उसे औदारिककाययोग कहते हैं ॥३॥ औदारिकमिश्रकाययोगका स्वरूप अंतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति । __ जो तेण संपओगो ओरालियमिस्सकायजोगो सो ॥१४॥ औदारिकशरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त तक मध्यवर्ती कालमें जो अपरिपूर्ण शरीर है, उसे औदारिकमिश्र जानना चाहिए। उसके द्वारा होनेवाला जो संप्रयोग है, वह औदारिकमिश्र काययोग कहलाता है । अर्थात् शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेसे पूर्व कार्मणशरीरको सहायतासे उत्पन्न होनेवाले औदारिककाययोगको औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं ॥४॥ 1-2. सं० पञ्चसं०, १, १७३ । १. ध० भा० १ पृ० २६१ गा० १६० । गो० जी० २२६ । २. ध० भा० १ पृ० २६१ गा. १६१ । गो० जी० २३०, परन्तूभयत्रापि प्रथमचरणे 'ओरालिय उत्तथं' इति पाठः । *"ब एयह, द एयहा। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास वैक्रियिककाययोगका स्वरूप 'विविहगुणइड्डिजुत्तं वेउव्वियमहव विकिरियं चेव । _ तिस्से भवं च णेयं वेउव्वियकायजोगो सो ॥६॥ विविध गुण और ऋद्धियोंसे युक्त, अथवा विशिष्ट क्रियावाले शरीरको वैक्रियिक कहते हैं। उसमें उत्पन्न होनेवाला जो योग है, उसे वैक्रियिककाययोग जानना चाहिए ॥६५॥ वैक्रियिकमिश्रकाययोगका स्वरूप अंतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति । जो तेण संपओगो वेउब्वियमिस्सकायजोगो सो ॥१६॥ वैक्रियिकशरीरको उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्तके मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको वैक्रियिकमिश्रकाय कहते हैं। उसके द्वारा होनेवाला जो संप्रयोग है, वह वैक्रियिकमिश्रकाययोग कहलाता है। अर्थात् देव-नारकियोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक कार्मणशरीरकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले वैक्रियिककाययोगको वैक्रियिकमिश्रकाययोग कहते हैं ।।६६॥ आहारककाययोगका स्वरूप "आहरइ अणेण मुणी सुहुमे अट्ठ सयरस संदेहे । गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारकायजोगो सो ॥१७॥ स्वयं सूक्ष्म अर्थमें सन्देह उत्पन्न होनेपर मुनि जिसके द्वारा केवलि-भगवान्के पास जाकर अपने सन्देहको दूर करता है, उसे आहारक काय कहते हैं। उसके द्वारा उत्पन्न होनेवाले योगको आहारककाययोग कहते हैं ॥१७॥ आहारकमिश्रकाययोगका स्वरूप "अंतोमुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति । जो तेण संपओगो आहारयमिस्सकायजोगो सो ॥१८॥ आहारकशरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्तके मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको आहारकमिश्रकाय कहते हैं। उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है वह आहारकमिश्रकाययोग कहलाता है ॥६॥ कार्मणकाययोगका स्वरूप 'कम्मेव य कम्मइयं कम्मभवं तेण जो दु संजोगो । कम्मइयकायजोगो एय-विय-तियगेसु समएसु ॥१६॥ कर्मों के समूहको, अथवा कार्मणशरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले कायको कार्मणकाय कहते हैं और उसके द्वारा होनेवाले योगको कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग विग्रहगतिमें अथवा केवलिसमुद्घातमें एक, दो अथवा तीन समय तक होता है ॥६६॥ 1-2. सं० पञ्चसं० १,१७३-१७४ | 3-1. १, १७५-१७७ । 5.१, १७८ । १. ध० भा० १ पृ. २६१ गा० १६२ । गो० जी० १३१ । २. ध० भा. १ पृ. २६२ गा० १६३ । गोजी० २३३ । परं तत्र प्रथमचरणे पाठभेदः । ३. ध० भा० १ पृ. २६४ गा. १६४ । गो० जी० २३८ । ४. ध० भा० १ पृ. २६४ गा० १६५ । गो०जी० २३६, परं तत्र प्रथमचरणे पाठभेदः । ५. ध० भा० १ पृ. २१५ गा० १६६ । गो० जी० २४० । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह योगरहित अयोगिजिनका स्वरूप 'जेसिं ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपापसंजणया । ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंतगुणकलिया ॥१०॥ ___जिनके पुण्य और पापके संजनक अर्थात् उत्पन्न करनेवाले शुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं, वे अयोगिजिन कहलाते हैं, जो कि अनुपम और अनन्त गुणोंसे सहित होते हैं ॥१००।। इस प्रकार योगमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब वेदमार्गणाका निरूपण करते हुए पहले वेदका स्वरूप कहते हैं श्वेदस्सुदीरणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयंति तदो हवदि वेदो ॥१०१।। ____वेदकर्मको उदीरणा होनेपर यह जीव नाना प्रकारके बालभाव अर्थात् चांचल्यको प्राप्त होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसक भावका वेदन करता है, अतएव वेदकर्मके उदयसे होनेवाले भावको वेद कहते हैं ॥१०१॥ वेदके भेद और वेद-वैषम्यका निरूपण-- - तिव्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हु दव्व-भावादो। ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकम सव्वे ॥१०२।। द्रव्य और भावकी अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेदवाले दिखाई देते हैं और इसी कारण वे सर्व ही यथाक्रमसे विपरीत वेदवाले भी सम्भव हैं ॥१०२।। भाववेद और द्रव्यवेदका कारण "उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूणं । जोगी य लिंगमाई णामोदय दव्ववेदो दु॥१०३॥ नोकषायोंके उदयसे जीवोंके भाववेद होता है। तथा योनि, लिंग आदि द्रव्य वेद नामकर्मके उदयसे होता है ॥१०३।। वेद-वैषम्यका कारण इत्थी पुरिस णउंसय वेया खलु दव्व-भावदो होति । ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो ॥१०४॥ स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये तीनों ही वेद निश्चयसे द्रव्य और भावकी अपेक्षा दो प्रकारके होते हैं और वे सर्व ही विभिन्न नोकपायोंके उदय होनेपर यथाक्रमसे विपरीत भी परिणत होते हैं ।।१०४॥ 1. सं० पञ्चसं० १, १८० । 2.१,१८६-१८७ । 3. १, १९१-१९२ । 4. १,१८८-१८९ । ' 5. १, १९३-१९४ । परन्त्वत्र मतभेदो दृश्यते । १. ध० भा० १ पृ० २८० गा० १५३ । गो० जी० २४२ । २. ध० भा० १ पृ० १४५ गा० ८६ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास स्त्रीवेदका स्वरूप 'छादयदि सयं दोस्रोण जदो छादयदि परं पि दोसेण । छादणसीला णियदं तम्हा सा *वणिया इत्थी ॥१०॥ जो मिथ्यात्व आदि दोषसे अपने आपको आच्छादित करे और मधुर-भाषणादिके द्वारा दूसरेको भी आच्छादित करे, वह निश्चयसे यतः आच्छादन स्वभाववाली है अतः 'स्त्री' इस नामसे वर्णित की गई है ॥१०॥ पुरुषवेदका स्वरूप पुरु गुण भोगे सेदे करेदि लोयम्हि पुरुगुणं कम्मं । पुरु + उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो ॥१०६॥ जो उत्तम गुण और उत्कृष्ट भोगमें शयन करता है, लोकमें उत्तम गुण और कर्मको करता है, अथवा यतः जो स्वयं उत्तम है, अतः वह 'पुरुष' इस नामसे वर्णित किया गया है ॥१०६।। नपुंसकवेदका स्वरूप णेवित्थी ण य पुरिसो णउंसओ उभयलिंगवदिरित्तो । इट्टावग्गिसमाणो वेदणगरओ कलुसचित्तो ॥१०७।।। जो भावसे न स्त्रीरूप है और न पुरुषरूप है, तथा द्रव्यकी अपेक्षा जो स्त्रीलिंग और पुरुषलिंगसे रहित है, ईटोंको पकानेवाली अग्तिके समान वेदकी प्रबल वेदनासे युक्त है, और सदा कलुषित-चित्त है, उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए ।।१०७।। अपगतवेदी जीवोंका स्वरूप ___ 'करिसतणेट्टावग्गीसरिसपरिणामवेदणुम्मुका।। अवगयवेदा जीवा सयसंभवxणंतवरसोक्खा ॥१०८॥ जो कारीष अर्थात् कंडेकी अग्नि, तृणकी अग्नि और इष्टपाककी अग्निके समान क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिणामोंके वेदनसे उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मामें उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्त सुखके धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगतवेदी कहलाते हैं ॥१०८।। इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई। कषायमार्गणा, कषायका स्वरूप सुह-दुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स । __ संसारगदी +मेरं तेण कसाओ त्ति णं विंति ॥१०॥ जो क्रोधादिक जीवके सुख-दुःखरूप बहुत प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूप खेत को कर्षण करते हैं, अर्थात् जोतते हैं और जिनके लिए संसारकी चारों गतियाँ मर्यादा या मेंढ-. रूप हैं, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं ।।१०।। 1. सं० पञ्चसं० १, १९९ । 2. १, २०० । 3. १, २०१ । 4. १, २०२। 5. १, २०३। १. ध० भा० १ पृ० ३४१ गा० १७०। गो० जी० २७३ । २. ध० भा०१ पृ० २४१ गा. १७१ । गो. जी. २७२ । ३. ध० भा०१ पृ० ३४२ गा० १७२। गो० जी० २७४ । ४. ध० भा० १, पृ० ३४२ गा० १७३ । गो० जी० २७.५ । ५. ध० भा० १, पृ. १४२ गा० १० । गो० जी० २८१ । 8 ब बनिया । +द ब पुरउत्तिमो। द सारं। Xद ब -मणंत । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ कषायके भेद और उनके कार्य पञ्चसंग्रह 'सम्मत - देस संजम संसुद्धीघाइकसाई पढमाई । सिं तु भवे नासे सड्ढाई चउहं । उप्पत्ती ॥११०॥ प्रथमादि अर्थात् अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय क्रमशः सम्यक्त्व, देशसंयम, संकलसंयम और पूर्ण शुद्धिरूप यथाख्यातचारित्रका घात करते हैं । किन्तु उनके नाश होनेपर आत्मामें श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व आदिक चारों गुणोंकी उत्पत्ति होती है ।। ११० ।। क्रोधकषाय की जातियाँ और उनका फल - 2 सिलभेय पुढविभेया धूलीराई य उदयराइसमा । + णिर- तिरि-णर- देवत्तं उविंति जीवा हु कोहवसा ॥ १११ ॥ अनन्तानुबन्धी क्रोध शिलाभेद के समान है, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध पृथ्वीभेदके समान है, प्रत्याख्यानावरण क्रोध धूलिराजिके समान है और संज्वलनक्रोध उदक अर्थात् जल - राजिके समान है । इन चारों जातिके क्रोध के वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिको प्राप्त होते हैं ||१११ ॥ मानक पाय की जातियाँ और उनका फल सेलसमो असिमो दारुसमो तह य जाण वेत्तसमो । x रि-तिरि-र-देवत' उविंति जीवा हु माणसा ||११२|| अनन्तानुबन्धी मान शैल-समान है, अप्रत्याख्यानावरण मान अस्थि-समान है, प्रत्याख्यानावरण मान दारु अर्थात् काष्टके समान है और संज्वलन मान वेत्र ( वेंत ) के समान है । इन चारों जातिके मानके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ॥ ११२ ॥ मायाकषायकी जातियाँ और उनका फल - वसीमूलं मेसस्स सिंग गोमुत्तियं च खोरुप्पं । + णिर- तिरि-र- देवत्त उविंति जीवा हु मायवसा ॥ ११३ ॥ अनन्तानुबन्धी माया बाँसकी जड़के समान है, अप्रत्याख्यानावरण माया मेषा के सींग के समान है, प्रत्याख्यानावरण माया गोमूत्र के समान है और संज्वलन माया खुरपाके समान है । इन चारों ही जातिके मायाके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ।। ११३ || लोभकषायकी जातियाँ और उनका फल " किमिराय चक्कमल कदमो य तह चेय : जाण हारिद्दं । *णिर-तिरिणर- देवत्तं उविंति जीवा हु लोहवसा ॥ ११४ ॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २०४ - २०५ । 2. १, २०६ । ३. १, २०७ । 4. १२०८ । . १, २०९ । + द ब च हुं । कब गिर । x ब गिर + व णिर व चेय । *व गिर । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास २५ अनन्तानुबन्धीलोभ किरमिजी रंगके समान है, अप्रत्याख्यानावरणलोभ चक्र अर्थात् गाड़ीके पहियेके मलके समान है, प्रत्याख्यानावरणलोभ कर्दम अर्थात् कीचड़के समान है और संज्वलन लोभको हल्दीके रंगके समान जानना चाहिए। इन चारों ही जातिके लोभके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ॥११४॥ चारों जातिके कषायोंके पृथक्-पृथक् कार्योंका वर्णन 'पढमो दसणघाई विदिओ तह घाइ देसविरइ ति। तइओ संजमघाई चउथो जहखायघाईया ॥११॥ प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनका धात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कपाय देशविरतिकी घातक है। तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलसंयमकी घातक है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यातचारित्रकी घातक है ।।११।। अकषाय जीवोंका वर्णन अप्पपरोभयवाहणबंधासंजमणिमित्तकोहाई । जेसिं णत्थि कसाया अमला अकसाइणो जीवा ॥११६॥ जिनके अपने आपको, परको और उभयको बाधा देने, बन्ध करने और असंयमके आचरणमें निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं हैं, तथा जो बाह्य और आभ्यन्तर मलसे रहित हैं, ऐसे जीवोंको अकषाय जानना चाहिए ॥११६।। इस प्रकार कपायमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। ज्ञानमार्गणा, ज्ञानका स्वरूप जाणइं तिकालसहिए* दव्व-गुण-पज्जए बहुब्भेए। . पच्चक्खं च परोक्खं अणेण णाण ति। णं विति ॥११७॥ जिसके द्वारा जीव त्रिकाल-विषयक सर्व द्रव्य, उनके समस्त गुण और उनकी बहत भेदवाली पर्यायोंको प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपसे जानता है, उसे निश्चयसे ज्ञानी जन ज्ञान कहते हैं ॥११७॥ मत्यज्ञानका स्वरूप "विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु अणुवदेसकरणेण । जा खलु पवत्तइ मई मइअण्णाण त्ति णं विति ॥११८।। परोपदेशके विना जो विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा वन्ध आदिके विषयमें बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे ज्ञानी जन मत्यज्ञान कहते हैं ।।११।। 1. सं० पञ्चसं १, २०५। . १, २१२ । 3. १, २१३ । 4. १, २३१ पूर्वार्ध । १. ध० भा० १ पृ० ३५४, गा० १७८ । गो० जी० २८८ । २. ध० भा०, पृ० १४४, गा० ११ । गो. जी. २१८ । ३. ध० भा० ११० ३५८, गा० १७४ । गो० जी० ३०२। १. 'अणेण जीवो' इति मूलप्रती पाठः। दत्तणं, घ तण । प्रतिषु 'बड़ादिसु' इति पाठः । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पञ्चसंग्रह श्रुताशानका स्वरूप आभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादि-उवएसा । तुच्छा असाहणीया सुयअण्णाण त्ति णं विति ॥११॥ चौरशास्त्र, हिंसाशास्त्र तथा महाभारत, रामायण आदिके तुच्छ और परमार्थ-शून्य होनेसे साधन करनेके अयोग्य उपदेशोंको ऋषिगण श्रुताज्ञान कहते हैं ॥११॥ कुअवधि या विभंगशानका स्वरूप विवरीयओहिणाणं खओवसमियं च कम्मबीजं च । वेभंगो ति य वुच्चइ समत्तणाणीहि समयम्हि ॥१२०॥ जो क्षायोपशभिक अवधिज्ञान मिथ्यात्वसे संयुक्त होनेके कारण विपरीत स्वरूप है, और नवीन कर्मका बीज है, उसे समाप्त अर्थात् जिनका ज्ञान सम्पूर्णताको प्राप्त है ऐसे ज्ञानियोंके द्वारा उपदिष्ट आगममें कुअवधि या विभंगज्ञान कहा है ॥१२०।। आभिनिबोधिक या मतिज्ञानका स्वरूप- . अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिंदि-इंदियजं । बहुउग्गहाइणा खलु कयछत्तीसा तिसयभेयं ॥१२१॥ अनिन्द्रिय अर्थात् मन और इन्द्रियोंकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले, अभिमुख और नियमित पदार्थके बोधको आभिनिवोधिक ज्ञान कहते हैं। उसके बहु आदिक बारह प्रकारके पदार्थों की और अवग्रह आदिको अपेक्षा तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ॥१२१।। श्रुतज्ञानका स्वरूप 'अत्थाओ अत्यंतरउवलंभे तं भणंति सुयणाणं । आहिणियोहियपुव्वं णियमेण य सद्दयं मूलं ॥१२२।। __ मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थके अवलम्बनसे तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थका जो उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान नियमसे आभिनिबोधिकज्ञान-पूर्वक होता है । ( इसके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य, इस प्रकार दो भेद हैं ) । उनमें अक्षरात्मक श्रुतज्ञानका मूल कारण शब्द-समूह है ।।१२२॥ अवधिशानका स्वरूप 5अवहीयदि त्ति ओही सीमाणाणेत्ति वणियं समए । भव-गुणपञ्चयविहियं तमोहिणाण त्ति नणं विति" ॥१२३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २३१ उत्तरार्ध । 2. १, २३२ । ३. १, २१४ । 4. १, २१७-२१८ । 5. १, २२०-२२१ । १. ध० भा० १ पृ० ३५८, गा० १८० । गो० जी० ३०३ । २. ध० भा० १ पृ० ३५६, गा० १८१ । गो० जी० ३०४ । ३. ध० भा० १ पृ० ३५६, गा० १८२ । गो० जी० ३०५, परं तत्रोत्तरार्धे अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं इति पाठः । ४. ध० भा० १ पृ० ३५६, गा० १८३ । गो० जी० ३१४ । ५. ध० भा० १ ० ३५६, गा० १८४ । गो० जी० ३६५ । ॐ द -णत्तणं ।।द -णाणेत्ति । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमासे युक्त अपने विषयभूत पदार्थको जाने, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, सीमासे युक्त जाननेके कारण परमागममें इसे सीमाज्ञान कहा है । यह भवप्रत्यय और गुणप्रत्ययके द्वारा उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं ||१२३ ॥ अवधिज्ञानके भेदोंका वर्णन 'अणुगो अणाणुगामी X तेत्तियमेत्तो य अप्पबहुगोऽयं । वह कमेण हीयइ ओही जाणाहि छन्भेओ ||१२४|| अनुगामी, अननुगामी, तावन्मात्र अर्थात् अवस्थित, अल्प-बहुत अर्थात् अनवस्थित, क्रमसे बढ़नेवाला अर्थात् वर्द्धमान और क्रमसे हीन होनेवाला अर्थात् हीयमान, इस प्रकार अवधिज्ञान छह भेदरूप जानना चाहिए ॥ १२४ ॥ मन:पर्ययज्ञानका स्वरूप 'चिंतियमचिंतियं* वा अर्द्ध चिंतिय अणेय भेयगयं । मणपञ्जव त्तिणाणं जं जाणइ तं तु परलोए ॥१२५॥ | जो चिन्तित अर्थात् भूतकाल में विचारित, अचिन्तित अर्थात् अतीत में अविचारित किन्तु भविष्य में विचार्यमाण, और अर्धचिन्तित इत्यादि अनेक भेदरूप दूसरेके मनमें अवस्थित पदार्थको नरलोक अर्थात् पैंतालीस लाख योजनरूप मनुष्यक्षेत्र में जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान कहलाता है ।। १२५ ।। केवलज्ञानका स्वरूप पुणं तु समग्गं केवलमसपत्त । सव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेयच्वं ॥ १२६ ॥ जो जीवद्रव्यके शक्ति-गत ज्ञानके सर्व अविभागप्रतिच्छेदोंके व्यक्त हो जानेसे सम्पूर्ण है, ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके सर्वथा क्षय हो जानेसे अप्रतिहतशक्ति है, अतएव समग्र है, जो केवल अर्थात् इन्द्रिय और मनकी सहायता से रहित है, असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षसे रहित है, युगपत् सर्व भावोंको जाननेवाला है, लोक और अलोकमें अज्ञानरूप तिमिर (अन्धकार) से रहित है, अर्थात् सर्व-व्यापक और सर्व-ज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानना चाहिए ॥१२६|| इस प्रकार ज्ञानमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ । संयममार्गणा, द्रव्यसंयमका स्वरूप २७ 'वय समिदि - कसायाणं दंडाणं इंदियाण पंचन्हं । धारण- पालण - णिग्गह- चाय-जओ संजमो भणिओ || १२७|| अहिंसादि पाँच महाव्रतोंका धारण करना, ईयदि पाँच समितियोंका पालन करना, क्रोधादि चारों कषायोंका निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पाँचों इन्द्रियोंका जीतना सो द्रव्यसंयम कहा गया है || १२७|| 1. सं० पञ्चसं० १, २२२ । १.१, २२७ - २२८ । ३.१, २२६ । 4. १,२३८ । १. ६० भा० १ पृ० ३६०, ग० १८५ । गो० जी० ४३७ । २. ध० भा० १ पृ० ३६०, गा० १८६ | गो० जी० ४५६ । ३. ६० भा० १ पृ० १४५, गा० ६२ । गो० जी० ४६४ । x द च - णाणुगामी य | अत्थं चिंता । बवन्न, द वण्ण । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह भावसंयमका स्वरूप सगवण्ण जीवहिंसा अट्ठावीसिंदियत्थदोसा य । तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ ॥१२८॥ पहले जीवसमासोंमें जो सत्तावन प्रकारके जीव बता आये हैं, उनकी हिंसासे उपरत होना, तथा अट्ठाईस प्रकारके इन्द्रिय-विषयोंके दोषोंसे विरत होना, सो भावसंयम कहा गया है ॥१२८।। सामायिकसंयमका स्वरूप 'संगहियसयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्मं । जीवो समुव्वहंतो सामाइयसंजदो होइ ॥१२६॥ जिसमें सकल संयम संगृहीत हैं, ऐसे सर्व सावद्यके त्यागरूप एकमात्र अनुत्तर एवं दुरवगम्य अभेद-संयमको धारण करना सो सामायिकसंयम है, और उसे धारण करने वाला सामायिकसंयत कहलाता है ।।११६॥ छेदोपस्थापनासंयमका स्वरूप 'छेत्तण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो ॥१३०॥ सावध व्यापाररूप पुरानी पर्यायको छेद कर अहिंसादि पाँच प्रकारके यमरूप धर्ममें अपनी आत्माको स्थापित करना छेदोपस्थापनासंयम है, और उसका धारक जीव छेदोपस्थापकसंयत कहलाता है ॥१३०॥ परिहारविशुद्धिसंयमका स्वरूप पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सया वि जो हु सावजं । पंचजमेयजमो वा परिहारयसंजदो साहूँ ॥१३॥ पाँच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त होकर सदा ही सर्व सावद्य योगका परिहार करना तथा पाँच यमरूप भेद-संयम (छेदोपस्थापना ) को, अथवा एक यमरूप अभेद-संयम ( सामायिक ) को धारण करना परिहार विशुद्धि संयम है, और उसका धारक साधु परिहारविशुद्धिसंयत कहलाता है ।।१३।। सूक्ष्मसाम्परायसंयमका स्वरूप-- 'अणुलोहं वेयंतो जीओ उवसामगो व खवगो वा । सो सुहुमसंपराओ जहखाएणूणओ किंचि ॥१३२॥ मोहकर्मका उपशमन या क्षपण करते हुए सूक्ष्म लोभका वेदन करना सूक्ष्मसाम्परायसंयम है और उसका धारक सूक्ष्मसाम्परायसंयत कहलाता है। यह संयम यथाख्यातसंयमसे कुछ ही कम होता है । ( क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायसंयम दशवें गुणस्थानमें होता है और यथाख्यातसंयम ग्यारहवें गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है ) ॥१३२॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २३६ । 2. १, २४० । 3. १, २४१ । 4. १,२४२ । १. ध० भा० १ पृ० ३७२, गा० १८७ । गो० जी० ४६६ । २. ध. भा. १ पृ. ३७२, गा १८८ । गो० जी० ४७० । ३. ध० भा० १ पृ. ३७२, गा० १८१ । गो० जी० ४७१ । ४. ध० भा० १ पृ० ३७३, गा० १६० । गो० जी० ४७३ । ॐद -विरउ । द ब -संजमो । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास २१ यथाख्यातसंयमका स्वरूप उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि । छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू ॥१३३।। अशुभ (पाप) रूप मोहनीय कर्मके उपशान्त अथवा क्षीण हो जानेपर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथाख्यातसंयम कहते हैं। उसके धारक ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ साधु और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली जिन यथाख्यातसंयत कहलाते हैं ॥१३३॥ संयमासंयमका सामान्य स्वरूप जो ण विरदो दु भावो थावरवह-इंदियत्थदोसाओ। तसवहविरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिवो ॥१३४॥ भावोंसे स्थावर-वध और पाँचों इन्द्रियोंके विषय-सम्बन्धी दोषोंसे विरत नहीं होने, किन्तु त्रस-वधसे विरत होनेको संयमासंयम कहते हैं और उनका धारक जीव नियमसे संयमासंयमी कहा गया है ॥१३४॥ संयमासंयमका विशेष स्वरूप पंच-तिय-चउविहेहिं अणु-गुण-सिक्खावएहिं संजुत्ता । वुचंति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा ॥१३॥ पाँच अणुव्रत, तीन गुणवंत और चार शिक्षाबतासे संयुक्त होना विशिष्ट संयमासंयम है। उसके धारक और असंख्यातगुणश्रेणीरूप निर्जराके द्वारा कर्मोके झड़ानेवाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं ॥१३॥ देशविरतके भेद दंसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य । वंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देसविरदेदे ॥१३६॥ दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये देशविरतके ग्यारह भेद होते हैं ।।१३।। असंयमका स्वरूप जीवा चउदसभेया इंदियविसया य अट्ठवीसं तु । जे तेसु णेय विरया असंजया ते मुणेयव्वाँ ॥१३७॥ जीव चौदह भेद रूप हैं और इन्द्रियोंके विषय अट्ठाईस हैं। जीवघातसे और इन्द्रियविषयोंसे विरत नहीं होनेको असंयम कहते हैं। जो इनसे विरत नहीं हैं, उन्हें असंयत जानना चाहिए ॥१३७॥ इस प्रकार संयममार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ 1. सं० पञ्चसं० १, २४३ । १. १, २४६ ।।.१,२४७-२४८ । १. ध० भा० १ पृ. ३७३, गा० १६१ । गो० जी० ४७४ । परन्तूभयत्रापि 'सो दु' तथा 'सो हु' इति पाठः। २. ध० भा० १ पृ. ३७३, गा० १६२ । गो० जी० ४७५ । ३. ध० भा० १ पृ० ३७३, गा० १६३ । गो० जी० ४७६ । ४. ध० भा० १ पृ० ३७३, गा० १६४ । गो० जी० ४७७ । सद -खाउ ।:::ब सुध्विय, द सुच्चिय । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पञ्चसंग्रह दर्शनमार्गणा, वर्शनका स्वरूप 'जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटु आयारं । अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए ॥१३८ सामान्य-विशेषात्मक पदार्थों के आकार-विशेषको ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्परूपसे अंशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागममें दर्शन कहा गया है ।।१३८॥ चक्षुदर्शन और अचचुदर्शनका स्वरूप 'चक्खूण जं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विति । सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु ति ॥१३६।। • चक्षुरिन्द्रियके द्वारा जो पदार्थका सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष चार इन्द्रियों से और मनसे जो सामान्य-प्रतिभास होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए ॥१३६॥ अवधिदर्शनका स्वरूप परमाणुआदियाइं अंतिमखंध त्ति मुत्तदव्वाई। तं ओहिदसणं पुण जं पस्सइ ताई पञ्चक्खं ॥१४०॥ ____ सर्व-लघु परमाणुसे आदि लेकर सर्व-महान् अन्तिम स्कन्ध तक जितने मूर्त द्रव्य हैं, उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं ॥१४०॥ केवलदर्शनका स्वरूप 'बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्हि खेत्तम्हि । लोयालोयवितिमिरो सो केवलदसणुजोवो ॥१४१॥ बहुत जातिके और बहुत प्रकारके चन्द्र-सूर्यादिके उद्योत (प्रकाश) तो परिमित क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं, अर्थात् वे थोड़ेसे ही पदार्थों को अल्प परिमाणमें प्रकाशित करते हैं । किन्तु जो केवलदर्शनरूप उद्योत है, वह लोकको और अलोकको भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत्को स्पष्ट देखता है ।।१४१॥ इस प्रकार दर्शनमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। लेश्यामार्गणा, लेश्याका स्वरूप लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च । जीवो ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खायां ॥१४२॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २४६ । '. १, २५० । . १, २५१ (पूर्वार्ध)। 4. १, २५१ ( उत्तरार्ध)। १. ध० भा० १ पृ० १४६, गा० ६३ । गो० जी० ४८१ । २. ध० भा० . पृ० ३८२, गा० १६५। गो० जी० ४८३ । ३. ध० भा० १ पृ० ३८२, गा० १६६ । गो० जी० ४८४ । ४. ध० भा० १ पृ० ३८२, गा० १६७ । गो० जी० ४८५। ५. ध० भा० १ पृ० १५०, गा० ६४ । गो० जी० ४८८, परं तत्र द्वितीय-चरणे 'गियअपुष्णपुण्णं च' इति पाठः । * बत्त । दतं । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास ३१ जिसके द्वारा जीव पुण्य और पापसे अपने आपको लिप्त करता है अर्थात् उनके आधीन होता है, ऐसी कषायानुरंजित योगको प्रवृत्तिको लेश्याके गुण-स्वरूपादिके जाननेवाले गणधरोंने लेश्या कहा है ॥१४२॥ लेश्याके स्वरूपका दृष्टान्त-द्वारा स्पष्टीकरण जहX गेरुवेण कुड्डो लिप्पइ लेवेण आमपिटेण । तह परिणामो लिप्पइ सुहासुहा य त्ति लेवेण ॥१४३॥ जिस प्रकार आमपिष्ट ( दालकी पिट्ठी या तैलादि ) से मिश्रित गेरू मिट्टीके लेप-द्वारा भित्ती ( दीवाल) लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेपके द्वारा जो आत्माका परिणाम लिप्त किया जाता है उसे लेश्या कहते हैं ॥१४३॥ कृष्णलेश्याका लक्षण 'चंडो ण मुयइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ। दुट्टो ण य एइ वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स' ॥१४४॥ जो प्रचण्ड-स्वभावी हो, वैरको न छोड़े, भंडनशील या कलहस्वभावी हो, धर्म और दयासे रहित हो, दुष्ट हो, और जो किसीके भी वशमें न आवे, ये सब कृष्णलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१४४॥ नीललेश्याका लक्षण मंदो बुद्धिविहीणो णिविण्णाणी य विसयलोलो य । माणी माई य तहा आलस्सो चेव भेजो। य ॥१४॥ णिदावंचणबहुलो धण-धण्णे होइ तिव्वसण्णाओ। लक्खणमेयं भणियं समासओ णीललेसस्स ॥१४६॥ जो कार्य करनेमें मन्द-उद्यमी एवं स्वच्छन्द हो, बुद्धि-विहीन हो, कला और चातुर्यरूप विशेष ज्ञानसे रहित हो, इन्द्रियोंके विषयोंका लोलुपी हो, मानी हो, मायाचारी हो, आलसी हो, अभेद्य-स्वभावी हो, अर्थात् दूसरे लोग जिसके अभिप्रायको प्रयत्न करने पर भी न जान सकें, बहुत निद्रालु हो, पर-वंचनमें अतिदक्ष हो, और धन-धान्यके संग्रहादिमें तीव्र लालसावाला हो, ये सब संक्षेपसे नीललेश्यावालेके लक्षण कहे गये हैं ॥१४५-१४६॥ कापोतलेश्याका लक्षण रूसइ जिंदइ अण्णे दूसणबहुलो य सोय-भयबहुलो । असुवइ परिभवइ परं पसंसइ य अप्पयं बहुसो ॥१४७।। ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणं पिव परं पि मण्णंतो। तूसइ अइथुव्वंतो ण य जाणइ हाणि-वड्डीओ ॥१४८॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २७२-२७३ । 2. १, २७४-२७५ । 3. १, २७६-२७७ । १. ध० भा०१ पृ० ३८६, गा० २०० । गो० जी० ५०८। २.ध. भा० १ पृ. ३८८-३८६, गा० २०१-२०२ । गो० जी० ५०-५०। ३. ध० भा० १ पृ० ३८६, गा० २०३-२०४ । गो० जी० ५११-५१२ । x द ब जिह । * ब -चैव । 'भीरु' इति मूलपाठः । द -पासं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह 'मरणं पत्थेइ रणे देइ सु बहुयं पि थुव्वमाणो हु। ण गणइ कजाकजं लक्खणमेयं तु काउस्स ॥१४६॥ __ जो दूसरोंके ऊपर रोष करता हो, दूसरोंकी निन्दा करता हो, दूषण-बहुल हो, शोक-बहुल हो, भय-बहुल हो, दूसरेसे ईर्ष्या करता हो, परका पराभव करता हो, नानाप्रकारसे अपनी प्रशंसा करता हो, परका विश्वास न करता हो, अपने समान दूसरेको भी मानता हो, स्तुति किये जाने पर अति संतुष्ट हो, अपनी हानि और वृद्धि [लाभ] को न जानता हो, रणमें मरणका इच्छुक हो, स्तुति या प्रशंसा किये जाने पर बहुत धनादिक देवे और कर्तव्य-अकर्त्तव्यको कुछ भी न गिनता हो; ये सब कापोतलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१४७-१४६॥ तेजोलेश्याका लक्षण जाणइ कजाकझं सेयासेयं च सव्वसमपासी । दय-दाणरदो य विदू लक्खणमेयं तु तेउस्स ॥१५॥ जो अपने कर्तव्य-अकर्तव्य और सेव्य-असेव्यको जानता हो, सबमें समदर्शी हो, दया और दानमें रत हो, मृदु-स्वभावी और ज्ञानी हो, ये सब तेजोलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१५०॥ एमलेश्याका लक्षण चाई भद्दो चोक्खो उज्जुयकम्मो य खमई बहुयं पि । साहुगुणपूयणिरओ लक्खणमेयं तु पउमस्स ॥१५॥ जो त्यागी हो, भद्र (भला) हो, चोखा ( सञ्चा) हो, उत्तम कार्य करनेवाला हो, बहुत भी अपराध या हानि होने पर क्षमा कर दे, साधुजनोंके गुणोंकी पूजनमें निरत हो, ये सब पद्मलेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१५१॥ शुक्ललेश्याका लक्षण 'ण कुणेई पक्खवायं ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसु । णत्थि य राओ दोसो हो वि हु सुक्कलेसस्स ॥१५२॥ __ जो पक्षपात न करता हो, और न निदान करता हो; सबमें समान व्यवहार करता हो, जिसे परमें राग न हो, द्वेष न हो और स्नेह भी न हो; ये सब शुक्ललेश्यावालेके लक्षण हैं ॥१५२॥ अलेश्य जीवोंका स्वरूप किण्हाइलेसरहिया संसारविणिग्गया अणंतसुहा । सिद्धिपुरीसंपत्ता अलेसिया ते मुणेयव्वा ॥१५३॥ 1.सं० पञ्चसं० १, २७८ । 2.१, २७६ । ३.१,२८० । 4.१, २८१ । 5.१, २८३ । १. ध० भा० १ पृ० ३८६, गा० २०५ । गो० जी० ५१३ । २. ध० भा० १ पृ० ३८६, गा. २०६ । गो० जी० ५१४ । परन्तुभयनापि 'मिदू' इति पाठः। ३. ध० भा० १ पृ. ३६०, गा० २०७। गो० जी० ५१५। ४. ध० भा० १ पृ. ३६०, गा० २०८ । गो. जी० ५१६ । ५. धवला, भा० १ पृ० ३६०, गा० २०६ । गो० जी० ५५५ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास जो कृष्णादि छहों लेश्याओंसे रहित है, पंच परिवर्तनरूप संसारसे विनिर्गत हैं, अनन्तसुखी हैं, और आत्मोपलब्धिरूप सिद्धिपुरीको संप्राप्त हैं, ऐसे अयोगिकेवली और सिद्ध जीवोंको अलेश्य जानना चाहिए । ॥१५३।। इस प्रकार लेश्यामार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। भव्यमार्गणा, भव्यसिद्धका स्वरूप 'सिद्धत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते भवंति भवसिद्धा । ण उ मलविगमे णियमा ताणं कणकोपलाणमिव ॥१५४॥ जो जीव सिद्धत्व अर्थात् सर्व कर्मसे रहित मुक्तिरूप अवस्था पानेके योग्य हैं, वे भव्यसिद्ध कहलाते हैं। किन्तु उनके कनकोपल (स्वर्ण-पाषाण) के समान मलका नाश होने में । नहीं है ॥१५४।। बिशेषार्थ-भव्यसिद्ध जीव दो प्रकारके होते हैं-एक वे, जो कि सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर लेते हैं, और एक वे, जो कभी सिद्ध-अवस्था प्राप्त नहीं कर सकते । जो भव्य होते हुए भी सिद्धअवस्थाको प्राप्त नहीं कर सकते हैं, उनके लिए स्वर्ण-पाषाणका दृष्टान्त ग्रन्थकारने दिया है। जिसप्रकार किसी स्वर्ण-पाषाणमें सोना रहते हुए भी उसको पृथक् किया जाना संभव नहीं है, उसी प्रकार सिद्धत्वकी योग्यता होते हुए कितने ही जीव तदनुकूल सामग्रीके नहीं मिलनेसे सिद्ध अवस्था नहीं प्राप्त कर पाते। . भव्य और अभव्य जीवोंका निरूपण संखेज असंखेजा अणंतकालेण चावि ते णियमा । सिझति भव्वजीवा अभव्वजीवा ण सिझति ॥१५॥ भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते भवंति भवसिद्धा। तविवरीयाऽभव्वा संसाराओ ण सिझंति ॥१५६॥ जो भव्य जीव हैं, वे नियमसे संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्तकालके द्वारा सिद्धपदप्राप्त कर लेते हैं। किन्तु अभव्य जीव कभी भी सिद्ध-पद प्राप्त नहीं कर पाते हैं। जिन जीवोंकी मुक्तिपद-प्राप्तिरूप सिद्धि होनेवाली है, अथवा जो उसकी प्राप्तिके योग्य हैं, उन्हें भव्यसिद्ध कहते हैं । जो इनसे विपरीत स्वरूपवाले हैं, वे अभव्य कहलाते हैं और वे कभी संसारसे छूटकर सिद्ध नहीं होते हैं ॥१५५-१५६॥ भव्यत्व और अभव्यत्वसे रहित जीवोंका वर्णन ण य जे भव्वाभव्वा मुत्तिसुहा होति तीदसंसारा । ते जीवा णायव्वा णो भव्या णो अभव्या य ॥१५७॥ जो न भव्य हैं और न अभव्य हैं, किन्तु जिन्होंने मुक्ति-सुखको प्राप्त कर लिया है और अतीत-संसार हैं, अर्थात् पंचपरिवर्तनरूप संसारको पार कर चुके हैं, उन जीवोंको 'नो भव्य नो अभव्य जानना चाहिए ॥१५७।। इस प्रकार भव्यमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। 1. सं० पञ्चसं० १, २८३ । १. १, २८४ । ३.१, २८५ । १. ध० भा० १ पृ० १५०, गो० जी० ५५७, परं तत्र 'सिद्धत्तणस्य' स्थाने 'भब्वत्तणस्य' इति पाठः। २. ध० भा० १ पृ. ३६४, गो० जी० ५५६ । ३. गो० जी० ५५८ । __*ब सिद्धि । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह सम्यक्त्वमार्गणा, जीव सम्यक्त्वको कब प्राप्त करता है, इस बातका निरूपण - भव्वो पंचिदिओ सण्णी जीवो पञ्जत्तओ तहा । काललाइ संजुत्तो सम्मत्तं पडिवजए || १५८ ॥ जो भव्य हो, पंचेन्द्रिय हो, संज्ञी हो, पर्याप्तक हो, तथा काललब्धि आदिसे संयुक्त हो, ऐसा जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । [ यहाँ पर आदि पदसे वेदनाभिभव, जातिस्मरण आदि बाह्य कारण विवक्षित हैं । संस्कृत पश्र्चसंग्रह ] ॥ १५८ ॥ सम्यक्त्वका स्वरूप ૨૪ 'छष्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइद्वाणं । आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ' ॥१५६॥ जिनवरोंके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नौ प्रकारके पदार्थोंका आज्ञा या अधिगमसे श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥ १५६ ॥ क्षायिकसम्यक्त्वका स्वरूप २ खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ । तं खाइयसम्मत्तं णिचं कम्मक्खवणहेउं ॥ १६०॥ यहिं वि ऊहि य इंदियभयजणणगेहिं रूवेहिं । वीभच्छ- दुर्गुळेहि य णो तेल्लोकेण चालिजा ॥१६१ ॥ एवं विउला बुद्धी ण य विभयमेदि किंचि दट्ठूणं । पट्टविए सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए ॥ १६२॥ 3 दर्शनमोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । वह सम्यक्त्व नित्य है, अर्थात् होकर के फिर कभी छूटता नहीं है और सिद्धपद प्राप्त करने तक शेष कर्मोंके क्षपणका कारण है । यह क्षायिकसम्यक्त्व श्रद्धानको भ्रष्ट करनेवाले वचनोंसे, तर्कों से, इन्द्रियोंको भय उत्पन्न करनेवाले रूपों [आकारों] से तथा वीभत्स और जुगुप्सित पदार्थोंसे भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय, वह त्रैलोक्यके द्वारा भी चल-विचल नहीं होता । क्षायिकसम्यक्त्व के प्रस्थापन अर्थात् प्रारम्भ होने पर अथवा लब्धि अर्थात् प्राप्ति या निष्ठापन होने पर क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढ़ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ ( असंभव या अनहोनी घटनाएँ ) देखकर भी विस्मय या क्षोभको प्राप्त नहीं होता ।। १६० - १६२॥ वेदकसम्यक्त्वका स्वरूप- बुद्धी सुहाणुबंधी सुइकम्मरओ सुए य संवेगो । तच्चत्थे सद्दहणं पियधम्मे : तिव्वणिव्वेदो || १६३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २८६ । 2. १,२६० । ३. १, २६३ । १. ६० भा० १ पृ० ३६५, गो० जी० ५६० । २. ६० भा० १ पृ० ३६५, गो० जी० ६४५ । ३. ध० भा० १ पृ० ३१५, गो० जी० ६४६ । ॐ बवि + व विब्भय । 1 ब द धम्मो | Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास इच्चेवमाइया जे वेदयमाणस्स होंति ते य गुणा । वेदयसम्मत्तमिणं सम्मत्तु दएण जीवस्स ॥१६४॥ वेदकसम्यक्त्वके उत्पन्न होने पर जीवकी बुद्धि शुभानुबन्धी या सुखानुबन्धी हो जाती है, शुचि कर्ममें रति उत्पन्न होती है, श्रुतमें संवेग अर्थात् प्रीति पैदा होती है, तत्त्वार्थमें श्रद्धान, प्रिय धर्ममें अनुराग, एवं संसारसे तीव्र निर्वेद अर्थात् वैराग्य जागृत हो जाता है। इन गुणोंको आदि लेकर इस प्रकारके जितने गुण हैं, वे सब वेदकसम्यक्त्वी जीवके प्रगट हो जाते हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयका वेदन करनेवाले जीवको वेदकसम्यक्त्वी जानना चाहिए ।।१६३-१६४॥ उपशमसम्यक्त्वका स्वरूप देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसद्दहणं । दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणयं जाणे ॥१६॥ दसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसद्दहणं । उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं ॥१६६॥ उपशमसम्यक्त्वके होने पर जीवके सत्यार्थ देवमें अनन्य भक्तिभाव, विषयोंसे विराग, तत्त्वोंका श्रद्धान और विविध मिथ्या दृष्टियों (मतों) में असम्मोह प्रगट होता है, इसे क्षायिकसम्यक्त्वसे कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए। जिस प्रकार पंकादि-जनित कालुष्यके प्रशान्त होने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शनमोहके उदयके उपशान्त होनेपर जो सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपशमसम्यक्त्व कहते हैं ।।१६५-१६६॥ तीनों सम्यक्त्वोंका गुणस्थानों में विभाजन 'खाइयमसंजयाइसु वेदयसम्मत्तमप्पमत्तंते । उवसमसम्मत्त पुण *उवसंततेसुणायन्वं ॥१६७।। क्षायिकसम्यक्त्व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपरिम सर्व गुणस्थानों में होता है। वेदकसम्यक्त्व अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक होता है और उपशमसम्यक्त्व उपशान्तमोह गुणस्थानान्त जानना चाहिए ॥१६७॥ सासादनसम्यक्त्वका स्वरूप *ण य मिच्छत्त पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो ॥१६८॥ उपशमसम्यक्त्वसे परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं हुआ है, तब तक उसे सासादनसम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । इसके सादि पारिणामिक भाव होता है ॥१६८॥ 1. सं० पञ्चसं० २६८ । १. १, ३०२ । १. गो० जी० ६५३, परं तन चतुर्थचरणे 'पंचमभावेण संजुतो' इति पाठः । द ते -मुणेयब्बं । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसंग्रह सम्यग्मिथ्यात्वका स्वरूप 'सद्दहणासदहणं जस्स य जीवेसु होइ तच्चेसु । विरयाविरएण समो सम्मामिच्छो त्ति णायव्यो ।।१६।। जिसके उदयसे जीवोंके तत्त्वोंमें श्रद्धान और अश्रद्धान युगपत् प्रगट हो, उसे विरताविरतके समान सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए ॥१६॥ मिथ्यात्वका स्वरूप 'मिच्छादिट्ठी जीवो उवइ8 पवयणं ण सद्दहइ । सदहइ असब्भावं उवइ8 अणुवइटुं वा ॥१७०॥ मिथ्यात्वकर्मके उदयसे मिथ्यादृष्टि जीव जिन-उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता नहीं, है, किन्तु कुदेवादिकके द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका श्रद्धान करता है ॥१७०॥ उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके विषयमें सर्वोपशम और देशोपशमका नियम सम्मत्तपढमलंभो सयलोवसमा दु भव्वजीवाणं । णियमेण होइ अवरो सव्वोवसमा दु देसपसमा वा ॥१७१॥ भव्यजीवोंके प्रथम वार उपशमसम्यक्त्वका लाभ नियमतः दर्शनमोहनीयके सकलोपशमसे ही होता है। किन्तु अपर अर्थात् द्वितीयादि वार सर्वोपशम अथवा देशोपशमसे होता है ॥१७१॥ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके पश्चात् मिथ्यात्व-प्राप्तिका नियम-- - "सम्मत्तादिमलंभस्साणंतरं णिच्छएण णायव्यो। मिच्छासंगो पच्छा अण्णस्स दु होइ भयणिज्जो ॥१७२।। आदिम सम्यक्त्वके लाभके अनन्तर मिथ्यात्वका संगम निश्चयसे जानना चाहिए । किन्तु अन्य अर्थात् द्वितीयादि वार सम्यक्त्व-लाभके पश्चात् मिथ्यात्वका संगम भजनीय है, अर्थात् किसीके होता भी है और किसीके नहीं भी होता ॥१७२।। इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संशिमार्गणा, संशी और असंज्ञीका स्वरूप सिक्खाकिरिओवएसा आलावगाही मणोवलंबेण । जो जीवो सो सण्णी तब्विवरीओ असण्णी य॥१७३॥ जो जीव मनके अवलम्बनसे शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण करता है, उसे संज्ञी कहते हैं । जो इससे विपरीत है, अर्थात् शिक्षा आदिको ग्रहण नहीं कर सकता, उसे असंज्ञी कहते है ।।१७३॥ विशेषार्थ-जिसके द्वारा हितका ग्रहण और अहितका त्याग किया जा सके, उसे शिक्षा कहते हैं। इच्छापूर्वक हस्त-पाद आदिके संचालनको क्रिया कहते हैं। वचनादिके द्वारा बताये हुए कर्तव्यको उपदेश कहते हैं । श्लोक आदिके पाठको आलाप कहते हैं। 1. सं० पञ्चसं० १, ३०३ । 2. १, ३०५ । 3. १, ३१७ | 4.१, ३१८ । 5. १,३१६ । १. गो. जी. ६५४ । २. गो० जी० ६५५। ३. तुलना-सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह वियोण । भजियन्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ॥ क. पा. गा० १०४ । ४. तुलनासम्मत्तपढमलंभस्सऽणंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं । लंभस्स अपढमस्स दु भजियव्वो पच्छदो होदि। क. पा. गा० १०५। ५. ध० भा० १ पृ० १५२ गो० जी० ६६० । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास संशो-असंज्ञीके स्वरूपका और भी स्पष्टीकरण मीमंसइ जो पुव्वं कजमकजं च तच्चमिदरं च । सिक्खइ णामेणेदि य समणो अमणो य विवरीओ ॥१७४॥ एवं कए मए पुण एवं होदि ति कजणिप्पत्ती । जो दु विचारइ जीवो सो सण्णी असण्णि इयरो य ॥१७॥ जो जीव किसी कार्यको करनेके पूर्व कर्त्तव्य और अकर्त्तव्यकी मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्त्वका विचार करे, योग्यको सीखे और उसके नामसे पुकारने पर आवे, उसे समनस्क या संज्ञी कहते हैं। इससे विपरीत स्वरूपवालेको अमनस्क या असंज्ञी कहते हैं। जो जीव ऐसा विचार करता है कि मेरे इस प्रकारके कार्य करने पर इस प्रकारके कार्यकी निष्पत्ति होगी, वह संज्ञी है। जो ऐसा विचार नहीं करता है, वह असंज्ञो जानना चाहिए ॥१७४-१७५ ।। इस प्रकार संज्ञिमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणा, आहारकका स्वरूप आहारइ सरीराणं तिण्हं एकदरवग्गणाओ य । भासा मणस्स णिययं तम्हा आहारओ भणिओ ॥१७६॥ जो जीव औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरोंमेंसे उदयको प्राप्त हुए किसी एक शरीरके योग्य शरीरवर्गणाको, तथा भाषावर्गणा और मनोवर्गणाको नियमसे ग्रहण करता है, वह आहारक कहा गया है ।।१७६।। आहारक और अनाहारक जीवोंका विभाजन विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ॥१७७॥ विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारों गतिके जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्भातको प्राप्त सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, तथा सिद्ध भगवान ये सब अनाहारक होते हैं, अर्थात् औदारिकादि शरीरके योग्य पुद्गलपिंडको ग्रहण नहीं करते हैं। इनके अतिरिक्त शेष सब जीव आहारक होते हैं ॥१७७॥ इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई। उपयोगप्ररूपणा, उपयोगका स्वरूप और भेद-निरूपण 'वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो। उवओगो सो दुविहो सागारो चेव अणगारो ॥१७८॥ 1. सं० पञ्चसं० १, ३२० । 2. १, ३२३ । 3. १, ३२४ । 4. १, ३३२ । १. गो० जी० ६६१। २. ध० भा० १ पृ०१५२ गा० १८। गो०जी० ६६४ । ३. ध० भा०१ पृष्ठ १५३ गा० १६ । गो० जी० ६६५ । ४. गो० जी० ६७१ । द -ग्घदो। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग करते हैं । वह साकार और अनाकारके भेदसे दो प्रकारका जानना चाहिए ॥१७८॥ साकार उपयोगका स्वरूप ३८ 'मइ- सुइ - ओहि मणेहि य जं सयविसयं विसेसविण्णाणं । अंतोमुहुत्तकालो उवओोगो सो हु सागारो ॥ १७६ ॥ मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्ययज्ञानके द्वारा जो अपने-अपने विषयका विशेष विज्ञान होता है, उसे साकार - उपयोग कहते हैं । यह अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक होता है ॥ १७६ ॥ अनाकार - उपयोगका स्वरूप - 'इंदियमणोहिणा वा अत्थे अविसेसिऊण जं गहणं । तोमुहुत्तकालो उवओगो सो अगागारो ॥१८०॥ इन्द्रिय, मन और अवधिके द्वारा पदार्थों की विशेषताको ग्रहण न करके जो सामान्य अंशका ग्रहण होता है, उसे अनाकार उपयोग कहते हैं । यह भी अन्तर्मुहूर्त्तकाल तक होता है ॥ १८० ॥ केवलिणं सागारो अणगारो जुगवदेव उवओगो । सादी अनंतकाल पच्चक्खो सव्वभावगदो ॥ १८१ ॥ केवलियोंके साकार और अनाकार उपयोग युगपत् हो होता है । उसका काल सादि और अनन्त है, अर्थात् उत्पन्न होनेके पश्चात् अनन्तकाल तक रहता है । वह प्रत्यक्ष है और सर्व भाव-गत है, अर्थात् चराचर जगद्व्यापी समस्त पदार्थोंको जानता है ॥१८२॥ इस प्रकार उपयोगप्ररूपणा समाप्त हुई । जीवसमास-अधिकारका उपसंहार - 'णिक्खेवे एयट्ठे णयप्यमाणे णिरुत्ति अणिओगे । मग वीसं भेए सो जाणइ जीवसब्भावं ॥ १८२ ॥ जो ज्ञानी पुरुष निक्षेप, एकार्थं, नय, प्रमाण, निरुक्ति और अनुयोगमें उपर्युक्त बीस प्ररूपणारूप भेदों का अन्वेषण करता है, वह जीवके सद्भाव अर्थात् यथार्थ स्वरूपको जानता है ॥ १८२ ॥ छहों लेश्याओंके वर्ण - किव्हा भमर-सवण्णा णीला पुण णील-गुलियसंकासा । काऊ कद-वण्णा तेऊ तवणिज-वण्णा हु ॥१८३॥ पम्हा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा । वतरं च एदे हवंति परिमिता अनंता वा ॥ १८४॥ 1. सं० पंचसं० १, ३३३ । १. १, ३३४ । ३.१, ३३५ । 4. १, ३५३ । १. गो० जी० ६७३, परं तत्र द्वितीयचरणे 'जं सयविसयं' स्थाने 'सगसगविसये' इति पाठः । २. गो०जी० ६७४ । For Private Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमास कृष्णलेश्या भौं रेके समान वर्णवाली है, नीललेश्या नीलको गोली, नीलमणि या मयूरकंठके समान वर्णवाली है । कापोतलेश्या कपोत ( कबूतर) के समान वर्णवाली है। तेजोलेश्या तपे हुए सोनेके समान वर्णवाली है। पद्मलेश्या पद्म (गुलाबी रंगके कमल) के सदृश वर्णवाली है और शुक्ललेश्या कांसके फूलके समान श्वेतवर्णवाली है। इन छहों लेश्याओंके वर्णान्तर अर्थात् तारतम्यकी अपेक्षा मध्यवर्ती वर्गों के भेद इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करनेकी दृष्टिसे संख्यात हैं, स्कन्धः गत जातियों की अपेक्षा असंख्यात हैं और परमाणु-गत भेदकी अपेक्षा अनन्त हैं ॥१८३-१८४॥ नरकोंमें लेश्याओंका निरूपण 'काऊ काऊ तह काउ-णील णीला य णील-किण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा लेसा रयणादि-पुढवीसु॥१८॥ रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें क्रमशः कापोत, कापोत, कापोत और नील, नील, नील और कृष्ण, कृष्ण, तथा परमकृष्ण लेश्या होती है ।।१८।। विशेषार्थ-प्रथम पृथिवीके नारकियों के कापोतलेश्याका जघन्य अंश होता है। द्वितीय पृथिवीके नारकियोंके कापोतलेश्याका मध्यम अंश होता है। तृतीय पृथिवीके नारकियोंके कापोतलेश्याका उत्कृष्ट अंश और नीललेश्याका जघन्य अंश होता है। चतुर्थ पृथिवीके नारकियोंके नीललेश्याका मध्यम अंश होता है। पंचम पृथिवीके नारकियोंके नीललेश्याका उत्कृष्ट अंश और कृष्णलेश्याका जघन्य अंश होता है । षष्ठ पृथ्वीके नारकियोंके कृष्णलेश्याका मध्यम अंश होता है । सप्तम पृथ्वीके नारकियोंके परम कृष्णलेश्या अर्थात् कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है । तिर्यंच और मनुष्योंमें लेश्याओंका निरूपण एइंदिय-वियलिंदिय-असण्णि-पंचिंदियाण पढमतियं । संखदीदाऊणं सेसा सेसाण छप्पि लेसाओ॥१८६॥ ___ ३।३।६। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियतियचोंमें प्रथम तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं । संख्यातीत आयुवालों के अर्थात् असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियाँ मनुष्य और तियंचोंके शेष तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। शेष अर्थात् संख्यात वर्षकी आयु वाले कर्मभूमियाँ मनुष्य और तियचोंके छहों लेश्याएँ होती हैं ।।१८६॥ ( इनकी अंकसंदृष्टि गाथाके नीचे दी है।) गुणस्थानोंमें लेश्याओंका निरूपण पढमाइचउ छलेसा सुहाउ जाणे हु तिस्सु तिण्णेव । उवरिमगुणेसु सुक्का णिल्लेसो अंतिमो भणिओ ॥१८७॥ ६६।६।६।३।३।३।१।१।११।१।११। प्रथम गुणस्थानसे लेकर चौथे गुणस्थान तल छहों लेश्याएँ होती हैं। पाँचवेंसे लेकर सातवें तक तीन गुणस्थानोंमें तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं । उपरिम गुणोंमें अर्थात् आठवेंसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक एक शुक्ललेश्या ही होती है। अन्तिम अयोगकेवली गुणस्थान निर्लेश्य अर्थात् लेश्या-रहित कहा गया है ।।१८७॥ (इनकी अंकसंदृष्टि गाथाके नीचे दी है।) 1. सं० पञ्चसं० १,२६८। 2.१, २६७ । 3. १, २६५ । १. जीवस० ७२, मूला० ११३४, गो० जी० ५२८ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पश्चसंग्रह देवोंमें लेश्याओंका निरूपण 'तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दुण्हं च तेरसण्हं च । एदो य चउदसण्हं लेसाण समासओ मुणह' ॥१८॥ तेऊ तेऊ तह तेउ-पम्म पम्मा य पम्म-सुक्का य । सुक्का य परमसुक्का लेसा भवणाइदेवाणं ॥१८॥ भवनादि तीन देवोंके अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंके जघन्य तेजोलेश्या होती है। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पवासी देवोंके मध्यम तेजोलेश्या होती है। सनत्कुमार और महेन्द्र इन दो कल्पवासी देवोंके उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या होती है। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र इन छह कल्पवासी देवोंके मध्यम पद्मलेश्या होती है । शतार, सहस्रार इन दो कल्पवासी देवोंके उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या होती है । आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पवासी देवोंके तथा नव प्रैवेयकवासी कल्पातीत देवोंके, इन तेरहोंके मध्यम शुक्ललेश्या होती है। इससे ऊपर नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इन चौदह कल्पातीत देवोंके परम अर्थात उत्कृष्ट शुक्ललेश्या होती है ॥१८८-१८६।। पज्जत्तयजीवाणं सरीर-लेसा हवंति छब्भेया। सुक्का काऊ य तहा अपज्जत्ताणं तु बोहव्वा ॥१६॥ पर्याप्तक जीवोंके शरीरकी लेश्या अर्थात् द्रव्य लेश्या छहों होती हैं। किन्तु अपर्याप्तकोंके शरीरलेश्या शुक्ल और कापोत जानना चाहिए ॥१०॥ विग्गहगइमावण्णा जीवाणं दव्वओ य सुका य । सरीरम्हि असंगहिए काऊ तह अपजत्तकाले य ।।१६१॥ विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारों गतिके जीवोंके शरीरके ग्रहण नहीं करने अर्थात् जन्म नहीं लेनेतक द्रव्यसे शुक्ललेश्या होती है। पुनः जन्म लेनेके पश्चात् शरीरपर्याप्तिके पूर्ण नहीं होने तक अपर्याप्तकालमें कापोतलेश्या होती है ।।१६।। लेश्या-जनित भाडोका दृष्टान्त-द्वारा निरूपण 'णिम्मूल खंध साहा गुंछा चुणिऊण • कोइ पडिदाई। जह एदेसिं भावा तह वि य लेसा मुणेयव्वा ॥१२॥ जिस प्रकार कोई पुरुष किसी वृक्षके फलोंको जड़-मूलसे उखाड़कर, कोई स्कन्धले काटकर, कोई गुच्छोंको तोड़कर, कोई फलोंको चुनकर और कोई गिरे हुए फलोंको बीन करके खाना चाहे, तो उनके भाव जैसे उत्तरोत्तर विशुद्ध हैं, उसी प्रकार कृष्णादि लेश्याओंके भाव भी क्रमशः उत्तरोत्तर विशुद्ध चाहिए ।।१६२।। 1. १, २६६-२७१ । 2. १, २५३-२५६ । १. १, २५७ । 4. १, २६४ । १. गो० जी० ५३३ । जीवस० गा० ७३, परं तत्र 'चतुर्थचरणे 'सक्कादिविमाणवासीणं' इति पाठः। २. गो० जी० ५३४ । तत्र चतुर्थचरणे भवणतियाऽपुण्णगे असुहा इति पाठः। ३. गो. जी. ५०७। उत्तरार्धे पाठभेटः । द ब चुण्णिऊण । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवसमास सम्यग्दृष्टि जोव मर कर कहाँ-कहाँ उत्पन्न नहीं होता 'छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु । वारस मिच्छावादे सम्माइट्ठिस्स णत्थि उववादो ॥१३॥ प्रथम पृथ्वीके विना अधस्तन छहों पृथिवियोमें; ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देवोंमें, सर्वप्रकारकी स्त्रियोंमें अर्थात् तिर्यंचनी, मनुष्यनी और देवियोंमें, तथा बारह मिथ्यावादमें अर्थात् जिनमें केवल एक मिथ्यात्व हो गुणस्थान होता है, ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञिपञ्चेन्द्रियसम्बन्धी तियश्चोंके बारह जीवसमासोंमें सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद नहीं है, अर्थात् वह मरकर इनमें उत्पन्न नहीं होता है ।।१६३।। एक जीवके कौन-कौन सी मार्गणाएँ एक साथ नहीं होती हैं मणपज्जव परिहारो उवसमसम्मत्त दोण्णि आहारा । एदेसु एक्कपयदे णत्थि त्ति असेसयं जाणे ॥१६४॥ मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व और दोनों आहारक, अर्थात् आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग; इन चारोंमेंसे किसी एकके होने पर शेष तीन मार्गणाएँ नहीं होती, ऐसा जानना चाहिए ॥१६४।। संयमोंका गुणस्थानों में निरूपण जा सामाइय छेदोऽणियट्टि परिहारमप्पमत्तो त्ति । सुहुमो सुहुमसराओ उवसंताई जहक्खाय ॥१६॥ • छठे गुणस्थानसे लेकर नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होता है । अप्रमत्तान्त अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थानमें परिहारविशुद्धिसंयम होता है। सूक्ष्मसाम्परायसंयम सूक्ष्मसरागनामक दशवें गुणस्थानोंमें होता है और यथाख्यातसंयम उपशान्तकधायादि अन्तिम चार गुणस्थानमें होता है ॥१६॥ समुद्धातके भेद "वेयण कसाय वेउव्विय मारणंतिओ समुग्घाओ। तेजाऽऽहारो छट्ठो सत्तमओ केवलीणं च ॥१६॥ १ वेदनासमुद्धात २ कषायसमुद्धात ३ वैक्रियिकसमुद्धात ४ मारणान्तिकसमुद्धात, ५ तैजससमुद्रात, छट्टा आहारकसमुद्धात और सातवाँ केवलियोंके होनेवाला केवलिसमुद्धात ये सात प्रकारके समुद्धात होते हैं। (वेदनादि कारणोंसे मूल शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं ! )॥१६॥ केवलिसमुद्धातका निरूपण पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाडयं तहा समए । तइए पयरं चेव य चउत्थए लोयपूरणयं ॥१७॥ 1. सं० पञ्चसं० १,२६७ । 2. १, ३४० । 3. १, २४४ । 4. १, ३३७ । 5.१,३२६ । . १. ध० भा० १ पृ० २०६, गा० १३३ । परं तनोत्तरार्धे 'णेदेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी दु जो जीवो' इति पाठः । गो० जी० १२७. तत्रायं पाठः-हेटिठमछप्पुढवीणं जोइसि-वण-भवण-सव्वइत्थीण । पुग्णिदरे ण हि सम्मो ण सासणो णारयापुण्णे ॥ २. गो०जी० ७२८। ३. ध० १, ३, २ गो० जी० ६६६ । ॐ प्रतिषु 'तेजा' इति पाठः । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह विवरं पंचमसमए जोई मंथाणयं तदो छ? । सत्तमए य कवाडं संवरइ तदोऽट्ठमे दंडं ॥१८॥ समुद्भातगतकेवली भगवान् प्रथम समयमें दंडरूप समुद्भात करते हैं। द्वितीय समयमें कपाटरूप समुद्धात करते हैं। तृतीय समयमें प्रतररूप और चौथे समयमें लोकपूरण समुद्धात करते हैं। पाँचवें समयमें वे सयोगिजिन लोकके विवर-गत आत्मप्रदेशोंका संवरण (संकोच) करते हैं। पुनः छठे समयमें मन्थान-(प्रतर-) गत आत्मप्रदेशोंका संवरण करते हैं। सातवें समयमें कपाट-गत आत्मप्रदेशोंका संवरण करते हैं और आठवें समयमें दंडसमुद्धात-गत आत्मप्रदेशोंका संवरण करते हैं ।।१६७-१६८। केवलिसमुद्धातमें काययोगोंका निरूपण 'दंडदुगे ओरालं कवाडजुगले य पयरसंवरणे । मिस्सोरालं भणियं कम्मइओ सेस तत्थ अणहारी ॥१६॥ केवलिसमुद्धातके उक्त आठों समयोंमेंसे दण्ड-द्विक अर्थात् पहले और आठवें समयके दोनों दण्डसमुद्धातोंमें औदारिककाययोग होता है। कपाट-युगलमें अर्थात् विस्तार और संवरणगत दोनों कपाटसमुद्धातोंमें तथा संवरण-गत प्रतरसमुद्धातमें यानी दूसरे, छठे और सातवें समयमें औदारिकमिश्रकाययोग होता है, ऐसा परमागममें कहा गया है। शेष समयोंमें अर्थात् तीसरे, चौथे और पांचवें समयमें कार्मणकाययोग होता है और उस समय केवली भगवान् अनाहारक रहते हैं ।।१६६। केवलिसमुद्धातका नियम 'छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जेसिं केवलं णाणं । ते णियमा समुग्घायं सेसेसु हवंति भयणिज्जा ॥२०॥ जिनके छह मास आयुके शेष रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वे केवली नियमसे समदात करते हैं। शेष केवलियोंमें समुद्धात भजनीय है, अर्थात् कोई करते भी हैं और कोई नहीं भी करते ॥२००॥ सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रतकी प्राप्तिका नियम चित्तारि वि छेत्ताई आउयबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवय-महव्वयाई ण लहइ देवाउअं मोत्तु ॥२०१॥ जीव चारों ही क्षेत्रों (गतियों) की आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर सकता है। किन्तु अणुव्रत और महावत देवायुको छोड़कर शेष आयुका बन्ध होने पर प्राप्त नहीं कर सकता ।।२०१॥ दर्शनमोहनीयका क्षय कौन करता है 'दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु । णियमा मणुसगदीए णिट्ठवगो चावि सव्वत्थ ॥२०२॥ 1. सं पञ्चसं० १, ३२५ । 2. १, ३२७ । 3. १,३०१ । 4. १, २६४ । १. मूलारा २१०५। ध० भा० १ पृ० ३०३ गा० १६७ । २. ध० भा० १ पृ० ३२६ गा० १६६ । गो० जी० ६५२, गो० क० ३३४ । ३. क. पा. २ गा० १६७ गो०जी० ६४७ । 8 ब खेत्ताई। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ जीवसमास मनुष्यगतिमें उत्पन्न हुआ कर्मभूमियाँ मनुष्य ही नियमसे दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयका प्रस्थापक होता है अर्थात् प्रारम्भ करता है। किन्तु निष्ठापक सर्वत्र होता है। अर्थात् पूर्व-बद्ध आयुके वशसे किसी भी गतिमें उत्पन्न होकर उसकी निष्ठापना (पूर्णता) कर सकता है ।।२०२॥ क्षायिकसम्यग्दृष्टिके संसार-वासका नियम-- 'खवणाए पट्ठवगो जम्मि भवे णियमदो तदो अिण्णे । णादिक्कदि तिण्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥२०॥ जो मनुष्य जिस भवमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापन करता है, वह दर्शनमोहके क्षीण होने पर नियमसे उससे अन्य तीन भवोंका अतिक्रमण नहीं करता है। अर्थात् दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर तीन भवमें नियमसे मुक्त हो जाता है ॥२०३॥ दर्शमोहनीयका उपशम कौन करता है दसणमोह-उवसामगो दु चउसु वि गईसु बोहव्यो। पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो ॥२०४॥ दर्शनमोहका उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए । किन्तु वह नियमसे पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है। अर्थात् चारों ही गतिके संज्ञी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं ।।२०४।। विरह (अन्तर) कालका नियम सम्मत्ते सन दिणा विरदाविरदे य चउदसा होति । विरदेसु य पण्णरसं विरहियकालो य बोहव्वो ॥२०॥ उपशमसम्यक्त्वका विरहकाल सात दिन, उपशमसम्यक्त्व-सहित विरताविरतका विरहकाल चौदह दिन और उपशमसम्यक्त्व-सहित विरत अर्थात् प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतका विरहकाल पन्द्रह दिन जानना चाहिए ॥२०॥ नारिकयोंके विरहकालका नियम पणयालीस मुहुत्ता पक्खो मासो य विण्णि चउ मासा । छम्मास वरिसमेयं च अंतरं होइ पुढवीणं ॥२०६॥ .. _ जीवसमासो समत्तो रत्नप्रभादि सातों पृथिवियोंमें नारकियोंकी उत्पत्तिका अन्तरकाल क्रमशः पैंतालीस मुहूर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास, छह मास और एक वर्ष होता है ।।२०६।। इस प्रकार जीवसमास नामक प्रथम अधिकार समाप्त हुआ । 1. सं० पञ्चसं० १, २६५। 2. १, २६६ । 3. १, ३३६ । १. क. पा०, गा० ११३ । २. कपा० गा० ६५। ३. गो० जी० १४४ 'परं तत्र प्रथमचरणे पढमुवसमसहिदाए' इति पाठः । +द अण्णो । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अधिकार प्रकृतिसमुत्कीर्तन मंगलाचरण और प्रतिक्षा'पयडि-विबंधणमुकं पयडिसरूवं विसेसदेसयरं । पणविय वीरजिणिंदं पयडिसमुक्कित्तणं वुच्छं ॥१॥ कर्म-प्रकृतियोंके बन्धनसे विमुक्त, एवं प्रकृतियोंके स्वरूपका विशेषरूपसे उपदेश करनेवाले ऐसे श्रीवीर जिनेन्द्रको प्रणाम करके मैं प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक अधिकारको कहूँगा ।।१।। पयडीओ दुविहाओ मूलपयडीओ उत्तरपयडीओ । तं जहा__ प्रकृतियाँ दो प्रकारकी होती हैं-मूलप्रकृतियाँ और उत्तरप्रकृतियाँ । उनका विशेष विवरण इस प्रकार है णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं । आउग णामागोदं तहंतरायं च मूलाओ ॥२॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये कर्मोंकी आठ मूलप्रकृतियाँ हैं ॥२॥ कौके स्वभावका दृष्टान्त-द्वारा निरूपण-- पड पडिहारसिमजा हडि चित्त कुलाल भंडयारीणं । जह एदेसि भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा ॥३॥ पट ( देव-मुखका आच्छादक वत्न) प्रतीहार (राजद्वार पर बैठा हुआ द्वारपाल ) असि (मधु-लिप्त तलवार ) मद्य ( मदिरा) हडि ( पैर फंसानेका खोड़ा) चित्रकार (चितेरा) कुम्भकार (वर्तन बनानेवाला कुम्भार ) और भंडारी ( कोषाध्यक्ष ) इन आठोंके जैसे अपनेअपने कार्य करनेके भाव होते हैं, उस ही प्रकार क्रमशः कर्मों के भी स्वभाव समझना चाहिए ॥३॥ 1. सं० पञ्चसं०२, १। 2. २,२। १. कर्मस्तक है। गो० क० , परं तत्र चतुर्थ-चरणे-'तरायमिदि अटु पयडीओ' इति पाठः । २. गो० क० २१ । कर्मवि० । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन कर्मों की उत्तरप्रकृतियोंका निरूपण पंच णव दोण्णि अट्ठावीसं चउरो तहेव तेणउदी। दोण्णि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा होंति ॥४॥ ज्ञानावरणादि आठों मूल-प्रकृतियोंको उत्तरप्रकृतियाँ क्रमसे पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तेरानवे, दो और पाँच कही गई हैं ॥४॥ प्रत्येक कमकी उत्तरप्रकृतियोंका पृथक्-पृथक् निरूपण-- जं तं णाणावरणीयं कम्मं तं पंचविहं-आभिणिबोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि । जं दंसणावरणीयं कम्म तं णवविहं--णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिदा य पयला य । चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि । जं वेयणीयं कम्मं तं दुविहं-सादावेयणीयं असादावेयणीयं चेदि । जो ज्ञानावरणीयकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय | जो दर्शना - वरणीयकर्म है, वह नौ प्रकारका है-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला । तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवल जो वेदनीयकर्म है, वह दो प्रकारका है-सातावेदनीय और असातावेदनीय । जं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं-दसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेदि। जं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं । संतकम्म पुण तिविहं–मिच्छत्तं सम्मत्त सम्मामिच्छत चेदि । जं चारित्तमोहणीयं कामं तं दुविहं--कसायवेयणीयं णोकसायवेयणीयं चेदि । जं कसायवेयणीयं कम्मं तं सोलसविहं—अणंताणुबंधिकोह-माणमाया-लोहा, अपच्चक्खाणावरणकोह-माण-माया-लोहा, पच्चक्खाणावरणकोह-माणमाया-लोहा, संजलणकोह-माण-माया-लोहा चेदि । जं णोकसायवेयणीयं कम्मं तं णवविहं—इत्थिवेदं पुरिसवेदं णउंसयवेदं हास रइ अरइ सोय भय दुगुंछा चेदि । जो मोहनीयकर्म है, वह दो प्रकारका है-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । जो दर्शनमोहनीयकर्म है, वह बन्धकी अपेक्षा एक प्रकारका है। किन्तु सत्कर्म (सत्त्व ) की अपेक्षा तीन प्रकारका है-मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व । जो चारित्रमोहनीयकर्म है, वह दो प्रकारका है-कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। जो कषायवेदनीयकर्म है, वह 1. सं० पञ्चसं० २, ३ । 2. २, ५-३५ । १. कर्मस्त० १०, परं तत्र 'तेणउदी' स्थाने 'बायाला' इति पाठः। गो० क. २२, परं तत्रोत्तरार्धे 'ते उत्तरं सयं वा दुग पणगं उत्तरा होति' इति पाठः। २. पट० प्र० समु० चू० सू० १४ चू०. सू. १६ । ४. पट० प्र० स० चू० सू०१८। ५. षट्० प्र० स० चू० सू० २०। ६. घट० प्र० स० चू० सू० २१ । ७. पट० प्र० स० चू० सू० २२। ८. षट० प्र० स० चू० सू० २३ । ६. षट्० प्र० स० चू० सू० २४ । द 'भणिदं' इत्यधिकः पाठः। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पञ्चसंग्रह सोलह प्रकारका है - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । जो नोकषाय वेदनीयकर्म है, वह नौ प्रकारका है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, और जुगुप्सा I जं आउकम्मं तं चउव्विहं - णिरियाउगं तिरियाउगं मणुयाउगं देवाउगं चेदि । जो आयुकर्म है, वह चार प्रकारका है - नरकायुष्क, तिर्यगायुष्क, मनुष्यायुष्क और देवायुष्क । जं णामकम्म तं वायालीसं पिंडापिंडपयडीओ । पिंडपयडीओ चउदस १४ । अपिंडपयडीओ अट्ठावीसं २८ । तं जहा - गइणामं जाइणामं सरीरणामं सरीरबंधणणामं सरीरसंघाणामं सरीरसंठाणणामं सरीरअंगोवंगणामं सरीरसंघयणणामं वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासणामं आणुपुव्वीणामं विहायगइणामं अगुरुगलहुगणामं उवघादणामं परघादणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणामं तसणामं थावरणामं बादरणामं हुमणामं पत्तणामं अपजत्तणामं पत्तेयसरीरणामं साहारणसरीरणामं थिरणामं अथिरमं सुहणामं असुहणामं सुभगणामं दुब्भगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदेजणामं अणादेजणामं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं णिमिणणामं तित्थयरणामं चेदि । जो नामकर्म है, वह पिंड और अपिंड प्रकृतियोंके समुच्चयको अपेक्षा ब्यालीस प्रकारका है । उनमें पिंडप्रकृतियाँ चौदह हैं और अपिंडप्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं । उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - गतिनाम, जातिनाम, शरीरनाम, शरीर बन्धननाम शरीर संघातनाम, शरीर-संस्थाननाम, शरीर-अंगोपांगनाम, शरीर-संहनननाम, वर्णनाम, गन्धनाम, रसनाम, स्पर्शनाम, आनुपूर्वीनाम, विहायोगतिनाम, अगुरुलघुनाम, उपघातनाम, परघातनाम, उच्छ्रासनमि, आतापनाम, उद्योतनाम, सनाम, स्थावरनाम, बादरनाम, सूक्ष्मनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, प्रत्येकशरीरनाम, साधारणशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम, अनादेयनाम, यशः कीर्त्तिनाम, अयशः कीर्तिनाम, निर्माणनाम और तीर्थकरनाम । जं गइणामकम्मं तं चउव्विहं -- णिरयगइणामं तिरियगइणामं मणुयगइणामं देवगणामं चेदि । जं जाइणामकम्मं तं पंचविहं - एइंदियजाइणामं वेह दियजाइणामं तेइंदियजाइणामं चउरिंदियजाइणामं पंचेंदियजाइणामं चेदिं । जं सरीरणामकम्मं तं पंचविहं - ओरालियसरीरणामं वेउव्वियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेयसरीरणामं कम्मइयसरीरणामं चेदि । १. पट० प्र० स० चू० सू० २५-२६ । २. पटू० प्र०स० चू० सू० २७ । ४. पटू० प्र० स० चू० सू० २६ । ५. षट्० प्र० स० चू० सू० ३० । सू०२८ । चू० सू० ३१ । ३. पटू० प्र०स० चू० ६. पटू० प्र० स० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन इनमें जो गतिनामकर्म है, वह चार प्रकारका है-नरकगतिनाम, तिर्यग्गतिनाम, मनुष्यगतिनाम और देवगतिनाम । जो जातिनामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रियजातिनाम, और पंचेन्द्रियजातिनाम । जो शरीरनामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-औदारिकशरीरनाम, वैक्रियिकशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम और कार्मणशरीरनाम । जं सरीरबंधणणामकम्मं तं पंचविहं-ओरालियसरीरबंधणणामं वेउब्वियसरीरबंधणणामं आहारसरीरबंधणणामं तेयसरीरबंधणणामं कम्मइयसरीरबंधणणामं चेदि'। जं सरीरसंघायणामकम्मं तं पंचविहं–ओरालियसरीरसंघायणामं वेउव्वियसरीरसंघायणामं आहारसरीरसंघायणाम तेयसरीरसंघायणाम कम्मइयसरीरसंघायणाम चेदि । जो शरीर-बन्धननामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-औदारिकशरीरवन्धननाम, वैक्रियिकशरीरबन्धननाम, आहारकशरीरबन्धननाम, तैजसशरीरबन्धननाम और कार्मणशरीरबन्धननाम । जो शरीर-संघात नामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है:-औदारिकशरीरसंघातनाम, वैक्रियिकशरीरसंघातनाम, आहारकशरीरसंघातनाम, तैजसशरीरसंघातनाम और कार्मणशरीरसंघातनाम | ___जं सरीरसंठाणणामकम्मतं छव्विहं—समचउरससरीरसंठाणणामं णिग्गोहपरिमडलसरीरसंठाणणाम साइयसरीरसंठाणणाम खुजयसरीरसंठाणणाम वामणसरीरसंठाणणाम हुंडसरीरसंठाणणाम चेदि । जं सरीरअंगोवंगणामकम्मतं तिविहं–ओरालियसरीरअंगोवंगणाम वेउब्वियसरीरअंगोवंगणाम आहारसरीरअंगोवंगणाम चेदि । ___जो शरीरसंस्थाननामकर्म है, वह छह प्रकारका है-समचतुरस्रशरीरसंस्थाननाम, न्यग्रोधपरिमंडलशरीरसंस्थाननाम, स्वातिशरीरसंस्थाननाम, कुब्जकशरीरसंस्थाननाम, वामनशरीरसंस्थाननाम और हुंडकशरीरसंस्थाननाम । जो शरीर-अंगोपांगनामकर्म है, वह तीन प्रकारका है-औदारिकशरीर-अंगोपांगनाम वैक्रियिकशरीर-अंगोपांगनाम और आहारकशरीर-अंगोपांगनाम । जं सरीरसंघयणणामकम्म तं छविहं—वञ्जरिसहणारायसरीरसंघयणणाम वजणारायसरीरसंघयणणाम णारायसरीरसंघयणणाम अद्धणारायसरीरसंघयणणाम खीलियसरीरसंघयणणाम असंपत्तसेपट्टसरीरसंघयणणाम चेदि । जो शरीरसंहनननामकर्म है, वह छह प्रकारका है-वज्रऋषभनाराचशरीरसंहनननाम, वज्रनाराचशरीरसंहनननाम, नाराचशरीरसंहनननाम, अर्धनाराचशरीरसंहननाम, कोलकशरीरसंहनननाम और असंप्राप्तसृपाटिकाशरीरसंहनननाम । जं वण्णणामकम्म तं पंचविहं--किण्हवण्णणाम णीलवण्णणाम रत्तवण्णणाम पीतवण्णणाम सुकवण्णणाम चेदि । जं गंधणामकम्म तं दुविहं-सुरहिगंधणाम १. षट० प्र० स० चू० सू० ३२ । २. षट० प्र० स० चू० सू० ३३ । ३. षट० प्र० स० चू० सू० ३४ । ४. षट० प्र० स० चू० सू० ३५। ५. षट० प्र० स० चू० सू० ३६ । ६. पट० प्र० स० चू० सू० ३७। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पञ्चसंग्रह दुरहिगंधणाम चेदि। जं रसणामकम्म तं पंचविहं--तित्तणाम कडयणाम कसायणाम अंबिलणाम महुरणाम चेदि । जं फासणामकम्म तं अट्टविहं-कक्खडणाम मउयणाम गरुयणाम लहुयणाम णिद्धणाम लुक्खणाम सीयणाम उण्हणाम चेदि । ____ जो वर्णनामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-कृष्णवर्णनाम, नीलवर्णनाम, रक्तवर्णनाम, पीतवर्णनाम और शुक्लवर्णनाम । जो गन्धनामकर्म है, वह दो प्रकारका है-सुरभिगन्धनाम और दुरभिगन्धनाम । जो रसनामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-तिक्तनाम, कटुकनाम, कषायनाम, आम्लनाम और मधरनाम। जो स्पर्शनामकर्म है, वह आठ प्रकारका है-कर्कशनाम, मृदुनाम, गुरुनाम, लघुनाम, स्निग्धनाम, रूतनाम, शीतनाम और उष्णनाम। जं आणुपुव्वीणामकम्म तं तं चउविहं-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणाम तिरियगइपाओग्गाणुपुवीणाम मणुयगइ पाओग्गाणुपुव्वीणाम देवगइपाओग्गाणुपुव्वीणाम चेदि । जं विहायगइणामकम्म तं दुविहं-पसत्थविहायगइणाम अपसत्थविहायगइणाम चेदि । जो आनुपूर्वी नामकर्म है, वह चार प्रकारका है--नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वोनाम और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम । जो विहायोगतिनामकर्म है, वह दो प्रकारका है--प्रशस्तविहायोगतिनाम और अप्रशस्तविहायोगतिनाम । ___जं गोयकम्म तं दुविहं-उच्चगोयं णीचगोयं चेदि । जं अंतरायकम्म तं पंचविहं-दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोयंतराइयं उवभोयंतराइयं विरियंतराइयं चेदि । जो गोत्रकर्म है, वह दो प्रकारका है--उच्चगोत्र और नीचगोत्र । जो अन्तरायकर्म है, वह पांच प्रकारका है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। बन्ध-योग्य प्रकृतियों का निरूपण पंच णव दोण्णि छव्वीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोण्णि य पंच य भणिया एयाओ बंधपयडीओ ॥५॥ ज्ञानावरणीयकी पाँच, दर्शनावरणीयकी नौ, वेदनीयको दो, मोहनीयकी छब्बीस, आयुकर्मकी चार, नामकर्मकी सड़सठ, गोत्रकर्मकी दो और अन्तरायकर्मकी पाँच; इस प्रकार एक सौ बीस ( १२०) बंधने योग्य उत्तरप्रकृतियाँ कहीं गई हैं ॥५॥ बन्ध-प्रकृतियाँ १२० । बन्धके अयोग्य प्रकृतियोंका निरूपण चण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्ममिच्छत्तं । होंति अबंधा बंधण पण पण संघाय सम्मत्तं ॥६॥ 1. सं० पञ्चसं० २, ३६ । 2. २, ३७ । १. षट्० प्र० स० चू० सू० ३८ । २. एट० प्र० स० चू० सू० ३६ । ३. पट० प्र० स० चू० सू०४०। ४. षट० प्र० स० चू० सू० ४१ । ५. षट्० प्र० स० चू० सू० ४३ । ६. षट् ० प्र० स० चू० सू० ४५। ७. षट० प्र० स० चू० सू० ४६ । ८. गो. क. ३५। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाँच बन्धन और पाँच संघात; ये अट्ठाईस (२८) प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य होती हैं ॥६॥ अबन्ध-प्रकृतियाँ २८ । उदयके अयोग्य प्रकृतियोंका निरूपण वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ सत्तेतमणुदयपयडीओ। एए पुण सोलसयं बंधण-संघाय पंचेचं ॥७॥ अणुदयपयडीओ २६ । उदयपयडीओ १२२ । चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, पाँच बन्धन और पाँच संघात; ये छब्बीस प्रकृतियाँ उदयके अयोग्य हैं। शेष एक सौ बाईस (१२२) प्रकृतियाँ उदयके योग्य होती हैं ॥७॥ अनुदय-प्रकृतियाँ २६ । उदय-प्रकृतियाँ १२२ । उद्वेलना-योग्य प्रकृतियाँ आहारय-वेउव्विय-णिर-णर-देवाण होति जुगलाणि । सम्मत्तचं मिस्सं एया उव्वेल्लणा-पयडी ॥८॥ । १३ । आहारक-युगल (आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग) वैक्रियिक-युगल (वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग) नरक-यगल (नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी ) नर-युगल ( मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी ) देव-युगल (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी) सम्यक्त्वप्रकृति, मिश्रप्रकृति (सम्यग्मिथ्यात्व) और उच्चगोत्र ये तेरह उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं, अर्थात् इन प्रकृतियोंका उद्वेलनसंक्रमण होता है ॥८॥ उद्वेलन-प्रकृतियाँ ११ । ध्रुबबन्धी प्रकृतियाँ आवरण विग्घ सव्वेकसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचहुँ । भय जिंदाऽगुरु तेयाकम्मुवघायं धुवाउ सगदालं ॥३॥ ।४७ । ज्ञानावरणीय पाँच, दर्शनावरणीय पाँच, अन्तराय पाँच, कषाय सोलह, मिथ्यात्व, निर्माण वर्णचतुष्क (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श) भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु: तैजस, कार्मण और उपघात ये सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ है; क्योंकि बन्ध-योग्य गुणस्थानमें इनका निरन्तर बन्ध होता है ।।६।। ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ ४७ । अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ "परघादुस्सासाणं आयवउजोयमाउ चत्तारि । तित्थयराहारदुगं एगारह होंति सेसाओ ॥१०॥ परघात, उच्छास, उद्योत, चारों आयु कर्म, तीर्थकर, आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग ये ग्यारह शेष अर्थात् अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं ॥१०॥ अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ ११ । 1. सं० पञ्चसं० २, ३८ । 2. २, ४० । 3. २, ४२-४३ । 4. २, ४४ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्त्तमान प्रकृतियाँ पनसंग्रह 'साइयरं वेदतियं हस्सादिचउक पंच जाईयो । संठाणं संघडणं छ छक्क चउक्क आणुपुन्वी य ॥११॥ गइचउ दो: य सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगांगाय । दह जुवाणि 'ताई गयणगइदुगं विसट्ठि परिवत्ता ॥ १२ ॥ । ६२ । एवं पर्याडिसमुक्कित्तणं समत्तं । सातावेदनीय असातावेदनीय, तीनों वेद, हास्यादि चतुष्क, पाँचों जातियाँ, छहों संस्थान, छहों संहनन, चारों आनुपूर्वियाँ, चारों गतियाँ, औदारिक और वैक्रियिक ये दो शरीर, दोनों गोत्रकर्म, औदारिक और वैक्रियिक ये दो अंगोपांग, त्रसादि दश युगल और विहायोगति-युगल ये बासठ प्रकृतियाँ परिवर्तमान जानना चाहिए ॥११- १२ ॥ विशेषार्थ - जिन परस्पर विरोधी प्रकृतियों का उदय एक साथ संभव नहीं है, उन्हें परिवर्तमान कहते है । जैसे सातावेदनीयका उदद्य जिस समय किसी जीवके होगा, उस समय उसके असातावेदनीयका उदय संभव नहीं है । किसी एक वेदके उदय होने पर उस समय दूसरे वेदका उदय नहीं हो सकता । इसलिए इन्हें परिवर्तमान प्रकृति कहते हैं । ऐसी परिवर्तमान प्रकृतियाँ ६२ होती हैं जिन्हें ऊपर गिनाया गया है । उनमें जो त्रसादि दश युगल बतलाये हैं, वे इस प्रकार हैं—१ बस-स्थावर, २ बादर-सूक्ष्म, ३ पर्याप्त अपर्याप्त, ४ प्रत्येकशरीर-साधारणशरीर, ५ स्थिर-अस्थर, ६ शुभ-अशुभ, ७ सुभग-दुर्भग, ८ सुस्वर- दुःस्वर, ६ आदेय अनादेय और १० यशः कीर्त्ति - अयशः कीर्त्ति । इसप्रकार प्रकृतिसमुत्कीर्त्तन नामक द्वितीय अधिकार समाप्त हुआ । 1. सं० पञ्चसं० २, ४५-४६ । १. तस थावरं च बादर-सुहुमं पज्जत तह अपज्जतं । पत्तेयसरीरं पुण साहारणसरीर थिरमथिरं ॥ १ ॥ सुह-असुह सुहग दुब्भग सुस्सर दुस्सर तहेव णायव्वा । आदिज्जमणादिज्जं जसकित्ति अजसकित्ती य ॥२॥ द ब टिप्पणी | Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अधिकार कर्मस्तव मंगलाचरण और प्रतिज्ञा [ मूलगा ० १ ] 'णमिऊण अणंतजिणे तिहुअणवरणाण- दंसणपईवे । धोदय संतयं वोच्छामि वं + णिसामेह ॥१॥ त्रिभुवनको प्रकाशित करनेके लिए उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शनरूपी प्रदीपस्वरूप अनन्त जिनोंको नमस्कार करके कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वसे युक्त स्तबको कहूँगा, सो ( हे जिज्ञासु जनो, तुम लोग ) सुनो ॥१॥ विशेषार्थ - जिसमें विवक्षित विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी अंगों का विस्तार या संक्षेपसे वर्णन किया जावे उसे स्तव कहते हैं । प्रकृत प्रकरण में कर्म-सम्बन्धी बन्ध, उदय, उदीरणा आदि सभी विषयों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है, इसलिए इसका नाम कर्मस्तव है । बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्त्वका स्वरूप 'कंचन - रुपपदवाणं एयत्तं जेम अणुपवेसो त्ति । अणोपवेसणं तह बंधं जीव-कम्माणं ॥२॥ घण्णस्स संगहो वा संतं जं पुव्वसंचियं कम्म । 'भुंजणकालो उदओ उदीरणाऽपक्कपाचणफलं वः ॥३॥ जिस प्रकार कांचन (स्वर्ण) और रूपा (चाँदी) द्रव्यके प्रदेश परस्पर एक-दूसरे में अनुप्रविष्ट होकर एकत्वको प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव और कर्मों के परस्पर एक-दूसरेमें प्रविष्ट हुए प्रदेशोंके एकमेक होकर बंधनेको बन्ध कहते हैं । धान्यके संग्रहके समान जो पूर्व-संचित कर्म हैं, उनके आत्मामें अवस्थित रहनेको सत्त्व कहते हैं । कर्मों के फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं । तथा अपक कर्मों के पाचनको उदीरणा कहते हैं ॥। २-३|| 1. सं० पञ्चसं० ३ १ । २.३, २, ६ । ३. ३, ५ । . ३, ३-४ । १. कर्मस्त० गा० १, परं तत्र 'अनंत जिणे' इति स्थाने 'जिणवरिंदे' इति पाठः । * द व पयं । + तुलना-णमिऊण नेमिचंदं असहाय परक्कमं महावीरं । बंधुदयसत्तजुत्तं ओघादेसे थवं वोच्छं | गो० क० ८७ X द ब धन्नस्स । + द ब वा । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पञ्चसंग्रह गुणस्थानोंमें मूल प्रकृतियोंके बन्धका निरूपण 'सत्तट्ठछकठाणा मिस्सापुव्वाणियट्टिणो सत्त । छह सुहुमे तिण्णेगं बंधंति अबंधओजोओ ॥४॥ आउस्स बंधकाले अट्ठ कम्माणि, सेसकाले सत्त । TEEEE ||:: मोहाउगेहिं विणा ६ । वेयणीयं ।।१।१।।+ मिश्रगुणस्थानको छोड़कर अप्रमत्तगुणस्थान तकके छह गुणस्थानवी जीव आयुकर्मके विना सात कोको, अथवा आयकर्म-सहित आठ कर्मोको बाँधते हैं। मिश्र, अप और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले जीव आयुकर्मके विना शेष सात कोको बाँधते हैं। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवी जीव आयु और मोहनीय कर्मके विना छह कोको बाँधते हैं। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें ये तीन गुणस्थानवी जीव केवल एक वेदनीय कर्मको ही बाँधते हैं। अयोगिकेवली जिन किसी भी कर्मका बन्ध नहीं करते हैं ॥४॥ मिश्रके विना आदिके छह गुणस्थानोंमें आयुकर्मके बंधकालमें आठ कर्म बंधते हैं और शेष कालमें सात कर्म बंधते हैं। आठवें और नवें गुणस्थानमें आयुके विना सात कर्म बँधते हैं। दशवें गुणस्थानमें मोह और आयु कर्मके विना छह कर्म बँधते हैं । शेषमें एक वेदनीय कर्म बँधता है । चौदहवें गुणस्थानमें कोई कर्म नहीं बँधता । इनकी संदृष्टि इस प्रकार है| मि० सा० मि० अ० सू० । उ० । | स० अ० १० १ १ १ ० | ८ | ८ ० ८ ८ ८ ८ ० ० ० । गुणस्थानोंमें मूलप्रकृतियोंके उदयका निरूपण 'सुहुमं ति x अट्ट वि कम्मा खीणुवसंता य सत्त मोहूणा । घाइचउक्केणूणा वेयंति य केवली वि चत्तारि ॥॥ ८।८।८।८।८।८ । ८ । ८।८।८। ७ । ७ । ४ । ४ । उदयः ।* सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तकके जीव आठों ही कर्मोंका वेदन करते हैं। उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव मोहकर्मके विना सात कर्मोंका वेदन करते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवान् घातिचतुष्कके विना चार कर्मोंका वेदन करते हैं ॥५॥ गुणस्थानोंमें मूल कर्मोके उदयकी संदृष्टि इस प्रकार है-- प्र० अ० अ० अ० 1. सं० पञ्चसं० ३, ११-१२ । 2. ३, १३ । + द 'इति कर्मणां बन्धः कथितः' इत्यधिकः पाठः। कथितः' ईदृक् पाठः । -द तिवि। द 'इति कर्मणां उदयः Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्व गुणस्थानों में मूलप्रकृतियोंकी उदीरणाका निरूपण 'घाइतियं खीणता तह मोहमुदीरयंति सुहुमंता । तइ आउ पमर्त्तता णाम गोयं सजोअंता ॥ ६ ॥ क्षीणकषायगुणस्थान तकके जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तकके जीव मोहकर्मकी उदीरणा करते हैं । प्रमत्तसंयतगुणस्थान तकके जीव वेदनीय और आयुकर्मकी उदीरणा करते हैं । तथा सयोगिकेवली गुणस्थान तकके जीव नाम और गोत्रकर्मकी उदीरणा करते हैं ॥ ६ ॥ एत्थ मिस्सं वज्र मिच्छाइपमत्तंताणं मरणावलियासेसे आउस्स उदीरणा णत्थि, तेण सत्त, मिस्सो अट्ठ चेव उदीरेइ, आउस्स मरणावलिया सेसे मिस्सगुणाभावादो । ६ ६ ६ ० ८ 999999999 ७ ८ ७ ७ ८ ७ यहाँ पर इतना विशेष जानना चाहिए कि मिश्रगुणस्थानको छोड़कर मिथ्यात्व से लेकर प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के जीवोंके मरणावली के शेष रहनेपर आयुकर्मकी उदीरणा नहीं होती है । इसलिए वे सात कर्मोंकी उदीरणा करते हैं। मिश्रगुणस्थानवाला आठों ही कर्मोंको उदीरणा करता है, क्योंकि आयुकर्मकी मरणावली शेष रहनेपर मिश्रगुणस्थान नहीं होता । नौ गुणस्थानों में उदीरणाको संदृष्टि इस प्रकार है- मि० सा० सि० अ० ८ ८ G ७ ८ ० सू० ६ ५ ८ ० ८ ७ दशवें और बारहवें गुणस्थानमें उदीरणाका नियम ७ सगुणा अद्धावलिआसेसे सुहुमोदीरेइ पंचेव । उ० दे० प्र० भ० अपू० अनि० ८ ८ ६ ६ ६ 1918 अद्धावलियासेसे खीणो णाम- गोदे चैव उदीरेइ ||७|| ५ २ ० HOT २ ५ ७ ० सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती जीव अपने गुणस्थानके काल में आवलीमात्र शेष रह जानेपर नाम और गोत्रको छोड़कर शेष पाँचों ही कर्मोंकी उदीरणा करता है । क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव अपने गुणस्थानके काल में आवलीमात्र शेष रह जानेपर नाम और गोत्र इन दो ही कर्मोंकी उदीरणा करता है ॥७॥ शेष गुणस्थानों में उदीरणाकी संदृष्टि इस प्रकार है- 1. सं पञ्चसं० ३, १४ । २.३, १५ | 3. ३, १६ । * द 'इति उदीरणा समाप्ता' इत्यधिकः पाठः । ५३ क्षी० ५ 2 स० भ० २ ० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पञ्चसंग्रह गुणस्थानोंमें मूलप्रकृतियोंके सत्त्वका निरूपण 'जा उवसंता संता अड सत्त य मोहवज्ज खीणम्मि । जोयम्मि अजोयम्मि य चत्तारि अघाइकम्माणि ॥८॥ ८।८।८।८।८।८। ।८।८।८।८।७। ४ । ४ । उपशान्तकषाय गुणस्थान तक आठों ही कर्मोका सत्त्व रहता है। क्षीणकषायगुणस्थानमें मोहकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंका सत्त्व रहता है । सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीमें चार अघातिया कर्म विद्यमान रहते हैं ।।। गुणस्थानोंमें मूलकों के सत्त्वकी संदृष्टि इस प्रकार हैमि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० भ० गुणस्थानोंमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका निरूपण[मूलगा० २] "मिच्छे सोलस पणुवीस सासणे अविरए य दह पयडी । चउ छक्कमेयकमसो विरयाविरयाइ बंधवोछिण्णा ॥६॥ [मूलगा०३ ] दुअ तीस चउरपुव्वे पंचऽणियट्टिम्हिां बंधवुच्छेओ। सोलस सुहुमसराए सायं सजोइ-जिणवरिंदे ॥१०॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें सोलह, सासादनमें पच्चीस, अविरतमें दश, देशविरतमें चार, प्रमत्तविरतमें छह और अप्रमत्तविरतमें एक प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न होती है। अपूर्वकरणमें क्रमसे दो, तीस और चार अर्थात् छत्तीस प्रकृतियाँ, तथा अनिवृत्तिकरणमें पाँच प्रकृतियोंका बन्धसे व्युच्छेद होता है । सूक्ष्मसाम्परायमें सोलह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं और सयोगि-जिनवरेन्द्र के एक सातावेदनीय बन्धसे व्युच्छिन्न होती है ॥६-१०॥ बन्ध-व्युच्छिन्न प्रकृतियोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैमि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षो० स० अ० बन्धके विषयमें कुछ विशेष नियम सव्वासिंपयडीणं मिच्छादिट्ठी दु बंधओ भणिओ । तित्थयराहारदु मुत्तूण य सेसपयडीणं ॥११॥ सम्मत्तगुणणिमित्तं तित्थयरं संजमेण आहारं । बझंति सेसियाओ मिच्छत्तादीहिं हेऊहिं ॥१२॥ मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थकर और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंको छोड़ करके शेष सभी प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाला कहा गया है। इसका कारण यह है कि तीर्थंकर प्रकृतिका सम्यक्त्वगुगके निमित्तसे और आहारकद्विकका संयमके निमित्तसे बन्ध होता है। किन्तु शेष एक सौ सत्तरह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व आदि कारणोंसे बन्धको प्राप्त होती हैं। ॥११-१२॥ 1. सं० पञ्चसं० ३, १७ । 2.३, १६-२० । 3. ३, १८ । १. कर्मस्त. गा० २ । २. कर्मस्त० गा० ३ । +प्रतिषु 'णियट्टीहिं' इति पाठः । प्रतिषु 'सव्वेसिं' इति पाठः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव 'तित्थयराहारदुगूणा मिच्छम्मि सासादने १०१ मणुय-देवाउं विणा मिस्से ७४ १० तित्थयर-मणुय-देवाऊहिं सह अविरदे uru 99M G0m पमत्ते आहारदुगेण सह अप्पमत्ते अपुव्वकरणे सत्तसु ५८ ५६ ५६ ५६ ५६ ५६ २६ अणियट्टिपंचसु २२ २३ २० १६१८ भाएसु ६२ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ भाएसु १८६६ १०० १०१ १०२ १० १२ १२ १२ १२ १२ १२२ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० सुहुमाइसु १०३ ११६ ११६ ११६ १२० १३१ १४७ १४७ १४७ १४८ आठों कर्मोको एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंमेंसे बन्धके योग्य प्रकृतियाँ एक सौ बीस पहले बतला आये हैं, उनमेंसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें तीर्थंकर और आहारकद्विक ये तीन बन्धके अयोग्य हैं, अतः इन तीनके विना शेष एक सौ सत्तरह प्रकृतियाँ बंधती हैं, मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियोंकी बन्धसे व्युच्छित्ति होती है और इकतीसका अबन्ध रहता है। सासादन गुणस्थानमें एक सौ एक प्रकृतियाँ बँधती है, अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि पच्चीस प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं, उन्नीस बन्धके अयोग्य होती हैं और सैंतालीसका अबन्ध रहता है । मिश्रगुणस्थानमें मनुष्यायु और देवायुके विना शेष चौहत्तर प्रकृतियाँ बँधती हैं। यहाँपर किसी भी प्रकृतिका बन्ध-व्युच्छित्ति नहीं होती । यहाँ बन्धके अयोग्य छयालीस प्रकृतियाँ हैं और चौहत्तरका अबन्ध रहता है। अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानमें तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायुका बन्ध होने लगता है, अतः उनको मिलाकर सतहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं, अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क आदि दश प्रकृतियाँ बन्ध से व्युच्छिन्न होती है, तेतालीस प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं और इकहत्तरका अबन्ध रहता है । देशविरतमें सड़सठका बन्ध होता है, तिरेपन बन्धके अयोग्य हैं, इक्यासीका अबन्ध रहता है और प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। प्रमत्तविरतमें तिरेसठका बन्ध होता है, सत्तावन बन्धके अयोग्य हे, पचासीका अबन्ध रहता है और असातावेदनीय आदि छह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अप्रमत्तविरतमें आहारकद्विकका बन्ध होने लगता है, अतः उनसठ प्रकृतियों का बन्ध होता है, इकसठबन्धके अयोग्य हैं, नवासीका अबन्ध रहता है और एक देवायुकी बन्धसे व्युच्छित्ति होती है। अपूर्वकरणके सात भागों में से प्रथम भागमें अट्ठावन प्रकृतियोंका बन्ध होता है, बासठ बन्धके अयोग्य हैं, नब्बैका अबन्ध रहता है और निद्राद्विकको बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। अपूर्वकरणके दूसरे, तीसरे, चौथे और 1. सं० पञ्चसं० ३, 'एतास्तीर्थकराहार' इत्यादिगद्यभागः । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पञ्चसंग्रह पाँचवें भागमें छप्पन प्रकृतियाँ बँधती हैं, चौसठ बन्धके अयोग्य हैं, बानबैका अबन्ध रहता है। इन भागोंमें बन्ध-व्युच्छित्ति किसी भी प्रकृतिकी नहीं होती है। अपूर्वकरणके छठे भागमें बन्धादि तो पाँचवें भागके ही समान ही रहता है किन्तु यहाँ पर देवद्विक आदि तीस प्रकृतियोंको बन्धव्युच्छित्ति होती है। अपूर्वकरणके सातवें भागमें छब्बीस प्रकृतियाँ बँधती हैं, चौरानबै बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ बाईसका अबन्ध रहता है और हास्यादि चार प्रकृतियोंको बन्धव्युच्छित्ति होती है। अनिवृत्तिकरणके पाँच भागोंमें से प्रथम भागमें बाईस प्रकृतियाँ बँधती हैं, अट्ठानबै बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ छब्बीसका अबन्ध है और एक पुरुषवेदकी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। द्वितीय भागमें इक्कीस प्रकृतियाँ बँधती हैं, निन्यानबै बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ सत्ताईसका अबन्ध है और एक संज्वलन क्रोधकी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। तृतीय भागमें बीस प्रकृतियाँ बँधती हैं, सौ प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ अट्ठाईसका अबन्ध है और एक संज्वलन मानको बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। चतुर्थ भागम उन्नीस प्रकृतियों ब एक प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ उनतीसका अबन्ध है और एक संज्वलन मायाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। पाँचवें भागमें अट्ठारह प्रकृतियाँ बँधती हैं, एक सौ दो प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ तीसका अबन्ध है और एक संज्वलन लोभकी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्मसाम्परायमें सत्तरह प्रकृतियाँ बँधती हैं, एक सौ तीन प्रकृतियाँ बन्धके अयोग्य हैं, एक सौ इकतीसका अबन्ध है और ज्ञानावरण-पंचक आदि सोलह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । उपशान्तमोह और क्षीणमोहमें केवल एक सातावेदनीयका बन्ध होता है, एक सौ उन्नीस बन्धके अयोग्य हैं और एक सौ सैंतालीसका अबन्ध रहता है। इन दोनों गुणस्थानोंमें बन्ध-व्युच्छित्ति नहीं होती। सयोगिकेवलीके बन्ध-अबन्धादिप्रकृतियोंकी संख्या तो क्षीणमोहके ही समान है, विशेष बात यह है कि यहाँ पर एकमात्र अवशिष्ट सातावेदनीय भी बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती है। अयोगिकेवलीके न किसी प्रकृतिका बन्ध ही होता है और न बन्ध-व्युच्छित्ति ही। अतएव यहाँ पर बन्धके अयोग्य एक सौ बीस और अबन्ध प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस कहीं गई हैं, ऐसा जानना चाहिए । ( देखो संदृष्टि सं० १०) मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा० ४] 'मिच्छ णउंसयवेयं णिरयाउ तह य चेव णिरयदु। इगि-वियलिंदियजाई हुंडमसंपत्तमायावं ॥१३॥ [मूलगा० ५] थावर सुहुमं च तहा साहारणयं तहेव अपजत्तं । एए सोलह पयडी मिच्छम्मि अ बंधवुच्छेओ ॥१४॥ ।१६। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु तथा नरकद्विक (नरकगति-नरकगत्यानुपूर्वी) एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रिय जातियाँ (द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति) हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप, स्थावर, सूक्ष्म तथा साधारण और अपर्याप्त; ये सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥१३-१४॥ __ मिथ्यात्वमें बन्धसे व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ १६ । 1. सं. पञ्चसं० ३, २१-२२ । १. कर्मस्त० गा०११। २. कर्मस्ता गा० १२ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव सासादनगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा० ६] 'थीणतियं इत्थी वि य अण तिरियाऊ तहेव तिरियदुगं । मज्झिमचउसंठाणं मज्झिमचउ वेव संघयणं ॥१॥ [मूलगा० ७] उजोयमप्पसत्था विहायगइ दुब्भगं अणादेज्जं । दुस्सर णिचागोयं सासणसम्मम्हि वोच्छिण्णा ॥१६॥ १२५ ___ स्त्यानत्रिक (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला ) स्त्रीवेद, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, तिर्यगायु तथा तिर्यग-द्विक (तिर्यगाति-तिर्यग्गत्यानुपूर्वी) मध्यम चार संस्थान और मध्यम ही चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर और नीचगोत्र; ये पच्चीस प्रकृतियाँ सासादनसम्यक्त्वमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ।।१५-१६॥ सासादनमें बन्धसे व्युच्छिन्न २५ । अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०८] विदियकसायचउक्कं मणुयाऊ मणुयदुव य ओरालं । तस्स य अंगोवंगं संघयणादी अविरदस्स ॥१७॥ । । द्वितीयकषायचतुष्क, अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यद्विक ( मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी) औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग और प्रथम संहनन; ये दश प्रकृतियाँ अविरतसम्यग्दृष्टिके बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥१७॥ अविरतसम्यग्दृष्टिमें बन्धसे व्युच्छिन्न १० । देशविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०६] तइयकसायचउकं विरयाविरय म्हि बंधवोच्छिण्णा । ।४। तृतीय कषायचतुष्क अर्थात् प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रकृतियाँ विरताविरत गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। देशविरतमें बन्धसे व्युच्छिन्न ४ । प्रमत्तविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ साइयरमरइसोयं तह चेव य अथिरमसुहं च ॥१८॥ [मूलगा०१०] अजस कित्ती य तहा पमत्तविरयम्हि बंधवुच्छेओ। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति; ये छह प्रकृतियाँ प्रमत्तविरत गणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती है ।।१८।। प्रमत्तविरतमें बन्धसे व्युच्छिन्न ६। 1. सं० पञ्चसं० ३, २३-२५। 2.३, २६-२७ । 3. ३, २८-२६ । १. कर्मस्तगा० १३ । २. कर्मस्तगा० १४ । ३. कर्मस्तगा० १५। ४. कर्मस्त० गा० १६ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ देवाउअंच एयं पमत्तइयरम्हि णायव्वो ॥१६॥ ।३०॥ . अप्रमत्तविरतनामक सातवें गुणस्थानमें एक देवायु ही बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥१॥ अप्रमत्तविरतमें बन्धसे व्युच्छिन्न १। अपूर्वकरणगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ-- [मूलगा०११] 'णिद्दा पयला य तहा अपुव्वपढमम्हि बंधवुच्छेओ। ।२। देवदुयं पंचिंदिय ओरालियवज चदुसरीरं च ॥२०॥ [मूलगा०१२] समचउरस वेउव्विय आहारयअंगुवंगणामं च । वण्णचउकं च तहा अगुरुयलहुयं च चत्तारि ॥२१॥ [मूलगा०१३] तसचउ पसत्थमेव य विहाइगइ थिर सुहं च णायव्या । ___ सुहयं सुस्सरमेव य आइज्जं चेव णिमिणं च ॥२२॥ [मूलगा०१४] "तित्थयरमेव तीसं अपुव्वछब्भाए बंधवोच्छिण्णा । हास रइ भय दुगुंछा अपुव्वचरिमम्हि बंधवोच्छिण्णा ॥२३॥ । __ अपूर्वकरणके प्रथम भागमें निद्रा और प्रचला, ये दो प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अपूर्वकरणके छठे भागमें देवद्विक (देवगति-देवगत्यानुपूर्वी) पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीरको छोड़कर शेष चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक-अंगोपांग, आहारक-अंगोपांग, वर्णचतुष्क ( वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श) अगुरुलघुचतुष्क ( अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास ) त्रसचतुष्क, ( त्रस, बादर, प्रत्येकशरीर, पर्याप्त, ) प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर, ये तीस प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अपूर्वकरणके अन्तिम सातवें भागमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा; ये चार प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥२०-२३॥ अपूर्वकरणके प्रथम भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न अपूर्वकरणके छठे भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न अपूर्वकरणके सातवें भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०१५] 'पुरिसं चउसंजलणं पंच य पयडी य पंचभागम्हि । अणियट्टी-अद्धाए जहाकम बंधवुच्छेओ ॥२४॥ my 1. सं० पञ्चसं० ३, ३०-३३ । 2. ३, ३४ । 3. ३, ३५ । 1. कर्मस्त० गा० १७ । २. कर्मस्त० गा० १८ । ३. कमस्त० गा० १९ । ४. कर्मस्त० गा० २०। ५. कर्मस्त० गा० २१ । ६. कर्मस्त० गा० २२ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव अनिवृत्तिकरणकालके पाँचों भागोंमें यथाक्रमसे पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ; ये पाँच प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥२४॥ अनिवृत्तिकरणमें बन्ध-व्युच्छिन्न ५। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमै बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०१६] ग्णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि उच्च जसकित्ती। एए सोलह पयडी सुहुमकसायम्हि वोच्छेओ ॥२॥ ।६। ज्ञानावरणीयकी पाँच, अन्तरायको पाँच, दर्शनावरणकी चार (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ) उच्चगोत्र और यशःकीर्ति; ये सोलह प्रकृतियाँ सूक्ष्मकषायमें . बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥२५॥ __ सूक्ष्मसाम्परायमें बन्धसे व्युच्छिन्न १६ । सयोगिकेवलोके बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृति[मूलगा०१७] उवसंत खीण चत्ता जोगिम्हि य सायबंधवोच्छेदो। णायव्वो पयडीणं बंधस्संतो अणंतो य ॥२६॥ उपशान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानमें कोई प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं होती है, अतएव उन्हें छोड़कर सयोगीजिनके एक सातावेदनीय ही बन्धसे व्युच्छिन्न होती है । (अयोगिकेवलीके न कोई प्रकृति बँधती है और न व्युच्छिन्न ही होती है।) इस प्रकार गुणस्थानोंमें बन्धका अन्त अर्थात् व्युच्छेद और अनन्त अर्थात् बन्ध जानना चाहिए ॥२६॥ सयोगिकेवलीमें बन्धसे व्युच्छिन्न १ ।। इस प्रकार बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका वर्णन समाप्त हुआ। गुणस्थानों में उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंकी संख्याका निरूपण[मूलगा०१८] पण णव इगि सत्तरसं अड पंच चउर छक छच्चव । इगि दुग सोलह तीसं बारह उयए अजोयंता ॥२७॥ पहले मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर चौदहवें अयोगिकेवली तक क्रमसे पाँच, नौ, एक, सत्तरह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह, तीस और बारह प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥२७॥ कुछ विशेष प्रकृतियोंके उदय-विषयक नियम "मिस्सं उदेइ मिस्से अविरयसम्माइचउसु सम्मत्तं । तित्थयराहारदुअं कमेण जोए पमत्ते य ॥२८॥ 1. सं० पञ्चसं० ३, ३६ । 2.३, ३६-४०। 3. ३, ३७ । १. कर्मस्त. गा० २३ । २. कर्मस्तगा० २४ । गोक. १०२। केवलमुत्तरार्धे साम्यम् । ३. कर्मस्त० गा०४ । गो० क. २६४ । द ब बंधो संतो। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह मिश्रप्रकृतिका उदय तीसरे मिश्रगुणस्थानमें होता है। सम्यक्त्तप्रकृतिका उदय चौथे अविरतसम्यक्त्व आदि चार गुणस्थानों में होता है। तीर्थङ्करप्रकृतिका उदय तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थानमें और आहारकद्विकका उदय छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थानमें होता है ॥२८॥ आनुपूर्वीके उदय-विषयक कुछ विशेष नियम 'णिरयाणुपुव्वि उदओ णासाए जण्ण णिरयउष्पत्ती । सव्वाणुपुव्वि-उदओ ण होइ मिस्से जदो ण मरणं से ॥२६॥ यतः सासादनसम्यग्दृष्टिकी नरकमें उत्पत्ति नहीं होती, अतः सासादनगुणस्थानमें नरकगत्यानुपूर्वीका उदय नहीं होता। सभी आनुपूर्वियोंका उदय मिश्रगुणस्थानमें नहीं होता है; क्योंकि, सम्यग्मिथ्याष्टिका मरण नहीं होता। (अतएव मिथ्यात्व और अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानमें चारोंका और सासादनगुणस्थानमें तीन आनुपूर्वियोंका उदय होता है। ) ॥२६॥ *सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-आहारदय-तित्थयरेहिं विणा मिच्छादिदिम्मि णिरयाणुपुग्विविणा सासणे तिरिय-मणुय-देवाणुपुब्बी विणा सम्मामिच्छत्तेण सह मिस्से सव्वाणुपुग्वि-सम्मत्तेण सह २२ ४८ १०४ अविरदे १५ देसे ८७ अप्पमत्ते १८ दस ३५ आहारदुएण सह पमत्ते Um अपुत्वे .. Guru wr.u09m ६ ६६ ६० अणियट्टीए सुहुमाइसु खीणदुचरिमसमए खीणचरिमसमए ५६ ६२ ६३ ८८ ८६ ८२ ३० १२ तित्थयरेण सह सजोगम्मि १२ अजोगम्मि , १०६ १३६ आठों कर्मोकी एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंमेंसे उदयके योग्य प्रकृतियाँ एक सौ बाईस होती हैं, यह बात पहले बतला आये हैं। उनमें से मिथ्यात्वगुणस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृति; ये पाँच प्रकृतियाँ उदयके योग्य नहीं हैं, अतः उनके विना शेष रही एक सौ सत्तरह प्रकृतियोंका उदय है। सर्व अनुदय-प्रकृतियाँ इकतीस हैं। यहाँ पर मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकृतियोंकी उदयसे व्युच्छित्ति होती है। सासादन गुणस्थानमें नरकानुपूर्वीका उदय नहीं होता, अतः वहाँ पर उदय-योग्य प्रकृतियाँ एक सौ ग्यारह हैं, उदयके अयोग्य ग्यारह और अनुदय-प्रकृतियाँ सैंतीस हैं। यहाँ पर अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि नौ प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। मिश्रगुणस्थानमें तिर्यगानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानु 1. सं० पञ्चसं० ३, ३८ । * २, 'एताः सम्यक्त्व' इत्यादिगद्यभागः पृ० (५६) । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव ६१ पूर्वीका भी उदय नहीं होता, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वका उदय होता है, अतः उदय योग्य प्रकृतियाँ सौ और उदयके अयोग्य बाईस हैं । अनुदयप्रकृतियाँ अड़तालीस हैं । यहाँ पर एक सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको उदयसे व्युच्छित्ति होती है । अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में उदयके योग्य प्रकृतियाँ एक सौ चार हैं; क्योंकि यहाँ पर सभी अर्थात् चारों आनुपूर्वियोंका और सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होता है। उदयके अयोग्य प्रकृतियाँ अट्ठारह और अनुदय-प्रकृतियाँ चवालीस हैं । यहाँ पर अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क आदि सत्तरह प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं । देशविरत में सत्तासी प्रकृतियोंका उदय होता है, उदयके अयोग्य पैंतीस हैं, अनुदयप्रकृतियाँ इकसठ हैं और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क आदि आठ प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं । प्रमत्तविरतमें आहारकद्विकका उदय होता है, अतः उनके साथ उदयके योग्य प्रकृतियाँ इक्यासी हैं, उदयके अयोग्य इकतालीस हैं और अनुदय सड़सठका है । यहाँ पर स्त्यानगृद्धि आदि पाँच प्रकृतियोंकी उदयसे व्युच्छित्ति होती है । अप्रमत्तविरत में उदयके योग्य छिहत्तर, उदयके अयोग्य छयालीस और अनुदय प्रकृतियाँ बहत्तर हैं । यहाँ पर सम्यक्त्वप्रकृति आदि चारकी उदय व्युच्छित्ति होती है । अपूर्वकरणमें उदय योग्य बहत्तर, उदयके अयोग्य पचास और अनुदय-प्रकृतियाँ छिहत्तर हैं । यहाँ पर हास्यादि छह प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति होती है । अनिवृत्तिकरण में उदय योग्य छयासठ, उदयके अयोग्य छप्पन और अनुदय प्रकृतियाँ वियासी हैं । यहाँ पर वेद-त्रिकादि छह प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं । सूक्ष्मसाम्पराय में उदय योग्य साठ, उदयके अयोग्य बासठ और अनुदय - प्रकृतियाँ अठासी हैं । यहाँ पर एकमात्र संज्वलन लोभकी उदय व्युच्छित्ति होती है । उपशान्तमोह में उदय योग्य उनसठ, उदयके अयोग्य तिरेसठ और अनुदयप्रकृतियाँ नवासी हैं । यहाँ पर वज्रनाराच और नाराचसंहनन इन दो प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति होती है । क्षीणमोहके द्विचरम समय तक सत्तावनका उदद्य रहता है अतः उदयके अयोग्य पैंसठ और अनुदय प्रकृतियाँ इक्यानवे जानना चाहिए । यहाँ पर द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति होती है । इसी गुणस्थानके चरम समय में उदय योग्य पचपन, उदयके अयोग्य सड़सठ और अनुदय-प्रकृतियाँ तेरानवे हैं । चरम समय में ज्ञानावरण-पंचकादि चौदह प्रकृतियोंकी उदयसे व्युच्छित्ति होती है । सयोगिकेवली गुणस्थान में तीर्थङ्कर-प्रकृतिका उदय होता है, अतः उदयके योग्य वियालीस, उदयके अयोग्य अस्सी और अनुदयप्रकृतियाँ एक सौ छह हैं । यहाँ पर संस्थान, संहनन आदि तीस प्रकृतियाँ उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। अयोगिकेवल गुणस्थान में अवशिष्ट रही बारह प्रकृतियोंका उदय होता है, उदयके अयोग्य एक सौ दश और अनुदय-प्रकृतियाँ एक सौ छत्तीस हैं । यहाँ पर मनुष्यगति आदि जिन बारह प्रकृतियोंका उदय होता है, अन्तिम समय में उन सबकी उदयसे व्युच्छित्ति हो जाती है। ( देखो, संदृष्टि - संख्या ११ ) मिथ्यात्वगुणस्थान में उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ [मूलगा० १६] 'मिच्छत्तं आयावं सुहुममपजत्तया य तह चेव । साहारणं च पंच य मिच्छम्हि य उदयवुच्छेओ ||३०|| |५| मिथ्यात्व, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण; ये पाँच प्रकृतियाँ मिथ्यात्वगुणस्थान में उदयसे व्युच्छिन्न होती है ॥३०॥ मिथ्यात्व में उदय व्युच्छिन्न ५ । 1. सं० पञ्चसं० ३, ४१ । १. कर्मस्त० गा० २५ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह सासादनगुणस्थान में उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[ मूलगा ०२०] 'अण एइंदियजाई वियलिंदियजाइमेव थावरयं । ६२ एए गव पयडीओ सासणसम्मम्हि उदयवोच्छेओ' ॥३१॥ 181 अनन्तानुबन्धीचतुष्क, एकेन्द्रियजाति, तीनों विकलेन्द्रिय जातियाँ, तथा स्थावर; ये नौ प्रकृतियाँ सासादनसम्यक्त्वमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ||३१|| सासादनमें उदय व्युच्छिन्न ६ । सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृति[मूलगा ०२१] सम्मामिच्छत्तेयं सम्मामिच्छम्हि उदयवोच्छिष्णो । 191 सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान में एक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति ही उदयसे व्युच्छिन्न होती है । सम्यग्मिथ्यात्व में उदय - व्युच्छिन्न १ । अविरत सम्यक्त्वगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ'विदियकसायचउक्कं तह चैव य णिरय- देवाऊ ||३२|| [मूलगा०२२] मणुय- तिरियाणुपुच्ची वेउव्वियछक दुब्भगं चेव । अणादिज्जं च तहा अजसकित्ती अविरयम्हि ||३३|| ॥१७॥ द्वितीयकषायचतुष्क, नरकायु, देवायु, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकषट्क (वैक्रियिक-शरीर, वैक्रियिक- अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी ) दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्त्ति इस प्रकार सत्तरह प्रकृतियाँ अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ।।३२-३३।। अविरत सम्यक्त्वमें उदय व्युच्छिन्न १७ । देशविरत गुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०२३] 'तदियकसायचउक्कं तिरियाऊ तह य चेव तिरियगदी । उज्जोअ णिच्चगोदं विरयाविरयम्हि उदयवुच्छेओ ||३४|| ४ 151 तृतीयकषायचतुष्क, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, उद्योत और नीचगोत्र, ये आठ प्रकृतियाँ विरताविरतगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥ ३४॥ विरताविरत में उदय व्युच्छिन्न ८ । 1. सं० पंचसं० ३, ४२ । २. ३, ४३ पूर्वार्ध । ३. ३, ४३ उत्तरार्ध, ४४–४५ | 4. ३, ४६ । १. कर्मस्त० गा० २६ । २. कर्मस्त० गा० २७ । ३. कर्मस्त० गा० २८ । ४. कर्मस्त ० गा० २६ । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव ॥४॥ प्रमत्तविरतगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०२४] 'थीणतियं चेव तहा आहारदुअं पमत्तविरयम्हि । स्त्यानत्रिक (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला ) तथा आहारकद्विक ये पाँच प्रकृतियाँ प्रमत्तविरतमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। प्रमत्तविरतमें उदय-व्युच्छिन्न ५। अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ "सम्मत्तं संघयणं अंतिमतियमप्पमत्तम्हि ॥३५॥ सम्यक्त्वप्रकृति और अन्तिम तीन संहनन, ये चार प्रकृतियाँ अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३॥ अप्रमत्तविरतमें उदय-व्युच्छिन्न ४ । अपूर्वकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँमूलगा०२५] तह णोकसायछक्कं अपुव्वकरणे* य उदयवोच्छिण्णं । ।६। नोकषायषट्क अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा; ये छह प्रकृतियाँ अपूर्वकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। अपूर्वकरणमें उदय-व्युच्छिन्न ६। अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ "वेयतियं कोह-माण-मायासंजलण अणियट्टिम्हि ॥३६।। __तीनों वेद, तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया; ये छह प्रकृतियाँ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३६॥ ___ अनिवृत्तिकरणमें उदय-व्युच्छिन्न ६।। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०२६] संजलणलोहमेयं सुहुमकसायम्हि उदयवोच्छिण्णा । सूक्ष्मकषायगुणस्थानमें एक संज्वलनलोभ प्रकृति ही उदयसे व्युच्छिन्न होती है। सूक्ष्मसाम्परायमें उदय-व्युच्छिन्न १ । उपशान्तमोहगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ तह वज्जयणारायं णारायं चेव उवसंते ॥३७॥ ।२। 1. सं० पञ्चसं० ३, ४७ । 2. ३, ४८ पूर्वार्ध । ३. ३, ४८ उत्तरार्ध । 4. ३, ४६ पूर्वार्ध । 5. ३, ४६ उत्तरार्ध । 6. ३, ५० पूर्वार्ध । १. कर्मस्त० गा० ३० । २. कर्मस्त. गा० ३१ । २. कर्मस्त० गा० ३२ । * प्रतिषु 'अपुव्वकरणाय' इति पाठः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पञ्चसंग्रह वज्रनाराचसंहनन और नाराचसंहनन ये दो प्रकृतियाँ उपशान्तमोहगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३७॥ उपशान्तमोहमें उदय-व्युच्छिन्न २ । क्षीणमोहगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०२७] "णिद्दा पयला य तहा खीणदुचरिमम्हि उदयवोच्छिण्णा । ॥२॥ निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियाँ क्षीणकधायके द्विचरम समयमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं। क्षीणमोहके द्विचरमसमयमें उदय-व्युच्छिन्न २ । *णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि चरिमम्हि ॥३८॥ १४॥ ज्ञानावरणको पाँच, अन्तरायकी पाँच और दर्शनावरणकी चतुदर्शनावरणादि चार; ये चौदह प्रकृतियाँ क्षीणमोहके अन्तिम समयमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३८॥ क्षीणमोहके चरमसमयमें उदय-व्युच्छिन्न १४ । सयोगिकेवलीगुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०२८] अण्णयरवेयणीयं ओरालियतेयणामकम्मं च । छच्चेव य संठाणं ओरालिय-अंगवंगं च ॥३६॥ [मूलगा०२६] आदी वि य संघयणं वण्णचउक्कं च दो विहायगई। अगुरुगलहुयचउक्कं पत्तेय थिराथिरं चेव ॥४०॥ [मूलगा०३०] सुह-सुस्सरजुयला वि य णिमिणं च तहा हवंति णायव्वा । एए तीसं पयडी सजोयचरिमम्हि वोच्छिा ॥४१॥ ।३०॥ [अन्यतरद्वेदनीयं १ औदारिकशरीरं १ तैजसनाम १ कार्मणशरीरनाम १ संस्थानपटकं ६ औदारिकाङ्गोपाङ्गं १ वज्रवृषभनाराचसंहननं १ वर्णचतुष्कं ४ विहायोगतिद्विकं २ अगुरुलधुचतुष्कं ४] प्रत्येकशरीरं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ सुस्वर-दुःस्वरौ २ निर्माण १ चेति एतास्त्रिंशत्प्रकृतयः ३० सयोगकेवलिगुणस्थानस्य चरमसमये उदयतो व्युच्छिन्ना भवन्तीति ज्ञातव्याः ॥३६-४१॥ साता-असातावेदनीयमेंसे कोई एक वेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छहों संस्थान, औदारिक-अंगोपांग, आदिका वज्रवृषभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, अगुरुलघुचतुष्क, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ-युगल, सुस्वर-युगल, तथा निर्माण; ये तीस प्रकृतियाँ सयोगिकेवलीके चरमसमयमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३६-४१॥ सयोगिकेवलीमें उदय-व्युच्छिन्न ३० । 1. सं० पंचसं० ३, ५० उत्तरार्ध । 2. ३, ५१ । 3. ३, ५२-५४ पूर्वार्ध । १. कर्मस्त० गा० ३३ । गो० क० २७० । २. कर्मस्त० गा० ३४ । ३. कर्मस्त० गा० ३५। ४. कर्मस्त. गा० ३६ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव [मूलगा०३१] अण्णयरवेयणीयं मणुयाऊ मणुयगई य बोहव्वा । पंचिंदियजाई वि य तस सुभगादेज्ज पज्जत ॥४२॥ बायरजसकित्ती वि य तित्थयरं उच्चगोइयं चेव । [मूलगा०३२] एए + बारह पयडी अजोइम्हि - उदयवोच्छिण्णा ॥४३॥ ।१२। अयोगगुणस्थाने अन्यतरदेकं वेदनीयं १ मनुष्यायुः १ मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिनाम १ ससुभगादेय-पर्याप्तानि ४ बादरः १ यशःकीत्तिः १ तीर्थकरत्वं । उच्चैर्गोत्रं १ चेति एता द्वादश प्रकृतयः अयोगिकेवलिगुणस्थानचरमसमये व्युच्छित्तयो भवन्तीति ज्ञातव्याः । नानाजीवापेक्षयैव उक्ताः । सयोगायोगयोस्त्वेकं जीवं प्रति साते असाते वा व्युच्छिन्ने त्रिंशद् द्वादश ३०।१२ | नानाजीवान् प्रति उभयदाभावादेकत्रिंशत ३१ त्रयोदश १३ ज्ञातव्याः ॥४२-४३॥ इति गुणस्थानेषु उत्तरप्रकृतीनामुदयभेदः समाप्तः ।। कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, बादर, यश कीर्ति, तीर्थकर और उच्चगोत्र; ये बारह प्रकृतियाँ अयोगि-जिनके चरम समयमें उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥४२-४३ ।। __ अयोगि-जिनके उदय-व्युच्छिन्न १२ । इस प्रकार उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका वर्णन समाप्त हुआ । [मूलगा०३३] उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जइ विसेसो । मोत्तण तिण्णि ठाणं पमत्त जोई अजोई य ॥४४॥ अथोदीरणाभेदं गाथाचतुष्केणाह-[ 'उदयस्सुदीरणस्स य' इत्यादि । ] उदयस्योदीरणायाश्च स्वामित्वाद् विशेषो न विद्यते, प्रमत्त-योग्यऽयोगित्रयं स्थानं मुक्त्वा अन्यत्र विशेषो नेत्यर्थः ॥४४॥ स्वामित्वकी अपेक्षा उदय और उदीरणामें प्रमत्तविरत, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली; इन तीन गुणस्थानोंको छोड़कर कोई विशेष ( अन्तर ) नहीं है ॥४४॥ [मूलगा०३४] तीसं वारस उदयं केयलिणं मेलणं च काऊण । सायासायं च तहा मणुआउगमवणियं किच्चा ॥४॥ [मलगा०३५] सेसं उगुदालीसं जोगीसु उदीरणा य बोहव्वा ! अवणिय तिष्णि य पयडी पमत्तउदयम्हि पक्खित्ता ॥४६॥ तत्र को विशेषः इति चेदाह-सयोगाऽयोगयोः उदयव्युच्छित्ती त्रिंशद्-द्वादश एकीकृत्य ४२ तत्र साताऽसातमनुष्यायूंष्यपनेतव्यानि ३ । शेपेकोनचत्वारिंशात्प्रकृत्युदीरणाः ३६ सयोगकेवलिगुणस्थाने भवन्तीति बोधव्याः। तदपनीतसाताऽलातामनुष्यायुःप्रकृतित्रयं प्रमत्तसंयते उदयप्रकृतिपञ्चके प्रक्षेपणीयम् । ततः कारणात् प्रमत्ते अष्टौ ८ व्युच्छिद्यन्ते, नाप्रमत्तादिषु तत्त्रयोदीरणाऽस्ति; अप्रमत्तादित्वात् संकिष्टभ्योsन्यत्र तदसम्भवात् ॥४५-४६॥ 1. सं० पञ्चसं० ३, ५४ उत्त०-५५ । 2. ३,६०।३.३, ५८-५६ । १. कर्मस्त० गा) ३७ । २. कर्मस्त० गा० ३८ । ३. कर्मस्त० गा० ३१ । गो० क. २७८ । ४. कर्मस्त० गा०४० । गो० क. २७६ । ५. कर्मस्त० गा० ४१ । + द एदे। - ब अजोइहि: द अजोगिम्हि । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह [मृलगा०३६] तह चेव अट्ठ पयडी पमत्तविरदे उदीरणा होति । 'णत्थि त्ति अजोयजिणे उदीरणा इत्ति णायव्वा ॥४७॥ तथा चैव प्रमत्तविरते षष्ठे गुणस्थाने त्यानत्रिकं ३ आहारकद्विकं २ साताऽसाताद्विकं २ मनुष्यायुश्चेति १ अष्टौ प्रकृतयः प्रमत्तसंयतान्तानामुदीरणा भवन्ति; अयोगिजिने उदयप्रकृतीनामुदीरणा नास्तीति ज्ञातव्यम् । उदीरणा नाम अपक्कपाचनं दीर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकान् अपकृष्याऽत्पस्थितिकाऽधस्तननिषेकेषु उदयावल्यां दत्वा उदयमुखेनाऽनुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलान्तररूपेण परिणमयतीत्यर्थः ॥४७॥ सयोगिकवलीके उदयमें आनेवाली तीस और अयोगिकवलीके उदयमें आनेवाली बारह इन दोनोंको मिला करके, तथा सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु, इन तीनको घटा करके जो उनतालीस प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, उनकी उदीरणा सयोगिकेवलीके जानना चाहिए । जो सातावेदनीय आदि तीन प्रकृतियाँ घटाई हैं, उन्हें प्रमत्तविरतके उदयमें आनेवाली पाँच प्रकृतियों में प्रक्षेप करना चाहिए। इस प्रकार प्रमत्तविरतमें आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है। अयोगिजिनके किसी भी प्रकृतिकी उदीरणा नहीं होती है, ऐसा नियम जानना चाहिए ।।४५-४७।। मूलगा०३७] पण णव इगि सत्तरसं अट य चउरछक्क छच्चेव । इगि दुय सोलगुदालं उदीरणा होति जोअंता ॥४८॥ उदीरगाव्युच्छित्तिमाह-[ 'पण णव इगि सत्तरसं' इत्यादि । ] सयोगपर्यन्तत्रयोदशगुणस्थानेषु यथाक्रममुदीरणाव्युच्छित्तिः पञ्च ५ नवै ६ क १ सप्तदशा १७ ऽष्टा ८ ऽष्ट ८ चतुः ४ षट्क ६ षट्कै ६ क १ द्विक २ षोडशै १६ कोनचत्वारिंशत् ३६ प्रकृतयः स्युः ।।४८॥ मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त क्रमसे पाँच, नौ, एक, सत्तरह, आठ, आठ, चार, छह, छह, एक, दो, सोलह और उनतालीस प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है ॥४८॥ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-तित्थयराहारदुगेण विणा मिच्छे ११७ गिरयाणुपुव्वी विणा सासणे 000 तिरिय-मणुय-देवाणुपुत्वी विणा १०० सव्वाणुपुवी-सम्मत्तण मिस्सेण सह मिस्से २२ सह असंजदे १०४ १८ र ८७ माहारगेण १ ३५ सह अप्पमत्ते। 600 ३३ - ७३ ६६ ३३ ५५ ५६ ५४ ५२ तित्थयरेण सह ३६ अप्पमत्तादिसु ४६ ५३ ५६ ६५ ६६ ६८ ७० सजोगे . २३ अजोगे अजोगे तस्यां सत्यां सम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्व-तीर्थंकरराऽऽहारकद्विकैविना मिच्छे ( मिथ्यात्वे), नरकगत्थान. पूयं विना सासादने, तिर्यग्मनुष्यदेवगत्यानुपूव्य विना मिश्रेण सह मिश्रे, नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगत्यानुपूर्व्यसम्यक्त्वैः सह असंयते, देशसंयमे, आहारकद्वयेन सह प्रमत्ते, अप्रमत्तादिषु [उक्तप्रकारेण उदीरणाप्रकृतयो ज्ञेयाः ]। ___इति गुणस्थानेषु उदीरणाप्रकृतयः कथिताः । 1. सं. पंचसं० ३, ५७ । 2. ३, ५६ । 3. ३, 'एताः सम्यक्त्व' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ६१)। १. कर्मस्त० गा० ४२ । २. कर्मस्त० गा० ४३ । गो० क० २८१ । * द दुग । * द जोगंता । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव उदीरणा-योग्य एक सौ बाईस प्रकृतियोंमेंसे सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, तीर्थंकर और आहारकद्विकके विना मिथ्यात्वगुणस्थानमें एक सौ सत्तरह प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है। यहाँ पर उदीरणाके अयोग्य पाँच, और सर्व अनुदीर्ण प्रकृतियाँ इकतीस हैं। मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें नरकानुपूर्वीके विना उदीरणा-योग्य प्रकृतियाँ एक सौ ग्यारह हैं, उदीरणाके अयोग्य ग्यारह और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ सैंतीस हैं। यहाँ पर अनन्तानुबन्धी-चतुष्फ आदि नौ प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। मिश्रमें तियश्च, मनुष्य और देव-आनुपूर्वीके विना, तथा सम्यग्मिथ्यात्वके साथ उदीरणाके योग्य प्रकृतियाँ सौ हैं । उदीरणाके अयोग्य बाईस और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ अड़तालीस हैं। यहाँ पर एक सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। अविरतमें उदीरणाके योग्य एक सौ चार हैं, क्योंकि यहाँ सभी आनुपूर्वियोंकी और सम्यक्त्वप्रकृतिको उदीरणा होने लगती है। उदीर गाके अयोग्य अट्ठारह और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ चवालीस हैं। यहाँ पर अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क आदि सत्तरह प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। देशविरतमें सत्तासी प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है, उदीरणाके अयोग्य पैंतीस है, अनुदीर्ण प्रकृतियाँ इकसठ हैं और प्रत्याख्यानावरण-चतुष्क आदि आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्यच्छित्ति होती है। प्रमत्तविरतमें आहारकद्विकके साथ उदीरणा-योग्य प्रकृतियाँ इक्यासी हैं, उदीरणाके अयोग्य इकतालीस हैं अनुदीर्ण प्रकृतियाँ सड़सठ हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायुकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है आगे नहीं होती, ऐसा बतला आये हैं, अतएव इस गुणस्थानमें स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग, सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु; इन आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। अप्रमत्तविरतमें उदीरणाके योग्य तिहत्तर, उदीरणाके अयोग्य उनचास और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ पिचहत्तर हैं । यहाँ पर सम्यक्त्वप्रकृति आदि चार प्रकृतियाँ उदीरणासे व्युच्छिन्न होती हैं। अपूर्वकरणमें उदीरणाके योग्य उनहत्तर, उदीरणाके अयोग्य तिरेपन, और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ उन्यासी हैं। यहाँ पर हास्यादि छह नोकषायोंकी उदीरणाव्युच्छित्ति होती है। अनिवृत्तिकरणमें उदीरणाके योग्य तिरेसठ, उदीरणाके अयोग्य उनसठ और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ पचासी है। यहाँ पर तीनों वेद और संज्वलन क्रोध, मान, मायाकषाय, इन छह प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्मसाम्परायमें उदीरणाके योग्य सत्तावन, उदीरणाके अयोग्य पैसठ और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ इक्यानवे हैं। यहाँ पर एकमात्र संज्वलनलोभकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। उपशान्तकषायमें उदीरणा-योग्य छप्पन, उदीरणाके अयोग्य छयासठ और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ बानवे हैं। यहाँ पर वज्रनाराचादि दो संहननोंकी उदीरणाव्युच्छित्ति होती है। क्षीणकषायके उपान्त्य समय तक चौवन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है, अत: वहाँ पर उदीरणाके अयोग्य अड़सठ और अनुदीर्ण प्रकृतियों चौरानवे जानना चाहिए । यहाँ पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंकी उदोरणाव्युच्छित्ति होती है। इसी गुणस्थानके अन्तिम समयमें उदीरणाके योग्य बावन, उदीरणाके अयोग्य सत्तर और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ छयानवे हैं। अन्तिम समयमें ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार और अन्तरायकी पाँच; इन चौदह प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। सयोगिकेवली गुणस्थानमें तीर्थङ्करप्रकृतिको मिलानेसे उदीरणाके योग्य उनतालीस, उदीरणाके अयोग्य तेरासी और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ एक सौ नौ हैं । यतः अयोगिकेवली गुणस्थानमें किसी भी प्रकृतिको उदीरणा नहीं होती, अतः वहाँ पर उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली बारह प्रकृतियोंमेंसे नौकी उदीरणा सयोगिकेवली गुणस्थानमें ही होती है। शेष तीन ( साता-असाता वेदनीय और मनुष्यायु) की उदीरणा छठे गुणस्थानमें होती है, यह पहले बतला आये हैं। इस प्रकार तेरहवें गुणस्थानमें उनतालीस प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। अयोगिकेवलीके उदीरणा और उदीरणा-व्युच्छित्तिके Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह योग्य कोई भी प्रकृति शेष नहीं रही है। अतएव उदीरणाके अयोग्य एक सौ बाईस और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस जानना चाहिए। (देखो संदृष्टि-संख्या १२) इस प्रकार उदीरणासे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका वर्णन समाप्त हुआ। गुणस्थानोंमें प्रकृतियोंके क्षयका क्रम[मूलगा०३८] 'अण मिच्छ मिस्स सम्म अविरयसम्माइ-अप्पमत्तता। सुर-णिरय-तिरिय-आऊ णिययभवे चेय खीयंति ॥४६॥ [मूलगा०३६] सोलह अट्ठकेके छक्केके चेय खीणमणियट्टी । __एयं सुहुमसराए खीणकसाए य सोलसयं ॥५०॥ [मूलगा०४०] वावत्तरी दुचरिमे तेरह चरिमे अजोइणो खीणा । अडयालं पयडिसयं खविय जिणं णिव्वुयं वंदे ॥५१॥ अथ गुणस्थानेषु प्रकृतिसत्वं गाथापञ्चदशकेनाऽऽह--क्षपकश्रेण्यऽपेक्षयेदं गाथासूत्रं कथ्यते-[ 'अण मिच्छ मिस्स सम्म' इत्यादि । ] अविरतसम्यक्त्वाद्यऽप्रमत्तान्ताः अविरतसम्यग्दृष्टयो वा देशसंयता वा प्रमत्तसंयता वा अप्रमत्तसंयता वा अनन्तानुबन्धि-क्रोध-मान-माया-लोभकपायान् ४ मिथ्यात्वं १ मिश्रं सम्यग्मिथ्यात्वं २ सम्यकप्रकृतिं च क्षयं कुर्वन्ति क्षायिकसम्यग्दृष्टयो भवन्ति । पश्चात् वैमानिकदेवाः सञ्जाताः । बद्धायुष्कात् धर्मायां नारकाः सञ्जाताः, पश्चात् भोगभूमिजास्तिर्यञ्चो वा जाताः। तत्र सुर-नरक-तिर्यगायूंषि निज-निजभवे सर-नरक-तियग्भवे क्षयन्ति क्षपयन्ति । अबद्धतत्त्रयायुको जीवो मनुष्यायुष्कं भुज्यमानः सन् क्षपकणिषु चटति ॥४६॥ __ अनिवृत्तिकरणादिषु क्षययोग्यप्रकृतीनां क्रममाह-[ 'सोलह अटेकेके' इत्यादि । ] सप्तप्रकृतीनां असंयतादिचतुर्गुणस्थानेषु कस्मिंश्चिदेकस्मिन् क्षपितत्वात् नरक-तिर्यग-देवायुषां चाऽबद्धायुष्कत्वेनाऽसत्त्वात् तत्तद्भवे तत्तदायुः तपित्वाच्च वा अनिवृत्तिकरणगुणस्थाने षोडशा १६ टावेक १ मेकं १ पटक ६ मेक १ मेक १ मेक १ मेकं १ सत्वप्रकृतिव्युच्छित्तिः । अनिवृनिकरण-गुणस्थान-संयमधरः क्षपकः अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमे भागे षोडश प्रकृतीः क्षपयति, द्वितीये अष्टौ ८, तृताये एकाम् १, चतुर्थे एकाम्, पञ्चमे पट ६, षष्ठे एकाम् १, सप्तमे एकाम् १, अष्टमे एकाम् १, नवमे भागे एकाम् १ च पयतीत्यर्थः । ततः उपरि सूचमसाम्पराये एका प्रकृति क्षपयति १ । क्षीणकपाये पोडश प्रकृतीः क्षपयति । तत्र सत्वम् १६ । अयोगे मये द्वासप्ततिप्रकृतीः पयति, तत्र तासां व्युच्छेदः ७२ । चरमसमये प्रयोदश प्रकृतीः क्षपयति, तत्र तासां व्युच्छेदः १३ । अयोगिनः क्षीणाः अष्टचत्वारिंशदुत्तरप्रकृतिशतं १४८ क्षयं नीता वा ताः, अयोगिनो जिनान क्षपयित्वा निवृतिं निर्वाणं प्रातान् अहं वन्दे नमस्करोमि ॥५०-५१॥ अनन्तानुबन्धी-चतुष्क, मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वप्रकृति, ये सात प्रकृतियाँ अविरतसम्यक्त्वसे लेकर अप्रमत्तपर्यन्त क्षयको प्राप्त होती हैं। तथा देवायु, नरकायु और तिर्यगायु अपने-अपने भवमें ही क्षयको प्राप्त होती हैं। अनिवृत्तिकरणके नौ भागोंमें क्रमसे सोलह, आठ, एक, एक, छह, और एक, एक, एक, एक प्रकृति क्षयको प्राप्त होती है। सूक्ष्मसाम्परायमें एक 1. सं० पञ्चसं० ३, ६२ । 2. ३,६३-६५। । १. कर्मस्त० गा० ६। २. कर्मस्त० गा० ७ । ३, कर्मस्त० गा० ८। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव प्रकृति और क्षीणकषायमें सोलह प्रकृतियाँ क्षय होती हैं । अयोगिकेवलीके द्विचरम समयमें बहत्तर और चरम समयमें तेरह प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं। इस प्रकार एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंका क्षय करके निर्वाणको प्राप्त हुए जिन भगवान्की मैं वन्दना करता हूँ ॥४६-५१॥ कुछ विशेष प्रकृतियोंका सत्त्व-असत्त्व-विषयक नियम तित्थयराहारदुअं सासणसम्मम्मि णत्थि संतेण । मिस्सम्मि य तित्थयरं सत्त खलु णत्थि णियमेण ॥५२॥ सत्त्वसम्भवाऽसम्भवनियममाह-[ 'तित्थयराहारदुअं' इत्यादि।] सासादनसम्यग्दृष्टौ तीर्थङ्कराssहारकद्विकं सत्वेन नास्ति । यस्य तीर्थकर प्रकृतिसत्त्वं आहारकद्वयस्य सत्त्वं च भवति, स सार गच्छतीत्यर्थः। मिथ्यादृष्टौ तीर्थकृत्वसत्त्वे आहारकसत्वं न, 'तित्थाहारं जुगवं' इति वचनात् । मिश्रे सम्यग्मिथ्यात्वे गुणस्थाने तीर्थकृत्वसत्वं खलु नियमेन नास्ति ॥५२॥ तीर्थङ्कर और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों का सत्त्व निश्चयसे सासादन-सम्यक्त्वगुणस्थानमें नहीं होता है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका सत्त्व नियमसे मिश्रगुणस्थानमें नहीं होता है ।।१२।। सुर-णिरय-तिरियाऊहिं विणा मिच्छे तित्थयराहारदुगूणा सासणे १४२ आहारदुगेण सह मिस्से १४४ तित्थयरेण सह र असंजदे ११५ देसे १४५ पमत्ते १४५ अप्पमत्ते १४५ अपुब्वे १३८ ३ अणियट्टिणवभाएसु १३८ १२२ ११४ ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३ सुहुमे १०२ उवसंते १०१ खीणदुचरिमे. __१०१ खीणचरिमसमए ६ सजोगे ८५ समए ४६ ४६ س अजोगे दुचरिमसमए ८५ پر گر سه चरिमसमर س सुर-नरक-तिर्यगायुस्त्रिकसत्त्वैविना मिच्छे ( मिथ्यात्वे), तीर्थकराऽऽहारकद्विकोनाः सासादने, आहारकद्विकेन सह मिश्रे, तीर्थकृत्वसत्त्वेन सह असंयते, अथ सप्तप्रकृतीनां असंयतादिचतुर्गुणस्थानेषु एकत्र क्षपयित्वात् नरक-तियग्देवायुपां चाबद्धत्वेन वा तद्भवे क्षपितत्त्वात् असत्त्वमायुस्तिकं एवं दशप्रकृत्यभावात् [उक्तप्रकारेण सत्त्वप्रकृतयो ज्ञेयाः ] । 1. सं० पञ्चसं० ३, ६१ । 2. ३, 'एताः श्वभ्र' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ६३ )। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह मिथ्यात्वगुणस्थानमें देवायु, नरकायु और तिर्यगायुके विना एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंका सत्त्व और तीनका असत्त्व रहता है । सत्त्व-व्युच्छित्ति किसी भी प्रकृतिकी नहीं होती । सासादन गुणस्थानमें तीर्थङ्कर और आहारक-द्विकके विना एक सौ व्यालीस प्रकृतियोंका सत्त्व और छहका असत्त्व रहता है। मिश्रगुणस्थानमें आहारक-द्विककी भी सत्ता पाई जाती है, अतः एक सौ चवालीसका सत्त्व और चार प्रकृतियोंका असत्त्व रहता है। अविरतसम्यक्त्वमें तीर्थकर प्रकृतिकी भी सत्ता पाई जाती है, अतः एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंका सत्त्व और तीन प्रकृतियोंका असत्त्व रहता है, इस गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीवकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोह-त्रिक इन सात प्रकृतियोंका अभाव पाया जाता है इसलिए सात प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छत्ति होती है। अविरतके समान देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें भी एक सौ पैंतालीस प्रकृतियोंका सत्त्व, तीनका असत्त्व और सातकी सत्त्व-व्युच्छित्ति जानना चाहिए। अपूर्वकरणमें एक सौ अड़तीस प्रकृतियोंका सत्त्व होता है, क्योंकि क्षायिकसम्यक्त्व होते समय अनन्तानुबन्धी-चतुष्क और दर्शनमोह-त्रिकका तो क्षय पहले ही कर दिया था। तथा नरकायु, तिर्यगायु और देवायु, इन तीनको भी सत्ता यहाँ नहीं पाई जाती है, अतः दश प्रकृतियोंका असत्त्व रहता है। अनिवृत्तिकरणके नौ भागोंमें क्रमसे सोलह, आठ, एक, एक, छह, एक, एक, एक और एक प्रकृतिकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है, अतः उन भागोंमेंसे पहले भागमें एक सौ अड़तीस प्रकृतियोंका सत्त्व और दशका असत्त्व है। यहाँ स्त्यानगृद्धि आदि सोलहकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। दूसरे भागमें एक सौ बाईसका सत्त्व और छव्वीसका असत्त्व है, तथा आठ मध्यम कषायोंकी सत्वच्यच्छिनि होती है। तीसरे भागमें एक सौ चौदहका सत्त्व और चौंतीसका सत्त्व है। यहाँ पर एक नपुंसकवेदकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। चौथे भागमें एक सौ तेरहका सत्त्व और पैंतीसका असत्त्व है। एक स्त्रीवेदकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। पाँचवें भागमें एक सौ बारहका सत्त्व और छत्तीसका असत्त्व है। यहाँ पर हास्यादि छह नोकषायोंकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। छठे भागमें एक सौ छहका सत्त्व और व्यालीसका असत्त्व है। एक पुरुषवेदकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। सातवें भागमें एक सौ पाँचका सत्त्व और तेतालीसका असत्त्व है तथा एक संज्वलनक्रोधकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। आठवें भागमें एक सौ चारका सत्त्व और चवालीसका असत्त्व है, तथा एक संज्वलन मानकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। नवे भागमें एक सौ तीनका सत्त्व और पैतालीसका असत्त्व है, तथा एक संज्वलन मायाकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें एक सौ दो प्रकृतियोंका सत्त्व और छथालीसका असत्त्व है, तथा एक संज्वलन लोभकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। उपशान्तमोहमें एक सौ एक प्रकृतियोंका सत्त्व और सैंतालीसका असत्त्व है। यहाँ पर किसी भी प्रकृतिको सत्त्व- . व्युच्छित्ति नहीं होती। क्षीणमोहके द्विवरम समयमें एक सौ एकका सत्त्व और सैंतालीसका असत्त्व रहता है। यहाँ पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। क्षीणमोहके चरमसमयमें निन्यानवे प्रकृतियोंका सत्त्व और उनचास प्रकृतियांका असत्त्व रहता है। यहाँ पर ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार और अन्तरायकी पाँच; इन चौदह प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है । सयोगिकेवलीके पचासीका सत्त्व और तिरेसठका असत्त्व रहता है। यहाँ पर किसी भी प्रकृतिको सत्त्व-व्यच्छित्ति नहीं होती। अयोगिकवलीके द्विचरम समयमें पचासीका सत्त्व और तिरेसठका असत्त्व रहता है। यहाँ पर आगे कही जानेवाली देव-द्विक आदि बहत्तर प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युन्छित्ति होती है। अयोगिकेवलीके चरम समयमें तेरहका सत्त्व और एक सौ पैतीसका असत्त्व रहता है। इसी समय मनुष्य-द्विक आदि आगे कही जानेवाली तेरह प्रकृतियोंकी सत्त्व-व्युच्छित्ति होती है। इस प्रकार सर्व गुणस्थानोंमें कर्मोकी उत्तर प्रकृतियोंका सत्त्व-असत्त्वादि जानना चाहिए। (देखो, संदृष्टि-संख्या १३) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव अनिवृत्तिकरणके नौ भागोंमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०४१] 'थीणतियं चेव तहा णिरयदुअं चेव तह य तिरियदुयं । ____ इगि-वियलिंदियजाई आयाउज्जोवथावरयं ॥५३॥ [मूलगा०४२] साहारण सुहुमं चिय सोलस पयडी य होंति णायव्वा । ।१६। विदियकसायचउक्क तइयकसायं च अभए ॥५४॥ [मूलगा०४३] 'एय णउंसयवेयं इत्थीवेयं तहेव एयं च ।। छण्णोकसायछक्क पुरिसं कोवं च माणो य ॥५५॥ [मूलगा ४४] मायं चिय अणियट्टीभायं गंतूण संतवोछिण्णा । १।१।६।११।११ अनिवृत्तिवृत्तिकरणगुणस्थानादिषु ताः षोडशादिप्रकृतयः का इति चेदाह-[ 'थीणतियं चेव तहा' इत्यादि।1 अनिवृत्तिकरणस्य नवसु भागेषु सत्त्वव्युच्छेदस्य गाथासार्धत्रयेण सम्बन्धः । नरकगति-तदानुपूय॑द्विकं २ तिर्यग्गति-तदानुपूय॑द्विकं २ एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-जातिचतुष्कं ४ आतपः। उद्योतः १ स्थावरं १ साधारणं १ सूचमं १ चेति षोडश प्रकृतयः अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमे भागे क्षयं गताः, तत्र तासां व्युच्छेदः १६ ज्ञातव्यः । द्वितीयभागे अप्रत्याख्यानावरणद्वितीयकपायचतुष्कं ४ प्रत्याख्यानावरण - तृतीयकषायचतुष्कं ४ चेति अष्टौ कषायाः क्षयं गताः, तत्र तासां व्युच्छेदः ८ । तृतीयभागे एको नपुंसकवेदो क्षयं गतः । चतुर्थभागे एकस्य स्त्रीवेदस्य क्षयः १ । पञ्चमे भागे 'पण्णोकपायषटकं' हास्यरत्यारति-शोक. भय-जुगुप्सानां षण्णां क्षयः ६ । षष्ठे भागे पुंवेदः क्षयं गतः १ । सप्तमे भागे संज्वलनक्रोधः क्षयं गतः १ । अष्टमे भागे संज्वलनमानः क्षयं गतः । नवमे भागे संज्वलनमाया क्षयं गता। यत्र क्षयस्तत्र तद्व्युच्छित्तिः, अनिवृत्तिकरणस्य भागान् गत्वा सत्त्वव्युच्छित्तिः ॥५३-५५॥ __ अनिवृत्तिकरणके प्रथम भागमें स्त्यानत्रिक, नरकद्विक, तिर्यद्विक, एकेन्द्रियजाति, तीन विकलेन्द्रियजातियाँ, आतप, उद्योत, स्थावर, साधारण और सूक्ष्म; ये सोलह प्रवृ व्युच्छिन्न होती हैं, ऐसा जानना चाहिए। अनिवृत्तिकरणके द्वितीय भागमें द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क और तृतीय प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क; ये आठ प्रकृतियाँ सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं। तृतीय भागमें एक नपुंसकवेद, चतुर्थभागमें एक स्त्रीवेद, पंचम भागमें छह नोकषाय, छठे भागमें पुरुषवेद, सातवें भागमें संज्वलन क्रोध, आठवें भागमें संज्वलन मान और अनिवृत्तिकरणके नवें भागमें जाकर संज्वलन माया सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती है ॥५३-५५।। अनिवृत्तिकरणके नवों भागोंमें क्रमशः सत्त्व-व्युच्छिन्न प्रकृतियोंको अंक-संदृष्टि १६, ८, १, १, ६, १, १, १, १ 1. सं० पञ्चसं० ३, ६८-६६ । 2. ३, ७०। १. कर्मस्त० गा० ४३ । २. कर्मस्त० गा० ४४ । ३. कर्मस्त० गा० ४५ । द -'व'। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पञ्चसंग्रह सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृति-- 'लोभं च य संजलणं सुहुमकसायम्हि वोच्छिण्णा ॥५६॥ ।। तद्गाधार्धमाह-[ 'लोभं च य संजलणं' इत्यादि । ] सूचमसाम्पराये सूचमसंज्वलनलोभः व्युच्छिन्नः क्षयं गतः ॥५६॥ सूक्ष्मकषायमें एक संज्वलनलोभप्रकृति सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती है ॥५६॥ _सूक्ष्मसाम्परायमें सत्त्व-व्युच्छिन्न १ क्षीणकषायगुणस्थानमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०४५] खीणकसायदुचरिमे णिद्दा पयला य हणइ छदुमत्थो । णाणंतरायदसयं दंसण चत्वारि चरिमम्हि ॥५७॥ २॥१४॥ क्षीणकषायस्य द्विचरमे उपान्त्यसमये निगा-प्रचलाद्वयं छद्मस्थक्षीणकषायो मुनिहन्ति, क्षयं नयतीत्यर्थः । चरमसमये ज्ञानावरणपञ्चकं ५ दानाद्यन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुर्दर्शनावरणादीमि चत्वारि ४, एवं चतुर्दश प्रकृतयः १४ क्षयं गतास्तत्र व्युच्छेदः ॥५७॥ क्षीणकषायके द्विचरम समयमें छद्मस्थ वीतरागसंयत निद्रा और प्रचला; इन दो प्रकृतियोंका क्षय करता है। तथा चरम समयमें ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच और दर्शनावरणकी चक्षुदर्शनावरणादि चार; इन चौदह प्रकृतियोंका घात करता है ।।५७॥ क्षीणकषायके उपान्त्य समयमें सत्त्व-व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ २, अन्त्य समयमें १४ अयोगिकेवलीके द्विचरम समयमें सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०४६] देवदुअ४ पणसरीरं पंच सरीरस्स बंधणं चेव । पंचेव य संघायं संठाणं तह य छक्क च ॥५८॥ [मूलगा०४७] तिण्णि य अंगोवंगं संघयणं तह य होइ छक्कच । पंचेव य वण्ण-रसं दो गंधं अट्ट फासं च ॥५९।। [मूलगा०४८] अगुरुयलहुयचउच्च विहायगइ-दुग थिराथिरं चेव । सुह-सुस्सरजुवला वि य पत्तेयं दुब्भगं अजसं ॥६०॥ [मूलगा०४६ आणादेज्जं णिमिणं च य अपज्जत्तौं तह य णीचगोदं च । अण्णयरवेयणीयं अजोगिदुचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥६१॥ ।७२। 1. सं० पञ्चसं० ३, ७१ प्रथमचरणम् । 2. ३, ७१ चरणत्रयम् । 3. ३, ७२-७५ । १. कर्मस्त० गा० ४६ । २. कर्मस्त० गा० ४७ । ३. कमस्त० गा० ४८। गा० ४६। ५. कर्मस्त० गा० ५० । ६. कर्मस्त० गा० ५१ । Xद-दुगं । ४. कर्मस्त. . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्व सयोगे क्षयः सस्वव्युच्छेदश्व नास्ति । अयोगस्य द्विचरमसमये द्वासप्ततिक्षयः व्युच्छेदः गाथाचतुष्केण कथ्यते - [ 'देवदुअ पणसरीरं इत्यादि ! ] देवगति - देवगत्याऽऽनुपूर्व्यद्विकं २ श्रदारिकादिशरीरपञ्चकं ५ औदारिकादिशरीरसंघातपञ्चकं ५ समचतुरस्रादिसंस्थानषट्कं ६ औदारिक- वैक्रियिकाऽऽहारकशरीर राङ्गोपाङ्गत्रिकं ३ वज्रऋषभनाराचादिसंहननषट्कं ६ श्वेत-पीतादिवर्णपञ्चकं ५ कटुतिक्तादिरसपञ्चकं ५ सुगन्धदुर्गन्धौ द्वौ २ कर्कश कोमलादिस्पर्शाष्टकं ८ अगुरुलधूपघातपरजातोच्छ्रासचतुष्कं ४ प्रशस्ताऽप्रशस्त विहायोगतिद्विकं २ स्थिराऽस्थिरे द्वे २ शुभाशुभौ द्वौ २ सुस्वर - दुःस्वरौ द्वौ २ प्रत्येकशरीरं १ दुर्भगः १ अयश:कीर्त्तिः १ अनादेयं १ निर्माणं १ अपर्याप्तं १ नीचैर्गोत्रं १ अन्यतरद् वेदनीयं सातमसातं वा एकं १ चेत्येवं द्वासप्ततिप्रकृतीः अयोगिद्विचरमसमये अयोगिकेवली क्षपयति क्षयं नयति, तत्र तासां सत्वव्युच्छेदः ॥५८ - ६१ ॥ देवद्विक, पाँचों शरीर, पाँचों शरीरोंके पाँच बन्धन, पाँच संघात, तथा छह संस्थान, तीन अंगोपांग, तथा छह संहनन, पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध, आठ स्पर्श, अगुरुलघुचतुष्क, विहायोगतिद्विक, स्थिर - अस्थिर शुभ-युगल, सुस्वर-युगल, प्रत्येकशरीर, दुर्भग, अयशः कीर्त्ति, अनादेय, निर्माण, अपर्याप्त, तथा नीचगोत्र और कोई एक वेदनीय; ये बहत्तर प्रकृतियाँ अयोगकेवली के द्विचरम समय में सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं ।।५८-६१।। अयोगीके द्विचरम समय में सत्त्व व्युच्छिन्न ७२ । अयोगिकेवलीके चरम समय में सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ[मूलगा०५० ] 'अण्णयरवेयणीयं मणुयाऊ मणुअदुअं च बोहव्वा । पचिदियजाई विय तस सुभगादेज्ज पज्जत्त" ॥६२॥ [ मूलगा ०५१] बायर जसकित्ती वि य तित्थयरं उच्चगोययं चैव । एए तेरस पयडी अजोइचरिमम्हि संतवोच्छिण्णा ॥६३॥ ।१३। अयोगिचरमसमये त्रयोदशप्रकृतिसत्वन्युच्छेदं गाथाद्वयेनाह--- [ 'अण्णयरवेयणीयं' इत्यादि । ] अयोगिचरमसमये अन्यतरद्वेदनीयं सातमसातं वा एकं १ मनुष्यायुः १ मनुष्यगति- मनुष्यगत्यानुपूर्व्यद्वयं २ पञ्चेन्द्रियजातिः १ त्रस सुभगादेय-पर्याप्तानि चत्वारि ४ बादरत्वं १ यशः कीर्त्तिः १ तीर्थंकरत्वं १ उच्चगोत्रं १ चेत्येताः त्रयोदश प्रकृतीः अयोगिचरमसमयस्थः केवली क्षपयति, तत्र तत्सत्वव्युच्छेदः १३ ॥६२-६३ ॥ ७३ कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, बादर, यशःकीर्त्ति, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र; ये तेरह प्रकृतियाँ अयोगीके चरम समय में सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥ ६२-६३॥ अयोगीके चरम समय में सत्त्व व्युच्छिन्न १३ । अन्तिम मंगल कामना - [ मूलगा ०५२] सो मे तिहुअणमहिओ सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिच्चो | दिस वरणाण - दंसण- चरित्तसुद्धिं समाहिं च ॥६४॥ 1. सं० पञ्चसं० ३, ७६-७७ । १. कर्मस्त० गा० ५२ । २. कर्मस्त० गा० ५३ । ३. कर्मस्त० गा० ५४ । १ गो० क० ३५७ | परं तत्रोत्तरार्धे 'दिसदु वरणाणलाहं बुहजणपरिपत्थणं परमसुद्धं इति पाठः । १० For Private Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पञ्चसंग्रह कविः स्वास्मलामं याचते-[ 'सो मे तिहुअणमहिओ' इत्यादि। ] स सिद्धः स्वात्मोपलब्धिं प्राप्तः । मे मह्यं वर-विशिष्ट-केवलज्ञान-दर्शन-यथाख्यातचारित्र शुद्धिं समाधिं च रत्नत्रयलाभं धर्मध्यान-शुक्लध्यानं वा दिशतु प्रयच्छतु ददातु । स सिद्धः कथम्भूतः ? त्रिभुवनेन जनेन भहितः पूजितः। पुनः कथम्भूतः? बुद्धः केवलज्ञान-दर्शनमयः, निरअनः-द्रव्य-भाव-नोकर्ममलेभ्यो निःक्रान्तः, नित्यः-स्वस्वरूपादच्युतः । एवम्भूतः सिद्धः मह्यं घरज्ञानादिकं दिशतु ॥६४॥ सर्व कर्म-प्रकृतियोंसे रहित, ऐसे वे शुद्ध, बुद्ध, निरंजन और नित्य सिद्ध भगवान मुझे उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी शुद्धि और समाधिको देवें ॥६४॥ सूरीश्वरश्रेणिशिरोऽवतंसो लोकत्रयी-निर्मित-सत्प्रशंसः । श्रीमद्गुरुर्ज्ञानविभूषणेन्द्रो जीयात्प्रभाचन्द्रमुनीन्द्रचन्द्रः॥ इस प्रकार सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका वर्णन समाप्त हुआ। कर्मस्तव-चूलिका बन्ध, उदय और-सत्त्व-व्युच्छित्तिके स्पष्टीकरणार्थ नौ प्रश्न 'छिजइ + पढमं बंधो किं उदओ किं च दो वि जुगवं किं । किं सोदएण बंधो किं वा अण्णोदएण उभएणं ॥६॥ संतरी णिरंतरो वा किं वा बंधो हवेज्ज उभयं वा । एवं णवविहपण्हं- कमसो वोच्छामि एयं तु ॥६६॥ लचमीवीरेन्दुचिभूषान् पाठकान् परमेष्ठिनः। प्रणम्य चूलिकां वक्ष्ये नवधा-प्रश्नपूर्विकाम् ॥ अथ नवभेदबन्धस्य नवधाप्रश्नोत्तरस्वरूपं गाथात्रयोदशकेनाऽऽह । के नव प्रश्ना इति चेदाह[ 'छिजइ पढमं बंधो' इत्यादि । ] श्रीगुरूणामग्रे शिप्यः नवविध प्रश्नं करोति-हे भगवन् , प्रथमं पूर्व बन्धः छिद्यते विनश्यति व्युच्छेदं प्राप्यते, किमिति प्रश्ने ११ उदयः विपाका पूर्व किं च छिद्यते व्युच्छेदः ते २१ द्वावपि बन्धोदयौ युगपत् समं किं वा छिद्यते ३.? हे गुरोः, स्वोदयेन स्वकीयप्रकृत्युदयेन बन्धः स्वकीयप्रकृतिबन्धः किं वा भवति ? अन्योदयेन किं बन्धो भवति ५? किं उभयेन स्वपरोदयेन बन्धो भवति ६? हे भगवन् , किं वा सान्तरो बन्धो भवति ७ ? किं वा निरन्तरः अविच्छिन्नः बन्धो भवति ८ ? किं वा उभयः सान्तर निरन्तरो बन्धो भवति ? एवममुना प्रकारेण शिष्येण नवविधप्रश्ने कृते सति श्रीगुरुराऽऽह-हे शिष्य, क्रमशः अनुक्रमेण नवविधप्रश्नोत्तरान् एतान् अहं वक्ष्यामि त्वं शृणु ॥६५-६६॥ गुणस्थानोंमें पहले जो बन्ध-उदयादि व्युच्छित्ति बतलाई गई है, उनमें से क्या बन्ध प्रथम व्युच्छिन्न होता है १, क्या उदयकी पहले व्युच्छित्ति होती है २, अथवा क्या वे दोनों ही एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं ३, क्या स्वोदयसे बन्ध होता है ४, क्या परोदयसे बन्ध होता है 1,सं० पञ्चसं०३,७८-७४ । ' +ब छज्जा । पद संतरो। ४ ब द पण्हे ।। * इतोऽग्रेऽधस्तनः सन्दर्भ उपलभ्यते इति श्रीपञ्चसंग्रहाऽपरनामलघुगोमट्टसारसिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डे बन्धोदयोदीरणासत्वप्ररूपणो नाम द्वितीयोऽध्यायः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ कर्मस्तव ५, अथवा क्या उभयके उदयसे बन्ध होता है ६, क्या बन्ध सान्तर होता है ७, अथवा निरन्तर होता है ८, अथवा क्या उभयरूप होता है (६) ? ये नौ प्रकारके प्रश्न हैं। अब मैं क्रमसे इनका उत्तर कहूँगा ॥६५-६६॥ उक्त नौ प्रश्नोंमेंसे अल्प वक्तव्यके कारण सर्वप्रथम द्वितीय प्रश्नका समाधान करते हैं 'देवाउ अजस कित्ती वेउव्वाहार-देवजुयलाई। पुव्वं उदओ णस्सइ पच्छा बंधो वि अट्ठण्हं ॥६७॥ देवायुष्कं १ अयशःकीर्तिः । वैक्रियिकयुगलं २ माहारकयुगलं २ देवयुगलं २ चेत्यष्टानां प्रकृतीनां पूर्व प्रथमं उदयः नश्यति, पश्चात् बन्धो नश्यति । तथाहि-देवायुषः असंयते उदयव्युच्छित्तिः ४, अप्रमत्ते बन्धव्युच्छेदः ७ । अयशस्कोर्तेरसंयते उदयव्युच्छित्तिः ४, प्रमत्ते बन्धव्युच्छित्तिः ६। वैक्रियिकशरीरतदङ्गोपाङ्गद्वयस्य २ देवगति-तदानुपूर्व्यद्वयस्य २ च असंयते उदयव्युच्छित्तिः ४, अपूर्वकरणस्य षष्ठे भागे बन्धषुच्छित्तिः । आहारकद्वयस्य प्रमत्ते उदयव्युच्छित्तिः ६, अपूर्वकरणस्य षष्ठे भागे बन्धव्युच्छित्तिः ८ ॥६७॥ देवायु, अयशःकीर्ति, वैक्रियिक-युगल, आहारक-युगल और देव-युगल, इन आठ प्रकृतियोंका पहले उदय नष्ट होता है, पीछे बन्ध व्युच्छिन्न होता है ॥६७॥ __ बन्धसे पूर्व उदय-व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ ८ । तृतीय प्रश्नका समाधान हस्स रइ भय दुगुंछा सुहुमं साहारणं अपज्जत्त। जाइ-चउक्कं थावर सव्वे व कसाय अंत-लोहूणा ॥६॥ पुंवेदो मिच्छत्तणराणुपुव्वी य आयवं चेव । इगितीसं पयडीणं जुगवं बंधुदयणासो त्ति ॥६६॥ उ०१ हासस्य अपूर्वकरणे - बन्धोदयौ व्युच्छित्तौ(नौ) युगपत् समं भवतः । बं० ८ रतेः ८ जुगुप्सायाः ८ भयस्य ८. बन्धोदयौ समं भवतः। उ०८ । सूचम-साधारणाऽपर्याप्तकेन्द्रियादिजातिचतुष्क-स्थावराणां अष्टानां प्रकृतीनां ८ मिथ्यात्वगुणस्थाने बन्धोदयौ समं भवतः २० । अन्तलोभोना संज्वलनलोभरहिताः सर्वे कषायाः तेषां युगपत् बन्धोदय-व्युच्छेदौ भवतः । तथा हि-अनन्तानुबन्धिचतुष्टयस्य सासादने बन्धोदयौ समं व्युच्छेदं प्राप्तौ भवतः २ अप्रत्याख्यानचतुटयस्य देशविरते युगपद् बन्धोदयौ विच्छेदौ भवतः । क्रोध-मान-मायासंज्वलनत्रयस्य अनिवृत्तिकरणे समं बन्धोदयौ व्युच्छिन्नौ भवतः । वेदस्य अनिवृत्तिकरणे बन्धोदयौ विच्छेदौ समं भवतः । मिथ्यात्वस्य मिध्यात्वगुणस्थाने बन्धोदयो समं व्युच्छेदो भवतः । नरानुपाः असंयते बन्धोदयौ व्युच्छिन्नौ समं भवतः। ____1. सं. पञ्चसं० ३,८०। 2. ३,८१-८२ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह आतपस्प मिथ्यात्वे बन्धोदयौ व्युच्छिन्नौ समं] भवतः । इति एकत्रिंशत्प्रकृतीनां युगपद् बन्धोदयनाश इति । उदयव्युच्छित्तिबन्धव्युच्छित्तिश्च द्वे समं स्त इत्यर्थः ॥६८-६६॥ हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, एकेन्द्रियादि चार जातियाँ, स्थावर, अन्तिम संज्वलनलोभके विना सभी (१५) कषाय, पुरुषवेद, मिथ्यात्व, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आताप; इन इकतीस प्रकृतियोंके बन्ध और उदयका नाश एक साथ होता है ॥६८-६६।। युगपत् बन्धोदय-व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ ३१ । प्रथम प्रश्नका समाधान 'एक्कासी पयडीणं णाणावरणाइयाण सेसाणं । पुवं बंधो छिज्जइ पच्छा उदओ त्ति णियमेण ॥७॥ 1591 शेषाणां एकाशीतिप्रकृतीनां ज्ञानावरणादीनां पूर्व प्रथमं बन्धः छिद्यते, पश्चात् उदयः छिद्यते । तथा हि-(उपरि उदयोच्छेदगुणस्थानाङ्कसंख्या, अधस्तात् बन्धोच्छेदगुणस्थानाङ्कसंख्या ।) पञ्चानां ज्ञानावरणानां चतुणां दर्शनावरणानां पञ्चानामन्तरायाणां एतासां चतुर्दशप्रकृतीनां १४ क्षीणकपायान्ते उदयव्युच्छेदः, सूक्ष्मसाम्पराये बन्धन्युच्छेदः १२ । यशस्कीर्युच्चगोत्रयोः त्यानगृद्धित्रयस्य ६ निद्राप्रचलयोः १२ सद्वेद्यस्य , भसद्वेद्यस्य " संज्वलनलोभस्य ': स्त्रीवेदस्य : नपुंसकवेदस्य ; अरतिशोकयोः नरकायुषः, तिर्यगायुषः ५ मनुष्यायुषः १४ नरकगतेः तिर्यग्गतेः मनुष्यगतेः पञ्चेन्द्रियजातेः १४ औदारिकशरीरस्य १३ तेजसस्य १३ कार्मणस्य १३ समचतुरनस्य १३ मध्यमसंस्थानचतुष्टयस्य १३ हुण्डकस्य १३ औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गस्य १३ वनवृषभनाराचसंहननस्य १३ वज्रनाराच-नाराचयोः ३ अर्धनाराच-कीलिकासंहननयोः : असम्प्राप्तसृपाटिकासंहननस्य ५ वर्णादिचतुष्टयस्य । नरकगत्यानुपूर्व्याः , तिर्यग्गत्यानुपूर्वाः । अगुरुलध्वादिचतुष्टयस्य ३ प्रशस्तविहायोगतेः १३ अप्रशस्तविहायोगतेः १३ त्रस बादर-पर्याप्तानां " प्रत्येकशरीरस्य १३ स्थिरस्य १३ अस्थिरस्य १३ अशुभस्य १३ सुभगस्य र दुर्भगस्य : सुस्वरस्य १३ दुःस्वरस्य १३ भादेयस्य । अनादेयस्य । निर्माणस्य १३ अनादेयस्य निर्माणस्य तीर्थविधायितायाः १३ नीचगोत्रस्य ५ ॥७॥ शेष बची ज्ञानावरणादि कर्मोंकी इक्यासी प्रकृतियोंकी नियमसे पहले बन्ध-व्युच्छित्ति होती है और पीछे उदयच्युच्छित्ति होती है ॥७०॥ उदयसे पूर्व बन्ध-व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ ८१ । सुभगस्य सुस्वरस्य स्वरस्य भात २ 1. सं० पञ्चसं० ३, ८३-८७ । ॐब जइ। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव पाँचवें प्रश्नका समाधान 'तित्थयराहारदुअं वेउव्वियछक्क णिरय-देवाऊ । एयारह पयडीओ बझंति परस्स उदयाहिं ॥७॥ 1११॥ यासा परोदयेन बन्धः, ताः प्रकृतयाः-तीर्थकरत्वं १ आहारकद्विकं २ क्रियिकपटकं ६ नरकदेवायुषी २ चेत्येकादश प्रकृतीः परेषामुदयः बध्नन्ति । तीर्थकरनाम्नोऽपि परोदयेन बन्धः । कुतः ? तीर्थकरकर्मोदयसम्भविगुणस्थानयोः सयोगाऽयोगयोस्तबन्धाऽनुपलम्भात् । आहारकद्वयस्यापि परोदयेन बन्धः । कुत ? आहारकद्वयोदयरहितयोरप्रमत्तापूर्वयोर्बन्धोपलम्भात् । नरकगति-नरकगत्यानुपूर्वी-देवगतिदेवगत्यानुपूर्वी-वैक्रियिकशरीर-वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्गानां षण्णां बन्धयोग्येषु गुणेषु परोदयेन बन्धः । कुतः ? स्वोदयेन बन्धस्य विरोधात् । देवनारकायुषोः परोदयेन बन्धः, स्वोदयेन बन्धस्य विरोधात् ॥७१॥ - तीर्थङ्कर, आहारक-द्विक, वैक्रियिकषट्क, नरकायु और देवायु; ये ग्यारह प्रकृतियाँ परके उदयमें बँधती हैं ।।७१॥ परोदयसे बँधनेवाली प्रकृतियाँ ११ । चौथे प्रश्नका समाधान *णाणंतरायदसयं दसणचउ तेय कम्म णिमिणं च । थिर-सुहजुयले य तहा वण्णच अगुरु मिच्छत्त॥७२॥ सत्ताहियवीसाए पयडीणं सोदया दु बंधो त्ति । २७॥ ज्ञानावरणान्तरायस्य दश प्रकृतयः १० दर्शनावरणस्य चतस्रः ४ बन्धयोग्येषु गणस्थानेषु स्वोदयेन बध्यन्ते, मिथ्यादृष्टयादि-क्षीणकषायान्तेषु एतासां १४ निरन्तरोदयोपलम्भात् । तेजस-कार्मन-निर्माण-स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-वर्णचतुष्कागुरुलघु-प्रकृतयः द्वादश स्योदयेनैव बध्यन्ते; ध्रवोदयत्वात् । मिथ्यात्वस्य स्वोदयेनैव बन्धो भवति; मिथ्यात्वकारणकषोडशप्रकृतिषु पाठात्, बन्धोदययोः समानकाले प्रवृत्तित्वाद्वा । एवं सप्ताधिकविंशतिप्रकृतीनां २७ स्वोदयाद् बन्धो भवतीत्यर्थः ॥७२॥ ज्ञानावरणको पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी चक्षुदर्शनावरणादि चार, तैजसशरीर, कामंणशरीर, निर्माण, स्थिर-युगल, शुभ-युगल, तथा वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और मिथ्यात्व; इन सत्ताईस प्रकृतियोंका स्वोदयसे बन्ध होता है ॥७२॥ स्वोदयसे बँधनेवाली प्रकृतियाँ २७ । छठे प्रश्नका समाधानसपरोदया दु बंधो हवेज्ज वासीदि सेसाणं ॥७३॥ 1८२१ शेषाणां द्वयशीति-प्रकृतीनां ८२ स्व-परोदयाद् बन्धो भवेत् । तद्यथा-दर्शनावरणपञ्चक ५ वेद्यद्वय २ कषाय पोडश १६ नोकषाय-नवक ६ तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्युग्म २ तिर्यग्गति-मनुष्यगतियुगल २ एक-द्वित्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियजात्यौ ५ दारिकौदारिकाङ्गोपाङ्गं २ संस्थानषटक ६ संहननषटक ६ तिर्यग्गति-मनुष्यगति. प्रायोग्यानुपूर्व्य २ उपधात १ परघातो, च्छासा १ तपो १ द्योत १ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति २ त्रस १ __ 1. सं० पञ्चसं० ३,८८, तथाऽग्रतनगद्यभागः। 2.३,८६-६० तथाऽग्रतनगद्यभागः। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह स्थावर १ बादर १ सूक्ष्म १ पर्याप्तापर्याप्त २ प्रत्येक १ साधारण १ सुभग १ दुर्भग १ सुस्वर १ दुःस्वराऽऽ १ देयानादेय २ यशोऽयशः कीर्ति २ नीचोच्चगोत्र २ नामिकानां द्वयशीतिप्रकृतीनां ८२ स्वपरोदयाद् बन्धो द्रष्टव्यः, स्वोदयेनेव परोदयेनापि बन्धाविरोधात् ॥७३॥ इति द्वितीयप्रश्नत्रयस्य प्रत्युत्तरो जातः । शेष रही व्यासी प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदयसे भी होता है और परोदयसे भी होता है ।।७३॥ स्व-परोदयसे बँधनेवाली प्रकृतियाँ ८२ । आठवें प्रश्नका समाधान पतित्थयराहारदुअं चउ आउ धुवा य वेइ। चउवणं । एयाणं सव्वाणं पयडीणं णिरतरो बंधो ॥७४॥ ५४॥ तृतीयप्रश्नत्रयप्रकृतीर्गाथाचतुष्टयेनाऽऽह-[ 'तित्थयराहारदुअं' इत्यादि । ] तीर्थकरत्वं १ आहारकद्विकं २ आयुश्चतुष्कं ४ सप्तचत्वारिंशद् ध्रुवबन्धप्रकृतयः ४७ चेति एकीकृताश्चतुःपञ्चाशत् ५४ । एतासां सर्वासां चतुःपञ्चाशत्प्रकृतीनां निरन्तरो बन्धो भवति । तद्यथा-पञ्चज्ञानावरण ५ नव दर्शनावरण , पञ्चान्तराय ५ मिथ्यात्व १ षोडश कषाय १६ भय-जुगुप्सा २ तैजसकार्मणाऽ २ गुरुलघूपघात २ निर्माण १ वर्णचतुष्कानीति ४७ सप्तचत्वारिंशद् ध्रुवबन्धाः स्युः, एतासां ध्रुवबन्धो भवति । कुतः १ बन्धयोग्यगुणस्थाने नित्यं बन्धोपलम्भात् । एताः ४७ आयुश्चतुष्टयाहारकद्वयतीर्थकरैर्युताश्चतुःपञ्चाशत् ५४ । एताश्च बन्धं यान्ति निरन्तरमिति ॥७॥ ध्रवबन्धस्य निरन्तरबन्धस्य च को विशेषः १ महान विशेषो यतः श्लोको बन्धयोग्यगुणस्थाने याः स्वकारणसन्निधौ। सर्वकालं प्रबध्यन्ते ध्रुवबन्धाः भवन्ति ताः ॥१॥ बन्धकालो जघन्योऽपि यासामन्तर्मुहूर्तकः ।। बन्धाऽऽसमाप्तितस्तत्र ता निरन्तर-बन्धनाः ॥२॥ . तीर्थङ्कर, आहारकद्विक, चारों आयु, ओर ध्रुवबन्धी सैंतालीस प्रकृतियाँ, इन सब चौवन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता है ॥४॥ निरन्तर बँधनेवाली प्रकृतियाँ ५४ । सातवें प्रश्नका समाधान संठाणं संघयणं अंतिमदसयं च साइ उज्जोयं । इगि विगलिंदिय थावर संढित्थी अरइ सोय अयसं च ॥७॥ दुब्भग दुस्सरमसुभं सुहुमं साहारणं अपज्जत । णिरयदुअमणादेयं असायमथिरं विहायमपसत्थं ॥७६।। चउतीसं पयडीणं बंधो णियमेण संतरो भणिओ । ।३४ समचतुत्रसंस्थान-वज्रऋषभनाराचसंहननाभ्यां विना संस्थान-संहननपञ्चकमित्यन्त्यदशकं १० आतपः १ उद्योतः १ एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियजातिचतुष्कं ४ स्थावरं १ षष्ठस्त्रीवेदौ २ अरतिः १ शोकः १ अयश: 1. ३, ६३ | 2. ३, ६४-६५ । ३. ३, ६६-६८। कब चेइ । ब वण्णा । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तव कीर्विदय अंशात अस्थिर कीर्तिः १ दुर्भगः १ दुःस्वरः १ अशुभं । सूचम १ साधारणं ५ अपर्याप्तं १ नरकगति-तदानुपूर्वीद्विकं २ अनादेयं १ असातं १ अस्थिरं १ अप्रशस्तविहायोगतिश्चेत्येतासां चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां ३४ सान्तरो बन्धो भणितः ॥७५-७६॥ को नाम सान्तरं बन्धः? उक्तञ्च 1बन्धो भूत्वा क्षणं यासामसमाप्तो निवर्तते । बन्धाऽपूर्तेः क्षणेनैताः सान्तरा विनिवेदिताः ।। अन्तमुहूर्त्तमात्रत्वाजघन्यस्यापि कर्मणाम् । सर्वेषां बन्धकालस्य बन्धः सामयिकोऽस्ति नो । अन्तिम पाँच संस्थान, अन्तिम पाँच संहनन, सातावेदनीय, उद्योत, एकेन्द्रियजाति, तीन विकलेन्द्रियजातियाँ, स्थावर, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, अयशःकीर्ति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, नरकद्विक, अनादेय, असातावेदनीय, अस्थिर और अप्रशस्तविहायोगति; इन चौंतीस प्रकृतियोंका नियमसे सान्तर बन्ध कहा गया है ।।७५-७६।। विशेषार्थ-जिसका बन्ध अन्तर-रहित होता है उसे निरन्तरबन्धी प्रकृति कहते हैं और जिसका बन्ध अन्तर-सहित होता है, उसे सान्तरबन्धी प्रकृति कहते हैं। सान्तर बँधनेवाली प्रकृतियाँ ३४ । नवे प्रश्नका समाधानबत्तीस सेसियाणं बंधो समयम्मि उभओ वि ॥७७॥ ३२॥ इति पयडीणं बंधोदयोदीरण-सत्ताभयं समत्तं ___कम्मत्थव-चूलिका समत्ता। शेषाणां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनां बन्धः उभयथा सान्तर-निरन्तरो जिनसिद्धान्ते भणितः। तद्यथासुरद्विकं २ मनुष्यद्विकं २ औदारिकद्विकं २ वैक्रियिकद्विकं २ प्रशस्तविहायोगतिः १ वज्रवृषभनाराचं १ परघातोच्छ्रासौ २ समचतुरस्रसंस्थानं २ पञ्चेन्द्रियजातिः १ त्रस १ बादर १ पर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर १ शुभ १ सुभग १ सुस्वर १ मादेय १ यशस्कीर्तयः १ सातं १ हास्य-रती २ पुंवेदः १ गोत्रद्विकं २ चेति द्वात्रिंशत्प्रकृतयः सप्रतिपक्षे सान्तरा भवन्ति, तस्मिन्नष्टे निरन्तरोदयबन्धा भवन्ति । तत्र सुरद्विकं नरकतिर्यङ्:-मनुष्यद्विकैः मिथ्यादृष्टी, तिर्यङ्-मनुष्यद्विकाभ्यां सासादने, मनुष्यद्विकेन मिश्रासंयतयोश्च सप्रतिपक्षमिति ज्ञेयम् ॥७॥ इति तृतीयप्रश्नत्रयस्योत्तरो जाता।। शेष बची बत्तीस प्रकृतियोंका बन्ध परमागममें उभयरूप अर्थात् सान्तर और निरन्तर कहा गया है ।।७७॥ . उसयबन्धी प्रकृतियाँ ३२। इस प्रकार नवप्रश्नात्मक चूलिका समाप्त हुई । कर्मस्तव नामक तीसरा अधिकार समाप्त हुआ। 1. सं० पञ्चसं० ३, ६६ । 2. ३,१००-१०१ । *इतोऽग्रेऽधस्तनः सन्दर्भ उपलभ्यतेइति श्रीपंचसंग्रहाऽपरनामलघुगोमट्टसारे सिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डे नवप्रश्नोत्तरचूलिका-व्याख्या तृतीयोऽधिकारः ॥३॥ . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-अधिकार शतक मंगलाचरण और प्रतिशासयलससिसोमवयणं णिम्मलगत्तं पसत्थणाणधरं । पणमिय सिरसा वीरं सुयणाणादो पदं वोच्छं ॥१॥ श्रीवीरेन्दुसुधीभूषान् साधून सद्गुणधारकान् । प्रणिपत्य स्तवं (पदं) वक्ष्ये वीरनाथमुखोद्भवम् ।। वक्ष्ये अहं वचयामि । किं तत् ? पदं स्थानं स्थलम्, 'थवं' पाठे वा स्तवं द्वादशाङ्गश्रतरहस्यम् । कुतः श्रतज्ञानात् । किं कृत्वा ? पूर्व वीरं शिरसा प्रणम्य । विशिष्टां मां लक्ष्मी राति ददाति गृह्णातीति वीरः, तं वीरं महावीरं मस्तकेन नमस्कृत्य । कथम्भूतम् ? सम्पूर्णचन्द्रसदृशसौम्यवदनम् । पुनः किविशिष्टम् ? निर्मलगानं प्रस्वेद-मल-मूत्रादिरहितशरीरम् । पुनः किंलक्षणम् ? प्रशस्तज्ञानधरम-गृहस्थाsवस्थायां मत्यादिप्रशस्तज्ञानत्रयधारकम, दीक्षानन्तरं मनःपर्ययज्ञानधारकम्, घातिक्षयानन्तरं केवलज्ञानधारकम् । एवम्भूतं वारं नत्वा पदं स्तवं वा वचये ॥१॥ सम्पूर्ण चन्द्रके समान सौम्य मुख, निर्मल गात्र और प्रशस्त ज्ञानके धारक श्रीवीरभगवान्को मस्तक नवा करके प्रणामकर मैं श्रुतज्ञानसे पदका उद्धार करके कहूँगा ॥१॥ णाणोदहिणिस्संदं विण्णाणतिसाहिघायजणणत्थं । भवियाण + अमियभूयं जिणवयणरसायणं इणमो ॥२॥ जिनवचनरसायनं इदानी भो भव्या यूयं शृणुत । कथम्भूतं जिनवचनम् ? रसामृतम्-भविकानां भव्यजनानां अमृतभूतं जन्म-जरा-मरणहरम् । पुनः किम्भूतम् ? जिनोदधिनिर्यासम्-ज्ञानसमुद्रस्य निर्यासं सारभूतम् । किमर्थम् ? विज्ञानतृषाभिघातजननार्थम् ॥२॥ ___ यह जिनवचनरूप रसायन श्रुतज्ञानरूप समुद्रका निष्यन्द (निचोड़ या साररूप बिन्दु) है, तथापि भव्य जीवोंकी विशिष्ट ज्ञानकी प्राप्तिरूप तृषा-पिपासाको शान्त करनेके लिए अमृतके समान है ।।२।। 1. सं० पञ्चसं० ४,१। द ब अमय० । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मूलगा० १] 'सुणह इह जीवगुणसणिएसुळ ठाणेसु सारजुत्ताओ । वोच्छं दिवइयाओ गाहाओ दिट्टिवादाओं ॥३॥ शतक दृष्टिवादाङ्गतः कतिपयगाथाः सारयुक्ताः तत्त्वसहिताः अहं वच्ये । क ? स्थानेषु मार्गणादिस्थानेषु । कथम्भूतेषु ? जीवगुणसन्निभेषु जीवानां गुणाः परिणामाः, तत्सदृशस्थानेषु जीवसमास-गुणस्थानकसन्निभेषु ||३|| जीवसमास और गुणस्थान-सम्बन्धी सार-युक्त कुछ गाथाओंको दृष्टिवादसे उद्धार करके मैं कहूँगा, सो हे भव्यजीवो ! तुम लोग सावधान होकर सुनो ॥३॥ [ मूलगा० २] 2 उवओगा जोगविही जेसु य ठाणेसु जेत्तिया अस्थि । जं पच्चइओ बंधो हवइ जहा जेसु ठाणेसु ॥ ४ ॥ [ मूलगा० ३ ] बंध- उदया। उदीरण विधिं च तिन्हं पि तेसि संजोगो । बंध- विधाणो यतहा किंचि समासं पवक्खामि ||५|| उपयोगा ज्ञान-दर्शनोपयोगाः १ योगविधयः औदारिकादिसप्तकाययोगाः, मनो-वचनानामष्टौ; तेषां विधयः विधानानि कर्त्तव्यानि येषु स्थानेषु मार्गणादिस्थानेषु यावन्ति सन्ति तान् तेषु प्रवच्यामि । यस्प्रत्ययः बन्धः मिथ्यात्वाद्यास्त्रत्रबन्धः येषु स्थानेषु यथा भवति तथा तं तेषु प्रवच्यामि । बन्धोदयोदीरण विधिं मूलोत्तरप्रकृतीनां बन्धविधिं उदयविधानं उदीरणाविधिं नकारात्सत्त्वविधिं तेषु गुणेषु स्थानेषु प्रवच्यामि— तेषां त्रयाणां बन्धोदयोदीरणानां संयोगान् प्रवच्यामि । क्क ? बन्धविधाने बन्धविधौ तथा किञ्चित् समासं इति जीवसमासान् प्रवच्यामि तेषु स्थानेषु ॥ ४-५ ॥ 3 ये सन्ति यस्मिन्नुपयोगयोगाः सप्रत्ययास्तान्निगदामि तत्र । जीवे गुणे वा परिणामतोऽहमेकत्र बन्धादिविधिं च किञ्चित् ॥१॥ जिन जीवसमास या गुणस्थानोंमें जितने योग और उपयोग होते हैं, जिन-जिन स्थानों में जिन-जिन प्रत्ययों के निमित्तसे जिस प्रकार बन्ध होता है; तथा बन्ध, उदय और उदीरणाके जितने विकल्प संभव हैं और उन तीनोंके संयोगरूप जितने भेद हो सकते हैं, उन्हें तथा बन्धके चारों भेदोंका मैं संक्षेपसे कुछ व्याख्यान करूँगा ॥४-५॥ [ मूलगा ० ४ ] 'एइंदिएसु चत्तारि हुंति विगलिंदिएसु छच्चेव । पंचिदिए एवं चत्तारि हवंति ठाणाणि ॥६॥ [ मूलगा० ५ ] 'तिरियगईए चोद्दस हवंति सेसासु जाण दो दो दु । मग्गठाणस्सेवं णेयाणि समासठाणाणि ॥७॥ ८१ รง + अथ मार्गणासु जीवसमासाः कथ्यन्ते - तिर्यग्गतौ चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । शेषासु तिसृषु गतिषु द्वौ द्वौ जीवसमासौ भवतः । एवं गतिमार्गणायां जीवसमासा ज्ञातव्याः ॥७॥ जीवसमासके सर्व स्थान चौदह हैं, उनमें से एकेन्द्रियों में चार स्थान होते हैं । विकलेन्द्रियोंमें छह स्थान होते हैं और पंचेन्द्रियोंमें चार स्थान होते हैं । तिर्यग्गति में चौदह जीवसमास होते 1. सं० पञ्चस० ४, २ । 2. ४, ३ । ३. ४, ३ । 4. ४, ४ । 5. ४, ५ । १. शतक० १ । २. शतक० २ । ३. शतक० ३ । ४. शतक० ४ । ५ शतक० ५ । द - सणहेसु । व उदय व उदीरणा । x द व विधाणे वि + संस्कृतटीका नोपलभ्यते । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ पञ्चसंग्रह बायर हैं। शेष तीन गतियोंमें दो-दो ही जीवसमास जानना चाहिए। इस प्रकार सर्व मार्गणास्थानोंमें भी जीवसमासस्थानोंको लगा लेना चाहिए ॥६-७॥ अब चौदह मार्गणाओंमें जीवसमासोंको बतलाते हैं णिरय-णर-देवगईसुं सण्णी पञ्जत्तया अपुण्णा य । एइंदियाई चउदस तिरियगईए हवंति सव्वे वि ॥८॥ एइंदिएसु बायर-सुहुमा चउरो अपुग्ण पुण्णा य । पजत्तियरा वियल, सयल, सण्णी असण्णिदरा पुणियरा ॥३॥ पंचसु थावरकाए बायर सुहुमा अपुण्ण पुण्णा य । वियले पज्जत्तियरा सयले सण्णियर पुणियरा ॥१०॥ नरकगतो पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ द्वौ, मनुष्यगत्यां पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तौ द्वौ द्वौ, देवगतौ पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ द्वौ, तिर्यग्गत्यां एकेन्द्रियादिचतुर्दशजीवसमासाः सर्वे १४ भवन्ति । ते के? दिय वि-ति-चउरक्खा असण्णि-सण्णी य। पज्जत्ताऽपज्जत्ता जीवसमासा चउदसा होति ॥२॥ इति । १ गतिमार्गणायां जीवसमासाः न० ति० म० दे० १ गातमागणाया जावतमाला' २ १४ २ २ इन्द्रियमार्गणायां एकेन्द्रियेषु बादर-सूचमैकेन्द्रियौ पर्याप्ताऽपर्याप्तौ इति चत्वारः ४ । विकले विकलत्रये द्वीन्द्रिये ब्रीन्द्रिये चतुरिन्द्रिये च पर्याप्तेतरौ निजपर्याप्ताऽवपर्याप्तौ द्वौ द्वौ प्रत्येकं भवतः २, २,२ । सकले पञ्चेन्द्रिये संश्यऽसंज्ञि-पर्याप्ताऽपर्याप्ताश्चत्वारः ४ । ॥६॥ २ इन्द्रियमार्गणायां जीवसमासाः-ए० द्वी कायमार्गणायां पृथिव्यादिपञ्चसु प्रत्येकं बादर-सूचमौ पर्याप्ताऽपर्याप्तौ इति चत्वारः स्थावरकाये जीवसमासा भवन्ति । विकले विकलत्रये पर्याप्ताऽपर्याप्ता इति षट् । सकले पञ्चेन्द्रिये संश्यऽसंज्ञि-पर्याप्ताsपर्याप्ता इति चत्वारः । एवं दश जीवसमासाः १० वसकाये भवन्ति ॥१०॥ ० ० ३ कायमार्गणायां जीवसमासाः-पृ० अ० ते. वा० ३ कायमागणाया जावसमासा-४ ४ ४ ४ ४ १० नरक, मनुष्य और देव इन तीन गतियोंमें संज्ञि-पर्याप्तक और संज्ञि-अपर्याप्तक ये दो-दो जीवसमास होते हैं। तिर्यग्गतिमें एकेन्द्रियको आदि लेकर संज्ञिपंचेन्द्रिय तकके जीवोंकी अपेक्षा सर्व ही चौदह जीवसमास होते हैं (१) । इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रियों में बादर-पर्याप्त, बादरअपर्याप्त, सक्ष्म-पर्याप्त और सूक्ष्म-अपर्याप्त ये चार जीवसमास होते हैं। विकलेन्द्रियोंमें द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय-अपर्याप्त; त्रीन्द्रिय-पर्याप्त, त्रीन्द्रिय-अपर्याप्त; चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त और चतुरिन्द्रियअपर्याप्त ये छह जीवसमास होते हैं। पंचेन्द्रियों में असंज्ञि-पर्याप्त, असंज्ञि-अपर्याप्त; संज्ञि-पर्याप्त और संज्ञि-अपर्याप्त ये चार जीवसमास होते हैं (२)। कायमार्गणाकी अपेक्षा पाँचों स्थावरकायोंमेंसे प्रत्येकमें बादर-सूक्ष्म और पर्याप्त-अपर्याप्त; ये चार-चार जीवसमास होते हैं। त्रसजीवोंमेंसे विकलत्रयों में प्रत्येकके पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो जीवसमास होते हैं। तथा सकलेन्द्रियोंमें संज्ञी, असंज्ञी तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो-दो मिलकर चार जीवसमास होते वि-वियले । ब सयले। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिय वचि चउ मणजोए सण्णी पज्जत्तओ दु णायव्वो । असच्चमोसवचिए पंच वि बेइंदियाइ पज्जता ॥ ११ ॥ ओराल मिस्स - कम्मे सत्ताsपुण्णा य सण्णिपज्जत्तो । ओरालकायजोए पज्जत्ता सत्त गायव्या ॥ १२ ॥ वाहादुगे सण्णी पज्जतओ मुणेयव्वो । वेउव्वमिस्सजोए. सण्णि-अपज्जत्तओ होइ ॥ १३॥ योगमामार्गणायां त्रिकवचनयोगेषु चतुर्मनोयोगेषु च पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त एक एव ज्ञातव्यः १ । असत्यमृषावचि अनुभवाम्योगे द्वि-त्रि चतुरिन्द्रिय-संज्ञ्यऽसंज्ञिपर्याप्ताः पञ्च जीवसमासाः भवन्ति ।।११।। शतक औदारिकमिश्र काययोगे कार्मणकाययोगे च अपर्याप्ताः सप्त, सयोगिकेवलिनः संज्ञिपर्याप्त एकः, एवमष्टौ । सयोगस्य कपाटयुग्मसमुद्धातकाले औदारिकमिश्रकाययोग:, दण्ड- ( द्वय - ) प्रतरयोः लोकपूरणकाले च कार्मणकाययोग इति । औदारिककाययोगे सप्त पर्याप्ताः ७ ज्ञातव्याः || १२ ॥ वैक्रियिककाययोगे संज्ञिपर्याप्त एक: १। आहारकद्विके संज्ञयपर्याप्त एक एव १ ज्ञातव्यः । वैक्रियिकमि काययोगे पज्ञेन्द्रियसंज्ञ्यऽपर्याप्तो भवति १ ॥ १३ ॥ ४ योगमार्गणायां स० मृ० उ० भ० स० मृ० उ० अ० औ० औ०मि० वै० वै०मि० आ० भा०मि० का० जीवसमासाः - १ 9 १ १ १ 9 9 ५ ७ १ १ १ १ ८ ५ वेदमार्गणायां जीवसमासा: योगमार्गणाकी अपेक्षा असत्यमृषावचनयोगको छोड़कर शेष तीन वचनयोगों में और चारों मनोयोगों में एक संज्ञिपर्याप्तक जीवसमास जानना चाहिए । असत्यमृषावचनयोगमें द्वीन्द्रियादि पाँच पर्याप्तक जीवसमास होते हैं । औदारिकमिश्र काययोग और कार्मणकाययोगमें सातों अपर्याप्तक तथा संज्ञिपर्याप्तक ये आठ जीवसमास होते हैं । औदारिककाययोगमें सातों पर्याप्तक जीवसमास जानना चाहिए । वैक्रियिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें एक संज्ञिपर्याप्तक जीवसमास जानना चाहिए। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें एक संज्ञिपर्याप्त जीवसमास होता है ।।११-१३। इत्थि - पुरिसेस या सण्णि असण्णी अपुण्ण पुण्णा य । संढे कोहाईस य जीवसमासा हवंति सव्वे वि ॥१४॥ स्त्रीवेदे पुंवेदे च पञ्चेन्द्रियसंज्ञयऽसंज्ञिनौ पर्याप्ताऽपर्याप्तौ इति चत्वारः ४ । षण्ढवेदे क्रोधकषाये मानकषाये मायाकषाये लोभकषाये च सर्वे चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति ||१४|| स्त्री० ४ ६ कषायमार्गणायां जीवसनासा:वेदमार्गणाकी अपेक्षा स्त्रीवेद और पुरुषवेद में संज्ञी, असंज्ञी, चार जीवसमास होते हैं । नपुंसक वेद में तथा कषायमार्गणाको अपेक्षा क्रोधादि चारों कषायों में सर्व ही जीवसमास होते हैं ॥ १४ ॥ पर्याप्तक और अपर्याप्रक ये ב पु० ४ ८३ नपुं० १४ क्रो० १४ मह-सु-अण्णासु य चउदस जीवा सुओहिमइणाणे | सणी पुण्णापुण्णा विहंग-मण- केवलेसु संपुण्णो || १५|| मा० भा० १४ १४ लो० १४ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ पञ्चसंग्रह मति-श्रताज्ञानद्वये चतुर्दश जीवसमासाः स्युः १४ । श्रुतज्ञाने अवधिज्ञाने मतिज्ञाने च पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ २ । विभंगज्ञाने मनःपर्ययज्ञाने केवलज्ञाने च पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तः पूर्णपर्याप्त एक एव । केवलज्ञाने तु संज्ञिपर्याप्तसयोगेऽपर्याप्तौ ( सयोगे संज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्ती) द्वौ । अयं विशेषः गोमट्टसारेऽस्ति ॥१५॥ ज्ञानमार्गणायां जीवसमासाः- कुम० कुश्रु० विभः मति० श्रु० भव० मनः केव० ज्ञानमार्गणाको अपेक्षा मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानमें चौदह ही जीवसमास होते हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञानमें संज्ञिपर्याप्त और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास होते हैं। विभंगावधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानमें एक संज्ञिपर्याप्तक जीवसमास होता है ॥१५।। सामाइयाइ-छस्सु य सण्णी पज्जत्तओ मुणेयव्वो। अस्संजमे अचक्खू चउदस जीवा हवंति णायव्वा ॥१६॥ चक्खूदंसे छद्धा जीवा चउरिंदियाइ ओहम्मि । सण्णी पज्जत्तियरा केवलदंसे य सण्णि-संपुण्णो ॥१७॥ सामायिकादिषु षट सु पञ्चेन्द्रियसंज्ञी पर्यालको मन्तव्यः । सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः संज्ञिपर्याप्ताऽऽहारकाऽपर्याप्तौ द्वौ, अयं तु विशेषः। देशसंयम-परिहारविशुद्ध-सूचमसाम्परायेषु पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त एकः । यथाख्याते तु संज्ञिपर्याप्त-समुद्घातकेवल्यऽपर्याप्तौ द्वौ २, अयमपि विशेषः। असंयमे अचक्षुर्दर्शने च चतुर्दश जीवसमासा ज्ञातव्याः ॥१६॥ ८ संयममार्गणायां जीवसमासा: सा० छे० परि० सू० यथा देश. असं० चक्षुर्दर्शने चतुरिन्द्रियाऽसंज्ञि-संज्ञि-पर्याप्ताऽपर्याप्ताः पट ६ । अपर्याप्तकालेऽपि चक्षुर्दशनस्य क्षयोपशमसद्धावात. शक्त्यपेक्षया वा पडधा जीवसमासा भवन्ति ६ । अवधिदर्शने पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्ती हौ २ । केवलदर्शने संज्ञिसम्पूर्णपर्याप्त एकः । समुदातसयोग्यऽपर्याप्तो विशेषः ॥१७॥ ६ दर्शनमार्गणायां जीवसमासाः-६ वक्षु० अच० अव० केवल ४ २ २ संयममागंणाकी अपेक्षा सामायिक आदि पाँच संयम और देशसंयम, इन छहोंमें एक संज्ञिपर्याप्तक जीवसमास जानना चाहिए। असंयम और दर्शनमार्गणाको अपेक्षा अचक्षुदर्शनमें चौदह ही जीवसमास जानना चाहिए । चक्षुदर्शनमें चतुरिन्द्रियादि छह जीवसमास होते हैं। अवधिदर्शनमें संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास होते हैं । केवलदर्शनमें एक संज्ञिपर्याप्तक जीवसमास होता है ।।१६-१७॥ किण्हाइतिए चउदस तेआइतिए य सण्णि दुविहा वि । भव्वाभवे चउदस उवसमसम्माइ सण्णि-दुविहो वि ॥१८॥ सासणसम्मे सत्त अपज्जत्ता होंति सण्णि-पज्जत्तो । मिस्से सण्णी पुण्णो मिच्छे सव्वे वि दोहव्वा ॥१६॥ द दुवि होदि । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक कृष्णादित्रिके अशुभलेश्यासु तिसृषु प्रत्येकं चतुर्दश जीवससासाः स्युः १४ | तेजोलेश्यादित्रिके पीत-पद्म-शुकुलेश्यासु तिसृषु प्रत्येकं पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ द्वौ २ । शुकुलेश्यायां विशेष:--- केवल्यपर्याप्ताऽपर्याप्त एवान्तर्भावाद् द्वौ २ । भग्याऽभव्ययोः चतुर्दश जीवसमासाः १४ । उपशमसम्यक्वादिषु त्रिषु पञ्चेन्द्रियसंज्ञिद्विविधः पर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ २ भवतः । अत्र विशेषः । को विशेषः ? प्रथमोपशमसम्यक्त्वे मरणाभावात्संज्ञिपर्याप्त एक एव २ । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वे मनुष्यसंज्ञिपर्याप्तदेवासंयतापर्याप्तौ २ | वेदकसम्यक्त्वे संज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ २ । अपर्याप्तः कथम् ? घर्मानारकस्य भवनत्रयवर्जित - देवस्य भोगभूमिनर तिरश्रोः अपर्याप्तत्वेऽपि तत्सम्भवात् । क्षायिकसम्यक्त्वे तु जीवसमासौ द्वौ संज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ । संज्ञिपर्याप्तः १, बद्धायुष्कापेक्षया घर्मानारक-भोगभूमिनर- तिर्यग्-वैमानिकदेवाऽपर्याप्तश्चेति १, [ एवं ] द्वौ २ | ॥१८॥ १० लेश्यामार्गणायां जीवसमासा: कृ० १४ १३ संज्ञिमार्गणायां जीवसमासा: भव्य ० १४ नी० का० ते ० १४ १४ २ द्विती० २ अभव्य ० १४ ११ भव्यमार्गणायां जीवसमांसाः प्रथ० मिश्र मिथ्या० ร १४ १२ सम्यक्त्वमार्गणायां जीवसमासा:- १ सासादनसम्यक्त्वे अपर्याप्ताः सप्त भवन्ति, एकः पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तो भवति १, एवमष्टौ ८। तद्यथा-- बादर एकेन्द्रियापर्यासः १, द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियापर्याप्ताः ३, पञ्चेन्द्रिय-तत्संज्ञयसंज्ञयपर्याप्तौ द्वौ २, संज्ञिपर्याप्तः एकः १, एवं सप्तं । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वविराधकस्य सासादनत्वप्राप्तिपक्षे च संज्ञिपर्याप्तदेवापर्याप्तावपि द्वौ सासादने |७|रामा अत्र द्वितीयोपशमे श्रेणिपरिभृष्ट[स्य ] निश्चयेन देवगतौ गमनं भवति, तेन देवभवेऽपर्याप्तकाले सास्वादन: प्राप्यते । तेन सास्वादने सप्ताऽपर्याप्ता जीवसमासा भवन्ति । अत्र विशेषविचारोऽस्ति । मिश्र पन्चेन्द्रियसंज्ञी पूर्णः एकः १ | मिथ्यात्वे सर्वे चतुर्दश जीवसमासा ज्ञातव्याः १४ ॥१६॥ लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा कृष्णादि तीनों अशुभलेश्याओं में चौदह चौदह जीवसमास होते हैं। तेज आदि तीनों शुभलेश्याओं में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास होते हैं । भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्य और अभव्यके चौदह ही जीवसमास होते हैं । सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा औपशमिकसम्यक्त्व आदि तीनों सम्यग्दर्शनोंमें संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो जीवसमास होते हैं । सासादनसम्यक्त्वमें विग्रहगतिकी अपेक्षा सातों अपर्याप्तक और संज्ञिपर्याप्त ये आठ जीवसमास होते हैं । मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व में एक संज्ञिपर्याप्तक जीवसमास होता है । मिथ्यात्व में सर्व हो जीवसमास जानना चाहिए ॥ १८-१६॥ वे० २ क्षा० प० २ सा० २ ८,७,२ सम्म सण- दुविहो इयरे ते वज्ज बारसाहारे । चउदस जीवा इयरे सत्त अपुण्णा य सण्णि- संपूण्णा ||२०|| शु० २ एवं मग्गणासु जीवसमासा समत्ता । संज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवे पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तौ द्वौ २ । इतरे असंज्ञिजीवे तौ संयुक्तपर्याप्त पर्याप्तौ द्वौ वर्जयित्वा अन्ये द्वादश भवन्ति १२ । आहारमार्गणायां आहारकजीवे चतुर्दश जीवसमासाः स्युः १४ । इतरे अनाहारकजीवे विग्रहगतिमाश्रित्य अपर्याप्ताः सप्त ७, संज्ञिपर्याप्त एकः १, एवमष्टौ म । सयोगस्य प्रतरये लोकपूरणकाले कार्मणस्य अनाहारकत्वात् संज्ञिपूर्णः एक ॥२०॥ १४ आहारमार्गणायां जीवसमासाः इति चतुर्दशसु मार्गणासु जीवसमासाः समाप्ताः । सं० २ असं० १२ ८५ आ० १४ अना० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अथ गोमट्टसारे गुणस्थानेषु जीवसमासानाइ - मिच्छे चोइस जीवा सासण अयदे पमत्तविरदे य । दुगं से सगुणे सण्णीपुण्णो दु खीणोति ॥३॥ मिथ्यादृष्टौ जीवसमासाचतुर्दश १४ । सासादनेऽविरते प्रमत्ते चशब्दात्सयोगे च पन्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तौ द्वौ २ । शेषाष्टगुणस्थानेषु अपिशब्दादयोगे च संज्ञिपर्यास एक एव १ । गुणस्था मि० सा० मि अ० दे प्र० अ० भ० भ० जीवसमासा: १४ २ ร २ १ २ १ १ १ इति मार्गणा-गुणस्थानेषु जीवसमासाः समाप्ताः । ८६ अथ गुणस्थानेषु पर्याप्तोः प्राणांश्चाऽऽह पज्जत्ती पाणाविय सुगमा भाविंदियं ण जोगिन्हि । तहि वारसास उगकायत्तिगदुगमजोगिणो आऊ ||४|| मिथ्यादगादिक्षीणकषायपर्यन्तेषु पट् पर्याप्तयः ६, दश प्राणाः १० | सयोगिजिने भावेन्द्रियं न, द्रव्येन्द्रियाऽपेक्षया पट् पर्याप्तयः ६, वागुच्छ्वास निःश्वासाऽऽयुःकायप्राणाश्चत्वारश्च भवन्ति ४ । शेषेन्द्रियमनः- प्राणाः पट् न सन्ति तत्रापि वाग्योगे विश्रान्ते त्रयः ३ । पुनः उच्छ्रास- निःश्वासे विश्रान्ते द्वौ २ । अयोगे आयुः प्राणः एकः १ । गुणस्थानेषु पर्याप्तयः प्राणाश्च - गुण ० मि० सा० मि० अ० देश० प्रम० अप्र० भ० अ० सू० उप० क्षी० पर्याप्ति ६ ६ ६ ६ ६ ६ १० १० १० १० १० १० अथ गुणस्थानेषु संज्ञाः ६ १० ६ ६ ६ ६ ६ १० १० १० १० १० प्राण छट्टो त्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणवेक्खा | पुवो पढमणियट्टी सुहुनो त्ति कमेण सेसाओ ॥५॥ सा० मि० भ० दे० ४ ४ इति गोमट्टसारोक्तविचारः । सू० उ० सी० स० अ० 3 ร १ テ 9 मिथ्यादृष्ट्यादिप्रमत्तान्तं सकार्याः आहार-भय-मैथुन-परिग्रह -संज्ञाश्चतस्रः ४ स्युः । पष्टे गुणस्थाने आहारसंज्ञा व्युच्छिन्ना, शेषास्तिस्रः अप्रमत्तादिषु कारणास्तित्वाऽपेक्षया अपूर्वकरणान्तं कार्यरहिता भवन्ति ३ । तत्र भयसंज्ञा व्युच्छिन्ना । अनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागे कार्यरहिते मैथुन- परिग्रहसंज्ञे द्वे स्तः २ । तत्र मैथुनसंज्ञा व्युच्छिन्ना । सूक्ष्मसाम्पराये परिग्रहसंज्ञा व्युच्छिन्ना । उपशान्तादिषु कार्यरहिताऽपि न, कारणाभावे कार्यस्याभावः । गुणस्थानेषु संज्ञाः— मि० १ ४ ४ ३ १ ३ प्र० भ० это अ० सू० उ० श्री० स० अ० १ १ २ 9 सयो० अयो० ० द्र० ६ ४, ३, २ ० ० 9 ० संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा संज्ञिपंचेन्द्रियोंमें संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो जीवसमास होते हैं । असंज्ञिपंचेन्द्रियों में संज्ञिपंचेन्द्रिय सम्बन्धी दो जीवसमास छोड़कर शेष बारह जीवसमास होते हैं। आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक जीवों में चौदह ही जीवसमास होते हैं । अनाहारकोंमें सातों अपर्याप्तक और एक संज्ञिपर्याप्तक ये आठ जीवसमास होते हैं ॥२०॥ इस प्रकार चौदह मार्गणाओं में जीवसमासोंका वर्णन समाप्त हुआ । १. गो० जी० ६६८ । २. गो० जी० ७०० । ३. गो० जी० ७०१ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अब जीवसमासस्थानों में उपयोगका निरूपण करते हैं[मूलगा०६] 'एयारसेसु ति ति या दोसु चउक्कं च वारमेकम्मि । जीवसमासस्सेदे उवओगविही मुणेयव्वा ॥२१॥ अथ जीवसमासेषु यथासम्भवमुपयोगान् गाथात्रयेणाऽऽह-[ 'एयारसेसु तिणि य'इत्यादि।] एकादशसु जीवसमासेषु त्रय उपयोगाः स्युः ३ । द्वयोर्जीवसमासयोश्चतुष्कं चत्वार उपयोगाः सन्ति ४ । जीव० ११ २ १ एकस्मिन् जीवसमासे द्वादश उपयोगा भवन्ति । ' उप० ३ ४ १२ ' इति जीवसमासेषु एते उप १ योगविधयः विधानानि ज्ञातव्याः ॥२१॥ __ ग्यारह जीवसमासोंमें तीन-तीन उपयोग होते हैं। दो जीवसमासोंमें चार-चार उपयोग होते हैं। एक जीवसमासमें बारह ही उपयोग होते हैं। इस प्रकार जीवसमासोंमें यह उपयोगविधि जानना चाहिए ॥२१॥ भाष्यगाथाकार-द्वारा उक्त मूलगाथाका स्पष्टीकरण "मइ-सुअ-अण्णाणाइं अचक्खु एयारसेसु तिण्णेव । चक्खूसहिया ते च्चिय चउरक्खे असण्णि-पज्जते ॥२२॥ मइ-सुय-ओहिदुगाई सण्णि-अपजत्तएसु उवओगा। सव्वे वि सण्णि-पुण्णे उवओगा जीवठाणेसु ॥२३॥ सूचम-बादर-एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियाः पर्याप्ताऽपर्या ताः एतेऽष्टौ ८। चतुः-पञ्चेन्द्रियसंश्यऽ संज्ञिनः अपर्याप्तास्त्रयः ३ एवमेकादशजीवसमासेषु मति- ताज्ञाने द्वे २, अचक्षुर्दर्शनमेकं १ इति त्रयः उपयोगाः ३ भवन्ति । ते प्रयः चक्षुदर्शनसहिताः चतुरिन्द्रियपर्याप्ते असंज्ञिपर्याप्ते च द्वयोर्जीवसमासयोः चत्वार उपयोगाः ४ स्युः ॥२२॥ पन्चेन्द्रियसंध्यपर्याप्तकजीवेषु मति-श्रुतावधिद्विकं मतिज्ञानं १ श्रुतज्ञानं १ अवधिद्विकं भवधिज्ञानदर्शनद्वयं २ चकारात् अचक्षुर्दशनं १ इति पञ्च उपयोगाः ५। कुमति-कुश्रुतज्ञानद्वमिति सप्त केचिद् वदन्ति अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियसंज्ञिजीवेषु भवन्तीति विशेषव्याख्येयम् । तन्मिथ्यादृक्षु कुमति-कुश्रताऽचक्षुर्दर्शनत्रिकं ज्ञेयमिति । संज्ञिपूर्णे पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तेषु जीवेषु सर्वे ज्ञानोपयोगा अष्टौ, दर्शनोपयोगाश्चत्वारः ४ इति द्वादशोपयोगाः १२ स्युः। केवलज्ञान-दर्शनद्वयं विना दशोपयोगा १० इति केचित् । जीवसमासेस स्थानेषु उपयोगाः कथिताः ॥२३॥ जीवसमासेषु उपयोगाःएके. एके. एके. एके० द्वी० द्वी० पी० बी० चतु० चतु० पंचे० पंचे० पंचे० पंचे० सू०अ० सू०प० बा०अ० बा०प० अप० पर्या० अप० पर्या० अप० पर्या० असं.अ. असं.प. सं.अ. सं.प. ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३।४ ४ ३४ ४ ३।४।५।७ १२६१० इति जीवसमासेषु उपयोगाः कथिताः । 1. सं० पञ्चसं०४,६ (पृ०८१) 2.४, 'केवलद्वयमतः पर्ययवर्णिता' इत्यादि गद्यभागः (पृ०७८)। १. शतक ६। बि तिणि य । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ गतिमार्गणायां न० ति० म० दे० ह ह १२ मनोयोगे स• मृ० स० अ० १२ १० १० १२ वेदमार्गणायां स्त्री० पु० नं० ह १० S चतुर्दशमार्गणास्थानेषु उपयोगाः संयममार्गणायां सा० छे० प० सू० य० सं० अ० ७ ७ ६ ७ ६ ह भव्य मार्गणायां भ० * १० ५ पञ्चसंग्रह इन्द्रियमार्गणायां ए० द्वी० त्री० च० पं० ३ ३ ३ ४ १२ वचनयोगे स० मृ० स० [अ० १० १० १२ १२ कषाय मार्गणायां- क्रो० मा० माया० लो० १० १० १० १० कु० ५ दर्शन मार्गणायां पृ० अ० ते० वा० व० प्र० योगमार्गणायां- ३ ३ ३ ३ ३ १२ काययोगे ओ० औ०मि० ० वै०मि० भा० आ०मि० का० १२ ह ६ ७ ६ ६ & कुश्रु० ५ च० १० सम्यक्त्वमार्गणायां काय मार्गणायां अच० अव० १० ७ औ० वे० क्षा० सा० मिश्र मि० ६ ह ७ ५. ६ ५ - वि० ५ के ० २ कृ० नी० का० ते० प० शु० ह ह င် १० १० १२ संज्ञिमार्गणायां- आहारमार्गणायां सं० अ० १० आ० १२ ४ एकेन्द्रियों के बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये चार; द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रियसम्बन्धी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये चार; तथा चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी अपर्याप्तक ये तीन; इस प्रकार इन ग्यारह जीवसमासों में मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और अचक्षुदर्शन; ये तीन-तीन उपयोग होते हैं । चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तक इन दो जीवसमासों में चतुदर्शनसहित उपर्युक्त तीन उपयोग, इस प्रकार चार-चार उपयोग होते हैं। मिथ्यादृष्टि संज्ञिपंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों में उपर्युक्त चार, तथा सम्यग्दृष्टि संज्ञि अपर्याप्तकों में मति, श्रुत और अवधिद्विक ये चार उपयोग होते हैं । संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तकमें सर्व ही अर्थात् बारह ही उपयोग होते हैं । इस प्रकार चौदह जीवसमासोंमें उपयोगोंका वर्णन किया गया ||२२-२३॥ मार्गणास्थानों में उपयोगोंका निरूपण - ज्ञानमार्गणायां म० ७ भव० म० E ७ लेश्यामार्गणायां 'केवलदुय मणवज्जं णिरि तिरि देवेसु होंति सेसा दु । मणुए बारह या उवओगा मग्गणस्सेवं ॥ २४ ॥ o 60 के० २ अना० ह अथ रचना - रचितमार्गणासु यथासम्भवमुपयोगान् गाथासप्तदशकेनाऽऽह - [ 'केवलदुग मणवजं' इत्यादि । ] गुणपर्ययवद्वस्तु, तद्-ग्रहणव्यापार उपयोगः । ज्ञानं न वस्तूत्थम् । तथा चोक्तम् — स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा । तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वतः ||६|| [ज्ञानं] न पदार्थाऽऽलोककारणकं, परिच्छेद्यत्वात्; तमोवत् । स उपयोगः ज्ञान-दर्शनभेदाद द्वेथा । तत्र ज्ञानोपयोगः कुमति- कुश्रुत विभङ्ग मति श्रुतावधि- मनःपर्यंय- केवलज्ञानभेदादष्टधा । दर्शनोपयोगः चक्षुरचक्षुरवधि-केवलदर्शनभेदाच्चतुर्धा । तत्र नरक- तिर्यग्देवगतिषु तिसृषु प्रत्येकं केवलज्ञान-दर्शन-मनःपर्ययत्रयवर्जिताः शेषा नवोपयोगा ह भवन्ति । तु पुनः मनुष्यगत्यां द्वादशोपयोगा ज्ञेयाः १२ । एवं गतिमार्गणायां ज्ञातव्याः ॥२४॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, १० । 2. ४, 'गतावनाहारकद्वया' इत्यादि गद्यभागः ( पृ० ८० ) । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक गतिमार्गणाकी अपेक्षा नरक, तिर्यंच और देवगतिमें केवलद्विक और मनःपर्ययज्ञान इन तीनको छोड़कर शेष नौ-नौ उपयोग होते हैं। मनुष्यगतिमें बारह ही उपयोग होते हैं। शेष मार्गणाओंमें उपयोग इस प्रकार ले जाना चाहिए ॥२४॥ बि-ति-एइंदियजीवे अचक्खु मइ सुइ अणाणा उवओगा। चउरक्खे ते चक्खूजुत्ता सव्वे वि पंचक्खे ॥२५॥ इन्द्रियमार्गणायां एकेन्द्रिये द्वीन्द्रिये त्रीन्द्रिये च अचक्षुर्दर्शनमेकम् १, मति-श्रुताज्ञानद्विकम् २ इति उपयोगास्त्रयः स्युः ३। चतुरक्षे चतुरिन्द्रिये ते पूर्वोक्तास्त्रयः चक्षुर्दर्शनयुक्ता इति चत्वारः ४ । पञ्चाक्षे पञ्चेन्द्रिये सर्वे द्वादशोपयोगाः स्युः १२। उपचारतो द्वादश १०, अन्यथा दश १० । जिनस्योपचारतः पञ्चेन्द्यित्वमिति ॥२५॥ _ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवोंमें अचक्षुदर्शन, मत्यज्ञान और ताज्ञान ये तीन-तीन उपयोग होते हैं। चतुरिन्द्रियजीवोंमें चक्षुदर्शनसहित उक्त तीनों उपयोग, इस प्रकार चार उपयोग होते हैं। पंचेन्द्रियों में सर्व ही उपयोग होते हैं ॥२॥ जिन भगवानके उपचारसे पंचेन्द्रियपना माना गया है. इस अपेक्षासे बारह उपयोग कहे हैं। अन्यथा केवलद्विकको छोड़कर शेष दश उपयोग होते हैं। पंचसु थापरकाए अचक्खु मइ सुअ अणाण: उवओगा। पढमंते मण-वचिए तसकाए उरालएसु सव्वे वि ॥२६।। मझिल्ले मण-वचिए सव्वे वि हवंति केवलदुगुणा । ओरालमिस्स-कम्मे मणपज-विहंग-चक्खुहीणा ते ॥२७॥ वेउव्वे मणपजव-केवलजुगलूणया दु ते चेव । तम्मिस्से केवलदुग-मणपज्ज-विहंग-चक्खूणा ॥२८॥ केवलदुय-मणपज्जव-अण्णाणतिएहिं होति ते ऊणा । आहारजुयलजोए पुरिसे ते केवलदुगूणा ॥२९॥ केवलदुग-मणहीणा इत्थी-संढम्मि ते दु सव्वे वि । केवलदुगपरिहीणा कोहादिमु होंति णायव्वा ॥३०॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायेषु पञ्चसु स्थावरेषु अचक्षुर्दर्शनं मति-श्रुताज्ञानद्वयमिति त्रय उपयोगाः ३ । प्रसकाये सर्वे द्वादश उपयोगाः १२। प्रथमान्ते मनो-वचनयोगे सत्याऽनुभयमनो-वचनयोगेषु चतुषु प्रत्येकं सर्वे द्वादश उपयोगाः १२ । औदारिककाययोगे सर्वे द्वादश १२ उपयोगाः सन्ति ॥२६॥ मध्येषु असत्योभयमनो-वचनयोगेषु चतुषु प्रत्येक केवलज्ञान-दर्शनद्वयोनाः अन्ये सर्वे उपयोगा दश १० भवन्ति । औदारिकमिश्रकाययोगे कार्मणकाययोगे च मनःपर्यय-विभङ्गज्ञानचक्षुर्दर्शनहींनाः अन्ये ते नव ६ उपयोगाः स्युः ॥२७॥ वैक्रियिककाययोगे मनःपर्यय-केवलज्ञान-दर्शनयुगलोनाः अन्ये नवोपयोगाः ६ स्युः। तन्मिश्रे वैक्रियिकमिश्रकाययोगे केवलदर्शन-ज्ञानद्वय-मनःपर्यय-विभङ्गज्ञान-चक्षुदर्शनरहिताः अन्ये सप्त भवन्ति ॥२८॥ आहारकाऽऽहारकमिश्रकाययोगद्वये केवल द्विक-मनःपर्ययज्ञानाऽज्ञानत्रिकोना: अन्ये पट ते उपयोगाः आद्यज्ञानत्रय-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनानि षट् भवन्ति । पुंवेदे ते उपयोगाः केवलज्ञान-दर्शनद्वयोना १० दश ॥२६॥ पब अण्णाण । ब अण्णाण । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च केवलज्ञान दर्शनद्वय- मनः पर्ययरहिताः अन्ये ते उपयोगाः सर्वे ते भवन्ति । क्रोध माने माया[यां] लोभे च केवलज्ञान-दर्शनद्विक परिहीनाः अन्ये १० उपयोगा भवन्तीति ज्ञातव्याः॥३०॥ कायमार्गणाको अपेक्षा पाँचों स्थावर कायोंमें अचक्षुदर्शन, मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान ये तीन-तीन उपयोग होते हैं । त्रसकाय में सर्व ही उपयोग होते हैं। योगमार्गणाकी अपेक्षा प्रथम और अन्तिम मनोयोग तथा वचनयोगमें और औदारिककाययोग में सर्व ही उपयोग होते हैं । मध्यके दोनों मनोयोग और वचनयोगमें केवलद्विकको छोड़कर शेष सर्व उपयोग होते हैं । औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग में मन:पर्ययज्ञान, विभंगावधि और चक्षुदर्शन; इन तीनको छोड़कर शेष नौ उपयोग होते हैं । वैक्रियिककाययोगमें मन:पर्ययज्ञान और केवलद्विकको छोड़कर शेष नौ उपयोग होते हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें केवलद्विक, मन:पर्ययज्ञान, विभंगावधि और चक्षुदर्शन इन पाँचको छोड़कर शेष सात उपयोग होते हैं । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें केवलद्विक, मन:पर्ययज्ञान और अज्ञानत्रिक, इन छहको छोड़कर शेष छह उपयोग होते हैं। वेदमार्गणाकी अपेक्षा पुरुषवेद में केवलद्विकको छोड़कर शेष दश उपयोग होते हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में केवलद्विक और मन:पर्ययज्ञान; इन तीनको छोड़कर शेष सर्व उपयोग होते हैं । कषायमार्गणाकी अपेक्षा क्रोधादि चारों कषायों में केवलद्विकको छोड़कर शेष दश दश उपयोग जानना चाहिए ॥२६-३०॥ ६० अण्णातिए होंति य अण्णाणतियं अचक्खु - चक्खूणि । सण्णाण - पढमचउरे अण्णागतिगूण केवलदुगुणा ॥ ३१ ॥ केवलणामि तहा केवलदुगमेव होइ णायव्वं । सामाइय-य-सुहुमे अण्णाणतिगूण केवलदुगूणा ॥ ३२ ॥ दंसण - णाणाइतियं देसे परिहारसंजमे य तहा । पंच य सण्णाणाई दंसणचउरं च जहखाए ॥ ३३ ॥ असंजमम्मि णेया मणपज्जव - केवलजुगल एहिं हीणा ते । दंसण - आइदुगे खलु केवलजुगलेण ऊणिया सव्वे ॥३४॥ ओहीसे केवलदुग अण्णाणतिऊणिया सव्वे | केवलदंसे णेयं केवल दुगमेव होइ णियमेण ॥३५॥ अज्ञानत्रिके कुमति-कुश्रुत विभङ्गज्ञानेषु प्रत्येकं अज्ञानत्रिकं ३ चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वयं २ इति पञ्चोपयोगाः ५ स्युः । सज्ज्ञानप्रथमचतुषु मतिज्ञाने श्रुतज्ञाने अवधिज्ञाने मन:पर्ययज्ञाने च अज्ञानत्रिकोनकेवलद्विकोनाः अन्ये सप्तोपयोगाः ७ स्युः ॥३१॥ केवलज्ञाने केवलदर्शन - ज्ञानोपयोगी ज्ञातव्यौ द्वौ भवतः २ । सामायिकच्छेदोपस्थापन-सूचमसाम्परायसंयमेषु अज्ञानत्रिक - केवलद्विकोनाः अन्ये सप्त ७ उपयोगाः सन्ति ॥३२॥ देशसंयमे तथा परिहारविशुद्धिसंयमे च चक्षुरादिदर्शनत्रिकं ३, मत्यादिज्ञानत्रिकमिति षडुपयोगा भवन्ति ६ । यथाख्यातसंयमे मतिज्ञानदिसज्ञानपञ्चकं ५, चक्षुरादिदर्शनचतुष्कं ४ इति नवोपयोगाः ६ स्युः ॥ ३३ ॥ असंयमे मनःपर्यय-केवलयुगलैर्हीनाः अन्ये ते उपयोगाः स्युः । दर्शनादिद्विके चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः केवलज्ञान-दर्शनयुगलेन रहिता अन्ये सर्वे दशोपयोगाः १० स्युः ॥ ३४ ॥ अवधिदर्शने केवलज्ञान- दर्शन द्विकाऽज्ञानत्रिकोनाः अन्ये सर्वे सप्त ७ । केवलदर्शने केवलदर्शनज्ञानद्विकमेव भवतीति ज्ञेयं निश्चयतः ॥३५॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ज्ञानमार्गणाको अपेक्षा तीनों अज्ञानोंमें तीनों अज्ञान और चक्षुदर्शन वा अचक्षुदर्शन ये पाँच-पाँच उपयोग होते हैं। प्रथमके चारों सद्ज्ञानोंमें तीन अज्ञान और केवलद्विकके विना शेष सात-सात उपयोग होते हैं। केवलज्ञानमें केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग जानना चाहिए । संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक, छेदोपस्थापना और सूक्ष्मसाम्परायसंयममें अज्ञानत्रिक और केवलद्विकके विना शेष सात-सात उपयोग होते हैं। परिहारसंयम तथा देशसंयममें आदिके तीन दर्शन और तीन सद्ज्ञान इस प्रकार छह-छह उपयोग होते हैं। यथाख्यातसंयममें पाँचों सद्ज्ञान और चारों दर्शन इस प्रकार नौ उपयोग होते हैं। असंयममें मनःपर्ययज्ञान और केवलद्विकके विना शेष नौ उपयोग होते हैं। दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा आदिके दो दर्शनोंमें केवलद्विकके विना शेष दश-दश उपयोग होते हैं। अवधिदर्शनमें केवलद्विक और अज्ञानत्रिकके विना शेष सात उपयोग होते हैं। केवलदर्शनमें नियमसे केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं ॥३१-३५।। किण्हाइतिए णेया मण-केवलजुगलएहि ऊणा ते । तेऊ पम्मे भविए केवलदुयवजिया दु ते चेव ॥३६॥ सुक्काए सव्वे वि य मिच्छा सासण अभविय जीवेसु । अण्णाणतियमचक्खू चक्खूणि हवंति णायव्वा ॥३७॥ दसण-णाणाइतियं उवसमसम्मम्मि होइ बोहव्वं । मिस्से ते चिय- मिस्सा अण्णाणतिगूणया खइए ॥३८॥ वेदयसम्मे केवलदुअ-अण्णाणतियऊणिया सव्वे । केवलदुएण रहिया ते चेव हवंति सण्णिम्मि ॥३६॥ मइ-सुअअण्णाणाई अचक्खु-चक्खणि होति इयरम्मि । आहारे ते सव्वे विहंग-मण-चक्खु-ऊणिया इयरे ॥४०॥ ___ एवं मग्गणासु उवओगा समत्ता । कृष्णादित्रिके कृष्ण-नील-कापोतलेश्यासु तिसृषु प्रत्येकं मनःपर्यय-केवलदर्शन-ज्ञानयुगलैरूना ते उपयोगा नव । तेजोलेश्यायां पद्मलेश्यायां भव्ये च केवलद्विकवर्जिताः अन्ये ते उपयोगा दश १० । सयोगाऽयोगयोः भव्यव्यपदेशो नास्तीति केवलद्विकं न ॥३६॥ शुकुलेश्यायां सर्वे द्वादशोपयोगाः स्युः १२ । मिथ्यात्वरुचिजीवे सासादनसम्यक्त्वे जीवे अभव्यजीवे चाज्ञानत्रिकं चक्षुरचक्षुदर्शनद्विकं २ इति पञ्चोपयोगाः ५ ज्ञातव्या भवन्ति ॥३७॥ उपशमसम्यक्त्वे चक्षुरादिदर्शननयं ३ मत्यादिज्ञानत्रिकं २ चेति षडुपयोगा भवन्तीति बोधव्याः ६ । मिश्रे ते षड् मिश्रा मति-श्रुतावधिज्ञान-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनाख्याः मिश्ररूपाः शुभाऽशुभरूपाः षट् उपयोगाः ६ स्युः ॥३८॥ वेदकसम्यक्त्वे केवलज्ञान-दर्शनद्वयाऽज्ञानत्रिकोनाः अन्ये सर्वे सप्तोपयोगाः स्युः । संज्ञिजीवे केवलज्ञान-दर्शनद्वयेन रहितास्ते उपयोगाः दश १० भवन्ति । सयोगाऽयोगयोः नोइन्द्रियेन्द्रियज्ञानाभावात् संश्यऽसंझिव्यपदेशो नास्ति, अतः केवलद्विकं संज्ञिनि न ॥३६॥ x ब विय। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पञ्चसंग्रह इतरस्मिन् असंज्ञिजीवे कुमति-कुश्रुताज्ञानद्विकं चक्षुरचक्षुर्दर्शन द्विकं चेति चत्वार उपयोगाः ४ स्युः । आहारके ते उपयोगा: सर्वे द्वादश भवन्ति १२ । इतरस्मिन् अनाहारे विभङ्ग-ज्ञान-मनःपर्ययज्ञानचक्षुर्दर्शनोनाः अन्ये नवोपयोगाः ६ स्युः । विग्रहगतौ मिथ्यादृष्टि-सासादनासंयतेषु प्रतरद्वये लोकपूरणसमये सयोगिनि अयोगिनि सिद्ध च अनाहार इति । अनाहार इति किम् ? शरीराङ्गोपाङ्गनाभोदयजनितं शरीरवचन-चित्तनोकर्मवर्गणा-ग्रहणं आहारः । न आहार अनाहारः॥४०॥ इत्येवं मार्गणासु उपयोगाः समाप्ताः । लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा कृष्णादि तीनो अशुभलेश्याओंमें मनःपर्ययज्ञान और केवलद्विकके विना शेष नौ-नौ उपयोग होते हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्यजीवोंमें केवलद्विकके विना शेष दश-दश उपयोग होते हैं। शुक्ललेश्यामें सर्व ही उपयोग होते हैं। अभव्यजीवोंमें तथा सम्यक्त्वमार्गगाकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्वमें तीनों अज्ञान, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ये पाँच-पाँच उपयोग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । औपशमिकसम्यक्त्वमें आदिके तीन दर्शन और तीन सद्ज्ञान ये छह उपयोग होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वमें वे ही छह मिश्रित उपयोग होते हैं। क्षायिकसम्यक्त्वमें अज्ञानत्रिकके विना शेष नौ उपयोग होते हैं। वेदकसम्यक्त्वमें केवलद्विक और अज्ञानत्रिकके विना शेष सात उपयोग होते हैं। संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा संज्ञी जीवों में केवलद्विकके विना शेष दश उपयोग होते हैं । असंज्ञी जीवोंमें मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ये चार उपयोग होते हैं। आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक जीवोंमें सर्व ही उपयोग होते हैं। अनाहारक जीवोंमें विभंगावधि, मनःपर्ययज्ञान और चक्षुदर्शनके विना शेष नौ उपयोग होते हैं ।।३६-४०॥ इस प्रकार मार्गणाओंमें उपयोगोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब मूलशतककार जीवसमासोंमें योगोंका वर्णन करते हैं[मूलगा०७] 'णवसु चउक्के एक्के जोगा। एक्को य दोण्णि चोदस ते । तब्भवगएसु एदे भवंतरगएसु कम्मइओ ॥४१॥ अथ जीवसमासेषु यथासम्भवं योगान् गाथात्रयेण दर्शयति-['गवसु चउक्के एक्क' इत्यादि ।] नवसु जीवसमासेषु योगः एकः १, चतुषु जीवसमासेषु द्वौ योगौ २, एकस्मिन् जीवसमासे चतुर्दश ते योगाः १४ । तद्भवगतेषु एते तद्विवक्षितभवप्राप्तेषु एते योगा भवन्ति, भवान्तरगतेषु विग्रहगतौ एकः कार्मणयोगः।। जीवस. ६ ४१ यो० १ २ १४।१२ तद्यथा-सूचम-बादरैकेन्द्रिययोद्धयोः पर्याप्तयोः औदारिककाययोग एकः १ सूचम-बादरैकेन्द्रियद्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-संश्यऽसंज्ञिषु सप्तसु अपर्याप्तेषु औदारिकमिश्रः एक इति समुदायेन नवसु जीवसमासेषु १ एको योगः। द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियासंज्ञिषु पर्याप्तेषु चतुषु औदारिककाययोगा नुभयभाषायोगी द्वौ भवतः २ । पञ्चेन्द्रियसंज्ञिनि पर्याप्ते एकस्मिन् चतुर्दश योगा: १४ । केचिदाचार्याः पञ्चदश योगान् कथयन्ति ॥४१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४,१० । १. शतक०७ । परं तत्र 'चोद्दस' स्थाने 'पन्नरस' पाठः । प्राकृतवृत्तौ मुलगाथायामपि 'पण्णरसा' इति पाठः । सं० पञ्चसंग्रहेऽपि 'समस्ता सन्ति संज्ञिनि' इति पाठ: (पृ. ८२, श्लो०१०) + ब जोगो। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक नौ जीवसमासोंमें एक योग होता है, चार जीवसमासोंमें दो योग होते हैं और एक जीवसमासमें चौदह योग होते हैं। तद्भवगत अर्थात् अपने वर्तमान भवके शरीर में विद्यमान जीवोंमें ये योग जानना चाहिए। किन्तु भवान्तरगत अर्थात् विग्रहगतिवाले जीवोंके केवल एक कार्मणकाययोग होता है ॥४१॥ विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंके चार जीवसमास और शेष अपर्याप्तकजीवोंके पाँच जीवसमास इन नौ जीवसमासोंमें सामान्यसे एक काययोग होता है। किन्तु विशेषकी अपेक्षा सूक्ष्म और बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवोंके औदारिककाययोग तथा सूक्ष्म और बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय मिश्रकाययोग होता है। 'पण्णरस इस पाठान्तरकी अपेक्षा कुछ आचायाँके अभिप्रायसे बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंके वैक्रियिककाययोग और बादरवायुकायिक अपर्याप्तोंके वैक्रियिकमिश्रकाययोग होता है। शेष द्वीन्द्रियादि सर्व अपर्याप्तक जीवोंके एकमात्र औदारिकमिश्रकाययोग ही होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तक, इन चारों जीवसमासोंके औदारिककाययोग और असत्यमृषावचनयोग, ये दो-दो योग होते हैं। संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तक नामके एक जीवसमासमें चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और सातों काययोग, इस प्रकार पन्द्रह योग होते हैं। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि पर्याप्तकसंज्ञिपंचेन्द्रियके जो अपर्याप्तकदशोंमें संभव औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग बतलाये गये हैं, सो सयोगिजिनके केवलिसमुद्धातकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग कहा गया है, तथा जो औदारिककाययोगी जीव विक्रिया और आहारकऋद्धिको प्राप्त करते हैं, उनकी अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग बतलाया गया है। अन्यथा मिश्रकाययोग अपर्याप्त कदशामें और कार्मणकाययोग विग्रहगतिमें ही संभव हैं। अब भाष्यगाथाकार जीवसमासोंमें योगोंका वर्णन करते हैं 'छसु पुण्णेसु उरालं सत्त अपजत्तएसु तम्मिस्सं । भासा असच्चमोसा चदुसुवेइंदियाइपुण्णेसु॥४२॥ सण्णि-अपज्जत्तेसु वेउव्वियमिस्सकायजोगो दु । सण्णी-संपुण्णेसुं चउदस जोया मुणेयव्वा ॥४३॥ अथ नियमगाथाद्वयं कथ्यते-[ छसु पुण्णेसु उरालं' इत्यादि । ] षट्सु पूर्णेषु औदारिककाययोगःएकेन्द्रियसूचम-बादरपर्याप्तौ द्वौ २, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियपर्याप्तास्त्रयः ३, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्ते एकः, इति पण्णां पर्याप्तानां औदारिककाययोग: स्यात् । सप्ताऽपर्याप्तेषु तन्मिश्रः-सूचम-बादरैकेन्द्रिय-द्वि-त्रि-चतु:पन्चेन्द्रियसंझ्य-संज्ञिषु अपर्याप्तेषु सप्तविधेषु औदारिकमिश्रकाययोगः स्यात् । चतुर्यु द्वीन्द्रियादिषु पूर्णेषु असत्यमृपा [ भाषा] स्यात् । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय पन्चेन्द्रियाऽसंज्ञिजीवपर्याप्तानां चतुणां अनुभयभाषौदारिककाययोगो द्वौ २ भवतः ॥४२॥ देव-नारकसंश्यऽपर्याप्तेषु वैक्रियिकमिश्रकाययोगात् , देव-नारकागां अपर्याप्तकाले वैक्रियिकमिश्रकाययोगात् , मनुष्य-तियंगपेक्षया संज्ञिसम्पूर्णेषु पर्याप्तेषु वक्रियिकमिश्रं विना चतुर्दश १४ योगाः ज्ञातव्याः ॥४३॥ 1. ४, 'गतावनाहारकद्वया' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० ५०) ॐद पुणे सोरालं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह चतुर्दशमार्गणासु योगरचनाइन्द्रियमार्गणायां कायमार्गणायां१० दी त्री० च० पं० पृ० अ० ते. वा०व० ० गोगाजाया गतिमार्गणायांन० ति० म० दे० मनोयोगेस. मृ० स० अ० वचनयोगेस० मृ० स० अ० काययोगेऔ० औ० मि० वै० वै०मि. आ० आ०मि. का० वेदमार्गणायांकषायमागणायां ज्ञानमार्गणायांस्त्री० पु० न० क्रो० मा० माया० लो० कुम० कुश्रु० वि० म० श्रु० अ० म० के० १३ १५ १३ १५ १५ १५ १५ १३ १३ १० १५ १५ १५ १ . संयममार्गणायां- दर्शनमार्गणायां- लेश्यामार्गणायां- भव्यमार्गणायांसा. छे० प० सू० य० स० अ० | च० अ० अव० के०| कृ. नी. का. ते० प० शु० भ० अ० ११ ११ १ ११ १ १३१ १२ १५ १५ ७ । १३ १३ १३ १५ १५ १५ । १५ १३ ___ सम्यक्त्वमार्गणायां- संज्ञिमार्गणायां- आहारमार्गणायांऔ० वे. क्षा० सा० मिन० मि० सं० अ० आ. अना० १३ ५५ ५५ १३ १० १३ १५ ४ १४ १ सूक्ष्म एकेन्द्रिय, और बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंनेन्द्रिय इन छह पर्याप्तक जीवसमासोंमेंसे आदिके दो जीवसमासोंमें केवल एक औदारिककाययोग होता है, और शेष चार पर्याप्तक जीवसमासोंमें औदारिककाययोग और असत्यमृषावचनयोग ये दो योग होते हैं। सातों अपर्याप्तक जीवसमासोंमें यथासंभव औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाययोग होता है। असत्यमृषावचनयोग द्वीन्द्रियादि चार पर्याप्तक जीवसमासोंमें होता है। संज्ञिपंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक जीवोंमें वैक्रियिकमिश्रकाययोग भी होता है। संज्ञिपंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीवोंमें कार्मणकाययोगको छोड़कर शेष चौदह योग जानना चाहिए ॥४२-४३॥ अव मार्गणाओमें योगोंका निरूपण करते हैं ओरालाहारदुए वन्जिय सेसा दु णिरय-देवेसु । वेउव्वाहारदुगूणा तिरिए मणुए वेउवदुगहीणा ॥४४॥ अथ मार्गणासु यथासंभवं रचनायां रचितयोगान् गाथैकादशकेनाऽऽह-['भोरालाहारदुए' इत्यादि । नरकगत्यां देवगत्यां च औदारिकौदारिकमिश्राऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रान चतुरो योगान वर्जयित्वा शेषा एकादश योगाः ११ स्युः। तिर्यग्गतौ वैक्रियिकवैक्रियिकमिश्राऽऽहारकाऽऽहारकमिश्ररूनाः अन्ये एकादश योगाः । मनुष्यगतौ वैक्रियिक-तन्मिश्रद्वयहीनाः शेषाः त्रयोदश १३ योगा भवन्ति ॥४॥ गतिमार्गणाकी अपेक्षा नारकी और देवोंमें औदारिकद्विक अर्थात् औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और आहारकद्विक अर्थात् अहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग इन चार योगोंको छोड़कर शेष ग्यारह-ग्यारह योग होते हैं। तिर्यश्चोंमें वैक्रियिकद्विक अर्थात् वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग तथा आहारकद्विक, इन चार योगोंको छोड़कर शेष ग्यारह योग होते हैं । मनुष्योंमें वैक्रियिकद्विकको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं ॥४४॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५ कम्मोरालदुगाई जोगा एइंदियाम्म वियलेसु । वयणंतजोयसहिया ते च्चिय पंचिंदिए सव्वे ॥४५॥ एकेन्द्रिय कार्मणकौदारिकद्विकमिति त्रयो योगाः ३। विकलत्रये द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियेषु त्रिषु ते त्रयः वचनान्तानुभयभाषासहिताश्वत्वारः ४ योगाः। पञ्चेन्द्रिये सर्दै पञ्चदश योगा नानाजीवापेक्षया भवन्ति ॥४५॥ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंमें कार्मणकाययोग और औदारिकद्विक ये तीन योग होते हैं। विकलेन्द्रियोंमें अन्तिम वचनयोग अर्थात् असत्यमृषावचनयोग-सहित उपर्युक्त तीन योग, इस प्रकार चार योग होते हैं । पंचेन्द्रियों में सर्व योग होते हैं ।।४।। कम्मोरालदुगाई थावरकाएसु होति पंचेसु । तसकाएसु य सव्वे सगो सगो होह जोएसु ॥४६॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिस्थावरकायेषु पञ्चसु कार्मणः १ औदारिकौदारिकामिश्रौ द्वौ २ इति त्रयो योगाः ३ । त्रसकायेषु सर्वेषु पञ्चदश योगाः १५ । योगेषु पञ्चदशसु सत्यादिषु स्वकः स्वको भवति, सत्यमनोयोगे सत्यमनोयोगः १ इत्यादि सर्वत्र ज्ञेयम् ॥४६॥ कायमार्गणाकी अपेक्षा पाँचों स्थावरकायिकोंमें कार्मणकाययोग और औदारिकद्विक ये तीन योग होते हैं, तथा त्रसकायिकजीवोंमें सभी योग होते हैं। योगमार्गणाकी अपेक्षा स्व-स्वयोगवाले जीवोंके स्व-स्वयोग होता है । अर्थात् सत्यमनोयोगियोंके सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोगियोंके असत्यमनोयोग इत्यादि ।।४६॥ पुरिसे सव्वे जोगा इत्थी-संढ म्मि आहारदुगुणा । कोहाईसु य सव्वे मइ-सुय-ओहीसु होंति सव्वे वि ॥४७॥ मइ-सुअअण्णाणेसुं आहारदुगूणया दु ते सव्वे । अपुण्णजोगरहिया आहारदुगूणया य विभंगे ॥४८॥ केवलजुयले मण-वचि पढमंतोरालजुगलकम्मक्खा । मण-सुहुमे परिहारे देसे ओराल मण-वचि-चउक्का ।।४।। पुंवेदे सर्वे योगाः १५। स्त्रीवेदे पण्ढवेदे च आहारकद्विकोनास्त्रयोदश १३ । क्रोधे माने मायायां लोभे च सर्वे योगाः १५ । मति-श्रुतावधिज्ञानेषु सर्वे पञ्चदश १० योगा भवन्ति ॥४७॥ मति-अताज्ञानयोः द्वयोः आहारकद्विकोनाः ते सर्वे त्रयोदश योगाः स्युः १३ । विभङ्गज्ञाने औदारिकमिश्र-वैक्रियिकमिश्र-कार्मणकापर्याप्तयोगत्रयरहिताः आहारकद्विकोनाश्चान्येऽष्टौ मनो-वचनयोगाः औदारिक वैक्रियिककाययोगौ द्वौ एवं दश योगाः १० ॥४८॥ केवल-युगले इति केवलज्ञाने केवलदर्शने च प्रथमान्तमनो-वचनं सत्यानुभयमनो-वचनचतुष्कं ४ औदारिक-तन्मिश्र-कार्मणाख्यााय इति सप्त योगाः ७ । मनःपर्ययज्ञाने सूचमसाम्परायसंयमे परिहारविशुद्धिसंयमे देशसंयमे च औदारिककाययोगः १, सत्यादिमनोयोगचतुकं ४ सत्यादिवचनयोगचतुष्कं ४ इत्येवं नव ६ योगाः स्युः ॥४६॥ वेदमार्गणाकी अपेक्षा पुरुषवेदियोंके सभी योग होते है। स्त्रीवेदी और नपुंकवेदी जीवोंके आहारकद्विकको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं। कषायमार्गणाको अपेक्षा क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंके सभी योग पाये जाते हैं। ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मति, श्रत और अवधिज्ञानी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ६ जीवों के सर्व ही योग होते हैं । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके आहारकद्विकको छोड़कर शेष तेरह-तेरह योग होते हैं । विभंगज्ञानियोंके अपर्याप्तककाल-सम्बन्धी औदारिकमिश्र, वैकियिक मिश्र और कार्मणका योग ये तीन योग तथा आहारकद्विक इनके विना शेष दश योग होते हैं । केवलयुगल अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शनवाले जीवोंके प्रथम और अन्तिम मनोयोग एवं वचनयोग, तथा औदारिकयुगल और कार्मणकाययोग ये सात-सात योग होते हैं । मन:पर्ययज्ञान, सूक्ष्मसाम्परायसंयम, परिहारविशुद्धिसंयम और संयमासंयमवाले जीवोंके मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क और औदारिककाययोग ये नौ-नौ योग होते हैं ॥४७-४६ ॥ पञ्चसंग्रह आहारदुगोराला मण-वचिचउरा य सामाइय-छेदे | कम्मोरालदुगाई मण - त्रचि-चउरा य जहखाए ॥ ५० ॥ सामायिक-च्छेदोपस्थापनयोः आहारकद्वयौदारिककाययोगास्त्रयः ३ मनोयोगाश्चत्वारः ४ वचनयोगाश्चत्वारः ४ इत्येकादश योगाः ११ । यथाख्याते कार्मणकौदारिक- तन्मिश्रकाययोगास्त्रयः ३ मनोवचनयोगाः अष्टम एवं एकादश ११ योगाः ॥ ५० ॥ संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिकसंयम और छेदोपस्थापनासंयमवाले जीवोंके चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, आहारकद्विक और औदारिककाययोग ये ग्यारह - ग्यारह योग होते हैं । यथाख्यातसंयमवाले जीवोंके चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिकद्विक और कार्मणकाययोग ये ग्यारह योग होते हैं ॥५०॥ किण्हाइ-तिआऽसंजम अभव्व जीवेसु आहारदुगूणा । आइतियाऽचक्खू ओही भव्वेसु होंति सव्वे वि ॥ ५१ ॥ चक्खुद से जोगा मिस्सतिगं वञ्ज होंति सेसा दु । उवसम-मिच्छा-सादे आहारदुगूणया णेया ॥ ५२ ॥ वेदय-खइए सब्वे मिस्से मिस्सतिगाहारदुगहीणा । सणियजीवे या सव्वे जोया जिणेहिं णिदिट्ठा || ५३ || इयरे कम्मोरालियदुगवयणंतिल्लया होंति । आहारे कम्मूणा अणहारे कम्मए व जोगो दु ॥ ५४ ॥ एवं मम्गणासु जोगा समत्ता । कृष्ण- नील- कापोतलेश्यात्रिके असंयमे अभव्यजीवे च आहारकद्विकोना अन्ये त्रयोदश १३ योगाः । पीत-पद्म-शुक्ललेश्यात्रिके अचक्षुर्दर्शने अवधिदर्शने भव्यजीवे च सर्वे पञ्चदश योगाः १५ भवन्ति ॥ ५१ ॥ चक्षुर्दर्शने मिश्रत्रिकं औदारिक- वैक्रियिकमिश्रकार्मणकत्रिकं वर्जयित्वा शेषाः द्वादश योगाः १२ स्युः । औपशमिकसम्यक्त्वे मिथ्यादृष्टौ सासादने आहारकद्विकोनाः अन्ये त्रयोदश योगाः १३ ज्ञेयाः ॥५२॥ वेदकसम्यग्दृष्टौ क्षायिकसम्यग्दृष्टौ च सर्वे पञ्चदश योगाः १५ ज्ञेयाः । मिश्र मिश्रत्रिकाऽऽहारकद्विकहीनाः अन्ये योगाः १० । संज्ञिजीवे सर्वे पञ्चदश १५ योगाः ज्ञेयाः जिनैर्निर्दिष्टाः कथिताः ॥ ५३ ॥ इतरस्मिन् असंज्ञिजीवे कार्मणकौदारिक-तम्मिश्रानुभयवचनयोगाश्चत्वारः ४ । आहारके कार्मणकोना अन्ये योगाश्चतुर्दश १४ । अनाहारे कार्मणक एको योगो भवति || ५४॥ इति मार्गणासु योगाः समाप्ताः । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा कृष्णादि तीन लेश्यावालोंके, तथा असंयमी और अभव्य जीवोंके आहारकद्विकको छोड़कर शेष तेरह-तेरह योग होते हैं। तेजोलेश्यादि तीन लेश्यावालोंके, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और भव्यजीवोंमें सर्व ही योग पाये जाते हैं। चक्षुदर्शनी जीवोंमें अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी तीनों मिश्रयोगोंको छोड़कर शेष बारह योग पाये जाते हैं । सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके आहारकद्विकको छोड़कर शेष तेरह तेरह योग जानना चाहिए। वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सभी योग पाये जाते हैं। मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अपर्याप्तककाल-सम्बन्धी मिश्रत्रिक आहारकद्विकको छोड़कर शेष दश योग पाये जाते हैं। संज्ञिमार्गणाको अपेक्षा संज्ञी जीवोंमें सभी योग जानना चाहिए, ऐसा जिन भगवान्ने उपदेश दिया है। असंज्ञी जीवोंमें कार्मणकाययोग, औदारिकद्विक और अन्तिम वचनयोग ये चार योग होते हैं। आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगको छोड़कर शेष चौदह योग पाये जाते हैं। अनाहारक जीवोंमें एकमात्र कामेणकाययोग ही पाया जाता है ।।५१-५४॥ मार्गणाओंमें योगोंका वर्णन समाप्त हुआ। [मूलगा० ८] उवओगा जोगविही मग्गण-जीवेसु वणिया एदे । ___एत्तो गुणेहिं सह परिणदाणि ठाणाणि मे सुणह ॥५॥ [मूलगा० ह] मिच्छा सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । __णव संजए य एवं चउदस गुणणाम ठाणाणि ॥५६॥ मार्गणासु जीवसमासेषु च उपयोगा वर्णिताः, योगविधयश्न वर्णिताः । इतः परं गुणैः सह परिणतानि गुणस्थानकैः सह परिणमितानि मिश्राणि युक्तानि मार्गणस्थानानि गतीन्द्रिय-काय-योगादीनि इमानि वक्ष्यमाणाणि भो भव्या यूयं शृणुत ॥५५॥ मिथ्यादृष्टिः १ सासादनः २ मिश्रः ३ अविरतसम्यग्दृष्टिः ४ देशविरतश्च ५ प्रमत्ता ६ प्रमत्ता ७ पूर्वकरणा ८ निवृत्तिकरण , सूचमसाम्परायो १० पशान्त ११ क्षीणकषाय १२ सयोगाऽ १३ योगसंयता इति नव । एवं चतुर्दश गुणस्थाननामधेयानि गुणस्थाननामानि ॥५६॥ चतुर्दशमार्गणास्थानेषु गुणस्थानरचनेयम्गतिमार्गणायां- इन्द्रियमार्गणायां- कायमार्गणायां- योगमार्गणायां- मनोयोगेन० ति० म० दे० ए० द्वी० श्री. च. पं० पृ० अ० ते० वा. व. प्र० स० मृ० स० अ० ४ ५ १४ ४ १ १ १ १ १४ १ १ १ १ १ १४ १३ १२ १२ १३ वचनयोगे काययोगे वेदमार्गणायांस० मृ० स० अ० भौ० भौ०मि० वै० वै०मि. आ० आ०मि० का० स्त्री० पु० न० १३ १२ १२ १३ कषायमार्गणायांज्ञानमार्गणायां संयममार्गणायांक्रो० मा० माया० लो० कुम० कुश्र० वि० म० श्रु० अ० म० के० सा छे० ५० सू० य० सं० अ० १. शतक. ८। परं तत्र मम्गण-जीवेसु' स्थाने 'जीवसमासेसु' इति पाठः । प्राकृतवृत्तावप्ययं पाठः। २. शतक० है । व च्छो। ब धेयाणि । | Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पञ्चसंग्रह दर्शनमार्गणायांच. अच० अव० के. १२ १२ १ २ लेश्यामार्गणायां- भव्यमार्गणायां सम्यक्त्वमागंणायांकृ. नी. का० ते० प० शु० भ० भ० सौ. वे० सा. सा. मिश्र० मि. ४ ४ ४ ७ ७ १३ १२ १ ८ ४ १११ १ १ संज्ञिमार्गणायां- आहारमार्गणायां सं० अ० आ० अना० इस प्रकार मार्गगा और जीवसमासोंमें यह उपयोग और योगविधिका वर्णन किया है। अब इससे आगे गुणोंसे परिणत इन स्थानोंको कहता हूँ सो सुनो। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व और देशविरत, तथा इससे आगे संयतोंके नौ गुणस्थान इस प्रकार साथेक नामवाले चौदह गुणस्थान होते हैं ।।५५-५६|| मार्गणाओं में गुणस्थानोंका निरूपण[मूलगा०१०] 'सुर-णारएसु चत्तारि होति तिरिएसु जाण पंचेव । मणुयगईए वि तहा चोद्दस गुणणामधेयाणि ॥२७॥ 'मिच्छाई चत्तारि य सुर-णिरए पंच होति तिरिएसु । मणुयगईए वि तहा चोदस गुणणामधेयाणि ॥२८॥ अथ मार्गणास्थानेषु रचितगुणस्थानानि गाथाचतुर्दशकेन प्ररूपयति-देवगत्यां नरकगत्यां च मिथ्यादृष्ट्याऽऽदीनि चत्वारि गुणस्थानानि ४, तिर्यग्गतौ मिथ्यादीनि पञ्च गुणस्थानानि स्वं जानीहि ५। मनुष्यगतौ मिथ्यागाऽऽग्रयोगान्तानि चतुर्दश गुणस्थानानि भवन्तीति जानीहि त्वं भव्य मन्यस्व ॥५७-५८॥ गतिमार्गणाकी अपेक्षा देव और नरकगतिमें मिथ्यात्वको आदि लेकर चार गुणस्थान होते हैं। तियचोंमें मिथ्यात्व आदि पाँच गुणस्थान होते हैं। तथा मनुष्यगतिमें चौदह ही गुणस्थान होते हैं ।।५७-५८॥ मिच्छा सादा दोण्णि य इगि-वियले होंति ताणि णायव्वा । पंचिंदियम्मि चोदस भूदयहरिएसु दोणि पढमाणि ॥५६॥ तेऊ-वाऊकाए मिच्छं तसकाए चोदस हवंतिः । मण-वचि-पढमतेसुं ओराले चेव जोगंता ॥६॥ खीर्णता मझिल्ले मिच्छाइ चयारि वेउव्वे । तम्मिस्से मिस्सूणा हारदुगे पमत्त एगो दु॥६॥ ओरालमिस्स-कम्मे मिच्छा सासण अजइ सजोगा य । कोहाइतिय तिवेदे मिच्छाई णवय दस लोहे ॥६२॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ६ । (पृ० ७५)। 2. ४, 'नारकसुधाशिकयोश्चत्वार्थाद्यानि' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ७६)। १. शतक० १०। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक एकेन्द्रिये विकलत्रयेच मिथ्या-सासादने द्वे भवतः २ । तदेकेन्द्रिय-विकलत्रयाणां पर्याप्तकाले एक मिथ्यात्वम् । तेषां केषाञ्चिद अपर्याप्तकाले उत्पत्तिसमये सासादनं सम्भवति । पञ्चेन्द्रिये तानि सर्वाणि गुणस्थानानि चतुर्दश १४ ज्ञातव्यानि भवन्ति । भूदकह रितेषु पृथ्वीकायिके अकायिके वनस्पतिकायिके च मिथ्यात्वसासादनगुणस्थाने द्वे २ भवतः ॥५६!! तेजस्कायिके वायुकायिके च मिथ्यात्वमेकम् १ । तयोरेकं कथम् ? सासादनस्थो जीवो मृत्वा तेजोवायुकायिकयोर्मध्ये न उत्पद्यते, इति हेतोः। त्रसकायिके मिथ्यात्वादीनि चतुर्दश १४ गुणस्थानानि भवन्ति । मनो-वचनप्रथमान्तेपु सत्यानुभयमनो-वचनचतुष्के औदारिककाययोगे च मिथ्यात्वाऽऽदीनि सयोगान्तानि प्रयोदश गुणस्थानानि स्युः ॥६॥ ___ मध्यमेषु असत्योभयमनो-वचनयोगेषु चतुषु संज्ञिमिथ्यादृष्टायादीनि क्षीणकषायान्तानि द्वादश १२ । वैक्रियिककाययोगे मिथ्यात्वादीनि चत्वारि ४ । तन्मिश्रयोगे देवता-नारकाऽपर्याप्तानां मिश्रोनानि मिथ्यात्वसासादनाविरतानि त्रीणि ३ । आहारके संक्षिपर्याप्तप्रमत्त एक षष्ठगुणस्थानम् १ । आहारकमिश्रे संश्यपर्याप्तषष्ठगुणस्थानमेकम् १ ॥६॥ औदारिकमिश्रकाययोगे मिथ्यात्व-सासादन-पुंवेदोदयाऽसंयतकपाटसमुद्धातसयोगगुणस्थानानि चत्वारि ४ । उक्तञ्च-- मिच्छे सासणसम्मे पुंवेदयदे कवाटजोगिम्हि । णर-तिरिये वि य दोणि वि होति त्ति जिणेहिं णिहिट ॥७॥ कार्मणकाययोगे मिथ्यात्व-सासादनाऽविरतगुणस्थानत्रयं चतुर्गतिविग्रहकालसंयुक्तं प्रतरयोलॊकपूरणकालसंयुक्तं सयोगगुणस्थानन्चेति चत्वारि ४ । उक्तञ्च योगिन्यौदारिको दण्डे मिश्रो योगः कपाटके । कामेणो जायते तत्र प्रतरे लोकपूरणे ॥८॥ क्रोधे माने मायायां च, नपुंसकवेदे स्त्रीवेदे पुंवेदे च मिथ्यावादीन्यनिवृत्तिकरणपर्यन्तानि नव ।। अत्र किञ्चिद्विशेषः-पण्ढवेदः स्थावर-कायमिथ्यादृष्टयाधनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागान्तं भवति । स्त्रीवेदपुवेदौ संश्यऽपंज्ञिमिश्यादृष्टयाद्यनिवृतिकरणस्वस्वसवेदभागपर्यन्तं भवतः। क्रोध-मान-मायाः मिथ्यादृष्टयाद्यनिवृत्तिकरण-द्वि-त्रि-चतुर्भागान्तं भवन्ति । लोभे संज्वलनलोभापेक्षया मिथ्यात्वाऽऽदीनि सूचमसाम्परायान्तानि दश १० भवन्ति ॥६२॥ इन्द्रियमाणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवोंमें सासादनगुणस्थान निवृत्त्यपर्याप्तक-दशामें ही संभव है, अन्यत्र नहीं। पंचेन्द्रियोंमें चौदह ही गुणस्थान होते हैं। कायमार्गणाकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंमें आदिके दो गुणस्थान होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंमें मिथ्यात्व गुणस्थान होता है और उसकायिक जीवोंमें चौदह ही गुणस्थान होते हैं। योगमार्गणाकी अपेक्षा प्रथम और अन्तिम मनोयोग और वचनयोगमें तथा औदारिककाययोगमें सयोगिकेवली तकके तेरह गुणस्थान होते हैं। मध्यके दोनों मनोयोगों और वचनयोगोंमें क्षीणकषायतकके बारह गुणस्थान होते हैं। वैक्रियिककाययोगमें मिथ्यात्व आदि चार गुणस्थान होते हैं। वैकियिकमिश्रकाययोगमें मिश्रगुणस्थानको छोड़कर आदिके तीन गुणस्थान होते हैं। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें एक १. गो० जी० ६८० । २. सं० पञ्चसं० ४,१४ (पृ. ८३) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह प्रमत्तसंयत गुणस्थान होता है । औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगमें मिथ्यात्व, सासादन, असंयत और सयोगकेवली ये चार-चार गुणस्थान होते हैं। वेदमार्गणाकी अपेक्षा तीनों वेदोंमें तथा कषायमार्गणाकी अपेक्षा क्रोधादि तीन कषायोंमें मिथ्यात्व आदि नौ गुणस्थान होते हैं । लोभकषायमें आदिके दश गुणस्थान होते हैं ॥५६-६२॥ पढमा दोऽण्णाणतिए णाणतिए गव दु अविरयाई । सत्त पमत्ताइ मणे केवलजुयलम्मि अंतिमा दोण्णि ॥६३॥ अज्ञानत्रिके कुमति कुश्रुत-विभङ्गज्ञानेषु प्रत्येकं मिथ्यात्वसासादनप्रथमद्वयं स्यात् । ज्ञानत्रिके मति-श्रुतावधिज्ञानेषु त्रिषु प्रत्येकं अविरतादीनि क्षीणकायान्तानि नव ६ स्युः । मनःपर्ययज्ञाने प्रमत्तादीनि क्षीणकषायान्तानि सप्त ७। केवलज्ञाने केवलदर्शने च सयोगायोगान्तिमद्वयं २ भवति ॥६३॥ ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा अज्ञानत्रिक अर्थात् कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञानवाले जीवोंके आदिके दो गुणस्थान होते हैं । ज्ञानत्रिक अर्थात् मति, श्रुत और अवधिज्ञानवाले जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टिको आदि लेकर नौ गुणस्थान होते हैं। मनःपर्ययज्ञानवाले जीवोंके प्रमत्तसंयतको आदि लेकर सात गुणस्थान होते हैं । केवलयुगल अर्थात् केवलज्ञान और केवलदर्शनवाले जीवोंके अन्तिम दो गुणस्थान होते हैं ॥६३।। सामाइय-छेदेसुं पमत्तयाईणि होंति चत्तारि । जहखाए संताई सुहुमे देसम्मि सुहुम देसा य ॥६४॥ असंजमम्मि चउरो मिच्छाइ दुवालस हवंति । चक्खु अचक्खू य तहा परिहारे दो पमत्ताई ॥६॥ अजयाई खीणता ओहीदंसे हवंति णव चेव । किण्हाइतिए चउरो मिच्छाई तेर सुक्काए ॥६६॥ तेऊ पम्मासु तहा मिच्छाई अप्पमत्ता । खीणंता भव्वम्मि य अभव्वे मिच्छमेयं तु ॥६७॥ सामायिक-च्छेदोपस्थापनयोः प्रमत्ताधनिवृत्तिकरणान्तानि चत्वारि ४ भवन्ति । यथाख्याते उपशान्ताद्ययोगान्तानि चत्वारि ४ । सूचमसाम्परायसंयमे सूचमसाम्परायगुणस्थानमेकम् । देशसंयमे देशसंयम पञ्चमं गुणस्थानं भवति ॥६४॥ असंयमे मिथ्यागादीनि चत्वारि ४ । चक्षुरचक्षुदर्शनद्वये मिथ्यादृष्ट्याऽऽदीनि क्षीणकषायान्तानि द्वादश १२ । परिहारविशुद्धिसंयमे प्रमत्ताप्रमत्तद्वयं २ भवति ॥६५॥ अवधिदर्शने असंयतादीनि क्षीणकपायान्तानि नव १ भवन्ति । कृष्णादिनिके स्थावरकायमिथ्यादृष्ट्याऽऽद्यसंयतान्तानि [चत्वारि ४ ] भवन्ति । शुक्ललेश्यायां संज्ञिपर्याप्तमिथ्यादृष्ट्यादिसयोगान्तानि त्रयोदश गुणस्थानानि १३ भवन्ति ॥६६॥ तेजोलेश्यायां पद्मलेश्यायां च संझिमिथ्यारष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानि गुणस्थानानि सप्त । भव्ये स्थावरकायमिथ्यादृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि द्वादश १२ । सयोगायोगयो व्यव्यपदेशो नास्तीति । अभव्ये मिथ्यात्वमेकम् १ ॥६७।। संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना संयमवाले जीवोंके प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान होते हैं। यथाख्यातसंयमवाले जीवोंके उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थान होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायसंयमवालोंके एक सूक्ष्मसाभ्पराय गुणस्थान और देशसंयमवालोंके Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०१ एक देशविरतगुणस्थान होता है। असंयमी जीवोंके मिथ्यात्व आदि चार गुणस्थान होते हैं । परिहार विशुद्धिसंयमवालोंके प्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थान होते हैं। दर्शनमागेणाकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंके मिथ्यात्व आदि बारह गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शनी जीवोंके असंयतसम्यग्दृष्टिको आदि लेकर क्षीणकषायतकके नौ गुणस्थान होते हैं। लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा कृष्णादि तीन लेश्यावाले जीवोंके मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान होते हैं । शुक्ललेश्यावालोंके मिथ्यात्वादि तेरह गुणस्थान होते हैं। तथा तेज और पद्मलेश्यावालोंके मिथ्यात्वको आदि लेकर अप्रमत्तसंयतान्त सात गुणस्थान होते हैं। भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्यजीवोंके क्षीणकषायान्त बारह गुणस्थान होते हैं। अभव्य जीवोंके तो एकमात्र मिथ्यात्वगणस्थान होता है ।।६४-६७॥ अट्ठयारह चउरो अविरयाईणि होति ठाणाणि । उवसम-खय-मिस्सम्मि य मिच्छाइतियम्मि एय तण्णामं ॥६८॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वे असंयताद्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि ४ । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वे असंयतायुपशान्तकपायान्तानि गुणस्थानान्यष्टौ ८ । कुतः ? 'विदियउवलमसम्मत्तं अविरदसम्मादि-संतसोहो त्ति' । अप्रमत्ते द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं समुत्पाद्योपर्युपशान्तकषायान्तं गत्वाऽधोऽवतरणेऽसंयतान्तमपि तत्सम्भवात् । क्षायिकसम्यक्त्वे असंयताद्ययोगान्तानि एकादश ११ । सिद्धषु तत्सम्भवति । क्षयोपशमे वेदकसम्यक्त्वे अविरताद्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि ४। मिथ्यात्वादिनिके मिथ्यादृष्टौ सासादने मिश्रे च स्व-स्वनाम्ना स्व-स्वगुणस्थानं भवति ।।६८॥ सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा उपशमसम्यक्त्वी जीवोंके अविरतसम्यक्त्व आदि आठ गुणस्थान होते हैं। क्षायिकसम्यक्त्वी जीवोंके अविरतसम्यक्त्व आदि ग्यारह गुणस्थान होते हैं । क्षयोपशमसम्यक्त्वी जीवोंके अविरतसम्यक्त्व आदि चार गुणस्थान होते हैं। मिथ्यात्वादित्रिकमें तत्तन्नामक एक एक ही गुणस्थान होता है अर्थात् मिथ्यादृष्टियोंके पहला मिथ्यात्वगुणस्थान, सासादनसम्यग्दृष्टियोंके सासादननामक दूसरा गुणस्थान और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके सम्यग्मिथ्यात्व नामक तीसरा गुणस्थान होता है ॥६८।। मिच्छाई खीणंता सण्णिम्मि हवंति वार+ ठाणाणि । असण्णियम्मि जीवे दोण्णि य मिच्छाइ बोहव्वा ॥६६॥ संज्ञिजीवे संज्ञिमिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानि दश गुणस्थानानि भवन्ति १०। असंज्ञिजीवे मिथ्यात्व-सासादनगुणस्थानद्वयं ज्ञातव्यम् ॥६६॥ संज्ञिमागंणाकी अपेक्षा संज्ञी जीवोंके मिथ्यात्वादि क्षीणकषायान्त बारह गुणस्थान होते हैं । असंज्ञी जीवोंमें मिथ्यात्वादि दो गुणस्थान जानना चाहिए ॥६६॥ मिच्छाइ-सजोयंता आहारे होंति तह अणाहारे। मिच्छा साद अविरदा अजोइ* जोई य णायव्वा ॥७॥ एवं मग्गणासु गुणहाणा समत्ता आहारके मिथ्थारष्ट्यादिसयोगान्तानि त्रयोदश १३ भवन्ति । अनाहारके मिथ्यादृष्टि-सासादनात संयताऽयोग-सयोगगुणस्थानानि पञ्च भवन्ति बोधव्यानि ५। कुतः ? स अनाहारकः चतुर्गतिविग्रहकाले १. गो० जी० ६६५। +द बारस ठाणं । * ब अजोअ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पञ्चसंग्रह मिथ्याष्टि-सासादनाऽविरतगुणस्थाने भवति । सयोगस्य प्रतरलोकपूरणकाले कार्मणावसरे च भवति । अयोगि-सिद्धयोश्चानाहारो ज्ञातव्यः ॥७०॥ [ तथा चोक्तम्-] विग्गहगइमावण्णा समुग्घाया केवली अयोगिजिणा । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा' ॥६॥ इति मार्गणासु यथासम्भवं गुणस्थानानि समाप्तानि । - आहारमार्गणाको अपेक्षा आहारक जीवोंके मिथ्यात्वादि सयोगिकेवल्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं । तथा अनाहारक जीवोंके मिथ्यात्व, सासादन, अविरतसम्यक्त्व, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये पाँच गुणस्थान जानना चाहिए ।।७।। ___ इस प्रकार मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका निरूपण समाप्त हुआ। अब गुणस्थानों में उपयोगोंका वर्णन करते हैं[मूलगा०११] 'दोण्हं पंच य छच्चेव दोसु एकम्मि होंति वामिस्सा । सत्तुवओगा सत्तसु दो चेव य दोसु ठाणेसु ॥७१॥. ५।५।६।६।६।७।७।७।७।७।७१७१२।२। अथ गुणस्थानेषु यथासम्भवमुपयोगान् गाथात्रयेण दर्शयति-['दोण्हं पंच य छच्चेव' इत्यादि । मिथ्यात्व-सासादनयोद्वयोः उपयोगाः पञ्च ५ । ततः अविरत-देशविरतयोः द्वयों पडुपयोगाः ६ । एकस्मिन् मिश्रे मिश्ररूपाः षडुपयोगाः ६ ! सप्तसु प्रमत्तादिषु सप्त उपयोगाः ७ । सयोगयोद्धयोः गुणस्थानयोः द्वावुपयोगी २ भवतः ॥७॥ गुणस्थानेषु सामान्येन उपयोगाःगु० मि. सा. मि. सा० दे० प्र० भ० अ० अ० सू० उ० सी० स० भयो. मिथ्यादृष्टि और सासादन इन दो गुणस्थानोंमें तीनों अज्ञान और चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन ये पाँच-पाँच उपयोग होते हैं। अविरत और देशविरत इन दो गुणस्थानोंमें आदिके तीनों ज्ञान और आदिके तीनों दर्शन इस प्रकार छह-छह उपयोग होते हैं। एक तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें उक्त छहों मिश्रित उपयोग होते हैं। अर्थात् मत्यज्ञान मतिज्ञानसे मिश्रित होता है, इसी प्रकार शेष भी मिश्रित उपयोग जानना चाहिए। प्रमत्तविरतसे लेकर क्षीणकषायान्त सात गुणस्थानों में आदिके चार ज्ञान और आदिके तीन दर्शन इस प्रकार सात-सात उपयोग होते हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन दो गुणस्थानोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं ।।७१॥ अब उक्त मूलगाथाके इसी अर्थको दो भाष्यगाथाओंके द्वारा स्पष्ट करते हैं 'अण्णाणतिय दोसुं। सम्मामिच्छे तमेव मिस्सं तु । णाणाइतियं जुयले सत्तसु मणपजएण तं चेव ॥७२॥ 1. सं पञ्चसं० ४, ११। 2. ४, 'तत्राज्ञानत्रय' इत्यादिगद्यभागः (पृ० ८२) । १. प्रा०पञ्चसं० १,११७ । गो० जी० ६६५ । २. शतक० ११। द ब एयं । द ब जोगो । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०३ दसणआइदुअं दुसु दससु तं ओहिदंसणाजुत्तं । केवलदंसण-णाणा उवओगा दोसु य गुणेसु ॥७३॥ १ सजोगाजोगाणं २।२ ___ इति गुणटाणेसु उवओगा समत्ता। गुणस्थानेषु उपयोगा: न्यस्ताः । [तान् गाथाद्वयेन विशेषयति-मिथ्यादृष्टौ सासादने च अज्ञानत्रिक कुमति कुश्रुत-विभङ्गज्ञानोपयोगास्त्रयः । सम्यग्मिथ्यात्वे मिश्रे त एव मिश्ररूपज्ञानोपयोगास्त्रयः ३ । ततो युगले असंयमे देशे च ज्ञानादित्रयं सुमति-सुश्रुतावधिज्ञानोपयोगात्रयः ३। ततः प्रमत्तादि-क्षीणकषायान्तेषु सप्तगुणस्थानेषु मनःपर्ययेण सहिताः त एव यः, इति चतुर्ज्ञानोपयोगाः ४ स्युः। मिथ्यात्व-सासादनयोदुयो दर्शनाद्यं द्विकं चक्षुरचक्षुर्दर्शनोपयोगी द्वौ २ । ततः दशसु मिश्रादि-क्षीणकषायान्तेषु तदेवावधिदर्शनयुक्तं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगास्त्रयः भवन्ति । द्वयोः सयोगाऽयोगयोः केवलदर्शनं १ केवलज्ञानं च द्वौ उपयोगी भवतः २।२। ॥७२-७३॥ __ गुणस्थानेषु विशेषेण उपयोगाःगु० मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० अयो. ज्ञानो० ३ ३ ३ ३ ३ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ १ दर्शनो० २ २ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ १ इतिःगुणस्थानेषु उपयोगा दर्शिताः । आदिके दो गुणस्थानोंमें तीनों अज्ञान होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें तीनों अज्ञान तीनों सद्-ज्ञानोंसे मिश्रित होते हैं। चौथे और पाँचवें इन दो गुणस्थानोंमें मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञानोपयोग होते हैं । छठेसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थानों में मनःपर्ययज्ञानके साथ उक्त तीनों ज्ञानोपयोग होते हैं। आदिके दो गुणस्थानोमें आदिके दो दर्शनोपयोग होते हैं। तीसरेसे लेकर बारहवें तक दश गुणस्थानों में अवधिदर्शनसे युक्त आदिके दोनों दर्शनोपयोग होते हैं। तेरहवें और चौदहवें इन दो गुणस्थानों में केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो-दो उपयोग होते हैं ।।७२-७३॥ अब गुणस्थानों में योगोंका वर्णन करते हैं[मूलगा०१२] 'तिसु तेरेगे दस णव सतसु इक्कम्हि हुंति एक्कारा । इक्कम्हि सत्त जोगा अजोयठाणं हवइ सुण्णं' ॥७४॥ १३।१३।१०।१३।६।। १६RRIER७०। अथ गुणस्थानेषु यथासम्भवं योगान् गाथात्रयेण दर्शयति-[ 'तिसु तेरे एगे दस' इत्यादि ।] त्रिपु त्रयोदश १३, एकस्मिन् दश १०, सप्तसु नव ६, एकस्मिन् एकादश ११ भवन्ति । एकस्मिन् सप्तयोगाः । अयोगिस्थानं शून्यं भवेत् ॥७॥ 1. ४, १२-१३ । 2. शतके । एतद्गाथास्थाने इमे द्वे गाथे उपलभ्येते तिसु तेरस एगे दस नव जोगा होति सत्तसु गुणेसु । एक्कारस य पमत्ते सत्त सजोगे अजोगिके ॥१२॥ तेरस चउसु दसेगे पंचसु नव दोसु होंति एगारा । एगम्मि सत्त जोगा अजोगिठाणं हवइ एग ॥१३॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ गुणस्थानेषु योगाःसू० उ०पो० स० अयो० प्र० अ० अ० अ० ११ १३ ६ ह ६ ६ ह ह ७ ० इति गुणस्थानेषु योगा निरूपिताः । मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यक्त्व इन तीन गुणस्थानों में तेरह-तेरह योग होते हैं । एक सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें दश योग होते हैं । छठे गुणस्थानको छोड़कर पाँचवें से बारहवें तक सात गुणस्थानोंमें नौ-नौ योग होते हैं । एक प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में ग्यारह योग होते हैं । एक सयोगिकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानमें सात योग होते हैं और अयोगिकेवली नामक एक चौदहवाँ गुणस्थान योग-रहित होता है ॥७४॥ मि० सा०मि० अ० दे० १३ १३ १० पञ्चसंग्रह अब उक्त मूलगाथाके अर्थका दो भाष्यगाथाओंसे स्पष्टीकरण करते हैं'आहारदुगुणा तिसु वेउव्वोराल मण वचि चउक्का | मिस्से देउव्वूणा सत्तसु आहारदुयजुया घट्ट ॥७५॥ भासा - मणजोआणं असच्चमोसा य सच्चजोगा य । 'ओरालजुयल - कम्मा सत्तेदे होंति जोगिम्मि ॥७६॥ इति गुणस्थानेषु चतुर्दशसु योगाः दर्शिताः ॥ मिथ्यात्व - सासादनाऽयमगुणस्थानेषु त्रिषु आहारकाऽऽहारक मिश्रद्विकोना अन्ये त्रयोदश योगाः १३ । मिश्र वैक्रियिकौदारिककाययोगौ २, सत्यासत्योभयानुभयमनो-वचनयोगाः अष्टौ एवं दश १० । अप्रमत्ताऽपूर्वकरणानिवृत्तिकरण सूचमसाम्परायोपशान्त क्षीणकषाय- देश विरतगुणस्थानेषु सप्तसु वैक्रिय[कद्वि] कोना औदारिककाययोगः १, मनो-वचनयोगाः अष्टौ म; एवं नव योगाः भवन्ति । षष्ठे प्रमत्ते पूर्वोक्ताः नव ६, आहारकद्विकयुक्ता एकादश ११ ॥७५॥ सयोगिनि गुणस्थाने भाषा-मनोयोगानां मध्ये असत्यमृषायोगौ मुक्त्वा अन्ये अनुभयमनो-वचनयोगाँ २, सत्यमनो-वचनयोगौ २, औदारिकौदारिक मिश्र - कार्मणकयोगास्त्रयः ३, इत्येते सप्त योगाः सयोगिकेवलिनि भवन्ति ॥ ७६ ॥ इति गुणस्थानेषु योगा दर्शिताः । पहले, दूसरे और चौथे इन तीन गुणस्थानों में आहारकद्विकके विना शेष तेरह योग होते हैं। तीसरे मिश्रगुणस्थानमें चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग ये दश योग होते हैं । इन दश योगों मेंसे वैक्रियिककाययोगको छोड़कर शेष नौ योग छठे गुणस्थानके सिवाय शेष सात गुणस्थानों में होते हैं । छठे गुणस्थान में आहारकद्विकयुक्त उपर्युक्त नौ योग अर्थात् ग्यारह योग होते हैं । सयोगिकेवली में भाषा और मनोयोगके असत्यमृषा और सत्ययोगरूप चार भेद, तथा औदारिकद्विक और कार्मणकाययोग ये तीन; इस प्रकार कुल सात योग होते हैं । ७५-७६ ।। इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में योगोंका निरूपण किया । 1. सं० पञ्चसं० ४, 'मिथ्यादृक्सासनात्रतेषु' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० ८३) । 2. ४, १४ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अव गुणस्थानों में बन्धके कारणोंका वर्णन करनेके लिए ग्रन्थकार बन्ध-हेतुओंके भेदोंका निर्देश करते हैं 'मिच्छासंजम हुति हु कसाय जोगा य बंधहेऊ ते । पंच दुवालस भेया कमेण पणुवीस पण्णरसं ||७७|| ५।१२।२५।१५ मिलिया ५७ । अथ गुणस्थानेषु यथासम्भवं सामान्य विशेषेण प्रत्ययान् गाथासप्तकेनाऽऽह - [ 'मिच्छाऽसंजम ' इत्यादि । ] मिथ्यात्वाऽसंयमौ भवतः कषाय-योगौ च भवतः; इत्येते चत्वारो मूलप्रत्यया भवन्ति ४ । ते कथम्भूताः ? बन्धहेतवः कर्मणां बन्धकारणानि । तेषां मिथ्यात्वाऽसंयम कषाय-योगानां भेदाः क्रमेण पञ्च ५ द्वादश १२ पञ्चविंशतिः २५ पञ्चदश १५ भवन्ति । मिलित्वोत्तरप्रत्ययाः सप्तपञ्चाशत् ५७ भवन्ति । तेऽपि कर्म - बन्धहेतवः ॥७७॥ १०५ मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चार कर्मबन्धके मूल कारण हैं। इनके उत्तर भेद क्रमसे पाँच, बारह, पच्चीस और पन्द्रह हैं। इस प्रकार सब मिलकर कर्म-बन्धके सत्तावन उत्तरप्रत्यय होते हैं । (प्रत्यय, हेतु और कारण ये तीनों पर्यायवाची नाम हैं । ) ॥ ७५ ॥ [मूलगा० १३ ] ' चउपच्चइओ बंधो पढमे अनंतर तिए तिपच्चइओ । fear विदिओ उवरिमदुगं च देसेकदेस म्हि ||७८|| [ मूलगा० १४] उवरिल्लपंचया पुण दुपच्चया जोयपच्चया तिण्णि । सामण्णपच्चया खलु अट्ठण्हं होति कम्माणं ॥७६॥ ।।।।શરારારાર|||૫|૦ मूलप्रत्ययाः गुणस्थानेषु कथ्यन्ते – प्रथमे मिथ्यादृष्टौ बन्धश्चतुः प्रत्ययिकः चतुर्विधः प्रत्ययः ४ । अनन्तरत्रिके संलग्नसासादन मिश्राऽविरतगुणस्थानेषु त्रिषु मिथ्यात्वं विना त्रिप्रत्ययिकः ३ । देशेन लेशेनैकमसंयमं दिशति परिहरतीति देशैकदेशः देशसंयतः, तत्रापि विप्रत्ययिकः । ते प्रत्ययाः विरमणेन मिश्रम विरमणं कपाययोगौ चेति, श्रसवधविना स्थावर - विराधनादिसंयुक्तौ कषाय-योगौ इत्यर्थः सार्धद्वयप्र त्ययबन्धः ॥७८॥ उपरितनाः पञ्च गुणाः द्वि-द्विप्रत्ययाः कषाया योगाः, प्रमत्तादि सूक्ष्म साम्परायान्तेषु पञ्चसु कषाययोग प्रत्ययौ द्वौ द्वौ भवत इत्यर्थः । ततः त्रयो गुणा उपशान्तादयः योगप्रत्ययाः, उपशान्तादिषु त्रिषु एकः योगप्रत्ययो भवतीत्यर्थः । इत्येवं खलु अष्टकर्मणां सामान्यप्रत्ययाः तद्बन्धननिमित्तानि भवन्ति ॥ ७६ ॥ गुणस्थानेषु मूलप्रत्ययाः- मि० सा० मि० अ० दे० प्र० भ० अ० अ० सू० उ० सी० स० अ० ४ ३ ३ ३ * २ २ २ २ २ १ 1 १ १ प्रथम गुणस्थानमें उपर्युक्त चारों प्रत्ययोंसे कर्म-बन्ध होता है । तदनन्तर तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्वको छोड़कर शेष तीन कारणोंसे कर्म-बन्ध होता है । देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान में दूसरा असंयमप्रत्यय मिश्र अर्थात् आधा और उपरिम दो प्रत्यय कर्म-बन्धके कारण हैं । तदनन्तर ऊपर के पाँच गुणस्थानों में कषाय और योग इन दो कारणोंसे कर्म-बन्ध होता है । 1. सं० पञ्चसं० ४, १५-१६ । 2. ४, १८-१६ । ३. ४, १८-२१ । १. शतक० १४ । तत्र 'अनंतर तिए' इति स्थाने 'उवरिमति' इति पाठः । २. गो०क० ७८०-७८८ * द दुवारस | १४ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीन गुणस्थानोंमें केवल योगप्रत्ययसे कर्म-बन्ध होता है। इस प्रकार आठों कर्मों के बन्धके कारण ये सामान्य प्रत्यय होते हैं ।।७८-७६| अब गुणस्थानोंमें उत्तर प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं 'पणवण्णा पण्णासा तेयाल छयाला सत्ततीसा य। चउवीस दु वावीसा सोलस एऊण जाव णव सत्ता ॥८॥ *णाणाजीवेसु णाणासमएसु उत्तरपञ्चया गुणहाणेसु ५५।५०।४३।४६।३७।२४।२२।२२। अणियट्टिम्मि १६।१५।१४।१३।१२।११।१०। सुहुमाइसु पंचसु १०।।६।७। उत्तरप्रत्ययाः गुणस्थानेषु क्रमेण कथ्यन्ते-पञ्चपञ्चाशत् ५५, पञ्चाशत् ५०, त्रिचत्वारिंशत् ४३, षट्चत्वारिंशत् ४६, सप्तत्रिंशत् ३७, चतुर्विंशतिः २४, द्विवारद्वाविंशतिः २२, २२; षोडश १६ यावन्नवाई है तावदेकोनः १५, १४, १३, १२, ११, १०, ६ । ७, ८०॥ नानाजीवेषु नानासमयेषु उत्तरप्रत्ययाः गुणस्थानेषु-- मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अनिवृत्तस्य सप्तभागेषु सू० उ० सी० स० अ० ५५ ५० ४३ ४६ ३७ २४ २२ २२, १६ १५१४ १३ १२ १३ १०, १०६ ६ ७ . मिथ्यात्व गुणस्थानमें पचपन उत्तर प्रत्ययोंसे कर्म-बन्ध होता है। सासादनमें पचास उत्तर प्रत्ययोंसे कर्म-बन्ध होता है। मिश्रमें तेतालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं। अविरतमें छयालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं । देशविरतमें सैतीस उत्तर प्रत्यय होते हैं। प्रमत्तविरतमें चौबीस उत्तर प्रत्यय होते हैं। अप्रमत्तविरतमें बाईस उत्तर प्रत्यय होते हैं । अपूर्वकरणमें बाईस उत्तर प्रत्यय होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें सोलह और आगे एक-एक कम करते हुए दश तक उत्तर प्रत्यय होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायमें दश उत्तर प्रत्यय होते हैं । उपशान्तकषाय और क्षीणकषायमें नौ-नौ उत्तर प्रत्यय होते हैं। सयोगिकेवलीमें सात उत्तर प्रत्यय होते हैं। अयोगिकेवलीमें कर्म-बन्धका कारणभूत कोई भी मूल या उत्तर प्रत्यय नहीं होता है ।।८०॥ गुणस्थानोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा नाना समयोंमें उत्तरप्रत्यय इस प्रकार होते हैंमि. सा. मि० अवि० दे० प्र० अप्र० अपू० अनिवृत्तिकरण ५५ ५० ४३ ४६ ३७ २४ २२ २२, १६ १५ १४ १३ १२१११०, सू० ट५० सी० सयो० अयो० अब ग्रन्थकार किस गुणस्थानमें कौन-कौन उत्तरप्रत्यय नहीं होते, यह दिखलाते हैं आहारदुअ-विहीणा मिच्छूणा अपुण्णजोअ अणहीणा ते । अपज्जत्तजोअ सह ते ऊण तसवह विदिय अपुण्णजोअ वेउव्या ॥१॥ ते एयारह जोआ छटे संजलण णोकसाया य । आहारदुगूणा दुसु कमसो अणियट्टिए इमे भेया ॥८२॥ छकं हस्साईणं संठित्थी पुरिसवेय संजलणा। बायर सुहुमो लोहो सुहुमे सेसेसु सए सए जोया ॥३॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ३२-३४ । 2. ४, ३५ । 3. ४, 'आहारकद्वयोना' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ८५)। +ब छायाल। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०७ मिथ्यादृष्टौ आहारकद्विकविहीना अन्ये पञ्चपञ्चाशत् ५५ । मिथ्यात्वपञ्चकोनाः सासादने पञ्चाशत् ५० । औदारिक- वैक्रियिक मिश्र - कार्मणाऽपूर्णयोगत्रयाऽनन्तानुबन्धिहीनाः मिश्रगुणे त्रिचत्वारिंशत् ४३ ॥ अपर्याप्तयोगत्रयसहिताः असंयते पट्चत्वारिंशत् ४६ । त्रसदधाऽप्रत्याख्यान द्वितीय चतुष्कौदारिकवै क्रियिकमिश्रकार्मणयोग- वैक्रियिकैर्नवभिरूनाः देशसंयते सप्तत्रिंशत् ३७ । षष्ठे प्रमत्ते ते अपूर्णत्रिक - वैक्रियिकेभ्यो विना एकादश योगाः ११, संज्वलनकपायचतुष्कं ४ नव नोकषायाः चेति चतुर्विंशतिः प्रमत्ते २४ स्युः । द्वयोरप्रमत्तापूर्वकरणयोः ते पूर्वोक्ता आहारकद्विकोनाः द्वाविंशतिः । मनो-वचनयोगाः अष्टौ औदारिककाययोगः १ संज्वलनकपायचतुष्कं ४ नव नोकषायाः ६ इति द्वात्रिंशतिः प्रत्यया २२ अप्रमत्ते अपूर्वकरणे च भवन्ति । अनिवृत्तिकरणे इमान् वच्यमाणान् भेदान् क्रमेणाह - अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमे भागे हास्यादिपटुकं विना पोडश, पण्ढवेदं विना द्वितीये १५, स्त्रीवेदं विना तृतीये १४, पुंवेदं विना चतुर्थे १३, संज्वलनक्रोधं विना पञ्चमे १२, संज्वलनमानं विना षष्ठे भागे एकादश ११ । बादरलोभः बादर अनिवृत्तिकरणे व्युच्छिन्नः । सूक्ष्मसाम्पराये सूक्ष्मलोभोऽस्ति १, अष्टौ मनो-वचनयोगाः ८, औदारिककाययोगः एकः १ । एवं १० दश सूचमसाम्पराये भवन्ति । शेषेषु उपशान्तादिषु चतुषु स्वे स्वे योगाः । उपशान्ते क्षीणकषाये च अष्टौ मनो-वचनयोगाः ८, औदारिककाययोगः १ एवं ह । सयोगे सत्याग्नुभयमनोवागौदारिकद्विक-कार्मणयोगाः सप्त ७ । अयोगे शून्यं ० ॥८१-८३ ॥ गतिमार्गणायां प्रत्ययाःन० ति० म० दे० ५१ ५३ ५५ ५२ मनोयोगे स्त्री० पु० नं० ५३ ५५ ५५ स० मृ० स० अ० ४३ ४३ ४३ ४३ वेदमार्गणायां प्रत्ययाः- कषायमार्गणायां प्रत्ययाः इति गुणस्थानेषु यथासम्भवं सामान्य विशेषभेदेन प्रत्ययबन्धः समाप्तः । अथ मार्गणास्थानेषु यथासम्भवं प्रत्ययान् प्ररूपयति-इन्द्रियमार्गणायां प्रत्ययाःकायमार्गणायां प्रत्ययाःए० द्वी० त्री० च० पं० ३८ ४० ४१४२ ५७ वचनयोगे - स० मृ० स० अ० ४३ ४३ ४३ ४३ संयममार्गणायां प्रत्ययाः भ० ५७ अ० ५५ क्रो० मा० माया० लो० ४५ ४५ ४५ ४५ पृ० अ० ते० वा० व० ० योगमार्गणायां प्रत्ययाः ३८ ३८ ३८ ३८ ३८ ५३ काययोगे- औ० औ०मि० वै० वै०मि० आ० आ०मि० का० ४३ ४३ ४३ ४३१२ १२ ज्ञानमार्गणायां प्रत्ययाः ४३ कुम० कुश्रु० वि० ५५ ५५ ५२ दर्शन मार्गणायां प्रत्ययाःच० अच० अव० के० ५७ ५७ ४८ ७ सा० छे० प० सू० य० सं० अ० २४ २४ २२ १० ११ ३७ ५५ भव्यमार्गणायां प्रत्ययाः- सम्यक्त्वमार्गणायां प्रत्ययाः- संज्ञिमार्गणायां प्रत्ययाः- आहारमार्गणायां प्रत्ययाः सं० अ० ४५ ५७ इति मार्गणा सत्प्रत्ययरचनेयम् । मिथ्यात्व गुणस्थान में आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये दो प्रत्यय नहीं होते हैं । सासादनमें उक्त आहारकद्विक और पाँचों मिथ्यात्व ये सात प्रत्यय नहीं होते हैं । मिश्रगुणस्थान में अपर्याप्तकालसम्बन्धी औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग ओर कार्मणकाययोग ये तीन योग, अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और उपर्युक्त सात इस प्रकार चौदह प्रत्यय नहीं होते हैं । अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में उक्त चौदह प्रत्ययोंमेंसे अपर्याप्तकालसम्बन्धी तीन म० श्रु० अव० म० के० ४८ ४८ ४८ २० औ० वे० क्षा० सा० मिश्र मि० ४६ ४८ ४८ ५० ४३ ५५ ७ लेश्यामार्गणायां प्रत्ययाः कृ० नी० का० ते० प० शु० ५५ ५५ ५५ ५७ ५७ ५७ आ० अना० ५६ ४३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पञ्चसंग्रह प्रत्यय होते हैं, शेष ग्यारह प्रत्यय नहीं होते हैं। देशविरतमें प्रसवध; द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी तीनों योग, वैक्रियिककाययोग तथा उपर्युक्त ग्यारह प्रत्यय (मिथ्यात्वपञ्चक, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और आहारकद्विक) इस प्रकार बीस प्रत्यय नहीं होते हैं । छठे गुणस्थानोंमें चारों सनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और आहारकद्विक ये ग्यारह योग, संज्वलनचतुष्क और नौ नोकषाय इस प्रकार चौबीस प्रत्यय होते हैं । (शेष तेतीस प्रत्यय नहीं होते हैं।) इन चौवीसमेंसे सातवें और आठवें इन दो गुणस्थानोंमें आहारकद्विकके विना शेष बाईस प्रत्यय होते हैं । अनिवृत्तिकरणके सात भागोंमें बन्ध-प्रत्ययोंके भेद इस प्रकार होते हैं-प्रथम भागमें अपूर्वकरणके बाईस प्रत्ययोंमेंसे हास्यादि-षटकके विना सोलह प्रत्यय होते हैं। द्वितीय भागमें नपुंसकवेदके विना पन्द्रह, तृतीय भागमें स्त्रीवेदके विना चौदह, चतुर्थ भागमें पुरुषवेदके विना तेरह, पंचम भागमें संज्वलनक्रोधके विना बारह, षष्ठ भागम सज्वलनमानके विना ग्यारह और सप्तम भागमें संज्वलनमायाके विना बादरलोभ-सहित दश उत्तर प्रत्यय होते हैं । दशवें गुणस्थानमें चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिककाययोग और सूक्ष्मसंज्वलन लोभ ये दश उत्तर प्रत्यय होते हैं । शेष अर्थात् ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें सूक्ष्मसंज्वलन लोभके विना शेष नौ नौ प्रत्यय होते हैं । तेरहवें गुणस्थानमें प्रथम और अन्तिम दो-दो मनोयोग और वचनयोग, तथा औदारिकद्विक और कार्मण काययोग ये सात प्रत्यय होते हैं ।।८१-८३॥ अब मार्गणाओंमें बन्ध प्रत्ययोका निरूपण करते हैं 'ओरालिय-आहारदुगुणा हेऊ हवंति सुर-णिरए । आहारय-वेउव्वदुगणा सव्वे वि तिरिएसु ॥४॥ वेउव्वजुयलहीणा मणुए पणवण्ण पच्चया होति । गइचउरएसु एवं सेसासु वि ते मुणेयव्वा ॥८॥ अथ मार्गणास्थानेषु यथासम्भवं प्रत्ययान् गाथासप्तदशकेनाह--['ओरालिय आहार-' इत्यादि ।] सुरगत्यां नारकगत्यां च औदारिकद्विकाऽऽहारकद्विकोनाः अन्ये द्विपञ्चाशत् , एकपञ्चाशत् हेतवः प्रत्ययाः देवगतौ तु नपुंसकवेदं विना, नारकगतौ तु स्त्री-पुंवेदाभ्यां विना ज्ञातव्याः । तिर्यग्गयां आहारकद्धिक-वक्रियिकद्विकोनाः अन्ये त्रिपञ्चाशत् ५३ भवन्ति ॥४॥ मनुष्यगतौ वैक्रियिकयुग्महीनाः अन्ये पञ्चपञ्चाशत् प्रत्ययाः ५५ भवन्ति । गतिषु चतुपु एवम् । शेषासु मार्गणासु एकेन्द्रियादिषु ते वक्ष्यमाणाः प्रत्ययाः ज्ञातव्याः ॥८५॥ गतिमार्गणाकी अपेक्षा नरकगतिमें औदारिकद्विक, आहारकद्विक, स्त्रीवेद और पुरुषवेद इन छहके विना शेष इकावन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। देवगतिमें उक्त छहमेंसे स्त्रीवेद और पुरुषवेद निकालकर और नपुंसकवेद मिलाकर पाँचके विना शेष वावन बन्ध-प्रत्यय होते हैं । तिर्यगतिमें यकद्विक और आहारकद्विक इन चारके विना शेष सभी अर्थात् तिरेपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। मनुष्यगतिमें वैक्रियिकद्विकके विता शेष पचपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। इस प्रकार चारों गतियोंमें बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण किया। इसी प्रकारसे शेष मार्गणाओंमें भी उन्हें जान लेना चाहिए ॥८४-८५॥ 1. ४, ३६, तथा 'स्त्रीपुंवेदो' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ८७)। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १08 मिच्छत्ताइचउट्ठय वारह-जोगणिगिदिए मोत्तु । कम्मोरालदुअं खलु वयणंतजुआ दु ते वियले ॥८६॥ एकेन्द्रिये कार्मणौदारिकयुग्मं मुक्त्वा शेपद्वादशयोगोनाः रसनादिचतुष्क-मनःः पुंवेद-स्त्रीवेदेभ्यो विना च शेपाः अष्टाविंशत्प्रत्ययाः ३८ । मिथ्यात्वादिमूलप्रत्ययचतुष्टयः, तन्मध्ये मिथ्यात्वपञ्चकं ५ कायपटकं ६, स्पर्शनेन्द्रियाऽसंयमः १, स्त्री-पुंवेदरहितकपायास्त्रयोविंशतिः २३ । औदारिकयुग्म-कार्मणयोग एक इति त्रिकं ३ चेत्यष्टत्रिंशत्प्रत्यया एकेन्द्रियाणां भवन्तीत्यर्थः ३८ । विकलत्रये त एव वचनान्तस्वेन्द्रिययुक्ता भवन्ति । द्वीन्द्रिये त एव ३८ अनुभयभावा-रसनाभ्यां सह ४० । ब्रीन्द्रिये घ्राणेन सह त एव ४१। चक्षुषा सह चतुरिन्द्रिये त एव ४२ इत्यर्थः ॥८६॥ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रियों में मिथ्यात्व आदि चार मूलप्रत्ययोंमेंसे औदारिक-द्विक तथा कार्मणकाययोगके विना शेष बारह योगोंको. एवं रसनादि चार इन्दिय और मन-सम्बन्धी पाँच अविरति तथा स्त्री और पुरुष इन दो वेदोंको छोड़कर बाकीके अड़तीस बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए। विकलेन्द्रियोंमें अन्तिम वचनयोग-सहित वे सर्व प्रत्यय होते हैं ॥८६॥ विशेषार्थ-यद्यपि भाष्य-गाथामें एकेन्द्रियोंके बन्धप्रत्यय बतलाते हुए 'बारह जोगूण' पदके द्वारा केवल बारह जोगोंके विना शेष प्रत्यय होनेका विधान किया गया है, जिसके अनुसार एकेन्द्रियों में पैंतालीस प्रत्यय होना चाहिए । पर वे संभव नहीं हैं। अतः 'मिच्छत्तादिचउट्टय' पदके पाये जानेसे तथा 'योग' पदको उपलक्षण मान करके रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन ये पाँच अविरति एवं स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो नोकषाय इनको भी कम करना चाहिए । अर्थात् पाँच अविरति, दो नोकषाय और बारह योग, इन उन्नीस प्रत्ययोंको सर्व सत्तावन प्रत्ययोंमेंसे कम करने पर शेष अड़तीस बन्ध-प्रत्यय एकेन्द्रियों में होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। द्वीन्द्रियोंमें रसनेन्द्रिय और अनुभयवचनयोगको मिलाकर चालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं। त्रीन्द्रियोंमें घ्राणेन्द्रियको मिलाकर इकतालीस और चतुरिन्द्रियोंमें चक्षुरिन्द्रियको मिलाकर व्यालीस बन्ध-प्रत्यय तस पंचक्खे सव्वे थावरकाए इगिदिए जेम । चोदस जोयविहीणा तेरस जोएसु ते णियं मोत्तु ॥८७॥ संजलण णोकसाया संढित्थी वज सत्त णिय जोगा। आहारदुगे हेऊ पुरिसे सव्वे वि णायव्वा ॥८॥ इत्थि-णउंसयवेदे आहारदुगूणया होति । कोहाइकसाएK कोहाइ इयर-दुवालस-विहीणा ॥८६॥ वसकाये पञ्चाक्षे च सर्वे प्रत्ययाः सप्तपञ्चाशत् भवन्ति ५७ । यथा एकेन्द्रियोक्ताः अष्टात्रिंशत्प्रत्ययाः, तथा पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतिकायेषु पञ्चसु स्थावरेषु ३८ भवन्ति । आहारकयुग्मं परित्यज्य अन्ये प्रयोदशयोगेपु निजं निजं योगं राशिमध्ये मुक्त्वा चतुर्दशयोगविहीनास्ते प्रत्ययाः ४३ भवन्ति । मिथ्यात्वपञ्चक ५, असंयमाः १२, कषायाः २५, स्वकीययोगः; एवं ४३ । ॥७॥ संज्वलनचतुष्कं ४, नपुंसक-स्त्रीवेदवर्जितनोकवायसप्तकं ७ निजयोगैकसहितः १ इति द्वादश हेतवः प्रत्ययाः आहारककाययोगे आहारकमिश्रकाये च भवन्ति १२ । पुंवेदे एकस्मिन् समये सर्वे वेदा न भवन्ति, इति हेतोः द्वाभ्यां वेदाभ्यां विना अन्ये सर्वे आस्रवाः ५५ ज्ञातव्याः ॥८॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पञ्चसंग्रह स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च आहारकद्विकाऽन्यतरवेदद्वयरहिताः प्रत्ययाः ५३ भवन्ति । क्रोधादिकषायेषु क्रोधादेरितरद्वादशविहीनाः, यदा क्रोधो भवति, तदाऽन्यत् मानादित्रयं न भवति, इति हेतोरनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानादिभेदेन द्वादशरहिता: ४५ ॥८॥ __कायमार्गणाकी अपेक्षा त्रसकायिक जीवों में और पंचेन्द्रियों में सर्व ही बन्ध-प्रत्यय होते हैं। स्थावरकायिक जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान अड़तीस बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए। योगमार्गणाकी अपेक्षा आहारकद्विकके विना बाकीके तेरह योगोंमें निज-निज योगको छोड़कर शेष चौदह . योगोंसे रहित तेतालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । आहारकद्विकमें चारों संज्वलन, तथा नपुंसक और स्त्रीवेदको छोड़कर शेष सात नोकषाय और स्वकीय योग इस प्रकार बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं। णाकी अपेक्षा पुरुषवेदी जीवों में सभी बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए। स्त्रीवेदी और नपंसकवेदी जीवोंमें आहारकद्विकको छोड़कर शेष सर्व प्रत्यय होते हैं । कषायमार्गणाको अपेक्षा विवक्षित क्रोधादि कषायोंमें अपने चारके सिवाय अन्य बारह कषायोंके घट जानेसे शेष पैंतालीस-पैतालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।८७-८६॥ विशेषार्थ-वेदमार्गणामें इतना विशेष ज्ञातव्य है कि विवक्षित वेदवाले जीवके बन्धप्रत्यय कहते समय उसके अतिरिक्त अन्य दो वेदोंको भी कम करना चाहिए; क्योंकि एक जीवके एक समयमें सभी वेदोंका उदय संभव नहीं है। अतएव पुरुषवेदीके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके विना पचपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। तधा स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदीके स्व-व्यतिरिक्त शेप दो वेद और आहारकद्विकके विना शेष तिरेपन-तिरेपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। मइ-सुअअण्णाणेसुआहारदुगूणया मुणेयव्वा । मिस्सतियाहारदुअं वजित्ता सेसया दु वेभंगे ॥१०॥ मइ-सुअ-ओहिदुगेसुं अणचदु-मिच्छत्तपंचहि विहीणा । हस्साइ छक्क पुरिसो संजलण मण-वचि चउर उरालं ॥१॥ मणपज्जे केवलदुवे मण-वचि पढमंत कम्म उरालदुगं । संजलण णोकसाया मण-वचि ओराल आहारदुगं॥१२॥ सामाइय-छेएसुआहारदुगूणया दु परिहारे। मण-वचि अहोरालं सुहुमे संजलण लोहंते ॥६३॥ कम्मोरालदुगाई मण-वचि चउरा य होंति जहखाए । असंजमम्मि सव्वे आहारदुगूणया णेया ॥१४॥ अण मिच्छ विदिय तसवह वेउव्वाहारजुयलाई ओरालमिस्सकम्मा तेहिं विहीणा दु होति देसम्मि ॥६॥ मति-श्रताऽज्ञानद्वये आहारकरिकोनाः अन्ये पञ्चपञ्चाशत् प्रत्ययाः ५५ ज्ञातव्याः। विभङ्गज्ञाने औदारिक-वक्रियिकमित्र-कार्मणनिति मिश्रत्रिकं आहारकद्विकं च वर्जयित्वा शेषाः ५२ प्रत्ययाः स्युः ॥१०॥ मति-श्रतावधिज्ञानेषु अवधिदर्शने च अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्वपञ्चकैविहीना: अन्ये अष्टचत्वारिंशत् ४८ प्रत्ययाः स्युः । मनःपर्ययज्ञाने हास्यादिषटकं ६ पुंवेदः १ संज्वलनचतुष्कं ४ मनोयोगचतुष्कं ४ वचनयोगचतुष्कं ४ औदारिकं १ चेति विंशतिः २० ॥११॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक केवलज्ञाने केवलदर्शने च मनो-वचनप्रथमान्ताः सत्यानुभयमनो-वचनयोगाः ४, कार्मणं १ भौदारिकद्विकं २ चेति सप्ताssस्रवाः ७ स्युः । सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः संज्वलना: ४ नव नोकपायाः ६ मनो-वचनयोगाः ८ औदारिकाssहारकद्विकं ३ चेति चतुर्विंशतिः प्रत्ययाः २४ स्युः ॥ ६२ ॥ परिहारविशुद्धौ त एव २४ आहारकद्विकोनाः द्वाविंशतिः २२ । सूक्ष्मसाम्परायसंयमे मनो-वचनयोगाः अष्टौ , औदारिककाययोगः १ । कथम्भूते सूक्ष्मे ? संज्वलनलोभान्ते । संज्वलन लोभोऽन्ते यस्य, स सूक्ष्मलोभसंयुक्तः १ । एवं दश प्रत्ययाः १० ॥६३॥ यथाख्याते कार्मणं १ औदारिकद्विकं २ मनो-वचनयोगाः अष्टौ म चेत्येकादश ११ भवन्ति । असंयमे आहारकद्वयोनाः अन्ये सर्वे पञ्चपञ्चाशत् प्रत्यया ५५ ज्ञेयाः ॥६४॥ अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्वपञ्चकाप्रत्याख्यान चतुष्क- वसवध-वै क्रियिकयुग्माऽऽहारकयुगलौदारिकमित्रकार्मण कैस्तैर्विशति संख्यैर्विहीनाः अन्ये सप्तत्रिंशत्प्रत्ययाः देशसंयमे ३७ भवन्ति ॥ ६५॥ ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें आहारकद्विकके विना शेष पचपन-पचपन बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए । विभंगज्ञानियों में मिश्रत्रिक अर्थात् औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग, तथा आहारकद्विक; इन पाँचको छोड़कर शेष बावन बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिद्विक अर्थात् अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंमें अनन्तानुबिन्धचतुष्क और मिथ्यत्वपंचक; इन नौके विना शेष अड़तालीसअड़तालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । मन:पर्ययज्ञानियों में हास्यादिषट्क, पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क और औदारिककाययोग; ये बीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । केवलद्विक अर्थात् केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवों में आदि और अन्तके दो-दो मनोयोग और वचनयोग, तथा औदारिकद्विक और कार्मणकाययोग; इस प्रकार सात-सात बन्ध-प्रत्यय होते हैं । संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापनासंयमी जीवोंमें संज्वलनचतुष्क, नौ नोकपाय, मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क, औदारिककाययोग और आहारकद्विक, ये चौबीस चौबीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । परिहारविशुद्धसंयमी जीवोंमें उक्त चौबीसमेंसे आहारकद्विकके सिवाय शेष बाईस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । सूक्ष्मसाम्परायसंयमियोंमें मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क, औदारिककाययोग और सूक्ष्मलोभ, ये दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं । यथाख्यातसंयमियोंमें मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क, औदारिकद्विक और कार्मणकाययोग, ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं । असंयमी जीवोंमें आहारकद्विकके विना शेष पचपन बन्धप्रत्यय जानना चाहिए । देशसंयमी जीवोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मिथ्यात्वपंचक, त्रसवधू, वैक्रियिकयुगल, आहारकयुगल, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग, इन बीसके विना शेष सैंतीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ ६०-६५ ॥ तेज-तिय चक्खुजुले सच्चे हेऊ हवंति । भव् य । किण्हाइतिया भव्वे आहारदुगूणया या ||६६॥ १११ तेजखिके पीत-पद्म-शुक्ललेश्यासु, चक्षुर्युगले चक्षुर्दर्शने अचक्षुर्दर्शने भव्यजीवे च सर्वे सप्तपञ्चाशत्क - गां हेतवः प्रत्ययाः ५७ भवन्ति । कृष्णादित्रि के अभव्ये च आहारकद्विकोनाः अन्ये पञ्चपञ्चाशत् ५५ प्रत्ययाः ज्ञेयाः ॥ ६६॥ लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा तेज-त्रिक अर्थात् तेज, पद्म और शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें, दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा चक्षुयुगल अर्थात् चक्षुदर्शनी और अचतुदर्शनी जीवोंमें तथा भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्योंमें सभी बन्ध-प्रत्यय होते हैं । कृष्णादि तीन लेश्यावालों में, तथा अभव्यों में आहारकद्विकके विना पचपन बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए ||६६ ॥ ! दि भवंति । For Private Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पञ्चसंग्रह अणमिच्छाहारदुगूणा सव्वे उवसमे णेया । आहारजुयलजुत्ता वेदय-खइयम्मि ते होति ॥१७॥ मिच्छाहारदुगुणा साए मिच्छम्मि आहारदुगूणा । अण-मिच्छ-मिस्स जोगा हारदुगूणा हवंति मिस्सम्मि ॥१८॥ उपशमसम्यक्त्वे अनन्तानुबन्धिचतुष्क मिथ्यात्वपञ्चकाऽऽहारद्विकोनाः अन्ये सर्वे षट्चत्वारिंशत्प्रत्ययाः ४६ ज्ञेयाः । वेदकसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्रवे च त एवाऽऽहारकयुगलयुक्ताः ४८ भवन्ति ॥१७॥ सासादनरुचौ मिथ्यात्वपञ्चकाऽऽहारद्विकोनाः पञ्चाशत् प्रत्ययाः ५० स्युः । मिथ्यात्वे आहारकद्विकोनाः पञ्चपञ्चाशत् ५५ प्रत्ययाः स्युः । मिश्रे अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्वपञ्चकमिश्रत्रिकयोगाऽऽहारकद्वयोनास्त्रिचत्वारिंशत्प्रत्ययाः ४३ स्युः ॥१८॥ ___ सम्यक्त्वमार्गणाको अपेक्षा औपशमिकसम्यक्त्वी जीवोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्वपंचक, और आहारकद्विक इन ग्यारहके विना शेष छयालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं। वेदकसम्यक्त्वी और क्षायिकसम्यक्त्वी जीवोंमें आहारकयुगलसे युक्त उपयुक्त छयालीस अर्थात् अड़तालीस-अड़तालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्वपंचक और आहारकद्विक, इन सातके विना शेष पचास बन्ध-प्रत्यय होते हैं। मिथ्यादृष्टियोंमें आहारकद्विकके विना शेष पचपन प्रत्यय होते हैं। मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्वपंचक, तीनों मिश्रयोग (औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण) तथा आहारकद्विक, इन चौदहके विना शेष तैंतालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥६७-६८।। मिच्छाइचउक्केयारजोगुणा असण्णिए मोत्तु। भासंतोरालदुअं कम्मं सण्णिम्मि सव्वे वि ॥६६॥ . मिथ्यात्वादिचतुष्कं मिथ्यात्वाविरतकपाययोगा इति चतुष्कं तन्मध्ये पञ्चदश योगा वर्तन्ते । तत्र भाषान्तं अनुभयवचनं औदारिकद्विक कार्मणं चेति चतुर्योगान् मुक्त्वा शेषकादश योगाः, असंज्ञित्वान्मनो ना अन्ये ४५ असंज्ञिजीवे प्रत्ययाः स्युः । ते के ? मिथ्यात्वपञ्चकं ५, अविरतयः ११, कषायाः २५, योग: ४ एवं ४५ । संज्ञिजीवे सर्वे सप्तपञ्चाशत् ५७ प्रत्ययाः स्युः ॥६॥ संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व आदि चार मूलप्रत्ययोंमेंसे योग-सम्बन्धी अन्तिम वचनयोग, औदारिकद्विकयोग और कामणकाययोग, इन चारको छोड़कर शेष चार मनोयोग, आदिके तीन वचनयोग, वैक्रियिकद्विक और आहारकद्विक इन ग्यारह योगोंके विना अवशिष्ट बन्ध-प्रत्यय होते हैं । संज्ञी जीवों में सर्व ही बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६॥ विशेषार्थ-यद्यपि भाष्य-गाथामें 'एयार जोगूणा' ऐसा निर्देश है, अतः ग्यारह ही योग कम करना चाहिए थे । परन्तु यतः असंज्ञी जीवोंके मन नहीं होता, अतः मन-सम्बन्धी अविरतिका न होना भी स्वतः-सिद्ध है । इस प्रकार ग्यारह योग और एक मन-सम्बन्धी अविरतिके घटाने पर शेष पैंतालीस बन्ध-प्रत्यय असंज्ञी जीवोंमें पाये जाते हैं, ऐसा जानना चाहिए। आहारे कम्मूणा इयरे कम्मूण जोयरहिया ते । एवं तु मग्गणामुं उत्तरहेऊ जिणेहिं णिहिट्ठा ॥१०॥ मग्गणासु पञ्चया समत्ता। कैब जुवल । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११३ आहारके कार्मणोनाः अन्ये ५६ आस्त्रवाः स्युः । इतरे अनाहारे कार्मणे चतुर्दशयोगरहितास्ते प्रत्ययाः ४३ भवन्ति । मिथ्यात्वपञ्चकं ५, अविरतयः १२, कपायाः २५, कार्मणयोगः १, एवं अनाहारके ४३ भवन्ति । एवं तु पुनः मागंणास्थानेषु उत्तरहेतवः उत्तरप्रत्ययाः कर्म-कारणानि जिननिर्दिष्टाः कथिताः ॥१०॥ इति मार्गणासु प्रत्ययाः समाप्ताः । आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगको छोड़कर शेष छप्पन बन्धप्रत्यय होते हैं। अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगके विना शेष चौदह योग नहीं पाये जाते हैं, अतएव उनके घट जानेसे तेतालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं। इस प्रकार जिनेन्द्रदेवने मार्गणाओंमें बन्धके उत्तर-प्रत्ययोंका निर्देश किया है ॥१०॥ प्रब गणस्थानोंकी अपेक्षा एक जीवके एक समयमै संभव जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट बन्ध-प्रत्ययोंका निर्देश करते हैं 'दस अट्ठारस दसयं सत्तर णव सोलसं च दोण्हं पि । अट्ट य चउदस पणयं सत्त तिए दु दिदु एगेगं ॥१०१॥ एयजीवं पडुच्च एयसमये जहण्णुकस्स-उत्तरोत्तरपच्चया अथ मिथ्यात्वादिगुणस्थानेषु एकजीवस्य एकस्मिन् समये जघन्य-मध्यमोस्कृष्टभेदेन सम्भवदुत्तरोत्तरप्रत्ययान् प्ररूपयति-[ 'दस अट्ठारस दसयं' इत्यादि । एकस्य जीवस्यकस्मिन् समये सम्भवत्प्रत्ययसमूहः स्थानम् । तच्च गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टौ जघन्यस्थानं दशकम् १० । मध्यममेकैकाधिकम् ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७ यावदुरकृष्टमष्टादशकम् १८। सासादने जघन्यं दशकं स्थानम् १०, तथा मध्यम ११, १२, १३, १४, १५, १६ यावदुत्कृष्टम् १७ स्थानं सप्तदशकम् । मिश्रे जघन्यं नवकम् ६ । तथा मध्यमं [१०, ११, १२, १३, १४, १५ यावत् ] उत्कृष्टं षोडशकम् १६ । तथाऽसंयतेऽपि जघन्यं नवकम् । तथा मध्यमं [ १०, ११, १२, १३, १४, १५ यावत् ] उत्कृष्टं षोडशकम् १६ । द्वयोरपि वचनात् । देशसंयते जघन्यमष्टकम् ८। तथा मध्यमं [, १०, ११, १२, १३ यावत् ] उत्कृष्टं चतुर्दशकम् १४ । त्रिके प्रमत्ताऽप्रमत्ता पूर्वकरणेषु प्रत्येकं पञ्च-पटक-सप्तकानि ज० ५, म० ६, उ०७। भनिवृत्तिकरणे द्विके २ विके ३ द्वे। सुचमसाम्पराये द्विकम् २ । उपशान्तकपायादित्रये एककमेकैकम् । अयोगे शन्यं प्रत्ययाभावात् ॥१०॥ __ एकजीवं प्रतीत्य आश्रित्य एकसमये जघन्योत्कृष्टोत्तरोत्तरप्रत्यया एतेगुग० मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० अयो. जघ० १० १० १ १ ८ ५ ५ ५ २ २ १ १ १ . उत्कृ० १८ १७ १६ १६ १४ ७ ७ ७ ३ २ १ १ १ ० मिथ्यात्व गुणस्थानमें जघन्यसे दश और उत्कर्षसे अट्ठारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं। सासादनगुणस्थानमें जघन्यसे दश और उत्कर्षसे सत्तरह, मिश्रगुणस्थान में जघन्यसे नौ और उत्कर्षसे सोलह, अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानमें भी जघन्यसे नौ और उत्कर्षसे सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं। देशविरतगुणस्थानमें जघन्यसे आठ और उत्कर्षसे चौदह, प्रमत्तविरत आदि तीन गुणस्थानोंमें जघन्यसे पाँच-पाँच और उत्कर्पसे सात-सात बन्ध-प्रत्यय होते हैं। अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें जघन्यसे दो और उत्कर्षसे तीन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें जघन्य और उत्कर्षसे दो ही बन्ध-प्रत्यय होते हैं। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली इन तीनों गुणस्थानों में जघन्य और उत्कर्षसे एक-एक ही बन्ध-प्रत्यय होता है ।।१०१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ३७-३६ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पलसंग्रह इस प्रकार गुणस्थानोंमें एक जीवकी अपेक्षा एक समयमें जघन्यसे और उत्कर्षसे संभव उत्तर बन्ध-प्रत्ययोंकी संदृष्टि इस प्रकार जानना चाहिएगुण० मि. सा. मि. अवि० दे० प्र० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० सी० सयो० अयो. ज० १० १० १ R E ५ ५ ५ २ २ १ १ १ . अब काय-विराधना-सम्बन्धी गुणकारोंको बतलाते हैं 'एय वियकायजोगे तिय चउ जोयम्मि पंच छज्जोए । छप्पंच दस य वीसा पिणरस छक्केय कायगुणकारा ॥१०२॥ ६ १५ २० १५ , एवं संजोयादिगुणयारा । अथैकादिकायविराधनागुणकारान् दर्शयति-[ 'एयवियकायजोगे' इत्यादि । ] एक-द्वि-त्रि-चतुः-पव-षट्संयोगेन कायिकाः । गुणकारा भवेयुये ते षट्-पश्चदशादयः ।।६।। अनुलोम-विलोमाभ्यां एकैकोत्तरवृद्धितः । एक-द्वि-त्र्यादिसंयोगे विनिक्षिप्य पटीयसा ॥१०॥ ५ ३ ४ २ अनुलोम-विलोमरचना- ६ अनुलोम-विलोमरचना- १ २ १ ३ ४ ५ ६ पूर्वकेन परं राशिं गुणयित्वा विलोमतः । क्रमादेकादिकैरकै जिते लभ्यते फलम् ॥११॥ षडादीन् एकपर्यन्तान् अङ्कान् संस्थाप्य तदधोहारान् एकादीन् एकोत्तरान् संस्थापयेत् । अत्र प्रथमहारेण , स्वांशे ६ भके लब्धं प्रत्येकभङ्गाः ६ षट् । पुनः परस्पराऽऽहतपट-पञ्चांशः ५ अन्योन्याहतः ३० । तदेक १ द्विकाहारेण २ भक्त लब्धं द्विकायसंयोगभङ्गाः पञ्चदश १५। पुनः परस्पराऽऽहत-तस्त्रिंश ३० चतुरंशे ४ = १२० । तथाकृतद्वित्रि ३ हारण ६ भक्ते लब्धं त्रिकायसंयोगा विंशतिः २० । पुनः तथाकृत. विंशत्यधिकशतं १२० । ३ व्यंशे ३६० तथाकृतषट् ६ चतु ४ होरेण २४ भक्त लब्धं चतुःकायविराधनसं पञ्चदश १५ । पुनः तथाकृतषष्टयधिकत्रिशते ३६० द्वय शे २। ७२० तथाकृतचतुर्विशतिः २४ पञ्चहारेण भक्त १२० लब्धं पञ्चकायविराधनासंयोगाः षट् ६ । पुनः तथाकृत १२० विंशत्यधिकसप्तशते ७२० एकांशे १ तथाकृतविंशत्यधिकशतं १२० षड़ ६ हारेण ७२० भक्त लब्धं पटकायसंयोग एकः । मिलित्वा ७२० । प्रत्येक मिथ्याचादिचतुष्के संयोगगुणकाराः त्रिषष्टिः ६३ भवन्ति । ६ १५ २० १५ ६ १ मि सा मि अ एककायसंयोगभङ्गाः ६ । एवं एककायविराधनायां भङ्गाः ६ । पृथ्वी १ अप १ तेज १ वात १ वनस्पति १ त्रसकाय । द्वयोः संयोगे भङ्गाः १५-पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी अप अप अप अप तेज तेज तेज अप् तेज वात वन० स तेज वात वन ब्रस वात वन० बस 1. सं० पंचसं० ४, ४ । १. सं. पञ्चसं० ४,४४-४५ । २. ४,४६।। +ब पपण। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ १४ १५ वात वात वन ० वन० त्रस त्रस प्रयाणां संयोगभङ्गाः २० एवं द्विकाय विराधनायां भङ्गाः १५ । ११ १२ १३ १४ पृथ्वी पृथ्वी अप् अप् अप् अप् तेज तेज तेज वन० त्रस वात १२ १५ १३ १४ अप् अप् अप् तेज तेज तेज वात वात वात वन० वन० वन ० त्रस त्रस त्रस यस शतक १ २ ३ ४ पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी अप् अप् अप तेज वात वन० त्रसे अप १५ १६ १७ १८ १६ २० तेज तेज वात एवं त्रिकाय विराधनायां भङ्गाः २० । वात वन० वन० तेज वात वात वन० वात वन० ग्रस त्रस वन ० त्रस त्रस २ ३ ४ यस १ ५ ६ ८ ह १० งา पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी अप चतुःसंयोगभङ्गाः १५ अप् अप अप् तेज तेज तेज तेज अप् अप् अप् वात वात वन० वन० स नस तेज तेज वात तेज तेज वात वात वन० वन० वन० त्रस त्रस त्रस वात वन० त्रस पञ्चकायसंयोगजाता भङ्गाः ६. एवं चतुष्कायविराधनायां पचदश भङ्गाः १५ पृथ्वी तेज वात वात वात वन० ग्रस २ ३ ४ ५ पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी अप् अप् तेज तेज तेज अप वात वात वन ० त्रस अप तेज वन ० त्रस ६ ७ ८ 8 १० पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी तेज तेज वात वात वन० वन ० त्रस वन० त्रस श्रस वन ० त्रस १३५ ६ अप तेज वात वन० त्रस यदा पण्णां कायानां मध्ये कश्चित् प्रत्येकमेकैकं कार्यं विराधयति तदा षड् भेदाः ६ । यदा द्वयं द्वयं कार्य विराधयति, तदा भेदाः पञ्चदश १५ यदा त्रिकं त्रिकं कार्य विराधयति, तदा भेदाः विंशतिः २० । यदा कश्चित् कायचतुष्कं काय चतुष्कं विराधयति, तदा भेदाः पञ्चदश १५ । यदा कश्चित् कायपञ्चकं पञ्चकं विराधयति, तदा भेदाः पट् ६ । यदा कश्चित् युगपत् पकायान् विराधयति, तदा भेद एकः । एवं [ सर्वे ] भेदाः ६३ ।। १०२ ।। वात वन० कायवधसम्बन्धी एकसंयोगी भंगों का गुणकार छह, द्विसंयोगी भंगों का गुणकार पन्द्रह, त्रिसंयोगी बीस, चतुःसंयोगी पन्द्रह, पंचसंयोगी छह और षट्संयोगी कायगुणकार एक जानना चाहिए ।। १०२ ।। विशेषार्थं - गुणस्थानांमें बन्ध-प्रत्ययों के एक संयोगी, द्विसंयोगी आदि भंग कितने होते हैं, यह बतलाने के लिए ग्रन्थकारने देशामर्शकरूपसे प्रकृत गाथासूत्र कहा है। इन संयोगी भंगों के सिद्ध करनेका करणसूत्र यह है कि जिस विवक्षित राशिके भंग निकालने हों, उस विवक्षित राशि- प्रमाणसे लेकर एक-एक कम करते हुए एकके अन्त तक अंकोंको स्थापित करना चाहिए । तथा उसके नीचे दूसरी पंक्तिमें एक अंकसे लेकर विवक्षित राशिके प्रमाण तक अंक लिखना चाहिए। पहली पंक्तिके अंकोंको अंश या भाज्य और दूसरी पंक्तिके अंकोंको हार या भागहार कहते हैं । ये भंग भिन्नगणितके अनुसार निकाले जाते हैं, इसलिए यहाँ क्रमसे पहले भाज्यों के साथ अगले भाज्योंका और पहले भागद्दारोंके साथ अगले भागद्दारोंका गुणा करना Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ पञ्चसंग्रह पश्चत चाहिए । पुनः भाज्योंके गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो, उसमें भागहारोंके गुणा करनेसे उत्पन्न राशिका भाग देना चाहिए। इस प्रकार जो प्रमाण आवे, तत्प्रमाण ही विवक्षित स्थानके भंग जानना चाहिए। इसी नियमको ध्यान में रखकरके ग्रन्थकारने मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें संभव काय-वधके संयोगी भंगोंका निरूपण किया है, जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-आदिके चार गुणस्थानोंमें षटकायिक जीवोंका वध सम्भव है, अतएव छह, पाँच, चार, तीन, दो और एक, इन भाज्य अंकोंको क्रमसे लिखकर पुन: उनके नीचे एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह, इन भागहार अंकोंको लिखना चाहिए। इनकी अंक संदृष्टि इस प्रकार होती है यहाँपर पहली भाज्यराशि छहमें पहली हारराशि एकका भाग देनेसे छह आते हैं, अतएव एकसंयोगी भंगोंका प्रमाण छह होता है। पहली भाज्यराशि छहका अगली भाज्यराशि पाँचसे गुणा करनेपर गुणनफल तीस आता है, तथा पहली हारराशि एकका अगली हारराशि दोसे गुणा करनेपर हारराशिका प्रमाण दो आता है। इस दो हारराशिका भाज्यराशि तीसमें भाग देनेपर भजनफल पन्द्रह आता है, यही द्विसंयोगी भंगोंका प्रमाण है। इसी क्रमसे त्रिसंयोगी भंगोंका प्रमाण बीस, चतुःसंयोगी भंगोंका पन्द्रह, पंचसंयोगी भंगोंका छह और षट्संयोगी भंगोंका प्रमाण एक आता है। इन संयोगी भंगोंकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-- ६ १५ २० १५६ १ यह उपर्युक्त गाथासूत्र अन्य बन्ध-प्रत्ययोंके भंग जाननेके लिए बीजपदरूप है, इसलिए शेष बन्ध-प्रत्ययोंके भी भंग इसी उपर्युक्त प्रकारसे सिद्ध करना चाहिए । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि आगे मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में उत्तरप्रत्ययोंकी अपेक्षा जो भंग विकल्प बतलाये हैं, उनके लानेके लिए केवल काय-अविरतिके भेदोंकी अपेक्षा गुणकाररूपसे संख्या-निर्देश करना पर्याप्त नहीं है, किन्तु उन काय-अविरति-भेदोंके जो एक-संयोगी, द्वि-संयोगी आदि भंग होते हैं, गुणकाररूपसे उन भंगोंकी संख्याका निर्देश करने पर ही सर्व भंग-विकल्प आते हैं, इसलिए यहाँपर छह काय-अविरतियोंकी अपेक्षा एक-संयोगी आदि भंग लाकर उन्हें काय-गुणकार-संज्ञा दी गई है। इस प्रकारके काय-विराधना-सम्बन्धी गुणकार तिरेसठ होते हैं, जो कि मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें पाये जाते हैं। इनका विशेष विवरण संस्कृत टीकामें दिया गया है जिसका अभिप्राय यह है कि जब कोई जीव क्रोधादि कषायोंके वश होकर षट-कायिक जीवोंमेंसे एक-एक कायिक जीवको विराधना करता है, तब एक संयोगी छह भंग होते हैं। जब छह कायिकोंमेंसे किन्हीं दो-दो कायिक जीवोंकी विराधना करता है, तब द्विसंयोगी पन्द्रह भंग होते हैं। इसी प्रकार किन्हीं तीन-तीन कायिक जीवोंकी विराधना करनेपर त्रिसंयोगी भंग बीस, चार-चारकी विराधना करनेपर चतुःसंयोगी भंग पन्द्रह, पाँच-पाँचकी विराधना करनेपर पंच-संयोगो भंग छह होते है। तथा एक साथ छहा कायिक जीवाकी विराधना करनेपर षट्संयोगी भंग एक होता है। इस प्रकारसे उत्पन्न हुए एक-संयोगी आदि भंगोंका योग तिरेसठ होता है। आवलिय मेत्तकालं अणंतबंधीण होइ णो उदओ । अंतोमुहुत्त मरणं मिच्छत्तं दंसणा पत्ते* ॥१०३॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ४१-४२ । * द पत्तो । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ११. 'मिच्छत्तक्खं काओ कोहाई तिण्णि वेद एगो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो दस होंति हेऊ* ते ॥१०४॥ ११।१।३।१।२।। मिलिया १० ।। यः सम्यश्वात्पतितो मिथ्यात्वं प्राप्तस्तस्याऽनन्तानुबन्धिनां आवलिकामात्रकालं उदयो नास्ति, अन्तर्मुहूतकाले मरणमपि नास्तीति तदाह--[ 'भावलियमेत्तकालं' इत्यादि ] दर्शनात् अनन्तानुबन्धिविसंयोजितवेदकसम्यक्त्वात् मिथ्यास्वकर्मोदयान्मिथ्यारष्टिगुणस्थानं प्राप्त सति आवलिमात्रकालं भावलिपर्यन्तं अनन्तानुबन्धिनां उदयो नास्ति । अन्तर्मुहूर्त यावत्, तावन्मरणं नास्ति । तावत्कालं सम्यक्त्वप्राप्तिनास्ति ॥१०॥ तथा चोक्तम् अण संजोजिदसम्मे मिच्छं पत्ते ण आवलि त्ति अणं । उवसम खविये सम्म ण हि तत्थ वि चारि ठाणाणि ॥१२॥ अणसंजोजिद मिच्छे मुहुत्त-अंतो त्ति णत्थि भरणं तु ॥१३॥ इति कालमावलिकामानं पाकोऽनन्तानुबन्धिनाम् । जन्तोरस्ति न सम्यक्त्वं हित्वा मिथ्यात्वयायिनः ।।१४।। सम्यक्त्वतो न मिथ्यात्वं प्रयातोऽन्तमुहूत्तकम् । मिथ्यात्वतो न सम्यक्त्वं शरीरी याति पञ्चताम् ॥१५॥ इति पञ्च [ मिथ्यात्वानि, पडिन्द्रियाणि, एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च-षट्कायवधान, चत्वारि क्रोधचतुष्काणि श्रीन् वेदान् , हास्ययुग्मारतियुग्मे आहारकद्वयं विना ] त्रयोदशयोगांश्च उपर्युपरि तिर्यग् रचयित्वा इदं कूटं कथ्यते--भय-जुगुप्सारहितं प्रथमं कूट १ । तदन्यतरयुतं द्वितीयं कूटं २। तद्वययुतं तृतीयं कूटं ३ । इति सामान्यकूटानि त्रीणि ३। अनन्तानुबन्ध्यूनानि कूटानि त्रीणि ३ । मिलित्वा मिथ्यादृष्टौ पट कूटानि ६ भवन्ति । अनन्तानबन्धि-रहितप्रथमे कटे-का० म० भ० मिथ्यात्व १ मिन्द्रियं १ कायः कषायैक्तमत्रयम् ३ । एको वेदो १ द्वियुग्मैकं २ दशयोगैककः १ परम ॥१६॥ मि० इं. का० कषा. वे. हा यो० मेलिताः पिण्डीकृताः दश १०। एते जघन्यहेतवः प्रत्ययानि मिथ्यारष्टौ भवन्ति १० । अत्र पञ्चानां मिथ्यात्वानां मध्ये एकतमस्योदयोऽस्तीत्येको मिथ्यात्वप्रत्ययः । षण्णामिन्द्रियाणामेकतमेन षण्णां कायानामेकतमविराधने कृते अतंयमप्रत्ययः १ । प्रथमचतुष्कहीनानां चतुर्णा कषायाणामेकतमत्रिकोदये त्रयः कषायप्रत्ययाः ३ । त्रयाणां वेदानामेकतमोदये एको देदप्रत्ययः । हास्य-रतियुग्माऽरतिशोकयुग्मयोरेकतरोदये द्वौ युग्मप्रत्ययौ २ । आहारकद्वय-मिश्रत्रयहीनानां दशानां योगानामेकतमोदयेन एको योगप्रत्ययः १ । एवमेते मिथ्यादृष्टेरेकस्मिन् समये जघन्यप्रत्ययाः दश १० ।। १०४।। सत्रयोदशयोगस्य सम्यग्दशनधारिणः ।। मिथ्यात्वमुपयातस्य शान्तानन्तानुबन्धिनः ॥१७॥ पाकोनावलिका यस्मादस्त्यनन्तानुबन्धिनाम् । ततोऽनन्तानुबन्ध्यूनकषायप्रत्ययत्रयम् ।।१८।। 1. सं. पञ्चसं० ४, ४७ । 2. ४,४८-४६ ।। १. गो. क० ४७८ । २. गो. क. ५६१ (पूर्वाध)। ३. सं० पञ्चसं० ४, ४१-४२ । ४. सं. पञ्चसं० ४, 'अत्र पंचानां' इत्यादि गद्यभागः शब्दशस्तुल्यः (पृ. १०)। द ते हेऊ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह का. अ असौ न म्रियते यस्मात्कालगन्तर्मुहूर्तकम् । मिश्रत्रयं विना तस्माद्यौगिकाः प्रत्ययाः दश ।।१६।। इति १।१३।१२।१ जो अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके एक आवलीमात्रकाल तक अनन्तानुबन्धी कषायोंका उदय नहीं होता है। तथा सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवका अन्तर्मुहूर्तकाल तक मरण भी नहीं होता है इस नियमके अनुसार मिथ्यादृष्टिके एक समयमें पाँच मिथ्यात्वों में से एक मिथ्यात्व, पाँच इन्द्रियोंमेंसे एक इन्द्रिय, छह कायोंमें से एक काय, अनन्तानुबन्धीके विना शेष कषायोंमेंसे क्रोधादि तीन कषाय, तीन वेदोंमें से कोई एक वेद, हास्यादि दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल और आहारकद्विक तथा अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी तीन मिश्रयोग, इन पाँचके विना शेष दश योगोंमें से कोई एक योग इस प्रकार जघन्यसे दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१०३-१०४॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१+३+१+२+१= १० मि० इ० का० क. वे० हा० यो * इस कूटका अभिप्राय इस प्रकार हैआगे मिथ्यात्वादि गुणस्थानोंमें जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट संख्या तकके बन्ध-प्रत्ययोंके उत्पन्न करनेके जो प्रकार बतलाये गये हैं, उनमें जहाँ जितने और जो बन्ध-प्रत्यय विवक्षित हैं यद्यपि उनका संख्याके साथ नाम निर्देश गाथाओंमें किया गया है, तथापि काय-सम्बन्धी अविरति, अनन्तानुबन्धि-चतुष्क और भय-युगलके सद्भाव-असद्भावके जिन भंगोंका निर्देश किया गया है, वहाँ उनके स्थानमें विवक्षित अन्य प्रत्ययोंके साथ उनके अन्य भंग भी हो सकते हैं । परन्तु ऐसा करनेसे स्थानोंकी निश्चित संख्याका व्यतिक्रम हो जाता है, जो विवक्षित स्थान-संख्याको ध्यानमें रखते हुए अभीष्ट नहीं है । इस प्रकारके इस गूढार्थको स्पष्ट करनेके लिए कूटोंकी रचना की गई है। इन कूटोंसे गाथामें निर्दिष्ट विवक्षित स्थान-संख्याके साथ काय-विराधना आदि तीनोंक भंगोंका स्पष्ट बोध हो जाता है। उदाहरण-स्वरूप दश-प्रत्ययक बन्धस्थानके इस कूटके प्रथम भागमें 'का'के नीचे एकका अंक दिया हुआ है, जिसका अभिप्राय यह है कि यहाँपर कायसम्बन्धी एक-संयोगी गुणकार विवक्षित है। 'अ' के नोचे शून्य दिया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि यहाँपर अनन्तानुबन्धि-चतुष्कसे रहित स्थान विवक्षित है। 'भ०'के नीचे जो शून्य दिया गया है, उससे यह सूचित किया गया है कि यहाँपर भय-युगलसे रहित स्थान विवक्षित है । आगे आनेवाले सभी कूटोंमें दिये गये अंकों या शून्योंसे भी इसी प्रकारका अर्थ लेना चाहिए । इस प्रकारके गूढ रहस्यसे अन्तर्हित रखनेके कारण इसे कूट-संज्ञा दी गई है। पंच मिच्छत्ताणि, छ इंदियाणि, छकाया, वत्सारि वि कसाया, तिणि वेया, एयजुयलं, दस जोगा। ५।६।६।४।३।२।३० । अपगोषणगुणिया दसजोगजहण्णभंगा ४३२०० । एतेषाञ्च भङ्गा:-मिथ्यात्वपञ्चकेन्द्रियपट क-कायषटक-कपायचतुष्क-वेदत्रय-युग्मद्वययोगदर्शकतमभङ्गाः ५।६।६।४।३।२।१० । अन्योन्यगुणिताः दशसंयोगस्य जघन्यभङ्गाः स्युः ४३२०० । तत्कथम् ? दश १० द्वाभ्यां २ गुणिता: विशतिः २०, त्रिभिर्गुणिताः षष्टिः ६०, चतुर्भिगुणिताः २१०। एते षडभिगुणिता: १४४०। एते पुनः पड्भिगुणिताः ८६४० । एते पञ्चभिगुणिताः ४३२०० । अनेन प्रकारेण सर्वत्र अन्योन्यभङ्गाः गुगनीयाः ॥१०॥ १. सं. पञ्चसं० ४, ५० । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक इन दश बन्ध-प्रत्ययोंके भंग तेतालीस हजार दो सौ होते हैं। उनके निकालनेका प्रकार यह है-पाँच मिथ्यात्व, छह इन्द्रियाँ, छह काय, चारों कषाय, तीनों वेद, हास्यादि एक युगल और दश योग, इन्हें क्रमसे स्थापित करके परस्परमें गुणा करनेपर जघन्य दश बन्ध-प्रत्ययोंके भंग सिद्ध होते हैं। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है ५४६४६x४४३४२४१० = ४३२०० दश बन्ध-प्रत्ययोंके भंग । आगे बतलाये जानेवाले मिथ्याष्टिके ग्यारह बन्ध-प्रत्यय- का० अ० भ० सम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है मिच्छत्तक्ख दुकाया कोहाई तिणि वेय एगो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो एयारसं हेऊं ॥१०॥ ११।२।३।१।२।१। मिलिया ११ । मिथ्यात्वमेकं १ खमिन्द्रियमेकं १ द्विकायविराधनाद्विकं २ अनन्तानुबन्धिरहित-कषायत्रिकं ३ वेद एकः १ हास्यादियुगलं २ योग एकः , चेत्येवं संयोगीकृता मध्यमहेतवः प्रत्ययाः भवन्ति ।। २।३।१।२।१ । मीलिताः ११ ॥१०५॥ . मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१०५॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+२+३+१+२+१=११ । मिच्छत्तक्खं काओ कोहाइचउक वेय एगो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो एयारसं हेऊ ॥१०६।। ११।४।१।२।। मिलिया ११ । मिथ्यात्वमेकतम १ खमिन्द्रियमेकं १ कायः १, क्रोधादिचतुष्कं ४ अत्रानन्तानुबन्धित्वात् । वेद एकतमः १ हास्यादियुगलं । संयोगे एकादश ११ मध्यमप्रत्ययाः १११।१।४।१२।१ मीलिताः ११॥१०६॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१०६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१+४+१+२+१=११ । मिच्छत्तक्खं काओ कोहाई तिण्णि वेय एगो य । हस्साइजुयं एयं भयदुय एयं च जोगो ते ॥१०७|| ११।१।३।१।२।१।। मिलिया ११ । मिथ्यात्वे १ न्द्रिय १ क्रोधादिकै ३ कवेदै १ क-हास्यादियुग्म २ भयेक १ योगैकतमाः भङ्गाः ।। १।१।३.१।२।१। पिण्डीकृताः ११ ॥१०७॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भय-जुगुप्सामेंसे एक, और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१०७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१+३+१+२+१+१=११ । एदेसि च भंगा-५।६।१५।४।३।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिया १०८०००। . ५।६।६।४।३।२।१३। एदे अण्णोण्णगुणिय । ५६१६० । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पञ्चसंग्रह ५।६।६।४।३।२।२।१०। एदे अण्णोण्णगुणिया 5६४०० । ए तिण्णिम्मि मिलिए मज्झिमभंगा हवंति १०८०००+ ५६१६० +८६४०० =२५०५६० । एतेषां त्रयाणां भङ्गाः ५।६।१५।४।३।२।१०। एते अन्योन्यगुणिताः १०८०००। ५।६।६।४।३।२।१३ एते परस्परं गुणिताः ५६१६० । ५।६।६।५।३।२।२।१० एते अन्योन्यगुणिताः ८६४०० । एते त्रयो राशयः एकीकृताः एकादशानामुत्तरोत्तरमध्यमभङ्गाः २५०५६० भवन्ति । इन उपर्युक्त ग्यारह बन्ध-प्रत्ययोंके तीनों प्रकारोंके भंग इस प्रकार हैंप्रथम प्रकार-श६।१५।४।३।२।१०। इनका परस्पर गुणा करनेपर १०८००० भंग होते हैं। द्वितीय प्रकार-५।६।६।४।३।२।१३। इनका परस्पर गुणा करनेपर ५६१६० भंग होते हैं। तृतीय प्रकार-५।६।६।४।३।२।२।१०। इनका परस्पर गुणा करनेपर ८६४०० भंग होते हैं । उक्त तीनों प्रकारोंके भंगोंके प्रमाणको जोड़ देनेपर (१०८०००+५६१६०+८६४००=) मध्यम ग्यारह बन्ध-प्रत्ययोंके सर्व भंगोंका प्रमाण २५०५६० होता है। का० अ० भ मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले बारह बन्ध-प्रत्ययसम्बन्धी भंगों को निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है , هه مه له मिच्छत्तक्खतिकाया कोहाई तिणि एय वेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो बारह हवंति ते हेऊ ॥१०॥ १।१।३।३।१।२।१। मिलिया १२। मिथ्यात्वं खमिन्द्रियं । त्रिकायविराधना ३ अनन्तानुबन्ध्यनक्रोधादित्रयं ३ एको वेदः हास्यादियुगलं २ योग एकः १ इत्येवं द्वादश हेतवः १२ प्रत्ययास्ते भवन्ति ॥१०॥ १1१1३।३।१२।१ मीलिताः १२। एतेषां भङ्गाः-मिथ्यात्वपञ्चके ५ न्द्रियषटक ६ त्रिकायविराधनासंयोगविंशतिः २० कषायचतुष्क ४ वेदत्रय ३ हास्यादियुग्म २ मिश्रत्रिकाऽऽहारकद्विकरहितयोगाः १. भङ्गाः ५।६।२०।४।३।२।१० परस्परगुणिताः १४४०००। अथवा मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+३+३+१+२+१=१२ । मिच्छत्तक्खदुकाया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो बारह हवंति ते हेऊ ॥१०६॥ १।१।२।४।१।२।१ एते मिलिया १२ । ११।२।४।१।२।। एते मीलिताः १२ । एतेषां भङ्गाः विकल्पाः ५।६।१५।४।३।२।१३ परस्पराभ्यस्ताः १४०४०० ॥१०॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, योग एक, इस प्रकार बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+२+४+१+२+१=१२ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक मिच्छत्तक्खदुकाया कोहाई तिष्णि एयवेदो य । हस्सा दुयं एयं भयदुय एयं च जोगो य ॥११०॥ |१।१।२।३।१।२।१।१ । एते मिलिया १२ । |१।१२।३।१।२।१।१ एते मिलिताः १२ । एतेषां भङ्गाः ५|६|१५|४।३।२।२।१० परस्परं हताः २१६००० ॥ ११० ॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विक में से एक और योग एक; इस प्रकार बारह बन्धप्रत्यय होते हैं ॥ ११०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १ + १+२+३+१+२+ १ + १ = १२ । मिच्छत्तक्खं काओ कोहाड़चक्क एयवेदो य । सादियं एयं भयदुय एयं च जोगो य ॥ १११ ॥ |१|१|१|४|१|२|१|१ | एदे मिलिया १२ । १।१।१।२।१।२।१।१ एते पिण्डीकृताः १२ । एतेषां विकल्पाः ५|६|६| ४ | ३ |२| २|१३ परस्परेण गुणिताः ११२३२० ॥ १११॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमें से एक, और योग एक; इस प्रकार बारह बन्धप्रत्यय होते हैं ॥ १११ ॥ इसकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १+१+१+४+१+२+१+१=१२ । मिच्छत्तक्खं काओ कोहाई तिष्णि एयवेदो य । हस्सा दिदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥ ११२ ॥ १।।।१।३।१।२।२।१ । एदे मिलिया १२ । १।१।१।३।१।२।२।१ एते मिलिताः १२ । एतेषां भङ्गाः ५|६|६|४|३|२२|० परस्परेण गुणिताः ४३२०० ॥ १५२ ॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल एक और योग एक; इस प्रकार बारह बन्धप्रत्यय होते हैं ॥ ११२ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १+१+१+३+१+२+२+१=१२। एदेसिं च भंगा - ५/६/२०|४|३|२|१० । एदे अष्णोष्णगुणिदा = १४४००० ए: अण्णोष्णगुणिदा = १४०४०० एदे अण्णोण्णगुणिदा = २१६००० एदे अगोष्णगुणिदा: = ११२३२० एदे अण्णोष्णगुणिदा : ५|६|१५|४|३|२| १३ | = ४३२०० = ६५५६२० १२१ ५/६/१५/४/३।२।२।१० | ५|३|६|४|३|२/२/१३ | ५/६|६|४|३|२।२।१० । एए पंच वि मिलिया मज्झिमभंगा एते पञ्च राशयः एकीकृता मिथ्यात्रे मध्यमद्वादशप्रत्ययानां उत्तरोत्तरमध्यमभङ्गाः ६५५६२० भवन्ति । सुगमत्वात् वारं वारं वृत्तिविस्तरो न कृतोऽस्ति । इन उपर्युक्त बारह् बन्धप्रत्ययोंके पाँचों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार होते हैं प्रथम प्रकार—५|६|२०|| ४ | ३ |२| १० इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४००० भङ्ग होते हैं । द्वितीय प्रकार—५|६|१५|४ | ३ |२| १३ इनका परस्पर गुणा करनेपर १४०४०० भङ्ग होते हैं । तृतीय प्रकार – ५|६|१५| ४ | ३ |२२|१० इनका परस्पर गुणा करनेपर २१६००० भङ्ग होते हैं । १६ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पञ्चसंग्रह चतुर्थ प्रकार-१६।६४।३।२।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर ११२३२० भङ्ग होते हैं। पंचम प्रकार-५।६।६।४।३।२।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर ४३२०० भङ्ग होते हैं। उक्त पाँचों प्रकारोंके भङ्गोंके प्रमाणको जोड़ देनेपर ( १४४०००+१४०४००+२१६०००+ ११२३२०+४३२००=) बारह बन्धप्रत्यय-सम्बन्धी सर्व मध्यम भङ्गों का प्रमाण ६५५६२० होता है। का० अन० भ० ___ मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले तेरह बन्ध-प्रत्यय- सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है ३ ३ ० १ मिच्छक्खं चउकाया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो तेरह हवंति ते हेऊ ॥११३॥ ११।४।३।३।२।१। एदे मिलिया १३ । मध्यमत्रयोदशप्रत्ययभेदाः चतुरित्रिद्विद्वयककायविराधनादिभेदान् गाथाषटकेनाऽऽह-["मिच्छक्खं चउकाया' इत्यादि । ] १११।४।३।१२।१ एते मिलिता: १३ । एतेषां च भङ्गाः ५।६.१५।४।३।२।१० एते अन्योन्यगुणिताः १०८०००॥११३॥ अथवा मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक इस प्रकार तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।११३॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+३+१+२+ १ =१३ । मिच्छत्तक्ख तिकाया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो तेरह हवंति ते हेऊ ॥११४॥ १११।३।४।१।२।१ । एदे मिलिया १३ । १।१३।४।।२।१ एते मीलिताः १३ त्रयोदश मध्यमप्रत्ययाः भवन्ति । एतेषां विकल्पाः ५।६।२०१४।३२।१३ एते परस्परगुणिता: १८७२०० ॥११॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥११४॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+३+४+१+२+१= १३ । मिच्छत्तक्खतिकाया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भय दुय एयं च जोगो य ॥११॥ __११३।३।१।२।१।१ । एदे मिलिया १३ । १।१।३।३।१।११।१ एकीकृताः १३ प्रत्ययाः भवन्ति । एतेषां भङ्गाः ५।६।२०।४।३।२।२।१०। एते परस्परेण हताः २८००० विकल्पा भवन्ति ॥१५॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; इस प्रकार तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥११४॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+३+३+१+२+१+१= १३ । | Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२३ मिच्छत्तक्खदुकाया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयदुय एयं च जोगो च ॥११६।। १।२।४।१।२।१।१ । एदे मिलिया १३ । १।१२।४।१२।११ एते पिण्डीकृताः प्रत्ययाः १३ । एतेषां भङ्गाः ५।६।१५।४।३।२२।१३ । एते अन्योन्यगुणिताः २८०८०० उत्तरोत्तरविकल्पाः स्युः ॥११६॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; इस प्रकार तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥११६।। इनकी अंक संदृष्टि इस प्रकार है-१+१+२+४+१+२+१+१ = १३ । मिच्छत्तक्खदुकाया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्साई दुयमेंयं भयजुयलं होंति जोगो य ॥११७॥ २।३।१२।२।१ । मिलिया १३ । १।१२।३।१२।२।१ एते एकीकृताः १३। एतेषां च भङ्गाः ५।६।१५।४।३.२।१० परस्परेण गुणिताः १०८००० विकल्पा भवन्ति ॥११७॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक, इस प्रकार तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।११७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+२+३+१+२+२+१= १३ । मिच्छत्तक्खं कायो कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं होंति जोगो य ॥११८॥ ११।१।४।१।२।२।१ । एदे मिलिया १३। १।११।१२१ एते मेलिताः १३ प्रत्ययाः स्यः । एतेषां च भडाः ५।६।६।१३।२।१३ एते अन्योन्यगुणिताः ५६१६० विकल्पा भवन्ति ।।११८॥ अथवा मिथ्यात्व एक. इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग, इस प्रकार तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥११॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१+४+१+२+२+१= १३ । एदेसि च भंगा-५।६।१५।४।३।२।१०। एदे अण्णोष्णगुणिदा= १०८००० ५।६।२०।४।४।३।२।१३ । एदे अपणोण्णगुणिदा- १८७२०० ५।६।२०।४।३।२।२।१० । एदे अण्णोण्णगुणिदा= २८८००० ५।६।१५।४।३।२।२।१३ । एदे अण्णोण्णगुणिदा- २८०500 ५।६।१५।४।३।२।१०। एदे अण्णोण्णगुणिदा = १०८००० ५।६।६।४।३।२।३। एदे अपणोण्णगुणिदा= ५६१६० एदे सव्वे वि मिलिया हवंति = १०२८१६० एतेषां पड़ राशयः एकीकृताः १०२८१६० मध्यमत्रयोदशप्रत्ययानामुत्तरोत्तर विकल्पा भवन्ति । इन उपर्युक्त तेरह बन्ध-प्रत्ययोंके छहों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार होते हैंप्रथम प्रकार-५।६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १०८००० भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार-५।६।२०।४।३।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर १८७२०० भङ्ग होते हैं। तृतीय प्रकार-५।६।२०।४।३।२।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर २८८००० भङ्ग होते हैं। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पञ्चसंग्रह चतुथे प्रकार-५।६।१५।४।३।२।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर २८०८०० भङ्ग होते हैं । पंचम प्रकार-श६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १०८००० भङ्ग होते हैं । षष्ठ प्रकार-५।६।६।४।३।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर ५६१६० भङ्ग होते हैं। उक्त छहों प्रकारोंके भङ्गोंके प्रमाणको जोड़ देनेपर ( १०८००० +१८७२०० + २८८०००+ २८०८००+१०८०००+५६१६०=) तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व मध्यम भङ्गोका प्रमाण १०२८१६० होता है। का० अन० भ० मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले चौदह बन्ध-प्रत्यय- ४ . . सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस ४ ० १ प्रकार है मिच्छक्ख पंचकाया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो चउदह हवंति ते हेऊ ॥११॥ ११।५।३।१२।१। एदे मिलिया १४ । अथ चतुर्दशप्रत्ययभेदे पञ्चचतुश्चतुस्वित्रिद्विकायविराधनादिभेदान् गाथापट्केनाऽऽह-['मिच्छक्ख पंचकाया' इत्यादि । ११५।३।१२।१ एते पिण्डीकृताः ५१ प्रत्यया मध्यमा भवन्ति । एतेषां भङ्गा: ५।।६।४।३।२।१० परस्परेणाभ्यस्ताः ४३२०० उत्तरोत्तरविकल्पाः स्युः ।। ५१६॥ अथवा मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय तोन, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय होते है ॥११॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+५+३+१+२+१=१४ । मिच्छक्खं चउकाया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो चउदस हवंति ते हेऊ ॥१२०॥ ११।४।४।१।२।१। एदे मिलिया १४ । ५।१।४।४।१।२।। एते मीलिताः १४ मध्यमप्रत्यया भवन्ति । एतेषां च मङ्गाः ५।६।१५।४।३।२।१३ अन्योन्यगुणिता: १४०४०० विकल्पा भवन्ति ।।१२०॥ ___ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक, इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१२०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+४+१+२+१=१४ । मिच्छक्खं चउकाया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च एय जोगो य ॥१२१॥ १।१।४।३।१।२।१।। एदे मिलिया १४ । १।१।४।३।१२।१।१ एकत्रीकृताः १४ । एतेषां भङ्गाः ५।६।१५।४।३।२।२।१० परस्परेण गुणिताः २१६००० भवन्ति । अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और एक योग; इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१२१॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+३+१+२+१+१=१४। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक मिच्छत्तक्ख तिकाया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्सा दुयं एयं भयदु एयं च एयजोगो य ॥१२२॥ |१|१|३|४|१|२|१|१ | एदे मिलिया १४ | १।१।३।४।१।२।१।१ एकीकृताः १४ प्रत्ययाः स्युः । एतेषां भङ्गाः ५/६ २०|४|३।२।२।१३ अन्योन्यगुणिताः ३७४४०० विकल्पा भवन्ति ॥ १२२ ॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और एक योग, इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१२२॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है- १+१+३+४+१+२+१ + १ = १४। मिच्छत्तक्खतिकाया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्सा जुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥ १२३॥ १।१।३।३।१।२।२।१ एदे मिलिया १४ ॥ १।१।३।३।१।२।२।१ एकत्रीकृताः १४ । एतेषां भङ्गाः ५/६ | २०| ४ | ३ |२| १० परस्परेण गुणिताः १४४००० भवन्ति ॥ १२३ ॥ १२५ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग; इस प्रकार चौदह वन्ध-प्रत्यय होते हैं ।। १२३|| इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १ + १+३+३+१+२+२+१=१४ । मिच्छत्तक्ख दुकाया कोहाइचक्क एकवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥ १२४॥ |१|१|२|४|१।२।२।१ एदे मिलिया १४ । १।१।२।४।१।२।२।१ एतेषां भङ्गाः ५|६|१५| ४ | ३।२।१३। परस्परेण गुणिताः १४०४०० ॥ १२४॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग; इस प्रकार चौदह बन्ध- प्रत्यय होते हैं ।। १२४ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १+१+२+४+१+२+२+१=१४। एदेसिं च भंगा – ५|६|६|४।३।२।१० एदे अण्णोष्णगुणिदा = ४३२०० ५/६/१५/४/३/२/१३ एदे अण्णोष्णगुणिदा = १४०४०० ५|६|१५|४।३।२।२।१०। एदे अण्णोष्णगुणिदा = २१६००० ५।६।२०।४।३।२।२।१३ । एदे अष्णोष्णगुणिदा = ३७४४०० ५|६|२०|४|३।२।१० एदे अण्णोष्णगुणिदा = १४४००० ५|६|१५|४|३|२|१३| एदे अण्णोष्णगुणिदा = १४०४०० एदं सव्वे वि मिलिए = १०५८४०० मिलिताः एते सर्वे षड्राशयः विकल्पा भवन्ति । इन उपर्युक्त चौदह बन्ध-प्रत्ययों के छहों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार होते हैंप्रथम प्रकार – ५ | ६|६| ४ | ३ |२| १० इनका परस्पर गुणा करनेपर ४३२०० भङ्ग होते हैं । द्वितीय प्रकार – ५|६| १५ | ४ | ३ |२| १३ इनका परस्पर गुणा करनेपर १४०४०० भङ्ग होते हैं । तृतीय प्रकार - ५|६| १५|४/३/२/२ इनका परस्पर गुणा करनेपर २१६००० भङ्ग होते हैं । १०५८४०० 1 इति चतुर्दश- मध्यमप्रत्ययानां उत्तरोत्तर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पञ्चसंग्रह चतुर्थ प्रकार – ५|६|२०|४|३|२२|१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर ३७४४०० भङ्ग होते हैं । पंचम प्रकार—५|६|२०|४ | ३ |२| १० इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४००० भङ्ग होते हैं । षष्ठ प्रकार—५।६।१५।४।३।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर १४०४०० भङ्ग होते हैं । उक्त सर्वं भङ्गोंका जोड़१०५८४०० यह सब चौदह बन्ध प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका प्रमाण जानना चाहिए । का० ६ ५ ५ ४ ४ ३ मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले पन्द्रह बन्ध-प्रत्ययसम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है मिच्छ्रक्ख पंचकाया कोहाइचक्क एयवेदो य । हस्सादिजुयलमेयं जोगो पण्णरस पच्चया होंति ॥ १२६ ॥ |१|१|५|४|१|२|१| एदे मिलिया १५ ॥ भन० ० 9 ० १ ० भ० ० ० मिच्छिंदि छकाया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सा दिजुयलमेयं जोगो पण्णरस पच्चया होंति ॥ १२५ ॥ |१|१|६|३|२|| एदे मिलिया १५ । अथ पञ्चदशमध्यमप्रत्ययभेदेषु षट् ६ पञ्च ५ पञ्च ५ चतु ४ श्चतु ४ त्रिकाय ३ विराधनादिभेदान् गाथाषट्केन कथयति - [ 'मिच्छिंदिय छक्काया' इत्यादि । ] १।१।६।३।१।२।१। एते मीलिताः १५ प्रत्यया भवन्ति । एतेषां भङ्गाः ५/६/१४/३/२।१०। एते परस्परेण गुणिता ७२०० उत्तरोत्तरप्रत्ययविकल्पा भवन्ति ॥ १२५॥ अथवा मिथ्यात्वगुणस्थान में मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार पन्द्रह बन्ध- प्रत्यय होते ह || १२५|| इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है- १ + १ +६+३+१+२+१ = १५ | 9 9 २ * N १|१|५|४|१।२।१। एते मीलिताः १५ उत्तरप्रत्ययाः । एतेषां च भङ्गाः ५/६ | ६| ४ | ३ |२| १३ | एते अन्योन्यगुणिताः ५६१६० ॥ १२६॥ अथवा मिथ्यात्व एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, और योग एक; इस प्रकार पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१२६ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १ + १ +५+४+१+२+१=१५। मिच्छक्खि पंचकाया कोहाई तिष्णि एयवेदो य । हस्सादिजयं एयं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१२७॥ |१|१|५|३|१| २|१|१| एदे मिलिया १५ । १|१|५|३|१|२|१|१| एकीकृताः १५ । एतेषां विकल्पाः ५।६।६।४।३।२।२।१०। एते परस्परेण हताः ८६४०० भवन्ति ॥१२७॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमें से एक, और योग एक; इस प्रकार पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ||१२७|| इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १ + १+५+३+१+२+१+१=१५। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२७ मिच्छक्खं चउकाया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयदुय एयं च x होंति जोगो य ।।१२।। ११।४।४।१।२।११। एदे मिलिया १५ । १।१।४।४।१२।११। एकीकृताः १५ प्रत्ययाः। एतेषां विकल्पाः ५।६।१५।४।३।२।२।१३ । एते परस्परेण गुणिताः २८०८०० भवन्ति ॥१२॥ __ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; इस प्रकार पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१२८॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+४+१+२+१+ १ = १५ । मिच्छक्खं चउकाया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एवं भयजुयलं एयजोगो य ॥१२॥ ११।४।३।१।२।२।। एदे मिलिया १५ । १।१।४।३।१२।२।। एकीकृताः १५ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ५।६।१५।४।३।२।२।१०। एते भन्योन्याभ्यस्ता: १०८००० ॥१२॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग; इस प्रकार पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१२६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+३+१+२+२+ १ = १५ । मिच्छत्तक्ख तिकाया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्साइदुअं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१३०॥ ११३।४।१।२।२।१।एदे मिलिया १५ । ११॥३॥४१२॥२११ एकीकृताः १५ प्रत्ययाः। एतेषां भङ्गा: ५।६।२०।४।३।२।२।१३। एते अन्योन्यगुणिता: १८७२०० ॥१३०॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग; इस प्रकार पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते है ॥१ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+३+४+१+२+२+१ = १५ । एदेसिं च भंगा-५।६।१।४।३।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिदा= ७२०० ५।६।६।४।३।२।१३ एदे अण्णोण्णगुणिदा= ५६१६० ५।६।६।४।३।२।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिदा= ८६४०० ५।६।१५।४।३।२।२।१३ एदे अण्णोण्णगुणिदा=२८०८०० ५।६।१५।४।३।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिदा = १०८००० ५।६।२०।४।३।२।१३ एदे अपणोप, गुणिदा = १८७२०० एदे सव्वे मिलिया = ७२५७६० एते पड़ राशयो मीलिताः ७२००+५६१६०+८६४००+२५०८००+१०८०००+१८७२०० = ७२५७६० पञ्चदशप्रत्ययानामुत्तरोत्तरविकल्पाः स्युः । इन उपर्युक्त पन्द्रह बन्ध-प्रत्ययोंके छहों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार हैंप्रथम प्रकार-५।६।१।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर ७२०० भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार-५।६।६।४।३।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर ५६१६० भङ्ग होते हैं। x ब अयजुयलं एय जोगो य । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पञ्चसंग्रह तृतीय प्रकार-५।६।६।४।३।२।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर ८६४०० भङ्ग होते हैं। चतुर्थ प्रकार-५।६।१।४।३।२।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर २८०८०० भङ्ग होते हैं। पंचम प्रकार-५।६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १०८००० भङ्ग होते हैं । पाठ प्रकार-५।६।२०।४।३।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर १८७२०० भङ्ग होते हैं। उपर्युक्त सर्व भङ्गोंका जोड़ ७२५७६० यह सब पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका प्रमाण जानना चाहिए। का० अन. भ. मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले सोलह बन्ध-प्रत्ययसम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कुटकी रचना इस प्रकार है-- मिच्छिंदिय छकाया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सादिजुयं एयं जोगो सोलस हवंति ते हेऊ ॥१३१॥ __१११।६।४।३।२।१ एदे मिलिया १६ । अथ मध्यमषोडशप्रत्ययभेदेषु पट्-षट्-पञ्च-पञ्च-चतुःकायविराधनादिप्रत्ययभेदान् गाथापञ्चकेनाऽऽह[ 'मिच्छिदिय छक्काया' इत्यादि । ] १३६।४।१।२।१ एकीकृताः ते षोडश १६ हेतवो भवन्ति । एतेषां भङ्गाः ५।६।१।१३।२।१३। एते परस्परेण गुणिताः ६३६० विकल्पा भवन्ति ॥१३॥ अथवा मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय चार, एक वेद, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१३१।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+६+४+१+२+१=१६ । मिच्छिंदिय छक्काया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयदुय एयं च सोलसं जोगो ॥१३२॥ ११।६।३।१।२।१।१ एदे मिलिया १६ । ११।६।३।१२।११ एकीकृताः १६ प्रत्ययाः। एतेषां भङ्गाः ५।६।१।४।३।२।२।१० एते अन्योन्यगुणिताः १४४०० भवन्ति ॥१३२॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगलमेंसे एक और योग एक, इस प्रकार सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१३२।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+६+३+१+२+१+१=१६। मिच्छक्ख.पंचकाया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च सोलसं जोगो ॥१३३॥ १।१।५।४।१।२।१।१ एदे मिलिया १६ । १।१।५।४।१।२।१११ रकीकृताः १६ । एतेषां भङ्गाः ५।६।६।४।३।२।२।१३। एते अन्योन्यताडिताः ११२३२० प्रत्ययविकल्पाः स्युः ॥१३३॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; इस प्रकार सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१३३॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+५+४+१+२+१+१=१६ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२३ मिच्छक्ख पंचकाया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं भयजुयलं सोलसं जोगो ॥१३४॥ १।१।५।३।१।२।२११। एदे मिलिया १६ । १।१५।३।१।२।२। एकीकृताः १६ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ५।६।६।४।३।२।१० एते परस्परगुणिताः ४३२०० ॥१३॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययगल और योग एक; इस प्रकार सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१३४।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+५+३+१+२+२+१=१६ । मिच्छक्खं चउकाया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१३॥ १।१।४।४।२।२।१ एदे मिलिया १६ । १।१।४।४।१।२।२।। एकीकृताः १६ । एतेषां सङ्गाः ५।६।१५।४।३।२।१३ । परस्परेण गुणिताः १४०४०० ॥१३५॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग; इस प्रकार सोलह बन्ध-प्रत्यय होते है ।।१३५॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+४+१+२+२+१=१६। एदेसिं च भंगा-- ५।६।१।४।३।२।१३ एदे अण्णोण्णगुणिदा= १३६० ५।६।१।४।३।२।२।१० एदे अण्णोणगुणिदा = १४४०० ५।६।६।४।३२२।१३ एदे अण्णोण्णगुणिदा- ११२३२० ५।६।६।४।३।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिदा = ४३२०० ५।६।१५।४।३।२।१३ एदे अण्णोण्णगुणि दा%3D१४०४०० एए सव्वे मिलिया = ३१६६८० एते सर्वे पञ्चराशयः मीलिताः ३११६८० इति मध्यमषोडशप्रत्ययानां विकल्पाः समाप्ताः । इन उपर्युक्त सोलह बन्ध-प्रत्ययोंके पाँचों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार होते हैंप्रथम प्रकार-५।६।१।४।३।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर ६३६० भङ्ग होते हैं । द्वितीय प्रकार-५।६।१।४।३।२।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४०० भङ्ग होते हैं। तृतीय प्रकार-श६६४।३।२।२।१३ इनका परस्पर गणा करनेपर ११२३२० भङ्ग होते हैं। चतुर्थ प्रकार-५।६।६।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर ४३२०० भङ्ग होते हैं। पंचम प्रकार-५।६।१५।४।३।२।२।१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर १४०४०० भङ्ग होते हैं। उपयुक्त सर्व भङ्गोंका जोड़-- =३१६६८० यह सोलह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका प्रमाण है। मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले सत्तरह बन्ध-प्रत्यय- का० भन. भ० सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है मिच्छिदिय छकाया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च सत्तरस जोगो ॥१३६॥ १।१।६।४।१।२।१1१ एदे मिलिया १७ । १७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पञ्चसंग्रह अथ सप्तदशमध्यमप्रत्ययानां भेदे षट्-पट्-पञ्चकायविराधनादिप्रत्ययान् गाथात्रयेणाऽऽह - [ 'मिच्छि दिय छक्काया' इत्यादि] १|१|६|४|१|२|११ एकीकृताः १७ प्रत्ययाः स्युः । एतेषां भेदाः ५।६।१।४।३।२।२ एते परस्परांकेन गुणिताः १८७२० उत्तरोत्तर प्रत्यय विकल्पाः ॥१३६॥ अथवा मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय चार वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विक में से एक और योग एक; इस प्रकार सत्तरह बन्धप्रत्यय होते हैं ॥ १३६ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -? +१+६+४+१+ २ + १ + १ = १७ । मिच्छिंदि छकाया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्साइजुयल मेयं भयजुयलं सत्तरस जोगो ॥१३७॥ |१|१|६|३|१|२|२| १ एदे मिलिया १७ । १।१।६।३।१।२।२।१ एकीकृताः १७ । एतेषां भंगा ५|६|१|४|३|२|१|१० । एते परस्परेण हताः ७२०० विकल्पाः स्युः ॥१३७॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; इस प्रकार सत्तरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१३७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १ + १ +६+३+१+२+२+१ = १७ । मिच्छक्ख पंचकाया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं सत्तरस जोगो ॥१३८॥ १|१|५|४|१।२।२।१ एदे मिलिया ३७ । |१|१|५|४|१।२।२।१ एकीकृताः १७ प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ५।६।६।४।३।२।१।१३ । एते अन्योन्यगुणिताः ५६१६० ॥ १३८ ॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; इस प्रकार सत्तरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।। १३८ || इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -१ + १+५+४+१+२+२+१=१७ । एदेसि च भंगा ५।६।१।४।३।२।२।१३ एदे अण्णोष्णगुणिश = १८७२० = ७२०० ५|६|१|४|३।२।१० एदे अण्णोष्णगुणिदा एदे अण्णोष्णगुणिदा = ५६१६० ५६|६|४।३।२।१३ एए सव्वे मिलिय । = ८२०८० एते त्रयो राशयो मीलिताः १८७२० + ७२०० + ५६१६० = ८२०८० । एते सप्तदश-प्रत्ययानां विकल्पा भवन्ति । इन उपर्युक्त सत्तरह बन्ध-प्रत्ययों के तीनों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार होते हैं प्रथम प्रकार—५|६|१| ४ | ३ |२/२/१३ इनका परस्पर गुणा करनेपर १८७२० भङ्ग होते हैं । द्वितीय प्रकार—५|६| १ | ४ | ३ |२| १० इनका परस्पर गुणा करनेपर ७२०० भङ्ग होते हैं । तृतीय प्रकार -५|६|६| ४ | ३ |२| १३ इनका परस्पर गुणा करनेपर ५६१६० भङ्ग होते हैं । उपर्युक्त सर्व बन्ध-प्रत्ययों का जोड़ = ८२०८० यह सत्तरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गों का प्रमाण है । मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले अट्ठारह बन्ध-प्रत्ययसम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है का० अन० ६ 9 भ० २ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक मिच्छिदिय छक्काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं अट्ठरस जोगो ॥१३६।। १११।६।४।१।२।२।१ एदे मिलिया १८ । अथाष्टादशोत्कृष्टभेदे कायषटकविराधनादिभेदमाह-११।६।४।१।२।२१ एकीकृताः १८ प्रत्ययाः । पञ्चानां मिथ्यात्वानां मध्ये एकतममिथ्यात्वप्रत्ययः। षण्णामिन्द्रियाणामेकतमेन षटकायविराधने सप्ताऽसंयमप्रत्ययाः ११६ । चतुर्णा कपायाणां मध्ये एकतमचतुष्कोदये चत्वारः प्रत्ययाः ४ । वेदानां त्रयाणां मध्ये एकतरो वेदः १ । हास्य-रतियुगलाऽरति-शोकयुगलयोमध्ये एकतरयुगलं २ । भय-जुगप्ताद्वयं २ । आहारकद्वयं विना त्रयोदशानां योगानामेकतमो योगः १ । एवमेतेऽष्टादशोत्कृष्टप्रत्ययाः १८। मिथ्यात्वपञ्चके ५ न्द्रियपट कै ६ ककाय १ कपायचतुष्क ४ वेदत्रय ३ हास्यादियुग्मद्वय २ योगत्रयोदशक १३ भंगाः ५।६।११।३।२।१1१1१३ परस्परेण गणिताः ६३६० अष्टादशोत्कृष्ट प्रत्ययानां विकल्पाः स्युः ॥१३॥ __ अथवा मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हाम्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; इस प्रकार अट्ठारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१३।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+६+४+१+२+२+१=१८ । एदेसि च भंगा-- ५।६।१।४।३।२।१३ । एते मिलिया १३६० । मिच्छाइटिस्स भंगा ४१७३१२० । मिच्छत्तगुणहाणस्स पच्चयभंगा समत्ता । मिथ्यात्वगुणस्थाने दशैकादशाधऽष्टादशानां जघन्य-मध्यमोत्कृष्टानां प्रत्ययानां सर्वे भंगा उत्तरविकल्पा एकीकृताः विंशत्यकशतत्रिसप्ततिसहस्रकचत्वारिंशल्लक्षसंख्योपेता: ४१७३१२० मिध्यादृष्टिषु भवन्ति । इति मिथ्यात्वस्य भंगाः समाप्ताः । अट्ठारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग५४६४१४४४३४२४१३-६३६० इस प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दशसे लेकर अट्ठारह बन्ध-प्रत्ययों तकके सर्व भङ्गोंका प्रमाण ४१७३१२० होता है । जिसका विवरण इस प्रकार हैदश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग ४३२०० ग्यारह " २५०५६० ६५५६२० १०२८१६० १०५८४०० पन्द्रह " ७२५७६० सोलह , ३१६६८० सत्तरह , ८२०८० अट्ठारह " ६३६० मिथ्याष्टिके सर्व बन्ध-प्रत्ययोंके भङ्गोंका जोड़ ४१७३१२० इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानके बन्ध-प्रत्यय सम्बन्धी सर्व भंग समाप्त हुए । बारह तेरह चौदह " " " १. सं. पञ्चसं० ४, पृ० १५ 'पञ्चानां मिथ्यात्वानां' इत्यादि गद्यभागः शब्दशः समानः । २.सं० पञ्चसं० ४, पृ० ९६ 'मिथ्यावपंचके' इत्यादि गद्यभागः शब्दशस्तुल्यः। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पञ्चसंग्रह अब सासादन गुणस्थान-सम्बन्धी बन्ध-प्रत्ययोंके भङ्गोंका निरूपण करते हैं वेउव्वमिस्सजोयं पडुच्च वेदो राउंसओ णत्थि । उववजइ णो णिरए सासणसम्मो त्ति वयणाओ ॥१४०॥ अथ सासादनसम्यग्दृष्टौ जघन्य-मध्यमोत्कृष्टप्रत्ययभेदान् गाथैकोनविंशत्या प्ररूपयति-[ 'वेउव्वमिस्सजोयं' इत्यादि । क्रियिकमिश्रयोगं प्रतीत्याऽऽश्रित्य स्वीकृस्य चैक्रियिकमिश्र नपुंसकवेदो नास्ति । कुतः ? यतः 'सासादनसम्यग्दृष्टिः नरकेषु न उत्पद्यते' इति वचनात् । देवेषु वैक्रियिकमिश्रकाले स्त्रीपुवेदावेव ॥१४०॥ उक्तब सासादनो यतो जातु श्वधभूमि न गच्छति । मिश्रे वैक्रियिके योगे स्त्री-पुंवेदद्वयं यतः ॥२०॥ योगैर्द्वादशभिस्तस्मान्मिश्रवैक्रियिकेण च । त्रिभिाभ्यां च भेदाभ्यां तस्य भङ्गप्रकल्पना ॥२१॥ संस्थाप्य सासनं द्वधा योग-वेदैर्यथोदितः। गुणयित्वाऽखिला भङ्गास्तस्याऽऽनेया यथागमम् ॥२२॥ वैक्रियिकमिश्रकाययोगकी अपेक्षा नपुंसकवेद संभव नहीं है। क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नरकगतिमें उत्पन्न नहीं होता है, ऐसा आगमका वचन है ॥१४०।। सासादनसम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले दश बन्धप्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना का का० अन० भ० इस प्रकार है इंदियमेओ काओ कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो दस पच्चया सादे ॥१४११॥ १1१।४।१।२। एदे मिलिया १० । सासादने षण्णामिन्द्रियाणां मध्ये एकतमेन्द्रियाऽसंयमप्रत्ययः १ । पण्णां कायविराधनानां एकतमकायविराधनाऽसंयमप्रत्ययः । चतुर्णा कषायाणां मध्ये एकतमचतुष्कोदये चत्वारः कषायप्रत्ययाः ४ । त्रयाणां वेदानामेकतरवेदप्रत्ययः १ । हास्य-रतियुग्माऽरति शोकयुग्मयोर्मध्ये एकतरयुग्मं २ । नारकक्रियिकमिश्राऽऽहारकद्वयरहितद्वादशयोगानां मध्ये एकतमो योगः १ । एवमेते दश जघन्यप्रत्ययाः सासादनसम्यग्दृष्टौ भवन्ति। १।१।४।१२।१ एकीकृताः १०। इन्द्रियषट्क ६ कायषटक ६ कषायचतुष्क ४ वेदत्रय ३ हास्यादियुग्म २ नारक क्रियिकमिश्राऽऽहारकद्विकरहितयोगद्वादशक १२ भंगाः ६।६।४।३।२।१२ परस्परेण गुणिताः सन्त: १०३६८ उत्तराः जघन्यदशकस्य विकल्पाः स्युः। पुनः अपूर्णदेवधक्रियिकापेक्षया एते १।१।४।१२।१ एकीकृताः १०। असंयमपटक ६ कायषट्क ६ कपायचतुष्क ४ पण्ढोनवेदद्वय २ हास्यादि. युग्म २ देवसम्बन्धिवै क्रियिकमिश्रयोगकभंगाः ६।६।४।२।२।१ परस्परेण गुणिताः ५७६ भवन्ति । एते द्विराशयः एकीकृताः १०३६८+ ५७६ = १०९४४ जघन्यदशप्रत्ययानां सर्वे उत्तरोत्तरभंगा एते । एवं सर्वत्र गमनिका ज्ञेया ॥१४१॥ सासादन गुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१४१।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+१+२+१=१० १. सं० पञ्चसं० ४,५७ ( पृ० ६६)। २. सं० पञ्चसं० ४,५८-५६ (पृ. १६)। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३३ एदेसिं च भंगा- ६।६।४।३।२।१२ । एदे अण्णोण्णगुणिदा= १०३६८ ६।६।१२।२।१ । एदे अण्णोण्णगुणिदा= ५७६ एदे मेलिए दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार होंगेप्रथम प्रकार-६६।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर १०३६८ भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार-६।६।४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करनेपर ५७६ भङ्ग होते हैं । सासादनगुणस्थानमें दशबन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी उपर्युक्त सर्व भङ्गोंका जोड़ १०६४४ होता है । विशेषार्थ-सासादन गुणस्थानवाला जीव नरकगतिको नहीं जाता है, इसलिए इस गुणस्थानवालेके यदि वैक्रियिकमिश्रकाययोग होगा, तो देवगतिकी अपेक्षासे होगा और वहाँ स्त्रीवेद तथा पुरुषवेद ये दो ही वेद होते हैं, नपुंसक वेद नहीं होता। अतएव बारह योगोंके साथ तीनों वेदोंको जोड़कर भङ्गोंकी रचना होगी। तदनुसार ६४६४४४३४२४१२= १०३६८ भङ्ग होते हैं। किन्तु वैक्रियिकमिश्रकाययोगके साथ नपुंसकवेदको छोड़कर शेष दो वेदोंकी अपेक्षा भङ्गोंकी रचना होगी। तदनुसार ६४६x४४२४२४१ =५७६ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार सासादन गुणस्थानमें दशबन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी इन दोनों प्रकारोंसे उत्पन्न भङ्गोंका जोड़ १०६४४ हो जाता है। सासादन सम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले ग्यारह का० अन० भ० बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी २ १ ० रचना इस प्रकार है इंदिय दोण्णि य काया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो एकारसा जादे ॥१४२॥ १।२।४।१।२।३ । एदे मिलिया ११ । १२।४।१।२।१ एकीकृताः ११ । एतेषां भंगाः ६।१५।४।३।२।१२॥ ६।१५।४।२।२।१ । परस्परेण गुणिताः २५६२०।१४४० ॥१४२॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१४२॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+२+४+१+२+१=११ । इंदियमेओ काओ कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च जोगो य ॥१४३।। ११।४।१।२।। एदे मिलिया ११ । ११।४।२।१।१ एकीकृताः ११। एतेषां भंगाः ६।६।४।३।२।२।१२। वैक्रियिकमाश्रित्य ६।६।४।२।२।२।१ । एते भन्योन्यगुणिताः २०७३६ । ११५२ । एते सर्वे मीलिताः ४६२४८ विकल्पाः मध्यमैकादशानां भवन्ति ॥१४३॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमें से एक और योग एक; इस प्रकार ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१४३।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+४+१+२+१+१=११ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ___ एदेसि च भंगा- ६।१५।४।३।२।१२ एदे अण्णोण्णगुणिदा = २५९२० ६।१५।४।२।२१ एए अण्णोण्णगुणिदा= १४४० ६।६।४१३१२।२।१२ एदे अण्णोण्णगुणिदा = २०७३६ ६।६।४।२।२।।१ एए अण्णोण्णगुणिदा= ११५२ एए सव्वे वि मेलिए -४६२४ ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी उपर्युक्त दोनों प्रकारोंके भङ्ग ऊपर विशेषार्थमें बतलाई गई दोनों विवक्षाओंकी अपेक्षा इस प्रकार उत्पन्न होते हैंप्रथम प्रकार-९६।१।४।३।२।१२ इनका परस्सर गुणा करनेपर २५६२० भङ्ग होते हैं। २६।१५।४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४० भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार- ६६।६।४।३।२।२।१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर २०७३६ भङ्ग होते हैं। १६।६।४।२।२।२।१ इनका परस्पर गुगा करनेपर ११५२ भङ्ग होते हैं। इस प्रकार सासादन गुणस्थानमें ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका जोड़ ४६२४८ होता है। सासादन सम्यग्दृष्टिसे आगे बतलाये जानेवाले बारह का० अन० भ० बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है इंदिय तिणि य काया कोहाइचउक एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो वारस हवंति ते हेऊ ॥१४४॥ १।३।४। २।१ एदे मिलिया १२ । १।३।४।१।२।। एकीकृताः १२ प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६।२०१४।३।२।१२ । पुनः वैक्रियिकमिश्रापेक्षया ६।२०।४।२।२।१ । एते परस्परेश गुणिताः ३४५६० । १६२० ॥१४४॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; इस प्रकार बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१४४॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+३+४+१+२+१=१२ । इंदिय दोणि य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । - हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च जोगो य ॥१४॥ १।२।११।२।१।१ एदे मिलिया १२ । १।२।४।३।२।११ एकीकृताः १२ । एतेषां भंगाः ६।१५।४।३।२।२।१२। पुनः वै० ६।१५।४।२। २।२।१ गुणिताः ५१८४०२८८० ॥१४५॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक, ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१४५॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+२+४+१+२+१+१=१२ । इंदियमेओ काओ कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयजुयलं एयजोगो य ॥१४६॥ १।१।४।१२।२।१ एदे मिलिया १२ । १1१।४।१२।२।१ एकीकृताः १२ । एतेषां भंगाः ६।६।४।३।२।१२। ६।६।४।२।२।१ । स्त्री-पुंवेदौ २१२ । वै. मि. । परस्परेण गुणिताः १०३६८ । ५७६ ॥१४॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एदेसिं च भंगा- ६।२०।४।३।२।१२ ६|२०१४।२।२।२ ६|१५|४|३।२।२।१२ ६।१५। ४।२।२।२।१ अथवा इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १४६ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -१+१+४+१+२+२+१ = १२ । शतक ६।६।४।३।२।१२ ६|६|४|२|२| १ एदे अण्णोष्णगुणिदा = ३४५६० एदे अण्णोष्णगुणिदा = १६२० एदे अण्णोष्णगुणिदा = ५१८४० एए अण्णोष्णगुणिदा = २८८० एए अण्णोष्णगुणिन्दा = १०३६८ एए अण्णोष्णगुणिदा = ५७६ एदे सव्वे वि मिलिदे = १०२१४४ एते पराशयो मिलिताः १०११४४ द्वादशप्रत्ययानां सर्वे विकल्पाः उत्तरोत्तर विकल्पा भवन्ति । बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी उक्त तीनों प्रकारोंके ऊपर बतलाई गई दोनों विवक्षाओंसे भंग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं प्रथम प्रकार ६/२०/४/२/२/१ द्वितीय प्रकार {६| २०|४ | ३ |२| १२ इनका परस्पर गुणा करनेपर इनका परस्पर गुणा करनेपर ६| १५|४|३|२२|१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर - ६ | १५|४/२/२/२/१ इनका परस्पर गुणा करनेपर | ६|६|४|३|२|१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर ६|६|४|२२|१ इनका परस्पर गुणा करनेपर इस प्रकार सासादनगुणस्थान में बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगों का जोड़ १०२११४ होता है । सासादन सम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले तेरह बन्धप्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको निकालने के लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है ३४५६० भङ्ग होते हैं । १६२० भङ्ग होते हैं । ५१८४० भङ्ग होते हैं । २८८० भङ्ग होते हैं । १०३६८ भङ्ग होते हैं । ५७६ भङ्ग होते हैं । तृतीय प्रकार इंदिय चउरो काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सा दुयं एयं जोगो तेरस हवंति ते हेऊ ॥ १४७॥ १|४|४|१|२|१ एदे मिलिया १३ । का० अन० भ० ४ 9 ० ३ २ For Private Personal Use Only १३५ १ ง १ २ १|४|४|१|२| १ एकीकृता मूलप्रत्ययास्त्रयोदश १३ भवन्ति । एतेषां भंगाः ६।१५ | ४ | ३ | २|२| १२ | वै० म० ६।१५।४।२।२ । एते उत्तरप्रत्ययाः परस्परेण गुणिता २५६२० | १४४० उत्तरोत्तर प्रत्यय-विकल्पाः स्युः ॥ १४७ ॥ अथवा सासादनगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक, ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १४७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १+४+४+१+२+१=१३ । इंदिय तिष्णि य काया कोहाइचउक एयवेदो य । साइदुयं एयं भयदुय एयं च जोगो य ॥ १४८ ॥ १।३।४।१।२।१।१ । एदे मिलिया १३ । ||३|४|१२|१|१ एकीकृताः १३ । एतेषां भङ्गाः ६।२०१४/३/२/२।१२ वै० म० ६।२०|४|३| २।२।२।१ परम्परेण गुणिताः ६६१२० । ३८४० ॥१४८॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१४८॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+३+४+१+२+१+१=१३ । इंदिय दोणि य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१४६।। ११२।४।१।२।११ एदे मिलिया १३ । १।२।४।१।२।२११ एकीकृताः प्रत्ययाः १३ । एतेषां भङ्गाः ६।१५।४।३।२। वै० मि० ६।१५।४।२।२। एते परस्परेण गुणिता: २५६२० । १४४० ॥१४६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१४।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+२+४+१+२+२+१ = १३ । एदेसि च भंगा-६।१५।४।३।२।१२ एए अपणोण्णगुणिदा= २५६२० ६।१५।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगुणिदा- १४४० ६।२०।४।३।२।२।१२ एए अण्णोण्णगुणिदा= ६६१२० ६।२०।४।२२।२।१ एए अण्णोष्णगुणिदा- ३८४० ६।१५।४।३।२।१२ एए अग्णोण्णगुणिदा = २५९२० ६।१५।४२२।। एए अण्णोण्णगुणिदा= १४४० एए सब्वे मिलिया = १२७६८० सर्वे मिलिताः १२७६८० । तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी इन तीनों प्रकारोंके उक्त दोनों विवक्षाओंसे भंग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंप्रथम प्रकार- ६६।१५।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर २५६२० भङ्ग होते हैं। (६।१५।४।२।२।२ इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४० भङ्ग होते हैं। दितीय प्रकार- ६/२०।४।३।२।२।१२इनका परस्पर गुणा करनेपर ६४१२० भङ्ग होते हैं। (६।२०।४।२।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करनेपर ३८४० भङ्ग होते है। तृतीय प्रकार (६।१५।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करनेपर २५६२० भङ्ग (६।१५।४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४० भङ्ग होते हैं। इस प्रकार सासादन गुणस्थानमें तेरह बन्ध प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका जोड़ १२७६८० होता है। सासादनसम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले चौदह बन्ध- का० अन० भ० प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कृटकी रचना इस प्रकार है-- इंदिय पंच य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो चउदस हवंति ते हेऊ ॥१५॥ ११५।४।१।२।१ एदे मिलिया १४ । ११५।४।१।२।१। एकीकृताः १४ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।६।४।३।२।१२। पुनः वै० मि. ६।६।। १२।१ एते परस्परेण गुणिता: १०३६८ । ५७६ ॥१५०॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अथवा सासादनगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५०॥ इनकी संदृष्टि इस प्रकार है-१+५+४+१+२+१= १४। इंदिय चउरो काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१५॥ १।४।४।१।२।१११ एदे मिलिया १४ । १।४।४।१।२।१।१ एकीकृताः १४ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।१५।४।३।२।२।१२। वै० मि.० ६।१५। ४।२।२।। एते अन्योन्यगुणिताः ५१८४० । २८८० ॥१५१॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमें से एक और योग एक; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५१॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+४+४+१+२+१+१ = १४ । इंदिय तिण्णि य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१५२॥ १।३।४।१।२।२।१ एदे मिलिया १४ । १।३।४।१।२।२।१ एकीकृताः १४ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।२०।४।३।२।१२। वै० मि० ६॥२०॥४ २।२।। एते परस्परेण गुणिताः ३४५६० । १६२० ॥१५२॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५२।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+३+४+१+२+२+२ = १४ । एदेसिं च भंगा-६।६।४।३।२।१२ एए अण्णोण्णगणिदा=१०३६८ ६।६।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगुणिदा= ५७६ ६।१५।४।३।२।२।१२ एए अण्णोण्णगणिदा= ५१८४० ६।१५।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगणिदा =२८८० ६।२०।४।३।२।१२ एए अण्णोण्णगुणिदा=३४५६० ६।२०।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगुणिदा = १९२० एए सव्वे मेलिए =१०२१४४ __एते सर्वे पड राशयो मीलिताः १०२ १४४ एते मध्यमचतुर्दशप्रत्ययानामुत्तरोत्तरप्रत्ययविकल्पा भवन्ति । चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी इन तीनों प्रकारोंके उक्त दोनों विवक्षाओंसे भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंप्रथम प्रकार _६।६।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर १०३६८ भङ्ग होते हैं । ६६।४।२।२।१ इनका परस्पर गणा करने पर ५७६ भङ्ग होते हैं। ६।१५।४।३।२।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर ५१८४० भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार ६।१।४।२।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर २५८० भङ्ग होते ६।२०।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर ३४५६० भङ्ग होते हैं। असार ६।२०४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर १६२० भङ्ग होते हैं । इस प्रकार सासादनगुणस्थानमें चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका जोड़ १०२१४४ होता है। maritheliho incide ither १८ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पञ्चसंग्रह १५४|| सासादनसम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले पन्द्रह का० अन० भ० बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोको निकालनेके लिए बीजभूत कूटका रचना इस प्रकार है इंदिय छक्क य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य। हस्साइजुयलमेयं जोगो पण्णरस पच्चया सादे ॥१५३।। ११६।४।१२।१ पदे मिलिया १५। ११६।४।१२।१ एकीकृताः १५ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।१।४।३।२।१२। वै मि०६। १२।२।। एते अन्योन्यगणिताः १७२८।१६। ॥१५३॥ __ अथवा सासादनगुणस्थानमें इन्द्रियमें एक, काय छह, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५३॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+६+४+१+२+१=१५ । इंदिय पंचय काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सादिजुयलमेयं भयजुय एयं च जोगो य ॥१५४॥ १५।४।२11 एदे मिलिया १५ । 5।५।४।१।२।१।१ एकीकृताः १५ प्रत्ययाः। एतेषां भङ्गाः ६।६।४।३।२।२।१२। वै० मि० ६।६।४।२। २।२१। एते परस्परेण गणिताः २०७३६ । ११५२ ॥१५॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयदिकमें से एक और योग एक; ये पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते है। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+५+४+१+२+१+१=१५ । इंदिय चउरो काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं एगजोगो य ॥१५॥ १४ ।२। एदे मिलिया १५ । १।४।४।१।२।२।। एकीकृताः १५ प्रत्ययाः। एतेषां भङ्गाः ६।१५।४।३।२।२।१२। वै० मि० ६।१५।४।२।२। एते परस्परेण गुणिताः २५६२० । १४४० ॥१५५॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५॥ इनकी अकसदृष्टि इस प्रकार है--१+४+४+१+२+२+१=१५। एदेसि च भंगा-६।१।४।३।२।१२ एए अण्णोण्णगुणिदा = १७२८ ६।१४॥२॥२॥ एए अण्णोण्णगुणिदा -१६ ६।६।४।३।२।२।१२ एए अण्णोषणगुणिदा = २०७३६ ६।६।४ ।२।१ एए अण्णोष्णगुणिदा = ११५२ ६।१५।४।३।२।१२ एए अण्णोण्णगुणिदा =२५१२० ६।१५।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगुणिदा = १४४० एए सव्वे मेलिए -५१०७२ एते सर्वे षड् राशयो मीलिताः ५१०७२ । इति पञ्चदशप्रत्ययानामुत्तरोत्तरप्रत्ययविकल्पा: कथिताः । पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी इन तीनों प्रकारोंके उक्त दोनों विवक्षाओंसे भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक प्रथम प्रकार ६।१।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर १७२८ भङ्ग होते हैं। ६।१।४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर ६६ भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रर ६।६।४।३।२।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर २०७३६ भङ्ग होते हैं। ६।६।४।२।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर २१५२ भङ्ग होते हैं। तृतीय प्रकार ६।१५।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर २५६२० भङ्ग होते हैं। ६।१५।४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर १४४० भङ्ग होते हैं। इस प्रकार सासादनगुणस्थानमें पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका जोड़ ५१०७२ होता है। सासादनसम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले सोलह __ का० अन० भ० बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटको ६ १ १ रचना इस प्रकार है इंदिय छक्क य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च सोलसं जोगो ॥१५६॥ १।६।४।१।२।१।१ एदे मिलिया १६ । १६।४।१२।११। एकीकृताः १६ प्रत्ययाः । एतेषां भंगा: ६। ३।२।१२ । वै० मि० ६।१। ४।२।२।२।१। एते अकाः परस्परगुणिताः ३४५६ । १६२॥१५६॥ अथवा सासादनगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१५६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+६+४+१+२+१+१=१६ । इंदिय पंच य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सादिजुयलमेयं भयजुयलं सोलसं जोगो ॥१५७॥ १५।४।१।२।२।१ एदे मिलिया १६ । १५।४।१।२।२।१ एकीकृताः १६ प्रत्ययाः। एतेषां भंगाः ६।६।४।३।२।१२। वै० मि. ६।६।४।२।२।१ । एते गुणिताः १०३६८ । ५७६ ॥१५७॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५७। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+५+४+१+२+२+१=१६ । एदेसिं च भंगा-६।१।४।३।२।२।१२ एए अण्णोण्णगुणिदा = ३४५६ ६।१४।२।२२ एए अण्णोण्णगुणिदा% ११२ ६।६।४।३।२।१२ एए अण्णोण्णगुणिदा= १०३६८ ६।६। २।१ एए अण्णोण्णगुणिदा =५७६ एए सब्वे मेलिए-- =१४५९२ एते सर्वे चत्वारो राशयो मीलिताः १४५९२ षोडशप्रस्थयानां सर्वे उत्तरप्रत्ययविकल्पा भवन्ति । सोलह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी इन दोनों प्रकारोंके उक्त दोनों अपेक्षाओंसे भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ६।१।४।३।२।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर ३४५६ भङ्ग होते हैं। प्रथम प्रकार ६।१।४।२।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर १६२ भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार ६।६।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर १०३६८ भङ्ग होते हैं। ६।६।४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर ५७६ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार सासादन गुणस्थानमें सोलह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका जोड़ १४५१२ होता है। सासादनसम्यग्दृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले सत्तरह बन्ध-प्रत्यय सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए वीजभूत कूटकी , __ का० अन० भ० रचना इस प्रकार है-- इंदिय छक्कय काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं सत्तरस जोगो ॥१५८॥ ११६४।१।२।२।१ एदे मिलिया १७ । १।६।४।१।२।२।१ एकीकृताः १७ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६.१।४।३।२।१२। वै० मि० ६।१४॥ २१२॥ एते परस्परेण गुणिताः १७२८ । १६ ॥१५॥ अथवा सासादनगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये सत्तरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५८।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+६+४+१+२+२+१= १७ । एदेसिं च भंगा-६।१।४।३।२।१२ एदे अपणोपणगुणिदा = १७२८ ६।१।४।२।१ एदे अण्णोण्णगणिदा = ६६ एए सव्वे वि मिलिए = १८२४ सवे मिलिया-- ४५१६४८। सासादनगुणढाणस्स भंगा समत्ता । [ सप्तदशप्रत्ययानां सर्वे भङ्गाः १८२४ । ] जघन्यदश-मध्यमैकादशादि-सप्तदशप्रत्ययानां सर्वे मीलिताः भंगाः चतुलकोनषष्टिसहस्न-षट्शताऽष्टचत्वारिंशतः उत्तरोत्तरविकल्पाः ४५६६४८ सासादनसम्यग्दृष्टिषु भवन्ति । सत्तरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग उक्त दोनों अपेक्षाओंसे इस प्रकार उत्पन्न होते हैं६।१४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर १७२८ भङ्ग होते हैं। ६।१।४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर ६६ भङ्ग होते हैं । इन सर्व भङ्गोंका जोड़--१८२४ होता है। इस प्रकार सासादनगुणस्थानमें दशसे लेकर सत्तरह बन्ध-प्रत्ययों तकके सर्व भङ्गोंका प्रमाण ४५६६४८ होता है । जिसका विवरण इस प्रकार हैं दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग १०६४४ ग्यारह ४६२४८ बारह , १०२१४४ १२७६८० चौदह - " " " १०२१४४ पन्द्रह " , " ५१०७२ तेरह Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४१ सोलह , , , १४५६२ सत्तरह , , , १८२४ सासादनसम्यग्दृष्टिके सर्वबन्ध-प्रत्ययोंके भङ्गोंका जोड़ ४५६६४८ होता है। ___ इस प्रकार सासादनगुणस्थानके भङ्गोंका विवरण समाप्त हुआ । सम्यग्मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले नौ बन्ध-प्रत्यय का० भ० सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस : प्रकार है इंदियमेओ काओ कोहाई तिण्णि एयवेदो य। हस्साइजुयलमेयं जोगो णव होति। पचया मिस्से ॥१५॥ ११।३।१२।१। एदे मिलिया है। अथ मिश्रगुणस्थाने जघन्यनवक-मध्यमदशकाद्यत्कृष्टपोडशपर्यन्तं प्रत्ययभेदान् गाथाऽष्टादशकेन प्राह-[ 'इंदियमेओ काओ' इत्यादि । ] षण्णामिन्द्रियाणां मध्ये एकतमेन्द्रियाऽसंयमप्रत्ययः । षण्णां कायानां एकतमकाय विराधकाऽसंयमप्रत्ययः १। मिश्रे अनन्तानुबन्धिनामुदयाऽभावात् अप्रत्याख्यानाऽऽदीनां कषायाणां मध्ये अन्यतमक्रोधादयस्त्रयः प्रत्ययाः ३ । त्रिवेदानां एकतमवेदः१ । हास्य-रतियुग्माडरति-शोकयुग्मयोमध्ये एकतमयुग्मम् २। मिश्रे आहारकद्विक-मिश्नत्रिकयोगाऽभावात् दशानां योगानां मध्ये एकतमयोगप्रत्ययः । । एवं मिश्रे नव प्रत्ययाः ६ भवन्ति । १।१।३।१२।१ एकीकृताः १ प्रत्ययाः ॥१५॥ मिश्रगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय एक, अनन्तानुबन्धीके विना अत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन-सम्बन्धी क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, और योग एक; ये नौ बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+३+१+२+१=६ । एदेसि च भंगा-६।६।४।३।२।१० एए अण्णोण्णगुणिया = ८६४० इन्द्रियषट्क ६ कायषटक ६ कषायचतुष्क ४ वेदत्रय ३ हास्यादियुग्म २ मनो-वचनौदारिकवैक्रियिकयोगाः दश १०। भङ्गाः ६।६।४।३।२।१० परस्परेण गुणिताः ८६४० नवप्रत्ययानामुत्तरोत्तरविकल्पा भवन्ति । एवं सर्वत्राने कर्तव्यम् । इनके ६।६।४।३।२।१० परस्पर गुणा करने पर नौ वन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी ८६४० भङ्ग होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाने जानेवाले दश बन्ध-प्रत्यय- का. भ. सम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस २ । प्रकार है इंदिय दोण्णि य काया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सादिजुयलमेयं जोगो दस पच्चया मिस्से ॥१६॥ १२।३।१।२।१ । एदे मिलिया १० । ११२।३।१२।१ एकीकृताः १०। एतेषां भङ्गाः ६।१५।४।३१।१०। परस्परेण गणिता: २१६०० ॥१६॥ अथवा मिश्रगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, और योग एक, ये दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+२+३+१+२+१=१० । +ब होइ। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ पञ्चसंग्रह इंदियमेओ काओ कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एवं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१६१॥ १११।३।१२।११ एदे मिलिया १० । ११।३।१।२।। एकीकृताः १० प्रत्यया । एतेषां भङ्गाः ६।६।४।३।२।२।१० । परस्परेण गुणिताः १७२८० ॥१६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये दशबन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+१+३+१+२+१+१=१०। एदेसि च भंगा- ६।१५।४।३।२।१० एए अण्णोण्णगुणिया=२१६०० ६।६।४।३।२।२।१० =१७२८० एदे मेलिए =३८८८० सर्वे मीलिता:-- ३८८८०। मिश्र गुणस्थानमें दशबन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी दोनों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार हैं(१).६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करने पर २१६०० भङ्ग होते हैं । (२) ६६।४३२।१० इनका परस्पर गुणा करने पर १७२८० भङ्ग होते हैं। दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका जोड़- ३८८८० होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले ग्यारह बन्ध- का० भ० प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना : इस प्रकार है इंदिय तिणि य काया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सादिजुयलमेयं जोगो एकार। पच्चया मिस्से ॥१६२॥ १।३।३।१।२।१ एदे मिलिया ११ । ११३३११ एकीकृताः१ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६॥२०॥४।३।२।१०। परस्परगणिता: २८८००॥१६२॥ अथवा मिश्रगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६२॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+३+३+१+२+१=११ । इंदिय दोण्णि य काया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइदुय एय भयदुय एयच एयजोगो य ॥१६॥ १।२।३।१।२।१।१ एदे मिलिया ११ । १२।३।१२।१।१ एकीकृताः ११ प्रत्ययाः एतेषां । भङ्गाः ६।१५।४।३।१२।१०। परस्परेण गुणिताः ४३२०० ॥१६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक, और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६३॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२+२+३+१+२+१+१=११ । +ब इक्कारस । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक इंदियमेओ काओ कोहाई तिष्णि एयवेदो य । हस्सादिदु एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१६४॥ |१|१|३|१।२।२।१ एदे मिलिया ११ । |१|१|३|११२।२।१ एकीकृताः ११ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।६।४।३।२।१०। गुणिताः ८६४० ॥ १६४ ॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विक और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १६४ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+१+३+१+२+२+१ = ११। ६।२०।४।३।२।१० एए अण्णोष्णगुनिया = २८८०० एदेसिं च भंगा ६।१५।४।३।२।२।१० = ४३२०० ६|६|४|३|२|१० = ८६४० =८०६४० ८०६४० । मिश्रगुणस्थान में ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी तीनों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार हैं(१) ६| २०|४|३२|१० इनका परस्पर गुणा करने पर २८५०० भङ्ग होते हैं । (२) ६।१५।४।३।२।२।१० इनका परस्पर गुणा करने पर ४३२०० भङ्ग होते हैं । (३) ६|६|४|३|२| १० इनका परस्पर गुणा करने पर ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंका जोड़ ८६४० भङ्ग होते हैं । ८०६४० होता है । बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी एए सव्वे मेलिए- एते सर्वे मीलिताः -- 33 23 सम्यग्मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले बारह भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है इंदिय चउरो काया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एवं जोगो वारस हवंति ते हेऊ ॥१६५॥ |१|४|३|१|२| १ एदे मिलिया १२ । १४३ का० भ० ४ ३ २ ० |१|४|३|१|२| १ एकीकृताः १२ द्वादश कर्मणां ते हेतवः प्रत्यया भवन्ति । एतेषां भङ्गाः ६|१५|४| ३।२।१० परस्परेण गुणिताः २१६०० ॥१६५॥ 9 २ अथवा मिश्रगुणस्थान में इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, और योग एक, ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।। १६५।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+४+३+१+२+१ ==१२ । इंदिय तिणि विकाया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्सा दुयं यं भयदुय एयं च वारसं जोगो ॥ १६६ ॥ १।३।३।१।२।१।१ एदे मिलिया १२ । १।३।३।१।२1१1१ एकीकृताः १२ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।२०|४ | ३ |२| २|१० गुणिताः ५७६०० ॥१६६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमें से एक और योग एक; ये बारह बन्ध- प्रत्यय होते हैं ॥१६६॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -- १+३+३+१+२+ १ + १ = १२ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पञ्चसंग्रह इंदिय दोण्णि य काया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१६७॥ १।२।३।१।२।२।१ एदे मिलिया १२ । १।२।३।१।२।२।१ एकीकृताः १२ । एतेषां भङ्गाः ६।१५।४।३।२।१० गुणिताः २१६०० ॥१६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१६७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+२+३+१+२+२+१=१२ ! एदेसि च भंगा-- ६।१५।४।३।२।१० एए अण्णोण्णगुणिया = २१६०० ६।२०।४।३।२।२।१० =५७६०० ६।१५।४।३।२११० =२१६०० सव्वे मेलिए-- =१००८०० सर्वे मीलिताः १००००० द्वादशप्रत्ययानां विकल्पाः । मिश्र गुणस्थानमें बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी तीनों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार हैंप्रथम प्रकार-६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करने पर २१६०० भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार-६२०।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करने पर ५७६०० भङ्ग तृतीय प्रकार-६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करने पर २१६०० भङ्ग उक्त सर्व भङ्गोंका जोड़ १००८०० होता है। का. भ. सम्यमिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले तेरह बन्ध-प्रत्ययसम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है इंदिय पंच वि काया कोहाई तिण्णि एय वेदो य । हस्साइजुयं एयं जोगो तेरस हवंति ते हेऊ ॥१६॥ १।५।३।१।२१ एदे मिलिया १३ । १।५।३।१।२।१ एकीकृताः १३ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।६।४।३।२।१० गुणिताः ८६४० ॥१६८॥ अथवा मिश्रगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक, ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+५+३+१+२+१=१३ । इंदिय चउरो काया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१६६॥ १।४।३।१।२।१।१ एदे मिलिया १३ । १।४।३।१।२।१।१ एकीकृताः १३ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।१५।४।३।२।२।१० परस्परेण गुणिताः ४३२०० ॥१६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय तीन, एक वेद, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+४+३+१+२+१+१=१३ । 1.0m Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक इंदिय तिण्णि य काया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं तेरसं जोगो ॥ १७० ॥ १।३।३।१।२।२।१ एदे मिलिया १३ । १।३।३।१।२।२।१ एकीकृताः १३ प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६ | २० | ४ | ३ | २|१० परस्परेण गुणिताः २८८०० ॥ १७० ॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १७० ॥ एदेसिं च भंगा |६|६|४ | ३ |२| १० एए अण्णोष्णगुणिया = ८६४० ६|१५|४|३|२।२।१० = ४३२०० ६।२०|४|३|२।१० = २८८०० एए सव्वे मेलिए = ८०६४० एते त्रयो राशयो मीलिताः ८०६४० त्रयोदशप्रत्ययानां विकल्पाः । मिश्रगुणस्थान में तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी तीनों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार हैं-प्रथम प्रकार – ६ | ६ | ४ | ३ |२| १० इनका परस्पर गुणा करनेपर ८६४० भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार - ६ | १५ | ४ | ३ |२२|१० इनका परस्पर गुणा करनेपर ४३२०० भङ्ग होते हैं । तृतीय प्रकार - ६ | २०|४|३|२|१०| इनका परस्पर गुणा करनेपर २८८००भङ्ग होते हैं । उक्त सर्व भंगों का जोड़ - = ८०६४० होता है । १४४० ॥ १७१ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले चौहद बन्धप्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है १|६|३|१|२|१ एकीकृताः १४ १९ " "" इंदिय छक्कय कया कोहाई तिष्णि एयवेदो य । साइदुयं एयं जोगो चउदस हवंति ते हेऊ ॥ १७१ ॥ १।६।३।१।२।१ एदे मिलिया १४ । प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः १४५ का० भ० ६ O ५ ४ १ २ अथवा मिश्र गुणस्थानमें इन्द्रिय एक काय छह, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, और योग एक; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १७१ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है- १ +६+३+१+२+ १ + १ = १४। इंदिय पंचय काया कोहाई तिण्णि एयवेदो य । हस्सा दुयं एयं भयदु एयं च एयजोगो य ॥ १७२॥ १।५।३।१।२।१।१ पदे मिलिया १४ । १।५।३।१।२।१।१ एकीकृताः १४ प्रत्ययाः । तेषां भंगा: ६|६|४|३|२|२।१० गुणिताः १७२८० ॥ १७२ ॥ ६ |१| ४ | ३।२।१० परस्परहताः अथवा इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भद्विकमें से एक और योग एक; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १७२ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १+५+३+१+२+१+१=१४। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पञ्चसंग्रह इंदिय चउरो काया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयजुयलं चउदसं जोगो ॥१७३।। १४३।।।२।२।१ मिलिया १४ । १।४।३।१।२।२।१ एकीकृताः १४ प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६।१५।४।३।२।१० अन्योन्यगुणिताः २१६०० ॥७३॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक, ये चौदह वन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१७३।। इनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है-१+४+३+१+२+२+१=१४ । एदेसिं च भंगा- ६.१।४।३।२।.. एदे अण्णोण्णगुणिदा= १४४० ६।६।४।३।२।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिदा- १७२८० ६।१५।४।३।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिदा- २१६०० एए सव्वे मिलिया = ४०३२० एते सर्वे त्रयो राशयो मीलिता: ४०३२० चतुर्दशप्रत्ययानां विकल्पाः स्युः । मिश्रगुणस्थानमें चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी तीनों प्रकारोंके भंग इस प्रकार हैं-- (१) ६।१।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४० भंग होते हैं। (२) ६।६।४।३।२।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १७२८ भंग होते हैं । (३) ६।१५।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर २१६०० भंग होते हैं। उक्त सर्व भंगोंका जोड़-- ४०३२७ होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले पन्द्रह बन्ध का० भ० प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है-- इंदिय छक्क य काया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च पण्णरस जोगो ॥१७४॥ १।६।३।१।२।१।१ एदे मिलिया १५ । १।६।३।१।२।१।१ एकीकृताः १५ प्रत्ययाः भंगाः ६।४।३।२।२।१० गुणिताः २८८० ॥१४॥ अथवा मिश्रगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१७४ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+६+३+१+२+१+१=१५ । इंदिय पंचय काया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं पण्णरस जोगो ॥१७॥ १।५।३।१।२।२।१ एदे मिलिया १५ । १०५।३।१।२।२।१ एकीकृताः १५ प्रत्ययाः । एतेषां भंगा: ६।६४।३।२।१० परस्परेण गुणिता: ८६४० ॥७७५॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+५+३+१+२+२+१=१५ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १४७ एदेसिं च भंगा-६।३१२।२।१० एए नण्णोण्णगुणिदा = २८८० ६।६।४।३।२।१० एदे अण्णोष्णगुणिदा= ८६४० दो वि मेलिए = ११५२० एतौ द्वौ राशी एकीकृतौ ११५२० । एते पञ्चदशप्रत्ययानां विकल्पाः । मिश्र गणस्थानमें पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी दोनों प्रकारोंके भङ्ग इस प्रकार होते हैंप्रथम प्रकार-६।१।४।३।२।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर २८८० भङ्ग होते हैं । द्वितीय प्रकार-६।६।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर ८६४० भङ्ग होते हैं। उक्त सर्व भङ्गोंका जोड़-- ११५२० होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके आगे बतलाये जानेवाले सोलह बन्ध . का० भ० प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है इंदिय छक्क य काया कोहाई तिणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं सोलसं जोगो ॥१७६॥ १।६।३।१।२।२।१ एदे मिलिया १६ । १।६।३।१।२।२।१ एकीकृताः १६ प्रत्ययाः । एतेषां भंगा: ६।१४।३।२।१० परस्परेण गुणिताः १४४० ॥१७६॥ अथवा मिश्रगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय छह, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये सोलह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१७६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+६+३+१+२+२+१=१६ । एदेसिं च भंगा-६।१।४।३।२।१० एए अण्णोष्णगुणिदा = १४४० । मिस्सभंगा एवं सव्वे मिलिया ३६२८८० । मिस्सगुणहाणस्स भंगा समत्ता । एवं सर्वे नवादि-पोडशान्तप्रत्ययानां भंगा: विलक्ष द्वापष्टि-सहस्राष्टशताशीति विकल्पाः ३६२८८० मिश्रगुणस्थाने भवन्ति । उक्त सोलह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार होते हैं६।१।४।३।२।१० इनका परस्पर गुणा करनेपर १४४० भङ्ग हे इस प्रकार मिश्रगुणस्थानमें दशसे लेकर सोलह बन्ध-प्रत्ययों तकके सर्व भङ्गोंका प्रमाण ३६२८८० होता है । जिसका विवरण इस प्रकार हैनौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग ८६४० दश ३८८५० ग्यारह ८०६४० बारह " " १००८०० तेरह ८०६४० ४०३२० पन्द्रह ११५२० सोलह " १४४० सम्यग्मिथ्यादृष्टिके सर्व बन्ध-प्रत्ययोंके भङ्गोंका जोड़- ३६२८८० होता है। इस प्रकार मिश्रगुणस्थानके भङ्गोंका विवरण समाप्त हुआ। चौदह Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पञ्चसंग्रह जे पच्चया वियप्पा मिस्से भणिया पडुच्च दसजोगं । ते चेव य अजईए अपुण्णजोगाहिया णेया ॥१७७|| अथाऽसंयतसम्यग्दृष्टौ नवादि-षोडशान्तप्रत्ययानां भंगानाह-दशयोगान् प्रतीत्य मनो-वचनाष्टकौदारिक-व क्रियिकद्वययोगान् स्वीकृत्याऽऽश्रित्य ये प्रत्यय-विकल्पाः मिश्रगुणस्थाने भणिताः, त एव मिश्रोक्तदशयोगाऽऽश्रिताः प्रत्यय-विकल्पाः । तेषु औदारिकमिश्र-क्रियिकमिश्रकामणेषु अपूर्णयोगेषु या विकल्पाः सम्भवन्ति, तैः अपूर्णयोगोक्तरधिकाः असंयते अविरतसम्यग्दृष्टौ ज्ञेयाः। असंयते मिश्रोक्ताः प्रत्ययविकल्पाः तथा मिश्रयोगत्रिकोक्ताः प्रत्ययविकल्पाश्च भवन्तीत्यर्थः ॥१७७॥ मिश्रगुणस्थानमें दशयोगोंकी अपेक्षा जो बन्ध-प्रत्यय और विकल्प अर्थात् भङ्ग कहे हैं, असंयतगुणस्थानमें अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोगसे अधिक वे ही बन्ध-प्रत्यय और भंग जानना चाहिए ॥१७७॥ विशेषार्थ-मिश्रगुणस्थानमें अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी तीनों अपर्याप्त योग नहीं थे, केवल दश योगोंसे ही बन्ध होता था, किन्तु असंयतगुणस्थानमें अपर्याप्तकालमें देव और नारकियोंकी अपेक्षा वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग, तथा बद्धायुष्क तिर्यश्च और मनुष्योंकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोग सम्भव है, अतएव दशवे स्थानपर तेरह योगोंसे बन्ध होता है। इस कारण भंग-संख्या भी योग-गुणकारके बढ़ जानेसे बढ़ जाती है। ओरालमिस्सजोगं पडुच्च पुरिसो तहा भवे एको । वेउव्वमिस्सकम्मे पडुच्च इत्थी ण होइ त्ति ॥१७॥ सम्माइट्ठी णिर-तिरि-जोइस-वण-भवण-इत्थि-संढेसु । जीवो वद्धाऊयं मोत्तु णो उववञ्जइ त्ति वयणाओ॥१७६।। असंयते औदारिकमिश्रकाययोगं प्रतीत्याऽऽश्रित्य एकः पुंवेदो भवेत् , औदारिकमिश्रयोगे पुमानेवेति। कतः १ पूर्व तिर्यगायर्मनुष्यायुर्वा बद्ध्वा पश्चात्सम्यग्दृष्टिर्जातः मृत्वा भोगभूमौ तिर्यग्जीवो मनुष्यो वा जायते । तदा औदारिकमिश्रपुंवेद एव, न तु नपुंसक-स्त्रीवेदी भवतः । अथवा सस्यश्ववान् देवो नारको वा मत्वा कर्मभूमौ मानुष्याः गर्भ उत्पद्यते, तदा औदारिकमिश्रे पुंवेदः । वक्रियिकमिश्रं कार्मणयोगं च प्रतीत्याऽऽश्रित्य स्त्रीवेदोऽसंयते न भवति, सम्यादृष्टिमृत्वा देवेषु उत्पद्यते, तथा वैक्रियिकमिश्रे कार्मणकाले पवेद एव । तथा प्रथमनरके उत्पद्यते, तदा नपुसकवेद एव; न तु स्त्रीवेदः। वक्रियिकमिश्र-कार्मणयोः स्त्री नेति ॥१७॥ कुतः इति चेत् सम्यग्दृष्टिर्जीवः नारक-तिर्यग्ज्योतिष-वानव्यन्तर-भवनवासि-स्त्री-पण्ढेषु नोत्पद्यते. बद्धाऽऽयुकं मुक्त्वा । कथम् ? पूर्व नरकायुर्बद्धं पश्चाद् वेदको वा क्षायिकसम्यग्दष्टिा जातः, असौ मृत्वा प्रथमधर्मानरके उत्पद्यते । अथवा तिर्यगायुर्मनुष्याऽऽयुर्वा बद्ध्वा पश्चात् सम्यग्दृष्टिर्जातः, स मृत्वा भोगभूमौ तिर्यग मनुष्यो वा जायते । अन्यथा सम्यग्दृष्टिनरकेषु तियक्षु नपुसकेषु च नोस्पद्यते । भवन त्रिकेषु स्त्रीषु च सर्वथा नोत्पद्यते इति वचनात् । उक्तञ्च तथा योगे वैक्रियिके मिश्रे कार्मणे च सुधाशिषु । पुंवेद षण्डवेदश्च श्वभ्रे बद्धायुषः पुनः ॥२३॥ तिर्यवौदारिके मिश्रे पूर्वबद्धायुषो मृतः । मनुष्येषु च पुंवेदः सम्यक्त्वालन्कृतात्मनः ॥२४॥ १. सं० पञ्चसं. ४, ५१-६०। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक त्रिभिर्द्वाभ्यां तथैकेन वेदेनास्य प्रताडना । १ भङ्गानां दशभिर्योगैर्द्वाभ्यामेकेन च क्रमात् ||२५|| अस्यार्थः–चिरन्तनचतुश्चत्वारिंशच्छतादिलक्षणं राशि त्रिधा व्यवस्थाप्येकं त्रिभिर्वेदः, अन्यं द्वाभ्यां पुन्नपु ंसक वेदाभ्याम्, परं राशि एकेन पु'वेदेन गुणितं हास्यादियुगलेन २ गुणयित्वा योगैरेकं दशभिः, अन्यं द्वाभ्यां वैक्रियिकमिश्र-कार्मणाभ्यां परमेकेनौदारिकमिश्रेण गुणयेत् । तत एकीकरणे फलं भवति ॥१७६॥ असंयत गुणस्थान में औदारिक मिश्रकाययोगकी अपेक्षा एक पुरुषवेद ही होता । तथा faraमश्र और कार्मणकाययोगको अपेक्षा स्त्रीवेद नहीं होता है । ( किन्तु देवोंकी अपेक्षा पुरुष वेद और नारकियोंको अपेक्षा नपुंसक वेद होता है । ) क्योंकि, बद्धायुष्कको छोड़कर सम्यग्दृष्टि जीव नारकी, तिर्यञ्च, ज्योतिष्क, व्यन्तर, भवनवासी, स्त्री और नपुंसक जीवोंसे उत्पन्न नहीं होता है, ऐसा आगमका वचन है ।।१७८-१७६ ॥ विशेषार्थ - असंयत गुणस्थानवर्ती जीव यदि बद्धायुष्क नहीं है, तो उसके वैक्रियिकमिश्र और कार्मणका योग देवोंमें ही मिलेंगे । तथा उसके केवल पुरुषवेद ही संभव है । यदि असंयतसम्यग्दृष्टि जीव बद्धायुष्क है, तो वह नरकगति में भी जायगा और उसके वैक्रियिकमिश्रकाययोगके साथ नपुंसक वेद भी रहेगा । इसलिए असंयतगुणस्थानके भंगों को उत्पन्न करनेके लिए तीन वेदोंसे, दो वेदोंसे और एक वेदसे गुणा करना चाहिए। तथा पर्याप्तकाल में संभव दश योगों से और अपर्याप्तकाल में संभव दो योगोंसे और एक योगसे भी गुणा करना चाहिए। इस प्रकार वेद और योग-सम्बन्धी विशेषताकृत भेद तीसरे और चौथे गुणस्थानके भंगोंमें है; अन्य कोई भेद नहीं है । इसलिए ग्रन्थकारने नौ, दश आदि बन्ध-प्रत्ययों के भंगादिका गाथाओं द्वारा वर्णन न करके केवल अंकसंदृष्टियों से ही उनका वर्णन किया है । असंयतसम्यग्दृष्टि के नौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालने के लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है तेणेदे = एए १४४।१।२।१ १४४।२।२।२ तेणेदे = एए दसजोग-भंगा तिष्णि वि मिलिए जहण्णभंगा भवंति = १००८० इन्द्रियमेकं १ कायमेकं १ कषायः ३ वेदः १ हास्यादियुग्मं २ योगः १ एते एकीकृताः प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६।६।४ परस्परं गुणिताः १४४ । एते एकेन पुवेदेन १ गुणितास्त एव । हास्यादियुग्मेन गुणिताः २८८ । एकेनौदारिकमिश्रकायेन १ गुणितास्त एव २८८ । = २८८ ११५२ ८६४० १४६ का० भ० 9 ० |१|१|३|१।२।१ एकीकृताः ६ भंगाः ६|६|४| २।२।२ परस्परहताः १४४ । पुवेद-नपुंसकवेदाभ्यां २ हताः २८८ | हास्यादियुग्मेन रहिताः ५७६ । वैक्रियिकमिश्र - कार्मणाभ्यां २ हताः ११५२ । ६।६।४ गुणिताः १४४ | वेदत्रयेग ३ गुणिता: ४३२ । हास्यादियुग्मेन २ हताः ८६४ । एते दशभिर्योगैः १० हताः ८६४० । एते त्रयो राशयो मीलिताः जघन्यभंगाः १००८० भवन्ति । असंयतगुणस्थानमें नौ बन्ध-प्रत्ययोंके भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं नपुंसक वेद और एक योगकी अपेक्षा ६×६x४ (= १४४ ) ×१×२४१ = २८८ दो वेद और दो योगों की अपेक्षा ६४६x४ (= १४४ ) ×२×२x२=११५२ तीनों वेद और दश योगों की अपेक्षा ६ x ६x४ (= १४४ ) X३X२×१०= ८६४० नौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्गोंका जोड़ १००८० इस प्रकार नौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्गः ९००८० होते हैं । १. सं० पञ्चसं० ४,६१ । २. ४,१०२ तमे पृष्ठे शब्दशः समानोऽयं गद्यांशः । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पञ्चसंग्रह असंयतसम्यग्दृष्टिके दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको का० भ० निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है एदेसिं भंगा- ३६०1१२७ एदे अण्णोण्णगुणिदा= ७२० ३६०२।२।२ एदे अण्णोण्णगुणिदा3 २८८० १४४।१।२।२।१ एदे अण्णोगगुणिदा= ५७६ १४४ाराशर एदे अण्णोष्णगुणिदा= २३०४ दसयोग-तिवेद-भंगा = ३८८८० सव्वे वि मेलिए संति =४५३६० मिश्रोक्ताः १।२।३।१।२।१ एकीकृताः १० । एतेषां भंगाः ६।१५।४ पुवेद १ हास्यादियुग्म २ औदारिकमिश्रकाययोगैः परस्परगुणिताः ३६० । एते पुंवेदेन गुणितास्त एव ३६० । हास्यादियुग्मेन २ गुणिताः ७२० । एते औदारिकमिश्रेण ५ गुणितास्त एव ७२० । १।२।३।१२।१ एकीकृताः १०। [एतेषां भंगाः] ६११५१४।२।२ परस्परेण गुणिताः ३६० । पुंवेद-नपुंसकवेदाभ्यां २ गुणिता: ७२० । हास्यादियुग्मेन २ गुणितास्ते १४४० । एते वैक्रियिकमिश्र-कामणाभ्यां २ गुणिताः २८८० । ११।३।१२।१ एकीकृताः १० । एतेषां भंगाः ६।१५।४।३।२।१० परस्परगुणिताः २१६००। मिश्रोताः १।२।३।१।२। एकीकृताः १० । एतेषां भंगाः ६।६।४ । पुवेदः १ हास्यादियुग्मं २ भययुग्मं २ औदारिकमिश्रं १ परस्परगुणिताः ५७६ । ।।३।१२।१ एकीकृताः १०। भंगा: ६।६।४।२।२।२।२ । परस्परेण गुणिताः १४४ । पुवेदनपुंसकवेदाभ्यां द्वाभ्यां २ गुणिता: २८८ । एते हास्यादियुग्मेन २ गुणिताः ५७६ । भययुग्मेन २ गुणिताः ११५२ । एते वैक्रियिकमिश्र-कार्मणाभ्यां २ गुणिता: २३०४ । १११।३।१।२।१११ एकीकृताः १. भेदाः। ६।६।४।३।२।२ । यो०१० परस्परं गुणिताः १७२८० । दशप्रत्ययानां भंगाः सर्वे मिलिताः ४५३६० सन्ति । असंयतगुणस्थानमें दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं एक वेद और एक योगकी अपेक्षा ६४१५४४ ( = ३६०)x१४२४१ = ७२० 'दो वेद और एक योगकी अपेक्षा ६४१५४४ (= ३६०)x२x२x२= २२८० एक वेद और एक योगकी अपेक्षा ६x६x४ (= १४४)४१x२x२x१=५७६ दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा ६४ ६४४ (=१४४)x२x२x२x२=२३०४ । तीनों वेद और दश योगों की अपेक्षा दोनों प्रकारोंसे उत्पन्न भङ्ग २१६०० + १७२८० = ३८८८० होते हैं। उपर्युक्त सर्व भङ्गोंका जोड़ ४५३६० होता है। इस प्रकार दशबन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग ४५३६० होते हैं। का० भ० असंयतसम्यग्दृष्टिके ग्यारह बन्धप्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको ३ . निकालनेके लिए बीजभूत कूटको रचना इस प्रकार है Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५१ एदेसिं भंगा-- ४८०1११२१ एदे अण्णोण्णगुणिदा- १६० ४८०॥२॥२२ एदे अण्णोण्णगुणिदा- ३८४० ३६०।१२।२।१ एदे भण्णोण्णगुणिदा= १४४० ३६०।२। २ एदे अण्णोण्णगुणिदा- ५७६० १४४।१।२।१ एदे अण्णोष्णगुणिदा= २८८ १४४।२।१२ एदे अण्णोण्णगुणिदा= ११५२ सव्वे वि मेलिए संति =६४००० १।३।३।१।२।१ एकीकृताः ११। एतेषां भंगा: ६।२०।४। पुंवेद । हास्यादियुग्म २ औ० मि ? परस्परगुणिताः ६६० । १।३।३।१।२।१ एकीकृताः ११ । एतेषां भंगाः ६।२०।४। गुणिताः ४८० । नपुंसक-वेदाभ्यां २ गुणिताः ६६० । युग्मेन गुणिताः १९२० । वैक्रियिकगिश्र-कार्मणाभ्यां २ गुणिताः ३८४० । १।३।३।१२।१ एकीकृताः ११ । भेदाः ६।२०।४।३।२ यो०१० । परस्परं गुणिताः २८८०० । १।२।३।१२।१।१ एकीकृताः ११ । एतेषां भंगाः ६।१५।४।१।२।२।। परस्परं गुणिताः १४४० । १॥२॥३।१।२।१।१ एकीकृताः ११ । एतेषां भंगाः ६।१५।४।२।२।२।२ परस्परेण गुणिताः ५७६० भंगाः ६।१५।४ वे० ३।२।२११० परस्परेण गुणिताः ४३२०० । १४४ पुंवेदः १२ । औ० मि० १ परस्परं गुणिता: २८८ । १४४ पुं-नपुसको २२ वै० मि. का. २ गुणिता: ११५२ । १४४ वेद ३ हास्यादि २ भय २ योगा: १० परस्परेण गुणिताः ८६४० । एकादशप्रत्ययानां भंगाः सर्वे १४०८० भवन्ति । असंयतगुणस्थानमें ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं(१) एक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६x२०४४ (-४८०)x१४२४१ =६६० ''दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४२०x४ (-४८०)x२x२x२ वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४१५४४(=३६०)xx२x२x१ =१४४० दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४१५४४(=३६०)x२x२x२x२ =५७६० एक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६x६x४(=१४४)४१४२४१ = २८८ 'दो वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४६४४(=१४४)२x२x२ = ११५२ तीनों वेद और दश योगोंकी अपेक्षा तीनों प्रकारोंसे उत्पन्न भङ्ग२८८००+ ४३२००+८६४० =८०६४० सर्व भङ्गोंका जोड़ ६४०८० इस प्रकार ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग ६४०८० होते हैं। का. असंयतसम्यग्दृष्टिके बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है २२ एदेसि भंगा- ३६०१२ एए अण्णोष्णगुणिदा= ३६०।२।२।२ एए अण्णोण्णगुणिदा = २८८० ४००।१२।२११ एए अण्णोण्णगुणिदा = १९२० ४८०२।२।२।२ एए अण्णोण्णगुणिदा= ०६८० ३६०1१।२।१ एए अण्णोष्णगुणिदा = ३६०।२।२१२ एए अपणोण्णगुणिदा = २८८० = १००८०० सव्वे वि मिलिया संति ७२० Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पञ्चसंग्रह मिश्रोक्ताः १।४।३।१।२।१ एकीकृताः १२ । एतेषां भंगाः ६।१५।४। पु० ११२ औ० मि० १ परस्परं गुणिताः ७२० भंगाः । ६।१५।४।२।२।२ इन्द्रियषट्-कायभेदपञ्चदशक-कषायचतुष्केण गुणिताः ३६० । नपुसक-पुवेदाभ्यां २ गुणिताः ७२० । एते युग्मेन २ गुणिताः १४४० । वक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ गुणिताः २८८० । ६।१५।४ वेद ३।२।१० । एते परस्परेण गुणिताः २५६०० । त्रिवेद-दशयोगाश्रिता विकल्पा एते मिश्रोक्ताः १००८०० । मिश्रोक्ताः १।३।३।१०।१ एकीकृताः १२ । एतेषां भंगाः ६।२०।४ । पुवेद ११२१२ औ० मि. १ । इन्द्रियषट्क ६ कायविराधनाभेदविंशतिः २० कषायचतुष्केण ४ गुणिताः ४८० । पुवेदेन १ गुणितास्त एव ४८० । हास्यादि २ भययुग्म २ गुणिताः १६० । औदारिकमिश्रण १ गुणिताश्च १९२० । इन्द्रियषट्कायविराधना २० कषायै ४ गुंणिताः ४८० । पु. नपुसको २।२।२। वै० मि० का० २ परस्परेण गुणिता: ७६००। ४८० । वै० ३१२।१० परस्परं गुणिताः ५७६००। ३६०१२।२।४ गुणिताः २८८० । ३६० । वेद ३ । २।१० गुणिताः २१६०० । सर्वे द्वादशप्रत्ययानां भंगाः ११७६०० । असंयतगुणस्थानमें बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंएक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४१५४४(=३६०)x१४२४१-७२० और दो योगोंकी अपेक्षा-६४१५४४ (=३६०)x२x२x२=२८८० एक वेद और एक योगको अपेक्षा-१-२०x४(=४८०)xx२x२x१ = १६२० दो वेद और दो योगोंको अपक्षा-६x२०x४ (3४८०)x२x२x२x२=७६८० एक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४१५४४ (= D३६०)x१४२४१ = ^XX१- ७२० दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४१५४४ (= ३६०)x२x२x२= २८८० तीनों वेद और दश योगोंकी अपेक्षा तीनों प्रकारोंसे उत्पन्न भङ्ग- २१६००+५७६००+ २१६०० = १०८००० सर्व भंगोंका जोड़ ११७६०० होता है। इस प्रकार बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भंग ११७६०० होते हैं। का० भ० असंयतसम्यग्दृष्टिके तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको ५ . निकालनेके लिए बीजभूत कुटकी रचना इस प्रकार है . . टो . ( ३) एदेसिं भंगा १४४।२। १४४२२२ ३६०।१२।२।१ ३६०१२।२।२।२ ४८०२ ४८०२।२।२ एए अण्णोणगुणिदा= २८८ एए अण्णोण्णगुणिदा= ११५२ एए अण्णोण्णगुणिदा= १४४० एए अण्णोष्णगुणिदा= ५७६० एए अण्णोण्णगुणिदा= १६० एए अण्णोण्णगुणिदा= ३८४० D८०६४० =8४०८० सब्वे वि मेलिए Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५३ ११५।३।१२।१ एकीकृताः १३ । भंगाः ६।६।४ गु० १४४ । पुंवेद । हास्यादि २ भौ० मि० १ । एवं २८८। १४४ नपुंसक-पुंवेदौ २।२ । वैक्रियिकमिश्र- कार्मणद्वयं २ गुणिताः ११५२ एतेषां भंगाः । ६।१५।४ गुणिताः ३६०। पुंवेदेन १२॥२ वैक्रियिकमिश्रेण १ परस्परेण गुणिताः १४४० । ३६० । पुंवेद-नपुंसकाभ्यां २।२।२ वैक्रियिकमिश्र-कार्मणाभ्यां २ परस्परं गुणिताः ५७६० । ६।२०।४ गुणिताः ४८० । पुंवेदः १२ औदारिकमिश्रं १ परस्परं गुणिता: ६६० । ४८० । वेद २।२।२ परस्परेण गुणिताः ३८४० । मिश्रोक्तत्रिवेद-दशयोगप्रत्ययविकल्पाः पूर्वोक्ताः १४४ वे० ३ हा०२ यो०१०गुणिताः ८६४० । पूर्वोक्ताः ३६० । वे० ३ हा० २ भ० २ यो० १० गुणिताः ४३२०० । पूर्वोक्ताः ४८० वे० ३ हा० २ यो० १० गुणिताः २८८०० । यो मीलिताः ८०६४० । सर्वे मालिताः त्रयोदशप्रत्ययानां विकल्पाः १४०८० । असंयतगुणस्थानमें तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंएक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४६४४ (= १४४)४१४२४१ = २८८ दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४६४४ (= १४४)x२x२४२ =११५२ एक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४ १५ x ४ (= ३६०) ४१४२४२४१ = १४४० दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा--६४१५४४ (=३६०)x२x२x२x२ =५७६० एक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६x२०४४ (= ४८०)४१४२४१ = ६६० 'दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४ २०४४ (= ४८०)x२x२x२ =३८४० तीनों वेद और दश योगोंकी अपेक्षा तीनों प्रकारोंसे उत्पन्न भङ्ग- ८६४०+ ४३२०० + २८८०० . =८०६४० सर्व भङ्गोंका जोड़ ६४०८० इस प्रकार तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग ६४०८० होते हैं। का० भ० असंयतसम्यग्दृष्टिके चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है-- W००० एदेसिं भंगा-- २४।१।२।१ एए अण्णोण्णगणिदा: ४८ २४।२।२।२ एए अगणोण्णगुणिदा= १६२ १४४।१२।२।१ एए अण्णोपण गुणिदा%3 ५७६ १४४।२।२।२।२ एए अण्णोण्णगुणिदा= २३०४ ३६०११।२।१ एए अण्णोण्णगनिदा= ७२० ३६०।२।२।२ एए अण्णोण्णगुणिवा = २८८० एए भंगा-- =५०३२० सब्वे वि मेलिए संति-- =४७०४० १।६।३।१२।१ एकीकृताः १४ । एतेषां भंगाः ६११।४।१२ औ० १ परस्परगणिताः ४८ । २४ । पुनपुंसको २।२।२ परस्परगुणिताः १६२ । ६।६।४।१।२१२ औदारिकमिश्रं १ परस्परं गणिताः ५७६ । ६।६।४।२।२।२ अन्योन्यगुणिताः २३०४ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पञ्चसंग्रह का० भ० ६।१५।४ गुणिताः ३६०।१२।१ गुणिताः ७२० । ३६०।२।२।२ गुणिताः २८८०। मिश्रोक्तत्रिवेद-दशयोगराशिय विकल्पाः ४०३२० । सर्वे मोलिताश्चतुर्दशप्रत्ययविकल्पाः ४७०५० भवन्ति । असंयतगुणस्थानमें चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं एक वेद और एक योगकी अपेक्षा--६४१४४(२४)x१४२४१ = ४८ (दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा--६४१४४(= २४)x२x२x२ = १६२ 15 एक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६x६४४(= १४४)x१४२४२४१ = ५७६ ( दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा--६४६४४(= १४४)x२x२x२x२ = २३०४ का एक वेद और एक योगकी अपेक्षा--६४१५४४(= ३६०) x १४२४१ = ७२० (दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४ १५४४(= ३६०)x२x२x२ =२८८० तीनों वेद और दश योगोंकी अपेक्षा १४४०+ १७२८०+२१६०० =४०३२० तीनों प्रकारोंसे उत्पन्न भङ्गसर्व भङ्गोंका जोड़ ४७०४० इस प्रकार चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग ४७०४० होते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टिके पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है-- एदेसिं भंगा- २४।१।२।२।१ एए अण्णोण्णगुणिदा= ६६ २४।२।२।२।२ एए अण्णोण्णगुणिदा = ३८४ १४४११०२।१ ९ए अण्णोण्णगुणिदा= २८८ १४४२।२।२ एए अण्णोण्णगुणिदा= ११५२ तिवेद-दसयोग भंगासव्वे वि मिलिया संति-- D१३४४० १।६।३।३।२।१११ एकीकृताः १५ । एतेषां गाः ६।१४ गु० २४ । पुंवेदः १।२।२ । औ० मि. १ परस्परगुणिताः ६६ । २४ पुं० नपुं० २।२।२ वै० मि० का० २ परस्परं गुणिताः ३८४ । ११५।३।१२।१ एकीकृताः १५ । एतेषां भंगाः ६४४ गुणिताः १४४ । पुंवेदः १ हास्यादि २ औ० मि०१ परस्परेण गणिताः २८८ । १४४।२।२।२ परस्परं गुणिताः ११५२ । मिश्रोक्तत्रिवेद-दशयोगराशिद्वयप्रत्ययानां विकल्पाः ११५२० । सर्वे पञ्चदशप्रत्ययानां विकल्पाः १३४४० । असंयतगुणस्थानमें पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं( इएक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४१४४(२४)४१४२x२x १ = ६६ (दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४१४४(= २४)x२x२x२x२ = ३८४ का एक वेद और एक योगकी अपेक्षा-६४६४४(= १४४)x१४२४१ = ८८ ( दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा-६४६x४(= १४४)४२४२४२ = ११५२ तीनों वेद और दश योगोंकी अपेक्षा)॥ २८८० +८६४० = ११५२० दोनों प्रकारोंसे उत्पन्न भङ्गसर्व भङ्गोंका जोड़ १३४४० -११५२० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक इस प्रकार पन्द्रह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग १३४४० होते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिके सोलह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गको निकालने के लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है- एदेसिं भंगा २४|११२११ २४।२।२।२ २४।३।२।१० अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थाने सहस्र-त्रिशतषष्टिः ४२३३६० भवन्ति । दश ग्यारह बारह तेरह चौदह सव्वे वि मेलिए संति— १।६।३।१।२।२।१ एकीकृताः १६ प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६।३।४ । गुणिताः २४ । पुंवेद ११२ । औ०मि० १ परस्परं गुणिताः ४८ ॥ २४।२।२।२ परस्परं गुणिताः ६६२ । ६।१।४।३।२।१० परस्परं गुणिताः १४४० । सर्वे पोडशप्रत्ययानां प्रत्ययविकल्पाः १६८० भवन्ति । = ४८ असं गुणस्थान में सोलह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंएक वेद और एक योगकी अपेक्षा -- ६ x १ x ४ ( = २४ ) × १x२×१ दो वेद और दो योगोंकी अपेक्षा - ६ x १ x ४ ( = २४ ) × २×२x२ तीन वेद और दश योगोंकी अपेक्षा - ६ x १ x ४ ( = २४ ) × ३ × २× १० सर्व भङ्गों का जोड़ इस प्रकार सोलह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग १६८० होते हैं । अविरदस्स सव्वेवि भङ्गा--४२३३६० पन्द्रह सोलह 27 33 "" इत्यविरतगुणस्थानस्य भंगाः समाप्ताः । इस प्रकार असंयतगुणस्थानमें नौसे लेकर सोलह बन्ध-प्रत्ययों तक के सर्व भङ्गोंका प्रमाण ४२३३६० होता है । जिसका विवरण इस प्रकार है नौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग ---१००८५० ४५३६० ६४०८० ११७६०० एए अण्णोष्णगुणिदा एए अण्णोष्णगुणिदा एए अण्णोष्णगुणिदा "" 22 33 33 "" "" अविरदगुणद्वाणस्स भंगा समत्ता । नवादि षोडशान्तप्रत्ययानामुत्तरोत्तर प्रत्यय विकल्पाश्चतुर्लक्ष-त्रयोविंशति "" ६४०८०. ४७०४० १३४४० १६८० 33 "" असंयत सम्यग्दृष्टि के सर्व बन्ध-प्रत्ययों के भङ्गोंका जोड़ ४२३३६० होता है । इस प्रकार असंयतगुणस्थानके भङ्गका विवरण समाप्त हुआ । "" "" "" 33 "" "" =85 =१६२ = १४४० = १६८० "" .का० भ० ६ २ "" "" १५५ = १६२ = १४४० १६८० Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ पञ्चसंग्रह इगि दुग तिग संजोए देसजयम्मि चउ पंच संजोए । पंचेव दस य दसगं पंच य एक्कं भवंति गुणयारा ॥१८॥ ५/१०।१०।५।। . अथ देशसंयतगणस्थाने जघन्य-मध्यमोत्कृष्टान् अष्टकनवकादि-चतुर्दशकान्तप्रत्ययभेदान् गाथाषोडशकेनाऽऽह-[ 'इगि दुग तिग संजोए' इत्यादि । ] ५।१०।१०।५।१ । पनादीन् एकपर्वतान् अवान् संस्थाप्य ५ ४ ३ २ १... तदधो हारान् एकादीन् एकोत्तरान् संस्थाप्य . अत्र प्रथमहारेण १ स्वांशे ५ भक्त लब्धं प्रत्येकभंगाः ५ । पुनः परस्पराहतपञ्चचतुरंशोऽन्योन्यहत २० तदेक-द्विकहारेण भक्त लब्धं द्विसंयोगभंगाः दश १० । पुनः परस्पराहत-तद्विंशतिः २० अंशे तथाकृतद्वि २ त्रि ३ हारेण भक्त लब्धं त्रिसंयोगा दश १०। पुनस्तथाकृतषष्टिद्वय शे तथाकृत १२० षट्चतुर्हारेण २४ भक्त लब्धं चतुःसंयोगाः पञ्च ५। पुनस्तथाकृतविंशत्यधिकशतेकांशे १२० तथाकृत-चतुर्विशति-पञ्चहारेण १२० भक्ते लब्धं पञ्चसंयोग एकः १। ५।१०।१०।। ५।१ मिलित्वा ३१ देशसंयमे गुणकाराः ५ १० १० ५ ११ .. २ ३ ४ ५. तद्यधाएक-द्विक-त्रिकसंयोगे चतुः-पञ्चसंयोगे च एककायसंयोगे एकैककायहिंसका भंगाः पञ्च ५। द्विकायसंयोगे द्विकायहिंसकाः दश १० । त्रिकायसंयोगे त्रिकायहिंसका भंगाः दश १० । चतुः-कायसंयोगे चतुःकायहिंसका भंगाः पञ्च ५। पञ्चसंयोगे तु युगपत्पञ्चकायहिंसको भंग एकः ।। एकैककायहिंसका भंगाः ५-पृथ्वी १ अप् १ तेज १ वायु १ वनस्पति १ । एवं एकैककायविराधनायाम् ५। द्विकायहिंसका भंगाः १०- पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी अप अप अप तेज तेज वात अप तेज वात वन. तेज वात वन० वात वन० वन० त्रिकायहिंसका भंगाः १० पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी अप अप अप तेज अप अप अप तेज तेज वात तेज तेज बात वात तेज वात वन० वात वन० वन० वात वन० वन० वन० पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी पृथ्वी अप् चतुःकायहिंसकाभंगाः५-अप अप अप तेज तेज तेज तेज वात वात वात वात वन० वन. वन० वन. पञ्चकायहिंसको भंगः १ एकः-पृथ्वी अप् तेज वात वन० युगपद्वारं हिनस्ति । एवं [५+१०+१०+५+१] ३१ भंगाः ॥१८॥ अब देशसंयतगुणस्थानमें सम्भव उत्तरप्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका निरूपण करते हैं देशसंयतगुणस्थानमें संभव भङ्गोंको निकालनेके लिए एक संयोगीका गुणकार पांच, द्विसंयोगीका गुणकार दश, त्रिसंयोगीका गुणकार दश, चतःसंयोगीका गुणकार पाँच और पंचसंयोगीका गुणकार एक है ॥१०।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१।१०।१०।५।१। का० भ० देशसंयतके आठ बन्ध-प्रत्यय सम्बन्धी भङ्गोंको निकालनेके लिए कूट-रचना इस प्रकार है 1. सं० पञ्चसं० ४, ६२ । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक इंदियओ काओ कोहाई विण्णि एयवेदो य । साइदुयं एवं जोगो अड्ड य हवंति ते देसे ॥१८२॥ ३।१।२।१।२।१। एदे मिलिया में पष्णामिन्द्रियाणां मध्ये एकतमेन्द्रियप्रत्ययः १ । श्रसवधं विना पञ्चानां कायानां मध्ये एकत्तमकायविराधका संयमप्रत्ययः १ । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानरहितानां चतुणां कषायाणां मध्ये अन्यतमक्रोधादिद्वयप्रत्ययः २ । त्रयाणां वेदानां मध्ये एकतमवेदप्रत्ययः १ | हास्य र तियुग्मार तिशोकयुग्मयोर्मध्ये एकतमयुग्मं २ | सत्यादिमनोवचनौदारिकयोगानां नवानां मध्ये एकतमयोगोदयः १ ॥ १८१ ॥ देशसंयत में इन्द्रिय एक, काय एक, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन - सम्बन्धी क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये आठ बन्ध- प्रत्यय होते हैं ॥। १८१ ॥ एदेसिं च भंगा - ६|५|४|३२|६ एदे अण्णोष्णगुणिदा ६४८० | ||२||२|| एकीकृताः = प्रत्ययाः जघन्याः इन्द्रियषट्क ६ कायपञ्च ५ कषायचतुष्क ४ वेदत्रय ३ हास्यादियुग्म २ सत्यादियोगनवकभंगाः ६।५।४।३।२६ । एते परस्परेण गुणिताः देशसंयमजघन्याष्टकस्य प्रत्ययविकल्पाः ६४८० भवन्ति । एवं सर्वत्रापि ज्ञेयम् । देशसंयतमें सर्वजघन्य आठ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं— ६|५|४|३|२| इनका परस्पर गुणा करने पर ६४८० भङ्ग होते हैं। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १ + १+२+१+२+१=८। देशसंयत के नौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गों को निकालने के लिए कूट- रचना इस प्रकार है इंदिय दोणि थ काया कोहाई दोणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं जोगो णव होंति ते देसे ॥१८२॥ १।२।२|१| २|१| एदे मिलिया 8 । ६|१०|४|३|२६ ६|५|४|३|२|२६ १।२।२१।२।१ एकीकृताः नव प्रत्ययाः । एतेषा भंगाः ६।१०।४।३।२।६ । एते भन्योन्यगुणिताः १२६६० भंगाः स्युः ॥ १८२ ॥ अथवा इन्द्रिय एक काय दो, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग ये नौ बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १८२ ॥ एक; इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १+२+२+१+२+१=} इंदियमेओ काओ कोहाई दोणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१८३॥ |१|१२।१।२1१1१ एदे मिलिया । १।१।२।१।२।१।१ एकीकृताः ६ प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६|५|४ | ३ |२२/१ परस्परेण गुणिताः १२१६० ॥ १८३॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये नौ बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१८३॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है- १ + १+२+१+२+१+१=६। एदेसिं च भंगा एए दो वि मेलिए संति एए अण्णोष्णगुणिया = १२६६० = १२६६० = २५६२० १५७ For Private का० भ० ० ง 33 २ 9 Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पञ्चसंग्रह एतौ द्वौ राशी मीलितौ २५६२० । एते बिकल्पाः सन्ति । देशसंयतमें नौ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंप्रथम प्रकार – ६|१०| ४ | ३ |२| इनका परस्पर गुणा करने पर १२६६० भङ्ग होते हैं । द्वितीय प्रकार - ६ |५|४ | ३ | २२६ इनका परस्पर गुणा करने पर इन दोनों के मिलाने पर सर्व भङ्ग देशसंयतके दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गों को लाने के लिए कूट रचना इस प्रकार है - इंदिय-तिणि य काया कोहाई दोणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं जोगो दस होंति ते देसे ॥ १८४॥ १।३।२।१२।१ एदे मिलिया १० । १।३।२।१।२।१ एकीकृताः १० प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६/१०/४/२/२राह । अन्योन्यगुणिताः १२६६० ॥ १८४॥ अथवा देशसंयत में इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ १८४ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -१+३+२+१+२+१= १० । १२६६० भङ्ग होते हैं । २५६२० होते हैं । इंदिय दोण्णि य काया कोहाई दोण्णि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१८५॥ १।२।२।१।२।१।१ एदे मिलिया १० । १।२।२।१।२।१।१ एकीकृताः १० प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६।१०।४।३।२।२६ गुणिताः २५६२० प्रत्ययविकल्पाः स्युः ॥ १८५ ॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमें से एक और योग एक; ये दशबन्ध- प्रत्यय होते हैं ॥१८५॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -- १+२+२+१+२+१+१=१०। का० भ० ३ ० २ 9 9 २ इ' दियमेओ काओ कोहाई दुण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥ १८६॥ १।१।२।१।२।२।१ एदे मिलिया १० ॥ १।१।२।१।२।२।१ एकीकृताः प्रत्ययाः १० । एतेषां भंगाः ६५|४|३|२| | एते परस्परेण गुणिताः एए सव्वे वि मिलिया- ६४८० ॥१८६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विक और योग एक; ये दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।। १८६ ॥ एदेसिं च भंगां इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है -१ + १+२+१+२+२+१=१०। - ६|१०|४|३|२६ एए अण्णोष्णगुणिदा = १२६६० ६।१०।४।३।२।२।६ एए अण्णोष्णगुणिदा = २५६६० ६/५/४/३/२/६ एए अण्णोष्णगुणिदा = ६४८० = ४५३६० For Private Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५ एते त्रयो राशयो मीलिताः ४५३६० मध्यमदशप्रत्ययानां भंगाः भवन्ति । देशसंयतमें दश-बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंप्रथम प्रकार-६।१०।४।३।२राह इनका परस्पर गुणा करने पर १२६६० भङ्ग द्वितीय प्रकार-६।१०।४।३।२।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर २५६२० भङ्ग होते हैं। तृतीय प्रकार-६।।४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर ६४८० भङ्ग होते हैं। दश बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग ४५३६० होते हैं। का० भ० देशसंयतके ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको लानेके ४ . : लिए कूट-रचना इस प्रकार है इंदिय चउरो काया कोहाई दोण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं जोगो एक्कारसं देसे ॥१८७॥ १।४।२।१।२।१ एदे मिलिया ११ । १।४।२।१।२।१ एकीकृताः ११ प्रत्ययाः। एतेषां भंगाः ६।५।४।३।२।। एते अन्योन्यहताः ६४८० ॥१८॥ अथवा देशसंयतमें इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१८७॥ - इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+४+२+१+२+१=११ । । इदिय तिणि य काया कोहाई दोणि एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१८८॥ १॥३।२।।२।। एदे मिलिया ११। १।३।२।१।२।१।१ एकीकृताः ११ प्रत्ययाः। एतेषां भङ्गाः ६।१०।४।३।२।२।६ अन्योन्यगुणिताः २५६२० ॥१८॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१८॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+३+२+१+२+१+१=११ । इंदिय दोणि य काया कोहाई दोण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१८॥ १२।२।१।२।२।। एदे मिलिया ११ । १२।२।१।२।२।१ एकीकृताः ११ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।१०।१३।२। एते गुणिताः १२१६० ॥१८॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादियुगल एक, भयद्विकऔर योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१८६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+२+२+१+ +२+२+१=११ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह एदेसिं च भंगा- ६।५।४।३।२।६ एए अण्णोष्णगुणिया= ६४८० ६।१०।४।३।२।२९ , , =२५९२० ६।१०।४।३।२। , , = १२६६० सब्वे मिलिया = ४५३६० एकादशप्रत्ययानां विकल्पाः सर्वे एकत्रीकृताः ४५३६० भवन्ति । देशसंयतमें ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं(१) ६।५।४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर ६४८० भङ्ग होते हैं । (२) ६।१०।४।३।२।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर २५६२० भङ्ग होते हैं । (३) ६।१०।४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर १२६६६ भङ्ग होते हैं । ग्यारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग- ४५३६० होते हैं । का० भ० देशसंयतके बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको लानेके लिए ५ . कूटरचना इस प्रकार है इदिय पंच वि काया कोहाई दोष्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं जोगो वारस हवंति ते हेऊ ॥१६॥ ५२।१।२।१ एदे मिलिया १२ । १५२।१२।। एकीकृताः १२ प्रत्ययाः। एतेषां भंगाः ६।१।४।३।२।। एते अन्योन्यगुणिताः १२६६ ॥१६॥ अथवा देशसंयतमें इन्द्रिय एक, काय पाँच क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+५+२+१+२+१=१२। इंदिय चउरो काया कोहाई दोणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च जोगो य ॥१६॥ १४।२।१२।१।१ एदे मिलिया १२ । १।४।२।१२।१११ एकीकृताः १२ । एतेषां भंगा: ६।५।४।३।२।२। परम्परेण गुणिताः १२६६० ॥१६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय चार, कोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक; ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+४+२+१+२+१+१=१२। इदिय तिणि य काया कोहाई दोणि एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयजुयलं एयजोगो य ॥१२॥ १।३।२।१।२।२११ एदे मिलिया १२ । १३।२।१२।२११ एकीकृताः १२ प्रत्ययाः । एतेषां भंगाः ६।१०॥४३॥२११ परस्परेण गणिताः १२६६० ॥१६२॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये बारह बन्ध-प्रत्यय होते है ।।१२।। इनको अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+३+२+१+२+२+१=१२। . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक एदेसिं च भंगा-- ६।१।४।३।२६ एए अण्णोण्णगुणिए = १२६६ ६।५।।३।२।२९ , = १२६६० ६।१०।४।३२ =१२६६० एए सव्वे वि मेलिए =२७२१६ एते सर्वे त्यो राशयो मीलिताः २७२१६ । देशसंयत गुगस्थानमें बारह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं(१) ६।१।४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर १२६६ भङ्ग होते हैं । (२) ६॥५॥४।३।२।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर १२६६० ,, (३) ६।१०।४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर १२६६० ,, होते हैं । इन सबके मिलाने पर सर्व भङ्ग २७२१६ ,, होते हैं। देशसंयतके तेरह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको लानेके लिए का० भ० कूट-रचना इस प्रकार है इंदिय पंच वि काया कोहाई दोणि एयवेदो य ।। हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च तेरसं जोगो ॥१६३॥ ___ ११५।२।१।२।१।१ एदे मिलिया १३ । १।५।२।१।२।१।१ एकीकृताः १३ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।१।४।३।२।२।६ । एते अन्योन्यगुणिताः २५६२ ॥१६॥ अथवा देशसंयतमें इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमेंसे एक और योग एक, ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं॥१६॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+५+२+१+२+१+ १ = १३ । इंदिय चउरो काया कोहाई दोण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयजुयलं एगजोगो य ॥१९४॥ १।४।२।१।२।२।१ एदे मिलि या १३ । १११२२।१ एकीकृता: १३ । एतेषां भङ्गाः ६।५।४।३।२१ । गुणिताः ६४८० ॥१६॥ अथवा इन्द्रिय एक, काय चार,, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और योग एक; ये तेरह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६४॥ इनकी अकसहाष्ट इस प्रकार है--१+४+२+१+२+२+१=१३॥ एदेसि च भंगा- ६।१४।३।२।२। एए अण्णोण्णगुणिए = २५६२ ६।५।४।३।२। " =६४८० एए दो वि मेलिए संति-- एतौ द्वौ राशी मीलितौ १०७२ । देशसंयतमें बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैं(१)६४।३।२।२। इनका परस्परगणा करने पर २५६२ भङ्ग होते हैं। (२) ६।४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर ६४८० भङ्ग होते हैं। इन दोनों के मिलानेपर सर्व भङ्ग ६०७२ होते हैं । देशसंयतके चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंको लानेके का० भ० लिए कृट-रचना इस प्रकार है Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह इंदिय पंच वि काया कोहाई दोण्णि एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयजुयलं एयजोगो य ॥१६॥ १।५।२।१।२।२१ एदे मिलिया १४ । . १५२।१२।२।१ एकीकृताः १४ । एतेषां भङ्गाः ६।१।४।३।२।। एते परस्परं गुणिताः संयतासंयतस्योत्कृष्टभङ्गाः १२६६ ॥११५॥ अथवा देशसंयतगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय दो, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भय-युगल और योग एक; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१६५।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+५+२+१+२+२+१=१४ । एदेसि च भंगा-६।१।४।३।२।६ एए दो वि अण्णोण्णगुणिया उक्कस्सभंगा हवंति संजयासंजयस्स १२६६ । सव्वे वि मिलिया १६०७०४ । देससंजदस्स भंगा समत्ता । सर्वेऽपि जघन्यादयो मीलिताः १६०७०४।। देशसंयतगुणस्थानस्य भङ्गविकल्पा: समाप्ताः । ६।१४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर संयतासंयतके उत्कृष्ट चौदह बन्ध-प्रत्यय की भङ्ग १२६६ होते हैं। तथा उपयुक्त सर्व भङ्ग मिलकर १६०७०४ होते हैं। जिनका विवरण इस प्रकार हैंआठ बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भङ्ग ६४८० २५६२० दश " " ४५३६० ग्यारह ४५३६० बारह " " २७२१६ तेरह " " ६०७२ नौ चौदह १२६६ सर्व भङ्गोंका जोड़-- १६०७०४ ___ इस प्रकार देशसंयतके भङ्गोंका विवरण समाप्त हुआ। अब प्रमत्तसंयतके सम्भव बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका निरूपण करते हैं-- 'आहारजुयलजोगं पडुच्च पुरिसो हवेज णो इयरा । अपसत्थवेदउदया जायइ णाहारलद्धि वयणाओ ॥१६॥ अथ प्रमत्तस्थाने जघन्यपञ्चकायस्कृष्टसप्तान्तप्रत्ययभेदान् गाथाचतुष्केणाऽऽह--['आहारजुयलजोगं' इत्यादि । ] षष्ठे प्रमत्ते आहारकाऽऽहारकमिश्रयोगयुगलं प्रतीत्याऽऽश्रित्य पुंवेदो भवेत् । प्रमत्तसंयतानां पुंवेदोदये सति आहारकद्वयं भवति । इतरस्त्री-नपुंसकवेदोदयात् आहारकलब्धिन जायते इति वचनात्।।१६६॥ प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहारककाययोगद्विककी अपेक्षा केवल एक पुरुषवेद होता है, इतर दोनों वेद नहीं होते हैं। क्योंकि, 'अप्रशस्तवेदके उदयमें आहारकऋद्धि नहीं उत्पन्न होती है। ऐसा आगमका वचन है ॥१६६॥ प्रमत्तसंयतके सम्भव बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंगोंको लानेके लिए कूट-रचना । इस प्रकार है 1, सं० पञ्चसं० ४, ६३ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक संजणं यदरं एदरं चैव तिण्णि वेदाणं । हस्साइदुयं एयं जोगो पंच हवंति ते हेऊ ॥ १६७॥ १।१२।१ एदे मिलिया ५ । चतुर्णां कषायाणां मध्ये एकतरः संज्वलनकषायप्रत्ययः १ । त्रयाणां वेदानां मध्ये एकतरवेदोदयः १ । हास्य-रतियुग्माऽरतिशोकयुग्मयोर्मध्ये एकतरयुग्मोदयः २ । सत्यमनोयोगाद्यौदारिकयोगानां नवानां मध्ये एकतरयोगोदयः | १|१|२| १ | एते एकीकृताः ५ । एतेषां ५ प्रत्ययानां भङ्गाः ४।३।२।६ | आहारकद्वयापेक्षया भङ्गाः ४ | पुंवेदः ११२ भाहारकद्वयं परस्परद्वयभङ्गराशि गुणयित्वा २१६ ॥१६ ॥१६७॥ प्रमत्तसंयत में कोई एक संज्वलन कषाय, तीन वेदोंमें से कोई एक वेद, हास्यादि एक युगल और कोई एक योग, इस प्रकार पाँच बन्ध- प्रत्यय होते हैं ।। १६७ ॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है- १ + १+२+१=५। एदेसिं च भंगा-- ४।३।२।१ एए अण्णोष्णगुणिए = २१६ ४|११२/२ = १६ -- २३२ "3 "3 एए दोणि वि मिलिए राशिद्वयं पिण्डीकृतं २३२ ॥ प्रमत्तसंयतके पाँच बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंग इस प्रकार हैं(१) ४३२ इनका परस्पर गुणा करने पर (२) ४|१/२/२ इनका परस्पर गुणा करने पर उक्त दोनों भंग मिला देने पर प्रमत्तसंयतगुणस्थान में २३२ भंग पाँच बन्ध-प्रत्ययसम्बन्धी होते हैं । अब प्रमत्तसंयत गुणस्थानमै छह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंग कहते हैं संजल य एयदरं एयदरं चैव तिण्णि वेदाणं । हस्साइदुयं एयं भयदुय एयं च छच्च जोगो य ॥१६८॥ १।१२।१।१ एदे मिलिया ६ । १|१२|१|१ एकीकृताः ६। एतेषां भङ्गाः ४।३।२।२६ ॥ आहारकद्वयापेक्षया ४|१|२/२/२ अन्योन्यगुणिताः ४३२।३२ ॥१६८॥ कोई एक संज्वलनकषाय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, हास्यादि एक युगल, भयद्विक में से कोई एक और एक योग; ये छह बन्ध-प्रत्यय होते हैं || १६८ || इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है - १ + १+२+१+१= ६। एदेसिं च भंगा - ४/३/२/२६ एए अण्णोष्णगुणिए = ४३२ ४।१२।२।२ = ३२ एए दो वि मेलिए मज्झिमभंगा भवंति = ४६४ 39 २१६ भंग होते हैं । १६ भंग होते हैं । "" १६३ एतौ द्वौ राशी मीलिते मध्यमप्रत्ययभङ्गविकल्पाः ४६४ भवन्ति । इनके भंग इस प्रकार हैं (१) ४३२२६ इनका परस्पर गुणा करने पर ४३२ भंग होते हैं । (२) ४|१|२||२ इनका परस्पर गुणा करने पर ये दोनों ही मिलकर मध्यम भंग ३२ भंग होते हैं । ४६४ होते हैं । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पञ्चसंग्रह अब प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सात बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भंग कहते हैं संजलण य एयदरं एयदरं चेव तिणि वेदाणं । हस्साइदुयं एयं भयजुयलं सत्त जोगो त्ति ॥१६६।। १।२।२।५ । एदे मिलिया ७ । १।१२।२।१ एकीकृताः ७ प्रत्ययाः। एतेषां भङ्गाः ४।३।२६ । आहारकद्वयापेक्षया ४।१।२।२ परस्परं गुणिताः २१६।१६ ॥१६॥ कोई एक संज्वलन कषाय, तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्यादि एक युगल, भययुगल और एक योग, इस प्रकार सात बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+२+२+ १ =७ एदेसिं च भंगा-४।३।२।६ एए अण्णोण्णगुणिए =२१६ ॥१२॥२, ,, १६ दो वि मेलिए उकस्सभंगा भवंति पमत्तस्स% २३२ सब्वे भंगा (२३२+ ४६४ + २३२%3) ६२८ पमत्तसंजदस्स भंगा समत्ता । राशिद्वयमीलितं प्रमत्तसंयतस्योत्कृष्टभङ्गविकल्पाः २३२ भवन्ति । पञ्चकादयः सर्वे एकीकृताः १२८ प्रमत्तस्य भङ्गाः स्युः। इति प्रमत्तगुणस्थानभङ्गाः समाप्ताः । इनके भंग इस प्रकार हैं (१) ४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर २१६ भंग होते हैं। (२) ४।१।२।२ इनका परस्पर गुणा करने पर १६ भंग होते हैं। उक्त दोनों भंगोंके मिलाने पर प्रमत्तसंयतके उत्कृष्ट भंग २३२ होते हैं। इस प्रकार सर्व भंग ६२८ होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार हैपाँच बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भंग- २३२ छह " " " ४६४ सात " २३२ सर्व भङ्गोंका जोड़ १२८ इस प्रकार प्रमत्तसंयतगुणस्थानके भंगोंका विवरण समाप्त हुआ। अब अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानके बन्ध-प्रत्यय और उनके भंगोंका निरूपण करते हैं जे पच्चया वियप्पा भणिया णियमा पमत्तविरदम्मि । : ते अप्पमत्त पुत्वे आहारदुगूणया णेया ॥२०॥ अथाप्रमत्ताऽपूर्वकरणयोः प्रत्ययभेदान् प्राऽऽह-['जे पच्चया वियप्पा' इत्यादि । प्रमत्तविरते ये प्रत्ययविकल्पाः पञ्चादिसप्तान्तोक्ताः प्रत्यपभङ्गाः भणितास्त एव प्रत्ययाः भङ्गाः अप्रमत्ताऽपूर्वकरणगुणस्थानयोराहारकद्वयोना ज्ञेया नियमात् ॥२०॥ प्रमत्तविरतगुणस्थानमें जो बन्ध-प्रत्यय और उनके भंग कहे हैं, नियमसे वे ही अप्रमत्तविरत और अपूर्वकरणमें आहारकद्विकके विना जानना चाहिए ॥२००।। 1. सं० पञ्चसं० ४,६५ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक इत्यप्र ४।३।२। एए अण्णोण्णगुणिए भंगा २१६ . ४।३।२।२।६, ,, मज्झिम , ४३२ ४॥३॥२१६ ,, ,, उक्कस्स ,, २१६ भवंति । सब्वे भंगा (२१६+ ४३२ + २१६) = ८६४ - अप्पमत्तापुव्वसंजदाणं भंगा समत्ता । संज्वलनैकतरः १ वेदैकतरः १ हास्यादियुग्मैकतरं २ नवयोगानां मध्ये एकतमयोगः ॥१२।१ एकीकृताः ५ प्रत्ययाः। एतेषां भङ्गाः ४।३।२।। एते परस्परं गुणिताः २१६ जघन्यप्रत्ययभङ्गाः स्युः । १।१२।११ एकीकृताः ६ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ५३.२।२।। एते अन्योन्यगुणिता मध्यमप्रत्ययभङ्गाः ४३२ भवन्ति । १।१२।२।१ एकीकृताः ७ । एतेषां भङ्गाः ४।३।२।। एते अन्योन्यगुणिता: उत्कृष्टभङ्गाः २१६ भवन्ति । सर्वे जघन्याद्यकीकृताः ८६४ स्युः । अप्रमत्तस्य प्रत्ययभङ्गाः ८६४ । अपूर्वकरणस्य प्रत्ययभङ्गाः ८६४ । पूर्वकरणयोः प्रत्ययभङ्गाः समाप्ताः । उक्त दोनों गुणस्थानोंके भंग इस प्रकार हैं(१) जघन्य भंग-४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर २१६ भंग होते हैं। (२) मध्यम भंग-४।३।२।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर ४३२ भंग होते हैं। (३) उत्कृष्ट भंग-४।३।२।६ इनका परस्पर गुणा करने पर २१६ भंग होते हैं। इस प्रकार उक्त सर्व भङ्गोंका जोड़ ८६४ होता है। अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानके भङ्गोंका विवरण समाप्त हुआ। अब नवे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके बन्ध-प्रत्यय और उनके भंगोंका निरूपण करते हैं संजलण-तिवेदाणं णवजोगाणं च होइ एयदरं । संदणदुवेदाणं एयदरं पुरिसवेदो य ॥२०१॥ १११११ एए मिलिया ३ । अनिवृत्तिकरणे प्रत्ययभेदान् गाथाद्वयेनाऽऽह-['संजलणतिवेदाणं' इत्यादि । ] अनिवृत्तिकरणस्य सवेदस्य प्रथमे भागे चतुर्णा संज्वलनकषायाणां मध्ये एकतरकषायोदयः प्रत्ययः ।। त्रयाणां वेदानां मध्ये एकतरवेदोदयः १ । नवानां योगानां मध्ये एकतरयोगोदयः ११।। एकीकृताः प्रत्ययाः: नवें गुणस्थानके सवेद भागमें चारों संज्वलन, तीनों वेद और नव योग, इनमेंसे कोई एक-एक, इस प्रकार तीन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। अथवा नपुंसक वेदको छोड़कर शेष दो वेदोंमेंसे कोई एक वेद, अथवा केवल पुरुषवेद होता है ।।२०१॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१=३ एदेसिं च भंगा-४।३।६ एए उकस्सभंगा अवंति १०८ । ४२।६ ,, , , ७२ । ४१६ ,, , , ३६ । ___ एतेषां भङ्गाः ४।३।। परस्परं गुणिताः १०८। एते उत्कृष्टप्रत्ययभङ्गाः प्रथमे भागे भवन्ति । तद्वितीयभागे षण्ढवेदोनयोः स्त्री-पुंवेदयोर्मध्ये एकतरोदयः १ । १1१1१ एकीकृताः ३ । एतेषां भङ्गाः ४।२। अन्योन्यगुणिताः ७२ । एते उत्कृष्टभङ्गाः अनिवृत्तिकरणस्य द्वितीयभागे स्युः । तत्ततीयभागे पुंवेदोदय एक एव । १।१।१ एकीकृताः ३ । एतेषां भङ्गाः ४।१।६ परस्परगुणिताः ३६ उत्कृष्टभङ्गाः स्युः । 1. सं० पञ्चसं०४,६६ । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पञ्चसंग्रह अनिवृत्तिकरण- सवेदभागके भङ्ग इस प्रकार होते हैं(१) ४।३।६ इनका परस्पर गुणा करने पर उत्कृष्ट भङ्ग (२) ४|२| इनका परस्पर गुणा करने पर उत्कृष्ट भङ्ग (३) ४|१|६ इनका परस्पर गुणा करने पर उत्कृष्ट भङ्ग उक्त सर्व भंगों का जोड़ 'चदुसंजलणणवहं जोगाणं होइ एयदर दो ते । कोहूणमाणवज्जं मायारहियाण एगदरगं वा ॥ २०२॥ ११ एए मिलिया जहण्णपच्या दोष्णि हवंति २ । अनिवृत्तिकरणस्य अवेदस्य चतुर्थे भागे चतुर्णां संज्वलनकषायाणां मध्ये एकतरकषायोदयः १ | नवानां योगानां मध्ये एकतरयोगोदयः । इति द्वौ २ जघन्यौ प्रत्ययौ । ११ एतौ ॥ २०२ ॥ गुणस्थानके अवेद भागमें चारों संज्वलनोंमें से कोई एक कषाय, तथा नव योगों में से कोई एक योग; ये दो बन्ध-प्रत्यय होते हैं । अथवा क्रोधको छोड़कर शेष तीनमें से, मानको छोड़कर शेष दोमेंसे एक और मायाको छोड़कर केवल लोभ-संज्वलन इस प्रकार एक कषाय होती है || २०२|| एलिं च भंगा - ४६ एए अण्णोष्णगुणिए = ३६ । ३६ " =२७ । २।६ =१८ । १६ 33 - 1. सं० पञ्चसं० ४,६७ । +ब च. १०८ होते हैं । ७२ होते हैं । ३६ होते हैं । २१६ होता है । " >" 33 तयोभंगौ ४ । परस्परेण गुणितौ ३६ । क्रोधोने संज्वलनक्रोध-रहिते तत्पञ्चमे भागे ३६ । गुणितौ २७ । संज्वलनमानवर्जिते तत्पष्ठे भागे २६ । अन्योन्यगुणितौ १८ | वा अथवा माया-रहितलोभोदयः एकतरः, तदा १६ । अन्योन्यगुणितौ । एते सर्वे मीलिताः ३०६ उत्तरोत्तरप्रत्ययविकल्पाः अनिवृत्तिकरणे भवन्ति । = ह। 33 एवमणिय हिस्स भंगा ३०६ । अणिय हिसंजदस्स भंगा समता । इत्येवमनिवृत्तिकरणस्य भंगाः समाप्ताः । इस प्रकार एक संज्वलन कषाय और एक योग, ये दो जघन्य बन्ध-प्रत्यय होते हैं । इनके भंग इस प्रकार हैं ४|६ इनका परस्पर गुणा करने पर ३।६ इनका परस्पर गुणा करने पर २६ इनका परस्पर गुणा करने पर १६ इनका परस्पर गुणा करने पर इस प्रकार दो बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी सर्व भंगों का जोड़ तीन प्रत्यय-सम्बन्धी २१६ और दो प्रत्यय-सम्बन्धी ६० इनके मिलाने पर नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में सर्व भंग ३०६ होते हैं । ३६ भंग होते हैं । २७ भंग होते हैं । १८ भंग होते हैं ६ भंग होते हैं । ६० होता है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अब सूक्ष्मसाम्परायादि शेष गुणस्थानोंके बन्ध-प्रत्यय और उनके भंगोंका निरूपण करते हैं सुहुमम्मि सुहुमलोहं णवण्ह जोयाण तिसु एयदरं । जोगम्मि य सत्तण्हं भणिया तिविहा वि पच्चय-वियप्पा ॥२०३॥ सू । एए २।५।६ उप० ११ क्षीण० १६ सयो० १७ एए सब्वे मेलिया ३४ । सुहमसंपरायसंजदस्स सेसाणं च भंगा समत्ता । सूचमसाम्पराये सूक्मलोभोदय एक एव । त्रिषु गुणस्थानेषु सूचमसाम्परायोपशान्तकषाय-क्षीणकपायेषु नवानां योगानां मध्ये एकतरयोगोदयः १। योगः १ । एकीकृतौ २। तयोभङ्गो । अन्योन्यगुणितो तावेव है । उपशान्तकषाये नवानां योगानां मध्ये एकतरयोगोदयः । तद्भङ्गाः । गुणिता नवैव है। क्षीणकषाये नवानां योगानां मध्ये एकतरयोगोदयः । तद्भङ्गाः । गुणिता नवैव है। सयोगिनि सयोगकेवलिगुणस्थाने सप्तानां योगानां मध्ये एकतर योगोदयः १ । तद्भङ्गाः । गुणिताः सप्तव ७ । इत्येवं [ त्रिषु] गुणस्थानेषु विविधाः प्रत्ययविकल्पाः भणिताः जघन्यमध्यमोत्कृष्टा भानवमङ्ग-भेदाः कथिताः ॥२०३॥ इति त्रयोदशगुणस्थानेषु प्रत्ययविकल्पाः समाप्ताः । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें एक सूक्ष्म लोभकषाय और नव योगोंमेंसे कोई एक योग ये दो बन्ध-प्रत्यय होते हैं। उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानमें नौ योगोंमेंसे कोई एक योगरूप एक ही बन्ध-प्रत्यय होता है। सयोगिकेवली गुणस्थानमें सात योगोंमेंसे कोई एक योगरूप एक ही बन्ध-प्रत्यय होता है। इस प्रकार इन गुणस्थानों में तीन प्रकारके प्रत्यय-विकल्प कहे गये हैं ॥२०३॥ सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें २४१४६=१८ भंग होते हैं। क्षीणकषाय गुणस्थानमें १x६= भंग होते हैं। सयोगकेवली गुणस्थानमें १४७ = ७ भंग होते हैं। उक्त गुणस्थानोंके सर्व भंग मिलकर ३४ होते हैं। अब आठो कौके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हुए सबसे पहले शानावरण और दर्शनावरण कर्मके विशेष बन्ध-प्रत्यय बतलाते हैं[मूलगा० १५]पडिणीयमंतराए उपघाए तप्पदोस णिण्हवणे । आवरणदुअं भूओ बंधह अच्चासणाए य॥२०४॥ अथ प्रत्ययोदयकार्यजीवपरिणामानां ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मबन्धकारणत्वप्रतिपत्ति गाथात्रयोदशकेनाऽऽह-'पडिणीयमंतराए' इत्यादि । श्रुतधरादिषु अविनयवृत्तिः प्रत्यनीकं प्रतिकूलनेत्यर्थः ।। ज्ञानविच्छेदकरणमन्तरायः २ । मनसा वचनेन वा प्रशस्तज्ञानदूषणमुपघातः ३ । तत्त्वज्ञाने हर्षाभावः, तस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते सति कस्यचिदनभिव्याहारतोऽन्तःपैशुन्यं वा प्रद्वेषः ४ । कुतश्चित्कारणाजानमपि एतत्पुस्तकमस्मत्पावे नास्ति, एतच्छ तमहं न वेद्मीति व्यपलपनं अप्रसिद्धगुरून् अपलप्य प्रसिद्धगरुकथनं वा निवः ५। कायवचनाभ्यामननुमननं कायेन वाचा वा परप्रकाश्यज्ञानस्य वजन वा इत्याऽऽसादनम् ६ । एतेषु पटसु सत्सु जीवो ज्ञानावरणदर्शनावरणद्वयं भूयो बध्नाति प्रचुरवृत्त्या स्थित्यनुभागो बनातीत्यर्थः । ते षडपि तद्-द्वयस्य युगपद् बन्धकारणानि ॥२०॥ 1..सं० पञ्चसं० ४, ६८-६६ । 2. ४, ७० । १. शतक० १६ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पञ्चसंग्रह ज्ञान-दर्शन और उनके साधनोंमें प्रतिकूल आचरण, अन्तराय, उपघात, प्रदोष और निह्नव करनेसे, तथा असातना करनेसे यह जीव आवरणद्विक अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका प्रचुरतासे बन्ध करता है ॥२०४।। . विशेषार्थ-ज्ञानके, ज्ञानियोंके और ज्ञानके साधनोंके प्रतिकूल आचरण करनेसे, उनमें विघ्न करनेसे, उनका मूलसे घात करनेसे, उनमें दोष लगाने और ईर्ष्या करनेसे, उनका निह्नव (निषेध) और असातना (विराधना) करनेसे, अकालमें स्वाध्याय करनेसे, कालमें स्वाध्याय नहीं करनेसे, स्वयं संक्लेश करनेसे, दूसरेको संक्लेश उत्पन्न करनेसे, तथा दूसरे प्राणियोंको पीड़ा पहुँचानेसे ज्ञानावरण कर्मका भारी आस्रव होता है अर्थात् उनका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भारी परिमाणमें होता है । इसी प्रकार दर्शनगुण, उसके धारक और साधनोंके विषयमें प्रतिकूल आचरण करनेसे, विघ्न करनेसे उपघात, प्रदोष, निह्नव और असातना करनेसे, तथा आलसी जीवन बितानेसे, विषयोंमें मग्न रहनेसे, अधिक निद्रा लेनेसे, दूसरेकी दृष्टिमें दोष लगानेसे, दृष्टिके साधन उपनेत्र (चश्मा) आदिके चुरा लेने या फोड़ देनेसे और प्राणिवधादि करनेसे दर्शनावरणकर्मका तीव्र स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। अब वेदनीयकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १६]'भूयाणुकंप-वय-जोग उजओ खंति-दाण-गुरुभत्तो । __ बंधह सायं भूओ विवरीओ बंधए इयरं ॥२०॥ गतौ कर्मोदयाद् भवन्तीति भूताः प्राणिनः, तेषु प्राणिषु अनुकम्पा दया । व्रतानि हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिः २ । योगः समाधिः, धर्मध्यान-शुक्लध्यानम् ३ तैर्युक्तः, क्रोधादिनिवृत्तिलक्षणया क्षान्त्या क्षमया, चतुर्विधदानेन, पञ्चगुरुभक्त्या च सम्पन्नः । स जीवः सातं सातावेदनीयं सुखरूपकर्मतीव्रानुभागं भूयो बध्नाति । तद्विपरीतस्तागसातं असातावेदनीयं कर्म बध्नाति ॥२०५॥ प्राणियों पर अनुकम्पा करनेसे, व्रत-धारण करनेमें उद्यमी रहनेसे तथा उनके धारण करनेसे, क्षमा धारण करनेसे, दान देनेसे, तथा गुरुजनोंकी भक्ति करनेसे सातावेदनीय कर्मका तीव्र बन्ध होता है । और इनसे विपरीत आचरण करनेसे असातावेदनीय कर्मका तीव्र बन्ध होता है ॥२०॥ विशेषार्थ-सर्व जीवों पर दया करनेसे, धर्ममें अनुराग रखनेसे, धर्मके आचरण करनेसे, व्रत, शील और उपवासके सेवनसे, क्रोध नहीं करनेसे, शील, तप और संयममें निरत व्रती जनोंको प्रासुक वस्तुओंके दान देनेसे, बाल, वृद्ध, तपस्वी और रोगी जनोंकी वैयावृत्य करनेसे, आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा माता, पिता और गुरुजनोंकी भक्ति करनेसे, सिद्धायतन और चैत्य-चैत्यालयोंकी पूजा करनेसे, मन, वचन और कायको सरल एवं शान्त रखनेसे सातावेदनीय कर्मका तीव्र बन्ध होता है । प्राणियोंपर क्रूरतापूर्वक हिंसक भाव रखने और तथैव आचरण करनेसे, पशु-पक्षियोंका बध-बन्धन, छेदन-भेदन और अंग-उपांगादिके काटनेसे, उन्हें बधिया (नपुंसक) करनेसे, शारीरिक और मानसिक दुःखोंके उत्पादनसे, तीव्र अशुभ परिणाम रखनेसे, विषय-कषाय-बहुल प्रवृत्ति करनेसे, अधिक निद्रा लेनेसे, तथा पंच पापरूप आचरण करनेसे तीव्र असातावेदनीय कर्मका बन्ध होता है। 1. सं. पञ्चसं.४,७१-७३ । १. शतक. १७ ॐब उज्ज। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अब मोहनीय कर्मके भेदोंमेंसे पहले दर्शनमोहके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १७] अरहंत-सिद्ध-चेहय-तब-सुद-गुरु-धम्म-संघपडिणीओ। बंधइ दंसणमोहं अणंतसंसारिओ जेण' ॥२०६॥ यो जीवोऽहसिद्ध-चैत्य-तपो-गुरु श्रुत-धर्म-संघप्रतिकूलः स तद्दर्शनमोहनीयं बध्नाति येनोदयागतेन जीवोऽनन्तसंसारी स्यात् ॥२०६॥ अरहंत, सिद्ध, चैत्य, तप, श्रुत, गुरु, धर्म और संधके अवर्णवाद करनेसे, जीव दर्शनमोह कर्मका बन्ध करता है, जिससे कि वह अनन्तसंसारी बनता है ।।२०६॥ विशेषार्थ-जिसमें जो अवगुण नहीं है, उसमें उसके निरूपण करनेको अवर्णवाद कहते हैं। वीतरागी अरहंतोंके भूख, प्यासकी बाधा बताना, रोगादिकी उत्पत्ति कहना, सिद्धोंका पुनरागमन कहना, तपस्वियोंमें दूषण लगाना, हिंसामें धर्मबतलाना,मद्य मांस, मधुके सेवनको निर्दोष कहना, निर्ग्रन्थ साधुको निर्लन और गन्दा कहना, उन्मार्गका उपदेश देना, सन्मार्गके प्रतिकूल प्रवृत्ति करना, धर्मात्मा जनोंमें दोष लगाना, कर्म-मलीमस असिद्धजनोंको सिद्ध कहना, सिद्धोंमें असिद्धत्वकी भावना करना, अदेव या कुदेवोंको देव बतलाना, देवों में अदेवत्व प्रकट करना, असर्वज्ञको सर्वज्ञ और सर्वज्ञको असर्वज्ञ कहना, इत्यादि कारणोंसे संसारके बढ़ानेवाले और सम्यक्त्वका घात करनेवाले दर्शनमोहनीयकर्मका तीव्र बन्ध होता है यह कर्म सर्व कर्मो में प्रधान है। इसे ही कर्म-सम्राट् या मोहराज कहते हैं और उसके तीनबन्धसे जीवको संसारमें अनन्तकाल तक परिभ्रमण करना पड़ता है। . अव मोहनीयकर्मके दूसरे भेद चारित्रमोहके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १८] तिव्वकसाओ बहुमोहपरिणओ रायदोससंसत्तो । बंधइ चरित्तमोहं दुविहं पि चरित्तगुणघादी ॥२०७॥ यस्तीव्रकपायनोकपायोदययुतः बहुमोहपरिणतः रागद्वेषसंसक्तः चारित्रगुणविनाशनशीलः, स जीवः कपाय-नोकपायभेदं द्विविधमपि चारित्रमोहनीयं बध्नाति ॥२०७॥ तीव्रकपायी, बहुमोहसे परिणत और राग-द्वेषसे संयुक्त जीव चारित्रगुणके घात करनेवाले दोनों ही प्रकारके चारित्रमोहनीयकर्मका बन्ध करता है ।।२०७॥ विशेषार्थ-चारित्रमोहनीय कर्मके दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय । राग-द्वेषसे संयुक्त तीव्र कषायी जीव कषायवेदनीयकर्मका और बहुमोहसे परिणत जीव नोकषायवेदनीयकर्मका बन्ध करता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-तीव्र क्रोधसे परिणत जीव क्रोधवेदनीयकर्मका बन्ध करता है । इसी प्रकार तीव्र मान, माया और लोभसे परिणत जीव मान, माया और लोभवेदनीयकर्मका बन्ध करता है । तीव्र रागी, अतिमानी, ईर्ष्यालु, अलोकभाषी, कुटिलाचरणी और पर-स्त्री-रत जीव स्त्रीवेदका बन्ध करता है। सरल व्यवहार करनेवाला एन्कषायी, मृदुस्वभावी, ईर्ष्या-रहित और स्वदार-सन्तोषी जीव पुरुषवेदका बन्ध करता है। तीवक्रोधी, पिशुन, पशुओंका बध-बन्धन और छेदन-भेदन करनेवाला, स्त्री और पुरुष दोनोंके साथ अनंगक्रीडा करनेवाला, व्रत, शोल और संयम-धारियोंके साथ व्यभिचार करनेवाला, पंचेन्द्रियोंके विषयोंका तीव्र अभिलाषी, लोलुप जीव नपुंसकवेदका बन्ध करता है । स्वयं हँसने 1. सं० पञ्चसं० ४, ७४ । 2. ४, ७५ । १. शतक. १८ । २. शतक. १४ । २२ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पञ्चसंग्रह वाला, दूसरोंको हँसानेवाला, मनोरंजनके लिए दूसरोंकी हँसी उड़ानेवाला विनोदी स्वभावका जीव हास्यकर्मका बन्ध करता है । स्वयं शोक करनेवाला, दूसरोंको शोक उत्पन्न करनेवाला, दूसरोंको दुखी देखकर हर्षित होनेवाला जीव शोककर्मका बन्ध करता है। नाना प्रकारके क्रीड़ा-कुतूहलोंके द्वारा स्वयं रमनेवाला और दूसरोंको रमानेवाला, दूसरोंको दुखसे छुड़ानेवाला और सुख पहुँचानेवाला जीव रतिकर्मका बन्ध करता है। दूसरोंके आनन्दमें अन्तराय करनेवाला, अरति उत्पन्न करनेवाला और पापी जनोंका संसर्ग रखनेवाला जीव अरतिकर्मका बन्ध करता है। स्वयं भयसे व्याकुल रहनेवाला और दूसरोंको भय उपजानेवाला जीव भय कर्मका बन्ध करता है। साधुजनोंको देखकर ग्लानि करनेवाला, दूसरोंको ग्लानि उपजानेवाला और दूसरेकी निन्दा करनेवाला जीव जुगुप्सा कर्मका बन्ध करता है । इस प्रकार चारित्र मोहकर्मकी पृथक्-पृथक् प्रकृतियांका आस्रव करके बन्धप्रत्ययोंका निरूपण किया। अब सामान्यसे चारित्रमोहके बन्धप्रत्ययोंका निरूपण करते हैं जो व्रत-शील-सम्पन्न, धर्मगुणानुरागी, सर्वजगद्वत्सल साधुजनोंकी निन्दा-गर्दा करता है, धर्मात्माजनांके धर्म-सेवनमें विघ्न करता है, उनमें दोष लगाता है, मद्य, मांस मधुके सेवनका प्रचार करता है, दूसरोंको कषाय और नोकषाय उत्पन्न करता है, ऐसा जीव चारित्रगोहकर्मका तीव्र बन्ध करता है । इस प्रकार चारित्रमोहके बन्धप्रत्ययोंका निरूपण किया। ___ अब आयुकर्मके चार भेदों से पहले नरकायुकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० १६]'मिच्छादिट्ठी महारंभ-परिग्गहो तिव्वलोह णिस्सीलो । _णिरयाउयं णिबंधइ पावमई रुद्दपरिणामो ॥२०॥ यो मिथ्यादृष्टिर्जीवो बह्वाऽऽरम्भ-बहुपरिग्रहः, तीव्राऽनन्तानुबन्धिलोभः, निःशीलः शील-रहितो लम्पटः, पापकारणबुद्धिः रौद्रपरिणामः स जीवो नरकायुबंध्नाति ॥२०॥ मिथ्यादृष्टि, महारम्भी, महापरिग्रही, तीव्रलोभी, निःशीली, रौद्रपरिणामी और पापबुद्धि जीव नरकायुका बन्ध करता है ॥२०८।। . विशेषार्थ-जो जीव धर्मसे पराङ्मुख है, पापोंका आचरण करनेवाला है, जिस आरम्भ और परिग्रह में महा हिंसा हो, उसका करनेवाला है, जिसके व्रत-शीलादिका लेश भी न हो, भक्ष्य-अभक्ष्यका कुछ भी विचार न हो अर्थात् सद्य-मांसका सेवी और सवे-भक्षी हो, जिस परिणाम सदा रौद्रध्यानमय रहते हों और जिसका चित्त पत्थरकी रेखाके समान कठोर हो, ऐसा जीव नरकायुकर्मका बन्ध करता है। अब तिर्यगायुकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० २०] उम्मग्गदेसओ सम्मग्गणासओ गूढहिययमाइल्लो । सढसीलो य ससल्लो तिरियाउ णिबंधए जीवों ॥२०६॥ य उन्मार्गोपदेशकः सन्मार्गविनाशकः, गूढ हृदयो मायावी शठशीलः, सशल्यः माया-मिथ्या निदानशल्यत्रयो जीवः स तिर्यगायुबंध्नाति ॥२०६॥ उन्मार्गका उपदेशक, सन्मार्गका नाशक, गूढहृदयी, महामायापी, परन्तु मुखसे मीठे वचन बोलनेवाला, शठशील और शल्ययुक्त जीव तिर्यगायुका बन्ध करता है ॥२०६॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ७६ । 2. ४, ७७ । १. शतक. २०। २. शतक. २१ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक विशेषार्थ - जो जीव केवल कुमार्गका उपदेश ही न देता हो, अपितु सन्मार्गके विरुद्ध प्रचार भी करता हो, सन्मार्ग पर चलनेवालोंके छिद्रान्वेषण और असत्य दोषारोपण करनेवाला हो, माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे युक्त हो, जिसके व्रत और शीलमें अतिचार लगते रहते हों, पृथिवी रेखा के सदृश रोपका धारक हो, गूढ हृदय मायावी और शठशील हो, ऐसा जीव तिर्यगायुका बन्ध करता है । यहाँ पर अन्तिम तीनों विशेषण विशेषरूप से विचारणीय हैं। जिसके हृदयकी बातका पता कोई न चला सके, उसे गूढ़हृदय कहते हैं। जो सोचे कुछ और, तथा करे कुछ और उसे मायावी कहते हैं । जो मनमें कुटिलता रख करके भी वचनों से मधुरभाषी हो, उसे शठशील कहते हैं। ऐसा जीव तिर्यगायुका बन्ध करता है । अब मनुष्यायुके विशेष बन्ध-प्रत्ययोका निरूपण करते हैं [ मुलगा० २१] पयडीए। तणुकसाओ दाणरओ सील- संजम विहूणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउ णिबंधए जीवों ॥२१० ॥ यः प्रकृत्या स्वभावेन मन्दकषायोदयः, चतुर्विधदानप्रीतिः, शीलैः संयमेन च विहीनः, मध्यमगुणैर्युक्तः, स जीवो मानुष्यायुर्ब्रध्नाति ॥ २९०॥ जो प्रकृतिसे ही मन्दकषायी है, दान देनेमें निरत है, शील-संयमसे रहित होकरके भी मनुष्योचित मध्यम गुणोंसे युक्त है, ऐसा जीव मनुष्यायुका बन्ध करता है ॥२१८॥ जो स्वभावसे ही शान्त एवं अल्प कषायवाला हो, प्रकृतिसे ही भद्र और विनीत हो, समय-समय पर लोकोपकारक कार्योंके लिए दान देता रहता हो, अप्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र उदय होनेसे व्रत-शीलादिके नहीं पालन कर सकने पर भी मानवोचित दया, क्षमा, आदि गुणोंसे युक्त हो, वालुकाराजिके सदृश रोषका घारक हो, न अति संक्लेश परिणामोंका धारक हो और न अति विशुद्ध भावोंका ही धारक हो, किन्तु सरल हो और सरल कार्य करनेवाला हो, ऐसा जीव मनुष्यायुकर्मका बन्ध करता है । अब देवायुके विशेष बन्ध-प्रत्ययका निरूपण करते हैं [ मूलगा० २२] अणुवय - महव्वएहि य बालतवाकामणिञ्जराए य । देवाउयं णिबंधइ सम्माहट्टी य जो जीवो ॥२११॥ १७१ यः सम्यग्दृष्टिर्जीवः स केवलसम्यक्त्वेन साक्षादणुव्रतैर्महाव्रतैर्वा देवायुबंध्नाति । यो मिथ्यादृष्टिर्जीवः स उपचाराणुव्रत महाव्रतैर्बालतपसा अकामनिर्जरया वा देवायुर्ब्रध्नाति ॥२११॥ अणुव्रतों, शीलतों और महाव्रतोंके धारण करनेसे, बालतप और अकामनिर्जराके करने से जीव देवायुका बन्ध करता है । तथा जो जीव सम्यग्दृष्टि है, वह भी देवायुका बन्ध करता है ॥२११॥ विशेषार्थ - जो पाँचों अणुव्रतों और सप्त शीलोंका धारक है, महाव्रतोंको धारण कर षड्जीव- निकायकी रक्षामें निरत है, तप और नियमका पालक है, ब्रह्मचारी है, सरागसंयमी है, अथवा बालतप और अकाम निर्जरा करनेवाला है, ऐसा जीव देवायुका बन्ध करता है । यहाँ बालतपसे अभिप्राय उन मिथ्यादृष्टि जीवोंके तपसे है जिन्होंने कि जीव-अजीवके स्वरूपको ही नहीं समझा है, आपा-परके विवेकसे रहित हैं और अज्ञानपूर्वक नाना प्रकारसे कायक्लेशको 1. सं० पञ्चसं० ४, ७८ | 2. ४, ७६ । १. शतक० २२ । २. शतक० २३ । +ब पयडीय | Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह सहन करते हैं । विना इच्छाके पराधीन होकर जो भूख-प्यासकी और शीत-उष्णादिको बाधा सहन की जाती है, उसे अकाम निर्जरा कहते हैं। कारागारमें परवश होकर पृथिवी पर सोनेसे, रूखे-सूखे भोजन करनेसे, स्त्रीके अभावमें विवश होकर ब्रह्मचर्य पालनेसे, सदा रोगी रहनेके कारण परवश होकर पथ्य-सेवन करने और अपथ्य-सेवन न करनेसे जो कर्मोकी निर्जरा होती है, उसे अकामनिर्जरा कहते हैं । इस अकामनिर्जरा और बालतपके द्वारा भी जीव देवायुका बन्ध करता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहकमके तीव्र उदयसे लेशमात्र भी संयमको नहीं धारण कर पाते हैं, फिर भी वे सम्यक्त्वके प्रभावसे देवायुका बन्ध करते हैं। तथा जो जीव संक्लेश-रहित हैं, जलराजिके सदृश रोषके धारक हैं, और उपवासादि करने वाले हैं, वे भी देवायुका बन्ध करते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि सम्यक्त्वी और अणुव्रत-महाव्रतोंका धारक जीव कल्पवासी देवोंकी ही आयुका बन्ध करते हैं, जब कि अकामनिर्जरा करनेवाले प्रायः भवनत्रिक देवोंकी ही आयुका बन्ध करते हैं और बालतप करनेवाले यथासंभव सभी प्रकारके देवोंकी आयुका बन्ध करते हैं। अब नामकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० २३] मण-वयण-कायवंको माइल्लो गारवेहिं पडिबद्धो+। असुहं बंधइ णामं तप्पडिवक्खेहिं सुहणामं ॥२१२।। यो मनोवचनकायैर्वक्रः, मायावी गारवत्रयप्रतिबद्धः, स जीवो नरकगति-तिर्यग्गत्याऽऽद्यशुभं नामकर्म बध्नाति । तत्प्रतिपक्षपरिणामो हि शुभं नामकर्म बध्नाति ॥२१२॥ जिसके मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति वक्र हो, जो मायावी हो और तीनों गारवोंका धारक हो, ऐसा जीव अशुभ नामकर्मका बन्ध करता है और इनसे विपरीत कर्म करनेसे शुभ नामकर्मका बन्ध होता है ।।२१२॥ विशेषार्थ-जो मायाचारी है, जिसके मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति कुटिल है, जो रस-गारव ऋद्धिगारव और सातगारव इन तीनों प्रकारके गारवा या अहंकारोंका धारक है, मूठे नाप-तौलके बाँट रखता है और हीनाधिक देता-लेता है, अधिक मूल्यकी वस्तुमें अल्प मूल्यकी वस्तु मिलाकर बेचता है, रस-धातु आदिका वर्ण-विपर्यास करता है, नकली बनाकर बेंचता है, दूसरोंको धोका देता है, सोने-चाँदीके जेवरोंमें खार मिलाकर और उन्हें असली बताकर व्यापार करता है, व्यवहारमें विसंवादनशील एवं झगड़ालू मनोवृत्तिका धारक है, दूसरोंके अंग-उपांगोंका छेदनभेदन करनेवाला है, दूसरोंकी नकल करता है, दूसरोंसे ईर्ष्या रखता है, और दूसरोंके देहको विकृत बनाता है, ऐसा जीव अशुभ नामकर्मका बन्ध करता है, किन्तु जो इनसे विपरीत आचरण करता है, सरल-स्वभावी है, कलह और विसंवाद आदिसे दूर रहता है, न्यायपूर्वक व्यापार करता है और ठीक-ठीक नाप-तौल कर देता लेता है, वह शुभ नामकर्मका बन्ध करता है। अब गोत्रकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० २४] अरहंताइसु भत्तो गुत्तरुई पयणुमाण गुणपेही । बंधइ उच्चागोयं विवरीओ बंधए इयरं ॥२१३॥ यः अहंदादिषु भक्तः, गणधरायुक्ताऽऽगमेषु श्रद्धाऽध्ययनार्थविचार-विनयादिगुणदर्शी, स जीवः उच्चैर्गोत्रं बध्नाति । तद्विपरीतः नीचैर्गोत्रं बध्नाति ॥२१३॥ 1. सं० पञ्चसं० ४,८०। 2.४,८१ । १. शतक० २४ । २. शतक० २५ । +ब परिबद्धो । *द पढमाणु० । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७३ जो अरहंत आदिकी भक्ति करनेवाला है, आगमका अभ्यासी है और उन जाति, कुलादिका धारक होने पर भी जो अहंकारसे रहित है ऐसा जीव उच्चगोत्रकर्मका बन्ध करता है। तथा इससे विपरीत आचरण करनेवाला नीचगोत्रका बन्ध करता है ।।२१३॥ विशेषार्थ-जो सदा अरहंत, सिद्ध, चैत्य, गुरु और प्रवचनकी भक्ति करता है, नित्य सर्वज्ञ-प्रणीत आगमसूत्रका स्वयं अभ्यास करता है और अन्यको कराता है, दूसरोंको तत्त्वका उपदेश देता है और आगमोक्त तत्त्वका स्वयं श्रद्धान करता है, उत्तम जाति, कुल, रूप, विद्यादिसे मंडित होने पर भी उनका अहंकार नहीं करता और न हीन जाति-कुलादिवालोंका तिरस्कार ही करता है, पर-निन्दासे रहित है, भूल करके भी दूसरोंके बुरे कार्यों पर दृष्टि नहीं डालता है, किन्तु सदाकाल सबके गुणोंको ही देखता है और गुणाधिकोंके साथ अत्यन्त विनम्र व्यवहार करता है, ऐसा जीव उच्चगोत्रकर्मका बन्ध करता है। किन्तु इससे विपरीत आचरण करनेवाला जीव नीचगोत्रकर्मका बन्ध करता है अर्थात् जो सदा अहंकारमें मस्त रहता है, दूसरोंके बुरे कार्यों पर ही जिसकी दृष्टि रहती है, दूसरोका अपमान और तिरस्कार करता है, अरहतादिका भक्तिसे रहित है और आगमके अभ्यासको बेकार समझता है, ऐसा जीव नीचयोनियोंमें उत्पन्न करनेवाले नीचगोत्रकर्मका बन्ध करता है। अब अन्तरायकर्मके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं[मूलगा० २५] पाणबहाइम्हि के रओ जिणपूआ:-मोक्खमग्ग-विग्धयरो। अज्जेइ अंतरायं ण लहइ हियx.इच्छियं जेण ॥२१४॥ यः द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय [पञ्चेन्द्रिय-] वधेषु स्व-परकृतेषु प्रीतः, जिनपूजाया रत्नत्रयप्राप्तेश्च स्वान्ययोविघ्नकरः, स जीवस्तदन्तरायकर्म अर्जयति येनोदयेन हृदयेप्सितं तत् विस्तु न लभ्यते ॥२१४॥ प्राणियोंकी हिंसादिमें रत रहनेवाला और जिन-पूजनादि मोक्षमार्गके साधनोंमें विघ्न करनेवाला जीव अन्तराय कर्मका उपार्जन करता है, जिससे कि वह हृदय-इच्छित वस्तुको नहीं प्राप्त कर पाता है ॥२१४॥ विशेषार्थ-जो जीव पाँचो पापोंको करते हैं, महाऽऽरम्भी और परिग्रही हैं, तथा जिनपूजन, रोगी साधु आदिकी वैयावृत्त्य, सेवा-उपासनादि मोक्षमार्गके साधनभूत धार्मिक क्रियाओंमें विघ्न डालते हैं, रत्नत्रयके धारक साधुजनोंको आहारादिके देनेसे रोकते हैं, तथा किसी भी प्राणी के खान-पानका निरोध करते हैं, उन्हें समय पर खाने-पीने और सोने-बैठने नहीं देते हैं, जो दूसरेके भोगोपभोगके सेवनमें बाधक होते हैं, दूसरेको आर्थिक हानि पहुंचाते हैं और उत्साहभङ्ग करते हैं, दान देनेसे रोकते हैं, दूसरेकी शक्तिका मर्दन करते हैं, उसे निराश और निश्चेष्ट बनानेका प्रयत्न करते हैं, अथवा कराते हैं, वे जीव नियमसे अन्तराय कर्मका तीव्र बन्ध करते हैं। इस प्रकारसे संचित किये गये अन्तरायकर्मका जन उदय आता है, तब यह संसारी जीव अपनी इच्छाके अनुकूल न आर्थिक लाभ हो उठा पाता है, न भोग-उपभोग ही भोग सकता है और न इच्छा करते हुए भी किसीको कुछ दान ही दे पाता है। . कुछ अन्य प्रत्यय भो अन्तरार्यकर्मके आस्रवमें सहायक होते हैं अंतरायस्स कोहाई पच्चूहकरणं तहा । आसवम्मि वि जे हेऊ ते वि कजोवचारओ ॥२१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ८२ | 2. ४, ८३ । १. शतक० २६ । दब बहाईहिं । ब पूया । द हियइ । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ पञ्चसंग्रह आत्रेषु ये हेतवः मिथ्यात्वादयः कारणानि प्रत्ययास्तेऽपि कार्योपचारतः अन्तरायस्य दानाद्यन्तरायकर्मगो हेतवः । तथा क्रोधादिभिर्विघ्नकरणम् । उक्तञ्च -- बन्धस्य हेतवो येऽमी आस्त्रवस्यापि ते मताः । बन्धो हि कर्मणां जन्तोरात्रवे सति जायते' ||२७|| इति ॥२१५|| तथा जो दूसरोंपर क्रोधादि करता है और दूसरोंके दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित करता है, मिथ्यात्वादिका सेवन करता है ऐसा जीव भी अन्तरायकर्मको उत्पन्न करता है । इस प्रकार कर्मोंके आस्रवके सम्बन्ध में जो हेतु या प्रत्यय बतलाये गये हैं, वे सब कारणमें कार्यके उपचारसे कर्म-बन्धके भी कारण जानना चाहिए || २१५|| परिणीयाइ हेऊ. जे अणुभायं पडुच्च ते भणिया । णियमा पदेसवंधं पडुच्च वहिचारिणो सव्वे ॥ २१६ ॥ इदि विसेसपच्चया बंधासवाणं । अनुभागं प्रतीत्याऽऽश्रित्य ये प्रत्यनीकादिहेतवो भणिताः, अनुभागबन्धं प्रति ये प्रत्यनीक- प्रदोषादिहेतवः प्रोक्ता नियमात् ते प्रत्यनीक प्रदोपादिहेतवः प्रदेशबन्धं प्रतीत्याऽऽश्रित्य सर्वे व्यभिचारिणः, अन्यथाकाराः । तथा चोक्तम्- अनुभागं प्रति प्रोक्ता ये प्रदोषादिहेतवः । प्रदेशं प्रति ते नूनं जायन्ते व्यभिचारिणः ||२७||* ॥२१६ ।। ज्ञानावरणादि कर्मोंके जो प्रत्यनीक आदि आस्रव हेतु बतलाये गये हैं, वे सब अनुभाग बन्धकी अपेक्षा कहे गये जानना चाहिए; क्योंकि प्रदेशबन्ध की अपेक्षा वे सब नियमसे व्यभिचारी देखे जाते हैं ॥ २१६ ॥ इस प्रकार कर्मोंके आस्रव और बन्धके विशेष प्रत्ययोंका निरूपण समाप्त हुआ । अब कर्मोके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंका निरूपण करते हैंबंधडाणा चउरो तिण्णि य उदयस्स होंति ठाणाणि । पंच य उदीरणाए संजोगं अउ परं वोच्छं ॥२१७॥ [ मूलगा० २६ ] सु ठाणेसु सत्तट्टविहं बंधंति तिसु य सत्तविहं । छव्विहमेओ तिष्णेय विहं तु अवधओ एओ ॥२१८॥ श्री विद्यानन्दिनं देवं मल्लिभूषणसद्गुरुम् । लक्ष्मी वीरेन्दुचिद्भूषं नत्वा बन्धादिकं ब्रुवे ॥२८॥ अथ बन्धोदय सत्त्वयुक्तस्थानं कथ्यते । किं स्थानम् ? एकस्य जीवस्य एकस्मिन् समये सम्भवतीनां प्रकृतीनां समूहः तत्स्थानम् । तावद्गुणस्थाने मूलप्रकृतीनां बन्धोदयोदीरणाभेदं गाथानवकेनाऽऽह-['छसु ठाणेसु' इत्यादि । ] षट्सु स्थानेषु मिथ्यात्वसासादनाऽविरत विरताविरत प्रमत्ताऽप्रमत्त गुणस्थानेषु ज्ञानावरणाद्यष्टविधं आयुर्विना सप्तविधं च कर्म जीवा बध्नन्ति, बन्धं नयन्तीत्यर्थः । त्रिषु मिश्राऽपूर्वकरणानिवृत्तिकरणगुणस्थानेषु आयुर्विना सप्तविधं कर्म जीवा बध्नन्ति । एकः सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती आयुर्मोहवर्जितं षविधं कर्म बध्नाति । त्रयः उपशान्तकषाय-क्षीणकषाय-सयोगिनः एकं सातावेदनीयं बध्नन्ति । एकः अयोगी अबन्धको भवति ॥ २१७-२१८॥ २ * इतोऽग्रे प्रतौ सन्दर्भोऽयं प्राप्यते-- इतिश्री पञ्चसंग्रहगोमहसार सिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डे जीवसमासादिप्रत्ययप्ररूपणो नाम चतुर्थोऽधिकारः ॥ श्री ॥ १. सं० पञ्चसं० ४ ८३ । २. संस्कृत टीका नापलभ्यते । ३. शतक० २७ । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १०५ बन्धस्थान चार होते हैं। उदयके स्थान तीन होते हैं, किन्तु उदीरणाके स्थान पाँच होते हैं। इनके वर्णन करनेके पश्चात् इनके संयोगी स्थानोंको कहेंगे ॥२१७॥ छह गुणस्थानों में जीव सात या आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करते हैं। तीन गुणस्थानोंमें सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करते हैं। एक गुणस्थानमें छह प्रकारके कर्मोका बन्ध करते हैं। तीन गुणस्थानों में एक कर्मका बन्ध करते हैं और एक गुणस्थान अबन्धक है अर्थात् उसमें किसी भी कर्मका बन्ध नहीं होता ॥२१८॥ अब भाष्यकार उक्त मूलगाथाके अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं 'छप्पढमा बंधंति य मिस्सूणा सत्तकम्म अट्ठ वा। आऊणा सत्तेव य मिस्सापुव्वाणियट्टिणो णेया ॥२१॥ मोहाऊणं हीणा सुहुमो बंधेइ कम्म छच्चेव । वेयणियमेय तिण्णि य बंधंति अबंधओजोगो ॥२२०॥ ད ད 。དདདད तदेव गाथाबन्धेन विवृणोति-मिश्रोनाः षट् प्रथमा: अप्रमत्तान्ताः विनाऽऽयुः सप्तविधं तत्सहितमष्टविधं च बध्नन्ति । मिश्राऽपूर्वकरणऽनिवृत्तिकरणा आयुरूनं सप्तविधं कर्म बध्नन्ति । तत्त्रयः आयुर्बन्धहोना ज्ञेयाः ॥२१॥ सूचमसाम्परायस्थो मुनिरायुर्मोहिनीयकर्मद्वयहीनानि षडेव कर्माणि बन्धाति, ततस्त्रयः उपशान्तक्षीणकपाय-सयोगजिना एक सातावेदनीयं बन्धन्ति । अयोगी अबन्धकः स्यात् ॥२२०॥ मि० सा० मि० अ० दे० प्र० भ० अ० स० सू० उ० पी० स० अ० मिश्र गुणस्थानको छोड़कर पहलेके छह गुणस्थानवी जीव आयुके विना सात कोका, अथवा आयु-सहित आठ कर्मोंका बन्ध करते हैं। मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण; इन तीन गुणस्थानोंके जीव आयुकर्मके विना सात कर्मोका बन्ध करनेवाले जानना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवी जीव मोह और आयुके विना शेष छह कर्मोका बन्ध करते हैं। ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी जीव एक वेदनीय कर्मका ही बन्ध करते हैं। अयोगिकेवली भगवान अबन्धक कहे गये हैं ॥२१६-२२०॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है गु०-मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० अ० बं० ५० ८ ८ ० ८ ८ ८ ८ ० ० ० ० ० ० ० अब उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं--- [मूलगा० २७] अट्टविह-सत्त-छ-बंधगा वि वयंति अट्टयं णियमा। *उवसंतखीणमोहा मोहूणाणि य जिणा अघाईणि ॥२२१॥ ००० 1. सं० पञ्चसं० ४, ८४-८५। 2. ४, ८६ । १. शतक० २८ । परं तत्रोत्तरार्धे 'एगविहबन्धगा पुण चत्तारि व सत्त वेएंति' इति पाठः। * मूलप्रतौ ईहक पाठ:-'एगविहबंधगा पुण चत्तारि व सत्त चेव वेदंति'। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह IIIIIदादामामा उवसंत - खीणाणं ७।७। सजोगाजोगाणं ४|४| अष्टविध-सप्तविधकर्मबन्धका जीवा ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म वेदयन्ति उदयरूपेण भुञ्जन्तीत्यर्थः ८ नियमात् । उपशान्त क्षीणमोहौ उपशान्तकषाय- क्षीणकषायणौ छद्मस्थौ मोहनीयं विना सर कर्माणि उदयरूपेणानुभवतः ७ । जिनौ इति सयोगाऽयोगिनी वेद्यायुर्नामगोत्राणीति अघातीन्यनुभवतः ४ ॥ २२१॥ मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० श्री० स० अ० ८८ ८ ८ म ८ म ८ ४ ४ इति गुणस्थानेषु मूलप्रकृतीनामुदयः । आठ, सात और छह प्रकारके कर्म बन्ध करनेवाले जीव नियमसे आठों ही कर्मोंका वेदन करते हैं । उपशान्तमोही और क्षीणमोही जीव मोहकर्मके विना शेष सात कर्मोंका वेदन करते हैं। सयोगी और अयोगी जिन चार अघातिया कर्मोंका वेदन करते हैं ||२२१ ॥ १७६ ८ उ० Ε ८ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है गु०मि० सा०मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० अ० ८ ८ ८ - ८ ८ ८ ८ ७ ७ ४ ४ --- मि० सा० मि० भ० Ε - Τ - ८ घाई छदुमत्था उदीरगा राइणो य मोहस्स । तइयाउयं पमत्ता x जोगंता + णाम-गोयाणं ॥ २२२॥ गुणठाणेसु उदीरणा-६ ६ ६ ६ | ५|५|२|० अथोदीरणा कथ्यते -घातिकर्मणां चतुर्णां मिथ्यादगादि क्षीणकषान्ताः छद्मस्था एवोदीरका भवन्ति । तत्रापि मोहनीयस्य रागिणः सूक्ष्मसाम्परायान्ताः उदीरकाः स्युः । वेदनीयायुपोः प्रमत्तान्ताः पष्ठान्ता उदीरणां कुर्वन्ति । नाम-गोत्रयोः सयोगिपर्यन्ता एव उदीरकाः ॥ २२२॥ ७ दे० प्र० अ० अ० भ० सू० उ० तो० स० अ० ८ - ६ ६ ६ ६ ५ ५ २ इति सामान्येन गुणस्थानेषु उदीरणा । छद्मस्थ अर्थात् बारहवें गुणस्थान तकके जीव घातिया कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । किन्तु मोहकर्मकी उदीरणा करनेवाले रागी अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान तकके ही जीव माने गये हैं । तृतीय वेदनीय कर्म और आयुकर्मको उदीरणा प्रमत्तगुणस्थान तकके जीव करते हैं । तथा नाम और गोत्रकर्मकी उदीरणा सयोगिकेवली गुणस्थान तकके जीव करते हैं ॥२२२॥ गुणस्थानों में कर्मोंकी उदीरणा इस क्रम से होती है मि० सा०मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० क्षी० स० अ० ८ ८ ६ ६ ६ ६ ५ ५ २ - - [ मूलगा ० २८ ] 'मिच्छादिट्टिप्पभिई अड्ड उदीरंति जा पमत्तोति । अद्धावलियासेसे मिस्सूणा सत्त आऊणा ॥२२३॥ ७ 1. सं० पञ्चसं० ४, ८६-८८ । १. शतक० २६ । X ब० प्रमत्तो । + मूल प्रतौ 'हुति दुण्डं पि' इति पाठः । तद्विशेषयति - मिथ्यादृष्टिप्रभृतयो यावत्प्रमत्तान्ताः मिथ्यात्वादि प्रमत्तान्ता ज्ञानावरणादीन्यष्टौ कर्माण्युदीरयन्ति उदीरणां कुर्वन्ति । सम्यग्मिथ्यादृष्टेराऽऽयुष्याऽऽत्र लिमात्रेऽवशिष्टे सति नियमेन गुणस्थाना o Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक न्तराश्रयणात् । तं मिश्रं विना मिथ्यागादि-प्रमत्तान्ता पञ्च निजाऽऽयुषि भद्धाकालविशेषाऽऽवलिमात्रेऽवशिष्ट सति आयुर्वर्जितसमकर्माण्युदीरयन्ति उदीरणां कुर्वन्तीत्यर्थः ॥२२३॥ __ अब ग्रन्थकार इसी अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके जीव आठों ही कोंकी उदीरणा करते हैं । किन्तु अपने-अपने आयुकालमें आवलीमात्र शेष रहने पर मिश्रगुणस्थानवर्तो जीव आयुकर्मके बिना शेष सात कोंकी उदीरणा करते हैं। मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव आठों ही कर्मोकी उदीरणा करते हैं क्योंकि आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थान छूट जाता है अर्थात् वह जीव अन्य गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है ॥२२३॥ [मूलगा० २६]'वेयणियाउयवज्जे छकम्मुदीरांति चत्तारि । अद्धावलियासेसे सुहुमोदीरड पंचेव ॥२२४॥ चत्वारोऽप्रमत्ताऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायलमस्थाः वेदनीयायुयं वर्जयित्वा पट कर्माण्युदीरयन्ति, पण्णां कर्मणां उदीरणां कुर्वन्तीत्यर्थः । सूचमसाम्परायस्तु, अद्धावलिकाशेषे आवलिकामात्रेऽवशिष्टे सति आयोहवेदनीयकर्मत्रिकवर्जितशेषकर्मपञ्चकं उदीरयन्ति ॥१२॥ अप्रमत्तसंयतसे आदि लेकर चार गुणस्थानवी जीव वेदनीय और आयुकर्मको छोड़कर शेष छह कर्मोकी उदीरणा करते हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके कालमें आवलीमात्र कालके शेष रह जाने पर सूक्ष्मसाम्परायसंयत वेदनीय, आयु और मोहकर्मको छोड़कर शेष पाँच कर्मोकी उदीरणा करते हैं ॥२२४॥ [मूलगा० ३०] वेयणियाउयमोहे वञ्जिय उदीरंति दोण्णि पंचेव । अद्धावलियासेसे णामं गोयं च अकसाई ॥२२॥ __ द्वौ उपशान्त-क्षीणकपायौ वेदनीयाऽऽयुर्मोहनीयत्रिकं वर्जयित्वा शेषकर्मपञ्चकमुदीरयतः तद्गुणस्थानयोरावलिकालेऽवशिष्टे नाम गोत्रकर्मद्वयमुदीरयतः ।।२२५॥ उपशान्तकपाय और क्षीणकषाय, ये दो गुणस्थानवी जीव वेदनीय, आयु और मोहको छोड़कर शेष पांचों ही कर्मोकी उदीरणा करते हैं। किन्तु अकषायी अर्थात् क्षीणकषायी जीव क्षीणकषाय गुणस्थानके कालमें आवलीमात्र कालके शेष रहने पर नाम और गोत्र इन दो को की उदीरणा करते हैं ॥२२॥ [मुलगा० ३१] उदीरेइ णाम-गोदे छकम्म विवजिए सजोगी दु । वदि॒तो दु अजोगी ण किंचि कम्मं उदीरेइ ॥२२६॥ सयोगी वर्तमानः सन् कर्मषटक-वर्जिते नाम-गोत्रे द्वे कर्मणी उदीरयति २ । पुनः अयोगी किमपि कर्म उदीरयति न, उदीरणां न करोतीत्यर्थः ॥२२६॥ सयोगिकेवली जिन शेप छह कर्मोको छोड़कर नाम और गोत्र इन दो ही कर्मोकी उदीरणा करते हैं। चार अघातिया कर्मो के उदयमें वर्तमान भी अयोगी जिन योगके अभोव होनेसे किसी भी कर्मकी उदीरणा नहीं करते हैं ।।२२६॥ ............... ............ . 1. सं० पञ्चसं० ४, ८६ । 2. सं० पञ्चसं० ४, ६० । 3. सं० पञ्चसं० ४, ६१ । १. शतक० ३० । २. शतक० ३१ । ३. शतक० ३२ । २३ ' Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पञ्चसंग्रह गुणठाणेसु उदीरणा-5 ८ ८ ८ ८ ८ ८ ६ ६ ६ ६ ५ ५. २ . ७५र ७ ७ ० ७ ७ ७ . . . ५ ० २ ० . एत्थ मरणावलियाए आउस्स उदीरणा णस्थि । आवलियासेसे आउम्मि मिस्सगुणो वि ण संभवइ । मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० सी० स० अ० ' इति गुणस्थानेषु विशेषेण ] उदीरणा । अत्रापक्वपाननमुदीरणेति वचनादुदयावलिकायां प्रविष्टायाः कर्मस्थितेनोंदीरणेति मरणावलिकायामायुषः उदीरणा नास्ति । सुचमे मोहस्योदीरणा नास्ति । क्षीणे घातित्रयस्योदीरणा नास्ति । मरणावलिकाशेषाऽऽयुषि मिश्रो गुणोऽपि न सम्भवति । गुणस्थानोंमें उदीरणाका क्रम इस प्रकार है ८८८८८८६६६६५ ५ २० ७७ ० ७ ७ ७ ० ० ० ५ ० २ ०० यहाँ इतना विशेष जानने योग्य है कि मरणावलीके शेष रहने पर आयुकर्मको उदीरणा नहीं होती है । तथा आयुकर्मके आवलीमात्र शेष रह जाने पर मिश्रगुणस्थान भी नहीं होता है। विशेषार्थ-शतककी मूलगाथाङ्क ३० के उत्तरार्धमें यह बतलाया गया है कि अकपायी जीव आवलीमात्र कालके शेष रह जाने पर नाम और गोत्र इन दो कर्मोंकी उदीरणा करते हैं। मूलगाथाके नीचे दी गई अङ्कसंदृष्टिके अंकोंको देखनेसे विदित होता है कि गाथामें दिये गये 'अकसाई' पदसे बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणकषायी संयत अभिप्रेत है। आ० अमितगतिरचित संस्कृत पञ्चसंग्रहसे भी 'अकसाई' पदके इसी अर्थकी पुष्टि होती है। यथा-- सप्तवावलिकाशेषे पञ्चाद्या मिश्रकं दिना । वेद्यायुर्मोहहीनानि पञ्च सूचमकपायकः ।। नामगोत्रद्वयं क्षीणस्तत्रोदीरयते यतिः। (सं० पञ्चसं. ४, ८६.१०) इन श्लोकोंके नीचे दी गई अंकसंदृष्टिसे भी इसी अर्थकी पुष्टि होती है। शतकप्रकरणकी मुद्रित चूर्णिमें भी 'अकसाई' पदका अर्थ 'क्षीणकपाय' किया गया है । यथा "अद्धावलिकाशेषे णामं गोयं च अकसाइ त्ति' खीणकसायद्धाए आवलिकाशेपे णामं गोयं च खीणकसाओ उदीरेइ । कम्हा ! णाणदंसणावरणंतराइगाणि आवलिगापविट्राणि ण उदीरेंति त्ति काउं।" शतकके संस्कृत टीकाकार मलधारीय श्री हेमचन्द्राचार्यने भी 'अकसाई' पदका अर्थ क्षीणकषायी ही किया है । यथा "अद्धावलिकाशेषे आवलिकामानं प्रविष्टे ज्ञानदर्शनावरणान्तरायकर्मणीति शेषः । नामगोत्राख्ये द्वे एव कर्मणी उदीरयति । क इत्याह-'अकसाइ' त्ति। न विद्यन्ते कषाया अस्येति अकषायी, क्षीणम इदमुक्तं भवति-क्षीणमोहो ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणि क्षपयन् प्रतिसमयं तावदुदीरयति यावत्केवलोत्पत्ति. प्रत्यासत्तावावलिकावशेषाणि भवन्ति । तत ऊर्ध्वमनुदीरयन्नेव रुपयत्यावलिकागतानामुदीरणाभावादिति । तदा नाम-गोत्रयोरेवास्योदीरणासम्भवः । उपशान्तमोहस्तु सर्वदा पञ्चवोदीरयति, तस्य ज्ञानावरणादीनां क्षयाभावेनावलिकाप्रवेशाभावादिति ।" (शतक टीका गा० ३१) 1. सं० पञ्चसं० ४, 'मरणावलिकायामायुषः' इत्यादि गद्यभागः शब्दशः समानः । (पृ० ११३) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १७६ उपर्युक्त उद्धरण में तो स्पष्टरूपसे कहा गया है कि उपशान्त मोहगुणस्थानवाला जीव अपने सर्वकालमें पाँचों ही कमकी उदीरणा करता है । किन्तु प्राकृत पंचसंग्रहके संस्कृत टीकाकार श्रीसुमतिकीर्त्तिने गाथोक्त 'अकसाई' पदका अर्थ 'द्वौ उपशान्त क्षीणकषायौ' कह कर उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय किया है, जैसा कि उक्त गाथा के नीचे दी गई संस्कृत टीकासे स्पष्ट है । इतना ही नहीं; प्रत्युत संस्कृतटीकाके नीचे जो अंकदृष्टि दी गई है, उसमें दिये गये अंकोंसे भी उन्होंने अपने उपर्युक्त अर्थकी पुष्टि की है । संस्कृत टीकाकार द्वारा किया गया यह अर्थ विचारणीय है, क्योंकि किसी भी अन्य आधारसे उसकी पुष्टि नहीं होती है । [ मूलगा० ३२] अट्ठविहमणुदीरंतो अणुहवइ चउव्विहं गुणविसालो । इरियावहं ण बंध आसण्णपुरकडो दिट्ठो ॥२२७|| अथैकस्मिन् जीवे बन्धोदयोदीरणात्रिकं [ गाथा-] पञ्चकेनाऽऽह-अहमदीरंतो अणुवइ चव्विहं गुणविसालो । इरियावहं ण बंधइ आसण्णपुरक्कमो दिट्टो ||२६|| आसन्नः पराक्रमो यस्य स आसन्नपराक्रमः, पञ्चलध्वत्तरपठनकालस्य मध्ये अघातिचतुष्ककर्मशत्रुविध्वंसनात् चतुर्दशगुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली ईर्यापथं सातावेदनीयं कर्म न बध्नाति, ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म अनुदीरयन् उदीरणामकुर्वन् चतुर्विधं वेद्याऽऽयुर्नाम - गोत्रादातिकर्मचतुष्कं अनुभवति उदयरूपेण भुङ्क्ते । स कथम्भूतः ? गुणैश्चतुरशीतिलक्षैविशालः विस्तीर्णः आसन्नपराक्रमः एवम्भूतो दृष्टः कथितः ॥२२७॥ गुणविशाल अर्थात् चौरासी लाख उत्तर गुणोंका स्वामी अयोगी जिन आठों कर्मों में से किसी भी कर्मकी उदीरणा नहीं करते हुए भी चारों ही अघातिया कर्मोंका वेदन करते हैं । तथा योगका अभाव होनेसे वे ईर्यापथका भी बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि उनका मोक्ष अतिसन्निकट है ॥२२७॥ [ मूलगा ० ३३ ] ' इरियावहमाउत्ता चत्तारि वि सन चैव वेयंति । उदीरंति दोणि पंच य संसारगदम्हि भय णिज्जं ॥२२८ || सयोगकेवलीत्यध्याहार्यम् । ईर्यापथं कर्म सातावेदनीयं आयत्तं बध्नन् चत्वार्यघातिकर्माणि वेदयति उदयति उदयरूपेण भुङ्क्ते । द्वे नाम- गोत्रे कर्मणी उदीरयति । संसारगते इति क्षीणकषाये उपशान्ते च 1. सं० पञ्चसं० ४, ६२ । १. शतक० ३४ । 'आसन्ने' त्यादि - इह 'सन्' पदेन मोक्ष उच्यते, तस्यैव वस्तुवृत्या सत्वात् । संसारावस्थाविशेषा हि सर्वे कर्ममलपटलाच्छादितत्वात्, स्वरूपाला भरूपत्वात्, आसन्नः जीवानां वस्तुतोऽ सन्त एव । मोक्षपर्यायस्तु कर्ममलपटल विनिर्मुक्तत्वात्, स्वरूपलाभरूपत्वात् सन् उच्यते । ततश्च 'पुरक्खडो' इत्युकारस्यालाक्षणिकत्वादासन्नः पुरस्कृतोऽप्रीकृतः सन् मोक्षो येन स आसन्नपुरस्कृतः सन् । इदमुक्तं भवति आसन्नमोक्षस्त्वयोगिकेवली भबन्धकोऽनुदीरयंश्चतुर्विधं वेदयतीति गाथार्थः । शतकप्रकरण गा० ३३ टीका । अजोगिरियावहियं सायावेयं पि नेव बंधेछ । आसन्न नियडवत्ती पुरक्खडो सम्मुहो य कओ ॥ संतो मोक्खो जेणं सो भासन्नपुरक्खडो संतो । वुञ्च्चइ पुरक्खडो इह सद्दे ओ (उ) लक्खणविहीणो ।। -शतक० भाष्यगा० ६६-७० । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पञ्चसंग्रह ईर्यापथमेकं सातावेदनीयं बध्नन् मोहं विना सप्त कर्माणि वेदयति, उदयरूपेणानुभवति मुनिः शेषः । क्षीणकषाये तु ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-नाम-गोत्र- पञ्चकानां उदीरणां करोति क्षीणकषायो मुनिः । आवलिकाशेषकाले भजनीयं नाम गोत्रयोरुदीरणां करोति पञ्चक-द्विकयोर्विकल्पा भजनीयमिति । उपशान्ते तु ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय - नाम- गोत्राणां पञ्चानामुदीरणा भवति ॥२२८|| ईर्यापथ आम्रवसे संयुक्त उपशान्तमोही और क्षीणमोही जीव मोहकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मों का वेदन करते हैं और पाँच कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । तथा सयोगिकेवली जिन चार अघातिया कर्मोंका वेदन करते हैं और नाम वा गोत्र इन दो कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । किन्तु ईर्याथ आस्रवसे संयुक्त उपशान्तकषायी जीव संसारगत दशा में भजनीय है अर्थात् कोई प्राप्त हुई बोधिका विनाश कर देता है और कोई नहीं भी करता है ||२२८|| [ मूलगा० ३४ ] [ छप्पंचमुदीरंतो बंधइ सो छव्विहं तणुकसाओ । अविहमणुभवतो सुकझाणे दहइ कम्मं ॥२२६॥ तनुकषायः सूक्ष्मसाम्परायो मुनिः पट्-पञ्चकर्माणि उदीरयन् मोहाऽऽयुभ्यां विना पण्णां कर्मणां ६, आयुर्मोहवेदनीय त्रिकं विना पञ्चानां कर्मणां उदीरणां करोति ५ । स सूक्ष्मसाम्परायी पविधं मोहाऽऽयुर्द्विकं विना षट् प्रकारं कर्म बध्नाति । स मुनिः सूक्ष्मसाम्परायो ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म उदयरूपेण भुङ्क्ते । स मुनिः प्रथमशुक्लध्यानेन सूक्ष्मलोभं कर्म दहति भस्मीकरोति ॥ २२६॥ सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवर्ती जीव छह अथवा पाँच प्रकार के कर्मोंकी उदीरणा करते हुए भी मोह और आयुके विना शेष छह प्रकारके कर्मोंका बन्ध करते हैं । तथा वही सूक्ष्मसाम्परायसंयत आठों ही कमका अनुभवन करते हुए शुक्लध्यान में मोहकर्मको जलाता है ॥२२६॥ [ मूलगा० ३५] अट्ठविहं वेयंता छन्विहमुदीरंति सत्त बंधंति । अणिट्टी यणिट्टी अप्पमत्तो य तिण्णेदे ॥ २३०॥ अनिवृत्तिकरणः अपूर्वकरणः अप्रमत्तश्चैते त्रयः ज्ञानावरणादीन्यष्टौ कर्माणि वेदयन्तः उदयरूपेणानुभवन्ति ८ । आयुर्वेद्यद्वयं विना पट्कर्माणि ( पट्कर्मणां ) उदीरणां कुर्वन्ति ६ । आयुर्विना सप्तकर्माणि बध्नन्ति ७ ॥ २३०॥ अनिवृत्तिकरणसंयत, अपूर्वकरणसंयत और अप्रमत्तसंयत, ये तीनों ही गुणस्थानवर्ती जीव आठों ही कर्मोंका वेदन करते हुए आयु और वेदनीयको छोड़कर शेष सात कर्मोंका बन्ध करते हैं ॥२३८॥ विशेषार्थ- - उक्त गाथामें जो अप्रमत्त संयत के भी आयुकर्मके वन्धका अभाव बतलाया गया है, सो उसका अभिप्राय यह है कि अप्रमत्तसंयत जीव आयुकर्मके वन्धका प्रारम्भ नहीं करता है, किन्तु यदि प्रमत्तसंयतने आयुकर्मका बन्ध प्रारम्भ कर रक्खा है, तो वह उसे बाँधता है, अन्यथा नहीं | [ मूलगा० ३६ ] बंधंति य वेयंति य उदीरंति य अड्ड अड्ड अवसेसा | सत्तविहबंधगा पुण अट्टहमुदीरणे भजा ॥२३१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ६४ | 2 सं० पञ्चसं ०४, ६५ । ३. सं० पञ्चसं० ४, ६६-६७ । १. शतक० ३५ । २ शतक० ३६ । ३. शतक० ३७ । परं तत्र पूर्वार्धे 'अवसेस विकरा वेयंति उदीरगावि अट्ठण्हं' इति पाठः । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ अशेषाः मिथ्यादृष्ट्यादि प्रमन्तान्ताः षड्- गुणस्थानकाः ज्ञानावरणादीन्यष्टी कर्माणि बध्नन्ति, तदष्टौ कर्माणि वेदयन्ति उदयरूपेण भुञ्जन्ति । पुनस्ते पड़-गुणस्थानकाः कथम्भूताः ? आयुर्विना सप्तविधकर्म-बन्धकाः ७ भवन्ति, ते अष्टानां कर्मणां उदीरणायां भाज्या विकल्पनीयाः | आयुषः मरणावलिकाशे उदीरणा नास्ति इत्याssयुर्विना सप्तकर्मोदीरकाः ७ अष्टकर्मोदरिकाश्च = ॥२३१॥ ऊपर कहे गये जीवोंके अतिरिक्त अवशिष्ट गुणस्थानवाले जो जीव हैं वे अर्थात् मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तकके जीव आठों हो कमका बन्ध करते हैं, आठों ही कर्मोंका वेदन करते हैं और आठों ही कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । किन्तु आयुकर्मको छोड़कर शेष सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाले जीव आठों कर्मोंकी उदोरणा में भजनीय हैं । अर्थात् अपनी अपनी आयुमें आवली काल शेष रहनेके पूर्व तक तो वे आठों ही कर्मोंकी उदीरणा करते हैं और आवली मात्र कालके शेष रह जानेके अनन्तर सात प्रकारके कर्मोंकी उदीरणा करते हैं ।। २३१ ॥ ७८ ७८ ७ ७८ ७८ ७15 ७८ '9 ७ ६ १ १ 9 ० - ८ - ८ ७ ८ ४ ४ ८ ७८ 915 - ७८ ७८ ७८ ० १६ ६ ६ ६५ ५ ५१२ २ एत्थ पमत्तो आउबंधं आरंभेद, अप्पमत्तो होऊण समाणेइ त्ति निद्दिहं । तत्थ सव्वकम्माणि बंधेड़ त्ति वृत्तं । शतक 5 गुणस्थानं—मि० सा० मि० अ० ७८ ७८ ७ ७८ - Τ Σ ८ H ७ बन्धोदयोदीरणासम्पृक्तयन्त्रम् दे० प्र० अ० अ० भ० सू० बन्धः ७ ६ उदयः- ७८ ७८ Σ ८ ७८७८७१८ ६ 15 ७ - ६ ६ ८ - ७ ७ उदीरणा- ७८ ७१८ ८ ६।५ ५ પાર २ ० अत्राप्रमत्ते कर्माष्टकस्य बन्धः कथम् ? भवता भव्यं पुष्टम्, प्रमत्तो मुनिराऽऽयुर्बन्धं आरभति प्रारमति; अप्रमत्तो भूत्वा तत्पूर्ण करोति समाप्तिं नयति । यतोऽप्रमत्ते आयुर्बन्धाऽऽरम्भो नास्तीति तत्र सप्तमे गुणस्थाने तद्-दृष्टं कथितं सर्वकर्माणि बध्नातीति उक्तमिति । ऊपर कहे गये बन्ध, उदय और उदीरणा सम्बन्धी अर्थकी बोधक अंकसंदृष्टि मूलमें दी हुई है। ७ ० र० ง For Private Personal Use Only तो० स० अ० ง १ ४ ० यहाँ यह बात ध्यानमें देनेकी है कि प्रमत्तसंयत जीव आयुकर्मके बन्धका प्रारम्भ करता है और अप्रमत्तसंयत होकर उसकी समाप्ति करता है, इस अपेक्षा 'वह सर्व कर्मोंका बन्ध करता है ऐसा. गाथासूत्र में कहा गया है । अब बन्धके नौ भेदोंका वर्णन करते हैं ४ 'सादि अणादि य धुवद्भुवो य पयडिट्ठाणं च भुजगारो । अप्पयरमवट्टिदं च हि सामित्तेणावि णव होंति ॥ २३२ ॥ नवधा कर्मबन्धा भवन्तीत्याऽऽह - सादिवन्धः १ अनादिबन्धः २ ध्रुवबन्धः ३ अध्रुवबन्धः ४ प्रकृतिस्थानबन्धः ५ भुजाकारबन्धः ६ अल्पतरबन्धः ७ अवस्थितबन्धः म स्वामित्वेन सह 8 नव बन्ध-भेदा भवन्ति ॥ २३२॥ सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, प्रकृतिस्थानबन्ध, भुजाकारबन्ध, भल्पतरबन्ध, अवस्थितबन्ध और स्वामित्वकी अपेक्षा बन्ध, इस प्रकार बन्धके नौ भेद होते हैं ॥ २३२ ॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, १०० । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अब उक्त बन्धभेदों का स्वरूप कहते हैं पञ्चसंग्रह 'साइ अबंधा बंधई अणाइबंधो य जीवकम्माणं । धुवबंधो य अभव्वे बंध-विणासेण अद्भुवो होज ||२३३|| अप्पं बंधिय कम्मं बहुयं बंधे होइ भुययारो । विवरीओ अप्पयरो अवडिओ तेत्तिय त्ति बंधंतो ॥ २३४ ॥ तल्लक्षणमाह—योऽबन्धकर्मप्रकृतीबंध्नाति स सादिबन्धः । अबन्धपतितस्य कर्मणः पुनर्बन्धे सादिबन्धः स्यात् । यथा ज्ञानावरणपञ्चकस्योपशान्तकषायादवतरतः सूक्ष्मसाम्पराये बन्धो भवति १ । जीव-कर्मणोः अनादिबन्धः स्यात् । तथा उपरितनगुणस्थानं श्रेणिः, तत्रानारूढे अनादिबन्धः स्यात् २ | अभव्ये भभव्यसिद्धे ध्रुवबन्धो भवति, निःप्रतिपक्षाणां बन्धस्य तत्रानाद्यनन्तत्वात् । बन्ध - विनाशेन कर्मबन्धविध्वंसने नाध्रुवबन्धो भवेत् । अथवा भबन्धे सति अध्रुवबन्धो भवति । स अध्रुवबन्धो भव्ये भवति ४ । संख्याभेदेनैकस्मिन् जीवे युगपत्सम्भवत्प्रकृतिसमूहः स्थानमिति प्रकृतिस्थानबन्धः ५ अल्पं बध्वा बहुकं बनतः योऽल्पकर्मप्रकृतिकं बध्वा बहुकर्मप्रकृतिकं बध्नाति स भुजाकारो बन्धः स्यात् ६ । तद्विपरीतो यो बहुकर्म बनतोऽल्पकर्मप्रकृतिकं बध्नाति स अल्पतरो बन्धः स्यात् ७ । अल्पकर्मप्रकृतिकं बहुकर्म प्रकृतिकं वा बध्वा अनन्तरसमये तावदेव बनतोऽवस्थितो बन्धः ८ । आसामेव प्रकृतीनामयमेव गुणस्थानवर्त्ती जीवो बन्धको भवतीति स्वामित्वम् । तथा कर्म-बन्धविशेषस्य कर्तृ स्वामित्वं ज्ञातव्यम् । इति स्वामित्वेन सह नवविधबन्धस्य लक्षणं ज्ञेयम् ॥ २३३-२३४॥ विवक्षित कर्मप्रकृतिके अबन्ध अर्थात् बन्धविच्छेद हो जाने पर पुनः जो उसका बन्ध होता है, उसे सादिबन्ध कहते हैं। जीव और कर्मके अनादिकालीन बन्धको अनादिबन्ध कहते हैं । अभव्यके बन्धको ध्रुवबन्ध कहते हैं । एक वार बन्धका विनाश होकर पुनः होनेवाले बन्धको अध्रुवबन्ध कहते हैं । अथवा भव्यके बन्धको अध्रुवबन्ध कहते हैं । ( एक जीवमें एक समय बँधनेवाली प्रकृतियोंके समूहको प्रकृतिस्थानबन्ध कहते हैं ।) अल्प कर्म -बन्धको करके अधिक कर्मके बन्ध करनेको भुजाकारबन्ध कहते हैं। अधिक कर्म-बन्धको करके अल्प कर्मके बन्ध करनेको अल्पतर बन्ध कहते हैं । पहले समय में जितना कर्म-बन्ध किया है, दूसरे समय में उतना ही कर्मबन्ध होनेको अवस्थितबन्ध कहते हैं । ( इन विवक्षित कर्मप्रकृतियोंका इस गुणस्थानवर्ती जीव बन्ध करता है, इस प्रकार से कर्मबन्धके स्वामित्व-विशेष के निरूपणको स्वामित्वकी अपेक्षा बन्ध कहते हैं । ) ।।२३३-२३४॥ अब मूलप्रकृतियोंके सादिबन्ध आदिका निरूपण करते हैं [ मूलगा०३७] साइ अणाइ य धुव अद्ध्रुवो य बंधो दु कम्मछकस्स | तइए साइयसेसा अण्णाइ धुवसेसओ आऊं ॥ २३५॥ अथ मूलप्रकृतीनां सादि-बन्धादि कथ्यते - कर्मपट्कस्य ज्ञानावरण १ दर्शनावरण २ मोहनीय ३ नाम ४ गोत्रा ५ न्तरायाणां ६ षण्णां कर्मणां प्रत्येकं सादिबन्धः १ अनादिबन्धः २ ध्रुवबन्धः ३ अध्रुवबन्धः ४ चेति चतुर्धा बन्धो भवति । तृतीये वेदनीयकर्मणि सादितः शेषास्त्रयो बन्धा ज्ञेयाः । अनादिबन्धः १ ध्रुवबन्धः २ अध्रुवबन्ध ३ श्वेति त्रिविधबन्धो वेदनीयकर्मणो भवतीत्यर्थः, सातापेक्षया तस्य गुणप्रतिपन्नेषु उपशमश्रेण्याऽऽरोहणाऽवरोहणे च निरन्तरबन्धेन सादित्वाऽसम्भवात् । आयुष्ककर्मणोऽनादि-ध्रुवाभ्यां 1. सं० पञ्चसं० ४, १०१-१०४ । २. ४, १०५ । १. शतक० ४० । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८३ विना शेषौ साद्यध्रुवौ भवतः, आयुषः सादिबन्धाऽध्रुवबन्धौ भवतः । कुतः ? एकवारादिना बन्धेन सादित्वात् अन्तर्मुहूर्तावसानेन चाध्रुवत्वात् ॥२३५॥ .. ___ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय; इन छह कर्मोंका सादिबन्ध भी होता है, अनादिबन्ध भी होताहै, ध्रुवबन्ध भी होता है और अध्रुवबन्ध भी होता है, अर्थात् चारों प्रकारका बन्ध होता है। तीसरे वेदनीय कर्मका सादिबन्धको छोड़कर शेष तीन प्रकारका बन्ध होता है । आयु कर्मका अनादिबन्ध और ध्रुवबन्धके सिवाय शेष दो प्रकारका बन्ध होता है ।।२३५॥ अब उत्तरप्रकृतियोंके सादिवन्ध आदिका निरूपण करते हैं[मूलगा० ३८] उत्तरपयडीसु तहा धुपियाणं बंधचउवियप्पो दु । सादिय अऽवियाओ सेसा परियत्तमाणीओ ॥२३६॥ अधोत्तरप्रकृतिपु सादिबन्धादिकाः कथ्यन्ते-तथा मूलप्रकृतिप्रकारेण उत्तरप्रकृतिषु मध्ये सप्तचत्वारिंशद्-ध्रुवप्रकृतीनां ४७ सादिबन्धादिचतुर्विकल्पश्चतुर्धा भवति । सादिबन्धाऽध्रुवबन्धा शेषा एकादशा ११ द्विषष्टिः परिवर्तिकाश्च प्रकृतयः ६२ । ॥२३६॥ उत्तरप्रकृतियों में जो सेंतालीस ध्रवबन्धी प्रकृतियाँ हैं, उनका चारों प्रकारका बन्ध होता है । तथा शेष बची जो तेहत्तर परिवर्तमान प्रकृतियाँ हैं, उनका सादिबन्ध और अध्रुवबन्ध होता है ॥२३६॥ अब संतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंको गिनाते हैं आवरण विग्घ सम्वे कसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचहुँ । भयणिंदागुरुतेयाकम्मुवघायं धुवाउ सगदालं* ॥२३७॥ का ध्रुवाः प्रकृतयः काः परिवर्तिका इतिचेदाऽऽह-ज्ञानावरण-दर्शनावरणान्तरायैकोनविंशतिः ११, सर्वे पोडश कषायाः १६, मिथ्यात्वं १ निर्माणं १ वर्णचतुकं ४ भय-निन्दाद्वयं २ अगुरुलघुकं १ तैजस कार्मणे द्वे २ उपघातश्चेति १ सप्तचत्वारिंशद्-ध्रुवाणां प्रकृतीनां ४७ साद्यऽनादिधवाऽध्रुवबन्धश्चतुर्विधो भवति ॥२३॥ पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पांच अन्तराय, सभी अर्थात् सोलह कषाय, मिथ्यात्व, निर्माण, वर्णादि चार, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और उपघात; ये सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं, अर्थात् बन्ध-व्युच्छित्तिके पूर्व इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है ॥२३७॥ निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्षके भेदसे परिवर्तमान प्रकृतियोंके दो भेद हैं। उनमेंसे पहले निष्प्रतिपक्ष अध्रुवबन्धी प्रकृतियोंको गिनाते हैं अपरघादुस्सासाणं आयावुजोवमाउ नत्तारि । तित्थयराहारदुयं एकारस होंति सेसाओ ॥२३८।। इदि णिप्पडिवक्खा अधुवा ११ 1. सं० पञ्चसं० ४, १०६ । १.४, १०७-१०८। 3. ४,१०६-११० । १. शतक. ४१। ** इसके स्थान पर मूल प्रतिमें निम्न दो गाथाएँ पाई जाती हैंणाणंतरायदसयं दसण णव मिच्छ सोलस कसाया । भयकम्मदुगुंछा वि य तेजाकम्मं च वण्णचदु ॥१॥ अगुरुगलहुगुवघादा णिमिणं च तहा भवंति सगदालं । बंधो य चदुवियप्पो धुवपगडीणं पगिदिबंधो ॥२॥ इदि धुवाओ ४७। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह परघातोच्छ्रासद्वयं २ आतपोद्योती २ आयूंषि चत्वारि ४ तीर्थकरत्वं : आहारकद्विकं चेति एकादश प्रकृतयो निःप्रतिपक्षाः ११ भवन्ति । शेषा द्वाषष्ठिः प्रकृतयः अध्रुवाः ६२ ॥ २३८ ॥ १८४ परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत, चारों आयु, तीर्थकर और आहारकद्विक, ये ग्यारह निष्प्रतिपक्ष अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं ||२३८ || अब सप्रतिपक्ष अध्रुवबन्धी प्रकृतियोंको गिनाते हैं 'सादियरं वेयाविय हस्साइचउक्क पंच जाईओ । संठाणं संघयणं छच्छक चउक्क आणुपुव्वी य ॥ २३९ ॥ गइ चउ दोय सरीरं गोयं च य दोण्णि अंगबंगा य । दह जुयलाण तसाई गयणगइदुअं विसट्ठिपरिवत्ता ॥ २४० ॥ सप्पडिवक्खा ६२ । ता का इति चेदाह – साताऽसातद्वयं २ वेदास्त्रयः ३ हास्यरस्यरतिशोकचतुष्कं ४ एक-द्वि-त्रिचतु-पञ्चेन्द्रियजातिपञ्चकं ५ समचतुरस्त्रादिसंस्थान पटकं ६ वज्रवृषभनाराचसंहननादिषट्कं ६ नरकगत्याद्याऽऽनुपूर्वीचतुष्कं ४ नरकादिगतिचतुष्कं ४ औदारिक वैक्रियिकशरीरद्वयं २ नीचीच गोत्रद्वयं २ औदारिकवैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्गद्वयं २ त्रसद्वयं २ बादरद्वयं २ पर्याप्तद्वयं २ प्रत्येकद्वयं २ स्थिरद्वयं २ शुभद्वयं २ सुस्वरद्वयं २ आदेयद्वयं २ यशः कीर्त्तिद्वयं २ चेति दश- युगल - त्रसादिकं प्रशस्ता प्रशस्तगतिद्वयं २ इति द्वाषष्टिः परिवर्त्तिकाः । परावत्तिकाः सप्रतिपक्षाः ६२ । एकादश निःप्रतिपक्षाः । इत्येकीकृतानां त्रिसप्तत्यध्रुवाणां प्रकृतीनां ७३ सादिबन्धाऽध्रुवबन्धौ भवतः अत्र विशेषः -- साताऽसातद्वयं त्रिबन्धयुक्तं गोत्रद्वयं चतुर्बन्धयुक्तं चेति मूलप्रकृतिषु प्रोक्तमस्ति तेन ज्ञायत इति ॥ २३६- २४०॥ सातावेदनीय, असातावेदनीय, तीनों वेद, हास्यादि चार, जातियाँ पाँच, संस्थान छह, संहनन छह, आनुपूर्वी चार, गति चार, औदारिक और वैक्रियिक ये दो शरीर, तथा इन दोनोंके दो अंगोपांग, दो गोत्र, त्रसादि दश युगल और दो विहायोगति, ये बासठ सप्रतिपक्ष अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं ।। २३६- २४०॥ अब मूल प्रकृतिस्थान और भुजाकारादिला निरूपण करते हैं [मूलगा० ३६] चत्तारि पय डिठाणाणि तिष्णि भुजगार अप्पयराणि । मूलपयडी एवं अवडिओ चउसु णायव्वों ॥२४१॥ मूलप्रकृतिषु सामान्यबन्धस्थानानि अष्टकं ८ सप्तकं ७ षट्कं ६ एककं १ इति चत्वारि ८७६|१| मिथ्यात्वाऽऽद्यप्रमत्तान्ता अष्टौ कर्माणि बध्नन्ति । ततः अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणौ आयुर्विना सप्त कर्माणि बध्नतः ७ । सूक्ष्मसाम्परायः पट् कर्माणि बध्नाति ६ । उपशान्तः एकं सातं बध्नाति १ । एतेषां च १ ६७ ६७८ सातं कर्म बध्या सूक्ष्म उपशमश्रेण्याऽवतरणे भुजाकारबन्धास्त्रयः साम्परायं गतः सन् आयुर्मोहद्वयं विना षट् कर्माणि बध्नाति ६ । सूक्ष्मसाम्परायो मुनिः कर्मषट्कं बध्वा अनिवृत्तिकरणमपूर्वकरणं च समागतः सन् आयुनिंना सप्त कर्माणि बध्नाति ७। तत्र कर्मसप्तकं बध्वा अप्रमत्तप्रमत्त-देशसंयताऽसंयत- सास्वादन - मिध्यात्वगुणान् प्राप्तः सन् अष्टौ कर्माणि बध्नाति । मिश्र आयुर्विना । तद्यथा — उपशान्तो मुनिः एकं 1. सं० पञ्चसं० ४, १११-११२ । 2 . ४, ११३ । १. शतक० ४२ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक । तथाहि — प्रमत्तोऽप्रमत्तो सप्तकर्माणि बनातीत्यर्थः । उपर्युपरि गुणस्थानारोहणे भल्पतरबन्धास्त्रयः are कर्माणि न अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणे च चटितः सन् आयुर्विना सप्त कर्माणि बध्नाति ७ । तत्र कर्मसप्तकं बध्नन् सूक्ष्मसाम्पराये चटितः सन् आयुर्मोहद्वयं विना षट् कर्माणि बध्नाति ६ । सूक्ष्मसाम्परायस्थः कर्मपट्कं बध्नन् उपशान्तादिकं प्राप्तः सन् एकं सातं कर्म बनातीत्यर्थः । स्वस्थानेऽवस्थितबन्धाश्चत्वारो भवन्ति | अल्पं बध्वा बहु बनतः भुजाकारो बन्धः १ । बहु बध्वाऽल्पं बनतोऽल्पतरबन्धः स्यात् २। अल्पं बहु वा बध्वाऽनन्तरसमये तावदेव बनतोऽवस्थितबन्धः ३ । किमप्यऽत्रध्वा पुनर्ब्रझतोऽवक्तव्यबन्धः ४ । किमपि बध्वाऽवक्तव्यबन्धनादयं भेदो मूलप्रकृतिबन्धस्थानेष्वस्ति ॥२४१॥ ८ ७ ६ १ ८७६१ मूल प्रकृतियोंके प्रकृतिस्थान चार हैं, भुजाकार तीन हैं, अल्पतर तीन हैं, और अवस्थित - बन्ध चार जानना चाहिए ॥२४१|| बंधाणाणि ८७६११ भुजयारा ८६ ๆ ७ ६ १ अवट्टिया अप्पयरा बन्धस्थानानि ८|७|६|१| भुजाकाराः ७ १ ६ ६ ७ ८ ८७.६ ७६१ अल्पतराः ८ ७ ६ १ ८ ७ ६ 9 १ ६ ७ ६७ ८ For Private Personal Use Only ६ ७ ८ १ ६ ७ चार प्रकृतिबन्धस्थान इस प्रकार हैं--८|७|६|१| तीन भुजाकार बन्ध इस प्रकार हैं २|६|७| ६७ मा अवस्थिताः ८७६ ७७६।१। १८५ तीन अल्पतर बन्ध इस प्रकार चार अवस्थितबन्ध इस प्रकार हैं 1 विशेषार्थ- - उक्त अर्थका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तगुणस्थान तकके जीव आठों ही कर्मोंका बन्ध करते हैं । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाले जीव आयुके विना शेष सात कर्मोंका बन्ध करते हैं । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवर्ती जीव मोह और आयुके बिना छह कर्मोंका बन्ध करते हैं । उपशान्तकषायादि तीन गुणस्थानवर्ती जीव एक सातावेदनीय कर्मका बन्ध करते हैं । इस प्रकार आठ, सात, छह और एक प्रकृतिरूप चार प्रकृतिबन्धस्थान होते हैं । इनके तीन भुजाकारबन्धों का विवरण इस प्रकार है-उपशान्तकषायसंयत एक सातावेदनीयकर्मका बन्ध करके उतरता हुआ जब दशवें गुणस्थानमें आता है, तब वहाँ वह मोह और आयुके विना शेष छह कर्मोंका बन्ध करने लगता है । यह एक भुजाकारबन्ध हुआ। पुनः दशवें गुणस्थानसे भी नीचे आकर जब नवें और आठवें गुणस्थानको प्राप्त होता है, तब वहाँ पर आयुकर्मके विना शेष सात कर्मोंका बन्ध करने लगता है, यह छह से सात कर्मके बाँधने रूप दूसरा भुजाकारबन्ध हुआ । पुनः वही जीव और भी नीचे के गुणस्थानों में उतरकर आठों कर्मोका बन्ध करने लगता है । यह सातसे आठ कर्मके बाँधनेरूप तीसरा भुजाकार बन्ध हुआ । इसी प्रकार ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ने पर तीन अल्पतर बन्धस्थान होते हैं-जैसे आठ कर्मका बन्ध करनेवाला कोई प्रमत्त या अप्रमत्तलंयत अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में चढ़कर आयुके विना सात कर्मोंका ही बन्ध करने लगता है । यह प्रथम अल्पतर बन्धस्थान हुआ। वही जीव दश गुणस्थान में पहुँच कर मोह और आयुके विना छह कर्मोका बन्ध करने २४ ८७|६|१| ८|६|१| 9 ८ ७ ८७ ६ १ 1 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ पञ्चसंग्रह लगता है । यह दूसरा अल्पतर बन्धस्थान हुआ। वही जीव ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थानमें चढ़कर एक सातावेदनीय कर्मका बन्ध करने लगता है, तब तीसरा अल्पतर बन्धस्थान होता है । पूर्व समयमें आठों कर्मोका बन्ध कर उत्तर समयमें भी आठों ही कर्मोका बन्ध करना, पूर्व समयमें सात कोका बन्ध कर उत्तर समयमें भी सात ही कर्मोका बन्ध करना, पूर्व समयमें छह कर्मोका बन्ध कर उत्तर समय में भी छह ही कर्मोका बन्ध करना और पूर्व समयमें एक कर्मका बन्ध करके उत्तर समयमें भी एक ही कर्मका बन्ध करना; इस प्रकारसे चार अवस्थित वन्धस्थान होते हैं। अब उत्तर प्रकृतियोंके प्रकृतिस्थान और भुजाकारादि बतलाते हैं[मूलगा० ४०] तिण्णि दस अट्ट हाणाणि दंसणावरण-मोह-णामाणं । एत्थेव य भुजयारा सेसेरोयं हवइ ठाणं ॥२४२॥ अथोत्तरप्रकृतीनां तत्समुत्कीर्तनमाह-दर्शनावरण-मोह-नामकर्मणां बन्धस्थानानि क्रमशः त्रीणि ३ दश १० अष्टौ ८ भवन्ति । तेन भुजाकारबन्धा अप्येष्वेव, नान्येषु । शेषेषु मध्ये ज्ञानावरणेऽन्तराये च पञ्चात्मकं एक बन्धस्थानम् । गोत्राऽऽयुर्वेदीयेष्वेकात्मकं चैकैकमेव बन्धस्थानं भवेदिति कारणम् ॥२४२॥ दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्मके क्रमशः तीन, दश और आठ प्रकृतिबन्धस्थान हैं। इनमें यथासम्भव भुजाकार बन्ध होते हैं । उक्त कर्मों के सिवाय शेष पाँच कर्मों के एक एक ही बन्धस्थान होता है ॥२४२॥ अब दर्शनावरणकर्मके तीन बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं *णव छक चउकं च हि सणावरणस्स होंति ठाणाणि । भुजयारप्पयरा दो अवट्टिया होंति तिण्णव ॥२४३॥ ___बंधट्ठाणाणि--६, ६, ४ । दर्शनावरणस्य त्रीणि स्थानानि कानि चेदाऽऽह-दर्शनावरणस्य बन्धस्थानानि त्रीणि भवन्ति-- नवप्रकृतिकं है। स्त्यानगृद्धित्रयेण विना षट-प्रकृतिकं ६ । पुनः निद्रा-प्रचले विना चतुःप्रकृतिकं ४ चेति त्रीणि । तेषां भुजाकारोऽल्पतरौ द्वौ, अवस्थिसबन्धास्नयो भवन्ति । चशब्दादवक्तव्यबन्ध (?) एव स्युः ॥६४ ॥२४३॥ दर्शनावरण कर्मके तीन बन्धस्थान हैं-नौ प्रकृतिरूप, स्त्यानगृद्वित्रिकके विना छह प्रकृतिरूप और निद्रा-प्रचलाके विना चार प्रकृतिरूप । इनमें दो भुजाकार, दो अल्पतर और तीन अवस्थित बन्ध होते हैं ॥२४३।।.. दर्शनावरणके बन्धस्थान तीन हैं-६, ६, ४ । अब दर्शनावरणके भुजाकार बन्धोंका स्पष्टीकरण करते हैं चउ छकं बंधंतो छण्णव बंधेइ होंति भुजयारा । विवरीया अप्पयरा णवाइ हु अवट्ठिया गेया ॥२४४॥ भुजयारा : अप्पयरा ६ ६ अवडिया : ६४। 1. सं० पञ्चसं० ४, ११४ । 2. ४. ११५ । 3. ४, ११६ । १. शतक. ४३ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८७ उपशमश्रेण्यावरोहको मुनिरपूर्वकरणद्वितीयभागे चतुःप्रकृतिकं बध्नाति । तत्प्रथमे भागे अवतीर्णः पटप्रकृतिकं बध्नाति ।। प्रमत्तो देशसंयतो मिश्रो वा पट् प्रकृतिकं बनन् मिथ्यादृष्टिभूत्वा वा प्रथमोप ६३ शमसम्यग्दृष्टिः सास्वादनो भूत्वा नवप्रकृतिकं बध्नाति . जाकारी द्वौ भवतः: । तद्विपरीतौ अल्पतरौ । प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखो मिथ्यादृष्टिरनिवृत्तिकरणलब्धिचरमसमये नवप्रकृतिकं बनननन्तरसमयेऽसंयतो देशसंयतः प्रमत्तो वा भूत्वा षट्-प्रकृतिकं बनातीति । तथोपशमकः आपको वाऽपूर्वकरणः प्रथमभागचरमसमये षट्-प्रकृतिकं बध्नन् द्वितीयभागप्रथमसमये चतुःप्रकृतिकं बनातीत्यल्पतरौ द्वौ भवतः ।। नवादयोऽवस्थितास्त्रयो ज्ञेयाः । तथाहि-मिथ्यादृष्टिः सासादनो वा नवप्रकृतिकं मिश्राद्यपूर्वकरणप्रथमभागान्तः पट् प्रकृतिकं अपूर्वकरणद्वितीयभागादि-सूचमसाम्परायान्तः चतुःप्रकृतिकं च बनन् , अनन्तरसमये तदेव बनातीत्यवस्थितबन्धास्त्रयः । ६४ ॥२४४।। ६ उपशमश्रेणीसे उतरनेवाला जीव अपूर्वकरणके द्वितीय भागमें चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध करके प्रथम भागमें उतरकर छह-प्रकृतिक स्थानका बन्ध करने लगता है, यह प्रथम भुजाकार हुआ। पुनः और भी नीचे उतर कर मिथ्यादृष्टि होकर, अथवा प्रथमोपशमसम्यक्त्वी सासादनसम्यग्दृष्टि होकर नौ प्रकृतिस्थानका बन्ध करने लगता है, यह दूसरा भुजाकार हुआ। इस प्रकार दर्शनावरणके दो भुजाकार बन्ध होते हैं। इससे विपरीत क्रममें अर्थात् क्रमशः ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ़ने पर दो अल्पतर बन्ध होते हैं-नौ प्रकृतिक स्थानको बाँधकर छह प्रकृतिक स्थानके बाँधनेपर पहला अल्पतर बन्ध होता है। तथा छहको बाँधकर चारके बाँधने पर दूसरा अल्पतर बन्ध होता है । अवस्थित बन्ध तीन होते हैं-नौका बन्ध कर पुनः नौके बाँधने पर पहला, छहका बन्धकर पुनः छहके बाँधने पर दूसरा और चारका बन्धकर पुनः चारके बाँधने पर तीसरा ॥२४४॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। अब दर्शनावरण कर्मके कितने प्रकृतिक स्थानका कहाँ तक बन्ध होता है, इस बातका निरूपण करते हैं- . 1मिच्छा सासण णवयं मिस्साइ-अपुव्यपढमभायंता । थीणतिगूणं णिदादुगण बंधति सुहुमंता ॥२४॥ मिथ्यात्व-सास्वादनस्थाः दर्शनावरणस्य नवप्रकृतिकं बन्धन्ति । मिश्राद्यपूर्वकरणगुणस्थानप्रथमभागपर्यन्तस्थाः जीवाः स्त्यानगृद्धित्रिकोनषट प्रकृतिकं बन्धन्ति । अपूर्वकरणद्वितीयभागात् सूक्ष्मसाम्परायान्ता जीवा निद्रा-प्रचलोनचतुःप्रकृतिकं ४ बध्नन्ति ॥२४५॥ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं । मिश्रगुणस्थानको आदि लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भाग तकके जीव स्त्यानगृद्धित्रिकके विना छह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं । अपूर्वकरणके द्वितीय भागसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तकके जीव निद्राद्विकके विना चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं ॥२४५।। 1. सं० पञ्चसं० ४, ११७ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ पञ्चसंग्रह ।।६।६।६।६।६ अपुव्वपढमसत्तममागे ६ । अपुब्वविदियसत्तमभागप्पहुई जाव सुहुमंता ४ । मि० १ सा. ६ मि० ६ अ. ६ दे० ६ प्र.६। अपूर्वकरणस्य प्रथमभागे ६। अपूर्वकरणस्य द्वितीयादिसप्तभागप्रभृतिसूचमान्ताः ४।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान-१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ प्रथम भाग ८ द्वितीयादिभाग ६ १० बन्धस्थान-६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ४ ४४ अब मोहकर्मके बन्धस्थान और भुजाकारादिका निरूपण करते हैं दस बंधट्टाणाणि मोहस्स हवंति वीस भुजयारा । एयारप्पयराणि य अवट्ठिया होंति तेत्तीसा ॥२४६॥ अथ मोहनीयस्य स्थानादिसमुल्कीनं-मोहनीयस्य कर्मणो बन्धस्थानानि दश भवन्ति १०। किं स्थानम् ? एकस्य जीवस्य एकस्मिन् समये सम्भवतीनां प्रकृतीनां समूहः। तत्स्थानसमुत्कीर्तनम् । मोहनीयस्य विंशतिः भुजाकारबन्धाः २० । अल्पतरबन्धा एकादश ११ अवस्थितबन्धात्रयस्त्रिंशत् ३३ भवन्ति ॥२४६॥ मोहकर्मके बन्धस्थान दश होते हैं। तथा भुजाकार बीस, अल्पतर ग्यारह और अवस्थित बन्ध तेतीस होते हैं ॥२४६॥ अब मोहके दश बन्धस्थानो को बतलाते हैं बावीसमेकवीसं सत्तारस तेरसेव णव पंच। चउ तिय दुयं च एक्कं बंधट्ठाणाणि मोहस्स' ॥२४७॥ २२॥२१॥१७॥१३॥९॥५॥४॥३॥२॥१॥ दश बन्धस्थानानि कानि चेदाऽऽह-मोहस्य बन्धस्थानानि द्वाविंशतिक एकविंशतिक सप्तदशकं त्रयोदशकं नवकं पञ्चकं चतुष्कं त्रिकं द्विकं एककं चेति दश १० । मिथ्याष्टो द्वाविंशतिकं २२ सास्वादने विंशतिकं २१ मिश्रासंयतयोः सप्तदशकं १७ देशसंयते त्रयोदशकं १३ प्रमत्तेप्रमत्तेपूर्वकरणे च प्रत्येक नवकं १ अनिवृत्तिकरणे पञ्चकं ५ चतुष्कं ४ त्रिकं ३ द्विकं २ एककं १ च ॥२४७॥ बाईस, इक्कीस, सत्तरह, तेरह, नौ, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप मोहके दश बन्धस्थान होते हैं ॥२४॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२२, २१, १७, १३, ६, ५, ४, ३, २, १। अब उक्त बन्धस्थानोंकी प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए उनके गुणस्थानादिका निरूपण करते हैं मिच्छम्मि य वावीरता मिच्छा सोलस कसाय वेओ य । हस्साइजुयलेकणिंदा भएण' विदिए दुमिच्छ-संदूणा ॥२४॥ मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं षोडश कषायाः १६ वेदानां त्रयाणां मध्ये एकतरवेदः१ हास्यरतियुग्माऽरतिशोकयुग्मयोर्मध्ये एकतरयुग्मं २ निन्दाभयेन सहितं युग्मं २ इति मिलिते द्वाविंशतिकं स्थानं मिथ्यादृष्टिबध्नाति । ११६१२२ मीलिताः २२ । 'विदिए दुमिच्छ-संदणा' इति सासादने द्वितीये मिथ्यात्वेन रहितमेकविंशतिकम् । षण्ढोना पण्ढस्य मिथ्यात्वे व्युच्छेदः । स्त्री-पुंवेदयोर्मध्ये एकतरवेदः ॥२४॥ 1. सं० पञ्चसं० 'अपूर्व प्रथम' इत्यादि गद्यभागः। (पृ. ११७)। 2. ४, ११८। 3. ४, ११६ । १. गो. क. ४६३ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक • मिथ्यात्व गुणस्थान में बाईस प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। वे बाईस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेदों में से एक वेद, हास्यादि दो युगलोंमेंसे एक युगल और भय - जुगुप्सा । दूसरे गुणस्थानमें मिथ्यात्वको छोड़कर शेष इक्कीस प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध होता है । यहाँ नपुंसक वेदका भी बन्ध नहीं होता है, अतएव दो वेदों में से किसी एक वेदको ही लेना चाहिए ॥ २४८ ॥ १।१६।१।२।२ मेलिया २२ मिच्छम्मि २२ । पच्छायारो पत्थायारो जहा प्रस्तारः २ २ २ १ १० ४ ४ ४ ४ मिथ्यात्वे प्रस्तारः । भंगा ४ । ४ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार २ भ २ 9 २ २ २ 9 १० ४ ४ ४ चत्वारः ४ । २ १ ४ ४ ४ ४ मि० १ 1. सं० पञ्चसं० ४, १२० । + ब -स्सेsवि २ २ २ 9 9 १ ४ ४ ४ ४ 9 २ २ १ तद्भङ्गाः हास्यारतिद्विकाभ्यां वेदश्रये हते पट् 1 ६ सासादने बोडश कषायाः १६ वेदयोर्मध्ये एकतरवेदः १ हास्यादियुग्मं २ २ २ मीलिताः २१ । तद्भङ्गाः वेदद्वययुग्मजाः भयद्वयम् २ १६ १ १८६ भंगा ६ । सासणे २१ । मि० कषाय वेद हा० भय० हैं- १ + १६ + १ +२+२=२२ के प्रस्तारका आकार मूलमें दिया है । मिथ्यात्व गुणस्थान में तीन वेदोंसे हास्यादि दो युगलोंगुणा करने पर छह भंग होते हैं । सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व के विना शेष इक्कीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है । प्रस्तारकी रचना मूलमें दी है। यहाँ नपुंसकवेदके बन्ध न होनेसे दो वेदों को हास्यादि दो युगलों से गुणा करने पर चार भंग होते हैं । 'पढमचउक्के णित्थी-रहिया मिस्से अविरय सम्मेय । विदिणा देसे छठे तहऊण सत्तमट्ठ य ॥२४६॥ मिश्र गुणस्थाने अविरतसम्यग्दृष्टौ च अनन्तानुबन्धि-प्रथम चतुष्कं विना शेषाः सप्तदश । स्त्रीवेदः सासादने विच्छिन्नः पुंवेदः एक एव १ | देशसंयमेऽप्रत्याख्यानद्वितीयचतुष्कं विना त्रयोदश १३ । षष्ठे प्रमत्तेऽप्रमत्ते सप्तमे अष्टमेऽपूर्वकरणे च प्रत्याख्यानतृतीयचतुष्कं विना शेषा नवैव १ ॥२४३॥ मिश्र और अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में प्रथम चतुष्क अर्थात् अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विना सत्तरह प्रकृतियोंका बन्ध होता है । यहाँ पर स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता, केवल एक पुरुष - Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह वेदका ही बन्ध होता है। देशविरत गुणस्थानमें द्वितीय चतुष्क अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण चौकड़ीके विना शेष तेरह प्रकृतियोंका बन्ध होता है। छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानमें तृतीय चतुष्क अर्थात् प्रत्याख्यानावरण चौकड़ीके विना नौ प्रकृतियोंका बन्ध होता है ॥२४६।। मित्याजिया १० । वाया नया मंगा देव १२ । वाया । मिस्सासंजयाणं १७ । पस्थायारो जहा . । भंगा २ । देसे १३ । पत्थायारा ... २२ २२ भंगा २ । पमत्ते । पत्थायारो। भंगा २। मिश्राऽसंयतयोः प्रस्तारौ यथा हास्यारतिद्विकजौ द्वौ द्वौ भडौ १७ ५७ देशसंयते १३ प्रस्तार: . तद्भङ्गौ द्विकद्वयजौ [ द्वौ ] '३ । प्रमत्ते : प्रस्तार: २२ तदभनौ द्विकजौ ६, मिश्र और अविरत गुणस्थानमें सत्तरह-सत्तरह प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इनके प्रस्तारकी रचना मूलमें दी है । यहाँपर हास्यादि दो युगलोंकी अपेक्षा भंग दो-दो ही होते हैं । देशविरत गुणस्थानमें तेरह प्रकृतियोंका बन्ध होता है। प्रस्तारकी रचना मूलमें दी है । भंग पूर्ववत् दो ही होते हैं । प्रमत्तविरतमें नौ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। प्रस्तारकी रचना मूलमें दी है । यहाँ पर भी भंग दो ही होते हैं। 'अरई सोएणूणा परम्मि पुंवेय संजलणा । एगेणूणा एवं दह हाणा मोहबंधम्मि ॥२५०॥ प्रमत्तेऽरति-शोकद्वयबन्धविच्छिन्नत्वादप्रमत्तापूर्वकरणयोः अरतिशोकोनाः । एवं सति संख्यामध्ये भेदो न, संख्या तावन्मात्रा । किन्तु भङ्ग एक एव । परस्मिन् अनिवृत्तिकरणस्य पञ्चसु भागेषु पुंवेदसंज्वलनक्रोध-मान-माया-लोभानां मध्ये क्रमेणझोनाः। एवं मोहबन्धे दश स्थानानि ॥२५०॥ प्रमत्तविरतमें अरति और शोक युगलकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे सातवें और आठवें गुणस्थानमें उनका बन्ध नहीं होता, अतएव उनमें एक-एक ही भंग होता है। इससे परे नवें गुणस्थानमें पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क, इन पाँचका बन्ध होता है, तथा पुरुषवेद आदि एक 1. सं० पञ्चसं० ४, १२१-१२२ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १११ एक प्रकृतिके बन्ध कम होते जानेसे चार, तीन, दो और एक प्रकृतिका भी बन्ध होता है। इस प्रकार सर्व मिलाकर मोहनीय कर्मके दश बन्धस्थान होते हैं ।।२५०॥ अप्पमत्तापुव्वाणं । पत्थायारो जहा भंगा १ अणियट्टियम्मि ५।४।३।२।। पत्थयारो अप्रमत्तापूर्वकरणयोः । । संज्वलन ४ भयद्विकेषु २ वेद १ हास्यद्विके २ च मिलिते नवकम् है । तद्भङ्गः एकः । अत्र हास्यद्वक-भयद्विके व्युच्छिन्ने अनिवृत्ति___१ ० करणस्य पञ्चसु भागेषु ५४ ३ २ १ प्रस्तार:--. २ प्रस्तारो यथा- चतुःसंज्वलनकषायेषु पुंवेदे मिलिते पञ्चकम् । तद्भङ्गः-- । अत्र प्रथमे भागे पुंवेदो व्युच्छिन्नः । द्वितीये भागे कषायचतुष्कम् । तद्भगः-- । अत्र क्रोधो व्युच्छिन्नः । तृतीयभागे कषायत्रयम् । भङ्ग एकः ३ । अत्र मानो व्युच्छिन्नः । चतुर्थभागे कषायद्वयम् । भङ्ग एकः । अत्र माया ब्युच्छिन्ना । पञ्चमभागे लोभः । एकभङ्गः ।। __ अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणमें नौ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इनकी प्रस्ताररचना मूलमें दी है। यहाँ पर भंग एक-एक ही होता है। अनिवृत्तिकरणके पाँचों भागोंमें क्रमशः पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिका बन्ध होता है । इनकी प्रस्ताररचना मूलमें दी है। अब मोहनीय कर्मके सर्व बन्धस्थानोंके भंगोंका निरूपण करते हैं 'छव्वाबीसे चउ इगिवीसे सत्तरस तेर दो दो दु । णवबंधए वि एवं एगेगमदो परं भंगा ॥२५॥ ६।१२।२।२।११।१११॥ उक्तभङ्गसंख्यामाह--मिथ्यादृष्टयानिवृत्तिकरणान्तेषु उक्तमोहनीयबन्धस्थानेषु भङ्गाः--द्वाविंशतिके षट् भङ्गाः ६ । एकविंशतिके चत्वारो भङ्गाः ४ । सप्तदशके द्विवारं द्वौ द्वौ भङ्गौ २।२। त्रयोदशके नवकबन्धेऽपि प्रमत्तपर्यन्तं द्वौ द्वौ भङ्गौ २१२ अन्त उपरि सर्वस्थानेषु एकैको भङ्गः ॥२५॥ मि. सा. मि० अ० दे० प्रम० अप्र० अपू० अनि० अनि. अनि० भनि० अनि. बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानमें छह भंग होते हैं, इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें चार भंग होते हैं । सत्तरह, तेरह और नौ प्रकृतिक बन्धस्थानमें दो-दो भंग होते हैं । इससे परवर्ती पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रक्रतिक बन्धस्थानों में एक-एक ही भंग होता है॥२५१॥ इन भंगोंको अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-६।४।२।२।२।२।१।१।१।१।१। ___ 1. सं० पञ्चसं०४, १२३ । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पञ्चसंग्रह अब मोहनीयकर्मके बीस भुजाकार बन्धोंका निरूपण करते हैं--- 'एकाई पणयंतं ओदरमाणो दुगाइणवयंतं । बंधंतो बंधेइ सत्तरसं वा सुरेसु उववण्णो ॥२५२।। ___ अल्पप्रकृतिकं बध्नन् अनन्तरसमये बहुप्रकृतिकं च बध्नाति, तदा भुजाकारबन्धः स्यात् । मोहनीयस्य विंशतिः भुजाकारबन्धाःकथ्यन्ते-एकादिपञ्चान्तं अधोऽवतरन् अनिवृत्तिकरणः बध्नन् द्विकादि-नवान्तं बध्नाति । वा अथवा सुरे देवलोके वैमानिकेऽसंयतदेव उत्पन्नः सप्तदश बध्नाति ॥२५२॥ ___ उपशमश्रेणीसे उतरनेवाला अनिवृत्तिकरणसंयत एकको आदि लेकर पाँच प्रकृतिपर्यन्त स्थानोंका बन्ध करता हुआ दो को आदि लेकर नौ प्रकृतिपर्यन्त स्थानोंका बन्ध करता है, अथवा देवों में उत्पन्न होता हुआ सत्तरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है ।।२५२॥ अणियट्टी एवं बंधंतो हेट्ठा ओदरिय दुविहं बंधइ । तत्थेव कालं काऊण देवेसुप्पण्णो सत्तरसं वा बंधइ । एवं सव्वत्थ उच्चारणीयं । मोहभुजयारा-२ ३ ४ ५ ६ __ अनिवृत्तिकरणः एकं बध्नन् अधः उत्तीर्य द्विविधं २ बध्नाति । वा अथवा तत्रैवैकबन्धस्थानकेऽधोऽवरतन् संज्वलनले भ-मायाद्वयं बनन् कालं कृत्वा मरणं प्राप्य वैमानिकदेवे उत्पन्न: सप्तदशकं १७ बध्नाति । एवं सर्वत्रोच्चारणीयम् । मोहभुजाकाराः- २ ३ ४ ५ ६ अनिवृत्तिकरणसंयत एक संज्वलन लोभका बन्ध करता हुआ नीचे उतरकर संज्वलन माया और लोभरूप दो प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । अथवा यदि वह बद्धायुष्क है और यदि आयुका क्षय हो जाता तो यहीं पर मरण कर वैमानिक देवोंमें उत्पन्न होता हुआ सत्तरह प्रकृतिकस्थानका बन्ध करता है। इस प्रकार एकका बन्ध कर दो प्रकृतिकस्थानके बाँधनेपर एक भुजाकार बन्ध हुआ, तथा सत्तरह प्रकृतिक स्थानके बाँधने पर दूसरा भुजाकार बन्ध हुआ। इस प्रकार एक प्रकृतिक स्थानके दो भुजाकार बन्ध होते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र उच्चारण करना चाहिए । अर्थात् दो, तीन, चार और पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता हुआ अनिवृत्तिकरणसंयत क्रमशः तीन, चार, पाँच और नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है, अथवा मरणकर देवोंमें उत्पन्न होके सत्तरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है। अतएव दो, तीन, चार और पाँच प्रकृतिक स्थानके भी दो-दो भुजाकार बन्ध होते हैं। इस प्रकार ये सर्व मिलकर दश भुजाकार हो जाते हैं । इनकी अकसंदृष्टि मूलमें दी गई है। अब आधी गाथाके द्वारा शेष भुजाकारोंका वर्णन करते हैंणवगाई बंधंतो सव्वे हेट्ठाणि बंधदे जीवो। १६३ १७ २१ भुजयारा-१७ २१ २२ २१ २२ २२ . 1. सं० पञ्चसं० ४, १२४.१२६३ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक [ 'णवगाई बंधंतो' इत्यादि । ] नवकाग्रेकविंशतिपर्यन्तं बध्नतः सर्वाधोऽधः स्थानानि जीवो बध्नाति । दे० १३ १७ २१ २२ भुजाकारा: भ०१७ २१ २२ मि० १७ २२ सा० २१ मि० २२ तद्यथा--विंशतिभुजाकाराणां सम्भवप्रकारः पुनः विशदतयोच्यते-अवरोहकानिवृत्तिकरणो मुनिः संज्वलनलोभमेकं १ बध्ननू अधस्तनभागेऽवतीय मायासहितं द्विकं २ बध्नाति । वा स यदि बद्धायुष्को म्रियते तदा देवासंयतो भूत्वा सप्तदशकं १७ बध्नातीत्येकबन्धके भुजाकारौ द्वौ २ । पुनः तवयं संज्वलनलोभ मायाद्वयं २ बध्नन् अवतीर्याऽधोभागे मानसहितं त्रिकं बध्नाति । वा तथा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश बध्नातीति द्विकवन्धके द्वौ भुजाकारौ ३ । पुनः संज्वलनलोभ-माया-मानत्रयं बधनवतीर्याधस्तनभागे चतुः २ संज्वलनान् ४ बध्नाति । वा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश च बध्नातीति त्रिबन्धके भुजाकारौ द्वौ ४ । पुनः संज्वलनचतुष्कं बध्नश्नवतीर्याधस्तनभागे पुंवेदसहितं पञ्चकं ५ बध्नाति । वा [ देवाs ] संयतो भूत्वा सप्तदश बध्नातीति चतुष्कबन्धके द्वौ भुजाकारौ ५ । पुनस्तत्पञ्चकं बध्नन्नवतीर्यापूर्वकरणे नवकं बध्नाति । वा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश बध्नातीति पञ्चबन्धके द्वौ भुजाकारौ है । पुनः अपूर्वकरणोऽप्रमत्तः प्रमत्तो वा नवकं ६ बध्नन् क्रमेणावतीर्य देशसंयतो भूत्वा त्रयोदश १३, वा देवासंयतो भूत्वा सप्तदश ५७, वा प्रथमोपशगसम्यक्त्वः स सासादनो भूत्वा एकविंशतिं २१, वा वेदकसम्यक्त्वी मिथ्यादृष्टिभूत्वा द्वाविंशतिं च बध्नाति । एवं नवकबन्धके चत्वारो भुजाकारबन्धाः १७ । पुनस्त्रयोदश १३ बन्धको देशसंयतोऽसंयतो देवासंयतो वा भूत्वा सप्तदश १७, वा प्रथमोपशम २२ सम्यक्त्वः सः सासादनो भूत्वा एकविंशतिं २१, वा प्रथमोपशमसम्यक्त्वो वेदकसम्यक्त्वश्च स मिथ्यादृष्टि १७ भत्वा द्वाविंशतिं च बध्नातीति त्रयोदशके त्रयो भुजाकारबन्धाः पुनस्तत्सप्तदशक १७ बन्धकः प्रथ २२ मोपशमसम्यक्त्वः सासादनो भूत्वा एकविंशतिं २१, वा प्रथमोपशमसम्यक्त्वो वेदकसम्यक्त्वो मिश्रश्च मिथ्यादृष्टिभूत्वा द्वाविंशतिं २२ च बध्नातीति सप्तदशबन्धे द्वौ भुजाकारौ २१ । पुनस्तदेकविंशतिं २१ बध्नन् Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पञ्चसंग्रह मिथ्यादृष्टिर्भूत्वाऽस्मिन् अन्यस्मिन् वा भवे द्वाविंशतिं बध्नातीति एकविंशत्तिबन्धे एको भुजाकारबन्धः एवं भुजाकाराः विंशतिः २० ॥२५२३॥ नौ आदि स्थानोंका बन्ध करता हुआ जीव अधस्तन सर्व स्थानोंका बन्ध करता है ।। २५२३ ।। विशेषार्थ - नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला जीव नीचे उतरकर पाँचवें गुणस्थान में पहुँचनेपर तेरहका, चौथे गुणस्थान में पहुँचने पर सत्तरहका, दूसरे गुणस्थान में पहुँचने पर इक्कीसका और पहले गुणस्थान में पहुँचने पर बाईसका बन्ध करता है । इसी प्रकार तेरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला जीव नीचे उतरता हुआ सत्तरह, इक्कीस और बाईसका बन्ध करता है । सत्तरह प्रकृतिका बाँधनेवाला नीचे उतरकर इक्कीस और बाईसका बन्ध करता है, तथा इक्कीसवाला नीचे उतरकर बाईसका बन्ध करता है । इस प्रकार ये सर्व मिल दश भुजाकार होते हैं । इनमें ऊपर बतलाये गये दश भुजाकारोंके मिला देनेपर समस्त भुजाकार बन्धोंकी संख्या बीस हो जाती है । अब मोहकर्मके ग्यारह अल्पतर बन्धोंका तथा दो अवक्तव्य भंगोंका निरूपण करते हैं'वावीसं बंधतो सत्तरस तेरस णवाणि बंधे ॥ २५३ ॥ अप्पयरा २२ १७ १३ 'सत्तरसं बंधतो बंधइ तेरह णवाणि अप्पयरो । तेरहविबंधतो बंध णवयं तमेव पणयं वा ॥ २५४ ॥ $0 १३ ह अप्पयरा-- १३ ६ ५ ५ ४ ३ २ ४ ३ २ 9 ह तं बंधतो चउरो बंधइ तं चिय तियं दुयं तमेक्कं च । वरदबंध हेट्ठा एक्कं सत्तरस सुरेस अवत्तव्या ॥२५५॥ २१ २२ अप्पयरा अथैकादशाल्पतरबन्धा उच्यन्ते -- [ 'वावोसं बंधंतो' इत्यादि । ] अल्पतरबन्धास्त्रयोऽनादिः सादिर्वा मिथ्यादृष्टिः करणत्रयं कुर्वन्ननिवृत्तिकरणलब्धिचरमसमये द्वाविंशतिकं बध्नन् अनन्तरसमये प्रथमो - पशमसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा, वा सादिमिथ्यादृष्टिरेव सम्यक्त्वप्रकृत्युदये सति वेदकसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा भूयोऽप्यप्रत्याख्यानोदयेऽसंयतो भूत्वा सप्तदशकं १७ बध्नाति । वा प्रत्याख्यानोदये देशसंयतो भूत्वा त्रयोदशकं १३ बध्नाति । वा संज्वलनोदयेऽप्रमत्तो भूत्वा नवकं बध्नातीति द्वाविंशतिके त्रयोऽल्पतरबन्धाः १३ ६ र्वेदकसम्यग्दृष्टिः क्षायिक सम्यग्दष्टिर्वाऽसंयतः सप्तदशकं १७ बध्नन् देशसंयतो भूत्वा त्रयोदशकं १३, वा 1 २२ १७ १७ प्रमत्तो भूत्वा नवकं ह च बध्नातीति सप्तदशकबन्धे द्वौ अल्पतरौ १३ । पुनस्त्रयोदशकबन्धको १३ प्रमत्तो & 1. सं० पञ्चसं० ४, १३० | 2. ४, १३१ । ३. ४, १३२ । । पुन Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ १३ भूत्वा नवकं बध्नाति । नवकबन्धकोऽपूर्वकरणोऽनिवृत्तिकरणप्रथमभागं प्राप्तः प्रकृतिपञ्चकं बध्नाति ह [ इति ] सप्तदशकबन्धे द्वौ २, प्रयोदशकन्धे एकः १, नयकयन्धे एकः । एवं अल्पतराश्रव्वारः १३ ६ । तत्पञ्चकं बध्नन् पञ्चकबन्धकः अनिवृत्तिकरणस्य द्वितीयभागे चत्वारि बध्नाति । चतुर्वन्धक ४ शतक ३ स्तृतीयभागे श्रीणि बध्नाति । त्रिवन्धकश्चतुर्थभागे द्वे बध्नाति | द्विवन्धकः पञ्चमभागे एकं बध्नाति ३ २ ० अवक्तव्यभुजाकारौ द्वौ २ । १ १७ २ १ । इति एकैकाल्पतरबन्धात्वारः इति द्वाविंशतिकम्पादि-द्विबन्धान्तेषु अल्पतरबन्धा एकादश ११ भवन्ति । बहुप्रकृतिकं बध्नन् अनन्तरसमयेऽल्पप्रकृतिकं बध्नाति तदाश्वतरबन्धः स्यात् । अवक्तव्यभुजाकारौ द्वौ । उपरतबन्धोऽबन्धः सन् उपशमण्याऽयोऽवतीर्य सूचमसाम्परायोऽस्तमोहबन्धोऽवतरणेऽनिवृत्तिकरणो भूखा एक संचलनलोभं बनातीत्येकः स एव यदि बदायुक्क आरोहणेऽवरोहणे वा म्रियते तदा देवासंयतो भूखा द्विधा सप्तदशकं बनातीति द्वौ ॥२५२२-२५५॥ । बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानका बाँधनेवाला जीव ऊपरके गुणस्थानों में चढ़कर सत्तरह, तेरह और नौ प्रकृतिक स्थानोंका बन्ध करता है । सत्तरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला जीव ऊपर के गुणस्थानों में चढ़कर तेरह और नौ प्रकृतिक स्थानोंका बन्ध करता है। तेरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला नौ प्रकृतिक स्थानको बाँधता है। नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करनेवाला पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्धक चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । चार प्रकृतिक स्थानका बन्धक तीन प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । तीन प्रकृतिक स्थानका बन्धक दो प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है और दो प्रकृतिक स्थानका बन्धक एक प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है। इस प्रकार सर्व मिलकर ग्यारह अल्पतर बन्धस्थान हो जाते हैं। उपरत बन्धवाला नीचे उतरकर एकका और देवोंमें उत्पन्न होकर सत्तरहका बन्ध करता है । ये दो अवक्तव्य बन्ध हैं ॥ २५२३-२५५।। 1 वसंतकसाय हा मोदरिय अहवा सुहमुवसामओ हेद्वा ओदरिय अणियट्टी होऊण एवं बंधइ । अहवा सुमुवसामओ कालं काऊण देवेसुप्पण्णो सत्तरसं बंधइ । भवन्त्तव्वभुजयारा - १ | भुजयार- अप्प ० १७ यावत्तत्वसमासेण अवडिया हांति ३३ । उपशान्तकपायादयोऽवतीर्य सूक्ष्मसाम्परावाद्वाऽथोऽवतीर्य अनिवृत्तिकरणो भूत्वा एकं संलनलोभं बध्नाति । अथवा सूक्ष्मसाम्परायो मुनिः कालं कृत्वा मरणं प्राप्य देवासंयतो भूत्वा सप्तदशकं १७ बनातीति ३३५ ० १। १७ भुजाकारा विंशतिः २०, अल्पतरबन्धा एकादश ११, अवक्तव्यौ २ । एवं सर्वे एकीकृताः संक्षेपेणावस्थितबन्धात्रयस्त्रिंशत् ३३ भवन्ति ॥ २५५॥ मोहकर्मके बन्धसे रहित एकादशम गुणस्थानवर्ती उपशान्तकषाय संयत नीचे उतरकर अथवा सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक नीचे उतरकर अनिवृत्तिकरण संयत होकर एक प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । अथवा सूक्ष्मसाम्पराय-उपशामक मरण कर देवों में उत्पन्न होने पर सत्तरह 1. सं० पञ्चसं० ४, ११३-१३५ । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्ञसंग्रह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । इस प्रकार दो अवक्तव्य भुजाकार बन्धस्थान होते हैं। इस प्रकार भुजाकार बीस, अल्पतर ग्यारह और अवक्तव्य दो; ये सर्व मिलाकर तैतीस अवस्थित बन्धस्थान होते हैं। अब नामकर्मके वन्धस्थान आदिका वर्णन करते हैं अट्ठ य बंधट्टाणा वावीस हवंति णामभुजयारा । इगिवीसं अप्पयरा अवट्ठिया होति छायाला ॥२५६॥ बंध० ८ । भुज २२ । अप्प० २१ । अव० ४६ । अथ नामकर्मणो बन्धस्थान-भुजाकाराऽल्पतराऽवस्थितबन्धभेदानाऽऽह-नामकर्मणोऽष्टौ बन्धस्थानानि भवन्ति । द्वाविंशतिभुजाकारबन्धाः २२ । एकविंशतिरल्पतरबन्धाः २१ । पटचत्वारिंशदवस्थितबन्धाश्च ४६ भवन्ति ॥२५६।। सा२२१२११४६ नामकर्मके प्रकृति-बन्धस्थान आठ होते हैं। भुजाकार बाईस, अल्पतर इक्कीस और अवस्थित बन्धस्थान छयालीस होते हैं ॥२५६।। प्रकृतिबन्धस्थान ८ । भुजाकार २२ । अल्पतर २१ । अवस्थित ४६ । तेवीसं पणुवीसं छव्वीसं अट्टवीसमुगुतीसं । तीसेकतीसमेयं बंधट्ठाणाणि णामस्स ॥२५७|| २३।२५।२६।२८।२६।३०॥३१॥३॥ कानि नाम्नः बन्धस्थानानि ? [ 'तेवीसं पणुवीसं' इत्यादि । त्रयोविंशतिक २३ पञ्चविंशतिकं २५ षडर्विशतिकं २६ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनविंशतिकं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ एककं १ चैत्यष्टौ बन्धस्थानानि २३॥२५२६२८।२।३०।३१।। आद्यानि सप्त बन्धस्थानानि मिथ्यादृष्टयऽऽद्यपूर्वकरणपड़भागपर्यन्तं यथासम्भवं बध्यन्ते । एककं यशस्कीर्तित्वं १ उपशम-क्षपकश्रेण्योरपूर्वकरणसप्तमभागस्य प्रथमसमयं प्रारभ्य सूचमसाम्परायस्य चरमसमयपर्यन्तं बध्यते ॥२५७॥ तेईस, पच्चीस, छव्वीस, अट्टाईस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक इस प्रकार ये आठ नामकर्मके बन्ध स्थान होते हैं ॥२५७॥ उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है- २३ २५ २६ २८ २९ ३० ३१ १। अब नामकर्मके भुजाकार बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं-- जसकित्ती बंधंतो अडवीसाई हु एक्कतीसंता । तेवीसाई बंधइ तीसंता हवंति भुजयारा ॥२५८॥ इगितीसंता बंधइ बंधतो अट्ठवीसाई । १ २३ २५ २६ २८ २९ ३० २८ २५ २६ २८ २९ ३० ३१ २९ २६ २८ २९ ३० ३१ भुजयारा जहा ३० २८ २९ ३० ३१ ३१ २६ ३० 1. सं० पञ्चसं० ४, १८६ । 2.४, १३६ । १. पटखं० जीव. चू० स्थान० सू०६०। गो० क० ५२१ ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक द्वाविंशतिर्भुजाकारबन्धा उच्यन्ते--[ 'जसकिती बंधतो' इत्यादि । ] अल्पतरप्रकृतिकं बद्ध्वा बहुप्रकृतिकं बनातीति भुजाकारबन्धः स्यात् । एकां यशस्कीर्ति बनन् अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ च बध्नाति । तथाहि--उपशमश्रेण्यधोऽवतीर्णोऽपूर्वकरणस्थो मुनिः कश्चिदेकविधं यशस्कीर्तिनाम बनिन् देवगतियुतमष्टाविंशतिकं स्थानं बध्नाति। तत्किम् ? देवगति-देवगत्यानुपू] २ पञ्चेन्द्रियं १ वैक्रियिकशरीर-वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गयुग्मं २ तैजस-कार्मणयुग्मं २ समचतुरस्रसंस्थानं १ बसचतुष्कं ४ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ स्थिरं शुभं १ सुभगं १ सुरवरं १ प्रशस्तविहायोगतिः १ यश-कीर्तिः । आदेयं १ निर्माणं १ चेत्यष्टाविंशतिकं बध्नाति २८ । तथाविधोऽपूर्वकरणः कश्चिन्मुनिरेका यशस्कीति बध्नन् तदेवाष्टाविंशतिकं तीर्थकरत्वयुतमेकोनत्रिंशत्कं बध्नाति २६ । तथोपशमश्रेण्यवरोहकापूर्वकरणः एकाद्येक यशस्कीतित्वं बध्नन् तदेवाष्टाविंशतिकं आहारयुग्मयुतं त्रिंशत्कं ३० बध्नाति । तथाविधोऽ पूर्वकरणो यशस्कोतिमेकां बनन् तदेवाष्टाविंशतिकं तीर्थकरत्वाऽऽहारकयुग्मसहितमेकत्रिंशत्कं बध्नाति । इति चत्वारो भुजाकारा भवन्ति २६ । 'तेवीसाई बंधइ तीसंता हवंति भुजयारा' इति त्रयोविंशकादीनि स्थानानि बध्नन् त्रिंशत्कान्तानि बध्नाति । तथाहि--त्रयोविंशतिक बध्नन् पञ्चविंशतिकं २५ पडविंशतिंक २६ अष्टाविंशतिक २८ एकोनत्रिं m शत्कं २१ त्रिशकं ३० बध्नातीति पञ्च भुजाकाराः ur || । पञ्चविंशतिकं बध्नन पडविंशतिकं २६ अष्टा w . विंशतिक २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं च बध्नातीति चत्वारो भुजाकाराः २८ । पविंशतिकं बध्नन् अष्टा विंशतिक २८ नवविंशतिक २१ त्रिंशत्कं च बनातीति त्रयो भुजाकाराः तिचा अजाका २१ । एवं पोडश भुजाकारा भवन्ति। अष्टाविंशतिकादीनि बनन् एकत्रिंशत्कान्तानि बध्नाति । तथाहि-अष्टाविंशतिकं बनिन् एकोनविंशकं २६ त्रिंशत्कं . ...... ३० एकत्रिंशत्कं ३१ च बध्नाति २८ २१ २६ .. । एकोनत्रिंशत्कं बनिन् त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ च बध्नाति ३० । त्रिंशत्कं बध्नन् एकत्रिंशकं बध्नाति ३० ॥२५८१॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ द्वाविंशतिभुजाकाराणामेकत्र रचना -- ४ ५ ४ ३ ३ भु भु भु भु भु १ २३ २५ २८ २५ २६ २८ २६ ३० ३१ २६ २८ २६ २६ २८ २९ ३० ३१ ३० २८ २९ ३० ३१ ३५ २६ ३० ३० पञ्चसंग्रह उपशम श्रेणीसे उतरने वाला अपूर्वकरणसंयत एक यशस्कीर्त्तिका बन्ध करता हुआ अट्ठाईसको आदि लेकर इकतीस तकके स्थानोंको बाँधता है । इसी प्रकार तेईस आदि स्थानोंका बन्ध करनेवाला जीव पच्चीस आदि लेकर तीस तकके स्थानोंका बन्ध करता है । तथा अट्ठाईस आदि स्थानोंको बाँधता हुआ जीव उनतीसको आदि लेकर इकतीस तकके स्थानों का बन्ध करता है । इस प्रकार नामकर्मके बाईस भुजाकार बन्धस्थान होते हैं ॥ २५.८३॥ उक्त भुजाकार बन्धस्थानोंकी अङ्कसंदृष्टि मूलमें दी है । अब नामकर्मके अल्पतर और अवक्तव्य बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं २ १ भु भु २६ ३० अप्पयरा तीसा तेवीसंता तह तीसुगुतीस मेक्कमिगितीसं ॥ २५६ ॥ इक्कं बंधइ णियमा अडवीसुगुती बंधतो । उवरदबंधो हेट्ठा एक्कं देवेसु तीसमुगुतीसा ॥ २६० ॥ ३०२६ २८ २६ २५ ३१ २६ २८ २६ २५ २३ ३० २८ २६ २५ २३ २६ २६ २९ २३ 9 २५ २३ २३ अथाल्पतराः--त्रिंशत्कादीनि बध्नन् त्रयोविंशतिकान्तानि बध्नाति । एकत्रिंशक्कं बध्नन् त्रिंशत्कं ३० एकोनत्रिंशत्कं २६ एकं १ च बध्नाति । तथाहि-- त्रिंशत्कं ३० बध्नन् एकोनत्रिंशत्कं २६ अष्टाविंशतिकं २८ २९ ३० 9 1 ง २८ षड्विंशतिकं २६ पञ्चविंशतिकं २५ त्रयोविंशतिकं २३ च बध्नाति २८ . विंशतिकं २६ पञ्चविंशतिकं २५ त्रयोविंशतिकं २३ च बध्नाति । २६ २५ २३ २६ २८ शतिकं २८ षड्विंशतिकं २६ पञ्चविंशतिकं २५ त्रयोविंशतिकं २३ च बध्नाति २६ । अष्टाविंशतिकं बध्नन् २५ २३ ३० २६ २८ २६ २५ २३ । एकोनत्रिंशत्कं बध्नन् अष्टाविं | पविंशतिकं बध्नन् पञ्चविंशतिकं Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६६ २५ त्रयोविंशतिकं २३ च बध्नाति २५ । पञ्चविंशतिकं बनन् त्रयोविंशतिकं २३ बध्नाति ।१५। एकत्रिंशत्कं २३ २३ २ बध्नन् शिरकं ३० एकोनप्रिंशत्कं एककं च बध्नाति २। जष्टाविंशतिकं बध्नन् एकं बध्नाति एकोनत्रिंशत्कं बध्नन् एकां यशःकीर्ति बनाति २६ । त्रिंशत्कं बध्नन् एकं बध्नाति ३ः। इत्येवमल्पतराः २१ भवन्ति । अपूर्वकरणः चटने एकैकं... .देवगतिचतुःस्थानानि २६३ २६ १ २६ "नानि बन्नन् 'गत्वा एकैकं १ बनातीति चत्वारोऽल्पतरा: ३११३०..."। उपरतबन्धः अबन्धः सनू अधोऽवतीर्य एकं १ बनिन् त्रिंशत्कं ३० २८.२१ एकोनत्रिंशत्कं २१ च बनाति ॥२५१-२६०॥ तीसको आदि लेकर तेईस तकके स्थानोंको बाँधनेपर, तथा इकतीसको बाँधकर तीस, उनतीस और एक प्रकृतिको बाँधनेपर अल्पतर बन्धस्थान होते हैं। अट्ठाईस और उनतीसको बाँधनेवाला नियमसे एक यशस्कीतिको बाँधता है। इस प्रकार भी अल्पतर वन्धस्थान होते हैं। अब अवक्तव्यबन्धस्थानोंको कहते हैं-उपरतबन्धवाला जीव नीचे उतरकर एक प्रकृतिको बाँधता है। अथवा मरकर देवोंमें उत्पन्न हो तीस और उनतीस प्रकृतियोंको बाँधता है। इस प्रकार अवक्तव्यबन्धस्थान प्राप्त होते हैं ।।२५६-२६०॥ उक्त अल्पतरबन्धस्थानोंकी अङ्कसंदृष्टि मूलमें दी है। उवसंतकसाओ हेहा ओदरिय सुहमुवसामओ होऊण जसकित्तिं बंधइ । भहवा उवसंतकसाओ कालं काऊण देवेसुप्पण्णो मणुसगइसंजुत्तं तीसं उणतीसं वा बंधइ। अवत्तव्वभुजयारा सुजयारप्पयरऽवत्तव्वसमासेण अवट्रिया होंति ४६ । तदेव कथयति--उपशान्तकषायः किमपि नामाऽबनिन् पतितः सूचमसाम्परायं गतः एकां यशस्कीति बध्नाति । अथवा उपशान्तकषायो मुनिः कालं कृत्वा मरणं प्राप्य देवासंयतो भूत्वा मनुप्यगति युक्तं नवविंशतिकं २६, वा मनुष्यगति-तीर्थकरत्वयुक्तं त्रिशत्कं च बध्नाति.. अवक्तव्यभुजाकारा इति । पूर्वस्थानस्याल्पप्रकृतिकस्य बहुप्रकृतिकेनानुसन्धाने भुजाकारा भवन्ति । परस्थानस्य बहुप्रकृतिकस्याल्पप्रकृतिकेनानुसन्धाने अल्पतरा भवन्ति । नामकर्मणि भुजाकारबन्धा द्वाविंशतिः २२ । अल्पतरबन्धा एकविंशतिः २१ । अवक्तव्यास्त्रयश्च ३ । एते सर्वे एकीकृताः पट चत्वारिंशदवस्थितबन्धा ४६ भवन्ति । __उपशान्तकषायसंयत नीचे उतरकर और सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक होकर एक यशस्कीतिको बाँधता है । अथवा उपशान्तकषायसंयत मरण करके देवोंमें उत्पन्न होकर मनुष्यगतिसंयुक्त 8. पत्रके गलित और त्रुटित होनेसे छूटे पाठके स्थानपर..... बिन्दुएँ दी गई हैं। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पञ्चसंग्रह तीस या उनतीस प्रकृतियोंको बाँधता है। इस प्रकार अवक्तव्यभुजाकार तीन होते हैं, जिनकी संदृष्टि मूलमें दी है। भुजाकार २२ अल्पतर २१ अवक्तव्य ३ ये सर्व मिलकर ४६ अवस्थित बन्धस्थान होते हैं। अब नामकर्मके चारों गतियों में संभव बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं 'इगि पंच तिण्णि पंच य बंधट्ठाणाणि होति णामस्स । णिरयगइ-निरिय-मणुय-देवगईसंजुया हुँति ॥२६१॥ १।५।३।५। अथ तदाधारगतिसम्बन्धेन स्वामित्वं दर्शयति--['इगि पंच तिणि पंच य' इत्यादि ।] नामकर्मणः एकं पञ्च ब्रीणि पञ्च बन्धस्थानानि भवन्ति । कथम्भूतानि ? नरक-तिर्यङ्मनुष्य-देवगतियुक्तानि क्रमेण भवन्ति । तद्यथा-नरकगत्यां एक बन्धस्थानम् १ । तिर्यग्गत्यां पञ्च बन्धस्थानानि ५। मनुष्यगती त्रीणि बन्धस्थानानि ३ । देवगतौ पञ्च बन्धस्थानानि ५ ॥२६॥ नरकगतिसंयुक्त नामकर्मका एक बन्धस्थान है। तिर्यग्गतिसंयुक्त नामकर्मके पाँच बन्धस्थान है। मनुष्यगतिसंयुक्त नामकर्मके तीन बन्धस्थान हैं और देवगतिसंयुक्त नामकर्मके पाँच बन्धस्थान होते हैं ॥२६॥ नरकगतिसंयुक्त १। तिर्यग्गतिसंयुक्त ५। मनुष्यगतिसंयुक्त ३। देवगतिसंयुक्त ५ बन्धस्थान। उक्त बन्धस्थानोंका स्पष्टीकरण अट्ठावीसं णिरए तेवीसं पंचवीस छव्वीसं। उणतीसं तीसं च हि तिरियगई संजुया पंच ॥२६२॥ णि० २८ । ति० २३।२५।२६।२६।३० । तानि कानि चेदाऽऽह--नरकगतौ नरकगतिसहितमष्टाविंशतिकं बन्धस्थानमेकं भवति २८ । तिर्यग्गतौ त्रयोविंशतिक २३ पञ्चविंशतिकं २५ पड़विंशतिकं २६ नवविंशतिकं २६ त्रिंशत्कं ३० चेति तिर्यग्गतिसंयुतानि पञ्च बन्धस्थानानि इति ॥२६२॥ . २३।२५।२६।२६।३० नरकगतिके साथ बँधनेवाला नामकर्मका अट्ठाईस प्रकृतिक एक बन्धस्थान है। तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीसः ये पाँच बन्धस्थान तिर्यग्गतिसंयुक्त बँधते हैं ।।२६२।। नरकगतियुक्त २८ । तिर्यग्गतियुक्त २३।२५।२६।२६।३० । पणवीसं उगुतीसं तीसं चिय तिण्णि होंति मणुयगई । *देवगईए चउरो एक्कत्तीसाइ णिग्गई एय:: ॥२६३।। __ म. २५/२६।३० । दे. ३१३०।२६।२८।। 1. सं० पञ्चसं०४, १३७ । 2.४, १४२ । ब विय । + मूलप्रतिमें इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है इगितीसादेगुण अठ्ठावीसेक्कगं च देवेसु ॥ 1, १७६ । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०१ मनुष्यगती मनुष्यगतिसहितं पञ्चविंशतिकं २५ मनुष्यगतियुतमेकोनत्रिंशत्कं २६ मनुष्यगतिसहितं त्रिंशत्कं ३० चेति त्रीणि बन्धस्थानानि भवन्ति । देवगतौ चत्वारि बन्धस्थानानि एकत्रिंशत्कादीनि । देवगतिसहितमेकत्रिंशत्कं ३१ देवगतियुतं त्रिंशत्कं ३० देवगतियुतमेकोनविंशत्कं २६ देवगतियुतमष्टाविंशतिकम् २८ । एक निर्गति गतिरहितं एककं कयापि गत्या युतं न भवति । चत्वारि स्थानानि गतिसहितानि, एकं गतिरहितं स्थानम् । एवं देवगत्यां पञ्च बन्धस्थानानि-३१।२०।२६।२८।१ । एतानि स्थानानि सर्वाणि जीवाः तत्तत्स्थानबन्धयोग्यपरिणामाः सन्तो बध्नन्ति ॥२६॥ ___मनुष्यगतिके साथ नामकर्मके पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक तीन स्थान होते हैं। देवगतिके साथ इकतीस आदि चार स्थान होते हैं। तथा एक प्रकृतिक स्थान गतिरहित है ॥२६३।। मनुष्यगतियुक्त २५।२६।३० । देवगतियुक्त ३१।३०।२६।२८ । गतिरहित १ । 'णिरयदुयं पंचिंदिय वेउव्विय तेउणाम कम्मं च । वेउव्वियंगवंगं वण्णचउक्कं तहा हुंडं ॥२६४॥ अगुरुयलहुयचउक्कं तसचउ असुहं च अप्पसत्थगई। अत्थिर दुब्भग दुस्सर अणादेज्जं चेव णिमिणं च ॥२६॥ अजस कित्ती य तहा अट्ठावीसं हवंति णायव्वा । णिरयगईसंजुत्तं मिच्छादिट्ठी दु बंधंति ॥२६६॥ नरकगतिस्थानं तद्वन्धकं जीवं च गाथात्रयेणाऽऽह-[ 'णिरयदुयं पंचिंदिय' इत्यादि । ] मिथ्यादृष्टयो जीवास्तिर्यञ्चो मनुष्य। वा अष्टाविंशतिकं स्थानं बध्नन्तीति ज्ञातव्या भवन्ति । तकिम् ? नरकगतिनरकगत्यानपूय २२ पञ्चेन्द्रियत्वं १ वैक्रियिकशरीरं १ तैजस-कार्मणे द्वे २ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गं १ वर्णचतुष्कं ४ हुण्डकसंस्थानं १ अगुरुलघूपघातपरघातोच्छ्रासचतुष्कं ४ बस-बादर-पर्याप्त प्रत्येकचतुप्कं ४ अशुभं १ अप्रशस्तविहायोगति १ अस्थिरं १ दु दुस्वरः १ अनादेयं १ निर्माणं १ अयस्कीतिः १ इत्यष्टाविंशतिक नरकगतियुक्तं बन्धस्थानं मिथ्यादृष्टिर्जीवो नरकगतिं यान्ता बध्नाति २८ । मिथ्यादृग्गुणस्थानवी जीवो नरस्तिर्यग्जीवो वा नारको भवति, नामकर्मणोऽष्टाविंशतिकं २८ बध्नस्थानं बध्नातीत्यर्थः ॥२६४-२६६॥ नरकद्विक (नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी), पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वर्णचतुष्क (रूप, रस, गन्ध स्पर्शनामकर्म) हुण्डकसंस्थान, अगुरुलघुचतुष्क ( अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास) त्रसचतुष्क (त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरोर ), अशुभ, अप्रशस्तगति, अस्थिर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण और अयशःकीर्ति; ये अट्ठाईस प्रकृतियाँ अट्ठाईसप्रकृतिकस्थानकी जानना चाहिए। मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यश्च उक्त प्रकृतियोंको नरकगतिसंयुक्त बाँधते हैं ।।२६४-२६६॥ णिरयगईपंचिदियपजत्तसंजुत्तं एगो भंगो ।। पत्थ णिरयगईए सह वुत्तिअभावादो एइंदिय-वियलिंदियजाईओ ण बज्मंति । नरकगत्यां पञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंयुक्त एको भङ्गः । अत्र नरकगत्या सह प्रवृत्यभावात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियजातीः जीवा न बध्नाति । उक्तञ्च एकाक्ष-विकलाक्षाणां बध्यन्ते नात्र जातयः । श्वभ्रगत्या समं तासां सर्वदा वृत्त्यभावतः ॥२८॥ 1. सं० पञ्चसं० १३८-१४० । १. पट खंडा० जीत० चू० ठाग० सू० ६१ ६२ । २. सं० पञ्चसं० ४,१४१ । २६ | Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २०२ पञ्चसंग्रह नरकगतिका बन्ध पश्चेन्द्रिय जाति और पर्याप्त प्रकृतिके साथ ही होता है, इसलिए एक ही भंग होता है। यहाँ नरकगतिके साथ उदय न पाये जानेसे एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जातियाँ नहीं बँ तत्थ य पढमं तीसं तिरियदुगोरालतेज कम्मं च । पंचिंदियजाई वि य छस्संठाणाणमेक्कयरं ॥२६७॥ ओरालियंगवंगं छस्संघयणाणमेक्कयरं । वण्णचउक्कं च तहा अगुरुगलहुगं च चत्तारि ॥२६८॥ उजोव तसचउक्कं थिराइछजयलमेक्कयर णिमिणं च । बंधइ मिच्छादिट्ठी एयदरं दो विहायगई ॥२६॥ अथ मिथ्यादृष्टिर्जीवस्तिर्यग्गतिं यान्ता तिर्यग् भविता इदं प्रथमन्त्रिंशत्कं वन्धस्थानं बध्नातांति गाथात्रयेणाऽऽह--[ 'तत्थ य पढमं तीसं' इत्यादि । नारकमिथ्यारष्टिर्जीवस्तिर्यग्गतिं यान्ता तत्र प्रथम त्रिंशत्कं बन्धस्थानं बध्नाति । तत्किम् ? तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूये द्वे २ औदारिक-तैजस-कार्मणशरीराणि ३ पञ्चेन्द्रियजातिः १ समचतुरस्रादीनां पण्णां संस्थानानां मध्ये एकतरं संस्थानं १ औदारिकाङ्गोपाङ्गं वज्रवृषभनाराचादीनां षण्णां संहननानां मध्ये एकतरं संहननं १ वर्णचतुकं ४ अगुरुलघूपघातपरघातो. च्छासचतुष्कं ४ उद्योतः १ स-बादर-पर्याप्त-प्रत्येकचतुष्कं ४ स्थिरादिपड़ युगलानां मध्ये एकतरं स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-सुभग-दुर्भग-सुस्वर-दुःम्वरादेयानादेय-यशस्कीय॑यस्कीतियुग्मानां मध्ये एकतरं ६ निर्माण प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतियुग्मस्य मध्ये एकतरं १ चेति त्रिंशत्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं मियादृष्टि रकजीवो बध्नातीति तिर्यङ् भविता ज्ञेयः ॥२६७-२६६॥ तिर्यग-द्विक (तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी) औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्गणशरीर, पञ्चेन्द्रियजाति, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीर-अङ्गोपाङ्ग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, त्रसचतुष्क, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय और यशःकीर्ति-अयश कीर्ति इन स्थिरादि छह युगलोंमेंसे कोई एक-एक, निर्माण और दो विहायोगतियोंमेंसे कोई एक; इन प्रथम प्रकार वाली तीस प्रकृतियोंको तियचोंमें उत्पन्न होनेवाला नारको मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है ॥२६७-२६६।। तत्थ पढमतीसादि छस्संठाणं छसंघयणं थिराइ-छ-जुयल-विहायगइदुयाणि ६।६।२।२।२।२।२।२।२। अण्णोण्णगुणिया भंगा ४६०८ । तत्र प्रथमप्रिंशत्कादौ षट् संस्थानानि पट् संहननानि स्थिरादि-पड् युगल-विहायोगतिद्विकानि ६।६।२।२।२।२।२।२।२। एतेऽकाः अन्योन्यगुणिता एतावन्तः १६०८.त्रिंशतः विकल्पा भवन्ति । यदा प्रथमसंस्थानं तदा अन्यानि पञ्च न, यदा द्वितीयसंस्थानं तदा अन्यत्पञ्चकंन । एवं संहननम् । यदि स्थिरप्रकृतिः, तो स्थिरप्रकृतिर्न, यदि अस्थिरं तर्हि स्थिरं न । एवं सर्वत्र भङ्गप्रकारा ज्ञेयाः। प्रथम तीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें छह संस्थान, छह संहनन, स्थिरादि छह युगल और विहायोगतिद्विक (६x६x२x२x२x२x२x२४६०८) इनके परस्पर गुणा करने पर चार हजार छह सौ आठ भंग होते हैं। 1. सं० पञ्चसं० ४, १४३-१४६ । 2 ४, 'तत्र प्रथमत्रिंशति' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२१)। १. षटखण्डा० जीव० चू० स्थानक सू. ६४-६५।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०३ एमेव विदियतीसं णवरि असंपत्तहुंडसंठागं । अवणेज्जो एक्कयरं सासणसम्मो य बंधेइ ॥२७॥ एवमेव पूर्वोक्तप्रथमत्रिंशत्प्रकारेण द्वितीयत्रिंशत्कं स्थानं तिर्यग्गतियुक्तं सासादनस्थो जीवस्तिर्यम्भावी बध्नाति । तत्किम् ? तिर्यग्द्वयं २ औदारिक-तैजस-कार्मणत्रिकं ३ पञ्चेन्द्रियं १ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ आद्यपञ्चकसंस्थान-संहननयोर्मध्ये एकतरं २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ उद्योतः १ ब्रसचतुष्कं ४ स्थिरादिपड्युगलानां मध्ये एकतरं ६ निर्माणं १ प्रशस्ताप्रशस्त-[विहायगत्यो-] मध्ये एकतरं १ चेति त्रिंशत्कं द्वितीय स्थानम् ३० । नवरि किं विशेषः, को विशेषः ? असृपाटिकासंहनन हुण्डकसंस्थानद्वयमन्तिकमपनेतव्यं वर्जयित्वा [ वर्जयितव्यं ] आद्यपञ्चसंस्थानानामाद्यपञ्चसंहननानां च मध्ये एकतरम् १।३। ॥२७०॥ इसी प्रकार द्वितीय तीस प्रकृतिक बन्धस्थान होता है। विशेषता केवल यह है कि उसमें प्रथम तीसमेंसे असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन और हुण्डकसंस्थान इन दोको निकाल देना चाहिए । अर्थात् छह संस्थान और छह संहननके स्थान पर पाँच संस्थान और पाँच संहननमेंसे कोई एकएकका ग्रहण करना चाहिए। इस द्वितीय तीस प्रकृतिक स्थानको सासादनसम्यग्दृष्टि जीव बाँधता है ॥२७०॥ 1विदियतीसादिसासणे अंतिमसंठाणं संहथणं णागच्छंति, तजोगतिव्वसंकिलेसाभावादो। अदो ५।५।२।२२।२।२।२।२। अपणोष्णगुणिया भंगा ३२०० । एदे पुचपचिट्ठा पुणरुत्ता इदि ण घेप्पंति । द्वितीयत्रिंशत्के सासादने अन्तिमसंस्थानान्तिमसंहननद्वयं कुतो बन्धं नागच्छति ? तद्योग्यतीव्रसंक्लेशाभावात् प्रथमगुणस्थाने इयस्य व्युच्छेदत्वाच्च । अतः द्वयस्य सासादने बन्धो न । ५।५।२।२२।।२।२ अन्योन्यगुणिता द्वितीयत्रिंशत्क- स्य एतावन्तः ३२०० विकल्पा भवन्ति । एते पूर्वो-] क्तेषु ४६०८ प्रविष्टा: पुनरुक्ता इति हेतोर्न गृह्यन्ते । इस द्वितीय तीस प्रकृतिक स्थानके बन्ध करनेवाले सासादनगुणस्थानमें अन्तिम संस्थान और अन्तिम संहनन बन्धको प्राप्त नहीं होते हैं; क्योंकि इन दोनोंके बन्ध-योग्य तीन संक्लेश सासादनगुणस्थानमें नहीं पाया जाता। इसलिए पाँच संस्थान, पाँच संहनन और स्थिरादि छह यगलोंके तथा विहायोगति-यगलके परस्पर गणा करनेसे (५४५४२x२x२x२x२x२x२= ३२००) तीन हजार दो सौ भंग होते हैं। ये सर्व भंग पूर्वोक्त ४६०८ में प्रविष्ट होनेसे पुनरुक्त होते हैं, इसलिए उनको नहीं ग्रहण किया गया है। "तह य तदीयं तीसं तिरियदुगोराल तेज कम्मं च । ओरालियंगवंगं हुंडमसंपत्त वण्णचहूँ ॥२७१॥ अगुरुयलहुयचउक्कं तसचउ उओवमप्पसत्थगई । थिर-सुभ-जसजयलाणं तिण्णेयदरं अणादेजं ॥२७२।। दुब्भग दुस्सर णिमिणं वियलिंदियजाइ इक्कदरमेव । एयाओ पयडीओ मिच्छादिट्ठी दु बंधति ॥२७३॥ अथ तृतीयत्रिंशत्कभेदं गाथात्रयेणाऽऽह-[ 'तह य तदीयं तीसं' इत्यादि । एतास्त्रिंशत्प्रकृती: मिथ्यादृष्टिस्तियङ् मनुष्यो वा बध्नाति । ताः काः ? तृतीयं त्रिंशत्कं-तिर्यग्गतितिर्यग्गत्या- [नुपूये द्वे २ औदारिक-तैजस-कार्मणानि ३ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ हुण्डकं १ असम्प्राप्तं १ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं - 1. सं० पञ्चसं० ४, 'द्वितीयत्रिंशति' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२१)। 2. ४, १४७-१५० । १. पट सं० जीव० चू० स्थान० सू० ६६ । २. षट् खं जीव० चू० स्थान० सू० ६८-६६ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ पञ्चसंग्रह ४ सचतु-[कं ४ उद्योतं १ अप्रशस्त-] विहायोमतिः १ स्थिर-शुभ-यशोयुगलानां त्रयाणां मध्ये एकतरं ३ अनादेयः १ दुर्भगः १ दुःस्वरं । निर्माणं १ द्वि-[त्रि-चतुरिन्द्रियजातीनां म-] ध्ये एकतरं १ चैवं त्रिंशत्प्रकृतीनां स्थानं त्रिंशत्कं मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती तिर्यजीवो मनुष्यो वा [ तिर्यग्गति गन्ता बध्नाति । ] ॥२७१-२७३॥ ____ इसी प्रकार तीसप्रकृतिक तृतीय बन्धस्थान है। उसकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यग्द्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर-अंगोपांग, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ और यशस्कीर्ति; इन तीन युगलोंमेंसे कोई एक-एक; अनादेय, दुर्भग, दुःस्वर, निर्माण और विकलेन्द्रियजातियोंमेंसे कोई एक; इन प्रकृतियोंको तिर्यग्गतिमें जानेवाला मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तियच ही बाँधता है ॥२७१-२७३।। एत्थ वियलिंदियाणं हुंडपठाणमेयमेव । तहेव एदेसि बंधोदयाण दुरू रमेव । तिण्णि वियलिदियजाईओ थिर-सुह-जसजुयलाणि ३१२।२।२। अण्णोण्णगुणिया भंगा २४ ।। [ अत्र विकलेन्द्रियाणां हुंडसंस्थानमेवैकम् । तथैतेषां बन्धोदययोर्दुःस्वरमेवेति । वि.] कलत्रयजातयः स्थिर-शुभ-यशोयुगलानि वीणि ३।२।२ अन्योन्यगुणितास्तृतीय-त्रिंशत्कस्य भ-[ङ्गाः २४ भवन्ति । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विकलेन्द्रिय जीवोंके हुंडकसंस्थान ही होता है। तथा इनके दुःस्वरप्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है। इनकी तीन विकलेन्द्रिय-जातियाँ तथा स्थिर, शुभ और यशस्कीर्तियुगल; इनके परस्पर गुणा करनेसे (३४२४२४२=२४) चौबीस भंग होते है। जह तिण्हं तीसाणं तह चेव य तिण्णि ऊणतीसं तु । णवरि विसेसो जाणे उज्जोवं णत्थि सव्वत्थ ॥२७४॥ _ एयासु पुवुत्तभंगा ४६०८।२४ । यथा येन प्रकारेण [ प्रथमं द्वितीयं तृतीयं विंश-1 स्कं ३०॥३०॥३० कथितं तथैव प्रकारेणकोनत्रिंशत्कस्थानानि त्रीणि २६।२६।२६ भवन्ति । किन्तु पुनः नव [रि वच्यमाणमिमं विशेयं ] त्वं जानीहि भो भव्य ? को विशेषः ? सर्वत्र तिर्यक्षुद्योतो नास्ति । केचिजीवा उद्योतं बध्नन्ति, केचिन्न बध्नन्तीत्यर्थः । .........-धोतो यत्रकोनत्रिंशत्कं तद्रोद्योतो नास्ति । एतासु पूर्वोक्ता भङ्गाः २६॥२४॥२६ एतेषां जयाणां भङ्गाः ४६०८।२४ ॥२७४॥ जिस प्रकारसे तीन प्रकारके तीसप्रकृतिक बन्धस्थानोंका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे तीन प्रकारके उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान भी होते हैं। केवल विशेषता यह ज्ञातव्य है कि उन सभीमें उद्योतप्रकृति नहीं होती है ॥२७४।। __इन तीनों ही प्रकारके उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानोंके भंग पूर्वोक्त ४६०८ और २४ ही होते हैं। 1. सं०पञ्चसं० ४, 'अत्र विकलेन्द्रियाणां' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२२)। 2. ४; १५१ । १. पद खं० जीव० चू० स्थान० सू० ७०-७५ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०५ तत्थ इमं छव्योसं तिरियदुगोराल तेज कम्मं च । एइंदिय वण्णच दूं अगुरुयलहुयचउक होइ हुंडं च ॥२७॥ आयावुजोयाणमेकयरं थावर बादरयं । पञ्जत्तं पत्तेयं थिराथिराणं च एक्कयरं ॥२७६॥ एक्कयरं च सुहासुह दुब्भग-जसजुयल एक्कयरं । णिमिणं अणादेज्जं चेव तहा मिच्छादिट्ठी दु बंधंति ॥२७७॥ मिथ्यादृष्टिदेवः पर्याप्तो भवनत्रय-सौधर्मद्वयजः एकेन्द्रियपर्याप्ततिर्यग्गतियुतमिदं [षडविंशतिक नामप्रकृ-] तिस्थानं बध्नाति । क्व? तत्र तिर्यग्गतौ। किं तत् ? [तियंग्गति-] तिर्यगत्यानुपूर्ये द्वे २ औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरत्रिकं ३ [ एकेन्द्रियं ५ वर्णचतुष्कं ४ ] अगुरुलघूपधातपरघातोच्छ्रासचतुष्कं ४ हुण्डकसंस्थानं १ आतपोद्योतयोमध्ये एकतरं १ स्थावरं १ बादरं १ पर्याप्तं १ [प्रत्येकशरीरं १ स्थिरा-] स्थिरयोमध्ये एकतरं १ शुभाशुभयोर्मध्ये एकतरं १ दुभंगं १ यशोऽयशसोमध्ये एकतरं निर्माणं १ अ[ नादेयं १ चेति पड्वि-] शतिकं नामप्रकृतिस्थानं मिथ्यादृष्टिदेवो भवनत्रयजः सौधर्मद्वयजो बध्नाति २६ ॥२७५-२७७॥ . छब्बीस प्रकृतिक बन्धस्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यग्द्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, एकेन्द्रियजाति, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, हुंडकसंस्थान, आतप और उद्योतमेंसे कोई एक, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर-अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभ-अशुभमें से कोई एक, दुर्भग और यशस्कीर्त्तियुगलमेंसे कोई एक, निर्माण और अनादेय इन छब्बीस प्रकृतियों को एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि देव बाँधते हैं ॥२७५-२७७।। "तह (एत्थ) एइंदिरासु अंगोवंगं णस्थि, अटुंगाभावादो। संठाणमवि एयमेव हुंडं। अदो भायावुजोव-थिराथिर-सुहासुह-जसाजसजुयलाणि २।२।२।२ अण्णोणगुणिया भंगा १६ । तथात्र एकेन्द्रियाणां अङ्गोपाङ्ग [नास्ति, तेषामष्टाङ्गा-] भावात् । संस्थानमप्येकमेव हुण्डकम् । अतः कारणादातपोद्योत-स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-यशोऽयशोयु- [गलानि २।२।२।२। अन्योन्य-] गुणिताः पतिशतेर्भङ्गा विकल्पा: १६ भवन्ति । __यहाँ पर एकेन्द्रियोंमें अंगोपांग नाभकर्मका उदय नहीं होता है, क्योंकि उनके हस्त, पाद आदि आठ अंगोंका अभाव है। उनके संस्थान भी एक हुंडक ही होता है। अतः आतप-उद्योत, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यश कीर्ति-अयशःकीर्त्ति युगलोंको परस्पर गुणा करने पर (२x२x२x२ =१६) सोलह भंग होते हैं । 'जह छन्वीसं ठाणं तह चेव य होइ पढसपणुवीसं । णवरि विसेसो जाणे उज्जोवादावरहियं तु ॥२७॥ बायर सुहुमेक्कयरं साहारण पत्तेयं च एकयरं । संजुत्तं तह चेव य मिच्छादिट्ठी दु बंधंति ॥२७६॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, १५२-१५५ । 2. ४, 'अत्राष्टाङ्गाभावा' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२२-१२३)। 3.४, १५६ । १. पट्खं जीव० चू० स्थान० सू० ७६-७७ । २. पट्खं० जीव० चू० स्थान० सू० ७८-७६ । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह [ यथापूर्वो- ] क्तप्रकारेण षडविंशतिकं स्थानं भणितं तथैव प्रकारेण प्रथमपञ्चविंशतिकं स्थानं भवति । नवरि वि- [ शेषो ज्ञातव्यः । को वि- ] शेषः ? तत्स्थानमुद्योऽऽतपरहितम् । तु पुनर्बादर सूक्ष्मयोर्मध्ये एकतरं १ साधारण- प्रत्येकयोर्मध्ये एकत- [ २१ संयुक्तं पञ्चविंशतिकं स्थानं मिथ्या - ] दृष्टिबंध्नाति । तद्यथा--तिर्यग्गतिद्विकौदारिक- तैजस-कार्नण्वर्णचतुष्कागुरुवतुष्क- हुण्डकानि १४ । ए [ केन्द्रियजातिः १ स्थावरं १ बादर - सू- ] चमयोर्मध्ये एकतरं १ साधारण प्रत्येकयोर्मध्ये एकतरं १ पर्याप्तं १ स्थिरास्थिरयोः एकतरं १ शुभाशु- [ भयोर्मध्ये एकतरं १ दुर्भगं १ ] यशोऽयशसोमध्ये एकतरं निर्माणं १ अनादेयं १ चेति पञ्चविंशतिकं नामप्रकृतिबन्धस्थानं मिथ्यादृष्टि [ स्तिर्यङ् मनुष्यो वा बध्नाती- ] त्यर्थः । ननु देवा इदं स्थानं कथं न बध्नन्ति ? साधु पृष्टम् । यद्यपि देवाः सहस्रारपर्यन्तं तिर्यग्गतिं बध्नन्ति, तथापि एकेन्द्रियजातिं भवन ] त्रय- सौधर्मद्वयजा एव; नान्ये बध्नन्ति ॥२७८-२७६॥ २०६ जिस प्रकार छब्बीस प्रकृतिक स्थान है, उस ही प्रकार प्रथम पच्चीस प्रकृतिक स्थान जानना चाहिए । विशेषता केवल यह जानना चाहिए कि वह उद्योत और आतप इन दो प्रकृतियोंसे रहित है । इस स्थानको बादर-सूक्ष्ममें से किसी एकसे संयुक्त तथा साधारण- प्रत्येकशरीर में से किसी एक से संयुक्त मिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं ॥। २७८-२७६॥ एत्थ सुहुमसाहारणाणि भवणाइ-ईसाणंता देवर ण बंधंति । एत्थ या जसकित्तिं निरुभिऊण थिराथिर-दो भंगा सुहासुह-दोभंगेहिं गुणिया ४ | अजसकित्ति लिरुभिऊण बायर-पत्तेय-थिर- सुहजुयलाणि २।२।२।२ अण्णोष्णगुणिया अजसकित्तिभंगा १६ । दोणि वि २० । अत्र पञ्चविंशतिके स्थाने सूक्ष्म-साधारणे द्वे भवनादीशानान्ता देवाः [ न बध्नन्ति । ततोऽत्र यशःकीर्त्ति ] निरुध्य समाश्रित्य स्थिरास्थिरभङ्गौ २ शुभाशुभङ्गाभ्यां द्वाभ्यां २ गुणितौ चत्वारो भङ्गा २४ अयशः [ कीर्त्ति निरुध्य बा- ]दर प्रत्येक स्थिर - शुभयुगलानि २२२२ अन्योन्यगुणिताः अयशस्कीत्तिभङ्गाः १६ । द्वयेऽपि २० । इस प्रथम पच्चीस प्रकृतिक स्थान में बतलाई गई प्रकृतियोंमेंसे सूक्ष्म और साधारण ये दो प्रकृतियाँ भवनवासियोंको आदि लेकर ईशान स्वर्ग तकके देव नहीं बाँधते हैं । यहाँ पर यशस्कीर्त्तिको निरुद्ध करके स्थिर अस्थिर-सम्बन्धी दो भंगोंको शुभ-अशुभ-सम्बन्धी दो भंगों से गुणित करने पर चार भंग होते हैं । तथा अयशः कीर्त्तिको निरुद्ध करके बादर, प्रत्येक स्थिर और शुभ इन चार युगलोंको परस्पर गुणित करने पर ( २x२x२x२= १६ ) अयशः कीर्त्ति - सम्बन्धी सोलह भंग होते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त चार और सोलह ये दोनों मिलकर २० भंग हो जाते हैं । 'विदियपणवीसठाणं तिरियदुगोराल तेजकम्मं च । वियलिंदिय - पंचिंदिय एक्कयरं हुंडठाणं ॥ २८०॥ ओरालियंगवंगं वण्णचरकं तहा अपजत्तं । अगुरु लहुगुवघादं तस बायरयं असंपतं ॥ २८१ ॥ पत्तेयमथिरमसुभं दुहगं णादेज अजस णिमिणं च । ias मिच्छादिट्ठी अपजत्तय संजयं एयं ॥२८२॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, 'अत्र प्रथमायां पञ्चविंशतौ' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० १२३) । २.४, १५७-१५६ । १. पट् खं० जीव चू० स्थान० सू० ८०-८१ | Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक मिथ्यादृष्टिर्जीवस्तिर्यङ् मनुष्यो वा द्वितीयपञ्चविंशतिकमपर्याप्त संयुक्तमेकं बध्नाति । तत्किम् ? तिर्यग्गति [ तिर्यग्- ] गत्यानुपूर्व्ये द्वे २ औदारिक तैजसकार्मणशरीराणि ३ विकलेन्द्रिय-द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियजातीनां मध्ये एकतरं १ हुण्डकसंस्थानं ओदारिकाङ्गोपाङ्ग १ वर्णचतुष्कं ४ अपर्याप्तं १ अगुरुलधूपघातद्वयं २ सं १ बादरं १ सृपाटिकासंहननं १ प्रत्येकं १ अस्थिरं १ अशुभं १ दुर्भगं १ देयं १ अयशः १ निर्माण १ चेति द्वितीय- पञ्चविंशतिकं नामकर्मणः स्थानं २५ मिथ्यादृष्टिस्तिर्यङ् मनुष्यो वा बध्नाति ॥२८०-२८२॥ अना द्वितीय पच्चीस प्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं- तिर्यद्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, विकलत्रय और पञ्चेन्द्रियजातिमें से कोई एक, हुण्डकसंस्थान, औदारिकशरीर-अंगोपांग, वर्णचतुष्क, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, सृपाटिकासंहनन, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्त्ति और निर्माण । इस द्वितीय पच्चीस प्रकृतिक पर्याय- संयुक्त स्थानको तिर्यञ्च या मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है ॥२८०-२८२|| २०७ एत्थ य परघादुस्सासविहाय गइदुस्सरणामाणं अपजत्तेण सह बंधो णत्थि, विरोहादो, अपजत्तकाले य एदेसिं उदयाभावादो य । एत्थ चत्तारि जाइभंगा ४ | अत्र द्वितीयायां पञ्चविंशतौ परघातोच्छ्रास-विहायोगतिदुःस्वराणामपर्यासेन सह बन्धो नास्ति । कुतः ? विरोधात्, अपर्याप्तकाले चैषामुदयाभावात् । अत्र चत्वारो जातिभङ्गाः द्वि-त्रि- चतुःपञ्चेन्द्रिय इति |१|१|१|१| जातिभङ्गाश्वत्वारः ४ । यहाँपर परघात, उच्छ्रास, विहायोगति और दुःखर नामकर्मका अपर्याप्तनामकर्मके साथ बन्ध नहीं होता; क्योंकि विरोध है । दूसरे अपर्याप्तकालमें इन प्रकृतियोंका उदय भी नहीं होता है | यहाँ पर जातिसम्बन्धी चार भंग होते हैं । 'तत्थ इमं तेवीसं तिरियदुगोराल तेजकम्मं च । इंदिय वण्णचतुं अगुरुयलहुगं च उवघादं ॥ २८३|| थावर अथिरं असुहं दुभग अणादेज अजस णिमिणं च । हुंडं च अपजत्तं बायर - सुहुमाण एक्कयरं ॥ २८४॥ सहारणपत्यं एक्कयरं बंधओ तहा भिच्छो । एए बंधाणा तिरियगईसंजुया भणिया ॥ २८५ ॥ तत्र तिर्यगातौ इदं त्रयोविंशतिकं स्थानं मिथ्यादृष्टिर्जीवस्तिर्यङ् मनुष्यो वा बध्नाति । तत्किम् ? तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूर्वीद्वयं २ औदारिक-तैजस-कार्मणत्रिकं ३ एकेन्द्रियं १ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुत्वं १ उपघातं १ स्थावरं १ अस्थिरं १ अशुभं । दुर्भगं १ अनादेयं १ अयशः १ निर्माणं १ हुण्डकं १ अपर्याप्तं १ बादर-सूचमयोर्मध्ये एकतरं १ साधारण प्रत्येकयोर्मध्ये एकतरं १ चेति एतासां त्रयोविंशतिर्नामप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टिस्तिर्यङ्मनुष्यो वा बन्धको भवति २३ । एतानि नामप्रकृतिबन्धस्थानानि तिर्यग्गतिसंयुक्तानि जिनैर्भणितानि ॥ २८३-२८५॥ तेईस प्रकृतिक बन्धस्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं- तिर्यद्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, एकेन्द्रियजाति, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्त्ति, निर्माण, हुण्डकसंस्थान, अपर्याप्त, बादर-सूक्ष्ममें से कोई एक और 1, सं०पञ्चसं० ४, 'अत्र द्वितीयायां पञ्चविंशती' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० १२३) । १. ४, १६०-१६२ ॥ १. पट् खं० जीव० चू० स्थान० सू० ८२-८३ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पञ्चसंग्रह साधारण-प्रत्येकमेंसे कोई एक । इस तेईस प्रकृतिक स्थानको तिर्यश्च या मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है । इस प्रकार तियग्गतिसंयुक्त बँधनेवाले उपर्युक्त बन्धस्थान कहे ॥२८३-२८५॥ एत्थ संघयणबंधो णस्थि, एइंदियस्स संघयणउदयाभावादो । एत्थ बादर-सुहुमभंगाणं पत्तेयसाहारणभंगगुणणाए चत्तारि भंगा ४ । एवं तिरियगइजुत्त-सव्वभंगा १३०८ अत्र त्रयोविंशतिके संहननबन्धो नास्ति । कुतः ? एकेन्द्रियाणां संहननोदयाभावात् । ततोऽत्र बादरसूचमयोः प्रत्येक-साधारणाभ्यां गुणिते चत्वारो भङ्गाः ४ । एवं तिर्यग्गतियुताः सर्वे भङ्गाः ४६०८ । ४६०८ । १६:२०।४।४। मीलिताः १३०८ [भवन्ति । २४ २४ इति तिर्यग्गति (तौ) नामप्रकृतिबन्धस्थानविचारः सम्पूर्णः । उक्त तेईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें संहननका बन्ध नहीं बतलाया गया है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवके संहननका उदय नहीं होता। यहाँपर बादर-सूक्ष्मसम्बन्धी भंगोको प्रत्येक और साधारणसम्बन्धी दो भंगोंके साथ गुणा करनेपर चार भंग होते हैं। इस प्रकार तियग्गतिसंयुक्त सर्व भंग (४६०८+२४+४६०८+ २४ + १६+२०+४+ ४=१३०८) अब मनुष्यगतिसंयुक्त बँधनेवाले स्थानोंका निरूपण करते हैं 'तत्थ य तीसं ठाणं मणुयदुगोराल तेज कम्मं च । ओरालियंगवंगं समचउरं वञ्जरिसहं च ॥२८६॥ तसचउ वण्णचउक अगुरुयलहुयं च होंति चत्तारि । थिराथिर-सुहासुहाणं एकयरं सुहयमादेज्जं ॥२८७॥ सुस्सरजसजुयलेकं पसत्थगइ णिमिणं च तित्थयरं । पंचिंदियं च तीसं अविरदसम्मो दु बंधेइ ॥२८॥ अथ मनुष्यगत्या सह नामप्रकृतिबन्धस्थानानि गाथादशकेनाऽऽह---[तस्थ य तीसं ठाणं' इत्यादि] तत्र मनुष्यगतौ अविरतसम्यग्दृष्टिवैमानिकदेवो धर्मादिनरकत्रयजो नारको वा मनुष्यगत्या सह त्रिंशत्कं ३० नामकर्मणो बन्धस्थानं बध्नाति । तत्किम् ? मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्व्यद्वयं २ औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरत्रिकं ३ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ समचतुरनसंस्थानं १ वज्रवृषभनाराचसंहननं १ वस-बादर-प्रत्येकशरीरचतुष्कं ४ स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघूपघातपरघातोच्छासचतुष्कं ४ स्थिरास्थिर-शुभाशुभयुग्मयोर्मध्ये एकतरं २ सुभगं १ आदेयं १ सुस्वरः १ यशोऽयशोमध्ये एकतरं १ प्रशस्तविहायोगतिः । निर्माणं १ तीर्थकरत्वं १ पञ्चेन्द्रियत्वं १ चेति नामकर्मणस्त्रिंशत्प्रकृतीः ३० असंयतगुणस्थानवर्ती वैमानिकदेवो धर्मादिनरकनयभवो नारको वा बध्नाति ॥२८६-२८८॥ उनमें तीस प्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-मनुष्यद्विक ( मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी) औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर-अङ्गोपाङ्ग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहनन, सचतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, स्थिर-अस्थिर और शुभ-अशुभमेंसे कोई एक-एक, सुभग, आदेय, सुस्वर और यशःकीर्तियुगलमेंसे एक, प्रशस्त 1. सं०पञ्चसं० ४, 'अत्र संहननबन्धो नास्ति' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२४)। 2. ४, १६४-१६६ । १. षट् खं० जीव० चू० स्थान० सू० ८५-८६ । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०६ विहायोगति, निर्माण, तीर्थङ्कर और पंचेन्द्रियजाति । इस तीस प्रकृतिक स्थानको वैमानिक देव या रत्नप्रभादि तीन पृथिवियोंका नारकी अविरतसम्यग्दृष्टि जीव बाँधता है ॥२८६-२८८।। एत्थ दुब्भग दुस्सरणादेयाणं तित्थयरेण सम्मत्तेण य सह विरोहादोण बंधेइ । 'सुहग-सुस्सरादेयाणमेव बंधो, तेण तिणि जुयलाणि २।२।२। अण्णोण्णगुणिया भंगा । __ अन त्रिंशरके दुर्भग-दुःस्वरानादेयानां बन्धो न । कुतः ? तीर्थकरत्वेन सम्यक्त्वेन च सह विरोधात् । तदुक्तम्-- "न दुर्भगमनादेयं दुःस्वरं याति बन्धताम् । सम्यक्त्व-तीर्थकृत्वाभ्यां सह बन्धविरोधतः ॥२६॥ इति सुभग-सुस्वराऽऽदेयानामेवात्र बन्धः। तत्र त्रीणि युगलानि २।२।२। अन्योन्यगुणिता भङ्गा विकल्पा अष्टौ । ____ यहाँपर दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय, इन तीन प्रकृतियोंका तीर्थङ्कर प्रकृति और सम्यक्त्वके साथ विरोध होनेसे बन्ध नहीं होता है; किन्तु सुभग, सुस्वर और आदेयका ही बन्ध होता है । इसलिए शेष तीन युगलोंके परस्पर गुणित करनेपर (२x२x२=) = भंग होते हैं। जह तीसं तह चेव य उणतीसं तु जाण पढमा दु । तित्थयरं वजित्ता अविरदसम्मो दु बंधेई ॥२८६।। बं० २६ । एत्थ अह भंगा = पुणरुत्ता । यथा येन प्रकारेण इदं त्रिंशत्कं बन्धस्थानमुनं, तथैव प्रकारेण प्रथममेकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ जानीहि हे भव्य, त्वं मन्यस्त्र । किं कृत्वा ? तीर्थकरत्वं वर्जयित्वा । तीर्थकरत्वं विना एकोनत्रिंशत्कं नामप्रकृतिस्थानं २६ अविरतसम्यग्दृष्टिीवो देवो नारको वा बध्नाति ॥२८॥ अत्राष्टौ भङ्गाः ८ पुनरुक्ताः । जिस प्रकार तीस प्रकृतिक बन्धस्थान बतलाया गया है, उसी प्रकार प्रथम उनतीस प्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । इसमें केवल तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़ देते हैं। इस स्थानका भी अविरत सम्यग्दृष्टि देव या नारकी जीव बन्ध करता है ॥२८॥ यहाँपर उपर्युक्त ८ भंग होते हैं, जो कि पुनरुक्त हैं । 'जह पढमं उणतीसं तह चेव य विदियउणतीसं तु । णवरिविसेसो सुस्सर-सुभगादेज जुयलाणमेकयरं ॥२६॥ हुंडमसंपत्तं पि य वजिय सेसाणमेक्कयरं च । विहायगइजुयलमेक्कयरं सासणसामा दु बंधंति ॥२६॥ यथा येन प्रकारेण प्रथममेकोनत्रिंशत्कं स्थानमुक्तं तथैव प्रकारेण द्वितीयमेकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ सास्वादनसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति । नवरि किञ्चिद्विशेषः । को विशेषः १ सुस्वरदुःस्वर-सुभगदुर्भगाऽऽदेयाऽना 1. ४, 'सुभगसुस्वरा' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२४) । 2. सं० पञ्चसं० ४, १६७। 3. ४, १६८ । 4.४, १७१ । १. पट्खं० जीव० चू० स्थान० सू० ८७ । २. षटखं० जीव० चू० स्थान० सू० ८8-800 ब मु०। २७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० पञ्चसंग्रह देययुगलानां मध्ये एकतरं १1१1१ हुण्डकसंस्थानं १ असंप्राप्तसृपाटिकासंहननं १ चेति द्वयं वर्जयित्वा । शेषाणां समचतुरस्रादि-वज्रवृषभनाराचादिसंस्थान-संहननानां पञ्चानां मध्ये एकतरं ११ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्योर्मध्ये एकतरं १ सासादनस्था बध्नन्ति । तथाहि-मनुष्यगति-तदानुपूये द्वे २ औदारिक-तैजसकार्मणानि ३ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ हुण्डकाऽसम्प्राप्तसृपाटिकाद्वयवर्जितसमचतुरस्त्र-वज्रवृषभनाराचसंस्थानसंहननानां पञ्चानां मध्ये एकतरं ११ त्रसचतुष्कं ४ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलधुचतुष्कं ४ स्थिरास्थिरशुभाशुभयुग्मानां मध्ये एकतरं ११ सुस्वर दुःस्वर-सुभगदुर्भगाऽऽदेयाऽनादेययुग्मानां मध्ये एकतरं ११११ यशोऽयशोमध्ये एकतरं १ प्रशस्ताप्रशस्तगत्योर्मध्ये एकतरं १ निर्माणं १ पन्चेन्द्रियं १ चेति नवविंशतिक नामप्रकृतिबन्धस्थानं २६ सासादनसम्यग्दृष्टयो जीवाश्चातुर्गतिका मनुष्यगतिभाविनो बध्नन्तीत्यर्थः ॥२६०-२६१॥ जिस प्रकार प्रथम उनतीस प्रकृतिक स्थान कहा गया है, उसी प्रकार द्वितीय उनतीस प्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि सुस्वर, सुभग और आदेय, इन तीन युगलोंमेंसे कोई एक-एक; तथा हुण्डकसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननको छोड़कर शेषमें से कोई एक-एक और विहायोगतियुगलमेंसे कोई एक प्रकृति संयुक्त द्वितीय उनतीस प्रकृतिक स्थानको मनुष्यगतिमें उत्पन्न होनेवाले चारों गतियोंके सासादनसम्यरदृष्टि जीव बाँधते हैं ॥२६०-२६१॥ एत्थ २।२।२।२।२।२।५।५।२ अण्णोण्णगुणिया भंगा ३२०० । एए तइय-उणतीसं पविट्ठा इदि ण गहिया। अत्र द्वितीये २।२।२।२।२।५।५।२ अन्योन्यगुणिता एकोनविंशतिके भङ्गाः ३२०० । एते वक्ष्यमाणततीयकोनत्रिंशत्कं प्रविष्टा इति न गृहीतव्याः, पुनरुतत्वात् । यहाँपर स्थिरादि छह युगल, पाँच संस्थान, पाँच संहनन और विहायोगति युगलके परस्पर गुणा करनेपर (२x२x२x२४२४२४५४५४२=३२००) भंग होते हैं। ये भंग तृतीय उनतीसप्रकृतिक स्थानके अन्तर्गत आ जाते हैं, इसलिए इनका ग्रहण नहीं किया गया है। 'एवं तइउगुतीसं णवरि असंपत्त हुंडसहियं च । बंधइ मिच्छादिट्ठी सत्तण्हं जयलाणमेययरं ॥२६२।। ६४६x२x२x२x२x२x२x २ = ४६०८ । एवं द्वितीयकोनत्रिंशत्प्रकारेण तृतीयकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ मिथ्याष्टिीवो बध्नाति । नवरि विशेषःअसम्प्राप्तसृपाटिकासंहनन-हुण्डकसंस्थानसहितं सप्तानां युग्मानां मध्ये एकतरं १११११११११।१। तथाहिमनुष्यद्विकं २ औदारिक तेजस-कार्मणत्रयं ३ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ पण्णां संस्थानानां मध्ये एकतरं पण्णां नानां मध्ये एकतरं १ त्रस-वणोऽगुरुलघुचतुष्क [ ४] १२ निर्माण १ पञ्जेन्द्रियं १ स्थिरास्थिर शुभाशुभ-सुभग-दुभंगाऽऽदेयाऽनादेय-सुस्वरदुःस्वर-प्रशस्ताप्रशस्त-[विहायोगति-] यशोऽयशसा सप्तानां युगलानां मध्ये एकतरं। १।११।११।११ एवं नवविंशतिकं स्थानं २६ मनुष्यगतियुक्तं मिथ्याष्टिश्चातुर्गतिको जीवो बध्नाति ॥२६२॥ ६।६।२।२।२।२।२।२।२ एते परस्परेण गुणितास्तृतीयकोनत्रिंशत्कस्य भङ्गाः ४६०८ । इसी प्रकार तृतीय उनतीस प्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है 1. सं० पञ्चसं०.४, १६६-१७० । १. षट्खं जीव० चू० स्थान० सू०६१ । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २११ कि वह पाटिकासंहनन और हुण्डकसंस्थान सहित है । तथा सात युगलोंमेंसे किसी एक प्रकृतिके साथ उसे चारों गतिके मिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं ॥२६२॥ इस तृतीय उनतीस प्रकृतिक स्थानमें छह संस्थान, छह संहनन और सात युगलोंके परस्पर गुणा करनेपर ( ६ x ६x२x२x२x२x२x२ x २ = ) ४६०८ भंग होते हैं । 'तत्थ इमं पणुवीसं मणुयदुगं उराल तेज कम्मं च । ओरालियंगवंगं हुंडम संपत्तं वण्णचदुं ||२३|| अगुरुगलहुगुवघादं तस बादर पत्तेयं अपजत्तं । अत्थिरमसुहं दुब्भगमणादेचं अजसणिमिणं च ॥ २६४ ॥ पंचिदियसंत्तं पणुवीसंबंधओ तहा मिच्छो । मणुस गई- संजुत्ता णि तिण्णि ठाणाणि भणियाणि ॥२६५|| मिथ्यादृष्टिर्जीवस्तिर्यङ् मनुष्यो वा मनुष्यगत्या सहेदं पञ्चविंशतिकस्थानं बध्नाति २५ । किं तत् ? मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्व्ये द्वे २ औदारिक- तैजस-कार्मणशरीराणि ३ भौदारिकाङ्गोपाङ्ग १ हुण्डकसंस्थानं १ असम्प्राप्तसंहननं १ वर्णचतुष्कं १ अगुरुलधूपघातौ २ सं १ बादरं १ प्रत्येकं १ अपर्याप्तं १ अस्थिरं १ अशुभं १ दुर्भगं अनादेयं १ अयशः १ निर्माणं १ पञ्चेन्द्रियं १ चेति पञ्चविंशतिकं नामप्रकृतिस्थानं मिथ्यादृष्टिर्जीवस्तिर्यङ् मनुष्यो वा बध्नाति २५ । मनुष्यगतिसहितानि त्रीणि नामप्रकृतिबन्धस्थानानि जिनैर्भणितानि ॥ २६३-२६५॥ पच्चीस प्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं- मनुष्यद्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर अंगोपांग, हुण्डकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, । अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति, निर्माण और पंचेन्द्रियजाति । पंचेन्द्रियजातिसंयुक्त इस पच्चीस प्रकृतिक स्थानको तिर्यञ्च या मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है । इस प्रकार मनुष्यगतिसंयुक्त उक्त तीन स्थान कहे गये हैं ॥२६३ - २६५॥ एत्थ संकिलेसेण बज्झमाण- अपजत्तेण सह थिरादीणं विसुद्धिपयडीणं बंधो णत्थि तेण १ भंगो । - ४६०८ १ ४६१७ एवं मणुसगइसव्वभंगा अत्र पञ्चविंशतिके संकुशेन बध्यमानेनापर्यासेन सह स्थिरादीनां विशुद्धिप्रकृतीनां बन्धो नास्ति, तेन भङ्ग एक एव १ । ४६१७ ॥ एवं मनुष्यगतेः सर्वे भङ्गाः ४६१७ । यहाँ पर संक्लेशके साथ बँधनेवाली अपर्याप्त प्रकृति के साथ स्थिर आदि विशुद्धिकाल में बँधनेवाली प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, इसलिए भंग एक ही है । इस प्रकार मनुष्यगतिसंयुक्त सर्वभंग ( ८ + ४६०८+१ = ४६१७ ) होते हैं । 1. सं० पञ्चसं० ४, १७२-१७४ । २.४, १७५ । १. षट्खं० जीव० चू० स्थान० सू० ६३-६४ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पञ्चसंग्रह अब देवगतिसंयुक्त बँधनेवाले स्थानोंका निरूपण करते हैं-- 'देवदुयं पंचिंदिय वेउव्विय आहार-तेज-कम्मं च । समचउरं वेउव्विय आहारय अंगवंगं च ॥२६६॥ तसचउ वण्णचउक्कं अगुरुयलहुयं च चत्तारि । थिर सुभ सुभगं सुस्सर पसत्थगइ जस य आदेज्जं ॥२७॥ एत्थ देवगईए सह संघयणाणि ण बझति, देवेसु संघयगाणमुदयाभावादो। एत्थ भंगो १ । णिमिणं चि य तित्थयरं एकत्तीसं ति होति णेयाणि । बंधइ पमत्त-इयरो अपुव्यकरणो य णियमेण ॥२६८॥ . अथ देवगत्या सह नामप्रकृतिबन्धस्थानविचारं गाथानवकेनाऽऽह-['देवदुयं पंचिंदिय' इत्यादि ।] प्रमत्तादितरः अप्रमत्तः, अपूर्वकरणश्च नामकर्मण एकत्रिंशत्कं प्रकृतीबंधनाति । ताः का इति चेदाऽह-देवगतिदेवगत्यानुपूर्व्यद्विकं २ 'पञ्चेन्द्रियं १ वैक्रियिकाऽऽहारक-तैजसकार्मणशरीराणि ४ समचतुरस्रसंस्थानं १ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गद्वयं २ बस-बादर-पर्याप्त प्रत्येकचतुष्कं ४ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघूपघातपरघातोच्छ्रासचतुष्कं ४ स्थिरं १ शुभं : सुभगं १ सुरवरः १ प्रशस्तविहायोगतिः १ यशस्कीर्तिः १ आदेयं १ निर्माणं १ तीर्थकरत्वं चेति एकत्रिंशत्कं नामप्रकृतिस्थानं ३१ अप्रमत्तो यतिः अपूर्वकरणोपशमकश्च बध्नाति नियमेन भवतीति ज्ञेयम् ॥२६६-२६८॥ . देवद्विक (देवगति-देवगत्यानुपूर्वी), पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, आहारकशरीर-अंगोपांग, त्रसचतुष्क, , वर्णचतुष्क, अगरुलघचतष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, यशःकीर्ति, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर; ये इकतीस प्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ जानना चाहिए। इस स्थानको अप्रमत्तसंयत या अपूर्वकरणसंयत ही नियमसे बाँधते हैं ॥२६६-२६८॥ अत्रैकत्रिंशत्के देवगत्या सह संहननानि न बध्नन्ति । कुतः ? देवानां संहननानामुदयाभावात् । अत्र भङ्गः १ एकः। यहाँ पर देवगतिके साथ किसी भी संहननका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि देवोंमें संहननोंका उदय नहीं पाया जाता । यहाँ पर भंग एक ही है। एमेव होइ तीसं णवरि हु तित्थयरवञ्जियं णियमा । बंधइ पमत्त-इयरो अपुव्वकरणो य णायव्यो ॥२६॥ अप्रमत्तस्थो मुनिः अपूर्वकरणस्थः साधुश्चैवमेकत्रिंशत्कप्रकारेण नामप्रकृतिस्थानं निशकं ३० बध्नाति । नवरि विशेषः। कथम्भूतः ? तीर्थकरत्ववर्जितं तीर्थकरत्वं वर्जयित्वा त्रिंशत्क अप्रमत्तोऽपूर्वकरणो वा बध्नाति ज्ञातव्यमिति नियमात् ॥२६॥ इसी प्रकार-इकतीस प्रकृतिक स्थानके समान-तीस प्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि इसमें तीर्थंकर प्रकृति छूट जाती है। इस तीस प्रकृतिक स्थानको भी अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत ही नियमसे बाँधते हैं,ऐसा जानना चाहिए ॥२६॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, १७७-१८० । 2. ४, १८१ । 3. ४, १८२ । १. षट्खं० जीव० चू० स्थान सू० ६६ । २. षट्खं० जीव० चू० स्थान० सू० १८ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २१३ 'एत्थ अथिरादीणं बंधोण होइ, विसुद्धीए सह एएसिं बंधविरोहादो। तेणेत्थ भंगो । अत्रास्थिरादीनां बन्धो न भवति । कुतः ? विशुद्धया सहैतासामस्थिरादीनां बन्धविरोधात् । ततोऽत्र भङ्ग एक एव । यहाँ पर अस्थिर आदि प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि विशुद्धिके साथ इनके बँधनेका विरोध है । इस कारण यहाँ पर भंग एक ही है। आहारदुयं अवणिय एकत्तीसम्हि पढमउणतीसं । बंधइ अपुव्वकरणो अप्पमत्तो य णियमेण ॥३०॥ एत्थ वि भंगो । पूर्वोक्तकत्रिंशस्कात् ३१ आहारकद्विकमपनीय दूरीकृत्याऽऽहार कद्विकं विना प्रथमैकोनत्रिंशत्कं प्रकृतिस्थानं २६ अपूर्वकरणोऽप्रमत्तश्च बध्नाति । तत्किम् ? देवगति-तदानुपूर्वीद्विकं २ पञ्चेन्द्रियं १ वैक्रियिकतैजस-कार्मणत्रिकं ३ समचतुरस्र १ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गं वस-वर्णागुरुलधुचतुष्कं १२। स्थिर-शुभ-सुभगसुस्वर-प्रशस्तगतयः ५ यशः १ आदेयं १ निर्माणं तैy १ चेति प्रथममेकोन त्रिंशत्कं स्थानं २१ अपूर्व करणोऽप्रमत्तश्च मुनिबंधातीति निश्चयेन ॥३०॥ अत्रापि भङ्गः १ । इकतीस प्रकृतिक स्थानमेंसे आहारकद्विक (आहारकशरीर-आहारक अंगोपांग) को निकाल देने पर प्रथम उनतीस प्रकृतिक स्थान हो जाता है। इस स्थानको अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत नियमसे बाँधते हैं ।।३००। प्रथम उनतीस प्रकृतिक स्थानमें भी भंग एक ही होता है। एवं विदिउगुतीसं णवरि य थिर सुभ जसं च एक्कयरं । बंधइ पमत्तविरदो अविरदो देसविरदो य ॥३०१॥ एवं प्रथममेकोनत्रिंशत्कप्रकारेण द्वितीयमेकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ प्रमत्तविरतो मुनिरविरतोऽसंयतसम्यग्दृष्टिशविरतश्च बध्नाति । नवरि किञ्चिद्विशेषः-स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-यशोऽयशसां मध्ये एकतरं १।१।१। स्थिरास्थिरयोः शुभाशुभयोर्यशोऽयशसोमध्ये एकतरम् [ बनातीत्यर्थः ] ॥३०॥ इसी प्रकार द्वितीय उनतीस प्रकृतिक स्थान जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि यहाँ पर स्थिर, शुभ और यश कीर्ति; ईन तीन युग ठोंमेंसे किसी एक-एक प्रकृतिका बन्ध होता है। इस द्वितीय उनतीस प्रकृतिक स्थानको प्रमत्तविरत, देशविरत और अविरतसम्यग्दृष्टि जीव बाँधते हैं॥३०॥ 4एत्थ देवगईए सह उजोवं ण बज्झइ, देवगदिम्मि तस्स उदयाभावादो, तिरियगई मुच्चा अण्णगईए सह तस्स बंधविरोहादो। देवाणं देहदित्ती तदो कुदो ? वण्णणामकम्मोदयादो। एत्थ य तिणि जुयलाणि राश२ अण्णोण्णगुणिया भंगा। __ अत्र देवगत्या सहोद्योतो न बध्यते, तत्र देवगतो तस्योद्योतस्य उदयाभावात् । तिर्यग्गतिं मुक्त्वा अन्यया गत्या सह तस्योद्योतस्य बन्धविरोधात् । देवानां देहदीसिस्तहि कुतः? वर्णनामकर्मोदयात् । अत्र द्वितीयैकोनत्रिंशत्के स्थिरादीनि त्रीणि युगलानि २१२२॥ अन्योन्यगुणितानि भङ्गाः अष्टौ ८ । यहाँ पर देवगतिके साथ उद्योतप्रकृति नहीं बंधती है। क्योंकि देवगतिमें उसका उदय नहीं होता है। तिर्यग्गतिको छोड़ कर अन्य गतिके साथ उसके बँधनेका विरोध है । तो देवोंमें 1. सं० पञ्चसं० ४, १८३ । 2. ४, १८४ । ३. ४, १८५ । 4.1, 'अत्र देवगत्या सहोद्योतो' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२६) १. पटखं० जीव० चू० स्थान० सू० १०० । २. षट्खं० जीव० चू० स्थान० सू० १०२ । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पञ्चसंग्रह देह-दीप्ति किस कर्मके उदयसे होती है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि वर्णनास कर्मके उदयसे उनके शरीरोंमें दीप्ति होती है। यहाँपर स्थिरादि तीन युगलोंके परस्पर गुणा करनेसे (२x२x२ =)८ भंग होते हैं। 'तित्थयराहादुयं एकत्तीसम्हि अवणिए पढमं । अट्ठावीसं बंधइ अपुवकरणो य अप्पमत्तो य॥३०२॥ एत्थ भंगो १ । पुणरुत्तो ण गहिओ। पूर्वोक्ते एकत्रिंशत्के ३१ तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वयेऽपनीते दूरीकृते प्रथममष्टाविंशतिकं स्थानं २८ अपूर्वकरणो मुनिरप्रमत्तो मुनिश्च बनाति २८ ॥३०२॥ अत्र भङ्गः १ पुनरुक्तान गृहीतः । इकतीसप्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्कर और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंके निकाल देनेपर शेष रहीं अट्ठाईस प्रकृतियोंको अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत बाँधते हैं । यह प्रथम अट्ठाईसप्रकृतिक स्थान है ॥३०२।। विदियं अट्ठावीसं विदिउगुतीसं च तित्थयरहीणं । मिच्छादिपमत्तंता य बंधगा होंति णायव्वा ॥३०३॥ द्वितीयमष्टाविंशतिकं २८ द्वितीयकोनत्रिंशत्कं २१ तीर्थकरहीनं सत् मिथ्यादृष्टयादि-प्रमत्तान्ता बध्नन्ति बन्धका भवन्तीति ज्ञातव्यम् । तथाहि-देवगति देवगत्यानुपूये द्वे. २ पञ्चेन्द्रियं १ वैक्रियिक-तेजस-कार्मणत्रिक ३ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गं समचतुरस्रं १ त्रस-वर्णागुरुलघुचतुष्कं १२ स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-यशोऽयशसां युगलानां मध्ये एकतरं १०१।१ सुस्वरः १ सुभगं १ प्रशस्तविहायोगतिः १ आदेयं १ निर्माणं १ चेत्यष्टाविशतिकनामप्रकृतिबन्धस्थानस्य मिथ्यादृष्टयादि-प्रमत्तान्ता बन्धका भवन्ति २८ ॥३०३॥ यहाँपर भंग एक ही है। किन्तु वह पुनरुक्त है, अतः उसका ग्रहण नहीं किया गया है। द्वितीय उनतीस प्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्कर प्रकृतिके कम कर देनेपर द्वितीय अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान हो जाता है । इस स्थानके बन्धक मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके जीव होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३०३।। कुदो एवं, उवरिजाणं अप्पमत्तादीणं अथिर-असुह-अजसकित्तीणं बंधाभावादो। भंगा ८ । स्थिरादीनि २०२२ परस्परगुणितानि ८ भङ्गाः । कुत एवं? अप्रमत्तादीनां उपरिजानां गुणस्थानानां अस्थिराशुभायशस्कोर्तीनां बन्धाभावात् । __ ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि अप्रमत्तसंयतादि उपरितनगुणस्थानवर्ती जीवोंके अस्थिर, अशुभ और अयशःकीत्ति, इन तीनों प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है । यहाँपर शेष तीन युगलोंके गुणा करनेसे आठ भंग होते हैं। *बंधति जसं एगं अपुव्व अणियट्टि सुहुमा य । तेरे णव चउ पणयं बंध-वियप्पा हवंति णामस्स ॥३०४॥ एवं ठाणबंधो समत्तो। 1. सं० पञ्चसं० ४, १८६। 2. ४,१८६ । ३. ४ 'अप्रमतादीनां' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२७) ___4. ४,१८८। १. पट्खं० जीव० चू० स्थान० सू० १०४-१०५। २. पटखं० जीव० चू० स्थान० सू० १०६.१०७ । ३. पर्ख० जीव० चू० स्थान० सू० १०८-१०६ । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २१५ अपूर्वकरणानिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्पराया मुनयः एकं यशःप्रकृतिका स्थानं ] बध्नन्ति । देवगत्या सह बन्धस्थानभेदा गुणस्थानेषु मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अप्र. अपू० २८ २८ २८ २८ २७ २८ २८ २८ २६ २६ २६ २६ २६ ३० ३० mm अपूर्वादिषु १११११ मिथ्यात्वादिप्रमत्तेपु अपूर्वकरेणषु अष्टौ भङ्गाः ८ । भिन्नीकरणेषु पृथक पृथक अष्टौ भङ्गाः ८। अभेदतायां देवगतौ एकोनविंशतिभङ्गाः १६ । नामकर्सणः प्रकृतिस्थानानां त्रयोदश-नवचतुःपञ्चसंख्योपेताः सर्वे बन्धविकल्पा: १३६४५ भवन्ति ।। · घोरसंसारवासशितरङ्गनिकरोपमैः । नामबन्धपदैर्जीवा वेष्टितास्त्रिजगद्भवाः ॥३०॥ इति नामकर्मणः प्रकृतिस्थानबन्धः समाप्तः । यशस्कीर्तिरूप एक प्रकृतिक स्थानको अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत बाँधते हैं । ( इस प्रकार देवगतिसंयुक्त सर्व भंग (१+१+१+ +१+८=२०) होते हैं । तथा नामकर्मके ऊपर बतलाये गये सर्व बन्धविकल्प (तिर्यग्गति-सम्बन्धी ६३०८ + मनुष्यगतिके ४६१७ + देवगतिसम्बन्धी २० = १३६५५ ) तेरह हजार नौ सौ पैंतालीस होते हैं ॥३०४॥ चतुर्गति-सम्बन्धी सर्व विकल्प १३६४५ होते हैं। इस प्रकार नामकर्मके बन्धस्थानोंका विवरण समाप्त हुआ। अब गुणस्थानोंकी अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्ध स्वामित्वको कहते हैं[मूलगा०४१] 'सव्वासिं पयडीणं मिच्छादिट्ठी दु बंधगो भणिओ। तित्थयराहारदुगं मोत्तूणं सेसपयडीणं' ॥३०॥ [मूलगा०४२] सम्मत्तगुणणिमित्तं तित्थयरं संजमेण आहारा । बझंति सेसियाओ मिच्छत्ताईहिं हेऊहिं ॥३०६॥ अथ गुणस्थानेषु बन्धाबन्धप्रकृतिभेदं दर्शयति-[ 'सव्वासिं पयडीणं' इत्यादि । ] मिथ्यादृष्टिः सर्वासां प्रकृतीनां बन्धको भणितः, तीर्थकृत्वाऽऽहारकद्विकं मुक्त्वा शेषसप्तदशोत्तरशतप्रकृतीनां ११७ बन्धको मिथ्यात्वगुणस्थाने मिथ्याष्टिजीवो भवति सम्यक्त्वगुणकारणतीर्थकरत्वं उपशम-वेदक-क्षायिकाणां मध्ये अन्यतरसम्यक्त्वे सति तीर्थकरत्वस्याविरताऽधपूर्वकरणस्य पठभागपर्यन्तं बन्धो भवति । संयमेन सामायिकच्छेदोपस्थापनेन आहारकाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गद्वयं अप्रमत्ताधपूर्वकरणषष्ठभागान्ता मुनयो बध्नन्ति । 'सम्मेव तित्थबन्धो आहारदुगं पमादरहिदेसु' इति वचनात् । शेषाः प्रकृतीमिथ्यात्वाऽविरतिकषाययोगहेतुभिः प्रत्ययः ' कृत्वा मिथ्यात्वादिगुणस्थानेषु बध्नन्ति ॥३०५-३०६॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, १६२ ! 2. ४. १६३ । १.गो० कर्म० गा० ५८२ संस्कृतटीकायामपि उपलभ्यते। १. शतक. ४४ । २. शतक० ४५ । ३. गो. क. गा०६२। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ पञ्चसंग्रह तीर्थकर और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंका बन्धक मिथ्यादृष्टि जीव कहा गया है। इसलिए मिथ्यात्वगुणस्थानमें ११७ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। सम्यक्त्वगुणके निमित्तसे तीर्थङ्कर प्रकृतिका और संयमगुणके निमित्तसे आहारकद्विकका बन्ध होता है । शेष एक सौ सत्तरह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व, अविरति आदि हेतुओंसे बँधती है।३०५-३०६॥ अब कितनी प्रकृतियाँ किस गुणस्थान तक बँधती हैं, इस बातका निरूपण करते हैं सोलस मिच्छत्तंता आसादंता य पंचवीसं तु । तित्थयराउवसेसा अविरय-अंता दु मिस्सस्स ॥३०७॥ षोडश प्रकृतीः मिथ्यादृष्टिगुणस्थानचरमसमयान्ता बन्ध-व्युच्छिन्ना बध्नन्ति १६ । पञ्चविंशतिप्रकृतीः सासादनान्ता बन्धव्युच्छेदं प्राप्ता बध्नन्ति २५ । तीर्थङ्करप्रकृति देव-नरायुयं च विना याः शेषाः प्रकृतीः अविरतान्ता बध्नन्ति ता मिश्रे च बध्नन्ति । तथाहि-मिश्रे मनुष्यायुर्देवायुर्बन्धो न । असंयतादौ तीर्थकरत्वबन्धोऽस्ति, नरायुषो व्युच्छेदः । अप्रमत्तान्तं देवायुषो बन्धः ॥३०७॥ मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्त तक वक्ष्यमाण सोलह प्रकृतियाँ बँधती हैं। पच्चीस प्रकृतियाँ सासादनगुणस्थानके अन्त तक बंधती है। अविरतगुणस्थानके अन्त तक जिनका बन्ध होता है, ऐसी तीर्थङ्कर और आयुद्विकके विना चौहत्तर प्रकृतियाँ मिश्रगुणस्थानके अन्त तक तक बँधती हैं ॥३०७॥ २५ १०१ इदि तित्थयराहार दुगूणा मिच्छादिठिम्मि: सासणे . मणुयदेवाच्यं विणा मिस्से cm4 इति गुणस्थानेषु प्रकृतीनां स्वामित्वं कथ्यते-तीर्थङ्करत्वाऽऽहारकद्वयोना मिथ्यादृष्टौ, सास्वादने, मनुष्य-देवायुा विना मिश्रे म. १६ ११७ वि० बं० सा. २५ १०५ मि. . ७४ " ० अ. ० 9 9 . इस प्रकार तीर्थङ्कर और आहारकद्विकके विना मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्तिके योग्य प्रकृतियाँ १६ है, बन्धके योग्य ११७ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ ३ हैं और ३१ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। सासादनगुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्तिके योग्य प्रकृतियाँ २५ हैं, बन्धके योग्य ११७ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ १६ हैं और ४७ प्रकृति पोंके बन्धका अभाव है। मिश्रगुणस्थानमें मनुष्यायु और देवायुके विना बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ ७४ हैं, अबन्धप्रकृतियां ४६ हैं और ७४ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। इस गुणस्थानमें किसी भी प्रकृतिको बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती है। 3. सं० पञ्चसं० ४, १६४-१६५ । १. शतक० ४६। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अबप्रथम गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंको गिनाते हैं--- मिच्छ णउंसयवेयं णिरयाऊ तह य चेय णिरयदुर्ग । इगि-वियलिंदियजाई हुंडमसंपत्तमादावं ॥३०॥ थावर सुहुमं च तहा साहारण तहेव अपजत्तं । एवं सोलह पयडी मिच्छत्तम्हि य बंधवोच्छेओ॥३०॥ मिथ्यात्वं १ नपुंसकवेदः १ नरकायुः १ नरकगति-नरकगत्यानुपूर्वे द्वे २ एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियजातयः ४ हण्डकं १ असम्प्राप्तसृपाटिकासंहननं १ आतपः १ स्थावरं १ सूचमं साधारणं १ अपर्याप्तं १ चेत्येवं षोडश प्रकृतयो मिथ्यात्वहेतुभूता मिथ्याष्टिगुणस्थाने बन्धव्युच्छिन्नाः १६ । एतासामग्रेऽभावः ॥३०८-३०६॥ मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु तथा नरकद्विक, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियजातित्रिक, हण्डकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त ये र प्रकृतियाँ मिथ्यात्वगुणस्थानके अन्तमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३०८-३०६॥ अव दूसरे गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ बतलाते हैं थीणतियं इत्थी विय अण तिरियाऊ तहेव तिरियदुगं । मज्झिमचउसंठाणं मज्झिमचउ चेव संघयणं ॥३१०॥ उज्जोयमप्पसत्थं विहायगइ दुब्भगं अणादेजं । दुस्सर णीचागोदं सासणसम्मम्हि वोच्छिण्णा ॥३१॥ स्त्यानगृद्धिप्रयं निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिरिति निकं ३ स्त्रीवेदः १ अनन्तानुबन्धिक्रोधादिचतुष्कं ४ तिर्यगायुः १ तिर्यग्गति-तदानुपू] २ न्यग्रोध-शल्मीक कुब्जक-वामनसंस्थानमध्यचतुष्कं ४ वज्रनाराचनाराचार्धनाराचकीलितसंहननमध्यचतुकं ४ उद्योतः , अप्रशस्तविहायोगतिः १ दुर्भगं १ अनादेयं १ दुःस्वरः १ नीचगोत्रं १ एवं पञ्चविंशतिप्रकृतयः सास्वादनगुणस्थाने [बन्ध] व्युच्छिना भवन्ति २५ ॥३१०-३११॥ स्त्यानत्रिक (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला) स्त्रीवेद, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तिर्यगाय, तिर्यद्रिक, मध्यम चार संस्थान, मध्यभ चार संहनन, उद्योत, आ दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर और नीचगोत्र, ये पच्चीस प्रकृतियाँ सासादनगुणस्थानके अन्तमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३१०-३११॥ अब अविरतादि चार गुणस्थानों में बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंकी संख्या बतलाते हैं[मूलगा० ४४] अविरयअंता दसयं विरयाविरयंतिया दु चत्तारि । छच्चेव पमत्ता एया पुण अप्पमत्ता ॥३१२॥ दश प्रकृतयः अविरतान्ताः अविरते व्युच्छेदं प्राप्ता इत्यर्थः। चतस्रः प्रकृतयो विरताविरतान्ता देशसंयते व्युच्छिन्नाः ४ । षट् प्रकृतयः प्रमत्तान्ताः प्रमत्ते व्युच्छिन्नाः ६ । एका प्रकृतिः अप्रमत्तान्ता अप्रमत्ते व्युच्छिन्ना ॥३१२॥ 1. ४, 'तत्र मिथ्यात्वनपुंसक' इत्यादि गद्यभागः (पृ. १२६)। 2. ४, 'त्यानगृद्धित्रय' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ११७)। १. शतक० ४७ । २८ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अविरतगुणस्थानके अन्तमें दश प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। विरताविरतके अन्तमें चार प्रकृतियाँ और प्रमत्तविरतके अन्तमें छह प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अप्रमत्तविरतके अन्तमें एक प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न होती है ॥३१२॥ ७७ .६७ तित्थयर-मणुय-देवाऊहिं सह संजयसम्माइटिम्मि दे पम आहारदुगेण १५५३ ८१ " ५७ ८५ ७१ सह अप्पमत्ते ६६ । सह अप्पमत्ते ० ० ० ० तोर्थकरत्वेन मनुष्य देवायुभ्यां च सह असंयतसम्यग्दृष्टौ, देश-विरते प्रमत्ते, आहारकयुगेन सहाप्रमत्ते अ० दे० प्र० अ० . वि० १०४ ६१ बं० ७० ६७ ६३ ५६ अ० ४३ ५३ ५७ ६१ । बं० ७१ ८१ ८५ ८६ तीर्थकर, मनुष्यायु और देवायुके साथ असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें ७७ प्रकृतियाँ बंधती हैं, १० प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। अबन्धप्रकृतियाँ ४३ हैं और ७१ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। देशविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ ४ हैं, बन्धके योग्य ६७ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ ५३ हैं और ८१ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रमत्तविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युछिन्न होनेवाली प्रकृतियाँ ६ हैं, बन्धके योग्य ६३ हैं, अबन्धप्रकृतियाँ ५७ हैं और ८५ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। अप्रमत्तविरतमें आहारकद्विकके साथ बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ५६ हैं, बन्धसे व्युछिन्न होनेवाली प्रकृति १ है, अबन्धप्रकृतियाँ ६१ हैं और ८६ प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। अब अविरत आदि चार गुणस्थानों में बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों को गिनाते हैं विदियकसायचउकं मणुयाऊ मणुयदुगय उरालं । तस्स य अंगोवंगं संघयणाई अविरयस्स ॥३१३॥ 'तइयकसायचउक्क विरयाविरयम्हि बंधवोच्छिण्णो। 'साइयरमरइ सोयं तह चेव य अथिरमसुहं च ॥३१४॥ अजसकित्ती य तहा पमत्तविरयम्हि बंधवोच्छेदोके । देवाउयं च एवं पमत्तइयरम्हि णायव्वो ॥३१॥ प्रत्याख्यानचतुष्कं ४ मनुष्यायुः १ मनुष्यगति-तदानुपूये द्वे २ औदारिकं १ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ वज्रवृषभनाराचमाद्यसंहननं १ । एवं दश प्रकृतीनां असंयतगुणस्थाने विच्छेदः १० प्रत्याख्यानतृतीयचतुष्कं ४ देशसंयमे बन्धव्युच्छिन्नम् । असातं १ अरतिः १ शोकः १ अस्थिरं १ अशुभं १ अयशस्कीर्तिः १ 1. सं० पञ्चसं० ४, 'द्वितीयक्रषायचतुष्का' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२६)। 2. ४, 'चतुर्थी तृतीय ___ कषायाणां' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२६)। 3. ४, 'शोकारत्य' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १२६)। कैब बोच्छिण्णो। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक चेति प्रमत्तसंयते पट् प्रकृतयो व्युच्छिद्यन्ते ६ | अप्रमत्ते एकस्य देवायुषो [ बन्ध ] व्युच्छेदो ज्ञातव्यः ॥ ३१३ - ३१५॥ द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, मनुष्यायु, मनुष्यद्विक, औदारिकशरीर, औदारिक अङ्गोपाङ्ग और वज्रवृषभनाराचसंहनन; ये दश प्रकृतियाँ अविरतगुणस्थानके अन्त में बन्ध से व्युच्छिन्न होती हैं । तृतीय प्रत्याख्यानावरणकपायचतुष्क, विरताविरतगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्त्ति ये छह प्रकृतियाँ प्रमत्तविरतगुणस्थान में बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । एक देवायुप्रकृति अप्रमत्तविरतगुणस्थान में बन्धसे व्युच्छिन्न होती है ।।३१३-३१५।। अब अपूर्वकरणगुणस्थानमै बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंकी संख्या बतलाते हैं[मूलगा० ४५] दो तीसं चत्तारि य भागा भागेसु संखसण्णाओ । चत्तारि समयसंखा अपुव्वकरणंतिहा होंति' ॥३१६॥ अपूर्वकरणस्य सप्त भागास्त्रिधा भवन्ति - प्रथमभागे प्रकृतिद्वयस्य बन्धव्युच्छेदः २ । पष्ठे भागे त्रिंशत्कप्रकृतीनां व्युच्छेदः ३० । सप्तमे भागे चतुःप्रकृतीनां बन्धव्युच्छेदः ४ । अपूर्वकरणस्य त्रिषु भागेषु प्रकृतीनां संख्यासंज्ञार्थ २|३०|४| शेषाश्वत्वारो भङ्गाः समयसंख्यार्थं कालसंख्याथं ज्ञातव्यम् २ ॥३१६॥ अपूर्वकरणगुणस्थानके संख्यात अर्थात् सात भाग होते हैं । उनमेंसे प्रथम भागमें दो प्रकृतियाँ, छट्ठे भाग में तीस प्रकृतियाँ और सातवें भागमें चार प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न होती है । इस प्रकार बन्धव्युच्छित्तिकी अपेक्षा अपूर्वकरणके तीन भाग प्रधान हैं। शेष चार भाग पूर्वकरण गुणस्थानके समय अर्थात् काल बतलाने के लिए निरूपण किये गये हैं ||३१६ ॥ ० अपुव्वेसु सत्तसु भासु २ ० ५६ ६४ ६२ ५८ ६२ .६० ५६ ६४ o ३० ५६ ५६ ५६ ६४ ६४ ६४ २ ६२ ६२. ० २१६ ४ २६ ६४ २ १२२ ० अपूर्वकरणस्य सप्तसु भागेषु २ ० ० ० ३० ४ ५८ ५६ ५६ ५६ ५६ ५६ २६ ६२ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ ६० ६२ ६२ ६२ ६२ ६-२ १२२ अपूर्वकरणके सातों भागों के बन्धाबन्धयोग्य प्रकृतियोंकी अङ्कसंदृष्टि मूलमें दी हुई है । अब अपूर्वकरण बन्ध-व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंको गिनाते हैं 'णिद्दा पयला य तहा अपुव्वपरमम्हि बंधवोच्छेओ । देवदुयं पंचिदिय ओरालिय वज्ञ चउसरीरं च ॥३१७॥ समचउरं वेउव्विय आहारय अंगवंगणामं च । वण्णचउक' च तहा अगुरुयलहुगं च चत्तारि ॥३१८ ॥ तसच पसत्थमेव य विहायगइ थिर सुहं च णायव्वं । सुभगं सुस्सरमेव य आदेज्जं चेव णिमिणं च ॥३१९॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, 'अपूवस्य प्रथमे' इत्यादिगद्यांश: ( पृ० १२६ ) १. शतक० ४८ । ब - तिया । For Private Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पञ्चसंग्रह तित्थयरमेव तीसं अपुव्वछब्भाय बंधयोच्छिण्णा । हस्स रइ भय दुगुंछा अपुव्वचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥३२०॥ अपूर्वकरणस्य प्रथमे भागे निद्रा-प्रचले द्वे बन्धव्युच्छिन्ने २ । षष्ठे भागे चरमसमये देवगतिदेवगत्यानुपूये द्वे २ पञ्चेन्द्रियं १ औदारिकवर्जितं वैक्रियिकाऽऽहारक-तैजस-कार्मणशरीरचतुष्कं ४ समचतुरस्रसंस्थानं १ वैक्रियिकाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ सचतुष्कं ४ प्रशस्तविहायोगतिः १ स्थिरं १ शुभं सुभगं १ सुस्वरः १ आदेयं १ निर्माणं १ तीर्थकरत्वं १ एवं त्रिंशत्प्रकृतयोऽपूर्वकरणस्य षष्ठे भागे बन्धाद् व्युच्छिन्ना: ३० । हास्यं १ रतिः १ भयं १ जुगुप्सा १ इति चततः प्रकृतयोsपूर्वकरणस्य चरमे सप्तमे भागे बन्ध-व्युच्छिन्नाः ॥३१७-३२०॥ निद्रा और प्रचला, ये दो प्रकृतिया अपूर्वकरणके प्रथम भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। देवद्विक, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीरको छोड़कर शेष चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक-अङ्गोपाङ्गः आहारक-अङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर, ये तीस प्रकृतिया अपूर्वकरणके छठवें भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा, ये चार प्रकृतियाँ अपूर्वकरणके चरम समयमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ।।३१७-३२०॥ __ अब नववें और दसवें गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंकी संख्या बतलाते हैं[मुलगा० ४६] संखेजदिमे सेसे आढत्ता वायरस्स चरिमंतो। पंचसु एक्केक्कंती सुहुमंता सोलसा होति ॥३२१॥ बादरस्यानिवृत्तिकरणस्य शेषान् संख्याततमान् कांश्चिद् भागान् मुक्त्वा उद्वरित (?) भागेषु आहत्ता आरुह्य [आढत्ता आरभ्य ततः पञ्चसु भागेषु चरमान्ते प्रान्ते एकैकस्याः प्रकृतेरन्तो व्युच्छेदो भवतीत्यर्थः । सूचमान्ताः सूचमसाम्परायस्य चरमसमये पोडश प्रकृतयो व्युच्छिन्ना भवन्ति १६ ॥३२१॥ बादरसाम्पराय अर्थात् अनिवृत्तिकरणके संख्यातवें भागके शेष रह जानेपर वहाँसे लगाकर चरम समयके अन्ततक होनेवाले पाँच भागोंमें एक-एक प्रकृति क्रमशः बन्धसे व्युच्छिन्न होती है । शेष सोलह प्रकृतियाँ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३२१॥ अणिअट्टियम्मि पंचसु भाएसु सुहमम्मि जहा परथारो - २२ २१ २०१६ १८१७ १८६६ १०० :०३ १०२ १०३ १२६ १२७ १२८ १२ १३० १३१ भनिवृत्तिकरणस्य पञ्चसु भागेषु सूचमसाम्पराये च प्रस्तारो यथा ०० २२ २१२० १८ १००१०१ १०२ १०३ १२६ १२८ १३१ अनिवृत्तिकरणके पाँच भागांसें तथा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें बन्धाबन्ध प्रकृतियोंकी प्रस्तार-रचना मूलमें दी है। १. शतक० ४। ब आहत्ता। दब Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२१ अब नवें गुणस्थानमें, बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंके नाम बतलाते हैं 'पुरिसं चउसंजलणं पंच य पयडी य पंचभायम्मि । अणिअट्टी-अद्वाए जहाकम बंधवुच्छेओ ॥३२२॥ __ अनिवृत्तिकरणस्याद्वाभागेषु पञ्चसु यथाक्रमं [ बन्ध- ] व्युक्छेदः । प्रथमभागे पुंवेदः १ । द्वितीयभागे संज्वलनक्रोधः । तृतीयभागे संज्वलनमानः १ । चतुर्थभागे संज्वलनमाया । पञ्चमे भागे संज्वलनलोभः १ बन्धव्युच्छिन्नः ॥३२२॥ अनिवृत्तिकरण कालके पाँच भागों में पुरुषवेद और चार संज्वलनकषाय, ये पाँच प्रकृतियाँ यथाक्रमसे एक-एक करके बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३२२।। अब दश गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि उच्च जसकित्ती । एए सोलह पयडी सुहुमकसायम्मि वोच्छेओ ॥३२३॥ ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ उच्चैर्गोत्रं ५ यशस्कीर्तिः १ इत्येताः पोडश प्रकृतयः सूचमसाम्परायस्य चरमसमये [ बन्धाद् ] व्युच्छिन्नाः १६ ॥३२३॥ ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, उच्चगोत्र और यश कीत्ति ये सोलह प्रकृतियाँ सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥३२३॥ अब तेरहवे गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतिका निर्देश कर प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हैं[मूलगा०४७] सायंतो जोयंतो एत्तो पाएण पत्थि बंधो त्ति । णायव्यो पयडीणं बंधो संतो अणंतो य॥३२४॥ ___ सातायाः अन्तो व्युच्छेदः योगान्तः सयोगपर्यन्तः । इतः परं प्रायेण गुणस्थानकेन बन्धो नास्तीति उपशान्तादिपु ज्ञातव्यं प्रकृतीनां सन्तः अबन्धः अनन्तः व्युच्छेदः । चकाराद् बन्धाबन्धो ज्ञातव्यः ॥३२४॥ योगके अन्ततक सातावेदनीयकर्मका बन्ध होता है, अर्थात् ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें एक सातावेदनीयकर्म ही बँधता है। तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें उसकी भी बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । इससे आगे चौदहवें गुणस्थानमें योगका अभाव हो जानेसे फिर किसी भी कर्मका बन्धका नहीं होता है। इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में प्रकृतियोंका सान्त अर्थात् बन्धव्युच्छित्ति और अनन्त अर्थात् बन्ध जानना चाहिए ।।३२४।। (देखो संघष्टि संख्या १४) विशेषार्थ-इस गाथाके चतुर्थ चरणके पाठ दो प्रकारके मिलने हैं-१ 'बंधो संतो' २ 'बन्धस्संतो अणंतो य' । प्रथम पाट प्रकृत गाथामें दिया हुआ है और द्वितीय पाठ शतक प्रकरणकी गाथाङ्क ५० और गो० कर्मकाण्डकी गाथाङ्क १२१ में मिलता है। शतकचूर्णिमें 'अहवा सन्तो बंधो अणंतो य भव्वाभव्वे पडुच्च' कहकर 'बंधो संतो अणंतो य' पाठको भी स्वीकार किया है और तदनुसार शतकप्रकरणके संस्कृत टीकाकारने उसका अर्थ इस प्रकार किया है 1. सं० पञ्चसं० ४, ४, ''वेद संज्वाल' इत्यादि गद्यांशः (पृ० १२६ )। 2. ४, 'उच्चगोत्रयशो' इत्यादि गद्यांशः (पृ० १२६-१३०)। 3. ४, 'शान्तक्षीणकषायौ व्यतीत्यकस्य सातस्य' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १३०)। १. शतक० ५० । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ पञ्चसंग्रह 'अथवा सर्वोऽप्यं प्रकृतीनां बन्धः सान्तो ज्ञातव्यो भन्यानाम्, अनन्तश्च ज्ञातव्योऽभव्यानामिति' । अर्थात् भव्योंकी अपेक्षा सभी प्रकृतियोंका बन्ध सान्त है। किन्तु अभव्योंकी अपेक्षा अनन्त जानना चाहिए, क्योंकि उनके कभी भी किसी प्रकृतिका अन्त नहीं होता। दूसरे पाठका अर्थ गो० कर्मकाण्डके टीकाकारने इस प्रकार किया है 'बन्धस्यान्तो व्युच्छित्तिः। अनन्तः बन्धः। चशब्दादबन्धश्चोक्तः।' बन्धका अन्त यानी व्युच्छित्ति, अनन्त यानी बन्ध और गाथा-पठित 'च' शब्दसे अबन्ध जानना चाहिए। शतक प्रकरणके संस्कृत टीकाकारने इस दूसरे पाठका अर्थ इस प्रकार किया है 'यत्र गुणस्थाने यासां प्रकृतीनां बन्धस्यान्त उक्तस्तत्र तासां बन्धस्यान्तस्तत्र भावस्तदुत्तरत्राभाव इत्येवंलक्षणो ज्ञातव्यः । शेषाणां त्वनन्तस्तदुत्तरत्रापि भावलक्षणो ज्ञातव्यः । यथा पोडरा प्रकृतीनां मिथ्यादृष्टौ बन्धस्यान्तः शेषस्य स्वेकोत्तरशतस्यानन्तस्तदुत्तरत्रापि गमनात् । एवमुत्तरत्र गुणस्थानेष्वप्यन्तानन्तभावना कार्या। अर्थात् जिस गुणस्थानमें जिन प्रकृतियोंके बन्धका अन्त कहा है, वहाँ तक उनका सद्भाव है और आगे उनका असद्भाव है। तथा जहाँपर जिन प्रकृतियोंका अन्त या असद्भाव है, वहाँपर शेष प्रकृतियोंका 'अनन्त' अर्थात् अन्तका अभाव यानी सद्भाव है। ऐसी अवस्थामें प्राकृतपञ्चसंग्रहके संस्कृत टीकाकार-द्वारा किया गया अर्थ विचारणीय है। उवसंतादि . १ . . ११६ ११६ ११६ १२० १४७ १४७ १४७ १४८ क्षी० स० उ० अ० ११६ १२० १४७ १४७ १४७ १४८ इति गुणस्थानेषु प्रकृतीनां बन्धस्वामित्वं समाप्तम् । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवलीके एक साता-वेदनीयका बन्ध होता है, शेष ११६ प्रकृतियोंका अबन्ध है। सयोगिकेवलीके सातावेदनीयकी भी बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । अतः अयोगकेवलीके १२० का ही अबन्ध रहता है। अब मूलशतककार आदेश अर्थकी सूचनाके लिए उत्तर गाथासूत्र करते हैं[मूलगा० ४८] गइयादिएसु एवं तप्पाओगाणमोघसिद्धाणं । सामित्तं णायव्वं पयडीणं णाण (ठाण) मासेज ॥३२॥ अथ गत्यादिषु मार्गणासु प्रकृतीनां स्वामित्वं दर्शयति-['गइयादिएसु' इत्यादि । ] गत्यादिमागणासु एवं गुणस्थानोकप्रकारेण तत्प्रायोग्यानां गत्यादिमागणायोग्यानां गुणस्थानप्रसिद्धानां प्रकृतीनां स्वामित्वं ज्ञातव्यं ज्ञानमाश्रित्य श्रुतज्ञानमागर्म स्वीकृत्य ॥३२५॥ ___ इसी प्रकार गति, इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओंमें उन उनके योग्य ओघसिद्ध प्रकृतियोंका स्वामित्व ऊपर बतलाये गये गुणस्थानों या बन्धस्थानोंके आश्रयसे लगा लेना चाहिए ॥३२५॥ १.शतक० ५१ । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२३ अब सूत्रकारके द्वारा सूचित अर्थका भाष्यकार व्याख्या करते हैं इगि-विगलिंदियजाई वेउव्वियछक्कणिरयदेवाऊ ।। आहारदुगादावं थावर सुहुमं अपुण्ण साहरणं ॥२२६।। तेहि विणा णेरइया बंधंति य सव्वबंधपयडीओ। १०१॥ ताओ वि तित्थयरूणा मिच्छादिट्ठी दुणियमेण ॥३२७॥ कार ।१००। मिथयराउंसयवेयं हुंडमसंपत्तसंघयणं । एयरया विणा ताओ सासणसम्मा दु णेरइया ॥३२८॥ ।६। । अओ मिछण्णपयडी णराउरहिया उ ताओ मिस्सा दु । सणसम् ७० तिराउजुया अविरयसम्मा दुणेरइया ॥३२६॥ म ।७२। दित्रये तीर्थकरतादयकसाएहि आप प्रकृतयः धर्मादित्रये बन्ध नरकगतौ गुण्देवाऊ-रात्य बन्धयोग्यप्रकृतीः प्रकाशयति-एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिगजातयः ४ नरकगतिः नरकगत्यानुपूर्वी देवर त्यानुपूर्वी वैक्रियिक वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गमिति वक्रियिकषटकं ६ नारकायः देवायुः १ भाहारकद्विओ देवाउजु स्थावरं १ सूक्ष्मं १ अपर्याप्तं १ साधारणं १ एवमेकोनविंशति-प्रकृती १६ विना शेषाः स . हा बध्नन्ति १०१। ताभिरेकोनविंशत्या प्रकृतिभिर्विना एकोत्तरशतसर्वबन्धप्रकृती रका बना ...ता अपि प्रकृतयः धर्मादित्रये बन्धयोग्यमेकोत्तरशतम् १०१। अन्जना माघव्यां मनुष्यायुविना एकोनशतम् ११ । तत्र धर्मानरके ता एव पूर्वोक्ताः १०१ तीर्थकरवानाः शतप्रमिथ्यादृष्टिबंध्नाति १०० नियमेन । मिथ्यात्वं १ नपुंसकवेदः १ हण्डक १ असम्प्राप्तसृपाटिकासंहननं १ ताश्चतस्रः प्रकृतयो मिथ्यात्वे व्युच्छिन्नाः ४ । एताभिश्चतसृभिः प्रकृतिभिविना ताः प्रकृतीः सासादनसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति ६६ । ताः षण्णवतिः १६ प्रकृतयः सास्वादनस्य व्युच्छिन्नपञ्चविंशतिप्रकृति २५ नरायूरहिता इति सप्ततिप्रकृती: ७० मिश्रा मिश्रगुणस्थानवर्तिनो बध्नन्ति । एतास्तीर्थकरत्व-मनुष्यायुया युक्ताः ७२ अविरतसम्यग्दृष्टयो नारका बध्नन्ति ॥३२६-३२६॥ एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियजातित्रिक, वैक्रियिकपटक (वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक अङ्गोपाङ्ग, नरकगति, नरकगत्यापूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी) नरकायु, देवायु, आहारकद्विक, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण; इन उन्नीस प्रकृतियोंके विना नारकी जीव शेष सर्व प्रकृतियोंका अर्थात् १०१ का बन्ध करते हैं। उनमें भी मिथ्यादृष्टि नारकी तीर्थङ्कर प्रकृतिके विना १०० प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्व,नपुंसकवेद, हुण्डकसंस्थान और सृपाटिकासंहनन, इन चारके विना ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। सासादनगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियाँ और मनुष्यायु इन २६ के विना शेष ७० प्रकृतियोंका सम्यग्मिथ्याहृष्टि बन्ध करते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि नारकी तीर्थङ्कर और मनुष्यायुके साथ उक्त ७० प्रकृतियोंका अर्थात् ७२ का बन्ध करते हैं ॥३२६-३२६॥ (देखो संदृष्टिसंख्या १५) आसाय छिण्णपयडी पढमाविदियातिदियासु पुढदीसु एवं चउसु वि गुणेसु । एवं चउत्थ-पंचमिछट्ठी-णेरइया। ताओ चउसु वि गुणेसु । वरि तित्थयरं असंजदोण बंधेद १००1४६७०७१। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ पञ्चसंग्रह एवं प्रथम-द्वितीय-तृतीयपृथ्वीषु धर्मा-वंशा-मेघानरकत्रये एताः सास्वादनव्युच्छिन्नाः प्रकृतयः २५ चतुषु गुणस्थानेषु पूर्वोक्तप्रकारेण ज्ञातव्याः। नवरि किञ्चिद्विशेषः-असंयतसम्यग्दृष्टिस्तीर्थकरत्वं न बध्नातीति अज्जनादित्रये तीर्थकरं विना...[घर्मादि-1 ग्रयवत् । मि० सा० मि० अ० घोडिनर ४ २५० १० १०० १६७०७२ मि० सा० . मि० अ० । २५ १तत्र अञ्जनादिश्रये ५०० १६७० पोड ४ . ३० गुणा सासादनमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियाँ नारकसामान्यो गुणस्थानवत् जानना। इसी प्रकार पहली, दूसरी और तीसरी पृथिवीके नारकियोंके वहाँ ही गुणस्थानोंकी बन्धरचना जानना चाहिए। इसी प्रकार चौथी पाँचवीं और छट्ठी पृथिव्या असरकियोंकी बन्ध रचना है। उनके चारों हो गुणस्थानों में वे ही बन्धादि-सम्बन्धी प्रकृतियों वशेषता केवल यह है कि उन पृथिवियोंका असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी तीर्थङ्कर प्रकृतिककया गयहीं करता है। उन पृथिवियोंके चारों गुणस्थानोंमें बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ क्रमशः १००, ६ और ७१ हैं। अब सातवें नरकमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं सामण्णणिरयपयडी तित्थयर-णराउ-रहियाऊ । बंधंति तमतमाए णेरइया संकिलिट्ठभावेण ॥३३ णरदुयउच्चूणाओ ताओ तत्थेव मिच्छदिट्ठीया . ।६। तिरियाऊ मिच्छ संढय हुंडासंपत्तरहियपयंडीओ ॥३३१॥ ताओ तत्थ य णिरया सासणसम्मा दु बंधंति । 18 तिरियाउऊण-सासण-वोच्छिण्णपयडिविहीणाओ।२३२॥ णरदुयउच्चजुयाओ मिस्सा अजई वि बंधंति । १०। तमस्तमःप्रभानरके सप्तमे नारकास्तीर्थकरत्व-मनुष्यायुभ्यां रहिताः सामान्यनारकोक्तप्रकृतीः १६ बध्नन्ति [ संक्लिष्टभावेन । तत्र माघव्यामेव नवनवति-प्रकृतीमनुष्यगति-मनुष्यानुपूर्योच्चैर्गोत्रत्रिकोनाः ३६ मिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति । ताः षण्णवतिप्रकृतयः १६ तिर्यगायुर्मिथ्यात्व-षण्ढवेद-हुण्डक-संस्थानाऽसम्प्रामसपाटिकासंहननपञ्चप्रकृतिरहिता इत्येकनवतिप्रकृतीस्तत्र नारकोद्भवाः सासादनसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति ११ तियगायुरूना सास्वादनस्य व्युच्छिन्नप्रकृति २४ विहीनास्ता: सास्वादनोक्ता मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्योच्चैर्गोत्रयुक्ता ' इति सप्ततिप्रकृतीमिश्रगुणस्थानवर्तिनोऽसंयतसम्यग्दृष्टयश्च बध्नन्ति ७० माघव्याम् ॥३३०-३३२३॥ इति नरकगतिः समाप्ता। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२५ तमस्तमा अर्थात् महातमःप्रभा पृथिवीके नारकी संक्लिष्ट भाव होनेसे तीर्थङ्कर और मनुष्यायुके विना नारकसामान्यके बँधनेवाली शेष ६६ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। उसी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी मनुष्यद्विक और उच्चगोत्रके विना शेष ६६ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। तथा वहींके सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी तिर्यगायु, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुंडकसंस्थान और सृपाटिकासंहनन; इन पाँच प्रकृतियोंके विना शेष ६१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। वहाँके मिन और असंयतगुणस्थानवर्ती नारकी तिर्यगायुके विना तथा सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंके विना, तथा मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र सहित शेष ७० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३३०-३३२३॥ (देखो संदृष्टिसंख्या १६) अव तिर्यग्गतिमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं तित्थयराहारदुगूणाओ बंधंति बंधपयडीओ ॥३३३॥ तिरिया तिरियगईए मिच्छाइट्ठी वि इत्तिया चेव । 1११७ ताओ मिच्छाइट्ठी-वोच्छिण्णपयडि विहीणाओ ॥३३४॥ सासणसम्माइट्ठी तिरिया बंधंति णियमेण । १०१। आसायछिण्णपयडी मणुसोरालदुग आइसंघयणं ॥३३॥ णरदेवाऊ-रहिया मिस्सा बंधंति ताओ तिरिया हु । ६१। ताओ देवाउजुआ अजई तिरिया दु बंधंति ॥३३६॥ ७०॥ बिदियकसाएहिं विणा ताओ तिरिया उ देसजई । अथ तिर्यग्गयां बन्धप्रकृतिभेदं गाथाषटकेनाऽऽह-[ 'तित्थयराऽऽहारदुगूणाओ' इत्यादि । तिर्यग्गतो बन्धप्रकृतिराशि १२० मध्यात्तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वयं परिहृत्य शेपबन्धयोग्यप्रकृतयः सप्तदशोत्तरं ११७ इत्येताततीः प्रकृतीमिथ्यादृष्टयस्तिर्यञ्चो बध्नन्ति । ताः सप्तदशोत्तरशतप्रकृतयः ११७ मिथ्याष्टिव्युच्छिन्नप्रकृति १६ विहीना इत्येकोत्तरशतप्रकृतीः १०१ सासादनसम्यग्दृष्टितिर्यञ्चो बध्नन्ति नियमेन । सासादनव्युच्छिन्नप्रकृतिपञ्चविंशतिकं २५ मनुष्यगति-मनुप्यगत्यानुपूर्व्यद्विकं २ औदारि-कशरीरौदारि-]काङ्गोपाङ्गद्वयं २ वज्रवृपभनाराचसंहननं मनुप्यायुः १ देवायुष्कं १ चेति द्वात्रिंशत्कं प्रकृतिभिविहीनास्ता: पूर्वोक्ताः १०१ एवमेकोनसप्ततिप्रकृतीमिश्रगुणस्थानका स्तियंञ्चो बध्नन्ति । ता मिश्रोक्ता ६६ देवायुयुक्ताः सप्तति प्रकृतीः ७० असंयतसम्यग्दृष्टयस्तियंञ्चो बध्नन्ति ॥३३२३-३३६॥ तिर्यग्गतिमें मिथ्यादृष्टि तिर्यंच तीर्थकर और आहारकद्विकके विना शेष उतनी ही अर्थात् ११७ बन्धप्रकृतियोंको बाँधते हैं। उनमेंसे मिथ्यात्व गुणस्थानमें व्युच्छिन्न होनेवाली १६ प्रकृतियोंके विना शेष १०१ प्रकृतियोंको सासादनसम्यग्दृष्टि तिथंच नियमसे बाँधते हैं। सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियोंके, तथा मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक,आदि संहनन, मनुष्यायु और देवायुके विना शेष रहीं ६६ प्रकृतियोंको मिश्रगुणस्थानवर्ती तिर्यंच बाँधते हैं। उनमें एक देवायुको मिलाकर ७० प्रकृतियोंको असंयतगुणस्थानवर्ती तियेच बाँधते हैं। द्वितीय अप्रत्याख्यानावरणकपायचतुष्कके विना शेष ६६ प्रकृतियोंको देशव्रती तियच बाँधते हैं ॥३३२३-३३६।। (देखो संदृष्टिसंख्या १७) २१ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ पञ्चसंग्रह एवं तिरियपंचिंदिय पुण्णा बंधंति ताओ पयडीओ ॥३३७॥ पजत्ता णियमेणं पंचिंदियतिरिक्खिणीओ य । तित्थयराहारदुयं वेउव्वियछक्कणिरयदेवाऊ ॥३३॥ तेहि विणा बंधाओ तिरियपंचिंदियअपजत्ता । ।१०६। एवं भमुना प्रकारेण ताः सप्तदशोत्तरशतप्रकृतीः पञ्चेन्द्रियपर्याप्तास्तिर्यञ्चो बन्नन्ति । तथा पञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिरिश्च्यो योनिमत्तिर्यञ्चः एतावत् ११७ प्रकृतीबंध्नन्ति ॥ पर्याप्तपन्चेन्द्रिययोनिमतियंग-रचनायन्त्रम्-- मि. सा. मि० भ० दे० १६ ३१ . ४ ४ . . • १६४८ ४७ ५१ तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वयं ३ देव-नरकगति-तदानुपूर्व्य-चैक्रियिक-वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गवक्रियिकषटकं ६ नरकायुः१देवायुः चेत्येकादशप्रकृतिभिस्ताभिविना शेषनवोत्तरशतप्रकृतिबन्धका लब्ध्यपर्याप्तपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवन्ति ॥३३६३-३३८३॥ अलब्धिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्रचनायन्त्रम्-१० इसी प्रकार तिर्यश्च पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव भो ऊपर बतलाई गई सामान्य तिर्यश्चोंवाली उन्हीं प्रकृतियोंको बाँधते हैं। इसी प्रकार पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चनी भी नियमसे उन्हीं प्रकृतियां को बाँधती हैं । तिर्यश्च पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव तीर्थकर, आहारकद्विक वैक्रियिकषट्क नरकायु और देवायुके विना शेष १०६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३३६३-३३८३॥ अब मनुष्यगतिमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैंमणुयगईए सव्वा तित्थयराहारहीणया मिच्छा ॥३३६।। १२० मि० ११७॥ मिच्छम्मि च्छिण्णपथडी-ऊणाओ आसाय । ।१०। आसायछिण्णपयडीमणुसोरालय आइसंघयणं ॥३४॥ णर-देवाऊरहिया मिस्सा बंधंति ताओ मणुयाऊ । तित्थयर-सुराउजुआ ताओ बंधंति अजइमणुया दु ॥३४१॥ विदियकसाएहिं विणा ताओ मणुया दु देसजई। ६७। पमत्तादिसु ओघो जि होज मणुया दु पजत्ता ॥३४२॥ तह मणुय-मणुसिणीओ अपुण्णतिरिया व णरअपजत्ता। . . * द. 'तिरियव्व' पाठः। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ मनुष्यगतौ सर्वाः प्रकृतयो १२० बन्धयोग्या भवन्ति । तत्र तीर्थंकरत्वाऽऽहारकद्वयहीनाः अन्यः सप्तदशोत्तरशतप्रकृतीमिथ्यादृष्टिमनुष्या बघ्नन्ति ११७ । मिथ्यात्वव्युच्छिन्नप्रकृतिभिः १६ हीनास्ताः सालादनस्थमनुष्या बध्नन्ति १०१ । सासादनव्युच्छिन्न प्रकृति २५ मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूव्यौदा रिकौदारिकाङ्गोपाङ्गचतुष्क-वज्रवृषभनाराचसंहनन- मनुष्य देवायुष्कद्वय रहितास्ताः पूर्वोक्ता मिश्रगुणस्थानस्थमनुष्या एकोनसप्ततिं प्रकृतीर्बघ्नन्ति ६६ । ता एकोनसप्तति तीर्थकर देवायुर्युता एकसप्ततिप्रकृतीरसंयत-मनुष्या बनन्ति । एता द्वितीयकषायचतुष्केन विना सप्तषष्टिं प्रकृती देशसंयतमनुष्या बनन्ति ६७ । प्रमसादिगुणस्थानेषु गुणस्थानोक्तवत् । तथाहि--प्रमत्ते ६३ अप्रमत्ते ५६ भपूर्वकरणे ५८ अनिवृत्तिकरणे २२ सूक्ष्मसाम्पराये १७ उपशान्ते १ क्षीणे १ सयोगेषु च १ प्रकृतीः पर्याप्ता मनुष्या बध्नन्ति । तथा तेनैव पर्याप्तमनुष्योक्तप्रकारेण प्रकृती: पर्याप्ता मानुष्यः १२० बध्नन्ति । मिथ्यादृष्टिलब्ध्यपर्याप्ततिर्यग्गतिवत् मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ताः १०६ बध्नति ॥३३८३ - ३४२३॥ पर्याप्तमानुष्य बन्धयोग्याः १२० । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्येषु पर्याप्तमनुप्यरचना शतक मि० सू० ० मि० सा० १६ ३१ ११७ १०१ ३ १६ अ० दे० प्र० अ० * ४ ६ १ ६ ६ ७१ ६७ ६३ ५६ ५१ ४६ ५३ ५७ ६१ भ० ਸ ३६ ५ ५८ २२ ६२ ६० १६ १७ ง १०७ ११६ ११६ ११६ १२० ง ง ० मनुष्यगति में सभी अर्थात् १२० प्रकृतियाँ बँधती हैं । उनमें से मिथ्यादृष्टि मनुष्य तीर्थकर और आहारिकद्विकसे हीन शेष ११७ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य मिथ्यात्वमें विच्छिन्न होनेवाली १६ प्रकृतियोंसे हीन शेष १०१ का बन्ध करते हैं। मिश्रगुणस्थानवर्ती मनुष्य सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली २५ प्रकृतियोंसे, तथा मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक, आदि संहनन, मनुष्यायु और देवायुसे रहित शेष ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थंकर और देवायु सहित उक्त प्रकृतियोंका अर्थात् ७१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । देशसंयत मनुष्य द्वितीय कपायचतुष्कके विना शेष ६५ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । प्रमत्तादि ऊपर के गुणस्थानवर्त्ती मनुष्यों में ओघके समान प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए । सामान्य मनुष्यों के समान पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियाँ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । तथा अपर्याप्त तिर्यञ्चके समान अपर्याप्त मनुष्य १०६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ।। ३३८३ - २४२३॥ ( देखो संदृष्टिसंख्या १८ ) О १०६ । ० अब देवगतिमें प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं— हुमाहार अपुण्णवे उव्वियछक्कणिरयदेवाऊ ॥३४३॥ साहारण - वियलिंदियरहिया बंधंति देवाओ । मि० १०३ सा० ६६। आसाय छिणपयडीणराउ ताउ मिस्सा दु ॥ ३४५॥ तित्थयरणराउजुया अजई देवा दु बंधंति । मि० ७०।२०७२ ! उ० ॥१०४॥ तित्यरूणे मिच्छा सासाणसम्मो दु थावरादावं ||३४४ ॥ गिजाइ हुंडयमिच्छासंपत्तर हियाओ । ० क्षी० स० ० १ भ० O Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ पञ्चसंग्रह .. अथ देवगतौ बन्धयोग्यप्रकृतीर्गाथाद्वादशेनाऽऽह--[ 'सुहुमाहारभपुण्ण'-इत्यादि ।] सूचमं १ आहारकद्विकं २ अपर्याप्तं १ वैक्रियिकवैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग-देवगति-तदानुपूर्य-नरकगति-तदानुपूर्व्यमिति वैक्रियिकषत ६ नरकायुः १ देवायुः १ साधारणं १ विकलत्रयं ३ चेति षोडश १६ प्रकृतिरहिताः अन्याश्चतुरुत्तरशतं १०४ बन्धयोग्यप्रकृतीर्देवा: सामान्यतया बध्नन्ति । ता एव १०४ तीर्थकरोना १०३ मिथ्यादृष्टिदेवा बध्नति । तु पुनः स्थावराऽऽतपौ २ एकेन्द्रियजातिः १ हुंडकसंस्थानं १ नपुंसकवेदं १ मिथ्यात्वासम्प्राप्तसृपाटिकासंहनने २ एवं सप्तप्रकृतिभिः रहितास्ताः षण्णवतिप्रकृतीः ६६ सास्वादनस्था देवा बध्नन्ति । सासादनव्युच्छिन्नप्रकृति २५ मनुष्यायुरहितास्ता एव ७० मिश्रगुणस्थदेवा बध्नन्ति । ता एव सप्तति ७० . तीर्थकर-मनुष्यायुःसहिता इति द्वासप्तति ७२ प्रकृतीरसंयतसम्यग्दृष्टिदेवा बध्नन्ति । ॥३४२१-३४५॥ . मि. सा. मि० भ० । ७ ०१० सामान्येन देवगतौ- १०३१६७०७२ २५ ४.r सूक्ष्म, आहारकद्विक, अपर्याप्त, वैक्रियिकषट्क, नरकायु, देवायु, साधारण और विकलेन्द्रियत्रिक; इन सोलहके विना शेष १०४ प्रकृतियोंको सामान्यतया देव बाँधते हैं। उनमें मिथ्यादृष्टि देव तीर्थकरके विना १०३ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि देव स्थावर, आतप, एकेन्द्रियजाति, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व और सृपाटिका संहनन; इन सातसे रहित शेष ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। मिश्रगुणस्थानवर्ती देव सासादनगुणस्थानमें विच्छिन्न होनेवाली २५ और मनुष्यायु इन २६ से रहित शेष ७० प्रकृतियोंको बाँधते हैं। असंयत देव तीर्थकर और मनुष्यायु सहित उक्त प्रकृतियोंका अर्थात् ७२ का बन्ध करते हैं ॥३४२३-३४५३॥ (देखो संदृष्टिसंख्या १६) अब देवविशेषों में बन्धादिका निरूपण करते हैं तिकायदेव-देवी सोहम्मीसाण देवियाणं च ॥३४६।। मिच्छाईतिसु ओघो अजई तित्थयररहियाओ। सामण्णदेवभंगो सोहम्मीसाणकप्पदेवाणं ॥३४७॥ एत्तो उवरिल्लाणं देवाण जहागमं वोच्छं। भवनवासि-व्यन्तर-ज्योतिष्कत्रयोत्पन्नदेव-देवीनां सौधर्मेशानोत्पन्नदेवीनां च मिथ्यात्वादिगुणस्थानेषु ओघवत । मिथ्यारष्टौ १०३ सासादने १६ मिश्र ७० असंयते तीर्थकरत्वं विना ७१। मि. सा. मि० अ० १३ सामान्यदेवभङ्गरचनावत्सौधर्मेशानकल्पजदेवानां मिथ्यादृष्टौ । अत उपरितनानां देवानां बन्धयोग्य. प्रकृतीर्यथागमानुसारेण वक्ष्येऽहम् ॥३४५३-३४७१॥ भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी, इन तीन कायके देव और देवियोंके; तथा सौधर्म और ईशान कल्पोत्पन्न देवियोंके मिथ्यात्वादि तीन गुणस्थानों में प्रकृतियोंका बन्ध ओघके समान क्रमशः १०३, ६६ और ७० जानना चाहिए। असंयतगुणस्थानवर्ती उक्त देव और देवियाँ तीर्थकररहित ७१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। सौधर्म-ईशान-कल्पवासी देवोंके प्रकृतियांका बन्ध सामान्य देवोंके समान जानना चाहिए। अब इससे ऊपरके कल्पवासी देवोंके बन्धादिको आगमके अनुसार कहता हूँ॥३४५३-३४७३॥ ( देखो संदृष्टिसंख्या २०) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२१ तइकप्पाई जाच दु सहसारंता देवा जा ॥३४८॥ देवगईपयडीओ एकक्खादावथावरूणाओ। १०१। । मिच्छातित्थयरूणा हुंडा संपत्तमिच्छसंदूणा ॥३४६॥ सासणसम्मा देवा ताओ बंधति णियमेण । मि० १००।सा० १६। आसायकछिण्णपयडीणराउरहियार ताउ मिस्सा दु ॥३५०॥ तित्थयर-णराउजुया अजई बंधति देवाओ। मि० अ० १७२। तृतीयकल्पादि यावत्सहस्रारान्ताः सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरलान्तव-कापिष्ट-शुक्र-महाशुक्र-शतारसहस्रारजा देवाः याः सामान्यदेवगत्युक्तप्रकृतयः १०४ एकेन्द्रियाऽऽतपस्थावरत्रयोनास्ता एव १०१ बध्नन्ति, [ एतत्रिकस्य ] तद्वन्धाभावात् । तीर्थकरत्वोनाः १०० प्रकृतिः सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ता मिथ्यादृष्टिदेवा बन्नन्ति । हुण्डकसंस्थानासम्प्राप्तसृपाटिकासंहननमिथ्याव-षण्ढवेदोनास्ता एव १६ सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ता सासादनस्थदेवा बन्नन्ति । सासादनस्य व्युच्छिन्नप्रकृतीः २५ मनुष्यायुरहितास्ता एव ७० प्रकृतीः सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ता मिश्रगुणस्थानस्था देवा बध्नन्ति । तीर्थकरत्वमनुष्यायुभ्यां युक्तास्ता एव ७२ सनत्कुमारादि-सहस्रारान्ताः असंयतदेवा बध्नन्ति ॥३४७१-३५०३॥ तृतीय कल्पसे लेकर सहस्त्रारकल्प तकके देव एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके विना देवगति-सम्बन्धी शेष १०१ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। उक्त कल्पोंके मिथ्यादृष्टिदेव उक्त १०१ मेंसे तीर्थकरके विना १०० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। इन्हीं कल्पोंके सासादनसम्यग्दृष्टि देव हंडकसंस्थान, सपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके विना शेष १६ प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करते हैं। उक्त कल्पोंके मिश्रगुणस्थानवर्ती देव सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली २५ तथा मनुष्यायुके विना शेष ७० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। तथा उन्हीं कल्पोंके असंयतसम्यग्दृष्टि देव तीर्थंकरप्रकृति और मनुष्यायुके सहित ७० अर्थात् कुल ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३४७१-३५०३॥ (देखो संदृष्टिसंख्या २१) आणदकप्पप्पहुई उवरिमगेवज्जयं तु जावं वि ॥३५१॥ तत्थुप्पण्णा देवा सत्ताणउदिं च बंधंति । देवगईपयडीओ तिरियाउ-तिरियजुयल एइंदी ॥३५२॥ थावर-आदाउज्जोऊण बंधंति ते णियमा । मिच्छा तित्थयरूणा हुंडासंपत्तमिच्छसंदणा ॥३५३॥ सासणसम्मा देवा ताओ बंधंति णियमेण । . नि० ६६ सा १२॥ तिरियाऊ तिरियदुयं तह उज्जोवं च मोत्तणं ॥३५४॥ *व-ई Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ।७०॥ पञ्चसंग्रह आसायछिण्णपयडी गराउरहियाऊ मिस्सा दु । तित्थयर-णराऊजुया अजई देवा य बंधति ॥३५५।। अणुदिस-अणुत्तरवासी देवा ता वेव णियमेण । ७१। शे आनतकल्पप्रभृत्युपरिमप्रैवेयकान्तास्तत्रोत्पन्ना देवाः सप्तनवतिं ६७ प्रकृतीबंध्नन्ति । तत्कथम् ? सामान्यतया देवगत्युक्तप्रकृतयः १०४ तिर्यगायुः १ तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूये द्वे २ एकेन्द्रियं । स्थावरं । आतपः १ उद्योतः १ चेति सप्तभिः प्रकृतिभिरूना इति परायोग्यबन्धप्रकृतीः ते आनत-प्राणताऽऽरणाऽच्युतनववेयकान्ता देवा बध्नन्ति १७ नियमेन । ता एव १७ तीर्थकरत्वोनाः प्रकृतीः षण्णवतिं आनतादिनवग्रेवेयकान्ता मिथ्यादृष्टयो देवा बध्नन्ति १६ । हुण्डकासम्प्राप्त १ मिथ्यात्व १ षण्ढवेदोनास्ता एव ६२ सासादनस्था देवा बध्नन्ति नियमेन । तिर्यगायु १ स्तियग्गुिकं २ उद्योत १ श्चेति प्रकृतिचतुष्क मुक्त्वा परिवज्यं सासादनव्युच्छिन्नप्रकृति २१ मनुष्यायू रहितास्ता एव मिश्रगुणस्थाने देवा बध्नन्ति ७० । ता एव ७० तीर्थकरत्व-मनुष्यायुभ्यां युक्ता ७२ आनतादिनवप्रैवेयकासंयतदेवा बध्नन्ति । नानुदिश-पञ्चानुत्तरवासिनो देवास्ता एवासंयमगुणोक्ताः प्रकृती ७२ बध्नन्ति । आनतादि-नवग्रेवेयकेषु बन्धयोग्या: ६७ । नवानुदिश-पञ्चानुत्तरेषु देवेषु अविरते ७२ ॥३५०१-३५५॥ ___आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तक उनमें उत्पन्न होनेवाले देव ६७ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। अर्थात् देवगतिमें बन्धयोग्य जो १०४ प्रकृतियाँ बतलाई गई हैं उनमें से तिर्यगायु, तिर्यग्द्विक, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप और उद्योतके विना शेष ६७ प्रकृतियोंका उक्त देव नियमसे बन्ध करते हैं। उक्त कल्पोंके मिथ्यादृष्टि देव तीर्थङ्करके विना ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि देव हण्डकसंस्थान, मृपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके विना ६२ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। उक्त कल्पोंके मिश्र गुणस्थानवर्ती देव तिर्यगायु, तिर्यद्विक तथा उद्योतको छोड़कर सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली शेष प्रकृतियोंके विना तथा मनुष्यायुके विना ७० प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। उन्हीं कल्पोंके असंयतसम्यग्दृष्टि देव तीर्थङ्कर और मनुष्यायु सहित उक्त प्रकृतियोंका अर्थात् ७२ का बन्ध करते हैं। नव अनुदिश और पंच अनुत्तरवासी देव यतः सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतः वे नियमसे उन्हीं ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३५०-३५५३॥ (देखो संदृष्टि संख्या २२) अब इन्द्रियमार्गणाको अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्धादिका निरूपण करते हैं इगि-विगलिंदियजीवे तिरियपंचिंदिय अपुण्णभंगमिव ॥३५६॥ मिच्छे तेत्तियमेत्तं णउत्तरसयं तु णायव्वं । ।१०। मिच्छवोच्छिण्णेहिं ऊणाओ ताओ आसाया णिरयाऊ ॥३५७।। णेरइयदुयं मोत्तु पंचिंदियम्मि ओघमिव । ।१६। भथेन्द्रियमार्गणायां बन्धयोग्यप्रकृतीर्गाथाद्वयेनाऽऽह-'इगिविगलिंदियजीवे इत्यादि । एकेन्द्रियद्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-विकलेन्द्रियजीवेषु लब्ध्यपयोप्तकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्वत् तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वय-सुरनारकायुवेंक्रियिकषटकबन्धाभावाद् बन्धयोग्यं नवोत्तरशतम् १०६ । गुणस्थाने द्वे । तत्र मिथ्यादृष्टौ नवोत्तरशतमात्रं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३१ बन्धयोग्यं ज्ञातव्यम् । मिथ्यात्वव्युच्छिनाभिरूनारता एव नरकायु रकद्वयं २ च मुक्त्वा एतस्त्रयं परिहृत्य प्रयोदशप्रकृतिभिहीनाः अन्याः षण्णवतिः सासादने एक-विकलग्रयाणां बन्धः ६६ । तथा गोमट्टसारे एवं प्रोक्तमस्ति--मनुष्य-तिर्यगायुयं मिथ्यादृष्टौ ब्युच्छिन्नम् । सासादने एतवयं नास्ति । कुतः ? 'सासणो देहे पाति ण वि पावदि, इदि णर तिरियाउगं णधि इति एकेन्द्रिय-विकलत्रयाणां मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिः १५ पञ्चदश तत्पोडशके नरकद्विक-नरकायुषोरभावे नर-तिचंगायुषोः क्षेपात् पञ्चदश एक-विकलत्रयेषु पञ्चेन्द्रियेषु ओघवत् गुणस्थानवत् । बन्धयोग्यप्रकृतिकं १२० । गुणस्थानानि १४ ॥३५५३-३५७१॥ मि. सा० एकेन्द्रिय-विकलत्रययन्त्रम्- १०५ १४ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंमें प्रकृतियोंका बन्ध तिर्यञ्चपंचेन्द्रियभपर्याप्त जीवोंके बन्धके समान तीर्थङ्कर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु और क्रियिकषट्कके विना १०६. का होता है। उनके अपर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा दो गुणस्थान माने गये हैं, सो उक्त जीवोंके मिथ्यात्वगुणस्थानमें तो उतनी ही १०६ प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए। सासादनगुणस्थानवर्ती एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव नरकायु और नरकद्विकको छोड़कर मिथ्यात्वमें विच्छिन्न होनेवाली शेष १३ के विना ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। पंचेन्द्रिय जीवोंमें प्रकृतियोंका बन्ध ओघके समान जानना चाहिए ॥३५५३-३५७३।। (देखो संदृष्टिसंख्या २३ ) _ विशेषार्थ-भाष्यगाथाकारने यहाँपर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंकी बन्ध-प्रकृतियाँ बतलाते हुए मिथ्यात्वगुणस्थानमें नरकायु और नरकद्विकके विना १३ प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कर सासादनमें बन्ध-योग्य ६६ प्रकृतियाँ कहीं हैं। परन्तु गो० कर्मकाण्ड गाथाङ्क ११३ में मनुष्यायु और तिर्यगायुकी भी बन्ध-व्युच्छिति मिथ्यात्वमें बतला करके सासादनमें ६४ प्रकृतियोंका बन्ध बतलाया है और उसके लिए युक्ति यह दी है कि 'तत्थुप्पण्णो हु सासणो देहे पज्जत्तिं ण वि पावदि, इदि णर-तिरियाउगं णत्थि; अर्थात् यतः एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाला सासादनगुणस्थानवी जीव शरीरपर्याप्तिको पूरा नहीं कर पाता, क्योंकि सासादनका काल अल्प और निवृत्त्यपर्याप्तअवस्थाका काल अधिक है, अतः सासावनगुणस्थानमें मनुष्यायु और तिर्यगायुका बन्ध नहीं होता है। किन्तु मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही उनका बन्ध होता है और उसीमें उनकी व्युच्छित्ति भी हो जाती है। तथा इसी गाथामें जो पंचेन्द्रियसामान्यकी बन्धविधिका ओघके समान निर्देश किया गया है, सो वह पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंका समझना चाहिए; क्योंकि निर्वृत्त्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियोंके केवल पाँच गुणस्थान ही होते हैं, सभी नहीं। (देखो संदृष्टि सं० २४) अब कायमार्गणाकी अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्धादिका वर्णन करते हैं भूदयववणप्फदीसुमिच्छा सासण इगिंदिभंगमिव ॥३५८॥ णरदुय-णराउ-उच्चूण तेउ-बाउइगिंदियपयडीओ। ।१०५ पृथ्वीकायाप्कायतनस्पतिकायेषु मिथ्यात्व-सासादनोक्तकेन्द्रियभङ्गरचनावत्। मनुष्यगति-मनुप्यगत्यानुपूर्व्यद्वय-मनुष्यायुरुच्चैर्गोत्रोना एकेन्द्रियोक्तप्रकृतयः ५०५। तेजस्काये वायुकाये च मिथ्यादृष्टौ १०५ बन्धयोग्याः ॥३५८॥ १. गो० कर्म० गा० ११३ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पृथिवोकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंमें मिथ्यात्व और सासादनगुणस्थान- सम्बन्धी प्रकृतियोंका बन्ध एकेन्द्रिय जीवोंके बन्धके समान जानना चाहिए। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंके एक ही गुणस्थान होता है । तथा वे मनुष्यद्विक, मनुष्यायु और उच्चगोत्रके विना एकेन्द्रियसम्बन्धी शेष अर्थात् १०५ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ।। ३५८३ || अब योगमार्गणाकी अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्धादिका वर्णन करते हैं तस-मण- वचि ओरालाहारे जह संभवं हवे ओघो || ३५६ ॥ २३२ सकायिकेषु सामान्यगुणस्थानवत्, तेन तेषु बन्धयोग्याः १२० । गुणस्थानानि १४ । योगमार्गणायां मनोवचनयोगेषु औदारिककाययोगे आहारककाययोगे च यथासम्भवं ओघो भवेत्, गुणस्थानोक्तवत् । तेन सत्यानुभयमनोवचनचतुष्के बन्धयोग्यप्रकृतयः १२० । गुणस्थानानि त्रयोदश १३ । असत्योभयमनोवचनचतुष्के बन्धप्रकृतयः १२० । गुणस्थानानि १२ । औदारिककाययोगेषु मनुष्यगतिरचनावद् बन्धयोग्यप्रकृतयः १२० । गुणस्थानानि १४ । आहारकाययोगिनां प्रमत्तोक्तवत् । आहारकमिश्रे 'तम्मिस्से णत्थि देवाऊ' इति वचनात् ॥ ३५६ ॥ सकायिकों में, तथा मनोयोगियोंमें, वचनयोगियों में, औदारिककाययोगियों में और आहारककाययोगियों में यथासम्भव ओघ के समान वन्धादि जानना चाहिए || ३५६ ॥ णिरयदुग-आहारजुयलणिरि - देवाऊहिं हीणाओ । ओरालमिस्सजोए बंधाओ होंति णायव्वं ॥ ३६० ॥ ॥११४॥ तित्थयर - सुरचदूणा ताओ बंधंति मिच्छदिट्ठी य । ॥१०६॥ रियाऊ गिरयदुयं मोत्तु वोच्छिण्णमिच्छपयडीहिं ॥ ३६१ ॥ तिरिय - मणुयाउगेहि य रहियाओ ताउ आसाय । ॥६४॥ आसाय छिण्णपयडीऊणे तिरिया उयं मोतुं ॥३६२॥ तित्थयर- सुरचदुजुया ताओ अजई दु बंधंति । ।७५। औदारिकमिश्र बन्धयोग्यं गाथासार्धत्रयेणाऽऽह - [ 'णिरय दुगआहारजुयल' इत्यादि । ] औदारिकमिश्रकाययोगेषु नरकगति तदानुपूर्व्यद्वयं २ आहार काऽऽहारकाङ्गोपाङ्गद्वयं २ नारक-देवायुर्द्वयं २ चेति ष‌ड्भिर्हीनाः अन्याः प्रकृतयः १ १४ बन्धयोग्याः भवन्तीति ज्ञातव्यम् । कथं तत्षट्कं न ? तथाहि —औदारिक मिश्रकाययोगिनो हि लब्धपर्याप्ता निर्वृत्यपर्याप्ताश्च भवन्ति तेन देव नारकायुषी २ आहारकद्वयं २ नरकद्वयं च तत्र बन्धयोग्यं न चेति चतुर्दशोत्तरशतम् ११४ । तत्रापि सुरचतुष्कं ४ तीर्थञ्च मिथ्यादृष्टिसासादनयोर्न बध्नाति, अविरते च बध्नाति । तदाऽऽह - ' तित्थयर-सुरचदृणा ताओ बंधंति मिच्छदिट्ठी य' । तीर्थंकरत्व-देवगति-देवगत्यानुपूर्व्य-वैक्रियिक-तदाङ्गोपाङ्ग-सुरचतुष्कोनास्ता एव प्रकृतीरौदारिक मिश्रकाययोगिनो मिथ्यादृष्टयो बन्नन्ति १०६ । नरकायुर्नारिकद्वयं च मुक्त्वा अपनीय मिथ्यात्वव्युच्छिन्नप्रकृतिभिः १३ तिर्यङ्मनुष्यायुभ्यां च रहितास्ता एव प्रकृतीः सासादनस्थौदारिक मिश्रयोगिनो बध्नन्ति १४ । तिर्यङ् मनुष्यायुद्वयं मिथ्यात्वे व्युच्छिन्नम् । एवं पञ्चदश तत्र व्युच्छिन्नाः । तिर्यगायुः परिहृत्य सासादनव्युच्छिन्न चतुर्विंश प्रतिषु 'जहि' पाठः । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिप्रकृतिभिरूनाः तीर्थङ्करत्व- सुरचतुष्केन युताश्च ता एव प्रकृतीरौदारिकमिश्रकाययोगिनोऽविरतसम्यग्दृष्टयो ७५ बध्नन्ति ॥३६०-३६२३॥ औदारिकमिश्रकाययोगिनां रचना- स० 9 9 ११३ मि० शतक ॐ० ७४ ७५ ३६ औदारिक मिश्रकाययोगमें नरकद्विक, आहारकयुगल, नरकायु और देवायुके विना बन्धयोग्य शेष ११४ प्रकृतियाँ जानना चाहिए | उनमें से तीर्थङ्कर और सुरचतुष्क ( देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक- अङ्गोपांग ) इन पाँचके विना मिथ्यादृष्टि १०६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी सासादत्तसम्यग्दृष्टि नरकायु और नरकद्विकको छोड़कर मिथ्यात्वमें विच्छिन्न होनेवाली १३ प्रकृतियोंके विना तथा तिर्यगायु और मनुष्यायुके विना शेष ६४ प्रकृतियोंको बाँधते हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी अविरतसम्यग्दृष्टि तिर्यगायुको छोड़कर सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंके विना तथा तीर्थङ्कर और सुरचतुष्कसहित ७५ प्रकृतियोंको बाँधते हैं ।। ३६०-३६२३॥ ( देखो संदृष्टि सं० २५ ) वेउव्वे सुरभंगो सुरपयडी तिरिय णराऊणा ॥ ३६३ ॥ ॥१०२॥ १५ १०६ ५ सा० २४ ६४ २० तम्मिस्से तित्थयरूणाओ बंधंति ताउ मिच्छा दु । ॥१०५॥ इगिजाइथावरादव हुंडा संपत्तमिच्छतॄणा || ३६४॥ सास सम्माट्ठी ताओ बंधंति पयडीओ | 121 तिरिया उयं च मोत् सासणवोच्छिण्ण बंधवोच्छिण्णा ॥ ३६५॥ बंधपयडीहिं रहिया तित्थयरजुआ ताउ बंधंति अजई दु । ॥७६॥ वैक्रियिककाययोगे सुरभङ्गः देवगत्युक्तवत् सूक्ष्मत्रय- विकलत्रय-नरकद्विक-नरकायुः-सुरचतुष्कसुरायुराहारकद्वयोनाः षोडशानामबन्धाद्व न्धयोग्यप्रकृतयः १०४ ॥ देवसम्बन्धिवै क्रियिकानां रचना- ७ मि० सा० मि० २५ ६६ - ० २३३ १०३ 9 ३४ ३२ तन्मिश्रे वैक्रियिक [ मिश्र - ] काययोगे तिर्यग्मनुष्यायुष ऊना देवगत्युक्तप्रकृतयो बन्धयोग्याः १०२ भवन्ति । तीर्थकरत्वोनास्त एव १०१ प्रकृती वै क्रियिकमिश्रयोगिनो मिथ्यादृष्टयो बन्नन्ति । एकेन्द्रियजातिः १ स्थावरं १ भातपः १ हुण्डकं १ असम्प्राप्तसृपाटिकासं हननं १ मिध्यात्वं १ षण्ढवेदः १ चेति सप्तभिः प्रकृतिभिरूनास्त एव प्रकृतीः १४ सासादनस्था वैक्रियिकमिश्रकाययोगिनो बन्धन्ति । तिर्यगायुष्कं ३० ७० भ० १० ७२ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ पञ्चसंग्रह मुक्त्वा सासादनस्थव्युच्छिन्न २४ प्रकृतिभी रहितास्तीर्थरत्वयुक्ताश्च ता एवं प्रकृती:७१ वैक्रियिककाययोगिनोऽसंयता बन्नन्ति ॥३६२१-३६५३॥ मि. सा. असं. १०१ 2 / 04 वैक्रियिककाययोगमें देवसामान्यके समान बन्धरचना जानना चाहिए। उनमें १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें तिर्यगायु और मनुष्यायुके विना शेष १०२ देवगतिसम्बन्धी प्रकृतियाँ बंधती हैं। उनमेंसे तीर्थङ्करके विना शेष १०१ प्रकृतियाँ मिथ्यात्वगुणस्थानमें बँधती हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, हुंडकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेद इन सातके विना शेष ६४ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । उक्त योगवाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव तिर्यगायुको छोड़कर सासादनमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली २४ प्रकृतियोंके विना, तथा तीर्थङ्करसहित ७१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३६२३-३६५३॥ (देखो संदृष्टि सं० २६) विशेषार्थ-आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंकी बन्ध-प्रकृतियाँ सुगम होनेसे भाष्यगाथाकारने नहीं बतलाई हैं सो उनकी बन्ध-प्रकृतियाँ प्रमत्तगुणस्थानके समान जानना चाहिए। आहारकमिश्रकाययोगियोंके इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उनके बन्धयोग ६२ प्रकृतियाँ ही होती हैं, क्योंकि 'तम्मिस्से णत्थि देवाऊ' इस आगम-वचनके अनुसार अपर्याप्तदशामें देवायुका बन्ध नहीं होता है। णिरयदुगाहारजुयलचउरो आऊहिं बंधपयडीहिं ॥३६६॥ कम्मइयकायजोईरहिया बंधंति णियमेण । ।११२॥ सुरचदुतित्थयरूणा ताओ बधंति मिच्छदिट्ठी दु ॥३६७।। ।१०७॥ नरकगति-तदानुपूर्व्यद्वयं २ आहारक-तदङ्गोपाङ्गद्वयं २ नरकाद्यायुश्चतुष्कं ४ इत्यष्टाभिर्बन्धप्रकृतिभी रहिताः अन्याः द्वादशोत्तरशतप्रकृती: कार्मणकाययोगिनो बन्नन्ति ११२ । तद्योगिनां विग्रहगती तद्वन्धाभावानियमेन । तत्र देवगति-तदानुपूर्व्य-वैक्रियिक-तदङ्गोपाङ्ग-तीर्थकरत्वोनास्ता एव प्रकृतीः कार्मणकाययोगिनो मिथ्यादृष्टयो १०७ बध्नन्ति ॥३६५३-३६७॥ कार्मणकाययोगी जीव नरकद्विक, आहारकयुगल और चारों आयुकर्मों के विना शेष ११२ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। उनमें भी कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सुरचतुष्क और तीर्थङ्करके विना १०७ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३६५३-३६७॥ एत्थ मिच्छादिहिवुच्छिण्णपयडीणं मझे णिरयाउग-णिरयदुगं तिणि पयडीओ मुत्तूण सेसाओ तेरस पयडीओ अवणिय सेसाओ चउणउदिपयडीओ सासणसम्मादिहिणो बंधंति ६४। अत्र मिथ्यादृष्टिव्युच्छिन्नप्रकृतीनां १६ मध्ये नारकायुष्यं नारकद्वयमिति तिनः प्रकृतीः मुक्त्वा शेषास्त्रयोदशप्रकृतीरपनीय शेषाश्चतुर्नवतिं प्रकृतीः सास्वादनस्थकार्मणकाययोगिनो बध्नन्ति १४ । • यहाँपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें विच्छिन्न होनेवालो १६ प्रकृतियोंमेंसे नरकायु और नरकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर शेष तेरह प्रकृतियोंको निकालकर बाकी बची चौरानवे प्रकृतियोंको कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि बाँधते हैं। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३५ जोगिम्मि ओघभंगो सासणवोच्छिण्ण-बंधपयडीहिं । सुरचउ-तित्थयरजुया रहिया बंधंति अजई दु ॥३६॥ !७५। सयोगकेवलिनि ओघभङ्गः त्रयोदशगुणस्थानोत्तावत् सास्वादनस्थव्युच्छिन्न २४ प्रकृतिभी रहितास्ता एवं सुरचतुष्क-तीर्थकरत्वयुक्ताः प्रकृतीः पञ्चसप्ततिं ७५ कार्मणकाययोगिनोऽसंयतसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति ॥३६॥ मि० सा० अ० सयो० ENWor कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव (तिर्यगायुके विना) सासादनमें विच्छिन्न होनेवाली २४ प्रकृतियोंसे रहित, तथा सुरचतुष्क और तीर्थङ्कर सहित ७५ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। कार्मणकाययोगी सयोगिकेवलियोंमें बन्धरचना ओघके समान जानना चाहिए ॥३६॥ (देखो संदृष्टि सं० २७) अब वेदमार्गणाको अपेक्षा बन्धादि बतलानेके लिए गाथासूत्र कहते हैं अणियदि मिच्छाई वेदे वावीस बंधयं जाव । तत्तो परं अवेदे ओधो भणिओ सजोगो त्ति ॥३६॥ अथ वेदादिमार्गमासु प्रकृतिबन्धभेदः कथ्यते-वेदेषु मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणगुणस्थानकसवेदभागेपु द्वाविंशतिबन्धकं यावत् तावद्वन्धकः । वेदेषु बन्धयोग्यं १२० । गुणस्थानानि । स्त्रीवेदिनां नपुंसकवेदिनां पुंवेदवेदिनां च रचना मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनि० ११७ १०१ ७४ ७२ ६७ ६३ ५६ ५८ २२ ३ १६ ४६ ४३ ५३ ५७ ११ ६२ १८ पुवेदिनां तु क्षपकानिवृत्तिकरणप्रथमचरमसमये इति विशेषः । निर्वृत्त्यपर्याप्तानां स्त्रीणां बन्धयोग्य १०७ । कुतः २ आयुश्चतुष्क-तीर्थकराहारकद्वयक्रियिकषटकानामबन्धात् । षण्ढवेदिनां नित्यपर्याप्तानां बन्धयोग्यं १०८ । लब्ध्यपर्याप्तकबन्धात् तिर्यग्मनुष्यायुषी अपनीय नारकासंयतापेक्षया तीर्थबन्धस्यात्र प्रक्षेपात् । पुवेदिनां नित्यपर्याप्तानां नारकं विना त्रिगतिजानामेव बन्धयोग्यं ११२। अत्रासंयते तीर्थसुरचतुष्कयोबन्धोऽस्तीति ज्ञातव्यम् । स्त्री-पण्ढवेदयोरपि तीर्थाहारकबन्धो न विरुध्यते, उदयस्यैव पुंवेदिषु नियमात् । ततः परं अवेदे ओघो भणितः सयोगपर्य-तं संचमसाम्परायादि-सयोगान्तानां वेदो नास्ति, स्वगुणस्थानोक्तबन्धादिकं ज्ञातव्यम् ॥३६६॥ मि० सा० निर्वृत्यपर्याप्तस्त्रीवेदिनां रचना-१०७ मि० अ० निवृत्यपर्याप्तषण्ढवेदिनां रचना-१०७ १ ती० +09. मि० अ० नित्यपर्याप्तवेदिनां रचना- १०७ १८ ७५ ३७ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ पञ्चसंग्रह तीनों वेदोंमें मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें बाईस प्रकृतियों के बन्ध होने तक ओघके समान बन्ध-रचना जानना चाहिए । अवेदियोंमें उससे आगे इक्कीस प्रकृतियोंके बन्धस्थानसे लगाकर सयोगिकेवली पर्यन्त ओघके समान बन्ध-रचना कही है ॥३६६॥ अब कषायमार्गणाकी अपेक्षा बन्धादिका निर्देश करनेके लिए गाथासूत्र कहते हैं कोहाइकसाएसुं अकसाईसु य हवे मिच्छाई । इगिवीसादी जाव ओघो संतादि जोगंता ॥३७०॥ क्रोध-मान-माया-लोभकषायेषु मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणस्य द्वितीयादिभागेषु एकविंशत्याद्यष्टादशपर्यन्तं सूचमसाम्पराये सूचमलोभस्य बन्धोऽस्ति, बादरलोभस्यानिवृत्तिकरणस्य पञ्चमे भागे बन्धोऽस्ति । अकषायेषु उपशान्तादिसयोगान्तगुणस्थानवत् । कषायमार्गणायां हि बन्धयोग्यं १२० । गुणस्थानानि आपकानिवृत्तिकरण-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पञ्चमभागपर्यन्तानि है । क्रोध-मान-माया-बादर-लोभानां गुणस्थानोक्तवत् । सूचमलोभस्य सूचमसाम्परायमिव ॥३७०॥ क्रोधादि चारों कषायोंमें मिथ्यात्वको आदि लेकर क्रमशः अनिवृत्तिकरणके इक्कीस, बीस, उन्नीस और अट्ठारह प्रकृतियोंके बँधनेतक ओघके समान बन्धरचना जानना चाहिए। तथा अकषायी जीवोंमें उपशान्तमोहगुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली पर्यन्त ओघके समान बन्धरचना कही है ॥३७०॥ अब ज्ञान, संयम और दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा बन्धादिका निर्देश करते हैं णाणेसु संजमेसु य दंसणठाणेसु होइ णायव्वो। जिह संभवं च ओघो मिच्छाइगुणेसु जोयंते ॥३७१॥ अष्टसु ज्ञानेषु च सप्तसु संयमेषु च चतुषु दर्शनेषु च यथासम्भवमोघो ज्ञातव्यो भवति । मिथ्यात्वादि-सयोगान्तगुणस्थानानि । तथाहि-कुमत्ति-श्रुत-विभङ्गाज्ञानेषु बन्धयोग्यं ११७ । सुज्ञानत्रये ७६ । मनःपर्यये बन्धयोग्यं ६५ । प्रमत्तादि-क्षीणान्तगुणस्थानरचना । मि. सा. कुमति-श्रत-विभङ्गज्ञानिनां रचना-- ११७ १०१ अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० सी० मति-श्रुतावधिज्ञानिनां रचना--७७ ६७ ६३ ५६ ५८ २२ १७११ २ १२ १६ २० २१ ५७ ६२ ७८ ७८ प्र० अ० अ० अ० सू० उ० सी० मनःपर्ययज्ञानिनां रचना-- ६३ ५६ ५८ २२ MY १७ १ १ Y स० अ० w w OOOO केवलज्ञानिनां रचना-- ११ ब -तो। दा-ता। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३७ . प्र० अ० अ० अ० सू० उ० सी० स० अ० संयममार्गणायां-- ६३ ५६ ५८ . २२ १७ १ १ १ ० २ ६ ७ ४२ ४८ ६४ ६४ ११६ १२० मि. सा. मि० अ० १६ २५० १० असंयमस्य-- ११७ ११७४४४१ प्र० अ० अ० अ० ८० देशसंयतस्य-- ६७ सामायिक-च्छेदोपस्थापनयोः-- ६३ ५६ ५८ २२ ५३ अप्र० परिहारविशुद्ध-- WWMo सूचमसाम्पराये-- १६ १७ १०३ उ० क्षी० स० अ० यथाख्याते-- दर्शनमार्गणायां चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोर्बन्धयोग्यं १२० । मिथ्यादृष्ट्यादि-क्षीणकषायान्तं गुणस्थानद्वादशोक्तवत् । अवधिदर्शने अवधिज्ञानवत् बन्धयोग्याः ७६ । गुणस्थानान्यसंयतादीनि नव ६ ! केवलदर्शने सयोगायोगगुणस्थानद्वयम् २ ॥३७१॥ ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा आठों ज्ञानोंमें, संयममार्गणाकी अपेक्षा सातों स्थानोंमें तथा दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा चारों दर्शनोंमें मिथ्यात्वगुणस्थानको आदि लेकर यथासंभव अयोगिकेवली गुणस्थान तक ओघके समान बन्धादि जानना चाहिए ॥३७१॥ विशेषार्थ-कुमति, कुश्रुत और विभंगा; इन तीनों कुज्ञानोंमें आदिके दो गुणस्थान होते हैं। मत्यादि चार सज्ञानोंमें चौथेसे लगाकर बारहवें तकके नौ गुणस्थान होते हैं। केवलज्ञानमें अन्तिम दो गुणस्थान होते हैं। सो विवक्षित ज्ञानमाले जीवोंके तत्तत्संभवगुणस्थानोंके समान बन्धरचना जानना चाहिए । संयममार्गणाको अपेक्षा ५ संयमके, १ देशसंयमका और १ असंयम का ऐसे सात स्थान होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें छठेसे लगाकर नवमें गुणस्थान तकके चार, परिहारविशुद्धिसंयममें छट्ठा और सातवाँ, ये दोः सूक्ष्मसाम्परायमें एक दशवाँ और यथाख्यातसंयममें अन्तिम चार गुणस्थान होते हैं। देशसंयममें पाँचवाँ और असंयममें आदिके चार गुणस्थान होते हैं। इन सातों संयमस्थानोंमें उपर्युक्त गुणस्थानोंके समान बन्धरचना जानना चाहिए । दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा चार स्थान हैं सो चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनमें आदिके १२ गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शनमें चौथेसे लेकर बारहवें तकके नौ गुणस्थान होते हैं। तथा केवलदर्शनमें अन्तिम दो गुणस्थान होते हैं। अतः विवक्षित दर्शनवाले जीवोंकी बन्धरचना उनमें संभव गुणस्थानोंके समान जानना चाहिए। अब लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा बन्धादिका वर्णन करते हैं किण्हाईतिसु णेया आहारदुगूण ओघबंधाओ। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ पञ्चसंग्रह तित्थयरूणा ताओ मिच्छादिट्ठी दु बंधंति ॥३७२॥ 11१७॥ मिच्छे वोच्छिण्णूणा ताओ बंधंति आसाया । १०॥ आसायछिण्णपयडी सुराउ-मणुयाउगेहिं ऊणाओ॥३७३॥ सम्मामिच्छाइट्ठी ताओ बंधंति णियमेण । ७४ देव-मणुयाउ-तित्थयरजुया ताओ अजई दु णायव्वा ॥३७४॥ ७७॥ कृष्ण-नील-कापोतलेश्यासु तिसृषु आहारकद्वयोना अन्याः सर्वबन्धप्रकृतयः ११८ । एतास्तीर्थकरत्वोनास्ता एव मिथ्यादृष्टयो बन्नन्ति ११७ । मिथ्यात्वस्य च्युच्छिन्नो १६ नास्ता एव १०१ सासादना बध्नन्ति | सासादनम्युच्छिन्न २५ प्रकृतिदेवायु १ मनुष्यायुष्क १ रूनास्ता एव चतुःसप्ततिं प्रकृतीमिश्रगुणस्थानवर्तिनो बध्नन्ति ७४ । ता एव देवमनुष्यायुष्क-तीर्थकरत्वयुक्ता असंयता बन्नन्ति ७७ कृष्ण-नील कापोतेषु ॥३७२-३७४॥ मि. सा. मि० अ० १६ २५ ० १० कृष्णादिलेश्यात्रययन्त्रम्-- ११७ ७४ ७४ ७७ १ १७४४४१ कृष्ण, नील और कापोत; इन तीन लेश्याओंमें आहारकद्विकके विना शेष ११८ प्रकृतियाँ बन्ध-योग्य हैं। उनमेंसे उक्त तीनों अशुभ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थङ्करके विना शेष ११७ प्रकृतियाँ बाँधते हैं। मिथ्यात्वमें व्युच्छिन्न होनेवाली १६ प्रकृतियोंके विना शेष १०१ को सासादनगुणस्थानवर्ती बाँधते हैं। उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली २५ और देवायु तथा मनुष्यायु ये दो; इन २७ के विना शेष ७४ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव देवायु, मनुष्यायु और तीर्थङ्करसहित उक्त ७४ को अर्थात् ७७ प्रकृतियोंको बाँधते हैं, ऐसा जानना चाहिए॥३७२-३७४॥ (देखो संरष्टि सं० २८) वियलिंदिय-णिरयाऊ णिरयदुगापुण्ण-सुहुम-साहरणा । रहियाउ ताउ बंधा तेजाए होंति णायव्वा ॥३७॥ ।१११॥ तित्थयराहारदुगूणाउ च बंधंति ताउ मिच्छा दु । । ०८। इगिजाइ थावरादवहुंडासंपत्तमिच्छसंदृणा ॥३७६॥ सासणसम्माइट्ठी ताओ बंधंति णियमेण । १०१॥ मिस्साइ ओघभंगो अपमत्तंतेसु णायन्वो ॥३७७॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३६ ० विकलेन्द्रियजातयः ३ नारकायुष्यं १ नारकद्वयं २ अपर्याप्तं सूक्ष्म साधारणं, चेति एता नवप्रकृतिरहिताः भन्या बन्धयोग्या एकादशोत्तरशतप्रकृतयः १११ तेजोलेश्यायां भवन्ति ज्ञातव्याः । ताः १११ तीर्थकराहारकद्विकोना १०८ मिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति । एकेन्द्रियजातिः १ स्थावरं १ आतपः १ हुण्डक असम्प्राप्तसृपाटिका १ मिथ्यात्वं १ षण्ढवेदः चेति सप्तभिः प्रकृतिभिस्ता ऊना इति एकोत्तरशतप्रकृती: सास्वादनस्थाः १०१ बध्नन्ति । मिश्राद्यप्रमत्तान्तेषु ओघभङ्गः गुणस्थानोक्तबन्धो ज्ञातव्यः ॥३७५-३७७ मि० सा० मि० भ० दे० प्र० अ० तेजोलेश्यायां बन्धयोग्याः १११ । रचना _ ७ २५० १० ४ ६१ १०८ १०१ ७४ ७७ ६७ ६३ ५६ ३ १० ३७ ३४ ४४ ४८ ५२ तेजोलेश्यामें विकलेन्द्रियत्रिक, नरकायु, नरकद्विक, अपर्याप्त, सूक्ष्म और साधारण, इन नौके विना शेष १११ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं, ऐसा जानना चाहिए। उनमेंसे तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टिजीव तीर्थङ्कर और आहारकद्विकके विना १०८ का बन्ध करते हैं। उक्त लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, हुंडकसंस्थान, मृपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेद; इन सातके विना शेष १०१ प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करते हैं। मिश्रसे लगाकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तकके तेजालेश्यावाले जीवोंकी बन्ध-रचना ओघके समान जानना चाहिए ॥३७५-३७७॥ (देखो संदृष्टि सं० २६) इगि-विगल-थावरादव-सुहुमापज्जत्तसाहरणे । णिरयाउ-णिरयदुगूणाउ बंधा हवंति पम्माए ॥३७८॥ 1१०८। तित्थयराहारजुयलरहियाओ जाओ पयडीओ। पंचुत्तरसयमेत्ता ताओ बंधति मिच्छा दु ॥३७६।। 1१०५। आसाया पुण ताओ हुंडासंपत्तमिच्छसंदणा । मिस्साइ ओघभंगो अपमत्तंतेसु णायव्वो ॥३८०॥ एकेन्द्रिय-विकलत्रयजातयः ४ स्थावरं १ आतपः १ सूचमं १ अपर्याप्तं १ साधारणं १ नरकायुष्यं १ नारकद्वयं २ चेति द्वादशग्रकृतिभिर्विहीनाः अन्याः अष्टोत्तरशतं बन्धयोग्या: १०८ पालेश्यायां भवन्ति । तीर्थङ्कराऽऽहारकयुगलरहिता याः प्रकृतयस्ता एव पञ्चोत्तरशतं प्रकृतीरिति मिथ्यादृष्टयो बन्नन्ति १०५ । हुण्डकसंस्थानासम्प्राप्तसृपाटिकासंहनन-मिथ्यात्व-पण्ढवेदोनास्ता एव प्रकृतीः सासादना बक्षन्ति १०१। मिश्राद्यप्रमत्तान्तेषु गुणस्थानोक्तबन्धो ज्ञातव्यः ॥३७८-३८०॥ मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० पशलेश्यायां बन्धयोग्यापन_ ४ २५ ० ० ४ ६१ १०५ १०१ ७४ ७७ ६७ ६३ ५१ ३ ७ ३४ ३१४१ ४५ . ४६ पद्मलेश्यामें एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियत्रिक, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरकायु और नरकद्विक, इन बारहके विना शेष १०८ प्रकृतियाँ बन्ध-योग्य हैं। उनमेंसे पद्मलेश्यावाले मिथ्यावृष्टि जीव तीर्थर और आहारकयगल, इन तीनसे रहित जो १०५ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, उन्हें बाँधते हैं। उक्त लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हुंडकसंस्थान, मृपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेद, इन चारके विना शेष १०१ का बन्ध करते हैं। मिश्रगुणस्थानको ! Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० पञ्चसंग्रह आदि लेकर अप्रमत्तसंयत तकके पद्मलेश्यावाले जीवोंमें बन्ध-रचना ओघके समान जानना चाहिए ॥३७८-३८०॥ (देखो संदृष्टि सं० ३०) इगि-विगल-थावरादव-उज्जोवापुण्ण-सुहुम-साहरणा । णिरि-तिरियाऊ णिरि तिरिदुगुणा बंधा हवंति सुक्काए ॥३८१॥ ।०४। तित्थयराहारदुगूणाओ बंधंति मिच्छदिट्ठी दु । ।१०॥ आसाया पुण ताओ हुंडासंपत्त-मिच्छ-संदणा ॥३८२॥ 18 तिरियाउ तिरियजुयलं उज्जोवं च इय साय-पयडीहिं । देव-मणुसाउगेहि य रहियाओ ताओ मिस्सा दु॥३८३॥ ७४। तित्थयर-सुर-णराऊ सहिया बधंति ताओ अजई दु।। ७७) जाव य सजोगकेवलि विरयाविरयाइ ताव ओघो त्ति ॥३८४॥ एकेन्द्रियविकलेन्द्रियजातयः ४ स्थावरं १ आतपः १ उद्योतः १ अपर्याप्तं १ सूचमं १ साधारणं १ नारक-तिर्यगायुषी नारकद्वयं २ तिर्यग्द्वयं२ चेति षोडशप्रकृतिभिविना अन्याश्चतुरुत्तरशतं १०४ बन्धयोग्याः प्रकृतयः शुक्ललेश्यायां भवन्ति । तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वयोनास्ता एव १०१ मिथ्यादृष्टयो बन्नन्ति । हुण्डकासम्प्राप्तसृपाटिका-मिथ्यात्वषण्ढवेदोनास्ता एव प्रकृतीः सासादना बन्नन्ति ६७ । तिर्यगायुष्यं १ तिर्यग्द्विकं २ उद्योतः १ चेति प्रकृतिचतुष्कं ४ सासादनव्युच्छिन्नप्रकृतीनां मध्ये त्यक्त्वा अन्याः सासादनव्युच्छिन्नप्रकृतय एकविंशतिः २१ देवमनुष्यायुह्वयं २ एवं त्रयोविंशत्या प्रकृतिभि २३ विरहितास्ता एव प्रकृती ७४ मिश्रगुणा । बन्नन्ति । तीर्थङ्करत्व-देव-मनुष्यायुःसहितास्ता एत प्रकृती ७७ रसंयता बन्नन्ति । विरताविरतादिसयोगकेवलिगुणस्थानपर्यन्तं गुणस्थानोक्तबन्धादिको ज्ञेयः । ३८५-३८४॥ शुक्ललेश्यायां बन्धयोग्यप्रकृतयः १०४ । शुक्ललेश्यायन्त्रम्-- मि० सा० मि० अ० दे० प्र० भ० अ० अ० सू० उ० सी० स० . १०१ १७ ७४ ७७ ६७ ६३ ५६ ५८ २२ १७ १ १ १ ३ ७ ३० २७ ३७ ४१ ४५. ४६ ८२ ८७ १०३ १०५ १०३ शुक्ललेश्यामें एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियत्रिक, स्थावर, आतप, उद्योत, अपर्याप्त, सूक्ष्म, साधारण, मनुष्यायु, तिर्यगायु, मनुष्यद्विक और तिर्यग्द्विक; इन सोलहके विना शेष १०४ प्रकृतियाँ हैं। उनमेंसे शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थङ्कर और आहारकद्विकके विना शेष १०१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। उक्त लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हुंडकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके विना शेष ६७ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। शुक्ललेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव तिर्यगायु, तियरिद्वक और उद्योत; इन चारको छोड़कर सासादनमें व्युच्छिन्न होनेवाली शेष २१ प्रकृतियोंसे तथा देवायु और मनुष्यायुसे रहित शेष ७४ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव तीर्थङ्कर, देवायु और नरकायु, इन तीनके साथ उक्त Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४१ ७४ का अर्थात् ७७ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। पाँचवें विरताविरतगुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली तकके शुक्ललेश्यावाले जीवोंकी बन्धरचना ओघके समान जानना चाहिए ॥३८१-३८४॥ (देखो संदृष्टि सं० ३१) अब भव्य और सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा बन्धादिका निरूपण करते हैं-- वेदय-खइए भव्वाभव्वे जहसंभवं ओघो। उवसमअजई जीवा सत्तत्तरि सुर-णराउरहियाओ ॥३८॥ ७५। विदियचदु-मणुसोरालियदुगाइसंघयणऊणिया पयडी। विरयाविरयाजीवा ताओ बंधति णियमेण ॥३८६॥ ।६६। तइयचउकयरहिया पमत्तविरया दु ताओ वंधति । ६२॥ असुहाजसाथिरारइ-असायसोऊण आहारे* सहिया ॥३८७॥ ५८। बंधति अप्पमत्ता अपुव्वकरणाइ ओघभंगो य । सासणसम्माइतिए णियणियठाणम्मि ओघो दु ॥३८॥ वेदकसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्त्वे भव्ये अभव्ये च यथासम्भवं ओघःगुणस्थानोक्तयोग्यप्रकृतिबन्धादिको ज्ञातव्यः । भव्यजीवेषु बन्धप्रकृतियोग्यं १२० । गुणस्थानानि १२ । गुणस्थानोक्तवद् रचना । अभव्यजीवेषु मिथ्यात्वं गुणस्थानमेकम् । बन्धयोग्याः प्रकृतयः ११७। उपशनाविरतसम्यग्दृष्टयो जीवाः सप्तसप्ततिः प्रकृतयो देव-मनुष्यायुष्यद्वयरहिता इति पञ्चसप्तति-प्रकृतीः बध्नन्ति ७५ । अप्रत्याख्यान द्वितीयकषायचतुष्कं ४ मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूय॑द्विकं २ औदारिक-तङ्गोपाङ्गद्वयं वज्रवृषभनाराचप्रथमसंहननं १ चेति नवप्रकृतिभिरूनास्ता एव प्रकृतीविरताविरता देशविरता उपशमसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति नियमेन । प्रत्याख्यानतृतीयचतुष्केन ४ रहितास्ता एव द्वाष्टिं प्रकृतीः प्रमत्तसंयता उपशमसम्यक्रवाः बध्नन्ति ६२ । अशुभं १ अयशः १ अस्थिरं १ अरति १ असातावेदनीयं शोकः १ चेति षड्भिः प्रकृतिभिरूना आहारकद्वयसहितास्ता एव ५८ प्रकृती २ प्रमत्तोपशमसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति । अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसुचमसाम्परायोपशान्तकषायेषु ओघभङ्गः गुणस्थानोक्तवत् । तथाहि-उपशमसम्यग्दृष्टीनां तिर्यग्मनुष्यगत्यो ७२ देवायषो नरक-देवगत्यो ७२ मनुष्यायुषश्चाबन्धात् उभयोपशमसम्यक्त्वे तवयस्याप्यभावात् । ___ अ० दे० प्र० अ० ४ ६ . प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टौ गुणस्थानचतुष्क- ७५ ६६ ६२ ५८ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वेऽपि बन्धयोग्या: ७७ । गुणस्थानानि ।। अ० दे० प्र० अ० अ० अ० खू० उ० ७५ ६६ . ६३ ५८ ५८ २२ १७१ ब आहरे । ३१ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ पञ्चसंग्रह तत्र श्रेण्यवरोहकासंयते उपशमश्रेण्यां द्वितीयोपशमिकं क्षायिक च। क्षपकश्रेण्यां क्षायिकमेव सम्यक्त्वमिति नियमात् । सासादनसम्यक्त्वादिनये निज-निजगुणस्थाने गुणस्थानोक्तवत् ॥३८५-३८८॥ २५ मिथ्यारुचीना- ११७ सासादनरुचीनां १०१ मिश्ररुचीनाम् भव्य और अभव्य जीवोंमें तथा वेदक और क्षायिक सम्यक्त्वी जीवोंमें यथासंभव ओघके समान प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए। अभव्योंके एक पहिला ही गुणस्थान होता है और भव्योंके सभी गुणस्थान होते हैं। वेदकसम्यक्त्वी जीवोंके चौथेसे लेकर सातवें तकके चार और क्षायिकसम्यक्त्वी जीवोंके चौथेसे लेकर चौदहवें तकके ग्यारह गुणस्थान होते हैं । उपशमसम्यक्त्वी अविरती जीव देवायु और मनुष्यायुसे रहित सत्तहत्तर अर्थात् पचहत्तर प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। विरताविरत उपशमसम्यक्त्वी जीव द्वितीय कषायचतुष्क, मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और आदिम संहनन, इन नौके विना शेष ६६ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। प्रमत्तविरत उपशमसम्यक्त्वी तृतीय कषायचतुष्कसे रहित शेष ६२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। अप्रमत्तविरत उपशमसम्यक्त्वी अशुभ, अयशःकीर्ति, अस्थिर, अरति, असातावेदनीय और शोक इन छह प्रकृतियोंके विना तथा आहारकद्विकसहित ५८ प्रकृतियोंको बाँधते हैं। अपूर्वकरणसे आदि लेकर उपशान्तमोह तकके उपशमसम्यक्त्वी जीवोंके ओघके समान बन्धरचना जानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी बन्धरचना उन-उन गुणस्थानों में वर्णित सामान्य बन्धरचनाके समान जानना चाहिए ॥३८५-३८८॥ (देखो संदृष्टि सं० ३२) अब शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा बन्धादिका निर्देश करते हैं सण्णि-असण्णि-आहारीसुं जह संभवो ओघो। भणिओ अणहारीसु जिणेहिं कम्मइयभंगो ॥३८॥ ११२। . एवं भग्गणासु पोडबंधसामित्तं । संश्यऽसंश्याहारकेषु यथासम्भवं ओघः गुणस्थानोक्तबन्धो भणितः। अनाहारकेषु कार्मणोक्तगुणस्थानवत् बन्धादिको जिनैभणितः । तथाहि--संज्ञिमार्गणार्या बन्धयोग्यं १२० । गुणस्थानानि १२ । मिथ्यात्वादि-क्षीणान्तेषु गुणस्थानोक्तं यथा । असंज्ञिमार्गणायां बन्धप्रकृतियोग्यं ११७ । मि. सा. १६ २६ ११७ १८ आहारकेषु बन्धयोग्यं १२० । गुणस्थानानि १३ । बन्धादिकं गुणस्थानोक्तवत् । अनाहारमार्गणायां बन्धयोग्यं ११२ । कार्मणोक्तरचनावत् । देव-नारकायुष्यद्वयं २ आहारकद्वयं २ नारकद्वयं २ तिर्यग्द्विकं २ इत्यष्टानां अबन्धत्वात् शेषवन्धयोग्यं ११२ ॥३८॥ मि० सा० अवि० सयो० अयो. १३ २४ ६६५ १ १०७ ५ १८ ३७१११ ११२ इति मार्गणासु प्रकृतिबन्धस्वामित्वं समाप्तम् । संज्ञी, असंज्ञी और आहारक जीवोंमें प्रकृतियोंका बन्ध यथासंभव ओघके समान जानना Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४३ चाहिए। अनाहारक जीवों में प्रकृतियों का बन्ध जिनेन्द्रभगवान्ने कार्मणकाययोगियों के समान कहा है ॥३८॥ विशेषार्थ-संज्ञियोंके आदिके १२ गुणस्थानोंके समान, पर्याप्त असंज्ञियोंके मिथ्यात्वगुणस्थानके समान, अपर्याप्त असंज्ञियोंके आदिके दो गुणस्थानोंके समान, तथा आहारकोंके सयोगिकेवली पर्यन्त १३ गुणस्थानोंके समान बन्धरचना जानना चाहिए। अनाहारक जीवोंकी बन्धरचना यद्यपि कार्मणकाययोगियोंके समान कही गई है, तथापि इतना विशेष जानना चाहिए कि अयोगिकेवली भी अनाहारक होते हैं, अतएव अनाहारकोंकी बन्धरचना करते समय उन्हें भी परिगणित करना चाहिए। इस प्रकार चौदह मार्गणाओंमें प्रकृतियोंके बन्धस्वामित्वका निरूपण किया। अब कर्मप्रकृतियोंके स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं 'उक्कस्समणुक्कस्सो जहण्णमजहण्णओ य ठिदिबंधो। सादि अणादि य धुवाधुव सामित्तण सहिया णव होति ॥३०॥ अथ स्थितिबन्धः उत्कृष्टादिभिर्नवधा कथ्यते--[ 'उक्कस्समणुक्कसो' इत्यादि । ] स्थितिवन्धो नवधा भवति । स्थितिरिति कोऽर्थः? स्थितिः कालावधारणमित्यर्थः । उत्कृष्टस्थितिबन्धः १ । अनुत्कृष्टस्थितिबन्धः, उत्कृष्टात् किञ्चिद्धीनोऽनुस्कृष्टः २ । जघन्यस्थितिबन्धः ३ । अजघन्यस्थितिबन्धः, जघन्यात्किञ्चिदधिकोऽजघन्यः ४ । सादिस्थितिबन्धः, यः अबन्धं स्थितिबन्धं बध्नाति स सादिबन्धः ५। अनादिः स्थितिबन्धः, जीव-कर्मणोरनादिबन्धः स्यात् ६ । ध्रवः स्थितिबन्धः, भव्ये ध्रुवबन्धः; अनाद्यनन्तत्वात् ७ । अध्रुवः स्थितिबन्धः, स्थितिबन्धविनाशे अध्रवबन्धः। अबन्धे सति वा अध्रवबन्धः स्यात्, भव्येषु भवति । स्वामित्वेन बन्धकजीवेन सह है नवधा स्थितिबन्धा भवन्ति ॥३६०॥ उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रव, अध्रव और स्वामित्वके साथ स्थितिबन्ध नौ प्रकारका है ॥३६०॥ . विशेषार्थ-कर्मोकी आत्माके साथ नियत काल तक रहनेकी मर्यादाका नाम स्थिति है। उसके सर्वोत्कृष्ट बँधनेको उत्कृष्टस्थितिबन्ध कहते हैं। उससे एक समय आदि हीन स्थितिके बन्धको अनुत्कृष्टस्थितिबन्ध कहते हैं। कर्मोकी सबसे कम स्थितिके बंधनेको जघन्यस्थितिबन्ध कहते हैं। उससे एक समय आदि अधिक स्थितिके बन्धको अजघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं। विवक्षित कर्मकी स्थितिके बन्धका अभाव होकर पुनः उसके बंधनेको सादि स्थितिबन्ध कहते हैं। 'बन्धव्युच्छित्तिके पूर्व तक अनादिकालसे होनेवाले स्थितिबन्धको अनादिस्थितिबन्ध कहते हैं । जिस स्थितिबन्धका कभी अन्त न हो उसे ध्रुवस्थितिबन्ध कहते हैं; जैसे अभव्यजीवके कर्मोंका बन्ध । जिस स्थितिके बन्धका नियमसे अन्त हो, उसे अध्रुवस्थितिबन्ध कहते हैं। जैसे भव्य जीवोंके कर्मोंकी स्थितिका बन्ध । कौन जीव किस जातिको स्थितिका बन्ध करता है, इस बातका निर्णय उसके स्वामित्वके द्वारा ही किया जाता है। इस प्रकार स्थितिबन्धके नौ भेद कहे गये हैं। अब मूलकर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं[मुलगा०४६] 'तिण्हं खलु पढमाणं उक्कस्सं अंतराइयस्सेव । तीसं कोडाकोडी सायरीणामाणमेव ठिदी ॥३६१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, 'उत्कृष्टानुत्कृष्ट' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १३५)। 2. ४, १६७-१६८ । ब -माणाण । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पञ्चसंग्रह [मूलगा० ५०] मोहस्स सत्तरी खलु वीसं णामस्स चेव गादस्स । तेतीसमाउगाणं उवमाउ सायराणं तु+॥३६२॥ मूलप्रकृतीनामुत्कृष्ट स्थितिबन्धं गाथाद्वयेनाऽऽह--[ 'तिण्हं खलु पढमाणं' इत्यादि । ] त्रयाणां प्रथमानां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीयानां कर्मणां अन्तरायस्य कर्मणश्च उत्कृष्टस्थितिबन्धः सागरोपमाणां त्रिंशत्कोटीकोटयः खलु निश्चयेन ॥३१॥ ज्ञाना० ३० को० ! दर्श०३० को० । वेद. ३० को, । अन्त० ३० को। मोहनीयस्य कर्मणः सप्ततिः ७० सागराणां कोटीकोट्यः उत्कृष्टस्थितिबन्धः। नामकर्मणः गोत्रकर्मणश्चोत्कृष्टस्थितिः विंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः स्थितिबन्धः । आयुषः कर्मणः उत्कृष्टस्थितिबन्धः शुद्धानि त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि ॥३१२॥ मो० ७० को० । ना० २० को। गो० २० को० । आयुषः साग० ३३ । आदिके तीन कोंका अर्थात्-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और देदनीयकर्मका तथा अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। मोहनीयकर्मका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, नाम और गोत्रकर्मका बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम और आयुकर्मका तेतीस सागरोपम है॥३६१-३६२॥ 'वस्ससयं आवाहा कोडाकोडी ठिदिस्स जलहीणं । सत्तण्हं कम्माणं आउस्स दु पुव्वकोडितइअंसो ॥३६३॥ तेरासिएण णेया उक्कस्सा होंति सव्वपयडीणं । अंतोमुहुत्तबाहा अहमा पुण सव्वकम्माणं ॥३६४॥ उत्कृष्ट-जघन्याऽऽबाधाकालभेदं गाथाद्वयेनाऽऽह--[ 'वस्ससयं आबाहा' इत्यादि । ] आयुर्वर्जितसप्तकर्मणामुदयं प्रत्युत्कृष्टाऽऽबाधा कोटाकोटिसागरोपनाणां शतवर्षमात्री भवति । सागरकोटिं प्रति वर्षशतं वर्पशतं आबाधाकालो भवतीत्यर्थः । आयुषः पूर्वकोट्याः तृतीयांशः तृतीयभागः आबाधाकालः उत्कृष्टः । सर्वमूलप्रकृतीनां उत्तरप्रकृतीनां च त्रैराशिकेनोत्कृष्टा आबाधा ज्ञातव्या भवन्ति । तत्कथम् ! कोटीकोटिसागरोपमस्य शतवर्षम्, तदा त्रिंशतः सप्ततेः विंशतेश्च कोटीकोटिसागरोपमस्य किमिति त्रैराशिके कृते प्रमाणं सागरा० को० फलं वर्षः १००1 इच्छा सा. ३० को०, ७० को०।२० को। इति इच्छां फलेन संगुण्य प्रमाणेन तु भाजयेत् । लब्धम् ३००० । २००० । तथाहि--ज्ञानावरणस्योत्कृष्टाबाधाकालः वर्षः ३००० । दर्शनावरणस्योत्कृष्टाबाधाकालः वर्षः ३००० । वेदनीयस्योत्कृष्टाबाधाकालः वर्षः ३००० । अन्तरायस्योस्कृष्टाबाधाकालः वर्षः ३०००। मोहनीयस्योत्कृष्टाबाधाकाल: वर्षः ७०००। नामकर्मणः उत्कृष्टाबाधाकाल: वर्षः २०००। गोत्रस्योत्कृष्टाबाधाकालः वर्षः २००० । सर्वेपां ज्ञानावरणादीनां अष्टानामुत्तरप्रकृतीनां च जघन्याबाधाकालः अन्तर्मुहर्तः । आयुषः कर्मणः उत्कृष्टाबाधा पूर्वकोटिवर्पत्रिभागः स्यात् ३३३३३३३१ अयं तृतीयांशः । उक्तं च-- 1. सं० पञ्चसं०४, १६६ । १.४, २०० । + इन दोनों गाथाओंके स्थानपर शतकप्रकरणमें ये दो निम्नगाथाएँ पाई जाती हैं सत्तरि कोडाकोटी अयराणं होइ मोहणीयस्स । तीसं आइतिगंते वीसं नामे य गोए य ॥५२॥ तेत्तीसुदही आउम्मि केवला होइ एकमुक्कोसा । मूलपयडीण एत्तो ठिई जहन्नो निसामेह ॥५३॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४५ त्रयस्त्रिंशन्जिनैर्लक्षाः सत्रिभागा निवेदिताः । __ आबाधा जीवितव्यस्य पूर्वकोटीस्थितेः स्फुटम् ॥३१॥ पूर्वाणां त्रयस्त्रिंशल्लक्षा इति शेषः ३३३ । आयुषो जघन्याऽऽबाधाकालः अन्तर्मुहूर्तः । पक्षान्तरेणासंक्षेपाता वा भवति । न विद्यतेऽस्मादन्यः संक्षेपः असंक्षेपः। स चासौ अद्धा च असंक्षेपाद्धा, आवल्यसंख्येयभागमात्रत्वात् । आयुषः कर्मणः एवमेव भवति । न च स्थिति-त्रिभागेन । तर्हि असंख्यातवर्षायुष्काणां त्रिभागे उत्कृष्टा कथं नोक्ता? तन, देवानां नारकाणां च स्वस्थितौ षण्मासेषु, भोगभूमिजानां नवमासेषु चावशिष्टेषु त्रिभागेनायुबन्धासम्भवात् । आबाधालक्षणं गोमट्टसारे प्रोक्तमस्ति-- कन्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । रूवेणुदीरणस्स य आबाहा जाव ताव हवें ॥३२।। कार्मणशरीरनामकर्मोदयापादितजीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगहेतुना कार्मणवर्गणायातपुद्गलस्कन्धाः मूलोत्तरप्रकृतिरूपेणाऽऽत्मप्रदेशेषु अन्योन्यप्रवेशानलक्षणबन्धरूपेणाप्रस्थिताः फलदानपरिणतिलक्षणोदयरूपेणापक्वपाचनलक्षणोदीरणारूपेण वा यावन्नाऽऽयान्ति तावान् काल: 'भाबाधा' इत्युच्यते । कर्मस्वरूपेण परिणतकार्मणद्रव्यं यावद्दयरूपेणोदीरणारूपेण वा न एति, न परिणमति तावान् काल: 'भाबाधा' कथ्यते । तथा चोक्तम्-- यावत्कालमुदीर्यन्ते न कर्मरमाणवः । उदीरणां विनाऽऽबाधा तावत्कालोऽभिधीयते ॥३३॥३६३-३६४॥ बँधा हुआ कर्म जितने कालतक फल देना प्रारम्भ नहीं करता, उतने कालको अबाधाकाल कहते हैं। कौन कर्म कितने समय तक फल नहीं देता, इसका एक निश्चित नियम है। आगे उसीका निरूपण करते हैं एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिबन्धकी आबाधा सौ वर्ष प्रमाण होती है। इस नियम के अनुसार सातों मूल कर्मोंकी, तथा उनको उत्तरप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट आबाधा त्रैराशिकसे जान लेना चाहिए। आयुकर्मकी उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटी वर्षका त्रिभाग है। सर्व कर्मोकी जघन्य आबाधा अन्तर्मुहूर्त काल-प्रमाण है ॥३६३-३६४॥ विशेषार्थ-सातों कर्मों की उत्कृष्ट आवाधा इस प्रकार जानना चाहिए-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्मकी ३००० वर्ष, दर्शनमोहकी ७००० वर्ष, चारित्रमोहकी ४००० वर्ष, नाम और गोत्रकर्मकी २००० वर्ष उत्कृष्ट आबाधा होती है। आवाधूणहिदी कम्मणिसेओ होइ सत्तकम्माणं । ठिदिमेव णिया सव्वा कम्मणिसेओ य आउस्स ॥३६॥ अथ निषेकलक्षणमाह-[ 'भायाधुणियकम्मट्ठिी' इत्यादि । ] आयुर्वर्जितसप्तमूलप्रकृतीनां ज्ञानावरणादीनां आबाधोनितकर्मस्थितिः कनिषेचनं क्षरणं निषेको भवति । कर्मनिषेचनं कर्मोदय इत्यर्थः । आयुपः कर्मणः निजा स्थितिः सर्वा कर्मनिषेकरूपा भवति । आयुषः स्वस्थितिः सर्वैव निषेको भवति । तथा चोक्तम् आबाधोनाऽस्ति सप्तानां स्थितिः कर्मनिषेचनम् । कर्मणामायुषोऽवाचि स्थितिरेव निजा पुनः ॥३४।। इति 1. सं० पञ्चसं० ४, २०८। १. सं० पञ्चसं० ४, २०५। २. गो० क० गा० १५५ । ३. सं० पञ्चसं० ४, २०७ । ४. सं० पञ्चसं० ४, २०७। १. गो. क. गो. गा० १६०, परं तनोत्तरार्धे पाठभेदोऽस्ति । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ पञ्चसंग्रह आयुषो यावती स्थितिस्तावारिषेको भवति । तथा च -. आबाधो स्थितावस्यां समयं समयं प्रति । कर्माणुस्कन्धनिक्षेपो निषेकः सर्वकर्मणाम् ॥३५॥ परतः परतः स्तोकः पूर्वतः पूर्वतो बहुः। समये समये ज्ञेयो यावस्थितिसमापनम् ॥३६।। स्वां स्वामाबाधां मुक्त्वा सर्वकर्मणां निषेका वक्तव्याः । तेषाञ्च गोपुच्छाकारेणावस्थितिः ॥३६५॥ आयुके विना शेष सात कर्मोको बँधी हुई स्थितिमेंसे आबाधाकालके घटा देनेसे जो स्थिति शेष रहती है, वह कर्मनिषेककाल है। आयुकर्मका कर्मनिषेककाल उसकी अपनी सर्व स्थिति ही जाननी चाहिए ॥३६५॥ विशेषार्थ—प्रत्येक समयमें खिरने या निर्जीर्ण होनेवाले कर्मपरमाणुओंके समूहको निपेक कहते हैं। आयुके विना शेष कर्मोंका जितना स्थितिबन्ध होता है, उसमेंसे ऊपर बतलाये गये नियमके अनुसार आबाधाकालके घटा देनेपर जो स्थिति शेष रहती है, उसे निषेककाल कहते इसका अभिप्राय यह हआ कि विवक्षित समयमें बंधनेवाले कर्मपिण्डमें जितने परमाणु हैं, वे आगममें बतलाई गई एक निश्चित विधिके अनुसार निषेककालके जितने समय हैं, उनमें विभक्त हो जाते हैं और फिर अपनी-अपनी अवधिके पूर्ण होनेपर खिर जाते हैं। किन्तु आयुकर्म उक्त नियमका अपवाद है। उसमें अन्य कर्मों के समान आबाधाकाल और निषेककाल ऐसे दो विभाग नहीं हैं; किन्तु जिस आयुकर्मकी जितनी स्थिति बँधती है, वह सभी निपेककाल है। अर्थात् उतनी स्थिति-प्रमाण उसके निषेकोंकी रचना होती है। ऊपर जो आयुकर्मकी उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटा वर्षका त्रिभाग बतलाया गया है, सो भुज्यमान आयुकी अपेक्षा बतला है, बध्यमान आयुकी अपेक्षा नहीं, ऐसा विशेष जानना चाहिए । मूल शतककी जो चूर्णि उपलब्ध है, उसमें नरकायु-देवायुकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि वर्षके त्रिभागसे अधिक तेतीस सागरोपम बतलाया है। यथा 'देव-णिरयाउगाणं उक्कोसगो ठिइबंधो तेत्तीसं सागरोवमाणि पुव्वकोडितिभागहियाणि, पुवकोडितिभागो अबाहा । अबाहाए विणा कम्महिई कम्मणिसेगो। ' इसी प्रकार मनुष्य-तिर्यञ्चोंकी भी उत्कृष्ट आयुके विषयमें कहा है 'मणुस-तिरियारगाणं उक्कोसहिई तिणि पलिओवमाणि पुवकोडितिभागसहियाणि । पुवकोडितिभागो अबाहा । अबाहाए विणा कम्मट्टिई कम्मणिसेगो।' .. यह कथन पूर्वकोटि प्रमाण कर्मभूमियाँ मनुष्य-तिर्यञ्चोंकी भुज्यमान आयुके त्रिभागरूप आबाधाकालको सम्मिलित करके कहा गया समझना चाहिए। अब उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं 'आवरणमंतराए पण णव पणयं असायवेयणियं । तीसं कोडाकोडी सायरणामाणमुक्कस्सं ॥३६६॥ २० एदासिं ठिदी ३० । अथोत्तरप्रकृतीनां स्थितिमुत्कृष्टां गाथाद्वादशकेनाऽऽह--[ 'आवरणमन्तराए' इत्यादि । मतिज्ञानावरणादिपञ्चकं ५ चक्षुर्दर्शनावरणादि नव है दानान्तरायादिपञ्चकं ५ असातवेदनीयं १ चेति विंशतः 1. सं० पञ्चसं० ४, २११ । १. सं० पञ्चसं० ४, २०६-२१० । २. एषापि पङ्क्तिस्तत्रैवोपलभ्यते (सं० पञ्चसं० पृ० १३२) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४७ प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धः त्रिंशत्कोटाकोंटिसागरोपमप्रमाणः । विंशतः प्रकृतीनां स्थितिः ३० कोटा० ॥३६६॥ ज्ञानावरणकी ५, दर्शनावरणकी ६, अन्तरायकी ५ और असातावेदनीय इन बीस प्रकृ. तियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोडाकोड़ी सागरोपम होता है ॥३६६।। 'मणुसदुग इत्थिवेयं सायं पण्णरस कोडिकोडीओ। मिच्छत्तस्स य सत्तरि चरित्तमोहस्स चत्तालं ॥३६७॥ एदेसिं ठिदी १५ । मिच्छत्तस्स ७० । सोलसकसायाणं ४० । मनुष्यगति-[ मनुष्य-] गत्यानुपूर्व्यद्वयं २ स्त्रीवेदः १ सातवेदनीयं चेति चतसृणां प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धः पञ्चदशकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणो भवति १५। मिथ्यात्वस्योत्कृष्टस्थितिबन्धः सप्ततिकोटाकोटिसागरप्रमाणः स्यात् ७० कोटा० । चारित्रमोहस्यानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलनक्रोध-मानमाया-लोभानां षोडशकषायाणां उत्कृष्टस्थितिबन्धः चत्वारिंशत्सागरोपमकोटाकोटिप्रमाणः ४० कोटा० ॥३७॥ मनुष्यद्विक, स्त्रीवेद, सातावेदनीय, इन चार प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी और चारित्रमोहनीयका चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम होता है ।।३६७॥ १णिरयाउग-देवाउगठिदि-उक्कस्सं च होइ तेत्तीसं । मणुयाउय-तिरियाउय-उक्कस्सं तिण्णि पल्लाणि ॥३९८॥ ३३॥ नारक-देवायुषोत्कृष्टस्थितिबन्धः अयनिंशत्सागरोपमप्रमाणं साग० ३२ । मनुष्यायुषः तिर्यगायुपश्चोत्कृष्ट स्थितिबन्धः त्रीणि पल्योपमप्रमाणानि पल्य०३ ॥३१॥ ___ नरकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतोस सागरॊपम है। मनुष्यायु और तिर्यगायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीन पल्पोपम है ॥३६८।। भयमरइदुगुंछा विय णउंसयं सोय णीचगोयं च । णिरयगइ-तिरियदोण्णि य तेसिं च तहाणुपुव्वी य ॥३६॥ एइंदिय-पंचिंदिय-तेजा कम्मं च अंगवंगदुयं । दोण्णि य सरीर हुंडं वण्णचउकं असंपत्तं ॥४००॥ अगुरुयलहुयचउकं आदाउञ्जोव अप्पसत्थगदिं । थावरणामं तसचउ अथिरं असुहं अणादेजं ॥४०॥ दुब्भग दुस्सरमजसं णिमिणं च य वीस कोडकोडीओ। सायरसंखाणियमो ठिदि-उक्कस्सं वियाणाहि ॥४०२।। ४३ एयासि ठिदी २० । भयं १ अरतिः १ लुगुप्सा १ नपुंसकवेदः १शोकः १ नीचगोत्र नरकगतिः १ नरकगत्यानुपूर्वी १ तिर्यग्गति-तदानुपूर्व्यद्वयं २ एकेन्द्रियं १ पञ्चेन्द्रियं १ तैजसं १ कार्मणं १ अङ्गोपाङ्गद्वयं २ औदारिक 1. सं० पञ्चसं० ४, २१२ | 2. ४, २१३ । 3. ४, २१४-२१७ । पद कोड। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पञ्चसंग्रह वक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्गद्विकं २ शरीरे द्वे औदारिक-वैक्रियिकशरीरे द्वे २ हण्डकसंस्थानं १ स्पश-रस-गन्धवर्णचतुष्कं ४ असम्प्राप्तसृपाटिकासंहननं १ अगुरुलघृपघातपरघातोच्छ्रासचतुष्कं, ४ आतपः १ उद्योतः १ अप्रशस्तविहायोगतिः १ स्थावरनाम १ बस-बादर-पर्याप्त प्रत्येकचतुष्कं ४ अस्थिरं १ अशुभं १ अनादेयं । दुर्भगं १ दुःस्वरं १ अयशःकत्तिः १ निर्माणं १ चेति त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनां ४३ उत्कृष्टस्थितिबन्धः विंशतिकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणमिति त्वं जानीहि । एतासां ४३ प्रकृतीनां स्थितिः २० कोटा० ॥३६६-४०२॥ भय, अरति, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, शोक, नीचगोत्र, नरकगति, तिर्यग्गति, नरकानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, पश्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग, हुंडकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, अनादेय, दुर्भग, दुःस्वर, अयशःकीर्ति और निर्माण; इन तेतालीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बोस कोड़ाकोड़ीसागरोपम जानना चाहिए ।।३६६-४०२॥ 'हास-रइ-पुरिसवेयं देवगइदुयं पसत्थसंठाणं । आदी वि य संघयणं पसत्थगइसुस्सरं सुभगं ॥४०३॥ थिर सुह जस आदेजं उच्चागोदं ठिदी य उक्कस्सं । दस सागरोवमाणं पुण्णाओ कोडकोडीओ॥४०४॥ १५ एयासि ठिदी १०। हास्यं १ रतिः १ पुंवेदः १ देवगति-देवत्यानुपूर्व्यद्वयं २ समचतुरस्रसंस्थानं १ वज्रवृपभनाराच. संहननं १ प्रशस्तविहायोगतिः १ सुस्वरः सुभगं १ स्थिरं १ शुभं 17 यशः १ आदेयं १ उच्चैर्गोत्र, चेति पञ्चदशप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धः दश कोटाकोटिसागरोपमप्रमाणः। अमू पुण्यप्रकृतयः १५ तासां स्थितिः १० कोटा० ॥४०३-४०४॥ हास्य, रति, पुरुषवेद, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त अर्थात् समचतुरस्रसंस्थान, आदि न वनवृषभनाराचसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुस्वर, सुभग, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, आदेय और उच्चगोत्र; इन पन्द्रह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दश कोड़ाकोड़ीसागरोपम होता है ।।४०३-४०४॥ बितिचउरिदिय सुहुमं साधारणणामयं अपञ्जत्तं । अट्ठरस कोडकोडी ठिदिउक्कस्सं समुद्दिट्ठॐ ॥४०॥ ६ एयासिं १८ । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणि ३ सूक्ष्म १ साधारणं १ अपर्याप्तं १ चेति पण्णां प्रकृतीनां ६ उत्कृष्टस्थितिबन्धः अष्टादशकोटाकोटि-[ सागरोपम-] प्रमाणः । प्र० ६ । १८ कोटा० ॥४०५॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप नाम; इन छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अट्ठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम कहा गया है ।।४०५।। 1. सं० पञ्चसं० ४, २१८-२१६ । 2. ४, २२० । *ब प्रतावीग पाठः-अहारस कोडीओ ठिदीणमुक्कस्सयं जाणे। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४३ 'संठाणं संघयणं विदियं तदियं य वारस चोद्दसयं च । सोलस कोडाकोडी चउत्थसंठाणं-संघयणं ॥४०६॥ २-१२१२-१४१२-१६ पंचमयं संठाणं संघयणं तह य होइ पंचमयं । अट्ठरस कोडकोडी ठिदि-उकस्सं समुद्दिट्ट ॥४०७॥ . २।१८ संस्थान-संहननयोः द्वितीययोः ‘न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान-वज्रनाराचसंहननयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः द्वादशकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणः । २-१२ कोटा० । तृतीययोः वाल्मीक-नाराच-संस्थान-संहननयोद्वयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः चतुर्दशकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणः । २-१४ कोटा० । चतुर्थयोः कुब्जकसंस्थानार्धनाराचसंहननयोद्वयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः पोडशकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणः । २-१६ कोटा० । पञ्चमं संस्थानं पंचम संहननं पञ्चमयोमिनसंस्थान-कीलिकासंहननयोयोरुत्कृष्टस्थितिबन्धः अष्टादशकोटाकोटिसागरोपमाणि, इति समुद्दिष्टं जिनेरिति । २-१८ कोटा० ॥४०६-४०७॥ दूसरे संस्थान और संहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बारह कोडाकोड़ी सागरोपम है। तीसरे संस्थान और संहननका चौदह, चौथे संस्थान और संहननका सोलह तथा पाँचवें संस्थान और संहननका अठ्ठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्टस्थितिबन्ध कहा गया है ॥४०६-४०७॥ अंतोकोडाकोडी ठिदी दु आहारदुगय तित्थयरं । सव्वासिं पयडीणं ठिदि-उक्कस्सं वियाणाहि ॥४०८॥ आहारकाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गद्वयस्य तीर्थकृतश्चोत्कृष्टस्थितिरन्तःकोटाकोटिसागरोपमाणि । एककोट्या उपरि द्विकवारकोट्या मध्ये अन्तःकोटाकोटिः कथ्यते । सर्वासां विंशत्युत्तरशतप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिं हे भव्य, त्वं जानीहि ॥४०॥ आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ो सागरोपम है। इस प्रकार सर्व कर्मप्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जानना चाहिए ॥४०८।। अब मूलकोंके जघन्य स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं[मूलगा०५१] 'बारस य वेयणीए णामे गोदे य अट्ठ य सुहुत्ता। भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं॥४०९।। अध मूलप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धमाह--[ 'वारस य वेयणीए' इत्यादि । ] जघन्य स्थितिबन्धो वेदनीये द्वादश मुहूर्ताः १२ । नामकर्मणि अष्टौ मुहूर्ताः ८ । गोत्रकर्मणि अष्टौ मुहूर्ताः ८ । तु पुनः शेषाणां पञ्चानां ज्ञानावरणदर्शनावरण-मोहनीयाऽऽयुष्यान्तरायाणां भिन्नमुहूर्तः । अत्र भिन्नमुहूर्त इत्युक्ते अन्तर्मुहूर्तों लभ्यते । स क्वेति चेत्-ज्ञानावरणान्तरायाणां प्रयाणां जघन्या स्थितिः सूचमसाम्पराये ज्ञातव्या । मोहनीयस्यानिवृत्तिकरणगुणस्थाने जघन्या स्थितिया। आयुपो जघन्या स्थितिः कर्मभूमिजमनुष्येषु तिर्यक्षु च ज्ञेया ॥४०॥ 1. सं०पञ्चसं० ४, २२१ । 2. ४, २२२ । 3. ४, २२३ । 4. २२४ । * इसके स्थान पर शतकप्रकरणमें निम्न गाथा पाई जाती है बारस अंतमुहुत्ता वेयणिए अट्ट नाम-गोयाणं । सेसाणंतमुहत्तं खुइभवं आउए जाण ॥ ३२ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पञ्चसंग्रह वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त, नाम और गोत्रका आठ मुहूर्त तथा शेष पाँच कर्मोका भिन्नमुहूर्त है । ( यहाँ भिन्नमुहूर्तसे अभिप्राय अन्तर्मुहूर्त्तका है)॥४०६॥ अब कमौकी उत्तरप्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध बतलाते हैं आवरण-अंतराए पण चउ पणयं तह लोहसंजलणं । ठिदिबंधो दु जहण्णो भिण्णमुहुत्त वियाणाहि ॥४१०॥ 'वारस मुहुत्त सायं अट्ठ मुहुत्त तु उच्च-जसकित्ती । वे मास मास पक्खं कोहं माणं च मायं च ॥४११॥ एत्थ कोहसंजलणे मासा २ । माणे मासो १ । मायाए पक्खो १ । अथोत्तरप्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धं गाथादशकेनाह-[ 'आवरणमन्तराए' इत्यादि । ज्ञानावरणपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलादर्शनावरणचतुष्कं ४ दानान्तरायादिपञ्चकं ५ संज्वलनलोभं १ इत्येतासां पञ्चदशप्रकृतीनां जघन्य स्थितिबन्धः अन्तर्मुहतः, इति हे भव्य, जानीहि त्वम् । सातावेदनीयस्य द्वादश मुहूर्त्ता जघन्या स्थितिः १२ । उच्चगोत्रस्थ यशस्कीर्तेश्च जघन्या स्थितिरष्टौ मुहर्ताः । अत्र संज्वलनक्रोधे जघन्या स्थितिः द्वौ मासौ २ । संज्वलनमाने जघन्या स्थितिरेको मासः । संज्वलनमायायां जघन्या स्थितिः पक्षः पञ्चदश दिनानि १५ ॥४१०-४११॥ ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, अन्तरायकी पाँच, तथा संज्वलनलोभ इन पन्द्रह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिवन्ध भिन्नमुहर्त जानना चाहिए। सातावेदनीयका बारह मुहूर्त, उच्चगोत्र और यशःकीर्त्तिका आठ मुहूर्त जघन्य स्थितिबन्ध कहा गया है । संज्वलनक्रोधका जघन्य स्थितिबन्ध दो मास, संज्वलनमानका एक मास और संज्वलन मायाका एक पक्ष जघन्य स्थितिबन्ध है ॥४१०-४११॥ पुरिसस्स अट्ठवासं आउदुगं भिण्णमेव य मुहुत्त । देवाउय-णिरयाउय वाससहस्सा दस जहण्णा ॥४१२।। पुंवेदस्य जघन्यस्थितिबन्धः अपौ वर्षाणि ८ । आयुर्द्विकं मनुष्य-तिथंगायुषोः अन्तर्मुहूर्तः । देवायुपो नारकायुपश्च जघन्यस्थितिबन्धो दशसहस्रवर्षमिति १०००० ॥४१२॥ पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्ष, मनुष्यायु और तिर्यगायुका अन्तर्मुहूर्त; तथा देवायु और नरकायुका दश हजार वर्ष है ॥४१२॥ "पंच य विदियावरणं साइयरं वेयणीय मिच्छत्तं । बारस अट्ट य णियमा कसाय तह णोकसाया य ॥४१३॥ एरथ दंसणावरणीयस्स णिहापंचयं । तिणि य सत्त य चदु दुग सायर उवमस्स सत्त भागा दु। ऊणा असंखभागे पल्लस्स जहण्णठिदिबंधो॥४१४॥ प्र प्र प्र प्र ३ठि ७ठि ठिकठि 1. सं०पञ्चसं० ४, २२५ । 2. ४, २२६ । 3. ४, २२७ । 4. ४,२२८-२२६ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक द्वितीयदर्शनावरणपञ्चक निद्रा १ निगानिगा १ प्रचला ५ प्रचलाप्रचला १ स्त्यानगृद्धिः १ असातावेदनीयं चेत्येतासां पण्णां प्रकृतीना ६ जघन्या स्थितिः सागरोपमस्य सप्तभागानां मध्ये त्रयो भागाः प्र० ६।। मिथ्यात्वस्य जघन्या स्थितिः सागरोपमप्रमिता १। अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान क्रोध-मान माया-लोभानां द्वादशानां प्रकृतीनां जधन्या स्थितिः सागरोपमस्य सप्तभागान मध्ये चत्वारो भागाः प्र० १२।। पुंवेदं विना अष्टानां नोकषायाणां जघन्या स्थितिः सागरोपमस्य सप्तभागानां मध्ये द्वौ भागौ । प्र०८। । तदेवाऽऽह-निगादिपञ्चकस्थासातस्य षण्णां प्रकृतीनां जघन्या स्थितिः सागरस्य त्रयः सप्त-भागाः पत्योपमस्यासंख्यातभागहीनाः । मिथ्यात्वस्य जघन्या स्थितिः सागरस्य सप्त-सप्तभागाः पत्यासंख्यातभागहीनाः। द्वादशकपायाणां चत्वारः ससभागाः पल्योपमासंख्यातभागहीनाः। पुंवेदं विनाऽष्टानां नोकषायाणां जघन्या स्थितिः सागरस्य द्वौ सप्तभागी पत्यासंख्यातभागहीनौ ॥४१३-४१४॥ द्वितीय आवरण अर्थात् दर्शनावरणकी पाँच निद्राएँ और असातावेदनीय; इन छह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्यके असंख्यातवें भाग हीन तीन भागप्रमाण है। मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्यासंख्यातभागहीन सात भागप्रमाण है । संज्वलन कपायचतुष्कको छोड़कर शेष बारहकषायोंका जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्यासंख्यातभाग हीन चार भागप्रमाण है। तथा शेष आठ नोकषायोंका जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्यासंख्यातभागहीन दो भागप्रमाण है ।।४१३-४१४।। (इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है।) 'तिरियगइ मणुयदोणि य पंच य जाई सरीरणामतियं । संठाणं संघयणं छछक ओरालियंगवंगो य ॥४१॥ वण्ण-रस-गंध-फासं अगुरुयलहुयादि होति चत्तारि । आदाउजोवं खलु विहायगई वि य तहा दोण्णि ॥४१६।। तस-थावरादिजुयलं णव णिमिणं अजसकित्ति णिचं च । सागर वि-सत्तभागा पल्लासंखेज्जभागूणा ॥४१७॥ ५८ ठिदी २ तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यद्वयं २ मनुष्यगति-तदानुपूर्य द्वयं २ एकेन्द्रियादिजातिपञ्चकं ५ औदारिक तैजस-कार्मणशरीरत्रयं ३ समचतुरस्रादिसंस्थानपटकं ६ वज्रवृपभनाराचादिसंहननपटकं ६ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ वर्ण-नान्ध-रस-स्पर्शचतुष्क ४ भगुरुलघूपघातपरघातोच्छासचतुष्कं ४ आतपः १ उद्योतः १ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्वयं २ बस-स्थावर २ सुभग-दुर्भग: सुस्वर-दुस्वर २ शुभाशुभ २ सूचम-बादर २ पर्याप्तापर्याप्त २ स्थिरास्थिरा २ देयानादेय २ प्रत्येक-साधारण २ युगलनवकं निर्माणं १ अयशस्कीर्तिः १ नीचैर्गोत्रं १ चेत्यष्टपञ्चाशत्प्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धः सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागी। किम्भूतौ १ पल्योपमासंख्यातभागहीनौ ॥४१५-४१७॥ ___तिर्यग्गतिद्विक, मनुष्यगतिद्विक एकेन्द्रियादि पाँच जातियाँ, औदारिक, तैजस, कार्मण ये तीन शरीर, छह संस्थान, छह संहनन, औदारिक अङ्गोपाङ्ग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार, आतप, उद्योत, प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों विहायोगतियाँ, त्रस-स्थावरादि नौ युगल, 1. सं० पञ्चसं०४ , २३०-२३२ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ पञ्चसंग्रह निर्माण, अयश कीर्ति और नीचगोत्र; इन अट्ठावन प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्यासंख्यातभागहीन दो भागप्रमाण है ॥४१५-४१७।। 'उदधिसहस्सस्सा तहा वि-सत्तभागा जहण्णठिदिबंधो । वेउव्यियछकस्स य पल्लासंखेजमागूणा ॥४१८॥ ___ ६ ठिदी २८ सवर्णित २०० वैक्रियिकपटकस्य नरकगति-तदानुपूर्व्य-देवगति-तदानुपूर्व-वैक्रियिक-वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गानां षण्णां प्रकृतीनां ६ जघन्यस्थितिबन्धः उदधेः सागरोपमस्य सहस्रभागकृतस्य द्वि-सप्तभागाः । कथम्भूताः ? पल्यासंख्यातभागहीनाः । सागरसंज्ञाङ्कस्य २८५५ सवर्णित सप्तभिर्गुणित्वा २००° पञ्च मेलिताः ॥४१८॥ वैक्रियिकषट्क (वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक-अङ्गोपाङ्ग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी) का जघन्य स्थितिबन्ध सागरोपमसहस्रका पल्यासंख्यातभागहीन दो वटे सात भाग प्रमाण है ॥४१॥ वैक्रियिकपटकका ज० स्थितिबन्ध २००° अर्थात् २८५४ सागरोपम है । आहारयं सरीरं अंगोवंगं च णाम तित्थयरं। अंतोकोडाकोडी जहण्णबंधो ठिदी होइ ॥४१६॥ अपूर्वकरणादिक्षपकश्रेणी आहारकाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गद्वयस्य तीर्थकरत्वस्य च जघन्यस्थितिबन्धः अन्तःकोटाकोटिसागरोपमप्रमाणो भवति ॥४१६॥ इति मूलोत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धः उत्कृष्टो जघन्यश्च समातः । आहारकशरीर, आहारक-अङ्गोपाङ्ग और तीर्थकरनामकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोडीसागरोपम है ।।४१६॥ विशेषार्थ-गाथोक्त तीनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध भी अन्तकोडाकोडी सागरोपम पहले बतला आये हैं और यहाँ पर जघन्य स्थितिबन्ध भी उतना ही बतला रहे हैं, सो दोनों स्थितिबन्धोंको समान नहीं जानना । किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे इनका ही जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणित हीन होता है। जैसा कि शतकचूर्णिमें कहा है-"आहारकसरीर-आहारकांगोवंगतित्थयरणामाणं जहण्णओ ठिइबंधो अंतोकोडाकोडी। अंतोमुत्तमबाहा। उक्कोसाओ संखेजगुणहीणो।" (श० चू० पृ०२८) दूसरी विशेषता उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध करनेवाले उक्त प्रकृतियोंमेंसे आहारकद्विकका उत्कृष्टबन्ध अप्रमत्तसंयतके होता है, किन्तु जघन्य स्थितिबन्ध अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती क्षपकके अपनी बन्धव्युच्छित्तिके समय होता है। जैसा कि गो० कर्मकाण्डमें कहा है-"तित्थहाराणंतोकोडाकोडी जहण्णहिदिबंधो। खवगे सगसगबंधच्छेदणकाले हवे णियमा" ॥१४१॥ तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्यके होता है। ध करनेवाले जीवोंकी है। 1. सं० पञ्चसं० ४, २३३ । 2. ४, २३४ । नव उदधिस्स सहस्स० । सन २८५३ ईदृक् पाठः । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५३ जैसा कि आगे गाथा नं०४२७ तथा गो० कर्मकाण्डमें भी कहा है-"तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्मो समजेइ॥गा० १३६ । । ___ इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध समाप्त हुआ। अब मूल प्रकृतियोंके जघन्यादिबन्ध-सम्बन्धी सादि आदि भेदोंकी प्ररूपणा करते हैंमूलगा०५२] 'मूलट्ठिदिअजहणणो सत्तण्हं बंधचदुवियप्पो य । सेसतिए दुवियप्पो आउचउक्के य दुवियप्पो ॥४२०॥ इदि मूलपयडीसु । एत्तो उत्तरासुअथाजधन्यादीनां सम्भवत्साद्यादिभेदानाह--[ 'मूलटिदिअजहण्णो' इत्यादि । ] आयुर्वजितसप्तविधमूलप्रकृतीनां अजघन्यस्थितिबन्धः साधनादि-ध्रवाश्र्वभेदेन चतुर्विधो भवति ४। शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्ट भवतः २। आयुकमचतुष्के अजघन्यजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टपु चतुर्विधेषु द्वौ विकल्पी साद्यध्रुवौ भवतः २ । इति मूलप्रकृतिषु जघन्यादिषु साद्यादयः ॥४२०॥ आयुर्वर्जितसप्तमूलप्रकृतीनां साधादियन्त्रम्प्रकृति ७ जघन्य सादि ० ० अध्रुव ३ प्रकृति ७. अजषन्य . सादि अनादि ध्रुव अध्रव ४ प्रकृति ७ उत्कृष्ठ सादि अध्रुव ३ प्रकृति ७ अनुत्कृष्ट सादि अध्रुव ३ आयुषः साधादियन्त्रम्जघन्य १ . सादि अध्रुव अजघन्य २ सादि अनुत्कृष्ट ३ सादि अध्रुव उत्कृष्ट ४ सादि अध्रुव आयुकर्मको छोड़कर शेष सात मूलप्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव; इन चारों ही प्रकारोंका होता है। उक्त सातों कर्मों के शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव ऐसे दो प्रकारके होते हैं । आयुकर्मके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य; ये चारों ही प्रकारके स्थितिबन्ध भी सादि और अध्रुव ये दो प्रकारके होते हैं ।।४२०॥ विशेषार्थ--जिससे अन्य और कोई छोटा स्थितिबन्ध न हो, ऐसे सबसे छोटे स्थितिबन्धको जघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं। इसको छोडकर आगे एक समय अधिकसे लगाकर ऊपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तकके जितने भी शेष स्थितिबन्ध है, उन सबको अजघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं । जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तकके जितने भी स्थितिविकल्प हैं, वे सर्व जघन्य और अजघन्य इन दोनों स्थितिबन्धोंमें प्रविष्ट हो जाते है। जिससे अन्य अधिक स्थितिवाला और कोई स्थितिबन्ध न हो, ऐसे सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्धको उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहते हैं । इसको छोड़कर एक समय कमसे लगाकर जघन्य स्थितिबन्ध तकके जितने भी शेष स्थितिविकल्प हैं, उन सबको अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहते हैं। उत्कृष्टसे लगाकर जघन्य स्थितिबन्ध तकके जितने भी स्थितिविकल्प हैं, वे सर्व उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट, इन दोनों ही स्थितिबन्धोंके अन्तर्गत आ जाते हैं इस अर्थपदके अनुसार आयुके सिवाय शेष सात कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मोहनीयको छोडकर शेष कोका जघन्य स्थितिबन्ध अध्रुव 1. सं० पञ्चसं० ४, २३५ । १. शतक० ५४ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ पञ्चसंग्रह सूक्ष्मसाम्परायक्षपकका चरमसमयभावी स्थितिबन्ध है, सो वह सादि भी है और अध्रुव भी है। इसका कारण यह है कि क्षपकके सर्वस्तोक अजघन्य स्थितिबन्धसे जघन्य स्थितिबन्धको संक्रमण होनेपर जघन्य स्थितिबन्ध सादि हुआ। तत्पश्चात् बन्धका अभाव हो जानेपर वह अध्रुव कहलाया। सूक्ष्मसाम्परायक्षपकके अन्तिम समयमें होनेवाले इस जघन्य स्थितिबन्धके सिवाय जितना भी शेष स्थितिबन्ध है, वह अजघन्य स्थितिबन्ध है। सूक्ष्मसाम्पराय-क्षपकके अन्तिम समयके स्थितिबन्धसे सूक्ष्मसाम्पराय-उपशामकके आन दुगुना है। उपशान्तकषायके उक्त छह कर्मोका बन्ध नहीं होता है। पुनः वहाँसे गिरनेवालेके अजघन्य स्थितिबन्ध सादि है। जिसने कभी बन्धका अभाव नहीं किया, उसके अनादिबन्ध है। अभव्यके उक्त कर्मोंका जितना भी स्थितिबन्ध है, वह ध्रुवबन्ध है, क्योंकि वह कभी भी न तो अपने बन्धका अभाव करेगा और न कभी जघन्यस्थितिबन्धको ही करेगा। भव्यजीवोंके उक्त कर्मोंका जितना भी स्थितिबन्ध है, वह अध्रुव है, क्योंकि वे नियमसे उसका बन्ध-विच्छेद करेंगे। इसी प्रकार मोहनीय कर्मके सादि आदिकी प्ररूपणा जानना चाहिए। केवल इतना विशेष ज्ञातव्य है कि अनिवृत्तिक्षपकके अन्तिम समयमें मोहकर्मका सर्वजघन्य स्थितिबन्ध होता है । सातों कर्मोका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव होता है । इनमेंसे जघन्य स्थितिबन्धके सादि और अध्रुव होनेका कारण पहले कहा जा चुका है। सातों कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सर्वाधिक संलशसे युक्त संज्ञी मिथ्यादृष्टिके पाया जाता है, सो वह सादि और अध्रुव है । जैसे किसी जीवने विवक्षित समयमें सातों कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया। वह एक समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् नियमसे उसे छोड़कर अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध सादि हआ। पुनः जघन्यसे एक अन्तर्मुहर्तके पश्चात और उत्कर्पसे अनन्त कल्पकालके पश्चात् उसने उक्त कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया। इस प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध अध्रुव हो गया और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सादि हो गया । इस प्रकार परिभ्रमण करते हुए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धोंके करनेपर दोनों ही सादि और अध्रुव सिद्ध हो जाते हैं। सातों कौका भव्यजीवोंके अनादि ध्रुवबन्ध संभव नहीं है। आयुकर्मके उत्कृष्टादि चारों स्थितिबन्ध अध्रुव होनेके कारण अर्थात् कादाचित्क बंधनेसे सादि और अध्रुव ही होते हैं। इस प्रकार मूल प्रकृतियोंके सादि आदि भेदोंका निरूपण किया। अब इससे आगे मूलशतककार उत्तरप्रकृतियोंके सादि आदिको प्ररूपणा करते हैं[मूलगा०५३] 'अट्ठारसपयडीणं अजहण्णो बंधचउवियप्पो दु। सादियअधुवबंधो सेसतिए होइ बोहव्वो ॥४२१॥ णाणंतरायदसयं विदियावरणस्स होंति चत्तारि । संजलणं च अट्ठारस चदुधा अजहण्णवंधो सो ॥४२२।। १८॥ अतः परं उत्तरप्रकृतिषु जघन्यसाधादिभेदानाह--[ 'अट्ठारस पयडीगं' इत्यादि । ] ज्ञानावरणीयपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ संज्वलनक्रोधादिचतुष्कं ४ चेत्यष्टा 1. सं० पञ्चसं० ४, २३६ । १. शतक० ५५ । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशानां प्रकृतीनां भजघन्यबन्धः चतुर्विकल्पः सायनादि-धुवाधुवभेदेन चतुर्विधः ४ । शेषत्रिके जघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टबन्धत्रये साद्यध्रुवबन्धौ द्वौ इति ज्ञातव्यो भवति ॥४२१-४२२॥ स्थितिबन्धे अष्टादशोत्तरप्रकृतीनां साद्यादियन्त्रम्- १८ 15 १८ १८ ध्रुवबन्धः, जघन्य अजघन्य अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट सादि सादि सादि आदि १०२ १०२ १०२ १०२ आगे कही जानेवाली अट्ठारह प्रकृतियोंका अजघन्य बन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है । उनके शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ||४२१|| अब भाष्यगाथाकार उन अट्ठारह प्रकृतियोंका नाम निर्देश करते हैं ज्ञानावरण और अन्तरायकी (५+५= ) दश, दर्शनावरणको चक्षुदर्शनावरणादि चार, तथा संज्वलन चार; इन अट्ठारह प्रकृतियोंका जो अजघन्यबन्ध है वह चार प्रकारका होता है ||४२२ ॥ अव मूलशतककार शेष उत्तरप्रकृतियोंके सादि आदिवन्धका निरूपण करते हैं जघन्य अजघन्य अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट शतक [मूलगा०५४ ] 'उक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णओ य ठिदिबंधो । साइयअद्ध्रुवबंधो पयडीणं होइ साणं ॥४२३॥ ॥१०२॥ शेषाणां द्वयधिकशतप्रकृतीनां १०२ उत्कृष्टस्थितिबन्धः साद्यध्रुवबन्धः, अनुत्कृष्टस्थितिबन्धः साद्यजघन्य स्थितिबन्धः साद्यध्रुवबन्धः, अजघन्यस्थितिबन्धः साद्यध्रुव अन्धो भवति ॥४२३॥ स्थितिबन्धे शेष १०२ प्रकृतीनां साद्यादियन्त्रम्- सादि सादि ० ० अनादि ध्रुव सादि सादि 1. सं० पञ्चसं० ४, २३७ । २.४, २३८ । १. शतक० ५६ । २. शतक० ५७ । ० अध्र ुव अध्र व अध्र ुव अध्रुव २५५ ० ० ऊपर कहीं गईं अट्ठारह प्रकृतियोंके सिवाय शेष जो १०२ बन्धप्रकृतियां हैं उनका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजवन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव होता है ||४२३|| अब कर्मोकी स्थितियों में शुभाशुभका निरूपण करनेके लिए उत्तर गाथासूत्र कहते हैं[ मूलगा ०५५ ] 2 सव्वाओ वि ठिदीओ सुहासुहाणं पि होंति असुहाओ । माणुस-तिरिक्ख-देवाउगं च मोत्तूण सेसाणं ॥ ४२४॥ अध्रुव अध्र ुव अध्रुव भध्रु व अथ स्थितिबन्धे स्वामित्वमाह - [ 'सव्वाओ वि हिंदीओ' इत्यादि । ] मनुष्य तिर्यग्देवायूंषि त्रीणि मुक्त्वा शेषसर्वशुभाशुभप्रकृतीनां ११७ सर्वाः स्थितयः संसारहेतुत्वादशुभा एव भवन्ति ॥ ४२४ ॥ मनुष्यायु, तिर्यगायु और देवायु, इन तीनको छोड़कर शेष जितनी भी शुभ और अशुभ प्रकृतियाँ है, उन सबकी स्थितियाँ अशुभ ही होती हैं || ४२४ || Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पञ्चसंग्रह विशेषार्थ-आयुकर्मकी उक्त तीन प्रकृतियोंके सिवाय शेष ११७. प्रकृतियोंकी स्थितियोंको अशुभ कहनेका कारण संक्लेश है। अर्थात् परिणामोंमें संलोशकी वृद्धि होनेसे उक्त प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें वृद्धि होती है। यहाँ यह बात ध्यानमें रखनेकी है कि प्रकृतियोंके शुभ-अशुभ या पुण्य-पापरूप जो दो विभाग किये गये हैं, वे अनुभागबन्धकी अपेक्षा किये गये हैं। किन्तु यहाँ. पर स्थितिबन्धकी अपेक्षा स्थितियोंके शुभ-अशुभका निर्णय किया जा रहा है । देवायु आदि तीन प्रकृतियोंकी स्थितियोंके शुभ कहनेका कारण विशुद्धि है। अर्थात् परिणामोंमें संक्लेशको हानि और विशुद्धिकी वृद्धि होनेसे इन तीनों प्रकृतियोंकी स्थितियों में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त एक कारण और भी है, जिससे कि तीर्थकर, उच्चगोत्र, यशस्कीर्ति आदि जैसी शुभ प्रकृतियोंको अशुभ कहा गया है और वह कारण यह है कि आयुत्रिकको छोड़कर शेष सभी प्रकृतियोंकी जैसे जैसे स्थितियाँ बढ़ती है, वैसे वैसे ही उनका अनुभाग घटता चला जाता है। किन्तु आयुत्रिकका क्रम इससे भिन्न है। उक्त तीनों आयुकर्मोंकी स्थितियाँ ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों उनका अनुभाग भी उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है उक्त दोनों कारणांसे आयुत्रिककी स्थितियोंको शुभ और शेष सर्वप्रकृतियोंको स्थितियोंको अशुभ कहा गया है। अब मूलशतककार इसी अर्थको स्वयं स्पष्ट करते हैं[मूलगा०५६] 'सव्व हिदीणमुक्कस्सओ दु उकस्ससंकिलेसेण । विवरीओ दु जहण्णो आउगतिगं वज सेसाणं ॥४२॥ आउतियं णिरयाउं विणा। .... तिर्यग्मनुष्यदेवायुष्कत्रिकं वर्यिस्वा शेषाणां सप्तदशोत्तरसर्वप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिबन्धः उस्कृष्टसंक्लेशपरिणामेन भवति । तु पुनः तासां प्रकृतीनां ११७ जघन्यस्थितिबन्धः उस्कृष्ट विशुद्धपरिणामेन भवति । तत्रयस्य तु उत्कृष्टविशुद्धपरिणामेन जघन्यं तद्विपरीतेनोत्कृष्टमविशुद्धपरिणामेन च भवति ॥२५॥ आयुत्रिकको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंकी स्थितियोंका उत्कृष्ट बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है और उनका जघन्य स्थितिबन्ध विपरीत अर्थात् संक्लेशके कम होनेसे होता है ॥४२५।। यहाँपर आयुत्रिकसे अभिप्राय नरकायुके विना शेष तीन आयुकर्मों से है। [मूलगा०५७] सव्वुक्कस्सठिदीणं मिच्छादिट्ठी दुबंधगो भणिओ। आहारय-तित्थयरं देवाउगं च विमोत्तणं ॥४२६॥ [मूलगा०५८] 'देवाउगं पमत्तो+ आहारयमप्पमत्तविरदो दु । तित्थयरं च मणुस्सो अविरथसम्मो समज्जेइ ॥४२७।। उत्कृष्टस्थितिबन्धकमाह--[ 'सन्धुकस्स ठिीणं' इत्यादि । ] आहारकद्विकं २ तीर्थकरत्वं १ देवायुश्चेति १ चत्वारि मुक्त्वा शेष ११६ प्रकृतिसर्वोत्कृष्ट-स्थितीनां मिथ्यादृष्टिरेव बन्धको भणितः। तच्चतुर्णा आहारकद्वयतीर्थकरत्वदेवायुषां तु सर्वोत्कृष्टस्थितीनां सम्यग्दृष्टिरेव बन्धको भवति । तत्रापि विशेषमाह'देवाउगं पमत्तो । इति पाठे देवायुरुत्कृष्टस्थितिकं प्रमत्त एवाप्रमत्तगुगस्थानाभिमुखो बध्नाति । अप्रमत्ते तदव्युच्छित्तावपि तत्र सातिशये तीवविशुद्धत्वेन तद्देवायुबन्धान्निरतिशये चोत्कृष्टासम्भवात् । तु पुनः आहारकद्वयं उत्कृष्टस्थितिकं अप्रमत्तः प्रमत्तगुणस्थानाभिमुखः संक्लिष्ट एवं बध्नाति, आयुस्त्रयवर्जितानां 1 सं० पञ्चसं० ४, २३६-२४३ 1 2. ४, २४४| 3. ४, २४५। १. शतक० ५८ । २. शतक० ५६ । ३. शतक० ६०। . +ब, प्रतौ 'देवाउमप्पमत्तो' इति पाठः । .... . Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक उत्कृष्टस्थितिरुत्कृष्टसंक्लेशेनेत्युक्तत्वात् । तीर्थकरत्वं उत्कृष्टस्थितिकं नरकगतिगमनाभिमुखमनुष्यासंयतसम्यग्दृष्टिरेव बध्नाति ॥४२६-४२७॥ आहारकद्विक, तीर्थङ्कर और देवायुको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितियोंका बन्धक मिथ्यादृष्टि जीव कहा गया है। देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रमत्तपंयत, आहारकद्विकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अप्रमत्तसंयत और तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य करता है ॥४२६-४२७॥ विशेषार्थ-इन चारों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके विषयमें इतना विशेष जानना चाहिए-देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अप्रमत्तगुणस्थान चढ़नेके अभिमुख हुए अप्रमत्तसंयतके होता है। आहारकद्विकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रमत्तगुणस्थानमें आनेके लिए अभिमुख हुए अप्रमत्तसंयतके होता है। तीर्थङ्करप्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नरकगतिमें जानेको अभिमुख हुए असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यके होता है। [मूलगा०५६] 'पण्णरसण्हं ठिदि-उक्कस्सं बंधंति मणुय-तेरिच्छा । छण्हं सुर-णेरड्या ईसाणंता सुरा तिण्हं ॥४२८॥ १५।६।३। देवाउग वज्जेविय आउयतिय सुहुमणामऽपजत्तं । साहारण वियलिंदिय वेउव्वियछक्क पण्णरसं ॥४२६।। ।१५। तिरियगई ओरालं तस्स य तह अंगवंगणामं च । तिरियगइआणुपुव्वी असंपत्तं चेव उखोवं ॥४३०॥ छण्हं सुर-गेरइया ठिदिमुक्कस्सं *करिंति पयडीणं । एइंदिय आयावं थावरणामं सुरा तिण्णि ॥४३१॥ ६।३। शेषाणां ११६ उत्कृष्टस्थितिबन्धकमिथ्यादृष्टीन् गाथापञ्चकेनाऽऽह-['पण्णरसण्ह' इत्यादि।1 देवाऽऽयुष्कं वर्जयित्वा नरक-तियङ्मनुष्यायुष्यत्रयं ३ सूचमनाम . अपर्याप्तं १ साधारणं, विकलत्रयं ३ वैक्रियिकषट्कं ६ चेति पञ्चदशप्रकृतीनां १५ उत्कृष्टस्थितिबन्धं मनुष्यास्तिर्यञ्चश्च बध्नन्ति । तिर्यग्गतिः १ औदारिकशरीरं १ औदारिकाङ्गोपाङ्ग तिर्यग्गत्यानुपूर्वी असम्प्राप्तसृपाटिकासंहननं १ उद्योतः १ चेति पण्णां प्रकृतीनां ६ उत्कृष्ट स्थितिबन्धं सुर-नारकाः कुर्वन्ति बध्नन्तीत्यर्थः । एकेन्द्रियं १ आतपः १ स्थावरनाम चेति तिसृणां प्रकृतीनां ३ उत्कृष्टस्थितिबन्धं भवनत्रिक-सौधर्मशानजा देवा बध्नन्ति ॥४२८-४३१॥ (वक्ष्यमाण) पन्द्रह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको मनुष्य और तिर्यञ्च बाँधते हैं, छह प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको देव-नारकी बाँधते हैं और तीन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको ईशान स्वर्ग तकके देव बाँधते हैं ।।४२८॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, २४६-२४८ । १. शतक० ६१ कब किरंति । ३३ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ पञ्चसंग्रह अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं देवायुको छोड़कर शेष तीन आयु, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलेन्द्रित्रिक और वैक्रियिकषट्क, इन पन्द्रह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य और संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च करते हैं । तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, तथा उसके अंगोपाङ्गनामकर्म, सृपाटिकासंहनन और उद्योत; इन छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध देव और नारकी करते हैं । एकेन्द्रिय, आतप और स्थावरनामकर्म, इन तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ईशानकल्प तकके देव और देवी करते हैं ।।४२६-४३१ ॥ विशेषार्थं - उत्कृष्ट संक्लेशसे कुछ हीन, या नीचे उतरते संक्लेशको ईषन्मध्यम संक्लेश' करते हैं । [ मूलगा ०६०] 'सेसाणं चउगइया ठिदि उकस्सं करिंति पयडीणं । उक्कस्ससंकिलेसेण ईसिमहमज्झिमेणावि' ||४३२॥ शेषाणां द्वानवतिसंख्योप्रेतप्रकृतीनां १२ उत्कृष्टस्थितिबन्धं उत्कृष्टसंक्लेशेन परिणामेनाथवा ईपन्मध्यमसंक्लिष्टेन परिणामेन चातुर्गतिका मिथ्यादृष्टया जीवा कुर्वन्ति बध्नन्ति ६२ ॥ ४३२ ॥ ऊपर कही हुई प्रकृतियोंके सिवाय जितनी भी शेष बानवै प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चारों गतिके जीव उत्कृष्ट संक्लेशसे, अथवा ईषन्मध्यम संक्लेश से करते हैं ॥४३२ ॥ अब मूलशतककार शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाले स्वामियोंका निर्देश करते हैं अब मूलशतककार जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैं[मूलगा ०६१] ' आहारय-तित्थयरं णियट्टि अणियट्टि पुरिस संजलणं । बंध सुहुमसराओ सायजसुच्चावरण विग्यं ॥४३३|| ३|५| दंसणावरणचउक्कं ॥१७॥ अथ जघन्यस्थितिबन्धस्वामिजीवान् गाथाद्वयेनाऽऽह - [ 'आहारयतिथ्यरं' इत्यादि । ] आहारकाहारकाङ्गोपाङ्गद्वयस्य तीर्थंकरत्वस्य च जघन्यस्थितिं अपूर्वकरणो निर्बंध्नाति ३ । पुंवेद-चतुः संज्वलनानां जघन्यस्थितिं अनिवृत्तिकरणगुणस्थानस्थो मुनिर्बंध्नाति ५ । सातवेदनीयं १ यशस्कीर्त्ति १ उच्चैर्गोत्र १ ज्ञानावरणपञ्चकं ५ दानाद्यन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ चेति सप्तदशप्रकृतीनां जघन्य स्थितिबन्धं सूक्ष्मसाम्पराय एवं बध्नाति १७ ॥४३३ ॥ आहारकद्विक और तीर्थङ्करनामकर्म; इन तीन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको अपूर्वकरणक्षपक; पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क इन पाँचको जघन्य स्थितिको अनिवृत्तिकरण-क्षपक; तथा पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, सातावेदनीय, यशःकीर्त्ति और उच्चगोत्र; इन सत्तरह प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक बाँधते हैं ||४३३|| ३|५| ( ज्ञानावरण ५ + दर्शनावरण ४ + अन्तराय ५ + सा० १ ० १ ० १ ) १७ 1. सं० पञ्चसं० ४, २४६ । १.४, २५० - २५१ । १. शतक० ६२ । २. शतक० ६३ । +ब किरति । १. उक्कोससंकिलेसाओ ऊण ऊगतराणि य ठिइबन्धझवसाणठाणाणि, तेहिंपि तमेव उक्कस्सियं ठिइं व्विति, ते ईसिमज्झिमा वुच्चंति । शतकचूर्णि । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २५ [मूलगा०६२] 'छण्हमसण्णी ट्ठिदिं कुणइ जहण्णमाउमाणमण्णयरो। सेसाणं पञ्जत्तो बायर एइंदियविसुद्धो ॥४३४॥ देवगति देवगत्यानुपूर्व्य-नरकगति-तदानु पूर्व्य-क्रियिकतदङ्गोपाङ्गानां षण्णां प्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धं असंज्ञी एव बध्नाति ६ । आयुषां चतुर्णा जघन्यस्थिति संज्ञी वा असंज्ञी वा बध्नाति ४ । शेषाणां पञ्चाशीतिप्रकृतीनां ८५ एकेन्द्रियो बादरः पर्याप्तको जीवो विशुद्धिं प्राप्तः सन् जघन्यस्थितिबन्धं बध्नाति ॥४३॥ वैक्रियिकपटकका जघन्य स्थितिबन्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च करता है। देवायु और नरकायुका जघन्य स्थितिबन्ध कोई एक संज्ञी या असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव करता है। मनुष्य और तिर्यगायुका जघन्य स्थितिबन्ध कर्मभूमियां मनुष्य या तिर्यश्च करते हैं। शेष ८५ प्रकृतियोंका जधन्य स्थितिबन्ध सर्वविशुद्ध, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव करता है ॥४३४।। अब भाष्यगाथाकार उक्त कथन-गत विशेषताका स्पष्टीकरण करते हैं "णिरयदुयस्स असण्णी पंचिंदियपुण्णओ ठिदिजहणं ! जीवो करेइ जुत्तो तञ्जोगो संकिलेसेण ॥४३॥ तिस्से हवेञ्ज हेऊ सो चेव य कुणइ सुरचउक्कस्स । णवरि विसेसो जाणे सव्वविसुद्धीए जुत्तो दु॥४३६॥ पंचिंदिओ असण्णी सग्णी वा कुणइ मंदठिदिवंधं । णिरयाउस्स य मिच्छो सबविसुद्धो दु पञ्जत्तो ॥४३७॥ देवाउस्स य एवं तप्पाओग्गेण संकिलेसेण । जुत्तो णवरि य जीवो जहण्णबंधट्टिदिं कुणइ ॥४३८॥ 'मणुय-तिरियाउयस्स हि तिरिक्ख-मणुसाण कम्मभूमीणं । ठिदिबंधो दु जहण्णो तज्जोयासंकिलेसेण ॥४३६॥ सेणाणं पयडीणं जहण्णबंधट्टिदिं कुणइ । एइंदियपञ्जत्तो सव्वनिसुद्धो दु वायरो जीवो ॥४४०॥ - सेसा ८५। एवं ठिदिबंधो समत्तो। वैक्रियिकपटकस्य बन्धको विशेषयति--[ 'णिरयदुगस्स असणी' इत्यादि।] नारकद्विकस्य नरकगति-तदानपूर्व्यद्वयस्य जघन्यस्थितिबन्धं पञ्चेन्द्रियः पर्याप्तकः असंज्ञी जीवः करोति बध्नाति २। स कथम्भूतः ? अज्ञी तद्योग्यसक्लेशपरिणामेन युक्तः सहितः तस्य नरकद्विकस्य जघन्यस्थितिबन्धकः। स एवाऽसंज्ञी पर्याप्तकः सुरचतुष्कस्य जघन्यस्थितिबन्धहेतुरसंज्ञो पञ्चेन्द्रियःपर्याप्तको भवति-देवगति-तदानपूर्व्यवैक्रियिक-तदङ्गोपाङ्गानां चतुर्णा जघन्यस्थितिबन्धकोऽसंज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्याप्तको भवति । नवरि विशेष: 1. सं० पञ्चसं० ४. २५२ । 2. ४, २५३-२५४ । 3. ४, २५५ । 4. ४, २५६ । 5. ४, २५७ । १. शतक० ६४ । 'ब गं। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पञ्चसंग्रह सर्वविशुद्धया युक्तः, इति विशेष स्वं जानीहि हे भव्य ! मिथ्याष्टिः पञ्चेन्द्रियः पर्याप्तकोऽसंज्ञी जीवः, अथवा संज्ञी जीवो वा नारकायुषो मन्दस्थितिबन्धं जघन्यस्थितिबन्धं करोति बध्नाति । स कथम्भूतः ? असंज्ञी संज्ञा वा तत्प्रायोग्यं योऽसंज्ञी नरकायुषो जघन्यस्थितिबन्धकः सः संक्लिष्टपरिणत्या युक्तः । यः संज्ञी जीवः नरकायुषो जघन्यस्थितिबन्धकः स सर्वविशुद्धः सर्वविशुद्धधा युक्तः । देवायुपश्च एवं नरकायुष्योक्तवत् मिथ्यादृष्टिः असंज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्याप्सका संज्ञी पन्चेन्द्रियपर्यातको वा देवायुषः जघन्यस्थितिबन्धं करोति । किञ्चिअवरि विशेषः-योऽसंज्ञी मिथ्यादृष्टिः पन्चेन्द्रियपर्याप्तकः देवायुषो जघन्यस्थितिबन्धकः स विशुद्धिपरिणत्या युक्तः, यस्तु संज्ञी मिथ्याष्टिः पर्याप्तकः देवायुषो जघन्यस्थितिबन्धकः स तत्प्रायोग्यसंक्लेशेन युक्तः, इति विशेष जानीहि । कर्मभूमिजानां तिर्यग्मनुष्याणां मनुष्यतिर्यगायुषोयोजघन्यस्थितिबन्धो भवति । अन्तर्मुहूर्त्तकालः जघन्यस्थितिबन्धः । केन ? तद्योग्यसंक्लेशेन । शेषाणां पञ्चाशीतिप्रकृतीनां ८५ जघन्यस्थितिबन्धं बादरैकेन्द्रियपर्यातको जीवस्तद्योग्यविशुद्ध एव करोति बध्नाति ८५॥४३५-४४०॥ इति स्थितिबन्धः समाप्तः । नरकद्विक अर्थात् नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका जघन्यस्थितिबन्ध तद्-योग्य संक्लेशसे युक्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यश्च जीव करता है । जो जीव नरकद्विकका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, वही जीव ही सुरचतुष्क ( देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक-अङ्गोपाङ्ग) का भी जघन्य स्थितिबन्ध करता है। केवल इतनी बात विशेष जानना चाहिए कि सुरचतुष्कका बन्धक तद्-योग्य सर्वविशुद्धिसे युक्त होता है। नरकायुका जघन्य स्थितिबन्ध संक्लेशपरिणतिसे युक्त मिथ्यादृष्टि पर्याप्त असंज्ञी पश्चेन्द्रिय अथवा सर्वविशुद्ध संज्ञीपञ्चेन्द्रिय करता है। देवायुका जघन्य स्थितिबन्ध भी नरकायुके बन्धकके समान पर्याप्त, मिथ्यादृष्टि असंज्ञी अथवा संज्ञी जीव करता है। केवल इतनी विशेषता ज्ञातव्य है कि यदि वह बन्धक असंज्ञी हो तो सर्वविशुद्ध और यदि संज्ञी हो, तो तद्-योग्य संक्लेशसे युक्त होना चाहिए । मनुष्यायु और तिर्यगायुका जघन्य स्थितिबन्ध तद्-योग्य संक्लेशसे युक्त कर्मभूमिके तिर्यश्च और मनुष्योंके होता है। शेष बची ८५ प्रकृतियोंको जघन्य स्थितिबन्धको बादर, पर्याप्तक, सर्वविशुद्ध एकेन्द्रिय जीव करता है ।।४३५-४४०॥ इस प्रकार स्थितिबन्ध समाप्त हुआ। अब अनुभागबन्धका निरूपण करते हैं सादि अणादिय अट्ट य पसथिदरपरूवणा तहा सण्णा । पच्चय-विवाय देसा सामित्तणाह अणुभागो ॥४४१॥ ८।१४ अथ कर्मणां रसविशेषो विपाकरूपोऽनुभागस्तस्य बन्धभेदान् गाथाद्विचत्वारिंशता प्राह--'सादि अणादिय भट्ट य' इत्यादि । अनुभागबन्धश्चतुर्दशधा भवति । स कथम् ? साधादयोऽष्टौ इति । साधनुभागबन्धः १ अनाद्यनुभागबन्धः २ ध्रुवानुभागबन्धः ३ अध्रुवानुभागबन्धः ४ जघन्यानुभागबन्धः ५ अजघन्यानुभागवन्धः ६ उस्कृष्टानुभागबन्धः ७ अनुत्कृष्टानुभागबन्धः ८ प्रशस्तप्ररूपणानुभागबन्धः । अप्रशस्ताशुभप्रकृत्यानुभागबन्धः १० तथा देशघाति-सर्वघातिका इति संज्ञानुभागबन्धः ११ मिथ्यात्वादिप्रधानप्रत्ययानुभागबन्धनिर्देशः १२ विपाकानुभागबन्धोपदेशः १३ स्वामित्वेन सहानुभागबन्धः १४ इति चतुर्दशानुभागवन्धान आह ॥४४१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, २६१ । । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६१ अनुभागबन्धके चौदह भेद हैं-वे इस प्रकार हैं-१ सादि-अनुभागबन्ध, २ अनादिअनुभागबन्ध, ३ ध्रुव-अनुभागबन्ध, ४अध्रुव-अनुभागबन्ध, ५ जघन्य-अनुभाराबन्ध, ६अजघन्यअनुभागबन्ध, ७ उत्कृष्ट-अनुभागबन्ध, ८ अनुत्कृष्ट-अनुभागबन्ध, प्रशस्तप्रकृति-अनुभागबन्ध, १० अप्रशस्तप्रकृति-अनुभागबन्ध, ११ देशघाति-सर्वघातिसंज्ञानुभागबन्ध, १२ प्रत्ययानुभागबन्ध, १३ विपाकानुभागबन्ध और १४ स्वामित्वेन सह अनुभागबन्ध । इन चौदह भेदोंकी अपेक्षा अनुभागबन्धका वर्णन किया जायगा ॥४४१॥ अब पहले मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि भेदोंमें संभव सादि आदि अनुभागबन्धका निरूपण करते हैं[मूलगा०६३] 'घाईणं अजहण्णो अणुक्कस्सो वेयणीय-णामाणं । अजहण्णमणुकस्सो गोए अणुभागबंधम्मि' ॥४४२॥ [मूलगा०६४] 'साइ अणाइ धुव अधुवो बंधो दु मूलपयडीणं । सेसतिए दुवियप्पो आउचउक्के वि एमेव ॥४४३॥ एत्थ च उक्कस्सादीणं साइयादयो भेदा । अथ मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टाद्यनुभागानां साद्यादिसम्भवासम्भवौ गाथाद्वयेनाऽऽह-['घाईणं अजहण्णो' इत्यादि । घातिनां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीयान्तरायाणां मूलप्रकृतीनां चतुर्णा अजघन्यानुभागबन्धः स सादिबन्धः १ अनादिबन्धः २ ध्र ववन्धः ३ अध्र वबन्धः ४ इति अजघन्यानुभागबन्धः घातिनां चतुर्विधो भवति ४। वेदनीय-नामकर्मणोर्द्वयोरनुत्कृष्टानुभागबन्धः साधनादि-ध्र वाध्र वभेदाच्चतुर्विधो भवति ४ । गोत्रकर्मणोऽनुभागबन्धे अजधन्यानुत्कृष्टानुभागबन्धौ साधनादिध्र वाध्रु वभेदाच्चतुर्विधौ ४। शेषत्रिकेषु द्विविकल्पः घातिनां शेषत्रिके इत्युक्ते जघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टानुभागबन्धेषु साय- वौ अनुभागबन्धौ द्वौ भवतः। वेदनीय-नामकर्मणोः शेषत्रिके इत्युक्ते उस्कृष्ट-जघन्याजघन्येषु साद्यध्र वी अनुभागबन्धौ भवतः ३। गोत्रस्य जघन्योत्कृष्टानुभागबन्धौ द्वौ विकल्यौ साद्यध्र वबन्धौ । आयुश्चतुष्के एवं साद्यध्र वौ-आयुश्चतुष्के जघन्याजघन्योत्कृष्टबन्धाश्चत्वारः साद्यध्र वानभागबन्धा भवन्ति ॥४४२-४४३॥ ____ अनुभागबन्धे आयुश्चतुष्कम्-- अनुभागबन्धे घातिचतुष्कम्-- ४ जघ० सादि ० ० अध्रुव ४ जध० सादि ० ० अध्रुव अज० सादि ४ अज० सादि अनादि ध्रुव , ४ उस्क० सादि ० ० . उत्कृ० सादि ४ अनु० सादि ० ० , ४ अनु० सादि . . , अनुभागबन्धे नाम-वेद्ये-- अनुभागबन्धे गोत्रम्-- २ जघ० सादि . . अध्रुव १ जघ० सादि . ध्रुव अध्रुव २ अज. सादि ० ० १ अज० सादि अनादि , " २ उत्कृ० सादि . . , १ उत्कृ० सादि ० " " २ अनु० सादि अनादि ध्रुव , १ अनु० सादि अनादि ,, , मूल प्रकृतियोंमें जो चार घातिया कर्म हैं, उनका अजघन्यानुभागबन्ध सादि, अनादि, ध्रव और अध्रव इन चारों ही प्रकारोंका होता है। वेदनीय और नामकर्मका अनुत्कृष्टानुभागबन्ध भी चारों प्रकारका होता है । तथा गोत्रकर्मका अजघन्यानुभागबन्ध और अनुत्कृष्टानुभागबन्ध भी चारों प्रकारका होता है। शेषत्रिक अर्थात् घातिया कर्मों के अजघन्यानुभागबन्धके ० ००० 1. सं० पञ्चसं०४, २६२ । 2. ४,२६३-२६४ । १. शतक० ६५ । २. शतक० ६६ । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह शेष जो जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध हैं, वे दो प्रकार के होते हैं—सादि अनुभागबन्ध और अध्रुवअनुभागबन्ध | वेदनीय और नामकर्मके शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य- अनुभागबन्ध भी सादि और अध्र बके भेदसे दो प्रकारके होते है । गोत्रकर्मके जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी सादि और अध्रुवरूप दो-दो प्रकार के होते हैं। आयुकर्म उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य; ये चारों ही प्रकारके अनुभागबन्ध सादि और अध्रुव ये दो ही प्रकार के होते हैं ॥४४२-४४३|| 9 २६२ ४ ४ ४ ४ २ २ २ २ यहाँपर मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदिके सादि आदि बन्धोंका चित्र इस प्रकार है चार घातिया कर्म सा० सा० अना० सा० सा० जघ० अज० उत्कृ० अनु० आयुक सा० सा० सा० सा० ० वेदनीय और नामकर्म ० ० ० ० ० जघ ० सा० अज० सा० उत्कृ० सा० अनु० सा० अना० ध्रुव ० ० ० O ० ० ० G अध्रु० अध्रु० भध्र ु० अधु० अश्रु २ अध्रु० २ अध्रु०२ अध्र० ४ ४ ४ ५ ४ 9 9 9 जघ० अज० उत्कृ० अनु० सा० [मूलगा ०६५] 'अट्ठण्हमणुक्कस्सो तेयालाणमजहण्णओ बंधो । ० ० ० 4. सं० पञ्चसं० ४, २६५-२६६ । .४, २६७-२६८ । १. शतक० ६७ । गोत्रकर्म ० जघ ० भज० सा० सा० उत्कृ० अनु० सा० अना० ० ० ० ओ दु चउवियप्पो सेसतिए होइ दुवियप्पो ||४४४॥ ध्र ० ܒ o ० अना० प्र० ० ० अब मूलशतककार उत्तरप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुत्कृष्टादि भेदों में सम्भव सादि आदि अनुभागबन्धकी प्ररूपणा करते हैं अध्रु० २ अ०४ "तेजा कम्मसरीरं वण्णचउक्कं पसत्थमगुरुलहुँ । णिमिणं च जाण अट्ठसु चदुव्वियप्पो अणुक्कस्सो ||४४५|| अप्र० २ अध्रु० २ ८|४३ अथ ध्रुवासु प्रशस्ताप्रशस्तानामध्रुवाणां च जघन्याजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टानां सम्भवत्साद्यादिभेदान् गाथापञ्चकेनाऽऽह - [ 'अट्टण्हमणुक्कस्सो' इत्यादि । ] अष्टानां प्रकृतीनां ८ अनुत्कृष्टानुभागबन्धः साद्यनादिध्रुवाभ्रुवभेदेन चतुर्विकल्पः ४ । त्रिचत्वारिंशतः प्रकृतीनां ४३ अजघन्यानुभागबन्धः साद्यादिचतुर्भेदो ४ ज्ञेयः । शेषत्रिकेषु द्विविकल्पः साद्यध्रुवभेदाद् द्विप्रकारः ८|४३ ॥४४४॥ ं अध्रु० २ अध्रु० ४ वक्ष्यमाण आठ उत्तरप्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध, तथा तेतालीस उत्तरप्रकृतियोंका अजघन्य अनुभागबन्ध सादि आदि चारों प्रकारका जानना चाहिए । शेषत्रिक अर्थात् आठ प्रकृतियोंके जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट, तथा तेतालीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभागबन्ध सादि और अध्रुव ऐसे दो-दो प्रकार के होते हैं ||४४४॥ - P अब भाष्यगाथाकार उक्त आठ और तेतालीस प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं अध्रु० २ अध्रु० ४ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६३ णाणंतरायदसयं दसणणव मिच्छ सोलस कसाया । उवघाय भय दुगुंछा वण्णचउक्कं च अप्पसत्थं च ॥४४६॥ तेयालं पयडीणं उक्कस्साईसु जाण दुवियप्पो । बंधो दु चदुवियप्पो अजहण्णो साइयाईया ॥४४७॥ तैजस-कार्मणशरीरद्वयं २ प्रशस्तवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शचतुष्कं ४ अगुरुलघुकं १ निर्माणं १ चेति ध्रुवप्रशस्तप्रकृतीनां अष्टानां अनुरस्कृष्टानुभागबन्धः सायनादि-[ध्रुवा-]ध्रुवभेदाच्चतुर्धा भवति । शेषजघन्याजघन्योत्कृष्टानुभागबन्धात्रयः साद्यध्रुवभेदाभ्यां द्विधा, एवं त्वं जानीहि हे महानुभाव ! मतिज्ञानावरणादिपञ्चकं ५ दानान्तरायादिपञ्चकं ५ चक्षुर्दर्शनावरणादिनवकं ६ मिथ्यात्वं १ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान[प्रत्याख्यान-] संज्वलनकोध-मान-माया-लोभाः षोडश कषायाः १६ उपघातः १ भयं १ जुगुप्सा १ वर्णचतुष्कमप्रशस्तं ४ चेति ध्रुवाप्रशस्तानां त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनां ४३ उत्कृष्टानुत्कृष्ट-जघन्यानुभागबन्धास्त्रयः द्विविकल्पाः साद्यध्रुवभेदाभ्यां द्विविधा इति त्वं जानीहि भो सिद्धान्तवेदिन् ! तासां च प्रकृतीनां ४३ अजघन्यानुभागबन्धश्चतुर्विकल्पः साधनादि-ध्रुवाध्रुवभेदाच्चतुःप्रकारो भवति ॥४४५-४४७॥ तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण; इन आठ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चारों प्रकारका जानना चाहिए । ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी नौ, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, उपघात, भय, जुगुप्सा और अप्रशस्त वर्णचतुष्क; इन तेतालीस प्रकृतियाका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभागबन्ध सादि और अध्र व दो प्रकारका है। तथा इन्हींका अजघन्य अनुभागबन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है ॥४४५-४४७॥ [मूलगा०६६] 'उक्करसमणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णगो दु अणुभागो। सादिय अर्द्धवबंधो पयडीणं होइ सेसाणं ॥४४८॥ ७३। शेषाणां अध्रुवत्रिसप्ततेः प्रकृतीनां ७३ उत्कृष्टानुभागबन्धः साद्य-वभेदाभ्यां द्विविधः । अनुत्कृष्टानुभागबन्धः साद्यध्रुवाभ्यां अजघन्यानुभागबन्धः साद्यध्रुवभेदाभ्यां द्वेधा भवति ॥४४८॥ अनुभागबन्धे ८ प्रकृतीनाम् ___अनुभागबन्धे ४३ प्रकृतीनाम्८ जघ० सादि . . अध्रुव ४३ जघ० अज० सादि . . . अध्रव ४३ अज० अना०, ध्रव अध्रुव ८ उत्कृ० सादि . . अध्रुव ४३ उत्कृ० अनु० सादि अनादि ध्रुव, अध्रुव ४३ अनु० .. अनुभागबन्धे ७३ प्रकृतीनाम्७३. जघ० सादि . . अध्रव ७३ . अज सादि . अध्रव सादि ७३ अनु० सादि शेष ७३ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सादि और अध्रुव ऐसे दो प्रकारका होता है ।।४४८॥ WWW उत्कृ० 1. सं० पञ्चसं०४, २६६ । १. शतक०६८ । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ पश्चसंग्रह उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि अनुभागोंके सादि आदि बन्धोंकी संदृष्टि इस प्रकार है८ प्रकृतियोंके सादि आदि बन्ध ४३ प्रकृतियोंके सादि आदि बन्ध ७३ प्रकृतियोंके सादि आदि बन्ध जघ० सादि ० . अध्रु० २ जघ० सादि . ध्रु० अब्रु० २ जघ० सादि ० ० अ६०२ अज. सादि . . अध्रु० २ अज० सादि अना० ध्रुव , ४ अज० सादि ० ० अध्रु० २ उत्कृ० सादि . . अध्रु० २ उत्कृ० सादि . ध्रु , २ उस्कृ० सादि . ० अध्रु० २ अनु० सादि अना० ध्रुव अध्रु० ४ अनु० सादि . ध्रु., २ अनु. सादि ० ० अध्रु० २ इस प्रकार उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि चारके सादि-आदि चार प्रकारके " अनुभागबन्धका वर्णन समाप्त हुआ। अब मूल और उत्तरप्रकृतियोंके स्वमुख-परमुख विपाकरूप अनुभागका निरूपण करते हैं 'पच्चंति मूलपयडी पूणं समुहेण सव्वजीवाणं । समुहेण परमुहेण य मोहाउविवजिया सेसा ॥४४६।। एत्थ सेसा उत्तरपयडीओ वुच्चंति । अथ स्वमुख-परमुखविपाकरूपोऽनुभागः मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च गाथाद्वयन कथ्यते[ 'पञ्चंति मूलपयडी' इत्यादि । ] नूनं निश्चयेन सर्वमुलप्रकृतयः ज्ञानावरणादयः ८ स्वमुखेन स्वोदयेन सर्वेषां जीवानां पाचयन्ति उदयं यान्ति सर्वेषां जीवानां सर्वमूलप्रकृतीनां = अनुभागो विपाकरूपः आत्मनि फलदानं स्वमुखेन भवति । कथम् ? मतिज्ञानावरणं मतिज्ञानरूपेणैव [ उदितं ] भवति । मोहनीयायुःप्रकृतिवर्जिता उत्तरप्रकृतयः स्वमुखेन स्वोदयेन, परमुखेन परोदयेन पाचयन्ति उदयं यान्ति अनुभवन्ति । उत्तरप्रकृतयस्तुल्यजातीया अन्योदयेन स्वोदयेन वा पच्यन्ते । तथा गोमट्टसारे सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनानुभवो भवति [ इत्युक्तम् ] ॥४४६॥ मूल प्रकृतियाँ नियमसे सर्व जीवोंके स्वमुख द्वारा ही पचती हैं, अर्थात् स्वोदय द्वारा ही विपाकको प्राप्त होती हैं। किन्त मोह और आयकर्मको छोड़कर शेष उत्तरप्रकृतियाँ स्वमखसे भी विपाकको प्राप्त होती हैं और परमुखसे भी विपाकको प्राप्त होती हैं अर्थात् फल देती हैं।।४४६॥ यहाँ गाथोक्त 'शेष' पदसे उत्तरप्रकृतियाँ कही गई हैं। किन्तु आयुकर्मके चारों तथा मोहकर्मके दोनों मूलभेद पर मुखसे विपाकको प्राप्त नहीं होते, इस बातका निरूपण करते हैं-- पच्चइ णो मणुयाऊ णिरयाउमुहेण समयणिदिई । तह चरियमोहणीयं दसणमोहेण संजुत्तं ॥४५०॥ उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीनां परमुखेनापि अनुभवो भवति । परन्तु भायुःकर्म-दर्शनमोह-चारित्रमोहान् वर्जयित्वा । तदाह--[ 'पञ्चइ णो मणुयाऊ' इत्यादि । ] मनुष्यायुः नारकायुष्योदयमुखेन न पच्यते, नोदयं याति । तथाहि-यदा जीवो मनुष्यायुष्यं भुक्त, तदा नरकायुस्तिर्यगायुर्देवायुर्वा न भुंक्ते । यदा नरकायुर्जीवो भुङ्क्ते, तदा तिर्यगायुर्मनुष्यायुदेवायुर्वा न भुङ्क्ते तेनायुःप्रकृतयस्तुल्यजातीयाः अपि स्वमुखेनैव भुज्यन्ते, न तु परमुखेनेति समय निर्दिष्ट जिनसूत्रे जिनैरुक्तम् । चारित्रमोहनीयं दर्शनमोहनीयेन युक्तं न पच्यते नानुभवति । यथा दर्शनमोइं भुजानः पुमान् चारित्रमोहं न भुङ्क्ते। चारित्रमोहं भुजानः पुमान् दर्शनमोहं न भुङ्क्ते। एवं तिसृणां प्रकृतीनां तुल्पजातीयानामपि परमुखेनानभवो न भवति ॥४५॥ इति स्वमुख-परमुखविराकानुभागबन्धः समाप्तः । ___1. ४, सं० पञ्चसं० २७० । 2. ४, २७१-२७२ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६५ भुज्यमान मनुष्यायु-नरकायुमुखसे विपाकको प्राप्त नहीं होती है, ऐसा. परमागममें कहा गया है। अर्थात् कोई भी विवक्षित आयु किसी भी अन्य आयुके रूपसे फल नहीं देती है। तथा चारित्रमोहनीयकर्म भी दर्शनमोहनीयसे संयुक्त होकर अर्थात् दर्शनमोहके रूपसे फल नहीं देता है । इसी प्रकार दर्शनमोहनीयकर्म भी चारित्रमोहनीयके मुखसे फल नहीं देता है ॥४५०॥ ___इस प्रकार स्वमुख-परमुख विपाकानुभागबन्ध समाप्त हुआ। अव प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धका वर्णन करते हैं-- [मूलगा०६७] 'सुहपयडीण विसोही तिव्वं असुहाण संकिलेसेण । विवरीए दु जहण्णो अणुभाओ सव्वपयडीणं ॥४५१॥ ११॥ अथ प्रशस्ताप्रशस्तप्रकृतीनामनुभागबन्धः कथ्यते-[ 'सुहपयढीण विसोही' इत्यादि । शुभप्रकृतीनां सातादीनां ४२ विशुद्धपरिणामेन तीवानुभागो भवति । असाताद्यप्रशस्तानां ८२ प्रकृतीनां संक्लेशेन परिणामेन तीव्रानुभागो भवति । विपरीतेन संक्लेशपरिणामेन प्रशस्तानां प्रकृतीनां जघन्यानुभागो भवति । विशुद्धपरिणामेनाप्रशस्तानां जघन्यानुभागो भवति ॥४५१॥ सातावेदनीय आदिक शुभप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट होता है । असातावेदनीय आदिक अशुभ प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध संक्लेश परिणामोंसे उत्कृष्ट होता है। तथा इससे विपरीत परिणामोंमें सर्व प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागवन्ध होता है । अर्थात् शुभ प्रकृतियोंका संक्लेशसे और अशुभप्रकृतियोंका विशुद्धिसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है ।।४५१॥ अब तीव्र अनुभागबन्धके स्वामोका निरूपण करते हैं[मूलगा०६८] "वायालं पि पसत्था विसोहिगुण उक्कडस्स तिव्वाओ । वासीय अप्पसत्था मिच्छुक्कड' संकिलिट्ठस्स ॥४५२।। ४२१८२ सातादिप्रशस्ता द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतयः ४२ विशुद्धगुणेनोत्कटस्य जीवस्य तीयानुभागो[गा ] भवति [न्ति] ४२ । असातादिचतुर्वर्णोपेताप्रशस्ता: द्वयशीतिः प्रकृतयः ८२ मिथ्यादृष्ट्यत्कटस्य संक्लिष्टस्य जीवस्य तीव्रानुभागो [गा] भवति [न्ति ] ॥४५२॥ __ जो व्यालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं। उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्धिगुणकी उत्कटतावाले जीवके होता है। तथा व्यासी जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥४५२।। अब प्रशस्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं "सायं तिण्णेवाऊग मणुयदुयं देवदुव य जाणाहि । पंचसरीरं पंचिंदियं च संठाणमाईयं ॥४५३॥ तिण्णि य अंगोवंगं पसत्थविहायगइ आइसंघयणं । वण्णचउक्कं अगुरुय परघादुस्सासउज्जोवं ॥४५४॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, २७३ । 2. ४, २७४ । 3. ४, २७५-२७७ । १. शतक०६६ । २. शतक०७० । *ब माईया। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पञ्चसंग्रह आदाव तसचउक्कं थिर सुह सुभगं च सुस्सरं णिमिणं । आदेजं जसकित्ती तित्थयरं उच्च बादालं ॥४५॥ ताः प्रशस्ताः काः, अप्रशस्ताः का इति चेद् गाथासप्लकेनाऽऽह-[ 'सादं तिपणेवाउग' इत्यादि । ] सातावेदनीयं तिर्यगायुमनुष्यायुर्देवायुस्त्रितयं ३ मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्व्यद्वयं २ देवगति-तदानुपूर्व्यद्वयं २ औदारिक-वैक्रियिकाहारक तैजस-कार्मणकशरीराणि पञ्च ५ पञ्चेन्द्रियजाति: १ समचतुरस्त्रसंस्थानं १ औदारिक वैक्रियिकाहारकशरीराङ्गोपाङ्गानि ३ प्रशस्तविहायोगतिः १ वज्रवृषभनाराचसंहननं १ प्रशस्तवर्णः प्रशस्तरसः प्रशस्तगन्धः प्रशस्तस्पर्श इति प्रशस्तवर्णचतुष्कं ४ भगुरुलघुः १ परघातः १ उच्छासः १ उद्योतः १ आतपः १ त बादर १ पर्याप्त प्रत्येकशरीरमिति सचतुष्कं ४ स्थिरः . शुभः १ सुभगं १ सुस्वरः १ निर्माणं १ आदेयं १ यशस्कीतिः १ तीर्थकरत्वं १ उच्चैर्गोत्र, मिति द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतयः प्रशस्ताः शुभाः पुण्यरूपा भवन्ति ४२ । 'सद्वेधशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्य' मिति परमागमसूत्रवचनात् पुण्यमिति ॥४५३-४५५॥ सातावेदनीय, नरकायुके विना शेष तीन आयु, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पाँच शरीर, पंचेन्द्रियजाति, आदिका समचतुरस्त्रसंस्थान, तीनों अंगोपांग, प्रशस्त विहायोगति, आदिका वज्रवृषभनाराचसंहनन, प्रशस्तवर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्रास, उद्योत, आतप, त्रसचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, निर्माण, आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थकर और उच्चगोत्र; ये व्यालीस प्रशस्त, शुभ या पुण्यप्रकृतियाँ हैं ।।४५३-४५५।। अब अप्रशस्त प्रकृतियोका नाम-निर्देश करते हैं 'णाणंतरायदसयं दंसणण्व मोहणीय छव्वीसं। णिरयगइ तिरियदोण्णि य तेसिं तह आणुपुत्वीयं ॥४५६॥ संठाणं पंचेव य संघयणं चेव होंति पंचेव । वण्णचउक्कं अपसत्थविहायगई य उवघायं ॥४५७।। एइंदिय-णिरयाऊ तिण्णि य वियलिंदियं असायं च । अप्पज्जत्तं थावर सुहुमं साहारणं णाम ॥४५८|| दुबभग दुस्सरमजसं अणाइज्जं चेव अथिरमसुहं च । णीचागोदं च तहा वासीदी अप्पसत्थं तु ॥४५९॥ पञ्च ज्ञानावरणानि अन्तरायपञ्चकम् ५ नव दर्शनावरणानि । एडविंशतिर्मोहनीयानि २६ नरकगतितिर्यग्गतिद्वयं २ तद्व यस्यानुपूर्यद्वयं २ प्रथमसंस्थानवर्जितसंस्थानपञ्चकं ५ प्रथमसंहननवर्जितसंहननपञ्चक ५ अप्रशस्तवर्णचतुष्कं ४ अप्रशस्तविहायोगतिः १ उपघातः १ एकेन्द्रियं १ नारकायुष्यं १ विकलत्रयं ३ असातावेदनीयं १ अपर्याप्तं १ स्थावरं १ सूचमं १ साधारणं नाम १ दुर्भगं १ दुःस्वरः १ अयशः १ आदेयं । अस्थिरं १ अशुभं नीचैर्गोत्रं चेति द्वयशीतिः अप्रशस्ताः अशुभाः पापरूपाः प्रकृतयः ८२ । 'अतोऽन्यत् पाप' मिति' वचनात्पापरूपाः ॥४५६-४५६॥ ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी नौ, मोहनीयकी छब्बीस, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आदिके विना शेष पाँचों संस्थान, आदिके विना *द वायालं । 1. सं० पञ्चसं०४, २८१-२८४ । १. तत्त्वार्थसू० अ० ८ सू० २५ । २. तत्त्वार्थसू० ८, २६ ! Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २६७ शेष पाँचों संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, उपघात, एकेन्द्रियजाति, नरकायु, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, असातावेदनीय, अपर्याप्त, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, दुर्भग, दुःस्वर, अयश-कीर्ति, अनादेय, अस्थिर, अशुभ और नीचगोत्र; ये व्यासी अप्रशस्त, अशुभ या पापप्रकृतियाँ हैं ॥ ४५६-४५६॥ _ अब उत्तरप्रकृतियोंमेंसे पहले प्रशस्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाले जीवोंका विशेष वर्णन [मूलगा०६६] आदाओ उज्जोयं माणुस-तिरियाउगं पसत्थासु।। मिच्छस्स होति तिव्वा सम्माइट्ठीसु सेसाओ ॥४६०॥ अथोकष्टानुभागवन्धकान् जीवान गाथासप्तकेनाऽऽह--['आदाओ उज्जोव' इत्यादि । प्रशस्तप्रकृतिषु ४२ आतपः १ उद्योतः १ मानव-तिर्यगायुषी द्वे २ चेति चतस्रः अमूः प्रशस्ताः प्रकृतयः विशुद्ध मिथ्यादृष्टस्तीवानुभागा भवन्ति । शेषाः साताद्यष्टात्रिंशस्प्रशस्ताः प्रकृतयः ३८ विशुद्धसम्यग्दृष्टस्तीवानुभागा भवन्ति ॥४६०॥ प्रशस्तप्रकृतियोंमें जो आतप, उद्योत, मनुष्यायु और तिर्यगायु, ये चार प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि जीवके होता है। शेष अड़तीस जो पुण्यप्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि जीवोंके होता है ॥४६०॥ "मणुयदुयं ओरालियदुगं च तह चेव आइसंघयणं । णिरय-सुरा सद्दिट्ठी करिति तिव्यं विसुद्धीए ॥४६१॥ सम्यग्दृष्ट युक्ताष्टात्रिंशन्मध्ये मनुष्यद्विक २ औदारिकद्विकं २ वज्रवृषभनारासंहननं चेति प्रकृतिपञ्चक ५ अनन्तानुबन्धिविसंयोजकानिवृत्तिकरणचरमसमयविशुद्धसुर-नारकासंयतसम्यग्दृष्टयस्तीवानुभागं कुर्वन्ति सम्यग्दृष्टयो देव-नारकाः पञ्चप्रकृतीनां तीव्रानुभागबन्धं कुर्वन्तीत्यर्थः। कया ? विशुद्धया विशुद्धपरिणामेन ॥४६॥ मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और आदिका संहनन; इन पाँचों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशुद्धिसे युक्त सम्यग्दृष्टि देव और नारकी करते हैं ॥४६१।। [मूलगा०७०] 'देवाउमप्पमत्तो वायालाओ पसत्थाओ। तत्तो सेसा पयडी तिव्वं खवया करिंति बत्तीसं ॥४६२।। ४।५।१।३२ सव्वे मिलिया ४२ ।। अप्रमत्तो मुनिर्देवायुष्यं तीव्रानुभागबन्धं करोति । ततो द्वाचत्वारिंशत्प्रशस्तेभ्यः शेषा द्वात्रिंशत्प्रकतीनां तीव्रानुभागान् पकण्यारूढा क्षपकाः कुर्वन्ति ३२ । ताः का द्वात्रिंशदिति चेदाह-अपूर्वकरणतपकस्योपघातवर्जिते पष्ठभागव्युच्छित्तित्रिंशति सू चमसाम्परायस्योच्चैर्गोत्रयशस्कीर्ति सातावेदनीयेषु मिलि. तेषु ताः अवशेषद्वात्रिंशत्प्रकृतयो भवन्ति ३२ । प्रशस्ताः 31१1३२ । सर्वा मिलिताः ४२॥४६२॥ 1. सं० पञ्चसं०४, २७८ । 2. ४,२७९। 3. ४, २८० । १. शतक. ७१ । परं तत्रेहक पाठ: देवाउमप्पमत्तो तिव्वं खवगा करिंति बत्तीसं । बंधति तिरिया मणुया एक्कारस मिच्छभावेणं ।। +ब पसस्थाओ। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पञ्चसंग्रह देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धको अप्रमत्तसंयत करता है। उक्त दशके विना व्यालीस प्रकृतियोंमें शेष बचीं जो बत्तीस प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकवेगिवाले जीव करते हैं । ॥४६२॥ ४+५+१=१० । ४२-१० = ३२ । ३२ - १०=४२ । अब अप्रशस्तप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाले जीवोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०७१] 'तिरि-णर मिच्छेयारह सुरमिच्छो तिण्णि जयइ पयडीओ। उज्जोवं तमतमगा सुर-णेरइया हवे तिण्णि' ॥४६३॥ १५॥३१॥३ तिण्णेवाउयसुहुमं साहारण-वि-ति-चउरिदियं अपञ्जत्तं । णिरयदुयं बंधंति य तिरिय-मणुया मिच्छभावा य ॥४६४॥ तिणेवाउगं, देवाउगं विणा । एइंदियआया थावरणामं च देवमिच्छम्मि । सुर-णिरयाणं मिच्छे तिरियगइदुगं असंपत्तं ॥४६॥ तीबानुभागबन्धे स्वामित्वं गाथाचतुकेनाह-[ 'तिरि-णर-मिच्छेयारह' इत्यादि । ] तिर्यङ्मनुष्या मिथ्यादृष्टयो विशुद्धभावा एकादश प्रकृतीर्जयन्ति चिन्वन्ति तीव्रानुभागबन्धं कुर्वन्तीत्यर्थः। ताः का इति [चेत् ] 'तिपणेवाउय' इत्यादि । नारकतिर्यग्मनुष्यायुस्त्रयं ३ सूचमनाम १ साधारणं १ द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियजातयः ३ अपर्याप्तकं १ नरकगति-तदानुपूर्व्यद्वयं २ चेत्येकादशप्रकृतितीवानुभागबन्धान तिर्यङ्मनुष्या मिथ्याभावा बध्नन्ति कुवंन्ति । सुरमिथ्यादृष्टिस्तिस्रः प्रकृतीस्तीवानुभागा बध्नाति । ताः काः ? एकेन्द्रियत्वं १ आतपः १ स्थावरनाम १ एकेन्द्रियस्थावरद्वयं संलिष्टो देवो मिथ्याडष्टि: ३ आतपप्रकृतिकं विशुद्धो मिथ्यादृष्टिदेवः सुरमिथ्यादृष्टिस्त्रयोत्कृष्टानुभागबन्धं करोति ३। तमस्तमकाः सप्तमनरकोद्भवा नारका उपशमसम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यारष्टिविशुद्धनारका उद्योतं तीव्रानुभागं बध्नन्ति । कथम् ? अतिविशुद्धानां तद्बन्धत्वात् १ । सुरनारकास्तिस्रः प्रकृतीस्तीवानुभागाः कुर्वन्ति ३। ताः काः ? तियग्गति-तियग्गत्यानपूर्व्यद्वयं २ असम्प्राप्तसृपाटिकासंहननमेवं प्रकृतित्रयोत्कृष्टानुभागबन्धो मिथ्यात्वे मिथ्यादृष्टिदेव-नारकाणां भवति ३ ॥४६३-४६५॥ आगे कही जानेवाली ग्यारह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तियच करते हैं। वक्ष्यमाण तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि देव करते हैं। तमस्तमक अर्थात् महातमःप्रभानामक सातवीं पृथ्वीके उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि नारकी उद्योतप्रकृतिका तीव्र अनुभागबन्ध करते हैं। वक्ष्यमाण तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि देव और नारकी करते हैं ॥४६३।। ११।३।११३ अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोंका नाम निर्देश करते हैं देवायुके विना शेष तीन आयु, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, और नरकद्विक, इन ग्यारह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागको मिथ्यात्वभावसे युक्त मनुष्य 1. सं० पञ्चसं० ४, २८५-२८६ । 2. ४, २८७ । १. शतक. ७३ । परं तत्र प्रथमचरणे पाठोऽयम्-'पंच सुरसम्मदिष्ट्रि'। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक और तियच बाँधते हैं। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरनामकर्म, इन तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि देवमें होता है। तिर्यग्गतिद्विक और मृपाटिकासंहनन, इन तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि देव और नारकियोंके होता है ।।४६४-४६५।। [मूलगा०७२]'सेसाणं चउगइया तिव्वाणुभायं करिति पयडीणं । मिच्छाइट्ठी णियमा तिव्वकसाउकडा जीवा ॥४६६॥ ॥६॥ शेषाणां अष्टपष्टः प्रकृतीनां चातुर्गतिका मिथ्यादृष्टयस्तीव्रकपायोत्कृष्टा जीवाः संक्लिष्टास्तीवानुभाग उत्कृष्टानुभागबन्धं कुर्वन्ति बध्नन्ति नियमात् । अप्रशस्तानां भष्टषष्टेः ६८ उत्कृष्टानुभागबन्धान् चातुर्गातिकसंक्लिष्टा कुर्वन्तीत्यर्थः ॥४६६॥ शेष बची प्रकृतियोंके तीव्र अनुभागबन्धको तीव्र कषायसे उत्कट चारों गतिवाले मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे करते हैं ॥४६६।। विशेषार्थ-प्रस्तुत गाथामें उपरि-निर्दिष्ट प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष बची प्रकृतियों के तीव्र अनुभागबन्ध करनेवाले जीवोंका निर्देश किया गया है । यद्यपि गाथामें उन शेष प्रकृतियोंकी संख्याका कोई निर्देश नहीं किया गया है, तथापि अनेक प्रतियोंमें गाथाके पश्चात् शेष पदसे सूचित की गई संख्याके निर्देशार्थ '६४' का अंक दिया हुआ है। किन्तु संस्कृत टीकाकारने 'शेष' प्रकृतीना' कहकर स्पष्ट शब्दाम ६८ प्रकृतियाका निर्देश किया है और संस्कृतपञ्चसंग्रहकारने भी 'प्रकृतीनामष्टषष्टिं' (सं० पञ्चसं०४, २८६) कहकर ६८ प्रकृतियोंको ही कहा है। दिल्ली भण्डारकी मूलप्रतिमें भी इस गाथाके अन्तमें ६८ का अंक दिया हुआ है, जिससे संस्कृत पश्नसंग्रहकार और संस्कृत टीकाकारके द्वारा किये गये अर्थको पुष्टि होती है। अब विचारनेकी बात यह है कि ६४ संख्या ठीक है, अथवा ६८ ! यह प्रश्न संस्कृत पञ्चसंग्रहकारके मनमें भी उठा है और सम्भवतः इसीलिए उन्होंने इसका समाधान भी उक्त श्लोकके आगे दिये गये तीन श्लोकों-द्वारा किया है, जो कि इस प्रकार हैं तिर्यगायुमनुष्यायुरातपोद्योतलक्षणम् । प्रशस्तासु पुर। दत्तं प्रकृतीनां चतुष्टयम् ॥२६॥ तीवानुभागबन्धासु मध्ये यद्यपि तत्त्वतः । सम्भवापेक्षया भूयो मिथ्यादृष्टेः प्रदीयते ॥२६॥ अप्रशस्तं तथाप्येतत्केवलं व्यपनीयते । पडशीतरपनीते दुयशीतिर्जायते पुनः ॥२६२॥ इन श्लोकोंका भाव यह है कि तिर्यगायु, मनुष्यायु, आतप और उद्योत; ये चार प्रकृतियाँ व्यालीस प्रशस्त प्रकृतियोंमें पहले गिनाई गई हैं और वे तत्त्वतः प्रशस्त ही हैं; किन्तु यहाँपर तीव्रानुभावबन्धवाली अप्रशस्त प्रकृतियों के बीचमें मिथ्यादृष्टिके बन्ध सम्भव होनेसे उन्हें फिर भी गिनाया गया है, सो उनका अप्रशस्तपना दिखलानेके लिए ऐसा नहीं किया गया है; किन्तु मिथ्यादृष्टि देव आतपप्रकृतिका, सप्तम नरकका मिथ्यादृष्टि नारकी उद्योतका और मनुष्य तियेच मिथ्यादृष्टि मनुष्यायु और तिर्यगायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं; केवल यह दिखलानेके लिए ही यहाँपर उनका पुनः निर्देश किया गया है। इसलिए उन चारको छोड़कर ८२ प्रकृतियाँ ही अप्रशस्त जानना चाहिए। 1. सं० पञ्चसं० ४, २८८-२८९ । १. शतक. ७४ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह इस उपर्युक्त कथनका निष्कर्ष यह निकला कि प्रकृत गाथाके पूर्व 'तिरिणरमिच्छेयारह' इत्यादि ४६३ संख्यावाली मूलगाथामें जिन (११+३+१+३=) १८ प्रकृतियोंके अनुभागबन्धके स्वामित्वका निर्देश किया गया है उनमें से उक्त 'मनुष्यायु, तिर्यगायु, उद्योत और आतप' इन चार प्रशस्त प्रकृतियोंको पृथक् करके शेष बची १४ को ८२ अप्रशस्त प्रकृतियोंमेंसे घटानेपर ६८ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, उनकी ही सूचना गाथा-पठित 'सेसाणं' पदसे की गई है। अनेक प्रतियोंमें जो ६४.का अङ्क पाया जाता है, सो उसे देनेवालोंकी दृष्टि सम्भवतः गाथाङ्क ४६३ में पठित १८ प्रकृतियोंको ८२ प्रकृतियोंमेंसे घटानेकी रही है। क्योंकि ८२ में से १८ घटानेपर ६४ शेष रहते हैं किन्तु जब मनुष्यायु आदि उक्त ४ प्रकृतियोंकी गणना ८२ अप्रशस्त प्रकृतियोंमें है ही नहीं, तब उनका उनमेंसे घटाना कैसे संगत हो सकता है। अतः शेष पदसे सूचित ६८ प्रकृतियोंको ही प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिए । अब मूलशतककार जघन्य अनुभागबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैं[मूलगा०७३] चोदस सराय-चरिमे पंचनियट्टी णियट्टि एयारं । सोलस मंदणुभायं संजमगुणपत्थिओ जयइ ॥४६७॥ ।१४।५।११।१६ अथ जघन्यानुभागबन्धकानाह-['चोद्दस सुहुनसरागे' इत्यादि । ] सरागचरमे सूचमसाम्परायस्य चरमसमये स्व-स्व-बन्धव्युच्छित्तिस्थाने संयमगुणविशुद्धजीवे चतुर्दशप्रकृतीनां जघन्यानुभागो भवति १४ । अनिवृत्तिकरणस्थाने पञ्चप्रकृतीनां जघन्यानुभागः ५। अपूर्वकरणे एकादशप्रकृतीनां जघन्यानुभागबन्धः ११ । षोडशकषायान् जघन्यानुभागान् संयमगुणप्रस्थितो जीवो जयति चिनोति । षोडशमध्ये कियन्त्यः द्रव्यसंयमे गुणे भवन्ति, कियन्स्यो भावसंयमगुणे भवन्ति ॥४६७॥ वक्ष्यमाण चौदह प्रकृतियोंका मन्द ( जघन्य ) अनुभागबन्ध सराग अर्थात् सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें वर्तमान संयतके होता है । पाँच प्रकृतियोंका अनिवृत्तिकरणके चरम समयवर्ती क्षपक, ग्यारहका चरम समयवर्ती अपूर्वकरण क्षपक और सोलह प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध संयमगुणस्थानको अनन्तर समयमें प्राप्त होनेवाला जीव करता है ॥४६७।। १४।५।११।१६ अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोका नामनिर्देश करते हैं 'णाणंतरायदसयं विदियावरणस्स होंति चत्तारि । एए चोद्दस पयडी सरायचरिमम्हि णायव्वा ॥४६८॥ 'पुरिसं चउसंजलणं पंचऽणियट्टिम्मि होंति भायम्हि । सय-सय चरिमस्स समये जहण्णबंधो य णायव्वो॥४६६॥ हास रइ भय दुगुंछा णिद्दा पयला य होइ उवधायं । वण्णचउक्क पसत्थं अउव्यकरणे जहण्णाणि ॥४७०॥ 'पढमकसायचउकं दसणतिय मिच्छदंसणं मिच्छे । विदियकसायचउर्फ अविरयसम्मो मुणेयव्यो ॥४७१॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, २९३ । 2. ४, २९४ । 3. ४, २९५ । 4. ४, २९७ । १. शतक० ७५ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २." तइयकसायचउक्कं विरियाविरयम्हि जाण णियमेण । ॐमंदो अणुभागो सो संजमगुणपत्थिओ जयइ ॥४७२।। ताः का इति चेदाह-[ 'णाणंतरायदसयं' इत्यादि । ] पञ्च ज्ञानावरणानि ५ पञ्चान्तरायः ५ द्वितीयावरणस्य दर्शनावरणस्य चक्षुरचक्षुरवधि-केवलदर्शनावरणानि चत्वारि चेत्येताश्चतुर्दश प्रकृतयः। तासां १४ जघन्यानुभागबन्धः सूचमसाम्परायस्थ चरमसमये ज्ञातव्यः, सूचमसाम्परायमुनयश्चतुर्दशप्रकृतीनां जघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्तीत्यर्थः १४ । अनिवृत्तिकरणस्य पञ्चसु भागेषु प्रथमभागे पुंवेदस्य, द्वितीयभागे संज्वलनक्रोधस्य, तृतीयभागे संज्वलनमानस्य, चतुर्थभागे संज्वलनमायायाः, पञ्चमे भागे संज्वलनबादरलोसस्य च जघन्यानुभागबन्धो ज्ञातव्यः, स्व-स्वबन्धव्युच्छित्तिस्थाने स्व-स्वगुणस्थानस्य चरमसमयान्ते जघन्यानुभागो भवति १११११११।एवं पञ्चप्रकृतीनां जघन्यानुभागबन्धं अनिवृत्तिकरणो मुनिबंधनातीत्यर्थः। हास्यं १ रति भयं १ जुगुप्सा । निद्रा १ प्रचला १ उपघातः १ प्रशस्तवर्णचतुष्कं ४ चेत्येकादशप्रकृतीनां जघन्यानुभागबन्धं अपूर्वकरणे मुनिः करोति बध्नाति ११ । अनन्तानुबन्धिक्रोध-मान-माया-लोभप्रथमकपायचतुष्कं ४ दर्शनावरणत्रिकं स्त्यानगृद्धित्रिक मिध्यादर्शनं १ चेति प्रकृतीनामष्टानां जघन्यानुभागबन्धं मिथ्यादृष्टिबध्नाति ८। अग्रत्याख्यानकषाया ४ असंयते जघन्यानुभागाः, अविरतसम्यग्दृष्टिरप्रत्याख्यानानां कपायाणां जघन्यानुभागं करोतीत्यर्थः । विरताविरते देशसंयमे तृतीयकषायचतुष्कस्य प्रत्याख्यानक्रोध-मान-माया-लोभस्य जघन्यानुभागो भवति । स अनुभागबन्धः संयमगुणप्रस्थितः तमनुभागबन्धं जयति चिनोतीत्यर्थः । इमाः षोडशप्रकृतयस्तत्र तत्र संयमगुणाभिमुखे एव विशुद्धजीवे जघन्यानुभागा भवन्ति ॥४६८-४७२॥ ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच और दर्शनावरणकी चार; इन चौदह प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तिम समयमें जानना चाहिए। पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क इन पाँच प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध अनिवृत्तिकरणमें अपने-अपने बन्धविच्छेद होनेके समय जानना चाहिए । हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, निद्रा, प्रचला, उपघात और प्रशस्त वर्णचतुष्क; इन ग्यारह प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध अपूर्वकरणगुणस्थानमें अपने-अपने बन्धविच्छेदके समय होता है। प्रथम अर्थात् अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क, दर्शनत्रिक (निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ) और मिथ्यादर्शन; इन आठ प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध संयम धारण करनेके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिके होता है। द्वितीय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध संयम धारण करनेके उन्मुख चरमसमयवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टिके जानना चाहिए। तृतीय अर्थात् प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध संयमगुण धारण करनेके लिए प्रस्थान करनेवाले चरमसमयवर्ती देशसंयतके नियमसे होता है, ऐसा जानना चाहिए ॥४६८-४७२।। [मूलगा०७४] आहारमप्पमत्तो पमत्तसुद्धो दु अरइ-सोयाणं । सोलस मणुय-तिरिया-सुर-णिरया तमतमा तिण्णि ॥४७३॥ २१२।१६।३ आहारकद्वयं प्रशस्तात् प्रमत्तगुणाभिमुखसंक्लिष्टः अप्रमत्तो मुनिःजधन्यानुभागं करोति बध्नाति २| तु पुनः अरति-शोकयोः प्रशस्तात् अप्रमत्तगुणासिमुख विशुद्धप्रमत्तो मुनिर्जधन्यानुभागं बध्नाति २ । से मुनिः जम्मानुभायां करोति बपनाति । 1. संपञ्चसं० ४, २९८ । 2. ४, २९६ । प्रतिषु 'बंधो' इति पाठः । १. शतक० ७६ । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पञ्चसंग्रह षोडशप्रकृतीनां जघन्यानुभागं १६ मनुष्य-तिर्यञ्चो विदधति-कुर्वन्ति १६ । तिसृणां प्रकृतीनां सुर-नारका जघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति ३ तमस्तमकाः सप्तमनरकोद्भवा नारका विशुद्धाः तिसृणां प्रकृतीनां जघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति ३ ॥४७३॥ अनन्तर समय में प्रमत्तभावको प्राप्त होनेके अभिमुख ऐसा अप्रमत्तसंयत आहारकद्विकके जघन्य अनुभागको बाँधता है । प्रमत्तशुद्ध अर्थात् अनन्तर समयमें अप्रमत्तभावको प्राप्त होनेवाला प्रमत्तसंयत अरति और शोकके जघन्य अनुभागका बन्ध करता है । वक्ष्यमाण सोलहप्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध मनुष्य और तिर्यच करते हैं। तीन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध देव और नारकी करते हैं, तथा तीन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध तमस्तमक अर्थात् सप्तम पृथिवीके नारकी करते हैं ||४७३॥ २२/१६।३।३ अब भाष्यगाथाकार सोलह आदि प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैं'बि-ति- चउरिं दिय- सुहुमं साहारण णामकम्म अपजत्तं । तह वेउब्वियछक्कं आउचउक्कं दुगइ मिच्छे ||४७४॥ ओरालिय उज्जीवं अंगोवंगं च देव- शेरइया । तिरियदुयं णिच्चं पि य तमतमा जाण तिष्णदे || ४७५ || ताः षोडशादयः का इति चेदाह - [ 'वि-ति चटरिंदिय सुहुमं' इत्यादि । ] द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय जातयः ३ सूचमं १ साधारणं १ अपर्याप्तं १ तथा वैक्रियिकषट्कं ६ आयुश्चतुष्कं ४ चेति षोडशप्रकृतीनां जघन्यानुभागबन्धं तिर्यग्गतिजास्तिर्यञ्चो मनुष्यगतिजा मनुजा मनुष्याश्च मिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति १६ । औदारिकं १ उद्योतः १ भौदारिकाङ्गोपाङ्ग चेति तिस्रः प्रकृतीर्जघन्यानुभागबन्धरूपा देव नारका बध्नन्ति ३ । तत्रोद्योतः १ अतिविशुद्धदेवे बन्धाभावात्संक्लिष्टे एव लभ्यते । तिर्यद्विकं २ नीचगोत्रं च सप्तमपृथ्वीनर के तमस्तमका नारकाः विशुद्धा एतास्तिस्रः प्रकृतीर्जघन्यानुभागरूपा बध्नन्तीति जानीहि ३ ॥ ४७४-४७५॥ द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति; सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तनामकर्म; तथा वैक्रियिकषट्क और आयुचतुष्क; इन सोलह प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती मनुष्य और तिर्यश्च, इन दो गतियोंके जीव बाँधते हैं । औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग और उद्योत, इन तीन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको देव और नारकी बाँधते हैं । तिर्यग्गतितिर्यग्गत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र, इन तीन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको तमस्तमक नारकी बाँधते हैं; ऐसा जानना चाहिए ॥४७४-४७५॥ [ मूलगा ०७५ ] 'एइंदिय थावरयं मंदणुमाय करिंति तिग्गइया । परियत्तमाणमज्झिमपरिणामा णारया वज्जे ' ॥ ४७६ ॥ १ नारकान् नरकगतिजानू वर्जयित्वा त्रिगतिजास्तिर्यग्मनुष्यदेवाः एकेन्द्रियत्वं १ स्थावरनाम १ च मन्दानुभागबन्धं जघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति बध्नन्ति लभ्यन्त इत्यर्थः । कथम्भूतास्ते ? त्रिगतिजाः परिवर्तमाना मध्यमपरिणामाः येषां ते मध्यमपरिणामप्रवर्तमाना इत्यर्थः ॥ ४७६ ॥ 1. सं० पब्चसं ० ४, २९९-३०२ । २. ४, ३०३ । १. शतक० ७७ । * परावृत्य परावृत्य पगतीओ बंधंति त्ति परिभत्तमाणं । जहा एगिंदियं थावश्यं, पंचिंदियं तसमिदि । तेसु जे मज्झिमपरिणामा परियन्त्तमानमज्झिमपरिणामा इति । शतकचूर्णि Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २०३ नारकियोंको छोड़कर शेष तीन गतिके परिवर्तनमान मध्यम परिणामी जीव एकेन्द्रियजाति और स्थावरनामकर्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करते हैं ॥४७६।। _ विशेषार्थ-परिवर्तन करके विवक्षित प्रकृतिके बाँधनेवाले जीवको परिवर्तमान कहते हैं। जैसे पहले एकेन्द्रिय और स्थावर नामको बाँधकर पुनः पंचेन्द्रिय और सनामको बाँधना । इस प्रकार परिवर्तन करते हुए भी मध्यम परिणामवाले जीवोंका प्रकृतमें ग्रहण किया गया है। [मूलगा०७६] 'आसोधम्मादावं तित्थयरं जयइ अदिरयमणुस्सो । चउगइउक्कडमिच्छो पण्णरस दुवे विसोधीए ॥४७७॥ १११५।२ । आसौधर्माद भवनत्रयजाः सौधर्मशानजा देवाश्च संक्लिष्टाः सुराः भातपनाम-जघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति । अविरतमनुष्या नरकगमनाभिमुखाः तीर्थकरनाभजघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति जयन्ति बध्नन्तीत्यर्थः । चातुर्गतिकमिथ्योस्कटसंक्लिष्टा मिथ्यारयः पञ्चदशप्रकृतिजघन्यानुभागबन्धं कुर्वन्ति १५। वेदद्वयजघन्यानुभागबन्धं विशुद्ध या मिथ्यादृष्टयश्चतुर्गतिजा बध्नन्ति ॥४७७॥ भवनत्रिकसे लेकर सौधर्म-ईशानकल्प तकके संक्लेश परिणामी देव मातपप्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करते हैं । नरक जानेके सन्मुख अविरत सम्यक्त्वी मनुष्य तीर्थकर प्रकृतिका जघन्य अनुभाग बन्ध करता है । (वक्ष्यमाण) पन्द्रह प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका बन्ध चतुर्गतिके उत्कट संक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । तथा (वक्ष्यमाण) दो प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको विशुद्ध परिणामवाले चतुर्गतिके जीव बाँधते हैं ॥४७७।। ११।१५।२ अब भाष्यगाथाकार उक्त पन्द्रह और दो प्रकृतियोंको गिनाते हैं 'तेजाकम्मसरीरं पंचिंदिय तसचउक्क णिमिणं च । अगुरुयलहुगुस्सासं परघायं चेव वण्णचतुं ॥४७८॥ इत्थि-णउसयवेयं अणुभायजहण्णयं च चउगइया । मिच्छाइट्ठी बंधइ तिव्वविसोधीए संजुत्तो ॥४७॥ ताः काः पञ्चदशादय इति चेदाऽऽह-[ 'तेजाकम्मसरीरं' इत्यादि । जस-कार्मणशरीरे द्वे २ पञ्चेन्द्रियं १ प्रस-बादर-प्रत्येक-पर्याप्तकमिति सचतुष्कं ४ निर्माणं १ अगुरुलघुत्वं उच्छासं १ परघात" प्रशस्तवर्णचतुष्कं ४ चेति चञ्चदशप्रकृतिजघन्यानुभागबन्धं चातुर्गतिजा संक्लिष्टा: कुर्वन्ति । सीवेद-नपुंसकवेदयोजघन्यानुभागबन्धं मिथ्यादृष्टिश्चातुर्गतिको जीवो बध्नाति । स कथम्भूतः ? तीव्रविशुद्धया संयुक्तः ॥४७८-४७६॥ तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पंचेन्द्रियजाति, सचतुष्क, निर्माण, अगुरुलघु, उच्छास, परघात तथा वर्णचतुष्क, इन पन्द्रह प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको चतुर्गतिके तीव्र संक्लेश परिणामीमिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागको तीव्रविशुद्धिसे संयुक्त चतुर्गतिके मिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं ॥४७८-४७६॥ 1. सं० पञ्चसं० ४,३०४ । 2. ४, ३०५-३०७ । १. शतक० ७८। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ [ मूलगा ०७७] सम्माइट्ठी मिच्छो व अट्ठ परियत्तमज्झिलो जयइ । परियत्तमाणमज्झिममिच्छाइट्ठी दु तेवीसं || ४८० || ८।२३। पञ्चसंग्रह सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिर्वा वच्यमाणसूत्रोक्तकत्रिंशत्प्रकृतिषु प्रथमोक्तानामष्टानां यद्यपरिवर्त्तमानमध्यमपरिणामस्तदा जघन्यानुभागं जयति करोति । शेषन्त्रयोविंशतेः प्रकृतीनां जघन्यानुभागं तु पुनः परिवर्तमानमध्यमपरिणाममिध्यादृष्टिरेव करोति ॥४८०॥ परिवर्तमान मध्यमपरिणामी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव (वक्ष्यमाण) आठ प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका बन्ध करते हैं । तथा परिवर्तमान मध्यमपरिणामी मिथ्यादृष्टि जीव ( वक्ष्यमाण) तेईस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका बन्ध करते हैं ।। ४८० || अब भाष्यगाथाकार उक्त आठ और तेईस प्रकृतियों को गिनाते हैं'सायासायं दोणि वि थिराथिरं सुहासुहं च जसकित्ती । अजस कित्ती य तहा सम्माहट्ठी य मिच्छो वा ॥ ४८१ ॥ संठाणं संघयणं छच्छक्क तह दो विहाय मणुयदुगं । 'आदेजाणादेज सरदुगं च हि दुब्भग-सुभगं तहा उच्च ||४८२ ॥ सातासातावेदनीयद्वयं २ स्थिरास्थिर- शुभाशुभयुगलं २२ अयशस्कोर्त्ति यशस्कीर्त्तिद्वयं २ इत्यष्टौ सम्यग्दृष्टौ मिथ्यादृष्टौ वा जघन्यानुभागानि सन्ति, अष्टानां प्रकृतीनां जघन्यानुभागं सम्यग्दृष्टिर्मिथ्यादृष्टिबन्धं करोति ८ मध्यमं भावं प्राप्तः सन् । संस्थानं १ संहननं १ प्रशस्ता प्रशस्त विहायोगती २ मनुष्यद्विकं ५ आदेयानादेयद्वयं २ देवदिकं २ दुर्भगसुभगद्विकं २ उच्चैर्गोत्रं १ चेति त्रयोविंशतेर्जघन्यानुभागबन्धं परिवर्त्तमान मध्यमपरिणाममिथ्यादृष्टिरेव बध्नाति २३ । अपरिवर्तमान परिवर्त्तमानमध्यमपरिणामलक्षणं गोम्मटसारे [ कर्मकाण्डे ] अनुभागबन्धमध्ये कथितमस्ति ॥४८१-४८२ ॥ इति जघन्यानुभागबन्धः समाप्तः । सातावेदनीय-असातावेदनीय, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्त्ति - अयशः कीर्त्ति, इन आठ प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि बाँधते हैं । छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगतिद्विक, मनुष्यगतिद्विक, आदेय अनादेय, सुस्वर - दुःस्वर, सुभग दुभंग तथा उच्चगोत्र इन तेईस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागको मिथ्यादृष्टि बाँधते हैं ॥४८१-४८२॥ अब सर्वघाति- देशघातिसंज्ञक अनुभागबन्धका निरूपण करते हैं[मूलगा०७८] केवलणाणावरणं दंसणछक्कं च मोहबारसयं । २ ता सव्वघाइसण्णा मिस्स मिच्छत्तमेयवीसदिमं ॥ ४८३ || एत्थ दंसणावरणस्स पढमा पंच, अंतिल्ला एगा एवं ६ । पढमसव्वकसाया सव्वधाईओ | २१| अथ सर्वधासि देशघाति श्रघातिकर्मसंज्ञाः कथ्यन्ते - [ 'केवलणागावरणं' इत्यादि । ] केवलज्ञानावरणं १ निद्रानिद्रा १ प्रचलाप्रचला १ स्त्यानगृद्धिः १ केवलदर्शनावरणं १ चेति दर्शनावरणषट्कं ६ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभकषाया इति मोहद्वादशकं १२ मिश्रं सम्यग्मिथ्यात्वं १ मिथ्यात्वं १ एकविंशतितमं संख्यया । एवं ताः सर्वा एकीकृता एकविंशतिः प्रकृतयः २१ सर्वघातिसंज्ञाः 1. सं० पञ्चसं० ४, ३०८ - ३०६ । २. ४, ३१० ३११ । १. शतक० ७३ । २. शतक० ८० । परं तत्र चतुर्थचरणे पाठोऽयम् - 'हवंति मिच्छत्त वीसइमं' । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २७५ कथ्यन्ते। कुतः ? आरमनः केवलज्ञान-दर्शन-क्षायिकसम्यक्त्व चारित्र-दानादिक्षायिकान् गुणान् , मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानादिक्षयोपशमान गुणान् च घ्नन्ति घातयन्ति ध्वंसयन्तीति सर्वघातिसंज्ञाः। बन्धे २० उदये २१ । मिथ्यात्वस्य बन्धो भवति, न तु सम्यग्मिध्यावस्यः सत्त्वोदयापेक्षया जात्यन्तरसर्वघातीति ।। उक्तं च मिथ्यात्वं विंशतिबन्धे सम्यग्मिथ्यात्वसंयुताः । उदये ता पुनर्दः रेकविंशतिरीरिताः ॥३७।। इति अत्र बन्धापेक्षया २०। सत्त्वोदयापेक्षया २१ ॥४८३।। केवलज्ञानावरण. दर्शनावरणषटक. मोहनीयकी बारह, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वः इन इक्कीस प्रकृतियोंकी सर्वघातिसंज्ञा है ॥४८३॥ यहाँपर दर्शनावरणपटकसे प्रारम्भकी पाँचों निद्राएँ और अन्तिम केवलदर्शनावरण; ये छह प्रकृतियाँ अभीष्ट हैं । इसी प्रकार मोहनीयकी बारहसे प्रारम्भकी सर्व कषाय ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार सर्वघाती प्रकृतियाँ २१ हो जाती हैं। [मृलगा०७६] 'णाणावरणचउक्कं दंसणतिगमंतराइगे पंच। ता होंति देसघाई सम्मं संजलण णोकसाया ये ॥४८४॥ २६ । सव्वे मेलिया ४७ । अथ देशघातिसंज्ञामाह-[ 'गाणापरणचउक्कं' इत्यादि । ] मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानावरणचतुष्कं ४ चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणत्रयं ३ दान लाभ-भोगोपभोगवीर्यान्तरायपञ्चकं ५ सम्यक्त्वप्रकृतिः १ संज्वलनक्रोधमानमायालोभकपायचतुष्क ४ हास्यरत्यरतिशोकभय जुगुप्सास्त्रीपुनपुंसकानीति नव नोकषायाः है चेति ताः पविंशतिः प्रकृतयः देशघातिन्यो भवन्ति २६ । एकदेशेनारमनः मतितावधिमनःपर्ययादिक्षायोपशमि घनम्ति घातयन्तीति एकदेशगणघातकत्वात । आत्मनः सर्वगुणघातकत्वात्सर्वघातीनि २१ । देशघातीनि २६ । सर्वमिलिताः ४७ ॥४८४॥ ज्ञानावरणकी चार, दर्शनावरणको तीन, अन्तरायकी पाँच, सम्यक्त्वप्रकृति, संज्वलनचतुष्क और नव नोकपाय; ये छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं ।।४८४॥ सर्वघाती २१ + देशघाती २६ दोनों मिलकर घातिप्रकृतियाँ ४७ होती हैं। मूलगा०८०] अवसेसा पयडीओ अघादिया घादियाण पडिभागा। ता एव पुण्ण पावा सेसा पाया मुणेयव्या ॥४८॥ - १०१। सव्वे मिलिया १४८ । सर्वघाति-देशघातिप्रकृतिभ्यः ४७ अवशेषा एकोत्तरशतप्रमाणाः १०१ अघातिकाः प्रकृतयो भवन्ति, आत्मनो गुणघातने अशक्या इत्यवातिकाः । ताः का इति चेदाह-वेदनीयस्य द्वे २ आयुश्चतुष्कं ४ नाम्नः कर्मणः विनवतिः ६३ गोत्रस्य द्वे २ । तथा चोक्तम् वेद्यायर्नामगोत्राणां प्रोक्तः प्रकृतयोऽखिलाः । अघातिन्यः पुनः प्राज्ञैरेकोत्तरशतप्रमाः ॥३८॥ इति । 1. सं० पञ्चमं० ४, ३१२-३१३ । 2. ४, ३१४-३१५ । १. सं० पञ्च सं० ४,३११ । २. सं० पञ्चमं० ४, ३१४ । १. शतक० ८१ । परं तत्रोत्तरार्धे 'पणुवीस देसघाई संजलणा णोकसाया य ईहक पाठः । २. शतक० ८२ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ पत्रसंग्रह ताः कथम्भूताः१ घातिकानां प्रतिभागाः घातिकर्मोक्तप्रतिभागाः भवन्ति, त्रिविधशक्तयो भवन्तीत्यर्थः। ता अघातिप्रकृतयः १०१। एवं पुण्यप्रकृतयः पापप्रकृतयश्च भवन्ति । शेषघातिप्रकृतयः सर्वाः ४७ पापरूपाः पापान्येवेति मन्तव्यम् ॥४८५॥ घातीनि ४७ अघातीनि १०१ भीलिताः १४८ । उपर्युक्त सर्वघाती और देशघातीके सिवाय अवशिष्ट जितनी भी चार कर्मोकी १०१ प्रकृतियाँ हैं, उन्हें अघातिया जानना चाहिए। वे स्वयं तो आत्मगुणोंके घातनेमें असमर्थ हैं, किन्तु घातिया प्रकृतियोंकी प्रतिभागी हैं। अर्थात् उनके सहयोगसे आत्मगुण घातने में समर्थ होती हैं । इन १०१ अघातिया प्रकृतियोंमें ही पुण्य और पापरूप विभाग है। शेष ४७ प्रकृतियोंको तो पापरूप ही जानना चाहिए ।।४८५॥ - घातिया ४७ अघातिया १०१ =१४८। अब स्थानरूप अनुभागबन्धका निरूपण करते हैं[मूलगा०८१ ]'आवरण देसघायंतराय संजलण पुरिस सत्तरसं । चउविहभावपरिणया तिभावसेसा सयं तु सत्तहियं ॥४८६॥ - १७४१०७। अथ विपाकरूपोऽनुभागो गाथाद्वयेन कथ्यते-['भावरणदेशघायं' इत्यादि । आवरणेषु देशघातीनि मति-श्रुतावधि मनःपर्ययज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणानि ७ पञ्चान्तरायाः ५ चतुःसंज्वलनाः ४ पुवेदश्चेति सदशप्रकृतयः १७ लतादास्थिशैल-लतादार्वस्थि-लतादारु-लतेति चतुर्विधानुभागभावपरिणता भवन्ति । शेषाः सप्ताधिकशतप्रमिताः प्रकृतयः १०७ वर्णचतुष्कं द्विवारगणितम् । भासा प्रकृतीना मिश्र-सम्यक्त्वप्रकृतीनां विमा धात्यघातिना सर्वासां त्रिविधा भावा दावस्थिपाषाणतुल्याः त्रिविधभावशक्तिपरिणता भवन्ति । तथाहिशेषा मिश्रोन-केवलज्ञानावरणादिसर्वघातिविंशतिः २० नोकषायाष्टकं - अघातिपञ्चसप्तति ७५ श्च दार्गस्थिशैलसरशत्रिधानुभागपरिणता भवन्ति ॥४६॥ २०1८७५ .. शेल . .२०१८७५ भ० भ०१७ अस्थि अस्थि २०.८७५ दा. दा. दा. १७ दारु दारु ल. तीन मध्यम मन्द मतिज्ञानावरणादि चार, चक्षुदर्शनावरणादि तीन, अन्तरायकी पाँच, संज्वलनचतुष्क और पुरुषवेद, ये सत्तरह प्रकृतियाँ लता, दारु, अस्थि और शैलरूप चार प्रकारके भावोंसे प्ररिणत हैं। अर्थात् इनका अनुभागबन्ध, एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होता है। शेष १०७ प्रकृतियाँ दारु, अस्थि और शैलरूप तीन प्रकारके भावोंसे परिणत होती हैं। उनको एकस्थानीय अनुभागबन्ध नहीं होता है ॥४८६॥ "सुहपयडीणं भावा गुड-खंड-सियामयाण खलु सरिसा । इयरा दुणिंब-कंजीर-विस-हालाहलेण अहमाई ॥४८७॥ एस्थ इयरा भसुहपयीभावा । शै० 1. सं० पञ्चसं० ४, ३१६-३१८। 2. ४, ३१६ । १. शतक० ८३ । परं तत्र चतुर्थचरणे पाठोऽयम्-'तिविह परिणया सेसा' । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक शुभप्रकृतीनां प्रशस्तद्वाचत्वारिंशत्प्रकृतीनां ४२ भावाः परिणामाः परिणतयः गुड-खण्ड-शर्कराऽमृतसदशा एकत एकतोऽधिकमृष्टाः खलु स्फुटं भवन्ति । तु पुनः इतराता अभ्यासां दूयशीत्यप्रशस्तप्रकृतीनां भावाः निम्ब-काझीर-विष हालाहलेन सरशाः । कथम्भूताः ? अधमादयः । क्रमेण जघन्याजघन्यानुस्कृष्टोस्कृष्टाः सर्वप्रकृतयः १२२ । तासु घातिन्यः ७५। एतासु प्रशस्ता ४२ अप्रशस्ताः ३३ अप्रशस्तवर्णचतुषु अस्तीति तस्मिन् मिलिते ३७ । तथा कर्मप्रकृरयां अभयनन्दिसूरिणा कर्मप्रकृतीनां तीव-मन्द-मध्यमशक्तिविशेषो घातिकर्मणां अनुभागो लता-दार्वस्थि-शैलसमानः चतु:स्थानः अघातिकर्मणां भशुभप्रकृतीनां भनुभागो निम्ब-काजीर-विष-हालाहल-सरशः चतुस्थानः शुभप्रकृतीनां अनुभागो गुड-खण्ड २ करामृततुल्यः । चतुस्थानीयः । । ॥४७॥ शुभ या पुण्यप्रकृतियोंके भाव अर्थात् अनुभाग गुड़, खाँड़, शक्कर और अमृतके तुल्य उत्तरोत्तर मिष्ट होते हैं। इनके सिवाय अन्य जितनी भी पापप्रकृतियाँ हैं। उनका अनुभाग निम्ब, कांजीर, विष और हालाहलके समान निश्चयसे उत्तरोत्तर कटुक जानना चाहिए ॥४८॥ गाथोक्त 'इतर' पदसे अशुभ या पाप प्रकृतियाँ विवक्षित हैं। अब प्रत्यय रूप अनुभागबन्धका निरूपण करते हैं[मूलगा०८२] 'सायं चउपच्चइयो मिच्छो सोलह दुपचया पणुतीसं । सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहार वजा दु ॥४८॥ एत्थ मिच्छे १६, सासणे २५, भसंजयसम्मादिट्टिम्मि १० । [अथानु] भागबन्धभेदं गाथाद्वयेनाह-[ 'सायं चउपचइयो' इत्यादि । ] सातावेदनीयस्य चतुर्थः प्रत्ययः प्रधानः योगो नाम । 'योगेन बध्यते सात' मिति वचनात् । तथाहि-उपश • सयोगकेवलिनि चक्रं समयस्थितिकं सातावेदनीयमेव बध्नाति, भव्य [ भनुभय ] सत्यादिमनोवचनौदारिकयोगहेतुकं बन्धम्, कषायादीनां तेष्वभावात् । पोडशप्रकृतीनां बन्धे मिथ्यात्वप्रत्ययः प्रधानः । तथाहिमिथ्यात्व हुण्डक-षण्ढासम्प्राप्तेकेन्द्रियस्थावरातपसूक्ष्मनिक-विकलायनरकद्विक-नरकायुष्याणां षोडशप्रकृतीनां बन्धे केवलं मिथ्यात्वोदयहेतुबन्धः। सासादने पञ्चविंशतेः प्रकृतीनां बन्धे द्वितीयप्रत्ययः प्रधानः । कथम्भूतः? अविरतयः कारणभूताः । शेषाणां प्रकृतीनां बन्धे तृतीयकषायाख्यः प्रत्ययः प्रधानभूतः । तीर्थकरत्वाहारकद्वयं वर्जयित्वा शेषाणां कषायः कारणम् । अत्र मिथ्यात्वे १६ प्रकृतीनां मिथ्यास्वप्रत्ययः मुख्यः । सासादने २५ [ प्रकृतीनां ] अविरतिप्रत्ययः प्रधानभूतः। असंयते १० । प्रकृतीनां कषायप्रत्ययः प्रधान भूतः ॥४८॥ सातावेदनीय चतुर्थ-प्रत्ययक है अर्थात् उसका अनुभागबन्ध चौथे योग-प्रत्ययसे होता है। मिथ्यात्वगुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्वप्रत्ययक हैं । दूसरे गुणस्थानमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली पच्चीस और चौथेमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली दश; ये पैंतीस प्रकृतियाँ द्विप्रत्ययक हैं, क्योंकि उनका पहले गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी प्रधानतासे और दूसरेसे चौथे तक असंयमकी प्रधानतासे बन्ध होता है। तीर्थङ्कर और आहारकद्विकको छोड़कर शेष सर्वप्रकृतियाँ त्रिप्रत्ययक हैं, क्योंकि उनका बन्ध पहले गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी प्रधानतासे, दसरेसे चौथे तक असंयमकी प्रधानतासे और आगे कषायकी प्रधानतासे होता है। 1. सं० पयसं० ४, ३२० । १. सं० पञ्चसं० ४, ३२० । १. शतक० ८३ । परं तत्र प्रथमचरणे 'चउपच्चय एग' इति पाठः। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह 'सम्मत्तगुणणिमित्तं तित्थयरं संजमेण आहारं । बझंति सेसियाओ मिच्छत्ताईहिं हेऊहिं ।।४८६।। ___ इदि बंधस्स पहाणहेउणिद्देसो। तीर्थकरत्वं सम्यक्त्वगुणकारणं सम्यक्त्वगुणनिमित्तं 'सम्मेव तित्थबन्धो' इति वचनात् । माहारकद्वयं संयमेन सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमेन बध्नाति शेषाः प्रकृतीः मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिर्मिश्यावाविरतिप्रमादकपाययोगैबंधनन्ति जीवा इति शेषा तथोत्तरप्रत्ययप्रधानत्वम् । प्रोक्तं च मिथ्यात्वस्योदये यान्ति षोडश प्रथमे गुणे । संयोजनोदये बन्धं सासने पञ्चविंशतिः ॥३६॥ कषायाणां द्वितीयानामुदये निव्रते दश । स्वीक्रियन्ते तृतीयानां चतस्रो देशसंयते ॥४०॥ सयोगे योगतः सातं शेषाः स्वे स्वे गुणे पुनः । विमुच्याहारकद्वन्द्व-तीर्थकृत्त्वे कषायतः ॥४१॥ षष्टिः पञ्चाधिका बन्धं प्रकृतीनां प्रपद्यते । आहारकद्वयस्थोक्तः संयमस्तीर्थकारिणः ॥४२॥ सम्यक्त्वं कारणं पूर्व बन्धने बन्धवेदिभिः ॥४३॥ ४८६।। तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्वगुणके निमित्तसे होता है। आहारकद्विकका बन्ध संयमके निमित्तसे होता है । शेष ११७ प्रकृतियों मिध्यात्व आदि हेतुओंसे बन्धको प्राप्त होती हैं ॥४८॥ इस प्रकार बन्धके प्रधान हेतुओंका निरूपण किया। अब विषाकरूप अनुभागबन्धका निरूपण करते हैं- . [मूलगा०८३] "पण्णरसं छ तिय छ पंच दोणि पंच य हवंति अठेव । सरीरादिय फासंता य पयडीओ आणुपुवीए ॥४६०॥ [मूलगा०८४ ] अगुरुयलहुगुवघाया परघाया आदवुजोव णिमिणणामं च । पत्तेय-थिर-सुहेदरणामाणि य पुग्गलविवागा ॥४६१॥ ६२॥ [मूलगा०८५] आऊणि भवविवागी खेत्तविवागी उ आणुपुब्बी य । अवसेसा पयडीओ जीवविवागी मुणेयव्वा ॥४६२॥ ४।। अथ पुदपलविपाकि-भवविपाकि-क्षेत्रविपाकि-जीवविपाकिप्रकृतीर्गाथाचतुष्केनाऽऽह-[ 'पण्णरसं छ तिय' इत्यादि । शरीरादिस्पर्शान्ताः प्रकृतयः पञ्चाशत् ५० आनुपूर्त्या अनुक्रमेण ज्ञातव्याः । ताः काः ? पञ्चशरीराणि, पञ्च बन्धनानि, पञ्च संघातानि; इति पञ्चदश १५ । षट् संस्थानानि ६ । औदारिकवैक्रियिका 1. सं० पञ्चसं० ४, ३२१ । 2. ४, ३२६-३२९ । 3. ४,३३०-३३३ । १. गो० कर्म० गा० ६२ । २. सं. पञ्चसं० ४, ३२२-३२५ । १. शतक० ८४ । परं तत्र 'पण्णरस' स्थाने 'पंच य' इति पाठः। २. शतक० ८५। ३. शतक० ८६ । नब गी। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २७६ हारकशरीराङ्गोपाङ्गत्रिकं ३ षट संहननानि ६ पञ्च वर्णाः ५ द्वौ गन्धौ २ पञ्च रसाः ५ स्पर्शाष्टकं ८ चेति पञ्चाशत् ५० । अगुरुलघुः १ उपघातः परघातः १ आतपः १ उद्योतः १ निर्माणं. प्रत्येक-साधारणद्वयं २ स्थिरास्थिरद्वयं २ शुभाशुभद्वयं २ चेति द्वाषष्टिः प्रकृतयः ६२ पुद्गलविपाकी नि भवन्ति, पुद्गले शरीरे एतासां विपाकत्वात् । पुद्गले विपाकमुदयं ददतीति शरीरेण सहोदयं यान्ति पुद्गलविपाकिन्यः । नारकादिसम्बन्धीनि चत्वार्याऽऽयूंषि भवविपाकीनि नारकादिजीवपर्यायवर्तनहेतुत्वात् ४ । चत्वार्यानुपूणि क्षेत्रविपाकानि ४ क्षेत्रे विग्रहगतौ उदयं यान्ति ४ । अवशिष्टाः अष्टसतिः ७८ प्रकृतयः जीवविपाकिन्यः जीवेन सहोदयं यान्ति । एवं प्रकृतिकार्यविशेषाः ज्ञातव्याः ॥४६०-४६२॥ शरीर नामकर्मसे आदि लेकर स्पर्श नामकर्म तककी प्रकृतियाँ आनुपूर्वीसे शरीर ५, बन्धन ५ और संघात ५ इस प्रकार १५; संस्थान ६, अङ्गोपाङ्ग ३, संहनन ६, वर्ण ५, बन्ध २, रस ५ और स्पर्श ८; तथा अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, निर्माण, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ; ये सर्व ६१ प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं । आयुकर्मकी चारों प्रकृतियाँ भवविपाकी हैं। चारों आनुपूर्वीप्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी हैं। शेष ७८ प्रकृतियाँ जीवविपाकी जानना चाहिए ॥४६०-४६२।।। विशेषार्थ-जिन प्रकृतियोंका फलस्वरूप विपाक पुद्गलरूप शरीरमें होता है, उन्हें पुदगलविपाकी कहते हैं। जिन प्रकृतियोंका विपाक जीवमें होता है, उन्हें जीवविपाकी कहते हैं। जिन प्रकृतियोंका विपाक नरक, तिथंच आदिके भवमें होता है, ऐसी नरकायु आदि चारों आयुकर्मको प्रकृतियोंको भवविपाकी कहते हैं और जिन प्रकृतियोंका विपाक विग्रहगतिरूप क्षेत्रमें होता है, ऐसी चारों आनुपूर्वियोंको क्षेत्रविपाकी कहते हैं। अब भाष्यगाथाकार उक्त जीवविपाकी प्रकृतियों को गिनाते हैं वेयणीय-गोय-धाई णभगइ गइ जाइ आण तित्थयरं । तस-जस-बायर-पुण्णा सुस्सर-आदेज-सुभगजुयलाई ।।४६३॥ २।२। एस्थ घाइपयदीभो ४७।२।४।५।१।१२।२।२।२।२।२।२। एवं सव्वाओ मेलियाओ जीवविवागा वुच्चंति ७८ । सव्वाओ मेलियाभो :४८ । एवं अणुभागबंधो समत्तो। ताः जीवविपाकिन्यः का इति चेदाह-['वेयणीय-गोय-घाई' इत्यादि ।] सातासातावेदनीयद्वयं २ गोत्रद्वयं २ घातिसप्तचत्वारिंशत् ४७ । ताः काः ? ज्ञानावरणपञ्चकं ५ दर्शनावरणनवकं १ मोहनीयमष्टा. विंशतिक २८ अन्तरायपञ्चकं ५ चेति घातिप्रकृतयः सप्तचत्वारिंशत् ४७ । प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्वयं २ नारकादिगतयश्चतस्रः ४ एक-द्वि-त्रि-चतुः-पन्चेन्द्रियजातयः पश्च ५ आनप्राणः श्वासोच्छ्रासः १ तीर्थकरत्वं १ प्रसस्थावरद्वयं २ यशोऽयशोद्वयं २ बादर-सूचमयुग्मं २ पर्याप्तापर्याप्तद्वयं २ सुस्वर-दुःस्वरौ २ मादेयानादेयद्वयं २ सुभग दुर्भग-युगलम् २ । एवं सर्वा मीलिताः जीवविपाकिन्यः ७८ उच्यन्ते ।।४६३।। एवमनुभागबन्धः समाप्तः ! इति चतुर्दशभेदानुभागबन्धः समाप्तः । वेदनीयकी २, गोत्रकी २, घातिकर्मोकी ४७, विहायोगति २, गति ४, जाति ५, श्वासो थिकर १, तथा त्रस, यशःकात्ति, बादर, पयाप्त, सुस्वर, आदय और सुभग, इन सात युगलोंकी १४ प्रकृतियाँ; इस प्रकार सर्व मिलाकर ७८ प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं ॥४६३॥ पुद्गलविपाकी ६२, जीवविपाकी ७८, भवविपाकी ४ ; और क्षेत्रविपाकी ४ सब मिलाकर १४८ प्रकृतियाँ हो जाती हैं। इस प्रकार अनुभागबन्ध समाप्त हुआ। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० पञ्चसंग्रह अथ प्रदेशबन्धं एकोनत्रिंशद्-गाथासूत्रैराह । किं तदाह स्वामित्वभागभागाभ्यामष्टोत्कृष्टादयः सह । दश प्रदेशबन्धस्य प्रकाराः कथिताः जिनः* ॥४४॥ अब प्रदेशबन्धका निरूपण करते हैं[मूलगा०८६] 'एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जोग्गं । बंधइ जहुत्तहेउं सादियमहऽणादियं चावि ॥४६४।। एकक्षेत्रावगाहं यथा भवति तथा सर्वात्मप्रदेशेषु कर्मयोग्यपुद्गलद्रव्यं जीवो बध्नाति । यथोक्तमिथ्यात्वादिकारणं लब्ध्वा। किम्भूतं द्रव्यम् ? सादिकमथवाऽनादिकं च । तथाहि-सूक्ष्मनिगोदशरीरं घनाङ्गलासंख्ययभागं जघन्यावगाहक्षेत्र एकक्षेत्रम् । तेनावगाहितं कर्मस्वरूपपरिणमनयोग्यं अनादिकं सादिक उभयं च पुद्गलद्रव्यं जीवः सर्वात्मप्रदेशैमिथ्या दर्शनादिहेतुभिर्बध्नातीत्यर्थः ॥४६४।। एकक्षेत्रावगाही, कर्मरूप परिणमनके योग्य, सादि, अथवा अनादि, तथा 'च' शब्दसे सूचित उभयरूप जो पुद्गलद्रव्य है, उसे यह जीव यथोक्त मिथ्यात्व आदि हेतुओंसे अपने सर्व प्रदेशोंके द्वारा बाँधता है । इसे ही प्रदेशवन्ध कहते हैं ॥४६४॥ विशेषार्थ-प्रकृत प्रदेशबन्धका निरूपण उत्कृष्टप्रदेशवन्ध, अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध, जघन्यप्रदेशबन्ध, अजघन्यप्रदेशबन्ध, सादिप्रदेशबन्ध, अनादिप्रदेशबन्ध, ध्रुवप्रदेशबन्ध, अध्रुवप्रदेशबन्ध भागाभाग और स्वामित्व, इन दश द्वारोंसे किया जायगा। एक शरीरकी अवगाहनासे रुके हुए क्षेत्रमें अवस्थित पुद्गलद्रव्यको एकक्षेत्रावगाही द्रव्य कहते हैं। प्रकृतमें सूक्ष्मनिगोदिया जीवकी घनांगुलके असंख्यातमें भागप्रमाण अवगाहनाको एक क्षेत्र जानना चाहिए । अब जीवके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले कर्मरूप पुद्गलद्रव्यका प्रमाण कहते हैं[मूलगा०८७] 'पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणयदुर्गध चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि। अणंतगुणहीणं ॥४६॥ तद्व्यप्रमाणमाह-['पंचरस-पंचवण्णेहिं' इत्यादि ।] पञ्चरस-पञ्चवर्ण-द्विगन्धैश्चरमशीतोष्णस्निग्धसूचमचतु:स्पशैश्च परिणतं यत्कर्मयोग्यपुद्गलद्रव्यम् । कथम्भूतम् ? अनन्तप्रदेशं अनन्त कर्मपुद्गलप्रदेशम् । पुनः कथम्भूतम् ? जीवराशिभ्योऽनन्तगुणहीनम् । तथा हि-सिद्धराश्यनन्तैकभागं भभव्यराश्यनन्तगुणं समयप्रबद्धद्रव्यं भवतीत्यर्थः । गोमट्टसारे तथा चोक्तं च सयलरसरूपगंधेहिं परिणदं चरिमचदुहिं फासे हिं । सिद्धादोऽभव्वादोऽणंतिमभागं गुणं दव्वं ॥४५।। बंधदि ति किरियाणवणं । एगसमयम्हि बरझमाणपयडीणं दधमिदि णेयं । तथा च पुद्गलाः ये प्रगृह्यन्ते जीवेन परिणामतः । रसादित्वमिवाहाराः कर्मत्वं यान्ति तेऽखिलाः॥४६॥४६॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ३३६ । 2. ४, ३३७ । * सं० पञ्चसं० ४, ३३४ | - गो० कर्म० गा० १९१ 1: सं० पञ्चसं० ४,३३५ । १. शतक०७ । गो. क. १८५ । २. शतक०८८ । ब जीवेसि । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २८१ पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि अन्तिम चार स्पर्शसे परिणत, सिद्धजीवोंसे अनन्तगुणित हीन, तथा अभव्यजीवोंसे अनन्तगुणित अनन्तप्रदेशी पुद्गलद्रव्यको यह जीव एक समयमें ग्रहण करता है ॥४६॥ अब आनेवाले द्रव्यके विभागका निरूपण करते हैं. [मूलगा०८८] 'आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अधिओ। आवरण अंतराए सरिसो अधिगो य मोहे वि ॥४६६॥ [मूलगा०८६] सव्वुवरि वेदणीए भागो अधिओ दु कारणं किं तु । सुह-दुक्खकारणत्ता ठिदिव्विसेरेण सेसाणं ॥४६७॥ तत् [समयप्रबद्धद्रव्यं] मूलप्रकृतिषु कथं विभज्यते इति चेदाह--[ 'भाउगभागो थोवो' इत्यादि ।] आयुःकर्मणो भागः स्तोकः । नाम-गोत्रकर्मणोः परस्परं समानः सदृशभागः, यतः आयुःकर्मभागादधिकः । ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायकर्मसु तथा समानः सदृशभागः ततोऽधिकः । ततो मोहनीये कर्मणि अधिकभागः । ततो मोहनीयभागाद् वेदनीये कर्मणि अधिको भागः। एवं भक्त्वा दत्ते सति मिथ्यादृष्टी आयुश्चतुविधं ४ सासादने नारकं नेति त्रिविधं ३ असंयते तैरश्चमपि नेति द्विविधं २ देशसंयतादित्रये एक देवायुरेव १। उपर्यनिवृत्तिकरणान्तेषु मूलप्रकृतयः सप्त ७। सूचमसाम्पराये षट् ६ । उपशान्तादित्रये एका साता उदयात्मिका। वेदनीयस्य सर्वतः आधिक्ये कारणमाह-किन्तु वेदनीयस्य सुख-दुःखनिमित्ताबहुकं निर्जरयतीप्ति हेतोः सर्वप्रकृतिभागद्रव्याद् बहुक द्रव्यं भवति । वेदनीयं विना सप्तानां शेषसर्वमूलप्रकृतीनां स्थितिविशेषप्रतिभागेन द्रव्यं भवति । तत्राधिकागमननिमित्तं प्रतिभागहारः आवल्यसंख्येयभागः । तत्संदृष्टि वाङ्क: है । कार्मणसमयमबद्धद्रव्यमिदं स 9। तदावल्यसंख्यातभक्ता बहुभागाः स..।८ । आवल्यसंख्यातभक्तबहभागो बहकस्य वेदनीयस्य देयः स १।८ । मोहनीयस्य स १।८। ज्ञानावणम्य स । ८ दर्शनावरणस्य स 9 15 । अन्तरायस्य । . . ' ६ ६ . । । नामकर्मणः स 9। ८ । । गोत्रस्य स91८ स 9 । । आयुषः ६ ६ ६ ६ है । आयुषः प्रकृतिषु गोमट्टसारे द्रष्टव्यः ॥४६६-४१७॥ । एवं दत्ते 'आउगभागो थोवो' इति सिद्धम् । एवमुत्तर। एवं द एक समय में जो पदलदव्य आत्मप्रदेशोंके साथ सम्बद्ध होता है, उसका विभाग आठों कर्मों में होता है। उसमें से आयुकर्मका भाग सबसे थोड़ा है। नाम और गोत्रकर्मका भाग यद्यपि आपसमें समान है, तथापि आयुकर्मके भागसे अधिक है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, इन तीन घातिया कर्मोंका भाग यद्यपि परस्पर समान है, तथापि नाम और गोत्रकर्मके भागसे अधिक है। ज्ञानावरणादि कर्मों के भागसे मोहनीय कमेका भाग अधिक है। मोहनीयकर्मके भागसे भी वेदनीयकर्मका भाग अधिक है। वेदनीयकर्म सुख-दुखका कारण है, इसलिए उसका भाग सर्वोपरि अथोत् सबसे अधिक है। शेष कोंके विभाग उनकी स्थितिविशेषके अनुसार जानना चाहिए ॥४६६-४६७) 1. सं० पञ्चसं० ४, ३४२-३४४ । . १. शतक. ८ । गो. क. १६२ । २. शतक. १० । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अब मूलकमके उत्कृष्टादि प्रदेशबन्ध के सादि आदि भेदोंको कहते हैं [ मूलगा ०६०] 'छण्हं पि अणुक्कस्सो पदेसंबंधो दु चउविहो होइ । सतिए दुवियप्पो मोहाउयाणं च सव्वत्थ ||४६८ ॥ २८२ अथोत्कृष्टादीनां साद्यादिविशेषं मूलप्रकृतिष्वाह-- [ 'हं पि अणुक्कस्सो' इत्यादि । ] षण्णां ज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीय-नाम- गोत्रान्तरायाणां कर्मणां अनुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः सादिबन्धानादिबन्ध - [ ध्रुवबन्धाध्रुवबन्ध-] भेदाच्चतुर्विधो भवति ६ । षण्णां तु पुनः शेषोत्कृष्टाजघन्यजघन्येषु त्रिषु साद्यध्रुवभेदाद् द्विविध एव ६ । तु पुनः मोहाssयुवोः सजा [ तीये ] षु चतुर्विधेषु साद्यध्रुवभेदाद् द्विविधः ॥ ४६८ || प्रदेशबन्धे ज्ञा० १ कर्म ६ ६ ६ जघ० ६ अज० ६ ६ ६ ६ उत्कृ ० अनु० २ जघ० २ भज० २ उत्कृ० २ अनु० अनादि ध्रुव मोहनीयप्रदेशबन्धे आयुषः प्रदेशबन्धे साद्यादि - ० ० ० २ ० ३ ना० ४ गो० ५ अं० ६ प्र० सादि सादि ० सादि सादि ० ० सादि सादि सादि सादि ० मोहनीय और आयुके सिवाय शेष छह कर्मोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है । इन हो छह कर्मोंके शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध सादि और अध्रुवरूप दो प्रकारके होते हैं। मोहनीय और आयुकर्मके उत्कृष्टादि चारों प्रकारका प्रदेशबन्ध सादि और अध्रुवरूप दो प्रकारका होता है ॥४६८ ॥ इनकी संदृष्टि इस प्रकार है अध्रु० ० 12 ज्ञानावरणादि ६ कर्म जघ ० सादि अज० सादि उत्कृ० सादि उत्कृ० अनु० अनु० सादि अनादि ध्रुव अब उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेशबन्ध के सादि आदि भेदोका निरूपण करते हैं[मूलगा ०६१] ' तीसण्हमणुक्कस्सो उत्तरपयडीसु चउविहो बंधो । सेसतिए दुवियप्पो सेसासु वि होइ दुवि ॥ ४६६॥ ३०।६० "" o 33 2 ० कर्म २ २ २ ० अध्रुव २ २ २ २ ० 1. सं० पञ्चसं० ४, ३४६ । २.४, ३४७-३४६ । १. शतक० ६१ । गो० ० २०७ । गप्पो वि' इति पाठः । गो० क० २०८ | "" " जघ० अज० अध्रुव २ २ "" २ 33 "" ४ 33 मोहनीय और आयुकर्म सादि सादि सादि सादि ० ० ० ० ० ० ० अध्रु० अथोत्कृष्टादीनां साद्यादिविशेषमुत्तर प्रकृतिषु गाथात्रयेणाऽऽह - [ 'तोसण्हमणुक्कस्सो' इत्यादि । ] उत्तर प्रकृतिषु त्रिंशतः प्रकृतीनां ३० अनुत्कृष्टप्रदेशबन्धः साद्यनादिधुवाधुवभेदाच्चतुर्विकल्पः । शेषोत्कृष्ट 23 33 २. शतक० ६२ । परं तत्र चतुर्थचरणे 'सेसासु य चउवि Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शतक २८३ जघन्याजघन्येषु त्रिषु साधध्रुवभेदाद् द्विविकल्पः । शेषनवतिप्रकृतीनामुत्कृष्टानुस्कृष्टजघन्याजघन्यप्रदेशबन्धचतुष्केऽपि साधध्रुवभेदाद् द्विविकल्प एव भवति ॥४६॥ उत्तर प्रकृतियों में से ( वक्ष्यमाण ) तीस प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है । उन्हींका शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध सादि और अ६ वरूप दो प्रकारका होता है। उक्त प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष ६० प्रकृतियोंके उत्कृष्ट आदि चारों प्रकारके प्रदेशबन्ध सादि और अधूवरूप दो प्रकार के होते हैं ॥४६॥ अब भाष्यगाथाकार उक्त तीस प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं- . णाणंतरायदययं दसणछक्कं च मोहचउदसयं ।। तीसण्हमणुकस्सो पदेसबंधो चउवियप्पो ॥५०॥ अंतिमए छ दसणछकं थीणतिगं वञ्ज मोहचउदसयं । अण वज बारह कसाया भय दुगुंछा य ॥५०१॥ १४॥ ताः त्रिंशतमाह-['णाणंतरायदसयं' इत्यादि।] पञ्चज्ञानावरणान्तरायाः १० निद्रा-प्रचलाचक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणषटकं ६ अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलनक्रोधमानमायालोभ-भय-जुगुप्सा मोहनीयचतुर्दशकं १४ चेति त्रिंशतः प्रकृतीनां अनुत्कृष्टप्रदेशबन्धः साधनादिध्रुवाध्रुवबन्धभेदाच्चतुर्विकल्पो भवति । अत्र दर्शनावरणे स्त्यानत्रिकं वर्जयित्वा अन्तिमदर्शनषटकं ६ मोहे अनन्तानुबन्धि चतुष्कं वर्जयित्वा कषाया द्वादश, भय-जुगुप्साद्वयमिति मोहचतुर्दशकम् १४ ॥५००-५०१॥ प्रदेशबन्धे उत्तरप्रकृतयः ३० ज्ञा० ५ द. ६ अं० ५ मो०१४ प्र० ३० जघ० सादि . . अध्रु. प्र० ३० अज० सादि . . ,, प्र० ३० उत्कृ० सादि . . , प्र० ३० अनु० सादि अनादि ध्रुव , प्रदेशबन्धे उत्तरप्रकृतयः १० उत्कृष्टादि. साधादिबन्ध-रचना प्र० ६० जघ. सादि ० . अध्रव० प्र० १० अज० सादि . . , प्र० १० उत्कृ० सादि . . , प्र० ६० अनु० सादि . इत्युकृष्टादिप्रदेशबन्ध-साद्यादिबन्धाष्टकं समाप्तम् । ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी छह और मोहकी चौदह; इन तीस प्रकृतियांका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध चारों प्रकारका होता है। यहाँपर जो दर्शनावरणकी छह प्रकृतियाँ कहीं हैं सो स्त्यानगृद्धित्रिकको छोड़कर अन्तिम छहका ग्रहण करना चाहिए। तथा मोहकी जो चौदह प्रकृतियाँ कहीं हैं, उनमें अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्कको छोड़कर शेष बारह कषाय और भय तथा जुगुप्सा, ये चौदह प्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं ।५००-५०१॥ ० ० १. गो० क० गा० २०६ । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ३० प्रकृतियाँ ज्ञा० ५, ५०६, मो० १४, अं० ५ ) जघ ० सादि अध्र० ३० ३० अज० सादि उत्कृ० सादि ३० 22 ३० अनु० सादि अना० ध्रुव अब गुणस्थानों की अपेक्षा मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैं[मूलगा०६२] 'आउकस्स पदेसस्स छच्च मोहस्स णव दु ठाणाणि । साणि तणुकसाओ बंधइ उकस्सजोगेण ॥५०२|| मिस्सवज्जेसु पढमगुणेसु । ० पञ्चसंग्रह उक्त प्रकृतियोंकी संदृष्टि इस प्रकार है ० ० ० ० Q در " शेष उत्तर प्रकृतियाँ ६० ६० जघ० सादि ६० अज० सादि ६० उत्कृ० सादि ६० अनु० सादि " ० ० ० ० ० ० ० For Private Personal Use Only ० अध्रु० "" अथ मूलप्रकृतीनाभुत्कृष्टप्रदेशबन्धस्य गुणस्थाने स्वामित्वमाह - [ 'आउक्कम्स पदेसस्स' इत्यादि । ] आयुषः उत्कृष्टप्रदेशं मिश्रगुणं विना पड्गुणस्थानान्यतीत्याप्रमत्तो भूत्वा बध्नाति । तु पुनः नवमं गुणस्थानं प्राप्यानिवृत्तिकरणो मोहनीयस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धं बध्नाति । शेषज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीय- नाम - गोत्रान्तरायाणां पण्णां सूक्ष्मसाम्पराय एवोत्कृष्टप्रदेशबन्धं बध्नाति । अत्रापि गुणस्थानत्रये उत्कृष्टयोगः प्रकृतिबन्धाल्पतर इति विशेषणद्वयं ज्ञातव्यम् ||५०२॥ 39 मिश्रवर्जितेषु प्रथमगुणस्थानेषु षट्षु । मिश्रगुणस्थाने आयुषः उत्कृष्टप्रदेशबन्धो नास्ति । आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिश्रगुणस्थानको छोड़कर प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमें होता है । तथा मोहकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध प्रारम्भके नौ गुणस्थानों में होता है । शेष छह कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको उत्कृष्ट योगसे संयुक्त सूक्ष्मसाम्परायसंयत बाँधता है ||५०२ ॥ यहाँपर मिश्रको छोड़कर प्रारम्भके छह गुणस्थानोंका ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - प्रकृत गाथामें आठों कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामित्वका निरूपण किया गया है । यह गाथा गो० कर्मकाण्डमें भी २११वीं संख्या के रूप में पाई जाती है । किन्तु वहाँपर जो उसके पूर्वार्धकी संस्कृतटीका पाई जाती है, वह विचारणीय है । टीकाका वह अंश इस प्रकार है "आयुष उत्कृष्टप्रदेशं पड्गुणस्थानान्यतीत्य अप्रमत्तो भूत्वा बध्नाति । मोहस्य तु पुनः नवमं गुणस्थानं प्राप्य अनिवृत्तिकरणो बध्नाति ।" वहाँपर इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार किया गया है -- "आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध छ : गुणस्थानों को उल्लंघ सातवें गुणस्थान में रहनेवाला करता है । मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नवम गुणस्थानवर्ती करता है ।" पञ्चसंग्रहके टीकाकारने इस गाथाकी टीका में केवल 'मिश्रगुणं विना' इतने अंशको छोड़कर शेष अर्थमें गो० कर्मकाण्डकी टीकाका ही अनुसरण किया है । यद्यपि 'मिश्रगुणं विना' इतना अंश उन्होंने उक्त गाथा के अन्तमें दी गई वृत्ति 'मिस्सवज्जेसु पढमगुणेसु' के सामने रहने से दिया 1. सं० पञ्चसं० ४, ३५१-३५३ । १. शतक० ६३ । परं तत्र पूवार्धे पाठोऽयन् - 'आउक्कस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त ठाणाणि' | गो० क० २११ । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २८५ है, तथापि उक्त दोनों टीकाओं में किया गया अर्थ न तो मूलगाथाके शब्दोंसे ही निकलता है और न महाबन्धके प्रदेशबन्धगत स्वामित्व अनुयोगद्वारसे ही उसका समर्थन होता है। महाबन्धमें आयु और मोहकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके स्वामित्वका निरूपण इस प्रकार किया गया है "मोहस्स उकस्सपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिंदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिटिस्स वा सम्मादिहिस्स वा सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयदस्स सत्तविहबन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्वस्सए पदेसबंधे वट्टमाणस्य । आउगस्स उक्कस्तपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स वदुगदियस्स पंचिंदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिहिस्स वा सम्मादिहिस्स वा सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयस्स अट्ठविहबन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स ।" ( महाबन्ध पु० ६ पृ० १४) इस उद्धरणमें आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध न केवल अप्रमत्तके बतलाया गया है और न मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध केवल अनिवृत्तिकरणके बतलाया गया है। किन्तु स्पष्ट शब्दोंमें कहा गया है कि आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध आठो कर्मों के बाँधनेवाले पश्चेन्द्रिय संज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवके होता है, तथा आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोका बन्ध की पंचेन्द्रिय मिथ्यावृष्टि और सम्यग्दृष्टिके मोहकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। महाबन्धके इस कथनसे पंचसंग्रहकी मूलगाथा-द्वारा प्रतिपादित अर्थका ही समर्थन होता है। आ० अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रहसे भी ऊपर किये गये अर्थकी पुष्टि होती है । यथा उत्कृष्टो जायते बन्धः पट सु मिश्रं विनाऽऽयुपः। प्रदेशाख्यो गुणस्थाननवके मोहकर्मणः ॥ (सं० पञ्चसं० ४, २५१) संस्कृत टीकाकार सुमतिकीर्त्तिके सामने अमितगतिके सं० पञ्चसंग्रहके होते हुए और अनेक स्थानोंपर उसके वीसों उद्धरण देते हुए भी इस स्थलपर उन्होंने उसका अनुसरण न करके गो० कर्मकाण्डकी टीकाका अनुसरण क्यों किया, यह बात विचारणीय ही है। उक्त गाथा श्वे० शतकप्रकरणमें भी पाई जाती है और वहाँ उसका गाथाङ्क ६३ है। परन्तु वहाँपर 'छञ्च' के स्थानपर 'पंच' और 'व' के स्थानपर 'सत्त' पाठ पाया जाता अर्थ करते हुए चूणिकारने उक्त दोनों पाठ-भेदोंकी सूचना की है । यथा 'आउक्कस्स पएसस्स पंच त्ति' मिच्छद्दिहि असंजतादि जाव अप्पमत्तसंजओ एतेसु पंचसु वि आउगस्स उक्कोसो पदेसबंधो लब्भइ । कहं ? सम्वत्थ रक्कोसो जोगो लब्भइ त्ति काउं । अने पढंति-'आउक्कोसस्स पदेसस्स छत्ति' । xxx'मोहस्स सत्त ठाणाणि' त्ति सासण-सम्मामिच्छद्दिठिवज्जा मोहणिजबंधका सत्तबिहबंधकाले सव्वेसिं उक्कोसपदेसबंधं बंधंति । कहं ? भन्नइ-सव्वेसु वि उक्कोसो जोगो लब्भति त्ति । अन्ने पढंति-'मोहस्स णव उ ठाणाणि' त्ति सासणसम्मामिच्छेहिं सह । (शतकप्रकरण, गा०६३ चू०४६) ___ उक्त पाठ-भेदोंके रहते हुए भी चूर्णिमें किये गये अर्थसे न पंचसंग्रहकी संस्कृतटीकाके अर्थका समर्थन होता है और न गो० कर्मकाण्डकी संस्कृत टीका-द्वारा किये गये अर्थका समर्थन होता है। अब मूल प्रतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैंमूलगा० ६३] सुहुमणिगोयअपञ्जत्तयस्स पढमे जहण्णगे जोगे। ___ सत्तण्हं पि जहण्णो आउगबंधे वि आउस्स ॥५०३॥ अथ मूलप्रकृतीनां जघन्यप्रदेशबन्धकं स्वामित्वं कथयति--[ 'सुहुमणिगोद' इत्यादि । ] सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकः स्वभवप्रथमसमये जघन्ययोगेनायुर्विना सप्तमूलप्रकृतीनां जघन्यं प्रदेशबन्धं करोति । आयुर्वन्धसमये वा आयुषो जघन्यप्रदेशबन्धं च विदधाति स एव जीवः ॥५०३॥ १. शतक. १४ । गो० क. २१५ । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ पञ्चसंग्रह सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीवके अपनी पर्यायके प्रथम समयमें जघन्य योगमें वर्तमान होनेपर आयुके विना शेष सात कर्मोका जघन्य प्रदेशबन्ध होता है। तथा विभागके समय आयुबन्ध करनेके प्रथम समयमें उसी जीवके आयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध होता है ।।५०३।। अब उत्तर प्रकृतियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैं[मूलगा०६४] सत्तरस सुहुमसराए पंच णियट्टी य सम्मओ णवयं । अजदी विदियकसाए देसजदी तदियए जयई॥५०४॥ १७।५।६।४।४ सम्मओ मिस्सादियपुन्वंता। *णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि साय जसकित्ती । उच्चागोदुक्कस्सं छव्विहबंधो तणुकसाई ॥५०॥ उक्कस्सपदेसत्तं कुणइ अणियट्टिबायरो पेव । पंचण्हं पयडीणं णियमा पुंवेदसंजलणा ॥५०६॥ 'छण्णोकसाय पयला णिद्दा वि य तह य होइ तित्थयरं। उक्कस्सपदेसत्तं कुणइ य णव सम्मओ णेयं ॥५०७॥ अथोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं तत्स्वामित्वं च गाथाषट केनाऽऽह--['सत्तरस सुहमसराए' इत्यादि सूचमसाम्पराये सप्तदशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धद्रव्यं भवति । ताः काः? ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ साता १ यशस्कीर्तिः , उच्चैर्गोत्रं चेति सप्तदशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं तनुकषायी सूक्ष्मसाम्परायी मुनिः करोति बध्नाति १७ । उत्कृष्टप्रदेशबन्धः कथम्भूतः ? षडविधबन्धः किं तत् ? उत्कृष्टादेशबन्धः १ अनुत्कृष्टप्रदेशबन्धः २ सादिप्रदेशबन्धः ३ अनादिप्रदेशबन्धः ४ ध्रुवप्रदेशबन्धः ५ अध्रुवप्रदेशबन्धः ६ इति षटप्रकारप्रदेशबन्धः सप्तदशप्रकृतीनां भवतीत्यर्थः १७ । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवर्ती पञ्चप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति । पुंवेद-संज्वलनक्रोधमानमायालोभानां पञ्चप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं अनिवृत्तिकरणो मुनिः करोति । सम्यग्दृष्टिः प्राणी नवप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं सम्यग्दृष्टिरसंयताद्यपूर्वकरणो जीवः करोति बध्नाति । असंयतश्चतुर्थगुणस्थानवर्ती द्वितीयकषायान् अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभान् उत्कृष्टप्रदेशबन्धान् करोति ४ । देशसंयतः श्रावकः तृतीयप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभान् उत्कृष्टप्रदेशबन्धान् करोति बध्नातीत्यर्थः ॥५०४-५०७॥ (वक्ष्यमाण) सत्तरह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें होता है। पाँच प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होता है। नौ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि करता है। अप्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्कका अविरतसम्यग्दृष्टि और प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कका देशविरत गुणस्थानवाला उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है ।५०४ । प्रकृतियाँ १७।५।६।४।४। गाथा-पठित 'सम्यग्दृष्टि' पदसे मिश्रगुणस्थानको आदि लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानतकके जीवोंका ग्रहण करना चाहिए। अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं ज्ञानावरणको पाँच,अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, सातावेदनीय, यशस्कीर्ति और उच्चगोत्र; इन सत्तरह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवरूप छह प्रकारके प्रदेशबन्धको सूक्ष्मसाम्परायसंयत करता है। पुरुषवेद और चार संज्वलनकषाय; इन 1. सं० पञ्चसं० ४, ३५७ । १.४, ३५४-३५५ । 3. ४, ३५६ । १. शतक०६५। गो० क० २१२। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २८७ पाँच प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नियमसे अनिवृत्ति बादरसाम्परायसंयत करता है। हास्यादि छह नोकषाय, निद्रा, प्रचला और तीर्थकर; इन नौ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि करता है, ऐसा जानना चाहिए ॥५०५-५०७॥ [मूलगा०६५] 'तेरह बहुप्पएसो सम्मो मिच्छो व कुणइ पयडीओ। आहारमप्पमत्तो सेस पएसेसुक्कडो मिच्छो' ॥५०८॥ १३१२।६६ सादेदर दो आऊ देवगइचउक्क आइसंठाणं । आदेज सुभग सुस्सर पसस्थगइ आइसंघयणं ॥५०॥ एत्थ देव-मणुसाऊ। त्रयोदशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिा करोति बध्नाति । ताः का इति चेदाहअसातावेदनीयं १ मनुष्य-देवायुषी द्वे २ देवगति-तदानुपूर्वि-वैक्रियिक-तदङ्गोपाङ्गचतुष्कं ४ समचतुरस्त्रसंस्थानं २ सुभग-सुस्वर-प्रशस्तविहायोगतित्रिकं ३ वज्रवृषभनाराचसंहननं १ चेति त्रयोदशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिा करोति १३। आहारकद्वयस्याप्रमत्तो मुनिरुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति २। इति चतुःपञ्चाशत्प्रकृतीनामुस्कृष्ट प्रदेशबन्धस्वामित्वं कथितम् । शेषाणां स्त्यानगृद्धित्रिक ३ मिथ्यात्व १ अनन्तानुबन्धिचतुष्क ४ स्त्री-नपुंसकवेद २ नारक-तिर्यगायुद्धय २ नरक-तिर्यग्मनुष्यगतित्रय ३ पञ्चैकेन्द्रियादिजाति ५ औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरत्रय ३ न्यग्रोधपरिमण्डलादिसंस्थानपञ्चक५वज्रनाराचादिसंहननपञ्चक ५ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ वर्णचतुष्क ४ नरक-तिर्यग्मनुष्यानुपूर्व्यत्रयागुरुलधूपघातपरघातोच्छासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगति-बस-स्थावर-बादर-सूचम-पर्याप्तापर्याप्त-प्रत्येक-साधारण-स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-दुर्भग-दुःस्वरानादेयायशोनिर्माण-नीचगोत्राणां षषष्टः प्रकृतीनां ६६ उत्कृष्टप्रदेशबन्धं मिध्यादृष्टिरेव करोति । एवमुक्तानुक्त १२० प्रकृतीनामुस्कृष्टप्रदेशबन्धकारणमुस्कृष्टयोगादि प्रागुक्तमेव ज्ञेयम् । अत्र मिथ्यात्वं मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिद्रव्यमुत्कृष्टमुक्तम् । तथाऽनन्तानुबन्धिनः सासादने किमिति नोच्यते ? तन्न: मिथ्यात्वद्रव्यस्य देशघातिनामेव स्वामित्वात् ॥५०८-५०६॥ ( वक्ष्यमाण) तेरह प्रकृतियोंका उत्कृष्टप्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करता है। आहारकद्विकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्तसंयत करता है। शेष ६६ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योगवाला मिथ्यादृष्टि जीव करता है ॥५०८॥ प्रकृतियाँ १३।२।६६ अब भाष्यगाथाकार उक्त तेरह प्रकृतियोंको गिनाते हैं असातावेदनीय, दो आयु, देवगतिचतुष्क, आदिका संस्थान, आदेय, सुभग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति और प्रथम संहनन; इन तेरह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यक्त्त्वी जीव भी करते हैं और मिथ्यात्वी जीव भी करते हैं ॥५०६॥ यहाँपर दो आयुसे देवायु और मनुष्यायुका अभिप्राय है। अब उत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी सामग्रीविशेषका निरूपण करते हैं[मूलगा०६६] उक्कस्सजोगसण्णी पज्जत्तो पयडिबंधमप्पयरं । कुणइ पदेसुक्कस्सं जहण्णय जाण विवरीयं ॥५१०॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ३५८-३६० । 2. ४, ३६१ । १. शतक० ६६ । गो० क० २१४ अर्धसमता । २. शतक० १७ । गो० क० २१०। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अथोत्कृष्टबन्धस्य सामग्री विशेषमाह -- [ 'उक्कस्सजोगसपणी' इत्यादि । ] प्रदेशोत्कृष्टबन्धमुत्कृष्टयोगसंज्ञिपर्याप्त एव प्रकृतिबन्धात्पतरः करोति । जघन्ये विपरीतं जानीहि । जघन्ययोगासंज्ञयपर्याप्तप्रकृतिबन्धबहुतर एव जघन्य प्रदेशबन्धं करोतीत्यर्थः ॥ ५१० ॥ २८८ जो जीव उत्कृष्ट योगसे युक्त है, संज्ञी, पर्याप्तक है और प्रकृतियोंका अल्पत्तर बन्ध करनेवाला है, वही जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । जघन्य प्रदेशबन्ध में इससे विपरीत जानना चाहिए | अर्थात् जो जघन्ययोगसे युक्त हो, असंज्ञी और अपर्याप्त हो, तथा प्रकृतियोंका अधिकतर बन्ध करनेवाला हो, वह जघन्य प्रदेशबन्धको करता है ||५१०| अब उत्तरप्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्ध और उनके स्वामित्वका निरूपण करते हैं [ मूलगा ०६७ ] 'घोलणजोगमसण्णी बंधइ चदु दोणिमप्पमत्तो दु । पंचासंजदसम्मो सुहुमणिगोदो भवे सेसा ॥ ५११२ ॥ ४/२/५/१०६ णिरयाउग देवाउग णिरयदुगं चेव जाण चत्तारि । आहारदुगं चैव य देवचउक्कं च तित्थयरं ॥ ५१२ ॥ अथोत्तरप्रकृतीनां जघन्य प्रदेशबन्धं तत्स्वामित्वं च गाथाद्वयेनाऽऽह - [ 'घोडगजोगमसण्णी' इत्यादि । ] येषां योगस्थानानां वृद्धिर्हानिरवस्थानं च सम्भवति, तानि घोटमानयोगस्थानानि परिणामयोगस्थानानीति भणितं भवति । तद्योगोऽसंज्ञी पञ्चेन्द्रियजीवः प्रकृतिचतुष्कं बध्नाति । तस्किम् ? नारकायुष्यं १ देवायुष्यं १ देवगति-नरकगति-तदानुपूर्व्यद्वयं २ चेति चतुर्णां प्रकृतीनां जघन्य प्रदेशबन्धं असंज्ञी जीवः करोति बना जानीहि ४ । आहारकशरीर-तदङ्गोपाङ्गद्वयस्य जघन्य प्रदेशबन्धं अप्रमत्तो मुनिः करोति बध्नाति । कुतः ? भपूर्वकरणात्तस्य बहुप्रकृतिबन्धसम्भवात् २ । असंयतसम्यग्दृष्टिः पञ्चप्रकृतीनां जघन्य प्रदेशबन्धं बध्नाति । तत्किम् ? देवगति-तदानुपूर्व्यं वैक्रियिक-तदङ्गोपाङ्गचतुष्कं ४ तीर्थंकरत्वं १ चेति पञ्चप्रकृतीनां जघन्य प्रदेशबन्धं असंयतसम्यग्दृष्टिर्भवग्रहणप्रथमसमय जघन्योपपादयोगः करोति बनातीति ज्ञेयम् ५ । एवमुक्तैकादशेभ्यः शेषाणां नवोत्तरशतप्रकृतीनां जघन्यप्रदेशबन्धं सूक्ष्मनिगोदिको जीवो द्वादशोत्तरपट् सहस्रापर्याप्तभवानां वरमभवस्थः विग्रहगतित्रिवक्रेषु प्रथमवक्रे सूचमनिगोदो बध्नाति ॥ ५११-५१२॥ तथा चोक्तम् चरिम-अपुण्णभवत्थो तिविग्गहे पढमविग्गहम्मि ठिओ । मणिगोदो बंधदि सेसाणं अवरबंधं तु ॥ ४७ ॥ इति । घोटमानयोगोंका धारक असंज्ञी जीव ( वक्ष्यमाण ) चार प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धको करता है । अप्रमत्तसंयत दो प्रकृतियोंके और असंयत सम्यग्दृष्टि पाँच प्रकृतियां के जघन्य प्रदेशबन्धको करता है । शेष १०६ प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धको चरम भवस्थ तथा तीन विग्रहों मेंसे प्रथम विग्रहमें अवस्थित सूक्ष्मनिगोदिया जीव करता है ॥ ५९९ ॥ प्रकृतियाँ ४ |२| ५ | १०६ विशेषार्थ - जिन योगस्थानोंकी वृद्धि भी हो, हानि भी हो और अवस्थान भी हो, उन्हें घोटमानयोग कहते हैं। इन्हींका दूसरा नाम परिणामयोगस्थान भी है। 1. सं० पञ्चसं० ४, ३६२-३६४ । १. शतक ० ६८ । गो० क० २१६ | परन्तु तत्र पाठभेदोऽस्ति । *गो० कर्म० गा० २१७ । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोंको गिनाते हैं नरका, देवायु और नरकद्विक ये उपर्युक्त चार प्रकृतियाँ जानना चाहिए। दो प्रकृतियोंसे आहारकद्विकका, तथा पाँच प्रकृतियोंसे देवचतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिका ग्रहण करना चाहिए ||५१२|| . अब चारों बन्धोंके कारणोंका निरूपण करते हैं [ मूलगा ०६८ ] 'जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागं कसायदो कुणइ । काल-भत्र खेत्तपेही उदओ सविवाग- अविवागो' ५१३ || उक्तचतुर्विधबन्धानां कारणान्याह - [ 'जोगा पयडिपएसा' इत्यादि । ] योगात्मनोवचनकाययोगास्प्रकृतिबन्ध-प्रदेशबन्धौ भवतः, जीवाः कुर्वते । कषायतोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यान संज्वल नक्रोधमानमायालोभात् नवनोकषायाच्च स्थितिबन्धानुभागबन्धी भवतः, जीवाः कुर्वते । कर्मणामुदयो विपाको भवति । द्रव्य-क्षेत्र काल-भव-भावलक्षण- कारणभेदोत्पादितनानात्वः त्रिपाकः विविधोऽनुभवो ज्ञातव्यः । कालं भवं क्षेत्रं द्रव्यमपेक्ष्य कालं चतुर्थादिकालं भवं नर-नारकादिभवं क्षेत्रं भरतैरावतविदेहादिक्षेत्रं द्रव्यं जीव- पुद्गलसंहननादिद्रव्यं प्राप्य कर्मणामुदयोऽनुभागो भवति । स कथम्भूतः ? द्विविधः - सविपाकोऽविपाकश्च । चातुर्गतिकानां जीवानां शुभाशुभकर्मणां सुख-दुःखादिरूपोऽनुभवः अनुभवनं स विपाकोदयः । यच्च कर्मविपाककालमप्राप्तं उदयमनागतं उपक्रमक्रियाविशेषबलादुदयमानीय आस्वाद्यते स भविपाकोदयः ॥५१३॥ तथा चोक्तं च कालं क्षेत्रं भवं द्रव्यमुदयः प्राप्य कर्मणाम् । जायमानो मतो द्वेधा विपाकेतरभेदतः ॥४८॥ २८६ जीव प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धको योगसे, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धको कषायसे करता है । काल, भव और क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मोंका उदय होता है । वह दो प्रकारका है - सविपाक उदय और अविपाक - उदय ॥५१३॥ विशेषार्थ – पूर्वार्ध में प्रकृतिबन्ध और प्रदेशचन्धका कारण योग, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कषाय बतलाया गया है। उत्तरार्धके द्वारा उदयके निमित्त और उसके भेद बतलाये गये हैं । जिसका अभिप्राय यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावका आश्रय पाकरके कर्म अपना फल देते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना आवश्यक है कि ज्ञानावरणको पाँच, दर्शनावरणकी चार, अन्तरायकी पाँच, मिथ्यात्व, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण ये ३७ ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ कहलाती हैं, सो इनका तो उदय सर्व काल सर्व संसारी जीवोंके रहता है । इन्हें छोड़कर शेष जो ६५ उदय-प्रकृतियाँ हैं, वे क्षेत्र, कालादिका निमित्त पाकर उदय देती हैं । जैसे क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ क्षेत्रका निमित्त पाकर फल देती हैं । भवविपाकी प्रकृतियाँ भवका निमित्त पाकर फल देती हैं। इसी प्रकार जो प्रकृतियाँ एकान्ततः नरकगति या देवगति में ही उदय आनेके योग्य हैं, वे उस उस भवका निमित्त पाकर उदयमें आती हैं । निद्रा आदि प्रकृतियाँ कालका निमित्त पाकर उदयमें आती हैं । इसी प्रकार शेष सर्व प्रकृतियाँ जानना चाहिए । वह कर्मोदय सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकारका होता है । अपने समय के आने पर जो कर्म स्वतः स्वभावसे फल देते हैं, उसे सविपा 1. सं० पञ्चसं० ४, ३६५ । १. शतक०. ६६ । गो० क० २५७ पूर्वार्ध- समता । *सं० पञ्चसं० ४, ३६८ । ३७ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० पञ्चसंग्रह कोदय कहते हैं। जैसे मनुष्यके मनुष्यगति नामकर्म अपने स्वरूपसे स्वतः स्वभाव उदयमें आकर फल देता है । जो कर्म स्वतः स्वभावसे उदयमें न आकर पर-प्रकृतिमुखसे उदयमें आकर विपाकको प्राप्त होते हैं, उसे अविपाकोदय कहते हैं। जैसे मनुष्यके शेष तीन गतियोंका स्तिबुकसंक्रमण होकर मनुष्यगतिके उदयकालमें मनुष्यगतिके रूपसे परिणत होकर विपाकको प्राप्त होगा। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंके सविपाकोदय और अविपाकोदयको जानना चाहिए । अब भाष्यगाथाकार प्रकृति आदि चारों बन्धोका स्वरूप कहते हैं 'पयडी एत्थ सहावो तस्स अणासो ठिदी होज । तस्स य रसोऽणुभाओ एत्तियमेत्तो पदेसो दु॥५१४॥ 'एक्कम्मि महुरपयडी तस्स अणासो ठिदो होज । तस्स य रसोऽणुभाओ कम्माणं एवमेवो त्ति ॥५१॥ अथ प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशबन्धलक्षणं गाथाद्वयेनाऽऽह-[पयडी एत्थ सहावो' इत्यादि । ] अन्न कर्मकाण्डे स्वभावः परिणामः शीलं प्रकृतिज्ञेया। तस्य स्वभावस्याविनाशोऽच्युतिः स्थितिभवति । तस्याः स्थितेः अनुभागरूपो रसो भवति । दु पुनः एतावन्मात्रः प्रदेशः कर्मप्रकृतीनामंशावधारणं प्रदेशबन्धः स्यात् । उक्तञ्च प्रकृतिः परिणामः स्यास्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः प्रदेशः प्रचयात्मकः ॥४६॥ स्वभावः प्रकृति या स्वभावादच्युतिः स्थितिः । अनुभागो रसस्तासां प्रदेशोंऽशावधारणम् ॥५०॥ इति तद्दष्टान्तमाह-[ 'एक्कम्हि महुरपयडी' इत्यादि । ] यथा एकस्मिन् वस्तुनि वृत्तादौ वा मधुरादिप्रकृतिमिष्टता स्वभावः । तस्या मधुररसादिप्रकृतेरविनाशोऽप्रच्युतिः सा स्थितिः स्यात् । तस्याः स्थितेः रसरूपोऽनुभागोऽनुभवो विपाकः, तथा कर्मणामेवेति । यथा निम्बस्य कटुकता भवति, गुडस्य प्रकृतिमधुरता भवति, तथा ज्ञानावरणस्य प्रकृतिः अर्थापरिज्ञानम्, वेद्यस्य सुख-दुःखानुभवनमित्यादिप्रकृतिः । अष्टकर्मणामष्टप्रकृतिभ्योऽप्रच्युतिः स्थितिः। यथा अजा-गो-महिषीक्षीरस्य निजमाधुर्यस्वभावादच्युतिः, तथा ज्ञानावरणादिकर्मणामापरिज्ञानादिस्वरूपादप्रस्खलितिः स्थितिरुच्यते २। स्थितौ सत्यां प्रकृतीनां तीव्रमन्द-मध्यमरूपेण रसविशेषः अनुभवोऽनुभाग उच्यते । अजा-गो-महिष्यादिदुग्धानां तीव्र-मन्द-मध्यमत्वेन रसविशेषः कमपुद्गलानां स्वगतसामथ्यविशेषः ३। कर्मस्वपरिगतपुद्गलस्कन्धानां परिमाणपरिच्छेदेन इयत्तावधारणं प्रदेश उच्यते ४ । तथा चोक्तम्-- प्रकृतिस्तिक्तता निम्बे स्थितिरच्यवनं पुनः । रसस्तस्यानुभागः स्यादित्येवं कर्मणामपि ॥५१॥ इति जघन्यो नाधरो यस्मादजघन्योऽस्ति सोऽधरः । उत्कृष्टो नोत्तरो यस्मादनुत्कृष्टोऽस्ति सोत्तरः ॥५२॥ . उपशमश्रेण्याऽऽरोहकः सूचमसाम्परायः उच्चैर्गोत्रानुभागं बध्वा उपशान्तकषायो जातः । पुनरवरोहणे सूचमसाम्परायो भूत्वा तदनुभागमनुस्कृष्टं बध्नाति, तदाऽस्य सादित्वम् । अथवा अबन्धपतितस्य कर्मणः 1, सं० पञ्चसं० ४,३६६ । 2.४,३६७ । १, सं० पश्चसं० ४, ३६६ । २. सं० पञ्चसं० ४, ३६७ । ३. सं० पञ्चसं० ४, ३५० । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक पुनर्बन्धे सति सादिबन्धः स्यात् । तत्सूचमसाम्परायचरमादधोऽनादिस्वम् । अभव्यसिद्ध ध्रुवबन्धो भवति । भव्यसिद्वेऽध्रुवबन्धो भवति ॥५१४-५१५॥ प्रकृतिनाम स्वभावका है। उस स्वभावका जितने काल तक विनाश नहीं होता, उतने कालका नाम स्थिति है। कर्मके रस या फलको अनुभाग कहते हैं । इतने प्रदेश अमुक कर्मके हैं, इस प्रकारके विभागको प्रदेशबन्ध कहते हैं । जैसे किसी एक वस्तुमें मधुरताका होना उसकी प्रकृति है। उस मधुरताका नियत कालतक उसमें बना रहना स्थिति है। उसके मधुररसका आस्वादन अनुभाग है और नियत मात्रामें उस मधुरताके परमाणुओंका होना प्रदेशबन्ध है। इसी प्रकारसे कर्मों के भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्धको जानना चाहिए ।५१४-५१५ अब योगस्थान, प्रकृति-भेद, स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान ओर उसके कार्य प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्धादिके अल्प-बहुत्वका निरूपण करते हैं[मूलगा०६६] 'सेढिअसंखेजदिमे जोंगट्ठाणाणि होति सव्वाणि । तेसिमसंखेजगुणो पयडीणं संगहो सव्वो ॥५१६॥ [मूलगा०१००] तासिमसंखेजगुणा ठिदी-विसेसा हवंति पयडीणं । ठिदिअज्झवसाणहाणाणि असंखगुणियाणि तत्तो दुः॥१७॥ [मूलगा०१०१] तेसिमसंखेजगुणा अणुभागा होंति बंधठाणाणि । एत्तो अणंतगुणिया कम्मपएसा मुणेयव्वा ॥५१८।। [मूलगा०१०२] अविभागपलियछेदा अणंतगुणिया हवंति एत्तो दु। सुयपवरदिहिवादे विसुद्धमयओ परिकहति ॥५१६॥ अथ योगस्थान-प्रकृतिसंग्रह-स्थितिविकल्प-स्थितिबन्धाध्यवसायानुभागबन्धाध्यवसाय-कर्मप्रदेशानामल्पबहुत्वं गाथात्रयेणाऽऽह-[ 'सेढिअसंखेजदिमे' इत्यादि । ] निरन्तर-सान्तर-तदुभयभेदभिन्नयोगस्थानानि श्रेण्यसंख्येयभागमात्राणि १२३ १३ भवन्ति । एभ्योऽसंख्यातलोकगुणः सर्वप्रकृतिसंग्रहो = 9 भवति । तेभ्यः प्रकृतिसंग्रहभेदेभ्यः प्रकृतीनां सर्वस्थितिविशेषाः सर्वस्थितिविकल्पा: असंख्यातगुणा भवन्ति 1829२०११। एभ्यः स्थितिविकल्पेभ्यः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि असंख्यातगुणितानि भवन्ति । एभ्यः स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानेभ्यः अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातलोकगुणितानि भवन्ति । एभ्योऽनुभागबन्धाध्यवसायेभ्यः कर्मप्रदेशाः अनन्तगुणा ज्ञातव्याः। एकजीवप्रदेशेषु सर्वदा सत्त्वस्थितकर्मप्रदेशाः स9१२ सर्वस्थित्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेभ्योऽनन्तगुणा इति ज्ञातव्यम् । एभ्योऽनन्तगुणकर्मप्रदेशेभ्यः पल्यस्याविभागप्रतिच्छेदाः अनन्तगुणिता भवन्ति । एवं दृष्टिवादाङ्गपूर्वे श्रुतज्ञानप्रवराः शुद्धमतयः सूरयः परिकथयन्ति । अथवा श्रतप्रवरदृष्टिवादाङ्गपूर्वे ॥५१६-५१६॥ तथा चोक्तं श्लोकचतुष्टये भागोऽसंख्यातिमः श्रेणेर्योगस्थानानि देहिनः । ततोऽसंख्यगुणो ज्ञेयः सर्वप्रकृतिसंग्रहः ।।५३।। 1. सं० पञ्चसं० ४, ३६६ । 2. ४, ३७० । 3. ४, ३७१ । 4. ४, ३७२ । १. शतक० १०० । गो० क० २५८ । २. शतक० १०१ । गो० क० २५६ । ३. शतक. १०२ । गो० क० २६० । ४. शतक० १०३ । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ पञ्चसंग्रह ततोऽसंख्यगुणानि स्युः स्थितिस्थानान्यतः स्थितेः। स्थानान्यध्यवसायानामसंख्यातगुणानि वै ।।५४।। असंख्यातगुणान्यस्माद्रसस्थानानि कर्मणाम् । ततोऽनन्तगुणाः सन्ति प्रदेशाः कर्मगोचराः ॥५५॥ अविभागपरिच्छेदाः सर्वेषामपि कर्मणाम् । एकैकत्र रसस्थाने ततोऽनन्तगुणाः मताः ॥५६॥ इति सर्व योगस्थान जगच्छणीके असंख्यातवें भाग-प्रमाण हैं। योगस्थानोंसे असंख्यातगुणित मतिज्ञानावरणादि सर्व कर्म-प्रकृतियोंका संग्रह अर्थात् समुदाय या प्रमाण जानना चाहिए। प्रकृतियोंके संग्रहसे प्रकृतियोंकी स्थितियोंके भेद असंख्यात-गुणित हैं। स्थिति-भेदोंसे उनके बन्धके कारणभूत स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात-गुणित होते हैं। स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंसे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यात-गुणित होते हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंसे अनन्तगुणित कर्म-प्रदेश जानना चाहिए। कर्मप्रदेशोंसे उनके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणित होते हैं । इस प्रकार द्वादशांग श्रुतमें प्रवर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ जो दृष्टिवाद है, उसमें कुशल एवं विशुद्धमतिवाले आचार्य कहते हैं ॥५१६-५१६॥ इस प्रकार प्रदेशबन्धका वर्णन समाप्त हुआ। अब मूल शतककार ग्रन्थका उपसंहार करते हुए अपनी लघुता प्रकट करते हैं [मूलगा०१०३]'एसो बंधसमासो पिंडक्खेवेण वण्णिओ किंचि । कम्मप्पवादसुयसायरस्स णिस्संदमेत्तो दु॥२०॥ एषः प्रत्यक्षीभूतः बन्धसमासः मूलोत्तरकर्मप्रकृतीनां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धसमासः संक्षेपः स्तोकमात्रः पिण्डरूपेणकत्रीकरणेन मया वर्णितः प्रतिपादितः। स कथम्भूतः १ कर्मप्रवादपूर्वनामश्रुतसागरस्य निःस्यन्दमात्रो बिन्दुमात्रो लेशः निर्यासः साररूप इत्यर्थः ॥५२०॥ तथा चोक्तम् कर्मप्रवादाम्बुधिबिन्दुकल्पश्चतुर्विधो बन्धविधिः स्वशक्त्या। संक्षेपतो यः कथितो मयाऽसौ विस्तारणीयो महनीयबोधैः ॥५७।। यह बन्धसमास अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, इन चारों प्रकारके बन्धोंका संक्षेपसे कुछ कथन मैंने पिण्डरूपसे एकत्रित करके वर्णन किया है, जो कि कर्मप्रवाद नामक श्रुतसागरका निस्यन्द-मात्र अर्थात् सार-स्वरूप है ॥५२०॥ [मूलगा०१०४] बंधविहाणसमासो रइओ अप्पसुयमंदमदिणा दु । तं बंधमोक्खकुसला पूरेदूर्ण परिकहेंतु ॥५२१॥ तु पुनः कर्मप्रकृतिबन्धविधानं संक्षेपं मया रचितम् । किम्भूतेन मया ? अल्पश्रुतमन्दमतिना । तद्वन्धविधानं पूरयित्वा यद्धीनाधिकं आगमविरुद्धं भया कथितं तत्सर्व शुद्धं कृत्वा इत्यर्थः । भोः बन्ध-मोक्षकुशलाः कर्मबन्धमोक्ष कुशलाः कर्मणां बन्धमोचने दक्षाः परिसमन्तात् कथयन्तु प्रतिपादयन्तु ॥५२१॥ इस बन्ध-विधान-समासको अल्पश्रत और मन्दमति मैंने रचा है, सो इसे बन्ध और मोक्ष तत्त्वके जानने में जो कुशल आचार्थ हैं, वे छूटे हुए अर्थको पूरा करके उसका व्याख्यान करें ॥५२१॥ 1. सं. पञ्चसं०४,३७३ 12.४, ३७४ । १. शतक. १०४ । २. शतक० १०५। *सं० पञ्चसं० ४,३६६-३७२। सं० पञ्चसं० ४, ३७३ । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २१३ अब ग्रन्थकार प्रकृत ग्रन्थके अध्ययनका फल कहते हैं[मूलगा०१०५] इय कम्मपयडिपगदं संखेवुद्दिट्टणिच्छिदमहत्थं । जो उव जुंजइ वहुसो सो णाहिदि बंधमोक्खटुं' ॥५२२॥ इति अमुना प्रकारेण कर्मप्रकृतिप्रकृतं कर्मप्रकृतीनां प्रवर्तितशास्त्रं संक्षेपेणोद्दिष्टम् । कथम्भूतम् ? निश्चितमहदर्थ समुच्चीकृतबह्वर्थम् । यो भव्यस्तत्कर्मप्रकृतिस्वरूपशास्त्रं उपयुभति बहुशः वारम्वारं विचारयति स भव्यः बन्ध-मोक्षार्थ स्वाति कर्ममलस्फेटनार्थ पवित्रो भवति, वा कर्मबन्धस्य मोक्षार्थ प्रवर्तते ॥५२२॥ विद्यानन्दिगुरुर्यतीश्वरमहान् श्रीमूलसङ्घऽनघे श्रीभट्टारकमल्लिभूषणमुनिर्लक्ष्मीन्दु-वीरेन्दुको । तत्पट्टे भुवि भास्करो यतिव्रतिः श्रीज्ञानभूषो गणी तत्पादद्वयपङ्कजे मधुकरः श्रीमत्प्रभेन्दुयती ॥५८।। बन्धविचारं बहुविधिभेदं यो हृदि धते विगलितपापम् । याति स भव्यः सुमतिसुकीर्ति सौख्यमनन्तं शिवपदसारम् ॥५६ गुणस्थानविशेषेषु प्रकृतीनां नियोजने। स्वामित्वमिह सर्वत्र स्वयमेव विबुध्यताम् ।।६०॥* इसप्रकार शब्द-रचनाकी अपेक्षा संक्षेपसे कहे गये, किन्तु अर्थके प्रमाणकी अपेक्षा महान् इस प्रकृत कर्मप्रकृति अधिकारका वार-वार उपयोगपूर्वक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करता है, वह बन्ध और मोक्ष तत्त्वके अर्थको जान लेता है। अथवा कर्म-बन्धसे मुक्त होकर मोक्षरूप अर्थको प्राप्त कर लेता है ॥५२२॥ इस प्रकार सभाष्य शतक नामक चतुर्थ प्रकरण समाप्त हुआ। १. शतक० १०६ ।। २. संस्कृत पञ्चसंग्रहमें यह पद्य इस प्रकार पाया जाता है-- 'बन्धविचारं बहुतमभेदं यो हृदि धत्ते विगलितखेदम् । याति स भव्यो व्यपगतकष्टां सिद्धिमबन्धोऽमितगतिरिष्टाम् ॥ (सं० पञ्चसं० ४, ३७४ ।) ३. सं० पञ्चसं० ४, ३७५ । * इस श्लोकके अनन्तर संस्कृतटीकाकारकी यह पुष्पिका पाई जाती हैइति श्रीपञ्चसंग्रहापरनामलघुगोम्मट्टसारसिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डाधिकारशतके बन्धाधिकारनाम पञ्चमोऽधिकारः। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अधिकार सप्ततिका मङ्गलाचरण और प्रतिक्षा'णमिऊण जिणिंदाणं वरकेवललद्धि सुक्खपत्ताणं । वोच्छं सत्तरिभंगं उवइडं वीरणाहेण ॥११॥ नत्वाऽहमहतो भक्त्या घातिकर्मविघातिनः। स्वशक्त्या सप्ततिं वक्ष्ये बन्धसत्त्वोदयादिकान् ।। अतीतानागतवर्तमानजिनवरेन्द्रान् नमस्कृत्य वरकेवलज्ञानादिलब्धिसौख्यसम्प्राप्तान् सप्ततिभङ्गान् सप्ततिसङ्ख्योपेतान् भेदान् वये । कथम्भूतान् ? वीरनाथोपदिष्टान् ॥१॥ उत्कृष्ट केवलज्ञानरूप लब्धिको तथा अतीन्द्रिय सुखको प्राप्त हुए जिनेन्द्रदेवोंको नमस्कार करके मैं श्री वीरनाथसे उपदिष्ट सप्ततिका-सम्बन्धी भंगोंको कहूँगा ॥१॥ [मूलगा०१] "सिद्धपदेहि महत्थं बंधोदय-संत-पयडिठाणाणि । वोच्छं सुख संखेवेण णिस्संदं दिट्टिवादादो ॥२॥ बन्धोदयसत्त्वप्रकृतिस्थानानि संक्षेपेणाहं वक्ष्ये; भो भव्य, शृणु । कथम्भूतानि ? सिद्धपदैर्महदर्थम् । आविष्टलिङ्गत्वादेकवचनम् । कथम्भूतम् ? दृष्टिवादाङ्गात् निःस्यन्दं निर्यासं सारभूतं निर्गतं वा । बन्धप्रकृतिस्थानानि उदयप्रकृतिस्थानानि सत्ताप्रकृतिस्थानानि निःसृतं कथयिष्याम्यहम्। प्रसिद्धपदवाक्यः बह्वर्थ महदर्थपंयुक्तानीत्यर्थः ॥२॥ __ मैं संक्षेपसे बन्धप्रकृतिस्थान, उदयप्रकृतिस्थान और सत्त्वप्रकृतिस्थानोंको कहूँगा, सो हे भव्यो, तुम सुनो। यह संक्षेप कथन भी सिद्धपदोंके द्वारा कहा जानेसे महान् अर्थवाला है और दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्गका निष्यन्द अर्थात् निचोड़ या साररूप है ॥२॥ विशेषार्थ-जो पद सर्वज्ञ-भाषित अर्थके प्रतिपादक होते हैं, उन्हें सिद्धपद कहते हैं। प्रकृत ग्रन्थके सर्व ही पद सर्वज्ञ-भाषित महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके अर्थका प्रतिपादन करते हैं, इसलिए उन्हें ग्रन्थकारने सिद्धपद कहा है । यह ग्रन्थ यद्यपि संक्षेपसे कहा जायगा, तथापि उसे अल्पार्थक नहीं जानना चाहिए। क्योंकि वह दृष्टिवादका स्वरूप होनेसे महान् अर्थका धारक है। दूसरे इस ग्रन्थमें जिस विषयका वर्णन किया जानेवाला है, वह श्री महावीर भगवानसे उपदिष्ट 1. सं० पञ्चसं० ५.१ 2.५,२।। १. सं. पञ्चसं० ५,१ । परं तत्र चतुर्थचरणे 'बन्धभेदावबुद्धये' इति पाठः। १. सप्ततिका० १. परं तत्र 'दिहिवादादो' स्थाने 'दिहिवायस्स' इति पाठः। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका है । इस वाक्यके द्वारा ग्रन्थकारने प्रस्तुत ग्रन्थकी प्रामाणिकता प्रकट की है। गाथाके द्वितीय चरणके द्वारा ग्रन्थकारने वक्ष्यमाण विषयका निर्देश किया है। कर्म-परमाणुओंका आत्माके प्रदेशोंके साथ जो एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध होता है, उसे वन्ध कहते हैं । बद्ध कर्म परमाणुओंके विपाकको प्राप्त होकर फल देनेको उदय कहते है । बँधनेके समयसे लेकर जब तक उन कर्मपरमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण नहीं होता, या जब तक उनकी निर्जरा नहीं होती, तब तक आत्माके साथ उनके अवस्थानको सत्त्व कहते हैं। स्थान शब्द समुदाय वाचक है। अतएव प्रकृत ग्रन्थमें कर्मप्रकृतियोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान कहे जावेंगे, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। ___ अब ग्रन्थकार प्रतिपाद्य विषय-सम्बन्धी प्रश्नोंका स्वयं उद्भावन करके ग्रन्थका अवतार करते हैं[मूलगा०२] कदि बंधंतो वेददि कइया कदि पयडिठाणकम्मंसा। मूलुत्तरपयडीसु य भंगवियप्पा दु बोहव्वा ॥३॥ अथमूलोत्तरप्रकृतीनां स्थानभङ्गभेदप्रश्नमाह--[ 'कदि बंधतो वेददि' इत्यादि । ] मूलप्रकृतिषु ८ उत्तरप्रकृतिषु च कति कर्माणि जीवो बध्नन् कति कर्माणि वेदयति अनुभवति कतीनां कर्मणामुदयमनुभवतीत्यर्थः । कति कर्माणि बधनन् जीवः कतिपयानां कर्मणां सत्ता भवति । प्रकृतिस्थानकाशा इति कर्मप्रकृतिस्थानसत्त्वमेवेत्यर्थः। तु पुनः मूलप्रकृतिषु उत्तरप्रकृतिषु च भङ्गविकल्पाः कियन्तो भवन्तीति ज्ञातव्याः । तथा च बन्धे कत्युदये सत्त्वे सन्ति स्थानानि वा कति । मूलोत्तरगताः सन्ति कियन्त्यो भङ्गकल्पनाः ॥१॥ इति बन्धे कति स्थानानि, उदये कति स्थानानि, सत्तायां कति स्थानानि भवन्ति ? मूलोत्तरप्रकृतिगता भङ्गविकल्पाः 'कियन्तो भवन्तीति प्रश्ने बन्धे स्थानानि चत्वारि ८७।६।१ । उदये स्थानानि त्रीणि ८७।४। सत्तायां स्थानानि त्रीणि ८७४। किं स्थानं को भङ्ग इति प्रश्ने संख्याभेदेनैकस्मिन् जीवे युगपत् प्रकृतिसमूहः स्थानम् । एकस्य जीवस्यैकस्मिन् समये सम्भवन्तीनां प्रकृतीनां समूहः स्थानमित्यर्थः। अभिन्नसंख्यानां प्रकृतीनां परिवर्तनं भङ्गः, संख्याभेदेनैकरवे प्रकृतिभेदेन वा भङ्गः ॥३॥ कितनी प्रकृतियोंका बन्ध करता हुआ जीव कितनी प्रकृतियोंका वेदन करता है ? तथा कितनी प्रकृतियोंका बन्ध और वेदन करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व रहता है ? इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियांमें सम्भव भङ्गोंके भेद जानना चाहिए ॥३॥ विशेषार्थ-इस गाथाके पूर्वार्ध-द्वारा दो बातें सूचित की गई हैं। पहली तो यह कि बन्ध, उदय और सत्त्वके स्थान कितने-कितने होते हैं और दूसरी यह कि किस बन्धस्थानके समय कितने उदयस्थान और सत्त्वस्थान होते हैं ? गाथाके उत्तरार्ध-द्वारा उक्त स्थानोंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियोंके भङ्गोंको जाननेकी सूचना की गई है। एक जोवके एक समयमें संभव होनेवाली प्रकृतियोंके समूहका नाम स्थान है । संख्याके एक रहते हुए भी प्रकृतियोंके परिवर्तनको भंग कहते हैं। मूलप्रकृतियोंके बन्धस्थान चार हैं-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और एक प्रकृतिक । इनमेंसे आठ प्रकृतिक बन्धस्थानमें सभी मूल 1. सं० पञ्चसं० ५,३ । १. सप्ततिका० २. परं तत्र 'पयडिट्ठाणकम्मंसा' स्थाने 'पयडिसंतठाणाणि' इति पाठः । २. सं० पञ्चसं०५,३। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पञ्चसंग्रह प्रकृतियोंका, सात प्रकृतिक बन्धस्थानमें आयुकर्मके विना सातका, छह प्रकृतिक बन्धस्थानमें आयु और मोहकर्मके विना छहका, तथा एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें एक वेदनीय कर्मका बन्ध पाया जाता है । मिश्र गुणस्थानके विना अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक छह गुणस्थानोंमें आठों कर्मोका, अथवा आयुके विना सात कर्मोका बन्ध होता है । मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन गुणस्थानोंमें आयुके सिवाय शेष सात कर्मोंका ही बन्ध होता है । एक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोह और आयुके विना शेष छह कर्मोका बन्ध होता है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवली, इन तीन गुणस्थानोंमें एक वेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है । अयोगिकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानमें किसी भी कर्मका बन्ध नहीं होता है । मूल प्रकृतियोंके उदयस्थान तीन हैं-आठ प्रकृतिक सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें सभी मूल प्रकृतियोंका, सात प्रकृतिक उदयस्थानमें मोहकर्मके विना सातका और चार प्रकृतिक उदयस्थानमें चार अघातिया कर्मोंका उदय पाया जाता है। आठों कोंका उदय दशवें गुणस्थान तक पाया जाता है., अतः वहाँ तकके जीव आठ प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी जानना चाहिए । मोहकर्मके सिवाय शेष सात कोका उदय बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। अतः सात प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीव हैं। चार अघातिया कर्मोंका उदय चौदहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, अतः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव चार प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी हैं । मूल प्रकृतियोंके सत्त्वस्थान तीन हैं-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें सभी मूल प्रकृतियोंका, सात प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें मोहके विना सात कर्मोंका और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें चार अघा. तिया कर्मोका सत्त्व पाया जाता है । आठों कर्मोंका सत्त्व ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, अतः वहाँ तकके सर्व जीव आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हैं। मोहके विना सात कर्मीका सत्त्व बारहवें गुणस्थानमें पाया जाता है, अतः क्षीणमोही जीव सात प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हैं। चार अघातिया कर्मोका सत्त्व चौदहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, अतः सयोगिकेवली और अयोगिकेवली भगवान् चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हैं। किस बन्धस्थानके साथ कौन कौनसे उदयस्थान और सत्त्वस्थान पाये जाते हैं, इसका निर्णय आगे ग्रन्थकार स्वयं ही करेंगे। - अब आचार्य मूल प्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्व स्थानोंके संभव भंगोका निरूपण करते हैं[मूलगा०३] 'अट्ठविह-सत्त-छब्बंधगेसु अद्वैव उदयकम्मंसा । एयविहे तिवियप्पो एयवियप्पो अबंधम्मि ॥४॥ बन्ध० ८७ ६ बं० ११ १ . उदय० ८ ८ ८ एबबंधे ८० ७ ७ ४ अबंधे ४ सत्त्व. ८८८ सं० ८ ७ ४ अथ ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनां बन्धोदयसत्त्वस्थानत्रयसंयोगं भङ्गभेदं च गाथात्रयेणाऽऽह[ 'अट्टविह-सक्त' इत्यादि । ] अष्टविध-सतविध-षवेधबन्धके उदय-सत्वेऽष्टाष्टविधे स्तः भवतः ८ ८ ८ । 1. सं०पञ्चसं० ५,४ । १. सप्ततिका० ३. परं तत्र 'उदयकम्मंसा' स्थाने 'उदयसंताई' इति पाठः । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .सप्ततिका एकविधबन्धके तु सप्ताष्टविधे सप्तसतविधे चतुश्चतुर्विधे स्तः ७ ७ ४ । भवन्धके चतुश्चतुर्विधे स्तः ४ । अष्टविध-सप्तविध-षड् विधबन्धकेषु एकविधबन्धे अबन्धे च भङ्गाः सप्त ॥४॥ आठ, सात और छह प्रकृतिक बन्धस्थानबाले जीवोंमें आठ प्रकृतिक उदयस्थान और आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया जाता है। एक प्रकृतिक बन्धस्थानवाले जीवके तीन विकल्प होते हैं-१ एक प्रकृतिकबन्ध स्थान, सात प्रकृतिक उदयस्थान और आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान; २ एक प्रकृतिक बन्धस्थान, सात प्रकृतिक उदयस्थान और सात प्रकृतिक सत्त्वस्थान; तथा ३ एक प्रकृतिक बन्धस्थान, चार प्रकृतिक उदयस्थान और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थान । अबन्धस्थानमें चार प्रकृतिक उदयस्थान और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानरूप एक ही विकल्प होता है ॥४॥ इनकी अङ्क संदृष्टि मूलमें दी है। अब आचार्य चौदह जोवसमासों में बन्ध उदय और सत्त्वस्थानोंके परस्पर संयोजग भंगोका निरूपण करते हैं[मूलगा०४] 'सत्तट्ट बंध अट्ठोदयंस तेरससु जीवठाणेसु । एकम्मि पंच भंगा दो भंगा होंति केवलिणो॥॥ तेरसजीवसमासेसु ८ ८ एकम्मि सण्णिपजत्ते ८ ८ ८ ८ ७७ केवलीणं ४ ४ ८८. ད ད དདདབྱ अथ जीवसमासेषु बन्धोदयसत्त्वस्थानत्रिसंयोगान् योजयति-[ 'सत्तट्ठबन्ध' इत्यादि । ] त्रयोदशजीवसमासेषु सप्तविधाष्टविधबन्धके उदयसत्त्वेऽष्टाष्टविधे स्तः । एकस्मिन् जीवसमासे पञ्च भङ्गाः । अष्टविधसप्तविध-पड्विधैकैकविधबन्धकेषु अष्टविध-सप्तविधोदयसत्त्वभेदा भवन्तीत्यर्थः। केवलिनि द्वौ भङ्गौ। एकविधबन्धाबन्धे उदयसत्वे चतुश्चतुर्विधे भवतः। तथा हि-एकेन्द्रियसूचमबादरौ द्वि-नि-चतुरिन्द्रिय-पम्चेन्द्रियासंज्ञिजीवाश्चत्वारः ४ । एते एकीकृताः षट् पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । एवं द्वादश १२। पम्चेन्द्रियसंश्यपर्याप्तक एकः १ । सर्वे एकीकृताः प्रयोदश । तेषु त्रयोदशेषु जीवसमासेषु १३ आयुर्विना सप्तकर्मणां बन्धे सति अष्टविधकर्मणां उदयः सत्ता च । अथवाऽष्टविधकर्मबन्धकेऽष्टविधकर्मणामुदयः सत्ता च । एकस्मिन् पन्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तके जीवसमासेऽष्टविध-सप्तविध षडविधैकैकविधकर्मबन्धकेषु उदये अष्टधाऽष्टधा सप्तधा सप्तधा सप्तधा। तत्र सत्तायां अष्टधा ८ अष्टधा ८ अष्टधा ८ अष्टधा ८ सप्तधा . चेति पञ्च भङ्गाः ८ ८ ७ ७ ७ केवलिनोः सयोगायोगयोः द्वौ भङ्गौ-सयोगे साताबन्धके उदय-सत्त्वे अघातिचतुष्के ८८८७ भवतः । अयोगे अबन्धे उदय-सत्वे चतुश्चतुर्विधे भवतः ४४ । अत्र भङ्गा । इति जीवसमासेषु बन्धोदयसत्त्वस्थानानि समाप्तानि ॥५॥ आदिके तेरह जीवसमासोंमें सात प्रकृतिक बन्धस्थान, आठ प्रकृतिक उदयस्थान और आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान; तथा आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान; तथा आठ प्रकृतिक बन्धस्थान, आठ प्रकृतिक उदयस्थान और आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान; ये दो भंग होते हैं। एक संज्ञी पंचेन्द्रिय 1. सं० पञ्चसं० ५, ५ । 2. 'त्रयोदशसु' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १५०)। १. सप्ततिका०४। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ पञ्चसंग्रह पर्याप्त जीवसमासमें पाँच भंग होते हैं-१ आठके बन्धमें आठका उदय और आठका सत्त्व; २ सातके बन्धमें आठका उदय और आटका सत्त्व; छहके बन्धमें आठका उदय और आठका सत्त्व; ४ एकके बन्धमें सातका उदय और आठका सत्त्व; ५ एकके बन्धमें सातक सातका सत्त्व । केवलीके दो भंग होते हैं-एकके बन्धमें चारका उदय और चारका सत्त्व तथा अबन्धमें भी चारका उदय और चारका सत्त्व ॥५॥ .. इनकी अङ्कसंदृष्टि मूलमें दी है। अब गुणस्थानमें बन्धादि त्रिसंयोगी भंगोका निरूपण करते हैं[मूलगा०५] 'अट्ठसु एयवियप्पो छास। वि गुणसण्णिदेसु दुवियप्पो । . पत्तेयं पत्तेयं बंधोदयसंतकम्माणं' ॥६॥ छसु मिच्छाइसु मिस्सरहिएसु दो भंगा ८८ एगेगो अहसु-८ ८ ८ ८ ७ ७ ४ ४ अथ गुणस्थानेषु तत्रिसंयोगभङ्गान् योजयति--[ 'अदृसु एयवियप्पो' इत्यादि । ] अष्टसु गुणस्थानेषु प्रत्येकं बन्धोदयसत्वकर्मणां एकैको भङ्गः । पट सु गुणस्थानसंज्ञिकेषु प्रत्येकं द्वौ द्वौ विकल्पौ भनौ भवतः। तथा हि-मिश्रापूर्वकरणानिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायोपशान्तक्षीणकषाय-सयोगायोगगुणस्थानेषु अष्टसु प्रत्येक एकैकं गुणस्थानं प्रति एकैको भङ्गः । केषाम् ? बन्धोदयसत्त्वकर्मणामेकैको भेदः ।तद्चना-- मिश्र अपू० अ० सू० उ० सी० स० अ० बं० ७ ७ ७ ६ . . . . स. ८ ८ ८ ८ ८ ७ ४ ४ मिथ्यात्व-सासादनाविरत-देश-प्रमत्ताप्रमत्तेषु षट्सु गुणस्थानेषु प्रत्येकं एकैकं गुणस्थानं प्रति द्वौ द्वौ विकल्पौ भङ्गी भवतः ८८ । एवं भङ्गा दश भवन्ति १०॥६॥ __ पुनरपि बन्धोदय-[ सत्त्व ] रचना रच्यते१४ मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० सी० स० अ० बं० ७८ ७८ ७ ७८ ७.८ ७८ ७८ ७ ७ ६ १ १ १ . स० ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ८ ७ ४ ४ अन्तिम आठ गुणस्थानों में कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका पृथक्-पृथक् एक-एक भंग होता है। तथा मिश्रगुणस्थानको छोड़कर प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमें दो-दो भंग होते हैं।॥६॥ विशेषार्थ-मिश्र गुणस्थानके विना मिथ्यात्व आदि छह गुणस्थानोंमें आठ प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व; तथा सातप्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्व; ये दो भंग होते हैं। मिश्रगुणस्थानमें सात 1. सं० पञ्चसं० ५, ६ । 2. ५, 'मिथ्यादृष्टयादीनां इत्यादिगद्यभागः (पृ० १५०)। १. सप्ततिका० ५। । नब छसु। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय; इन दो गुणस्थानोंमें सात प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्वरूप एक-एक भंग होता है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें छह प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें एक प्रकृतिक बन्ध, सात प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में एक प्रकृतिक बन्ध प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है । तेरहवें गुणस्थानमें एक प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्वरूप एक भंग होता है। चौदहवें गुणस्थान में बन्ध किसी भी कर्मका नहीं होता, अतएव अबन्धके साथ चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्त्वरूव एक भंग पाया जाता है । इन सबकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है गुण० मि० सा० मि० अवि० देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० क्षीण० सयो० भयो० ७८ ७८ ७८ ७८ 19 19 ६ 9 9 9 ० बन्ध ७१८ ७१८ ७ उदय Τ सत्व ८ - - ८ ८ ४ Τ - ७ ८ ८ ८ ८ Ε ८ ८ 'मूलपयडीसु एवं अत्थोगाढेण जिह विही भणिया । उत्तरपयडी एवं जहाविहिं जाण वोच्छामि ||७|| ८ म [ मूलगा ०६ ] बंधोदय- कम्मंसा णाणावरणंतराइए पंच | बंधोवरमे विता उदयंसा होंति पंचैव ॥ ८ ॥ " दससु द ज्ञाना० अन्त ० अथोत्तरप्रकृतिष्वाह—[ 'मूलपथडी एवं' इत्यादि । ] एवमनुनोक्तप्रकारेणार्थावगाढेन अर्थोपगूहनेन बह्वर्थगोपनेन मूलप्रकृतिषु याहशी विधिर्भणिता, तादृशी विधिरुत्तरप्रकृतिषु यथोक्तविधिं वच्यामि, स्वं जानीहि ॥ ७॥ बं० ५ उ० ५ स० ५ इस प्रकार अर्थके अवगाहन द्वारा मूल प्रकृतियों में जिस विधि से बन्ध, उदय और सत्त्वके भंगों का प्रतिपादन किया है, उसी विधिसे उत्तर प्रकृतियोंमें भी कहता हूँ, सो हे भव्य, तुम जानो ॥७॥ ५ ५. ५ अब ज्ञानावरण और अन्तरायकर्मकी पाँच-पाँच प्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्वके संयोगी भंग कहते हैं उवसंत खीणाणं ७ ७ ज्ञाना० अन्त ० बं० ० ५ ५ उ० सं० ४ ४ ४ ० ५ ५ २६६ 1. सं० पञ्चसं० ५, ७ । 2. ५, ८ । ३. ५, दशसु इत्यादि गद्यभागः ( पृ० १५१ ) । १. सप्ततिका० ६, परं तत्र 'बंधोदयकम्मंसा' स्थाने 'बंधोदयसंतंसा' इति पाठः । अथ ज्ञानावरणस्यान्तरायस्य च पञ्च पञ्चप्रकृतिषु बन्धोदयसत्त्वसंयोगान् योजयति-- [ 'बन्धोदयकम्मंसा' इत्यादि । ] ज्ञानावरणान्तराययोमिथ्यदृष्ट्या दिसूक्ष्म साम्परायपर्यन्तं बन्धोदयसत्त्वानि पञ्च पञ्च प्रकृतयो भवन्ति । बन्धोपरमे बन्धविरामे पञ्च प्रकृतीनां अबन्धे सति उपशान्तक्षीणकषाययोरुदय- सच्चे तथा पञ्च पञ्च प्रकृतयः स्युः ॥८॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० पञ्चसंग्रह ज्ञाना. अन्त० ज्ञाना० अन्त. बं० ५ ५ बं० ० ० भाद्यदशगुणस्थानेषु-उ० उपशान्त-क्षीणकषाययोः-उ० ५ स० ५ ५ ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मकी पाँच-पाँच प्रकृतियोंका बन्ध दशवें गुणस्थान तक होता है, अतएव वहाँ तक उनका पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच प्रकृतिक सत्त्वरूप एक-एक भंग पाया जाता है। दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें उनके बन्धका अभाव हो जानेपर भी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें उक्त दोनों कर्मोंका पाँच-पाँच प्रकृतिक उदय और पाँच-पाँच प्रकृतिक सत्त्वरूप एक-एक भंग पाया जाता है ।।८।। ___ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। अब दर्शनावरण कर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वके संयोगी भंग कहते हैं[मूलगा०७] 'णव छक्कं चत्तारि य तिण्णि य ठाणाणि दंसणावरणे । बंधे संते उदये दोण्णि य चत्तारि पंच वा होंति ॥६॥ ___ अथ दर्शनावरणस्योत्तरप्रकृतिषु बन्धोदयसत्त्वस्थानसंयोगभङ्गान् गाथाषट्केनाऽऽह--[ 'णव छक्कं चत्तारि य' इत्यादि । ] दर्शनावरणस्य बन्धके सत्तायां च नवप्रकृतिकं १ प्रथम स्थानम् १ । स्त्यानगृद्धित्रयेण विना षट् प्रकृतिकं ६ द्वितीयं स्थानम् २ । निद्रा-प्रचले विना चतुःप्रकृतिकं ४ तृतीयं स्थानं ३ चेति बन्धप्रकृतिस्थानानि प्रीणि भवन्ति ॥६॥४॥ सत्ताप्रकृतिस्थानानि च त्रीणि भवन्ति ।।४। दर्शनावरणस्योदये द्वे स्थानके भवतः-चतुर्णा प्रकृतीनामुदयस्थानमेकम् ४ । वाऽथवा पञ्चानां मध्ये एकतरनिद्रासहितानां प्रकृतीनां उदयस्थानं द्वितीयम् ५ ॥६॥ दर्शनावरणके बन्ध और सत्त्वकी अपेक्षा नौ प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और चार प्रकृतिका ये तीन स्थान होते हैं। उदयकी अपेक्षा चार प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक; ये दो स्थान होते हैं ॥६॥ अब भाष्यगाथाकार उक्त स्थानोंका स्पष्टीकरण करते हैं 'णव सव्वाओ छक्कं थीणतिगूणाइ दंसणावरणे । णिद्दा-पयलाहीणा चतारि य बंध-संताणं ॥१०॥ ६४॥ प्रणेत्ताइदसणाणि य चत्तारि उदिति दसणावरणे । णिद्दादिपंचयस्स हि अण्णयरुदएण पंच वा जीवे ॥११॥ ॥५॥ 'मिच्छम्मि सासणम्मि य तम्मि य णव होति बंध-संतेहिं । छब्बंधे णव संता मिस्साइ-अपुव्वपढमभायंते ॥१२॥ 1. संपञ्चसं० ५, ६ । 2. ५, १० । 3. ५, ११ । 4. ५, १२ । १. सप्ततिका० ७. परं तत्रायं पाठः-बंधस्स य संतस्स य पगइहागाई तिमि तुल्लाई । उदयद्वाणाइ दुवे चउ पणगं दंसणावरणे ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका [ मिच्छे सासणे-] ४ ५। मिस्साइ-अपुब्वकरण-पढमसत्तमभायं जाव-५ ५। 'चउबंधयम्मि दुविहाऽपुव्वऽणियट्टीसु सुहुम-उवसमए । णव संता अणियट्टी-खवए सुहुमखवयम्मि छच्चेव ॥१३॥ दुविधेसु खवगुक्सामगेसु अपुवकरणाणियट्टि तह उवसमसुहुमकसाए ४ ५ । अणियहि-सुहुम-खवगाणं ४ ५। ६ ६ अथ दर्शनावरणस्य बन्ध-सत्तास्थानानि तानि कानीति चेदाह--[ 'णव सव्वाओ छक्कं' इत्यादि । ] दर्शनावरणे बन्ध-सत्वयो सर्वाः चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-स्यानगृद्धिनिद्रापञ्चकमिति सर्वा नव प्रकृतयो , भवन्तीत्येकं प्रथमं स्थानम् । ताः स्त्यानगृद्धित्रिकोनाः बन्ध-सत्त्वषटप्रकृतयः ६ इति द्वितीयं स्थानम् । ताः निद्रा-प्रचलाहीनाश्चतस्रः प्रकृतयः ४ इति तृतीयं स्थानम् ।।६।४॥10॥ ___ दर्शनावरणस्योदयप्रकृतिचतुरात्मकं उदयप्रकृतिपञ्चात्मकं स्थानं च प्रद्योतयति--['णेत्ताइ दंसणाणि य' इत्यादि।] दर्शनावरणे जाग्रजीवे नेत्रादिदर्शनावरणानि चत्वारि उदयन्ति । तथा हि-चक्षुरचक्षुरदधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं उदयात्मकं स्थानं ४ जाग्रजीवे भवति, उदयं याति वा। निद्रिते जीवे निद्रादिपञ्चकस्य मध्येऽन्यतरैकनिद्या सह पञ्चात्मकं स्थानम्। एकस्मिन् निद्रिते युगपत्पञ्च निद्रा उदयं न यान्तीति हेतोरेका निद्रा चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनचतुष्कमिति पञ्चात्मकं स्थानं ५ निद्रितजीवे भवति । तद्यथा-- दर्शनावरणस्योदयस्थानं जाग्रजोवे मिथ्यादृष्ट्यादि-क्षीणकषायचरमसमयपर्यन्तं चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुरात्मकं ४ भवति । तु पुनर्निद्रिते जीवे मिथ्यात्वादि-प्रमत्तपर्यन्तं स्त्यानगृद्धयादिपञ्चसु मध्ये एकस्यामुदितायां पञ्चात्मकमेवं ५। तत उपरि क्षीणकषायद्विचरमसमयपर्यन्तं निद्रा-प्रचलयोर्मध्ये एकस्यामुदितायां पञ्चात्मकमेव ५ । ततःपरं तदुदयो नास्ति ॥११॥ अथ गुणस्थानेषु दर्शनावरणस्य बन्धोदयसत्त्ववस्थानत्रयसंयोगान् तगङ्गानाह-[ 'मिच्छम्हि सासण म्हि य' इत्यादि । ] दर्शनावरणे नवकबन्ध-नवकसत्वयोमिथ्यादृष्टि-सास्वादनयोयोर्गुणस्थानयोश्चतुष्कं मि० सा० वा पञ्चकोदयः स्यात् . बं० । ताः षड्यन्धकेषु मिश्राद्युभयश्रेण्यपूर्वकरणप्रथमभागासं० है है न्तेषु उदय-सत्त्वे एवमेव चत्वारि पञ्च वोदयः । सत्त्वं नव । ४ ५ ॥१२॥ चतुर्बन्धकेऽपूर्वकरणस्य द्वितीयभागाधुभयश्रेणिरूढानां वाऽनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायद्वयस्योपशमश्रेण्यारूढानां मुनीनां च चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कबन्धे ४ सति नवप्रकृतीनां सत्ता १ जान जीवानां चतुर्दर्शनावरणादिचतुर्णामुदयः ४ । निद्रागतानां तु तदेकनिद्रासहितपञ्चानामुदयः ५। ४ ५। 1. सं० पञ्चसं० ५ १३ । ब ब्वाणि-। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ पञ्चसंग्रह अनिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्पराययोः आपकश्रेण्यारूढानां च चक्षुरादिदर्शनावरणचतुष्कस्य बन्धे सति स्त्यानगृद्धित्रिकं विना षट्प्रकृतीनां सत्ता, चक्षुरादिचतुर्णामुदयः । अथवा निद्रितानां एकनिगासहिततदेवेति पञ्चानां मुदयः ५। ४ ५ ॥१३॥ दर्शनावरण कर्मके नौ प्रकृतिक बन्ध और सत्त्वस्थानमें सभी प्रकृतियोंका बन्ध और सत्त्व होता है। छह प्रकृतिक स्थानमें स्त्यागृद्धित्रिकके विना शेष छहका बन्ध और सत्त्व होता है। तथा चार प्रकृतिक स्थानमें निद्रा और प्रचलाके विना शेष चारका बन्ध और सत्त्व होता है। दर्शनावरण कर्मके चार प्रकृतिक उदयस्थानमें चक्षुदर्शनावरणादि चार प्रकृतियोंका उदय पाया जाता है। तथा पाँच प्रकृतिक उदयस्थानमें निद्रा आदि पाँच प्रकृतियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिके उदयके साथ उक्त चार प्रकृतियोंका उदय पाया जाता है। मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें दर्शनावरण कर्मका नौ प्रकृतिक बन्ध और नौ प्रकृतिक सत्त्व रहता है । मिश्र गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भाग पर्यन्त छह प्रकृतिक बन्ध और नौ प्रकृतिक सत्त्व रहता है। अपूर्वकरणके दूसरे भागसे लेकर उपशामक और क्षपक दोनों प्रकारके अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें, तथा उपशामक सूक्ष्मसाम्परायमें चार प्रकृतिक बन्ध और नौ प्रकृतिक सत्त्व रहता है । अनिवृत्तिकरण क्षपक और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकके चार प्रकृतिक बन्ध और छह प्रकृतिक सत्त्व रहता है ।।१०-१३॥ [मूलगा०८] 'उवरयवंधे संते संता णव होति छच्च खीणम्मि । खीणते संतुदया चउ तेसु चयारि पंच वा उदयं ॥१४॥ उवसंते ४ ५ खीणे ४ ५ खीणचरमसमए य ४ एवं सब्वे १३ । संते इति उषशान्तकषायगुणस्थाने उपरतबन्धे अबन्धे सति नवप्रकृतिसत्तास्वरूपा भवन्ति ४ ५। क्षीणकषायस्य क्षपकश्रेण्यां स्त्यानगृद्धिवयं विना पण्णां प्रकृतीनां सत्ता ४ ४१ क्षीणकषायस्य द्विचरमान्ते षट् सत्ता। क्षीणकषायस्य चरमसमये अबन्धे सति चक्षुरादिचतुर्णामुदयः ४ । चक्षुरादिचतुर्णा सत्ता ४ । ४ । तेषु सर्वेषु मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायोपान्त्यसमयपर्यन्तेषु जाग्रजीवेषु चक्षुर्दर्शनावरणादीनां चतुर्णामुदयः ४ । वा निद्रितजीवानां कदाचिदेकनिद्रया सहितं तदेव चतुष्कमिति पञ्चानामुदयः ५। एवं सर्वे भङ्गास्त्रयोदश १३ ॥१४॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, १४-१७ । तथाऽग्रेतनगद्यांशश्च (पृ० १५२)। १. श्वे० सप्ततिकायामस्याः स्थाने इमे द्वे गाथे स्त:-- वीयावरणे नवबंधगेपु चउ पंच उदय नव संता। छुच्चउबंधे चेवं चउबंधुदए छलंसा ॥८॥ उवरयबंधे चउ पण नवंस चउरुदय छच्च चउसंता । वेयणियाउगमोहे विभज मोहं परं वोच्छं ॥४॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका पुनरपि दर्शनावरणस्य गुणस्थानेषु रचना रचिताऽस्तिगु० मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० भ० अ० सू० उ० क्षी० उ० सी० च० ब० १ ६ ६ ६ ६ ६ ४ ४ ४ . . . उ० ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४५ ४।४ ४५ ४५ ४५ ४ स. ६ ।६ ६ .४ गुण अपू० अनि० सू० उप० - उपशमश्रेणिप-- बं० ६१४४ - उ० ४५ ४५ ४५ ४५ स० उपरतबन्ध अर्थात् दर्शनावरणके बन्धका अभाव हो जाने पर उपशान्त मोहमें नौ प्रकृतिक सत्त्व होता है। क्षीणमोहके उपान्त्य समय तक लह प्रकृतिक सत्त्व और क्षीणमोहके अन्तिम समयमें चार प्रकृतिक सत्त्व और चार प्रकृतिक उदय रहता है। इससे पूर्ववर्ती गुणस्थानोंमें जाग्रत अवस्थामें चार प्रकृतिक और निद्रित दशामें पाँच प्रकृतिक उदय रहता है ॥१४॥ उपर्युक्त कथनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार हैगुण० मि. सा. मि० अवि० देश० प्रभ० अप्र० अपू. अनि० सू० उप० सी० उ० सी०च० ००० उदय ४५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ४५ ४ सत्त्व १ ६ ६ ६ ६ ४ __अब वेदनीय, आयु और गोत्र कर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वके संयोगी भंगोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०६] 'गोदेसु सत्त भंगा अट्ठ य भंगा हवंति वेयणिए । ___ पण णव णव पण संखा आउचउक्के वि कमसो दु॥१॥ अथ गोत्र वेदनीयाऽऽयुषां त्रिसंयोगभङ्गान् भङ्क्त्वा गुणस्थानेषु योजयति--[ 'गोदेषु सत्त भंगा' इत्यादि । ] नीचोच्चगोत्रद्वयस्य असहशभङ्गाः सप्त भवन्ति ।। सातासातवेदनीयद्वयस्यासहशभङ्गाः अष्टौ भवन्ति। नरकगतौ नारकायुषः असहशभङ्गा पञ्च भवन्ति ५। तिर्यग्गत्यां तिर्यगायुषो भङ्गा नव विसदृशा भवन्ति है। मनुष्यगत्यां मनुष्यायुषो भङ्गा नव विसदृशा भवन्ति । देवगतौ देवायुषो भङ्गाः । पञ्च विसदृशाः स्युः ५ । गोत्रे ७ वेये ८ आयुषि ५१६।५ ॥१५॥ गोत्र कर्मके सात भंग होते हैं। तथा वेदनीय कर्मके आठ भंग होते हैं। आयु कर्मकी चारों प्रकृतियोंके क्रमसे पाँच नौ, नौ और पाँच भंग होते हैं ॥१५॥ विशेषार्थ-गोत्रकर्मके सात भङ्गोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-गोत्रकर्मके दो भेद हैंउच्चगोत्र और नीचगोत्र । इन दोनों भेदों में से एक जीवके एक समयमें किसी एकका बन्ध और किसी एकका उदय होता है क्योंकि उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये दोनों परस्पर विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं । अतएव इसका एक साथ बन्ध और उदय सम्भव नहीं है। किन्तु सत्त्व दोनोंका एक साथ 1. सं० पञ्चसं० ५, १८ । १. श्वे. सप्ततिकायामस्याः स्थाने कापि गाथा नास्ति । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ पञ्चसंग्रह पाये जाने में कोई विरोध नहीं है । कुछ अपवादोंको छोड़कर सभी जीवांके दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है । इनमें पहला अपवाद अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंका है, क्योंकि वे दोनों उचगोत्रकी उद्वेलना भी करते हैं । अतः जिन्होंने उच्चगोत्रकी उद्वेलना कर दी है उनके, या वे जीव मरकर जब अन्य एकेन्द्रियादिकोंमें उत्पन्न होते हैं, तब उनके भी उत्पन्न होनेके प्रारम्भिक अन्तर्मुहूर्त तक केवल एक नीचगोत्रका ही सत्त्व पाया जाता है । इसी प्रकार अयोगिकेवली के उपान्त्य समयमें नोचगोत्रका क्षय होता है, तब उनके भी अन्तिम समयमें केवल एक उच्चगोत्रका सत्त्व पाया जाता है । इस कथनका सार यह है कि गोत्रकर्मका बन्धस्थान भी एक प्रकृतिक होता है और उदयस्थान भी एक प्रकृतिक होता है । किन्तु सत्त्वस्थान कहीं एक प्रकृतिक होता है और कहीं दो प्रकृतिक होता है । तदनुसार गोत्रकर्मके सात भंग ये हैं- १ नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और नोचगोत्रका सत्त्व; २ नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व; ३ नीचगोत्रका बन्ध, उच्चगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व; ४ उच्चगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्व; ५ उच्चगोत्रका बन्ध, उच्चगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व, ६ बन्ध किसी गोत्रका नहीं, उच्चगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व, तथा ७ बन्ध किसी गोत्रका नहीं, उच्चगोत्रका उदय और उच्चगोत्रका सत्त्व । इनमें से पहला भंग नीचगोत्रकी उद्वेलना करनेवाले अग्निकायिक- वायुकायिक जीवोंके, और ये जीव मर कर जिन एकेन्द्रियादिकमें उत्पन्न होते हैं, उनके अन्तर्मुहूर्त कालतक पाया जाता है। दूसरा और तीसरा भंग मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानवर्ती जीवोंके पाया जाता है क्योंकि नीच गोत्रका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही पाया जाता है । चौथा भंग आदिके पाँच गुणस्थानवर्ती जीवोंके सम्भव है; क्योंकि नीचगोत्रका उदय पाँचवें गुणस्थान तक ही होता है पाँचवाँ भंग आदिके दश गुणस्थानवर्ती जीवोंके सम्भव है; क्योंकि उच्चगोत्रका बन्ध दशवें गुणस्थान तक ही होता है । छठा भंग ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समय तक पाया जाता है। सातवाँ भंग चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समय में पाया जाता है । इस प्रकार गोत्रकर्मके सात भंगों का विवरण किया । पाया अब वेदनीय कर्मके आठ भंगोंका स्पष्टीकरण करते है- वेदनीय कर्मके दो भेद हैंसातावेदनीय और असातावेदनीय । इन दोनोंमेंसे एक जीवके एक समय में किसी एकका बन्ध और किसी एकका उदय होता है; क्योंकि, ये दोनों परस्पर विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं । परन्तु किसी एक प्रकृति के सत्तासे विच्छिन्न होने तक सत्त्व दोनोंका पाया जाता है । जब किसी एककी सत्त्वविच्छित्ति हो जाती है, तब किसी एक ही प्रकृतिका सत्त्व जाता है । इस कथनका सार यह है कि वेदनीय कर्मका बन्धस्थान भी एक प्रकृतिक होता है और उदयस्थान भी एक प्रकृतिक होता है । किन्तु सत्त्वस्थान दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक; इस प्रकार दो होते हैं । तदनुसार वेदनीयकर्मके आठ भंग ये हैं-१ असाताका बन्ध, असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व; २ असाताका बन्ध, साताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ३ साताका बन्ध, साताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ४ साताका बन्ध, असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व | इस प्रकार वेदनीय कर्मका बन्ध होने तक उपर्युक्त चार भंग होते हैं । तथा बन्धके अभावमें; ५ असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ६ साताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ७ असाताका उदद्य और असाता सत्त्व; तथा = साताका उदय और साताका सत्त्व, ये चार भंग होते हैं। इनमेंसे प्रारम्भके दो भंग पहले गुणस्थानसे लेकर छठे गुणस्थान तक होते हैं; क्योंकि, वहाँ तक ही असातावेदनीयका बन्ध होता है । तीसरा और चौथा भंग पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है; क्योंकि सातावेदनीयका बन्ध यहाँ तक ही होता है । पाँचवाँ और छठवाँ भंग चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समय तक पाया जाता है; क्योंकि यहीं Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका तक दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है। सातवाँ और आठवाँ भंग चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें पाया जाता है। जिन अयोगिकेवलीके उपान्त्य समयमें सातावेदनीयको सत्त्वव्युच्छित्ति हो गई है, उनके अन्तिम समयमें तीसरा भंग पाया जाता है और जिनके उपान्त्य समयमें असातावेदनीयकी सत्त्वव्युच्छित्ति होती है उनके अन्तिम समयमें चौथा भंग पाया जाता है । इस प्रकार वेदनीयकर्मके आठ भंगोंका विवरण किया। चारों आयुकर्मों के भंगोंका वर्णन भाष्यगाथाकारने आगे चलकर स्वयं किया है, अतएव यहाँ उनका वर्णन नहीं किया गया है। अब भाष्यगाथाकार गोत्रकर्मके भंगोंका निरूपण करते हैं-- 'उच्चुच्चमुच्च णिचं णीचं उच्चं च णीच णीचं च । . बंधं उदयम्मि चउसु वि संतुदयं सव्वणीचं च ॥१६॥ १० ११० १० ११००० अथ गोत्रस्य बन्धोदयसस्वस्थानत्रिस्थानत्रिसंयोगान तद्भगांश्च गुणस्थानेषु गाथात्रयेणाऽऽह-['उच्चुच्चमुच्चणिच्चं' इत्यादि । ] उच्च-नीचगोत्रद्वयस्य रचना पंक्तिक्रमेण बन्धोदयेषु चतुषु स्थानेषु प्रथमस्थाने उच्चैर्गोत्रस्य बन्धः १ उच्चैर्गोत्रस्योदयः । द्वितीयस्थाने उच्चैर्गोत्रस्य बन्धः १ नीचगोत्रस्योदयः ० । तृतीयस्थाने नीचैर्गोत्रस्य बन्धः • उच्चैर्गोत्रस्योदयः । । चतुर्थस्थाने नीचगोत्रस्य बन्धः • नीचगोत्रस्योदयः । एतच्चतुषु स्थानेषु सत्ताद्विकं उच्चर्नीचैर्गोत्रे द्वे सत्वे भवतः ११०। पञ्चमभङ्गस्थाने सर्वनीचैर्गोत्रं बन्धे नीचगोत्रं . उदये नीचगोत्रं ० सत्तायां नीचगोत्रम् | उच्चैगोत्रस्य संज्ञा एकाङ्कः। नीचगोत्रस्य संज्ञा शून्यमेव ० ॥१६॥ गोत्रस्य भङ्गा गुणस्थानेषु--उ० १ ० . . . ___ स० १० १० १० ० ० पंक्तिरचनाके क्रमसे प्रथम स्थानमें उच्चगोत्रका बन्ध और उच्चगोत्रका उदय लिखना । द्वितीय स्थानमें उच्चगोत्रका बन्ध और नीचगोत्रका उदय लिखना। तृतीय स्थानमें नीचगोत्रका बन्ध और उच्चगोत्रका उदय लिखना। चतुर्थस्थानमें नीचगोत्रका बन्ध और नीचगोत्रका उदय लिखना । इन चारों ही स्थानोंमें उच्च और नीच दोनों ही गोत्रोंका सत्त्व लिखना चाहिए । पाँचवें स्थानमें नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और नीचगोत्रका सत्त्व लिखना चाहिए । इस प्रकार लिखनेपर गोत्रकर्मके पाँच भंग हो जाते हैं । इनकी संदृष्टि मूलमें दी है ॥१६॥ मिच्छम्मि पंच भंगा सासणसम्मम्मि आइमचउक्कं । आइदुवं तीसुवरिं पंचसु एको तहा पढमो ॥१७॥ मिच्छाइसु पंचण्हं विभागो--५।४।२।२।२।१।१।१।११। मिथ्यादृष्टी उच्चबन्धोदयोभयसत्त्वं १ उच्चबन्धनीचोदयोभयसत्त्वं २ नीचबन्धोच्चोदयोभयसत्त्वं.३ नीचबन्धनीचोदयोभयसत्वं ४ नीचबन्धोदयसत्वं ५ चेति पञ्च भङ्गा मिथ्यादृष्टीनां भवन्ति । सास्वादने चरिमो नेति आदिमाश्चत्वारो भङ्गाः; तस्य सासादनस्य तेजोद्वयेऽनुत्पत्तेरुच्चानुढेलनात् । यश्चतुर्थगुणस्थाना 1. सं० पञ्चसं० ५, १६-२० । 2. ५, २१ । 3. ५, 'मिथ्यादृष्टादिपु इत्यादिगद्यांशः (पृ० १३५) । नब संतदुयं । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ पञ्चसंग्रह त्पतति स एव द्वितीये सासादने आगच्छति । चतुर्थे उच्चगोत्रस्य बन्धोऽस्ति, नीचस्य बन्धो नास्ति, तस्मात् द्वितीये सास्वादने उच्चगोत्रस्य सत्ता भवत्येव । ततोऽन्तिमो नास्ति । कुत्र ? सास्वादने । त्रिषु मिश्राविरतदेशविरतेषु उच्चबन्धोदयोभयसत्त्वं उच्चबन्धनीचोदयोभयसत्त्वं चेति द्वौ द्वौ भङ्गौ। ततः पञ्चसु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसुचमसाम्परायेषु गुणस्थानेषु उच्चबन्धोदयोभयसत्त्वमित्येकबन्धोच्चगोत्रं १ उदयोच्च गोत्रं १ नीचोच्चगोत्रद्वयसत्त्वम् १ ॥१७॥ इति मिथ्यात्वादिगुणस्थानेषु पञ्चानां विभागः कृतः-- सा. मि० अ० दे० प्र० अ० भ० अ० सू० मि. उक्त पाँच भंगोंमेंसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें पाँचों ही भंग होते हैं। सासादनसम्यक्त्त्वगुणस्थानमें आदिके चार भंग होते हैं। मिश्र, अविरत और देशविरत, इन तीन गुणस्थानोंमें आदिके दो-दो भंग होते हैं । प्रमत्तसंयतादि पाँच गुणस्थानोंमें आदिका एक ही प्रथम भंग होता है ॥१७॥ मिथ्यात्व आदि दश गुणस्थानोंमें गोत्रकर्मके भङ्ग इस क्रमसे होते हैं मि० सा० मि० भवि० देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सूचम० बंधेण विणा पढमो उवसंताई अजोयदुचरिमम्हि+। चरिमम्मि अजोयस्स उच्चं उदएण संतेण ॥१८॥ 'उवसंताई चउसु . १ १ १ ... उपसताइ च ११० १० ११०१० 1. अजोगंता; एवं सव्वे ॥ उपशान्त-क्षीणकषाय-सयोगायोगोपान्त्यसमयान्तेषु बन्धं विना प्रथमभङ्गः उच्चोदयोभयसत्वमित्येकः । अयोगस्य चरमसमये उच्चोदयसत्वं न: । एवं गोत्रस्य गुणस्थानेषु सप्त भङ्गाः विसदृशाः स्युः ७॥ गु० उप. क्षीण० स० अयो. १० १० १० १० पुनरपि गोत्रद्वयस्य विचारः क्रियते-कर्मभूमिज-मनुष्याणामुच्चनीचगोत्रोदयो भवति । क्षत्रिय-ब्राह्मणवैश्यानामुच्चगोत्रमपरेषां नीचगोत्रम् । भोगभूमिजमनुष्य-चतुर्निकायदेवानामुश्चगोत्रोदयः। सर्वेषां तिरश्चां सर्वेषां नारकाणां च नीचगोत्रोदय एव भवति । उच्चगोत्रोदयागतभुज्यमानः १ सन् उच्चैर्गोत्रं बध्नाति । तदेव बन्धः, योऽसौ उच्चगोत्रस्य बन्धः कृतः, स एव सत्वं । नानाजीवापेक्षया मिध्यादृष्टिना सासादन बं० १ स्थेन जीवेन वा नीचगोत्रस्य बन्धः कृतः स एव सत्वरूपः . उ० । अयं भङ्गः मिथ्यादृष्टयाद्ययोगकेवलि स० १० द्विचरमसमये भुज्यमानः उच्चैर्गोत्रस्योदयः स एव सत्वरूपः । अथवाऽधस्तनगुणस्थानेषु उच्चगोत्रं बवा . 1. सं० पञ्चसं० ५, २२ । 2. ५, 'चतुर्थ' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १५३)। +व-दुच्चरिमं । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका तदेव सत्तमेव उच्चगोत्रोदयसत्त्वं नीचैर्गोत्रोदयागतभुज्यमानः सन् • उच्चगोत्रं बध्नाति । तदेव सत्त्वमेव १ नानाजीवापेक्षया नीचगोत्रभुज्यमानेन केनापि मिथ्यारष्टिना सासादनस्थेन वा नीचगोत्रं उ०१ बद्धा तदेव सत्त्वं कृतम् । अयं भङ्गः मिथ्यात्वादिदेशविरतपर्यन्तं भवति । उदयागतोच्चगोत्रं नी.. भुज्यमानः सन् १ नीचगोत्रं बद्धा तदेव सत्त्वं कृतम् ० । नानाजीवापेक्षया केनापि जीवेनोच्चगोत्रं बद्धोच्च बं० नी० ० गोत्रं सत्त्वं कृतम् उ० उ० । अयमपि भङ्गः बन्धापेक्षया मिथ्यात्वसास्वादनान्तं भवति। उदयागत स० उ०१ नी० नीचगोत्रं भुज्यमानः सन्० नीचगोत्रं बद्ध्वा नीचगोत्रं सत्त्वं कृतम् । सासादनापेक्षया कश्चिच्चतुर्थगुणस्थानात्पतति । स द्वितीये सासादने समागच्छति । चतुर्थे उच्च गोत्रस्य बन्धोऽस्ति, न च नीचगोत्रस्य । तस्मासासादने उच्चगोत्रस्य सत्ता भवत्येव । अथवा तस्य तेजो-वायोरनुत्पत्तेरुच्चगोत्रस्यानुद्वेलनात् । बं० नी० उ. नी. अयं भङ्गः मिथ्यादृष्टः सासादनस्य च भवति । उदयागतनीचगोत्रं भुज्यमानः सन्। स० उ०१नी० ब० नी० नीचगोत्रं बद्धा तदेव सत्त्वं०भुज्यमाननीचगोत्रसत्त्वं वा उ० नी० । अयं भङ्गो मिथ्यादृष्टरेव भवति । स. नी० उपशान्तकषायगुणस्थानादिषु चतुर्यु एको भङ्गः । अयोगस्य चरमसमये एको भङ्गश्च । एवं सप्त भङ्गाः गोत्रस्य ज्ञेया भवन्ति ७ । एकाङ्क उच्चगोत्रस्य संज्ञा, नीचस्य शून्यं संज्ञेति ॥१८॥ क्षो० स० अ० उपा० अ० अन्त्य १ ११० १० १० ११. उपशान्तकषायगुणस्थानसे आदि लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानके द्विचरम समय तक गोत्रकर्मके बन्धके विना प्रथम भंग होता है। अयोगिकेवलीके चरम समयमें उदय और सत्त्वकी अपेक्षा एक उच्चगोत्र ही पाया जाता है ॥१८॥ - उपशान्तकषायसे आदि लेकर अयोगीके उपान्त्य समय तक गोत्रकर्मके भंग इस प्रकार होते हैं उप० ० सयो० अयो० उपान्त्य उद. स० ११० ११. १० १० अयोगीके अन्तिम समयमें: एक यही भंग होता है। इस प्रकार गोत्रकर्मके सर्व भंग सात होते हैं । जिनकी संदृष्टि इस प्रकार है- . बन्ध उदय सत्त्व गुणस्थान १ नीचगोत्र नीचगोत्र, नीचगोत्र नीचगोत्र नीचगोत्र नी. गो. उच्चगोत्र १,२ नीचगोत्र उच्चगोत्र नी. गो. उ० गो. १,२ ४ उच्चगोत्र नीचगोत्र नी० गो० उ० गो० १,२,३,४,५ ५ उच्चगोत्र उच्चगोत्र नी० गो० उ० गो०. १.२,३,४,५,६,७,८,९,१० उच्चगोत्र नी० गो० उ० गो० ११,१२,१३, तथा १४ उ. स. उच्चगोत्र उच्चगोत्र १४ का अन्तिम समय Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह . अब वेदनीयकर्मके कौनसे भंग किस-किस गुणस्थान तक होते हैं, इस बातका निरूपण करते हैं ग्वेदणीए गोदम्मि व पढमा भंगा हवंति चत्तारि । मिच्छादिपमत्तंते ते खलु सत्तसु वि आदिमा दोणि ॥१४॥ ११०१.०१.० १.० "आइदुयं णिब्बंधं दुचरिमसमयम्हि होइ य अजोगे। उदयं संतमसायं सायं पुणुवरिमसमयम्मि ॥२०॥ १ . ०१.. ....... ११० १०. ८ भंगाः समाप्ताः । वेदनीयस्य तत्रिसंयोगभङ्गान् गाथाद्वयेनाऽऽह--[ 'वेदणीए गोदम्मि व' इत्यादि । वेदनीये गोत्रवत् प्रथमा भङ्गाश्चत्वारो भवन्ति । गोत्रस्य पञ्चमं भङ्गं त्यक्त्वा चत्वार आद्या भङ्गा वेद्यस्य भवन्ति । सातासातैकतरमेव योग्यस्थाने बन्धः उदयो वा स्यात् । सत्त्वं सयोगान्तं द्वे द्वे अयोगे ते उदयागते । तेन वेदनीयस्य गुणस्थानं प्रति भङ्गाः मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तपयन्तेषु ते चत्वारो भङ्गा ४४। सातबन्ध-सातोदयसातासातोभयसत्त्वमिति प्रथमो भङ्गः । सातबन्धासातोदयोभयसत्वमिति द्वितीयो भङ्गः २ । असातबन्धसातोदयोभयसत्त्वमिति तृतीयो भङ्गः ३ ! असातबन्धोदयोभयसत्वमिति चतुर्थो भङ्गः । इति चावारो भङ्गाः। मिथ्यात्व-सास्वादन-मिश्राविरत-देशविरत-प्रमत्तगुणस्थानेषु षट्सु प्रत्येक चत्वारो भङ्गा भवन्ति । खलु निश्चयेनाप्रमत्तादि-सयोगान्तेषु सप्तसु द्वौ द्वौ भनौ प्रत्येकं भवतः । असातावेदनीयस्य बन्धस्य षष्ठे प्रमत्ते व्युच्छेदत्वादप्रमत्तादि-सयोगान्तं केवलसातस्यव बन्धः । ततः सातस्य बन्धः १ सातस्योदयः १ उभयसत्त्वमिति प्रथमभङ्गः ११ । सातबन्धः १ असातोदयः . सातासातसत्त्वम् १० इति द्वितीयभङ्ग १० ०२। एवं द्वौ द्वौ भङ्गो अप्रमत्तादि-सयोगान्तं प्रत्येकं भवतः। अयोगस्य द्विचरमसमये बन्धरहितमादिमभङ्गद्वयं ११० भवति । सातोदयः, सातासातसत्त्वं ... असातोदयः सातासातसत्वं ... इति द्वौ भङ्गो अयोगस्योपान्त्यसमये भवतः । अयोगस्य चरमसमये असातोदयः सत्वमप्यसातं : उदये सातं सत्तायां सातं . नानाजीवापेक्षया ज्ञेयमिति ॥१६-२०॥ भयोगे-.. . : : इति वेदनीयस्य गुणस्थानं प्रति विसदृशभङ्गाः अष्टौ । मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अ० सू० उ० सी० स० अ० . गोत्रकर्मके समान वेदनीयकर्मके भी आदिके चार भंग होते हैं और वे निश्चयसे मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। अप्रमत्तसंयतको आदि लेकर ऊपरके सात 1.सं. पञ्चसं. ५, २३ । 2.५, २४ । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका २ 1 गुणस्थानोंमें आदिके दो भंग होते हैं। अयोगिकेवलीके द्विचरम समय तक वेदनीयके बन्ध विना असाताका उदय, दोनोंका सत्त्व, तथा साताका उदय, दोनोंका सत्त्व ये आदिके दो भंग होते हैं। पुनः अयोगीजिनके अन्तिम समयमें असाताका उदय, असाताका सत्त्व और साताका उदय, साताका सत्त्व, ये दो भंग होते हैं ।।१६-२०॥ उक्त भंगोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैबन्ध उदय सत्त्व गुणस्थान १ असातावेद. असातावेद असावा. सातावे. १,२,३,४,५,६, असातावेद. सातावेद० १,२,३,४,५,६ सातावेद. असाताद. १ से १३ सातावेद० सातावेद १ से १३ असातावेद. १४ के उपान्त्य समय तक सातावेद १४ के उपान्त्य समय तक असातावेद असाता वेदनीय १४ के अन्तिम समयमें सातावेद साता वेदनीय १४ के अन्तिम समयमें इस प्रकार वेदनीय कर्मके आठ भङ्गोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब आयुकर्मके भङ्गोका वर्णन करते हुए पहले नरकायुके भंग कहते हैं पणिरयाउस्स य उदए तिरिय-मणुयाऊणऽबंध बंधे य । णिरयाउयं च संतं णिरयाई दोणि संताणि ॥२१॥ 4 6 8 6 1 १ १२ १२ १३ ११३ अथाऽऽयुषो बन्धोदयसत्त्वस्थानभङ्गान् गाथाचतुष्केणाऽऽह--[ 'णिरयाउस्स य उदये' इत्यादि ।] नरकायुष उदये नरकायुर्भुज्यमाने तिर्यग्मनुष्यायुषोरबन्धे बन्धे च नरकायुःसत्वं भवति, नरकादिद्वयायुः सत्त्वं भवति । तथाहि-उदयागतनरकगतौ नरकायुर्भुज्यमाने सति १ तिर्यग्मनुष्यायुषोरबन्धे • भुज्यमाननरकायुःसत्त्वमेव १, तिर्यगायुर्बन्धे सति २ नरकतिर्थगायुःसत्त्वद्वयं ११२ । नरकायुर्भुज्यमाने सति । उपरितनबन्धे • भुज्यमाननरकायुः तिर्यगायुःसत्त्वं १ मनुष्यायुर्बन्धे सति नरक-मनुप्यायुःसत्त्वद्वयं १२ भवति १३ १ । पञ्चमभङ्गेऽबन्धे मनुष्यायुः . भुज्यमाननरकायुः १ मनुष्यायुःसत्वं । ११२ तृतीयभङ्गे तिर्यगायुःसत्वं अबन्धे कथम् ? तथा पञ्चमभंगेऽबन्धे मनुष्यायुःसत्त्वं कथम् ? सत्यमेव, अहो उपरिबन्धे अग्रे बन्धं यास्यति तदपेक्षया तदाऽऽयुस्तभंगे सत्त्वम् । अयं विचारो गोम्मट्टसारेऽस्ति । आयुर्बन्धे अबन्धे उपरतबन्धे च एकजीवस्यैकभवे एकायुःप्रति त्रयो भङ्गा इति भङ्गाः पञ्च ५। बं० . ति २ ० म ३ . उ० णि०१ णि, णि १ णि १ णि, स० णि. ११ति २ १ति २ म३ १म 1. सं० पञ्चसं० ५, २५-२७ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह नरकायुष एकाङ्कः १ संज्ञा । तिर्यगायुषः द्विकाङ्कसंज्ञा २। मनुष्यायुषत्रितयाङ्कसंज्ञा ३ । देवायुषश्चतुरक्संज्ञा ४। अबन्धस्य शून्यमेव संज्ञा ०। उपरते शून्यम् । तथा प्रकारान्तरेण नरकगत्यां नरकायुषः पञ्च भङ्गा एते बं० . ति . म . उ. णि णि णि णि णि स० २ २ ३ ३ तथाऽऽयुषो बन्धः गोम्मट्टसारे प्रोक्तःसुरणिरया णरतिरियं छम्मासावसिट्टगे सगाउस्स । णरतिरिया सव्वा तिभागसेसम्मि उक्तस्सं ॥२॥ भोगभुमा देवायुं छम्मावसिट्टगे य बंधंति ।। इगिविगला णरतिरियं तेउदुगा सत्तगा तिरियं ॥३॥ परभवायुः स्वभुज्यमानायुष्युत्कृष्टेन पण्मासेऽवशिष्टे देव-नारकाः नारं तैरश्चं चायुर्बध्नन्ति, तद्वन्धयोग्याः स्यरित्यर्थः। नर-तिर्यञ्चस्त्रिभागेऽवशिष्ट चत्वारि आयंषि बध्नन्ति । भोगभूमिजाः षण्मासेऽवशिष्ट दैवमायुर्बध्नन्ति । एक-विकलेन्द्रियाः नारं तैरश्चं चायुर्बध्नन्ति । तेजोवायवः सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेवायुबंध्नन्ति । नारकादीनामेकं स्व-स्वगत्यायुरेवोदेति । सत्त्वं परभवायुबन्धे उदयागतेन समं द्वे स्तः । अबद्धायुष्ये सत्त्वमेकमुदयागतमेव १ ॥२१॥ नवीन आयुके अबन्धकालमें नरकायुका उदय और नरकायुका सत्त्वरूप एक भंग होता है। तिर्यगायु या मनुष्यायुके बन्ध हो जाने पर नरकायुका उदय और नरकायुके सत्त्वके साथ तिर्यगायु और मनुष्यायुका सत्त्व पाया जाता है ॥२१॥ विशेषार्थ-आयुकर्म की उसके बन्ध-अबन्धकी अपेक्षा तीन दशाएँ होती हैं-१ परभवसम्बन्धी आयुके बँधनेसे पूर्वकी दशा, २ परभवसम्बन्धी आयुके बन्धकालकी दशा और ३ परभवसम्बन्धी आयुके बँध जानेके उत्तरकालकी दशा। इन तीनों दशाओंको क्रमसे अबन्धकाल, बन्धकाल और उपरतबन्धकाल कहते हैं । इनमेंसे नारकियोंके अबन्धकालमें नरकायुका उदय और नरकायुकी सत्तारूप एक भंग होता है । बन्धकालमें तिर्यगायुका बन्ध, नरकायुका उदय और तिर्यंच-नरकायकी सत्ता, तथा मनुष्यायुका बन्ध, नरकायुका उदय और मनुष मनुष्य-नरकायुकी सत्ता ये दो भंग होते हैं ! उपरतबन्धकालमें नरकायुका उदय और नरक-तिर्यगायुकी सत्ता, तथा नरकायुका उदय और नरक-मनुष्यायुकी सत्ता ये दो भंग होते हैं। इस प्रकार नरकगतिमें आयुके अबन्ध, बन्ध और उपरतबन्धकी अपेक्षा कुल पाँच भंग होते हैं। मूलमें जो अंकसंदृष्टि दी है उसमें एकके अंकसे नरकायुका दोके अंकसे तिर्यगायुका तीनके अंकसे मनुष्यायुका और चारके अंकसे देवायुका संकेत किया गया है। नरकायुके उक्त भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैभंग काल उदय सत्त्व अबन्धकाल . नरकायु नरकायु बन्धकाल तिर्यगायु नरकाथु नरकायु, तिर्यगायु . मनुष्यायु नरकायु मनुष्यायु उपरतबन्धकाल . नरकायु , तिर्यगायु नरकायु मनुष्यायु बन्ध For m " १. गो० क० ६३६-६४० । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका .३११ अब तिर्यगायुके भंग कहते हैं 'तिरियाउयस्सर उदए चउण्हमाऊणऽबंध बंधे य । तिरियाउयं च संतं तिरियाई दोण्णि संताणि ॥२२॥ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ २२।१२।१२।२२।२२।३।३२४४ तियंगायुष उदये भुज्यमाने सति चतुर्णा नरक-तिर्यग्मनुष्यदेवायुषां अबन्धे बन्धे च सति तिर्यगायुः सत्त्वम् यदभुज्यमानं तिर्यगायुस्तदेव सत्त्वम् २ । सर्वत्र चतुर्णामायुर्वन्धे उपरमे बन्धमने यास्यति तत्र सर्वत्र तिर्यगायुरादिद्वयमेव सत्त्वम् । तथाहि-उदयागततिर्यगायुर्भुज्यमाने २ भबन्धे सति • यद्भुज्यमानं तिर्यगायुस्तदेव सत्त्वं २ एको भङ्गः । । तिर्यगायुरुदयागतभुज्यमाने प्रथमं नरकायुर्बद्ध्वा । तदेव सत्वं । भुज्यमानतिर्यगायुः २ सत्त्वं चेति २ द्वितीयो भङ्गः २ । उदयागततिर्यगायुर्भुज्यमाने २ उपरमे २१ नरकायुर्बन्धं करिष्यति तदेव सत्वम् ।। तिर्यगायुर्भुज्यमानं सत्त्वं च २ ૨૧ इति तृतीयो भङ्गः ३ । भुज्यमानोदयागततिरंगायुः २ तिर्यगायुबवा २ तदेव सत्त्वं २ भुज्यमानसत्त्वं च इति चतुर्थो २ भङ्गः । २२ उदयागततियंगायुर्भुज्यमानः सन् २ उपरिमबन्धे ० अग्रे तिर्यगायुबन्धं करिप्यति तदेव सत्त्वं २ इति पञ्चमो ૨૨ भङ्गः ५ । उदयागततिर्यगायुर्भुज्यमानः सन् २ मनुष्यायुर्बवा तदेव सत्वं ३ भुज्यमानः सत्वं च २ इति षष्ठो भङ्गः ६ । उदयागततिर्यगायुर्भुज्यमानः सन् २ उपरिमबन्धे मनुष्यायुर्बन्धं करिष्यति तदेव सत्त्वं ३ भुज्यमानसत्त्वं च २ इति सप्तमो भङ्गः । उदयागततिर्यगायुर्भुज्यमानः सन् २ चतुर्थदेवायुर्बद्ध्वा २१३ तदेव सत्त्वं ४ भुज्यमानसत्वं च २ इति अष्टमो भङ्गः ८ । उदयागततिर्यगायुर्भुज्यमानः सन् अग्रे देवायु ૨/૪ बन्धं करिष्यति, तदेव सत्त्वं ४ भुज्यमानसत्त्वं च २ २ इति नवमो भङ्गः ॥२२॥ २।३ तथा समुच्चयरचना नवभङ्गाः प्रस्तारिता:-- बं० ० णि १ . ति २ . म३० उ० ति २ ति२ ति २ ति २ ति २ ति २ ति २ स. ति २ ति २१ ति २३ २१२ १२ ति २१३ २१३ दे४ . ति २ ति २ २४ २४ 1. सं०पञ्चसं० ५, २८ । कब तिरियाउस्स य। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह तिर्यगायके उदयमें और चारों आयुकर्मों के अबन्धकालमें, तथा बन्धकालमें क्रमशः तिर्यगायुकी सत्ता, और तिर्यगायुके साथ नरकादि चारों आयुकर्मोंमेंसे एक-एक आयुकी सत्ता, इस प्रकार दो आयुकमोंकी सत्ता पायी जाती है ॥२२॥ ३१२ विशेषार्थ–तिर्यग्गतिमें अबन्धकाल में तिर्यंचायुका उदय और तिर्यंचायुकी सत्ता, यह एक भंग होता है । बन्धकालमें १ नरकायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय और नरक तिर्यगायुकी सत्ता २ तिर्यगायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय और तिर्यञ्च तिर्यगायुकी सत्ता, ३ मनुष्यायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय और मनुष्य- तिर्यगायुकी सत्ता; तथा ४ देवायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय, और देव- तिर्यगायुकी सत्ता, ये चार भंग होते हैं । उपरतबन्धकालमें १ तिर्यगायुका उदय, और नरकतिर्यगायुकी सत्ता; २ तिर्यगायुका उदय और तिर्यञ्च तिर्यगायुकी सत्ता; ३ तिर्यगायुका उदय और मनुष्य- तिर्यगायुकी सत्ता; तथा तिर्यगायुका उदय और देव तिर्यगायुकी सत्ता; ये चार भंग होते हैं । इस प्रकार तिर्यग्गतिमें अबन्ध, बन्ध और उपरतबन्धकी अपेक्षा आयुकर्मके कुल नौ भङ्ग होते हैं । भङ्ग 9 २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ६ तिर्यगायुके उक्त भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार है काल बन्ध भबन्धकाल बन्धकाल " 33 39 उपरतबन्धकाल 33 33 सत्त्वं १ भुज्यमान सत्त्वं च 33 ० नरकायु तिर्यगायु मनुष्यायु देवायु ० ० अब मनुष्यायुके भंगोंका निरूपण करते हैं ० 1. सं० पञ्चसं ०५, २६ । ० उदय तिर्यगायु "" 33 79 33 39 33 33 "" माउस य उदए चउण्हमाऊणऽबंध बंधे य । मणुयाउयं च संतं मणुयाई दोण्णि संताणि ॥ २३ ॥ ० १ ० २ ० ३ ० ४ ० ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३|१३|१ ३२ ३।२ ३/३ ३ ३ ३ ४ ३।४ सत्व तिर्यगायु नरकायु, तिर्यगायु तिर्यगायु, तिरंगा मनुष्यायु, तियंगायु देवायु, तिर्यगायु मनुष्यायुष उदये चतुर्णां नरक- तिर्यग्मनुष्य देवायुषामत्रन्धके चतुर्णामायुषां बन्धके च मनुष्यायु:सत्त्वम् ३ । अन्यत्र मनुष्यायुरादिद्वयं सत्वं १ । तथाहि — उदयागतमनुष्यायुर्भुज्यमानः सन् ३ अबन्धे सति ० तदेव भुज्यमानमेव सत्त्वम् । ३ प्रथमो भङ्गः । उदयागतमनुष्यायुर्भुज्यमानः सन् नरकायुर्बद्धा तदेव ३ तिर्यगाथु नरकायु तिर्यगायु, तियंगायु तिर्यगायु, मनुष्यायु तिर्यगायु, देवायु १ ३ द्वितीयो भङ्गः २ । उदयागतमनुष्यायुर्भुज्यमानः अबन्धेऽग्रे नरकायु ३।१ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका बन्धं करिष्यति, तदेव सघं भुज्यमानसत्वं च ३ तृतीयो भङ्गः३ । उदयागतमनुष्यायुर्भुज्यमानः सन् तिर्यगायु २ ३११ बंद्ध्वा तदेव सत्त्वं २ भुज्यमानसत्वं च ३ चतुर्थो भङ्गः ४ । मनुष्यायुर्भुज्यमानः सन् अबन्धे तिर्यगायु २।२ बन्धयिष्यति, तदेव सत्त्वं भुज्यमानसत्वं च ३ पञ्चमो भङ्गः ५। उदयागतमनुष्यायुर्भुज्यमानः सन् तृतीयं ३१२ मनुष्यायुर्बद्ध्वा ३ तदेव सरवं भुज्यमानसत्त्वं च ३ षष्टो भङ्गः ६ । मनुष्यायुर्भुज्यमानः अबन्धे ० अग्रे मनु ३३ प्यायुबन्धयिष्यति तदेव सत्वं ३ भुज्यमानसत्त्वं ३ च ३ सप्तमो भङ्गः ७ । उदयागतमनुष्यायुर्भुज्यमानः सन् देवायुश्चतुर्थ ४ बद्ध्वा तदेव सत्त्वं भुज्यमानसत्त्वं च ३ अष्टमो भङ्गः ८। उदयागतमनुष्यायुर्भुज्यमानः अग्रे देवायुष्यं बन्धयिष्यति तदेव सत्वं ४ भुज्यमानसत्त्वं च ३ नवमो भङ्गः ॥२३॥ ३।४ बं० . णि १ . ति२ . म३ . दे४ . उ० म३ म३ म३ म३ म३ म३ म३ म३ म३ स० म३ म३। म३१ म३।२ म३।२ म३३३ म३।३ म३दे४ म३३४ इति मनुष्यायुपो नव भङ्गाः समाप्ताः । मनुष्यायुके उदयमें और चारों आयुकर्मो के अबन्धकालमें तथा बन्धकालमें क्रमशः मनुष्यायुकी सत्ता, एवं मनुष्यायुकी सत्ताके साथ नरकादि शेष चारों आयुकर्मोमेंसे एक-एक आयुकी सत्ता; इस प्रकार दो आयुकर्मोंको सत्ता पायी जाती है ।।२३।। विशेषार्थ-मनुष्यगतिमें भी तिर्यगतिके समान ही नौ भङ्ग होते हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है-अबन्धकालमें मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुको सत्ता रूप एक ही भङ्ग होता है । बन्धकालमें १ नरकायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और नरक-मनुष्यायुकी सत्ता, २ तिर्यगायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और तिर्यग-मनुष्यायुकी सत्ता; ३ मनुष्यायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और मनुष्य-मनुष्यायुकी सत्ता; तथा ४ देवायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और देव-मनुष्यायुकी सत्ता; ये चार भङ्ग होते हैं । उपरतबन्धकालमें १ मनुष्यायुका उदय, और नरक-मनुष्यायुकी सत्ता; २ मनुष्यायुका उदय और तिर्यग्मनुष्यायुकी सत्ता; ३ मनुष्यायुका उदय और मनुष्य-मनुष्यायुकी सत्ता; तथा ४ मनुष्यायुका उदय और देव-मनुष्यायुकी सत्ता; ये चार भङ्ग होते हैं । इस प्रकार मनुष्यगतिमें अबन्ध, बन्ध और उपरतबन्धको अपेक्षा कुल नौ बन्ध होते हैं। ४० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह तियगायु देवायु मनुष्यायुके उक्त भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैकाल बन्ध अबन्धकाल मनुष्यायु मनुष्यायु बन्धकाल नरकायु मनुष्यायु नरकायु तिर्यगायु मनुष्यायु मनुष्यायु देवायु उपरतबन्धकाल नरकायु तिर्यगायु मनुष्यायु देवायु अब देवायुके भङ्गोका निरूपण करते हैं देवाउस्स य उदये तिरिय-मणुयाऊणऽबंध बंधे य । देवाउयं च संतं देवाई दोणि संताणि ॥२४॥ ५ ४२ ४.२ ४.३ ४३ देवायुष उदये भुज्यमाने तिर्यग्मनुष्यायुषोरबन्धके बन्धके च देवायुः-सत्त्वं बन्धकादिचर्तुषु भङ्गेषु देवायुस्तिर्यगायुयं सत्वं २, देवायुधमनुष्यायु३ ईयं सत्त्वं च [ इति पञ्च भङ्गाः ५।] ॥२४॥ ति२ म३ बं० स० दे ४ दे ४ार दे २ दे ४३ दे ४।३ इति देवायुषः पञ्च भङ्गाः समाप्ताः । देवायुके उदयमें और तिर्यगायु तथा मनुष्यायुके अबन्ध और बन्धकालमें क्रमशः देवायुकी सत्ता और देवायु-मनुष्यायु तथा देवायु-तिर्यगायुकी सत्ता पायी जाती है ॥२४॥ विशेषार्थ-देवगतिमें नरकगतिके समान ही पाँच भङ्ग होते हैं, इसका कारण यह है कि जिस प्रकार नारकियोंके नरकायु और देवायुका बन्ध नहीं होता है, उसी प्रकार देवोंके भी इन्हीं दोनों आयुकर्मोका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि स्वभावतः देव मरकर देव और नारकियोंमें, तथा नारकी मरकर नारकी और देवोंमें जन्म नहीं लेते हैं। देवगतिके पाँच भङ्गोंका विवरण इस प्रकार है-अबन्धकालमें देवायुका उदय और देवायुका सत्त्वरूप एक ही भङ्ग होता है। बन्धकालमें १ तिर्यगायुका बन्ध, देवायुका उदय और देव-तिर्यगायुकी सत्ता; २ मनुष्यायुका बन्ध, देवायुका उदय और देव-मनुष्यायुकी सत्ता; ये दो भङ्ग होते हैं। उपरत बन्धकालमें देवायुका १ उदय और देव-तिर्यगायुकी सत्ता; तथा २ देवायुका उदय और देव-मनुष्यायुकी सत्ता, ये दो भङ्ग होते हैं । इस प्रकार देवगतिमें कुल पाँच भङ्ग होते हैं। 1. सं०पञ्चसं०५, ३० । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३१५ देवायुके भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैभङ्ग काल बन्ध उदय सत्ता १ अबन्धकाल . देवायु देवायु २ बन्धकाल तिर्यगायु , देवायु तिर्यगायु मनुष्यायु , , मनुष्यायु ४ उपरतबन्धकाल तिर्यगायु मनुष्यायु अब मोहनीयकर्मके बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०१०] 'बावीसमेक्वीसं सत्तारस तेरसेव नव पंच । चउ-तिय-दुयं च एयं बंधट्ठाणाणि मोहस्स ॥२५॥ २२।२१।१७।१३।६।५।४।३।२१॥ अथ मोहनीयस्य बन्धस्थानानि, तथा तानि गुणस्थानेषु गाथापञ्चकेनाऽह-[ 'वावीसमेकवीसं' इत्यादि । ] मोहस्य बन्धस्थानानि द्वाविंशतिकं २२ एकविंशतिकं २१ सप्तदशकं १७ त्रयोदशकं १३ नवकं ६ पञ्चकं ५ चतुष्कं त्रिकं ३ द्विकं २ एककं १ चेति दश स्थानानि भवन्ति ॥२५॥ २२।२१।१७।१३।६।५।४।३।२११ बाईसप्रकृतिक, इक्कीसप्रकृतिक, सत्तरप्रकृतिक, तेरहप्रकृतिक, नौप्रकृतिक, पाँचप्रकृतिक, चारप्रकृतिक, तीनप्रकृतिक, दोप्रकृतिक और एकप्रकृतिक; इस प्रकार मोहनीयकर्मके दश बन्धस्थान होते हैं ॥२॥ . इनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है-२२।२१।१७।१३।६।।४।३।२।१। विशेषार्थ-मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं उनमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिका बन्ध नहीं होता है, अतएव बन्धयोग्य शेष छब्बीस प्रकृतियाँ रहती हैं। इनमें भी तीन वेदोंका एक साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु एक कालमें एक वेदका ही बन्ध होता है। तथा हास्य-रति और अरति-शोक; इन दोनों युगलोंमें से एक कालमें किसी एक युगलका ही बन्ध होता है। इस प्रकार छब्बीस प्रकृतियोंमेंसे दो वेद और किसी एक युगलके कम हो जानेपर बाईस प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, जिनका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थानमें होता है। मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध पहले गुणस्थान तक ही होता है, अतः दूसरे गुणस्थानमें उसके बन्ध न होनेसे शेष इक्कीस प्रकतियोंका बन्ध होता है। नपुंसकवेदका भी बन्ध यद्यपि दूसरे गुणस्थानमें नहीं होता है, तथापि उसके न बँधनेसे इक्कीस प्रकृतियोंकी संख्यामें कोई अन्तर नहीं पड़ता। हाँ, भङ्गोंमें अन्तर अवश्य हो जाता है। अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्कका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अतएव उक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे चार प्रकृतियोंके कम कर देनेपर तीसरे और चौथे गुणस्थानमें सत्तरह प्रकृतिकस्थानका बन्ध होता है। यद्यपि इन दोनों गुणस्थानोंमें स्त्रीवेदका भी बन्ध नहीं होत होताहै, तथापि उससे सत्तरह प्रकृतियाकी संख्या कोई अन्तर नहीं पड़ता। हों, भंगोंमें भेद अवश्य हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कका बन्ध चौथे गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अतः सत्तरह प्रकृतिस्थानमें से उनके कम कर देनेपर पाँचवें गुणस्थानमें तेरहप्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कका बन्ध् पाँचवें गुणस्थान 1, सं० पञ्चसं० ५, ३१.३२ । १. सप्ततिका० १०। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह तक ही होता है, आगे नहीं। अतः तेरह प्रकृतिकस्थानमेंसे उनके कम कर देनेपर छठे गुणस्थानमें नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। अरति और शोकप्रकृतिका बन्ध यद्यपि छठे गुणस्थान तक ही होता है, तथापि हास्य और रति प्रकृतिके बन्ध होनेसे सातवें और आठवें गुणस्थानमें भी नौ प्रकृतिक स्थानके बन्ध होनेमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। हास्य-रति और भय-जुगुप्साका बन्ध आठवें गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अतः नौ प्रकृतिक स्थानमेंसे इन चार के कम हो जानेसे शेप पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्ध नवें गुणस्थानके प्रथम भाग तक होता है। नवें गुणस्थानके दूसरे भागमें पुरुषवेदका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ पर चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। तीसरे भागमें संज्वलन क्रोधका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ पर तीन प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। चौथे भागमें संज्वलनमानका बन्ध नहीं होता है, अतः वहाँ पर दो प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है । पाँचवें भागमें संज्वलन मायाका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ पर एक प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। इस प्रकार नवें गुणस्थानके पाँच भागोंमें क्रमसे पाँच प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक ये पाँच बन्धस्थान होते हैं । दशवें गुणस्थानमें एक प्रकृतिक बन्धस्थानका भी अभाव है। क्योंकि वहाँ पर मोहनीयकर्मके बन्धका कारणभूत बादर कषाय नहीं पाया जाता। अब भाष्यगाथाकार उक्त अर्थका ही स्पष्टीकरण करते हैं 'मिच्छम्मि य वावीसा मिच्छा सोलह कसाय वेदो य । हस्सजुयलेकणिंदाभएण विदिए दु मिच्छ-संदूणा ॥२६॥ २२ मिच्छे २२ पत्थारो-- १११ । सासणे २० पत्थारो-२२ मिथ्यात्वे मिथ्यात्वं १ षोडश कषायाः १६ वेदानां त्रयाणां मध्ये एकतरवेदः १ हास्यरतियुग्माऽरतिशोकयुग्मयोर्मध्ये एकतरयुग्मं २ भययुग्मं २ सर्वस्मिन् मिलिते द्वाविंशतिकं मोहनीयबन्धस्थानं मिथ्यादृष्टी मिथ्यादृष्टिबंधातीत्यर्थः । मिथ्यादृष्टौ बन्धकूटे एकस्मिन् मिथ्यादृष्टिजीवे द्वाविंशतिकं बन्धस्थानं सम्भवति । २ भ० जु २ । २ हा १११ वे तगङ्गाः हास्यारतिद्विकाभ्यां २ वेदत्रये ३ हते पट । सासादनगुणस्थाने मिथ्यात्व-पण्ढवेदोना १ मि २ एते २१ । प्रस्तारः कूट वा २॥२ पोडश का र पोडश कपाया १६ भयद्वयं २ वेदयोकियोर्मध्ये १ हास्यदियुग्मं २ मिलिते एकविंशतिकं २१ । तद्भङ्गा वेदद्वय-युग्मद्वयजाश्चत्वारः ॥२६॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल, तथा भय और जुगुप्सा, इन बाईस प्रकृतियोंका बन्ध होता है। दूसरे गुणस्थानमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके विना शेष इक्कीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है।॥२६॥ उक्त दोनों गुणस्थानोंके बन्धप्रकृतियोंकी प्रस्तार-रचना मूलमें दी है। 1. सं० पञ्चसं० ५, ३३-३४ । 2. ५, 'मिथ्यादृष्टौ' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १५५) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३१० 'पढमचउक्केणित्थीरहिया मिस्से अविरयसम्मे य । विदिएणूणा देसे छट्टे तइऊण सत्तम? य ॥२७॥ मिस्सस्स असंजयाणं १७ पत्यारो--२.२ देसे १३ पत्यारो-२२ पमत्ते । पत्यारो-२२ । अनन्तानुबन्धिप्रथमचतुर्थ-(क) स्त्रीवेदेन १ रहिताः पूर्वोक्ताः सप्तदशकं १७ मिश्रासंयतयोः प्रस्तारः २ । द्वादशकषाय १२ भयद्विकेषु २ पुंवेदे १ द्विकयोरेकस्मिन् २ च मिलिते सप्तदशकम् १७ । १२ तगङ्गौ हास्यारतिद्विकजौ द्वौ १७ । १० । अप्रत्याख्यानद्वितीयचतुष्कोनाः त्रयोदशे १३ प्रस्तारः देशसंयतगुणस्थाने २ २ , ' । अष्टकषाय-भयद्वय १० पुंवेदे द्विकयोरेकस्मिन् २ च मिलिते प्रयोदशकं १३ । तद्भङ्गाः द्विकद्वयजौ द्वौ १३ । प्रत्याख्यानतृतीयचतुष्केन रहिताः षष्ठे प्रमत्ते सप्तमाष्टमयोश्च प्रमत्ते ।। प्रस्तार: कषायचतुष्क-भयद्विक-पुंवेदेषु ७ द्विकयोरेकस्मिंश्च मिलिते नवकम् । तद्भङ्गाः द्विक द्वयजौ ६ ॥२७॥ प्रथम कषाय अनन्तानुबन्धिचतुष्क और स्त्रीवेदके विना शेष सत्तरह प्रकृतियोंका बन्ध मिश्र और अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानमें होता है। द्वितीय कषायचतुष्कके विना शेष तेरह प्रकृतियोंका बन्ध देशविरत गुणस्थानमें होता है । तृतीय कषायचतुष्कके विना शेष नौ प्रकृतियोंका बन्ध छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानमें होता है ॥२७॥ उक्त गुणस्थानोंके बन्ध-प्रकृतियोंकी प्रस्तार-रचना मूलमें दी है। अरइ-सोएणूणा परम्मि पुंवेय-संजलणा। एगेगूणा एवं दह ठाणा मोहबंधम्मि ॥२८॥ अप्पमत्तापुवकरणेसु ६ पत्यारो-- अणियट्टिम्मि--५।४।३।२।। अरतिशोकाभ्यामूनाः अप्रमत्ते अपूर्वकरणे च प्रस्तारः । चतुःसंज्वलनभयद्विकेषु ६ पुंवेदे १ हास्य द्विके २ च मिलिते नवकम् । तद्भङ्ग एकः । अत्र हास्य द्विक-भयद्विके व्युच्छिन्ने परस्मिन् भनिवृत्ति 1. सं० पञ्चसं० ५, ३४-३५ । 2.५, ३६ । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ १ करणे प्रस्तारः ५ । कषायचतुष्कं पुंवेद इति पञ्चकम् । तद्भङ्गः १ । अन्न पुंवेदो व्युच्छिन्नः । द्वितीयभागे ४ पञ्चसंग्रह कषायचतुष्कम् ४ । तद्भङ्गः, । क्रोधो व्युच्छिनः । तृतीयभागे कषायत्रिकम् ३ । भङ्गः ३ । मानो व्युच्छिनः । 9 चतुर्थभागे कषायद्वयम् २ | भङ्ग एककः इति मोहबन्धे दश स्थानानि ॥ २८ ॥ अरति और शोकका बन्ध छठे गुणस्थान तक ही होता है । हास्य रति और भय जुगुप्साका बन्ध आठवें गुणस्थान तक होता है । अतएव नवें गुणस्थानके प्रथम भागमें पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क, इन पाँच प्रकृतियोंका बन्ध होता है । नवें गुणस्थानके आगेके चार भागों में क्रमसे पुरुषवेद आदि एक-एक प्रकृतिका बन्ध कम होता जाता है, अतः चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक स्थानोंका बन्ध उन भागों में होता है । इस प्रकार मोहनीय कर्मके बन्धके विषय में उक्त दश स्थान होते हैं ||२८|| उक्त गुणस्थानों के बन्धप्रकृतियोंकी प्रस्तार- रचना मूलमें दी है । अब उपर्युक्त बन्धस्थानोंके भंगका निरूपण करते हैं २ | माया व्युच्छिन्ना । पञ्चमभागे लोभ एकः १ । भङ्ग एकः 1 १ [मूलगा० ११] 'छव्वावीसे चउ इगिवीसे सत्तरस तेर दो दोसु । raise विदोणिय एगेगमदो परं भंगा ॥२६॥ ६|४|२|२|२| 9191919191 उक्तभङ्गसंख्यामाह - [ 'छन्वावीसे चउ' इत्यादि । ] मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणान्तेषूत मोहनीयबन्धस्थानेषु भङ्गाः द्वाविंशतिके षट्, एकविंशतिके चत्वारः, सप्तदशके द्वौ त्रयोदशके द्वौ, नवकबन्धे द्वौ । अतः परं उपरि सर्वस्थानेषु एकैको भङ्ग: ॥२६॥ ६|४|२|२|२| 919191913 २२ २१ १७ १७ १३ ६ ६ ६ ५ ४ ३ २ १ ६ ४ २ २ २ २ १ 9 9 9 9 9 9 भङ्ग इति कोऽर्थः ? (?) मिथ्यात्वे २२ षट् सदृशभङ्गा भवन्ति । सर्वत्र ज्ञेयं यथासम्भवम् । इति मोहस्य बन्धस्थानानि । बाईसप्रकृतिक बन्धस्थानके छह भंग होते हैं। इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थानके चार भङ्ग होते हैं । सत्तरह और तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानके दो दो भङ्ग होते हैं। नौप्रकृतिक बन्धस्थानके भी दो भङ्ग होते हैं। इससे परवर्ती पाँच प्रकृतिक आदि शेष बन्धस्थानोंका एक एक भङ्ग होता है ॥२६॥ 1. सं० पञ्चसं०५, ३७ । १. सप्ततिका० १४ । उक्त बन्धस्थानोंके भङ्गोंकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार हैमि० भवि० देश० प्र० भप्र० गुणस्थान मि० सा० बन्धस्थान २२ २१ १७ १७ १३ ६ ६ भङ्ग ६ ४ २ २ २ ง २ अपू० ६ १ ५ · अनिवृत्तिकरण ४ ३ २ १ ง ง 9 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अब मोहनीय कर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०१२] 'एक्कं च दो व चत्तारि तदो.एयाधिया दसुक्कस्सं । ओघेण मोहणिज्जे उदयट्ठाणाणि णव होंति ॥३०॥ ५०1८1७।६।५।४।२।१।। - अथ मोहस्योदयस्थानानि गुणस्थानेषु तानि च योजयति गाथात्रयेण--[ 'एकं च दो व चत्तारि' इत्यादि । मोहनीये उदयस्थानानि एककं १ द्विकं २ चतुष्कं ४ तत एकाधिका दशोत्कृष्टं यावत् पञ्चकं ५ षटकं ६ सप्तकं ७ अष्टकं - नवकं १ दशकं १० भोघवद् गुणस्थानोक्तवत् । मोहनीये एवं नवोदयस्थानानि भवन्ति ॥३०॥ 2018 |६५।४। ___ ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मके उदयस्थान नौ होते हैं। गाथामें उनका निर्देश पश्चादानुपूर्वीसे किया गया है, किन्तु कथनकी सुविधासे उन्हें इस प्रकार जानना चाहिए-दशप्रकृतिक, नौप्रकृतिक, आठप्रकृतिक, सातप्रकृतिक, छहप्रकृतिका पाँचप्रकृतिक, चारप्रकृतिक, दोप्रकृतिक और एकप्रकृतिक; ईस प्रकार मोहकर्मके सर्व उदयस्थान नौ होते हैं ॥३०॥ इसकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१०६।८।७।६।५।४।२।१ । अब भाष्यगाथाकार उक्त उदय स्थानोंकी प्रकृतियोंको कहते हैं मिच्छा कोहचउक्कं अण्णदरं तिवेद एकयरं । हस्सादिजुगस्सेयं भयणिंदा होंति दस उदया ॥३१॥ *मिच्छत्तण कोहाई विदियं तदियं च हापए कमसो। भयजुयलेगं दोण्णि य हस्साई वेदएक्कयरं ॥३२॥ * एवं दसगोदयसमासादो* कमेण मिच्छतादीहि अवणिदेहि सेसोदया 8८७।६।५।।२।। मिथ्यात्वमेकं १ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनक्रोधमानमायालोभकषायाणां षोडशानां मध्ये अन्यतमक्रोधादिचतुष्कं ४ त्रिषु वेदेष्वेकतमो वेदः । हास्यरत्यरतिशोकयुगलयोर्मध्ये एकतरयुग्मं २ भयं जुगुप्सा, चेति ११४११।२।१।१ एकीकृता उदया दश द्वाविंशतिबन्धस्थाने मिध्यादृष्टौ एकस्मिन् जीवे १० सम्भवन्ति । दशोदयस्थानतो मिथ्यात्वमेकं हीयते हीनः क्रियते, तदा सासादने उदयस्थानं नवकम् है । ततः अनन्तानुबन्धिक्रोधादिचतुष्कत्यागे अपरचतुष्कत्रयैकतभत्रयग्रहणे एकतरवेदादिपञ्चकग्रहणे च ५ एवं मोहप्रकृत्युदयस्थानं अष्टकम् ८ मिश्रस्य सम्यग्मिथ्यादृष्टरविरतगुणस्थानस्यौपशामिकसम्यग्दष्टेः वा क्षायिकसम्यग्दृष्टश्च भवति । ततो द्वितीयाप्रत्याख्यानचतुष्कत्यागे अन्यचतुरुद्वयान्यतरद्वयग्रहणे २ एकत्तरवेदादिपञ्चकग्रहणे च ५ एवं मोहप्रकृत्युदयस्थानं सप्तकम् ७ संयतासंयतम्यौपशमिकसम्यग्दृष्टेः पायिकसम्यग्दृष्टश्च भवति । ततस्तृतीयप्रत्याख्यानचतुष्कत्यागे चतुर्णा संचलनानामेकतरग्रहणे १ एकतरवेदादिपञ्चकग्रहणे च ५ एवं षट मोहप्रकृतयः औपशमिक-सायिकसम्यग्दृष्टीनां प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानां भवन्ति ६। ततो भयमेकं हापयेद् दूरी क्रियेत, तदा मोहप्रकृतिपञ्चकस्थानम् ५। ततो जुगुप्सात्यागे चतुरुदयस्थानं प्रमत्तादीनां च भवति । ततो हास्यादिद्वयत्यागे चतुर्णा संज्वलनानामेकतरग्रहणे १ त्रयाणां वेदानामेकतरग्रहणे १ सवेदस्यानिवृत्तिकरणस्य द्विकमुदयस्थानं २ निर्वेदस्यानिवृत्तिकरणस्य चतुर्णा संज्वलनानामेकतरेणैकमुदयस्थानम् । अबन्धकस्य सूचमसास्परायस्य सूचमलोभस्यकमुदय स्थानम् ॥३१-३२॥ ___ एवं दशकोदयसमूहारक्रमेण मिथ्यात्वादिभिरपनीतैः शेषोदयाः ।।८।७।६।५।४।२।१॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३८ । 2.५, ३६-४० । 3. ५, ४१ । 4. ५, 'अस्यार्थः-दशोदयस्थानतो' इत्यादि गद्यभागः (पृ० १५७) । २. सप्ततिका० ११ *द सयासादो। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० पञ्चसंग्रह मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि चारों जातिकी सोलह कषायोंमेंसे कोई एक क्रोधादिचतुष्क, तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक, इन दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, इन दश प्रकृतियोंका उदय एक जीवमें एक साथ मिथ्यात्वगुणस्थानमें होता है। इस दशप्रकृतिक उदयस्थानमेंसे निध्यात्वके कम कर देने पर शेष नौ प्रकृतियोंका उदय दूसरे गुणस्थानमें होता है। नौप्रकृतिक उदयस्थानमेंसे अनन्तानुबन्धी क्रोधादि एक कषायके कम कर देने पर शेष आठ प्रकृतियोंका उदय तीसरे और चौथे गुणस्थानमें होता है। पुनः क्रमसे दूसरी और तीसरी कषाय के कम कर देने पर सात प्रकृतियोंका उदय पाँचवें गुणस्थानमें और छह प्रकृतियोंका उदय छठे सातवें और आठवें गुणस्थानमें होता है। पुनः भययुगलमें से एकके कम कर देने पर पाँच प्रकृतियोंका और दोनोंके कम कर देने पर चार प्रकृतियोंका उदय भी छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानोंमें होता है । पुनः हास्ययुगलके कम कर देने पर पुरुषवेद और कोई एक संज्वलन कषाय इन दो प्रकृतियोंका उदय नवें गुणस्थानके सवेद भाग तक होता है । पुनः पुरुषवेदके भी कम कर देने पर एकप्रकृतिक उदयस्थान नवें गुणस्थानके अवेद भागसे लेकर दशवें गुणस्थानके अन्तिम समय तक होता है ॥३१-३२॥ ___ इस प्रकार दशप्रकृतिक उदयस्थानमेंसे क्रमशः मिथ्यात्व आदिके कम करने पर शेष नौ, आठ आदि प्रकृतिक उदयस्थान हो जाते हैं। उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१०६। ७।६।४।२।१। अब मोहनीय कर्मके सत्वस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०१३] 'अट्ट य सत्त य छक्कय चउ तिय दुय एय अहियवीसा य । तेरे वारेयारं एत्तो पंचादि एगूणं ॥३३॥ २८।२७।२६।२४।२३।२२।२१।१३।१२।११।५।।३।२।। अथ मोहनीयस्य सत्वस्थानकं तत्रियोगं च गाथाचतुष्केणाऽऽह-[अह य सत्त य छक्कय' इत्यादि। अष्ट-सप्त-पट-चतुस्विद्वय काधिकविंशतयः त्रयोदश द्वादशैकादश इतः परं पञ्चायकैकोनं च सत्त्वस्थानं स्यात् ॥३३॥ २८।२७।२६।२४।२३।२२।२१।१३।१२।११।५।।३।२।। एवं मोहप्रकृतिसत्त्वस्थानानि पञ्चदश भवन्ति १५। __अट्ठाईस, सत्ताइस, छब्बीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक, इस प्रकार मोहकर्मकी प्रकृतियों के पन्द्रह सत्त्वस्थान होते हैं ॥३३॥ इन सत्त्वस्थानोंको अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, १। [मूलगा०१४] संतस्स पयडिठाणाणि ताणि मोहस्स होंति पण्णरसं । बंधोदय-संते पुणु भंगवियप्पा बहुं जाणे ॥३४॥ मोहस्य सत्त्वप्रकृतिस्थानानि तानि पञ्चदश भवन्ति । पुनः मोहस्य बन्धोश्यसत्वस्थानेषु बहून् भङ्ग-विकल्पान् जानीहि ॥३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२-४३ । १. सप्ततिका० १२ । २. सप्ततिका० १३ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३२१ उक्त बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानोंकी अपेक्षा मोहकर्मके भङ्गोंके बहुतसे विकल्प होते हैं, उन्हें जानना चाहिए ॥३४॥ अब भाष्यगाथाकार उक्त सत्तास्थानों की प्रकृतियोंका निरूपण करते हैं मोहे संता सव्वा वीसा पुण सत्त-छहिहि संजुत्ता। उबिल्लियम्मि सम्से सम्मामिच्छे य अट्ठवीसाओ ॥३॥ २८।२७।२६। खविए अणकोहाई मिच्छे मिस्से य सम्म अडकसाए । संढिस्थि हस्सछक्के पुरिसे संजलणकोहाई ॥३६॥ एवं सेसाणि संतठ्ठाणाणि ।२४।२३।२२।२१।१३।१२।११।५।४।३।२।। मोहे सत्त्वप्रकृतयः सर्वाः अष्टाविंशतिर्भवन्ति २८ । एतेभ्यः अष्टाविंशतेमध्यात्सम्यक्त्वप्रकृतौ उद्वेल्लितायां सप्तविंशतिकं [सत्त्वस्थानं ] २७ भवति । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे उद्वेल्लिते पदविंशतिकं सत्त्वस्थानं २६ भवति । अष्टाविंशतिके अनन्तानुबन्धिक्रोधादिचतुष्के क्षपिते विसंयोजिते वा चतुर्विंशतिकं सत्त्वस्थानकम् २४। पुनर्मिथ्यात्वे क्षपिते त्रयोविंशतिकं सत्त्वस्थानम् २३ । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे क्षपिते द्वाविंशतिकं सत्त्वस्थानम् २२ । पुनः सम्यक्त्वे क्षपिते एकविंशतिकं सत्त्वस्थानम् २१ । पुनः मध्यमप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाष्टके क्षपिते त्रयोदशकं सत्वस्थानम् १३ । पुनः षण्ढे वा स्त्रीवेदे वा क्षपिते द्वादशकं सत्त्वस्थानम् १२ । पुनः स्त्रीवेदे वा षण्ढे वा क्षपिते एकादशकं सत्त्वस्थानम् १५ । पुनः षष्णोकषाये पिते पञ्चकं सत्वस्थानम् ५। पुंवेदे क्षपिते चतुष्कं सत्त्वस्थानम् ४ । संज्वलनक्रोधे क्षपिते त्रिकं सत्त्वस्थानम् ३ । पुन; संज्वलनमाने क्षपिते द्विकं सत्वस्थानम् २ । पुनः संज्वलनमायायां क्षपितायामेककं सत्त्वस्थानम् १ पुनर्बादरलोभे क्षपिते सूक्ष्मलोभरूपमेककम् १ । उभयत्र लोभसामान्येनैक्यम् ॥३५-३६॥ एवं मोहनीयस्य सत्त्वस्थानानि २८॥२७॥२६॥२४॥२३॥२२॥२१॥१३॥१२॥११॥५॥४॥३।२।१॥ अमीषां पञ्चदशानां गुणस्थानसम्भव गोम्मट्टसारोक्तगाथामाह तिण्णेगे एगेगं दो मिस्से चदुसु पण णियट्टीए । तिण्णि य थूलेकारं सुहुमे चत्तारि तिण्णि उवसंते' ॥४॥ मि ३। सा १ मि २। अ५। ५। प्र ५। अप्र५ । अपू ३ अनि ११। सू ४ । उ ३ । तथाहि--मिथ्यादृष्टौ २८।२७/२६। सम्यक्त्व-मिश्रप्रकृत्युद्वेलनयोश्चतुर्गतिजीवानां तत्र करणात् । सासादने २८ । मिश्रे २८। २४ । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनोऽपि सम्यग्मिथ्यात्वोदये तत्रागमनात् । असंयतादि वर्तुषु प्रत्येकं २८ । २४ । २३ । २२ । २१ । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनः क्षपितमिथ्यात्वादिप्रयाणां च तेषु सम्भवात् , अनन्तानुबन्ध्यादिसप्तकस्य क्षयाद्वा। उपशमश्रेण्यां चतुगुणस्थानेषु प्रत्येक २८।२४ । २१ । वियोजितानन्तानुबन्धिनः उपशमित - क्षयोपशमकस्य क्षपितदर्शनमोहसप्तकस्य तत्सस्वस्य च तत्रारोहणात् । क्षपकश्रेण्यामपूर्वकरणेऽष्टकषायतिवृत्तिकरणे च एकविंशतिकं २१ स्थानम् । तत उपरि पुवेदोदयारूढस्य पञ्चकबन्धकानिवृत्तिकरणे योदशकम् १३ । द्वादकै १२ कादशकानि ११ । अष्टकषायक्षपणानन्तरं तत्र षण्ढस्त्रीवेदयोः क्रमशः क्षपणात् । स्त्रीवेदोदयारूढस्य तत्रयोदशकम् १३ । षण्ढे चपिते च द्वादशकम् १२ । षण्ढोदयारूढस्य तत्र त्रयोदशकमेव १३, स्त्रीपुवेदयोयुगपत् सपणाप्रारम्भात् । एवमनिवृत्तिकरणे एकादश सत्त्वस्थानानि ११ । सूक्ष्मसाम्पराये उपशमश्रेण्यां २८ । २४ । २१ । पकक्षपकश्रेण्या सूचमलोभरूपकम् । 1. सं० पञ्चसं० ५, ४४ । 2.५, ४५-४७ । १. गो. क० ५०६ । ४१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ पञ्चसंग्रह गुण मि० सा० ૨૨ गुणस्थानेषु मोहनीयस्य बन्धादिस्थानयन्त्रम्बंध० उदय० सत्त्व. बन्धस्था० इदयस्था० सत्त्वस्थानानि १०,६,८,७ २८,२७,२६ २८ ६८, २८,२४ ६,८,७,६ २८,२४,२३,२२,२१ ८,७,६,५ २८,२४,२३,२२,२१ २८,२४,२३,२२,२१ २८,२४,२३,२२,२१ उपशमश्रेण्यां क्षपकश्रेण्याम् २८,२४,२१ २१ ५ २ ११ ५,४,३, २ २८,२४,२१ २१,१२,११,५,४, ३,२,१ २८,२४,२१ २८,२४,२१ mmmNG अप्र० अपू० अनि० ० 40 . ० सू० . ० ० उप० क्षी० ० . अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थानमें मोहकर्मकी सभी प्रकृतियोंको सत्ता होती है। पुनः अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थानमेंसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना होनेपर सत्ताईसप्रकृतिक सत्तास्थान होता है। पुनः सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेपर सादिमिथ्यादृष्टिके अथवा अनादिमिथ्यादृष्टिके छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। पुनः अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थानोंमेंसे अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चतुष्कके क्षपित अर्थात् विसंयोजित कर देनेपर चौबीसप्रकृतिक सत्तास्थान होता है। पुनः मिथ्यात्वके क्षय करनेपर तेईसप्रकृतिक सम्यन्मिथ्यात्वके क्षय करनेपर बाईसप्रकृतिक और सम्यक्त्वप्रकृतिके क्षय कर देनेपर इक्कोसप्रकृतिक सत्तास्थान होता है। तदनन्तर आठ मध्यमकषायोंके क्षय होनेपर तेरह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। पुनः नपुंसकवेदके क्षय होनेपर ब प्रकृतिक, स्त्रीवेदके क्षय होनेपर ग्यारहप्रकृतिक और हास्यादि छह प्रकृतियोंके क्षय होनेपर पाँच प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। पुनः पुरुषवेदके क्षय होनेपर चार प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। तदनन्तर संज्वलन क्रोधके क्षय होनेपर तीनप्रकृतिक, संज्वलनमानके क्षय होनेपर दोप्रक्रतिक और संज्वलन मायाके क्षय होनेपर एकप्रकृतिक सत्तास्थान होता है ॥३५-३६॥ इस प्रकार मोहकमके सर्व सत्तास्थानोंकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है २८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, १ । अब मोहनीयकर्मके बन्धस्थानानों में उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं-- [मूलगा०१५] 'बावीसादिसु पंचसु दसादि-उदया हवंति पंचेव । सेसे दु दोण्णि एर्ग एगेगमदो परं णेयं ॥३७॥ २२ २१ १७ १३ ६ अणियट्टिम्मि५३३१ सुहुमे, १० १ ८ ७६ २ २ १११ सुकुम 1. सं० पञ्चसं० ५, ४८। १. श्वे. सप्ततिकायां गाधेयं नोपलभ्यते। दिया। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अथ मोहनीयस्य बन्धस्थानेषु रदयस्थानानि निरूपयन्ति-[ 'बावीसादिसु पंचसु' इत्यादि ।] पञ्चसु द्वाविंशतिकादिबन्धस्थानेषु पञ्चोदयस्थानानि भवन्ति। शेषयोः अनिवृत्तिकरणस्य प्रथम-द्वितीयभागयोः द्विकोदयस्थानद्वयं २ तत्प्रथमभागे पञ्चकबन्धभागे द्विकोदयस्थानम् २ । तच्चतुबन्धके द्वितीयभागे द्विकोदयमेकोदयस्थानं च भवति । अतः परं तनिबन्धके तृतीयभागे तद्विबन्धके चतुर्थभागे तदेकबन्धके पञ्चमे भागे च एककमुदयस्थानं ज्ञेयम् । सूचमे बन्धरहिते सूचमलोभमुदयस्थानम् १ । तथाहि - मिथ्यादृष्टौ द्वाविंशतिकबन्धस्थाने एकस्मिन् जीवे मोहप्रकृत्युदयस्थानं दशकं १० भवति । ताः काः? मिथ्यात्वं १ पोडशकपायेषु क्रोधादयश्चत्वारः कषायाः । वेदेषु एकतरवेदः,। हास्यादियुग्मयोरेकयुग्मम् २ । भयजुगुप्साद्वयम् २ । एवं दशप्रकृतिकमुदयस्थानम् २२ । इति प्रथमोदयस्थानम् ।। मिथ्यात्वरहिते एकविंशतिकबन्धस्थाने सासादने मिथ्यात्वरहितं नवप्रकृत्युदयस्थानम् २० । इति द्वितीयोदयस्थानम् २ । ततः परं अनन्तानुबन्धिचतुष्करहिते सप्तदशकबन्धस्थानके मिश्रगुणस्थाने असंयमोपशमसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यग्दृष्टौ च अप्रत्याख्यानादिचतुष्कत्रयैकतरत्रयं ३ एकतरवेदादिपञ्चकम् ५ । एवमष्टोदयप्रकृत्युदयस्थानक भवति । इति तृतीयोदयस्थानम् ३। ततः अप्रत्याख्यानचतुष्करहिते त्रयोदयकबन्धके देशसंयमे प्रत्याख्यानादिचतुष्कद्वयैकतरद्वयं २ एकतरवेदादिपञ्चकं ५ एवं मोहप्रकृत्युदयसप्तकं स्थानं ७ देशसंयतौपशमिक-क्षायिकसम्यग्दृष्टौ भवति ५ । इति चतर्थोदयस्थानम् । ततः प्र । इति चतुर्थोदयस्थानम् ४ । ततः प्रत्याख्यानचतुष्करहिते नवक बन्धके संज्वलनमेकतरं वेदादिपञ्चकमेवं षट्प्रकृत्युदयस्थान औपशमिक क्षायिकसम्यग्दृष्टिप्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणमुनौ । भवति । इति पञ्चमोदयस्थानम् ५। ततः पुवेदसंज्वलनपञ्चकबन्धक संज्वलनचतुर्बन्धका निवृत्तिकरणभागयोः प्रथम-द्वितीययोः त्रिवेद-चतुःसंज्वलनानामेकैकोदयसम्भवं द्विप्रकृत्युदयस्थानम् २४ तत्रिबन्धके तृतीयभागे द्विबन्धके चतुर्थभागे संज्वलनलोभबन्धके पञ्चमभागे चैकस्थूललोभोदयस्थानम् । अबन्धके सूक्ष्मसाम्पराये सूचमलोभस्योदयस्थानमेकम् ; ॥३७॥ मोहनीयकर्मके बाईस आदिक पाँच बन्धस्थानोंमें दश आदिक पाँच उदयस्थान होते हैं। शेष बन्धस्थानोंमेंसे पाँचप्रकृतिक बन्धस्थानमें दोप्रकृतिक उदयस्थान होता है। चारप्रकृतिक बन्धस्थानमें दोप्रकृतिक उदयस्थान होता है। इससे आगेके तीन, दो और एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें एकप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए । दशवें गुणस्थानमें जहाँ मोहकी किसी प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, वहाँपर एकप्रकृतिक उदयस्थान होता है ॥३७॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। अब भाष्यगाथाकार उपर्युक्त गाथाका स्पष्टीकरण करते हैं अणरहिओ पढमिल्लो तइओ दो मिस्स-सम्मसहिया दु। दंसणजुत्ते सेसे अण्णो भंगो हवेज दस एदे ॥३॥ 1.सं० पञ्चसं० ५,४६ । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ पश्चसंग्रह २२२११७ १७ १३ है १० ८ ७ ६ त्रिषु गुणेषु इदं ६ वेदकरहिते । भथ मिथ्यादृष्टौ मिश्रेऽसंयतादिचतुषु च सम्भवविशेषमाह-[ 'भणरहिओ पढमिल्लो' इत्यादि।] मोहप्रकृतीनौ दशानामुदयः प्रथम आद्यः स कथम्भूतः ? अनन्तानुबन्ध्युदयरहितः । कथम् ? उक्तञ्च __ अणसंजोजिदसम्म मिच्छं पत्ते ण आवलि त्ति अणं ॥५॥ अनन्तानुबन्धिविसंयोजितवेदकसम्यग्दृष्टौ मिथ्यात्वकर्मोदयान्निध्यादृष्टिगुणस्थानं प्राप्त आवलिकाल २० पर्यन्तमनन्तानुबन्ध्युदयो नास्ति । अतोऽनन्तानुबन्धिरहितं प्रथमस्थानं उ.१० मिथ्यात्वरहितम् । सासा दनं द्वितीयं स्थानं । तृतीय स्थान द्वयं कथम् ? एकं मिश्रगुणस्थानं द्वितीयं असंयतगुणस्थानं च । मिश्रे गुणस्थानेऽनन्तानुबन्धिरहितमष्टकं मिश्रण सम्यग्मिथ्यात्वेन सहितं नवकम्। । असंयतवेदक सम्यग्दृष्टौ मिश्रसहितमष्टकं सम्यक्त्वप्रकृतिसहितनवप्रकृत्युदयस्थानम् ८ । शेषेषु देशविरत-प्रमत्त संयताप्रमत्तपंयतवेदकसम्यक्त्वसहितेषु सम्यक्त्वरहितोऽन्यो भङ्गः, सम्यक्त्वप्रकृतिसहितोऽन्यो भङ्गः स्यात् १२, ७ ६ । एते दश वक्ष्यमाणा उदया: अग्रगाथायाम् । मि० सा० मि० अ० दे० प्र० . wwg त्रिषु वेदकरहितप्रमत्तादिगुणस्थानेषु इदं । वेदकरहितदेशे १३ वेदकरहितप्रमत्ताप्रमत्तयोः । . अपूर्वकरणे सम्यक्त्वप्रकृत्युदये भविरताचप्रमत्तान्तवेदकसम्यक्त्वं भवति । तदुदये उपशमसम्यक्त्वं सायिकसम्यक्त्वं च न भवति । तदुक्तञ्च __उवसम खइए-सम्मं ण हि तत्थ वि चारि ठाणाणि ॥६॥ उवशमसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्त्वे च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयो नास्तीति तद्रहितानि असंयतादिचतुषु चत्वारि स्थानानि भवन्ति ॥३८॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें मोहनीयकर्मका बाईस प्रकृतिक प्रथम बन्धस्थान अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित भी होता है; क्योंकि अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाला वेदकसम्यग्दृष्टि यदि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त हो, तो एक आवलीकालपर्यन्त उसके अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता है, ऐसा नियम है। अतएव बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानमें दश प्रकृतिक उदयस्थानके अतिरिक्त नौप्रकृतिक भी उदयस्थान होता है। इक्कीस प्रकृतिक दूसरे बन्धस्थानमें मिथ्यात्वके विना शेष नौ प्रकृतियोंके उदयवाला स्थान होता है। सत्तरह बन्धवाले तीसरे और चौथे गुणस्थानमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीके विना शेष आठप्रकृतिक उदयस्थान तथा तीसरेमें मिश्रप्रकृतिका और चौथेमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय बढ़ जानेसे नौ १. गो० क० ४७८ । २. गो. क. गा० ४१८ । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३२५ प्रकृतिक उदयस्थान भी होता है। सम्यक्त्वसहित शेष गुणरथानों में अर्थात् पाँचवें, छठे और सातवेंमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे रहित एक-एक भङ्ग और भी होता है। अतएव वक्ष्यमाण प्रकारसे दश भङ्ग उदयस्थानसम्बन्धी जानना चाहिए ॥३८॥ इनकी अंकदृष्टि मूलमें दी है। भयरहिया जिंदणा जुगलूणा हृति तिणि तिण्णेव । अण्णे वि तेसिमुदया एक्केकस्सोवरिं जाण ॥३६॥ मिथ्या० मिथ्या० सासा. मिश्र अविरत० अवि० देश० देश० प्र०अ० प्र०अ० बंध० २२ २२ २१ १७ १७ १७ १३ १३ १ १ उदय० ८८ ८८ मा ८८ ७७ ७७ ६६ ६।६ ५।५ द्वाविंशतिकबन्धके मिथ्यादृष्टौ उत्कृष्टतो दशमोहप्रकृत्युदयाः १०। भयरहिता नवोदयाः । जुगुप्सारहिता द्वितीयनवप्रकृत्युदया: । भयजुगुप्सायुग्मोनाश्चाष्टप्रकृत्युदया ८ भवन्ति । एकैकस्योपरि तासां प्रकृतीनां नवादीनां अन्यान् उदयभङ्गान् त्रीन् त्रीन् जानीहि भो भव्यवरपुण्डरीकत्वम् । तथाहि-द्वाविंशतिकबन्धकेऽनन्तानुबन्ध्युदयरहिते मिथ्यादृष्टौ २२ नवप्रकृत्युदया: । भयेन रहिता अष्टौ ८, निन्दया रहिताः अष्टौ ८, युग्मोनाश्च सप्त ७ । एकविंशतिकबन्धे २१ सासादने नवप्रकृत्युदया ६, भयरहिता ८, जुगुप्सारहिता ८, युग्मोनाः सप्त ७ । सप्तदशकबन्धके मिश्रे अनन्तानुबन्ध्युदयरहित-मिश्रप्रकृतिसहिता नवकृत्युदया: ६, भयरहिताः ८, निन्दारहिता ८, तयुग्मरहिता वा ७। सप्तदशकबन्धकेविरतवेदकसम्यग्दृष्टौ मिश्रप्रकृतिरहिताः सम्यक्त्वप्रकृतिसहिता नवप्रकृत्युदयाः १, भयेन रहिताः ८, जुगुप्सारहिताः८, तद्युग्मोना वा ७ । सप्तदशकबन्धकेऽविरतोपशमसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्त्वे च सम्यक्त्वप्रकृतिरहिता अष्टौ प्रकृत्युदयाः ८, भयोनाः ७, निन्दोना वा ७, तद्युग्मोना वा ६ । त्रयोदशकबन्धके देशसंयमवेदकसम्यग्दृष्टौ अप्रत्याख्यानोदयरहितसम्यक्त्वप्रकृतिसहिताः अष्टौ प्रकृत्युदयाः ८, भयोनाः ७, निन्दोना ७, तद्युग्मोना: ६ । त्रयोदशकबन्धके उपशमे क्षायिकसम्यक्त्वे देशसंयमे १३ अप्रत्याख्यानोनाः सप्तप्रकृत्युदयाः ७, भयोनाः ६, जुगुप्सोनाः ६, तद्युग्मोनाः ५ । नवकबन्धकवेदकसम्यक्त्वप्रमत्तेऽप्रमत्ते च प्रत्याख्यानोनाः सम्यक्त्वप्रकृतिसहिताः सप्तप्रकृत्युदयाः ७, भयोनाः ६, निन्दोनाः ६, तयुग्मोनाः ५। नवकबन्धकोपशमक-क्षायिक सम्यग्दृष्टौ प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणमुनो संज्वलनमेकतरं : पुवेदादिपञ्चकं ५ एवं षट्प्रकृत्युदयाः ६, भयोनाः ५, जुगुप्सोनाः ५, तद्युग्मोना वा ४ ॥३६॥ गुण० मि. मि. सा. मि० अवि० अवि० दे० दे० प्र० भ० प्र० अ० बन्ध० ८ ७७७७६६ ५ ५४ उदय० । चार सार ८८ ८८ ७७ ७७ ६६ ६६ ५।५ तथा उपर्युक्त बन्धस्थानोंके भय-रहित निन्दा अर्थात् जुगुप्सा-रहित और दोनोंसे रहित, इस प्रकार तीन-तीन अन्य भी उदयस्थान एक-एकके ऊपर जानना चाहिए ॥३६॥ विशेषार्थ-बाईस प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टिके यदि सम्भव सभी प्रकृतियोंका उदय हो, तो दशप्रकृतिक उदयस्थान होगा। यदि विसंयोजनके हो जानेसे अनन्तानुबन्धी कषायका उदय नहीं है, तो नवप्रकृतिक उदयस्थान भी सम्भव है। यदि भय और 1. सं० पञ्चसं० ५,५०। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह जुगुप्सामेंसे किसी एकका उदय न हो, तो आठ प्रकृतिक उदयस्थान होगा। और यदि भय और जुगुप्सा इन दोनोंका ही उदय न रहे, तो सात प्रकृतिक उदयस्थान होगा। इस प्रकार बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानमें दश, नौ, नौ, आठ और सात प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थान दूसरे गुणस्थानमें होता है। वहाँपर अनन्तानुबन्धीका उदय तो रहता है, परन्तु मिथ्यात्वका उदय नहीं रहता, इसलिए नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। तथा भय-जुगुप्सामेंसे किसी एकके उदय न रहनेसे आठप्रकृतिक और दोनोंका उदय न रहनेसे सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है । सत्तरह प्रकृतिके बन्धवाले गुणस्थानसे लेकर नौ प्रकृतियोंके बन्धवाले गुणस्थान पर्यन्त तीन स्थानोंमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहता भी है और नहीं भी रहता है, इसलिए सत्तरह प्रकृतिक बन्धस्थानमें सम्यक्त्वप्रकतिका उदय न रहनेपर आठका उदयस्थान होता है। तथा भय और जुगुप्सामेंसे किसी एकके उदय न रहनेपर सातका उदयस्थान होता है और दोनोंके ही उदय न रहनेपर छहका उदयस्थान होता है। तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानमें सम्यक्वप्रकृतिके उदय रहनेपर आठका उदयस्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय न रहनेपर सातका उदयस्थान होता है। भय और जुगुप्सासे किसी एकके उदय न रहनेपर छहका तथा दोनोंके उदय न रहनेपर पाँचका उदयस्थान होता है। नौप्रकृतिक बन्धस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहने पर सातका उदयस्थान होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय न रहने पर छहका उदयस्थान होता है। जुगुप्सामेंसे किसी एकके उदय न होने पर पाँचका उदयस्थान और दोनोंके उदय न रहने पर चारका उदयस्थान होता है । मूलमें दी गई अंकसंदृष्टिका यह अभिप्राय समझना चाहिए । अब मोहके बन्धस्थानोंमें संभव उदय स्थानोंका निरूपण करते हैं 'दस वावीसे णव इगिवीसे सत्तादि उदय-कम्मंसा । छादी णव सत्तरसे तेरे पंचादि अद्वेव॥४०॥ चत्तारि-आदिणवबंधएसु उक्कस्स सत्तमुदयंसा । चत्तालमिमेसुदया बंधट्ठाणेसु पंचसु वि ॥४१॥ ।४। [अथ ] गुणस्थानेषु मोहप्रकृतिबन्धकेषु उदयस्थानानि प्ररूपयति-[ 'दस वावीसे णव इगि' इत्यादि । ] द्वाविंशतिबन्धके सप्ताद्याः दशान्ताः अष्टौ मोहप्रकृत्युदयकमांशा उदयांशा उदयप्रकृतिस्थान २११४ विकल्पा भवन्ति ८ । एकविंशतिकबन्धके सप्ताद्या नवप्रकृत्युदयस्थानचतुष्टयरूपा: ८ ८८ हा ____ सप्तदशकबन्धके षडाद्या नवोत्कृष्टपर्यन्ताः प्रकृत्युदयस्थानरूपाः द्वादश भवन्ति १७।१२। त्रयोदशबन्धके पञ्चाद्यष्टोत्कृष्टस्थानपर्यन्तं प्रकृत्युदयस्थानानि अष्टौ भवन्ति १३८ । नवकबन्धके चतुरादिसतोत्कृष्टान्ताः मोहप्रकृत्युदयस्थानान्यष्टौ भवन्ति । इत्यमीषु पञ्चसु बन्धस्थानेषु प्रकृत्युदयस्थानानि चत्वारिंशद्भवन्ति ॥४०-४१॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'द्वाविंशतेर्बन्धे सप्ताद्या' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १२६)। . १. श्वे० सप्ततिकायामियं गाथा मूलगायारूपेण विद्यते । २. श्वे० सप्ततिकायामियमपि गाथा मूलरूपेणास्ति । परं तत्रोत्तरार्ध पाठोऽयम्--'पंचविहबंधगे पुण उदओ दोण्हं मुणेयव्वो' । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३२७ बाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें सातको आदि लेकर दश तकके उदयस्थान होते हैं । इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें सातको आदि लेकर नौ तकके उदयस्थान होते हैं। सत्तरहप्रकृतिक बन्धस्थानमें छहको आदि लेकर नौ तकके उदयस्थान होते हैं। और तेरहप्रकृतिक बन्धस्थानमें पाँचको आदि लेकर आठ तकके उदयस्थान होते हैं। नौ प्रकृतियोंका बन्ध करने वाले जीवोंके चार प्रकृतिक उदयस्थानको आदि लेकर उत्कर्षसे सातप्रकृतिक तकके उदयस्थान होते हैं। इस प्रकार इन पाँच बन्धस्थानों मोहप्रकृतियोंके उदयस्थान चालीस होते हैं ॥४०-४१॥ विशेषार्थ-बाईस, इक्कीस, सत्तरह, तेरह और नौ प्रकृतिक बन्धस्थानों में जितने उदयस्थान पाये जाते हैं, उनमेंसे दशप्रकृतिक उदयस्थान एक है, नौप्रकृतिक उदयस्थान छह हैं, आठप्रकृतिक उदयस्थान ग्यारह हैं, सातप्रकृतिक उदयस्थान दश हैं, छहप्रकृतिक उदयस्थान सात हैं, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान चार हैं और चारप्रकृतिक उदयस्थान एक है । इस प्रकार इन सबका योग (१+६+११+१०+७+४+१=४०) चालीस होता है। यह बात ऊपर मूलमें दी गई संदृष्टिमें स्पष्ट दिखाई गई है। अब उपर्युक्त ४० भंगोंको वक्ष्यमाण २४ भंगोंसे गुणित करने पर जितने भंग होते हैं उनका निरूपण करते हैं 'जुगवेदकसाएहिं दुय-तिय-चउहिं भवंति संगुणिया । चउवीस वियप्पा ते उदया सव्वे वि पत्तेयं ॥४२॥ *एवं पंचसु बंधट्ठाणेसु चत्तालं उदया चउवीसभंगगुणा हवंति । एयावंतो उदयवियप्पा ६६० । अमूनि सर्वप्रकृत्युदयस्थानानि ४० प्रत्येकं चतुविंशितिगुणितानि भवन्तीति तरसम्भवगाथामाह [ 'जुगवेदकसाएहिं' इत्यादि । हास्यादियुग्मेन २ वेदत्रिकेण ३ कषायचतुष्केण ४ परस्परं संगुणिताश्चतुविशतिविकल्पाः २४ भवन्ति । तानि सर्वाणि चत्वारिंशत्प्रकृत्युदयस्थानानि ४० प्रत्येक चतुर्विशतिविकल्पा भङ्गा भेदा भवन्ति ॥४२॥ तदाह-[ 'एवं पंचसु' इत्यादि । ] एवं पञ्चसु नवकादिद्वाविंशतिपर्यन्तबन्धस्थानेषु चत्वारिंशत् ४० प्रकृत्युदयस्थानानि चतुर्विशतिः२४ गुणितानि एतानि एतावन्त उदयविकल्पाः ३६० षष्ठ्यधिकनवशतप्रकृत्युदयस्थानभङ्गा भवन्ति । हास्यादि दो युगल, तीन वेद और चार कषाय इनके परस्पर संगुणित करने पर चौबीस भङ्ग होते हैं । इनसे उपर्युक्त चालीस भगोंको गुणित कर देने पर उदयस्थानोंके सर्व भङ्गोंका योग आ जाता है ॥४२॥ __इस प्रकार पाँच बन्धस्थानोंके चालीस उदयस्थानोंको चौबीस भङ्गोंसे गुणा करने पर (४०x२४ =६६०) सर्व उदयस्थान विकल्प नौ सौ साठ उपलब्ध होते हैं । अब पाँच आदि शेष प्रकृतिक उदयस्थानोंके भंगोका निरूपण करते हैं वेदाहया कसाया भवंति भंगा दुवारदुगउदए । चउ-तिय-दुग एगेगं पंचसु एगोदएसु तदो ॥४३॥ भणियहिम्मि २ २ १ १ १ १ सुहुमे १ एवं सब्वे भंगा मेलिया ३५ । पुव्वु तेहि सह एदावंतो १६५। 1. सं० पञ्चसं०५, ५१ । 2. ५, 'चतुर्विंशत्या' इत्यादिगद्यांशः। 3.५, ५२ । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ अनिवृत्तिकरणस्य द्विकोदये इति पञ्चबन्धक-चतुर्बन्धकानिवृत्तिकरणभागयोस्त्रिवेद-चतुः संज्वलना ५ ४ नामेकै कोदय सम्भवं द्विप्रकृत्युदयस्थानं स्यात् । तत्र संज्वलनक्रोध-मान- माया लोभाश्चत्वारः ४ त्रिभिर्वेद - २ १ पञ्चसंग्रह ५ ४ र्हताः द्वादशः भङ्गा भवन्ति । द्विद्वादश द्वादश द्वादशेति २ १ | पक्षान्तरापेक्षया चतुर्बन्धकचरमसमये १२ १२ अनिवृत्तिकरणस्य उ० २ त्रिद्वर्थ े कबन्धबन्धकेषु अबन्धके पञ्चेसु भागस्थानेषु क्रमेण चतुस्त्रिद्वये कैकसंज्वलनानामेकै कोदयः सम्भवमेकैकोदयस्थानं स्यात् । तेन तत्र भङ्गाश्चतुस्त्रियैकैको भूत्वा एकादश ॥४३॥ ४ ३ २ १ बं० ५ ४ २ १ ง ง १ अबन्धे सूचमे भं० १२ १२ ४ ३ २ ง भङ्गा मिलिताः ३५ । पूर्वोक्तः सह एतावन्तो भङ्गाः नवशतपञ्चनवतिः ॥६६५॥ ० ง द्विक-उदयमें अर्थात् अनिवृत्तिकरणके पाँच प्रकृतिक और चार प्रकृतिक बन्धस्थान में जहाँ पर तीनों वेदों में से किसी एक वेद और चारों कषायों में से किसी एक कषायका उदय होता है, वहाँ पर तीनों वेदों और चारों कषायों के परस्पर बारह बारह भङ्ग होते हैं । एक प्रकृति के उदय वाले पाँच बन्धस्थानों में अर्थात् चारप्रकृतिक बन्धस्थानके चरम समय में, तीन, दो, एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें और किसी भी प्रकृतिका बन्ध नहीं करनेवाले ऐसे अवन्धकस्थानमें क्रम से चार, तीन, दो, एक और एक भक्त होते हैं ||४३|| ६६५। १ इस प्रकार अनिवृत्तिकरणमें दो प्रकृतिके उदयवाले पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानमें बारह, चार प्रकृतिक बन्धस्थान में बारह, एक प्रकृतिके उदयवाले चार प्रकृतिक बन्धस्थान में चार, तीन प्रकृतिक बन्धस्थानमें तीन, दो प्रकृतिक बन्धस्थानमें दो और एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें एक भङ्ग होता है । तथा किसी भी मोहप्रकृतिका बन्ध नहीं करने वाले सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में एकमात्र सूक्ष्म संज्वलन लोभका उदय होनेसे एक भङ्ग होता है । इस प्रकार ये सर्व भङ्ग मिल करके (१२+ १२+४+४+२+१+१=३५ ) पैंतीस भङ्ग हो जाते हैं । इन सर्व भङ्गों की अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। इन्हें पूर्वोक्त ६६० भङ्गों में मिला देने पर मोहनीय कर्मके उदयस्थानसम्बन्धी सर्व विकल्प ६६५ हो जाते हैं । इन्हीं उदय-विकल्पोंको भाष्यगाथाकार उपसंहार करते हुए प्रकट करते हैं'दसगादि - उदयठाणाणि भणियाणि मोहणीयस्स । पंचूणयं सहस्सं उदयवियप्पा हवंति ते चैव ॥४४॥ 1 एवं सर्वे ते कति चेदाह— [ 'दलगादि - उदयठाणाणि' इत्यादि ] मोहनीयस्य दशकादीन्येकपर्यन्तान्युदयप्रकृतिस्थानानि भणितानि । तेषां भङ्गाः पञ्चभिर्न्यूनं सहस्त्रं प्रकुत्युदयस्थानविकल्पा भवन्ति । दशकाद्येकपर्यन्तप्रकृः युदयस्थानानां भङ्गा विकल्पाः प्रकृत्युदयस्थानभेदा नवशतपञ्चनवतिसंख्योपेताः ६६५ भवन्तीत्यर्थः ॥ ४४ ॥ मोहनीय कर्मके दशप्रकृतियोंको आदि लेकर एक प्रकृति पर्यन्त जो दश उदयस्थान कहे गये हैं उनके उदयस्थान-सम्बन्धी सर्व विकल्प पाँच कम एक हजार अर्थात् ६६५ होते हैं ॥४४॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ५३ तथाऽप्रेतनगद्यांशः ( पृ० १५६)। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससतिका ३२१ अव उपर्युक्त उदयविकल्पोंके प्रकृति-परिवर्तन-जनित भंगोका परिमाण कहते हैं 'पुव्वुत्ता जे उदया संगुणिया तेसिं उदयपयडीहिं । चउवीसा आदीहि य सगेहिं भंगेहिं होंति पदबंधा ॥४॥ एए छदसादि-वउरंताणि उदयटाणाणि एयाणि_१०१ ८ ५ ६ ५ ४, १६ ११ १० दसादि। उदयत्थपयडिगुणियाणि १०५४।८८७०१४२२०।। मिलियाणि २८८ । पुणो चउवीसभंगगुणियाणि ६६१२ । अणियट्टिम्मि सुहुमे य दुगादिउदयपयडीओ २।२।१।१।११। सुहमे । एयाओ एएहिं भंगेहिं १२॥१२॥४॥३॥ २।१।१।गुणिया एयावंतो २४२४१४।३।२।११। मिलिया ५ । पुग्विल्लेहिं सह पयबंधा एयावंतो।६६७१। अथ प्रकृतिभेदेन भङ्गानाह-[ 'पुष्वुत्ता जे उदया' इत्यादि । ] ये पूर्वोक्ता उदयाः, अत्र दशानां एकोदयः १नवानां पदुदयाः । अष्टानां एकादशोदयाः , सप्तानां दशोदयाः, षण्णां सप्तोदयाः ६ पञ्चानां चत्वार उदयाः ५ चतुर्णामेकोदयः । इत्येते उदयाः १।६।११।१०।७।४।१ एतेषां दशाद्यदयप्रकृतिभिः १०11८1७१६।५।४ संगुणिता: १०१५४१८८७०॥४२॥२०१४ एते मिलिताः २८८ । पुनश्चतुर्विशति २४ भङ्गताडिताः ६६१२ एते पदबन्धा उदयप्रकृतिविकल्पा भङ्गा भवन्ति । अनिवृत्तिकरणे सूचमसाम्पराये च द्विकोदयः उदयप्रकृतयः २।२।११।१।१ सूचमे १ । एताः प्रकृतय एतैर्भङ्गः १२।१२।४।३।२।१ गुणिता एतावन्तः २४२४॥४।३।२।११। मिलिता ५६ । पूर्वैः ६६१२ सह पदबन्धा एतावन्तः ६९७१ मोहप्रकृतिसंख्यायाः पदबन्धा भवन्त्यमी ॥४५॥ जो पहले दशप्रकृतिक आदि उदयस्थान कहे गये हैं, उन्हें पहले उदय होनेवाली प्रकृतियोंसे गुणित करे। पुनः चौबीस आदि स्व-स्व भंगोंसे गुणित करनेपर सर्वपदबन्ध अर्थात् भंग आ जाते हैं । उनका परिमाण ६६७१ है ॥४५॥ अव इन्हीं ६९७१ भंगोंका स्पष्टीकरण करते हैं-दशको आदि लेकर चार प्रकृति-पर्यन्तके जो उदयस्थान हैं, उन्हें दश आदि उदयस्थ प्रकृतियोंके साथ गुणित करनेपर २८८ भंग होते हैं। ( इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी हुई है।) पुनः उन्हें चौबीस भंगोंसे गुणा करनेपर ( २८८४२४ =६६१२) छह हजार नौ सौ बारह भंग प्राप्त होते हैं। पुनः अनिवृत्तिकरणमें जो दो आदिक उदय-प्रकृतियाँ हैं और सूक्ष्मसाम्परायमें जो एक उदय प्रकृति है, (यथा-२।२।१।१।१।११) उन्हें इनके १२।१२।४।३।२।११ इन भंगोंसे गुणा करनेपर क्रमशः इतने २४।२४।४।३।२।१।१ भंग आते हैं, जो सब मिलाकर ५६ होते हैं । इन्हें पूर्वोक्त ६६१२ में जोड़ देनेपर समस्त पदबन्धोंका अर्थात् भंगोंका प्रमाण ६६७१ होता है। अब मूलगाथाकार उपर्युक्त सर्व अर्थका उपसंहार करते हैं[मूलगा०१६] णवपंचाणउदिसया उदयवियप्पेहिं मोहिया जीवा । ऊणत्तरि-एयत्तरिपयबंधसएहिं विण्णेया ॥४६॥ १६५/६६७१। पञ्चनवत्यधिकनवशतसंख्योपेतैः उदयविकल्पैः प्रकृत्युदयस्थानभङ्गः ११५ एकोनसप्ततिशतैकसप्ततिपदबन्धैः षट्सहस्रनवशतैकसप्ततिसंख्योपेतैः ६६७१ पदबन्धेः प्रकृतिविकल्पैः प्रकृत्युदयसंख्याभङ्गैश्च त्रिकाल 1. सं० पञ्चसं० ५, ५४ । 2. ५, 'दशादीनि' इत्यादिराद्यभागः (पृ० १६०)। 3. ५, ५५ । 1ब दसा अपि । १. सप्ततिका० २० । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० पञ्चसंग्रह त्रिलोकोदरवर्तिचराचरजीवा मोहिताः वैचिन्त्यं प्रापिताः सन्ति ११५ उदयविकल्पाः स्थानविकल्पाः भवन्ति । ६६७१ प्रकृतिविकल्पा उदयप्रकृतिसंख्याभंगा विज्ञेया भवन्ति ॥४६॥ इति मोहनीयप्रकृत्युदयभेदः समाप्तः। - सर्व संसारी जीव नौ सौ पंचानवे उदय-विकल्पोंसे तथा उनहत्तर सौ इकहत्तर अर्थात् छह हजार नौ सौ इकहत्तर भंगरूप पदबन्धोंसे मोहित हो रहे हैं, ऐसा जानना चाहिए ।।४६॥ अब मोहनीयके बन्धस्थानोंमें सत्त्वस्थानके भंग सामान्यसे कहते हैं 'पढमे विदिए तीसु वि पंचाई बंधउवरदे कमसो। कमसो तिण्णि य एगं पंचय छह सत्त चत्तारि ॥४७॥ संतटठाणाणि- २२ २१ १७ १३ १ ५४ ३ २ १ . ३ १ ५ ५ ५ ६ ७४ ४ ४ ४ अथ मोहनीयबन्धस्थानेषु सत्वस्थानभङ्गान् सामान्येनाह-['पढमे विदिए तीसु वि' इत्यादि। प्रथमे द्वाविंशतिबन्धे सत्त्वस्थानानि त्रीणि २८।२७।२६ । द्वितीये एकविंशतिके बन्धे सत्त्वस्थानमेकं २८ । त्रिषु बन्धेषु सप्तदशकबन्धे त्रयोदशकबन्धे नवकबन्धके च सत्त्वस्थानानि पञ्च २८।२४।२३।२२।२१ । पञ्चबन्धके सत्त्वस्थानानि षट २८।२४२११३१२।११। चतुर्विधबन्धके सप्त सत्त्वस्थानानि २८२४॥२१॥ १३।१२।१११५। त्रिद्वय कबन्धके भबन्धके च सस्वस्थानानि चत्वारि चत्वारि क्रमेण स्वभागबन्धकेषु सत्त्वानि ॥४॥ २२ २१ १७ १३ ४ ५ ४ ३ २ १ . प्रथम बन्धस्थानमें, द्वितीय बन्धस्थानमें, तदनन्तर क्रमशः तीन बन्धस्थानोंमें, पुनः पंच आदि एक पर्यन्त बन्धस्थानोंमें और उपरतबन्धमें क्रमसे तीन, एक, पाँच, छह, सात और चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥४७॥ ____ किस बन्धस्थानमें कितने सत्त्वस्थान होते हैं, इस बातको बतानेवाली अंकसंदृष्टि मूलमें दी हुई है। एवं ओघेण भणिय विसेसेण वुच्चए इस प्रकार ओघसे बन्धस्थानोंमें सत्त्वस्थानोंको कह करके अब मूलगाथाकार विशेषरूपसे उन्हें कहते हैं[मूलगा०१७] आइतियं वावीसे इगिवीसे अट्ठवीस कम्मंसा । सत्तरस तेरस णव बंधए अड-चउ-तिग-दुगेगहियवीसा ॥४८॥ वावीसबंधए संतट्ठाणाणि २८।२७।२६। एगवीसबंधए २८। सत्तरस-तेरस-णवबंधएसु २८।२४।२३।२२।२१।। अथ विशेषेण गुणस्यानेषु मोहबन्धस्थानं प्रति सत्त्वस्थानान्याह-एवं ओघेण भणिय विसेसेण वुच्चई' एवं उक्तप्रकारेण सामान्येन मोहप्रकृतिबन्धेषु सत्वस्थानानि । भणितानि गुणस्थानैः सह विशेषेण तान्युच्यन्ते 1. सं० पञ्चसं० ५, ५६ । 2. ५, 'मोहस्य सत्तास्थानानि' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६०)। 3. ५, ५७ । 4. ५, 'द्वाविंशतिबन्धके' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६१)। १. सप्ततिका० २१ । परं तदृक् पाठः तिन्नेव य बावीसे इगवीसे अटवीस सत्तरसे। छच्चेव तेर-नवबंधगेसु पंचेव ठागाई ॥ श्व भणिया। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३३१ ['आइतियं वावीसे' इत्यादि ।] द्वाविंशतिकबन्धके मिथ्यादृष्टौ आदित्रिकसत्त्वस्थानानि २८।२७।२६। तत्राष्टाविंशतिके सम्यक्त्वप्रकृतौ उद्वेल्लितायां सप्तविंशतिकम् २७ । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे उद्वेल्लिते षड्विंशतिकम् २६ । सासादने एकविंशतिबन्धके अष्टाविंशतिकमेकसरवस्थानम् २८ । सप्तदशबन्धे त्रयोदशबन्धे नवबन्धे च प्रत्येकं अष्टचतुस्त्रिद्वय काधिकविंशतिः। अष्टाविंशतिके २८ अनन्तानुबन्धिचतुष्के विसंयोजिते क्षपिते वा चतुर्विशतिकम् २४। ततः पुनः मिथ्थात्वे क्षपिते त्रयोविंशतिकम् २३। तत्र पुनः सम्यकृमिथ्यात्वे क्षपिते द्वाविंशतिकम् २२ । तत्र पुनः सम्यक्त्वप्रकृतितपिते एकविंशतिकम् २१। इति पञ्च सत्त्वस्थानानि विसंयोजितानन्तानुबन्धिनः क्षपितमिथ्यात्वादित्रयाणां च तेषु सम्भवात् ॥४८॥ बाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें आदिके तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें अट्ठाईस प्रकृतिक एक सत्त्वस्थान होता है । सत्तरह प्रकृतिक, तेरह प्रकृतिक और नवप्रकृतिक बन्धस्थानमें अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक पाँच-पाँच सत्त्वस्थान होते हैं ॥४८॥ बाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें २८, २७ और २६ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८ प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है। सत्तरह, तेरह और नौ प्रकृतिक. सत्त्वस्थानमें २८, २४, २३, २२ और २१ प्रकृतिक पाँच पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। [मूलगा०१८] 'पंचविहे अड-चउ-एगहियवीसा तेर-वारसेगारं । चउविहबंधे संता पंचहिया होंति ते चेव ॥४६॥ पंचविहबंधए २८।२४।२१।१३।१२।११ चउब्विहबंधए २८।२४।२१।१३:१२।११।५। पञ्चविधबन्धकेऽष्टचतुरेकाधिकविंशतिः [त्रयोदश द्वादरा एकादश च] सत्त्वस्थानानि भवन्ति । चत्तर्विधबन्धके तानि पूर्वोक्तानि पञ्चाधिकानि सत्त्वस्थानानि भवन्ति । तथाहि-वेदसंज्वलनचतुष्कमिति पञ्चविधबन्धके अनिवृत्तिकरणोपशमश्रेण्यां अष्टाविंशतिकसत्त्वस्थानम् २८ । तत्रानन्तानुबन्धिविसंयोजिते २४ दर्शनमोहसप्तके क्षपिते २१ एकविंशतिकम् । तत्पञ्चविधबन्धके अनिवृत्तिकरणक्षपकश्रेण्यां मध्यमकषायाष्टके क्षपिते त्रयोदशकं १३ सत्त्वस्थानम् । षण्ढे स्त्रीवेदे वा क्षपिते द्वादशं सत्त्वस्थानकम् १२। पुनः स्त्रीवेदे वा पण्ढवेदे क्षपिते एकादशकसत्त्वस्थानम् ११ । पुंवेदं विना चतुर्विधसंज्वलनबन्धकेऽनिवृत्तिकरणोपशमश्रेण्यां २८ अनन्तानुबन्धिविसंयोजिते २४ क्षपितदर्शनमोहसप्तके एकविंशतिकं सत्त्वस्थानम् २१॥ तच्चतुर्विधबन्धकानिवृत्तिकरणक्षपकश्रेण्यां एकविंशतिकसत्त्वस्थाने २१ मध्यमकषायाष्टके क्षपिते त्रयोदशकं सत्त्वस्थानम् १३ । पण्ढे स्त्रीवेदे वा क्षपिते द्वादशकं सत्वस्थानम् १२ । पुनः स्त्रीवेदे वा षण्ढवेदे पिते ११। पुनः षण्णोकषाये क्षपिते पञ्च सत्वं संज्वलनचतुष्कं पुंवेदश्चेति पञ्चप्रकृतिसत्वम् ५ ॥४६॥ पञ्चकबन्धकेऽनिवृत्तिकरणोपशमके सत्वस्थानानि २८।२४।२१ तच्चतुर्बन्धप्रकृतिक्षपके सत्त्वस्थानानि २१०१३।१२।११।५। पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानमें अट्ठाईस, चौवीस, इक्कीस, तेरह, बारह और ग्यारह ये छह सत्त्वस्थान होते हैं। चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें पाँच प्रकृतिक सत्त्वस्थानसे अधिक वे ही छह अर्थात् सात सत्त्वस्थान होते हैं ॥४६॥ पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८।२४।२१।१३।१२।११ ये छह सत्त्वस्थान तथा चार प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८।२४।२१।१३।१२।११।५ ये सात सत्त्वस्थान होते हैं। 1,सं० पञ्चसं० ५,५६ । १. सप्ततिका० २२ परं तत्रेहक् पाठः पञ्चविह-चउविहेसुंछ छक्क सेसेस जाण पंचेव । पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि य बंधवोच्छए । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ पञ्चसंग्रह [मूलगा०१६] सेसेसु अबंधम्मि य संता अड-चउर-एगहियवीसा । ते पुण अहिया णेया कमसो चउ-तिय-दुगेगेण ॥५०॥ सेसे बंधतिए, अबंधे वि चत्तारि संतट्ठाणाणि । तत्थ तिबंधए २८।२४।२१।४। दुबंधए २८।२३।२।३। एयबंधे २८।२४।२१।२। अबंधे २८।२४।२१।१। शेषु त्रिद्वय कबन्धके अबन्धके च प्रत्येक अष्टाविंशतिकं २८ चतुर्विशतिकं २४ एकविंशतिकं च २१। तानि पुनः क्रमशश्चतुनिद्विकैकेनाधिकानि मोहसत्त्वस्थानानि । तथाहि अनिवृत्तिकरणे संज्वलनमानमायालोभत्रयबन्धके उपशमके २८२४॥२१ । अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य विसंयोजितदर्शनमोहसप्तकस्य क्षपणं च तत्र सम्भवात् । तत्रिबन्धानिवृत्तिक्षपके पुंवेदे क्षयं गते चतुःसंज्वलनसत्त्वस्थानम् ४ । तद्विकबन्धोपशमके २८२४।२१ । आपके क्रोधे क्षपिते संज्वलनत्रिकसत्त्वस्थानम् ३ । अनिवृत्तिकरणोपशमके एकबन्धके २८॥२४॥ २१ । क्षपके च मानक्षपिते संज्वलनमाया-लोभसत्त्वद्वयम् २। अबन्धके सूचमसाम्पराये उपशमश्रेण्यां २८॥२४॥२१ । क्षपकश्रेण्यां सुचमलोभसत्त्वं सूचमकृष्टिकरणरूपलोभसत्त्वमेकम् । इति विद्वय कबन्धके अबन्धके च चत्वारि सत्त्वस्थानानि ४।३।२।१ ॥५०॥ शेष तीन, दो और एक बन्धस्थानमें और अबन्धक स्थानमें क्रमशः चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक सत्त्वस्थानसे अधिक अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक ये चार-चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥५०॥ शेष तीन बन्धस्थानोंमें और अबन्धकस्थानमें चार-चार सत्त्वस्थान होते हैं। उनमेंसे तीन प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८।२४।२१।४ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । द्विप्रकृतिक बन्धस्थानमें २८। २४।२१ । ३ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८।२४।२१।२ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । तथा अबन्धकस्थानमें २८।२४।२१।१ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। विशेषार्थ-मोहनीयके किस-किस बन्धस्थानमें किस-किस उदयस्थानके साथ कौन-कौन से सत्त्वस्थान किस प्रकार सम्भव हैं, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान मिथ्यादृष्टिके होता है । इसके सात, आठ, नौ और दश प्रकृतिक चार उदयस्थान और अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इनमेंसे सातप्रकृतिक उदयस्थानके समय अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है। इसका कारण यह है कि सातप्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धोके उदयके विना ही प्राप्त होता है और मिथ्यात्वमें अनन्तानुबन्धीके उदयका अभाव उसी जीवके होता है जिसने पहले सम्यग्दृष्टिकी दशामें अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना की है। पुनः सम्यक्त्वसे गिरकर और मिथ्यात्वमें जाकर जिसने मिथ्यात्वके निमित्तसे पुनः अनन्तानुबन्धि-चतुष्कका बन्ध प्रारम्भ किया। ऐसे जीवके एक आवलीकाल तक अनन्तानुबन्धी कषायका उदय नहीं होता है। किन्तु ऐसे जीवके अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व अवश्य पाया जाता है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सात प्रकृतिक उदयस्थानमें अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है। आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें अट्टाईस, सत्ताईस और छब्बीस ये तीनों ही सत्त्वस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकारका होता है-एक तो अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित और दूसरा अनन्तानुबन्धीके उदयसे सहित । इनमेंसे अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है । तथा अनन्तानुबन्धीके उदयसे सहित आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें आदिके तीनों ही सत्त्वस्थान से स्थान सम्भव है। वह इस प्रकार कि जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वलना नहीं होती, तब तक अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना हो जाने पर १. श्वे. सप्ततिकायां गाथेयं नास्ति । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३३३ सत्ताईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना हो जाने पर छब्बीसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसके अतिरिक्त छब्बीसप्रकृतिक सत्त्वस्थान अनादिमिथ्यादृष्टके भी होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित नौप्रकृतिक उदयस्थानमें अट्राईस सत्त्वस्थान तो होता ही है। किन्तु अनन्तानुबन्धीके उदयसे सहित उसी नौ प्रकृतिक उदयस्थानमें आदिके तीनों ही सत्त्वस्थान सम्भव है। दशप्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धीके उदयवाले जीवके ही होता है, अतएव उसमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीसप्रकृतिक तीनों सत्त्वस्थान बन जाते हैं। इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें अट्ठाईसप्रकृतिक एक सत्त्वस्थान होता है। इसका कारण यह है कि इक्कीसप्रक्रतिक बन्धस्थान सासादनगणस्थानवी जीवके ही होता और यह गुणस्थान उपशमसम्यक्त्वसे च्युत हुए जीवके ही होता है। किन्तु ऐसे जीवके दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंका सत्त्व अवश्य पाया जाता है । इक्कोसप्रकृतिक बन्धस्थानवाले जीवके उदयस्थान सात, आठ और नौप्रकुतिक तीन पाये जाते हैं, अतएव उनके साथ एक ही अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। सत्तरह प्रकृतिक बन्धस्थानके साथ अट्ठाईस, सत्ताईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीसप्रकृतिक छह सत्त्वस्थान होते हैं। सत्तरहप्रकृतिक बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन दो गुणस्थानोंमें होता है। इनमेंसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके सात, आठ और नौप्रकृतिक तीन उदयस्थानसे होते हैं और अविरतसम्यग्दृष्टि जीवोंके छह, सात, आठ और नौ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। इनमें से छहप्रकृतिक उदयस्थान उपशमसम्यक्त्वी या क्षायिकसम्यक्त्वी जीवोंके प्राप्त होता है। इनमें से उपशमसम्यक्त्वी जीवोंके अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान होते हैं। अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान प्रथमोपशमसम्यक्त्वके समय होता है। जो जीव अनन्तानुबन्धीका उपशम करके उपशमश्रेणी पर चढ़कर गिरा है, उस अविरतसम्यग्दृष्टिके भी अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा जिसने अनन्तानुबन्धीकी उद्वेलना या विसंयोजना की है, उस औपशमिक अविरतसम्यक्त्वीके चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टिके केवल इक्कीस प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है। क्योंकि अनन्तानुबन्धिचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियोंके क्षय होने पर ही क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार छह प्रकृतिक उदयस्थानमें अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीनों ही सत्त्वस्थान होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके सात प्रकृतिक उदयस्थानके साथ अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीसप्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इनमेंसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव तीसरे गुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। किन्तु जिस मिथ्या दृष्टिने सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानको तो प्राप्त कर लिया है, किन्तु अभी सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं की है, वह यदि मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है, तो उसके सत्ताईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। सम्यग्दृष्टि रहते हुए जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है, वह यदि संक्लेशपरिणामोंके वशसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो, तो उसके चौबीसप्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया जाता है। किन्तु अविरतसम्यक्त्वी जीवके सात प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस पाँच सत्त्वस्थान होते हैं । इनमें से अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान तो उपशमसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना करनेवालोंके हो होता है । तेईस और बाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान केवल वेदकसम्यक्त्वी जीवोंके ही होते हैं । इसका कारण यह है कि आठ वर्षसे ऊपरकी आयुवाला जो वेदकसम्यक्त्वी जीव दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए अभ्युद्यत Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ पञ्चसंग्रह होता है, उसके अनन्तानुबन्धि चतुष्क और मिथ्यात्व इन पाँचके तय हो जाने पर तेईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । पुनः उसीके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर बाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । यह बाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि जीव की अपेक्षा चारों ही गतियों में सम्भव है । इसी प्रकार आठप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए भी सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि जीवोंके क्रमशः पूर्वोक्त तीन और पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। नौ प्रकृतिक उद्यस्थानके रहते हुए भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु अविरतों में नौप्रकृतिक उदयस्थान वेदकसम्यग्दृष्टियों के ही होता है और वेदकसम्यग्दृष्टियोंके अट्ठाईस, चौबीस, तेईस और बाईस प्रकृतिक चार सत्त्वस्थान पाये जाते हैं, अतः यहाँ पर भी उक्त चार सत्तास्थान होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टिके सत्तरहप्रकृतिक बन्धस्थान, सात, आठ और नौप्रकृतिक तीन उदयस्थान तथा अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिक तीन सत्तास्थान होते हैं । अविरत - सम्यग्दृष्टियोंमें उपशमसम्यग्दृष्टि के सत्तरहप्रकृतिक एक बन्धस्थान, छह, सात और आठ प्रकृतिक तीन उदयस्थान, तथा अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक दो सत्तास्थान होते हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टि के सत्तरह प्रकृतिक एक बन्धस्थान, छह, सात और आठ प्रकृतिक तीन उदयस्थान, तथा इक्कीसप्रकृतिक एक सत्तास्थान होता है । वेदकसम्यग्दृष्टिके सत्तरहप्रकृतिक एक बन्धस्थान सात, आठ और नौ प्रकृतिक तीन उदयस्थान, तथा अट्ठाईस, चौबीस, तेईस और बाईस प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं । तेरहप्रकृतिक बन्धस्थानमें अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान होते हैं । तेरह प्रकृतियोंका बन्ध देशविरतोंके होता है । वे दो प्रकार के होते हैं - एक तिर्यंच, दूसरे मनुष्य । इनमें जो तिर्यच देशविरत हैं, उनके चारों ही उदयस्थानोंमें अट्ठाईस और चौवीस प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान होते हैं। इनमें से अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान तो उपशमसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि इन दोनों प्रकारके देशविरत तिर्यंचों के होता है । उसमें भी जो प्रथमोपशमसम्यक्त्त्वको उत्पन्न करनेके समय ही देशविरतिको प्राप्त करता है, उसी देशविरतके उपशमसम्यक्त्त्वके रहते हुए अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । जो देशविरत मनुष्य हैं उनके पाँच प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं । छप्रकृतिक और सातप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए प्रत्येक में अट्ठाईस, चौवीस, तेईस और इक्कीस प्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान होते हैं । तथा आठप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए अट्ठाईस, चौवीस, तेईस और बाईस प्रकृतिक चार सत्त्वस्थान होते हैं । नौ प्रकृतिक बन्धस्थान प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके होता है । इनके चार, पाँच, छह और सात प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं । इनमें से चार प्रकृतिक उदयस्थानके साथ दोनों गुणस्थानों में अट्ठाईस, चौवीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन ही सत्त्वस्थान होते हैं; क्योंकि यह उदयस्थान उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके ही होता है । पाँच और छह प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए पाँच-पाँच सत्त्वस्थान होते हैं, क्योंकि ये उदयस्थान तीनों प्रकारके सम्यदृष्टि जीवोंके सम्भव हैं । किन्तु सातप्रकृतिक उद्यस्थान वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके हो होता है । अतएव यहाँ इक्कीसप्रकृतिक सत्त्वस्थानसम्भव नहीं है; शेष चार ही सत्त्वस्थान होते हैं । पाँच प्रकृतिक बन्धस्थान में द्विकप्रकृतिक एक उदयस्थान और अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस, तेरह, बारह और ग्यारह ये छह सत्तास्थान होते हैं । इनमेंसे उपशमश्रेणीकी अपेक्षा आदि के तीन सत्तास्थान पाये जाते हैं । तथा क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा इक्कीस, तेरह, बारह और ग्यारह ये चार सत्तास्थान होते हैं । जिस अनिवृत्तिबादरसंयतने आठ मध्यम कषायों का क्षय नहीं किया, उसके इक्कीसप्रकृतिक सत्तास्थान होता है । उसीके आठ कषायोंका क्षय होने पर तेरह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । पुनः नपुंसकवेदका क्षय होने पर बारहप्रकृतिक सत्तास्थान होता Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका है और स्त्रीवेदका क्षय होने पर ग्यारहप्रकृतिक सत्तास्थान होता है । इस प्रकार पाँच प्रकृतिक बन्धस्थान में दोनों श्रेणियोंकी अपेक्षा छह सत्तास्थान होते हैं । चारप्रकृतिक बन्धस्थानमें द्विकप्रकृतिक और एकप्रकृतिक ये दो उदयस्थान और अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह और पाँच प्रकृतिक सात सत्तास्थान होते हैं । चार प्रकृतिक बन्धस्थान भी दोनों श्रेणियों में होता है । अतः उनके साथ उपशमश्रेणी में अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्तास्थान होते हैं। शेष चार सत्तास्थान क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा जानना चाहिए | उनमें से तेरह, बारह और ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थानोंका वर्णन तो पाँच प्रकृतिक बन्धस्थानके समान ही जानना चाहिए। उसी जीवके हास्यादिषट्कके क्षय हो जाने पर पाँच प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तीन, दो और एक बन्धस्थानमें एक प्रकृतिक उदय और चार चार सत्तास्थान होते हैं, यह बात पहले स्वयं ग्रन्थकार बतला आये हैं । उन चार सत्तास्थानोंमेंसे अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्तास्थान तो उपशमश्रेणी में ही होते हैं। शेष चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक और द्विप्रकृतिक एक-एक सत्तास्थानका स्पष्टीकरण यह है कि उसी अनिवृत्तिबादर संयत के वेदों का क्षय होने पर चार प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है । संज्वलन क्रोध के क्षय हो जाने पर तीन प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, संज्वलन मानके क्षय हो जाने पर द्विप्रकृतिक सत्तास्थान होता है और संज्वलन मायाके क्षय हो जाने पर एकप्रकृतिक सत्तास्थान होता है । पुनः अबन्धक सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके एकप्रकृतिक उदयस्थानके साथ एकप्रकृतिक सत्तास्थान होता है । किन्तु अबन्धक सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमकके एक प्रकृतिक उद्यस्थानके साथ अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्तास्थान पाये जाते हैं । [मूलगा [०२० ] 'दस णव पण्णरसाइ बंधोदयसंतपय डिठाणाणि । भणियाण मोहणिज्जे इत्तो णामं परं वोच्छं ॥ ५१ ॥ ३३५ मोहनीये बन्धोदयसत्त्वप्रकृतिस्थानानि क्रमेण दश ३० नव ६ पञ्चदश १५ भणितानि । मोहनीयप्रकृतिबन्धस्थानानि १० मोहप्रकृत्युदयस्थानानि १ मोहप्रकृतिसत्त्वस्थानानि १९ । इतः परं नामकर्मणस्तानि बन्धोदय सत्त्वप्रकृतिस्थानान्यहं वच्यामि ॥ ५१ ॥ इस प्रकार मोहनीयकर्मके दश बन्धस्थान, नौ उदयस्थान और पन्द्रह सत्त्वस्थान कहे । अव इससे आगे नामकर्मके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंको कहेंगे ॥५१॥ अब उनमें से सबसे पहले नामकर्मके बन्धस्थान कहते हैं [ मूलगा०२१] तेवीसं पणुवीसं छव्वीसं अट्ठवीसंमुगुतीसं । तीसेकतीस मेगं बंधट्टाणाणि णामस्स ॥ ५२ ॥ २३।२५।२६।२८।२६|३०|३१॥१॥ नामकर्मणः बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकं २३ पञ्चविंशतिकं २५ षड्विंशतिकं २६ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ एककं १ इत्यष्टौ २३ ।२५।२६।२८|२६|३०|३१।१ । आद्यानि सप्त मिथ्यादृष्ट्याद्यपूर्वकरणपष्टभागान्तं यथासम्भवं बध्यन्ते । एकं यशः कीर्त्तिकं १ उभयश्रेण्योरपूर्वकरण सप्तमभागप्रथमसमयात्सूक्ष्म साम्परायचरमसमयपर्यन्तं बध्यते ॥५२॥ 1. सं०पञ्चसं० ५, ६० । २. ५, ६१ । १. सप्ततिका० २३ । २. सप्ततिका० २४ । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ पञ्चसंग्रह नाम कर्मके तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक, इस प्रकार ये आठ बन्धस्थान होते हैं ॥५२॥ अव नामकर्मके चारों गतियों में संभव बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं: 'इगि पंच तिण्णि पंचय बंधट्ठाणा हवंति णामस्स । णिरयगइ तिरिय मणुया देवगईसंजुआ होति ॥५३॥ १५.३१५ क्क गत्यां कियन्ति स्थानानि सम्भवन्तीत्याह--[.'इगि पंच तिण्णि' इत्यादि । ] नरकराति याता मिथ्याष्टिजीवेन तियग्मनुष्येण नरकगतियुक्तं नामकर्मणः बन्धस्थानं एक बध्यते । तिर्यग्गत्यां तिर्यग्गतिसंयुक्तानि नामकर्मणः बन्धस्थानानि पञ्च भवन्ति ५ । मनुष्यंगत्यां मनुष्यगत्या सह नाम्नः कर्मणः बन्धस्थानानि त्रीणि भवन्ति ३ । देवगतौ देवगतिसंयुक्तानि नामकर्मणः बन्धस्थानानि पञ्च भवन्ति ॥५३॥ नरकगतिसंयुक्त नामकर्मका एक बन्धस्थान है। तिर्यग्गतिसंयुक्त नामकर्मके पाँच बन्धस्थान हैं। मनुष्यगतिसंयुक्त नामकर्मके तीन बन्धस्थान है और देवगतिसंयुक्त नामकर्मके पाँच बन्धस्थान होते हैं ॥५३।। नरकगतियुक्त १ । तिर्यग्गतियुक्त ५ । मनुष्यगतियुक्त ३ । देवगतियुक्त ५ बन्धस्थान । अब आचार्य उक्त स्थानोंका स्पष्टीकरण करते हैं अट्ठावीसं णिरए तेवीसं पंचवीस छव्वीसं । उणतीसं तीसं च हि तिरियगईसंजुआ पंच ॥५४॥ णिरए २८ । तिरियगईए २३१२५।२६।२६।३० तानि कानि ? [ 'अट्ठावीसं णिरए' इत्यादि । ] नरकगत्यां नरकगतिं यातो जीवो नामप्रकृत्यष्टाविंशतिमेकं स्थानं बध्नाति २८ । तिर्यग्गदी त्रयोविंशतिकं २३ पञ्चविंशतिकं २५ पडविंशतिकं २६ एकोन त्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० चेति पञ्च नामकर्मणः प्रकृतिबन्धस्थानानि तिर्यग्गतियुक्तानि भवन्ति ॥५४॥ नरकगतौ २८ । तिर्यग्गतौ २३।२५।२६।२६।३० । नरकगतिके साथ बँधनेवाला नामकर्मका अट्ठाईसप्रकृतिक एक बन्धस्थान है । तेईस, पच्चीस, छठवीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक पाँच बन्धस्थान तिर्यग्गति-संयुक्त बँधते हैं ॥५४॥ नरकगतियुक्त २८ । तिर्यग्गतियुक्त २३।२५।२६।२६।३०। पणुवीसं उणतीसं तीसं च तिण्णि हुंति मणुयगई । "देवगईए चउरो एकत्तीसादि णिग्गदी एयं ॥५५॥ मणुयगईए २५।२६।३०। देवगईए ३१॥३०॥२६॥२८॥१ मनुष्यगतौ पञ्चविंशतिकं २५ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० चेति त्रीणि नामप्रकृतिबन्धस्थानानि मनुष्यगतियुक्तानि भवन्ति २५।२६।३०! देवगत्यां एकत्रिंशत्कादीनि चत्वारि । एक गतियन्धरहितं एक यशो बध्नाति । देवगतौ ३१३०१२।२८।१॥५५॥ ____ मनुष्यगतिके साथ नामकर्मके पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक तीन स्थान बँधते है । देवगतिके साथ इकतीस प्रकृतिक स्थानको आदि लेकर चार स्थान बँधते हैं। एकप्रकृतिक स्थान गति-रहित बँधता है ।।५५॥ मनुष्यगतियुक्त २५।२६।३०। देवगतियुक्त ३१।३०२६।२८ गतिरहित १ । 1. सं० पञ्चसं० ५, ६२ ! 2. ५, १०१ । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३३७ 'णिरयदुयं पंचिंदिय वेडव्विय तेउ कम्म णामं च । वेउब्बियंगवंगं वण्णचउक्कतहा हुंडं ॥५६॥ . अगुरुयलहुअचउकं तसचउ असुहं च अप्पसत्थगई। . अत्थिर दुब्भग दुस्सर अणाइजं चेव णिमिणं च ॥१७॥ अजसकित्ती य तहा अट्ठावीसा हवंति णायव्वा । णिरयगईसंजुत्तं मिच्छादिट्ठी दु बंधंति ॥५॥ * एत्थ गिरयगईए सह वुत्तिअभावादो एइंदियवियलिंदियजाईलो ण बज्झति । तेण भंगो ।। अथ नरकगति प्रति गन्तारो जीवा मिथ्यारष्टयः नामकर्मप्रकृतीरष्टाविंशतिं बघ्नन्तीत्याह[ 'णिरयदुयं पंचिंदिय' इत्यादि । ] नरकगतितदानुपूर्वीद्वयं २ पञ्चेन्द्रियं । वैक्रियिकं , तेजसं १ कार्मणं , वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गं १ वर्णचतुष्कं ४ हुण्डकं । भगुरुलघूपधार(परघातोच्छासचतुष्कं ४ स-बादर-प्रत्येक पर्याप्त चतुष्कं ४ अशुभं १ अप्रशस्तविहायोगतिः १ अस्थिरं १ दुर्भगं १ दुःस्वरं १ अनादेयं । निर्माणं । अयशस्कीर्तिः १ चेत्यष्टाविशति प्रकृतीनरकगतियुक्त। मिथ्यारष्टयस्तियञ्चो मनुष्या वा बध्नन्ति २८ ॥५६-५८॥ __ भनाष्टाविंशतिके नरकगत्या सह प्रवृत्तिविरोधात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियजातयो न बध्यन्ते, संहननानि च न बध्यन्ते; तेन भङ्ग एकः ।। अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें नरकद्विक (नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी) पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग, वर्णचतुष्क, (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नामकर्म ) हुण्डकसंस्थान, अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, परंघात, उच्छास), त्रस चतुष्क (स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर) अशुभ, अप्रशस्तविहायोगति, अस्थिर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण और अयशः कीर्तिः ये अट्ठाईस प्रकृतियाँ जानना चाहिए । इन प्रकृतियोंका नरकगतिसंयुक्त बन्ध मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यश्च करते हैं ॥५६-५८॥ ___ यहाँ नरकगतिके साथ उदय न पाये जानेसे एकेन्द्रिय और विकेन्द्रिय जातियों नहीं बँधती हैं, इसलिए भंग एक ही होता है। तत्थ य पढमं तीसं तिरियङगोराल तेज कम्मं च । पंचिंदियजाई वि य छस्संठाणाणमेयदरं ॥५६॥ ओरालियंगवंगं छस्संठाणाणमेयदरं । वण्णचउक्कं च तहा अगुरुयलहुयं च चत्तारि ॥६०॥ उञ्जोउ तसचउक्कं थिराइछज्जुयलाणमेयदर णिमिणं । बंधइ मिच्छादिट्ठी एयदरं दो विहायगदी ॥६१।। *एत्थ य पढमतीसे छस्संठाण-छसंघयण-थिराइछज्जुयल-विहायगईजुयलाणि ६।६।२।२।२। अण्णोण्णगुणिया भंगा ४६०८ । 1.सं० पञ्चसं० ५, ६३-६५। 2.५, 'नरकगत्या सह' इत्यादिगद्यांशः (पृ. १६२)। ___ 3. ५, ६७-६६३ । 4. ५, 'तत्र प्रथमत्रिंशति' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६२) । अब 'एयत्थ' इति पाठः : ४३ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अथ तिर्यग्गतिं प्रति गन्ता मिथ्याष्टिीवः प्रथमं त्रिंशत्कं स्थानं बध्नातीति गाथात्रयेणाह[ 'तत्थ य पढमं तीसं' इत्यादि । । तत्र तिर्यगत्यां बन्धस्थानेषु प्रथमं नामप्रकृतित्रिंशत्कं मिथ्यादृष्टिबध्नाति । तदाह-तिर्यग्गतिद्वयं २ औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरम्रयं ३ पञ्चेन्द्रियं १ संस्थानानां पण्णां मध्ये एकतरसंस्थानं १ औदारिकाङ्गोपाङ्गं १ पण्णां संहननानां मध्ये एकतरं संहननं १ वर्णचतुकं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ उद्योतं १ त्रसचतुष्क ४ स्थिरादिषड्युग्मानां संख्योपेतानां मध्ये एकतरं १।११।११।। निर्माणं । विहायोगतिद्वयस्य मध्ये एकतरं १ चेति नामकर्मप्रकृतित्रिंशत्कं प्रथमं स्थानं ३० मिथ्यादृष्टिबध्नाति । एताः ३० प्रकृतीबद्ध्वा मरणं प्राप्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्जीवो जायते इत्यर्थः ॥५६-६१॥ अत्र प्रथमत्रिंशत्के स्थाने षट संस्थान-संहनन-स्थिरादि षड्युगलविहायोगतियुगलानि ६।६।२।२।२। २।२।२।२ एतेदाः अन्योन्यगुणिता भङ्गाः ४६०८। _ तिर्यरिद्वक (तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी ), औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पंचेन्द्रियजाति, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीर-अंगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, सचतुष्क, (स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-दुर्भग, सस्वर-दःस्वर, आदेय-अनादेय और यश-कीर्ति-अयश-कीर्ति इन) स्थिरादि छह युगलोंमेंसे कोई एक एक, निर्माण, दो विहायोगतियों मेंसे कोई एक, इन प्रथम प्रकारवाली तीस प्रकृतियोंको नारकी मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है॥५६-६१॥ इस प्रथम तीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें छह संस्थान, छह संहनन, स्थिरादि छह युगल और विहायोगतिद्विक इनके परस्पर गुणा करनेपर (६४६४२४२४२४२४२४२४२= ४६०८) चार हजार छह सौ आठ भंग होते हैं। 'एमेव विदियतीसं णवरि असंपत्त हुंडसंठाणं । अवणिज्जो एयदरं सासणसम्मो दुबंधइ ॥६२॥ एत्थ विदियतीसे सासणा अंतिमसंठाणा संघयणाणि बंधं णागच्छंति, तजोगतिव्वसंकिलेसस्स अभावादो। ५।५।२।२।२।२।२।२।२। अण्णोण्णगुणिया भंगा ३२०० । एए पुवपविहा पुणरुत्ता इदि ण घेप्पंति । एवं प्रथमत्रिंशत्कोक्तप्रकृतिबन्धस्थानप्रकारेण द्वितीयं त्रिंशत्कं स्थानं ३० भवति । नवरि विशेषः किन्तु असम्प्राप्तसृपाटिकसंहनन-हुण्डकसंस्थानद्वयं अपनीय दूरीकृत्य पञ्चानां संस्थानानां पञ्चाना संहननानां च एकतरं संस्थानं १ संहननं १ सासादनम्थो जीवः द्वितीयत्रिंशत्कं बध्नाति । अन्त्यसंस्थानसंहननद्वयं वजयित्वा । द्वितीयत्रिंशत्कनामप्रकृतिस्थानं ३० चातुर्गतिकः सासादनगुणस्थानवर्ती जीवो बद्ध्वा पञ्चेन्द्रियतिर्यगजीवः समुत्पद्यते ॥६२॥ अत्र द्वितीयत्रिंशत्के सासादना जीवा अन्तिमसंस्थान-संहननद्वयस्य बन्धं नागच्छन्ति । कुतः ? तद्योग्यतीव्रसंक्लेशस्य तेषामभावात् । ५।५।२१२१२।२।२।२ । २ अन्योन्यगुणिता भङ्गाः ३२०० । एते पूर्वेषु प्रविष्टाः पुनरुक्तत्वान्न गृह्यन्ते । ___ इसी प्रकार द्वितीय तीसप्रकृतिक बन्धस्थान होता है। विशेषता केवल यह है कि उसमें प्रथम तीसमेंसे असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन और हुंडकसंस्थान इन दोको निकाल देना चाहिए । अर्थात् छह संस्थान और छह संहननके स्थानपर पाँच संस्थान और पाँच संहननमेंसे कोई एकको ग्रहण करना चाहिए । इस द्वितीय तीसप्रकृतिक स्थानको सासादन सम्यग्दृष्टि जीव बाँधता है ॥६२॥ इस द्वितीय तीसप्रकृतिक स्थानमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव अन्तिम संस्थान और अन्तिम संहननका बन्ध नहीं करते हैं, क्योंकि इन दोनोंके बन्धयोग्य तीव्र संक्लेश सासादनगुणस्थानमें 1. सं० पञ्चसं० ५, ७०। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३३६ नहीं पाया जाता। इसलिए पाँच संस्थान, पाँच संहनन और स्थिरादि छह युगलोंके तथा विहायोगतिद्विकके परस्पर गुणा करनेसे ( ५×५×२४२x२x२x२x२x२= ३२०० ) तीन हजार दो सौ भंग होते हैं । ये सर्व भंग पूर्वोक्त ४६०८ में प्रविष्ट होने से पुनरुक्त होते है, अतः उनका ग्रहण नहीं किया गया है । तह य तदीयं तीसं तिरियदुगोराल तेज कम्मं च । ओरालियंगवंगं हुंडम संपत्त वण्णचदुं ॥ ६३ ॥ अगुरुयलयहुयचउकं तसच उज्जवमपसत्थगई । थिर - सुह-जस जुगलाणं तिष्णेयदरं अणादेजं ॥ ६४ ॥ दुब्भग- दुस्सर - णिमिणं वियलिंदियजाइ एयदरमेव । एयाओ पयडीओ मिच्छाइट्ठी दु बंधंति ॥६५॥ 2 एत्थ वियलिंदियाणं एयहुंडसंठाणमेव । तहा एदेसिं बंधोदयाणं दुत्सरमेव । इदि थिर- सुहजसजुयल तिष्णिवियलिंदियजाईओ २।२।२।३ अण्णोष्णगुणिया भंगा २४ । तथा तृतीयं नामकर्मप्रकृतिस्थानं त्रिंशत्कं मिथ्यादृष्टिर्जीवो मनुष्य स्तिर्यग्वा बद्ध्वा विकलत्रयजीवः तिर्यग्गतावुत्पद्यते । तत्किम् ? तिर्यग्द्वयं २ औदारिक- तैजस- कार्मणत्रिकं ३ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ हुण्डकं १ स्पाटिकं १ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ त्रसचतुष्कं ४ उद्योतं १ अप्रशस्त विहायोगतिः १ स्थिर-शुभयशोयुगलानां त्रयाणामेकतरं १|१|१ | अनादेयं १ दुर्भगं १ दुस्वरं १ निर्माणं १ विकलेन्द्रियजात्येकतरं १ चेत्येताः प्रकृतोः ३० मिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति ॥ ६३-६५ ॥ अत्र विकलेन्द्रियाणामेकं हुण्डसंस्थानं भवति । एतेषां विकलत्रयाणां बन्धोदययोः दुःस्वरमेव भवति । इति स्थिर - शुभ- यशोयुगलानि त्रीणि विकलत्रयजातित्रयं २।२।२|३ | अन्योन्यगुणितभङ्गाः २४ । इसी प्रकार तीसप्रकृतिक तृतीय बन्धस्थान है । उसकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं – तिर्यद्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारि कशरीर अंगोपांग हुंडकसंस्थान, असंप्राप्त पाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ और यशः कीर्त्ति; इन तीन युगलों में से कोई एक एक; अनादेय, दुभंग, दुःस्वर, निर्माण और विकलेन्द्रिय जातियों में से कोई एक, इन प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यञ्च ही बाँधते हैं ॥६३-६५॥ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विकलेन्द्रियजीवोंके हुंडकसंस्थान ही होता है। तथा इनके दुःस्वरप्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है । इनकी तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ तथा स्थिर, शुभ और यशस्कीर्त्ति युगल; इनके परस्पर गुणा करनेसे ( ३x२x२x२= २४ ) चौबीस भंग होते हैं । 'जह + तिहं तीसाणं तह चैव य तिण्णि ऊणतीसं तु । वरि विसेसो जाणे उज्जीवं णत्थि सव्वत्थ ॥ ६६ ॥ एयासु पुव्वुत्तभंगा ४६०८ । २४ । यथा त्रिंशत्कानां त्रिकं ३०|३०|३० तथैव एकोनत्रिंशत्कानां त्रिकं २६।२६।२६ । नवरि विशेषः, 1. सं० पञ्चसं० ५, ७१-७३ । २. ५, ७४-५५ । ३. ५, ७६ । ब जिह Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह किन्तु सर्वत्र तिर्यक्षु जीवेषु उद्योतो नास्तीति, केचिदुद्योतं बध्नन्ति, केचिन्न बन्धन्ति । अत उद्योतं विना एकोनत्रिंशकं त्रिकं पूर्वोक्तप्रकृतिस्थानत्रिकं २६।२६।२६ ज्ञेयम् ॥६६॥ एतासु पूर्वोक्ता भङ्गाः ४६०८।२४ । जिस प्रकारसे तीन प्रकारके तीसप्रकृतिक बन्धस्थानोंका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे तीन प्रकारके उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान भी होते हैं। केवल विशेषता यह है कि उन सभीमें उद्योतप्रकृति नहीं होती है ॥६६॥ इन तीनों ही प्रकारके उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थानोंके भंग पूर्वोक्त ४६०८ और २४ ही होते हैं। 'तत्थ इमं छव्वीसं तिरियदुगोराल तेय कम्मं च । एइंदिय वण्णचउ अगुरुयलहुयचउक्कं होइ हुंडं च ॥६७॥ आदावुजोवाणमेयदर थावर बादरयं । पज्जत्तं पत्तेयं थिराथिराणं च एयदरं ॥६॥ एयदरं च सुहासुह दुब्भग जसजुयलमेयदर णिमिणं । अणादिजं चेव तहा मिच्छादिट्ठी दु वंधति ॥६६॥ एस्थ एइंदिएसु अंगवंगं गस्थि, भटुंगाभावादो। संडाणमवि एयमेव हुंडं । आदावुजोव-थिर-सुहजसजुयलाणि २।२।२।२ अण्णोण्णगुणिया भंगा १६ । तत्र तिर्यग्गत्यां इदं षडविंशतिकं नामप्रकृतिस्थानं मिथ्याष्टिीवो बद्ध्वा तिर्यग्जीव उत्पद्यते । किं तत् ? तिर्यग्द्वयं २ औदारिक-तेजस-कार्मणानि ३ एकेन्द्रियं १ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ हुण्डकं १ आतपोद्योतयोरेकतरं स्थावरं बादरं १ पर्याप्तं १ स्थिरास्थिरयोरेकतरं १ शुभाशुभयोरेकतरं १ दुर्भगं १ यशोयुग्मयोरेकतरं १ निर्माणं अनादेयं १ चेति षड़विंशतिं प्रकृतोमिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति २६ ॥६७-६६॥ अत्र एकेन्द्रियेषु अङ्गोपाङ्ग नास्ति, अष्टाङ्गाभावात् । संस्थानं हुण्डकमेव भवति । अत आतपोद्योतस्थिरास्थिर-शुभाशुभ-यशोऽयसोयुगलानि २।२।२।२ भन्योन्यगुणिता भङ्गाः १६ । छव्वीसप्रकृतिक बन्धस्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यरिद्वक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, एकेन्द्रियजाति, वर्णचतुष्क, अगुरुल चुचतुष्क, हुंडकसंस्थान, आतप, और उद्योतमेंसे कोई एक, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर-अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभअशुभमेंसे कोई एक, दुर्भग और यशस्कीतियुगलमेंसे कोई एक, निर्माण और अनादेय, इन छव्वीस प्रकृतियोंको एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्या दृष्टि देव बाँधते हैं ॥६७-६६।। यहाँपर एकेन्द्रियमें अंगोपाँगनामकर्मका उदय नहीं होता है, क्योंकि उनके हस्त, पाद आदि आठ अंगोंका अभाव है। उनके संस्थान भी एक हुंडक ही होता है। अतः आतप उद्योत, स्थिर-अस्थिर, शुभ- अशुभ और यश कीर्ति-अयश कीर्ति युगलोंको परस्पर गुणा करनेपर (२x२x२x२=१६) सोलह भंग होते हैं । 1. सं० पञ्चसं० ५,७७-७६ । 2. ५,८०। *ब तेज। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३४१ 'जह* छव्वीसं ठाणं तह चेव य होइ पढमपणुवीसं । णवरि विसेसो जाणे उजोवादावरहियं तु ॥७॥ बादर सुहुमेक्कदरं साहारणपत्तेयं च एकदरं । संजुत्तं तह चेव य मिच्छाइट्ठी दु बंधंति ॥७१॥ एत्थ सुहम-साहारणाणि भवणादि ईसाणंता देवाण बंधंति । एस्थ जसकिति णिरुभिऊण थिराथिरदो भंगा सुभासुभ-दो-भंगेहिं गुणिया ।। अजसकिति णिरुभिडण बायर-पत्तेय-थिर-सुहजुयलाणि २२२।२। अण्णोण्णगुणिया अजसकित्तिभंगा १६ । उभए वि २० । यथा पड़विंशतिक स्थान तथा प्रथमपञ्चविंशतिकं नामप्रकृतिस्थानं २५ भवति । नवरि किञ्चिद्विशेषः, तत् षड्विंशतिकं उद्योतातपरहितं स्वं जानीहि, तत्र तवयं निराक्रियते इत्यर्थः २५ । बादर-सूक्ष्मयोमध्ये एकतरेण साधारण प्रत्येकयोर्मध्ये एकतरेण च संयुक्तं पञ्चविंशतिकं स्थानं २५ मिथ्यारष्टयो बध्नन्ति ॥७०-७१॥ अत्र पञ्चविंशतिके सूचम-साधारणप्रकृती द्वे भवनम्रयज-सौधर्मेशानजा देवा न बध्नन्ति । किन्तु बादर-प्रत्येकद्वयं बध्नन्तीत्यर्थः । अत्र यश कीर्तिमाश्रित्य स्थिरास्थिरभनौर शुभाशुभाभ्यां भङ्गाभ्यां २ गुणिता भङ्गाश्चत्वारः४। अयशाकीर्तिगाश्रित्य बादरसूचम-प्रत्येकपाधारण-स्थिरास्थिर-शुभाशुभयुगलानि २।२।२।२ अन्योन्यगुणिताः अयशस्कीर्तिमगाः १६ । उभयोऽपि २० । जिस प्रकार छठवीसप्रकृतिक स्थान है, उस ही प्रकार प्रथम पच्चीसप्रकृतिक स्थान जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि वह उद्योत और आतप; इन दो प्रकृतियोंसे रहित होता है। इस स्थानको बादर-सूक्ष्मोंमेंसे किसी एकसे संयुक्त, तथा साधारण-प्रत्येकशरीरमेंसे किसी एकसे संयुक्त मिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं ॥७०-७१।। इस प्रथम पच्चीस प्रकृतिक स्थानमें बतलाई गई प्रकृतियोंमेंसे सूक्ष्म और साधारण इन दो प्रकृतियोंको भवनत्रिक और सौधर्म-ईशान स्वर्गके देव नहीं बाँधते हैं। यहाँ पर यशस्कीर्त्तिको निरुद्ध करके स्थिर-अस्थिर-सम्बन्धी दो भंगोंको शुभ-अशुभ-सम्बन्धी दो भंगोंसे गुणित करने पर चार भङ्ग होते हैं । तथा अयशस्कोतिको निरुद्ध करके बादर, प्रत्येक, स्थिर और शुभ, इन चार युगलोंको परस्पर गुणित करने पर (२x२x२x२=१६) अयशकीर्तिसम्बन्धी सोलह भङ्ग होते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त चार और सोलह ये दोनों मिल कर २० भङ्ग हो जाते हैं। बिदियपणुवीसट्टाणं तिरियदुगोराल तेय कम्मं च । वियलिंदिय-पंचिंदिय एयदरं हुंडसंठाणं ॥७२॥ ओरालियंगवंगं वण्णचउकं तहा अपज्जत्तं । अगुरुगलहुगुवघायं तस बायरयं असंपत्तं ॥७३॥ पत्तेयमथिरममुहं दुभगमणादेज अजस णिमिणं च । बंधइ मिच्छाइट्ठी अपजत्तसंजुयं एयं ॥७४॥ 4 एत्थ परघाय-उस्सास-विहायगदि-सरणामाणं अपनत्तेण सह बंधो णत्थि, विरोहाभो; अपजत्तकाले य एदेसिं उदयाभावादो य । एत्थ चत्तारि जाइ-भंगा ४ । 1. सं० पञ्चसं० ५, ८१ । 2. ५, ८२-८३ । 3. ५, ८४-८६ । 4. ५, 'यतोऽत्र परघातोच्छ्रास' ___इत्यादि गद्यभागः (पृ० १६४) । व जिह । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह द्वितीयं पञ्चविंशतिकं नामप्रकृतिस्थानं २५ तिर्यग्जीवो मनुष्यो वा बद्ध्वा तिर्यग्गतौ समुत्पद्यते । तत्किम् ? तिर्यग्गति-तदानुपूव्ये २ औदारिक-तैजस कार्मणानि ३ विकलेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियाणां मध्ये एकतरं १ हुण्डकसंस्थानं १ औदारिकाङ्गोपाङ्गं १ वर्णचतुष्कं ४ अपर्याप्तं १ अगुरुलघु १ उपघातं १ वसं १ बादरं १ असम्प्राप्त संहननं १ प्रत्येक १ अस्थिरं १ अशुभं १ दर्भगं १ अनादेयं १ अयशः १ निर्माण १ चेति द्वितीयपञ्चविंशतिनामप्रकृतिबन्धस्थानं अपर्याप्तसंयुक्तं मिथ्यारष्टिर्जीवस्तिर्य मनुष्यो वा बध्नाति २५ ॥७२-७४॥ ___अत्र परघातोच्छास-विहायोगति-स्वरनामप्रकृतीनां अपर्याप्तेन सह बन्धो नास्तीति विरोधात् । अपर्याप्तकाले तेषामुदयाभावात् । अत्र चत्वारो जातिभङ्गाः ४ । द्वितीय पञ्चीसप्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार है-तिर्यग्द्विक औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, विकलत्रय और पंचेन्द्रियजातिमें से कोई एक, हुंडकसंस्थान, औदारिकशरीर-अङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर सृपाटिकासंहनन, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण, इस द्वितीय पच्चीसप्रकृतिक अपर्याप्तसंयुक्त स्थानको मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है ॥७२-७४।। यहाँपर परपात, उच्छास, विहायोगति और स्वर नामकर्मका अपर्याप्त नामकर्मके साथ विरोध होनेसे बन्ध नहीं होता। दूसरे अपर्याप्तकालमें इन प्रकृतियोंका उदय भी नहीं होता है । यहाँ पर जातिसम्बन्धी चार भंग होते हैं। 'तत्थ इमं तेवीसं तिरियदुगोराल तेज कम्मं च । एइंदियवण्णचउं अगुरुयलहुयं च उवधायं ॥७॥ थावरमथिरं असुहं दुभग अणादेज अजस णिमिणं च । हुंडं च अपजत्तं बायर-सुहुमाणमेयदरं ।।७६॥ साहारण-पत्तेयं एयदर बंधगो तहा मिच्छो। एए बंधट्ठाणा तिरियगईसंजुया भणिया ॥७७॥ एत्थ संघयणबंधो पत्थि, एइंदिएसु संघयनस्स उदयाभावादो। एत्थ बादर-सुहुम दो भंगा, पत्तेय-साहारण-दोभंगेहिं गुणिया चत्तारि भंगा । एवं तिरियगइसंजुत्तसवभंगा १३०८ । इदं त्रयोविंशतिकं नामप्रकृतिबन्धस्थानं बध्वा मिथ्यादृष्टिस्तियङ् मनुष्योवा तत्र तिर्यग्गतावुत्पद्यते। तस्किम् ? तिर्यग्द्वयं २ औदारिक-तैजस-कार्मणानि ३ एकेन्द्रियं १ वर्णचतुष्कं ४ भगुरुलघु १ उपघातं १ स्थावरं १ अस्थिरं १ अशुभं १ दुर्भगं १ अनादेयं १ अयशः १ निर्माणं १ हण्डक १ अपर्याप्तं १ बादर-सूचमयोमध्ये एकतरं १ साधारण-प्रत्येकयोमध्ये एकतरं १ चेति त्रयोविंशतिनामप्रकृतीनां २३ बंधको मिथ्यादृष्टिर्भवति । तिर्यम्गतौ एतानि नामकर्मप्रकृतिस्थानानि तिर्यगतिवुक्तानि भणितानि सूरिभिरिति ॥७५-७७॥ अत्र प्रयोविंशतिके संहननबन्धो नास्ति, एकेन्द्रियेषु संहननानामुदयाभावात् । अत्र बादर-सूक्ष्मी द्वौ २ प्रत्येक-साधारणाभ्यां द्वाभ्यां गुणिताश्चत्वारो भगाः ४ । एवं तिर्यग्गतिसंयुक्तसर्वभङ्गा नवसहस्रत्रिशताष्टोत्तरसंख्याः १३०८ । 1. सं० पञ्चसं० ५, ८७-८६ । 2. ५, 'अत्र संहननबन्धो' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६५) । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका तेईसप्रकृतिक बन्धस्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यग्द्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, एकेन्द्रियजाति, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति, निर्माण, हुंडकसंस्थान, अपर्याप्त, बादर-सूक्ष्ममेंसे कोई एक और साधारण-प्रत्येकमेंसे कोई एक । इस तेईसप्रकृतिक स्थानको मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है । इस प्रकार तिर्यग्गतिसंयुक्त बंधनेवाले उपर्युक्त बन्धस्थान कहे ॥७५-७७॥ इस तेईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें संहननका बन्ध नहीं बतलाया गया है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवके संहननका उदय नहीं होता है। यहाँ पर बादर-सूक्ष्मसम्बन्धी भंगोंको प्रत्येक और साधारणसम्बन्धी दो भङ्गों के साथ गुणा करने पर ४ भंग होते हैं। इस प्रकार तिर्यग्गतिसंयुक्त सर्व भङ्ग (४६०८ +२४ + ४६०८+ २४ + १६+२०+४+४ =) ६३०८ होते हैं। अब मनुष्यगतिसंयुक्त बँधनेवाले स्थानोंका निरूपण करते हैं 'तत्थ य तीसट्ठाणा मणुयदुगोराल तेय कम्मं च । ओरालियंगवंगं समचउरं वारिसभं च ॥७॥ तसचउ वण्णचउक्कं अगुरुयलहुयं च हुँति चत्तारि। थिरमथिर-सुहासुहाणं एयदरं सुभगमादेजं ॥७॥ सुस्सर-जसजुयलेकं पसत्थगई णिमिणयं च तित्थयरं । पंचिंदियं च तीसं अविरयसम्मो उ बंधेइ ॥८॥ "एत्थ य दुब्भग-दुस्सर-अणादिजाणं तित्थयरेण सम्मत्तेण सह विरोधादो ण बंधो। सुहय-सुस्सरआदेजाणमेव बंधो। तेण थिर-सुह-जसजुयलाणि २।२।२ अण्ण्ण गुणिया भंगा । _ अथेदं नामप्रकृतिबन्धस्थानं बद्ध्वा मनुष्यगत्यां समुत्पद्यते । मनुष्यगत्या सह तत्स्थानकं गाथादशकेनाऽऽह-['तत्थ य तीसहाणा' इत्यादि ।] तत्र मनुष्यगत्यां नामकर्मप्रकृतिबन्धस्यानं त्रिंशत्कं ३० अविरतसम्यग्दृष्टिदेवो नारको वा बध्नाति । तस्किम् ? मनुष्यगति-तदानुपूये २ औदारिक-तैजस-कार्मणानि ३ औदारिकाङ्गोपाङ्गं समचतुरस्रसंस्थानं १ वज्रवृषभनाराचसंहननं १ त्रसचतुष्कं ४ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ स्थिरास्थिर-शुभाशुभयुगलानां मध्ये एकतरं १।१ सुभगं १ आदेयं १ सुस्वरं १ यशोयुग्मस्यैकसरं १ प्रशस्तविहायोगतिः १ निर्माणं १ तीर्थकरत्वं १ पन्चेन्द्रियं । चेति नामप्रकृतिबन्धस्थानकं त्रिंशस्कं असंयतसम्यग्दृष्टिदेवो नारको वा बध्नाति ॥७८-८०॥ भत्र दुर्भग-दुःस्वरानादेयानां तीर्थकृत्सम्यक्त्ताभ्यां विरोधान बन्धः। सुभग-सुस्वरादेयानामेव बन्धः । यतस्तेन स्थिर-शुभ-यशो-युगलानि २।२।२ अन्योन्यगुणिता भङ्गाः अष्टौ ८ । । उनमेंसे तीसप्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-मनुष्यद्विक (मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी) औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर-अङ्गोपाङ्ग, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभनाराचसंहनन, त्रसचतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, स्थिर, अस्थिर और शुभ-अशुभमें से कोई एक एक, सुभग,आदेय, सुस्वर और यशःकीर्त्तियुगलमें से एक, प्रशस्तविहायोगति, निर्माण, तीर्थङ्कर और पंचेन्द्रियजाति । इस तीसप्रकृतिक स्थानको अविरतसम्यग्दृष्टि बाँधता है ।।७८-८०॥ 1. सं० पञ्चसं ० ५. ६०-६३ । 2. ५, 'अत्र दुभंग' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १६५) । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्वसंग्रह यहाँ पर दुर्भग, दुःस्वर और अनादेया, इन तीन प्रकृतियोंका तीर्थङ्करप्रकृति और सम्यक्त्वके साथ विरोध होनेसे बन्ध नहीं होता है; किन्तु सुभग, सुस्वर और आदेयका ही बन्ध होता है, इसलिए शेष तीन युगलोंके परस्पर गुणित करने पर (२x२x =८) आठ भङ्ग होते हैं । 'जह तीसं तह चेव य ऊणत्तीसं तु जाण पढमं तु । तित्थयरं वजित्ता अविरदसम्मो दु बंधेइ॥८१॥ एत्थ अट्ठ भंगा ८ पुणरुत्ता, इदि ण गहिया । यथा त्रिंशत्कं बन्धस्थानं तीर्थकरत्वं वर्जयित्वा प्रथममेकोनत्रिंशत्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं २६ अविरतसम्यग्दृष्टिदेवो नारको वा बध्नातीति जानीहि ॥८॥ अत्राष्टौ भङ्गाः ८ पुनरुक्तत्वान्न गृह्यन्ते । जिस प्रकार तीसप्रकृतिक बन्धस्थान बतलाया गया है, उसी प्रकार प्रथम उनतीस प्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । इसमें केवल तीर्थङ्करप्रकृतिको छोड़ देते हैं। इस स्थानको अविरतसम्यग्दृष्टि जीव बाँधता है ॥८॥ यहाँ पर उपर्युक्त आठ भंग होते हैं, जो कि पुनरुक्त होनेसे ग्रहण नहीं किये गये हैं। जह पढमं उणतीसं तह चेव य विदियऊणतीसं तु। णवरि विसेसो सुस्सर सुभगादेजजुयलाणमेयदरं ॥२॥ हुंडमसंपत्तं पिवा वजिय सेसाणमेक्कयरयं च । विहायगइजुयलमेयदरं सासणसम्मा दु बंधंति ॥८३॥ २।२।२।२।२।२।५।५।२ भण्णोण्णगुणिया भंगा ३२०० । एए तइयउणतीसपविठ्ठा ण गहिया । यथा प्रथममेकोनत्रिंशत्कं तथा तेनैव प्रकारेण द्वितीयमेकोन त्रिंशत्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं २६ भवति । नवरिः किञ्चिविशेषः, किन्तु सुस्वर-सुभगादेययुगलानां मध्ये एकतरं १।११। हुण्डकसंस्थाना ने द्वे २ अन्तिमे वर्जयित्वा शेषाणां पञ्चानां संस्थानानां पञ्चानां संहननानां चैकतरं ॥ विहायोगतियुग्मस्यकतरं १ इति विशेषः । मनुष्यगतिसंयुक्तोकोनत्रिंशत्कं स्थानं द्वितीयं २६ सासादनसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति ॥८२-८३॥ स्थिर-शुभ-यश:-सुस्वर - सुभगादेय - प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतियुगलान्स्यसंस्थान-संहननवर्जित-पञ्चसंस्थान-पञ्चसंहननानि शशशशशरा४।५। ५ अन्योन्यगुणिता भङ्गाः ३२००। एते भङ्गाः वक्ष्यमाणतृतीयनवविंशतिं प्रति प्रविष्टा इति न गृहीता न गृह्यन्ते । जिस प्रकार प्रथम उनतीसप्रकृतिक स्थान कहा गया है, उसी प्रकार द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि सुस्वर, सुभग और आदेय, इन तीन युगलोंमेंसे कोई एक एक, तथा हुंडक संस्थान, और सृपाटिका संहननको छोड़कर शेषमेंसे कोई एक एक और विहायोगति-युगलमेंसे कोई एक प्रकृति-संयुक्त द्वितीय उनतीस प्रकृतिकस्थानको सासादनसम्यग्दृष्टि जीव बाँधते हैं ॥८२-८३॥ यहाँ पर स्थिरादि छह युगल, पाँच संस्थान, पाँच संहनन और विहायोगति-द्विकके परस्पर गुणित करनेपर (२x२x२x२x२x२x५४५४२= ) ३२०० भंग होते हैं । ये भंग तृतीय उनतीसप्रकृतिक स्थानके अन्तर्गत हैं, इससे उनका ग्रहण नहीं किया गया है। 1. सं० पञ्चसं० ५,६४ | 2.५,६५-६६ । नब पिच, ... Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका एवं तय उगुतीसं णवरि असंपत्त हुंडसहियं च । बंधt मिच्छाडी छहं जुयलाणमेगदरं ॥ ८४॥ २|२||२२|२|६।६।२ एत्थ भंगा ४६०८ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सम्प्राप्तसंहनन हुण्डकसंस्थानसहितं तृतीयमेकोनविंशत्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं २६ मिध्यादृष्टिर्जीवो बध्नाति । षण्णां स्थिरादीनां युगलानां मध्ये एकतरं १।१।१।१।२।१ बध्नाति ॥८४॥ २।२।२।२।२।२।६।६।२ अन्योन्येन गुणिता भङ्गाः ४६०८ । इसी प्रकार तृतीय उनतीसप्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि वह सृपाटिकासंहनन और हुण्डकसंस्थान सहित है । तथा सति युगलों में से किसी एक प्रकृतिके साथ उसे मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है ॥ ८४ ॥ इस तृतीय उनतीसप्रकृतिक स्थान में छह संस्थान, छह संहनन और सात युगलों के परस्पर गुणा करने पर (६६x२x२x२x२x२x२= ) ४६०८ भङ्ग होते हैं । एत्थ इमं पणुवीसं मणुयदुगोराल तेज कम्मं च । ओरालियंगवंगं हुंडम संपत्त वण्ण ||८५|| अगुरुगलहुगुवघायं तसवायर पत्तेय अपजत्त ं । अथिरमसुहं दुग्भग अणादेज अजस णिमिणं च ॥८६॥ पंचिदिम संजुत्त पणुवीसं बंधगो तहा मिच्छो । मणुयगइ संजुत्ताणि तिण्णि ठाणाणि भणियाणि ॥ ८७॥ ३४५ 3 एत्थ संकिलेसेण बज्झमाण-अपजत्तेण सह थिराईणं विसुद्धपग्रहीणं बंधो णत्थि, तेण भंगो १ । मणुयगइ - सव्वभंगा ४६१७ । अत्रास्यां मनुष्यगत्यां इदं पञ्चविंशतिकं नामपकृतिबन्धस्थानं मिथ्यादृष्टिर्जीवः तिर्यङ् मनुष्यो वा बध्नाति । तत्किम् ? मनुष्यद्विकं २ औदारिक-तैजस-कार्मणानि ३ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ हुण्डकं १ असम्प्राप्तसंहननं १ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघु १ उपघातं १ सं १ बादरं १ प्रत्येकं १ अपर्याप्तं १ अस्थिरं १ अशुभं दुर्भगं १ अनादेयं १ अयशः १ निर्माणं १ पञ्चेन्द्रियं १ चेति पञ्चविंशतिकं नामप्रकृतिबन्धस्थानकं २५ लब्ध्यपर्याप्तमनुष्यगतिसहितं मिथ्यादृष्टिर्मनुष्यस्तिर्यग् जीवो वा बध्नाति । मनुष्यगतिसहित श्रीणि स्थानानि मनुष्यगतौ भणितानि ॥८५-८७॥ अत्र संक्लेशतो बध्यमानेनापर्याप्तेन सह स्थिरादीनां विशुद्धप्रकृतीनां बन्धो नास्ति यतः, तत एको भङ्गः १ । मनुष्यगतौ सर्वे भङ्गाः ( ४६०८+८+ १ = ) ४६१७ । पच्चीसप्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं - मनुष्यद्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर अङ्गोपाङ्ग, हुण्डकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्त्ति, निर्माण और पंचेन्द्रियजाति । पंचेन्द्रियजातिसंयुक्त इस पच्चीसप्रकृतिक स्थानको मिथ्या दृष्टि जीव बाँधता है । इस प्रकार मनुष्यगतिसंयुक्त तीन स्थान कहे गये हैं ॥ ८५-८७॥ ३.५, 'अत्र संक्लेशतो' इत्यादिगद्यांशः 1, सं० पञ्चसं ०५, ६७ । 2.५, ६८-१०० । ( पृ० १६६ ) । ४४ · Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ पञ्चसंग्रह यहाँ पर संक्लेशके बँधनेवाली अपर्याप्त प्रकृतिके साथ स्थिर आदि विशुद्धिकालमें बँधनेवाली विशुद्ध प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है। इसलिए भंग एक ही है। इस प्रकार मनुष्यगति संयुक्त सर्व भंग (८+४६०८+ १ = ) ४६१७ होते हैं। अब देवगतिसंयुक्त बँधनेवाले स्थानोका निरूपण करते हैं 'देवदुयं पंचिंदिय वेउव्वाहार तेय कम्मं च । समचउरं वेउव्विय आहारय-अंगवंगणामं च ॥८॥ तसचउ वण्णचउक्कं अगुरुयलहुयं च होंति चत्तारि । थिर सुह सुहयं सुस्सर पसत्थगइ जस य आदेज्जं ॥८९॥ णिमिणं चिय तित्थयरं एकत्तीसं होंति णेयाणि । बंधइ पमत्त इयरो अपुव्वकरणो य णियमेण ॥१०॥ "एत्थ देवगईए सह संघयणाणि ण बझति, देवेसु संघयणाणमुदयाभावादो भंगो । यदिदं नामप्रकृतिबन्धस्थानकं बद्ध्वा देवगतौसमुत्पद्यते, तदिदं बन्धस्थानकं देवगतिसहितं गाथानवकेनाऽऽह- 'देवदुगं पंचिंदिय' इत्यादि । ] देवगति-देवगत्यानुपूर्वी द्वे २ पञ्चेन्द्रियं १ वैक्रियिकाहारकतेजस-कार्मणशरीराणि ४ समचतुरस्रसंस्थानं १ वैक्रियिकाहारकाङ्गोपाङ्गद्वयं २ सचतुष्क ४ वर्णचतुष्क : अगुरुलघुचतुष्कं ४ स्थिरं १ शुभं १ सुभगं १ सुस्वरं १ प्रशस्तविहायोगतिः १ यशस्कीतिः १ आदेयं । निर्माणं १ तीर्थकरत्वं १ चेति एकत्रिंशत्कं प्रकृतिबन्धस्थानकं नामप्रकृतिबन्धस्थानकं ३१ । अप्रमत्तो मुनिरपूर्वकरणो यतिश्च बध्नाति नियमेन ज्ञातव्यं भवति ॥८८-१०॥ अत्र देवगत्या सह संहननानि न बध्यन्ते, देवेषु संहननानामुदयाभावाद् भङ्ग एक एव १ । देवद्विक ( देवगति-देवगत्यानुपूर्वी) पश्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, क्रियिकशरीर-अङ्गोपाङ्ग,आहारकशरीर-अङ्गोपाङ्ग, त्रसचतष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति, यशस्कीर्ति, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर, ये इकतीसप्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियाँ जानना चाहिए । इस स्थानको प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत या अपूर्वकरणसंयत नियमसे बाँधते हैं ॥८८-६०॥ यहाँ पर देवगतिके साथ किसी भी संहननका बन्ध नहीं होता है; क्योंकि देवोंमें संहननोंका उदय नहीं पाया जाता । यहाँ पर भङ्ग एक ही है। एमेव होइ तीसं णवरि हु तित्थयरवजियं णियमा । बंधइ पमत्त इयरो अपुवकरणो य णायव्वो ॥११॥ 'एत्थ अथिरादीणं बंधो ण होस्, विसुद्धीए सह एएसिं बंधविरोधो । तेण भंगो।। तीर्थकरत्वं वर्जितमिदमेव त्रिंशत्कं ३० भवति पूर्वोक्तकत्रिंशत्कस्थानं तीर्थकरत्ववर्जितं नामप्रकृतिबन्धस्थानं त्रिंशत्कं ३० अप्रमत्तो यतिरपूर्वकरणो मुनि बध्नाति नियमात् । नवरि विशेषोऽयम् ॥११॥ अत्रास्थिरादीनां बन्धो न भवति, विशुद्धया सह तेषां बन्धविरोधः। तेनैको भङ्गः १३० । ... 1. सं० पञ्चसं० ५, १०२-१०४ । 2.५, १०५। 3.५,१०६ । 4. ५, 'अत्र यतोऽस्थिरादीनां' इत्यादिगद्यभागः। (पृ० १६७)। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३४७ इसी प्रकार इकतीसप्रकृतिक स्थानके समान तीसप्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि इसमें तीर्थङ्करप्रकृति छूट जाती है । इस तीसप्रकृतिक स्थानको भी प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरण संयत नियमसे बाँधते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥ ६१ ॥ यहाँ पर अस्थिर आदि प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि विशुद्धिके साथ इनसे बँधने का विरोध है । अतएव यहाँ एक ही भंग होता है । 'आहारदुयं अवणिय एकत्ती सम्हि पढममुगुतीसं । बंध अव्त्रकरणो अप्पमतो य नियमेण ॥६२॥ एत्थ वि भंगो ॥१॥ पूर्वोक्ते एकत्रिंशक्के ३१ आहारकद्वयं अपनीय प्रथममेकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ अपूर्वकरणो मुनिबंध्नाति, अप्रमत्तो यतिश्च बध्नाति नियमेन ॥ ६२ ॥ २६ ง अत्र भङ्गः $ एकतीस प्रकृतिक स्थानोंमेंसे आहारद्विक (आहारकशरीर - आहारक - अङ्गोपांग) के निकाल देने पर प्रथम उनतीसप्रकृतिक स्थान हो जाता है । इस स्थानको अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत नियमसे बाँधते हैं ॥६२॥ · प्रथम उनतीस प्रकृतिकस्थानमें भी भङ्ग एक ही होता है। " एवं विदिउगुतीसंवरि य थिर सुह जसं च एयदरं । बंध मत्तविरदो अविरयं चैव देसविरदो य ॥ ६३ ॥ "एत्थ देवगईए सह उज्जोवो ण बज्झइ, देवगड़म्मि तत्स य उदयाभावादो । तिरियगई मुत्तूण अण्ण गए सह तस्स बंधविरोधादो । देवाणं देहदित्ती तओ कुदो ? वण्णणामकम्मोदयाओ । एत्थ य थिर-सुभजसजुयलाणि २२/२ अण्णोष्णगुणिया भंगा८ । एवं प्रथम मे कोनत्रिंशत्कोक्तं द्वितीयमेकोनत्रिंशक्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं २३ भवति । नवरि विशेषः, किन्तु स्थिरास्थिर- शुभाशुभ-यशोऽयशसां मध्ये एकतरं १|१|१ | अस्थिरादीनां प्रमत्तान्तं बन्धात् । इदं द्वितीयं नवविंशतिकं स्थानं २६ प्रमत्तविरतोऽसंयत सम्यग्दृष्टिर्देशविरतश्च बध्नाति २६ ॥६३॥ अत्र देवगत्या सहोद्योतो न बध्यते, देवगतौ तस्योद्योतस्योदयाभावात् तिर्यग्गतिं मुक्त्वाऽन्यत्रिगत्या सह तस्योद्योतस्य बन्धविरोधः । तर्हि देवानां देहदीप्तिः कुतः ? वर्णनामकर्मोदयात् । अत्र च स्थिरशुभ-यशोयुगलानि २।२।२ अन्योन्यगुणिता भङ्गाः अष्टौ म २६ 1 इसी प्रकार द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थान जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि यहाँ पर स्थिर, शुभ और यशः कीर्त्ति; इन तीन युगलों में से किसी एक एक प्रकृतिका बन्ध होता है । इस द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थानको प्रमत्तविरत देशविरत और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव बाँधते हैं ॥६३॥ यहाँ पर देवगति के साथ उद्योतप्रकृति नहीं बँधती है; क्योंकि देवगतिमें उसका उदय नहीं होता है । तिर्यग्गतिको छोड़कर अन्यगति के साथ उसके बँधनेका विरोध है । यदि ऐसा है, तो देवोंके देहों में दीप्ति किस कर्मके उदयसे होती है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि वर्णनाम 1. सं० पञ्चसं० ५, १०७ 12. 1, 'एकान्नत्रिंशदियं इत्यादिगद्यांश: । ( पृ० १६७ ) । ३. ५, 'अत्र देवगत्या' इत्यादिगद्य भागः ( पृ० १६७ ) । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ पञ्चसंग्रह फर्मके उदयसे उनके शरीरमें दीप्ति होती है। यहाँ पर स्थिर, शुभ और यश कीर्ति, इन तीन युगलोंके परस्पर गुणित करने पर (२४२४२=) आठ भङ्ग होते हैं। 'तित्थयराहारदुयं एकत्तीसम्हि अवणिए पढमं ।। अट्ठावीसं बंधइ अपुव्वकरणो य अप्पमत्तो य ॥१४॥ एत्थ भंगो १ पुणरुत्तो त्ति ण गहिओ। पूर्वोक्तकत्रिंशत्कनामप्रकृतिबन्धस्थानके तीर्थकरत्वाहारकद्वयेऽपनीते प्रथममष्टाविंशतिक बन्धस्थानं २८ अपूर्वो मुनिः अप्रमत्तो यतिश्च बध्नाति ॥६॥ अत्र भङ्ग एकः १२, पुनरुक्तत्वान्न गृह्यते । इकतीसप्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्कर और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियोंके निकाल देने पर शेष रहीं अट्ठाईसप्रकृतियोंको अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत बाँधता है। यह प्रथम अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान है ॥४॥ यहाँ पर भंग एक ही है, किन्तु वह पुनरुक्त है, अतः उसे ग्रहण नहीं किया गया है। विदियं अट्ठावीसं विदिउगुतीसं* च तित्थयरहीणं । मिच्छाइपमत्तंता बंधगा होति णायव्वा ॥६॥ कुदो एवं ? उवरिजाणं अथिर-असुह-अजसाणं बंधाभावादो। भंगा । पूर्वोक्तं द्वितीयमेकोनत्रिंशत्कं २४ तीर्थकरहीनं सत् द्वितीयमष्टाविंशतिक बन्धस्थानं २८ मिथ्यादृष्ट्यादि-प्रमत्तपर्यन्ता बध्नन्ति द्वितीयाष्टाविंशतिकस्य बन्धका भवन्ति ज्ञातव्याः ॥१५॥ एवं कुतः ? यन्मिथ्यात्वादि-प्रमत्तान्ता बन्धकाः, अप्रमत्नादयो न; उपरिजानां अप्रमत्तादीनां अस्थिराशुभायशसां बन्धाभावात् । अत्राष्टाविंशतिके २।२।२ गुणिता भङ्गाः अष्टौ । द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्करप्रकृतिके कम कर देने पर द्वितीय अट्ठाईस पकृतिक स्थान हो जाता है। इस स्थानके बन्धक मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत् गुणस्थान सकके जीव होते हैं ऐसा जानना चाहिए ॥६५॥ ऐसा क्यों है ! इस प्रश्नका उत्तर यह है कि अप्रमत्तसंयतादि उपरितन गुणस्थानवर्ती जीवोंके अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति, इन तीनों प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है। यहाँ पर शेष तीन युगलोंके गुणा करनेसे आठ भङ्ग होते हैं। बंधंति जसं एयं अपुव्वकरण अणियट्टि सुहुमा य । तेरे णव चउ पणयं बंधवियप्पा हवंति णामस्स ॥१६॥ चउगइया १३६४५। अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसारपराया मुनयः एकां यशस्कीर्ति बध्नन्ति । देवेषु सर्वभङ्गाः १६ । नाम्नः कर्मणः सर्वे चातुर्गतिका भङ्गाः त्रयोदशसहस्रनवशतपञ्चचत्वारिंशः बन्धविकल्पाः ॥१६॥ चातुगतिका भङ्गाः १३६४५। इति नामकर्मणः बन्धप्रकृतिस्थानानि समाप्तानि । २D 1. सं० पञ्चसं० ५, १०८। 2.५, १०६ । 3. ५, 'कुतो यतो' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १६७)। 4. ५, ११०-१११ । *ब विदिय उणतीसं । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ यशस्कीर्त्तिरूप एकप्रकृतिक स्थानको अपूर्वकरणसंयत, अनिवृत्तिकरणसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत बाँधते हैं । ( इस प्रकार देवगतिसंयुक्त सर्व भंग १+१+१+८+१+८=२० होते हैं ।) तथा नामकर्मके ऊपर बतलाये गये सर्व बन्धविकल्प ( तिर्यग्गति-सम्बन्धी १३०८+ मनुष्यगति-सम्बन्धी ४६१७ + देवगति सम्बन्धी २० = १३६४५) तेरह हजार नौ सौ पैंतालीस होते हैं ||६|| सप्ततिका चतुर्गतिसम्बन्धी सर्वविकल्प १३६४५ होते हैं । इस प्रकार नामकर्मके बन्धस्थानोंका वर्णन समाप्त हुआ । अब मूलगाथाकार नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं[ मूलगा ०२२] 'इगिवीसं चउवीसं एत्तो इगितीसयं ति एयहियं । उदयहणाणि तहा णव अट्ठ य होंति णामस्स ॥६७॥ २१।२४।२५।२६।२७|२८|२६|३८|३१|| अथ नामकर्मप्रकृत्युदयस्थानानि गत्यादिसार्गणामु तद्योग्यगुणस्थानादिषु' दर्शयति - [इगिवॉर्स चउवीसं' इत्यादि । ] नामकर्मण उदयस्थानानि एकविंशतिकं २: चतुर्विंशतिकं २४ इतः परमेकैकाधिकमेकत्रिंशत्पर्यन्तम् । तेन पञ्चविंशतिकं २५ षडविंशतिकं २६ सप्तविंशतिकं २७ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ तथा नवकं ६ अष्टकं चेति एकादश नामप्रकृत्युदयस्थानानि भवन्ति ॥ ६७ ॥ २१।२४।२५।२६।२७/२८|२६|३०|३१||८| इक्कीसप्रकृतिक, चौबीसप्रकृतिक और इससे आगे एक अधिक करते हुए इकतीसप्रकृतिक तक, तथा नौप्रकृतिक और आठप्रकृतिक, ये नामकर्मके ग्यारह उदयस्थान होते हैं ॥६७॥ इनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है -- २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ अब भाष्यगाथाकार नरकगति में नरकगतिसंयुक्त नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं Zafari पणुवीसं सत्तावीसवीसयुगतीसं । एए उदयद्वाणा णिरयगइसंजुया पंच ॥६८॥ अथ नरकगतौ नरकगतिसंयुक्तानि नामोदयस्थानानि गाथाष्टकेनाऽऽह - [ 'इगिवीसं पणवीसं' इत्यादि । ] एकविंशतिकं २१ पञ्चविंशतिकं २५ सप्तविंशतिकं २७ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ चेति एतानि नामप्रकृत्युदयस्थानानि नरकगतिसंयुक्तानि पञ्चोदयस्थानानि ५ नरकगत्यां भवन्ति ॥ ६८ ॥ २१।२५।२७/२८|२६| इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक, ये पाँच उदयस्थान नरकगतिसंयुक्त होते हैं ॥६८॥ नरकगतिसंयुक्त उदयस्थान - २१, २५, २७, २८, २६ ॥ इनमें से पहले नरकगतिसंयुक्त इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं'तत्थ गिवीसं ठाणा णिरयदुयं तेय कम्म वण्णचदुं । अगुरुगलहु पंचिंदिय तस बायरं च पञ्जतं ॥६॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ११२ । 2.५, ११३ । ३.५, ११४-११६ । १. सप्ततिक० २५ । परं तत्रेदृक् पाठः वीसिगवीसा चडवीसगाति एगाहिया उ इगतीसा । उदयद्वाणाणि भवे नव अठ्ठ य होंति नामस्स ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० पञ्चसंग्रह थिर अथिरं च सुहासुह दुभग अणादेज अजस णिमिणं च । विग्गहगईहिं एदे एयं च दो व समयाणि ॥१०॥ तत्र नरकगतिं प्रति यातरि एकस्मिन् जीवे इदमेकविंशतिकनामप्रकृत्युदयस्थानमुदेति । नरकगतितदानुपूये २ तेजस-कार्मणे २ वर्णचतुष्कं ४ भगुरुलघु १ पञ्चेन्द्रियं १ घसं १ बादरं १ पर्याप्तं १ स्थिरं १ अस्थिरं १ शुभं १ अशुभं १ दुर्भगं १ अनादेयं १ अयशः १ निर्माणं १ चेति एकविंशत्युदयप्रकृतयः २१ एताः विग्रहगत्यां कार्मणशरीरे नारकजीवं प्रति उदयं यान्ति २१ । विग्रहगतौ कार्मणशरीरस्यकसमयो जघन्यकाल: १ उत्कृष्टतो द्वौ २ । एको वा द्वौ वा त्यो वा (?) समया इत्यर्थः ॥१६-१००॥ नरकद्विक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, और निर्माण, इन इक्कीस प्रकृतियोंवाला यह उदयस्थान नरकगतिको जानेवाले जीवके विग्रहगतिमें एक या दो समय तक होता है ।।६६-१००॥ अब नरकगतिसंयुक्त उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'एमेव य पणुवीसं णवरि विसेसो सरीरगहियस्स । णिरयाणुपुव्वि अवणिय घेउव्वियदुयं च उवघादं ॥१०१॥ हुंडं पत्तेयं पिय* पक्खित्ते जाव सरीरणिप्फत्ती । अंतोमुहुत्तकालो जहण्णमुक्कस्सयं च भवे ॥१०२॥ एवमेकशितिकोक्तप्रकारेण पञ्चविंशतिकं भवति । नवरि विशेष:-वैक्रियकशरीरं गृह्णतः नारकस्य तस्मिन्नेकविंशतिके नरकानुपूय॑मपनीय तत्र वैक्रियिकशरीर वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गद्वयोपघात-हुण्डकसंस्थानप्रत्येकशरीरप्रकृतिपञ्चके प्रक्षिप्ते पञ्चविंशतिकं नामकर्मप्रकृत्युदयस्थानं भवति २५ । यावत्तु शरीरनिष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः पूर्णतां याति तावदिदं पञ्चविंशतिकमुदयति । जघन्यत उत्कृष्टतच लः वैक्रियिकशरीरमिश्रकालोऽन्तर्मुहुर्तो भवति ॥१०१-१०२॥ इसी प्रकार पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि वैक्रियिकशरीरको ग्रहण करनेवाले नारकीके उपर्युक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे नरकानुपूर्वीको घटाकरके उनमें वैक्रियिकद्विक, उपघात, हुण्डकसंस्थान और प्रत्येकशरीर, इन पाँच प्रकृतियोंके मिला देनेपर पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह उदयस्थान जब तक शरीरपर्याप्तिकी पूर्णता नहीं नहीं हो जाती है, तब तक रहता है। इस उदयस्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ॥१०१-१०२॥ अब नरकगतिसंयुक्त सत्ताईसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं एमेव सत्तवीसं सरीरपजत्तिणि ट्ठिए णवरि । परघायमप्पसत्थ-विहायगई व पक्खित्ते ॥१०३॥ एवं पञ्चविंशतिकोक्तप्रकारेण सप्तविंशतिक शरीरपर्याप्तिनिष्ठापिते पूर्ण कृते सति वैक्रियिकशरीरपर्याप्त पूणे पञ्चविंशतिके परघाताप्रशस्तविहायोगतिप्रकृतिद्वये प्रक्षिप्त मेलिते सप्तविंशतिकं भवति २७ । शरीरपर्याप्तिनिप्पत्तिकालोऽन्तर्मुहूर्तः ॥१०३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ११७-११८ । . ५, १२० । ब पि च । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३५१ इसी प्रकार पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थानके समान ही सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान भी जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि शरीरपयोप्तिके पूर्ण होनेपर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में परघात और अप्रशस्तविहायोगति ये दो प्रकृतियाँ और मिलाना चाहिए ॥१०३।। अब नरकगतिसंयुक्त अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'एमेव अट्ठवीसं आणापजत्तिणिट्ठिए णवरि । उस्सासं पक्खित्ते कालो अंतोमुहुनं तु ॥१०४॥ आनप्राणपर्याप्तिनिष्ठापने श्वासोच्छासपर्याप्तिपूर्णे कृते सति पूर्वोक्तसप्तविंशतिके उच्छासनिःश्वासे प्रक्षिप्ते सति अष्टाविंशतिकं प्रकृत्युदयस्थानं नारकस्योदयागतं २८ भवति । तु पुनः उच्छासनिःश्वासपर्याप्तिपूर्णकरणेऽन्तमुहूर्त्तकालः ॥१०॥ इसी प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि श्वासोच्छास पर्याप्तिके पूर्ण होनेपर सत्ताईसप्रकृतिक उदयस्थानमें उच्छासप्रकृतिके मिलानेपर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस उदयस्थानका काल भी अन्तर्मुहूर्त है ।।१०४॥ अब नरकगतिसंयुक्त उनतीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं "एमेव य उगुतीसं भासापञ्जत्तिणिट्ठिए णवरि । दुस्सरसहियजहण्णं दसवाससहस्स किंचूर्ण ॥१०॥ तेतीस सायरोवम किंचिदृणुक्कम्सयं हवइ कालो। णिरयगईए सव्वे उदयवियप्पा य पंचेव ॥१०६॥ एत्थ भंगा ५। भाषापर्याप्तिनिष्ठापिते परिपूर्णे कृते सति एवं पूर्वोक्तमष्टाविंशतिकं दुःस्वरभाषासहितं नवविंशतिकं भवति । नवीन मिति नारकस्य दुःस्वरभाषापर्याप्तः दशवर्षसहस्रजघन्यकाल: १०००० किञ्चिन्न्यूनः उक्तचतुःकालोनः अन्तर्मुहूर्तहीन इत्यर्थः १२००९ समयत्रयं अन्तर्मुहूर्तत्रयम् । नारकस्य दुःस्वरभाषापर्याप्ते सा०३३ रुत्कृष्टकालः त्रयस्त्रिंशरसागरोपमप्रमाणः किञ्चिन्न्यूनः अन्तर्मुहूर्त्तहीनः सु.२१३ भवेत् । तथाहि-विग्रहगतौ कार्मणशरीरे एको वा द्वौ वा त्रयो वा (?) समयाः ३, शरीरमिश्रेऽन्तर्मुहूर्तः २१ शरीरपर्याप्ती अन्तर्मुहूर्तः २१ उच्छासनिःश्वासपर्याप्तौ अन्तर्मुहूतः २१ भाषापर्याप्तौ उक्तचतुष्कालोनं सर्व भुज्यमानायुः । १०००० वर्षाणि साग० ३३ एवं सर्वगतिषु ज्ञेयम् । नरकगत्यामिदं देवगत्यामिदं च सम ०३ सम० . ३ । एकोन अन्त० २१३ अन्त०२१३ त्रिंशत्कमिति किम् ? नरकगतिः, तैजसकार्मणद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलधुकं १ पञ्चेन्द्रियं १ वसं. बादरं १ पर्याप्तं १ स्थिरास्थिरद्वयं २ शुभाशुभद्वयं २ दुर्भगं १ अनादेयं १ अयशः १ निर्माणं १ वैक्रियकतदङ्गोपाङ्गद्वयं २ उपघातः १ हुण्डसंस्थानं १ प्रत्येकं १ परघातः १ अप्रशस्तविहोगतिः १ उच्छासनिःश्वासं १ दुःस्वरभाषा चेति एकोनत्रिंशत्कनामप्रकृत्युदयस्थानं पर्याप्तकनारकस्य भवत्युदेति ॥१०५-१०६॥ नरकगतौ सर्वे उदयविकल्पा भङ्गा एकस्मिन् नारकजीवे पन्चैव भवन्ति । अन्न भङ्गाः ५। , २१ २५ २७ २८ २९, के ते? इति नरकगत्यां नामप्रकृत्युदयस्थानानि समाप्तानि । 1. सं०पञ्चसं० ५, १२१ । 2. ५, १२२-१२३ । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ पञ्चसंग्रह इसी प्रकार उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि भाषापर्याप्तिके पूर्ण होनेपर अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानमें दुःस्वर प्रकृतिके मिलानेपर उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस उदयस्थानका जघन्यकाल कुछ कम दश हजार वर्ष है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। इस प्रकार नरकगतिमें नामकर्मके उदयस्थानसम्बन्धी सर्वविकल्प पाँच ही होते हैं ॥१०५-१०६।। नरकगतिमें उदयस्थानके भंग ५ होते हैं। अब तिर्यग्गतिमें नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं इगिवीसं चउवीसं एत्तो इगितीसयं ति एगधियं । णव चेव उदयठाणा तिरियगईसंजुया होंति ॥१०७।। २१।२४१२५।२६।२७।२८।२६॥३०॥३॥ अथ तिर्यग्गतौ नामप्रकृत्युदयस्थानानि गाथापञ्चाशदाऽऽह-['इगिवीतं चउवीसं इत्यादि।] एकविंशतिकं २१ चतुर्विंशतिकं २४ इतःपरं एकत्रिंशत्पर्यन्तं एकैकाधिकं पञ्चविंशतिकं २५ पडविंशतिकं २६ सप्तविंशतिकं २७ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं २० यावदेकत्रिंशत्कं ३१ चेति नव नामकर्मणः प्रकृत्युदयस्थानानि तिर्यग्गतिसंयुक्तानि तिर्यग्गती भवन्ति ॥१०७॥ २१२४.२५।२६।२७।२८।२६।३०३३ । इक्कीसप्रकृतिक, चौबीसप्रकृतिक और इससे आगे एक-एक अधिक करते हुए इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान तक नौ उदयस्थान तिर्यरगति-संयुक्त होते हैं ।।१०७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है २१, २४, २५, २६, ३७, २८, २९, ३०, । पंचेवा उदयठाणा सामण्णेइंदियस्स बोहव्वा। इगि चउ पण छ सत्त य अधिया वीसा य णायव्वा ॥१०८।। सामण्णेइंदियरस २१॥२४॥२५।२६।२७ एकविंशतिकं २१ चतुर्वि शतिकं २४ पञ्चविंशतिकं २५ पड्विंशतिकं २६ सप्तविंशतिकमिति नामप्रकृत्युदयस्थानानि सामान्यैकेन्द्रियाणां जीवानां मध्ये एकस्मिन् एकेन्द्रियजीवे पन्चेव बोधव्यानि ॥१०॥ २१॥२४॥२५।२६।२७ ।। सामान्य एकेन्द्रिय जीवके इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक पाँच उदयस्थान जानना चाहिए ॥१०८॥ सामान्य एकेन्द्रिय जीवके २१, २४, २५, २६, २७ प्रकृतिक पाँच उदयस्थान होते हैं। आयाउञ्जोयाणं अणुदय एइंदियस्स ठाणाणि । सत्तावीसेण विणा सेसाणि हवंति चत्तारि ॥१०६।। २१।२४।२५।२६।। आतपोद्योतयोरनुदयैकेन्द्रियस्यातपोद्योतोदयरहितसामान्य केन्द्रियजीवस्य सप्तविंशतिकं विना एकविंशतिक-चतुर्विशतिक-पञ्चविंशतिक-षड्वंशतिकानि चत्वारि नामोदयस्थानानि भवन्ति ॥१०॥ २१२१२५२६ । 1. सं० पञ्चसं० ५, १२४ । 2. ५, १२५-१२६। 3. ५, १२७ । ब पंचेव य। । | Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका आतप और उद्योतके उदयसे रहित एकेन्द्रियजीवके सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थानके विना शेष चार उदयस्थान होते हैं ॥१०॥ उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २४, २५, २६ । आयावुजोयाणं अणुदय एइंदियस्स इगिवीसं । तिरियदुग तेय कम्मं अगुरुगलहुगं च वण्णचदुं ॥११०॥ जस-बायर-पजत्ता तिण्हं जुयलाणमिक्कयर णिमिणं च । थिर-अथिर-सुहासुह-दुब्भगाणादेज्जं च थावरयं ॥११॥ एइंदियस्स जाई विग्गहगइ पंचेव भंगा य । कालो जहण्ण इयरो इक्कं दो तिण्णि समयाणि ॥११२॥ "एस्थ जस कित्तिउदए सुहुम-अपजत्तया ण होति, तेग एगो भंगो । १। अजसकित्तीउदए चत्तारि ४ । सव्वे ५। भातपोद्योतोदयरहितसामान्यैकेन्द्रियस्य जीवस्यैकस्येदमेकविंशतिकं २१ स्थानम् । किं तत् ? तिर्यग्गति तदानुपूव्र्ये २ तैजस-कार्मणद्वयं २ अगुरुलघुकं १ वर्णचतुष्कं ४ यशोऽयशोयुग्म-बादरसूचमपर्याप्तापर्याप्तयुग्मानां त्रयाणामेकतरं । निर्माणं १ स्थिरास्थिरयुग्मं २ शुभाशुभयुग्मं : दुर्भगं ? अनादेयं १ स्थावरं १ एकेन्द्रियजातिकं १ चेति नामप्रकृत्युदयस्थानमेकविंशतिकं २१ विग्रहगत्यां कार्मणशरीरे सामान्यकेन्द्रियस्य भवति । एकविंशतिकं तु पंचधा, एकविंशतिका भङ्गाः ५ भवन्ति । एतेषां भङ्गानां जघन्यकाल एकसमयः, उत्कृष्टतो द्वौ त्रयो वा समयाः ॥११०-१५२॥ अकविंशतिके यशस्कीयुदये सूचमापर्याप्तोदयौ न भवतो यतस्तत एको भङ्गः १ । अयशस्कीयुदये बादर-सूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तोदयाश्चत्वारो भङ्गाः ४ । सर्वे ५। अयशःपाके बादर-पर्याप्तयुग्मयोरन्योन्यगुणिते भङ्गाः ४ । यशःपाके [२] मीलिताः भङ्गाः ५। यशः २९ बाद० २ आतप और उद्योतके उदयसे रहित सामान्य एकेन्द्रियजीवके यह वक्ष्यमाण इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। वे इक्कीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यरिद्वक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अगुरुलघु, वर्णचतुष्क; यशःकीर्त्ति-अयश कीर्ति, बादर-सूक्ष्म पर्याप्त-अपर्याप्त इन तीन युगलोंमेंसे कोई एक-एक निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, स्थावर और एकेन्द्रियजाति । यह इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान विग्रहगतिमें कार्मणकाययोगकी दशामें होता है। इसका जघन्य काल एक समय, मध्यमकाल दो समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है। इस स्थानके भङ्ग पाँच होते हैं ॥११०-११२॥ विशेषार्थ-इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच भङ्गोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-यशः. कीर्ति के उदयके साथ सूक्ष्म, और अपर्याप्त प्रकृतियोंका उदय नहीं होता है, इसलिए यशःकीर्तिके उदयमें एक ही भंग होता है। किन्तु अयशःकीर्तिके उदयमें बादर, सूक्ष्म और पर्याप्त, अपर्याप्त इन प्रकृतियोंका उदय होता है, अतएव इन दो युगलोंके परस्पर गुणा करनेसे चार भंग हो जाते हैं । इस प्रकार यशःकीर्त्तिके उदयका एक भंग और अयशःकीर्त्तिके उदयमें होनेवाले चार भङ्ग, इन दोनोंको मिला देनेपर पाँच भङ्ग हो जाते हैं। 1. सं०पञ्चसं०.५, १२८-१३० । 2. ५, १,३१, 'तथाऽग्रतनगद्यभागः' (पृ० १७०)। ॐद तस। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ३५४ अब चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं एमेव य चउवीसं णवरि विसेसो सरीरगहियस्स । अवणिय आणुपुव्वी ओरालिय हुंड उवघायं ॥११३॥ पक्खित्ते पत्तेयं साहारणसरीरमेकयरं च । णव चैव उदयभंगा कालो अंतोमुहुत्तं तु ॥ ११४ ॥ " एत्थ जसकित्तिउद्रए सुहुम-अपज्जत्त-साहारणोदया ण होंति, तेण भंगो १ । अजसकित्तिउदये ८ । एवं सव्वे । शरीरं गृह्णतः सामान्यकेन्द्रियस्य पूर्वोक्तेकविंशतिकम् । नवरिं विशेषः तत्रैकविंशतिके आनुपूर्व्यमपनीय औदारिकशरीरं : हुण्डकसंस्थानं १ उपघातः १ प्रत्येक साधारणयोमध्ये एकतरं १ चेति प्रकृतिचतुष्के तत्र विंशतिके प्रक्षिप्ते मिलिते चतुर्विंशतिकं स्थानम् २४ । तत्तु सामान्यैकेन्द्रियस्य शरीर मिश्रयोगे एवोदयति । भत्रोदयभङ्गा नव ६, नवधा चतुर्विंशतिका भवन्ति । अनौदारिक मिश्रकालोऽन्त मुहूर्तः २१ ॥ ११३ - ११४॥ २४ १ भत्र यशस्कोदये सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणोदया न भवन्ति यतस्तत एको भङ्गः १ ॥ य० 1 अयशस्कीर्त्यदये स्थूलपर्यात प्रत्येकयुग्मानां त्रयाणां २२२ परस्परेण गुणिता भङ्गाः अष्टौ ८ । एवं सर्वे भङ्गा नव है । २४ २४ 1 月 ૧ इसी प्रकार इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके समान चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि विग्रहगतिके समाप्त हो जानेपर जब जीव तिर्यश्चके शरीरको ग्रहण करता है, उस समयसे लगाकर शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने तक चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है | अतएव उन इक्कीस प्रकृतियोंमें से तिर्यगानुपूर्वी घटाकर औदारिकशरीर, हुण्डकसंस्थान, उपघात और प्रत्येक-साधारणयुगलमें से कोई एक इन चार प्रकृतियोंके मिला देनेपर यह चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस उदयस्थानके नौ भङ्ग होते हैं और इसका काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ११३ - ११४॥ यहाँपर यशस्कीर्त्तिके उदयमें सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणप्रकृतिका उदय नहीं होता है, इसलिए यशः कीर्त्तिसम्बन्धी एक भङ्ग होता है । तथा अयशः कीर्त्तिके उदय में बादर-सूक्ष्म, पर्याप्तअपर्याप्त और प्रत्येक-साधारण ये तीनों युगल सम्भव हैं, अतः तीन युगलों के परस्पर गुणा करनेपर आठ भङ्ग होते हैं। इस प्रकार आठ और एक मिलकर नौ भङ्ग चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानके जानना चाहिए । अब पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं एमेव य. पणुवीसं सरीरपजत्तए अपजतं । अवणिय पक्खिवियव्वं परधायं पंच भंगाओ ॥ ११५ ॥ एत्थ भंगा ५ । सामान्यकेन्द्रियस्य शरीरपर्याप्तौ पूर्वोक्तचतुर्वि ंशतिके अपर्याप्तं अपनीय परघातं प्रक्षेपणीयम्, पञ्चविंशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं सामान्यै केन्द्रियस्य भवति २५ । तत्र पञ्चधा पञ्चविंशतिभङ्गाः पञ्च 1. सं० पञ्चसं ० ५, १३२-१३३ । 2. ५, 'अत्रायशः पाके' इत्यादिगद्यांशः ( पृ० १७० ) । ३. ५, १३४-१३५ । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३५५ भवति । तत्र कालोऽन्तर्मुहूर्तः २१ । अत्रापर्याप्ते निष्काशिते परघाते प्रतिप्ते पञ्चविंशतिसंख्या । कथम् ? चतुर्विशतिकस्य मध्ये पर्याप्तापर्याप्तद्वयमध्ये एकतरं वर्तते । अत्र तु अपर्याप्तिनिराक्रियते [तेन चतुर्विशतिका संख्या ऊना न भवति । तत्र परघाते प्रक्षिप्ते पञ्चविंशतिकं स्थानं भवतीत्यर्थः । अत्रायशस्कीयुदये स्थूल-प्रत्येक २१२ युग्मयोः परस्परगुणिते भङ्गाश्चत्वारः ४ । यशःपाके एको भङ्ग १। मीलिताः पञ्च ५॥११५॥ इसी प्रकार पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। परन्तु परघातका उदय शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने तक नहीं होता, अतएव शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होनेके पश्चात् अपर्याप्त प्रकृतिको घटा करके परघातप्रकृतिको जोड़ना चाहिए। इस उदयस्थानमें पाँच भङ्ग होते हैं ॥११५॥ इस पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानमें अयशस्कीर्तिके साथ बादर तथा प्रत्येक ये दो युगल सम्भव हैं, इसलिए इन दोनों युगलोंके परस्पर गुणा करनेसे चार भङ्ग होते हैं और यशस्कीर्त्तिके उदयमें एक भङ्ग होता है । इस प्रकार दोनों मिलकर पाँच भङ्ग हो जाते हैं। अब छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानका प्ररूपण करते हैं 'एमेव य छव्वीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं । पक्खित्ते पण भंगा कालो य सगहिदी ऊणा ॥११६॥ (का० ) २२००० । भंगा ५ । सव्वे वि २४ । ___ एवं पूर्वोक्तपञ्चविंशतिके आनप्राणपर्याप्तिपूर्णाकृतस्योच्छासनिःश्वासे प्रक्षिप्त पड्विंशतिकं २६ सामान्य केन्द्रियपर्याप्तस्य भवति । अत्र भङ्गाः पञ्च ५ । अत्र कालः स्वकीयायुःस्थितिः किञ्चिदूनता उत्कृष्टा स्थितिः वर्पसहस्राणि १००० । द्वाविंशतिः परा २२०००किञ्चिदना आतपोद्योतोदयरहितस्य सामान्यकेन्द्रियस्य सर्वे भङ्गाश्चतुर्विशतिः २४॥११६॥ इसी प्रकार छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान आनापान पर्याप्तिके प्रारम्भ होने पर उच्छ्रास प्रकृतिके मिला देनेसे होता है । इस उदयस्थानके भङ्ग पाँच होते हैं और इसका उत्कृष्ट काल कुछ कम स्वोत्कृष्ट स्थिति-प्रमाण है ॥११॥ बादर एकेन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्षकी होती है । इस उदयस्थानसम्बन्धी पाँचों भंगोंका विवरण पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानके समान ही जानना चाहिए। इस प्रकार इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच, चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच, पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानके नौ और छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच, ये सर्व भंग मिल करके २४ भंग आतप-उद्योतके उद्यसे रहित एकेन्द्रिय तिर्यश्चोंके जानना चाहिए। 'आयावुजोवुदयं जस्सेयंतस्स णत्थि पणुवीसं । सेसा उदयट्ठाणा चत्तारि हवंति पायव्वा ॥११७॥ २१॥२४॥२६॥२७॥ । येषु एकेन्द्रियेषु आतपोद्योतोदयौ भवतः, तेपामातपोद्योतसहितानां एकेन्द्रियाणामिदं पञ्चविंशतिकं स्थानं भवति । शेषनामोदयस्थानान्येकविंशतिक २१ चतुर्विशतिक २४ पडविंशतिकं २६ सप्तविंशतिकानि चत्वारि भवन्ति ॥११७॥ २१॥२४॥२६१२७ जिस एकेन्द्रिय जीवके आतप और उद्योतका उदय होता है, उसके पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है, शेष इक्कीस, चौबीस, छब्बीस और सत्ताईसप्रकृतिक चार उदयस्थान जानना चाहिए ॥११७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २४,२६, २७ । 1. सं० पञ्चसं० ५, १३६ । 2. ५, १३७ । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ पश्चसंग्रह 'आयात्रुज्जोवुदये इगि-चउवीसं तहेव गवरिं तु । अवणिय साहारणयं सुहुममपज्जत्तभंगाओ ॥१८॥ एत्थ सुहुम-अपजत्तूणा २१ । साहारणं विणा २४ । एत्थ दो भंगा २ पुणरुत्ता। आतपोद्योतोदयकेन्द्रियेषु तथैव पूर्वोक्तमेवैकशितिकं २१ चतुविंशतिक २४ च भवति । नवीनं किञ्चिद्विशेषः, किन्तु भङ्गात् एकविंशतिकाच्चतुर्विशतिकाञ्च साधारणं सूक्ष्मं अपर्याप्तं च अपनीय वर्जयित्वा ॥११॥ अत्र सूचमाऽपर्याप्तरहितं बादरपर्याप्तसहितं चैकविंशतिकं स्थानं २१ साधारणरहितं प्रत्येकसहितं चतुर्विशतिकस्थानं २४ आतपोद्योतोदयभागिनां एकेन्द्रियाणां सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणशरीरोदयाभावात् । यशोयुग्मस्यैकतरभङ्गो द्वौ द्वौ पुनरुक्तौ २।२। आतप और उद्योतके उदयवाले एकेन्द्रियजीवोंके तथैव पूर्वोक्त इक्कीसप्रकृतिक और चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। विशेष बात केवल यह है कि उनमें से साधारण, सूक्ष्म और अपर्याप्त-सम्बन्धी भंगोंको निकाल देना चाहिए ॥११८॥ यहाँ पर सूक्ष्म और अपर्याप्त ये दो प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं मानी जानेसे इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान इन दोको छोड़कर होता है और चौबीसप्रकृतिक उदयस्थान साधारणको भी छोड़कर केवल प्रत्येकके साथ होता है । यहाँ आतप और उद्योत प्रकृतिका उदय होनेवालोंमें सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर इन तीनका उदय नहीं रहता, अतएव भंग अधिक होनेका कारण केवल एक यशस्कीतियुगल है। इसके द्वारा इक्कीसप्रकृतिकस्थानमें भी दो भंग होते हैं और चौबीसप्रकृतिकस्थानमें भी दो भंग होते हैं। किन्तु ये भंग पहले कहे जा चुके हैं, अतः पुनरुक्त हैं। "एमेव य छव्वीसं सरीरपजत्तयस्स जीवस्स ! परघायुज्जोयाणं इक्कयरं चेव चउ भंगा ॥११६।। २६ । भंगा ४ । शरीरपर्याप्तियुक्तस्यैकेन्द्रियजीवस्य पूर्वोक्तमेव षड्विंशतिकं परघातः १ आतपोद्योतयोमध्ये एकतरो. दयः १ तत्र चतुर्भङ्गाः ४ । अन्तर्मुहूर्तकालश्च । कथं तत् षड्विंशतिकम् ? तिर्यग्गतिः १ तेजस-कानणद्वयं २ अगुरुलघुकं १ वर्णचतुष्कं ४ यशोयुग्मस्यैकतरं १ बादरं १ पर्याप्तं १ निर्माणं १ स्थिरास्थिरयुग्मं २ शुभाशुभद्वयं २ दुर्भगं १ अनादेयं १ स्थावरं १ एकेन्द्रियं १ औदारिकशरीरं । हुण्डकं १ उपघातः १ प्रत्येकशरीरं १ परघातः । आतपोद्योतयोरेकतरोदयः । एवं षड्विंशतिक २६ शरीरपर्याप्तिप्राप्तस्यैकेन्द्रियस्योदयस्थानं भवति ॥११६॥ इसी प्रकार शरीरपर्याप्तिसे युक्त एकेन्द्रियजीवके परघात और आतप-उद्योत इन दोमेंसे किसी एकके मिलानेपर छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। और इस स्थानके चार भंग होते हैं ॥११॥ छब्बीसप्रकृतिक स्थानमें यशःकीर्तियुगल और आतप-उद्योत युगलके परस्पर गुणा करनेसे चार भंग हो जाते हैं। एयमेव सत्तवीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं। पक्खित्ते चउभंगा सव्वे भंगा य बत्तीसा ॥१२०॥ २७ । भंगा ४ । एवमे इंदियसव्वभंगा ३२ । 1. सं० पञ्चसं० ५, १३८ । 2. ५, १३९ । 3. ५, १४० । द 'बत्तीसा होंति सब्वे वि' इति पाठः । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३५७ उच्छासनिःश्वासपर्याप्तिप्राप्तकेन्द्रियजीवस्य पूर्वोक्तषड्विंशतिके उच्छासनिःश्वासं प्रक्षिप्ते सप्तविशतिक नामप्रकृत्युदयस्थानं भवति । जीवितपर्यन्तमिदं ज्ञेयम् । अस्य भङ्गाश्चत्वारः ४ । उत्कृष्टा स्थितिविंशतिवर्णसहस्राणि २२००० किञ्चिन्न्यूना ॥१२०॥ एकेन्द्रियाणां सर्वे भङ्गा द्वात्रिंशत् ३२ । इसी प्रकार श्वासोच्छ्रासपर्याप्तिसे पर्याप्त जीवके उच्छ्रासप्रकृतिके मिला देनेपर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँपर भी चार भंग होते हैं। इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवके सर्व भंग बत्तीस होते हैं ॥१२०॥ एकेन्द्रियोंके २४ भंग पहले बतलाये जा चुके हैं। आतप-उद्योतके उदयवाले जीवोंके छब्बीसके उदयस्थानमें अपनरुक्त ४ भंग तथा सत्ताईसके उदयस्थानमें अपुनरुक्त ४ भंग इस प्रकार सर्व मिलकर एकेन्द्रियजीवोंके ३२ भंग हो जाते हैं। अव विकलेन्द्रिय जीवों में नामकर्मके उदयस्थानों का निरूपण करते हैं 'वियलिंदियसामण्णे उदयट्ठाणाणि होति छच्चेव । इगिवीसं छव्वीसं अट्ठावीसाइइगितीसं ॥१२१॥ २१।२६।२८।२६।३०।३१ सामान्येन विकलत्रयेषु द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियेषु एकविंशतिक २१ षडविंशतिकं २६ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ चेति षट नामप्रकृत्युदयस्थानानि भवन्ति ॥१२॥ २१।२६।२८।२९।३०।३१ विकलेन्द्रिसामान्यमें इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक छह उदयस्थान होते हैं ॥१२१॥ इन उदयस्थानोंकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २६, २८, २९, ३०, ३१ । उज्जोयरहियवियले इगितीसूणाणि पंच ठाणाणि । उज्जोयसहियवियले अट्ठावीसूणगा पंच ॥१२२॥ उज्जोवुदयरहियवियले २१।२६।२८।२६।३०। उज्जोवुदयसहियवियले २१।२६।२६।३०।३१॥ उद्योतरहितविकलत्रयेषु एकत्रिंशत्कोनानि एकविंशतिक-षडविंशतिकाष्टाविंशतिक-नवविंशतिकत्रिंशत्कानि पञ्च नामोदयस्थानानि २१।२६।२८।२६।३० भवन्ति । उद्योतोदयसहितविकलत्रयेषु अष्टाविंशतिकोनानि एकविंशतिक-पड्विंशतिक-नवविंशतिक-त्रिंशत्कैकत्रिंशत्कानि पञ्चोदयस्थानानि । २१।२६।२६।३०।३१ इति विशेषः ॥१२२॥ उद्योतप्रकृतिके उदयसे रहित विकलेन्द्रियोंमें इकतीसप्रकृतिक उदयस्थानके विना शेष पाँच उदयस्थान होते हैं। तथा उद्योतप्रकृतिके उदयसे सहित विकलेन्द्रियोंमें अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानके विना शेष पाँच उदयस्थान होते हैं ॥१२२॥ उद्योतके उदयसे रहित विकलेन्द्रियोंमें २१, २६, २८, २९,३० ये पाँच उदयस्थान होते हैं । उद्योतके उदयसे सहित विकलेन्द्रियोंमें २१, २६, २६,३०,३१ ये पाँच उदयस्थान होते हैं। 1. सं० पञ्चसं० ५, १४१ । 2. ५, १४२ । 3. ५, 'निरुद्योते' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १७१)। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ पञ्चसंग्रह अब द्वीन्द्रियके इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'उज्जोयउदयरहियवेइंदियट्ठाण पंच इगिवीसं । तिरियदुयं वेइंदिय तेजा कम्मं च वण्णचदुं ॥१२३॥ अगुरुयलहु तस बायर थिर मुह जुगलं तह अणादेज्जं । दुब्भगजसजुयलेक्कं पज्जत्तिदरेक्कणिमिणं च ॥१२४॥ विग्गहगईहिं एए एक्कं वा दोणि चेव समयाणि । एत्थ वियप्पा जाणसु तिणणेव य होति बोहव्वा ॥१२॥ एत्थ जसकित्तिउदए अप्पजत्तोदओ णस्थि, तेण एगो भंगो।। अजसकिनिभंगा २ । सव्वे ३ । उद्योतोदयरहितद्वीन्द्रियेषु स्थानानि पञ्च भवन्ति । तेषु मध्ये एकविंशतिकं स्थानं किमिति ? तिर्यग्गति-तदानुपूर्ये २ द्वीन्द्रियजातिः १ वैजस-कार्मणद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ भगुरुलघुकं १ वसं १ बादरं १ स्थिरास्थिरयुग्म २ शुभाशुभयुग्मं २ अनादेयं १ दुर्भगं १ यशोऽयशसोमध्ये एकतरं १ पर्याप्ताऽपर्याप्तयोरेकतरं १ निर्माणं १ चेत्येकविंशतिकनामकर्मप्रकृत्युदयस्थानं विग्रहगतौ कार्मणशरीरे द्वीन्द्रियस्योदेति २१ । तस्योदयकाल एकसमयः द्वौ समयौ वा। अन विकल्पा भङ्गास्त्रयो भवन्ति बोधव्या इति जीन् भङ्गान् जानीहि ॥१२३-१२५॥ अन यशस्कीयुदये सति अपर्याप्तोदयो नास्ति, तत एको भङ्गः १ । पर्याप्तापर्याप्तोदयसद्भादादत्रायशस्कीयुदये द्वौ भङ्गौ २ । मीलिता ३ । उद्योतप्रकृतिकके उदयसे रहित द्वीन्दियजीवोंके जो पाँच उदयस्थान होते हैं, उनमेंसे इक्कोसप्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार है-तिर्यग्द्विक, द्वीन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, त्रस, बादर, स्थिरयुगल, शुभयुगल, अनादेय, दुर्भग, यशःकोर्तियुगलमेंसे एक, पर्याप्तयुगलमेंसे एक और निर्माण । यह इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान विग्रहगतिमें एक या दो समय तक उदयको प्राप्त होता है। इस उदयस्थानके यहाँपर तीन ही विकल्प या भंग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१२३-१२॥ यहाँपर यशस्कीर्त्तिके उदयमें अपर्याप्तकर्मका उदय नहीं होता है, इसलिए एक ही भंग होता है । पर्याप्त और अपर्याप्तकर्मका उदय पाये जानेसे अयशस्कीर्तिसम्बन्धी दो भंग होते हैं। इस प्रकार दोनों मिला करके इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके तीन भंग हो जाते हैं। अब द्वीन्द्रियके छव्वीसप्रकृतिक उदयस्थानका कथन करते हैं एमेव य छव्वीसं सरीरगहियस्स आणुपुव्वी य । अवणिय पक्खिवियत्वं ओरालिय हुंड-संपत्त ॥१२६॥ ओरालियंगवंगं पत्तेयसरीरयं च उवघायं ।। अंतोमुहुत्तकालं भंगा वि हवंति तिण्णेव ॥१२७।। एत्थ भंगा ३ । एवं पूर्वोक्तमेकविंशतिकं तत्रानुपूर्व्यमपनीय विंशतिकं जातम् । तत्र औदारिकशरीरं १ हुण्डकसंस्थानं १ असम्प्राप्तसंहननं ५ औदारिकाङ्गोपाङ्गं १ प्रत्येकशरीरं १ उपघातः १ चेति प्रकृतिपटकं 1. सं० पञ्चसं० ५, १४३-१४५। 2. ५, 'अत्रापर्यासोदया' इत्यादिगद्यांशः ( पृ० १७२)। 3.५, १४६-१४७ । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्रक्षेपणीयम्। पविशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं २६ शरीरगृहीतस्य स्वीकृतशरीरस्य द्वीन्द्रियस्योदेति २६ । तत्रौदारिकमिश्रकालोऽन्तर्मुहर्त एव । अत्र भङ्गा विकल्पास्त्रयो भवन्ति ३ । यशोभङ्गः १ अयशोभङ्गो २ एवं ३ ॥१२६-१२७॥ इसी प्रकार छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान शरीरको ग्रहण करनेवाले द्वीन्द्रियजीवके जानना चाहिए । उसके उक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आनुपूर्वीको निकाल करके औदारिकशरीर, हुंडकसंस्थान सृपाटिकासंहनन, औदारिक-अंगोपांग, प्रत्येकशरीर और उपघात, ये छह प्रकृतियाँ जोड़ना चाहिए । इस उदयस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है और भंग भी तीन ही होते हैं ।।१२६-१२७॥ ___यहाँ पर भंग इक्कीसप्रकृतिकस्थानके समान जानना चाहिए । अब द्वीन्द्रियके अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'एमेव अट्टवीसं सरीरपज्जत्तए अपज्जत। अवणिय परघायं पि य असुहगईसहिय दो भंगा ॥१२८॥ । एवं पूर्वोक्तषडविंशतिकं २६ तत्रापतिमपनीय पर्याप्तद्विकमध्यादपर्याप्तं निराक्रियते, तेन संख्या हीना न स्यात् । परघाताप्रशस्तविहायोगतिसहितं षडविंशतिकमष्टाविंशतिकं द्वीन्द्रियस्य शरीरपर्याप्तौ पूर्णाङ्ग सति अन्तर्महरीकाले उदेति २८ । तत्र यशोयुग्मस्य द्वौ भङ्गो भवतः २। यशःपाके भङ्गः १, प्रतिपक्षप्रकृत्यदयाभावात् । अयशःपाकेऽप्येको भङ्गः १ । मीलितौ २ ॥१२॥ ___इसी प्रकार अट्ठाईसप्रकृतिक उद्यस्थान उसी जीवके शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होनेपर अपर्याप्तको निकाल करके परघात और अप्रशस्तविहायोगति इन दोको मिलाने पर होता है। यहाँपर भंग दो होते हैं ॥१२८।। अव द्वीन्द्रियके उनतीस प्रकृतिकउदयस्थानका कथन करते हैं "एमेवूणत्तीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं । पक्खित्त तह चेव य भंगा दो होति णायव्वा ॥१२६॥ ।२। एवं पूर्वोक्तमष्टाविंशतिकं २८ तत्रोच्छासनिःश्वासे प्रक्षिप्ते एकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ उच्छासपर्याप्ति प्राप्तस्य द्वीन्द्रियस्योदेति २६ । तंत्र भङ्गो द्वौ ज्ञातव्यौ भवतः २ । यशोयुग्मस्य भङ्गो द्वावेव २ । तत्रान्तर्मुइतकालो ज्ञेयः ॥१२॥ इसी प्रकार उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके श्वासोच्छासपर्याप्तिके पूर्ण होनेपर उच्छासप्रकृतिके मिलानेसे होता है । यहाँपर भी भंग दो ही होते है, ऐसा जानना चाहिए ॥१२६।। अब द्वीन्द्रियके तीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं एमेव होइ तीसं भासापज्जत्तयस्स णवरिं तु । सहिए दुस्सरणामं भंगा वि य होति दो चेव ॥१३०॥ भंगा २। एवं पूर्वोक्तनवविंशतिकं २९ दुःस्वरनामप्रकृतिसहितं त्रिशकं नामप्रकृत्युदयस्थानं ३० भाषापर्याप्तिं प्राप्तस्य द्वीन्द्रियजीवस्योदयं याति । इदं त्रिंशत्कं जीवितावधेः स्थानम् । उत्कृष्टा स्थितिः द्वादश वार्षिकी १२ । जघन्या अन्तर्मुहूर्तिकी । अत्र भङ्गो द्वौ भवतः २ । यशोयुग्मस्यैव भङ्गौ द्वौ २ ॥१३०॥ 1 सं० पञ्चसं० ५, १४८। 2.५, १४६ । 3.५, १५०। । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह इसी प्रकार तीसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके भाषापर्याप्तिके पूर्ण होनेपर दुःस्वरप्रकृतिके मिलानेसे होता है । यहाँपर भी भंग दो ही होते हैं ॥१३०॥ अब उद्योतके उदयवाले द्वीन्द्रियके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं ३६० 'उज्जोवउदय सहिए वेइंदिय एकवीस छव्वीसं । पुव्वुत्त चैव तहां एत्थ य भंगा य पुणरुत्ता ॥ १३१ ॥ एत्थ दो दो भंगा | २|२| पुणरुत्ता | उद्योतोदयसहिते द्वीन्द्रिये पूर्वोक्तमेवैकविंशतिकं अपर्याप्तरहितं २१ षडविंशतिकं च भवति २६ । ग्रन्थभूयस्त्वभयान्नास्माभिर्वारंवारं लिख्यते । अत्र भङ्गौ द्वौ २ पुनरुक्तौ । तत्र कालः पूर्वोक्त एव ॥१३१॥ उद्योतप्रकृतिके उदयसे सहित द्वीन्द्रियजीवके पूर्वोक्त ही इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए । यहाँपर भी भङ्ग दो दो होते हैं, जो कि पुनरुक्त हैं ।। १३१ ॥ यहाँपर पुनरुक्त दो-दो भंग होते हैं । अब पूर्वोक्त जीवके उनतीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं'छवीसा उवरिं सरीरपज्जत्तयस्स परघायं । उज्जीवं असुहगई पक्खित्त गुतीस दो भंगा ॥ १३२ ॥ |२| पविंशत्या उपरि परघातं १ उद्योतं । अप्रशस्तगतिं च प्रक्षिप्य एकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ शरीरपर्याति प्राप्तस्योद्योतोदयसहितद्वीन्द्रियस्योदयागतं भवति २३ । तत्र भङ्गौ द्वौ २ यशोयुग्मस्यैव ॥ १३२ ॥ शरीरपर्याप्तिको पूर्ण करनेवाले द्वीन्द्रियजीवके छब्वीसप्रकृतिक उदयस्थानके परघात, उद्योत और अप्रशस्तविहायोगति, इन तीन प्रकृतियोंके मिलानेपर उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान हो जाता है । यहाँपर भी दो भंग होते हैं ॥१३२॥ अब उसी जीवके तीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं'एमेव होइ तीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं । पक्खित े तह चैव य भंगा वि हवंति दो चैव ॥ १३३ ॥ | भंगा २ । एवं पूर्वोक्तनवविंशतिकं २६ । तत्रोच्छ्वासनिःश्वासे निक्षिप्ते त्रिंशत्कं नामप्रकृत्युदयस्थानं उद्योतोदयसहितद्वन्द्रियस्योदयागतं भवति ३० उच्छ्रासपर्याप्तौ कालोऽन्तर्मुहूर्तः । त्रिंशत्कं द्वैधं, भङ्गौ द्वौ भवतः ॥ १३३॥ इसी प्रकार श्वासोच्छ्रास पर्याप्तिको सम्पन्न करनेवाले द्वीन्द्रियके उनतीसप्रकृतिक उदयस्थानमें उच्छ्रासप्रकृति के मिलाने पर तीसप्रकृतिक उदयस्थान हो जाता है । यहाँ पर भी भङ्ग दो ही होते हैं ॥ १३३॥ अब उसी जीवके इकतीसप्रकृतिक उदयस्थानका कथन करते हैं 'एमेव एकतीसं भासापज्जत्तयस्स णवरिं तु । दुस्सर संपत्ति दो चेव हवंति भंगा |२| ॥१३४॥ 1. सं० पञ्चसं ०५, १५१ । २. ५, १५२ । ३५, १५३ । 4.५, १५४ | Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका एवमुक्तप्रकारं त्रिंशत्कम् । भङ्गौ २ । तत्र दुःस्वरे संप्रक्षिप्ते निक्षिप्ते एकत्रिंशत्कं नाम प्रकृत्युदयस्थानं भाषापर्याप्ति प्राप्तस्योद्योतोदयसहितद्वीन्द्रियस्योदयागतं भवति ३१ । दुःस्वरं तन निक्षिप्तं नवीनविशेष इति । तत्र यशोयुग्मस्य भङ्गौ द्वौ ३। जघन्याऽन्तमौहूर्तिकी स्थितिः, उत्कृष्टा द्वादश वार्षिकी स्थितिः तस्य भाषापर्याति प्राप्तस्य द्वीन्द्रियस्येति ॥१३॥ इसी प्रकार भाषापर्याप्तिको पूर्ण करनेवाले द्वीन्द्रियजीवके तीसप्रकृतिक उदयस्थानमें दुःस्वरप्रकृतिके प्रक्षेप करने पर इकतीसप्रकृतिक उदयस्थान हो जाता है । यहाँ पर भी भंग दो ही होते हैं ॥१३४॥ बेइंदियस्स एवं अट्ठारस होति सव्वभंगा दु । एवं वि-ति-चउरिंदियभंगा सव्वे वि चउवण्णा ॥१३॥ बेइंदियस्स सम्वे भंगा १८ । एवं ति-चउरिदियाणं । सव्वे भंगा ५४ । द्वीन्द्रियस्यैवं पूर्वोक्तप्रकारेणाष्टादश सर्वे भगा विकल्पाः स्थानभेदा भवन्ति १८ । एवं त्रीन्द्रियस्याटादश भङ्गाः १८। चतुरिन्द्रियजीवस्याष्टादश भङ्गाः १। सर्वे एकीकृताः विकलत्रयाणां चतुःपञ्चाशत्सर्व भङ्गाः ५४ भवन्ति ॥१३५॥ इस प्रकार द्वीन्द्रिय जीवके सर्व भङ्ग अट्ठारह होते हैं । त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके भी अट्ठारह-अठारह भंग जानना चाहिए। इस प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियके सर्व भंग चौवन होते हैं ॥१३५।। द्वीन्द्रियके सर्व भंग १८ हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियके भी भंग १८-१८ होते हैं। विकलेन्द्रियोंके सर्व भंग ५४ होते हैं। अब विकलेन्द्रियोंके तीस और इकतीस प्रकृतिक उदयस्थानोंका काल बतलाते हैं तीसेक्कतीसकालो जहण्णमंतोमुहुत्तयं होइ । उक्कस्सं पुण णियमा उक्कस्सठिदी य किंचूणा ॥१३६॥ एत्थ बेइंदियम्मि तीस-इक्वत्तोसठाणाणं ३०३३ ठिदी वासा १२ । तेइंदियम्मि तीसेक्कतीसठाणाणं ३०॥३१ ठिदी दिवसा ४६ । चउरिदियम्मि तीसेक्कतीसठाणाणं ३०॥३१ ठिदी मासा ६। त्रिंशत्कस्य एकत्रिंशत्कस्य च नामप्रकृत्युदयस्थानस्य ३०॥३१ जघन्यकाल भवति । पुनः उत्कृष्टकालो निजनिजोत्कृष्टायुःस्थितिरेव किञ्चिन्न्यूनविग्रहगतिशरीर मिश्रशरीरपर्याप्त्युच्छ्रासपर्याप्तिकालहीनमुस्कृष्टायुरित्यर्थः ॥१३६॥ __ अत्र द्वीन्द्रियाणां त्रिंशत्कस्थानस्य ३० एकत्रिंशत्कस्थानस्य च ३१ स्थितिर्दादशवार्षिकी १२ किञ्चिन्न्यूना । त्रीन्द्रियाणां त्रिशत्कस्थानस्यकत्रिंशत्कस्थानस्य च स्थितिदिवसा एकोनपञ्चाशत् ४६ किञ्चिन्यूनाः । चतुरिन्द्रियेषु त्रिंशरकस्य एकत्रिंशत्कस्थानस्य च स्थितिः षण्मासा ६ किञ्चिन्न्यूना । विकलेन्द्रियोंके तीसप्रकृतिक और इकतीसप्रकृतिक उदयस्थानोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल नियमसे कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ॥१३६॥ __यहाँ पर द्वीन्द्रियके तीस और इकतीस प्रकृतिक उदयस्थानोंकी उत्कृष्ट स्थिति १२ वर्ष है। त्रीन्द्रियके तीस और इकतीस प्रकृतिक उदयस्थानोंकी उत्कृष्ट स्थिति ४६ दिन है और चतुरिन्द्रियके तीस व इकतीस प्रकृतिक उदयस्थानोंकी उत्कृष्ट स्थिति ६ मास है। 1. सं० पञ्चसं० ५, १५५ । 2. ५, १५६ । ३. ५, 'तत्र' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १७३) । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ पञ्चसंग्रह अब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चके उदयस्थान बतलाते हैं २१।२६।२८|२६|३०|३१| सामान्येन पञ्चेन्द्रियाणामेकविंशतिकं २१ पडूविंशतिकं २६ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ चेति नामप्रकृत्युदयस्थानानि षड् भवन्ति ॥१३७॥ 'पंचिदियतिरियाणं सामण्णे उदयठाण छच्चेव । इrिari छव्वीसं अट्ठावीसादि जाव इगितीसं ॥ १३७॥ २१।२६।२८ |२६|३०|३१| सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंचके इक्कीस, छब्बीस और अट्ठाईसको आदि लेकर इकतीस प्रकृतिक तकके छह उदयस्थान होते है || १३७॥ इन उदयस्थानोंकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है - २१, २६, २८, २६, ३०, ३१ । अब उद्योतके उदयसे सहित और रहित पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चके उदयस्थान कहते हैं— 'उज्जोवर हियसले एकत्तीसूणगाणि ठाणाणि । उज्जोवस हियसयले अट्ठावीसूणगा पंच ॥ १३८ ॥ " उज्जोवर हिय पंचिदिए २१।२६।२८।२६|३०| उज्जोउदयसहियपंचिदिए २१।२६।२६।३०।३३। उद्योतोदयरहितपञ्चेन्द्रियेषु तिर्यक्षु एकत्रिंशत्कोनानि नामप्रकृत्युदयस्थानानि पञ्च भवन्ति २१।२६।२८।२६।३० । उद्योतोदयसहितपञ्चेन्द्रियेषु तिर्यक्षु अष्टाविंशतिकोनानि नामप्रकृत्युदयस्थानानि पञ्च भवन्ति २१।२६।२६।३०।३१ ॥ १३८ ॥ उद्योतप्रकृतिके उदयसे रहित सकल अर्थात् पंचेन्द्रिय जीवके इकतीसप्रकृतिक स्थानके विना शेष पाँच उदयस्थान होते हैं । तथा उद्योतप्रकृतिके उदयसे सहित पंचेन्द्रिय जीवके अट्ठाईसप्रकृतिक स्थानके विना शेष पाँच उदयस्थान होते हैं ॥१३८॥ उद्योतके उदयसे रहित पंचेन्द्रिय में २१, २६, २८, २९, ३० ये पाँच उदयस्थान होते हैं । उद्योतके उदयसे सहित पंचेन्द्रिय में २१, २६, २६, ३०, ३१ ये पाँच उदयस्थान होते हैं । अब उद्योतके उदयसे रहित पाँचों उदयस्थानोंका क्रमसे वर्णन करते हैं सव्वे ॥ ^ उज्जोवर हियसयले तत्थ इमं एकवीससंठाणं । तिरियदुगं पंचिंदिय तेया कम्मं च वण्णचदुं ॥ १३६ ॥ अगुरुयल हुयं तस बायर थिरमथिर सुहासुहं च णिमिणं च । सुभगं जस पज्जत' आदेज्जं चेव चउजुयलं ॥ १४०॥ एक्कयरं वेयंतिय विग्गहगईहिं एय-वियसमयं च । एत्थ विपाणियमा णव चैव य होंति णायव्वा ॥ १४१ ॥ एत्थ अपजत्तोदए दुभगअणादेज- अजस कित्तीणमेवोदओ, तेण एगो भंगो १ । पत्तोदए ८ । 1. सं०पञ्चसं० ५, १५७ । 2. ५, १५८ । 3. 1, 'उद्योतोदयरहिते' इत्यादिगद्यांशः । पृ० १७४) । 4, ५, १५६-१६१ । 5. ५, 'त्र पूर्णोदये' इत्यादिगद्यभाग: ( पृ० १७४) । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३६३ उद्योतोदयरहितपञ्चेन्द्रियाणां तिरवां मध्ये एकस्मिन् तिर्यग्जीवे तत्र नामोदयस्थानेषु पञ्चसु मध्ये इदमेकविंशतिकं नामपकृत्युदयस्थानं भवति । किमिति ? तिर्यग्गतिद्वयं २ पञ्चेन्द्रियं १ तैजस-कार्मणद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुकं १ त्रसं १ बादरं १ स्थिरास्थिरयुग्मं २ शुभाशुभद्वयं २ निर्माणं १ सुभगासुभग-यशोऽयराः - पर्याप्ता पर्याप्ताऽऽदेयानादेयानां चतुर्युगलानां मध्ये एकतरं १।६।१।१ इत्येकविंशतिर्नाम - प्रकृतयो विग्रहगतौ उदयन्ति २१ उद्योतोदयरहितपञ्चेन्द्रियजीवस्य विग्रहगतौ कार्मणशरीरे इदमेकविंशतिकमुदयगतं भवतीत्यर्थः । अत्रैकः समयो द्वौ समयौ वा । अत्र विकल्पा भङ्गा एकविंशतिकस्य भेदा नव भवन्तीति ज्ञातव्याः ॥१३६-१४१॥ अत्रापर्याप्तोदये सति दुर्भगाऽऽनादेयायशः कीर्त्तीनामुदयो भवत्येव यतस्तत एको भङ्गः १ । पर्याप्तोदये सति दुर्भग- सुभगादीनां त्रययुग्मोदयादष्टौ भङ्गाः २/२/२ परस्परं गुणिताः भङ्गाः । सर्वे नव ६ भङ्गाः । उद्योत-रहित पंचेन्द्रियके इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार है-तिर्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, त्रस, बादर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ; निर्माण और सुभग, यशः कीर्त्ति, पर्याप्त और आदेय इन चार युगलोंमेंसे कोई एक एक, इन इक्कीस प्रकृतियों का उदद्य विग्रहगति में एक या दो समय तक रहता है । यहाँ पर नियमसे नौ ही भङ्ग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।। १३६ - १४१ ॥ इस इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान में अपर्याप्तप्रकृतिके उदयमें दुर्भग, अनादेय और अयश:कीर्त्तिका ही उदय होता है, इसलिए उसके साथ एक ही भंग सम्भव है । किन्तु पर्याप्तप्रकृतिके उदयमें तीनों युगलों का उदय सम्भव है, अतः तीन युगलोंके परस्पर गुणा करनेसे आठ भंग हो जाते हैं । इस प्रकार इस उदयस्थानमें दोनों मिलकर नौ भङ्ग होते हैं । अब उपर्युक्त जीवके छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'मेव य छवीसं वरि विसेसो सरीरगहियस्स । raणी आणुgoat पक्खिवियव्वं तथोरालं ॥ १४२॥ तस् य अंगोवंगं छस्संठाणाणमेयदरयं च । छच्चैव य संवयणा एक्कयरं चेव उपघायं ॥ १४३ ॥ पत्तेयसरीरजुयं भंगा विय तह न होंति णायव्वा । तिष्णि सयाणि यणियमा एयारस ऊणिया होंति ॥ १४४ ॥ 'पज्जत्तोदए भंगा २८८ । अपजत्तोदये हुंड-असंपत्त दुब्भग-अणादेज भजस कित्तीणमेवोभो, तेण एगो भंगो १ । एवं सव्वे २८६ । एवमेव पूर्वोक्तमेकविंशतिकं २१ तत्रानुपूर्व्यमपनीय २० तत्रैौदारिकं १ तदङ्गोपाङ्ग १ पट्संस्थानानां मध्ये एकतरं संस्थानं १ पण्णां संहननानां मध्ये एकतरं [ संहननं ] १ उपघातः १ प्रत्येकशरीरं चेति प्रकृतिपटक ६ तत्र विंशतौ प्रक्षेपणीयम् । एवं षड्विंशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं शरीरं गृह्णतः औदारिकमिश्रकाय गृहीतस्योद्योतोदयरहितस्य पञ्चेन्द्रियस्य तिर्यग्जीवस्योदयागतं भवति २६ । अस्य कालोऽन्तमुहूर्त्तः २१ । अस्य पर्याप्तोदये सति द्वादशोनं शतत्रयं २८८ अपर्याप्तोदये सति एको भङ्गः । एवं एकादशोनातिभङ्गा भवन्ति २८६ । तथाहि — अपर्याप्तोदये सति हुण्डका सम्प्राप्तस्पाटिक-दुर्भगानादेयायश: 1. सं० पञ्चसं० ५, १६२-१६४ | 2. ५, 'अत्र पूर्णाददये संस्थान' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० १७४) । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ पक्षसंग्रह कोतिनामोदय एव यतस्तत एको भङ्गः । पर्याप्तोदये सति संस्थानषटक-संहननषटक-युग्मत्रयाणां ६।६।२।२।२ परस्परेण गुणिताः २८८ । शुभैः सहापूर्णोदयस्याभावादपूर्णोदये भङ्गः । ॥१४२-१४४॥ उक्तञ्च असम्प्राप्तमनादेयमयशा हुण्डदुर्भगे। अपूर्णेन सहोदेति पूर्णेन तु सहेतराः ॥७॥ इति सर्वे २८६ । इसी प्रकार छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि शरीरपर्याप्तिको ग्रहण करनेवाले जीवके आनुपूर्वीको निकाल करके औदारिकशरीर, औदारिक-अङ्गोपांग,छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येक रीर इन छह प्रकृतियोंके मिला देने पर छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है, ऐसा जानना चाहिए । यहाँ पर नियमसे ग्यारह कम तीन सौ अर्थात् दोसौ नवासी भङ्ग होते हैं ॥१४२-१४४।। यहाँ पर्याप्तप्रकृतिके उदयमें छह संस्थान, छह संहनन, तथा शुभ, आदेय और यशःकीर्ति इन तीनों युगलोंके परम्पर गुणा करने पर (६x६x२x२x२८:२८८) दो सौ अठासी भङ्ग होते हैं। तथा अपर्याप्तप्रकृतिके उदयमें हुंडक संस्थान, सृपाटिका संहनन, दुर्भग, अनादेय और अयश-कीर्त्तिका ही उदय होता है, इसलिए एक ही भंग होता है । इस प्रकार २८८+१=२८६ भङ्ग छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानमें होते हैं। अब उसी जीवके अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'एमेवट्ठावीसं सरीरपज्जत्तगे अपज्जत्त । अवणिय पक्खिविदव्वं एक्कयरं दो विहायगई ॥१४॥ परघायं चेव तहा भंगवियप्पा तहा य णायव्या। पंचेव सया णियमा छावत्तरि उत्तरा होति ॥१४६॥ ___ भंगा ५७६ । __ एवं पूर्वोक्तं पड़विंशतिकं तत्रापर्याप्तमपनीय प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्योमध्ये एकतरोदयः परघातं चैतद्वयं पड्विंशतिके प्रक्षेपणीयम् । अष्टाविंशतिकं २८ तत्तु तिर्थग्गतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ तैजसकार्मणे २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघु सं १ बादरं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ निर्माणं १ पर्याप्तं १ सुमगासुभगयोरेकतरं १ यशोऽयशसोरेकतरं १ आदेयानादेययोरेकतरं १ औदारिकशरीरं । औदारिकाङ्गोपाङ्गम् १ पण्णां संस्थानानां मध्ये एकतरं १ षण्णां संहननानां मध्ये एकतरं १ उपघातं १ प्रत्येकशरीरं १ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्योर्मध्ये एकतरं १ परघातं । चेत्यष्टाविंशतिकं स्थानं २८ शरीरपर्याप्तिप्राप्ते सति र हितस्य पञ्चेन्द्रिय-तियग्जीवस्योदयागतं भवति । तस्यान्तमु हूत्तकालः जघन्योत्कृष्टतः । तथा तस्याष्टाविंशतिकस्य भङ्गविकल्पाः षड्सप्तत्युत्तरपञ्चशतसंख्योपेता ज्ञातव्याः ॥१४५-१४६॥ ६६।२।२।२२ गुणिता ५७६ । इसी प्रकार अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होने पर अपर्याप्तप्रकृतिको निकाल करके दो विहायोगतिमेंसे कोई एक और परघात प्रकृतिके मिलाने पर होता है । तथा यहाँ पर भग-विकल्प पाँच सौ छिहत्तर होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१४५-१४६॥ __ छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानमें जो पर्याप्त-सम्बन्धी २८८ भङ्ग बतलाये हैं उन्हें यहाँ पर बढ़े हुए विहायोगति-युगलसे गुणा कर देने पर (२८८४२=) ५७६ भङ्ग हो जाते हैं । 1.सं. पञ्चसं० ५,१६६-१६७ । १. सं० पञ्चसं० ५,१६६ । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अब उपर्युक्त जीवके उनतीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'एमेऊणत्तीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं। पक्खित्त तह भंगा पुव्वुत्ता चेव णायव्वा ॥१४७॥ भंगा ५७६ । एवमेवोक्तमष्टाविंशतिके उच्छासनिःश्वासे प्रक्षिप्त एकान्नत्रिंशकं नामप्रकृत्युदयस्थानं २६ आनपर्याप्तस्य उच्छासनिःश्वासपर्याप्ति प्राप्तस्योद्योतोदयरहितस्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्जीवस्योदयागतं भवति । तस्य जघन्योत्कृष्टतोऽन्तमुहर्तकालः । तथा तस्य भङ्गाः पूर्वोक्का एव ज्ञातव्याः ५७६ ॥१४७॥ इसी प्रकार उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके आनापानपर्याप्तिके पूर्ण होने पर उच्छासप्रकृतिके मिला देने होता है। यहाँ पर भङ्ग पूर्वोक्त पाँच सौ छिहत्तर (५७६) ही जानना चाहिए ॥१४॥ अब उसी जीवके तीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'एमेव होइ तीसं भासापज्जत्तयस्स सरजुयलं । एक्कयरं पक्खित्त भंगा पुव्वुत्तदुगुणा दु ॥१४॥ सब्वे भंगो ११५२ । एवमुज्जोउदयरहियपंचिदिए सव्वभंगा २६०२ । एवं पूर्वोक्तमेकात्रिंशत्कं २१ तत्र स्वरयुगलस्यैकतरं १ प्रक्षिप्त त्रिंशत्कं नामप्रकृत्युदयस्थानं ३० भाषापर्याप्तिं प्राप्तस्योद्योतोदयरहितस्य पन्चेन्द्रियतिर्यग्जीवस्योदयागतं भवति ३० । तु पुनः तस्य भङ्गाः पूर्वोक्ताः ५७६ स्वरयुगलेन २ हताः द्विगुणा भवन्ति ११५२ । एवमित्थं उद्योतोदयरहिते पन्चेन्द्रियतिर्यग्जीवे सर्व भङ्गाः २६०२ ॥१४८॥ । इसी प्रकार तीसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके भाषापर्याप्तिके पूर्ण होने पर स्वरयुगलमेंसे किसी एकके मिलाने पर होता है। यहाँ पर भङ्ग पूर्वोक्त भङ्गोंसे दुगुण अर्थात् ११५२ होते हैं ॥१४८।। __ पूर्वोक्त ५७६ भंगोंको स्वर-युगलसे गुणा करनेपर ११५२ भंग हो जाते हैं । इस प्रकार ....२१ २६ २८ २९ ३० उद्योतप्रकृतिके उदयसे रहित पंचेन्द्रियतिर्यचके सर्व भंग (२१ ) + २८६ + ५७६+ ५७६+ ११५२ =) २६०२ होते हैं अब उद्योतप्रकृतिके उदयवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं - उज्जोवसहियसयले इगि-छव्वीसं हवदिपुव्वुत्त । भंगा वि तह य सव्वे पुणरुत्ता होंति पायव्या ॥१४९।। उद्योतोदयसहितपञ्चेन्द्रियतिर्यग्जीवे एकविंशतिक २१ षडविंशतिकं च पूर्वोक्तं भवति । तत्रैवापर्याप्तमपनीय पूर्वोक्तपुनरुक्ता भङ्गास्तत्र भवन्ति । तत्किम् ? तिर्यग्गति-तदानुपू] २ पञ्चेन्द्रियं १ तेजस-कार्मणे २ वर्णचतुष्कं अगुरुलघक वसं १ बादरं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ निर्मा सुभगासुभगयोः यशोऽयशसोयुग्मयोर्मध्ये एकतरं ११ आदेयानादेययुग्मस्यैकतरं १ चेति एकविंशतिकं 1. सं० पञ्चसं० ५, १६८ । 2. ५, १६६ । , ५, ३० । भङ्गाः पूर्वोक्ताः' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १७५)। 4.५, १७० । नव जिहाहि । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह स्थानं उद्योतोदय [ सहित-] पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्जीवस्योदयागतं भवति २१ । अस्य भङ्गाः सुभगदुर्भगादेयानादेययशोऽयशसां युग्मत्रयाणां २।२।२ परस्परं गुणिताः अष्टौ ८ । काल एक-द्वि-त्रिसमयाः । उद्योतोदये सर्वत्रापर्याप्तं नास्तीति ज्ञेयम् । इदमेकविंशतिकं स्थानं तत्रानुपूर्व्यमपनीय औदारिक-तदङ्गोपाङ्गद्वयं २ पण्णां संस्थानानासेकतरं १ षण्णां संहनानामेकतरं १ उपघातः १. प्रत्येकंशरीरं चेति प्रकृतिपटकं तत्र प्रक्षेपणीयम् । तदा षडविंशतिक स्थान २६ उद्योतोदयसहितपञ्चेन्द्रियतिर्यग्जीवस्योदयागतं भवति । तस्य कालोऽन्तमुहूर्तः। तस्य भङ्गाः २।२।६।६ परस्परं गुणिताः २८८ पर्याप्तोदयभङ्गा विकल्पा भवन्तीत्यर्थः ॥१४॥ उद्योतप्रकृतिके उदयसे सहित सकलपंचेन्द्रियजीवके इक्कीस और छव्वीसप्रकृतिक उदयस्थान पूर्वोक्त अर्थात् उद्योतके उदयसे रहित पंचेन्द्रियजीवके समान ही होते हैं । तथा भंग भी उन्हीं के समान होते हैं । वे सब भंग पुनरुक्त जानना चाहिए ॥१४६।। अब उक्त जीवके उनतीसप्रकृतिक उदयस्थानका प्ररूपण करते हैं 'एमेव ऊणतीसं सरीरपज्जत्तयस्स परघायं । उज्जो गइदुगाण एयदरं चेव सहियं तु ॥१५॥ एत्थ वि भंग-वियप्पा छच्चेव सया हवंति ऊणा य । चउवीसेण दु णियमा कालो अंतोमुहुत्तं तु ॥१५१॥ भंगा ५७६ । एवमेव पूर्वोक्तं षडविंशतिकं २६ परघातं १ उद्योतं १ प्रशस्ताप्रशस्तगत्योर्मध्ये एकतरं । चात प्रकृतित्रयसहितं पड्विंशतिकं तु एकोनत्रिंशत्कं शरीरपर्याप्तिं गृह्णतः उद्योतोदयसहितस्य पञ्चेन्द्रियतिर्यगजीवस्योदयागतं २६ भवति । तस्यान्त तमुंहतकालः । तत्र भङ्गाः पूर्वोक्तोः २८८ प्रशस्ताप्रशस्तेन गतियुग्मेन गुणिताः ५७६ भवन्ति । तदाह-अत्रकोनत्रिंशत्के भङ्गविकल्पाश्चतुर्विंशतिन्यूनाः षट्शतसंख्योपेता भवन्ति ५७६ । अत्र कालोऽन्तर्मुहूर्तः ॥१५०-१५१॥ ___ इसी प्रकार उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके शरीरपर्याप्तिसे युक्त होनेपर परघात, उद्योत और विहायोगतियुगलमेंसे किसी एकके मिला देनेपर होता है। यहाँपर भी भंग-विकल्प चौवीससे कम छह सौ अर्थात् ५७६ होते हैं। इस उदयस्थानका काल नियमसे अन्तर्मुहूर्त है॥१५०-१५.१॥ अब उक्त जीवके तीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं "एमेव होइ तीसं आणापजत्तयस्स उस्सासं । पक्खित्त भंगा वि य सरिसा एऊणतीसेण ॥१५२।। भंगा ५७६ । एवं पूर्वोक्तनवविंशतिकं २६ तत्रोच्चासनिःश्वासे निक्षिप्ते त्रिशत्कं स्थानं ३० आनापानपर्याप्तस्योधोतोदय-[ सहित-] पन्चेन्द्रियतिर्यग्जीवस्योदयागतं भवति ३० । तस्यैकोनविंशत्कसदृशा भङ्गाः ५७६ भवन्ति ॥१५२॥ इसी प्रकार तीसप्रकृतिक उदयस्थान उसी जीवके आनापानपर्याप्तिके पूर्ण होनेपर उच्छ्रासप्रकृतिके मिलानेसे होता है । इस उदयरथानके भी भंग उनतीसप्रकृतिक उदयस्थानके सहश ५७६ होते हैं ॥१५२।। 1. सं०पञ्चसं० ५, १७१-१७२ । 2. ५, १७३ । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव उक्त जीवके इकतीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैंएमेव एकतीसं भासापज्जत्तयस्स सरजुयलं । एक्कयरं पक्खित्ते भंगा पुव्वुत्तदुगुणा दु || १५३॥ ११५२ । सप्ततिका एवं पूर्वोक्तत्रिंशत्कं तत्र स्वरयुगलस्यैकतरं सुस्वरदुःस्वरयोर्मध्ये एकतरं १ निक्षिप्ते एकत्रिंशत्कं स्थानं ३१ भाषापर्याप्तिं प्राप्तस्योद्योतोदयसहित पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्जीवस्योदयागतं ३१ भवति । तत्किम् ? तिर्यग्गतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ तैजस-कार्मणे २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुकं १ त्रसं १ बादरं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ निर्माणं १ पर्याप्तं १ सुभग-दुर्भगयुग्मस्य मध्ये एकतरं १ यशोऽयशसोर्मध्ये एकतरं १ आदेयानादेययोर्मध्ये एकतरं १ औदारिक-तदङ्गोपाङ्ग २ पण्णां संस्थानानामेकतरं १ षण्णां संहननानामेकतरं १ उपघातः १ प्रत्येकशरीरं १ परघातः १ उद्योतं १ प्रशस्ता प्रशस्तगत्योर्मध्ये एकतरा गतिः १ उच्छ्रासनिःश्वासं १ सुस्वरदुःस्वरयोर्मध्ये एकतरोदयः १ । एवमेकत्रिंशत्कं प्रकृत्युदयस्थानं भाषापर्याप्तिं प्राप्तस्योधोतोदय - [ सहित ] पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्जीवस्योदयागतं भवतीत्यर्थः । अस्य भङ्गविकल्पाः २।२।२।६।६।२१२ परस्परं गुणिताः ११५२ । अथवा पूर्वोक्ताः ५७६ स्वरयुगलेन २ गुणिता द्विगुणा भवन्ति ११५२ ॥१५३॥ - इसी प्रकार इकतीस प्रकृतिकउदयस्थान उसी जीवके भाषापर्याप्ति के पूर्ण होनेपर स्वर-युगलमेंसे किसी एकके मिलानेपर होता है । यहाँपर भंग पहले कहे गये भंगोंसे दुगुने अर्थात् १९५२ होते हैं ।। १५३।। अब तीस और इकतीसप्रकृतिक उदयस्थानका काल बतलाते हैं 'तीसेकतीसकालो जहणमंतो मुहुत्तयं होइ । अंतोमुहुत्तऊणं उक्करसं तिणि पल्लाणि ॥ १५४ ॥ त्रिंशत्कस्थानस्य ३० जघन्योऽन्तमुहूर्त्तकालः । एकत्रिंशत्कस्थानस्य ३१ जघन्योऽन्तर्मुहूर्त्तः । उत्कृष्टकालोऽन्तमुहूर्त्तेनानि त्रीणि पत्यानि । विग्रहगति-शरीर मिश्र शरीरपर्याप्त श्वासोच्छ्वासपर्याप्तिकाल - चतुष्कोनं सर्वं भुज्यमानायुरित्यर्थः ॥ १५४ ॥ 1. 2. सं० पञ्चसं० ५, १७४ । 4. ५, १७५ । ३६७ तीसप्रकृतिक उदयस्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इकतीसप्रकृतिक उद्यस्थानका जबन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल अनन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य है || १५४ ।। एवं उज्जोयसहियपंत्तिदियतिरिएसु सव्वभंगा २३०४ । एयं सव्वपंचिंदियतिरिएस ४६०६ । एवमुद्योतोदयसहित पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्जीवे सर्वे भङ्गाः २३०४ उद्योतर हितपन्चेन्द्रियतिर्यक्षु २६०२ । एवं पञ्चेन्द्रियेषु सर्वे भङ्गाः ४६०६ । इस प्रकार उद्योतप्रकृतिके उदयसे युक्त पंचेन्द्रियतिर्यंचोंके उदयस्थान-सम्बन्धी सर्व भंग ३० ३१ = ) २३०४ होते हैं। इनमें उद्योतके उदयसे रहित पंचेन्द्रियोंके २६०२ ( ५७६ + ५७६ + ११५२ २६ भंग मिला देनेपर (२०३३ + २६०२ =) ४६०६ भंग सर्व पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके हो जाते हैं । 'सव्वेसिं तिरियाणं भंगवियप्पा हवंति णायव्वा । पंचेव सहस्साइं ऊणाई हवंति चदुदुगुणा ॥ १५५ ॥ ४६३२ । तिरियगई समत्ता 3. ५, 'इत्थं सोद्योतोदये' इत्यादिगद्यांश: ( पृ० १७६ ) । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पञ्चसंग्रह अष्टभिहीनाः पञ्च सहस्रा भङ्गविकल्पः सर्वेषामेकेन्द्रियादिपम्चेन्द्रियपर्यन्तानां तिरश्चां भवन्ति ज्ञातव्याः ४६६२ ॥१५५॥ उक्तश्च सहस्राः पञ्च भङ्गानामष्टहीना निवेदिताः। तिर्यग्गतौ समस्तानां पिण्डितानां पुरातनैः' ॥८॥ इति तिर्यग्गतौ नामप्रकृत्युदयस्थानानि समाप्तानि । एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सर्व तिर्यचोंके उदयस्थान-सम्बन्धी सर्व भंगोंके विकल्प चारद्विक अर्थात् आठ कम पाँच हजार होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१५५।। भावार्थ-एकेन्द्रियोंके ३२, विकलेन्द्रियोंके ५४ और सकलेन्द्रियोंके ४६०६ भंगोंको जोड़ देनेपर तियंचोंके सर्व भंग ४६६२ हो जाते हैं । इस प्रकार तिर्यश्चगति-सम्बन्धी नामकर्मके उदयस्थानोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब मनुष्यगतिमें नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं मणुयगईसंजुत्ता उदये ठाणाणि होति दस चेव । चउवीसं वज्जित्ता सेसाणि इति णायव्वा ॥१५६।। २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।। अथ मनुष्यगतौ नामप्रकृत्युदयस्थानानि गाथापञ्चविंशत्याऽऽह-[मणुयगईसंजुत्ता' इत्यादि । ] चतुर्विशतिकं स्थानं वर्जयित्वा शेषाणि मनुष्यगत्यां मनुष्यगतिसंयुक्तानि नामकर्मप्रकृत्युदयस्थानानि दश भवन्ति-एकविंशतिकं २१ पञ्चविंशतिकं २५ पड़विशतिकं २७ सप्तविंशतिकं २७ अष्टाविंशतिक २८ नवविंशतिकं २६ त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ नवक भष्टकं चेति दश १०॥१५६।। नामकर्मके जितने उदयस्थान हैं, उनमेंसे चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानको छोड़कर शेष दश उदयस्थान मनुष्यगति-संयुक्त होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१५६॥ उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ । पंचिंदियतिरिएसुं उज्जोवूणेसु जाणि भणियाणि । ओघणरेसु वि ताणि य हवंति पंच उदयठाणाणि ॥१५७।। २१॥२६।२८।२६॥३०॥ उद्योतरहितपन्चेन्द्रियतियक्षु यानि उदयस्थानानि भणितानि, भोधनरेषु मनुष्यगतौ सामान्यमनुष्येषु तानि नामोदयस्थानानि पम्चैव भवन्ति-एकविंशतिकं घडविंशनिक अष्टाविंशतिकं नवकविंशतिक त्रिंशत्कमिति २१।२६।२८।२६।३० नामप्रकृत्युदयस्थानानि पञ्च भवन्ति ॥१५७॥ उद्योतप्रकृतिके उदयसे रहित पंचेन्द्रियतिर्यचोंमें जो पाँच उदयस्थान बतलाये गये हैं, सामान्यमनुष्यों में वे ही पाँच उदयस्थान होते है ॥१५७।। उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २६, २८, २६, ३० । १. सं० पञ्चसं० ५, १७६ । 1.सं० पञ्चसं०५,१७६। 2.५,१७७ । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका किन्तु मनुष्यगतिके उदयस्थानों में जो विशेषता है उसे बतलाते हैं 'तिरियदुवे मणुयदुयं भणणीयं होति सव्वभंगा हु । सत्तावीस सयाणि य अट्ठाणउदी य रहियाणि ॥१५८॥ ।२६०२। तथावि सुहबोहत्थं बुच्चए-- अत्र सामान्यमनुष्येषु तिर्यग्द्विके मनुष्य द्विकं भणनीयम् । यथा तियग्गतौ तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य भण्यते, तथा मनुष्यगतौ मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूयं भण्यते । सर्वभङ्गाः पूर्वोक्तप्रकारेण भङ्गाः अष्टानवतिरहिताः सप्तविंशतिशतप्रमाः द्विसहस्रपट शतद्विप्रमितभङ्गा इत्यर्थः २६०२ ॥१५८॥ उदयस्थानोंकी प्रकृतियोंमें तिर्यग्द्विकके स्थानपर मनुष्यद्विकको कहना चाहिए । यहाँपर भी सर्व भंग अट्ठावनवैसे रहित सत्ताईस सौ अर्थात् छठवीस सौ दो ( २६०२) होते हैं ॥१५८।। तथापि सुगमतासे समझनेके लिए उनका निरूपण करते हैं तित्थयराहाररहियपयडी मणुसस्स पंच ठाणाणि । इगिवीसं छव्वीसं अट्ठावीसं ऊणतीस तीसा य ॥१५६।। २१॥२६॥२८॥२६॥३०॥ यद्यपि पूर्वोक्तास्ते, तथापि सुखबोधार्थ वा भव्यशिष्यानां प्रतिबोधनार्थमुच्यते-[ 'तित्थयराहाररहिय' इत्यादि । ] तीर्थकरप्रकृत्याहारकद्विकप्रकृतिरहिरस्यि सामान्यमनुष्यस्य एकविंशतिकं २१ षड़विंशतिकं २६ अष्टाविंशतिकं २८ नवविंशतिकं २६ त्रिंशत्कं ३० चेति पञ्च नामप्रकृत्युदयस्थानानि भवन्ति ॥१५॥ तीर्थकर और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियोंके उदयसे रहित मनुष्यके इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक पाँच पाँच उदयस्थान होते हैं ॥१५६।। उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २६, २८, २९, ३०। 'तत्थ इमं इगिवीसं ठाणं णियमेण होइ ण यव्वं । मणुयदुयं पंचिंदिय तेया कम्मं च वण्णचहूँ ॥१६॥ अगुरुयलहु तस बायर थिरमथिर सुहासुहं च णिमिणं च । सुभगं जस पज्जत आदेज्जं चेव चउजुयलं ॥१६॥ एययरं वेयंति य विग्गहगईहिं एग-विगसमयं । एत्थ वियप्पा णियमा णव चेव वंति णायव्वा ॥१६२॥ पजत्तोदए भंगा ८ । भपज्जत्तोदये । सव्वे ।। तत्र मनुष्यगत्यामिदमेकविंशतिकं स्थानं २१ नियमेन ज्ञातव्यं भवति । तस्किम् ? मनुष्यगतितदानुपू] २ पञ्चेन्द्रियं १ तैजस-कार्मणद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुकं १ त्रसं १ बादरं , स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ निर्माणं १ सुभगदुभंगयुग्म-यशोऽयशोयुग्म-पर्याप्तापर्याप्तयुग्माऽऽदेयानादेययुग्मानां चतुर्णा मध्ये एकतरमेकतरमुदयं याति १1१1१।१ । चेत्येकविंशतिक नामप्रकृत्युदयस्थानं सामान्यमनुष्यस्यकजीवस्य विग्रहगत्यां कार्मणशरीरे जघन्यमेकससयं उत्कृष्टेन द्वौ जीन (?) समयान् प्रति उदयागत 1. सं० पञ्चसं० ५, १७८। 3. ५, १७६-१८१ । 2. ५, 'यद्यपि पूर्वमुक्तास्ते' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १७६ )। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह २. भवति । अत्र विकल्पा भङ्गा नियमेन नव भवन्ति ज्ञातव्याः। यशस्कीर्तिमाश्रित्य पर्याप्त्युदये भङ्गाः अष्टौ । अयस्कीर्तिमाश्रित्यापर्याप्तोदये भङ्ग एकः १ । एवं नव भङ्गाः ॥१६०-१६२॥ उनमेंसे इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानमें नियमसे ये प्रकृतियाँ जानना चाहिए-मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, त्रस, बादर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण; तथा सुभग, यशः कीर्ति, पर्याप्त और आदेय इन चार युगलों में से कोई एक-एक । इन इक्कीस प्रकृतियोंका विग्रहगतिमें एक या दो समयतक मनुष्यसामान्य वेदन करते हैं । यहाँपर भंग नियमसे नौ ही होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१६०-१६२।। पर्याप्त प्रकृतिके उदयमें ८ भङ्ग और अपर्याप्तके उदयमें १ भङ्ग; इस प्रकार सर्व ६ भङ्ग होते हैं। 'एमेव य छव्वीसं णवरि विसेसो सरीरगहियस्स। अवणीय आणुपुव्वी पक्खिवियव्यं तथोरालं ॥१६३॥ तस्स य अंगोवंगं छस्संठाणाणमेकदरयं च । छच्चेव य संघयणा एययरं चेव उवघायं ॥१६४॥ पत्तेयसरीरजुयं भंगा वि य तस्स होंति णायव्वा । तिण्णि य सयाणि णियमा एयारस ऊणिया होंति ॥१६॥ __ पज्जत्तोदए भंगा २८८ । अपज्जत्तोदये १ । सव्वे २८६ । एवमेव पूर्वोक्तमेकविंशतिकम् । तत्रानुपूव्यंमपनीय २० तत्रौदारिक, तदङ्गोपाङ्गं पण्णां संस्थानानां मध्ये एकतरं संस्थानं १ षण्णां संहननानां मध्ये एकतरं संहननं १ उपघातं । प्रत्येकशरीरं १ चेति प्रकृतिषटकं प्रक्षेपणीयम् । नवीनविशेषोऽयम् । इति षशितिकं स्थानं औदारिकशरीरं गृह्णतः औदारिकमिश्रकाले उदयागतं भवति २६ । तत्रान्तमुहर्तकालः । तस्य षडविंशतिकस्य भगा विकल्पा एकादशोनाः शतत्रयप्रमिता भवन्ति । यशस्कीर्तिमाश्रित्य पर्याप्तोदये सति भङ्गाः २८८ । अयशःपाके अपर्याप्तोदये एको भङ्गः १ । सर्वे भङ्गाः २८६ ॥ ६।६।२।२।२ गुणिताः २८८ । [ एकश्वापर्याप्तभङ्गः ] १ । एवं २८६ ॥१६३-१६५॥ इसी प्रकार छव्वीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि शरीरपर्याप्तिको ग्रहण करनेवाले मनुष्यके मनुष्यानुपूर्वीको निकाल करके औदारिकर दारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, छह संहननोंमेंसे कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येकशरीर, इन छह प्रकृतियोंको और मिला देना चाहिए। इस उदयस्थानके भङ्ग भी ग्यारहसे कम तीन सौ अर्थात् दो सौ नवासी होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१६३-१६५।। पर्याप्तके उदयमें २८८, अपर्याप्तके उदयमें १ इस प्रकार कुल २८८ भङ्ग होते हैं। एमेव अट्ठवीसं सरीरपज्जत्तगे अपज्जत्त। अवणिय पक्खि वियव्वं एययरं दो विहायगई ॥१६६॥ परघायं चेव तहा भंगवियप्पा तहेव णायव्वा । पंचेव सया णियमा छाात्तरि उत्तरा होंति ॥१६७॥ 1५७६। 1. सं० पञ्चसं० ५, १८२-१८४ । 2. ५, १८५-१८६ । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३७१ एवं पूर्वोक्तविंशतिकम् । तत्रापर्याप्तमपनीय प्रशस्ता प्रशस्तगत्योर्मध्ये एकतरं । परघातं चेति द्वयं प्रक्षेपणीयम् । इत्यष्टाविंशतिकं स्थानं शरीरपर्याप्तौ सामान्यगनुष्यस्योदयागतं २८ भवति । तस्य कालोऽन्तमुहूर्त्तः । तथा तस्य स्थानस्य भङ्गविकल्पाः षट्सप्तयुत्तरपञ्चशतप्रमिता ५७६ भवन्ति ज्ञेयाः ॥१६६-१६७॥ इसी प्रकार अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि उक्त जीवके शरीरपर्याप्त पूर्ण हो जानेपर अपर्याप्त प्रकृतिको निकाल करके दोनों विहायोगतियोंमें से कोई एक और परघात; ये दो प्रकृतियाँ मिलाना चाहिए । इस उदयस्थानमें भङ्ग-विकल्प तथैव अर्थात् तिर्यचसम्बन्धी अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानके समान नियमसे पाँच सौ छिहत्तर होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।।१६६-१६७॥ 'एमेवरुणत्तीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं । पक्खित्त े तह भंगा पुन्वृत्ता चेव णायव्वा ॥ १६८ ॥ गंगा ५७६ । एवं पूर्वोक्तमष्टाविंशतिकम् । तत्रोच्छ्वासनिःश्वासे प्रक्षिप्ते एकोनत्रिंशत्कं स्थानं आनापानपर्याप्ति प्रा'तस्य सामान्यमनुष्यस्योदयागतं भवति २३ । तत्र कालोऽन्तमुहूर्त्तः । तथैतस्य भङ्गाः पूर्वोक्ताः ज्ञेयाः ५७६ ॥ १६८ ॥ इसी प्रकार उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान शरीर पर्याप्ति से सम्पन्न मनुष्यके उच्छ्रास प्रकृतिके मिला देने पर होता है । तथा यहाँ पर भङ्ग भी पूर्वोक्त ५७६ ही जानना चाहिए || १६८ ॥ 2 एमेव होइ तीसं भासापज्जत्तयस्स सरजुयलं । एययरं पक्खित्त े भंगा पुव्वत्तदुगुणा दु ॥ १६६ ॥ भंगा ११५२ । एवमेव पूर्वोक्तनवविंशतिकप्रकारेण [त्रिंशत्कं ] भवति । तत्र सुस्वर - दुःस्वरयोर्मध्ये एकतरं प्रक्षिप्ते त्रिंशत्कं स्थानं भाषापर्याप्तिं प्राप्तस्य सामान्य मनुष्योदयागतं ३० भवति । तत्कथम् ? मनुष्यगति: १ पन्चेन्द्रियं १ तैजसकार्मणे २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुकं १ त्रसं १ बादरं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ निर्माणं १ पर्याप्तं १ सुभग-यशः - आदेययुग्मानां त्रयाणां एकतरं १|१|१| औदारिक-तदङ्गोपाङ्ग े २ षष्णां संस्थानानामेकतरं संस्थानं १ षण्णां संहननानां मध्ये एकतरं संहननं १ उपघातं १ प्रशस्ता प्रशस्तगतिद्वयस्यैकतरं १ परघातं १ उच्छ्वासनिःश्वासं : सुस्वर- दुःस्वरयोर्मध्ये चैकतरं १ चेति त्रिंशकं नामप्रकृत्युदयस्थानं ३०- सामान्य मनुष्यस्यैकजीवस्योदयागतं भवति । तस्य परा पल्यत्रयं स्थितिः समुहूर्त्तोना इति | ६|६||२||२२| परस्परगुणिताः ११५२ तत्र भङ्गाः । अथवा पूर्वोक्ताः ५७६ स्वरयुगलेन २ गुणिता द्विगुणा भवन्ति । सर्वे मीलिताः २६०२ ॥ १६६ ॥ इसी प्रकार तीसप्रकृतिक उदयस्थान भाषा पर्याप्तिसे युक्त मनुष्यके स्वर-युगलों में से किसी एक के मिलाने पर होता है । यहाँ पर भङ्ग पूर्वोक्त भङ्गोंसे दूने अर्थात् १९५२ होते हैं ॥१६६॥ 'आहारसरीरुदयं जस्स य ठाणाणि तस्स चत्तारि । पणुवीस सत्तवीसं अट्ठावीसं च । उगुतीसं ॥ १७० ॥ विसेसमणुसु २५|२७|२८|२६| 1. सं० पञ्चसं ०५, १८७ । 2. ५, १८८ । ३.५, १८६ । +ब उण Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ पञ्चसंग्रह अथ विशेषमनुष्येषु नामोदयस्थानान्याऽऽह-['आहारसरीरुदयं' इत्यादि।] यस्य मुनेराहारकशरीर-तदङ्गोपाङोदयो भवति, तस्य विशिष्टपुरुषस्य पञ्चविंशतिकं २५ सप्तविंशतिक २७ अष्टाविंशतिक २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ चेति चत्वारि नामप्रकृत्युदयस्थानानि २५।२७।२८।२६ स्युः ॥१७०॥ अब आहारक शरीरके उदयवाले जीवोंके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं जिस जीवके आहारकशरीरका उदय होता है उसके पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस; ये चार उदयस्थान होते हैं ॥१७०॥ ___ आहारकशरीरके उदयवाले विशेष मनुष्यमें २५, २७, २८, २६ ये चार उदयस्थान होते हैं। 'तत्थ इमं पणुवीसं मणुसगई तेय कम्म आहारं । तस्स य अंगोवंगं वण्णचउक्कं च उवघायं ॥१७१॥ अगुरुयलहु पंचिंदिय-थिराथिर सुहासुहं च आदेज्ज । तसचउ समचउरं सुहयं जस णिमिण भंग एगो दु॥१७२।। ___भंगो।। तत्र मनुष्यगत्याहारकद्विके इदं पञ्चविंशतिकं स्थानम् । मनुष्यगतिः । तैजस-कार्मणे २ आहारकाहारकाङ्गोपाङ्ग २ वर्णचतुष्कं ४ उपघातं ? अगुरुलघुकं १ पञ्चेन्द्रियं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ आदेयं । त्रस-बादर-पर्याप्त-प्रत्येकचतुष्टयं ४ समचतुरस्रसंस्थानं १ सुभगं १ यशाकीतिः १ निर्माणं १ चेति पञ्चविंशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं २५ आहारकद्विकोदये सति मुनेरुदयागतं भवति । अस्यान्तमु हत्तकालः। तस्य पञ्चविंशतिकस्य भङ्गो १ भवति ॥१७१-१७२॥ उनमेंसे पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार है-मनुष्यगति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, आहारकशरीर, आहारक-अङ्गोपांग, वर्गचतुष्क, उपघात, अगुरुलघु, पञ्चेन्द्रियजाति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, आदेय, त्रस-चतुष्क, समचतुरस्रसंस्थान, सुभग, यशस्कीति और निर्माण । इस उदयस्थानमें भङ्ग एक ही होता है ।।१७१-१७२॥ एमेव सत्तवीसं सरीरपज्जत्तयस्स परघायं । पक्खिविय पसत्थगई भंगो वि य एत्थ एगो दु॥१७३॥ भंगो १ । एवं पूर्वोक्तपञ्चविंशतिकम् । तत्र परघातं १ प्रशस्तविहायोगतिं च प्रक्षिप्य मुक्त्वा सप्तविंशतिक नामोदयस्थानं २७ शरीरपर्याप्तस्याऽऽहारकशरोरपर्याहिं प्राप्तस्य पूर्णाङ्गस्य मुनेरुदयागतं भवति । अत्रैको गः । कालस्तु अन्तमुहुर्तकः ॥१७॥ इसी प्रकार सत्ताईसप्रकृतिक उदयस्थान शरीर-पर्याप्तिसे पर्याप्त मनुष्यके परघात और प्रशस्त विहायोगति इन दो प्रकृतियोंके मिलाने पर होता है । यहाँ पर भी भङ्ग एक ही होता है ।।१७३।। एमेवट्ठावीसं आणापज्जत्तयस्स उस्सासं । पक्खित्त तह चेव य भंगो वि य एत्थ एगो दु ॥१७४॥ भंगो १ । 1. सं० पञ्चसं० ५, १६०-१६१ । १. ५. १६२ । ३. ५, १६३ । ब यं. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ___ एवं पूर्वोक्तं सप्तविंशतितम् । अत्रोच्छ वासे प्रक्षिप्ते अष्टाविंशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं आनापानपर्याप्तस्योच्छ वासपर्याप्ति प्राप्तस्य मुनेरुदयागतं २८ भवति । अत्र भङ्ग एकः । अन्तमुहूर्तकालश्च ॥१७॥ ___ इसी प्रकार अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थान आनापानपर्याप्तिसे पर्याप्त मनुष्यके उच्छ्रास प्रकृतिके मिलाने पर होता है । यहाँ पर भी भङ्ग एक ही होता है ॥१७४।। 1एमेऊणतीसं भासापज्जत्तयरस सुस्सरयं । पक्खिविय एयभंगो सव्वे भंगा दु चत्तारि ॥१७॥ भंगो १ सब्वे ४।। एवं पूर्वोक्तमष्टाविंशतिकम् । तत्र सुस्वरं क्षिप्त्वा प्रक्षिप्य एकोनत्रिंशत्कं नामप्रकृत्युदयस्थानं भाषापर्याप्ति प्राप्तस्याहारकोदये मुनेरुदयागतं २६ भवति । अत्र भङ्ग एकः । विशेषमनुष्ये एकस्मिन् भङ्गाश्चत्वारः । २१।२७।२८।२६ ॥१७५॥ ___इसी प्रकार उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान भाषापर्याप्तिसे संयुक्त मनुष्यके सुस्वर प्रकृतिके मिला देनेपर होता है । यहाँपर भी एक ही भङ्ग होता है। इस प्रकार आहारकप्रकृतिके उदयपाले जीवके चारों उदयस्थानोंके सर्व भङ्ग चार ही होते हैं ॥१७॥ अब तीर्थकर प्रकृतिके उदयवाले मनुष्यके उदयस्थानका निरूपण करते हैं 'तित्थयर सह सजोई एकत्तीसं तु जाण मणुयगई। पंचिंदिय ओरालं तेया कम्मं च वण्णचदुं ॥१७६॥ समचउरं ओरालिय अंगोवंगं च वज्जरिसहं च । अगुरुगलघुचदु तसचदु थिराथिरं तह पसत्थगदी ॥१७७॥ सुभमसुभ सुहय सुस्सर जस णिमिणादेज्ज तित्थयरं । वासपुधत्त जहण्णं उक्कस्सं पुव्वकोडिदेसूणं ॥१७८॥ तीर्थकरप्रकृत्युदयसहितसयोगकेवलिनः एकत्रिंशत्कं स्थानं जानीहि भो भव्य त्वम् । किं तत् ? मनुष्यगतिः १ पन्चेन्द्रियं १ औदारिक-तैजस-कार्मणशरीराणि १ वर्णचतुष्कं ४ समचतुरस्त्रसंस्थानं १ औदारिकाङ्गोपाङ्गं १ वज्रवृषभनाराचसहननं १ अगुरुलघूपघातपरघातोच्छ वासचतुष्टयं ४ बस-बादर-पर्याप्तप्रत्येकचतुष्कं ४ स्थिरास्थिरे २ प्रशस्तविहायोगतिः १ शुभं १ अशुभं १ सुभगं १ सुस्वरं १ यशस्कीतिनिर्माणे द्वे २ आदेयं १ तीर्थकरत्वं १ चेति एक-त्रिंशत्कं स्थानं तीर्थकरप्रकृत्युदयसहितसयोगकेवलिन उदयागतं भवति । अस्योदयस्थानस्य जघन्या स्थितिः वर्षपृथक्त्वम् उत्कृष्टा च देशोना पूर्वकोटी ] ॥१७६-१७८॥ तीर्थकरप्रकृतिके उदयके साथ सयोगिकेवलीके इकतीसप्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार जानना चाहिए-मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक-अङ्गोपांग, वज्रवृषभनाराचसंहनन, अगुरुलघुचतुष्क (अगरुलघ, उपघात, परघात, उच्छवास) वसचतष्क (स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर) स्थिर, अस्थिर, प्रशस्तविहायोगति, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, यशःकीर्ति, निर्माण, आदेय 1. सं०पञ्चसं० ५, १६४ 1 2.५, १६५-१६ । नव एमेय । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ पञ्चसंग्रह और तीर्थङ्करप्रकृति । इस उदयस्थानका जघन्यकाल वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट काल देशोन (अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षसे कम) पूर्वकोर्ट। वर्षप्रमाण है ॥१७६-१७।। विसेस विसेसमणुएसु ३३ । एत्थ जहणा वासपुधत्तं, उक्कस्सा अंतोमुदुत्त अधिया अटवासूणा पुवकोडी । भंगो । [तीर्थकरप्रकृत्युदयविशिष्टविशेषमनुष्येषु एकत्रिंशत्कमुदयस्थानम् ३१ । अत्रोत्कृष्टा स्थितिरन्तम् - हूर्त्ताधिकगर्भाद्यष्टवर्षहीना पूर्वकोटी । जघन्या वर्षपृथक्त्वम् । भङ्ग एकः १।] तीर्थकर प्रकृतिके उदयसे विशिष्ट विशेष मनुष्यों में यह इकतीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस उदयस्थानका जघन्यकाल वर्षपृथक्त्व है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आठ वर्षसे कम एक पूर्वकोटी वर्षप्रमाण है । यहाँ पर भङ्ग एक ही है। अब नौप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं णवं अजोईठाणं पंचिंदिय सुभग तस य पायरयं । पज्जत्तय मणुसगई आएज्ज जसं च तित्थयरं ॥१७६॥ ! भंगो । [.......... ................॥१७॥] मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यशःकीर्ति और तीर्थङ्कर, इन नौ प्रकृतियोंवाला उदयस्थान अयोगि तीर्थङ्करके होता है ॥१७६। अब आठप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं-- तित्थयरं वज्जित्ता ताओ चेव हवंति अट्ठ पयडीओ। सव्वे केवलिभंगा तिण्णेव य होंति णायव्वा ॥१८०॥ । भंगो । सब्वे केवलिभंगा ३। .................................................................. .................. ॥१८॥] नौ प्रकृतिक उदयस्थानमेंसे तीर्थङ्करप्रकृतिको छोड़कर शेष जो पूर्वोक्त आठ प्रकृतियाँ अवशिष्ट रहती हैं, उन आठ प्रकृतियोंवाला उदयस्थान सामान्य अयोगिकेवलीके होता है। यहाँ पर भी भङ्ग एक ही है। इस प्रकार केवलीके सर्व भङ्ग तीन ही होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१८॥ अब मनुष्यगति-सम्बन्धी उदयस्थानोंके सर्व भंगोंका निरूपण करते हैं मणुयगइसव्वभंगा दो चेव सहस्सयं च छच्च सया । णव चेय समधिरेया णायव्वा होति णियमेण ॥१८॥ भंगा २६०६ । । एवं मणुयगइ समत्ता । 1. सं. पञ्चसं० ५, 'अत्रोत्कृष्टा' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १७६)। 2.५, १६८। 3. ५, १६६ । १. सं० पञ्चसंग्रहादुद्धृतम् । (पृ. १७६) Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३७५ नृगतिः पूर्णमादेयं पश्चाक्षं सुभगं यशः । त्रसस्थूलमयोगेऽष्टौ पाके तीर्थकृतो नव ॥६॥ पाके ८ । भङ्गः । तीर्थकृता युता है। भङ्गः । सर्वे केवलिनो भङ्गाः ३ । पडविंशतिशतान्युक्त्वा नवाग्राणि नृणां गतौ। भङ्गानतः परं वक्ष्ये सयोगे पाकसप्तकम् ॥१०॥ २६०६ । उदये विंशतिः सैकषट्सप्ताष्टनवाधिका। दशामा चेति विज्ञेयं सयोगे स्थानसप्तकम् ॥११॥ २०१२१।२६।२७।२८।२६।३० नृगतिः कार्मणं पूर्ण तेजोवर्णचतुष्टयम् । पश्चाक्षाऽगुरुलध्वाह शुभस्थिरयुगे यशः ॥१२॥ सुभगं बादरादेये निर्मित् त्रसमिति स्फुटम् । उदयं विंशतिर्याति प्रतरे लोकपूरणे ॥१३॥ २० भङ्गः । तत्र प्रतरे समयः १ । लोकपूरणे १ । पुनः प्रतरे १ । इत्थं प्रायः समयाः ३ । आये संहनने क्षिप्ते प्रत्येकौदारिकद्वये । उपाघाताख्यसंस्थानषट्कैकतरयोरपि ॥१४॥ षाड्विंशतमिदं स्थानं कपाटस्थस्य योगिनः । संस्थानैकतरैः षड्भिर्भङ्गषट्कमिहोदितम् ॥१५॥ - २६। भङ्गाः ६। परघातखगत्यन्यतराभ्यां सहितं मतम् । तदाष्टाविंशतं स्थानं योगिनो दण्डयायिनः ।।१६।। २८ । अत्र द्वादश भङ्गाः । तदुच्छवासयुतं स्थानमेकोनत्रिंशतं स्मृतम् । आनपर्याप्तपर्याप्तेर्भङ्गाः पूर्वनिवेदिताः ॥१७॥ २६भङ्गाः १२। चॅशतं पूर्णभाषस्य स्वरैकतरसंयुतम् । चतविशति-1 रनोक्ता भङ्गा भङविशारदैः ॥२८॥ पूर्वोक्तं नवविंशतिकं स्थानं सुस्वर-दुःस्वरयोमध्ये एकतरेण १ युक्तं त्रिंशत्कं नामप्रकृत्युदयस्थानं ३० सामान्यसमुद्धातकेवलिनो भाषापर्याप्तौ उदयागतं भवति ३० । पूर्वोक्तभङ्गाः द्वादश १२ स्वरयुगलेन २ गुणिताश्चतुर्विशतिभङ्गा भवन्त्यत्र २४ । अथ तीर्थङ्करसमुद्घाने नामप्रकृत्युदयस्थानान्याह पृथक्तीर्थकृता योगे स्थानानां पञ्चकं परम् । प्रथमं तत्र संस्थानं प्रशस्तौ च गतिस्वरौं ॥१॥ इति तीर्थकृति सयोगे स्थानानि पञ्च-२१॥२२॥२६॥३०॥३१। तथाहि-मनुष्यगतिः १ कार्मणं १ पर्याप्तं तैजसं १ वर्णचतुष्कं ४ पन्चेन्द्रियं १ अगुरुलघुकं १ शुभाशुभे २ स्थिरास्थिरे २ यशः १ सुभग १ बादरं १ आदेयं १ निर्माणं १ वसं १ तीर्थकरत्वं १ चेति एकविंशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं २१ प्रतरे लोकपूरणे च तीर्थङ्करसमुद्घातकेवलिनः उदयागतं भवति २१ । अत्र भङ्गः १ प्रतरे समयका १. यहाँ तकका कोष्ठकान्तर्गत अंश सं० पञ्चसंग्रह पृ० १७६-१८० से जोड़ा गया है। २. सं० पञ्चसं०५,२०६ । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह लोकपूरणे समयकः १ पुनः प्रतरे एकसमयः। इत्थं त्रयः समयाः। इदमेकविंशतिकं वज्रवृषभनाराचसंहननेन संयुक्तं द्वाविंशतिकं स्थानम् २२। अत्र प्रत्येकशरीरं १ औदारिक-तदङ्गोपाङ्गे २ उपघातं १ समचतुरस्रसंस्थानं १ परघातं १ प्रशस्तगतिं च प्रक्षिप्य एकोनत्रिंशत्कं २६ स्थानं समुद्घाततीर्थकरकेवलिनः शरीरपर्याप्तौ उदयागतं भवति । अत्र भङ्ग एकः १ । इदं नवविंशतिकं २९ उच्छ्वासेन संयुक्तं त्रिंशत्कं स्थानम् ३० उच्छवासपर्याप्तौ समुद्घाततीर्थवरकेवलिनः उदयागतं ३० भवति । इदं सस्वरेण संयुक्तं एकत्रिंशत्कस्थानं ३१ तीर्थकरसयोगकेवलिनः पर्याप्तावुदयागतं भवति । ३१ एकैकेन पञ्चसु भङ्गाः २१ । २२।२६।३०।३१ एवं संयोगभङ्गाः ६० । अत्रैकत्रिंशत्कं स्थानं पञ्चमं पूर्वभाषितम् । भङ्गो न पुनरुक्तत्वात्तदीयः परिगृह्यते ॥२०॥ शेषाः ५६ स हैतेस्ते पूर्वोदिताः २६०६ । एतावन्तः २६६८ सर्वे भङ्गाः॥१८॥ इति मनुष्यगतौ नामप्रकृत्युदयस्थानानि तद्भङ्गाश्च समाप्ताः । मनुष्यगतिके सर्व भङ्ग नियभसे दो हजार छहसौ नौ (२६०६) होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१८१|| भावार्थ-इक्कीसप्रकृतिक स्थानके भङ्ग ६, छब्बीसप्रकृतिक स्थानके २८६, अट्ठाईसप्रकृतिक स्थानके ५७६, उनतीसप्रकृतिक स्थानके ५७६, तीसप्रकृतिक स्थानके ११५२, इकतीसप्रकृतिक स्थानके ३ और आहारक शरीरधारी विशेष मनुष्यों के ४ ये सब मिलकर २६०६ भङ्ग मनुष्यगति-सम्बन्धी सर्व उदयस्थानोंके होते हैं। इस प्रकार मनुष्यगति-सम्बन्धी नामकर्मके उदयस्थानोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब देवगति-सम्बन्धी उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं 'इगिवीसं पणुवीसं सत्तावीसट्ठवीसमुगुतीसं । एए उदयद्वाणा देवगईसंजुया पंच ॥१८२॥ २१।२५।२७।२८।२।। अथ देवगतौ नामप्रकृत्युदयस्थानानि गाथादशकेनाह-['इगिवीसं पणवीसं' इत्यादि ।] देवगतौ एकविंशतिकं पञ्चविंशतिकं सप्तविंशतिकं अष्टाविंशतिकं नवविंशतिकं च एतानि नामप्रकृत्युदयस्थानानि देवगतिसंयुक्तानि पञ्च भवन्ति ॥१२॥ २१॥२५२७।२८।२।। इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान देवगतिसंयुक्त होते हैं ।।१८२॥ इनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है--२१, २५, २७, २८, २९ । अब उनमेसे इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं "तत्थिगिवीसं ठाणं देवदुयं तेय कम्म वण्णचहुँ । अगुरुयलहु पंचिंदिय तस बायरयं अपजत्तं ॥१८३॥ थिरमथिरं सुभमसुभं सुहयं आदेजयं च जसणिमिणं । विग्गहगईहिं एए एकं वा दो व समयाणि ॥१८४॥ भंगो । 1. सं० पञ्चसं० ५, २१० । 2. ५, २११-२१२ । १ सं० पञ्चसं० ५, २१० । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३७७ तत्र देवगतौ एकविंशतिकं स्थानम् । किं तत् ? देवगदि-देवगत्यानुपूये २ तैजस-कार्मणे २ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुकं १ पञ्चेन्द्रियं । वसं १ बादरं १ [अ] पर्याप्तं १ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ सुभगं १ आदेयं १ यशः १ निर्माणं चेति एकविंशतिकं स्थानं २१ विग्रहगतौ कार्मणशरीरे देवस्योदयागतं भवति २१ । अत्र कालः जघन्येन एकसमयः । उत्कृष्टतः द्वौ वा त्रयः (१) समयाः । अत्र भङ्गः १ ॥१८३-१८४॥ देवगति-सम्बन्धी उदयस्थानोंमेंसे इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार है-देवद्विक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुल चु, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यश कीर्ति और निर्माण । इन इक्कीस प्रकृतियोंका उदय विग्रहगतिमें एक या दो समय तक होता है ।।१८३-१८४॥ इस इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानगें भङ्ग १ है। एमेव य पणुवीसं णवरि विसेसो सरीरगहियस्स । देवाणुपुव्वि अवणिय वेउव्वदुगं च उवधायं ॥१८॥ समचउरं पत्तेयं पक्खित्ते जा सरीरणिप्फत्ती । अंतोमुहुत्तकालं जहण्णमुक्कस्सयं च भवे ॥१८६॥ संगो।। एवं पूर्वोक्तं एकविंशतिकम् । तत्र नवीनविशेषः-देवगत्यानुपूर्व्यमपनीय वैक्रियिक-तदङ्गोपाङ्ग उपघातं १ समचतुरस्रसंस्थानं १ प्रत्येकं १ एवं प्रकृतिपञ्चकं तत्र प्रक्षेपणीयम् । एवं पञ्चविंशतिक नामप्रकृत्युदयस्थानं २५ शरोरं गृह्यतो वैक्रियिकशरीरं स्वीकुर्वतो देवस्य वैक्रियिकमिश्रे उदयागतं भवति यावच्छरीरपर्याप्तिः पूर्णतां याति तावत्कालमिदं जघन्योत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्तकालः । तत्र भङ्ग एक एव १॥१८५-१८६॥ इसी प्रकार पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि शरीर पर्याप्तिको ग्रहण करनेवाले देवके देवानपुर्वीको निकाल करके वैक्रियिकद्विक, उपघात, समचतरस्र संस्थान और प्रत्येकशरीर, इन पाँच प्रकृतियोंको मिलाना चाहिए। जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है, तब तक यह उदयस्थान रहता है। इसका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ॥१८५-१८६॥ 'एमेव सत्तवीसं सरीरपजत्तिणिट्टिए णवरि । परघाय विहायगई पसत्थयं चेव पक्खित्त ॥१८७।। भंगो । एवं पूर्वोक्तं पञ्चविंशतिकम् । तन परघातं १ प्रशस्तविहायोगति १ च प्रक्षिप्य सप्तविंशतिक नामप्रकृत्युदयस्थानं २७ शरीरपर्याप्ति पूर्णे कृते सति देवं प्रत्युदयागतं भवति । अत्र भङ्ग एकः १ । कालस्तु अन्तर्मुहूर्तः ॥१८॥ इसी प्रकार सत्ताईसप्रकृतिक उदयस्थान उक्त देवके शरीरपर्याप्तिके निष्पन्न होनेपर होता है। विशेष बात यह है कि परघात और प्रशस्तविहायोगति और मिलाना चाहिए ॥१७॥ ' सत्ताईसप्रकृतिक उदयस्थानमें भङ्ग १ है। 1. सं० पञ्चसं० ५, २१३-२१४ । 2. ५, २१५ । ४८ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३७८ पञ्चसंग्रह 'gharati आणापत्तिणिट्ठिए णवरि । उस्सासं पक्खित्ते कालो अंतोमुहुत्त तु ॥ १८८ ॥ भंगो १ । एवं पूर्वोक्तसप्तविंशतिकम् । तत्रोच्छवास प्रक्षिप्य अष्टाविंशतिकं २८ उच्छासपर्याप्तिं पूर्णे कृते देवे उद्यागतं भवति । अत्र कालोऽन्तमुहूर्त्तः । भङ्गस्तु एकः १ ॥१८८॥ इसी प्रकार अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थान उक्त देवके आनापानपर्याप्तिके पूर्ण होनेपर और उच्छ्रासप्रकृतिके मिलानेपर होता है । इस उदयस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१८८॥ अठ्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थानमें भङ्ग १ है । 2 एमेव य उगुतीसं भासापज्जत्तिणिट्ठिए णवरि । सरसहि जहणं दसवाससहस्स किंचूणं ॥ १८६॥ भंगो १ । तेतीस सायरोपम किंचूणुकस्सयं हवइ कालो । देवगई सव्वे उदयवियप्पा वि पंचैव ॥ १६० ॥ गंगा ५ । एवं देवई समता । ] एवं पूर्वोक्तमष्टाविंशतिकं सुस्वरेण सहितमेकोनत्रिंशत्कं देवस्य हि भाषापर्याप्तिपूर्णे सति उदयागतं भवति । जघन्यकालः दशवर्षसहस्रः किञ्चिन्न्यूनः पूर्वोक्त विग्रहगत्यादिचतुः कालहीनः । उत्कृष्टकालत्रयस्त्रिसागरोपमप्रमाणः किञ्चिद्धीनः पूर्वोक्तचतुः कालहीन इत्यर्थः । अस्य भङ्ग एकः १ | देवगत्यां सर्वे उदय २१ २५ २७ २८ २६ 9 9 १ 1 १ विकल्पा भङ्गा पन्चैव भवन्ति ५ | 1 इति देवगतौ उदयस्थानानि समाप्तानि । ๆ इसी प्रकार उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान उक्त देवके भाषापर्याप्तिके सम्पन्न होने और सुस्वर प्रकृतिके मिलानेपर होता है। इस उदयस्थानका जघन्यकाल कुछ कम दश हजार वर्ष और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । इस उदयस्थानमें भी एक ही भङ्ग होता है । इस प्रकार देवगतिमें नामकर्मके उदयस्थान सम्बन्धी सर्व भङ्ग पाँच हो होते हैं । १८६ - १६० ॥ देवगति में अब ग्रन्थकार चारों गतियोंके नामकर्म-सम्बन्धी भङ्गोका उपसंहार करते हुए इन्द्रियमार्गणादिमें उनके कथन करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं 'छावतार एयारह सयाणि णामोदयाणि होंति चउगइया । ।७६११॥ चउर भणियं इंदियमादीसु उवरि वोच्छामि ॥ १६९ ॥ षट्सप्ततिशतैकादशप्रमिताः नामप्रकृत्युदयभङ्गविकल्पाश्चतसृषु गतिषु चातुर्गतिका भवन्ति सप्तसहस्रषट्शतैकादशप्रमिताश्चातुर्गतिका भङ्गा भवन्तीत्यर्थः ७६११ । समुद्वातापेक्षया नामप्रकृत्यु दयविकल्पाः ५६ । ।। १८६-१६० ॥ २१ २५. २७ २८. २६ १ १ १ १ १ + + + + - ५ भङ्ग होते हैं । 1. सं०पञ्चसं ०५, २१६ | 2.५, २१७ । ३.५, २१८-२२० । 4. ५, २२१ । ब सहिद । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका मार्गणासु मध्ये गतिषु भणितम् । अत उपरि इदानीमिन्द्रियादिमार्गणासु नामप्रकृत्युदयस्थानानि वच्यामि ॥ १११॥ चारों गति-सम्बन्धी नामकर्मके उदयस्थानोंले भङ्ग छिहत्तर सौ ग्यारह (७६११) होते हैं । अर्थात् नरकगतिसम्बन्धी ५, देवगतिसम्बन्धी ५, तिर्यग्गतिसम्बन्धी ४६६२ और मनुष्यगति सम्बन्धी २६०६ इन सबको जोड़नेपर उक्त भङ्ग आ जाते हैं। इस प्रकार चारों गतियों में नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करके अब आगे इन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें उनका वर्णन करते हैं ॥१६॥ पंचेव उदयठाणा सामण्णेइंदियस्स णायव्वा । इगि चउ पण छ सत्त य अधिया वीसा य होइ णायव्वा ॥१६२।। अवसेससव्वभंगा जाणित्तु जहाकम णेया । २१।२४।२५।२६।२७।। सामान्यकेन्द्रियस्य नामप्रकृत्युदयस्थानानि पञ्च भवन्ति । तानि कानि ? एकविंशतिकं २५ चतुविशतिकं २४ पञ्चविंशतिकं २५ षड्विंशतिकं २६ सतविंशतिकं २७ चेति ज्ञेयानि । अवशेषान् सर्वान् ज्ञात्वा यथाक्रमं ज्ञेयाः ॥१६२३॥ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा सामान्य एकेन्द्रिय जीवोंके इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छठवीस और सत्ताईसप्रकृतिक पाँच उदयस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । एकेन्द्रियसम्बन्धी इन सर्व उदयस्थानोंके सर्व भङ्ग पूर्वोक्त प्रकार यथाक्रमसे जानना चाहिए ॥१६२३।। एकेन्द्रियोंके नामकर्मसम्बन्धी उदयस्थान-२१, २४, २५, २६, २७ । इगिबीसं छब्बीसं अट्ठबीसादि जाव इगितीसं ॥१६३ ॥ वियलिंदियतिगस्सेवं उदयट्ठाणाणि छच्चेव । २१।२६।२८।२६।३०:३१। एकविंशतिकं पडविंशतिकं अष्टाविंशतिकं नवविंशतिकं त्रिंशत्कमेकत्रिंशत्कं च नामप्रकृत्युदयस्थानानि विकलवयेषु पड़ भवन्ति ॥१६३१॥ २१॥ २६ । २८ । २६ । ३० । ३१ । तीनों विकलेन्द्रियोंके इक्कीस, छब्बीस और अट्ठाईससे लेकर इकतीस तकके चार इस प्रकार छह उदयस्थान होते हैं ॥१६३६॥ विकलेन्द्रियोंके नामकर्मसम्बन्धी उदयस्थान २१, २६, २८, २९, ३०, ३१ । चउवीसं वज्जित्ता उदयट्ठाणा दसेव पंचक्खे ॥१४॥ २१२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६८ पञ्चाक्षे पञ्चन्द्रिये चतुर्विशतिकं वर्जयित्वा अपरनामप्रकृत्युदयस्थानानि दश भवन्ति २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । । ८ । पञ्चन्द्रियस्योदयागतानि भवन्तीत्यर्थः ॥ १६४ ॥ पंचेन्द्रियोंमें चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानको छोड़कर शेष दशस्थान होते हैं ।।१६४।। उनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ । काएसु पंचकेसु य उदयट्ठाणाणिगिदिभंगमिव । तसकाइएसु णेया विगला सयलिंदियाणभंगमिव ॥१६॥ २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० पञ्चसंग्रह पृथिव्यादिकेषु पञ्चकायेषु एकेन्द्रियोक्तभङ्गवत् । पृथ्वीकायिके २१। २४ । २५। २६ । २७ । अप्कायिके २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । आतपोद्योतोदयरहितयोस्तेजोधातकायिकयोः प्रत्येक २१ । २४ । २५।२६ । बनस्पतिकायिके २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । बसकायिकेषु विकल-सकलेन्द्रियोक्तनामोदयस्थानानि २१ । २५ । २६ २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । । ८ ॥ १६५ ॥ कायमार्गणाकी अपेक्षा पाँचों स्थावरकाायकोंमें एकेन्द्रियोंके समान उदयस्थान होते हैं । त्रसकायिक जीवोंमें विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय जीवोंके समान नामकर्मके उदयस्थान जानना चाहिए ॥१६॥ पृथ्वी, अप और वनस्पति कायिकोंमें २१, २४, २५, २६, २७ । तेज-वायुकायिकोंमें २१, २४,२५, २६ । त्रसकायिक जीवोंके उदयस्थान--२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ । चउ-तिय मण-वचिए पंचिंदियसण्णिपजत्तभंगमिव । असचमोसवचिए तसपज्जत्तयउदयट्ठाणभंगमिव ॥१६६॥ सत्यासत्योभयानुभयमनोयोगचतुष्क-सत्यासत्योभयवचनयोगनिकेषु पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तोक्तभङ्गवत् २६।३०।३ । न सत्यमृषावचने अनुभयभाषायोगे त्रसपर्याप्तोदयस्थानकरचनावत् २६॥३०॥३१ ॥१६॥ योगमार्गणाकी अपेक्षा सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, इन चार मनोयोगमें तथा सत्य, असत्य, उभय, इन तीन वचनयोगोंमें पंचेन्द्रियसंज्ञी पर्याप्तकके समान उनतीस, तीस और इकतीसप्रकृतिक तीन उदयस्थान जानना चाहिए। असत्यमृषावचनयोगमें त्रसपर्याप्तकोंके समान उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं ॥१६॥ ओरालियकाययोगे तसपजत्तभंगमिव । . ओरालियमिस्सकम्मे उदयट्ठाणाणि जाणिदव्वाणि ॥१६७।। सत्तेव य.अपज्जत्ता सण्णियपञ्जत्तभंगमिव । वेउव्वियकायदुगे देवाणं णारयाण भंगमिव ॥१९८॥ औदारिककाययोगे सपर्याप्तभगवदुदयस्थानानि २५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । औदारिकमिश्रकायनोगे अपर्याप्तजीवसमासोक्तसंक्षिपर्याप्तभङ्गवदुदयस्थानानि ज्ञातव्यानि २४०२६।२७ । कार्मणकाययोगविग्रहगतौ इदं एकविंशतिकं २१ । केवलिसमुदाते प्रतरद्वये लोकपूरणे इदं विंशतिकं स्थानम् २० । वैक्रियिककाययोगद्विके देवगति-नरकगतिकथितोदयस्थानानि । दैववैक्रियिककाययोगे २७।२८।२६। देव. वैक्रियिकमिश्रकाययोगे उदयस्थानं २५ । नारकवैक्रियिककाययोगे २७।२८।२६। तन्मिश्रकाययोगे २५ ॥१९७-१९८॥ औदारिकाययोगमें सपर्याप्तक जीवोंके समान पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक सात उदयस्थान होते हैं। औदारिकमिश्रकायकोगमें सातों अपर्याप्तक जीबसमासोंके समान चौबीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । कार्मणकाययोगमें विग्रहगति-सम्बन्धी इक्कीसप्रकृतिक एक उदयस्थान जानना चाहिए। वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें देव और नारकियोंके उदयस्थानों के समान उदयस्थान जानना चाहिए ।।१६७-१६८।। विशेषार्थ-देवगतिसम्बन्धी वैक्रियिककाययोगमें सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं। तथा इन्हींके वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें पच्चीसप्रकृतिक एक उदय Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३८१ स्थान होता है। नरकगति-सम्बन्धी वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी देवसम्बन्धी उदयस्थान होते हैं, किन्तु उनकी उदय-प्रकृतियोंमें अन्तर पड़ जाता है, सो स्वयं विचार लेना चाहिए। आहारदुगे णियमा पमत्त इव सव्वट्ठाणाणि । थी-पुरिसवेयगेसु य पंचिंदिय-उदयठाणभंगमिव ॥१६९॥ णउंसए पुण एवं वेदे ओघवियप्पा य होंति णायव्वा । उदयट्ठाण कसाए ओघभंगमिव होइ णायव्वं ॥२०॥ आहारकद्विके प्रमत्तोक्तोदयस्थानानि । किन्तु आहारककाययोगे २७२८।२६।। आहारकमिश्रकाययोगे २५ उदयस्थानम् । स्त्री-पुरुपवेदयोः पजेन्द्रियोक्तोदयस्थानभङ्गरचनावत् । किन्तु पुंवेदे उदयस्थानानि २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। स्त्रीवेदे नामप्रकृयुदयस्थानानि २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । नपुंसकवेदे गुणस्थानोक्तोदयस्थानानि २१२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१ भवन्ति । क्रोध-मान-मायालोभकषायेषु ओघभङ्गमिव गुणस्थानोक्तोदयस्थानानि । किन्तु २११२४२५।२६।२७।२८।२६।३० ॥१६६-२००॥ आहारककाययोग और अहारकमिश्रकाययोगमें प्रमत्तगुणस्थानके समान उदयस्थान जानना चाहिए । अर्थात् आहारककाययोगमें सत्ताईस, भट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं। तथा आहारकमिश्रकाययोगमें पच्चीसप्रकृतिक एक उदयस्थान होता है। वे मार्गणाकी अपेक्षा स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें पंचेन्द्रियोंके समान उदयस्थान जानना चाहिए । अर्थात् इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक आठआठ उदयस्थान होते हैं। नपुंसक वेदमें इसी प्रकार ओघविकल्प जानना चाहिए । अर्थात् इक्कीस, चौबीस, पञ्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक नौ उदयस्थान होते हैं कषायमार्गणाकी अपेक्षा चारों कषायोंमें ओघके समान इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक और आठ उदयस्थान जानना चाहिए ॥१६६-२००। मइ-सुय-अण्णाणेसु य मिच्छा-सासणट्ठाणभंगमिव । अवसेसं णाणाणं सण्णिपजत्तभंगमिव जाणिज्जो ॥२०१॥ कुमति-कुश्रुतयोमिथ्यात्व-सासादनोक्तोदयस्थानानि २१०२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। अवशेषज्ञानानां संज्ञिपर्याप्तोक्तोदयस्थानानि जानीयात् । किन्तु विभङ्गज्ञाने नामप्रकृत्युदयस्थानानि २६॥३०॥ ३१ । मति-श्रुतावधिज्ञानेषु नामोदयस्थानानि २१०२५।२६।२७१२८१२६॥३०॥३१॥ मनःपर्यये ज्ञाने ३० । केवल ज्ञाने २०१२१।२६।२७।२८।२६।३०।३११८ ॥२०१॥ ज्ञानमर्गणाकी अपेक्षा कुमति और कुश्रुतज्ञानमें मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानके समान इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक नौ उदयस्थान होते हैं । शेष छह ज्ञानोंके उदयस्थान संज्ञी पर्याप्तक पंचेन्द्रियोंके समान जानना चाहिए ॥२०१॥ विशेषार्थ-विभङ्गज्ञानमें उनतीस, तीस और इकतीसप्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञानके इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस. उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक आठ उदयस्थान होते हैं। मनःपर्ययज्ञानमें तीसप्रकृतिक एक ही उदयस्थान होता है। केवलज्ञानमें इकतीस, नौ और आठ प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं। यहाँ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ पञ्चसंग्रह इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जिन आचार्यों के मतसे सभी केवलज्ञानी केवलिसमुद्घात करते हुए सिद्ध होते हैं, उनके मतानुसार केवलिसमुद्धातमें सम्भव अपर्याप्त दशाको अपेक्षा बीस, इक्कीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक उदयस्थान भी बतलाये गये हैं । परन्तु प्राकृत पंचगंग्रहकारको यह मत अभीष्ट नहीं रहा है, अतएव उन्होंने इन उदयस्थानों को नहीं बतलाया, जब कि संस्कृत पंचसंग्रहकारने उन्हें बतलाया है। असंजमे तहा ठाणं णेयं मिच्छाइचउसु गुणट्ठाणमिव । दसविरए च भंगा णेया तससंजमे चेव ॥२०२॥ अवसेससंजमट्ठाणं पमत्ताइगुणट्ठाणमिव । संयममार्गणायां त्रससंयमे मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतगुणस्थानोक्तं ज्ञेयम् । किन्तु असंयमे उदयस्थानानि २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३। ससंयमें देशसंयमे देशविरतोक्तभङ्गरचना ज्ञेया। किन्तु उदयस्थानद्वयम् २ । अवशेष-संयमस्थानेषु प्रमत्तादिगुणस्थानोक्तोदयस्थानानि । किन्तु सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः २५ । २७ । २८ । २६ । ३०। परिहारविशुद्धिसंयमे त्रिंशत्कमेकस्थानम् ३० । सूचमसाम्पराये ३० । यथाख्याते २० । २१ ।२४।२६ । २७ . २८ । २४ । ३० । ३३ । । ८ । ॥२०२३॥ संयममार्गणाकी अपेक्षा असंयममें मिथ्यात्व आदि चार गुणस्थानोंके समान उदयस्थान जानना चाहिए । अर्थात् असंयममें इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इसतीस प्रकृतिक नौ उदयस्थान होते हैं । त्रससंयम अर्थात् देशसंयममें देशविरत गुणस्थानके समान तीस और इकतीस प्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं । अवशेष संयमोंके उदयस्थान प्रमत्तादिगुणस्थानोंके उदयस्थानके समान जानना चाहिए ॥२०२३॥ विशेषार्थ-सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक पाँच उदयस्थान होते हैं। परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म साम्पराय संयममें तीस प्रकृतिक एक-एक ही उदयस्थान होता है। यथाख्यातसंयममें तीस, इकतीस, नौ और आठ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। किन्तु सभी केवलज्ञानियोंके केवलिसमुद्धात माननेवाले आचार्यों के मतको अपेक्षा बीस, इक्कीस, छव्वीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस, नौ और आठ प्रकृतिक दश उदयस्थान पाये जाते हैं। अचक्खुस्स ओघभंगो चक्खुस्स य चउ-पंचिंदियसमं णेयं ॥२०३॥ दर्शनमार्गणायां भचक्षुर्दर्शने गुणस्थानोक्तवत् २१॥२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। चक्षुर्दर्शने चतुःपञ्चेन्द्रियोक्तसदृशं ज्ञेयम् । किन्तु २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ भवन्ति ॥२०३॥ दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा अचक्षुदर्शनके उदयस्थान ओघके समान और चक्षुदर्शनके उदयस्थान चतरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजीवोंके समान जानना चाहिए ॥२०३॥ विशेषार्थ-अचक्षुदर्शनमें इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक नौ उदयस्थान होते हैं । चतुदर्शनमें इक्कीस, पच्चीस; छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और एकतीस प्रकृतिक आठ उदयस्थान होते हैं, इनमें प्रकृति-सम्बन्धी जो अन्तर होता है, वह ज्ञातव्य है। ___ ओधिय केवलदंसे ओधिय-केवलणाणमिव । तेजप्पउ मासुक्के सण्णी पंचिंदियभंगमिव ॥२०४॥ *ब अवधि। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अवधिदर्शने केवलदर्शने अवधि-केवलदर्शनोक्तमिव । अवधिदर्शने २१ । २५। २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३३ । केवलदर्शने २०।२१।२६ । २७ । २८।३०।३१।।।८। लेश्यमार्गणायां कृष्ण-नील-कापोतलेश्याधिके नामोदयस्थानानि २१।२४ । २५।२६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । तेजःपभशुक्लेषु संज्ञिपञ्चन्द्रियोक्तोदयस्थानानि । किन्तु तेजलेश्यायां २१ । २५ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । पालेश्यायां २१ । २५ । २७ । २८ । २६ । ३०।३१ ।शुक्ललेश्यायां २० । २१ । २५ । २७ । २८ । २६ । ३० ३१ ।। २०४॥ अवधिदर्शनमें अवधिज्ञानियोंके समान और केवलदर्शनमें केवलज्ञानियोंके समान उदयस्थान होते हैं । लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ललेश्यामें संज्ञी पंचेन्द्रियजीवके समान उदयस्थान जानना चाहिए ॥२०४॥ विशेषार्थ-संक्षिप्त या सुगम कथन होनेसे ग्रन्थकारने तीनों अशुभ लेश्याओंके उदयस्थान नहीं कहे हैं। उन्हें इस प्रकार जानना चाहिए.-कृष्ण, नील और कापोतलेश्यामें इक्कीस, चौ पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक नौ उदयस्थान होते हैं। तेज पद्म और शुक्ललेश्यामें उक्त नौ स्थानोंमेंसे चौबीस और छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थानको छोड़कर शेष सात उदयस्थान होते हैं। तथा केवलिसमुद्भातकी अपेक्षा बीसप्रकृतिक उदयस्थान भी होता है। भविएसु ओघभंगो अभविए मिच्छाइट्ठिभंगमिव । मिच्छा-सासण-मिस्से सय-सयगुणठाणभंगमिव ॥२०॥ उवसमसम्मत्तादी सय-सयगुणमिव हवंति त्ति । सण्णिस्स ओघभंगो असण्णि मिच्छोघभंगमिव ॥२०६।। आहार ओघभंगो अणाहारे चउसु ठाण कम्ममिव । अवसेसविहिविसेसा जाणित्तु जहाकम गेया ॥२०७।। भव्ये गुणस्थानोक्तवत् २० । २१॥ २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । । । । अभव्ये मिथ्यादृष्टिविकल्प इव । किन्तु २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । मिथ्यात्वसासादन-मिश्रेषु स्वकीय-स्वकीयगुणस्थानोक्तवत् । सिध्यारष्टौ २१। २४ । २५ । २६ । २७ ।२८।२६ । ३० । ३१ । सासादनरुचौ २१ । २४ । २५ । २६ । २६ । ३० । ३१ । मिश्ररुचौ उदयस्थानानि २६ । ३०।३१ । स्वकीय-रवकीयगुणस्थानोक्तवत् उपशमसम्यक्त्वादयो भवन्ति । किन्तु उपशमसम्यग्दृष्टौ २१ । २५ । २६ ।३०।३१। वेदकसम्यग्दृष्टौ २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० ३१ । क्षायिकसम्यग्टौ २० । २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । ६ ।। संज्ञिनः गुणस्थानोक्तमिव २१ । २४ । २६ । २७ । २८ । २३ । ३० ॥३१ । असंज्ञिनि मिथ्यात्वोक्तवत् २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । 'आहार ओघभंगों' आहारके गुणस्थानोक्तवत् । किन्तु एकविंशतिकमुदय स्थानं नास्ति २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । अनाहारके चतुर्गुणस्थानेषु कार्मणोक्तस्थानानि २० । २१ । । । । तत्रानाहारे अयोगिनः उदये नवकाष्ट के द्वे भवतः । सामान्यकेवलिनः प्रतरलोकपूरणे उदयो विंशतिकं २० । विग्रहगतौ २१ । तथा तीर्थङ्करे सयोगिनि प्रतरलोकपूरणे २१ अवशेषविधिविशेषान् ज्ञात्वा यथाक्रम शेयमिति ॥२०५-२०७॥ अथ पूर्वोक्तनामप्रकृत्युदयस्थानानां विग्रहगत्यादिकालमाश्रित्योत्पत्तिक्रमः कथ्यते-तैजस-कार्मणे २ वर्ण चतुष्कं ४ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ अगुरुलघुकं । निर्माणं १ चेति द्वादश प्रकृतयः सर्वनामप्रकृत्युदय स्थानेषु ध्रुवा निश्चला भवन्ति । नामध्रुवोदया द्वादश १२ । चतर्गतिषु एकतरा गतिः १ पञ्चसु जातिषु एकतरा जातिः १ त्रस स्थावरयोमध्ये एकतरं १ बादर-सूक्ष्मयोर्मध्ये एकतरं १ पर्याप्तापर्याप्तयोर्मध्ये एकतरं । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ पञ्चसग्रह सुभग-दुर्भगयोमध्ये एकतरं १ भादेयानादेययोर्मध्ये एकतरं १ यशोऽयशसोर्मध्ये एकतरं १ चतुरानुपूर्येषु मध्ये एकतरं १ इत्येकविंशतिकं स्थानं २१ चातुर्गतिकार्ना विग्रहगतौ कार्मणशरीरे भवति । तदानुपूर्व्ययुतस्वाद्विग्रहगतवेवोदेति । तदानुपूर्व्यमपनीयौदारिकादित्रिशरीरेषु एकं शरीरं १ पटसंस्थानेषु एकं संस्थानं १ प्रत्येक-साधारणयोर्मध्ये एकतर उपघातं १ इति प्रकृति चतुष्कं विंशतिके युतं चतुर्विशतिकं स्थानम् २५ । इदमेकेन्द्रियाणां शरीरमिश्रे योगे एवोदेति, नान्यत्र । पुनः एकेन्द्रियस्य शरीरपर्याप्तौ तत्र चतुर्विंशतिके परघातयुते इदं २५। वा विशेषमनुष्यस्याऽऽहारकशरीरमिश्रकाले तदङ्गोपांगे युते इदं २५ । वा देव-नारकयोः शरीरमिश्रकाले वैक्रियिकाङ्गोपांगे युते इदं २५। पुनः एकेन्द्रियस्य पञ्चविंशतिके तच्छरीरपर्याप्तौ आतपे उद्योते वा युते इदं २६ । वा तस्यैवैकेन्द्रियस्योच्छ्रासनिःश्वासपर्याप्ती उच्छ्रासे युते इदं २६ । वा चतुर्वि शतिके द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियाणां सामान्यमनुष्यस्य निरतिशयकेवलिकपाटद्वयस्य च औदारिकमिश्रकाले तदङ्गोपाङ्गसंहनने युते इदं २६ । पुनश्चतुर्विशतिके प्रमत्तस्य शरीरपर्याप्ती आहारकाङ्गोपाङ्ग-परघात-प्रशस्तविहायोगतिषु युतासु इदं २७ । तत्केवलिषड्विंशतिकं कपाटद्वयस्यौदारिकमिश्रे तीर्थयुते इदं २७ । चतुर्विशतिके देव-नारकयोः शरीरपर्याप्तौ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग-परघाताविरुद्ध विहायोगतिषु युतासु इदं २७ । वा तत्रेवेकेन्द्रियस्योच्छासपर्याप्तौ परघाते आतपोद्योतके तस्मिन्नुच्छ वासे च युते इदं २७ । पुनस्तत्रैव सामान्यमनुष्यस्य मूलशरीरप्रविष्टसमुद्धातसामान्यकेवलिनः द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियाणां च शरीरपर्याप्तौ अङ्गोपाङ्ग-संहनन-परघाताऽविरुद्धविहायोगतिषु युतासु इदं २८ । वा प्राप्ताऽऽहारकर्द्धस्तच्छरीरोच्छ्वासपर्याप्त्योस्तदङ्गोपाङ्ग-परघात-प्रशस्तविहायोगत्युच्छ वासेषु युतेषु इदं २८ । वा देव-नारकयोरुच्छ वासपर्याप्तौ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग-परघाताऽविरुद्धविहायोगत्युच्छ वासेषु युतेषु इदं २८ । पुनस्तत्सामान्यमनुष्याष्टाविंशतिके तस्य च मूलशरीरप्रविष्टसमुद्धातसामान्यकेवलिनश्वोच्छ वासपर्याप्तौ उच्छ वासयुते इदं २६ । वा तच्चतुर्विशतिके द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चन्द्रियाणां शरीरपर्याप्तौ उद्योतेन समं अङ्गोपाङ्ग-संहनन-परघातविहायोगतिषु युतासु इदं २६ । वा समुद्धातकेवलिनः शरीरपर्याप्तौ अङ्गोपाङ्ग-संहनन-परघात-प्रशस्तविहायोगति-तीर्थषु युतेषु इदं २६ ! वा प्रमत्तस्याहारकशरीर-भाषापर्याप्स्योस्तदङ्गोपाङ्ग-परघात-प्रशस्तविहायोगत्युच्छ्वास स्वशरीरेषु युतेषु इदं २६ । वा देव नारकयोः भाषापर्याप्ती अविरुद्धकस्वरेण युते इदं २१ । पुनस्तत्रैव द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च न्द्रियाणामुच्छ वासपर्याप्तावुद्योतेन समं सामान्यमनुष्य-सकल-विकलानां भाषापर्याप्तौ स्वरद्वयान्यतरेण समं चाङ्गोपाङ्ग-संहनन-परघात-विहायोगत्युच्छ वासेषु युतेषु इदं ३० । वा समुद्धाततीर्थक्करकेवलिन उच्छवासपर्याप्तौ तीर्थेन समं सामान्यसमुद्धातकेवलिनो भाषापर्याप्तौ स्वरद्वयान्यतरेण समं चाङ्गोपाङ्ग-संहनन-परघात-प्रशस्तविहायोगत्युच्छ वासेषु युतेषु इदं ३० । पुनस्तत्सयोगकेवलिस्थाने भाषापर्याप्तौ तीर्थयुते इदं ३१ । वा चतुर्विशतिके द्वि-त्रि-चतु:-पञ्चन्द्रियाणां भाषापर्याप्तौ अङ्गोपाङ्गसंहनन-परघातोद्योत-विहायोगत्युच्छ वास-स्वरद्वयान्यतरेषु युतेषु इदं ३१*। विग्रहगतौ कार्मगशरीरे एकेन्द्रियाणां २१ स्थानमुदेति । शरीरमिश्रे २४ । २५ । शरीरपर्याप्ती २६ । २७ । उच्छ्रासपर्याप्तौ २६ उदयागतं भवति । देव-नारकयोः विग्रहगतौ कार्मणे २१ । २१ । वैक्रियिकमिश्रे २५ । २५ वैक्रियिकशरीरपर्याप्तौ २७ । २७ । आनापानपर्याप्तौ २८ । २८ । भाषापर्याप्तौ२६ । २६ उदयागतानि भवन्ति । द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चन्द्रिय-तिरश्ची विग्रहगति [तौ] कार्मणे २१ औदारिकमिश्रे २६ शरीरपर्याप्तौ २७ उदेति । उच्छ्रासपर्याप्तौ २६।३० भाषापर्याप्तौ ३० । ३१ उदयारातानि। सामान्यमनुष्ये विग्रहगतौ कार्मणे २१ औदारिकमिश्रे २६ शरीरपर्याप्तौ २८ आनापानपर्याप्तौ २६ भाषापर्याप्तौ ३० उदयागतानि । सामान्यकेवलिनि कार्मणशरीरे प्रतरद्वये लोकपूरणे २० औदारिकमिश्रकाययोगे २६ शरीरपर्याप्ती २८ उच्छासपर्याप्तौ २६ भाषापर्याप्तौ ३० उदयस्थानानि । तीर्थकरकेवलिनि । प्रतरद्वये लोकपूरणे च कार्मणे २१ औदारिकमिश्ने २७ शरीरपर्याप्ती २६ उच्छवासपर्याप्तौ ३० भाषापर्याप्तौ ३१ । आहारकविशेषमनुष्ये आहारकमिश्रे २५ आहारकशरीरपर्याप्तौ २७ उच्छ वासपर्याप्तौ २८ भाषापर्याप्तौ २६ । *उपरितनोऽयं सन्दर्भः गो. कर्मकाण्डस्य गाथाङ्क ५६३-५६४ तमटीकया शब्दशः समानः । (पृ. ७६५-७६६) Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३८५ चातुर्गतिकजीवेषु नामप्रकृत्युदयस्थानयन्त्रम्एकेन्द्रिये देवे नारके द्वीन्द्रियादौ सामान्य- सामान्य- तीर्थकरे मनुष्ये केवलिनि २१ २१ २१ २१ २१ २० २५ २५ २५ २६ २६ २६ २७ आहारकमनुष्ये विग्रहगतौ कार्मणे शरीरमिश्रपर्याप्तौ . mmm शरीरपर्याप्ती २६ २७ २७ २६, २८ २८ २८ २६ २७ आनपर्याप्ती २६ २८ २९ ३०, २१ २१ भाषापर्याप्ती ० २१ २१ ३१,३०३० इति नामप्रकृत्युदयस्थानानि मार्गणासु समाप्तानि । भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्यजीवोंमें ओघके समान सभी उदयस्थान जानना चाहिए। अभव्योंमें मिथ्यादृष्टिके समान नौ और आठ प्रकृतिक उदयस्थानोंको छोड़कर शेष नौ उदयस्थान होते हैं । सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अपनेअपने गुणस्थानोंके समान उदयस्थान जानना चाहिए । तथा उपशमसम्यक्त्व आदिमें भी अपनेअपने संभव गुणस्थानोंके समान उदयस्थान होते हैं। संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा संज्ञीके ओघके समान सभी उदयस्थान होते हैं। असंज्ञीके मिथ्यात्वगुणस्थानके समान भंग जानना चाहिए । आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारकोंके ओघके समान भङ्ग जानना चाहिए । अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगके समान चार गुणस्थानोंमें संभव उदयस्थान जानना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो अवशिष्ट विधिविशेष है, वह आगमके अनुसार यथाक्रमसे जान लेना चाहिए ॥२०५-२०७॥ अब मूलसप्ततिकाकार नामकर्मके सत्त्वस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०२३] 'ति-दु-इगिणउर्दि णउदि अड-चउ-दुगाहियमसीदिमसीदिं च । उणसीदि अत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता' ॥२०॥ ६३।१२।११।६०1८८/८२१८२१८०1७६७८1७७।१०।। अथ नामप्रकृतिसत्त्वस्थानप्रकरणं गाथाद्वादशकेनाऽऽह-['ति-दु-इगिणउदि' इत्यादि । त्रिनवतिः १३ द्वानवतिः १२ एकनवतिः ११ नवतिः १० अष्टाशीतिः ८८ चतुरशीतिः ८४ द्वाशीतिः ८२ अशीतिः८० एकोनाशीतिः ७६ अष्टसप्ततिः ७८ सप्तसप्ततिः ७७ दश १० नव ६ च प्रकृतयः नामकर्मसत्त्वस्थानानि त्रयोदश भवन्ति ॥२०॥ १३१२।११1१०1८८1८11८०1७६७८७७।१०।। नामकर्मके तेरानबै, बानबै, इक्यानबै, नब्बै, अठासी, चौरासी, बियासी, अस्सी, उन्यासी, अट्ठहत्तर, सतहत्तर, दश और नौ प्रकृतिक तेरह सत्त्वस्थान होते हैं ।।२०८॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-६३, ६२, ६१, ६०, ८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७, १०, ६ अब भाष्यगाथाकार क्रमशः इन सत्त्वस्थानोंकी प्रकृतियोंका वर्णन करते हैं-- गइआदियतित्थंते सव्वपयडीउ संत तेणउदि। वजित्ता तित्थयरं वाणउदि होंति संताणि ॥२०९॥ १३।१२। 1. सं० पञ्चसं० ५, २२२-२२३ । 2. ५, २२४ । १. सप्ततिका २६ । तत्रेहक पाठः तिदुनउई उगुनउई अटुच्छलसी असीइ उगुसीई। अट्ट य छप्पणत्तरि नव अट्ट य नामसंताणि ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ पञ्चसंग्रह तेषामुपपत्तिमाह-['गइभादियतित्थंते' इत्यादि । गत्यादि-तीर्थान्ताः सर्वप्रकृतयः गति ४ जाति ५ शरीरा ५ ङ्गोपाङ्ग निर्माण १ बन्धन ५ संघात ५ संस्थान ६ संहनन ६ स्पर्श न रस २ वर्णा ५ नुपूर्व्या ४ गुरुलघू १ पघात १ परघाता १ तपो १ धोतो१च्छवास १ विहायोगतयः २ प्रत्येकशरीर २ स २ सुभग २ सुस्वर २ शुभ २ सून्म २ पर्याप्ति २ स्थिराऽऽ२ देय २ यशःकीर्ति २ सेतराणि तीर्थकरत्वं १ चेति सर्वनामप्रकृतयः विनवतिः । इति प्रथमसत्त्वस्थानं ९३ भवति । तन्मध्यात्तीर्थकरत्वं वर्जयित्वाऽन्याःद्वानवतिः प्रकृतयः, इति द्वितीयसत्वस्थानं १२ भवति ॥२०॥ ६३।१२। गतिनामकर्मको आदि लेकरके तीर्थकर प्रकृतिपर्यन्त नामकर्म की जो तेरानबै प्रकृतियाँ है, उन सबका जहाँ सत्त्व पाया जावे, वह तेरानबै प्रकृतिकसत्त्वस्थान है इसमेंसे तीथकरप्रकृतिको छोड़ देनेपर बानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है ।२०६।। ६३ तेरानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान सर्वप्रकृतियाँ । तीर्थकर बिना ६२ । तेणउदीसंतादो आहारदुअं वजिदूण इगिणउदी । आहारय-तित्थयरं वजित्ता वा हवंति णउदिसंताणि ॥२१०॥ १११०। त्रिनवतिकसत्वादाहारकद्वयं वर्जयित्वा एकनवतिकं सत्वस्थानं ६१ भवति । तथा त्रिनवतिकप्रकृतिसत्वतः आहारकद्वयं तीर्थकरत्वं च वर्जयित्वा नवतिकं सत्वस्थानं भवति ॥२१॥ तेरानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे आहारकशरीर और आहारक-अंगोपांग, इन दोके निकाल देनेपर इक्यानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा उसी तेरानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें से तीर्थङ्कर और आहारकद्विक; इन तीन प्रकृतियोंके निकाल देनेपर नब्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है।॥२१॥ आहारकद्विक विना ६१ । तीर्थकर और आहारकद्विक विना १०० णउदीसंतेसु तहा देवदुगुधिल्लिदे य अडसीदेिं। णिरयचईं उन्वेल्लिदे य चउरासी दीय संतपयडीओ ॥२११॥ ८८८४। नवतिसत्त्वप्रकृतिपु १० देवगति-देवगत्यानुपूर्व्यद्वये उद्वेल्लिते अष्टाशीतिकं सत्वस्थानं भवति । अतः नारकचतुप्के उद्वल्लिते चतुरशीतिकं सत्वप्रकृतिस्थानं ८४ भवति ॥२१॥ नब्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें से देवद्विक अर्थात् देवगति और देवगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियोंके उद्वेलन करनेपर अठासीप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा इसी अठासीप्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे नरकचतुष्क अर्थात् नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक-अंगोपांग, इन चार प्रकृतियोंको उद्वेलना करनेपर चौरासीप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है ।।२१।। देवद्विक विना ८८ । नरकचतुष्क विना ८४ । मणुयदुयं उव्वेल्लिए वासीदी चेव संतपयडीओ। तेणउदीसंताओ तेरसमवणिज णवमखवगाई ॥२१२॥ ८२८० 1. सं० पञ्चसं० ५, २२५ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३८७ चतुरशीतिके मनुष्यद्वयमुद्वलिते द्वयशीतिः सत्त्वप्रकृतयः द्वयशीतिकं सत्त्वस्थानं तिर्यक्षु भवति । कुतः १ तेजस्कायिकवातकायिकयोः मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्व्यद्वयस्योद्वेल्लना भवतीति ८२ । त्रिनवतिसत्त्वस्थानात् १३ त्रयोदशप्रकृतीरपनीय अनिवृतिकरणो मुनिः क्षपकः क्षपयति क्षयं कृत्वाऽनन्तरं नवमानिवृत्तिकरणगुणस्थानादिषु पञ्चसु क्षपकश्रेणिषु अशीतिक सत्वस्थानं ८० भवति ॥२१२॥ ८२८०। चौरासीप्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे मनुष्यद्विक अर्थात मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियोंकी उद्वेलना करनेपर बियासीप्रकृतिक सवत्तस्थान होता है । तेरानबैप्रकृतियोंके सत्त्वस्थानमेंसे तिर्यग्द्विक, मनुष्यद्विक, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, उद्योत, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, सूक्ष्म और साधारण इन तेरह प्रकृतियोंके निकाल देनेपर अस्सीप्रकृतिक सत्त्वस्थान नवमगुणस्थानवर्ती क्षपक आदि उपरिम पाँच गुणस्थानवी जीवोंके होता है ॥२१२॥ ८४ मेंसे मनुष्यद्विकके विना ८२ | ६३ मेंसे तेरहके विना ८० । 'आसीदि होइ संता विय-इगि-णउदी य ऊणिया चेव । तेरसमणिय सेसं णवट्ठसत्तुत्तरा य सत्तरिया ॥२१३॥ अणियट्टिखवगाइसु पंचसु ७६१७८७७ । अनिवृत्तिकरणादिषु पञ्चसु क्षपकश्रेणिषु अशीतिकं सत्त्वस्थानं भवति ८०। तीर्थोनं द्विनवतिकं १२ आहारकद्वयरहितमेकनवतिकं ११ तीर्थकराऽऽहारकद्वयहीनं नवतिकं १० च तत्त्रयेषु क्रमेण वयमाणं प्रकृतित्रयोदशकं अपनीय सपयित्वा शेषकान्नाशीतिक ७६ अष्टासप्ततिकं ७८ सप्तसप्ततिकं ७७ स्थानं अनिवृत्तिकरणक्षपकादिषु पञ्चसु ७६७८७७। तथाहि-अनिवृत्तिकरणस्य आपकश्रेणौ ८०1७६७८।७७ । सूचमसाम्परायस्य क्षपकश्रेणौ ८०७६७८७७ । क्षीणकषायस्य क्षपकश्रेणी ८०७१।७८७७ । सयोगे ८०७६७८७७ । भयोगस्योपान्त्यसमये 10७८७७ ॥२३॥ बानवैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे उपर्युक्त तेरह प्रकृतियोंके निकाल देनेपर उन्यासीप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इक्यानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे उन्हीं तेरह प्रकृतियोंके कम कर देनेपर अठहत्तरप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है। नब्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें से उन्हीं तेरह प्रकृतियोंके कम कर देनेपर सतहत्तरप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है ।।२१३।। ६२मेंसे १३ के विना ७६ । ६१ मेंसे १३ के विना ७८ । ६० मेंसे १३ के विना ७७ ये तीनों सत्त्वस्थान अनिबृत्तिक्षपकादि पाँच गुणस्थानों में होते हैं। इगि-वियलिंदियजाई णिरिय-तिरिक्खगइ आयउज्जोवं । थावर सुहुमं च तहा साहारण-णिरय-तिरियाणुपुव्वी य ॥२१४॥ एए तेरह पयडी पंचसु अणियट्टिखवगाई। अजोगिचरमसमए दस णव ठाणाणि होति णायव्वा ॥२१॥ १०18। ताः कास्त्रयोदश प्रकृतय इति चेदाऽऽह--['इगि-वियलिंदियजाई' इत्यादि । एकेन्द्रियविकलत्रयजातयः ४ नरकगतिः १ तिर्यग्गतिः । आतपोद्योतद्वयं २ स्थावरं । सूचमं १ साधारणं १ नरकगत्यानुपूयं १ तिर्यग्गत्यानुपूयं १ चेति १३ एतास्त्रयोदशप्रकृतीरनिवृत्तिकरणक्षपकः चपयति । क्षयं कृत्वाऽनन्तरं अनिवृत्तिकरणक्षपक-सूचमसाम्परायक्षपक-क्षीणकषायक्षपक-सयोगायोगिद्विचरमसमयपर्यन्तं अशी तिकादीनि 1. सं० पञ्चसं० ५, २२६-२२७ । 2.५, २२८ । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ पञ्चसंग्रह सत्त्वस्थानानि चाचारि ८०७६७८७७ । अयोगिचरमसमये दशकं सत्त्वस्थानं १० नवकं सत्वस्थानं ६ च द्वे भवत इति ज्ञातव्यं भवति ॥२१४-२१५॥ १६ । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगति, तिर्यग्गति, आतप; उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, नरकानुपूर्वी और तिर्यगानुपूर्वी, इन तेरह प्रकृतियोंका विनाश अनिवृत्तिकरण क्षपक करता है। अतएव अनिवत्तिक्षपकसे आदि लेकर अयोगिकेवली के द्विचरम. समयपर्यन्त अस्सी आदि चार सत्त्वस्थान होते हैं । दश और नव प्रकृतिक सत्त्वस्थान अयोगिकेवलीके चरम समयमें जानना चाहिए ।।२१४-२१५।। मणुयदुयं पंचिंदिय तस बायर सुहय पञ्जत्तं । आएज्जं जसकित्ती तित्थयरं होंति दस एया ॥२१६॥ किं तदाऽऽह-[ 'मणुयदुयं पंचिंदिय' इत्यादि । ] मनुष्यगति-मनुष्यगत्यापूर्व्यद्वयं २ पञ्चेन्द्रियं १ वसं १ बादर १ सुभगं १ पर्याप्तं १ आदेयं १ यशःकीर्तिः १ तीर्थकरत्वं १ चेति नामकृतिसत्वस्थानं दशकं १० अयोगिचरमसमये भवति । एतत्तीर्थकरत्वं विना नामप्रकृतिसत्वस्थानं नवकं : भवति ॥२१६॥ दशप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, बस, बादर, सुभग, पर्याप्त, आदेय, यशःकीर्ति और तीर्थकर, ये दश प्रकृतियाँ होती हैं। (इनमेंसे तीर्थङ्करप्रकृतिके विना शेष नौ प्रकृतियाँ नौप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें पाई जाती हैं ) ॥२१६॥ अब गुणस्थानोमै उक्त सत्त्वस्थानोका निरूपण करते हैं अट्ठसु असंजयाइसु चत्तारि हवंति आइसंताणि । तेणउदीरहियाई मिच्छे छच्चेव पढमसंताणि ॥२१७॥ "अविरदादिसु अदृसु उवसंतेसु १३।१२।३१।६० मिच्छे १२।११।१०।८८८४८२। अथ गुणस्थानेषु नामसावस्थानानि योजयति-['अट्ठसु असंजयाइसु' इत्यादि ।] अविरतसम्यग्दृष्ट्याद्युपशान्तकषायान्तेषु अष्टसु चत्वारि आदिमसत्वस्थानानि भवन्ति ६३।१२।६१।१०। तथाहिअसंयतसम्यग्दृष्टौ प्रथमं त्रिनवतिकं १३ सवस्थानम्, तीर्थोनं द्वितीयं द्विनवतिकं १२ सत्त्वस्थानम्, आहारकद्वयरहितमेकनवतिकं ११ तृतीयसत्वस्थानम्, तीर्थाऽऽहारकत्रिकरहितं चतुर्थ नवतिक १० स्थानम् । एवमष्टसु ज्ञेयम् । देशसंयमे ६३।१२।११।१०। प्रमत्ते ६३।१२।११।६01 अप्रमत्ते १३१६२६।। अपूर्वकरणस्योपशम-क्षपकश्रेण्योः ६३११२:६१।१०। अनिवृत्तिकरणस्योपशमश्रेणौ १३।१२।११।१०।क्षपकश्रेणौ ८०७६७८७७। सूचमसाम्परायस्योपशमश्रेण्यां ६३।१२।११।१०। आपकश्रेण्या ८०1७६७८७७। उपशान्तकषाये १३११२।११।१० क्षीणकपाये ८०1७६७८७७। सयोगे ८०1७१। ७८७७। अयोगिद्विचरमसमये ८०1७६७८७७। अयोगिचरमसमये १०१। मिथ्यादृष्टौ त्रिनवतिकं विना आधसत्वस्थानानि पट भवन्ति १२।११।१०।८८८४८१। तिर्यग्गतिको मनुष्यो वा मिथ्यादृष्टिः देवगति-तदानुपूर्व्यद्वयं उद्वेल्लयति, तदा अष्टाशीतिक ८८। तथा नारकचतुष्कमुद्वेल्लयति, तदा चतुरशीतिकं ८४ । तैजस्कायिक-वायुकायिकी मनुष्यद्विकमुवल्लयतस्तदा दूरशीतिकम् २ ॥२१७॥ आदिके चार सत्त्वस्थान असंयतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानसे लेकर आठ गुणस्थानोंमें पाये जाते हैं। तेरानवैप्रकृतिक सत्त्वस्थानके विना प्रारम्भके छह सत्त्वस्थान मिथ्यात्व गुणस्थानमें होते हैं ।।२१७॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, २२६ । 2. ५, 'अत्रासंयताद्येषू' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १८३) । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अविरतादि उपशान्तान्त आठ गुणस्थानोंमें ६३, ६२, ६१, ६०, प्रकृतिक सत्त्वस्थान है । मिथ्यात्वमें ६२, ६१, ६०, ८८,८४, ८२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं। 'णउदीसंता सादे वाणउदी णउदि होंति मिस्सम्मि । बाणउदि णउदि संता अड चदु दु अधियमसीदि तिरिएसु ॥२१८॥ वाणउदि एगणउदी णउदी णिरए सुरेसु पढमचहुँ । वासीदी हीणाई मणुएसु हवंति सव्वाणि ।।२१६॥ सासणे १० । मिस्से १२॥६० । तिरिएसु १२1801८८४।२। णिरए १२।११।१०। मणुएसु संता १२ । देवेसु १३।१२।११।६० । एवं णामसंतपरूवणा सासादनगुणस्थाने नवतिकं सस्वस्थानं १० भवति । मिश्रगुणस्थाने द्विनवतिकं ६0 नवतिकं १० च सत्वस्थानं भवति । कुतः ? तित्थाहारा जुगवं सव्वं तित्थं ण मिच्छगादितिए । तस्सत्तकम्मियाणं तग्गुणठाणं ण संभवदि ॥२१॥ तीर्थाऽऽहारकयोरुभयेन युतं सत्त्वस्थानं ६३ मिथ्यादृष्टौ नास्ति । तीर्थयुतमाहारयुतं च नानाजीवापेक्षयास्ति । सासादने नानाजीवापेक्षयाप्याहारक-तीर्थयुतानि न भवन्ति । मिश्रगुणस्थाने तीर्थयुतं १२ न, आहारयुतं चास्ति १०: तत्कर्मसत्त्वजीवानां तदा गुणस्थानं न सम्भवतीति । अथ तिर्यग्गत्यां तिर्यक्षु द्विनवतिकं १२ नवतिकं १० अष्टाशीतिकं ८८ चतुरशीतिकं ८४ द्वयशीतिकं २२ चेति पञ्च सत्त्वस्थानानि तिर्यग्गतौ भवन्ति । नरकगत्यां द्विनवतिकैकनवतिक-नवतिकानि त्रीणि सत्त्वस्थानामि भवन्ति १२।११।१०। देवगत्यां प्रथमचतुष्कं सत्वस्थानकम । मनुष्यगत्यां मनुष्येषु दूरशीतिकं विना शेषाणि द्वादश सत्वस्थानानि भवन्ति ६३।१२।११।१०।८।४।८०७६७८७७।१०। । इति मनुष्यगतौ यथासम्भवं गुणस्थानेषु ज्ञातव्यानि ॥२१८-११६॥ पृथ्वीकायिकादिसर्वतिर्यक्षु पञ्च सत्त्वस्थानानि ६२।६०1८८८४८२ । भवनत्रयदेवानां १२।१०। सर्वभोगभूमिजतिर्यङ्-मनुष्याणां १२१६० । अञ्जनाद्यधस्तनचतुःपृथ्वीनारकाणां च द्वानवतिक ६२ नवतिके १० द्वे भवतः । सर्वसासादनानां नवतिकमेव १० । १ नरकगत्यां नामसत्त्वस्थानानि ३ मनुष्यगतौ नामप्रकृतिसत्त्वस्थानानिमिथ्या० १२ ११० मि. ६२ ११ ६० ८८ ८४ ८२ सासा० ० सा० १० मिश्र० १२ १० मि० १२ १० अवि० १२ ११ १. अ० ६३ ६२ ६१ १० २ तिर्यग्गतौ नामसत्त्वस्थानानि दे० ९३ ६२ ६१ १० मिथ्या० १२ १० ८८ ८४ ८२ प्र० ६३ १२१११० सासा० ६० अप्र० १३ ६२ ६१ १० मिश्र० १२ १० अपू० ६३ १२ १३ १० 1. सं० पञ्चसं० ५, २३० । 2.५, २३१। 3.५, 'सासने इत्यादिगद्यांशः । (पृ० १८३)। १. गो० क० ३३३ । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अवि० १२० देश०१२ . ४ देवगत्यां नामसत्त्वस्थानानिमिथ्या० १२ १० सासा० १० मिश्र० १२ १० श्रवि० ३ १२ ११ १० __उपशमश्रेणौ क्षपकश्रेणी अनि० ६३ ६२ ११० ८० ७६ ७८ ७७ सू० ६३ ६२ ६१ ६० ८० ७६ ७८ ७७ उ० ६३ ६२६१६० ८० ७६ ७८ ७७ ८० ७६ ७८ ७७ ८० ७६ ७८ ७७ क्षी० स० अयो. विः सासादनगुणस्थान में नम्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । मिश्रगुणस्थानमें बानबै और नब्बै प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान होते हैं । तिर्थश्चोंमें बानबै, नब्बै, अट्ठासी, चौरासी और बियासी प्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान होते हैं । नारकियोंमें वानवै, इक्यानबै और नब्बै प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं । देवोंमें आदिके चार सत्त्वस्थान होते हैं। मनुष्योंमें वियासीके विना शेष सर्व सत्त्वस्थान होते हैं ।।२१८-२१॥ सासादनमें ६०। मिश्रमें ६२, ६०। तिर्यश्चोंमें ६२, ६०,८८,८४, ८२। नारकियों में ६२, ६१, ६० । मनुप्योंमें ८२ के विना शेष १२ देवोंमें ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं। चारों गतियोंमें नामकर्मके सत्त्वस्थानोंको अंकसंदृष्टि इस प्रकार हैमनुष्यगतिमें नामसत्त्वस्थान नरकगतिमें नामसत्त्वस्थान१ मिथ्यात्व १२ ११ ६. ८८ ८४ ८२ मि. १२ ११ १० २ सासादन १० सा० १० ३ मिश्र १२ १० मि० १२ १० ४ अविरत १३ १२ ११० अ० १२ ११० ५ देशविरत १३ १२ १३ १० तिर्यग्गतिमें नामसत्त्वस्थान६ प्रमत्तविरत १३ १२ ११० मि० १२ १० ८८८४ ८२ सा०० • अप्रमत्त वि० १३ १२ ११ १० मि० १२ १० ८ अपूर्वकरण ६३ ६२ ११ ६० अ० १२ १० दे० १२ १० उपशमश्रेणि क्षपकश्रेणि १ अनिवृ०क० १० सूचमसा० ११ उपशान्त १२ क्षीणमोह १३ सयोगिके. १३१२६१ १० ८० ७६ ७८ ७७ ०० देवगतिमें नामसत्वस्थान मि० १२० ६३ ६२ १११० स० १० ८०७६ ७८ ७७ मि० १२० ८० ७६ ७८ ७७ अ० १३१२१११० ८० ७६ ७८७७ १४ अयो, दि० च० इस प्रकार नामकर्मके सत्वस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अब मूलसप्ततिकाकार नामकके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान इन तीनोंको एकत्र मिलाकर बतलाते हैं[मूलगा०२४] अट्ठगारस तेरस बंधोदयसंतपयडिठाणाणि । ओघेणादेसेण य एत्तो जिह संभवं विसजे ॥२२०॥ अथोक्तनामत्रिसंयोगस्यकाधिकरणे द्वयाधेयं ब्रुवन् तावद् बन्धाधारे उदय-सत्वाधेयं गाथाकतिभिराह । आदौ बन्धादित्रिक गाथाचतुष्कणाऽऽह-['अठेगारस तेरस' इत्यादि। इतः ओघेण गुणस्थानकैर्गुणस्थानेषु वा आदेशेन मार्गणाभिर्माणासु वा बन्धोदयसत्त्वप्रकृतिस्थानानि अष्टकादशम्रयोदशसंख्योपेतानि यथासम्भवमिति विसृजे कथयिष्यामीत्यर्थः। बन्धस्थानान्यष्टौ २३१२५।२६।२८।२६।३०३११ उदयस्थानान्येकादश २१२४१२५।२६।२७।२८।२६।३०।३।। सत्वस्थानानि प्रयोदश ६३।१२।११।१०। ८८८४८२१८०७६।७८।१०। ॥२२०॥ नामकर्मके बन्धस्थान आठ हैं, उदयस्थान ग्यारह हैं और सत्त्वस्थान तेरह हैं। इनका ओघ और आदेशकी अपेक्षा जहाँ जो स्थान संभव हैं, उनका कथन करते हैं ॥२२०॥ अब सर्वप्रथम बन्धस्थानोको आधार बनाकर उनमें उदयस्थान और सत्त्वस्थान कहते हैं[मूलगा०२५] 'णव पंचोदयसंता तेवीसे पंचवीस छव्वीसे। अट्ट चउरट्ठवीसे णव सत्तुगुतीस तीसम्मि ॥२२१॥ बन्ध० २३ २५ २६ भट्ठावीसादिबंधेसु २८ २९ ३० उद०६६ है सत्त्व० ५ ५ ५ त्रयोविंशतिके २३ बन्धस्थाने पञ्चविंशतिके २५ षड़विंशतिके २६ बन्धस्थानेच प्रत्येकमुदयस्थानानि नव भवन्ति । सत्वस्थानानि पञ्च भवन्ति । बन्ध २३ २५ २६ उद० १११ सत्त्व ० ५ ५ ५ अष्टाविंशतिके बन्धस्थाने उदयस्थानान्यष्टौ, सत्वस्थानानि चत्वारि। एकोनत्रिंशत्के त्रिशके च बं० २८ २९ ३० बन्धस्थाने उदयस्थानानि नव भवन्ति, सत्त्वस्थानानि सप्त भवन्ति उ० ८ १ . सं० ४ ७ ७ एकत्रिंशत्के बन्धस्थाने उदयस्थानमेकम्, सत्वस्थानमेकम् । एकके बन्धस्थाने उदयस्थानमेकम्, बं० ३१ १ . सत्त्वस्थानान्यष्टौ । उपरतबन्धे दश-दशोदयसत्वस्थानानि भवन्ति ॥२२१॥ उ० १ १ १० स० १ ८ १० नामकर्मके तेईस, पच्चीस और छठवीस प्रकृतिक तीन बन्धस्थानोंमें नौ उदयस्थान, और पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें आठ उदयस्थान और चार सत्त्वस्थान होते हैं। उनतीस और तीस प्रकृतिक दो बन्धस्थानोंमें नौ उदयस्थान और सात सत्त्वस्थान होते हैं ।।२२१॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। 1. सं० पञ्चसं० ५, २३२-२३४ । श्वे. सप्ततिकायां 'विभजे' इति पाठः। १. सप्ततिका०३० । तत्र प्रथमचरणे पाठोऽयम्-'अट्ठय वारस वारस' । २. सप्ततिका० ३१ । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ पञ्चसंग्रह अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं 'तिय पण छव्वीसेसु वि उवरिम दो वजिदूण णव उदया। पण संता वाणउदी णउदी अड-चउर वासीदिं ॥२२२॥ 'बंधट्टाणेसु २३।२५।२६ पत्तेयं णवोदयठाणाणि-२१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । संतद्वाणाणि-१२001मार। त्रयोविंशतिके-पञ्चविंशतिके-षड् विंशतिक्बन्धस्थानेषु उपरिमोभयस्थाने द्व' नवकाष्टके धर्जयित्वा शेषोदयस्थानानि नव भवन्ति, द्वानवतिक-नवतिकाष्टाशीतिक-चतुरशीतिक द्वयशीतिकानि पञ्च सत्त्वस्थानानि भवन्ति ॥२२२॥ तेईस, पच्चीस और छब्बीसप्रकृतिक बन्धस्थानों में उपरिम दो बन्धस्थानोंको छोड़कर आदिके नौ उदयस्थान होते हैं । तथा बानवे, नब्बे, अठासी, चौरासी और बियासीप्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान होते हैं ॥२२२॥ बन्धस्थान २३, २५, २६ मेंसे प्रत्येकमें उदयस्थान ये नौ हैं-२१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ । तथा सत्वस्थान ६२, ६०, ८८,८४, ८२ ये पाँच-पाँच हैं। घासीदि वजित्ता चउसंता होंति पुव्वभणिया दु। तह सत्तावीसुदए बंधट्ठाणाणि ते तिण्णि ॥२२३॥ बंधे २३।२५।२६ उदये २७ संतहाणाणि १२१६०८८८४। बंधतियं समत। भष्टाविंशतिके बन्धे दुयशीतिकं सत्त्वस्थानं वर्जयित्वा चतुःसत्त्वस्थानानि पूर्वोक्तानि भवन्ति । तु पुनस्तधाग्रे वच्यमाणे सप्तविंशतिके उदयस्थाने द्वयशीतिकं सत्वस्थानं वर्जयित्वाऽन्यस्थानानि भवन्ति ॥२२३॥ बन्धे २८ उदयस्थानान्यष्टौ २१॥२५॥२६॥२७॥२८॥२१॥३०॥३॥ सत्त्वस्थानानि चत्वारि १२।११। १०1८८ तानि बन्धस्थानानि त्रीणि २३।२५।२६। इति बन्धादिकं समाप्तम् । तथा सत्ताईसप्रकृतिक उदयस्थानमें बन्धस्थान तो ये पूर्वोक्त तीन ही होते हैं, किन्तु सत्त्वस्थान पूर्वोक्तोंमेंसे बियासीको छोड़कर शेष चार होते हैं ।।२२३॥ २७ प्रकृतिक उदयस्थानमें बन्धस्थान २३, २५, २६ प्रकृतिक तीन, तथा सत्त्वस्थान ६६,६०, ८८,८४ प्रकृतिक चार हो इस प्रकार तीन बन्धस्थानोंमें उदय और सत्त्वस्थानों का वर्णन समाप्त हुआ। 'उवरिमदुयचउवीस य वजिय अठ्ठदय अट्ठवीसम्हि । चउ संता वाणउदी इगिणउदि णउदि अट्ठसीदी य ॥२२४॥ बंधे २८ । उदये २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। संता १२।११।१०८८ । अष्टाविंशतिके बन्धस्थाने उदयं सत्त्वं चाऽऽह-[उवरिमदुय चउवीस य' इत्यादि । अष्टाविंशतिके बन्धके उपरिमद्विके अन्तिमे द्वनवकाष्टके स्थाने चतुविंशतिकमेकमिति स्थानत्रयं वर्जयित्वा त्यक्त्वा उदयस्थानान्यष्टौ भवन्ति । द्विनवतिकैकनवतिक-नवतिकाष्टाशीतिकानि चतुःसत्त्वस्थानानि भवन्ति ॥२२४॥ बन्धे २८ उदयस्थानानि २१२५२६।२७।२८।२६॥३०॥३१ सत्त्वस्थानानि १२।११।१०।८। 1. सं० पञ्चसं० ५, २३५-२३६ । 2. ५, 'धन्धस्थानेषु' इत्यादिगद्यभागः। (पृ० १८४)। 3.५, २३७ । 4. ५, २३८-२३६ । 5.५, 'बन्धे २८' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १८४)। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ३६३ अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें चौबीसप्रकृतिक और अन्तिम दो उदयस्थानोंको छोड़कर आठ उदयस्थान तथा बानबै, इक्यानबै, नब्बै और अठासीप्रकृतिक चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥२२४॥ २८ अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक आठ उदयस्थान और ६२, ६१,६०,८८ प्रकृतिक चार सत्त्वस्थान होते हैं । अब अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें उदय तथा सत्त्वकी विशिष्ट दशामें जो स्थानविशेष होते हैं, उन्हें दिखलाते हैं अट्ठ चउरटुवीसे य कमसोदयसंतबंधठाणा दु। सामण्णेण य भणिया विसेसदो एत्थ कायव्यो ॥२२५।। छव्वीसिगिवीसुदया वाणउदी णवदि अट्ठवीसे य । खाइयसम्मत्ताणं पुण कुरवेसुप्पजमाणाणं ॥२२६॥ खाइयसम्माइट्ठीणं णराणं बंधे २८ उदये २६।२१। संता ६२।६० । अष्टाविंशतिके बन्धे क्रमशः अष्टावुदयस्थानानि, चत्वारि सत्वस्थानानि सामान्येन भणितानि । अत्र बं० २३ विशेषतः कर्त्तव्यः । अत्राऽऽद्यत्रिसंयोगे उ० । इयम्-तिर्यग्द्विकं २ औदारिक-तैजस कामगानि ३ एके न्द्रियं १ वर्णचतुकं ४ अगुरुलघुकं १ उपघातं १ स्थावरं १ अस्थिरं १ अशुभं १ दुर्भगं १ अनादेयं १ अयशः ५ निर्माणं १ हुण्डकं १ अपर्याप्तं १ बादरयुग्मस्यैकतरं १ साधारणप्रत्येकयोमध्ये एकतरं १ चेति त्रयोविंशकं बन्धस्थानं २३ एकेन्द्रियाऽपर्याप्तयुतत्वाद्देव-नारकेभ्योऽन्ये बस-स्थावर-मनुष्य-मिथ्यादृष्टय एव बध्नन्ति । तत्रैकेन्द्रियादिसर्वतिरश्वां बन्धे २३ एकेन्द्रियापर्याप्तस्योदयस्थानानि नव-२१२४२५/२६॥२७॥ २८१२६३०॥३१ । सत्त्वस्थानं पञ्चकम्-१२।१०।८८1८४।२। मनुष्येषु कर्मभूमिजानामेव बन्धे २३ एकेन्द्रियालब्धपर्याप्तके उदयस्थानं पञ्चकम्-२१०२६२८।२६।३०। सत्त्वस्थानचतुष्कम्-१२।६०1८८। ८४। उ० ६ पञ्चविंशतिकमे केन्द्रियपर्याप्त वसापर्याप्तयुतत्वात्तिर्यग्मनुष्य-देव-मिथ्यादृष्टय एव बन्धन्ति । स० ५ तत्र सर्वतिरश्चां बन्धे २५ एकेन्द्रियपर्याप्त वसापर्याप्त उदयस्थाननवकम्-२१२४॥२५।२६।२७।२८ारह। ३०३१ । सत्वस्थानं पञ्चकम्-१२।३०।८८८४८२। मनुष्यगतौ बन्धे २५। एकेन्द्रियपर्याप्ते सापर्याप्ते उदयस्थानपञ्चकम् -२१।२६।२८।२६।३० । सरवस्थानचतुष्कम् -१२०८८1८४ । देवेषु भवनत्रय-सौधर्मद्वयजानामेकेन्द्रियपर्याप्तयुतमेव बन्धः २५ । उदयस्थानपञ्चकम्-२१२५।२७।२८।२६ । सत्त्व वं० २६ स्थानद्वयम्-१२।६० । उ० पड्विंशतिकं २६ एकेन्द्रियपर्याप्तोद्योतातपान्यतरयुतत्वात्तिर्यङ्-मनुष्य स० ५ देवमिथ्यादृष्टय एव बध्नन्ति । तच्चापि तेजो-वायु-साधारण सूचमापर्याप्तेषु तदुदये एव न बन्धः, तत्तिरश्चां बन्धः । उदयः-आत० १ उद्यो० स्थाननवकम् -२१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सत्त्वस्थानपञ्चकम् १२१६०1८८८४८२ । तन्मनुष्याणां बन्धः २६ । आ० उ० उदयस्थानपञ्चकम्-२१॥२६॥२८॥ २६।३० । सत्त्वस्थानचतुष्कम्-१२।६०८८८४ । भधनत्रय-सौधर्मद्धयजानां बन्धः २६ । ए० प० आत. उद्यो० उदयस्थानपञ्चकम्-२१।२५।२७।२८।२६ ! सत्त्वस्थानद्वयम् १२।१० । 1. ५, २४०-२४१ । 2. ५, 'बन्धे २८' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १८५) Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ बं० २८ उ० ८ अष्टाविंशतिकं नरक-देवगतियुतत्वादसंज्ञितिर्यक् कर्मभूमि मनुष्याणाम् । एवं विग्रहगति पञ्चसंग्रह स० ५ शरीर मिश्रकाला व तस्यापर्याप्त शरीरकाले एवं बध्नन्ति । तत्तिरवां मिथ्यादृष्टेः बन्ध एव २८ । नरक. देवयुतं उदयस्थानचतुष्कम् - २८|२६|३०|३१ । सत्वस्थानत्रयम् - ६२६०1८८ | तत्सासादनस्य बन्धः २८ । देवे उदयद्वयं ३० ३१ । सत्वमेकं ३० । मिश्र बन्धः २८ देवे उदयः ३० ३१ । सत्वं ६२।६० । असंयतस्य बन्धः २८ देवे उदयः २१।२६।२८।२६|३०|३१ । सत्त्वद्वयम् - ६२।६० | देशसंयतस्य बन्धः २८ देतयुतं उदयस्थानद्वयम् ३० ३१ । सत्वं ६२ 8० । द्वयशीतिकं हि तत्सत्वयुततेजोवायुभ्यां पञ्चन्द्रियेषूत्पन्नानां विग्रहगति-शरीर मिश्रकालयोस्तिर्यग्गतियुत - त्रिं २३ पञ्च २५ षट् २६ नव २६ दशा ३० प्रविंशतिकानि बध्नतां सम्भवन्ति । मनुष्य द्विक्युत पञ्च २५ नव २६ विंशतिके बध्नतां न सम्भवति । चतुरशीतिकं च एक विकलेन्द्रियभवे नारकचतुष्कमुद्वल्य पञ्च ेन्द्रियपर्याप्तेषूत्पन्नानां तस्मिन्नेव कालद्वये सम्भवति । ततोऽस्मिन्न ष्टाविंशतिकबन्धकाले तयोः सत्वं नोक्तम् । मनुष्येषु मिथ्यादृष्टेः बन्धः २८ । नारकदेवयुतं उदयस्थानत्रिकम् - २८२६१३० | सरवस्थानचतुष्कं ६२/१६०८ | सासादनस्य बन्धः २८ । देवयुतं उदयस्थानमेकं ३० । सत्वं ६० । मिश्रस्य बन्धः २८ । देवे उदयः । ३० । सत्वं ६२।६० । असंयतस्य वन्धः २८ । देवयुतं उदयस्थानं पञ्चकम् - २१।२६।२८।२६।३० । सत्त्वस्थानद्वयम् - ६२।१०। नात्रैकनवतिकसत्त्वम्, प्रारब्धतीर्थंबन्धस्यान्यत्र बद्धनरकायुष्कात् । सम्यक्त्व प्रच्युतिर्नेति तीर्थंबन्धस्य नैरन्तर्यात्, अष्टाविंशतिकाबन्धात् । देशसंयतस्य बन्धः २८ । देवे उदयस्थानमेकम् ३० । सत्त्वस्थानद्वयं ६२।६० । प्रमत्तस्य बन्धः २८ । देवयुतं उदयस्थानपञ्चकम् – २५ २७ २८ २९ ३० । सत्त्वस्थानद्वयं ६२ । ६० | अप्रमत्तस्य बन्धः २८ देवयुतम् । उदयस्थानमेकं ३० । सत्वस्थानद्वयम् - ६२।६० | भपूर्वकरणस्य बन्धः २८ देवयुतं । उदयस्थानं ३० । सत्त्वद्वयं ६२।६० | ॥२२५॥ अष्टाविंशतिकबन्धस्य विशेषं गाथैकेनाऽऽह - [ 'छष्वीसिगिवीसुदया' इत्यादि । ] कुरुवर्षोत्पन्नानामुत्तमभोगभूमिजानां क्षायिकसम्यग्दृष्टिमनुष्याणामष्टाविंशतिके बन्धे २८ षट्विंशतिकमेकविंशतिकं चोदयस्थानद्वयं २६।२१ द्वानवतिक-नवतिकसत्वस्थानद्वयं भवति । बन्धे २८ | उदये २६।२१ । सखे १२।१० । तद्यथा— उत्तमभोगभूमिषूत्पद्यमानानां क्षायिकसम्यग्दष्टिमनुष्याणां विग्रहगतौ सत्यां एकविंशतिकं नाम - प्रकृत्युदयस्थानमुदयागतं भवति तदा ते देवगतियुतमष्टाविंशतिकं बन्धस्थानं बध्नन्तीत्यर्यः । तथा तेषामौदारिक मिश्रकाले पविंशतिकं स्थानमुदयागतं, तदा ते देवगतियुतमष्टाविंशतिकं बध्नन्ति । तदा तेषां तत्सत्त्वस्थानद्वयं सम्भवतीत्यर्थः ॥ २२६॥ अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थान में क्रमशः आठ उदयस्थानों और चार सत्त्वस्थानोंका सामान्यसे वर्णन किया । अब यहाँपर जो कुछ विशेषता है, उसका वर्णन करना चाहिए । वह विशेषता यह है कि अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें इक्कीस और छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान तथा बानबे और नब्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थान देवकुरु और उत्तरकुरुमें उत्पन्न होनेवाले क्षायिकसम्यक्त्वी मनुष्योंके ही संभव हैं ।। २२५-२२६॥ क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्योंके २८ प्रकृतिक बन्धस्थानमें २६ और २१ प्रकृतिक दो उदयस्थान तथा ६२ और १० प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान होते हैं । अब अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानगत दूसरी विशेषता बतलाते हैंपण सत्तावीसुदा वाणउदी संतमट्टवीसे य । आहारयमुदयंते पमत्तविरदे चैव हवे || २२७॥ बंधे २८ | उदए २५।२७ | संता ६२ । 1. सं० पञ्चसं ०५, २४२ । 1 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्रमत्तविरते आहारकोदये अष्टाविंशतिकं बन्धे पञ्चविंशतिक-सप्तविंशतिकोदयस्थानद्वयं द्वानवतिसत्वमेव । तथाहि-प्रमत्तमुनेराहारकशरीरमिश्रकाले पञ्चविंशतिकमुदयागतं २५ तदा ते देवगतियुतमष्टाविंशतिक स्थानं बन्धमायाति २८ । द्वानवतिकसत्त्वमेव १२ तदा। तथा प्रमत्तस्याहारकशरीरपर्याप्तौ सप्तविंशतिक २७ स्थानमुदयागतं तदा देवगतियुतमष्टाविंशतिकं २८ बन्धमायाति । तदुक्तसरवमेव ६२ ॥२२७॥ बन्धे २८ । उदये २५।२७ । सत्ता १२ । अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें पच्चीस और सत्ताईसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए वानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान आहारकशरीरके उदयवाले प्रमनविरत साधुके ही होता है ॥२२७॥ बन्धस्थान २८ में तथा उदयस्थान २५, २७ में सत्त्वस्थान ६२ ही होता है। अब अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानसम्बन्धी तीसरी विशेषता बतलाते हैं उगुतीस अट्ठवीसा वाणउदि णउदि अट्ठवीसे य । आहारसंतकम्मे अविरयसम्म पमत्तिदरे ॥२२८॥ बंधे २८ । उदए २६।२८ । संते ६०० । आहारकसत्वकर्मण्यविरतसम्यग्दष्टौ अप्रमते च अष्टाविंशतिक बन्धे एकोनत्रिंशस्क अष्टाविंशतिकं च [उदये द्विनवतिकं नवतिकं च [ सत्वं ] भवति । तद्यथा--आहारकसरवस्याविरतसम्यग्दष्टः आहारकसत्वस्याप्रमत्तस्य च नवविंशतिकमुदयागतस्थानं २६ अष्टाविंशतिकमुदयागतं २८ च, तदाऽष्टाविंशतिकदेवगतियुतस्थानं बन्धमायातीत्यर्थः २८। तदा सत्त्वद्वयस्थानं १२० । बन्धः २८ । उदये २६२८ । सत्तायां ६२११०॥२२८॥ अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें उनतीस और अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बानबै और नम्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थान आहारकप्रकृतिके सत्त्ववाले अविरतसम्यक्त्वी और संयतके होते हैं ॥२२॥ बन्धस्थान २८ में तथा उदयस्थान २६ और २८ में सत्त्वस्थान ६२ और ६० होते हैं । अब अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें उदय और सत्त्वसम्बन्धी चौथी विशेषता कहते हैं बाणउदि-णउदिसंता तीसुदयं अट्ठवीसबंधेसु । मिच्छाइसु णायव्वा विरयाविरयंतजीवेतु ॥२२॥ बंधे २८ । उदए ३० । संते १२।१०। मिथ्यादृष्ट्यादि-विरताविरतपर्यन्तजीवेषु । कथम्भूतेषु ? अष्टाविंशतिक २८ स्थानबन्धकेषु द्वानवतिकनवतिकसत्वद्वयस्थानं १२० त्रिंशत्कमुदयस्थानं च ज्ञातव्यम् ॥२२६॥ बन्धे २८। उदये ३०। सत्वे १२।१०। अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानोंमें तथा तीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बानब और नब्वैप्रकृतिक सत्त्वस्थान मिथ्यादृष्टिको आदि लेकर संयतासंयतगुणस्थान तकके जीवोंमें पाये जाते हैं ॥२२६॥ अब अट्ठाईसप्रकृतिक वन्धस्थानमें उदय और सत्त्वस्थानगत पाँचवीं विशेषता बतलाते हैं 'तह अट्ठवीसबंधे तीसुदए संतमेक्कणउदी य । तित्थयरसंतयाणं वि-तिखिदिसुप्पजमाणाणं ॥२३०॥ बंधे २८ । उदए ३० । संते ११ । 1. सं०पञ्चसं० ५, २४३ । 2. ५, २४५ । 3. ५, ३४६ । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंभ्रह तीर्थङ्करसत्वानां द्वि-विनरकचित्युत्पद्यमानानां अष्टाविंशतिके २८ बन्धे त्रिंशत्कोदये ३० एक.नवतिकसरवं 8. भवति । सयथा-प्राग्यवनरकायुष्कर्मभूमिजमनुष्याण प्रिंशम्नामप्रकृयुक्यप्राप्तामा उपशमसम्यक् वेदकसम्यवस्वं वा प्राप्तानां केवलिपादमूले तीर्थकर प्रकृति बद्ध्वा सत्वकृतानां नरकातियुतमष्टाविंशतिकं बन्धप्रकृतिस्थानं बद्ध्वा द्वितीय-तृतीययोवंशा-मेघयोल्पचमानानां नारकानां आहारकद्वयं विना तीर्थकरयुतमेकनवतिकं सत्वस्थानं ११ भवति । अत्राष्टाविंशतिके तीर्थबन्धो न । कुतः १ प्रारब्धतीर्थबन्धानां बद्धनरकायुकात् । सम्यक्त्वप्रच्युतिति तीर्थ बन्धस्य नैरन्तर्यादष्टाविंशतिकायन्धात् ॥२३०॥ . अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें तथा तीसप्रकृतिक उदयस्थानमें इक्यानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान तीर्थकरप्रकृतिको सत्तासे युक्त और दूसरी-तीसरी नारकभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके होता है ।।२३०॥ बन्धस्थान २८ में तथा उदयस्थान ३० में सत्त्वस्थान ६१ होता है । अब उसी बन्धस्थानकी छठी विशेषता बतलाते हैं अडसीदिं पुण संता तीसुदए अट्ठवीसबंधेसु । सामित्तं जाणिज्जो तिरिय-मणुए मिच्छजीवाणं ॥२३१॥ बंधे २८ उदए ३० संते ८८ । तिर्यङ्मनुष्यमिथ्यादृष्टिजीवानामष्टाविंशतिकबन्धके स्वामित्वं जानीहि । त्रिंशत्कोदये अष्टाशीतिक सत्वम् । तथाहि-मिथ्यादृष्टिपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो वा मिथ्यादृष्टिमनुष्या कथम्भूताः पर्याप्ताः त्रिंशन्नामकर्मप्रकृत्युदयभुज्यमानाः अष्टाशीतिनामप्रकृतिसत्त्वसहिता नरकगतियुतमष्टाविंशतिकं बध्नन्ति । किं तत् ? तैजस-कार्मणागुरुलघूपघात निर्माण-वर्णचतुष्काणांति ध्रुवप्रकृतयो नव । ब्रस । बादर १ पर्याप्त १ प्रत्येकाऽ१ स्थिराऽ । शुभ १ दुर्भगाऽ १ नादेयाऽ १ यशस्कीर्ति : नरकगति १ पञ्चेन्द्रिय १ वैक्रियिकशरीर ५ हुण्डकसंस्थान १ नरकगत्यानुपूर्वी १ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग : दुःस्वराऽ १ प्रशस्तविहायोगत्यु १ च्छ्रास १ परघातम् १ तदष्टाविंशतिकं नरकगतियुत २८ मिथ्यादृष्टयस्तिर्यङ्मनुष्या बध्नन्तीत्यर्थः ॥२३१॥ बन्धः २८ उदये ३० सत्ता ८८॥ __ अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें तीसप्रकृतिक उदयस्थानमें और अठासीप्रकृतिक सत्त्वस्थानका स्वामित्व मिथ्यादृष्टि तियच और मनुष्योंके जानना चाहिए ॥२३१।। __बन्धस्थान २८ में उदयस्थान ३० में और सत्त्वस्थान ८८ में यह विशेषता कही । अव उपर्युक्त बन्धस्थानमें ही सातवीं विशेषता बतलाते हैं बाणउदिणउदिसंता इगितीसुदयट्टवीसबंधेसु । मिच्छाइसु णायव्या विरयाविरयंतजीवेसु ॥२३२।। ___बंधे २८ । उदए ३१ । संते ६२।६० मिथ्यादृट्यादि-विरताविरतान्ततिर्यग्जीवेषु एकत्रिंशत्कोदयागताष्टाविंशतिबन्धकेषु द्वानवतिकनवतिकसत्वस्थानद्वयं ज्ञातव्यम् । तथाहि--मिथ्यादृष्ट्यादि-देशसंयतान्ताः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः एकत्रिंशन्नामप्रकृन्युदयभुज्यमानाः ३१ तीर्थ विना द्वाननतिकारहारक रहितनवतिक ६० सत्त्वसहिताः देवगतियुतमष्टाविंशतियुतं २८ बध्नन्तीत्यर्थः । किं तत् ? नव ध्रुवाः, वसं १ बादरं १ पर्याप्तं १ प्रत्येकं १ स्थिरास्थिरैकतरं १ शुभाशुभकतरं , सुभगा १ देयं यशोऽयशसोरेकतरं १ देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः 1. सं० पञ्चसं० ५, २४७ । 2. ५, १४८ । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिक १ प्रथमसंस्थानं १ देवगत्यानुपूर्व्यं १ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग १ सुस्वरं १ प्रशस्तविहायोगत्यु १च्छ्रासं १ परघातं १ तद्देवगतियुतमष्टाविंशतिकं २८ मिथ्यादृव्यादिदेशान्तास्तिर्यञ्चो बध्नन्तीत्यर्थः ॥ २३२॥ बन्धे २८ उदये ३१ सत्ता ६२|०| अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें इकतीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बानबे और नब्बै प्रकृतिक सत्त्वस्थान मिथ्यादृष्ट्यादि विरताविरतान्त जीवोंके जानना चाहिए || २३२ || यह बन्धस्थान २८ में और उदयस्थान ३१ में सत्त्वस्थान ६२ और १० गत विशेषता है । अब उसी बन्धस्थानमै उदय सत्त्वगत आठवीं विशेषता बतलाते हैं 'अडसीदिं पुण संता इगितीसुदयवीसबंधे । सामित्त जाणो तेरिच्छियमिच्छजीवाणं ॥ २३३ ॥ बंधे २८ उदए ३१ । संते। अट्ठावीसबंध समत्तो । तिर्यङ् मिथ्यादृष्टिजीवानामेकत्रिंशत्को दयाष्टाविंशतित्रन्धकेषु स्वामित्वं जानीयात् । पुनः अष्टाशीतिकं सवस्थानं जानीहि । तद्यथा-मिथ्यादृष्टिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तास्तिर्यञ्चः एकत्रिंशन्नामप्रकृत्युदयागत भुज्यमानाः ३१ अष्टाशीतिक सवसहिताः नारकयुतमष्टाविंशतिकं बन्धस्थानं २८ बध्नन्ति । तत्पूर्व कथितमस्ति ॥ २३३ ॥ बन्धे २८ उदये ३१ सत्ता ८८ । इत्यष्टाविंशतिकं बन्धस्थानं समाप्तम् । अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थान में एकतीस प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए अट्ठासीप्रकृतिक सत्त्वस्थानका स्वामित्व तिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए ॥ २३३ ॥ यह बन्धस्थान २८ में उदयस्थान ३१ में सत्त्वस्थानगत विशेषता है । इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थानों में उदयस्थानों और सत्त्वस्थानोंका वर्णन समाप्त हुआ । 'उगुतीस तीसबंधे चरिमे दो वजिण णवत्रुदये । तिगणउदादी णियमा संतद्वाणाणि सत्तेव || २३४॥ बंधे. २६|३०| पत्तेयं उदद्या नव--२१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०|३१| सत्त संतद्वाणाणि -- ६३/२/६१/६०८८८४८२| अर्थकोनत्रिंशत्कबन्धे २६ त्रिंशत्कबन्धे ३० चोदय सत्त्वस्थानान्याह --- [ 'उगुतीस-तीसबंधे' इत्यादि । ] एकोनत्रिंशत्क बन्धे २६ त्रिंशत्कबन्धे ३० चचरमे द्वे नवकाष्टकस्थाने वर्जयित्वाऽन्यनवोदयस्थानानि २१।२४।२५।२६।२७|२८|२६|३०|३१ | त्रिनवतिकादीनि सप्त सत्त्वस्थानानि ६३/६२/६ ३६७ ६०८८८४८२ ॥ २३४ ॥ उनतीस और तीसप्रकृतिक बन्धस्थान में अन्तिम दो स्थानोंको छोड़कर शेष नौ उद्यस्थानों के रहते हुए नियम से तेरानबे आदिक सात सत्त्वस्थान होते हैं ||२३४|| बन्धस्थान २६, ३० में से प्रत्येक में उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१ और सत्तास्थान ६३, ६२,६०,८८,८४, ८२ होते हैं । णव सत्तोदयसंता उगुती से तीसबंधठाणेसु । सामण्णेण य भणिया विसेसदो एत्थ वतव्वो ॥ २३५ ॥ 1. सं०पञ्चसं० ५, २४६ । २.५, २५२-२५१ । ३. ५, २५२ । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पञ्चसंग्रह एकोनत्रिंशत्कबन्धस्थाने २६ नवोदयस्थानानि । सप्त सत्त्वस्थानानि । त्रिंशत्कबन्धस्थाने ३० नवोदयस्थानानि : सप्त सत्त्वस्थानानि । सामान्येन साधारणेन भणितानि । इदानी विशेषतोऽत्र द्वयोवक्तव्यानि ॥२३५॥ on ब० ३० ००० 049 स. ७ इस प्रकार उनतीस और तीसप्रकृतिक बन्धस्थानोंमें नौ उदयस्थान और सात सत्तास्थान सामान्यसे कहे । अब उनमें जो कुछ विशेष वक्तव्य है, उसे कहते हैं ॥२३॥ उगुतीसबंधगेसु य उदये इगिवीससंततिगिणउदी। तित्थयरबंधसंजुयमणुयाणं विग्गहे होइ ॥२३६।। बंधे २६ । उदये २१ । संते ६३।११। अर्थकोनत्रिंशत्कस्य विशेष गाथासप्तकेनाऽऽह--'उगतीसबंधगेसु य' इत्यादि । ] तीर्थकर बन्धसंयुतमनुष्याणां एकोनत्रिंशत्कबन्धे २६ एकविंशत्युदये २१ सति विग्रहगतौ त्रिनवतिकैकनवतिकसत्त्वस्थानद्वयं ६३।६१ भवति । तथाहि--ये मनुष्याः असंयतादि-चतुर्गुणस्थानवर्तिनस्तीर्थकर-देवगतियुतमेकान्नत्रिंशत्कस्य बन्धं कुर्वन्तः सन्तः मरणं प्राप्तास्ते कार्मणासंयतविग्रहगतिमाश्रिता मनुष्या एकविंशतिकमुदयभुज्यमानाः सन्तः ध्रुवप्रकृतिनवकं है वसं १ बादरं १ पर्याप्तं १ प्रत्येकं १ स्थिरास्थिरैकतरं ५ शुभाशुभैकतरं सुभगाऽ १ देयं १ यशोऽयशसोरेकतरं १ देवगतिः । पञ्चेन्द्रियं १ वैक्रियिकं १ प्रथमसंस्थानं १ देवगत्यानुपूर्वी १ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गं सुस्वरं १ प्रशस्तविहायोगतिः १ उच्छासं १ परघातं १ तीर्थकर १ सहितमेकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ बध्नन्ति । एकविंशतिकभुज्यमाना इति किम् ? तैजस-कार्मणद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ स्थिरास्थिरे २ शुभाशुभे २ अगुरुलघुकं १ निर्माण १ मिति द्वादश ध्रुवोदयप्रकृतयः १२। देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियं वसं १ बादरं । पर्याप्तं १ सुभगं १ आदेयं १ यशः १ देवगत्यानुपूर्वी १ एवमेकविंशतिकं २१ विग्रहगतौ कार्मणकाले विग्रहगतिप्राप्तानामुदयागतं भवति । तदा तेषां सत्त्वस्थानद्वयं तीर्थसत्त्वसहितं १११२। योऽविरतो वा देशविरतो वा प्रमत्तो वाऽप्रमत्तो वा एतदेकोनत्रिंशत्कं देवगतितीर्थकरत्वसहित २६ बध्नन् कालं कृत्वा वैमानिकदेवगति प्रति यायिन् विग्रहगतौ इदमेकविंशतिकस्योदयमनुभवति तस्य तीर्थकरसहितसत्वस्थानद्वयं ६३।६१ भवतीत्यर्थः ॥२३६॥ ___ उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें इक्कीसप्रकृतिक उदयके रहते हुए तेरानबै और इक्यानबैप्रकृतिक सत्तास्थान तीर्थङ्करप्रकृतिके बन्धसंयुक्त मनुष्योंके विग्रहगतिमें होता है ॥२३६॥ बन्धस्थान २६में उदयस्थान २१ के रहते हुए सत्तास्थान ६३६१ होते हैं । विशेषार्थ-जो असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवी मनुष्य देवगति और तीर्थङ्कर प्रकृतिसे युक्त उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानका बन्ध करते हुए मरणको प्राप्त होते हैं, उनके देवलोकको जाते हुए कार्मणकाययोग और असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके साथ विग्रहगतिमें इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए तेरानबे और इक्यानबे प्रकृतिक सत्तास्थान पाये जाते हैं। 'ते चेव य बंधुदया वाणउदी णउदि संतठाणाणि । चउगदिगदेसु जाणे विग्गइमुक्केसु होति त्ति ॥२३७॥ बंधे २६ । उदये २१ । संते ६२।१०। 1. सं० पञ्चसं०५,२५३ । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका चातुर्गतिकजीवानां विग्रहगतिप्राप्तानां तावैव पूर्वोक्तबन्धोदयौ भवतः। एकोनत्रिंशत्कबन्धस्थानं २६ एकविंशतिकमुदयस्थानं च भवति । द्वानवतिक-नवतिकसत्तस्थानद्वयं च भवति १२।१०। तथाहि-- इदं नवविंशतिक द्वीन्द्रियादिवसपर्याप्तेन तिर्यग्गत्या वा मनुष्यगत्या वा युतं २६ चातुर्गतिजा जीवा विग्रहगति प्राप्ता एकविंशत्युदयं प्राप्ता द्वानवति-नवतिसहिताः बध्नन्तीत्यर्थः ॥२३७॥ बन्धः २६ प० वि-ति-च-पं० म० उ० २१ सत्ता ६२।६० । उन्हीं पूर्वोक्त उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान और इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बानबै और नब्बै प्रकृतिक सत्तास्थान विग्रहगतिसे विमुक्त चारों गतियोंके जीवोंके होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥२३॥ बन्धस्थान २६ और उदयस्थान २१ के रहते ६२ व १० सत्तास्थान विग्रहविमुक्त चातुर्गतिक जीवोंके होता है। ते चेव बंधुदया अड-चउसीदी य विग्गहे भणिया। मणुय-तिरिएसु णियमा वासीदी होदि तिरियम्हि ॥२३८॥ बंधे २६ । उदये २१ । मणुय तिरियागं संते ८८।८४। तिरियांणं संते ८२ । मनुष्यगतिजानां तिर्यग्गतिजानां च विग्रहे वक्रगते विग्रहगतौ वा पूर्वोक्तबन्धोदयौ भवतः । बन्धः २६ उदयः २१ । अष्टाशीतिक-चतुरशीतिकसत्त्वद्वयं च .वति ८८1८४ । नरतियक्षु बन्धे २९ उदये २१ सत्त्वे मार तिरश्नां विग्रहगतौ तौ द्वौ बन्धोदयौ द्वयशीतिकसत्त्वस्थानं ८२ नियमाद् भवति ॥२३॥ तिर्यक्षु बन्धे २६ उदये २: सत्त्वे ८२ । उन्हीं उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान और इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए अट्ठासी और चौरासीप्रकृतिक सत्तास्थान विग्रहगतिको प्राप्त तिर्यश्च और मनुष्योंमें कहे गये हैं । किन्तु बियासोप्रकृतिक सत्तास्थान नियमसे तिर्यश्च में ही पाया जाता है ।।२३८॥ ___ बन्धस्थान २६ और उदयस्थान २१ में सत्तास्थान स, ८४ मनुष्य-तिर्यश्चोंके होता है। किन्तु ८२ सत्तास्थान तिर्वश्चोंके ही होता है। बंधं तं चेव उदयं चउवीसं णउदि होंति वाणउदी । एइंदियऽपजत्ते अड चउ वासीदि संता दु ॥२३॥ एइंदियअपज्जत्ते बंधे २६ उदये २४ । संते १२१६०८८।८।२ । एकेन्द्रियापर्याप्तानां चतुर्विशतिनामप्रकृत्युदये सति २४ तदेव नवविंशतिक बन्धस्थान द्वीन्द्रियादिजसपर्याप्लेन तिर्यग्गल्या वा मनुष्यगत्या वा युतं २६ बन्धसायाति, एकेन्द्रियापर्याप्तको बनातीत्यर्थः । तदा तेषां सत्त्वं किमिति ? द्वानवतिकं १२ नवतिकं ६० अष्टाशीतिकं ८८ द्वयशीतिकं ८२ च भवति ॥२३॥ उसी उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बानबै, नब्बै, अट्ठाप्ती, चौरासी और बियासीप्रकृतिक.पाँच सत्तास्थान एकेन्द्रिय अपर्याप्तके होते हैं ।।२३६॥ एकेन्द्रिय अपर्याप्तमें बन्धस्थान २६ उदयस्थान २४ और सत्तास्थान ६२, ६०, ८८,८४, ८२ होते हैं। "बंधं तं चेव उदयं पणुवीसं संत सत्त हेट्ठिमया । जह संभवेण जाणे चउगइपजत्तमिदराणं ॥२४॥ अपजत्तेसु बंधे २६ उदये २५ संते ६३।१२।११।६०।८८८४।२। 1. सं० पञ्चसं० ५, २५४ । 2. ५, 'नर-तिर्यक्षु' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १८७)। 3 ५, २५५ । ___ 4. ५, २५६-२५७ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह चातुर्गतिकानां अपर्याप्तकाले शरीरमिश्रकाले तदेवकोनत्रिंशत्कं २६ स्थानं बन्धं याति । पञ्चविंशतिकोदयागते २५ तदाऽधस्थितसत्त्वस्थानानि सप्त यथासम्भवं जानीहि । किन्तु तिर्यग्गत्यां त्रिनवतिकैकनवतिकसत्त्वं नास्ति । तदुक्तञ्च परं भवति तिर्यक्षु व्येकाग्रे नवती विना। प्रजायन्ते न तिर्यश्चः सत्व तीर्थकृतो यतः ॥२२॥ इति ॥२४०।। अपर्याप्तेषु शरीरमिश्रकाले बन्धे २६ उदये २५ सत्वे ६३।१२।६११६०८८।८४।८२ । उसी उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए अधस्तन सात सत्तास्थान यथासंभव चारों गतियोंके अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए ।।२४०।। चातुगतिक अपर्याप्तोंके बन्ध २६ और उदय २५ में सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२ यथासंभव पाये जाते हैं। तीसादो एगूणं छव्वीसं अंतिभा दु उदयादु । संता सत्तादिल्ला ऊणत्तीसाण बंधति ।।२४१॥ बंधे २६ । जहसंभवं* उदये ३०१२६।२८।२७।२६। संते ६३।१२।११1801८८।८४।२। अन्तिमादुदयात्रिंशत्कादेकैकोनं षड्विंशतिकान्तं ३०।२६।२८।२७।२६ । आदिमाः सत्ताः सप्त सत्वनानि ६३१ 1801८८८८२ एकोनविंशकबन्धस्थाने २६ भवन्ति । तथाहि-चातुर्गतिकजीवानां एकोनत्रिंशत्कबन्धे सति २६ पडुर्विशर्तिक २६ सप्तविंशतिका २७ टाविंशतिक २८ एकोनविंशतिक २६ त्रिंशत्का ३० न्युदयस्यानानि यथासम्भवं सम्भवन्ति । तथा तबन्धके २६ यथासम्भवं त्रि-द्वि-एकनवति नवत्यष्टाशीति-चतुरशीति-द्वयशोतिसत्त्वस्थानानि सम्भवन्ति ६३।१२।११।१०८८1८४८२ । अथ तत्तदुदये तत्तत्सत्त्वे च तद्बन्धो जायते । तिर्यग्गत्यां त्रिनवतिक एकनवतिकं च न सम्भवति ॥२४॥ तीसप्रकृतिक अन्तिम उदयस्थानको आदि लेकर एक-एक कम करते हुए छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थान तकके स्थानवाले और आदिके सात सत्तास्थानवाले जीव उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान को बाँधते हैं ॥२४१॥ बन्धस्थान २६ में यथासंभव ३०, २६, २८, २७, २६ प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२ होते हैं । वा चदु अट्ठासीदि य णउदी वाणउदि संतठाणाणि । उणतीसं बंधंति य तिरि एकत्तीस उदए दु॥२४२॥ बंधे २६ । उदये ३१ संते २८४८८०६२ ____ इदि एगूणतीसबंधो समत्तो तिरश्चां तिर्यग्गतौ एकोनत्रिंशत्कबन्धे २६ एकत्रिंशन्नामप्रकृतिस्थानमुदयमायाति । तथा तेषां द्वयशीतिक ८२ चतुरशीतिक ८४ अष्टाशीतिक ८८ नवतिक 80 द्वानवतिक १२ सत्त्वस्थानानि सम्भवन्ति यथासम्भवम् ॥२४२॥ बन्धे २६ उदये ३१ सत्त्वे ६२।६०1८८८४१२ । 1, सं० पञ्चसं० ५, २५८ । 2. ५, २५६ । १. सं० पञ्चसं० ५, २५८ । क्य संभये। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४०१ तथा नवविंशतिकबन्धे उदय सस्वस्थानानि यथासम्भवेन बालबोधाय प्रतिपाद्यते-नवविंशतिक नाम प्रकृतिबन्धस्थान द्वीन्द्रियादि-त्रसपर्याप्टेन तियग्गत्या वा मनुष्यगत्या वा देवतीर्थन वा युतस्वाच्चतुगतिजा बध्नन्ति । २१ प. वि-ति-च-उ० पंच० म० दे० ती० । तत्र नारकमिथ्याशां बन्ध० २१ पं० ति० म० । उदय० २१०२५।२७।२८।२६। सत्व. १२।११।१०। अत्रेकनवतिकं धर्मादित्रयापर्याप्तेष्वेव सम्भवति । सासादनस्य बन्धः २६ पं. ति० म० । उदय० २१ । सत्व० ९० । मिश्रस्य बन्धः २६ म० । उ० २६ । स०६२।१०। असंयतस्य धर्मायां बन्धः २६ मनु । उद० २१।२५।२७।२८।२६। सत्त्व० ६२॥ १०। वंशा मेधयोः बन्धः २६ म० उ०२६ । स. १२।१०। अञ्जनादिषु बन्धः २६ म० । उ०२६ । स० १२1801 तिर्यग्गतो मिथ्यादृष्टेः बन्धः २६ वि० ति० १० पं. मनु । उद० २६।२४।२५।२६।२७।२८। २६।३०।३१। सत्व० १२1601८८८८२ सासादनस्य बन्यः २६ पं० ति० म० । उद० २१॥२४॥२६॥ ३०।सत्त्व. १०। नात्र पञ्च-सप्ताष्टनवाविंशतिकोदयः मिश्रादित्रये नास्य बन्धः । मनुष्यगतौ मिथ्यादृष्टौ बन्धः २६ वि० ति० च० पं० म०। उदय० २१॥२६।२८।२६।३०। सत्व. १२18 2160151८४) अत्र तेजो-वायूनामनुत्पत्तेन द्वय गीतिकसत्वम्, प्रारबद्धनरकायुः प्रारब्धतीर्थबन्धासंयतस्य नरकगमनाभिमुखमिथ्याष्टित्वे मनुष्यगतियुतं तत्स्थानं बध्नतः त्रिंशत्कोदयेनैकनवतिकसत्त्वम् । सासादने बन्धः २६ पं० ति० म० उद० २१॥२६॥३० । सत्वं १० । मिश्रे नास्य बन्धः । असंयते बन्धः २६ देव-तीथयुतम् । उदय० २१२६।२८।२६।३०। सत्व० ६३।११। देशे बं० २६ देव-तीर्थयुतम् । उद० ३०। सत्त्व० ६३।११। प्रमत्ते बं० २६ दे० ती० । उद० २५।२७।२८।२६।३०॥ सत्त्व० ६३।११। अप्रमत्ते बं० २६ दे० ती० । उद. ३० स० ६३।११। अपूर्वकरणे बं० २६ दे० ती० । उ० ३० स० १३१११ । देवगतौ भवनत्रयादिसहस्रारान्ते मिथ्यादृष्टौ संज्ञिपंचेन्द्रिय-पर्यावतिर्यग्गत्या मनुष्यगत्या युतमेव बन्ध० २६ पं० ति० म० । उद० २११२५।२७।२८।२६। सत्त्व. १२।१०। सासादने बन्धः २६ पं० ति० म० । उद० २१।२५।२७।२८।२६। सरव. १00 मिश्रे बं० २६ म०। उद. २९। स. १२।१०। असंयते बं० २६ म० । उद० २१०२५।२७।२८।२४ाभवनत्रयायते बं० २६ म० । उद० २६ । सत्व० १२११० आनताद्युपरिमग्रेवेयकान्ते मिथ्यादृष्टौ बन्धः २६ म० । उद० २१०२५।२७१२८२६ । स. १२॥१०॥ सासादने बन्धः २६ म०। उद० २१।२५।२७।२८।२९। सत्व०१०। मिश्रे बं० २६ म० । उद० २६ । स. ६३।१०। असंयते बं० २६ म०। उद. २१०२५।२७।२८।२६। स० १२।१०। अनुदिशानुत्तरासंबते बन्धः २६ मनुष्ययुतम् । उद० २१।२५।२७।२८।२६। सत्त्व० १२18010 इत्येकोनत्रिंशतो बन्धः समाप्तः । इकतीस प्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बियासी, चौरासी, अट्ठासी, नब्बै और बानबैप्रकृतिक सत्तास्थानवाले तिर्यश्च उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थानको बाँधते हैं ॥२४२॥ बन्धस्थान २६ में उदयस्थान ३१ के रहते हुए सत्तास्थान ६२, ६०, ८८,८४, ८२ होते हैं। इस प्रकार उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थानको आधार बनाकर उदयस्थान और सत्तास्थानोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब तीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें संभव उदयस्थानों और सत्त्वस्थानोंका वर्णन करते हैं जे ऊणतीसबंधे भणिया खलु उदय-संतठाणाणि । ते तीसबंधठाणे णियमा होति त्ति बोहव्वा ॥२४३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, २६० । * सर्वोऽयमपरितनसन्दर्भः गो० कर्मकाण्डस्य गाथाङ्क ७४५ तमटीकया सह शब्दशः समानः । (पृ० १००-६०१) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ पञ्चसंग्रह अथ त्रिंशत्कस्थानबन्धस्य विशेष गाथा सप्तकेनाऽऽह--['जे ऊणतीसबंधे' इत्यादि । ] यान्युदयसत्वस्थानान्येकोनत्रिंशत्कबन्धे भणितानि, तान्येवोदय-सत्त्वस्थानानि त्रिंशत्कबन्धस्थाने भणितानि भवन्तीति ज्ञातव्यानि ॥२४३॥ उनतोसप्रकृतिक बन्धस्थानमें जो-जो उदयस्थान और सत्तास्थान पहले कहे गये हैं, वे ही नियमसे तीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।।२४३॥ अब यहाँपर जो कुछ विशेषता है उसे कहते हैं बंधं तं चेवुदयं पणुवीसं संत सत्त ठाणाणि । ति इगि णउदि देव-णिरए तिरिए वासीदि संता दु ॥२४४॥ बाणउदि णउदिसंता चउगइजीवेसु अट्ट चउसीदि । तिरिय-मणुएसु जाणे सव्वे सत्तेव सत्ता दु ॥२४॥ " बंधे ३०। उदये २५ संते ६३।१२।६१।६०11८1८४।२। एएसि च सत्तसंतठाणःण विभागो सुरणारएसु--१३।११। तिरिएसु ८२ । चउगइयजीवेसु १२।१० । मणुय-तिरिएसु ८८८४ ___ त्रिंशत्कबन्धके सामान्येन तत्रिंशतो बन्धे ३० पञ्चविंशतिकस्थानोदये २५ सत्त्वस्थानानि सप्त भवन्ति ९३।१२।११1801८11८४८२। विशेषतो देवगतौ देवानां नारकगतो नारकाणां च त्रिंशत्कनामप्रकृतिबन्धके पञ्चविंशतिकोदयस्थाने २५ त्रिनवतिकैकनवतिकसत्त्वस्थानद्वयं १३।११। तिर्यग्गतौ तिर्यक्ष त्रिंशत्कबन्धे ३० पञ्चविंशतिकोदयस्थाने २५ द्वयशीतिकसत्त्वस्थानं ८२ । तु पुनश्चातुर्गतिकजीवानां त्रिंशत्कबन्धे ३० पञ्चविंशतिकोदये २५ द्वानवतिक-नवतिकसत्त्वस्थानद्वयम् ६२।६०। तिर्यङ्-मनुष्येषु त्रिंशत्कबन्धे ३० पञ्चविंशतिकोदये २५ अष्टाशीतिक-चतुरशीतिसत्त्वस्थानद्वयम् ८८८४॥ इति सर्वाणि सप्त सत्त्वस्थानानि सत्त्वभेदाद् विभागं जानीहि ॥२४४-२४५।। एतेषां सप्तानां सत्त्वस्थानानां विभागः सुर-नारकेषु बन्धः ३०। उदये २५। सत्त्वे ६३।११ । न्धः ३० । उदये २५ । सत्वे ८२ । चतुर्गतिजीवेषु बन्धः ३०। उदये २५। सत्वे १२।१०। मनुष्यतिर्यक्षु बन्धः ३० । उदये २५ । सत्त्वे ८८८४। .: तीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए आदिके सात सत्तास्थान होते हैं। उनमेंसे देव और नारकियोंके तेरानबै और इक्यानबैप्रकृतिक दो सत्तास्थान होते हैं, तिर्यञ्चोंमें बियासीप्रकृतिक सत्तास्थान होता है, चारों गतियोंके जीवोंके बानबै और नब्बैप्रकृतिक स्थान होते हैं, तथा तिर्थश्च और मनुष्योंमें अट्ठासी और चौरासीप्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार तीसप्रकृतिक बन्धस्थान और पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थानमें आदिके सातों ही सत्तास्थान जानना चाहिए ॥२४४-२४५॥ । बन्धस्थान ३० और उदयस्थान २५ में सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४ और ८२ होते हैं। इन सत्तास्थानोंका विभाग इस प्रकार है-देव-नारकोंमें ६३, ६१, तिर्यञ्चों में ८२, चातुर्गतिक जीवोंमें ६२, ६० और मनुष्य-तिर्यश्चोंमें ८८, ८४ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं। "तं चेव य बंधुदयं छव्वीसं णउदि होइ वाणउदी । ... अड चउरासीदि तिरिय-मणुए तिरिए वासीदिः संता दु॥२४६॥ * बंधे ३० उदये २६ तिरिय-मणुएसु संते १२।९।८८८४। तिरिए २ । 1. सं० पञ्चसं० ५, २६१-२६३ । 2. ५, 'सामान्येन त्रिंशद्बन्धे' इत्यादिगद्यांशः (पृ. १८८ )। 3. ५, २६४ । 4. ५, 'त्रिशद्बन्धे' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १८८)। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४०३ तिर्य-मनुष्येषु षडविंशतिकस्थानोदये २६ तदेव त्रिंशत्कबन्धस्थानं ३०द्वानवति १२ नवतिका टाशीति म८ चतुरशीतिकानि ८४ सत्त्वस्थानानि भवन्ति । तिर्यङ्-मनुष्येषु बन्धः ३० उदये २६ सत्त्वे ६२।१०।८८1८४ तिरश्चां बन्धे ३६ उदये २६ द्वयशीतिक सत्वस्थानं ८२ भवति ॥२४६॥ उसी तीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें छब्बीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए बानबै, नब्बै, अट्ठासी और चौरासीप्रकृतिक सत्तास्थान तिर्यश्च और मनुष्योंमें पाये जाते हैं। किन्तु बियासी प्रकृतिक सत्तास्थान तियश्चोंमें ही पाया जाता है ।।२४६।। बन्धस्थान ३० में तथा उदयस्थान २६ में ६२, ६०, ८८, ८४ प्रकृतिक सत्तास्थान मनुष्यतिर्यञ्चों में तथा ८२ प्रकृतिक सत्तास्थान तिर्यञ्चोंमें होता है। इगि पण सत्तावीसं अट्ठावीसूणतीस उदया दु। तीसहं बंधम्मि य सत्ता आदिल्लया सत्ता ।।२४७॥ बंधे ३० उदये २१।२५।२७।२८।२६। संते ६३।१२।६११६०८८८४।२। त्रिंशन्नामप्रकृतिबन्धस्थाने ३० एकविंशतिकं २१ पञ्चविंशतिकं २५ सप्तविंशतिक २७ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ च क्रमाद् भवतीत्युदयस्थानपञ्चकम् । आदिमानि सत्त्वस्थानानि सप्त भवन्ति ।।२४७।। बन्धः ३० उदये २१।२५।२७।२८।२६ सत्तायां ६३।१२।११1801ERIEVIE२। तीस प्रकृतिक बन्धस्थानमें इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीसप्रकृतिक उदयस्थानोंके रहते हुए आदिके सात सत्तास्थान होते हैं ॥२४७।। बन्धस्थान ३० उदयस्थान २१, २५, २७, २८, २६ के रहते हुए ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४ और ८२ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं। चउछव्वीसिगितीसय-तीस-उदयम्मि तीस-बंधम्मि । तेणउदिगिणउदीओ वजित्ता पंच संता दु ॥२४८॥ 4 बन्धे ३० उदये २४।२६।३०।३१ संते पंच १२६०।८८।८४१८२। इदि तीसबंधो समत्तो । त्रिंशत्कस्थानबन्धे ३० चतुर्विंशतिकोदये २४ षडविंशतिकोदये २६ त्रिंशत्कोदये ३० एकत्रिंशत्कोदये ३१ विनवतिककनवतिकस्थानद्वयं वर्जयित्वा पञ्च सत्वस्थानानि ॥२४॥ बाधे ३० उदये २४।२६।३०।३१ सत्त्वे पञ्च १२।६०1८८।८४८२ । अथ चतुर्गतिजानां यथासम्भवं गुणस्थाने बन्धादि त्रिकमुच्यते-१०, नामप्रकृतित्रिंशत्कं बन्धस्थानं बन्धः ३० सपर्याप्तोद्योत-तिर्यग्गतियुत-मनुष्यगतियुत-मनुष्यगतितीर्थयुत-देवगत्याहारकद्वययुतत्वाचतुर्गतिजा बध्नन्ति । बं ३० ५० वि० ति० च० प. म. म. ती० दे० आहारा । तत्र सर्वनारकमिथ्यादृष्टौ बं० ३० पं० ति०। उद० २१।२५।२७।२८।२६ । स० १२१६० । सासादने बं० ३० पं० तिः । उद्योतोदये २६ । साव. १० । मिश्रे नास्य बन्धः । घर्मासंयते मनुष्यगति-तीर्थयुतबन्ध: ३० म० ती० । उद० २१।२५।२७।२८।२६ । सत्ता ११ | वंशा-मेघयोः बं० ३० म० तीर्थ उद० २६ । सत्ता ६५ । भञ्जनादिषु नास्ति । 1. सं० पञ्चसं० ५, २६५ । 2. ५, 'बन्धे ३०' इत्यादिगद्यांशः (प० १८८)। 3. ५, २६६ । 4. ५, 'बन्धे ३० उदये' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १८८)। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ६० ॥ [ सासादने बं० ३० ति० उ० । उ० मनुष्यगतौ मिथ्यादृष्टौ बन्धः ८४ । सासादने बं० ३० ति० उ० । अप्रमत्तादिद्वये बन्धः ३० देव० आहारक० । उद० ३० । स० ६२ । तिर्यग्गतौ सर्व मिथ्यादृष्टौ बन्धः ३० पं० ति० । उद्योतोदये २१।२४ । २६ । ३० । ३१ । स० २१ । २४ । २६ । ३० ३१ स० ६०] मिश्रादित्रये नास्य बन्धः । ३० ति० उ० । उदये २१।२६।२८ | २६।३० । सत्त्वं २० उद० २१।२६।३० । स० ३० । मिश्रादिचतुष्के नास्य बन्धः । ४०४ देवगतौ भवनत्रयादि-सहस्रारान्तेषूद्योत तिर्यग्गतियुतम् । तत्र मिथ्यादृष्टौ बन्धः ३० ति० उद्यो० | उद्० २१।२५।२७।२८।२६।३० । सत्त्व० ६२।६० | सासादने बं० ३० ति० उद्यो० । उद्० २१।२५।२६ । सत्त्वं ६० । मिश्र भवनत्रया संयते च न त्रिंशत्कम् । किं तर्हि ? तन्मनुष्यगतियुतं नवविंशतिकमेव सम्भवति । सौधर्मादि-सहस्रारान्तासंयते मनुष्यगति तीर्थंयुतं बन्धः ३० म० ती० । उद० २१ २५/२७/२८|२६| सत्त्व० ६३|११| आनताद्युपरिममैवेयकान्त मिथ्यादृष्ट्यादित्रये नास्य बन्धः । आनतादिसर्वार्थसिद्ध्यन्तासंयते च मनुष्यगति-तीर्थयुतबन्धः ३० मनु० तीर्थ० । उद०२१।२५/२७/२८२६ । सव० ६३ । ६१ । इति त्रिंशत्कस्थानबन्धः समाप्तः । उसी तीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें चौबीस, छब्बीस, तीस और इकतीसप्रकृतिक उदयस्थानके रहते हुए तेरानबै और इक्यानबैप्रकृतिक दो स्थानोंको छोड़कर शेष पाँच सत्तास्थान पाये जाते हैं ||२४|| बन्धस्थान ३० में उदयस्थान २४, २६, ३०, ३१ के रहते हुए सत्तास्थान ६२, ६०, ८८, ८४, ८२ होते हैं । इस प्रकार तीसप्रकृतिक बन्धस्थानको आधार बनाकर उदयस्थान और सत्तास्थानों का वर्णन समाप्त हुआ । अब मूल सप्ततिकाकार शेष बन्धस्थानोंमें संभव उदय और सत्त्वस्थानोंका निरूपण करते हैं-[ मूलगा ०२६] ' एगेगं इगिती से एगेगुदयह संतम्मि | उवरबंधे च दस वेदयदि संतठाणाणि ॥ २४६ ॥ बन्ध० ३१ १ ० १ 9 ४ 9 ८ १० उद० सत्व० अथैकत्रिंशत्कैको परतबन्धेषु उदय-सत्वस्थानस्वरूपं गाथाचतुष्केणाssह - [ 'एगेगं इगिती से' इत्यादि । ] एकत्रिंशत्कनामप्रकृतिबन्धस्थाने ३१ एकमुदयस्थानं १ एकं सस्वस्थानं १ । एकस्मिन् यश:प्रकृतिबन्धके एकोदयस्थानं १ अष्टौ सत्वस्थानानि ८ । उपरतबन्धे बन्ध-रहिते ० उदयस्थानानि चत्वायुदयन्ति ४ । सत्त्वस्थानानि दश १० भवन्ति ||२४|| बं० ३१ १ १ १० इकतीसप्रकृतिक बन्धस्थान में एक उदयस्थान और एक सत्तास्थान होता है । एकप्रकृतिक बन्धस्थानमें एक उदयस्थान और आठ सत्तास्थान होते हैं । उपरतबन्धमें चार उदयस्थान और दश सत्तास्थान होते हैं । इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है । उ० स० 9 9 ० ४ 1. सं० पञ्चसं० ५, २६७ । १. सप्ततिका० ३२ । तत्र चतुर्थचरणे 'वेयगसंतम्मि द्वाणाणि' इति पाठः । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४०५ अब भाष्यगाथाकार उपर्युक्त अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं 'इगितीसबंधगेसु य तीसुदओ संतम्मि य तेणउदि । एयविहबंधगेसु य उदओ वि य तीस अट्ठ संता य ॥२५॥ आदी वि य चउठाणा उवरिम दो वज्जिऊण चउ हेट्ठा । संतवाणा णियमा उवसम-खवगेसु बोहव्वा ॥२५॥ अप्पमत्त-अपुव्वाणं बंधे ३. उदये ३० संते ११ बंधे १ उदये ३० उवस ते १३१२/११ १०। खवएसु ८०1७६७८७७॥ एकत्रिंशत्कनामप्रकृतिबन्धकयोरप्रमत्तापूर्वकरणगुणस्थानयोः सत्त्वे त्रिनवतिकसत्त्वस्थानं स्यात् । अप्रमत्तापूर्वकरणयोः बन्धे ३१ उदये ३० सत्त्वे १३ । एकविधयश कीर्तिबन्धकेषु अपूर्वकरणस्य सप्तमभागानिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायिकेषु त्रिंशन्नामप्रकृत्युदयस्थान ३० अष्टौ सत्त्वस्थानानि १३११२।११।१०।८०७१। ७८७७। तानि कानि सत्वस्थानानान्यष्टौ ? सत्त्वेषु आद्यानि चत्वारि स्थानानि ६३।१२।११।१०। उपरिमे द्वे दशकनवकस्थाने वर्जयित्वा अधःस्थितानि चतुःसत्त्वस्थानानि ८०1७६७७७। उपशमेषु क्षपकेषु नियमाद् ज्ञातव्यानि । तथाहि-अपूर्वकरणसप्तमभागानिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायाणामुपशमश्रेणिषु एकयशस्कीर्तिबन्धकेषु अबन्धकोपशान्तकषाये च प्रत्येकं सत्त्वस्थानानि चत्वारि ६३।१२।११।१०। अपूर्वकरणस्य क्षपकश्रेण्यां आ[दिम सत्वसतुष्टयम्-१३।१२।१०। अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोः क्षपकश्रेण्योः ८०1७६७८१७७। नरकद्विकं २ तिर्यग्द्विकं २ विकलत्रयं ३ आतपः १ उद्योतः १ एकेन्द्रियं १ साधारणं १ सूक्ष्म १ स्थावरं १ एवं त्रयोदश प्रकृती १३ रनिवृत्तिकरणस्य प्रथमभागे क्षपयति त्रिनवतिकमध्यात्तदा ८०। तीर्थ विना ७६। आहारकद्वयं विना ७८। तीर्थाहारकत्रिकं विना ७७ ।।२५०-२५१।। इकतीसप्रकृतिक बन्धस्थानवाले जीवों में तीसप्रकृतिक एक उदयस्थानका उदय, तथा सत्तामें तेरानबे प्रकृतिक एक सत्तास्थान रहता है। एकप्रकृतिक बन्धस्थानवाले जीवों में तीसप्रकृतिक एक उदयस्थान और आठ सत्तास्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं-आदि के चार सत्तास्थान और उपरिम दो को छोड़कर अधस्तन चार सत्तास्थान । ये सत्तास्थान नियमसे उपशामकोंमें और क्षपकोंमें जानना चाहिए ॥२५० ____ अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयतोंके बन्धस्थान ३१ में उदयस्थान ३० के रहते हुए ६३ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें उदयस्थान ३० के रहते हुए उपशामकोंमें ६३, ६२,६१ और ६० प्रकृतिक चार सत्तास्थान तथा क्षपकोंमें ८०, ७६, ७८ और ७७ प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं । उवरयबंधे इगितीस तीस णव अट्ठ उदयठाणाणि । ' छा उवरिं चउ हेट्ठा संतहाणाणि दस एदे ॥२५२॥ +उवरयबंधे उदया ३११३०11८। संते १३१६२।११।१०। एवं णामपरूवणा समत्ता! उपरतबन्धेषु उपशान्त-क्षीणकषाय-सयोगायोगिषु चतुर्यु 01010101 एकत्रिंशत्क ३१ त्रिंशत्क ३० नवका १ ष्टकोदयस्थानानि चत्वारि ३१३०1815 षडुपरितनसत्त्वस्थानानि अधःस्थानानि चतुःसत्वस्थानानि १३।१२।११1801201७६७८७७1१०1। तथाहि-उपशान्तकाये ६३।१२।११।१०। उदय० ३०॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, २६८-२६९। 2. ५, 'उपशमकेषु' इत्यादिगद्य भागः (पृ० १८९)। 3.५, २७० । 4. ५, 'नष्टबन्धे पाका' इत्यादिगद्य भागः (पु० १८७)। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ पञ्चसंग्रह तीणकषाये अबन्धके । उदय० ३० सरवस्थानानि ८०।७१।७८७७। सयोगे । उदये ३१।३० सत्व. ८०1७६७८७७। अयोगिद्विचरमसमये उदये ३१।३०। सत्त्व०८०७६७८७७। तच्चरमसमये उदये है। ८। सत्त्व० १०॥ ॥२५२॥ . पुनरपि एकत्रिंशत्कादिबन्धो विचार्यते-एकत्रिंशत्कं ३१ देवगत्याऽऽहारकद्वयतीथयुतत्वादप्रमत्तापूर्वकरणा एव बध्नन्ति । बं० ३१ देव-आहारक तीर्थयुतः । उद. ३० । स. ६३ । एककबन्धो विगतिरपूर्वकरणे बं० १ उद० ३० । स० ६३।१२।११।१० । अनिवृत्ति करणे बं० १ उ. ३० स० ६३।१२।११।१०। ८०1७६७८७७ । सूचमसाम्पराये बं० १ उद० ३० । स० ६३।१२।११।१०।८०1७३।७८७७ । उपशान्ते बं० ० । उ० ३० । स० ६३।१२।६ ११६० । क्षीणे बं० ० । उ० ३० स० ८०७६३७८७७ । सयोगे स्वस्थाने बं० ० । उ० ३०।३१ । स. ८०७६।७८।७७ । समुद्धाते बं० ०। उ० २०।२१।२६।२७।२८। २६॥३०॥३१ । स० ८०७९१७८१७७ । अयोगे बं० ० । उ० ३० तीर्थसहितं ३१।६।८ । सत्त्व. ८०७६। ७८७७।१०।६।' इति विशेषो ज्ञातव्यः । इति श्रीपञ्चसंग्रहापरनामलघुगोम्मटसारसिद्धान्तटीकायां नामकर्मप्ररूपणा समाप्ता । उपरत बन्धस्थानमें इकतीस, तीस,नौ और आठ प्रकृतिक चार उदयस्थान, तथा उपरितन छह और अधस्तन चार; इस प्रकार दश सत्तास्थान होते हैं ।।२५२॥ उपरतबन्धमें उदयस्थान ३१, ३०, ६, ८, तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०,८०, ७६, ७८, ७७, १०, ६ होते हैं। इस प्रकार नामकर्मके बन्धस्थानमें उदयस्थानों के साथ सत्तास्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब मूल सप्ततिकाकार आठी कौके उपर्युक्त बन्धादि तीनों प्रकारके स्थानोंका जीवसमास और गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्वके कथन करने का निर्देश करते हैं[मूलगा०२७] 'तिवियप्पपयडिठाणा जीव-गुणसण्णिदेसु ठाणेसु । भंगा पउंजियव्या जत्थ जहा पयढिसंभवो हवई ॥२५३॥ ॐ नमः श्रीमत्सिद्धेभ्यः। जिनान सिद्धान् नमस्कृत्य साधून सद्गुणधारकान् । लक्ष्मीवीरेन्दुचिद्भुषात् ब्रुवे बन्धादिकत्रिकान् ॥ स्थानानां त्रिविकल्पानां कर्तव्या विनियोजना। अतो जीवगुणस्थाने क्रमतः सर्वकर्मणाम् ॥२३॥ यत्र यथा प्रकृतीनां सम्भवो भवति, तत्र तथा जीव-गुणसंज्ञितेषु स्थानेषु जीवसमासेपु गुणस्थानेषु च त्रिविकल्पप्रकृतिस्थानानां सर्वकर्मणां सर्वप्रकृतीनां बन्धोदयसत्त्वरूपस्थानानां भङ्गा विकल्पा प्रकृष्टन योजनीयाः ॥२५३॥ । बन्ध, उदय और सत्ताकी अपेक्षा तीन प्रकारके जो प्रकृतिस्थान हैं, उनकी अपेक्षा जीवसमास और गुणस्थानोंमें जहाँ जितनी प्रकृतियाँ संभव हों, वहाँ उतने भङ्ग घटित करना चाहिए ॥२५३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, २७६ । १. गो० क. गा० ७४५ सं० टीका ( पृ० १०३)। २. सप्ततिका० ३३ । तत्र प्रथमचरणे 'तिविगप्पपगइटाणेहिं' इति पाठः । ३. सं० पञ्चसं० ५, २७६ । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ सप्ततिका अब पहले जीवसमासोंमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मसम्बन्धी बन्धादिस्थानोंके स्वामित्वका निर्देश करते हैं[मूलगा०२८] 'तेरससु जीवसंखेवएसु णाणंतराय-तिवियप्पो।। एकम्हि ति-दु-वियप्पो करणं पडि एत्थ अवियप्पो ॥२५४॥ *तेरससु जीवसमासेसु ५ सण्णिपजत्ते मिच्छाइसहुमंतेसु गुणेसु बंधाइसु ५ तस्थेव उवरयबंधे उव संत-खीणाणं ५। अथ चतुर्दशजीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तरायकर्मणोः प्रकृतीनां बन्धादिविकल्पान योजयति[ 'तेरससु जीवसंखेवएसु' इत्यादि । ] एकेन्द्रिय-सूचमबादर-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रियासंज्ञिनः पर्याप्तापर्याप्ता इति द्वादश, पञ्चेन्द्रियसंश्यपर्याप्तक एक इति त्रयोदशजीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तरायप्रकृतीनां त्रिविकल्पो भवति बन्धोदयसत्त्वरूपो भवतीत्यर्थः। एकस्मिन् संज्ञिपर्याप्त के जीवसमासे त्रिविकल्पो द्विविकल्पश्च भवति । अत्र द्विविकल्पे करणमित्युपशान्त-क्षीणकपाययोः बन्धं प्रति विकल्पो न भवति । उपशान्त क्षीणकपाययोः बन्धस्य विकल्पो न भवतीत्यर्थः ॥२५॥ ज्ञा० अं० त्रयोदशसु जीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तराययोः प्रकृतीनां बन्धोदयसत्वम्-- बं० ५ ५ चतुर्दशे ज्ञा० अं. संज्ञिनि पर्याप्त जीवसमासे मिथ्यदृष्टयादि-सूचमसाम्परायान्तेषु गुणस्थानेषु बन्धादित्रिके त्रिक उ० ५ ५ स० ५ ५ ज्ञा० अंक तत्रैव संज्ञिपर्याप्त जीवसमासे उपरतबन्धयोर्बन्धरहितयोरुपशान्त-क्षीणकषाययोरुदये सत्त्वे च। बं० ० ० स० ५ ५ इति जीवसमासेषु ज्ञानावरणान्तरायप्रकृतिविकल्पः समाप्तः । आदिके तेरह जीवसमासोंमें ज्ञानावरण और अन्तरायके तीन विकल्प होते हैं। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक चौदहवें जीवसमासमें तीन और दो विकल्प होते हैं। किन्तु करण अर्थात् उपशान्त और क्षीणकषायगुणस्थानमें बन्धका कोई विकल्प नहीं है ।।२५४॥ विशेषार्थ-तेरह जीवसमासोंमें दोनों कर्मोंका पाँचप्रकृतिक बन्ध, पाँचप्रकृतिक उदय और पाँचप्रकृतिक सत्तारूप एक ही विकल्प या भङ्ग है। संज्ञीपंश्चेन्द्रियपर्याप्तमें मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानतक पाँचप्रकृतिकबन्ध, और सत्तारूप; तथा उपरतबन्धवाले उपशान्त और क्षीणमोही जीवोंके पाँचप्रकृतिक उदय और सत्तारूप दो भङ्ग होते हैं। श्वे० चूर्णि और टीकाकारोंने गाथाके चौथे चरणका अर्थ इस प्रकार किया है--करण अर्थात् केवल द्रव्य मनकी अपेक्षा जो जीव संज्ञिपश्चेन्द्रिय कहलाते हैं ऐसे केवलीके उक्त दोनों कर्मोका बन्धउदयसत्त्वसम्बन्धी कोई विकल्प नहीं है। 1. सं० पञ्चसं० ५, २७७ । 2. ५, 'जीवसमासेषु' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १९०) । १. सप्ततिका० ३४ । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ पञ्चसंग्रह अब मूलसप्ततिकाकार दर्शनावरण कर्मके बन्धादि स्थानोंके स्वामित्वसम्बन्धी भंगोंका जोवसमासोंमें निर्देश करते हुए, तथा वेदनीय, आयु और गोत्र-सम्बन्धी स्थानोंके भंगोको जाननेका संकेत करते हुए मोहकर्मके भंगोंके कथनकी प्रतिज्ञा करते हैं[मूलगा०२६] 'तेरे णव चउ पणयं णव संता एयम्मि तेरह वियप्पा । वेयणीयाउगोदे विभज मोहं परं वोच्छं ॥२५॥ दंसणा० तेरस जीवेसु ४ ५ सण्णिपजते तेरस त्ति कहं ? वुच्चए-मिच्छा-सासणाणं ४ ५ मिस्साइ. अपुव्वकरणपढमसत्तमभागं जाव ४ ५ दुविहेसु उवसम-खवय-अपुवकरणाणियट्टिसु तहा उवसम-सुहुम कसाए ४ ५ अणियहि सुहुमखवगाणं ४ ५ उवसंते ४ ५ खीणदुचरिमसमये ४ ५ खीण चरिमसमये ४ सव्वे मिलिया १३ । ___ अथ दर्शनावरणस्य बन्धादि-विकल्पान् योजयति-[ 'तेरे णव चउ पणयं' इत्यादि । ] संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तजीवसमासं विना त्रयोदशसु जीवसमासेषु दर्शनावरणनवप्रकृतीनां बन्धः । चतुःप्रकृतीनामुदयः ४ । अथवा पञ्चप्रकृतीनामुदयः ५ । कथम् ? जाग्रजीवे चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणानां चतुर्णामुदयः, निद्रिते जीवे तु निद्राणां मध्ये एकतरा निद्रा १ इति पञ्चप्रकृतीनामुदयः ५। दर्शनावरणस्य नवप्रकृतीनां सत्ता । एकस्मिन् पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकजीवसमासे चतुर्दशे दर्शनावरणस्य त्रयोदश विकल्पा भङ्गा भवन्ति । वेदनीयायुर्गोत्रेषु त्रिसंयोगभङ्गान् युक्त्वा जीवसमासेषु संयोज्याने मोहनीयं वक्ष्यामि ॥२५५।। बं० १. त्रयोदशसु जीवसमासेषु दर्शनावरणस्य बन्धादित्रयम्-उ० ४ ५ । संज्ञिपर्याप्तकजीवसमासे त्रयो स. ६ बं० है है दश भङ्गा इति कथं चेदुच्यते-पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तजीवसमासे मिथ्यादृष्टि-सासादनयोः उ०४ ५। मिश्रा स. ६ ६ बं० ६६ द्यपूर्वकरणद्वयप्रथमभागं यावत् स्यानगृद्धित्रयबन्धं विना उ० ४ ५ द्विविधेषु उपशम-क्षपक स. ११ श्रेणियापूर्वकरणशेषषडभागानिवृत्तिकरणेषु तथा सूचमसाम्परायस्योपशमश्रेणी निगा-प्रचले विना बं० ४ ४ बं०४४ उ० ४ ५ । ततोऽनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोः सपकश्रेण्योः स्त्यानत्रिकसत्त्वं विना उ० ४ ५। उपशान्त. स० 88 बं० ० ० कषाये अबन्धके उ० ४ ५ । क्षीणकपायस्य द्विचरमसमये । उ०४ ५। क्षीणकषायस्य चरमसमये ४ । स०६६ 1.५, २७८-२७९ । 2. ५, 'त्रयोदशसू'इत्यादिगद्यभागः (१० १९०)। १. सप्ततिका० ३५। तत्र द्वितीयचरणे 'नव संतेगम्मि भंगमेक्कारा' इति पाठः । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४०१ सर्व मीलिता भङ्गाः१३ । कथम्? दर्शनावरणस्य बन्धभङ्गास्त्रयः ३ । उदयभङ्गाः सप्त ७। सत्वभङ्गास्त्रयः ३। एवं विसदृशभङ्गास्त्रयोदश १३॥ ૩૦ જાપ જાપ જાપ જાપ જાપ જાપ જાપ इति जीवसमासेषु दर्शनावरणस्य विकल्पाः समाप्ताः । प्रारम्भके तेरह जीव-समासोंमें दर्शनावरणकर्मके नौ प्रकृतिक बन्धस्थान, चार अथवा पाँच प्रकृतिक उदयस्थान और नौ प्रकृतिक सत्तास्थानरूप दो भंग होते हैं। एक चौदहवें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक नामक जीवसमासमें तेरह विकल्प होते हैं । वेदनीय, आयु और गोत्रकमसम्बन्धी स्थानोंके भंगोंका स्वयं विभाग करना चाहिए। तदनन्तर क्रम-प्राप्त मोहनीयकर्मके स्थानसम्बन्धी भंगोंका मैं वर्णन करूंगा ।।२५५।। ___आदिके तेरह जीबसमासोंमें दर्शनावरणकर्मके नौप्रकृतिक बन्धस्थानमें चारप्रकृतिक उदयस्थान और नौप्रकृतिक सत्तास्थान; तथा पाँच प्रकृतिक उदयस्थान और नौप्रकृतिक सत्तास्थान ऐसे दो भंग होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक नामक जीवसमासमें तेरह भंग किस प्रकारसे संभव हैं ? इस शंकाका समाधान करते हैं-मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके नौप्रकृतिक बन्धस्थान, चारप्रकृतिक उदयस्थान और नौप्रकृतिक सत्तास्थान; तथा नौप्रकृतिक बन्धस्थान, पाँच प्रकृतिक उदयस्थान और नौप्रकृतिक सत्तास्थान; ये दो भंग होते हैं । तीसरे मिश्रगुणस्थानको आदि लेकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानके सात भागोंमेंसे दिके प्रथम भाग-पर्यन्त छहप्रकृतिक बन्धस्थान, चारप्रकृतिक उदयस्थान, नौप्रकृतिक सत्तास्थान; तथा छहप्रकृतिक बन्धस्थान, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान और नौप्रकृतिक सत्तास्थान; ये दो भंग होते हैं। उपशामक और क्षपक अपूर्वकरणके शेष छह भागोंमें, तथा उपशामक अनिवृत्तिमें, उपशामक सूक्ष्म साम्परायमें; एवं क्षपकश्रेणी-सम्बन्धी अनिवृत्तिकरणके असंख्यातवें भागपर्यन्त चारप्रकृतिक बन्धस्थान, चारप्रकृतिक उदयस्थान, नौप्रकृतिक सत्त्वस्थान, तथा चारप्रकृतिक बन्धस्थान, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान, नौप्रकृतिक सत्तास्थान, ये दो भंग होते हैं । क्षपक अनिवृत्तिकरणके शेष संख्यात भागमें और क्षपक सूक्ष्मसाम्परायमें चारप्रकृतिक बन्धस्थान, चारप्रकृतिक उदयस्थान, छहप्रकृतिक सत्तास्थान, तथा चार प्रकृतिक बन्धस्थान, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान और पाँचप्रकृतिक सत्तास्थान; ये दो भंग होते हैं। दशवें गुणस्थानमें दर्शनावरणकी बन्धव्युच्छित्ति होजानेसे उपशान्तमोहमें बन्धस्थान कोई नहीं है, उदयस्थान चारप्रकृतिक, सत्तास्थान नौप्रकृतिक; तथा उदयस्थान पाँचप्रकृतिक और सत्तास्थान नौप्रकृतिक; ये दो भंग होते हैं। क्षीणमोहमें द्विचरम समय तक चारप्रकृतिक उदयस्थान, छहप्रकृतिक सत्तास्थान; तथा पाँचप्रकृतिक उदयस्थान और छह प्रकृतिक सत्तास्थान ये दो भंग होते हैं। क्षीणमोहके चरम समयमें चारप्रकृतिक उदयस्थान और चारप्रकृतिक सत्तास्थान ये रूप एक भंग होता है। इस प्रकार सब मिला करके संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवसमासमें तेरह भंग होते हैं । इन सबकी अंकसंदृष्टियाँ मूलमें दी हैं। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० भंगोका निरूपण करते हैं ६२।१०३१४७। अथ जीवसमासेषु वेदनीयायुर्गोत्राणां भङ्गाः कति चेदाह - [ 'बासट्टि वेणीए' इत्यादि । ] जीवसमासेषु वेदनीयस्य द्वाषष्टिङ्गाः ६२ । भयुपत्र्यधिकशतभङ्गाः १०३ । गोत्रस्य सप्तचत्वारिंशद्विकल्पाश्च ४७ भवन्तीति ज्ञातव्याः ॥ २५६ ॥ जीवसमासोंमें देदनीयकर्म के बन्धादिम्रिकके भंग बासठ होते हैं, आयुकर्मके तीन अधिक सौ अर्थात् एक सौ तीन भंग होते हैं और गोत्रकर्मके सैंतालीस भंग जानना चाहिए || २५६ || वेदनीयके भंग ६२, आयुके १०३ और गोत्रके ४७ होते हैं । अब भाष्यगाथाकार वेदनीयकर्मके भंगोका निरूपण करते हैं , , 910 910 इदि सब्वे ६२ । , ० सत्त्वं पञ्चसंग्रह मूलसप्ततिकाकार द्वारा सूचित वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मके 'बासट्टि वेणीए आउस्स हवंति तियधिगस्यं तु । गोदस् य सगदालं जीवसमासेसु णायच्वा ॥ २५६ ॥ 9 * इदि पडमा चोइससु पत्तेयं चतारे 'चोदस जीवे पढमा चउ चउभंगा भवंति वेयणिए । छच्चेव केवलीणं सव्वे वावट्ठि भंगा हु ॥ २५७॥ पर्याप्तस्य साताबन्धोदयो भय सत्वं ० 3 १ १० अजोगे पढमा दो चेव, बंधेण विणा दुचरिमसमए वि अथ वेद्यस्य द्वाषष्टिभङ्गानाह - [ चोइस जीवे पढमा' इत्यादि ।] चतुर्दशसु जीवसमासेषु प्रत्येकं वेदनीयस्य प्रथमा आदिमाश्चत्वारश्चत्वारो भङ्गत्रिकल्पा भवन्ति । चतुर्भिर्गुणिताश्चतुर्दश ( १४ X ४ ) इति षट्पञ्चाशत् ५६ । केवलिनां षड्विकल्पाः ६ । इति सर्वे द्वाषष्टिभङ्गा विकल्पाः वेद्यस्य जीवसमासेषु भवन्ति ६२ ॥ २५७॥ इति चतुर्दशजीवसमासेषु प्रत्येकं चत्वारश्वत्वारो भङ्गाः ร 1 १० ? 110 910 ० o О ११० सातबन्धासातोदयोभयसत्त्वं ० इदि ५६ । सजोगे पढमा दो १० 9 ० तस्सेव चरिमसमए वि ११० १० १ १ १ ० ง ० 910 910 910 910 ० १/० ० ० ง १ • ० ร असातबन्धोदयोभय सत्वमिति चत्वारो भङ्गाः । एवं त्रयोदशसु जीवसमासेषु भङ्गा १० ज्ञातव्याः । एकाङ्केन सद्वेद्यस्य संज्ञा, शून्येना सद्वेद्यस्य संज्ञा । इति ५६ भङ्गाः । सयोगकेवलिनि प्रथमौ 1. सं० पञ्चसं० ५, २८०। 2. ५, २८१ । ३५, 'चतुर्दशसु' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १६१) । एकेन्द्रिय सूचमा असातबन्ध - सातोदयोभय Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका उ. बं० १ १ आद्यौ द्वौ भनौ उ० १ . अयोगकेवलिनि आधौ द्वौ भनौ बन्धेन विना विचरमसमयेऽपि सं० १०० . . तस्यैवायोगिचरमसमये । इति सर्वे वेद्यस्य द्वाषष्टिविकल्पा भवन्ति १२ । इति जीवसमासेषु वेदनीयस्य विकल्पाः समासाः । चौदह जीवसमासोंमेंसे प्रत्येक जीवसमासमें वेदनीयकर्मके त्रिसंयोगी प्रथम चार-चार भंग होते हैं। चौदहवें जीवसमासके अन्तर्गत केबलीके छह भंग होते हैं । इस प्रकार सर्व मिलकर वेदनीयकर्मके बासठ भंग हो जाते हैं ॥२५७।।। भावार्थ-इसी सप्ततिकाप्रकरणके प्रारम्भमें गाथाङ्क १९-२० का अर्थ करते हुए जो वेदनीयकर्मके आठ भंग बतलाये गये हैं, उनमें से प्रारम्भके चार भंग प्रत्येक जीवसमासमें पाये जाते हैं, अतः चौदह जीवसमासोंको चारसे गुणित करने पर छप्पन भंग हो जाते हैं । तथा केवलीके पूर्वोक्त आठ भंगोंमेंसे छह भंग पाये जाते हैं। इस प्रकार दोनों मिलकर (५६+६=६२) बासठ भंग होते हैं। इसी अर्थका भाष्यकारने अंकसंदृष्टि द्वारा इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-- बंध १ १ ० ० चौदह जीवसमासोंमेंसे प्रत्येकमें ये चार भंग होते हैं-उद० १ ० १ ० स० १० १० १ ११० यहाँ पर (१) एक अंकसे सातावेदनीय और (०) शून्यसे असाता वेदनीयका संकेत किया गया है। सयोगिकेवलीमें प्रथमके ये दो भंग १ . होते हैं । अयोगिकेवलीमें भी ये ही दो भङ्ग ११० १०॥ पाये जाते हैं। किन्तु उनके द्विचरम समयमें वेदनीयकर्मके बन्धका अभाव हो जाता है, अतएव बन्धके विना ये दो भङ्ग होते हैं। उन्हीं अयोगिकेवलीके चरम समयमें ये दो भङ्ग पाये जाते है । इस प्रकार वेदनीयकर्मके सर्व भङ्ग ६२ जानना चाहिये। इस प्रकार जीवसमासोंमें वेदनीयकर्मके बन्धादिस्थानोंका निरूपण किया। अब भाष्यगाथाकार चौदह जीवसमासोंमें आयुकर्मके भंगोंका निरूपण करते हैं 'एयार जीवठाणे पणवण्णा चेव होंति भंगा य । पजत्तासण्णीसु य णव दस सण्णी अपजत्ते ॥२५८।। सण्णी पज्जत्तस्स य अट्ठावीसा हवंति आउस्स ।। तिगधियसयं तु सव्वे केवलिभंगेण संजु ॥२५॥ सुर-णिरएसु पंच य तिरिय-मणुएसु हवंति णव भंगा। बंधते बंधेसु वि चउसु वि आउस्स कमसो दु॥२६०॥ ५।९।९।५। 1. सं० पञ्चसं० ५, २८२ । 2. ५, २८३ । 3. ५, २८४ । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अथ जीवसमासेषु आयुष्कस्य विकल्पान गाथाचतुष्केनाऽऽह-[ 'एयार जीवठाणे इत्यादि । ] एकेन्द्रियसूक्ष्म-वादरी २ द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाः ३ हत्येते पञ्च पर्याप्ताऽपर्याप्ता एवं दश १० । असंश्यपर्यातक एकः १ एवमेकादशजीवसमासेषु प्रत्येक आयुषः पञ्च पञ्च स्थानानि भङ्गा विकल्पाः । इति सर्व पञ्चपञ्चा शगङ्गा भवन्ति ५५ । पञ्चेन्द्रियासंज्ञिपर्याप्तजीवसमासे नव भङ्गाः ६ भवन्ति । अत्रासंज्ञितिर्यग्जीवः कथं देव-नारकायुपी बध्नाति ? प्रथमनरकनारकायुर्भवन स्यन्तरायुश्च बनातीत्यर्थः। उक्तञ्च देवायु रकायुर्बध्नीतः संझ्यसंज्ञिनौ पूर्णौ । द्वादश नैकाक्षाद्या जीवसमासाः परे जातु ॥२४।। इति असण्णी सरिसवेत्यादिना ज्ञेयम् । संश्यपर्याप्तजीवसमासे दश विकल्पाः १० स्युः । संज्ञिपर्यातस्याष्टाविंशतिविकल्पा २८ भवन्ति । केवलज्ञानिनो भङ्ग एकः १ ! एवं सर्वे एकीकृताः आयुपो विकल्पाः सर्वेषु जीवसमासेषु ग्यधिकशतसंख्योपेता १०३ भवन्ति । मनुष्य-तिर्यगायुपोबन्धाबन्धयोर्देवनारकाणां पञ्च पञ्च भङ्गा विकल्पा भवन्ति ५।२। आयुश्चतुषु बन्धाबन्धेषु तिर्यङ्-मनुष्याणां नव नव भङ्गा भवन्ति हा ॥२५८-२६०॥ एकेन्द्रिय सूक्ष्म, एकेन्द्रिय बादर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन पाँचके पर्याप्त और अपर्याप्त-सम्बन्धी दश, तथा एक असंज्ञी अपर्याप्त, इन ग्यारह जीवसमासोंमें आयुकर्मके त्रिसंयोगी भङ्ग पचपन होते हैं। पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवसमासमें नौ भङ्ग होते हैं। अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवसमासमें दश भङ्ग होते हैं। तथा पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवसमासमें अट्ठाईस भङ्ग होते हैं। ये सब केवलिसम्बन्धी एक भङ्गसे संयुक्त होकर एकसौ तीन भङ्ग आयुकर्मके होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रियके अट्ठाईस भङ्ग इस प्रकार हैं --आयुकर्मके ये भङ्ग चारों गतियोंमें आयु बँधने और नहीं बँधनेकी अपेक्षा क्रमसे देवोंमें पाँच, नारकियों में पाँच, तिर्यञ्चों में नौ और मनुष्यों में नौ होते हैं ॥२५८-२६०॥ 'णारय-देवभंगा चउरो चउरो चइऊण सेसा तिरियभंगा पंच पंच एयारसेसु जीवसमासेसु ते एक्कम्मि पंच पंच ति किच्चा पणवण्णा भवति ।५५। तत्थ पंचण्हं संदिट्ठी वि २ २ २ २ २ इदि ५५ । . २ २ २।२ २।३ २।३ असण्णिपज्जत्तेसु सव्वे तिरियभंगा । सपिअपजत्ते देव-णारयभंगा चउरो चउरो चइऊण सेसा तिरियाउयभंगा ५ । मणुयाउयभंगा ५ सम्वे 10 । सपिज्जत्ते णारयभंगा ५। तिरियभंगा है। मणुयभंगा है। देवभंगा ५ । एवं सब्वे वि २८ । केवलिसु ३ एवं सव्वे १०३ । क्रमेण तु नारके ५ तिर्यक्षु ः मनुप्थेषु ६ देवे ५ । नारक देवभङ्गान् चतुरश्चतुरस्त्यक्त्वा शेषास्तिर्यग्भङ्गाः पञ्च पञ्च । एकादशजीवसमासेपुते भङ्गाः एकैकस्मिन् पञ्च पञ्चेति कृत्वा पञ्चपञ्चाशद्भयन्ति ५५॥ तथाहि-~यस्मादेकादशजीवसमासा नारक-देवायुपी न बनन्ति, ततस्तेषु तिरश्चामायुर्वन्धभङ्गभ्यो नवभ्यो नारकायुर्वन्धभङ्गो देवायुर्वन्धमङ्गो द्वौ द्वौ अपाकृत्य शेषा जीवसमासेष्वेकादशसु पञ्चपञ्चेति पञ्चपञ्चाशद् भवन्ति ५५ । ततः पञ्चानां संदृष्टिः 1. सं० पञ्चसं० ५, 'आसामर्थ:-' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १६२)। . १. सं० पञ्चसं० ५, २८३ । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४१३ बं० . ति २ ० म ३ म३ . उ० ति २ ति २ ति २ ति २ ति २ ति २ स० ०ति २ ति २ ति २ ति २ ति २ ति २भ २ ति २ ति २ ति म ३ बं० ० . . ति २ . म ३ . दे४ . उ० ति २ ति २ ति २ ति२ ति २ तिर ति२ ति २ ति २ स० ति २ ति २ न १ ति २१ ति २२ ति २०२२म ३ २ म ३ ति २ दे ४ ति २ दे ५ [ इति ] तिर्यग्मगाः । ततः संश्यपर्याप्तजीवसमासे देव-नारकभङ्गान् चतुरश्चतुरः ४ त्यक्त्वा शेषास्तिर्यगायुर्भङ्गाः पञ्च ५। मनुष्यायुर्भङ्गाः पञ्च ५। सर्वे दश । तथाहि-पंचेन्द्रियसंश्यपर्याप्ते दश भङ्गाः, यस्मादपूर्णसंज्ञी तिर्यङ्-मनुष्यश्च देवनारकायुषी न बध्नाति तस्मात्तिरश्चां मनुष्याणां चायुबन्धभंगेभ्यो नवभ्यः नारकायुर्बन्धभङ्गौ देवायुबन्धभङ्गौ च हित्वा शेषाः पञ्चायुर्बन्धभङ्गाः ५.५। इत्थमपर्याप्ते पंचेन्द्रियसंज्ञिनि भङ्गाः, तद्भवानां अपर्याप्तपञ्चेन्द्रियसंज्ञिरचना, अपर्याप्तमनुष्यरचना, इति पञ्चेन्द्रियसंश्यपर्याप्तास्तिर्यङ्-मनुष्यभङ्गाः दश १० । संज्ञिपर्याप्तनारके भङ्गाः ५। तिर्यग्पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ते भङ्गाः । । मनुष्यपर्याप्तके भङ्गा नव है । पर्याप्तदेवे भङ्गा ५। एव सर्वे संज्ञिपर्याप्त भङ्गा २८ । केवलिनि भङ्ग एक . एव १ । एवं सर्वे आयुषो भङ्गाः विकल्पाः १०३ भवन्ति । बं० ० ति २ ० ३ ० ० . २ ० ३ ० उ० २ २ २ उ० म ३ म३ म३ म३ म३ स० २ १२ १२ १२ २।३ स० म ३ ३२ ३२ ३३ ३।३ बं० ० २ ० ३ ० उ० न १ न १ न १ न १ न १ स० १ १२ १२ १३ १३ बं० ० १ ० २ ० ३ . ४ . ४ . उ० ति २ ति २ ति २ ति २ २ ति २ ति २ ति २ ति २ म३ म ३ स० २ २११ २१३ २१२ २१२ २३ २१३ २।४ २।४ ३।४ ३।४ बं० ० १ ० २ ० बं० ० २ ० ३ ० उ० म ३ म ३ म ३ म ३ म ३ स० ३ ३.१ ३.१ ३.२ ३२ स० ४ ४२ ४।२ ३ ४।३ इति जीवसमासेषु आयुर्विकल्पाः समाप्ताः । स्पष्टीकरण-आयुकर्मके नरकादि गतियों में क्रमसे ५, ६, , और ५ भङ्ग होते हैं । इन भङ्गोंका विवरण इसी प्रकरणके प्रारम्भमें गाथाङ्क २१ से २४ तक किया जा चुका है। वहाँ पर जो तिर्यग्गतिमें नौ भङ्ग बतलाये हैं, उनमें से नारकायु और देवायुके बन्ध-सम्बन्धी चार चार भङ्ग छोड़कर शेष जो पाँच भङ्ग हैं, वे आदिके ग्यारह जीवसमासोंमें पाये जाते हैं। एक एक जीवसमासमें पाँच पाँच भङ्ग होते हैं, इसलिए ग्यारहको पाँचसे गुणित करने पर पचपन (५५) भङ्ग हो जाते हैं। उन पाँच भङ्गोंकी संदृष्टि मूलमें दी हुई है। असंज्ञी पर्याप्तोंमें तिर्यग्गतिके सर्व भङ्ग होते हैं। संज्ञी अपर्याप्तके देव और नारकसम्बन्धी चार-चार भङ्ग छोड़कर तिर्यगायुसम्बन्धी शेष पाँच भङ्ग होते हैं; तथा मनुष्यायुसम्बन्धी भङ्ग भी ५ होते हैं। इस प्रकार दोनों मिलाकर १० भङ्ग अपर्याप्तसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवसमासके होते हैं ! संज्ञीपर्याप्त जीवसमासमें नारकियोंके ५ भङ्ग, तिर्यञ्चोंके ६ भङ्ग, मनुष्योंके ६ भङ्ग और देवोंके ५ भङ्ग, इस प्रकार सर्व मिलाकर २८ भङ्ग होते हैं । केवलीके ६ भङ्ग बतलाये गये हैं। इस प्रकार सर्व मिलाकर आयुकर्भके (५५+६+ १०+२८+ ६)== १०३ होते हैं। इस प्रकार जीवसमासोंमें आयुकर्मके बन्धादि-स्थानोंका निरूपण किया । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अब जीवसमासोंमें गोत्रकर्मके बन्ध, उदय और सत्य-सम्बन्धी भङ्गोको कहते हैं 'उच्चं णीचं णीचं णीचं बंधुदयसंतजुयलं च । सव्वं णीचं च तहा पुह भंगा होति तिण्णेवं ॥२६॥ 11०१० ०० तेरस जीवसमासेसु एगुणताला हवंति भंगा हु । पढमा छ सण्णिपज्जत्तयस्स दो केवलीणं च ॥२६२॥ तेरससु पत्तेयं तिण्णि तिणि। एवं ३६। सणिपजत्ते सव्वभंगेसु पढमा छ : : : । केवलीणं चरमा दो . एवं ३६।६।२। ० ० ० ० ० 'सव्वे वि मिलिएसु य भंगवियप्पा हवंति गोयस्स । सत्तत्तरतालीसं एत्तो मोहं परं वोच्छं ॥२६३॥ [गोत्रकर्मणः] त्रयोदशजीवसभासेषु प्रत्येकं त्रयो भङ्गा भवन्ति । ते के ? उच्चगोत्रस्य बन्धः १ नीचगोत्रस्योदयः . पुनर्नीचैर्गोत्रस्य बन्धः । ।नीचगोत्रस्योदयः । तत्र द्वयोरुचबन्ध-नीचोदय-नीचबन्धो दययोः ० सत्वयुगलम् । उच्चगोत्रस्य सत्त्वं १ नीचगोत्रस्य सत्वं ० इति द्वौ भङ्गौ . . । तृतीयभङ्ग १०१० सर्वनीचगोत्रस्य बन्धः • नीचगोत्रस्योदयः ० नीचगोत्रस्य सत्त्वं • पुनर्नीचगोत्रस्य सत्वम् . इति त्रयो 010 भङ्गाः । पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तं विना त्रयोदशजीवसमासेषु प्रत्येकं . . ० त्रयो [भङ्गा] भवन्ति । १० ११० ०० त्रिभि ३ गुणितास्त्रयोदशेति एकोनचत्वारिंशद्भगा विकल्पा ३६ भवन्ति । इति पल्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त जीवसमासे षट् प्रथमाः ये पूर्व गोत्रस्य भङ्गाः सप्त कथितास्तन्मध्ये आदिमाः षट् विकल्पाः। . बन्धः . . . . . उदयः . . . . . १ सत्ता ११० १० १० १० १० १० पन्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ते भवन्ति ६ । केवलिनोः निरस्तसंश्यसंज्ञिव्यपदेशयोः केवलिनोयोरन्तिमौ द्वौ। एते ३६।६।२। पिण्डिताः ४७ सर्वे गोत्रस्य सप्तचत्वारिंशद्भङ्गाः ॥२६१-२६३॥ इति जीवसमासेषु गोत्रस्य विकल्पाः समाप्ताः । 1. संपञ्चसं० ५, २८६ । 2. ५, २८७ । 3.५, 'प्रत्येकं त्रयस्त्रय' इत्यादिगद्यभागः' (पृ. १६३)। 4. ५, २८८। १. द प्रतिमें न यह गाथा है और न उसकी संस्कृत टीका ही उपलब्ध है। कैद 'तेरे जीवसमासे' इति पाठः । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका उच्चगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनोंका सत्तारूप प्रथम भङ्ग है। नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनोंका सत्तारूप द्वितीय भङ्ग है । तथा सर्वनीच अर्थात् नीचगोत्र का बन्ध, नीचगोत्रका उदय और नीचगोत्रका सत्त्वरूप तृतीय भङ्ग है। इस प्रकार गोत्रकर्मके पृथक्-पृथक् ये तीन भङ्ग होते हैं ॥२६१॥ स्पष्टीकरण-इन तीनों भङ्गोंकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। उसमें एकका अंक उच्चगोत्रका और शून्य नीचगोत्रका बोधक जानना चाहिए। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तको छोड़कर शेष तेरह जीवसमासोंमें उक्त तीन-तीन भङ्ग होते हैं। अतएव तेरहको तीनसे गुणित करनेपर तेरह जीवसमासोंके जनतालीस भङ्ग हो जाते हैं। संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके प्रारम्भके छह भङ्ग होते हैं। केवलीके अन्तिम दो भङ्ग होते हैं ।।२६२॥ स्पष्टीकरण-इसी प्रकरणके प्रारम्भमें गाथाङ्क १८ को व्याख्या करते हुए गोत्रकर्मके सात संदृष्टिके साथ बतला आये हैं। उनमेंसे प्रारम्भके छह भङ संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तके होते हैं। इनकी अङ्कसंदृष्टि मूलमें दी है। केवलोके उन सात भङ्गोंमेंसे अन्तिम दो भङ्ग होते हैं। इनकी भी अंकसंदृष्टि मूल में दी है। इस प्रकार सर्व मिलाकर (३६+६+२= ) ४७ भङ्ग गोत्रकर्मके होते हैं। अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका उपसंहार करते हुए आगे मोहकके भङ्गोंके कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं ऊपर जो तेरह जीवसमासके उनतालीस संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्तकके छह और केवलीके दो भङ्ग बतलाये हैं, वे सब मिलकर गोत्रकर्मके तैंतालीस भङ्ग होते हैं। अब इससे आगे मोहकर्मके भङ्ग कहेंगे ॥२६३॥ __अब पूर्व प्रतिशाके अनुसार सप्तिकाकार जीवसमासोमें मोहकर्मके भङ्गोका निरूपण करते हैं[मूलगा०३०] अट्ठसु पंचसु एगे एय दुय दसय मोहबंधगए । तिउ चउ णव उदयगदे तिय तिय पण्णरस संतम्मि ॥२६४॥ जीवसमासेस बं० १ २ १० जविसमास उ०३ ४ ९ - सं०३ ३ १५ अथ मोहनीयस्य जीवसमासेषु बन्धादित्रिसंयोगभङ्गान् गाथाचतुष्केनाऽऽह-['अदृसु पञ्चसु एगे' इत्यादि ।] अष्टसु जीवसमासेषु ८ पञ्चसु जीवसमासेषु ५ एकस्मिन् जीवसमासे १ च क्रमेण मोहप्रकृतीनां बन्धस्थानमेकं १ द्विकं २ दशकं १०च, तथा मोहप्रकृत्युदयस्थानं त्रयं ३ चतुष्कं ४ नवकं , तथा मोहप्रकृतीनां सत्त्वस्थानं त्रिकं ३ च त्रिकं ३ च पञ्चदशकं च १५ भवन्ति ॥२६॥ ___ जीवस. ८ जीवस० ५ जीवस० १ बन्ध: उदयः सत्ता आठ, पाँच और एक जीवसमासमें मोहकर्मके क्रमशः एक, दो और दश बन्धस्थान; तीन, चार और नी उदयस्थान; एवं तीन-तीन और पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं ॥२६४॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। १० १. सप्ततिका० ३६ । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ पञ्चसंग्रह अब भाष्यगाथाकार उक्त भूलगाथाके अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं 'सत्त अपज्जत्तेसु य पज्जत्ते सुहुम तह य असु य । वावीसं बंधोदय-संता पुण तिण्णि पढमिल्ला ॥२६॥ ___ असु बंधे २२ उदये १०।९।८। संते २८।२७।२६। एकेन्द्रियसूचम १ बादर १ द्वि १ त्रि १ चतुरिन्द्रिय १ पञ्चेन्द्रियसंश्यऽ १ संज्ञि १ जीवापर्याप्ताः सप्त । एकेन्द्रियसूक्ष्मपर्याप्त एकः १ एवमष्टसु जीवसमासेषु ८ मोहप्रकृतिबन्धस्थानं द्वाविंशतिकम् २२ । किं तत् ? मिथ्यात्वं १ कषायाः १६ वेदानां त्रयाणां मध्ये एकतरवेदः १ हास्य-शोकयुग्मयोर्मध्ये एकतरयुग्म २ भय-जुगुप्साद्वयं २ इति द्वाविंशतिकं मोह[बन्ध-स्थानं अष्टसु जीवसमासेषु बन्धमायाति २२ । तत्र मोहोदयस्थानानि आद्यानि त्रीणि ३-१018 | मोहप्रकृतिसत्त्वस्थानानि आद्यानि त्रीणि ३-२८।२७। २६ । किं तत् उदये? मिथ्यात्वमेकं १ षोडशकवायाणां मध्ये एकतरकषायचतुष्कं ४ वेदत्रयाणां मध्ये एकतरवेदः १ हास्यादियुग्मं २ भयं १ जुगुप्सा । एवं मोहप्रकृत्युदयस्थानं दशकम् १० । इदं भयरहितं नवकम् । इदं जुगुप्सारहितमष्टकं स्थानम् ८। मोहस्य सर्वप्रकृतिसत्त्वं २८ । अतः सम्यक्त्वप्रकृत्युद्वेल्लिते २७ । अतः मिश्रप्रकृत्युद्वेल्लिते इदं २६ ॥२६५॥ सातों अपर्याप्तक, तथा सुक्ष्म पर्याप्तक, इन आठों जीवसमासोंमें बाईसप्रकृतिक बन्धस्थान के साथ आदिके तीन उदयस्थान और तीन सत्तास्थान होते हैं ॥२६५॥ आठ जीवसमासों से प्रत्येकमें बन्धस्थान २२ में उदयस्थान १०, ६, ८ प्रकृतिक और सत्तास्थान २८, २७, २६, प्रकृतिक तीन-तीन होते हैं। पंचसु पज्जत्तेसु य पज्जत्तयसण्णिणामगं वज्जा । हेट्ठिम दो चउ तिण्णि य पंधोदयसंतठाणाणि ॥२६६॥ पंचसु पजत्तेसु बंधे २२।२१। उदये १०।९।८।७। संते २८।२७॥२६॥ पञ्चेद्रियसंज्ञिपर्याप्तकं वर्जयित्वा एकेन्द्रियबादर १ द्वीन्द्रिय १ त्रीन्द्रिय १ चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रियासंज्ञि १ पर्याप्तेषु पञ्चसु जीवसमासेषु ५ आदिमे द्वे मोहबन्धस्थाने द्वाविंशतिकै २२ कविंशतिके २१ भवतः। आदिमानि चत्वारि मोहप्रकृत्युदयस्थानानि १०६८७ । आदिमानि त्रीणि मोहसत्त्वस्थानानि २८२७।२६ ॥२६६॥ पञ्चसु पर्याप्तेषु बन्धे २२१२१ उदये १०६७ सत्तायाः २८।२७।२६ । पर्याप्त संज्ञीनामक जीवसमासको छोड़कर शेष पाँच पर्याप्तक जीवसमासोंमें अधस्तन दो बन्धस्थान, चार उदयस्थान और तीन सत्तास्थान होते हैं ॥२६६।। पाँच पर्याप्तक जीवसमासोंमें बन्धस्थान २२, २१ प्रकृतिक दो; उदयस्थान १०, ६, ८, ७ प्रक्रतिक चार और सत्तास्थान २८, २७, २६ प्रकृतिक तीन होते हैं। "दस णव पण्णरसाइ बंधोदयसंतपयडिठाणाणि । सण्णिपज्जत्तयाणं संपुण्ण ति+ बोहव्वा ॥२६७॥ सण्णिपजत्ते सव्वाणि बंधे २२।२१।१७।१३।९५।४।३।२।१। उदये १०१९।८।७।६।५।४।२।। संते २८।२७२६।२४।२३।२२।२१।१३।१२।११।५।४।३।२।१ । 1. संपञ्चसं० ५, २८६ । 2.५, २६० । 3. ५, 'पञ्चानां पूर्णानां' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६४) । 4.५, २६१ । 5. ५, 'संशिनि पूर्ण' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १६४)। नब वजा, द बज । ४द आदिम । +द इदि । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका एकस्मिन् पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्ते जीवसमासे चतुर्दशे दश मोहप्रकृतिबन्धस्थानानि २२।२१।१७।१३। ६|५|४|३|२|१ | नव मोहप्रकृत्युदयस्थानानि १०१६८७१६ |५|४|२| १ | पञ्चदश मोहनीयप्रकृतिसत्त्वस्थानानि सम्पूर्णानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । एतत्सर्वं पूर्वं व्याख्यातमेव ॥ २६७ ॥ इति जीवसमासेषु मोहनीयस्य बन्धादित्रिकसंयोग विकल्पाः समाप्ताः । संज्ञी पर्याप्त जीवोंके बन्धस्थान दश, उदयस्थान नौ और सत्त्वस्थान पन्द्रह होते हैं । अर्थात् इस चौदहवें जीवसमासमें सम्पूर्ण बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान जानना चाहिए ॥ २६७॥ संज्ञी पर्याप्तकमें सभी बन्ध, उदय और सत्तास्थान होते हैं । उनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है - बन्धस्थान २२, २१, १७, १३, ६, ५, ४, ३, २, १ । उदयस्थान १०, ६, ८, ७, ६, ५, ४, २, १ । सत्तास्थान २८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, १ । इस प्रकार जीवसमासों में मोहकर्मके बन्धादि स्थानोंका निरूपण किया । अब मूल सप्ततिकाकार जीवसमासोंमें नामकर्म के बन्ध, उदय और सत्तास्थान सम्बन्धी भङ्गका निरूपण करते हैं [मूलगा ०३१] 'सत्तेव अपज्जत्ता सामी सुहुमो य बायरो चेव । [ मूलगा ०३२ ] पणय दुय पणय पणयं चदु पण बंधुदय संत पणयं च । पण छक पणय छ छक पणय अट्ठट्ठमेयारं ॥२६६॥ वियलिंदिया यतिणि दु तहा असण्णी य सण्णी य' ॥ २६८ ॥ ७|१|१|३|१|१| अप० ७ १ सु० १ बा० ३ बि० १असं० १सं० ५ बं० ५ उ० २ ४ स० ५ ५ बन्धः उदयः सत्ता ५ ५ ५ ५ ५ ६ ५ अथ जीवसमासेषु नामकर्मप्रकृतिबन्धोदय सत्वस्थानत्रिक संयोगान् याजयति - [ 'सत्तेव अपजत्ता' इत्यादि । ] सप्तापर्याप्तका जीवाः स्वामिनः ७ एकः सूक्ष्मो जीवः ९ एको बादरो जीवः १ विकलत्रयजीवास्त्रयः ३ तथाऽसंज्ञी जीव एकः : संज्ञी जीव एकः १ इति चतुर्दश जीवाः स्वामिनः ॥ २६८ ॥ क्रमादेषां स्वामिसंख्या ७|१|१|३|१|१ | ४ अथैतेषु बन्धादिस्थान संख्यामाह - [ 'पणय दुय पणय पणयं इत्यादि । ] एकेन्द्रियसूक्ष्म १ बादर २ द्वि ३ त्रि ४ चतुः ५ पन्चेन्द्रियासंज्ञि ६ संशि ७ जीवापर्याप्तेषु सप्तसु नामप्रकृतिबन्धोदय सरवस्थानानि पञ्च ५ द्वे २ पञ्च ५ सर्वसूचमैकजीवसमासेषु पञ्च ५ चत्वारि ४ प ५ सर्वबादरैकजीव समासेषु पच ५ प ५ पच ५, विकलत्रयजीवसमासेषु पन्च ५ षट् ६ पञ्च ५ असंज्ञिषु षट् ६ षट् ६ पञ्च ५, संतिषु भष्टा टैकादश १३ ॥ २६६॥ ५ ६ ६ ५ अपर्याप्तेषु ७ सूचम० १ बादर० १ विकल० ३ असं० १ संज्ञि० ५ ५ ५ ६ ५ ८ ८ २ ५ ५ ११ 1. सं० पञ्चसं ०५, २६४ । २.५, २६२-२६३ । १. सप्ततिका० ३८ । २. सप्ततिका० ३७ । ५३ - - ४१७ ६ ५. ५ ११ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पाँच बन्धस्थान, दो उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी सातों ही अपर्याप्तक जीवसमास हैं । पाँच बन्धस्थान, चार उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक हैं । पाँच बन्धस्थान, पाँच उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी बादर एकेन्द्रियपर्या तक हैं। पाँच बन्धस्थान, छह उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी तीनों विकलेन्द्रिय हैं। छह बन्धस्थान, छह उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक हैं। तथा आठ बन्धस्थान, आठ उदयस्थान और ग्यारह सत्तास्थानके स्वामी संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जीव हैं ॥२६८-२६॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूल और टीकामें दी हुई है। अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं 'सत्तेव य पज्जत तेवीसं पंचवीस छव्वीसं । ऊणत्तीसं तीसं बंधवियप्पा हवंति ति ॥२७॥ सत्त अपजत्तेसु बंधटाणाणि २३।२५।२६।२६३० तानि कानीति चेदाह-[ 'सत्तेव य पजत्ते' इत्यादि ] सप्तसु अपर्याप्तेषु जीवसमासेषु नामप्रकृतिबन्धस्थानानि पञ्च-त्रयोविंशतिकं २३ पञ्चविंशतिक २५ षडर्विशतिकं २६ नवविंशतिक २६ त्रिंशत्कं ३० चेति । बन्धविकल्पाः पञ्च भवन्ति ॥२७०॥ २३।२५२६।२६।३०॥ __ सातों ही अपर्याप्तक जीवसमासोंमें तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीसप्रकृतिक पाँच बन्धस्थान होते हैं ॥२७०॥ सातों अपर्याप्तकोंमें २३, २५, २६, २६, ३० प्रकृतिक पाँच बन्धस्थान होते हैं। 'सुहुम-अपज्जत्ताणं उदओ इगिवीसयं तु बोहव्यो । बायरपज्जत्तेदरउदओ च उवीसमेव जाणाहि ॥२७॥ ___ उदया २१॥२४॥ . एकेन्द्रियसुचमापर्याप्तानां स्थावरलब्ध्यपर्याप्तकानां नामप्रकृत्युदयस्थानमेकविंशतिकं २१ ज्ञातव्यम् । एकेन्द्रियबादरापर्याप्तानां चतुर्विंशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं २४ जानीहि ॥२७॥ एकेन्द्रियसूक्ष्म-बादरपर्याप्तयोः उदयस्थानद्वयम् २१०२४ । सूक्ष्म अपर्याप्तकोंके इकोसप्रकृतिक एक उदयस्थान जानना चाहिए । बादर अपर्याप्तकोंके चौबीसप्रकृतिक एक ही उदयस्थान जानो ।।२७१।। सूक्ष्म अपर्याप्तकके २१ प्रकृतिक और बादर अपर्याप्तकके २४ प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । सेस-अपज्जत्ताणं उदओ दो चेव होंति णायव्वा । इगिवीसं छव्वीसं एत्तो सत्तं भणिस्मामो ॥२७२॥ २१।२६ शेषाणां पन्चानामपर्याप्तानां ब्रसलन्ध्यपर्याप्तानां वे उदयस्थाने भवतः। किं तत् नामप्रकृत्युदयस्थानम् ? एकविंशतिकं २१ षड्विंशत्तिकं च । अतः परं तत्र सत्वस्थानानि वयं भणिष्यामः ॥२७२॥ पञ्चानामप्यपर्याप्तानामुदये २१॥२६॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, २६५ । 2. ५, २६६ । 3. ५, २६७ । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४१३ शेष अपर्याप्त जीवसमासोंके इक्कीस और छब्बीसप्रकृतिक दो ही उदयस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। अब इससे आगे सातों अपर्याप्तक जीवसमासोंके सत्तास्थान कहेंगे॥२७२॥ शेष अपर्याप्तकोंके उदयस्थान २१ और २६ प्रकृतिक दो होते हैं । 'तेसु य संतवाणा वाणउदी णवदिमेव जाणाहि । अडसीदी चेव तहा चउ वासीदी य संतया होंति ॥२७३॥ संते १२।१०।८८८८२। 'सत्त अपजत्तएसु' त्ति गयं । तयोर्नामप्रकृतिबन्धोदययोर्वा अपर्याप्तकसप्तके वा नामप्रकृतिसत्वस्थानं द्वानवतिकं १२ नवतिक १० अष्टाशीतिकं ८८ चतुरशीतिक ८४ द्वयशीतिकं १२ चेति सत्तायाः पञ्च सस्वस्थानानि भवन्तीति जानाहि ॥२७३॥ १२६०८८४८२ इति सप्तम् अपर्याप्तेषु व्याख्यानं गतं पूर्ण जातम् ।। ___ उन्हीं सातों अपर्याप्तक जीवसमासोंमें बानबै, नब्बै, अट्ठासी, चौरासी और बियासीप्रकृतिक पाँच सत्तास्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥२७३॥ सातों अपर्याप्तकोंमें ६२, ६०,८८,८४, ८२ प्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। श्ते चिय बंधट्ठाणा संता वि तहेव सुहुमपज्जत्त । चत्तारि उदयठाणा इगि चउ पणवीस छन्वीसा ॥२७४॥ सुहुमपजत्ते बंधा २३।२५।२६।२६।३०। उदया २१।२४।२५।२६। संता ६२।६०।८८८४।८२ । तान्येव पूर्व अपर्याप्तसप्तकोक्तनामबन्धस्थानानि तथैव सत्वस्थानानि च सूचमैकपर्याप्तकेषु बन्धस्थानानि २३।२५।२६।२६।३०। सरवस्थानानि १२८८८४२ भवन्ति । एकविंशतिक २१ चतुविशतिकं २४ पञ्चविंशतिकं २५ पडविंशतिकं २६ इत्युदयस्थानानि चत्वारि भवन्ति-२१॥२४॥२५॥ २६ ॥२७॥ सूचमपर्याप्तके जीवसमासे बन्धाः २३१२५२६।२६।३०। उदया: २१॥२४॥२५२६ । सत्त्वानि १२।०1८८८४८२ । सूक्ष्मपर्याप्तक जीवसमासमें वे ही पूर्वोक्त पाँच बन्धस्थान और पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु उदयस्थान इक्कीस, चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक चार होते हैं ।।२७४॥ सूक्ष्मपर्याप्तमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २६, ३०, उदयस्थान २१, २४, २५, २६ और सत्त्वस्थान २२, ६०, ८८,८४, ८२ होते हैं। 'बायर पज्जत्त सु वि ते चेव य होंति बंध-संतठाणाणि । इगिवीसं ठाणादी सत्तावीसं ति ते उदया ॥२७॥ बायर-एइंदियपज्जत्ते बंधा २३।२५।२६।२६।३०। उदया २१।२४।२५।२६।२७। संता २०६०। ८८1८1८२ तान्येव सूक्ष्मपर्याप्तोक्तबन्ध-सत्वस्थानानि बादरैकेन्द्रियपर्याप्तकजीवसमासे भवन्ति २३१२५॥२६॥ २६।३०। सत्त्वस्थानानि ६२।०1८८८४८२। एकविंशतिकादि-सप्तविंशतिपयतोदयस्थानानि २१॥२४॥२५।२६।२७ भवन्ति ॥२७५॥ 1. सं०पञ्चसं० ५, २६८ । 2. २६६ । 3. ५, 'सूक्ष्मे पूर्णे बन्धाः ' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १६५) ___4. ५, ३०० । 5. ५, 'पूर्णे बन्धाः' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १६५) Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० पञ्चसंग्रह एकेन्द्रियबादरपर्याप्तके बम्धाः २३।२५।२६।२६।३०। उदयाः २१२४।२५।२६।२७ । सत्ताः १२ २ । बादर पर्याप्त जीवसमासमें वे ही पूर्वोक्त पाँच बन्धस्थान और पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु उदयस्थान इक्कीस प्रकृतिसे लेकर सत्ताईस प्रकृतिक तकके पाँच होते हैं ॥२७५।। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकमें बन्धस्थान २१, २५, २६, २६, ३० होते हैं। उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७ होते हैं और सत्त्वस्थान ६२, ६०, ८८,८४, ८२ होते हैं । वियलिंदिएसु तेच्चिय पुव्वुत्ता बंध-संतठाणाणि । तीसिगितीसुगुतीसा इगिछव्वीसट्टवीसुदया ॥२७६॥ विलिदिएसु बंधा २३।२५।२६।२६।३० । उदया २१॥२६॥२८॥२६॥३०॥३१ संता ६२।६०1८८ ८४८२। विकलत्रये पर्याप्ते तान्येव पूर्व सूचमोक्तबन्ध-सत्वस्थानानि २३।२५।२६।२६।३० । सत्ता, १२।१०। 1८1८४८२ । त्रिंशत्कं ३० एकत्रिंशत्कं ३१ एकोनत्रिंशत्कं २६ एकविंशतिकं २१ षड्विंशतिकं २६ अष्टाविशतिकं २८ इत्युदयस्थानानि षड़ भवन्ति ॥२७६॥ विकलबयप र्याप्तजीवसमासेषु प्रत्येकं बन्धाः २३।१५।२६।२६।३०। उदयाः २१।२६।२८।२६।३०॥ ३१ । सत्यानि १२1801८८1८४२ । विकलेन्द्रिय जीवसमासोंमें वे ही पूर्वोक्त पाँच बन्धस्थान और पाँच सत्तास्थान होते हैं। किन्तु उदयस्थान इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक छह होते हैं ॥२७६॥ विकलेन्द्रियोंमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २६, ३०; उदयस्थान २१, २६, २८, २९, ३०, ३१ और सत्तास्थान ६२, ६०,८८,८४, ८२ होते हैं । पज्जत्तासण्णीसु वि बंधा तेवीसमाइ तीसंता । तेसिं चिय संतुदया सरिसा वियलिंदियाणं तु ॥२७७॥ 4 असण्णिपजत्ते बंधा २३।२५।२।२८।२६।३०। उदया २०२६।२८।२६।३०।३१। संता १२1801८11८४८२ । भसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकेषु बन्धाः त्रयोविंशत्यादित्रिंशदन्ताः नामप्रकृतिबन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकरञ्चविंशतिक-पड़विंशतिकाष्टाविंशतिक-नवविंशतिक-त्रिंशकानि षड़ भवन्ति । तेषां विकलेन्द्रियाणां सदृशाणि सत्त्वोदयस्थानानि भवन्ति ॥२७७॥ असंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तके जीवप्तमासे बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६॥३० । उदयाः २१।२६।२८।२६। ३०॥३१ । सत्त्वानि १२00८1८४८२ । ___पर्याप्त असंज्ञी जीवोंमें तेईसप्रकृतिकको आदि लेकर तीसप्रकृतिक पर्यन्तके छह बन्धस्थान होते हैं। तथा उनके उदयस्थान और सत्तास्थान विकलेन्द्रियोंके सदृश ही जानना चाहिए ॥२७७।। __ असंज्ञी पर्याप्तकोंमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६, ३०; उदयस्थान २१, २६, २८, २६, ३०, ३१ और सत्तास्थान ६२, ६०,८८,८४, ८२ होते हैं । 1. सं० पञ्चसं० ५, ३०१-३०२। 2. ५, २३ इत्यादिगद्यभागः (पृ० १६५)। 3. ५. ३०३ । 4. ५, 'बन्धाः २३' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १६६)। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४२१ 'सव्वे वि बंधठाणा सण्णी पज्जत्तयरस बोहव्वा । चउवीस णवय अट्ट य वज्जित्ता उदय पज्जत्ते ॥२७८॥ 'तस्स दु संतट्ठाणा उरिम दो वज्जिदूण हेछिल्ला । दोण्हं पि केवलीणं तीसिगितीसह णव उदया ॥२७॥ णव दस सत्तत्तरियं अद्वत्तरियं च संतठाणाणि । ऊणासीदि असीदी बोहव्वा होंति केवलिणो ॥२०॥ सण्णिपजत्ते बंधा २३॥२५॥२६।२८।२६।३०।३११ । उदया २११२५।२६।२७१२८।२६।३०।३१ । संता १३११२।११1१०1८11८४८१८०७६७८७७ । bणेव सणिणेव असण्णीणं उदया ३१३018।। संता 5०1७६७८७७११० ! इदि जीवसमासपरूवणा समत्ता। पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तकजीवस्य सर्वाणि बन्धस्थानान्यष्टौ भवन्तीति ज्ञातव्यम् २३।२५।२६।२८। २६॥३०॥३॥। चतुर्विशितिक-नवकाष्टकं स्थानत्रयं वयित्वान्यान्यष्टौ सर्वाण्युदयस्थानानि पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तके भवन्ति २१०२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । तु पुनस्तस्य पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तकस्योपरिमद्वये दशक-नवकस्थानद्वयं वर्जयित्वा एकादश सत्वस्थानानि भवन्ति । सयोगायोगिकेवलिनोद्वयोः त्रिंशत्कै ३० कृत्रिंशरक ३१ नवका ६ टकानि ८ चत्वार्युदयस्थानानि भवन्ति । नवक ६ दशक १० सप्तसप्ततिका ७७ टसहतिकानि ७८ च । पुन एकोनाशीति ७६ अशीतिकं ८० चेति षट नामप्रकृतिसत्त्वस्थानानि केवलज्ञानिनो बोधव्यानि भवन्ति ॥२७८-२८०॥ पन्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तकजीवसमासे बन्धाः २३१२५।२६।२८।२६।३०।३१ । उदयाः २१।२५।२६। २७।२८।२६।३०।३१। सत्वानि ९३।१२।११1१०1८८1८४८1८1७६७८७७ । संश्यसंज्ञिव्यपदेशरहितयोः सयोगायोगद्वययोर्बन्धरहितयोरुदयस्थानानि ३०३१।। सत्वस्थानानि ८०1७६। ७८१७७/2018 बादरैकेन्द्रियपर्याप्ते अपर्याप्तसप्तकेषु प्रत्येकम् बन्धः उदयः सत्त्वम् सूचमैकेन्द्रियपर्याप्ते बन्धः उदयः सत्वम् बन्धः उदयः सत्त्वम् २३ २१२१ १२ २५ २४।२६ १० २६ . ८८ ०६४ २३ २०१२ २५ २४० २६ २५ ८८ ८४ २०० २३ २१६२ २५ २४० २६ २५ ८२ २१ २६ ८४ ०८२ ८२ ८२ . 1. सं०पञ्चसं०५, ३०४ । 2.५, ३०५। ३.५, ३०६ । 4. ५, 'बन्धा २३' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६६)। 5. ५, 'उदये ३०' इत्यादिगधभागः (पृ० १६६)। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ पञ्चसंग्रह विकलत्रयेषु प्रत्येकम् बन्धः उदयः सरम् असंज्ञिपर्याप्त बन्धः उदयः सत्वम् संज्ञिपर्याप्ते बन्धः उदयः सत्वम् २३ २११२ २३ २५ २१ २६ १२ १० ० 1 Y ry om murw . २६ w w rirr mm w ०. ८ २८ २३ २१६३ २५ २५ ६२ २६ २६ २८ २७ २६ २८ ३० २६ ० ज - M० सयोगायोगयोः बन्धः उदयः सत्त्वम् समुद्धातकेवलिनि बन्धः उदयः सत्त्वम् १० २० ० ० ३१ m ० ० .666 ० ० ur." ०० ० ० ० ० ० इति जीवसमासप्ररूपणा समाप्ता। पर्याप्त संज्ञी जीवोंमें सर्व ही बन्धस्थान जानना चाहिए । उदयस्थान चौबीस, नौ और आठ प्रकृतिक तीनको छोड़कर शेष आठ होते हैं। उसके सत्तास्थान उपरिम दोको छोड़कर अधस्तन ग्यारह होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी दोनों ही केवलियोंके तीस, इकतीस, नौ और आठ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। उन्हीं केवलियोंके सत्तास्थान अस्सी, उन्यासी, अट्ठहत्तर, सतहत्तर दश और नौप्रकृतिक छह होते हैं ॥२७८-२८०।। संज्ञी पर्याप्तकके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक आठ होते हैं। उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक आठ होते हैं । सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ प्रकृतिक ग्यारह होते हैं। ___ इस प्रकार जीवसमासोंमें नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंका निरूपण समाप्त हुआ। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ सप्ततिका अब मूल सप्ततिकार ज्ञानावरण और अन्तरायकर्मके बन्धादिस्थानोंका गुणस्थानोंमें वर्णन करते हैं[मूलगा०३३] 'णाणावरणे विग्घे बंधोदयसंत पंचठाणाणि । मिच्छाइ-दसगुणेसुं खीणुवसंतेसु पंच संतुदया ॥२८१॥ बं० ५ ५ बं० ० . मिच्छाइगुणहाणेसु दससु उ० ५ ५ भबंधगोवसंत-खीणाणं उ० ५ ५ स० ५ ५ सं० ५ ५ अथाष्टकर्मणामुत्तरप्रकृतीनां बन्धोदयसत्त्वस्थानत्रिसंयोगभङ्गान् गुणस्थानेषु प्ररूपयति। [तत्र ] आदौ ज्ञानावरणान्तरायप्रकृतिबन्धादित्रिसंयोगान् गुणस्थानेष्वाह-['णाणावरणे विग्धे' इत्यादि ।] मिथ्यादृष्ट्यादि-सूचमसाम्परायान्तगुणस्थानेषु दशसु ज्ञानावरणान्तराययोबन्धोदयसत्त्वस्थानानि पञ्च पन्च प्रकृतयो भवन्ति ५।५।५। बन्धोपरमेऽप्युपशान्त-क्षीणकषाययोरुदयसत्त्वे तथा पच पच प्रकृतयः स्युः । उदयरूपाः पञ्च प्रकृतयः ५ सत्वरूपाः पञ्च प्रकृतयः ५ इत्यर्थः ॥२८॥ बं० ५ ५ बं० ० ० मिथ्यादिषु दशसु उ० ५ ५ अबन्धकयोरुपशान्त-क्षीणकषाययोः उ० ५ ५ स० ५ ५ ज्ञानावरणान्तराययोबन्धादित्रिकयन्त्रम् गुण० मि. सा. मि० अवि० दे० प्र० अप्र० अपू० अनि० सू० उ० क्षी० स० अ० बं० ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ० ० ० ००० स० ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ . . मिथ्यात्व आदि दश गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तरायकर्मके पाँचप्रकृतिक बन्धस्थान, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान और पाँचप्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । इन दोनों ही कर्मों के बन्धसे रहित उपशान्तमोह और क्षीणमोह नामक ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानमें पाँचप्रकृतिक उदयस्थान और पाँच प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ॥२८॥ अन्त० * ज्ञाना० बं. ५ मिथ्यात्व आदि दश गुणस्थानोंमें- उ० ५ स० ५ * * ४० बं० ० अबन्धक उपशान्त और क्षीणमोहमें उ० ५ स० ५ * * 1. ५, ३०७ । 2.५,. 'गुणस्थानदशके' इत्यादिगद्यांशः (पृ०१६६)। १. सप्ततिका० ३१ । For Private & Personal use only . Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ पञ्चसंग्रह अब मूलसप्ततिकाकार गुणस्थानोंमें दर्शनावरणकर्मके बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०३४] 'णव छक्कं चत्तारि य तिण्णि य ठाणाणि सणावणे । बंधे संते उदये दोण्णि य वत्तारि पंच वा होंति ॥२८२॥ अथ गुणस्थानेषु दर्शनावरणस्य प्रकृतिबन्धादिसंयोगभङ्गान् गाथाचतुष्केणाऽऽह-[ ‘णव छक्कं चत्तारि य' इत्यादि । ] दर्शनावरणे बन्धे नवकं ६ पटकं ६ चतुष्कं चेति दर्शनावरणस्य बन्धस्थानानि त्रीणि । सत्तायां दर्शनावरणस्य सत्त्वस्थानत्रयं नवात्मकं ६ षडात्मकं ६ चतुरात्मकं ४ । दर्शनावरणस्य प्रकृत्युदयस्थानद्वयं जाग्रजीवे प्रथमं प्रकुतिचतुरात्मकं ४ वा अथवा निद्रितेषु द्वितीयमेकतरनिया सहितं तदेव पन्चात्मकं ५ इति दर्शनावरणस्य बन्धे त्रीणि ३ सत्तायां त्रीणि ३ उदये द्वे स्थानानि भवन्ति ॥२२॥ ___ दर्शनावरण कर्मके बन्धस्थान और सत्त्वस्थान तीन तीन होते हैं-नौ प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । उदयस्थान दो होते हैं-पाँच प्रकृतिक और चार प्रकृतिक ॥२८२।। अब भाष्यगाथाकार इन्हीं स्थानोका स्पष्टीकरण करते हैं णव सव्वाओ छकं थीणतियं रहिय दंसणावरणे । णिद्दापयलाहीणा चत्तारि य बंध-संताणि ॥२८३॥ ६।६४ दर्शनावरणस्य सर्वा नव प्रकृतयो बन्धरूपाः । दर्शनावरणस्य सर्वा नव प्रकृतयः सरवरूपाः । स्त्यानगृद्धित्रयरहिता षट् प्रकृतयो बन्धरूपाः ६ । एता निगा-प्रचलाद्वयरहिताश्चतुःप्रकृतयो बन्धरूपाः ४ चतुःप्रकृतयः सत्त्वरूपाश्च ४ ॥२३॥ बन्धे १।६।४ सत्तायां ।।६।। नौ प्रकृतिक बन्ध और सत्त्वस्थानमें दर्शनावरणकी सर्व प्रकृतियाँ होती हैं । छह प्रकृतिकस्थान स्त्यानगृद्धित्रिकसे रहित होता है । तथा चार प्रकृतिकस्थान निद्रा और प्रचलासे हीन जानना चाहिए ॥२८३॥ सर्ब प्रकृतियाँ है । स्त्यानत्रिक विना ६ । निद्रा-प्रचला विना ४ । अणेत्ताइदंसणाणि य चत्तारि उदिति दंसणावरणे। णिदाई पंचस्स हि अण्णयरुदएण पंच वा जीवे ॥२८४॥ · दर्शनावरणस्य नेत्रादिचक्षुर्दर्शनानि चत्वारि चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणानि चत्वारि ४ जाग्रनिद्रिते जीवे सदोदयन्ति उदयं गच्छन्ति । जाग्रजीवे मिथ्यादृष्ट्यादि-क्षीणकषायचरमसमयान्तं चक्षुदर्शनावरणादिचतष्क निरन्तरोदयं गच्छतीत्यर्थः। वा निद्रिते जीवे प्रमत्तपर्यन्तं स्त्यानगृद्धयादिपञ्चसु मध्ये एकस्यां उपरि क्षीणकषायद्विचरमसमयपर्यन्तं निद्रा-प्रचलयोरेकस्यां चोदितायां पञ्चात्मकमेव दर्शनावरणचतुष्कं ४ निद्रिते कयाचिदेकया निद्रया सह पञ्चप्रकृत्युदयस्थानमित्यर्थः ५॥२८॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३०८। 2. ५, ३०६ । 3. ५, ३१०।। १. सप्ततिका ३६, परं तत्रेहक पाठा मिच्छा साणे बिइए नव चउ पण नव य संता। . मिस्साइ नियट्टीओ छच्चउ पण णव य संतकम्मंसा॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका दर्शनावरणकर्मको चक्षुदर्शनावरणादि चारों प्रकृतियोंका उदय उनकी उदयव्युच्छित्ति होने तक बराबर बना रहता है । तथा जीवके सुप्त दशामें पाँचों निद्राओंमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय रहता है। इस प्रकार जागृत दशामें चार प्रकृतिक उदयस्थान और सुप्त दशामें पाँच प्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए ॥२८४॥ अव गुणस्थानों में दर्शनावरणके बन्धादिस्थानोंका निरूपण करते हैं मिच्छम्मि सासणम्मि य णव होंति बंध-संतेहिं । छब्बंधे णव संता मिस्साइ-अपुव्वपढमभायते ॥२८॥ मिथ्यादृष्टिसातादनयोर्दर्शनावरणस्य नव प्रकृतयो बन्धरूपाः ६ नव प्रकृतयः सत्त्वरूपाश्च भवन्ति । मिश्राद्यपूर्वकरणप्रथमभागान्तेषु गुणस्थानेषु स्त्यानगृद्धित्रयं विना पड्बन्धकेषु ६ दर्शनावरणस्य नव प्रकृतयः सत्वरूपाः भवन्ति ६ ॥२८५॥ मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें नौ प्रकृतिक बन्धस्थान और नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं । मिश्र गुणस्थानको आदि लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भागपर्यन्त छहप्रकृतिक बन्धस्थान और नौप्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं ॥२८॥ [मिच्छे सासणे य] ४ ५ 1मिस्साइअपुवकरणपढमसत्तमभायं जाव ४ ५। मिथ्यादृष्टि-सासादनयोः उ० ४ ५ मिश्राद्येष्वपूर्वकरणद्वयप्रथमसप्तमभागं यावत् उ० ४ ५। बंध ६ मिथ्यात्व और सासादनमें उ० ४ ५ मिश्रसे लेकर अपूर्वकरणके प्रथम सप्तम भाग तक स०६६ ४५ इस प्रकार बन्धादिस्थानोंकी रचना जानना चाहिए । ६६ 'चउबंधयम्मि दुविहापुव्वणियट्टीसु सुहुमउवसमए । णव संता अणियट्टी-खवए सुहुमखवयस्मि छच्चेव ॥२८६॥ चतुर्विधबन्धकेषु द्विविधापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूचमसाम्परायोपशमकेषु नव प्रकृतयः सवरूपाः ।। तथाहि-अपूर्वकरणस्य द्वितीयभागादि-षड्भागान्तस्योपशम-क्षपकश्रेणिद्वयगतस्य दर्शना तुबन्धकस्य ४ दर्शनावरणप्रकृतयो नव सत्वरूपाः ६ भवन्ति । अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोदर्शन चतुर्बन्धकयोरुपशमश्रेण्णोर्नव प्रकृतयः सत्वरूपाः सन्ति । अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्परायक्षपकश्रेण्योश्चतुर्बन्धकयोः स्त्यानत्रिकं विना पट प्रकृतयः सत्त्वरूपाः स्युः ६ ॥२६॥ दोनों प्रकारके अर्थात् उपशामक और क्षपक अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें, उपशामक सूक्ष्मसाम्परायमें चारप्रकृतिक बन्धस्थान और नौप्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं। अनिवृत्तिकरण क्षपक और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकमें चारप्रकृतिक बन्धस्थान और छहप्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं ॥२८६|| 1. सं० पञ्चसं० ५, मिश्राद्ये' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० १६७)। 2. ५, ३११-३१२ । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ४ ४ खत्रणाणं ४ ५। ६ ६ ४ ४ 'दुविधेसु खवगुवसमग-भउव्वकरणानियट्टिकरणेसु तह उवसम सुहुमकसाए ४ ५ अणियहि सुहुम ६ ६ बं० पोपशमयुक्तशेषा पूर्वकरणानिवृत्तिकरण सूचमसाम्परायोपशमकेषु उ० स० सूचमसाम्परायक्षपकयोः उ० बं० ४ ४ ४ ५। पञ्चसंग्रह स० ६ ६ ४ ४ और सूक्ष्म साम्परायमें रचना इस प्रकार है-४ ५ । ६ ६ क्षपक और उपशामक इन दोनों प्रकारके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें तथा उपशामक सूक्ष्मसाम्परायमें बन्धस्थानादिकी रचना इस प्रकार है- - उ० ४ ५ क्षपक अनिवृत्तिकरण बं० ४ ४ स०६६ ३ उवसंते [ मूलगा ०३५] 'उवरयबंधे संते संता यव होंति छच्च खीणम्मि । खोणते संतुदया चउ तेसु चयारि पंच वा उदयं ॥२८७॥ उपरतबन्धे शान्ते उपशान्तकषाये दर्शनावरणप्रकृतयो नव सत्वरूपा भवन्ति । उदये दर्शनावरणचतुष्कं ४ निद्रया प्रचलया वा सहितं प्रकृतिपञ्चकम् ५ । क्षीणे क्षीणकषायोपान्त्यसमये षट् प्रकृतयः सत्वरूपाः ६ । उदये चतुरात्मकं ४ पञ्चात्मकं वा ५ । क्षीणकषायस्य चरमसमये चक्षुरचक्षुरवधि केवलदर्शनावरण- चतुःप्रकृतयः सत्वरूपाः ४ उदयरूपाश्च ता एव ॥२८७॥ उपरतबन्धमें अर्थात् दर्शनावरण कर्मकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने पर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें नौप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है और क्षीणकषायमें छहप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है तथा इन दोनों ही गुणस्थानोंमें चार या पाँच प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । क्षीणकषायके चरम समय में चारप्रकृतिक उदयस्थान और चारप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है ॥२८७॥ ० ० ० ४ ५ खोणे ४ ५ खीणच रिमसमए ६६ ६ ६ ४ ४ ४ ५ ६ ६ १. सप्ततिका ० ४०; परं तत्रेटक् पाठः ० ४ एवं सव्वे १३ । ४ अनिवृत्तिकरण 1. सं० पञ्चसं० ५, 'शेषापूर्वा' इत्यादिगद्यभागः' ( पृ० १६७ ) । 2.५, ३१३ । ३. ५, 'शान्ते' इत्यादिगद्यांशः ( पृ० १६७ ) । चउबंध तिगे च पण नवंस दुसु जुयल छस्संता । उवसंते चड पण नव खीणे चउरुदय छुच्च चउ संतं ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ सप्ततिका ४२७ तेषु पूर्वोक्तनवादिषु स्थानादिषु चतुरात्मकं ४ पञ्चात्मकं ५ वा उदया उपशान्ते ४ ५ क्षीणे . . ४ ५ क्षीणचरमसमये ४ । एवं सर्व भङ्गास्त्रयोदश १३ । गुणस्थानेषु दर्शनावरणस्य बन्धादित्रिकसंष्टिःगुण मि० सा० मि० अवि० दे० प्र० भप्र. अपू० अनि० सू० उ० क्षी० बं ६ ६ ६ ६ ६ ६।४ ४ ४ ४ . उद० ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५४ ४३५१४ ४।५।४ स० १ ६ ६ ६ ६४ . . इति गुणस्थानेषु दर्शनावरणस्य बन्धादिसंयोगभङ्गाः समाप्ताः । ४ उपशान्तमोहमें ४ ५क्षीणमोहके उपान्त्य समयतक ४ ५। क्षीणमोहके चरमसमयमें ४ इस प्रकारसे बन्धादिस्थान होते हैं। इस प्रकार दर्शनावरणके स्थानसम्बन्धी सर्व भंग १३ होते हैं । अब मूल सप्ततिकाकार वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मके बन्धादिस्थानसम्बन्धी भंगोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०३६] 'बायाल तेरसुत्तरसदं च पणुवीसयं वियाणाहि । वेदणियाउगगोदे मिच्छाइ-अजोगिणं भंगा ॥२८॥ ४२।११३।२५ अथ गुणस्थानेषु वेदनीयाऽऽयुर्गोत्राणां त्रिसंयोगभङ्गसंख्यामाह--[ 'बायाल तेरसुत्तर' इत्यादि । ] मिथ्यारयाद्ययोगकेवलिपर्यन्तं वेदनीयस्य द्वाचत्वारिंशद्भङ्गान् ४२ आयुषस्त्रयोदशाधिकशतभङ्गान् ११३ गोत्रस्य पञ्चविंशतिभङ्गाश्च २५ विशेषेण जानीहि भो भव्य, स्वम् ॥२८॥ वेद्ये ४२ भायुषः ६१३ गोत्रे २५ । मिथ्यात्व गुणस्थानसे लेकर अयोगि गुणस्थानपर्यन्त वेदनीयकर्मके बन्धादि स्थानसम्बन्धी भंग ब्यालीस, आयुकर्मके एकसौ तेरह और गोत्रकर्मके पच्चीस जानना चाहिए ॥२८॥ वेदनीयके ४२, आयुकर्मके ११३ और गोत्रकर्मके २५ अङ्ग होते हैं । अब भाष्यगाथाकार उक्त भंगोमेसे पहले वेदनीय कर्मके भंगोका निरूपण करते हैं मिच्छाइपमत्ता चउ चट भंगा य वेयणीयस्स । उवरिमसत्तट्ठाणे दो दो य हवंति आदिल्ला ॥२८॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३१४ । 2. ५, ३१५ पूर्वार्धम् । १. इसके स्थानपर श्वे. सप्ततिकामें केवल यह सूचना की गई है 'वेयणियाउयगोए विभज्ज मोहं परं वोच्छं ॥४१॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ 9 पढमा दो दो १ ร 9 मिच्छाइपमत्तंतेसु एक्कक्कम्मि पढमा चत्तारि 9 ० 9 ० १० १० 9 १ १० पञ्चसंग्रह एवं सत्तसु १४ । अथ वेदनीयस्य त्रियोगभङ्गान् गुणस्थानेषु गाथाद्वयेनाऽऽह - [ 'मिच्छादिपमत्तंता' इत्यादि । ] मिथ्यात्व - सासादन- मिश्राऽविरत देश-प्रमत्तेषु पट्कगुणस्थानेषु प्रत्येकं वेदनीयस्य चतुश्चतुर्भङ्गा भवन्ति । 9 के ? सातबन्धोदयोभयसत्त्वं सातबन्धासातोदयोभय सत्वं २४ । ततः सप्तसु प्रत्येकं प्रथमौ द्वौ द्वौ उ० बं० मिथ्यात्वादि-प्रमत्तान्तेषु प्रत्येकं प्रथमाश्चत्वारो भङ्गाः उ० 9 , अजोगे अंतिमा चत्तारि बं० ० ร ० असातबन्धोदयोभयसत्वं ० इति चत्वारो भङ्गा मिथ्यादृष्ट्यादि - प्रमत्तान्तं भवन्तीत्यर्थः । तत उपरिमलप्त १० गुणस्थानेषु अप्रमत्तादि-सयोगिकेवलिपर्यन्तं आदिमौ द्वौ द्वौ भङ्गो भवतः । तौ कौ ? केवल [ल] सात 9 ० ॥२८६॥ 9 स्यैव बन्धात् सातोदयोभयसत्वं १ सातबन्धासातोदयोभय सत्त्वमिति द्वौ 210 १।०१।०१।०१।० १ ० १ 910 ११०१ ० ० १ ० ० o ० ० ० 910 0 एवं छसु २४ । पत्तेयं सत्तसु 9 'चउचरिमा अजोगियस्स सव्वे भंगा दु वेयणीयस्स । वायालं जाणतो आउस्स वोच्छामि ॥ २६० ॥ एवं सव्वे ४२ । ० असातबन्ध-सातोदयोभयसत्वं १ 910 १/० १ १ १ ० 9 स० १० १० १० १० स०१/० ११० मिथ्यात्व गुणस्थानसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक वेदनीय कर्मके चार चार भंग होते हैं । इससे उपरिम सात गुणस्थानों में आदिके दो दो भंग होते हैं ॥ २८६॥ 1 मिथ्यात्वसे लेकर प्रमत्तसंयतान्त एक एक गुणास्थान में पहले गाथाङ्क १६-२० में बतलाये गये ८ भंगोंमेंसे प्रारम्भके चार चार भंग होते हैं । उनकी संदृष्टि मूलमें दी है । छह गुणस्थानोंमें २४ भंग होते हैं । आगेके सात गुणस्थानोंमें आदिके दो दो भंग होते हैं । अतः सात गुणस्थानों १४ भंग होते हैं । एवं सप्तसु भङ्गाः १४ । अयोगिकेवलिनि चरिमाः अन्तिमाश्चत्वारो अङ्गाः सातोदयोभयसत्त्वं १ ० 9 १० एवं षट्सु भङ्गाः असातोदयोभयसत्वं इति चत्वारोऽयोगिनो भङ्गाः अयोगे अन्तिमाश्चत्वारः । वेदनीयस्य ० 910 सातोदय सत्वं सातद ० सर्वे द्वाचत्वारिंशद्भङ्गाः ४२ ज्ञातव्याः । एवं ४२ । अतः परमायुषो भङ्गान् वच्यामि ॥ २६०॥ [ गुणस्थानेषु वेदनीयभङ्गानां संदृष्टि:- ] 1. सं० पञ्चसं० ५, 'तत्र मिथ्यादृष्टीनां' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० १६७ ) । 2. ५, ३१५ उत्तरार्धम् । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४२१ मि० सा० मि० अवि० दे० प्र० अ० अपू० अनि० सू० उप. क्षी० स० अयो. अयोगिकेवलीके अन्तिम चार भंग होते हैं। इसप्रकार वेदनीयकर्मके सर्व भंग ब्यालीस जानना चाहिए । अब इससे आगे आयुकर्मके भंग कहेंगे ॥२६॥ अयोगीके अन्तिम चार भंग होते हैं। जिनकी रचना मूलमें दी है। इस प्रकार सर्व भंग (२४ + १४+४=४२) ब्यालीस हो जाते हैं। 1अड छव्वीसं सोलस वीसं छ त्ति त्ति चउसु दो दो दु । एगेगं तिसु भंगा मिच्छादिज्जा अजोगंता ॥२६१॥ मिच्छादिसु भंगा २८।२६।१६।२०।६।३।३।२।२।२।२।११।। अथाऽऽयुषो भङ्गसंख्या त्रिसंयोगभङ्गांश्च गुणस्थानेषु गाथापञ्चकेनाऽऽह-[ 'अड छवीसं सोलस' इत्यादि । ] मिलित्वा असहशभङ्गाः मिथ्यादृष्टी अष्टाविंशतिर्भङ्गाः २८ । सासादने षड्विंशतिभङ्गाः २६ । मिश्रे षोडश विकल्पाः १६ । असंयते विंशतिर्भङ्गाः २० । देशसंयते पट भङ्गाः ६ । प्रमत्ताप्रमत्तयोस्त्रयो भङ्गाः ३।३। उपशमकेषु चतुषु द्वौ द्वौ भङ्गौ २।२।२।२। क्षपकेष्वेकैकः [1111] क्षीणकषायादिषु त्रिषु त्रिषु एकैक एव ११॥ एवमेकीकृतास्त्रयोदशाधिकशतभङ्गाः ११३ मिथ्यादृष्टयाद्ययोगान्ता ज्ञातव्याः ॥२६॥ मिथ्यात्वसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भंग क्रमसे अट्ठाईस, छब्बीस, सोलह, बीस, छह, तीन, तीन, दो, दो, दो, दो, एक, एक और एक होते हैं ॥२६१॥ इन भंगोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैमि० सा० मि० अवि० देश० प्रम० अप्र० अपूर्व० अनि० सूक्ष्म० उप० क्षी० सयो० अयो० २८ २६ १६ २० ६ ३ ३ २ २ २ २ १ १ १ इन गुणस्थानोंके सर्व भङ्गोंको जोड़नेपर आयुकर्मके सर्व भङ्ग ११३ हो जाते हैं। अब आयुकर्मके उक्त भंगोंका स्पष्टीकरण करते हुए पहले नरकायुके भंग कहते हैं-- अणिरियाउस्स य उदए तिरिय-अणुयाऊणबंध बंधे य । णिरियाउयं च संतं णिरियाई दोण्णि संताणि ॥२६२।। 4णिरयभंगा-१ १ १ १ १ १ १२ १२ १३ ११३ अथ मिथ्यादृष्टौ बन्धादि-त्रिसंयोगानष्टाविंशतिमाह-[ 'णिरियाउस्स य उदये' इत्यादि । ] नरकायुष उदये भुज्यमाने तियङ्-मनुष्यायुषोरबन्धे बन्धे च उदयागतनरकायुष्यसत्वं च पुनः नरकादितिर्य-मनुष्यसत्वद्वयं-एकमुदयागत-सुज्यमानायुःसावम्, द्वितीयं तिर्यगायुःसत्त्वं वा मनुष्यायुःसत्त्वं वा इत्यर्थः । [ एवं नरकायुभङ्गाः पञ्च ५ ] ॥२६२।। तथा चोक्तम् एदितं विद्यमानं च देहिन्यायुरबध्नति । बध्यमानोदिते ज्ञेये विद्यमाने प्रबन्धति' ॥२५।। इति । 1. सं० पञ्चसं० ५, ३१६-३१७ । 2.५, 'मिथ्यादृष्ट्यादिषु. इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६८)। 3.५, ३१८-३२० । 4. ५, 'एषां संदृष्टिनारकेषु' इत्यादिगद्यभागः' (पृ० १६८)। १. सं० पञ्चसं० ५, ३१६ । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० पञ्चसंग्रह नारके भङ्गसंदृष्टि :-- MAA. णि १ णि णि १.णि १ णि १ स० १ १२ १२ १३ १३ नवीन आयुके अबन्धकालमें नरकायुका उदय और नरकायुका सत्त्वरूप एक भंग होता है । तिर्यगायु या मनुष्यायुके बन्ध हो जाने पर नरकायुका उदय और नरकायुके सत्त्वके साथ तिर्यगायु और मनुष्यायु इन दोका सत्त्व पाया जाता है। इस प्रकार नरकायुके पाँच भंग हो जाते हैं ॥२६२॥ नरकायुसम्बन्धी पाँच भंगोंकी संदृष्टि मूलमें दी है और इन भंगोंका स्पष्टीकरण इसी प्रकरणके प्रारम्भमें गाथाङ्क २१ के विशेषार्थमें कर आये हैं, सो विशेष जिज्ञासु जन वहींसे जान लेवें। अब तिर्यगायुके भंगोंका निरूपण करते हैं तिरियाउस्स य उदये चउण्हमाऊणऽबंध बंधे य । तिरियाउयं च संतं तिरियाई दोणि संताणि ॥२६३॥ 1तिरियभंगा- २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २५१२।१२।२ २।२ २१३ २।३ २।४ २।४ तिर्यगायुष उदये उदयागतभुज्यमाने चतुर्णामायुषोऽबन्धे बन्धे च तिर्यगायुःसत्त्वं च तिर्यगाद्यायुद्वयं सत्त्वं उदयागतभुज्यमानसत्त्वं चापरं बध्यमानायुष्यचतुष्कस्य मध्ये एकतराऽऽयुषः सत्वमित्यर्थः। तिर्यगायुभङ्गाः नव १ ॥२६३॥ [तिर्यक्षु भङ्गसंदृष्टिः-] बं० ० १ ० २ ० ३ ० ४ ० उ० ति २ ति २ ति२ ति २ ति२ ति २ ति २ ति२ २ स० २ २११ २१ २२ २२२ २३ २१३ २।४ २४ तिर्यगायुके उदयमें और चारों आयुकर्मों के अनन्धकालमें, तथा बन्धकालमें क्रमशः तिर्यगायुका सत्त्व और तिर्यगायुके साथ चारों आयुकर्मों में से एक एक आयुका सत्त्व; इस प्रकार दो आयुकर्मोका सत्त्व पाया जाता है । इस प्रकार तिर्यगायुके नौ भंग हो जाते हैं ॥२६३॥ तिर्यगायुसम्बन्धी नौ भंगोंकी संदृष्टि मूलमें दी है । इन भंगोंका विशेष स्पष्टीकरण प्रारम्भमें गाथाङ्क २२ के विशेषार्थमें किया जा चुका है। अव मनुष्यायुके भंगोंका निरूपण करते हैं मणुयाउस्स य उदए चउण्हमाऊणऽबंध बंधे य । मणुयाउयं च संतं मणुयाई दोणि संताणि ॥२४॥ मणुयभंगा-३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३।१३।१ ३.२ ३२ ३३ ३३ ३३४ ३।४ 2. ५, 'मनुष्येषु' 1. सं० पञ्चसं० ५, 'तियतु इत्यम्' इत्यादिगद्यभागः। (पृ० १६६)। इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६६)। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका मनुष्यायुष्युदयागतभुज्यमाने चतुर्णामायुषामबन्धे बन्धे च मनुष्यायुरुदयागतभुज्यमानं सत्त्वं मनुष्याथुप्युदयसत्त्वं च, अपरायुष्यचतुष्कस्य मध्ये एकतरायुषः सत्त्वमित्यर्थः। मनुष्यायुर्भङ्गाः नव ६ ॥२६॥ - [मनुष्येषु भङ्गसंदृष्टिः-] बं० . . . २ ० ३ . ४ . उ० म ३ म३ म३ म ३ म ३ म३ म ३ म ३ म ३ स० ३ ३ ३.१ ३.२ ३.२ ३.३ ३३ ३।४ ३।४ मनुष्यायुके उदयमें और चारों आयुकर्मों के अबन्धकाल तथा बन्धकालमें क्रमशः मनुष्यायुका सत्त्व, एवं मनुष्यायुके सत्त्वके साथ चारों आयुकर्मों में से एक एक आयुका सत्त्व, इस प्रकार दो आयुकर्मोंका सत्त्व पाया जाता है । इस प्रकार मनुष्यायुके नौ भंग हो जाते हैं ॥२६४॥ मनुष्यायु-सम्बन्धी नौ भंगोंकी संदृष्टि मूलमें दी है और भंगोंका खुलासा प्रारम्भमें गाथाङ्क २३ के विशेषार्थ द्वारा किया जा चुका है। अब देवायुके भंगोका निरूपण करते हैं देवाउस्स य उदए तिरिय-मणुयाऊणऽबंध बंधे य । देवाउयं च संतं देवाई दोण्णि संताणि ॥२६॥ 1देवाण भंगा जहा- ४ ४ ४ ४ ४ ४२ ॥२४३४॥३ देवायुप उदये तिर्यग्मनुष्यायुपोरबन्धे बन्धे न देवायुरुदयागतभुज्यमानं सत्वं देवाद्याऽऽयुष्यतिर्यग्मनुष्यायुष्यसत्त्वद्वयम् । देवायुभकाः पञ्च ५ ॥२५॥ [ देवेषु भङ्गसंदृष्टिः-] बं० ० २ . ३ . स० ४ ॥२ ४।२ ३ ४।३ देवायुके उदयमें और तिर्यगायु तथा मनुष्यायुके अबन्ध और बन्धकालमें क्रमशः देवायुका सत्त्व, और देवायु-मनुष्यायु तथा देवायु और तिर्यगायुका सत्त्व पाया जाता है। इस प्रकार देवायुके पाँच भंग हो जाते हैं ।।२६५॥ देवायु-सम्बन्धी पाँच भंगोंकी संदृष्टि मूलमें दी है और उन भंगोंका खुलासा प्रारम्भमें गाथाङ्क २४ के विशेषार्थमें किया जा चुका है। एवं मिच्छे सब्वे २८ । सासणो गिरएसु ण गच्छद। गिरयाउयं च बंधं तिरियाउयं च उदयं दो वि संता । णिरयाउयं बंधं मणुयाउयं उदयं दो वि संता २। एवं दो भंगे चइऊणं सेसा सासणे २६ । सम्मामिच्छाइटी एक्कमपि आउयं ण बंधइ । अदो तस्स उवरयबंधभंगा १६ । तिरियाउयं च बंधं णिरयाउयं उदयं, दो वि संता १ । णिरयाउयं बंधं तिरियाउयं उदयं दो वि संता २ । तिरियाउयं बंधं तिरियाउयं उदयं दो वि संता ३ । मणुयाउगं बंधं तिरियाउगं उदयं, दो वि संता ४ । णिरयाउगं उदयं बंधं मणुयाउगं ५ । तिरियाउगं बंधं मणुयाउयं उदयं दो वि संता ६ । मणुयाउयं बंधं मणुयाउगं उदयं दो वि संता । 1. सं० पञ्चसं० ५, 'देवेषु' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १६६)। 2. ५, 'मिथ्यादृष्टौ २८' इत्यादिगद्यांशः (पृ० १६६-२००)। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसंग्रह दो वि संता तिरियाउगं वधं देवाउगं उदयं दो वि संता । एवं अभंगे चइऊण सेसा असंजयस्स २०॥ तिरियाउयं उदयं तिरियाउगं संतं । देवाउयं बंधं तिरियाउयं उदयं देवतिरियाउगं संतं । तिरियाउगं उदयं देव-तिरियाउगं संतं ३ । मणुयाउगं उदयं मणुयाउगं संतं ४ । देवाउगं बंध मणुयाउगं उदयं देवमणुयाउगं संतं ५ । मणुयाउयं उदयं मणुय-देवाउगं संतं ६ । एवं संजयासंजयस्स । मणुयाउगं उदयं मणुयाउगं संतं । । देवाउयं बध मणुयाउगं उदयं दो वि संता २। मणुयाउगं उदयं मणुय-देवाउगं संतं ३ । एवं पमत्ते । एदावंतो अप्पमत्ते वि३ । अपुव्वपहुदि जाव उवसंतं ताव चउसु उवसम-खवगेसु मणुयाउगं उदयं मणुयाउगं संतं १ । उवसमगे पडुच्च मणुयाउगं उदयं मणुयदेवाउगं संतं २। एवं दो दो भंगा चउसु पुह पुह ८ । खोण-सजोगाजोगेसु मणुयाउगं उदयं मणुयाउगं संतं । एवं तिसु तिणि । सब्वे वि. आउस्स ११३ । एवं मिथ्यादृष्टौ विसदृशभङ्गाः २८ । सासादनो जीवस्तिर्यग् मनुष्यो वा नरकगतिं न याति, इति हेतोनरकायुर्वन्धः १ तिर्यगायुष्योदयं २ सत्त्वद्वयम् २ नरकायुर्वन्धं मनुष्यायुष्योदयं ३ सत्त्वद्वयम् २११ ३ एवं द्वौ भङ्गौ इमौ त्यक्त्वा शेषाः पञ्चाष्टाष्टपञ्चेति पविंशतिभङ्गाः सासादने २६ भवन्ति । सम्य३१ ग्मिथ्यादृष्टिः मिश्रगुणस्थानवर्ती एकमप्यायुर्न बध्नाति, अतः कारणात्तस्य मिश्रगुणस्योपरतबन्धभङ्गाः षोडश १६ । मिथ्यात्वोक्तास्ते सर्वायुर्बन्धभङ्गोनास्त्रयः पञ्च-पञ्च त्रय इति षोडश मिश्रे भङ्गाः १६ । तिर्यगायुर्बन्धे नरकायुरुदये द्वयोः सर्वे १ इत्येको भङ्गः १ । नरकायुबन्धे तिर्यगायुरुदये द्वयोः सत्वे २ इति द्वितीयो ११२ १२ भङ्गः २ । तिर्यगायुर्बन्धे तिर्यगायुरुदये द्वयोः सत्वे २ इति तृतीयो भङ्गः ३ । मनुष्यायुबन्धे तिर्यगा २१२ युरुदये सत्त्वे २ चतुर्थो भङ्गः ४ । नरकायुर्बन्धे मनुष्यायुरुदये द्वयोः सत्त्वे ३ इति पञ्चमो भगः ५। २३ १३ तियंगायुर्वन्धे मनुष्यायुरुदये द्वयोः सत्वे ३ इति षष्ठो भङ्गः ६ । मनुष्यायुर्बन्धे मनुष्यायुरुदये द्वयोः ३२ २ ३१४ सत्त्वे ३ इति सप्तमो भङ्गः ७ । तिर्यगायुर्वन्धे देवायुरुदये द्वयोः सत्त्वे ४ इत्यष्टमो भङ्गः ८ । ३३ इत्यष्टौ भङ्गान् त्यक्त्वा शेषा विंशतिर्भङ्गाः असंयतसम्यग्दृष्टेभवन्ति २० । कथमष्टौ त्यक्त्वा इति चेदुक्तन्च यतो बध्नाति सद्दृष्टिनर-तिर्यग्गतिं गतः । व नान्यानि श्वभ्र-देवगतिं गतः ॥२६॥ मायुरेव नान्यानि भङ्गानामष्टकं ततः । विहाय विंशतिः प्रोक्ता भङ्गास्तस्य मनीषिभिः ॥२७|| इति । १. सं० पञ्चसं० ५, ३२२-३२३ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० तिर्यगायुरुदयसत्त्वयोः उ० २ भङ्गः १ देवायुर्बन्धे तियंगायुरुदये द्वयोः सत्त्वे २ भङ्गः २ । तिर्य स० २ ४२ ० ० गायुरुदये देवतिर्यगायुषोः सरखे २ भङ्गाः ३ । मनुष्यायुरुदयसत्त्वयो ३ भङ्गः ४ | देवायुबन्धे मनुष्यायु ४२ ३ ४ रुदये देव मनुष्यायुषोर्द्वयोः सत्वे ३ भङ्गः ५ । मनुष्यायुरुदये देव मनुष्यायुषोर्द्वयोः सत्त्वे ३ भङ्गः षष्ठः ५ । ४३ ३४ ० एवं संयतासंयतस्य सम्यग्दष्टेर्भङ्गाः षट् भवन्ति ६ । मनुष्यायुष्योदये मनुष्यायुः सत्वे ३ देवायुर्बन्धे मनु ३ गु० मि० सा० मि० भ० ५ ५ ५ ४ ८ ६ ८ ६ ४ ० प्यारुदये तद्द्वयोः सत्त्वे ३ मनुष्यायुरुदये मनुष्य देवायुषोः सत्त्वे ३ इत्थं प्रमत्ते सर्वे भङ्गास्त्रयः ३ । त ३/४ ३/४ ३ एवाप्रमत्तेऽपि । अपूर्वकरणादारभ्य यावदुपशान्तं चतुर्णां शमकानां रूपकानां च मनुष्यायुरुदये मनुष्यायुः सत्वं उपशमकानाश्रित्य मनुष्यायुरुदये मनुष्य-देवायुषोः सत्त्वे एवं च द्वौ भङ्गौ पृथक् । द्वाभ्यां भङ्गाभ्यां चतुष्ट भङ्गाः ८ । क्षीणकषाय सयोगायोगिकेवलिषु गुणस्थानेषु त्रिषु मनुष्यायुरुदये मनुष्यायुः सत्त्वं च एवं त्रिषु त्रयो भङ्गाः ३ । सर्वेऽप्यायुवि भङ्गाः विकल्पाः असदृशास्त्रयोदशाधिकशतसंख्योपेताः ३ ३/४ ३ ३ ११३ भवन्ति । 名 & ८ ८ सततिका दे० ३ ३ ५ ० ० आयुर्भङ्गयन्त्रम् - प्र० ३ ८ O भ० भ० अ० ३ २ २ ० ० ० C ० ३ ० ० ० ० ० सू० उ० २ २ ० ० 0 ० ० ५ ५ ४ भङ्गाः २८ २६ २६ २० ३ २ २ ง ง इस मिथ्यात्वगुणस्थानमें नरकायुके ५, तिर्यगायुके ६, मनुष्यायुके ६, और देवायुके ५ ये सब मिलकर २८ भंग हो जाते हैं । सासादन गुणस्थानवर्ती जीव नरकोंमें नहीं जाता है, इसलिए नरकाका बन्ध, तिर्यगायुका उदय और दोनोंका सत्त्वरूप भंग; तथा नरकायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और दोनोंका सत्त्वरूप भंग इन दोनों भंगों को छोड़ करके मिथ्यात्वगुणस्थानवाले शेष २६ भंग सासादनगुणस्थानमें पाये जाते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव किसी भी आयुका बन्ध नहीं करता है, अतएव उसके बन्धकालवाले १२ भंग कम हो जानेसे उपरतबन्धकालसम्बन्धी १६ भंग होते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव यदि मनुष्यगति या तिर्यग्गतिमें हो, तो वह देवायुका ही बन्ध करता है, शेष तीनका नहीं । यदि वह देवगति या नरकगतिका हो, तो केवल मनुष्यायु काही बन्ध करता है, शेष तीनका नहीं । अतएव २८ भंगों में से ८ भंग कमा देने पर २० भंग चौथे गुणस्थानमें होते हैं । जो आठ भंग कम किये जाते हैं, वे इस प्रकार हैं - (१) तिर्यगायुका बन्ध, नरकायुका उदय और दोनोंका सत्त्व, (२) नरकायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय, दोनोंका सत्त्व, (३) तिर्यगायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय, दोनों का सत्त्व, (४) मनुष्यायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय, दोनोंका सत्त्व, (५) नरकायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय, दोनोंका सत्त्व, (६) तिर्य I १५ श्री० १ २ २ ० ० ४३३ स० अ० 9 9 ० ० ० ० ० ० Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ पञ्चसंग्रह गायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय, दोनोंका सत्त्व; (७) मनुष्यायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय, दोनोंका सत्त्व; ८ तिर्यगायुका बन्ध, देवायुका उदय, दोनोंका सत्त्व । ये आठ भंग छोड़ करके शेष २० भंग असंयतसम्यग्दृष्टिके होते हैं । अब संयतासंयतके छह भंगोंका स्पष्टीकरण करते हैं(१) तिर्यगायुका उदय, तिर्यगायुका सत्त्व; (२) देवायुका बन्ध, तिर्यगायुका उदय और देवायुतिर्यगायुका सत्त्व, (३) तिर्यगायुका उदय और देवायु-तिर्यगायुका सत्त्व, (४) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व (५) देवायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और देवायु-मनुष्यायुका सत्त्व, (६) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायु-देवायुका सत्व, ये छह भंग संयतासंयतके होते हैं। अब प्रमत्तसंयतके भंग कहते हैं-(१) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व, (२) देवायुका बन्ध, मनुष्यायुका उदय और दोनोंका सत्त्व, (३) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायु-देवायुका सत्त्व; इस प्रकार तीन भंग प्रमत्तगुणस्थानमें होते हैं । ये ही तीन भंग अप्रमत्तगुणस्थानमें भी होते हैं। अपूर्वकरणसे लेकर उपशान्तमोह तक चारों उपशामक और तीनों क्षपकोंमें (१) मनुप्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व; तथा उपशामकोंकी अपेक्षा (२) मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुदेवायुका सत्त्व, ये दो दो भंग चारों गुणस्थानोंमें पृथक् पृथक् होते हैं । उन सबका योग ८ होता है। क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन तीनों गुणस्थानोंमें मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्वरूप एक ही भंग होता है। इस प्रकार सर्व मिलकर (२८+२६-१६+ २०+६+३+३+२+२+२+२+१+१+१=११३ आयुकर्मके एक सौ तेरह भंग होते हैं। अब गुणस्थानों में गोत्रकर्मके भंगोका निरूपण करते हैं 'मिच्छाई देसंता पण चदु दो दोण्णि भंगा हु । अट्ठसु एगेगमदो गोदे पणुवीस दो चरिमे ॥२६६॥ *गुणठाणेसु गोयभंगा ५।४।२।२।२।१।३।१।१।१।१।१।१२। अथ गुणस्थानेषु गोत्रस्य त्रिसंयोगभङ्गान् तरसंख्याश्च गाथाचतुष्टयेन प्ररूपयति-[मिच्छाई देसंता' इत्यादि ।] मिथ्यादृष्टयादि-देशसंयतान्तं क्रमेण पञ्च ५ चतु ४ द्वौं २ द्वौ २ द्वौ २। ततोऽष्टसु गुणेषु एकैको भङ्गः ॥१७11॥१॥ अयोगे द्वौ भनौ २ इति गोत्रस्य पञ्चविंशतिर्भङ्गाः स्युः २५ ॥२६॥ गुण० मि. सा. मि० भ० दे० प्र० भ० भ० भ० सू० उ० . क्षी० स० भ० भङ्गाः ५ ४ २ २ २ १ १ . . . . . . . मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर देशसंयतगुणस्थान तक क्रमसे पाँच, चार, दो, दो और दो भंग होते हैं । तदनन्तर आठ गुणस्थानोंमें एक एक अंग होता है। चरम अर्थात् अयोगिकेवलीके दो भंग होते हैं । इस प्रकार गोत्रकर्मके सर्व अंग पञ्चीस होते हैं ॥२६६॥ गुणस्थानोंमें गोत्रकर्मके भंग इस प्रकार होते हैं मि० सा० मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० क्षी० सयो० अयो० 1. सं० पञ्चसं० ५, ३२३ । 2. ५, 'गुणेषु गोत्रभङ्गा' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २००)। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ सप्ततिका अब उपर्युक्त भंगोंका स्पष्टीकरण करते हैं 'उच्चुच्चमुच्चणीचं णीचं उच्चं च णीचणीचं च । बंधं उदयम्मि चउसु वि संत दुयं सव्वणीचं च ॥२६७॥ १० १० १० १० १० बन्धोदययोः उच्चीच्चे उच्चनीचे नीचोच्च नीचनीचे एतेषु चतुषु सत्त्वद्वयम् । पञ्चमे सर्वनीचं च । मिथ्याष्टौ एते पञ्च भङ्गाः । सासादने आदिमाश्चत्वारः त्रिषु द्वौ भङ्गो । ततः परं पञ्चसु एको भङ्गाः । तथाहि-मिथ्यादृष्टौ एते गोत्रस्य पञ्चभङ्गाः के।? उच्चैर्गोत्रस्य बन्धः १ उच्चर्गोत्रस्योदयः १ उच्चनीचगोत्रयोः सरवम् । उच्चबन्धः १ नीचोदयः । तदुभयसत्वम् । नीचबम्धोचोदयोभयसत्वम् ।नीचबन्धनीचोद ११ १० ११० योभयसत्त्वम् ० । एतेषु चतुषु भङ्गेषु सत्त्वद्वयमुञ्चनीचसत्त्वद्विकमित्यर्थः । सर्वनीचं नीचबन्धोदये सत्त्वं च १०२ ० एते गोत्रस्य पञ्च भङ्गाः मिथ्यारष्टौ ५ भवन्ति । बं० ० १ १ ० . . ० ० १० १० १० १० १० सासादने आद्याश्चत्वारो भङ्गाः, तस्य सासादनस्य तेजोद्वयेऽनुत्पत्तेरुच्चानुद्वेल्लनात् सासादनस्य भङ्गाः ४ ॥२२॥ बं० . . स० १० १० १० १० उच्चगोत्रका बन्ध, उच्चगोत्रका उदय, दोनों गोत्रकर्मोंका सत्त्व, उच्चगोत्रका बन्ध, नीचगोत्र का उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व; नीचगोत्रका बन्ध, उच्चगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व; नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व; तथा नीच गोत्रका वन्ध, नीच गोत्रका उदय और नीच गोत्रका सत्त्व, ये पाँच भंग गोत्र कर्मके होते हैं ॥२६॥ इन पाँचों भंगोंकी अंकसंदृष्टि मूल और टीकामें दी है। 'मिच्छम्मि पंच भंगा सासणसम्मम्मि आदिमचउक्कं । आदिदुगंतेसुवरिं पंचसु एगो तहा पढमो ॥२६॥ मिच्छाइ सु एदे भंगा--५।४।२।२।२।१।१। । मिश्राविरतदेशविरतगुणस्थानेषु त्रिषु प्रत्येकं आद्यौ द्वौ भङ्गौ-उच्चबन्धोदयोभयसत्त्वं १ उच्चबन्ध १/० २.५, ३२५। 3 ५, 'मिथ्यादृष्ट्यादिषु' इत्यादिगद्यभागः । 1. सं० पञ्चसं० ५, ३२४ । (पृ० २०१)। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह नीचोदयोभयसत्वं . चेति द्वौ द्वौ भनी २ भवतः । तत उपरि पञ्चसु गुणस्थानेप्नु प्रमत्तादि-सूचमसाम्प १० रायान्तं उच्च बन्धोदयोभयसत्त्वमित्येकः प्रथमो भगः १ ॥२८॥ गोत्रकर्मके उक्त पाँचों भंग मिथ्यात्व गुणस्थानमें पाये जाते हैं। सासादनगुणस्थानमें आदिके चार भंग होते हैं । तीसरे, चौथे और पाँचवें गुणस्थानमें आदिके दो दो भङ्ग होते हैं । इससे उपरितन पाँच गुणस्थानोंमें पहला एक ही भङ्ग होता है ॥२६८॥ मिथ्यात्व आदि दश गुणस्थानोंमें भङ्ग इस प्रकार हैं-४१२।२।२।१।१।१।१।१। बंधेण विणा पढमा उवसंताइ-अजोइदुच्चरिमं । चरिमम्मि अजोयस्स दु उच्चं उदएण संतेण ॥२६६।। *उवसंताइसु चउसु पत्तेयं । अजोइस्स चरमसमए एगो ।। एव गोदे सव्वभंगा २५ । उपशान्ताद्ययोगिद्विचरमसमयपर्यन्तं बन्धं विना प्रथमो भग: उ० । अयोगस्य चरमसमये स० ११० उदये उच्चगोत्रं सत्त्वे उच्चगोत्रं च उच्चोदयसत्वमित्यर्थः । । इत्थं गोत्रे विसरशभङ्गाः सर्वे पञ्च विंशतिः २५ ॥२६॥ इति गुणस्थानेषु गोम्रस्य त्रिसंयोगभङ्गाः समाप्ताः । उपशान्तमोह गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवलीके द्विचरम समय तक बन्धके विना प्रथम भङ्ग होता है । अयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें उच्चगोत्रका उदय और उच्चगोत्रका सत्त्वरूप एक भङ्ग होता है ॥२६॥ उपशान्तमोह आदि चार गुणस्थानों में १ अयोगिकेवलोके चरमसमयमें १ । इस प्रकारसे गोत्रकमके भङ्ग जानना चाहिए। अब मूल सप्ततिकाकार गुणस्थानों में मोहकर्मके बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०३७] गुणठाणएसु अट्ठसु एगेगं बंधपयडिठाणाणि । __पंचणियट्टिट्ठाणे बंधोबरमो परं तत्तो ॥३००॥ अथ गुणस्थानेषु मोहनीयस्य बन्धस्थानानि तदङ्गाश्च प्ररूपयति-['गुणठाणएसु अट्टसु' इत्यादि। अष्टसु मिथ्यारष्टचादिगुणस्थानेषु प्रत्येक एकैकानि मोहप्रकृतिवन्धस्थानानि भवन्ति । तथा मिथ्यादृष्टौ द्वाविंशतिकं मोहप्रकृतिबन्धस्थानकं २२ । सासादने एकविंशतिकं २१ । भिश्राऽविरतयोः सप्तदशकं सप्तदशकं १७११७ । देशविरते मोहप्रकृतिबन्धस्थानं त्रयोदशकं १३ । प्रमत्तापूर्वकरणेषु प्रत्येकं मोहबन्धप्रकृतिस्थानं नवकं । अनिवृत्तिकरणे पञ्च बन्धस्थानानि-पञ्चकं ५ चतुष्कं ४ त्रिकं ३ द्विकं २ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३२६ । 2. ५, 'शान्तक्षीणसयोगेषु' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २०१)। 3. ५, ३२७-३२८। १. सप्ततिका० ४२। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका एककं १ इति पञ्च स्थानानि । ततः परं बन्धोपरमः बन्ध-रहितः सूक्ष्मसाम्परायादिषु मोहप्रकृतिबन्धो नास्तीत्यर्थः ॥३०॥ आदिके आठ गुणस्थानोंमें मोहकर्मका एक एक बन्धस्थान होता है। अनिवृत्तिकरणमें पाँच बन्धस्थान होते हैं। उससे परवर्ती गुणस्थानों में मोहकमेका बन्ध नहीं होता है ॥३००॥ अब इसी अर्थका भाष्यगाथाकार स्पष्टीकरण करते हैं मिच्छाइ-अपुव्वंताणेगेगं चेव मोहबंधाणि । पंचणियट्टिाणे पंचेव य होंति भंगा हु ॥३०॥ मिच्छादिसु बंधट्टाणाणि २२।२१।१७।१७।१३।६।६।६। अणियट्टिम्मि ५।४।३।२।। मिथ्यादृष्टयाथपूर्व करणान्तं मोहप्रकृतिबन्धस्थानकमेकैकं भवति । भनिवृत्तिकरणे पञ्च बन्धस्थानानि भवन्ति, तदेव पञ्च भङ्गाः ॥३०१॥ मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनिवृत्तिकरण सू० उ० पी० स० अयो. मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण तकके आठ गुणस्थानों में मोहनीयकर्मका एक एक बन्धस्थान होता है । अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थानमें पाँच बन्धस्थान होते हैं और वहाँ पर बन्धस्थान-सम्बन्धी पाँच ही भङ्ग होते हैं ॥३०१॥ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें बन्धस्थान क्रमशः २२, २१, १७, १७, १३, ६, ६ और ६ प्रकृतिक होते हैं । अनिवृत्तिकरणमें ५,४, ३, २ और १ प्रकृतिक बन्धस्थान होते हैं । अब उक्त बन्धस्थानोंके भंगोंका निरूपण करते हैं 'छब्बावीसे चउ इगिवीसे सत्तरस तेर दो दो दु । णव-बंधए वि दोण्णि य एगेगमदो परं भंगा ॥३०२॥ ६।१।२।२।२। सेसेसु १।१1१1१।१॥ तद्भङ्गानां संख्यामाह-[ 'छब्बावीसे चउ इगिवीसे' इत्यादि ] मिथ्यादृष्टयाध निवृत्तिकरणान्तेषु मोहप्रकृतिबन्धस्थानके द्वाविंशतिके षड् भङ्गाः २२ । एकविंशतिके चत्वारो विकल्पाः ।। सप्तदशके द्विके द्वौ द्वौ भङ्गौ १७ । १७ । त्रयोदशके द्वौ भङ्गी १३ । नवकवन्धस्थानके द्वौ भङ्गौ । अतः परमेकैको भङ्गः ॥३०२॥ मि० सा० मि० भ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनिवृत्तिकरणे २२ २१ ७ १७ १३ १ १ ५ ४ ३ २१ एवं २५। बाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें छह भङ्ग होते हैं । इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें चार भङ्ग होते हैं । सत्तरह और तेरहप्रकृतिक बन्धस्थानों में दो दो भङ्ग होते हैं । नौप्रकृतिक बन्धस्थानमें भी दो ही भङ्ग होते हैं। इससे आगेके बन्धस्थानोंमें एक एक ही भङ्ग होता है ॥३०२।। बन्धस्थानों में भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैबन्धस्थान २२ २१ १७ १३ ४ ५ ४ ३ २ १ भङ्ग ६ ४ २ २ २ १ १ १ १ १ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३२६ । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अब मोहकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं ४३८ 'एक्कं च दो व चत्तारि तदो एयाहिया दसुक्कस्सं । ओघेण मोहणिज्जे उदयद्वाणाणि णव होंति ॥ ३०३ ॥ मोहोदया १०|६|| ७|६|५|४|३|२|१| एकप्रकृतिकं १ द्विप्रकृतिकं २ चतुःप्रकृतिकं ४ तत एकैकाधिकं पञ्च प्रकृतिकं ५ षट् प्रकृतिकं ६ सप्तप्रकृतिकं ७ अष्टप्रकृतिकं ८ नवप्रकृतिकं ६ दशप्रकृतिकं १० उत्कृष्टस्थानम् । मोहनीयस्य प्रकृत्युदयस्थानानि नव ओघेन गुणस्थानेषु सामान्येन वा भवन्ति ||३०३|| मोहस्योदयाः १०१६८६ | ७|६|५|४|२|६ । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके उदयस्थान नौ होते हैं - ( कथन की सुलभता से उन्हें यहाँ विपरीत क्रमसे कहते हैं -) वे एकप्रकृतिक, दोप्रकृतिक, चारप्रकृतिक और उससे आगे एक एक अधिक करते हुए उत्कर्ष दश प्रकृतिक तक जानना चाहिए ॥ ३०३ ॥ मोहकर्मके उदयस्थान–१०, ६, ८, ७, ६, ५, ४, २ और १ प्रकृतिक नौ होते हैं । अब मोहकर्मके दशप्रकृतिक उदयस्थानका निरूपण करते हैं- 'मिच्छा मोहचउक्कं अण्णयरं वा तिवेदमेकयरं । हस्सा दिजुगस्सेयं भयणिंदा होंति दस उदया ॥ ३०४|| ॥१०॥ मिथ्यात्वमेकं १ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनानां मध्ये एकतरं स्वजातिक्रोधादिकषायचतुष्कं ४ त्रयाणां वेदानां मध्ये एकतरो वेदोदयः १ हास्यरतिद्विकारतिशोकद्विकयोर्मध्ये एकतरद्विकं २ भयं निन्दा १ एवं दश मोहनीयप्रकृतयः १० एकस्मिन् जीवे मिथ्यादृष्टौ उदयगता भवन्ति १० ॥ ३०४ || २ मोह कर्म के दशप्रकृतिक उदयस्थान में एक मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी आदि चारों जातिकी कषायोंमेंसे क्रोधादि कोई चार कषाय, तीनों वेदोंमें से कोई एक वेद, हास्यादि दो युगलों में से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, ये दश प्रकृतियाँ होती हैं ॥ ३०४॥ यह दशप्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यात्वगुणस्थान में होता है । २ । २ १।१।१ ४ । ४ । ४ । ४ १ अब मिथ्यात्वगुणस्थानमें नौप्रकृतिक उदयस्थानकी भी सम्भवता बतलाते हैं'आवलियमित्तकालं मिच्छतं दंसणाहिसंपत्तो । मोहम्म य अणहीणो पढमे पुण णवोदओ होज्ज ॥ ३०५ ॥ 4 मिच्छम्मि उदया १०६॥ 1. सं० पञ्चसं०५, ३३० । १.५, ३३१ । ३. ५, ३३२ । 4, ५, 'इति मिथ्यादृष्टौ इत्यादिगद्यांशः । ( पृ० २०२) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अनन्तानुबन्धिविसंयोजितवेदकसम्यग्दृष्टौ मिथ्यात्व कर्मोदयात् मिथ्यारष्टिगुणस्थानं प्राप्त आवलिमात्रकालं अनन्तानुबन्ध्युदयो नास्ति, अतो मोहप्रकृतीनां दशकानामुदयः १० अनन्तानुबन्धिरहितो नवप्रकृतीनामुदयो ६ मिथ्यादृष्टौ प्रथमे गुणस्थाने भवेत् ॥३०५।। मिथ्यादृष्टौ उदयौ द्वौ १०।। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुआ जीव यदि मिथ्यात्व कर्मके उदयसे मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो जावे, तो एक आवलीप्रमाण काल तक उसके अनन्तानुबन्धी कषायका उदय सम्भव नहीं है, अतएव मिथ्यात्वगुणस्थानमें नौप्रकृतिक उदयस्थान भी होता है ॥३०॥ इस प्रकार मिथ्यात्वगुणस्थानमें दश और नौप्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। अब सासादनादि गुणस्थानों में मोहकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं 'मिच्छत्तऽण कोहाई विदि-तदिएहिं ते दु दसरहिया । सासणसम्माई खलु एगे दुग एग तीसु णायव्वा ।।३०६॥ सासणादिसु ८1८७।६।६।६। ते मोहप्रकृत्युदयाः दश १० मिथ्यात्वप्रकृतिरहिता एकस्मिन् सासादने नवोदयाः । एते 'दुग' इति द्वयोर्मिश्राविरतयोः अजन्तानुबन्धिरहिताः अष्टौ । एते 'एग' इति एकस्मिन् देशविरते पञ्चमे अप्रत्याख्यानरहिताः सप्तोदयाः ७ ! एते त्रिषु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणेषु तृतीयप्रत्याख्यानकपायरहिताः पडदयाः ६ ज्ञातव्या भवन्ति ॥३०६॥ सासादनादिषु ८८७।६।६।६। ऊपर जो दशप्रकृतिक उदयस्थान बतलाया गया है, उसमेंसे मिथ्यात्वके विना शेष नौ प्रकृतियोंका उदय सासादनगुणस्थानमें होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायके विना शेष आठ प्रकृतियोंका उदय मिश्र और अविरतगुणस्थानमें होता है। दूसरी अप्रत्याख्यानकषायके विना शेष सात प्रकृतियोंका उदय देशविरतगुणस्थानमें होता है। तीसरी प्रत्याख्यानकषायके विना शेष छह प्रकृतियोंका उदय तीन गुणस्थानोंमें अर्थात् प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें जानना चाहिए ॥३०६॥ सासादनादि गुणस्थानोंमें क्रमशः ६, ८, ८, ७, ६, ६, ६ प्रकृतियोंका उदय होता है। इदि मोहुदया मिस्से सम्मामिच्छेण संजुया होति । अवरे सम्मत्तजुया वेदयसम्मत्तसहिया जे ॥३०७॥ __ एवं मिस्से सम्मामिच्छत्तसहिया है। असंजदादिसु वउसु जत्थ उवसम-खाइयसम्मत्ताणि ण होंति तत्थ सम्मत्तोदये वेदयसम्मत्तेण सह अण्णो वि विदिओ उदओ। तेण अविरयादिसु चउसु दो दो उदया। एदे ७६७।६। अपुग्वे पुण सम्मत्तोदो त्थि, तेण तत्थ वेदगाभावादो एगो चेव ६ । हत्यमुना प्रकारेण मोहप्रकृत्युदया अष्टौ सम्यग्मिध्यात्वेन संयुक्ता मिश्रगुणस्थाने नव मोहोदया भवन्ति । अपरे ये मोहोदया वेदकसम्यक्त्वसहितास्ते सम्यक्त्वप्रकृतिसंयुक्ताः। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिर्मिश्रे उदेति, सम्यक्त्वप्रकृतिर्वेदकसम्यग्दृष्टावेवासंयतादिचतुषु उदयं याति । नतूपशमक-क्षायिकस्योदयः ॥३०७॥ 1. सं० पञ्चसं०५,३३३ । १.५, 'सासनादिषु' 'इत्यादिगाभागः । (पृ० २०२)। 3.५, ३३४ । 4.५, 'सम्यमिथ्यात्व' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २२०)। 5.५, ३३५-३३६ । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० पञ्चसंग्रह एवं मिश्रगुणस्थाने सम्यग्मिथ्यात्वसहिता नवोदया: ।। असंयतादिषु चतुषु यत्रोपशम-ज्ञायिकसम्यक्त्वे तु न भवतस्तत्र सम्यक्त्वप्रकृत्युदयो वेदकसम्यक्त्वेन सहान्यो द्वितीयोदयः, तेन कारणेन असंयतादिषु चतुषु द्वौ द्वौ उदयौ एतौ। असंयते हा देशेदा। प्रमत्ते ७।६ अप्रमत्ते ७१६ । पुनरपूर्वकरणे सम्यक्त्वप्रकृत्युदयो नास्ति । ततस्तत्र वेदकसम्यक्त्वाभावादेको मोहोदयः ६ । इस प्रकार सासादनादि गुणस्थानोंमें जो मोहप्रकृतियोंका उदय बतलाया गया है, उनमेंसे मिश्रगुणस्थानमें उदय होनेवाली आठप्रकृतियों में सम्यग्मिथ्यात्वके संयुक्त कर देनेपर नौ-प्रकृतियोंका उदय होता है । वेदकसम्यक्त्वसे सहित जो चतुर्थादि चारगुणस्थान हैं, उनमें सम्यक्त्वप्रकृतिका भी उदय होता है । अतएव उनमें एक-एक उदयस्थान और भी जानना चाहिए ॥३०७।। अब आगे इसी कथनका स्पष्टीकरण करते हैं इस प्रकार मिश्रगुणस्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वसहित नौप्रकृतियोंका उदय होता है। असंयतादि चारगुणस्थानोंमें जहाँ उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता है, वहाँपर सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयमें वेदकसम्यक्त्वके साथ पूर्वमें बतलाया गया अन्य भी दूसरा उदयस्थान होता है। अतएव अधिरतादि चारगुणस्थानोंमें दो-दो उदयस्थान होते हैं। अर्थात् अविरतमें नौ और आठप्रकृतिक दो उदयस्थान, देशविरतमें आठ और सातप्रकृतिक दो उदयस्थान; प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें सात और छहप्रकृतिक दो-दो उदय स्थान होते हैं। किन्तु अपूर्वकरणगुणस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय नहीं होता है, इसलिए वहाँपर वेदकसम्यक्त्वका अभाव होनेसे छहप्रकृतिक एक ही उदय स्थान होता है। 'ते सव्वे भयरहिया दुगुंछहीणा दु उभयहीणा दु। अण्णे वि य एदेसिं एकेकस्सोवरि तिण्णि ॥३०८।। मिच्छे । ८८ सासणे ८८ मिस्से ८८ असंजए ८1८ ७७ देसे ७७ ६।६ पमत्ते ६६ ५।५ अपमत्ते ६।६ ५।५ अपुग्वे वेदयो गस्थि तेण एगो ५।५ अणियटिए २।३ । सुहुमे ।। ते सर्वे दश-नवादयः उदयाः १० भयरहिताः नव दुगुंछार हिता वा नव है । तु पुनः उभयहीना भय-जुगुप्साद्वयरहिता अष्टौ ८ । ततोऽन्येऽप्युदयास्तेषामेकैकस्योपरि त्रयः उदयाः ॥३०८॥ तत्र मिथ्यादृष्टौ ह।। ८८ सासादने ८८ मिटे । असंयते ८८ । ७७ । देशे ७१७ । ६।६ । प्रमत्ते ६।६। ५।५। अप्रमत्ते ६।६। ५।५ । अपूर्वकरणे वेदकसम्यक्त्वस्योदयो नास्ति, तत एकं यन्त्रम् ५५ । अनिवृत्तिकरणे २११ । सूचमसाम्पराये संज्वलनलोभोदयः १ । । ऊपर जो दश, नौ आदिक जितने भी सर्व उदयस्थान बतलाये हैं, वे भय-रहित भी होते हैं, जुगुप्सा-रहित भी होते हैं और दोनोंसे रहित भी होते हैं। इसलिए ऊपर कहे गये एक-एक स्थानके ऊपर ये तीन-तीन उदयस्थान और भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३०८।। 1. सं० पञ्चसं०.५, ३३७ । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका विशेषार्थ-मिथ्यात्वगुणस्थानमें मोहकर्मकी उदय होनेके योग्य सभी प्रकृतियोंके उदय होनेपर दशप्रकृतिक उदयस्थान होता है। भय या जुगुप्साके विना नौप्रकृतिक उदयस्थान भी होता है और दोनोंके विना आठप्रकृतिक उदयस्थान भी होता है। तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके नीचे गिरे हुए जीवके मिथ्यात्वमें आनेपर एक आवली कालतक मिथ्यात्वका उदय सम्भव नहीं है, अतएव उसके नौ, आठ और सातप्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं। इसी प्रकार सासादनमें नौ, आठ-आठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । मिश्रमें नौ, आठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। असंयत गणस्थानमें वेदकसम्यग्दृष्टिके नौ, आठआठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। तथा शेष सम्यग्दृष्टियोंके आठ, सात-सात और छहप्रकृतिक उदयस्थान होने हैं । देशविरतमें वेदकसम्यग्दृष्टिके आठ, सात-सात और छहप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं; तथा शेष सम्यग्दृष्टियोंके सात, छह-छह और पाँचप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतमें वेदकसम्यग्दृष्टिके सात, छह-छह और पाँचप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं; तथा शेष सम्यग्दृष्टियोंके छह, पाँच-पाँच और चारप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । अपूर्वकरणमें वेदकप्रकृतिका उदय नहीं होता है, इसलिए वहॉपर छह, पाँच-पाँच और चारप्रकृतिक एक विकल्परूप ही उदयस्थान होते हैं। इसी प्रकार अनिवृत्तिकरणमें दो और एकप्रकृतिक दो और सूक्ष्मसाम्परायमें एकप्रकृतिक एक उदयस्थान होते हैं। इन सब उदयस्थानोंकी संदृष्टियाँ मूलमें दी हुई हैं। अब मूलसप्ततिकाकार इसी अर्थका निरूपण करते हैं[मूलगा०३८] 'सत्तादि दस दु मिच्छे सासादण मिस्से सत्तादि णवुक्कस्सं । छादी अविरदसम्मे देसे पंचादि अट्ठव ॥३०६॥ [मूलगा०३६] विरए खओवसमिए चउरादि सत्त उक्कस्सं छ णियट्टिम्हि । अणियट्टिबायरे पुण एक्को वा दो व उदयंसा ॥३१०॥ [मूलगा०४०] एगं सुहुमसरागो वेदेदि अवेदया भवे सेसा । भंगाणं च पमाणं पुव्वुद्दिद्रुण णायव्यं ॥३११॥ मिथ्यादृष्टयादि-सूचमसाम्परायान्तं मोहोदयप्रकृतिस्थानसंख्या कथ्यते-मिथ्यादृष्टौ सप्तादि-दशोत्कृष्टान्ताः १०1।८।७। उदयप्रकृतिस्थानविकल्पा अष्टौ ८ । सासादने मिश्रे च सप्तादि-नवोत्कृष्टान्ता मोहप्रकृत्युदयस्थानविकल्पाः ९।८।७।। अविरतसम्यग्दृष्टौ पडादि-नवोत्कृष्टान्ताः ।।७।६ । देशसंयते पञ्चाद्यष्टान्ता ८1७।६।५। विरते प्रमत्त अप्रमत्त च क्षयोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे सति चतुरादिसप्तोत्कृष्टान्ता मोहप्रकृतिस्थानविकल्पाः ७।६।५।४ । अपूर्वकरणे चतुरादि-षट् पर्यन्ताः ६।५।४। अनिवृत्तिकरणे द्वयोः प्रकृत्योरुदयः २ स्थूललोभप्रकृतेरुदये वा १ । एकं सूचमलोभं सूचभसाम्परायो मुनिर्वेदयति उदयमनुभवति । अनिवृत्तिकरणस्य सवेदस्य प्रथमे भागे त्रिवेद-चतुःसंज्वलनानामेकैकोदयसम्भवं द्विप्रकृत्युदयसम्भवं द्विप्रकृत्युदयस्थानं २ स्यात् । परेषु चतुषु भागेषु यथासम्भवमवेदकपायाणामेकतमः १ । इत्यनिवृत्तौ २ सूचमे १। शेषाः अपूर्वकरणस्य द्वितीयभागादिसूचमसाम्परायान्ता: अवेदका वेदोदयरहिता भवन्ति । भङ्गानां विकल्पानां प्रमाणं पूर्वोद्दिष्टेन पूर्वकथितेन ज्ञातव्यम् ॥३०९-३११॥ ___1. सं० पञ्चसं० ३३८-३४१ । १. सप्ततिका० ४३ । २. सप्ततिका० ४४ । ३. सप्ततिका० ४५ । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ पञ्चसंग्रह मिथ्यात्वगुणस्थानमें सातको आदि लेकर दश तकके चार उदयस्थान होते हैं। सासादन और मिश्रमें सातसे लेकर नौ तकके तीन उदयस्थान होते हैं। अविरतसम्यक्त्वमें छहसे लेकर नौ तकके चार उदयस्थान होते हैं। देशविरतमें पाँचसे लेकर आठ तकके चार उदयस्थान होते हैं। क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी प्रमत्त और अप्रमत्तविरतके चारसे लेकर सात तकके चार उदयस्थान होते हैं । अपूर्वकरणमें चारसे लेकर छह तकके तीन उदयस्थान होते हैं। अनिवृत्तिबादरसाम्परायमें दो और एकप्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय एकप्रकृतिक स्थानका ही वेदन करता है । शेष उपरिम गुणस्थानवर्ती जीव मोहकर्मके अवेदक होते हैं। इन उदयस्थानोंके भङ्गोंका प्रमाण पूर्वोद्दिष्ट क्रमसे जानना चाहिए ॥३०६-३११॥ ___ अब मूलसप्ततिकाकार मिथ्यात्व आदिगुणस्थानों की अपेक्षा दशसे लेकर एकप्रकृतिक उदयस्थानोंके भङ्गोका निरूपण करते हैं[मूलगा०४१] एक य छक्केगारं एगारेगारसेव णव तिण्णि । एदे चउवीसगदा वारस दुग पंच एगम्मि ॥३१२॥ ५२ । गु २४॥३५२ । गु २४ सर्वगुणस्थानेषु मिलित्वा दशकं स्थानमेकं नवकानि स्थानानि षट ६ अष्टकानि स्थानानि एकादश ११ सप्तकानि प्रकृतिस्थानान्येकादश ११ षटकानि स्थानान्येकादश ११ पञ्चकानिस्थानानि नव है चतुष्कानि स्थानानि वीणि ३ एतानि समुच्चयीकृतानि मोहप्रकृतिस्थानानि द्वापञ्चाशत् ५२ । क्रोधादयश्चत्वारः ४ वेदास्त्रयः ३ हास्यादियुगलं २ परस्परेण गुणिताश्चतुर्विशतिः २४ । तैर्गुणिता द्वापञ्चाशत् ५२ । अष्टचत्वारिंशदधिकद्वादशशतसंख्योपेतः १२४८ मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणान्तेषु प्रकृत्युदयस्थानविकल्पा भवन्ति । सवेदे अनिवृत्तौ भङ्गाः १२ अवेदे ४ सूचमे १ सर्वे मीलिताः १२६५। एते मोहप्रकृत्युदयस्थानविकल्पाः स्युः भवन्ति । मोहप्रकृत्युदयस्थानानि १।६।११११।११।३। स्वस्वप्रकृतिसंख्याभिर्गुणितानि १०५४१८८७७।६६।४५।१२। एते मीलिताः ३५२ । एते चतुर्विशत्या २४ गुणिताः ८४४८ । तथा द्वादश द्विगुणिताः २४ । एकसंख्याकाः ५ मीलिताः ८४७७ एते पदबन्धा उदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ॥३१२॥ दशप्रकृतिक उदयस्थान एक है, नौप्रकृतिक उदयस्थान छह है, आठ, सात और छहप्रकृतिक उदयस्थान ग्यारह-ग्यारह हैं, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान नौ हैं, चारप्रकृतिक उदयस्थान तीन हैं। इन सबको चौबीससे गुणा करनेपर उन-उन उदयस्थानोंके भङ्गोंका प्रमाण आ जाता है। दोप्रकृतिक उदयस्थानके बारह भङ्ग हैं और एकप्रकृतिक उदयस्थानमें पाँच भङ्ग होते है ॥३१२॥ विशेषार्थ-दशसे लेकर चार तकके उदयस्थानोंके विकल्प क्रमशः इस प्रकार हैं१, ६, ११, ११, ११, ६, ३। इन्हें जोड़ देनेपर ५२ विकल्प होते हैं। इन्हें अपनी-अपनी प्रकृतियों की संख्यासे गुणा करनेपर ३५२ उदयस्थान-विकल्प हो जाते हैं। इन एक-एक उदयस्थानोंमें चार कपाय, तीन वेद और हास्यादियुगलके परस्परमें गुणा करनेपर चौबीस भङ्ग होते हैं। उदयस्थान विकल्पोंको चौबीससे गुणा करनेपर सर्व भङ्गोंका प्रमाण आ जाता है। कहनेका भाव यह है कि उक्त ५२ विकल्पोंको २४ से गुणा करनेपर १२४८ प्रमाण आता है। उसमें द्विकप्रकृतिक उदयस्थानके १२ एबं एकप्रकृतिक स्थानके ५ और जोड़नेपर १२६५ उदयस्थानसम्बन्धी विकल्प होते हैं। तथा ३५२ उदयस्थानोंको २४ से गुणित करनेपर ८४४८ होते हैं। १. सप्ततिका० ४६ । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४४३ इनमें दोप्रकृतिक उदयस्थानके २x१२ = २४ और एकप्रकृतिक उदयस्थानके ५ इस प्रकार २६ और मिला देनेपर पदवृन्दोंकी सर्व संख्या ८४७७ हो जाती है। अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका स्वयं स्पष्टीकरण करते हैं— बारसपणसट्टाई+ उदयवियप्पेहिं मोहिया जीवा । चुलसीदिं सतत्तरि पयबंदसदेहिं विष्णेया ॥ ३१३॥ १२६५/८४७९। द्वादशशतपञ्चषष्टिसंख्योपेतैरुदय विकल्पैर्मोह प्रकृत्युदयस्थानभङ्ग : १२६५ सप्तसप्तत्यधिकचतुरशीतिशतसंख्योपेतैश्च पदबन्धैः मोहप्रकृत्युदयविकल्पैः ८४७७ त्रिकालत्रिलोकोदरवत्तिंचराचरजीवा मोहिता विकलीकृता ज्ञेया ज्ञातव्या भवन्ति ॥ ३१३ ॥ ये सर्व संसारी जीव बारह सौ पैंसठ (१२६५) उदयविकल्पोंसे और चौरासी सौ सत्तहत्तर (८४७७) पदवृन्दोंसे मोहित हो रहे हैं, ऐसा जानना चाहिए ||३१३ || उदयविकल्प १२६५ । पदवृन्द ८४७७ । अब इनकी संख्या के लिए भाष्यगाथाकार उत्तर गाथासूत्र कहते हैं'जुगवेदकसाएहिं दुग-तिग- चउहिं भवंति संगुणिया । चवीस वियप्पा ते दसादि उदया य सत्तेव ॥३१४॥ 2 एवं दसादि उदयठाणाणि सत्त १०१६८ ७ ६ |५| ४ | एयाणि कसायादीहिं चउवीसभेयाणि भवति । एदेसिं च संखत्थं भणइ हास्यादियुग्मेन २ वेदत्रिकेण ३ कषायचतुष्केण ४ परस्परेण संगुणिताश्चतुर्विंशतिर्विकल्पाः २४ भवन्ति । ते पूर्वोक्त दशादय उदयाः सप्तसंख्योपेताश्चतुर्विंशतिभेदान् प्राप्नुवन्ति ॥ ३६४ ॥ एवं दशादयो मोहप्रकृत्युदयस्थानानि सप्त १० | ६ || ७ | ६ |५|४ | एतानि सप्त स्थानानि कषायादिभिर्गुणितानि प्रत्येकं चतुर्विंशतिर्भेदा भवन्ति । तेषां च संख्यामाह मिथ्या सासा० मि० अवि० देश० प्रम० हाह १० ७ είς & २४ १६२ ७ τις ह ० ४ २४ ६६ ७ ८८ ह o ४ २४ ६ ६ ७ 515 င် ६ ७१७ - ८ २४ १६२ ६ ७/७ ८ ५ ६।६ ७ ८ २४ १६२ ५ ६।६ ७ ४ ५/५ ६ ८ २४ १६२ अप्र० अपू० अनि० २।१ ४ ५/५ ६ ५ ६।६ ७ ४ ५/५ ६ Σ २४ १६२ ० ४ २४ ६६ दश आदि सात उदयस्थान इस प्रकार हैं - १०, ६, ८, ७, ६, ५, ४ । ये उदयस्थान कषायादिके चौबीस चौबीस भेदरूप होते हैं । २।१ ६ ॥४ १२/४ 9 हास्यादियुग्मको वेदत्रिक और कषायचतुष्कसे गुणा करने पर चौबीस विकल्प हो जाते हैं । दश आदि सात उदयस्थान चौबीस चौबीस विकल्परूप होते हैं ||३१४॥ 1. सं० पञ्चसं ०५, ३४२ | 2.५ ' इति दशाद्युदयः' इत्यादिगद्यभागः ( पृ० २०३ ) | + पाई । सूक्ष्म० 9 9 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ पञ्चसंग्रह 'मिच्छे अड चउ चउ दुसु तदो चउसु हवंति अठेव । चत्तारि अपुव्वे वि य उदयट्ठाणाणि मोहम्मि ॥३१॥ ८४४८८८८। अपुवे । मिथ्यादृष्टयादि-सूचमान्तगुणस्थानेषु मोहनीयप्रकृत्युदयस्थानानां दशक-नवकादीनां संख्या कथ्यतेमिथ्यादृष्टौ अष्टौ ८ सासादन मिश्रयोद्वयोश्चतुश्चतुःसंख्या ४।४। ततश्चतुषु अविरत-देशविरत-प्रमत्ताप्रमत्तेषु प्रत्येकमष्टौ नाममा । अपूर्वकरणे चत्वारि ४ । अग्रे वच्यमाणानिवृत्तिकरणे द्वयं २ सूक्ष्मे एकं १ मोहे प्रकृत्युदयस्थानसंख्यानि भवन्ति ॥३१५॥ ८।४।४८८८८ । अपूर्वे ४ । एते प्रकृत्युदयाश्चतुर्विंशत्या २४ गुणिता उदयविकल्पा भवन्तीत्याह मिथ्यात्वगुणस्थानमें मोहके आठ उदयस्थान हैं। दूसरे और तीसरे इन दो गुणस्थानों में चार चार उदयस्थान हैं । चतुर्थ आदि चार गुणस्थानोंमें आठ आठ उदयस्थान हैं । अपूर्वकरणमें चार उदयस्थान हैं ॥३१॥ मिथ्यात्वादिगुणस्थानोंमें उदयस्थानोंकी संख्या क्रमशः इस प्रकार है-८, ४, ४, ८,८, ८, ८ । अपूर्वकरणमें ४ उदयस्थान होते हैं। 'चउवीसेण विगुणिया मिच्छाइउदयपयडीओ। उदयवियप्पा होति हु ते पयबंधा य णियमेण ॥३१६॥ सासण मिस्से पुव्वे उदयवियप्पा हवंति छण्णउदी। अण्णे पंचसु दुगुणा अणियट्टि सुहुमे सत्तरसं ॥३१७॥ 'एव मिच्छादिसु उदयवियप्पा १६२।६६।६६।५ ६२।१६२।१६२।१६२।६६। अणियट्टिए सवेदे १२ । अवेदे ४ । सुहुमे ।। मिथ्यादृष्ट्यादिषु मोहप्रकृत्युदयस्थानसंख्या मा४।४ामामामा संस्थाप्य चतुर्विशत्या २४ गुणिताः सन्तः उदयविकल्पाः स्थानविकल्पा हु स्फुटं ते पदबन्धाश्च प्रकृतिविकल्पा भवन्ति नियमेन । तानुदयविकल्पान् प्राह-सासादने मिश्रे अपूर्वकरणे च षण्णवतिरुदयविकल्पा भवन्ति १६ । अन्येषु पञ्चसु मिथ्यात्वाविरत-देश-प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानेषु पपणवतिर्द्विगुणिताः द्विनवत्यधिकशतप्रमिताः १९२ उदयविकल्पा भवन्ति । अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म साम्पराययोः सप्तदश १७ ॥३१६-३१७॥ एवं मिथ्यादृष्टयादि-क्षीणकषायान्तेषु मोहप्रक्रत्यदय विकलयात मि० सा० मि० अवि० दे० १६२ १६ १६ १६२ ११२ प्र० अप्र० अपू०.. ० अनिवृत्तिकरणस्य सवेदभागे १२ अवेदभागे ४ सूचमे १ । एवं सर्वे मीलिताः १२६५। ११२ ११२ ९६ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में जो मोहकर्मकी उदय-प्रकृतियाँ हैं, अर्थात् उदयस्थानोंकी संख्या है, उसे चौबीससे गुणा करने पर उदयस्थानके विकल्पोंका प्रमाण आ जाता है । वे उदयस्थानोंके विकल्प या पदवृन्द नियमसे सासादन, मिश्र और अपूर्वकरणमें छयानबै छयानबै 1, सं० पञ्चसं० ५, ३४३ । . ५, ३४४ । 3. ५, ३४५। 4. ५, 'इति मिथ्यादृष्ट्यादिषु' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०४) । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका होते हैं । तथा शेष पाँच गुणस्थानोंमें इनसे दुगुने अर्थात् एकसौ बानबे एक सौ बानबे होते हैं । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय में सत्तरह होते हैं ॥३१६-३१७॥ मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में उदयस्थानोंके भेद इस प्रकार हैं मि० सा० मि० असं० देश० प्रम० अ० अपूर्व अनि० सवेद० अवेद० सूक्ष्म० १२ ४ १ १६२ ६६ ६६ १६२ १६२ १६२ १६२ ६६ अब भाष्यगाथाकार इन सर्व संख्याओंका योगफल बतलाते हैंउदट्ठाणे संखा उदयवियप्पा हवंति ते चेव । तेरस चैव सयाणि द पंचत्तीसा य हीणाणि ॥ ३१८ ॥ दु १२६५ । मोहप्रकृत्युदयस्थानानां संख्यास्ते उदयविकल्पाः पञ्चत्रिंशद्धी नास्त्रयोदशशतप्रमिताः द्वादशशतपञ्चषष्टिर्भवन्तीत्यर्थः १२६५ ॥ ३१८ ॥ यह जो उदयस्थानोंकी संख्या है, उन सबका योग पैंतीस कम तेरह सौ अर्थात् बारह सौ पैंसठ होता है, सो ये सब उदयस्थानके विकल्प जानना चाहिए ||३१८|| मोहकर्मके उदयस्थान- विकल्प १२६५ होते हैं । ४४५ अब आचार्य गुणस्थानों में उदयस्थानोंकी प्रकृतियोंका तथा उनके पदवृन्दोका निरूपण करते हैं 'अडसडी बत्तीसं बत्तीसं सट्ठि होंति बावण्णा । चउदालं चउदाल बीसमपुव्वे य उदयपयडीओ ।। ३१६ || ताओ चउवसगुणा पयबंधा होंति मोहम्म | अणिपट्टीसुहुमाणं वारस पंचयदुगेगसंगुणिया ||२२०॥ अथ मोहोदयपदबन्धसंख्यां गुणस्थानेषु गाथानवकेनाऽऽह - [ 'भडसट्ठी बत्तीसं' इत्यादि । ] पूर्वोक्तदशकाद्युदयानां प्रकृतयो मिथ्यादृष्टौ अष्टषष्टिः ६८ । सासादने द्वात्रिंशत् ३२ | मिश्र द्वात्रिंशत् ३२ । असंयते षष्टिः ६० | देशसंयते द्वापञ्चाशत् ५२ । प्रमत्ते चतुश्चत्वारिंशत् ४४ । अप्रमत्ते चतुश्चत्वारिंशत् ४४ । अपूर्वकरणे विंशतिः २० चोदयप्रकृतयो भवन्ति । ता एताः दशादिकाः ६८।३२।३२।६०।५२६४४।४४ २० चतुर्विंशत्या २४ गुणिता मोहनीये पदबन्धा उदयविकल्पा भवन्ति । अनिवृत्तिकरणसवेदा २ वेद १ सूक्ष्माणां १ प्रकृत्युदया द्वादश पञ्च द्वय के गुणिताः क्रमेण उदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ॥ ३३६-३२०॥ मिथ्यात्वगुणस्थान में उदयस्थानोंकी प्रकृतियाँ अड़सठ हैं, सासादन में बत्तीस हैं, मिश्र में बत्तीस हैं, अविरतमें साठ हैं, देशविरत में बावन है, प्रमत्तविरतमें चवालोस है, अप्रमत्तविरत में चवालीस है, अपूर्वकरणमें बीस है, इन उदयप्रकृतियों को चौबीस से गुणा करने पर आठ गुणस्थानों में मोहकर्मके पदवृन्दों की संख्याका प्रमाण आ जाता है । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायकी उदयप्रकृतियाँ बारह और पाँच हैं, उनके पदवृन्द क्रमशः दो और एकसे गुणित जानना चाहिए ||३१६-३२०॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३४६ । २.५, ३४७-३४६ । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ पञ्चसंग्रह 'एवं मोहे पुन्वुत्तदसगादि-उदयपयडीओ मिच्छादिसु ६८॥३२॥३२॥६०॥५२॥४४॥४४ । अपुग्वे २० । अणियट्टिम्मि २११॥ सुहुमे । एयाओ चउवीसगुणा जाव अपुव । मिच्छे ८६४७६८। दो वि मिलिए ११३२ । सासणादिसु ७६८।७६८।१४४०११२४८।१०५६।१०५६।४८०। एदा हु मिलिया ८४४८ । वुत्तं च ___मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणान्तदशकाद्युदयप्रकृतयः ६८॥३२॥३२॥६०१५२१४४१४४।२० चतुर्विंशत्या २४ गुणिताः मिथ्यादृष्टौ ८६४ । द्वि० ७६८ । उभयोर्मीलिताः १६३२ सासादने ७६८ । मिश्रे ७३८ । असंयते १४४० । देशसंयते १२४८ । प्रमत्ते ०५६ । अप्रमत्ते १०५६ । अपूर्वकरणे ४८० । एतासु मीलिताः ८४४८। इस प्रकार मोहकर्मकी पूर्वोक्त दशप्रकृतिक उदयस्थानोंकी उदयप्रकृतियाँ मिथ्यात्व आदि सात गुणस्थानोंमें क्रमशः ६८, ३२, ३२, ६०, ५२, ४४, ४४ होती हैं । अपूर्वकरणमें २० होती हैं। अनिवृत्तिकरणके सवेदभागमें २ और अवेदभागमें १ होती है, तथा सूक्ष्मसाम्परायमें १ उदयप्रकृति होती है। अपूर्वकरणगुणस्थान तककी इन उदयप्रकृतियोंको चौबीससे गुणा करने पर पदवृन्द इस प्रकार होते हैं-मिथ्यात्वमें पहले ३६ के भेदको २४ से गुणा करनेपर ८६४ आये । दूसरे भेदके ३२ को २४ से गुणा करने पर ७६८ आये। दोनोंको मिलाने पर १६३२ पदवृन्द होते हैं । सासादनादिगुणस्थानों में क्रमसे ७६८, ७६८, १४४०, १२४८, १०५६, १०५६, ४८० पदवृन्द होते हैं । ये सर्व मिलकरके ८४४८ पदवृन्द हो जाते हैं। अब इसी कथनको भाष्यगाथाकार निरूपण करते हैं 'चउसट्ठी अट्ठसया अट्ठी होति सत्तसया । बत्तीसा सोलसया जुत्ता मिच्छम्मि उभओ वि ॥३२१॥ मिच्छे ।५६३२। एतदुक्तं च--['चउसट्टी अदृसया' इत्यादि।] चतुःषष्टयधिकाष्टशतानि ८६४ अष्टपष्टयधिकसप्तशतानि ७६८ उभयविमिश्रे द्वात्रिंशदधिकषोडशशतप्रमिता मोहोदयप्रकृतिविकल्पा मिथ्यादृष्टौ १६३२ भवन्ति ॥३२१॥ मिथ्यात्वमें आठ सौ चौंसट (६४) और सात सौ अड़सठ (७६८) ये दोनों मिलकरके सोलह सौ बत्तीस (१६३२) पदवृन्द होते हैं ॥३२१॥ मिथ्यात्वमें १६३२ पदवृन्द हैं। अट्ठट्ठी सत्तसया सासण-मिस्साण होंति पयबंधा । अविरयम्मि चोदह सयाणि चत्तालसहियाणि ॥३२२॥ ७६८७६८।१४४०॥ सासादन-मिश्रयोरष्ट षष्यधिकसप्तशतप्रमिताः ७६८ । ७६८। असंयते चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशत. प्रमिताः १४३० पदबन्धाः मोहोदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ॥३२२॥ सासादन और मिश्रमें पदवृन्द सात सौ अड़सठ, सात सौ अड़सठ होते हैं। अविरतसम्यक्त्वमें चौदह सौ चालीस पदवृन्द होते हैं ।।३२२॥ सासादनमें ७६८, मिश्रमें ७६८ अविरतमें १४४० पदवृन्द हैं। ___ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'पूर्वोदितदशका' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०४)। 2. ५, ३५० । 3. ५, ३५१ । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४४७ 'अडयाला वारसया देसे पुवम्मि चउसयाऽसीया । छप्पण्णं च सहस्सं पमत्तइयराण णायव्वं ॥३२३॥ १२४८।१०५६।१०५६।४८०। सव्वाओ ८४४८ देशसंयते अष्टचत्वारिंशदधिकद्वादशशतप्रमिता: १२४८ । अपूर्वकरणे अशीत्यधिकशतचतुष्टयं ४८.। प्रमत्ताप्रमत्तयोः षट्पञ्चाशदधिकसहन १०५६।१०५६ ज्ञेयम् । सर्वाः पदबन्धाख्याः प्रकृतयो मोहोदयप्रकृतिविकल्पाः ८४४८ भवन्ति ॥३२३॥ __ देशविरतमें बारह सौ अड़तालीस, तथा अपूर्वकरणमें चार सौ अस्सी पदवृन्द होते हैं । प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें एक हजार छप्पन एक हजार छप्पन पदवृन्द जानना चाहिए ॥३२३।। देशविरतमें १२४८, प्रमत्तमें १०५६, अप्रमत्तमें १०५६ और अपूर्वकरणमें ४८० पदवृन्द होते हैं । इन आठों गुणस्थानोंके पदवृन्दोंका प्रमाण ८४४८ होता है। "संजलणा वेदगुणा वारस भंगा दुगोदया होति । एगोदया दु चउरो सुहमे एगो मुणेयव्वो॥३२४॥ उदयादो सत्तरसं खलु पयडीओ हवंति उगुतीसं । अणियट्टी तह सुहुमे दुगेगपयडीहिं संगुणिया ॥३२॥ एव अणियट्टिस्मि दुगोदया १२ । एगोदया ४ । सुहुमे १ । एवं उदयठाणाणि १७ । तहा बारससु दुगोदएसु पयडीओ २४! एगोदयपयडीश्रो ४ । सुहुमे एया पयडी ।। एव पयडीओ २६ । अनिवृत्तिकरणस्य सवेदभागे पुंवेदः १ संज्वलनानां मध्ये एकः १ एवं द्वौ उदयौ २ । संज्वलनाः ४ वेदै ३ गुणिताः द्वादश भङ्गाः १२ । तै‘दशभिट्ठौं उदय २ गुणिताश्चतुर्विशतिः २४ । अवेदभागे एकोदयः कषायः १ चतुर्भिः कपायैगुणिताश्चत्वारः ४ । सूचमे संज्वलनसूक्ष्मैकलोभः १ । स एकेन गुणित एक एव । एवं एकोनत्रिंशदुदयप्रकृतिविकल्पाः २९ भवन्ति । तदेवाऽऽह-अनिवृत्तिकरणे सवेदे द्विकोदयाः १२ अवेदे एकोदयाः ४ सूचमे एकोदयः । एवमुदयात्सप्तदश प्रकृतयः १७ उदयस्थानरूपा भवन्ति । तथा अनिवृत्तिकरणे सवेदद्विकोदयौ २ द्वादशभिगुणिताश्चतुर्विंशतिः २४ । अवेदे एकोदयः १ चतुर्भिः कषायः ४ गुणितश्चत्वारः ४ । सूचमे एकोदयः एकेन गुणित एक एव । एवमेकोनत्रिंशत्कोदयप्रकृतिविकल्पाः २६ भवन्ति ॥३२४-३२५॥ अनिवृत्तिकरणके सवेदभागमें एक संज्वलन और एक वेद; इन दो प्रकृतियोंके उदयस्थानके संज्वलन और वेदगुणित बारह भङ्ग अर्थात् चौबीस पदवृन्द होते हैं। अवेदभागमें एकप्रकृतिक उदयवाले चार भङ्ग होते हैं। तथा सूक्ष्ससाम्परायमें एकप्रकृतिक उदयवाला एक ही भङ्ग जानना चाहिए । अनिवृत्तिकरण सवेदभागमें उदयकी अपेक्षा द्विक उदयवाली बारह और अवेदभागमें एक उदयवाली चार; तथा सूक्ष्मसाम्परायमें एक, इस प्रकार सर्व मिलकर उदयकी अपेक्षा सत्तरहप्रकृतियाँ होती हैं। इनमें से सवेदभागकी दोप्रकृतियोंको बारहसे गुणा करनेपर चौबीस पदवृन्द होते हैं। तथा अवेदभागकी चारको और सूक्ष्मसाम्परायकी एकप्रकृतिको एक-एकसे गुणा करनेपर पाँच पदवृन्द होते हैं। ये दोनों मिलकर दोनों गुणस्थानोंके उनतीस पदवन्द हो जाते हैं ।।३२४-३२५॥ 3.५, 'सवेदेऽनिवृत्तौ' इत्यादिगद्यांशः 1. सं० पञ्चसं०५, ३५२-३५३ । 2.५, ३५४-३५५। (पृ० २०५)। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ पञ्चसंग्रह इस प्रकार अनिवृत्तिकरणमें द्विक उदयवाले १२, एक उदयवाले ४, सूमसाम्परायमें १ ये सर्व १७ उदयस्थान होते हैं । तथा द्विक उदयवाले बारह भङ्गोंकी प्रकृतियाँ २४ हैं। एक उद्य वाली प्रकृतियाँ ४ हैं । सूक्ष्मसाम्परायमें उदयप्रकृति १ हैं। इस प्रकार दोनों गुणस्थानोंके उदय पदवृन्द २६ होते हैं। अब भाष्यगाथाकार पूर्वोक्त समस्त अर्थका उपसंहार करते हैं उदयपयडिसंखेज्जा ते चेव हवंति पयबंधा। अट्ठसहस्सा चउरो सयाणि सत्तत्तरी य मोहम्मि ॥३२६॥ ८४७७ पदबन्धाख्याः प्रकृतयस्ते उदयप्रकृतिसंख्यायाः पदबन्धाः अष्ट सहस्रचतुःशतसप्तसप्ततिप्रमिता मोहनीये उदयविकल्पाः ८४७७ भवन्तीत्यर्थः । गुणस्थानेषु मोहोदयविकल्पाः स्युः ॥३२६॥ इस प्रकार उदयप्रकृतियोंकी जितनी संख्या हैं, वे सब पदवृन्द जानना चाहिए । मोहकर्मके सर्व गुणस्थानसम्बन्धी पदवृन्द आठ हजार चारसौ सतहत्तर होते हैं ॥३२६॥ मोहकर्मके सर्वपदवृन्द ८४७७ हैं। अब योग, उपयोग और लेश्यादिको आश्रय करके मोहकर्मके उदयस्थानसम्बन्धी भंगोंको जाननेके लिए मूलसप्ततिकाकार निर्देश करते हैं[मूलगा०४२] 'जे जत्थ गुणे उदया जाओ य हवंति तत्थ पयडीओ। __जोगोवओगलेसादिएहि जिह जोगते गुणिज्जाहि ॥३२७॥ अथ मोहोदयस्थानतत्प्रकृतीर्गुणस्थानेषु योगोपयोगलेश्यादीनाश्रित्याऽऽह-[ 'जे जत्थ गुणे उदया' इत्यादि।। यत्र गुणस्थाने ये उदया योगादयः याश्च प्रकृतयो भवन्ति, ते ताश्च तत्र योगोपयोगलेश्यादिभिर्यथायोग्यं यथासम्भवं गुण्याः गुणनीयाः। तथाहि-पूर्वोक्तस्थानसंख्या तत्प्रकृतिसंख्यां च संस्थाप्य स्व-स्व-गुणस्थानसम्भवि-योगोपयोगलेश्याभिः संगुण्य मेलने स्थानसंख्या प्रकृतिसंख्या च स्यादित्यर्थः ॥३२७॥ जिस गुणस्थानमें जितने उदयस्थान और उनकी जितनी प्रकृतियाँ होती हैं, उन्हें उन गुणस्थानोंमें यथासम्भव योग, उपयोग और लेश्यादिकसे गुणा करना चाहिए ॥३२॥ _अब इस गाथासूत्रसे सूचित अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए भाष्यगाथाकार सबसे पहले गुणस्थानोंमें योगों का निरूपण करते हैं "दुसु तेरे दस तेरस णव एयारस हवंति णव छासु। सत्त सजोगे जोगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं+ ॥३२८॥ *एवं गुणठाणेसु जोगा १३।१३।१०।१३।६।११।६।६ ६।७।। तद्यथा-मिथ्यादृष्टि-सासादनयोर्द्वयोर्योगा आहारकद्वयरहितास्त्रयोदश १३॥१३ । मिश्रे योगा दश १०। अविरते योगास्त्रयोदश १३ । प्रमत्ते एकादश योगाः ११ । पटसु देशसंयताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्ति 1. सं० पञ्चसं० ५, ३५६ । 2. ५, ३५७ । ३. ५, ३५८ । 4. ५, 'गुणेषु योगा' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० २०६)। १. सप्ततिका० ४७ । परं तत्र गाथा पूर्वार्धस्थाने उत्तरार्ध पाठः, उत्तरार्धस्थाने च पूर्वार्धपाठो विद्यते । द 'पयबंधा पयडीओ' इति पाठः । +ब 'अजोगे चेव' जोगो त्ति' इति पाठः । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४४३ करणसूचमसाम्परायोपशान्तक्षीणकषायेषु प्रत्येक नव नव योगा । भवन्ति । सयोगे सप्त योगाः । अयोगे शून्यं ० । सयोगान्तयोगाः सन्ति, अयोगे न सन्ति ॥३२८॥ पहले दो गुणस्थानों में तेरह तेरह योग होते हैं। तीसरेमें दश योग होते हैं। चौथेमें तेरह योग होते हैं । पाँचवें में नौ और छठेमें ग्यारह योग होते हैं। इससे आगे सातवेंसे बारहवें तक छह गुणस्थानोंमें नौ नौ योग होते हैं । सयोगिकेवलोके सात योग होते हैं। अयोगिकेवलीके कोई योग नहीं होता है ॥३२८। गुणस्थानोंमें योग इस प्रकार होते हैंमि० सा० मि० अवि० देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० क्षीण. सयो० अयो० १३ १३ १० १३ १ ११ ६ ६ ६ ६ ७ ० अब पहले मिथ्यादृष्टिके योगसम्बन्धी भंगों का निरूपण करते हैं-- मिच्छादिहिस्सोदयभंगा अठेव होंति जिणभणिया। ते दसजोगे गुणिया भंगमसीदी य पञ्जत्ते ॥३२६।। उदया ८ दसजोयगुणा ८० । मि० मिथ्यादृष्टेः स्थानानि दशकादीनि चत्वारि हा अनन्तानुबन्ध्यु दयरहितानि नवकादीनि चत्वारि मि० मा८ मिलित्वा अष्टौ उदयभङ्गा भवन्ति, जिनैणितास्ते अष्टौ उदयविकतपाः ८ दशभिर्योगै १० गुणिता उदयस्थानविकल्पाः ८० मिथ्यादृष्टेः पर्याप्तस्य भवन्ति ॥३२६॥ मिथ्या दृष्टिके अनन्तानुबन्धीके उदयसहित दश आदि चार उदयस्थान और अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित नौ आदि चार उदयस्थान इस प्रकार आठ उदयस्थान जिन भगवान्ने कहे हैं। उन्हें पर्याप्त दशामें सम्भव दश योगोंसे गुणित करने पर उदयस्थान-सम्बन्धी अस्सी भङ्ग हो जाते हैं ॥३२६।। मिथ्यात्वमें उदयस्थान ८ को १० योगोंसे गुणा करने पर पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके ८० भङ्ग होते हैं। तस्सेव अपजत्ते उदयवियप्पाणि होति चत्तारि । ते तिण्णि-मिस्सजोगेहिं गुणिया वारसा होति ॥३३०॥ ॥१२॥ तस्यैव मिथ्यादृष्टरपर्याप्तकाले उदयस्थानविकल्पाः हा चत्वारो भवन्ति । ते चत्वारो भङ्गाः ४ औदारिकमिश्र-वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगैस्त्रिभिगुणिता द्वादशोदयस्थानविकल्पा अपर्याप्तमिथ्यादृष्टी भवन्ति १२ ॥३३०॥ उसी अपर्याप्त मिथ्याटिके उदयस्थान-सम्बन्धी विकल्प चार ही होते हैं। उन्हें अपर्याप्तकालमें सम्भव तीन मिश्रयोगोंसे गुणा करने पर बारह भङ्ग होते हैं ॥३३०॥ अपर्याप्त मिथ्यादृष्टिके उदय-विकल्प ४ और योग भङ्ग १२ होते हैं। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० पञ्चसंग्रह अब सासादन गुणस्थानमें योगसम्बन्धी भंगोका निरूपण करते हैं आसादे च उभंगा वारसजोगाहया य अडयाला । मिस्सम्हि य चउभंगा दसजोगहया य चत्तालं ||३३१॥ ४।४८!४|४०| यिकमिश्रं विना द्वादशभिर्योगे १२ र्हता अष्टचत्वारिंशदुदयस्थान विकल्पाः ४८ सासादने भवन्ति । मिश्र ७ ૭ सासादनस्थानानि नवकादीनि चत्वारि मा इति चतुर्भङ्गाः ४ । सासादनो नरकं न यातीति वैक्रि चतुर्भङ्गाः दशयोगगुणिताश्चत्वारिंशदुदयस्थानविकल्पाः ४० भवन्ति ॥३३१॥ सासादन गुणस्थान में नौ आदिक चार उदयस्थान होते हैं । उन्हें पर्याप्तकालमें संभव बारह योगोंसे गुणा करने पर अड़तालीस भङ्ग हो जाते हैं । मिश्र गुणस्थानमें सम्भव चार उदयस्थानोंको दश योगोंसे गुणा करने पर चालीस भङ्ग होते हैं ||३३१|| सासादनमें उदयस्थान ४ और भंग ४८ होते हैं । मिश्र में उदयस्थान ४ और भंग ४० होते हैं। अब अविरतसम्यग्दृष्टिके योगसम्बन्धी भंगका निरूपण करते हैंअट्ठेवोदयभंगा अविरयसम्मस्स होंति णायव्वा । मिस्सतिगं वजित्ता छह जोगहया असीदी य ||३३२ || डा० ७ ६ अविरतसम्यग्दृष्टेर्वेदकसम्यक्त्वापेक्षया मम । ७ ७ अष्टावुदयस्थानभङ्गाः मिश्रत्रिकं वर्जयित्वा ह दशभिर्योगे १० गुणिताः शीत्युदयस्थानविकल्पा असंयतसम्यग्दष्टेः पर्याप्तस्य भवन्ति ८० ॥ ३३२ ॥ अविरतसम्यक्त्वीके उदयस्थानके विकल्प आठ ही होते हैं । उन्हें अपर्याप्तकालमें संभव तीन मिश्रयोगोंको छोड़कर शेष दश योगोंसे गुणा करने पर अस्सी भंग चौथे गुणस्थान में जानना चाहिए ||३३२॥ अविरतसम्यक्त्वमें उदयस्थान और योग भंग ८० होते हैं । अब देशविरत के योगसम्बन्धी भंग कहते हैं विरयाविरणियमा उदयवियप्पा दु होंति अट्ठेव । जोगेहिय गुणिया भंगा वावत्तरी होंति ॥ ३३३॥ उदया ८ णवजोगगुणा ७२ । ६ ༥ विरताविरते देशसंगते ७ ७ । ६।६ मिलित्वाऽष्टौ प्रकृत्युदयस्थानविकल्पा नियमेन भवन्ति । ६ ७ नवभिर्योणिताद्वासप्त तिरुदयस्थानविकल्पा भवन्ति ॥ ३३३॥ + उदये । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका विरताविरतमें उदद्यस्थान सम्बन्धी विकल्प नियमसे आठ ही होते हैं । उन्हें नौ योगों से गुणा करने पर बहत्तर भंग होते हैं ||३३३|| देशविरतमें उदयस्थान ८ को ६ योगों से गुणा करने पर ७२ भंग होते हैं । अब प्रमत्तविरत के योगसम्बन्धी भंग कहते हैं अ य पमत्तभंगा जोगा एगारसा य तस्सेव । तेहि हया अडसीया भंगवियप्पा वि ते होंति ॥ ३३४ || उदया एयारहजोगगुणा मम । ५ ४ प्रमत्तस्य ६।६ । ५।५ मिलित्वाऽष्टौ भङ्गाः ८ तस्य प्रमत्तस्यैकादश योगाः ११ तैर्गुणिताः अष्टा ७ ६ शीतिरुदयस्थानविकल्पाः ८८ भवन्ति ॥ ३३४ ॥ प्रमत्तगुणस्थान में उदयस्थानके विकल्प आठ होते हैं । उन्हें इस गुणस्थान में सम्भव ग्यारह योंगोंसे गुणा कर देने पर अट्ठासी भग होते हैं ||३३४ ॥ प्रमत्तविरतमें उदयस्थान को ११ योगों से गुणित करने पर भङ्ग होते हैं । अब अप्रमत्तविरत के योगसम्बन्धी भंग कहते हैं ४५१ अट्ठेवोदयभंगा पमत्तिदरस्स चावि बोहव्वा । वजोगेहि हदा ते भंगा वावत्तरी होंति ॥ ३३५॥ उदया नवजोगगुणा ७२ । ५ ४ अप्रमत्तस्य ६।६ । ५।५ मिलित्वाऽष्टौ भङ्गाः ८ नवभिर्योर्गेर्हता द्वासप्ततिरुदयस्थान विकल्पाः ७२ ७ ६ भवन्ति ॥ ३३५॥ अप्रमत्तविरतके उदयस्थानके भेद आठ ही जानना चाहिए। उन्हें नौ योगों से गुणित करने पर बहत्तर भङ्ग हो जाते हैं ||३३५ || अप्रमत्तविरत में उदयस्थान ८ को ६ योगों से गुणित करने पर ७२ भङ्ग होते हैं । अब अपूर्वकरणके योगसम्बन्धी भंगोका निरूपण कर शेष अर्थका उपसंहार करते हैंचभंगापुव्वस्स य णवजोगहया हवंति छत्तीसा | दे चवीसहदा ठाणवियप्पा य पुव्युत्ता ||३३६ ॥ उदय ४ नवजोगगुणा ३६ । ४ ६ अपूर्वस्य ५५ इति चतुर्भङ्गाः ४ नवयोगैर्हताः पट्त्रिंशदुदयस्थानविकल्पाः ३६ । एतावत्पर्यन्तं सर्वत्रोदयस्थानविकल्पाः गुणकारश्चविंशतिः । तथाहि - मिथ्यादृष्टौ ८०।१२ । सासादने ४८ गु० २४ । मिश्र ४० गु० २४ | अविरते ८० गु० २४ । देशे ७२ । गु० २४ । प्रमत्ते ८८ गु० २४ ! अप्रमत्त े ७२ गु० २४ । अपूर्वे ३६ गु० २४ ॥३३६॥ For Private Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अपूर्वकरणमें उदयस्थान चार होते हैं। उन्हें नौ योगोंसे गुणित करने पर छत्तीस भङ्ग होते हैं। इन पूर्वोक्त योग-भङ्गोंको चौबीससे गुणा करनेपर सर्व उदयस्थान-सम्बन्धी भङ्ग प्राप्त हो जाते हैं ॥३३६॥ अपूर्वकरणमें उदयस्थान ४ को नौ योगोंसे गुणा करने पर ३६ भङ्ग होते हैं । अब योगसम्बन्धी उक्त सर्व भंगोंका निर्देश करते हैं 'चउवीसेण य गुणिया सव्वट्ठाणाणि एत्तिया होति । वारसयसहस्साइछस्सदवाहत्तराइच ॥३३७॥ १२६७२ । एते पूर्वोक्तस्थानविकल्पाश्चतुर्विशत्या २४ गुणिताः मिथ्यादृष्टौ १६२०।२८८ पिण्डिताः २२०८।। सासादने ११५२ । मिश्रे १६० । असंयते १६२० । देशे १७२८ । प्रमत्त २११२ । अप्रमत्त १७२८ । अपूर्वकरणे ८६४ । सर्वे एकत्रीकृताः द्वादशसहस्रपटशतद्वासप्ततिप्रमिताः सर्वोदयस्थानविकल्पाः १२६७२ भवन्ति ॥३३७॥ ऊपर जो योगसम्बन्धी सर्व उदयस्थानोंके अंग बतलाये हैं, उन्हें चौबीससे गुणा करने पर बारह हजार छह सौ बहत्तर सर्व भंग होते हैं ॥३३७॥ विशेषार्थ-ऊपर मिथ्यात्वगुणस्थानमें पर्याप्तकालसम्बन्धी योगभंग ८० और अपर्याप्तकालसम्बन्धी १२ बतलाये हैं, उन्हें उदय-प्रकृतियोंके परिवर्तनसे सम्भव २४ भंगोंसे गुणा करने पर क्रमशः (८०४२४ =) १६२० और (१२४२४ =) २८८ आते हैं । इन दोनोंको जोड़ देने पर (१६२० + २८८=) २२०८ भंग मिथ्यात्वगुणस्थानमें प्राप्त होते हैं। सासादनमें योग भंग ४८ हैं । उन्हें २४ से गुणित करने पर (४८x२४ =) सर्व भंग ११५२ होते हैं । मिश्रमें योगभङ्ग ४० हैं। उन्हें २४ से गुणित करने पर (४०४२४ =) सर्व भङ्ग ६६० होते हैं। अविरतमें योगभङ्ग ८० हैं। उन्हें २४ से गुणित करने पर (८०x२४ =) सर्व भङ्ग १६२० होते हैं। देशविरतमें योगभङ्ग ७२ हैं। उन्हें २४ से गुणित करने पर (७२ ४२४ =) सर्व भङ्ग १७२८ होते हैं । प्रमत्तविरत में योग-भङ्ग ८८ हैं । उन्हें २४ से गुणित करने पर (८८४२४ =) सर्व भङ्ग २११२ होते हैं । अप्रमत्तविरतमें योगभङ्ग ७२ हैं । उन्हें २४ से गुणित करने पर (७२४२४ =) सर्व भङ्ग १७२८ होते हैं । अपूर्वकरणमें योगभङ्ग ३६ हैं। उन्हें २४ से गुणा करनेपर (३६४२४ = ) सर्वभङ्ग ८६४ होते हैं। प्रत्येक गुणस्थानके इन सर्वभङ्गोंको जोड़ देनेपर (२२०८४११५२ + ६६०+ १६२०+ १७२८+ २११२+ १७२८+८६४ = ) १२६७२ सर्वगुणस्थानोंके योग सम्बन्धी भङ्गोंका प्रमाण जानना चाहिए। इन भङ्गोंकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है :-- क्रमांक गुणस्थान उदय-विकल्प गुणकार भंग मिथ्यात्व पर्याप्त १० ८० २४१९२० अप० ३ १२ २४ २८८ २ सासादन पर्याप्त १२ ४८ २४ ११५२ मिश्र ४० २४६६० योग १० 1. सं०पञ्चसं० ५, ३५६-३६१ । तथा 'मिथ्यादृष्टौ योगाः' इत्यादिगद्यभागः' (पृ. २०६)। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४५३ 0x ur9 क्रमांक गणस्थान योग उदयविकल्प गुणकार भंग अविरत पर्याप्त १० ८० २४ १६२० देशविरत ७२ २४ १७२८ प्रमत्तविरत ११ ८८ २४ २११२ अप्रमत्तविरत ७२ २४ १७२८ ८ अपूर्वकरण ३६ २४८६४ सर्वभंगोंका जोड़ १२६७२ अब सासादन गुणस्थानमें योगसम्बन्धी भंगोंमें जो कुछ विशेषता है उसे बतलाते हैं 'चउसहि होंति भंगा वेउव्वियमिस्ससासणे णियमा। वेउव्वियमिस्सस्स य णत्थि पुहत्तेग चउवीसा ॥३३८॥ सासगो णिरए ण उववजइ त्ति वयणाओ णपुंसकवेदो णस्थि । उदया ५ सोलसभंगगुगा ६४ । सासादनाविरतयोविशेषमाह-['चउसद्धि हाँति भंगा' इत्यादि । ] वैक्रियिकमिश्रकाययोगसंयुक्तसासादने चतुःषष्टिरुदयस्थान विकल्पाः भवन्ति नियमतः वक्रियिकमिश्रस्य चतुर्विशतिगुणकारभङ्गाः पृथक्त्वेन न सन्ति । कुतः ? सासादनो नरकेषु नोत्पद्यत इति वचनात् नपुंसकवेदो नास्ति । सासादने ८1८ उदय. स्थानविकल्पाः ४ स्त्री-पुंवेदद्वय २ कषायचतुष्क ४ हास्यादियुग्म २ गुणिताः षोडशभङ्गगुणिताश्चतुःषष्टिः सर्वोदयस्थानविकल्पाः ६४ ॥३३८॥ वैक्रियिकमिश्रकाययोग-संयुक्त सासादनमें नियमसे चौसठ ही भङ्ग होते हैं, इसलिए वैक्रियिकमिश्रके चौबीस गुणकाररूप भङ्ग पृथक् नहीं बतलाये गये हैं ॥३३८।। सासादनगुणस्थानवाला जीव मरकर नरकमें उत्पन्न नहीं होता है, ऐसा आगमवचन है, इसलिए इस गणस्थानमें वैक्रियिकमिश्रकायगोगके साथ नपुंसकवेदका उदय संभव नहीं है, अतएव दो वेद, चार कषाय और हास्यादि दो युगलके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न सोलह भङ्गोंसे चार उदयस्थानोंके गुणित करनेपर ६४ ही योगसम्बन्धी भङ्ग प्राप्त होते हैं। अब अविरतगुणस्थानमें योगसम्बन्धी भङ्गों में जो कुछ विशेषता है, उसे बतलाते हैं श्वेउव्वा मिस्सकम्मे वे जोगे गुणिय अट्ठभंगेहिं । सोलसभंगेहिं पुणो गुणिदे दु हवंति अजदिभंगा दु ॥३३६।। असंयते क्रियिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ ८८ । ७।७ इत्यष्टौ स्थानविकल्पाः ८ गुणिताः षोडश स्थानभङ्गाः १६ । पुनरेते पुंवेद-नपुंसकवेदद्वय २ कषायचतुष्क ४ हास्यादियुग्म २ गुणिताः षोडश १६ तैः स्थानभङ्गः१६ गुणिता २५६ असंयते उदयस्थानविकल्पा भवन्ति ॥३३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३६२ । 2. ५, ३६३-३६५ । ब वेउब्धि । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ पञ्चसंग्रह वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग इन दोनों योगोंको चौथे गुणस्थानमें संभव आठों उदयस्थानोंसे गुणाकर पुनः सोलह सङ्गोंसे गुणा करनेपर असंयतगुणस्थानके भङ्ग उत्पन्न होते हैं ।।३३।। 1एत्थ अविरदे कसाया ४ । पुवेद-णपुसगवेदा २। हस्सादिगुयलं २ अण्णोण्णगुणा भंगा १६ । एदे अट्ठोदयगुणा १२८ । वेउब्वियमिस्स- कम्मइयजोगेहिं गुणा २५६ । तथाहि-असंयते वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगयोः स्त्रीवेदोदयो नास्तीति, असंयतस्य स्त्रीष्वनुत्पत्तेः । अत्राविरते कषायाः ४ पुवेद-नपुंसकवेदौ २ हास्यादियुगलं २ अन्योन्यगुणिताः भङ्गाः १६ । एते अष्टोदयगुणाः १२८ वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ गुणिताः २५६ । वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगमें स्थित चतुर्थगुणस्थानवी जीवके स्त्रीवेदका उदय संभव नहीं है । इसलिए यहाँ असंयतगुणस्थानमें चार कषाय, पुरुष, नपुंसक ये दो वेद और हास्यादि युगलको परस्पर गुणा करनेपर १६ भङ्ग होते हैं। उन्हें इस गुणस्थानमें संभव आठ उदयस्थानोंसे गुणा करनेपर १२८ भङ्ग होते हैं और उन्हें वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोगसे गुणा करनेपर २५६ भङ्ग हो जाते हैं । इस प्रकार इन दोनों योगोंके २५६ भङ्ग जानना चाहिए। अब चौथे ही गुणस्थानमें औदारिकमिश्रयोग गत बिशेषताको बतलाते है तेणेव होंति णेया ओरालियमिस्सजोगभंगा हु। उदयद्रेण य गुणिए भंगवियप्पा य होंति सव्वेवि ॥३४०॥ तेनैव प्रकारेणौदारिकमिश्रयोगभगा भवन्तीति ज्ञेयाः। असंयतौदारिकमिश्रयोगे स्त्री-पण्ढवेदी न स्तः । कुतः ? तस्य तयोरनुत्पत्तेः । असंयते अष्टौ उदयस्थानविकल्पाः ८ कषायचतुष्क ४ पुवेद १ हास्यादियुग्म २ गुणिता अष्टौ। तैर्गुणकारैर्गुणिताश्चतुःषष्टिः ६४ सर्वे असंयतौदारिकमिश्रस्योदयस्थानभङ्गाः स्युः ॥३४०॥ उसी प्रकारसे औदारिकमिश्रकाययोगसम्बन्धी भङ्गोंको जानना चाहिए । अर्थात् चौथे गुणस्थानमें औदारिकमिश्रकाययोगके साथ स्त्री और नपुंसक इन दो वेदोंका उदय संभव नहीं है, इसलिए इस गुणस्थानमें संभव आठ उदयस्थानोंको प्रकृति-परिवर्तनसे उत्पन्न होनेवाले आठ ही भङ्गोंसे गुणा करनेपर सर्व भङ्ग-विकल्प आ जाते है ॥३४०॥ तह कसाया ४ पुवेदे १ हस्साइजुगं २ । अण्णोण्णगुणा भंगा ८ । एदे वि अट्ठोदयगुणा ६४ । ओरालियमिस्सगुणा वि ६४ । तद्यथा-कषायचतुष्कं ४ पुंवेदः १ हास्यादियुग्मं २ अन्योन्यगुणिताः अष्टौ ८। एते अष्टोदयगुणिताः ६४ । एते औदारिकमिश्रयोगेन १ गुणितास्तदेव ६४ । औदारिकमिश्रकाययोगमें चार कपाय, एक पुरुषवेद और हास्यादियुगलको परस्पर गुणा करनेपर ८ भङ्ग होते हैं। उन्हें इस गुणस्थानमें संभव आठ उदयस्थानोंसे गुणा करनेपर ६४ भङ्ग आते हैं। उन्हें औदारिकमिश्रकाययोगसे गुणा करनेपर भी ६४ हो भङ्ग इस योग-सम्बन्धी उत्पन्न होते हैं। 1. सं० पञ्चसं० ५, ''नपुंसक वेदद्वय' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०७)। 3. ५, 'युग्मैकवेद' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २०७) । 2. ५, ३६६ । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४५५ अब उक्त अर्थका उसंहार करते हैं 'बेसयलप्पण्णाणि य वेउव्वियमिस्स-कम्मजोगाणं । चउसहि चेव भंगा तस्स य ओरालमिस्सए होंति ॥३४१॥ एवं अण्णे वि उदयवियप्पा ३२०।। तस्यासंयतस्य वैक्रियिकर्मिश्रकार्मणयोगयोरुदयस्थानविकल्पाः पटपञ्चाशदधिकद्विशतप्रभिताः २५६ । स्त्रीवेदोदयाभावदसंयतस्यौदारिकमिश्रयोगे उदयस्थान विकल्याश्चतुःषष्टिः ६४ भवन्ति । कुतः ? स्त्री-पण्ढवेदोदयाभावात् ॥३४१॥ उभयोर्मीलिताः ३२० । चौथे गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगसम्बन्धी दो सौ छप्पन भङ्ग होते हैं, तथा उसी गुणस्थानवर्तीके औदारिकमिश्रकाययोगमें चौसठ भङ्ग होते हैं ॥३४१॥ इस प्रकार २५६+ ६४ =३२० उदयस्थानसम्बन्धी अन्य भी भङ्ग चौथे गुणस्थानमें होते हैं। अब अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके भङ्गोंको कहते हैं 'सत्तरस उदयभंगा अणियट्टिय चेव होंति णायव्या । णव-जोगेहि य गुणिए सदतेवण्णं च भंगा हु ॥३४२॥ अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोरुदयस्थानविकल्पानाह-[ 'सत्तरस उदयभंगा' इत्यादि ।] अनिवृत्तिकरणसूचमसाम्पराययोः पूर्व उदयस्थानभङ्गाः सप्तदश कथिता भवन्ति १४ । ते नवभिर्योगैः । गुणितास्त्रिपञ्चाशदधिकशतसंख्योपेताः १५३ उदयस्थान विकल्प ज्ञातव्याः ॥३४२॥ अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानसम्बन्धी उदयस्थानोंके विकल्प सत्तरह होते हैं, उन्हें इन गुणस्थानोंषे सम्भव नौ योगोंसे गुणित करनेपर एक सौ तिरेपन भङ्ग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३४२॥ अणियट्टीए संजलणा ४ वेदा ३ अण्णोण्णगुणा दु दुगोदया १२ णवजोगगुणा १०८ । तहा अवेदे संजलणा एगोदया ४ णव जोगगुणा ३६ । एदेसि मेलिया १४४ । सुहुमे सुहुमलोहो एगोदओ १ णवजोगगुणो ९ एवं सब्वे मिलिया १५३ । तथाहि--अनिवृत्तिकरणस्य सवेदभागे २ संज्वलनाः ४ वेदाः ३ अन्योन्यगुणिता द्विकोदयाः१२ । एते नवयोगैर्गुणिताः १०८ । तथा अनिवृत्तिकरणस्य अवेदभागे १ चतुःसंज्वलनान्यतमोदयाः४ नवयोगगुणिताः ३६ । द्वयेऽप्यनिवृत्तौ मीलिते १४४ । सूचनसाम्पराये सूचमलोभोदयः १ नवभिर्यो गैगुणिता नव है । एवं सर्वे मीलिताः १५३ । अनिवृत्तिकरणमें ४ संज्वलनकषाय और तीन वेदको परस्पर गुणा करनेपर द्विकप्रकृतिक उदयस्थानसम्बन्धी १२ भङ्ग होते हैं। उन्हें नौ योगोंसे गुणित करनेपर १०८ भङ्ग होते हैं । ये सबेदभागके भङ्ग हैं। अवेदभागमें एकप्रकृतिक उदयस्थानके चार संज्वलनकषायसम्बन्धी ४ भङ्ग होते हैं। उन्हें नौ योगोंसे गुणा करनेपर २६ भङ्ग होते हैं। ये दोनों मिलकर (१०+ २६=) १४४ भङ्ग अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें एक सूक्ष्म लोभका हो उदय होता है। उसे नौ योगोंसे गुणा करनेपर ६ भङ्ग नवें गुणस्थानमें होते हैं। इस प्रकारके दोनों गुणस्थानोंके सर्व भङ्ग मिलकर (१४४+६=) १५३ हो जाते हैं। 1. सं०पञ्चसं०५, 'एवमसंयते' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० २०७)। 2. ५, ३६७। 3. ५, सवेदेऽनिवृत्तौ इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०७)। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ पञ्चसंग्रह अब योगकी अपेक्षा संभव उपर्युक्त सर्व भङ्गोंका उपसंहार करते हैं 'तेरस चेव सहस्सा वे चेव सया हवंति णव चेव । उदयवियप्पे जाणसु जोगं पडि मोहणीयस्स ॥३४३॥ १३२०९। मोहनीयस्य योगान् प्रत्याश्रित्य त्रयोदशसहस्र द्विशतनवप्रमितान् उदयस्थानविकल्पान् जानीहि १३२०६ ॥३४३॥ गुण यो० भं० वि० गुण० उ०वि० मिथ्या० ८०।१२ २४ २२०८ सासा० २४ ११५२१६४ मिश्र० अवि० २४ देश० २४ १७२८ प्रम० २११२ अप्र० १७२८ अपू० २४ ८६४ अनिः १२ १०८ ४८ १६२०२५६१६४१३२ mm or wo000 २४ सूक्ष्म १३२०६ इति गुणस्थानेषु योगानाश्रित्य मोहोदयस्थानविकल्पाः समाप्ताः । इस प्रकार योगकी अपेक्षा मोहनीय कर्मके सर्व उदयस्थान-विकल्प तेरह हजार दो सौ नौ (१३२०६ ) होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३४३॥ भावार्थ-मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तकके उदयस्थान-भङ्ग १२६७२, सासादनगुणस्थानके वैक्रयिकमिश्रसम्बन्धी ६४, असंयतसम्यग्दृष्टिके औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोगसम्बन्धी ३२०, तथा नवें और दशवें गुणस्थानके १५३, इन सर्व भङ्गोंको जोड़नेसे मोहनीयकर्मके उदयसम्बन्धी १३२०६ विकल्प प्राप्त होते हैं । अब योगोंको आश्रय करके गुणस्थानों में पदवृन्दोंका निरूपण करते हैं छत्तीसं ति-वत्तीसं सट्ठी वावण्णमेव चोदालं । चोद्दालं वीसं पि य मिच्छादि-णियट्टिपयडीओ ॥३४४॥ अथ पदबन्धान् योगानाश्रित्य गुणस्थानेषु प्ररूपयन्ति-[ 'छत्तीसं ति-बत्तीसं' इत्यादि । ] गुणस्थानेषु दशकादीनां प्रकृतयः मिथ्याटष्टौ पट त्रिंशत् ३६ । त्रिवार द्वात्रिंशत् । पुनः मिथ्यादृष्टी द्वात्रिंशत् सादने द्वात्रिंशत् ३२ । मिश्रे द्वात्रिंशत् ३२ । असंयते षष्टिः ६० । देशे द्वापञ्चाशत् ५२ । प्रमत्ते चतुश्चत्वारिंशत् ४४ । अप्रमत्ते चतुश्चत्वारिंशत् ४४ । अपूर्वकरणे विंशतिः २० चेति मिध्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणपर्यन्तं मोहप्रकृत्युदयसंख्या भवन्ति ॥३४४॥ 1. संपञ्चसं० ५, ३६८। . Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४५७ मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणगुणस्थान तक मोहकर्मकी उदयप्रकृतियाँ क्रमशः छत्तीस; तीन वार बत्तीस, साठ, बावन, चबालीस, चालीस और बीस होती हैं ॥३४४॥ एवं मोहे पुवुत्तदसगादिउदयाणं पयडीओ मिच्छादिसु : २।३२।३२१६०१५२।४४१४४ । अपुव्वे २० अणियट्टिम्मि २।१ सुहुमे । इत्थं मोहे पूर्वोक्तदशदाद्युदयानां प्रकृतयो मिथ्यादृष्टयादिषु मिथ्यात्वे ३६।३२ सासादने ३२ निश्रे ३२ अविरते ६० देशे ५२ प्रमत्त ४४ अप्रमत्त ४४ अपूर्वकरणे २० अनिवृत्तिसवेदे २ अवेदे । सूक्ष्मे ।। मोहकर्मकी पूर्वोक्त दशप्रकृतिक आदि उदयस्थानोंकी प्रकृतियाँ मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें इस प्रकार जानना चाहिए __ मि० सा० मि० अवि० देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सूक्ष्म० ३६॥३२ ३२ ३२ ६० ५२ ४४ ४४ २० २ १ अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए पहले मिथ्यादृष्टिके पदवृन्दभंगोंका निरूपण करते हैं दस णव अड सत्तदया मिच्छादिहिस्स होंति णायव्वा । सग-सग-उदएहिं गया भंगवियप्पा वि होति छत्तीसा ॥३४॥ १०1३1८७ मिथ्यादृष्टयादिषु दशकाद्युदयानां प्रकृतीदर्शयति-[ 'दस णव अड सत्तुदया' इत्यादि । ] अनन्तानुबन्ध्युदयसहित मिथ्यादृष्टेर्दश १० नवा इष्ट ८ सप्तो ७ दया भवन्ति ज्ञातव्याः। स्वक-स्वकोदयं गता भङ्गा विकल्पाः षट् त्रिंशद् भवन्ति ३६ ॥३४५॥ मिथ्यादृष्टिके दश, नौ, आठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। इनमेंसे अनन्तानुबन्धीके उदयसहित मिश्यादृष्टिके अपने-अपने उदयस्थानगत प्रकृतियोंके भङ्गविकल्प छत्तीस होते हैं ॥३४॥ उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१०, ६, ६, ८=३६ । अणुदय सव्वे भंगा बत्तीसा चेव होंति णायव्वा । उभओ वि मेलिदेसु य मिच्छे अछुत्तरा सट्ठी ॥३४६॥ उदयपयडीओ ३६।३२। उभए वि ६८ अनन्तानु बन्ध्यनुदयगतमिथ्यादृष्टेनवाष्ट सप्तोदया भवन्ति । । ८८ एषां प्रकृतयः । उभयेषु मिलितेषु मिथ्यादृष्टौ अष्टपष्टिः ६८ उदयविकल्पा भवन्ति ॥३४६॥ उदयप्रकृतयः ३६।३२ उभये ६८ । अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित मिथ्यादृष्टिके उदयस्थानगत प्रकृतियोंके सर्वभंगविकल्प बत्तीस होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। दोनों उदय-भंगोंको मिला देनेपर मिथ्या दृष्टिके अड़सठ भंग हो जाते हैं ॥३४६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-६, ८, ८, ७ =३२१ ३६ +३२=६८ । पुणरवि दसजोगहदा अट्टासट्ठी हवंति णायव्वा । मिच्छादिहस्सेदे छस्सयमसीदि य भंगा दु ॥३४७॥ ५८ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह मिथ्यारष्टेः पर्याप्तकाले अष्टषष्टिः ६८ प्रकृत्युदयाः पुनरपि दशभिर्योगैः १० मनोवचनयोगः मनोवचनयोगाष्टकौदारिक-वैक्रियिकयोगैगुणिता एते पटशताशीतिप्रमिताः ६८० उदयविकल्पाः पदबन्धभङ्गा मिथ्यादृष्टौ पर्याप्ते भवन्तीति ज्ञातव्याः ॥३४७॥ इन उपयुक्त अड़सठ उदयस्थानसम्बन्धी भोंको पर्याप्त दशामें सम्भव चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोग इन दश योगोंसे गुणा करने पर पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके छह सौ अस्सी भङ्ग हो जाते हैं ॥३४७॥ पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके पदवृन्द भङ्ग ६८४१०= ६८० । ते चेव य छत्तीसे मिस्सेण तिगेण संगुणेयव्वा । पुव्वुत्ते मेलविदे अडसीदा होंति सत्तसया ॥३४८॥ ७८८ मिथ्यादृष्टौ अपर्याप्ते ते एव षट् त्रिंशत्प्रकृत्यु दयाः ३६ मित्रेण त्रिकेणौदारिकमिश्र-चैक्रियिकमिश्रकार्मणत्रिकेण ३ संगुणिताः अष्टोत्तरशतप्रमिता १०पूर्वोक्तषु ६८० मीलिता: अष्टाशीत्युत्तरसप्तशतप्रमिताः ७८८ उदयविकल्पा मिथ्यादृष्टौ भवन्ति । अथवा अनन्तानुबन्धिरहितमिथ्यादृष्टिद्वात्रिंशत्प्रकृतिं दशयोगेन गुणिते एवं ३२० । इतरषटत्रिंशत्प्रकृति त्रयोदशयोगेन गुणिते एवं ४६८ । तयोर्मेलने एवं ७८८ ॥३४८॥ उन्ही पूर्वोक्त भङ्गोंको अपर्याप्तकाल भावी मिश्रवोगत्रिकसे अर्थात् औदारिकमिश्र, बैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोगसे गुणा करना चाहिए । इस प्रकारसे प्राप्त हुए एक सौ आठ भङ्गोंको उपर्युक्त छह सौ आठमें मिला देनेपर मिथ्यात्वगुणस्थानके सर्व पदवृन्दसम्बन्धी भङ्ग सात सौ अट्ठासी हो जाते हैं ॥३४८॥ मिथ्यात्वमें पर्याप्तकालभावी ६८० । अपर्याप्तकाल भावी १०८ । सर्व भङ्ग ७८८ । अब सासादनगुणस्थानके पदवृन्दभंग बतलाते हैं बत्तीसोदयभंगा सासणसम्मम्मि होति णियमेण । चउरासीदिविमिस्सा तिणि सया वारसजोगहया ॥३४६॥ __उदया ३२ बारसजोगगुणा ३८४ सासादने गुणस्थाने ८८ एषामुदयप्रकृतयः ३२ । एतै क्रियिकमिश्रं विना द्वादशभिर्योगै १२ हताश्चतुरशीति-संयुक्तास्त्रिशतप्रमिताः प्रकृत्युदयाः ३८४ सासादने भवन्ति ॥३४६॥ सासादनगुणस्थानमें नियमसे उदयस्थान-सम्बन्धी भङ्ग बत्तीस होते हैं। उन्हें बारह योगोंसे गुणा करने पर तीन सौ चौरासी पदवृन्द-भङ्ग हो जाते हैं ॥३४६॥ सासादनमें उदयप्रकृतियाँ ३२ को १२ योगोंसे गुणा करने पर ३८४ पदवृन्द भङ्ग होते हैं । अब मिश्रगुणस्थानके पदवृन्द भेग बतलाते हैं-- - मिस्सस्स वि बत्तीसा दसजोगहया विसुत्तरा तिण्णिसया । ....... उदया ३२ दसजोगगुणा ३२० । मिश्रगुणस्थाने ८८ एषां द्वात्रिंशत्प्रकृत्युदयाः ३२ दशभिर्योगैः १० हता विंशत्युत्तरत्रिशतप्रमिता उदयविकल्पा मिश्रस्य भवन्ति ३२० । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका मिश्र में उदयसम्बन्धी प्रकृतियाँ बत्तीस होती हैं। उन्हें दश योगोंसे गुणा करने पर तीन सौ बीस भंग तीसरे गुणस्थान में जानना चाहिए । मिश्र में उदयप्रकृतियाँ ३२ को १० योगों से गुणा करने पर ३२० पदवृन्द भंग होते हैं । अब अविरत गुणस्थानके पदवृन्द भंग बतलाते हैं अविरसम्मे सट्टी दसजोगहया य छच्च सया ॥ ३५० ॥ उदया ६० दसजोगहगुणा ६०० ६ अविरतसम्यग्दृष्टौ । ७७ एषामुदयाः षष्टिः ६० । कार्मणौदारिकमिश्र - वैक्रियिकमिश्रान् पृथक् འ ७ ह वयतीति दशभियोगः १० गुणिताः षट्शतप्रमिता उदयविकल्पा ६०० असंयतस्य भवन्ति ॥ ३५० ॥ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में उदयसम्बन्धो प्रकृतियाँ साठ होती हैं । उन्हें दश योगों से गुणा करने पर छह सौ पदवृंद-भंग होते हैं ।। ३५० || अविरतमें उदयप्रकृतियाँ ६० को १० योगों से गुणा करने पर ६०० पदवृन्द भङ्ग होते हैं । अब देशविरतगुणस्थानके पदवृन्द भङ्ग कहते हैं वावण्ण देसविरदे भंगवियप्पा य हुंति उदयगया । णव जोगेहि य गुणिया चउसयमडसट्ठि गायव्वा ॥ ३५९ ॥ उदया ५२ नवजोगगुणा ४६८ । ४५६ ६ ५ देशसंयते ७।७ । ६।६ एषामुदयगतभङ्गाः द्वापञ्चाशत् ५२ नवभियोगैः ६ गुणिताः अष्टषष्ट्यग्रचतुः ८ ७ शतप्रमिताः ४६८ मोहोदया देशे भवन्ति ज्ञातव्याः || ३९१ ॥ देशविर में उदयगत भङ्ग - विकल्प बावन होते हैं । उन्हें नौ योगोंसे गुणा कर देने पर चार सौ अड़सठ पद वृन्द-भंग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए || ३५१ ॥ देशविरतमें उदयप्रकृतियाँ ५२ को नौ योगों से गुणा करने पर ४६८ पदवृन्द भंग प्राप्त होते हैं । अब प्रमत्तविरत गुणस्थानके पदवृन्द भंग कहते हैं - चदा तु पत्ते भंगवियप्पा वि होति बोहव्वा । एक्कारसजोगहया चउसीदा होंति चत्तसया || ३५२ ॥ उदया ४४ एयारह जोगगुणा ४८४ । ५ ४ प्रमत्ते ६।३ । ५।५ एषां प्रकृत्युदयाश्चतुश्चत्वारिंशत् ४४ भङ्गविकल्पा भवन्ति । ते एकादशभियोगे - ७ ६ ११ हताश्चतुरशीत्यधिकचतुःशतप्रमिताः ४८४ उदयविकल्पाः प्रमत्ते ज्ञातव्याः ॥ ३५२ ॥ प्रमत्तगुणस्थानमें उदयस्थानसम्बन्धी भंग-विकल्प चवालीस होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । उन्हें यहाँ सम्भव चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिककाययोग, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग, इन ग्यारह योगोंसे गुणा करने पर चार सौ चौरासी पदवृन्दभङ्ग प्राप्त होते हैं ॥ ३५२ || प्रमत्त उदयविकल्प ४४ को ११ योगोंसे गुणा करने पर ४८४ पदवृन्दभङ्ग आ जाते हैं । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अब अप्रमत्तगुणस्थानके पदवृन्द-भङ्ग कहते हैं ४६० पमत्तेदरेसुदया चउदाला चेव होंति जिणवत्ता । तिणि सया छण्णउया भंगवियप्पा वि हुंति णवगुणिया ||३५३ || उदया ४४ णवजोगगुणा ३६६ । ५ ४ अमरो ६६ | ५/५ एषामुदयाश्चतुश्चत्वारिंशत् ४४ जिनोक्ता भवन्ति । एते नवभिर्योगे । गुणिताः ७ ६ षण्णवत्याधिकत्रिशतप्रमिताः ३६६ उदयभङ्गविकल्पाः अप्रमत्ते भवन्ति ॥ ३५३ ॥ अप्रमत्तविरतमें उदयस्थान सम्बन्धी भङ्ग विकल्प जिनभगवानने चवालीस ही कहे हैं । उन्हें नौयोगोंसे गुणा करने पर तीन सौ छयानबे पदवृन्द-भङ्ग होते हैं ||३५३|| अप्रमत्तमें उदयविकल्प ४४ को नौ योगों से गुणा करने पर ३६६ पदवृन्द आते हैं । अब अपूर्वकरण गुणस्थानके पदवृन्द-भंगोका निरूपण कर प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हैं सुण्णजुयट्ठारसयं अपुव्वकरणम्मि वीस णवगुणिया । मिच्छादि-अपुव्वंता चउवीसहया हवंति सव्वे वि ॥३५४॥ उदया २० नवजोगगुणा १८० । ४ अपूर्वकरणे ५।५ एषामुदया विंशति २० नवभिर्योगैर्गुगिताः अष्टादशकं शून्ययुक्तं अशीत्युत्तरशतप्रमिता ६ १८० उदयविकल्पा भवन्ति । मिथ्यादृष्टद्याद्य पूर्वकरणान्तमुदय विकल्पाश्चतुर्विंशत्या २४ गुणिताः । तथाहिमिथ्यात्वे ७८८ गु० २४ । सासादने ३८४ गु० २४ । मिश्र ३२० गु० २४ । असंयते ६०० गु० २४ । देशे ४६८ गु० २४ | प्रमत्त े ४८४ गु० २४ | अप्रमत्त ३६६ गु० २४ । अपूर्वकरणे १८० गु० २४ ॥३५४॥ अपूर्वकरणमें उदद्यप्रकृतियाँ बोस होती हैं । उन्हें नौ योगों से गुणा करने पर शून्ययुक्त अट्ठारह अर्थात् एक सौ अस्सी पदवृन्दभङ्ग होते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान अपूर्वकरण तक बतलाये हुए उक्त सर्व पद-वृन्द-अङ्गको प्रकृतियोंके परिवर्तन से उत्पन्न, चौबीस भङ्गोंसे गुणा करना चाहिए || ३५४ ॥ अपूर्वकरणमें उदयविकल्प २० को नौ योगसे गुणित करने पर १८० पदवृन्द-भङ्ग होते हैं । अब चौबीससे गुणा करने पर जितने भंग होते हैं, उनका निरूपण करते हैं'चवीसेण विगुणिदे एतियमेत्ता हवंति ते सव्वे । असिदं चैव सहस्सा अडसट्ठि सदा असीदी य ॥ ३५५॥ ८६८८० । मिथ्यादृष्ट्याद्यपूर्व करणान्तमुदयविकल्पाश्चतुर्वि शत्या २४ गुणिता मिथ्यादृष्टौ १८६१२ सासादने २१६ मिश्र ७६८० असंयते १४४०० देशे ११२३२ प्रमत्ते ११६१६ अप्रमत्त े ६५०४ अपूर्वकरणे ४३२० सर्वे उदयविकल्पा एकीकृता एतावन्तः -पडशीतिसहस्राष्टशताशीतिप्रमिताः ८६८८० भवन्ति ॥ ३५५॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'तत्र मिथ्यादृष्ट्यादिषु' इत्यादिगद्यांश: ( पृ० २०७-३०८) तथा श्लो० ३६६ / Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहतिका चौबीससे गुणा करने पर वे सर्व पदवृन्द भङ्ग छयासी हजार आठ सौ अस्सी (८६८८०) होते हैं ॥३५॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्वसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक सर्व पदवृन्द-भङ्ग ८६८८० होते हैं, उनका विवरण इस प्रकार है गुणस्थान उदयपदवृन्द सर्वभङ्ग मिथ्यात्व ७८८४२४ = १८६१२ सासादन ३८४४२४%= ६२१६ मिश्र ३२०x२४ = ७६८० अविरत . ६००x२४ = १४४०० देशविरत ४६८४२४%D ११२३२ प्रमत्तविरत ४८४४२४%D ११६१६ अप्रमत्तविरत ३६६x२४ = ६५०४ अपूर्वकरण १८०४२४= ४३२० इस प्रकार उक्त सर्व भङ्गोंका योग=८६८८० अब सासादन गुणस्थानगत विशेष भंगोंका निरूपण करते हैं 'बत्तीसं आसादे वेउव्वियमिस्स सोलसेण हया । पंचसयाणि य णियमा बारससंजुत्तया य तहा ॥३५६॥ सासादनाविरतयोविशेषमाह- [ 'बत्तीसं भासादे' इत्यादि । ] सासादनस्य वैक्रियिकमिश्रयोगे माम एषामुदया द्वात्रिंशत् ३२ ! स्त्री-पुंवेदौ २ हास्यादिद्वयं २ कषायचतुष्कं ४ परस्परं गुणिता षोडश १६ तैर्गुणिताः पुनः द्वात्रिंशत् इति द्वादशोत्तरपञ्चशतप्रमिताः ५१२ पदबन्धाः स्युः । सासादनो नरकं न यातीति तस्य नपुंसकवेदो नास्ति ॥३५६॥ __ सासादन गुणस्थानमें सर्व प्रकृतियाँ बत्तीस हैं। उन्हें वैक्रियिकमिश्रकाययोग-सम्बन्धी सोलह भंगोंसे गुणा करने पर नियमसे पाँचसौ बारह भंग प्राप्त होते हैं ॥३५६।। 'सासणे उदया ८८ एएसि पयडीओ ३२ । पुम्वुत्तसोलस-भंगगुणा वेउब्वियमिस्सजोगहया अण्णे वि पयबंधा ५१२ । तथाहि-सासादनस्य ८८ एतेषां प्रकृतयः ३२ पूर्वोक्तषोडशभिर्भङ्गैर्गुणिता वैक्रियिकमिश्रयोगेन १ हताश्च अन्ये पदबन्धाः ५१२ । सासादनमें उदयस्थान ६, ८, ८ और ७ हैं। इनकी उदयप्रकृतियाँ ३२ होती हैं। इस गुणस्थानवाला नरकमें नहीं जाता है, इसलिए बत्तीसको दो ही वेदोंके परिवर्तनसे सम्भव सोलह भंगोंसे गुणा करने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगसम्बन्धी ५१२ अन्य भी पदवृन्द-भंग होते हैं। 1. सं० पञ्चसं० ५, ३७० । 2. ५, 'सासने चत्वारः पाकाः' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० २०८)। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ पश्चसंग्रह अब चौथे गुणस्थानमें सम्भव विशेष भंगोंका निरूपण करते हैं 'अविरयसम्मे सट्ठी भंगा वे-जोगएण संगुणिया। पुणरवि सोलह-गुणिया भंगवियप्पा हवंति णायव्वा ॥३५७॥ . अविरतसम्यग्दृष्टेः पष्टिभङ्गा ६० वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ संगुणिताः १२० । पुनरपि पुन्नपुसकवेदद्वयं हास्यादिद्वयं २ कषायचतुष्कजनितपोडशभिर्भङ्ग १६ गुणिता एकसहस्रविंशत्यधिकनवशतप्रमिताः भवन्ति ज्ञातव्याः ॥३५७॥ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानमें जो पहले उदयस्थान-सम्बन्धी साठ भंग बतलाये हैं, उन्हें वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाय इन दो योगोंसे गुणित करना चाहिए । पुनरपि उदयप्रकृतियोंके परिवर्तनसे सम्भव सोलह भंगोंसे गुणित करने पर जो संख्या उत्पन्न हो, उतने अर्थात् उन्नीस सौ बीस (१९२०) भंग-विकल्प जानना चाहिए ॥३५७॥ 2 असंजये उदया ८८ ७७ एदेसि च पयडीओ ६० पुवुत्त-सोलसभंगगुणा १६० । वेउब्विय मिस्स-कम्मइयजोगगणा एगसहस्सं णवसदवीसुत्तरिया ते भंगा ११२०।। तथाहि-असंयतवैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगयोः स्त्रीवेदोदयो नास्ति, असंयतस्य स्त्रीष्वनुत्पत्त। असंयते एते उदया ८८। ७१७ एतेषां च प्रकृतयः ६० पूर्वोक्तषोडशभङ्गुणितः १६० । पुनः वैक्रि यिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ गुणिता एकसहस्रविंशत्यग्रनवशतप्रमिता १६२० उदयविकल्पा भवन्ति । असंयतगुणस्थानमें उदयस्थान ६, ८, ८, ७ और ८, ७, ७, ६ प्रकृतिक आठ होते हैं। इनकी सर्व प्रकृतियाँ साठ होती हैं। उन्हें पूर्वोक्त सोलह भंगोंसे गुणा करनेपर ६६० पदवृन्द-भंग होते हैं। इन्हें वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाय, इन दो योगोंसे गुणा करनेपर एक हजार नौ सौ बीस (१९२०) भंग प्राप्त होते हैं। "तेसिं सहि वियप्पा अट्टवियप्पेण संगुणिया । तस्सोरालियमिस्से चउसदसीदी य भंगया जाण ॥३५८॥ एदे पुण पुव्वुत्ता पक्खित्ते हुंति भंगा दु+। असंयतस्यौदारिकमिश्रयोगस्य ८।८। ७१७ तेपामुदयविकल्पाः षष्टिः ६० पुंवेदैक १ हास्यादियुग्म २ कषायचतुष्क ४ हताष्टभिर्भङ्ग ८ गुणिता: अशीत्यधिकचतुःशतप्रमिताः ४८० असंयतौदारिकमिश्रे इति जानीहि । असंयतौदारिकमिश्रत्य स्त्री-पण्डत्वेनानुत्पत्तेः । एते पुनः पूर्वोक्ता भङ्गाः १६२० प्रक्षेपणीयाः॥३५८॥ उसी अविरतसम्यक्त्वी जीवके औदारिकमिश्रकाययोगमें चारसौ अस्सी भंग और जानना चाहिए। जो कि पूर्वोक्त साठ उदयविकल्पोंको आठ भंगोंसे गुणा करनेपर प्राप्त होते हैं। इन भंगोंको पूर्वोक्त १६२० भंगोंमें प्रक्षेप करनेपर सर्व अपर्याप्त-दशागत भंगोंका प्रमाण २४०० आ जाता है ॥३५८॥ . 1. सं० पञ्चसं० ५, ३७१-३७२। 2. ५, 'असंयतेऽष्टोदयाः' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० २०८)। 3.५, ३७३ । + संस्कृतटीकाप्रतौ गाथामिदं नास्ति । . . Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४६३ अविरयउदयपयडीओ ६० अभंगगुणा ४८० । एवमण्णे वि ओरालियमिस्सजोगभंगा ४८० । एवमसंजए तिसु जोगेसु अण्णे वि मेलिया पयबंधा २४०० । अविरतोदयप्रकृतयः ६० पुवेद-हास्यादिद्वय-कपायचतुष्क ४ हतैरष्टभिर्भङ्गुणिता ४८०। एवमन्येऽपि औदारिकमिश्रयोगेनकेन १ गुणिता भङ्गाः ४८०। एवमसंयते त्रिषु योगेषु अन्येऽपि मीलिताः पदवन्धाः २४००। अविरतगुणस्थानमें उदयप्रकृतियाँ ६० हैं, उन्हें आठ भंगोंसे गुणा करनेपर ४८० होते हैं । ये औदारिकमिश्रकाययोग-सम्बन्धी और भी ४८० भंग होते हैं। इस प्रकार असंयतगुणस्थानमें तीनों योगोंके सर्व भंग मिला देनेपर २४०० पदवृन्द-भंग आ जाते हैं। अब नौवें और दश गुणस्थानके पद-वृन्दोका प्रमाण कहते हैं बारसभंगे विगुणे उवरिमभंगा वि पंच पक्खिविय । णवजोगेहि य गुणिए इगिसट्टा विगसया होंति ॥३५६॥ अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोरुदयान् प्राह-[ 'बारसभंगे विगुणे' इत्यादि । ] उपरिमाः अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोः पुवेद-संज्वलनचतुष्कमिति पञ्चप्रकृतिभङ्गाः प्रक्षेपणीयाः। तथाहि-अनिवृत्तिकरणस्य सवेदभागे द्वादशभिः १२ भंगैर्द्विकोदये गुणिते चतुर्विंशतिः २४ । अवेदभागे चतुभिरेकोदयेन गुणिते ४ । सूचमे सूचमलोभोदयः । एवमेकोनत्रिंशदुदगाः २६ नवभिर्योगै । गुणिता एकपट्यधिकद्विशतप्रमिता २६१ उदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ॥३५६॥ ____ अनिवृत्तिकरणके संवेदभागमें दो उदयप्रकृतियोंसे गुणित बारह अर्थात् चौबीस भंग होते हैं । अवेभागमें एक उदयप्रकृतिवाले चार भंग होते हैं । सूक्ष्मसाम्परायमें एक सूक्ष्मलोभ होता है । इन पाँचको उपर्युक्त चौबीसमें प्रक्षेप करनेपर उनतीस होते हैं। उन्हें नौ योगोंसे गुणित करनेपर दो सौ इकसठ भंग हो जाते हैं ॥३५६।। अणियट्टीए उदया २ बारसभंगगुणा २४ । एगोदएहिं चदुहिं सह २८ । सुहुमे एगोदएण सह २६ । एदाओ पयडीओ णवजोगगुणा २६१ । अनिवृत्तौ उदयौ २ द्वादशभङ्गगुणिताः २४ एकोदयैश्चतुर्भिः सह २८ सूक्ष्मे एकोदयेन सह २६ । एताः प्रकृतयो नवयोगगुणिताः २६१ । र अनिवृत्तिकरणमें सवेदभागमें उदयप्रकृतियाँ दोको बारह भंगोंसे गुणा करनेपर २४ होते हैं। उनमें अवेदभागको एक उदयवाली चार प्रकृतियोंको मिलानेपर २८ होते हैं । सूक्ष्मसाम्परायमें उदय होनेवाली एक प्रकृतिके मिलानेपर २६ होते हैं। इन २६ प्रकृतियोंको नौ योगोंसे गुणा करनेपर २६१ पदवृन्द-भंग प्राप्त होते हैं। अब मोहकर्मके योगोंकी अपेक्षा संभव सर्व भंगोंका निरूपण करते है "णउदी चेव सहस्सा तेवण्णं चेव होंति बोहव्वा । पयसंखा णायव्वा जोगं पडि मोहणीयस्स ॥३६॥ एवं मोहे जोगं पडि गुणठाणेसु पयबंधा १००५३ । 1. सं० पञ्चसं० ५, 'असंयतेऽन्ये' इत्यादिगद्यांशः (पृ०२०८) 2.५, ३७४। 3. ५, 'नवमे उदये' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०६)। 4.५, ३७५ । 5. ५, 'इति मोहे' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०६)। *ब गुणा। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह इति गुणस्थानेषु मोहनीयस्य चोगान् प्रत्याश्रित्य नवतिसहस्र त्रिपञ्चाशत्प्रमिताः पदबन्धसंख्या भवति ज्ञातव्याः ६००५३ ॥ ॥ ३६० ॥ यो० १३ १३ १० १३ ४६४ गुण ० मि० सा० मि० अवि० देश ० प्रम० атя о अपू० अनि० सूक्ष्म० ह गुण० मिथ्यात्व सासादन ११ मिश्र अविरत ह ६ योग १३ १३ १ १० १० २ उद० १ देशविरत Ε प्रमत्तविरत ११ ४ अप्रमत्तविरत ६ अपूर्वकरण ε अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराय ६ ४ ८ ८ ८ ८ ४ 9 १ १ उदयस्थान " ४ ४ ४ ४ ४ ४ इति गुणस्थानेषु मोहप्रकृत्युदय विकल्पाः समाप्ताः । मोहनीयकर्मके योगोंकी अपेक्षा सर्वपदवृन्दोंके भंगी संख्या नब्बे हजार तिरेपन होती है, ऐसा जानना चाहिए || ३६० || ८ ४ प्रकृ० ६८ ३२ ३२ ६० ५२ ४४ ४४ २० २ ง ง भावार्थ-आठ गुणस्थानों के पर्याप्तकाल सम्बन्धी पदवृन्दोंका परिमाण ८६८८० बतला आये हैं, उनमें अपर्याप्तकाल सम्बन्धी सासादनगुणस्थानके ५१२, अविरत गुणस्थानके २४०० तथा नौवें और दशवें गुणस्थानके २६१ भंगों को और जोड़ देनेपर योगोंकी अपेक्षा मोहकर्मके सर्व उदयस्थान-सम्बन्धी पदवृन्द-भंगों का प्रमाण ६००५३ प्राप्त हो जाता है । योगकी अपेक्षा सर्वं भंगों की अंकसंदृष्टि इस प्रकार है १ १ १ उ० प्र० ६८ ३२ ३२ ३२ ६० उद० पद० ७८८|२४ ३८४।२४ ३२०१२४ ६००।२४ ४६८|२४ ४८४॥२४ ३६६।२४ १८०१२४ ६० ६० ५२ ४४ ४४ २० २ १. १ २४ ४ ६ पद० ७८८ ३८४ सर्वभ० १८६१२ १६१६।५१२ ७६८० ३२० ६०० १२० ६० ४६८ १४४००।२४०० ४८४ ३६६ १८० ११२३२ ११६१६ ६५०४ ४३२० २४ ४ २५२ ह ६००५३ ७६८० १४४०० १६२० ४८० ११२३२ ११६१६ ६५०४ ४३२० २५२ ६ १ समस्त पदवृन्द-भंग = ६००५३ गुण० २४ २४ १६ २४ २४ १६ - २४ भं० १८६१२ २१६ ५१२ २४ २४ २४ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अब उपयोगको अपेक्षा मोहनीयकर्ममें उदयसम्बन्धी भंगोंका निरूपण करते हैं मिच्छादिय-देसंता पण पण छ छक्क छच्च उवओगा। विरयादिय-खीणता उवओगा सत्त दुसु दोण्णि ॥३६१॥ *एवं गुणठाणेसु उवओगा ५।५।६।६।६।७।७।७।७।७७।७।२।२। अथ मोहनीयप्रकृत्युदयस्थानतत्प्रकृतीः गुणस्थानेषु उपयोगानाश्रिस्याऽऽह-[ 'मिच्छादिय-देसंता' इत्यादि । ] मिथ्यादृष्टयादिदेशसंयतान्ताः क्रमेण पञ्च पञ्च षट् षट् षडुपयोगाः। प्रमत्तादिक्षीणान्ता उपयोगाः सप्त ७ । द्वयोः सयोगायोगयोद्वौं उपयोगौ। तथाहि-उपयोगा मिथ्याष्टि-सासादनयोः ध्यज्ञानं चक्षुरचक्षुदर्शनद्वयमिति पञ्च ५। मिश्रादित्रये विज्ञानं ब्रिदर्शन मिति षट् ६ । प्रभत्तादिसप्तके चतुर्ज्ञानं त्रिदर्शन मिति सप्त ७ । सयोगायोगसिद्धेषु केवलज्ञान-दर्शन मिति द्वौ २ ॥३६॥ उपयोगके मूल में दो भेद हैं- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोगके आठ और दर्शनोपयोगके चार भेद होते हैं। उनमेंसे, मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर देशसंयतगुणस्थान तक क्रमशः पाँच, पाँच, छह, छह और छह उपयोग होते हैं । प्रमत्तविरतसे लेकर क्षीणकषायगुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें सात सात उपयोग होते है । अन्तिम दो गुणस्थानोंमें दो दो उपयोग होते हैं ॥३६१॥ ___ गुणस्थानोंमें उपयोग इस प्रकारसे होते हैं- मि० सा० मिश्र अवि० देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० क्षी० स० अ० सग-सगभंगेहि य ते उवओगा संगुणं च काऊण ।। चउवीसेण य गुणिए छावत्तरिसयमसीदी य ॥३६२॥ स्वक स्वकगुणस्थानोक्तप्रकृतिस्थानभङ्गविकल्पैः कृत्वा तान् स्व-स्वगुणस्थानोक्तोपयोगान् संगुणं कृत्वा संगुण्य पुनश्चतुर्विशत्वा २४ गुणयित्वा मिथ्यादृष्ट याद्यपूर्वकरगान्ताः सप्तसहस्राशीत्यधिकषट शतप्रमिताः स्थानविकल्पाः ७६८० भवन्ति ॥३६२॥ इन उपर्युक्त उपयोगोंको अपने अपने गुणस्थानसम्बन्धी भंगोंसे गुणा करके पुनः चौबीससे गुणा करनेपर छिहत्तरसौ अस्सी सर्व भंगोंका प्रमाण आ जाता है ॥३६२॥ 4 गुणठाणेसु अट्टसु उदया ८४४८मामामा सगसगउवओगगुणा ४०॥२०२४॥४८॥४८॥५६॥५६॥ २८। चउवीसभंगगुणा ६६०।४८०।५७६।११५२।११५२।१३४४।१३४४।६७२। सव्वे वि मेलिया ७६८० । तथाहि-तत्र मिथ्यादृष्टौ स्थानानि प्रकृतयच ह । ८८ स्वोपयोगै ५ गुणिते सति स्थानानि चःवारिंशत् ४० । सासादने ८।८ स्वोपयोगै ५ गुणिते स्थानानि २० । मिश्रे ८८ । स्वोपयोग ६ गुणिते स्थानानि २४ । असंयते ।८ । ७।७ स्वोपयोगै ६ गुणिते स्थानानि ४८ । देशसंयते ७।७ । ६।६ स्वो 1 सं० पञ्चसं० ५,३७६-३७७ । 2. ५, गुणेषूपयोगाः' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २०६)। 3. ५, ३७८ । ___4. ५, ६६०' इत्यादिसंख्यापंक्तिः ( पृ० २०६)। | Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ पञ्चसंग्रह पयोग ६ गुणिता स्थानविकल्पाः ४८ । प्रमत्त अप्रमत्त च ६।६ । ५.५ स्वोपयोगै ७ गुणिताः स्थान विकल्पाः ५६।५६। अपूर्वकरणे ५।५ स्वोपयोगै ७ गुणिताः स्थानविकल्पाः २८। पुनर्मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरण गुणस्थानेषु अष्टसु उपयोगा: मि. सा. मि० भ० दे० प्र० अप्र० अपू० स्व-स्वस्थानसंख्याभिः स्व-स्वोपयोगगुणिता:मि. सा. मि० अ० अप्र० अपू० २०२४४८ एते चतुर्विशतिभङ्गुणिताः सन्तः-- मि. सा. मि० अ० दे० प्र० प्र० पू० ६६० ४८० ५७६ ११५२ ११५२ १३४४ १३४४ ६७२ सर्वेऽपि मीलिताः सप्तसहस्रघट्शताशीतिप्रमिताः स्थानविकल्पाः ७६८० भवन्ति । आदिके आठों गुणस्थानोंमें उदयस्थान ८,४,४,८, , ८, ८, ४ हैं। इन्हें अपने अपने गुणस्थानके उपयोगोंसे गुणा करनेपर ४०, २०, २४,४८, ४८, ५६, ५६, और २८ आते हैं । इन्हें चौबीससे गुणा करनेपर ६६०, ४८०, ५७६, ११५२, ११५२, १३४४, १३४४ और ६७२ भंग प्राप्त होते है। इन सर्व भंगोंको मिलानेपर ७६८० आठ गुणस्थानोंमें उपयोग-सम्बन्धी भंग आ जाते हैं। अणियट्टिसुदए भंगा सत्तारस चेव होंति णायव्वा । सत्तवओगे गुणिया सय दस णव चेव भंगा हु ॥३६३॥ अणियट्टीए १२।४। सुहुमे १ । दो वि मेलिया १७ । सत्तुवजोगगुणा ११६ । अनिवृत्तिकरण-सूचमसाम्पराययोः सप्तदशोदयभङ्गविकल्पा भवन्ति १७ ज्ञातव्याः। ते सप्तोपयोगैगुणिताः शत १०० दश १० नव ६ चेति [ ११६ ] भङ्गा विकल्पा भवन्ति ॥३६३॥ अनिवृत्तिकरणस्य सवेदभागे १२ अवेदभागे ४ सूक्ष्मे १ सर्वे मीलिताः १७ । एते सप्तोपयोगगुणिताः ११६ । तथाहि-अनिवृत्तौ सवेदभागे एकप्रकृतिकस्थानं । सप्तोपयोगगुणितं सप्तकम् । पुन दशभङ्गुणिते चतुरशीतिः ८४ । अवेदभागे स्थानमेकं १ सप्तभिरपयोगैगुणितं सप्तकम् ७ । पुनश्चतुर्भङ्गगुणिते अष्टाविंशतिः २८ । सूचमे स्थानमेकं १ सप्तोपयोगगुणितं सप्तकम् ७ । एवं मीलिताः ११६ । __ अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें उदयसम्बन्धी भंग सत्तरह होते हैं। उन्हें सात उपयोगोंसे गुणा करने पर एकसौ उन्नीस भङ्ग होते हैं ऐसा जानना चाहिए ॥३६३।। 'सत्तचरि चेव सया णवणउदी चेव होंति बोहव्वा । उदयवियप्पे जाणसु उवओगे मोहणीयस्स ॥३६४॥ उदयवियप्पा ७७६६ । उपयोगाश्रितमोहनीयोदयस्थानविकल्पान् जानीहि, भो भव्यवर ! स्वम् । कति ? सप्तसहस्रसप्तशतनवनवतिर्जातव्या भवन्ति ७७६६ ॥३६४॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३७६ । 2. ५, ३८० । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका PE. 1o स्था उप० मं. 4 मि० ४० له Eur mm सा० भं० वि० ३४० १६० १६२ ३६० له मि० له अ० له . له لم प्र० अप्र० अपू० GGnm MII. ४.४ له . . ५.1M ॐ له مه अनि० उ० क्षी स. २४ २४ मिश्र अयो. इस प्रकार मोहनीयकर्मके उपयोगकी अपेक्षा सर्व उदयविकल्प सतहत्तरसौ निन्यानबै (७७६६ ) होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३६४॥ उपयोगोंकी अपेक्षा उदयधिकल्पोंकी संदृष्टि इस प्रकार है: गुणस्थान उपयोग उदयस्थान गुणकार भंग मिथ्यात्व ६६० सासादन ४८० २४ ५७६ अविरत ११५२ देशविरत ११५२ प्रमत्तविरत १३४४ अप्रमत्तविरत १३४४ अपूर्वकरण ७ अनिवृत्ति ७ सूक्ष्मसाम्प० ७ सर्व उदय विकल्प ७७६E अब गुणस्थानों में उपयोगकी अपेक्षा मोहनीयकी उदयप्रकृतियोंकी संख्या बतलाते हैं मिच्छादि-अपुव्वंता पयडिवियप्पा हवंति णायव्वा । उवओगेण य गुणिया चउवीसगुणा य पुणरवि य ॥३६॥ uuuuuN १ 1. सं० पञ्चसं०५, ३८१ । | Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ पञ्चसंग्रह अथ गुणस्थानेषु उपयोगाश्रितमोहोदयप्रकृतिसंख्या कथ्यते-[ 'मिच्छादि-अपुन्वंता' इत्यादि । ] मिथ्यारष्ट्यानपूर्वकरणान्ताः प्रकृतिविकल्पा भवन्ति ज्ञातव्याः । मिथ्यादृष्टौ । । ८1८ एषामष्टषष्टिः ६८ । एवं सासादनाद्यपूर्वकरणान्तेषु ज्ञेयम् । ता उदयप्रकृतयः स्व-स्वगुणस्थानसम्भव्युपयोगगुणिता पुनरपि चतुर्विशतिभङ्ग: २५ गुणिता उदयविकल्पा भवन्ति ॥३६५॥ मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण तक जितने प्रकृतिविकल्प होते हैं, उन्हें पहले उपयोगसे गुणित करे । पुनरपि चौबीससे गुणा करे ॥३६५।। एवं गुणठाणेसु असु उदयपयडीओ ६८।३२॥३२॥६०१५२।४४।४४।२०। उवओगगुणा ३४०॥ १६०।१६२।३६०।३१२।३०८।३०८।१४०। चउवीसभंगगुणा मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणान्तगुणस्थानेषु अष्टसु उदयप्रकृतयः ६८॥३२॥३२॥६०।५२।४४।४४।२० स्वस्वगुणस्थानसम्भव्युपयोगैः गुणिताः ३४०।१६०।१६२१३६०।३१२।३०८।३०८।१४०। पुनरपि वेदत्रय ३ हास्यादियुग्म २ कषायचतुष्क ४ गुणितचतुर्विशत्तिभङ्ग २४गुणिताः मिथ्यात्व आदि आठ गुणस्थानों में उदयप्रकृतियाँ क्रमशः इस इस प्रकार हैं-६८, ३२, ६०, ५२, ४४, ४४, और २० । इन्हें अपने अपने गुणस्थानके योगोंसे गुणा करनेपर ३४०, १६०, १६२, ३६०, ३१२, ३०८, ३०८ और १४० संख्या प्राप्त होती है। इन्हें चौबीस चौबीस भंगोंसे गुणा करनेपर अपने अपने गुणस्थानके भंग आ जाते हैं। अब आगे प्रत्येक गुणस्थानमें उन भंगोंका प्रमाण बतलाते हैं अट्ठसहस्सा एयसदसट्ठी मिच्छम्हि हवंति णायव्वा । तिण्णि सहस्सा अडसदचत्ताला सासणे भंगा ॥३६६॥ ८१६०॥३८४०। तद्गुणितफलं गाथाचतुष्केगाऽऽह-['अट्ठ सहस्सा य सदसट्ठी' इत्यादि ।] मिथ्यादृष्टौ अष्टसहस्राः एकशतषष्टिप्रमिता: मोहोदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ८.६०। सासादने त्रिसहस्रचत्वारिंशदधिकाष्टशतभङ्गसंख्या ज्ञातव्याः ३८४० ॥३६६॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें आठ हजार एक सौ साठ भंग (८१६०) होते हैं। सासादनमें तीन हजार आठ सौ चालीस (३८४०) भंग होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३६६॥ सम्मामिच्छे भंगा अठुत्तरछस्सदा चउसहस्सा । छच्च सया सत्ताला अट्ठ सहस्सं तु अजदीए ॥३६७॥ ४६०८1८६४०॥ सम्यग्मिथ्यात्वे मिश्रे चतुःसहस्राष्टोत्तरपट्शतप्रमिता मोहोदयप्रकृतिविकल्पा: ४६०८। असंयते अष्टसहस्रचत्वारिंशदधिकषट्शतभङ्गाः ८६४० ॥३६७॥ सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानमें चार हजार छह सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं। अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानमें आठ हजार छह सौ चालीस (८६४०) भंग होते हैं ।।३६७।। 1. सं० पञ्चसं० ५, 'गुणेष्वष्टेषु' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० २१०)। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका देसे सहस्स सत्तय चउसय अठ्ठत्तरा असीदी य । तिण्णि सया वाणउदी सत्त सहस्सा पमत्ते दु ॥३६८॥ ७४८८७३६२। देशसंयते सप्तसहस्राष्टाशीत्युत्तरचतुःशतसंख्या ७४८८ भवन्ति । प्रमत्ते शतत्रयद्वानवतिसप्तसहस्राणीतिमोहोदयप्रकृतिपरिमाणं ७३१२॥३६८॥ देशविरतगुणस्थानमें सात हजार चार सौ अठासी (७४८८) भंग होते हैं प्रमत्तविरतमें सात हजार तीनसौ बानबै (७३६२) भङ्ग होते हैं ॥३६८।। अह+ अप्पमत्तभंगा तावदिया होंति णायव्वा । तिग तिग छस्सुण्णगदा भंगवियप्पा अपुव्वे य ॥३६॥ ७३६२१३३६० सव्वेमेलिया ५०८८० । अथ अप्रमत्ते भङ्गाः प्रमत्तोक्तप्रमितास्तावन्त उदयविकल्पाः ७३६२ भवन्ति । अपूर्वकरणे त्रिकत्रिकषट्शून्यं गताः उदयविकल्पाः ३३६० ज्ञातव्या भवन्ति ॥३६६॥ सर्वे मीलिताः ५०८८० । इससे आगे सातवें अप्रमत्तगुणस्थानमें भी उतने ही अर्थात् सात हजार तीनसौ बानबै (७३६२) भङ्ग जानना चाहिए । अपूर्वकरणमें तीन, तीन, छह और शून्य अर्थात् तीन हजार तीन सौ साठ (३३६०) भङ्ग होते है ॥३६॥ उक्त आठों गुणस्थानोंके भङ्गोंका जोड़ ५०८८० होता है। अणियट्टिम्मि वियप्पा दोण्णि सया तिगधिया मुणेयव्वा । सव्वेसु मेलिदेसु य उवओगवियप्पया णेया ॥३७०॥ अणियहिउदयपयडीओ २४ । भवेदे १ सुहुमे । । सब्वे वि २६ । सत्तुवोगगुणा २०३ । अनिवृत्तिकरणस्य सवेदभागे प्रकृतिद्वयं २ वेदत्रयकषायचतुष्कहतैर्द्वादशभङ्ग गुणिताः २४ । अवेदभागे प्रकृतिः १ चतुःसंज्वलनहता। सूक्ष्मे सचमलोभः । एवमेकोनत्रिंशददयविकल्पाः २ योगैगुणितास्त्रिकाधिकद्विशतप्रमिता उदयविकल्पाः २०३ ज्ञेयाः ॥३७०॥ अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें तीन अधिक दो सौ अर्थात् २०३ भङ्ग जानना चाहिए । इन सर्व भङ्गोंके मिला देने पर उपयोग-विकल्पोंका प्रमाण निकल आता है ऐसा जानना चाहिए ॥३७०॥ ___ अनिवृत्तिकरणके सवेदभागमें उदयप्रकृतियाँ २४ होती हैं और अवेद भागमें ४ होती हैं। सूक्ष्मसाम्परायमें उदयप्रकृति १ है। ये सब मिलकर २६ हो जाती हैं। उन्हें सात उपयोगसे गुणा करने पर २०३ भङ्ग दोनों गुणस्थानोंके आ जाते हैं। इक्कावण्णसहस्सा तेसीदी चेव होंति बोहव्वा । पयसंखा णायव्वा उवओगे मोहणीयस्स ॥३७१।। ५१०८३ । 1. सं० पञ्चसं० ५,३८२ । 2.५, ३८३ । १. गो. क. गा० ४६३ । +ब अथ । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० पञ्चसंग्रह ६८ mm १६० उपयोगाश्रितमोहनीथपदबन्धसंख्या प्रकृतिपरिमाणं एकपञ्चाशत्सहस्रन्यशीतिप्रमिता ५१०८३ मोहोदयविकल्पा सर्वे भवन्ति ज्ञातव्याः ॥३७१॥ प्र० वि० प्र० भं. मि० ३४० ८१६० सा० ३८४० १६२ ४६०८ ३६० ८६४० ७४८८ ३.०८ ७३६२ भप्र० ३०८ ७३६२ अपू० ३३६० अनि १६८ २८ ०. २१२ ० 70 66.1 ६८ ५१०८३ इति गुणस्थानेषु उपयोगाश्रितमोहोदयप्रकृतिविकल्पाः समाप्ताः । इस प्रकार उपयोगको अपेक्षा मोहनीयकर्मके पदवृन्द-भङ्गोंका प्रमाण इकावन हजार तेरासी (५१०८३) होता है, ऐसा जानना चाहिए ॥३७१।। उपर्युक्त सर्व भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान उपयोग उदयपद गुणकार भङ्ग मिथ्यात्व ८१६० सासादन ३२ २४ ३८४० मिश्र ३२ ४६०८ अविरत ८६४० देशविरत ७४८८ प्रमत्तविरत ७३६२ अप्रमत्तविरत २४ ७३६२ अपूर्वकरण ७ ३६६० अनिवृत्तिकरण ७ १२ १६८ in my w २४ २४ ६० Xururr9999 सूक्ष्मसाम्पराय ७ सर्व पदबृन्द-भङ्ग ५१०८३ अब लेश्याओंकी अपेक्षा गुणस्थानों में मोहके उदयस्थानोंकी संख्याका विचार करते हुए पहले गुणस्थानोंमें संभवती लेश्याओंका निरूपण करते हैं 'मिच्छादि-अप्पमत्तयाण लेसा जिणेहिं णिहिट्ठा । छ छक्क छक्क छ त्तिय लिग तिण्णि य होंति लेसाओ ॥३७२॥ 1.सं. पञ्चसं० ५, ३८४ । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ सप्ततिका तस्सुवरि सुकलेसा मिच्छादि-अपव्वतया लेसा । चउवीसेण य गुणिदे भंगेहिं गुणिज पच्छा दु ॥३७३॥ अथ लेश्यामाश्रित्य गुणस्थानेषु मोहदयस्थानसंख्यामाह । आदौ गुणस्थानेषु सम्भवल्लेश्याः प्राह[ 'मिच्छादिअप्पमत' इत्यादि । ] मिथ्यादृष्टयाचप्रमत्तान्तगुणस्थानेषु क्रमेण षट ६ षटक ६ षटक ६ षट् ६ तिस्रः ३ तिस्रः ३ तिस्रो ३ लेश्या भवन्ति । तथाहि-मिथ्यादृष्टवादिचतुषु गुणस्थानेषु प्रत्येक षट् ६ लेश्या भवन्ति । देशसंयतादित्रये शुभा एव तिस्रः ३। तत उपर्यपूर्वकरणादिसयोगपर्यन्तमेका शुक्ललेश्यैव । मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू. अनि० सू० उ० क्षो० स० अ० मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणान्तलेश्या इति स्व-स्वगुणस्थानोक्तमोहोदयस्थानभङ्गाः स्वगुणस्थानोक्तलेश्याभिगुणिताः पश्चाच्चतुर्विशतिभङ्ग २४ गुणिताः ॥३७२-३७३॥ मिथ्यात्व गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक जिनेन्द्रदेवने लेश्याएँ क्रमशः इस प्रकारसे निर्दिष्ट की हैं-छह, छह, छह, छह, तीन, तीन और तीन । अर्थात् चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्याएँ होती हैं। पाँचवेंसे सातवें तक तीनों शुभ लेश्याएँ होती हैं। इससे ऊपरके गुणस्थानोंमें केवल एक शुक्ललेश्या होती हैं। (चौदहवाँ गुणस्थान लेश्या-रहित होता है ।) इनमेंसे मिथ्यात्वसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक की लेश्याओंको अपने-अपने गुणस्थानोंके मोहसम्बन्धी उद्यस्थानों की संख्यासे गुणा करे । पीछे चौबीस भङ्गोंसे गुणा करे ॥३७२-३७३॥ 1६।६।६।६।३।३।३।१ मिच्छादिसु उदया ८!४।४।८८८८।४। सग-सगलेसगुणा ४८।२४।२४। ४८२४॥२४॥२४१४ । चउवीसभंगगणा मिथ्यादृष्ट पाद्यपूर्नभरणान्तोदयस्थानसंख्यामि० सा० मि० भ० दे० प्रम० भप्र. अपू० स्व-स्वगुणस्थानोक्तलेश्याभिगणिताणिता:मि० सा० मि० भ० दे० प्रम• अप्र० अपू० ૪૬ ૨૪ ૪૬ ૨૪ ૨૪ ૨૪ ક. मिथ्यात्वादि आठ गुणस्थानों में लेश्याएँ इस प्रकार हैं-६, ६, ६, ६, ३, ३, ३, १ । इन्हें इन्हीं गणस्थानोंके उदयस्थानोंसे गुणे, जिनकी संख्या इस प्रकार है-८, ४, ४, ८, ८, ८,८,४। इस प्रकार अपनी अपनी लेश्यासे गुणा करने पर ४८, २४, २४, ४८, २४,२४,२४, ४ संख्या आती है । उन्हें चौबीस भङ्गोंसे गुणा करने पर अपने अपने गुणस्थानके भङ्ग आ जाते हैं। जो इस प्रकार हैं मिच्छादिट्ठी मंगा एक्कारस सया य होंति वावण्णा । सासणसम्मे भंगा छावत्तरि पंचसदिगा य ॥३७४॥ ११५२।५७६॥ तथाहि-मिथ्यादृष्टौ स्थानानि दशादीनि चत्वारि है। नवादीनि चत्वारि ८८ मिलित्वाऽष्टौ ८ १० 1. सं० पञ्चसं० ५, ६, ६, ६, ६,' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१०)। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ पञ्चसंग्रह पढ्लेश्याभि ६ गुणितानि ४८ । सासादने नवादीनि चत्वारि साम पड्लेश्याभिगुणितानि २४ मिश्र स्थानानिनवादीनि चत्वारि ८८ षड्लेश्याभिर्गुणितानि २४ । असंयते स्थानानि नवादीनि चत्वारि ८८ अष्टादीनि चत्वारि ७७ । मिलित्वा अष्टौ ८ पड्लेश्यागुणितानि ४८ ! देशसंयते स्थानानि अष्टादीनि चत्वारि ७१७ सप्तादीनि चत्वारि ६।६ मिलिस्वा भष्टौ शुभलेश्यानयगुणितानि २४ । प्रमत्ते अप्रमत्ते च स्थानानि सप्तादीनि चत्वारि ६६ षटकादीनि चत्वारि ५.५ मिलित्वा भष्टौ तत्त्रयलेश्यागुणितानि २४॥२४ । अपूर्वे स्थानानि षट्कादीनि चत्वारि शुक्ललेश्यागुणितानि चत्वार्येव ४ । एतावत्पर्यन्तं सर्वत्र गुणकारश्चतुर्विंशतिः २४ । मिथ्यादृष्टेरुदयस्थानभङ्गाः ४८ चतुर्विंशत्या भङ्गुणिता एकादशशतद्वापञ्चाशत् ११५२ भवन्ति । सासादने २४ चतुर्विशत्या २४ गुणिताः पञ्चशतषट्सप्ततिप्रमिता मोहोदयस्थानविकल्पाः ५७६ स्युः ॥३७॥ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके लेश्या-सम्बन्धी मोहके उदयस्थानोंके भङ्ग ग्यारहसौ बावन (११५२) होते हैं । सासादनसम्यक्त्वमें पाँचसौ छिहत्तर भंग (५७६) होते हैं ॥३७४॥ सम्मामिच्छे जाणे तावदिया चेव होंति भंगा हु । एकारस चेव सया वावण्णासंजया सम्मे ॥३७॥ ५७६।११५२॥ सम्यग्मिथ्यात्वे मिश्रे तावन्तः पूर्वोक्तषट् सप्तत्यधिकपञ्चशतप्रमिता भवन्तीति जानीहि ५७६ । असंयतसम्यग्दष्टौ एकादशशतद्वापञ्चाशद् भङ्गा ११५२ भवन्ति ॥३७५॥ सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें उतने ही भङ्ग जानना चाहिए अर्थात् ५७६ भङ्ग होते हैं। असंयतसम्यक्त्वगणस्थानमें ग्यारहसौ बावन (१९५२) भङ्ग होते हैं ॥३७५॥ विरयाविरए भंगा छावत्तरि होति पंचसदिगा य । विरए दोसु वि जाणे तावदिया चेव भंगा हु ॥३७६॥ ५७६५५७६१५७६ ..........॥३७६॥ केटीका प्रतिमें १८१ वा पत्र नहीं होनेसे गाथाङ्क ३७६ से ३८६ तकको टीका अनुपलब्ध है। अतः छूटे अंशके सूचनार्थ बिन्दुएँ दी गई हैं। तथा १८२ वा एत्र आधा टूटा है, अतः त्रुटित अंश पर बिन्दु देकर उपलब्ध अंश दिया जा रहा है। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका विरताविरतगुणस्थानमें पाँचसौ छिहत्तर (५७६) भङ्ग होते हैं । दोनों विरत अर्थात् प्रमत्त और अप्रमत्तविरतमें भी उतने ही अर्थात् पाँच सौ छिहत्तर, पाँचसौ छिहत्तर भङ्ग जानना चाहिए ॥३७६॥ छण्णउदिं च वियप्पा अउव्वकरणस्स होंति णायव्वा । पंचेव सहस्साई वेसदमसिदी य भंगा हु ॥३७७॥ १६।५२००। अपूर्वकरणमें छथानबै (६६) भङ्ग होते हैं। इस प्रकार आठों गुणस्थानोंके लेश्याकी अपेक्षा उदयस्थानके विकल्प पाँच हजार दो सौ अस्सी (५२८०) होते हैं ॥३७७॥ अणियट्टिय सत्तरसं पक्खिवियव्वा हवंति पुव्वुत्ता । तेहिं जुआ सन्वे वि य भंगवियप्पा हवंति णायव्वा ॥३७८॥ इन उपर्युक्त भङ्गोंमें अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके पूर्वोक्त सत्तरह भङ्ग और प्रक्षेप करना चाहिए । इस प्रकार इनसे युक्त होने पर जो आठों गुणस्थानोंके उउयविकल्प हैं, वे सर्व मिलकर लेश्याकी अपेक्षा मोहके उदयविकल्प हो जाते हैं ॥३७८॥ अणियहि-सुहुमाणं उदया १७ । सुक्कलेप्सगुणा १७ । सव्वे वि मेलिया अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके उदय-विकल्प १७ होते हैं। उन्हें एक शुक्ललेश्यासे गुणा करने पर १७ भङ्ग हो जाते हैं । ये उपर्युक्त सर्व भंग कितने होते हैं, इसे भाष्यकार स्वयं बतलाते हैं बावण्णं चेव सया सत्ताणउदी य होति बोहव्वा । उदयवियप्पे जाणसु लेसं पडि मोहणीयस्स ॥३७६॥ ५२१७ । मोहनीयकर्मके लेश्याओंकी अपेक्षा सर्व उदयविकल्प बावन सौ सत्तानबै (५२६७) होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३७६॥ इन उदयस्थानोंके भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान लेश्या उदयस्थान गुणकार भङ्ग मिथ्यात्व २४ ११५२ सासादन मिश्र अविरत ११५२ देशविरत ५७६ प्रमत्तविरत પૂ૭૬ अप्रमत्तविरत ५७६ अपूर्वकरण .. २४ १६ अनिवृत्तिकरण १ १२ १२ w w Urus w m m m w or सूक्ष्मसाम्पराय सर्व भङ्ग-५२६७ 1. सं० पञ्चसं० ५,३८५ । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.४ पञ्चसंग्रह अब लेश्याओंकी अपेक्षा मोहनीयके पदवृन्द बतलाते हैं 'मिच्छादिढिप्पहुदि जाव अपुव्वंतलेसकप्पा दु । पयडिट्ठाणेहिं हया चउवीसगुणा य होति पदबंधा ॥३८०॥ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक जो लेश्याके विकल्प बतलाये गये हैं उन्हें पहले उस उस गुणस्थानके उदयस्थानोंकी प्रकृतियोंसे गुणा करे। पीछे चौबीससे गुणा करने पर विवक्षित गणस्थानके पदवृन्द प्राप्त हो जाते हैं ॥३८०॥ अट्ठसु गुणठाणेसु पुन्वुत्ता उदयपयडीओ ६८।३२।३२।६०५२।४४।४४।२०। सग-सगलेसगुणा ४०८।१६२११६२।३६०।१५६।१३२।१३२:२० । चउवीस-भंग-गुणा __ आदिके आठों गुणस्थानोंमें पूर्व में बतलाई गई उदयप्रकृतियाँ क्रमशः ६८, ३२, ३२, ६०, ५२,४४,४४ और.२० होती है। इन्हें अपने अपने गुणस्थानकी लेश्या-संख्यासे गुणा करनेपर ४०८, १६२, १६२, ३६०, १५६, १३२, १३२ और २० संख्या प्राप्त होती हैं। उस संख्याको चौबीस भंगोंसे गुणा करनेपर प्रत्येक गुणस्थानके उदयपदवृन्दोंका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। अब भाष्यगाथाकार स्वयं प्रत्येक गुणस्थान पदवृन्दोको कहते हैं मिच्छादिट्ठी-भंगा सत्तसया णवसहस्स वाणउदी । सासणसम्मे जाणसु छायालसदा य अट्ठधिया ॥३८॥ १७६२१४६०८। मिश्यादृष्टिगुणस्थानके सर्व भंग नौ हजार सात सौ बानबै ( ६६२ ) होते हैं । सासादनसम्यक्त्वमें आठ अधिक छयालीस सौ अर्थात् चार हजार छह सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं ॥३८॥ सम्मामिच्छे जाणसु तावदिया चेव होंति भंगा हु। अठेव सहस्साई छस्सय चाला अविरदे य ॥३८२॥ ४६०८।८६४० । सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानमें भी इतने ही अर्थात् चार हजार छह सौ आठ (४६०८) जानना चाहिए । अविरतसम्यक्त्वमें आठ हजार छह सौ चालीस (८६४०) भंग होते हैं ॥३८२॥ विरयाविरए जाणसु चोद्दाला सत्तसय तिय सहस्सा । विरदे य होंति णेया एकत्तीस सय अडसट्टी ॥३८३॥ ३७४४।३१६८। विरताविरतमें तीन हजार सात सौ चवालीस (३७४४) भंग होते हैं। प्रमत्तविरतमें इकतीससौ अडसठ अर्थात् तीन हजार एक सौ अडसठ (३१६८) भंग होते हैं ॥३८३।। अथ अप्पमत्तविरदे तावदिया चेव होंति णायव्वा । जाणसु अपुव्वविरदे चउसदमसिदी य भंगा हु ॥३८४॥ ३१६८१४८०। सव्वे मेलिया ३८२०८। 1. सं० पञ्चसं० ५, गुणाष्टके पदबन्धे' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१०-२११)। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ सप्ततिका अप्रमत्तविरतमें भी इतने ही भंग होते हैं अर्थात् तीन हजार एक सौ अड़सठ (३१६८ ) भंग जानना चाहिए । अपूर्वकरणमें चार सौ अस्सी (४८०) भंग होते हैं ॥३८४॥ इस प्रकार आठों गुणस्थानोंके सर्वपदवृन्द भिलकर ३८२०८ होते हैं। ऊणत्तीसं भंगा अणियट्टी-सुहुमगाण बोहव्वा । सव्वे वि मेलिदेसु य सव्ववियप्पा वि एत्तिया होति ॥३८॥ . अणियहि-सुहुमाणं उदयपयडीओ २६ । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके उनतीस भंग जानना चाहिए । इन सर्वभंगोंके मिला देनेपर जो सर्वविकल्पोंका प्रमाण होता है । वह इतना ( वक्ष्यमाण ) है ॥३८५॥ अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायको उदयप्रकृतियाँ २६ होती हैं। . 'अत्तीससहस्सा वे चेव सया हवंति सगतीसा । पदसंखा णायव्वा लेसं पडि मोहणीयस्स ॥३८६॥ ३८२३७। ...... "[अष्टात्रिंशत्सहस्र ] द्विशतसप्तत्रिंशत्प्रमिता पदसंख्या मोहोदयप्रकृति विकल्पाः प्रागुक्तलेश्यामाश्रित्य............."[ ज्ञा] तव्याः ॥३८६॥ गुण० स्थान० प्रकृ० लेश्या स्था० गुण. भंगाः भंगधिक० मि० ८ ६८ ६ ४८ २४ ११५२ १७६२ सा० ४ ३२ ६ २४ २४ ५७६ मि०४ ३२ ६ २४ २४ ५७६ १६२ अवि. ११५२ ८६४० ३७४४ प्रम० ४४ ३ ३१६८ अप्र० ८ ४४ ३ २४ २४ ५७६ ३१६८ १३२ अपू० २० . ४ २४ १६ ४८० अनि० ४ २ १ १ १२ १२ ४०८ ४६०८ ४६०८ ० ३० द ०० ० सूचम० १ . १ . . ३८२३७ मोहनीयकर्मके लेश्याकी अपेक्षा सर्व पदवृन्दोंकी संख्या अड़तीस हजार दो सौ सेंतीस (३८२३७) होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥३८६।। 1. सं० पञ्चसं० ५, ३८६ । १. गो. क. गा० ५०५ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह भंग २४ 0. लेश्याओंकी अपेक्षा पदवृन्दोंके भंगोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैगणस्थान लेश्या उदयपद गुणकार मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत ६० देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण www.mmam ६७६२ ४६०८ ४६०८ ८६४० ३७४४ ३१६८ ३१६८ ४८० २४ WwwEE सूक्ष्मसाम्पराय सर्व पदवृन्दभङ्ग-३८२३७ 'मिच्छादिसु उदया ८४४८८८८४ एदे तिवेदगुणा २४।१२।१२।२४।२४।२४।२४।१२। चउवीस-भंग-गुणा ५७६।२८८२८८५७६५५७६।५१६।५७६।२८८ । सब्वे वि मेलिया ३७४४ । अणियट्टिम्मि संजलणा तिवेदगुणा १२ । दो वि मेलिया अथ वेदानाश्रित्य मोहोदयस्थान-तत्प्रकृतिविकल्पान दर्शयति-मो........."गणस्थानाष्टके याश्चतुविंशतिसंगणाः १ मिथ्यादृष्टयादिष्वष्टसु उदयाः स्थानविक[ल्पा:]..........'' [मिथ्या० ८ । सासा० ४ । मिश्र० ४ । अवि० ८ । देश० ८ । प्रम० ८ । अप्र० ८ । अपू० ४ । एते त्रिभिर्वेदै ३ गुणिताः मि० २४ । मि० २४ । सा० १२ । मि० १२ अ० २४ । देश. २४ । प्रम० २४ । अ [प्र. २४ । अपू० १२ । एते चतुर्विशतिभङ्गग गि] ताः मि० ५७६ । सा० २८८ । मि० २८८ । अ० ५७६ । दे० ५७६ । प्र० ५७६ । अप्र० ५७६ । अपू० २८८ । स [र्वेऽपि मेलिताः ३७४४ । अनिवृत्तिकरणे सं ] ज्वलनाश्चत्वारः ४ त्रिवेदगुणिता द्वादश १२ । उभये मेलिताः तदाह-- अब आगे वेदकी अपेक्षा मोहकर्मके उदय-विकल्पोंका निरूपण करते हैं मिथ्यात्व आदि आठ गुणस्थानोंमें उदयस्थान क्रमशः ८, ४, ४, ८, ८, ८, ८ और ४ होते हैं । इन्हें तीनों वेदोंसे गुणा करने पर क्रमशः २४, १२, १२, २४, २४, २४, २४ और १२ संख्या प्राप्त होती है । इन संख्याओंको चौबीस भङ्गोंसे गुणा करने पर क्रमशः ५७६, २८८, २८८, ५७६, ५७६, ५७६, ५७६ और २८८ भंग होते हैं । ये सर्व भङ्ग मिलकर ३७४४ हो जाते हैं। अनिवृत्तिकरणमें संज्वलनकषायोंको तीनों वेदोंसे गुणा करने पर १२ भङ्ग होते हैं । ये दोनों राशियाँ मिल कर ३७५६ भङ्ग हो जाते हैं। अब भाष्यकार इसी अर्थको गाथाके द्वारा प्रकट करते हैं "तिण्णेव सहस्साई सत्तेव सया हवंति छप्पण्णा । उदयवियप्पे जाणसु वेदं पडि मोहणीयस्स ॥३८७॥ ३७५६ । 1. सं० पञ्चसं० ५, ३८७ । तथा 'मिथ्यादृष्टयादिष्वष्टसूदयाः' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २११)। 2.५,३८८। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ om m m m 0. 00 m m सप्ततिका ४७७ [ 'तिण्णेवसहस्साई' इत्यादि । वेदान् प्रत्याश्रित्य मोहोदयस्थानविकल्पा:.........[त्रीणि सहस्राणि सप्तश-]तानि पटपञ्चाशत् ३७५६ भवन्तीति मन्यस्व ॥३८॥ वेदकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके उदयविकल्प तीन हजार सात सौ छप्पन (३७५६) होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३८७।। उक्त भगोकी संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान उदयपद वेद गुणकार सर्वभङ्ग मिथ्यात्व ५७६ सासादन २८८ मिश्र २८८ अविरत ८३ २४ देशविरत ५७६ प्रमत्तविरत ५७६ अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण ३ २४ २८८ अनिवृत्तिकरण सर्व उदयविकल्प ३७५६ अब वेदकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी पदवृन्द-संख्याको बतलाते हैं मिच्छादिसु उदयपयडीओ ६८॥३२॥३२॥६०।५२।४४१४४।२० । एए तिवेदगुणा २०४।६६।१६। १८०1१५६।१३२।१३।६। एए चउवीसगणा ४८६६।२३०४१२३०४१४३२०१३७४४।३१६८।३१६८। १४४० । सव्वे वि मेलिया २५३४४ । अणियट्टीए संजलणा दो उदयगुणा तिवेदगुणा य ४८२४ दो वि मेलिया पाकप्रकृतयः सर्वा वेदत्रयहता....."ताः १ मिथ्यादृष्ट्यादिषु अष्टसु उदयप्रकृतयः मि० ६८ । सा. ३२ । नि. ३२ । भवि० ६० दे० ५२ प्रम०४४ । अप्र. ४४ । अपू. २० । एते त्रिवेदगुणिताः मि० २०४ । सा०] ६६ । मि० ६६ । भवि० १८० । दे० १५६ । प्रम० १३२ । अप्र० १३२ । अपू० ६०। एते चतुर्विशत्या २४ गुणिता [मि० ४८६६ । सा०२३०४ । मि० २३०४ । अवि० ४३२० । देश.] ३७४४ । प्रम० ३१६८ । अप्र० ३१६८ । अपू० १४४० । सर्वेऽपि मीलिताः २५३४४ । अनिवृत्तिकरणे [चत्वारः संज्वलनाः उदयविकेन ] गुणिता: ८ त्रिभिर्वेदैगुणिताः २४ । उभये मीलिताः तदाह मिथ्यात्व आदि आठ गुणस्थानों में उदयप्रकृतियाँ क्रमशः ६८, ३२, ३२, ६०, ५२, ४४, ४४ और २० होती हैं। इन्हें तीनों वेदोंसे गुणा करने पर २०४, ६६, ६६, १८०, १५६, १३२, १३२ और ६० संख्या प्राप्त होती हैं । उसे चौबीससे गुणा करने पर क्रमशः ४८६६, २३०४, २३०४, ४३२०,३७४४,३१६८,३१६८ और १४४० भङ्ग प्राप्त होते हैं। ये सब मिलकर २५३४४ हो जाते हैं। अनिवृत्तिकरणमें चारों संज्वलनोंको दो उदयप्रकृतियोंसे गुणा करके पुनः तीनों वेदोंसे गुणा करने पर (४४२४३ =) २४ भंग प्राप्त होते हैं । दोनों ाशियोंके मिला देने पर सर्व भङ्ग २५३६८ हो जाते हैं। १२ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३८६ । तथा तदधस्तनगद्यभागः । (पृ० २११)। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह अब भाष्यकार इसी अर्थको गाथाके द्वारा प्रकट करते हैं ४७८ ' पणुवीससहस्साइ तिष्णेव सया हवंति अडसट्ठी । पयसंखा णायव्वा वेदं पडि मोहणीयस्स || ३८८ || २५३६८ । [ 'पणवीससहस्साइं ' इत्यादि । ] वेदानाश्रित्य मोहनीयस्य पदबन्धसंख्या मोहोदयप्रकृतिप्रमाणं.. [ पञ्चविंशतिसहस्राणि त्रीणि शतानि ] अष्टषष्टिश्च २५३६८ मोहोदयप्रकृति-विकल्पा भवन्ति ॥ ३८८ ॥ वेदकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके पदवृन्दोंकी संख्या पच्चीस हजार तीन सौ अडसठ होती है, ऐसा जानना चाहिए ||३८|| इन पदवृन्दोंकी संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान उदयपद वेद गुणकार सर्वभङ्ग मिथ्यात्व ६८ ३ २४ ४८६६ ३२ ३ २४ २३०४ ३२ ३ २४ २३०४ ६० २४ ५२ २४ ४४ २४ अप्रमत्तविरत ४४ २४ २० २४ पूर्व कर अनिवृत्तिकरण सासादन मिश्र अविरत देशविरत प्रमत्तविरत ४३२० ३७४४ ३१६८ ३१६८ १४४० २ २४ सर्व पदवृन्द- संख्या -- २५३६८ अब संयमकी अपेक्षा मोहकर्मके उदय-विकल्पोंका निरूपण करते हैं -- ३ ४ ३ ३ ३ 2 पत्तापमत्ताणं उदया मामातिसंजमगुणा २४।२४ | अपुग्वे उदया ४ । दुसंजमगुणा ८ । एए चउवसगुणा ५७६/५७६ । १६२ । सव्वे वि मेलिया १३४४ । अणियडीए उदया १६ । दुसंजमगुणा ३२ । सुहुमे उदओ १ । एओ संजमगुणो १ सव्वे वि मेलिया अथ संयममाश्रित्य मोहो [दय वि]कल्पाः मा सामायिक च्छेदोपस्थापना- परिहार विशुद्धिसंयमैस्त्रिभिगुणिताः प्र० २४ । [ अप्र० २४' "अपूर्वे उदयविकल्पाः ४ ] सामायिकच्छेदोपस्थापनासंयमाभ्यां द्वाभ्यां गुणिताः । एते चतुर्विशत्या २४ गुणिताः प्रमत्ते ५७६ ] अप्रमत्ते ५७६ । अपूर्वे १२ । सर्वेऽपि मीलिता : १३४४ । अनिवृत्तिकरणे उदयाः १६ । सामायिकच्छेदोपस्थापनाभ्यां गुणिताः ३२ । सूक्ष्मे उदयः १ एकसूचमसाम्परायेण [ गुणितः ] १ सर्वेऽपि मीलिताः तदाह संयमकी प्राप्ति छठे गुणस्थान से होती है । प्रमत्त और अप्रमत्त संयतके उदयस्थान प हैं। उन्हें तीन संयमोंसे गुणा करने पर २४, २४ भंग होते हैं । अपूर्वकरण में उदयस्थान ४ हैं । उन्हें दो संयमों से गुणा करने पर भङ्ग आते हैं । इन सबको चौबीससे गुणा करने पर ५७६, ५७६ और १६२ भङ्ग हो जाते हैं। वे तीनों मिलकर १३४४ भङ्ग होते हैं । अनिवृत्तिकरण में उदयविकल्प १६ हैं, उन्हें दो संयमोंसे गुणा करने पर ३२ भङ्ग प्राप्त होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय में उदयप्रकृति १ है उसे एक संयम से गुणा करने पर १ भङ्ग रहता है । ये सर्व भङ्ग मिल करके १३७७ उदयविकल्प हो जाते हैं । 1. सं० पञ्चसं०५, ३६०-३६१ । १ ५, ३६२ । तथा तदधस्तनगद्यभागः ( पृ० २१२ ) । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अब भाष्यकार इन्हीं भंगोंको गाथाके द्वारा प्रकट करते हैं 'तेरस सयाणि सयरिं सत्तेव तहा हवंति णेया दु । उदयवियप्पे जाणसु संजमलंभेण मोहस्स ॥३८६॥ م و 'तेरस सयाणि सयरिं' इत्यादि।संयमालम्बनेन गोहनीयस्य उदयस्थानविकल्पिा :...... जानी] हि । किं तत् ? त्रयोदश शतानि सप्तसप्तत्यप्राणि १३७७ मिलित्वा भवन्तीति जानीहि ॥३८॥ संयमकी प्राप्तिकी अपेक्षा मोहनीय कर्मके उदयविकल्प तेरह सौ सतहत्तर (१३७७) होते हैं ऐसा जानना चाहिए ॥३८६।। संयमकी अपेक्षा उदयविकल्पोंकी संदृष्टिगुणस्थान उदयविकल्प संयम गुणकार सर्वभंग प्रमत्तसंयत ८ ३ २४ ५७६ अप्रमत्तसंयत ८ ३ २४ ५७६ अपूर्वकरण . ४ २ २४ १६२ अनिवृत्तिकरण २ १६ ३२ सूक्ष्मसाम्पराय सर्व उदय-विकल्प-१३७७ अब संयमकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके पदवृन्दों की संख्या बतलाते हैं पमत्तापमत्ताणं उदयपयडीओ ४४।१४। तिसंजमगुणा १३२।१३२ । अपुब्वे उदयपयडीओ २० । दो संजमगणा ४०। एए चउवीसभंगगुणा ३१६८।३१६८।६६० सव्वे वि मेलिया ७२६६। अणियट्टीए बारहभंगा दुपयडिगुणा २४ । एकोदया ४ । मेलिया २८ । दो वि दुसंजमगुणा ५६ । सुहुमे एगोदओ १ एयसंजमगुणो १ । सव्वे वि मेलिया ..........."पदबन्धाः प्रमत्ताप्रमत्तयोरुदयप्रकृतयः प्रम. ४४ । अप्र० ४४ । संयमत्रयगुणाः प्रम० १३२ [ अप्र० १३२......"भ ] पूर्वे उदयप्रकृतयः २० द्विसंयम गुणाः ४० । ते चतुर्विशतिभङ्गगुणाः प्रम• ३१६८ । अप्र० ३१६८ । [..."अपूर्वे . ] ६० । सर्वेऽपि मीलिताः ७२६६ । अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे द्वे प्रकृती २ द्वादशभंगैगणिताः..........[ २४ । अवे । ] दभागे एकोदयप्रकृतिः १ चतुभिः ४ संज्वलनैगु णिता मिलिता २८ । सामायिकच्छेदो [ पस्थापनासंयमाभ्यां द्वा ] भ्यां गुणिताः ५६ । सूचमे एकोदयः सूचमलोभः १ एकेन सूचमसाम्परायसंयमेन गुणितः १ ..................[ सर्वेऽपि मी]लिताः किमिति ? प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें उदयप्रकृतियाँ ४४, ४४ हैं। इन्हें तीन संयमोंसे गुणा करने पर १३२, १३२ भंग प्राप्त होते हैं । अपूर्वकरण उदयप्रकृतियाँ २० है, उन्हें दो संयमोंसे गणा करने पर ४० भङ्ग होते हैं । इन सर्व भंगोंको चौबीस भंगोंसे गणा करने पर ३१६८ ३१६८ और ६६० भंग हो जाते हैं। ये सर्व मिलकर ७२६६ भंग होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें बारह भंगोंको दो प्रकृतियोंसे गणा करने पर २४ भंग होते हैं । तथा एक प्रकृतिके उदयवाले ४ भंग उनमें मिला देने पर २८ भंग हो जाते हैं । उन्हें दोनों संयमोंसे गुणा करने पर ५६ भंग हो जाते हैं । सूक्ष्मसाम्परायमें एक प्रकृतिका उदय होता है और संयम भी एक ही होता है, अतः एक 1. सं० पञ्चसं० ५, ३६३-३६४ । 2.५, ३६५ । तथा तदधस्तनगद्यांशः (पृ० २२२)। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० पञ्चसंग्रह को एकसे गुणित करने पर भंग एक ही रहता है। इस प्रकार ये उपर्युक्त सर्व भङ्ग मिलकर ७३५३ हो जाते हैं। अब भाष्यकार इन्हीं भंगोंको गाथाके द्वारा उपसंहार करते हैं 'सत्तेव सहस्साईतिण्णेव सया हवंति तेवण्णा । पयसंखा णायव्वा संजमलंभेण मोहस्स ॥३०॥ [ 'सत्तेव सहस्साई' इत्यादि । ] संयमावलम्बनेन मोहनीयस्योदयप्रकृतयः सप्त सहस्राणि त्रीणि श[तानि] त्रिपञ्चाशत् ७३५३ पदबन्धसंख्या भवन्तीति ज्ञातव्याः ॥३०॥ ____ संयमकी प्राप्तिकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके पदवृन्दोंकी संख्या सात हजार तीन सौ तिरेपन (७३५३) होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥३६०॥ इन पदवृन्दोंकी संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान उदयपद संयम भङ्ग गुणकार सर्वभंग प्रमत्तविरत ४४ ३ १३२ २४ ३१६८ अप्रमत्तविरत ४४ ३ १३२ २४ ३१६८ अपूर्वकरण २० २ ४० २४६६० अनिवृत्तिकरण २ २ ४ १२ . ४८ सूक्ष्मसाम्पराय ? सर्व-पदवृन्द-७३५३ अब सस्यक्त्वकी अपेक्षा मोहकर्मके उदय-विकल्पोका निरूपण करते हैं असंजदादिसु उदया ८८1८। तिसम्मत्तगुणा २४२४॥२४॥२१। अपुग्वे उदया ४ दुसम्मत्तगुणा ८ एए सब्वे वि चउवीसभंगगुणा ५७६।५७६१५७६।५७६।१६२। सव्वे वि मेलिया २४६६ । अणियट्टिसुहमाणं उदया १७ दुसम्मत्तगुणा ३४ दो वि मेलिया ___ अथ सम्यक्त्वमाश्रित्य मोहोद[यप्रकृतिभङ्गान् दर्शयति--असंयतादिगुणस्थानचतुष्टये उदयस्थानविकल्पाः अविरते ८। दे०८। प्र० ८ अप्र० ८। उपशम-वेदक-क्षायिकसम्यक्त्वत्रयेण गणिताः अवि० २४ । दे०२४। प्रम. २४ । अप्र० २४ । अपूर्वकरणे उदयस्थानानि ४ उपशम-नायिकाभ्यां २ द्वाभ्यां सम्यक्त्वाभ्यां गणितानि । एते उदयस्थानविकल्पाः सर्वेऽपि चतुर्विशत्या २४ भंगैगणितानि असंयमे ५७६ । दे० ५७६ । प्र० ५७६ । अप्र. ५७६ । अपूर्वे १६२। सर्वेऽपि मीलिताः ३४१६ । अनिवृत्तिकरणसूचमसाम्पराययोरुदयस्थानविकल्पाः सप्तदश १७ । उपशम-क्षायिकसम्यक्त्वाभ्यां द्वाभ्यां २ गणिताः३४ । उभये मीलिताः असंयत आदि चार गुणस्थानों में मोहकर्मके उदयस्थान ८, ८, ८, होते हैं । उन्हें तीनों सम्यक्त्वोंसे गुणा करने पर २४, २४, २४, २४ भङ्ग होते हैं । अपूर्वकरणमें उदयस्थान ४ हैं। उन्हें दो सम्यक्त्वसे गुणा करने पर ८ भङ्ग होते हैं । इन सबको चौबोस भगोंसे गुगा करने पर ५७६, ५७६, ५७६, ५७६, १६२ भग होते हैं । ये सर्व मिलकर २४६६ हो जाते हैं । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें उदयप्रकृतियाँ १७ हैं। उन्हें दो सम्यक्त्वोंसे गुणा करने पर ३४ भग प्राप्त होते हैं । इन दोनों राशियोंको मिला देने पर २५३० उदयविकल्प हो जाते हैं। 1. सं० पञ्चसं० ५, ३६६, तद्धस्तनगद्यांशः (पृ० २१२) ३६७ श्लोकश्च । 2.५, ३६८-३६६ । तथा 'असंयतादिगुणचतुष्टये' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१३) । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अब भाष्यकार इसी अर्थको गाथाके द्वारा प्रकट करते हैं 'दो चेव सहस्साई पंचैव सया हवंति तीसहिया । उदयविप्पे जासु सम्मत्तगुणेण मोहस्स || ३६१॥ २५३० । [ 'दो चेत्र सहस्साई' इत्यादि । ] सम्यक्त्वगुणेन सह मोहनीयस्य उदयविकल्पान् स्थानविकल्पान् स्वं जानीहि द्वे सहस्रे पञ्च शतानि त्रिंशञ्च २५३० इत्युदयविकल्पा भवन्तीति जानीहि । गोमट्टसारे प्रकारान्तरेण स्थानविकल्पा दृश्यन्ते तत्तत्रावलोकनीयाः ॥ ३६१ ॥ सम्यक्त्वगुणकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके उदय-विकल्प दो हजार पाँच सौ तीस ( २५३० ) होते हैं, ऐसा जानना चाहिए || ३६१ ॥ इन उदयविकल्पों को संदृष्टि इस प्रकार गुण० अविरत देशविरत प्रमत्तविरत उदयस्थान ८ ८ - अप्रमत्तविरत ८ अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण ४ सूक्ष्मसाम्पराय सम्यक्त्व गुण० ३ २४ ३ ३ ४ २ २४ २४ २४ २४ १६ १ सर्व उदयविकल्प ४८१ भङ्ग ५७६ ५७६ ५७६ ५७६ १६२ ३२ २ २५३० अव सम्यक्त्वकी अपेक्षा मोहकर्मके पदवृन्दोंकी संख्या कहते हैं 2 अविरयादिसु उदयपयडीओ ६०।५२/४४ |४४ | तिसम्मतगुणा १८० | १५६ । १३२ । १३२ । अपुव्वे उदयपयडीओ २० दुसम्मत्तगुणा ४० । एए चउवीसभंगगुणा ४३२० । ३७४४ । ३१६८|३१६८।६६० । सव्वे विमेलिया १५३६० अणियट्टि - सुहुमाणं उदयपयडीओ २६ दुसम्मत्तगुणा ५८ दोवि मेलिया अथासंयतादिषु उदयप्रकृतयः अविरते ६० । दे० ५२ । प्रन० ४४ । अप्र० ४४ सम्यक्त्वत्रयेण गुणिताः असंयते १८० | दे० १५६ | प्रम० १३२ । अप्र० १३२ । अपूर्वोदयप्रकृतयः २० उपशम- क्षायिकसम्यक्त्वाभ्यां द्वाभ्यां २ गुणिताः ४० । एताः पुनरपि चतुर्विंशतिभङ्गगुणिता: असंयते ४३२० । दे० ३७४४ । प्रम० ३१६८ । अपूर्वे ९६० । सर्वेऽपि उदयविकल्पा मीलिताः १५३६० । अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे द्वे प्रकृती २ द्वादशभङ्गगुणिताः २४ । अवेदभागे प्रकृतिरेका १ चतुःसंज्वलनैगुणिताः ४ । सूक्ष्मे सूक्ष्मलोभप्रकृतिरेका एकेन गुणिता तदेकः १ एव । एवं अनिवृत्ति- सूचमयोरुदयप्रकृतयः २६ उपशमक्षायिक सम्यक्त्वद्वयेन गुणिताः ५८ । उभये मीलिताः तदाह अविरत आदि चार गुणस्थानों में उदयप्रकृतियाँ क्रम से ६०, ५२, ४४, ४४ हैं । उन्हें तीनों सम्यक्त्वोंसे गुणा करनेपर १८०, १५६, १३२, १३२ भङ्ग प्राप्त होते हैं । अपूर्वकरणमें उदयप्रकृतियाँ २० हैं । उन्हें दो सम्यक्त्वोंसे गुणा करनेपर ४० भङ्ग होते हैं । इन सबको चौबीस भङ्गों से गुणा करनेपर ४३२०, २७४४, ३१६८, ३१६८, ६६० भङ्ग होते हैं। ये सर्व भङ्ग मिलकर १५३६० भङ्ग हो जाते हैं । अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्परायकी उदयप्रकृतियाँ २६ हैं, उन्हें दो 1. सं० पञ्चसं० ५, ४०० । 2.५, ४०१ । तथा तदधस्तनगद्य भागः । ( पृ० २१३ ) ! ६१ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ पञ्चसंग्रह सम्यक्त्वोंसे गुणा करनेपर ५८ भङ्ग आते हैं। ये दोनों राशियाँ मिलकर १५४१८ पदवृन्दोंका प्रमाण हो जाता है। अब भाष्यकार इसी मर्थको गाथाके द्वारा उपसंहार करते हैं 'पण्णरस सहस्साईचत्तारि सया हवंति अट्टरसा । पयसंखा णायब्वा सम्मत्तगुणेण मोहस्स ॥३२॥ ५५४१८ । एवं मोहणीए उदयहाणपरूवणा समत्ता। [ 'पण्णरस सहस्साई' इत्यादि । ] सम्यक्त्वगुणेन सह मोहनीयोदयप्रकृतिपरिमाणं पञ्च[दश]सहस्राष्टादशाधिकचतुःशतप्रमिता: १५४१८ पदबन्धसंख्या भवन्ति ज्ञातव्याः। एते गोम्मट्टसारे प्रकारान्तरेण दृश्यन्ते । अत्र प्रकरणे यथा गुणस्थानेषु योगोपयोगलेश्या-वेद-संयम-सम्यक्त्वान्याश्रित्य मोहनीयोदयस्थानतत्प्रकृतय उक्तास्तथा जीवसमासेष गत्यादिविशेषमागंणासु चागमानुसारेण वक्तव्याः ॥३१॥ इति मोहनीयस्योदयस्थान-तत्प्रकृत्युदयविकल्पप्ररूषणा समाता । मोहनीयकर्मके सम्यक्त्वगुणकी अपेक्षा पदवृन्दकी संख्या पन्द्रह हजार चार सौ अट्ठारह (१५४१८) होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥३६२।। इन पदवृन्दोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैगुण० उदयपद सम्यक्त्व गुण० भङ्ग अविरत ४३२० देशविरत ५२ ३७४४ प्रमत्तविरत ३१६८ अप्रमत्तविरत ४४ ३१६८ अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण १२ ४८ الله س س س ا ६६० لم - १२ له सूक्ष्मसाम्पराय १ सर्व उदयपदवृन्द १५४१८ इस प्रकार मोहनीयकर्मके उदयस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब मूलसप्ततिकाकार गुणस्थानों में मोहकर्मके सत्त्वस्थानीका निरूपण करते हैं[मूलगा०४३] "तिण्णेगे एगेगं दो मिस्से पंच-चदु णियट्टीए तिण्णि । दस बादरम्हि सुहुमे चत्तारि य तिण्णि उवसंते ॥३६३॥ अथ गुणस्थानेषु मोहनीयसवप्रकृतीयथासम्भवं गाथाषट् केन कथयनि-[ 'तिण्णेगे एगेगं' इत्यादि । ] मोहनीयसत्वप्रकृतिस्थानानि मिथ्यादृष्टौ ब्रीणि ३ । सासादने एकं । मिश्रे २ । असंयतादिचतुषु प्रत्येकं पञ्च पञ्च ५।०५।५। अपर्वकरणे त्रीणि ३ । अनिवृत्तिकरणे दश १०। स्थूललोभापेक्षयकादश ११ । सूचमसाम्पराये चत्वारि ४ । उपशान्तकपाये त्रीणि ३ च भवन्ति ॥३६३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४०२-४०३ । 2.५, ४०५ । १. सप्ततिका०४८ । परं तत्र तृतीयचरणे 'एक्कार बायरम्मी' इति पाठः । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४८३ मोहकर्मके सत्त्वस्थान मिथ्यात्वमें तीन, सासादनमें एक, मिश्रमें दो अविरत आदि चार गुणस्थानोंमें पाँच-पाँच, अपूर्वकरणमें तीन, अनिवृत्तिबादरमें दश, सूक्ष्मसाम्परायमें चार और उपशान्तमोहमें तीन होते हैं ॥३६३॥ मोहे संताणसंखा मिच्छादिसु उवसंततेसु ३।२।५।५।५।५।३।१०।४।३। मोहे सत्त्वस्थानसंख्या मिथ्यादृष्टयाद्य पशान्तेषु ३।१२।५।५।५५।३।१०।४।३। तथाहि-तानि कानि मोहसत्त्वस्थानानि ? पञ्चदश । २८।२७।२६।२४२३।२२।२१।१३।१२:१११५।४।३।२।१। अत्र त्रिदर्शनमोहं ३ पञ्चविंशतिचारित्रमोहं अष्टाविंशतिकम् २८। तत्र सम्यक्त्वप्रकृतावुद्वल्लितायां सप्तविंशतिकम् २७ । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे उद्वेल्लिते षड्वंशतिकम् २६ । पुनः अष्टाविंशतिकेऽनन्तानुबन्धिचतुष्के विसंयोजिते क्षपिते वा चतुर्विशतिकम् २४ । पुनर्मिथ्यात्वे क्षपिते प्रयोविंशतिकम् २३ । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वे क्षपिते द्वाविंशतिकम् २२ । पुनः सम्यक्त्वे क्षपिते एकविंशतिकम् २१ । पुनः मध्यमकषायाष्टके क्ष पिते त्रयोदशकम् १३ । पनः षण्ढवेदे स्त्रीवेदेवा क्ष पिते द्वादशकम् १२ । पुनः स्त्रीवेदे षण्ढवेदे वा क्षपिते एकादशकम् १"। पुनः पण्णोकषाये क्षपिते पञ्चकम् ५। पुन: पु वेदे क्षपिते चतुष्कम् । पुनः संज्वलनक्रोधे पिते त्रिकम् ३ । पुनः संज्वलनमाने क्षपिते द्विकम् २ । पुनः संज्वलनमायायां तपितायामेककम् १ । पुनः बादरलोभे क्षपिते सुधमलोभरूपमेककम् १ । उभयत्र लोभसामान्य नैक्यम् । गुणस्थानेषु सत्त्वस्थानानि-- प्र० मि० ३ २८ २७ २६ सा० १ २८ मि० २ २८ २४ अ० ५ २८ २४ २३ २२ २१ दे० ५ २८ २४ २३ २२ २१ ५ २८ २४ २३ २२ १ अप्र० ५ २८ २४ २३ २२ २१ उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणौ २८ २४ २१ अपू० ३ २१ २८ २४ २१ अनि० ११ २१ १३ १२ ११ ५ ४ ३ ३ । २८ २४ २१ सू० ४ . . २८ २४ २१ उप० ३ १ मिथ्यात्वसे लेकर उपशान्तमोह तकके गुणगानोंमें मोहनीयकर्मके सत्त्वस्थानोंकी संख्य] इस प्रकार है-३, १, २, ५, ५, ५, ५, ३, १०, ४,३। इनका विशेष विवरण ऊपर सं० टीकामें दी हुई संदृष्टिमें किया गया है। अब भाष्यगाथाकार उक्त कथनका स्पष्टीकरण करते हैं अट्ठ य सत्त य छक्क य वीसधिया होइ मिच्छदिहिस्स । अट्ठावीसा सासण अट्ट चउव्वीसया मिस्से ॥३६४॥ ___ मिच्छे २८।२७।२६। सासणे २८ । मिस्से २८।२४ । 1. सं० पञ्चसं० ५, 'क्रमादेकादशगुणेषु' इत्यादिगद्यांशः (पृ. २१४)। 2. ५, ४०६ । 3.५, 'मिथ्यादृष्टौ' इत्यादिगद्यभागः (पृ. २१४) । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ पञ्चसंग्रह भा अथ गुणस्थानेषु तानि कानि मोहसत्त्वस्थानानीति चेदाह-['अ य सत्त य छक्क य' इत्यादि। मिथ्यादृष्टरष्टाविंशतिकं २८ सप्तविंशतिकं २७ पडविंशतिकं २६ च त्रीणि भवन्तीति ३ । सम्यक्त्व-मिश्रप्रकृत्युद्वेल्लनायाश्चतुर्गतिजीवानां तत्र करणात् । सासादनेऽष्टाविंशतिकम २८। मिश्रे द्वेऽष्टाविंशतिकं चतुर्विशतिकं च २८२४ । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनोऽपि सम्यग्मिथ्यात्वोदये तत्र गमनात् ॥३६४॥ __ मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यादृष्टि जीवके अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीसप्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं । सासादनमें अट्ठाईसप्रकृतिक एक सत्त्वस्थान होता है । मिश्रमें अट्ठाईस और चौबीसप्रकृतिक दो सत्त्वस्थान होते हैं ॥३६४।। असंजदमादिं किच्चा अप्पमत्तंत पंच ठाणाणि । अट्ठ य चदु तिय दुगेगाहियवीस मोहसंताणि ॥३६॥ 'भविरय-देसविरयप्पमत्तापमत्तेषु २८।२४।२३।२२।२१॥ असंयतमादिं कृत्वाऽप्रमत्तान्तं असंयत-देशसंयत-प्रमत्ताप्रमत्तेषु प्रत्येकं मोहसत्वस्थानानि पञ्चअष्टाविंशतिक २८ चतुविशतिक २४ त्रयोविंशतिक २३ द्वाविंशतिक २२ एकविंशतिक २१ चेति पञ्च मोहसत्त्वस्थानानि विसंयोजितानन्तानुबन्धिनः क्षपितमिथ्यात्वादित्रयाणां च तेषु सम्भवात् ॥३१५॥ अविरतादिचतुषु २८॥२४॥२३॥२२।२१।। मिथ्यात्वमें २८, २७, २६, सासादनमें २, मिश्रमें २८, २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान होते हैं। असंयतको आदि करके अप्रमत्त-पर्यन्त चार गुणस्थानों में अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीसप्रकृतिक पाँच-पाँच सत्त्वस्थान होते हैं ॥३६५॥ अविरतगुणस्थामें २८, २४, २३, २२, २१ सत्त्वस्थान होते हैं। देशविरतगुणस्थानमें २८, २४, २३, २२, २१ सत्त्वस्थान होते हैं । प्रमत्तविरतगुणस्थानमें २८, २४, २३, २२, २१ सत्त्वस्थान होते हैं । अप्रमत्तविरतगणस्थाममें २८, १४, २३, २२, २१ सत्त्वस्थान होते हैं। अपुव्वम्मि संतवाणा अट्ट चउरेय अहिय वीसाणि । अणियट्टिवादरस्स य दस येव य होंति ठाणाणि ॥३९६॥ __अपुग्वे २८१२४१२१ 'अट्ठचउरेयवीसं तिय दुय एगधिय दस चेव । पण चउ तिग दो चेवाणियट्टिए होंति दस एदे ॥३६७॥ अणियट्टिम्मि २८।२४।२१।१३।१२।१५।४।३।२ अपूर्वकरणे अष्टाविंशतक-चतुर्विशतिकैकविंशतिकानि त्रीणि मोहप्रकृतिसत्वस्थानानि २८।२४.२१ तथाहि--अपर्वकरणस्योपशमश्रेण्यां एतानि त्रीणि स्थानानि २८।२४।२१ स्युः । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनः क्षपितदर्शनमोहसप्तकस्य तत्सत्वस्य च तत्रारोहणात् । अपूर्वकरणस्य क्षपकश्रेण्यामेकविंशतिकण् २१ । अनिवृत्तिकरणस्य मोहप्रकृतिसरवस्थानानि दश भवन्ति । तानि कानि ? अष्टाविंशतिक २८ चतुर्विशतिकं २४ एकविंशतिकं २१ त्रयोदशक १३ द्वादशकं १२ एकादशकं ११ पञ्चकं ५ चतुष्कं ४ त्रिक ३ द्विकं २ चेति मोहसत्त्वस्थानानि दर्शतानि अनिवृत्तिकरणे भवन्ति । तथाहि-अनिवृत्तिकरणस्योपशम 1. सं० पञ्चसं०५, ४०७। 2.५, चतुर्थपञ्चम' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१४)। 3. ५, ४०८ । ____ 4.५, ४०६ । 5. ५, 'अनिवृत्तेः शुभके' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २१५ )। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका श्रेण्यां २८।२४।२१ । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनः क्षपितदर्शनमोहसप्तकस्य तत्सत्वस्य च तत्रारोहणात् अनिवृत्तिकरणस्य क्षपकश्रेण्यां २१ । मध्यमकषायाष्टके क्षपिते [ त्रयोदशकम् ] १३ । पुनः षण्ढे वा स्त्रीवेदे वापि द्वादशम् १२ । पुनः स्त्रीवेदे वा पण्ठे वा क्षपिते एकादशकम् ११ । पुनः पण्णोकपा क्षपिते पञ्चकम् ५ । पुनः पुंवेदे क्षपिते चतुष्कम् ४ । पुनः संज्वलनक्रोधे तपिते त्रिकम् ३ । पुनः संज्वलनमाने क्षपिते द्विकम् २ । पुनः संज्वलनमायायां क्षपितायामेककम् १ । पुनः बादरलोभे क्षपिते एककम् १ ॥३६६-३६७॥ अपूर्वकरण गुणस्थान में अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीसप्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं । अनिवृत्तिबादरसंयतके दश सत्त्वस्थान होते हैं ॥ ३६६ ॥ अपूर्वकरण २८, २४, २१ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं । अनिवृत्तिबादरसंयत के अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन और दो प्रकृतिक दश सत्त्वस्थान होते हैं ॥ ३६७॥ अनिवृत्तिकरण में २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ प्रकृतिक दश सत्त्वस्थान होते हैं। 'सुमम्मि होंति ठाणे अट्ठ चदुरेय वीसमधियमेयं च । उवसंतवीयराए अट्ठचदुरेयवीस संतद्वाणाणि ॥ ३६८ ॥ सुमे २८| २४|२१|१| उवसंते २८|२४|२१| ४८५ एवं मोहणीयस्स सत्तापरूवणा समत्ता । सूचमसाम्पराये अष्टाविंशतिक चतुर्वि ंशतिकैकविंशतिकैककानि मोहसत्त्वस्थानानि चत्वारि भवन्ति २८।२४।२१।१ । तथाहि सूक्ष्मसाम्परायस्योपशमश्रेण्यां २८।२४।२१ । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनः २४ । क्षपितदर्शन मोहसप्तकस्य २१ । तत्सत्त्वस्य च तत्रारोहणात् । सूचमसाम्परायस्य क्षपकश्रेण्यां एकं सूक्ष्मलोभरूपं सूचमकृष्टिरूपमनुदयगतमत्रोदये गतमिति ज्ञातव्यम् । उपशान्तवीतरागे उपशान्तकषाये अष्टाविंशतिकचतुर्विंशतिकैकविंशतिकानि त्रीणि मोहसत्त्वस्थानानि २८ । २४ । २१ । विसंयोजितानन्तानुबन्धिनः २४ क्षपितदर्शन मोह सप्तकस्य २१ तत्सत्त्वस्य तत्रारोहणात् ॥ ३६८ ॥ इति गुणस्थानेषु मोहसत्त्वस्थानप्ररूपणा समाप्ता । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस और एक प्रकृतिक चार सत्त्वस्थान होते हैं । उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्थके अट्ठाईस चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं ॥३६८|| सूक्ष्मसाम्पराय में २८, २४, २१, १ प्रकृतिक चार तथा उपशान्तमोहमें २८, २४, २१ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान होते हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्मके सत्त्वस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई । 1. सं० पञ्चसं० ५, ४१० | 2. 'सूक्ष्मस्य शमके' इत्यादिगद्यांशः ( पृ० २१५ ) । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ पञ्चसंग्रह ___ अब मूलसप्ततिकाकार मिथ्यात्वसे आदि लेकर सूक्ष्मसाम्पराय तकके गुणस्थानोंमें अनुक्रमसे नामकर्मसम्बन्धी बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका निर्देश करते हैं मिच्छादि-सुहमंतगुणठाणेसु अणुक्रमेण णामसंबंधिबंधादितयं वुच्चए[मूलगा०४४]'छण्णव छत्तिय सत्तय एगदुयं तिय तियह चहुँ । दुअ दुअ चउ दुय पण चउ चदुरेग चदुपणगेग चहूँ ॥३६६॥ [मूलगा०३५] एगेगमट्ट एगेगमट्ट छदुमत्थ-केवलिजिणाणं। ___एग चदुरेग चदुरो दो चदु दो छक्कमुदयंसा ॥४०॥ मि. सा. मि० अ० दे० प्र० स० अपू० भनि० सू० उ० पी० स० अ० बं ६ ३ २ ३ २ २ ४ ५ १ १ ० ० ० ० अथ गुणस्थानेषु नामकमणो बन्धोदयसत्त्वस्थानानां त्रिसंयोगं गाथाविंशत्याऽऽह-['छण्णव छत्तिय' इत्यादि । ] मिथ्यादृष्टयादिसूचमसाम्परायान्तगुणस्थानेषु अनुक्रमेण नाम्नः सम्बन्धिबन्धादित्रयमुच्यतेतन्नाम्नः बन्धोदयसत्वस्थानानि गुणस्थानेषु क्रमेण मिथ्यादृष्टौ षट् नव पट ६।६। सासादने त्रीणि सप्तकम् ३१७१। मिश्रे द्वे त्रीणि दु२।३।२। असंयते त्रीण्यष्टौ चत्वारि ३८४ । देशसंयते द्वद्व चत्वारि २।२।४ । प्रमत्ते द्वे पञ्च चत्वारि २।५।४ । अप्पमत्ते चत्वायेकं चत्वारि ४।१।४ । अपूर्वकरणे पञ्चकं चत्वारि ५।१४। अनिवृत्तिकरणे एकमेकमष्टौ । सचमसाम्पराये एकमेकमष्टौ ११३८ । उपरतबन्धे शून्यं । उदय-सत्त्वयोरेव उपशान्तकषाये एक चत्वारि ०११।४। क्षीणकषायेऽप्येकं चत्वारि ०।११४ । सयोगे द्वे चत्वारि । । अयोगे द्वे षट् ॥२६ भवन्ति । छमस्थानां केवलिनोश्च छद्मस्थानां मिथ्यादृष्टयादिसूचमान्तेषु सयोगायोगकेवलिनोईयोश्चेति ॥३६९-४००॥ गणस्थानेषु नाम्नः बन्धोदयसत्त्वस्थानानिगुण० मि. सा. मि० अ० दे. प्र. अ. अपू० अनि० सू० उ० सी० स० अयो० वन्ध० ६ ३ २ ३ २ २ ४ ५ १ . . . . . सत्व ६ १ २ ४ ४ ४ ४ ४ ८ ८ ४ ४ ४ ६ मिथ्यात्वगुणस्थानमें नामकर्मके बन्धस्थान छह, उदयस्थान नौ, और सत्त्वस्थान छह होते हैं । सासादनमें बन्धस्थान तीन, उदयस्थान सात और सत्त्वस्थान एक होता है। मिश्रमें बन्धस्थान दो, उदयस्थान तीन और सत्त्वस्थान दो होते हैं। अविरतमें बन्धस्थान तीन, उदयस्थान आठ और सत्त्वस्थान चार होते हैं। देशविरतमें बन्धस्थान दो, उदयस्थान दो और सत्त्वस्थान चार होते हैं। प्रमत्तविरतमें बन्धस्थान दो, उदयस्थान पाँच और सत्त्वस्थान चार होते हैं । अप्रमत्तविरतमें बन्धस्थान चार, उदयस्थान एक और सत्त्वस्थान चार होते हैं। अपूर्व 1. सं. पञ्चसं० ५, ४११-४१३ । 2. ५, ४१४-४१५ । १, सप्ततिका० ४६ ।परं तत्रेहक पाठः छण्णव छक्क तिग सत्त दुगं दुग तिग दुगं तिगट चउ । दुग छच्चउ दुग पण चउ चउ दुग चउ पणग एग चऊ ॥ २. सप्ततिका० ५० । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४८७ करणमें बन्धस्थान पाँच, उदयस्थान एक और सत्त्वस्थान चार होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें बन्धस्थान एक, उदयस्थान एक और सत्त्वस्थान आठ होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायमें बन्धस्थान एक, उदयस्थान एक और सत्त्वस्थान आठ होते हैं। दोनों छद्मस्थ जिनोंके अर्थात् उपशान्तमोह और क्षीणमोह वीतराग संयतोंके एक एक उदयस्थान और चार चार सत्त्वस्थान होते हैं। केवली जिनोंके अर्थात् सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके क्रमशः दो दो उदयस्थान और चार तथा छह सत्त्वस्थान होते हैं ॥३६६-४००॥ इन तीनों स्थानोंकी अङ्कसंदृष्टि मूल और टीकामें दी है। अब भाष्यगाथाकार उक्त त्रिसंयोगी स्थानोंका स्पष्टीकरण करते हैं णामस्स य बंधोदयसंताणि गुणं पडुच्च य विभज्ज । तिगजोगेण य एत्थ दु भणियव्वं अत्थजुत्तीए ॥४०१।। नाम्नो बन्धोदयसत्त्वस्थानानि गुणस्थानानि प्रतीत्याऽऽश्रित्य अत्र गुणस्थानेषु त्रिसंयोगेन बन्धोदयसत्त्वभेदेन विभज्य विभागं कृत्वाऽन तान्येव प्रत्येकतोऽर्थयुक्त्या सर्वाण्युच्यन्ते ॥४०१॥ __नामकर्मके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थान गुणस्थानोंकी अपेक्षा विभाग करके त्रिसंयोगी भंगरूपसे अर्थयुक्तिके द्वारा यहाँ पर कहे जाते हैं ॥४०१॥ 'तेवीसमादि कादं तीसंता होंति बंधमिच्छम्हि । उवरिम दो वज्जित्ता उदया णव चेव होंति णायव्वा ॥४०२॥ मिच्छे बंधा २३।२५२६।२८।२६।३०। उदया २१॥२४॥२५॥२६॥२७॥२८॥२६॥३०॥३१ । मिथ्यादृष्टौ बन्धस्थानानि प्रयोविंशतिकमादिं कृत्वा त्रिंशत्कान्तानि २३१२५२६।२८२६।३० भवन्ति । उदयस्थानानि उपरिमद्वयं नवकाष्टकस्थानद्वयं वर्जयित्वा एकविंशतिकादीनि नव भवन्ति ज्ञातव्यानि २१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥४०२॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें तेईस प्रकृतिको आदि करके तीस प्रकृतिक तकके छह बन्धस्थान होते हैं। तथा उपरिम दोको छोड़कर शेष नौ उदयस्थान होते हैं ॥४०२॥ मिथ्यात्वमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३० प्रकृतिक छह होते हैं। उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक नौ होते हैं। - तस्स य संतढाणा तेणउदि वजिदूण छाउवरिं । सासणसम्मे बंधा अट्ठावीसादि-तीसंता ॥४०३॥ १२।११।६०८८८४८२ । सासणे बंधा २८।२६।३० । तस्य मिथ्यादृष्टः सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकं वर्जयित्वा उपरितनानि षट १२१18010418२ । तथाहि-तैजसकार्मणागुरुलघुपघातनिर्माणवर्णचतुष्काणीति ध्रुवाः ९। स्वरयुग्मोनत्रसबादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिरशुभसुभगादेययशस्कीर्तियुग्मानामेकैकेयपि नव है। चतुर्गति-पञ्चजाति-विदेह-षट-संस्थान-चतुरानपूर्व्याणामेकैकेऽपि पञ्च ५ मिलित्वा त्रयोविंशतिकं २३ बन्धस्थानं इत्यादिबन्धस्थानानि पूर्व प्रतिपादितानि । तेजस-कार्मणद्वयं २ वर्णचतुष्कं ४ स्थिशथिरे २ शुभाशुभे २ अगुरुलघु १ निर्माणं चेति ध्रुवाः १२। गतिषु एका गतिः १ जातिषु एका जाति:१ अस-बादर-पर्याप्त सुभगादेययशोयुग्मानामेकतराणि ११ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४१६ । 2. ५, 'बन्धे ३३' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१६ )। 3. ५, ४१७ । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ पञ्चसंग्रह ११ । चतुरानुपूर्येषु एकतरानुपूयं । एवमेकविंशतिकं २१ चातुर्गतिकानां विग्रहगतौ इदं ज्ञेयम् । एवं पूर्वमेवोदय [ स्थान ] व्याख्यानं कृतम् । तैयं विना १२ आहार कद्वयं विना ६१ तस्त्रितयं विना ६० । अत्र देवद्विकोद्वेल्लिते ८८ । अत्र नारकचतुष्के उल्लिते ८४ । अत्र मनुष्यद्विके उद्वल्लिते ८२ । इत्येवं सत्त्वव्याख्या पूर्वमेव कृताऽस्ति, अतो ग्रन्थभूयस्त्वभयानास्माभिविस्तीर्यते । सासादने बन्धस्थानानि अष्टाविंशतिकादित्रिंशत्कान्तानि २८२६॥३०॥४०३॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें तेरानवैको छोड़कर उपरिम छह सत्त्वस्थान होते हैं। सासादनमें बन्धस्थान अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक तीन होते हैं ।।४०३।। मिथ्यात्वमें सत्त्वस्थान ६२, ६१, ६०,८८,८४, ८२ प्रकृतिक छह होते हैं। सासादनमें बन्धस्थान २८, २६, ३० प्रकृतिक तीन होते हैं। तस्स य उदयट्ठाणाणि होंति इगिवीसमादिएकतीसंता । वजिय अट्ठावीसं सत्तावीसं च संत णउदीयं ॥४०४॥ आसादे उदया २१।२४।२५।२६।२६।३०६३१ । तित्थयराहारदुअसंतकम्मिओ सासणगुणं पडिवजइ, तेण संता १० । तस्य सासादनस्य नामोदयस्थानानि अष्टाविंशतिक सप्तविंशतिकं च परिवयं एकविंशतिकाद्यकत्रिंशकान्तानि २१ ।२४।२५।२६।२६।३०।३।। सत्त्वस्थानमेकं नवतिकम् १०। कुतः? तीर्थकराऽऽहारकद्विकसत्त्वकर्नयुक्तो जीवः सासादनगुणस्थानं न प्रतिपद्यते, तेन सत्वस्थानं नवतिकम् १०। सासादनतीर्थराऽऽहारकद्वयसत्कर्मा न भवतीत्यर्थः ॥४०॥ सासादनमें उदयस्थान सत्ताईस और अट्ठाईसको छोड़कर इक्कीसको आदि लेकर इकतीस प्रकृतिक तकके सात होते हैं । सत्त्वस्थान नब्बै प्रकृतिक एक होता है ॥४०४॥ सासाननमें उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २६, ३०, ३१ प्रकृतिक सात हैं। तीर्थकर प्रकृति और आहारकद्विककी सत्तावाला जीव सासादनगुणस्थानको प्राप्त नहीं होता है, इसलिए यहाँ पर सत्त्वस्थान ६० प्रकृतिक एक ही होता है। मिस्सम्मि ऊणतीसं अट्ठावीसा हवंति बंधाणि । इगितीसूणत्तीसं तीस च य उदयठाणाणि ॥४०॥ मिस्से बंधा २८।२६। उदया २६।३०।३३। मिश्रे बन्धस्थानान्येकोनत्रिंशकाष्टाविंशतिकद्वयं २८ । २६ भवति । नामोदयस्थानानि एकोनत्रिंशत्कत्रिंशत्कैकत्रिंशत्कानि ब्रीणि २ ॥३०॥३१॥४०५॥ मिश्रगुणस्थानमें बन्धस्थान अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक दो होते हैं। तथा उदयस्थान उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक तीन होते हैं ॥४०५।। मित्रमें बन्धस्थान २८, २६ प्रकृतिक दो और उदयस्थान २६, ३०, ३१ प्रकृतिक तीन हैं। तस्सेव संतकम्मा वाणउदिं णउदिमेव जाणाहि । अविरयसम्मे बंधा अडवीसुगुतीस-तीसाणि ॥४०६।। तिथयरसंतकम्मिओ मिस्सगुणं ण पडिवजइ, तेण तस्स तेणउदि-इगिणउदीओ ण संभवंति सेसा १२।९०। असंजए बंधा २८।२६।३० । 1. सं० पञ्चसं० ५, 'पाके २१' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१६)। 2.५, ४१८ । 3. ५, ४१६ । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सततिका ४८३ तस्येव मिश्रगुणस्थानस्य सत्वस्थानद्वयं द्वानवतिक-निवतिकद्वयमिति जानीहि १२।१०। तीर्थकरसत्कर्मा जीवो मिश्रगुणस्थानं न प्रतिपद्यते, तेन तस्य मिश्रस्य त्रिनवतिकमेनवतिकं च न सम्भवति । असंयतसम्यग्दृष्टौ नामबन्धस्थानानि त्रीणि-अष्टाविंशतिक-नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि २८।२६॥३०॥४०६॥ उसी मिश्र गुणस्थानमें बानबै और नब्बै प्रकृतिक दो ही सत्त्वस्थान जानना चाहिए । अविरत सम्यक्त्वगुणस्थानमें बन्धस्थान अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक तीन होते हैं ॥४०६।। तीर्थङ्करप्रकृतिकी सत्तावाला जीव मिश्रगुणस्थानको प्राप्त नहीं होता है। इसलिए उसके तेरानबै और इक्यानबै प्रकृतिक सत्त्वस्थान सम्भव नहीं है । शेष ६२ और ६० प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान उसके होते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिके २८, २६, ३० प्रकृतिक तीन बन्धस्थान होते हैं। तस्सेव होंति उदया उवरिम दो वजिदूण हेडिल्ला । चउवीसं वजित्ता हिट्ठिमचदुरेव संताणि ॥४०७॥ अविरए उदया २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । संता ६३।१२।११।१०। तस्यासंयतस्योदयस्थानानि उपरिमद्वथमष्ट कनवकद्वन्द्व अधःस्थचतुर्विशतिकं च वर्जयित्वा तस्य चतुर्विशतिकस्यकेन्द्रियेष्वेवोदयात् एकविंशतिकादीन्यष्टौ २१२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । असंयते सत्वस्थानानि अधःस्थितानि चत्वारि, अद्यानि चत्वारि १३।१२।११।१० ॥४०७॥ उसी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदयस्थान उपरिम दो और अधस्तन चौबीसको छोड़कर शेष आठ होते हैं । तथा उसीके सत्त्वस्थान अधस्तन चार होते हैं ॥४०७।। अविरतमें उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक आठ होते हैं। सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं। 'विरदाविरदे जाणे ऊणत्तीसढवीसबंधाणि । तीसेकतीसमुदया हेट्टिमचत्तारि संताणि ॥४०८॥ देसे बंधा २८।२९। उदय ३०।३१। संता ६३!६२।६१।३० । देशसंयते बन्धस्थाने द्व-अष्टाविंशतिकैकोनत्रिंशत्कद्वयं जानीहि २८।२६ । उदयस्थाने द्वप्रिंशत्केकत्रिंशत्कद्वयम् ३०।३१ । सत्वस्थानानि अधःस्थानि चत्वारि ६३।१२।६१।६० ॥४०८॥ विरताविरत गुणस्थानमें अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक दो बन्धस्थान जानना चाहिए । तीस और इकतीस प्रकृतिक दो उदयस्थान तथा अधस्तन चार सत्त्वस्थान होते हैं ।।४०८।। देशविरतमें बन्धस्थान २८, २६, उदयस्थान ३०, ३१ और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, प्रकृतिक ६० होते हैं। "उगुतीसठ्ठावीसा पमत्तविरयस्स बंधठाणाणि । पणुवीस सत्तवीसा अडवीसुगुतीस तीसुदया ॥४०६॥ पमत्ते बंधा २८।२६। उदया २५।२७।२८।२६।३०। प्रमत्तविरतस्थमुनेः अष्टाविंशतिक नवविंशतिकद्वयं बन्धस्थानम् २८।२६ । उदयस्थानानि पञ्चविंशतिक सप्तविंशतिकाष्टाविंशतिक नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि पञ्च २५२७।२८।२६।३० ॥४०॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२० । 2. ५, ४२१ । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० पञ्चसंग्रह प्रमत्तविरतके बन्धस्थान अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक दो तथा गुणस्थान पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक पाँच होते हैं ॥४०६। . प्रमत्तसंयतके बन्धस्थान २८, २६ और उदयस्थान २५, २७, २८, २६, ३० प्रकृतिक होते हैं। 'तस्स य संतट्ठाणा हेट्ठा चउरेव णिहिट्ठा । इगिबंधं वजित्ता हेहिमचउ अप्पमत्तस्स ॥४१०॥ पम संता १३।१२। १ ०। अपमत्ते बंधा २८।२६।३०॥३१॥ तस्य प्रमत्तस्याऽऽद्यचतुःसत्त्वस्थानानि १३१२।११1१0 । अप्रमत्तस्य एक बन्धस्थानं यशःकीर्तिकं १ वर्जयित्वा अधःस्थचतुर्बन्धस्थानानि २८।२६।३०।३१ ॥४०॥ उसी प्रमत्तविरतके सत्त्वस्थान अधस्तन चारों ही कहे गये हैं। अप्रमत्तविरतके एकप्रकृतिक बन्धस्थानको छोड़कर अधस्तन चार बन्धस्थान होते हैं ॥४१०॥ प्रमत्तसंयतके सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं। अप्रमत्तसंयतके २८, २६, ३०, ३१ प्रकृतिक चार बन्धस्थान होते हैं । तीसं चेव उदयं ति-दु-इगि-णउदी य णउदिसंताणि । जाणिज्ज अप्पमत्ते बंधोदयसंतकम्माणं ॥४११॥ अप्पमत्ते उदयं ३०। संता ६३।१२।११।१०। अप्रमत्ते त्रिंशत्कमुदयस्थानमेकमुदयति ३० । सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिक-द्विनवतिककनवतिक-नवतिकानि चत्वारि १३।१२।११।१० । अप्रमत्ते इत्येवं बन्धोदयसत्त्वकर्मणां स्थानानि जानीयात् ॥४॥ उसी अप्रमत्तसंयतमें तीनप्रकृतिक एक उदयस्थान होता है, तथा तेरानबै, बानबै, इक्यानबै और नब्बैप्रकृतिक चार सत्त्वस्थान जानना चाहिए ॥४११॥ _ अप्रमत्तमें ३० प्रकृतिक एक उदयस्थान और ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार सत्त्वस्थान होते हैं। उवरिमपंचट्ठाणे अपुव्वकरणस्स बंधंतो। उदयं तीसट्टाणं हेट्ठिम चत्तारि संतठाणाणि ॥४१२॥ अपुग्वे बंधा २८।२६।३०।३१।१। उदयं ३०। संता ६३।१२।११।६० । अपूर्वकरणस्य उपरिमपञ्चस्थानानि--अष्टाविंशतिक-नवविंशतिक-त्रिंशत्केकत्रिंशत्कैककानि २८।२।। ३०।३१।१ बन्धतः त्रिंशत्कमुदयं याति ३० । अधःस्थचत्वारि सत्त्वस्थानामि २३।१२।६।।१० भवन्ति ॥४१२॥ उपरिम पाँच बन्धस्थानोंको बाँधनेवाले अपूर्वकरणसंयतके तीसप्रकृतिक एक उदयस्थान और अधस्तन चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥४१२।। अपूर्वकरणमें बन्धस्थान २८, २९, ३०, ३१, १ प्रकृतिक पाँच; उदयस्थान ३० प्रकृतिक १ और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं । 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२२। 2.५, ४२३ । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससतिका ४९१ 'अणियट्टिस्स दुबंधं जसकित्ती उदय तीसगं चेव । ति-दु-इगि-णउदि णउदिं णव अड सत्ताधियसत्तरिमसीदिं ॥४१३॥ "एदाणि चेव सुहुमस्स होंति बंधोदयाणि संताणि । उवसंते तीसुदए हेहिमचत्तारि संताणि ॥४१४॥ अणियटि-सुहुमाणं बंधो १ उदओ ३० । संता १३.६२।६११६०८०७६७८७७। उबरदबंधे उवसंते उदया ३० संता १३।१२।११।१०। अनिवृत्तिकरणस्य एकं यशस्कीर्तिनाम बन्धतः त्रिंशत्क ३० मुदयं याति । त्रिनवतिक ६३ द्विनवतिकै १२ कनवतिक ११ नवतिका १० शीतिक ८० नवसप्ततिका ७६ टसप्ततिक ७८ सप्तसप्ततिकानि ७७ सत्त्वस्थानान्यष्टौ भवन्ति । सूचमसाम्परायस्यैतानि बन्धोदयसत्वस्थानानि भवन्ति । अनिवृत्तिकरणसूचमसाम्पराययोः बन्धस्थान मेकम् ।। उदये ३० । सत्वस्थानानि ६३।१२।११।१०।८०७६७८७७ । उपशान्तकपाये बन्धरहिते उदये स्थानं त्रिंशत्कं ३० त्रिनवतिकादीनि चत्वारि सत्त्वस्थानानि १३।१२।११। १० ॥४१३-४१४॥ अनिवत्तिकरण गुणस्थानमें एक यश कीर्त्तिका बन्ध होता हैं। तीसप्रकृतिक एक उदयस्थान है। तेरानबै, बानबै, इक्यानबै, नब्बै, अस्सी, उन्यासी, अठहत्तर और सतहत्तरप्रकृतिक आठ सत्त्वस्थान होते हैं । ये ही बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान सूक्ष्मसाम्परायसंयतके भी होते हैं। उपरतबन्धवाले उपशान्तमोहमें तीसप्रकृतिक उदयस्थान और अधस्तन चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥४१३-४१४।। अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके बन्धस्थान एकप्रकृतिक एक, उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८०, ७६, ७८, ७७ प्रकृतिक आठ हैं। मोहके बन्धसे रहित उपशान्तमोहमें उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक है और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं। तह खीणेसु वि उदयं उवरिमद्गमुज्झिऊण चउसंता । तीसेकतीसमुदयं होंति सजोगिम्भि णियमेण ॥४१॥ खीणे उदओ ३० संता ८०७१।७८७७॥ तथा क्षीणकपाये उदयस्थानं त्रिंशत्कं ३०। उपरितः दशक-नवकद्वयं वर्जयित्वा अशीतिकादीनि चत्वारि सत्त्वस्थानानि ८६७६७८७७ । सयोगकेवलिनि त्रिंशत्कैकत्रिंशत्कद्वयमुदयस्थानं ३०॥३१ नियमेन भवन्ति ॥४१५॥ क्षीणकषाय-गुणस्थानमें उदयस्थान तीसप्रकृतिक एक ही है। तथा उपरिम दोको छोड़कर चार सत्त्वस्थान होते हैं। सयोगिकेवलीमें नियमसे तीस और एकतीसप्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं ॥४१५॥ __क्षीणकषायमें उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक है और सत्त्वस्थान ८०, ७६, ७८, ७७ प्रकृतिक चार होते हैं। 'तस्य य संतवाणा उवरिम दो वजिदूण चउ हेट्ठा । णव अट्ठव य उदयाऽजोगिम्हिा हवंति णेयाणि ॥४१६॥ सजोगे उदया ३०।३१ । संता ८०।७१।७८७७। 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२४ । 2.५, ४२५ । 3. ५, ४२६ । 4. ५, ४२७ । व 'जोगीहिं' इति पाठः। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह तस्य सयोगिकेवलिनः उपरिमसत्त्वस्थानद्वयं वर्जयित्वा अशीतिकादीनि चत्वारि सत्वस्थानानि ८० ७१७८७७ भवन्ति भयोगिकेवलिनि नामप्रकृतिनक्कम एकं चोदयस्थानद्वयं भवति ॥ ४३६ ॥ 1 उन्हीं सयोगिकेवली के उपरिम दो दो छोड़कर अधस्तन चार सत्त्वस्थान होते हैं । अयोगिकेवली के नौ और आठप्रकृतिक दो उदथस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।।४१६ ।। सयोगिकेवली के ३०, ३१ प्रकृतिक दो उदयस्थान और ८०, ७६, ७८, ७७ प्रकृतिक चार सरवस्थान होते हैं। ४६२ अजोगे उदया हा संता ८०७६७८६७७१०१६ | एवं णामपरूवणा गुणेसु समत्ता । अयोगिकेवलिनि नवक दशक १० सप्तसप्ततिका ७७ एसप्तविक ७८ नवसप्ततिका ७६ शीतिकानि ८० पट् सत्त्वस्थानानि अयोगिनो भवन्तीति जानीयात् ॥ ११७ ॥ अयोगिकेवलिनि उदयस्थानद्वयं सस्वस्थानपट्कम् ८००२७०७ १०१ । अथ मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानेषु नामबन्धोदय सत्त्वस्थानसंख्या- तत्प्रकृतिस्थानसंख्या रचना रच्यते । तस्य यन्त्रर चना गुण ० बन्ध-सं० मि० ६ सा० मि० अवि० [देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सू० उप० श्री० सयो० अयो० 'णव दस सत्तत्तरियं अट्ठत्तरियं च ऊणसीदी य । आसीदिं चाजोगे संतद्वाणाणि जाणेओ ||४१७॥ ३ २ ३ 9 बन्ध प्र० स्था० २३,२५,२६,२८ २६,३० । २८,२६,३० ॥ २८,२६ । २८,२१,३० । २८,२१ । २८,२६ । २८, २९, ३०, ३१ २८,२१,३०,३१,१ १ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२८ । उदयसं० ३ C १ १ 9 . १ २ २ उदय प्र० स्था० २१, २४, २५, २६, २७, २८,२१,३०,३१ । २१, २४, २५, २६,२३, ३०,३१ । २६,३०,३१ ॥ २१, २५, २६, २७, २८, २६,३०,३१ ॥ ३०,३१ । २५, २७, २८, २९, ३०। ३० ३० ३० ३० ३० ३० सत्व-सं० ६ ३०,३१ । 8,51 १ ४ ८ ४ ४ ४ ६ सत्व प्र० स्था० १२,११,१०,८८,८४ ८२ । ६० । १२,६० । ६३,६२,६१,६० । ६३,६२,६१,६० । ६३, ६२, ६१, ६० । ३३, १२, ११,३० । ३३,६२,६१,६० । ६३, १२, ११, ६०, उप० ८०,७१,७८, ७७ प० ६३, १२, ११, ६० उप० ८०,७६,७८, ७७ क्षप० ६३,६२,६१,३० । ८०,७६,७८,७० । ८०,७१,७८, ७७ । ८०,७६, ७८,७७, १०,६ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका अयोगिकेवलीके अस्सी, उन्यासी अठ्ठहत्तर, सत्तहत्तर, दश और नौप्रकृतिक छह सत्त्वस्थान जानना चाहिए ॥४१७॥ अयोगिजिनके ६, ८ प्रकृतिक दो उदयस्थान और ८०, २६, ७८, ७२ १० और प्रकृतिक छह सत्त्वस्थान होते हैं । इन सब स्थानोंका स्पष्टीकरण टीकामें दी गई संदृष्टिमें किया गया है। इस प्रकार गुणस्थानोंमें नामकर्मके त्रिसंयोगी प्ररूपणा को । अब मूलसप्तिकार मार्गणाओमें नामकर्भके बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका विचार करते हुए सबसे पहले गतिमार्गणामें उनका निर्देश करते हैं[मूलगा०४६]'दो छकट्ठ चउकं णिरयादिसु पयडिबंधठाणाणि । पण णव दसयं पणयं ति-पंच-वारे चउकं च ॥४१८।। नरक० तियंच० मनुष्य० देव० urws णिरयादिसु उ० ५ १० ५ स० ३ ५ १२४ अथ चतुर्दशमार्गणासु नामबन्धोदयसत्त्वस्थानानां त्रिसंयोगमाह--['दो छक्कट चउक्कं' इत्यादि। नरकादिगतिपु नामप्रकृतिबन्धस्थानानि द्वे २ षटु ६ अष्टौ ८ चत्वारि ४ । नामप्रकृत्युदयस्थानानि पञ्च ५ नव १ दश १० पञ्च ५। नामप्रकृतिसत्वस्थानानि श्रीणि ३ पञ्च ५ द्वादश १२ चत्वारि ४॥४१॥ नरक० ति० म० देव. वं. २ ६ ८ ४ ० ० नरक आदि गतियों में नामकर्मके प्रकृतिक बन्धस्थान क्रमशः दो, छह, आठ और चार होते हैं । उदयस्थान क्रमशः पाँच, नौ, दश और पाँच होते हैं। तथा सत्त्वस्थान क्रमशः तीन, पाँच, बारह और चार होते हैं ॥४१८।। इस गाथाके द्वारा चारों गतियोंके नामकर्म-सम्बन्धी बन्ध, उदय और सत्तास्थान बतलाये गये हैं, जिनकी संदृष्टि मूल और टीकामें दी हुई है। अब उक्त गाथा-सूत्र-द्वारा सूचित स्थानोका भाष्यगाथाकार स्पष्टीकरण करते हुए पहले नरकगतिसम्बन्धी बन्धादि-स्थानोंका निरूपण करते हैं "णिरए तीसुगुतीसंबंधट्ठाणाणि होति णायव्वा । इगि-पण-सत्तट्ठऽधिया वीसा उगुतीसमेवुदया ॥४१॥ संतहाणाणि पुणो होति तिण्योव णिरयवासम्मि । वाणउदिमादियाणं णउदिट्ठाणतियाणि सया॥४२०॥ "णिरयगईए बंधो २६।३०। उदया २१।२५।२७।२८।२६। संता ६२।११।१०। 4. ५, 'श्वभ्रे बन्धे' 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२६-४३०। 2. ५, ४३१। 3. ५, ४३२। इत्यादिगद्यभागः (पृ० २१८)। १. सप्ततिका० ५१ । परं तत्र पाठोऽयम्--- दो छक्कट्ठ चउक्कं पण णव एक्कार छक्कगं उदया। नेरइआइसु संता ति पंच एक्कारस चउकं ॥ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ पञ्चसंग्रह तानि कानीति चेदाह--[ 'गिरए तीसुगुतीसं' इत्यादि । ] नरकगतौ एकान्नत्रिंशत्क-त्रिंशत्के द्वे बन्धस्थाने भवतः २२॥३०। एक-पञ्च-सप्ताष्ट-नवानविंशतिकानि पञ्च नाम्नः प्रकृत्युदयस्थानानि २१॥२५॥ २८/२६ ज्ञातव्यानि । पुनः नरकावासे नरकगतौ नामसत्त्वस्थानानि त्रीणि-द्वानवतिककनवतिक-नवतिकानि नवस्यन्तिकानि सदा भवन्ति १२॥ १० ॥४११-४२०॥ नरकगतिमें उनतीस और तीस प्रकृतिक दो बन्धस्थान जानना चाहिए। इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक पाँच उदयस्थान होते हैं । तथा नरकावासमें बानबैको आदि लेकर नब्बै तकके तीन सत्त्वस्थान सदा होते हैं ॥४१६-४२०॥ नरकगतिमें बन्धस्थान २६, ३० प्रकृतिक दो; उदयस्थान २१, २५, २७, २८, २६, प्रकृतिक पाँच और सत्त्वस्थान ६२, ६१, ६० प्रकृतिक तीन होते हैं। अब तिर्यग्गति-सम्बन्धी बन्धादि-स्थानोंका निरूपण करते हैं 'तिरियगई तेवीसं पणुवीस छव्वीसमट्ठवीसा य । तीसूण तीस बंधा उवरिम दो वज्ज णव उदया ॥४२१॥ वाणउदि णउदिमडसीदिमेव संताणि चदु दु सीदी य । तिरिएसु जाण संता मणुएसुवि सव्वबंधा तो ॥४२२॥ तिरियगईए बंधा २३।२५।२६।२८।२९।३०। उदया २११२४२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१॥ -तित्थयरसंतकस्मिओ तिरिएसु ण उप्पजइ त्ति तेण तेणउदि एक्काणउदि विणा संता 821801८८1८४८२ तिर्यग्गत्यां त्रयोविंशतिक-पञ्चविंशतिक-पविंशतिकाष्टाविंशतिक नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि नाम्नो बन्धस्थानानि षट् २३।२५।२६।२८।२६।३० भवन्ति । तिर्यग्गतौ उपरिमनवकाष्टकद्वयं वर्जयित्वा एकविंशतिकादीनि नव नाम्न उदयस्थानानि २११२४२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ भवन्ति । तिर्यग्गतौ द्वानवतिक-नवतिकाष्टाशीतिक-चतुरशीतिक-द्वयशीतिकानि सवस्थानानि पञ्च ९२११०1८11८४८२ । तीर्थकरत्वसत्कर्मा तियक्ष नोत्पद्यते इति । तेन त्रिनवतिकमेकनवतिकं च तिर्यग्गतौ न भवतीति सत्वं जानीहि । मनुष्यगतौ तानि सर्वाण्यष्टौ बन्धस्थानानि ॥४२१-५२२॥ तिर्यग्गतिमें तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस उनतीस और तीस प्रकृतिक छह बन्धस्थान होते हैं। उदयस्थान उपरिम दोको छोड़कर शेष नौ होते हैं। तथा सत्त्वस्थान बानबै, नब्बै अठासी और बियासी प्रकृतिक पाँच होते हैं। ऐसा जानना चाहिए । मनुष्यगतिमें पूर्व में बतलाये हुए सब बन्धस्थान होते हैं ॥४२१-४२२॥ तिर्यग्गतिमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६, ३० प्रकृतिक छह होते हैं। उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक नौ होते हैं। तीर्थङ्करप्रकृतिकी सत्तावाला जीव तिर्यश्चों में उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए तेरानबै और इक्यानबके विना सत्त्वस्थान ६२, ६०, . ८८,८४, ८२ प्रकृतिक पाँच होते हैं । अब मनुष्यगति-सम्बन्धी बन्धादि-स्थानोंका निरूपण करते हैं *चउवीसं वज्जुदया रव्याइं हवंति संतठाणाणि । वासीदं वजित्ता एत्तो देवेसु वोच्छामि ॥४२३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४३३ । 2. ५, 'तिर्यक्षु बन्धे' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २१८)। 3. ५, ४३४ । +ब ते। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४१५ . मनुष्यगतौ चतुर्विशतिकमुदयस्थानं वर्जयित्वा सर्वाणि नामोदयस्थानानि, द्वयशीतिक वर्जयित्वा सर्वाणि नामसत्वस्थानानि भवन्ति । अतः परं देवगत्यां नामस्थानानि वच्यामि ||४२३॥ मनुष्यगतिमें चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान को छोड़कर शेष सर्वउदयस्थान होते हैं। तथा यियासीको छोड़कर शेष सर्वसत्त्वस्थान होते हैं। अब इससे आगे देवोंमें बन्धादिस्थानोंको कहेंगे ॥४२३॥ मणुयगईए बंधा २३१२५/२६।२८।२६।३०।३१।१। उदया २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥ है।८। संता ६३।१२।११।१०।८८८४१८०१७९१७७७।१018। मनुष्यगतौ बन्धस्थानानि २३१२५।२६।२८।२६।३०।३१।१ । उदयस्थानानि केवलिसमुद्धातापेक्षया २००२१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।८। सत्वस्थानानि ६३ । ६२।११।६०1८८८४८०७६। ७८७७।१०।। ___ मनुष्यगतिमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक आठ होते होते हैं । उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१, ६ और ८ प्रकृतिक दश होते हैं । सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६०,८८,८४,८०, ७६, ७८, ७७, १० और ६ प्रकृतिक बारह होते हैं । अब देवगति-सम्बन्धी बन्धादि-स्थानोंका निरूपण करते हैं पणुवीसं छव्वीसं ऊणत्तीसं च तीसबंधाणि । इगिवीसं पणुवीसं अडसत्तावीसभुगुतीसं ॥४२४॥ एए उदयट्ठाणा संतढाणाणि आदिचत्तारि । देवगईए जाणे एत्तो पुण इंदिएसु वोच्छामि ॥४२॥ देवगईए बंधा २५।२६।२६।३०। उदया २१।२५।२७।२८।२६ । संता ६३।१२।११।६० । देवगतौ पञ्चविंशतिक-षडविंशतिककोनत्रिंशत्कत्रिंशरकानि चतुर्नामबन्धस्थानानि २५/२६॥२॥३० । एकविंशतिक-पञ्चविंशतिक-सप्तविंशतिकाष्टाविंशतिकानि नामोदयस्थानकपञ्चकं २१०२५।२७।२८।२६ । देवगती आद्यानि चत्वारि सत्त्वस्थानानि ९३।१२।8918 | देवगत्यामिति जानीहि । इति गतिमार्गणा समाप्ता । अतः परं इन्द्रियसागणायां नामबन्धोदयसत्त्वस्थानानां त्रिसंयोगं वक्ष्यामि ॥४२४-४२५॥ गति० बं० बं० स्था० उद० उद० स्था० स० सत्वस्था० नरक० २ २६,३० । ५ २१,२५,२७,२८,२६ । ३ ६२,११,१० । तिय० ६ २२,२५,२६,२७,२६, २१,२४,२५,२६,२७ ५ १२,१०,८८,८४,८२ । २८,२६,३०,३३ । मनु० ८ २३,२५,२६,२८,२६, ११ २०,२१,२५,२६,२७, १२ १३,६२,81,१०,८८, २६,३०,३१,१। २८,२९,३०,३१,६,८। ८४,८०,७१,७८,७७, देव० ४ २५,२६,२८,२६,३० । ५ २१,२५,२७,२८,२६ । ४ १३,६२,६१,६० । देवगतिमें बन्धस्थान पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक चार होते हैं। उदयस्थान इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक पाँच होते हैं। तथा सत्त्वस्थान 1. सं० पञ्चसं० ५, 'नृत्वे बन्धाः' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २१८)। 3.५. 'स्वर्गे बन्धे' इत्यादिगद्यभागः। (पृ० २१६)। १.५, ४३५-४३६ । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह आदिके चार जानना चाहिए । अब इससे आगे इन्द्रियमार्गणामें बन्धादिस्थानोंका निरूपण करेंगे ॥४२४-४२५॥ देवगतिमें बन्धस्थान २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक चार होते हैं। उदयस्थान २१, २५, २७, २८, और २६ प्रकृतिक पाँच होते हैं। तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१ और ६० प्रकृतिक चार होते हैं। ___ अब मूल सप्ततिकाकार इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा नामकर्मके बन्धादि स्थानोंका निर्देश करते हैं[मूलगा०४७]'इगि-वियलिंदिय-सयले पण पंचय अट्ठ बंधठाणाणि । पण छक्क दस य उदए पण पण तेरे दु संतम्मि ॥४२६॥ ए० वि० स० बं० ५ ५८ एइंदिय-वियलिंदिय-पंचिदिएसु बंधाइ-उ० ५ ६ १० स० ५ ५ १३ एकेन्द्रिये विकलत्रये च पञ्चेन्द्रिये च क्रमेण नामबन्धस्थानानि पञ्च ५ पञ्च ५ अष्टौ ८। नामोदयस्थानानि पञ्च ५ पट ६ दश १० । नामसत्त्वस्थानानि पञ्च ५ पञ्च ५ त्रयोदश १३ ॥४२६॥ एके० विक० सक० बन्ध० ५ ५ ८ उद० ५ ६ १० सत्व० ५ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय जीवोंके क्रमशः पाँच, पाँच और आठ बन्धस्थान; पाँच, छह और दश उदयस्थान; तथा पाँच, पाँच और तेरह सत्त्वस्थान होते हैं ॥४२६॥ भावार्थ-एकेन्द्रिय, जीवोंके ५ बन्धस्थान, ५ उदयस्थान और ५ ही सत्त्वस्थान होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवोंके ५ बन्धस्थान, ६ उदयस्थान और पाँच सत्तास्थान होते हैं। सकलेन्द्रिय जीवोंके ८ बन्धस्थान, १० उदयस्थान और १३ सत्त्वस्थान होते हैं। इनकी संदृष्टि मूल और टौकामें दी हुई है। अब भाष्यगाथाकार मूलगाथासूत्रसे सूचित अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए पहले एकेन्द्रिय जीबोंके बन्धादिस्थानोंका निर्देश करते हैं तेवीसं पणुवीसं छव्वीसं ऊणतीस तीसं च । बंधा हवंति एदे उदया आदी य पंचेव ॥४२७॥ तेसिं संतवियप्पा वाणउदी णउदिमेव जाणाहि । अड-चदु-वासीदी वि य एत्तो वियलिदिए वोच्छं ॥४२८॥ "एई दिएसु बंधा २३।२५।२६।२६।३०। उदया २९१२४।२५।२६:२७। संता १२।१०।८८८४।२। 1. सं० पञ्चसं० ५, ४३७ । 2. ५, ४३८ । 3. ५, 'बन्धे २३' इत्यादिद्यांशः (पृ० २१६)। १. सप्ततिका० ५२ । परं तत्रोत्तरार्धे पाठभेदोऽयम् 'पण छक्ककारुदया पण पण बारस य संताणि ।' Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका तानि कानीति चेदाह-['तेवीसं पणवीसं' इत्यादि।1 एकेन्द्रियाणां नामबन्धस्थानानि त्रयोविंशतिक पञ्चविंशतिक-षडविंशतिक-नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि पञ्च २३१२५२६।२६।३० भवन्ति । एकेन्द्रिया. णामुदयस्थानानि आद्यानि पञ्च २१२४॥२५॥२६॥२७ । तेषामेकेन्द्रियाणां सत्वविकल्पस्थानानि द्वानवतिकनवतिकाष्टाशीतिक-चतुरशीतिक द्वयशीतिकानि पञ्च १२।१०।८८1८11८२ भवन्तीति जानीहि । अतः परं विकलत्रये बन्धादिस्थानानि वच्येऽहम् ॥४२७-५२८॥ एकेन्द्रिय जीवोंके तेईस; पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक पाँच बन्धस्थान होते हैं। इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस और २७ प्रकृतिक आदिके पाँच उदयस्थान होते हैं । तथा उनके बानबै, नब्बै, अठासी, चौरासी और बियासी प्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान जानना चाहिए । अब इससे आगे विकलेन्द्रियोंके बन्धादिस्थानोंको कहेंगे ॥४२७-४२८॥ एकेन्द्रियके बन्धस्थान २३, २५, २६, २६, ३०; उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७; तथा सत्त्वस्थान ६२, ६०, ८८,८४, ८२ होते हैं। अब विकलेन्द्रिय जीवोंके बन्धादिस्थान कहते हैं 'वियलिंदिएसु तीसु वि बंधा एइंदियाण सरिसा ते । संता तहेव उदया तीसिगितीसूण तीसाणि ॥४२६।। इगि छव्वीसं च तहा अट्ठावीसाणि होति नियलेसु । पंचिंदिएसु बंधा सम्वे वि हवंति बोहव्या ॥४३०॥ वियलिदिएसु बंधा २३१२.१२६।२६।३०। उदया २१।२६।२८।२६।३०।३१ संता १२।१०।८८। ८1८२ । विष्वपि द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियेषु विकलत्रये एकेन्द्रियोक्तबन्ध-सत्वस्थानानि भवन्ति । उदयस्थानानि त्रिंशत्कैकत्रिंशत्कैककोनत्रिंशत्कैविंशतिकण्डविंशतिकाष्टाविंशतिकानि षड़ भवन्ति । विकलत्रये बन्धाः २३।२५।२६।२६।३० । उदया: २११२६।२८।२६।३०३१ । सत्वानि १२1801८८८४८२ । पञ्चेन्द्रियेषु सर्बाण्यष्टौ बन्धस्थानानि २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।१ भवन्ति बोधव्यानि ॥४२१-४३०॥ तीनों ही विकलेन्द्रियोंमें एकेन्द्रियोंके समान वे ही पाँच बन्धस्थान होते हैं । तथा सत्त्वस्थान भी एकेन्द्रियोंके समान वे ही पाँच होते हैं। उदयस्थान इकीस, छबीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक छह होते हैं। पंचेन्द्रियोंमें सभी बन्धस्थान होते हैं, चाहिए ॥४२६-४३०॥ विकलेन्द्रियोंमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २६, ३०; उदयस्थान २१, २६, २८, २९, ३०, ३१; और सत्त्वस्थान ६२, ६०,८८,८४, ८२ होते हैं । चउवीसं वज्जुदया सव्वे संता हवंति णायव्वा । कायादिमग्गणासु य णेया बंधुदयसंताणि ॥४३१॥ पंचिदिएसु-वंधा २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१। उदया २१।२२६।२७।२८।२६।३०।३१।।। ८ । संता ६३।१२।११।६०1८८८४८२८०७६७८७७11018। पञ्चेन्द्रियेषु चतुर्विशतिकं विना सर्वाण्युदयस्थानानि दश २९।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।८ । सर्वाणि त्रयोदश सत्त्वस्थानानि भवन्ति ६३।१२।११।१०।८८८४८२१८०७६७८1७७।१०६ । इतीन्द्रियमार्गणा समाधा। कायादिमार्गणासु नामबन्धोदयसत्त्वस्थानानि ज्ञातव्यानि ॥४३१॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४३६ । 2. ५, ४४०-४४१ । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पंचेन्द्रिय जीवोंमें चौबीसको छोड़ कर शेष सर्व उदयस्थान तथा सर्व ही सत्त्वस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । इसी प्रकार काय आदि मार्गणाओंमें भी बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान लगा लेना चाहिए || ४३१ ॥ ४१८ पंचेन्द्रियोंमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १, उदयस्थान २९, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ तथा सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७, १० और ६ होते हैं । यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि मूलसप्ततिकाकारने नामकर्मके वन्धादिस्थानोंका निर्देश केवल गति और इन्द्रियमार्गणा में ही किया है, शेष मार्गणाओंमें नहीं । अतएव भाष्यगाथाकारने इस गाथाके उत्तरार्ध द्वारा उन्हें जाननेका यहाँ निर्देश किया है । अव भाष्यगाथाकार उक्त निर्देशके अनुसार शेष मार्गणाओं में नामकर्मके वन्धादि स्थानोंका निरूपण करते हैं पंचसु थावरका बंधा पढमिल्लया हवे पंच । अट्ठावीस वजि उदया आदिल्लया पंच ||४३२॥ थावराणं बंधा ५- २३।२५।२६।२६|३०| उद्या ५- २१।२४।२५|२६|२७| पञ्चसु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकेषु प्रथमाः पञ्च बन्धाः - त्रयोविंशतिकादीनि पञ्च बन्धस्थानानि भवन्तीत्यर्थः २३।२५।२६।२६।३० । अष्टाविंशतिकवर्जितानि उदयस्थानान्याद्यानि पञ्च २५|२४| २५।२६।२७। न तेजाद्विके सप्तविंशतिकं, तस्यैकेन्द्रियपर्याप्तयुतातपोद्योतान्यतरयुतस्वात्तत्रानुदयात् ॥४३२॥ कायमार्गणाकी अपेक्षा पाँचों ही स्थावरकायिकों में प्रारम्भके पाँच बन्धस्थान होते हैं । तथा अट्ठाईसको छोड़कर आदिके पाँच उद्यस्थान होते हैं ||४३२|| स्थावरकायिकोंके २३, २५, २६, २६, ३० ये पाँच बन्धस्थान, तथा २१, २४, २५, २६, और २७ ये पाँच उदयस्थान होते हैं । बाणउदि उदिता अड चदु दुरधियमसीदि वियले ते । संता उदया अ णव छिगिवीस तीस इगितीसा ||४३३ || संता ५- ६२|०४२ वियले बंधा ५ - २३।२५।२६।२६|३०| उदद्या ६-२१।२६।२८१ २६/३० |३१| संता ५-६२।६०८८८४८२ | पञ्चस्थावरकायिकेषु सत्वस्थानपञ्चकम् – द्वानवतिक ९२ नवतिक ६० अष्टाशीतिक मम चतुरशीतिक ८४ द्वशीतिकानि पञ्च । विकलत्रय - त्रसजीवेषु तानि पूर्व विकलत्रयोक्तानि बन्ध-सत्वस्थानानि । उदयस्थानानि अष्ट नव घडेकाधिकविंशतिकानि त्रिंशत्कैक त्रिंशत्के च विकलत्रयत्रसजीवेषु बन्धस्थानानि पञ्च २३।२५।२६।२६।३० । उदयस्थानपट्कं २१।२६।२८।२६।३०:३१ । सत्त्वस्थानपञ्चकम् - ६२६० ८४८२ ॥४३३॥ पाँचों स्थावरकायिकोंमें बानबै, नब्बै, अट्ठासी, चौरासी और बियासीप्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान होते हैं । विकलेन्द्रिय सकायिकांमें वे ही अर्थात् स्थावरकायिकोंवाले बन्धस्थान और सत्त्वस्थान होते हैं । किन्तु उदयस्थान इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक छह होते हैं ||४३३॥ स्थावरोंके सत्त्वस्थान ६२, ६०, ८ ८४, ८२ ये पाँच होते हैं । विकलत्रयोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २६, ३०, ३१ ये छह; तथा सत्तास्थान ६२, ६०, ८८, ८२ और ८२ ये पाँच होते हैं । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ४९8 चउवीसं वज्जुदया बंधा संता तसेसु सव्वे वि । मण-वचि-चउरे बंधा सव्वे उणतीस आई य ति-उदया ॥४३४॥ पंचिंदियबंधा ८-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३।३ । उदया १०-२११२५।२६।२०।२८।२६।३० ३१।६।८। संता १३-६३।१२।११।१०।८८८४८२१८०७६१७८१७७।१०।। मण-वचियोगबंधा ८-- २३।२५।२६।२८।२६।३।३१।१। उदया ३-२६।३०।३१ । पञ्चेन्द्रियत्रसेपु चतुर्विशतिकवर्जितोदयस्थानानि सर्वाणि । बन्धस्थानानि सरवस्थानानि च सर्वाणि भवन्ति । पञ्चेन्द्रियग्रसजीवेषु नामबन्धस्थानाष्टकम्-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।१ । उदयस्थानदशकम्--२१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।८ । सत्वस्थानत्रयोदशकम्-१३।१२।११।६०1८८८४८४ । ८२८०1७६७८.७७11018 इति कायमार्गणा समाप्ता। अथ योगमार्गणायां मनोवचनचतुष्के मनोयोगचतुष्के वचनयोगचतुष्के च प्रत्येकं सर्वाण्यष्टौ बन्धस्थानानि २३।२५।२६।२८।२६।३०।३११ । उदयस्थानानि एकोनत्रिंशत्कादीनि त्रीणि एकोनविंशल्कत्रिंशत्केकत्रिंशत्कानि २६।३०।३१ ॥४३४॥ सकलेन्द्रिय सकायिकोंमें चौबीसप्रकृतिक स्थानको छोड़कर शेष सर्व बन्धस्थान और उदयस्थान; तथा सर्व ही सत्तास्थान होते हैं। योगमार्गणाकी अपेक्षा मनोयोगियों और वचनयोगियोंके बन्धस्थान तो सर्व ही होते हैं; किन्तु उदयस्थान उनतीसको आदि लेकर तीन ही होते हैं ।।४३४॥ पंचेन्द्रियोंमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १, ये आठ होते हैं । उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६ और ८; ये दश होते हैं। सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८,८४, ८२, ८०,७६, ७८, ७७, १० और है ये तेरह होते हैं । मनोयोगियों और वचनयोगियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ ये आठ; तथा उदयस्थान २६, ३०, ३१ ये तीन होते हैं। वासीदिं दो उवरिं वजित्ता संतठाणाणि । बंधा सव्वोराले उदया पणुवीस आइ सत्तेव ॥४३॥ संता १०-१३।१२।११।१०।८८८४८०७६७८७७। उराले बंधा ८-२३।२५।२६।२८।२६॥ ३०॥३१1१। उदया ७-२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥ मनोवचनाष्टके प्रत्येक द्वयशीतिक-दशक-नवक-स्थानत्रयं वर्जयित्वा सर्वाणि । सत्वस्थानदशकम्६३।१२।११।१०।८८८४।८०1७६७८७७ । औदारिककाययोगे सर्वाण्यष्टौ बन्धस्थानानि २३१२५/२६॥ २८।२६।३०।३१।१ । उदयस्थानानि पञ्चविंशतिकादीनि सप्तव २५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ ॥३५॥ मनोयोगियों और वचनयोगियोंके सत्तास्थान बियासी और दो उपरिमस्थानोंको छोड़कर शेष दश होते हैं । औदारिककाययोगियोंके बन्धस्थान सर्व होते हैं। किन्तु उदयस्थान पच्चीसको आदि लेकर सात ही होते हैं ॥४३५॥ मन और वचनयोगियोंके सत्तास्थान ६३, ६२, ६१,६०,८८,८४,८०, ७६, ७८ और ७७ ये दश होते हैं । औदारिककाययोगियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ ये आठों ही होते हैं । उदयस्थान २५, २६, २७, २८, २६, ३० और ३१ ये सात होते हैं। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० पञ्चसंग्रह दो उवरिं वजित्ता संता सव्वेवि मिस्सम्मि । तेवीसं तीसंता बंधा उदया छव्वीस वउवीसा ॥४३६॥ संता ११-१३।१२।११।१०11८1८४८२१८०७६७८७७ । मिस्से बंधा ६-२३।२५।२६। २८।२६।३० । उदया २-२४।२६ संता ११-१३।१२।११।१०।८८८४८२८०७६।७८७७ । उपरिमस्थानद्वयं दशकं नवकं च वर्जयित्वा औदारिककाययोगे सत्वस्थानानि सर्वाग्येकादश ९३।१२। ११1१०1८८1८४८२८०१७६७८७७ । औदारिकमिश्रकाययोगेऽपि शब्दात् औदारिकोक्तस्थानान्येकादश । त्रयोविंशतिकादि-त्रिंशत्कान्तानि बन्धस्थानानि पट उदयस्थाने द्वे चतुर्विशतिके औदारिकमिश्रकाययोगे बन्धस्थानानि पट २३।२५।२६।२८।२६।३० । उदयस्थानद्विकं २४।२६ । सत्वस्थानकादशकम्-१३,६२,६१, २०1८८८४२८०1७६७८७७ ॥४३६॥ औदारिककाययोगियोंके उपरिम दो स्थानोंको छोड़कर शेष सर्व सत्तास्थान होते हैं । औदारिकमिश्रकाययोगियोंके तेईससे लेकर तीस तकके बन्धस्थान; तथा छब्बीस और सत्ताईस ये दो उदयस्थान होते हैं । इनके सत्तास्थान औदारिककाययोगियोंके समान जानना चाहिए ।।४३६।। औदारिककाययोगियोंके सत्तास्थान १३, १२, ११,१०,५८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये ग्यारह होते हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों के बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६ और ३० ये छह; उदयस्थान २४ और २६ ये दो; तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये ग्यारह होते हैं। पणुवीसाई पंच य बंधा वेउबिए भणिया । संता पढमा चउरो उदया सत्तट्टवीस उणतीसा॥४३७॥ वेउब्बिए बंधा ५-२५।२६।२८।२६।३०। उदया ३-२७।२८।२६। संता ४-६३।१२। ६ ५।६०। वैक्रियिककाययोगे बन्धस्थानानि पञ्चविंशतिकादीनि शिकान्तानि पञ्च--२५।२६।२८।२६।३० । सत्त्वस्थानान्याधानि चत्वारि । उदयस्थानत्रिकम्--.-सप्तविंशतिकाष्टाविंशतिकनवविंशतिकानि त्राणि ॥४३७॥ वैक्रियिककाययोगे बन्धाः २५/२६।८।२६।३० । उदया: २७।२८।२६ । सत्वचतुष्कम् ६३।१२। ११180। वैक्रियिककाययोगियोंके पच्चीसको आदि लेकर पाँच बन्धस्थान; सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस ये तीन उदयस्थानः तथा आदिके चार सत्तास्थान कहे गये हैं॥४३७॥ वैक्रियिककाययोगियोंके बन्धस्थान २५, २६, २८, २९, ३० ये पाँच; उदयस्थान २७, २८, २६ ये तीन; तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१ और ६० ये चार होते हैं। तीसुगुतीसा बंधा तम्मिस्से पंचवीसमेवुदयं । संता पढमा चउरो बंधाहारेऽट्टवीस उणतीसा ॥४३८॥ मिस्से बंधा-२-२६।३०। उदयो १-२५ । संता ४-६३।१२।११।१०। आहारे बंधा २२८।२६। वैक्रियिकसि। त्रिंशत्क-नवविंशतिके द्व बन्धस्थाने २६।३० । गोम्मट्टसारे तु पञ्चविंशतिक पड़. विशतिकं च २५।२६। पञ्चविंशतिकमेवोदयस्थानमेकम् । सत्त्वस्थानान्याद्यानि चत्वारि १३।१२।११।१०। आहारककाययोगे अष्टाविंशतिककोनत्रिंशत्के द्वबन्धस्थाने २८।२६ ॥४३८॥ वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में तीस और उनतीस ये दो बन्धस्थान, पच्चीसप्रकृतिक एक उदयस्थान; तथा प्रारम्भके चार सत्तास्थान होते हैं। आहारककाययोगियोंके अट्ठाईस और उनतीस ये दो बन्धस्थान होते हैं ॥४३८।। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५०१ वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके बन्धस्थान २६ और ३० ये दो, उदयस्थान २५ प्रकृतिक; एक; तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१,६० ये चार होते है। आहारककाययोगियके बन्धस्थान २८ और २६ ये दो होते हैं। संतादिल्ला चउरो उदया सत्तट्टवीस उणतीसा । तम्मिस्से ते बंधा उदयं पणुवीस संत पढम चतुं ॥४३६॥ उदया ३-२७।२८।२६। संता ४-१३।१२।११।६०। मिस्से ते बंधा २-२८।२६। उदयो - २५ । संता ४-१३।१२। 1180 । आहारके सरवस्थानान्याद्यानि चत्वारि १३।१२।११।१० । उदयस्थानानि सप्तविंशतिकाष्टाविंशतिकनवविंशतिकानि त्रीणि २७।२८।२१। तन्मिश्रे आहारकमिश्रे ते आहारकोक्ते अष्टाविंशतिकैकोनत्रिंशत्के बन्धस्थाने द्व २८२६ । उदयस्थानमेकं पञ्चविंशतिकम् २५ । सत्वस्थानप्रथमचतुष्कम् ६३।१२।११।१०। गोम्मट्टसारे आहारके तन्मिश्रे च त्रि-द्विनवतिकद्वयम् ॥६३।६२ ॥४३॥ आहारककाययोगियोंके उदयस्थान सत्ताईस और अट्ठाईस ये दो तथा सत्तास्थान आदिके चार होते हैं । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें बन्धस्थान अट्ठाईस और उनतीस ये दो; उदयस्थान पच्चीस प्रकृतिक एक और सत्तास्थान प्रारम्भके चार होते है ।।४३६॥ आहारककाययोगियोंमें उदयस्थान २७, २८ ये दो; तथा सत्तास्थान ६३, १२, ६१, ६० ये चार होते हैं । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें बन्धस्थान २८, २६ ये दो; उदयस्थान २५ प्रकृतिक एक; तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६० ये चार होते हैं। कम्मइए तीसंता बंधा इगिवीसमेव उदयं तु । दो उवरिं वजित्ता संता हिडिल्लया सव्वे ॥४४०॥ कम्मइए बंधा ६-२३।२५।२६।२८।२६।३०। उदयो १-२१। संता ११-१३।१२।६।६०८८। ८४१२८०1७६७८७७ । कार्मणकाययोगे बन्धस्थानानि प्रयोविंशतिकादि-निशस्कान्तानि षट् २३।२५।२६।२८।३० । उदय. स्थानमेकविंशतिकमेकम २१ । केवलिसमुद्धातापेक्षया विंशतिकञ्च । दशक-नवकस्थानद्वयं वर्जयित्वा अधःस्थितानि सत्त्वस्थानानि सण्येकादश १३।१२।११।६०1८८1८४१२८०१७६१७८७७ ॥४४०॥ ___ इतियोगमार्गणा समाप्ता। कार्मणकाययोगियोंमें आदिसे लेकर तीस तकके बन्धस्थान; इक्कीस प्रकृतिक एक उदयस्थान और अन्तिम दोको छोड़कर नीचेके सर्व सत्तास्थान होते हैं ॥४४०॥ कार्मणकाययोगियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६, ३० ये छह; उदयस्थान २१ प्रकृतिक एक; तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये ग्यारह होते हैं। ते चिय संता वेदे बंधा सव्वे हवंति उदया य । इगिवीस पंचवीसाई इगितीसंतिया णेया ॥४४१॥ वेदे बंधा ८-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।३। उदया ८-२१।२५।२६।२७।२८।२१।३०।३१। संता ११-१३।१२।११18011८1८४८1८1७६७८७७। वेदमार्गणायां त्रिषु वेदेषु तान्येव कार्मणोक्तान्येकादश सत्वस्थानानि । बन्धस्थानानि सर्वाण्यष्टौ । उदयस्थानान्यष्टौ एकविंशतिक-पञ्चविंशतिकादीन्येकत्रिंशत्कान्तानि चाष्टौ ज्ञेयानि ॥४४१॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ पञ्चसंग्रह त्रिषु वेदेषु प्रत्येक बन्धाष्टकम् २३॥२५२६२८२६३०३११ । उदयस्थानाष्टकम् २१०२५/२६। २।२६।३०।३१ । सत्त्वस्थानकादशकम् १३।१२।११1801८८1८४८२८०.७६७८१७७ । अत्र स्त्रीपुंवेदयोन चतुर्विशतिकं स्थानम्, तस्यकेन्द्रियेष्वेवोदयात् । स्त्री-पण्ढयो शीतिकाष्टसप्ततिके, तीर्थसत्त्वस्य पुंवेदोदयेनैव क्षपक श्रेण्याऽऽरोहणात् । इति वेदमार्गणा समाप्ता । वेदमार्गणाकी अपेक्षा तीनों वेदोंवालोंके सत्तास्थान तो कार्मणकाययोगियोंके समान वे ही ग्यारह; और बन्धस्थान सर्व ही होते हैं। उदयस्थान इक्कीस और पच्चीसको आदि लेकर इकतीस तकके जानना चाहिए ॥४४१।। तीनों वेदियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २७, २६, ३०, ३१,१ये आठ; उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये आठ तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१,६०,८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७% और ७७ ये ग्यारह होते हैं। कोहाइचउसु बंधा सव्वे संता हवंति ते चेव । उवरिं दो वज्जित्ता उदया सव्वे मुणेयव्वा ॥४४२॥ कप्साए बंधा ८-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।। उदया १-२१।२४।२५।२६।२७।२८।२६। ३०।३।। संता ११-१३।१२।११।०1८८८४८२८०७६७८७७ । क्रोधादिचतुषु बन्धस्थानानि सर्वाण्यष्टौ ८ । सत्वस्थानानि तान्येव पूर्वोक्तान्येकादश ११ । उदयस्थानानि उपरितननवाष्टकस्थानद्वयं वर्जयित्वा सर्वाप्युदयस्थानानि नव ज्ञातव्यानि ॥४४२॥ ___कषायेषु चतुषु बन्धस्थानाष्टकम् २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।५ । उदयस्थाननवकम् २११२४। २५॥२६॥२७॥२८।२६।३०।३१ । सत्त्वस्थानकादशकम् ६३।१२।११।१०।८८1८11८०७६७८७७। इति कषायमार्गणा समाप्ता। कषायमार्गणाकी अपेक्षा क्रोधादि चारों कषायवालोंके सभी बन्धस्थान होते हैं। तथा सभी सत्तास्थान होने हैं। उदयस्थान उपरिम दोको छोड़कर शेष नौ जानना चाहिए ॥४४२॥ चारों कषायवालोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ ये आठ; उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये नौ; तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१,६०,८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये ग्यारह होते हैं। मइ-सुय-अण्णाणेसुं बंधा तेवीसाइ-तीसंतिया मुणेयव्वा । दुणउदि आइ छ संता ते उदया हवंति वेभंगे। ॥४४३॥ मइ-सुयअण्णाणे बंधा ६-२३।२५।२६।२८।२६३०। उदया है-२१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२६। ३०॥३१ । संता ६-६२११1801८८८८२। ज्ञानमार्गणायां कुमति कुश्रुताज्ञानयो मबन्धस्थानानि त्रयोविंशतिका[दि-त्रिंशत्कान्तानि पट मन्तव्यानि २३।२५।२६।२८।२६।३० । सत्त्वस्थानानि द्वानवतिकादीनि षट् १२१११18011८1८४८२ । तान्येव कषायोक्तान्युदयस्थानानि नव २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ भवन्ति । विभङ्गज्ञाने [ उपरि वक्ष्यामः । ॥४४३॥ ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मति और श्रुत-अज्ञानियोंमें बन्धस्थान तेईसको आदि लेकर तीस तकके छह जानना चाहिए। उदयस्थान कषायमार्गणाके समान वे ही नौ होते हैं । सत्तास्थान बानबैको आदि लेकर छह होते हैं । अब विभङ्गज्ञानियोंके स्थानोंका वर्णन करते हैं ॥४४३॥ 'ब वेभंगा। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५०३ मति श्रुताज्ञानियों के बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३० ये छह, उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये नौ तथा सत्त्वस्थान ६२, ६१, ६०, ८५, ८४ और ८२ ये छह होते हैं। ते चिय बंधा संता उदया अडवीस तीस इगितीसा । मइ-सु- ओहीजुयले बंधा अडवीस आदि पंचेव ||४४४ || वेभंगे बंधा ६—२३।२५।२६।२८।२६।३०२ उदया ३ – २८|३०|३१| संता ६ - ६२/६३॥ ४२ मइ सुय ओहिजुयले बंधा ५ - २८|२९|३०|३१।१ । विभङ्गज्ञाने तान्येव कुमति- कुश्रुतोक्तबन्ध - सत्त्वस्थानानि । उदयस्थानानि अष्टाविंशतिक-त्रिंशक्केकत्रिंशत्कानि त्रीणि ॥ ४४४ ॥ विभङ्गज्ञाने बन्धस्थानपट्कम् २३।२५।२६।२८।२६।३० | उदयस्थानत्रिकम् २८|३०|३१ । सरवस्थानषट्कम् २।१६०८८४८२ । विभंगज्ञानियों के मतिश्रुताज्ञानियोंके समान वे ही बन्धस्थान और सत्त्वस्थान जानना चाहिए | किन्तु उदयस्थान अट्ठाईस, तीस और इकतीस ये तीन ही होते हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियोंके दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा अवधिदर्शनियोंके बन्धस्थान अट्ठाईस आदि पाँच होते हैं ||४४४ || विभंगज्ञानियोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३० ये छह, उदयस्थान २८, ३०, ३१ तीन तथा सत्तास्थान ६२, ६१, ६०, ८८, ८४ और २ ये छह होते हैं । मति, श्रुत और अवधि-युगलवालोंके बन्धस्थान २८, २९, ३०, ३१ और १ ये पाँच होते हैं । चवीसं दो उवरिं वजित्ता उदय अट्ठेव । चउ आइल्ला संता ऊवरिं दो वजिऊण चउ हेट्ठा || ४४५ ॥ उदया - २६।२५।२६।२७|२८|२६|३०|३१| संता - ६३२६१8०1८०1७६७८७७ मति श्रुतावधिज्ञानावधिदर्शनेषु बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि पञ्च २८ | २१ |३०|३१||| चतुर्वि ंशतिकं उपरिमनवकाष्टकद्वयं च वर्जयित्वा उदयस्थानान्यष्टौ २१।२५।२६।२७।२८।२६|३०|३१| चतुराद्यसत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादिचतुष्कं उपरिमदशक नवकद्वयं वर्जयित्वा चतुरःस्थसस्वस्थानानि अशीतिकादीनि चत्वारि इत्यष्टौ ६३/६२/६१/६० ८० ७६७८ ७७ || ४४५ ॥ उन्हीं उपर्युक्त जीवोंके चौबीस तथा दो अन्तिम स्थानोंको छोड़कर शेष आठ उद्यस्थान होते हैं । तथा सत्तास्थान आदिके चार और अन्तिम दोको छोड़कर अधस्तन चार, ये आठ होते हैं ||४४५|| मति श्रुत और अवधि युगलवालोंके उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये आठ तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८०, ७६, ७६ और ७७ ये आठ होते हैं । बंधा संता तेच्चिय मणपजे तीसमेव उदयं तु । केवलजुयले उदया चदु उवरि छच्च संत उवरिल्ला ||४४६ || मणपज्जे बंधा ५-- २८|२१|३०|३१।१ । उदयो १–३० संता ८- ६३ । ६२|१|१०|८०|७| ७८ ७७। केवलजुयले उदया ४ – ३० ३१।६८ संता ६--८०1७६७८ ७७|३०|| मन:पर्ययज्ञाने तान्येव संज्ञानोक्तबन्ध-सत्त्वस्थानानि भवन्ति । उदयस्थानमेकं त्रिंशत्कम् | मन:पर्ययज्ञाने बन्धस्थानपञ्चकम् २८|२६|३०|३१|१| उदयस्थानमेकम् ३० । सत्त्वस्थानाष्टकम् ६३।१२।११। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ पञ्चसंग्रह 801201७९।७८७७1 केवलयुगले केवलज्ञाने केवल दर्शने च उदयस्थानचतुष्कमुपरितनम् ३०।३१।। केवलिसमुदातापेक्षया उदयदशकम् २०१२११२६।२७।२८।२६।३०।३१11८। सत्त्वस्थानानि पट उपरितनानि अशीतिकादीनि पढित्यर्थः ८०।७१७८७७।१०।। तत्र बन्धो नास्ति॥ ४४६॥ इति ज्ञानमार्गणा समाप्ता । मनः पर्ययज्ञानियोंके बन्धस्थान और सत्तास्थान तो मति-श्रतादि ज्ञानियोंके समान वे ही पूर्वोक्त जानना चाहिए। किन्तु उदयस्थान केवल तीस प्रकृतिक ही होता है । केवलज्ञानियों और केवलदर्शनियोंके (बन्धस्थान कोई नहीं होता।) उदयस्थान उपरिम चार तथा सत्तास्थान उपरिम छह होते हैं ।।४४६॥ मनः पर्ययज्ञानियोंके बन्धस्थान २८, २९, ३०, ३१, १ ये पाँच; उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक तथा सत्तास्थान ६३, १२, ११,६०,८०, ७६, ७८ और ७७ ये आठ होते हैं केवल-युगलवालोंके उदयस्थान ३०, ३१, ६ और ८ ये चार; तथा सत्तास्थान ८०, ७६, ७८, ७७, १० और ६ ये छह होते हैं। सामाइय-छेदेसुं बंधा अडवीसमाइ पंचेव । पणुवीस सत्तवीसा उदया अडवीस तीस उणतीसा ॥४४७॥ सामाइय-छेदेसु बंधा-२८।२६।३०।३१।१। उदया ५-२५।२७।२८।२६।३०। संयममार्गणायां सामायिकच्छेदोपस्थापनयोबन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि पन्चैव २८२६॥३०॥ ३१।। उदयस्थानानि पञ्चविंशतिक-सप्तविंशतिकाष्टाविंशतिक नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि पञ्च २५।२७॥२८॥ २६।३०। ॥४४७॥ संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना संयतोंके बन्धस्थान अट्ठाईस आदि पाँच होते हैं। उद्यस्थान पञ्चीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस और तीस; ये पाँच होते हैं ।।४४७॥ सामायिक-छेदोपस्थाएनासंयतोंमें बन्धस्थान २८, २६, ३०,३१, १ ये पाँच तथा उदयस्थान २५, २७, २८, २६ और ३० ये पाँच होते हैं। पढमा चउरो संता उवरिम दो वजिदूण चउ हेट्ठा। संता चउरो पढमा परिहारे तीरामेव उदयं तु ॥४४८॥ संता ८-६३।१२।११।१०।८०७६।७८७७ परिहारे उदया १-३० । संता ४-१३।६२।६१।६० प्रथमचतुःसत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादिचतुष्कम् , उपरिमदशक-नवकद्वयं वर्जयित्वा चतुरधःस्थसत्त्वस्थानानि अशीतिकादिचतुष्कमित्यष्टौ सत्वस्थानानि ६३११२।११।१०1८०७६७८१७७। परिहारविशुद्धौ सत्त्वस्थानानि चत्वारि प्रथमानि त्रिनवतिकादीनि । त्रिंशत्कमुदयस्थानमेकम् ३० ॥४४८॥ उन्हीं दोनों संयतोंके सत्त्वस्थान प्रारम्भके चार, उपरिम दोको छोड़कर अधस्तन चार, ये आठ होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयतोंके तीस प्रकृतिक एक उदयस्थान और प्रारम्भके चार सत्तास्थान होते हैं ॥४४८॥ सामायिक-छेदोपस्थापना संयतोंके सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये आठ होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयतोंके उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक और सत्तास्थान ६३, ६२, ६१ और ६० ये चार होते हैं। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ सप्ततिका अडवीसा उणतीसा तीसिगितीसा य बंध चत्तारि । जसकित्ती वि य बंधा सुहुमे उदयं तु तीस हवे ॥४४६।। परिहारे बंधा ४-२८।२६।३०।३१ सुहुमे बंधा ।-१ । उदयं १-३०। परिहारविशुद्धौ अष्टाविंशतिक नवविंशतिक-त्रिंशकैकत्रिंशत्कानि चत्वारि बन्धस्थानानि । परिहारविशुद्धिसंयमे बन्धस्थानचतुष्कम् २८।२६।३०।३। उदयस्थानमेकम् ३०। सत्त्वस्थानचतुष्कम् ६३।१२।११ १०। सूचमसाम्पराये सूचमसाम्परायो मुनिरेका यशस्कीति बनन् त्रिंशत्कमुदयागतमनुभवति । [ उदयस्थानं तु त्रिंशत्कमेकमेव । ] ॥४४६॥ उन्हीं परिहारविशुद्धि संयतोंके बन्धस्थान अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक ये चार होते हैं। सूक्ष्म साम्पराय संयतोंके यशस्कोतिं प्रकृतिक एक ही बन्धस्थान और एक ही उदयस्थान होता है ॥४४॥ परिहारविशुद्धि संयतोंके बन्धस्थान २८, २९, ३०, ३१ ये चार होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय संयतोंके बन्धस्थान १ प्रकृतिक और उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक होता है । संताइल्ला चउरो उवरिम दो वजिदूण चउ हेट्ठा । जहखायम्मि वि चउरो तीसिगितीसा णव अट्ठ उदयाय ॥४५०॥ संता ८-१३।१२।११1801001581७८७७। जहखाए उदया ४-३०।३१।६।। सूक्ष्मसाम्पराये सत्वस्थानान्याद्यानि त्रिनवतिकादीनि चत्वारि, उपरिमदशक-नवकद्वयं वर्जयित्वा चतुरधःस्थानान्यशीतिकादीनि चत्वारि चेत्यष्टौ । सूचमसाम्पराये बन्धस्थानमेकं १ यशस्कीतिनाम । उदयस्थानमेकं त्रिंशत्कम् ३० । सत्वस्थानाष्टकम् ६३।१२।११1१०1८०1७६७८७७। यथाख्याते नामबन्धो नास्ति । उदयस्थानानि चत्वारि त्रिंशत्केकत्रिंशत्कननकाष्टकानि ३०३१18 केवलिसमुद्धातपेक्षया उदयदशकम् २०१२११२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।८ ॥४५०॥ उन्हीं सूक्ष्मसाम्पराय संयतोंके सत्तास्थान आदिके चार तथा उपरिम दोको छोड़कर अधस्तन चार; ये आठ होते हैं। यथाख्यात संयतोंके तीस, इकतीस, नौ और आठ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं ।।४५०॥ सूक्ष्मसाम्परायसंयतोंके सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०८०, ७६, ७८ और ७७ ये आठ होते हैं । यथाख्यात संयतोंके ३०, ३१, ६ और ८ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। चउहेट्ठा छाउवरि संतवाणाणि दस य णेयाणि । तससंजमम्मि णेया संतवाणाणि चउ हेट्टा ॥४५१॥ संता १०-६३।१२।११।१०।८०७६।७८७७।१०।६। तससंजमे संता ४-६३।१२।६११६० यथाख्याते सत्त्वस्थानानि चतुरधःस्थानानि विनवतिकादीनि चत्वारि, पदुपरितनानि सत्त्वानि अशीतिकादीनि पट । एवं दश सत्त्वस्थानानि १३।१२।११1१०1८०७१।७८७७।१०।। त्रससंयमे देशसंयमे सत्त्वस्थानानि चतुरधःस्थानानि त्रिनवतिकादीनि चत्वारि ६३।१२।११।१०॥४५॥ उन्हीं यथाख्यात संयतोंके चार अधस्तन और छह उपरितन; ये दश सत्तास्थान जानना चाहिए । त्रस-संयमवालोंके अर्थात् देशसंयतोंके चार अधस्तन सत्तास्थान जानना चाहिए ॥४५१॥ यथाख्यात संयतोंके सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८०, ७६, ७८, ७७, १० और ६ ये दश सत्तास्थान होते हैं । देशसंयतोंके ६३, ६२, ६१ और ६० ये चार सत्तास्थान होते हैं। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ पञ्चसंग्रह अडवीसा उणतीसा बंधा उदया य तीस इगितीसा । असीदिं वजित्ता पढमा सत्ता असंजमे संता ||४५२ || बंधा २—२८।२६। उदया २ – ३०-३१ । असंजमे संता ७६३।६२।६१/६०|८४८२ !८० | देशसंयमे बन्धस्थाने द्वे - अष्टाविंशतिक नवविंशतिके २८।२६ । उदयस्थाने द्वे - त्रिंशत्क त्रिंशत्के ३०|३१| असंयमे अष्टाशीतिकं वर्जयित्वा प्रथमानि त्रिनवतिकादीनि सत्वस्थानानि सप्त ६३|१२|शहन ८४८२८० गोम्मट्टसारे एवमप्यस्ति इदं साधु दृश्यते ॥४५२॥ असंयमे बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकादित्रिंशत्कान्तानि षड् बन्धाः २३।२५।२६।२८ २६|३०| उदयस्थानानि उपरिमनवकाष्टद्वयं वर्जयित्वा एकविंशनिकादीनि नव २१।२४।२५।२६।२७|२८|२१|३०|३१ इति संयंत्रमार्गणा समाप्ता । उन्हीं देशसंयतोंके अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक दो बन्धस्थान; तथा तीस और इकतीस प्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं । असंयतोंके अठासीको छोड़कर प्रथमके सात सत्तास्थान होते हैं ||४५२ || देशसंयतों के बन्धस्थान २८, २६ ये दो; तथा उदयस्थान ३० और ३१ ये दो होते हैं । असंयतोंके ६३, ६२, ६१, ६०, ८४, ८२, ८० ये सात सत्तास्थान होते हैं । तीसंता छब्बंधा उचरिम दो वजिण णव उदया । चक्खुम्मि सव्वबंधा उदया उणतीस तीस इगितीसा ||४५३ || बंधा ६—२३।२५।२६।२८ | २६|३०| उदया है - २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३० ३१ । चक्खुदंसणे बंधा ८ - २३।२५ | २६|२८|२१|३०|३१|१ | उदया ३–२६|३०|३१| दर्शन मार्गणायां चक्षुर्दर्शने बन्धस्थानानि सर्वाण्यष्टौ २३ ।२५।२६।२८ २९ ३० ३१।१ उदयस्थानानि एकोनत्रिंशत्कत्रिंशत्कै कत्रिंशत्कानि त्रीणि २६|३०|३१| शक्त्यपेक्षया २१।२४।२५।२६।२७|२८|२१|३०|३१| इदं गोम्मट्टसारेऽप्यस्ति ॥ ४५३ ॥ उन्हीं असंयतोंके आदिसे लेकर तीस तकके छह बन्धस्थान और उपरिम दोको छोड़कर उदयस्थान होते हैं । दर्शनमार्ग की अपेक्षा चतुदर्शनियों के बन्धस्थान तो सभी होते हैं; किन्तु उदयस्थान उनतीस तीस और इकतीस प्रकृतिक तीन ही होते हैं ||४५३ || असंयतोंके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६, ३० ये छहः तथा उदयस्थान २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३० और ३१ ये नौ होते हैं । चक्षुदर्शनियों के बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २६, ३०, ३१, १ ये आठ; तथा उद्यस्थान २६, ३० और ३१ ये तीन होते हैं । उवरि दो जित्ता संता इयरम्मि होंति णायव्वा । बंधा संता तेच्चिय उवरिम दो वजिदुण णव उदया || ४५४ || संता ११–६३।६२।६ १६०८८४८२८०७६७८७७ भचक्खुदंसणे बंधा ८ - २३।२५।२६ २८ २९ ३० ३१।१ उदया ६-२१।२४।२५।२६।२७:२८|२६|३०|३१| संता - ११-६३।६२।६१/६० ८८८४८२/८०1७६७८७७ । चक्षुर्दर्शने सत्त्वस्थानानि उपरिमदशक नवकलयं वर्जयित्वा एकादश सत्त्वस्थानानि १३/२/१ १०।८८|८४|८२ ८०1७६७८७७ इतरस्मिन् अचक्षुदर्शने तान्येव चक्षुर्दर्शनोक्तानि बन्ध-सरवस्थानानि भवन्ति । उदयस्थानानि उपरिमद्विकं वर्जयित्वा नवोदयाः । अचक्षुर्दर्शने बन्धाष्टकम् । २३।२५।२६।२८ | १. आदर्शप्रतौ 'संता' इति पाठः । For Private Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५०७ २४॥३०॥३१॥१। उदयस्थाननवकम् । २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। सत्वैकादशकम् ९३।१२। ११1801८८८४८1८०1७६७८७७। भवधि-केवल दर्शनद्वये ज्ञाने कथितमस्ति ॥४५४॥ इति दशनमार्गणा समाप्ता। चक्षुदर्शनियोंके उपरिम दो सत्तास्थान छोड़कर शेष ग्यारह सत्तास्थान होते हैं। इतर अर्थात् अचक्षुदर्शनियों में वे ही अर्थात् चक्षुदर्शनवालोंके बतलाये गये बन्धस्थान और सत्तास्थान होते हैं। तथा उपरिम दो को छोड़कर शेष नौ उदयस्थान होते हैं॥४५४॥ चक्षुदर्शनियोंके सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७, ये ग्यारह सत्तास्थान होते हैं। अचक्षुदर्शनियोंके २३, २५, २६, २८, २६, ३०, ३१, ये आठ बन्धस्थान; २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ये नौ उदयस्थान, तथा ६३, ६२, ६१, ६०, ८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये ग्यारह सत्तास्थान होते हैं। किण्हाइतिए बंधा तेवीसाई हवंति तीसंता । सत्ता सत्ताइल्ला उवरिम दो वञ्जिदूण णव उदया ॥४५॥ किण्ह-णील-काउसु बंधा ६-२३।२५।२६।२८।२६।३०। उदया १-२१२४॥२५॥२६॥२७१२८ २६।३०।३१। संता ७-६३।१२।११1801८८८४ लेश्यामार्गणायां कृष्णादित्रये बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकादित्रिंशत्कान्तानि षट २३।२।२६।२८।२६। ३०। सत्त्वस्थानानि आद्यानि त्रिनवतिकादीनि सप्त १३।१२।११18015८४८२ । उपरिमद्वयं वर्जयित्वा चोदयस्थानानि नव २११२४।२५।२६।२७॥२८॥२६॥३०॥३१ ॥४५५॥ लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा कृष्ण आदि तीन लेश्याओंमें तेईसको आदि लेकर तीस तकके छह बन्धस्थान, उपरिम दो को छोड़कर शेष नौ उदयस्थान; तथा आदिके सात सत्तास्थान होते हैं ॥४५५॥ कृष्ण, नील और कापोतलेश्यामें २३, २५, २६, २८, २९, ३० ये छह बन्धस्थान, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये नौ उदयस्थान; तथा ६३,६२,६१,६०,८८,८४ और ८२ ये सात सत्तास्थान होते हैं । तेऊ पम्मा बंधा अडवीसुणतीस तीस इगितीसा । इगि पणुवीसा उदया सत्तावीसाइ जाव इगितीसं ॥४५६।। तेउ-पम्मासु बंधा ४-२८।२६।३०।३१। उदया ७–२१।२५।२७।२८।२६।३०।३१॥ तेजःपमयोर्बन्धस्थानानि अष्टाविंशत्येकोनत्रिंश कत्रिंशत्कैकत्रिंशत्कानि चत्वारि २८।२६।३०।३१ । पद्मायमष्टाविंशतिकादोनि चत्वारि । पीतलेश्यायां २५।२६।२८।२६।३०।३१ एवमप्यस्ति । उदयस्थानानि एकविंशतिक-पञ्चविंशतिक-सप्तविंशतिकाद्यकत्रिंशत्कान्तानि सप्त २११२५।२७।२८।२६।३० तेज और पद्मलेश्यामें अट्राईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक ये चार बन्धस्थानः तथा इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, और इकतीस प्रकृतिक ये सात उदयस्थान होते हैं ।।४५६।। . - तेज और पद्मलेश्यामें बन्धस्थान २८, २९, ३०, ३१, ये चार तथा उदयस्थान २१, २५, २७, २८, २६ ३० और ३१ ये सात होते हैं। __संता चउरो पढमा सुक्काए होंति तेच्चिय विवाया। संता चउरो पढमा उवरिम दो वजिदूण चउ हेट्ठा ॥४५७॥ संता ४-१३।१२।११।१० । सुक्काए उदया ७-२११२५।२७।२८।२६।३०।३१। संता - १३।१२।११1801८1७६७८७७ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ पञ्चसंग्रह पीत-पद्मयोः सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिकादीनि चत्वारि ६३।१२।११।१०। शुक्ललेश्यायां त एव पीतपद्मोक्तविपाका उदयस्थानानि सप्त २१॥२५॥२७॥२८२४॥३०॥३१ भवन्ति । केवलिसमुद्धातापेक्षया विंशतिकोदयश्च सत्तास्थानानि चत्वारि त्रिनवतिकादीनि उपरिमद्विकं वर्जयित्वा चतुरधःसत्त्वस्थानानि अशीतिकार्दानि चत्वारि । एवमष्टौ ९३।१२।११।१०।८०1७६७८७७ ॥४५७॥ तेज और पद्मलेश्यामें प्रथमके चार सत्तास्थान होते हैं। शुक्ललेश्यामें विपाक अर्थात् उदयस्थान तो वे ही होते हैं, जो कि तेज-पद्मलेश्यामें बतलाये गये हैं। किन्तु सत्तास्थान आदिके चार तथा उपरिम दो को छोड़कर अधस्तन चार, इस प्रकार आठ होते हैं ।।४५७॥ तेज-पद्मलेश्यामें ६३, ६२, ६१, ६० ये चार सत्तास्थान होते हैं। शुक्ललेश्यामें २१, २५, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये सात उदयस्थान; तथा ६३, ६२,६१,६०,८०,७६, ७८ और ७ आठ सत्तास्थान होते हैं। अडवीसाई बंधा पिल्लेसे उदय उवरिमं जुयलं । उवरि छचिय संता भव्वे बंधा हवंति सव्वे वि ॥४५८॥ सुक्काए बंधा ५-२८।२६।३०।३१।। अल्लेसे उदया २--81८। संता ६-८०७६७८७७। १०। भव्वे बंधा सव्वे २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।१। शुक्ललेश्यायां बन्धस्थानान्यष्टाविंशतिकादीनि पञ्च २८।२६।३०।३१।। निलेश्ये अयोगे उदयोपरिमयुग्मं नवकाष्टकद्वयमस्ति ।८ । सत्त्वस्थानानि उपरिमस्थानानि षट् ८०1७६७८७७।१०।। इति लेश्यामार्गणा समाप्ता। भव्यमार्गणायां भव्ये बन्धस्धानानि सर्वाण्यष्टौ २३।२५।२६।२८।२६॥३०॥३१॥ १ ४५८॥ शुक्ललेश्यामें अट्ठाईसको आदि लेकर पाँच बन्धस्थान होते हैं। लेश्यासे रहित अयोगिकेवलीके उपरिम दो उदयस्थान; तथा उपरिम छह सत्तास्थान होते हैं। भव्यमार्गगाकी अपेक्षा भव्य जीवोंके सभी बन्धस्थान होते हैं ।।४५८॥ शुक्ललेश्यामें २८, २९, ३०, ३१, १ ये पाँच बन्धस्थान होते हैं। अलेश्यजीवोंके है और ८ ये दो उदयस्थान; तथा ८०, ७६, ७८, ७७, १० और ६ वे छह सत्तास्थान होते हैं। भव्योंके २३, २५, २६, २८, २६, ३०, ३१, और १ ये सभी बन्धस्थान होते हैं। दो उवरि वजित्ता संतुदया होंति सव्वे वि । अभव्वे तीसंता बंधा उदया य उवरि दो वजं ॥४५६॥ उदया है-२१।२४।२५।२६।२७।२।२६।३०।३।। संता ११-१३।१२।११।१०।८८।८४८२। 501७६७८७७॥अभब्वे बंधा ६-२३।२५।२६।२८ारहा३०॥ उदया -२१॥२४॥२५/२६।२७।२८। २६।३००३१॥ भव्ये सत्वोदयस्थानानि उपरिमद्वयं वर्जयित्वा सर्वाण्युदयसत्त्वस्थानानि भवन्ति। भव्ये उदया नव २१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सरवस्थानकादशकम् १३।१२।११1801८८1८४८२। ८०1७६७८७७ । अभव्ये बन्धस्थानि त्रयोविंशतिकादित्रिंशरकान्तानि २३१२५।२६।२८।२६।३० । आहारक युतं त्रिंशत्कं न स्यात्, किन्तु त्रिंशत्कमुद्योतयुतं स्यात् । उपरिमस्थानद्वयं वर्जयित्वा उदयस्थानानि नव २१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ ॥४५६॥ भव्योंके उपरिम दो को छोड़कर शेष नौ उदयस्थान; तथा उपरिम दो को छोड़कर शेष ग्यारह सत्तास्थान होते हैं। अभव्योंके तीस तकके छह बन्धस्थान; तथा उपरिम दो को छोड़कर शेष नौ उदयस्थान होते हैं ।।४५६।। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका भव्यों के २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१ ये नौ उदयस्थान; तथा ६३, ६२. ६१, ६०, ८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ ये ग्यारह सत्तास्थान होते हैं। अभव्य में २३, २५, २६, २८, २६, ३० ये दश बन्धस्थान; तथा २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, २६, ३० और ३१ ये नौ उदयत्थान होते हैं । संता उदाइ च णो भव्वा । चदु छाय उवरि उदय संता । उवसमम्मे बंधा अडवीसाई हवंति पंचेव ||४६०॥ संता ४–६०८८८४८२ णोभव्वणोऽभव्वे उदया ३ - ३०|३१|| संता ६ – ८०७६७८ ७७।१०।१ । उवसमसम्मत्ते बंधा ५- २८ २९ ३०१३१।१ ॥४६०॥ अभव्ये नवतिकादीनि चत्वारि सत्त्वस्थानि ६०८८८४८२ । नोभव्याभव्ये अयोगे अन्त्योदयाश्वत्वारः ३०।३१।६।८ । अन्तिमसत्त्वस्थानि षट् ८० ७६७८ ७७।१०।६ । इति भव्य मार्गणा समाप्ता । सम्यक्त्वमार्गणायामुपशमसम्यक्त्वे बन्धस्थानानि अष्टाविंशतिकादीनि पञ्च २८|२१|३०| ३१।१ । अभव्योंके नब्बे आदि चार सत्तास्थान होते है । नोभव्य-नोअभव्य जीवोंके उपरिम चार उदयस्थान और उपरिम छह सत्तास्थान होते हैं । सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा उपशमसम्यक्त्वमें अट्ठाईसको आदि लेकर पाँच बन्धस्थान होते हैं ॥४६० ॥ अभव्य ६०, ८४, ८२ ये चार सत्तास्थान होते हैं । नो-भव्य-नोअभव्यके ३०, ३१, ६, ८ ये चार उदयस्थान; तथा ८०, ७६, ७८, ७७, १० और ६ ये छह सत्तास्थान होते हैं । उपशमसम्यक्त्वमें २८, २६, ३०, ३१ और १ ये पाँच बन्धस्थान होते हैं । ५०६ उदया इगि पणुवीसा उणतीसा तीस होंति इगितीसा संता चउरो पढमा वेदयसम्मम्मि संत ते चैव ॥ ४६१ ॥ उदद्या ५-२१।२५ २६|३०|३|| संता ४ -- ६३।६२।६।६० वेदये संता ४–६३।६२।६१/६० उपशमे उदयस्थानानि एक पञ्चाप्रविंशतिके द्व े, एकोनत्रिंशक- त्रिंशस्कैक- त्रिंशत्कानि त्रीणि; एवं पञ्च २१।२५।२६|३०|३ | भवन्ति । सत्त्वस्थानानि चत्वार्याद्यानि नवतिकादीनि ६३/२/१६० । वेदकसम्यक्त्वे सत्त्वस्थानानि तान्येवोपशमोक्तानि त्रिनवतिकादीनि चत्वारि ६३।२६१६० ॥ ४६१॥ उपशमसम्यक्त्वमें इक्कीस, पच्चीस, उनतीस, तीस, इकतीस ये पाँच उद्यस्थान और आदिके चार सत्तास्थान होते हैं । वेदकसम्यक्त्वमें भी ये ही आदिके चार सत्तास्थान होते हैं ||४६१ ॥ उपशम सम्यक्त्वमें २१, २५, २६, ३०, ३१ ये पाँच उदयस्थान, तथा ६३, ६२, ६०, ६१, ये चार सत्तास्थान होते हैं । वेदकसम्यक्त्वमें भी ६३, ६२, ६१, ६० ये ही चार सत्तास्थान होते हैं। अडवीसा उणतीसा तीसिगितीसा हवंति बंधा य । चवीसं दो उवरिं वजित्ता उदयठाणाणि ॥ ४६२ ॥ बंधा ४ - २८|२६|३०|३१| उदया ८-२१।२५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ + भव्वाभवे । *ब णोभव्वाभव्वे । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह वेदकसम्यक्त्वे बन्धस्थानानि अष्टाविंशतिकनवविंशतिकत्रिंशककत्रिंशत्कानि चत्वारि भवन्ति २८।२।। ३०॥३१ । उदयस्थानानि चतुर्विंशतिकं उपरिमनवकाष्टकद्वयं च वर्जयित्या अन्यान्यष्टौ २१२५।२६।२७। २८।२६।३०।३१ ॥४६२॥ - उसी वेदकसम्यक्त्व में अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीसप्रकृतिक चार बन्धस्थान; तथा चौबीस और उपरिम दो स्थानोंको छोड़कर शेष आठ उदयस्थान होते हैं ॥४६२॥ वेदकसम्यक्त्वमें २८, २९, ३०, ३१, ये चार बन्धस्थान और २१, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१ ये आठ उदयस्थान होते हैं। चउरो हेट्ठा छाउवरि खाइए संता हवंति णायव्वा । .. चउवीसं वज्जुदया अडवीसाई हवंति बंधा य ॥४६३॥ खाइयसम्मत्ते बंधा ५-२८।२६।३०।३।३। उदया १०-२१।२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥ है।८। संता १०-१३।१२।१1801201७६७८१७७।१०। क्षायिकसम्यक्त्वे चत्वारि सावस्थानान्यधःस्थानानि पडुपरिष्टानि, एवं दश सत्वस्थानानि क्षायिकसम्यग्दष्टौ भवन्ति । चतुर्विशतिकं वजयित्वा उदयस्थानानि दश । अष्टाविंशतिकानीनि पञ्च बन्धस्थानानि भवन्ति ज्ञातव्यानि ॥४६३॥ चायिकसम्यक्त्वे बन्धस्थानपञ्चकम् २८।२६।३०।३१।१ । उदयस्थानदशकम् २१।२५।२६।२७।२८। २६॥३०॥३१।६।८ । केवलिसमुद्धातापेक्षया विंशतिकस्योदयोऽस्ति । सत्वस्थानदशकम् ६३।१२।११।१०। ८०७६।७८१७७।१०। । __ क्षायिकसम्यक्त्वमें चार अधस्तन और छह उपरिम ये दश सत्तास्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । उदयस्थान चौवीसको छोड़करके शेष सर्व, तथा बन्धस्थान अट्ठाईसको आदि लेकरके शेष सर्व होते हैं ॥४६३॥ क्षायिकसम्यक्त्वमें २८, २९, ३०, ३१,१ ये पाँच बन्धस्थान, २१, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१, ६, ८ ये दश उदयस्थान; तथा ६३, ६२, ६१, ६०,८०,७६, ७८, ७७, १० और ६ ये दश सत्तास्थान होते हैं। अडवीसाई तिणि य बंधा सादम्मि संत णउदीया । इगिवीसाई सत्त य उदया अड सत्तवीस वञ्जित्ता ॥४६४॥ सासणे बंधा ३-२८।२६।३०। उदय। ७-२१।२४।२५।२६।२६।३०।३१। संता १-१०। सासाद नरुची बन्धस्थानानि अष्टाविंशतिकादीनि त्रीणि २८।२६।३० । सत्वस्थानमेकं नवतिकम् १० । अष्टाविंशतिक सप्तविंशतिकं च वर्जयित्वा एकविंशतिकादीनि सप्तोदयस्थानानि २१२४॥२५२६२४॥ ३०॥३१ । अत्र सप्ताष्टाविंशतिके तु अनयोरुदयकालागमनपर्यन्तं सासादनस्वासम्भवान्नोक्ते ॥४६४॥ सासादनसम्यक्त्वमें अट्ठाईसको आदि लेकर तीन बन्धस्थान; नब्बैप्रकृतिक एक सत्ता. स्थान; तथा सत्ताईस और अट्ठाईसको छोड़कर इक्कीस आदि सात उदयस्थान होते हैं ॥४६४॥ सासादनमें २८, २६, ३० ये तीन बन्धस्थान, तथा २१, २४, २५, २६, २६,३०,३१ ये सात उदयस्थान हैं और ६० प्रकृतिक एक सत्तास्थान होता है। अट्ठावीसुणतीसा बंधा मिस्सम्मि णउदि वाणउदी। संता तीसिगितीसा उणतीसा होति उदया य ॥४६॥ मिस्से बंधा २-२८।२६। उदया ३-२६।३०।३१। संता २-६२१६०॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका मिश्ररुचौ बन्धस्थानेऽष्टाविंशतिक-नवविंशतिके द्वे २८।२१ । सत्त्वस्थाने द्वे नवतिक-द्वानवतिके १२॥ १० भवतः । उदयस्थानानि एकोनत्रिंशत्केकत्रिंशत्कानि त्रीणि २६।३०।३१ ॥४६५॥ मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वमें अट्ठाईस, उनतीसप्रकृतिक दो बन्धस्थान; बानबै और और नब्बैप्रकृतिक दो सत्तास्थान; तथा उनतीस, तीस और इकतीसप्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं ॥४६५॥ मिश्रमें २८ और २६ ये दो बन्धस्थान; २६, ३०, ३१ ये तीन उदयस्थान; तथा ६२ और ६० ये दो सत्तास्थान होते हैं। तीसंता छब्बंधा उवरिम दो वजिदूण णव उदया । मिच्छे पढमा संता तेणउदि वजिऊण छच्चेव ॥४६६॥ मिच्छे बंधा ६–२३।२५।२६।२८।२६।३०। उदया ६-२१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। संता ६-६२।११।६०1८८1८४८२। मिथ्यारुचौ बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिकादित्रिंशत्कान्तानि षट् २३।२५।२६।२८।२६।३०। उदयस्थानानि उपरिम-नवकाष्टकस्थानद्वयं वर्जयित्वा अन्यानि नवोदयस्थानानि २१॥२४।२५।२६।२७।२८।२६। ३०॥३१ । त्रिनवतिकं वर्जयित्वा आदिमसत्त्वस्थानानि पट १२।११1१०1८८८४८२ ॥४६६॥ इति सम्यक्त्वमार्गणा समाप्ता। . मिथ्यात्वमें तीसप्रकृतिक स्थान तकके छह बन्धस्थान; उपरिम दो को छोड़कर शेष नौ उदयस्थान; तथा तेरानबैको छोड़कर. प्रारम्भके छह सत्तास्थान होते हैं ॥४६६।। मिथ्यात्वमें २३, २५, २६, २८, २६, ३० ये छह बन्धस्थान; २१, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१ ये नौ उदयस्थान; तथा ६२, ६१,६०,८८, ८४ और ८२ ये छह सत्तास्थान होते हैं। सणिम्मि सव्वबंधा उवरिम दो वजिऊण संता दु । चउवीसं दो उवरिं वजित्ता होंति उदया य ॥४६७॥ सणीसु बंधाम-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१११। उदया ८-२११२५/२६।२७।२८।२६।३०३१ संता ११-१३।१२18 11801८८1८४८२१८०1७६७८७७॥ संज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवे बन्धस्थानानि सर्वाण्यष्टौ २३१२५।२६।२८।२१।३०।३.१ । उपरिमदशक-नवकस्थानद्वयं वर्जयित्वा अन्यसर्वाण्येकादश सत्त्वस्थानानि १३।१२।१ 11801८८1८४८२१८०।७१। ७८१७७ । चतुर्विशतिकं उपरिमनवकाष्ट कस्थानद्वयं च वर्जयित्वा उदयस्थानान्यष्टौ २१।२५।२६।२७। २८।२६।३०।३१ । संज्ञिनि भवन्ति ॥४६७॥ संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा संज्ञी जीवों में सर्व बन्धस्थान होते हैं। उपरिम दोको छोड़कर शेष ग्यारह सत्तास्थान; तथा चौबीस और उपरिम दोको छोड़कर शेष आठ उदयस्थान होते हैं ॥४६७॥ संज्ञियोंमें २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ ये आठ बन्धस्थान; २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये आठ उदयस्थान और ६३, ६२, ६१,६०,८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७ ये ग्यारह सत्तास्थान होते हैं। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ इrिati छव्वीसं अडवीसुणतीस तीस इगितीसा | उदया असण्णजीवे बंधा तीसंतिया छच्च ||४६८ || असण्णीसु बंधा ६-- २३/२५/२६।२८।२६।३० । उदया ६--२१।२६।२८।२६|३८|३१| असंज्ञिमार्गणायां बन्धस्थानानि त्रयोविंशतिका दित्रिंशत्कान्तानि षट् २३।२५।२६।२८।२६।३० । उदयस्थानाम्येकविंशतिकषड् विंशतिकाष्टाविंशतिकैकोनत्रिंशत्कन्निशर कैक त्रिंशत्कानि पट् २११२६|२८|२६|३०| पञ्चसंग्रह ३१ ॥ ४६८ ॥ असंज्ञी जीवोंमें इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस प्रकृतिक छह उदयस्थान और तीस तकके प्रारम्भिक छह बन्धस्थान होते हैं ॥४६८॥ असंज्ञियों में २३, २५, २६, २८, २९, ३० ये छह बन्धस्थान; तथा २१, २६, २८, २९, ३० और ये छह उदयस्थान होते हैं । पंचाइल्ला संता तम्मि य चत्ता ति-इक्कणउदीओ ! उदया चउ उवरिल्ला छोवरि संता य णोभए भणिया ||४६६ ॥ ८०७६७८ ७७|१०| संता ५—६२।६०।८८८४८० | णेवसण्णी-शेव असण्णीलु उदया ४ – ३०|३१||८ संता ६ सरवरथानानि — तत्र सरवस्थानमध्ये त्रिनवतिकैकनवतिकस्थानद्वयं त्यक्त्वा आद्यानि सरवस्थानानि पञ्च १२।६०८८८४८२ असंज्ञिजीवे भवन्ति । नोभययोः संज्ञयसंज्ञिव्यपदेशर हितयोः सयोगायोगयोरुदया उपरिष्टाश्चत्वारः । सवस्थानानि चरमाणि पट् भणितानि ॥ ४६६ ॥ नैवसंज्ञि-नैवासंज्ञिषु उदयाः ४ – ३०|३१|६|| सत्तास्थानानि ६ – ८०।७६।७८|७७|१०|६| इति संज्ञिमागंणा समाप्ता । उन्हीं असंज्ञियोंमें तेरानवे और इक्यानवैको छोड़कर आदिके पाँच सत्तास्थान होते हैं । नोभय अर्थात् नैव संज्ञी नैव असंज्ञी ऐसे केवलियोंके ऊपरके चार उदयस्थान और ऊपर के ही छह सत्तास्थान कहे गये हैं । ४६६ || असंज्ञियों में ६२, ६०,८४,८२ ये पाँच सत्तास्थान होते हैं । नो संज्ञी नो असंज्ञी जीवोंमें ३०, ३१, ६, ८ ये चार उदयस्थान और ८०, ७६, ७८, ७७, १०, ६ ये छह सत्तास्थान होते हैं । सव्वे बंधाहारे सव्वे संता य दो उवरि मुच्चा । इगिवीसं दो उवरिं मुत्तु उद्या हवंति सव्वे वि || ४७०॥ आहारे बंधा ८-- २३/२५/२६|२८|२६|३०|३१|१ | उदया ८--२४।२५।२६।२७।२८।२६।३० ३१ | संता ११--६३।६२।६१६०८८४८२८०७६७८ ७७ । आहारकमार्गणायां बन्धस्थानानि सर्वाण्यष्टौ २३।२५।२६।२८ २९ ३० ३१ |१| एकविंशतिकमुपरिमस्थानद्वयं च मुक्त्वा उदयस्थानान्यष्टौ २४/२५/२६/२७/२८|२६|३०|३१| उपरिमसत्वस्थानद्वयं मुक्वाऽन्यसत्त्वस्थानान्येकादश आहारकजी भवन्ति ॥ ४७० ॥ ६३।६२।६१।६०८८८४८२१८०७६७८७७ आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक जीवोंके सभी बन्धस्थान, तथा अरिम दोको छोड़कर शेष सभी सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार इक्कोस और उपरिम दोको छोड़कर शेष सर्व ही उदयस्थान होते हैं ॥ ४७०॥ 1 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५१३ आहारकों में २३, २४, २६, २८, २६, ३०, ६१, १ ये आठ बन्धस्थान, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ ये आठ उदयस्थान; और ६३, १२, ६१, ६२, ८,८४,८२,८०, ७६, ७८, ७७ ये ग्यारह सत्तास्थान होते हैं । छब्बंधा तीसंता इयरे संता य होंति सव्वे वि । इगिवीसं चउ उबरिं पंचेबुदया जिणेहिं णिद्दिट्ठा || ४७१ ॥ अणाहारे बंधा ६- २३२५/२६|२८|२६|३०| उद्या ५-२१।३०|३१|| संता १३-१३। २१६०८८८४२०७६७८ ७७/१०/६१ इतरेऽन्यस्मिन् अनाहारके प्रयोविंशतिकादि- त्रिंशाकान्तानि बन्धस्थानि षट् २३।२५।२६।२८|२६| ३० | सच्चस्थानानि सर्वाणि त्रयोदश ६३।६२।६१/६०८६८४६२६०७६७८ ७७१०१६ उदयस्थानानि एकविंशतिकं उपरितनचतुष्कं चेति पञ्च २१|३०|३१|६|| अनाहारकजीवेषु भवन्ति । तत्रानाहारके अयोगिनि उदयस्थाने नवकाष्टके हे स्तः सत्वं दशक-नव के द्वे विद्येते । एवं नामकर्मप्रकृतिबन्धोदयस त्रिसंयोगो मार्गणा जिनैर्निर्दिष्टः कथितः ॥ ४७१॥ इतर अर्थात् अनाहारक जीवोंके तीस तक के छह बन्धस्थान और सर्व ही सत्तास्थान होते हैं तथा उन्हींसे इक्कीस और चार उपरिम ये पाँच ही उदयस्थान जिनेन्द्रोंने कहे हैं ।। ४७१ ।। अनाहारकोंके २३, २४, २६, २८, २९, ३० ये छह बन्धस्थान; २१, ३०, ३१, ६, ८ ये पाँच उदयस्थान और ६३, १२, ११, १०४, ८२, ८०, ७६, ७, ७७, १०, ६ ये तेरह सत्तास्थान होते हैं। अथ चतुर्दशमागंणासु नामकर्मप्रकृतिबन्धोदय सत्वत्रिसंयोगरचना गोम्मट्टसारोक्ताऽत्र रच्यते १ गतिमार्गणायाम् - १ नरकगतौ २ विभाती ३ मनुष्यगती ४ देवगतौ- १ एकेन्द्रिये - ६५ बं० २ उ० ५ स० ३ बं० उ० स० बं० ८ उ० ११ स० १२ उ० स० बं० उ० ६ ह ५ स० २६,३० २१,२५,२७,२८, २६, १२,६१,६०, ५ ५ ५ २३, २४, २६, २८, २९, ३० । २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ । १२,६०,८६,८४,८२ । २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ २०,२१,२५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, १, ८ ३३,३२,६१,६०,८८,८४,८०,७६३, ७८,७७, १०,९ । ४ २५, २६, २१, ३० । २१,२५,२७,२८,२६ । ६३,६२,६१,६०। ५ ४ २ इन्द्रियमार्गणायाम् - २३, २५, २६, २४, ३० । २१, २४, २५, २६, २७ । १२,१०,८८,८४,८२ । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ २ विकल ३ सकलेन्द्रिये २ अकायिके - यं० मनोयोगे बं० १ पृथ्वीकायिके- उ० स० वचनयोगे - उ० ६ स० ५ बं० ८ १७ उ० स० १३ बं० बं० ३ तेजस्कायिके—- उ० स० उ० स० यं० ४ वातकायिके उ० स० बं० ५ वनस्पतिकायिके-उ० ५ स० बं० उ० ५ ५. g ५ ५ ५ ५ ५ ५ ४ ५ ५ ५ ८ ३ स० [१० बं० ८ उ० ३ स० १० बं० ३ औदारिककाययोगे - उ० २३, २५, २६,२६,३० । .२१, २६, २८, २९, ३०, ३१ । १२,१०,८८,८४,८२ ॥ बं० ५ वैक्रियिककाययोगे - उ० स० २२,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ । २०, २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१,६,८ ॥ १३:३२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७, १०,६ ३ काचमार्गणावाम् २३, २५, २६, २६, ३० । २१, २४, २५, २६, २७ । १२,१०,८८,८४८२ २३, २५, २६,२१,३० । २१,२४,२५,१६,२० । २२,१०,८८,८४८२ । पञ्चसंग्रह २३,२५,२६,२१,२० । २१, २४, २५, २६ । १२,१०,८८,८२ २३, २५, २६, २६, ३० । २१,२४,२५,२६ । ६२,१०,८८,८४,८२ । २३, २५, २६, २०, ३० । २१, २४, २५, २६, २७ । ३२,१०,८८,८४,८२ । ४ योगमार्गणायाम् २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ । २१,३०,३१ । १२, १२, ११,६०,८८,८४,८०,७३,७८,७७1 स० ११ ८ ७ २३, २५, २६, २८, २९, २०, २१, १ । २६,३०,३१ । ६३, १२, ११,६०,८८,८४,८०,७६,७८,७७१ बं० ४ औदारिक मिश्रकाययोगे -- उ० ६ २ स० ११ ५ ३ ४ २३, २५, २६, २८,२६,३०,३१,१ । २५, २६, २७, २८, २९, ३०,३१ । १२.१२, ११, १०,८८,८४,८२,८०,७१,७८,०० २३, २५, २६, २८, २९, ३० । २४, २६ । १३,३२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७१,७८,७७ । २५, २६, २८, २९, ३० । २७,२८,२१ । १२, १२, ३१, ३० Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५१५ बं० २ २९,३० । ६ वैक्रियिकमिश्रकाययोगे-उ० १ २५ । स० ४ १३,६२,६१,९० । बं० ७ भाहारककाययोगे-उ० स० २ ३ ४ २८,२४ । २७,२८,२६ । १३,६२,११,१० । बं० २ २८,२६ । ८ आहारकमिश्रकाययोगे-उ० १ २५ । स० ४ १३,६२,११,६० । है कार्मणकाययोगे ६ २३,२५,२६,२८,२९,३० । उ० . २१ । स. १५ ६३,६२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७ । ५ वेदमार्गणायाम्बं० ८ २३,२५,२६,२८,२९,३०,३१,१ । उ० ८ २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । स० ११ १३,६२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७ । वेदत्रये ६ कषायमार्गणायाम् कषायचतुष्के-- बं० ८ उ० ६ स० ११ २३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ । २१,२४,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१ । १३,६२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७ । ७ ज्ञानमागणायाम् बं० १ मति-श्रताज्ञानयोः-उ० ६ १ ६ २३,२५,२६,२८,२९,३० । २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३३ । १२,६१,६०,८८,८४,८२ । बं० ६ २३,२५,२६,२८,२६,३०। २ विभङ्गज्ञाने- उ० ३ २८,३०,३१ । ६ ६२,६१,९०८८,८४,२ । बं. ५ ३ मति-श्रुतावधिषु-उ० ८ स० ८ २८,२६,३०,३१,१ २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । ६३,६२,९१,६०,८०,७६,७८,७७ । बं० ५ २८,२६,३०,३१,१ । ४ मनःपर्ययज्ञाने--उ० १ ३०। स० ८ ६३,६२,६१,६०,८०,७६,७८,७७ । ० ५ केवल ज्ञाने- बं० उ० स० ६ ३०,३१,६,८ । ८०,७६,७८,७७,१०,६ । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ८ संयममार्गणायाम् बं० ५ २८,२६,३०,३१,१। १ सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः-उ० ५ २५,२७,२८,२६,३० । स० ८ १३.१२.११,९०,८०,७९,७८,७७॥ २ परिहारविशुद्ध-- ४ १ ४ १ १ ८ २८,२६,३०,३५ । ३०। १३,६२,६१,६० । । ३०। १३,१२,११,१०,८०,७९,७८,७७ । ३ सूक्ष्मसाम्पराये--- ० ४ यथाख्यातसंयमे-- 44. 44.44. 44.44. ०००००००००००० ४ १० ३०,३१,६,८। ३३,६२,६१,६०,८०,७६,७८,७७,१०,६ । २ २ २८,२६ । ३०,३१ । ५ देशसंयते-- असंयमे बं० ६ २३,२५,२६,२८,२६,३० । उ० २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । स० ७ ६३,६२,६१,६०,८८,८४,८२ । ६ दर्शनमार्गणायाम्बं० ८ २३,२५२६,२८,२६,३०,३१,१ । उ० ८ २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । स० ११ १३,६२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७ । ६ चक्षुर्दर्शने- ब० २ अचक्षुर्दशने- उ० ८ १ २३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ । २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । ६३,९२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७ । स० बं० ३ अवधिदर्शने-उ० स० ५ २८,२९,३०,३१,१ । ८ २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । ८ १३,१२,११,१०,८०,७६,७८,७७ । बं० ० ४ केवलदर्शने- उ० ४ ३०,३१,६,८ । स० ६ ८०,७६,७८,७७,१०,६ । १० लेश्यामार्गणायाम् बं० ६ २३,२५,२६,२८,२६,३० । १ कृष्ण-नील-कापोतलेश्यासु-उ०६ २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । स०७ ६३,६२,६१,६०,८८,८४,८२ । ब. ४ २८,२६,३०,३१ । ७ २१,२५,२७,२८,२६,३०,३१ । स० ४ १३,१२,१५,१० । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ब. ३ शुक्ललेश्यायाम- उ० स० ५ ७ ८ २८,२९,३०,३१,१ । २६,२५,२७,२८,२६,३०,३१ । ६३,६२,६१,६०,८०,७६,७८,७७ । ४ अलेश्ये-- ब . ० २ ६८। ६ ८०,७६,७८,७७,१०,६ । ११ भव्यमार्गणायाम्ब. ८ २३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ । उ० ६ २१,२४,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१ । स० ११ १३,६२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७॥ , भव्ये २ अभव्ये ब. उ० स० ३ नो भव्ये नो अभव्ये ६ २३,२५,२६,२८,२६,३० । १ २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । ४ १०,८८,८४,८२ । ब . उ. ४ ३०,३१,१८ । स. ६ ८०,७६,७८,७७,१०,६ । १२ सम्यक्त्वमार्गणायाम्५ २८,२६,३०,३१,१। ५ २१,२५,२६,३०,३१ । ४ १३,१२,११,६०। बं० १ उपशमसम्यक्त्वे-~-उ० स० बं. २ घेदकसम्यक्त्वे- उ. स० ४ ८ ४ २८,२६,३०,३१ । २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । १३,१२,११,१०। . ब. ५ २८,२९,३०,३१,१ । ३ क्षायिकसम्यक्त्वे-उ०११ २०,२१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१,६,८ । स० १० १३,६२,६१,६०,८०,७६,७८,७७,१०, । ब'. ४ सासादनसम्यक्त्वे-उ० स० ३ ७ १ २८,२९,३० । २१,२४,२५,२६,२९,३०,३१ । ६०। ५ मिश्ररुचौ-- 44 ००००००० २ ३ २ २८,२६ । २६,३०,३१ । १२.१०। ब ६ मिथ्यारुचौ-- ६ ६ ६ २३,२५,२६,२८,२९,३० । २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३३ । १२,६१,६०,८८,८४,८२ । १३ संशिमार्गणायाम्ब० ८ २३,२५,२६,२८,२६,३०,३१, । उ० ८ २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१ । स० ११ ६३,६२,६१,६०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७ । १ संज्ञिनि Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१D पञ्चसंग्रह ब. ६ २३,२५,२६,२८,२६,३० । २ असंज्ञिनि- उ० ६ २१,२६,२८,२६,३०,३१ । स० ५ ६२,९०,८८,८४,८२। बं० ० ३ नैवसंज्ञिनि नैवासंज्ञिनि-उ० ४ ३०,३१,६,८। स० ६ ८०,७६,७८,७७,१०,६। १४ आहारमार्गणायाम् बं० ८ २३,२५,२६,२८,२६,३०,३१,१ । १ आहारके ८ २४,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१ । स० ११ १३,१२,११,१०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७ । बं० ६ २३,२५,२६,२८,२६,३० । २ अनाहारके । ५ २१,३०,३१,६,८। स. १३ १३,९२,६१,९०,८८,८४,८२,८०,७६,७८,७७,१०,६।। इस प्रकार चौदह मार्गणाओंमें नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंका वर्णन समाप्त हुआ। अब मूल सप्ततिकाकार प्रकृत विषयका उपसंहार करते हुए और भी विशेष जाननेके लिए कुछ आवश्यक निर्देश करते हैं[मूलगा०४८]'इय कम्मपयडिठाणाणि सुठु बंधुदय-संतकम्माणं । गदिआदिएसु अट्टहि चउप्पयारेण णेयाणि ॥४७२।। __बंधोदय उदीरणासंताणि [अहहिं ] अणुजोगदारेहिं । इत्यमुना प्रकारेण कर्मणां प्रकृतिबन्धोदयसत्त्वस्थानानि सष्टु अतिशयेन गत्यादिमार्गणासु गुणस्थानेषु जीवसमासादिषु च ज्ञेयानि ज्ञातव्यानि । कैः कृत्वा ? अष्टभिरनुयोगद्वारैः सूत्रोक्तसत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शनकालान्तर-भावाल्पबहुत्वेरथवोत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्याजघन्य-ध्रुवाध्रुव-साधनायेतिव्यानि चतुःप्रकारेण बन्धोदयोदीरणासत्त्वप्रकारेण ज्ञेयानि ॥४७२॥ तथा च सर्वासु मार्गणास्वेवं सत्संख्याद्यष्टकेऽपि च । बन्धादित्रितयं नाम्नो योजनीयं यथागमम् ॥२८॥ इति नामबन्धोदयसत्त्वस्थानानि मार्गणासु समातानि । इस प्रकार कर्म-प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्तासम्बन्धी स्थानोंको अति सावधानीके साथ गति आदि मार्गणाओंकी अपेक्षा आठ अनुयोग-द्वारोंमें चार प्रकारसे लगाकर जानना चाहिए ॥४७२।। विशेषार्थ-मूल सप्ततिकाकारने यहाँ तक कोंकी मूल और उत्तर प्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंका सामान्य रूपसे, तथा जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणाओंके द्वारा निर्देश किया। अब वे प्रस्तुत प्रकरणका उपसंहार करते हुए यही कथन विशेष रूपसे जाननेके लिए 1. सं० पञ्चसं० ५, ४४१ । १. सप्ततिका० ५३ । २. सं० पञ्चसं० ५, ४४१ । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सप्ततिका सूचित कर रहे हैं कि उक्त बन्धादि स्थानोंका गति आदि चौदह मार्गणाओंका आश्रय लेकर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारोंसे भी जानना चाहिए। प्राकृत पंचसंग्रहके संस्कृत टीकाकारने 'अथवा' कहकर उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इन आठके द्वारा भी जाननेकी सूचना की है, क्योंकि गाथामें 'अट्ठहि' ऐसा सामान्य पद ही प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार 'चउप्पयारेण' भी सामान्य पद है, सो उसका दिगम्बर टीकाकारोंने तो बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन चार प्रकारोंसे जाननेकी सूचना की है। किन्तु चूर्णिकारने प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार प्रकारों से जाननेकी सूचना की है । श्वे० संस्कृत टीकाकारोंने भी यही अर्थ किया है। अब मूल सप्ततिकाकार उदयसे उदीरणाकी विशेषता बतलाते हैं[मूलगा०४६]'उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विजदि विसेसो । मोत्तूण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं ॥४७३॥ विद्यानन्दीश्वरं देवं मल्लिभूषणसद्गुरुम् । लक्ष्मीचन्द्रं च वीरेन्दं वन्दे श्रीज्ञानभूषणम् ॥ एकचत्वारिंशत्प्रकृतीमुक्वा शेषाणां सप्तोत्तरशतप्रकृतीनां उदयस्योदीरणायाश्च स्वामित्वाद्विशेषो न विद्यते । एकचत्वारिंशत्प्रकृतीना ४१ विशेषो वर्तते ॥४७३॥ तथा चोक्तम् न चत्वारिंशतं सैकं परित्यज्यान्यकर्मणाम् । विपाकोदीरणयोरस्ति विशेषः स्वाम्यतः स्फुटम् ॥२६॥ मिश्रसासादनापूर्वशान्तायोगान् विमुच्य सा । योजनीया गुणस्थाने विभागेन विचक्षणैः ॥३०॥ वक्ष्यमाण इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृति योंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है ।।४७३॥ विशेषार्थ-यथाकालमें प्राप्त कर्म परमाणुओं के अनुभवन करनेका नाम उदय है और अकाल-प्राप्त अर्थात् उदयावलीसे बाहर स्थित कर्म-परमाणुओंका सकषाय या अकषाय योगको परिणति-विशेषसे अपकर्षणकर उदयावलीमें लाकर-उदय-प्राप्त कर्म-परमाणुओंके साथ अनुभव करनेका नाम उदीरणा है। इस प्रकार फलानुभवकी दृष्टिसे स्वामित्वकी अपेक्षा उदय और उदीरणामें कोई विशेषता नहीं है। इन दोनोंमें यदि कोई विशेषता है, तो केवल काल प्राप्त और अकाल प्राप्त परमाणुओंकी है। उदयमें काल प्राप्त कार्य परमाणुओंका और उदीरणामें अकालप्राप्त परमाणुओंका वेदन या अनुभवन किया जाता है। ऐसी व्यवस्था होनेपर भी सामान्य नियम यह है कि जहाँ पर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँ पर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है। किन्तु इसके कुछ अपवाद हैं। पहला अपवाद यह है कि जिन प्रकृतियोंकी स्वो सत्ता-व्युच्छित्ति होती है, उनकी उदीरणा-व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले हो जाती है और उदय-ब्युच्छित्ति एक आवलीके पश्चात् होती है दूसरा अपवाद यह है कि वेदनीय और मनुष्यायुकी उदीरणा प्रमत्तविरत गुणस्थान-पर्यन्त ही होती है। जब कि इनका उदय चौदहवें 1. सं० पञ्चसं० ५, ४४२ । १. सप्ततिको० ५४ । २. सं० पञ्चसं० ५, ४४२ । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० पञ्चसंग्रह गुणस्थान तक होता है। तीसरा अपवाद यह है कि जिन प्रकृतियोंका उदय चौदहवें गुणस्थानमें होता है, उनकी उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक ही होती है। चौथा अपवाद यह है कि चारों आयुकर्मोकी अपने-अपने भवकी अन्तिम आवलीमें उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। पाँचवाँ अपवाद यह है कि पाँचों निद्राकर्मोंका शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके पश्चात् इन्द्रियपर्याप्तिके पूर्ण होने तक उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। छठा अपवाद यह है कि अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवलो शेष रहनेपर मिथ्यात्वका, क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवालेके सम्यक्त्वप्रकृतिका और उपशमश्रेणीमें जो जिस वेदसे उपशमश्रेणीपर चढ़ा है, उसके उस वेदका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं। सातवाँ अपवाद यह है कि उपशमश्रेणीके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें भी एक आरली कालके शेष रहनेपर सूक्ष्मलोभका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं। इन सातों अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ यतः इकतालीस ही होती हैं, अतः गाथासूत्रकारने इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व अर्थात एक सौ सात प्रक्रतियोंकी उदय औ उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं बतलाया है। अव मूल ग्रन्थकार उन इकतालीस प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं[मूलगा० ५०] णाणंतरायदसयं दसण णव वेयणीय मिच्छत्तं । सम्मत्त लोभवेदाउगाणि णव णाम उच्चं च ॥४७४॥ एकचत्वारिंशत्प्रकृतयो गुणस्थानं प्रति दीयन्ते-[गाणंतरायदसयं' इत्यादि । ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ दर्शनावरणनवकं ६ सातासातवेदनीयद्वयं २ मिथ्यात्वं १ सम्यक्त्वं १ लोभः १ वेदप्रयं ३ आयुष्कचतुष्कं ४ नव नामप्रकृतयः । उच्चैर्गोत्र १ चेति प्रकृतय एकचत्दादिशत् ४१॥४७४॥ ज्ञानावरणको पाँच, अन्तरायकी पाँच, दर्शनावरणकी नौ, वेदनीयकी दो, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन, लोभ, तीन वेद, चार आयु, नामकर्मकी नौ और उच्चगोत्र, इन इकतालीस प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा विशेषता बतलाई गई है ॥४७४॥ विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय और चार दर्शनावरण, इन चौदह प्रकृतियोंकी बारहवें गुणस्थानमें एक आवली काल शेष रहने तक उदय और उदीरणा बराबर होती ती है। किन्त तदनन्तर उनका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। शरीरपर्याप्तिके सम्पन्न होनेके पश्चात् इन्द्रियपर्याप्तिके सम्पन्न नहीं होने तक मध्यवर्ती काल में निद्रा आदि पाँच दर्शनावरण प्रकृतियोंका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। इसके सिवाय शेष समयमें उदय और उदीरणा एक साथ होती है। साता और असाता वेदनीयकी उदय और उदीरणा छठे गुणस्थान तक एक साथ होती है। किन्तु उपरिम गुणस्थानोंमें इन दोनोंका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं । प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवके अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थिति में एक आवली कालके शेष रहनेपर मिथ्यात्वका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। क्षायिकसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जिस वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिको सर्व-अपवर्तनाकरणके द्वारा अपवर्तनासे अन्तर्मुहूर्तप्रमित स्थिति शेष रह जाती है, तदनन्तर उदय और उदीरणाके द्वारा क्रमशः क्षीण होती हुई वह स्थिति जब आवलीमात्र शेष रह जाती है, तब उस समयसे लेकर सम्यक्त्वप्रकृति का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। अथवा उपशमश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके अन्तरकरण करनेपर प्रथमस्थितिमें आवलीकालके शेष रह जानेपर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। १. सप्ततिका० ५५ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५२१ संज्वलन लोभकी सर्व प्राणियोंके उदय और उदीरणा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके कालमें एक आवली शेष रहने तक होती रहती है। तदनन्तर आवलीमात्र कालमें उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। तीनों वेदोंमेंसे जिस वेदके उदयसे जीव श्रेणीपर चढता है उसके अन्तरकरण करनेपर प्रथमस्थितिमें एक आवलीकालके शेष रह जानेके पश्चात् उस वेदका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं। चारों ही आयुकर्मोका अपने-अपने भवकी अन्तिम आवलीके शेष रह जानेपर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। किन्तु मनुष्यायुमें इतना विशेष ज्ञातव्य है कि छठे गुणस्थान तक उसके उदय और उदीरणा दोनों होते हैं, किन्तु उससे ऊपरके सर्व अप्रमत्त जीवोंके उसका उदय ही होता है, उदोरणा नहीं होती। नामकर्मकी वक्ष्यमाण नौ प्रकृतियोंका और उच्चगोत्रका तेरहवें गुणस्थान तक उदय और उदीरणा दोनों होते हैं। किन्तु चौदहवें गुणस्थानमें उनका केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। इन इक्कीसप्रकृतियोंके सिवाय शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। ____ अब भाष्यगाथाकार उपर्युक्त गाथासूत्रसे सूचित नामकर्मको नौ प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैं मणुयगई पंचिंदिय तस बायरणाम सुहयमादिजं । पज्जत्तं जसकित्ती तित्थयरं णाम णव होति ॥४७॥ ज्ञा०५ नरकायु ति०आ० प्र० सम्य० वेदः लोभः द०४ नामक मिथ्या० अंत०५ मनु० नि०प्र० देवायु सं० सब्वे मेलिया ४१। नास्नो नव का इति चेदाह-['मणुयगई पंचिंदिय' इत्यादि ।] मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ वसत्वं १ बादरनाम १ सुभगं १ आदेयं १ पर्याप्तं १ यशस्कीर्तिनाम १ तीर्थङ्करत्वं चेति नाम्नो नव प्रकृतयो भवन्ति है । एतासां ४१ प्रकृतीनामुदीरणाऽपक्वपाचना सासादन-मिश्रापूर्वकरणोपशान्तकषायायोगिकेवलिगुणस्थानेषु न भवति, अन्यगुणस्थानेषु एतासामुदीरणा भवति ॥४७५॥ गुणस्थानेषु उदीरणाप्रकृतयः गुण मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनि० सू० उ० पी० स० अ० उदी० सं० १ . ० २ १ ६ ० ३ १ ० १६ १० . ज्ञा० ५ उदी० प्र० मिथ्या० ० ० नर० देवा० तिर्य सातादि० सम्य०० वेदाः सं०लो० ० अ० ५ मनु० ० तथाहि मिथ्यात्वप्रकृतेमिथ्यादृष्टी उपशमसम्यक्त्वाभिमुखस्य समयाधिकावलिपर्यन्तमुदीरणाकरणं स्यात् १ । तावत्पर्यन्तमेव तदुदयात् । सासादने मिश्रे च शून्यम् । असंयते देव-नरकायुषोरुदीरणा २ । देशसंयते तियंगायुष उदारणा १ । प्रमत्ते सातासाते २ मनुष्यायुः१ स्यानगृद्धित्रय ३ मिति पण्णामुदीरणा ६ । अप्रमत्ते सम्यक्त्वप्रकृतेरुदीरणा १। अपूर्वकरणे शून्यसुदीरणा नास्ति । अनिवृत्तिकरणे वेदानां व्रयाणा __1. ५, ४४३--४४७ । तथा तदधस्तनसंख्याङ्कपंक्तिश्च (पृ० २२०)। ६६ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह मुदीरणा ३ । सूक्ष्मसाम्पराये संज्वलनसूक्ष्मलोभस्योदीरणा १, अन्यत्र तदुदयाभावात् । उपशान्ते शून्यम्० । क्षीणकषाये ज्ञानावरणान्तरायदशकं १० निदा प्रचलाद्विकं २ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्क ४ मिति पोडशानामुदीरणा १६ । सयोगे मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ श्रसं १ बादरं १ सुभगं 8 आदेयं १ पर्याप्तं १ यशः १ तीर्थंकरत्वं १ उच्चैर्गोत्र १ मिति दशानां १० प्रकृतीनामुदीरणा भवति । अयोगे शून्य मुदीरणा नास्ति । सर्वा मीलिताः ४१ । तथा चोक्तम् ५२२ मिथ्यात्वं तत्र दुर्दृष्टौ तुर्ये श्वभ्र-सुरायुषी । तैरचं जीवितं देशे घडेताः सप्रमादके ॥३१॥ सातासातमनुष्यायुः स्त्यानगृद्धित्रयाभिधाः । सम्यक्त्वं सप्तमे वेदत्रितयं त्वनिवृत्तिके ॥ ३२ ॥ लोभः संज्वलनः सूक्ष्मे क्षोणाख्ये दृक्चतुष्टयम् । दश ज्ञानान्तरायस्था निद्राप्रचलयोर्द्वयम् ॥३३॥ त्रसपञ्चाक्षपर्याप्तबादरोच्चनृरीतयः' ! तीर्थकृत्सुभगादेययशांसि दश योगिनि ||३४|| १।०।०।२।१।६।१।०।३ | १ | ० | १६ | १० | मीलिताः ४१ । इति विशेषः । मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, नस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्त्ति और तीर्थंकर ये नौ नामकर्मकी प्रकृतियाँ हैं ||४७५ ॥ विशेषार्थ- - ऊपर उदय और उदीरणाकी अपेक्षा जिन इकतालीस प्रकृतियों का स्वामित्वभेद बतलाया गया है, उनके विषयमें यह विशेष ज्ञातव्य है कि सासादन, मिश्र, अपूर्वकरण, उपशान्तमोह और अयोगिकेवली, इन पाँच गुणस्थानों में किसी भी प्रकृतिकी उदीरणा नहीं होती है । अन्य गुणस्थानों में भी सबमें सभी की उदीरणा नहीं होती है, किन्तु मिथ्यात्वकी पहले गुणस्थान में ही उदीरणा होती है, अन्यमें नहीं । नरकायु और देवायु, इन दो कर्मों की उदीरणा चौथे गुणस्थान में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं । तिर्यगायुकी उदीरणा पाँचवें गुणस्थानमें होती है, अन्यत्र नहीं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, मनुष्यायु, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि; इन छह प्रकृतियोंकी उदीरणा छठे गुणस्थानमें ही संभव है, अन्यत्र नहीं । सातवें गुणस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदीरणा होती है । तीनों वेदोंकी उदीरणा नवें गुणस्थान में होती है । संज्वलनलोभकी उदीरणा दशवें गुणस्थानमें होती है अन्यत्र नहीं । पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा और प्रचला, इन सोलह प्रकृतियोंको उदीरणा बारहवें गुणस्थानमें होती हैं । मनुष्यगति पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र, इन दश प्रकृतियोंकी उदीरणा तेरहवें गुणस्थान में होती है । इस कथन की अंकसंदृष्टि मूलमें दी हुई है । अब मूलसप्ततिकाकार गुणस्थानोंका आश्रय लेकर कर्मप्रकृतियोंके बन्धका निरूपण करते हैं [ मूलगा ०५१ ]' तित्थयराहारविरहियाउ अजेदि सव्वपयडीओ । मिच्छतवेदओ सासणो य उगुवीस सेसाओ ||४७६ ॥ 1. ५, ४४८-४४६ | १. टीकाप्रतौ ' नृगतयः' इति पाठः । २. सं० पञ्चसं० ५, ४४४-४४७ । १. सप्ततिका० ५६ । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ मूलगा ० ५२] ' छायालसेस मिस्सो अविरयसम्मो तिदालपरिसेसा । वण्ण देसविरदो वरदो सगवण्ण सेसाओ |४७७॥ सप्तसिका अथ गुणस्थानेषु कर्मणां प्रकृतिव्युच्छेद-बन्धाबन्धभेदाः कथ्यन्ते - [ 'तित्थयराहार' इत्यादि । ] तीर्थङ्कराहारकद्वयरहिताः सर्वाः सप्तदशोत्तरशतप्रकृती ११७ मिथ्यात्ववेदको मिथ्यादृष्टिरर्जयति बध्नातीत्यर्थः । सासादनो जीव एकोनविंशतिं विना शेषा एकाधिकशतप्रकृतीबंध्नाति १०१ । मिश्रगुणस्थानवर्त्ती षट्चत्वा रिंशत्प्रकृतिभिर्विना शेषाश्चतुःसप्ततिं प्रकृतीबंध्नाति ७४ । भविरतसम्यग्दृष्टि त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतिभिन्यूनाः शेषाः सप्तसप्ततिं प्रकृतीध्नाति ७७ । देश विरत स्त्रिपञ्चाशत्प्रकृतिविरहिताः शेषाः सप्तषष्टिं प्रकृतीबंध्नाति ६७ । विरतः प्रमत्तो मुनिः सप्तपञ्चाशत्प्रकृतिभिर्विना त्रिपष्टिं प्रकृतिर्ब्रध्नाति६३ ॥ ४७६-४७७॥ मिथ्यात्वका वेदन करनेवाला अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थङ्करप्रकृति और आहारकद्विक; इन तीन प्रकृतियोंके विना शेष सर्व प्रकृतियोंका उपार्जन अर्थात् बन्ध करता है । सासादनसम्यदृष्टि उन्नीसके विना शेष सर्व प्रकृतियोंका बन्ध करता है। मिश्रगुणस्थानवर्ती छियालीसके विना, अविरतसम्यग्दृष्टि तेतालीसके विना, देशविरत तिरेपन के बिना ओर प्रमत्तविरत सत्तावन - के विना शेष सर्व प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ।।४७६-४७७।। ५२३ विशेषार्थ - प्रस्तुत ग्रन्थके दूसरे और तीसरे प्रकरण में यह बतलाया जा चुका है कि आठों कर्मों की जो १४८ उत्तरप्रकृतियाँ हैं, उनमें से बन्धयोग्य केवल १२० ही होती हैं । इसका कारण यह है कि नामकर्मकी प्रकृतियों में जो पाँच बन्धन और पाँच संघात बतलाये गये हैं, उनका बन्ध शरीरनामकर्मके बन्धका अविनाभावी है । अर्थात् जहाँ जिस शरीरका बन्ध होता है, वहाँ उस बन्धन और संघातका अवश्य बन्ध होता है । अतः बन्धप्रकृतियों में पाँच बन्धन और पाँच संघातका ग्रहण नहीं किया जाता है। इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्मके अवान्तर भेद यद्यपि २० होते हैं, किन्तु एक समय में किसी एक रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका ही बन्ध संभव होनेसे वर्णादिक चार सामान्य प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गई हैं। इस प्रकार वर्णादिककी सोलह और बन्धन- संघातसम्बन्धी दश प्रकृतियोंको एक सौ अड़तालीसमें से घटा देनेपर १२२ प्रकृतियाँ रह जाती हैं । तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति भी बन्धयोग्य नहीं मानी गई है, क्योंकि करण परिणामोंके द्वारा मिथ्यात्वदर्शनमोहनीयके तीन भाग करने पर ही उनकी उत्पत्ति होती है। अतएव इन दो के भी घट जानेसे शेष १२० प्रकृतियाँ ही बन्ध योग्य रह जाती हैं । उनमेंसे आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध मिथ्यात्व में संभव न होनेसे शेष ११७ का बन्ध बतलाया गया है । मिथ्यात्वगुणस्थानके अन्तिम समय में मिथ्यात्व, नपुंसक वेद, नरकद्विक, नरकायु, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, हुंडकसंस्थान, सृपाटिका संहनन, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त; इन सोलह प्रकृतियोंकी प्रथम बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे सासादन में बन्धयोग्य २०१ रह जाती हैं । दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्यानगृद्धिन्त्रिक, स्त्रीवेद, तिर्यग्विक, तिर्यगायु, मध्यम चार संस्थान; चार संहनन; उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन पच्चीस प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे ७६ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, किन्तु मिश्र गुणस्थान में किसी भी आयुकर्मका बन्ध नहीं होता है, अतएव मनुष्यायु और देवायु ये दो प्रकृतियाँ और भी घट जाती हैं। इस प्रकार ( १६ + २५ + २ =४६ ) छियालीसके विना शेष ७४ प्रकृतियोंका सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव बन्धक माना गया है। अविरत सम्यग्दृष्टिके तैंतालीस 1. सं० पञ्चसं० ५, ४५० । १. सप्ततिका० ५७ । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ पञ्चसंग्रह (४७) के विना शेष सतहत्तर (७७) का बन्ध होता है। इसका कारण यह है कि इस गुणस्थानमें मनुष्यायु और देवायुका बन्ध होने लगता है, तथा तीर्थकर प्रकृतिका भी बन्ध सम्भव है। अतएव तीसरे गुणस्थानमें नहीं बँधनेवाली ४६ मेंसे तीनके और निकल जानेसे ४३ के विना शेष ७७ का चौथेमें बन्ध माना गया है। देशविरतमें ५३ के विना शेष ६७ का बन्ध कहा है। इसका कारण यह है कि चौथे गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे जिन दश प्रकृतियोंका बन्ध होता था, उनका बन्ध पाँचवें गुणस्थानमें नहीं होता है। वे दश प्रकृतियाँ ये हैं-अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यद्विक, मनुष्यायु, औदारिकद्विक और वज्रवृषभनाराचसंहनन । अतएव चौथेमें बन्धके अयोग्य ४३ में १० और मिला देनेपर ५३ हो जाती हैं। बन्धयोग्य १२० मेंसे ५३ के घटा देनेपर शेष ६७ प्रकृतियोंका देशविरत बन्धक कहा गया है । प्रमत्तविरतके ५७ के विना शेष ६३का बन्ध होता है। इसका कारण यह है कि यहाँपर प्रत्याख्यानावरण कषाय-चतुष्कका भी बन्ध नहीं होता। अतः ६७ मेंसे ४ के घटा देनेपर ६३ बन्ध-योग्य; तथा ५३ में ४ बढ़ा देनेपर ५७ अबन्ध-योग्य प्रकृतियाँ छठे गुणस्थानमें बतलाई गई हैं। अब भाष्यगाथाकार उपर्युक्त अर्थका स्वयं ही निर्देश करते हैं सत्तरसधियसदं खलु मिच्छादिट्ठी दु बंधओ भणिओ। एगुत्तरसयपयडी सासणसम्मा दु बंधंति ॥४७८॥ तित्थयराहारदुगूणा मिच्छे- ११७ सासणे १०१ ३१ सप्तदशाधिशतप्रकृतीनां बन्धको मिथ्यादृष्टिभंगितः ११७ । एकोत्तरशतप्रकृतीः सासादनरुचयो १०१ [बध्नन्ति ॥४७॥ व्यु . १६ व्यु० २५ तीर्थङ्कराहारकद्वयहीना मिथ्यादृष्टौ ब० ११७ सासादने ब १०१। अ० ३ अ० १६ . मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे सत्तरह अधिक सौ अर्थात् एक सौ सत्तरह प्रकृतियोंका बन्धक कहा गया है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एक अधिक सौ अर्थात् एक सौ एक प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥४७८॥ बन्धके अयोग्य तीर्थकर और आहारकद्विक इन तीनके विना मिथ्यात्वमें बन्ध-योग्य ११७ सासादनमें बन्ध-अयोग्य १६ के विना बन्ध-योग्य १०१ प्रकृतियाँ होती हैं। इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। चउहत्तरि सत्तत्तरि मिस्सो य असंजदो तहा चेव । सत्तट्टि देसविरदो तेसट्टि बंधगो पमत्तो दु ॥४७६।। मणुय-देवाउं विणा मिस्से तित्थयर-मणुय-देवाऊहिं सह अविरदे ७७देसे. प्रमत्ते६३ । ७४ ७१ ८१ ८५ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'तीर्थकराहारकद्वयहीना' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २२१)। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५२५ चतुःसप्ततिं प्रकृतीमिश्रो बध्नाति ७४ । असंयतः सप्तसप्ततिं ७७ बध्नाति । देशसंयतः सप्तपष्टिं बध्नाति ६७। प्रमत्तस्त्रिषष्टिं बध्नाति ६३ ॥४७९॥ व्यु० ० _व्यु० ० मनुष्य-देवायुष्यबन्धं विना मिश्रे ब० ७४ । तीर्थङ्कर-मनुष्य-देवायुष्कैः सह अविरते ब० ७७ । अ०४३ अ० ४३ ७४ व्यु. ४ व्यु० ६ देशसंयते ब० ६७ । प्रमत्तं ब. ६३ । अ० ५३ अ० ५७ मिश्र गुणस्थानवर्ती चौहत्तर प्रकृतियोंका बन्धक है। असंयतसम्यग्दृष्टि सतहत्तरका बन्धक है। देशविरत सड़सठका तथा प्रमत्तविरत तिरेपन प्रकृतियोंका बन्धक होता है ।।४७६॥ मनुष्यायु और देवायुके विना मिश्रमें बन्धयोग्य ७४ है। तीर्थकर, मनुष्य और देवायुके साथ अविरतमें बन्ध-योग्य ७७ हैं। देशविरतमें ६७ और प्रमत्तविरतमें ६३ बन्ध-योग्य हैं। इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है । [मूलगा०५३] उगुसट्टिमप्पमत्तो बंधइ देवाउगं च इयरो वि । अट्ठावण्णमपुवो छप्पण्णं चावि छव्वीसं ॥४८०|| आहारदुगेण सह अप्पमत्तो अपुव्वे सत्तभाएसु १० १२ १२ १२ १२ १२ १२२ अप्रमत्तः एकोनषष्टिं बध्नाति ५६ । देवायुस्त्यक्त्वा इतराः अष्टपाञ्चशत्प्रकृतीरपूर्वकरणो बध्नाति । तथाहि-अपूर्वकरणस्य प्रथमे भागे अष्टपञ्चाशत्प्रकृतीबंधनाति ५८ । [ षष्ठभागान्तं षट पञ्चाशत् प्रकृतीबन्धाति ५६ । । सप्तमे भागे षडविंशतिं प्रकृतीबंधनाति २६ ॥४८०॥ __ व्यु० १ आहारकद्विकबन्धेन सह अप्रमत्तगुणस्थाने-ब ५६ । अ०६१ ० - 'व्यु० २ ० . ० ० ३० ४ अपूर्वकरणस्य सप्तभागेषु ब० ५५ ५६ ५६ ५६ ५६ ५६ २६ अ० ६२ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ १४ १० १२ १२ १२ १२ १२ १२२ अप्रमत्तसंयत उनसठ प्रकृतियोंको बाँधता है, तथा देवायुको भी बाँधता है। अपूर्वकरणसंयत अट्ठावन, छप्पन और छब्बीस प्रकृतियोंको भी बाँधता है ॥४८॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४५१ । 2. ५, 'आहारकद्विकेन' सहाप्रमत्ते' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २२१)। १. सप्ततिका० ५८। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ पञ्चसंग्रह विशेषार्थ-छठे गुणस्थानमें ६३ प्रकृतियोंका बन्ध होता था, किन्तु सातवें गुणस्थानमें असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीर्ति, इन छह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है और आहारकद्विकका बन्ध होने लगता है, इसलिए ६३ मेंसे ६ घटानेपर ५७ प्रकृतियाँ रह जाती हैं किन्तु उनमें आहारकद्विक मिला देनेपर ५६ प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हो जाती हैं । इन ५६ प्रकृतियोंमें यद्यपि देवायु सम्मिलित है, फिर भी गाथा सूत्रकारने 'अप्रमत्तसंयत देवायुको भी बाँधता है, ऐसा जो वाक्य-निर्देश किया है, उसका अभिप्राय चीकारने यह बतलाया है कि देवायुके बन्धका प्रारम्भ प्रमत्तसंयत ही करता है, किन्तु उसका बन्ध करते हुए यदि वह ऊपरके गुणस्थानमें चढ़े तो, अप्रमत्तसंयतके भी देवायुका बन्ध होता रहता है। इसका अर्थ यह निकला कि सातवें गुणस्थानमें देवायुके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता है, हाँ, यदि कोई प्रमत्तसंयत उसका बन्ध करता हुआ अप्रमत्तसंयत होवे, तो उसके बंध अवश्य संभव है। सातवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें देवायुके बन्धको व्युच्छित्ति हो जाती है, अतः आठवें गुणस्थानके पहले संख्यातवें भागमें अपूर्वकरणसंयत ५८ प्रकृतियोंका वन्ध करता है। तदनन्तर निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर संख्यातवें भागके शेष रहने तक वह ५६ प्रकृतियोंका बन्ध करता है । तदनन्तर देवगति, देवगत्यानुपूर्वी पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीरद्विक, आहारकद्विक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पयोप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थकर, इन तीस प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने पर अन्तिम भागमें वह अपूर्वकरणसंयत २६ प्रकृतियोंका बन्ध करता है। अपूर्वकरणके सातो भागों में बन्ध, अबन्ध आदि प्रकृतियोंकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। [मूलगा०५४]'यावीसा एगूणं बंधइ अट्ठारसं च अणियट्टी । सतरस सुहुमसराओ सायममोहो सजोई दु ॥४८॥ • अणियट्टीए पंचसु भाएसु . सुहमादिसु य २२ २१ २० १६ १६ १८ ६ .०० १०१ १०२ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० १७ १ १ १ . १०३ १५६ ११६ ११६ १२० १३१ १४७ १४७ १४७ १४८ अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमे भागे द्वाविंशति २२ द्वितीये भागे एकविंशतिं २१ तृतीये भागे विंशति २० चतुर्थे भागे एकोनविशति १६ पञ्चमे सागे अष्टादशप्रकृतीबंधनाति १८ । सूचमसाम्परायः सप्तदश प्रकृतीबंधनाति १७ । अमोह इति उपशान्त-क्षीणकषाय-सयोगिनां एकस्य साताकर्मणो बन्धो भवति । एते उपशान्त-क्षीण-सयोगिनः एक सातं बध्नन्तीत्यर्थः । अयोगी अबन्धको भवेत् ॥४८१॥ ___ व्यु० ५ १ १ १ १ अनिवृत्तिकर गस्य पञ्चसु भागेसु ब. २२ २१ २० ११ १८ ___ अ० १८ १६.०० १.१ १०२ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० 1. सं. पञ्चसं० ५.४५२। 2. , 'अनिवृत्तौ पञ्चसु भागेसु' इत्यादि (पृ० २२१)। १. सप्ततिका० ५६ । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसाम्परायादिषु— ० १ १६ कन १७वार १ १ १०३१११६ ११९ १२० १३१ १४७ १४७ १४७ १४८ अनिवृत्तिकरणसंयत बाईसका और उसमेंसे एक-एक कम करते हुए इक्कीस, बीस, उन्नीस और अट्ठारह प्रकृतियोंका बन्ध करता है ! सूक्ष्मसाम्परायसंयत सत्तरह प्रकृतियोंका बन्ध करता है । तथा मोहरहित ग्यारहवें बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव और सयोगिकेवली जिन एक सातावेदनीयका बन्ध करते हैं ॥ ४८१ ॥ व्यु० a'o सप्ततिका भ० ० १ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४५३ । १. सप्ततिका० ६० । [ मूलगा ०५५] एसो दु बंधसामित्तोघो गदिआदिएसु बोहव्वो । विशेषार्थ - अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे अनिवृत्तिकरणके प्रथम भाग में बाईस प्रकृतियोंका बन्ध होता है । पुनः प्रथम भाग के अन्तिम समय में पुरुषबेदको बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे द्वितीय भाग में इक्कीस प्रकृतियों का बन्ध होता है । पुनः दूसरे भाग के अन्तिम समय में संज्वलन क्रोध की बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर तृतीय भाग में बीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है । तृतीय भागके अन्तिम समयमें संज्वलनमानको बन्धव्युच्छित्ति हो जाने पर चतुर्थ भागमें उन्नीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है। चौथे भाग अन्तिम समय में संज्वलन मायाकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर पंचम भागमें अठारह प्रकृतियों का बन्ध होता है । पाँचवें भाग के अन्तिम समयमें संज्वलन लोभकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है और वह जीव दशवें गुणस्थान में पहुँचकर सत्तरह प्रकृतियोंका ध करने लगता है । इस गुणस्थानके अन्त में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र, इन सोलह प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, अतएव ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में एक मात्र सातावेदनीयका बन्ध होता है । तेरहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें सातावेदनीय प्रकृतिकी भी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिए अयोगिकेवलीके किसी भी प्रकृतिका बन्ध नहीं होता है । अनिवृत्तिकरणके पाँचो भागोंमें और सूक्ष्मसाम्पराय आदि शेष गुणस्थानों में बन्ध-अबन्ध आदिकी अंकसंदृष्टि मूल में दी है । ० अव मूल सप्ततिकाकार प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हुए इसी स्वामित्वको मार्गओमैं भी जानने के लिए संकेत करते हैं- ० ५२७ ओघाओ साहेजो जत्थ जहा पयडिसंभवो होई ॥४८२ ॥ एषः प्रत्यक्षीभूतो बन्धस्वामित्वगुणस्थानकयुक्तः गतीन्द्रियकाययोगादिषु मार्गणासु ज्ञातव्यो भवति । यत्र गत्यादिमार्गणासु यथासम्भवं प्रकृतिसम्भवो भवति, तथा तत्र गुणस्थानेम्यः सकाशात् साधितव्यो भवति ॥ ४८२ ॥ यह ओघ-प्ररूपित अर्थात् गुणस्थानोंकी अपेक्षा से कहा गया बन्धस्वामित्व गति आदि मार्गणाओं में भी जहाँ जितनी प्रकृतियाँ संभव हों वहाँपर ओघके समान सिद्ध कर लेना चाहिए ||४८२ ॥ विशेषार्थ - मूल ग्रन्थकारने गुणस्थानों में कर्म - प्रकृतियोंके बन्ध और अबन्धका कथन कर दिया है, अब वे कर्म-प्रकृतियोंके बन्ध-स्वामित्वको और भी विशेष रूप से जानने के लिए अपने Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ पञ्चसंग्रह शिष्योंको यह संकेत कर रहे हैं कि इनकार चौदह मार्गणाओंकी अपेक्षासे भी जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव हो, उसे आगम अनुसार जान लेना चाहिए । सो इसके विशेष परिज्ञानके लिए गो० कर्मकाण्डका बन्धाधिकार देखना आवश्यक है विस्तारके भयसे भाष्यगाथाकारने उसका विवेचन नहीं किया है। ___अब मूल सप्ततिकाकार किस गतिमें कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है, यह बतलाते हैं[मूलगा०५६]'तित्थयर देव-णिरयाउगं च तीसु वि गदीसु बोहव्वं । अवसेसा पयडीओ हवंति सव्वासु वि गदीसु ॥४८३॥ ___ अथ प्रकृतिसत्वपरिभाषामाह-[ 'तित्थयर-देव-णिरयाउगं' इत्यादि । ] तीर्थङ्करप्रकृतिसत्त्वं तियंग्गतिं विना नरक-मनुष्य-देवगतिषु तिसृषु भवति ज्ञातव्यम् । देवायुःसत्वं च द्वयोस्तिर्यग्मनुष्यगत्योः स्यात् । अवशेपाः १४५ प्रकृतयः सर्वाषु गतिषु सत्त्वरूपा भवन्ति ॥४८३॥ __ तीर्थकर नामकर्म, देवायु और नरकायु; इन तीन प्रकृतियोंका सत्त्व तीन तीन ही गतियोंमें जानना चाहिए । इसके सिवाय शेष सर्व प्रकृतियाँ सर्व गतियोंमें पाई जाती हैं ।।४८३॥ अब भाष्यगाथाकार उक्त गाथासूत्रके अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं *देवेसु य णिरयाऊ देवाऊ णत्थि चेव णिरएसु । तित्थयरं तिरएसु य रोसाओ होंति चउसु वि गदीसु ॥४८४॥ देवगतौ भुज्यमानदेवायुः बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी चेति सत्त्वत्रयम, नरकगतौ भुज्यमाननरकायुः बध्यमानतिर्यग्मनुष्यायुषी चेति सत्त्वत्रयम्, देवायुःसत्त्वं नास्ति । तिर्यग्गतौ तिर्यग्जीवे तीर्थकृत्वसत्त्वं न स्यात् । शेष १४५ प्रकृतिसत्त्वानि चतुर्गतिषु भवन्ति ॥४८४॥ देवोंमें नरकायु और नारकियोंमें देवायु नहीं पाई जाती है। इसी प्रकार तियचोंमें तीर्थकर प्रकृति नहीं पाई जाती है। शेष सर्व प्रकृतियाँ चारों ही गतियोंमें पाई जाती हैं ॥४८४॥ _ विशेषार्थ-देव मरकर नरकगतिमें उत्पन्न नहीं हो सकता और नारकी मरकर देवगतिमें उत्पन्न नहीं हो सकता, ऐसा नियम है। अतः देवोंके नरकायुका और नारकियोंके देवायुका बन्ध नहीं होता। और इसी कारण देवायुका सत्त्व नरकगतिको छोड़कर शेष तीन गतियोंमें, तथा नरकायका सत्त्व देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतियोंमें पाया जाता है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले मनुष्यके देवायु या नरकायुका बन्ध सम्भव है। पर उसके तिर्यगायुका बन्ध कदाचित् भी सम्भव नहीं है क्योंकि तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्तावाला जीव तिर्यंचोंमें उत्पन्न नहीं होता है, ऐसा नियम है। अतएव तीर्थंकरप्रकृतिका सत्त्व तिर्यग्गतिको छोड़कर शेष तीन ही गतियोंमें पाया जाता है। अब मूलग्रन्थकार मोहकर्मके उपशमन करनेका विधान करते हैं[मूलगा०५७] पढमकसायचउक्कं दंसणतिय सत्तया दु उवसंता । अविरयसम्मत्तादी जाव णियट्टि त्ति णायव्वा॥४८॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४५४ । 2.५, ४५५। 3.५, ४५६ । १. सप्ततिका० ६१ । २. सप्ततिका० ६२ । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५२६ अथ गुणस्थानेषु मोहोपशमविधानं गाथाचतुष्केनाह - [ 'पढमकसायचउक इत्यादि । ] प्रथमकषायचतुष्कं अनन्तानुबन्धिक्रोध-मान- माया लोभाश्चत्वारः कायाः ४ मिथ्यात्व - सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्वप्रकृतयः इति दर्शनत्रिकं ३ एतासां सप्तानां प्रकृतीनां उपशमेन युक्ता जीवा असंयतसम्यग्दृष्टयादि-निवृत्तिकरणपर्यन्ता ज्ञातव्या भवन्ति ॥ ४८५ ॥ प्रथम कषायक और दर्शनत्रिक; ये सातों ही प्रकृतियाँ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानसे लेकर निवृत्ति अर्थात् अपूर्वकरण गुणस्थान तक उपशान्त हो जाती हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥४८॥ ॥ विशेषार्थ - मोहनीय कर्मके दो भेद हैं, दर्शनमोह और चारित्रमोह । दर्शन मोहकी तीन और चारित्रमोहकी पचीस प्रकृतियाँ होती हैं । उनमेंसे दर्शन मोहकी तीन और चारित्रमोहकी अनन्तानुबन्धि-चतुष्क, इन सात प्रकृतियोंका चौथे गुणस्थानसे लेकर आठवें गुणस्थान तक नियमसे उपशम हो जाता है । अब भाष्यगाथाकार चारित्रमोहकी शेष प्रकृतियोंके उपशमनका विधान करते हैं[ मूलगा ०५८ ] सत्तड व य पण्णरस सोलस अट्ठरस वीस वावीसा । arati rai छवीसं बायरे जाणे ॥४८६ ॥ ง अणियविम्मि ७ ८ ||१५|१६|१८|२०|२२|२४।२५।२६। बादरे अनिवृत्तिकरणे सप्तप्रकृत्युपशामकोऽनिवृत्तिगुणस्थानवर्ती संख्याततमे भागे नपुंसकवेदमुप शमयति, तेन सहाष्टकम् । ततः स्त्रीवेदमुपशमयते, तेन सह नवकम् । ततः पण्णोकपायानुपशमयति, तैः सह पञ्चदशकम् १५ । ततः पुंवेदमुपशमयति । तेन सह षोडश १६ । तदनन्तरं अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान - क्रोधद्वयमुपशमयति । ताभ्यां सहाष्टादश १८ । तदनन्तरं संज्वलनक्रोधमुपशमयति । तेन सह एकोनविंशतिः १६ । तदनन्तरं अप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानमानद्वयमुपशमयति । ताभ्यां सहैकविंशतिः २१ । तदनन्तरं संज्वलनमानमुपशमयति । तेनसह द्वाविंशतिः २२ । तदनन्तरं अप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानमायाद्वयमुपशमयति । ताभ्यां सह चतुर्विंशतिः २४ । तदनन्तरं संज्वलनमायामुपशमयति । तया सह पञ्चविंशतिः २५ । तदनन्तरं अप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानलोभद्वयमुपशमयति । ताभ्यां सह सप्तविंशतिः २७ । तदनन्तरं बादरलोभमुपशमयति । तेन सहाष्टाविंशतिः २८ सूचमसाम्पराये उपशान्तकषाये च संज्वलनसूक्ष्मलोभमुपशमयति । ७ । पं० १ स्त्री १।६ । पु० १ । को २ । को १ । मा २ मा १ मा २ । मा १ । लो २ । लो १ । इदमुपशमविधानं गोम्मट्टसारे प्रोक्तमस्ति । पञ्चसंप्रहोक्तभावोऽयं कथ्यते — अनिवृत्तिकरणसंख्यात भागेषु सप्त प्रकृतीनामुपशमकः । ७ । षण्ठेन सह । स्त्रीवेदेन सह 8 । हास्यादिभिः षद्भिः सह १५ । पुंवेदेन सह १६ | मध्यकषायक्रोधद्वयेन सह १८ | मध्यकषायमानद्वयेन सह २० । मध्यकषाय- मायाद्वयेन सह २२ | मध्यकषायलोभद्वयेन सह २४ । संज्वलनक्रोधेन सह २५ । संज्वलनमानेन सह २६ । क्षीणकषाये [ सूक्ष्मसाम्पराये ] संज्वलनमायया सह २७ । उपशान्ते संज्वलनलोभेन सह २८ इति पञ्चसंग्रहोक्तोपशम विधानम् ॥४८६ ॥ बादर अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें क्रमशः सात, आठ, नौ, पन्द्रह, सोलह, अट्ठारह, बीस, बाईस, चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों का उपशमन जानना · चाहिए ||४८६|| 1. सं० पञ्चसं० ५, ४६० । १. इन गाथाओंके स्थान पर श्वे० सप्ततिका में कोई गाथा नहीं है । व अणियहियम्मि । ६७ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० पञ्चसंग्रह अनिवृित्तिकरणमें उपशम होनेवाली प्रकृतियोंका क्रम इस प्रकार है-७, ८, ६, १५, १६, १८, २०, २२, २४, २५, २६ ।। अब आचार्य उपयुक्त क्रमसे उपशान्त होनेवाली प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैं--- अण मिच्छ मिस्स सम्म संढित्थी हस्सछक्क पुंवेदो । वि ति कोहाई दो दो कमसो संता य संजलणा ॥४८७॥ ७।१।१।६।१२।२।२।२।१।११।१। एए मेलिया २८ ।। अनन्तानुबन्धि चतुष्कं १ मिथ्यात्वं १ मिश्रं १ सम्यक्त्वप्रकृतिः १ एवं सप्तप्रकृत्युपशमकः असंयताद्यनिवृत्तिकरणान्तो भवति । सप्तप्रकृत्युपशमकोऽनिवृत्तिकरणः ७ स्वसंख्यातबहुभागेषु पण्ढवेदमुपशमयति १ । तदनन्तरं स्त्रीवेदमुपशमयति १ । तदनन्तरं हास्यादिषट्कमुपशमयति ६ । तदनन्तरं पुंवेदमुपशमयति । ततः द्वि-त्रिकपाय-क्रोधादिको द्वौ द्वौ उपशमयति । अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधद्वयमुपशमयति २। तदनन्तरं अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानमानद्वयमुपशयति २ । तदनन्तरं तन्मायाद्वयमुपशमयति २। तदनन्तरं तल्लोभद्वयमुपशमयति २। तदनन्तरं संज्वलनक्रोधमुपशमयति १। तदनन्तरं संज्वलनमानमुपशमयति । एवमनिवृत्तिकरणो मोहप्रकृतीनां षड्विशतेरुपशमको भवति २६ । सूचमसाम्परायः संज्वलमायामुपशमयति ५ । तदनन्तरं उपशान्तकः संज्वलनलोभमुपशमयति १॥४८॥ ७।११।६।१।२।२।२।२।१।१।१।१ । एताः सर्वाः मिलिताः २८ । अनिवृत्तिकरण बादरसाम्परायगुणस्थानके संख्यात भागों तक तो अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति; इन सातका उपशम रहता है। तदनन्तर नपुंसकवेदका उपशम करता है, तदनन्तर स्त्रीवेदका उपशम करता है। तदनन्तर हास्यपट्क (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, और जुगुप्सा) का उपशम करता है। तदनन्तर पुरुषवेदका उपशम करता है। तदनन्तर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, इन प्रकृतियों का उपशम करता है। तदनन्तर दोनों मध्यम भानकषायोंका उपशम करता है। तदनन्तर दोनों मध्यम-मायाकषायोंका उपशम करता है। तदनन्तर दोनों मध्यम लोभकषायोंका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन क्रोधका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन मानका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन मायाका उपशम करता है। तदनन्तर संज्वलन बादरलोभका उपशम करता हुआ दशवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। पुनः दशवें गुणस्थानके अन्त में सूक्ष्म लोभका भी उपशम करके ग्यारहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। इस प्रकार सातसे लेकर छब्बीस प्रकृतियोंका उपशम अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें होता है ॥४८७॥ [मूलगा०५६] सत्तावीसं सुहुमे अट्ठावीसं च मोहपयडीओ। उवसंतवीयराए। उवसंता होंति णायव्वा ॥४८८।। सुहुमे २७ । उवसंते २८ । सूचमसाम्पराये सप्तविंशतिमोहप्रकृत्युपशामको मुनिः सूचमसाम्परायस्थो भवति २७ । अष्टाविंशतिमोहप्रकृत्युपशामक उपशान्तकषायो भवति । इत्येवमुपशान्तपर्यन्तं मोहप्रकृत्युपशामको भवति ज्ञातव्यः । मोहनीयस्योपशमो भवति । अन्यकर्मणामुपशमविधानं नास्तीति । एतत्सर्वमोहोपशमविधानं पञ्चसंग्रहोक्तमस्ति । 1. सं० पञ्चसं० ५, ४५७ । 2.५, ४६१ । १. इन दोनों गाथाओंके स्थानपर श्वे. सप्ततिकामें कोई गाथा नहीं है। बि ओ। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका कति वारान् उपशमश्रेणिं जीवः समारोहति ? तदाह चत्तारि वारमुवसमसे ढिं समरुदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं वाराई संयममुवलहिय णिव्वादि ॥३५॥ उपशमश्रेणिमुत्कृष्टेन चतुर्वारानेवारोहति । क्षपितकाशो जीवः उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवारोहति संयममुत्कृष्टेन द्वात्रिंशद्वारान् प्राप्य ततो नियमेन निर्वाति । सम्मत्त देसजम ऊणसंजोजणविहिं च उक्करसं । पल्लासंखेजदिमं वारं पडिवज्जदे जीवो ॥३६॥ प्रथमोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यक्त्वं देशसंयममनन्तानुबन्धिविसंयोजन विधि चोरकृष्टेन पल्यासंख्यातैकभागवारान् प्रतिपद्यते जीवः । उपरि नियमेन सिद्धयत्येव ॥४८८॥ दशवें सूक्ष्मसाम्परायमें मोहकी सत्ताईस प्रकृतियोंका उपशम रहता है, तथा उपशान्त कषाय वीतरागछद्मस्थ नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें मोहकर्मकी अट्ठाईस ही प्रकृतियों उपशान्त रहती हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥४८८ __ बादर साम्परायमें उपशान्त प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-७, १, १, ६, १, २, २, २, २, ११। सूक्ष्मसाम्परायमें उपशान्तप्रकृतियाँ २७ और उपशान्तमोहने २८ हैं। अब मूलसप्ततिकाकार सर्व कर्मोंके क्षपणका विधान करते हैं[मूलगा०६०]'पढमकसायचउक्कं एत्तो मिच्छत्त मिस्स सम्मत्तं । अविरदसम्मे देसे विरदपमत्ते य खीयंति ॥४८६॥ [मूलगा०६१] अणियट्टिबायरे थीणगिद्धितिग णिरय-तिरियणामाओ। संखेजदिमे सेसे तप्पओगा य खीयंति ॥४६॥ अथाष्टचत्वारिंशदधिकशतकर्मप्रकृतिक्षपणविधि गाथा-पञ्चदशकेन १५ निरूपयति- 'पढमकसायचउक्कं' इत्यादि । ] अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्कं ४ मिथ्यात्वप्रकृतिः १ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिः १ सम्यक्त्वप्रकृतिः १ एताः सप्त प्रकृतीः ७ असंयतसम्यग्दृष्टौ वा देशसंयते वा प्रमचे वा अप्रमत्ते वा क्षपयन्ति क्षयं नयन्तीत्यर्थः। तथाहि-असंयतादिषु चतुषु मध्ये एकतरः अनिवृत्तिकरणपरिणामकालान्तर्मुहतचरमसमये अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्कं युगपदेन विसंयोज्य द्वादशकषाय-नवनोकषायरूपेण परिणमय्य अन्तमुंहतकालं विश्रम्य पुनरयनन्तानुबन्धिविसंयोजनवदर्शनमोहक्षपणोद्योगेऽपि स्वीकृतकरणलब्ध्यधःप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणेषु तदव्युत्पत्त्य (?) निवृत्तिकरणकालान्तमुहूर्त्तसंख्यातबहुभागमतीत्येकभागे मिथ्यात्वं ततः सम्यग्मिथ्यात्वं ततः सम्यक्त्वप्रकृतिं च क्रमेण क्षपयति, क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्भवति, सप्तप्रकृतिक्षपको भवति । क्षपक श्रेणिचटनापेक्षया सप्तप्रकृतीनामसंयतादिचतुर्गुणस्थानेष्वेकत्र पितत्वात् । नारक-तिर्यग-देवायुषां चाबद्घायुष्कत्वेनासत्त्वात् क्षपकश्रेण्यारूढानामपूर्वकरणेऽत्रिंशदुत्तरशतप्रकृतिसत्त्वं स्यात् १३८ । अनिवृत्तिकरणे संख्याततमे भागे एताः षोडश प्रकृतीः पयन्ति क्षपकाः। ताः काः? स्यानगृद्धित्रयं ३ नरकनाम इति नरकगति-नरकगत्यानुपूर्यद्वयं २ तिर्यड्नाम इति तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूर्व्यद्वयं २ तच्छेषभागेषु तत्प्रायोग्याः प्रकृतीः क्षयन्ति ॥४८६-४१०॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४६२ । 2. ४६३-४६४ । १. सप्ततिका० ६३ तत्र चतुर्थचरणे ‘पमत्ति अपमत्ति'। २. इसके स्थानपर भी श्वे. सततिकामें कोई गाथा नहीं है। १. गो० क० ६१६ । २. गो. क० ६१८ । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ पञ्चसंग्रह प्रथम अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क, पुनः मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये सात प्रकृतियाँ अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत इन चार गुणस्थानों में क्षयको प्राप्त होती हैं। अनिवृत्तिकरण कालके संख्यात बहुभागोंके व्यतीत हो जानेपर और संख्यातवें भागके शेष रह जानेपर स्त्यानगृद्धित्रिक, तथा नरकगति और तिर्यग्गति प्रायोग्य अर्थात् तत्सम्बन्धी तेरह, इस प्रकार सोलह प्रकृतियाँ क्षयको प्राप्त होती हैं ॥४८६-४६०॥ अव भाष्यगाथाकार नवे गुणस्थानमें क्षय होनेवाली उन सोलह प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैं 'थीणतियं णिरयदुयं तिरियदुयं पढमजाइचहुँ । साहारणं च सुहुमं आयावुजोव थावरयं ॥४९१॥ एस्थ णिरयणामाओ गिरयदुयं । तिरियदुगादि तिरियगइणामाओ ।१६। एकेन्द्रिय-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियजातिचतुष्कं ४ साधारणं १ सूचमं १ आतपः १ उद्योतः १ स्थावरं । चेति षोडश प्रकृतीः क्षपकाः अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमभागे क्षयन्ति १६ ॥४६१॥ स्त्यानत्रिक अर्थात् स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचला-प्रचला; नरकद्विक (नरकगतिनरकगत्यानुपूर्वी) तिर्यग्द्विक (तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूर्वी) एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, साधारण, सूक्ष्म, आतप, उद्योत और स्थावर इन सोलह प्रकृतियोंका नवें गुणस्थानमें क्षय होता है ॥४६१॥ यहाँ ऊपर मूलगाथामें नरकद्विकको नरकनाम और तिर्यद्विकको तिर्यग् नामसे कहा गया है। [मूलगा०६२] एत्तो हणदि कसायट्ठयं च पच्छा णउंसयं इत्थी । तो णोकसायछकं पुरिसवेदम्मि संछुहह ॥४६२॥ E१६। [मूलगा०६३] पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छुहइ मायाए । मायं च छुहइ लोहे लोहं सुहमम्हि तो हणइ ॥४६३॥ १।११।३।। [मूलगा०६४] खीणकसायदुचरिमे णिद्दा पयला य हणइ छदुमत्थो । णाणंतरायदसयं दसणचत्तारि चरिमम्हि ॥४६४॥ २॥१४॥ भवानिवृत्तिकरणे षोडशप्रकृतिक्षयानन्तरं अनिवृत्तिकरणः आपकः कषायाष्टकं शेषेकभागे अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-कषायाष्टकं पयति क्षयं करोति हिनस्ति ८। पश्चात् तदनन्तरं शेषकभागे नपुसकवेदं तपयति । ततः शेषेकभागे स्त्रीवेदं पयति । ततो हास्यादिनोकपायषटकं हिनस्ति पयति ६ । नोकषायषटकं हित्वा पुवेदं 'संछुहइ' संस्पशति क्षपयति १ । पुवेदं हित्वा संज्वलनक्रोधे संस्पृशति, क्रोधं रुपयतीत्यर्थः। क्रोधं हित्वा संज्वलनमाने संस्पृशति, संज्वलनमानं क्षपयतीत्यर्थः । ततो मानं हित्वा चयं कृत्वा मायायां स्पृशति, मायां पयतीत्यर्थः। ततो मायां हित्वा पयित्वा लोहे स्पृशति । अत्रानिवृत्ति. 1.सं० पञ्चसं० ५, ४६५। 2. '५, ४६६। 3. ५, ४६७ । 4. ५, ४६८। १. श्वे. सप्ततिकामें यह गाथा नहीं है। २. सप्ततिका०६४ । ३. श्वे० सप्ततिकामें यह गाथा भी नहीं है। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका ५३३ करणः क्षपकः बादरलोभं क्षपयति सूचमकुष्टीः करोति । ताः कृष्टयः सूचमसाम्पराये उदयन्तीति ज्ञातव्यम् । सूक्ष्मसाम्परायः सूचमसाम्पराये सूक्ष्मकृष्टिगत सूक्ष्म संज्वलन लोभं क्षपयति १ । सूक्ष्मसाम्पराये सूक्ष्मसंज्वलनलोभो त्युच्छिन्नः । भनिवृत्तिकरणे मायापर्यन्तषट्त्रिंशत्प्रकृतयः क्षयं गता व्युच्छिन्ना भवन्ति । अनिवृत्तिकरणे षोडशाष्टकादिक्षपणाविधानरचनासंदृष्टि: ६ , न० स्त्री० नो० पु० क्रो ० मा० मा० बादरलो० सू०लो० क्षीणकषायस्य द्विचरमसमये उपान्त्यसमये छद्मस्थः चपकः निद्रा प्रचले द्व े प्रकृती हन्ति हिनस्ति क्षपयति २ । अन्त्यसमये चरमे क्षणे ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षु रवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ इति चतुर्दश प्रकृतीः क्षीणकषायो मुनिरन्त्यसमये क्षपयति १४ ॥४६२-४६४॥ १६ प्र० ८ क० 9 S 9 तदनन्तर वह अनिवृत्तिकरणसंयत आठ मध्यम कषायोंका क्षय करता है । तत्पश्चात् नपुंसकवेदका क्षय करता है । तदनन्तर स्त्रीवेदका क्षय करता है । तदनन्तर नोकषायषट्कको पुरुषवेद में संक्रान्त करता है । तदनन्तर पुरुषवेदको संज्वलनक्रोधमें संक्रान्त करता है । तदनन्तर संज्वलनक्रोधको संज्वलनमानमें संक्रान्त करता है । तदनन्तर संज्वलनमानको संज्वलन मायामें संक्रान्त करता है । तदनन्तर संज्वलनमायाको संज्वलनलोभमें संक्रान्त करता है और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में संज्वलनलोभका क्षय करता है । पुनः बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर वह क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ बन जाता है और अपने गुणस्थानके द्विचरम समय में निद्रा और प्रचलाका क्षय करता है । पुनः चरम समय में ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच और दर्शनावरणकी चार इन चौदह प्रकृतियोंका क्षय करता है ।।४६२-४६४॥ 9 भावार्थ- क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाला जीव इस उपर्युक्त प्रकारसे कर्मप्रकृतियों का क्षय करता हुआ दशवें गुणस्थान में मोहका पूर्ण रूपसे क्षयकर तथा बारहवें गुणस्थान में शेष तीन घातिया कर्मोंका भी क्षय करके सयोगिकेवली बन जाता है । सयोगिकेवली भगवान् किसी भी कर्मका क्षय नहीं करते हैं किन्तु प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा करते हुए विहार करते रहते हैं । तदनन्तर योग-निरोध करके अयोगी बन जाते हैं । १ [मूलगा ०६५ ] देवगइ सहगयाओ दुचरिमभवसिद्धियहि खीयंति । विवादरमयगणाम णीचं पि एत्थेव ॥ ४६५॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४६६ । ४. सप्ततिका० ६५ । द्विचरमभवसिद्ध अयोगिकेवलिनि द्विचरमसमये उपान्त्यसमये देवगतिः १ देवगव्या सह गता देवगतिसम्बन्धिनी देवगत्यानु पूर्वी इत्यर्थः १ । इयं प्रकृतिरेका क्षेत्र विपाका १ सविपाकेतरमनुष्यगतिनामजीवविपाकिन्यः पुद्गलविपाकिन्यश्च एकोनसप्ततिनामप्रकृतयः ६६ नीचगोत्र १ एवं द्वासप्ततिं प्रकृतीरुपान्त्य समयेऽयोगी क्षपयति ७२ ॥४६५॥ अयोगिकेवली चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम भवसिद्धकाल में देवगति सहगत अर्थात् देवगति के साथ नियम से बँधनेवाली दश प्रकृतियोंका, मनुष्यगति-सम्बन्धी जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंका, अयोगि अवस्था में जिनका उदय नहीं आता है, ऐसी नामकर्म की अविपाकी प्रकृतियोंका तथा नीचगोत्रका क्षय करते हैं ॥४६५ ॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ पञ्चसंग्रह अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोंका नाम निर्देश करते हैं सरजुयलमपञ्जत्तदुब्भगणादेज दो विहायगई। एयदरवेदणीयं उस्सासो अजस जीवपागाओ॥४१६॥ ।१०। ताः का इति चेदाह-'सरजुयलमपज्जत्त' इत्यादि । ] सुस्वर-दुःस्वर युग्मं २ अपर्याप्तं १ दुर्भगं १ अनादेयं १ प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्वयं २ सातासातयोमध्ये एकतरवेदनीयं श्वासोच्छ्रासं १ अयशस्कीर्तिनाम १ चेत्येता दश १० प्रकृतयः जीवविपाका जीवद्रव्ये उदयं यान्तीति जीवविपाकिन्यः १० ॥४६६॥ स्वर-युगल (सुस्वर-दुस्वर ), अपर्याप्त, दुर्भग, अनादेय, विहायोगतिद्विक, कोई एक वेदनीयकर्म, उच्छास और अयशस्कीर्ति; ये दश जीवविपाकी प्रकृतियाँ चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें क्षयको प्राप्त होती हैं ।।४६६।। अयोगीके द्विचरम समयमें क्षय होनेवाली जीवविपाकी प्रकृतियाँ १० हैं। "पण्णरसं छ त्तिय छ पंच दोणि पंचय हवंति अद्वैव । देहादिय फासंता पुग्गलपागाउ सुहजुयलं ॥४६७॥ पत्तेयागुरुणिमिणं परघादुवघादथिरजुयलं । 1५६। देवगईए तासिं देव-दुगं णीचगोयं च ॥४६॥ ३। सव्वे वि मेलिया ७२। बावत्तरि पयडीओ दुचरिमसमयम्मि खीणाओ। अंते तस्स दु बायर तस सुभगादेजपज्जत्तं ॥४६६॥ अण्णयरवेयणीयं मणुयाऊ मणुयजुयल तित्थयरं । पंचिंदियजसमुच्चं सोऽजोगो वंदणिजो सो ॥५००॥ ७२।१३। देहादि-स्पर्शान्ताः पञ्च शरीराणि ५ पञ्च बन्धनानि ५ पञ्च संकाताः ५ इति पञ्चदश | पट संहनन ६ आङ्गोपाङ्ग ३ षट संस्थान ६ पञ्च वर्ण ५ द्विगन्ध २ पञ्चरसा ५ टस्पर्शाः ८ इति शरीरादि-स्पर्शान्ताः पञ्चाशत् प्रकृतयः ५० । शुभाशुभयुग्मं २ प्रत्येकं १ भगुरुलधुनाम १ निर्माणं १ परघातः १ स्थिरास्थिरयुग्मं २ एवमेकोनषष्टिः प्रकृतयः ५६ पुद्गलविपाकिन्यः पुद्गले शरीरे उदयं यान्ति । दश जीवविपाकिन्यः १०। तासां मध्ये एकोनसप्ततेमध्ये देवगत्या देवद्विकं देवगतिः१ देवगत्यानुपूवी १ नीचगोत्र १ चेति सर्वा मिलिताः द्वासप्ततिं प्रकृती ७२ रयोगिद्विचरमसमये क्षपयति । द्वासप्ततिः प्रकृतयः अयोगिद्विचरमसमये क्षयं गताः ७२ । तदनन्तरं तस्य अयोगिनः अन्त्यसमये बादरनाम १ वसं १ सुभगं : आदेयं १ पर्याप्तं १ सातासातयोर्मध्ये एकतरवेदनीयं १ मनुष्यायुः १ मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्व्यद्वयं २ तीर्थकरत्वं १ पंचेन्द्रियं १ यशस्कीर्तिनाम १ उच्चैर्मोनं १ एवं त्रयोदश प्रकृतीर्योऽसौ अयोगिजिनो देवः अन्त्यसमये उपयति, स अयोगिजिनो वन्दनीयो भवति ॥४६७-५००॥ पाँच शरीर, पाँच बन्धन और पाँच संघात; ये पन्द्रह प्रकृतियाँ छह संहनन, तीन अंगोपांग, छह संस्थान, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श; ये शरीरनाम कर्मसे 1.५, ४७० । 2. ५, ४७१-४७५ । 3. ४७६-४७७ । Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका लेकर स्पर्श नाम कर्म तककी पचास प्रकृतियाँ तथा शुभ-युगल, प्रत्येकशरीर, अगुरुलबु, निर्माण, परघात, उपघात और स्थिर-युगल; ये नौ, दोनों मिलाकर उनसठ पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ हैं। देवगतिके साथ नियमसे बँधनेवाली दश प्रकृतियाँ, देवगतिद्विक और नीच गोत्र इस प्रकार (१०+ ५६+२+ १ =७२) ये बहत्तर प्रकृतियाँ अयोगिकेवलीके द्विचरम समयमें क्षय होती हैं। उन्हींके अन्तिम समयमें बादर, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, कोई एक वेदनीयकर्म, मनुष्यायु, मनुष्यगति-युगल, तीर्थकर, पंचेन्द्रिय जाति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र, ये तेरह प्रकृतियाँ क्षयको प्राप्त होती हैं। इस प्रकार सर्व कर्म-प्रकृतियोंका क्षय करनेवाले वे अयोगिजिन हम आप सबके वन्दनीय हैं ॥४६७-५००।। अयोगि जिनके द्विचरम समयमें ७२ और चरम समयमें १३ प्रकृतियोंका क्षय होता है। 'सुर-णिरय-तिरियाऊहिं विणा मिच्छे १४५ तित्थयराहारदुगूणा सासणे १४२ आहारदुगेण सह मिस्से १४४ तित्थयरेण सह अविरदे १४५ देसे १४५ पमत्ते १४५ अप्पमत्ते ४५ अपुब्वे १३८ अणियट्टि ११ णवभाएसु १३८ १२२ १४४ ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३ सुहुमे १०२ उवसंते १४६ खीणदुच १० २६ ३४ ३५ ३६ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ रिमसमए १०१ (चरिमसमये १ सयोगे ८५ अयोगदुचरिमसमये ८५ चरिमसमये १३ सिद्ध । १३५ १४८ मिथ्या० . देव-नारक-तिर्यगायुभिविना मिथ्याष्टौ सत्ता ...... भाहारकद्वय-तीर्थरस्वस्त्रिभिविना सासादने . मिथ्या० सा० अवि० देश० मिश्र० । तीर्थकरेण सह असंयतसम्यग्दृष्टौ ... देशसंयते ० र ११ आहरकद्वयेन सह मिश्रे ७ प्रम० अप्रमत्त अपू० __ अप्रमत्ते ..... अपूर्वकरणे ... अनिवृत्तिकरणस्य नवसु भागेषु १३८ १४५ मत्त १४५ १० १२२ ११४ १३५ ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३ सूचमसाम्पराये १०२ उपशान्ते १४६ क्षीणकषाय३५ ३६४२ ४३ ४४ ४५ १४ ७२ द्विचरसमये १०१ क्षीणकषायचरमसमये १ सयोगिकेवलिनि ५५ अयोगिद्विचरसमये ८५ अन्त्यसमये ६३ ४९ ६३ १३ सिद्धे १३५ १४८ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'रभ्रदेव' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २२४)। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह मिथ्यात्व गुणस्थानसे ऊपर चढ़ते हुए जीवके किस गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका क्षय होता है कितनीका सत्त्व रहता है और कितनीका सत्त्व नहीं रहता है, यह स्पष्ट करनेके लिए भाष्यकारने जो अंक संदृष्टियाँ दी हैं, उनका विवेचन किया जाता है। ऊपर चढ़कर कर्मक्षय करनेवाले जीवके मिथ्यात्व गुणस्थानमें देखायु, नरकायु औ तिर्यगायुकी सत्ता संभव नहीं है, अतः ३ का असत्त्व और १४५ का सत्त्व होता है। यहाँ पर सत्त्व-व्युच्छित्ति किसी प्रकृतिकी नहीं है। सासादनमें तीर्थकरप्रकृति और आहारकद्विक, इन तीनका सत्त्व नहीं होता, अतः यहाँपर ६ का असत्त्व और १४२ का सत्त्व जानना चाहिए। यहाँपर भी किसी प्रकृतिकी सत्त्वविच्छित्ति नहीं होती है। तीसरे मिश्र गुणस्थानमें आहारक द्विकका सत्त्व सम्भव है, अतः यहाँपर ४ का असत्त्व और १४४ का सत्त्व है। यहाँपर भी किसी प्रकृतिकी सत्त्व-व्युच्छित्ति नहीं होती है। अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका सत्त्व पाया जाता है, अतः ३ का असत्त्व और १४५ का सत्त्व रहता है। इस गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धिचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक; इन सातकी सत्त्वव्युच्छित्ति जानना चाहिए। देशविरतमें भी असत्त्व ३ का सत्त्व १४५ का और सत्त्वव्युच्छिन्ति ७ की है। प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें भी इसी प्रकार असत्त्व, सत्त्व और सत्त्वत्युच्छित्ति जानना चाहिए। सातवें गुणस्थानके अन्तमें उक्त सातों प्रकृतियों की सत्त्वव्युच्छित्ति हो जानेसे और नरक आदि तीन आयुकमों के सत्त्वमें न होनेसे असत्त्व प्रकृतियाँ १० और सत्त्व प्रकृतियाँ १३८ हैं। यहाँपर किसी भी प्रकृतिका क्षय नहीं होता, अतः सत्वव्युच्छित्ति नहीं वतलाई गई है। अनिवृत्तिकरणके नौ भागोंमें-से प्रथम भागमें असत्त्व १०, सत्त्व १३८ और सत्त्वव्युच्छित्ति १६ की है। दूसरे भागमें असत्त्व २६, सत्त्व १२२ और सत्त्वव्युच्छित्ति ८ की है। तीसरे भागमें असत्त्व २४, सत्त्व ११४ और सत्त्वव्यच्छित्ति १ की है। चौथे भागमें असत्त्व ३५, सत्त्व ११३ और सत्त्व-व्युच्छित्ति १ की है। पाँचवें भागमें असत्त्व ३६, सत्त्व ११२ और सत्त्वव्युच्छित्ति ६ की है। छठे भागमें असत्त्व ४२, सत्त्व १०६ और सत्त्वव्युच्छित्ति १ की है। सातवें भागमें असत्त्व ४३, सत्त्व १०५ और सत्त्वव्यच्छित्ति १ की है। आठवें भागमें असत्त्व ४०, सत्त्व १०४ और सत्ताव्युच्छित्ति १ की है। नवें भागमें असत्त्व ४५, सत्त्व १०३ और सत्त्वव्युच्छित्ति १ की है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें असत्त्व ४६, सत्त्व १०२ और सत्त्वव्युच्छित्ति १ की है। क्षपक श्रेणीवाला ग्यारहवेंमें न चढ़कर बारहवें गुणस्थानमें ही चढ़ता है, अतः उसका यहाँ विचार नहीं किया गया है। क्षीणकषायके द्विचरम समयमें ४७ का असत्त्व, १०१ का सत्त्व और २ की सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। क्षीणकषायके चरम समयमें ४६ का असत्त्व, ६६ का सत्त्व और १४ की सत्त्वव्यच्छित्ति होती है। सयोगिकवलीके ६३ का असत्त्व, और ८५ का सत्त्व रहता है। यहाँपर किसी भी कर्म-प्रकृतिकी व्युच्छित्ति नहीं होती है। अयोगिकेवलीके द्विचरम समयमें ६३ का असत्त्व, ८५ का सत्त्व और ७२ की सत्त्वव्युच्छित्ति होती है। अयोगि केवलीके चरम समयमें १३५ का असत्त्व, १३ का सत्त्व और १३ की सत्त्वव्युच्छित्ति होती है । सिद्धोंके किसी भी कर्मप्रकृतिका सद्भाव नहीं पाया जाता। अतएव उनके १४८ प्रकृतियोंका असत्त्व जानना चाहिए । ____ अब सप्ततिकाकार अयोगिकेवलोके उदय आनेवाली प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं[मूलगा०६६] अण्णयरवेयणीयं मणुयाऊ उच्चगोय णामणवं । वेदेदि अजोगिजिणो उक्कस्स जहण्णमेयारं ॥५०१॥ .. १. सप्ततिका० ६६। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समतिका भयोगे उदयप्रकृतीराह-अन्यतरवेदनीयं १ मनुष्यायुः १ उच्चगोत्रं १ नामप्रकृतिनवकं ६ वयमाणम् । एवं द्वादशानां प्रकृतीनामदयं अयोगिजिनः उत्कृष्टतया वेदयति अनुभवति । जघन्येन तीर्थकरत्वं विना एकादशानां प्रकृतीनामुदयं अयोगिनी वेदयति अनुभवति ॥५०१॥ कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, उच्चगोत्र और नामकर्मकी नौ प्रकृतियाँ; उस प्रकार इन बारह प्रकृतियोंका अयोगिजिन उत्कृष्ट रूपसे वेदन करते है । तथा जघन्य रूपसे तीर्थङ्कर प्रकृतिके विना ग्यारह प्रकृतियोंका वेदन करते हैं। क्योंकि सभी अयोगिजिनोंके तीर्थङ्करप्रकृतिका उदय नहीं पाया जाता है ॥५०१॥ ____ अव आचार्य अयोगिजिनके उदय होनेवाली नामकर्मकी उपरि निर्दिष्ट नौ प्रकृतियोंका नामोल्लेख करते हैं[मूलगा०६७] सणुयगई पंचिंदिय तस बायरणाम सुभगमादिज्जं । ___ पजत्तं जसकित्ती तित्थयरं णाम णव होंति ॥५०२।। ___ ताः का नवेति प्राह-[ 'मणुयगई पंचिंदिय' इत्यादि । ] मनुष्यगतिः । पञ्चेन्द्रियं १ वसं १ बादरनाम १ सुभगं १ आदेयं १ पर्याप्तं १ यशस्कीतिः १ तीर्थकरत्वं चेति नाम्नः नव प्रकृतयो भवन्ति ॥५०२॥ मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, सुभग, आदेय, पर्याप्त, यशःकीर्ति और तीर्थंकरप्रकृति नामकर्मकी इन नो प्रकृतियोंका उदय अयोगिजिनके होता है ॥५०२॥ अयोगिजिनके मनुष्यानुपूर्वीका सत्त्व उपान्त्य समय तक रहता है, या अन्तिम समय तक ? आचार्य इस बातका निर्णय करते हैं[मूलगा०६८] मणुयाणुपुव्विसहिया तेरस भवसिद्धियस्स चरमंते । संतस्स दु उक्कस्सं जहण्रणयं वारसा होति ॥५०३॥ अयोगिचरमसमये उत्कृष्टतो जघन्यतः सत्त्वप्रकृतीराह-[ 'मणुयाणुपुब्विसहिया' इत्यादि ।] मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ वसं १ बादरं १ सुभगं ५ आदेयं १ पर्याप्त यशस्कीतिः १ तीर्थकरत्वं १ इति नाम्नः नव प्रकृतयः । सातासातयोमध्ये एकतरवेदनीयं १ मनुष्यायुष्कं १ उच्चगोत्र चेति द्वादश । मनुष्यगत्यानुपूर्व्यसहितास्त्रयोदश प्रकृतयः सत्वरूपा उत्कृष्टतो भवसिद्धः चरमान्ते अयोगिजिनस्य चरमसमये भवन्ति १३ । तीर्थकरत्वं विना एता द्वादश प्रकृतयः सत्वरूपा जघन्यतो भवन्ति १२ ॥५०३॥ __ भव्यसिद्ध अयोगिजिनके चरम समयमें उत्कृष्ट रूपसे मनुष्यानुपूर्वी-सहित तेरह प्रकृतियों का और जघन्य रूपसे तीर्थङ्करप्रकृतिके विना बारह प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है ॥५०३।। अब ग्रन्थकार उक्त कथनकी पुष्टि में युक्तिका निर्देश करते हैं[मूलगा०६६] मणुयगइसहगयाओ भव-खेत्तविवाय जीववागा य । वेदणियण्णदरुच्चं चरिमे भवसिद्धियस्स खीयंति ॥५०४॥ एताः प्रकृतयो मनुष्यगत्या सह त्रयोदश । तहिचारः क्रियते । अघातिकर्मचतुष्टयमध्ये क्रमेण कथ. यति--आयुषां मध्ये मनुष्यायुस्तद्भवविपाकम् १ । नाममध्ये मनुष्यगत्यानुपूर्वी सा क्षेत्रविपाको १ । मनुयगतिः १ पञ्चन्द्रियं १ तीर्थकरत्वं १ वसं १ बादरं १ यशः १ सुभगः १ पर्याप्तं १ आदेयं । एवं नव प्रकृतयः । जीवविपाकिन्यः। [ सातासात-वेदनीययोमध्ये अन्यतरवेदनीयं १ तदपि जीवविपाकम् १ २. सप्ततिका०६८। ३. सहतिका ६९ । १. सप्ततिका० ६७ । ६८ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ पञ्चसंग्रह [ उच्च-नीच-गोत्रयोमध्ये उच्चगोत्रं तदपि जीवविपाकम् । एवं त्रयोदश प्रकृतीरयोगिचरमसमये अयोगिनः जयन्ति १३ ॥५०४॥ ... मनुष्यगतिके साथ नियमसे उदय होनेवाली भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियाँ, कोई एक वेदनीय और उच्चगोत्र, इन सबका क्षय भव्यसिद्धिक अयोगिजिनके अन्तिम समयमें होता है ॥५०४।। भावार्थ-यतः मनुष्यगतिके साथ नियमसे उदय होनेवाली भवविपाकी आदि प्रकृतियाँ अयोगिकेवलीके अन्तिम समय तक पाई जाती है, अतः वहाँ तक क्षेत्रविपाकी मनुष्यानुपूर्वीका अस्तित्व स्वतः सिद्ध है। ___अब ग्रन्थकार सर्व कर्मोंका क्षय करके जीव जिस अवस्थाका अनुभव करते हैं, उसका निरूपण करते हैं[मूलगा०७०]'अह सुट्टियसयलजयसिहर अरयणिरुवमसहावसिद्धिसुखं । अणिहणमव्वाबाहं तिरयणसारं अणुहवंति ॥५०॥ अथ कर्मक्षयं कृत्वा सिद्धाः सिद्धिसुखमनुभवन्तीत्याह-['अह मुठियसयलजय' इत्यादि । ] अथ अथानन्तरं कर्मक्षयानन्तरं स्वभावसिद्धिसुखमनुभवन्ति । स्वस्यात्मनः भावः स्वरूपं तस्मात् तत्र वा सिद्धिसुखं स्वात्मोपलब्धिसुखं आत्मस्वरूपात् प्रातात्मसुखमनुभवन्ति भुञ्जन्ते । के ? सिद्धाः। कथम्भूताः? सुष्टु अतिशयेन स्थिताः सकलाः अनन्ताः जगच्छिखरे ये सिद्धाः त्रिभुवनशिखरस्थाः अनन्तसिद्धाः स्वभावसिद्धिसखमनभवन्ति । कथम्भूताः१ न विद्यते रजः कर्ममलकलतो येषां ते अरजसः कर्ममलकलङ्करहिताः । कथम्भूतं स्वभावसिद्धिसुखम् ? निरूपमं उपमानिष्क्रान्तं उपमारहितम् । पुनः कथम्भूतम् ? अनिधनं विनाशरहितम्, अव्याबा, बाधारहितम्, त्रिरत्नसारं रत्नत्रयफलमित्यर्थः ॥५०५॥ तथा चोक्तम् रत्नत्रयफलं प्राप्ता निर्बाधं कर्मवर्जिताः। निर्विशन्ति सुखं सिद्धास्त्रिलोकशिखरस्थिताः ॥३७॥ अष्टाचत्वारिंशतं कर्मभेदानित्थं हत्वा ध्यानतो निर्वृता ये। स्वस्थानन्तामेयसौख्याब्धिमनास्ते नः सद्यः सिद्धये सन्तु सिद्धाः ॥३८॥ कर्मीका क्षय करनेके अनन्तर वे जीव सकल जगत्के शिखर पर सुस्थित होकर रज ( मल ) से रहित, निरुपम अनन्त, अव्याबाध और स्वाभाविक आत्मसिद्धिसे प्राप्त और त्रिभुवनमें साररूप आत्मिक-सुखका अनुभव करते हैं ।।५०५।। भावार्थ-त्रिभुवनके शिखरपर विराजमान होकर वे सिद्ध जीव सर्व बाधाओंसे, मलोंसे और उपद्रवोंसे रहित होकर अनन्तकाल तक शुद्ध आत्मिक आनन्दका अनुभव करते रहते हैं। _अब मूलसप्ततिकाकार प्रस्तुत प्रकरणका उपसंहार करते हुए कुछ आवश्यक एवं ज्ञातव्य तत्त्वका निर्देश करते हैं[मूलगा०७१] दुरधिगम-णिउण-परमट्ठ-रुइर-बहुभंगदिढिवादाओ। अत्था अणुसरियव्या बंधोदयसंतकम्माणं ॥५०६॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४७८ । १ सं० पञ्च सं०५, ४७८। २ स पञ्चस० ५, ४७६ । १. सप्ततिका० ७० । २. सप्ततिका० ७१ । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका बन्धोदयसत्त्वकर्मणां अर्थाः वाच्यरूपाः तत्स्वरूपरूपाः अनुसतव्या आश्रयणीया अङ्गीकर्तव्याः भव्यः । कुतः ? दुरधिगमनिपुणपरमार्थरुचिरबहुभङ्गादप्टिवादाङ्गात् ॥५०६॥ तथा च दृष्टिवादमकराकरादिदं प्राभृतैकलवरत्नमुद्धृतम् । ज्ञानदर्शनचरित्रवृहकं गृह्यतां शिवनिवासकाङ क्षिभिः ॥३६।। बन्धं पाकं कर्मणां सत्त्वमेतद्वक्तुं शक्त दृष्टिवादप्रणीतम् । शास्त्रं ज्ञात्वाऽभ्यस्यते येन नित्यं सम्यक् तेन ज्ञायते कर्मतत्त्वम् ॥४॥ दुरधिगम, सूक्ष्मबुद्धिके द्वारा गम्य, परम तत्त्वका प्रतिपादक, रुचिर (आह्लाद-कारक) और अनेक भेद-युक्त दृष्टिवादसे कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वका विशेष अर्थ जानना चाहिए ॥५०६॥ भावार्थ-गाथासूत्रकारने इस ग्रन्थका प्रारम्भ करते हुए यह निर्देश किया था कि मैं दृष्टिवादके आश्रयसे बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका निरूपण करूँगा। अब ग्रन्थको समाप्त करते हुए वे यह कह रहे हैं कि बारहवाँ दृष्टिवाद अङ्ग अत्यन्त गहन, विस्तृत और सूक्ष्मबुद्धि पुरुषोंके द्वारा ही जानने योग्य है। अतएव मेरेसे जितना भी संभव हो सका, प्रस्तुत अर्थका प्रतिपादन किया । जो विशेष जिज्ञासु जन हों, उन्हें दृष्टिवादसे प्रकृत अर्थका अनुसरण या अध्ययन करना चाहिए। अब मूलसप्ततिकाकार अपनी लघुता प्रकट करते हैं[मूलगा०७२] जो एत्थ अपडिपुण्णो अत्थो अप्पागमेण रइओ त्ति । पंखमिऊण बहुसुया पूरेऊणं परिकहिंतु ॥५०७॥ इदि पंचसंगहो समत्तो। अत्र अस्मिन् ग्रन्थे यः अपरिपूर्णः अर्थो मया कथितः अल्पागमेन लेशसिद्धान्तज्ञायकेन रचित इति तं अर्थ भो बहुश्रुताः अनेकसिद्धान्तवेदिनः ममोपरि मां कृत्वा भपरिपूर्णमर्थ पूरयित्वा पूर्ण कृत्वा परिकथयन्तु प्रकाशयन्तु ॥५०७॥ मुझ अल्प आगम-ज्ञानीने इस प्रकरणमें जो अपरिपूर्ण अर्थ रचा हो, उसे बहुश्रुत ज्ञानी आचार्य मुझे क्षमा करके और छूटे हुए अर्थकी पूर्ति करके जिज्ञासु जनों को प्रस्तुत प्रकरणका व्याख्यान करें ।।५०७॥ इस प्रकार सभाष्य सप्ततिका-प्रकरण समाप्त हुआ। २. सं० पञ्चसं० ५,४८३ । १. सं० पञ्चसं० ५, ४८२ । १. सप्ततिका ७२ । *ब इति । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटीकाकारस्य प्रशस्तिः श्रीमूलसंधेऽजनि नन्दिसंघो वरो बलात्कारगणप्रसिद्धः । श्रीकुन्दकुन्दो वरसूरिवर्यो बभौ बुधो भारतिगच्छसारे ॥१॥ तदन्वये देव-मुनीन्द्र वन्द्यः श्रीपद्मनन्दी जिनधर्मनन्दी । ततो हि जातो दिविजेन्द्रकीर्तिर्विद्या-[भि-] नन्दी वरधर्ममूर्तिः ॥२॥ तदीयपट्टे नृपमाननीये मल्ल्यादिभूषो मुनिवन्दनीयः । . ततो हि जातो वरधर्मधर्ता लक्ष्म्यादिचन्द्रो बहुशिष्यकर्ता ॥३॥ पञ्चाचाररतो नित्यं सूरिसद्गुणधारकः । लक्ष्मीचन्द्रगुरुस्वामी भट्टारकशिरोमणिः ॥४॥ दुर्वारदुर्वादिकपर्वतानां वज्रायमानो वरवीरचन्द्रः । तदन्वये सूरिवरप्रधानो ज्ञानादिभूपो गणिगच्छगजः ॥५॥ विद्यविद्याधर चक्रवर्ती भट्टारको भूतलयातकीर्तिः । ज्ञानादिभूषो वरधर्ममूर्तिस्तदीयवाक्यात् क्षतसारवृत्तिः ॥६॥ भट्टारको भुवि ख्यातो जीयाच्छीज्ञानभूषणः । तस्य पट्टोदये भानुः प्रभावन्द्रो वचोनिधिः ॥७॥ विशदगुणगरिष्ठो ज्ञानभूपो गणीन्द्रस्तदनुं पदविधाता धर्मधर्ता सुभर्ता। कुवलयसुखकर्ता मोहमिथ्यान्धहर्ता स जयतु यतिनाथः श्रीप्रभाचन्द्रचन्द्रः ॥८॥ दीक्षाशिक्षापदं दत्तं लक्ष्मीवीरेन्दुसूरिणा। येन मे ज्ञानभूपेण तस्मै श्रीगुरुवे नमः ।।६॥ आगगेन विरुद्धं यद् व्याकरणेन दूषितम् । शुद्धीकृतं च सत्सर्व गुरुभिर्ज्ञानभूषणैः ।।१०।। तथापि अत्र हीनाधिकं किञ्चिद्रचितं मतिविभ्रमात् । शोधयन्तु महाभव्याः कृपां कृत्वा ममोपरि ॥११॥ हंसाख्यवर्णिनाथेन ग्रन्थोऽयमुपदेशितः । तस्य प्रसादतो वृत्तिः कृता सुमतिकीतिना ।।१२।। श्रीमद्विक्रमभूपते परिमिते वर्षे शते पोडशे विंशत्यग्रगते (१६२०) सिते शुभतरे भाद्र दशम्यां तिथौ । ईलावे वृषभालये वृपकरे सुश्रावके धार्मिके सूरिश्रीसुमतीशकीर्तिविहिता टीका सदा नन्दतु ॥१३॥ इति श्रीपञ्चस ग्रहापरनामलघुगोम्मटसारसिद्धान्तग्रन्थटाकायां कर्मकाण्डे सप्ततिकानाम सप्तमोऽ. धिकारः। इतिश्री लघुगोम्मटसारटीका समाप्ता । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति-सहिओ सिरि पंचसंगहो इय वंदिऊण सिद्ध अरिहंते आइरिय उवज्झाए । साहुगणे वि य सव्वे वुच्छेऽहं मंगलं किं पि॥ मंगलणिमित्तहेउ परिमाणं णाममेव जाणाहि । छ8 तह कत्तारं आयम्हि य सव्वसत्थाणं ॥१॥ आदिम्हि मंगलादीणि पुव्वमेव सीसस्स जाणाविय अभिपेदत्थं परूविज्जदि । तत्थ मंगलं विशिष्टेष्टदेवतानमस्कारो मङ्गलम् । तं धादु-णिक्खेव-णअ-एगत्थ-णिरुत्तियणिओगद्दारेहि परूविज्जदि । तत्र मगिरित्यनेन धातुना निष्पन्नो मङ्गलशब्दः । धातूक्तिः किमर्थम् ? यत्किश्चिद्वाङ मयं लोके सार्थक चोपलभ्यते । तत्सर्वे धातुभिर्व्याप्तं शरीरमिव धातुभिः ।।२।। इति वचनात् । तदर्थ धातुप्ररूपणं वक्ष्यति । तत्थ णिक्खेवेण मंगलं छविहं---णाम-ट्ठवणादव्व-खेत्त-काल-भावमंगलं चेदि । अवगदणिवारणत्थं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणत्थं सण्णाणुप्पादणत्थं च ॥३॥ णिक्खेवे कदे [णवाण] अवदारो भवदि । उच्चारिदम्हि दु पदे णिस्खेवे वा कदम्हि दठ्ठण । अत्थं णयंति तच्चेत्ति य तम्हा ते णया भणिदा ॥४॥ तं जहा-णइगम-संगह-ववहा सव्वमंगलाणि इच्छति । किं कारणं ? तिलोगेसु तिकालसु सव्वमंगलहि संववहारा दिस्संति । उजुसुदो ठवणमंगलं नेच्छदि । किं कारणं ? जेण अदीदं विणटुं, अगागदमणप्पण्णं । वद्रमाणमेव तच्चेत्ति इच्छदि । सद्दणओ णाममंगलं भावमंगलं च इच्छदि । किं कारणं ? जेण पज्जयगाही परप्रत्यायनकाले नाममङ्गलमिच्छति । भावमंगलं पि तस्स विसओ होऊण इच्छदि । समभिरूढ-एवंभूदया सद्दणए पविसंति त्ति भणिदा । संपधि एत्थ णिक्खेवपरूवणा किं कारणं बुजदे ? प्रमाण-नय-निक्षेपैर्योऽर्थो नाभिसमीक्ष्यते । युक्तञ्चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं सयुक्तिवत् ॥५॥ इति वचनात् । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ पंचसंगहो ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥६॥ तं णाममंगलं णाम जीवस्स वा एवमादि-अट्ठभंगेहि जस्स वा तस्स वा दव्वस्स वा णिमितंतरमविक्खिऊण सण्णा कीरदे । तत्थ णिमित्तं चदुव्विधं-जादि-दव्व-गुण-किरिया चेदि । तत्थ जादि गो-मणुस्सादि । दव्वं दुविहं-संजोगिदव्वं समवायदव्वं चेदि । संजोगिदव्वं णाम जीहाघट्ट-पवनादि । समवायदव्वं णाम विषाणिक-कूष्माणीति । गुणो णाम-जहा सव्वण्हु सुक्किलं किण्हमिदि । किरिया णाम-लङ्घकी नर्तकी एवमादि । एदे णिमित्ते मोत्तण तं णाममंगलं वुच्चदि। ___ठवणमंगलं दुविहं-आकृतिमति सद्भावः अनाकृतिमति असद्भावः तत्र चित्र-लेप्यकर्मादिषु लेखाक्षेपण-खनन बन्धन-निष्पन्नं सद्भावस्थापना। तदेवाक्षाङ्गुल्यादिविकल्पितमितरमङ्गलम् । दव्वमंगलं दुविहं-आगम-नोआगमभेदादो। आगमो सिद्धंतो। आगमादो वदिरित्तो नोआगमो । तत्थ आगमादो दव्वमंगलं मंगलपाहुडजाणगो उवजुत्तो। जं तं नोआगमव्वमंगलं तं तिविहं--जागुण-भविय-तव्वदिरित्तं चेदि । जाणुगसरीरं तिविहं-भविय-वट्टमाण-समुज्झाद चेदि । समुज्झादं तिविहं-चुदं चइदं चत्तदेहं चेदि । अप्पणो आउवखए जं चुदं तं चुदं णाम । विस-सत्थ-कंटयादीहिं जं चइदं, तं चइदं णाम ! चत्तदेहं तिविधं-पाउवगमरणं इंगिणिमरणं भत्तपञ्चक्खाणं चेदि। तत्थ अप्प-परणिराविक्खं पाउग्गमरणं । उक्तश्च स्थितस्य वा निषण्णस्य यावत्सुप्तस्य वा पुनः । सवचेष्टापरित्यागः प्रायोग्यगमनं स्मृतम् ॥७॥ तत्थ इंगिणिमरणं अपसावेक्खं परणिरावेक्खं । उक्तश्च एकैकस्योपसर्गस्य सहिष्णुः सविचारकः । सर्वाहारपरित्यागः इङ्गिनीमरणं स्मृतम् ॥८॥ भत्तपच्चक्खाणं णाम अप्प-परसावेखं चेदि । उक्तश्च सल्लेख्य विधिना देहं क्रमेण सकषायकः। सर्वाहारपरित्यागो भवेद्भक्तव्यपोहनम् ॥६॥ भवियमंगलं मंगलपाहुडजाणगो भावी । तव्वदिरित्तं दुविधं-कम्ममंगलं णोकम्मभंगलं चेदि । तत्थ कम्ममंगलं णाम दंसणविसुज्झदा एवमादिसोलसतित्थयरणामकम्मकारणेहि पविभत्तं । णोकम्ममंगलं-लोइयं लोउत्तरियं चेदि । तत्थ लोइयमंगलं तिविधं सचित्ताचित्तमिस्सयं चेदि । तत्थ सचित्तमंगलं करणादि । अचित्तमंगलं सिद्धत्थ-पुण्णकुंभादि । मिस्समंगलं सिद्धत्थ-पुण्णकुंभसहिदकण्णादि। जं तं लोउत्तरियं मंगल [तंतिविहं-सचित्ताचित्तमिस्सयं चेदि । तत्थ सचित्तमंगल अरहंतादिपंचण्हं गुरुआणं जीवपदेसा। अचित्तमंगलचेदिया-पडिमादि । मिस्समंगल साहुपट्टसालादि। तत्थ खेत्तमंगलणाम-गुणपज्जयपरिणदेणच्छिदखेतं णिक्खवण-परिणिव्वाण-केवलणाणुप्पत्ति-खेत्तादि, अधुहरदणियादि जाव पंचवीसुत्तरपंचधणूसदपमाणसरीरत्थिदा लोगागासपदेसा खेत्तमंगले त्ति वुञ्चदि । अथवा अप्पजीवपदेसा वा। १. लघीय० ६, २। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति-सहिओ ५४३ तत्थ कालमंगल णाम-जम्हि काले गुणपज्जयपरिणदो होऊणच्छिदो। तं कालमंगलं दुविधं-सगकालमंगलं परकालमंगलं चेदि । तत्थ सगकालमंगलं जम्हि काले अप्पणो अणंतणाणदसणाणि उप्पज्जंति [तं ] कालमंगलं वुचदि। परकालमंगलं णाम जम्हि काले परेसिं णिक्खवण-केवलणाणुप्पत्ति-परिणिव्वाणादीणि भवंति । भावमंगलं दुविहं-आगम-णोआगमं चेदि । तत्थ आगमदो भावमंगलं पाहुडजाणगो उवजुत्तो। णोआगमभावमंगलं दुविहं-उवउत्तो तप्परिणदो वां । आगमविरहिदमंगलथोव [ मंगलथो] उवजुत्तो। तप्परिणदो णाम मंगल एय [ एहि ] परिणदो जीवो। तं जहा–मलं गालयदि विद्धंसदि वा मंगलं । तं [मलं दुविधं--दव्वमलं भावमलं चेदि । दळवमलं दुविहंबाहिरमब्भंतरं च । तत्थ बाहिरमलं सेद-रजादि । अब्भंतरमलं णाम घण-कढिण-जीवपदेसणिबद्धं णाणावरणादि । आदी मज्झवसाणे मंगलं जिणवरेहि पण्णत्तं । तो कदमंगलविणओ इणमो सुत्तं पवक्खामि ॥१०॥ तं मंगल दुविहं-णिबद्धमंगल अणिबद्धमंगल' चेदि । तत्थ णिबद्धमंगल णाम जं सुत्तस्स आदीए णिबद्धं । अणिबद्धमंगल णाम जं सुत्तस्स आदीए ण णिबद्धं, अण्णसुदो [सुदादो] आणिदूण वक्खाणिज्जदि । संपधि अण्णसुत्तादो आणेऊण जदि वक्खाणिज्जदि तो सुत्तस्स अमंगल पावदि त्ति ? ओएस्स [ णो णवदि सुत्तस्स ] । कहं ? जहा लोए तहा सत्थे प्रदीपेनार्चयेदर्कमुदकेन महोदधिम् । वागीश्वरं तथा वाग्भिमङ्गलेन च मङ्गलम् ॥११॥ णिमित्तं भण्णमाणे बंधो बंधकारणं मुक्खो मुक्खकारणं णिक्खेय-णअ-प्पमाण-अणिओगद्दारेहिं भव्ववरपुंडरीयमहारिसओ जाणंति त्ति । । तत्थ हेदू दुविहो-पञ्चक्ख-परोक्खमिदि । पञ्चक्खहेदू दुविहो-साक्षात्प्रत्यक्षः परम्पराप्रत्यक्षश्चेति । तत्र साक्षात्प्रत्यक्षः देव-मनुष्यादिभिः सततमभ्यर्चनम् । परम्पराप्रत्यक्षः शिष्यप्रशिष्यादिभिः सततमभ्यर्चनम् । परोक्षहेतुर्द्विविधोऽभ्युदयो-नैःश्रेयसश्चेति । तत्राभ्युदयहेतुर्यथा सातादिप्रशस्तकर्मतीव्रानुभागोदयजनित-इन्द्र-प्रतीन्द्र-साभानिक-त्रायत्रिंशादिदेव-चक्रवर्ति-बलदेववासुदेव-मण्डलीक-महामण्डलीक-राजाधिराजसुखप्रापकम् । नःश्रेयसहेतुर्यथा-अव्याबाधमनन्तकर्मक्षयजनितमुक्तिसुखम् । अदिसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं । अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुधुवओगप्पसिद्धाणं ॥१२॥ तत्थ परिमाणं दुविहं-अत्थपरिमाणं गंथपरिमाणं [चेदि । ] अत्थपरिमाणं अणंतं [प] एयत्थ-अणंतभेदभिण्ण-[त्तादो। ] गंथदो पुण अक्खर-पद-संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारे हिं सुदक्खरेहि [ सुदरुक्खेहि ] संखिज्जं । तं सुदरुक्खं पच्छा वतव्वं । तत्थ गुणणामं आराहणा इदि । किं कारण ? जेण आराधिज्जन्ते अणआ दंसण-णाणचरित्त-तवाणि त्ति । १. धवला, पु० पृ० ४० ( उद्धतम् )। २. प्रवच० १, १३ । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ पंचसंगहो कत्तारा तिविधा-मूलतंतकत्ता उत्तरतंतकत्ता उत्तरोत्तरतंतकत्ता चेदि । तत्थ मूलतंतकत्ता भयवं महावीरो। उत्तरतंतकत्ता गोदमभयवदो । उत्तरोत्तरतंतकत्ता लोहायरिया भट्टारकअप्पभूदिअआयरिया । एयारसंगमूलो खंधो उण दिद्विवादपंचविहो । णो अंगारोहज्जदो (?) चउदहवरपुव्यसाहिल्लो ।।१३।। वत्थूवसाहपवरो पाहुटदल पवलकुसुम.चिंचइओ। अणिओगफलसमिद्धो सुदणाणाणोअहो जयऊ ॥१४॥ एत्थ सुदणाणस्स अधियारादो सुदणाणस्स एवं पंचविधं उवक्कम कायव्वं । तस्स सुदं णाम-श्रुत्वा पठित्वा गृह्णातीति श्रुतं नाम । पमाणं अक्खर-पद-संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारेहि संखेज्ज', अत्थदो अणंतं । वंत्तुपदा [ वक्तव्वदा ] सुदणाण' तदुभयवंतपदा [वत्तव्वदा । अत्थाधियारो बारहविधो। आयारं सुद्दयडं ठाणं समवाय विवायपण्णत्ती । णादाधम्मकहाओ उवासयाणं च अज्झयणं ॥१५॥ अंतयडदसं अणुत्तरोववादियदसं पण्णवायरणं । एयार विवायसुत्तं वारसमं दिहिवादं च ॥१६॥ एत्थ पुण आयारंगं अट्ठारहपदसहस्से हि १८००० ववहारं वण्णेदि रिसिगणस्स । कधं चरे कधं चिडे कधप्नासे कधं सये । कधं भासेज्ज भुंजीज्जा कधं पावं ण बज्झदि' ॥१७॥ जदं चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदं सये । जदं भासेज्ज भुंजीज्जा एवं पावं ण बज्झदि ॥१८॥ सुद्दयडणामंगं छत्तीसपदसहस्से हिं ३६००० ससमय-परसमयमग्गणदा। ठाणणामंगं वादालसहस्से हिं पदेहिं ४२००० एगादि-गुत्तरढाणं वण्णेदि जीवस्स । तं जहा एओ चेव महप्पो सो दुवियप्पो तिलक्षणो भणिदो । चउचंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य ॥१६॥ छक्कावकमजुत्तो कमसो पुण सत्तभंगिसब्भावो । अट्ठासवो णवपदो जीवो दसठाणिओ णेओ ॥२०॥ समवायणामंगं इक्कलक्ख-चउसविसहरसेहिं देहिं १६४००० समकरणं मग्गणा । [समवायणा-] मंगं चदुविधं-दव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो। दव्वदो धम्मत्थियाए अधम्मत्थियाए लोगागासं एगजीवपदेसा वि य चत्तारि समा। खेत्तदो सीमंतणाम णिरयं माणुसं खेत्त उडुविमाणं सिद्धिखेत्तपदं चत्तारि वि समा। कालदो समयं समएण समं, मुहुत्तो मुहुत्तसमो त्ति । भावदो केवलणाणं केवलदसणं च समा, ओधिणाणं ओधिणाण-[ दंसण-] सममिदि। १. मूलाचा०१०१२। दशवै०४,७।३. मूलाचा० १०१३, दशवै० ४,८। २. पञ्चास्ति०७७-७८। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति-सहिओ ५४५ विवायपण्णत्ती णामंगं दोहि लक्खेहि अट्ठावीससहस्से हिं पदेहिं २२८००० पुच्छणविधि पडिच्छणविधिं च वण्णेदि । णादाधम्मकधा णामंगं पंचलक्ख-छप्पण्णसहस्से हिं पदेहिं ५५६००० अरहंताणं धम्मदेसणं वण्णेदि । उवासयज्झयणं णामंगं एकारसलक्ख-सत्तरि-सहस्से हिं पदेहिं ११७०००० सावगाचारं वण्णेदि दंसण-वद-सामाइयादि । अंतयडदसणामंगं तेवीसलक्ख-अट्ठवीससहस्से हिं पदेहिं २३२८००० एक्कम्हि य तित्थे दसदस उवसग्गे दारुणे सहिऊण पाडिहेरं लक्ष्ण णिव्वागगमणं वण्णेदि । तत्थ उवसग्गे, तं जहामाणुसुवसगतिविधं इत्थि-पुरिस-णउंसय [भेएण ] एवं तिरिच्छियाणं । देवं दुविधं-इत्थि-पुरिसु चेदणीयं दुविधं-साभावियं आगंतुगं च। साभावियं सरीरमसमत्थ-सिरवेदण-कुच्छि. वेदणादि । आगंतुगं असणि-कट टु-रुक्खादि । सव्वसमासेण पुणो दस १० । _अणुत्तरोववादियणामंगं वाणउदिलक्ख-चउदालसहस्सेहिं पदेहिं ६२४४००० एक्केक्कम्हि य तित्थे दस-दस उवसग्गे दारुणे सहिऊण पाडिहरं लक्ष्ण अणुत्तरगमणं वण्णेदि । पण्हवायरणणामंगं तेणउदिलक्ख-सोलहसहस्से हिं पदेहिं १३१६००० अक्खेवणी विक्खेवणी संवेगणी णिक पवण्णेदि । तत्थ अक्खेवणी जत्थ ससमयं वण्णेदि । विक्खेवणी जत्थ परसमयं वणिज्जदि । संवेगणी णाम [ जत्थ ] दंसण-णाण-चरण-तव-पुण्ण-पावफलविसेसं वणिज्जदि । णिव्वेगणीणाम जत्थ सरीर-भोग-संसार-णिवेगं वणिज्जदि । विवागसुत्तणामंगं एगकोडि-चउरासीदिलक्खपदे हिं १८४००००० पुण्ण-पावकम्माणं उदय-उदीरणं विसेसेण फलविवागं वण्णेदि । एकादसंगपिंडं चत्तारि कोडीओ पण्णरसलक्खवेसहस्सपदेहिं ४१५०२००० । वे चेव सहस्साणि य पणदहलक्खाणि कोडिचत्तारि । एयारसंगपिंडं सुदणाणं होइ पदसंखा ॥२१॥ दिट्ठीओ वदंति दिद्विवादंगं । असिदिसदं किरियाणं अकिरियाणं च तह य चुलसीदी । सतसट्ठी अण्णाणी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥२२॥ आदिसिओ गच्छाए ( असिदिसद-गाथाए ) अत्थो वुच्चदे । तं जहा-आस्तिकमतेनेव स्व-पर-नित्येतरैर्नवजीवादिपदार्थाः नियति-स्वभाव-कालेश्वरात्मकृति च शतमशीतिः । नियतिस्वभाव-कालेश्वरात्मकृति [ त्वं ] उपरि संस्थाग्य मध्ये जीवादिपदार्थाः जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्ष-पुण्यपाप [ पानि ] एवं नव । [ तदधः ] स्व-पर-नित्यानित्यानि स्वकाइया [ स्थाप्यानि । स्तभाव नियति काल ईश्वर आत्मकृति जीव अजीव आस्त्रव संवर निर्जरा बन्ध मोक्ष पुण्य पाप स्व पर नित्य अनित्य ___ एवं ठविदे तदुच्चारणा वक्ष्यति-अस्ति स्वतः जीवो नियतितः १। एवमेव उच्चारणाअस्ति परतः जीवो नियतितः २। अस्ति नित्यः जीवो नियतितः ३। अस्ति अनित्यः जीवो नियतितः । अस्ति स्वतोऽजीवो नियतितः ५। अस्ति परतोऽजीवो नियतितः ६। अस्ति नित्योऽजीवो नियतितः ७। अस्ति अनित्योऽजीवो नियतितः । एवमास्रवादिः स्वभाव-कालेश्वरात्मकृतिश्च यावच्छतमशीतिमुच्चारणा वक्तव्या । इति तासां प्रमाणम् १८०। १. गो. क. ८७६ । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो नास्तिक मतेन स्व-पराभ्यां सह सप्त जीवादिकाः नियति-स्वभाव - कालेश्वरात्मकृतिः एवं चतुरशीतिः । नास्तिकाः पुण्य-पापं नित्यानित्यं च नेच्छन्ति । काल नियति अजीव भास्रव ५४६ स्वभाव जीव नियति संवर निर्जरा स्वतः परतः एषो नास्तिकप्रस्तारः । अस्योच्चारणा-नास्ति स्वतः जीवो नियतितः १ । नास्ति परतः जीवो नियतितः २ | नास्ति स्वतोऽजीवो नियतितः ३ । नास्ति परतोऽजीवो नियतितः ४ । एवं सर्वोचारणा सप्ततिः ७० । पुनः स्वपराभ्यां विना कालनियतिताभ्यां सह जीवादयः सप्त नेतव्याः । तेषां प्रस्तारोऽयम् — जीव अजीव भास्तव् बन्ध संवर ईश्वर बंध मोक्ष काल [ अस्योच्चारणा-] नास्ति जीवो नियतितः १ । नास्ति अजीवो नियतितः २ | नास्ति आस्रवो नियतितः ३ | नास्ति संवरो नियतितः ४ । एवं उच्चारणा चतुर्दश । तासां प्रमाणम् १४ । पुनः सर्वपिण्डप्रमाणम् ८४ । संवर निर्जरा आत्मकृति पुण्य पाप निर्जरा अज्ञानवादिमतेन जीवादिपदार्थाः सदादि [भिः ] सप्तविधाः – सत् । असत् । सदसत् । अवाच्यम् । सदवाच्यम् । असदवाच्यम् । सदसदवाच्यम् । जीवादीनां पदार्थाश्च [ नाश्च ] । अस्योदाहरणम् मोक्ष सत् सदवाच्य असवाच्य जीव अजीव भास्रव बन्ध असत् सदसत् अवाच्य यथा-सत्-जीवभावं को वेत्ति १ । असत्-जीवभाव को वेत्ति २ । सदसत्-जीवभावं को वेत्ति ३ । अवाच्यं जीवभावं को वेत्ति ४ । सदवाच्यं जीवभावं को वेत्ति ५ । असदवाच्यं जीवभावं को वेत्ति ६ । उभयवाच्यं जीवभावं को वेत्ति ७ । एवमजीवादिषु ६३ । पुनर्जीवादिनवपदार्थान् परिमितवाच्यं च नेच्छन्ति । एवं ठविदे तस्योच्चारणा पुनर्भावोत्पत्तिः सत् असत् सदसत् अवाच्यं च इच्छंति । तस्योच्चारणा-सद्भावोत्पत्ति को वेत्ति १ । असद्भावोत्पत्ति को वेत्ति २ । सदसद्भावोत्पत्ति को वेत्ति ३ । अवाच्यभावोत्पत्तिं को वेत्ति ४ । एवं सर्वेषामुच्चारणा । प्रमाणम् ६३ । [ उभौ मिलितौ ६३ + ४ = ६७ सप्तषष्टि ] वैनयिकमते विनयश्चेतोवाक्कायदा नेष्विह कार्या । सुर-नृपति-यति- ज्ञानि -[ ज्ञाति ] वृद्धेषु तथैव बाले च मातृ-पितृभ्योऽपि च । सुर-नृपति-यति-ज्ञानि - [ ज्ञाति ] वृद्ध - बाल-मातृ-पितृ [ पितरः ।] एवमेतेषु विनयो मनो वाक्काय दान ] योगतः । उपरिमसुराद्यष्टपदानि मनोवाक्कायदानानि । एवं वैनयिक L प्रस्तारम् बाल सुर नृपति यति ज्ञाति वृद्ध माता पिता मन वचन काय दान ठविय तदुच्चारणा वुच्चदि । तं जहा -- विनयः कार्यः मनसा सुरेषु १ | विनयः कार्यः वाचा सुरेषु २ | विनयः कार्यः कायेन सुरेषु ३ । विनयः कार्यः दानतः सुरेषु ४ । एवं नृपत्यादिषु द्वात्रिंशदुच्चारणाः भवन्ति । तासां प्रमाणम् ३२ । पुनः सर्वसमासः ३६३ । उक्तश्च स्वच्छन्द दृष्टिप्रविकल्पितानि त्रीणि त्रिषष्टीनि शतानि लोके । पाषण्डिभिर्व्याकुलिताः कृतानि यैरत्र शिष्या हृदयो हृदन्ते ||२३|| सोक्ष पुण्य पाप सदसदवाच्य Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति-सहिओ ५४७ यद्भवति तद्भवति, यथा भवति तथा भवति, येन भवति तेन भवति, यदा भवति तदा भवति यस्य भवति तस्य भवति, इति नियतिवादः । कः कण्टकानां प्रकरोति तीक्ष्णं विचित्रभावान्मृगपक्षिणां च । म्वभावतः सर्वमिदं प्रसिद्धं तत्कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥२४॥ इति स्वभाववादः। कालः सृजति भृतानि कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ।।२।। इति कालवादः। अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेच्छ्वभ्रं वा स्वर्गमेव वा ॥२६॥ इति ईश्वरवादः। ब्रह्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद्यस्मानियोज्यो न परोऽस्ति कश्चित् । वृक्षे च तथो (१) दिवि तिष्ठते कस्तेनेदपूर्व (१) पुरुषेण सर्वम् ॥२७॥ इति ब्रह्मवादः। एको देवः सर्वभूतेषु गृढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । लोकव्यापी सर्वभूताधिदेवः साक्षी वेत्ता केवलो निर्गुणश्च ॥२८॥ इति आत्मवादः। आलस्योद्योतिरात्मा भोः न किञ्चित्फलमश्नुते । स्तनक्षीरादिपानं च पौरुषान्न विना भवेत् ॥२६॥ इति पुरुषकारवादः। दैवमेव परं मन्ये धिक पौरुषमनर्थकम् । एष शालोऽप्रतीकाशः कर्णो बध्नाति संयुगे ॥३०॥ इति दैववादः। सत्यं पिशाचात्र वने वसामो भेरी करात्रैरपि न स्पृशामः। विवादमेव प्रथितः पृथिव्यां मेरी पिशाचा परितं निहन्ति ॥३१।। इति यदृच्छावादः । संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञाः नोकचक्रण स्थः प्रयाति । अन्धश्च पङ्गुश्च वने प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥३२॥ इति संयोगवादः। एदाओ दिट्ठीओ वदंति त्ति तेण दिद्विवादित्ति वुच्चदि । एत्थ किं आयारादो, किं सुदयडादो, एवं पुच्छा सव्वेसिं । णो आयारादो, [णो] सुदयडादो, एवं धा-[ वा-] रणा सव्वेसिं । दिहिवादादो । णाम--दिह्रि वदति त्ति दिढिवादमिति गुणणामं । पमाणेण अक्खर-पद-संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारेहिं संखेजं, अत्थदो पुण अणंतं । वत्त Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ पंचसंगहो व्वदा तदुभयवत्तव्वदा। एवं अत्याधियारो पंचविधो। तं जहा-परियम्म सुत्त पढमाणिओय पुवगद चूलिया चेव । जं तं परियम्मं तं पंचविहं । तं जहा-चंदपण्णुत्ती सूरपण्णत्ती जंबूदीवपण्णत्ती दीवसायरपण्णत्ती वियाहपण्णत्ती चेदि । [ तत्थ चंदपण्णत्ती] छत्तीसलक्ख-पंचपदसहस्से हि ३६०५००० चंदस्स [ आउ-परिवारिद्धि-गइ-बिंबुस्सेह-] वण्णणं कुणदि। [ सूरपण्णत्ती] सूरस्स पंचलक्ख-तिण्णिपदसहस्से हि ५०३००० आउभोगोवभोगपरिवारइद्रिं वण्णेदि । जंबूदीवपण्णत्ती तिणि लक्खपंचवीसपदसहस्से हिं ३२५००० जंबूदीवे णाणाविधमणुसाणं भोगभूमियाणं कम्मभूमियाणं अण्णेसि पि णदी-पव्वद-दह-खेत्त-दरिसरीणं च वण्णणं कुणदि । दीवसायरपण्णत्ती वावण्णलक्ख-छत्तीस-पदसहस्से हि ५२३६००० उद्धारपल्लपमाणेण दीव-सायरपमाणं अण्णं पि अण्णभूदत्थं बहुभेयं वण्णेदि । वियाहपण्णत्ती णाम चदुरसीदिलक्ख-छत्तीसपदसहस्सेहि ८४३६००० रूविजीवदव्वं अरूविजीवदव्वं भवसिद्धिय-अभवसिद्धियरासिं च वण्णेदि । एवं परियम्म। सुत्तं अडसीदिलक्खपदेहि ८८००००० पढमो अबंधगाणं विदिओ तेरासियाण बोधव्यो । तदियं च णियदिपक्खो हवदि चउत्थं च समयम्हि ॥३३॥ तेरासियं णाम श्रुति-स्मृति-पुराणवादिनः । [आदा] अघस्सगो [अबंधगो] अलेवगो पण्णत्ती [अणुमेत्तो] अकत्ता णिग्गुणो सव्वगदो अत्थियवादि[दी] समुदयवादि[दो] च वण्णेदि । पढमाणिओगो पंचसहस्सपदेहिं ५००० पुराणं वण्णेदि । वारसविहं पुराणं जह दिटुंजिणवरेहिं [ सव्वेहिं] । तं सव्वं वण्णेदि [ हु] जं पढमाणिओगो हु॥३४॥ पढमो अरहंताणं बंसो विदियो पुण चक्कट्टिवंसो दु। विज्जाहराण तदिओ चउत्थयो वासुदेवाणं ॥३॥ चारणवंसो तह पंचमो दु छट्ठो य पण्णसमणाणं । सत्तमओ कुरुवंसो अट्ठमओ चावि हरिवंसो ॥३६।। णवमो इक्खाउगाणं दसमो वि य कासियाण [ बोद्धव्यो] । वाईणेगारसमो वारसमो भूदवंसो [दु] ॥३७॥ । एवं पढमाणिओगो। एव्वगदो पंचाणउदिकोडि-पण्णासलक्ख-पंचपदेहि ६५५०००००५ उपाय-वय-धुवत्तादीणं वण्णेदि। चूलिया पंचविधा-जलगदा थलगदा मायागदा रूंवगदा भव-[ नभ-] गदा [चेदि ]। [ तत्थ जलगदा ] दो कोडि-णवलक्ख-एऊणणवदिसहस्स-वे सदपदेहिं जलथंभादि वण्णेदि । पदपमाणं २०६८६२०० । थलगदादिणाम तात्तएहि [तत्तिएहि पदहि ] भूमिगम वण्णेदि । पदपमाणं २०६८६२००। सव्वपदसमासो दसकोडि-उणवण्ण-लक्ख-छदालसहस्साणि १०४६४६०००। एत्थ किं परियम्मादो, [किं] सुत्तादो ? एवं पुच्छा सव्वेसिं। णो परियम्मादो, णो सुत्तादो; एवं वारणा सव्वेसिं। पुव्वगदादो। तस्स उवकमो पंचविधो-आणुपुत्वी णामं पमाणं १.ज प्रतौ 'तदिओ वासुदेवाणं चउत्थो विज्जाहराणं' इति पाठः। २. धवलायां 'वारसमो णाहवंसो दु' इति पाठः (भा० १ पृ० ११२)। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति-सहिओ ५४९ वत्तव्वदा अत्याधियारो चेदि । तत्थ आणुपुठ्वी तिविधा-पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी जत्थतत्थाणुपुवी चेदि । एत्थ पुरुवाणुपुवीए गणिज्जमाणे चउत्थादो, पच्छाणुपु०वीए गणिज्जमाणे विदियादो, जत्थतत्थाणुपुत्वीए गणिज्जमाणे पुव्वगदादो। पुव्वाणं वण्णणादो का ( वा) तेसिं आधारभूदलक्खणेण पुव्वगदो त्ति गुणणाम । पमाणं अक्खर-पद-संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारेहि संखेज्जं, अत्थदो पुण अणंतं । वत्तव्वदा ससमयवत्तव्वदा । अत्याधियारेण जं तं पुव्वगदं तं चउदसविधं । तं जहा-उपायपुठ्वं अग्गायणीयं वीरियाणवादो अत्थिणत्थिपवादं णाणपवादं सच्चपवादं आदपवादं कम्मपवादं पञ्चक्खाणणामधेयं विज्जाणुवादं कल्लाणणामधेयं पाणावायं किरियाविसालं लोगबिंदुसुदं चेदि । तत्थ उप्पादपुव्वं दस वत्थू[ हिं ] वेसदपाहुडं [ डेहि ] १०१२०० कोडिपदेहि १००००००० उप्पाद-वय-धुवत्तं वण्णेदि ।. अग्गायणीयं णाम पुत्वं चोद्दस वत्थू । हि] १४ वेसदासीदिपाहुडा [ डेहि ] २८० छण्णउदिलक्खपदेहि ६६००००० अम्गपदोहे [ पदाणि] वण्णेदि विरियाणुवादणामपुवं अट्ठवत्थूहिं ८ एगसदसट्टि पाहुडेहि १६० सत्तरिलक्खपदेहिं ७०००००० अप्पविरियं परविरियं उभयविरियं खेत्तविरियं भवविरियं तवविरियं वण्णेदि । अत्थिणत्थियवादं णाम पुवं अट्ठारसवत्थूहि १८ तिण्णिसदसद्विपाहुडेहिं ३६० सट्ठिलक्खपदेहिं ६०००००० जीवाजीवाणं अस्थिणत्थित्तं वण्णेदि । [तं जहा-] जीवो जीवभावेण अस्थि, अजीवभावेण णत्थि । अजीवो अजीवभावेण अस्थि, जीवभावेण णत्थि । णागपवादं णाम पुत्वं वारस-वत्थूहि १२ वेसदचत्तालीसपाहडेहिं २४० एऊणकोडिपदेहि EEEEEEE पंच णाणं तिणि अण्णाणं च वण्णेदि । दव्व-गुणपज्जयविसेसेहिं अणादिमणिधणं अणादिसणिधणं सादि-अणिधणं सादि-सणिधणं च वण्णेदि । सञ्चपवादं तत्तियवत्थु-पाहुडेहिं १२। २४० एगकोडि-छप्पदेहिं १०००८००६ दसविधसञ्चाणि वण्णेदि । जणवय संमद ढवणा णामे रूवे पडुच्च सच्चेय । संभावण ववहारे भावे णो[ ओ पम्मसच्चेय ॥३८॥ आदपवादं सोलसवत्थूहि १६ वीसुत्तरतिण्णिसदपाहुडेहिं ३२० लब्बीसकोडिपदेहि २६००००००० आदं वण्णेदि आदि त्ति [ वा ] विण्हु त्ति वा भुत्तेत्ति वा बुद्धेत्ति वा [ इच्चादिसरूवेण । उत्तं च-7 जीवो कत्ता य वत्ता य [ पाणी ] अप्पा [ भोत्ता ] य पोग्गलो । वेदो [ विण्हू ] सयंभू य सरीरी तह माणवो ॥३६॥ सत्ता जंतू य माणी य [ माई ] जोगी य संकरो [ संकडो] । सयलो [असंकडो] य खेत्तण्हू अंतरप्पा तहेव य॥४०॥ जीवदि जीविस्सदि संजीविदपुत्वो वा जीवो। सुहासुहं करेदि त्ति कत्ता । सञ्चमसच्चं संतमसंतं वददि त्ति वत्ता । [ पाणा एयरस संति त्ति पाणी ! ] अमर-नर-तिरिक्ख-णारगभावे चदुरप्पा संसारे कुसलमकुसलं भुजदि त्ति भोत्ता । पूरदि गलदि त्ति वा पुग्गलो। सुहमसुहं वेददि त्ति वेदो। अदीदाणागदपच्चुप्पण्णं जाणदि ति विण्हू । सयमेव भूदं च सयंभ। सरीरमत्थि त्ति सरीरी । शरीरं धारयतीति वा शरीरी। सरीरसगिदो त्ति वा सरीरी। [मणू णाणं तत्थ भवो माणवो। सजणसंबंध-मित्तवग्गा[ दिसु] सजदि त्ति वा सत्ता । चदुगदिसंसारे जायदि जण. यदि त्ति वा जंतू ।। माणो अस्थि त्ति माणी। माया अस्थि त्ति मायी। जोगो अस्थि त्ति जोगी । १. गो. जी. २२१ । २. इमे गाथे धव० पु. , पृ० १११ तथा गो० जी० जी० प्र० ३३६ तमगाथाटीकायामुद्धते स्तः । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० पंचसंगहो अइसण्हदेहपमाणेण संकुडदि त्ति संकुडो। सव्वं लोगागासं वियापदि त्ति असंकुडो । खेत्तं ससरूवं जाणादि त्ति खेत्तण्हू । अट्ठकम्मभंतगे त्ति अंतरप्पा । कम्मपवादं वीस-वत्थूहि २० चत्तारि-सदपाहुडेहिं ४०० इक्क-कोडि-असीदिलक्खपदे हिं १८०००००० अट्ठविधं कम्मं वण्णेदि । पञ्चक्खाणणामधेयं तीसवत्थूहि ३० छसदपाहुडेहिं ६०० चउरसी दिलक्खपदेहिं ८४००००० दव-भावपरिमिदापरिमिदपच्चक्खाणं उववासविधिं च वण्णेदि । विज्जाणुवादं पण्णारसवत्थूहि १५ तिण्णिसदपाहुडेहि ३०० एककोडिदसलक्खपदेहिं ११०००००० अंगुट्ठपसेणादि सत्तसदा खुल्लयमंता रोहिणी आदि पंचसदा महाविज्जा-उप्पत्ति वण्णेदि । कल्लाणणामधेयं दसवत्थूहि १० वेसदपाहुडेहि २०० छठवीसकोडिपदेहिं २६००००००० बलदेव-वासुदेव चक्कवट्टि-तित्थयराणं णक्खत्त-गह-तारया-चंद-सूराणं चारं अटुंगमहाणिमित्तफलं च वण्णेदि, चारित्तविधि [च]। पाणावायं तत्तियवत्थूहि १०० पाहुडेहि २०० तेरसकोडिपदेहिं १३००००००० विज्जासत्थं वण्णेदि । पाणाणं वडि-हाणी कुमार-तिगिंछा भूद-तंतादि-ऊसासाउगपाणादिपमाणं एदेहि वण्णेदि । किरियाविसालं तत्तिएहिं वत्थूहिं १० पाहुडेहिं २०० णवकोडिपदेहिं ६००००००० छंदोवचितिअक्खरकिरिया-कव्वादि वग्णेदि । लोगबिंदुसुदं तत्तिएहिं वत्थूहिं १० पाहुडेहि २०० बारसकोडिपण्णासलक्खपदेहि १२५०००००० मोक्खपरियम्म मोक्खसुखं च वण्णेदि । दस चउदस अट्ठारस बारस तह य दोसु पुव्वेसु । सोलस वीसं तीसं दसमम्मि य पण्णरस वत्थू ॥४१॥ एदेसिं पुव्वाणं एवदिओ वत्थुसंगहो भणिदो । सेसाणं पुव्वाणं दस दस वत्थू य णिवदामि ॥४२॥ एदेसिं सव्वसमासो पंचाणउदिसदं १६५ । एक्ककम्हि य वत्थू वीसं वीसं च पाहुडा भणिया । विसम-समा वि य वत्थू सव्वे पुण पाहुडे हिं समा ॥४३॥ पाहुडसव्वसमासं तिणि सहस्सा णवसदा ३६००। अंगबाहिरं चउदसभेदं तमेयं णामं थवो भगियं । सामाइयं णामादि छसम्मत्तं वण्णेदि । थवं चउवीसण्हं तित्थयराणं वंदणामु छेहकल्लाणादि वण्णेदि । वंदणा एगजिण-जिणालयवंदणाणिर वज्जभावं वण्णेदि । पडिक्कमणं सत्तविहं पडिक्कमणं वण्णेइ । वेणइयं णाणादिविणयं वण्णेइ । किरियम्मं अरहंतादीणं पूआ वण्णेइ । दसवेआलियं आयार-गोयारविहिं वण्णेइ। उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ । कप्पववहारो साहूणं जोग्गआचारमजगासेवणपाअच्छित्तं वण्णेइ । कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि, जंण कप्पइ तं वण्णेइ। महाकप्पियं कालसंघणणे आसिदूण साहुपाओग्गदव-खेत्तादीणं वण्णेइ । पुंडरीयं चउविहदेवेसुववादकारण-अणुट्ठाणाणि वण्णेइ । महापुंडरीयं इंद-पडिंद-उप्पत्तिं वण्णइ । णिसीहियं बहु पायच्छित्तं वण्णेइ। एवं सुदरुक्खो समत्तो। १. गो० जी० जी० प्र० टीका ३३६ ( उद्धृत्ते )। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो पयाडिसमुक्कित्तणा-संगहो पयडीबंधणमुक्कं पयडिसरूवं विजाणदे सयरं । वंदित्ता वीरजिणं पयडिसमुक्त्तिणा वुच्छं ॥१॥ मंगलणिमित्तहेदं परिमाणं णाममेव जाणाहि । छ8 तह कत्तारं आइम्मि य सध्वसत्थाणं ॥१॥ आई मंगलकरणं सिस्सा लहुपारगा हवंति त्ति । मझे अव्वोच्छित्ती विजा विज्झाफलं चरमे ॥२॥ एत्तो पयडिसमुक्त्तिणा कस्सामो। तं जहा णाणस्स दसणस्स य आवरणं वेदणीय मोहणीयं । आउग णामं गोदं तहंतरायं च मूलपयडीओ ॥२॥ पडपडिहारसिमज्जा हडिचित्तकुलालभंडयारीणं । जह एदेसिं भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा ॥३॥ पंच णव दुणि अट्ठावीसं चदुरो तधेव वादालं । दोण्णि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा हुंति ॥४॥ जं तं णाणावरणीयं कम्मं तं पंचविहं-आभिणिबोधियणाणावरणीयं सुअणाणावरणीयं ओहिणाणावरणीयं मणपज्जयणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि । जं तं दसणावरणीयं कम्मं तं णवविधं-णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदसणावरणीयं ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीचं चेदि । जं तं वेदणीयं कम्मं तं दुविहं-सादावेदणीयं असादावेदणीयं चेदि । जंतं मोहणीयं कम्मं तं दुविधं-दसणमोहणीयं चरित्तमोहणीयं चेदि । जं तं दसणमोहणीय कम्मं तं बंधादो एयविधं,संतकम्मं पुण तिविधंमिच्छत्तं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तमिदि तिण्णि । जंतं चरित्तगोहणीयं कम्मं तं दुविधं-कसायचरित्तमोहणीयं अकसायचरित्तमोहणीयं चेदि । जं तं कसायचरित्तमोहणीयं[तं] सोलसविधं-अणंताणुबंधि-कोध-माण-माया-लोभा अपञ्चक्खाणावरण-कोध-माण-माया-लोभा पञ्चक्खाणावरणकोध-माण-माया-लोभा संजलणकोध-माण-माया-लोहा चेदि । जं तं णोकसायचरित्तमोहणीयं कम्मं तं णवविहं-इत्थिवेदं पुरिसवेदं णपुंसकवेदं हस्स रदि अरदि सोग भय दुगुंछा चेदि । जं तं आउगणामकम्मं तं चदुविधं-णिरयाउगं तिरियाउगं मणुआउगं देवाउगं चेदि। जंतं णामकस्मं तं वादालीसपिंडापिंडपयडीओ-गइणामं जाइणाम सरीरणामं सरीरबंधणणाम सरीरसंघादणामं सरीरसंठाणणामं सरीरअंगोवंगणामं सरीरसंघडणणामं वण्णणामं गंधणामं रसणामं फासणामं आणुपुत्वीणामं अगुरुलहुणामं उवधादणामं परघादणाम उस्सासणामं आदवणामं Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ पंचसंगहो उज्जोवणामं विहायगदिणामं तसणामं थावरणामं बादरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणामं अपज्जत्तणामं पत्तेगसरीरणामं साधारणसरीरणाभं थिरणामं अथिरणामं सुभणामं असुभणामं सुभगणामं दुभगणामं सुस्सरणामं दुस्सरणामं आदिजगामं अणादिजणामं जसकित्तिणामं अजसकित्तिणामं तित्थयरणामं चेदि । जं तं गहणामकम्सं तं चउव्विह-णिरयगइणामं तिरिक्खगइणामं मणुयगइणामं देवगइणामं चेदि । जंतजादिणामकम्मं तं पंचविधं-एइंदियजादिणामं वेइंदियजादिणामं तेइंदियजादिणामं चउरिदियजादिणामं पंचिंदियजादिणामं चेदि। जं तं सरीरणामकम्मं तं पंचविहं-ओरालियसरीरणामं वेउव्वियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेजससरीरणामं कम्मइगसरीरणामं चेदि । जं तं सरीरबंधणणामकम्मं तं पंचविह-ओरालियसरीरबंधणणाम वेउब्वियसरीरबंधणणामं आहारसरीरबंधणणामं तेजइगसरीरबंधणणामं कम्मइगसरीरबंधणणामं चेदि । जं तं सरीरसंघादणामं कम्मं तं पंचविधं--ओरालियसरीरसंघादणामं वेउब्वियसरीरसंघादणाम आहारसरीरसंघादणाम तेजइगसरीरसंघादणाम कम्मइगसरीरसंघादणामं इदि । ज त सरीरसंठाणणामकम्मं तं छविह-समचदुरससरीरसंठाणणामं णग्गोहपरिमंडलसरीरसंठाणणामं सादिसरीरसंठाणणामं खुज्जसरीरसंठाणणामं वामणसरीरसंठाणणामं हुंडसरीरसंठाणणामं चेदि । जंत अंगोवंगणामकम्मं तं तिविह-ओरालियसरीरअंगोवंगणामं वेउव्वियसरीरअंगोवंगणामं आहारसरीअंगोवंगणाम इदि । जं तं सरीरसंघडणणामकम्मं तं छविह-वज्जरिसभवइरणारायसरीरसंवडणणाम वज्जणारायसरीरसंघडणणाम अद्धणारायसरीरसंघडणणाम कीलियसरीरसंघडणणामं असंपत्तसेवदसरीरणामं चेदि । जं तं वण्णणामकम्मं तं पंचविधं-किण्हवण्णा णामं नीलवण्णणामं रुहिरवण्णणामं हलिद्दवण्णणामं सुक्किलवण्णनामं चेदि । जं तं गंधणामकम्म तं दुविह-सुरभिगंधणामं दुरभिगंधणामं चेदि । जं तं रसणामकम्मं तं पंचविह-तित्तणामं कडुयणामं कसाइलणामं अंबिलणाम महुरणामं चेदि । जं तं फासणामकम्मं तं अट्ठविहं-कक्खडणामं मउवणामं गुरुगणाम लहुगणाम णिद्धणाम लुक्खणाम सीदणाम उण्हणाम चेदि । जं तं आणुपुत्वीणामकम्म तं चउठिरह-णिरयगदिपाओग्गाणुपुत्वी तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वी मणुसगदिपाओग्गाणुपुत्वी देवगदिपाओग्गाणुपुत्वी णाम चेदि । अगुरुगलहुगणाम उवघादणाम परघादणाम उस्सासणाम आदवणाम उज्जोयणाम चेदि । जंत विहायगदिणामकम्मत दुविध-पसत्थविहायगदिणाम अपसत्थविहायगदिणाम चेदि । तसणाम थावरणाम बादरणाम सुहुमणाम पज्जत्तणाम अपज्जत्तणाम पत्तेगसरीरणाम साधारणसरीरणाम चेदि । थिरणाम अथिरणाम सुभणाम असुभणाम सुभगणाम दुभगणाम सुस्सरणाम दुस्सरणाम जसकित्तिणाम अजसकित्तिणाम आदेज्जणाम अणादिज्जणाम जसकित्तिणाम [ अजसकित्तिणाम ] तित्थयरणाम चेदि । जंत गोदणामकम्म त दुविह-उच्चागोद णिच्चागोदं चेदि । जंत अंतराइयं कम्मत पंचविह-दाण अंतगइयं लाभअंतराइयं भोग-अंतराइयं उवभोग-अंतराइयं वीरियंतराइयं चेदि । __एवं गयडिसमुकित्सणं समतं । पयडि त्ति किं भणिदं होदि ? प्रकृतिः स्वभावःशीलमित्यर्थः। दृष्टान्तश्च इक्षोः का प्रकृतिः ? मधुरता। निम्बे का प्रकृतिः ? तिक्तता । एवं ज्ञानावरणीयस्य कमणः का प्रकृतिः ? अज्ञानता। ज्ञानमावृणोति प्रच्छादयतीति वा ज्ञानावरणीयम् । किगिव ? देवतामुखपटवस्त्रवत् । अथवा घटाभ्यन्तरदीपवत् । दर्शनावरणस्य कर्मणः का प्रकृतिः ? दर्शनप्रच्छादनता । अथवा अदर्शनता । किमिव ? राजद्वारे निरोधितप्रतिहारवत् । प्रेक्षणोन्मुखस्य मेघप्रच्छादितादित्यवत् । वेदनीयस्य कर्मणः का प्रकृतिः ? वेदनता । वेद्यत इति वेदनीयं सुखदुःखानुभवनता । किमिव मधुलिप्तखङ्गधारवत् । मोहनीयस्य कर्मणः का प्रकृतिः ? मोहनता। मद्यत इति मोहनीयम् । किमिव ? धत्तर-मद्य-मदनकोद्रववदिति । आयुष्कस्य कर्मणः का प्रकृतिः ? चतुर्गतिविवछितानां (व्यवस्थितानां) जीवानां भव Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति-सहिओ धारणता । किमिव ? स्तम्भे बद्धपुरुषवत् । नामकर्मणः का प्रकृतिः ? नानाविधशरीराणि निर्वतयतीति नाम । अथवा शुभाशुभनामनिर्माणता । किमिव ? चित्रकारवत्, सुवलु ? काष्ठशिलाकर्मकारवदिति । गोत्रकर्मणः का प्रकृतिः ? उच्च-नीचगोत्रे निवर्तयतीति गोत्रम् । अथवा उच्चनीचद्वयगोत्रनिर्माणता । किमिव ? कुम्भकारवत् । अन्तरायस्य कर्मणः का प्रकृतिः ? विघ्नकरणता । किमिव ? भाण्डागारिकवत् । अथवा गिरिदुर्गनद्यटवीवदिति । जं तं आभिणिबोधियणाणावरणीयं णामं तं पश्चभिरिन्द्रियर्मनसा च दृष्ट श्रुतानुभूतानामर्थानां अवग्रहहावायधारणास्वरूपेण जानातीत्याभिनिबोधिकज्ञानम्। तस्य आवरणं आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयम् । तत्रावग्रहो 'ग्रह उपादाने धातुः', अवग्रहणमवग्रहः । अथवा विषयविषयिसन्निपातसमनन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः । विषया येषां विद्यन्त इति विषयिणः । तत्र ईहा नाम 'ईहा चेष्टायां धातुः', ईहनं मनसा विचारणं वा ईहा । अथवा अवगृहीतार्थस्य विशेषेणार्थकाङ्क्षणमोहा। जहा पुव्वं सामण्णेण सव्वण्हु-सदं घेत्तूण पुणो तस्स विसेसमिच्छमाणो जिणिंद-बुद्धहरि-हर-हिरण्णगब्भादीणं अत्तागम-पदत्थ-पमाण-हेदू-णय-दिटुंतेहिं जा मग्गणा सा ईहा णाम । तत्रावायो नाम 'इण गतौ धातुः, अवायनं तत्त्वार्थपरिच्छेदकरणं वा अवायः। अथवा ईहितार्थस्य निश्चय-व्यवसायोऽवायः । जहा पुव्वं हरि-हर-हिरण्णगब्भ-बुद्ध-जिणिंदाणं परिक्खा काऊण पुणो एदेसिं हरि-हर-हिरण्णगभ-बुद्धादयो सव्वण्हू अत्ता ण होदि त्ति एदेसिं अवणयण काऊग पुणो सव्वण्हू अत्ता जिणिंदो चेव होदि त्ति णिच्छयं काऊण जो अत्तपरिग्गहो सो अवायो । तत्र धारणा णाम 'धृसु धारणे' धातुः, धरणं धारणा । अथवा पूर्वगृहीतस्यार्थस्य कालान्तरादपि स्मृतिर्धारणा । जहा पुव्वं णिच्छयं कादूण जो सव्वण्हू सदु (सइ) परिग्गहो कओ दीहेणं कालेणं अविस्सरणं सा धारणा नाम । बहु-बहुविध-क्षिप्र-अनिःसृत-अनुक्त-ध्रुव[सेतराणामिति । यथा बहु इति बहूनां तज्जातीनां ग्रहणम् । यथा चक्षुषा बहूनां हंसानां ग्रहणम् , श्रोत्रस्य बहूनां शब्दानां ग्रहणम् , घ्राणस्य बहूनां चम्पक-कुसुमानां ग्रहणम् , रसनस्य बहूनां निम्बपत्राणां ग्रहणम् , स्पर्शनस्य बहूनामुदकबिन्दूनां ग्रहणम् , नोइन्द्रियस्य बहूनां संज्ञानां ग्रहणम् । चक्षुरादीनां यथासंख्यं बहुविधानां हंस-वलाकादीनां ग्रहणम् , बहुविधानां शब्दभेदमृगादीनां ग्रहणम् , बहुविधानां चम्पकोत्पलादीनां ग्रहणम् , बहुविधानां निम्बपत्र-कटुकरोहिण्यादीनां ग्रहणम् , बहुबिधानां उदकबिन्दु-सर्पोत्प [ झाब्जोत्पलादीनां ग्रहणम् , बहुविधानां जीवसंज्ञानां ग्रहणम् । चक्षुरादीनां यथासंख्य तेषामेवाशु ग्रहणं क्षिप्रम्, तत्सदृशदृश्यमानकेनार्थेन निःसृत-अनिःसृतानामर्थानां ग्रहणम् । यथाभ्रगर्जनं श्रुत्वा अभ्रगर्जनमेवेत्यवधारयति । एवं सर्वत्र । अनुक्तानां अकथितानां ग्रहणम् , यथाऽग्निमानयेत्युक्ते खर्परग्रहण करोति । ध्रवाणां नित्यानां ग्रहणम् । यथाऽऽका श-धर्मास्तिकायादीनां ग्रहणम् । सेतराणां नाम बहुकस्य इतरं एकस्य ग्रहणम् । यथा बहूनां हंसानां मध्ये एकहंसस्य ग्रहणम् । | इतर एकविधम् । बहुषु विद्यमानेषु एकस्य प्रकारस्य ग्रहणम् यथा-वीणा-मृदङ्गादिषु वीणाशब्दस्य ग्रहणम् । एवं सर्वत्र । क्षिप्रस्य इतरं [ अक्षिप्रम् ] स यथा एतेषां चिराद् ग्रहणम् , वीणादीनां चिराद् ग्रहणम् । अनिःमृतस्य इतरं निःसृतम् , यथाऽभ्रगजनवत्कुञ्जरगर्जनम् , शङ्खवदधिकं [ शङ्खवच्छुक्लं दधिकम् ], उत्पलगन्धवत्कुष्टगन्धः, द्राक्षावद्गुडः, उत्पलनालवत्सर्पस्पर्श इति ग्रहणम् । अनुक्तस्य इतरं उक्तम् । यथा खपरं गृहीत्वा अग्निमानयतीति । ध्रुवस्य इतरं अध्वम् । यथा अधूवाणां घट-पटादीनां अनित्यादीनां ग्रहणम् । आभिनिबोधिकज्ञानमिति-अ इति द्रव्य-पयोयः,भि इति द्रव्याभिमुखः, निरिति निश्चयबोध इति । 'बुध अवगमने' धातुः। अभिनिवोधि[धक एव आभिनिबोधिकं वा प्रयोजनं अस्येति आभिनिबोधिकम् । आभिनिबोधिकमेव ज्ञानं आभिनिबोधिकज्ञानम् । आभिनिबोधिकज्ञानस्य आवरणं आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयं चेति । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ पंचसंगहो आभिनिबोधिकज्ञानेनावगृहीतार्थस्य उपदेशपूर्वकं वा अनुपदेशपूर्वकं वा तत्समय-परसमयगतानामर्थ पुनः जानातीति श्रतज्ञानम । श्रतज्ञानस्य आवरणं श्रतज्ञानावरणीयं चेति । अक्खरणंतिमभागो पज्जाओ णाम सो णाणो।। अक्खरमेएण पुणो णायव्यो अक्खरो णाणं ॥३॥ पदणामेण य भणिदो गझिमपदवण्णिदो पुव्वं । एओ य गदिमग्गणए संघादो होदि सो णाणो ॥४॥ चदुगदियमग्गणा विय बोधब्बो होदि पडिवत्ती। चउदहमग्गणणाणो अणिओगो णाम बोधव्वो ॥५॥ पाहुडपाहुडणाणो णादव्यो मग्गणा दु संखिज्जा । चउवीसदिअणिओगा पाहुडणाणो य णादव्यो ॥६॥ वीसदि पाहुडवत्थू संगवत्थु जुदो य पुव्वणाणो य । संखेवसहिद एदे बोधव्या वीस भेदा य ॥७॥ अधस्ताद्धीयतीति अवधिः । कथमधस्तात् हीयतीति ? अधोगौरवधर्माणः पुद्गगला इति [चो]दिताः । ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः॥८॥ कथिता [ इति वाक्यशेषः ] । पुद्गलेपु चिन्ता पुद्गलेषु धारणा पुद्गलेषु ज्ञानमित्यर्थः । अथवा अधो विस्तीर्ण द्रव्यं पश्यतीत्यवधिः। अवधिज्ञानस्य आवरणं अवधिज्ञानावरणीयं चेति । पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी। लोगपदरो य लोगो अट्ट दु माणा मुणेयव्वा ॥६॥ ओधिणाणी दव्वदो जहण्णेण जाणते एगजीवस्स ओरालियसरीरसंचयविस्ससोवचयसहिद घणलोगमेत्ते खंडे कदे तत्थेगखंडं जाणदि । समयं भूदं भविस्सं च जाणदि । उक्कस्सेण कम्मपरमाणू जाणदि । खेत्तदो जहण्णेण उस्सेधघणंगुलस्स असंखेजदिमभागं जाणदि । उक्करसेणासंखेयलोगं जाणदि । कालदो जपणेण आवलियाए असंखेजदिभागे भूदं भविस्सं च जाणदि । उकस्सेण असंखेज लोगमेत्तसगय [ समयं ] भूदं भविस्सं जाणदि । भावदो पुत्वभणिददव्वस्स सत्तियं आवलियाए असंखेजभागं असंखेज्जलोगमेत्तवट्टमाणस्स पज्जायं जहण्णुक्कस्सेण जाणदि त्ति । सामण्णेण ओधिणाणस्स उक्कस्स-दव्वादिचदुविधो विसओ भणिदो। तं चेव विसेसिदूण भणिस्सामो। तद्यथा-ओधिणाणं तिविधं-देसोधी परमोधी सम्वोधी चेदि। जो सो देसोधिउत्तस्स सामण्णभण्णिददव्वादि-जहण्णविसओ सो जहण्णेण होदि । वुत्तं च काले चदुण्ह वुड्डी कालो भजिदव्व खेत्तवुड्डी दु। बुड्डी दु दव्व-पज्जय भजिदव्वा खेत्त कालो ये ॥१०॥ पुणो इदो पभुदि जाव मणवग्गणेग सूचि अंगुल-असंखेजभागमेत दव्वं खंडिज्जइ । एवं खंडिदे खेत्तदो एग-एगपदेसं वज्जाविज्जइ जाव सूचिअंगुलवियप्पं खेत्तदो [कालदो] एगसमयादिकालं वड्डाविजइ, भावो वि तप्पाओग्गो होदूण वड्ढदि जाव उकोसेण खेत्त-कालदो किंचूणपल्लमेगं जाणदि । व्व-भावं तप्पाओग्गं । ----- १. मुलाचा०११२६ । तिलोयसा० १२ । २. पटखण्डा० पु०१३, पृ०३०६ । गो०जी० ४११। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५५ पाइय-वित्ति-सहिओ देसोधियस्स जो दव्वादि-उक्कस्सविसओ सो परमोधियस्स जहण्णविसओ। तदो पहुदिदव्वं एगवारं आवलिएण खंडिज्ज । खेत्त-काल-भावेण आवलिवियप्पं जाणदि । पुणो आवलिअण्णुण्णगुणकारं कादूण दव्वभागहारो व्वो खेत्तदो पडि आवलिमेत आगासपदेसं जाणदि, पडिआवलियमेत पजायं काल-भावेण जाणदि । एवं ताव खविं-[खंडि-जदि जाव पुव्वदव्वस्स आवलियसंखेजदिभागविअप्पं अस्थि । तदो तं अवणेदूण कम्मक्खंध ठवेदूण कमेण दव्वं खंडिनदि, खेत्त-काल-भावो वड्डाविजइ जाव उक्करसेण तप्पाओग्गं दव्व-खेत्त-काल-भावेण असंखेज लोगं जाणदि।। परमोधियस्स जो उक्कोसो विसओ सो सम्बोधियस्स जहण्यो। तदोप्पहुदि पुत्वविधाणेण दव्वं खंडिजदि जाव उक्कस्सेण एगपरमाणू , खेत्तेण असंखेन्जलोगं, कालेण असंखित्त लोगमेत्तपज्जायं भूदं भविस्सं, भावेण असंखेज्जलोगमेत्तवट्टमाणपजायं जाणदि । अण्णे पुण आयरिया भणंति ओहिणार्ण छक्कं । तं जहा-अणुगामी अगणुगामी हीयमाणं वड्डमाणं अवट्ठिदं अणवट्ठिदं चेदि । अणुगामि प्रज्वलितहस्तधृतनिर्वातप्रदीपवत् । तदुविधंखेत्ताणुगामी भवाणुगामी । अणणुगामी प्रज्वलितहस्तधृतानिर्वातप्रदीपवत् । एवं दुविह खेत्ताणणुगामी भवाणणुगामी चेदि । हीयमाण कृष्णपक्षे चन्द्रमण्डलवत् । वडमाणं शुक्लपक्षे चन्द्रमण्डलवत् । अवट्ठिदं आदित्यमण्डलवत् । अणवट्ठिदं लवणसमुद्रवत् । एवं ओधिणाणं छव्विह भणिद। __'मन ज्ञाने' धातुः । मणदि परिबुज्झदि जाणदि त्ति वा मणं । अधवा अप्पणो मणेण करणभूदेण इंदियाणिंदियसह्गदे अत्थे अवमण्णदि बुज्झदि त्ति मणो। मणस्स पज्जया मणपज्जया । अथवा अप्पच्चक्खेण परमणोगदाणि भवसंबंधाणि दख्व-खेत्त-काल-भाववियप्पियाणि जाणदि त्ति वा मणपज्जवणाण। मनःपर्ययज्ञानस्य आवरण मनःपर्ययज्ञानावरणीयं चेति । मणपज्जवणाणी दुविहो-उजुमदी विउलमदी चेदि । तत्थ उजुमदी दव्वादि-चउव्विधो विसओ । दुव्वादो जहण्णेण जाणंतो एगसमइय-ओरालियं णिज्जरं जाणदि। उक्कस्सेण चक्खिंदिय-ओरालियणिज्जरं जाणदि । खेत्तदो जहण्णण गाउपुधत्तं जाणदि, उकस्सेण जोयणपुधत्तं जाणदि । कालदो जहण्णेण दो-तिणि भवग्गहणाणि जाणदि । उक्कस्सेण सत्तट्टभवगहणाणि जाणदि । भावदो जहण्ण-उक्कस्सेण दव्वस्स असंखेज्जपज्जायं जाणदि । विउलमदी दव्वदो जहण्णेण चक्खुइंदिय अउरालियणिज्जरं जाणदि । उक्कस्सेण एगकम्मइयसमयपबद्धस्स विस्ससोवचय-अविरहियस्स अणंतिमभागं जाणदि । खेत्तदो जहण्णेण जोयणपुधत्तं जाणदि । उक्कस्सेण माणुसखेत्तं जाणदि । कालदो जहण्णेण सत्तट्ठभवगणाणि पाणदि । उक्कस्सेण असंखिज्जं जाणदि भवगहणाणि । भावे जं जं दिढ दव्वं तस्स तस्स असंखेज्जं पज्जयं जाणदि । सकलमसहायमेकं सर्वद्रव्यावभासकमनन्तम् । निरतिशयमनावरणं एतद्वरकेवलज्ञानम् ॥११॥ सर्वद्रव्यगुणपर्यायद्रव्यक्षेत्रकालभावतः करणक्रमव्यवधानेन विना युगपदेव एक्कम्हि समए - सव्वाओ जाणदि बुज्झदि पस्सदि त्ति वा [ केवलज्ञानम् ]। केवलज्ञानस्य आवरणं केवलज्ञानावरणीयं चेति । तत्थ णिहाणिदाए तिव्वोदएण रुक्खग्गे विसमभूमीए जत्थ तत्थ वा देसे घोरतो घोरतो सुवदि णिब्भरं । पचला-पचलातिव्वोदएण बइठ्ठओ उभओ वा मुहेण गलमाणलालो पुणो कंपमाणसिरो णिन्भरं सुवदि थीणगिद्धीए तिव्वोदएण उहाविदो पुणो सोवदि, सुत्तो वि कम्म Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ पंचसंगहो कुणदि, सुत्तो वि संकदि, दंतं कडकडावेदि । णिहाए तिव्वोदएण अप्पकालं सुवदि, उट्ठाइज्जंतो लहुं उठेइ, अप्पसहेण चेयइ । पचलाए तिव्वोदएण बालुयाए भरियाई व लोयणाई होति, गरुवभारुदुद्ध व सीसयं होदि, पुणो पुणो लोयणाई उम्मीलणं णिम्मोलणं कुणदि, णिदाभरेण पडतो लहु अप्पाणं साहारेइ ।। __ सति प्रकाशे विमलविस्फारितलोचनोऽपि पश्यन्नपि न पश्यति तच्चक्षुरावृत्त ज्ञेयम् । शृण्वन् जिवन् रसन स्पर्शन स्वयं तद्गतार्थे अवग्रहमात्रमपि [नस्यात्तदचक्षुरावृति कर्म । पुद्गलस्कन्धमेकैकं परमाणु पृथक्-पृथक्दर्शनसंज्ञावरणमेवावधिदर्शनावरणम् । सकलपदार्थातीतानागतवर्तमानद्रव्यगुणपर्यायैर्युगपत्प्रतिसमयविलोकनासमर्थं येन तत्केवलदर्शनावृतम् । अव्यथितमनोवाकार्यनिरुपहतपञ्चेन्द्रियनिरोगत्वाद्यनुभवनता सातम् , तद्विपरीतमसातम् । खयउवसमं विसोही देसग पाओग्ग करणलद्धीए। चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्तं ॥१२॥ पुव्वसंचियकम्ममलपडलअणुभागफड्डया जदा अणंतगुणहीणकमेण उदीरिज्जति तदा खय उवसमलद्धी । अणंतगुणहीणकमेण उदीरिद-अणुभागफद्दयाण जणिदपरिणामो सादादिसुहकम्मबंधणिमित्तो असादादि-असुहकम्मबंधविरुद्धो विसोधिलद्धी णाम । छद्दव्व-णवपदत्थोवदेसो देसणलद्धी णाम । सव्वकम्माणुकस्सहिदिघादि-असुभाण उक्कस्स-अणुभागघादीए अंतोकोडाकोडी जहणहिदी लदा-दारुसमाण-वे-अणुभागट्टाणु [-ट्ठाणाणुभागो] ठविज्जइ पाओग्गलद्धी होइ । तत्थ करणलद्धी तिविधा-अधापवत्तयं अपुव्वं अणियट्टी चेदि । तत्थ अधापवत्तकरणपविट्ठस्स णत्थि ठिदिघादो अणुभागवादो गुणसेढी गुणसंकमो वा। केवलं अणंतगुणविसोधीए विसुद्धमाणो गच्छदि । अप्पसत्थाणं कम्माणं अणंतगुणहीणकमेण ओहट्टिदूण अणुभागं बंधदि । पसत्थाणं कम्माणं अणंतगुणवडिकमेण अणुभागं बंधदि । एवं ठिदिकण [करण ]-ओसरणे सहस्से कदे अधापवत्तद्धा समप्पदि । अपुत्वकरणपविट्ठस्स अस्थि ठिदिघादो अणुभागघादो गुणसेढी गुणसंकमो वा । एत्थेव अणंतगुणविसोधीए विसुज्झमाणो गच्छेदि, अप्पसत्थाणं कम्माणं अणंतगुणहीणकमेण ओहट्टिदूण अणुभागबंधं बंधदि, पसत्थाणं कम्माणं अणंतगुणवडिकमेण अणुभागं बंधदि, एगहिदिकंडयपडणकाले व्व [च संखेज्जाणि अणुभागकंडयपटिदफद्दआणि गालेइ । एवं ठिदिकंडए ओसरणसहस्से कए अपुव्वकरणद्धा समप्पदि । अणियट्टिकरणपविट्ठरस अपुवकरणं व । णवरि मिच्छत्तस्स य अंतोकोडाकोडिहिदि कादूण पढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तहिदि मुतण उवरि अंतोमुहुर अंतरकरणं कादूण पुणो चरमावलिं मोत्तूण ओकडुण-उदीरणं कादूण उवसमसम्माइटिकाले मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त [मिदि] तिविहं करिय उवसमसम्माइट्ठी होदूण अच्छदि । एदेण कारणेण मिच्छत्तं एगं बज्झदि, सत्ताभेदेण तिविहं होदि। पढमो दंसणघादी विदिओ पुण देसविरदिघादी य । तदिओ संजमघादी चउत्थ जहखायसंजमो घादी ॥१३॥ जलरेणुभूमिपव्वदराइसरिसो चदुविधो कोधो। तह वल्ली कट्ठट्ठी सालत्थंभो हवे माणो ॥१४॥ १. लब्धिसागा०३। २. प्रा० पञ्चसं. १,११५ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति सहिओ माया चमरि-गोमुत्ति-विसाण - वंसमूलसमा । हालिद - कद्दम- णिली- किमिरागसमो हवे लोहो ||१५|| संयोजयन्ति भवमनन्तसंखेयभवः (?) कषायास्ते संयोजनावानन्ता (?) वानन्तानुबन्धिता बाधकतास्तेषाम् । स्तृणाति छादयति आत्मपरदोषमिति स्त्री । पुरु कर्माणि करोतीति पुरुषः । न पुमान्, न स्त्री नपुंसकम् | इसनं हासः । रमणं रतिः । न रतिः अरतिः । शोचनं शोकः । भीतिर्भयम् । जुगुप्सनं जुगुप्सा । [नारकाः] नारकभवधारक इत्यर्थः । [तिर्यगायुः ] तिर्यग्भवधारक इत्यर्थः । [मनुष्यायुः ] मनुष्य भवधारक इत्यर्थः । [देवायुः ] देवभवधारक इत्यर्थः । ५५७ गतिर्भवः संसार इत्यर्थः । यदि गतिनामकर्म न स्यात्, अगतिः एव जीवः स्यात् । पुनर्भवनिर्वर्तकं गतिनाम । जातिः लब्धिः प्राप्तिः शक्तिरित्यर्थः । यदि जातिनामकर्म न स्यात् जीवस्यालब्धिः स्यात् । अत इन्द्रियाणां लब्धिनिर्वर्तकं जातिनाम । यदि शरीरनामकर्म न स्यात्, अशरीरी आत्मा स्यात् । अतः शरीरनिर्वर्तकं शरीरनाम । यदि शरीरबन्धननामकर्म न स्यात्, परस्परेणाबन्धनं शरीरस्य स्यात् सिकतापुरुषवत् । अतः परस्परेण शरीरप्रदेशबन्धननिर्वर्तकं शरीरबन्धननाम | यदि शरीरसंघातनामकर्म न स्यात् तिलमोदकवत् शरीरं स्यात् । अयःपिण्डवदेकीकरणं शरीरसंघातनाम । समप्रतिभागेन शरीरावयवसन्निवेशव्यवस्थापनं कुशल शिल्पिनिर्वर्तितं अवस्थित चक्रवत् अवस्थानकरणं समचतुरस्रसंस्थानं नाम । नाभेरुपरिष्टाद् भूयसो देहसन्निवेशस्य अधस्ताचाल्पशो जातं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानं नाम । न्यग्रोधाकारसमताप्राप्तितार्थः (?) तद्विपरीतसन्निवेशकं सातिसंस्थानं नाम । वाल्मीकतुल्याकारम् । पृष्ठकप्रदेश भाविबहुपुद्गलप्रचयविशेषलक्षणस्य निर्वर्तकं कुब्ज संस्थाननाम । सर्वाङ्गोपाङ्गह्रस्वव्यवस्था विशेषकरणं वामनसंस्थानं नाम | सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थितव्यं हुण्डसंस्थाननाम । यदि संस्थाननामकर्म न स्यात्, लोष्ठवत् [ शरीरं स्यात् ] अतः शरीर संस्थान निर्वर्तकं संस्थाननाम । यद्यङ्गोपाङ्गनामकर्म न स्यात् लोष्ठवत् । अतः अङ्गोपाङ्ग निर्वर्तकं अङ्गोपाङ्गनाम । तत्र तावदङ्गानि [पादौ] बाहू पृष्ठवत्नोसिरसि ( नितम्ब -शिरांसि ) । शेषाण्युपाङ्गानि । उक्तं च या बाहूय तहा णियंत्र पुट्ठी उरो य सीसो य । १ अव अंगाई देहे सेसा उवंग इ " || १६ | वज्राकारोभयास्थिसन्धिः । प्रत्येकमध्ये सवल्यबन्धनं सनाराचसंगूढनं वज्रर्षभनाराचशरीरसंहनननाम | तदेवोभयवज्राकारो संप्राप्तवलयवन्धनं वज्रनाराचशरीरसंहनननाम । तदेवोभयवज्राकारत्वव्यपेतमवलयबन्धनं सनाराचशरीरसंहनननाम । तदेवैकपार्श्व सनाराचमितरमनाराचमर्धनाराचशरीरसंहननं नाम । तदुभयविरहितमन्ते सकीलिका नाम शरीरसंहननं नाम । अन्तरे प्राप्त (?) परस्परास्थिसन्धि बहिः शरीरछाद्र (?) मांसघटितमसंप्राप्तासृपाटिकासंहननं नाम । यदि संहनननामकर्म न स्यात्, असंहननशरीरः स्यात्, देवशरीरवत् । अतः संहनननिर्वर्तकं संहनननाम अस्थिबन्धनमित्यर्थः । यदि वर्णनामकर्म न स्यात्, अवर्णं शरीरं स्यात्, नानावर्णं वा स्यात् । अतः वर्णनिर्वर्तकं वर्णनाम । यदि गन्धनामकर्म न स्यात् नानागन्धमगन्धं वा शरीरं स्यात् । अतः गन्धनिर्वर्तकं गन्धनाम | यदि रसनामकर्म न स्यात्, नानारसं अरसं वा शरीरं स्यात् । अतः रस निर्व १. गो० क० २८ । कम्मप० ७४ । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो तकं रसनाम । यदि स्पर्शनामकर्म न स्यात् , नानास्पर्श [ अस्पर्श'] वा शरीरं स्यात् । अतः स्पर्शनिवर्तकं स्पर्शनाम । ___अनुपूर्वे भवा आनुपूर्वी, अनुगतिः अनुक्रान्तिरित्यर्थः । आदिलाभे च क्षेत्रम् प्रतिगमानुपूर्वी। यद्यानुपूर्वी नामकर्म न स्यात् क्षेत्रान्तरप्राप्तिर्जीवस्य न स्यात् । अतः क्षेत्रान्तरप्रापकमानुपूर्वी नाम । यद्यगुरुलघु नामकर्म न स्यात् , लोह-तूलवद् गुरुर्वा लघुर्वा शरीरं स्यात् । अतः शरीरस्य अगुरुकलहुकनिवतेक अगुरुकलहुकनाम । उपेत्य घातः उपघातः। उपघात आत्मघात इत्यर्थः । यद्यपघातकर्म न स्यात् , स्वशरीरेण घातो न स्यात् । तद्यथा-महाशृङ्ग-लम्बस्तन-तुण्डोदरमित्येवमादि। अतः आत्मघातनिवतेक उपघातनाम। परेषां घातः परघातः। यदि परघातनामकर्म न स्यात् , अपरघातं शरीरं स्यात् । यथा सिंह-व्याघ-कुञ्जर-वृषभादीनां घातो न स्यात् । अतः परघातनिर्वर्तकं परघातनाम । ऊर्ध्वः श्वासः उच्छासः। यद्युच्छासनामकर्म न स्यात् , जीवस्योच्छ्रसनं न स्यात् । अतः उच्छासनिर्वतकं उच्छासनाम । यद्यातपनामकर्म न स्यात् , अनातपशरीरः स्यात् । अत आतपशरीरनिर्वर्तकं आतपनाम । गद्युद्योतनामकर्म न स्यात् , उद्योतशरीरं न स्यात् । अतः उद्योतशरीरनिर्वर्तकं उद्योतनाम । विहाय आकाशं गगनमम्बरमित्यर्थः । विहायसि गतिः विहायोगतिः। यदि विहायोगतिनामकर्म न स्यात् , आकाशे जीवगतिन स्यात् , तदभावे अल्पप्रदेशानां भूम्यवस्थानं बहूनां आकाशव्यवस्थापनं पतनमेव स्यात् । अत आकाशगतिनिर्वतकं विहायोगतिनाम । यदि त्रसनामकमें न स्यात् , न त्रसति जीवः; आकुश्चनप्रसारण-निमीलनोन्मीलन-स्पन्दनादि वसनं तद् द्वीन्द्रियादीनां न स्यात् । अतः त्रसनिर्वर्तकं त्रसनाम । यदि स्थावरनामकर्म न स्यात् , नावतिष्ठति जीवः, स्पन्दनाभावात् । अतः स्थावरनिवर्तकं स्थावरनाम । यदि बादरनामकर्म न स्यात् , सूक्ष्मजीव एव स्यात् , वर्णविभागाभावात् , चक्षुषा न ग्राह्यत्वात् ; अनन्तानां जीवानां समुदीरितानामपि तमसि प्रक्षिप्ताञ्जनरेणुवत् अचक्षुविषयः स्यात् । अतः बादरनिर्वर्तकं बादरनाम । यदि सूक्ष्मनामकर्म न स्यात् , बादर एव जीवः स्यात् , पल्योपमस्यासंख्येयभागे जीवसमुदीरितेऽपि चक्षुषा ग्राह्यः स्यात् । अतः सूक्ष्मनिर्वर्तकं सूक्ष्मनाम । यदि पर्याप्तनामकर्म न स्यात् , आहारादीनामसंपूर्णत्वादपर्याप्त एव जीवः स्यात् । अतः पर्याप्तनिर्वर्तकं पर्याप्तनाम । यद्यपर्याप्तनामकर्म न स्यात् । आहारादीनां सम्पूर्णत्वात्पर्याप्त एव जीवः स्यात् । अतः अपर्याप्तनिर्वर्तकं अपर्याप्तनाम । यदि प्रत्येकनामकर्म न स्यात् , जीवस्य साधारणशरीरलब्धिः स्यात् । अतः प्रत्येकशरीरनिवर्तकं प्रत्येकशरीरनाम। यदि साधारणशरीरनामकर्म न स्यात् , एकैकस्य जीवस्य प्रत्येकशरीरं स्यात् । अतः साधारणशरीरनिवर्तकं साधारणशरीरनाम। यदि स्थिरनामकर्म न स्यात् , रस-रुधिर-मांसमेदास्थि. मज्जा-शुकादीनां स्थैर्याभावाद् गतिरेव स्यात् । अतस्तेषां स्थिरतानिर्वर्तकं स्थिरनाम । यदि अस्थिरनामकर्म न स्यात, रसादीनां स्थैर्य स्यात् , परस्पर-संक्रान्तिन स्यात् । अत एकधातुशरीरं स्यात् । अतस्तेषां अस्थिरतानिर्वर्तकं अस्थिरनाम । यदि शुभनामकर्म न स्यात् , अशुभागाण्येव स्युः, कक्षोपस्थादिवत् । अतः शुभनिवर्तकं शुभनाम । यद्यशुभनामकर्म न स्यात् , नयनललाटादिवत् शुभाङ्गाण्येव स्युः । अतः अशुभनिर्वर्तकं अशुभनाम । यदि सुभगनामकर्म न स्यात् , दुर्भगत्वं अकान्तित्वं भवति । अतः कान्तित्व निर्वर्तकं सुभगनाम । यदि दुर्भगनामकर्म न स्यात् , सुभगकान्तित्वं भवति । अतः दुर्भगं अकान्तित्वनिवर्तकं दुर्भगनाम । यदि सुस्वरनामकर्म न स्यात् , परुषनाद-शृगालोष्ट्रादिवत् [ ]। अतः सुस्वरनिर्वर्तकं सुस्वरनाम । यदि दुःस्वरनामकर्म न स्यात् , मधुरनाद-मयूरकोकिलादिवत् [ ]। अतः दुःस्वरनिवर्तकं दुःस्वरनाम । आदेयं ग्रहणीयता बहुमानतेत्यर्थः । अतः आदेयनिर्वर्तकं आदेयनाम । अनादेयमग्रणीयता अवमानतेत्यर्थः। अतः अनादेयनिर्वतकं अनादेयनाम । यशः गुणोद्भावनं कीर्तिः ख्यातिरित्येकार्थः। अतः गुणख्यातिनिर्वर्तकं यशःकीर्तिनाम । अयशः अगुणोद्भावन Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-वित्ति-सहिओ ५५९ मित्येकार्थः । अतः दोषख्यातिनिर्वर्तकं अयशः कीर्त्तिनाम । नियतं नाम निर्माणं अनेकधा इत्यर्थः । निर्माणनिर्वर्तकं निर्माणनाम । निर्माणं तद् द्विविधं प्रमाणनिर्माणं स्थाननिर्माणमिति । . प्रमाणनिर्वर्तकं प्रमाणनिर्माणम् । यदि प्रमाणनिर्माणनामकर्म न स्यात् , असंख्येययोजनविस्तार आयामः [स्यात् ,] अतः लोके प्रमाणनिर्वर्तकं प्रमाणनिर्माणम् । अन्यथा तालश्रुचिवत् (?) आलोकान्तशरोरं स्यात् । अथवा हस्तिस्तम्भकीलवत् लोकान्तविस्तृतशरीरं स्यात् । अङ्गोपाङ्गानां प्रत्यङ्गगतानां स्वे स्वे स्थाने निर्मापकं स्थाननिर्माणम् । तदभावे ललाटे मूर्ध्नि कर्णनयन नासिकादीनां विपरीतविन्यासः स्यात् । अतः स्वजात्यनुरूपतः अङ्गोपाङ्गनिर्वतकं स्थाननिर्माणनाम । त्रिलोकजीवाहसर्वजीवहितोपदेशजनकतीर्थकरनिर्वर्तकं तीर्थकरनाम ।। जनपद-पितृ-मातृ-शुचिस्थान-मानैश्वर्य-धनादिप्राप्तिजन्मोच्चं (?) उच्चगोत्रम् । तद्विपरीतं नीचगोत्रम् । दानस्यान्तरायं दानान्तरायं दानविघ्नमित्यर्थः । लाभस्यान्तरायं लाभान्तरायं लाभविघ्नमित्यर्थः । भोगस्यान्तरायं भोगान्तरायं भोगविघ्नमित्यर्थः । परिभोगस्यान्तरायं परिभोगान्तरायं परिभोगविघ्नमित्यर्थः । वीर्यस्यान्तरायं वीर्यान्तरायं वीयविघ्नमित्यर्थः। एवं प्रकृतिवृत्तिः समाप्ता । इदि पढमो पयडिसमुक्कित्तणा-संगहो समत्तो Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदिओ कम्मत्थव-संगहो णमिऊण अणंतजिणे तिहुवणवरणाणदंसणपईवे । बंधुदयसंतजुत्त वुच्छामि थवं णिसामेह ॥१॥ एत्थ पयडिवुच्छेदे कीरमाणे दुविहणयाहिप्पाओ भवदि-उप्पादाणुच्छेदो अणुप्पादाणुच्छेदो त्ति । उत्पादः सत्त्वं सत् , छेदो विनाशः अभावनिरूपता इति यावत् । उत्पाद एव अनुच्छेदः, उत्पादानुच्छेदः, भाव एव अभाव इति यावत् । एसो दम्वट्ठियणयववहारो। अनुत्पादः असत्त्वं अनुच्छेदो विनाशः, अनुत्पाद एव अनुच्छेदः अनुत्पादानुच्छेदः, असतः अभाव इति यावत् , सतः असत्त्वविरोधात् । एसो पज्जवट्ठियणयववहारो।। मिच्छे सोलस पणुवीस सासणे अविरदे य दस पयडी। चउ छक्कमेयदेसे विरदे इयरे कमेण वुच्छिण्णा ॥२॥ दुगतीसचदुरपुव्वे पंचऽणियट्टिम्हि बंधवोच्छेदो। सोलस सुहुमसरागे साद सजोगिम्हि बंधवुच्छिणा ॥३॥ पण णव इगि सत्तरसं अड पंच य चदुर छक्क छच्चेव । इगि दुग सोलस तीसं वारस उदओ अजोयंता ॥४॥ पण णव इगि सत्तरसं अट्ठट्ठय चदुर छक्क छच्चेव । इगि दुग सोलगुदालं उदीरणा होंति जोगंता ॥॥ अण मिच्छ मिस्स सम्म अविरदसम्मादि-अप्पमत्ता । सुर-णिरय-तिरिय-आऊ णिययभवे चेव खीयंति ॥६॥ सोलस अट्ठकेकं छक्कककक खीण अणियट्टी। एयं सुहुमसराए खीणकसाए य सोलसयं ॥७॥ वावत्तरिं दुचरिमे तेरस चरिमे अजोगिणो खीणा । अडदालं पगडिसदं खविय जिणं णिव्वुदं वंदे ॥८॥ णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेदणीय मोहणीयं । आउग णामं गोदं तहंतरायं च मूलपगडीओ॥६॥ पंच णव दुण्णि अट्ठावीसं चदुरो तहेव वादालं । दोण्णि य पंच य भणिदा पगडीओ उत्तरा चेव ॥१०॥ मिच्छ णउंसयवेयं णिरयाउग तहय चेव गिरयदुगं । इगि-विगलिंदिय जादी हुंडमसंपत्त आदावं ॥११॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मत्थव-संगहो थावर सुहुमं च तहा साधारणगं तह अपज्जतं । एदे सोलस पयडी मिच्छम्हि य बंधुवुच्छेदो ॥१२॥ थीणतिगं इत्थी वि य अण तिरियाउं तहेव तिरियदुगं । मज्झिम चउसंठाणं मज्झिम चउ चेव संघडणे ॥१३॥ उज्जोवमप्पसत्थं विहायगदि दुब्भगं अणादेज्जं । दुस्सर णिचागोदं सासणसम्मम्हि वुच्छिण्णा ॥१४॥ विदियकसायचउक्कं मणुआऊ मणुअदुगं च ओरालं । तस्स य अंगोवंगं संघडणादी अविरदम्हि ॥१५॥ तदियकसायचउक्कं विरदाविरदम्हि बंधशेच्छिण्णा । [साइयरमरइ सोयं तह चेव य अथिरमसुहं च ॥१६॥ अज्जसकित्ती य तहा पमत्तविरयम्हि वोच्छेदो] देवाउगं च एवं पमत्त-इदरम्हि णादव्वं ॥१७।। णिद्दा पयला य तहा अपुव्वपढमम्हि बंधवुच्छेदो । देवदुगं पंचिंदिय ओरालिय वज्ज चउसरीरं च ॥१८॥ समचउरं वेउव्वियमाहारय-अंगवंगणामं च । वण्णचउक्कं च तहा अगुरुगलहुगं च चत्तारि ॥१६॥ तसचउ.पसत्थमेव य विहायगदि थिर सुहं च णायव्वा । सुभगं सुरसरमेव य आदिज्ज चेव णिमिणं च ॥२०॥ तित्थयरमेव तीसं अपुव्वछब्भाग बंधबुच्छिण्णा । हस्स रदि भय दुगुंछा अपुव्वचरिमम्हि वुच्छिण्णा ॥२१॥ पुरिसं चदुसंजलणं पंच य पगडीय पंचभागम्हि । अणियट्टी-अद्धाए जहाकम बंधवोच्छेदो ॥२२॥ णाणंतरायदसयं दंसणचत्तारि उच्चजसकित्ती । एदे सोलस पगडी सुहुमकसायम्हि बंधवुच्छिणा ॥२३॥ उवसंत खीणमोहे [खीण चत्ता ] सजोगिचरिमम्मि सादवुच्छेदो। णादव्वो पगडीणं बंधस्संतो अणंतो य ॥२४॥ मिच्छत्तं आदावं सुहुममपज्जत्तगा च तह चेव । साधारणं च पंच य मिच्छम्हि य उदयवुच्छेओ ॥२५॥ अण एइंदियजादी विगलिंदियजादिमेव थावरयं । एदे णव पगडीओ सासणसम्मम्हि उदयवुच्छिण्णा ॥२६॥ सम्मामिच्छत्तेयं सम्मामिच्छम्हि उदयवुच्छेदो । विदियकसायचउक्कं तह चेव य णिरय-देवायू ॥२७॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ पंचसंगहो मण्य - तिरियाणुपुच्ची वेउव्वियछक दुब्भगं चेव । आणादिज्जं च तहा अज्जस कित्ती अविरदहि ||२८|| तदियकसायचउक्कं तिरियाऊ तह य चेव तिरियगदी । उज्जोव णीचगोदं विरदाविरदम्हि उदयबुच्छिण्णा ||२६|| श्रीतिगं चैव तहा आहारदुगं पमत्तविरदम्हि | सम्मत्तं संघडणं अंतिम तिगमप्पमत्तम्हि ||३०|| तह णोकसायछकं अव्वकरणम्हि उदयबुच्छेदो । वेद तिग कोह माणं माया संजलणमणियट्टी ॥ ३१ ॥ संजण लोहमेयं सुहुमकसायम्हि उदयवुच्छिण्णा । तह वज्जं णारायं णारायं चेव उवसंते ॥ ३२॥ णिद्दा पयला य तहा खीणदुचरिमम्हि उदयवुच्छिण्णा । गाणंतराय दसयं दसणचत्तारि चरिमम्हि ||३३|| अण्णदर वेदणीयं ओरालिय-तेज-कम्म णामं च । छच्चेव य संठाणं ओरालिय अंगवंगो य ||३४|| आदी विय संघडणं वण्णचउक्कं च दो विहायगदी । अगुरुगलहुगचउकं पत्तेय धिराथिरं चेव ||३५|| सुह सुस्सर जुगलाविय णिमिणं च तहा हवंति णायव्वा । एदे ती पगडी सजोगिचरिमम्हि बुच्छिण्णा ||३६|| अण्णदर वेदणीयं मणुयाऊ मणुयगदी य बोधव्वा । पंचिदियजादी विय तस सुभगादिज्ज पज्जत ॥३७॥ बादर जसकित्ती वय तित्थयरं णाम [ उच्च ] गोदयं चेव । एदे बारस पगडी अजोगिचरिमम्हि उदयवुच्छिण्णा ॥ ३८ ॥ उदयसुदीरणस्स सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो । मुत्तूण तिणि ठाणं पमत जोगी अजोगी य ॥ ३६॥ तीसं वारस उदयं केवलिणं मेलणं च काढूण | सादासादं च तहा मणुआऊ अवणिदं किच्चाः ॥४०॥ सेसं उगुदालीसं सजोगिम्हि उदीरणा य बोधव्वा । raणीय तिणि पगडी पमत्तउदय म्हि पक्खित्ता ॥४१॥ तह चैव अट्ठ पगडी पमत्तविरदे उदीरणा हुंति । णत्थि त्ति अजोगिजिणे उदीरणा हुंति णादव्वा ॥ ४२ ॥ थीतिगं चैव तहा णिरयदुगं तह य चेव तिरियदुगं । इगिविगलिंदियजादी आदावुज्जोव थावरयं ॥ ४३ ॥ For Private Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मत्थव-संगहो साधारण सुमं चिय सोलस पयडी य होइ णायव्वा । विदियकसायचउक्कं तदियकसायं च अट्ठदे ॥ ४४ ॥ एउंसयवेयं इत्थीवेदं तहेव एयं च । छोकसायकं पुरिसं कोहं च माणो य ॥४५॥ मायं चि अणिट्टीभागं गंतूण संतयुच्छेदो । लोभं चिय संजलगं सुहुमकसायम्हि वुच्छिण्णा ॥ ४६ ॥ खीणकायदुरिमेणिद्दा पयला य हणइ छदुमत्थो । णाणतरायदसयं दंसणचत्तारि चरिमम्हि ||४७|| देवदुग पण सरीरं पंचसरीरस्स बंधणं चेव । पंचैव य संघादं संठाणं तह य छकं च ॥४८॥ तिष्णि य अंगोवंगं संघडणं तह य हुंति छक्का य । पंचैव य वण्णरसं दो गंधं अट्ठफासो य ॥ ४६ ॥ अगुरु लहुगचउकं विहायगदि दो थिराथिरं चैव । सुभ सुस्सर जुगलं चियं पत्तेयं दुब्भगं अजसं ॥ ५०॥ आणादिजं णिमिणं अपजत्तं तह य णीचगोदं च । torदर वेदणीयं अजोगिदुचरमम्हि बुच्छिण्णा ॥ ५१ ॥ अण्णदर वेदणीयं मणुयाऊ मणुयदुगं च बोधव्वा । पंचिदियजादी विय तस सुभगादिज पचत्तं ॥ ५२ ॥ बादरजसकित्ती वय तित्थयरं उच्चगोदयं चेव । एदे तेरस पगडी अजोगिचरिमम्हि संतवुच्छिण्णा ॥५३॥ सो मे तिहुवणमहिदो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो सुद्धो । दिस वरणाणलाई दंसणसुद्धिं समाहिं च ॥५४॥ देवासुरिंदम हिदं भवसायरपारयं महावीरं । पण मिय सिरसा वुच्छं जहा कसं सुणह एयमणा ॥ ५५|| किं बंधोदयपुव्वं समं च स परोदएण उभए वा । संतर निरंतरं वा तदुभयमिदि णवविधं पहं ॥ ५६ ॥ पढमुदओ बुच्छि पच्छा बंधो ति अट्ठ पगडीओ । णादवाओ पियमा एकतीसं समं च बंधुदया ||२७|| गुत्तर असिदीओ यडीओ जिणवरेहि दिट्ठाओ । पच्छुदओ वोaिrs पढमं बंधु त्ति णादव्वो ॥ ५८ ॥ सत्तावीसेगारं सोदयमथ परोदएण बज्यंति । वासीदीओ णियमा बज्यंति तत्थ उभरण ॥ ५६ ॥ ५६३ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ पंचसंगहो चउतीसं चउवणं बत्तीसं चेव होइ परिसंखा । संतर णिरंतरेण य बझंति हि तदुभयेण तहा ॥६०॥ देवाऊ देवचऊ आहारदुगमयसं च अट्ट दे। पढमुदओ बुच्छिजइ पच्छा बंधो त्ति णादवो ॥६१।। मिच्छत्तं पण्णारस कसाय लोभं विणा पुरुस हस्सरदि भयदुगुंछा । जादिचउक्कादावं थावर सुहुमादितिण्हं पि ॥६२।। मणुआणुपुव्विसहिदा एकतीसं समं च बंधुदया। एयाओ पयडीओ णायव्वाओ हवंति णियमेण ॥६३॥ णाणंतरायदसयं दसणचउ उच्च णीचगोदं ग [च] । इत्थि णउंसयवेदं सादासादं च लोहसंजलणं ॥६४॥ णिरयाऊ तिरियाऊ णिरि-तिरिय मणुयगई । वण्णचउक्क च तहा उजोवं चेव दो विहायगदी ॥६॥ छस्संठाणं च तहा पंचिंदियजादि अरदि सोगं च । ओरालियंगबंगं छण्णं तह चेव संघडणं ॥६६॥ तस बादर पज्जत पत्त यसरीरमेव णादव्वा । ओरालियं च तेजा कम्मइयसरीरमेव तहा ॥६७।। णिरय-तिरियाणुपुव्वी जसकित्ति थिराथिरादिपणजुयलं । णादव्वं तह चेव य अगुरुगलहुगं च चत्तारि ॥६॥ णिमिणं तित्थयरेण इगिसीदीओ हवंति पगडीओ। पच्छुदओ वोच्छिजइ पढमं बंधुत्ति णादम्बो ॥६६।। आवरणमंतराए चउ पण मिच्छत्त तेज कम्मइया । वण्णचउक्त च तहा अगुरुगलहुगं थिरादि बे जुयलं ॥७०॥ णिमिणेण सह सगवीसा बज्झति हि सोदएण एदाओ । सेसा पुण एयारा बोधव्वा तत्थ होंति इदरेण ॥७१॥ णिरयाऊ देवाऊ वेउवियछक दोणि आहारे । तित्थयरेणेयाओ बोधव्याओ हवंति पगडीओ ॥७२॥ दंसणपण णिरियाउग मणुआउग मणुवगइमेव । सोलस कसायमेव य तहेव णवणोकसायं च ॥७३॥ मणुयतिरियाणुपुव्वी ओरालियदुगं तहेव णादव्यो । संठाणछक्कमेव य छच्चेव य तह य संघडणं ॥७४।। उवघादं परघादं उस्सासं चेव पंच जाई य । दो वेदणीयमेव य आदावुञ्जोय दो विहायगई ॥७॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मत्थव-संगहो ५६५ तस थावर सुहुमाविय बादर पञ्जत्त तह अपज्जतं । पत्त यं साधारण णिच्चुच्चागोदमेव बोधव्या ॥७६।। सुभगादिजुयलचदुरो णादव्वाओ हवंति एदाओ। वासीदीओ णियमा सग-परउदएण बझंति ॥७७॥ इत्थि-णउसयवेयं सादिदर अरदिंसोग णिरयदुर्ग । जादिचउकं च तहा संठाणं पंच पंच संघडणं ॥७८॥ थावर सुहुमं च तहा आदावुजोयमप्पसत्थगई । तह चेवमपञ्जत्तंसाहारणयं च णादव्वा ।।७६॥ अथिरासुहं तहेव य दुस्सरमध दुहवं च णियमेण । आणादेनं च तहा अञ्जसकित्ती मुणेदव्या ॥८॥ एदे खलु चोत्तीसा बझंति हि संतरेण णियमेण । एदे खलु चउवण्णा बज्झति णिरंतरा सव्वे ॥१॥ णाणंतरायदसयं दंसणणव मिच्छ सोलस कसाया । भयकम्म दुगुंछादिय तेजा कम्मं च वण्णचऊ ॥८२॥ अगुरुगलहुगुवधादं तित्थयराहारग णिमिणमाऊणि । सेसा खलु बत्तीसा बझंति हि तदुभएणेव ॥८३॥ हस्स रदि पुरिसवेदं तह चेव य तिरिय-देव-मणुयगई । ओरालिय वेउव्विय समचउरं चेव संठाणं ॥४॥ आदी विय संघडणं पंचिंदियजादि साद गोददुगं । ओरालिय वेउव्विय अंगोवंगं पसत्थगदिमेव ॥८॥ मणुय-तिरियाणुपुब्बी परधादुस्सासमेव एदाओ। देवगईणुपुव्वी बोधव्वा हुंति पथडीओ ॥८६॥ तसचादरपज्जत पत्तेयसरीरमेव णायव्वा । थिर-सुभ सुभगं च तहा सुस्सरमादेज जसकित्ती ॥८७॥ एदे णवाहियारा जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा । भावियमरणो जं खलु भावियसिद्धिं लहुं लहइ ।।८८॥ णमिऊण जिणवरिंदे तिवणवरणाण-दसणपईवे। बंधोदयसंतजुत्तं वोच्छामि थवं णिसामेह ॥१॥ मिच्छे सोलस पणवीस सासणे अविरदे य दस पयडी। चदुछक्कमेय देसे विरदे इयरे कमेण वुच्छिण्णा ॥२॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ पंचसंगहो दुग तीस चदुरपुव्वे पंच णियटिम्हि बंधवुच्छेदो। सोलस सुहुमसरागे साद सजोगिय [म्हि] जिणवरिंदे ॥३॥ पण णव इगि सत्तरसं अउ पंच य चदुर छक्क छच्चेव । इगि दुग सोलस तीसं बारस उदए अजोगंता ॥४॥ पण णव इगि सत्तरसं अट्ठट्ठय चउर छक्क छच्चेव । इगि दुग सोलसु दालं उदीरणा होति जोगंता ॥५॥ अण मिच्छ मिस्स सम्म अविरदसम्मादि-अप्पमत्तंता । सुर-णिरय-तिरियआऊ णिययभवे चेव खीयंति॥६॥ सोलस अट्ठक्केक्कं छक्केक्केक्केक्क खीण अणियट्टी। एयं सुहुमसरागे खीणकसाए य सोलसयं ॥७॥ वावत्तरि दुचरिमे तेरस चरिमे अजोगिणो खीणा । अडयालं पयडिसदं खविदजिणं णिव्वुदं वंदे ॥८॥ एदं कम्मविधाणं णिच्चं जो पढइ सुणइ पयदमदी। दंसण-णाणसमग्गो सो गच्छइ उत्तमं ठाणं ॥९॥ एत्तो सव्वपयडीणं बंधवुच्छेदो कादयो भवदि । तं जहा । 'मिच्छे सोलस'-मिच्छत्त नपुंसकवेय णिरयाउगं णिरयगदि एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय चतुरिं दिय जादि हुंडसंठाणं असंपत्तसेवसंघडणं णिरयगदिपाओग्गाणुपुत्वीयं आदत थावर सुहुम अपज्जत्त साधारण एदाओ सोलस पयडीओ मिच्छादिट्ठिम्मि बंधवुच्छेदो। 'पणवीस सासणे'-णिहाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी अणंताणुबंधिचदुक्कं इत्थिवेद तिरिक्खाउ तिरिक्खगदी णिग्गोहसंठाणं सादिसंठाणं खुज्जसंठाणं वामसंठाणं वज्जगारायसंघडणं णारायसंघडणं अद्धणारायसंघडणं खीलियसंघडणं तिरिक्खगदिपाउग्गाणुपुव्वी उज्जोव अप्पसत्थविहायगदी दुभग दुस्सर अणादिज णीचागोद एदासिं पणुवीसण्हं पयडीणं सासणसम्मादिट्ठिम्हि बंधवोच्छेदो।। _ 'अविरदे य दस पयडि'-अपच्चक्खाणचदुक्क मणुआऊ मणुस्सगदी ओरालियसरीर ओरालियसरीर-अंगोवंग वज्जरिसभवइरणारायसंघडणं मणुसगदिपाओग्गाणुपुत्वी एदासिं दसपयडीओ[f] असंजदसम्मादिहिस्स बंधवुच्छेदो। _ 'चदु' पच्चक्खाणावरणचदुकं एदाओ चत्तारि पयडीओ संजदासंजदम्हि बंधवुच्छेदो । 'छकं' असादावेदणीयं अरदि सोग अथिर सुभगं अजसकित्ती एदाओ छप्पयडीओ-जदस्त [पमत्तसंजदस्स ] बंधवुच्छेदो। 'एय' देवाऊ अप्पमत्तसंजदम्हि बंधवुच्छेदो। 'दुग' णिद्दा पयला य अपुठवकरणद्धाए सत्तमभागे पढमभागचरमसमयबंधवुच्छेदो। 'तीसं' देवगदि पंचिंदियजादि वेउव्वियाहारतेजाकम्मइयसरीर समचदुरसंठाणं वेउव्विय-आहारसरीर-अंगोवंग वण्ण गंध रस फास देवगदिआणुपुब्धी अगुरुलहुग उवघाद परघाद उस्सास पसत्थगदी तस बादर पज्जत्त पज्जत्तेयसरीर थिर सुभ सुभग मुस्सर आदेज णिमिण तित्थयरणामं च एयाओ तीस पयडीओ अपुवकरणम्हि सत्तमभाग-छभागं गंतूण बंधवुच्छेदो। ['चदु' हस्स रदि भय दुगुंछा एदाओ चत्तारि पयडीओ अपुठवचरिमम्हि वुच्छिज्जते ] । 'पंच अणियट्ठिम्हि' चदु संजलणं पुरिसवेद एयाओ पंच पयडीओ अणियट्ठि-अद्धाए पंचभागं गंतूंणं एकक बंधवुच्छेदो। पढम Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मस्थव-संगहो ५६७ भागे पुरिसवेदवुच्छेदो, विदियभागे कोधसंजलणं, तदियभागे माणसंजलणं, चउत्थभागे मायासंजलणं, चरमसमये लोभसंजलण-बंधवुच्छेदो। 'सोलस सुहुमसरागे'-पंच णाणावरणीयं चदु दंसणावरणीयं जसकित्ती उच्चागोदं पंच अंतराइयं एयाओ सोलस पयडीओ सुहुमसंपराइयस्स चरमसमए बंधवुच्छ दो। 'उवसंत खीणमोहे साद सजोगिजिणे-सादावेदणीयं सजोगचरमसमए बंधवुच्छेदो। एत्तो सव्वपयडीणं कादम्वो उदयवुच्छ दो-'पण' मिच्छत्त आदाव सुहुमअपज्जत्त साधारण पदाओ पंच पयडीओ मिच्छादिट्ठिम्हि उदयवुच्छेदो। 'णव' अणंताणुबंधिचदुक्क एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय चरिंदियजादि थावरणामं च एयाओ णव पयडीओ सासणसम्मादिट्ठिम्हि उदयवुच्छ दो। 'इगि' [ सम्मामिच्छत्तमेगं] सम्मामिच्छादिछिम्हि उदयवुच्छ दो 'सत्तरस' अप्पचक्खाणावरणीयं कोध माण माया लोभ णिरय-देवाउग णिरय-देवगदि वेउव्वियसरीर वेउव्वियसरीर-अंगोवंग णिरयगदि-तिरिक्खगदि-मणुसगदि-देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी दुभग अणादिजं अजसकित्ती एदासिं सत्तरसण्हं. पयडीणं असंजदसम्मादिठिम्हि उदयवुच्छेदो । 'अड' अप्पञ्चक्खाणावरणीयं कोध माण माया लोभ तिरिक्खगदि उज्जोव णीचगोदं च एदासिं अट्ठण्हं पयडीणं संजदासंजदम्हि उदयवुच्छेदो। 'पंच' णिहाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी आहारसरीर आहारसरीर-अंगोवंगं एदासिं पंचण्हं पयडीणं पमत्तजदम्हि उदयवुच्छेदो । 'चदुरो' वेदगसम्मत्तं अद्धणारायसंघडणं खीलियसंघडणं असंपत्तसेवसंघडणं एदासिं चउण्हं पयडीणं मिच्छादिटिप्पडि जाव अपमत्तसंजदोत्ति उदयवुच्छेदो। 'छक्क' हस्स रदि अरदि सोग भय दुगुंछा एदासिं छण्हं पयडीणं अपुवकरणउवसामयस्स वा खवयस्स वा चरिमसमयम्हि उदयवुच्छेदो। ['छच्चेव'] णवंसक-इत्थीवेदाणं कोध माण मायासंजलणं एदासिं छण्हं पयडीणं मिच्छा-[दिट्ठिः] प्पहुडि जाव अणियट्टी सेससंखिज्जभागं गंतूण उदयवुच्छेदो। 'इगि' लोभसंजलणस्स सुहुम-संपराइयचरिमसमयम्मि उदयवुच्छेदो। 'दुग' वज्जणारायसंघडणं णारायसंघडणं एदासिं दुण्हं पयडीणं मिच्छादिट्रिप्पहडि जाव उवसंतकसायचरमसमए उदयवच्छेदो। 'सोलस' णिहा पयलाणं खीणकसायस्स दुचरमसमए उदयवुच्छेदो। पंचण्हं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दसणावरणीयाणं पंचण्हं अंतराइयाणं एदासिं चउदसण्हं पयडीणं मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायचरमसमए उदयवुच्छेदो । 'तीसं' अण्णदर वेदणीयं ओरालिय तेजाकम्मइगसरीर छ संठाण ओरालियसरीर-अंगोवंग वज्जरिसभवइरणारायसंघडणं वण्ण गंध रस फास अगुरुगलहुग उवघाद परघाद उस्सास दो विहायगदि जाव पत्तेयसरीर थिराथिर सुभासुभ सुरसर दुम्सर णिमिण एदासिं तीसपयडीणं मिच्छादिटिप्पहुडि सजोगिकेवलिचरमसमयउदयवोच्छेदो। 'वारस' अण्णदर वेदणीयं मणसाउग-मण दियजादि तस बादर पज्जत' सुभग आदेय जसकित्ती तित्थयर उच्चागोद एयासिं वारसण्हं पयडीणं मिच्छादिहिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलिचरिमसमयम्हि उदयवुच्छेदो। णवरि तित्थयरस्स सजोगिप्पहुदि जाव वत्तबो। एत्तो सवपयडीणं उदीरणावुच्छेदो कादव्वो भवदि । एत्थ सुत्त-'पण मिच्छत्तस्स' उवसमसम्मत्ताभिमुहमिच्छादिट्टिम्हि आवलिसेसे वेदगसम्मत्ताभिमुहरस वा चरिमसमए उदीरणाबुच्छेदो । आदाव सुहुम अपज्जत्त साधारणसरीर एदासिं चदुण्हं पयडीणं मिच्छादिछिचरिमसमए उदीरणावुच्छेदो। 'णव' अणंताणुबंधिचदुक्कं एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय चदुरिं दियजादि थावर णामा य एदासि णवण्हं पयडीणं सासणसम्मादिट्ठिम्हि उदीरणावुच्छेदो । 'इगि' सम्मामिच्छत्तस्स सम्मामिच्छादिट्ठिम्मि उदीरणावुच्छेदो । 'सत्तरसं' णिरयाउगं देवाउगं असंजदसम्मा १. आदर्शप्रतौ 'पजत्तापत्तेग' इति पाठः । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ पंचसंगहो दिट्ठिम्हि आवलिसेसे उदीरणावुच्छेदो। पञ्चक्खाणावरणचदुक्कं वेउब्धियछक्क तिरिक्खगदि मणुसगदिपाओग्गाणुपुत्वी दुभग अगादिज्ज अजसकित्ती एदासिं पण्णरसण्हं पयडीण असंजदसम्मादिट्ठिम्हि [ चरिमसमए ] उदीरणावुच्छेदो । 'अट्ठ' तिरिक्खाउगस्स संजदासंजदम्हि मरणावलियसेसे उदीरणावुच्छेदो। पञ्चक्खाणावरणचदुक्कं तिरिक्खगदि उज्जोव णीचागोदं एदासिं सत्तण्हं पयडीण संजदासंजदचरमसमए उदीरणावच्छेदो। 'अट्ठ' थीणगिद्धितिग सादासादा एदासिं पंचण्हं पयडीणं पमत्ततंजदस्स उत्तरवेउव्वियरस चरिमावलियसेसे उदीरणावुच्छेदो । आहारदुग मणुसाउगस्स पमत्तसंजदस्स चरिमावलियसेसे उदीरणावुच्छेदो । 'चदु' अद्धणारायसंघडणं खीलियसंघडणं असंपत्तसेवट्टसंघडणं वेदगसम्मत्तं एदासिं चदुण्हं पयडीणं अप्पमत्तसंजदस्स चरिमसमए उदीरणावुच्छेदो। 'छक्क' हस्स रदि अरदि सोग भय दुगुंछा एदासिं छहं पयडीणं अपुव्वकरण-उवसामयस्स वा खवयरस वा चरमसमए उदारणावुच्छेदो। 'छक' उवसामयस्स वा खवयस्स वा तिण्हं वेदाणं तिण्हं संजलणाणं अणियट्टिस्स सेस संखेज्जभागं गंतूण उदीरणावुच्छेदो। 'इगि' लोभसंजलणस्स सुहुमसांपराइय उवसमयस्स वा खवयस्स वा आवलियसेसे उदोरणावुच्छ दो। 'दुग' रज्जणाराय णारायसंघडणं एदासिं दोण्हं पयडीणं उवसंतकसा. यम्हि उदीरणावुच्छेदो 'सोलस' णिद्दा-पयलाणं खीणकसायस्स समयावलियसेसे उदीरणावुच्छेदो। पंचण्हं णाणावरणीयाणं चउण्हं दंसणावरणीयाणं पंचण्डं अंतराइयाणं खीणकसायरस आवलियसेसे उदीरणावच्छेदो। 'उगदालं' मणसगदि पंचिंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइगसरीर छ संठाणं ओरालियअंगोवंग वज्जरिसभवइरणारायसंघडण वण्ण गंध रस फास अगुरुगलहुग उवघाद परघाद उस्सास दो विहायोगदि तस बादर पज्जत्त पत्तयसरीर थिराथिर सुभ-असुभ सुभग सुस्सर दुस्सर आदिज्ज जसकित्ती णिमिण तित्थयर उच्चागोद एदासिं उगुदालीसण्हं पयडीणं सजोगिचरमसमये उदोरणावुच्छेदो। एत्ता सव्वपयडीणं संतवुच्छेदो कादवो भवदि । तत्थ सुत्तं-'अण मिच्छ मिस्स सम्म' अणंताणुबंधिचदुक्क मिच्छत्त सम्मत्त सम्मामिच्छत्त एदासिं सत्तण्हं पयडीणं असंजदसम्मादिढिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति संतवुच्छेदो। 'सुरणिरय तिरियाऊ' णिरयाउग तिरिक्खाउग देवाउग एदासिं पयडीणं अप्पप्पणो भवम्हि संतबुच्छेदो। 'सोलस' थीणगिद्धितिग गिरयगदि तिरिक्खगदि एइंदिय बेइंदिय तेइंदिय चरिंदियजादि णिरयगइ तिरिक्खपाओग्गाणुपुत्वी आदावुज्जोव थावर सुहुम साधारणसरीर एदासिं सोलसण्हं पयडीणं अणियट्टि-अद्धाए संखेजभागं गंतूण संतवुच्छेदो । 'अट्ठ' तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण अट्ठण्हं कसायाणं संतवुच्छेदो। 'इक्कं' तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण गवंसयवेदो संतवुच्छेदो । 'इक्क' तदो अंतोमुहुत्त [गंतूण ] इत्थीवेद-संतवुच्छेदो। 'छक्कं' तदो अंतोमुहुत्त [गंतूण ] छण्णोकसायसंतवुच्छेदो । 'एक्केक्का य' तदो समयूण आवलियं गंतूण पुरिसवेदसंतबुच्छेदो। तदो अंतोमुहुत्तं कोधसंजलणं, तदो अंतोमुहुत्त माणसंजलणं, तदो अंतोमुहुत्त मायासंजलणं संतवुच्छेदो। सुहुमसंपराइयलोभसंजलणचरमसमए संतवुच्छेदो । 'खोणकसाए सोलस' णिद्दा-पयलाणं खीणकसायदुचरिमसमए संतवुच्छेदो। पंचण्हं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दसणावरणीयाणं पंचण्हं अंतराइयाणं एदासिं चउदसण्हं पयडीणं खीणकसायचरमसमए संतवुच्छेदो। 'वायत्तरि दुचरिमे' देवगदि वेउव्विय-आहार-तेजा-कम्मइयसरीर समचदरससंठाणं वेउन्विय-आहारसरीर-अंगोवंग पंच वण्ण पंच रस दो गंध अट्ट फास देवगदिपाओग्गाणुपु०वी अगुरुगलहुग उस्सास पसत्थविहायगदि पत्तेयसरीर थिर अथिर सुभ असुभ सुस्सर दुस्सर अजसकित्ति णिमिण एदाओ चत्ताल पयडीओ देवगदि-सहगदाओ अण्णदर वेयणीयं ओरालियसरीर पंच सरीर बंधण पंचसरीर संघाद पंच संठाण ओरालियसरीर अंगोवंग छ संघडण उवघाद परघाद अप्पसत्थविहायगदि अपज्जत्त दुभग दुस्सर अणादिज्ज णीचगोद इमाओ अण्णाओ बत्तीसं पयडीओ मणुसगदि सहगदाओ। एयासिं वावत्तरि पयडीणं Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मत्थव-संगहो ५६६ अजोगिदुचरिमसमए संतवोच्छेदो । 'तेरस चरिमम्हि' अण्णदरवेदणीयं मणुसाउग' मणुसगदि पंचिंदियजादि मणुसगदिपाओग्गाणुपुत्वी तस बादर पज्जत्त सुभग आदेज्ज जसकित्ति तित्थयर उच्चागोद एदासिं तेरसण्हं पयडीणं अजोगिचरमसभए संतवुच्छ दो । अडयाल पयडिसदं एवं भणिदो । पंच णाणावरणीयं णव दंसणावरणीयं दो वेदणीयं अट्ठावीस मोहणीयं चत्तारि आउगं तेणउदि णाम गोद दुगं पंच अंतराइय एयाओ सव्वाओ एक्कदो मिलिदे अडदालं पयडिसदं भवदि । पुणो एवं खविदं जेण सो जिणो, तस्स णमो त्ति भणिदं होदि । एवं पयडिसंतवुच्छेदो समत्तो एवं बंधुदय-उदीरणा-संतवोच्छेदो समत्तो । इदि विदियो कम्मत्थव-समत्तो। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदिओ जीवसमासो छदव्व-णवपदत्थे दव्वादिचउविधेण जाणते । वंदित्ता अरहंते जीवस्स परूवणं वुच्छं ॥१॥ छदव्व-णवपदत्थे दव्वादिचदुविधेण परूवणं कोरदे-तत्थ जीवदळां पुग्गलदवं धम्मदव्य अधम्मदव्व आगासदव्व कालदव्य चेदि । तत्थ जीवदव्य दव्यपमाणदो केवडिया ? अणंताणता। खेत्तपमाणदो केवडिया? अर्णता अणंतलोगमे। कालपमाणादो केवडिया? अणंताउस्सप्पिणि-अवसप्पिणी समयावली कदेण अवहिरदि कालेण । भावपमाणदो केवडिया ? केवलणाणविसय-अणंतिमभागमेत्तं । [जहा ] जीवदव्य दव्वादि [चदुविधेण] परविदं, तहा पुग्गलदव्व परूविदव्व। णवरि जीवदव्वादो अणंतगुणं । तत्थ धम्मदव्व अधम्मदव्व लोगागासदत्व णिच्छयकालदव्य एदे दव्वपमाणादो केवडिया ? असंखिज्जासखिज्जा । खेतपमाणादो केवडिया ? लोगागासमेत्ता । कालपमाणादो केवडिया ? असंखिज्जासंखिज्जा उस्सप्पिणि-अवसप्पिणि समयावली अ कदे अवहीरदि ति कालेण । भावपमाणादो केवडिया ? ओधिणाणस्स विसयस्स असंखिज्जदिमभागमेत्ता । ववहारकालं अलोगागास जीवदव्य व वत्तव्वा । जीवाजीवदव्य व्वादिपरूविदं, तद्यथा वा जीवाजीवपदत्था परूविदव्वा । पुण्ण-पाव-आसवसंवरणिज्जर-बंध-मुक्खा एदे सत्त पदस्था दव्वपमाणादो केवडिया ? अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणा, सिद्धाणमणंतिमभागमेत्ता । खेतकाल-भावदो जीवदव्य व वत्तव्वा । णवरि अणंतगुणा । पुढवी जलं च छाया चउरिदिय कम्मसंध परमाणू । छव्विधभेदं भणिदं पुग्गलदव्वं जिणवरेहिं ॥१॥ लोगागासपदेसे एक्कक्कं जेट्ठिया हु एक्केक्का । रदणाणं रासीमिव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥२॥ गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य भग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ॥२॥ जेहिं दु लक्खिजंते उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा णिहिट्टा सव्वदरिसीहिं ॥३॥ मिच्छो साणण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदो पमत्त इदरो अपुव अणियट्टि सुहुमो य॥४॥ उवसंत-खीणसोहो सजोगि जिणकेवली अजोगी य । चउदस गुणठाणाणि य कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥५॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासो इदाणिं लद्धिविहं वत्तइस्सामो। तं जहा--मिच्छादिट्टि [त्ति ] को भावो ? ओदइओ भावो, मिच्छत्तस्स कम्मरस उदएण। सासणसम्मादिट्ठि त्ति को भावो ? पारिणामिओ भावो। तं कथमिति चेत-दसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण वा उवसमेण वा खएण वा खओवसमेण वा ण भवदि, सभावदो भवदि; अदो पारिणामिओ भावो । सम्मामिच्छादिहि त्ति को भावो ? खओवसमियमिदि । तं कथमिति चेत् (?) वुत्ते वुच्चदि-मिच्छत्तं अणंताणु पंचण्हं पयडीणं सव्वघादिफद्दयाण उदयखएण तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मत्तस्स देसघादिफड्डयाण उदयखएण तेसिं चेव संतोयसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मामिच्छत्तस्स य सव्वघादिफड्याण उदएण अणुदिण्णाणं कम्माणं उवसंतं च कट टु उदीरणाणं कम्माणं खएण । अदो तस्स खओवसमिओ भावो।असंजदसम्मादिटिठ तिको भावो? उवसमिओ वा खओ वा खओवसमिओवा] भावो । तत्कथमिति चेत् मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तं अणंताणुबंधिचदुक्क एदासिं सत्तण्हं पयडीणं उवसमेण अउवसमिओ भावो । एदासिं चेव खएण खइओ भावो । खओवसमियमिदि को भावो ? मिच्छत्तं अणंताणुबंधिचदुकं एदासिं पंचण्हं पगडीणं सव्वघादिफद्दयाणं उदयखएणं तेसिं चेव संतोवसमेण सम्मामिच्छत्तसव्वघादिफयाणं उदयखएण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदओवसमेण वा सम्मत्तस्स देसघादिफद्दयाणं उदएण अणुदिण्णाणं कम्माणं उवसमेणे त्ति कट्टु उदिण्णाणं च कम्माणं खएण। अदो तस्स खओवसमिओ भावो। असंजदो त्ति संजमघादीणं कम्माणं उदएण। संजदासंजदो त्ति को भावो ? खओवसमिओ भावो । अणंताणुबंधिचदुक्क अपचक्खाणावरणचदुक्कं एदासिं अट्ठाहं पयडोणं सव्वघादिफद्दयाणं उदयखएण तेसिं चेव संतोवसमेण चउसंजलण-णवणोकसायाणं एदासिं तेरसहं पयडीणं सव्वघादिफद्दयाणं उदयखएण तेसिं चेव संतोवसमेण तेसिं चेव देसघादिफड्डयाणं अ उदएण, पुणो पञ्चक्खाणचदुक्कसव्वघादीणं फड्डयाणं उदएण अणुदिण्णाणं कम्माणं उवसमएणेत्ति कट टु, उदिण्णाणं च कम्माणं खएण तदो तस्स खओवसमिओ भावो। पमत्तसंजदो त्ति को भावो ? खओवसमिओ भावो। अणंताणुबंधिचदुकं अपञ्चक्खाणचदुक्कं पञ्चक्खाणचदुकं एदासिं बारसण्हं पयडीणं उदयखएण तेसिं चेव संतोवसमेण पुणो वि चदुसंजलण-णवणोकसायाणं एदासिं तेरसण्हं पयडीणं सव्वधादिफयाण उदएण खएण, तेसिं चेव संतोवसमेण, तेसिं चेव देसघादिफहयाणं उदएण अदो तस्स खओवसमिओ भावो । किमिदं सार्थकं ( स्पर्धकं ) नाम ? उच्यते-अविभागपल्यपुनः (?) - छिन्नकर्मप्रदेशरसभागप्रचयपंक्तिक्रमवृद्धिः क्रमहानिः स्पर्धकम् । उदयप्राप्तस्य कर्मणः प्रदेशाः अभव्यानामनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागप्रमाणाः । न च सर्वजघन्यगुणाः प्रदेशाः तावत्परिच्छिन्ना यावद्विभागाभावः । एवं अप्पमत्तसंजदरस वत्तव्वं । णवरि पण्णारस पभादा णस्थि । अपुव्वकरणपइट्ठ उवसामिओ खवओ त्ति को भावो? उवसामिओ वा खइओ वा भावो। अणंताणुबंधिचदुक्क मिच्छत्त सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तमिदि एदाओ सत्तण्हं पयडीओ पुवं उवसामिओ । पुणो अप्पच्चक्खाणचदुक्क पञ्चक्खाणचदुकं संजलणाणं णवणोकसायाणं एदासिं एगवीसपयडीणं ण दाव [ ताव ] उवसमेदि, पुरदो उवसामे दि ति। अदो तस्स उवसामिओ भावो। जहा तित्थं पवत्तिहिदि त्ति तित्थयरो त्ति भण्णइ, तहा चेव एत्थ वि । एदासिं चेव सत्तण्हं पयडीणं पुव्वमेव खविदाभो। पुणो एदासिं चेव एकवीसपयडीणं न दाव [ ताव ] खवेदि, पुरदो खवेदि ति अदो तस्स खाइओ भावो । अणियट्टिउवसामगे खवगेत्ति को भावो ? उव समिओ भावो खइओ वा भावो। मोहणीयकम्मस्स काओ वि पयडीओ उवसमिदाओ, काओ वि उवसामेदि, काओ वि पयडीओ पुरदो Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो उवसामेदित्ति अदो तस्स उवसामिओ भावो । पुणो मोहणीयस्स कम्मस्स काओ पयडीओ खविदाओ, काओ पयडीओ खवेदि, काओ वि पयडीओ पुरदो खवेदिति । अदो तस्स खइओ भावो । ५७२ सुहुमसंपराय-उवसामगो खवगोत्ति को भावो ? उवसामिगो वा खवगो वा भावो । मोहणीयस्स कम्मस्स सत्तावीसपयडीओ उवसामिदाओ, लोहसंजलणं पुरदो उवसामेदित्ति अदो तस्स उवसामगो भावो । तस्स चेव मोहणीयसत्तावीसपयडीओ खविदाओ, लोहसंजलणं पुरओ खवेदित्ति अदो तरस खाइगो भावो । उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थ इदि को भात्रो ? उवसमिओ भावो । मोहणीयस्स अट्टवीसपयडीणं सव्वोवसमेण उवसमिओ भावो । खीणकसायबीदरागछदुमत्थ इदि [को] भावो ? खइगो भावो । अट्ठावीसभेदभिण्णमोहरस खएण खाइगो भावो । जोगिकेवलित्ति को भावो ? खाइगो भावो । आवरणमोहंतराइयखएण खइगो भावो । अजोगकेवलित्ति को भावो ? खाइगो भावो । कम्मजणिदविरियक्खएण खइगो भावो । एवं लद्धिपरूवणा समत्ता । मिच्छत्त' वेदतो जीवो विवरीयदंसणो होदि । धम्मं रोचेदि हु महुरमिव रसं जहा जरिदो || ६ || सम्मत्तरयणपव्वद सिहरादो मिच्छभावसमभिहो । णासिदसम्मतो सो सासणणामो मुणेदव्वो ॥७॥ दधि - गुलमिव वामिस्सं पुधभावं णेव कारिढुं सका | एवं मिस्यभावो सम्मामिच्छो त्ति णादव्वो ||८|| य इंदिए विरदो ण य जीवे थावरे तसे चावि । अरहंते य पदत्थे अविरदसम्मो दु सदहदि |||| थूले जीवे वधकरणवगो हिंसगो य इदराणं । एकहि चैव समए विरदाविरदुति पादव्वो ॥ १० ॥ विकहा तह य कसाया इंदिय णिद्दा तहेव पणगो य । चदु चदु पण एगेगं हुंति पमादा य पण्णरसा || ११ || सुभगे पसंगो आरंभ तहा अणारंभो । गुत्ति-समिदिपहाणो णादव्यो अप्पमत्त त्ति ॥ १२ ॥ जह लोहं धर्म्मतं सुज्झदि मुच्चदि य कलिमलं असुहं । एवं अपुव्वकरणं अपुव्वकरणेहिं सोधेदि ॥ १३॥ जह लोहं धम्मंतं अव्वपुव्वे णियच्छदे किट्टिं । तह कम्मं सोधेदि य अपुव्वपुव्वेहि करणेहिं ॥ १४॥ इदरेदरपरिमाणं णयंति वट्टदि य बादरकसाए । सव्वे व एसमए तम्हा अणियट्टिणामा ते ॥१५॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासो ५७३ सुट्ठ वि अवट्टमाणा (?)बादरकिट्टी णिअच्छदे किट्टी । एवमणियट्टिणामो बादरसेसाणमिच्छति ॥१६॥ कोसुंभो जह रागो अब्भंतर सुहुमरायरत्तो य । एवं सुहुमसरागो सुहुमकसाओ ति णादव्यो ॥१७॥ जह खोत्तवंतु उदयं भायणखित्त तु णिम्भलं होदि । एवं कसाय उवसम उवसंतकसाओ त्ति णादव्वो ॥१८॥ तं चेव सुप्पसण्णं पक्खित्त अण्णभायणे उदयं । सुइ णिम्मल णिक्खरं खीणकसाओ त्ति तं विति ॥१६॥ केवलणाणा[णी] लोग[जोगं] सव्यण्हु जिणं अणंतवरणाणं । वागरणजोगजुत्तं सजोगिजिणकेवलिं विति ॥२०॥ सेलेसिं संपत्त णिरुद्धजोगं पणट्टकम्मरयं । संखित्तसव्वजोगं अजोगिजिणकेवली विंति ॥२१॥ अट्ठविधकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिचा । अट्ठगुणा कियकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥२२॥ जेहिं अणेगा जीवा णजंते बहुविधाइं तज्जादी । ते पुण संगहिदत्था जीवसमासे त्ति विण्णेया ॥२३॥ बादरसुहुमेगिंदिय वि-ति-चउरिंदिय-असण्णि-सण्णी य । पज्जत्तापज्जत्ता एवं ते चउदसा होंति ॥२४॥ जह पुण्णापुण्णाइं गिह-घड-वत्थादिआई दवाई। तह पुण्णापुण्णाओ पजत्तिदरा मुणेयव्वा ॥२५॥ आहारसरीरिंदियपजत्ती आणपाणभासमणो । चत्तारि पंच छप्पि य एइंदिय-विकलऽसण्णि-सण्णीणं ॥२६।। बाहिरपाणेहिं जहा तहेव अब्भंतरेहि पाहि । जीवंति जेहिं जीवा पाणा ते हुँति बोधव्वा ॥२७॥ पंच वि इंदियपाणामण-वचि-काएण तिण्णि बलपाणा । आणप्पाण प्पाणा आउगपाणेण हुति दस पाणा ॥२८॥ दस सण्णीणं पाणा सेसेगेगूण अंतियस्स बेऊणा । पज्जनेमियरेसु य सत्त दुगे सेसगेणूणा ॥२६॥ पर्याप्ति-प्राणानां नाम्नि विप्रतिपत्तिर्न वस्तुनीति चेत्कार्य-कारणयोर्भेदात् । पर्याप्तिष्वायुषो सत्त्वात् । मनोवागुच्छासप्राणानामपर्याप्तकाले असत्त्वात् तयोर्भेदात् । पंचिंदियं च वयणं कायं तह आइ आणपाणो । अस्सण्णियस्स णियमा एदे णव पाणया णेया ॥३०॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ पंचसंगहो चक् घाणं जिब्भा फासं वचि काय आउ आणपाणा य । पज्जत्ते चदुरिंदिय णादव्वा होंति अट्ठदे ॥३१॥ फासं जिब्भा घाणं आउं अणपाण काय वयणं तु । तेइंदियस्स एए णायव्या पाणया सत्त ॥३२।। जिब्भा फासं वयणं काउ अणपाण आउ तह होति । वेइंदियम्मि पुण्णे छप्पाणा व णायव्वा ॥३३॥ फासं कायं च तहा अणपाणा हुंति आउसहियाओ। एइंदियपज्जत्ते पाणा चदुरो जिगुद्दिट्ठा ॥३४॥ एदे पुव्वुद्दिट्ठा पाणा पञ्जत्तयाण णायव्वा । एत्तोऽपज्जत्ताणं जहाकम चेय साहामि ।।३५॥ अस्सण्णिय-सण्णीर्ण णत्थि हु मण वयण तह य आणपाणा । दस मज्झे संफिडिदे सत्त य पाणा हवंति त्ति ॥३६॥ पुव्वुत्तसत्तमज्झे सोदेण विणा हवंति छप्पाणा । चदुरिंदियस्स एदे कहिदा जिणवीरणाहेण ॥३७॥ चक्खुविहीणे तेइंदियाण पाणा हवंति पंचेव ।। गंधे पुणु संफिडिदे बेइंतियपाणया चदुरो ॥३८॥ पुव्वुत्तचदुरमझे जिब्भाऽभावेण तिणि जाएइ । एइंदियस्स पाणा णादव्वा जिणवरुद्दिट्टा ॥३६॥ इह जाहि बाधिदा वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । सेवंता वि य उभयं ताओ चत्तारि सण्णाओ ॥४०॥ आहारदसणेण य तस्सुवओगेण ओमकु?ण । सादिदरउदीरणा वि य होदि हु आहारसण्णा दु ॥४१॥ अदिभीमदंसणेण य तस्सुवजोगेण ओमसत्तेण । भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चदुहिं ॥४२।। पणिदरसभोयणेण य तस्सुवजोगेण कुसीलसेवाए। वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥४३॥ उवयरणदंसणेण य तस्सुवजोगेण मुच्छिदाए य । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहो जायदे चदुहिं ॥४४॥ जाहिं य जासु व जीवा मग्गिज्जंते जहा तहा दिट्ठा । ताओ चउदस जाणे सुदणाणे मग्गणा हुँति ॥४५॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासो गइ इंदिएसु काए जोगे वेदे कसाय णाणे य । संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥४६॥ तद्यथा-मृगयिता मृग्यमाणं मार्गणं मार्गणोपायमिति । तत्र मृगयिता नाम पुरुष-भव्यवरपुण्डरीकस्तत्त्वपदार्थश्रद्धालुः। मृग्यमाणं चतुदश जीव-गुणस्थानानि । मार्गणं नाम मृग इति विषयभूतानि गत्यादि-मृग्यस्थानानि । मार्गणोपायं नाभ पाठादीनि । अथवा परिकर्मादीनि । अथवा शिष्याचार्यसम्बन्धानि । अथवा- काले विणए उवधाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे। अत्थं वंजण तदुभय णाणचारो दु अट्ठविहो ॥३॥ इदि एवमादि मार्गणोपायम् । एवं लोकेऽपि दृष्टमेतत् । मार्गणविधानं चतुर्विधं-नष्टद्रव्येव एष पुनर्मार्गणाविधिः। तत्थ इमाणि चउदसठाणाणि णादत्वाणि भवंति । गम्यतीति गतिः। अथवा भवाद्भवसंक्रान्तिर्गतिः । असंक्रान्तिः सिद्धगतिः । प्रत्यक्षविरतानीन्द्रियाणि, अक्षमक्षं प्रतिवर्तत इति प्रत्यक्षम् । चीयतीति कायः । अथवा आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्डः कायः । युञ्जतीति योगः । अथवा आत्मप्रदेशपरिस्पन्दनलक्षणो एनः [ योगः] । वेद्यत इति वेदः। अथवा मैथुनसम्मोहोत्पादो वेदः। सुख-दुःख बहुसष्यकर्मक्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः! भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानं, तत्त्वार्थोपलम्भकं वा । संयमनं संयमः । अथवा व्रत-समिति-कषाय-दण्डेन्द्रियाणां धारण-पालन-निग्रह-त्याग-जयो संयमः। दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । लिम्पत्तीति लेश्या । अथवा कषायानुरञ्जितकाय-वाङ्मनोयोगप्रवृत्तिलेश्या । निर्वाणपुरष्कृतो भव्यः । तद्विपरीतोऽभव्यः । तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अथवा प्रशमसंवेगानुकम्पाऽऽस्तिक्यादिभिर्व्यक्तलक्षणं सम्यक्त्वम् । शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी । तद्विपरीतोऽसंज्ञी । आहियत इत्याहारः । अथवा शरीरप्रायोग्यपुद्गलपिण्डग्रहणमाहारः । तद्विपरोतोऽनाहारः। णिरयगई तिरियगई मणुयगई तह य जाण देवगई। इंदियसण्णा एइंदियादि पंचिदिया जाव ॥४७॥ पुढवी आऊ य तहा तेऊ मरु तरु तसा य णायव्वा । काया जिणेहि दिट्ठा संसारत्था य छब्भेया ॥४॥ सच्चासचं च तहा सच्च य मोसो य असच्चभोसो य । मण-वयणस्स हु एवं पच्छा उण सुणहु काओगो ॥४६॥ ओरालिय तम्मिस्सं वेउब्विय पुण वि होइ तम्मिस्सं । आहारं पुण मिस्सं कम्मड्गसमण्णियं जोयं ॥५०॥ पुरिस इत्थी णउंसय बेदा तिय होंति णादव्वा । कोहादी य कसाया लोभंता जाण ते चउरो ॥५१॥ मदि-अण्णाणं च तहा सुद-अण्णाणं तहेव णादव्वं । होइ विहंगा णाणं अण्णाणतिगं च जाणेदे ॥५२॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो मदिसुदओही य तहा मणपजय केवलं वियाणाहि । पुव्वुच्चतिण्णि सहियं णाणटुं हुंति ते णियमा ॥५३॥ सामाइयं च पढमं छेदं परिहार सुहुम जहकहियं । संजममिस्सं च तहा असंजमं चेव सरोदे ॥५४॥ चक्खु अचक्खू ओधी केवलसहियं ज दंसणं चदुधा । किण्हादीया लेस्सा छब्भेया सुक्कपरियंता ॥५५॥ पढमं भव्वं च तहा वीयमभव्यं तु जिणवरमदम्हि । एत्तो सम्मत्तस्स य णामं साहति जिणणाहा ॥५६॥ उवसम खइयं च तहा वेदगसम्मत्त सासणं मिस्सं । मिच्छत्रेण य सहिदं सम्म छव्विहं णाम ॥५७।। सण्णि-असण्णी जीवा आहारी तह चे अणाहारी । उवओगस्स हु सणं एत्तो उर्दू पवक्खामि ॥५८।। अण्णाणतिगंज तहा पंच य णाणा भणंति हु जिणिंदा । चउदंसणेण सहियं उवओगं वारसविधं तु ॥५६।। गदिकम्म विणिव्वत्ता जा चेट्ठा सा गदी मुणेदव्या । जीवा हु चादुरंगं गच्छति ति य गदी हवदि ॥६॥ ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य । अण्णोण्णेहिं य णिच्चं [ तम्हा ते णारया भणिया ॥६१॥ तिरयंति कुडिलभावं सुवियडसग्णा णिगट्ठमण्णाणा । अचंतपावबहुला तम्हा तेरिच्छिया भविया ॥६२॥ मण्णंति जदो णिचं ] मणेण णि उणा जदो हु ते जीवा । मण-उक्कडा य जम्हा तम्हा ते माणुसा भणिदा ॥६३॥ कीडंति जदो णिचं गुणेहि अद्वेहिं दिव्य-भावेहिं । भासंति दिव्यकाया तम्हा ते वण्णिदा देवा ॥६४॥ जादि-जरा-मरण-भया वियोग-संजोग-दुक्खसण्णाओ। रागादिगा य जिस्से ण संति सा हवदि सिद्धगदी ॥६॥ अहमिंदा वि य देवा अविसेसं बहुमहं ति मण्णंता । ईसंति इक्कमेकं इंदा इव इंदियं जाण ॥६६॥ जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि फासिदिएण एक्केण । कुणइ य तस्सामि तो सो खिदिआदि एइंदी ॥६७॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७७ जीवसमासो खुल्लग वरडग अक्खग रिद्वग गंडूव वालुगा संखा। कुक्खि किमि सिप्पि-आदी णेया वेइंदिया जीवा ॥६८।। कुंथु पिपीलग मक्कुण विच्छिग जुग इंदगोव गोभीया । उत्तिंग्गमट्ठि-आदी णेया तेइंदिया जीवा ॥६६॥ दंसा मसगा मक्खिग गोमच्छिय भमर कीड मकडया । सलभ-पयंगादीया णेया चदुरिंदिया जीवा ॥७०।। अंडज पोदज जरजा रसजा संसेदिमा य सम्मुच्छा। उन्भेदिमोववादिम णेया पंचिंदिया जीवा ॥७१॥ ण वि इंदिय-करणजुदा अवग्गहादीहिं गाहगा अत्थे । णेव य इंदियसुक्खा अणिंदियागंतणाणसुहा ॥७२।। जह भारवहो पुरिसो वहदि भरं गेण्हिऊण कायोडी । एमेव वहदि जीवो कम्मभरं कायकाओडी ॥७३॥ अप्पप्पचुत्तिसंचिदपुग्गलपिडं विजाण कायो त्ति । सो जिणमदम्हि भणिदो पुढवीकायादियो छद्धा ॥७४॥ पुढवी य वालुगा सकराय उवले सिलादि छत्तीसा । वण्णादीहि य भेदा सुहमाणं णस्थि ते भेदा ॥७॥ ओसा अ हिमिग महिगा हरदणु सुद्धोदगे घणदगे य । वण्णादीहि य भेदा सुहुमाणं णत्थि ते भेदा ॥७६॥ इंगाल जाल अच्ची मुम्मुर सुद्धागणी य अगणी य । वण्णादीहि य भेदा सुहुमाणं णत्थि ते भेदा ॥७७।। वादुब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महाघण तण य । वण्णादीहि य भेदा सुहुमाणं णत्थि ते भेदा ॥७॥ मूलग्ग-पोर-वीया कंदा तह खंध-बीज-बीयरुहा।। सम्मुच्छिमा य भणिदा पत्तेयाणंतकाया ते ॥७६।। वेइंदिय तेइंदिय चउरिंदिय असण्णि-सणि जे जीवा । पंचिंदिया य जीवा ते तसकाया मुणेयव्या ॥८॥ जह कंचणग्गिणेया बंधणमुक्का तहेव जे जीवा। घणकायबंधमुक्का अकाइगा ते णिरावाधा ।।८१॥ मणसा वचिया काएण चावि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्सप्पणिओ खलु स जोगसण्णा जिणक्खादा ॥८२॥ . ७३ i Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो सब्भावो सचमणो जो जोगो तेण सचमणजोगो । तव्विवरीयो मोसो जाणुभयं सच्चमोसु त्ति ॥३॥ ण य सच्चमोसजुत्तो जो दु मणो सो असच्चमोसमणो । जो जोगो तेण भवे असञ्चमोसं तु मणजोगो ॥८४॥ दसविधसच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो । तव्विवरीदो मोसो जाणुभयं सच्चमोसु त्ति ॥८॥ जो णेव सच्चमोसो त जाण असच्चमोसवचिजोगो । अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणादीया ॥८६॥ पुरु महमुदारुरालं एगटुं तं वियाण तम्हि भवे । ओरालिय त्ति वुत्तं ओरालियकायजोगो सो ॥८७॥ अंतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णं च । जो तेण संपओगो ओरालियकायमिस्सजोगो सो ॥८॥ विविहगुणइड्डिजुत्तो वेउब्वियमध व विकिरियाए य । तिस्से भवं च णेयं वेउब्वियकायजोगो सो ॥६॥ अंतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णं च । जो तेण संपओगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सो ॥१०॥ आहरदि अणेण मुणी सुहुमे अत्थे सयस्स संदेहे । गत्ता केवलिपासं तम्हा आहारकायजोगो सो ॥११॥ अंतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णं च । जो तेण संपओगो आहारयमिस्सकायजोगो सो ॥१२॥ कम्मेव य कम्मभवं कम्मइगं तेण जो दु संजोगो । कम्मइगकायजोगो एग-विग-तिगसु समएसु ॥१३॥ जेसिं ण संति जोगा सुभासुभा पुण्ण-पापसंजणया । ते होंति अजोगिजिणा अणोवमाणंतबलजुत्ता ॥१४॥ मोहस्सु-[ वेदस्सु ] दीरणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस गउंसय वेदंति हवदि वेदो सो ॥१५॥ छाएदि सयं दोसेण जदो छाददि परं पि दोसेण । ..... छादणसीला णियदं तम्हा सा वष्णिदा इत्थी ॥६६॥ पुरुगुणभोगे सेदे करेदि लोगम्मि पुरुगुणं कम्मं । पुरुसुत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिदो पुरिसो ॥१७॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासो णेवित्थी व पुमा णqसगो उभयलिंगविदिरित्तो । इट्टय अवग्गिसरिसो वेदणगुरुगो कलुसचित्तो ॥१८॥ कारिसतगिट्टमग्गीसमाणपरिणामवेदणुम्मुक्का । अवगदवेदा जीवा सगसंभव-अमिय-वरसुक्खा ॥६६॥ सुह-दुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स । संसारगदीमेरं तेण कसाओ ति णं विंति ॥१००॥ सिलभेद-पुढविभेदा धूलोराई य उदयराइसमा । णिर-तिरि-गर-देवत्तं उविंति जीवा हु कोहवसा ॥१०१॥ सेलसमो अडिसमो दारुसमो तह य जाण वेत्तसमो । णिर-तिरि-णर-देवत्तं उर्वति जीवा हु माणवसा ॥१०२॥ वंसीमूलं मेहस्स सिंग गोमुत्तयं चउरप्पं । णिर-तिरि-णर-देवत्तं उविंति जीवा हु मायवसा ॥१०३॥ किमिरागं चकमलं कद्दम-उवमं च जाण हालि । णिर-तिरि-णर-देवत्तं उविति जीवा हु लोहवसा ॥१०४॥ अप्पपरोभयबाधाबंधासंजमणिमित्तकोधादी। जेसिं णत्थि कसाया अमला अकस्साइणो जीवा ॥१०॥ जाणदि अणेण जीवो दव्य-गुण-पजए य बहुभेदे । पच्चक्खं च परोक्खं तम्हा णाणो त्ति णं विंति ॥१०६॥ विसजंतकूडपंजरबंधादिसु अणुवदेराकरणेण । जा खलु पवत्तदि मदी मदि-अण्णाणेत्ति णं विति ॥१०७॥ आभीयमासुरक्खा भारह-रामाअणादि-उवदेसा । रुच्छा [ तुच्छा ] असाधणीया सुद-अण्णाणेत्ति णं विंति ॥१०॥ विवरीयमोधिणाणं खओवसमियं च कम्मवीयं च । वेभंगो चिय बुच्चदि सम्मणाणीहि समयम्हि ॥१०॥ अहिमुहणियमिदबोधण इंदिय-णोइंदियत्थसंजुत्तं । आभिणिबोधियणाणं विजाण तं वण्णिदं समए ॥११०॥ सोदूण पाठसदं जं घेप्पदि अप्पणो मदिबलेण । तं सुदणाणं जाणसु णिचं उबदेससिद्धं तु ।।१११।। अवधीयदि त्ति ओधी सीमाणाणेत्ति वण्णिदं समए । भव-गुणपञ्चयविहिदं तधावधिणाणेत्ति णं विंति ॥११२।। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० पंचसंगहो उज्जुवमणुज्जुगं पि अ नणोगदं सव्वमणुयलोगम्हि । पज्जयगदं पि जाणदि वुच्चदि भणपज्जवं णाणं ॥११३।। संपुण्णं तु समग्गं केवल जुगवं च सव्वभावविदु । लोगालोगवितिमिरं केवलणाणं मुणेदव्यं ॥११४।। जेम णियमेसु य पंचिंदिएसु पाणेसु संजमो दिटुं । सददं मुणि संजदो ति य तेणं किर संजमो णाम ॥११॥ सामाइयम्हि दु कदे एगं जाम अणुत्तरं धम्म । तिविहेण सद्दहंतो सामाइयसंजमो स खलु ॥११६॥ छेत्तण य परियायं पोराणं पि स्थवेदि अप्पाणं । धम्मम्हि पंच जोगे छेदोपहारगो स खलु ॥११७॥ परिहरदि जो विसुद्धो एयं समयं अणुत्तरं धम्म । पंचसमिदो तिगुत्तो परिहारा संजमो स खलु ।।११८।। लोभं अणुवेदंतो जो खलु उवसामगो व खवगो वा । सो सुहुमसंपराओ जहखादेणूणओ किंचि ॥११९॥ उवसंते खीणे वा असुभे कम्मम्मि मोहणीयम्मि । छदुमत्थो व जिणो वा जहखादं संजमो स खलु ॥१२०॥ दंसण वद सामाइय पोसह सच्चित्त रायभत्ते य । बंभारंभ परिग्गह अणुमण उदिट्ट देसविरदी य ॥१२१।। तसजीवेसु य विरदो थावरजीवेसु णेव विरदु त्ति । सावयधम्मो तम्हा संजमासंजमो स खलु ॥१२२॥ जीवे चउदसभेदे इंदियविसएसु अट्ठवीसेसु । जे तेसु णेय विरदा असंजदा ते मुणेदव्या ॥१२३॥ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटु आयारं ।। अविसेसदृण अत्थे दंसणमिदि भण्णए समए ॥१२४॥ चक्खूणं जं पस्सदि वासदि[दीसदि]तं चक्खुदंसणं विति । दिट्ठस्स य जं सरणं णादव्यं तं अचक्खुईत्ति ॥१२॥ परमाणुआदिगाहं अंतिमखधं ति मुत्तिदव्वाई।। तं ओधिदंसणं पुण जं पस्सदि ताणि पच्चक्खं ॥१२६॥ बहुविह-बहुप्पयारा उजोआ परिमिदम्हि खेत्तम्हि । लोगालोगवितिमिरं केवलवरदंसणुजोवो ॥१२७॥ 1. आदर्श प्रतौ 'लोगागास' इति पाटः । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ जीवसमासो लिंपदि अप्पीकीरदि एदाए णियय पुण्ण पावं च । जीवस्स हवदि लेसा लेसगुणजाणणक्खादा ॥१२८॥ जह गेरुवेण कुड्डो लिप्पदि लेवेण आमपिटुण । तह परिणामो लिप्पदि सुभासुभेणेत्ति लेवेण ॥१२॥ चंडो ण मुयदि वेरं भंडणसीलो य धम्म-दयरहिदो । दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स ॥१३०॥ मंदो बुद्धिविहीणो णिव्विण्णाणी विसयलोलो य । माणी मायी य तहा आलस्सो चेव भीरू य ॥१३१॥ जिंदा-वंचण बहुलो धण-धण्णे होदि तिव्यपरिणामो । लक्खणमेयं भणियं समासदो णीललेसस्स ।।१३२।। रूसदि जिंददि अण्णे दूसदि बहुसो य सोग भय-बहुगो । असुवदि परिभवदि परं पसंसदे अप्पयं बहुसो ॥१३३॥ ण य पत्तियदि परं सो अप्पाणं पिव परो वि तह चेव । [तु]स्सदि अभिथुव्वंतो ण य जाणदि हाणि-वड्डिं च ॥१३४॥ मरणं पत्थेदि रणे देदि य बहुगं पि थुव्यमाणो हु। ण गणदि कजमकजं लक्खणमेयं तु काउस्स ॥१३॥ जाणदि कज्जाकजं सेयासेयं च सव्वसमपासी । दय-दाणरदो य मिद् लक्खणमेदं तु तेउस्स ।।१३६॥ चागी भद्दो चोक्खो उज्जयकम्मो य खमदि बहुगं पि । साहु-गुरुपुजणरदो लक्खणमेदं तु पउमस्स ॥१३७।। ण य कुणदि पक्खवादं ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसु । णत्थि य रागो दोसो णेहो वि य सुक्कलेसस्स ॥१३८।। किण्हा भमरसवण्णा णीला पुण णीलगुलियसंकासा । काऊ कओयवष्णा तेऊ तवणिजवण्णाहा ॥१३६।। पउमा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा । वणतरं च एदे हवंति परिता अणंता वा ॥१४॥ काऊ काऊ य तहा काऊ पीला य णोल णील-किण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा लेसा रदणादिपुढवीसु ॥१४१।। तेऊ तेऊ य तहा तेऊ पम्मा य पम्म-सुक्का य । सुक्का य परमसुक्का लेसा भवणादिदेवाणं ॥१४२।। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ पंचसंगहो तिन्हं दोहं दोहं छण्हं दुण्हं तु तेरसहं च । एतो चउद्दसहं लेसा भवणादिदेवाणं ॥ १४३॥ णिम्मूलखंधदे से [साहा ] गुंछा चुणिऊण के वि पडिदा य । जह एदेसिं भावा तहविह लेसा मुणेयव्वा ॥ १४४॥ लेसपरिणाममुक्का जे जीवा सिद्धिमस्सिदा अजोगी य । अवगदलेसा जीवा सग-संभवगुणअणंतजुत्ता य ॥ १४५ ॥ भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते भवंति भवसिद्धा । सिद्धिपुरकडजीवा संसारादो दु सिज्यंति || १४६॥ संखिजम संखि अनंतकालेण चावि ते णियमा । सिज्यंति भव्वजीवा अभव्वजीवा ण सिज्यंति ॥ १४७ ॥ णय जे भव्वाभव्वा मुनिसुहा जुत्ततीदसंसारा । ते जीवा गादव्वा णेव अभव्वा अ भव्वा य ॥ १४८ ॥ छप्पंचणवविधाणं अत्थाणं जिणवरोवदिट्ठाणं । आणाय अधिगमेण य सद्दहणं होदि सम्मत्तं ॥ १४६ ॥ देवे अण्णभावो विसयविरागो य तच्चसद्दहणं ! दिट्ठी सम्मोहो सम्मत्तमण्णयं जाणे || १५० ।। वयणेण वि हेदूण वि इंदिय-भय- विउब्विगेण रूवेण । बीभच्छ-दुगंछाए तेलुकेण विण कंपिजा ।। १५१ ।। एवं विउला बुद्धी ण विम्हयं एदि किंचि दट्ठण | पट्टविदे सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए ॥ १५२ ॥ बुद्धी सुहाणुबंधी सुइकम्मरदो सुदं च संवेगो । तच्चत्थे सहणं पियधम्मं तिव्वणिव्वेगो ॥१५३॥ इच्चेवमादिया जे वेदयमाणस्स ते भवंति गुणा | वेदगसम्मत्तमिणं सम्मत्तुदएण जीवस्स || १५४ ॥ दंसणमोहस्सुद उवसंते सव्वभावसद्दहण्णं । उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलसं जहा तोयं ।। १५५।। सुट्ठमासु पुढवी जोइस वण- भवण-सव्वइत्थीसु । वारस मिच्छुवधादे सम्मादिट्ठी ण उप्पण्णो || १५६॥ चत्तारि विछेत्ताई आउगबंधेण होदि सम्मत्तं । अणुवय-महव्वदेहि य ण लभदि देवाउगं मुत्तु ॥१५७|| Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ जीवसमासो दंसणमोहक्खवणे पट्ठवगो कम्मभूमिजादो तु। णियमा मणुसगदीए णिट्ठवगो चावि सव्वत्थ ॥१५८।। खवणाए पट्ठवगो जम्हि भवे णियमसा तदो अण्णे । णादिच्छइ तिणि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्हि ॥१५६॥ दंसणमोहुवसमगो दु चदुसु वि गदीसु तह य बोधव्वो। पंचिंदिओ दु सण्णी णियमा सो होदि पञ्जत्तो ॥१६॥ मणपज्जवपरिहारो उवसम्मत्त दोणि आहारा । एदेसु इक्कपयदे णत्थि त्ति अ सेसयं जाणे ॥१६॥ सम्मत्त सत्तया पुण विरदाविरदे य चउदसा होति । विरदेसु य पण्णरसं विरहिदकालो य बोधव्वो ॥१६२।। अडदालीस मुहुत्ता पक्खं मासं तहेव वे मासा । चउ छक्क मास वरिसं अंतर रदणादिपुढवीसु ॥१६३॥ ण य मिच्छत्त पत्तो सम्मत्तादो य जो दु परिपडिदो । सो सासणो त्ति णेओ सादियमध पारिणामिओ भावो ॥१६४॥ सद्दहणासद्दहणं जस्स य जीवस्स होदि तच्चेसु । विरदाविरदेण समो सम्मामिच्छो त्ति णादव्वो ॥१६॥ मिच्छादिट्ठी जीवो उवदिट्ठपवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भाव उवदिट्ठ अणुवदिट्ठ वा ॥१६६॥ एवं कदे मए पुण एवं होदि त्ति कञ्जणिप्पत्ती । जो दु विचारदि जीवो सो सण्णी असण्णिगो इदरो ॥१६७॥ सिक्खाकिरिउवदेसालावग्गाही मणोवलंवेण । जो जीवो सो सण्णी तविवरीदो असण्णी य ॥१६८।। मीमंसदि जो पुव्वं कजमकज च तच्चमिदरं वा। सिक्खदि णामेणेयदि य समणो अमणो य विवरीदो ॥१६॥ आहरदि सरीराणं तिण्हं इक्कदरवग्गणाओ य । भासा-मणस्स णियदं तम्हा आहारगो भणिदो ॥१७॥ विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणो जीवा ॥१७॥ वत्थुणिमित्तो भावो जादो जीवस्स जो द उवओगो उवओगो सो दुविहो सागारो चेव अणगारो ॥१७२।। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ पंचसंगहो मदि-सुद-ओधि-मणेहि य सग-सगरिसए विसेसविण्णाणं । अंतोमुत्तकालो उवओगो सो दु सागारो ॥१७३।। इंदियमणोधिणा वा अत्थे अविसेसिदण जं गहणं । अंतोमुहुत्तकालो उवओगो सो अणागारो ॥१७४।। केवलिणं सागारो अणगारो जुगवदेव उवओगा। सादियमणंतकालो पञ्चक्खदो सव्वभावगदो ॥१७५।। णिक्खेवे एयह णयप्पमाणे णिरुत्ति अणिओगे । मग्गदि वीसं भेदे सो जाणदि जीवसब्भावं ॥१७६।। [ इदि तदिओ जीवसमासो-समत्तो।] Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो सतग-संगहो सयलससिसोमवयणं णिम्मलगत्तं पसत्थणाणधरं । पणमिय सिरसा वीरं सुदणाणादो इमं वोच्छ॥१॥ णाणोदधिणिस्संदं विण्णाणतिसाभिषादजणणत्थं । भवियाणममिदभूदं जिणवयणरसायणं इणमो ॥२॥ भगवंत-अरिहंत-सव्वण्हु-वीयराय-परमेट्टि-परमभट्टारयस्स मुहकमलविणिग्गयणाणोदधिसुयसमुहस्स णिस्संदं 'स्यन्दू' स्रवणे धातुना सिद्धम् । अप्पसुदं विण्णाणं, विसेसं णाणं, बंध-मुक्खजाणणतिसा कंखा, अभिघादजणणत्थं विणास-उत्पादणत्थं, भवियाणं भव्ववरपुंडरीयाणं, अमयभूदं जादि-जरा-मरणविणासगभूदं जिणवयणं अनेकभवगहनविषमव्यसनप्रापकहेतून् कर्मारातीन् जयन्तीति जिनाः। तथा चोक्तं जितमदहर्षदेषा जितमोहपरीषहा जितकषायाः। जितजन्ममरणदोषा जितमात्सर्या जयन्तु जिनाः ॥१॥ एवंगुणविशिष्टानां जिनानां वचनम् । जिनस्य वचनं जिनवचनम् । किमुक्तं भवति ? वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामाण्यं भवति । वत्तारपमाणतेण सुदयगाहासुत्ताण पमाणत्तं जाणावणत्थं जिणवयणमिदि वुत्त। रसायणं अक्खयसुक्खस्स कारणं । इणमो एदाणि पच्चक्खीभूदाणि गाहामुत्ताणि । सुणह इह जीवगुणसण्णिदेसु ठाणेसु सारजुत्ताओ। वुच्छं कदिवइयाओ गाहाओ दिविवादाओ॥३॥ 'सुणह' सोदारसिस्साणं पडिबोहणत्थं वुत्त', अप्पडिबुद्धाणं वक्खाणं णिरत्थयं होदि त्ति । अप्रतिवुद्ध श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम् । नेत्रविहीने भर्तरि विलासलावण्यमिव स्त्रीणाम् ॥२॥ 'इह' इदंशब्दः प्रत्यक्षवाची । केषां प्रत्यक्षम् ? आगमाधित [श्रित] संस्काराणां आचार्याणां प्रत्यक्षम् । 'जीवगुणसण्णिदेसु ठाणेसु' एत्थ जीवसण्णिदा चउदस जीवसमासा, गुणसण्णिदा चउदसगुणहाणा । 'सारजुत्ताओ' सूत्रगुणेन युक्ताः । किं तत्सूत्रगुणम् ? अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्-गूढनिर्णयम् । निर्दोषं हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥३॥ 'वुच्छं' वक्ष्ये । 'कदिवइयाओ गाहाओ' केत्तियाओ वि गाहाओ । 'दिहिवादादो' वारहमअंगस्स कम्मपवाद[णाम]अट्टमपुव्वादो घेत्तूण | तथा चोक्तं ७४ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ पंचसंगहो उवजोगा जोगविही जेसु य ठाणेसु जेत्तिया अस्थि । जं पच्चइओ बंधो हवइ जहा जेसु ठाणेसु ॥४॥ बंधं उदय उदीरणविहं च तिण्हं पि तेसु संजोगो । बंध विहाणे वि तहा कि पि समासं पवक्खामि ॥५॥ एइंदिएसु चत्तारि हुंति विगलिंदिएसु छच्चेव । पंचिंदिएसु एवं चत्तारि हवंति ठाणाणि ॥६॥ एइंदिया दुविहा-बादरा सुहुमा। बादरा दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता । सुहुमा दुविहापजत्ता अपज्जत्ता। एदे चत्तारि एइंदिएसु जीवठाणाणि ४। वेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया य दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता। एदे छ विगलिंदिएसु जीवठाणाणि ६। पंचिंदिया दुविहा-सण्णी असण्णी | सण्णो दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता । असण्णी दुविहा-पज्जत्ता अपज्जत्ता । एवं पंचिंदिएसु चत्तारि जीवठाणाणि ४ । एवं चउदस जीवठाणा १४ । तिरियगईए चउदस हवंति सेसासु जाण दो दो दु । मग्गणठाणस्सेवं णेयाणि समासठाणाणि ॥७॥ तिरियगईए चउदस जीवठाणाणि हवंति १४ । णिरयगदि-देवगदि-माणुसगदीसु सण्णियपंचिंदियपज्जत्तापज्जत्ता [ दो दो जीवठाणागि हवंति। ] कायाणुवादेण पुढवि-आउ-तेउ-वाउकाइया एदे १६ । वण'फदिकाइया १०। तसकाइया एदे [१०] एवं कायमग्गणा छत्तीसं ३६ । पत्तेयं पत्तेयं बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया एदे सोलसा १६। वणप्फदिकाइया दुविहा–पत्तेयसरीरा साहारणसरीरा। पत्तेयसरीरा दुविहा पज्जत्तापज्जत्ता। साधारणा दुविहा—णिञ्चणिगोदा चदुगदिणिगोदा। णिचणिगोदा दुविधाबादरा सुहुमा। बादरा दुविहा–पज्जत्तापज्जत्ता । सुहुमा दुविधा-पज्जत्तापज्जत्ता ४ । चदुगदिणिगोदा दुविहा-बादरा सुहुमा । बादरा दुविहा-पज्जत्तापज्जत्ता । सुहुमा दुविहा-पज्जत्तापज्जत्ता । बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया पंचिंदिया सण्णी असण्णी पज्जत्ता अपज्जत्ता १० । एवं कायमग्गणा छत्तीसा ३६ । । जोगाणुवादेण मण चत्तारि वचि तिण्णि सण्णी पज्जत्त असच्चमोस वचिजोग बीइंदिय तीइंदिय चरिंदिय असण्णी पंचिंदिय पज्जत्त सणिपन्नत्ताण कायजोगा चउदसण्हं पि १४ । ओरालियकायजोगो सत्तण्हं पज्जत्ताणं, ओरालियमिस्स० सत्तण्डं अपज्जत्ताणं। अट्टमओ केवली समुग्घादगदो कवाडो ओरालियमिस्सं । एवं कम्मइय दे विसेवि [ ] अट्टमं पदर-लोगपूरणे । वेउव्वियकायजोगो सण्णिपजत्ताणं, वेउव्वियमिस्सकायजोगो सण्णि-अपज्जत्ताणं । आहाराहारमिस्सकायजोगो सण्णिपज्जत्ताणं । __वेदाणुवादेण णqसगवेदो चउदसण्हं पि। इत्थि-पुरिसवेदो सण्णि-असण्णि-पज्जत्तापजत्ताणं । कसायाणुवादेण कोधकसाइस्स चउदसण्हं पि १४। माणकसाइस्स १४ । मायाकसाइस्स १४ । लोभकसाइस्स १४ । णाणाणुवादेण मदिअण्णाणं सुदअण्णाणं चउदसण्हं पि १४। विभंगणाणं सण्णिपज्जत्ताणं आभिणिबोधियणाणं सुदणाणं ओधिणाणं सण्णिपज्जत्तापन्जत्ताणं । मणपज्जवणाणं सण्णिपज्जत्ताणं। केवलणाणं णेव सण्णी व असण्णीपज्जत्ताणं । संजमाण वादेण असंजमं च उदसण्हं पि १४ । सामाइय-छेदोवट्ठावणं परिहारा सुहुम जहाखायसंजमं सण्णिपज्जत्ताणं । संजमासंजमं पंचिंदियसण्णिपज्जत्ताणं । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो ५८७ दसणाणुवादेण अचक्खुदंसणं चउदसण्हं पि १४। चक्खुदंसणं चउरिदिय-असण्णिसण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणं ३ । ओधिदसणं सण्णिपज्जत्तापज्जत्ताणं २। केवलदंसणं णेव सण्णी णेवासण्गी पजत्ताणं । लेसाणुवादेण किण्ह-णील-काउलेसा चउदसण्हं पि १४। तेउ-पउम-सुक्कलेसा सण्णिपज्जत्तापज्जत्ताणं । भवियाणुवादेण भवसिद्धिया चउदसण्हं पि१४। अभवसिद्धिया चउदसण्हं पि १४ । सम्मत्ताणवादेण मिच्छादिही चउदसण्हं पि१४। सासणसम्मत्तं बादर एइंदी बेइंदी तेइंदी चउरिंदी'असण्णि-सण्णिपंचिंदिय-अपज्जत्ता सण्णिपज्जत्तो च ७ सम्मामिच्छत्तं सण्णिपज्जत्ताणं। जवसमसम्मत्त वेदगसम्मत्त खाइयसम्मत्त सण्णिपज्जत्तापज्जत्ताणं । सण्णिआणुवादेण सण्णी पजत्तापज्जत्ताणं २ । असण्णी बारसण्हं १२। आहाराणुवादेण [ आहारा ] सत्तण्हं पजत्ताणं, अपज्जत्ताणं च १४। अणाहारा सत्तण्हं अपज्जत्ताणं। अट्ठमओ पदर-लोगपूरणे दीसदि। एक्कारसेसु तिय तिय दोसु चदुकं च वारसेकम्मि । जीवसमासस्सेदे उवओगविही मुणेदव्वा ।।८।। एइंदिएसु चदुसु बीइंदिय तीइदिय पज्जत्तापज्जत्ता चदुरिंदिय पंचिंदिय सण्णी असण्णी एदेसु इक्कारसेसु तिणि उवओगा-मदिअण्णाणं सुदअण्णाणं अचक्खुदंसणे त्ति । चदुरिंदिय असण्णिपंचिंदिय पज्जत्ता एदेसु दोसु चत्तारि उवओगा-मदिअण्णाणं सुदअण्णाणं चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणे त्ति । एक्कम्मि सण्णिपंचिंदियपज्जत्ते बारस उवओगा-मदिअण्णाणं सुदअण्णाणं विभंगअण्णाणं पंच णाणाणि, चत्तारि दंसणाणि एदे बारस उवओगा। सण्णिविसेसेण काऊण केवलणाणं केवलदंसणं णत्थि, पंचिंदियसामण्णेण अत्थि णवसु चदुक्के इक्के जोगा इक्को य दोण्णि पण्णरसा। तब्भवगदेसु एदे भवंतरगदेसु कम्मइयं ॥६॥ ‘णवसु चउक्के' बादरेइंदियपज्जत्त-सुहमे गिदियपज्जत्तेसु ओरालियकायजोगो । बादर-सुहुमेइंदिय अपज्जत्त बोइंदिय [अ]पज्जत्त तीइंदियअपजत्त चउरिं दियअपज्जत्त सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तअसणिपंचिंदियअपज्जत्तेसु ओरालियमिस्सकायजोगो । बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तेसु एदेसु चदुसु दोणि ओरालियकायजोगो असच्चमोसवचिजोगा हुति । एदेसु पज्जत्तगहणेण णिव्वत्तिपज्जत्तयाणं गहणं, अपज्जत्तगहणेण णिव्वत्ति-लद्धिअपज्जत्तयाणं गहणं । एक्के सण्णिपंचिंदियपज्जत्तम्हि चत्तारि मणजोगा चत्तारि वचिजोगा सत्त कायजोगा हुँति । कवाडे ओरालियमिस्सकाय जोगो, पदरे लोगपूरणे कम्मइयकायजोगो, पमत्तसंजदम्हि आहार-आहार मिस्सकायजोगो। देव-णेरइयणिव्वत्तिपजत्तयाणं पज्जत्तो त्ति काऊण वेउव्विय-वे उब्वियमिस्सकायजोगो भणिदो । एवं सुत्ताभिप्पाअं, तेसु लद्धिअपज्जत्तगो णत्थि । 'तब्भवगदेसु' खं [णव ] सरीरगहिदेसु एदे पुव्वुत्तजोगा हुँति । 'भवंतरगदेसु' कम्मइयकायजोगो त्ति भणिदो, पुव्वसरीरं छंडिऊण अण्णसरीरं जाव ण गेण्हइ ताव भवंतर विग्गहगइ त्ति एगट्ठो। तम्मि वट्टमाणे कम्मइयकायजोगो। उपओगा जोगविही जीवसमासेसु वण्णिदा एदे। एत्तो गुणेहि सह परिणदाणि ठाणाणिमे सुणह ॥१०॥ [ मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । णव संजयाइ एवं चोदस गुणणामठाणाणि ॥११॥ ] Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ पंचसंगहो मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदपमत्तसंजद अपमत्तसंजद अपुत्वकरण अणियट्टि सुहम उवसंत खीणकसाय सजोगिकेवली अजोगिकेवली। सुर-णारएसु चत्तारि हुँति तिरिएसु जाण पंचेव । मणुयगदीए वि तहा चउदस गुणणामधेयाणि ॥१२॥ गदियाणुवादेण देव-णेरइएसु चत्तारि गुणहाणाणि मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिहि त्ति । 'तिरिएसु जाण पंचेव' मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदेत्ति । 'मणुयगदीए वि तहा चउदस गुणणामधेयाणि' मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगि त्ति। इदियाणुवादेण एईदिय-बीइदिय-तीइंदिय-चउरिदिएसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठि त्ति २ । पंचिंदिएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति १४।। कायाणुवादेण पुढवीए [ आउ] वणप्फदिएसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिहि त्ति २ । तेउ-वाउकाइएसु मिच्छादिहि त्ति १। तसकाइएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति १४। __जोगाणुवादेण सच्चमणजोगि-असञ्चमोसमणजोगि-सच्चवचि-जोगि-असचमोसवचिजोगिओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति १३ । मोसमणजोगि-सच्चमोसमणजोगि-मोसवचिजोगि-सञ्चमोसवचिजोगीसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति १२ । ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी कवाडे सजोगिकेवली ४ । वेउव्वियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठि त्ति ४। वेउव्वियमिस्से मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिही असंजदसम्मादिहि त्ति ३ । कम्मइयकायजोगे मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी। पदरे लोगपूरणे सजोगिकेवलि त्ति ४ । आहाराहारमिस्सकायजोगे एक चेव पमत्तसंजद त्ति १।। वेदाणुवादेण इत्थिवेदे मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति णव गुणहाणाणि । णवंसयवेदे मिच्छादिहिप्पहुडि अणियट्टि त्ति है । पुरिसवेदे मिच्छादिहिप्पहुडि अणियट्टि त्ति ६ । अवगदवेदे सुहुमादि अजोगि त्ति ५। कसायाणुवादेण कोहकसाएसु मिच्छादिटिप्पहुडि अणियट्टि त्ति ६ । मागकसाएसु मिच्छादिटिप्पहुडि अणियट्टि त्ति । मायाकसाएसु मिच्छादिटिप्पहुडि अणियट्टि त्ति: । लोभकसाईसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइय त्ति दस गुणट्ठाणाणि १० । अकसाएसु उवसंतकसायादि अजोगि त्ति ४। णाणाणुवादेण मदिअण्णाणं सुदअण्णाणं विभंगाणाणं मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्टी इदि दुण्णि गुणट्ठाणेसु हुँति २ । मदि-सुद-ओधिणाणेसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ६ । मणपज्जवणाणेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति सत्त गुणट्ठाणाणि ७ । केवलणाणेसु सजोगकेवली अजोगिकेवलि त्ति दुण्णि गुणढाणाणि २ । संजमाणुवादेण सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ४। परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजदो अपमत्तसंजदो ति दणि गणट्राणाणि २। सहमसंपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुमसंपराइयं एक्कं १ । जहाखादविहारसुद्धिसंजदेसु उवसंतकसायादि जाव अजोगिकेवलि त्ति ४। संजमासंजमे एक चेव देसविरदगुणं १। असंजमे मिच्छादिहिप्प हुडि असंजदसम्मादिट्टि त्ति ४। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणे मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव खोणकसाओ त्ति १२ । अचक्खुदंसणे देव गुणहाणा १२ । ओधिदंसणे असंजदसम्मादिट्टिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति ६ । केवलदंसणे सजोगिकेवली अजोगिकेवलित्ति २ । साणुवादेण किण्हणील- काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव असंजद्सम्मादिट्ठि त्ति ४ । ते - पम्मले स्सिए मिच्छादिट्ठिएपहुडि जाव अप्पमत्तु त्ति ७ । सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठिप्प हुडि जाव सजोगिकेवलित्ति १३ । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिद्विप्पहूडि जाव सजोगिकेवलित्ति १३ | अभवसिद्धिएस एक्कं चेव मिच्छादिट्ठिट्ठाणं ९ । सम्मत्ताणुवादेण वेदगसम्मत्ते असंजद्सम्मादिट्टिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ४ । उवसमसम्मत्ते असंजदसम्मादिद्विपहुडि जाव उवसंतकसाओत्ति ८ । खाइयसम्मत्ते असंजदसम्मादिट्टिआदि जाव अजोगिकेवलित्ति ११ । सम्मामिच्छत्ते सम्मामिच्छत्तं इक्कं चेव गुणट्ठाणं १ । सासणसम्मत्ते एक्कं चेव सासणसम्मत्तगुणं १ | मिच्छत्ते मिच्छादिट्ठी चेव गुणं १ । सणियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिडिप्पहुडि जाव खीणकसाओ त्ति १२ । असण्णी सु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठिति दुण्णि गुणा २ । ५८8 आहाराणुवादेण आहारीसु मिच्छादिट्टि आदि जाव सजोगिकेवलित्ति तेरस गुणा १३ । अणाहारी विग्गहगईए मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी पदरे लोग- पूरणे सजोगिकेवली सत्थाणे अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ६ । मिच्छादिट्ठी अनंतरासी । तेरस कोडी देसे वावण्णा सासणे मुणेयव्वा । मिस्से वि य तद्दुगुणा असंजदे सत्तकोडि सदा ॥४॥ पंचैव य तेणउदी णवड विगसघछदुत्तरा पत्ता दु । तिरधिय सदणवणउदी छण्णउदी अप्पमत्त वे कोडी ॥ ५ ॥ सोलसयं चउवीसं तीसं छत्तीसमेव जाणाहि । वादालं अडदालं वे चदुवण्णा य बोधव्वा ॥ ६ ॥ तिसदं वदंति केई चदुत्तरं अथ पंचूणयं केई । उवसामगेसु एवं खवगे जाणाहि तद्दुगुणं ॥७॥ अट्ठेव सदसहस्सा अट्ठाणउदी तहा सहस्साईं । परिमाणं च सजोगी पंच सद विउत्तरं जाणे ॥८॥ [ सासणादयो कमेण ] ५२००००००० | १०४०००००००|७०००००००००।१३००००००० । पमत्तसंजदा ५६३६८२०६ । अप्पमत्तसंजदा २६६६६१०३ । अपुग्वकरणे एत्तिया हुति २६६ ॥ खवगे दुगुणा ५६८ । उवसामगेसु चत्तारिगुणट्ठाणेसु एन्तिया हुंति १९६६ । खवगेसु पंचगुणट्ठाणे एत्तिया हुंति २६६०। सजोगो एत्तिया हुंति ६८५०२ । सव्वे मिलिया एत्तिया हुंतिसत्तादी अहंता छण्णवमज्झा य संजदा सव्वे । अंजलिमउलियहत्थो तिरयणसुद्धो णमंसामि ॥ ९ ॥ ८६६६६६६७ । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसगहो दुण्हं पंच य छच्चेव दोसु इक्कम्हि हुंति वामिस्सा । सत्तुवओगा सत्तसु दो चेव य दोसु ठाणेसु ॥१३॥ मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी एदेसु गुणहाणेसु मदिअण्णाणं सुदअण्णाणं विभंगाणाणं चक्खुदसणं अचक्खुदंसणं एदे पंच उवओगा हुंति । असंजदसम्मादिट्ठो संजदासंजद एदेसु दोसु गुणट्ठाणेसु मदिणाणं सुदणाणं ओधिणाणं चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं ओधिदसणं एदे छ उवओगा हुंति । सम्मामिच्छादिट्ठिम्हि मइणाणं मइअण्णाण मिस्सं सुदणाणं सुदअण्णाणेण मिस्सं ओधिणाणं विभंगणाणेण मिस्सं चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं ओधिदसणं एदे छ उवओगा हुँति । पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुत्व-अणियटि-सुहुम-उवसंत-खीणेसु य असंजदसम्मादिहि-उवओगा मणपज्जवणाणसहिदा सत्त हुंति । सजोगि-अजोगिकेवलीणं केवलणाणं केवलदसणं च [दो] उवओगा हुँति । तिसु तेरेगे दस णव सत्तसु इक्कम्हि हुंति एगारा । एक्कम्हि सत्त जोगा अजोगिठाणं हवदि एक्कं ॥१४॥ मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्भादिट्ठीसु चत्तारि मण जोग चत्तारि वचिजोग-ओरालियकायजोग-ओरालियमिस्सकायजोग - वेउव्वियका यजोग - वेउव्वियमिस्सकायजोगकम्मइयकायजोगा हुँति १३ । सम्मामिच्छादिट्ठिम्हि चत्तारि मणजोग-चत्तारि वचिजोग-ओरालियकायजोग-वेउव्वियकायजोगा हुंति १० । संजदासंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुठव-अणियट्ठि-सुहुमउवसंतखीणेसु चत्तारि मणजोग-चत्तारि वचिजोग-ओरालियकायजोगा हुँति ६ । पमत्तसंजदम्मि अणंतरवुत्तं णव जोगा आहारकायजोग-आहारमिस्सकायजोगेण जुत्ता एक्कारस हुति ११ । सजोगिकेवलिम्हि सच्चमणजोग-असच्चमोसमणजोग-सच्चवचिजोग-असञ्चमोसवचिजोग-ओरालियकायजोग - ओरालियमिस्सकायजोग - कम्मइयकायजोगा हुंति ७ । जोगरहिदं अजोगिट्ठाणं हवदि एक्कं। चउपञ्चइओ बंधो पढमाणंतरतिगे तिपच्चइगो। मिस्सं विदिओ उवरिमदुगं च देसेक्कदेसम्मि ॥१॥ मिच्छादिट्ठिम्मि मिच्छत्तासंजमकसायजोगपच्चया हुति। सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मिच्छत्तवज्ज पुव्वुत्तपच्चया हुति। संजदासंजदम्हि तससंजमथावरासंजमकसायजोगपच्चया हति । उवरिल्लपच्चया पुण दुपञ्चया जोगयच्चओ तिण्हं । सामण्णपच्चया खलु अट्ठण्हं हुंति कम्माणं ॥१६॥ पमत्तसंजदेसु अप्पमत्तसंजदेसु अपुव्व-अणियट्टिसुहुमेसु कसाय-जोगपच्चया हुति । उव. संतकसाओ खीणकसाओ सजोगिकेवली जोगपञ्चओ चेव । अजोगिकेवली अबंधगो त्ति तम्मि ण पच्चओ भणिदो । एदे णाणेगसमयमूलपच्चया बुत्ता। पणवण्णा इर वण्णा [ पण्णासा] तिदाल छादाल सत्ततीसा य । चउवीस दु वावीसा सोलस एगूण जाण णव सत्ता ॥१७॥ णाणेगजीवं पडुच्च एयंतं विवरीदं वेणइय संसइयं अण्णाणं चेव । वुत्तं च एयंत वुडदरिसी विवरीदो वंभ वेणइए तावसो। इंदो वि य संसइओ सक्कलिओ चेव अण्णाणं ॥१०॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो एद पंच मिच्छत्ता । चक्खू सोद घाण जिभा फास मणं च एदे छ इंदिय-असंजमपञ्च या पुढवि आउ तेउ वाउ वणप्फदि तसकाइया एदे छपाणासंजमपच्चया । सोलस कसाय णव णोकसाया य कसायपच्चया। आहारकायजोग-आहारमिस्सकायजोग वज्जिय तेरस जोगपच्चया एदे सव्वे मिलिया पणवण्ण पच्चया मिच्छादिटिरस ५५ । एदे पंचमिच्छत्तवज्जा पण्णासपच्चया सासणसम्माइट्ठिस्स ५०। एदे अणंताणुबंधिचउक्कं ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगवज्ज तिदाला पच्चया सम्मामिच्छादिहिस्स ४३ । एदे ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगसहिदा छादालपच्चया असंजदसम्मादिद्विस्स ४६ । एदे तसासंजम-अप्पच्चक्खाणावरणीयच उक्कं ओरालियमिस्स-वेउव्विय वेउव्वियमिरस-कम्मइयकायजोग वज्ज सत्ततीस पच्चया संजदासंजदस्स ३७ । एदे इक्कारसासंजमपच्चया पच्चक्खाणावरणचउक्क वज्जं आहाराहारमिस्सकायजोगसहिया चउवीस पञ्चया पमत्तसंजदस्स २४ । एदे आहार-आहारमिस्सकायजोग वज्ज वावीस पच्चया अपमत्तसंजदस्स २२ । अपुल्वकरणस्स एदे हस्स रइ अरइ सोग भय दुगुंछ वज्ज सोलस पच्चया १६ । अणियट्टिपढमसमयप्पहुडि जाव संखेज्जभागं एत्तिया हुति १६ । एदे णउंसगवेद वज्ज पण्णरस पच्चया १५ । तओ अंतोमुहुतं ते चेव इत्थीवेद वज्ज चउदस पञ्चया १४ । तओ अंतोमुहुत्तं ते चेव पुरिसवेद वज्ज तेरस पच्चया १३। तओ अंतोमुहुत्तं ते चेव कोधसंजलण वज्ज बारस पच्चया १२ । तओ अंतोमुहत्तं ते चेव माणसंजलण वज्ज एक्कारस पच्चया ११ । तओ अंतोमुहुत्तं ते चेव मायासंजलण वज्ज दस पत्त्चया १० । तओ पहुडि अणियट्टिचरमसमयं जाव ते चेव बादरलोभरहिदा दस पच्चया सुहुमसांपराइयस्स १० । ते चेव सुहम लोभ वज्ज णव पच्चया, उवसंत [कसायस्सा । खीणकसायाणं ते चेव । मोसमणसच्चमोसमण मोसवचि-सच्चमोसवचि वज्ज ओरालियमिस्स कम्मइगकायजुत्ता सत्त पच्चया सजोगिकेवलिस्स ७ । एदे जाणासमयजुत्तंतरपच्चया हुति । दस अट्ठारह दसयं सत्तरसेव णव सोलसं च दोण्हं पि । अट्ठय चउदरा पणयं सत्त त्ति दुति एयमेयं च ॥१८॥ पंचमिच्छत्ताणमेक्कदरं लण्हं एयदर-इंदिएण एयदरकायं विराधयदि त्ति दोण्णि । अणंताणुबंधिवज तिण्हं कोध-माण-माया-लोभाणमेयदरमिदि तिण्णि । तिण्हं वेदाणमेकदरं । हस्स-रइ अरइ-सोग दुण्हं जुअलाणमेक्कदरं भय-दुगुंछा विणा । आहाराहारमिस्स-ओरालियमिस्स-वेउब्वियमिस्स-कम्मइय-कायवन जोग पण्णरसण्हं जोगाणमेकदरं एदे इस जहण्णपच्चया मिच्छादिहिस्स १०। अणंताणबंधि-अणदओ मिच्छादिट्रिस्स कमेण हंति । अणंताणबंधी विसंज असंजद-देसविरद-पमत्तसंजद उवसम-वेदग-सम्मादिट्ठो अणंताणुबंधिसंतविरहियसम्मामिच्छादिट्ठी वा तेसिं मिच्छत्तगयाणं बंधावलिमेत्तकालं उदओ णत्थि ति। तम्हि काले मरणम्मि [ मरणं पि] णस्थि । ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगा णत्थि । पुग्विल्ल पंचमिच्छत्तभंगा उवरिम-छ-इंदियभंगेहिं गुणिया तीसं ३० । ते चेव छक्काय उवरिल्लछक्कायभंगेहि गुणियासीदी अधियसदं १८० । ते चेव उवरिल्लकसायचउभंगेहिं गुणिया वीसअधियसत्तसदा ७२० । ते चेव उवरिमवेद-तिभंगेहिं गुणिया सट्ठि अधिय इक्कवीससदा २१६०। ते चेव उवरिम-जुयलदोभंगेहिं गुणिदा वीसधिया तेयालीससदा ४३२० ते चेव उवरिमजोगदसभंगेहिं गुणिया तेयालीससहस्सा दुसदा य ४३२०० । पंचमिच्छत्ताणमेक्कदरं छहं एयदरं इंदिएण छक्काय-विराहेण सत्त चउण्हं कोह-माण-मायालोभाणमेक्कदरं ति चत्तारि । तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्स-रई अरइ-सोग दुण्हं जुयलाणमेक्कदरं । एदे तस्सेव अट्ठारस उक्कस्सपञ्चया १८ । पुव्विल्लपंचमिच्छत्तभंगा उवरिल्ल छइंदियभंगेहिं गुणिया Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ पंचसंगहो तीसं ३० । ते चेव कसायचउभंगेहिं गुणिया १२० । ते चेव वेद-तिभंगेहिं गुणिया ३६० । ते चेव जुवलदोभंगेहिं गुणिया ७२० । ते चेव जोगतेरसभंगेहिं गुणिया ६३६० । छह इंदियाणमेक्कदरेण छण्हं कायाणमेक्कदरविराधणे दोण्णि : चदुण्हं कोह-माण-मायालोभाणमेक्कदर त्ति चत्तारि । तिण्हं वेदाणमेक्कदरं । हस्स-रइ अरइ-सोग दुहं जुवलागमेक्कदरं । आहाराहारमिस्सकायजोगवज्ज पण्णरसजोगाणमेक्कदरं । एदे दस जहण्णपचया सासणस्स १० । छक्काया छइंदियभेएहिं गुणिया ३६। ते चेव कसायचउभंगेहिं गुणिया १४४ । ते चेव वेद-तिभंगेहिं गुणिया ४३२ । ते चेव जुवलदोभंगेहिं गुणिया ८६४ ! बारस जोगभंगेहिं गुणिया १०३६८ । वेउव्वियमिस्सकायजोगं पडुच्च णqसयवेदो णत्थि । सासणो णेरइएसु ण उत्पज्जदि त्ति । देवेसु इत्थि-पुरिसवेदो चेव, तेण सदं चउदालीसुत्तरं १४४। वेद-दुभंगेहि य २८८ । ते चेव जुवलदोभंगेहिं गुणिया ५७६ । एदे भंगा पुव्वुत्त बारहभंगेहिं मेलिया एत्तिया हुंति १०६४४।। ___छण्हमिंदियाणमिक्कदरेण छक्कायविराधणे सत्त । चदुण्हं कोध माण-माया-लोभाणमेक्कदरं त्ति चत्तारि । तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्स-रइ-अरइ-सोग दुण्हं जुयलाणमेक्कदरं भय दुगुछा च तेरसण्हं जोगाणमेकदरं एदे सत्तारस उक्करसपञ्चया तस्सेव । छइंदियभंगा कसायचउभंगेहिं गुणिया २४ । ते चेव वेद-तिभंगेहिं गुणिया ७२ । ते चव जुयलदोभंगेहिं गुणिया १४४। ते चेव वारसजोगेहि गुणिया १७२८ । वेउव्वियमिस्सकायजोगं पडुच्च चउवीसभंगा। इत्थी-पुरिसदोभंगेहि गुणिया ४८ । ते चेव जुवलदोभंगेहि गुणिया ६६ । एदे वारस पुवुत्तरजोगभंगेहि मिलिया एत्तिया हुंति १८२४ । छण्हमिंदियाणमेक्कदरेण छण्हं कायाणमेक्कदरं विराहणे दोण्णि अणंताणुबंधी वन्ज तिण्हं कोध-माण-माया-लोभाणमेक्कदर त्ति तिण्णि | तिण्हं वेदाणमेकदरं दुण्हं ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिरस-कम्मइयकायजोगे वज्ज दसण्हं जोगाणमिक्कदरं। एदे णव जहण्णपच्चया सम्मामिच्छादिहिस्स: । छ इंदियभंगा छकायभंगेहिं गुणिया ३६। ते चेव कसायचउभंगेहिं गुणिया १४४ । ते चेव वेदतिभंगेहिं गुणिया ४३२ । ते चेव जुगलदोभंगेहिं गुणिया ८६४ । ते चेव दसजोगभंगेहिं गुणिया ८६४० । छण्हमिंदियाणमेक्कदरेण छक्कायविराहेण सत्त । अणंताणुबंधी वज तिण्हं कोध-माण-मायालोभाणमेक्कदर त्ति तिण्णि । तिण्हं वेदाणमेकदरं । दुण्हं जुयलाणमेकदरं । भय दुगुंछा च सह दसण्हं जोगाणमेक्कदरं । एदे सोलस च उकस्सपञ्चया तस्सेव १६ । छ इंदियभंगा कसायचउभंगेहिं गुणिया २४ । ते चेव वेदतिभंगेहिं गुणिया ७२ । ते चेव जुवलभ'गेहिं [गुणिया ] १४४ । ते चेव जगदसभ गेहिं गुणिया १४४० ! सम्मामिच्छादिहिग्स १४४० । ते चेव जहण्णुक्कस्सपच्चया असंजदसम्मादिहिस्स वि । णवरि भगविसेसो अस्थि तधेव जधा ओरालियमिस्सं पडुच्च पुरिसवेदो वेदंति चउदालीसुत्तरसदं १४४ । ते चेव जुवलदो भगेहिं गुणिया २८८। वेउव्वियमिस्त-कम्मइयकायजोगं पडुच्च इथिवेदो णत्थि । णqसगवेदो बद्धाउस्स पढमपुढविउप्पज्जमाणस्स चउदालीसउत्तरसयं १४४। वेददोभंगेहि गुणिया २८८ । ते चेव जुवलदोभगेहिं गुणिया ५७६ । ते चेव वेउव्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगदो भंगेहि गुणिया ११५२ । एदे पुव्वुत्त-ओरालियमिम्सजोगभंगसहिया एत्तिया हुति १४४० । एदे सम्मामिच्छादिहि-जहण्णपच्चयभगसहिया असंजदसम्मादिहिजहण्णपच्चया हुति १०००। ओरालियमिस्सकायजोगं पडुच्च चउवीसभंगा जुयलदोभंगेहिं गुणिया ४८ । देउव्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगं पडुच्च चउवीसभंगा वेद दोभंगेहिं गुणिया ६६। ते चेव वेउव्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगदोभंगेहिं गुणिया १६२। एदे ओरालियमिस्सकायजोगसहिया एत्तिया Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो हुति २४०। एदे सम्मामिच्छादिहिउक्कस्सपच्चयभंगसहिया दो असंजदसम्मादिहिस्स उक्स्सपच्चयभंगा एत्तिया हुति १६८० । छण्हं इंदियाणमेक्कदरेण पंचकायाणमेक्कदरविराधणे दोणि अणंताणबंधी अपच्चक्खाणावरण वज्ज दोण्हं कोध-माण-माया-लोभाणमेक्कदर त्ति दोण्णि । तिण्हं वेदाणमेक्कदरं । दुण्हं जुयलाणमेकदरं । चत्तारि मणजोग चत्तारि वचिजोग ओरालियकायजोगाणमेक्कदरं एदे अट्ठ जहण्णपच्चया संजदासंजदस्स ८। छ इंदियभंगा तसवज्ज पंचकायभंगेहिं गुणिया ३० । ते चेव कसायचउभंगेहिं गुणिया १२० । ते चेव वेदतिभंगेहि गुणिया ३६० । ते चेव जुयलदोभंगेहिं गुणिया ७२० । ते चेव णवजोग-विभंगेहिं गुणिया ६४८०। छण्हमिंदियाणमिक्कदरेण पंचकाय विराहेण छ अणंताणुबंधी वज्ज अपच्चक्खाणावरण वज्ज दुण्हं कोध-माण-माया-लोभाणमिक्कदरं दोणि । तिण्ह वेदाणमेक्कदरं दुण्हं जुयलाणमेक्कदरं । भय दुगुछा च । णवण्हं जोगाणमेकदरं। एदे चउदस उक्कस्सपच्चया तस्सेव । छ इंदियभंगा कसायभंगेहिं गुणिया २४ । ते चेव वेदतिभंगेहिं गुणिया ७२ । ते चेव जुयलदोभंगेहि गुणिया १४४ । ते चेव णवजोगभंगेहिं गुणिया १२६६। संजलणकोध-माण-माया-लोभाणमेक्कदरं । तिण्हं वेदाणमेक्कदरं । दुण्हं जुयलाणमेक्कदरं । चत्तारि मणजोग-चत्तारि वचिजोग-ओरालियकायजोग-आहार-आहारमिस्सकायजोगाणमेक्कदरं । एदे पंच जहण्णपञ्चया पमत्तसंजदस्स । चत्तारि कसायभंगा वेदतिभंगेहि गुणिया १२ । ते चेव जुवलदोभंगेहि गुणिया २४ । ते चेव इक्कारस जोग भंगेहि गुणिया २६४ । ते चेव जहण्णपच्चया य भय-दुगुंछा च सहिया अ सत्त उक्कस्सपच्चया हुँति । भंगा पुण ते चेव २६४। एवं अप्पमत्तसंजदस्स वि । णवरि विसेसो आहार-आहार मिस्सकायजोगा णत्थि । चउवीस भंगा २४ जोगणवभंगेहिं गुणिया जहण्णुकस्सपच्चयाणं भंगा एत्तिया हुंति २१६ ! एवं अपुव्वकरणस्स वि । चदुसंजलणाणमेक्कदरं णवण्हं जोगाणमेक्कदरं। एदे दण्णि जहण्णपच्च अवगदवेदअणियट्टिस्स २ । चत्तारि कसायभंगा णवजोगभंगेहिं गुणिया ३६ । चदुण्हं संजलणाणमेकदरं । तिण्हं वेदाणमेक्कदरं । णवण्हं जोगाणमेक्कदरं । एदे तिणि उक्कस्सपचया सवेदअणियट्टिस्स । चत्तारि कसायभंगा वेदतिभंगेहिं गुणिया १२ । ते चेव णयजोगदुभंगेहि गुणिया १०८ । सुहमे लोभसंजलणं णवण्हं जोगाणमेक्कदरं । एदे दुण्णि जहण्णुक्कसपच्चया सुहमस्स । जोगभंगा णव चेव ।। णवण्हं जोगाणमेक्कदरं । इक्को चेव जहण्णुकस्सपञ्चओ । उवसंतकसायखोणकसायाण जोगभंगा णव चेव है । सञ्चमणजोग-असच्चमोसमणजोग-सच्चवचिजोग-असच्चमोसवचिजोग-ओरालिय-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोगाणमेक्कदरं । एक्को चेव जहण्णक्कस्सपचओ सजोगिकेवलिस्स । जोगभंगा सत्त चेव ७ । एदे एक्कसमयजहण्णुक्करसपच्चया भणिया। पडिणीय अंतराए उवघादे तप्पदोस णिण्हवणे । आवरणदुगं भूओ बंधइ अच्चासणाए वि ॥१६॥ पडिणीय समच्छरो। कुदो वि कारणादो 'वि भावियणाणम्मि दाणजोग्गविणीयसिस्सस्स जदो ण दीयदे,अत्थोवदेसो तम्मच्छरं तित्थपडिऊलं । अंतरायं णाणवुच्छेदं । उवघादं पसत्थणाणदूसणं । तप्पदोसं परमत्थणाणस्ल मोक्खसाधणस्स कित्तणे कदे अकहं मणेण पेसुण्णपरिणामो पदोसो । णिण्हवणे कुदो वि कारणादो णस्थि ण याणिमो पलावणं वंचणं णिण्हवणे । अचासणं अधि वाया काएग परर्पयासणस्त वजगं आसादणं तस्सद्धेणा(तप्पदेग)णाण-दस गणिद्दे सो कदो। कुदो ? 'आवरणदुगं बंधइ' इदि वयणादो। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ पंचसंगहो भूदाणुकंप वद-जोगमुज्जदो खंति-दाण-गुरुभत्तो । वंधदि भूओ साद विवरीदे बंधदे इदरं ॥२०॥ भूदाणुकंप जीवाण अणुग्गहणुल्लकदचित्तो। परपीडापच्छंव करेमाणोणुकंपा। 'वदजोयमुज्जदो' णुकंपवाणसरागादिसंजम अखीणासया । खंति कोहादिणिवित्ती । दाण उत्तमपत्तादिआहारादिदाणं । गुरुभत्तो अंतरंगपरिणामवंदण-णिरिक्खिणादि पसण्णचित्तदा । एहिं पच्चएहिं बंधइ सादमिदि भणिदं होदि । 'विवरीदे बंधदे इदरं' असादं पीडालक्खल(ण)परिणाम दुक्ख इट्ठ-वियोय सोगपरिवादादि चित्तपीडाणिमित्तादो परिताव-पउर-अंसु-णिवडण-कंदणं इंदियाऊ-वियोग-निबंधसंकिलेसपरिणामावलंबण सपराणुग्गह-अभिलास-विसअ-अणणुकंपा परिवेदणं एदे पच्चया असादावेदणीयस्स दुक्खपच्चया। अरहंत-सिद्ध-चेदिय-तव-गुरु-सुद-संघ-धम्म-पडिणीओ। बंधदि दसणमोहं अणंतसंसारिओ जेण ॥२१॥ अरहंता केवलणाणिणो असन्भूददोसुब्भाव कवलाहाराहारिणो अरहंता इदि आसादणं सिद्धा अणोवमसुहोवजुत्ता तदवण्णवादो इत्थीसुहादिणा विणा कुदो सुहं ? चेदिय अरहंतसिद्धाण गुणारोपणाधार तदसो [ दासा ] दणं अचेदणा णिग्गुणा, किं पडिबिंवेणे त्ति । 'तव' कम्मणिज्जराण हेदु वारस । तदासादणं किमि णिस्सिणादितवेणाप्पाण संकिलेसेण कम्मबंधो सिया । 'गुरु' सम्मणाण-दसण-चरित्तगउरवो गुरु । तप्पडिणीओ ण किंपि णाणादिगुणो असुदत्तादो। सुद वारसंगं अरहदोवदि8, मंस-भक्खणादिणिरवज्जं सुदावण्णवादो। 'धम्म' चाउगः पंडंताण सुहेऽवधारणादो धम्म । जिणहिट्टो णिग्गुणो धम्मो जे चरंति ते असुरा भविस्संति । संहरण अणंतओ वेदो दसमणसंह (संघ रिसि-मुणि-अणगारोवेदसमणा संघो) तेसिमवण्णवादो असुचिसरीरा फरुवदो (विरूवया) णिगुणा । एवं पच्चएण बंधदि दसणमोहं जेण अणंतो संसारो। तिव्वकसाय बहुमोहपरिणदो राग-दोससंतत्तो । बंधदि चरित्तमोहं दुविधं पि चरित्तगुणघादी ॥२२॥ तिब्धकसाओ पावण-तवसीणं चारित्तदूसणं संकिलिट्ठा लिंग-वद-धारणादिधम्मोवहास बहुंपलावहाससीलदा हास | णाणाकीडण-परदा वद-सीलारुचि रदि । रदिविणासणं पावसीलं संगस्सादि अरदि । अप्पसोगादि मोद-परसोगादि जिंदण सोग । सभयपरिणाम परभय-उप्पादणं भय । अकुसलकिरिया पर जिंदा-दुगुंछा । अलियकहण अदिसंधारणपविद्ध रागिच्छी । थोव कोधाणुसित्त सदारसंतोसादि पुरिस । पउरकसाय गुझिदियरोधण-परंगणागदि णqसय । बहुमोह अणेयमिच्छत्तभेदेण परिणदो असुचिसारदा रागो। दोस रयणत्तअदूसणं । एदेहिं संतत्तो 'बंधदि चरित्तमोहं दुविहं' पंचाणुव्वदाणि, सयलपंचमहव्वयचारेत्तगुणं घादेइ इमेहिं पच्चएहिं । मिच्छादिट्ठी महारंभ-परिग्गहो तिव्वलोह-णिस्सीलो। णिरयाउगं णिबंधइ पावमदी रुद्दपरिणामो ॥२३॥ 'मिच्छादिट्ठी' तच्चत्थसदहणरहिदो, महारम्भ हिंसातेआणंद-अपरिमिदपरिग्गहरक्खणाणंद किण्हलेसजुदो पावमदी णिरयाउगं बंधदि त्ति ण संदेहो । उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गूढहिययमाइल्लो । सढसीलो य ससल्लो तिरियाऊ णिबंधदे जीवो ॥२४॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो 'उम्मग्ग' पंचमिच्छत्तो वेदधम्मदेसणं संधाणकुसलं पि य णील-कवोदलेस-अट्टज्माणरदो तिरियाउगं णिबंधदि । पयडीए तणुकसाओ दाणरदो सील-संजमविहीणो । मज्झिमगुणेहिं जुत्तो मणुआउं णिबंधदे जीवो ॥२५॥ ‘पयडीए' सहावेण तणुकसाओ मंदकसाओ, दाण पत्तदाणरदो 'सील-वदहीणो' अक्खसंजम-पाण-संजमरहिदो, मज्झिमगुण [गुणेहिं जुत्तो एदेण ] कारणेण मणुयाउयासवो होइ । अणुवद-महव्वदेहि य बालतवाकामणिज्जराए य । देवाउगं णिबंधइ सम्माइट्ठी य जो जीयो ॥२६॥ अकामचारिणिरोध बंधण-वध छहा-तिसा-णिरोह-बम्हचेर-भूमिसयण-मलधारण-परितावादि णिज्जरा बालतव मिच्छादसणोवेदमणवा संकिलेस-पउर-अणुवदादीहिं देवाउगं णिबंधदि त्ति भणिद होदि । मण-वयण-कायवंको माइल्लो गारवेहि दढबद्धो । असुहं बंधदि णामं तप्पडिवक्खेहि सुहणामं ॥२७॥ मण-वयण-कारावंको कुडिलदा अण्णहा पवत्तणं । माइल्लो मिच्छत्त-पिसुण कूड-माणकूडतुलागरण-अप्पपसंसपर जिंदादिया माया । गारव इडि-दव्वलाभ-रसमिट्ठभोयण-सादसुहसयणादि । द्वो असुहणामं बंधइ । तव्यिवरीद जोग पउण (?) यस (रस) सादरहिद धम्मिकत्तं दसणसंभव-संसार [संसकारो] सम्भावभीरुदा पमादादि-वजणादीहि सुहणामं बंधइ । अरहंतादिसु भत्तो सुत्तरुई पदणुमाण गुणपेही । बंधइ उच्चं गोदं विवरीदो बंधदे दरं ॥२८॥ ___ अरहंतादिसु भत्तो पंचगुरुम्हि अदीवभत्तो, सुत्तरुई जिणुत्तसुत्ते अंतरंगादि-परिणामरुई, पदणुमाण अइथोडउ माण, गुणपेही अप्पणिंदण-परपसंसण-गुणुब्भावणा सगुणाच्छादणं गुणुक्करस विणएण णमणं विण्णाणादि-उकास सव्वो विअदमदहंकार उच्छेय-रहिदादि बंधदि गोदुचं । विवरीओ इदरं । किं तं ? णिच्चगोद। जेहिं हेदूहिं अपपसंस-परणिंदा-सग्गुणुच्छेदागुणभावणादीहिं अरुहादिभत्तिरहिदेहिं त्ति वुत्तं होदि । पाणव्वहादिसु रदो जिणपूया-मोक्खमग्गविग्घयरो । अज्जेइ अंतरायं ण लहदि हिय-इंछियं जेण ॥२६॥ पाणवधादि त्ति सुगमं । अंतरायं अज्जेदि पंचपयारं। दाणंतरायं तं कह (हं) जीवाणं अभयविग्घेण जेण सम्मत्ताणुवद-महव्वद-लयणसिस्सा ण उप्पज्जति । उप्पण्णा वि ण थिरा होति । अहवा सुवण्ण-वत्थुआदिदाणविग्घादो सुवण्णादिदा णो उप्पज्जति । लाभंतराएणं अणवरयं भुंजमाणमवि ण तित्ती होइ, अण्णेवि लाभा सरीरावणहेदवो ण लब्भंति । भोगंतरायं [एण] असणादिचउव्विहाहारं दिताण विग्घादो जेण सोदरमवि पूरेदुण सक्कदे । पूरिदमवि छद्दि-आदि होइ । सयलमवि पच्चक्खं, आगमदोऽवसेयं च । उवभोगंतराएण वत्थित्थीतलि-पल्लंक-मालालंकारादिणसिया । एवं विरियंतराएण बलविरिया आहारब्भासहजा ण उप्पन्नति, अदीवसी (लघीयसी) णासंति त्ति वुत्तं होइ । आहार-देयाणं दायार-पत्ताणं वा अंतरं इच्छमज्झे ठाइ ति अंतरायं । तदेहिं पच्चएहिं बंधइ सामण्णे पच्चए जदुत्तं तं एवं ण लब्भइ हिय-इंछियं चित्तण माणसियं अहिलसियवत्थू तं ण पावए जीवो। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ पंचसंगहो छसु ठाणएसु सत्तट्ठविहं बंधंति तिसु वि सत्तविहं । छव्विहमेगु त्तिण्णेगविहं तु अबंधगो इक्को ॥३०॥ छसु गुणठाणएसु मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठि-असंजद- देसविरद-पमत्तापमत्तेसु आउवज सत्त, तेण सह अट्ठबंधो। एइंदियप्पहुदि जाव असण्णिपंचिंदियतिरिक्खेसु कम्मभूमिसण्णिपंचिंदियतिरिक्खेसु कम्मभूमिपडिभागि-सण्णिपंचिंदियतिरिक्खेसु च । मणुस्सा च अपप्पणो आउग-तिभाग-सेसकाले आउगबंधपाउग्गो होदि । भोगभूमिसण्णिपंचिंदिय तिरिक्ख-मणुस्सेसु भोगभूमिपडिभागसण्णिपंचिंदियतिरिक्खेसु च सव्वणेरइय-देवेसु छम्मासाउगसेसकाले आउगं बंधमाणस्स पाओग्गो होदि । सव्वेसु सव्वसंकिलेस-विसुद्धपरिणामेसु आउगबंधो ण होइ, तप्पा. उग्गसंकिलेसपरिणामेसु णिरयाउगबंधो, तप्पा उग्गविसोहिपरिणामेसु सेसाउगबंधो होइ । विगलिंदिय-असण्णिपंचिंदियतिरिक्खकम्मभूमि-कम्मभूमिपडिभागेसु होंति बंधगा। कम्मभूमिपडिभागो णाम सयंभूरवणदीवमझे ठिदसयंपभणगिंदवरपव्वयप्पहुदि बाहिरभागो । भोगभूमिपडिभागो णाम माणुसुत्तरपव्ययप्पहुइय जाव सयंपभणगिंदवरपव्वउ त्ति । एइंदिया पुण सव्वत्थ हंति, तेण सोदाराण मदि-वाउलविणासणत्धं खेत्तविसेसो उववादं विसेसिदण भणि सोदारा ण बुझंति । 'तिसु य सत्तविधं-सस्मामिच्छादिट्ठि-अपुव्व-अणियट्टीसु आउगवज्ज सत्त कम्माणि बंधंति । 'एगो' सुहुमो मोहाउगवज्जाणि छकम्माणि बंधंति । 'तिण्णेगविहं तु उवसंत-खीण-सजोगिणो वेयणीयमेयं बंधंति । अजोगी अबंधगो। अट्टविह-सत्त-छबंधगा वि वेदंति अट्टयं णियमा । एगविहबंधगा पुण चत्तारि व सत्त चेव वेदंति ॥३१॥ 'अट्ठविह-सत्त-छबंधगा' पुव्वुत्ता यदु ( अट्ठ) कम्माणि वेदंति । 'एगविहबंधगा' सजोगिकेवली चत्तारि अघादिकम्माणि वेदंति । उवसंत-खीणकसाया मोहणीयवज्ज सत्त कम्माणि वेदंति । 'च' सद्देण अजोगिकेवलिणो चत्तारि अघादिकम्माणि वेदंति । घादीणं छदुमत्था उदीरगा रागिणो य मोहस्स । तदियाऊण पमत्ता जोगता हुंति दुण्हं पि ॥३२॥ मिच्छादिटिप्पहुडि वीणकसायंता घादीणमुदीरगा हुँति । ते चेव सुहुमंता मोहस्स । 'तदिआऊणं' वेदणीयाउगाणं पमन्ता। सजोगिकेवलि-अंता णामा-गोदाण उदीरगा हुति । वट्टमाणाणं उदयट्ठिदियपढमसमयप्पहुदि जाव य आवलियमेतद्विदीओ मुत्तण उवरिमट्ठिदीणं पलिदोवम-असंखिदिमभागमेत्ते कम्मपरमाणू ओकट्टिऊण उदयावलिपक्खेवणं उदीरणा । 'अपक्कपञ्चणं' उदीरणेत्ति वयणादो। मिच्छादिटिप्पहुदी अट्ठमुदीरेंति जा पमत्तो ति । अद्धावलियासेसे तहेव सत्तमदीरति ॥३३॥ मिच्छादिटिप्पहुदि जाव पमत्ता अट्ठ कम्माणि उदीरिति । सम्मामिच्छादिहि-वज्जियाणं एदेसिं चेव अप्पप्पणो आउगावलियकालाउसेसे आउगवज्ज-सत्तकम्माणमुदीरणा होइ । भुंजमाणामस्स उदयावलिउवरि हिदी णत्थि । उदयावलिए ट्ठिदाणं पि उदीरणा णस्थि । वेदणियाउगवन्जिय छक्कम्ममुदीरिति जाव चत्तारि । अद्धावलियासेसे सुहुमो उदीरेइ पंचेव ॥३४॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो अप्पमत्तप्पहुदि जाव सुहुमंता वेदणीय-आउगवज्ज छक्कम्माणि उदीरिति । सुहुम- संपराइगो गणट्राणकालरस आवलियकालावसेसे मोहणीयवज्ज पंचकम्माणि उदीरेड, खवगस्स उदयावलियउवरि हिदी णत्थि । चडमाणोवसामगस्स उदयादो दो-आवलिउधरि अंतोमुहुत्तमंतरं होऊण उवरि अंतोकोडाकोडीमेतद्विदीओ विज्जमाणा वि ण उदीरेदि । पडिआवालियादो चेव उदीरणा । जाव य समयाधिया उदयावलिसेस त्ति तओ उदओ चेव । ओदरमाणोवसामगस्स एस विही णस्थि । वेदणियाउगमोहे वञ्जिय उदीरिति दोणि पंचेव ।। अद्धावलियासेसे णामं गोदं च अकसाई ॥३५॥ 'वेदणियाउगमोहे वज्जिय' उपसंत-खीणकसाया पंच कम्माणि उदीरिति । खीणकसाओ अप्पगो गुणट्ठाणकालस्स आवलियकालावसेसे णामागोदाणि उदीरेइ, णाणावरण-दसणावरणअंतराइयाणं उदयावलि-उवरिद्विदी णत्थि, उदीरणा णस्थि ।। उदीरेइ णाम-गोदे [ छक्कम्म ]-कम्मविवज्जिदो सजोगी दु । वटुंतो दु अजोगी ण किंचि कम्मं उदीरेइ ॥३६॥ छक्कम्माणि वज्ज णाम-गोदाणि सजोगिजिणो उदीरेइ । 'वस॒तो वि अधादिकम्मोदयसहिदो वि अजोगी ण किंचि कम्मं उदीरेइ; जोगरहिदस्स उक्कट्टणादिकिरिया णस्थि, अंतोमुहुत्तमेत्तं कम्महिदी विज्जमाणो वि । अढविहमणुदीरितो अणुभवदि नदुविधं गुण विसालं। इरियावहं ण बंधइ आसण्णपुरकडो दिट्ठो ॥३७॥ अजोगिजिणो अट्ठकम्माणि ण उदीरेइ, अघाइच उक्कं वेदेइ । जोगणिमित्तं कम्मं ण बंधइ, आसण्णपुरकडो दिट्ठो आसण्णगयसरीरभेओ संतो : इरियावहमाउत्ता चत्तारि व सत्त चेव वेदंति । उदीरिंति दोण्णि पंच य संसारगदम्मि भयणिज्जा ॥३८।। सजोगिजिणो जोगणिभित्तवेदणीयकम्मबंधजुत्तो अवादिचदुक्कं वेदेइ। उवसंतकसायखीणकसाया जोगणिमित्तं वेदणीयकम्मबंधजुत्ता मोहणीयवज्ज सत्त कम्माणि वेदंति। सजोगिजिणो णाम-गोदाणि उदीरेइ । उवसंत-खीणकसाया वेदणीयाउगमोह वज्ज पंच कम्माणि उदीरिति । संसारगदम्हि णिग्गयसंसारे खीणकसाया भयणिज्जा पंच वा दोणि वा उदीरिंति, अपणो गुणट्ठाणकालस्स आवलियकालावसेसे दोष्,ि सेसकाले पंच । छप्पंचमुदीरितो बंधइ सो छव्धिहं तणुकसाओ। अट्ठविहमणुभवंतो सुक्कझाणे डहइ कम्मं ॥३६॥ सुहमसंपराइओ वेदणियाउगवज्जाणि छक्कम्माणि उदीरेइ, अप्पणो गुणहाणकालस्स आवलियकालावसेसे चेव मोहणीयवज्जाणि पंच कम्माणि उदीरेइ, मोहाउगवजाणि छ कम्माणि बंधेइ, अट्ट कम्माणि वेदेइ । अट्टविहं वेदंता छव्विहमुदीरिति सत्त बंधंति । अणियट्टी य णियट्टी अप्पमत्तो य ते तिण्णि ॥४०॥ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो अणि अन्य अप्पमत्तसंजदा अट्ठ कम्माणि वेदंति, वेदणिया उगवज्जाणि छ कम्माणि उदीरिंति, आउगवज्जाणि सत्त कम्माणि बंधंति । पुव्वं अप्पमत्तसंजदो अट्ठ कम्माणि बंधदि इदि वृत्तं । संपत्ति बंधदित्ति कहं ण विरुज्झइ ? अप्पमत्तसंजदो आउगबंधं ण पारभदि त्ति जाणावणटुं वृत्तं । पमत्तसंजदो आउगं बंधमाणो अप्पमत्तसंजदो होढूण समाणेइ, अप्पमत्तगुणट्टाणकाले आउगबंधपाओग्गकालादो गुणट्ठाणकालो थोओ, आउगबंधगद्धा बहुगेत्ति ण पारभदि । ५६८ बंधंति य वेदंतिय उदीरिंति य अट्ठ अड्ड अवसेसा । सत्तविहबंधगा पुण अट्टहमुदीरणे भजा ॥ ४१ ॥ अवसेसा मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजद-संजदासंजद-पभत्तसंजदा अट्ठ कम्माणि बंधंति, वेदंति, उदीरिंति य । एदे चेव आउगवज्ज सत्त कम्माणि बंधकाले अट्ठ उदीरिंति, अप्पप्पणो आउगावलियकालावसेसे आउगवज्ज सत्त कम्माणि उदीरिंति । सम्मामिच्छादिट्ठी आउगवज्ज सत्त कम्माणि बंधइ, अट्ठ कम्माणि वेदेइ, उदीरेइ य । सम्मामिच्छादिट्ठी आउगवज्ज सत्त कम्माण कहं ण उदीरेइ ? आउगावलिकालावसेसे सम्मामिच्छत्तगुणो ण संभवइ, अंतोमुहुत्ताउगावसेसे संभवदित्ति । णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेदणीय मोहणीया । आउग णामा गोदं अंतरायं च मूलपयडीओ ||४२|| एदाए गाहाए एगेगेगमूलपयडीओ, उत्तरा चेव । एदीए गाहाए [ एगुत्तरपयडिस मुक्तिउत्तणा वृत्ता । सादि अनादि धुवं अधुवो य पगडिठाण भुजगारो । अप्पदरमवदि च हि सामित्तेणावि णव हुंति ॥ ४३ ॥ अधादो बंधदिति सादी । सेढिमणारूढं पडुच्च जीवकम्माणमणादि ति । अनादि अभवसिद्धिं पडुच्च, धुवो भवसिद्धिं पडुच्च । अबंधं वा बंधवुच्छेदो वा गंतून अद्ध्रुवो । सादि अनादि तदिया सादियसेसा' अणादि-धुवसेसगो आऊ ॥४४॥ व अद्धुओ य बंधो दु कम्मछक्कस्स । उवसंतकसाओ कालं काढूण देवेसुप्पण्णस्स आउग-वेदाणि वज्जाणं छण्हं अकम्माणं सादियबंधो होइ । सो चेव सुहुमसंपराओ जाओ, तस्स वा सादियबंधो मोहणीयवज्जाणं पंचन्हं सुहुमसंपराओ उवसामगो अणियट्टिगोवसामगो जाओ, तस्स मोहणीयस्स सादियबंधो। उवसमखवगसेढिमणारूढं पडुच्च अणादी | अभवसिद्धिं पडुच्च धुवो । सुहुमसंपराइगोवसामगो उवसंतभावेण अद्धुओ | सुहुमसंपराइयखवगो खीणभावेण वा अधुओ । अणियट्टि उवसामगो खवगो वा सुहुमसंपराइय उवसामग खवगभावेण मोहणीयस्ल अद्ध्रुवबंधो। अ[पुव्व ] उवसामगरस अद्ध्रुवं अबंध भावेग, खवगस्स बंधवुच्छेदभावेण वा । 'तदिया सादिअसेसा वेदणीयस्स सादियबंध णत्थि । कहं ? अजोगी हेट्ठा ण पडदि त्ति । सजोगी अजोगिभावेण अद्भुवं । जीव-कम्माणमणादिति णादि धुवपुव्वं[][ बं] धयावुगस्स अणादि-धुवबंधो णत्थि । अबंधगो होदूण बंधमाणे सादियबंधो, बंधोवरमे अधुवबंधो । उत्तरपयडीसुतहा धुवयाणं बंध चदुवियप्पो दु । सादी अधुविआओ सेसा परियत्तमाणीओ ॥४५॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो णाणंतरायदसयं दसण णव मिच्छ सोलस कसाया। भयकम्म दुगुंछा वि य तेजा कम्मं च वण्णचदू ॥४६॥ अगुरुगलहुगुवघादा णिमिणं च तहा भवंति सगदालं । बंधो य चदुवियप्पो धुवपगडीणं पगिदिबंधो ॥४७॥ 'उत्तरपगडीसु तहा धुवयाणं' पंच णाणावरणीय-नक्खु-अचक्खु-ओधि-केवलदसणावरणपंचंतराइयाणं उवसंतकसाओ देवभावेण सुहुमोवसामगभावेण सादियबंधो। अणादिधुव [बंधा] पुव्वं वा। सुहुम उवसामगो खवगो वा उवसंतभावेण खीणभावेण अधुवं । णिहापयलाणं अपुवकरणद्धाए सत्तभागाण ओदरमाणस्स चरमभागपढमसमए सादियबंधो। अणादिधुव [ बंधा ] पुवं व। अपुवउवसामगो खवगो वा पढमभागादिविदियभागरस अद् णिद्दाणिद्दा पचलापचला थीणगिद्धी अणंताणुबंधिचदुक्काणं असंजद-देसविरद-पमत्तसंजदा सासणभावेण मिच्छभावेण वा सादियबंधो। अणादि मिच्छादिहिस्स । धुव पुव्वं व । मिच्छादिहिस्स सम्मामिच्छत्त-असंजद-देसविरद-अपमत्तसंजदभावेण वा अधुवबंधो। मिच्छत्तस्स सासण-सम्मामिच्छत्त-असंजद-देसविरद-पमत्तसंजदाणं मिच्छत्तभावेण सादियबंधो। अणादि मिच्छादिट्रिस्स । धुव पुरुवं व । अणंताणुबंधिस्स जहा, तहा अपञ्चक्खाणावरणच उक्कास वि। देसावरद-पमत्तसंजदाण असंजद-सम्मामिच्छत्त-सासण-मिच्छत्तभावेण सादियबंधो। मिच्छादिटिप्पहुदि जाव असंजदो त्ति एदेसिं उवरिमगुणमगहिदाणं अणादि । धुव पुव्वं व । एदेसिं चेव उवरिमगुगभावेण अर्द्धव । पञ्चक्खाणावरणचउक्कस्स अप्पमत्तसंजदस्स हेट्ठिमगुणभावेण सादियबंधो । मिच्छादिटिप्पहुदि जाव संजदासंजदु त्ति एदेसिं उवरिमगुणमगहिदाणं अणादिबंधो । एदेसिं अप्पमत्तभावेण अधुवं । धुव पुठ्वं व । कोहसंजलगस्स ओदरमाणेण अणियट्टि-उवसामगे अबंधगे होदूण बंधगजादस्स सादियं । अगादि धव पुव्वं व । अणियट्रि-उवसामगस्स खवगरस वा अबंध बंधवच्छेदभावेण अद्धवं । एवं माण-मायासंजलणाणं । लोभसंजलगरस ओदरमाणसुहम-उवसामगस्स अणियट्रिभावेण सादि । अणादि-धुव पुव्वं व । अणियट्टि-उवसामगस्स खवगरस वा सुहमउवसामग-खवगभावेण अधुवा। भय-दुगुंछाणं ओदरमाण-अणियट्टिअ-उवसामगस्स अपुव्व-उवसामगमावण सादिय । अणादि धुवआ पुव्वं [व]। अपुवकरण-उवसामगम्स खवगम्स वा अणियट्टि-उवसामगखवगभावेण अधुव । तेजा-कम्मइगसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवघाद-णिमिणणामाणं ओदरमाण-अपुव्वुवसामगस्स अब धगयस्स सादि । अणादि धुव-पुव्वं व । अपुवकरण-उवसामगरस खवगस्स वा सत्तमभागपढमसमए गयस्स अधुव सत्तत्तालीसं पगडीणं अबधगाणं कालं काऊणं देवेसुप्पण्णाणं बधजोगाणं सादिअबधो होदि त्ति वा वत्तव्यो । बंधजोग्गा पुण मिच्छत्तअणंताणुव धिचदुक्क-णिद्दाणिद्दा-पचलापचला-थीणगिद्धी वज्जाओ बधसंभवगुणट्ठाणेसु सव्वकालं वधइ त्ति धुवपगडीओ वुचंति । चत्तारि आऊ आहारसरीर-आहारसरीर-अंगोवंग-परघाद-उस्सासआदावुज्जोव-तित्थयरणामाणं सादि-अर्धवबधो होदि; एदेसिं पडिवक्खपयडी णत्थि त्ति । सेसाओ त्ति वुचंति धुवपगडिसेसपगडीवजाणं परियत्तमाणीणं सादि-अधुवबंधी होदि । पडिवक्खपगडिजुत्ताओ परियत्तमाणीओ वुचंति । सेसपगडी परियत्तमाणपगडीणं अणादिधुवरूवेण बंधो पत्थि । एदाहिं दोहि गाहाहिं मूलुत्तरपगडीसु सादि-आदि चत्तारि अणिओगहाराणि वुत्ताणि। चत्तारि पगडिट्ठाणाणि तिणि भुजगारमप्पदरगाणि । मूलपगडीसु एवं अवद्विदं चदुसु णादव्यं ॥४८॥ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० पंचसंगहो सव्वकम्माणि अट्ठ, आउगवज्जाणि सत्त, आउग-मोह-वजाणि छन्भवे । वेदणीयं चेव इक्कं । एदाणि चत्तारि मूलपगडिट्ठाणाणि अप्पं बंधंतो बहुदरं बंधइ त्ति एस भुजगार [बंधो] बहदरं बंधंतो अप्पदरं बंधइ त्ति एस अप्पदरबंधो। भजगारे अप्पदरे वा कदे तत्तियं तत्तियं बं: त्ति एस अवट्ठिदो बंधो । उवसंतकसायं एगं बंधंतो सुहुमो होदूण छकम्माणि बंधदि त्ति एस एक्को भुजगारो। सुहुमो अणियट्टी होदूण सत्त बंधइ त्ति बिदिओ भुजगारो । आउगबंधपाओग्गगुणहाणेसु सत्त बंधंतो अट्ठ बंधइ त्ति तदिओ भुजगारो। उवसंतकसाओ सुहुमो वा हेट्टाऽहो होदूण सत्त बंधइ त्ति वा भुजगारो। विवरीदेण तिणि अपदरगाणि वत्तव्याणि । भुजगार-अप्पदरकालो एगसमइओ। सेसबंधकाले चत्तारि अवट्ठिदाणि । तिण्णि दस अट्ट ठाणाणि दंसणावरण-मोह-णामाणं । इत्थेव य भुजगारा सेसस्सेगं हवइ ठाणं ॥४॥ दसणावरणकम्मरस तिणि ठाणाणि-णव छ चत्तारि । दंसणावरणस्स सव्वकम्माणि घेत्तणं णव बंधइ त्ति मिच्छादिट्ठिणो । थीणगिद्धीतिग वज्ज छ कम्माणि सम्मामिच्छादिहिप्पहुडि जाव अपव्यकरणपढम-सत्तमभाग त्ति बंधंति । गेस एदेस मज्झे णिहा-पचला वज्ज चत्तारि कम्माणि अपुव्वकरणविदिय-सत्तमभागप्पहुदि जाव सुहुमसंपराय त्ति बंधंति । ओदरमाणअपुठवकरणुवसामगो चत्तारि बंधमाणो छ बंधइ त्ति एक्को भुजगारो। असंजदसम्मादिट्ठी देसविरदं पमत्तसंजद छ कम्माणि बंधमाणस्स सासणभावेण वा मिच्छभावेण वा णव बंधमाणस्स विदिओ भुजगारो । सम्मामिच्छादिहिस्स छ बंधमाणस्स मिच्छभावेण णव बंधमाणस्स वा भुजगारो। मिच्छादिहिस्स णव बंधमाणस्स सम्मामिच्छत्त-असंजद-देसविरद-अप्पमत्तसंजदभावेण छ बंधमाणस्स इक्को अप्पदरो। छ बंधमाणो अपुवकरणो चत्तारि बंधदि त्ति विदिओ अप्पदगे। तिण्णि अवटिदाणि । वावीसमेकवीसं सत्तारस तरसेव णव पंच । चदु तिग दुगं च एगं बंधट्ठाणाणि मोहस्स ॥५०॥ मोहणीयस्स दस हाणाणि । मिच्छत्त सोलस कसाय इत्थी-णqसग-पुरिसवेदाणमेकदरं, हरस-रइ अरइ-सोग दुण्हं जुयलाणभेक्कदरं भय दुगुंछा च एदासिं वावीसपगडीणं बंधमाणरस एकं ठाणं । तिण्णि वेद-भंगा दो-जुयलभंगेहिं गुणिदा छ भंगा वाबीसस्स । एदाओ चेव मिच्छत्तणqसयवज्जाओ एकवीसपयडीओ बंधमाणस्स सासणस्स विदियहाणं । इत्थीपुरिस दो भंगा दो दोजुयल-दोभंगेहिं गुणिया चत्तारि इक्कवीसस्स । एदाओ चेव पगडीओ अणंताणुबंधि-इत्थीवज्जाओ सत्तरसपगडीओ बंधमास्स सम्मामिच्छादिट्ठिस्स असंजदसम्मादिहिस्स वा तदियठाणं । जुयल-भंगा दो चेव सत्तारसरस । एयाओ चेव अपञ्चक्खाणावरणचउक्क-वज्जाओ तेरस पगडीओ बंधभाणस्स देसविरदस्स चउत्थट्टाणं । जयल-भंगा दो चेव । पच्चक्खाणावरणचउक्त-वज्जाओ णव पगडीओ बंधमाणस्स पमत्तापसत्त-अपुठवकरणस्स पंचमट्ठाणं । जुयल-भंगा दो चेव । णवरि अपुव्वकरण-अप्पमत्त अरदि-सोगाणि ण बंधति । पुरिसवेद-च उसंजलणाणि घेत्तण पंच परिसवेद. वज्ज चउ । कोधसंजलण-वज तिणि । माणसंजलण-वज्ज दोणि । मायासंजलणं इक्क । एदाणि पंच ठाणाणि अणियट्टि-अद्धाए पंचसु भागेसु जहाकमेण हुंति । भंगो इक्ककदो चेव । दोपहुदि जाव वावीस त्ति णव भुजगारा ६ | वावीस-बंधगो इकवीस-बंधगो ण होदि त्ति अव अप्पदरगाणि ८ । दस अवट्ठिदाणि १० । एक च दो व तिणि य चत्तारि पंचेव दो अंका। इगिवीसादेगंता भुजगारा वीस मोहस्स (२०) ॥५१॥ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०१ सतग-संगहो तिअ दोण्णि छक्कक्क वावीस [ सत्तरसादिय दो य इक्कारस समासदो हुँति मोहस्स (११) ॥५२॥ णामस्स य अट्ठ ठाणाणि तेवीसं पणुवीसं छव्वीसं अट्ठवीसमुगुतीसं । तीसेकतीसमेयं बंधट्ठाणाणि णामस्स ॥५३।। इगि तिण्णि पंच-पंच य बंधहाणाणि जाण णामस्स । णिरयगइ-तिरिय-मणुया देवगई संजुदा हुंति ॥५४॥ अट्ठावीसं णिरए तेवीसं [ पंच.] पीस छव्वीसं । उणतीसं तीसं [ च हि ] तिरियगईसंजुदा पंच ॥५५॥ पणुवीसं उगुतीसं तीसं च य तिण्णि हुंति मणुसगई। इगितीसादेगुण अठ्ठावीसेकगं च देवेसु ॥५६।। णिरयगइसंजुत्त एगट्ठाणं । तं जहा-णिरयगइ पंचिंदियजादि वेउव्विय तेजा कम्मइयसरीर हुंडसंठाण वेउव्वियसरीर अंगोवंग वण्ण गंध रस फास णिरयगइपाओग्गाणुपुत्वी अगुरुगलहुग उवघाद परघाद उस्सास अप्पसस्थविहायगइ तस बादर पज्जत्त पत्तयसरीर थिर असुभग दुब्भग दुस्सर अणादिन्न अजसकित्ती अ णिमिणणामोओ अट्ठवीस पगडीओ बंधमाणस्स कम्मभूमि-कम्मभूमिपडिभागी सण्णी असण्णी पंचिंदिय तिरिक्ख पज्जत्त-कम्मभूमिमणुसपज्जत्तमिच्छादिहिस्स एगठाणपदस्स भंगो एको । तिरिक्खगइसंजुत्ताणि पंच हाणाणि । तत्थ पढमाए तीसं ठाणं । तं जहा-तिरिक्खगइ पंचिंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइगसरीर छ संठाणाणमेक्कदर ओरालियसरीर अंगोवंग छसंघडणाणमेक्कदरं वण्ण गंध रस फास तिरिक्खगइपाओग्गाणवी अगरुगलहग उवघाद परघाद उस्सास उज्जोव पसत्थापसत्थविहायगदोणमेक्कदरं तस बादर पज्जत्त पत्तेगसरीर थिराथिराणमेकदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुभग-दुभगाणमेक्कदरं आदिज-अणादिज्जाणमेक्कदरं जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामाणं तीसपगडीणं बधमाणाणं भोगभूमि-भोगभूमिपडिभागी सण्णी पंचिंदियतिरिय-भोगभूमिमणुस-आणदादिदेववज्जाण मिच्छादिट्ठीणं एवं ठाणं संठाण-छब्भंगा संघडण-छभंगेहिं गुणिया ३६। ते चेव विहायगदि-दोभंगेहिं गुणिया ७२ । ते चेव थिराथिरदोभंगेहिं गुणिया १४४ । ते चेव सुभासुभ-दोभंगेहिं गुणिया २८८ । ते चेव सुभग-दुभगदोभंगेहिं गुणिया ५७६ । ते चेव सुस्सर-दुस्सर दोभंगेहिं गुणिया ११५२ । ते चेव आदेजअणादिजदोभंगेहिं गुणिया २३०४। ते चेव जसकित्ति-अजसकित्तीणं दोभंगेहिं गुणिदा ४६०८। एवं विदियतीसाए ठाणं । णवरि हुंडसंठाण असंपत्तसेवा सरीरसंघडणं च णत्थि । असंखिजवस्साउगतिरिक्ख-मणुस्साणदादिदेव वज्ज सासणसम्मादिट्ठीणं विदियतीसं । एदस्स भंगा ण गहिया, पुव्वुत्तभंगेसु पुणरुत्त त्ति ।। तदियतीसाए ठाणं तं जहा-तिरिक्खगइ बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादीणं इक्कदरं ओरालिय तेजा कम्मइगसरीर हुंडसंठाण ओरालियसरीर-अंगोवंग असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणवण्ण गंध रस फास तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुगलहुग उवघाद परघाद उस्सास उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ तस बादर पज्जत्त पत्तेगसरीर थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं दुभग ७६ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ पंचसंगहो दुम्सर अणादिज जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामाओ तीसं पगडीओ बधमाणस्स असंखिज्जवस्साउग वज तिरिक्ख-मणुस्समिच्छादिहिस्स । एवं तदिय तीसं तिण्णि जादि-भंगा थिराथिर-दो भंगेहिं गुणिया ६। ते चेव सुभासुभ-दोभंगेहिं गुणिया १२ । ते चेव जस-अजसकित्तिदोभंगेहिं गुणिया ॥२४॥ जहा पढम-विदिय-तदियतीसं, तहा पढम-विदिय एगुणतीसं। णवरि उज्जोववन्न ।' ........."४६३२। तिरिक्खगइ एइंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइयसरीर हुंडसंठाण वण्ण गंध रस फास तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी य अगुरुगलहुग उववाद परघाद उस्सास आदावुज्जोवाणमेक्कदरं बादर पज्जत्त पत्तेगसरीर थिराथिराणमेकदरं सुभासुभाणमेकदरं दुभग अणादिज्ज जसअजसकित्तीणमेकदरं णिमिणणामाओ छब्बीसपगडीओ बधमाणस्स असंखिजवस्साउगतिरिक्खमणुस-सव्वणेरइय-सणक्कुमारादिदेववजमिच्छादिहिस्स । एदं छव्वीसं ठाणं आदाबुज्जोव-दोभंगा थिराथिर-दोभंगेहिं गुणिया ४ । ते चेव सुभासुभ-दोभंगेहिं गुणिया ८ । ते चेव जस-अजसकित्तिदोभंगेहिं गुणिया १६ । तिरिक्खगइ एइंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइयसरीर हुंडसंठाण वण्ण गंध रस फास तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुत्वी अगुरुगलहुग उवघाद परघाद उस्सास थावर बादर-सुहुमाणमेकदरं पज्जत्त पत्तंग-साहारणसरीराणमेक्कदर थिराथिराणमेक्कदर सुभासुभाणमेक्कदर दुभग अणादिज्ज जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामाणं पणुवीसं पगडीणं बधगा ते चेव, जे छव्वीसपगडीणं बधगा हुँति । णवरि सुहुम-साहारणाणि भवणादि-ईसाणंता देवा सामी ण होति । जसकित्ती णिरंभिऊण थिराथिर-दो भंगा सुभासुभदो-भंगेहि गुणिया ४ । अजसकित्ती णिरंभिऊण बादरसुहुमदोभंगा पत्तेग-साहारण-दोभंगेहिं गुणिया ४। ते चेव थिराथिर-दोभंग हिं गुणिया ८। ते चेव सुभासुभ-दोभंगेहिं गुणिया १६ । एदे अजसकित्ती सोलस पुव्वुत्त जसकित्ती चत्तारि सहिदा वीसा पढमपणुवीसभंगा हुंति २० । तिरिक्खिगइ वेइंदिय-तीइंदिय-चउरिं दिय-पंचिदियजादीणमेक्कादरं ओरालिय तेजा कम्मइयसरीर हुंडसंठाणं ओरालियसरीरअंगोवंग असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण वण्ण गंध रस फास तिरिक्खगइपाओग्गाणपुल्वी अगरुगलहग उवघाद तस बादर पज्जत्त पत्तयसरीर अथिर असभ भग अणादिज्ज अजसकित्ती णिमिणणामाओ पणवीसं पयडीओ बघमाणस्स असंखेज्ज वस्साउग वज्ज तिरिक्ख-मणुसमिच्छादिहिस्स विदियपणुवीसं ठाणं। एयस्स चत्तारि जाइ-भंगा ४ । तिरिक्खगई एइंदियजाई ओरालिय तेजा कम्मइगसरीर हुंडसंठाण वण्ण गंध रस फास तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुत्वी अगुरुगलहुग उवघाद थावर बादर-सुहुमाणमेक्कदरं अपज्जत्त पत्तेग साधारणसरीराणमेकदरं अथिर असुभ दुभग अणादिज्ज अजसकित्ती निमिणणामाओ तेवीसं पगडीओ बधमाणस्स असंखेजवरसाउग वज तिरिक्ख-मणुसमिच्छादिहिस्स तेवीसं ठाणं । बादरसुहुमदोभंगा पत्तेग-साधारणदोभंगेहिं गुणिया तिरिक्खगइसंजुत्तसव्वभंगा एत्तिया हुंति ६३०८ । मणुसगइसंजुत्ताणि तिणि ठाणाणि । मणुसगइ पंचिंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइयसरीर समचउरसरीरसंठाण ओरालियसरीरंगोवंग वज्जरिसभवइरणारायसरीरसंघडण वण्ण गंध रस फास मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी अगुरुगलहुग उवघाद परघाद उस्सास पसत्थविहायगइ तस बादरपन्जत्तपत्तेगसरीर थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुभग सुस्सर आदिज जसअजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिण तित्थयरणामाओ तीसपयडीओ बधमाणस्स चउत्थादिहेट्ठिमपुढवी-भवणवासि-वाणविंतर-जोदिसिय वज्ज देव-णेरइयअसंजदसम्मादिहिस्स तीस ठाणं । थिराथिर-दो भंगा सुभासुभदोभंगेहिं गुणिया ४ । ते चेव जस-अजसकित्ती-दोभंगेहिं गुणिया ८। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो मणुसगइ पंचिंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइयसरीर छसंठाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीरअंगोवंग छसंघडणाणमेक्कदरं वण्णादिचदुक्कं मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुगलहुगादिचदुक्कं पसत्थ-[अप्पसत्थ-]विहायगदीणमेक्कदरं तस बादर पजत्त-पत्तेगसरीर थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेकदरं सुभग-दुभगाणमेकदरं सुस्सर-दुस्सराणमेक्कदरं आदिज्ज-अणादिजाणमेक्कदरं जसअजसकित्तीणमेकदरं णिमिणणामाओ एगणतीसपगडीओ बंधमाणस्स सत्तमपुढवीणेरइय तेउ वाउ असंखेज्जवस्साउगं वज्ज मिच्छादिहिस्स पढमएगुणतीसठाणं । एदस्स वि भंगा तिरिक्खगइसंजुत्तपढमएगुणतीसठाणं भंगा चेव ४६०८ । एवं विदियं एगुणतीसठाणं पि। णवरि हुडसंठाण असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं च वज्ज सासणसम्मादिहिस्स विदियएगुणतीसठाणं । वियप्पा पुणरुत्त त्ति ण गहिया । मणुसगई पंचिंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइगसरीर समचदुरसरीरसंठाण ओरालियसरीरअंगोवंगं वज्जरिसहवइरणारायसरीरसंघडणं वण्णादिचदुकं मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी य अगुरुगलहुगादिचदुकं पसत्थविहायगइ तस बादर पजत्त पत्तेगसरीर थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुभग सुस्सर आदिज्ज जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामाओ एगुणतीसपगडीओ बंधमाणस्स देव-णेरइ यसम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिहिस्स तदियएगुणतीसठाणं । एदरस भंगा पुणरुत्त त्ति ण गहिया । मणुसगइ पंचिंदियजादि ओरालिय तेजा कम्मइयसरीर हुंडसंठाण ओरालियसरीरअंगोवंग असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं वण्णादिचदुकं मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी अगुरुगलहुग उवघाद तस बादर पज्जत्त पत्तेगसरीर अथिर असुभ दुभग अणादिज्ज अजसकित्ती णिमिणणामाओ पणुवीस पगडीओ बंधमाणस्स तेउ-वाउ असंखेजवस्साउगं वज्ज तिरिक्ख-मणुसमिच्छादिहिस्स पणुवीसं ठाणं । एदम्स इक्को चेव भंगो १ । मणुसगइसंजुत्ताण सव्वभंगा एत्तिया ४६१७ । देवगइसंजुत्ताणि पंच ठाणाणि । देवगइ पंचिंदियजादि वेउव्वियाहारतेजाकम्मइय[सरीर] समचउरससरीरसंठाणं वेउव्विय-आहारसरीरंगोवंगा वण्णचदुक्कं देवगइपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुगलहुगादिचदुकं पसत्थविहायगइ तस बादर पज्जत्त पत्तेयसरीरा थिर सुभ सुभग सुम्सर आदिज्ज जसकित्ती णिमिण-तित्थयरणामाओ[इ- कत्तीसपयडीओ अप्पमत्तसंजदा अपुव्वकरणद्धाए सत्तछभागगया अट्ठाणं [ य ठाणं] बंधंति । एवं एकत्तीसा अट्ठाण [य ठाणे ] इक्को भंगो १ । एवं चेव तीसाए ठाणं पि । णवरि तित्थयरवजं । एदस्स वि एक्को चेव भंगो १। पढमए उणतीसाए ठाणं जहा तहा एक्कत्तीसठाणं णायव्वं । णवरि आहार-]आहारसरीरंगोवंग बज्ज । एवं विदिए एगुणतीसाए ठाणं । णवरि थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं जसअजस कित्तीणमेक्कदरं भाणियव्वं । सामिणो कम्मभूमिमणुस-असंजद-देस-विरद-पमत्तसंजदा हुंति । थिराथिरा दोभंगा सुभासुभ-दोभंगेहिं गुणिया ४। ते चेव जस-अजसकित्तीण दोभंगेहिं गुणिया ८ । पढम-एगुणतीसवियप्पा एस्थेव पुणरुत्त त्ति प गहिया । पढम-अट्ठावीसा अट्ठाणं जहा पढम-एगुणतीसा अठाणं तहा णायव्वं । णवरि तित्थयां वज्ज । विदिय-अट्ठावीसा अढाणं जहा विदिय-एगुणतीस ठाणं तहा णायव्वं । णवरि तित्थयरं वज्ज । सामिणो वि य सण्णिपंचिंदिय-असण्णिपंचिंदिय-पज्जत्तमिच्छादिट्टी सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी संजदासंजद-तिरिक्ख-मणस्सा पमत्तसंजदा य हंति । देवगइसंजुत्तसव्वभंगा अट्ठारस १८ । एकं ठाणं अगदिसंजत्तं जसकित्ती तम्हा सामिणो अपुत्वकरणद्धाए उवरिम-सत्तमभागगया जा व सुहुमसंपराइया त्ति । एदस्स भंगो इक्को चेव १ । सव्वभंगा मेलिया एत्तिया हुँति १३६४५ । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो जम्हि जम्हि असंखिज्जवस्साउग त्ति भणिया, तम्हि तम्हि भोगभूमिपडिभागियतिरिक्ख-भोगभूमिमणुसा च घेत्तव्वो। सेसतिरिक्ख-मणुससंखेजवस्साउगं परघाद उस्सास विहायगइ सुस्सरणामाणि अपज्जत्तेण सह बंधं णागच्छंति । पुव्वुत्तभंगा[f]संखपरूवणा एस गाहा सव्वे वि पुव्वभंगा उवरिमभंगेसु इक्कमेकसु । मेलंति ति य कमसो गुणिदे उप्पजदे संखा ॥११॥ तेवीसं पणुवीसं [छन्वीसं ] अट्ठावीसं एगूणतीसं तीसं इकत्तीसं इक्कं एदाणि णामस्स अट्ठ ठाणाणि । ओदरमाणेण अपुव्वुवसामगो एक बंधंतो एक्कत्तीसं वा तीसं वा एगूणतीसं वा अदावीसं वा बंधंति त्ति चत्तारि भुजगारा४। तेवीसं बंधमाणो पंचवीस बंधइत्ति एक्को भुजगारो । पंचवीसं बंधमाणो छव्वीसं बंधइ त्ति विदिओ भुजगारो २। एवं जाव एक्कत्तीस त्ति ताव जहासंभवेण भुजगारो घेत्तव्वो। एवं भुजगारहाणाणि छह । अपुव्वकरणो अट्ठावीसं वा एगूणतीसं वा तीसं वा एक्कत्तीसं वा बंधमाणो इक्को बंधइ त्ति अप्पदर इक्कत्तीसं बंधमाणो देवेसुप्पण्णो एगूणतीसं बंधइ त्ति अप्पदरो। इक्कत्तीसं बंधमाणो पमत्तभावेण एगूणतीसं बंधइ त्ति तीसमादि काऊण जाव तेवीसं जहासंभवेण अप्पदरा घेत्तव्वा । एवं सत्त अप्पदरट्ठाणाणि । उभयं अट्ठ ठाणाणि । इगि दुग दुगं च तिय चदु पणयं तीसादि तेवीस ठाणे । एयाई चत्तारि दु भुजगारा हुति णामस्स (११)॥५७।। तिय छक्क पंच चदु दुग एगं इगितीस आइ ठाणेसु । पणुवीसंते जाणसु अप्पदरा हुँति णामस्स ॥५८॥ सेसेसु पंचसु कम्मसु एक्कदरहाणं ति कहं ? पंच णाणावरणीयं पंच अंतराइयाणि सरिसाणि य गच्छंति बंधमिदि तेसिं भुजगार-अप्पदरगाणि णत्थि । अवढिओ चेव । सादासादाण अण्णदरमिदि, उच्चाणिचागोदाणं अण्णदरं बंधइ त्ति एदेसि अप्पदर-भुजगारा णत्थि । अवट्टिदो चेव । आउगमेक्कं बंधंतो अण्णाउगाणि ण बंधइ त्ति भुजगार-अप्पदरं णत्थि । अवढिओ चेव । वेदणीयवजाणं सत्तण्हं कम्माणं अबंधादो बंधदि त्ति [अ-] क्त्तव्वो बंधो, तक्काले भुजगाराप्पदरावढिओ त्ति ण वुच्चइ त्ति ।। एदाहिं दोहिं गाहाहिं मूलुत्तरपगडीसु पगडिहाण-भुजगार-अप्पदर-अवट्ठिदाणि चत्तारि अणिओगद्दाराणि वुत्ताणि । सव्वासिं पगडीणं मिच्छादिट्ठी दु बंधगो भणिदो । तित्थयराहारदुगं मुत्तूण य सेसपगडीणं ॥५६॥ सम्मत्तगुणणिमित्तं तित्थयरं संजमेण आहारं । बझंति सेसियाओ मिच्छत्तादीहिं हेदूहि ॥६०॥ पंच णाणावरण णव दंसणावरण सादासादं मिच्छत्त सोलस कसाय णव णोकसाय चत्तारि आउगाणि चत्तारि गदि पंच जादि पंच सरीर छ संठाण तिण्णि अंगोवंग छ संघडणं वण्ण गंध रस फास चत्तारि आणुपुत्वी अगुरुगलहुगादि चत्तारि आदाउजोष दो विहायगइ तस थावर बादर सुहुम पजत्तापजत्त पत्तेगसाधारणसरीर थिराथिर सुभासुभ सुभग दुभग सुस्सर दुस्सर आदेज अणादिज्ज अजस-जसकित्ती णिमिण तित्थयर उच्चणिचगोदं पंच अंतराइयपगडीओ | Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो ६०५ एदाओ वीसुत्तरसदबंधपगडी णाम वुचंति । सव्वीसं पगडीणं आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगतित्थयरणामाओ वज्ज सेसबंधपगडीओ मिच्छादिट्ठी बंधइ ११७ । सोलस मिच्छत्ता आसादंता य होइ पणुवीसं । तित्थयराउगसेसा अविरद-अंता दु मिस्सस्स ॥६१॥ ___ मिच्छत्त-णqसगवेद णिरयाउ णिरयगइ एइंदिग बीइंदिय तीइंदिय चदुरिंदियजादि हुंडसंठाणं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडण णिरयगइपाओग्गाणुपुत्वी आदाव थावर सुहुम अपज्जत्तसाधारणसरीर [ एदाओ] सोलस पगडीवज्जियाओ इक्कुत्तरसयपगडीओ सासणसम्मादिट्ठिणोट्ठी] बंधइ १०१। थीणगिद्धीतिग अणंताणुबंधीचदुक्क इत्थिवेद तिरियाउग तिरिक्खगइ समचउरहुंडवज्ज चउसंठाण वज्जरिसभवइरणाराय-असंपत्तसेवट्टा वज्ज चउसंघडण तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुठवी उज्जोय अप्पसत्थविहायगइ दुभग दुस्सर अणादिज्ज णिच्चगोदं[एदाओ] पणुवीसपगडी वज्जियाओ एगुत्तरसदपगडीओ तित्थयरसहियाओ असंजदसम्मादिट्ठी बंधइ ७७ । मणुस-देवाउगतित्थयरवज्जियाओ पगडीओ सत्तसत्तरि मिच्छादिट्ठी बंधइ ७४। अविरद-अंता दु दसं विरदाविरदंतिया उ चत्तारि । छच्चेव पमत्ता इक्का पुण अप्पमत्ता ॥६२॥ __ अपञ्चक्खाणावरणचदुक्क मणुसाउग मणुसगइ ओरा-[लियसरीर-ओरा-]लियसरीरअंगोवंगं वज्जरिसभ [वइरणारायसंघडणं] मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी [एदाओ] दसपगडिवज सत्तत्तरि पगडीओ संजदासंजदो बंधइ ६७ । पञ्चक्खाणावरणचउक्कं वज सत्तसहिपगडीओ पमत्तसंजदो बंधइ ६३ । असाद अरदि सोग अथिर असुभ अजसकित्ती छ पगडीवजाओ आहारदुगसहियाओ तेसहि पगडीओ अपमत्तो बंधइ ५६ । देवाउग वज एगूणसहि पगडीओ अपुव्वकरणो बंधइ पढम-सत्तमभागम्मि ५८ । दो तीसं चत्तारि य भागा भागेसु संखसण्णाओ। चरिमेसु जहासंखा अपुवकरणंतिया हुँति ॥६३।। णिहा-पयलाओ वज्ज अट्ठवण्णपगडीओ विदियभागपढमसमयप्पहुडि छ? भाग जाव चरमसमओ त्ति अपुत्वकरणो बंधइ ५६ । देवगइ चिंदियजाइ वेउव्विय आहार तेज कम्मइयसरीर समचउरसरीरसंठाण [वेउठिवय-] वेउव्वियसरीरंगोवंग वण्णाइचउकं देवगइपाओग्गाणुपुवी अगुरुगलहुगादिचउक्क पसत्थविहायगइ तस बादर पज्जत पत्तेयसरीर थिर सुह सुहग सुस्सर आदिज्ज णिमिण तित्थयरं तीस पगडीओ वज्ज छप्पण्ण पगडीओ उवरिमसत्त-पढमसमयप्पहुडि जाव चरमसमओ ति अपुवकरणो बंधइ २६। हम्स रइ भय दुगुंछा चत्तारि पगडीओ वज्ज छव्वीस पगडीओ अणियट्टिअद्धाए पढमसमयप्पहुइ संखिज्जभागेसु बंधइ २२ । संखेजदिमे सेसे आढत्ता बादरस्स चरमंतो । पंचसु इक्केकंता सुहुमंता सोलसा हुंति ॥६४॥ तओ [अंतोमुहुत्तं पुरिसवेदं वज्ज वावीस पगडीओ बंधइ २१ । तओ अंतोमुहुत्तं कोहसंजलणं वज्ज इगिवीस पगडीओ बंधइ २० । तओ] अंतोमुहुत्तं माणसंजलणं वज्ज वीसं पगडीओ बंधइ १६ । तओ अणियट्टिचरमसमओ त्ति मायसंजलणं वज्ज एगुणवीसं पगडीओ बंधइ १८ । लोभसंजलणं वज्ज अट्ठारसपगडीओ सुहुमसंपराइगो बंधइ १७ । पंच णाणावरण चउ दंसणावरण जसकित्ती उच्चगोद पंच अंतराइय सोलस पगडीओ वज्ज सत्तरस पगडीओ उवसंत-खीणसजोगिकेवलिणो बंधंति, सादं बंधंति त्ति वुत्तं होदि । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो सादंता जोगंता एत्तो पाएण णत्थि बंधो त्ति । गायत्रो पगडीणं बंधस्संतो अणंतो य ॥६५॥ दि-आदिए एवं तप्पा ओग्गाणमोघसिद्धाणं । सामित्तं यव्वं पगडीगं ठाणमासेज || ६६॥ देवाउग णिरयाउग णिरयगइ देवगइ एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय चदुरिं दियजादि वेउब्वियआहारसरीर वेडव्विय- आहारसरीरंगोवंग निरयगइ - देवगइपाओग्गाणुपुव्वी आदाव थावर सुहुम अपज्जत्त साधारण एयाओ एगूणवीस पगडीओ वज्जाओ वीसुत्तरसदपगडीओ णेरइया बंधंति १०१ | तित्थयरवज्ज एगुत्तरसदपगडीणं तं णेरइयमिच्छादिट्ठी बंधंति १०० । एदाओ चैव मिच्छत्त उंसगवेद हुंडसं ठाणं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं एयाओ चत्तारि पगडीओ वज्ज णेरइय- सासणो बंधे ६६ । एदाओ व ओघवृत्त - पणुवीसपगडी वज्ज तित्थयरसहिय छण्णउयपगडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टिण बंधंति । णवरि सम्मामिच्छादिट्टिणो मणुसाउग- तित्थयरा ण बंधंति ७० । सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ७२ । एवं पढमादि जाव तदिया पुढवि त्ति । एवं चउत्थादि जाव छट्ठी पुढवित्ति । णवरि तित्थयर असंजदो ण बंधेइ मिच्छादिट्ठी सासणो १००|६६।७०/७१ । एवं चेव सत्तमाए पुढवीए । णवरि मणुसाउगं मणुसगइपाओग्गाणुपुवी उच्चागोदं मिच्छादिट्ठी णो बंधंति । असंजदसम्मादिट्ठी मणुसाउगं ण बंधंति मिच्छादिट्ठी सामिणो ६६ ६२२६७।६७ | ६०६ आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग तित्थयर वज्ज वीसुत्तरसदपगडीओ तिरिक्खा बंधंति ११७ | मिच्छादिट्ठि- सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि असंजद - देसविरदेसु अप्पप्पणो बज्झमाणपगडीओ ओघं व णेयव्वा । एवं पंचिदियतिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणी ११७ २०१।७४ | ७६ | ६६ | एवं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्त १०६ । तेसु णवरि णिरयाउग देवाउग निरयगइ देवगइ वेडव्वियसरीर वेडव्वियसरीरअंगोवंग निरयगइ देवगइपाओग्गाणुपुव्वी अट्ठ पगडीणं बंधो णत्थि । तेसु मिच्छादिट्ठिगुणद्वाणमेकं चेव । एवं मणुस अपज्जत्ते वि । मणुस - मणुसपज्जत्त - मणुसिणीसु सव्वपगडीओ ओघं व णेयवाओ । वरि मणुसिणीसु तित्थयरं अपुव्वकरणो खवगो ण बंधइ । जहा णेरइयाणं सव्वपगडीओ वुत्ताओ, तहा देवाणं पि । णवरि एइंदिय आदाव थावरणाम पगडीओ बंधंति । एवं सोहम्मीसाणेसु । एवं भवणवासिय वाणविंतर- जो दि सियदेव - देवीसु, सोधम्मीसाणदेवेसु च । णवरि तित्थयरबंधो गत्थि । सणक्कुमारादि जाव सहरसा रेसु पढमपुढ़वी भोवं [व यव्वं ] | एवं आणदादि जाव उवरिमगेवज्जेसु । णवरि तिरिक्खाउग तिरिक्ख [ग] तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुत्री उज्जोव-बंधां पत्थि । अणुदिस-अणुत्तरदेवा असंजदा सम्मादिद्विणो चेव । जाओ पगडीओ देव असंजदसम्मादिट्टिणी बंधंति ताओ चेव बंधंति । तित्थयर कम्म मणुस्से पारंभेऊग सोधम्मादि-उप्पण्णा बंधंति । मणुसा पुव्वाउगबंधा असंजद सम्मादिट्टिणो तित्थयरं बंधमाणो पढमपुढविउप्पण्णा बंधति । मणुस असंजदसम्मादिट्टिणो पुव्वा उगं "बंधंतिबद्धा ति] तित्थयरं बंधमाणो मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्तकालेण कालं काऊण विदय-दय- पुढ वीप्पण्णा अंतोमुहुत्तकालेण पज्जतीहिं अपज्जत्तगदा होऊण सम्मत्तं घेत्तृण तित्थयरं बंधंति । तित्थयर- संत कम्मिआ सण्णत्थ [ अण्णत्थ ] ण उत्पज्जंति । इंदियादिसु एवं णादव्वं । एदाहिं अट्ठागाहाहिं एगेगुत्तरपगडी सामित्ताणिओगद्दाराणि वाणि | सामणेण य भणियं । विसेसो एत्थ कहिस्सामा । आदेसेण गइआणुवादेण णिरयगईए णेरइया कित्तियाओ पगडीओ बंधंति ? एउत्तरसयं । तं कहं णज्जइतिवृत्ते वुच्च-वीसुत्तरसयबंधपगडीण मज्भे गिरयाज्य देवाय गिरयगइ देवगइ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय चरिंदियजादि वेउव्विय-आहारसरीरं वेउम्विय-आहार-सरीरंगोवंग णिरयगइ-देवगइपाओग्गाणुपु०वी आदाव थावर सुहुम अप्पज्जत्त साधारण एयाओ एगूणवीस पयडीओ अवणीय एगुत्तरसयं होइ । तं च एयं १०१ । एत्थेव तित्थवरणामं अवणीय सयं होड । तं णेरइयमिच्छादिट्ठी बंधंति । तस्स पमाणयं एयं १०० । एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेय हुंडसंठाण असंपत्तसेवसंघडण एदाओ चत्तारि पगडीओ अवणीदे सेसाओ छण्णउइ पगडीणं सासणसम्मादिट्ठी बंधंति ६६। एत्थ जाओ सासणसम्मादिहिस्स पणुवीस पयडीओ वुच्छिण्णाओ ताओ अवणीय पुणरवि मणसाउथ अवणीय सेसाओ सत्तरि पयडीओ सम्मामिच्छादिट्टी बंधंति ७०। एत्थेय मणुसाउय-तित्थयरणामं च पक्खित्ते बाहत्तरि पयडीओ असंजदसम्मादिट्ठी बंधंति ७२ । एवं चेव पढमाए पुढवीए विदियाए तदियाए चदुसु वि गुणट्ठाणेसु हुति । पुवुत्त-ए उत्तरसयपयडीणं मज्झे तित्थयरं णाम अवणीय सेस सयं चउत्थपुढविणेरइया बंधति १०० । मिच्छादिट्ठी वि एत्तिया चेव बंधति १०० । एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेय हुंडसंठाण असंपत्तसेवट्टसंघडण एदाओ चत्तारि पयडीओ अवणीदे सेसाओ छण्णवइपगडीओ सासणसम्मादिट्ठी बंधंति ६६ । एत्य सासण-वुच्छिण्णपयडीओ पणुवीस, मणुसाउअं च अवणीय सेसाओ सत्तरि पयडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधति ७० । एत्थेव मणुसाउअं तप्पक्खित्ते एयहत्तरिपयडी असंजदसम्मादिट्ठी वंधति । एवं चेव पंचमीए छठ्ठीए पुढवीए चदुसु वि गुणहाणेसु होइ। चउत्थपुढवीए णेरइयबंधपयडीणं मज्झे मणसाउयमवणीय सेसाओ णवणउइथपयडीओ सत्तमपुढविणेरइया बंधति । तं च एवं ६६ । एत्थेव मणुयदुगं उच्चगोदं अवणीय सेसाओ छण्णउयपयडीओ मिच्छादिट्ठी वंधति ६६ । एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेद हुडसंठाण असंपत्तसेवसंघडण तिरियाउं अवणीदे सेसाओ एयाण उइपयडीओ सामणसम्मादिट्ठी बंधति । एत्थ सासणसम्मादिट्ठिवुच्छिण्णपयडीओ तिरियाउं मोत्तण चउवीसं अवणिऊण मणुसदुग उच्चगोदं च पक्खित्ते सत्तरि पगडीओ मिच्छादिट्ठी बंधति ७० । असंजदसम्मादिहि त्ति एत्तियाओ चेव बंधति ७० । एवं णिरयगई समत्ता । तिरियगईए सामण्णतिरिया केत्तियाओ पयडाओ बंधति ? सत्तरहुत्तरसयं । तं कहं णजइ त्ति वुत्ते वुच्चदे-वीसुत्तरसयबंधपयडीणं मज्झे तित्थयर-आहारदुगं अवणीय सत्तर [ह-] सयं च होइ । तं च एया ११७ । सामण्णतिरियमिच्छादिट्ठी एतिथाओ चेव बंधति ११७ । एत्थ मिच्छादिट्ठी-वुच्छिण्णपयडीओ सोलस अवणीय सेसाओ एउत्तरसयं सासणमिच्छा-[सम्मा-]दिट्ठी बंधति । तं च एयं १०१ । एत्थ सासणसम्मादिट्ठिवुच्छिण्ण-पणुवीसपयडीओ अवणीय मणुयदेवाउगाणि मणुयगदिपाओग्गाणपुव्वी ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग आदिम संघडणमवणीय सेसउणहत्तरि पयडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधति ६६ । एत्थ देवाउग पक्खित्ते असंजदसम्मादिट्ठी बंधंति ७० । एत्थेव विदियकसायचदुक्कं अवणीय सेसाओ छावट्ठी पगडीओ संजदासंजदा बंधंति ६६ । एवं चेव पंचिंदियतिरियपज्जत्त-पंचिंदियतिरियजोणिणीसु । पंचिंदियतिरियापज्जत्ता केत्तियाओ पयडीओ बंधंति ? णउत्तरसयं । तं कहं णज्जइ त्ति वुत्ते वुच्चदे-पुव्वुत्तसत्तरहुत्तरसयं पयडीणं मज्झे णिरयाउय-देवाउय-वेउव्वियछक्कमवणीए णवुत्तरसयं होइ । तं च एयं १०६ । एवं तिरियगदी समत्ता। मणुयगईए सामण्णमणुया केत्तियाओ पयडीओ बंधति ? वीसुत्तरसयं १२० । आहारदुगतित्थयरेण विणा सत्तरहुत्तरसयं मिच्छादिही बंधति । तं एवं ११७ । एत्थ वुच्छिण्णमिच्छादिट्ठिपयडीओ सोलस अवणीए सेसं एगुत्तरसदं सासणसम्मादिट्ठी बंधति १०१ । एत्थ सासणसम्मादिट्ठि-वुच्छिण्णपयडीओ पंचवीसमवणिऊण देवाउ मणुयाउ मणुयगइ मणुयगइपाओग्गाणुपुत्वी ओरालियसरीर ओरालियसरीरंगोवंग आदिसंघडण अवणिदे सेसाओ एगूणहत्तरिपगडीओ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ पंचसंगहो सम्मामिच्छादिट्ठी बंधति ६६ । एत्थेव तित्थयर, देवाउगं च पक्खित्ते एयहत्तरि पगडीओ असंजदसम्मादिट्ठी बंधति ७१ । एत्थेव विदियकसायचदुकं अवणिय सेसाओ सत्तसहि पगडीओ संजदासंजदा बंधति ६७ । एत्तो पमत्तसंजदपहुदि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव ओघभंगो । जहा सामण्णमणुस्साणं भणियं, तहा चेव मणुसपज्जत्ताणं मणुसिणीणं च होइ । मणुय-अप्पज्जत्ताणं तिरिय-अप्पज्जत्तभंगो। एवं मणुयगई समत्ता। देवगईए सामण्णदेवा केत्तियाओ पयडीओ बंधति ? चदुरुत्तरसयं । तं कहं जइ त्ति दे-वीसुत्तरसयबंधपयडीणं मज्झे णिरयाउग देवाउग वेउव्वियछक्क वेइंदिय ती इंदिय चदुरिंदियजाइ आहारदुग सुहम अपज्जत्त साहारण एयाओ सोलस पयडीओ अवणीए चदुरुत्तरसयं होइ। तं च एयं १०४ । एत्थेव तित्थयरणाममवणीए सेसा तेउत्तरसय मिच्छादिट्ठी बंधति १०३ । एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेय हुडसंठाण असंपत्तसेवट्टसंघडण एइंदियजादि थावर आदाय एयाओ सत्त पयडीओ अवणीय सेसाओ छण्णवइ पयडीओ सासणसम्मादिट्ठी बंधंति ६६। एत्थ सासणसम्मादिहिवुच्छिण्णपयडीओ मणुसाउयं च अवणीय सेसाओ सत्तरि पयडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधंति ७०। एत्थ मणुसाउगं पक्खित्ते एयहत्तरिपगडीओ असंजदसम्मादिट्टी बंधति ७१। ____सोहम्मीसाणकप्पेसु सामण्णदेवभंगो । सणक्कुमारप्पहुदि जाव सहस्सारकप्पवासिया देवा कित्तियाओ पयडीओ बंधति ? एउत्तरसयं । तं कहं णजइ त्ति वुत्ते वुच्चदे। तं जहा-सामण्णदेवपयडीणं मज्झे एइंदियजाइ थावर आदाव एयाओ तिण्णि पयडीओ अवणीय एउत्तरसयं च होइ। तं च एयं १०१ । एत्थेव तित्थयरणाम अवणिए सेसं सयं च मिच्छादिट्ठी बंधइ त्ति १०० । एत्थ मिच्छत्त णवंसयवेद हुडसंठाणमसंपत्तसेवट्टसंघडणमवणीए सेसाओ छण्णवइ पयडीओ सासणसम्मादिट्ठी बंधंति६६ । एत्थ सासणसम्मादिट्टि-वोच्छिण्णपयडीओ पणुवीस मणुआउगं च अवणीय सेसाओ सत्तरि पयडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधति ७० । एत्थ तित्थयर मणुसाउगं च पक्खित्ते वाहत्तरि पयडीओ हुति, ताओ असंजदसम्मादिट्ठी बंधति ७२ । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जविमाणवासियदेवा केत्तियाओ पगडीओ बंधति ? सत्ताण. उइ। तं कहं णज्जइ त्ति वुत्ते वुच्चदे । तं जहा-सामण्णदेवपगडीणं मज्झे तिरियाउगं च एइंदियजादि । तिरियदुग आदाउज्जोव थावर एयाओ सत्त पयडीओ अवणीए सत्ताणउदि पयडीओ हुति ६७ । एत्थेव तित्थयरणाममवणिए सेसाओ छण्ण उइ पगडीओ मिच्छादिट्ठी बंधंति ६६ । एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेद हुडसंठाणं असंपत्तसेवट्टसंघडणं एयाओ चत्तारि पगडीओ अवणीय सेसा वाण उदिपयडीओ सासणसम्मादिट्ठी बंधति ६२ । एत्थ सासणसम्मादिट्ठिवुच्छिण्णपयडीणं मज्झे तिरिया [उगं] तिरियदुर्ग [च उक्खेव [पक्खेवे] एयाओ चत्तारि पयडीओ सासणवुच्छिण्ण इक्वीस पयडीओ अवणीए सेसाओ सत्तरि पयडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधति ७० । एत्थेव तित्थयर मणुसाउग पक्खित्ते बाहत्तरि पयडीओ हुति । ताओ असंजदसम्मादिट्ठी बंधंति ७२ । एयाओ असंजदसम्मादिट्टीओ अणुदिस-अणुत्तर जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासिदेवा बंधति ७२ । एवं देवगइसग्गणा समत्ता । इंदियमगणाणुवादेण जाव इगि-विगलिंदियाण तिरिय-अपज्जत्ताण भंगो। तस्स पमाणं १०६ । एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय [चउरिदिय] मिच्छादिहिणो बंधति १०६ । एत्थ मिच्छादिट्ठीवुच्छिण्णपयडीण मज्झे णिरयाउग णिरयदुर्ग सेसा दूणादि उस्सास (णवुत्तरसय) पयडीओ सासण-सम्मादिट्ठी बंधति ६६ । पंचिंदियाणं वेण [ओघमिव]। एवं इंदियमग्गणा समत्ता। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो ६०१ कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-वणप्फदिकाइयादिमिच्छादिट्ठीण एइंदियमिच्छादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठादि [सासणसम्मादिट्ठिभंगमिव जाव [ ] एइंदियपगडीणं मज्झे मणुसाउगं मणुसदुगं उच्चगोदं च अवणीय सेसं पंचुत्तरसयं तेज-वाउकाइया बंधति १०५ । तसकाइयाण ओघभंगो। एवं कायमग्गणा समचा। जोगाणुवादेण चउण्हं मणजोगाणं चउण्हं वचि-[जोगाणं] ओघभंगो। ओरालियकायजोगस्स सामण्णमणुयभंगो। वीसुत्तरसयबंधपयडीणं मज्झे णिरय-देवाउगं णिरयदुगं आहारदुर्ग च अवणिए सेसा चउदसुत्तरसयं च ओरालियमिस्सकायजोगी बंधंति ११४ । एत्थेव देवदुगं वेउव्वियदुगं तित्थयरणाम अवणीय सेसण उत्तरसयं मिच्छादिट्ठी बंधति १०६ । एत्थेव णिरयाउगं णिरयदुगं मोत्तण सेसाओ मिच्छादिट्ठि-वुच्छिण्ण-पयडीओ तेरसमवणीए पुणरवि तिरियाउगं मणुयाउगं अवणीए सेसाओ चउणउइपयडीओ सासणसम्मादिट्ठी बंधति ६४। एत्थेव सासणसम्मादिहिवोच्छिण्णपयडीणं मज्भे तिरियाउगं मोत्तण सेसाओ चउवीस पगडीओ अवणिऊण देवदुगं वेउव्वियदुगं तित्थयरणामं च पक्खित्ते पंचहत्तरि पयडीओ हुति, ताओ असंजदसम्मादिट्ठी बंधंति ७५ । वेउव्वियकायजोगस्स सामण्णदेवभंगो १०४ । सामण्णदेवपगडीणं मज्झे तिरियाउगं मणयाउगं च अवणिय सेसा दोउत्तरसयं वेउब्वियमिस्सकायजोगी बंधंति १०२। एत्थेव तित्थयरणामं अवणीए सेस-एउत्तरसय मिच्छादिट्ठी बंधंति १०१ । एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेय हुंडसंठाणमसंपत्तसेवसंघडण एइंदियजाइ थावर आदाव एयाओ सत्त पयडीओ अवणीय सेसा चउणउदिपयडीओ सासणसम्मादिट्टी बंधति ६४। एत्थ सासणसम्मादिट्टि-च्छिण्णपयडीणं मज्मे तिरियाउगं मोत्तूण सेसाओ चउवीस पयडीओ अवणिऊण तित्थयरणाम पक्खित्ते एगत्तरि पगडीओ असंजदसम्मादिट्ठी बंधंति ७१। आहारमिस्सकायजोगी तेसहि (?) पगडीओ बंधति । [आहार-] कायजोगी तेसहि पयडीओ जाओ पमत्तसंजदा बंधति ताओ तेसहि पयडीओ ६३ ।। ___कम्मइयकायजोगी केत्तियाओ पयडीओ बंधति ? वारहुत्तरसयं । तं कहं णजइ त्ति वुत्ते वुच्चदे-वीसुत्तरसय-बंधपयडीणं भज्झे चत्तारि आउगाणि णिरयदुगं आहारदुगं अट्ठ पयडीओ अधणीए सेसं वारहुत्तरसयं कम्मइयजोगी बंधति ११२ । एत्थ देवदुगं वेउव्वियदुगं तित्थयरणाम मवणीय सेसं सत्तत्तरसयं मिच्छादिट्ठी बंधंति १०७ । एत्थ मिच्छादिहिवुच्छिण्णपयडीणं मज्मे णिरयाउग-णिरयदुगं तिण्णि पयडीओ मोत्तण सेसाओ तेरस पयडीओ अवणिय सुद्धसेसाओ चउणउदि पयडीओ सासणसम्मादिट्ठी बंधति १४ । एत्थ सासणसम्मादिट्ठि-वुच्छिण्णपयडीणं मज्मे तिरियाऊ मोत्तूण सेसाओ चउवीस पयडीओ अवणेऊण देवदुगं वेउव्वियदुग तित्थयरणाम पक्खित्ते पंचहत्तरि पगडीओ असंजदसम्माइट्ठी बंधंति ७५ ।। एवं जोगमन्गणा सम्मत्ता। वेदाणुवादेण जाव वावीसबंधअणियट्टि ताव तिण्ह वेदाणं ओधभंगो। अवगयवेयाणं पि एगवीस-बंध-अणियट्टिप्पहुदि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघभंगो। एवं वेदमम्गणा समत्ता। कसायाणुवादेण सामण्णकसाई केत्तियाओ पगडीओ बंधंति ? वीसुत्तरसयं १२० । कोहकसाईणं मिच्छादिटिप्पहुडि जाव एक्कवीस बंधय-अणियट्टि ताव ओघभंगो । माणकसाईणं मिच्छादिट्टिप्पहुदि-जाव वीसबंधयअणियट्टि ताव ओघभंगो। मायकसाईणं मिच्छादिटिप्पहुदि जाव एक्कऊणवीस-बंधय अणियट्टी ताव ओघभंगो। लोभकसाईण मिच्छादिटिप्पहुदि जाव सुहुमसंपराओ त्ति ताव ओघभंगो । अकसाईणं पि उवसंतकसाय-खीणकसाय-जोगीणं ओघभंगो। एवं कसायमग्गणा समत्ता। 100 Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो ___णाणाणुवादेण मइअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणो केत्तियाओ पयडीओ बंधति ? सत्तरसुत्तरसयं । तं कहं णज्जइ त्ति वुत्ते धुञ्चदे-वीसुत्तरसयबंधपयडीणं मज्झे तित्थयरं आहारदुगं अवणिऊण सत्तरससयं च होइ । तं च एयं ११७ । भइ-अण्णाणी सद-अण्णाणी विभंगणा मिच्छादिट्ठी एत्तियाओ चेव बंधति १२७ । एत्थ मिच्छादिहिच्छिण्णपयडीओ सोलस अवणीए सेस-एउत्तरसयं सासणसम्मादिट्ठी बंधति १०१ । मइ-सुय-ओधिणाणीणं असंजदसम्मादिटिप्पहुदि जाव खीणकसाओ त्ति ताव ओघभंगो। मणपज्जवणाणीणं पमत्त-संजदप्पहुइ जाव खीणकसाओ त्ति ताव ओघभंगो । केवलणाणीणं पि सजोगीण ओघभंगो। [ एवं ] णाणमग्गणा समत्त।। संजमाणुवादेण सामाइय-छेदोवठ्ठावणसुद्धिसंजमाण पमत्तसंजदप्पहुइ जाव अणियट्टि ओघभंगो। परिहारसुद्धि-संजदाणं पि पमत्तापमत्ताण ओघभंगो। सुहुमसंपराइयसुद्धिसंजदाणं पि सुहुम-ओघभंगो। जहाखादसंजदाणं पि उवसंतखीण सजोगी ओघभंगो। संजमासंजमस्स ओघभंगो। असंजमस्स वि मिच्छादिट्टिप्पहुदि जाव असंजदसम्मादिट्ठी ओघभंगो।। एवं संजममग्गणा समत्ता । दसणाणुवादेण चक्खु-अचक्खुदंसणस्स मिच्छादिटिप्पहुदि जाव खीणकसायवीयरायछदमस्थि त्ति ताव ओघभंगो। ओधिदसणस्स असंजदसम्मादिटिप्पहुदि जाव खीणकसाय-वीयरायछदुमत्थेत्ति ताव ओघभंगो : केवलदसणस्स सजोगिओघभंगो। [ एवं ] दंसणमग्गणा समत्ता । लेसाणुवादेण किण्ह-णील-काउलेसा केत्तियाओ पयडीओ बंधति ? अट्ठारहुत्तरसयं । तं कहं णज्जइ नि वुत्ते वुच्चदे-वीसुत्तरसयबंधगपयडीणं मज्झे आहारदुर्ग अवणीय अट्ठारहुत्तरसयं च होइ। तं च एयं ११८। एत्थ तित्थयर णाममवणीय सेससत्तरहुत्तरसया मिच्छादिट्टी बंधंति ११७ । एत्थ मिच्छादिहिवुच्छिण्णपयडीओ सोलस अवणीय सेसं एउत्तरसयं सासणसम्मादिट्ठी बंधति १०१। एत्थ सासणसम्मादिडिवुच्छिण्णपषडीओ देव-मणुसाउगं च अवणीय सेसाओ चउहत्तरि पयडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधंति ७४ । एत्थ तित्थयरणाम मणुसाउगं च पक्खित्ते सत्तहत्तरि पयडीओ हुंति । ताओ असंजदसम्मादिट्ठी वधंति ७७। तेउलेसिया केत्तियाओ पयडीओ बंधति ? एयार हुत्तरसयं । तं कहं णज्जइ त्ति वुत्ते वुच्चदेवीसुत्तरसयबंधपयडीणं णिरयाउय णिरयदुअं वियलिंदियजाइतिय सुहुम साहारण अपज्जत्त एयाओ णव पयडीओ अवणीय एयारहुत्तरसयं होइ। तं च एयं १११ । एत्थेव तित्थयराहारदुगमवणीय सेस-अट्ठुत्तरसय मिच्छादिट्ठी बंधति १०८। एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेयपयडीओ हुंडसंठाणं असंपत्तसेवसंघडण एइंदियजाइ आदव थावर एयाओ सत्त पयडीओ अवणीअ सेस-एउत्तरसयं सासणसम्मादिट्ठी बंधति १०१। संपहि सम्मामिच्छादिटिप्पहुइ जाव अपमत्तसंजओ त्ति ओघभंगो। पम्मलेसिया केत्तियाओ पगडीओ बंधति ? अठुत्तरसयं । तं यहं गज्जइ त्ति वुत्ते वुच्चदे-वीसुत्तरसयबंधपयडीणं मज्झे णिरयाउग-[णिरयाउग-]दुगं एगिदिय विगलिंदियजाइ आदव थावर सुहुम अपज्जत साधारण एयाओ वारस पयडीओ अवणीय सेसं अठुत्तरसयं होइ । तं च एयं १०८ । एत्थ तित्थयर-आहाग्दुगमवणिदे सेसपंचुत्तरसयं मिच्छादिट्ठी बंधंति १०५ । एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेद हुंडसंठाण असंपत्तसेवट्ट-संघडणमवणिअ सेसएगुत्तरसयं सासणसम्मादिट्टी बंधंति १०१। संपहि सम्मामिच्छादिट्टिप्पहुइ जाव अप्पमत्तसंजओ त्ति ताव ओघभंगो। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो सुक्कलेसिया केत्तियाओ पयडीओ बंधति ? चउरुत्तरसथं । तं कहं णज्जइ त्ति वुत्ते वुच्चदेवीसुत्तरसयबंधपयडीणं मज्झे णिरयाउगं तिरियाउगं णिरयदुगं तिरियदुगं इगि-विगलिंदियजाइ आदाउज्जोव थावर सुहुम अपज्जत्त साहारण एयाओ सोलह पयडीओ अवणीय चदुरुत्तरसयं होइ । तं च एयं १०४ । एत्थ तित्थयर-आहारदुगमवणीय सेसं एउत्तरसयं मिच्छादिट्ठी बंधति १०१। एत्थ मिच्छत्त णउंसयवेय हुडसंठीण असंपत्तसेवट्टसंघडण एयाओ चत्तारि पयडीओ अवणीय सेसाओ सत्ताणउदिपयडीओ सासणसम्मादिट्ठी बधंति ६७ । एत्थ सासणसम्मादिट्ठिवुच्छिण्णपयडोणं मज्झे तिरियाउग तिरियदुग उज्जोव मोत्तण सेसाओ एकवीस पयडीओ अवणिऊण मणुय-देवाउगे अवणीए चदुहत्तरि पयडीओ हुति । ताओ सम्मामिच्छादिट्ठी बधंति ७४ । एत्थ तित्थयर-मणुस-देवागं च पक्खित्ते सत्तहत्तरि पयडीओ हुति । ताओ असंजदसम्मादिट्ठी बधंति ७७ । संपहि संजदासंजदप्पहुदि जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव ओघभंगो। एवं लेसामग्गणा समत्ता । भवियाणुवाएण भवसिद्धियाण ओघभंगो । अभवसिद्धियाण ओघमिच्छादिट्ठि-भंगो। एवं भवियमग्गणा समत्ता । सम्मत्ताणुवादेण खाइयसम्मत्तस्स असंजदसम्मादिट्टिप्पहुइ जाव सजोगिकेवलि त्ति ताव ओघभंगो। वेदयसम्मत्तस्स असंजदसम्मादिटिप्पहुइ जाव अप्पमत्तसंजओ त्ति ताव ओघभंगो । उवसमसम्मत्तस्स असंजदसम्मादिद्विगुणट्ठाणे केत्तियाओ पयडीओ बधति ? पंचहत्तरि पयडीओ । तं कहं णज्जइ ति वुत्ते वुच्चदे-अगंजदसम्मादिहि सत्तहत्तरि पयडीणं मज्मे मणय-देवाउगमवणीय पंचहत्तरि पयडीओ हुति ७५ । एत्थ विदियकसायचउक्कं मणुयदुग ओरा दिसंघडणं एयाओ अवणिय सेसाओ छावट्टि पयडीओ संजदासंजदा बधति ६६। तत्थ तदियकसायचउक्कं अवणीअ सेसाओ वासद्धि पयडीओ पमतसंजदा बधति ६२ । एत्थ सादिदरमरदि सोग अथिर असुभ अजसकित्ती अवणिऊण आहारदुगं पक्खित्ते अट्ठावण्ण पयडीओ हुति। ताओ अप्पमत्तसंजदा बधति ५८ | संपहि अपुव्वकरणप्पहुइ जाव उवसंतकसायवीयरायछ उमत्थु त्ति ताव ओघभंगो।। ___सासणसम्मत्तस्स सासणसम्मादिट्ठि-भंगो। सम्मामिच्छत्तस्स सम्मामिच्छादिट्ठि-भंगो । मिच्छत्तस्स मिच्छादिट्ठि-भंगो।। एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता। [ सण्णियाणुवादेग ] सण्णीणं ओघभंगो। असणीणं ओघमिच्छादिट्ठि-भंगो । असण्णिसासणसम्मादिट्ठीणं सासण-भंगो। णेव सण्णी णेवासण्णीण सजोगकेवलीण ओघभंगो। एवं सण्णिमम्गणा समत्ता। आहाराणुवादेण आहारीणमोघभंगो । अणाहारीण कम्मइयकायजोगभंगो । [एवं आहारमग्गणा समत्ता।] जह जिणवरेहिं कहियं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म । आयरियकमेण पुणो जह गंगणइ-पवाहुव्व ॥१२॥ तह पउमणंदिमुणिणा रइयं भवियाण बोहणट्ठाए । ओघेणादेसेण य पयडीणं बंधसामित्तं ॥१३॥ १. अत्र ओघभंगो इत्यधिकः पाठः । Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो छ उमत्थयाय रइयं जं इत्थ हविज पवयणविरुद्धं । तं पवयणाइकुसला सोहंतु मुणो पयत्तेण ॥१४॥ एवं गदिआदिबंधसामित्तं समत्तं । तिण्हं खलु पढमाणं उक्कस्सं अंतराइयस्सेव । तीसं कोडाकोडी सागरणाभाणमेव हिदी ॥६७।। मोहस्स सत्तरिं खलु वीसं णामस्स चेव गोदस्स । तेतीसमाउगाणं उवमाऊ सागराणं च ॥६॥ उक्तं च योजनं विस्तरं पल्यं यस्य योजनमुच्छ्रतम् । आसप्ताहःप्ररूढानां केशानां तु सुपूरितम् ॥१५॥ ततो वर्षशते पूर्णे एकैके केशमुदधृते । क्षीयते येन कालेन तत्पल्योपममुच्यते ॥१६॥ कोटकोटी दशा एषां पल्यानां सागरोपमम् । सागरोपमकोटोनां दशकोट्यावसर्पिणी ॥१७॥ अद्धाच्छेदो दुविधो-मूलपयडि-अद्धाच्छेदो उत्तरपयडि-अद्धाच्छेदो चेदि । तत्थ मूलपयडि-अद्धाच्छेदो दुविहो-जहण्णओ उक्कोसो च । [तत्थ ] उक्करसए [पयद-] जाणावरणीयदसणावरणीय वेदणीय-अंतराइयाणं उकस्सो दु ठिदिबधो तीस सागरोवमकोडाकोडीओ। तिण्णि वाससहस्साणि आबाधा। आबाघेणूणिया कम्गठ्ठिदी कम्मणिसेगो। मोहणीयस्स उक्कस्सओ दु द्विदिबधो सत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ। सत्तवाससहस्साणि आबाधा। आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। आउगस्स उक्कस्सो दु हिदिबधो तेत्तीस सागरोवमाणि । पुवकोडितिभागमाबाधा। तेतीससागरोवमाणि कम्मणिसेगो। णामा-गोदाणं उक्करसओ दु द्विदिबधो वीससागरोवम-कोडा-कोडोओ। दुवाससहरसाणि आबाधा। आबाघेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। ओघेण मूलपयडीणं उक्करसओ अद्धाच्छेदो समत्तो । आवरणमंतरायं पण णव पणयं असादवेदणियं । तीसुदधिकोडकोडी सागर-उबमाणमुक्कस्सं ॥६६।। जो सो उत्तरपयडि-अद्धाच्छेदो सो दुविधो-जहण्णुक्कस्सो चेव । तत्थ उक्कस्सए पयदं । पंच णाणावरण-णवदंसणावरण-असाद-पंचअंतराइयाणं उक्कस्सगो दु हिदिबंधो तीससागरोवमकोडाकोडीओ। तिण्णि वाससहरसाणि आबाधा । आबाघेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसे गो । मणुय-दुग इत्थिवेदं सादं पण्णरस कोडकोडीओ। मिच्छत्तस्स य सत्तरि चरित्तमोहस्स चत्तालं ॥७॥ सादं इत्थिवेद-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्माणुपुत्वीणं उक्करसगो ठिदिबधो पण्णरससागरोवमकोडाकोडीओ। पण्णरस वास-सयाणि आबाधा । आबाधेणूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो मिच्छत्तस्स उक्कस्सगो ठिदिबधो सत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ। सत्तवाससहस्साणि आबाधा। आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। सोलसकसायागं उक्कस्सगो ठिदिबधो चत्तालीससागरोवमकोडाकोडीओ। चत्तारि वाससहस्साणि आबाधा । आबाधेणूणिया कम्मट्टिदी कम्मणिसे गो। णिरयाउग-देवाउग-डिदिउक्कस्सं हवेइ तेतीसं । मणुसाउग-तिरियाउग उकस्सं तिण्णि पल्लाणि ॥७१॥ णिरयाउग-देवाउगाण उक्कस्सगो दु हिदिबधो तेत्तीस सागरोवमाणि । पुवकोडितिभागमाबाधा। तेतीससागरोवमाणि कम्मणिसे गो। तिरिक्ख-मणुसाउगाण तिण्णि पलिदोवमाणि उक्कस्सगो दु हिदिबधो । पुव्वकोडि-तिभागमाबाधा । तिणि पलिदोवमाणि कम्मणिसेगो । णqसयवेय-अरदि-सोग-भय-दुगुंछ-णिरयगइ - तिरियगइ-एइंदिय - पंचिंदियजाइ-ओरालियवेउब्धिय-तेज-कम्मइयसरीर हुंडसंठाण-ओरालिय-वेउव्वियअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-वण्णादिचदुक्क-णिरयगइ-तिरियगइपाओग्गाणुपुठवी-अगुरुगलहुगादिचदुक्क - आदाउज्जोव - अप्पसत्थविहायगइ-तस-थावर-बादर-पन्जत्त-पत्तेगसरीर-अथिरादिलक्क-णिभिण-उच्चागोदाणं उक्कस्सगो दु ट्ठिदिबधो वीससागरोवमकोडाकोडीओ ! वेवाससहस्साणि आबाधा। आबाघेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। ___ पुरिसवेय-हस्स-रइ - देवगइ - समचदुरसरीरसंठाण-वजरिसभवइरणारायसंघडण - देवगइपाओग्गाणुपुत्वी-पसत्थविहायगइ-थिरादिछक्क-उच्चगोदाणं उक्कस्सगो दु द्विदिबधो दससागरोवमकोडाकोडीओ। दसवाससयाणि आबाधा । आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदिय-वामणसंठाण-खीलियसंघडण - सुहुम - अपज्जत्त - साहारणाण उक्कस्सगो दुट्ठिदिबधो अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। अट्ठारसवाससयाणि आबाधा। आबाधेणूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो। णग्गोहपरिमंडलसंठाण-वज्जणारायसंघडणाणमुक्करसगो दु हिदिबधो बारससागरोवमकोडाकोडीओ । बारस वाससयाणि आबाधा । आबाधेणुणिया कम्मट्टिदी कम्मणिसेगो । सादियसंठाण-णारायसंघडणाण उक्कस्सगो हिदिबधो चोदससागरोवमकोडाकोडीओ। चोदसवाससदाणि आबाधा । आबाघेणूणिया कम्मठ्ठिदो कम्मणिसे गो । खुजसंठाण अद्धणारायसंघडणाणं उक्कस्सगो ठिदिबधो सोलससागरोवमकोडाकोडीओ। सोलसवाससदाणि आबाधा। आबाघेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसे गो । आहारसरीर-आहारंगोवंग-तित्थयरणामाणं उक्कस्सगो दु छिदिबधो अंतोकोडाकोडी सागरोवमाणि । अंतोसुहुत्त आबाधा। आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। उत्तरपयडि-ओघ-उकरस-अद्धाच्छेदो समतो। वारस य वेदणीए णामे गोदे य अट्ठ य मुहुत्ता। भिण्णमुहुत्त हु द्विदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ।।७२।। जहण्णं पयदं । णाणावरण-दसणावरण-मोहणीयंतराइयाणं जहण्णगो ठिदिबधो अंतोमुहुतं । अंतोमुहुत्तमाबाधा । आबाधेणूणिया कम्मठिदी कम्मणिसेगो। वेदणीयस्स जहण्णगो ठिदिबंधो बारस मुहुत्ता। अंतोमुहुत्तमाबाधा । आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। आउगस्स जहण्णगो ठिदिबधो अंतोमुहुत्तो । अंतोमुहुरामाबाधा। आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो । णामाउगोदाणं जहण्णगो ठिदिबधो अट्ठमुहुत्ता। अंतोमुहुत्तमाबाधा। आबाधेणूणिया कम्मझिदी कम्मणिसेगो। ओघेण मूलपगडि-जहण्णद्धाच्छेदो समत्तो। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ पचसंगहो आवरणमंतराइय पण चदु पणयं च लोहसंजलणं । ठिदिवंधो दु जहण्णो भिण्णमुहुत्त वियाणाहि ॥७३॥ तत्थ जहण्णट्ठिदि-बधद्धाच्छेदो पंचणाणावरण-चउर्दसणावरण-लोभसंजलण-पंचअंतराइयाणं जहण्णगो छिदिबधो । अंतोमुहुत्तं । अंतोमुहुत्तमाबाधा। आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। बारस मुहुत्त सादं अट्ठ मुहुत्त तु उच्च जसकित्ती । वेमास मास पक्खं कोहं माणं च मायं च ॥७४॥ सादावेदणीयम्स जहण्णगो ठिदिबधो बारस मुहुत्ताणि । अंतोमुहुत्तमाबाधा। आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। जसकित्ति-उचागोदाणं जहण्णगो ठिदिव धो अट्ठिमुहुत्ताणि । अंतोमुहुत्तमाबाधा । आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। कोहसंजलणस्स जहण्णगो ठिदिबंधो बे मासाणि । अंतोमुहुत्तमाबाधा। आबाधेणूणिया कम्मठ्ठिदी कम्मणिसेगो। माणसंजलणस्स जहण्णगो ठिदिबधो मासमिक्को। अंतोमुहुत्तमाबाधा । आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो । मायसंजलगस्स जहण्णगो द्विदिबधो अद्धमासो। अंतोमहत्तमाबाधा। आबाधेणणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो। पुरिसस्स अट्ठ वस्सं आउग-दुग भिण्णमेव य मुहुत्तं । देवाउग-णिरयाउग वाससहस्सा दस जहण्णा ॥७॥ पुरिसवेदस्स जहण्णगो ठिदिबधो अछ वस्साणि । अंतोमुहुत्तामाबाधा । आबाधणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसे गो। तिरिक्खाउग मणसाउगाणं जहण्णगो ठिदिबधो अंतोमुहुत्तं । अंतो. मुहुत्तमाबाधा । अंतोमुहुत्तं कम्मणिसेगो। णिरय-देवाउगाउगाणं जहण्णगो ठिदिबंधो दसवाससहस्साणि | अबाधा अंतोमुहुत्तं । दसवाससहस्साणि कम्मणिसेगो। पंचय विदियावरणं सादीदरवेदणीय मिच्छत्त । वारस य अट्ट णियमा कसाय तह णोकसायाणं ॥७६॥ तिणि य सत्त य चदु दुग सागर उवमस्स सत्तभागा दु । ऊणं असंखभागा पल्लस्स जहण्ाटिदिबंधो ॥७७॥ णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी य णिद्दा य पयला य असादवेदणीयाण जहण्णगो ठिदिबधो सागरोवमस्स तिण्णि-सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागेण ऊणया। अंतोमुहुत्तमाबाधा। आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो। मिच्छत्तस्स जहण्णगो ठिदिबधो सागरोवमं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागृणं । अंतोमुहुत्तमाबाधा । आबाधेणूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो । अणंताणुबधि-अपञ्चक्खाणावरण-पञ्चक्खाणावरण-कोह-माण-माया-लोभाणं जहण्णगो ठिदिबधो सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा पलिदोवमरस असंखिज्जदिभागूणिया। अंतोमुहुत्तमाबाधा। आबाघेणूणिया कम्मट्टिदी कम्मणिसेगो। इत्थी-णउंसयवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगु छाणं जहण्णगो ठिदिबधो सागरोवमरस वे-सत्तभाया पलिदोवमस्स असंखिन्जदिभागूणिया । अंतोमुहुत्तमाबाधा । आबाघेणूणिया कन्मट्ठिदी कम्मणि से गो। तिरियगई मणुयदोण्णि य पंच य जादी सरीरणामतिगं । संठाणं संघडणं छको ओरालियंगवंगो य ॥७॥ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो वण्ण रस गंध फासा आणुपुव्वीदुगं अगुरुगलहुगादि हुँति चत्तारि । आदाउजवं खलु विहायगदी वि य तहा दोणि ॥ ७६ ॥ तस थावरादि जुगलं णव णिमिण अजसकित्ति णीचं च । सागर-वि-सत्तभागा पल्लासंखिञ्जभागूणा ||८०| उदधिहस्सस्स तहा वि-सत्तभागा जहण्णद्विदिबंधो । वेव्वियछकस्स हि पल्लासंखिञ्जभागूणा ॥ ८१ ॥ णिरयगइ-देवगइ-वेउब्वियसरीर - वे उब्विय सरीर अंगोवंग णिरय देवगइपाओग्गाणुपुव्वीणं जहणगो ठिदिबधो सागरोत्रमसहस्सस्स वे सत्तभागा पलिदोवमस्सासंखिज्जदिम भागूणिया । अंतोमुहुत्तमाबाधा | आबाधूर्णिया कम्मट्ठदी कम्मणिसेगो । सेसाणं आहारदुग- तित्थयरवज्जाणं जहणगो दिट्ठदिबंधो सागरोवम-वे सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखिज्जदि भागूणिया । अंतोमुहुत्तमा| बाणिया कम्मदिदी कम्मणिसेगो । आहारसरीर आहारसरीरंगोवंग-तित्थयरणामाणं अंतोकोडाकोडी सागरोवमाणि जहण्णट्ठिदिबंधो होदि । अंतोमुहुत्तमाबाधा । आबाधेणूणिया कम्मदी कम्मणिसेगो । - उत्तरपयडि-ओघ जण अद्धाच्छेदो समत्तो | उकस्समणुक्कस्सो जहण्णमजहण्णगो य ठिदिबंधो । सादि - अणादिसहिया सामित्तणावि णव हुंति ॥ ८२ ॥ मूलट्ठिदिसुअजहण्णो सत्ताहं बंध चदुवियप्पा दु | सेसतिए दुवियप्पो आउचउक्के वि दुवियप्पो || ८३॥ आउगवज्जाणं सत्तहं कम्माणं उवसंत [कसाओ] कालं काढूण देवेसुववण्णस्स य जहण्णट्रिट्ठदिब ंधो सादिओ होइ । तस्सेव सुहुमभावेण वा आउगमोहवज्जाण ओ[-दर-] माणसुहुम संप राइयस अणियट्टिभावेण वा मोहरस य जहणं सादि । सेढिमणारूढं पडुच अणादि । अभवसिद्धिं पडुच्च ध्रुव | अधुवसिद्धिं पडुच्च जहणणं वा । अबंधं वा गंतूण अद्ध्रुवो । उक्कस्समणुक्करस जहण्णट्ठिदिबांधो सादिअद्ध्रुवो कहूं ? अणुक्कस्स-ठिदिं बधमाणो उक्सरसं बंधइति अद्ध्रुवो। विवरीदेण असे सादि अद्ध्रुवो । जहण्ण ब धमाणो जहण्णयं ति सादि । जहण्णव धमाणो बांधवुच्छेदो गंतूण अद्भुवो । आउगस्स उक्करस- अणुक्करस- जहण्ण- अजहण्णट्ठिदी सादि अधुवो चेव । ६१५ अट्ठारह पयडीणं अजहण्ण बंध चदुविप्पो दु । सादीवबंधो से सतिए हवदि बोधव्वो || ८४॥ गाणंतरायदयं विदियावरणस्स हुति चत्तारि । संजलणं अट्ठारस चदुधा अजहण्णबंधो सो ॥८॥ उकस्समणुकस्सो जहण मजहण्णगो य द्विदिबंधो । सादिय अद्ध्रुवबंधो पडणं होइ सेसाणं || ८६ ॥ अट्ठारसपयडीणं पंचणाणावरण चउदसणावरण- चउसंजलण-पंचअंतराइयाणं अजहण्णस्स वसंतस्स देवेपणस्स सादि । तरसेव सुहुमसंपराइयस्स अणियट्टिभावेण लोभ- माया-माण १. आदर्शप्रती 'उबधी सहसस्स' इति पाठः । Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो कोहाणं जहाकमेण सादिबंधो। सेढिमणारढं पडुच्च अणादि । अभवसिद्धिं पडुच्च धुव । अबध वा जहण्णं वा गंतूण अर्धवो । उक्कस्स-अणुक्कस्स-जहण्णाणं सादि अदुवो चेव । सेसाणं पयडीणं उक्कस्स-अणुक्कस्स-जहण्ण-अजहण्ण [टिठदिब धो] सादिअ अ वो चेव । पुवुत्त-अट्ठारसधुवपगडीणं खवगसेढोए जहण्णट्ठिदि काऊण अजहण्णण पडइ। सेसाणं धुवपगडीणं बादरेइंदिअ जहण्णं काऊण अजपणेण पडदि । अजहण्णदो जहण्णं पडइ त्ति । जहण्णस्स अणादि धुवा णस्थि । एदाहिं तीहिं गाहाहिं मूलुत्तरपयडीसु सादि अणादि-धुव-अधुव-उकास्स-अणुकस्स-जहण्णअजहण्णादि अट्ठ अणिओगद्दाराणि वुत्ताणि । सव्वाओ वि ठिदीओ सुभासुभाणं पि होंति असुभाओ। माणुस तिरिक्ख देवाउगं च मोत्तूण सेसाणं ॥८७॥ सव्वासिं सुभासुभपगडीणं कसायवड्डीए ट्ठिदी वइत्ति असुभाओ ठिदीओ हंति । णवरि तिरिक्ख-मणुस-देवाउगं तप्पाओग्गविसोहीए ठिदी वडूइ ति सुभाओ ठिदीओ हुँति । सम्वविदीणमुक्कस्सओ दु उ उक्कस्ससंकिलेसेण । विवरीदो दु जहण्णो आउगलिग वज सेसाणं ॥८॥ सव्वुकस्सठिदीणं मिच्छादिट्ठी दु बंधगो भणिओ। आहारं तित्थयरं देवाउग चावि मुत्त ण ॥८६॥ देवाउगं पमत्तो आहारं अप्पमत्तविरदो दु । तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्मो समज्जेइ ॥१०॥ सव्व ट्ठिदीणं देवाउगस्स उकस्सो ठिदिबधो पमत्तत्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स उक्कस्सआबाधाए उक्करसठिदिबधे वट्टमाणस्स । आहारदुगरस उक्करसगो ठिदिबंधो पमत्ताभिमुहस्स अप्पमत्तसंकिलिट्ठस्स उक्करसचरमठिदिबंधे वट्टमाणस्स । तित्थयरस्प्त उक्करसगो ठिदिबधो मणुसपज्जत्तो असंजदसम्मादिट्ठिस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स विदियतदियपुढवीसु उत्पज्जमाणस्स संकिलिट्ठस्स उक्कस्सचरमठ्ठिदिबधे वट्टमाणस्स। पण्णरसण्ह ठिदीणं उक्कस्सं बंधति मणुय-तेरिच्छा। छण्हं सुर-णेरइया ईसाणंता सुरा तिण्हं ॥११॥ पण्णरसण्हं णिरयगइ-वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरंगोवंग - णिरयगइपाओग्गाणुपुब्बीणं उकस्सग्गो द्विदिबधो सण्णिस्स तिरिक्ख-मणुसमिच्छादिट्ठिरस संखिज्ज-वस्साउगस्स सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तगदस्स सागार-जागार-सुदो व-[जोग-] जुत्तरस सव्वसंकिलिट्ठस्स ईसिमझिमपरिणामस्स वा उक्कस्साबाधाए उकस्सहिदिबधे वट्टमाणस्स । एवं तिरिक्ख-मणुसाउगाणं । णवरि तप्पाओग्गविसुद्धस्स । एवं णिरयाउग-वीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियजाइ-देवगइपाओग्गाणपुत्वीसुहुम-अपज्जत-साहारणसरीराणं । णवरि तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स। तिरिक्खगइ-ओरालियसरीर-तदंगोवंग-असंपत्तसेवाणं तिरियगइपाओग्गाणपुवी-उज्जोवाणं छण्हं उक्कस्सगो ठिदिबंधो सव्वणेरइय-आणदाइयदेव वज्ज सव्वदेव-मिच्छादिट्ठिस्स पज्जत्तयस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स ईसिमझिम-परिणामस्स वा उक्कत्साबाधाए उक्कस्सद्विदिबधे वट्टमाणस । णवरि ओरालियंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं भवणाइ-ईसाणंता मिच्छादिठ्ठस्स उक्कस्सहिदि णं बधति । उक्करस-संकिलेसेण एइंदियं बध ति, तेण सह बघ णागच्छति । एइंदिय-आदाव Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ सतग-संगहो थावराणं उक्करसगो ठिदिबंधो भवणवासिय-वाणवितर-जोदिसिय-सोधम्मीसाणदेवा मिच्छादिठिस्स पज्जत्तस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स ईसिमभिमपरिणामस्स वा उक्करसाबाधाए उक्करसठिदिबधे वट्टमाणस्स सागार-जागार-सुदोवजुत्तस्स । सेसाणं चदुगदिया ठिदि-उकस्सं करिति पगडीणं । उकस्ससंकिलेसेण ईसिमहमज्झिमेणावि ॥६२॥ सेसाणं चदुदिया पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-असादवेदणीय-मिच्छत्त-सोलस कसायणउंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदिय-तेज-कम्मइयसरीर हुंडसंठाण-वण्णादिचदुक्क-अगुरुगलहुगादिचदुक्क-अप्पसत्थविहायगइ-तस-चादर-पज्जत्त-पत्तेगसरीर-अथिरादि छ-णिमिण-णिच्चगोदाण पंचअंतराइयाणं उक्कस्सगो ट्ठिदिबंधो असंखेज्जवस्साउग-आणदादिदेव वज्ज चउगइसण्णिमिच्छादिस्सि पज्जत्तस्स सागार-जागारसुदोवजुत्तस्स उक्किट्ठसंकिलिस्स ईसिमज्झिमपरिणामस्स वा । उक्कस्सटिदिबंधपाओग्ग-असंखेज्जलोगपरिणामेसु जं चरमपरिणामहाणं तं उक्करससंकिलेसेत्ति वुच्चइ। तेसु चेव जं पढमपरिणाम [ हाणं ] ईसि त्ति वुच्चइ । दुण्डं विच्चालपरिणामट्ठाणं मज्झिमपरिणामे त्ति वुच्चइ । एवं सेसाणं पगडीणं । वरि तप्पाओग्गसंकिलिङ्कस्स। आहारं तित्थयरं णियट्टि अणियट्टि पुरिस संजलणं । बंधइ सुहुमसराओ साद-जसुच्चावरण-विग्धं ॥६३॥ आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंग-तित्थयरणामाणं जहण्ण-उक्कस्सगो ठिदिबंधो अपुव्वकरणखवगस्स छट्रमभागचरमे जहएणगे ठिदिबंधे वद्रमाणस्स । परिसवेद-चदसंजलणाण जहण्णगो ठिदिबंधो अणियट्टिखवगस्स अपप्पणो जहण्णगे चरमे हिदिबंधे वट्टमाणस्स । साद-जसकित्तिउच्चगोद-पंचणाणावरण-चउदसणावरण- पंचअंतराइयाणं जहण्णगो ठिदिबंधो सुहुमखवगस्स चरमजहण्णगे ठिदिबंधे वट्टमाणस्स । छण्हमसण्णिट्ठिदीण कुणइ जहण्णमाउग्गमण्णदरो। सेसाणं पजत्तो बादर एइंदियसुद्धो दु ॥१४॥ 'छण्हमसण्णी' [णिरयग-] इ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं जहण्णगो ट्ठिदिबंधो असण्णिपंचिंदियपज्जत्तस्स सागार-जागारसुदोवजुत्तस्स जहण्णगे ट्ठिदिबंधे वट्टमाणस्स । देवगइ-वेउव्वियसरीर-तदंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुत्वीणं जहण्णगो ठिदिबंधो असण्णिपंचिंदियपज्जत्तस्स सागारजागारसुदोवजुत्तस्स सव्वविसुद्धस्स जहण्णगे ठिदिबंधे वट्टमाणस्स । णिरयाउगस्स जहण्णगो ठिदिबंधो [असणिपंचिदिय-पज्जत्तस्स सागार-जागारसदोषजत्तस्स सव्वविसद्धस्स मिच्छादिहिस्स जहण्णगे ठिदिबंधे ] वट्टमाणस्स । एवं देवाउगस्स वि । णवरि तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स । तिरिय-मणुसाउगाणं जहण्णगो ठिदिबंधी असंखेज्जवस्साउग वज्ज सव्वतिरिय-मणुसाणं मिच्छादिट्ठीण तप्पाओग्गसंकिलिट्ठाणं जहण्णठिदिबंधे वट्टमाणाणं ओगाहण [ दोण्हमाउगाण ] जादि [ जायदि ] । णाणा [ णवरि ] विसेसाण पडुच्च अण्णदरो त्ति णादवो। 'सेसाणं पज्जत्तो' पंच दंसणावरण-मिच्छत्त-वारस कसाय-हस्स-रइ-भय-दुगुंछ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेज-कम्मइयसरीर-समचउरसरीर-संठाण-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसभवहरणारायसरीरसंघडण-वण्णादि चउक्क - अगुरुलहुगादिचउक्क - पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत- पत्तेगसरीर - थिर-सुभ - सुभगसुरसर-आदिज्ज-णिमिण [ णामाणं ] जहण्णगो हिदिबंधो बादरएइंदियपज्जत्तस्स सागार-जागारस्स सम्वविसुद्धस्स जहण्णगे ठिदिबंधे वट्टमाणस्स । असाद-इत्थी-णवंसक [ वेद ]-अरइ-सोग-चउजाइ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो पंचसंठाण-पंचसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-आदव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त - साहारण-अथिर-[ अ-] सुभ-दुभग-दुस्सर-अणादिज्ज-अजसकित्तीणं जहण्णगो हिदिबंधो बादर-एइंदियपज्जत्तस्स सागारजागारस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स जहण्गगे हिदिबंधे चट्टमाणस्स । तिरिक्खगइ-तिरिक्खपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-णिचगोदाणं जहण्णगो ठिदिबंधो बादरतेउ-वाउपज्जत्तस्स सागार--जागारस्स सव्वविसुद्धस्स जहण्णगे ठिदिबंधे वट्टमाणस्स । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुठवीणं जहण्णगो ठिदिबंधो बादर-पुढवी-आउ-पत्तेगसरीरपज्जत्तस्स सागार-जागारस्स सव्वविसुद्धस्स जहण्णगे द्विदिबंधे वट्टमाणस्स। ठिदिबंधो समत्तो। सादि अणादि अट्ट य पसत्थिदरपरूवणा तहा सण्णा ! पच्चय-विवाग देसा सामित्तेणाध अणुभागो ॥६॥ घादीणं अजहण्णो अणुक्कस्सो वेयणीय-णामाणं । अजहण्णमणुक्कस्सो गोदे अणुभागबंधम्मि ॥६६॥ सादि अणादि धुव अद्धवो व बंधो दु मुलपयडीसु । सेसम्हि दु दुवियप्पो आउचउक्के वि एमेव ॥१७॥ अणुभागो णाम कम्माण रसविसेसो। 'घादीणमजहण्णो' णाणावरण-दसणावरण-मोहणीयंतराइयाणं अजहण्णाणुभागबंधस्स उवंतस्स य [उवसंतकसायो] बंधगो। देवेसुप्पण्णस्स य सादियब धो। तस्सेव सुहुमभावेण वा मोहणोयं वज्ज णं [वजिऊण] । मोहणीयस्स हु सुहुमस्स ओदरमाणस्स अणियट्टिभावेण सादी। सेढिमणारूढं पडुच्च अणादी। अब्भवसिद्धिं पडुच्च धुवो। जहण्णं वा अबंधं वा गंतूण अधुवबंधो। वेदणीय-णामाणं अणुक्कस्स-अणुभागबंधस्स उवसंतस्स देवभावेण वां सुहुमभावेण वा सादियबंधो । सेढिमणारूढं पडुच्च अणादिबंधो। अभवसिद्धिं [पडुच्च धुवबंधो उक्करसंवा । अबंध गंतूण अधुवबंधा। गादस्स य जहण्णमणुक्करसाण उवसत [स्स] सुहुमभावेण वा देवभावेण वा अणुक्कसो सादी। अजहण्णस्स सत्तमाए पुढवीए उवसमसम्म त्तभिमुह-मिच्छादिटि-चरमसमय जहण्णं काऊण उवसमसम्मत्तं गहिय मिच्छत्तं गयस्स सादियबंधो। सेढिमणारूढं पडुच्च अगादि अजहण्णस्स सत्तमपुढवीए उवसमसम्मत्ताभिमुहमिच्छा. दिहि चरमसमय जहण्णं अकरंतस्स वा अणादि । अन्भवसिद्धियस्स धुव । अजहण्णस्स जहण्णं वा अबंधं वा बंधवुच्छेदं वा गंतूण अद्धव । अणुकरसो उक्करसंवा गंतूण अधुव । सेसतिगस्स एदेसिं वुत्तस्स कम्माणं गोदवज्जाणं सादिअर्धवबंधो । गोदस्स सेसदुगस्स सादि अधुवबंधो । आउगस्स उक्कस्स-अणुक्कस्स-जहण्ण-अजहण्णाणं सादि-अधुवबंधो। अट्टाहमणुक्कस्सो तेदालाणमजहष्णगो बंधो। . णेयो दु चदुवियप्पो सेसतिए होदि दुवियप्पो ॥१८॥ 'अट्ठण्हमणुकस्सो' तेज-कम्मइयसरीर-पसत्थ-वण्ग-गंध - रस-फास - अगुरुगलहुग-णिमिणणामाणं अणुक्कस्स-ओदरमाणस्स अपुव्वस्स अबंधगस्स बंधमागदस्स सादियबंधो। देवेसुप्पण्णस्स वा अबंधगस्स सेढिमणारूढं पडुच्च अणादि० । अन्भवसिद्धिं पडुच्च धुव०। उक्करसं वा अबंध वा बंधवुच्छेदंवा गंतूण अधुव०। 'तेदालाणमजहण्णं पंचणाणावरण-णवदसणावरण-मिच्छत्त-सोलस कसाय-भय-दुगुंछ-अप्प्रसत्थवण्णादिचदुक्क-उवघाद-पंचंतराइयाणं अजहण्णस्स अबंधगाण अप्प Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो प्पणो गुणहाणे बंधमाणाणं सादियबंधो। अबंधगुणट्ठाणं अप्पमत्ताणं अणादि । अभव्वसिद्धियाणं धुवं । अबंधं वा जहण्णं वा गंतूण य अधुवं । एदेसि सेसतिगस्स सादि अदुवं । उक्कस्समणुक्कस्सो जहण्णमजहण्णगो य अणुभागो । सादिय अदुवबंधो पगडीणं हुंति सेसाणं ॥६६॥ सेसपगडीणं उक्करसमणुक्करस-जहण्णमजहण्णाणं सादिअधुवबंधो । सुहपयडीण विसोही तिव्वं असुभाण संकिलेसेण । विवरीदे दु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ॥१०॥ सुहपगडीण विसोहीए तिव्वं उक्कस्स अणुभाग-बंधट्ठाणं होइ। असुभाणं पि पगडीणं संकिलेसेण उकस्सअणुभाग-बंधट्ठाणं होइ । 'विवरीदे दु जङ्ग्णगो' सुभपगडीणं संकिलेसेण जहण्णो अणुभागो, असुभाण विसोहीए जपणो अणुभागो।। बादालं पि पसत्था विसोहिगुणमुक्कडरस तिव्वाओ । वासीदिमप्पसत्था मिच्छुक्कडसंकिलिट्ठस्स ॥१०१॥ 'बादालंपि पसत्था' य सदेण मूलपयडीणं अपसत्थपरूवित्थादो वा सादी पयडीओअपसत्थाओ अघादिपयडीओ पसत्थापसत्थाओ णायवाओ! णाणावरणीय-दसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं उक्करसो अणुभागबंधो असंखिज्ज वस्साउग-आणदादिदेव वन्ज चउगइसण्णि पंचिंदियमिच्छादिहिस्स सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तगस्स सागार-जागारसुदोवजुत्तस्स णियमा उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स उक्करस-अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । वेदणीय-णाम-गोदाणं उक्करस-अणुभागबंधो सुहुमखवगस्स चरमे उक्कस्स-अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । आउगस्स उक्कस्स-अणुभागबंधो अप्पमत्तसंजदस्स सागार-जागारसुदोवजुत्तस्स तप्पाओग्गट्ठिदिबंधस्स उक्करस-अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । णाणावरणीय-दसणावरणीय-पंचअंतराइयाणं जहण्णगो अणुभागबंधो सुहुमखवगस्स चरमे जहण्णअणभागबंधे वट्टमाणस्स। मोहणीयस्स जहण्णअणुभागबंधो अणियट्टिखवगस्स सागार-जागारस्स जहण्णअणुभागबंधे वट्टमाणस्स । वेदणीयणामाणं जहण्णगो अणुभागबंधो सम्मादिहिस्स वा मिच्छादिहिस्स वा परियत्तमाणमज्झिमपरिणामस्स जहण्णगे य अणुभागबंधे वट्टमाणम्स । आउगस्स जण्णगों अणुभागबंधो जण्णिय अपज्जत्तांतारयाउग बधमाणस्स असंखेज्ज-वस्साउगवज्ज तिरियस्स मणुसस्स मिच्छादिहिस्स परियत्तमाणमज्झिमपरिणामस्स जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । गोदस्स जहण्णगो अणुभागबंधो सत्तमाए पुढवीए णेरइयमिच्छादिहिस्स सागारजागाररस सव्वविसुद्धस्स सम्मत्ताभिमुहस्स चरमे जहण्णे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । 'बादालं पि पसत्था' साद-तिरिक्ख-मणुस-देवाउग-मणुस-देवगइपंचिंदियजादि-पंचसरीरसमचउरससंठाण-तिणि अंगोवंग वजरिसभवइरणारायसंघडण-पसत्थवण्णादि-चदुक्क-मणुसदेवगइपाओग्गाणुपुत्वी अगुरुगलहुग-परघाद-उस्सास-आदाय - उज्जोव-पसत्थविहायगइ-तस-बादरपज्जत्त-पत्तेग सरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदिज जसकित्ती-णिमिण-तित्थयर-उच्चगोद वादालोसपयडीओ पसत्थाओ उक्करस विसोहिगुणजुत्तस्स तिव्वकसाय-अणुभागाओ हुंति । __ 'वासीदिमप्पसत्था' पंचणाणावरण-णवदसणावरण-असादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसायणवणोकसाय-णिरयाउ-णिरयगइ-तिरिक्खगइ-पंचिंदियवज चउजाइ-समचउरवज्ज पंचसंठाण-वन्नरिसभ वज्ज पंचसंघडण-अप्पसत्थवण्णादिचदुक्क-णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणु-पुव्वी-उवघाद अप्पसत्थविहायगइ - थावर सुहुम-अपनत्त - साहारण अथिर-असुभ-दुभग-दुस्सर-अणादिज-अजसकित्ति णिचगोद-पंचअंतराइया वासीदिपगडीओ अप्पसत्थाओ उक्कस्ससंकिलेसजुत्तमिच्छादिहिस्स। Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो आदाउजोवाणं मणुव-तिरिक्खाउगं पसत्थाओ। मिच्छस्स होति तिव्वा सम्मादिहिस्स सेसाओ ॥१०२॥ आदाउज्जोव-मणुव-तिरिक्खाउगं चत्तारि पगडीओ पसत्थपगडीण मज्झे मिच्छादिहिस्स उक्कस्स-अणुभागाओ हुंति । सेसाओ अत्तीस पगडीओ सम्मादिढिरस उकस्स-अणुभागट्ठिदीओ हुति । देवाउगमपमत्तो तिव्वं खवगा करिति वत्तीसं । धंति तिरिय-मणुया इकारस मिच्छभावेण ॥१०३।। देवाउगस्स उक्कसो अणुभागबंधो अप्पमत्तस्स सागार-जागार सुदोवजुत्तस तप्पाओग्ग-विसुद्धस्स उक्करस अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । तिवखवगा सं तिव्वं खवगा करिति बत्तीसं] साद-जसकित्तिउच्चगोदाणं उक्कस्सगो अणुभागबंधो सुहुम-संपराइयखवगस्स चरमे उक्करसअणुभागबंधे वट्टमाणस्स। देवगइ-पंचिंदियजाइ-वेउव्वियाहार-तेज-कम्मइयसरीर - समचउरसरीरसंठाण - वेउव्वियाहारसरीरंगोवंग-पसत्थवण्णादिचउक-देवगइपाओग्गाणपूवी-अगुरुगलहुग-परबाद - उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेगसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदिज्ज - णिमिण - तित्थयराणं उकस्सगो अणुभागबंधो अपुठवकरणखवगस्स छ-सत्तमभागचरमे उकस्स-अणुभागबंधे वट्टमाणस्स सागारजागाररस सव्व-विसुद्धस्स बंधंति । णिरयाउग-वीइंदिय-तीइंदिय-चतुरिंदियजादि-सुहुम-अपज्जत्तसाहारणाणं उक्कस्सगो अणभागबंधो असंखिज्जवस्साउग वज्ज सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्ख-मणस पत्तज्जमिच्छादिहिस्स सागार-जागारस्स तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स उक्कस्सअणुभागबंधे वट्टमाणस्स । तिरिक्ख-मणुसाउगाणं च सो चेव भंगो। णवरि तप्पाओग्गविसुद्धस्स । एवं णिरयगइपावुग्गाणुपुवीणं । णवरि उक्कस्ससंकिलिहस्स। पंच सुर-णिरयसम्मो सुरमिच्छो तिण्णि जददि पगडीओ। उज्जोवं तमतमगा सुर-णेरइया भवे तिण्णि ॥१०४॥ 'पंच सुर णिरयसम्मो' मणुसगइ-ओरालिय-सरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्ञरिसभ-मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वीण उक्कस-अणुभागबंधो देव-णेरइयअसंजदसम्मादिहिस्स पज्जत्तस्स सागारजागरस्स सव्वविसुद्धस्स उकस्स-अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । 'सुरमिच्छो' त्ति पयडीओ एइंदियआदाव-थावराणं उक्कस्सो अणुभागबंधो भवणादि-सोहम्मीसाणं देवपज्जत्तमिच्छादिटिप्स सागारजागरस्स णियमा उक्करससंकिलिट्ठस उक्कस्सअस्स । एवं आदावस्स । णवरि तप्पाओग्गविसुद्धस्स । उज्जोवस्स उकस्सअणुभागबंधो सत्तमपुढवीरइयपज्जत्तमिच्छादिहिस्स सागार-जागरस्स सव्वविसुद्धस्स सम्मत्ताभिमुहस्स चरमे उक्करस-अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । 'सुर-णेरइया भवे तिण्णि' तिरिक्खगइ-असंपत्तसेवट्टसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणं उकस्सअणुभागबंधो आणदादिदेव वज देव-णेरइयअपजत्तमिच्छादिहिस्स सागार-जागरस्स णियमा उक्करससंकिलिहस्स उक्करसअणुभागबंधे वट्टमाणस्स । सेसाणं चदुगदिया तिव्वणुभागं करिति पयडीणं । मिच्छादिट्ठी णियमा तिव्वकसाउक्कडा जीवा ॥१०॥ __ 'सेसाणं चदुगदिया' सेसाणं पगडीण असंखेजवस्साउग वज्ज आणदादिदेव वज्ज चउगइसण्णि-पंचिंदियपज्जत्तमिच्छादिट्ठिणो उक्करस-अणुभागं करिति । सागार-जागरस्स उक्करससंकिलेसेण । णवरि इत्थी-पुरिसवेय-हस्स-रइ-समचदुर-हुंडवज चउसंठाण वज्जरिसभ-असंपत्तसेवट्ट वज्जचउसंघडणाण तप्पाओग्गसंकिलेसेण । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ सतग-संगहो चउदस सरागचरमे पण अणियट्टी णियट्टि एयारं । सोलस मंदणुभागं संजमगुणपत्थिदो जददि ॥१०६॥ 'चउदस सराग चरमे पंचणाणावरण-चउदसणावरण-पंचअंतराइयाणं जहण्णगो अणुभागबंधो सुहुमसंपराइयखवगरस चरमे जहण्णे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । 'पंच अणियट्टी' पुरिसवेद-जण्णगो अणुभागबंधो अणियट्टिखवगस्स पुरिसवेदोदयस्स चरमे जहण्णअणुभागबंधे वट्टमाणस्स । एवं कोह-माण-माया-लोभ-संजलणाणं । णवरि अप्पप्पणो चरमे जहण्णअणुभागबंधे वट्टमाणस्स । कोहस्स कोहोदएण वा, माणस्स कोहोदएण वा माणोदएण वा, मायाए कोह-माणमायाणं अण्णदरोदएण । लोभस्स च उसंजलणाणं अण्णदरोदएण खवगसेटिं चडिदस्स होइ । 'णियट्टि एयारं' हस्स-रइ-भय दुगुकाणं जहण्णगो अणुभागबंधो अपुत्वकरणखवगरस चरमसमए वट्टमाणस्स सागार-जागरस्स सव्वविसुद्धस्स जहण्णगे आस्स [ अणुभागबंधे वट्टमाणस्स ] पसत्थवण्णादिचउक्क-उवधादाण जहण्णगो अणुभागबंधो अपुत्वकरणखवगस्स छ-सत्तभागचरमसमए वट्टमाणस्स सागार-जागरस्स सव्वविसुद्धस्त जहण्णअणुभागबंधे वट्टमाणस्स । णिद्दा-पचलाणं जहण्णगो अणुभागबंधो अपुठवकरणपढमसत्तमचरमसमए वट्टमाणस्स सागार-जागरस्स सव्वविसुद्वस्स जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । 'सोलस मंदणुभागं' स० दि [संजमगुणपत्थिदो जददि] णिद्दा-णिद्दा-पचलापचला-थीणगिद्धी-मिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहण्णगो अणुभागबंधो मणुसपज्जत्तस्स संजमाभिमुहस्स मिच्छादिहिस्स चरमसमए वट्टमाणस्स सागार-जागरस्स सव्वविसुद्धस्स जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । एवं अपञ्चक्खाणाचरणचउक्करस । णवरि असंजदसम्मादिहिस्स । एवं पच्चक्खाणावरणचउक्काणं । णवरि संजदासंजदरस । आहारमप्पमत्तो पमत्तसुद्धो दु अरदि-सोगाणं । सोलस य मणुय-तिरिया सुर-णेरइया तमतमगा तिण्णि ॥१०७॥ 'आहारमप्पमत्तो' आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगाणं जहण्णगो अणुभागबंधो अप्पमत्तस्स सागार-जागरस्स णियमा उक्कस्ससंकिलिट्टस्स पमत्ताभिमुहस्स चरमसमए जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । 'पमत्तसुद्धो दु अरदिसोगाणं' अरदि-सोगाणं जहण्णगो अणुभागबंधो पमत्तसंजदस्स सागार-जागरस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स । 'सोलस य मणुय-तिरिया सुर-णेरइया तमतमा तिण्णि' णिरय-देवाउगाणं जहण्णगो अणुभागबंधो असंखिज्जवस्साउग वज्ज सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्खमणुसस्स मिच्छादिहिस्स पज्जत्तस्स दसवाससहस्साउगढिदिबंधमाणस्स मज्झिमपरिणामस्स सागार-जागरस्स जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । तिरिक्खमणुसाउगाणं जहण्णगो अणुभागबंधो असंखेज्जवस्साउग वज्ज मणुस-तिरिक्खमिच्छादिट्रिठस्स जहण्णं अप्पज्जत्ताउगं अंतोमुहुत्तं बंधमाणस्स सागार-जागरस्स मज्झिमपरिणामस्स जहण्णगे अणुभागबधे वट्टमाणस्स । णिरयगइ. णिरयगइपाओग्गाणुपुत्वीणं जहण्णगो अणुभागबंधो असंखिज्जवस्साउग वज्ज पंचिंदियतिरिक्खमणुसपज्जत्तमिच्छादिहिस्स सागार-जागरस्स मभिमपरिणामस्स जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स। देवगइ-देवगइपाओग्गाणपुव्वीणं जहण्णगो अणुभागबंधो पंचिंदियतिरिक्ख-मणुसपज्जत्त मिच्छादिहिस्स परियत्तमाणमज्झिमपरिणामस्स जहण्णअणुभागबंधे वट्टमाणस्स । वेउव्वियसरीरवेउव्वियसरीरंगोवंगाणं जहण्णगो अणुभागबंधो असंखिज्जवस्साउग वज सण्णि-पंचिंदियतिरिक्ख. मणुसपज्जत्तमिच्छादिट्ठिस्स सागार-जागारसुदोवजुत्तस्स उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स जहण्ण-अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदियजादि सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं जहण्णगो अणुभागबंधो असंखिज्जवस्साउगवज तिरिक्ख-मणसमिच्छादिहिस्स सागार-जागरस्स परियत्तमाणमज्झिमपरिणामस्स जपणअणभागबंधे वट्टमाणस्स। ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग-उज्जोवाणं Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ पंचसंगहो जहगो अणुभागबंधो आणदादिदेव वज्ज देव णेरइय- पज्जत्तमिच्छादिट्ठिस्स सागार-जागरस्स णियमा उक्करससंकिलिट्ठस्स जहणअणुभागबधे वट्टमाणस्स । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपु०वी-णीचगोदाणं जहण्णगो अणुभागबंधो सत्तमपुढवीए णेरइय पज्जत्तमिच्छादिट्ठिस्स सम्मत्ताभिमुहस्स सागार - जागरस्स सव्वविसुद्धस्स चरमसमए जहण्णगे अणुभागबंधे वट्ट माणस्स । एइंदिय थावरयं मंदणुभागं करिति तेगदिया । परियत्तमाणमज्झिमपरिणामा णारगं वज ॥ १०८ ॥ एइंदिय थावराणं जण - अणुभागबंधो णेरइय- [ अ ] संखेज्जवरसाउग-स'गक्कुमारादि देव वज्ज से समिच्छादिट्ठिस्स परियत्तमाणमज्झिमपरिणामस्स जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । मज्झिमपरिणामेत्ति सुभासुभपगडीणं साधारणभूदा मज्झिमपरिणामा त्ति वृच्चति । आदावं सोधम्मो तित्थयरं अविरद-मणुस्सेसु । चउगदि उक्कड मिच्छो पण्णरस दुवे विसोधीए ॥ १०६ ॥ 'आदावं सोधम्मो' आदावस्स जहण्गगो अणुभागबंधो भवणादि-सोहम्मीसाणंत देवपज्जत्तमिच्छादिट्टिस्स सागार-जागार सुदोवजुत्तस्स उक्कत्ससंकिलिट्ठस्स जहणगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । तित्थयरस्स जहण्णगो अणुभागबंधो भणुसपज्जत्त - असंजदसम्मादिट्ठिस्स सागार जागरस्स णियमा उक्कम्ससंकिलिट्टस्स मिच्छत्ताभिमुहस्स विदिय तदियपुढवी उप्पज्जमाणस्स चरमे जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स | 'चदुर्गादिमुक्कड मिच्छो' पंचिदियजाइ-तेजस-कम्मइयसरीरपसत्थवण्णादिचदुक्क- अगुरुगलहुग-परघाद- उस्सास-तस - बादर-पज्जत्त- पत्तेगसरीर - णिमिणणामाणं जहणगो अणुभागबंधो असंखेज्जवरसाउग वज्ज-आणदादिदेव वज्ज चदुर्गादि-सण्णि-पंचिंदियपज्जत्तमिच्छादिट्ठिस्स सागार - जागररस नियमा उक्करससंकिलिट्ठस्स जहण्णगे अणुभागबंधे चट्टमाणस्स । 'दुवे विसोधीए' इत्थीवेदरस जहण्णगो अणुभागबंधो च उगइ-सण्णि-पंचिंदिय-पज्जत्तमिच्छादिट्ठिस्स सागार-जागरस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स णियमा उक्कत्ससंकिलिङस्स जण अणुभागबंध माणस्स । एवं वुंसक वेदस्स । णवरि असंखेज्जवस्सारग वज्ज । सम्मादिट्टी मिच्छो वादं [ व अट्ठ] परियत्तमज्झिमो जददि । परियतमाणमज्झिममिच्छादिट्ठी दु तेवीसं ॥ ११०॥ 'सम्मादिट्ठी मिच्छो वा अट्ठ' सादासाद-थिराथिर- सुभासुभ-जस-अजसकित्तीणं जहण्णगो अणुभागबंधो चउगदि-मिच्छादिट्ठिस्स वा सम्मादिट्ठिस्स वा परियत्तमाणमज्झिम परिणामस्स जहणगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स | 'मिच्छादिट्ठी दु तेवीसं' छठाण छसंघडण मणुसगइ-मणुसइपाओग्गाणुपुवी - दोविहायगइ-सुभग - दुभंग-सुस्सर दुस्सर - आदिज्ज - अणादिज्ज- उच्चगोदाणं जागो अणुभागबंधो चउगइमिच्छादिट्टिम्स परियत्तमाणमज्झिमपरिणामस्स जहण्णगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स । केवलणाणावरणं दंसणछकं च मोहवारसयं । ता सव्वघादिसण्णा हवदि य मिच्छत्तवीसदिमं ॥ १११ ॥ 'ता' सद्देण मूलपयडीणं घादि- अघादित्तं परूविज्जइ । णाणावरण दंसणावरण- [णाण ] उक्करस- अणुकरस-जहृण्ण अजहण्ण-अणुभागबंधो सव्वधादी । वेदणीय आउग णामा-गोदाण उक्करस- अणुक्कस्स- जहण्ण-अजण अणुभागबंधो अघादी घादियाणं पडिभागो । मोहंतराइयाणं उक्करस- अणुभागबंधो सव्वघादी । अणुक्करस- अणुभागबंधो सव्वघादी वा देसघादी वा । जहण Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो अणुभागबंधो देसघादो । अजहण्ण-अणुभागबंधो देसघादी वा सव्वधादी वा । केवलणाणावरणं णिद्दाणिद्दा पचलापचला थोणगिद्धी णिद्दा पचला केवलदंसणावरणं चउसंजलण वज्ज वारस कसाय मिच्छत्तं एदासिं वीसहं पगडीणं उक्करस- अणुक्कल्स जण अजहण्ण-अणुभागबंधो सव्वधादी दिगुणाणं सव्वं घातीति सव्वघादी, महावणदाहं व । णाणावरणचउकं दंसणतिग अंतराइगे पंच | [ता] होंति देसवादी संजलणं णोकसाया य ॥ ११२ ॥ केवलणाणावरण वज्ज आभिणिबोहिग-सुद- अवधि-मणपज्जवचउक्त चक्खु अचक्खु-ओहिदंसणावरण-पंचअंतराइय- चउसंजलण-णवणोकसायाणं उक्करस- अणुभागबंधो सव्वघादी अणुकरस- अणुभागबंधो सव्वधादी वा देघादी वा । जहण्णगो अणुभागबंधो देसघादी । अजहण्णमणुभागबंधो देसवादी वा सव्ववादी वा । णाणादिगुणाणं इक्कसं घादयंति त्ति देसवादी, एक्कदेसवणदाहं व । अवसेसा पगडीओ अघादि घादीण होइ पडिभागो । ता एव पुण-पावा सेसा पावा मुणेदव्वा ॥ ११३॥ 'अवसेसा पगडीओ' सादासाद- चउआउग- सव्वणामपयडी उच्च णीचगोदाणं उक्करस- अणुक्वस्स-जण-अजहण्ण अणुभागबंधो 'अघादि घादियाग पडिभागो' घादि-कम्मसंजुत्ताणं अघादीणं सकज्जकरणसमाणिदो घादीणं पडिभाग प्ति वुदे । अघादिविसेसो । सकज्जकरणसामत्थं णत्थि, चोरसहिय-अचोरुव्व । 'ता एव पुण्ण-पावा' अघादिपयडीओ पुण्ण-पाव पगडीओ हुंति । घादिकम्मपगडीओ सव्वाओ पावाओ हुति । ६२३ आवरण देसघादंतराय संजलण पुरिस सत्तरसं । चविभावपरिणदा तिविहा भावा भवे सेसा ॥ ११४ ॥ मोहणीय-अंतराइयवज्जाणं छण्हं कम्माणं उक्कास - अणुभागबंधो चउद्वाणी । अणुकरस- अणुभागबंधो चट्टाणिओ त्ति वा तिट्ठाणिगोत्ति वा विट्ठाणिगोत्ति वा । जहण्णा अणुभागबंधो विट्ठाणिओ | अजहणं अणुभागबंधी विट्ठाणिगोत्ति वा तिद्वाणिगोत्ति वा चउट्टाणिगोत्ति वा । मोहंतगइयाणं उक्करस- अणुभागबंधो चउट्ठाणिओ । अणुक्कस्स- अणुभागबंधो चउट्ठाणिओ वा, तिट्ठाणिओवा, विट्ठाणिओवा, एगट्ठाणिओ वा । जहण्ण अणुभागबंधी एगट्ठाणिगो । अजहण्ण-अणुभगबंध गट्ठाणिओवा, विट्ठाणिओवा, तिट्ठाणिओ वा, चट्ठाणिओ वा । आवरण-देससेसचउणाणावरण- तिन्हदंसणावरण- चउसंजलण-पुरिसवेद-पंच अंतराइय-सत्तरसपयडीणं उक्करस- अणुभागबंधो उट्ठाणिओ । अणुक्करस- अणुभागबंधी चउट्ठाणिओ वा तिट्ठाणिओ वा विट्ठाणिओ वा एक्कट्ठाणिओ वा । जहण्ण-अणुभागबंधो इकट्ठाणिओ वा । अजण अणुभागबंधो एक्कट्ठाणिओ वा, विट्ठाणिओवा, तिद्वाणिओ वा चउट्ठाणिओ वा केवलणाणावरण छदंसणावरण-सादासादमिच्छत्त-वारस-कसाय-अट्ठणो कसाय- चउआउ सव्वणामपयडी उच्च णिच्च-गोदाणं उक्करस-अणुभागबंधो चउट्ठाणिओ | अणुकरस अणुभागबंधो चउट्ठाणिओ, वा तिट्ठाणिओ वा विट्ठाणिओ वा । जग अणुबंध विट्ठाणिओ । अजहण अणुभागबंधी तिट्ठाणिओ वा, तिट्ठाणिओ वा, चउट्ठाणिओ वा । असुभपगडीणं णिवं व एगट्ठाणं, कंजीरकं व विद्वाणं विसं व तिद्वाणं कालकूडं व चाणं । सुभ-पगडीणं गुडं व एगट्ठाणं, खंड व विद्वाणं, सक्करं व तिट्ठाणं, अमीव चउट्ठाणं । वादी गट्टाणं णत्थि । अट्ठणोकसाय केवलं एगट्ठाणं णत्थि, विट्ठणेण मिस्सं होण एगट्ठाणं हुति | For Private Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ पंचसंगहो सादं चदुपच्चइगं मिच्छो सोलस दुपच्च पणत्तिसं । सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहार-वजाओ ॥११॥ ‘सादं चदुपच्चइदं' सादरस मिच्छत्त-असंजम-कसाय-जोग-चदुण्हं पञ्चयाणं पत्तेयं पत्तेयं पाधण्णेण बंधो होइ। पगडिबंध-सामित्ते मिच्छादिहिस्स वुत्ताणं सोलसण्हं पगडीणं मिच्छत्तपञ्चय-पाधण्णेण बंधो होइ। तम्हि चेव सासणंत-पणुवीसं असंजदंत-दस-पणतीसपगडीणं मिच्छत्त असंजम दुण्हं पच्चयाणं पत्तेगपाधण्णेण बंधो होइ। सेसाणं तित्थयराहार-दुगे वज्जाणं मिच्छत्त-असंजम कसाय तिण्डं पच्चयाणं पत्तेय-पाधण्णेण बंधो हवदि । तित्थयरस्स सम्मत्तपाधण्णेण, आहार-दुगस्स पमादरहिद-संजमपाधण्णेण ।। पंच य छ त्तिय छप्पंच दुण्णि पंच य हवंति अद्वैव । सरिरादिय-फासंता पगडीओ हुति आणुपुव्वी[ए] ॥११६॥ [अगुरुयलहुगुवधाया परघाया आदावुञ्जोय णिमिण णामं च । पत्तेय-थिर-सुहेदरणामाणि य पुग्गलविवागा ॥११७॥] आऊणि भवविवागी खेत्तविवागी य होइ अणुपुव्वी । अवसेसा पगडीओ जीवविवागी मुणेयव्वा ॥११८॥ 'पच य छ' पंचसरीर छ संठाण तिण्णि अंगोवंग छ संघडण पंच वण्ण दोगंध पंचरस अट्ठफास अगुरुगलहुग उवघाद परघाद आदाव उज्जोव णिमिण पत्तेग साहारण थिर अथिर सुभ असुभ एदाओ पगडीओ पुग्गलविवागा पुग्गलपरिणामकारणादो पुग्गलविवागा त्ति वुच्चंति । 'आऊणि भवविवागी' चत्तारि आउगाणि भवविवागा हवंति, भव-धारण-णिमित्तादो। चत्तारि आणुपुत्वीओ खेत्तविवागा हुति, विग्गहं काऊण गच्छमाणस्स खेत्तफलदाणादो। अवसेसा पगडीओ जीवविवागा हुंति, जीवपरिणामणिमित्तादो। __ एवं अणुभागबंधो समत्तो। एयक्खेत्तवगाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जोग्गं । बंधइ जहुत्तहेदू सादिमह अणादियं चावि ॥११॥ 'एयक्खेत्तवगाढं जीवस्स अप्पप्पणो सव्वपदेसट्ठिदखेत्तपदेसे तत्तियमेत्तेण ठिदपुग्गलदव्यं कम्मजोग्गं बंधदि, जहुत्तकारणसहिदो जीवो 'सादिअ' कम्मसरूवेण गह्यि-मुक्कपुग्गलदव्वं सादिकं । पुव्वकम्मसरूवेण गहिय-पुग्गलदव्वं अणादियं । पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणदो दोगंध-चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि अणंतगुणहीणं ॥१२०॥ 'पंच रस' तित्त-कडुय-कसाय अंविल-महु[रसेहिं] संजुत्तं, किण्ह-णील-रुहिर-हालिह-सुकिलवण्णेहिं सहिदं, सुरभि दुरभि गंध-सीदुण्ड-णिद्ध-लुक्खेहिं परिणदमणंतपदेसं सव्वजोवेहिं अणंतगुणहीणं अब्भवसिद्धेहिं अणंतगुण सिद्धाणमणंतभागं कम्मबंधजोग्गपुग्गलदव्वं होइ । आउगभागो थोत्रो णामा-गोदे समो तदो अधिगो। आवरणमंतराए सरिसो अहिओ दु मोहे वि ॥१२१॥ 'आउगभागो थोवो' अट्टविधकम्माणं बंधमाणस्स एगेगसमए गहणमागयाणं कम्मपदेसाणं मज्झे आउगभागो थोवो । णामा-गोदाणं अण्णुण्णं भागो समो, आउगभागादो इक्क दरेण अधिओ। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगह। ६२५ णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणं भागो अण्णुण्णसरिसो, णामा-गोद-एक्कदरभागादो एदेसिं इक्कदरभागो अधिओ। अधिओ दु' मोहस्स भागो आवरणमंतराइय-एक्कदरभागादो अधिओ। सव्वुवरि वेदणीए भागो अधिओ दु कारणं किंतु । सुह-दुक्खकारणत्ता ठिदिव्विसेसेण सवाणं [सेसाणं] ॥१२२॥ 'सव्वुवरि वेदणीए' मोहभागादो वेदणीयभागो अधिगो, सव्वकम्मपदेसाणं उवरि वेदणीयपदेसं अधियं । तरस कारणं सुह-दुक्खकारणत्तादो। आउहीणं सेसाणं कम्म-पदेसाणं ठिदि-अधियत्तादो भागो अधिगो, सव्वत्थ आवलियाए असंखेजदिभागेण एगखंडमेत्तण अधिओ। एवं सत्तविहबंधयाणं आउगवज्ज णामादीणं भाणियध्वं । एवं छव्विहबंधयाणं आउग-मोहवज्ज णामादीणं भाणियव्वं । णाणावरणादीणं अप्पप्पगो पदेसभागो अप्पप्पणो उत्तरपयडीओ जत्तियाओ बंधमागच्छंति, तत्तियाणु जहाजोग्गं विभंजिऊण गच्छइ। छण्हं पि अणुक्कस्सो पदेसबंधो दु चउन्विहो होइ । सेसतिए दुवियप्पो मोहाऊणं च सव्वत्थ ॥१२३॥ 'छण्हं पि अणुक्कस्सो' मोहाउग-वेदणीय-वज्ज पंच कम्माणि अणुक्कस्सपदेसबंधस्स उवसंतस्स देवभावेण वा सुहुमभावेण वा अणुकस्सपदेसबंधस्स सादि सुहुमसंपराइय-अप्पणो काले उक्कस्सबंधमाणो अणुक्करस बंधइ त्ति वा । सादवेदणीयस्स अणुक्कस्सपदेसबंधस्स सुहुमसंपराइगो अप्पणो काले उक्कस्सपदेसबंधे वट्टमाणस्स अणुकस्स बंधइ त्ति सादिबंधो। सेढिमणारूढं पडुच्च अणादि अब्भवसिद्धिं पडुच्च धुवं उक्करसं वा अबंधं वा बंधवुच्छेदं वा गंतूण अदुवो। वेदणीयस्स उक्करसबंधवुच्छेदं वा गंतूण अधुवो। 'सेसतिए दुवियप्पो' दुक्खस्स जहण्ण-अजहण्णाणं सादि अधुवबंधो । मोहमाउगाणं उक्करस-अणुक्कस्स-जहण्ण-अजहण्णाणं सादि-अधुवबंधो । तीसहमणुक्कस्सो उत्तरपगडीसु चउव्विहो बंधो । सेसतिए दुवियप्पो सेसचउक्के वि दुवियप्पो॥१२४॥ 'तीसण्हं अणुक्कस्सो' पंचणाणावरणीय थीणगिद्धितिग वज छ दसणावरण-अणंताणुबंधि वज्ज वारसकसाय-भय-दुगुंछ-पंचअंतराइयाणं तीसण्हं पगडीणं अणुकरस पदेसबंधस्स, उक्करसादो अणुक्कस्सबंधमाणस्स वा सादि, अप्पप्पणो य बंधगुण हाणं उक्कस्सं वा अप्पडिवण्णाणं अणादि, अन्भवसिद्धिं पडुच्च धुवं, उक्करसं वा अबंधं वा गंतूग अर्धवं, उक्कस्स-जहण्ण-अजहण्णाणं सादिअधुवबंधो । सेसाणं णउदिपयडीणं उक्करस अणुक्कस्स-जहण्णाणं सादि अधुवं । आउगस्स पदेसस्स छ सत्त मोहस्स णव दु ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उकस्सजोएण ॥१२॥ आउगस्स उकस्सपदेसबंधो चउगइ-सण्णिपज्जत्त-मिच्छादिट्ठि-सासण-असंजद-तिरिक्खमणुस-संजदासंजद-पमत्तापमतसंजदाणं अट्ठविहबंधयाणं उक्करस-जोगीणं उक्कस्सपदेसबंधे वट्टमाणस्स । मोहणीयस्स उकस्सपदेसबंधो चउगइसण्णिपंचिदिय-पज्जत्त-मिच्छादिहि-सासण-सम्मादिट्ठि-सम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठि-तिरिक्ख-मणुस-संजदासंजद-पमत्तापमत्तअपुव्वकरण-अणियट्टीण उक्कस्साजोगीण आउगवज्ज सत्तकम्माण बंधमाणाणं उक्कस्स-पदेसबंधे वट्टमाणाणं होइ । 'सेसाणि तणुकसाओ' आउग-मोहवज्जाणं छहं कम्माणं उकासपदेसबधो सुहुमसंपराइयस्स मोहाउगवज्ज छक्कम्माणि बधमाणस्स उक्करसजोगिस्स उक्कस्सपदेसस्स । ७६ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ पंचसंगहो सुहुमणिगोद-अपजत्तगस्स पढमे जहण्णगे जोगे । सत्तण्हं पि जहण्हं आउगबंधी वि आउस्स ॥१२६॥ 'सुहमणिगोद-अपज्जत्तगस्स' आउगरस वजाणं सत्तण्णं कम्माणं जहण्णपदेसबधो सुहुमणिगोद-अपज्जत्ततब्भव-पढमसमए[य]त्थ जहण्णजोगिस्स आउगवजसत्तकम्माणि बधमाणस्स जहण्णपदेसबधे वट्टमाणस्स । आउगस्स जहण्ण-पदेसबंधे सुहमणिगोद जीव-अपज्जत्तगस्स खुद्दाभवग्गहण-तदिय-तिभागपढमसमए आउगं बंधमाणस्स अट्ठविधबधगस्स जहण्णपदेसबधे वट्टमाणस्स। सत्तरस सुहुमसरागे पण अणियट्टी य सम्मओ णवयं । अअदी विदियकसाए देसयदी तदियगे जददि ॥१२७॥ 'सत्तरस सुहुमसरागे' पंचणाणावरण-चउर्दसणावरण-साद-जसकित्ति-उच्चगोद-अंतराइयाणं सत्तरसण्हं पगडीणं सुहुमसंपराइय आ[रुहह्माणस्स]उवसामगस्स वा खवगस्स वा मोहाउगवज्ज छकम्माणि ब धमाणस्स उक्करसजोगिस्स उक्करस-पदेसबंधे वट्टमाणस्स। कोहसंजलणस्स उक्कस्सपदेसबधो अणियट्रिबादर-संपराइय-उवसामगस्स खवगरस वा मोहणीय-चउविहब धमाणस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्करसपदेसबंधे वट्टमाणस्स । एवं माणसंजलणस्स । णवरि मोहतिविहब धगस्स । एवं मायासंजलणस्स वि। णवरि मोहविहबधगस्स । एवं लोभसंजलणस्त वि । णवरि मोहएगविधबधगस्स। पुरिसवेदस्स उकासपदेसबधो अणियट्रिबादरसंपराइय-उवसामगस्स वा खवगस्स वा उक्कस्सजोगिरस मोहपंचविह-बधगस्स उकस्सपदेसबधे वद्रमाणस्स । 'सम्मओ णवयं' णिहा-पचलाणं उक्कस्सपदेसबधो चउगइपज्जत्त-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजद सम्मादिट्टितिरिक्ख-मणुस-संजदासंजद-पमत्तापमत्त-अपुवकरणसत्तमभाग-पढमभागगयाणं उकस्सजोगीणं आउगवज सत्तकम्माणि ब धमाणाणं उक्करसपदेसबांधे वट्रमाणाणं । एवं हस्स-रइ-भय-दुगुंछाणं । णवरि अपुवकरणचरमसमओ त्ति भाणियव्यं । एवमरदि-सोगाणं । णवरि पमत्तसंजदो त्ति भाणियव्यं । तित्थयरस्स उक्करस-पदेसबंधो मणुसपज्जत्त-असंजदसम्मादि ट्ठि-संजदासंजद पमत्तअपमत्तसंजद-अपुवकरण-सत्तमभागगयाणं एगणतीस-णामाए सह आउगवज्ज सत्तकम्माणि ब माणाणं उक्करसजोगीणं उक्सस्सपदेसबधे वट्टमाणाणं होइ । 'अयदो विदियकसाए' अपञ्चक्खाणावरणचउक्करस उक्सस्सपदेसबधो चउगइपज्जत्त-असंजद-सम्मादिहिस्स सत्तविहबधगरस उक्कस्स जोगिस्स उक्करसपढ़ेसबधे वट्टमाणस्से । एवं पञ्चक्खाणावरणच उक्कस्स । णवरि तिरिक्ख-मणुससंजदासजदरल। तेरस बहुप्पदेसो सम्मो मिच्छो य कुणदि पगडीओ। आहारमप्पमत्तो सेसपदेसुक्कडो मिच्छो ॥१२८।। 'तेरस बहुप्पदेसो' देवगइ-वे उव्वियसरीर-समचउरससरीर-हुंडसंठाण-वे ब्वियसरीर-अंगोवंग-देवगइपाओग्गणुपुत्वी-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदिजाणं उकस्स-पदेसबंधो तिरियमणुस-सणिपंचिंदियपज्जत्तमिच्छादिट्टिप्पहुइ जाव अपुव्वकरणसत्तमभागगयाणं णववीसणामाए सह सत्तविहब धयाणं उक्कस्सजोगीण उक्करसपदेसबधे वट्टमाणस्स [ -णाणं]। मणसाउगस्स पदेसबधो सत्तमपुढवी-असंखेज्जवस्साउा वज्ज चउगइ-सण्णि-पज्जत्त-मिच्छादिट्टि [स्स ] देवणेरइय-पज्जत्त असंजदसम्मादिहिस्स वा अट्ठविहबधस्स वा उ कस्सजोगिस्स उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणस्स । देवाउगस्स उक्कस्सपदेसबधो तिरिक्ख-मणुस-सण्णि-पज्जत्त-मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टि-असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्तापमत्तसंजदाणं अट्ठविहब धयाणं उक्कस्स. जोगीणं उक्करसपदेसबधे वट्टमाणाणं । असादवेदणीयस्म उक्कस्सपदेसबधी चउगइ-सण्णि-पज्जत्त Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतग-संगहो ६२७ मिच्छादिटिप्पहुदि जाव पमत्तसंजदाणं सत्तविहब धयाणं उक्कस्सजोगीणं उक्करस पदेसबधे वट्टमाणाणं । वज्जरिसभस्स उक्करसपदेसबधो चउगइ-सण्णि-पंचिंदिय-पज्जत्त-मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठि-[ट्ठीणं] देव-णेरइय-सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीणं एगूणतीसणामाए सह सत्तविहबधयाणं उक्कस्स-जोगीणं उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणाणं । आहारसरीर-तदंगोवंगाणं उक्कस्सपदेसबधो अप्पमत्तसंजद-अपुवकरण-छ-सत्तमभागगयाणं तीसणामाए सह सत्तविहबधयाणं उक्कस्सजोगीणं उक्कस्तपदेसबधे वट्टमाणाणं । 'सेसपदेसुक्कडो मिच्छो' णिद्दाणिद्दापचलापचला-थीणगिद्धिमिच्छत्त-अणंताणुबंधिचउक्क-इत्थी-पउंसगवेद-णीचगोदाणं उक्करसपदेसबधो चउगइसण्णिपंचिंदियपज्जत्तमिच्छादिहि - सासणसम्मादिट्ठीणं सत्तविहबधयाणं उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणाणं । णवरि मिच्छत्त-णबुंसयवेदाणं सासणसम्मादिट्ठी सामी ण होइ। णqसगवेद-णिच्चागोदाणं असंखिज्जवस्साउगो सामी ण होइ । णिरयाउगस्स उक्कस्सपदेसबंधो असंखिज्जवस्साउग वज्ज सण्णि-पंचिंदियतिरिक्ख-मणुसपज्जत्तमिच्छादिट्ठिस्स अट्ठविबधगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणस्स । तिरियाउगस्स पदेसबधो असंखिज्जवस्साउग-आणदादिदेववज्ज चउगइ-सण्णि-पंचिंदिय-पज्जत्त-मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीणं अट्ठविहबधयाणं उक्कस्सजोगीणं उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणाणं। णवरि सत्तमपुढवीसासणो तिरिक्खाउगरस सामी ण होइ। णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वी-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराण उक्कस्सपदेसबधो असंखिज्जवस्साउग-पज्जत्त-सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्ख-मणुस-पज्जत्त-मिच्छादिहिस्स अट्ठवीसणामाए सह सत्तविहब धगस्स उक्कस्स-पदेसबधे वट्टमाणरस । तिरिक्खगइ-एइंदियजाइ-ओरालियतेज-कम्मइयसरीर-हुंडसंठाण-वण्णादिचदुक्क-तिरिक्खाणपुव्वी-अगुरुगलहुग- उवधाद-यावर बादरसुहुम-अपज्जत्त-पत्तंग - साधारणसरीर - अथिर-असुभ-दुभग-अणादिज्ज-अजसकित्ती-णिमिणणामाणं उक्कस्सपदेसबधो असंखिज्जवस्सा उग वज्ज सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्ख-मणसपज्जत्त-मिच्छादिहिस्स तेवोसणाभाए सह सत्तविहबधगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्करसपदेसबधे वट्टमाणस्स । मणुसगइ-वेइंदियादिचउजाइ-[ ओरालियसरीर-] ओरालियसरीरंगोवंग-असंपत्तसे वट्टसरीर संघडणमणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी तसणामाण उक्कस्सपदेसबधो असंखिज्जवस्साउगवज्ज सगिपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसपज्जत्तमिच्छादिस्सि पणवीसणामाए सह सत्तविह-ब धगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणस्स । समचउर-हंडवज्ज चउसंठाण-वज्जरिसभ-असंपत्तवज्ज चउसंघडणाणं उक्कस्सपदेसबधो असंखेज्जवस्साउग वज्ज चउगइ सण्णि-पंचिंदियपज्जत्तमिच्छादिट्ठिस्स वा सासणसम्भादिट्ठिस्स वा एगूणतीसणामाए सह सत्तविहबधगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणस्स । परघाद-उस्सास-पज्जत्त-थिर-सभणामाणं उक्कस्सपदेसब धो रइयअसंखिज्जवस्साउग-सणक्कुमारादि देव वज्ज तिरिक्खगइ-सण्णि-पज्जत्त-मिच्छादिट्ठिस्स पणवीसणामार सह सत्तविह-बधगरस उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सपदेसबधे वट्टमाणस्स । एवं आदावउज्जोवाणं। णवरि छव्वीसणामाए सह सत्तविहबधगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सपदेसवध वट्टमाणस्स। उक्कस्सजोगी सण्णी पजत्तो पगडिबंधमप्पदरो। कुणइ पदेसुकस्सं जहण्णगे जाण विवरीदं ॥१२९॥ उक्करसजोगी सण्णी पंचिंदियपज्जत्तो छहि पज्जत्तीहि [ पज्जत्तयदो] थोवा पगडी बंधमाणो उक्कासपदेसबंधं कुणइ । जहण्णपदेसबंधं जहणजोगी कुणइ । केसिंचि कम्माणं सुहुमएइंदिय-अपजत्तो, केसिंचि कम्माणं असण्णि-पंचिंदिय-अपजत्तो, केसिंचि कम्माणं असंजदसम्मादिट्ठि-अपज्जत्तो, केसिंचि कम्माणं अप्पमत्तसंजदो बहुयाओ पगडीओ बंधमागो । Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ पंचसंगहो घोलणजोगिणी बंधइ चदु दोणि अप्पमत्तो य । पंचासंजदसम्मो भवादिसुमो भवे सेसा || १३० | णिरयाउग देवाउग णिरयदुगं चैव जाण चत्तारि । आहार दुगं- दुगं [ चैव य ] देवचउक्कं तु तित्थयरं ॥ १३१ ॥ 'घोलणजोगिमसण्णी' उक्करसपरिणामजोगादो हीयमाणरूवमागंतूण सव्वजहण्णपरिणामजोगो घोलमाणो जोगो त्ति वुच्चइ । णिरय-देवाउगाणं जहणपदेसंबंधो असणि-पंचिदियपज्जत्त-जहण्णपरिणामजोगस्स अट्ठविहबंधगरस जहण्णपदेसबंधे बट्टमाणस्स । एवं णिरयगइणिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीणं । णवरि अट्ठवीसणामाए सह अट्ठविहबंधगस्स | 'दुण्णि अप्पमत्तो दु' आहार सरीर आहारसरीरंगोवंगाणं जहण्णपदेसंबंधो अप्पमत्त अपुव्वकरण-छ-सत्तमभागगयाणं एक्कत्ती सणामाए सह अट्ठविहबंधगाणं जहष्णपरिणामजोगाणं जहण्णपदेसबंधे वट्टमाणाणं । 'पंचासंजदसम्मो' देवगइ वेडव्वियसरीर - वेउब्वियसरीरंगोवंग - देवगइपाओग्गाणुपुव्वीणामाणं जहण्णपदे सबंधो असंखेज्जवरसाउग वज्ज मणुस असंजदसम्मादिट्टि पढमसमए आहारकपढमसमए तब्भवत्थस्स गूणती सणामाए सह सत्तविहबंधगस्स जहणउववादजोगिस्स जहगपदे सबंधे वट्टमाणस्स । तित्थयरस्स जहण्णपदेसबंधो सोधम्मादिदेव-पढमपुढवीणेरइयअसंजदसम्मादिट्ठि- पढनसमए आहारक पढमसमए तब्भवत्थस्स तीसणामा सह सत्तविहबंधगस्स जहण्णउववादजोगिस्स अहण्णपदेसबंधे वट्टमाणस्स । 'भवादि सुहुमो भवे सेसा' सेसाणं पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-सादासाद - मिच्छत्त- सोलसकसाय - णवणोकसायणिच्चुच्चगोद-पंचंतराइयाणं जहण्णपदेसंबंधो सुहुमणिगोदपज्जत्तगस्स पढमसमए आहारकपढमसमए तन्भवत्थरस सत्तविहबंधगरस जहण्णउववादजोगिस्स जहण्णपदेसबंधे वट्टमाणस्स । तिरिक्ख- मणुसाउगाणं जण्णपदेसबधो सुहुमणिगोदजीव-अपज्जत्तगस्स खुद्दाभवग्गहणतदियविभाग- पढमसमए आउगं बंधमाणस्स जहण्णपरिणामजोगिस्स जहण्णपदेसब घे वट्टमाणस्स । तिरिक्खगइ-वीइं दियादि चटुजाइ ओरालिय- तेजा- कम्मइयसरीर छसंठाण - ओरालियसरीर-[ ओरालियसरीर- ] अंगोवंग - छसंघडण - वष्णादिचदुक्क - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीअगुरुगलहुगादिचउक्क- उज्जीव- दो विहायगइ-तस बादर - पज्जत्त- पत्तेगसरीर-थिरादि छ जुगलणिमिणणामाणं जहण्णपदेस बंधो सुहुमणिगोद-अपज्जत्तगस्स पढमसमए अणाहारकपढमसमए तब्भवत्थस्स तीसणामाए सह सत्तविहब धगस्स जहण्णउववादजोगिस्स जहण्णपदेसब घे वट्टमाणस्स । एवं मणुसगइ - मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं । णवरि एगूणती सणामाए सत्तविहब धगस्स । एवं एइंदिय-आदाव-थावरणामाणं । णवरि छव्वीसणामाए सह सत्तविहब'धगस्स । एवं सुहुम-अपज्जत्तसाधारणणामाणं । णवरि पणुवीसाए सह सत्तविहब धगस्स । जोगा पय-पदेसा ठिदि-अणुभागं कसायदो कुणइ | काल-भव - खेत्तती [ पेही ] उदओ सविवाग अविवागो || १३२ || जोगादो पर्याडबंधं पदेसबधं च कुणइ । कसायदो ठिदिबधं अणुभागबंधं च कुणइ । सीदादिकाल- णिरयादिभव-रदणपभादिखेत्त-वत्थादिदव्वाणं इट्ठाणिट्ठाणं पेक्खिदूण कम्मोदओ उदीरणोदओ चेव होदि । - असं गट्टाणाणि हुंति सव्वाणि । तेसिमसंखिजगुणो पगुडीगं संगहो सच्चो ॥ १३३॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ सतग-संगहो तासिमसंखेजगुणा ठिदीविसेसा हवंति पगडीणं । ठिदिबंध-अज्झवज [ स्स ] द्वाणा [अ] संखिजगुणाणि एत्तो दु ॥१३४॥ तेण असंखेजगुणा अणुभागा हुंति बंधठाणाणि । एत्तो अणंतगुणिया कम्मपदेसा मुणेयव्वा ॥१३५॥ अविभागपलिदच्छेदो [दा ] अणंतगुणिदा हवंति इत्तो दु । सुदपवरदिद्विवादे विसिट्ठमदओ परिकथंति ॥१३६॥ सेढिमसंखेज्जदिजोणीसु सुहुमणिगोदजीव-अपज्जत्तगरस जहण्ण-उववादजोगट्ठाणप्पहुदि जाव सण्णि-पंचिंदिय पज्जत्त-उक्कस्सपरिणामजोगटाणो त्ति पक्खेवत्तरकमेण जोगटाणाणि जगसे ढीए असंखेजभागमेत्ताणि भवंति । पक्खेवपमाणं जहण्णजोगट्ठाणस्स सेढोए असंखेजदिभागमेतखंडगदस्स एगखंडं होदि । तेसिं जोगट्ठाणाणं णाणावरणादि-सव्वाओ पयडीओ असंखेजगुणाओ । तासिं पयडीणं सबपयडिविदिबंधवियपा असंखिज्जसागरोवमगुणा । तेसिं ठिदिबंधवियप्पाण ठिदिबंधझवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जलोगगुणाणि हुंति । तेण असंखेजगुणा तेसिं वा, तेसिं ठिदिबधज्झवसाणट्ठाणाणं अणुभागबधट्ठाणाणि असंखिज्जलोगगुणाणि हुंति । तेसिं अणुभागबधट्ठाणाणं अन्भवसिद्धिएहिं अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागा कम्मपदेसा हुंति । 'अविभागपलियछेदो' तेसिं कम्मपदेसाणं अविभागपलिदछेदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा होति । [ 'सुदपवरदिहिवादे'] सुदप्पहाणदिविवादे कोट्ठबुद्धिपहुइसंजुत्तगणहरपहुदिआयरिया एवं वक्खाणं कुव्वंति । उक्तं च “सेढिमसंखेज्जदिभागमेत्ता जोगट्ठाणाणि हुति सव्वाणि"। तस्स संदिट्ठी-एगजोगट्ठाणं पडि जदि असंखेन्जलोगमेत्तपयडीओ लहामो, तो सेढिअसंखेज्जइभागमेत्तजोगट्ठाणेहिं केत्तियाओ पयडीओ लहामो ११ । ० ० । १। एगपयडि पडि जदि विदिवियप्पाणि असंखेज्जाणि लभामो, तो असंखेज्जलोगमेत्तपयडिवियप्पेहिं केत्तियाणि ठिदिविसेसाणि लभामो १ ॥22॥१॥ एगढिदिविसेसं पडि असंखेज्जाणि विदिबधज्झवसाणढाणाणि लभामो, तो असंखेज्जलोगमेत्तट्ठिदिविसे सेहिं केत्तियाणि ठिदिबधज्झवसाणट्ठाणाणि लभामो १ १। 22०।१। एगट्ठिदिबधज्झवसाणठाणं पडि जदि [ असंखेज्जलोगमेत्त ] अणुभागबधझवसाणट्ठाणाणि लभामो, तो असंखेज्जलोगमेत्तठिदिबधझवसागट्ठाणेहिं केत्तियाणि अणुभागबंधज्झवसाणठ्ठाणाणि लभामो । ११। 2222। १। एगअणुभागबधज्झवसाणं पइ जदि असंखेजदिअणुभागबधज्झवसाणट्ठाणाणि लभामो, तो असंखेजलोगमेत्तलिदिबधज्झवसाणठाणेहिं केत्तियाओ अणुभागबधज्झवसाणट्ठाणाणि लभामो ? । ११। 222 2222। १ अणुभागबधज्झवसाणट्ठाणेहिं अणंतगुणागारे कदे कम्मपदेसा मुणेदेव्वा । १ । १ । Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० पंचसंगहो 22222221 ? । कम्मपदेसेहिं अणंतगुणगारे कदे अविभागपलिदच्छेदा भवंति १ । १ । 22 2 22 22 । १ । १ । योगप्रकृतिस्थित्यध्यवसानानुभागकर्मप्रदेशाः पल्यस्य छेद विभागा कर्मविभागाश्च क्रमेण ज्ञातव्या इति । एसो बंधसमासो पिंडुक्खेवेण वण्णिदो कोइ [किंचि] । कम्मप्पवादसुदसागरस्स णिस्संदमेत्तो दु॥१३७।। एसो वधसंखेवो संखेवेण गहिदूण कहिओ कोइ कम्मप्पवाद-सुदसमुददो णिस्संदमेत्तो दु । बंधविहाणसमासो संखेवेण रइदो थोवसुद-अप्पबुद्धिणा दु । बंधे मुक्खे कुसला मुणओ पूरेदण परिकहेंतु ॥१३८॥ इय कम्मपयडिपयदं संखेवुद्दिट्टणिच्छयमहत्थं । जो उवजुजइ बहुसो सो जाणइ बंध-मुक्खड ॥१३६।। - 'इयकम्मपयडिपयदं' एवं कम्मपगडियवियारं संखेवेणुट्ठिणिच्छयमहत्थं जो मुणी उवओगं करेइ, सो जाणइ बध-मोक्खाणं अत्थं । सो मे तिहुयणसहिदो सुडो चुडो णिरंजणो सिहो। दिसदु वरणाणलाभं चरित्तसुद्धिं समाहिं वा ॥२८॥ आदि-मज्झवसाणे मंगलं जिणवरेहिं पण्णत्तं । तो कदमंगलविणओ इणमो सुत्तं पवक्खामि ॥१९॥ सदगपंजिया समत्ता [इदि चउत्थो सतगसंगहो समत्तो] Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो सत्तरि-संगहो वंदित्ता जिणचंदं दुण्णय-तम-पडल-पाउयं वरदं । सत्तरिगाहसमुदं बहु-भंग-तरंग-संजुत्तं ॥ सिद्धपदेहिं महत्थं बंधोदयसंतपगडिठाणाणि । वुच्छं सुण संखेवं णिस्सदं दिविवादादो ॥१॥ 'सिद्धपदे हिं महत्थं महत्थं]णाम ख्यातनिपातोपसर्गविरहितं, सभावसिद्धेहिं पदेहिं बधोदयसंतपगडिठाणाणं वुच्छं महत्थं संखेवं सुण दिढिवादस्स णिस्सदं। उदयगहणेण उदीरणा वि गहिदा । सत्तगहणेण उवसमणं खवणं च गहियं ।। कदि बधंतो वेददि कइया कदि पगडिठाणकम्मंसा । मूलुत्तरपगडीसु य भंगवियप्पा य बोधव्वा ॥२॥ 'कदि बंधंतो वेददि' कदि पगडिट्ठाणाणि बंधमाणो केत्तियाणि पगडिहाणाणि वेदेदि, कदि वा संतकम्मपगडिट्ठाणाणि तस्स । मूलपगडीसु उत्तर पगडीसु च भंगवियप्पा जाणियव्वा । अट्टविह सत्त सो[ छ ]बंधगेसु अट्ठव उदयकम्मंसा । एगविधे तिवियप्पो एगवियप्पो अबंधम्मि ॥३॥ अट्ठविहबंधगेसु सत्तविहबंधगेसु छव्विबंधएसु च अट्ठविह-उदयकम्माणि, अट्ठेव संतकम्माणि हुति । वेदणीय-एगविहबंधगे उवसंतकसाये मोहणीयवज सत्त उदयकम्माणि अठ्ठ संतकम्माणि । एस इक्को वियप्यो । खीणकसाए मोहणीयवज्ज सत्त उदयकम्माणि । संतकम्माणि सत्त । एस विदिओ वियप्पो। सजोगिकेवलिम्मि चत्तारि अघादिकम्माणि उदय-संताणि त्ति । एस तदिओ वियप्पो । अबंधम्मि अजोगिकेवलिम्हि चत्तारि अघादिकम्माणि उदय-संताणि त्ति एक्को चेव वियप्पो । सत्तट्ठ बंध अट्ठोदयंस तेरससु जीवठाणेसु । इकम्हि पंच भंगा दो भंगा हुंति केवलिणो ॥४॥ 'सत्तट्ठबंध अट्ठोदयंस' सण्णि-पंचिंदिय पज्जत्त वज्ज तेरससु जीवसमासेसु सत्तकम्माणि अट्ठकम्माणि वा बंधट्ठाणाणि, उदय-संतकम्मट्ठाणाणि अठ्ठ । 'इक्कम्हि पंच भंगा' सण्णिपंचिंदिय-पजत्त जीवसमासेसु अट्ठबंधोदयसंतकम्मट्ठामाणि त्ति एओ वियप्पो। सत्त कम्माणि बंधट्ठाणं, अट्ठ उदय-संतकम्मट्ठाणाणि त्ति विदिओ वियप्पो। छकम्माणि बंधट्ठाणं अट्ठ उदय-संतकम्मट्ठाणाणि त्ति तदिओ वियप्पो। वेदणीयमेकं चेव बंधट्ठाणं, सत्त उदयकम्माणि, संतकम्माणि अट्ठ इदि च उत्थो वियप्पो। देदणीयमेकं चेव बंधट्ठाणं, सत्तउदय-सत्तसंतकम्मट्ठाणाणि, पंचमो वियप्पो । 'दो भंगा हुंति केवलिणो' सजोगिकेवलिस्स वेदणीयमेकं चेव Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो बंधट्ठाणं, चत्तारि अघादिकम्माणि उदय-संतठ्ठाणाणि त्ति। इदि एक्को वियप्पो। एवं अजोगिकेवलिस्स । णवरि बंधट्ठाणं णत्थि त्ति विदिओ वियप्पो । अट्ठसु एगवियप्पो छसुवि गुणसण्णिदेसु दुवियप्पो । पत्तेयं पत्तेयं बंधोदयसंतकम्माणं ॥५॥ 'अट्ठसु एगवियप्पो' सम्मामिच्छादिठि-अपुव्व-अणियट्टीसु पत्तेयं पत्तेयं सत्त बंध कम्माणि उदय-संतकम्माणि अट्ठ । सुहुमसंपराइयम्मि बंधकम्माणि छ, उदय-संतकम्माणि अट्ठ । उवसंतकसायम्मि बधकम्म वेदणीयं। मोहणीयवज्ज उदयकम्माणि सत्त । अट्ठ संत. कम्माणि । खीणकसायम्मि वेदणीय बधं। मोहणीयवज्ज सत्त उदयकम्माणि, संतकम्माणि सत्त । सजोगिकेवलिम्मि वेदणीयकम्मबंधो, चत्तारि अघादिकम्माणि उदय-संताणि । एवं अजोगिकेवलिस्स । णवरि बंधो पत्थि । 'छसु वि गुणसण्णिदेसु दुवियप्पो' मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठि संजदासंजद-अप्पमत्तसंजदेसु पत्तेयं पत्तेयं अट्ठ बंधुदयसंतकम्मट्ठाणाणि त्ति एओ वियप्पो। सत्तकम्माणि बंधट्ठाणाणि, अट्ठ उदय-संतकम्मट्ठाणाणि ति विदिओ वियप्पो। बंधोदयकम्मंसा णाणावरणंतराइगे पंच । बंधोवरमे वि तहा उदयंसा हुंति पंचेव ॥६॥ 'बंधोदयकम्मंसा णाणावरणंतराइगे पंच' बंधोदयसंतकम्माणि पंचेव । बंधवुच्छेदे जादे वि उदय-संतकम्माणि पंच। बंधस्स य संतस्स य पगडिट्ठाणाणि तिण्णि सरिसाणि । उदयट्ठाणाणि दुवे चदु पणयं दंसणावरणे ॥७॥ बंध-संताणं तिण्णि पगडिहाणाणि सरिसाणि । तं जहा-दसणावरणसव्वपयडीओ घेत्तूण णवेत्ति एगं बंधट्ठाणं । णिहाणिद्दा पचलापचला थीणगिद्धी वज्ज सेसपगडीओ घेत्तूण छ इदि विदियं बंधट्ठाणं। एदाओ चेव णिहा पचला वजाओ पगडीओ घेत्तूण चत्तारि त्ति तदियं बंधट्ठाणं । ताणि चेव तिणि संतढाणाणि हुंति | उदयट्ठाणाणि दुण्णि चत्तारि वा, पंच वा। तं जहा-चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं अवहिदसणावरणीयं [केवलदसणावरणीयं] एयाओ पयडीओ घेत्तूण एगं उदयट्ठाणं । एदाओ चेव चत्तारि पयडीओ णिदाणिहा-पचलापचला थोणगिद्धीण णिद्दा-पचलाणं एक्कदर-सहियायो घेत्तूण पंचेत्ति विदियमुदयट्ठाणं । विदियावरणे णवबंधगेसु चदु पंच उदय णव संता । सो [छ] बंधगेसु एवं तह चदुबंधे छ-णवंसा य ॥८॥ 'विदियावरणे' दंसणावरणे णवकम्माणि बंधमाणेसु चत्तारि वा पंच वा उदयकम्माणि, णव संतकम्माणि । एवं दो भंगा। छ कम्माणि बंधमाणेसु वि चत्तारि वा पंच वा उदयकम्माणि, णव संतकम्माणि [त्ति] दो चेव भंगा। चत्तारि कम्माणि बंधमाणेसु चत्तारि वा, पंच वा, उदयकम्माणि, णव वा छ वा संतकम्माणि ६४।६, EVIE; ६।४।६, ६श६; ४|४|६, ४।।६; ४।४।६, ४।५।६ । एवं चत्तारि भंगा। ___ उवरदबंधे चदु पंच उदय, णव छच्च संत चदु जुगलं । अबधगे चत्तारि वा पंच वा उदयकम्माणि; णव वा छ वा संतकम्माणि, चत्तारि उदयकम्माणि; संत कम्माणि चत्तारि ।०।४.६, ०५६, ०४।६; ०।५।६; ०।४।४ एवं पंचभंगा। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो वेदणियाउगगोदे विभज मोहं परं वुच्छं ॥६॥ गोदेसु सत्त भंगा अट्ट य भंगा हवंति वेदणिए । पण णव णर पण भंगा आउचउक्के त्रि कमसो दु ॥१०॥ साद बंधं, सादं उदयं, सादासादं सत्तं; सादं बंधं, असादं उदयं, सादासादं संतं; असादं बंध, सादं उदयं, सादासादं संतं; असादं बंधं, असादं उदअं, सादासादं संतं । उवरदबंधे सादं उदयं सादासादं संतं, असादं उदयं सादासादं संतं, सादं उदयं सादं संतं; असादमुदयं असादं संतं, एवं वेदणीयस्स अट्ठ भंगा हुँति । णेरइयस्स णिरयाउगमुदयं णिरयाउगसंतं, तिरिक्खाउगं बंधं णिरयाउगमुदयं णिरय-तिरियाउगं संतं, मणुसाउगं बंधं णिरयाउगं [उदयं] पिरय-मणुसाउगं संतं, णिरयाउगं उदयं [णिरयतिरियाउगं संतं, णिरयाउगं उदयं] णिरयमणु-साउगं संतं । एवं णिग्याउगस्स पंच भंगा हुंति । तिरिक्खस्स तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संतं, गिरयाउगं बंधं तिरिक्खाउयं उदयं तिरिक्खाउगं णिरयाउगं संतं. तिरिक्खाउगं उदयंतिरिक्खणिरयाउगं संतं, तिरिक्खाउगं बंधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संतं, तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-तिरिक्खाउगं संतं, मणुसाउगं बंधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-मणुसाउगं संतं, तिरिक्खाउगं उदयं, तिरिक्खमणुसाउगं संतं, देवाउगं बंधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-देवागं संतं, तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-देवाउगं संतं । एवं तिरिक्खाउगस्स णय भंगा हुँति । मणुसस्स मणुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं, णिरयाउगं बंध मणुसाउगं उदयं मणुस-णिरयाउगं संतं, मणुसाउगं उदयं मणुस-णिरयाउगं संतं, तिरिक्खाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस-तिरिक्खाउगं संतं, मणुसाउगं उदयं मणुस-तिरिक्खाउगं संतं, मणुसाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस-मणुसाउगं संतं, मणुसागं उदयं मणुस-मणुसाउगं संतं, देवाउगं बंध मणुसाउगं उदयं मणुस-देवाउगं संतं, मणसाउगं उदयं मणुस-देवाउगं संतं । एवं मणुसाउगस्स वि णव भंगा हुँति । देवस्स वि देवाउगं उदयं देवाउगं संतं, तिरिक्खाउगं बंधं देवाउगं उदयं देव-तिरिक्खाउगं संतं, देवाउगं उदयं देवतिरिक्खाउगं संतं, मणुसाउगं बधं देवाउगं उदयं देव-मणुसाउगं संतं, उवरबंधे देवाउगं उदयं देव-मणुसाउगं संतं । एवं देवाउगस्स वि पंच भंगा हुँति । उच्चं बधं उच्चं उदयं उच्च-णीचसंतं, उच्चं बधं णीचं उदयं उच्च-णीचसंतं, णीचं बधं उच्चं उदयं उच्च-णीचसंतं, णीचं बधं णीचं उदयं उच्च-णीचसंतं, णीचं बंधं णीचं उदयं णीचं संतं, उव्विल्लिदम्मि उत्तचे तेउ-वाउम्मि बोधव्वा। उवरदबंधे उच्चं उदयं उच्च-णीचसंतं, उच्च य उदयं उच्चं संतं । एवं गोदस्स वि सत्त भंगा हुंति । वावीसमेकवीसं सत्तारस तेरसेव णव पंच । चदु तिद दुगं च एगं बंधट्ठाणाणि मोहस्स ॥११॥ वावीस एक्कवीस सत्तारस तेरस णव पंच चत्तारि तिणि दोणि इक्क एदाणि दस बंधट्ठाणाणि मोहणीयस्स । एदेसिं वावीसादीणं पगडिणिदेसो सदगे वुत्तकमेण णादवो । इक्कं च दो व चत्तारि तदो एगाधिया दसुक्कस्सं । ओघेण मोहणिज्जे उदयट्ठाणाणि णव हुंति ॥१२॥ इक्कं दोण्णि चत्तारि पंच छ सत्त अट्ट णव दस एदाणि णव उदयट्ठाणाणि मोहणीयस्स हुँति। ८० Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ पंचसंगहो अट्ठ य सत्त य छक्क य चदु तिग दुग एग अधिग वीसाणि । तेरस वारेगारं एतो पंचादि- एगूणं ||१३|| संतस्स पगडिठाणाणि मोहणीयस्स हुंति पण्णरसं । धोदयसंते पुण भंगवियप्पा बहु जाणे ॥ १४॥ अट्ठावीसं सत्तावीसं छव्वीसं चउवीसं तेवीसं वावीसं इक्कवीसं तेरस बारस इक्कारस पंच चत्तारि तिणि दोणि इक्क एदाणि पण्णरस संतट्ठाणाणि मोहणीयरस । एदेसिं अट्ठावीसादीणं पर्याडणिद्देसो । तं जहा- मोहणीयस्स सव्वपगडीओ घेत्तृण अट्ठवीसं । अट्ठवीसादो सम्मत्ते उब्विल्लिदे सत्तावीसं । सत्तावीसाढ़ो सम्मामिच्छत्ते उव्विल्लिदे छव्वीसं । अट्ठावीसादो अर्णताणुबंधिचदुक्के विसंजोइए चउबीसं । चडवीसादो मिच्छत्ते खविए तेवीसं । तेवीसादो सम्मामिच्छत्ते खविए वावीसं । वावीसादो सम्मन्ते खविए एक्कवीसं । एक्कवीसादो अपञ्चक्खाणावरण-पच्चक्खाणावरण- अकसासु खविएसु तेरस । तेरसादो णउंसयवेदे खविए वारस । वारसादो इत्थीवेदे खविए एक्कारस । एक्कार सादो हस्स रइ अरइ सोग भय दुगुछा एदेसु छणोकसाएसु खविएसु पंच | पंचादो पुरिसवेदे खविदे चत्तारि । चउक्कादो कोहसंजलणे खविदे तिणि । तिगादो माणसंजलणे खविदे दोणि । दुगादो मायसंजलणे खविदे एक्कं । एक्केक्स्स सत्तट्ठाणरस इक्केको चैव भंगो | मोहणीयरस संतकम्मट्ठाणाणि अट्ठावीसादीणि पुव्वत्ताणि पण्णरस हुंति । 'बंधोदयसंते पुण भंगो णे [ भंगवियप्पा बहु जाणे ], बंधोदयसंतकम्मकम्मट्ठाणेसु भंगवियप्पा बहुगा जाणियव्वा । सो [छ-]वावीसे चदु इगिवीसे सत्तरस तेरस दो दो दु । बंध विदोणि दु एगेगमदो परं भंगा ॥ १५ ॥ [ वावीसबंधठाणे छ भंगा ]। इक्कवीसबंधट्ठाणे चत्तारि भंगा। सत्तरसंबंधाणे दो भंगा । तेरसबंधट्ठाणे दो चेव । णवबंधट्ठाणे दो भंगा। पंच चत्तारि तिणि दोणि इक्क एदेसु पंचसु बंधाणे इक्कको चेव भंगो । एदेसि बावीसादिबंधद्वाणाणं पयडिणिद्देसो भंगपरूवणा च सदगे वृत्तकमेण णादव्त्रा । दस बावीसे णव इगिवीसे सत्तादि उदयकम्मंसा | छादी व सत्तर से तेरे पंचादि अट्ठव ॥१६॥ ‘दस वावीसे' वावीसबंधट्ठाणे सत्त अट्ठ णव दस उदयद्वाणाणि । तं जहा -मिच्छत्तं ताणुबंध मेकदरं अपच्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं [ पञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं ] संजलणाणमेकदरं तिहं वेदाणमेकदरं इस्स-रइ - - अरइ- सोग दुण्हं जुयलाणमेक्कदरं भय-दुगु छाओ, एदाओ पयडीओ घेत्तण दस- उदयद्वाणं । चत्तारि कलायभंगा तिष्णि वेद-भंगेहिं गुणिया वारस १२ । ते चेव जुगल-दोभंगेहिं गुणिया चडवीस भंगा हुति २४ । एवं दसहं इको चउवीसो । एदाओ चेव पगडीओ भय- विरहियाओ घेत्तृण पढम-णव उदयद्वाणं । तरस इक्को चेव पढम-चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुगु छ-विरहियाओ भय-सहियाओ घेत्तृण विदियं णव उदद्यद्वाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो। अनंताणुबंधी वज्ज सेसपगडीओ घेत्तूण तदियं णव- उदयद्वाणं । एदस्स वि तदिओ चउवोसभंगो । एदाओ चेव पयडीओ भय-रहियाओ घेत्तूण पढमं अट्ठ उदयट्ठाणं । एदस्स पढमो चडवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुर्गंध-विरहियाओ घेत्तण विदियं भट्ठउदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ भय-दुगु छविरहिता बंधि-इक्क दसरहियाओ [इक्कदरसहियाओ] घेत्तृण तदिय अट्ठउदयङ्काणं । एदस्स वि तदिओ चडवीस For Private Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तर-संगहो ६३५ भंगो । एदाओ चैव पगडीओ अनंताणुबंधि-भय-दुगु छविरहियाओ घेत्तण सत्तयट्ठाणं । एदस्स वि एक्को चडवीसभंगो । एकवीसबंधठाणे सत्त अठ णव उदयट्ठाणाणि । तं जहा -- मिच्छत्तं वज्ज सेसपुत्तपगडीओ घेत्तूण णव उदयठाणं । एदस्स वि एक्को चडवीसभंगो । एदाओ चैव भय - विरहियाओ घेत अटठ- उदयट ठाणं । एदस्स इक्को चेव चउवीसभंगो । एदाओ चेव दुगंछ-विरहियाओ भयसहियाओ घेत्तृण वा अट ठ-उदयठाणं । एदस्स विदिओ चडवीसभंगो । एदाओ चेव भय-दुगु छाविरहियाओ घेत्तूण सत्तूदयठाणं । एदस्स वि इक्को चेव चउवीसभंगो । सत्तर सबंधट्ठाणे छ सत्त अट्ठ णव उदयद्वाणाणि । तं जहा सम्मामिच्छत्तं अपच्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं पञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं संजलणाणमेक्कदरं तिन्हं वेयाणमेक्कदरं हस्स - रइ - अरइसोग-दुहं जुयलाणमेक्कदरं भय-दुर्गुछा च, एदाओ वेत्तूण णव उदयद्वाणं । एदस्स वि एक्को चउवीसभंगो । एदाओ चैव सम्मामिच्छत्तविरहियाओ सम्मत्तसहियाओ घेत्तूण णव उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चडवीसभंगो । एदाओ चेव भय-रहियाओ घेत्तृण अट्ठ- उदयट्ठाणं एदम्स पढमो चडवीसभंग | दाओ चैव भय-सहिय दुर्गंधरहियाओ घेत्तृण अट्ठ उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चडवीसभंगो । एदाओ चेव सम्मत्त भयरहिय सम्माभिच्छत्त- दुगुंछ सहियाओ वा घेत्तण अट्ठउदयद्वाणं । एदस्स तिदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेष दुर्गुछ- रहिय भयसहियाओ घेत्तूण वा अट्ठ उदयद्वाणं । एदस्स चउत्थो चडवीसभंगो । सम्मत रहिय पुव्वुच्चरियपगडीओ घेत्तणं वा असंजदउवसमसम्मादिट्टि-खइयसम्मादिट्ठिम्मि अट्ठ उदयद्वाणं । एदस्स पंचमो चडवीसभंगो। एदाओ चैव सम्मामिच्छत्तसहिय-भय दुर्गुछविरहियाओ घेत्तृण सग [ सत्त] उदयट्ठाणं । पढमो चउवीसभंगो । सम्मत्त-सहिय सम्मामिच्छत्त-विरहिय असे सपगडीओ घेत्तूण वा सत्त- उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो। एदाओ चेव सम्मन्त भयरहिय- दुगंछसहियाओ घेत्तणवा असंजद-उवसमसम्मादिठि खइयसम्मादिट्ठिम्मि सत्त उदयठाणं । एदस्स तदिओ चडवीसभंगो । एदाओ चैव दुगुंछ- रहिय-भयसहियाओ घेत्तण सत्त उदयट्ठाणं । एदरस चउत्थो चडवीसभंगो । एदाओ चैव भय-दुगुंछ विरहियाओ घेत्तूण वा छ - उदयद्वाणं । एदस्स पढमो चउवीसभंगो । एवं चेव सम्मत्त-रहिय असंजद उवसमसम्मादिट्ठि खइयसम्मादिट्ठिम्मि उदयट्ठाणं । तेरस बंधट्ठाणे पंच छ सत्त अट्ठ उदयद्वाणाणि । तं जहा सम्मन्तं पञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं संजणाणमेक्कदरं तिहं वेदाणमेक्कदरं हस्स-रइ अरइ-सोग दुण्हं जुयलाणमेक्कदरं भयदुगुं छा च, दाओ पडीओ घेत ण अट्ठ उदयद्वाणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो। एदाओ चैव भय-रहियाओ घेण सत्त उदयद्वाणं । एदस्स पढमो चउवीसभंगो । एदाओ चेव दुगु छ- रहिय भय सहिय घेत्त सत्ताणं । दस्स विदिओ चउवीसभंगो । उदाओ चेव सम्मत्त-रहिय दुगु छा-सहियाभो घेत्त वा संजदासंजद उवसमसम्मादिट्ठि खइयसम्मादिद्विम्मि सत्त- उदयद्वाणं । एदस्स तदिओ चडवीसभंगो । एदाओ चेव भय-रहियाओ घेत्तृण छ- उदयट्टाणं । एदस्स पढमो चडवीसभंगो । एदाओ चैव भयसहियाओ दुगु छरहियाओ घेत्तृण छ उदयद्वाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव भयरहिद सम्मत्तसहियाओ घेत्त ण वा छ- उद्यट्ठाणं । एदस्स तदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव भय-दुगु छ-सम्मत्तरहियाओ घेत्तण पंच उदयद्वाणं । एदस्स इक्को चवीसभंगो | चत्तारि आदि णवबंधगेसु उकस्स सत्त उदयंसा | पंचविध बंधगे पुण उदओ दोन्हं मुदव्व ॥ १७॥ 'चत्तारि आदि णव बंध गेसु' णवबंधट्टाणे चत्तारि पंच छ सत्त उदयट्ठाणाणि । तं जहांसम्मत्तं चउसंजलणाणमेक्कदरं तिन्हं वेदागमेकदरं हरस-रइ अरइ-सोग दुण्हं जुयलाणमेक्कदरं भय· Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ पंचसंगहो दुगु छा च । एदाओ पगडीओ घेत्तूण सत्त उदयद्वाणं । एदस्स इक्को चडवीसभंगो । एदाओ नेव भय-रहियाओ घेत्तूण छ- उदयद्वाणं- एदस्स इक्को चउवीसभंगो । एदाओ चेव दुगुं छ- रहिय-भयसहियाओ घेण वा छ- उदयद्वाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव सम्मत्त - रहिय सहियाओं घेण वा छ उदयद्वाणं उवसमखइयम्मि । एदस्स चउवीसभंगो। एदाओ चेव भय-रहियाओ घेत्तण पंच- उदयद्वाणं । एदस्स एक्को चउवीसभंगो । एदाओ चेव दुगु छरहिय-भयसहियाओ घेत्तण वा पंच- उदयद्वाणं । एदस्स विदिओ चडवीसभंगो । सम्मत्तसहियाओ भयरहियाओ घेत्तूण वा पंचउदयद्वाणं । एदस्स तदिओ चडवीसभंगो । एदाओ चेव सम्मत्तरहियाओ घेत्तण चत्तारि उदयद्वाणं । एदस्स इक्को चडवीसभंगो । पंचविधबंधट्ठाणे चउसंजलणाणमेक्कदरं तिन्हं वेदाणमेक्कदरं एदाओ घेत्तण एक्कमुदयठाणं । एदस्स बारस भंगा । एकं च दोणि चउबंधगेसु उदयंसया दु बोधव्वा । इत्तो परंतु इकं उदयंसा होदि सेसेसु ॥ १८ ॥ 'इक्कं च दो व तिणि चउबंध गेसु' चडविधट्ठाणे दोणि उदयठाणाणि । तं जहाचउसंजलणाणमेकदरं तिन्हं वेदाणमेक्कदरं, एदाओ घेत्तृण एक्कं उदयद्वाणं । एदस्स बारस भंगा चउसंजलणाणमेक्कदरं एवं उदयद्वाणं । एदस्स चत्तारि भंगा । तिन्हं बंधट्ठाणे कोहवज्ज तिन्हं संजलणाणमेक्कदरं । एक्कं उदयठाणं । एदस्स तिणि भंगा। दुविहबंधट्ठाणे कोह-माण वज्ज दुहं संजणाणमेक्कदरं, एक्कं उदयद्वाणं । एदस्स दो भंगा। एयविधबंधगे लोभ संजलणमेक्कं उदय ठाणं । एदस्स एक्को चेव भंगो । अबंधगेसु सुहुमलोहसंजलणं । एक्कं उदयद्वाणं । एदस्स एक्को चेव भंगो । इक्क य छक्केयारं दस सत्त चउक इक्कयं चेव । एदे चउवीसगढ़ा चडवीस दुगेगमेगारं ||१६|| व पंचाणउदिसदा उदयवियप्पेण मोहिया जीवा । उणहत्तरि- एगत्तरि-पयबंधसदेहि विष्णेया ॥ २० ॥ 'इक्क य छक्केयारं' दस- उदयद्वाणे एक्को चउवीसो । णव उदयद्वाणे छ चवीसा । अट्ठउदट्ठाणे एगारस चउवीसा । सत्त उदयद्वाणे दस चउवीसा । छ उदयट्ठाणे सत्त चडवीसा । पंच-उदयट्ठाणे चत्तारि चडवीसा । चत्तारि उदयद्वाणे इक्को चउवीसो । दो-उदयट्ठाणे चडवीसभंगा । एक्कोदट्ठाणे एक्कारस भंगा। 'णव पंचाणउदिसदा' दसादिचदुक्तं चरवीस गणण चलागा [ सलागा ] चालीस, चउवीण गुणिया एत्तिया हुति ६६० । एदेसु दो- उदयट्ठाणे चडवीस भंगा, एक्क- उदयट्ठाणे इक्कारस भंगा, मेलिया सव्वे उदद्यवियप्पा एत्तिया हुति ६६५ । दस-उदयट्ठाणे इक्का चउवीससलागा दसपयडीहिं गुणिया एत्तिया हुति १० । - उद छ चडवीससलागा णवपगडीहिं गुणिया एत्तिया हु'ति ५४ । अट्ठ उदयट्ठाणे इक्कारस चडवीससलागा अट्ठपगडीहिं गुणिया एत्तिया हुति | सत्त उदयट्ठाणे दस चडवीससलागा सत्तपगडीहिं गुणिया एत्तिया हुति ७० । [ छ उदयट्ठाणे ] सत्त चउवीससलागा छ पयडीहिं गुणिया एत्तिया हुति ४२ | पंच-उदयट्ठाणे चत्तारि चडवीस सलागा पंचपगडीहिं गुणिया एत्तिया हुति २० | चउ-उद्यट्ठाणे एग चडवीससलागा चउपयडीहिं गुणिया एत्तिया हुति ४ । एदे सव्वे मेलिया एत्तिया हुति २ । एदे चउवीस गुणियाए एत्तिया हु ति ६६१२ । एदेसु दो-पगडीहिं [दो पगडि Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो -] इक्का उदय] ट्ठाणे चउवीस उदय-वियप्पा दो पगडीहिं गुणिया एको अट्ठाणं [ रस- उदयवियप्पा वि एगपगडीहिं गुणिया एत्तिया हुति ११ । सव्वपदबंधवियप्पा ६६७१ । तिण्णेव दुबावीसे, इगिवीसे अट्ठवीस कम्मंसा । सत्तरह-तेरह - णव बंधगेसु पंचेव ठाणाणि ॥ २१॥ पंचविह- चउविहे व छ सत्त सेसेसु जाण पंचेव । पत्तेयं पत्तेयं पंचैव दुसत्त ठाणाणि ॥ २२ ॥ 'तिण्णेव दुवावीसे' वावीसबंधट्टाणे अट्ठावीस सत्तावीस छब्बीस एदाणि तिणि संतट्ठाहुति | इगिवीसबंधट्ठाणे अट्ठावीस इक्कसंतद्वाणं । सत्तरस- तेरस - णवबंधट्ठाणेसु अट्ठावीस चवीस तेवीस बावीस इक्कवीस एदाणि पंच संतद्वाणाणि पत्तेयं हुति । 'पंचविह चउविसु य छ सत्त' पंचविहबंधाणे अट्ठावीस चडवीस एगवीस तेरस वारस एक्कार छ संतद्वाणाणि । चउविहबंधट्ठाणे अट्ठावीस चउवीस इगिवीस वारस इक्कारस पंच चत्तारि एदाणि सत्त संतद्वाणाणि । तिहिबंधट्टाणे अट ठावीसं चउवीसं चत्तारि तिणि एदाणि पंच संत ठाणाणि । दुविधट्ठाणे अट्ठावीस चउवीस इगिवीस तिणि दोणि एदाणि पंच संतट्ठाणाणि । एयविधट्ठाणे अट्ठावीस चडवीस इगिवीस दोणि एकं एदाणि पंच संतट्ठाणाणि । अबंधगे अठ्ठावीसं चउवीसं इगिवीसं इक्कं च एदाणि चत्तारि संतट्ठाणाणि हु ंति । दस णव पण्णरसाई बंधोदय संतपगडिठाणाणि । भणिदाणि मोहणिजे एत्तो णामं परं बुच्छं ॥२३॥ दस धट्ठाणाणि, व उदयट्ठाणाणि, पण्णरस संतट्ठाणाणि मोहणीयम्मि भणिदाणि । एत्तोवरि णामम्मि बंधोदयसंतठाणाणि भणिस्सामो | तेवीसं पणुवीसं छब्बीसं अट्ठावीस मुगुतीसं । तीसेकती समेयं बंधट्ठाणाणि णामस्स || २४॥ afrati aati तो इगितीसय त्ति. एगधियं । ६३७ उदट्टणाणि हवे व अड्ड य हुंति णामस्स ॥२५॥ [ति-दु- इगि- उदी णउदी अड-चदु- दुगाधियम सीदिमसीदी च । उणसीदी अट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता ||२६|| ] तेवीसं पणुवी छवीसं अटूट्ठवीसं उणतीसं तीसं इकतीसं एक्कं एदाणि अटूट्ठ बंधट्ठापाणि णामस्स हुति । 'इगिवीसं चडवीसं एत्तो [ इगितीसं ति ] एगाधियं' इगिवीसं चउवीसं पणुवीसं छवीसं सत्तावीसं अट्ठावीसं उगुतीसं तीसं एकतीसं णव अटूट्ठ एदाणि इक्कारस उदयठाणाणि हुंति णामस्स । तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि असीदि एगूणासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस णव एदाणि तेरस संतट्ठाणाणि हुति णामस्स । अयारस तेरस बंधोदयसंत पगडिठाणाणि । ओघेणादेसेण य एतो जहसंभवं विभजे ||२७॥ अट्ठ बंधट्टााणि, एक्कारस उदयठाणाणि, तेरस संतठाणाणि ओघेण णामस्स हुति । विसेसेण गइ आइसु मग्गणठाणेसु जहासंभवं विभंजिऊण बंधोदयसंतठाणाणि एदाणि हुति भणियवाणि । For Private Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो तेरस णव चदु पणयं बंधवियप्पा उ हुंति बोधव्वा । छावत्तरिमेगारससदाणि णामोदया हुंति (७६११) ॥२८|| तेवीसादि-अट्ठसु बंधट्ठाणेसु पगडिणिदेसो भंगणिरूवणा च सदगे वुत्ता [त्तक्क] कमेण जाणिऊण भाणियव्व।। तेरस सहस्सा णव सदा पंच य तालीसा णामस्स बंधट ठाणवियप्पा हति १३६४५ । इकबीसादि-इक्कारसेस उदयद्राणेसु पगडिणिसो भंगपरूवणा च । तं __णिरयगइणामोदयसंजुत्ताणि पंच उदयट्ठाणाणि । तं जहा-णिरयगइ-पंचिंदियजाइ-तेजाकम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-णिरयगइपाओग्गाणुपुठवी - अगुरुगलहुग-तस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुभासुभ-दुभग-अगादिज्ज-अजसकित्ति-णिमिणणामाओ एदाओ पगडीओ घेत्तूण इक्कवीस उदयठ्ठाणं । तं विग्गहगइवट्टमाणस्स जेरइयस्स जहण्णेण एयसमयं, उक्करसेण वेसमयं । एदाओ आणुपुव्वीवजाओ वेउव्वियसरीर-हुडसंठाण-घेउव्वियसरीर-अंगोवंग-उवघाद-पत्तेयसरीरसहियाओ पगडीओ घेत्तूण पणुवीस उदयठाणं । तं सरीरगहिय-पढमसमयमादि काऊण जाव सरीरपज्जत्ता [त्तो] ण होइ, ताव होदि । जहण्णुक्कासेणंतोमुहुत्तकालं । एदाओ चेव परघाद-अप्पसस्थविहायगइसहियाओ पयडीओ घेत्तूण सत्तावीस-उदयठाणं । तं सरीरपज्जत्तगपढमसमयप्पहुडि जाव आणापाणपन्जत्तो ण होइ, ताव होइ। जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं ! एदाओ चेव उस्साससहियाओ पयडीओ घेत्तण अट ठावीस उदयठाणं । तं आणापाणपज्जत्तगए पढमसमयप्पहुदि जाव भासापज्जत्तगओ ण होइ, ताव होइ । जहण्णुकस्सेणंतोमुहुत्तकालं । एदाओ चेव दुस्सरसहियाओ पयडीओ घेत्तण एगूणतीस-उदयठाणं । तं भासापज्जत्तगए पढमसमयप्पहुदि जाव जीविदंतं ताव होइ । जहण्णेण दस [वास-]सहस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि | एदेसिं पंचण्हं ठाणाणं एक्केको चेव भंगो। उदयवियप्पा पंच ५ इगिवीसं चउवीसं एत्तो इगितीस यति एगधियं । णव चेव उदयट्ठाणा तिरियगइसंजुदा हुंति ॥२९।। पंचेव उदयठाणाणि सामण्णेइंदियस्स बोधव्या । इगि-चउ-पण-छ-सत्तधिया वीसा तह होइ णायव्वा ॥३०॥ आदाउजोवाणमणुदय-एइंदियस्स ठाणाणि । सत्तावीसा य विणा सेसाणि हवंति चत्तारि ॥३१॥ आदाउज्जोउदओ जस्सेसो णत्थि तस्स त्थि पणुवीसं । सेसा उदयट्ठाणा चत्तारि हवंति णायव्वा ॥३२॥ आदाउज्जोवाणमणुदय-एइंदिएसु इगिवीसं तिरिक्खगइ-उदयसंजुत्ताणि णव ठाणाणि । तत्थ सामण्णइंदियस्स पंच उदयठाणाणि । तं जहा-तिरिक्खगइ-एइंदियजाइ-तेजाकम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-कास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वा-अगुरुगलहुग-थावर-चादर-सुहमाणमकदर पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिर-सुभासुभ-दुभग-अणादिज-जस अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामाओ पगडीओ घेत्तण इगिवीस-उदयट्ठाणं । तं विग्गहगईए वट्टमाणस्स जहण्णेणेगसमयं, उकस्सेण तिण्णि समयं । एदस्स भंगा जसकित्ति-उदएण इक्को भंगो, सुहुमअपज्जत्त-उदओ णस्थि त्ति । अजसकित्ति-उदएण चत्तारि भंगा। [एवं पंच भंगा ५। ] एदाओ चेव पगडीओ आणुपुत्वीवज्जाओ ओरालियसरीर हुंडसंठाण-उवघाद-पत्तेग - साधारणसरीराणमेक्कदरं सहियाओ घेत्तूण चउवीसउदयट्ठाणं । तं सरीरगहियपढमसमयप्पहुडि जाम सरीरपज्जत्तगओ ण होइ ताम होइ । जहण्णुकरसेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स भंगा-जसकित्ति-उदएण एक्को भंगो, सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो उत्थि त्ति । अजसकित्ति उदएण अटूट्ठभंगा एवं णव भगा है । एदाओ अपज्जत्तवज्ज• परघादसहियाओ घेत्तूण पणुवीस उदयठाणं । तं सरीरपज्जत्तगए पढमसमय पहुइ जाव आणापाणपज्ञत्तगओ ण होइ ताव होइ । जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स भगा - जसकित्तिउदएण एको भांगो, सुहुम-साहारणाणं उदओ णत्थि त्ति । अजसकित्ति उदएण चत्तारि भांगा ४ । एवं पंच भांगा ५ । एदाओ चैव उस्लाससहियाओ पगडीओ घेत्त ण छन्त्रीस उदयठाणं । तं आणापाणपज्जत्तगए पढमसमयप्पहुडि जाव जीवितं ताव होइ । जहणणेणंतोमुहुत्तकालं, उक्करसेण वावीस [ वास ] सहस्साणि अंतोमुहुत णाणि । एदस्स आ पंचवीस उदयट्ठाण त्रियप्पा तत्तिया चेव ५ | आदावुज्जोवुद अविरहियाणं [ ए ] इंद्रियाणं जहा भणिदं । आदावुज्जोवउदयसहियाणं एइंद्रियाणं तहा इगिवीसं । चउवीस उदयठाणं पुव्वं च । णवरि सुहुम-अपज्जत्तसाहाराणं उदओ णत्थि त्ति । एदेसिं दो दो भगा । ते पुत्र्वभ गेसु पुणरुत्तत्ति ण गहिया । चउवीस पगडीओ परघाद- आदाउज्जो वेक्कदरसहियाओ घेत्तणवीस उदयठाणं । तं सरीरपज्जत्तगए पढमसमय पहुदि जाव आणापाणपज्जत्तगओ ण होइ ताव होइ । जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुतकालं । एदस्स भगा चत्तारि ४ । एदाओ चेव उस्साससहियाओ पगडीओ घेत्तण सत्तावीस उदयठाणं । तं आणापाणपज्जत्तगए पढमसमयप्पहृदि जाव जीवितं ताव होइ । जहणणेणंतोमुहुत्तं, उक्करसेण वासवस्तसहस्सा णि अंतो मुहुत्त णाणि । एदस्स वि भगा चत्तारि ४ । एइंदियाण सव्वे भगा बत्तीसं ३२ । विगलिंदियामण्णु दयडाणाणि हुंति छच्चेव । इrिati छवीसं अट्ठावीसादि जाव इगितीसं ||३३|| जोवर हिविगले इगितीसूणाणि पंच ठाणाणि । उज्जोक्स हियविगले अट्ठावीसूणया पंच ||३४|| उज्जोव उदयविरहियवेइंदियठाणाणि पंच । वेइंदियरस सामण्णेण छ उदयठाणाणि । तं जहा - तिरिक्खगइ वेइंदियजाइ-तेजा कम्मइयसरीर वण्ण गंध-रस- फास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी - अगुरुगलहुग-तस बादर- पज्जसापज्जत्ताणमेक्कदरं थिराथिर-सुभासुभ- दुभग-अणादिज्ज-जसअजस कित्ती मेक्कदरं णिमिणणामाओ पयडीओ घेत्तण इक्कवीस उदयठाणं । तं विग्गहगईए म जहणे एगसमयं, [ उक्करसेण वे समयं । ] एदस्स भगा - जस कित्ति - उदएणेक्को भगो, अप्पज्जत्तोदओ णत्थि त्ति । अजसकित्ति उदएण दो भगा । एवं तिष्णि भगा ३ । एदाओ चेव ओरालियसरीर-हुंडसं ठाण-ओरालिय सरीरंगोवंग असंपत्तसे वट्टसरीरसंघडण - उवघाद - पत्तेगसरीरसहियाओ आणुपुत्र्वीवज्जाओ घेत्तूण छब्बीस उदयद्वाणं । तं सरीरगहियपढम समय पहुइ जाव सरीरपज्जत्तो ण होइ, ताव होइ । जहण्णुक्करसेणंतो मुहुत्तकालं । एदस्स भगा - जसकित्तिउदएण इक्को भगो १, अपज्जत्तोदओ णत्थि ति । अजसकित्ति उदएण दो भगा । एवं भंगा तिण्णि ३ । एदाओ चेत्र अपज्जतवज्ज परघाद - अपसत्थ-विहायगइसहियाओ घेत्तूण अट्ठावी उदयठाणं सरीरपज्जत्तए पढमसमय पहुइ जाव आणापाणपज्जत्तगओ ण होइ, ताव होइ । जहण्णुक्करसेणंतोमुहुतकालं । एदस्स दो भंगा २ । एदाओ सव्वाओ उस्साससहियाओ वेत्तृण एगूणतीस उदय ठाणं । तं आणापाणपज्जत्तगए पढमसमयप्पहुदि [ जाव भासा ] पज्जन्त्तयओ ण होइ अंतमुत्तकालं । [ ] एवं दो भगा २ । एदाओ व दुसरसहियाओ पगडीओ घित्तण तीसउदयठाणं । तं भासापज्जत्तगए पढमसमय पहुडि जाव जीविदं ताव हो । जहणणं तोमुहुत्तं, उक्करसेण बारस वासाणि । एदस्स दो भगा । एवं उज्जोव अजसकित्तिया.... 'उज्जोव - [ उदयसहिय] वेइंदियस्स जहा इगिवीस छवीस पुव्वं व । णवरि अपज्जत्त - उदओ णत्थि एदेसिं दो दो भंगा चेव । पण्णरस - ६३६ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो ...जाव आणापाणपज्जत्त पुणरुत्तसमादिया । छत्तीस -[ छव्वीस ] पगडीओ परघाद-उज्जीव- अपसत्थविहाय [गदि ] सत्त सहियाओ घेत्तण गओ ण होइ ताव होइ जहष्णुक्सर सेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स दो भंगा । एदाओ चेव उक्करस[उस्लास ] सहियाओ पगडीओ घेत्तण तीस-उद्यट ठाणं । 'आणापाणपज्जत्तगए पढम [ समयप्पहुदि जाव भासापज्जन्तगओ ण होइ ताव ] अंतोमुहुत्तकालं । एदस्स विदो भंगा २ । एदाओ चैव दुस्सरसहियाओ पयडीओ घेत्तूण एगवीस- उदयट ठाणं [] भासापज्जत्तगए पढमसमयप्पहुदि जाव जीवितं ताव होइ । जहणणेणंतोमुहुत्तकालं, उक्करसेण वारस वासाणि अंतोमुहुत्त :णाणि । दो गंगा २ । सव्ववियप्पा अट्ठारस १८ । एवं विं [तीई - ] दियस्स णवरि तीइंदियजाइ भाणियव्वं । तीस-इक्कत्तीसकालो जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण एगूणवण्ण रादिदिवाणि अंतो मुहुत्त णाणि । एवं चरिं दियस्स । णवरि चउरिंदियजाइ वक्तव्वं । तीसेक्कतीसकालो जहणणंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण छम्मासाणि अंतोमुहुत्त - णाणि । वियलिंदियसव्ववियप्पा चडवण्णं ५४ । पंचिदिय तिरियाणं सामण्णे उदयठाण छच्चेव । ६४० इrिati छव्वीसं अट्ठावीसादि जाव इगितीसं ||३५|| जोवर हियसले इगितीभ्रूणाणि पंच ठाणाणि । उज्जोवसहियसले अट्ठावीसूणगा पंच ॥ ३६॥ पंचिदियतिरिक्ख सामण्णेण छ उदयद्वाणाणि । तं जहा – उज्जोवर हियसयले तस्स इमं एअवीसअं ठाणं—तिरिक्खगइ-पंचिदियजाइ-तेजा- कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुञ्ची- अगुरुगल हुग-तस बादर- पज्जतापज्जत्ताणमेक्कदुरं थिराथिर - सुभासुभ-सुभगदुभगाणमेक्कदरं आदेज्ज- अणादेज्जाणमेक्कदरं जस-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामाओ पगडीओ घेत्तॄण इक्कवीस-उदयट ठाणं । तं विग्गहगईए वट्टमाणस्स जहणणेणेगसमयं, उक्करसेण वे समयं । एदस्स पज्जत्तोदएण अटठभंगा । अपज्जत्तोद्एण एक्को भंगो १ । दुभग अणादिज्जअजसकित्तीण एवं उदओ त्ति एव णव भंगा। एदाओ चेव आणुपुव्वीवज्जाओ ओरालिय- सरीर छ संठाणाणमेक्कदरं ओरालियसरीरंगोवंग छ संघडणाणमेक्कदरं उवघाद-पत्तेगसरीरसहियाओ पयडीओ घेत्तूण छव्वीस - उदयट ठाणं । तं सरीरंग हियपढमसमय पहुइ जाव सरीरपज्जत्तगओ श होइ ताव होइ जणुक्कर से णंतो मुहुत्तकालं । पज्जत्तदएण दुसद-अट ठासी दि-भंगा २८८ । अपज्जत्तोद इक्को भंगो १ । हुंडठाण असंपत्त से वट्टसरीरसंघडण दुभग-अणादिज्ज-अजसकित्तीणमेव उदओ त्ति एवं सव्वभंगा २८६ । एदाओ चेत्र अपज्जत्तवज्ज परघाद-पसत्यापसत्य विहायगईणमेक्कदरं सहियाओ पगडीओ घेत्तृण अटठावीस उदयट ठाणं । तं सरीर पज्जत्तगए पढम समय पहुदि 'जाव आणापाणपज्जन्तगओ ण होइ ताव होइ जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स वियप्पा पंच सदा छ सत्तरी ५७६ । एदाओ चेव उस्साससहियाओ घेत्तृण एगूण तीस- उदयट्ठाणं आणावाणपज्जत्तगए पढमसमय पहुदि जाव भासापज्जत्तगओ ण होइ ताव होइ जहण्णुक्कर से णंतो मुहुत्तकालं । एदस्स भंगा पंच सदा छहत्तरी ५७६ । एदाओ चेव सुरसर- दुस्सराणमेक्कदर सहियाओ पगडीओ घेत्तृण तीस - उदयट ठाणं । तं भासापज्जत्तगयपढम समय पहुदि जाव जीवितं ताव होइ जहणणंतोमुहुत्तकालं, उक्करसेण तिष्णि पलिदोवमाणि अंतोमुहुत्तूणाणि । एदस्स भंगा इक्कारसयवावण्णानि १९५२ । एवं उज्जोव उदएण रहिद-पंचिदियतिरिक्खाणं भणिदं । उज्जोव उदयसहियपंचिंदियतिरिक्खाणं जहा इगिवीस-छब्बीस पुव्वं व भाणियन्वं । णवरि अपज्जत्तोदओ णत्थि एदेसिं भंगा पुव्वुत्तभंगेसु पुणरुत्ता त्तिण गहिया । एदाओ छव्वीस पगडीओ परघाद-उज्जोव-पसत्थ-अप सत्यविहायगईणमेक्कदरं सहिया घेत्तण एगूणतीस उदयठाणं । For Private Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो ६४१ ' तं सरीरपज्जत्तगए पढमसमयप्पहुदि जाव आणापाणपज्जत्तगओ ण होइ ताव होइ । जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स भंगा ५७६ । एदाओ चेव उस्साससहियाओ पगडीओ घेत्त ण तीसउदयट्ठाणं। तं आणापाणपज्जत्तगए पढमसमयप्पहदि जाव भासापज्जतगओ ण होइ ताव होइ। जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स भंगा पंच सदा छावत्तरी ५७६ । एदाओ चेव सुस्सरदुरसराणमेक्कदरं सहियाओ घेत्तण एक्कतीस-उदयट्ठाणं । तं भासापज्जत्तगए पढमसमयप्पहुदि जाव जीविदंतं ताव होइ जहण्णणंतोमुहुत्तकालं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि अंतोमुहुत्त णाणि । एदस्स भंगा इक्कारस सदा वावण्णा ११५२ । पंचिंदियतिरिक्खसव्वभंगा चत्तारि सहरस-णवसदा छदुत्तरा ४६०६ । सव्वतिरियभंगा मेलिया एत्तिया ४६६२ । मणुसगइसंजुदाणं उदयट्ठाणाणि हुंति दस वेव । चउवीसं वज्जित्ता सेसाणि हवंति णेयाणि ॥३७॥ तित्थयराहाररहिया पगडी मणुसस्स पंच ठाणाणि । इगिवीसं छव्वीसं अट्ठावीसूणतीस तीसासु ॥३८॥ पयडी मणुसस्स उदयहाणाणि । तं जहा-इगिवीसं छव्वीसं अट्ठावीसं एगूणतीसं तीसं एदाणि उदयट्ठाणाणि हुंति । जहा-उन्नोवउदयरहियपंचिंदियतिरिक्खाणं तहा वत्तव्वाणि । णवरि मणुसगइआदि भाणियव्वा । एदेसिं भंगा एत्तिया हुंति २६०२ । एवं सामण्णमणुसस्स भणिदं । विसेसमणुसस्स तं जहा-मणुसगइ-पंचिंदियजाइ-आहार-तेज-कम्मइयसरीर-समचउरसरीरसंठाणआहारसरीरंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग - उवघाद-तस-बादर-पज्जा द-तस-बादर-पज्जत्त - पत्तेगसरीर-थिराथिर - सुभासुभ - सुभग-आदिज - जसकित्ति-णिमिणणामाओ पगडीओ घेत्तूण पणुवीस - उदयट्ठाणं आहारसरीर-उहाविदपढमसमयप्पहुदि जाव पज्जत्तगओ होइ ताव होइ । जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं। एदस्स भंगो इक्को चेव १। एदाओ चेव परघादापसत्थविहायगइसहियाओ सत्तावीसउदयट्ठाणं । तं सरीरपज्जत्तगए पढमसमयप्पहुदि जाव आणापाणपज्जत्तगओ ण होइ [ताव होइ]। जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स इक्को भंगो १। एदाओ चेव उस्साससहियाओ पगडीओ ठावीसउदयटठाणं । तं आणापाणपज्जत्तगए पढमसमयप्पहदि जाव भासापज्जत्तगओ ण होइ ताव होइ जहण्णुक्कस्सेणंतोमुत्तकालं । एदस्स वि भंगो एक्को चेव १। एदाओ चेव पगडीओ सुस्सरसहियाओ घेत्तूण एगूणतीस-उदयट्ठाणं । तं भासापज्जत्तगयपढमसमयप्पहुदि जाव आहारसरीरविउव्विओ ण अच्छइ ताव होइ । जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तकालं । एदस्स वि भंगो एक्को चेव १ । एदस्स सव्वभंगा चत्तारि ४ । विसेसमणुसस्स तं जहा-मणुसगइ-पंचिंदियजाइ-ओरालिय-तेज-कम्मइयसरीर-समचउरसरीरसंठाण-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्ज-रिसभवहरणारायसरीरसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगरुगलहुग-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तंगसरीर-थिर थिर-सुभासुभसुभग-सुस्सर-आदिज-जसकित्ति-णिमिण-तित्थयर-णामाश्रो पगडीओ घेत्तूण एक्कत्तीस-उदयट्ठाणं । तं सजोगिकेवलिरस सत्थाणस्स जपणेण वासपुधत्तं, उक्कस्सेणंतोमुहुत्तमधिय अवस्सूण-पुव्वकोडिकालं। एदस्स इक्को भंगो १। मणुसगइ-पंचिंदियजाइ-तस-बादर-पज्जत्त-सुभग-अणादिज्जजसकित्ति-तित्थयरणामाओ पगडीओ घेत्तण णव-उदयट्ठाणं । तं अजोगिकेवलिम्स । एदस्स इक्को भंगो। एदाओ चेव तित्थयरविरहियाओ पगडीओ घेत्तण अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदं पि अजोगिकेवलिस्स । एदस्स वि इको भंगो १। एदे तिण्णि भंगा ३ । मणसगइसव्वभंगा एत्तिया हंति २६०६। इगिवीसं पणुवीसं सत्तावीसं अट्ठावीसमुगुतीसं । एदे उदयट्ठाणा देवगइ-संजुदा पंच ॥३६॥ ८१ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो देवगइ - उदयसंजुत्ताणि पंच ठाणाणि । तं जहा - देवगइ पंचिदियजाइ-तेज-कम्मइयसरीरवण्ण-गंध-रस-फास-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी- अगुरुगलहुग- तस बादर पज्जत्त - थिराथि र सुभासुभसुभग- आदिज्ज-जस कित्तिणिमिणणामाओ पगडीओ घेत्तृण एक्कवीस उदयद्वाणं । तं विग्गहगईए वट्टमाणस्स जहण्णेणेगसमयं उक्कस्सेण वे समयं । एदस्स एकको चैव भंगो १ । एदाओ व आणुव्ववज्जाओ वे उव्वियसरीर-समचउर संठाण वे उव्वियसरी रंगोवंग उवघाद पत्तेयसरीरसहियाओ घेत्तूण पणवीस उदयद्वाणं । तं सरीरगहियपढमसमय पहुदि जाव सरीरपज्जत्तगओ होइ, ताव होई जहणणुक्कस्सेणंतोमुहुत्तं । एदस्स भंगो इक्को चेव १ । एदाओ चेव पगडीओ परघाद-पसत्थविहायगइसहियाओ घेत्तृण सत्तावीस - उदयद्वाणं । तं सरीर पज्जत्तगदपढम-समयपहुदि जाव आणापाणपज्जत्तगओ ण होई, ताव होइ जहण्णुक्कस्सेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स वि एक्को चेव भंगो १ । एदाओ चेव पगडीओ उस्साससहियाओ घेत्तृण अट्ठावीस उदयट्ठाणं । तं आणापाणपज्जत्तगदपढमसमय पहुदि जाव भासापज्जत्तगओ ण होइ । ताव होइ । जहण्णुक्करसेणंतोमुहुत्तकालं । एदस्स इक्को चेव भंगो १ । एदाओ चेव पगडोओ सुस्सरसहियाओ घेत्तृण एगुणतीसउदयद्वाणं । तं भासापज्जत्तगदपढमसमय पहुदि जाव जीविदं ताव होइ । जहणेण दसवाससहस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि, उक्करसेण तेत्तीस सागरोवमाणि [अंतोमुहुत्तणाणि ] | एदस्स वि इक्को चेव भंगो १ । एदे पंच भंगा ५ । सव्वणामकम्म उदयवियप्पा छावत्तरि सदा एयारस ७६११ । ६४२ "ति-दु-इगि णउदी अट्ठाहिय-चदु-दुरहिय असिदि असिदिं च । ऊणासिदि अट्ठत्तर सत्तत्तरि दस य णव संता ॥" संतगडाणाणि । तं जहा - णिरयगइ तिरियगइ मणुसगइ देवगइ एइंदिय-बेइंदिय-ते इंदियचरिंदिय पंचिदियजाइ - ओरालिय - वेडव्विय आहार - तेजा - कम्मइयसरीर-ओरालिय - वेडव्वियआहार-तेज-कम्मइयसरीरबंधण - ओरालिय- वेडव्विय- आहार - तेजा - कम्मइयसरीरसंघाद छसंठाणतिण्णि अंगोवंग-छसंघडण - पंचवण्ण-दो गंध- पंचरस - अट्ठफास- चत्तारि आणुपुव्वी - अगुरुगलहुगादि चत्तारि आदावुज्जोव- दो विहायगइ-तसादि दसजुगल- णिमिण- तित्थयरणामाओ पगडीओ घेत्तण तेणउदितद्वाणं ६३ । एदाओ चेव तित्थयरविरहियाओ वाणउदिसंतद्वाणं ६२ । आहारदुगविरहियाओ तेणउदिपगडीओ घेत्तूण इक्काणउदिसंतद्वाणं । एदाओ तित्थयरविरहियाओ तृण उदित १० । णउदिसंतद्वाणादो एइंदिएसु देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुव्वीसु उच्चि - ल्लिदेसु अट्ठासीदिसंतद्वाणं पर। अट्ठासीदिदो णिरयगइ-वेडव्वियसरीर-वेउब्विय सरीरंगोवंगणिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीसु उब्विल्लिदेसु चउरासीदिसंताणं ८४ । चउरासीदिसंतादो तेउवाकाइए मणुसगइ मणुसगइपाओग्गाणुपुत्री उव्विल्लिदेसु वासीदिसंतट्ठाणं होइ ८२ । तेणउदि - बाणउदि एक्काणउदि [णउदि] संतादो अणियट्टिखवयम्मि णिरयगइ तिरियगइ एइंदिय-वे इंदियतेइंदिय- चउरिंदियजादि-निरयगइ तिरियगइपाओग्गाणपुत्र्वी आदाउज्जोव थावर - सुहुम-साहारणएदासु तेरसपयडीसु खवियासु असीदि ८०, एगुणसीदि ७६, अट्ठहत्तर ७८, सत्तत्तरि ७७ संतट्ठाणाणि हुति । मणुसगइ पंचिदियजाइ मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी तस बादर-पज्जत्त-सुभगआदेज्ज-जसकित्ति - तित्थयरणामाओ पगडीओ घेत्तूण दससंतद्वाणं अजोगिचरमसमए होइ १० । एदाओ चेव तित्थयरवज्जाओ पगडीओ घेत्तृण णवसंतट्ठाणं तम्मि चेव होइ ६ । एवं तेरस संतट्ठाण हुँति । इक्केक्स्स संतट्ठाणस्स इक्केकूको चैव भंगो । १३६४५ | ७६११ । व पंचोदयसंता तेवीसे पणुवीस छब्बीसे । अट्ठ चउरट्ठवोसे व सत्तसुगुतीस तीसम्मि ॥४०॥ For Private Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'णव पंचोदयसंता' तेवीस बंधट्ठाणे पणुवीसंबंधठाणे छव्वीसबंधठाणे इगिवीस चवीस पणुवीस छब्वीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस एक्कत्तीस एदाणि नवउद्यठाणाणि वाणउदि णवदि अठ्ठासी चउरासी वासीदि एदाणि पंच संतट्टणाणि होंति । अट्ठावीस बंधट्टाणे इगिवीस पंचवीस छब्बीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस एक्कत्तीस एदाणि अट्ठ उदयट्टाणाणि हुंति; वाणउदि इक्काणउदि णउदि अट्ठासीदि पदाणि चत्तारि संतद्वाणाणि हुंति । एगूणतीस बंधट्ठाणे तीसबंधट्ठाणे इगिवीस चडवीस पणुवीस छब्बीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस इकतीस दाणि णव उदाणाणि; तेणउदि वाणउदि एक्काणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि दाणि संतठाणाणि हुंति । 'एगेगं इगिती से' इकत्तीस बंधट्टाणे तीसउदयट्ठाणं, तेणउदिसंताणं होदि । इक्कविहबंधाणे तीस उदयद्वाणं; तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि असीदि उणासी अट्ठत्तरि सत्तत्तरि एदाणि अट्ठ संतद्वाणाणि हुंति । णामाबंधगे तीस इक्कत्तीस णव अट्ठ एदाणि चत्तारि उदयद्वाणाणि हुंति, तेणउदि वाणउदि इकाणउदि णउदि असीदि एगूणासीदि भट्ठत्तरि सत्त तरि दस णव दाणि दस संतद्वाणाणि । सत्तर-संगहो hi इगिती से एगेगुदय अट्ठसंतम्मि । वरदबंधे च दस वेददि संतम्मि ठाणाणि ॥ ४१ ॥ तिवियप्पपगडिड्डाणाणि जीवगुणमण्णिदेस ठाणेसु । भंगा पउंजियव्वा जत्थ जहा पयडिसंभवो होदि ॥ ४२ ॥ 'तिविअप्पय डिट्ठाणाणि जीवगुणसण्णिदेसु ठाणेसु' बंधोदयसंतकम्माणं तिविधाणं पगडिट्ठाणाणि पउंजियव्वाणि, भंगा वि परंजियव्वा जीवट्ठाणेसु गुणट्ठाणेसु य । तेरे जीवसंखेवसु णाणंतराय तिवियप्पो । यमिति दुवियप करणं पद्द एत्थ अवियप्पो ॥ ४३ ॥ परं वुच्छं ।' ३ १३ ह ह ४ ह 'तेरसे जीवसंखेवएसु' सण्णिपंचिंदियं पज्जत्त वज्ज तेरसेसु जीवसमासेसु णाणावरणंतराइयाणं पंच बंधं पंच उदयं पंच संतं । एक्कम्मि सणिपंचिंदियपज्जत्त जीवसमासे बंधं पंच, उदयं पंच संतं पंच। उवरदबंधे पंच उदयं पंच संतं । 'करणं पदि' दव्विदियं पडुच्च सजोगिhafore इत्थ णाणावरण-अंतराइएस वियप्पो णत्थि । तेरे णव चदु पणयं णवस एयम्मि तेरस वियप्पा | वेदणीय उगगोदे विभज मोहं परं वुच्छं || ४४॥ 'तेरे णव चदु पण्यं' सष्णिपंचिदियपज्जतवज्ज सेसेसु जीवसमासेसु दंसणावरणस्स णव बंधं चत्तारि उदयं, णव संतं; णव बंधं पंच उदयं णव संत एवं दुवियप्पा । सण्णिपंचिदियपज्जत्त जीवसमासे णव बंधं चत्तारि उदयं णव संतं; णव बंधं पंच उदयं णव संतं; छ बंध चत्तारि उदयं णव संतं; छ बंधं पंच उदयं णव संतं; चत्तारि बंधं चत्तारि उदयं णव संतं; चत्तारि बंधं पंच उदयं णव संतं, चत्तारि बंधं चत्तारि उदयं छ संतं, चत्तारि बंधं पंच उदयं छ संतं । उवरदबंधे चत्तारि उदयं णव संतं; पंच उदयं णव संतं; चत्तारि उदयं छ संतं; पंच उदयं छ संतं; चत्तारि उदयं चत्तारि संतं । एत्थ वि करणं पदि अवियप्पो । 'वेदणीयाउगगोदे विभन्न मोहं ५ ह proc pr ४ ६ لي لا لي ५ ६ ww 20 w ४ ww ६ ५ 3xx ४ ४ 20 x w ४ ५ Do our ४ ४ ६ ४ ५ mxx ६ Do al ४ ६४३ x w ५ moc ४ ५ ६ ६ २० 20 ४ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ पंचसंगहो वावटि वेदणीए आउस्स हवंति तिरधियसयं च । गोदस्स य सगदालं जीवसमासेसु बोधव्वा ॥४॥ 'वेदणीयाउगे गोदे वावट्टि' वेदणीए सादं बंधं सादं उदयं सादासादं संतं; सादं बंधं असादं उदयं सादासादं संतं; असादं बंध सादं उदयं सादासादं संतं; असादं बंध असादं उदयं असादं संतं एकरस जीवसमासस्स चत्तारि वियप्पा लोभमुत्ति [लभामो तो] चउदसेसु जीवसमासेसु केत्तिया हुंति त्ति चउहि चोदस जीवसमासा गुणिया छप्पण्णा हुँति ५६ । णेव सण्णिणेवासण्णिम्मि सादं वंधं सादं उदयं सादासादं संतं; सादं बंधं असादं उदयं सादासादं संतं; उवरदबंधे सादं उदयं सादासादं संतं, असादं उदयं सादासादं संतं; अजोगि - चरमे सादं उदयं सादं संतं; असादं उदयं असादं संतं एदे छ भंगा पुग्विल्ल छप्पण्णभंगा मेलाविय वावडिं भंगा हुति वेदणीयस्स ६२ । . ___ 'आउगस्स हवंति तिरधियसयं च' सुहुमिदियापज्जत्तजीवसमासम्मि तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संतं, तिरिक्खाउगं बंधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-तिरिक्खाउगं संतं; उवरदबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-तिरिक्खाउगं संतं; मणुसाउगं बंधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खमणुसाउगं संतं; उवरबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-मणुसाउगं संतं । एदे पंच भगा। एवं असण्णिपंचिदियपज्जत्त-सण्णिपंचिंदियपज्जत्तापज्जत्तजीवसमासाणं सव्वे भगा पणवण्णा ५५ । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयम्मि तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संतं; णिरयाउगं बंधं तिरियाउगं उदयं तिरिक्ख-णिरयाउगं संतं । उवरदबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-णिरयाउगं संतं; तिरिक्खाउगं बधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-तिरिक्खाउगं संतं; उवरदबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-तिरिक्खाउगं संतं; मणुसाउगं बधं तिरिक्खाउगमुदयं तिरिक्ख-मणुसाउगं संतं; उवरदबंधे तिरिक्खागं उदयं तिरिक्ख-मणुसाउगं संतं; देवागं बंधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-देवाउगं संतं; उवरदबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-देवागं संत एवं णव भगाई । सणिपंचिंदियपन्जत्तजीवसमासम्मिणिरयाउगं उदयं णिरयाउगं संतं; तिरिक्खाउगं बंधं णिरयाउगं उदयं णिरयतिरिक्खाउगं संतं; उवरदबधे णिरयाउगं उदयं णिरय-तिरिक्खाउगं संतं; मणुसाउगं बंध णिरयाउगं उदयं णिरय-मणुसाउगं संतं; उवरदबधे णिरयाउगं उदयं णिरय-मणुसाउगं संतं एवं भगा पंच ५ । तिरिक्खस्स तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संतं; णिरयाउगं बधतिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-णिरयाउगं संतं; उवरदबधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-णिरयाउगं संतं; तिरिक्खाउगं बध तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-तिरिक्खाउगं संतं; उवरदबधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संतंः मणुसाउगं बध तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-मणुसाउगं संतं; उवरदबधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-मणुसाउगं संतं; देवाउगं बधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-देवाउगं संतं; उवरदबधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-देवाउगं संतं । एवं णव भगा है। मणुसस्स मणुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं; जिरयाउगं बधं मणसाउगं उदयं, मणुस-णिरयाउगं संतं; उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुस-णिरयाउगं संतं; तिरिक्खाउगं बंध मणुसाउग उदयं मणुसतिरियाउगं संत; उवरदबधे मणुसाउगं उदयं मणुस-तिरिक्खाउगं संतं; मणुसाउगं बधे मणुसाउगं उदयं मणुस-मणुसाउगं संतं; उवरदवघे मणुसाउगं उदयं मणुस-गणुसाउगं संतं; देवाउगं बध मणुसाउगं उदयं मणुस-देवाउगं संतं, उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुस-देवाउगं संतं । एवं णव भगा ६ । देवस्स देवाउगं उदयं देवाउगं संतं; तिरिक्खाउगं बंध देवाउगं उदयं देव-तिरिक्खाउगं संतं; उवरदबंधे देवाउगं उदयं देवतिरिक्खाउगं संतं; मणुसाउगं बंध देवाउगं उदयं देव मणुसाउगं संतं; उवरदबंधे देवाउगं उदयं देव-मणुसाउगं संतं । एवं पंच भंगा ५। सणिपंचिंदियअपज्जत्तजीवसमासम्मि तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संतं; तिरिवखाउगं Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो बंधं तिरिक्खाउगमुदयं तिरिक्ख-तिरिक्खा उगं संतं; उवरदबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्खाउगं संत; मणुसाउगं बंधं तिरिक्खाउगमुदयं तिरिक्ख-मणुसाउगं संतं; उवरदबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-मणसाउगं संतं । एवं पंच भंगा ५। मणसाउगं उदयं मणसाउगं संतं; तिरिक्खाउगं बंध मणुसाउगं उदयं मणुस-तिरिक्खाउगं संतं । उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुस-तिरिक्खाउगं संतं; मणुसाउगं बंध मणुसाउगं उदयं मणुस-मणुसाउगं संतं । उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुसमणुसाउगं संतं । एवं पंच भंगा ५। __णेव सण्णी-णेवासण्णीसु मगुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं एको चेव भंगो १। सव्वे भंगा आउगस्स तिउत्तरसदं १०३ । ['गोदस्स य सगदालं' ] सुहमेइंदियापज्जत्तजीवसमासम्मि उच्चं बंधं णीचं उदयं उच्चणीचसंतं; णीचं बंधं णीचं उदयं उच्च-णीचसंतं; णीचं बंधं णीचं उदयं णीच-णीच-संतं । एस तदियभंगो ३ तेउ-वाउकाइएसु उच्चमुव्वेल्लिऊण तम्मि दिट्ठस्स [ट्ठिदस्स] वा अण्णत्थ उप्पण्णस्स वा होइ । एवं तिण्णि भंगा। एवं सण्णिपंचिंदियपज्जत्तवज्ज सेसतेरसजीवसमासाणं । एदेसि भंगा एगूणचालीसं ३६ । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तजीवसमासम्मि उच्चं बंधं उच्चं उदयं उच्च-णीचं संतं; उच्चं बंधं णीचं उदयं उच्च-णीचं संतं; णीचं बंधं उच्चं उदयं उच्च-णीचंसंतं, णीचं बंधं णीचं उदयं उच्च-णीचसंतं; णीचं बंधं णीचं उदयं णीच-णीचं संतं । उवरदबंधे उच्चं उदयं उच्च-णीचं संतं । एदे छ भंगा ६। वसण्णी-णेवासण्णीसु उच्चं उदयं उच्च-णीचं संतं; अजोगिचरमसमए उच्चं उदयं उच्चं संतं; एदे दो भंगा २ । गोदस्स सव्वे भंगा सत्तेतालीसा हुंति ४७ । अट्ठसु पंचसु एगे एगं दुग दस दु मोहबंधगये। तिय चदु णव उदयगदे तिय तिय पण्णरस संतम्मि ॥४६॥ मोह वुच्छं अट्ठसु पंचसु एगे' सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ता बादरेइंदिय-अपज्जत्ता बीइंदिय अपज्जत्त तीइंदिय अपज्जत्त चउरिंदियअपज्जत्त असण्णिपंचिंदिय अपज्जत्त एदेसु अट्ठसु जीवसमासेसु वावीसबंधठाणं एगं, दस गव अट्ठ एदाणि तिणि उदयट्ठाणाणि, अट्ठवीस सत्तावीस छव्वीस ण तिण्णि संतठाणाणि । बादरेइंदियपज्जत्त बीइंदियपज्जत्त तीइंदियपज्जत्त चउरिदियपज्जत्त असण्णिपंचिंदियपज्जत्त एदेसु पंचसु जीवसमासेसु वावीस इक्कवीस एदाणि दोण्णि बंधट्ठाणाणि, दसणव अट्ठ सत्त एदाणि चत्तारि उदयट्ठाणाणि, अट्ठावीस सत्तावीस छब्बीस एदाणि तिण्णि संतवाणाणि । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तजीवसमासम्मि वावीस इकवीस सत्तरस तेरस व पंच चत्तारि तिणि दोणि एक एदाणि दस बंधट्टाणाणि, दस णव अट्ट सत्त छ पंच चत्तारि दु इक्क एदाणि णव उदयट्ठाणाणि, अट्ठावीस सत्तावीस छव्वीस चउवीस तेवीस वावीस इक्कवीस तेरस वारस एक्कारस पंच चत्तारि तिणि दुग इक्क एदाणि पण्णरस संतढाणाणि । उवरदबंधे एगपगडि-उदय, अट्ठावीस चउवीस इक्कवीस एक एदाणि चत्तारि संतढाणाणि । पणग दुग पणग पणगं चदु पण बंधुदयसंतपणगं च । पण छक पण य छकं पणय अट्ठमेयारं ॥४७॥ सत्तेव अपजत्ता सामी सुहुमो य बादरो चेव । विगलिंदिया य तिणि दुतहा असण्णी य सण्णी य ॥४८॥ इदाणिं णामं भणिस्सामो-'सत्तेव अपज्जत्ता' सुहुमादि सत्तसुअपज्जत्तजीवसमासेसु तेवीस पणुवीस छव्वीस एगूणतीस तीस एदाणि पंच बंधट्ठाणाणि, इगिवीस चउवीस एदाणि दोण्णि उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि नासीदि एदाणि पंच संतट्ठाणाणि । सुहु Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ पंचसंगहो मिंदियपज्जत्तम्मि तेवीस पणुवीस छव्वीस एगूणतीस एदाणि पंच संत[बंध ]ट्ठाणाणि ईगिवीस चउवीस पणुवीस छव्वीस एदाणि चत्तारि उदयट्ठाणाणि, वाणउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतवाणाणि । बादरेइंदियपज्जत्तजीवसमासम्मि तेवीस पणुवीस छव्वीस एदाणि पंच बंधटठाणाणि, इगिवीस चउवीस पणवीस छठवीस सत्तावीस एदाणि पंच उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतट्ठाणाणि । बीइंदियपज्जत्त तीइंदियपज्जत्त चदुरिंदियपज्जत्त एदेसु तीसु जीवसमासेसु तेवीस पणुवीस छब्बीस एगूणतीस तीस एदाणि पंच बंधाणाणि, इगिवीस छव्वीस अट्ठावीस एगणतीस एकतीस एदाणि छ उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतट्ठाणाणि । असण्णिपंचिदियपज्जत्तजीवसमासम्मि तेवीसं पणुवीसं कव्वीसं अट्ठावीसं एगूणतीसं तीसं एदाणि छ बंधट्ठाणाणि, इक्कवीस छठवीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस इक्कतीस एदाणि छ उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्रासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संताणाणि । सण्णिपंचिदियपज्जत्तजीवसमासम्मि तेवीसं पणुवीसं छव्वीसं अट्ठावीसं एगृणतीसं तीसं इकतीसं एक एदाणि अट्ठ बंधट्ठाणाणि, एकवीस पणुवीस छव्वीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस इक्कतीस एदाणि अट्ठ उदयट्ठाणाणि, तेण उदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि असीदि एगूणासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि एदाणि इक्कारस संतवाणाणि । उवरदबंधे उदयट्ठाणं तीसं इक्कं, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि असीदि एगूणासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि एदाणि अट्ठ संतढाणाणि । णेव सण्णी-णेवासण्णीस तीस इकतीस णव अट्ट एदाणि चत्तारि उदयट्ठाणाणि, असीदि एगूणासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस णव एदाणि छ संताणाणि । णाणंतराय तिविहमवि दससु दो हुंति दोसु ठाणेसु । मिच्छा सासण विदिए णव चदु पण णवय संतकम्मंसा ॥४६॥ मिस्सादि-णियट्टीदो सो छ ]चउ पण णव य संतकम्मंसा। चदुबंधं तिय चदु पण णव अंस दुवे छलंसा य ॥५०॥ उवसंते खीणम्मि य चदु पण णव छच्च संत चउजुगलं । . वेदणियाउगगोदे विभज मोहं परं चुच्छं ॥५१॥ मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव सुहुमसंपराइओ त्ति एदेसु दससु गुणट्ठाणेसु णाणावरणंतराइयाणं पंच बंधं पंच उदयं पंचं संतं । उवसंत-खीणकसाय एदेसु दोसु गुणट्ठाणेसु पंच उदयं पंच संतं । दंसणावरणम्मि मिच्छादिठ्ठि-सासणसम्मादिछि एदेसु दोसु गुणट्ठाणेसु णव बंध, चत्तारि वा पंच वा उदयंसा, णव संता । 'मिस्सादि अणियट्टीदो' सम्मामिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव अपुव्वकरणपढम-सत्तमभागो त्ति एदेसु छसु गुणहाणेसु छ बंध, चत्तारि वा पंच वा उदयं, णव संतं । अपुवकरणविदियसत्तमभागप्पहुदि जाव सुहुमसंपराइओ त्ति एदेसु तीसु गुणट्ठाणेसु चत्तारि वा पंच वा उदयं, णव सतं । अणियदिखवगद्धाए संखेज भागं गंतूण णिहाणिहा पचलापचला-थीणगिद्धी एदासु तीसु पगडीसु खोणासु तओ पहुदि जाव सुहुमसंपराइयखवगोत्ति एदेसु दोसु गुणट्ठाणेसु छ संतं, बंधोदयपगडीओ पुव्वुत्ताअं चेव । उवरदबंधे उवसंतकसायम्मि चत्तारि वा पंच वा उदयं, णव संतं । खीणकसायम्मि चत्तारि वा पंच वा उदयं, छ संतं। तस्सेव चरमसमए चत्तारि उदयं, चत्तारि संतं । 'देदणिआउगगोदे विभज्ज मोहं परं वुच्छं'। वादालतेरसुत्तरसदं च पणुवीसयं वियाणाहि । वेदणियाउगगोदे मिच्छादि-अजोगिणं भंगा ॥५२॥ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो ६४७ मिच्छादिट्रिप हुदि जाव पमत्तसंजदो त्ति एदेसु छसु गुणठाणेसु सादं बंध सादं उदयं सादासादं संतं; सादं बंध' असादं उदयं सादासादं संतं; असादं बंध सादं उदयं सादासादं संतं; असादं बंध असादं उदयं सादासादं संतं । एदेसिं गुगट्ठाणाणं चउवीस भंगा २४ । अप्पमत्तसंजद पहुदि जाव सजोगिकेवलि त्ति एदेसु सत्तसु गुणट्ठाणेसु सादं बंधं सादं उदयं सादासादं संत; सादं बंध असादं उदयं सादासाद संतं । एदेसिं गुण ठाणाणं चउदस भंगा १४ । अजोगिकेवलिम्हि सादं उदयं सादासादं संतं असादं उदयं सादासादं संतं; तस्सेव चरमसमए सादं उदयं सादं संतं असादं उदयं असादं संतं । एदेव चत्तारि भंगा ४ । सव्वभंगा वादालीसा हुति ४२ । अ छवीसं सोलस वीसं छच्चेव दोसु तिण्णेव । दुगु दुगु दुगं च दोण्णि य एगेगं इक आउस्स ॥ ५३ ॥ 1 मिच्छादिट्ठिम्मि णिरयाउगमुदयं णिरयाउगं संतं; तिरिक्खाउगं बंधं णिरयाउगमुदयं तिरिक्ख-रियागं संतं; उवरदबंधे णिरयाउगं उदयं णिरय-तिरिक्खा उगं संतं; मणुसाउगं बंध गिरयागं उदयं णिरय- मणुसाउगं संतं; उवरदबंधे णिरयागं उदयं णिरय - मणुसाउगं संतं । एवं पंच भंगा ५ । तिरिक्खाउगं उदयं तिरियागं संतं; णिरयाउगं बंधं तिरियागं उदयं णिरयतिरिया उगं संतं; उवरदबंघे तिरियागं उदयं णिरय- तिरिया उगं संतं; तिरियागं बंधं तिरिया उगं उदयं तिरियागं संतं; उवरदबंधे तिरियागं उदयं तिरिय-तिरिक्खा उगं संतं; मणुसाउगं बंधं तिरियाउगं उदयं तिरिय मणु साउगं संतं; उवरदबंधे तिरिया उगमुदयं तिरिय- मणुसाउगं संतं; देवाउगं बंधं तिरियागं उदयं देव- तिरियागं संतं; उवरदबंधे तिरियागं उदयं देव- तिरिया उगं संतं । एवं णव भंगा | मणुसाउ उदयं मणुसाउगं संतं; णिरयाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस- णिरयाउगं संतं; वरदबंधे मणुसागं उदयं मणुस - णिरयागं संतं; तिरियाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं तिरिय-मणुसाउगं संतं; उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं तिरिय- मणुसाउगं संतं; मणुसाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस मणुसगं संतं; उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुस - मणुसाउगं संतं; देवाउगं बंध मणुसागं उदयं देव मणुसाउगं संतं; उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं देव मणुसाउगं संतं । एवं व भंगा । देवागं उदयं देवा उगं संतं; तिरिया उगं बंधं देवाउगं संतं देव- तिरिया उगं संतं; उवरदबंधे देवाउगं उदयं देव-तिरियागं संतं; मणुसाउगं बंधं देवाउगं उदयं देव मणुसाउगं संतं; उवरदबंघे देवाउगं उदयं देव-मणुसाउगं संतं । एवं पंच भंगा ५ । एवं अट्ठावीस भंगा २८ । एवं सासणसम्मादिट्ठिस्स । णवरि णिरयागं बंधं तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख-णिरयाउगं संतं; णिरया उगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस - णिरया उगं संतं, एदे दो भंगा णत्थि । सव्वे भंगा २६ । सम्मामिच्छादिट्ठिम्मि णिरयाउ उदयं णिरयाउगं संतं; णिरयाउगं उदयं णिरय- तिरिया उगं संत; गिरयाउगं उदयं निरय- मणुसाउगं संतं; तिरियाउ उदयं तिरियागं संतं; तिरिया उगं उदयं तिरिक्ख-रियागं संतं; तिरियाउगं उदयं निरियागं संतं; तिरियाउगं उदयं तिरिय- मणुसाउगं संतं; तिरिया उगं उदयं तिरिय-देवाउगं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं; मणुसाउगं उदयं मरियागं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुस तिरिया उगं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुस मणुसाउगं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुस देवाउगं संतं; देवाउगं उदयं देवाउगं संतं; देवाउगं उदयं देव - तिरियाउगं संतं; देवाउगं उदयं देव मणुसाउगं संतं । एवं सोलस गंगा १६ । असं जदसम्मादिट्ठिम्मि णिरयाउगं उदयं णिश्याउगं संतं; णिरयागं उदयं णिरय- तिरिया उगं संतं; [ मणुसाउगं बंधं ] णिरयाउगं उदयं णिरस - मणुसाठगं संतं; उवरदबंघे णिरयाउगं उदयं गिरय-मसागं संतं; तिरियागं उदयं तिरिया उगं संतं; तिरियागं उदयं तिरिय णिरयाउगं संतं; Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगहो [ तिरियागं उदयं तिरिय- तिरिया उगं संतं; ] तिरियागं उदयं तिरिय- मणुसाउगं संतं; देवाउगं बंधं तिरियागं उदयं तिरिक्ख- देवाउगं संतं; उवरदबंधे तिरिक्खाउगं उदयं तिरिक्ख- देवाउगं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुस - गिरयाउगं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुस - तिरिक्खा उगं संतं; मणुसाउगं उदयं मणुस - मणुसाउगं संत; देवाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस - देवागं संतं; उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुस देवाउगं संतं; देवाउगं उदयं देवाउगं संत; देव।उगं उदयं देव -तिरिक्खा उगं संतं; मणुसाउगं बंधं देवाउगं उदयं देव मणुसाउगं संतं । उवरदबंधे देवाउगं उदयं देव मणुसाउगं संतं । एवं वीस भंगा २० । ६४८ संजदासंजदम्मि तिरिक्खाउ उदयं तिरिक्खाउगं संतं; देवाउगं बंधं तिरिक्खा उगं उदयं तिरिक्ख - देवागं संतं; उवरदबंवे तिरियाजगं उदयं तिरिक्ख देवाउगं संतं; मणुसाउगं उदयं मसागं संतं; देवाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस देवाउगं संतं; उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुस - देवा उगं संतं । एवं छ भंगा ६ । प्रमत्त अप्पमत्त संजदेसु मणुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं; देवाउगं बंधं मणुसाउगं उदयं मणुस देवागं संतं; उवरदबंधे मणुसाउगं उदयं मणुस देवाउगं संतं । एदेसिं गुणडाणाणं छ भंगा ६ । अपुत्र्वकरणप्पहृदि जाव उवसंतकसाओ त्ति एदेसु चउसु गुणट्ठाणेसु मणुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं; एस भंगो खवगाणं पहुच । मणुसाउगं उदयं मणुस देवाउगं संतं एसो भंगो उवसामगाणं च । देसिं गुणट्ठाणाणं अट्ठ भंगा८ । खवग अपुव्व-अणियट्टिः सुहुम खीणकसाय-सजोगिअजोगिकेवलीसु मणुसाउगं उदयं मणुसाउगं संतं । एदेसिं गुणट्टाणाणं तिणि भंगा ३ । आउगरस सव्वभंगा तेरसुत्तरसदा हुंति ११३ । मिच्छादिट्ठिम्मि उच्चं बंधं उच्चं उदयं उच्च णीचं संतं; णीचं बंधं [उच्चं] उदयं उच्च णीचं संतं; णीचं बंधं णीचं उदयं णीच-णीचं संतं । एस भंगो तेउ वाउकाइएस उच्चगोदं अण्णत्थ उप्पण्णस्स वा होइ । एवं पंच भंगा ५ । उच्चं बंधं णीचं उदयं उच्च णीचं संतं; उदयं उच्च णीचं संतं णीचं बंधं णीचं उव्विल्लिऊण तेसु चेव द्विदस्स वा एवं सासणसम्मादिट्ठिम्मि । पवरि णीचं बंधं णीचं उदयं णीचं संतं इदि एस भंगो णत्थि । एवं चत्तारि भंगा ४ । सम्मामिच्छादिट्ठिम्मि अरांजदसम्मादिट्ठिम्मि संजदासंजदेसु उच्चं बंधं उच्चं उदयं उच्च-गीचं संतंः उच्चं बंधं णीचं उदयं उच्च णीचं संतं; एदेसि गुणट्ठाणाणं छ भंगा ६ । पत्तसंजद पहुदि जाव सुहुमसंपराइगो त्ति एदेसु पंचसु गुणट्ठाणेसु उच्चं बंधं उच्चं उदयं उच्च णीचं संतं । एदेसिं गुणट्ठाणाणं पंच भंगा ५ । उवसंत कसाय - खीणकसाय - सजोगिकेवलीसु उच्चं उदयं उच्च-णीचं संतं । एदेसिं गुणापाणं तिणि भंगा हुंति ३ । अजोगिकेवलिम्मि उच्चं उदयं उच्च-णीचं संतं, तस्सेव चरमसमए उच्चं उदयं उच्चं संतं; एवं दो भंगा २ । एवं गोदस्स सम्वभंगा पंचवीस २५ । गुणट्ठाण अट्ठ एगेगं बंधपगडिठाणाणि । पंच अणियट्टिट्ठाणे बंधोवरमो परं तत्तो ॥ ५४ ॥ सत्तादि दस दुमिच्छे आसायण मिस्से अ णवुक्कस्सं । छादी अवरदम्मे देसे पंचादि अट्ठव ||२५|| विरदे खओवसमिe चउरादी सत्त छ य णियविम्हि | अणियबारे पुण इकं च दुवे य उकंसा [उदयंसा] ॥ ५६ ॥ एयं सुमसरागो वेदेइ अवेदया भवे सेसा । भंगाणं च पमाणं पुव्वुद्दिट्ठरेण णायव्वं ॥ ५७ ॥ For Private Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो ६४६ मोहम्मि बंधोदयसंतकम्मपगडिट्ठाणाणि पवक्खामि 'गुणट्ठाणएसु' मिच्छादिटिप्पहुदि जाव अपुत्वकरणो त्ति एदेसु अट्ठसु गुणट्ठाणेसु वावीस एकवीस [सत्तारस ] सत्तारस तेरस णव णव णव; एदाणि अट्ठ बंधट्टाणाणि जहाकमेण णायव्वाणि । अगियट्टिगुणट्ठाणे पंच चत्तारि तिणि दो एक्क एदाणि पंच बंधट्ठाणाणि हुंति । उवरिमगुणट्ठाणेसु मोहणीयस्स बंधो पत्थि । 'सत्तादि दससु मिच्छे' मिच्छादिट्ठिम्मि सत्त अट्ठ णव दस एदाणि चत्तारि उदयट्ठाणाणि ! तं जहा-मिच्छत्तं अणंताणुबंधीणमेक्कदरं अपञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं पञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं संजलणाणमेक्कदरं तिण्हं वेदाणमेकदरं हस्सरइ-अरइसोग दुहं जुयलाणमेक्कदरं भय दुगुंछा च एदाओ पगडीओ घेत्तण दस-उदयट्ठाणं । एदस्स एक्को चउवीस भंगो २४ । एदाओ चेव पगडीओ भयविरहियाओ घेत्तण णव उदयट्ठाणं । एदस्स वि इक्को चेव चउवीस भंगो २४ । एदाओ चेव पगडीओ दुगुंछ-विरहियाओ हाससहियाओ घेत्तण वा गव-उदयट्टाणं । एदस्स विदिओ चउवीस भंगो २४ । एदाओ चेव अणंताणुबंधी वज्ज दुगुंछसहियाओ घेत्तूण वा णव-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीस भंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूण अट्ठउदयट्टाणं । एदस्स इक्को चेव च उवीस मंगो। एदाओ चेव पगडीओ दगंछविरहिय-भयसहियाओ घेत्तण वा अट्रठाणं । एदस्स विदिओ चउवीस भंगो। एदाओ चेव अणंताणुबंधिसहिय-भयरहियाओ घेत्तूण वा अट्ठ उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीस भंगो। एदाओ चेव अणंताणुबंधिरहियाओ घेत्तण सत्तउदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीस भंगो। सासणसम्मादिट्ठिम्मि सत्त अट्ठ णव एदाणि तिणि उदयट्ठाणाणि । एदाओ तं जहाअणंताणुबंधीणमेक्कदरं अपञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं पञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं संजलणाणमेक्कदरं हस्सरइ-अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेकदरं भय दुगुछा च एदाओ पगडीओ घेत्तण णव-उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीस भंगो । एदाओ पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण अट्ठ-उदयट्ठीणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो। एदाओ चेव दुगुछरहिय-भयसहियाओ घेत्तण वा अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण सत्त-उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीस भंगो। सम्मामिच्छादिट्ठिम्मि सत्त अट्ठ णव एदाणि तिणि उदयट्ठाणाणि । तं जहा–सम्मामिच्छत्तं अपञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं पञ्चक्खाणावरणाणमेकदरं संजलणाणमेक्कदरं तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्सरइ-अरइसोग दण्डं जगलाणमेक्कदरं भय दुगुछ। च। एदाओ पगडीओ घेत्तण णव उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण अट्ठउदयट्ठाणं । एदस्स इको चउवीस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ दुगुकरहिय-भयसहियाओ घेत्तण वा अट्ठ-उदयहाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण सत्त-उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो। असंजदसम्मादिट्ठिम्मि छ सत्त अट्ठ णव एदाणि चत्तारि उदयट्ठाणाणि । तं जहा-सम्मत्तं अपञ्चक्खाणावरणाणमेक्कदरं पञ्चक्खाणावरणाणमेक्कादरं संजलणाणमेक्कदरं तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्स रइ-अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगुछा च । एदाओ पगडीओ घेत्तण णवउदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूण अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ दुगुंछारहिय-भयसहियाओ घेत्तण सत्तउदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो। एदाओ चेव सम्मत्तसहिय-भयरहियाओ पगडीओ घेत्तण वा सत्तउदयट्ठाणं । एदस्स तदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहियाओ घेत्तूण छउदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो। संजदासंजदम्मि पंच छ सत्त अट्ठ एदाणि चत्तारि उदयट्ठाणाणि । तं जहा-सम्मत्तं पञ्चक्खाणावरणागमेक्कदरं संजलणकोहमाणमायालोभाणमेकदरं तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्स रइ ८२ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० पंचसंगहो अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगंछा च एदाओ पगडीओ घेत्तूण अट्ठउदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चवीस भंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण अट्ट - [सत्त] उदयद्वाणं । एदस्स पढमो चडत्रीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुर्गुछरहिय-भय-सहियाओ धेत्तूण वा सत्त उदयद्वाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव सम्भत्तर हिद दुर्गुछसहियाओ घेत्तृण वा सत्तउदयद्वाणं । एदस्स तदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूण छ- उदयद्वाणं । एदरस इक्को चउवीसभंगो । एदाओ चैव दुगुंछर हिय-भयसहियाओ घेत्तृण वा छ - उद्यट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव सम्मत्तसहिय भयरहियाओ घेत्तृण वा छ-उदयद्वाणं । एदस्स तदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव सम्मत्तरहियाओ घेत्तृण पंच-उदयठ्ठाणं । एदस्स वि इक्को चडवीसभंगो । 'विरदे खओवसमिए चउरादी' पमत्तसंजदम्मि चत्तारि-पंच छ सत्त अट्ठ एदाणि चत्तारि उदयद्वाणाणि । तं जहा - सम्मत्तं संजलणको हमाणमायालो भाणमेकदरं तिन्हं वेदाणमेक्कदरं हरस इ-अरसोग दुहं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगंछा च एदाओ पगडीओ घेत्तूण सत्त उदयद्वाणं । एदस्स इक्को चडवीस भंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूण छ- उदयद्वाणं । एदस्स वि पढमो चडवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुगुंछा-रहिय-भयसहियाओ घेत्तूण वा छउदयद्वाणं । एदस्स विदिओ चडवीसभंगो । एदाओ चेत्र पगडीओ सम्मत्तर हिय-भय दुगंछासहियाओ घेत्तूण वा छ- उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ [तदिओ] चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण पंचउदयद्वाणं । एदस्स पढमो चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ भय-दुर्गुछरहियाओ घेत्तूण वा पंच-उदयद्वाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तसहिय भयरहियाओ घेत्तूण वा पंच उदग्रद्वाणं । एदस्स तदिओ चउवीस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहियाओ घेत्तूण चत्तारि उदयद्वाणं । एदस्स वि एक्को चवीसभंगो | एवं अप्पमत्त संजदस्स वि । अपुव्वकरणम्मि चत्तारि पंच छ एदाणि तिण्णि उदयट्ठाणाणि । तं जहा - चउसंजळणाणमेकदरं तिन्हं वेदाणमेक्कदरं हस्सरइ- अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेक्कदरं भयदुगु छा च एदाओ चेव पगडीओ घेत्तूण छ- उदयद्वाणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तृण पंचउदयद्वाणं । एदस्स पढमो चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुगु छरहियाओ भयसहियाओ घेतून वा पंच- उद्यट्ठाणं । एदस्स विदिओ चडवीस भंगो । एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तृण चत्तारि उदयद्वाणं । एदरस एक्को चउवीस भंगो | दंसणमोहणीयं उवसामिऊण वा उवसमसेढिं चढइ, खविऊण खवगसेटिं चढइति अपुव्वादिसु सम्मत्तोदओ णत्थि । अट्टम इक्कं दोन्हं एदागि दोणि उदयद्वाणाणि । तं जहा - चउसंजलणाणमेक्कदरं तिन्हं वेदाणमेक्कदरं एदाओ पगडीओ घेत्तूण दोणि उदयद्वाणं । एदस्स वारस भंगा १२ । चउसंजलणाणमेक्कदरं इक्कं चेव उदयद्वाणं । एदस्स भंगा चत्तारि ४ । 'एयं सुहुमसरागो वेदेदि' सुहुमसंपरागो लोभसंजलणं इक्कं वेदेदि । एदस्स इक्को चेव भंगो | 'सेसा' वसंता दिया अवेदया हुंति । भंगपमाणं पुव्वुत्तकमेण णायव्वं । इक्क य छकेयारं एयारेयारमेव णव तिणि । दे चउवसगदा वारस [ दुग ] एग पंचम्मि ||२८|| वारस पण साई उदयवियप्पेहिं मोहिया जीवा । चुलसीदी सत्तत्तरि पदबंध देहिं विष्णेया ॥ ५६ ॥ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो 'एक्क य छक्कयारं' दसण्हं चउवीससलागा इक्का। णवण्हं चउवीस सलागा छ। अट्ठण्हं . चउवीससलागा एगारस । सत्तण्हं चउवीससलागा इक्कारस। छह चउवीस सलागा इक्कारस । पंचण्हं चउवीस सलागा णव । चउण्हं चउवीस सलागा तिणि। एदाओ सलागाओ सव्वाओ मेलवियाओ वावण्णा होति । एदाओ चउवीसेहिं गुणिया दो पगडि-एक्कपगडिभंगसहियाओ वारससदपंचसट्ठिभंगा हुंति १२६५ । 'वारस पणसट्टाई' एवं वारससदपंचसट्ठि-उदयवियप्पेण मोहियओ जीवो जीवेइ । इक्क छ इक्कारस णव तिण्णि चउदीससलागा दस-णव-अट्ठ-सत्त-छ-पंचचउसलागाहिं गुणेऊण मेलिया तिण्णि सदा वावण्णा हुति । चउवीसे हिं गुणिया वारसेहिं दोपगडिगुणिएहिं पंचएहिं पगडिगुणिएहिं सहिया चुलसीदिसदसत्तत्तरिपदबंधा हुति ८४७७ । एदाहिं च उरासीदिसत्तत्तरिपगडीहिं मोहिदा जीवा विण्णेया । जोगोवओगलेसाइएहिं गुणिया हवेज्ज कायव्वा । जे जत्थ गुणट्ठाणे हवंति ते तस्स गुणगारा ॥६॥ तेरस चेव सहस्सा वे चेव सदा हवंति णव चेव । उदयवियप्पे जाणसु जोगं पडि मोहणीयस्स ॥६॥ णउई चेव सहस्सा तेवण्णा चेव इंति बोधव्वा । पदसंखा णायव्वा जोगं पदि मोहणीयस्स ॥६२॥ 'तेरस चेव सहस्सा' वेउव्वियमिस्सकायजोगम्मि मिच्छादिहिस्स मिच्छत्तं अणंताणुबंधिअपञ्चक्खाणावरण-[पञ्चक्खाणावरण-] संजलणकोहमाणनायालोभाणमेक्कदरं तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्सरइ-अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगुंछा च एदाओ चेव पगडीओ घेत्तण दसउदयहाणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण णवउदयट्ठाणं । एदस्स पढमो चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुगु छरहिय-भयसहियाओ घेत्तूण वा णव-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवीसभंगो। सव्वे भंगा छण्णउदी ६६। दसण्हं इक्कचउवीसं, णवण्हं दोचउवीसं, अट्ठण्हं इक्कच उवीसं दस-णव-अठ्ठपगडीहिं गुणेऊण मेलिया एत्तिया हुंति पदबंधा ८६४। __ सासगसम्मादिहिस्स अणंताणुबंधि-अपचक्खाणावरण-पञ्चक्खाणावरण-संजलणकोहमाणमायालोभाणमेकदरं इत्थि-पुरिसवेदाणमेक्कदरं, जेरइएसु सासणसम्मादिट्ठी ण उप्पज्जइ त्ति ण उसयवेदो णस्थि । हस्सरइ-अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेक्कदरं 'भय दुगुंछा च एदाओ चेव पगडीओ घेत्तूण णव उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को सोलस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूण अठ्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स पढमो सोलस भंगो। एदाओ चेव दुगु छरहिय-भयसहियाओ घेत्तण वा अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ सोलस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण सत्त-उदयटठाणं । एदस्स वि इक्को सोलसभंगो। सव्वभंगा एत्तिया हंति ६४ । णवण्हं इक्क सोलस, अ हं वे सोलस, सत्तण्हं वे [इक्क] सोलस णव-अट्ठ-सत्त-पगडोहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हंति ५१२ । __ असंजदसम्मादिट्ठिम्मि अपच्चक्खाणावरण-पञ्चक्खाणावरण-संजलणकोह-माण-माया-लोभाणमेक्कदरं पुरिस-णउसगवेदाणं एक्कदरं, असंजदसम्मादिट्ठी इत्थीवेदे ण उप्पज्जइ । पुवाउगबंधो पढमपुढवीए उप्पजइ ति णqसगवेदो लब्भइ । हस्सरइ-अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगुंछा च एदाओ चेव पगडीओ घेतृण [णव-] उदयट्ठाणं, एदस्स इक्को सोलसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूग अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स पढमो सोलस भंगो। एदाओ चेव Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ पंचसंगहो पगडीओ दुगुंछरहिय-भयसहियाओ घेतण वा अट्ठ-उदयहाणं । एदस्स विदिओ सोलस-भंगो । एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहिय-दुगुछासहियाओ घेत्तूण वा अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ सोलसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण सत्त-उदयट्ठाणं । एदस्स पढमो सोलस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ दुगुकरहिय-भयसहियाओ घेत्तूण वा सत्त उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ सोलस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तसहिय-भयरहियाओ घेत्तूण वा सत्त-उदयट्ठाणं । एदस्स तिदिओ सोलस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहियाओ घेत्तूण छ-उदयट्ठाणं । एदस्स वि इक्को चेव सोलस भंगो। सव्वभंगा एत्तिया हुंति १२८ । णवण्णं इक्क सोलस, अट्ठण्हं तिण्णि सोलस, सत्तण्हं तिणि सोलस, छण्हं इक्क सोलसं णव-अट्ठ-सत्त-छपगडीहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुति ६६०। कम्मइयकायजोगिम्मि मिच्छादिट्ठिम्मि असंजदसम्मादिट्ठीणं वेउव्वियमिस्सम्मि जहा भणियं तहा भाणियव्वं । मिच्छादिट्ठि-भंगा ८६४ । असंजदसम्मादिट्ठिभंगा १२८ । पदसंख्या ६६०। __ सासणसम्मादिहिस्स अणंताणुबंधि-अपच्चक्खाणावरण- पञ्चक्खाणावरण-संजलणकोहमाणमायालोभाणमेक्कदरं तिण्हं वेदाणमेकदरं हस्सरइ-अरइसोग दुण्हं जगलाणमेक्कदरं भय दुगुछा च एदाओ पगडीओ घेत्तण णव-उदयहाणं । एदस्स इक्को चउवीस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूण अट्ठ-उदयट्ठाणं। एदस्स पढमो चउवीसभंगो। एदाओ चेव दुगु छरहिय[भय-]सहियाओ घेत्तूण वा अट्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण सत्त-उदयट्ठाणं। एदस्स इको चउवीस भंगो । एदस्स सव्वे भंगा ६६ एत्तिया हुंति । णवण्हं इक्क चउवीस अट्ठव्हं वे चउवीस, अट्ठण्हं [सत्तण्हं] एक [चउवीस], णव-अट्ठ-सत्तपगडीहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुति ७६८ ।। ओरालियमिस्सम्मि मिच्छादिठ्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणं जहा कम्मइयकायजोगम्मि भणियं तहा [भाणियव्वं] । मिच्छादिट्ठि-भंगा ६६ । पदसंखा ८६४ । सासणसम्मादिठि-भंगा ६६ । पदसंखा ७६८ । असंजदसम्मादिट्ठिस्स. सम्मत्तं अपञ्चक्खाणावरण-पञ्चक्खाणावरण-संजलणकोहमाणमायालोभाणमेकदरं पुरिसवेद हस्सरइ-अस्इसोग दुण्हं जुगलाममेक्कदरं भय दुगुका च एदाओ पगडीओ घेत्तण णव-उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को अट्ठभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तूण अठ्ठ-उदयट्ठाणं । एदस्स पढमो अट्ठभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुगुछरहिय-भयसहियोओ घेत्तण वा अट्ठ-उदयट्ठाणं ! एदस्स विदिओ अट्ठभंगो । एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहिय-दुगु छसहियाओ घेत्तण वा अट्ठ-उदयट्ठाणं ! एदस्स तदिओ अट्ठभंगो। एदाओ चेव पयडीओ भयरहियाओ दुगुछसहियाओ घेत्तृण सत्त-उदयट्ठाणं । पदस्स पढमो अट्ठभंगो। एदाओ चेव पगडीओ दुगुकरहिय-भयसहियाओ घेत्तण सत्तउदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ अट्ठभंगो । एदाओ पगडीयो सम्मत्तरहिय-भयसहियाओ घेत्तण वा सत्त-उदयट्ठाणं । एदस्स तदिओ अट्ठभंगो । एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहियाओ घेत्तर्ण छ-उदयट्टाणं । एदस्स वि इक्को अठ्ठभंगो। सव्वभंगा एत्तिया हुति ६४ । णवण्हं इक्क अट्ठ, अट्ठण्हं तिण्णि अट्ठ, सत्तण्हं तिण्णि अट्ठ, छण्डं इक्क अट्ठ । णव - अट्ठ-सत्त - छपगडीहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुति ४८०। वेउव्वियकायजोगिम्मि मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिठ्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-भसंजदसम्मादिट्ठीणं जहा गुणट्ठाणाणि रुंभेऊणं भणियं तहा भाणियव्वं । मिच्छादिट्ठि-भंगा १६२ । पदसंखा १६३२ । सासणसम्मादिठ्ठि-भंगा ६६ । पदसंखा ७६८ । सम्मामिच्छादिट्ठि-भंगा ६६ । पदबंधा ७६८ । असंजदसम्मादिटिंट-भंगा १६२ । पदबंधा १४४० । Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो ६५३ आहारकायजोगिम्मि पमत्तसंजदस्स सम्मत्तं संजलणकोहमाणमायालोभाणमेक्कदरं तिण्हं वेदाणमेक्कदरं हस्सरइ-अरइसोग दुण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगुछा च एदाओ पगडीओ घेत्तण सत्त-उदयट्ठाणं । एदरस इको चउवीसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण छउदयट्ठाणं । एदस्स पढमो चउवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुगु छरहिय-भयसहियाओ घेत्तूण वा छ-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहिय-दुगुछसहियाओ घेत्तूण वा छ-उदयट्ठाणं । एदस्स तदिओ चउवीस भंगो। एदाओ चेव पगडीओ भयरहियाओ घेत्तण पंच-उदयद्राणं । एदस्त वि पढमो चउवीसभंगो। एदाओ चेव पर दुगुछरहिय-भयसहियाओ घेत्तूण वा पंच-उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीसभंगो। एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तसहिय-भयरहियाओ घेत्तण वा पंच उदयट्ठाणं। एदस्स तदिओ चवीसभंगो । एदाओ चेव पगडीओ सम्मत्तरहियाओ घेत्तूण वा चत्तारि उदयट्ठाणं। एदस्स वि इक्को चेव चउवीसभंगो। सव्वभंगा एत्तिया हुँति १६२ । सत्तण्हं इक्को चउवीसभंगो, छण्हं तिण्णि चउवीसभंगो, पंचण्हं तिण्णि चउवीसभंगो, चउण्हं इक्क चउवीसभंगो, सत्त-छ-पंच-चउपगडीहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुंति १०५६ । एवं आहारमिस्सम्मि । पमत्तसंजदभंगा १६२ । पदबंधा १०५६ । एवं वेउव्वियमिस्सकम्मइय-ओरालियमिस्स-वेउव्वियाहाराहारमिस्सकायजोगस्स सव्वभंगा इत्तिया हुंति १८२४ । पदबंधा एत्तिया हुंति १३७६० मिच्छादिटिप्पहुदि जाव सुहुमसंपराइओ त्ति एदेसु दससु गुणट्ठाणेसु चत्तारि मणजोगचत्तारि वचिजोग-ओरालिय-कायजोगा हंति । एदेसिं इककजोगम्मि पव्वत्तगणटठाणेस दसस भणिय-उदयवियप्पा वारससदा पण्णट्ठा हुँति १२६५ । ते सच्चमणजोगादि-णवजोगेहिं गुणिया एत्तिया हुँति ११३८५ । एदे उदयवियप्पा वेउव्वियमिरसादिसु छसु जोगेसु भणिद-अट्ठारस-सदचउवीस-छउदयवियप्पेहिं मेलविया सव्वबंधवियप्पा एत्तिया हुंति १३२०६ । एवं 'तेरस चेव सहस्सा वे चेव सदा हवंति णव चेव'। पुव्वुत्तगुणट्ठाणेसु भणिद-पदबंधा चउरासीदिसदसत्तत्तरी ८४७७ णवजोगेहिं गुणिया एत्तिया हुंति ७६२६३ । एदे पदबंधा वेउव्वियमिस्सकायजोगादिसु भणिय-तेरससहस्स-सत्तसदसद्वि-पदबंधेहिं सहिया सव्वपदबंधा एत्तिया हुंति ६००५३ । ‘णउदी चेव सहस्सा तेवण्णा चेव हुँति बोधव्वा ।' सत्तत्तरि चेव सदा णवणउदा चेव हुंति बोधव्वा । उदयवियप्पे जाणसु उवओगा मोहणीयस्स ॥६३॥ इक्कावण्णसहस्सा तेसीदा चव हुंति बोधव्वा । पदसंखा णायव्या उवओगे मोहणीयस्स ॥६४॥ 'सत्तत्तरि चेव सदा' मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादि ठीसु मदि-अण्णाणं सुद-अण्णाणं विभंगाणाणं चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं एदे पंच उवओगा हुंति । एदे से [ सिं] इक्केक्कम्मि उवओगम्मि तेसु गुणट्ठाणेसु पुत्वभणिद-उदयवियप्पा दुसदा अदृठासीदा लब्भंति २८८ । ते पंचउवओगेहिं गुणिया एत्तिया हुँति १४४० । तेसु गुणट्ठाणेसु अपणो उदयवियप्पा अप्पप्पणो पगडीहिं पुध पुध गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुंति २४०० । ते पंच-उवओगेहिं गुणिया पदबंधा हुंति १२०००। सम्मामिच्छादिठ्ठि-असंजदसम्मादिठि-संजदासंजदेसु तिसु गुणठाणेसु आभिणिबोधियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं चक्खुदसणं अचक्खुदसणं ओधिदसणं एदे छ उवओगा हुंति । एदेसिं इक्के कम्मि उवओगम्मि तेसु तीसु गुणट्ठाणेसु पुव्वभणिद-उदयवियप्पा चत्तारि सदा असीदी Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ पंचसंगहो लभंति ४८० । एदे छ-उवओगेहिं गुणिया एत्तिया हुंति २८८० । तेसु गुणट्टाणेसु अप्पप्पणो भणिय-उदयवियप्पा पुध पुध अप्पप्पणो पगडीहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुंति ३४५६ । ते छ-उवओगेहिं गुगिया पदबंधा एत्तिया हुंति २०७३६ । पमत्तसंजद-अपमत्तसंजद-अपुव्व-अणियट्टि-सुहुमसंपराइय एदेसु पंचसु गुणट्ठाणेसु आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मगपञ्जवणाणं चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं ओहिदसणं एदे सत्त उवओगा हुंति । एदेसिं उवओगम्मि तेसु पंचसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुठवभणिदवियप्पा मेलिया चारि सदा सत्तागउदी लब्भंति ४६७ । एदे सत्त-उवओगेहिं गुणिया इत्तिया हुंति ३४७६ । एदेसु पंचसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुत्वभणिद-उदयवियप्पा अप्पप्पणो पगडीहिं गुणिऊण मेलविया २६२१ हुँति । एदे सत्त उवओगेहिं गुणिया पदबंधा एत्तिया हुंति १८३४७ । सव्व-उदयवियप्पा मेलिया इत्तिया हुँति ७७६६ | एवं 'सत्तत्तरि चेव सदा णवणउदा चेव उदया हवंति बोधव्वा ।' सव्वपदबंधा मेलिया एत्तिया हुंति ५१०८३ । 'एक्कावण्णसहस्सा तेसीदा चेव हुंति बोधव्वा ।' वावणं चेव सदा सत्ताणउदा हवंति बोधव्वा । उदयवियप्पे जाणसु लेसं पदि मोहणीयस्स ॥६५॥ अट्टत्तीससहस्सा वे चेव सदा हवंति सगतीसा । पदसंखा णादव्वा लेसं पदि मोहणीयस्स ॥६६।। 'यावणं चेव सदा' मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव असंजदसम्मादिहिस्स[त्ति]एदेसु चउसु गुणट्ठाणेसु किण्ह णील काउ तेउ पम्म सुक्क छ लेसा हुंति । एदेसिं इक्का वा लेस्साए चउसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुव्वभणिद-उदयवियप्पा मेलिया पंचसदा छावत्तरी लम्भंति ५७६ । एदे छलेसाहिं गुणिया एत्तिया हुँति ३४५६ । तेसु चउसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुत्वमणिदवियप्पा अपप्पणो पगडीहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुँति ४६०८ । एदे छ-लेसाहिं गुणिया पदबंधा एत्तिया हुंति २७६४८ । ___संजदासंजद पमत्तसंजद अपमत्तसंजद एदेसु तिसु गुणट्ठाणेसु तेउ-पम्म-सुक्कलेसा तिण्णि हुंति । एदेसिं इक्केका य लेस्सा एत्तिएसु तिसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुत्वभणिद-उदयवियप्पा मेलिया पंचसदा छावत्तरी लब्भंति ५७६। एदे ती हिं लेस्साहिं गुणिया उदयवियप्पा एत्तिया हुंति १७२८ । तेसु तिसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुव्वभणिद-उदयविपप्पा अपप्पणो पगडीहिं गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया हुंति ३३६० । एदे तीहिं लेसाहिं गुणिया पदबंधा एत्तिया हुंति १००८० । अपुवकरणप्पहुदि जाव सुहुमसंपराइगो त्ति एदेसु तीसु गुणट्ठाणेसु सुक्कलेसा इक्का चेव । तेसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुव्वभणिद-उदयवियप्या मेलिया एत्तिया हुंति [११३] । इक्काए लेसाए गुणिया वि तत्तिया चेव । तेसिं पमाणं तेरसुत्तरसदा ११३ । तेसु तीसु गुणट्ठाणेसु अप्पप्पणो पुव्वभणिद-उदयवियप्पा अप्पप्पणो पगडीहिं पुध पुध गुणेऊण मेलिया पदबंधा एत्तिया [५०६] हुंति । एक्काए सुक्कलेसाए गुणिया तत्तिया चेव । तेसिं पमाणं णवुत्तरपंचसदा ५०६ । सव्व-उदयवियप्पा मेलिया एत्तिया हुँति ५२६७ । एवं 'वावण्णं चेव सदा सगणउदा चेव हुँति बोधव्वा'। सव्वपदबंधा मेलिया एत्तिया हुंति ३८२३७ । एवं 'अठ्ठत्तीस सहस्सा वे चेव सदा हवंति सगतीसा'। 'जोगोवजोगं' जम्मि गुणट्ठाणे [जे ] जोगादिया हुंति, ते तम्मि गुणगारा हुंति त्ति । जोगोवओगलेसा-संजमादी हिं गुणिया उदयवियप्पा पदसंखा य हुंति त्ति जाणियव्वा । तिण्णेगे एगेगं दो मिस्से पंच चउ णिअट्टिम्मि तिण्णि । दस बादरम्मि सुहुमे चत्तारि य तिण्णि उवसंते ॥६७॥ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो ६५५ 'तिण्णेगे एगेगं' मिच्छादिहिम्हि अट्ठावीस सत्तावीस छव्वीस एदाणि तिण्णि संतवाणाणि । सासणसम्मादिट्ठिम्मि अट्ठावीससंतट्टाणमेकं । सम्मामिच्छादिट्ठिम्मि अट्ठावीस सत्तावीस एदाणि दोणि संतट्ठाणाणि । असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद एदेसु चउसु गुणट्ठाणेसु अट्ठावीस चउवीस तेवीस वावीस इक्कवीस एदाणि पंच संतठ्ठाणाणि । अपुव्वकरणम्मि अट्ठावीस चउवीस इकवीस एदाणि तिण्णि संतठ्ठाणणि हुँति उवसमगम्हि । खवगम्हि इगिवीस बादर-अणियट्टिम्मि अट्ठावीस चउवीस इक्कवीस एदाणि तिणि संतठ्ठाणाणि हुंति उवसामगे। खवगे पुण इक्कवीस तेरस वारस इक्कारस पंच चत्तारि तिणि दोण्णि एदाणि अढ संतढाणाणि हुंति | अणियट्टिसुहुमम्मि अट्ठावीस चउवीस इक्कवीस एदाणि तिणि संतठ्ठाणाणि हुंति उवसामगे। खवगे पुण एर्ग लोभसंजलणसंतं । उवसंतकसायम्मि अट्ठावीस चउवीस इक्कवीस एदाणि तिण्णि संतवाणाणि हुंति । छण्णव छ त्तिय सत्त य एग दुग तिग दु तिगट्ठ चहुँ । दुग दुग चदु दुग पण चदु चउरेग चदु पणगेग चहूँ ॥६॥ एगेगमट्ट एगेगमट्ठ छदुमत्थ-केवलिजिणाणं । एगं चदु एग चदु दो चदु दो छक्क उदयकम्मंसा ॥६६॥ इदाणिं णामस्स वुच्छामि-मिच्छादिट्टिम्मि तेवीस पणुवीस छन्वीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस एदाणि छ बंधट्ठाणाणि, इक्वीस चउवीस पणुवीस छव्वीस सत्तावीस अट्ठावीस एगणतीस तीस इक्कतीस एदाणि णव उदयट्ठाणाणि, वाण उदि इक्काग उदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि छ संतवाणाणि । सासणसम्मादिट्ठिम्मि अट्ठावीस एगूणतीस तीस एदाणि तिण्णि बंधढाणाणि, इक्वीस चउवीस पणुवीस छव्वीस एगूणतीस [तीस] इकत्तीस एदाणि सत्त उदयट्ठाणागि, णउदि इक्कं संतट्ठाणं । सम्मामिच्छादिट्ठिम्मि अट्ठावीस एगूणतीस एदाणि दोण्णि बंधढाणाणि, एगूणतीस तीस इकत्तीस एदाणि तिण्णि उदयट्ठाणाणि, वाणउदि ण उदि एदाणि दोण्णि संतढाणाणि । असंजदसम्मादिट्ठिम्मि अट्ठावीस एगूणतीस तीस एदाणि तिणि बंधट्ठाणाणि, इक्कवीस पणुवीस छव्वीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस एगतीस एदाणि अट्ठ उदयटुाणाणि, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि एदाणि चत्तारि संतटाणाणि । संजदासंजदम्मि अट्ठावीस एगूगतीस एदाणि दोण्णि बंधट्ठाणाणि, तीस इक्कतीस एदापि दुण्णि उदयट्ठाणाणि, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि गउदि एदाणि चत्तारि संताणाणि । पमत्तसंजदम्मि अट्ठावीस एगूणतीस एदाणि दोण्णि बंधट्ठाणाणि, पणवीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस एदाणि पंच उदयद्राणाणि, तेण उदि वाणउदि इक्काणउदि ण उदि एदाणि चत्तारि संतहाणाणि । अप्पमत्तसंजदम्मि अठ्ठावीस एगूणतीस तीस एगतीस एदाणि चत्तारि बंधट्ठाणाणि, तोस इक-उदयहाणं, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि एदाणि चत्तारि संताणाणि । ___ अप्पुवकरणम्मि अट्ठावोस एगूणतीस तीस इक्कत्तीस इक्कं एदाणि पंच बंधाणाणि, तीसं इक्कं उदयट्ठाणं, तेणउदि वाण उदि इक्काणउदि णउदि एदाणि चत्तारि संताणाणि । अणियट्टिम्मि जसकित्ती इक्क च बंधळाणं, तीसं इक्कं उदयट्ठाणं, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि असीदि एगूगासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि एदाणि अट्ठ संताणाणि । सुहुमम्मि जसकित्ती इक्कच बंधट्ठाणं, तीसं इक्क उदयट्ठाणं, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि ण उदि असीदि एगृणासीदि अदृत्तरि सत्तत्तरि एदाणि अट्ठ संतट्ठाणाणि । उवसंतकसायम्मि तीसं इकं उदयट्ठाणं, तेणउदि वाणउदि णउदि एदाणि चत्तारि संतागाणि । खीणकसायम्मि तीसं इक्क उदयट्ठाणं, असोदि एगणा Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ पंचसंगहो सीदि अठ्ठत्तरि सत्तत्तरि एदाणि चत्तारि संतठ्ठाणाणि । सजोगिकेवलिम्मि तीसं इक्कत्तीसं एदाणि दोण्णि उदयटठाणाणि, असीदि एगणासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि एदाणि चत्तारि संताणाणि । अजोगिकेवलिम्मि णव अट्ठ एदाणि दुण्णि उदयट्ठाणाणि, असीदि एगूणासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस णव एदाणि छ संतठाणाणि । दो छक्कट्ठ चउक्क मिरयादिसु बंधपगडिठाणाणि । पण णव दसयं पणय त्ति पंच वार चउक्कतु ॥७॥ 'दो छक्कठ्ठ चउक्कं' णेरइयम्मि एगूणतीसं तीसं एदाणि दोण्णि बंधट्ठाणाणि, इक्कवीस पणुवीस सत्तावीस अट्ठावीस एगणतीस एदाणि पंच उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतढाणाणि । [तिरिक्खगइम्मि तेवीस पंचवीस छव्वीस अट्ठावीस ऊणत्तीस तीस एदाणि छ बंधट्ठाणाणि, इगिवीस चदुवीस पणुवीस छब्बीस सत्तावीस अट्ठावीस ऊणतीस तीस एक्कत्तीस एदाणि णव उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासोदि एदाणि चत्तारि संतट्ठाणाणि । ] मणुसम्मि तेवीस पंचवीस छठवीस अट्ठावीस एगणतीस तीस इकतीसं इक एदाणि अट्र बंधट्राणाणि, एकवीस पंचवीस छठवीस सत्तावीस अट्ठावीस एगणतीस तीस इकत्तीसणव अटठ एदाणि दस उदयद्राणाणि,तेणउदिवाणउदि एक्काणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि असीदि एगूणासीदि अट्टतरि सत्तत्तरि दस णव एदाणि वारस संतवाणाणि । देवगइम्मि पंचवीस छव्वीस एगूणतीस तीस एदाणि चत्तारि बंधट्ठाणाणि, इक्वीस पंचवीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस एदाणि पंच उदयट्ठाणाणि, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि एदाणि चत्तारि संतट्ठाणाणि । इगि विगलिंदिय सयले पण पंचय अह बंधठाणाणि । पण छक दसयमुदयं पण पण तेरे दु संतम्मि ॥७१।। इगि विगलिंदियजादिआदि सयलिंदियम्मि तेवीस पणुवोस छव्वीस एगूणतीस तीस एदाणि पंच बंधट्ठाणाणि, इक्कवीस च उवीस पणुवीस छव्वीस सत्तावीस एदाणि पंच उदयहाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतट्ठाणाणि । विगलिंदियम्मि तेवीस पंचवीस छन्वीस एगूणतीस तीस एदाणि छ उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतढाणाणि । पंचिंदियम्मि तेवीस पणुवीस छठवीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस इक्कत्तीस इक्क एदाणि अट्ठ बंधट्टाणाणि, इक्कवीस पणुवीस छव्वीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस इक्कत्तीस णव अट्ठ एदाणि दस उदयट्ठाणाणि, तेणउदि वाणउदि इक्काणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि असीदि एगूणासीदि अट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस णव एदाणि तेरस संतट्ठाणाणि । तिय दुण्णि इकिकाआ पण पंच य अट्ट हुति बंधाओ। पण चदु दस उदयगदा पण पण तेरे दु संतो ऊ ॥७२॥ 'तिय काया' पढवीकाइय-आउकाइय-वणप्फदिकाइएसु तेवीस पणवीस छव्वीस एगणतीस तीस एदाणि पंच बंधट्ठाणाणि, इगिवीस चउवीस पणुवीस छव्वीस सत्तावीस एदाणि पंच उदयट्ठाणाणि, वाणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतढाणाणि । 'दुण्णि य काया' तेउ-वाउकाइएसु तेवीस पणुवीस छव्वीस एगूणतीस तीस एदाणि पंच बंधट्ठाणाणि, इगिवीस चउवीस पणुवीस छव्वी एदाणि चत्तारि उदयट्ठाणाणि, वाणउदि उदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच संतढाणाणि । 'इक्किक्काया' तसकाइएसु तेवीस पणुवीस छव्वीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस इक्कत्तीस इक्क एदाणि अट्ठ बंधट्ठाणाणि, इगिवीस पणुवीस छव्वीस सत्तावीस अट्ठावीस एगूणतीस तीस इक्कतीस णव अट्ठ एदाणि दस उदयट्ठाणाणि, Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो तेणउदि वाणउदि इक्कणउदि णउदि अट्ठासीदि चउरासीदि वासीदि असीदि एगूणासीदि अत्तरि सत्तत्तरि दस णव एदाणि तेरस संतढाणाणि । इय कम्मपगडिट्ठाणाणि सुठ्ठ बंधुदयसंतकम्माणि । गइआइएसु अट्ठसु चउप्पयारेण णेयाणि ॥७३॥ इय एवं बंधुदयसंतकम्मपगडिहाणाणि [सुठु] सम्मं णाऊण गइआइएसु णिरयगइ एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय चदुरिंदिय पंचिंदिय तिरिक्खगइ मणुसगइ देवगइ एदासु अट्ठमग्गणासु बंध-उदय-उदीरणा-संतसरूवचउठिवहेण जाणिज्जासु।। उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विजइ विसेसो। मोत्तण य इगिदालं सेसाणं सव्वपगडीणं ।।७४॥ 'उदयस्स उदीरणस्स य' पंचणाणावरण-चउदसणावरण-पंचअंतराइयाण मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव खीणकसाय-अद्धाए समयाधियआवलियसेस त्ति उदीरणा । उदओ पुण तस्सेव चरमसमओ त्ति । णिदापचलाणं मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव खोणकसायसमयाधियावलिसेस त्ति उदीरणा । उदओ पुण तस्सेव दुचरमसमओ ति। णिद्दाणिद्दा-पचला-पचला-थीणगिट्टीणं मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव पमत्तसंजदो त्ति आहारसरीरं आवलियमेत्तकालेण उट्ठावेदि त्ति ताव उदीरणा । उदओ पुण तस्सेव चरमसमयो त्ति । सादासादं मिच्छादिप्पिहुदि जाव पमत्तसंज उदीरणा । उदओ पुण अजोगिचरमसमओ त्ति ! मिच्छत्तस्स उदीरणा मिच्छादिचिरमसमयो त्ति सम्मत्ताभिमुहमिच्छादिठि-अणियट्रिकरणद्धाए समयाधिय-आवलियसेस त्ति उदीरणा । उदओ पुण तस्सेव चरमसमओ त्ति । लोभसंजलणस्स मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव सुहुमसंपराइगद्धाए समयाधियआवलियसेस त्ति ताव उदीरणा । उदओ पुण तस्सेव चरमसमओ त्ति । इत्थिणqसग-पुरिसवेदाण मिच्छादिप्पिहुदि जाव अणियट्टिअद्धाए संखेजभागे गंतूण अप्पप्पणो बेदगद्धाए समयाधियआवलियसेस त्ति तोव उदीरणा । उदओ पुण तस्सेव अप्पप्पणो वेदगद्धाए चरमसमओ त्ति । सम्मत्तस्स असंजदसम्मादिट्ठिप्पहुदि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव उदीरणा। णवरि अप्पप्पणो दसणखवण-अणियट्टिकरणद्धाइ समयाहिय आवलियसेस त्ति ताव उदीरणा । उदो पुण अप्पप्पणो चरमसमओ त्ति । णिरय-देवाउगाणं मिच्छादिप्हुिदि जाव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति ताव उदीरणा। णवरि मरणावलियं मुत्तण । सस्मामिच्छादिट्ठी मरणावलियवसो णत्थि । उदओ पुण अप्पप्पणो चरमसमओ त्ति । तिरिक्खाउगस्स मिच्छादिहिप्पहुदि जाव संजदासंजदो त्ति ताव उदीरणा । णवरि पप्पणो मरणावलियं मुत्तण । सम्मामिच्छादिट्टी मरणावलियबसो णस्थि । उदओ पुण अपप्पणो चरमसमओ त्ति । मणुसाउगस्स मिच्छादिट्ठिप्पहुदि जाव पमत्तसंजदो त्ति ताव उदीरणा । णवरि अप्पप्पणो मरणावलिं मत्तूण । सम्मामिच्छादिदिम्मि मरणावलिववदेसो गस्थि । उदओ पुण अजोगिचरमसमओ त्ति । मणुसगइ-पंचिंदियजाइ-तस-बादर-पज्जत्त-सुभग-आदेज-जसकित्तीणं मिच्छादिटिप्पहुदि जाव सजोगिकेवली ताव उदीरणा । उदओ पुण अजोगिवरमसमओ त्ति। तित्थयरस्स सजोगिकेवालोम्म उदीरणा । उदओ पुण अजोगि त्ति । उच्चागोदस्स जहा मणसगदि तहा णेयवा। आदाव-सुहम-अपज्जत्त-साहारणाणं उदय-उदीरणा मिच्छादिहिम्मि । अणंताणुबंधि-एइंदिय-वेइंदिय-तेइंदिय-वदुरिंदिय-थावराणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणं उदयो उदीरणा च । अपच्चक्खाणावरणचउक-णिरयगइ-देवगइवेउव्विय-वे उव्वियसरीरंगोवंग-दुभग-अगादिज-अजसकित्ति-णिमिणा-[णामाणं] मिच्छादिट्टिप्पहुदि जाव असंजइसम्मादिहि त्ति उदयो उदीरणा च । णिरयगइ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-देवगइपाओग्गाणुपुठवीणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु उदओ उदीरणा च । णवरि सासणे णिरयगइपाओग्गाणुपुत्वी णत्थि। पञ्चक्खाणावरणचउक्क-तिरिक्खगइ-उज्जोव Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ पंचसंगहो तिरिक्खाउग-णीचगोदाणं मिच्छादिहिप्पहुदि जाव संजदासंजदो त्ति उदओ उदीरणा च । आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगाणं पमत्तसंजदस्स आहारसरीरअं तु उट्ठाविदस्स उदयो उदीरणा च । अद्धणाराय-खीलिय-असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणाणं मिच्छादिट्ठिप्पहुदि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति उदयो उदीरणा च । हस्स-रह-अरइ-सोग-भय-दगंछाणं मिच्छादिदिठप्पहदि जाव अपव्वकरणो त्ति उदयो उदीरणा च । कोह-माण-मायासंजलणाणं मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव अणियट्टि-अद्धासंखेज्जभागो त्ति उदयो उदीरणा च। वज्जणाराय-णारायसरीरसंघडणाणं मिच्छादिटिप्पहदि जाव उवसंतकसाओ त्ति ताव उदयो उदीरणा च । ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-छसंठाण-ओरालियसरीरंगोवंग-वज्जरिसभणारायवइरसरीरसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवघादपरघाद-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-पत्तेगसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुस्सर - दुस्सर-णिमिणणामाणं मिच्छादिठ्ठिप्पहुदि जाव संजोगिकेवली उदयो उदीरणा च ।। णाणंतरायदसयं दसण णव वेदणीय मिच्छत्तं । सम्मत्त-लोभ-वेदाउगाणि णव णाम उच्चं च ॥७॥ एदाओ इगिदालपगडीओ पुत्वं वुत्ताओ। तित्थयराहारविरहियाओ अज्जेइ सव्वपगडीओ। मिच्छत्तवेदओ सासणो य उगुवीससेसाओ ।।७६॥ छादालसेसमिस्सो अविरदसम्मो तिदालपरिसेसा । तेवण्ण देसविरदो [विरदो] सगवण्ण सेसाओ ॥७७।। उक्कुट्टि-[उगुसहि-] मप्पमत्तो बंधइ देवाउगं च इयरो वि । अट्ठावण्णमपुव्वो छप्पणं चावि छव्वीसं ॥७८॥ वावीसा एगणं बंधइ अट्ठारसं तु अणियट्टी। सत्तरस सुहुमसरागे सादममोहो सजोगी दु॥७६।। एसो दु बंधसामित्तो गइयाइएसु य णायव्वो। ओघादो सासाविजो [साहिज्जो] जत्थ जहा पयडिसंभवो होइ ॥८॥ 'तित्थयराहारविरहियाओ' तित्थयराहारसरीर-आहारसरीररंगोवंग एदाओ तिण्णि पगडिविरहियाओ वीसुत्तरसद-पगडीओ मिच्छादिट्ठी बंधइ ११७। सदगम्हि य भणिद-सोलस मिच्छत्तंता तित्थयराहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगसहिय - एगूणवीस - पगडिरहिय - वीसुत्तरसदपगडीओ सासणसम्मादिट्ठी बंधइ १०१। सदगम्हि य भणिद-सोलसमिच्छत्तंता, सासणंता पणुवीसं तित्थयर-आहारदुर्ग मेलिय मणुस-देवाउगमेलिया छादालपगडि-विरहिय-वीसुत्तरसपगडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी बंधइ ७४ । तित्थयरमणुस-देवाउग-विरहिय-पुत्वभणिद-छादाल पगडिविरहिया वीसुत्तरसदपगडीओ सम्मामिच्छादिट्ठी [ असंजदसम्मादिट्ठी] बंधइ ७७ । सोलस मिच्छत्तंता, पणुवीस सासणंता, असंजदसम्मादिदि-अंता दस, आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगमेलिया तेवण्ण-पगडिविरहिया वीसुत्तरसदपगडीओ संजदासंजदो बंधइ ६७ । सदगम्हि भणिद सोलस मिच्छत्तंता, पणुवीस सासणंता, दसय. असंजदसम्मादिट्ठि-अंता, चत्तारि देसविरदंता आहारदुगमेलिया सत्तवण्णपगडिरहियाओ 'वीसुत्तरसदपगडीओ पमत्तसंजदो बंधइ ६३ । 'उगुसट्ठिमप्पमत्तो बंधई' अप्पमत्तसंजदो पंचणाणावरणीय छ दसणावरणीयं सादावेदणीयं चत्तारि संजलणं पुरिसवेद हस्स रइ भय दुगु छ देवाउगं देवगइ पंचिंदियजाइ. Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतरि-संगहो ६५६ व्याहार - तेजा - कम्मइयसरीर-समचउर संठाण वेउग्विय आहारंगोवंग वण्णचत्तारि देवगइपाओग्गाणुपुवी अगुरुगलहुगादि चत्तारि पसत्थविहायगर तस बादर पज्जत्त पत्तेगसरीर थिर सुभ सुभग सुरसर आदिज्ज जसकित्ती णिमिण तित्थयर उच्चगोद पंच अंतराइय एदाओ ऊणसट्ठिपगडीओ अप्पमत्तसंजदो बंधई । सेसाओ इक्कसट्ठिपगडीओ ण बंधइ । अप्पमत्तो से ससंखेज्जदिभागे अट्ठावणं बंध, वासट्ठी ण बंधइ । कहं ? अंतोमुहुत्तं संखेज्जखंडाणि काऊण दसमे [संखेज्जदिमे] खंडे देवाउगं ण बंधइ, तेण अट्ठावण्णपगडीओ बंधइ; वासट्ठी ण बंधइ | 'अट्ठावण्णमपुव्वो छप्पण्णं चावि छव्वीसं' अट्ठावण्ण जाणि चेव अपमत्तोदएण खएण बंधइ, ताणि चैव अपुव्वकरणे सेससंखेज्जदिमे भागे गंतूण छप्पण्णं बंधइ, चउसट्ठी ण बंधइ । किं कारणं ? णिद्दा-पचलाओ संखेज्जदि मे भागे वोच्छिण्णाओ । सो चेव अपुव्त्रकरणे पुणरवि सेससंखेज्जदिमे भागे गंतूण पंचणाणावरण चउदसणावरण सादावेदणीयं चत्तारि संजलण पुरिसवेद हस्स रइ भय दुर्गांछा जसकित्ती उच्चागोदं पंचअंतराइय एढ़ाओ छव्वीस पगडीओ बंधइ, चरणउदिपगडीओ ण बंधइ । सो चेव अपुव्वकरणो चरमसमए वावीसपगडीओ बंधइ, अट्ठाणउदि पगडीओ ण बंधइ । कहं ? हस्स रइ भय दुर्गाला च चरमसमए वुच्छिण्णाओ । 'वावीसादो गूणं बंधइ अट्ठारसं अणियट्टी । सत्तरस सुहुमसंपराइय सादममोहो सजोगि त्ति' अणियट्टिस्स अंतोमुहुत्तसंखेज्जभागे गंतूण इक्कवीस पगडीओ बंधइ, एगूणसदं ण बंधइ, पुरिसवेदस्स बंधो बुच्छिण्णो । सो चेव अणिट्टी सेससंखेज्जदिमे भागे गंतूण वीसपगडी बंधइ, एगपगडिसदं ण बंधइ; कोहसंजलणो य वुच्छिष्णो । सो चेव अणियट्टी पुणे सेससंखेज्जदिमे भागे गंतूण वीसपगडीओ बंधइ, एगुत्तरपगडिसदं ण बंधइ; माणसंजलणा य बंधवुच्छिण्णा । सो चेव अणियट्टी रवि सेससंखेज्जदिमे भागे गंतूण अट्ठारस पगडीओ बंधइ, वेउत्तरपगडिसदं ण बंधइ, मायसंजलणो य बंधवुच्छिण्णो । सुहुमसंपराइओ पंचणाणावरण चत्तारि दंसणावरण सादावेदणीय जसकित्ती उच्चगोद पंच अंतराइय त्ति एदाओ सत्तरस पगडीओ सुहुमसंपराओ बंधइ, ति उत्तरपगडिसदं ण बंधइ, लोभसंजलणस्स बंधो वुच्छिण्णो । उवसंतकसाथ खीणकसाय सजोगिकेवलित्ति एक्कपगडी सादं बंधं, एगूणवीसुत्तरपगडिसदं ण बंधइ । अजोगिस्स बंधवच्छिण्णो । 'एसो दु बंधसामित्तो गदिआदिएसु वि तहेव ओघादो साहिज्जो जस्ल जहा पयडिसंभवो होदि । एसोघो गुणठाणे भणिदव्वो । तित्थयर देव-रियागं च तीसु वि गईसु बोधव्वा । अवसेसा पगडीओ हवंति सव्वासु वि गईसु ॥ ८१ ॥ एदाणि बंधसामित्तादो साधिदूण गदि आदि काढूण जाव अणाहारए ति णादव्वं । तित्थरगडिसतेण तीसु वि गदीसु अस्थि । णिरयगइ मणुसगइ देवगइ एदासु तीसु गदीसु तित्थयरअस्थि ति [वि] गदीसु देवाउसंतेण अस्थि । देव -[ णिरय ] - गइ तिरिक्खगइ मणुसगइ एदासु तिसु गदीसु णिरयागं-[सं-] तेण अस्थि ति विष्णेयं । सेसाओ पगडीओ चउसु वि गईसु अस्थि । सेसाओ ओघदिसेण गदिआदि कादूण णेयव्वं जाव अणाहारए ति । पढमकसायचदुक्कं दंसणतिग सत्तआ दु उवसंता । अविरदसम्मत्तादी जाव णियट्टि त्ति बोधव्वा ॥८२॥ सत्त व य पण्णरस सोलस अट्ठारस वीस वावीसा | चवीसं पणुवीसं छव्वीसं बादरे जाण || ८३ || Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० पंचसंगहो सत्तावीसं सुहुमे अट्ठावीसं तु मोहपगडीओ। उवसंतवीयरागे उवसंता हुति णायव्या ॥४॥ मोहणीयस्स गुणट्ठाणएहिं काओ पगडीओ उवसंताओ ? सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं अणंताणुबंधिचदुकं एदाओ सत्त पगडीओ पंचसु ठाणएसु उवसंताओ असंजदसम्मादि टिप्पहुदि जाव अपुव्वकरणो त्ति । अणियट्टिबादरस्स सत्तट्ठ णव य पण्णरस सोलस अट्ठारस वीस वावीस चउवीस पणुवीस छव्वीस एदे इक्कारस भंगा अंतोमुहुत्तस्स संखेजदिमभागे गंतूण । सम्मत्तं मिच्छंत्तं सम्मामिच्छत्तं अणंताणुबंधिचदुकं एदाओ सत्त पगडीओ पुत्वोवसंताओ। संखेजदिमे भागे गंतूण णवंसकवेदो उवसंतो। सत्तपगडीसु णqसगवेदो छत्तेदूण अट्ठ। एवं जो जहा उवसंतो, वेण जहा [सो तहा] ढोढव्वा । पुणरवि सेससंखेजदिमे भागे गंतूण इत्थीवेदो उवसंतो, तेण णव । सेससंखेनदिमे भागे गंतूण हरस-रइ-अरइ-सोग-भय दुगुंछाओ एदाओ छ पगडीओ उवसंताओ, तेण पण्णरस । सेससंखेजदिमे भागे गंतूण पुरिसवेदो उवसंतो, तेण सोलस । सेससंखेन्जदिमे भागे गंतण अपञ्चक्खाणावरणकोहो पच्चक्खाणावरणकोहो उवसंतो, ते सेससंखेजदिमे भागे गंतूण अपञ्चक्खाणावरणमाणो पञ्चक्खाणावरणमाणो उवसंतो, तेण वीसं । सेससंखेजदिमे भागे गंतूण अपञ्चक्खाणावरणमाया पच्चक्खाणावरणमाया उवसंता, तेण वावीसं । सेससंखेजदिमे भागे गंतूण अपञ्चक्खाणावरणलोभो पच्चक्खाणावरणलोभो उवसंतो, तेण चउवीसं । सेससंखेनदिमे भागे गंतूण कोहसंजलणं उवसंतं, तेण पणुवीसं। सेसखंखेजदिमे भागे गंतूण माणसंजलणं उवसंतं, तेण छठवीसं। सुहुमसंपराइयस्स सत्तावीस उवसंता। कहं ? जेण अणियट्टिबादरचरमसमए मायसंजलणा उपसंता तेण सत्तावीस भवंति । उवसंतकसायरस अट्ठावीसं पि उवसंता। कहं जेण सुहमसंपराइयस्स चरमसमए लोभसंजलणं उवसंतं, तेण अट्ठावीस भवंति । एत्थ गाहा “सत्तावीसं सुहुमे अट्ठावीसं पि मोहपगडीओ। उवसंत वीयराए उवसंता हुंति णायव्वा" ||८५॥ पढमकसायचउकं इत्तो मिच्छत्त मिस्स सम्म । अविरदसम्मे देसे विरदे पमत्तापमत्ते य खीयंति ॥८६॥ अणियट्टिबादरे थीणगिद्धितिग णिरयादि [णिरय-तिरिय-] णामाओ। संखेजदिमे सेसे तप्पाओग्गा य खीयंति ॥८७॥ एत्तो हणादि कसायट्ठयं तु पच्छा णउंसयं इत्थी। तो णोकसायलकं पुरिसवेदम्मि संछुब्भदि ॥८८|| पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छुब्भदि मायाए । मायं च छुब्भदि लोहे लोभं सुहुमं पि तो हणदि ॥८६॥ इदाणिं गुणट्ठाणएसु भणिस्सामो-'पढनकसायचदुक्कं' मिच्छत्तं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं अणंताणुबंधी चत्तारि, एदाओ सत्त पगडीओ असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्त अप्पमत्तसंजदो वा खवेदि । अणियट्टिबादरे थीणगिद्धितिगं णिरय-तिरियणमाओ संखेजदिमे सेसे तप्पा ओग्गा खीयंति । अपुव्वकरणो एगं पि पगडी ण खवेदि । अणियट्टिबादरस्स णिहाणिद्दा पचलापचला थीणगिद्धी णिरयगइ तिरिक्खगइ एइंदिय वेइंदिय तेइंदिय चदुरिदिय णिरयतिरिक्खाणुपुत्वी आदाव उज्जोव थावर सुहुम साहारण एदाओ सोलस पगडीओ संखेज दिमे भागे खोयंति । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरि-संगहो पुणरवि सो चेव अणियट्टिसेससंखेनदिमे भागे गंतूण अपञ्चक्खाणावरणचत्तारि पञ्चक्खाणावरणचत्तारि एदाओ अट्ठ पगडीओ खवेदि । सो चेव अणियट्टिसेससंखेजदिमे भागे गंतूण णउंसगवेदं खवेदि । सो चेव अणियट्टि [ सेससंखेजदिमे भागे गंतूण ] इत्थीवेदं खवेदि । सो चेव अणियट्टि सेससंखेजदिमे भागे गंतूण हस्स रइ अरइ सोग भय दुगुछा च एदे छण्णोकसाए पुरिसवेदम्मि किंचिमित्त छोदूणं खीयंति । सो चेव अणियट्टिसेससंखेजदिमे भागे गंतूण पुरिसवेदं किंचावलेखं कोहसंजलणे छोदूण खीयंति । सो चेव अणियट्टिसेससंजदिमे भागे गंतूण कोहसंजलणं माणसंजलणे किंचवसेसं छोदूण खीयंति । तस्सेव अणियट्टिसेससंखेजदिमे भागे गंतूण माणसंजलणं किंचवसेसं मायसंजलणे छोदूण खीयंति । तस्सेन अणियट्टिस्स सेससंखजदिमे भागे गंतूण मायसंजलणं किंचवसेसं छोदूणं खीयंति । तस्सेव अणियट्टिस्स सेससंखजदिमे भागे गंतूण मायसंजलणा य किंचवसेसं पत्तेयं छोदूण पाडंति लोभसंजलणयं सुहुगसंपराइयो वेदेदि [ खवेदि ] । खीणकसायदुचरमे णिद्दा पयला य हणदि छदुमत्थो । आवरणमंतराए छदुमत्थो हणइ चरमसमयम्मि ॥१०॥ ___खीणकसाओ दोहिं समएहिं केवली भविस्सदि त्ति णिद्दा पचला य खीयंति । तस्सेव खीणकसायस्स पंचणाणावरण चउ दसणावरण पंचअंतराइय त्ति एदाओ चोइस पगडीओ चरमसमए खीयंति। देवगइसहगदाओ दुचरमभवसिद्धियस्स खीयंति । सविवागेदरसण्णा मंणुसगइणाम णीचं पि इत्येव ॥१॥ अण्णदरवेदणीयं मणुसाउग उच्चगोद णाम णव । वेदेइ अजोगिजिणो उक्कस्स जहण्णमेयारं ॥१२॥ मणुसगइ पंचिंदियजादि तस बादरं च पञ्जत्त । सुभगं आदिज जसकित्ती तित्थयरणामस्स हवंति णव एदे ॥१३॥ तच्चागुपुव्विसहिदा तेरस भवसिद्धियस्स चरमंते । संतस्स दु उक्कस्सं जहण्णयं वारसा हुंति ॥१४॥ मणुसगइसहगदाओ भव-खेत्तविवाग जीवविवाअंसा । वेदणियं अण्णदरुच्चं च चरमसमए भवसिद्धियस्स खीयंति ॥१५॥ सजोगिकेवली इकि वि पगडी ण खवेदि। "देवगइसहगदाओ दुचरमसमयस्स खीयंति । सविवागेदरमणुसगइणाम णीचं च इत्थेव" देवगइ पंच सरीर पंच संघाद पंच बंधण छ संठाण तिण्णि अंगोवंग छ संघडण पंच वण्ण दो गंध पंच रस अट्ठ फास देवाणुपुत्वी य अगुरुगलहुगादि चत्तारि दो विहायगइ अपज्जत्त पत्तेग थिराथिर सुभासुभ सुभग दुभग सुस्सर दुस्सर अणादिज्ज अजसकित्ती णिमिण णीचगोदं सादासादं च एकदरं एदाओ अविवागाओ वावत्तरि पगडीओ अजोगिदुचरससमए खीयंति । सविवागाओ-'मणुसगइसहियाओ अण्णदरवेदणीयं उच्चगोदं वेदेइ अजोगिजिणो उक्कास जहण्ण वारस' सादासादाणमेक्कदरं मणसाउगं मणसगइ पंचिंदियजा तस बादर पज्जत्त सुभग आदिज्ज जसकित्ती तित्थयर उच्चगोद मणुसाणुपुव्वीसहिदाओ एदाओ तेरस पगडीओ चरमसमए संत-उक्कस्स तित्थयरेण अजोगिम्स जहण्णगस्स तित्थयर वज्ज बारस पयडीओ, तित्थयरस्म अजोगिस्स 'मणुसगइसहियाओ भव-खत्तविवाग जीवविवागं सा वेदणीय अण्णदरुचं चरमे भवियस्स खीयंति ।" मणुसाऊ भवविवागा, मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी अ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ पंचसंगहो खेत्तविवागा; एदाओ भव-खेत्त-जीव-विवागाओ तेरस वारस पगडीओ चरमे भवियरस अजोगिस्स अणंतरसमए सिद्धो भविस्सदि त्ति खीयंति । एदासु खीणासु अह सुचरियसयलजयसिहर अरयणिरुवमसभावसिद्धिसुहं । अणिहणमव्वाबाहं तिरयणसारं अणुभवंति ॥१६॥ दुरधिगम-णिउण-परमट्ठ-रुचिर-बहुभंगदिद्विवादादो । अत्था अणुसरिदव्वा बंधोदयसंतकस्माणं ॥१७॥ जो इत्थ अपरिपुण्णो अत्थो अप्पागमेण बद्धो त्ति । तं खमिदूण बहुसुदा पूरेदणं परिकहंतु ॥८॥ इय कम्मपगडिपगदं संखेवुद्दिणिच्छयमहत्थं । जो उवजुंजदि बहुसो सो णाहइ बंधमुक्खट्ठ ॥६६॥ __ एवं सत्तरिचूलिया समत्ता। [इदि पंचमो सत्तरि-संगहो समत्तो । ] एकादशाङ्गम्-४१५०२०००। परियम्म १८१०५०००। सुत्त ८८०००००० । पढमाणिओग ५०००। पुगद ६५५००००००५। चूलिया चेव १०४६४६०००। श्रुतज्ञानमिदं एवं ११२८३५८००। इति पंचसंग्रहवृत्तिः समाप्ता। शुभम्भवतु। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालसुत-डड्ड-विरचिते संस्कृत-पञ्चसंग्रहे जीवसमासाख्यः प्रथमः संग्रहः चतुर्णिकायामरवन्दिताय घातिजयावाप्तचतुष्टयाय । कुतीर्थतांर्जितशासनाय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥१॥ षडद्रव्याणि पदार्थाश्व नव द्रव्यादिभेदतः । विजानतो जिनानत्वा वक्ष्ये जीवप्ररूपणाम् ।।२॥ स्थानयोगुण-जीवानां पर्याप्तौ प्राण-संज्ञयोः । मार्गणासूपयोगे च विंशतिः स्युः प्ररूपणाः ॥३॥ १४।१४।६।१०।४।१४ (४।५।६।१५।३।१६।।७।४।६।२।६।२।२) उपयोगाः १२ । जीवस्यौदयिको भावः क्षायिकः पारिणामिकः । क्षायोपशमिकोऽयौपशमिकोऽस्ति गुणाह्वयः ॥४॥ मोतं कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाभिधाः । बन्धमौदयिका भावाः निःक्रियाः पारिणामिकाः ॥५॥ भत्र निःक्रिया इति बन्धं मोक्षं च न कुर्वन्तीत्यर्थः । उदयादिभवैर्भावैर्जीवा यैर्लच्यतां गताः । गुणसंज्ञाः समादिष्टास्ते समस्तावभासिभिः ॥६॥ मिथ्याहक्सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः । प्रमत्त इतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणावपि ॥७॥ सूचमोपशान्तक्षीणकषाया योग्ययोगिनौ । चतुर्दश गुणस्थानान्येवं सिद्धास्ततोऽपरे ।।८।। मिथ्यात्वस्योदयाज्जीवः स्यान्मिध्याहग जिनोदितम् । श्रद्दधाति न तत्त्वार्थ जीवाजीवानवादिकम् ।।६।। मिथ्यात्वोदयवान् जीवो जायते विपरीतक । रुचिमात्रं न धर्मेऽस्ति ज्वरिवन्मधुरे रसे ॥१०॥ सासादनः प्रकर्षण सम्यक्त्वस्याऽऽदिमस्य तु । शेपेऽस्त्यावलिकाषटके समये च जघन्यतः ॥११॥ सम्यक्त्वात्प्रथमाद् भ्रष्टो मिथ्यास्थानमसादयन् । सासादनोऽस्त्यनन्तानुबन्ध्यन्यतमपाकतः ॥१२॥ सम्यग्मिथ्यात्वपाकेन सम्यग्मिध्याहगाह्वयः । मिश्रभावो भवेजीवो मिश्रं दधिगुडं यथा ।।१३।। मिश्रं दधिगुडं नैव कतुं याति यथा पृथक । मिश्रभावस्तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टिरितीरितः ॥१४॥ विरतो नेन्द्रियार्थेभ्यस्त्रसस्थावरहिंसकः । पाकाचारित्रमोहस्य त्रिसम्यक्त्वोऽस्त्यसंयतः ॥१५॥ युक्तोऽष्टान्त्यकपायर्यः स्थावरेन्द्रियसंयमैः । नाऽप्यथ[युक्तः]सम्यक्त्वाकादशगुणैश्च सः ॥१६॥ न हन्ता सजीवानां स्थावराणां तु हिंसकः । एकस्मिन् समये जीवः संयतासंयतः स्मृतः ।।१७।। . संयते वाऽऽत्मसात्कुर्वन् यः प्राणीन्द्रियसयमम् । किश्चित्स्खलितचारित्रः प्रमत्तोऽसौ प्रमादतः ॥१८॥ सवाल-नोकायाणां यस्मात्तीवोदयो यतेः । प्रमादः सोऽस्यनुत्साहो धर्म शुद्धयष्टके तथा ॥१६॥ तितिक्षा मार्दवं शौचमार्जवं सत्य-संयमौ । ब्रह्मचर्य तपस्त्यागाऽऽकिञ्चन्ये धर्म उच्यते ॥२०॥ १. अनाश्रयन् । २. सम्यक्त्वायेकादशप्रतिमालक्षणैर्गुणैः । Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ संस्कृत-पञ्चसंग्रह कालुष्यसमिधानेऽपि द्विषदाक्रोशनादिभिः । अकालुष्यं मुनेः प्राहुस्तितिक्षाऽतिविचक्षणा ॥२१॥ जात्याद्यष्टमदावेशविनाशः खलु गार्दवम् । शुचिभिः सर्वतो लोभान्निवृत्तिः शौचमुच्यते ॥२२॥ वाङ्-मनोऽङ्गक्रियारूपयोगस्यावक्रताऽऽर्जवम् । अपि सत्सु प्रशस्तेषु साधुत्वा त्सत्यमुच्यते ॥२३ ।। प्राण्यक्षपरिहारः स्यात्संयमो यमिनां मतः । वासी गुरुकुले नित्यं ब्रह्मचर्यमुदीर्यते ॥२४॥ परं कर्मक्षयार्थ यत्तप्यते तत्तपः स्मृतम् । त्यागः सुधर्मशास्त्रादिविश्राणमुदाहृतम् ॥२५|| शारीरादिकमात्मीयमनपेच्य प्रवर्तनम् । निर्ममत्वं मुनेः सम्यगाकिञ्चन्यमुदीरितम् ॥२६॥ मनोवाकायभिक्षासूत्सर्गे शयनासने । विनये च यतेः शुद्धिः शुद्धयष्टकमुदाहृतम् ॥२७॥ सर्वशीलगुणयुक्तः कर्बुराचरणो यतिः । व्यक्ताव्यक्तप्रमादेषु वर्तमानः प्रमत्तकः ॥२८॥ कषायविकथानिद्राप्रणयाक्षः प्रमाद्यति । स्याच्चतुश्चतुरेकैकपञ्चसङ्ख्यैः प्रमादवान् ॥२६॥ ।१।१५। सर्वे १५। निःप्रमादोऽप्रमत्ताख्यः स्यादस्खलितसंयमः । शमको न स चारित्रमोहस्य क्षपकश्च न ॥३०॥ प्रसक्तः शुभयोगेषु व्रतशीलगुणान्वितः । भवेत्समितिभिर्युक्तो गुप्तिभिानवानसौ ॥३१॥ ध्मायमानं यथा लौहं शुद्धयत्यशुभतो मलात् । अपूर्वकरणात्तद्वदपूर्वकरणै युतः ॥३२॥ करणो न समो भिन्नसमयस्थेषु येष्वसौ । भावारसमोऽसमाश्चैकसमयस्थेषु सन्ति ते ॥३३।। अपूर्वकरणाः कर्म न किञ्चित्क्षपयन्ति नो । शमयन्ति परं मोहशमन-क्षपणोद्यताः ॥३४॥ शुक्लध्यानसमारूढस्तत्रोपस्थितसंयतः । न प्राप्ताः करणाः पूर्व तेऽपूर्वकरणास्ततः ॥३५॥ संस्थानादिषु भेदेऽपि परिणामैः समानता । समानसमयस्थानां स्यायेषां तेऽनिवृत्तयः ॥३६॥ भाव शुद्धतरैःकर्मप्रकृतीः शमयन यतिः । क्षपयंश्चानिवृत्तिः स्यात्कषाये बादरे स्थितः ॥३०॥ ततः शुद्धतरै वर्गालयल्लोभकिट्टिकाम् । सूचमेतरामसौ ज्ञेयोऽनिवृत्ताख्यः स संयतः ॥३८॥ पूर्वापूर्व विभागस्थः स्पर्धकाख्यानुभागतः । योऽनन्तगुणहीनाणुलोभोऽसौ सूचमसंयतः ।।३६॥ यत्रोपशान्तिमायाति कषायो यन्त्र च क्षयम् । लोभसंज्वलनः सूचमसाम्परायः स संयतः ॥४०॥ कुसुम्भस्य यथा रागो गतोऽप्यस्त्यन्तरा तनुः । सूचमलोभयुतस्तद्वत्सूचमलोभो भवेदसौ ।।४।। यथाम्भः कतकेनाधोमले नीतेऽतिनिसलम् । उपर्यस्त्युपशान्ताख्यो मोहे शान्ते तथा यतिः ।।४२॥ मलं विना तदेवाग्भः पात्रेऽन्यत्र यथा कृतम् । स्यात्प्रसन्नं तथा क्षीणकषायो मोहसंक्षये ॥४३॥ घातिकर्मक्षयोत्पन्ननवकेवललब्धिमान् । प्रणेता विश्वतत्त्वानां सयोगः केवली भवेत् ॥४४॥ ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्य-सम्यक्त्व-दानयुक् । भीगोपभोगलाभाख्या नवकेवललब्धयः ॥४५॥ वेद्याऽऽयुर्नामगोत्राणि हुवा सद्ध्यानदेजसि । मुक्तिं निरास्रवो याति शीलेशोऽयोगकेवली॥४६॥ अष्टकर्मभिदः शीतीभूता नित्या निरअनाः । लोकारवासिनः सिद्धाः जयन्वष्टगुणान्विताः ॥४७॥ देव-श्वाभ्रेषु चत्वारि गुणस्थानानि पञ्च तु । तिर्यक्षु नृषु सर्वाणि यथास्वं चेन्द्रियादिषु ॥४८।। ज्ञायन्तेऽनेकधाऽनेकजीवास्तजातिजास्तु यैः । संक्षिप्तार्थतया जीवसमालास्ते चतुर्दश ॥४॥ चतुर्दशैकविंशत्या त्रिंशद्व्यष्टपडादिकाः । त्रिंशत्पश्चाष्टचत्वारिंशच्चतुःसप्तपूर्विका ॥५०॥ पञ्चाशद्दशजीवानां स्थाने ज्ञेया विकल्पकाः । सूचम-बादरभेदेन कायेन्द्रियवितर्कर्णः ॥५१॥ एकाक्षा बादराः सूचमा द्वयक्षाद्या विकलास्त्रयः । पञ्चाख्याः संश्यसंश्याख्याः सर्वे पर्याप्तकेतरे ॥५२।। ११११२।३॥४॥५॥५॥ एकेन्द्रियेषु चत्वारि जीवानां विकलेषु षट् । पञ्चाक्षेष्वपि चत्वारि स्थानान्येवं चतुर्दश ॥५३॥ १. धर्मार्थिषु । २. मोक्षार्थिषु । ३. उपकारकत्वात् । ४. दानम् । ५. कर्बुरं मिश्रं आचरणं यस्य स कर्बुराचरणः । ६. अपूर्वपरिणामैः । ७. परिणामः । ८. इन्द्रियादिमार्गणादिषु । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासाख्यः प्रथमः संग्रहः पूर्णा पूर्णानि वस्तूनि वस्त्रादीनि यथा तथा । पूर्णाsपूर्णतया जीवाः पर्याप्तेतरका मताः ||५४|| आहारानेन्द्रियेष्वाने पर्याप्तिर्वाचि मानसे । चतस्रः पञ्च षट् ताः स्युरेकाक्ष न्यूनसंज्ञिनाम् ||५५ ॥ बहिर्भवैर्यथा प्राणैरेवमाभ्यन्तरैरपि । यैखिकालेऽपि जीवन्ति जीवाः प्राणा भवन्ति ते ॥५६॥ पञ्चेन्द्रियाणि वाक्कायमानसानां बलानि च । त्रीण्यानापान आयुश्च प्राणाः स्युः प्राणिनां दश ॥ ५७॥ कायाक्षायूंषि सर्वेषु पर्याप्तेष्वान इष्यते । वाग् द्वयज्ञादिषु पूर्णेषु मनः पर्याप्त संज्ञिषु ॥ ५८ ॥ दश संज्ञिन्यतो हेयमेकैकं द्वयमन्त्ययोः । पूर्णेध्वन्येषु सप्ताद्ये रेकैकोनाश्च तेऽप्यतः ॥५६॥ इति प्राणाः | ४|४|६| ७|८|६|१०|७|७|६:५|४|३|३| अत्राऽऽहारशरीरेन्द्रियाऽऽनापानभाषामनोनिष्पत्तिः पर्याप्तिः । शरीरेन्द्रियादिपर्याप्तिभ्यः आयुष श्वोत्पन्नशक्तयः प्राणाः । ते चोत्पन्नसमयादारम्भ यावज्जीवितचरमसमयं तावन्न विनश्यन्ति, आजन्मन आमरणाच्च भवधारणत्वेनोपलम्भात् । उक्तञ्च ६६५ प्राणिस्येभिरात्मेति प्राणाः । कामिर्दुःखमाप्रोति जन्तुरत्र परत्र ताः । संज्ञाश्वतत्र आहार भी मैथुन - परिग्रहाः ||६०|| एकाक्षादिष्विमाः सर्वाः पर्याप्तेष्वितरेषु च । प्रमत्तान्तेष्वथाऽऽहारसंज्ञोनाः स्युरतो द्वयोः ।। ६१ ।। "पन्वस्वाथेऽनिवृत्यंशे द्वौ मैथुन - परिग्रहौ । संज्ञात्वेन ततः सूक्ष्मं यावत्संज्ञा परिग्रहे ।। ६२|| अत्राप्रमत्तनाम्न्यसद्वेद्यस्योदीरणाभावादाहारसंज्ञा नास्ति, कारणभूतकर्मोदयसद्भावादुपचारेण भयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाः सन्तीति । जन्तोराहारसंज्ञा स्यादसातोदीरणे यथा । रिक्तकोष्ठताऽऽहारदृष्टस्तदुपयोगतः ||६३|| भयसंज्ञा भवेद् भीतिकृत्कर्मोंदीरणात्तथा । भीमस्य दर्शनात्तस्योपयोगात्सत्त्वहानितः ।।६४।। स्ववेदोदोरणात्संज्ञा मैथुनी वृष्यभोजनात् । स्त्रीषु संगोपयोगाभ्यां स्यात्पुंसः पुंसि च स्त्रियः ||६५॥ च शब्दादुभयोरपि षण्ढस्य । लोभोदीरणतश्चास्ति संज्ञा जन्तोः परिग्रहे । उपयोगीक्षणात्तस्योपयोगान्मूर्च्छनादपि ॥ ६६ ॥ काभिर्यासु वा जीवा मार्ग्यन्तेऽत्र यथास्थिताः । श्रुतज्ञाने विनिश्चेयास्ताश्चतुर्दश मार्गणाः ॥६७॥ गध्यक्षकाययोगाख्या वेदक्रोधादिवित्तयः । संयमो दर्शनं लेश्या भव्य सम्यक्त्वसंज्ञिनः ॥६८॥ | भाहारकश्च सन्ध्येता याश्चतुर्दश मार्गगाः । सदाचैराशु माग्यन्ते जीवा मिथ्याडगादयः ॥ ६६ ॥ ४|५|६|१५|३|४|८|७|४|६| २|६|२:२ अपर्याप्ता नरा गत्यां योगेष्वाहारकद्वयम् । मिश्रवैक्रियिकोपेतं संयमे सूक्ष्मसंयमः ॥७०॥ सम्यक्त्वे सासनो मिश्रस्तथौपशमिकं च तत् । सान्तरा मार्गणाचाष्टौ विकल्पा इति नापरे ॥ ७१ ॥ ral at १ त्रितयं योगे ३ एकः संयमे १ त्रयं सम्यक्त्वे ३ इत्यष्टौ सान्तरा मार्गणासु समुदिताः । गतिकर्मकृता चेष्टा या सा निगदिता गतिः । संसारं वा यया जीवा भ्रमन्तीति गतिस्तु सा ||७२ || न रमन्ते यतो द्रव्ये क्षेत्रेऽथ काल-भावयोः । नित्यमन्योन्यतश्चापि तस्मात्ते सन्ति नारकाः ॥ ७३ ॥ तिरो यान्ति यतः पापबहुलाः संज्ञाभिरुत्कटाः । सर्वेष्वभ्यधिकाज्ञानास्तिर्यञ्चस्तेन कीर्त्तिताः ॥७४॥ १. सकाशात्, २. सकाशात्, ३. जीवति, ४. अप्रमत्तापूर्वयोः, ५. शेषपञ्चगुणस्थानेषु, ६. नवमगुणस्थानक पूर्वार्धे, ७. वक्रभावम् । ८४ - Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत पञ्चसंग्रहे मन्यन्ते यतो नित्यं मनसा निपुणा यतः । मनसा चोत्कटा यस्मात्तस्मात्ते मानुषाः स्मृताः ॥७५ || अणिमादिभिरष्टाभिर्गुणैः क्रीडन्ति ये सदा । भासन्ते दिव्यदेहाश्च देवास्ते वर्णितास्ततः ॥ ७६।। न जातिर्न जरा दुःखमसंयोगवियोगजम् । नापि रोगादयो यस्यां सन्ति सिद्धिगतिस्तु सा ॥७७॥ अहमिन्द्रा यथा मन्यमाना अहमहं सुरा । एकैकमीशते यस्मादिन्द्रियाणीन्द्रवत्ततः ।।७८।। यवनालमसूरातिमुक्तेन्द्रर्धसमाः क्रमात् । श्रोत्राक्षिप्राणजिह्नाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः ॥७६॥ जीवे स्पर्शनमेकाक्षे द्वयक्षादिष्वेकवृद्धितः । भवन्ति रसनाघ्राणचक्षुः श्रोत्राण्यनुक्रमात् ||८०|| रूपं पश्यत्यसंस्पृष्टं स्पृष्टं शब्दं शृणोति च । बद्धास्पृष्टञ्च जानाति स्पर्शं गन्धं तथा रसम् ॥ ८१ ॥ अक्षेणैकेन यद्वेत्ति स्वामित्वं कुरुते च यत् । भुङ्क्ते पश्यति चैकाक्षोऽतः पृथिव्यादिकायिकः ॥ ८२॥ शम्बूकः शङ्खशुक्ती च गण्डूपदकपर्दकाः । कुक्षिकृम्यादयश्चैवं द्वीन्द्रियाः प्राणिनो मताः ॥ ८३ ॥ कुन्थुः पिपीलिका गुम्भी वृश्चिकाश्चेन्द्रगोपकाः । तथा मत्कुणयूकाद्यास्त्रीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः ॥८४॥ भ्रमराः कीटका दंशा मशका मक्षिकादयः । एते जीवाः समासेन निर्दिष्टाश्चतुरिन्द्रियाः ॥ ८५॥ जरायुजाण्डजाः पोता गर्भजा औपपादिकाः । सम्मूच्छिमाश्च पञ्चाक्षा रसजाः स्वेदजोद्धिजाः ॥८६॥ अवग्रहादिभिर्नार्थग्राहकाः करणातिगाः । अनन्तातीन्द्रियज्ञाना ज्ञेया जीवा निरिन्द्रियाः ॥८७॥ ६६६ यथा भारवहो भारं वहत्यादाय कावटिम् । कर्मभारं वहत्येवं देहवान् कायकावटिम् ||८|| कायः पुद्गलपिण्डः स्यादात्मप्रवृत्तिसन्चितः । भेदाः षट् तस्य भूम्यम्बुतेजोवाततरुत्रसाः ॥८६॥ मसूराम्बुपृषत्सूची कलापध्वजसन्निभाः । धराप्तेजोमरुत्काया नानाकारास्तरुत्राः ||१०|| पृथिवी - शर्करा - रत्न - सुवर्णोपलकादयः । षट् त्रिंशत्पृथिवीभेदा निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः ॥ ६१ ॥ अवश्यायो हिमं बिन्दुस्तथा शुद्धघनोदके । शीकराद्याश्च विज्ञेया जिनैर्जीवा जलाश्रयाः ॥१२॥ ज्वालाङ्गरास्तथाऽर्चिश्व मुम्र्मुरः शुद्ध एव च (पावकः) । भग्निश्चेत्यादिकास्तेजःकायिकाः कथिता जिनैः ॥ १३ ॥ महान् घनस्तनुश्चैव गुञ्जा मण्डलिरुत्कलिः । वातप्रभृतयो वातकायाः सन्ति जिनोदिताः ॥६४॥ मूलाग्र पर्वकन्दोत्थाः स्कन्धबीजरुहास्तथा । सम्मूच्छिमाश्च विज्ञेयाः प्रत्येकानन्तकायिकाः ।। ६५ ।। साधारणो यदाहार आनपानस्तथाविधः । साधारणा तनुस्तेन जीवाः साधारणाः मताः ॥६६॥ यत्रको म्रियते तत्रानन्तानां मरणं मतम् । उत्पद्यते च यत्रकोऽनन्तानां जन्म तत्र तु ॥ ६७॥ अनन्ताः सन्ति जीवा ये न जातु नसतां गताः । न मुञ्चन्ति निगोतत्वमुच्चैर्भावकलङ्किताः ।।६८।। द्वीन्द्रियास्त्रोन्द्रियाश्चैव चतुरक्षाश्च संज्ञिनः । असंज्ञिनश्च पञ्चाक्षा जीवाः स्युखसकायिकाः ।।६६॥ न बहिर्लोकनाट्याः स्युर्जन्तवस्त्र सकायिकाः । मुक्त्वा परिणतांस्तेषु पपादे मारणान्तिके ॥१००॥ प्रत्येकाङ्गाः पृथिव्यम्बुतेजःपवनकायिकाः । देवाः श्वाभ्रास्तथाऽऽहारकाङ्गाः केवलिनोर्द्वयम् ॥ १०१ ॥ इत्यप्रतिष्ठिताङ्गाः स्युर्निगोतैः सूक्ष्म बादरैः । विकलाः शेषपञ्चाचा वृक्षाश्च तैः प्रतिष्ठिताः ॥ १०२ ॥ वह्निस्थं काञ्चनं यद्वन्मुच्यते द्विविधान्मलात् । कायबन्धविनिर्मुक्ता ध्यानतोऽकायिकास्तथा ।। १०३।। मनोवाक्काययुक्तस्य वीर्यरूपेण वृत्तिता । जीवस्यात्मनि योज्यो यः स योगः परिकीर्त्तितः ॥ १०४ ॥ योगो वीर्यान्तरायाख्यक्षयोपशमसन्निधौ । भवेदात्मप्रदेशानां परिस्पन्दः त्रिधेति सः ॥ १०५ ॥ मनोवाचौ चतुर्धा स्तः पृथक्सत्यमृषोभयैः । युक्तेश्वानुभयेनापि भवेत्कायोऽपि सप्तधा ।। १०६ ।। यथावस्तु प्रवृत्तं यन्मनः सत्यमनोऽस्ति तत् । मृषा मनोऽन्यथा चोभयाख्यं सत्यमृषात्मकम् ||१०७ || नो यत्सत्यं मृषा नैव तदसत्यमृपामनः । तैर्योगाः सन्ति चत्वारो मनोवत्सन्ति वाच्यपि ॥ १०८ ॥ अस्ति सत्यवचो योगो दशधा सत्यवाक् स्थितः । विपरीतो मृषा त्वन्यः सत्यासत्यद्वयात्मकः ||१०६ ॥ 2 १. स्पृष्टम् । २. तेषु जन्तुषु मध्ये, ३. प्रवृत्तित्वम् । For Private Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासाख्यः प्रथमः संग्रहः यो न सत्यमृषारूपः स्यात्सोऽसत्यमृषात्मकः । सा भाषाऽमनसां संज्ञावतां चामन्त्रणादिकाः २ ॥११०॥ उदारे यो भवो वाऽस्योदारं वा स्यात्प्रयोजनम् । सः स्यादौदारिकः कायो मिश्रोऽपूर्णः स एव तु ॥ १११ ॥ विक्रियायां भवः कायो विक्रिया वा प्रयोजनम् । यस्य वैक्रियिकः सः स्यान्मिश्रोऽपूर्णः स एव तु ।। ११२ ।। अत्रोदारं स्थूलम् | एकानेकाणुमहच्छरीर विविधकारणं विक्रिया । सम्प्राप्तर्द्धिः प्रमत्ताख्यो गत्वा केवलिसन्निधौ । सूचमानाहरते येन पदार्थान् सति संशये ॥११३॥ भवेदसंयमस्यापि यो वा परिजिहीर्षया । आहारकः स कायः स्याद्धवलो धातुभिर्विना ।। ११४ || मूत् हस्तमात्रश्चान्याघात्युत्तमसंस्थितिः । स्थितिरन्तर्मुहूर्तोऽस्य मिश्रो पूर्णः स एव तु ॥ ११५ ॥ कर्मैव कार्मणः कायो भवेत्कर्मणि वा भवः । एक-द्वि-त्रिषु तद्योगो वक्रतौ ' समयेषु तु ॥ ११६ ॥ न कर्म बध्यते नापि जीर्यते तैजसेन हि । शरीरेणोपभुज्येते सुख-दुःखे च तेन नो ॥ ११७ ॥ सप्तैवं काययोगाः स्युः कायैरेतैस्तु सप्तभिः । जिनाः शुभाशुभैयोंगेः मुक्ताः सन्ति निरास्रवाः ।। ११८ ।। एकेन्द्रियेषु पर्याप्ताः स्थूला वाताग्निकायिकाः । विकुर्वते च पञ्चाचा नान्ये न विकलेन्द्रियाः ॥ ११६॥ वैक्रियिकाऽऽहारयोरेकं प्रमत्तेऽस्ति न ते समम् । विग्रहतौ तु सर्वस्य जन्तोस्तैजसकार्मणे ॥ १२०॥ ते च वैक्रियिकं च स्युर्देव श्वाश्रेष्ठ तानि च । औदार्यं च नृ-तिर्यचु नृष्दाहारं च तानि च ।। १२१।। सर्वे वक्रगतौ द्वयङ्गास्त्रिकाया देव-नारकाः । त्रिशरीरा नृ-तिर्यञ्चचतुःकायाश्च सन्ति ते ॥१२२॥ द्वयोस्त्रयोदशान्येषुळे दश योगास्त्रयोदश । नवैकादश पटू सु स्युर्नवातः सप्त योगिनि ॥ १२३ ॥ १३।१३।१०।१३ | ६ |११|६|| ६ ||६||७|| वेदोदीरणया जीवो बालस्तु बहुशो भवेत् । वेदस्तु त्रिविधोऽस्ति स्त्रीपुन्नपु ंसकभेदतः ॥ १२४॥ अत्र बाल: सुषुप्तपुरुषवदनवगतगुणदोषो भवेत् । नोकपायोदयाद् भाववेदो भवति जन्तुषु । योनि-लिङ्गादिको द्रव्यवेदः स्यान्नामपाकतः ।। १२५ । आत्मप्रवृत्तिसम्मोहोत्पादो वेदोऽस्ति भावतः । नोकषायविशेषः स्त्री- पु षण्ढोदयहेतुकः ॥ १२६॥ अत्र प्रवृत्तिः परिणामः । याssकाङ्क्षा स्यात्स्त्रियः पुंसि पुरुषस्य च या स्त्रियाम् । स्त्री-पुंसयोश्च षण्ढस्य वाऽसौ वेदोऽस्ति भावतः ।। १२७ ।। ६६७ १० " अनयोरर्थः - चारित्रमोहनीय विशेषस्त्री वेदद्रव्यकर्मोदयजनितः पुरुषाभिलाषो भावस्त्रीवेदः । एवं 'वेदद्रव्यकर्मोदयजनिताङ्गनाभिलाषो भावपुरुषवेद: । नपुंसकवेदद्रव्यकर्मोदयजनित उभयाभिलाषो भावनपुंसकवेदः । उक्तञ्च सिद्धान्ते - " कषायवनान्तर्मुहूर्तस्थायिनो भाववेदाः, आजन्मन भामरणं तदुदयसद्भावादिति" । स्त्रीपुन्नपुंसकाख्याभिर्योनिलिङ्गादिकः पुनः । नामकर्मोदयाद् द्रव्यवेदोऽपि त्रिविधो भवेत् ॥ १२८ ॥ अस्याप्यर्थः— नामकर्मोदय निर्वर्त्तितो योनि-जन-स्तन विशिष्टशरीराकारो द्रव्यस्त्रीवेदः । लिङ्गश्मश्रुप्रभृतिविशिष्टशरीराकारो द्रव्यपुंवेदः । उभयविशिष्टशरीराकारो द्रव्यनपुंसकवेद इति । योनिमृदुत्वस्तत्वं मुग्धता क्लीवता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि सप्त स्त्रीत्वनिवेदने ॥ १२६ ॥ मेहनं खरता स्ताब्ध्यं शौण्डीर्यश्मश्रुष्टष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि सप्त पुंस्त्वनिरूपणे ॥१३०॥ योनिः खरादिसंयुक्त मेढ मृद्वादिसंयुतम् । नपुंसके १२ तयोस्त्वेकप्राधान्यात्स्त्री पुमानिति ॥१३१॥ स्त्रीपुन्नपुंसकाः प्रायो जीवाः स्युर्द्रव्य-भावतः । सदृशाः विसदृत्ताश्च सम्भवन्ति यथाक्रमम् ॥१३२॥ .११ १. सा सत्यमृषात्मरूपा श्रनुभयभाषा श्रमनसां मनोरहितानां जीवानां भवति । २. आमन्त्रणी - प्रमुखा नवप्रकारा अनुभयभाषा संज्ञिनां भवति । ३. उदारशब्दोऽत्र स्थूलवाची । ४. येन कारणभूतेन कायेन कृत्वा । ५. पदानां श्रर्थाः पदार्थास्तान् । ६ विग्रहगतौ । ७ अपरे एकेन्द्रियाः । ८. ते द्वे युगपत् न । ६. अन्येषु मिश्रादिषु क्रमेण कथ्यन्ते । १०. श्लोकयोः । ११. मेहनम् । १२. योनि-मेढ्योर्मध्ये | Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ संस्कृत पञ्चसंग्रहे अस्याप्यर्थः-स्त्रीपुनपुंसका जीवा द्रव्य-भावाभ्यां सदृशाः प्रायो भवन्ति, विसदृक्षाश्च सम्भवन्ति । कथम् ? द्रव्यतः पुंवेदस्यापि भावतः स्त्रीवेदयो भवति, द्रव्यतः स्त्रीवेदस्यापि भावतः पुंवेदोदयः स्यादित्यादि। __पुनरपि भाव-द्रव्यवेदमाहमार्दवक्लैव्यपुंस्कामनादीन् भावान् दधाति यत् । स्त्रैणान्' यस्माच्च गर्भोऽस्यां स्त्यायति स्त्रीत्यतोऽस्ति सा । १३३। ति चात्मानं पुरुषं वाऽभिकात्तति । सदाऽऽच्छादनशीला च तेन सा स्त्रीति वर्णिता ॥१३४।। पारुष्य-रभसत्व-स्त्रीकामनादीन् दधाति यत् । पौंस्नान् भावान् पुमान् तेन भवेत्पुरुगुणश्च यत् ॥१३५।। कुर्यात्पुरुगुणं कर्म शेते पुरुगुणेषु च । आकाङ्क्षति स्त्रियं सूतेऽपत्यं यत्पुरुषस्ततः ।।१३६॥ अत्र शेते प्रमदयति, सूते जनयति । भावतो न पुमान स्त्री द्वयाकाङ्क्षो नपुंसकः । स्त्रीरूपो नररूपश्व पापोऽभ्यधिकवेदनः ।।१३७॥ कारीषाग्नि-तृणाग्निभ्यां सदृशो नेष्टकाग्निना । वेदत्रयेण निर्मुक्ता जिनाः सन्ति सुखात्मकाः ।।१३८।। कर्मक्षेत्रं कृषन्त्येते सुख-दुःखाख्यशस्यभृत् । यच्चतुर्गतिपर्यन्तं कषायास्तेन कीर्तिताः ॥१३॥ भत्र कृषन्ति फलवत्कुर्वन्ति । चारित्रपरिणामं वा कर्षन्तीति कषायकाः । ऋन्मानवाचनालोभाः प्रत्येकं ते चतुर्विधाः ॥१४॥ सन्त्यनन्तानुबन्ध्याख्याः अप्रत्याख्यानसंज्ञकः । ते प्रत्याख्याननामानस्तथा संज्वलनाभिधाः ।।१४१॥ आद्याः सम्यक्त्व-चारित्रे द्वितीया घ्नन्त्यणुव्रतम् । तृतीयाः संयमं तुर्या यथाख्यातं ऋधादयः ॥१४२॥ दृषभूमिरजोवारिराजीभिः क्रोधतः समात् । श्वभ्रतिर्यग्नूदेवेषु जीवो याति चतुर्विधात् ॥१४३।। शिलास्तम्भास्थिकाष्ठालतातुल्याच्चतुर्विधात् । श्वभ्रतिर्यग्नूदेवेषु जायते मानतोऽसुमान् ॥१४४।। मायया वंशमूलाविशृङ्गगोमूत्रचामरैः । श्वभ्रतिर्यग्नृदेवेषु जन्तुजति तुल्यया ॥१४५॥ कृमिनीलीहरिद्राङ्गमलरागैः समाद् व्रजेत् । श्वभ्रतिर्यग्नदेवेषु प्राणी लोभाच्चतुर्विधात् ॥१४६।। क्रुधः श्वाभ्रेषु तिर्यक्षु मायायाः प्रथमोदयः । नृषूत्पन्नस्य मानस्य स्याल्लोभस्य सुरेषु हि ॥१७॥ मतेनापरसूरीणां समुत्पन्नेषु जन्तुषु । गतिध्वनियमेन स्युः क्रोधादिप्रथमोदयः ।।१४८।। स्व-परोभयबाधाया वधस्यासंयमस्य च । येषां हेतुः कषाया नो निःकषाया हि ते जिनाः ॥१४९।। स्थित्युत्पादव्ययैर्युक्तं गुणपर्ययवच्च यत् । द्रव्यं जीवादि याथात्म्यावगमो ज्ञानमस्य तत् ।।१५०॥ इन्द्रियर्मनसा चाथग्रहणं यन्मतिस्तु तत् । ज्ञानमस्य विकल्पाः स्युः षत्रिंशत्रिशतप्रमाः ॥१५॥ मतिपूर्व श्रुतं तच्च द्वयनेकद्वादशात्मकम् । शब्दादग्न्यादिविज्ञानं धूमादिभ्योऽपि च श्रुतम् ॥१५२।। तथा चोक्तम्-शब्दधूमादिभ्योऽर्थावगमः श्रतम् । अवाच्यानामनन्तांशो भावाः प्रज्ञाप्यमानकाः । प्रज्ञाप्यमानभावानामनन्तांशः श्रुतोदितः ॥१५३|| मूर्त्ताशेषपदार्थान् यज्ज्ञानं साक्षात्करोत्यसौ । अवधिः स्यादवाग्धानात्क्षायोपशमिकश्च सः॥१५॥ देवानां नारकाणां च स्याद् भवप्रत्ययोऽवधिः । क्षयोपशमहेतुस्तु स्याच्लेषाणां च षडविधः ।।१५५।। अनुगोऽननुगामी च तदवस्थानवस्थितः । प्रवृद्धो हीयमानः स्यादित्थं षडविधोऽवधिः ।।१५६॥ श्वाभ्रतिर्यग्नदेवानामेको देशावधिर्भवेत् । परमावधि-सर्वावध्यभिधं यतिषु द्वयम् ॥१५॥ तीर्थकृच्छ्रानदेवानां सर्वाङ्गोत्थोऽवधिर्भवेत् । नृ-तिरश्चां तु शङ्खाजस्वस्तिकाद्यङ्गचिह्वजम् ॥१५॥ ___ अत्र शङ्खाब्जस्वस्तिकश्रीवत्सध्वजकलशनन्द्यावर्तहलादीन्यवधेरुत्पत्तिक्षेत्रसंस्थानानि तिर्यङ्-मनुष्याणां नाभेरुपरिमभागे भवन्ति, नाधस्तात् । विभङ्गास्तु पुनः सरटाद्यशुभाकृतीन्युत्पत्तिस्थानानि नाभेरधस्ताद्भवन्ति, नोपरिष्टात् । १. स्त्रियाः इमे स्त्रैणाः, तान् स्त्रैणान् । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासाख्यः प्रथमः संग्रहः ६६६ मनसाऽन्यमनो यातं साक्षादर्थं करोति यः । स मनःपर्ययो भेदावस्यर्जुविपुले मती ॥१५॥ मनःपर्ययबोधः स्यात्संयतेषु प्रकर्षतः । क्षेत्रे नृलोकमात्रे च मूर्तद्रव्यप्रकाशकम् ॥१६०॥ त्रिलोकगोचराशेषपदार्थान् विदधाति यत् । सामाजिनैरनन्तं तत्केवलज्ञानमीरितम् ॥१६॥ मिथ्यात्वेन सहैकार्थसमवायाद्विपर्ययम् । जनयेद्यत्तु रूपादौ तन्मत्यज्ञानमधजम् ॥१६२॥ यग्छब्दप्रत्ययं ज्ञानं मिथ्यात्वेन च सङ्गतम् । धर्म रिक्ततया तुच्छं श्रुताज्ञानं वदन्ति तत् ॥१६३॥ मिथ्यात्वसमवेतो यः पर्याप्तस्यास्ति देहिनः । अवधिः स विभङ्गाख्यः क्षयोपशमसम्भवः ॥१६४।। कषाया नोकषायाश्च भेदाश्चारित्रमोहने । तेषामुपशमादौपशमिकं हायिक क्षयात् ॥१६५॥ द्वादशाद्याः कषाया ये स्युस्तेषामुदयक्षयात् । तत्सत्तोपशमान्मिश्रं चारित्रं संयमाभिधम् ॥१६६॥ चतुःसंज्वलनेष्वन्यतमपाकाच्च तत्तथा । नवानां नोकरायाणां यथासम्भवपाकतः ॥१६७॥ व्रतानां धारणं दण्डत्यागः समितिपालनम् । कषायनिग्रहोऽक्षाणां जयः संयम इष्यते ॥१६॥ व्रतानामेकभावेन यदात्मन्यधिरोपणम् । नियतानियतः कालः स्यात्सामायिकसंयमः ॥१६॥ व्रतानां भेदरूपेण यदात्मन्यधिरोपणम् । व्रतलोपे विशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं तु तत् ॥१७॥ परिहृत्यव सावधं सम्यक समिति-गुप्तिभिः । यदासौ प्राप्यते तेन स्यात्परिहारसंयमः ॥१७१७ यः सूचनसाम्परायाख्ये शमके सपकेऽपि वा। स्यात्सूचमसाम्परायोऽसौ संयमः सूचमलोमतः ॥१७२॥ चारित्रमोहनीयस्य क्षयेणोपशमेन वा । अवाप्नुतो यथाख्यातं छमस्थौ यदि वा जिनौ ॥१७३॥ संयतेषु चतुर्वाधौ परिहारस्तथाऽऽद्ययोः। सूचमे स्यासंयमः सूचमो यथाख्यातश्चतुवतः ॥१७४॥ सघातानिवृत्तो यः प्रवृत्तः स्थावराईने । जीवः श्रावकधर्म स संयमासंयम श्रितः ॥१७५॥ दर्शन्यणुवतश्चैव स सामायिक इत्यपि । प्रोषधी विरतश्चैव सचित्तादिनमैथुनात् ॥१७६॥ ब्रह्मवती निरारम्भः श्रावको निःपरिग्रहः । निरनुज्ञो निरनुद्दिष्टः स्यादेकादशधेति सः ॥१७७॥ अष्टौ स्पर्शा रसाः पञ्च द्वौ गन्धौ वर्णपञ्चकम् । पड्जादयः स्वराः सप्त दुर्मनोऽक्षेष्वसंयमः ॥१७॥ इत्यष्टाविंशतिर्जीवसमासेपु चतुर्दश । नैतेभ्यो विरता ये स्युर्जीवास्ते सन्त्यसंयताः ॥३७६॥ इन्द्रियेष्वसंयमाः २८ । जीवेष्वसंयमाः १४ । रूपादिग्राहकत्वेन सामान्याख्यस्य वेदनम् । आत्मनो द्वन्तरङ्गं यदर्शनं तजिनोदितम् ॥१०॥ तच्चक्षदर्शनं ज्ञेयं चक्षषा यत्प्रकाशते । शेषेन्द्रियप्रकाशस्त्वचक्ष दर्शनमीरितम् ॥१८॥ परमाण्वन्त्यभेदानि रूपिद्रव्याणि पश्यति । सम्यक् प्रत्यक्षरूपेण यत्तच्चावधिदर्शनम् ।।१८२।। उद्योता बहवः सन्ति नियते क्षेत्रगोचराः । केवलो दर्शनोद्योतः पुनर्विश्वं प्रकाशते ।।१८३॥ लेश्या योगप्रवृत्तिः स्यात्कषायोदयरञ्जिताः । भावतो द्रव्यतोऽङ्गस्य छविः षोढोभयी तु सा ॥१८॥ कृष्णा नीलाऽथ कापोती पीता पद्मा सिता च षट् । लेश्याः सन्यात्मसारकुर्वन्त्याभिः कर्माणि जन्तवः ।१८५। धराऽप्तेजोमरुक्षकायिकेषु यथाक्रमम् । लेश्याः स्युः षट् सिता पीता कापोता षट् च जन्तुषु ॥१८६।। अत्र पण्णां लेश्यानां शरीरमाश्रित्य प्ररूपणा-तत्र बादरपर्याप्त पृथिवीकायिकानां पडलेश्यानि शरीराणि । तथा अप्कायिकानां शुकुलेश्यानि । अग्निकायिकानां तेजोलेश्यानि । वातकायिकानां कापोतलेश्यानि । वनस्पतिकायिकानां षड्लेश्यानीति श्लोकार्थः । सर्वसूचमेपु कापोता सर्वांपर्याप्तकेषु च । लेश्या सर्वेषु शुक्लेका विग्रहतौ गतेषु च ॥१८॥ अत्र सर्वेषां सूचमाणां शरीराणि कापोतलेश्यानि । सर्वे चापर्याप्ताः कापोतलेश्याङ्गाः । सर्वेषां च विग्रहगतौ शुक्ललेश्यानि शरीराणि । १. सहितः । २. सरागचारि इति औपरामिकादि त्रिविधं चारित्रं भावसंग्रहोक्तं ज्ञेयम् । ३. संयमः । ४. दीप-चन्द्रादयः। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत पञ्चसंग्रहे कार्मणं शुक्ललेश्यं स्यारोजोलेश्यं च तैजसम् । औदारिकं नृ-तिर्यक्षु षड्लेश्यं तु शरीरकम् ॥ १८८ ॥ मूलनिर्वर्तनात्तत्स्याल्लेश्या वैक्रियिकाह्वये । पीता पद्मा सिता चाङ्गो देवे कृष्णा तु नारके || १८ || अत्र नृ-तिरश्चां षड्लेश्यानि शरीराणि । देवानां मूलनिर्वर्तनातः पीत- पद्म शुक्कलेश्यानि । उत्तरनिर्वर्तनातः पड्लेश्यानि । देवीनां मूलनिर्वर्तनातः पीतलेश्यानि । उत्तरनिर्वर्तनातः पड्लेश्यानि । नारकाणां कृष्णलेश्यानि । किमुक्तं भवति ? वैक्रियिकं मूलनिर्वर्तनातः सामान्येन कृष्णलेश्यं पीतलेश्यं पद्मलेश्यं शुकुलेश्यं वा कथितं भवति । शेषं सुगमम् । षड्लेश्याङ्गा मतेऽन्येषां ज्योतिष्क भौमभावनाः । कापोतमुद्गगोमूत्रवर्णलेश्या निलाङ्गिनः ॥ १६०॥ इति सिद्धान्तालापे । इति द्रव्यलेश्या प्ररूपिता । भावलेश्योच्यते-योगाविरति मिथ्यात्व कषायजनितस्तु यः । संस्कारः प्राणिनां भावलेश्याऽसौ कथिताऽऽगमे ॥१६६॥ तीव्रोलेश्या स कापोता नीला तीव्रतरश्च सः । कृष्णा तीव्रतमः पीता संस्कारो मन्द इष्यते ।। १६२ || पद्मा मन्दतरः शुक्ला सः स्यान्मन्दतमस्त्विमाः । पट्स्थानगतया वृद्धया प्रत्येकं षडपीरिताः ॥ १६३ ॥ अत्र मिथ्यात्वा संयमकषाययोगजनितो जीवस्य संस्कारो भावलेश्या । तत्र यस्तीत्रः संस्कारः स कापोतलेश्या, तीव्रतरो नीललेश्येत्यादि नेयम् । एताः षडपि लेश्याः अनन्तभागवृद्धवसंख्यात भागवृद्धिसंख्यातभागवृद्धि-संख्यात गुणवृद्धय संख्यात गुणवृद्धयनन्तगुणवृद्धिक्रमेण प्रत्येकं षट्स्थानपतिताः । निर्मूल-स्कन्ध-शाखोपशाखच्छेदे तरोर्वचः । उच्चये पतितादाने भावलेश्याः फलार्थिनाम् ॥१६४॥ तत्र फलार्थिनां पुंसां तरोर्निग्र्मूलोच्छेदे तीव्रतमकषायानुरक्षितं वचः वाकूप्रवृत्तिर्भावलेश्या कृष्णा १ | तरोः स्कन्धोच्छेदे तीव्रतरकषायानुरञ्जितं वचः नीला २ । तरोः शाखोच्छेदे तीव्रकपायानुरञ्जितं वचः कापोता ३ । तरोरुपशाखोच्छेदे मन्दकषायानुरञ्जितं वचः पीता ४ । तरोः फलोच्चये मन्दतरकषायानुरञ्जितं वचः पद्मा ५ | तरोरधःपतितफलादाने मन्दतमकषायानुरञ्जितं वचः शुक्का ६ । एवं मनसि काये च नेयम् । लेश्याश्चतुर्षु षट् च स्युस्तिस्तस्तिस्रः शुभास्त्रिषु । गुणस्थानेषु शुक्का पट्षु निर्लेश्यमन्तिमम् ॥ ११५ ॥ इति मिथ्यादृष्टयादिषु लेश्याः ६ | ६ | ६ | ६ |३|३।३।१।१।१।१।१।११० । ६७० आद्यास्तिस्रोऽप्यपर्याप्तेष्व संख्येयाब्दजीविषु । लेश्या क्षायिकसद्द्दष्टौ कापोता स्याज्जघन्यका ॥ १३६ ॥ षट् नृ-तिर्यतु तिस्रोऽन्स्यास्तेष्व संख्याब्दजीविषु । एकाच विकलासंज्ञिष्वाद्यं लेश्यात्रयं मतम् ॥ १६७॥ * द्विष्कपोताऽथ कापोता नीले नीलाऽथ मध्यमा । नीलाकृष्णे च कृष्णातिकृष्णा रत्नप्रभादिषु ॥ १६८॥ अत्र रत्नप्रभायां जघन्या कापोता । शर्करायां मध्यमा कापोता । वालुकायां द्वे लेश्ये - उत्कृष्टश ० ० ० ० ० ० कापोता नीला व जघन्येत्येवं त्रिकत्रयं नेयम् । न्यासश्च रत्नप्रभादिषु - ३ ३ ३ २ २ १ 91 २ ง अपर्याप्तेषु कृष्णाद्या लेश्यास्तिस्रो जघन्यका । पीतका भावनाद्येषु त्रिषु पर्याप्तकेषु च ॥१६६॥ सौधर्मैशानयोः पीता पीतापद्मे द्वयोस्ततः । कल्पेषु षट्स्वतः पद्मा पद्माशुक्ले ततो द्वयोः ॥ २००॥ आनतादिषु शुक्लाऽतस्त्रयोदशसु मध्यमा । चतुर्दशस सोत्कृष्टाऽनुदिशानुत्तरेषु च ॥ २०१ ॥ अत्र भावन-भौम-ज्योतिष्केषु त्रिषु निकायेषु देवानामपर्याप्तकानां कृष्णा नीला कापोतास्तिस्रो लेश्याः । तेषामेव पर्याप्तकानामेकैव जघन्या पीतलेश्येति चतस्त्रो लेश्याः । सौधर्मेशानयोर्मध्यमा पीता । ततो द्वयोर्द्वे लेश्ये - उत्कृष्टा पीता जघन्या पद्मेत्येवं त्रिकत्रयं नेयम् । न्यासस्तु ०० ० O ० ० ४ ० ० ० ४ ० ० ४ ५ ० ० ० ० ० ० ० ५ ० ० ० ० ० ० ० ० ५ ६ ६ ॥ इति भावलेश्या समाप्ता ॥ १. षड्वर्णमित्यर्थः । २. संस्कारस्तीत्रः सन् कापोता भवति । ३. पर्याप्तेषु । ४. द्विः द्विवारम् | ० ० ० • ० ० ० C ० Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासाख्यः प्रथमः संग्रहः ६७१ लेश्याकर्मोच्यतेदुर्गाहो दुष्टचित्तश्च रागद्वेषादिभियुतम् । क्रुन्मानवञ्चनालोभैस्तथाऽनन्तानुबन्धिभिः ।।२०२॥ चण्डः सन्ततरश्च निर्दयः कलहप्रियः । मधुमांससुरासक्तः कृष्णलेश्यो मतोऽसुमान् ॥२०३॥ निर्बुद्धिर्मानवान मायी मन्दो विषयलस्पटः । निर्विज्ञानालसो भीरुनिद्रालुः परवञ्चकः ॥२०४।। नानाविधे धने धान्ये सर्वत्रवातिमूच्छिताः । सारम्भो नीलया प्राणी लेश्यया संयुतो भवेत् ॥२०५।। बहशः शोकभीग्रस्तो रुषत्यपि च निन्दति । भसूयन दूपन्नित्यं पर परिभवत्यपि ॥२०६॥ . आत्मानं बहुशः स्तौति स्तूयमानश्च तुष्यति । मन्यमानः परं स्वं वा न प्रत्येति कुतश्चन ।।२०७।। हानि नावेति वृद्धिं वा वष्टि मृत्यु रणाङ्गणे । श्लाध्यमानस्तरां दत्ते जीवः कापोतलेश्यया ॥२०८।। सर्वत्र समग वेत्ति कृत्याकृत्यं हिताहितम् । दयादानरतो विद्वांस्तेजोलेश्यावशोऽसुमान् ।।२०६॥ त्यागी क्षान्तिपरश्चोतो भद्रामा सरलक्रियः । साधुपूजोद्यतो जीगेऽधिष्ठितः पद्मलेश्यया ॥२१०।। सर्वत्रापि समोऽपक्षपातस्त्यक्तनिदानकः । रागद्वेषव्यपेतात्मा स्यात्प्राणी शुक्ललेश्यया ॥२११॥ इति लेश्याकर्म समाप्तम् । त्यक्त कृष्णादिलेश्याकाः सिद्धिं याता निरापदः । अन्तातीतसुखा जीवा निलेश्याः परिकीर्तिताः ॥२१२॥ जीवाः सिद्धत्वयोग्या ये भवसिद्धा भवन्ति ते । न तेषु नियमः शुद्धरस्ति हेमोपलेष्विव ॥२१३॥ सङ्ख्येयेनाप्यसयन कालेनानन्तकेन वा । जीवाः सिद्धयन्ति ये भव्या न त्वभव्याः कदाचन ॥२१॥ न भव्या नापि ये भव्या निर्द्वन्द्वा मुक्तिमाश्रिताः । विज्ञेया सन्ति ते जीवा भव्याभव्यत्ववर्जिताः ॥२१५॥ भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी जीवः पर्याप्तकस्तथा । काललब्ध्यादिभिर्युक्तः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥२१६॥ सप्तकर्मणां सागरोपमान्तःकोटीकोटिस्थितौ सत्यां काललब्धिर्भवति । अत्र क्षयोपशम-विशुद्धिदेशन-प्रायोग्य-लब्धीलब्ध्वा पश्चादधःप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणान् कृत्वोपशम-क्षयोपशम-क्षयसम्यक्त्वरूपां बोधिं लभते जीवः। पूर्वसश्चितकर्मपटलस्यानुभागस्पर्धकानि २दा विशुद्धया प्रतिसमयमनन्तगुणहीनानि भूत्वोदीयन्ते तदा क्षयोपशमलब्धिर्भवति १ । प्रतिसमयमनन्तगुणहीनक्रमेणोदीरितानुभाग-स्पर्धकजनितजीवपरिणामः सातादिसुख (शुभ) कर्मबन्धनिमित्तः सावद्यासुख (शुभ) कर्मबन्धविरुद्धो विशुद्धिलब्धिर्नाम २ । पञ्चास्तिकाय-षडद्रव्य-सप्ततत्व-नवपदार्थोपदेशः, उपदेशकाचार्याधुपलब्धिर्वा उपदिष्टार्थग्रहण-धारण-विचारणशक्तिर्वा देशनालब्धिर्नाम ३। सप्तकर्मणामुत्कृष्टस्थितिमुत्कृष्टानुभागं च हत्वाऽन्तःकोटीकोटिस्थितौ द्विस्थानानुभागस्थान प्रायोग्यलब्धिर्नाम ४। तथोपरिस्थितपरिणामैरधःस्थितपरिणामाः समानाः अधःस्थितपरिणामैरुपरिस्थितपरिणामाः समाना भवन्ति यस्मिन्नवस्थाविशेषे काले सोऽधःप्रवृत्तकरणः । अपूर्वाः अपूर्वाः शुद्धतराः करणाः परिणामा यस्मिन् कालविशेषे सोऽपूर्वकरणपरिणामः । एकसमये प्रवर्तमानैः करणः परिणामैन विद्यते निवृत्ति दो यत्र सोऽनिवृत्तिकरग इति ५ । श्रद्धानं य जिनोक्तार्थेष्वाज्ञयाऽधिगमेन च । षट-पञ्च-नवभेदेषु सम्यक्त्वं तत्प्रवचयते ॥२१७॥ तच्च प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्यलक्षणम् । चारित्रदर्शनघ्नाश्चत्वारोऽनन्तानुबन्धिनः ॥२१॥ सम्यक्त्वमथ मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वमेव च । त्रीणि दर्शनमोहे चेत्येतत्प्रकृतिसप्तकम् ॥२१६॥ यत्तस्योपशमादौपशमिकं क्षायिक क्षयात् । बायोपशमिक सम्यक्त्वाख्यहरमोहपाकतः ।।२२०॥ भवेत्सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनाम् । पाकक्षयाच्च सम्यक्त्वं तत्सत्त्वोपशमाच्च'तत् ॥२२१॥ . अत्रानन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोश्चोदयायासेषामेव सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्धकम्योदये तत्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति । दृष्टिमोहे क्षयं जाते यच्छद्धानं सुनिर्मलम् । सम्यक्त्वं क्षायिकं तस्यात्सदा कर्मक्षयावहम् ॥२२२॥ १. सत्तारूपोपशमात् । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ संस्कृत पञ्चसंग्रह वचनैहें तुभी रूपैः सर्वेन्द्रियभयाव हैः । जुगुप्साभिश्च वीभत्सनैव क्षायिकदृक् चलेत् ( युग्मम् ) ॥२२३॥ दृग्मोहनक्षतेः कर्मभूजः प्रस्थापको मतः । मनुष्येष्वेव सर्वत्र भवेनिष्ठापकः पुनः ॥२२४॥ क्षयस्थारम्भको यस्मिन् भवे स्यादपरांस्ततः । नारयेत्येव भवांस्त्रीन् स क्षीणे दर्शनमोहने ॥२२५॥ शमको दर्शनमोहस्य गतिष्विष्टोऽखिलास्वपि । संज्ञी पन्चेन्द्रियश्चास्ति पर्याप्तः सान्तरश्च सः ॥२२६॥ ज्योतिर्भावनभौमेषु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु । तिर्यग्नर-सुरस्त्रीषु सदृष्टिनैव जायते ॥२२७॥ सम्यक्त्वान्ययतायेषु चतुषु त्रीणि वेदकम् । मुक्त्वोपशमकेषु द्वे शेषेषु क्षायिकं परम् ॥२२८॥ ०1०1०।३।३।३।३।२।२।२।२।१।१।। ११1१1१1१। सौधर्मादिष्वसंख्याब्दायुः लिया नृतपि । रत्नप्रभावनौ च स्यात्सम्यक्त्वत्रयमङ्गिनाम् ॥२२९॥ शेषेषु देवतिर्यक्षु षट्वधःश्वभ्रभूमिषु । वे वेदकोपशमिके स्यातां पर्याप्तदेहिनाम् ॥२३०॥ जन्तोः सम्यक्त्वलाभोऽस्ति बद्धेऽप्यायुश्चतुष्टये । वद्धे नतद्वयप्राप्तिर्देवायुष्यपरेषु न ॥२३॥ सम्यक्त्वात्प्रथमा भ्रष्टो मिथ्यास्वमगतोऽन्तरा । पारिणामिकभावोऽसौ सासादन इति स्मृतः ॥२३२॥ मिथ्यात्वे वधसंशुद्ध कोद्रवे मदशक्तिवत् । शुद्धाशुद्धात्मको भावः सम्यग्मिथ्यात्वमङ्गिनाम् ॥२३३॥ उपदिष्टं न मिध्यादृक् श्रद्दधाति जिनोदितम् । श्रद्दधाति तत्सद्भावं कथितं यदि वाऽन्यथा ॥२३४॥ सम्यक्त्वस्याऽऽदिमो लाभः सकलोपशमान्मतः । नियमेनापरस्त्विष्टः सर्व-देशोपशान्तितः ॥२३५॥ सम्यक्त्वस्याऽऽदिमाल्लाभान्मिथ्यात्वं पृष्ठतो भवेत् । मिथ्यात्वं मिश्रकं वा स्याल्लाभेष्वन्येषु पृष्ठतः ॥२३६।। शिक्षालापोपदेशानां ग्राही संज्ञी मनोबलात् । हिताहितपरीक्षायां योऽसमर्थोऽस्त्यसंझ्यसौ ॥२३७।। कार्याकार्य पुरा तत्त्वमतत्त्वं च विचारयेत् । शिक्षते वापि नाम्नेति समनस्कोऽन्यथेतरः ॥२३८।। एवं कृते मया भूय एवं कार्य भविष्यति । एवं विचारको यो हि स संज्ञी वितरोऽन्यथा ॥२३६।। अत्र संज्ञी नाम कथं भवति ? नोइन्द्रियावरणसर्वधातिस्पर्धकानामुदयक्षयेण तेषामेव सतामुपशमेन देशघातिस्पर्धकानामुदयेन संज्ञी भवति । नोइन्द्रियावरणस्य सर्वधातिस्पर्धकानामुदयेनासंज्ञिनो भवन्ति । विक्रियाऽऽहारकौदार्याङ्गषटपर्याप्तिपुद्गलान् । योग्यान गृह्णाति यो जीवः सः स्यादाहारकाभिधः ॥२४०॥ समुद्धातं गतो योगी मिथ्याक्सासनायताः । विग्रहर्तावयोगश्च सिद्धाश्चाऽऽहारका न हि ॥२४१॥ दण्ड औदारिको मिश्रः स स्याद्दण्ड-कपाटयोः । कार्मणो योगिनो योगः प्रतरे लोकपूरणे ॥२४२।। ॥२४७॥ अन्तरङ्गोपयोगः स्यादर्शनं तच्चतुर्विधम् । बहिरङ्गोपयोगस्तु ज्ञानमष्टविधं तु तत् ॥२४३॥ ज्ञानदररोधमोहान्तरायाणां जिनयोः क्षयात् । तद्वृत्तिः स ममान्येषु तत्क्षयोपशमात् क्रमात् ॥२४४॥ छद्मस्थेषूपयोगः स्याद्विधाऽप्यन्तर्मुहगः । साद्यपर्यवसानोऽसौ जिनयोयुगपद् भवेत् ॥२४५॥ जीवयोगितयोत्पन्नो यो भावो वस्तुहेतुकः । उपयोगो द्विधा सोऽस्ति साकारतरभेदतः ॥२४६॥ मतिश्रुतावधिस्वान्तर्य द्विशेषावधारणम् । उपयोगः स साकारो भवत्यन्तम यदिन्द्रियावधिस्वान्तैरविशेषार्थभासनम् । उपगोगो निराकारः स स्यादन्तमुहर्तगः ॥२४८॥ &[ द्वि-त्रि-सप्त-द्विषु ज्ञेया गुणेषु क्रमतो बुधैः। ] पञ्च पट् सप्त च द्वौ चैवोपयोगा यथायथम् ॥२६॥ ५।५।६।६।६।७।७।७।७।७७७।२।२ । ये मारणान्तिकाऽऽहारतेजो विक्रियकेवलिकषायवेदनाभेदात्समुदाता हि सप्त तु ॥२५०॥ सम्भूयात्मप्रदेशानां बहिरुद्रमनानि च । एकदिक्कौ तु तेष्वाद्यौ दशदिक्काः पञ्च चापरे ॥२५१॥ १. जिनवचनम् । २. तत्सद्भावं कथितं सत् अन्यथा अन्येन प्रकारेण श्रद्दधाति । * आदर्शप्रतौ कोष्ठकान्तर्गतः पाठो नास्ति । स त्वमितगतिपञ्चसंग्रहाद् योजितः,-सम्पादकः । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसमासाख्यः प्रथमः संग्रहः चतुर्थे दिवसाः सप्त पञ्चमे तु चतुर्दश । गुणे 'प्रथमहच्छेदस्ततः पञ्चदश द्वयोः ॥२५२॥ मुहूर्ताः पञ्चचत्वारिंशत्पञ्चदश वासराः । मासा एक-द्वि-चत्वारः षट् द्वादश च सान्तरम् ॥२५३॥ रत्नादिषु औपशमिकसम्यक्त्वस्य । मनःपर्यय आहारयुग्मं सम्यक्त्वमादिमम् । परीहारयमोऽस्त्येषां यधिकत्वत्र नापरः ॥२५४॥ अत्र मनःपर्ययज्ञानेन सहोपशमश्रेण्या अवतीर्य प्रमत्तगुणं प्रपन्नस्योपशमसम्यक्त्वेन सह मन:पर्ययज्ञानं लभ्यते न पश्चात्कृतमिथ्यात्वस्योपशमसम्यग्दृष्टेः प्रमत्तस्य च तत्रोत्पत्तिसम्भवाभावात् । आहारद्धिः परीहारो मनःपर्यय इत्यमी । तीर्थकृच्चोदये न स्युः स्त्री-नपुंसकवेदयोः ॥२५५॥ प्रमाण-नय-निक्षेपानुयोगादिषु विंशति । भेदान् विमार्गयन्नस्ति जीवसद्भाववेदकः ॥२५६॥ जीवस्थान-गुणस्थान-मार्गणास्थानतत्व वित् । तपोनिर्जीर्णकर्मात्मा निर्योगः सिद्धिमृच्छति ॥२५॥ इति जीवसमासाख्यः प्रथमः संग्रहः समाप्तः । १. उपशमसम्यक्त्वाभावः । २. प्रमत्ताप्रमत्तयोः। ३. उदये। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तनाख्यः द्वितीयः संग्रहः मुक्तं प्रकृतिबन्धेन प्रकृतिस्वात्मदेशकम् । प्रगम्योरुश्रियं वीरं वक्ष्ये प्रकृतिकीर्तनम् ॥१॥ ज्ञानदर्शनयो रोधौ वेद्यं मोहायुषी तथा। नाम-गोत्रान्तरायौ च मूलप्रकृतयोऽष्ट वै ॥२॥ क्रमात्पन्च नव द्वे च विंशतिश्चाष्टसंयुताः । चतस्रस्यधिका नवतिद्वै पम्चोत्तरा मताः ॥३।। तत्र प्रकृतयः पञ्च ज्ञानरोधस्य रुन्धतः । मतिश्रतावधीन् जन्तोर्मनः पर्ययकेवले ॥४॥ निद्रानिद्वादिका ज्ञया प्रचलाप्रचलादिका । स्त्यानगृद्धिस्तथा निद्रा प्रचला च प्रकीर्तिता ॥५॥ वृक्षाग्रे वाऽथ रथ्यायां तथा जागरणेऽपि वा । निद्रानिद्राप्रभावेन न दृष्टय द्धाटनं भवेत् ॥६॥ स्यन्दते मुखतो लालां तनुं चालयते मुहुः । शिरो नमयतेऽत्यर्थ प्रचलाप्रचलाक्रमः ॥७॥ स्वपित्युत्थापितो भूयः स्वयं कर्म करोति च । अबद्धं वा प्रलपति स्त्यानगृद्धिक्रमो मतः ॥८॥ यान्तं संस्थापयत्याशु स्थितमासयते शनैः । आसितं शाययत्त्येव निद्रायाः शक्तिरीदशी ॥६।। किञ्चिदन्मीलितो जीवः स्वपित्येव मुहमुहः । ईषदीपद्विजानाति प्रचलालक्षणं हि तत् ॥१०॥ चक्षषोऽचक्षपोष्टरवधेः केवलस्य च । रोधो दर्शनरोधस्य नव प्रकृतयो मताः ॥११॥ वेद्यस्य प्रकृती द्वे तु सातासातानुवेदिके । अष्टाविंशतिसंख्याना मोहनीयस्य तद्यथा ॥१२॥ मोहनं द्विविधं दृष्टश्चारित्रस्य च मोहनात् । दृग्मोहस्तत्र मिथ्यात्वं तत्स्यादेकं तु बन्धतः ॥१३॥ तच्च सम्यक्त्व मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वभेदतः । सत्कर्म तु पुनस्तस्य दृग्मोहस्य निधा भवेत् ॥१४॥ यत्तच्चारित्रमोहाख्यं कर्म तद् द्विविधं मतम् । कषायवेदनीयं स्यानोकषायाभिधं परम् ॥१५॥ कषायवेदनीयं तु तत्र षोडशधा भवेत् । क्रोधो मानस्तथा माया लोभोऽनन्तानुबन्धिनः ॥१६॥ तथा त एव वाऽप्रत्याख्यानावरणसंज्ञकाः । प्रत्याख्यानरुधश्चातस्तथा संज्वलनाभिधाः ॥१७॥ नवधा नोकषायाख्यं स्त्रीवेदो नपुंसकम् । हास्यं रत्यरती शोको भयं सार्क जुगुप्सया ॥१८।। उक्कन्चषोडशव कषायाः स्यु!कषाया नवेरिताः । ईषभेदो न भेदोऽत्र कषायाः पञ्चविंशतिः ॥१६॥ श्वभ्रतिर्यनदेवायु दादायुश्चतुर्विधम् । पिण्डापिण्डाभिधा नाम्ना द्वाचत्वारिंशदीरिताः ॥२०॥ पिण्डाश्चतुर्दशैतासामष्टाविंशतिरन्यथा। पिण्डाः १४ । भपिण्डा: २८ । मोलिताः ४२ । गतिर्जातिः शरीरं तबन्धसङ्घातयोयम् ॥२१॥ संस्थानं तस्य तस्याङ्गोपाङ्गं तस्यैव संहतिः । वर्णगन्धरसस्पर्शाः आनुपूर्वी च तीर्थकृत् ॥२२॥ निर्माणागरुलध्वाख्य उपंधातोऽन्यघातयुक् । उच्छास भातपोद्योती विहायोगतिरित्यसः ॥२३॥ त्रसं बादर-पर्याप्त प्रत्येकं च स्थिरं शुभम् । सुभगं सुस्वरादेये यश-कीर्तिश्च सेतराः ॥२४॥ श्वभ्रतियङनदेवानां गतिनाम चतुर्विधम् । एकेन्द्रियादिभेदेन जातिनामापि पन्चधा ॥२५।। औदारिकं तथा वैक्रियिकमाहार-दैजसे । कार्मणं चेति भेदेन कायनामास्ति पन्चधा ॥२६॥ बन्धनात्पन्चकायानां बन्धनं पञ्चधा स्मृतम् । एतेषामेव सङ्घातासङ्घातोऽपि च पञ्चधा ॥२७॥ समादिचतुरन हि न्यग्रोधं साति-कुब्जके । वामनं हुण्डकं चेति षोढा संस्थानमिष्यते ॥२८॥ औदार्यादित्रिदेहानामाङ्गोपाङ्ग त्रिधा मतम् । स्याद्वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराचमेव च ॥२६॥ नाराचमर्धनाराचं कीलिका चासपाटिका । असम्प्राप्तपरा'षोढत्येवं संहननं मतम् ॥३०॥ १. असम्प्राप्तमुपाटिकमित्यर्थः । Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तनाख्यः द्वितीयः संग्रहः ६७५ वर्णाः शुक्लादयः पञ्च द्वौ गन्धौ सुरभीतरौ । मधुरामलकटुस्तिक्तः कषायः पञ्चधा रसः ॥३॥ अष्टधा स्पर्शनामापि कर्कशं मृदुगुर्वपि । लघु स्निग्धं तथा रूक्षं शीतलं चोष्णमेव च ॥३२।। श्वभ्रादिगतिभेदात्स्यादानुपूर्वी चतुर्विधा । शस्तेतरे नमोरीती पिण्डप्रकृतयस्त्विमाः।।३३।। गोत्रमुच्चं तथा नीचमन्तरायोऽपि पञ्चधा । स्याहानलाभभोगोपभोगवीर्येषु विघ्नकृत् ॥३४।। हत्यक्त्वा मोहनीयस्स नाम्ना षडविंशतिं तथा । सर्वेषां कर्मणां शेषा बन्धप्रकृतयो मताः ॥३५।। ५२०॥ अबन्धा मिश्रसम्यक्त्वे बन्धःसंघातगा दश । ५।५। स्पर्शे सप्त तथैका च गन्धेऽष्टौ रसवर्णगाः ॥३६॥ २८ एता एवोदयं नैव प्रपद्यन्ते कदाचन । सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिद्वयवर्जिताः ॥३७॥ २६।१२२ । पटकप्रतिहारासिमथगुप्यनुकुर्वते । चित्रकृत्-कुम्भकारौ च भाण्डागारिकमेव ताः ॥३॥ आहारविक्रियश्वभ्रनरदेवद्वयानि च । सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमुच्चमुलना इमाः ॥३६॥ - अन परप्रकृतिस्वरूपेण सङ्क्रमणमुहलनम् १३ । दशापि ज्ञानविघ्नस्था हररोधा नव षोडश । कषाया भी जुगुप्सोपघातास्तैजसकार्मणे ॥४०॥ मिथ्यावागुरुलध्वाख्ये निर्मितर्णचतुष्टयम् । ध्रुवाः प्रकृतयस्त्वेताश्चत्वारिंशच्च सप्तयुक ॥४१॥ भाहारद्वयमायूंषि चत्वार्युद्योततीर्थकृत् । परघातातपोच्छ्रासाः शेरैकादशधा मताः ॥४२॥ . ११ द्वे वेद्ये गतयो हास्यचतुष्कं द्वनभोगती । षट के संस्थानसंहत्योर्गोत्रे वैक्रियिकद्वयम् ॥४३॥ चतस्त्रश्चानुपूर्व्यापि दश युग्मानि जातयः । औदारिकद्वयं वेदा एताः सपरिवृत्तयः ॥४४॥ इति प्रकृतिकीर्तनं समाप्तम् । १. गुप्तिः शृङ्खला हडिरित्यर्थः । समाहारसमासत्वादेकवचनम् । Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्यः तृतीयः संग्रहः नत्वा सर्वान् जिनान् सर्वभावसद्भाववेदकान् । बन्धोदयसदुच्छेदवर्णकं स्तवमारभे ॥१॥ ___ अत्र जीवकर्मणोः सम्पर्को बन्धः। कर्मणासनुभवनमुदयः । वर्तमानोदयस्थितिप्रभृत्यावलिकामात्रस्थितीः मुक्त्वोपरितनस्थितीनामसंख्यातभागकर्मपरमाणून् आकृष्योदये प्रक्षेपणमुदीरणा। भपक्वपाचनमुदीरणेति वचनात् । विद्यमानता सत्ता। कषायकलुषो यात्मा कर्मणो योग्यपुद्गलान् । प्रतिक्षणमुपादत्ते स बन्धोऽनेकधा मतः ॥२॥ उक्तञ्च रायो (ययो) रैक्यं यथा रुक्मरौप्ययोरनुवेशतः । बन्धोऽन्योन्यं तथा जीव-कर्मणोरुपवेशतः ॥३॥ धान्यस्य संग्रहो वा सत्कर्म यत्पूर्वसञ्चितम् । उदयो भोज्यकालस्तूदीरणाऽपक्कपाचनम् ॥४॥ सप्ताष्टौ वा प्रबध्नन्ति सप्ताद्या मिश्रकं विना । आयुषा तु विना सप्त मिश्रापूर्वानिवृत्तयः ॥५॥ मोहायुभ्यां विना षटकं सूचमो बध्नात्यतस्त्रयः । बध्नन्ति वेद्यमेवैकमयोगः स्यादबन्धकः ॥६॥ ८८०८८८८ ० ० भुञ्जतेऽष्टापि कर्माणि सूक्ष्मान्ता मोहनं विना । शान्तक्षीणौ तु तान्येवं जिनेन्द्रौ घातिभिर्विना ॥७॥ EERIEEEEEE७७॥४॥४॥ उदारिकास्तु घातीनां तत्स्था मोहस्य रागिणः । वेद्यायुषो प्रमत्तान्ता योग्यन्ता नाम-गं त्रयोः ॥८॥ अत्र मरणावलिकायामायुष उदीरणा नास्तीति मिश्रं त्यक्त्वा पञ्च मिथ्यादृष्टयादयः मरणावलिकायां सप्तोदारयन्ति । आवलिकाशेषे चायुषि मिश्रगुणोऽपि न सम्भवति तेनाष्ट मिश्रः । आवलिकाशेषकाले च । सूचमः पञ्च मोहं विना । क्षीणश्च नाम-गोत्रे भावलिकाशेषकाले उदीरयेत् ।। प्रशान्तान्तेषु सन्त्यष्टौ सप्त मोहं विना परे । कर्माणि धातिहीनानि चत्वार्येव जिनद्वये ॥६॥ ८८८८८८८८८८८४४ सम्यक्त्वं तीर्थकृत्वस्याऽऽहारयुग्मस्य संयमः । बन्धहेतुः प्रबध्यन्ते शेषा मिथ्यादिहेतुभिः ॥१०॥ [बन्धविच्छेदो भण्यते-] षोडशैव च मिथ्यात्वे सासने पन्चविंशतिः। दशावते चतस्रस्तु देशे षटकं प्रमादिनि ॥११॥ एकातोऽतो द्वयं त्रिंशच्चतस्रोऽतोऽपि पञ्च च । सूक्ष्मे षोडश विच्छिना बन्धात्सातं च योगिनि ॥१२॥ इति बन्धे सर्वाः १२८ । ७४ एतास्तीर्थकराहारद्वयोना मिथ्यादृष्टौ १० सासने १९. सुर-नरायुभ्यां विना मित्रे १. मिश्रोऽष्ट उदीरयति । Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर सुरनरायुर्भिः सहासंय २ ० ५८ ५६ ५६ ६२ ६४ ६४ ६० ९२ ९२ सूक्ष्मादिषु - १११ ११ o ३७ ० ५६ ६४ ३२ ० ५६ ६४ ६२ १० ४३ ७१ ३० ५६ ६४ ३२ देशे सू० १६ १७ कर्मस्तवाण्यः तृतीयः संग्रहः १०३ १३१ ६७ ५३ ཅ་ ६ ६३. प्रमसे आहारकद्विकेन सहाप्रमणे अपूर्वे सप्तसु भागेषु ६१ ८६ ५.७ ८५ ४ २६ अभिवृत्ती पञ्चसु भागेषु ६४ १२२ О 9 9 ११६ ११६ ११६ १४७ १४७ १४७ मिध्यात्वं पण्डवेय श्वभ्रायुर्नरकइयम् चतस्रो जातयश्चाचाः सूक्ष्मं साधारणातपी ॥१३॥ अपर्यासमसंप्राप्तं स्थावरं हुण्डमेव च पोडशेति च मिध्यात्वे विद्यन्ते हि बन्धतः ॥ १४ ॥ त्यानगृद्वयं तिर्यगायुराचा कपायकाः । तिर्यग्वधमनादेगं खीनीचोद्योतदुःस्वराः ॥१५॥ संस्थानस्याथ संहत्यातुके तु मध्यमे । दुर्भगासन्नभोरीती सासने पचविंशतिः ॥१६॥ द्वितीयमथ कोपादिचतुष्कं चादिसंहतिः । नरायुर्नृद्वयौदार्यद्वये च दश निर्वते ॥ १७ ॥ कपायाणां चतुष्कं च तृतीयं देशसंयते । आसातमरतिः शोकास्थिरे नाशुभमेव च ॥१८॥ अवशः पद्प्रमत्ताख्ये देवायुश्चाप्रमत्तके । अपूर्वप्रथमे मागे ह े निद्राप्रचले ततः ||१३|| पठे सकार्मणं तेजः पञ्चाचममरद्वयम् । स्थिरं प्रथमसंस्थानं शुभं वैकिविकद्वयम् ॥ २० ॥ श्रसाधगुरुलादिवर्णादिकचतुष्टयम् । सुभगं सुखरादेये निर्माणं सम्मभोगतिः ॥२१॥ आहारकद्वयं तीर्थंकरं त्रिंशदिमास्ततः । हास्यं रतिजुगुप्साभीः क्षणेऽपूर्वस्य चान्तिमे ॥ २२॥ इत्पूर्वे २|३०|४| क्रमान्वेदाला पञ्चांशेध्वनिवृत्तिके सूक्ष्मेऽप्युद्धं यश तुष्कं ज्ञान विघ्नयः ॥ २३ ॥ दशैवं पोडशास्माच्च शान्तक्षीणी विहाय च । सयोगे सातमेकं तु बन्धः सान्तोऽप्यनन्तकः ||२४|| अनिवृत्ती ५ सूचमे १६ सयोगे १ उदेति मिश्र मिश्र सम्यक्त्वं तु चतुवंतः । आहारकं प्रमत्तास्ये तीर्थकृत्केवलिद्वये ||२५|| पाके श्वभ्रानुपूर्वी न सासने श्वभ्रगो न सः । मिश्र सर्वानुपूर्व्यो न येनासौ म्रियते न हि ॥ २६ ॥ उदयाचान्ति विच्छेदं पञ्च प्रकृतयो नय एका सप्तदशाष्टी द पञ्चैव च यथाक्रमम् ||२७|| उ० क्षी० स० १ १ अ० चतस्रः पट तथा पट्कमेका द्व े पोडशापि च अपयोगजिनान्तेषु त्रिंशच्च द्वादशापि च ||२८|| (युग्मम् ।) इत्युदये सर्वाः १२२ : १२० १४८ 9 तिथं नरसुरानुपूर्वीभिर्विना सम्यग्मिथ्यात्वेन च सह मिश्र 100 १०० २२ ४८ १. नियगजिनान्तेषु चतुर्दशसु गुणस्थानेषु इति ज्ञेयम् । ६७७ १ १ १ १ २२ १ २१ २० १६ १८ ६८ ६६ १०० १०१ १०२ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० एताः सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्वाऽऽहारकद्वय हीना मिथ्यादृष्टौ ११७ नरकानुपूर्वी विना सासने ५ ३१ चतसृभिरानुपूर्वीभिः सम्यक्त्वेन Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रहे च सहासंयते १९० देशे 5, भाहारकविकेन सह प्रमत्ते 51 अप्रमत्ते ७० अपूर्व ७२ अनिवृत्तौ १५ ६६ सूक्ष्मे ६० उपशान्ते १६ क्षीणद्विचरमसमये . 100 . सध्ये ६० उपशान्ते समये तीर्थकरेण सह सयोगे ६५ ६७ 63 ८८ ९१ . १०६ अयोगे पञ्चापर्याप्तमिथ्यात्वसूचमसाधारणातपाः । मिथ्यादृश्युदयाभ्रष्टाः स्थावरं सासनाभिधे ॥२६॥ चतम्रो जातयश्चायं कोपादि च चतुष्टयम् । सम्पमिथ्यात्वमेकं च सम्यग्मिथ्याहगाह्रये ॥३०॥ ५।६।१ द्वितीया अपि कोपाद्या आयुन रकदेवयोः । नृ-तिर्यगानुपूये द्वे दुर्भगं वैक्रियिद्वयम् ॥३१॥ देवद्विकमनादेयमयशो नारकद्वयम् । दश सप्ताव्रतस्थानेऽतस्तृतीया क्रुधादयः ॥३२॥ तिर्यगायुर्गती नीचोद्योतावष्टावणुपते । पञ्चाऽऽहारद्वयं स्त्यानगृद्धित्रयमतः परे ॥३३॥ १७मा५ । सम्यक्त्वं संहतेश्चान्त्यं त्रयं चैवाप्रमत्तके । षटकं तु नोकषायाणामपूर्वेऽप्युदयाच्युतिम् ॥३४॥ श६। वेदत्रयं तु संज्वालास्त्रयः पडनिवृत्तिके । सूचमे च लोभसंज्वाल एक एवान्तिमे क्षणे ॥३५॥ ६१ वज्रनाराच-नाराचे प्रशान्तेऽप्युदयाच्युते । निद्रा च प्रचला च द्वहीणमोह उपान्तिमे ॥३६॥ पञ्च ज्ञानावृतेदृष्टश्चतुष्कं विघ्नपञ्चकम् । चतुर्दशोदयाद् भ्रष्टाः क्षणे क्षीणस्य चान्तिमे ॥३७॥ २॥१४॥ वेद्यमेकतरं वर्णचतुष्कौदारिकद्वये। संस्थानानि षडाया च संहतिद्वै नभोगती ॥३८।। तथैवागुरुलघ्वादिचतुष्कं तैजसं तथा। प्रत्येकं च स्थिर द्वन्द्व शुभसुस्वरयोर्युगे ॥३६॥ निर्माण कार्मणं त्रिंशत्समयेऽन्त्ये हि योगिनः । वेदनीयं द्वयोरेक मनुष्यायुर्गती सम् ॥४०॥ पञ्चाक्षं सुभगं स्थूलं पर्याप्तं तीर्थकृत्तथा । आदेयं यश रच्चं च द्वादशैवमयोगके ॥४१॥ .३०।१२ विच्छिनोदीरणाः पञ्च नव मिथ्यागादिषु । एका सप्तदशाष्टाष्टौ चतस्रः षट षडेव तु ॥४२॥ एका द्वषोडशकान्नचत्वारिंशत्क्रमादिमाः । उदीर्य ते न चैकापि निर्योगे प्रकृतिर्जिने ॥४३।। (युग्मम् ।) एताः सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वाऽहारकद्वयतीर्थकरहीना मिथ्याष्टौ । 'नरकानुपूर्वी विना सासने ::तिर्यनरसुरानुपूर्वीविना सम्यग्मिथ्यात्वेन सह मिश्रे :: चतसभिरानुपूर्वीभिः सम्यक्त्वेन च सहा Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयते १७ १०४ १८ ४४ देशे अप्र० ४ ७३ ४६ ७५ - ८७ ३५ ६१ तीर्थकरेण सह सयोगे आहारकद्विकेन सह प्रमत्ते अपू० ६६ ५३ ७६ ३६ ३६ ८३ १०६ अयोगे कर्मस्तवाख्यः तृतीयः संग्रहः ३६ १ १६ ० ७ १३ १३८ १०२ १०१ ८५ ८५ १३। १० ४६ ४७ ६३ ६३ १३५ अनि० सूक्ष्म० ६ ง ६३ ५६ ८५ १२२ । १४८ ५७ ६५ १ Τ ८१ ४१ ४७ १३६ अप्रमत्तादिषु षट्सु - १३६ A उप० २ ५६ ६६ ६२.. सातासात नरायुर्भिनाः प्रकृतयो यकाः । अयोगस्योदये तासां योगिन्येवास्त्युदीरणा ||४|| इत्युदीर्यत एकचत्वारिंशत्सयोग के साठासावनरायुभिः पष्ठेऽष्टोदीरणान्खगाः ||१५|| इति षष्ठे प्रमत्ते उदयव्युच्छेदे ५ सातादिभिः सहाष्टौ ८ । प्रमत केवलिभ्यो ऽन्यत्रोदयोदीरणे समे । उदीयते न कापि निर्योगे प्रकृतिर्जिने ॥ ४६ ॥ आहारद्र्यतीर्थेशसत्वे सासनताऽस्ति न । सत्त्वे तीर्थकृतो नैति वै तिर्थक्त्वं च मिश्रताम् ||४७ || नाणुव्रतेषु श्वश्रायुः प्रमत्तेयतरयोश्च न । तिर्यक् श्वभ्रायुषी सत्वे न चौपशमिकेषु ते ॥ ४८|| सप्त स्युर्निताऽऽद्येषु चतुष्क सत्यये पोडशाष्टी तयैकैका पडेकेका चतुर्ध्वतः ||१३|| अनिवृत्तौ ततश्चैका सूक्ष्मे क्षीणेऽपि षोडश । अयोगे क्षीयते पश्चात् द्वासप्ततिरुपान्तिमे ॥ ५० ॥ त्रयोदश क्षणान्त्ये च हृत्वेवं प्रकृतीजिंनम् । सिद्धिजातं नमाम्यष्टचत्वारिंशच्छतप्रमाः ॥५१॥ १४८| अत्र सामान्येन तावत्प्रथमो विकल्पः- मिथ्यादृष्टौ १४८ तीर्थंकराऽऽद्दारद्वयोगाः 9 आहारकद्विकेन सह मिश्र १४७ । सर्वासंयते १४८ । नारकायुषा विना देशे १४५ । अप्रमते प्रमत्ते १४६ २ १४६ २ • १४६ १४६ २ २ शायिक सम्यक्त्वेपशमकेषु चतुर्ष्वपि | अपशमिकसम्यवत्येपूपशनकेषु चतुषु १३६ ५३६ fro To ५४ ६८ ३४ I च० पी० १४ ५२ ७० ६६ १. प्रमत्तसयोग्ययोगिगुणस्थानेभ्यः । २. तीर्थंकरस्य । ३ तिर्यक् श्वभ्रायुषी । १४६ २ अपूर्वादिचपकेषु च ६७६ १४५ . सासने | तिरंगा थुपा विना द्वितीय विकल्पश्वर मशरीरेषु श्वभ्रतिर्यक् सुदुहना मिथ्यादृष्टौ १४५ । तीर्थकर ऽऽहारद्वय हीनाः ३ सासने १४२ | आहारकद्विकेन सह मिश्र १४४ | तीर्थंकरेण सहासंयते १४५ । देशे १४५ । प्रमत्ते ६ ४ ३ ३ १४६ 1 २ १३८ I १० Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० संस्कृत-पञ्चसंग्रहे १४५। अप्रमत्ते १४५। अपूर्वे १३८ । अनिवृत्तौ नव भागेषु १३८ १२२ ११४ ११३ ११२ १०६ १० २६ ३४ ३५ ३६ ४२ १०५ १०४ १०३। सूचमे १०२। उपशान्ते १४५। क्षीणोपान्त्यसमये १०१ चरमसमये च ६९ | ४३ ४४ ४५ ४२ सयोगे ८५। अयोगे द्विचरमसमये ८५ चरमसमये च १३ । श्वभ्रतिर्यक सुरायुःषु प्रतीणेष्वन्यजन्मनि । उच्यते नृभये जाते गुणस्थानेषु सत्क्षयः ॥५२॥ चतुष्वसंयतायेषु क्वाप्यनन्तानुबन्धिनः । मिथ्यात्वं मिश्रसम्यक्त्वे सप्त यान्ति क्षयं क्रमात् ॥५३॥ स्त्यानगृद्धित्रयं तिर्यग्द्वयं श्वभ्रद्वयं तथा । एकाक्षविकलाक्षाणां जातयः स्थावरातपौ ॥५४॥ सूक्ष्मसाधारणोद्योताः षोडशोऽतोऽष्टमध्यमाः । कषायाः षण्ढवेदोऽतः स्त्रीवेदोऽतस्ततः क्रमात् ॥५५॥ हास्यषटकं च पुंवेदः क्रोधो मानोऽथ वञ्चनाः । अनिवृत्तेनवांशेषु सूचमे लोभस्ततोऽन्तिमः ॥५६॥ अनिवृत्तौ १६।८।१:११६।१।१।११ । सूचमे १।। निद्रा च प्रचला च द्वेक्षीणस्योपान्तिमे क्षणे । कचतुष्कमथो विघ्नज्ञानावृत्योर्दशान्तिमे ॥५७॥ २॥१४॥ पञ्चायोगे शरीराणि जिने तद्बन्धनानि च । सङ्घातपञ्चकं षट् च संस्थानान्यमरद्वयम् ॥५॥ अङ्गोपाङ्गत्रयं चाष्टौ स्पर्शाः संहनानि षट । अपर्याप्त रसाः पञ्च द्वौ गन्धौ वर्णपञ्चकम् ॥५६॥ अयशोऽगुरुलध्वादिचतुष्कं द्व नभोगती। स्थिरद्वन्द्व शुभद्वन्द्व प्रत्येकं सुस्वरद्वयम् ॥६०॥ वेद्यमेकतरं निर्मिनीचानादेयदुर्भगम् । उपान्त्यसमये हीणाः द्वासप्ततिरिमाः समम् ॥६॥ चणेऽन्त्येऽन्यतरद्वय नरायुद्वयं त्रसम् । सुभगादेयपर्याप्तपञ्चाक्षोरचयशांसि च ॥६२॥ बादरं तीर्थकृच्चैतात्रयोदश परिक्षयम् । यत्र प्रकृतयो जातास्तमयोगमभिष्टुवे ॥६३॥ किं प्राविच्छिद्यते बन्ध: किं पाकः किमुभौ समम् । किं स्वपाकेन बन्धोऽन्यपाकेनोभयथापि किम् ॥६४॥ सान्तरस्तद्विपक्षो' वा स किं चोभयथा मतः । एवं नवविधे प्रश्ने क्रमेणास्त्येतदुत्तरम् ॥६५॥ देवायुर्वि क्रियद्वन्द्व देवाहारद्वयेऽयशः । इष्टानां पुरा पाकः पश्चाद्वन्धो विनश्यति ॥६६॥ हास्यं रतिर्जुगुप्सा भीमिथ्यापुंस्थावराऽऽतपाः । साधारणमपर्याप्तं सूचमं जातिचतुष्टयम् ॥६७॥ नरानुपूर्वी संज्वाललोभहीना क्रधादयः । इत्येकत्रिंशतो बन्धपाकोच्छेदौ समं मतौ॥६॥ एकस्मिन् गुणस्थाने बन्धोदयौ ३१ । प्रकृतीनां तु शेषाणामेकाशीतिभिदा युजाम् । पूर्व विच्छिद्यते बन्धः पश्चात्पाकस्य विच्छिदा ॥६६॥ ८१॥ ज्ञानग्रोधवेद्यान्तरायगोत्रभवायशः । शोकारत्यन्तलोभाः स्त्रीषण्ढवेदौ च तीर्थकृत् ॥७०॥ श्वभ्रतिर्यनरायू षि श्वभ्रतिर्यडनृरीतयः । तियंक्श्वभ्रानुपूव्यों द्व पञ्चाक्षौदारिकद्वये ॥७॥ वर्णाद्यगुरुलध्वादिवसादिकचतुष्टयम् । षटकं संस्थान-संहत्योरुद्योतो दु नभोगती ॥७२॥ स्थिरादिपञ्चयुग्मानि निर्मितैजसकामणे । एकाशीतेः पुरा बन्धः पश्चापाको विनश्यति ।।७३।। ८१॥ १. निरन्तरः। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तदाख्यः तृतीयः संग्रहः विक्रियाषट्कमाहारद्वयं श्वभ्रामरायुषी । तीर्थकृच्चैव बध्यन्ते एकादश परोदयात् ॥ ७४ ॥ अत्र एताः परोदयेन बध्यन्ते, बन्धोदययोः समानकाले वृत्तिविरोधात् । ज्ञानावृत्यन्तरायस्था दश तैजसकार्मणे । शुभस्थिरयुगे वर्णचतुष्कं दृक्चतुष्टयम् ॥ ७५ ॥ निर्माणागुरुलध्वाह्न मिथ्यात्वं सप्तविंशतेः । बन्धः स्यात्स्वोदयाच्छेषद्वयशीतेः स्व-परोदयात् ॥ ७६ ॥ २७॥ द्व े वेद्ये पञ्च ग्रोधाः कषायाः पञ्चविंशतिः । षट्के संस्थान - संहत्योर्नृद्वयौदारिकद्वये ||७७॥ तिर्यङ्नरायुषी तिर्यग्द्वयोद्योतौ नभोगती । परघातात पोच्छ्रासा द्व े गोत्रे पन्च जातयः ॥ ७८ ॥ उपघातं युगान्यष्टौ शुभस्थिरयुगे विना । त्रसादीनीति बन्धः स्याद् द्वयशीतेः स्वपरोदयात् ॥७३॥ ८२ | एताः स्वोदय-परोदयाभ्यां बध्यन्ते, उभयथापि विरोधाभावात् । ज्ञानदृग्रोधविघ्नस्थाः सर्वाः सर्वे क्रुधादयः । मिथ्यात्वं भी जुगुप्सोपघातास्तै जसकार्मणे ||८०|| निर्माण गुरुलध्वाह्न वर्णादिकचतुष्टयम् । इति प्रकृतयः सप्तचत्वारिंशद् ध्रुवा इमाः ॥८१॥ ४७॥ आयुश्चतुष्टयाऽऽहारद्वयतीर्थंकरैर्युताः । चतुःपञ्चाशदासां च भवेद् बन्धो निरन्तरः ॥ ८२ ॥ ५४॥ पञ्चान्तिमानि संस्थानान्यन्त्यं संहतिपञ्चकम् । चतस्त्रो जातयोऽप्याद्याः षण्ढः स्त्रीस्थावरातपाः ॥८३॥ शोकारत्यशुभोद्योतसूक्ष्मसाधारणा यशः । अस्थिरा सन्नभोरीती दुर्भगापूर्णदुःस्वरम् ॥८४॥ श्वभ्रद्वयमनादेयासाते त्रिंशच्चतुर्युताः । बध्यन्ते सान्तरा बन्धेऽन्याः सान्तर निरन्तराः ||८५|| ३४| तिर्यद्वयं नरद्वन्द्वं पुंवेदौदारिकद्वये । गोत्रे सातं सुरद्वन्द्रं पञ्चाक्षं वैक्रियद्वयम् ॥८६॥ परघातं रतिहस्यमाद्ये संस्थानसंहती । दश प्रसादियुग्मानामाद्यान्युच्छ्राससङ्गती ॥८॥ ३२। भत्रैकं समयं बद्ध्वा द्वितीयसमये यस्याः बन्धविरामो दृश्यते, सा सान्तरा बन्धप्रकृतिः । यस्याः बन्धकालो जघन्योऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमात्रः, सा निरन्तरा बन्धप्रकृतिः । तेनोक्तं- सान्तरो बन्ध एकसमयेन, द्वितीयसमयेन बन्धाभावात् । निरन्तरो बन्ध एक-एकसमयेन बन्धोपरमाभावात् । इति बन्धे सान्तराः ३४ ।. सान्तर निरन्तराः ३२ । वाततेजोऽङ्गिनो नोच्चं न बध्नन्ति नृजीवितम् ! सच्चे तीर्थकृतो नैति तिर्यक्त्वं न च मिश्रताम् ॥८॥ आहारद्वयतीर्थेशः सत्त्वे सासनताऽस्ति न । अशस्तवेदपाकाच' नाहारद्धिः प्रजायते ॥ ८६ ॥ पाके स्त्री- पण्ढयोस्तीर्थं कृत्सत्वे क्षपकोऽस्ति न । [ इति कर्मबन्धस्तवः समाप्तः । १. स्त्री- नपुंसक वेदोदयात् । ८६ 28 ६८१ 118011 Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः श्रताम्भोनिधिनिष्यन्दाज्ज्ञानताभिघातकृत् । भन्यानाममृतप्रख्यं जिनवाक्यं जयत्यदः॥१॥ अत्रैव कतिचिच्छ लोकान् दृष्टिवादात्समुच्चितान् । वच्ये जीवगुणस्थानगोचरान् सारसंयुतान् ॥२॥ उपयोगास्तथा योगा येषु स्थानेषु यत्प्रमाः । सन्ति यत्प्रत्ययो बन्धस्तेषु तत्सर्वमुच्यते ॥३॥ बन्धादयस्त्रयस्तेषां तेषु संयोग इत्यपि । तथा बन्धविधानेऽपि संक्षेपात्किञ्चिदुच्यते ॥४॥ __भष्ट [भत्र सूत्रपदादिएकाक्षा बादरा सूचमा द्वयक्षाद्या विकलास्त्रयः । पञ्चाख्या संश्यसंश्याख्याः सर्वे पर्याप्लकेतरे ॥५॥ एकेन्द्रियेषु चत्वारि जीवानां विकलेषु षट । पञ्चाक्षेष्वपि चत्वारि स्थानान्येवं चतुर्दश ॥६॥ तिर्यग्यतौ समस्तान्यन्यासु द्वसंज्ञिनि स्थिते । नेयानि मार्गणास्वेवं जीवस्थानानि कोविदः ॥७॥ २,१४,२,२ । ४२,२,२,४ । ४,४,४,४,४,१०।११,१,१,१,१,१,५,७,८,१,१,१,८ । ४,४,१४ । १४,१४,१४,१४ । १४,१४,१,२,२,२,१,१।१,१,१,११,१।१४। ३, वि० ६,१४,२,१।१४,१४,१४, २,२,२ । १४,१४ । १, दि० २,२,२,२, वि०८, १,१४ । २,२, वि० १२ । १४,। देवश्वाभ्रेषु चत्वारि गुणस्थानानि पञ्च तु । तिर्यक्षु नृषु सर्वाणि यथास्वं चेन्द्रियादिषु ॥८॥ ४,५,१४,४ । २,२,२,२,१४ । २,२,१,१,२,१४ । १३,१२,१२,१३,१३,१२,१२,१३,१३,४,४, ३,१,३,४ । ३,६,६ । ६,६,९,१० । २,२,२,६,३,६,२,२ । ४,४,२,३,४,१,४। १२,१२,६,२ । ४,४,४, ७,७,१३ । ११,१ । ८,५,११,१,१,१! १२,२ । १३,५ । त्रिभिविना नवान्यासु नृगतावखिला अपि । ज्ञातव्या मागणास्वेवमुपयोगा यथायथम् ॥४॥ ___१,६,२,३ । ३,३,३,४,१२ । ३,३,३,३.३,१२ । १२,१०,१०,१२; १२,१०,१०,१२; १२,, ६,७,६,६,९ । ६,६,10 । १०,१०,१०,१०। ५,५,५,७,७,७,७,२ । ७,७,६,७,६,६, । १०,१०,७,२ । ६,६,९,१०,१०,१२ । १२,५ । ६,७,६,५,६,५ । १०,४ । १२, । योगास्त्रयोदश ज्ञेया नृगतौ तु विचक्षणः । अन्यास्वेकादशैवं ते यथास्वं चेन्द्रियादिषु ॥१०॥ ११,११,१३,११ । ३,४,४,४,१५। ३,३,३,३,३,१५। १,१,१,१,१,१,१,१,१,१,१,१,१,१,१ । १३,१५,१३ । १५,१५,१५,१३।१३,१३,१०,१५,१०,१५,६,७ । ११,११,६,६,११,६,१३ । १२,१५, १५,७ । १३,१३,१३,१५,१५,१५ । १५,१३ । १३,१५,१५,१३,१०,१३ । १५,४ । १४,१। एकादश द्विकेषु जोवस्थानेष्वनुक्रमात् । त्रिचतुदर्वादश ज्ञेया उपयोगा भवन्ति वै॥११॥ नवष्वथ चतुर्वेकस्मिन्नेको द्वौ तिथिप्रमाः । योगाः स्युस्तद्भवस्थेषु विग्रहतौ तु कार्मणः ॥१२॥ १. चतुर्दर्शने विग्रहगतौ षड् जीवसमासा भवन्ति-चतुरिन्द्रिया पर्याप्तापर्याप्ता इति । २. मिथ्यात्वसासादनाविरतिसयोग्ययोगिनः, एते पञ्च । ३-४. चक्षविभङ्गामनःपर्ययं विना नव भवन्ति । ५. चतुरिन्द्रियपर्याप्त-पञ्चेन्द्रियासंझिपर्याप्तौ द्वौ। ६. पञ्चेन्द्रियसंक्षिपर्याप्त एकः । Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः ६८३ अत्र वृत्तिश्लोकास्त्रयःमत्यज्ञानं श्रुताज्ञानमचक्षुर्दशनं त्रयः । एकादशसु ते चक्षुर्दशामाचतुरिन्द्रये ॥१३॥ असंज्ञिनि च पर्याप्त पूर्णेद्वादश संज्ञिनि । उपयोगास्तथा योगा जीवस्थानेषु सन्त्यमी ॥१४॥ पूर्णेष्वौदारिकं षट् सु वाक्तेषु द्वीन्द्रियादिषु । सर्वे संज्ञिनि पूणेष्वौदार्यमिश्रं च सप्तसु ॥१५॥ द्वयोः पञ्च द्वयोः पट्ते मिश्रा एकत्र सप्तसु । सप्त सन्त्यु योगास्तु द्वौ गुणस्थानयोयोः ॥१६॥ गुणेषु ५।५।६।६।६।७७७७७७७।२।२। अत्र वृत्तिश्लोकौ-- मिश्रे ज्ञान त्रिकं युग्मे ज्ञान मिश्रं च तस्त्रिभिः। मिश्रे ज्ञानत्रयं युग्मे चतुष्कं यतिसप्तके ॥१७॥ द्वयो दर्शने त्रीणि दर्शनानि दशस्वतः । जिनयोः केवलज्ञान तथा केवलदर्शनम् ॥१८॥ ३ ३ ३ ३ ३ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४... सयोगायोगयोः २।२ । अत्र मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टौ त्रीणि ज्ञानानि त्रिभिरज्ञानर्मिश्राणि ।। आद्ययोनिव्रते चैव सन्ति योगास्त्रयोदश । दश मिश्रे प्रमो कादश वर्णिताः ॥१६॥ नव योगाः समादिष्टाः गुणस्थानेषु सप्तसु । उपयोगे तु जिने सप्त स्थानमेकमयोगकम् ॥२०॥ १३.१३॥१०१३।६।११। ६ KIRRIE७० । अत्र वृत्तिश्लोकाःत्रिष्वाहारकयुग्मोना मिश्रे चौदार्यविक्रिये । वाङ्मानपचतुष्के च विक्रियोनाश्च तेऽष्टसु ॥२१॥ द्वौ चाहारौ प्रमत्तेऽन्या चौदायौ योगिनस्तथा । आद्यन्ते मानसे वाची समुद्रातं गतस्य च ॥२२॥ योगिन्यौदारिको योगो दण्डेऽस्त्यौदार्यमिश्रकः । कवाटे कार्मणाख्यस्तु प्रतरे लोकपूरणे ॥२३॥ सयोगे ७ ।। मिथ्यात्वाविरती योगः कषायो बन्धहेतवः । पञ्च द्वादश ते पञ्चदश स्युः पञ्चविंशतिः ॥२४॥ १।१।१।१ इति मूलप्रत्ययाः । एते समुदिताः ४ । एपामेव भेदा उत्तरप्रत्ययाः । ५।१२।१५।२५ । एतेऽपि समुदिताः ५७ । तत्र मूलप्रत्ययानां बन्धहेतुत्वं समुदायेऽवयवे च वेदितव्यम् । कथमित्याहआये बन्धश्चतुर्हेतुस्त्रिध्वन्यात् प्रत्ययत्रिकात् । विरत्यविरतिमिश्रा देशेऽन्त्यौ द्वावितित्रिकात् ॥२५॥ कषाययोगजः पञ्चस्वतः स्याद्योगजस्त्रिषु । सामान्यप्रत्ययाः सन्ति गुणेष्वित्यष्टकर्मणाम् ॥२६॥ __ अत्र देशे संयतासंयते त्रसविरतिः स्थावराविरत्या मिश्रा। इति गुणेषु नानकसमयमूलप्रत्यया नानकजीवानां ४।३।३।३।३।२।२।२।२।२।१।१।१० । उत्तरप्रत्ययानाहसंशयाज्ञानिकैकान्तविपरीतविकल्पतः । भेदा नयिकाहाच मिथ्यात्वं पञ्च चोदितम् ॥२७॥ तत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः किं स्याद्वा नवेति मतिद्व विध्यं संशयः १ । हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम् २। इदमेवेत्थमेव धर्मिधर्मयोरभिसन्निवेश एकान्तः। स च 'पुरुप एवेदं सर्व' इत्यादि ३ । सम्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिद्धथतीत्येवमादिविपर्ययः । सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शित्वं वैनायिकम् ५। द्वादशाविरतेर्भेदाः प्राणिकायेन्द्रियाश्रयाः । प्राणिकायाः पृथिव्याद्याः षट् पडनेन्द्रियाण्यपि ॥२८॥ इति द्वादशविधा अविरतिः १२ । - १. द्वयोरेकेन्द्रिययोः पर्याप्तयोरौदारिक एकः । सप्तस्वपर्याप्तेष्वौदारिकमिश्र एक इति समुदायेन नवस्वेको योगः । २. द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियासंक्षिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु चतुषु द्वौ कायवाग्योगौ । ३. संशिनि पर्याप्ते पञ्चदश योगाः। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ संस्कृत-पञ्चसंग्रहे षोडशैव कपायाः स्युनौकषाया नवेरिताः । ईपभेदो न भेदोऽत्र कषायाः पञ्चविंशतिः ॥२६॥ अत्र षोडश कषायाः, नव नोकपायाः । ईपभेदो न भेद इति पञ्चविंशतिः कषायाः २५ । आहाराहारमिश्रयोः प्रमत्ते सम्भवादिति ताभ्यां सह 'निरुपभोगमन्त्यम्' इति वचनातैजसाच्च विना पञ्चदश योगाः १५। उक्तञ्चन कर्म बध्यते नापि जीयते तेजसेन हि । शरीरेणोपभुज्यते सुख-दुःखे च तेन नो ॥३०॥ __ तैजसस्य जघन्येनैकः समयः, उत्कर्षेण पट पष्टि-सागरोपमाणि स्थितिः। तदो ते समुदिता: ५७ । एताश्च गुणेष्वाऽऽहआये स्युः पञ्चपञ्चाशत् पञ्चाशत्प्रत्ययाः परे । त्रिचत्वारिंशदप्यस्मात् षट्चत्वारिंशदप्यतः ॥३१॥ सप्तत्रिंशचतुर्विशतिश्च द्वाविंशतिद्वयोः । षोडशककहीनाः स्युः यावद्दशानिवृत्तिके ॥३२॥ दश सूचमकषायेऽपि शान्त-क्षीणकषाययोः । नव सप्त सयोगाख्ये निर्योगः प्रत्ययातिगः ॥३३॥ इति नानाजीवेषु नानासमयेषूत्तरप्रत्ययाः गुणस्थानेष्वष्टसु ५५।५०।४३१४६।३७२४।२२।२२। अनिवृत्तौ १६।१५।१४।१३।१२।११। सूचमादिषु पञ्चसु १०।६।६७।। अत्र वृत्तिश्लोकाः-- आये नाहारकद्वन्द्व न मिथ्यात्वानि सासने । 'त्रिष्वाद्या न कपायाः स्युन देशे विक्रियाह्वयम् ॥३४॥ न सासंयमो नान्ये कोपाद्या मिश्र-देशयोः । कार्मणौदार्यमिश्रे न नो वैक्रियिकमिश्रकम् ॥३५।। साहारे न प्रमत्तेऽन्ये कोपाद्या नाप्यसंयमः। द्वयो हारकद्वन्द्वं नानिवृत्तौ क्रमादिमे ॥३६॥ हास्यादिषटकं घण्ढस्त्री पु-क्रोधौ मान-वञ्चने । येऽनिवृत्तौ दश स्युस्ते सूचमे लोभाद्विना द्वयोः ॥३७॥ आद्यन्ते मानसे वाचौ चाद्यन्ते कार्मणं तथा । औदायौदार्यमिश्रे च प्रत्ययाः सप्त योगिनि ॥३८॥ ५१।५३/५५।५२॥ ३८॥४०॥४१॥४२॥७॥ ३८॥३८॥३८।३८३८५७॥ ४३।४३१४३१४३१४३१४३। ४३।४३१४३।४३/४३१३॥ १२११२।४३॥ ५३।५५।५३॥ ४५।४५/४५/४५॥ ५५/५५॥ ५२।४८।४८।४। २०७॥ २४॥२४॥२२॥10॥११॥३७॥५५॥ ५७।५७१४८७॥ ५५॥५५॥५५/५७।५७।५७॥ ५७॥५५॥ ४६॥४८॥ ४८।४३५०॥५५॥ ५७।४५॥५६॥४३॥ आहारौदार्ययुग्माभ्यां स्त्री-पुभ्यां चापि वर्जिताः । प्रत्ययास्त्वेकपञ्चाशच्छेषाः श्वभ्रगतौ मताः ॥३६॥ विक्रियाऽऽहारयुग्माभ्यां हीनास्तियक्ष ते मताः । बिपञ्चाशत् नृगतौ तु विक्रियद्वयहीनकाः ॥४०॥ ५३०५५। आहारौदार्ययुग्माभ्यां षण्ढवेदेन वर्जिताः । सुरेषु प्रत्ययाः शेषाः द्वापञ्चाशत्प्रमाणकाः ॥४१॥ मिथ्यात्वपञ्चकं स्पर्शः षट् कायाश्च क्रुधादयः । ते स्त्री-पुभ्यां विनैकाक्षे औदार्यद्वयकार्मणे ॥४२॥ ते जिह्वाक्षान्त्यवाग्भ्यां स्युः साधं द्वीन्द्रियके तथा । त्रीन्द्रिये घ्राणयुक्तास्ते चक्षुषा चतुरिन्द्रिये ॥४३॥ __४०॥४१॥४२॥ पञ्चाक्ष-प्रसयोः सर्वे स्थावरेग्वेकखे यथा । ३८।३८।३। विहायाऽऽहारकं युग्मं शेषयोगेषु च प्रमात् ॥४४॥ १. मिश्राविरतदेशविरतेषु । Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकांख्यः चतुर्थः संग्रहः मुक्त्वा निजं निजं शेषचतुर्दशविहीनकाः । ४३।४३१४३१४३१४३।४३१४३१४३१४३१४३४३॥४३॥४३॥ संज्वाला नोकषायाश्च स्त्रीषण्ढद्वयवर्जिताः ॥४५॥ निजयोगेन संयुक्ता आहाराहारमिश्रयोः । १२।१२। स्त्रिया पु-पण्ढवेदाभ्यामाहाराभ्यां च वर्जितः ॥४६॥ स्त्री-पण्ढवेदनिर्मुक्ताः पुवेदे प्रत्ययाः मताः । ५५ पण्ढवेदे तु पुं-स्त्रीभ्यामाहाराभ्यां च वर्जिताः ॥४७॥ सजातीयं निजं त्यक्त्वा चतुष्कमितविना । कषायैस्तु कषायेषु चत्वारिंशरच पञ्चयुक ॥४८॥ मत्यज्ञाने श्रुताज्ञाने आहारद्वयवर्जिताः । ५५५५ मिश्रत्रयेण चाहारद्वयोना ना विभङ्गके ॥४६॥ ५२। उत्तरप्रत्यया ज्ञानत्रयेऽपि परिकीर्तिताः । मिथ्यात्वपञ्चकेनोनास्तथाऽनन्तानुबन्धिभिः ॥५०॥ ४८४८४८ योगाद्या नव संज्वालाः स्त्री-पण्ढाभ्यां विवर्जिताः । नोकषाया भवन्त्येते मनःपर्ययबोधने ॥५१॥ २०॥ आद्यन्ते मानसे वाचौ कार्मणं च तथा युगम् । औदार्याख्यं तु ते सन्ति संज्ञाने केवलाये ॥५२॥ नोकपायास्तु संज्वाला योगा एकादशाऽऽद्ययोः'। २४॥ परीहारे विना षण्ठस्याहारकद्वयेन च ॥५३॥ २०॥ योगा नवादिमा लोभोऽन्त्यश्च सूचमे जिनेरिताः। १० त. एव प्रत्यया ऊना अन्त्यलोभेन संयुताः ॥५४॥ कार्मणौदार्यमिश्राभ्यां यथाख्याते भवन्स्यथ । ११॥ १. सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ संस्कृत पञ्चसंग्रह नोकषाया नवाद्या योगाः कषायाष्ट चान्तिमाः ॥५५॥ एकोनाः संयमाः सर्वे संयमासंयमे स्मृताः । असंयमे तु निःशेषा आहारद्वयवर्जिताः ॥५६॥ कोविदेरखिला ज्ञेयाश्चक्षुर्दर्शनसंज्ञके । अचक्षुर्दर्शने ते च संज्ञानत्रयसंज्ञके ॥५७॥ ये सन्ति प्रत्ययाः केचिदवधिदर्शनेऽपि ते । ये सन्ति केवलज्ञाने तेऽपि केवलदर्शने ॥५८॥ तिसणामाद्यलेश्यानां नैवाहारद्वयं भवेत् । ५५/५५/५५। शुभलेश्यात्रय सन्ति पञ्चाशदथ सप्त च ॥५६॥ ५७।५७५७। भव्ये सर्वे त्वभव्येऽप्याहारयुग्मं विनाऽखिलाः । ५७१५५। औदार्यमिश्रमिथ्यात्वपञ्चकाऽऽहारयुग्मकम् ।।६०॥ आद्यान् कषायकांश्चैव त्यक्त्वोपशमिके मताः । ४५ वेदके क्षायिकेऽप्येते आहारौदार्यमिश्रकैः ॥६१॥ ४८॥४८॥ मिथ्यात्वपञ्चकानन्तानुबन्ध्याहारकैर्विना । मिश्रत्रयेण वै मिश्रे मिथ्यात्वानि न सासने ॥६२॥ ४३१५० युग्मं नाहारकं मिथ्यात्वे संज्ञिन्यखिलास्ततः । स्त्री-पुश्रोत्रेदमा (?) संज्ञे ते ये ख्याताश्चतुःखके ॥६३॥ ५५।५७।४५। विहाय कार्मणं चानाहारे शेष चतुर्दश । योगैर्विना मताः शेषा आहारे कार्मणोनकाः ॥६॥ ४३१५६ गस्यादिमार्गणास्वेवमुत्तराः प्रत्ययाः स्फुटाः । सामान्योक्तविधानेन विशेषेण च वर्णिताः ॥६५।। उत्तरोत्तरसंज्ञाश्च कूटस्थानेषु पञ्चसु । गुणस्थानं प्रति प्रोक्तास्ते कथ्यन्तेऽधुना स्फुटाः ॥६६॥ द्वितीयविकल्पोद्भया इमे मताः। दशाष्टादश सन्स्याये दश सप्तदशाऽप्यतः । नव पोडश युग्मेऽतस्ततोऽष्टौ च चतुर्दश ।।६७॥ पञ्च सप्त त्रिके तस्माद् द्वौ त्रयोऽतश्चतुष्विमे । द्वौ वैकाधिक एकश्च जघन्योत्कृष्टहेतवः ॥६८।। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः इत्येकजीवं प्रतीत्यैकसमयजघन्योत्कृष्टप्रत्ययाः गुणेषु २ ज० १० १० ६ ह ८ ५ ५ ५ उ० १८ १७ १६ १६ १४ ७ ७ ७ ३ यो १३ यो १२ वे न० वे पुं० वे ३ अनिवृत्तौ सूक्ष्मादिषु 8 । 8 । ६ । ७ । यावदावलिकां पाको नास्त्यनन्तानुबन्धिनाम् । मिथ्यात्वं दर्शनात्प्राप्तेऽन्तर्मुहूत्तं मृतिर्न च ॥ ६६॥ अत्र चशब्दात्सम्यक्त्वं च मिथ्यात्वात्प्राप्तेऽन्तर्मुहूर्त मृतिर्न च । कू १ । कू ३ । कू ५ । कू ६ । कू ६ । कू ६ । कू ५ । कू ३ । कू १ । वामदृष्टेः यो १२ यो १ यो १३ यो १२ सासादनस्य यो १० वे २ वे ३ वे ३ वे यो १० यो २ यो वे २ ६ १५ १ २ एतेषां जघन्योत्कृष्टभङ्गाः २ यो एकसंयोगादिगुणकारास्तद्यथा- पु १५ २० ४ ३ ४३२०० ६३६० २३२ २३२ ६ ५ २१६ २१६ 9 अयतस्य यो यो वे ३ वे २ १ ६ का ง अ ० ८६४० १४४० १०६४४ १८२४ ३६ २१६ २१६ 905 २ 9 २ 9 ह ह भ ० & ह वे पु 9 १ 9 १ यो १० ह ह यो १००८० १६८० ७ ७ वे • मिश्रस्य ० ० ० ० 3 यो वे ० अत्र वृत्तिश्लोकः - मिथ्यात्वमिन्द्रियं कायस्त्रयः क्रोधाः परेऽथवा । वेदा युग्मं च हास्यादिष्वेकं योगो दशात्र ते ॥७०॥ |१|१|१|३|१|२१० |१| मीलिताः १० । ६४८० १२६६ ६८७ यो १० वे स्त्री अत्र पञ्चानां मिथ्यात्वानामेकतरस्योदय इत्येको मिथ्यात्वप्रत्ययः १ । पण्णामिन्द्रियाणामेकतरेण, पण कायानामेकतर विराधने द्वावसंयमप्रत्ययौ २ । अनन्तानुबन्धिचतुष्कवर्जाणां त्रयाणां क्रोधानामन्येषां वा एकतर त्रिकोदयेन त्रयः कषायप्रत्ययाः ३ । त्रयाणां वेदानामेकतरः १ । हास्यरतियुगलारतिशोकयुगलयोरेकतरं युगलम् २ | इति षट्कषाय- प्रत्ययाः । आहाराहारमिश्रौदारिक मिश्रवै क्रियिक मिश्रकार्मण काययोगान् मुक्त्वा शेषाणां दशानां योगानामेकतरेणैको योगप्रत्ययः १ । रत्रमेते मिथ्यादृष्टेरेकसमयप्रत्यया जघन्येन दश १० । यो ह वे ० अत्र विसंयोजितानन्तानुबन्धी यः सम्यग्दृष्टिमिध्यात्वं गतोऽर्मुहूर्त्तं न च म्रियते, न चानन्तानुबन्ध्युदयो यावदावलिकां तस्यास्त्यतस्त्रयः कषाया औदारिक मिश्र - वैक्रियिक मिश्र - कार्मणहीनाश्व दश योगाः । तथाऽत्र भङ्गाः-पञ्चमिथ्यात्वैकतरभङ्गाः उपरिर्भपडिन्द्रियैकतर पड्सङ्गघ्नास्त एवोपरिमषट् कायैकतरपड्भङ्गगुणास्त एवोपरिमकपायचतुस्त्रिकै कतर चतुर्भङ्गनास्त एवोपरिम वेदत्रयत्रिभङ्गगुणास्त एवोपरि मद्वियुगलद्विभङ्गताडितास्त एवोपरिमदशयोगदशभङ्गगुणा एतावन्तः ४३२०० । यतस्त्रयोदशयोगेषु स्त्रीपुंवेदौ स्तः, द्वादशयोगेषु एको वैक्रियिकमिश्रयोगः द्वाभ्यां स्त्री-पुंवेदाभ्यां त्रयोदशयोगेषु पुंवेदः । ततः दशयोगा वेदत्र १. दशतः अष्टादशपर्यन्तानां क्रमेण कूटसंख्या । २. एको नपुंसक वेदोऽस्ति । ततः द्वादशयोगाः त्रिभिर्वेदैः गुण्याः । गुण्यः । ३. यतो दशयोगेषु स्त्रीवेदः, द्वादशयोगेषु नपुंसक वेदः, येण गुण्याः द्वौ योगौ द्वाभ्यां पुन्नपुंसकाभ्यां गुण्यौ, एको योगः एकेन नपुंसकवेदेन गुण्यः; इत्यभिप्रायेण कोटका ज्ञेयाः । ४. वैक्रियिक मिश्र - कार्मणयोगो, वेदौ द्वौ पुन्नपुंसकौ ताभ्यां गुण्यौ । ५. औदारिक मिश्रः १ नपुंसक वेदेन एकेन गुण्यः । ६. अथवा परे मानादयः मानत्रयं मायात्रयं लोभत्रयमित्यर्थः । Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ संस्कृत - पञ्चसंग्रहे अथर्वते ५६६।४।३।२।१० अन्योन्यगुणा मिध्यादृष्टेर्जघन्यभङ्गा ४३२०० भ० एकादश: द्वादश: त्रयोदश: चतुर्दश: पञ्चदशः पोडशः सप्तदश: का० २ १ १ का० ३ २ २ १ १ का० ४ ३ का० का० ६ if it is এ এ 20 of F का० का० अ० अ० ooo ० १ १ ० FORO GOM ० भ० ร Boa ० 9 अ० १ अ० coa 9 अ० भ० भ० भ० भ० 080422 ง ० भ० ง २ १ 9 १ २ २ મ ง १ २ r १ 9 २ WWW भ० यो० १० १३ १० यो० १० १३ १० १३ १० यो० १० १३ १० १३ १० १३ यो० १० १३ १० १३ १० १३ यो० १० १३ १० १३ १० १३ यो० १३ ५० १३ १० १३ यो० १३ १० १३ २५०५६० । ६५५६२० । १०२८१६० । १०५८४०० । ७२५७६० । ३१६६८० । ८२०८० । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः मिथ्यात्वमिन्द्रियं कायाः पट् कषायचतुष्टयम् । वेदो हास्यादिषु द्वे भीयुग्मं योगो दशाष्ट च ॥ ७१ ॥ |१||६४।१२।२।१ । मीलिताः १८ । अत्रापि पञ्चानां मिथ्यात्वानामेकतरं पण्णामिन्द्रियाणामेकतरेण पकायविराधने सप्तासंयमप्रत्ययाः ७ । चतुण्ण क्रोधमानमायालोभचतुष्काणामेकतरं क्रोधचतुष्कमन्यद्वा चतुष्कं ४ । एकतरो वेदः १, एकतरं युगलं २, भयजुगुप्सा च २ । आहारद्वयवर्जशेषत्रयोदशयोगानामेकतरः १ । एवमेतेऽष्टादशोत्कृष्ट प्रत्ययाः १८ अत्र पञ्चमिथ्यात्वतरं पन्त्र भङ्गाः, पडिन्द्रियभङ्गाः एकः कायभङ्गः, चत्वारः कषायचतुष्कभङ्गाः, त्रयो वेदङ्गाः द्वौ हास्यादियुगलभङ्गी, एको भययुगलभङ्गः त्रयोदश योगभङ्गाः | ५|६|१|४|३ | २|१|१२| ५|६|१।४।३।२।१।१३ अन्योन्याभ्यस्ताः सर्वे भङ्गाः १३६० । एवमेते जघन्योत्कृष्टा जघन्यानुत्कृष्टप्रत्यये मिध्यादृष्टिरर्पित प्रकृतीब ध्नाति । वामष्टर्भङ्गाः सर्वे मीलिताः ४१७३१२० । एवमन्येऽपि नेयाः । का० अ० भ० यो० १ १ ० १२।१ तत्र सासनस्यैते जघन्यप्रत्ययाः ०|१|१|४|१|२|०|१ मोलिताः १० । एषामेते ०।६।६।४।२।०।१२ । अन्योन्यध्ना भङ्गाः १०३६८ | तथा वैक्रियिकमिश्रयोगे सासुनो नरकेषु न व्रजति, तेन तस्य देवेषु स्त्री-पुंवेदयोरेते ०|६| ६ |४| २|२|०|१ | अन्योन्यघ्ना भङ्गाः ५७६ । एवमेते १०३६८ । एते च ५७६ मीलिताः जघन्याः १०६४४ । एकादशः द्वादश: त्रयोदश: चतुर्दश: पञ्चदशः पोडशः ८७ का० २ 9 का० ३ २ ง का० ४ ३ २ का० ४ ३ का० ६ का० ६ ५ का० ६ अ० S 9 भ० १ १ ง भ० ง १ ง भ० 9 १ १ भ० १ १ १ अ० ง १ अ० १ भ० ० ง भ० o १ २ भ० ० १ २ २ भ 9 २ भ० ง २ भ० २ यो० १२।१ १२/१ यो० १२।१ १२।१ १२/१ यो० १२।१ १२।१ १२।१ पो० १२/१ १२/१ १२/१ यो० १२।१ १२॥३ १२/१ यो० १२।१ १२।१ यो० ६२।१ ४६२४८ । १०२१४४ । १२७६८० । १०२१४४ । ६८६ ५१०७२ । १४५६२ । सप्तदशः उत्कर्षेणते प्रत्ययाः ०|६|१|४|१|२|२| मीलिताः १७ । एषामेते ०|६|३|४|३|२|३|१२ अन्योन्यध्ना भङ्गाः १७२८ तथा वैकियिकमिश्र देवेषु स्त्री-पुंवेदयोरेते ०|६|१|४|२२|१|१] अन्योन्यप्नाः भङ्गाः ६६ । उभये १८२४ । सासादनस्य सर्वेऽपि भङ्गाः मीलिताः ४५९६४८ । १७२८ । Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० संस्कृत-पञ्चसंग्रह सम्यग्मिथ्यादृष्टेरेते जघन्याः १ का० भ० यो. ०११।३।१।२०।मीलिताः ९ । एषामेते ०।६। ६।४।३।२।०1१0 अन्योन्यना भङ्गाः ८६४० । का० दशमः भ० यो. ३८८८०। एकादश: ८०६४०। क . द्वादश: १००5००। । ' . . . त्रयोदशः ८०६४० । का ० चतुर्दशः ४०३२० । का यो० पञ्चदशः ११५२० । यो का० षोडशः १४४०। तथोत्कृष्टा एते ०।१६।३।१।२।२।१ मीलिताः १६ । एषामेते ०।६।१।४।३।२।१।१० भन्योन्यना भङ्गाः १४४० । मिश्रस्य भङ्गाः सर्वेऽपि मालिताः ३६२८८० । असंयतस्याप्येते एव प्रत्ययाः, किन्तु भङ्ग विशेषस्तत्र दशसु योगेष्वेते जघन्याः का० भ० यो० 018।।३।१२।१ मीलिताः । एषामेते ०।६।६।४।३।२।०11. अन्योन्यगुणा भङ्गाः ८६४० । तथौदारिकमिश्रमाश्रित्य नृतियक्ष पुंवेद एवैकोऽस्ति, तेनात्रैते ०।६।६।४।१।२१।१ अन्योन्यगुणा भङ्गाः २८८ । तथा वैक्रियिकमिश्रकार्मणयोगयोदेवेषु पुंवेदो बद्धायुष्कस्य नारकेषु नपुंसकवेदोऽस्तीति द्वावेव वेदौ। तेनाते ०।६।६।४२।१०।२ अन्योन्यगुणा भङ्गाः ११५२ । एवमसंयते सर्वजघन्यभङ्गाः १००८० । का० भ० यो. १०॥२ दशम: ४५३६० । १०।११ यो १०॥२॥ एकादशः १०॥२१ १४०८०। १०॥२12 W०० म । Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः ६४१ का० भ. योग १०॥२॥१ १०१।१ १०१२।१ द्वादश: ११७६०० । यो० त्रयोदशः १४०८०। १०२।१ १०॥२४१ 1019 यो० १०॥२॥ १०।२।५ १०॥1 चतुर्दशः ४७०४०। यो भ० पञ्चदशः १०॥२॥ १३४४० । १०।२।१ का० भ० उत्कृष्टप्रत्ययाश्च १६ दशसु योगेष्वेते र यो• पतेषामेते ०६।१।४।३।२।१ । ६ २ १०१ अन्योन्यगुणा भङ्गाः १४४० । तथौदारिकमिश्राश्रयेण नृ-तिर्यक्षु पुवेद एवैकोऽस्ति, तेनात्रैते ०।६।१।४।१।२। १११ अन्योन्यगुणा भङ्गाः ४८ । तथा वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगयोः श्वाभ्र-देवेषु षण्ढ-पुंवेदौ द्वावेव भवतस्तेनाते ०।६।१।४।२।२।१।२ अन्योन्यगुणा भङ्गा ११२। एवमेते मीलिताः असंयतस्योत्कृष्टाः १६८० । असंयतस्य सर्वेऽपि भङ्गा मीलिताः ४२३३६० । ५।१०।१०।५।१ का० भ० यो.. देशगुणकाराः । संयतासंयतस्यैते जघन्याः क । सयत °। ।१।१।२।। २०११ मीलिताः । एतेषामेते ०१६।५।४।३।२018 अन्योन्यगुणा भङ्गाः ६४८० । का० भ. यो० नवमः २० । दशमः * * * ४५३६०। * १५.13. का. . थो. -om द्वादशः २७२१६ । १. इग दुग तिग संजोए देसजयम्भि चउ पंच संजोए । पंचव दसय दसगं पंचय एक्कं हवंति गुणगारा || Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ संस्कृत-पञ्चसंग्रह का० भ० यो० त्रयोदशः १०७२। ___ का० भ० यो० - तथोत्कृष्टाः ५ २ १ ०11५।२।१२।२।१। मीलिताः १४ । एषां चैते ०।६।१४।३।२। । अन्योन्यध्ना भङ्गाः १२६६ । संयतासंयतस्य सर्वेऽपि भङ्गाः मीलिताः १६०७०४ । अशस्तवेदपाकाच नाहारद्धिः प्रजायते । पाके स्त्रीषण्ढयोस्तीर्थकृत्सत्त्वे क्षपकेऽस्ति न ॥७२॥ अनेन एतदुक्तं भवति--प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वाणामेते जधन्याः 0101010११२।०।१ मीलिताः ५। एषामेते ०।००।४।३।२।०६ अन्योन्यगुणा भङ्गाः २१६ । मध्यमाः ०1०1०१२।१।१ एते मोलिताः ६ । एषामेते ०1०1०1४३।२।२।। अन्योन्यगुणा भङ्गाः ४३२ । भय-जुगुप्सासहिता उत्कृष्टाश्चैते 01010111१२। २।। मीलिता: ७ । एषामेते ०1०1०11३।२।१1 अन्योन्यगुणा भङ्गाः २१६ । किन्तु प्रमत्तस्य स्त्री-नपुंसकवेदोदये सत्याहारद्वयस्योदयाभावात्पुंवेदस्यैवोदये सति तस्योदयादन्येऽपि पुंवेदभङ्गाः १६ । कथम् ? उच्यते-संज्वलनाः ४ एकः पुवेदः १ द्वे युगले २ आहारकद्वयं २ । एषामन्योन्यबंधे भङ्गाः १६ । मध्यमाः ४।१।२।२।२ अन्योन्यना भङ्गाः ३२ । उत्कृष्टाः ४११२।१२ अन्योन्यध्ना भङ्गाः १६ । एवं प्रमत्तस्य सर्वे भङ्गा मीलिता १२८ । अप्रमत्तस्य च सर्व भङ्गा मीलिताः ८६४ । अपूर्वस्य च सर्वे भगा मीलिताः ८६४। ____ अनिवृरोजघन्येन द्वौ, उत्कर्षेण त्रयम् । कथम् ? सवेदानिवृत्तेश्चतुर्णा संज्वलनानामेकतरः १ त्रिवेदानामेकतरः नवयोगानामेकतरः । एवमेते त्रयः 0101010101011। उत्कृष्टाः ३ । एषामेते ०101 ०।४।३।०1०।। अन्योन्यगुणा भङ्गाः १०८।४।२।। अन्योन्यगुणा मध्यमाः ७२।४।१।। अन्योन्यगुणा भङ्गाः ३६ । अवेदानिवृत्तेजघन्याः 01010111010101१ संज्वलनयोगावनयोरेते 010101010101018। अन्योन्यगुणा भङ्गाः ३६ । ३१ अन्योन्यगुणा मध्यमाः २७१२।६ भन्योन्यगुणा भङ्गाः १८१६। तथा भङ्गाः । । सर्वे मीलिताः ३०६ । सूचमे सूचमलोभ एकः १ । नवानां योगानामेकतरः । एवं द्वौ जघन्यौ उत्कृष्टौ च प्रत्ययो । अत्र नवयोगभङ्गाः । शान्त क्षीणयोनवानां योगानामेकतरः १ इत्येको जघन्य उत्कृष्टश्च १ योगप्रत्ययोऽस्य । नव योगभङ्गाः । सयोगस्य सप्तानां योगानामेकतरः १ । इत्येको जघन्य उत्कृष्टश्च योगप्रत्ययः । सप्तयोगभङ्गाः ७ । तत्प्रदोषोपघातान्तरायासादननितवाः । तन्मात्सयं च बन्धस्य हेतवो ज्ञान हनधोः ॥७३॥ अस्यार्थः-तत्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीतने कृते कस्यचिदनभिव्याहारतोऽन्तःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः। उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्रायः। ज्ञानव्यवच्छेदकरणमन्तरायः। कायेन वाचा वा परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनमासादनस् । कुतश्चित्कारणान्नास्ति, न वेद्मीत्यादि ज्ञानस्य व्यपलपनवचनं निहवः । कुतश्चित्कारणाद्भावितमपि ज्ञानं दानाहमपि यन्न दीयते तन्मात्सर्यमिति । सरागसंयमादिभ्यो भूतव्रत्यनुकम्पया । स्यादानास्तान्तितः शौचाद् बन्धः सवैद्यकर्मणः ॥७४॥ दुःखशोकवधाक्रन्दपरिदेवनतापतः । स्वान्योभयस्थिताद् बन्धोऽस्त्यसद्व द्यस्य कर्मणः ॥७५॥ प्रत्यनीको भवनह सिद्धसाधुषु पाठके । गुरौ रत्नत्रये चापि दृष्टिमोहं समर्जयेत् ॥७६॥ केवलिश्रतसंघानां तपोधर्मदिवौकसाम् । बध्नाति प्रत्यनीकः सन् जीवो दर्शनमोहनम् ॥७७।। कपायोदयतस्तीवादागादिपरिणामतः । द्विभेदं परिबध्नाति जीवश्चारित्रमोहनम् ॥७॥ मिथ्याग निव्रतो लोभी बह्रारम्भपरिग्रहः । रौद्रचित्तो विशीलश्च नरकायुः समर्जयेत् ॥७॥ उन्मार्गदेशको जीवः शत्यवान् मार्गनाशकः । मूढचित्तः शठो मायी तिर्यगायुः समर्जयेत् ॥५०॥ | Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाव्यः चतुर्थः संग्रहः प्रकृत्या मन्दकोपादिदता निःशीलनिर्व्रतः । प्रबध्नाति मनुष्यायुरस्यारम्भपरिग्रहः ॥८१॥ अकामनिर्जरावाल तपःसद् एणुमते महाप्रतैश्च देवायुर्जीयो योग्यं समर्जयेत् ॥८२॥ मनोवाक्काययकः सन् मायावी गौरखेर्युतः । अशुभं नाम यप्नादि विपरीतस्ततः शुभम् ॥८३॥ स्वप्रशंसाम्यनिन्दा च पश्चातादिषु । नीचैगवस्य हेतुः स्वादन्यस्य तद्विपर्ययः ॥ अन्तरायम्य दानादिप्रत्यूहकरणं तथा । हेतवश्चास्रवोपेतबन्धस्तत्पूर्वको यतः ॥८५॥ अनुभागं प्रति प्रोक्तास्तत्प्रदोषादिहेतवः । नियमेन प्रदेशं तु प्रतीत्य व्यभिचारणः ॥८६॥ इति विशेषप्रत्यया बन्धास्रवयोः । सप्ताष्टौ वा प्रबध्नन्ति षडाद्या मिश्रकं विना | आयुषा तु विना सप्त मिश्रापूर्वानिवृत्ततः ॥८७॥ मोहाय बिना पट्कं सूचमो बध्नात्यतस्त्रयः । बध्नन्ति वेद्यमेवैकमयोगः स्यादयन्यकः ||८|| ७ ७ ७ ७ 819191910 འ འ 00 अष्टौ सप्ताय पट् बध्नन् भुकटी क्षीणशान्तको सप्त मोहाद्यो द्वौ चतुष्कं घातिभिर्विना ॥८॥ मामामा मामा शान्तक्षीणौ ७ । ७ । सयोगःयोगौ ४ । ४ । उदीरकास्तु घातीनां तस्था मोहस्य रागिणः । वेद्यायुरोः प्रमत्तान्ता योग्यन्ता नाम गोत्रयोः ॥१०॥ ७ ७ ७ ८ गुणेपुदीरणाः मामा ६६६६५५२२० । अष्टावुदीरयन्त्येव प्रमत्तान्तास्त एव तु । सप्तैवावलिकाशेपे विनाश्रिवर्जिताः॥१॥ उदीरयन्ति चत्वारः पटुकं वेद्यायुषी बिना सूक्ष्म श्रावलिकाशेषे मोहहीनास्तु पञ्च च ॥ १२ ॥ शान्तीणी तु पञ्चैता वेचायुमोहिवर्जिताः । क्षीणस्यावलिका नाम गोत्रे उदीरयेत् ||१३|| कर्मपदकं विना योगी नाम-गोत्रे उदीरयेत्। वर्तमानोऽपि नो किचिदयोगः समुदीरयेत् ॥ ६४॥ गुणेपूदीरणा:-- ८ ८ ८ ७ ७ ० ८ ८ - म - ८ ६ ७ ७ ७ ० ६ ० बं० ७८ ७८ ७ ७८ ७८ ७८ ७ म ८ ८ ८ ७८ ८७ ८।७ ६ ६ अत्रापकपाचनमुदीरणेति वचनादुदयावलिको प्रविष्ट कर्मस्थितिः नोदीयत इति मरणावलिकायामायुषः, सूचमे मोहस्य, क्षीणे घातित्रयस्योदीरणा नास्ति । आवलिका शेषे चायुषि मिश्रगुणोऽपि न सम्भवति । भुके चत्वारि कर्माणि तान्यष्टावनुदीरयन् । योगहेतुं न वनाश्ययोगः सातस्य वन्धकः ॥५॥ योगी चीणोपशान्ती च चतन्नः सप्त सप्त च । भुञ्जतेऽथ द्वयं पञ्च पञ्च चोदीरयन्त्यपि ॥ ६६ ॥ द्वयं चोदीरयेत्क्षीणः सूक्ष्मोऽष्टावनुभवन्नयम् । यध्नाति पविधं पञ्च पयसी समुदीरयेत् ॥ १७॥ उदीरयन्ति पड़ वाष्टौ भुञ्जते सप्तबन्धकाः । अनिवृत्तिरथा पूर्वाप्रमत्त इति तत्रयः ॥ १८ ॥ वनश्यनयन्ये सप्ताष्टी चाष्ट भुञ्जते । भुकटी उदीरयष्ट मिश्रो बध्नाति सप्त च ॥ १६॥ बन्धोदयोदीरणा एकत्र तद्यथा ६ ६ ५ ५ २ ० ० ५ ० २ ० ७ ६ २ २ १ उ० ८ ८ ८ ८ ७ ७ ४ ४ उदी० ८७ ८७ ६ ६५ ५ ५।२ २ • अत्र प्रमत्त भाग्यमारभते, अप्रमत्तो भूत्वा समाप्तिं नयेदिति ज्ञापनार्थं सप्त कर्माणि बनाती ی ६६३ त्युक्तम् । ज्ञान-दर्शनयो रोधी वेथं मोहा युपी तथा । नामगोत्रान्तरायौ च मूलप्रकृतयोऽष्ट वै ॥ ३००॥ क्रमात्य नवद्वे च विंशतिवाष्टसंयुता । चतस्रो दूधधिका चत्वारिंशद् द्वे पञ्च चोखराः ॥१०१॥ ५२१२८|४|४२/२/५१ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रह बन्धभेदेन चेति स्युः साद्यनादिध्रुवाध्रुवाः । स्थानं भुजाकृतिश्राल्पतरोऽवस्थित ईशिता ॥१०२॥ अबन्धाद्वधनतः सादिरनादिः श्रेण्यसक्रमे । बन्धोऽभव्ये ध्रुवो बन्धे बन्धध्वंसेऽथवा ध्रुवम् ॥१०३॥ अल्पं बद्ध्वा भुजाकारे बहुबध्नात्यतोऽन्यथा। बतात्यल्पतरे बन्धे तत्तबध्नात्यवस्थिते ॥१०॥ कर्मबन्ध विशेषस्य कर्तृता स्वामिता नता। ज्ञातव्यं नवभेदानां बन्धानामिति लक्षणम् ॥ ( अमित० सं० पंच सं. ४,१०४) कर्मपटकस्य बन्धाः स्युः साद्यनादिध्रुवाध्रुवाः । साधूनास्ते हि वेदस्यायुषोऽनादिध्रुवोनिताः ॥१०५॥ चतुर्विधा ध्रुवाख्याः स्युरुत्तरप्रकृतिष्वपि । शेषाः साद्यध्रुवा बन्धे तथा सपरिवृत्तयः ॥१०६॥ दशापि ज्ञान-विघ्नस्था हग्रोधे नव षोडश । कपाया भीर्जुगुप्सोपघातस्तैजसकार्मणे ॥१०७॥ मिथ्यात्वागुरुलध्वाख्ये निर्मिद्वर्णचतुष्टयम् । ध्रवाश्चतुर्विधा बन्धे चत्वारिंशञ्च सप्तयुक् ॥१०८॥ इति ध्रवाः ४७ । आहारद्वयमायूंषि चत्वार्युद्योततीर्थकृत्' । परघातातपोच्छासाः शेषाः साद्यध्रुवा इमाः ॥१०॥ इत्यधूवाः निःप्रतिपक्षाः ११। द्वे वेद्ये गतयो हास्यचतुष्क द्वे नभोगती । षट् के संस्थान-संहत्योर्गोत्रे वैक्रियिकद्वयम् ॥११०॥ चतस्रश्चानुपूर्योऽपि दश युग्मानि जातयः । औदारिकद्वयं वेदा एताः सपरिवृत्तयः ॥११॥ ६२ सप्रतिपक्षा इत्यर्थः। बन्धे स्थानानि चत्वारि भुजाकारास्त्रयस्त्रयः। कर्मस्वल्पतरा ज्ञेयाश्चत्वारोऽष्टस्ववस्थिताः ॥११२॥ मूलप्रकृतिषु बन्धस्थानानि ८।७।६।१। भुजाकाराः : ६ । अल्पतराः ।। १६ अवस्थिताः ६ १' रग्रोधे मोहने नाम्नि बन्धे त्रीणि दशाष्ट च । स्थानान्येषु भुजाकाराः शेषेषु स्थानमेककम् ।।११३॥ नव पट कं चतुष्कं च स्थानानि त्रीणि दृनधि । भुजाकारोऽत्र वाच्योऽल्पतरोऽवस्थित एव च ॥११४॥ बन्धस्थानानि भजाकारी ४ ५ mrat . ९ आशि. ५४ दृयोधे नव सर्वाः षट् स्त्यानगृद्धित्रयं विना । चत्तस्रः प्रचला-निद्राहीनाः स्थानेविति त्रिषु ॥११५॥ ६॥४॥ आद्यौ द्वौ नव बनीतो मिश्राद्याः षट् दृधि । अपूर्वान्ताश्चतस्रोऽत्रापूर्वाद्याः सूचमपश्चिमाः ॥१६॥ ६ ।६।६।६।६।६ अपूर्वप्रथमसप्तमभागे ६ । अपूर्वद्वितीयसप्तमभागादारभ्य यावत्सूचमम् ४ । द्वय काग्रे विंशती सप्तदश बन्धे त्रयोदश। नव-पञ्च-चतुष्क-त्रिद्वय कस्थानानि मोहने ॥११७॥ २३२३१७।१३।१५।४।३।२।१। द्वाविंशतिः समिथ्यावाः कषायाः षोडशैककः । वेदो युग्मं च हास्यादिष्वेकं भयजुगुप्सने ॥११८॥ १५६।१२।११। मीलिताः २२ । इयमाद्य द्वितीये तु निर्मिथ्यात्वनपुसकाः । हीनाऽनन्तानुबन्धिस्त्रीवेदैमिश्रेऽथवाऽवते ॥११॥ मिथ्यादृष्टौ २२ । प्रस्तारः २२ भङ्गाः ६ । १. कर्मचन्धविशेषो यः स स्थानमिति कथ्यते। (अमित० सं० पंचसं० ४, १०२)। Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः ६६५ सासने २१ । प्रस्तारः २ २ भङ्गाः ४ । मिश्रासंयतयोः १७ । प्रस्तारः २२ भङ्गौ । १२ देशे द्वितीयकोपाद्यैरूनाः षष्ठेऽपि तत्परैः'। अप्रमत्ते तथाऽपूर्वे शोकारतिविवर्जिताः ॥१२०॥ देशवते १३ । प्रस्तारः २ २ भङ्गौ २ । प्रमने । प्रस्तारः २२ भनौ २। अप्रमत्तापूर्वयोः & प्रस्तारः २ भङ्गः । बन्धे पुवेदसंज्वालाः संज्वालाश्चानिवृत्तिके । तेऽपि क्रुन्मानमायोनाः क्रमास्थानानि मोहने ॥१२१॥ अनिवृत्ती बन्धाः ५।४।३।२।। भङ्गाः द्वाविंशतेः षष्ट्र स्युः बन्धस्थाने ततः परे । चत्वारस्त्रिवतो द्वौ द्वावेकैकोऽन्येषु मोहने ॥१२२॥ ६।४।२।२।२।१1१1१1१1१ अत्र यो वेदभङ्गाः द्वियुगलभङ्गगुणिताः षड़ भङ्गाः द्वाविंशतिस्थाने मिथ्यादृष्टौ ६। स्त्री-पुरुषभङ्गो द्वियुगलगुणितौ चत्वारो भङ्गा एकविंशतिस्थाने सासनस्य ४ । मिश्रासंयतयोः सप्तदश बनतो देशसंयतस्य त्रयोदश बध्नतः प्रमत्तस्य च नव बध्नतो द्वौ युगलभङ्गो त्रिषु बन्धस्थानेषु २ । अप्रमत्तापूर्वकरणावरतिशोको न बध्नीतस्तेन नव बनतोरपि तयोरेकैक एव भङ्गः १। एवमनिवृत्तौ पञ्चसु बन्धस्थानेषु ५।४।३।२।१। एकैको भङ्गः १।१।१।१।१ । विंशतिः स्युर्भुजाकाराः सैकाश्चाल्पतरा दश । मोहेऽवक्तव्यबन्धौ द्वौ त्रयस्त्रिंशदवस्थिताः ॥१२३॥ २०1११।२।३३। मोहे भुजाकाराः-एक बध्नन्नधस्तादवतीर्य द्विविधं बध्नाति । तत्रैव कालं कृत्वा देवेषूत्पन्नः सप्तदशविधं वा बध्नाति । एवं सर्वत्रोच्चारणीयम् । भुजाकारा:- २ ३ ४ 952 १७ २१ २२ २२ २१ २२ m अल्पतरा:- १७ १३ ५४ ३ २१ सूचमोपशामकोऽधस्ताददतीर्योऽनिवृत्ति रवैकं बध्नाति । अथवा सूचमोपशामकः कालं कृत्वा देवेषू त्पन्नः सप्तदश विधं बध्नाति । अव्यक्तभुजाकारौ १ । भुजाकाराल्पतराव्यक्तसमासेनावस्थिता भवन्ति भुजाकाराः २० अल्पतराः ११ अवक्तव्यौ २ । समासेन ३३ । त्रिकपञ्पडष्टाग्रा नवाग्रा विंशतिः क्रमात् । दशैकादशयुक्तकं बन्धस्थानानि नामनि ॥१२४॥ २३१२५।२६।२८।२१।३०।३१।१। १. तृतीयकोपाद्यैः। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रह श्वभ्रतियङनदेवानामेकं पन्च त्रिपन्च तु । क्रमेण गतियुक्तानि बन्धस्थानानि नामनि ॥१२५॥ ५।३।५। । तत्र श्वभ्रद्वयं हुण्डं निर्माणं दुर्भगास्थिरे । पन्चेन्द्रियमनादेयं दुःस्वरं चायशोऽशुभम् ॥१२६॥ असन्नभोगतिस्तेजः कार्मणं विक्रियद्वयम् । वर्णाद्यगुरुलध्वादिवसादि च चतुष्टयम् ॥१२७॥ इत्यष्टाविंशतिस्थानमेकं मिथ्यात्वसंयुजः । श्वभ्रतिपूर्णपन्चायुक्तं बध्नन्ति देहिनः ॥१२८॥ भङ्गः । अत्र नरकगत्या सह वृत्यभावादेकाक्षविकलाइजातयो न बध्यन्ते । दशभिनवभिः पड्भिः पञ्चभिर्विंशतिस्त्रिभिः । युक्तस्थानानि पञ्चैव तिर्यग्गतियुतानि तु ॥२९॥ ३०२६।२६।२५।२३ । तत्राद्या त्रिंशदुद्योततिर्यद्वितयकार्मणे । तेजः संहति-संस्थानपटकस्यैकतरद्वयम् ॥१३०॥ नभोगतियुगस्यैकतरमौदारिकद्वयम् । वर्णाद्यगुरुलध्वादि सादि च चतुष्टयम् ॥१३१॥ स्थिरादिषडयुगेष्वकतरं पञ्चाक्षनिर्मिती। पञ्चाक्षोद्योतपर्याप्ततियंगतियुतामिमाम् ॥१३२॥ मिथ्यादृष्टिः प्रबध्नाति बध्नात्येतां च सासनः । द्वितीयां त्रिंशतं किन्तु हुण्डासम्प्राप्तवर्जिताम् ||१३३॥ तत्र प्रथमत्रिंशति पटसंस्थान-पटसंहनन-नभोगतिगस्थिरादिषडयुगलानि ६।६।२।२।२२।२।२।२। अन्योन्याभ्यस्तानि भङ्गाः ४६०८ । द्वितीयविंशति सासनेऽन्तिमसंस्थान-संहनने बन्धं नागच्छतस्तद्योग्यतीवसंक्लेशाभावात् । अतः ५।५।२।२।२।२।२।२।२ । अन्योन्याभ्यस्तानि भङ्गाः ३२०० । एते पूर्वप्रविष्टाः पुनरुक्ता इति न गृह्यन्ते । तत्र त्रिंशतृतीयेयं तिर्यद्वितयकार्मणे । तेजश्चौदारिकद्वन्द्वं हुण्डासम्प्राप्तदुर्भगम् ॥१३४॥ . त्रसाद्यगुरुलध्वादिवर्णादिकचतुष्टयम् । विकलत्रितयस्यैकतरं दुःस्वरमेव च ॥१३५।। यशःस्थिरशुभद्वन्द्वत्रिकस्यैकतरत्रयम् । निर्माणं चाप्यनादेयमुद्योतोऽसन्नभोगती ॥१३६॥ बध्नात्येतां मिथ्याहक पर्याप्तोद्योससंयुताम् । विकलेन्द्रियसंयुक्तां तिर्यग्गतियुतामपि ॥१३७॥ अत्र तृतीयत्रिंशति विकलेन्द्रियाणां हुण्डसंस्थानमेकमेव । तथैतेषां बन्धोदययोः दुःस्वरमेवेति । तिम्रो जातयस्त्रीणि युगलान्यन्योन्याभ्यस्तानि ३।२।२।२ । भङ्गाः २४ ।। तिस्रो हि त्रिंशतो यद्वदेकानप्रिंशतस्तथा । तिम्रो विशेष एतासु यदुद्योतो न विद्यते ॥१३८॥ एतासु पूर्वोक्ता भङ्गाः ४६०८।२४ षड्विशतिरियं तत्र तिर्यद्वितयकार्मणे । तेज औदारिकैकाक्षे हुण्डं पर्याप्तबादरे ॥१३॥ निर्मिच्चागुरुलध्वादिवर्णादिक चतुष्टयम् । शुभस्थिरयशोद्वन्द्वष्वकैकमथ दुर्भगम् ॥१४०॥ आतपोद्योतयोरेकं प्रत्येकं स्थावरं तथा अनादेयं च बध्नाति मिथ्यादृष्टिरिमामपि ॥१४१॥ सतिर्यग्गतिमेकाक्षपूर्णबादरसंयुताम् । तथैकतरसंयुक्तामातपोद्योतयोरपि ॥१४२।। तत्र षड्विंशतावेकेन्द्रियेष्वङ्गोपाङ्गं नास्ति, अष्टाङ्गाभावात् । संस्थानमप्येकमेव हुण्डम् । आतपोद्योत-स्थिास्थिर-शुभाशुभ-यशो-ऽयशोयुगानि २।२।२२ अन्योन्यगुणानि भङ्गाः १६ । पड्विशतिर्विनोद्योतातपाभ्यां पञ्चविंशतिः । तस्यैवैकतरोपेताः सूचम-प्रत्येकपुग्मयोः ॥१४३॥ अत्र प्रथमपञ्चविंशती सूचम-साधारणे भावनादीशानान्ता देवा न बध्नन्ति । तेन यशाकीर्ति निरुध्य स्थिरास्थिरभङ्गो शुभाशुभभङ्गाभ्यां गुणितौ ४ । अयश कीर्ति निरुध्य बादर-प्रत्येकस्थिरशुभयुगानि २।२।२।२ अन्योन्यगुणान्ययशःकीर्तिभङ्गाः १६ । द्वयेऽपि २० । पञ्चविंशतिरत्रान्या तिर्यद्वितयकार्मणे । पञ्चाक्षविकलातैकतरमौदारिकद्वयम् ॥१४४॥ तेजोऽपर्याप्त निर्माणे प्रत्येकागुरुलध्वपि । उपघातायशो हुण्डास्थिरासम्प्राप्तदुर्भगम् ॥१४५॥ वसं स्थूलं च वर्णाद्यनादेयमशुभं त्विमाम् । सतियग्गत्यपर्याप्तत्रसां बन्धोति वामदृक् ॥४६॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः ६१७ अत्र द्वितीयपञ्चविंशतौ परघातोच्छासविहायोगतिस्वरनाम्नामपर्याप्तेन सह बन्धो नास्ति, विरोधात्, अपर्याप्तकाले चैषामुदयाभावाच्च । अत्र चत्वारो जातिभङ्गाः ४ । अयोविंशतिरेकाक्षं तिर्यद्वितयकार्मणे । तेजोऽशुभं तथौदार्यदुर्भगागुरुलध्वपि ॥१४७॥ हुण्डं वर्णचतुष्कं चोपधातमयशोऽस्थिरम् । सूचम-वादरयोरेकमेकं साधारणान्ययोः ॥१४॥ स्थावरापूर्णनिर्माणानादेयानि च वामहक । सतियंग्गत्यपर्याप्तकाक्षं बन्धात्यमुमपि ॥१४॥ अनाङ्गोपाङ्गसंहननबन्धो नास्ति, एकेन्द्रियेष्वङ्गोपाङ्गसंहननयोरुदयाभावात् । अत्र बादर-सूचमभङ्गयोः प्रत्येकसाधारणभङ्गगुणनायां चत्वारो भङ्गाः ४ । एवं तिर्यग्गतियुक्ताः सर्वे भङ्गाः १३०८ । दशभिर्नवभिर्युक्ता विंशतिः पञ्चभिः व्रमात् । बन्धस्थानानि युक्तानि नृगत्यां त्रीगि नामनि ।।१५०॥ ३०२६।२५। त्रिंशदेशाऽत्र पञ्चाक्ष नृद्वयौदारिकद्वये । सुस्वरं सुभगादेयमाद्य संस्थान-संहती ॥१५॥ शुभस्थिरयशोयुग्मैकतराणि च सद्गतिः । वर्णाद्यगुरुलध्वादिवसादिकचतुष्टयम् ॥१५२॥ तीर्थकृत्कार्मणं तेजो निर्मिद्व नात्यसंयतः। एतां नृगतिपञ्चाक्षपूर्णतीर्थकरैर्युताम् ॥१५३॥ अन प्रथम त्रिंशति दुर्भगदुःस्वरानादेयानां तीर्थकरेण सम्यक्त्वेन च सह विरोधान्न बन्धः, सुभगसुस्वरादेयानामेव बन्धः । तेन त्रीण्येवान युग्मानि २।२।२ । अन्योन्यगुणानि भङ्गा । हीना तीर्थकृता त्रिंशदेकान्नत्रिंशदस्त्यमूम् । युक्ता मनुष्यगत्याचे बंधनीतो मिश्र-निव्रतौ ॥१५४॥ अत्राष्टौ भङ्गाः ८ पुनरुक्ता इति न गृहीताः, वक्ष्यमाणैकान्नत्रिंशद्भङ्गेषु प्रविष्टत्वात् । द्वितीयाप्येवमेकाम्नत्रिंशदेकतरैरियम् । युग्मानां सुस्वरादेयसुभगानां त्रिभिर्युता ॥१५५॥ एतां संहति-संस्थानषट कैकतरसंयुताम् । सनभोगतियुग्मैकतरां बध्नाति वामह ॥१५६॥ अत्रैषां २।२।२।२।२।२।६।६।२ परस्परवधे भङ्गाः ४६०८ । तृतीयापि द्वितीयेव बध्नात्येतां च सासनः । त्यक्त्वा हुमसम्प्राप्तं तरछेकतरान्विताम् ॥१५७॥ ___ अत्रैषां २।२।२।२।२।२।५।५।२ अन्योन्यवधे भङ्गाः ३२०० । एते पुनरुक्ता इति न गृहीताः । स्यास्पञ्चविंशतिरत्र मनुष्य द्विककार्मणे । तेजोऽसम्प्राप्तहुण्डानि पञ्चाक्षौदारिकद्वये ॥१५८॥ प्रत्येकागुरुलध्वाह्वस्थूलापर्याप्तदुर्भगम् । वसं वर्णचतुष्कं चानादेयमयशोऽस्थिरे ॥१५६॥ निर्माणं चाशुभं चोपघातोऽभूमादिमोऽर्जयेत् । मनुष्यगत्यपर्याप्तयुजं पञ्चाक्षसंयुताम् ॥१६०॥ २५ अत्र पञ्चविंशतौ संक्लेशेन बध्यमानापर्याप्तेन सह स्थिरादीनां विशुद्धिप्रकृतीनां बन्धो नास्ति, तेन भगः । एवं मनुष्यगतेः सर्वभङ्गाः ४६१७ । एकत्रिंशंदतस्त्रिंशन्नवाष्टाने च विंशती। चत्वार्यमरगत्याऽमा निर्गत्येकं तु पञ्चमम् ॥१६॥ ३१॥३०॥२६॥२८।१। तकत्रिंशदेपाऽत्र देवद्वितयकामणे । पञ्चाक्षमाद्यसंस्थानं तेजोवै कियिकद्वयम् ॥१६२॥ वर्णाद्यगुरुलध्वादि सादि च चतुष्टयम् । सुभगं सुस्वरं शस्तनभोगतियशःशुभम् ॥१६३॥ स्थिराऽऽहारद्विकाऽऽदेयं निर्माणं तीर्थकृत्तथा । बध्नाति चाप्रमत्तोऽमूमपूर्तकरणस्तथा ॥१६॥ देवगत्या च पर्याप्तपञ्चाक्षाऽऽहारकद्वयैः । युक्तं तीर्थकृता चकत्रिंशस्थानमिदं भवेत् ॥१६५॥ अत्र देवगत्या सह संहननानि न बध्यन्ते, देवेषु संहननानामुदयाभावात् । अत्र भङ्गः । ८८ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ संस्कृत-पञ्चसंग्रह एकत्रिंशद्भवेत्रिंशद्विना तीर्थकरेण सा । बध्यते साऽप्रमत्तेन तथाऽपूर्वाह्वयेन च ॥१६६॥ अत्रास्थिरादीनां बन्धो न भवति, विशुद्धचा सहैतेषां बन्धविरोधात् । तेनात्र भङ्ग: १ । आहारद्वितयेऽपास्ते एकत्रिंशत्सती भवेत् । एकान्नत्रिंशदाद्यषा बध्यते सप्तमाष्टमैः ॥१६७॥ अत्रापि भङ्गः ।। एकाचत्रिंशदन्यवं परमेकं स्थिरे शुभे । यशस्यपि च बध्नन्ति निर्वताद्यास्त्रयस्तु ताम् ॥१६८॥ अत्र देवगत्या सहोद्योतो न बध्यते, देवगतौ तस्योदयाभावात् । तिर्यग्गतिं मुक्त्वाऽन्यगत्या सह तस्य बन्धविरोधः । देवानां देहदीप्तिस्तहि कुतः? वर्णनामकर्मोदयात् । अत्र च त्रीणि युगानि २।२।२। भङ्गाः । एकनिंशच निस्तीर्थकराऽऽहारद्वया भवेत् । अष्टाविंशतिराद्यैतां बनीतः सप्तमाष्टमौ ॥१६॥ अन भङ्गः १ पुनरुक्तः । अष्टाविंशतिरत्रान्यकान्नत्रिंशद्वितीयके । हीना तीर्थकरेणैतो प्रबध्नन्ति षडादिमाः ॥१७०॥ कुत एतत् ? उपरिजानामप्रमत्तादीनामस्थिराशुभायशसां बन्धाभावाद् । भङ्गाः एवं देवेषु भङ्गाः १९ । यशोऽत्रैकमपूर्वाये ये भङ्गास्तु नामनि । चतुर्दश सहस्राणि पञ्चपञ्चाशतं विना ॥१७॥ एवं नाम्नि सर्वे भङ्गाः १३९४५। द्वाविंशतिर्भुजाकारा नामन्यल्पतराभिधाः । सन्त्येकविंशतिद्वौं चाव्यक्तौ सर्वेऽप्यवस्थिताः ॥१२॥ २२॥२१॥२॥४५॥ अपू० मिथ्या० मिथ्या० मिथ्या० अप्र० अप्र० भप्र० . २३ २५ २६ २८ २९ ३० नाम्नो भुजाकाराः- २८ २५ २६ २८ २९ ३० ३१ २६ २६ २८ २९ ३० ३१ WWW ०० " ur rrrrrm " . WWW له 40 س अपn_ अपू० अपू० अपू० अपू० अपू० मि. मि. मि. मि० मि० ३१ ३० २६ २८ ३१ ३० २१ २८ २६ २५ १ १ १ ३० २१ २८ २६ २५ २३ २६ २८ २६ २५ २३१ २ २६ २५ २३ २ उपशान्तकषायोऽधस्तादवतीय 'सुचमोपशामको भूत्वा यशःकीति बध्नाति । अथवोपशान्तकषायः कालं कृत्वा देवेषूत्पन्नो मनुष्यगतिसंयुक्तां त्रिंशतमेकान्नत्रिंशतं वा बध्नाति । अव्यक्तभुजाकारा । भुजा ३० काराल्पतराव्यक्तसमासेनावस्थिता भवन्ति ४६ । भुजाकाराः २२। अल्पतराः २१ । अव्यक्तौ २। अवस्थिता द्वितीयविकल्ऐनाथवा ४५ । ॥ इति स्थानबन्धः समाप्तः। १. उपशमश्रेणिस्थसूक्ष्म इत्यर्थः । Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः ६88 मिथ्याष्टिः प्रबध्नाति प्रकृतीः सकला अपि । हीनास्तीर्थकरत्वेन तथाहारद्वयेन च ॥१७३॥ सम्यक्त्वं तीर्थकृत्त्वस्याहारयुग्मस्य संयमः । बन्धहेतुः प्रनध्यन्ते शेषा मिथ्यादिहेतुभिः॥१७॥ पोडशैव समिथ्यात्वे सासने पञ्चविंशतिः । दशाव्रते चतस्रस्तु देशे षट कं प्रमादिनि ।।१७५॥ एकोऽतोऽतो द्वयं त्रिंशञ्चतस्रोऽतोऽपि पच च । सूचमे षोडश विच्छिन्ना बन्धात्सातं च योगिनि ॥१७६॥ २५ १०१ एतास्तीर्थकराऽऽहारद्वयोना मिथ्यादृष्टौ । । सासने । सुर-नरायुभ्या विना मिश्रे । तीयंकरपुरनरायुभिः सहासंयते । देले . प्रमले । भारदिकेन सदामाको तीर्थकरसुरनरायुभिः सहासंयते । WG । 06 प्रमत्ते ___ आहारद्विकेन सहाप्रमत्ते • m MS 66 0 = 0 अनिवृत्ती पञ्चसु भागेषु १६ अपूर्व सप्तम भागेष ५८ ५६ ५६ ५६ ५६ ५६ २६. ६२ ६४ ६४ ६४ ६४ ६४ । १० १२ १२ १२ १२ १२ १२२ । कर | ० ० २२ २३ २०१६ १८, । सूचमादिषु १.३ १८ १६०० १०१ १०२" ११९ ११६ ११६ १२० १२६ १२७ १२८ १२६ १३० १३१ १४७ १४७ १४७ १४८ मिथ्यात्वं षण्ढवेदश्च श्वनायुर्निरयद्वयम् । चतस्रो जातयश्चाद्याः सूचमं साधारणातपौ ॥१७७॥ अपर्याप्तमसम्प्राप्तं स्थावरं हण्डमेव च । षोडशेति समिथ्यात्वे विच्छिद्यन्ते हि बन्धनात् ॥१७८॥ स्त्यानगृद्धित्रयं तिर्यगायुराद्याः कषायकाः । तिर्यग्द्वयमनादेयं स्वीनीचोद्योतदुस्वराः ॥१७॥ संस्थानस्याथ संहत्याश्चतु के द्वे तु मध्यमे । दुर्भगासन्नभोरीतिः सासने पञ्चविंशतिः ॥१८०॥ मिश्रं विहाय कोपाद्या द्वितीया आदिसंहतिः । नरायुद्वयौदार्यद्वये च दश निव्रते ।।१८१॥ १०। तृतीयमथ कोपादिचतुष्कं देशसंयते । असातमरतिः शोकोऽस्थिरं चाशुभमेव च ॥१८२॥ अयशः षट प्रमत्ताख्ये देवायुश्चाप्रमत्तके । ६।१। अपूर्वप्रथमे भागे द्वे निद्राप्रचले पुनः ॥१३॥ पष्टांशे कार्मणं तेजः पञ्चाक्षाममरद्वयम् । स्थिरं प्रथम संस्थानं शुभं वे क्रियिकद्वयम् ॥१८॥ त्रसाद्यगुरुलध्वादि वर्णादिकचतुष्टयम् । सुभगं सुस्वरादेये निर्माणं सन्नभोगतिः ॥१८५॥ आहारकद्वयं तीर्थकरं निशदिमाः पुनः । ३० हास्यं रतिर्जुगुप्सा भीः क्षणेऽपूर्वस्य चान्तिमे ॥१८६।। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० संस्कृत-पंचसंग्रह क्रमात्पु वेदसंज्वालाः पञ्चशेष्वनिवृत्तिके । सूचमेऽप्युच्चं यशो दृष्टश्चतुष्कं ज्ञानविध्नयोः ।। १८७।। दशैवं षोडशास्माच शान्तक्षीणौ विहाय च । सयोगे सातमेकं तु बन्धः सादिरनन्तकः ॥१८८|| १६१ स्वाम्यम्गत्यादौ तत्प्रयोग्यानां सिद्धानामोधरूपतः । प्रकृतीनां हि विज्ञेयं स्वामित्वं च यथागमम् ॥१८॥ इति प्रकृतिबन्धः समाप्तः । आद्यकर्मत्रिकस्यान्तरायस्यापि प्रकर्षतः । कोटीकोटयः स्फुटं त्रिंशत्सागराणां स्थितिभवेत् ॥११॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य विंशतिर्नाम-गोत्रयोः । आयु पस्तु प्रयस्त्रिंशत्सागराणां परा स्थितिः ॥१६॥ आयान्ति नोदयं यावत्कालेनोदीरणां विना । कर्माणवः स कालः स्यादाबाधा सप्तकर्मणाम् ॥११२॥ सा स्याद्वर्षशतं वार्धिकोटीकोटीस्थितेरिति । स्वस्थितिप्रतिभागेनाबाधा त्रैराशिकेन तु ।।११३॥ सप्तानां कर्मणां पूर्वकोटीत्र्यंशः पराऽऽयुपः । भवेदन्तमुहुर्तश्च जघन्या सर्वकर्मणाम् ॥१४॥ इति सप्तकर्मोत्कृष्टाऽऽबाधा वर्षाणि ३००० । ३००० । ३००० । ७००० । २००० । २००० । ३००० । आयुषः पूर्वकोटीत्र्यंशः । आबाधोना स्थितिः कर्मनिषेकः सप्तकर्मणाम् । स्थितिरेव निजा कर्मनिषेकस्त्वायुषो मतः ॥१५॥ अत्र निषेचनं निषेकः । आबाधोपरिस्थित्यां कर्मपरमाणुस्कन्धनिक्षेप इत्यर्थः। तत्र ज्ञानावरणीयस्य त्रीणि वर्षसहस्राण्याबाधा। तां मुक्त्वा यताथमसमये स्थितिप्रदेशानं निषिक्तं तद्बहु । यद्वितीयसमये स्थितिप्रदेशाग्र निषिक्तं, तद्विशेषहीनम् । यत्ततीयसमये निषिक्तं तदपि विशेषहीनम् । एवं विशेषहीनं तावद्यावदुत्कर्षण त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः स्वाबाधाहीनाः । एवमन्येषामपि कर्मणां स्वाबाधा मुक्त्वा कर्मनिषेका वक्तव्याः । सर्वेषां च निषेकाणां गोपुच्छाकारेणावस्थानमिति । ज्ञानग्रोधविघ्नेषु स्यात्पञ्च नव पञ्च तु । भसाते च स्थितित्रिंशत्कोटीकोटयो नदीशिताम् ॥१६६॥ प्र०२०-३० साग० को०।। चत्वारिंशत्कपायाणां मिथ्यात्वस्य च सप्ततिः । सातस्त्रीनृद्वये कोटीकोटयः पञ्चदशापि च ॥१७॥ षोडशकषायाणां १६-४० साग० को । मिथ्यात्वे १-७० साग० को० । सातादिषु ४-१५ साग० को। सागराणां त्रयस्त्रिंशच्छाभ्रदेवायुषोः स्थितिः । तिर्यङ्नृणां परं चायुस्विपल्योपमसम्मितम् ॥१६॥ २-३३ साग० । २-३ पल्यो० । भयं शोकोऽरतिश्चैव जुगुप्सा च नपुंसकम् । नीचैर्गोत्रं तथा श्वभ्रगतिस्तिर्यग्गतिस्तयोः ॥१६॥ आनुपूविथैकाक्षं पञ्चाक्ष कर्म-तेजसी । औदारिकद्वयं हुण्डोद्योतो वैक्रियिकद्रयम् ॥२०॥ वर्णागुरुत्रसादीनि चतुष्काण्यथ दुर्भगम्. । असन्नभोगतिनिर्मिदातपश्चास्थिराशुभे ॥२०१॥ असम्प्राप्तमनादेयं दुःस्वरं वायशोऽपि च । स्थावरं स्थितिरासां च कोटोकोटथो हि विंशतिः ॥२०२॥ प्रकृ० ४३ आसां स्थितिः २० साग० को। हास्यं रतिनवेदश्च सुस्वरं सन्नभोगतिः । देवद्विकं स्थिरादेये सुभगं च यशः शुभम् ॥२०३॥ संस्थान-संहती चाये उच्चमासां परा जिने । सागराणां समादिष्टा कोटीकोटयो दश स्थितिः ॥२०॥ प्रकृ० १५ । भासां स्थितिः १० साग० को० । द्विश्यक्षचतुरक्षेषु सूचमापर्याप्तयोस्तथा । साधारणे स्थितिः कोटीकोटयोऽष्टादश सम्मिताः ॥२०५॥ प्रकृ. ६ । १८ साग० को। सन्ति द्वादश संस्थाने द्वितीये संहतावपि । चतुर्दश तु संस्थाने तृतीये संहतो तथा ॥२०६॥ प्र. २११२ सा० को० । प्र० २।१४ सा० को० । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०१ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः तुयें संहति-संस्थाने कोटीकोट्यस्तु षोडश । संस्थाने संहतौ चापि पन्चमेऽष्टादश स्मृताः ॥२०७॥ प्र० २०१६ सा० को० । प्र० २११८ सा० को० । सम्यग्दृष्टौ भवेत्तीर्थकराऽऽहारकयुग्मयोः । अन्तर्मुहूर्तमाबाधाऽन्तःकोटीकोट्यपि स्थितिः ॥२०॥ प्र.३।१०००००००००००००० अन्तः को० सा० । मुहूर्ता द्वादश ज्ञेया वेद्येऽष्टौ नाम-गोत्रयोः । स्थितिरन्तर्मुहूर्त तु जघन्या शेषकर्मसु ॥२०॥ दशसु ज्ञान-विघ्नस्थास्वथान्ते दृक्-चतुष्टये । लोभसंज्वलने चैव स्थितिरन्तर्मुहूर्तिका ॥२०॥ मुहर्ता द्वादशात्र स्युः सातेऽष्टावोच्चयशस्यपि (१)। क्रोधे मासद्वयं मासार्धमासौ मान-माययोः ॥२११॥ भत्र क्रोधे संज्वलने मासौ २ । माने मासः १ । मायायां पक्षः । तिर्यनरायुषोरन्तर्मुहूर्तः श्वाभ्र-देवयोः । दशवर्षसहस्राणि पुंवेदे सरदौष्ट' च ॥२१२॥ असातेन युतं चाद्य दर्शनावृतिपन्चकम् । मिथ्यात्वं द्वादशाष्टौ च कषायाः नोकषायकाः ॥२३॥ ६।१।१२८ त्रयः सप्त च चत्वारो द्वौ पयोधेरनुक्रमात् । सप्तभागास्तु पल्यस्यासंख्यभागोनिता स्थितिः ॥२१४॥ तिर्यङ्-नरगतिद्वन्द्व जातयः पञ्च चातपः । पट के संस्थाग-संहत्योरुद्योतो द्वनभोगती ॥२५॥ वर्णाद्यगुरुलध्वादिचतुष्के कर्म-तेजसी । ब्रसादीनि च युग्मानि नवाप्यौदारिकद्वयम् ।।२१६।। निर्माणमयशो नीचं जघन्याऽऽसां स्थितिमताः । जलधेः सप्तभागौ द्वौ पल्या संख्यांशरिक्तितौ ॥२१७॥ प्रकृ० ५८ स्थितिः उदधीनां सहस्रस्य सप्तांशी द्वौ जघन्यिका । स्थिति क्रियिकषटकस्य पल्यासंख्यांशहीनकौ ॥२१८॥ २०००। अपूर्वक्षपके तीर्थकराऽऽहारकयुग्मयोः । जघन्यस्थितिबन्धोऽन्तःकोटीकोटी नदीशिनाम् ॥२१॥ अत्र जघन्याऽऽबाधा सर्वत्रान्तर्मुहूर्सवर्तिनी । उत्कृष्टः स्यादनुस्कृष्टो जघन्यस्वजघन्यकः । साद्यादिभिश्चतुर्धा च स्थितिबन्धः स्वाम्येन च ॥२२०॥ अजघन्यश्चतुर्भेदः२ स्थितिबन्धो हि सप्तसु । साद्यध्वास्त्रयो ऽन्ये तु चत्वारोऽप्यायुषो द्विधा ॥२२॥ इति मूलप्रकृतिषु । अत उत्तरास्वाह-- दशके ज्ञान-विघ्नस्थे संज्वालेष्वथ अधः । चतुष्केऽष्टादशस्वेवमजघन्यश्चतुर्विधः ॥२२२॥ १८ सादयश्चाध्रुवाः शेषाश्च त्रयोऽष्टादशस्वपि । उत्कृष्टाद्यास्तु चत्वारोऽप्यन्यासु सादयोऽध्रुवाः ॥२२३॥ १०२ शुभानामशुभानां च सर्वाः स्युः स्थितयोऽशुभाः । नृतिर्यगमरायूंषि मुक्त्वाऽन्यासां तु बन्धने ॥२२४॥ उत्कृष्टः स्थितिबन्धः स्यात्संकेशोत्कर्षतोऽपरः । विशुद्ध युस्कर्षतस्तियनृसुरायुःश्वसौ ऽन्यथा ॥२२५॥ अत्र सातबन्धयोग्यः परिणामः विशुद्धिः। असातबन्धयोग्यः परिणामः संक्लेशः। तत उत्कृष्टविशुद्धया या स्थितिबंध्यते सा नवन्या भवति, सर्वस्थितीनां प्रशस्तभावाभाशत् । तेन संक्लेशवृद्धेः सर्वप्रकृतिस्थितीनां वृद्धिर्भवति, विशुद्धिवृद्ध-स्तासामेव हानिर्भवति । उत्कृष्टस्थितौ च विशुद्धयः स्तोका १. संवत्सराष्टकम् । २. साद्यनादि-ध्रुवाध्रुवाः। ३. सप्तसु कर्मसु । ४. जघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टाः । ५. साद्यध्रुवौ । ६. बन्धः। Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ संस्कृत-पंचसंग्रहे भूत्वा गणनया वर्धमाना [ तावद् ] गच्छन्ति, यावजघन्या स्थितिः। जघन्यस्थितौ पुनः संक्केशाः स्तोका भूत्वोपरि प्रक्षेपोत्तरक्रमेण वर्धमानाः [तावद् ] गच्छन्ति, यावदुस्कृष्टा स्थितिरिति । सर्वोत्कृष्टस्थितीनां हि मिथ्याष्टिस्तु बन्धकः । विमुच्याऽऽहारक तीर्थकरं देवायुरित्यपि ॥२२६॥ सप्रमादो हि देवायुराहारं स्वप्रमत्तकः । तीर्थकृत्त्वं पुनर्मत्यः समर्जयति निव्रतः ॥२२७॥ स्थितेरुत्कर्षका पञ्चदशानां नृ-गवादयः । देवाश्च नारकाः पण्णामीशानान्ताः सुरास्त्रिषु ॥२२८॥ १५/६।३। श्वभ्रतिर्यनरायूंषि षटकं वैक्रियिकाह्वयम् । साधारणमपर्याप्तं सूक्ष्मं च विकलत्रिकम् ॥२२॥ इत्यासां नर-तिर्यञ्चः सोत्कर्षा कुर्वते स्थितिम् । आतपस्थावरैकाक्षेष्वीशानान्ताः सुरास्त्रिषु।। २३०॥ तिर्यग्द्वयमसम्प्राप्तमुद्योतीदारिकद्वये । इत्युत्कर्षस्थितेरासां देवाः श्वाभ्राश्च कुर्वते ॥२३॥ प्रकृतीनां तु शेषाणां चतुर्गतिगताः स्थितिम् । कुर्युरुत्कृष्टसंक्लेशेनेषन्मध्यमकेन च ॥२३२॥ शेषाः प्रकृतयः १२। आहारकद्वयस्याप्यपूर्वस्तीर्थकृतस्तथा । अनिवृत्तिस्तु पुंस्त्वस्य चतुःसंज्वलनस्य च ॥२३३॥ ३॥५ हग्रोधस्थचतुष्कस्य दशानां ज्ञान विध्नयोः । सातोच्चयशसां सूचमो जघन्यां कुरुते स्थितिम् ॥२३४॥ वैक्रियस्य तु षट्कस्य तामसंड्यायुषां पुनः । संश्यसंज्ञी चतुर्णा च यथास्वं कुरुते स्थितिम् ॥२३५॥ पुनरप्यासा दशानां विशेषसाहपर्याप्तासंज्ञिपञ्चाक्षः श्वभ्ररीतिद्वयस्य तु । तद्योग्यप्राप्तसंक्लेशो जघन्यां कुरुते स्थितिम् ॥२३६॥ देवगत्यानुपूयो हि वैक्रियद्वितयस्य तु । हेतुस्तस्याः स एव स्यात्किन्तु सर्वविशुद्धिकः ॥३३७॥ श्वभ्रायुषस्तु पञ्चाक्षोऽसंज्ञी वा यदि वेतरः। मिथ्याहक सर्वपर्याप्तस्तथा सर्वविशुद्धिकः ॥२३८ एवं देवायुषः किन्तु तत्प्रायोग्येन संयुतः। संक्लेशेनात्मनो जन्तुर्जघन्यां कुरुते स्थितिम् ॥२३॥ भोगभूमिजवर्जानां नृ-तिरश्चां तदायुषः। योग्यं संक्लेशमाप्तानां जघन्या स्थितिरिष्यते ॥२४॥ प्रकृतीनां तु शेषाणां जघन्यां कुरुते स्थितिम् । पर्याप्तबादरैकाक्षः प्राप्तसर्वविशुद्धिकः ॥२४॥ एवं स्थितिबन्धः समाप्तः। अष्टोत्कृष्टादयः शस्ताशस्तौ संज्ञानुभागगाः । स्युः पत्ययविपाकौ च स्वामित्वं च चतुर्दश ॥२२॥ घातीनामजघन्योऽस्त्यनुत्कृष्टो नाम-वेद्ययोः । गोत्रे यस्त्वजघन्यो योऽनुत्कृष्टः स चतुर्विधः ॥२४३॥ बन्धाः साद्यध्रुवाः शेषाश्चत्वारोऽप्यायुषि द्विधा । अनुभागो मतो ह्येवं मूलप्रकृतिगोचरः ॥२४॥ ___ अनोत्कृष्टानां साद्यादयो भेदाः ....................... अष्टानामस्त्यनुत्कृष्टोऽनुभागश्चतुरंशकः । त्रिचत्वारिंशतोऽपि स्यादजघन्यश्चतुर्विधः ॥२४५॥ अनुभागाख्यबन्धास्तु परिसृष्टास्त्रयोऽत्र ये। साद्यध्रवप्रकारेण द्वितिकल्पा भवन्ति ते ॥२४६॥ तेजसागुरुलध्वाह्न शस्तं वर्णचतुष्टयम् । कार्मणं निर्मिदष्टानामनुत्कृष्टश्चतुर्विधः ॥२४७॥ दृष्टिरोधे नव ज्ञाने विध्ने च दश षोडश । कषाया भोजुगुप्से च निन्यं वर्णचतुष्टयम् ॥२८॥ ** श्रादर्शप्रतावेते भेदा लिखिता न सन्ति, श्रतः शतकगाथाङ्क ४४३ स्य संस्कृतटीकातो बोध्याः । सम्पादकः। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः ७०३ मिथ्यात्वमुपघातश्च त्रिचत्वारिंशतोऽपि हि । अजघन्य श्चतुर्भेदस्त्रयोऽन्ये सादयोऽध्रुवाः ॥२४॥ ४३। प्रकृतीनां तु शेषाणामनुभागा मता जिनैः । उत्कृष्टाधास्तु चरवारः साद्याः प्रत्येकमध्रुवाः ॥२५०॥ ७३। स्वमुखेनैव पच्यन्ते मूलप्रकृतयोऽपराः । स्वजातावेव मोहायुरूनाः परमुखेन च ॥२५॥ __अस्यार्थः-सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति । आयुईक्-चारित्रमोहवर्जानाम् । उक्तम्चपच्यते न मनुष्यायुर्नरकायुर्मुखेन हि । नापि चारित्रमोहाख्यं दृष्टिमोहमुखेन तु ॥२५२।। विशुद्ध या च प्रकृष्टोऽनुभागः स्याच्छुभकर्मणाम् । संक्लेशेनाशुभानां तु जघन्यस्त्वन्यथा मतः ॥२५३।। द्विचत्वारिंशतस्तीवः शस्तानां स्याद्विशुद्धितः । अशस्तानां द्वयशीतेस्त्वसुहक् संक्लेशयोगतः ॥२५॥ वपुःपञ्च कमायुष्कत्रिक त्रसचतुष्टयम् । अङ्गोपाङ्गत्रिकं निर्मिदाद्य संस्थान-संहती ॥२५५॥ परघातागुरुलध्वाह्वे देवद्विक-नरद्विके । सुभगोच्चस्थिरोच्छासा सुस्वरं सन्नभोगतिः ॥२५६॥ पञ्चाक्षं च शुभादेये शस्तं वर्णचतुष्टयम् । यशः सातातपोद्योताः प्रशस्तातीर्थकृद्युताः ॥२५७॥ ४२। प्रशस्तास्वातपोद्योती नृ-तिरश्चां तथाऽऽयुषी । तीवा मिथ्याश: सन्ति शेषाः सम्यग्दशस्तथा ॥२५८॥ औदारिकद्वयं चाधा संहतिनद्वयं तथा। सुर-नरकसह ष्टिः पञ्च तीव्रीकरोत्यमूम् ॥२५॥ अप्रमत्तोऽपि देवायुर्द्विचत्वारिंशतस्ततः । शेषां द्वात्रिंशतं तीवां क्षपका एव कुर्वते ॥२६॥ ४।५।१।३२। मीलिताः ४२। ज्ञान विध्ने च हनोधे पञ्च पञ्च नव क्रमात् । मोहे षडविंशतिर्नीचं निन्द्यं वर्णचतुष्टयम् ॥२६॥ श्वभ्र-तिर्यग्द्वये पञ्च संस्थानान्ययशोऽशुभम् । पञ्चसंहृतयोऽसातानादेयासन्नभोगतिः ॥२६२॥ सूचमं साधारणकाक्षे श्वनायुर्विकलनिकम् । उपघातमपर्याप्तं स्थावरास्थिरदुःस्वरम् ॥२६३॥ दुर्भगं चाप्रशस्तेयं द्वयशीतिर्वामडग्युताः । २॥ श्वभ्र-तिर्यड-नरायूंष्यपर्याप्तं विकलत्रिकम् ॥२६॥ सूचम साधारणं श्वभ्रद्वयमेकादशेति याः । मिथ्याशो नृ-तियस्तीवास्ताः कुर्वतेऽङ्गिनः॥२६५॥ ११॥ आतपस्थावरैकाक्षं तीव्रयेद् वामदक सुरः। तीव्रयन्ति तथोद्योतमाश्रिताः सप्तमी क्षितिम् ॥२६६॥ ३११ तिर्यग्द्वयमसंप्राप्तं तिस्रस्तु प्रकृतीरिमाः। तीव्रानुभागबन्धास्तु कुर्वन्ति सुरनारकाः ॥२६७॥ चतुर्गतिगताः शेषाः प्रकृतीस्तीवयन्ति तु । जीवास्तीव्ररुपायाख्याः नियमेनासह ष्टयः ॥२६॥ ६४॥ अथ शुद्धस्वामित्वमाहसूक्ष्मो मन्दानुभागो हि कुर्यादन्ते चतुर्दश । भनिवृत्तिः पुनः पञ्चापूर्वास्त्वेकादशापि च ॥२६॥ १४।५।११॥ ज्ञानावृद्विध्नयोदृष्टयावृत्तर्दश चतुष्टयम् । सूचमेऽनिवत्तिके पुंस्त्वं संज्वालानां चतुष्टयम् ॥२७॥ १४॥५ * अस्मिन् श्लोकपादेऽक्षराधिक्यमस्ति । सम्पादकः । Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ संस्कृत-पंचसंग्रह हास्यं रतिर्जुगुप्सा भीनिन्धं वर्णचतुष्टयम् । प्रचला चोपघाताश्च निका दश चाष्टमे ॥२७॥ अपूर्ने ११ आहारस्याप्रमत्ताख्यः शोकारत्योः प्रमादवान् । २।२। स्त्यानगृद्धित्रयं मिथ्यात्वं चानन्तानुबन्धिनः ॥२७२॥ मिथ्यादृष्टिद्धितीयांश्च कोपादीनप्यसंयतः। तृतीयं च कपायाणां चतुकं दश संयतः ॥२७३॥ ८४।४। मीलिताः १६ । इत्येताः प्रकृतीरेते चारित्राभिमुखास्त्रयः । मन्दानुभागबन्धा हि क्रमाषोडश कुर्वते ॥२७४॥ सूचममायुश्चतुष्कं च षटकं वैक्रियिकाह्वयम् । साधारणमपर्याप्तं विकलाक्षत्रयं तथा ॥२७५॥ मिथ्यादृशो नृ-तियञ्चो मन्दाः कुर्वन्ति षोडश । औदार्यद्वयमुद्योतस्तिस्रश्च सुर-नारकाः ॥२७६॥ १६॥३॥ नीचं तिर्यग्द्वयं चेति तिसृणां कुर्वतेऽङ्गिनः । मन्दानुभागबन्धं तु सप्तमीमवनिं गताः ॥२७७॥ देवमानुष्यतिर्यञ्चः स्थावरैकाक्षयोस्तथा। भन्दतां कुर्वते भावे वर्तमानास्तु मध्यमे ।।२७८।। २॥ मिथ्यादृशो हि सौधर्मदेवान्ता एकमातपम् । मास्तीर्थकरत्वं तु मन्दीकुर्वन्त्यसंयताः ॥२७६।। पञ्चाक्षं कार्मणं तेजः शस्तं वर्णचतुष्टयम् । निर्मिनसचतुष्कं चाथोच्छ्रासाऽगुरुलध्वपि ॥२८०॥ परघातं च संक्लिष्टाश्चतुर्गतिगता अपि । मिथ्याशस्तु कुर्वन्ति मन्दाः पञ्चदशाप्यमूः ॥२८॥ १५। तथा मिथ्याशस्तीवविशुद्धियुतचेतसः । स्त्रीत्व-पण्दत्वयुग्मस्य मन्दिमानं वितन्वते ॥२२॥ सह ष्टिरितरो चाष्टौ दुईष्टिस्यमविंशतिम् । मन्दयेत्परिणामेऽथ वर्तमानो हि मध्यमे ॥२८॥ सातासाते स्थिरद्वन्द्वं शुभाशुभ-यशोऽयशः । अष्टाप्येता हि सद्दृष्टिमिदृष्टिश्च मन्दयेत् ॥२८॥ षट के संस्थान-संहत्योनभोगतियुगं तथा। मय॑द्वितयमादेयमनादेयं सुरद्वयम् ॥२८५।। दर्भग सभगं चैव तथोच्चैर्गोत्रमेव च । विंशतिं व्यधिकामेव मन्दीकुर्वन्त्यसदृशः ॥२८६॥ २३ । भवन्ति सर्वघातिन्यो मिथ्यात्वं केवलावृत्तिः । पञ्चाद्या दृग्रुधोऽन्त्याश्च कषाया द्वादशादिमाः ॥२८७।। इति बन्धे विंशतिः २० । सम्यग्मिथ्या वेन सहोदये एकविंशतिः २१ । चतस्रो ज्ञानरोधे स्युस्तिस्रो हनधि मोहने । संज्वाला नोकषायाश्च देशधयो विघ्नपञ्चकम् ॥२ इति बन्धे पञ्चविंशतिः २५। सम्यक्त्वेन सहोदये षडविंशतिः २६ । एवं घातिप्रकृतयो मीलिताः ४७। नाम्नो वेद्यस्य गोत्रस्यायुषः प्रकृतयस्तु याः । अघातिन्यस्तु ताः सर्वा एकोत्तरशतप्रमाः ॥२८६।। १०१ । इति सर्वा मीलिता १४८ । अघातिन्योऽपि घातिन्यः सन्त्येता घातिसंयुजः । पुण्य-पापास्वघातिन्यः स्युःपापा घातिसंज्ञकाः ॥२१॥ चतस्रो ज्ञानरुध्याद्याः संज्वालाः विघ्नपन्चकम् । तिम्रो ग्रुधि पुवेद इति सप्तदशप्रमाः ॥२६॥ १. घातिसंयुताः सन्त्यः। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०५ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः चतुर्विधेन भावेनैताः स्युः परिणताः सदा । शेषास्त्रिविधभावेन सप्तोत्तरशतप्रमाः ॥२६२॥ लतादार्वस्थिपाषाणैः समभावैरिमा मताः । शेषा दार्वस्थिपाषाणैः सप्तोत्तरशतप्रमाः ॥२६३॥ इति चतुर्विधभावाः १०७ । शुभप्रकृतिभावाः स्युगुंडखण्डसितामृतैः । अपरे निम्बकाक्षीरविषहालाहलैः समाः ॥२६४॥ अत्रापरे अशुभप्रकृतिभावाः । चतुर्थात्प्रत्ययात्तातं मिथ्यात्वादपि षोडश । पञ्चाग्रासंयतात्रिंशद्वध्यन्तेऽन्याः कषायतः ॥२५॥ सम्यक्त्वात्तीर्थकृत्त्वं चाहारकं संयमादिमे । प्रधानप्रत्यया यस्मानासां बन्धोऽस्ति तेविना ॥२६६।। इति प्रधानहेतुनिर्देशः । अपरे त्वेवमाहुः-- मिथ्यात्वेनाथ कोपादिचतुष्कैश्च त्रिभिः क्रमात् । षोडशानां तथा पञ्चविंशतेर्दशकस्य च ॥२६७॥ चतुर्णा योगतो बन्धः स्यात्सातस्य कषायतः। प्रकृतीनां तु शेषाणां तीर्थसाहारकैविना ।।२१८॥ अत्र मिथ्यादृष्टी बन्धव्यवच्छिन्न प्रकृतयः षोडश मिथ्यात्वोदयकारणाः? मिथ्यात्वोदयेन विना तासां बन्धानुपलब्धेः १६ । एवमनन्तानुबन्ध्युदयकारणाः सासने पञ्चविंशतिः २५ । अप्रत्याख्यानोदयकारणाः अविरते दश १०। प्रत्याख्यानोदयनिमित्ता देशनते चतस्रः ४ । योगकारणं सयोगे सातम् १। शेषाः स्वगुणसंस्थानेषु संज्वलनकषायोदयकारणाः । कुतः ? कषायोदयेन सह बन्धोपलब्धेः। ६४ । सम्यक्त्वं तीर्थंकृत्वस्याऽऽहारयुग्मस्य संयमः' बन्धहेतुरिति पूर्वमेवोक्तम् । शरीरपञ्चकं पन्न वर्णाः पञ्च रसास्तथा । संस्थानषट कमष्टौ च स्पर्शाः संहननानि पट् ॥२६॥ अङ्गोपाङ्गत्रिक गन्धी निर्माणोऽगुरुलध्वपि । प्रत्येकस्थिरयुग्मे च परघातः शुभाशुभे ॥३००। उपघातातपोद्योताः केषाञ्चिद्वन्धनान्यपि । संघातैः सह सन्त्येवं द्वाषष्टिः पुद्गलोदयाः ॥३०॥ एताः पुद्गलविपाका: वेदितव्याः । कुतः? एतासां विपाकेन शरीरादीनां निष्पत्तेदर्शनात् । एवं नाम्नि पुद्गलनिबन्धना द्वापञ्चाशत् ५२ । बन्धन-संघातैः सह द्वापष्टिः ६२ । । ज्ञानग्रोधमोहान्तरायोत्था वेद्यगोत्रेजा । गतयो जातयस्तीर्थ कृदुच्छासा नभोगेती ॥३०२॥ प्रससुस्वरपर्याप्तस्थूलादेययुगानि च । यशःसुभेगयुग्मे च जीवपाका इमा मताः ॥३०३॥ ७८। तत्र ज्ञान-दर्शनावरणे जीवविपाके। कुतः? जीव एव तयोर्विपाकस्योपलब्धः। मोहनीयमप्यात्मनि निबद्धमवगन्तव्यम् । कुतः ? सम्यक्त्व-चारित्रयोर्जीवगुणयोर्घातकस्वभावत्वात् । अन्तरायमपि जीव. निबद्ध वेदितव्यम् । कुतः? घातिकमत्वात्, दानादीनां च विघ्नकरणे तव्यापारोपलब्धेः । वेदनीयमप्यात्मनिवद्धम् । कुतः ? सातासातविपाकफलयोः सुख-दुखयोर्जीवे समुएलम्भात् । गोत्रमप्यात्मनिबद्धम् । कुतः? उच्च-नीचगोत्रयोर्जीवपर्यायत्वे दर्शनात् । गत्यादयोऽपि सप्तविंशतिर्नामप्रकृतयः भात्मनिबद्धाः। कुतः? एतासां विपाकस्य जीव एवोपलब्धेः । चतस्त्रश्चानुपूर्योऽपि क्षेत्रपाका मताः जिनैः । आयूंऽयपि हि चत्वारि भवपाकानि सन्ति हि ॥३०४॥ तत्र चतस्र आनुपूर्व्यः क्षेत्रनिबद्धाः । कुतः ? प्रतिनियतक्षेत्र एवैतासां फलोपलब्धेः । नरकायुर्नरकभवनिबद्धम् । कुतः? नरकभवधारणशक्तिदर्शनात् । शेषायूंष्यप्यात्मीयात्मीयभवेषु निबद्धानि, तेभ्यस्तेषां भवानामवस्थानोपलब्धेः। मीलिताः १४८। इत्यनुभागबन्धः समासः । १. योगात् । २. चतुर्णा प्रत्ययानां संयोगात् । ३. अवार्धश्लोकान वाक्यमस्तीति शेयम् । ८६ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पंचसंग्रहे भागाभागस्तथोत्कृष्टाद्याः स्वामित्वमेव च । दश प्रदेशबन्धे स्युर्भागाभागोऽत्र चास्थ्ययम् ॥ ३०५ ॥ एकात्मपरिणामेन गृह्यमाणा हि पुद्गलाः । अष्टकर्मत्वमायान्ति प्रभुक्तान्नरसादिवत् ||३०६॥ एकक्षेत्रावगाढांस्तान् कर्मान् सर्वदेशगान् । यथोक्तहेतून् बध्नाति जीवः सादीननादिकान् ॥३०७॥ वर्णगन्धरसैः सर्वैश्चतुःस्पर्शेश्च तद्युतम् । स्यात्सिद्धानामनन्तांशः कर्मानन्तप्रदेशकम् ॥ ३०८ ॥ अत्र शीतोष्ण- स्निग्धरूक्षाश्चत्वारः स्पर्शाः ४ | ७०६ असंख्यातांशमावल्याः अपनीय ततोऽपरम् । अष्टकर्मसु तुल्यांशं दत्वाऽन्यद्विभजेदिति ॥ ३०६ ॥ बघ्नतोऽष्टविधं कर्मैकैकस्मिन् समयेऽत्र ये । प्रदेशबन्ध मायान्ति तेषामेतद्विभञ्जनम् ॥३१० ॥ भागोऽल्पोऽत्रायुषस्तुल्यो गोत्र- नाम्नोस्ततोऽधिकः । तुल्यो वरणविघ्नेष्वधिकोऽतोऽतोऽधिमोहने ॥ ३११॥ सर्वोपरिभागो हि वेदनीयेऽधिको मतः । सुख-दुःखनिमित्तत्वाच्छेषाणां स्थित्यपेक्षया ॥ ३१२ ॥ अनुत्कृष्टः प्रदेशाख्यः पण्णां बन्धश्चतुर्विधः । साद्यभुवास्त्रयः शेषाः सर्वे मोहायुपोर्द्विधा ॥ ३०३ ॥ ज्ञानावृद्विघ्नगाः सर्वाः स्त्यानगृद्धित्रयं विना । दृग्रोधे पट् जुगुप्सा भीः कषायाः द्वादशान्तिमाः ॥ ३१४ ॥ अनुत्कृष्टाश्चतुर्घाssसां त्रयोऽन्ये सादयोऽध्रुवाः । शेषाणां सादयः सन्ति चत्वारोऽप्यध्रुवास्तथा ॥३१५॥ ३० १६० ॥ मिश्रं विनाऽऽयुषो बन्धः षट् सूस्कृष्टप्रदेशतः । गुणस्थानेषु चोत्कृष्टो मोहस्य स्यान्नवस्वसौ ॥ ३६६॥ भायुर्मोहनवर्जानां षण्णां स्यात्कर्मणां स तु । समुत्कृष्टेन योगेन स्थाने सूक्ष्मकषायके || ३१७ ।। सप्तानां कर्मणां बन्धो जघन्योऽधमयोगिनः । सूक्ष्मापूर्ण निगोतस्य (?) आयुर्बन्धे तथाऽऽयुषः || ३६८ ।। सूचमे सप्तदशानां हि पञ्चानामनिवृत्तिके । सम्यग्दृष्टौ नदानां तु स्यादुत्कृष्ट प्रदेशता ||३१६॥ १७/५/६। पञ्च पञ्च चतत्नश्च ज्ञाने विध्नेऽथ युधि । सातमुच्चं यशः सप्तदश सूक्ष्मे निवृत्तिके ॥ ३२० ॥ १७। पुंस्त्वं संज्वलनाः पञ्च हास्याद्याः षट् च तीर्थकृत् । निद्रा च प्रचला चैवं सम्यग्दृष्टौ हि मानवे ।। ३२१|| ५|| द्वितीयस्य चतुष्कस्य कोपादीनामसंयते । तृतीयस्यापि देशाख्ये प्रदेशोत्कृष्टता भवेत् ॥ ३२२ ॥ ४|४| देवद्विकमथाऽऽदेयं सुभगं नृ-सुरायुषी । आद्ये संहति-संस्थाने सुस्वरं सन्नभोगतिः ॥ ३२३॥ असतं विक्रियद्वन्द्वमिति याः स्युखयोदश । मिथ्यादृष्टौ च सद्द्दष्टौ तासामुत्कृष्टदेशता ।।३२४।। १३ । आहारकद्वयस्याथ प्रमादरहितो यतिः । शेषाणां तु स मिथ्यात्वः प्रदेशोत्कर्षणक्षमः ॥ ३२५॥ ६६॥ संज्ञी पर्याप्त उत्कृष्टयोगः स्तोकाः समर्जयन् । कुर्यात्प्रदेशमुत्कृष्टं विपरीतो जघन्यकम् ॥३२६॥ श्वभ्र-देवायुषी श्वभ्रद्वयमेतच्चतुष्टयम् । विवर्त्तमानयोगस्त्वसंज्ञी वाऽऽहारकद्वयम् ॥ ३२७॥ अप्रमत्तो यतिः पञ्च तीर्थं सुरचतुष्टयम् | नये सूचमनिगोतस्तु शेषाः स्वल्पप्रदेशताम् ॥३२८॥ अन्नासंज्ञी ४ । अप्रमत्तः २ । असंयतः ५ । निगोतः शेषाः १०६ । प्रदेश-प्रकृती बन्धौ योगात् स्थित्यनुभागकौ । कपायात्कुरुते जन्तु तौ यत्र न तत्र ते ॥ ३२ ॥ प्रकृतिः स्यात्स्वभावोऽत्र स्वभावादच्युतिः स्थितिः । तद्वसोऽप्यनुभागः स्यात्प्रदेशः स्यादियत्वगः ॥३३०॥ प्रकृतिस्तिक्तता निम्ब्रे तत्स्वभावाच्युतिः स्थितिः । तद्वसोऽप्यनुभागः स्यादित्येवं कर्मणामपि ॥ ३३१ ॥ १. जघन्ययोगस्य । २. मध्ययोगव्यवस्थितः । ३. इयत्प्रमाणं इयत् - आत्मप्रदेशप्रमाणमित्यर्थः । तस्य भाव इयत्त्वम्, तद्गच्छतीति इयत्वगः । Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः चतुर्थः संग्रहः ७०७ कालं भवमथ क्षेत्रमपेच्यवोदयो भवेत् । कर्मणां स पुनद्वैधा सविपाकेतरत्वतः ।।३३२॥ श्रेण्यसंख्यातभागो हि योगस्थानानि सन्ति वै। ततोऽसंख्यगुणस्त्विष्टः सर्वप्रकृतिसंग्रहः ॥३३३।। ततोऽसंख्य गुणो ज्ञेयो विशेषः स्थितिगोचरः । स्थितेरध्यवसायानां स्थानानि तथा ततः ॥३३४॥ रसस्थानान्यपीष्टानि ततोऽसंख्यगुणानि तु । ततोऽनन्तगुणाः सन्ति प्रदेशाः कर्मगोचराः ॥३३५॥ अविभागपरिच्छेदाः सन्त्यनन्तगुणास्ततः । कथयन्त्येवमाचार्याः सिद्धान्ते सूघमबुद्धयः ॥३३६॥ [इति प्रदेशबन्धः समाप्त:] किञ्चिदबन्धसमासोऽयं संक्षेपेणोपवर्णितः । कर्मप्रवादपूर्वाम्भोनिधिनिष्यन्दमात्रकम् ॥३३७॥ अल्पश्रतेन संक्षेपादुक्तो बन्धविधिर्मया । यस्तं समग्रतां नीत्वा कथयन्तु बहुश्रुताः ॥३३८।। श्रीचित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते । श्रीपालसुतडड्ढे [न स्फुटार्थः पञ्चसंग्रहे ॥३३॥ . इति शतकं समाप्तम् । Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः वच्ये सिद्धपदैबन्धोदयसत्प्रकृतिविताम् । स्थानानां लेशमुच्चार्य (मुद्धृत्य) निष्यन्दं श्रुतवारिधेः ॥१॥ कति बध्नाति भुङ्क्ते च सत्वे स्थानानि वा कति । मूलोत्तरगताः सन्ति कति वा भङ्गकल्पनाः ॥२॥ अष्ट-सप्तक-षड्बन्धेष्वष्टवोदयसत्वयोः । एकबन्धे त्रयो भेदा एकभेदस्त्वबन्धके ॥३॥ बं० . उ० ८ ८ ८ एकबन्धे उ० ७ ७ ४ अबन्धे उ० ४ स० ८ ८८ स० ८ ७ ४ त्रयोदशस' सप्ताष्टौ बन्धेऽष्टौ पाक-सत्त्वयोः। विकल्पाः संज्ञिपर्याप्त पञ्च द्वौ केवलिद्वये ॥४॥ बं० ७ ८ ___बं० ८ ७ ६ १ १ त्रयोदशसु जीवसमासेषु उ० - ८ एकस्मिन् संज्ञिपर्याप्त उ० ८ ८ ८ ७ ७ स०८ स० ८ ८ ८ ८ ७ cccc . केवलिनोः उ० ४ ४ स० ४ ४ गुणस्थानेषु भेदौ द्वौ षट सु मिश्रं विनाष्टसु । एकैककर्मणां बन्धोदयसद्पतां प्रति ॥५॥ षट्सु मिथ्यादृष्टयादिषु मिश्रवर्जितेषु द्वौ भङ्गो उ० ८ ८ स० ८ ८ मिश्र अपू. अनि० सू० उ० सी० स० अ० एकेकोऽष्टसु उ०८ स० ८ ८ ८ ८ ८७४४ बन्धोदयास्तिता सम्यग मूलप्रकृतिषु स्थिताः । अभिधाय ततो वक्ष्ये उत्तरप्रकृतिश्रिताः ॥६॥ ज्ञानावृद्विघ्नयोः पञ्च पञ्च बन्धादिषु त्रिषु । शान्ते क्षीणे च निबन्धे पञ्चानामुदयास्तिते ॥७॥ बं० ५ ५ बं० ० ० दशसु गुणस्थानेषु उ० ५ ५ उपशान्त-क्षीणकषाययोः उ० ५ ५ स० ५ ५ स० ५ ५ नव षट् च चतस्रश्च स्थानानि त्रीणि ग्रधि । बन्धे सत्त्वे च पाके तु द्वेचतस्रोऽथ पञ्चकम् ॥॥ इग्रोधे नव सर्वाः षट् स्यानगृद्धित्रयं विना । चसस्रः प्रचला-निद्राहीनाः स्युर्बन्धसत्वयोः ॥४॥ ६।६४ दृग्रोधस्योदये चक्षुर्दर्शनावरणादयः । चतस्रः पञ्च वा निद्रादीनामेकतरोदये ॥१०॥ ४१५ नव बन्धनये सत्त्वे षट् चतुर्थत्वके नव । पड्वाऽबन्धेऽत्र पाको द्वौ चतुःसत्वोदयौ परे ॥११॥ बं० १ ६ ६ ६ ४ ४ ४ ४ . . . . . स० है . ६ ६ ६ ६ ६ ४ अत्र बन्धत्रयं ।।४। सर्वे मूलभङ्गाः १३।। १. जीवसमासेषु । २. उदयश्च अस्तिता च उदयास्तिते । ३. अबन्धे सत्वे नव षट् च । Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः पञ्चमः संग्रहः आद्ययोगंव पट् चातोऽपूर्वस्यांशं तु सप्तमम् । यावद्दमुध्यतः सूक्ष्मं यावद्यन्धे चतुष्टयम् ||१२|| इति गुणस्थानेषु ४६६६६६६|६|४| ४|०|०|०|० सच्चे नवोपशान्तान्ताः क्षपकेष्वनिवृत्तिके । संख्यात भागान् यावत्ताः क्षीणं यावत्ततश्च षट् ॥१३॥ चतस्रो प्रत्यक्षणे क्षीणे चतस्रः पञ्च चोदये । कोणस्योपान्तिमं याचत् चणमन्ते चतुष्टयम् ||१४|| इति सप्तस्वाद्येषु गुणस्थानेषु रामकेषु चपकेषु चापूर्वकरणे निवृती च संख्यातभागान् बहून् याव सध्ये नव । ततः परमनिवृत्ति सूक्ष्म कीणचपकेषु सत्ये पटू ६ चतस्रोऽन्त्यचणे चीणे' इति ची क्षीणकषायोपान्त्यचणश्वरमसमयस्तत्र चतस्रः सरखे एवं सध्ये ६|६|६|६|| ६ ०१० | ' चतस्रः पञ्च चोदये' इति मिध्यादृष्टया दिक्षीणकषायोपान्तिमसमयं यावदुदबे ४ ४ ह ४ ६ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ५ ५ ५ ५ सम्यग्मिथ्यादृष्टवादिद्विविधा पूर्वकरणः प्रथम सप्तमभागं ४ ४ ४ ४ ४ ५ ५ ५ ५ ५ क्षीणस्येवान्यपणे चरमसमये चतुष्टयम् । एवं मिध्यादृष्टि- सासनयोः ततः परं पितषोडशप्रकृतेर निवृत्तेः शेषसंख्यातभागे सूचमचपके ४ ४ सूक्ष्मोपशमकेषु रूपकेषु चापूर्वकरणस्य सप्तभागेषु षट्स्वनिवृत्तेः संख्यातांशान् बहून् भागान् यावत् ४५ । ० ४ एवं सर्वे १३ । ४ बं० उ० स० ४ ५ क्षीणचरम समये च । ६ ६ गोत्रे स्युः सप्त वेद्येऽष्टी भङ्गाः पद्म तथा नव नव पञ्चक्रमाच्छु तियं नरसुरायुपाम् ॥१५॥ । इति गोत्रे ७ । वेद्ये । आयुषि ५६५ उच्चोचमुरचनीचं च भीचोचं नीचनीचकम् । बन्धे पाके चतुर्थेषु सद्द्वयं सर्वनीचकम् ॥१६॥ १ ३ ११० 9 ร १ ० १० 910 9 १० १ o ० १ ११० 910 ० 9 १० १/० । अन्रोचमेकोऽङ्कः १ नीचं शून्यः ० इति संदृष्टि सातासातचोरप्येषैव संदृष्टिः 110 | । १० । इत्याचे पवार आचा भङ्गास्तु सासने द्वावाची विष्वतोऽन्येषु पञ्चस्वेकस्तथाऽऽदिमः ॥१७॥ दशसु मिध्यादृष्टवादिषु पञ्चानां विभागः ५१४।२।२२।१।११।११। उच्च पाके द्वयं सवेऽबन्धकैकादशादिषु स्यादुचमुदये सच्चे चायोगस्यान्तिमे चणे ॥१८॥ चतुषु अयोगान्ते वेद्यस्य गोवत्वारः प्रथमा मताः । षट्स्वादिमेषु ते सन्ति द्वावेवाची तु सप्तसु ॥१६॥ आद्यावेव विना बन्धमयोगे द्वावुपान्तिमे । द्वी चान्ये स च पाकस्थे सातेऽसाते तथाष्ट 112011 09 ११० १।० ० ० १ १ ६ ६ यावत् ४ ५। शेषापूर्वानिवृति १1० ४ ४ ४ ० ७०६ ह ६ ६ ६ ६ ६ ६० ५ ५ उपशान्ते ४ ह ६ ०|० एवं सप्त ७ । ० १ ง एवमष्ट ८ । क्षीणे Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत - पञ्चसंग्रहे अवनत्युदितं स्यादायुर्जवे तु बध्नति । बध्यमानोदिते सत्वे बजे बोदिते सती ॥२१॥ तिर्य-मनुष्यायुषी बनासु निरयायुष उदये नारकेश्वेव पञ्च भङ्गाः २ ७१० १२ अनारक-तियं मनुष्य देवायुषामेक-द्वि-नि-चतुरः संदृष्टयः ||२|३|४ | एवं निरव तिथं मनुष्य देवापि बध्नन् तिर्यक्षु वियंगायुरुवे नव भङ्गाः ४ ० १ २ २ २।१ २ प्रस्तारः १ १ प्रस्तार: ० ३ ३ २ २ ० ३ ३:१ ३ १ १ ง १/२ १३ १/३ ર २ ६ ३२ २ २।१ एवं निरय तिर्यद्- मनुष्य- देवापि बधनस्सु मनुष्येषु मनुष्यायुरुदये नव भङ्गाः ४ ३ ३ ४ ३।३ ३।४ ३/४ ४ ० ० २ २/२ ३ २ २।३ १ ३ ३|१ एवं तिथंड - मनुष्यायुषी बन्नरसु देवेषु देवायुरुदये पञ्च भङ्गाः २ ३ ४ ४ ४ ४/२ ४।२ ४।३ કાર્ द्वाविंशती सप्तदश बन्धे त्रयोदश । नव पञ्च चतुष्कं त्रिद्वय के स्थानानि मोहने ॥२२॥ 999 १६ ร ० ३ ३ ३ ३।२ ३।३ २२।२१।१७।१३६/५/४/३/२/१ द्वाविंशतिः समिथ्यात्वाः कषायाः षोडशैककः । वेदो युग्मं च हास्यादिष्वेकं भयजुगुप्सने ||२३|| १।१६।१।२।१।१। मीलिताः २२ । इयमाच द्वितीये तु निर्मिध्यात्वनपुंसकाः हीनाऽनन्तानुबन्धिनीवेदेमिंश्रायताद्वयोः ॥२४॥ मिथ्यादृष्टौ २२ । प्रस्तारः २ २/३ २ २ २ । सासने २१ । प्रस्तारः २ २ २ । १ १२ देशे द्वितीयकोपायैरुना पछेऽपि तत्परैः । अप्रमत्ते तथाऽपूर्वे शोकार खिविवर्जिताः ||२५|| २ २ २।४ २/४ २ देशयतौ १३ प्रस्तारः - २२ । प्रमत्ते ह । प्रस्तारः- ง 4 २ २२ । मिश्रासंयतयोः १७ । ११ १६ बन्धे पुवेद-संज्वाला संज्वालाश्वानिवृत्तिके । तेऽप्येकद्वित्रिभिर्हीनाः कोपाद्यः सन्ति मोहने ||२६|| अनिवृत्ती ५४/३/२/१ २ २ २ । अग्रमत्ता पूर्वकरणयोः १ ६ । Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकाख्यः पञ्चमः संग्रहः .११ स्थानं दश नवाष्टौ च सप्त षट पच मोहने । चतुष्कं द्वयमेकं च सामान्यानवधोदये ॥२७॥ 2018मा७१६५।४।२।१ मिथ्या क्रोधाश्च चत्वारोऽन्ये वा वेदो विकल्पतः । हास्यादियुग्मयोरेकं भीर्जुगुप्सा दशोदये ॥२८॥ मिथ्यात्वमाहाकोपादीन् द्वितीयांस्तत्परान् त्यजेत् । भीयुगैकतरं द्वे च हासादीन् वेदगं त्रयम् ॥२६॥ अत्र श्लोकार्थः-मिथ्यात्वमेकं अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलनाख्याः चत्वारः क्रोधाः, चत्वारो वा मानाः, चतस्रो वा मायाः, चत्वारो वा लोभा इति चत्वारः कषायाः ४ । विष्वेकतरो वेदः १ हास्यरती अरतिशोकावित्येकतरं युग्मम् २ । भयं १ जुगुप्सा च १ इति दशोदयस्थानम् १०। द्वाविंशतिबन्धस्थाने मिथ्यादृष्टः १० । अस्माच्च दशोदयस्थानात् मिथ्यात्वे त्यक्ते नवोदयस्थानमेकविंशतिबन्धस्थाने सासनस्य है । एतदेवानन्तानुबन्धिचतुष्कोनं शेषवतुष्कत्रयस्य त्रयः क्रोधा माना माया लोभा वा, इति प्रयः कषायाः ३ । वेदैकतरादिभिश्च पञ्चभिः सहाष्टोदयस्थानं सप्तदशबन्धस्थाने सम्यग्मिध्यादृष्टः] असंयतसम्यग्दृष्टेरौपशमिकसम्यग्दृष्टः क्षायिकसम्यग्दृष्टेश्च । एतदेव द्वितीयकोपाद्यनं शेषचतुष्कद्वयस्य द्वौ क्रोधी मानौ माये लोभी चेति द्वौ कषायौ । वेदैकतरादिभिश्च पञ्चभिः सह सप्तोदयस्थानं त्रयोदशबन्धस्थाने देशसंयतस्यौपशमिकसम्यग्दृष्टेः क्षायिकसम्यग्दृष्टश्च । एतदेव तृतीयकोपायुनं चतुणां संज्वलनानामेकतरेण वेदैकतरादिभिः पञ्चभिः सह षडुदयस्थानं नव बन्धस्थाने औपशमिकसम्यग्दृष्टीनां क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां च प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वाणाम् ६ । एतदेव भय जुगुप्सयोरेकतरेण विना पञ्चोदयस्थानं प्रमत्तादिष्वेव । अस्य द्वौ भङ्गौ ५.५। एतदेव भय जुगुप्साभ्यां द्वाभ्यामपि हीनं प्रमत्तादीनामेव चतुरुदयस्थानम् ४। एषाम्चैकैकस्य दशायुदयस्थानस्य चतुभिः कषायैः त्रिभिर्वेदैः युगलाभ्यां गुणितस्य चतुर्विंशतिभङ्गाः २४ । ततः सवेदानिवृत्तौ हास्यादिभिविना चतुर्णा संज्वलनानामेकतरेण त्रिवेदैकतरेण च द्विकमुदयस्थानम् २। अस्य च द्वादश मङ्गाः १२ । तथाऽनिवृत्तेरेव चतुर्विधबन्धस्थाने द्वे उदयस्थाने द्वावेकश्च । तत्राद्येऽपूर्ववद् द्वादश भङ्गाः १२ । द्वितीये चावेदानिवृत्तौ वेदैविना चतुर्णा संज्वलनानामेकतरेणकमुदयस्थानम् । अस्य चत्वारो भङ्गाः ४ । त्रिविधबन्धस्थाने क्रोधवर्जत्रिसंज्वलनानामेकतरेणैकमुदयस्थानम् । अस्य त्रयो भङ्गाः ३ । द्विविधबन्धस्थाने क्रोधमानवजद्विसंज्वलनयोरेकतरणकमुदयस्थानम् । अस्य द्वौ भनौ २। एकविधबन्धके लोभसंज्वलनेनैकमुदयस्थानम् । अस्यैको भङ्गः । अबन्धके सूचमलोभसंज्वलनेनैकमुदयस्थानम् । एक एव भङ्गः १ । विंशतिस्त्वष्टसप्ताग्राः षट्चतुस्त्रिद्विकैकयुक । तथा त्रयोदशातोऽपि द्वादशैकादशोऽप्यतः ॥३०॥ सत्त्वे पञ्च चतुस्विद्वय के स्थानानीति मोहने । सन्ति पञ्चदशातः स्युर्भङ्गा बन्धादिगोचराः ॥३१॥ २८।२७।२६।२४॥२३॥२२॥२॥१३।१२।११।५।४।३।२।। मोहे स्युः सत्तया सर्वाः विंशतिः सप्त-षड्-युताः । उद्वेल्लितेति सम्यक्त्वे सम्यग्मिथ्यात्व एव च ॥३२॥ मिथ्यादृष्टौ २८।२७।२६। क्षपितेष्वाद्यकोपादिष्वष्टाविंशतितः पुनः । मिथ्यात्वे मिश्रके च स्युः सम्यक्त्वेऽष्टकषायके ॥३३॥ नपुसके स्त्रियां हास्यादिपट के पुरुष क्रमात् । क्रोधे संज्वलने माने मायायामपराणि तु ॥३४॥ एवं शेपाणि सत्तास्थानानि २४।२३।२२।२।।१३।१२।११।५।४।३।२।। भङ्गाःद्वाविंशतेः पट स्युश्चत्वारश्चैकविंशतेः । स्थानेषु विष्वतो द्वौ द्वावेकोऽतो मोहबन्धने ॥३५॥ ६।४।२।२२।१।११।११ पञ्चस्वायेषु बन्धेषु पञ्च पाका दशादिकाः । द्वौ परे द्विकभेको वाऽन्यत्रान्येष्वेक एव च ॥३६॥ बं० २२ २१ १७ १३ है . बं० .. अनिवृत्ती उ० १० १ ८ ७ ६ जान उ०२ २ १ १ १ सूपम उ० १ आद्येऽनन्तानुबन्ध्यूनोऽन्योऽन्यौ सप्तदशेऽपि तौ। मिश्र-सम्यक्त्वयुक्तौ स-सम्यक्त्वौ चोदयौ द्वयोः ॥३७॥ बं० २२ २१ १७ १३ ॥ उ० १०६ ६ ६८ ८७ ७१६ १. बन्धस्थाने । २. अनन्तानुबन्धिसहितः । ३. उदयभनौ । ४. मिश्राविरतयोः। ५. बन्धस्थानयोः। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ संस्कृत-पश्चसंग्रहे दशाऽप्येते भयेनोना जुगुप्सोना द्वयोनकाः । इत्यन्येऽप्युदया एषामेकैकस्योपरि प्रयः ॥३८॥ २२ २१ . . . औ० हा० ० औ० ता. वे० औ. क्षा. ___हाई ८८ ७७ ७७ ६६ ६६ ५।५ एको दशोदयोने स्युः षडेकादश वै दश । सप्त चत्वार एकोऽनानिवृत्तौ द्वौ च पञ्चकम् ॥३६॥ अत्र पञ्चसु बन्धस्थानेषु दशोदयादीनां संख्याः १।६।११।१०।७।४।१। मीलिताः ४० । अनिवृत्तौ २॥४॥ [ सूक्ष्मे १] दश द्वाविंशतेर्बन्धे सप्ताद्याः उदयाः परे । नव सप्तादिकाः सप्तदशे नव पहादिकाः ॥४०॥ त्रयोदशेऽष्ट पञ्चाद्याः सप्ताऽतश्चतुरादिकाः । चत्वारिंशदिमे पाकाः बन्धस्थानेषु पञ्चसु ॥४१॥ ४०। कपायवेदयुग्मस्ते चतुस्सिद्विभिराहताः । चतुर्विशतिभेदाः स्युः प्रत्येकमखिलोदयाः ॥४२॥ एवं पञ्चसु बन्धस्थानेषु चत्वारिंशदुदयाश्चतुर्विंशतिभङ्गगुणाः सन्त एतावन्त उदयविकल्पाः १६० । भङ्गाः कषाय-वेदैः स्युबन्धयोदशाद्ययोः । द्विकोदये चतुर्बन्धे चत्वारोऽन्येऽप्येकोदये ॥४३॥ बन्धत्रिके त्रिक-द्वय कभङ्गाश्चैकोदये क्रमात् । अनिवृत्तावतः सूक्मे स्यादेकः पाक-भङ्गयोः ॥४४॥ __ २ २ १ १ १ . सूची एवं सर्वे भङ्गा मीलिताः ३५। पूर्वोक्तः १२ १२ १ ३ २ . स हैतावन्तः ११५। पाकस्थानानि पाकस्थप्रकृतिघ्नानि ताडयेत् । स्वैर्विकल्पैश्चतुर्विशत्यायैश्च पदबन्धनैः ॥४५॥ मोहप्रकृतिसंख्यायाः पदबन्धास्त एव हि । एकान्नत्रिंशदनानि सहस्राणि तु सप्त ते ॥४६॥ अत्र दशादि-चतुरन्तानि पाकस्थानान्येतावन्ति १०६।११1१०1७181१ दशादिपाकस्थप्रकृतिनानि १०।५४।८८७०।४२।२०।४ मीलिताः २८८ । पुनश्चतुर्विंशतिघ्नानि ६६१२ । अनिवृत्तौ पूर्वोक्ता द्विकाधुदयप्रकृतयः २।२।१।१।११। सूचमे । एता एभिर्भङ्गः १२।१२।४।३।२।१।१। पूर्वोक्तगुणिता एतावन्तः आये त्रीणि परे चैकं त्रिषु पञ्च च षट् परे । सप्तातोऽन्येषु चत्वारि सत्तास्थानानि बन्धने ॥४७॥ ___ एवं सामान्येनाभिधाय विशेषेणाऽऽह-- आद्यमाद्य त्रयं बन्धे द्वितीयेऽष्टाविंशतिः । सत्तयाऽष्ट चतुस्त्रिद्वय कामात्रिष्वपि विंशतिः ॥४८ साऽतोऽष्टंचतुरेकामा निद्वय कामास्तथा दश । पञ्चामाणि परेऽमूनि त्रिष्वतो बन्धके तथा ॥४६॥ प्रत्येक चतुरष्टकयुक्ता विंशतयः क्रमात् । चतुस्त्रिद्वय कसकस्ताः सत्तास्थानश्च संयुताः ॥५०॥ द्वाविंशतिबन्धके सत्तास्थानानि २८।२७।२६। एकविंशतिबन्धके २८ सप्तदश-त्रयोदश-नवबन्धकेषु सत्तास्थानानि २८॥२४॥२३॥२२॥२१॥ पञ्चवन्धके २८।२४२१३।१२।११। चतुर्बन्धके २८।२४।२१।१३। १२।१५। शेषबन्धत्रिकेऽबन्धकेऽपि चत्वारि सत्तास्थानानि । तत्र त्रिबन्धके २८।२४।२१।४। द्विबन्धके २८॥२४॥२॥३॥ एकबन्धके २८।२४॥२१॥२ सत्तास्थानानि । अबन्धके २८२४।२१।१। बन्धेऽत्र नव पाकेऽपि मोहने स्थानानि दश । सत्वे पञ्चदशोक्त्वेति नामातो वच्यते परम् ॥५१॥ त्रिक-पञ्च-पडष्टाग्रा नवाग्रा विंशतिः क्रमात् । दशैकादशयुक्तैकं बन्धस्थानानि नामनि ॥५२॥ २३१२५२६।२८।२६।३०३१॥ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः ७१३ श्वभ्रतियंतृदेवानामेकं पञ्च त्रि पञ्च तु । क्रमेण गतियुक्तानि बन्धस्थानानि नामनि ॥५३॥ १५।३।५ अत्र श्वभ्रद्वयं हुण्डं निर्माणं दुर्भगास्थिरे । पञ्चेन्द्रियमनादेयं दुःस्वरं चायशोऽशुभम् ॥५४॥ असन्नभोगतिस्तेजः कार्मणं वैक्रियद्वयम् । वर्णाद्यगुरुलध्वादि सादिकचतुष्टयम् ॥५५॥ इत्यष्टाविंशतिस्थानमेकं मिथ्यात्वसंयुजाम् । श्वभ्रर्तिपूर्णपञ्चायुक्तं बध्नन्ति देहिनः ॥५६॥ स्थानं २८ । भङ्गः १ । अत्र नरकगत्या सह वृत्त्य भावादेकाक्ष-विकलाक्षजातयः संहननानि च न बध्यन्ते । दशभिनवभिः षड्भिः पञ्चभिविंशतिस्त्रिभिः । युक्ता स्थानानि पञ्चैव तिर्यग्गतियुतानि तु ॥५७॥ ३०।२६।२६।२५।२३। तत्राद्या त्रिंशदुद्योतं तिर्यद्वितयकामणे । तेजः संहति-संस्थानपटकस्यैकतरद्वयम् ॥५८॥ नभोगतियुगस्यकतरमौदारिकद्वयम् । वर्णाद्यगुरुलध्वादि-व्रसादिकचतुष्टयम् ॥५६॥ स्थिरादिपडयुगेष्वेकतरं पञ्चाक्षनिर्मिती । पञ्चाक्षोद्योतपर्याप्ततिर्यग्गतियुतामिमाम् ॥६०॥ . मिथ्यादृष्टिः प्रबध्नाति बध्नात्येतां च सासनः। द्वितीयां त्रिंशतं किन्तु हुण्डासम्प्राप्तवर्जिताम् ॥६१॥ तत्र प्रथमत्रिंशति पटूसंस्थान-षट्संहनननभोगतियुग-स्थिरादिषड्युगलानि च ६।६।२।२।२।२।२।२ २।अन्योन्याभ्यस्तानि मङ्गाः ४६०८। द्वितीयविंशति सासनोऽन्तिमसंस्थान-संहनने बन्धं नागच्छतः, तद्योग्यतीवसंक्लेशाभावात् । अतः ५।५।२।२।२।२।२।२।२। अन्योन्याभ्यस्तानि भङ्गाः ३२००। एते पूर्वप्रविष्टाः पुनरुक्ता इति न गृह्यन्ते। तत्र त्रिंशन्तृतीयेयं तिर्यद्वितयकार्मणे । तेजश्चौदारिकद्वन्द्वं हुण्डा सम्प्राप्तदुर्भगम् ॥६२॥ व्रसाद्य गुरुलघ्वादि वर्णादिकचतुष्टयम् । तथा विकलजात्येकतरं दुःस्वरमेव च ॥६३॥ यशःस्थिरशुभद्वन्द्वत्रिकस्यैकतरत्रयम् । निर्माणं चाप्यनादेयमुद्योतासन्नभोगती ॥६॥ बध्नात्येतां च मिथ्याक पर्याप्तोद्योतसंयुताम् । विकलेन्द्रियसंयुक्तां तिर्यग्गतियुतामपि ॥६५॥ अत्र विकलेन्द्रियाणामेकं हुण्डसंस्थानमेव, तथैतेषां बन्धोदययोः दुःस्वरमेवेति तिस्रो जातयस्त्रीणि युगलान्यन्योन्याभ्यस्तानि ३।२।२।२। भङ्गाः २४ । तिस्रो हि त्रिंशतो यद्वदैकान्नत्रिंशतस्तथा । तिस्रो विशेषः सर्वासु यदुद्योतो न विद्यते ।।६६।। एतासु पूर्वोक्तभङ्गाः ४६०८ । षड्विशतिरियं तत्र तिर्यद्वितयकार्मणे । तेज औदारिकैकाक्षे हुण्डं पर्याप्तबादरे ॥६७॥ निमिच्चागुरुलध्वादि-वर्णादिकचतुष्टयम् । शुभस्थिरयशोद्वन्दुष्वेकैकमथ दुभंगम् ॥६६॥ आतपोद्योतयोरेकं प्रत्येकं स्थावरं तथा । अनादेयं च बध्नाति मिथ्यादृष्टिरिमामपि ॥६६॥ सतियंग्गतिमेकाक्षपूर्णबादरसंयुताम् । तथैकतरसंयुक्तामातपोद्योतयोरपि ॥७॥ अत्रैकेन्द्रियेष्वङ्गोपाङ्गं नास्त्यष्टाङ्गाभावात् । संस्थानमप्येकमेव हुण्डम् । अतः आतपोद्योतस्थिरास्थिरशुभाशुभायशोयशसा युगानि ॥२॥१२ अन्योन्यगुणितानि भङ्गाः १६ । षड्विंशतिविनोद्योतातपाभ्यां पञ्चविंशतिः । तस्यैवैकतरोऽप्येताः सूचम-प्रत्येकयुग्मयोः ॥७१॥ अत्र सूचम-साधारणे भावनादीशानान्ता देवा न बध्नन्ति । अत्र च यशाकीति निरुध्य स्थिरास्थिरभङ्गो शुभाशुमभङ्गाभ्यां गुणितौ ४ । अयश कीर्ति निरुध्य बादरप्रत्येकस्थिरशुभयुगानि २।२।२।२ अन्योन्यगुणितान्ययशःकीर्तिभङ्गाः १६ । द्वयेऽपि २०।। पञ्चविंशतिरत्रान्या तिर्यद्वितयकार्मणे । पञ्चाक्ष-विकलाक्षकतरमौदारिकद्वयम् ॥७२॥ तेजोऽपर्याप्तनिर्माणे प्रत्येकागुरुलध्वपि । उपधातायशोहुण्डास्थिरासम्प्राप्तदुर्भगम् ॥७३॥ त्रसं वर्णादयः सूचममनादेयाशुभैस्त्विमाम् । सतिर्यग्गत्यपर्याप्तत्रसां बध्नाति वामदृक् ।।७४।। अव परघातोच्छ्रासविहायोगतिस्वरनाम्नामपर्याप्तेन सह बन्धो नास्ति, विरोधादपर्याप्तकाले चैपामुदयाभावाच्च । अत्र चत्वारो जातिभङ्गाः ४ । Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रह त्रयोविंशतिरेकाक्षं तिर्यग्द्वन्द्वं च कार्मणम् । तेजोऽशुभं तथौदार्य दुर्भगागुरुलध्वपि ॥७५॥ हुण्डं वर्णचतुष्कं चोपधातमयशोऽस्थिरम् । सूचमबादरयारेकमेकं साधारणान्ययोः ॥७६॥ स्थावरापूर्णनिर्माणानादेयानि च वामदृक् । सतिर्यग्गतिपर्याप्तकाक्षां बध्नात्यमूमपि ॥७७॥ . अत्र संहननबन्धो नास्ति, एकेन्द्रियेषु संहननस्योदयाभावात् । अत्र बादर-सुचमभङ्गयोः प्रत्येकसाधारण-भङ्गगुणनायां चत्वारो भङ्गाः ४ । ___ एवं तिर्यग्गतियुक्ताः सर्वभङ्गाः १३०८ । दशभिनवभिर्युक्ता विंशतिः पञ्चभिः क्रमात् । बन्धस्थानानि युक्तानि नृगत्यां त्रीणि नामनि ॥७८॥ ३०२६॥२५॥ त्रिंशदेषाऽत्र पञ्चाक्षं नृद्वयौदारिकद्वये । सुस्वरं सुभगादेयमाद्यसंस्थान-संहती ॥७॥ शुभस्थिरयशोयुग्मैकतराणि च सद्गतिः। वर्णाद्यगुरुलध्वादि-त्रसादिकचतुष्टयम् ॥८॥ तीर्थकृत्कार्मणं तेजो निर्मिद् बध्नात्यसंयतः । एतां नृमतिपञ्चाक्षपूर्णतीर्थकरैर्युताम् ॥८॥ ३० । अत्र दुर्भग-दुःस्वरानादेयानां तीर्थकरेण सम्यक्त्वेन च सह विरोधान्न बन्धः। सुभग-सुस्वरादेयानामेव बन्धस्तेन त्रीण्येव युगानि २।२२। अन्योन्यगुणिता भङ्गाः । हीनां तीर्थकृता त्रिंशदेकानत्रिंशदस्त्यमूम् । युक्तां मनुष्यगत्याद्यैर्बधनीतो मिश्र-निर्वतौ ॥२॥ २९ । अत्राष्टो मङ्गाः ८ वषयमाणद्वितीयैकान्नत्रिंशदपेक्षया पुनरुक्ता इति न गृहोताः । द्वितीयाऽप्येवमेकात्रिंशदेकतरैरियम् । युग्मोनां सुस्वरादेयसुभगानां त्रिभिर्युताः ॥३॥ एतां संहति-संस्थानषट कैकतरसंयुताम् । सन्नभोगतियुग्मैकतरां बध्नाति वामदृक् ॥४॥ अवेषां २।२२२।२।२।२।६।६ परस्परवधे भङ्गाः ४६०८। तृतीयापि द्वितीयेव बध्नात्येतां च सासनः । त्यक्त्वा हुण्डमसम्प्राप्तं तच्छेपैकतरान्विताम् ॥८५॥ अषां २१२२२।२।२।१५।५ अन्योन्यवधे भङ्गाः ३२०० । एते पूर्वप्रविष्टा इति न गृहीताः । स्यात्पञ्चविंशतिस्तन्न मनुष्यद्विक-कार्मणे । तेजोऽसम्प्राप्तहुण्डानि पञ्चासौदारिकद्विके ॥८६॥ प्रत्येकागुरुलचाहे स्थलापर्याप्तदर्भगम् । वसं वर्णचतुष्कं चानादेयमयशोऽस्थिरे ॥८॥ निर्माणं चाशुभं चोपघातोऽमूमादिमोऽर्जयेत् । मनुष्यगत्यपर्याप्तयुजं पञ्चाक्षसंयुताम् ॥८॥ अत्र संकेशेन बध्यमानापर्याप्तेन सह स्थिरादीनां विशुद्धिप्रकृतीनां बन्धो नास्ति, तेन भङ्गः । एवं मनुष्यगतौ सर्वभङ्गाः ४६१७ । एकत्रिंशदतस्त्रिंशन्नवाष्टाने च विंशती । चत्वार्यमरगरयामा निर्गत्येकं तु पञ्चमम् ॥९॥ ३१॥३०॥२६॥२८॥ तकत्रिंशदेषात्र देव द्वितय-कार्मणे । पञ्चाक्षमाद्यसंस्थानं तेजोवे क्रियिकद्वयम् ॥१०॥ वर्णाशगुरुलध्वादि-प्रसादिकचतुष्टयम् । सुभगं सुस्वरं शस्तनभोगतियशःशुभम् ॥११॥ स्थिराहारद्विकादेयनिर्माणं तीर्थकृत्तथा । बध्नाति चाप्रमत्तोऽमूमपूर्वकरणस्तथा ॥१२॥ देवगत्याऽथ पर्याप्तपञ्चाक्षाहारकद्वयः । युक्तं तीर्थकृता चैकत्रिंशस्थानमिदं भवेत् ॥१३॥ अम्र देवगत्या सह संहननानि न बध्यन्ते, देवेषु संहननानामुदयाभावात् । अत्र भङ्गः १ । एकत्रिंशद् भवेत् त्रिंशद्धीना तीर्थकरण सा । बध्यते चाप्रमत्तेन तथाऽपूर्वाह्वयेन च ॥१४॥ अवस्थिरादीनां बन्धो न भवति, विशुद्धया स हैतेषां बन्धविरोधात् । तेनात्र भङ्गः १ । आहारद्वितयेऽपास्त एकत्रिंशत्सती भवेत् । एकान्नत्रिंशदाद्यपा बध्यते सप्तमाष्टमः ॥१५॥ अत्रापि भङ्गः पुनरुक्तः ।। एकान्नत्रिंशदन्येवं परमेकं स्थिरे शुभे । यशस्यपि च बध्नन्ति निवृताद्यास्त्रयस्तु ताम् ॥१६॥ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः अत्र देवगत्या सह उद्योतो न बध्यते, देवगतौ तस्योदयाभावात्, तिर्यग्गतिं मुक्त्वाऽन्यगत्या सह तस्य बन्धविरोधाश्च । देवानां देहदीप्तिस्तर्हि कुतः ? वर्णनामकर्मोदयात् । अत्र च श्रीणि युगानि २।२।२ । भङ्गाः । एकत्रिंशच्च निस्तीर्थकराऽऽहारद्वया भवेत् । अष्टाविंशतिराद्यतां बनीतः सप्तमाष्टमौ ॥१७॥ अत्र भङ्गः पुनरुक्तः । अष्टाविंशतिरनान्येकाननिशदिद्वतीयका । हीना तीर्थकरेणतां प्रबध्नन्ति षडादिमाः ॥१८॥ कुतः १ एतदुपरिजानामप्रमत्तादीनामस्थिराशुभायशसां बन्धाभावात् । भङ्गाः । एवं देवेषु भङ्गाः १६ । यशोऽत्रैकमपूर्वाद्य त्रये भङ्गास्तु नामनि । चतुर्दश सहस्राणि पञ्चपञ्चाशतं विना ॥६॥ १३६४५। पाकेऽत्रैकचतुः पञ्च षट् सप्ताष्टनवाधिकाः । दशैकादशयुक्तापि विंशतिनव चाष्ट च ॥१०॥ नाम्नः पाके २१।२४।२५।२६।२७:२८।२६।३०।३१।३।। एकपन्चकसप्ताष्टनवयुक्ताऽत्र विंशतिः । पाकस्थानानि पञ्चैव रान्ति श्वभ्रगताविति ॥१०॥ २११२५।२७।२८।२६। अत्रैकविंशतं श्वभ्रयुग्मं तैजसकार्मणे । निर्मिद्वर्णचतुष्कं च पर्याप्तागुरुलध्वपि ॥१०२॥ अनादेयायशःस्थूलं पञ्चाक्षं दुर्भगं त्रसम् । नित्योदयचतुष्कं च स्थिरास्थिरशुभाशुभैः ॥१०३॥ विग्रहर्तिगतस्य स्यान्नारकस्योदयेऽस्य तु । जघन्यसमयं द्वौ च समयो परमोऽपि च ॥१०॥ २,११ भङ्गः १ । अपश्वभ्रानुपूर्वीकमस्तीदं पाञ्चविंशतम् । युक्तं प्रत्येकहुण्डोपघातवैक्रियिकद्वयः ॥१०५॥ अहोऽस्त्यात्तशरीराधक्षणादारभ्य पूर्णताम् । यावच्छरीरपर्याप्ते कालोऽत्रान्तर्मुहूर्तभाक् ॥१०६॥ २५ । मङ्गः । कुतोऽत्र न संहननोदयः ? नरकगत्या देवगत्या च सह संहननस्य बन्धाभावात् । पर्याप्ताङ्गऽन्यघातासद्गतियुक साप्तविंशतम् । तत्कालेऽस्य न पर्याप्तिनिष्पत्तिर्यावदस्त्यदः ॥१०॥ २७भङ्गः । अष्टाविंशत्तमानाप्तौ भाषापर्याप्तिपूर्णताम् । यावरसोच्छासमस्तीदं कालोऽस्यान्तर्मुहूर्तभाक् ॥१८॥ २८ । भङ्गः ।। एकान्नत्रिंशतं तत्स्याद् वाक्पर्याप्तौ सदुस्वरम् । कालस्तु जीवितान्तोऽस्यकैको भङ्गोऽपि पन्चसु ॥१०॥ २६ । भङ्गः । एवं सर्वे ५। अत्र जघन्या दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उभेऽप्येतेऽन्तर्मुहाने । एवं नरकगतिः समाप्ता। एकाग्रा विंशतिः सा च चतुरादिभिरन्विताः । एकाग्रत्रिशतं यावत्तिर्यक्त्वे ते नवोदयाः ।।११०॥ २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥ पृथिवीकायिके स्थूले पूर्णाङ्गेऽस्त्यातपोदयः । तिर्यक्षुद्योतपाकोऽस्ति मुक्त्वा तेजोऽनिलाङ्गिनौ ॥११॥ __ अत्र तेजोवातकायिकौ मुक्त्वाऽन्येषु बादरपर्याप्तपृथिव्यम्बुवनम्पतिषु पर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियेषु च तिर्यशूद्योतोदयो भवतीत्यर्थः । सामान्यैकेन्द्रियस्याद्य स्थानं पन्चकमिष्यते । निःसाप्तविंशतं तत्स्यानिरुद्योतातपोदये ॥ ११२॥ अत्र सामान्यकेन्द्रियाणामुदयस्थानानि पञ्च २११२४।२५।२६।२७। तेषामेवातपोद्योतयोरनुदयेनामूनि चत्वारि २१।२४।२५।२६। आतपोद्योतपाकोनैकेन्द्रियस्यैकविंशतम् । इदं तिर्यग्द्वयं तेजोऽगुरुलध्वथ कार्मणम् ॥११३।। वर्णगन्धरसस्पर्शाः निर्माणं च शुभाशुभम् । स्थिरास्थिरमनादेयं स्थावरैकाक्षदुर्भगम् ॥११॥ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ संस्कृत-पञ्चसंग्रह यशोबादरपर्याप्तत्रियुग्मैकतरत्रयम् । वक्रतौ वर्तमानस्यारत्येकद्वित्रिक्षणस्थितिः ॥११५॥ सूचमसाधारणापूर्णैः सहोदेति न यद्यशः । यशःपाकेऽस्ति तेनैको भङ्गोऽन्यत्र चतुष्टयम् ॥११६॥ २१ । अत्र भङ्गाः अयशाकीयुदये बादरपर्याप्तयुग्माभ्यां चत्वारः ४ । यशाकीर्युदये चैकः १ । कुतः ? सूचमापर्याप्ताभ्यां सह यशाकीर्तेरुदयाभावात्, यशाकीर्त्या च सह सूचमापर्यातयोरुदयाभावाद् वा । सर्वे भङ्गाः ५। चातुर्विशतमस्तीदं स्वानुपूर्योनमागते । हुण्डे प्रत्येकयुग्मैकतरे चौदारिकेऽपि च ॥११७॥ उपघाते गृहीताङ्गस्याङ्गपर्याप्तिपूर्णताम् । यावद्भङ्गा नवास्यान्तर्मुहूर्तश्च द्विधा स्थितिः ॥११॥ २४ । अत्राप्ययशःकीर्युदये बादरपर्याप्तप्रत्येकयुग्मैरष्टौ भङ्गाः ८ । यशःकीर्युदये चैकः १ । कुतः ? यशःका सह सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणानामुदयाभावात् । सर्वे नव १ । सान्यघातमपूर्णोनं स्यादेतत्पाञ्चविंशतम् । तत्काल पञ्चधा यावदानपर्याप्तिनिष्ठितम् ॥११॥ २५ । अत्र भङ्गाः अयशाकीयुदये चस्वारः ४ । कुतः ? अपर्याप्तोदयस्याभावात् । यशाकीयुदये चैकः । सर्वे ५। षोतिशतं तदानाप्तौ सोच्छासं पञ्चभङ्गयुक । स्यादस्याब्दसहस्राणि स्थितिविशतिः परा ॥१२०॥ २६ । भङ्गाः ५। स्थितिः २२००० । एवं सर्वे भङ्गाः २४ । एकाक्षे पञ्चधोक्तं यत्स्थानं तत्पाञ्चविंशतम् । विनैकाक्षे चतुर्धा स्यादातपोद्योतवेदने ॥१२१॥ २१०२४२६।२७ । एकाक्षे सातपोद्योते चतुरेकानविंशती । पूर्वोक्त किन्तु पर्याप्तसूचमसाधारणोज्झिते ॥१२२॥ २१२४ । अनयोः सूचमपर्याप्तोना एकविंशतिः २१ । साधारणोना चतुर्विशतिः २४ । कुतः? आतपोद्योतोदयभाविना सूचमापर्याप्तसाधारणशरीराणामुदयाभावाद् यशोयुग्मैकतरम् । भङ्गौ चान द्वौ द्वौ पुनरुक्तौ २।२। पर्याप्तस्याङ्गपर्याप्त्या स्यात् पाइविंशतं स्विदम् । आतपोद्योतयोरेकतरे हिलेऽन्यघातयुक ॥१२३॥ २६ । अस्योत्कृष्टजघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्तगा भङ्गाः ४ । स्यात्तदेवानपर्याप्तौ सोच्छासं साप्तविंशतम् । तचैतच्चतुर्भङ्गकालोऽस्य प्राणितावधिः ॥२४॥ २७ । अत्रोत्कृष्टा द्वाविंशतिवर्षसहस्त्राणि स्थितिः २२००० । भङ्गाः ४ । एवमेकेन्द्रियस्य सर्वे भङ्गाः ३२। स्थानान्येकषडष्टाना नवामा चैकविंशतिः । त्रिंशत्सैकाधिका पाके सामान्यादिकलेषु षट् ॥१२५॥ २०२६।२८।२६॥३०॥३१ एतान्येव निरुद्योते सन्स्येकत्रिंशतं विना । सोद्योते तु विनाऽष्टाविंशतिं तानि सन्ति हि ॥१२६॥ उद्योतोदयरहिते विकले २११२६।२८।२६१३०३१ । उद्योतोदययुक्त विकले २११२६।२६। ३०३१ । अनुद्योतोदयस्यादो द्वीन्द्रियस्यैकविंशतम् । द्वय तिर्यग्द्वयं वर्णचतुष्कं त्रसकामणे ॥१२७॥ शुभस्थिरयुगे तेजोऽनादेयागुरुलध्वपि । स्थूलमेकतरे च दुयशःपर्याप्तयुग्मयोः ॥१२॥ निर्माणं दुर्भगं वक्र वेकद्विक्षणस्थितिः । यशाकीर्युदये भङ्गोऽत्रको द्वापरत्र तु ॥१२६॥ २१ । अत्र यश:कीयुदये एको भङ्ग । कुतः ? अपर्याप्तोदयेन सह यशःकीर्तेरुदयाभावात् । अयशाकीयुदये द्वौ भनौ । कुतः१ पर्याप्तापर्याप्ताभ्यां सहायशःकीयुदयसम्भवात् । भङ्गाः ३ । प्रत्येकौदार्ययुग्मोपघातासम्प्राप्तहुण्डयुक् । इदं गृहीतकायाद्यक्षणे षाविशतं भवेत् ॥१३०॥ अपनीतानुपूर्वी यावत्कायस्य पूर्णताम् । भङ्गास्त्रयोऽस्य कालोऽन्तर्मुहर्ताऽस्ति द्विधा स्थिती ॥१३॥ २६ । भङ्गाः ३। १. अागते सति । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः पर्याप्ताऽस्त्यपूर्णानं तदेवाष्टाविंशतम् । तत्कालमन्यघातासद्गतियुक्तं द्विभङ्गयुक् ॥ १३२॥ २८ । अत्रायशः कीदये एको भङ्गः १ यशः कोयुदये एको भङ्गः १ । अयशः कीर्त्त्यादयेऽप्येकः कुतः ? प्रतिपक्षप्रकृत्युदयाभावात् । मिलितौ भङ्गौ २ । पर्याप्तानस्य सोच्छ्वासमेकान्नत्रिंशतं भवेत् । यावद्वाक्पूर्णतां कालोऽन्तर्मुहूर्त्तो द्विभङ्गयुक् ॥१३३॥ २। भङ्गौ २। स्थानं त्रिंशतमेतत्स्याद्वापर्याप्तौ सदुःस्वरम् । जीवितान्ता परा चास्य वर्षाणि द्वादश स्थितिः ॥ १३४ ॥ ३०|भङ्गौ २ । स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षेण द्वादश वर्षाणि । उद्योतोदभाग्यक्षे पडेकाग्रे च विंशती । स्यातां पूर्वोदिते किन्तु नास्त्यपर्याप्तकेऽन्तयोः ॥ १३५ ॥ २१।२६। अत्र पुनरुक्तौ भङ्गौ द्वौ द्वौ २२ सोद्योताशस्तगत्यन्यघातं पाविंशतं भवेत् । एकान्नत्रिंशतं पूर्णाङ्ग ेऽन्तकालं द्विभङ्गयुक् ॥ १३६ ॥ २६भङ्गौ २ सोच्छ्रासमान पर्याप्त्यपर्याप्ते त्रिशतं स्वदः । यावद्वाक्पूर्णतां कालोऽन्तर्मुहूर्तो द्विभेदकः ॥ १३७ ॥ ३०|भङ्गौ २ । एकाग्रत्रिंशतं तत्स्याद्वाक्पर्याप्तौ सदुःस्वरम् । द्विभेदं परमा चास्य स्थितिर्द्वादशवार्षिकी ।। १३८ || ३१ भङ्गौ द्वौ २ । सर्वे भङ्गाः १८ | एवं द्वयक्षगताः भङ्गाः सन्त्यष्टादश मीलिताः । द्वयक्षवत्स्थानभङ्गादि सर्वं त्रि- चतुरक्षयोः ॥ १३६ ॥ त्रीन्द्रिये त्रिंशदेकाग्रत्रिंशतोऽस्य परा स्थितिः । दिदान्येकान्नपञ्चाशत्पण्मासाश्चतुरिन्द्रिये ॥ १४० ॥ अत्र त्रीन्द्रियस्य निरुद्योत - सोद्योतस्थानयोः ३०/३१ स्थितिस्त्र्यक्षे दिवसाः ४६ । सर्वे च भङ्गाः अष्टादश १८ | चतुरिन्द्रिये चतुःस्थानयोः ३०|३१| स्थितिश्चतुरक्षे मासाः ६ । सर्वे च भङ्गाः १८ | एवं त्रिषु विकलेन्द्रियेषु सर्वे भङ्गाः ५४ | तिर्यक्पञ्चेन्द्रिये पाकाः षडोघा द्विंशतिर्युताः । एकषट्काष्टकैरस्त्रैस्त्रिंशच्चैकोत्तरा त्रसाः ॥ १४१ ॥ ७१७ २१।२६।२८|२६|३०|३६| अनुद्योतोदये स्थानान्येकाग्रत्रिंशतं विना । उद्योतभाजि पञ्चाक्षे सन्त्यष्टाविंशतिं विना ॥१४२॥ उद्योतोदयरहिते पञ्चाक्षे २१।२६।२८ २९ ३० ३१ । सोद्योतोद ये च २१।२६।२६।३०।३१ । अनुद्योतोदयेऽस्तीदं पञ्चाक्षे चैकविंशतम् । तिर्यग्द्वयं च पञ्चाक्षं तेजोऽगुरुलघु सम् ॥ १४३॥ निर्माणं सुभगादेययशःपर्याप्तनामसु । युग्मे चैकतरं वर्णचतुष्कं स्थूलकार्मणे || १४४ ॥ शुभ स्थिरयुगे वर्तावेकद्विक्षणस्थितिः । भङ्गाः पर्याप्तपाकेऽष्टावे कोऽन्यत्रोभये न च ॥ १४५ ॥ २१ । अत्र पर्याप्तोदये अष्टौ भङ्गाः ८ । अपर्याप्तोदये चैकः १ । कुतः ? सुभगादेययशःकीत्तिभिः सह अपर्याप्तोदयस्याभावात् || इदमेवानुपूर्व्यूनं क्षिप्ते षाड् विंशतं भवेत् । संस्थान - संहतिष्वेकतर औदारिकद्वये || १४६ || प्रत्येक उपघाते च गृहीतवपुषस्त्विदम् । पर्याप्तिं यावदङ्गस्य पर्याप्तस्योदयेऽत्र च ॥ १४७॥ भङ्गाः शतद्वयं साष्टाशीतमेकोऽपरत्र च । कालोऽप्यन्तमुहूर्तोऽस्य जघन्यः परमस्तथा ॥१४८॥ २६ । अत्र पर्याप्तोदये त्रिभियुग्मैः संस्थानैः संहननैश्च षड्भिः २२|२|६|६ अन्योन्यगुणैर्भङ्गाः २८८ | अपर्याप्तोदये चैकः १ । कुतः ? शुभैः सहापर्याप्तस्योदयाभावात् । उक्तं चअयशःकीर्त्त्यनादेयहुण्डासम्प्राप्तदुभंगम् । उदयं यात्यपर्याप्ते पर्याप्ते वितरैः सह ॥१४६॥ एवं सर्वे २८६ । अष्टाविंशतमेतत्स्यादपर्याप्तोनमागते । खेत्योरन्यतरे वान्यधाते पूर्णतनोरिदम् ॥ १५० ॥ १. सामान्यात् । २. विहायोगत्योः । Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रह शतानि पञ्चभङ्गानां षट्सप्ततियुतानि तु । कालोऽप्यन्तमुहूर्तोऽत्र जघन्यः परमोऽपि च ॥१५॥ २८ । अत्र पूर्वोक्ता एव २८.८ विहायोगतियुग्मध्ना भङ्गाः ५७६ । आनपर्याप्तिपर्याप्तस्यैकान्नत्रिंशतं त्वदः। सोच्छासमस्ति तत्कालं भङ्गाश्चापि तथाविधाः ॥१५२॥ २६ । भङ्गाः ५७६ । वाक्पूर्णे चॅशतं तत्स्यात्स्वरैकतरसंयुतम् । भङ्गास्तद्विगुणाः पल्यत्रयमस्य स्थितिः परा ।।१५३।। ३० । अत्र पूर्वोक्ता एव ५७६ स्वरयुगलना भङ्गाः ११५२। एवमुद्योतोदयरहिते पञ्चाक्षे सर्वे भङ्गाः २६०२ । सोद्योतोदयपन्चासौ षढेकाने तु विंशती। स्यातां पूर्वोदिते किन्तु नास्त्यपर्याप्तकं तयोः ॥५४॥ २११२६ । अत्र पुनरुक्तभङ्गाः मा२८८ । षाड्विंशतं तदेकानत्रिंशतं देहनिर्मितौ । स्वगत्यन्यतरोद्योतपरघातैर्युतं भवेत् ॥१५५।। शतानि पञ्च भङ्गानामस्य षट्सप्ततिस्तथा । उत्कृष्टोऽस्य जघन्यश्च कालोऽप्यन्तर्मुहूर्तभाक् ॥१५६॥ २६ । भङ्गाः ५७६ । पर्याप्तस्यानपर्याप्त्या सोच्छ्वासं शतं त्वदः । कालोऽप्यस्यास्ति पूर्वोक्तो भङ्गास्तावन्त एव च ॥१५७।। ३० । भङ्गाः ५७५ ।। एकत्रिंशतमेतत्स्यास्वरैकतरसंयुतम् । वाक्पूर्णे द्विगुणा भङ्गा कालोऽस्य प्राणितावधिः ॥१५॥ ३१ । भङ्गाः ११५२ । कालः पल्यत्रयम् ३ । एवं सोद्योते पञ्चाक्षे सर्वे भङ्गाः २३०४ । [ निरुद्योते २६०२। एवं पञ्चाक्ष सर्वे भङ्गाः ४१०६ । सहस्राणि तु चत्वारि भङ्गाः नव शतानि तु । द्वानवत्युत्तराणि स्युः सर्वे तिर्यग्गतौ गताः ॥१५॥ ४९६२ । एवं तिर्यग्गति-[ भङ्गाः ] समाप्ताः । नरगत्या समेताः स्युः सर्वे पाका नृणामपि । चतुर्विंशतिपाकोनाः शेषाः सन्ति दशव ते ॥१६०॥ २१।२५।२६।२८।२६।३०।३३।६।। पाकस्थानानि यानि स्युनिरुद्योतेषु पन्च तु । पञ्चेन्द्रियेषु तिर्यक्षु तानि सामान्यनृष्वपि ।।१६१।। २११२६।२८।२६।३० । तिर्यग्द्वयप्रसङ्ग सुवाच्यं तत्रास्ति नृद्वयम् । भङ्गस्तद्विकामाणि पाइविंशतिशतानि तु ॥१६॥ २६०२। तथापि सुखबोधार्थमुच्यतेअपतीर्थकराहारे नरीदं स्वैकत्रिंशतम् । मनुजद्वय-पञ्चाक्ष-तेजोऽगुरुलघुत्रसम् ।।१६३॥ निर्माणं सुभगादेययशःपर्याप्तनामसु । युग्मेष्वेकतरं वर्णचतकं स्थूल-कार्मणे ॥१६॥ शुभस्थिरयुगे वक्रत्वेक-द्विक्षणस्थितिः। भङ्गाः पर्याप्तपाकेऽष्ट चैकोऽन्यन्नोभये नव ॥१६५॥ २१ । अत्र पर्याप्तोदयेऽप्यष्टौ ८ । अपर्याप्तोदये चैकः १ । उभये नव । इदमेवानुपूऱ्यानं क्षिप्त पातशतं भवेत् । संस्थान-संहतिष्वेकतरे औदारिकद्वये ॥१६६॥ प्रत्येके उपधाते च गृहीतवपुषस्त्विदम् । पर्याप्तिं यावदङ्गस्य पर्याप्तस्योदयेऽत्र च ॥१६७।। भङ्गाः शतद्वयं चाटाशीतं चैकोऽपरत्र च । कालोऽप्यन्तमुहर्मोऽस्य जघन्यः परमोऽपि च ॥१६८॥ अयशाकीय॑नादेयहुण्डासम्प्राप्तदुर्भगम् । उदयं यान्त्यपर्याप्त पर्याप्ते वितरैः सह ॥१६॥ २६ । इत्यपर्याप्तोदये भङ्गः १ । पर्याप्तोदये २८८ । सर्वे २८९ । अष्टाविंशतमेतत्स्यादपर्याप्तोनमागते । खेत्योरन्यतरेऽथान्यघाते पूर्णतनोरिदम् ॥१७॥ शतानि पञ्च भङ्गानां षट्सप्ततियुतानि तु । कालोऽप्यन्तमुहूर्तोऽत्र जघन्यः परमोऽपि च ॥१७॥ २८। भङ्गाः ५७६ । Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१३ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः आनापर्याप्तिपर्याप्तस्यकात्रिंशतं स्विदम् । सोच्छ्रासं तत्कालं च भङ्गाश्चापि तथाविधाः॥१७२।। २६। भङ्गाः ५७६ । वाक्पूर्णे त्रिंशतं तत्स्यात्स्वरकतरसंयुतम् । भङ्गास्तद्विगुणाः पल्यत्रयमस्य स्थितिः परा ॥१७३।। ३० । भङ्गाः ११५२ । आहारोदयसंयुक्त विशेषनरि नामनि । उदगे पञ्च-सप्ताष्ट-नवाग्रा विंशतिर्भवेत् ।।१७।। २५।२७।२८।२६। स्यात्पाञ्चविंशतं तत्र नृगत्याऽहारकद्वये । कार्मणं सुसगादेये तेजो वर्णचतुष्टयम् ।।९७५।। पञ्चाक्षं चतुरस्रं चोपघातोऽगुरुलध्वपि । शुभस्थिरयुगे निर्मिद्यशस्वसचतुष्टयम् ।।१७६।। आहारोत्थापनेऽस्तीदं यावत्तद्देहपूर्णताम् । पूर्णाङ्ग समगत्यन्यघातयुक साप्तविंशतम् ॥१७७।। २५। भङ्गः । [२७ । भङ्गः । ] सोच्छासं चानपर्याप्तावाष्टाविंशतमस्त्यदः । त्रिषु भङ्गास्त्रयः कालोऽन्तमुहूर्तों द्विधात्र नुः ॥१७॥ २८ । भङ्गः १ । एवं त्रिषु भङ्गास्त्रयः ३ । एकान्नत्रिंशतं तत्स्याद्वाक्पर्याप्तौ ससुस्वरम् । यावदाहारदेहान्तं कालोऽत्रान्तमुहूर्तभाक् ।।१७।। २६ । भङ्गः । एवं विशेषमनुष्ये भङ्गाश्चत्वारः । ऐकत्रिंशतमेतत्स्यात्तीर्थकृद्युक्तयोगिनः। नृगत्यौदारिकद्वन्द्वमाद्ये संस्थान-संहती ॥१८॥ तेजःकार्मणपञ्चाक्षे तीर्थकृत्सुभगं यशः । वर्णाद्यगुरुलघ्वादि-प्रसादिकचतुष्टयम् ॥१८॥ शुभस्थिरयुगे निर्मित्सुस्वरादेयसद्गतिः । पूर्वकोटिः पराब्दानां पृथक्त्वं चापरा स्थितिः ॥१२॥ ३१ । अत्र जघन्या वर्षपृथक्त्वमुत्कृष्टाऽन्तर्मुहर्ताभ्यधिकगर्भाद्यष्टवर्षोना पूर्वकोटी । भङ्गः १ । नृगतिः पूर्णपञ्चाक्षं स्थूलादेययशस्त्रसम् । सुभगं चेत्ययोगेऽष्टौ पाके तीर्थकृतो नव ॥१३॥ उदये । भङ्गः । तथा है। भङ्गः १। एवं विशेषविशेषमनुष्येषु भङ्गाः ३॥ नवाग्राण्युदये नृणां पड़िवशतिशतानि तु । भङ्गाः पाके सगोगे तु वच्यऽन्यस्थानसप्तकम् ॥१८४॥ सयोगे विंशतिः सैकषट्सप्ताष्टनवाधिका । त्रिंशच्चान्यत्तु पूर्वोक्तमैकत्रिंशतमष्टकम् ।।१८५।। २०१२१२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥ नृगतिः कार्मणं तेजः पञ्चाक्षं त्रस-बादरे । शुभस्थिरयुगे वर्णचतुष्कागुरुलध्वपि ।।१८६॥ पर्याप्तसुभगादेययशोनिर्मिच्च विंशतिः । सयोगस्योदयं यान्ति प्रतरे लोकपूरणे ॥१८७।। २०। भङ्गः । अत्र प्रतरे । लोकपूरणे १। पुनः प्रतरे १। एवं त्रयः समयाः ३। कपाटस्थसयोगस्य क्षिप्ते चौदारिकद्वये । प्रत्येक उपघाताख्ये चाये संहनने तथा ॥१८८।। संस्थानेषु च षट्स्वेकतरे पड्विंशतिर्भवेत् । संस्थानकतरैः षड्भिर्भङ्गाः सन्ति षडन तु ॥१८६।। __२६। भङ्गाः षट् ६। अष्टाविंशतमस्तीदं दण्डस्थस्यान्यघातयुक् । क्षिप्तेऽत्रान्यतरे खेत्योर्भङ्गाः द्वादश योगिनः ।।१६०॥ २८। भङ्गाः १२। पर्याप्तस्यानपर्याप्त्या चैकान्नत्रिंशतं त्वदः । भवेदुच्छ्रासयुग्भङ्गा द्वादशात्रापि योगिनः ।। १६१॥ २६। भङ्गाः १२। स्थानं चॅशतमस्तीदं भाषापर्याप्तिनिष्ठितौ । स्वरैकतरयुक्तं च चतुर्विशतिभङ्गयुक् ॥१२॥ ३०। भङ्गाः २४। पृथक्तीर्थकृतैतानि युक्त्यान्यन्यानि पञ्च तु । संस्थानं किन्तु तत्राद्यं प्रशस्तौ च गतिस्वरौ ॥१३॥ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० संस्कृत-पञ्चसंग्रह इति तीर्थकृद्युक्तसयोगे २१।२७।२६।३०।३१। पञ्चस्वेककभङ्गन भङ्गाः । एवं सयोगे भङ्गाः ६०। किन्त्वेकत्रिंशदभङ्गोऽत्र पुनरुक्तः। शेषाः ५६ । एतेः स हैते पूर्वोक्ताः २६०१ एतावन्तः २६६८ नृगतौ भङ्गा इति । एवं मनुष्यगतिः समाप्ता। एकपञ्चकसप्ताष्टनवाग्रा विंशतिः क्रमात् । देवगत्या युतं नाम्न्युदयेऽस्ति स्थानपञ्चकम् ॥१४॥ २१॥२५/२७।२८।२६। तकविंशतं देवद्वयं तैजस-कार्मणे । पञ्चाक्षस्थूलपर्याप्तागुरुलध्वशुभं शुभम् ॥११५॥ निर्माणं सुभगादेये यशो वर्णचतुष्टयम् । वसं स्थिरास्थिरे वक्र वेक-द्विक्षणस्थितिः ॥१६६॥ २१ाभङ्गः । एतदेवानुपूयूनं पाञ्चविंशतमागतैः । प्रत्येकचतुरस्रोपघातवैक्रियिकद्वयः ॥१७॥ इदमात्तस्य शरीरस्य स्याद्यावद्देहस्य निर्मितम् । कालस्तु द्विविधोऽप्यस्य भवेदन्तमुहूर्त्तभाक् ॥१६॥ २५ । भङ्गः । साप्तविंशतमेतच्चान्यघाते सन्नभोगतौ । क्षिप्तायामङ्गपर्याप्ते तत्कालोऽन्तर्मुहूर्तभाक् ॥१६॥ २७ । भङ्गः । सोच्छ्रासमानपर्याप्तावाष्टाविंशतमीरितम् । यावत्स्याद्वाचिपर्याप्तिस्तत्कालोऽन्तर्मुहूर्तभाक् ॥२०॥ २८ । भङ्गः । एकान्नत्रिंशतं तत्स्याद्वाक्पर्याप्तौ ससुस्वरम् । कालस्तु जीवितान्तोऽस्यकको भङ्गोऽपि पञ्चसु ॥२०॥ २६ । भङ्गः । एवं सर्वे ५। अत्र स्थिति षापर्याप्त्या पर्याप्तस्य प्रथमसमयप्रभृति यावदायुषश्वरमसमयस्तस्याश्च प्रमाणं जघन्यं दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्ट त्रयस्त्रिंशत्सागरोपगाणि; उभे अन्तर्मुहूर्त्ताने । एवं देवरातिः समाप्ता । सर्वाप्यन्तमु होना भाषापर्याप्तके स्थितिः । वाच्योत्कृष्टा जघन्या च देव-नारकयोद्धयोः ॥२०२।। नृ-तिरश्चोः जघन्याऽन्तमुहूर्तोना गतिषूदयाः । नाम्न एकादशोपेतषट् सप्ततिशतप्रमाः ॥२०३।। एकानषष्टिरन्ये च समुद्धातस्थयोगिनि । सत्तास्थानान्यतो नाम्नो वच्यन्तेऽत्र त्रयोदश ॥२०॥ ५६। सर्वे ७६७० नवतिस्विद्विकैकाग्रा सा च सा द्वि-पडष्टभिः । हीनाशोतिश्च सैक-द्वि-ब्यूना दश नवापि च ॥२०५॥ १३।१२।११।80111८४८२८०1७६१७८1७७।१०।। सत्तास्थानेषु नाम्नोऽस्त्यादिमे त्रिनवतिस्त्रिषु । सोना तीर्थकृताहारद्वयेनैभिस्त्रिभिः क्रमात् ॥२०६॥ आद्य स्थाने १३। त्रिष्वतः रथानेषु १२।११।१०। स्थानानि त्रीणि तिर्यचूद्वल्लिते नवतेरपि । देवद्वये ततः श्वभ्रचतुष्के नृद्वये ततः ॥२०७॥ नर-तिर्यक्षु ८८८४। तिर्यक्षु ८२। श्वभ्र-तिर्यग्द्वयकाक्षविकलस्थावरातपाः । सूचमसाधारणोद्योतास्त्रयोदशसु चास्विति ॥२०॥ आद्याच्चतुष्कतः पश्चात्प्रत्येक क्षपितास्विदम् । भशीत्यादिचतुष्कं चानिवृत्तिक्षपकादिषु ॥२०॥ [अनिवृत्त्यादिषु ] पञ्चसु ८०७६।७८१७७॥ पञ्चाक्षं नृद्वयं पूर्ण सुभगादेयतीर्थकृत् । सस्थूलं यशोऽयोगे दशातीर्थकरे नव ॥२१०॥ अयोगे[ तीर्थकरे ] १० तीर्थकृतोनाः ।। १. अनिवृत्तिक्षपके शेषनवांशेषु चाष्टसु सूक्ष्म-क्षीण-सयोगेषु निर्योगस्य च द्विचरमसमयं यावत् इति पञ्चसु स्थानेषु कस्यचित् अशीतिः, कस्यचिदेकोनाशीतिः, कस्यचित् अष्टसप्ततिः, कस्यचित् सप्तसप्ततिः इति ज्ञेयम्, २. तीर्थकरं विना । Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः अष्टस्वसंयतायेषु चत्वारि प्रथमानि तु । द्वानवत्यादिकं षटकं सत्त्वे मिथ्याहगाह्वये ॥२१॥ अष्टस्वसंयताद्यपशान्तान्तेषु १३।१२।११।१०। मिथ्यादृष्टौ १२।११।१०1८८1८४८२॥ सासने नवतिर्मिश्रे नवतियाधिका च सा । तिर्यक्षु द्वानवस्यामा नवत्यादिचतुष्टयम् ॥२१२॥ सासने ६० । मिश्रे १२।१०। तिर्यक्षु १२।१०।८८८४८२। द्वानवत्यादिकं सत्वे त्रिकं श्वाभ्रष्वथो नृषु । द्वयशीत्यूनानि सर्वाणि देवेष्वाद्यं चतुष्टयम् ॥२१३॥ नारकेषु १२।११।१०। नृषु द्वयशीतिं विना सणि १२ देवेषु १३।१२।११।१०। एवं नाम्नः सत्प्ररूपणा समाप्ता । बन्धे त्रिपञ्चषडयुक्तविंशतिरुदये नव । स्थानानि पञ्च सत्तायां बन्धे त्वष्टाविंशतिः ॥२१॥ सवे चत्वारि पाकेऽष्टावैकाम्नत्रिंशते तथा। सत्त्वे स्युः सत्व-पाके च नवैव त्रिंशतेऽपि च ॥२१५॥ बं० २३ २५ २६ बं० २८ २९ ३० [त्रयोविंशत्यादिबन्धेषु-] उ० १ ६ ६ अष्टाविंशत्यादिबन्धेषु-उ० ८ १ . स० ४ ७ ७ त्रिकपञ्चषडयाया विंशतबन्धकेषु तु । अग्रगं द्वितयं त्यक्त्वा भवन्त्याद्या नवोदयाः॥२१६॥ सत्तास्थानानि पञ्चैषु नवतिद्वंयमाऽथ केवला । तथा क्रमान्मताऽशातिरधिकाष्टचतुर्दिभिः ॥२७॥ बन्धस्थानेषु २३।२५।२६ । प्रत्येक नवोदयस्थानानि २१०२४।२५।२६।२७।२८।२९।३०।३१ । सत्तास्थानानि १२1801041८४८२ । सप्तविंशतिपाके तु प्राग्वद्वन्धत्रयं भवेत् । द्वयशीतिं वर्जयित्वाऽन्यसत्तास्थानचतुष्टयम् ॥२१॥ पूर्वोक्तनवोदयमध्ये सप्तविंशत्युदये बन्धेषु २३।२५२६ । उदये २७ । सत्तास्थानानि । ८८1८४ । इति बन्धत्रयं समाप्तम् । वर्जयित्वान्तिमं युग्मं चतुर्विंशतिमेव च । अष्टोदया भवन्त्येवमष्टाविंशतिबन्धके ॥२१॥ सत्तास्थानानि चत्वारि नवतिद्वयेंकसंयुता । दशाष्टसहिताऽशीतिरित्येतेन विशेषतः ॥२२॥ बन्धे २८ । उदये २१२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सत्त्वे १२18918015८ । बन्धेऽष्टाविंशतिः पाके पड्विंशत्येकविंशती । नवतिः सा द्वियुक्सत्त्वे निर्दमोहे कुरूद्भने ॥२२॥ इति क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां नणां बन्धे २८ । उदये २६।२१ । सत्त्वे १२।१० पञ्चसप्तानविंशत्योः पाके द्वानवतिः सती। आहारारम्भणे बन्धेप्रमत्तेऽष्टाविंशतिः ॥२२२॥ अप्रमत्ते बन्धः २८ । उदयः २५/२७ । सत्ता १२ बन्धेऽष्टाविंशतिः पाके नवाष्टाने तु विंशती । सत्तास्थाने मते द्वे तु नवतिद्वानवतिस्तथा ॥२२३॥ एषोऽष्टाविंशतेवन्धः सम्यग्दष्टावसंयते । आहारकाख्यसत्कर्मवति चापि प्रमत्तके ॥२२४॥ बन्धे २८ । उदये २६।२८ । सत्त्वे १२।१०। नवतिद्वयं त्तरा सा च सत्तायां त्रिंशदुगमाः । तथाष्टाविंशतेर्बन्धो मिथ्यादृष्टयादिपञ्चके ॥२२५॥ बन्धे २८ । उदये ३० । सत्त्वे १२।१०। बन्धेऽष्टाविंशतिः पाके त्रिंशत्त नवतिः सती । एकामा तीर्थकृत्सत्वे द्वि-विक्षितिविगाहिनाम् ॥२२६॥ बन्धे २८ । उदये ३० । सत्वे ११। अष्टाशीतिमता सरवे त्रिंशतोऽपि तथोदयः । नर-तियक्षु बन्धोऽष्टाविंशते मष्टिषु ॥२२७॥ बन्धे २८ । उदये ३० । सत्वे ८८ । नवतिद्वयु त्तरा सा च सत्येकत्रिंशदुद्गमः । तथाष्टाविंशतेबन्धो मिथ्यादृष्टयादिपञ्चके ॥२२॥ बन्धे २८ । उदये ३१ । सत्त्वे ९२१६० । १. क्षायिकसम्यग्दृष्टौ । २. उत्तमभोगभूमिजे । ६१ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रहे अष्टाशीतिः सती त्वेकत्रिंशतोऽस्त्युदयेऽपि च । तथाष्टाविंशतेर्बन्धस्तियक्ष वामदृष्टिषु ॥२२६॥ बन्धे २८ । उदये ३१ । सत्त्वे ८८ । इत्यष्टाविंशतबन्धः समाप्तः। एकाम्नत्रिंशतेबन्धे बन्धेऽपि त्रिंशतस्तथा । पाका नवान्तिमं द्वन्द्वं त्यक्त्वोधेन भवन्ति हि ॥२३०॥ आदौ विनवती कृत्वाऽशीतिं यावद्विकोत्तरा । सत्तास्थानानि सप्तौघादतो वच्ये विशेषतः ॥२३१॥ बन्धे २६।३० । प्रत्येकमुदया नव २१२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सप्त सत्तास्थानानि १३।१२।११।१०।८८८४८२। एकान्नत्रिंशतो बन्धे स्यात्पाकस्त्वेकविंशतिः । सत्यौ तु ध्येकनवती तीर्थकृद्धाग्नृविग्रहे ॥२३२॥ बन्धे २६ । उदये ११ । सत्वे १३११ । प्राग्वद्बन्धोदयौ सत्त्वे नवतिर्द्विकयुक् च सा । चतुर्गतिकजीवेषु स्यादेवं विग्रह कृते ॥२३३॥ बन्धे २६ । उदये २१ । सत्वे १२।३० । प्राग्वद्बन्धोदयौ सत्त्वेऽशीतिश्चतुरष्टयुक् । नर-तिर्यक्षु तिर्यक्षु द्वयीतिर्विग्रहे मता ॥२३४॥ बन्धे २६ । उदये २१ । सत् ८८1८४। तथैव तिर्यक्षु बन्धे २६ । उदये २१ । सत्वे ८२ । प्राग्वबन्धस्तथैकाक्षे चतुर्विशतिपाकगे। मोद्यानि सप्त सत्त्वेन तृतीय-प्रथमे विना ॥२३५॥ अपर्याप्तकाक्षे बन्धे २१ । उदये २४ । सत्वे १२।१०।८८1८४८२ । प्राग्वबन्धस्तथाद्यानि सत्तास्थानानि सप्त तु । पन्धानविंशतः पाकश्चतुर्गतिषु जन्तुषु ॥२३६॥ इति यथासम्भवं पर्याप्तेषु बन्धः २६ । उदये २५ । सत्त्वे ६३।१२।११180111८४२ । एकान्नत्रिंशतो बन्धः सत्त्वे चाद्यानि सप्त तु । पाके दशनवाष्टाम्रा सप्तषड़युक्तविंशतिः ॥२३७॥ बन्धे २६ । यथासम्भवमुदये ३०२६।२८।२७२६ । सत्त्वे १३/१२।११1801८८२ । प्राग्वदबन्धस्तथैकाग्रा त्रिंशत्तियंचवथोदये । सत्त्वेऽशीतिश्चतुद्व यष्टदशद्वादशयुक पृथक ॥२३८॥ बन्धे २६ । उदये ३१ सत्त्वे १४।८२८८६०६२। इत्येकान्नत्रिंशबन्धः समाप्तः । एकाचत्रिंशतो बन्धे पाकस्थानादि यद्भवेत् । तदेव त्रिंशतः सर्व बन्धस्थाने प्रकीर्तितम् ॥२३॥ विशेषस्त्रिंशतो बन्धे पाके स्यात्पन्चविंशतिः । स्थानानि सप्त सत्तायां तेषां चैषा प्रकल्पना ॥२४०॥ देव-श्वाभ्रेषु सत्तायां व्येकाने नवती मता । तिर्यक्षु द्वयधिकाऽशीतिः स्यात्सत्त्वेऽन्यौ' पूर्ववत् ॥२४१॥ चातुर्गतिकजीवेष्ठ नवतिः सा द्वियुक् सती । अशीतिश्चतुरष्टामा सत्त्वे तिर्यक्षु नृष्वपि ॥२४२॥ इति सामान्येन त्रिंशबन्धे ३० । उदये २५। सत्त्वे ६३।१२।११।६०।८८।८४८२ । एषां च सप्तसत्तास्थानानां विभागः सुर-नारकेषु ६३।६१ । तिर्यक्षु ८२ । चातुर्गतिकजीवेषु ६२।६० । नर-तिर्यक्षु ८८८४ । पाके षड्विंशतिः सत्वेऽशीतिस्तियक्षु द्वियुता । नृ-तिर्यतु नवत्यादि त्रिकं द्वानवतिस्तथा ॥२४३॥ इति त्रिंशद्बन्धे ३० तिर्यचूदये २६ सत्वे ८२ । नृ-तिर्यतु बन्धे ३० उदये २६ सत्त्वे १२।१०। ८८1८४ एकपञ्चकसप्ताटनवाग्रा विंशतिः पृथक । पाके स्युस्त्रिंशतो बन्धे सत्त्वे चाद्यानि सप्त च ॥२४४॥ बन्धे ३० । उदये २११२५।२७।२८।२१ । सत्त्वे १३।१२।११।१०।८८८४२ । पाके दश चतुःषट कैकादशामा च विंशतिः । तत्रैव तानि सप्तापि ध्येकाने नवती विना ॥२४५॥ तन्त्र बन्धे ३० । उदये ३०२४२६॥३१ सत्वे च पञ्च १२1801८८२ । इति त्रिंशतो बन्धः समाप्तः ।। १. बन्धोदयौ। Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः ७२३ तथैकत्रिंशतो बन्धे पाके त्रिंशच्च नामनि । अप्रमत्ते तथाऽपूर्वे सत्त्वे त्रिनवतिर्भवेत् ॥२४६॥ बन्धे ३१ । उदये ३० । सत्त्वे १३ । तथैकबन्धके पाके त्रिंशत्सत्त्वेऽष्ट तानि च । चत्वार्याधानि चत्वार्यये त्यक्त्वोपरिमं द्वयम् ॥२४७॥ इत्युपशमकेषु बन्धे १ । पाके ३० । सत्त्वे ६३।१२।११।१० । आपकेषु सत्त्वे ६३।१२।६३।०1८०। ७६७८/७७ । त्रिंशत्सा चैकयुक् पाके यथायोग्यं नवाष्ट च । चत्वार्यधः षडग्रे च सत्तास्थानान्यबन्धके ॥२४८॥ इत्यबन्धके उदयाः ३१॥३०॥। सत्त्वे १३।१२।११।१०।८०1७६७८७७।१०। । अत्र वृत्तिश्लोकाः पञ्च-- सप्तांशे चरमेऽपूर्वोऽनिवृत्तिः सूचम एव च । बध्नन्त्येकं यशः शेषाश्चत्वारः सन्त्यबन्धकाः ॥२४॥ [यशोबन्धकास्त्रयः] १११। भबन्धकाश्चत्वारः] 01010101 अपूर्वादित्रिकत्रिंशच्छान्ते क्षीणे च सोदये। त्रिंशत्सत्त्वैकयुग्योगिन्ययोगाख्ये नवाऽष्ट च ॥२५०॥ इत्युदयेऽपूर्वादिषु ३०॥३०॥३०॥३०॥३० । सयोगे ३१।३० अयोगे ।। त्रिपशमकेषूपशान्ते चाधं चतुष्टयम् । सपकेष्वप्यपूर्षे सदनिवृत्तौ च सद्भवेत् ॥२५॥ षोडशप्रकृतीनां तु यावन्न कुरुते क्षयम् । क्षपिता अनिवृत्तौ सदशीत्यादिचतुष्टयम् ॥२५२॥ तत्सूक्ष्मादिष्वयोगे च यावद्विचरमक्षणम् । चरमे समयेऽयोगे सत्त्वे दश नवापि च ॥२५३॥ इत्युपशमश्रेण्यामपूर्वादिषु चतुषु' आपकेसु चापूर्वेऽनिवृत्तिप्रथमनवांशे च सत्वे १३।१२।११।३० । अनिवृत्तिक्षपकशेषनवांशेषु चाष्टसु सूचम-क्षीण-सयोगेषु निर्योगस्य च द्विचरमसमये यावत्सत्वे ८०1७६/७E ७७ । चरमसमये चायोगे १०१ । एवं नामप्ररूपणा समाप्ता जीवस्थानेषु सर्वेषु गुणस्थानेषु च क्रमात् । स्थानानां त्रिविकल्पानां भगा योज्या यथागमम् ॥२५४॥ बन्धे पाके च सत्वे स्युः पञ्चापि ज्ञान-विघ्नयोः । सर्वजीवसमासेषु निर्बन्धे पाक-सत्त्वयोः ॥२५५॥ त्रयोदशसु जीवसमासेषु ५। चतुर्दशे संज्ञिपर्याप्ते मिथ्यादृष्टयादि-सूचमान्तेषु त्रिषु बन्धादिषु ५। निबन्धे उपरतबन्धे उपशान्ते जीणे चेति द्वयोः पाके सत्वे पञ्च ५। नयोदशसु हग्रोधे नव स्युबन्ध-सरवयोः । चतस्रः पञ्च वा पाके संज्ञिपर्याप्तकाभिधे ॥२५६॥ गुणस्थानोदिता भङ्गाः स्थाने सन्ति चतुर्दशे । वेद्यायुर्गोत्रमाभाष्य ततो मोहः प्रचच्यते ॥२५॥ त्रयोदशसु ४ ५ संज्ञिपर्याप्तके मिथ्यादृष्टिसासनयोः ४ ५ मिश्रायपूर्वकरणद्वयप्रथम सप्तमभागं यावत् ४ ५ शेशपूर्वानिवृत्तिसूचमोपशमकेषु क्षपकेषु चापूर्वस्य शेषसप्तमभागेषु षट्स्व निवृत्तेश्च संख्यातभागान् यावत् ४ ५ ततः परमनिवृत्तः शेषसंख्यातभागे सूचमक्षपके च ४ ५ उपशान्ते ४ ५ क्षीणद्विचरमसमये ४ ५ क्षीणचरमसमये ४ सर्वे मीलिताः १३ । १. निर्बन्धे इत्युक्ते किम् ? उपरतबन्धे इत्यर्थः । २. उपशमश्रेणि-क्षपकश्रेण्योः । Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ संस्कृत-पञ्चसंग्रहे वेद्य द्वापष्टिरायु के विकल्पास्युत्तरं शतम् । चत्वारिंशरच सप्तामा गोत्रे जीवसमासगाः ॥२५८।। ६२।३०३।४७ । चतुर्दशसु चत्वारो भङ्गाः प्रत्येकमादिमाः। षट् स्युः केवलिनोवेधे षष्टिरेवं द्विकाधिका ॥२५॥ - इति चतुर्दशसु प्रत्येकमादिमाश्चत्वारः . . . इति। सयोगे द्वावाद्यौ १० १० १० १० १ . अयोगे त्वाद्यावेव बंधेन विनाऽऽद्यावुपान्तिम समये ..द्वावयोगस्यैवान्ते समये १० • १ एवं सर्वे ६२ । मतान्तरम्देवायु रकायुश्च पर्याप्तौ संसंज्ञिनौ । बभनीतोऽन्ये न बध्नन्ति द्वादशैकेन्द्रियादयः ॥२६॥ पृथग्जीवसमासेपु स्युः पञ्चैकादशस्वतः । नवासंज्ञिनि पर्याप्त दशापर्याप्तसंज्ञिनि ॥२६॥ विकल्पाः संज्ञिपर्याप्ते त्वष्टाविंशतिरायुषः । युताः केवलिभङ्गन मीलितास्यधिकं शतम् ॥२६२॥ १०३ । एषामर्थः-यस्मादेकादश जीवसमासाः नारक-देवायुषी न बध्नन्तीत्युक्तम्, अतस्तेषु तिरश्चामायुर्वन्धभङ्गेभ्यो नवभ्यो द्वौ नारकायुबन्धभनौ, द्वौ च देवायुर्बन्धभङ्गो, एवं चतुरस्त्यक्त्वा शेषा एकादशसु जीवसमासेषु पञ्च पञ्चेति कृत्वा पञ्चपञ्चाशद्भवन्ति । तत्र पञ्चानां संदृष्टिः- २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २३ २३ ततः परमसंज्ञिपर्याप्त नव तिर्यग्भङ्गा भवन्ति । ततश्च दशापर्याप्तसंज्ञिनि, यस्मादपर्याप्तसंज्ञी तिर्यङ्मनुष्यश्च नारकदेवायुषी न बनीतोऽऽतस्तिरश्चां ननुष्याणां च स्वायुबन्धभङ्ग भ्यो नवभ्यो नवभ्यो द्वौ नारकायुबन्धभङ्गो, द्वौ च देवायुबन्धभङ्गाविति प्रत्येकं चतुरश्चतुरस्त्यक्त्वा शेषाः पञ्च पञ्चायुर्वन्धभङ्गा भवन्ति ५।५ । एवमपर्याप्तसंज्ञिनि दश १० । भङ्गाः श्वाभ्रसु पञ्च स्युर्नव तिर्यक्षु नृष्वपि । पञ्च देवेषु बध्नसु बद्धेष्वायुःष्वपि क्रमात् ॥२६३॥ ५। ५। पर्याप्तसंज्ञिनि श्वभ्रतिर्यकमनुष्यदेवायुबन्धभङ्गाः भवन्ति, ते चैते ५ाहाहा। मीलिताः २८ । एकः केवलिषु ३। एवं सर्व १०३ । उच्च बन्धेऽथ पाकेऽन्यद द्वे सत्वे बन्ध-पाकयोः । नीचं सत्वे द्वयं नीचं सर्वेष्विति पृथक त्रयम् ॥२६॥ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः ७२५ त्रयोदशसु जीवेषु प्रिंशनङ्गा नवाधिका: । षडायाः संज्ञिपर्याप्त द्वौ चान्स्यौ केवलिस्थितौ ॥६५॥ त्रयोदशसु प्रत्येकं प्रयस्त्रय इति ३६ । संज्ञिपर्याप्तेषु अष्टभङ्गषु प्रथमाः षट् । संश्यसंज्ञिव्यपदेशरहितकेवलिनोरिमौ द्वौ ' एवं ३६।६।। मीलिताः ४७ । सर्वेपि मीलिता भङ्गाः गोत्रे सप्तभिरन्विताः । चत्वारिंशद्भवेदेवमतो मोहः प्रचचयते ॥२६६॥ सप्तापर्याप्तकेषु स्युः सूचमे चेत्यष्टजन्तुषु । बन्धे द्वाविंशतिस्त्रीणि चाद्यानि सत्त्व-पाकयोः ॥२६७॥ अष्टसु बन्धे २२ उदये १०11८ सत्वे २८।२७।२६।। मुक्त्वैकं संज्ञिपर्याप्तं पर्याप्तेष्वथ पञ्चसु । बन्धोदयसतां स्युढे चत्वारि त्रीणि चादितः ॥२६॥ पञ्चसु पर्याप्तेषु बन्धे २२।२१। उदये १०६७। सत्वे २८।२७२६। एकस्मिन् संज्ञिपर्याप्ते मोहस्य दश बन्धने । नव स्थानानि पाके स्युः सत्वे पञ्चदशापि च ॥२६॥ संज्ञिपर्याप्ते सर्वाणि बन्धे २२।२१।१७।१३।५।४।३।२।१। उदये १०६७।६।५।४।२।१ सत्त्वे २८।२७।२६।२४।२३।२२।२१।१३।१२।११।५।४।३।२।१। पञ्च द्वे पञ्च नाम्नि स्युबन्धपाकसतां त्रिके । पञ्च चत्वारि पन्चैव पञ्च पञ्चाथ पञ्च च ॥२७॥ स्थानानि पञ्च पट पञ्च षट् षट् पञ्च ततः क्रमात् । अष्टाष्टकादशेषां तु स्वामिनः स्युः क्रमादिमे ॥२७॥ सप्तापर्याप्तकाः सुचमो बादरो विकलत्रिकम् । असंज्ञी क्रमतः संज्ञी विशेषोऽतः प्रचक्षते ॥२७२।। क्रमादेषां च स्वामिसंख्या ७।१।१३।११। त्रिपञ्चपट्नवाग्रा हि विशतिस्त्रिंशदप्यतः । सप्तपर्याप्तकेष्वेवं बन्धस्थानानि पञ्च तु ॥२७३॥ २३।२५।२६।२७।३०। स्थूले सूक्ष्मे त्वपर्याप्ते पाकास्तेष्वेकविंशतेः । विंशतेश्चतुरमायाः स्यादेवमुदयद्वयम् ॥२७॥ २१॥२४॥ शेषापर्याप्तकानां तु पञ्चानामुदयद्वयम् । षडविंशत्येकविंशत्योस्तेष्वतः सरवमुच्यते ॥२७५॥ उदये २१२६ सत्तास्थानानि तेषुद्वानवतिनवतिस्तथा । अशीतिश्च युताष्टाभिश्चतुर्भिश्च द्विकेन च ॥२७६॥ ६२१६०८८1८४॥२॥ सप्तापर्याप्तेविति गतम् । सूचमपर्याप्तके बन्ध-सत्तास्थानानि पूर्ववत् । पाके त्वेक-चतुः-पञ्च-षड्युक्ता विंशतिर्भवेत् ॥२७७॥ सूक्ष्मपर्याप्तके बन्धाः २३१२५।२६।२६।३०। उदयाः २१॥२४॥२५॥२६॥ सत्वानि १२१९०1८८। ८४२। सन्ति बादरपर्याप्ते बन्धाः सत्ताश्च पूर्ववत् । एकविंशतितः सहविंशस्यन्तास्तथोदयाः ॥२७॥ बादरैकेन्द्रिये पञ्चबन्धाः २३१२५।२६।२६।३०। उदयाः २१०२४।२५२६।२७। सन्ति १२18. ८८1८४८२। बन्धस्थानानि तान्येव तानि सत्ताऽऽस्पदानि च । पूर्णेषु विकलाक्षेषु प्रत्येकं त्रिषु सन्ति हि ॥२७॥ एकत्रिंशत्तथा त्रिंशदेकान्नत्रिंशदप्यतः । विंशतिश्चाष्टषट्कैकयुक्ताः सन्ति तथोदयाः ॥२०॥ विकलेषु बन्धाः २३।२५।२६।२६।३०। उदया: २१।२६।२८।२६।३०।३ । सन्ति ६२।६०1८८। ८४८२ । १. सप्तपर्याप्ताः सूक्ष्मपर्याप्तेन सह तेषु बन्धे । Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ संस्कृत-पश्चसंग्रहे त्रयोविंशतितत्रिंशदन्ताः पूर्णे स्वसंज्ञिनि । बन्धाः सत्त्वोदयाश्चापि विकलाक्षसमा मता ॥२१॥ बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६।३० । उदयाः २१॥२६॥२८॥२६३०३१ । सन्ति १२१8०1८८ ८८२। बन्धस्थानानि सर्वाणि सन्ति पर्याप्तसंज्ञिनि । पाके त्यक्त्वा नवाष्टौ च चतुरग्रां च विंशतिम् ॥२८२॥ सत्तास्थानानि तस्यैवाधस्तनान्यग्रिमद्वयात् । भवन्त्येकादशाद्यानि संश्यसंज्ञी न केवली ॥२३॥ ___बन्धाः सर्वे २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।१। अष्टौदयाः २१॥२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सत्त्वे १३।१२।११।१०1८८८४१८२१८०७६७८७७ । पाके केवलिनि त्रिंशदेकत्रिंशन्नवाष्ट च । अग्रिमाणि च सत्तायां षट् स्थानानि भवन्ति हि ॥२८४॥ केवलिनोरुदयाः ३०।३१।४।८। सत्तायां ८०1७६७८७७११० । इति जीवसमासप्ररूपणा समाप्ता। ज्ञानावृद्विघ्नयोः पञ्च बन्धे पाकेऽथ सत्तया । दशस्वतो गुणस्थानद्वये ताः पाक-सत्त्वयोः ॥२८५॥ गुणस्थानेषु दशसु ५ ५ अबन्धकोपशान्तक्षीणयोः ५ ५ । भाद्ययोनव षट्चातोऽपूर्वस्यांशं तु सप्तमम् । यावाध्यतः सूचमं यावद् बन्धे चतुष्टयम् ॥२८६॥ सत्वेन चोपशान्ताताः सपकेष्वनिवृत्तिके । संख्यातांशं च यावत्ताः क्षीणं यावत्ततश्च षट् ॥२८७॥ चतस्रोऽन्त्यक्षणे क्षीणे चतस्रः पञ्च चोदये । क्षीणस्योपान्तिमं यावत्क्षणमन्ते चतुष्टयम् ॥२८॥ इति मिथ्यादृष्टि-सासनयोः ४ ५ मिश्राद्यपूर्वकरणद्वयप्रथमसप्तमभागं यावत् ४ ५ शेषापूर्वा निवृत्तिसूचमोपशमकेषु चापूर्वकरणस्य शेषसप्तमभागेषु षट् स्वनिवृत्तेश्च संख्यातभागान् यावत् ४ ५। ततः ४ ४ परमनिवृत्तः शेषसंख्यातभागे सूचमक्षपके च ४ ५ उपशान्ते ४ ५ क्षीणे ४ ५ क्षीणचरमसमये च ४ । सर्वे मूलभङ्गाः १३ । गुणेषु गणनया ३१ । चत्वारिंशद् द्विकामा स्युस्त्रयोदशयुतं शतम् । पञ्चाग्रा विंशतिर्भङ्गाः वेद्येऽथायुष्कगोत्रयोः ॥२८॥ ४१।११३।२५। वेद्ये भङ्गास्तु चत्वारः षट्स्वाद्येष्वादिमास्त्वतः । द्वावाद्यौ सप्तसु ज्ञेयौ निर्योगेऽन्त्यं चतुष्टयम् ॥२६०॥ मिथ्यात्वादिप्रमत्तान्तेष्वेकैकस्मिन् प्रथमाश्चत्वारः . . . . एवं षट्सु २४ । परेषु १ एव सप्तसु प्रत्येक प्रथमौ द्वो १ . इति १४ । अयोगेऽन्तिमाश्चत्वारः १ ० ० १ ० १ ० ० सर्वे ४२। क्रमादष्टषडग्रे तु विंशती षोडशाप्यतः । विंशतिः षट् त्रयो द्वन्द्व द्वौ चतुर्वेककस्विषु ॥२६॥ त्रयोदशाग्रमायुष्के भङ्गानामित्यदः शतम् । मिथ्याष्टिगुणस्थानाद्यावदन्त्यजिनेश्वरम् ॥२६२॥ निध्यादृष्टयादिषु भगाः २८।२६।१६।२०।६।३।३।२।२।२।२।११।१। Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः अबधनत्युदितं सत्स्यादायु वे तु बध्नति । बध्यमानोदिते सत्त्वे बद्धेऽबद्धोदिते सती ॥२३॥ इति नरकायुरादिषु पूर्वोक्ता भङ्गाः ५। ५ । एषां संदष्टिारकेषु १ १ १ तिर्यक्षु २ २ २ २ २ २ २ २ २ मनुष्येषु ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ देवेषु ४ ४ ४ ४ ४ इति मिथ्यादृष्टौ सर्वे २८ । सासनो नरकेषु न वज्रतीति निरयायुर्वन्धे तिर्यगायुरुदये द्वे अपि सती १। नरकायुर्वन्धे मनुष्यायुरुदये द्वे अपि सतो । इति द्वौ भङ्गौ त्यक्त्वा शेषाः सासने २६ । सम्यग्मिथ्यादृष्टिरेकमप्यायुन बध्नात्यतस्तस्योपरतबन्धभङ्गाः १६ । यस्यादसंयतो मनुष्यस्तिर्यग्गतिस्थो वा देवायुरेव बध्नाति, नेतराणि । नारक-देवगतिस्थश्च मनुष्यायुष एव बन्धको नापरेषाम् । ततस्तिर्यगायुर्बन्धे भरकायुरुदये द्वे अपि सती । नरकायुर्बन्धे तिर्यगायुरुदये द्वे अपि सती २ । तिर्यगायुर्बन्धे तिर्यगायुरुदये द्वे अपि सती ३ । मनुष्यायुर्वन्धे तिर्यगायुरुदये द्व अपि सती। नरकायुर्बन्धे मनुष्यायुरुदये द्वे अपि सती ५। तिर्यगायुर्वन्धे मनुष्यायुरुदये द्व भपि सती ६ ! मनुष्यायुर्बन्धे मनुष्यायुरुदये दु अपि सती ७ । तिर्यगायुर्वन्धे देवायुरुदये द्वे अपि सती । एवमष्टौ त्यक्त्वा शेषा असंयतस्य २० । तिर्यगायुरुदये तिर्यगायुः सत् १ । देवायुबन्धे तिर्यगायुरुदये द्व' अपि सती २ । तिर्यगायुरुदये तिर्यग्देवायुषी सती ३ । मनुष्यायुरुदये मनुष्यायुः सत् ४ । देवायुर्बन्धे मनुष्यायुरुदये द्व' अपि सती ५। मनुष्यायुरुदये मनुष्यदेवायुषी सती ६ । एवं संयतासंयतस्य ६ । मनुष्यायुरुदये मनुष्यायुः सत् १ । देवायुबन्धे मनुष्यायुरुदये द्व अपि सती २ । मनुष्यायुरुदये मनुष्य-देवायुषी सती ३ । एवं प्रमत्ते ३ । एत एवाप्रमत्तेऽपि ३ । अपूर्वप्रभृति यावदुपशान्तस्तावच्चतुषू पशमकेषू त्रिषु च क्षपकेषु मनुष्यायुरुदये मनुष्यायुः सत् १ । उपशमकान् प्रतीत्य मनुष्यायुरुदये मनुष्य देवायुषी सती २ । एवं द्वाभ्यां द्वाभ्यां भङ्गाभ्यां चतुर्वष्ट ८ । क्षीणकषायसयोगायोगेषु मनुष्यायुरुदये मनुष्यायुः सत् १ । एवं त्रिषु त्रयः ३ । सर्वेऽप्यायुषि ११३ । पन्चस्वाद्येषु पञ्च स्युश्चत्वारो द्वौ द्विकद्वयम् । अष्टस्वैककमन्त्ये द्वौ गोत्रे पन्चायविंशतिः ॥२६॥ ___ गुणस्थानेषु गोत्रभङ्गाः ५।४।२।२।२।१।३।१।१।१।१।१।१२। उच्चोच्चमुच्चनीचं च नीचोच्चं नीचनीचकम् । बन्धे पाके चतुर्वेषु सद्वयं सर्वनीचकम् ॥२१५॥ ०१० इत्याद्य पञ्च चत्वार आद्या भङ्गा सुसासने । द्वावाद्यौ त्रिष्वतोऽन्येषु पञ्चस्वेकस्तथादिमः ॥२६॥ मिथ्यात्वादिसूचमान्तेष्वेते भङ्गाः ५।४।२।२।२।11१1१1१11 उच्चं पाके द्वयं सत्त्वे बन्धकैकादशादिषु । स्यादुच्चमुदये सत्वे चायोगस्यान्तिमक्षणे ॥२७॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ संस्कृत-पञ्चसंग्रह ... १ उपशान्तक्षीणसयोगायोगेषु चतुषु चत्वारः , १ १ अयोगस्यान्तिसमये एकः १० १.१.१ . या । एवं गोत्रे सर्वभङ्गाः २५ । आधे द्वाविंशतिर्मोहे सासने चैकविंशतिः । द्वयोः सप्तदशान्यत्र प्रयोदश नवनिषु ॥२६॥ बन्धे पञ्चानिवृत्तौ स्युश्चतुस्त्रिद्वय कमेव च । किमतो मोहनीयस्य बन्धस्थानानि सन्ति वै॥२६॥ २२।२१।१७।१७।१३।। अनिवृत्तौ ५।४।३।२।१ । षट चत्वारश्चतुषु द्वावेको भङ्गोऽपरेषु तु ॥३०॥ ६१४।२।२।२।२। शेषेष्वेकः । ज्ञेया दश नवाष्टौ च सप्त षट पन्च मोहने । चतुष्कं द्वयमेकं च सामान्येन नवोदयाः ॥३०॥ १०९।७।६।५।४।। मिथ्या क्रोधाश्च चत्वारोऽन्ये चाये वेद एककः । हास्यादियुग्मयोरेकं भी जुगुप्से दशोदयाः ॥३०२॥ मिथ्यात्वं दर्शनात्प्राप्ते यावदावलिकामसौ । मोहेऽनन्तानुबन्ध्यूनः स्यादाद्येऽन्यो नवोदयाः ॥३०३॥ एवं मिथ्यादृष्टौ द्वावुदयो ५०।१। मिथ्यात्वेनाद्यकोपायद्धितीयैस्तत्परैविना । सासादनादिषु शेया एकद्वयकत्रिकेष्वसौ ॥३०॥ मिथ्यात्वे १०६।सासादनादिषु- _सा० मि० भ० दे० प्र० स० अपू०, ८७ ६ ६ ६ इति मोहोदया मिश्रे सम्यग्मिथ्यात्वसंयुताः । सम्यक्त्वसंयुजोऽन्येऽतो न शेषे यत्र दर्शने ॥३०५॥ एवं मिश्रे सम्यग्मिध्यात्तसंयुताः । असंयतादिपु चतुषु यत्र शेषे क्षायिकौपशमिके सम्यक्त्वे न भवतस्तत्र सम्यक्त्वोदये वेदकसम्यक्त्वेन सहान्योऽपि द्वितीय उदयस्तेन असंयतादिषु द्वौ द्वावुदयावेतौ ६.८८,७७,६७,६ । अपूर्वे मोहभेदसम्यक्रवोदयाभावाद्वंदकसम्यक्रवं नास्तीति षटकोदय एवैकः ६ । सर्वेऽप्येते भयेनोना जुगुप्सोना द्वयोनकाः । इत्यन्येऽप्युदया ह्येषामेकैकस्योपरि त्रयः ॥३०६॥ वायो. औप० इति मिथ्यारष्टौERE८ । सासने ८८ । मिश्रे ८८ । भसंयते८८७७। देशे वेद० सायिक ७७ ६ ६ प्रमत्त ६ ६ । ५५ । अप्रमत्त ६६ । ५ ५ । अपूर्वे वेदकसम्यवं विना त्रीण्येवोदयस्थानानि ५ ५। .. इत्याचे दश सप्ताद्या नव सासन-मिश्रयोः । अयते नव षटकाद्याः पम्चाचास्वष्ट पञ्चमे ॥३०७॥ सप्ताद्या द्वयोः सप्तापूर्वे षट् चतुरादिकाः । द्वावेकश्वानिवृत्ताख्ये सूक्ष्मेऽप्येकस्तथोदयः ॥३०८॥ इति सवेदानिवृत्तौ प्रथमभागे चतुर्णा कषायाणामेकतरस्त्रयाणां वेदानामेकतरः, इति द्वावुदयस्थानम् । अवेदानिवृत्तौ चतुषु भागेषु यथासम्भवमेकतरः कपायोदयः एवमनिवृत्तौ ।। सूक्ष्मे १ । कषायवेदयुग्मैस्ते चतुस्त्रिद्विभिराहताः । चतुर्विशितिभेदाः स्युः सप्त पाका दशादिकाः ॥३०॥ इति दशायुदयस्थानानि सप्त १०३।१६।५।। इत्येतानि कषायादिभिश्चतुर्विशितिभेदानि स्युः । एषाम्च संख्यार्थमाह Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहतिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः ७२९ मिथ्यादृश्यष्टचत्वारि द्वयेऽतोऽष्ट चतुर्वतः । अपूर्वेऽपि च चत्वार्युदयस्थानानि मोहने ॥३१॥ मादामादाअपूर्व ४ । चतुर्विशतिभङ्गध्नान्यपूर्वानान्यमूनि च । योगोपयोगलेश्याभिर्यथास्वं गुणयेत्तसः ॥३१॥ मिश्रे सासादनेऽपूर्वे पाकाः षण्णवतिप्रमाः । पञ्चस्वन्येषु ते विद्याद्वयोः सप्तदशापि च ॥३१२॥ इति मिथ्यादृष्टवादिषूदयविकल्पाः १२।१६।१६।११२।११२१६२११६२।१६। अनिवृत्तौ सवेदे १२। अवेदे ४। सूचमे । उदयस्थानसंख्यैवं विकल्पा उदयाश्रयाः । पचत्रिंशद् द्विहीनानि प्रयोदशशतानि ते ॥३३॥ १२६५/ मिथ्यारश्यष्टषष्टिः स्युद्वंयोद्वात्रिंशदप्यतः । षष्टिश्चातो द्विपञ्चाशत्प्रमत्तेतरयोः पुनः ॥३१॥ चत्वारिंशच्चतुर्युक्ता स्यादपूर्वेऽपि विंशतिः । पाकप्रकृतयो मोहे चतुविंशतिसंगुणाः ॥३१५॥ एवं मोहे पूर्वोक्तदशायदयानां प्रकृतयो मिथ्यादृष्टयादिषु ६८॥३२॥३२॥६०॥५२॥४४॥४४॥ अपूर्वे २०। अनिवृत्तौ २।१ सूचमे १। एताश्चतुर्विंशतिभङ्गगुणा यावदपूर्व मिथ्यादृष्टौ ८६४७६८। उभयोर्मीलने १६३२ । सासनादिषु ७६८१७६८११४४०।१२४८।१०५६।१०५६।४८० । एता मीलिता:८४४८ । उक्तंचशतान्यष्टौ चतुःषष्टयाऽमाष्टषष्टया च सप्त च । मीलितानि शतान्याघे द्वात्रिंशानीति षोडश ॥३१६॥ १६३२। शतानि चाष्ट षष्टयाऽमा सप्त सासन-मिश्रयोः । चतुर्दश शतानि स्युश्चत्वारिंशान्यसंयते ॥३१७॥ ७६८७६७।१४४० । द्वापञ्चाशद द्विहीनानि शतान्यस्मात्रयोदश । पटपञ्चाशं सहस्रं च प्रमत्तेतरयोद्वयोः ॥३१८।। १२४८1१०५६।०५६ । चतुःशताधिकाशीत्या पूर्वे प्रकृतयस्त्विमाः । विपाके पदबन्धाख्या गुणस्थानेषु सप्तसु ॥३१६॥ अपूर्व ४००। सर्वाः ८४४८। त्रिवेदघ्नः कषायैः स्युादशात्र द्विकोदयाः । एकोदयाश्च चस्वारः कषायैः सूक्ष्म एककः ॥३२०॥ पाकाः सप्तदशैकान्नत्रिंशत्प्रकृतयस्त्विति । भनिवृत्तौ तथा सूचमे योगादिनाश्च पूर्ववत् ॥३२१॥ इत्यनिवृत्तौ द्विकोदयाः १२। एकोदयाः ४। सूचमे सूचमलोभ एकः । एवमुदयस्थानानि १७॥ तथा द्वादशसु द्विकोदयेषु प्रकृतयः २४। एकोदयप्रकृतयः ४। सूचमे प्रकृतिरेका १। एवं प्रकृतयः २६ पदबन्धाख्याः। पाकप्रकृतिसंख्यायाः पदबन्धास्त एव हि । सहस्त्राण्यष्ट सप्तामा सप्ततिश्च चतुःशती ॥३२२॥ ८४७७ ये यत्र स्युगुणस्थाने उदयाः प्रकृतयश्च याः। योगोपयोगलेश्याधैर्यथास्वं गुणयेच्च ताः ॥३२३॥ द्वयोस्त्रयोदशान्येषु दश योगास्त्रयोदश । नवैकादश षट्सु स्युनव योगिनि सप्त च ॥३२४॥ इति गुणस्थानेषु योगाः १३।१३।१०।१३।१।११18IRIRI1७1०। गुणस्थानेषु पूर्वोक्तोदयविकल्पा मिथ्यादृष्टौ १६६६। सासनादिषु ६६।६६।१६२।१६२।११२।१२।१६ अनिवृत्तौ १२।४५ सूक्ष्मे । इति द्वयोः सप्तदश १७॥ कार्मणो वैक्रियौदार्यमिश्री मिथ्यारशि भ्रयः। मिथ्यात्वं दर्शनात्प्राप्त न स्युनों मिश्रकेऽपि ते ॥३२५॥ . त्रयोदश दशाप्याचे योगा द्वादश सासने । दुयोर्दश नवातोऽतोऽप्येकादश नव द्वयोः ॥३२६॥ इति मिथ्यादृष्टौ योगाः १३१० । सासनादिषु च १२।१०।१०।११।६।। चतुर्विंशतिभेदा ये पाकप्रकृतयोऽपि याः । यथास्वं गुणिता योगैर्भङ्गाः स्युर्योगजास्तु ते ॥३२७॥ इति योगैः षण्णवत्यादयः विकल्पाः पूर्वोक्ता गुणिता मिथ्यादृष्टौ १२४८१६० मीलिताः २२० । सासनादिषु च ११५२।१६०११६२०११७२८१२११२।१७२८।८६४ एते मीलिताः १२६७२ । १२ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रह न याति सासनः श्वनं तेन वैक्रियमिश्रके । न भावषण्ढवेदो ऽस्य भङ्गः षोडशभिस्ततः ॥३२८॥ कषायवेदयुग्मोत्यैश्चत्वारः सासनोदयाः । गुणिताः स्युश्चतुःषष्टिमिश्रवैक्रियसंगुणाः ॥३२६॥ इति वैक्रियिकमिश्रवेदद्वये सासनेऽप्युदयविकल्पाः ६४ । पण्डः श्वाभ्रेषु देवेषु पुमान् वैक्रियमिश्रके कषायवेदयुग्मोत्थर्भङ्गः षोडशभिर्हताः। मिश्रे विक्रिय-कर्माभ्यां चायतेऽष्टोदया गुणाः ॥३३१॥ षट्पञ्चाशे शते द्वस्तो मिश्रेऽप्यौदारिकेऽष्ट च । पाकभङ्गाष्टकम्नाः स्युर्भङ्गाः षष्टिश्चतुर्युताः ॥३३२॥ अनासंयते कषायाः ४ । पुंवेद-नपुंसकवेदौ २। हास्यादियुग्मं २। अन्योन्यगुणा भङ्गाः १६ । एतेऽष्टोदयगुणाः १२८ । क्रियिकमिश्रकामणयोगाभ्यां हताः २५६ । तथा कषायाः ४ पुंवेदहास्यादियुग्मं २ अन्योन्यध्ना भङ्गाः । एतेऽप्यष्टोदयनाः ६४ । औदारिकमिश्रघ्नाः अपि ६४ । एवमयतेऽन्येऽप्युदयः विकल्पाः ३२० । अनिवृत्तौ तथा सूचमे पाकाः सप्तदशोदिताः । नवयोगहतास्ते च त्रिपञ्चाशं शतं मतम् ॥३३३॥ ५३ । प्रथम-पञ्चमभागे सवेदानिवृत्तौ वेदाः ३ संज्वलनाः ४ अन्योन्यगुणा द्विकोदयाः १२ । एते नवयोगहताः १०८। तथाऽनिवृत्ताववेदे जाते शेषपञ्चमभागेपु चतुषु चतुःसंज्वलनैरेकोदयाः ४ नवयोगगुणाः ३६ । एते मीलिताः अनिवृत्तौ १४४ | सूचमे सूचमलोभसंज्वलने नैकोदयः, नवयोगगुणाः । एवं सर्वे मीलिताः १५३ । मोहोदयविकल्पाः स्युर्योगानाश्रित्य मीलिताः । त्रयोदश सहस्राणि द्वेशते नवकोत्तरे ॥३३॥ १३२०१ साम्प्रतं पदबन्धा योगान् प्रति कथ्यन्ते । तत्र च मिथ्यारख्यादिषु पूर्वोक्तयोगैरेतेः १३।१०। सासनादिषु १२।१०।१०।११।। क्रमादेताः प्रकृतयः पूर्वोक्ता मिथ्याप्टौ ८६४१७६८। सासनादिषु ७६८७६८।१४४०।१२४८।१०५६।१०५६३४८०। गुणिता जाताः [मिथ्यादृष्टौ ] ११२३२१७६८०। सासनादिषु १२१६।७६८०।१४४००।११२३२।११६१६।१५०४।४३२० । चतुर्विशतिभङ्गोत्थाः पाकप्रकृतयस्त्विमाः । षडशीति सहस्राण्यशीत्या युक्तं शताष्टकम् ॥३३५॥ पाकप्रकृतयो द्वयमा त्रिंशत्षोडशभिर्गुणाः दश पञ्चशती द्वौ च सासने मिश्रवैक्रिये ॥३३६॥ सासने चत्वार उदयाः ८८ । एषां प्रकृतयः ३२ । पूर्वोक्तषोडशभङ्गगुणाः वैक्रियिकमिश्रयोग. हताश्चान्येऽपि पदबन्धाः ५१२ । पाकेष्वष्टसु षष्टिर्या सन्ति प्रकृतयोऽयते । कषायवेदयुग्मोत्थैर्भङ्गः षोडशभिहताः ॥३३७॥ मिश्रक्रिययोगेन कार्मणेन च ताडिताः । शतानि नव विंशानि सहस्रं च भवन्ति ताः ॥३३८॥ असंयतेऽष्टोदयाः ८८ । ७७ । एषां च प्रकृतयः ६० पूर्वोक्तषोडशभङ्गनाः ६६० वक्रियिक मिश्र-कार्मणयोगाभ्यां गुणाः १९२०।। पाके प्रकृतयः षप्टिर्भङ्ग रष्टभिराहताः । मिश्रौदारिकभङ्गानाः अशीत्यमा चतुःशती ॥३३॥ असंयतेऽन्येऽपि औदारिकमिश्रयोगभगाः ४८० । एवमसंयते त्रिषु योगेष्वन्येऽपि मौलिताः पदः बन्धाः २४०० । अनिवृत्तौ तु या सूक्ष्मेऽप्येकान्नत्रिंशदाहताः । नवयोगैः शते द्वे स्त एकषष्टयधिके तु ताः ॥३४०॥ इत्यनिवृत्तौ २ द्वादशभिर्द्विकोदयह ताः २४ । चतुर्भिरेकोदयः ४ । एवं २८ । सूचमे एकोदयः एकः १। एवं २३ । एताः पूर्वप्रकृतयो नवयोगहताः २६१ । १. 'शढ-षएदौ क्लैबे' इत्यनेकार्थः । Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाव्यः पञ्चमः संग्रहः पूर्वो मीलने योगे पदबन्धाः प्रमाणतः । नवतिः स्युः सहस्राणि श्रयः पञ्चाशदप्यमी ॥ ३४१ ॥ इति मोहे योगान् प्रति गुणस्थानेषु पदयन्धाः १००५३। उदयाः पदवन्याश्च गुणस्थानेषु येषु ये । ते तत्रत्योपयोगघ्नास्ते ते सन्तीह तान् प्रति ॥ ३४२ ॥ द्वित्रिद्विषु ज्ञेया गुणस्थानेषु निश्रयात् । पञ्च पद् सप्त च द्वौ चैवोपयोगा यथाक्रमम् ॥ ३४३ ॥ इति गुणास्थानेषूपयोगाः ५५६।६।६।७१७ ७ ७ ७१७ ७।२।२। गुणस्थानेषु चाष्टसूदयविकल्पाः पूर्वोक्त १२६६।१२।१२।१२।१६२।१६। अनिवृती १२|४| सूक्ष्मे । इति द्वयोः १७ इत्येते यथात्मीययोगोपयोगगुणा एतावन्त उपयोगं प्रति उदद्यविकल्पाः ३६०।४८० ५७६।११५२।११५२॥ १३४४ । १३४४।६७२। सर्वे मीलिताः ७६८० । अनिवृत्ती तथा सूक्ष्मे पाकाः सप्तदशोदिताः । इताः सप्तोपयोगैस्ते शतं चैकान्नविंशतिः ॥ ३४४ ॥ ११६ । मीलिताः ७७६६ । मोहोदयविकल्पाः स्युरुपयोगे मीहिताः सर्वे नवनवत्यमा शतानां सप्तसप्ततिः ॥ ३४५॥ 1 इत्युदय विकल्पाः ७७१६ । पाकप्रकृतयो याः स्युर्गुणस्थाने यथाष्टसु । उपयोगगुणाः स्वस्ताः पदबन्धास्तु तान् प्रति ॥ ३४६ ॥ इति गुणस्थानेषु पाकप्रकृतयोऽष्टसु १६३२।७६८७६८ १४४०।१२४६।१०५६।१०५६।४८० एता यथास्वमुपयोगगुणाः पदबन्धाः ८१६०|३८४०/४६०८|८६४०|७४८८ | ७३६२।७३६२।३३६० । एते मीलिताः ५०८८० अनिवृत्तौ तथा सूमे पाकप्रकृतयो इताः । सप्तभिश्चोपयोगः स्यादविंशतिस्त्रिभिरन्विताः ॥३४७॥ अत्र पाकप्रकृतयः २६ । सप्तोपयोगहताः २०३ । सर्वेऽप्युपयोगेषु पदबन्धाः प्रमाणतः । सहस्राण्येकपञ्चाशदशीतिश्च विकाधिकाः ॥ ३४८ ॥ ७३१ ५१०८३। लेश्याश्चतुषु पट् पट् स्युस्तिस्रस्तिस्रः शुभाखिषु । गुणस्थानेषु शुक्लैका पट्सु निर्लेश्यमन्तिमम् ॥ ३४९ ॥ ६।६।६।६।३।३|३|१|१|१|१|१|१|०| अम्राटसु गुणस्थाने हृदय विकल्पाः १२/१६६६।११२।१३२ । १२।२६। एतैश्च लेश्यागुणा लेश्यासूयविकल्पाः ११५२।५०६।५७६।११५२।५७६।५७६ । ५७६।१६। तथाऽनिवृत्ति- सूक्ष्मयोरुदयाः १७ शुकुलेश्यागुणाः १७ । सर्वे मीलिताः ५२६७ । त्रिपञ्चाशच्छतान्येवं त्रिभिरूनानि निश्रयात् । उदद्वेषु विकल्पानां स्युश्याः प्रति मोहने || ३५०॥ ५२६७॥ पदबन्धेऽप्यष्टगुणस्थानेषु प्रकृतयः पूर्वोक्ताः १६३२|७६८ ७६८ | १४४० | १२४८|१०५६ | १०५६।४८०। यथास्वं लेश्यागुणाः पद्यन्धाः ३७६२।४६०८४६०८८६४०३७४४।३१६८३१६८४८० सर्वे मीलिताः ३८२०८ तथाऽनिवृत्ति सूक्ष्मयोरुदयप्रकृतयः २४ शुकुलेश्यागुणाः २६ । एते च मीलिताः ३८२३७ । अष्टात्रिंशत्सहस्राणि त्रिशतद्वयम् लेश्यामुद्दिश्य जायन्ते पदबन्धाः प्रमाणतः ॥ ३५१ ॥ ३८२३७॥ मोहे वेदं प्रति उदयविकल्पाः ३७५६ | पदबन्धाश्च २५३६८ | संयमं प्रति उदयविकल्पाः मोहनीयस्य १३७७ । पदवन्याश्र ७३५३ । सम्यक्त्वं प्रति उदद्यविकल्पा मोहस्य २५३० पदवन्याश्र १५४१८ । श्री चित्रकूट वास्तव्य प्राग्वाट वणिजा कृते श्रीपालसुतडन स्फुटार्थे पञ्चसंग्रहे मोहनीयउदयस्थान प्ररूपणा समाप्ता । आधे भेदाखयोऽप्येको द्वौ पंच चतुतः । श्रयोऽतो दश परवारोऽतयो मोहसवगाः ॥३५२॥ इति मोहे सत्तास्थानसंख्या मिध्यादृष्टवादिपशान्तान्तेषु ३।३।२५५५५२१६४३ अष्टसप्तकपट्काद्या विंशतिः प्रथमे ततः। अष्टाम्रा विंशतिस्तस्मात्सैवाष्टकचतुर्युता ॥ ३५३ ॥ मिथ्यारी २८।२७।२६। सासने २८ मिश्र ६८।२४। Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ संस्कृत-पञ्चसंग्रहे ततोऽष्टक चतुविद्वय कामा चैव चतुर्वतः । अपूर्वे विंशतिस्त्वष्टचतुरेकसमन्विताः ॥३५॥ असंयत-देशवत-प्रमत्ताप्रमत्तषु चतुषु २८२४।२३।२२।२१। भपूर्वोपशमके २८१२४२१। अपूर्वे आपके तथाऽष्टचतुरेकामा विंशतिस्तु प्रयोदश । द्वादशैकादशानव पञ्चकं च चतुष्टयम् ॥३५५॥ त्रयो द्वौ चानिवृश्याख्ये सन्स्येव दश 'सत्तया । सूनमेऽप्टचतुरेकामा विंशतिस्त्वेक एव च ॥३५६॥ विंशतिश्चोपशान्तेऽपि स्यादष्टचतुरेकयुक् ! एकादशसु सन्त्येवं सत्तास्थानानि मोहने ॥३५७॥ इत्यनिवृत्त्युपशमके २८।२४।२५। अनिवृत्तिक्षपके च २११३३१२।११५।४।३।२। सूक्ष्मोपशमके २८।२४।२१। सूक्ष्मवपके १। तथोपशान्ते २८।२४।२१ । एवं मोहनीयप्ररूपणा समाप्ता। मिथ्यारष्टवादिसूक्ष्मान्तगुणस्थानेष्वनुक्रमात् । नामाख्यकर्मसम्बन्धि-बन्धादित्रयमुच्यते ॥३५८॥ आधे षड् नव षट चातस्त्रयः सप्तक एव च । मिश्रेऽपि दो त्रयो द्वौ चातस्त्रयोऽष्टौ चतुष्टयम् ॥३५॥ ततो द्वौ द्वौ च चत्वारोऽतो द्वौ पञ्च चतुष्टयम् । चतुष्कैकचतुष्काणि पन्चैकश्च चतुष्टयम् ॥३६०॥ द्वयोरेकस्तथैकोऽष्टौ शान्ते न पाक-सत्त्वयोः । एकस्तथा चतुष्कं च जीणेऽप्येकचतुष्टयम् ॥३६॥ सयोगे द्वौ चतुष्कं च नियोंगे द्वौ च षट् तथा । बन्धनोदयसत्तांशाः सन्ति नाम्नो गुणेष्विति ॥३६२॥ मिथ्यारष्यादिषु दशसु ६, ६,६ । ३, ७,१।२, ३, २ । ३,८, ४ । २, २, ४ । २, ५, ४ । ४, १, ५ । ५, १, ४ । १, १,८ । १,१:८ । भबन्धकेषूपशान्तादिषु ०,१, ४ । ०,१, ४ । ०, २, ४ । ०, २, ६ । मिथ्यादृष्टौ षडाद्यानि बन्धे पाके नवादितः । विना त्रिनवति सत्त्वे स्थानान्याधानि नाम्नि षट् ॥३६३॥ बन्धे २३।२५।२६।२८।२६।३०। उदये २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६॥३०॥३१॥ सरवे १२१६१1601 ८८८४१८२। नवाष्टदशयुग्बन्धे विंशतिः सह चोदया: । स्युव्य॑ष्टाग्रसप्ताग्रे विंशती नवतिः सती ॥३६४॥ सासने बन्धाः २८।२१।३०। उदया: २१॥२४॥२५२६२४३०॥३१ । तीर्थकराऽऽहारद्वयसत्कर्मा सासनगुणं न प्रतिपद्यत इति सासने सत्त्वे १० ! मिश्रेऽष्टनवयुग्बन्धे दशैकादशयुक् तथा। नवाग्रातिशतिः पाके नवतिः सा द्वियुक्सती ॥३६५।। सम्यग्मिथ्यादृष्टौ बन्धे २८।२६ । उदये २६।३०।३१ । तीर्थकृत्सत्कर्मा मिश्रगुणं न प्रतिपद्यत इति तस्य व्येकनवती न सत्यौ, शेषे सत्यौ १२।१०। नवाष्टदशयुग्बन्धे विंशतिश्चादितोऽयते । द्वितीयोनानि पाकेऽष्ट सत्वे चाधं चतुष्टयम् ॥३६६॥ असंयते बन्धाः २८।२६।३०। उदया: २११२५२६।२७/२८।२६।३०।३१ । सत्वे ६३।१२। 891801 बन्धे तु विंशती देशे नवाष्टाने तथोदये । एकत्रिंशत्तथा त्रिंशत्सत्त्वे चाचं चतुष्टयम् ॥३६७॥ देशयतेः बन्धे २८०२६ । उदये ३०।३१ । सस्ते १३।१२।११।१० । बन्धे नवाष्टयुकपाके नव सप्ताष्टपञ्चयुक । विंशतिदशयुक्ताचं प्रमत्ते सच्चतुष्टयम् ॥३६८॥ . प्रमत्ते बन्धे २८।२६। उदये २।२७।२८।२६।३० सम्वे १३१९२।११।। नवाष्टका दशाना तु दशामा चैकविंशतिः । बन्धे त्रिंशत्तथा पाके साये तान्यप्रमत्तके ||३६६॥ अप्रमत्ते बन्धाः २८।२६।३०।३१ । उदये ३० । सत्वे १३११२।११६० । समके आपकेऽपूर्वे बन्धेऽयं स्थानपञ्चकम् । उदये तु भवेत्रिंशत्सत्वे चाधं चतुष्टयम् ॥३७०॥ इत्यपूर्व बन्धे २८।२६।३०।३।१ । उदये ३० । सत्त्वे ६३।१२।११1० । १. सत्तया दशस्थानानि इमानि । २. शान्तादिषु रन्धो न । ३. चतुर्विशत्यूनानि । Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः ७३३ सप्तांशे चरमेऽपूर्वोऽनिवृत्तिः सुचम एव च । बध्नन्स्येकं यशः शेषाश्चत्वारः सन्त्यबन्धकाः ॥३७॥ १1१1१10101010। अपूर्वादित्रये शान्ते क्षीणे त्रिंशदथोदये । त्रिंशत्सा चैकयुग्योगिन्ययोगाख्ये नवाष्ट च ॥३७२॥ इत्युदयेऽपूर्वादिषु पञ्चसु ३०॥३०॥३०॥३०॥३० । सयोगे ३०।३१ । अयोगे ।। त्रिपशमकेषूपशान्ते चाद्यं चतुष्टयम् । सपकेष्वप्यपूर्वे सदनिवृत्तौ च सद्भवेत् ॥३७३॥ षोडशप्रकृतीनां तु यावन्न कुरुते क्षयम् । क्षपितास्वनिवृत्तौ सदशीत्यादिचतुष्टयम् ॥३७४॥ सूचमादिष्वयोगे च यावद्विचरमक्षणम् । चरमे समयेऽयोगे सत्त्वे दश नवापि च ॥३७५|| इत्युपशमश्रेण्यामपूर्वादिषु चतुर्यु आपकेषु चापूर्वेऽनिवृत्तिप्रथमनवांशे च सत्त्वे १३।९२।११।१०। अनिवृत्तिक्षपकशेषनवांशेषु चाष्टसु सूचम-क्षीण-सयोगेषु निर्योगस्य च द्विचरमसमथं यावत् सत्त्वे ८०७६: ७८७७ । चरमसमषे चायोगे १०६ । एवं नामप्ररूपणा समाप्ता । द्विषडष्टचतुःसंख्या बन्धाः स्युनरकादिषु । पाकाः पञ्च नवातोऽतो दश पञ्चाथ सत्तया ॥३७६॥ स्थानानि त्रीण्यतः पञ्च द्वादशातश्चतुष्टयम् । त्रिंशदेकोनिता सा च बन्धे श्वाभ्रेष्वथोदये ॥३७७ ॥ नरक० तिर्य० मनु० देव. उ. स० ३ ५ १२४ एकपम्पकसप्ताग्राष्टनवाग्रा च विंशतिः । स्थानान्यपि त्रीणि द्वानवत्यादिकानि हि ॥३७॥ नरकगतौ बन्धे २९।३०। उदये २१।२५।२७।२८।२६ । तीर्थकरयुक्ताहारद्वयसत्कर्मा नरके नोत्पद्यत इति बिनवतिं विना सत्त्वे १२।११।१०। तिर्यच्वाधानि पट बन्धे नवाद्यान्युदये सती । नवतिर्हृियुता सा चाशीतिश्चाष्टचतुर्द्वियुक् ॥३७६॥ तिर्यग्गतौ बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६।३०। उदये २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३।। तीर्थकृत्सत्कर्मा तिर्यक्षु नोत्पद्यत इति तेन विना सत्त्वे १२00८८।८४२ । सर्वे बन्धा मनुष्येषु चतुर्विंशतिवर्जिताः । सर्वे पाका विनाद्यप्राशीतिं सर्वाणि सत्तया ॥३८०।। मनुष्यगतौ बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१.१ उदयाः २१२५।२६।२७।२८।२६।३०॥३१॥ है।८। सत्त्वानि १३।१२।११।१०11८1८1८1७४।७८७७।१०।। पञ्च-पड-नवयुग्बन्धे दशयुक्तापि विंशतिः । पाके नवाटसप्तामा पञ्चकाया व विंशतिः ॥३८॥ सत्त्वे चाद्यं चतुष्कं तु देवानां स्याद् गताविति । तान्येवातः परं वक्ष्ये हृषीकविषये यथा ॥३२॥ देवगतौ तु बन्धाः २५।२६।२६।३०। उदयाः २१।२५।२७।२८।२६। सत्त्वानि ६३।१२।१1601 एकाक्षविकलाक्षे च पञ्चाक्षे च यथाक्रमम् । पञ्च पञ्चाष्ट बन्धे स्युः पञ्च षड़ दश चोदये ॥३८३॥ क्रमास्थानानि सत्तायां पञ्च पञ्च त्रयोदश । एकाक्षेषु त्रि-पञ्चाग्रा षड् नवाग्रा दशाधिका ॥३८४॥ बन्धे स्यादिशतिः पाके पन्चाद्यान्यथ सत्तया । नवतिद्विंयुता सा चाशीतिश्चाष्टचतुर्दियुक् ॥३८५॥ ए० वि० पं. एक-विकल-पञ्चाक्षेषु बन्धादयः ५ ५ ८ ur ५ १३ एकाक्षेषु बन्धाः २३।२५।२६।२६।३०। उदयाः २११२४२५।२६।२७। सत्त्वे १२0801041815२। सन्त्येकेन्द्रियवबन्धा विकलाक्षेष्वपि त्रिषु । तथैकेन्द्रियवत्सत्तास्थानान्यपि भवन्ति हि ॥३८६॥ एकत्रिंशत्तथा त्रिंशदेकान्नत्रिंशदप्यतः । एकषटकाष्टकैर्युक्ता विंशतिः स्वस्ति पाकतः ॥३८७॥ विकलेन्द्रियेषु बन्धाः २३।२५।२६।२६।३०। उदया: २११२६२८।२६।३०।३१। सत्त्वानि १२1801051 ८४१८२ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रह बन्धाः सर्वेपि पञ्चाक्षे सर्वस्थानानि सत्वतः । चतुर्विशतिहीनाः स्युः पाकाः सर्वेऽपि नामनि ॥३८८॥ पञ्चाक्षे बन्धाः २३१२५।२६।२८।२१।३०॥३१.१ उदयाः २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।। सत्त्वानि १३१२१0८८1८11८1७६७८७७।१०।। गत्यादिमार्गणास्वेवं सत्संख्यादिषु चाष्टसु । नाम्नोऽन्येषां च बन्धादिवयं नेयं यथागमम् ॥३८९॥ स्थावराणां सानां च ५ १० स्थावराणां बन्धाः २३१२५।२६।२६।३०। उदया:२१॥२४॥२५॥ २६।२७। सत्तास्थानानि १२९०1८८1८४८२ त्रसेषु बन्धाः २३१२५।२६।२८/२६॥३०॥३१११। उदया: २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।३।। सत्त्वानि ६३।१२।११18011८1८४८२।८०1७६७८७७।१०।। योगेषु बन्धादयः-३ ७ ५ ३ १ ३ १ ३। मनोवाग्योगे बन्धाः २३। २५।२६।२८।२६।३०।३१। उदयाः २६।३०।२१। सत्त्वानि १३११२१११1801८८1८४८०1७६७८७७। औदार्य बन्धाः २३१२५।२६।२८।२६।३०।३१1१1 उदया: २५/२६।२७।२८।२६।३०।३। सत्त्वे ६३।१२। ११1१०1८८८४८1८०७१।७८१७७। औदारिकमिश्रे बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६।३०। उदयाः २४) २६।२७॥३०॥३१॥ सत्त्वे ६३।१२।११:01८८1८४८२।८०1७६७८७७। वैक्रियिके बन्धाः २५।२६।२६। ३०। उदयाः २७२८।२९। सत्त्वे १२।१२।११।१० वैक्रियिकमिश्रे बन्धाः २५।२६।२६।३०। उदये २५ । सत्त्वे १३१६1811001 आहारके बन्धौ २८।२६। उदयाः २७१२८ार। सत्त्वे १३।१२। आहारकमिश्रे बन्धौ २८।२३। उदये २५। सत्त्वे ३१२। कार्मणे बन्धाः २३।२५।२६।२८।२।३०। उदयाः २१३०१३९। सत्त्वे १३।१२।११18011८1८४१२८०1७६७८७७ । स्त्रीवेदे बन्धादयः । नीवेदे बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६॥३०॥३१111 उदये २२५/२६।२७। २८।२१।३०।३१। सत्त्वे ३३२३२1691801८EERIE01७६७७ पुंवेदे बन्धादयः ८। पुवेदे बन्धाः १० २३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।। उदये २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। सत्वे ६३।१२।११1801८८ ८४८२८०1७६७८७७) नपुंसकवेदे बन्धादयः है । बन्धे २३१२५।२६।२८।२६।३०।३१।। उदये २१॥ २४॥२५२६।२७।२८।२६।३०।३१। सत्त्वे ६३९२११1801051८४२१८०1७६७७ । क्रोधादिचतुष्के बन्धादयः । क्रोधादिचतुष्के बन्धाः २३१२५।२६।२८।२६।३०।३१।१। उदया: २११२४।२५।२६।२७१२८।२६।३०।३१। सत्त्वे ६३-६२-६१1801८८८४८1८1७६७८७७ । ज्ञाने बन्धादयः १ ३ १ ४ ।मति-श्रुताज्ञानयोर्बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६। ३०। उदये २१॥२४॥२५।२६।२७।२८।२१।३०।३१। सत्वे १२091801८८२ विभङ्ग बन्धाः २३॥ २५।२६।२८।२।३०। उदयाः २६॥३०॥३११ सत्वे १२११। मतिश्रुतावधिषु बन्धाः २८।२६।३०।३।। उदयाः २१०२५।२६।२८।२६।३०।३१। सन्वे ६३।१२0891801201७६७८७७) मनःपर्यये बन्धाः २८। २६।३०।३१।१। उदये ३० सत्वे १३.6781601001081७८1७७। केवले बन्धो नास्ति । उदयाः ३०॥ ३१।। सत्त्वे ८०1७६१७८१७७१2018। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः ७३५ सामयिक-छेदोपस्थापनयोर्बन्धादयः ५ । सामायिकच्छेदोपस्थापनयोबन्धाः २८।२६।३०।३१। १। उदये २५।२७।२८।२६।३०। सत्वे १३।१२।११।६०८०७६१७८१७७। परिहारे बन्धादयः १ । बन्धाः २८।२६।३०।३१। उदये ३०। सत्तायां ६३।१२।११।१०। सूक्ष्मसंयमे बन्धादयः १ । बन्धः १ उदये ३० । सत्त्वे १३१६२।११।१०।८०1७४।७८७७। यथाख्याते बन्धो नास्ति । उदयादयः ४ । उदयाः ३०॥ ३१18।। सत्त्वे १३।१२।११1801201७६७७७1१018 संयमासंयमे बन्धौ २-२८।२६। उदये २३०३१। सत्त्वे ४-१३।१२।११।१० असंयमे बन्धे ६-२३१२५।२६।२८।२६।३०। उदयं -- २१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। असंयमे सत्वे ७-६३।१२।११।६०1८11८२। चक्षुर्दर्शने बन्धाः -२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।९। उदये ८-२१॥२५।२६।२८।२६।३०।३१।१। सत्त्वेषु दश-नववजेशेषेकादश ११-१३।१२।११1१०1८८८४१८२८०1७६७८७७। अचक्षुदशने बन्धाः ८-२३।२५।२६।२८।२६।३०।३१।।। उदयाः ९-२१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१। सत्त्वे १११३।१२।११18011८1८४८२८०1७६७८७७। अवधि केवलदर्शनयोरवधि-केवलज्ञानवत् । षट् सु ते ५० लेश्यापट के बन्धादयः anm प्रथमलेश्यावचे बन्धाः २३।२५।२६।२८।२६।३०। उदये २०२४।२५।२६।२७:२८।२६॥३०॥३१॥ सत्वे ६३।१२।११।१०।८८८१२तेजसि बन्धाः २५/२६।२८।२६।३०।३१। उदये २१।२५।२६॥२७॥ २८१२६।३०।३१ । सत्वे १३११२।११।१०। पमायां बन्धाः २८।२६।३०।३१ । उदये सत्त्वे च तेजोलेश्यावत् । शुक्लायां बन्धे २८।२६।३०।३१। उदये २१०२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सत्त्वे १३१२१११॥ 2015०७१।७८७७ । निलेश्ये उदये २-१।८ । सत्त्वे ६--८०1७६७८७७।११। भव्ये बन्धाः ८-२३।२५।२६।२८।२६।३०।। १1१। उदयाः ११-२१२४।२५।२६।२७।२८। २६।३०।३१।६।८। सत्वे १३-१३।१२।११8०1८11८1८२१८०1७६७८७७1१०18 । अभव्ये बन्धाः ६-२३१२५।२६।२८।२६।३० । उदये -२१॥२४॥२५२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सत्त्वे ४-१०1८८ ८४८२ । औपशमिकसम्यक्त्वे बन्धाः ५-२८।२६।३०।३१।। उदये ५-२११२५।२६।३०।३१ । सत्त्वे ४-१३।१२।११।१० । वेदके बन्धाः ४-२८।२६।३०।३१ । उदये ८-२११२५।२६।२७।२८।२६।३०॥ ३१ । वेदकसत्त्वे ४-६३।१२।११।१०। क्षायिके बन्धाः ५-२८।२६।३०।३१।१ । उदया: १०-२१॥ २५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।१।८। सत्वे १०-१३।१२।११18015०1७६७८७७।१०। । सासने बन्धाः ३-२८।२६।३० । उदये ७-२१॥२४॥२५॥२६॥२६३०॥३१ । सत्त्वे १-१०। मिश्रे बन्धाः २२८।२६ । उदये ३-२६।३०।३१। सत्त्वे २-१२।१० । वाम ग्बन्धाः ६-२३।२५।२६।२८।२६।३० । उदया: १-२१।२४।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । सत्त्वे ६--६२।११।१०।८८८४[८२।] संज्ञिषु बन्धाः८-२३१२५।२६।२८।२६।३०॥३१1१। उदया: ८-२१२५।२६।२७।२८।२६।३०। ३१ । सत्त्वानि १५-१३१२।११1801८EE81521८०1७६७८७७ । असंज्ञिषु बन्धाः ६-२३॥२५॥ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-पञ्चसंग्रह २६।२८।२६।३० । उदया: ६-२१।२६।२८।२६॥३०॥३१ । सत्त्वे ५-१२।०1८11८४२। नो संज्ञी नो असंज्ञी, तत्र उदयाः ४-३०॥३१11८ । सत्त्वे ६.-८०७६७८७७।१०। । आहारके बन्धाः ८-२३।२५२६।२८।२६।३०।३१।१। उदया:८-२४।२५।२६।२७।२८।२।। ३०।३१ । सत्त्वे ११-१३818118011८1८४८1८1७४।७८.७७ । अनाहारे बन्धाः ६-२३॥२५ २६।२८।२६।३० । उदये ५-२१।३०।३१।९।८ । सत्त्वे १३--१३।१२।११18011८1८४१८८०७३। ७८७७1१०1 मिथ्यात्वं श्वभ्रदेवायुद्धयमायुम्तिरश्च्यापि । सातासाते नरायूंषि स्त्यानगृद्धित्रिकं च पट ॥३०॥ सम्यक्त्वं वेदलोभोऽन्यो निद्रा च प्रचलायुता । पञ्चज्ञानावृती ग्रध-चतुष्कं विघ्नपञ्चकम् ॥३६१॥ षोडश त्रस-पञ्चाक्षे नृगतिः सुभगं यशः । पर्याप्तनादरादेयतीर्थकृत्वोच्चयुग्मदश ॥३६२॥ मिश्रसासादनापूर्वोपशान्तगतयोगकान् । मुक्त्वाऽन्येषु विशेषः स्यादासां मिथ्यागादिषु ॥३१३॥ ११०।०२।१६।१०।३।११०५६।१०१०। मीलिताः ४१॥ चत्वारिंशतमेकानां नुक्त्वनां सर्वकर्मणाम् । स्वाम्यं प्रति विशेषोऽस्ति नोदयोदोरणास्ततः ॥३४॥ '। अपूर्वे ५८ ५६ विना तीर्थकराहारं शतं सप्तदशाधिकम् । मिथ्याहक शतमेकाग्रं प्रकृती: सासनाभिधः ॥३६५॥ मिश्रायतौ तु बधनीतश्चतुःसप्ताग्रसप्तती । पञ्चमः सप्तपष्टिं तु षष्ठः षष्टि निकाधिकाम् ॥३६६॥ अप्रमत्तस्तथैकाचषष्टि चापूर्वसंज्ञिकः । पञ्चाशदष्टषटकाना विंशतिः षड्युतेत्यम्ः ॥३७॥ यावदष्टादशैकैकहीनां द्वाविंशतिं क्रमात् । अनिवृत्तिस्तु बध्नाति सूचमः सप्तदशैव तु ॥३९८॥ प्रशान्तक्षीणमोहौ तु मतौ सातस्य बन्धकौ । सातं बध्नाति योगी च गतयोगस्वबन्धकः ॥३६६॥ [ मिथ्यागादिसप्तस ११७ १०१ ७४ ७७ ६७ ६३ ५६ L J १६ २५ . १०४ ६ १ १ २ ३० २६ ४। अनिवृत्तौ २२ " २०१६ १८ सूचमादिषु १. . . . . । अतः प्रभृति बन्धस्य स्वाम्यं गस्यादिषु म्फुटम् । उद्यतः साधयेद्यत्र यथाप्रकृतिसम्भवम् ॥४०॥ श्वभ्रदेवायुपी तीर्थकरतेति गतित्रये । सन्ति प्रकृतयः शेषाः सर्वा गतिचतुष्टये ॥४०१॥ श्वभ्रायुर्नास्ति देवेषु देवायु रकेषु न । तिर्यक्षु तीर्थक्षास्ति सन्स्यन्याः सर्वरीतिषु ॥४०२॥ आदिमं तु कषायाणां चतुष्कं दर्शनत्रयम् । प्रशान्तमबतायावदपूर्व मोहने विदुः॥४०३॥ षण्वस्त्रीनोकषायाः पुवेदो द्वौ द्वौ क्रुधादिषु । एकैकोऽतश्च संज्वाल उपशान्ता यथाक्रमम् ॥४०४॥ । उक्तं चशक्यं यनोदये दातुमुपशान्तं तदुच्यते । सङ्क्रमोदययोर्यच नो शक्यं निवर्तकम् [तनिधत्तकम् ]॥४०५॥ यत्सङक्रमोदयोकर्षाप्रकर्पेषु चतुष्वपि । दातुन शक्यते कर्म भवेत्तच्च निकाचितम् ॥४०६॥ [ अनिवृत्ती] ७।११।६।१२।२।२।२।११। सूचमे । उपशान्ते । एते मीलिताः सप्तभिः सह २८। एता एव समुदिता आहउपशान्तास्तु सप्ताष्ट नव पञ्चदश क्रमात् । पोडशाष्टादशातोऽपि विंशतिवियुक च सा ॥४०॥ चतुः पञ्चकषटकामा विंशतिश्चानिवृत्तके । सप्तामा विशतिः सू चमे शान्तेऽष्टाग्रा च विंशतिः ॥४०८॥ अनिवृत्तौ ७।८।।१५।१६।१८।२०।२२।२४।२५।२६। सूचमे २७ । उपशान्ते २८ । चतुर्ष संयतायेषु काप्यनन्तानुबन्धितः । मिथ्यात्वं मिश्र-सम्यक्त्वे सप्त यान्ति क्षयं कमात् ॥४०॥ स्त्यानगृद्धिवयं श्वभ्रं द्विकं तिर्यग्द्वयं तथा । एकाक्षविकलाक्षाणां जातयः स्थावरातपौ ॥४१०॥ १. मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्वमिति त्रयम् । Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिकाख्यः पञ्चमः संग्रहः सूचमसाधारणोद्योताः षोडशेत्यनिवृत्तिके । स्युः संख्येयतमे शेषे क्षयभाजस्ततश्च सः ॥४११॥ अत्र तिर्यग्यादयः तिर्यग्गतिसहगताः ११ | श्वभ्रद्वयादयः श्वभ्रगतिसह गताः ५ । कषायान्माध्यमानष्टौ हन्त्यतोऽपि नपुंसकम् । स्त्रीवेदं च ततो हन्ति षट्कं हास्यादिकं ततः ॥४१२॥ पुंस्त्वे प्रक्षिप्य पुंस्त्वं च क्रोधे माने च तं पुनः । मायायां तं च तां लोभे लोभं सूक्ष्मो निहन्यतः ॥४१३ ॥ द्वे निद्रा प्रचले क्षीणः समये हन्त्युपान्तिमे । इक्चतुष्कमथो विघ्न- ज्ञानावृत्योर्दशान्तिमे ॥ ४१४ ॥ २|१४| देवगत्या नृगत्या च सहितो हन्त्ययोगकः । जीवेतरविपाकाह्वा नीचं चोपान्तिमे क्षणे ॥ ४१५॥ अत्र सर्वाः ७२ । जीवपाकाः स्वरद्वन्द्वमुच्छ्रासो द्वे नभोगती । वेद्यमेकमनादेयायशोऽपर्याप्त दुर्भगम् ॥४१६ ॥ स्युः पुद्गलोदयाः पञ्च देहास्तद्बन्धनानि च । तत्संघातास्ततः षट् संस्थानान्यशुभं शुभम् ॥ ४१७ ॥ अङ्गोपाङ्गत्रयं चाष्टौ स्पर्शाः संहननानि षट् । पन्च वर्णा रसाः पञ्च गन्धौ निर्मित्स्थिरद्वयम् ॥ ४१८॥ उपघातोऽन्यघातश्च प्रत्येकागुरुलध्वपि । देवगत्या सहैतासु देवद्वन्द्वं च नीचकम् ॥ ४१॥ एवं द्वासप्ततिः क्षीणाः समये स्यादुपान्तिमे । अन्ते स्वन्यतरद्वेद्यं नरायुर्नृ द्वयं त्रसम् ॥४२०॥ सुभगादेयपर्याप्तपञ्चाक्षोश्चयशांसि च । बादरं तीर्थंकृच्चे. त यस्यायोगः स वंद्यते ॥४२१॥ ७२ ।१३। प्राप्तोऽथ स जगत्प्रान्तं निर्विशत्यात्मसम्भवम् । रत्नत्रयफलं नित्यं सिद्धिसौख्यं निरञ्जनम् ॥४२२ ॥ दुरध्येयातिगम्भीरं महार्थाद् दृष्टिवादतः । कर्मणामनुसर्तव्याः सम्ति बन्धोदयाः स्फुटम् ॥४२३॥ म्वल्पागमतया किञ्चिद्यदपूर्णमिहोदितम् । कृत्वा तदतिसम्पूर्ण कथयन्तु बहुश्रुताः ॥४२४॥ संक्षिप्योक्तमिदं कर्मप्रकृतिप्राभृतं सदा । अभ्यसन् पुरुषो वेत्ति स्वरूपं बन्ध-मोक्षयोः ॥ ४२५ ॥ अष्टकर्मभिदः शीतीभूता नित्या निरञ्जनाः । लोकाप्रवासिनः सिद्धा जयन्त्वष्टगुणान्विताः ॥४२६॥ उक्तं च जीवस्थान- गुणस्थान-मार्गेणास्थान तस्ववित् । तपोनिर्जीर्णकर्मात्मा विमुक्तः सुखमृच्छति ॥ ४२७ ॥ श्री चित्रकूट वास्तव्य प्राग्वाटवणिजा कृते । श्रीपालसुतडड्ढेन स्फुटार्थः पञ्चसंग्रहे ॥ ४२८ ॥ इति सप्ततिः समाप्ता । १. एता जीवविपाकाः १० । ३ ७३७ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-चूलिका अभिवन्ध जिनं वीरं त्रिदशेन्द्रनमस्कृतम् । बन्धस्वामित्वमोघेन विशेषेण च वर्ण्यते ॥१॥ शते सप्तदशैकाग्रे चतुः सप्ताग्रसप्तती । सप्तषष्टिं त्रिषष्टि चैकानषष्टिंमथादिमा ॥२॥ बध्नन्स्यपूर्वाख्याः षष्टिं द्विचतुरूनिताम् । षडर्दिशति सणान्त्ये चानिवृत्तिः प्रकृतीः क्रमात् ॥३॥ द्वय कानविंशती तां च ते चैवैकद्विरिक्तते । सूचमः सप्तदशान्येऽतस्त्रयः सातं न तत्परः ॥४॥ श्रवन्धा मिश्रसम्यक्त्वे बन्ध-संघातका दश । स्पर्श सप्त तथैकश्च गन्धेऽष्टौ रस-वर्णयोः ॥५॥ इत्यबन्धप्रकृतयः २८ । शेषा बन्धप्रकृतयः १२० । सम्यक्त्वं तीर्थकृत्वस्याहारयुग्मस्य संयमः । बन्धहेतुः प्रवध्यन्ते शेषा मिथ्यादिहेतुभिः ॥६॥ इति मिथ्यादृष्टौ १६ । सासने २५ । नरसुरायुभ्यां विना मित्रे । तीर्थकर नर-सुरायुभिः सहासंयते ." । देशे ६ । प्रमत्ते ६३ । माहारद्वयेन सहाप्रमत्ते । अपूर्वे सप्तसु भागेषु २५ . . . ३० ४ ..... . . . भनिवृत्तौ पञ्चसु भागेषु . . , ५६ ५६ ५६ ५६ २६ , सूक्ष्मादिषु मिथ्यात्वं षण्ढवेदश्च श्वभ्रायुर्निरयद्वयम् । चतस्रो जातयश्चाद्या: सूधमं साधारणतपौ ॥७॥ अपर्याप्तमसम्प्राप्त स्थावरं हुण्डमेव च । षोडशेति स मिथ्यात्वे विच्छिद्यन्ते हि बन्धतः ॥८॥ स्त्यानगृद्धित्रयं तिर्यगायुरायाः कषायकाः । तिर्यग्द्वयमनादेयं स्त्री नीचोद्योतदुःस्वराः ॥३॥ संस्थानस्याथ संहत्याश्चतुष्के द्वे तु मध्यमे । दुर्भगासमभोरीती सासने पञ्चविंशतिः ॥१०॥ इत्युत्तरत्रापि पञ्चविंशतिग्रहणेनैता एव ग्राद्याः । २५। चतस्रो जातिकाः सूचमापर्याप्तस्थावरातपान् । साधारणं सुरश्वभ्रायुष्के श्वभ्रसुरद्वये ॥११॥ विक्रियाहारकद्वन्द्व मुक्त्वाऽन्यच्छतमेकयुक् । श्वाभा बन्धन्ति ता मिथ्याशस्तीर्थंकरं विना ॥१२॥ हुण्डासम्प्राप्त मिथ्यास्वषण्ढोनास्त्यासु सासनः । त्यक्त्वैताभ्यो मनुष्यायुरोधोक्तां पञ्चविंशतिम् ॥१३॥ शेषा मिश्रोऽयतस्तासु नरायुस्तीर्थकृधुताः । इति वभ्रनिकेऽस्त्याचे विना तीर्थकृतापरे ॥१४॥ इति सामान्येन नारकेषु । मिथ्याष्टौ १९ । सासने ३६ । मिश्रे ५। असंयते २५ । इति त्रिषु नरकेष । अनन्तरेषु च त्रिवेता एव तीर्थकरोनाः सामान्येन । मिथ्याधीश म M सासने ६६ । मिश्रे ५ । असंयते । शतं च सप्तमे श्वभ्रे बध्नन्न्यून नरायुषा । ता मनुष्यद्वयोचोना बध्नन्ति वामदृष्टयः ॥१५॥ हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्वतिर्यगायुनपुंसकम् । त्यस्वैकनवति शेषास्ताभ्यो बध्नन्ति सासनाः ॥१६॥ तिर्यगायुर्विना पञ्चविंशतिं सासनोज्झिताम् । स्यवस्वा मिश्रायती तिप्वा नृहयोच्चे तु सप्ततिम् ॥१७॥ . इति चतुर्थपृथिवीप्रकृतिशतं नरायुरूनं सप्तमे नरके सामान्येन है । मिथ्यादृष्टौ १६ । सासने ११ । मिश्रे ७० । असंयते ७० । एवं नरकगतिः समाता | १. सातं न बध्नाति अयोगकः ।। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-चूलिका तिर्यञ्चः प्रकृतीस्तीर्थकराऽऽहारद्वयोनिताः । मिथ्याशश्च तास्तासु सासनाः षोडशोनिताः ॥८॥ सामान्येन तिर्यञ्चः ११७ । पर्याप्ततिर्यञ्चस्तिरश्च्यश्च मिथ्यादृशः ११७ । सासनाः १९.। पञ्चविंशतिमोघोक्तां नृद्वयं नृसुरायुषाम् । औदार्यद्वन्द्वमाद्य च त्यक्त्वा संहननं तथा ॥१६॥ एताभ्योऽन्यासु मिश्राह्वा बभनन्त्येकानसप्ततिम् । बध्नन्त्यसंयताभिख्याः संयुक्तास्ताः सुरायुषा ॥२०॥ मिश्रायतौ ६६, ७० ५१ । ५. हीना द्वितीयकोपाद्यस्ताश्च बध्नन्स्यणुवताः । एवं पञ्चाक्षपर्याप्तास्तिर्यञ्चस्तस्त्रियोऽपि च ॥२१॥ संयतासंयताः ६६ । स्वौधादपूर्णतिर्यञ्चस्त्यक्त्वाश्वभ्र-सुरायुषी । तथा वैक्रियषटकं च बध्नन्ति नवयुक्छतम् ॥२२॥ एवं तिर्यग्गतिः समाप्ता। तिर्यग्वत्प्रकृतीमाः पञ्च मिथ्यागादयः । बध्नन्त्ययनदेशाख्यौ तेषु तीर्थकराधिकाः ॥२३॥ अपर्याप्तमनुष्याश्च तिर्यग्वन्नवयुच्छतम् । बध्नन्त्यतः प्रमत्ताधाःप्रकृतीरोघसम्भवा ॥२४॥ इति सामान्यमनुष्याः १०१ । पर्याप्तमनुष्या मानुष्यश्च मिथ्यादृष्टयाद्याः पञ्च ११७११०११६६७१ ६७ । प्रमसाद्याः सप्त ६३३५६५८५६।२६।२२।१७।१।१1१10 । अपर्याप्तमनुष्याः १०१ । इति मनुष्यगतिः समाप्ता। सूक्ष्मं साधारणाहारद्वये श्वाभ्र-सुरायुषी । षटकं वैक्रियिकाल चापर्याप्त विकलत्रयम् ॥२५॥ मुक्त्वाऽन्याः प्रकृतीदेवाश्चतुर्युक्तशतप्रमा। बध्नन्ति तीर्थकृत्वोना मिथ्याहक त्र्युत्तरं शतम् ॥२६॥ हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्वस्थावरैकेन्द्रियातपान् । षण्ठं चाभ्योऽपि मुक्वान्या वश्नन्ति सासनाभिधाः ॥२७॥ इति सामान्यदेवा १०४ । मिथ्यादृष्टिः १०३ । सासने १६ । त्यक्त्वैताभ्यो मनुष्यायुरोधोक्तां पञ्चविंशतिम् । शेषा मिश्रोऽयतस्तास्तु नरायुस्तीर्थकृद्युताः ॥२८॥ मिश्रे ७० । असंयता ७२। बध्नन्ति वामदृष्टयाश्चत्वारोऽसंयतान्तिमाः । देवौघं तीर्थकृत्वोनं ज्योतिय॑न्तरभावनाः ॥२६॥ देवा देव्यश्च देव्यश्च सौधर्मसानसम्भदाः । सामान्यदेवभङ्गास्तु सौधर्मेश्चनकल्पयोः ॥३०॥ इति भावनादिषु त्रिषु तद्देवीषु च सोधर्मशानदेवीषु च सामान्येन १०३ । मिथ्यागादिषु १०३ । १६७०।७१। सोधर्मेशानयोः सामान्येन १०४ । मिथ्यागादिषु १०३।१६१७०७२। त्यक्त्वा बध्नन्ति देवौघादेकाक्षस्थावरातपान् । शेषाः सनत्कुमाराद्याः सहस्रारान्तिमाः सुराः ॥३१॥ सामान्येन १०१॥ मिथ्याहक तीर्थकृत्वोनास्ता बध्नाति शतप्रमाः । हण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्वषण्ढोनास्तास्तु सासनः ॥३२॥ १००।१६। त्यक्त्वाऽऽभ्योऽपि मनुष्यायुरोधोक्तां पञ्चविंशतिम् । शेषा मिश्रोऽयतस्तास्तु नरायुस्तीर्थकृद्युताः ॥३३॥ ७०७२। तियद्वयातपोद्योतस्थावरकाक्षमोघतः । देवानां तिर्यगायुश्च त्यक्त्वाऽन्याश्चानतादिषु ॥३४॥ अन्त्यप्रैवेयकान्तेषु तीर्थोना वामहक् च ताः । हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्वषण्ढोनास्तासु सासनाः ॥३५॥ इत्यानतादिषु सामान्येन १७ । तीर्थोना मिथ्यादृशः १६ । सासनाः १२ । त्यक्त्वेताभ्यो मनुष्यायरोघोक्तां पञ्चविंशतिम् । मिश्रास्तिर्यग्द्वयोद्योततिर्यगायुभिरूनिताम् ॥३६॥ मिश्राः ७०। बध्नन्त्येता मनुष्यायुस्तीर्थकृत्संयुजोऽयताः । एता एव च बध्नन्ति सर्वेऽप्युपरिमाः सुराः ॥३७॥ असंयताः ७२ । एता एवानुदिशप्रभृति यावत् सर्वार्थसिद्धिदेवाः ७२ । एवं देवगतिः समाप्ता । Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० संस्कृत-पञ्चसंग्रहे मुक्त्वा वैक्रियिकषटकतीर्थे श्वभ्र-सुरायुषी । आहारकद्वयं बध्नन्त्येकासविकलेन्द्रियाः ॥३८॥ श्वभ्रायुः श्वभ्रयुग्मोनास्त्यक्त्वौधोक्तास्तु षोडश । ताभ्योऽन्याः सासना बध्नन्त्याय पञ्चेन्द्रियाभिधाः ॥३६॥ एकाक्षविकलेन्द्रियाः सामान्येन 10 । मिथ्याशः । । सासना: १६ । पञ्चाक्षाः १२० । १.8 . ११ । मिक एकाक्ष-विकलाक्षेषु समुस्पमस्तु सासनः । न शरीरेऽपि पर्याप्ति समापयति यत्ततः ॥४०॥ नरायुस्तियंगायुश्च नैव बध्नात्यसो ततः । ताभ्यां विनाऽस्य बन्धे स्याच्चतुर्नवतिरेव हि ॥४१॥ इति केषाञ्चित् १४॥ इतीन्द्रियमार्गणा समाप्ता। एकाचवच्च बध्नन्ति पृथिव्यप्तरुकायिकाः । मिथ्याशस्तथैकाक्षसासनैः सासनाः समम् ॥४२॥ त्रिषु कायेषु मिथ्यादृष्टयो १०६ । सासने १६ । अथवा १४ । मनुष्यायुर्नरद्वन्द्वमुच्चं तेजोऽनिलाङ्गिनाम् । त्यक्त्वकाक्षौधतः शेषाः बध्नन्त्योघं साङ्गिनः ॥४३॥ तेजोवातकायिका मिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति १०५ । ओघं त्रसकायिकाः १२० । एवं कायमार्गणा समाप्ता। ओषभङ्गोऽस्ति योगेषु वाङ्मानसचतुष्कयोः । सामान्यनरभङ्गेसु योगेऽस्त्यौदारिकाह्वये ॥४४॥ औदारिके ११७११०११६६७१ उपर्योधः। श्वभ्रदेवायुषी श्वभ्रद्वयमाहारकद्वयम् । त्यक्त्वौदारिकमिश्नाह्वे योगे बध्नन्ति चापराः ॥४५॥ इति सामान्येनौदारिकमिश्रे ११४ । त्यक्त्ौताभ्यः सुरद्वन्द्वं तीर्थकृद् वैक्रियिकद्वयम् । मिथ्यादृशस्तु बध्नन्ति प्रकृतीनवयुक् शतम् ॥४६॥ श्वभ्रायु-श्वभ्रयुग्मोनास्त्यक्त्वौधोक्तास्तु षोडश । तिर्यङ्-नरायुपी चाभ्यस्त्यक्त्वाऽन्याः सासनाभिधाः ॥७॥ १४॥ त्यक्त्वाऽऽभ्यस्तिर्यगायुष्कविहीनां पञ्चविंशतिम् । तीर्थ विक्रियदेवाह्न युग्मे प्रक्षिप्य निर्वताः ॥४८॥ ७५ तथौदारिकमिश्रे योगे सयोगः शतम् १ । सामान्यदेवभङ्गषु योगे वैक्रियिकाहये। तिर्यङ-नरायनास्ता मिश्रे वैक्रियिके परा: वैक्रियिके सामान्येन १०४ । मिथ्यादृष्टयादिषु १०३।६६।७०।७२। वैक्रियिकमिश्रे सामान्येन १०२। तीर्थोनौवस्ताश्च मिथ्यारक् स्थावरैकेन्द्रियात पान् । हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्वषण्ढास्त्यक्त्वा च सासनः ॥५०॥ मिथ्यादृष्टिः १०१। सासनः १४ । पञ्चविंशतिमेताभ्यस्त्यक्त्वोनां तिर्यगायुषा । प्रक्षिप्य तीर्थकृनाम शेषा बध्नन्स्यसंयताः ॥५१॥ प्रमत्तवच बनन्याहाराहारकमिश्रयोः। आयुश्चतुष्टयश्वभ्रदयाहारद्वयविना ॥५२॥ बध्नन्ति कार्मणे योगे शेषा मिथ्याशस्विमाः । तीर्थकृद्वि कियद्वन्द्वदेवद्वयविवर्जिताः ॥५३॥ ___ आहारकाहारकमिश्रयोः ६३ । सामान्येन कार्मणकाययोगे ११२ । मिथ्याशः १०७ । श्वभ्रायुः श्वभ्रयुग्मोनास्त्यक्त्वौधास्तासु षोडश । ताभ्योऽन्याः सासनाभिख्या योगे बध्नन्ति कार्मणे ॥५४॥ पञ्चविंशतिमेताभ्यस्त्यक्त्वोना तिर्यगायुषा । तीर्थविक्रियदेवाह युग्मे प्रक्षिप्य निव्रताः ॥५५॥ सासनाः ४७५ । सयोगः सातं प्रतर-लोकपूरणयोः । एवं योगमार्गणा समाप्ता । Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४१ सप्ततिका-चूलिका ओघो वेदप्रयेऽप्यस्ति यावदेकाप्रविशतेः । बन्धकोऽस्त्यनिवृत्ताख्यः सन्त्यवेदास्ततोऽपरे ॥५६॥ एवं वेदमार्गणा समाप्ता। क्रुन्मानवञ्चनालोभेष्वोघो मिथ्यागादिषु । तावद्यावत्त बन्धान्तमनिवृत्तौ क्रमेण तु ॥५७॥ इति चतुःकषायाणां सामान्येन १२० । विशेषेण कोधमानमायाकषायाणां यथाक्रमं मिथ्यादृष्टिप्रभृति यावदेकविंशति-विंशत्येकानविंशत्यष्टादशबन्धकानिवृत्तयः तावदोघभङ्गः । लोभकषायिणां सूचमसाम्परायचरमसमयं यावत्तावदोघः । अकपायिणामप्युपशान्तक्षीणसयोगायोगानामोघः । एवं कषायमार्गणा समाप्ता। अज्ञानत्रितयेऽन्योघो मिथ्यादृक-सासनाख्ययोः । नवस्वसंयतायेषु वोघो मत्यादिकत्रिके ॥५॥ स्यान्मनःपर्ययेऽप्योधः प्रमत्तादिषु सप्तसु । केवलस्याप्यथौधः स्याजिनयोर्योग्ययोगयोः ॥५६॥ इति सामान्यमत्यज्ञानि-श्रताज्ञानि-विभङ्गज्ञानिषु ११७ । मिथ्यादृष्टी ११७ । सासने १०१ । शेषं सुगमम् । एवं ज्ञानमार्गणा समाप्ता । ओघः सामायिकाख्यस्य छेदोपस्थापनस्य च । आये यतिचतुष्केऽस्ति परिहारस्य चाद्ययोः ॥६०॥ सूचमवृत्तस्य सूचमाख्येऽथाख्यातस्य चतुर्वतः । देशाख्ये देशवृत्तस्यासंयमस्य चतुष्टये ॥६१॥ एवं संयममार्गणा समाप्ता । द्वादशस्वादिमेष्वोघो दृष्टश्चक्षुरचक्षुषोः । स्यादोघोऽवधिरऐश्च नवस्वसंयतादिषु ॥६२॥ ओघः केवलदृष्टश्च भवेत्केवलिनो द्वये। इति दर्शनमार्गणा समाप्ता। कृष्णा नीलाऽथ कापोता लेश्यात्रितयमादिमम् ॥६३॥ भाद्यलेश्यानयोपेता बध्नन्त्याहारकद्वयम् । त्यक्त्वान्यास्तीर्थकृत्वोनास्तासु मिथ्याहगाह्वयाः ॥६४॥ सासनाः पोडशोनास्ता मिश्राह्वाः पञ्चविंशतिः । नरदेवायुषी चाभ्यस्त्यक्त्वा बध्नन्ति चापराः ॥६५॥ तीथकृन्नरदेवायुः संयुक्तास्तास्वसंयताः। तेजोलेश्यासु बध्नन्न्यपर्याप्तं विकलत्रयम् ॥६६॥ श्वभ्रायुः श्वभ्रयुग्मं च सूचमं साधारणं तथा । त्यवत्वान्या वामहष्टिस्तास्तीर्थाहारद्वयोनिताः ॥६७। इति कृष्णनीलकापोतलेश्याः सामान्येन ११८ । मिथ्यादृष्टयः ११७ । सासनाः १०१। मिश्राः ७४ । असंयताः ७७ । तेजोलेश्याः सामान्येन १११ । मिथ्यादृष्टयः १०८। हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्वस्थावरैकेन्द्रियातपान् । पण्ढं चाभ्योऽपि मुक्त्वाऽन्या बध्नन्ति सासनाभिधाः ॥६८।। १०१। पञ्चस्वतो भवेदोघः सम्यग्मिथ्यागादिषु । पञ्चस्वोधः ७४१७७।६७।६३१५६ । पद्मलेश्यास्त्वबध्नन्ति श्वभ्रायुर्निरयद्वयम् ॥६६॥ सूचमसाधारणकाक्षस्थावरं विकलत्रयम् । तथाsतपसपर्याप्तं त्यक्त्वाऽन्याः शतमष्टयुक् ॥७०॥ सामान्यपनलेश्याः १०० । मिथ्याशस्तु तास्तीर्थकराहारद्वयोनिताः । हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्वषण्ढोनास्तासु सासनाः ॥७॥ मिथ्यादृशः १०५ । सासनाः १०१। पञ्चस्वती भवेदोघः सम्यग्मिथ्यागादिषु । शुक्ललेश्यासु बध्नन्ति स्थावरं विकलत्रयम् ॥७२॥ तिर्यक-श्वभ्रायुषो सूचमापर्यान्ते नरकद्वयम् । साधारणातपोद्योतां तिर्यग्द्वयमेकेन्द्रियम् ॥७३॥ १. अवेदा। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ संस्कृत-पञ्चसंग्रह त्यक्त्वाऽन्या वामदृष्टिस्तास्तीर्थाहारद्वयोनिता । हुण्डासम्प्राप्त मिथ्यात्वषण्ढोनास्तास्तु सासनाः ॥७४॥ सामान्येन शुक्ललेश्याः १०४ । मिश्यादृष्टयः १०१ । सासनाः १७ । उद्योततिर्यगायुष्कतिर्यद्वितयवर्जिताम् । युक्तां नर-सुरायुा त्वक्त्वाऽऽभ्यः पन्चविंशतिः ॥७५॥ शेषाः बध्नन्ति मिश्राहाः संयुक्तास्वसंयताः । तीर्थकृन्न-सुरायुभिनवस्वाद्या भवेदतः ॥७६॥ ७४१७७। एवं लेश्यामागणा समाता। ओधो भव्येषु मिथ्यारम्भङ्गश्चाभव्यजन्तुषु । ओघो वेदकसम्यक्त्वस्यायतादित्ततुष्टये ॥७७॥ भवेत्क्षायिकसम्यक्त्वस्याप्योघोऽसंयतादिषु । एकादशसु सम्यक्त्वस्याथौपशमिकस्य तु ॥७८॥ ओघो नर-सुरायुा हीनः स्यादयतेषु यत् । बध्नन्ति नैकमप्यायुः सम्यक्त्वे प्रथमे स्थिताः ॥७६॥ आभ्यो विहाय कोपादीन् द्वितीयानादिसंहितम् । नृद्वयौदारिकद्वन्द्वे शेषा बध्नन्त्यणुवताः ॥८॥ इत्यसंयतेषु ७५। संयतासंयतेषु ६६। हीनस्तृतीयकोपास्ताः प्रमत्ताख्यसंयताः । असातमरतिशोकायशोऽशुभमस्थिरम् (१) ॥८॥ त्यक्त्वाऽऽभ्योऽप्यप्रमत्ताख्या: शेषाः साहारकद्वयाः। ओघभङ्गोऽस्त्यपूर्वाधेषूपशान्तान्तिमेषु च ॥२॥ प्रमत्तेषु ६२ । अप्रमत्तेषु ५८ । एवं भव्यमार्गणा सम्यक्त्वमागणा च समाप्ता। ओघः संज्ञिषु मिथ्याहरभङ्गोऽसंज्ञिषु जन्तुषु । सासादनेऽप्यसंज्ञाख्यभङ्गाः सासादनोद्भवाः ॥३॥ एवं संज्ञिमार्गणा समाप्ता। ओघ आहारकाख्येषु स्यादनाहारकेषु तु । भगः कार्मणकायोत्थः कर्मप्रकृतिवन्धने ॥४॥ एवमाहारमागणा समाप्ता। इति सप्ततिका समाप्ता। श्रीचित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते । श्रीपालसुतडड्डेन स्फुटः प्रकृतिसंग्रहः ॥८५॥ डड्ढकृतः पञ्चसंग्रहः समाप्तः । शुभम्भवतु । Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट +-+ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट जीवसमास आदि प्रकरणों में जिन संदृष्टियोंके परिशिष्टमै देखनेकी सूचना की गई है वे इस प्रकार हैंसंदृष्टि सं० १, चौदह जीवससास संदृष्टि सं० २, इक्कीस जीवसमास बादर सूक्ष्म . . बादर सूक्ष्म एके०- अप० प०, प० अ० ऐके०- ल०नि० प० । प०नि० ल. ० द्वी०प० १ ० अ० त्री०, १ ., चतु०, १ ० ,, असं०-०१, १० सं० ० पंचे० संदृष्टि सं० ३, तीस जीवसमास बादर । सूक्ष्म अप०, प०, प० अ० पृ० ० १ १ ० ज० ० १ १ ० ते० ० १.१ ० वा० ० १ १ ० वन० ० १ १ . . प० अ० द्वी० १ ० प० नि० ल० द्वी० १ ० ० त्री० १ ० ० चतु० १ ० ० पंचे० असं०-००१,१०० सं० संदृष्टि सं०४, बत्तीस जीवसमास बादर । सूक्ष्म अ० प०, प०अ० पृ० ० १ १ ० ज० ० १.१ ० ते० ० १ १ ० वा० ० १ १ ० साधारण । प्रत्येक बा० सू० अ० प० प० अ० प० अ० वनस्पति त्री० १ ० पंचे० चतु० १ ० असं० । संज्ञी प० अ० द्वी० १ ० त्री० १ ० चतु० १ ० असं० । संजी पो संदृष्टि सं० ६, सैंतीस जीवसमास बादर । सूक्ष्म अ० प० प०अ० संदृष्टि सं० ५, छत्तीस जीवसमास बादर । सूक्ष्म अ० प० प० अ० पृ० ० १ १ ० ज० ० १ १ ० ते० ० १ १०० वा० ० १ १ ० साधारण प्रत्येक नित्य इतर नि० प० अ० बा० । सू० बा० । सू० १ ० अ.प.प.अ. अ.प.प.अ. ०११०।०११० ज० ०१ १० ते० ०१ १० वा० ०१ १० साधारण प्रत्येक नित्य० इतर नि० सप्र० अप्र० बा० सू० बा० सू० अ.प.प.अ. अ.प.प.अ. अ०प०प०अ० ० ११० ०११० ० १ १ ० Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ पञ्चसंग्रह द्वी० त्री० चतु० असं० प० १ १ १ अ० ० ० ० संज्ञी प० अ० द्वी० १ ० त्री० १ ० चतु० १ ० असं० संज्ञी । संदृष्टि सं० ७, अड़तालीस जीवसमास बादर . सूक्ष्म _ लब्ध्य.निवृ.पर्या. । प.नि.ल. संदृष्टि सं० ८, चौवन जीवसमास बादर सूक्ष्म ल०नि०प० पनि ल० ज० ० ०१ १ ० ० ते० ० ०१ १ ०० वा० ० ०१ १ ० ० ___ साधारण प्रत्येक वन वन० नित्यक इतर० ज० ० ० १ १ ० ० ते० ० ० १ १०० वा० ० ० १ १०० साधा० प्रत्येक वन बा० सू० ल.नि.प. प.नि.ल. प. नि. ल. ० ० १ १०० १०० ल०निप० द्वी० ० ० १ त्री० ० ० १ चतु० ० ० १ पंचे० असं० संज्ञी लनि०प० पनि ल० बा० सू० बा० सू० ल.नि.प. प.नि.ल.ल.नि.प.ल.नि.प.ल.नि.प. ० ० १ १ ० ० ० ०१००१००१ ल०नि०प० द्वी० ० ० १ त्री० ० ० १. चतु० ० ० १ असंज्ञी संज्ञी ल०नि०प० ल०नि०प० संदृष्टि सं० है, सत्तावन जीवसमास बादर सूक्ष्म ल०नि०प० ल०नि०प० ००० ० ० MMMM ज० ० ० १ ० ० १ ते० ० ० १ १ ० १ वा० ० ० १ ० ० १ साधारण प्रत्येक वनस्पति नित्य इतर बा०ासू० बासू० सप्र० । अप्रति ल.नि.प.ल.नि.प.ल.नि.प.ल.नि.प.ल.नि.प.ल.नि.प. ००१००१ ० ० १ ००१००१००१ ल० नि० प० द्वी० ० ० १ त्री० ० ० १ चतु० ० ० १ असंज्ञी संज्ञी ल०नि०प० ल०नि०प० Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट संदृष्टि संख्या १० गुणस्थानों में बन्ध-अवन्धादिकी संदृष्टि इस प्रकार है :नाम गुणस्थान बन्धव्युच्छिन्न बन्ध अबन्ध सर्वप्रकृतियोंकी विशेष विवरण . अपेक्षा अबंध १ मिथ्यात्व १६ ११७ ३+ ३१ +तीर्थकर और आहारद्विकके विना २ सासादन २५ १०१ १६ ४७ ३ मिश्र ० ७४+ ४६ ७४ + मनुष्यायु और देवायुके विना ४ अविरत ७७+ ४३ ७१ + तीर्थंकर, मनुष्यायु और देवायुके मिल जानेसे ५ देशविरत ६ प्रमत्तविरत ६३ ५७ ८५ ७ अप्रमत्तविरत ५६ + ६१ ८६ + आहारकद्विक मिल जानेसे ६२ ५६ ६२ 26 Mkcom Nur MD. ० ० ० ० ०0rr १२७ १२६ ० ० ८ अपूर्वकरण ५६ ६४ ६ ३० २६ ६४ १२२ १ .१ २२१८ १२६ २१ ह अनिवृत्तिकरण३ २० १०० १२८ १६ १०१ १८ १०२ १३० १० सूक्ष्मसाम्पराय १६ १७ १०३ १३१ ११ उपशान्तमोह १ ११६ १४७ १२ क्षीणमोह १ ११६ १३ सयोगकेवली १ ११६ १४ अयोगिकेवली १४८ संदृष्टि संख्या ११ ___ गुणस्थानों में उदय-अनुयादिकी संदृष्टि इस प्रकार है:नाम गुणस्थान उदय-व्युच्छिन्न उदय अनुदय सर्व प्रकृतियोंकी विशेष विवरण अपेक्षा अनुदय । १ मिथ्यात्व ५ ११७५+ ३१ + सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, आहारकद्विक और तीर्थकरके विना २ सासादन र १११ ११ ३७ + नरकानुपूर्वीके विना ३ मिश्र १ १०० २२+ ४८ + तिर्यगानु० अनुष्यानु० देवानुपूर्वीके विना और सम्यग्मिथ्यात्वके साथ ४ अविरत १७ १०४+ १८४४ + चारों आनुपूर्वी और सम्यक्त्व प्रकृति के मिलानेसे ० Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चसंग्रह ६७ +आहारकद्विकके मिलानेसे ५ देशविरत ६ प्रमत्तविरत ७ अप्रमत्तविरत ८ अपूर्वकरण ६ ६ अनिवृत्तिकरण ६ १० सूक्ष्मसाम्पराय १ ११ उपशान्तमोह २ द्विचरमसमय १२ क्षीणमोह 199urry Morrow 6k WWMOMak १४ ५५ चरमसमय ur ur १३ सयोगिकेवली ३० १४ अयोगिकेवली १२ ४२+ १२ १०६ + तीर्थकर प्रकृतिके मिलानेसे १३६ ११० ww संदृष्टि संख्या १२ गुणस्थानों में उदीरणा-अनुदीरणादिकी संदृष्टि इस प्रकार है :गुणस्थान उदीरणा व्यु०उदीरणा अनुदीरणा सर्व प्रकृतियोंकी विशेष विवरण अपेक्षा अनुदीरणा १ मिथ्यात्व ५ ११७५+ ३१ + सम्यक्त्व प्र० सम्मग्मिथ्या तीर्थकर और आहारकद्विक विना २ सासादन १११ + ११३७ + नरकानुपूर्वीके विना ३ मिश्र १००+ २२ ४८ + तिर्यगानु० मनुष्या० देवानु० विना तथा मिश्र सहित ४ अविरत १७ १०४+ १८ ४४ चारोंआनुपूर्वी और सम्यक्त्वप्रकृतिके साथ ५ देशविरत ८ ८७ ३५ ६ प्रमत्तविरत ८ ८१+ ४१ ६७ + आहारक द्विक मिलाकर ७ अप्रमत्तविरत ४ ७३ ४६ ८ अपूर्वकरण ६ ६१ ५३ ६ अनिवृत्तिकरण ६ १० सूक्ष्मसाम्पराय १ ११ उपशान्तमोह २ द्विचरम स० २ ५४ ६८ १२ क्षीणमोह ५२ चरम स० १० १३ सयोगिकेवली ३६ ३६+ ८३ १०६ + तीर्थकर प्रकृति मिलाकर १४ अयोगिकेवली ० ० १२२ 9 Www mockM m संदृष्टि संख्या १३ गुणस्थानों सत्त्व-असत्त्वादिकी संदृष्टि इस प्रकार है :गुणस्थान सत्त्वत्युच्छित्ति सत्त्व असत्त्व विशेष विवरण १ मिथ्यात्व १४५+ ३ + देवायु, नरकायु और तिरगायुके विना २ सासादन ० १४२+ ६ +तीर्थकर और आहारकद्विकके विना Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७४६ ० १११ ० ३ मिश्र १४४+ ४ अविरत १४५ ५ देशविरत १४५ ६ प्रमत्तविरत १४५ ७ अप्रमत्तविरत १४५ ८ अपूर्वकरण १३८ प्र०भा०१६ १३८ द्वि०भा०८ १२२ तृ०भा० १ ११४ च०भा० १ ११३ ६ अनिवृत्तिकरण पं०भा०६ ११२ प०भा० १ १०६ सभा० १ अ०भा० १ न०भा १०३ १० सूक्ष्मसाम्पराय १०२ ११ उपशान्तमोह १०१ १०१ शाणमाह चरमसमय १४ १३ सयोगिकेवली . द्वि८च०स० ७२ ८५ १४ अयोगिकेवली १३५ चरमसमय + आहारकद्विक मिलाकर तीर्थंकर मिलाकर १०५ ur११um १२ क्षीणमोह द्वि०च०स० २ ८५ १३ १३ बन्धाभाव संदृष्टि संख्या १४ गुणस्थानों में बन्धायन्धादि दशक यंत्र बन्धयोग्य सर्व प्रकृतियाँ १२० सं. गणस्थान बन्ध प्र० बन्ध व्य० अबन्ध १ मिथ्यात्व ११७ २ सासादन ३ मिश्र ४ अविरत ५ देशविरत ६ प्रमत्तविरत ७ अप्रमत्तविरत ७४ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० पञ्चसंग्रह प्रथम भाग ५८ द्वितीय ,, तृतीय, अपूर्वकरण ० ० WWWWW ० षष्ठ सप्तम प्रथम भाग १२२ १२६ द्वितीय, अनिवृत्तिकरण १२७ १२८ तीय, १०० १०१ १०२ १०३ ११६ # चतुर्थ ,, पंचम " १० सूक्ष्मसांपराय १७ ११ उपशान्तमोह १ १२ क्षीणमोह १ १३ सयोगिकेवली १ १४ अयोगिकेवली . १३१ ११६ ११६ १४७ १२० संदृष्टि सं० १५ नरक सामान्यकी बन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १०१ बन्धयोग्य अबन्ध बन्धव्यु गुणस्थान मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत ० ० ४१ ० संदृष्टि सं०१६ सप्तम पृथितीगत नारकियोंकी बन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ ६६ गुणस्थान बन्ध अबन्ध बन्धव्यु० मिथ्यात्व सासादन ६१ मिश्र अविरत ur mmi W po ko 88 Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७५१ मिश्र संदृष्टि सं० १७ तिर्यंच सामान्यकी बन्ध-रचना बन्धयोग्य सर्व प्रकृतियाँ ११७ मिथ्यात्व ११७ सासादन १०१ १६ ४८ अविरत ७० देशविरत ५१ . संदृष्टि सं० १८ मनुष्य सामान्यकी वन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १२० गुणस्थान बंध अबंध मिथ्यात्व सासादन 9. ulow बंधव्यु० मिश्र ० 006 Mamm ० wrx ६० ० ० ० ०6 Timw6 u ० ११६ अविरत देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्म साम्पराय १०७ उपशान्तमोह क्षीणमोह सयोगिकेवली २२६ अयोगिकेवली संदृष्टि सं० 18 देवसामान्यकी तथा सौधर्म-ईशानकालकी वन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १०४ गुणस्थान बंध अबंध बंधव्यु० मिथ्यात्व १०३ सासादन ६६ मिश्र अबिरत ७२ ० १२० ० - | ur Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ पञ्चसंग्रह संदृष्टि सं० २० भवनत्रिक देव-देवियोंकी तथा कल्पवासिनी देवियोंकीबन्ध रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १०३ मिथ्यात्व १०३ सासादन ६६ मिश्र अविरत 20 m WW 6 ० संदृष्टि सं० २१ सनत्कुमारादि-सहस्रारान्त कल्पवासी देवोंकी बन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १०१ मिथ्यात्व सासादन निश्र अविरत संदृष्टि संख्या २२ आनतादि-उपरिमौवेयकान्ट कल्पवासी देवोंकी बन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ ६७ गुणस्थान अबन्ध बन्धव्यु०. मिथ्यात्व सासादन १२ बंध मिश्र ७२ १३ अविरत संदृष्टि संख्या २३ ___ एकेन्द्रिय-धिकलेन्द्रिय जीवोंकी बन्ध-रचना __ बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १०६ मिथ्यात्व १०६ १३ सासादन संदृष्टि संख्या २४ बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ ११२ मिथ्यात्व १०७ सासादन ६४ अविरत ३७ प्रमत्तविरत सयोगिकेवली १११ प्रमत्तविरतमें वहाँ व्युच्छिन्न होनेवाली ६, आहरकद्विकके विना अपूर्वकरणकी ३४, अनिवृत्तिकरणकी ५ और सूक्ष्म साम्परायकी १६, इस प्रकार सबको जोड़नेसे ६१ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति बतलाई गई है। ५ ७५ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७५३ संदृष्टि संख्या २५ औदारिक मिश्र काययोगियोंकी बन्ध-रचना बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ ११४ मिथ्यात्व १०६ सासादन ६४ २० अविरत ४४ सयोगिके० ११३ + यहाँ पर अविरतमें व्युच्छिन्न होगेवाली ४ तथा ऊपरके गुणस्थानों में व्युच्छिन्न होनेवाली ६५ मिलाकर ६६ की व्युच्छिन्न जानना चाहिए । २६ ६६+ संदृष्टि संख्या २६ वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंको बन्ध-रचना बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ १०२ १०१ मिथ्यात्व सासादन अविरत १३ संदृष्टि सं० २. . कार्मणकाययोगियोंको बन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ ११२ मिथ्यात्व सासादन २४ अविरत ३७ ७४+ सयोगिकेवली १११ + ऊपरके गुणस्थानों में विच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंको भी यहाँ गिन लिया गया है । ६४ १ संदृष्टि सं० २८ कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंकी बन्ध-रचना बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ ११८ मिथ्यात्व सासादन १०१ ११७ मिश्र अविरत ७७ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ पञ्चसंग्रह संदृष्टि सं० २६ तेजोलेश्यावाले जीवोंकी बन्ध-रचना • बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १११ सासा० मि० अवि० देश० १०१ ७४ ७७ ६७ प्रम० मि० १०५ अप्र० वन्ध अबन्ध बंधव्यु० ४५ ४६ ४ २५० १० ४ संदृष्टि सं०३० गुण मि० बन्ध १०५ अबन्ध ३ बन्ध व्यु० ४ पद्मलेश्यावाले जीवोंकी बन्ध-रचना • बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ १०८ सासा. मि० अवि० देश० प्रमत्त १०१ ७४ ७७ ६७ ६३ ७ ३४ ३१ ४१ ४५ २५ ० १० ४ ६ अप्र० ५६ ४६ १ संदृष्टि सं०३१ शुक्ललेश्यावाले जीवोंकी बन्ध-रचना __ बन्ध-योग्य पूर्व प्रकृतियाँ १०४ गु० मि० सा० मि० अवि० देश० प्र० अप्र० अपू० अनि० सूक्ष्म उप० क्षी० सयो बन्ध १०१ ६७ ७४ ७७ ६७ ६३ ५६ ५८ २२ १७ १ १ १ अब० ३ ७ ३० २७ ३७ ४१ ४५ ४६ ८२ ८७ १०३ १०३ १०३ बं.व्यु. ४ २१ ८ १० ४ ६ १ ३६ ५ १६ ० ० १ संदृष्टि सं० ३२ औपशमिकसम्यक्त्वी जीवोंकी बन्ध-रचना - ___ बन्ध-योग्य सर्व प्रकृतियाँ ७७ गुण० अवि० देश० प्रमत्त अप्र० अपू० अनि० सू० बन्धक ७५. ६६ - ६२५८ ५८ २२ १७ अव० २ ११ १५ १६ १६ ५५ ६० वं० व्यु० Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य पञ्चसंग्रह गाथानुक्रमणिका गाथा प्रथम चरण प्र० पद्याङ्क गाथा प्रथम चरण प्र० पद्याङ्क गाथा प्रथम चरण प्र० पद्याङ्क [अ] अट्ठविहसत्त-छब्बं अणियट्टिम्मि वियप्पा ५,३७० अइभीमदंसणेण १,५३ अट्ट विहं वेयंता ४,२३० अणियट्टिय सत्तरसं ५,३७८ अगरुगलहगुवघादं ४, २९२ अट्ठसहस्सा य सदं ५,३६६ अणियट्टिसुदयभंगा ५,३६३ अगुरुगलहुवघायं ५, ८६ अट्ठसु असंजयाइसु ५,२१७ अणियट्टिस्स दुबंध ५,४१३ अगुरुयलहुगुवघाया ४,४९० अट्ठसु एयवियप्पो अणियट्टि मिच्छाई ४,३६८ अगुरुयलहुतसबायर- ५,१२४ अट्ठसु पंचसु एगे ५,२६४ अणुगो य अणणुगामी १,१२४ अगुरुयलहुतसबायर- ५,१६१ अट्ठारस पयडीणं ४,४२० अणुदय सव्वे भंगा ५,३४६ अगुरुयलहुपंचिंदिय- ५,१७२ अट्ठारसेहि जुत्ता अणुदिस-अणुत्तरवासी ४,३५४ अगुरुयलहुयचउक्कं अट्ठावीसं णिरए ४,२६१ अणुलोहं वेयंतो १,१३२ अगुरुयलहुयचउक्कं ४,२६ अट्ठावीसं णिरए अणुवय-महब्बएहि य ४,२११ अगुरुयलहुयचउक्कं ४,२७१ अट्ठावीसुणतीसा ५,४६५ अण्णयरवेयणीयं ३,४१ अगुरुयलहुयचउक्कं ४,४०० अद्वेगारस तेरस ५,२२० अण्णयरवेयणीयं ३,४४ अगुरुयलहुयचउक्कं अट्ठयारह चउरो ४,६८ अण्णयरवेयणीयं ३,६४ अगुरुयलहुयचउक्कं अद्वैवोदयभंगा ५,३२९ अण्णयरवेयणीयं अगुरुलहुयं तसबा- ५,१४० अटेवोदयभंगा _ ५,३३२ अण्णयरवेयणीयं ५,५०१ अगुरुयलहुयं तसबा-. ५,१५८ अटेवोदयभंगा ५,३३५ अण्णाणतिए होंति य ४,३१ अचक्खुस्स ओषभंगो ५,२०३ अडछब्बीसं सोलस ५,२९१ अण्णाणतियं दोसुं ४,७२ अजयाई खीणंता ४,६६ अडयाला वारसया ५,३२३ अत्थाओ अत्यंतर १,१२२ अज्जसकित्ती य तहा ३,२१ अडविहमणुदीरंतो ४,२२७ अत्थि अणंता जीवा अज्जसकित्ती य तहा ४,२६५ अडवीसाई तिण्णि य अथ अप्पमत्तभंगा अज्जसकित्ती य तहा ४,३१४ अडवीसाई बंधा अथ अप्पमत्तविरदे ५,३८४ अज्जसकित्ती य तहा ५,५८ अडवीसा उणतीसा ५,४४९ अपुव्वम्मि संतठाणा ५,३९७ अट्ठचउरट्ठवीसे ५,२२५ अडवीसा उणतीसा ५,४५२ अप्पपरोभयबाहण १,११६ अट्ठचउरेयवीसं ५,३९७ अडवीसा उणतीसा ५,४६२ अप्पप्पवुत्तिसंचिय १,७५ अटुट्ठी बत्तीसं अडसीदि पुण संता ५,२३१ अप्पं बंधिय कम्म ४,२३४ अट्ठट्ठी सत्तसया ५,३२२ अडसीदि पुण संता अरई सोएणूणा ४,२५० अट्ठण्ह मणुक्कस्सो ४,४४३ अण-एइंदियजाई अरई सोएणूणा ५,२८ अकृत्तीस सहस्सा ५,३८६ अण-मिच्छविदियतसबह- ४,९५ ।। अरहंत-सिद्ध-चेइय- ४,२०६ अट्ठ य पमत्तभंगा ५,३३४ अण-मिच्छ-मिस्स-सम्मं ५,४८७ अरहंतादिसु भत्तो ४,२१३ अट्ठ य बंधट्ठाणा ४,२५४ . अण-मिच्छ-मिस्स-सम्मं ३,५१ अवरादीणं ठाणं अट्ठ य सत्त य छक्क य ५,३३ अण-मिच्छाहारदुगुणा ४,९७ अवसेसविहिविसेसा ५,२०७ अट्ठ य सत्त य छक्क य ५,३९४ अण-रहिओ पडमिल्लो ५,३६ अवसेस संजमट्ठाणं ५,२०३ अट्ट विहकम्मवियडा १,३१ अणादेज्जं णिमिणं च ३,६३ अवसेसं णाणाणं ५,२०१ अट्टविह-सत्त-छब्बं ४,२२१ अणियट्टिबादरेथी अवसेसा पयडीओ ४,४८४ मासा ताण य५.४६४ . For Private &Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ अवहीयदि ति ओही अब्बाघाटी अंतोमूहत अविभागपलियछेदो अविरयअंता दसर्य अविरयसम्म सट्ठी असच्चमो सवचिए असहायणाणदंसण १,२९ असंजदमादि किच्चा ५,३९५ असंजमम्मि चउरो ४,६५ असंजमम्मि णेया ४,३४ असंजमे सहा ठाणं ५, २०२ अहमिदा जह देवा १,६५ अह मुट्ठियसयलजय सि. ५,५०५ अहिमुणियमियबोहण- १,१२१ अंडज- पोतज जरजा १,७३ अंतरायस्स कोहाई ४,२१५ ४,५०० अंतिमए छद्दंसण अंतोकोडाकोडी ४,४०७ अंतोहुत मज १,९४ १,९६ अंतोमुहुत्त मज्झं अंतोमुत्तमज् १,९८ [आ] आइत्तियं वावीसे आइदुयं णिब्बंध आउक्करस पस्स आउगभागो भोवो आऊणि भवविवागी आदाओ उज्जीवं आदाव- तसच उक्कं आदावज्जोवाण आदी विय चउठाणा आदी वि व संपवणं आवाधूण हिंदी कम्म आभोयमासुरक्खा आयावज्जोपाणं आयावज्जोयाणं आयावज्जोयाणं आयावज्जोदयं आयावज्जो द १,१२३ १,९६ ४,५१८ ४,३११ ५,३५७ ५,१९६ ५,४८ ५,२० ४,५०२ ४,४९५ ४,४९१ ४,५५९ ४.४५४ ५,६८ ५,२५१ ३,४२ ४,३९४ १,११९ ४,२७५ ५,१०९ ५,११० ५,११७ ५.११८ पचसंग्रह आवरण-अंतराए आवरणदेसचायं आवरणमंतराए आवरण- विग्ध सव्वे आवरण विग्ध सभ्ये आवलियमकाले आवलियनेत्तकालं आसादे चभंगा आसाय डिष्णपगडी आसाय पियडी आसाया पुण ताओ आसीदि होइ संता आ सोधम्मादावं आहर अणेण मुणी आहरइ सरीराणं आहार- ओघभंगो आहारजुयलजोगं आहारदंसणेण य आहार दुग विहीणा आहार दुगूणातिसु आहारयुगे यिया आहारदुगोराला आहारदूयं वणिय आहारदुयं अवणिय आहारमप्पमत्तो आहारय तित्थयरं आहारय-बेउल्विय आहारयं सरीरं आहार- सरीरिंदिय आहारसरीरुदयं आहारस्सुद एण आहारे कम्मूणा [] इव च तिष्णि पंच म इवर्क अंधड़ गियमा ४,४०९ ४,४८५ ४,३९५ २,९ ४,२३७ ५,२०५ ४,१०३ ५,३३१ ४,३२८ ४,३५४ ४,३७९ ५,२१३ ४,४७६ १.९७ १, १७६ ५,२०० ४,१९५ १.५२ ४,८१ ४,७५ ५,१९९ ४.५० ४,२९९ ५,९२ ४,४७२ ४,४३२ २,८ ४,४१८ १,४४ ५,१७० १,९६ ४,१०० ४,९८ ४,२५९ इक्कावण्ण सहस्सा ५,३७१ इगि चउ पण टस्सत्त य ५,१९० मि छथ्वी च तहा इगि जाइ ड] संद ५,४३० ४, ३४४ इगितीसबंध य इगितीसंता बंधइ इग दुग-तिग-संयोए इग-पण सत्तावीस इगि पंच तिष्णि पंच य इगि पंच तिणि पंच य इगि विगल थावरादव इगि विगल पावरादवइगिविगलिदियजाई इगिविगलिदियजाई इगिवियलिदियसयले इगिवीसं चउवीसं दगिवीसं चवीस afrati छवी इगिवी छवीस इगिवी पशुबी इगिवीसं पणुवीसं इच्चे माइया जे इत्यणस्यवेदे इत्थि-सयवेयं इरिथ-पुरिसे वा इत्थी पुरिस-सय इदि मोहदया मिस्से इस कम्मपयडिठाणा - इय कम्मपर्याsपगदं इयरे कम्मोरालिय इरियादहमा उत्ता इय जाहि बाहिया विय इंगाल जाल अच्ची इंदिय चउरो काया इंदिम चउरो काया इंदिय चउरो काया इंदिय चउरो काया इंदिय चउरो काया इंदिय चउरो काया इंदिय चउरो काया इंदिय चउरो काया इंदिय चउरो काया इंदिय छक्क य काया ५,२५० ४,२५८ ४,१८० ५, २४७ ४,२६० ५,५३ ४,३७७ ४,३८० ४,३२५ ५,२१४ ५,४२६ ५,९७ ५,१०७ ५,१९३ ५,४६८ ५,९७ ५,१८२ १,१६४ ४,८९ ४,४७८ ४, १४ १,१०४ ५,३०७ ५,४७२ ४,५२१ ४,५४ ४,२२८ १.५१ १,७९ ४, १४७ ४,१५१ ४,१५५ ४,१६५ ४, १५९ ४, १७३ ४, १८७ ४,१९१ ४, १९४ ४,१५२ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय छक्क य काया इंदिय छक्क य काया इंदिय छक्क य काया इंदिय छक्क य काया इंदिय छक्क य काया इंदिय तिष्णि य काया इंदिय तिष्णि व काया इंदिय तिण्णि य काया इंदिय तिष्णि व काया इंदिय तिण्णि व काया इंदिय तिष्णि य काया इंदिय तिष्णि य काया इंदिय तिष्णि य काया इंदिय तिणि वि काया इंदिय दोणि य काया इंदिय दोण्णि य काया इंदिय दोण्णि य काया इंदिय दोष्णि व काया इंदिय दोण्णि य काया इंदिय दोण्णि य काया इंदिय दोण्णि य काया इंदिय दोणि य काया इंदिय दोष्णि में काया इंदिय दोणि य काया इंदिय पंच य काया इदिय पंच य काया इदिय पंच य काया इंदिय पंच य काया इंदिय पंचय काया इदिय पंच विकाया इंदिय पंच विकाया इंदिय पंच विकाया इंदिय पंच विकाया इंदिय मोहिणा वा इंदियमेओ काओ इंदियमेओ काओ इंदियमेओ काओ इंदियमेओ काओ इंदियमेओ काओ इंदियमेओ काम ४,१५६ ४,१५८ ४,१७१ ४,१७४ ४,१७६ ४, १४४ ४,१४८ ४,१५२ ४,१६२ ४,१७० ४, १८४ ४,१८८ ४,१९२ ४,१६६ ४,१४२ ४,१४५ ४, १४९ ४, १४८ ४,१६० ४,१६३ ४,१६७ ४, १८२ ४, १८५ ४,१८९ ४,१५० ४,१५४ ४,१५७ ४, १७२ ४,१७५ ४,१६८ ४.१९० ४,१९३ ४,१९५ १,१८० ४, १४१ ४, १४३ ४,१४६ ४, १४७ ४,१५७ ४,१५९ गाथानुक्रमणिका इंदियमेज काभी इदयमेओ काओ इंदियमेओ काओ इंदियमेओ काभ इंदियमेओ काओ [ 3 ] उ उक्कस्सजोगसपणी उपक्रमपदेसतं उवकस्समणुक्कस्तं उक्कसमणुक्कसं उक्क्स्समणुक्कसो उगृतीस अट्ठवीसा उगुती सहावीसा उगतीस तीसबंधे उगुतीस बंध य उगुट्टिमप्पमतो उच्च णीयं णीचं उच्च्चमुच्चणीषं उज्युच्यमुष्वणीचं उज्जतसचवर्क उज्जोयमप्परात्थं उज्जीयमप्पसस्था उज्जोयर हियवियले उज्जोव - उदय रहिय उज्जोव - उदयसहिए उज्जोव तसच उक्कं उज्जोवर हियसले उज्जोवर हियसयले उज्जोयसहियसयले उणवीसेहिय जुत्ता उत्तम अंगहि हवे उत्तरपयडीसुतहा उदधिसहस्सस्स तहा यद्वाणकसाए उदयासंखा उदयपयडि संखेज्जा उदयसुदीरणस्स प उदयसुदीरणस्स य उदया इणुिवीसा ४,१६१ ४. १६४ ४,१८१ ४,१८३ ४.१८६ ४.५०९ ४,५०५ ४.४२२ ४,४४७ ४,३८९ ५,२२८ ५,४०९ ५,२३४ ५,२३६ ५,४८० ५,२६१ ५, १६ ५,२९७ ५,६१ ४,३१० २,१८ ५.१२२ ५,१२३ ५,१३१ ४,२६८ ५.१३८ १३९ ५, १४९ १, ४२ १,९६ ४,२३६ ४,४१७ ५,२०० ५.३१८ ५,३२६ ३,४६ ५, ४७३ ५,४६१ उदयादी सत्तरसं उदया हु णोकमाया उदीरे णामगोदे उम्मम्गदेसओ सम ओगा जोगविही उवओोगा जोगविही उवयरणदंसणेण य उवरयबंधे इगिती उवरबंधे संत उवरबंधे संते ४,४ ४,५५ १,५५ ५,२५२ ५,१४ ५,२८७ उवरिम दुय चवीस व ५,२२४ उवरिम पंचट्टाने ५,४१२ ४,७९ ५,४५४ १,८६ उतरिलपंचया पुण उबरिमदो बज्जिता उववाद मारणंतिय उवसमसम्मतादी उवसंत-सीणमोहे उवसंतखीणमोहो उवसते खीणे वा उस्सासो पत्ते [ ऊ ] कणत्तीस भंगा [ ए ] एइंदिय आयावं एइदिय णिरवाऊ एदिय थावरयं एवं दिय-पंचिदिय एइंदिय वियलिदि एदियस जाई एइंदियस फा एदिए बारि एइदिए बारएए उदयद्वाणा एए तेरस पयडी एए पुम्पटिट्टा एक्कम्हि कालसमये एक्कहि महुरपडी एक्क य छक्केगारं ७५७ एक्कयरं च सुहासुह, एक्कयर यति य ५,३२५ १,१०३ ४,२२६ ४,२०९ ५,२०६ ३,२८ १,५ १,१३३ १,४७ ५,३८५ ४, ४६४ ४, ४५७ ४,४७५ ४,३९९ १,१८६ ५,११२ १,६७ ४.६ ४,९ ५, ४२५ ५,२१५ ५,६१ १,२० ४,५१४ ५,३१२ ४, २७६ ५,१४१ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ पञ्चसंग्रह ४,४७४ ४,२६७ ४,२८० ओरालिय उज्जोवं ओरालियंगवंगं ओरालियंगवंग ओरालियंगवंगं ओरालियंगवंग ओरालियंगवंग ओसा य हिमय महिया ओहीदंसे केवल ५,७३ ५,१२७ १,७८ ४,३५ ५,४४० . ४,९४ एक्कं च दो व चत्तारि ५,३० एनेव सत्तवीसं ५,१०३ एक्कं च दो व चत्तारि ५,३०३। एमेव सत्तवीस ५,१२० एक्काई पणयंतं ४,२५२ एमेव सत्तदीसं ५,१७३ एक्कासी पयडीणं ३,७२ एमेव सत्तवीसं ५,१८७ एगणिगोदसरीरे १,८४ एमेव होइ तीसं ४,२९८ एगसहस्सं णवसद- ५,३५२ एमेव होइ तीसं ५,९१ एग सुहुमसरागो एमेव होइ तीसं एगेगमट्ठ एगे ५,४०० एमेव होइ तीसं ५,१३३ एगेगं इगितीसे ५,२४९ एमेव हौइ तीमं ५,१४८ एत्तो हणदि कसाय ५,४९२ एमेव होइ तीसं ५,१५२ एत्तो उवरिल्लाणं ४,३४६ एमेव होइ तीसं ५,१६९ एत्थ इमं पणुवीस एमेवूणत्तीसं ५,१३९ एत्थ वि भंग-वियप्पा ५,१५१ एमेवूणत्तीसं ५,१४७ एयम्हि गुणदाणे एमेवूणत्तीसं ५,१६८ एदाणि चेव सुहुमस्स ५,४१४ एमेवूणत्तीसं ५,१७५ एमेव अट्टवीसं ५,१०४ एयक्खेतोगाट ४,४९३ एमेव अट्टवीसं ५,१२८ एयणउसयवेयं ३,५७ ए मेव अट्टवीसं एयदरं च सुहासुइएमेव ऊणतीसं ५,१४४ एययरं वेयंति य ५,१६२ एमेव ऊणतीसं ५,१५० एय-विय-काय जोगे ४,१०२ एमेव ऊणतीसं ५,१७२ एयार जीवठाणे ५,२५८ एमेव एक्कतीसं ५,१३४ एयारसेसु तित्ति य एमेव एक्कतीसं ५,१५३ एवं कए मए पुण १,१७५ एमेवट्ठावीसं ५.१४५ एवं तइ उगतीसं ४,२९१ एमेवट्ठावीसं ५,१७४ एवं तइयउगुतीसं एमेवट्ठावीसं ५,१८८ एवं विउला तुद्धी १,१६२ एमेव विदियतीस ४,२६९ एवं विदि-उगतीसं ४,३०० एमेव विदियतीसं ५.६२ एवं विदि-उगुतीसं एमेव य उगुतीसं ५,१०५ एसो दु बंधसामित्तोघो ५,४८२ एमेव य उगुतीसं ५,१८९ एसों बंधसमासो एमेव य चउवीसं ५,११३ एमेव य छन्वीसं [ओ] एमेव य छब्बीसं ५,२१९ ओधियकेवलदंसे ५,२६४ एमेव य छब्बीसं ५,१२६ ओरालियाययोग ५,१९७ एमेव य छब्बीसं ५,१४२ ओरालमिस्स-कम्मे ४,१२ एमेव य छव्वीसं ५,१६३ ओरालमिस्स-कम्मे एमेव य पणुवीसं ५,१०१ ओरालमिस्स-कम्मे एमेव य पणुवीसं ओरालमिस्राजोगं ४,१७९ एमेव य पणु बीसं ५,१८५ ओरालाहारदुए ४,४४ एमेव विदिय तीसं ४,२६९ ओरालिय-आहार ४,२१ कदकफलजुदजलं वा १,२४ कदि बंधंतो वेददि कम्मइए तीसंता कम्मइयकायजोई ४,३६५ कम्मोरालदुगाई ४,४५ कम्मोरालदुगाई ४,४६ कम्मोरालदुगाई करिस-तणेट्ठावग्गो १,१०८ कंचण-रूप्पदवाणं ३,२ काऊ काऊ तह का- १,१८५ किण्हाइतिआसंजम किण्हाइतिए चउदस ४,१८ किण्हाइतिए णेया ४,३६ किण्हाइतिए बंधा ५,४५५ किण्हाइलेस्सरहिया १,१५३ किण्हाई तिसु णेया ४,३७१ . किण्हा भमरसवण्णा १,१८३ किमिराय-चक्कमल-कद्दम१,११५ कोडंति जदो णिच्चं १,६३ कुथु-पिपीलिय-मंकुण १,७१ केवलजुयले मण वचि- ४-४९ केवलणाणदिवायर १,२७ केवलणाणम्हि तहा ४,३२ केवलणाणावरणं ४,४८२ केवलदुगमणहीणा ४,३० केवलदुयमणपज्जव- ४,२९ केवलदुयमणवज्ज ४,२४ केवलिणं सागारो १,१८१ कोसुंभो जिह राओ १,२२ कोहाइकसाएसुं ४,३६९ कोहाइचउसु बंधा Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका १,२०३ [ख] खवणाए पट्ठवगो खविए अण-काहाई खाइयमसंजयाइसु खीणकसायदुचरिये खीणंता मज्झिल्ले खीणे दंसणमोहे खुल्ला-वराड-संखा १,१६७ ५,४९४ १,१६० १,७० ४,५२ गइ-आदिय-तित्थंते ५,२०६ गइ इंदियं च काए १,५७ गइकम्मविणिवत्ता १,५९ गइ चउ दो य सरीरं २,१२ गइ चउ दो य सरीरं ४,२४० गइचउरएसु भणियं ५,१८९ गइयादिएसु एवं ४,३२४ गुणजीवा पज्जत्तो १,२ गुणठाणएसु अट्ठसु ५,३०० । गढसिरसंधिपव्वं गोदेसु सत्त भंगा - ५,१५ [घ] घाइतियं खीणंता घाईणं अजहण्णो ४,४४१ घादीणं छदुमत्था - ४,२२२ घोलणजोगमसण्णी ४.५१० [च] चउ-इयरणिगोएहि जु- १,३८ चउ चरिमा अजोगियस्स ५,२९० चउ-छक्कं बंधतो ४,२४४ चउ-छव्वीसिगितीस य ५,२४९ चउ-तिय मण-वचिए ५,१९६ चउतीसं पयडीणं ३,७९ चउदालं तु पमत्ते ५,३५२ चउपच्चइयो बंधो ४,७८ चउबंधयम्मि दुविहा ५,१३ । चउबंधयम्मि दुविहो ५,२८६ ।। चउ भंगा पुव्वस्स य ५,३३६ चउरो हेट्टा छा उवारें ५,४६३ चउवीसं दो उरि ५,४४५ चउवीसं वज्जित्ता ५,१९४ छब्बावीसे चउ इगि- ४,२५१ चउवीसं वज्जुदया ५,४२३ छन्वावीसे चउ इगि- ५,२९ चउतीसं वज्जुदया पास वजुदया, ५,४३१ छब्वावीसे वउ इगि- ५,३०२ चउवीसं वज्जुदया ५,४३४ छम्मासाउगसेसे १,२०० चउवीसेण य गुणिया ५,३३७ छव्वीसाए उवरि ५,१३२ चउवीसेण वि गुणिदे ५,३५५। छन्वीसिगिवीसुदया ५,२२६ चउवीसेण वि गुणिया ५,३१६ छसु ठाणेसु सत्तट्ठ ४,२१८ च उसट्टि होंति भंगा ५,३३८. छसु पुण्णेसु उरालं ४,४२ चउसट्ठी अट्ठसया ५,३२१ छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु १,१९३ चउहत्तरि सत्तत्तरि ५,४७९, . छादयदि सयं दोसे चउ हेट्टा छा उवरिं ४,४५१ छायाल-सेस मिस्सो ५,४७७ चक्खूण जं पयासइ १,१३९ छावत्तरि एयारह चक्खूदंसे छद्धा ४,१७ छिज्जइ पढमं बंधो ३,६७ चक्खूदंसे जोगा छेत्तृण य परियायं १,१३० चत्तारि-आदिणवत्बंध- ५,४१ [ज] चत्तारि पयडिठाणा ४,२४१ चत्तारि वि छेत्ताइ १,२०१ जत्थेवकु मरइ जीवो १,८३ जवणालिया मसूरी चदुसंजलण-णवण्हं ४,२०२ चंडो ण मुयइ वेरं जसकित्ती बंधतो १,१४४ ४.२५७ चाई भद्दो चोक्खो १,१५१ जस-बादर-पज्जत्ता ५,१११ चितियमचितियं वा १,१२५ जह कंचणमग्गिगयं १,८७ चोइस जीवे पढमा ५,२५७ जह गेरुवेण कुड्डो १,१४३ चोद्दस पुन्बुद्दिट्ठा १,३५ जह छन्वीसं ठाणं ४,२७७ चोइस सराय-चरिमे ४,४६६ जह तिण्हं तीसाणं. ४,२७३ जह तीसं तह चेव य ४,२८८ जह तीसं तह चेव य ५,८१ जह पढमं उणतीसं ४,२८९ छक्कं हस्साईणं जह पुण्णापुण्णाई छण्णउदिं च वियप्पा ५,३७७ जह भारवहो पुरिसो १,७६ छण्णव छत्तिय सत्त य ५,३९९ जह सुद्धफलियभायण १,२६ छण्णोकसाय-पयला ४,५०६ जं णत्थि राय-दोसो १,२८ छण्हमसण्णी द्विदि ४,४३३ जं सामण्णं गहणं १,१३८ छण्हं पि अणुक्कस्सो ४,४९७ जाइ-जरा-मरण-भया १,६४ छण्हं सुर-णेरइया ४,४३० जा उवसंता सत्ता ३,१० छत्तीसं ति-बत्तीसं ५,३४४ जाणइ कज्जाकज्ज १,१५० छद्दव्व-णवपयत्थे जाणइ तिकालसहिए १,११७ छप्पढमा बंधंति य ४,२१९ जाणइ पस्सइ भुंजइ १,६९ छप्पंच-णवविहाणं १,१५९ जाहि व जासु व जीवा १,५६ छप्पंचमुदीरंतो ४,२२९ जिह छन्वीसं ठाणं छब्बंधा तीसंता ५,४७१ जिह तिण्हं तीसाणं Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० पञ्चसंग्रह जिह तिण्हं तीसाणं ४,२७३ ण रमति जदो णिच्चं १,६० जिह पढमं उणतीसं ५,८२ णवगाई बंधंतो ४,२५३ जीवाणवियप्पा णव छक्क चदुक्कं च हि ४,२४३ जीवा चोद्दस भेया १,१३७ णव छक्कं चत्तारि य ५,९ जुगवेदकसाएहि ५,४२ णव छक्कं चत्तारि य ५,२८२ जुगवेदकसाएहिं ५,३१४ णव दस सत्तत्तरियं ५,२८० जे ऊणतीस बंधे ५.२४३ णव दस सत्तत्तरियं ५,४१७ जे जत्थ गुणे उदया ५,३२७ णद पंचाणउदि सया. ५,४६ जे पच्चया वियप्पा ४,१७८ णव-पंचोदय-संता ५,२२१ जे पच्चया वियप्पा ४,२०० णव सत्तोदयसंता ५,२३५ जेसि ण संति जोगा १,१०० णव सव्वाओ छक्कं जेहिं अणेया जीवा १,३२ णव सव्वाओ छक्कं ५,२८३ जेहिं दु लक्खिज्जंते १,३ णवसु चउक्के एक्के ४,४१ जो एत्थ अपडिपुण्णो ५,५०७ णवं अजोई ठाणं ५,१७९ जोगा पयडि-पदेसा ४,५१२ णाणस्स देसणस्स य २,२ जोगिम्मि ओघभंगो ४,३६७ णाणंतरायदसयं ३,२७ जो ण विरदो हु भावो १,१३४ णाणंतरायदसयं ४,७४ जो णेव सच्चमोसो १,६२ णाणंतरायदसयं ४,३२३ जो तसबहाउ विरदो १,१३ णाणंतरायदसयं ४,४२२ जो समाइय-छेदो- १,१९५ णाणंतरायदसयं ४,४४६ णाणंतरायदसयं [ण] ४,४५६ णाणंतरायदसयं ४,४६८ णउदी चेव सहस्सा ५,३६० । णाणंतरायदरायं ४,५०० णउदी संता सादे ५,२१८ णाणंतरायदसयं ४,५०५ णउदी संतेसु तहा ५,२११ णाणंतरायदसयं ५,४७४ णउंसए पुण एवं ५,२०० णाणं पंचविहं पि य . १,१७८ ण कुणेइ पक्खवायं १,१५२ णाणावरणचउक्कं ४,४८४ णट्ठासेसपमाओ णाणाारणे विग्घे ५,२८१ णमिऊण अणंतजिणे णाणणेसु संजमेसु य ४,३७१ णमिऊण जिणिदाणं णाणोदहि-णिस्संदं ४,२ ण य इंदिय-करणजुआ १,७४ णामस्स य बंधोदय- ५,४०१ ण य जे भव्वाभव्वा १,१५७ णिक्खेवे एय? १,१८२ ग य पत्तियइ परं सो १,१४८ णिद्दा पयला य तहा ३,४० ण य मिच्छत्तं पत्तो १,१६८ णिद्दा पयला य तहा ३,२२ ण य सच्च-मोसजुत्तो १,९० णिद्दा पयला य तहा ४,३१७ । गरदुय-उच्चजुयाओ ४,३३२ गिद्दा-वंचणबहुलो १,१४६ । णरदुय-उच्चूणाओ ४,३३० णिद्दा-चिय तित्थयरं ४,२९८ णरदुयणराउउच्चूणा णिमिणं चिय तित्थयरं ५,९० णर-देवाऊरहिया ४,३३५ णिम्मूलखंधसाहा १,१९२ णर-देवाऊरहिया ४,३४० णियखेने केवलिदुग - १,९६ णिरए तीसुगितीसं ५,४१९ णिरय-णर-देवगईसु ४,८ णिरयदुग-आहारजुयल ४,३६० णिरयदुयस्स असण्णी ४,४३५ णिरयदुयं पंचिंदिय ४,२६४ णिरयदुयं पंचिंदियः ५,५६ णिरयाउग-देवाउग- ४,३९८ णिरयाउग-देवाउग- ४,५१२ णिरयाउअस्स उदए ५,२१ णिरयाउअस्स उदए ५,२९२ णिरयाणुपुब्वि-उदओ ३,३१ णिस्सेसखीणमोहो १,२५ णेत्ताइ दंसणाणि य ५,११ णेत्ताइ सणाणि य ५,२८४ रइयदुयं मोत्तुं ४,३५८ णोइंदिएसु विरदो १,११ [त] तइयकसायचउक्कं ३,२० तइयकसायचउक्कं ४,३१४ तइयकसायचउक्कं ४,४७२ तइयचउक्कयरहिया ४,३८७ तत्थ इमं इगिवीसं ५,१६० तत्थ इमं छन्वीसं ४,२७५ तत्थ इमं छन्वीसं तत्थ इमं तेवीसं ४,२८३ तत्थ इमं तेवीसं तत्थ इमं पणुवीसं ५,१७१ तत्थ इमं पणुवीस ४,२९३ तत्थ य तीसट्टाणा ५,७८ तत्थ य तीसं ठाणं ४,२८६ तत्थ य पढमं तीसं ४,२६७ तत्थ य पढमं तीसं तत्थिगिवीसं ठाणं ५,१८३ तत्थिगिवीसं ठाणं ५,९९ तत्थुप्पण्णा देवा ४,३५० तदियत्त्कसायचउक्कं तम्मिस्से तित्थयरूणा ४,३६२ तसकाइएसु णेया तसचउ वण्णचउक्कं ४,२८७ तसचउ वण्णचउक्कं Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका ७६१ ४,२०७ १,१०२ ४,७४ ४,४३६ ४,४९९ ५,४११ ५,४५२ ५,२७९ ३,४३ ५,२४१ ५,४३८ ५,१५४ ५,२०४ १,१८९ ५,४५६ ४,६७ م ४,८२ ५,२७४ तसचउ वण्णचउक्कं ४,२९७ तिण्णेवाउय सुहुमं ४,४६४ ।। तिव्वकसाओ बहुमोह तसचउ वण्णचउक्कं ५,८९ तिण्हं खलु पढमाणं ४,३९१ ।। तिव्वेदाए सव्वे तसचउ पसत्यमेव य ३,२४ तिण्हं दोण्हं दोण्हं १,१८८ तिसु तेरेगे दस णव तसचउपसत्थमेव य ४,३१९ । तित्थयर-णराउजुया ४,३४६ तिस्से हवेज्ज हेऊ तसथावरादिजुयलं ४,४१७ तित्थयर-णराउजुया ४,३५९ तीसण्हमणुक्कस्सो तसपंचक्खे सव्वे __४,८७ तित्थयर-देव-णिरया- ५,४८३ तीसं चेव य उदयं तस्स दु संतढाणा तित्थयरमेव तीसं ३,२५ तीसंता छब्बंधा तस्स य अंगोवंग ५,१४३ तित्थयरमेव तीसं ४,३२० तीसंता छब्वंधा तस्स य अंगोवंगं ५,१६४ तित्थयर सह सजोई ५,१७६ - तीसं बारस उदयं तस्स य उदयट्ठाणा- ५,४०४ तित्थयर सुरचदु जुया ४,३६३ तीसादी एगणं तस्स य संतट्ठाणा ५,४०३ तित्थयर-सुरचदूणा ४,३६१ तीसुगतीसा बंधा तस्स य संतढाणा तित्थयर-सुर-णराऊ तीसेक्कतीसकालो ४,३८४ तित्थयरं वज्जित्ता तस्स य संतढाणा ५,१८० तीसेक्कतीसकालो ५,३७३ तस्सुवरि सुक्कलेस्सा तित्थयराहारजुयल तेउप्पउमासुक्के ४,३७९ तस्सेव अपज्जत्ते तित्थयराहारदुअं तेऊ तेऊ तेऊ ५,३३० ३,५४ तित्थयराहारदुअं तस्सेव संतकम्मा ३,७३ तेऊ पम्मा बंधा तित्थयराहारदुअं ३,७६ तेऊ पम्मासु तहा तस्सेव होति उदया ५,४०७ तित्थयराहारदुअं ४,३७२ तेऊ वाऊ काए तस्सोरालियमिस्से ५,३५३ तित्थयराहारदुगुणा ४,३७६ ते एयारह जोया तह अट्ठवीसबंधे ५,२३० तित्थयराहारदुगुणा ४,३८२ ते चिय बंधट्टाणा तह उवसमसुहुमकसाए ५,२८४ तित्थयराहारदुयं ४,३०२ ते चिय बंधा संता तह खीणेसु वि उदयं ५,४१५ तित्थयराहारदुयं ५,९४ ते चिय संता वेदे तह चेह अट्ठ पयडी ३,४९ तित्थयराहाररहिय ५,१५९ ते चेव य छत्तीसे तह णोकसायछक्कं ३,३८ तित्थयराहारविरहि- ५,४७६ ते चेव य बंधुदया तह मणुय-मणुसणीओ ४,३४३ तिदु इगि णउदि णउदि ५,२०८ ते चेव य बंधुदया तह य तदीयं तीसं ४,२७१ तिय पण छव्वीसेसु वि ५,२२३ तेजतिय चक्खुजुयले तह य तदीयं तीसं ५,६३ तियमण-चउमणजोए ४,११ तेजप्पउमा सुक्के तं चेव य बंधुदयं ५,२४६ तिरि-णरमिच्छेयारह ४,४६३ तेजाकम्मसरीरं तं बंधंतो चउरो ४,२५५ । तिरियगइ-मणुयदोण्णि ४,४१५ तेजाकम्मसरीरं तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं १,७ तिरियगई ओरालं तेणउदीसंतादो ताओ चउवीसगुणा ५,३२० । तिरियगई तेवीसं ५,४२१ तेणं सत्त अ मिस्सो ताओ तत्थ य णिरया ४,३३२ तिरियगदीए चोद्दरा ४,७ तेणेव होंति णेया तारिसपरिणामट्ठिय १,१९ तिरियदुवे मणुयदुयं ५,१५८ तेतीस सायरोवम तासिमसंखेज्जगुणा ४,५१७ तिरियमणुयाउगेहि ४,३६२ तेतीस सायरोवम तिणि दस अट्ठाणा ४,२४२ तिरियंति कुडिलभावं १,६१ तेयालं पयडीणं तिण्णि य अंगोवंग तिरियाउ तिरियजुयलं ४,३८३ तेरस चेव सहस्सा तिण्णि य अंणोबंगं ४,४५४ । तिरियाउस्स य उदए ५,२२ तेरस जीवसमासे तिण्णि य सत्त य चदु दुग ४,४१४ तिरियाउस्स य उदए ५,२९३ तेरस सयाणि सरि तिण्णेिगे एगेगं ५,३९३ तिरिया तिरियगईए ४,३३४ तेरसस् जीवसंखे- तिण्णेव सहस्साई ५,३८७ तिवियप्पपयडिठाणा ५,२५३ तेरह बहुप्पएसो ५,३४८ ५,२३७ ५,२३८ ४,९६ ५,२०२ ४,४४५ ४,४७८ ५,२१० ३,८ ५,३४० ५,१०६ ४,४४७ ५,३४३ ५,२६२ ५,३८९ ५,२५४ ४,५०८ १६ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ४,७३ ५,५२ तेरासिएण या ४,३९४ तेरे णव चउ पणयं ५,२५५ तेवीसमादि कादं ५,४०२ तेवीसं पणुवीसं ४,२५७ तेवीसं पणुवीसं तेवीसं पणुवीसं ५,४२७ ते सव्वे भयरहिया ५,३०८ तेसिमसंखेज्जगुणा ४,५१८ तेसि सट्टि वियप्पा ५,३५८ तेसिं संतवियप्पा - ५,४२८ तेसु य संतट्ठाणा ५,२७३ तेहि विणा रइया ४,३२७ तेहि विणा बंधाओ ४,३३९ [थ] थावर अथिरं असुहं ४,२८४ थावर आदाउज्जो' ४,३५३ थावरमथिरं असुहं ५,७६ थावर सुहुमं च तहा थावर सुहुमं च तहा ४,३०९ थिर अथिरं च सुहासुह- ५,१०० थिरमथिरं सुभमसुभं ५,१८४ थिरसुहजस आदेज्ज ४,४०४ थीणतियं इत्थी विय ४:३१० थीणतियं इत्थी विय ३,१७ । थीणतियं चेव तहा २,३७ थीणतियं चेव तहा ३,५५ थीणतियं णिरयदुयं ५,४९१ थी-पुरिसवेयगेसु य ५,१९९ [द] दस अट्ठारस दसयं ४,१०१ दसगादि-उदयठाणा दस णव अडसत्तुदया ५,३४५ दस णव पण्णरसाइं ५,५१ दस णव पण्णरसाई ५,२६७ दस बंधट्ठाणाणि ४,२४६ दस वावीसे णव इगि ५,४० दसबिहसच्चे वयणे १,९१ दस सण्णीणं पाणा १४८ दहिगुडमिव वामिस्सं १,१० दंडदुगे ओरालं १,१९९ [ध] सण-आइदुअं दुसु धण्णस्स संगहो वा दसण-णाणाइतियं [प] दसण-णाणाइतियं ४,३८ . पक्खित्तं पत्तेयं ५,११४ दसणमोहक्खवणा १,२०२ पच्चइणो मणुयाऊ ४,४५० दंसणमोहस्सुदए १,१६६ पच्चंति मूलपयडी ४,४४९ दसणमोहस्सुवसमगो १,२०४ पज्जत्तय जीवाणं १,१९० दसण वय सामाइय १,१३६. पज्जत्ता णियमेणं ४,३३८ दंस-मसगो य मक्खिय- १,७२ पज्जत्तासण्णीसु वि ५,२७७ दुग तीस चउरपुव्वे ३,१२ पडपडिहारसिमज्जा २,३ दुब्भग दुस्सर णिमिणं ४,२७३ पडिणीयमंतराए ४,२०४ दुब्भग दुस्सर णिमिणं पडिणीयाई हेऊ ४,२१६ दुब्भगदुस्सरमजसं ४,४०२ पढमकसायच उक्कं ४,४७१ दुब्भगदुस्सरमजसं ४,४५९ पढमकसायचउक्कं ५,४८५ दुब्भगदुस्सरमसुभं ३,७८ पढमकसायचउक्कं ५,४८९ दुरधिगमणिउणपरमट्ठ- ५,५०६ पढमचउक्के णित्थी ५,२७ दुसु तेरे दस तेरस ५,३२८ पढमचउक्केणित्थी ५,२४९ देवगइसहगयाओ ५,४९५ पढमा-चउ छ-लेस्सा १,१८७ देवगईपयडीअ ४,३४७ पढमा चउरो संता ५,४४८ देवदुअ पणसरीरं पढमादोऽणाणतिए ४,६३ देवदुयं पंचिदिय ४,२९६ पढमे दंडं कुणइ य १,१९७ देवदुयं पंचिदिय- ५,८८ पढमे विदिए तीसु वि ५,४७ देव-मणुस्सादीहिं पढमो दसणधाई १,११० देवाउ अजस कित्ती पण णव इगि सत्तरसं ३,२९ देवाउग वज्जेविय ४,४२९ पण णव इगि सत्तरसं ३,५० देवाउगं पमत्तो ४,४२७ पणय दुय पणय पणयं ५,२६९ देवाउगमपमत्तो ४,४६२ पणयालीस मुहुत्ता १,२०६ देवाउस्स य उदए ५,२४ पणवण्णा पण्णासा देवाउस्स य उदए ५,२९५ पणवीसं उगुतीसं ४,२६३ देवाउस्स य एवं ४,४३८ पण सत्तावीसुदया ५,२२७ देवे अण/भावो १,१६५ पणिदरसभोयणेण य १,५४ देवेसु य णिरयाउ ५,४८४ पणुवोस सहस्साई ५,३८८ देसविरये च भंगा ५,२०२ पणुवीसं उणतीसं ५,५५ देसे सहस्स सत्त य ५,३६८ पणवीसं छन्वीसं ५,४२४ दो उवरि वज्जित्ता पणुवीसाई पंच य ५,४३७ दो उरि वज्जित्ता ५,४५९ पण्णर छत्तिय छप्पंच ५,४९३ दो चेव सहस्साई ५,३९९ पण्णररसण्हं ठिदि ४,४२८ दो छक्कट्ठचउक्कं ५,४१८ । पण्णरस सहस्साई ५,३९२ दोण्हं पंच य छच्चेव ४.७१ पण्णरसं छत्तिय छ- ५,४९७ दो तीस चत्तारि य ४,३१६ पण्णरसं छत्तिय छ- ५,४९७ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका ७६३ पत्तेयमथिरमसुह ४,२८२ पुढवी य सक्करा वा- १,७७ पत्तेयमथिरमसुहं ५,७४ पुणरवि दसजोगहदा ५,३४७ पत्तेयसरीरजुयं ५,१४४ पुण्णेसु सण्णि सव्वे १,४९ पत्तेयसरीरजुयं पुरिसस्स अट्ठवासं ४,४१२ पत्तेयागुरुणिमिणं ५,४९८ पुरिसं कोहे कोहं ५,४९३ पमत्तेदरेसु उदया ५,३५३ पुरिसं चउसंजलणं ३,२६ पम्मा पउमसवण्णा १,१८४ पुरिसं चउसंजलणं ४,३२२ पयडिविबंधणमुक्क २,१ पुरिसं चदुसंजलणं ४,४६९ पयडी एत्थ सहावो ४,५१४ पुरिसे सव्वे जोगा ४,४७ पयडीए तणुकसाओ ४,२१० पुरुगुणभोगे सेदे परघादुस्सासाणं २,१० पुरुमहमुदारुदालं परघादुस्सासाणं ४,२३८ पुवापुव्वप्फडुय- १,२३ परघायं चेव तहा ५,१४६ पुन्बुता छत्तीसा परघायं चेव तहा ५,१६७ पुवुत्ता जे उदया परमाणुआदियाई १,१४० पुवुत्ता वि य तीसा १,३७ पहिया जे छप्पुरिसा १,१९१ पुंवेदो मिच्छत्तं ३,७१ पंचक्खदुए पाणा १,५० 1 [व] पंच णव दोण्णि अट्ठा २,४ बत्तीसं आसादे पंच णव दोण्णि छन्वी- २,५ बत्तीसोदयभंगा ५,३४९ पंच-तिय-चउविहेहिं . १,१३५ बहुविहबहुप्पयारा १,१४१ पंचमयं संठाणं ४,४०७ बंध-उदया उदीरणपंच य विदियावरणं ४,४१३ बंधट्ठाणा चउरो ४,२१६ पंच रस पंच वण्णेहिं ४,४९५ बंधपयडीहिं रहिया ४,३६६ पंच वि इंदिय पाणा १,४६ । बंधविहाणसमासो ४,५२१ पंच वि थावरकाया १,३६ बंधं तं चेवुदयं ५,२३९ पंचविहे अडचउएगा- ५,४९ बंधं तं चेवुदयं ५,२४४ पंचसमिदो तिगुत्तो १,१३१ बंधं तं चेवुदयं ५,२४० पंचसु थावरकाए ४,१० बंधति अप्पमत्ता ४,३८८ पंचसु थावरकाए ४,२६ बंधंति जसं एवं ४,३०४ पंचसु थावरकाए ५,४३२ बंधति जसं एवं पंचसु पज्जत्तेसु य बंधति य वेयंतिय ४,२३१ पंचाइल्ला संता बंधा संता ते च्चिय ५,४४६ पंचिदियो असण्णी ४,४३७ बंधेण विणा पढमो ५,१८ पंचिदियतिरियाणं ५,१३७ बंधेण विणा पढमो ५,२९९ पंचिंदियतिरिएसु ५,१५७ बंधोदयकम्मंसा ५,८ पंचिदियसंजुत्तं ४,२९५ बाणउदि एगणउदी ५,२१९ पंचिंदियसंजुत्तं ५,८७ - बाणउदि-णउदिमडसी- ५,४२२ । पंचेव उदयठाणा ५.१९२ बाणउदि-ण उदिसंता ५,२२९ पाणवंहाईसु रओ ४,२१४ बाणउदि'णउदिसंता ५,२३२ पुटुं सुणेइ सद १,६८ वाणउदि-णउदिसंता ५,२४५ बाणउदि-णउदिसंता ५,४३३ बायर-सुहमेक्कदरं ५,७१ बायर-जसकित्ती वि य ३,४५ बायर-जयकित्ती वि य ३,६५ बायर-पज्जतेसु वि ५,२७५ बायर-सुहुमैक्कयरं ४,२७९ बायर-सुहुमेगिदिय- १,३४ बायालतेरसुत्तर- . ५,२८८ बायालं पि पसत्था ४,४५२ बारसपण्णट्ठाई बारण भंगे वि गुणे ५,३५९ बारस मुहुत्त सायं ४,४११ बारस य वेयणीए ४,४०९ बावण्ण देसविरदे ५,३५१ बावण्णं चेव सया ५,३७९ बावत्तरि पयडीओ ५,४९९ बावत्तरी दुचरिमे ३,५३ बावीसमेक्कबीसं ४,२४७ बावीसमेक्कवीसं ५,२५ बावीसा एगूणं ५,४८१ बावीसादिसु पंचसु ५,३७ बासट्ठि वेयणीए ५,२५६ बासीदिं दो उरि ५,४३५ वासीदि वज्जित्ता ५,२२३ बाहिर पाणेहिं जहा १,४५ वि-ति-एइंदियजीवे ४,२५ बि-ति-चरिंदिय-सुहुमं ४,४०५ बि-ति-चउरिदिय-सुहुमं ४,४७४ बिदियकसाएहि विणा ४,३३७ बिदियकसाएहि विणा ४,३४२ बिदियकसायचउक्कं ३,१९ बिदियकसायचउक्कं ४,३१३ बिदियचदुमणुसो- ४,३८६ बिदियपणवीसठाणं. ४,२८० बिदियपणुवीसठाणं ५,७२ बिदियं अट्ठावीसं ४,३०३ बिदियं अठ्ठावीसं बिदिय-चदुमणुसोरा- ४,३८६ बिहिं तिहि चउहि पंचिहि १,८६ बुद्धी सुहाणुबंधी Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ बेदियस्स एवं बेसय छप्पण्णाणि य [भ] भयमरइदुगंछा विय भयरहिया णिवणा भविया सिद्धी जेसि भविएसु ओघभंगो भव्वो पंचिदियो सण्णी भासा मणजोआणं भिण्णसमयद्विहिंदु भूयाणुकंप-वद-जोग [म] मइ-सुअअण्णाणाई मइ सुअअण्णाणाई म- सुअण्णाणेसु थ -सुअण्णा - अण्णा मइ-सुअअण्णाणेसुं मइ-सुअण्णाणेसुं ५, १३५ ५, ३४१ मणुयदुवं उम्वेल्लिय मणुयदुयं ओरालिय मणुयदुवं पंचिदिय मणुया य अपज्जत्ता मणुयाउस्स य उदए ४,३९९ ५,३९ १,१५६ ५, २०५ १,१५८ ४,७६ १,१७ ४,२०४ ४.२१ ४,४० ५,२०१ ४, १५ ५,४४३ मइ सुअ-हिदुगे ४,९१ मइ सुअ- ओहि मणेहि य २,१७९ ४,४८ ४.९७ मई -सु-ओहिदुगाई मज्झिल्ले मण वचिए मणपज्जवपरिहारो मणपज्जे केवलदुवे मण वयण कायवको मणसा वाया काएण मणुषगइ सव्वभंगा मणुयगइ सहगयाओ मणुयगई पंचिदिय मणुयगई पंचिदिय मणुयगई संजुत्ता ५,१५६ मणुय तिरिया उअस्स हि ४,४३९ मणुयतिरियाणुपुथ्वी २,३५ ४,२३ ४,२६७ १, १९४ ४,९२ .४,२१२ १,८८ ५,१८१ ५,५०४ ५,४७५ ५,५०२ ५,२१२ ४.४६१ ५,२१६ १,५८ ५,२३ पञ्चसंग्रह मणुवाउस य उदए वाणुपुव्विसहिया मणुस गइसव्वभंगा मणसद्म इरिथवेयं मण्णंति जदो णिच्चं मरणं पत्थेइ रणे मंद बुद्धिविहीण मा चिय अणियडी मिच्छनखपंचकाया मिच्छनखपंचकाया मिखपंचकाया मिच्छवखपंचकाया मिच्छक्खिपंचकाया मिच्क्खपंचकाया मिच्छ चकाया मिच्छक्खं चउकाया मिच्छ्क्खं चउकाया मिच्छवखं चउकाया मिच्छक्खं चउकाया मिच्छक्खं चउकाया मिच्छ णउंसयवेयं मिच्छ जंगवेयं मिच्छ णउंसयवेयं मिच्छत्तक्ख तिकाया मिच्छत्तल ठिकाया मिच्छत्तक्ख तिकाया मिच्छराक्स तिकाया मिच्छत्तक् तिकाया मिच्छतक्खतिकाया मिच्छत्तक्ख दुकाया मिच्छतक्स दुकाया मिच्छत्तक्ख दुकाया मिच्छत्तख दुकाया मिच्छत्तक्ख दुकाया मिच्छत दुकाया मिच्छत्तक्वं काओ मिच्छत्तक्खं काओ मिच्छत्तक्खं काओ मिच्छतव काओ मिच्छत्तक्खं काओ ५,२९४ ५,५०३ ५, १७८ ४,३९७ १,६२ १,१४९ १,१४५ ३,५८ ४.११९ ४,१२६ ४,१२७ ४,१६३ ४, १३४ ४,१३८ ४,११३ ४,१२० ४,१२१ ४,१२८ ४,१२९ ४,१३५ ३,१५ ४,३०८ ४,३२८ ४,१०८ ४,१३० ४, ११४ ४, ११५ ४,१२२ ४,१२३ ३,१०५ ४,१०९ ४,११६ ४,११७ ४:१२४ ४,११० ४, ११८ ४,१११ ४, ११२ ४,१०४ ४,१०६ मिच्छत्तक्वं काओ मिच्छत्तण कोहाई मिच्छत्तण कोहाई मिच्छतं आयावं मिच्छत्त वेदंतो मिच्छत्ताईचउट्टय मिच्छम्मि छिष्णपगडी मिच्छमि पंच भंगा मिच्छमि पंच भंगामिच्छम्मिय बावीसा मिच्छम्मि य बावीसा मिच्छाइ अपुता मिच्छाइच उक्केयार मिच्छाइट्टी जीवो मिच्छादिट्टी जीवो मिच्छाइपमत्त ता मिच्छाइसजोयंता ५, २९८ ४,२४८ ५,२६ मिच्छम्मि सासणम्मि ५,१२ मिच्छमि सासणम्मि य ५,२८५ मिच्छाई खीर्णता मिच्छाई चत्तारि य मिच्छाई तिसु ओमो मिच्छाई देता मिच्छा कोहच उपक मिच्छा कोहचउक्कं मिच्छादि-अपुन्वंता मिच्छादि-अप्पमतं मिच्छादिट्ठिप्प भई मिच्छादिद्विष्पहृदि मिच्छादिद्विस्सोदय, मिच्छादिट्टी मंगा मिच्छादिट्ठी भंगा मिच्छादिट्टी महारंभ मिच्छादिय-देसंता ४,१०७ ५,३२ ५,३०६ ३,३२ १,६ मिच्छा मोहचवक मिच्छासंजम हुति हु मिच्छासादा दोण्णि य मिच्छा सासण णवयं मिच्छा सासण मिस्सो मिच्छा सासण मिस्सो ४,८६ ४,३४० ५.१७ ३,३०१ ४,९८ १,१७० १,८ ५,२८९ ४,६७० ४,६९ ४,५८ ४,३४७ २,२९६ ५,३१ ५,१०० ५,३६५ ५,३७२ ४,२२३ ५,३८० ५,३२९ ५,३७४ ५,३८१ ४,२०७ ५,३६१ ५,३०४ ४,७७ ४,५९ ४, २४५ १,४ ४,५६ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका मिच्छा सासण मिस्सो ५,२०५ विग्गहगइमावण्णा १.१७७ सण्णिम्मि सव्वबंधा ५,४६७ मिच्छाहारदुगुणा ४,९८ विग्गहगइमावण्णा १,१९१ सण्णिस्स ओपभंगो ५,२०६ मिच्छिदियछक्काया ४,१३२ ।। विग्गहगईहिं एए ५,१२५ सण्णी पज्जत्तस्स य ५,२५९ मिच्छिंदियछक्काया ४,१३७ वियलिदिएसु तीसु वि ५,४२९ सत्त-अपज्जत्तेसु य ५,२६५ मिच्छिदियछक्काया ४,१२५ विलिदिएसु तेच्चिय ५,२७६ सत्त-अपज्जत्तेसुं २,२६५ मिच्छिदिय छक्काया ४,१३२ वियलिंदिय णिरयाऊ ४,३७५ सत्तट्ट छक्कठाणा मिच्छिदिय छक्काया ४,१३९ वियलिंदियसामण्णे ५,१२१ सत्तट्ठ णव य पणरस ५,४८६ मिछिदिय छक्काया ४,१३६ विरए खओवसमए ५,३१०।। सत्तट्ठबंध अट्ठोमिच्छे तेत्तियमेत्त ४,३५७ विरदाविरदे जाणे ५,४०८ सत्तत्तरि चेव सया ५,३६४ ४,३७१ विरयाविरए जाणसु ५,३८३ सत्तरस उदयभंगा ५,३४२ मिच्छे अड चउ चउ ५,३१५ विरयाविरए णियमा ५,३३३ सत्तरसघियसदं खलु ५,४७८ मिच्छे सोलस पणुवी- ३,११ विरयाविरए भंगा सत्तरस सुहुमसराए ४,५०४ मिस्सस्स वि बत्तीसा ५,३५० विवरं पंचमसमए १,१९८ सत्तरसं बंधतो ५,२५२ मिस्सं उदेइ मिस्से ३,३० विवरीयमोहिणाणं १,१२० सत्तादि दस दु मिच्छे ५,३०९ मिस्सम्मि उणतीसं ५,४०५ विविहगुणइड्डिजुत्तं १,९५ सत्तावीसं सुहुमे ५,४८८ मीमंसइ जो पुवं १,१७४ विसजंतकूडपंजर- १,११८ सत्ताहियवीसाए ३,७५ मूलग्गपोरवीया १,८१ विहिं तिहिं चदुहिं पंचहिं १,८६ सत्तेव अपज्जत्ता ५,१९८,२६८ मूलट्ठिदि-अजहण्णो ४,४२० वेउव्वजुयलहीणा ४,८५ सत्तेव य पज्जत्ते ५,२७० मूलपयडीसु एवं ५,७ वेउव्वमिस्सकम्मे सत्तेव सहस्साई ५,३९० मोहस्स सत्तरी खलु ४,३९२ वेउव्व मिस्सजोयं ४,१४० सद्दहणासदहणं १,१६९ मोहाऊणं हीणा ४,२२० वेउव्वाहारदुगे ४,१३ सब्भावो सच्चमणो १,८९ मोहे संता सव्वा वेउव्वे मणपज्जव ४,२८ समचउरस वेउब्विय ३,२३ वेदणिए गोदम्मि व समचउरं ओरालिय ५,१७७ रूसइ दिइ अण्णे १,१४७ वेदय-खइए भन्वा ४,३८५ समचउरं पत्तेयं ५,१८६ वेदय-खइए सव्वे समचउरं वेउन्विय [ल] ४,३१८ वेदयसम्मे केवल सम्मत्तगुणणिमित्तं लिंपइ अप्पीकीर वेदस्सुदीरणाए १,१०१ सम्मत्तगुणणिमित्तं ४,३०६ [व] वेदाहया कसाया ५,४३ सम्मत्तगुणणिमित्तं ४,४८९ वण्णरसगंधफासं ४,४१६ वेयण कसाय वेउविओ १,१९६ सम्मत्तदेससंयम- १,११० वण्णरसगंधफासा २,६ वेयणियगोयघाई ४,४९३ सम्मत्तपढमलंभो १,१७१ वण्णरसगंधफासा वेयणियाउयमोहे ४,२२५ सम्मत्तरयणपन्वय- १,९ वत्तावत्तपमाए १,१४ वेयणियाउयवज्जे ४,२२४ सम्मत्तादिमलंभस्सा- १,१७२ वत्थुणिमित्तो भावो १,१७८ सम्मत्ते सत्त दिणा १,२०५ [स] वदसमिदिकसायाणं १,१२७ सम्माइट्ठी कालं ४,५७ वयणेहिं हेऊहिं य १,१६१ सगवण्ण जीवहिंसा १,१२८ सम्माइट्ठी जीवो १,१२ वस्ससयं आबाहा ४,३९३ सग-सगभंगेहि य ते ५,३६२ ।। सम्माइट्ठी णिर-तिरि ४,१७९ वंसीमूलं मेसस्स १,११४ सगुणा अद्धावलिया ३,९ सम्माइट्ठी मिच्छो ४,४८० बाउब्भामो उक्कलि १,८० सण्णिअपज्जत्तेसुं सम्मामिच्छत्तेयं ३,३४ वा चदु अट्ठासीदि य ५,२४२ सण्णि-असण्णी आहा- ४,३८९ सम्मामिच्छाइठ्ठी ४,३७४ विकहा तहा कसाया १,१५ सण्णिम्मि सण्णिदुविहो ४,२० सम्मामिच्छे जाणसु ५,३८२ ४,५३ ३,१४ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ सम्मामिच्छे जाणे ५, ३७५ सम्मामिच्छे भंगा सयलससिसोमवयणं ५, ३६७ ४, १ ५,४९६ सरजुयलमपज्जत्तं सव्वट्टि दीणमुक्कस्साओ ४,४२५ सव्वाओ वि ठिदीओ ४,४२४ सव्वासि पयडीणं ४,३०५ ४,४२६ सवुक्कसठीणं सव्वरि वेदणीए ४,४९७ सव्वे बंधाहारे ५,४७० सव्वे वि बंधठाणा ५, २७८ ५,२६३ सब्वे वियमिलिएसु सव्वेसि तिरियाणं ५, १५५ ३, १३ १,१५५ सव्वेसि पयडीणं संखेज्ज असं खेज्जा संखेज्जदिमे सेसे संगहियस यलसंजम संजलण - णोकसाया संजलण-तिवेदाणं संजलणलोह मेयं संजलणं एयदरं संजलण य एयदरं संजलण य एयदरं संजलणा वेदगुणा संठाणं पंचैव य संटाणं संघयणं : संठाणं संघयणं संठाणं संघयणं संतद्वाणाणि पुणो संतर णिरंतरो वा संतस्स पयडिठाणा संताइला चउरो संतादिला चउरो संता चउरो पढमा संता उदाइचदुं संपुणं तु समग्गं ४,३२१ १,१२६ ४,८८ ४,२०१ ३,३९ ४,१९७ ४,१९८ ४,१९९ ५, ३२४ ४,४५७ ३,७७ ४,४०६ ४,४८२ ५, ४२० ३,६८ ५,३४ ५,४५० ५,४३९ ५, ४५७ ५, ४६० १,१२६ पञ्चसंग्रह साइ अाइ धुव अद्भुवो ४,४४३ साइनाइय धुव अद्भुवो ४,२३५ साइ अबंधा बंधइ ४,२३३ २,११ साईयर वेदतियं सादि अणादि य अट्ठय ४,४४१ सादि अणादि य धुव अद्भुवो सादियरं वेया विय सादेदर दो आऊ सामण्णणिरयपपडी सामाइय-छेदेसुं सामाइय-छेदे सामाइय-छेदे सामाइयाइछस्सुं सायं चउपच्चइओ सायं तिष्णेवाउग सायंतो जोयंतो सायासाय दोणिवि सासण मिस्सेवे सास सम्माइट्ठी साससम्म सासणसम्माइट्ठी सासणसम्मा देवा सासणसम्मे सत्त अ साहारण पत्तेयं साहारण पत्तेयं साहारणमाहारं साहारण-वियलिंदिय ३५४ ४, १९ ४,२८५ ५, ७७ १,८२ ४, ३४२ ३, ५६ १,१७३ सिद्धत्तणस्स जोगा १,१५४ सिद्धपदेहि महत्थं सिलभेय पुढविभेया सुक्काए दिय ४,३७ ५,२ १,११२ इह जीवगुणसण्ण- ४,३ ४,२३५ ४,२३५ ४,५०९ ४,३३० ४,९३ ४,६४ ५, ४४७ ४,१६ साहारण सुहुमं चिय - सिक्खाकिरिउवएसा ४,४८८ ४,४५३ ४, ३२४ ४,४८१ ५, ३१७ ४,३६५ ४,३७७ ४,३३५ ४,३५० सुण्ण जुट्ठारसयं सुभम सुभ सुहयसु स्सरसुर-णारएसु चत्तारि सुर-रिए पंचय ४,५७ ५,२६० ४,२८८ ५,८० १,१०९ ४,४५१ ४,४८७ सुहसुस्सरजुयलाविय ३,४३ सुहुम अपज्जत्ताणं ५,२७१ सुहुमणिगोयअपज्जत्त- ४,५०३ सुमंत व कम्मा सुमम्मि सुमलोह ३,५ सुमम्मि होंति ठाणे सुस्सरजसजुयलेक्कं सुस्सरजसजुयलेक्कं सुह-दुक्खं बहुसं सुपयडीण विसोही सुपडी भावा सेढिअसंखेज्जदिमे सेलसमो अट्टिसमो सेलेसि संपत्तो सेस अपज्जत्ताणं से उगुदाल सेसाणं चउगइया सेसाणं चउगइया सेसाणं पयडीणं सेसेसु अबंधम्मि य सो में तिहुअणमहिओ सोलस जीवसमासा सोलस मिच्छतंता सोलह अक्क्कं [ ह ] हस्स रइ भय दुगंछा हास र पुरिस वेयं हास रइ भय दुगंछा संपत्तं प ५, ३५४ ५, १७८ संपत्तं प हुडं पत्तेयं पिव होति अणियट्टिण ते ४,२०३ ५,३९८ ४,५१६ १, ११३ १,३० ५, २७२ ३,४८ ४,४३२ ४,४६६ ४,४४० ५,५० ३, ६६ १,४० ४,३०७ ३,५२ ३,७० ४,४०३ ४,४७० ४,२९१ ५,८३ ५,१०२ १,२१ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व] संस्कृतटीकोड़त-पद्यानुक्रमणी [अ] त] [म] अट्ठविहमणु दीरंतो- ४,२९ ततोऽसंख्यगुणानि स्युः ४,५४ मायुरेव नान्यानि ५,२७ अणसंजोजिद मिच्छे मुहत्त-अंतो तदुच्छ्वासयुतं स्थानमेको- मिच्छे चोद्दस जीवा सासण ४,३ नत्रिशतं- ५,१७ मिच्छे सासणसम्मे अणसंजोजिद सम्म मिच्छं- ५,५ तिण्णेगे एगेगंदो मिस्से- ५,४ मिथ्यात्व १ मिन्द्रिय १ अणसंजोजिद सम्मे मिच्छं- ४,१२ तित्थाहारा जुगवं सव्वं ५,२१ कायःअत्रकत्रिशत्कं स्थानं- ५,२० तिर्यक्ष्वौदारिके मिश्रे- ५,२४ मिथ्यात्वं विशतिबन्धे ४,३७ अनुभागं प्रति प्रोक्ता- ४,२७ त्रिभिभ्यिां तथैकेन- ४,२५ मिथ्यात्वस्योदये यान्ति ४,३९ अनुलोम-विलोमाभ्यां ४,१० त्रयस्त्रिशज्जिनैर्लक्षा:- ४,३१ [य] असो न म्रियते यस्मात् ४,१९ शतं पूर्णभाषस्य- ५,१८ ।। यतो बज्नाति सदृष्टिर्नर- ५,२६ असंख्यातगुणान्यस्माद्रसस्थानानि यावत्कालमुदीर्यन्ते- ४,३३ ४,५५ देवाणुनारकायुर्बध्नोतः- ५,२४ । ये सन्ति यस्मिन्नुपयोगअसम्प्राप्तमनादेयमयशो- ५,७ [न] योगाः अविभागपरिच्छेदाः ४,५६ न दुर्भगमनादेयं दुःस्वरं ४,२९ योगिन्यौदारिको दण्डे ४,८ [आ नृगतिः कार्मणं पूर्ण- ५,१२ योगे क्रियिके मिश्रे- ४,२३ आद्ये संहनने क्षिप्ते ५,१४ नृगतिः पूर्णमादेयं पञ्चाक्ष- ५,९। मोगदिशभिस्तस्मान्मिश्र-४,२१ आबाधोस्थितावस्था- ४,३५ [प] आबाधोनाऽस्ति सप्तानां ४,३४ पज्जत्ती पाणा विय सुगमा ४,४ विग्गहगइमावण्णा [उ] परघात इव गत्यन्यतराभ्यां- वेद्यायुनामगोत्राणां ४,३८ उदये विंशतिः सैक- . ५,११ उदितं विद्यमानञ्च परतः परतः स्तोक:५,२५ षड्विंशति शतान्युक्त्वा- ५,१० उवसम-खइए-सम्म परं भवति तिर्यक्षु ५,२२ षष्टिः पञ्चाधिका बन्धं ४,४२ पाको तावलिका- ४,१८ [ए] षाड्विंशतमिदं स्थानं ५,१५ पुद्गलाः ये प्रगृह्यन्ते, ४,४६ [स] एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च षट् ४,९ पूर्वकेन परं राशि गुग सत्रयोदशयोगस्य [क] यित्वा- ४,११ सप्तवावलिकाशेषेकम्मसरूवेणागयदव्वं ४,३२ प्रकृति परिणाम:- ४,४९ सम्यक्त्वतो न मिथ्यात्वं ४,१५ कर्मप्रवादाम्बुधिबिन्दुकल्प प्रकृतिस्तिक्तता निम्बे ४,५१ सम्यक्त्वं कारणं पूर्व- ४,४३ चतुर्विधो ५,५७ पृथक्तीर्थकृता योगे- ५,१९ सयलरसरूपगंधेहि- ४,४५ कालमावलिकामानं 1 [व] सयोगेन योगतः सातं ४,४१ कालक्षेत्र-भवं ४,४८ बन्धकालो जघन्योऽपि ३,२ सहस्राः पञ्चभङ्गानामष्ट- ५,८ कषायाणां द्वितीयानामुदये ४,४० बन्धयोग्यगुणस्थाने ३,१ । सासादनो यतो जातु ४,२० [ग] बन्धस्य हेतवो येऽमी- ४,२६ सुभगं बादरादेये निर्मित- ५,१३ गुणस्थानविशेषेषु ४,६० बन्धविचारं बहुविधिभेदं ४,५९ सुरणिरया णरतिरियं ५,२६ घोरसंसारवाराशित- ४,३० बन्धे कत्युदये सत्त्वे सन्ति ५,१ संस्थाप्य सांसन द्वेधा- ४,२२ चरिम-अपुण्णभवत्थो- ४,४७ बायर-सुहमगिदिय वि-ति ४,२ स्थानानां त्रिविकल्पानां- ५,२३ [भ] स्वभावः प्रकृति या- ४,५० छट्टो त्ति पढमसण्णा ४,५ भागोऽसंख्यातिमः- ४,५३ स्वहेतुजनितोऽप्यर्थ:- ४,६ जघन्यो नाधरो यस्माद- ४,५२ भोगामुमा देवायु- ५,३ स्वामित्वभागभागाभ्यां ४,४४ ४,१७ ४,२८ ४,१४ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतत्ति-गत-पद्यानुक्रमणी ६२३ ५६३ ६२४ आवरणदेसघादंतराय आरणमंतरायं आवरणमंतराइय आवरणमंतराए आहरदि अणेण मुणी आहरदि सरीराणं आहारमप्पमत्तो आहारदसणेण य आहारसरीरिदिय आहारं तित्थयरं ६१४ ५६४ ५७८ ५८३ ६२१ ५७४ ५७३ ६१७ ६३६ ४२७ [अ] अक्खरणंतिमभागो अगुरुगलहुगचउक्कं अगुरुगलहुगुवघादा अगुरुयलहुगुवघाया अगुरुगलहुगुवघादं ५६५ अज्जसकिर्तीय तहा अज्ञो जन्तुरनीशोऽयअट्ठण्हमणुक्कस्सो ६१८ अट्ठत्तीस सहस्सा ६५४ अट्ठ य सत्त य छक्क य ६३४ । अट्ठविधकम्मवियला ५७३ अट्ठविहमणुदीरितो अट्टविह-सत्त-छबंधगा ५९६ अट्ठ विह सत्त सो [ छ ] ६३१ अट्ठविहं वेदंता ५९७ अट्ठसु एगरियप्पो ६३२ अट्ठसु पंचसु एगे ६४५ अट्ठारह पयडीणं ६१५ अट्ठावीसं णिरए ६०१ अट्ठयारस तेरस अट्टेव सदसहस्स- ५८९ अड छव्वीसं सोलस ६४७ अडदालीस मुहुत्ता ५८३ अण एइंदियजादी अणमिच्छमिस्स सम्म ५६० अणमिच्छमिस्स सम्म अणियट्टिबादरे थीणगिद्धितिग ६६० अणुवद-महव्वदेहि य ५९५ अण्णदरवेदणीयं ६६१ अण्णदरवेदणीयं ५६२ अण्णदरवेदणीयं ५६२ अण्णदरवेदणीयं ५६३ अण्णाणतिगं च तहा अथिरासुहं तहेव य अदिभीमदंसणेण ५७४ अदिसयमादसमुत्थं ५४३ अधो गौरवधर्माणः अप्पपरोभयबाधा ५७९ अप्पप्पवुत्तिसंचिद ५७७ अप्रतिबुद्धे श्रोतरि ५८५ अरहंतसिद्धचेदिय अरहंतादिसु भत्तो ५९५ अल्पाक्षरमसंदिग्धं ५८५ अवमदणिवारणत्थं ५४१ अवधीयदि त्ति ओही अवसेसा पगडीओ ६२३ अविभागपलिदच्छेदो ६२९ अविरद-अंता दसयुं ६०५ असिदिसदं किरियाणं ५४५ अस्सग्णिय-सण्णोणं ५७४ अहमिदा विय देवा ५७६ अहिमुहणियमिदबोधण ५७९ अहसुचरियसयलजय [ ] आई मंगल करणं ५५१ आउगभागो थोदो ६२४ आउगस्स पदेसस्स ६२५ आऊणि भवविदागी ६२४ आणादिज्जं णिमिणं आदाउज्जो उदओ ६३८ आदाउज्जोवाणमणुदय ६३८ आदाउज्जोवाणं ६२० आदाव सोधम्मो ६२२ आदिमज्ावसाणे ६३० आदी मज्झवसाणे ५४३ आदी विय संघडणं ५६२ आदी विय संघडणं आभीयमासुरक्खा ५७९ आयारं सुद्दयडं आलस्योद्योतिरात्मा भोः ५४७ ६३८ ५६५ इक्क य छक्केयारं इक्क य छक्केयारं ६५० इक्कावण्णसहस्सा ६५३ इक्कं च दो य चत्तारि ६३३ इगि तिणि पंच पंच य ६०१ इगि दुग दुगं च तिय चदु ६०४ इगि विगलिंदिय सयले ६५६ इगिवीसं चउवीसं ६३७ इगिवीसं चउवीसं इगिवीसं पणुवीसं ६४१ इच्चेवमादिया जे ५८२ इत्थि-णउंसयवेयं इदरेदरपरिमाणं . ५७२ इयकम्मपगडिट्ठाणाणि ६५७ इयकम्मपगडिपगदं इयकम्मपयडिपयदं ६३० इय वंदिऊण सिद्धे ५४१ इरियावहमाउत्ता ५९७ इह जाहि बाधिदा विय ५७४ इंगाल जाल अच्ची इंदियमणोधिणा वा ५८४ [उ] उवओगा जोगविही ५८७ उक्कस्सजोगी सण्णी ६२७ उक्करसमणुक्कस्सो ६१५ ५६१ ५६३ ६६२ ५४४ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधानुक्रमणी ५७६ ५७३ ६५८ उक्कस्समणुक्कस्सो ६१६ एदे पुव्वुद्दिट्टा ५७४ उश्कुट्ठि ( उगुसट्ठि) एदेसिं पुन्वाणं ५५० मप्पमत्तो ६५८ एवं कम्मविधाणं उच्चारिदम्हि दु पदे एयक्खेत्तपगाढं ६२४ उज्जुवमणुज्जुगं पिअ ५८० एय णqसयवेयं ५६३ उज्जोवमप्पसत्थं एयारसंगमूलो ५४४ उज्जोवरहियविगले एयंतबुद्धदरिसी ५९० उज्जोवरहियसयले ६४० एयं सुहुमसरागो ६४८ उत्तरपयडीसु तहा ५९८ एवं कदे मएपुण ५८३ उदधिसहस्सस्स तहा ६१५ एवं विउला बुद्धी ५८२ उदयस्सुदीरणस्स य ५६२ एवं सुहुमसरागो उदयस्सुदीरणस्स य ६५७ एसो दु बंधसामित्तो उदीरेइ णामगोदे एसो बंधसमासो उम्मग्गदेसओ मग्ग- ५९४ [ ओ] उवजोगा जोगविही ५८६ ओरालिय तम्मिस्सं ५.७५ उवयरणदसणेण ५७४ ओसा यहि मिग ५७७ उवरदबंधे चदुपंच ६३२ [ ] उवरिल्लपञ्चया पुण ५९० अंडज पोदज जरजा ५७७ उवघादं परधादं ५६४ अंतयडदसं अणुत्तरो ५४४ उवसमख इयं च तहा - ५७६ अंतोमुत्तमज्झं उवसंतखीणमोहें [क] उवसंत-खीणमोहो ५७० कः कण्टकानां प्रकरोति ५४७ उवसंते खीणम्मि य ६४६ कदि बंधतो वेददि ६३१ उवसंते खीणे वा ५८० कधं चरे कधं चिट्ठे ५४४ कम्मेव य कम्मभवं ५७८ एइंदिएसु चत्तारि ५८६ काऊ काऊ य तहा ५८१ एइंदिय थावरयं ६२२ कारिसतणि?मग्गी ५७९ एओ चेव महप्पो ५४४ कालः सृजति भूतानि ५४७ एककस्योपसर्गस्य ५४२ काले चदुण्ह वुड्डी एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़: ५४७ काले विणए उवघाणे ५७५ एक्कारसेसु तिय तिय ५८७ किण्हा भवरसवण्णा ५८१ एक्केक्कम्मि य वत्थू ५५० किमिरागं चक्कमलं एक्कं च दोण्णि चउबंधगेसु ६३६ कि बंधोदयपुत्वं एक्कं च दोव तिण्णि य ६०० कीडंति जदो णिच्चं ५७६ एगुत्तर असिदीओ कुंथु पिपोलगमक्कुण ५७७ एगेगमट्ठ एगेगमट्ट ६५५ केवलणाणावरणं ६२२ एगेगं इगितीसे ६४३ केवलणाणी लोगं ५७३ एत्तो हणदि कसायट्ठयं केवलिणं सागारो ५८४ एदे खलु चोत्तीसा कोटकोटी दशा एषां ६१२ एदे णवाहियारा ५६५ कोसुंभो जह रागो ५७३ [ख] खयउवसमं विसोही ५५६ खवणाए पट्टवगो ५८३ खीणकसाय दुचरमे ६६१ खीणकसाय दुचरिमे खुल्लग वरडग अक्खग ५७७ [ग] गइ इंदिएसु काए ५७५ गदिआदिएसु एवं गदिकम्म विणिवत्ता गुणजीवा पज्जत्ती ५७० गुणट्ठाणएसु अट्ठसु ६४८ गोदेसु सत्त भंगा ६३३ [घ] घादीणं अजहण्णो ६१८ घादीणं छदुमत्था घोलणजोगिमसण्णी ६२८ [च] चउतीसं चउवण्णं ५६४ चउदस सरागचरमे ६२१ चउपच्चइओ बंधो चक्खु अचक्खू ओघी ५७६ चक्खु विहीणे ते इंदियाण ५७४ चक्खू घाणं जिब्भा ५७४ चक्खूणं जं पस्सदि ५८० चत्तारि आदि णवबंध ६३५ चत्तारि पगडिट्ठाणाणि ५९९ चत्तारि वि छेत्ताई चदुगदियमग्गणा विय चागी भद्दो चोक्खो ५८१ चारणवंसो तह पंचमो। चंडो ण मुयदि वेदं [छ] छउमत्थयाय रइयं ६१२ छक्कावक्कमजुत्तो ५४४ छण्णव छत्तिय सत्त य । ६५५ छण्हमसण्णिट्टिदोण ६१७ छण्हं पि अणुक्कस्सो ६२५ छदब्वणवपदत्थे ५७० ५५४ ५८२ ५५४ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह ५८२ ५९७ ५९६ ५८२ ५६४ ५७२ ५७८ ६५८ ५ / ० ५८० ५४९ ५४४ ६४२ ५७७ ५७३ ५८१ ६११ ५६२ ५७७ छप्पंचणवविधाणं छप्पंचमुदीरितो छसु ट्ठाणएसु सत्त? छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु कृस्संठाणं च तहा छाएदि सयं दोसेण छादालसेसमिस्सो छेत्तूण य परिमायं [ज] जणवय संमद ठवणा जदं चरे जदं चिट्टे जलरेणुभूमिपव्वद जह कंचणग्गिणेया जह खोत्तुवंतु उदयं जह गेरुवेण कुड्डो जह जिणवरेहिं कहियं जह पुण्णापुण्णाई जह भारवहो पुरिसो जह लोहं धम्मतं जह लोहं धम्मत जाणदि अणेण जीवो जाणदि कज्जाकज्ज जाणदि पस्सदि भुंजदि जादिजराजरामया जाहिं य जासु व जीवा जितमदहर्षद्वेषा जिब्भा फासं वयणं जीवे चउदसभेदे जीवो कत्ता य वत्ता य जेम णियमेसु य पंचिं- जेसिं ण संति जोगा जेहिं अणेगा जीवा जेहिं दुलक्खिज्जंते जो.इत्थ अपरिपुण्णो जोगा पयडि पदेसा जोगोवओगलेसाइ जो णेव सच्चमोसो जं सामण्णं गहणं ज्ञानं प्रमाणमित्याहुः ५७३ ५७९ [ण] णिरयाऊ तिरियाऊ ५६४ पउई चेव सहस्सा णिरयाऊ देवाऊ ५६४ णमिऊण अणंतजिणे णे वित्थी व पुमा ५७९ णमिऊण जिणवरिदे [त] ण य इंदिएसु विरदो ण य कुणदि पक्खवाद ५८१ तच्चाणुपुव्विसंहिदा ६६१ ण य जे भव्वाभव्वा ५८२ ततो वर्षशते पूर्णे ६१२ ण य पत्तियदि परं सो ५८१ तदियकसायचउक्कं ५६१ ण य मिक्छत्तं पत्तो ५८३ तदियकसायचउक्कं ५६२ ण य सच्चमोसजुत्तो ५७८ तसचउ पसत्थमेव य ५६१ ण रमति जदो णिच्चं ५७६ तसजीवेसु य विरदो तस थावर सुहुमाविय ५६५ णलया बाहू य तहा तस थावरादिजुगलं ६१५ णव पंचाणउदिसदा तस बादरपज्जतं ५६४ णव पंचोदयसंता तस बादरपज्जत्तं ५६५ णवमो इक्खाउगाणं ५४८ तह चेव अट्ठपगडी ५६२ णवसु चदुक्के इवके ५८७ तह णोकसायछक्कं णवि इंदियकरणजुदा ५७७ तह पउमणंदिमुणिणा णाणस्स दंसणस्स य ५५१ तासियमसंखेज्जगुणा ६२९ णाणस्स दंसणस्स य तिण्णि दस अठ्ठठाणाणि ६०० गाणस्स दंसणस्स य तिण्णि य अंगोवंगं ५६३ णाणंतराय तिविहमवि तिणि य सत्त य चदुदुग ६१४ णाणंतराय दसयं ६१५ . तिण्णेव दु वावीसे ६३७ णाणंतरायदसयं ६५८ तिण्हं खलु पढमाणं ६१२ णाणंतराय दसयं तिण्हं दोण्हं दोण्हं ५८२ णाणंतरायदसयं ६६४ तित्थयर देव-णिरयाउगं ६५९ णाणंतरायदसयं ५६५ तित्थयरमेव तीसं ५६१ णाणंतरायदसयं तित्थयराहाररहिया ६४१ णाणावरणचउक्कं ६२३ तित्थयराहारविरहियाओ ६५८ णाणोदधिणिस्संदं ५८५ ति-दु-इगि-णउदी अट्ठा ६४२ णिक्खेवे एय? [ति-दु-इगि-णउदी णउदी] ६३७ णिद्दा पयला य तहा तिय छक्क पंचचदुदुग ६०४ णिद्दा पयला य तहा ५६२ तिय दुण्णि इक्किक्काआ. ६५६ जिंदा वंचणबहुलो ___५८१ तिय दोण्णि छक्कक्क णिमिणेण सह सगवीसा ५६४ तिरियगईए चउदस ५८६ णिमिणं तित्थयरेण तिरियगई मणुयदोणि ६१४ णिम्मूल खंधदेसे तिरियंति कुडिलभावं ५७६ णिरयगई तिरियगई ५७५ ।। तिव्वकसायबहुमोह- ५९० णिरय-तिरियाणुपुब्बी तिवियप्पपगडिट्ठाणाणि ६४३ णिरयायुग देवाउग ६१३ तिसदं वदंति केई ५८१ ५७६ ५७६ ५७४ ५८५ . ५७४ ५८० ५४९ ५८० ५७८ ५७० ६२८ ६५१ ५७८ ५८० ५४२ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यानुक्रमणी ७७१ ६१४ ६६० ५९० ६२५ ५६२ ५८१ ६२९ ५८९ ६५१ ५६४ ५८३ ५७८ ५७८ ५७४ ५७४ ६२४ तिसु तेरेगे दस णव तीसण्हमणुक्कस्सो तीसं वारस उदयं तेऊ तेऊ य तहा तेण असंखेज्जगुणा तेरस कोडी देसे तेरस चेव सहस्सा तेरस णव चदु पणयं तेरस बहुप्पदेसो तेरे णव चदु पणयं तेरेसु जीवसंखेवएसु तेवीसं पणुवीसं तेवीसं पणुवीसं तं चेव सुप्पसण्णं [थ] थावर सुहुमं च तहा थावर सुहुमं च तहा थीणतिगं इत्थी विय थीणतिगं चंद तहा थूले जीवे वधकरण .. ६४३ ६४३ ६०१ ५७३ ६२४ ५७३ ६३७ ६२० ६४० ५७३ ६३८ ५८९ ५४३ ५०० m ५६५ ५६२ ५७२ दैवमेव परं मन्ये ५४७ दो छक्कट्ठ चउक्कं दो तीसं चत्तारिय ६०५ दसणपण णिरयाउग दसण मोहक्खवणे दसणमोहस्सुदए ५८२ दंसणमोहस्सुवसमगो ५८३ दसण वद सामाइय ५८० दंसा मसगा मक्खिग ५७७ [प] पउमापउमसवण्णा पडपडिहारसि मज्जा ५५१ पडिणीय अंतराए ५९३ पढम कसाय चउक्कं पढम कसाय चउक्कं पढमुदओ वुच्छिज्जइ पढमो अबंधगाणं ५४८ पढमो अरहंताणं ५४८ पढमो देसण घादी पढम भव्वं च तहा ५७६ पणग दुग पणग पणगं ६४५ पण णव इगि सत्तरसं पण णव इगिसत्तरसं पण वण्णा इर वण्णा ५९० पणिदरस मोयणेण ५७४ पणुवीसं उगुतीसं ६०१ पण्हरसण्हढिदीणं पदणामेण य भणिजिदो ५५४ पयडीए तणुकसाओ पयडी बंधण मुक्क परमाणु आदि गाहं ५८० परिहरदि जो विसुद्धो ५८० पल्लो सायर सूई पाणव्वहादिसु रदो ५९५ पाहुड पाहुडणाणो पुढवीय आऊ य तहा ५७५ पुढवी जलं च छाया पुढवी य वालुगा ५७७ पुरिस इत्थी णउंसय पुरिसस्स अट्ठ वस्सं पुरिसं कोहे कोहं माणे पुरिसं चदु संजलणं पुरुगुण भोगे सेदे पुरुमह मुदारुराल पुन्वुत्त चदुरमज्झे पुवुत्त सत्तमज्झे पंच णव दुण्णि अट्ठा पंच णव दुण्णि अट्ठा पंच य छ त्तिय छप्पंच पंचय विदियावरणं पंचरस-पंचवण्णेहिं पंच विइंदियपाणा पंचविह-चउविहेसु व पंच सुरणिरयसम्मो पंचिंदिय तिरियाणं पंचिदियं च वयणं पंचेव उदयठाणाणि पंचेव य तेणउदी प्रदीपेनार्चयेदर्कप्रमाणनयनिक्षेपः [फ] फासं कायं च तहा फासं जिब्भा घाणं [ब] बहुविह-बहुप्पयारा बादर जसकित्ती विय बादर जसकित्ती विय बादर सुहुमेगिदिय बादालं पि पसत्था बारस मुहुत्त सादं बाहिद पाणेहि जहा बुद्धी सुहाणुबंधी बंधविहाण समासो बंधस्स य संतस्स य बंधं उदय उदीरण बंधति य बेदंति य बंधोदयकम्मंसा ब्रह्मात्परं नापरमस्ति ५५० ५७४ .५७४ ६३४ ५७८ ५७३ ५७२ ५८० ५६२ ५६३ ५७३ दए अट्ठारह दसयं दस चउदस अट्ठट्ठा दस णव पण्णरसाई दस बावीसे णव दस पिधसच्चे वयणे दस सण्णीणं पाणा दहि गुलमिव वामिस्सं दुगतीस चदुरपुब्वे दुगतीस चदुरपुब्वे दुण्हं पंच य छच्चेव दुरधिगम-णिउण-परमट्ठ देवगइ सहगदाओ देवदुगपण सरीरं देवाउगमपमत्तो देवाउगं पमत्तो देवाऊ देवचऊ देवासुरिंदमहिदं देवे अणण्णभावो ६१४ ५७३ ६६२ ५८२ ६३० ६३२ ५६३ ६२० ६१६ ५६४ ५७० ५९८ ६३२ ५४७ ५८२ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ पञ्चसंग्रह मंगल णिमित्त हे, मंदो बुद्धिविहीणो [य] यत्किञ्चिद्वाङ्मयं लोके ५४१ योजनं विस्तरं पल्यं ६१२ [ ] रूसदि णिददि अण्णे ५८१ ५६२ ६१५ [भ] भविया सिद्धी जेसिं ५८२ भायं चिय अणियट्टी ५६३ भूदाणकंपवदजोग ५९४ - [म] मणपज्जवपरिहारो ५८३ मण वयणकायपंको मणसा वचिया काएण ५७७ मणुआणुपुग्विसहिदा मणुय-तिरियाणुपुव्वी मणुय-तिरियाणुपुव्वी ५६४ मणुय-तिरियाणुपुन्वी मणुयदुग इत्थिवेदं ६१२ मणुसगइ पंचिंदियजादि ६६१ मणुसगइ सहगदाओ मणुसगइ संजुदाणं मण्णंति जदो णिच्चं ५७६ मदिअण्णाणं च तहा ५७५ मदि-सुद-ओधि-मणेहिय ५८४ मदिसुदओही य तहा ५७६ मरणं पत्थेदि रणे ५८१ माया चमरि गोमुत्ति ५५७ मिच्छ णqसय वेयं ५६० मिच्छत्तं आदावं मिच्छत्तं पण्णारस ५६४ मिच्छतं वेदंतो ५७२ मिच्छादिट्ठिप्पहुदी मिच्छादिट्ठी जीवो ५८३ मिच्छादिट्ठी महारंभ ५९४ मिच्छे सोलस पणुवीस ५६० मिच्छे सोलस पणवीस मिच्छे सासणमिस्सो ५७० [मिच्छो सासणमिस्सो] ५८७ मिस्सादि णियट्टीदो मीमंसदि जो पुव्वं ५८३ मूलग्गपोरवीया ५७७ मूलट्ठिदिसु अजहण्णो ६१५ मोहस्स सत्तरि खलु ६१२ मोहस्सु [वेदस्सु] दीरणाए ५७८ मंगलणिमित्त हे वीसदि पाहुड वत्थू ५५४ वेइंदिय तेइंदिय ५७७ वे चेव सहस्साणि य ५४५ वेदणियाउग मोहे ५९७ वेदणियाउग वज्जिय वंदित्ता जिणचंदं ६३१ वंसीमूलं मेहस्स ५७९ [स] सकलमसहायमेकं ५५५ सच्चासच्चं च तहा ५७५ सण्णि-असण्णी जीवा ५७६ सत्तटबंध अट्ठोदयंस ६३१ सत्तट्ठ णव य पण्णरस सत्तत्तरि चेव सदा ६५३ सत्तरस सुहुमसरागे सत्ता जंतू य माणीय सत्तादि दस दुमिच्छे ६४८ सत्तादी अटुंता ५८९ सत्तावीसेगारं सत्तावीसं सुहमे ६६० सत्तेव अपज्जत्ता ६४५ सत्यं पिशाचात्र वने वसामो ५४७ सद्दहणासद्दहणं ५८३ सब्भावो सच्चमणो ५७८ समचउरं वेउन्विय सम्मत्तगुण णिमित्तं ६०४ सम्मत्तरयण पव्वद ५७२ सम्मत्त सत्तया पुण ५८३ सम्मामिच्छत्तेयं सम्मादिट्ठी मिच्छो ६२२ सयलससिसोमवयणं ५८५ सल्लेख्य विधिना देहं ५४२ सव्वट्ठिदीण मुक्कस्सओ ६१६ सव्वाओ वि ठिदीओ सव्वासि पगडीणं ६०४ सव्वुक्सस्सठिदीणं सव्वुवरि वेदणीए सब्वेवि पुव्वभंगा ६०४ सादिअणादि अटु य लिंपदि अप्पीकीरदि ५८१ लेसपरिणाममुक्का ५८२ लोगागासपदेसे ५७० लोभं अणुवेदंतो [व] वण्ण रस गंध फासा वण्णादीहिय भेदा ५७७ वत्थुणिमित्तो भावो ५८३ वत्थूवसाहपवरो ५४४ दयणेण वि हेदूण वि ५८२ वादाल तेरसुत्तर ६४६ वादुब्भामो उक्कलि ५७७ वारस पण सट्टाई ६५० वारस य वेदणीए वारस विहं पुराणं ५४८ वादट्ठि वेदणीए ६४४ वावण्णं चेव सदा वावरि दुचरिमे ५६० वावत्तरि दुचरिमे वावीसमेक्कवीसं ६०० वावीसमेक्कवीसं ६३३ वावीसा एगूणं ६५८ विकहा तह य कसाया ५७२ विगलिंदिय सामण्णेणुद ६३९ विग्गहगइ मावण्णा ५८३ विदिय कसाय चउक्कं ५६१ विदियावरणे णवबंध विरदे खओवसमिए विवरीय मोधिणाणं विविह गुण इड्डि जुत्तो। विएजंत फूडपंजर ५७९ ६१३ ५६६ میں ६४८ ६२५ ५७९ ५७८ ५४१ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधानुक्रमणी ६२६ सादि अणादि य धुव ५९८ सादि अणदि धुवअर्धवो ६१८ सादि अणादि धुवं सादं चदुपच्चइग ६२४ सादंता जोगंता साधारणसुहुमं चिय सामाइयम्हि दुकदे ५८० सामाइयं च पढमं ५७६ सिक्खाकिरिउवदेसा ५८३ सिद्धपदेहि महत्थं सिलभेद-पुढविभेदा ५७९ सुठ्ठवि अवट्टमाणा ५७३ सुण्हइहजीवगुणसपिणदेसु ५८५ सुभओगेसु पसंगो ५७२ सुभगादिजुयल चदुरो ५६५ सुर-णारएसु चत्तारि ५८८ सुह-दुक्खं बहुसस्सं सुहपयडीण विलोही सुहसुस्सर जुयलाविय ५६२ सुहमणिगोदअपज्जत्त सेढिअसंखेज्जदिमे ६२८ सेलसमो अट्ठिसमो ५७९ सेलेसिं संपत्तो ५७३. सेसाणं चदुगदिया ६१७ सेसाणं चदुगदिया सेसं उगुदालीसं ५६२ सो [ छव् ] वावीसेचदु ६३४ सोदूण पाठसद्द सो मे तिहुवणमहिदो ६३० सो मे तिहुवणमहिदो सोलस अट्ठक्केक्कं ५६० सोलस अट्ठक्केक्कं ५६५ सोलस मिच्छत्तंत्ता ६०५ सोलसयं चउवीसं ५८९ संखिज्जमसंखिज्ज ५८२ संखेजदिमे सेसे ६०५ संजलण लोहमेयं ५६२ सम्पुण्णं तु समग्गं संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञाः ५४७ स्वच्छन्ददृष्टिप्रविकल्पितानि ५४६ स्थितस्य वा निषण्णस्य ५४२ [ ] हस्सरदिपुरिसवेदं ५६५ ६३१ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अ ] अकामनिर्जराबाल अघातिन्योऽपि घातिन्यः अङ्गोपाङ्गत्रयं चाष्टौ अङ्गोपाङ्गत्रयं चा अङ्गोपाङ्गत्रिकं गन्धौ अजघन्यश्चतुर्भेदः अणिमादिभिरष्टाभि अनुत्कृष्टाश्चतुर्धासां अनुगोऽननुगामी च अनुद्योदयस्यादो अनुद्योतोदयेऽस्तीदं अनुद्योतोदये स्थाना अनुभागं प्रति प्रोक्ता ७०५ ७० १ ६६६ अतः प्रभृति बन्धस्य ७३६ अत्र श्वभ्रद्वयं हुण्डं ७१३ ७१५ अत्रैकविंशतं श्वभ्रअत्रैव कतिचिच्छ्लोकान् ६८२ अनन्ताः सन्ति जीवा ये ६६६ अनादेयायशःस्थूलं ७१४ अनिवृत्तौ तथा सूक्ष्मे ७३० ७३१ अनिवृत्तौ तथा सूक्ष्मे अनिवृत्तौ तु या सूक्ष्मेअनुत्कृष्टः प्रदेशाख्यः ७३० ७०६ ७०६ ६६८ ७१६ ७१७ ७१७ ६९३ ७०२ ७३९ ६७२ ६९३ ७१८ ७१६ ७३९ ६७७ ६९९ अनुभागाख्यबन्धास्तु अन्त्यग्रैवेयकान्तेषु अन्तरङ्गोपयोगः स्याअन्तरायस्य दानादि अपतीर्थकराहारे अपनीतानुपूर्वीकं अपर्याप्तमनुष्याश्च अपर्याप्तमसंप्राप्तं अपर्याप्तमसम्प्राप्तं अपर्याप्तमसम्प्राप्तं अपर्याप्ता नरागत्यां अपर्याप्तेषु कृष्णाद्या संस्कृत-पञ्चसंग्रहस्थश्लोकानुक्रमः ६९३ ७०४ ७३७ ६८० ७३८ ६६५ ६७० अपश्वभ्रानुपूर्वीक अप्रमत्तस्तथैकान्न अप्रमत्तोऽपि देवायु अप्रमत्तो यतिः पञ्च अपूर्वकरणाः कर्म अपूर्वक्षपके तीर्थअपूर्वादित्रये शान्ते अपूर्वादिकश अबनत्युदितं सत्स्या अत्युदितं सत्स्या अबध्नाद्वघ्नतः सादि अबन्धामिश्र सम्यक्त्वे अबन्धा मिश्रसम्यक्त्वे अभिवन्द्य जिनं वीरं अयशः कीर्त्यनादेय अयशः कीर्त्य नादेय अयशः षट्प्रमत्ताख्ये अयशः पट्प्रमत्ताख्ये अयशोऽगुरुलघ्वादि अल्पश्रुतेन संक्षेपा अल्पं बद्ध्वा भुजाकारे अवग्रहादिभिर्नार्थअवश्यायो हिमं बिन्दु अवाच्यानामनन्तांशो अविभागपरिच्छेदाः अशस्त वेदपाकाच्च अष्टकर्मभिदः शीती अष्टकर्मभिदः शीती अष्टधा स्पर्शनानापि ७१५ अष्टाविंशतमेतत्स्या ७३६ अष्टाविंशतमेतत्स्या ७०३ अष्टाविंशतिरत्रान्ये ७०६ अष्टाविंशतिरत्रान्य ६६४ अष्टावुदीरयन्त्येव ७०१ अष्टाशीतिर्मता सत्त्वे अष्टाशीतिः सतीत्वेक अष्टोत्कृष्टादयः शस्ता ७३३ ७२३ ७१० ७२७ ६९४ ६७५ ७३८ ७३८ ७१७ ७१८ ६७७ ६९९ ६८० ७०७ ६९४ ६६६ ६६६ ६६८ ७०७ ६९२ ६६४ ७३७ ६७५ ७३१ अष्टसप्तकपट्काग्रा ७०८ ७२१ अष्ट-सप्तक-षड्बन्धेअष्टस्वसंयताद्येषु अष्टात्रिंशत्सहस्राणि ७३१ अष्टानामस्त्यनुत्कृष्टोऽ- ७०२ अष्टाविंशतमस्तीदं अष्टाविंशत्तमानाप्ती ७१९ ७१५ अष्टौ सप्ताथ षट्बध्नन् अष्टौ स्पर्शा रसाः पञ्च असन्नभोगतिस्तेजः असन्नभोगतिस्तेजः असम्प्राप्तमनादेयं असंख्यातांशमावल्याः असंज्ञिनि च पर्याप्त असतं विक्रियद्वन्द्वं असातेन युतं चाद्यं अस्ति सत्यवचो योगो अहमिन्द्रा यथा मन्य अहोऽस्त्यात्तशरीराद्य अक्षेणैकेन यद्वेत्ति अज्ञानत्रितयेऽप्योघो [ आ ] आतपस्थावरैकाक्षं आतपोद्योतपाकोर्न आतपोद्योतयोरेकं आतपोद्योतयोरेकं आत्मप्रवृत्तिसम्मोहोआत्मानं बहुशः स्तौति आद्यकर्म त्रिकस्यान्त आद्यमाद्ये त्रयं बन्धे आद्यन्ते मानसे वाचौ आद्यन्ते मानसे वाचौ आद्ययोर्नव षट् चातोऽआद्ययोर्नव षट् चातोऽआद्ययोनिर्यते चैव ७१७ ७१८ ६९८ ७१५ ६९३ ७२१ ७२२ ७०२ ६९३ ६६९ ६६६ ७१३ ७०० ७०६ ६८३ ७०६ ७०१ ६६६ ६६६ ७१५ ६६६ ७४१ ७०३ ७१५ ६९६ ७१३ ६६७ ६७१ ७०० ७१२ ६८४ ६८५ ७०९ ७२६ ६८३ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमः ७१९ ७२८ ६९२ आद्यलेश्यात्रयोपेता - ७४१ आहारोङ्गेन्द्रियेष्वाने उद्योता बहवः सन्ति आद्याच्चतुष्कतः पश्चा- ७२० आहारोत्थापनेऽस्तीदं ७१९ उद्योतोदयभारद्वयक्षे आद्यान् कषायकांश्चैव ६८६ आहारोदयसंयुक्ते उदीरकास्तु घातीनां ६९३ आद्यावेव विना बन्ध- ७०९ आहारोदार्ययुग्माभ्यां उदीरयन्ति चत्वारः आद्यास्तिस्रोऽप्यपर्याप्ते ६७० आहारौदार्ययुग्माभ्यां ६८४ उदीरयन्ति षड्वाष्टौ आद्याः सम्यक्त्व-चारित्रे ६६८ [ ] उदीरिकास्तु घातीनां आद्येऽनन्तानुबन्ध्यूनोऽ- ७११ इति मोहोदया मिश्रे उदेति मिश्रकं मिश्रे आद्ये त्रीणि परे चैक इत्यप्रतिष्ठिताङ्गाः स्यु- ६६६ उन्मार्गदेशको जीवः ।। आद्य द्वाविंशतिर्मोहे ७२८ इत्यष्टाविंशतिर्जीव उपघातातपोद्योताः ७०५ आद्ये नाहारकद्वन्द्वं इत्यष्टाविंशतिस्थान- ६९६ उपघाते गृहीताङ्ग- ७१६ आद्ये बन्धश्चतुर्हेतु इत्याष्टाविंशतिस्थान- ७१३ उपघातोऽन्यघातश्च ७३७ आद्ये भेदास्त्रयोऽप्येको ७३१ इत्याचे दश सप्ताद्या ७२८ उपधातं युगान्यष्टी आद्ये षड् नव षट् चा- ७३२ इत्याद्ये पञ्च चत्वार ७०९ उपदिष्टं न मिथ्यादृक् ६७२ आये स्युः पञ्चपञ्चाशत् ६८४ इत्याद्ये पञ्च चत्वार ७२७ उपयोगास्तथायोगा ६८२ आद्यौ द्वौ नव बध्नीतो ६९४ इत्यासां नर-तिर्यञ्चः ७०२ उपशान्तास्तु सप्ताष्टआदिमं तु कषायाणां ७३६ । इत्युदीर्यत एकान्न [ए] आदौ त्रिनवतीकृत्वाऽ- ७२२ । इत्येताः प्रकृतीरेते ७०४ एकत्रिशच्च निस्तीर्ण- ६९८ आनतादिषु शुक्लाऽत- ६७०। इदमात्तस्य शरीरस्य ७२० एकत्रिशच्च निस्तीर्थआनपर्याप्तिपर्याप्त- ७१८ इदमेवानुपूयूनं ७१७ एकत्रिंशतमेतत्स्या- ७१८ आनापर्याप्तिपर्याप्त-. ७१९ इदमेवानुपूर्वृनं ७१८ एकत्रिसत्तथा त्रिंश- ७२५ आनुपूक्वथैकाक्षं ७०० इन्द्रियर्मनसा चार्थ- ६६८ एकत्रिंशत्तथा त्रिंश- ७३३ आबाधोना स्थिति: कर्म- ७०० इयमाद्ये द्वितीये तु . ६९४ ।। एकत्रिंशदतस्त्रिश- ७१४ आभ्यो विहाय कोपादीन् ७४२ इयमाद्ये द्वितीये तु ७१० एकत्रिंशदतस्त्रिश- ६९७ आयान्ति नोदयं यावत्- ७०० [ 3] एकत्रिंशद्भवेत्रिश- ६९८ आयुश्चतुष्टयाऽऽहार- ६८१ उच्चोच्चमुच्चनीचं च ७०९ एकत्रिंशद्भवेत् त्रिंश- ७१४ आयुर्मोहनवर्जानां ७०६ उच्चोच्चमुच्चनीचं च ७२७ एकपञ्चकसप्ताग्र- ७३३ आहारकद्वयं तीर्थ ६७७ उच्चं पाके द्वयं सत्त्वे ७०९ एकपञ्चकसप्ताष्टआहारक द्वयं तीर्थ- ६९९ उच्चं पाके द्वयं सत्त्वे ७२७ एकपञ्चकसप्ताष्ट- ७२० आहारकद्वयस्याथ ७०६ उच्च बन्धेऽथ पाकेऽन्यद ७२४ एकपञ्चकसप्ताष्ट- ७२२ आहारकद्वयस्याप्य- ७०२ उत्कृष्टः स्थितिबन्धः स्यात् ७०१ एकस्मिन् संक्षिपर्याप्तो आहारकश्च सन्त्येता ६६५ उत्कृष्टः स्यादनुत्कृत्कृष्टो ७०१ एकक्षेत्रावगाढांस्तान् आहारद्वयतीर्थेश उत्तरप्रत्यया ज्ञान ६८५ एकाग्रत्रिशतं तत्स्याआहारद्वयतीर्थेशः ६८१ उत्तरोत्तरसंज्ञाश्च एकाग्रा विंशतिः सा च ७१५ आहारद्वयमायूंषि उदधीनां सहस्रस्य ७०१ एकातोऽतो द्वयं त्रिंश ६७६ आहारद्वयमायूंषि ६६४ उदयस्थानसंख्यैवं ७२९ एकात्मपरिणामेन ७०६ आहारद्वितयेऽपास्ते ६९८ उदयादिभवर्भाव ६६३ एकादश द्विकैकेषु ६८२ आहारद्वितयेऽपास्त ७१४ उदयाः पदबन्धाश्च ७३१ एका द्वे षोडशैकान- ६७८ आहारद्धिः परीहारो उदयाद्यान्ति विच्छेदं ६७७ एकान्नत्रिशतं तत्स्याद् ७१५ आहारविक्रियश्वभ्र- ६७५ उदारे यो भवो वाऽस्यो- ६६७ एकान्नत्रिशतं तत्स्याद् आहारस्याप्रमत्ताख्यः ७०४ उद्योगतिर्यगायुष्क- ७४२ एकान्नत्रिशतं तत्स्या- ७२० mar , ME02 , . , ६७३ ७१९ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ एकान्नत्रिंशतेर्बन्धे एकान्नत्रिंशतो बन्धः एकान्नत्रिशतो बन्धे एकान्नत्रिंशदन्येवं एकान्नत्रिंशदन्यैवं एकान्यषष्टिरन्ये च एकाक्षादिष्विमाः सर्वाः एकाक्षा बादराः सूक्ष्मा एकाक्षा बादरा सूक्ष्मा एकाक्षवच्च बध्नन्ति एकाक्षविकलाक्षे च एकाक्ष - विकलाक्षेषु एकाक्षे पञ्चधोक्तं य एकाक्षे सातपोद्योते एकेन्द्रियेषु चत्वारि एकेन्द्रियेषु चत्वारि एकेन्द्रियेषु पर्याप्ताः एकोऽतोऽतो द्वयं त्रिंश एकोदशोदयोने स्युः एकोना: संयमाः सर्वे एतदेवानुपूर्व्यूनं एता एवोदयं नैव एतान्येव निरुद्योते एवं द्वयक्षगताः भङ्गाः एवं द्वासप्ततिः क्षीणाः ७२० ६७५ ७१६ ताभ्योऽन्यासु मिश्राह्वा ७३९ एतां संहति संस्थान ६९७ एतां संहति संस्थान एवं कृते मया भूय एवं देवायुषः किन्तु एषोऽष्टाविंशतेर्बन्ध : [ ए ] ऐकत्रिशतमेतत्स्या [ ओ ] ओघभङ्गोऽस्ति योगेषु ओघः केवलदृष्टेश्च दोघः सामायिकाख्यस्य ओघः संज्ञिषु मिथ्यादृग् ओघो नर-सुरायुर्भ्यां ओघो भव्येषु मिथ्यादृग् ७२२ ७२२ ७२२ ७१४ ६९८ ७२० ६६५ ६६४ ६८२ ७४० ७३३ ७४० ७१६ ७१६ ६६४ ६८२ ६६७ ६९९ ७१२ ६८६ ७१४ ६७२ ७०२ ७१७ ७३७ ७२१ ७१९ ७४० ७४१ ७४१ ७४२ ७४२ ७४२ पञ्चसंग्रह ओघो वेदत्रयेऽप्यस्ति [ औ ] औदारिकद्वयं चाद्या औदारिकं तथा वैक्रियिकऔदार्यादित्रिदेहाना[ क ] कति बघ्नाति भुङ्क्ते च कपाटस्थसयोगस्य करणो न समो भिन्न कर्मबन्धविशेषस्य कर्मषट्कस्य बन्धाः स्युः कर्मषट्कं विना योगी कर्मक्षेत्रं कृषन्त्येते कर्मैव कार्मणः कायो कषायकलुषो ह्यात्मा कषाययोगजः पञ्च कषायविकथानिद्रा कषायवेदनीयं तु कषायवेदयुग्मोत् कषायवेदयुग्मैस्तु कषायवेद कषायाणां चतुष्कं च कषाया नोकषायाश्च कषायान्माध्यमानष्टो कषायोदयतस्तीव्रा कक्षा सर्वेषु काय: पुद्गलपिण्डः स्याकारीषाग्नि-तृणाग्निभ्यां कार्मणो वैक्रियौदार्यकार्मणौदार्यमिश्राभ्यां • कार्मणं शुक्ललेश्यं स्याकार्याकार्यं पुरातत्त्वकालुष्यसन्निधानेऽपि कालं भवमथ क्षेत्र किञ्चिदुन्मीलितो जीवः किञ्चिदुबन्ध समासोऽयं किं प्राग्विच्छिद्यते बन्धः कुन्थुः पिपीलिका गम्भी कुर्यात्पुरुगुणं कर्म कुसुम्भस्य यथा रागो ७४१ ७०३ ६७४ ६७४ ७०८ ७१९ ६६४ ६९४ ६९४ ६९३ ६६८ ६६७ ६७६ ६८३ ६६४ ६७४ ७३० ७२८ ७१२ ६७७ ६६९ ७३७ ६९२ ६६५ ६६६ ६६८ ७२९ ६८५ ६७० ६७२ ६६४ ७०७ ६७४ ७०७ ६८० ६६६ ६६८ ६६४ केवलिश्रुतसंघानां कोविदैरखिला ज्ञेया कृमिनीलीहरिद्राङ्गकृष्णा नीलाऽथ कापोती क्रमात्पञ्च नव द्वे च क्रमात्पञ्च नव द्वे च क्रमात्पुंवदेसंज्वालाः क्रमात्पुंवेदसंज्वाला क्रमात्स्थानानि सत्तायां क्रमादष्टषडग्रे तु क्रुधः श्वाभ्रेषु तिर्यक्षु क्रुन्मानवञ्चनालोभे [ क्ष ] क्षणेऽन्त्ये ऽन्यतरद्वेद्यं क्षपितेष्वाद्यकोपादि क्षयस्यारम्भको यस्मिन् [ग] गतिकर्मकृता चेष्टा गत्यक्ष काययोगाख्या गत्यादिमार्गणास्त्वेव गत्यादिमार्गणास्वेवं गत्यादी तत्प्रयोग्यानां गुणस्थानेषु भेदौ द्वौ गुणस्थानोदिता भङ्गाः गोत्रमुच्च तथा नीचगोत्रे स्युः सप्तवेद्येऽष्टौ [ घ ] घातिकर्मक्षयोत्पन्न घातीनामजघन्योऽस्त्य [ च [ ] चण्ड: सन्ततवैरश्च चतस्रश्चानुपूर्व्यापि चतस्रश्चानुपूर्व्योऽपि चतस्रश्चानुपूर्व्योऽपि चतस्रः षट् तथा षट्क चतस्रो जातयश्चाद्यं चतस्रो जातिकाः सूक्ष्मा चतस्रोऽन्त्यक्षणे क्षीणे चतस्रोऽन्त्यक्षणे क्षीणे ६९२ ६८६ ६६८ ६६९ ६७४ ६९३ ६७७ ७०० ७३३ ७२६ ६६८ ७४१ ६८० ७११ ६७२ ६६५ ६६५ ६८६ ७३४ ७०० ७०८ ७२३ ६७५ ७०९ ६६४ ७०२ ६७१ ६७५ ६९४ ७०५ ६७७ ६७८ ७३८ ७०९ ७२६ ❤ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमः ६९९ ६८१ चतस्रो ज्ञानरुध्याद्याः ७०४ चतस्रो ज्ञानरोधे स्यु- ७०४ चतुर्गतिगताः शेषाः ७०३ चतुर्णा योगतो बन्धः ७०५ चतुर्णिकायामरवन्दिताय ६६३ चतुर्थात्प्रत्ययात्सातं ७०५ चतुर्थे दिवसाः सप्त .. ६७३ चतुर्दशसु चत्वारो ७२४ चतुर्दशकविंशत्या चतुर्विधा ध्रुवाख्याः स्यु- ६९४ चतुर्विधेन भावेन- ७०५ चतुर्विंशतिभङ्गना- ७२९ चतुर्विशतिभङ्गोत्थाः ७३० चतुविशतिभेदा ये ७२९ चतुर्षु संयतायेषु ७३६ चतुर्वसंयताद्येषु ६८० चतुःपञ्चकषट्कारा चतुःशताधिकाशीत्याऽ- ७२९ चतुःसंज्वलनेष्वन्यचत्वारिंशच्चतुर्युक्ता . ७२९ चत्वारिंशतमेकानां /७३ चत्वारिंशत्कषायाणां । ७०० चत्वारिंशद्विकामास्यु- ७२६ चक्षुषोऽचक्षुषो दृष्टे- ६७४ चातुर्गतिकजीवेषु चातुविशतमस्तीदं चारित्रमोहनीयस्य चारित्रपरिणामं वा ६६८ [छ] छपस्थेषूपयोगः स्या- ६७२ [ज] जन्तोराहारसंज्ञा स्या- ६६५ जन्तोः सम्यक्त्वलाभोऽस्ति ६७२ जरायुजाण्डजाः पोता ६६६ जात्याद्यष्टमनावेश- ६६४ जीवपाका: स्वरद्वन्द्व- ७३७ जीवयोगितयोत्पन्नो ६७२ जीवस्थान-गुणस्थान- ६७३ जीबस्थान-गुणस्थान- ७३७ १८ जीवस्थानेषु सर्वेषु ७२३ तत्रकत्रिशदेषात्र ७१४ जीवस्यौदयिको भावः ६६३ तत्रकविंशतं देव ७२० जीवाः सिद्धत्वयोग्या ये ६७१ तत्सूक्ष्मादिष्वयोगे च ७२३ जीवे स्पर्शनमेकाक्षे तथाऽष्टचतुरेकाग्रा ७३२ तथा त एव वाऽप्रत्या- ६७४ तथा मिथ्याशस्तीव- ७०४ ज्ञान-दर्शन-चारित्र- ६६४ तथैकत्रिशतो बन्धे ७२३ ज्ञानदर्शनयो रोधी ६७४ तथैकबन्धके पाके ७२३ ज्ञानदर्शनयो रोधी ६९३ तथैवागुरुलघ्वादि- ६७८ ज्ञानदृररोधमोहान्त ६७२ ज्ञानग्रोधमोहान्त तृतीयमथ कोपादि७०५ तृतीयापि द्वितीयेव ६९७ ज्ञानग्रोधविघ्नस्थाः तृतीयापि द्वितीयेव ७१४ ज्ञानदृग्रोधविघ्नेषु ७०० तितिक्षा मार्दवं शौचज्ञानदृग्रोधवेद्यान्त- ६८० तिरो यान्ति यतः पाप- ६६५ ज्ञानविघ्ने च दृग्रोधे ७०३ तिर्यक्पञ्चेन्द्रिये पाकाः ७१७ ज्ञानावृद्विघ्नगाः सर्वाः ज्ञानावृद्विघ्नयोः पञ्च तिर्यक्-श्वभ्रायुषो सूक्ष्मा- ७४१ तिर्यगायुगती नीचो- ६७८ ज्ञानावृद्द्विघ्नयोः पञ्च तिर्यग्गतौ समस्तान्य- ६८२ ज्ञानावृद्विघ्नयोष्टया तिर्यग्द्वयं नरद्वन्द्वं ६८१ ज्ञानावृत्यन्तरायस्था तिर्यम्द्वयप्रसङ्गे तु ७१८ ज्ञायन्तेऽनेकधाऽनेक तिर्यग्द्वयमसम्प्राप्त ७०२ ज्ञेया दश नवाष्टौ च ७२८ तिर्यग्द्वयमसंप्राप्त ७०३ ज्योतिर्भावनभावेषु ६७२ तिर्यग्द्वयातपोद्योत ७३९ ज्वालाङ्गारास्तथाऽचिश्च ६६६ तिर्यङ्-नरगतिद्वन्द्वे ७०१ [त] तिर्यनरायुषी तिर्यग तच्च प्रशमसंवेगा- ६७१ तिर्यनरायुषोरन्त- ७०१ तच्च सम्यक्त्व-मिथ्यात्व- ६७४ तिर्यक्ष्वाद्यानि षट्बन्धे ७३३ तच्चक्षुर्दर्शनं ज्ञेयं तिस्रो हि त्रिंशतो यद्व- ६९६ ततः शुद्धतरैर्भाव तिस्रो हि त्रिंशतो यद्व- ७१३ ततो द्वौ द्वौ च चत्वारोऽ- ७३२ तिसणामाद्यलेश्यानां ६८६ ततोऽष्टकचतुस्त्रिद्वय - ७३२ तीर्थकृत्कार्मणं तेजो ६९७ ततोऽसंख्यगुणो ज्ञेयो ७०७ तीर्थकृत्कार्मणं तेजो ७१४ तत्प्रदोषोपघातान्त- ६९२ तीर्थकृन्नरदेवायुः ७४१ तत्र त्रिंशत्तृतीयेयं ६९६ तीर्थकृच्छ्वाभ्रदेवानां ६६८ तत्र त्रिंशन्तृतीयेयं ७१३ तीर्थोनौघस्ताश्च मिथ्यादृक् ७४० तत्र प्रकृतयः पञ्च ६७४ तीब्रो लेश्या स कापोता ६७० तत्र श्वभ्रद्वयं हुण्डं ६९६ तुर्ये संहति-संस्थाने . ७०१ तत्राद्या त्रिंशदुद्योत ते च वैक्रियिक च स्यु-- ६६७ तत्राद्या त्रिशदुद्योतं तेजः कार्मणपञ्चाक्षे ७१९ तत्रकत्रिंशदेषाऽत्र ६६७ ते जिह्वाक्षान्त्यवाग्भ्यां स्युः ६८४ ० ० ० om * VW ० 999999 rur, ur ० ० V ir ७२२ ७८१ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ पनसंग्रह ६९६ ७१४ ७०१ तेजोपर्याप्तनिर्माणे त्रिवेदघ्नः कषायैः स्यु- तेजोऽपर्याप्तनिर्माणे ७१३ त्रिंशत्सा चैकयुक्पाके तेजसागुरुलघ्वाहे ७०२ त्रिंशदेषाऽत्र पञ्चाक्षं त्यक्तकृष्णादिलेश्याकाः ६७१। त्रिशदेषाऽत्र पञ्चाक्षं त्यक्त्वाऽन्या वामदृष्टिस्ता- ७४२ त्रिषूपशमकेषूपत्यक्त्वा बघ्नन्ति देवीघा- ७३९ त्रिपूपशमकेषूपत्यक्त्वाऽऽभ्यस्तिर्यगायुष्व- ७४० त्रिष्वाहारकयुग्मोना त्यक्त्वाऽऽभ्योऽप्यप्रमत्ताख्याः ७४२ त्रीन्द्रिये त्रिंय.देकाग्रे त्यक्त्वाऽऽभ्योऽपि मनुष्यायु-७३६ [ ] त्यक्त्वेताभ्यो मनुष्यायु- ७३९ दण्ड औदारिको मिश्रः । त्यक्त्वैताभ्यः सुरद्वन्द्वं ७४० । दर्शन्यणुव्रतश्चैव त्यक्त्वैताभ्यो मनुष्यायु- ७३९ दशके ज्ञान-विघ्नस्थे त्यागी क्षान्तिपरश्चोक्षो ६७१ दशद्वाविंशतेर्बन्धे त्रयः सप्त च चत्वारो दशभिर्नवभिर्युक्ता त्रयोदशसु जीवेषु ७२५ दशभिन्वभिर्युक्ता त्रयोदशदशाप्याद्ये ७२९ दशभिर्नवभिः षड्भिः त्रयोदशसुद्ग्रोधे ७२३ दशभिर्नवभिः षड्भिः त्रयोदशसु सप्ताष्टौ ७०८ दशसंज्ञिन्यतो हेयत्रयोदशाग्रमायुष्के ७२६ दशसु ज्ञान-विघ्नस्थात्रयोदशेऽष्ट पञ्चाद्याः ७१२ दशसूक्ष्मकषायेऽपि त्रयो द्वौ चानिवृत्ताख्ये दशाऽप्येते भयेनोना त्रयोविंशतितस्त्रिश- ७२६ दशापि ज्ञानविघ्नस्था त्रयोविंशतिरेकाक्षं ६९७ दशापि ज्ञान-विघ्नस्था त्रयोविंशतिरेकाक्षं दशाष्टादशसन्त्याये त्रससुस्वराप्त दशैवं षोडशास्माच्च असं बादर-पर्याप्त ६७४ दशैवं षोडशास्माच्च असं वर्णादयः सूक्ष्म- ७१३ दुःखशोकवधाक्रन्दत्रसं स्थूलं च वर्णाद्य दुरध्येयातिगम्भीर त्रसघातान्निवृत्तो यः दुर्गाहो दृष्टचित्तस्य त्रसाद्यगुरुलध्वादि ६७७ दुर्भगं चाप्रशस्तेयं त्रसाद्यगुरुलघ्वादि 'दुर्भगं सुभगं चैव प्रसाद्यगुरुलध्वादि देवगत्या च पर्याप्तप्रसाद्यगुरुलघ्वादि- ७१३ देवगत्याऽथ पर्याप्तत्रिपञ्चषट् नवाग्रा हि ७२५ देवगत्यानुपर्यो हि त्रिकपञ्चषडग्राया ७२१ देवगत्यानुगत्या च त्रिकपञ्चषडष्टाग्रा देवद्विकमनादेयत्रिक-पञ्च-षडष्टाग्रा देवद्विकमथाऽऽदेयं त्रिपञ्चाशच्छतान्येवं देवमानुष्यतिर्यञ्चः त्रिभिविना नवान्यासु देव-श्वाभ्रेषु चत्वारि त्रिलोकगोचराशेष देवश्वाभ्रेषु चत्वारि ७२९ । देव-श्वाभ्रेषु सत्तायां ७२२ ७२३ देवा देव्यश्च देव्यश्च ७३९ ६९७ देवानां नारकाणां च ६६८ देवायु रकायुश्च ७२४ ७२३ देवायुर्विक्रियद्वन्द्वं ६८० ७३३ देशे द्वितीयकोपाद्य ७१० ६८३ दोषैः स्तुणाति चात्मानं ६६८ ७१७ द्वयं चोदीरयेत्क्षीणः ६६३ द्वादशस्वादिमेष्वोघो ७४१ ६७२ द्वादशाद्याः कषाया ये ६६९ द्वादशा विरतेर्भेदः ६८३ द्वानवत्यादिकं सत्त्वे ७२१ ७१२ द्वापञ्चाशद्विहीनानि ७२९ द्वाविंशतिर्भुजाकारा ७१४ ___ द्वाविंशतिः समिथ्यात्वाः ६९४ द्वाविंशतिः समिथ्यात्वाः ७१० ७१३ द्विचत्वारिंशतस्तीवः ७०३ द्वितीयभथ कोपादि- ६७७ द्वितीयस्य चतुष्कस्य ७०६ ६८४ द्वितीया अपि कोपाद्या ६७८ ७१२ द्वितीयाप्येवमेकान्न- ६९७ द्वितीयाऽप्येवमेकान्न- ७१४ ६९४ द्वि-त्रि-सप्त-द्विषु ज्ञेया ६७२ ६८६ द्वित्रिसप्तद्विषु ज्ञेया ६७७ द्वित्र्यक्षचतुरक्षेषु द्विषडष्टचतुःसंख्या ६९२ द्विष्कापोताऽकापोता। ७३७ द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चैव ६६६ ६७१ द्वे त्यक्त्वा मोहनीयस्य ६७५ ७०३ द्वे निद्रा-प्रचले क्षीणः ७३७ ७०४ द्वे वेद्ये गतयो हास्य ६७५ ६९७ द्वे वेद्ये पञ्च दृग्रोधाः ६८१ द्वे वेद्ये गतयो हास्य- ६९४ ७०२ द्वौ चाहारी प्रमत्तेऽ-न्या ६८३ ७३७ द्वयोः पञ्चद्वयोः षट् ते ६८३ ६७८ द्वयोरेकस्तथैकोऽष्टौ ७३२ ७०६ द्वयो दर्शने त्रीणि ६८३ ७०४ द्वयोस्त्रयोदशान्येषु ६६७ ६६४ द्वयोस्त्रयोदशान्येषु ७२९ ६८२ द्वयेकानविंशती तां च ७३८ ७३२ ७३१ ७०५ ७१४. ७१२ ६८२ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमः ७७३ ६७२ ६८० ७०४ ७१४ द्वयेकाने विंशती सप्त- ६९४ दृयेकाने विंशती सप्त- ७१० दृग्मोहनक्षतैः कर्मदृग्रोधस्थचतुष्कस्य ७०२ दृग्रोधस्योदये चक्षु- ७०८ दृग्रोधे मोहने नाम्नि ६९४ दृग्रोधे नव सर्वाः षट् ६९४ दृग्रोधे नव सर्वाः षट् । ७०८ दृषभूमिरजोवारि- ६६८ दृष्टिमोहे क्षयं जाते ६७१ दृष्टिरोधे नवज्ञाने ७०२ [ध] धानस्य संग्रहो वासत् धाराप्तेजोमरुवृक्षध्मायमानं यथा लौहं [न] न कर्म बध्यते नापि न कर्म बध्यते नापि ६८४ न जातिर्न जरा दुःख-. ६६६ नत्वा सर्वान् जिनान् ६७६ न सासंयमो नान्ये ६८४ नपुंसके स्त्रियां हास्या- ७११ न बहिर्लोकनाड्याः स्यु- ६६६ न भव्या नापि ये भव्या ६७१ नभोगतियुगस्यैकनभोगतियुगस्यक- ७१३ न याति सासनः श्वभ्रं नरगत्या समेताः स्युः न रमन्ते यतो द्रव्ये नरानुपूर्वी संज्वालनरायुस्तिर्यगायुश्च नवतिद्वयु त्तरा सा च ७२१ नवतिस्त्रिद्विकैकाग्रा ७२० नवधा नो कषायाख्यं ६७४ नवबन्धत्रये सत्त्वे ७०८ नव योगाः समादिष्टाः ६८३ नवषट्कं चतुष्कं च ६९४ नववथ चतुर्वेक- ६८२ नवषट् च चतस्रश्च ७०८ नवाग्राण्युदये नणां ७१९ पञ्च-षड्-नवयुग्बन्धे ७३३ नवाष्टदशयुग्बन्धे ७३२ पञ्च-सप्त त्रिके तस्माद् ६८६ नवाष्टका दशाना तु ७३२ पञ्चसप्ताग्रविंशत्योः ७२१ न हन्ता त्रसजीवानां ६६३ पञ्चस्वतो भवेदोघः ७४१ नाणुव्रतेषु श्वभ्रायु- ६७९ पञ्चस्वाद्येऽनिवृत्त्यशे ६६५ नानाविधे धने धान्ये ६७१ पञ्चस्वाद्येषु पञ्च स्यु- ७२७ नाम्नो वेद्यस्य गोत्रस्या- ७०४ पञ्चस्वाद्येषु बन्धेषु ७११ नाराचमर्धनाराचं ६७४ पञ्च ज्ञानावृतेदृष्टे ६७८ निजयोगेन संयुक्ता ६८५ पञ्चान्तिमानि संस्थाना- ६८१ निद्रा च प्रचला व द्वे पञ्चापर्याप्तमिथ्यात्व- ६७८ निद्रानिद्रादिका ज्ञेया ६७४ पञ्चायोगे शरीराणि ६८० निःप्रमादोऽप्रमत्ताख्यः ६६४ पञ्चाशद्दशजीवानां निर्बुद्धिर्मानवान् मायी ६७१ पञ्चाक्षं कार्मणं तेजः निर्माण कार्मणं त्रिंश- ६७८ पञ्चाक्षं चतुरस्रं चो ७१९ निर्माणं चाशुभं चोप- ६९७ पञ्चाक्षं च शुभोदये ७०.३ निर्माणं चाशुभं चोप पञ्चाक्षं नद्वयं पूर्ण ७२० निर्माणं दुर्भगं वक्र- ७१६ पञ्चाक्षं सुभगं स्थूलं ६७८ निर्माणं सुभगादेय- ७१७ पञ्चाक्ष-सयो. सर्वे ६८४ निर्माणं सुभगादेय ७१८ पञ्चेन्द्रियाणि वाक्काय- ६६५ निर्माणं सुभगादेये ७२० पटकप्रतिहारासि- ६७५ निर्माणगुरुलघ्वाख्य पद्मा मन्दतरः शुक्ला ६७० निर्माणगुरुलध्वाहे ६८१ परं कर्मक्षयार्थं यत्त- ६६४ निर्माणमयशो नीचं ७०१ परघातं च संक्लिष्टा- ७०४ निर्मिच्चागुरुलध्वादि ७१३ परघातं रतिर्हास्यनिर्मिच्चागुरुलघ्वापि परघातागुरुलघ्वाह्वे ७०३ निम्मूल-स्कन्ध-शाखोप परमाण्वन्त्यभेदानि ६६९ नीचं तिर्यग्द्वयं चेति ७०४ पर्याप्तसुभगादेय- ७१९ नृगतिः कार्मणं तेजः पर्याप्तस्याङ्गपर्याप्त्या नृगतिः पूर्णपञ्चाक्षं ७१२ पर्याप्तस्यानपर्याप्त्या- ७१८ नृ-तिरश्चोः जघन्याऽन्त- ७२० पर्याप्तस्यानपर्याप्त्या गोकषायस्तु संज्वाला ६८५ ।। पर्याप्ताङ्गेऽन्यघातासनोकषायोदयाद् भाव- ६६७ पर्याप्ताङ्गेऽस्त्यपूर्णोनं नो यत्सत्यं मृषा नैव पर्याप्तानस्य सोच्छ्वास- ७१७ [प] पर्याप्तासंज्ञिपञ्चाक्षः पच्यते न मनुष्यायु- ७०३ परिहृत्यव सावा पञ्च द्वे पञ्च नाम्नि स्यु- ७२५ पाकप्रकृतयो द्वयग्रा पञ्च पञ्च चतस्रश्च ७०६ पाकप्रकृतयो याः स्युपञ्चविंशतिमेताभ्य- ७४० पाकप्रकृतिसंख्यायाः ७२९ पञ्चविंशतिरत्रान्या पाकस्थानानि पाकस्थ- ७१२ पञ्चविंशतिरत्रान्या- ७१३ पाकस्थानानि यानि स्यु- ७१८ ६७४ o ६७० r our ६८० ७४० ७१७ 959 our mm ००० Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह H ७२६ [ब] . . । . ० ७४२ v० ० ur पाकाः सप्तदर्शकान्न- ७२९ प्रशान्तान्तेषु सन्त्यष्टौ बादरं तीर्थकृन्चैता- ६८० पाकेऽत्रकचतुःपञ्च ७१५ प्रशान्तक्षीणमोहो तु ७३६ ब्रह्मव्रतीनिरारम्भः ६६९ पाके केवलिनि त्रिंश प्रसक्तः शुभयोगेषु ६६४ ... [भ] पाके दशचतुःषट्क- ७२२ प्राग्वबन्धस्तथाद्यानि ७२२ भङ्गाः कषाय-वेदैः स्यु- ७१२ पाके प्रकृतयः षष्टि- ७३० प्राग्वद्वन्धस्तथैकाग्रा ७२२ भङ्गाः द्वाविंशतः षट् स्युः ६९५ पाके श्वभ्रानुपूर्वी न ६७७ प्राग्वद्बन्धस्तथैकाक्षे ७२२ भङ्गाः द्वाविंशतेः षट् स्युः ७११ पाके षड्विंशतिः सत्त्वेऽ- ७२२ प्राग्वबन्धोदयो सत्त्वे ७२२ भङ्गाः शतद्वयं चाष्टा- ७१८ पाकेष्वष्टसु षष्टिर्या ७३० प्राण्यक्षपरिहारः स्यात् ६६४ भङ्गाः शतद्वयं चाष्टा- ७१७ पाके स्त्री-षण्ढयोस्तीर्थ ६८१ प्राप्तोऽथ र जगत्प्रान्तं ७३७ भङ्गाः श्वाभ्रेषु पञ्च स्यु- ७२४ पारुष्य-रभसत्त्व-स्त्री भयं शोकोऽरतिश्चैव ७०० पिण्डाश्चतुर्दशैतासा- ६७४ भयसंज्ञा भवेद् भीतिपुंस्त्वं संज्वलनाः पञ्च ७०६ बनतोऽष्टविधं कम भवन्ति सर्वघातिन्यो ७०४ पुंस्त्वे प्रक्षिप्य पुंस्त्वं च ७३७ बध्नन्ति कार्मणे योगे ७४० भवेत्सम्यग्मिथ्यात्व ६७१ पूर्णाऽपूर्णानि वस्तूनि बध्नन्ति वामदृष्टयाश्च ७३९ भवेत्क्षायिकसम्यक्त्वपूर्णेष्वोदारिकं षट्सु ६८३ बघ्नात्येतां च मिथ्यादृक् ७१३ भवेदसंयमस्यापि पूर्वापूर्वविभागस्थः ६६४ बध्नात्येतां मिथ्यादृक् ६९६ भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी ६७१ पूर्वोक्तं मीलने योगः ७३१ बघ्नन्त्युदीरयन्त्यन्ये भव्ये सर्वे त्वभव्येऽप्यपृथक्तीर्थकृततानि - ७१९ बन्नन्त्येता मनुष्यायु- ७३९ भागाभागस्तथोत्कृष्टापृथग्जीवसमासेषु ७२४ बन्धत्रिके त्रिक-द्वय क ७१२ भागोऽल्पोऽत्रायुषस्तुत्यो पृथिवीकायिके स्थूले ७१५ बन्धनात्पञ्चकायानां भावतो न पुमान्न स्त्री पृथिवी-शर्करा-रत्न बन्धभेदेन चेति स्युः ६९४ भावैः शुद्धतरैः कर्म- ६६४ प्रकृतिस्तिक्ततानिम्बे ७०६ बन्धस्थानानि तान्येव ७२५ भोगभूमिजवर्जानां ७०२ प्रकृतिः स्यात्स्वभावोत्र ७०६ बन्धस्थानानि सर्वाणि ७२६ भुङ्क्ते चत्वारि कर्माणि ६९३ प्रकृतीनां तु शेषाणा ६८० बन्धाः सर्वेऽपि पञ्चाक्षे ७३४ भुञ्जतेऽष्टापि कर्माणि ६७६ प्रकृतीनां तु शेषाणां वन्धाः साद्यध्रुवाः शेषा- ७०२ भ्रमरा कीटका दंशा ६६६ प्रकृतीनां तु शेषाणाबन्धादयस्त्रयस्तेषां ६८२ [म] प्रकृत्यामन्दकोपादिबन्धे तु विशती देशे मतिपूर्वं श्रुतं तच्च ६६८ प्रत्यनीको भवन्नह- ६९२ बन्धेत्र नव पाकेऽपि ७१२ मतिश्रुतावधिस्वान्तप्रत्येक उपघाते च बन्धे त्रिपञ्चपड्यु मतेनापरसूरीणां ६६८ प्रत्येक चतुरष्टैक बन्धे नवाष्टयुक् पाके ७३२ मत्यज्ञानं श्रुताज्ञान- ६८३ प्रत्येकागुरुलघ्वाह्व- ६९७ , बन्धे पञ्चानिवृत्तौ स्यु- ७२८ मत्यज्ञाने श्रुताज्ञाने ६८५ प्रत्येकागुरुलघ्वाह्वे ७१४ बन्धे पाके च सत्त्वे स्युः ७२३ मनःपर्यय आहारप्रत्येकाङ्गाः पृथिव्यम्बु बन्धे पुंवेदसंज्वालाः ६९५ मनःपर्ययबोधः स्यात् प्रत्येके उपघाते च ७१८ बन्धे वेद-संज्वाला ७१० मनसाऽन्यमनो यातं प्रत्येकौदार्ययुग्मोप बन्धेऽष्टाविंशतिः पाके ७२१ मनुष्यायुनरद्वन्द्व- ७४० प्रदेश-प्रकृती बन्धौ बन्धे स्थानानि चत्वारि ६९४ मनोवाक्कायभिक्षेर्याप्रमत्त-केवलिभ्योऽन्य- ६७९ बन्धे स्याद्विंशतिः पाके ७३३ मनोवाक्काययुक्तस्य प्रमत्तवच्च बघ्नन्त्या ७४० बन्धोक्यास्तिता सम्यग ७०८ मनोवाक्कायवक्रः सन् प्रमाण-नय-निक्षेपा- ६७३ बहिर्भवैर्यथा प्राण- ६६५ मनोवाचौ चतुर्धा स्तः ६६६ प्रशस्तास्वातपोद्योती ७०३ बहुशः शोकभीग्रस्तो ६७१ मन्यन्ते यतो नित्यं ६६६ ہ . س . THHTHHTHHTH ال . ७३२ م ७२१ س و ६७३ ६६९ ६६९ ६६६ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमः ६६६ ७३६ मात्र काय- ६८६ मलं विना तदेवाम्भः ६६४ मिथ्यादृष्टिद्वितीयांश्च ७०४ यत्रोपशान्तिमायाति ६६४ मसूराम्बुपृषत्सूची मिथ्यादृष्टौ षडाद्यानि ७३२ यत्सङ्क्रमोदयोत्कर्षामहान् धनस्तनुश्चैव ६६६ मिश्रं दधि गुडं नैव ६६३ यथाम्भः कतकेनाधो- ६६४ मायया वंशमूलावि- ६६८ मिश्रं विनाऽऽयुषो बन्धः ७०६ यथा भारवहो भारं मार्दवक्लव्यपुंस्काम- ६६८ मिश्रं विहाय कोपाद्या - ६९९ यथावस्तु प्रवृत्तं यन् मिथ्या क्रोधाश्च चत्वारोऽ- ७११ मिश्रवैक्रिययोगेन ७३० यदिन्द्रियावधिस्वान्त- ६७२ मिथ्याक्रोधाश्च चत्वारोऽ- ७२८ मिश्रसासादनापूर्वो- ७६६ यवनालमसूरातिमिथ्यात्वं दर्शनात्प्राप्ते ७२८ मिश्रायतो तु बध्नीत यशःकीर्त्या सह सूक्ष्मा- ७१६ मिथ्यात्वं श्वभ्रदेवायु- ७३६ मिश्रेऽष्टनवयुग्बन्धे ७३२ यशःस्थिरशुभद्वन्द्वमिथ्यात्वं षण्ढवेदश्च ७३८ मिश्रे सासादनेऽपूर्वे ७२९ यशःस्थिरशुभद्वन्द्व- ७१३ मिथ्यात्वं षण्ढवेदश्च , ६७७ मिश्रे ज्ञानत्रिक युग्मे ६८३ यशोऽत्रैकमपूर्वाद्ये ६९८ मिथ्यात्वं षण्ढवेदश्च मुक्तं प्रकुतिबन्धेन ६७४ यशोऽत्रैकमपूर्वाद्य ७१५ मिथ्यात्वमिन्द्रियं काय मुक्त्वा निजं निजं शेष- ६८५ यशोबादरपर्याप्तमिथ्यात्वमिन्द्रियं कायाः ६८६ मुक्त्वाऽन्याः प्रकृतीर्देवा- ७३९ याऽऽकाङ्क्षा स्यात्स्त्रियःपुंसि६६७ मिथ्यात्वपञ्चकानन्ता- ६८६ मुक्त्वा वैक्रियिकषट्क- ७४० यान्तं संस्थापयत्याशु ६७४ मिथ्यात्वपञ्चकं स्पर्शः ६८४ मुक्त्वैक संज्ञिपर्याप्त ७२५ यावदष्टादर्शकक- ७३६ मिथ्यात्वमाद्य कोपादीन् ७११ मुहूर्ताः पञ्चचत्वारि- ६७३ यावदावलिकां पाको ६८७ मिथ्यात्वमुपघातश्च ७०३ मुहूर्ता द्वादश ज्ञेया ७०१ युक्तोऽष्टान्त्यकषायर्य: ६६३ मिथ्यात्वसमवेतो यः ६६९ मुहूर्ता द्वादशात्र स्युः ७०१ युग्मं नाहारकं मिथ्या- ६८६ मिथ्यात्वस्योदयाज्जीवः ६६३ मूर्ताशेषपदार्थान् यज्ज्ञा- ६६८ । ये मारणान्तिकाहार- ६७२ मिथ्यात्वागुरुलध्वाख्ये ६७५ मूर्धोऽथो हस्तमात्रश्चा- ६६७ ये यत्र स्युर्गुणस्थाने ७२९ मिथ्यात्वगुरुलध्वाख्ये. ६९४ मूलनिवर्त्तनात्तत्स्या ६७० ये सन्ति प्रत्ययाः केचि- ६८६ मिथ्यात्वाविरती योगः ६८३ मूलाग्रपर्वकन्दोत्थाः योगाद्या नव संज्वालाः '६८५ मिथ्यात्वे त्वर्धसंशुद्धे । ६७२ मेहनं खरता स्ताब्ध्यं ६६७ योगा नवादिमा लोभोऽ-- ६८५ मिथ्यात्वेन सहकार्थ- ६६९ मोहनं द्विविधं दृष्टे- ६७४ योगाविरतिमिथ्यात्व- ६७० मिथ्यात्वेनाथ कोपादि मोहप्रकृतिसंख्यायाः ७१२ योगास्त्रयोदश ज्ञेया ६८२ मिथ्यात्वेनाद्य कोपाद्य- ७२८ मोहायुल् विना षटकं ६७६ योगिन्यौदारिको योगो ६८३ मिथ्यात्वोदयवान् जीवो ६६३ - मोहायुा विना षट्कं योगीक्षीणोपशान्तौ च ६९३ मिथ्यादृक् तीर्थकृत्त्वोना- ७३९ मोहे स्युः सत्तया सर्वाः योगो वीर्यान्तरायाख्य-६६६ मिथ्यादृक्सासनो मिश्रोऽ- ६६३ मोहोदयविकल्पाः स्यु ७३० यो न सत्यमृषारूपः मिथ्यादृग् निर्वतो लोभी ६९२ । मोहोदयविकल्पाः स्युः योनिमृदुत्वश्रस्तत्वं ६६७ मिथ्यादृशस्तु तास्तीर्थ- ७४१ मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रोप- ६६३ योनिःसरादिसंयुक्ता ६६७ मिथ्यादृशो न-तिर्यञ्चो ७०४ [य] [र] मिथ्यादृशो हि सौधर्म- ७०४ यः सूक्ष्मसाम्परायाख्ये मिथ्यादृश्यष्टचत्वारि यकाभिर्दुःखमाप्नोति ७०७ रसस्थानान्यपीष्टानि ७२९ - ६६५ मिथ्यादृश्यष्टषष्टिः स्यु- यकाभिर्यासु वा जीवा ७२९ . । रायो (ययो) रक्यं यथा ६७६ ६६२ रूपं पश्यत्यसंस्पृष्टं मिथ्यादृष्टयादिसूक्ष्मान्त- ७३२ ६६९ यच्छब्दप्रत्ययं ज्ञानं मिथ्यादृष्टिः प्रबध्नाति यत्तच्चारित्रमोहाख्यं रूपादिग्राहकत्वेन ६७४ मिथ्यादृष्टिः प्रबध्नाति, ६९९ : यत्तस्योपशमादीप- ६७१ [ल] मिथ्यादृष्टिः प्रबध्नाति ७१३ यौको म्रियते तत्रा- ६६६ लतादार्वस्थिपाषाण: ७०५ ७०५ ६६७ 99ur mar or Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ पञ्चसंग्रह ७२६ ६८० ६७५ 9urur 99 سه . ७२९ लेश्यायोगप्रवृत्ति: स्या- ६६९ वेद्यमेकतरं निर्मि ६८० श्रद्धानं यज्जिनोक्तार्थे- ६७१ लेश्याश्चतुर्पु षट् च स्यु- ६७० वेद्यमेकतरं वर्ण ६७८ श्रीचित्रकूटवास्तव्य- ७०७ लेश्याश्चतुर्पु षट् षट् स्यु- ७३१ वेद्यस्य गोत्रवद्भङ्गा श्रीचित्रकूट वास्तव्य- ७३७ लोभोदीरणतश्चास्ति ६६८ वेद्यस्य प्रकृती द्वे तु । ६७४ श्रीचित्रकूटवास्तव्य- ७४२ वेद्यायुर्नामगोत्राणि श्रुताम्भोनिधिनिष्यन्दा- ६८२ वचनैर्हेतु भी रूपैः ६७२ वेद्य द्वाषष्टिरायुष्के ७२४ श्रेण्यसंख्यातभागो हि ७०७ वज्रनाराच-नाराचे ६७८ वेद्य भङ्गास्तु चत्वारः श्वभ्रतिर्यक् सुरायुःषु वपुःपञ्चकमायुष्क ७०३ वैक्रियस्य तु षट्कस्य ७०२ श्वभ्रतिर्यरद्वये पञ्च ७०३ वर्णगन्धरसस्पर्शाः ७१५ वैक्रियिकाहारयोरेकं श्वभ्र-तिर्यग्दर्यकाक्ष- ७२० वर्णगन्धरसैः सर्व- ७०६ व्रतानां धारणं दण्ड श्वभ्रतिर्यग्नृदेवाना- ६६८ वर्णाः शुक्लादयः पञ्च व्रतानामेक भान श्वनतिर्यनरायूंषि ६८० वर्णागुरु त्रसादीनि व्रतानां भेदरूपेण श्वभ्रतिर्यङ्नरायूंषि ७०२ वर्णाद्य गुरुलघ्वादि- ६८० [श श्वभ्रतिर्यङ्नदेवानां ६७४ वर्णाद्यगुरुलघ्वादिशक्यं यन्नोदये दातु श्वभ्रतियङ्नदेवान- ७१३ वर्णाद्यगुरुलघ्वादिशिक्षालापोपदेशानां ६७२ श्वभ्रतियङ्नदेवाना ६९६ वर्णाद्यगुरुलघ्वादि- ७१४ शतं च सप्तमे श्वभ्रे ७३८ श्वभ्रतिर्यङनृदेवायु- ६७४ वर्जयित्वान्तिमं युग्म ७२१ शतानि चाष्ट षष्टयाऽमा ७२९ श्वभ्रदेवायुषी तीर्थ- ७३६ वह्निस्थं काञ्चनं यद्वन्- ६६६ शतानि पञ्चमङ्गानां ७१८ श्वभ्र-देवायुषीश्वभ्रवक्ष्ये सिद्धपदैर्बन्धो- ६७० शतान्यष्टौ चतुःषष्ट्या श्वभ्रदेवायुषी श्वभ्र- ७४० वाक्पूर्णे त्रिंशतं तत्स्याशते सप्तददौकाग्रे श्वभ्रद्वयमनादेया- ६८१ वाक्पूर्णे शतं तत्स्या- ७१८ शमको दर्शनमोहस्य ६७२ श्वभ्रादिगतिभेदात्स्यावाङ्मनोऽङ्गक्रियारूप- ६६४ शम्बूकः शङ्खशुक्ती च ६६६ श्वभ्रायुर्नास्ति देवेषु ७३६ वाततेजोऽङ्गिनो नोच्चं ६८१ शरीरपञ्चकं पञ्च ७०५। श्वभ्रायुःश्वभ्रयुग्मं च ७४१ विंशतिः स्युर्भुजाकाराः शान्तक्षीणौ तु पञ्चैता ६९३ श्वभ्रायुः श्वभ्रयुग्मोना ७४० विशतिश्चोपशान्तेऽपि शारीरादिकमात्मीय- ६६४ श्वभ्रायुषस्तु पञ्चाक्षो ७०२ विंशतिस्त्वष्टसप्ताग्राः शिलास्तम्भास्थिकाष्टाद्र- ६६८ [ ] विकल्पाः संज्ञिपर्याप्ते ७२४ शुभप्रकृतिभावाः स्यु षट्के संस्थान-संहत्यो- ७०४ विक्रियायां भवः कायो शुभस्थिरयशोयुग्मै षट्चत्वारश्चतुर्यु द्वा- ७२८ विक्रियाषट्कमाहार- ६८१ शुभस्थिरयशोयुग्मै- ७१४ षट् नृतिर्यक्षु तिस्रोऽन्त्या- ६७० विक्रियाऽहारकौदार्या ६७२ शुभस्थिरयुगे तेजोऽ- ७१६ षट्पञ्चाशे शते द्वे स्तो ७३० विक्रियाऽऽहारयुग्माभ्यां ६८४ शुभस्थिरयुगे निर्मित षद्रव्याणि पदार्थाश्च ६६३ विग्रहर्तिगतस्य स्या- ७१५ शुभस्थिरयुगे वक्रर्ता ७१७ षड्लेश्याङ्गा मतेऽन्येषां ६७० विना तीर्थकराहारं ७३६ शुभस्थिरयुगे वक्रर्ता ७१८ षड्विशतिरियं तत्र ६९६ विरतो नेन्द्रियार्थेभ्य शुभानामशुभानां च ७०१ षड्विंशतिरियं तत्र विशुद्धया च प्रकृष्टोऽनु- ७०३ शुक्लध्यानसमारूढे षड्विंशतिर्नवोद्योताविशेषस्त्रिशतो बन्धे ७२२ शेषाः बध्नन्ति मिश्राह्वाः ७४२ षड्विंशतिविनोद्योताविहाय कार्मणं चाना- ६८६ शेषापर्याप्तकानां तु ७२५ षण्ढः श्वाभ्रेषु देवेषु वृक्षाग्रे वाऽथ रथ्यायां ६७४ शेषा मिश्रोऽयतस्तासु ७३८ षण्ढस्त्रीनोकषायाः पुं- ७३६ वेदत्रयं तु संज्वाला- ६७८ शेषेषु देवतिर्यक्षु ६७२ षष्ठांशे कार्मणं तेजः वेदोदीरणया जीवो ૬૬૭ __ शोकारत्यशुभोद्योत षष्ठे सकार्मणं तेजः ६७७ ७३८ ६७५ , m ७०५ ६९७ , ७१३ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाविशतं तदानाप्तं पाविशतं तदेकान षोडशस पञ्चाक्षे षोडशप्रकृतीनां तु षोडशप्रकृतीनां तु षोडशैव कषायाः स्यु षोडशव कषायाः स्यु षोडशैव च मिथ्यात्वे षोडशैव समिथ्यात्वे [ स ] सत्तास्थानेषु नाम्नोस्पा- ७२० सत्त्वे चत्वारि पाकेऽष्टा ७२१ सत्त्वे चाद्यं चतुष्कं तु सत्त्वेन चोपशान्ता ताः सत्त्वे नवोपशान्तान्ताः सत्त्वे पञ्चचतुस्त्रिसदृष्टिरितरो पाष्टी सन्ति द्वादशसंस्थाने सत्तास्थानानि पञ्चेषु सत्तास्थानानि तस्यैवासत्तास्थानानि तेषु द्वासंख्ये येनाप्यसंख्पेन संजीपर्याप्त उत्कृष्टसंयतेषु चतुर्ष्वद्य संयतेष्वाऽऽत्मसात्कुर्वन् संशयाज्ञानिकैकान्त संस्थानं तस्य तस्याङ्गोसंस्थानस्याथ संहत्यासंस्थान संहती चाये संस्थानादिषु भेदेऽपि संस्थानेषु च षट्स्वेक सजातीयं निजं त्यक्त्वा सवाल- नोपायाणां सतिर्यग्गतिमेकाक्ष सतिर्यग्गतिमेकाक्ष सत्तास्थानानि चत्वारि संस्थानस्थाय संहत्या संस्थानस्याय संहत्या संक्षिप्योक्तमिदं कर्मसन्ति बादरपर्याप्त ७१६ ७१८ ७३६ ७२३ ७३३ ६७४ ૮૪ ६७६ ६९९ ७३३ ७२६ ७०९ ७११ ७०४ ७०० ७२१ ७२६ ७२५ ६७१ ७०६ ६६९ ६६३ ६८३ ६७४ ६७७ ७०० ६६४ ७१९ ६८५ ६६३ ६९६ ७१३ ७२१ ६९९ ७३८ ७३७ ७२५ श्लोकानुक्रमः सन्त्यनन्तानुबन्ध्याख्याः सन्त्ये केन्द्रियवद्बन्धा सप्ततिर्मोहनीयस्य सप्तत्रिंशच्चतुर्विंशसप्तवनन्त्य पूर्वाख्याः सप्तविंशतिपातु सप्त स्युनितायेषु सप्ताद्या द्वयोः सप्ता सप्तानां कर्मणां पूर्व कोटी सप्तानां कर्मणां बन्धो सप्तापर्याप्तकाः सूक्ष्मो सप्तपर्याप्तकेषु स्युः सप्तांशे चरमेऽपूर्वोऽ सप्तांशे चरमेऽपूर्वोऽ सप्ताष्टौ वा प्रबध्नन्ति सप्ताष्टौ वा प्रबध्नन्ति सप्तैवं काययोगाः स्युः सप्रमादो हि देवायुसमके क्षपके पूर्वे समादिचतुरस्र हि समुद्धातं गतो योगी सम्प्राप्तद्धिः प्रमत्ताख्यो - सम्यक्त्वात्प्रथमादुद्भ्रष्टो सम्यक्त्वात्प्रथमाद्भ्रष्टो सम्यक्त्वाम्पयताचेषु सम्यक्त्वे सासनो मिश्रसम्यग्दृष्टौ भवेत्तीकरासम्यग्मिथ्यात्वपाकेन योगे दो चतुष्कं च सयोगे विंशतिः सैक ६६८ ७३३ ७०० ६८४ ७३८ ७२१ ६७९ ७२८ ७०० ७०६ ७२५ ७०२ ७३२ ६७४ ६७२ ६६७ सम्भूयात्मप्र देशानां ६७२ ६७१ सम्यक्त्वमथ मिथ्यात्वं सम्यक्त्वस्याssदिमो लाभः ६७२ सम्यक्त्वस्याऽऽदिमांल्लाभा- ६७२ सम्यक्त्वा तीर्थकत्वं चा ७०६ सम्यक्त्वं तीर्थकृत्त्वस्याऽऽ - ६७६ सम्यक्त्वं तीर्थकृत्त्वस्याऽऽ ६९९ सम्यक्त्वं तीर्थ स्वस्था सम्यक्त्वं वेदलोभोऽन्यो सम्यक्त्वं संहृतेश्चान्त्यं ७२५ ७२३ ७३३ ६७६ ६९३ ६६७ ७३८ ७३६ ६७८ ६६३ ६७२ ६७२ ६६५ ७०१ ६६३ ७३२ ७१९ सरागसंयमादिभ्यो सर्वत्र समदृग्वेति सर्वत्रापि समोऽपक्ष सर्व शीलगुणैर्युक्तः सर्व सूक्ष्मेषु कापोता सर्वाप्यन्तर्मुहतनासर्वेऽपि मीलिता भङ्गाः सर्वेऽप्येते भयेनोना सर्वे बन्धा मनुष्येषु सर्वे वकगतो पङ्गा सर्वोत्कृष्टस्थितीनां हि सर्वोपरिमभागो हि सहस्राणि तु चत्वारि सागराणां पयस्त्रश सातासातनरायुभि सातासाते स्थिरद्वन्द्वं सातो चतुरेकाग्रा सादयश्चाधुवाः शेषासाधारणो यदाहार सान्तरस्तद्विपक्षो वा सान्यघातमपूर्णोनं साप्तविंशतमेतच्च सामान्यदेवभङ्गेषु सामान्यकेन्द्रियस्वायं सासनाः षोडशोनास्ता सासने नवतिमिश्रे सासादन: प्रकर्षेण सा स्याद्वर्षशतं वाधि साहारे न प्रमत्तेऽन्ये सुभगादेयपर्याप्त सूक्ष्मं साधारणाहारसूक्ष्मं साधारणकाले सूक्ष्मपर्याप्त के बन्ध सूक्ष्ममायुरचतुष्कं च सूक्ष्मवृत्तस्य सूक्ष्मास्ये: सूक्ष्मसाधारणं श्वभ्र सूक्ष्मसाधारणापूर्णैः सूक्ष्मसाधारण काक्ष सूक्ष्मसाधारणोद्योताः सूक्ष्मसाधारणोद्योताः ७८३ ६९२ ६७१ ६७१ ६६४ ६६९ ७२० ७२५ ७२८ ७३३ ६६७ ७०२ ७०६ ७१८ ७०० ६७९ ७०४ ७१२ ७०१ ६६६ ६८० ७१६ ७२० ७४० ७१५ ७४१ ७२१ ६६३ ७०० ६८४ ७३७ ७३८ ७०३ ७२५ ७०४ ७४१ ७०३ ७१६ ७४१ ६८० ७३७ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह सूक्ष्मादिष्वयोगे व ७३३ स्थानानि त्रीण्यतः पञ्च . ७३३ । स्वपित्युत्थापितो भूयः। ६७४ सूक्ष्मे सप्तदशानां हि ७०६ ।। स्थानानि पञ्च षट् पञ्च ७२५ स्वप्रशंसाऽन्यनिन्दा च ६९३ सूक्ष्मोपशान्तक्षीण- . स्थानान्येकषडष्टाग्रा स्वमुखेनैव पच्यन्ते ७०३ सूक्ष्मो मन्दानुभागो हि ७०३ स्थानयोर्गुणजीवानां स्वल्पागमतया किञ्चि- ७३७ सोच्छवासं चानपर्याप्त- ७१९ स्थावरापूर्णनिर्माणा- ४१४ स्ववेदोदीरणात्संज्ञा ६६५ सोच्छ्वासमानपर्याप्ता ७२० स्थावरापूर्णनिर्माण- ६९७ स्वीघादपूर्णतिर्यञ्च- ७३९ सोच्छ्वासमानपर्याप्त्य- ७१७ स्थितेरुत्कर्षका पञ्च- ७०२ [ह] सोद्योताशस्तगत्यन्य- ७१७ स्थित्युत्पादव्ययैर्युक्तं ६६८ हानि नावेति वृद्धि वा ६७१ सोद्योतोदयपञ्चाक्षी - ७१८ स्थिरादिपञ्चयुग्मानि ६८० हास्यं रतिर्जुगुप्सा भी- ६८० सौधर्मादिष्वसंख्याब्दा- ६७२ स्थिरादिषड्युगेष्वेक- ७१३ हास्यं रतिर्जुगुप्सा भी- ७०४ सौधर्मेशानयोः पीता ६७० स्थिरादिषड्युगेष्वंक- ६९६ हास्यं रतिर्नु देवश्च ७०० स्त्यानगृद्धित्रयं तिर्य- ६७७ स्थिराऽऽहारद्विकाऽदेयं हास्यषट्कं च पुंवेदः ६८० स्त्यानगृद्धित्रयं तिर्य स्थिराहारद्विकादेय- ७१४ हास्यादि षटकं षण्ढस्त्री ६८४ स्त्यानगृद्धित्रयं तिर्य- ६९९ स्थूले सूक्ष्मे त्वपर्याप्त हीनस्तृतीयकोपाद्यै- ७४२ स्त्यानगृद्धित्रयं तिर्य- ७३८ स्यन्दते मुखतो लालां ६७४ हीना तीर्थकृता त्रिंश- ६९७ स्त्यानगृद्धित्रयं श्वभ्रं स्यात्तदेवानपर्याप्ती हीनां तीर्थकृता त्रिंश- ७१४ स्त्रीपुन्नपुंसकाः प्रायो स्यात्पाञ्चविंशतं तत्र ७१९ हीना द्वितीयकोपाद्यस्त्रीपुन्नपुंसकाख्याभि ६६७ स्यात्पञ्चविंशतिरत्र हुण्डं वर्णचतुष्कं चोस्त्री-षण्ढवेदनिर्मुक्ताः । ६८५ स्यात्पञ्चविंशतिस्तत्र ७१४ हुण्डं वर्णचतुष्कं चो- ७१४ स्थानं त्रिंशतमेतत्स्या- ७१७ 'स्यान्मनःपर्ययेऽप्योघः ७४१ हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्व- ७३८ स्थानं दशनवाष्टो च - ७११ स्युः पुद्गलोदयाः पञ्च ७३७ हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्व- ७३८ स्थानं शतमस्तीदं - .. ७१९ स्युः सर्वेऽप्युपयोगेषु ७३१ हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्व- ७३९ स्थानानि त्रीणि तिर्यक्ष- ७२० स्व-परोभयबाधाया हुण्डासम्प्राप्तमिथ्यात्व- ७४१ ६८० له م Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट श्री० ब्र० पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार ( सहारनपुर ) ने प्रस्तुत ग्रन्थका स्वाध्याय कर मूल एवं टीकागत पाठोंके विषयमें कितने ही स्थलोंपर सैद्धान्तिक आपत्तियाँ उठाई हैं और उसके परिहारार्थ पाठ-संशोधनके रूपमें अनेक सझाव दिये हैं. हम उन्हें यहाँ साभार ज्यों-का-त्यों दे रहे हैं और विद्वज्जनोंसे अनुरोध करते हैं कि वे उनपर गहराईके साथ विचार करें और जो पाठ उन्हें आगमानुकूल प्रतीत हों, उन्हें यथास्थान सुधार लेवें । चूंकि मूलप्रतिमें वैसे पाठ उपलब्ध नहीं हैं, अतएव सुझाये गये पाठोंको हमने शुद्धि-पत्रके रूपमें नहीं दिया है । उनके द्वारा पूछी गई दो-एक बातोंका उत्तर इस प्रकार है पृ० १२ पर टिप्पणीमें जो "उवसमेण सह.... औपशमिकस्य सप्त दिनानि" पाठ दिया है, वह आदर्श मूलप्रतिमें हाँशियमें दिये गये टिप्पणके आधारसे दिया गया है। . पृ० २४ पर गाथाङ्क ११० से ११५ तकके अर्थमें जो अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंके नामोंका उल्लेख किया गया है, उसका आधार श्वे. नवीन कर्मग्रन्थ भाग प्रथमकी निम्न गाथा है "जा जीव-वरिस-चरमास-पक्खग्गा निरय-तिरिय-नर-अमरा । सम्माणुसव्वविरई-अहखायचरित्तघायकरा ॥१८॥ इसके अतिरिक्त नेमिचन्द्राचार्य विरचित कर्मप्रकृतिमें (जो कि अभी तक अप्रकाशित है ) भी चारों गाथाएँ आई हैं और ये गाथाएँ गो० जीवकाण्डमें भी हैं। उसके संस्कृत टीकाकारोंने उनका अर्थ करते हुए कषायों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य अनुभागशक्तिके फलस्वरूप क्रमशः नरकादि गतियोंमें उत्पत्ति है। इन दोनों टीकाओंका आधार लेकर पं० हेमराजजीने आजसे लगभग तीनसौ वर्ष पूर्व उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है उससे भी मेरे किये गये अर्थकी पुष्टि होती है। यहाँ उसका कुछ अंश उद्धृत किया जाता है "भावार्थ-पाषाणरेखा समान उत्कृष्ट [ शक्ति ] संयुक्त अनन्तानुबन्धो क्रोध जीवको नरगविष उपजाव है। हल करि कुवाजुहे भूमिभेद तिस समान मध्यमशक्ति संयुक्त अप्रत्याख्यान क्रोध तियंचगतिको उपजावै है। धूलिरेषा समान [अ] जघन्यशक्ति संयुक्त प्रत्याख्यान क्रोध जीवको मनुष्यगति उपजावै है । जलरेषा समान जघन्यशक्ति संयुक्त संज्वलन क्रोध देवगति विष उपजावै है।" ( देखो पत्र ३३ ) इस टीकाकी एक हस्तलिखित प्रति मेरे संग्रहमें है जो कि वि० सं० १७५३ के वैशाख सुदी ५ रविवारकी लिखी हुई है। कसायपाहुडमें उक्त दृष्टान्त चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक अनुभागशक्तिके ही रूपमें दिये गये हैं; किन्तु वहाँपर उनके द्वारा नरकादि गतियोंमें उत्पन्न करानेकी कोई चर्चा नहीं है। पू० ३९५ पर गा० २२८ के अन्तमें 'पमत्तिदरे' पाठ आया है। संस्कृत टीकाकारने उसका 'अप्रमत्ते' अर्थ किया है और तदनुसार हमने भी अनुवादमें 'अप्रमत्तगुणस्थान' लिखा है । परन्तु श्री० ब्र० पं० रतनचन्द्रजी मुख्तारका कहना है कि अप्रमत्तगुणस्थानमें २८ व २९ स्थानवाले नामकर्मका उदय नहीं है, केवल ३० स्थानवाले नामकर्मका उदय है। प्रमत्त गुणस्थानमें आहारकसमुद्घातके समय २८ व २९ प्रकृतिक स्थान होता है। अतः मूल पाठ 'पमत्तिदरे' के स्थानपर 'पमत्तविरदे' पाठ कर देना चाहिए और तथैव ही संस्कृत टीका और अनुवादमें भी अर्थ करना चाहिए । पर चूँकि किसी भी मूल प्रतिमें 'पमत्तविरदे' पाठ हमें नहीं मिला और न संस्कृत टीकाकारको ही, अतः शुद्धिपत्रमें उनका यह संशोधन नहीं दिया गया है, पर उनका तर्क आगमका बल रखता है, इसलिए विद्वज्जन इसपर अवश्य विचार करें। Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ पञ्चसंग्रह इनके अतिरिक्त उन्होंने और भी अनेक स्थलोंपर पाठोंके संशोधनार्थ अनेक सुझाव उपस्थित किये हैं, जो कि निम्न प्रकार हैपृष्ठ पंक्ति १११ ४ 'परिहारविशुद्धौ त एव २४ आहारकद्वि कोनाः द्वाविंशतिः २२ ।' स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदी जीवोंके भी नहीं होता ( धवल पु० २ पृ० ७३४ ) । अतः परिहारविशुद्धि संयममें स्त्रीवेद व नपुंसकवेद ये दोनों बंधप्रत्यय भी कम होकर शेष २० बंधप्रत्यय होने चाहिए (धवल पु०८ पृ० ३०५)। ५२ ४ व ८ 'पल्लासंखेज्जभागूणा ।।४१८॥' ( पंक्ति ४)। 'पल्यासंख्यातभागहीनाः।' (पंक्ति ८) के स्थानपर 'पल्लसंखेजभागृणा ॥ ४१८॥' 'पल्यसंख्यातभागहीनाः।' होना चाहिए ( महाबंध पु० २ पृ० २४३ )। २८७ २१ 'तन्न, मिथ्यात्वद्रव्यस्य देशघातिनानेव स्वामित्वात् ॥५०८-५०९॥' अनन्तानुबंधीके मिथ्यात्वका देशघातिपना कैसे ? ३३१ २४-२५ "तच्चतुर्विधबन्धकानिवृत्तिकरणक्षपकश्रेण्यां एकविंशतिकसत्त्वस्थाने २१ मध्यमकषायाष्ट क्षपिते त्रयोदशकं सत्त्वस्थानम् ।" क्षपक श्रेणीमें चारका बंधस्थान सवेदके अन्तिम समयमें या अवेदमें होगा, उस समय आठ मध्यम कषायका सत्त्व नहीं होता। ३३२ २,३,४,६,८ "ते पुण अहिया णेया कमसो चउ-तिय-दुगेगेण ॥५०॥" 'तत्थ तिबंधए २८।२४।२११४ । दुबंधए २८।२४।२१।३ एयबंधे २८।२४।२।२।' (पंक्ति ३-४)। 'तानि पुनः क्रमशश्चतुस्त्रिद्विकैकेनाधिकानि मोहसत्त्वस्थानानि ।' ( पंक्ति ६)। 'तत्त्रिबन्धानिवृत्तिक्षपके पुंवेदे क्षयं गते चतुःसंज्वलनसत्त्वस्थानं ४ ।' ( पंक्ति ८)। तीन (मान माया लोभ ) के बंधकके क्रोधका क्षय हो जानेपर ३ का सत्त्वस्थान भी होता है। इसी प्रकार दो ( माया, लोभ ) के बंधकके मानका क्षय हो जानेपर दो प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी होता है। इसी प्रकार एक ( लोभ )के बंधकके मायाका क्षय हो जानेपर एक प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी होता है। किन्तु ये सत्त्वस्थान मूल या टीकामें क्यों नहीं कहे गये ? ३४९ गुणस्थानकी अपेक्षा नामकर्मके उदयस्थानोंका कथन नहीं पाया जाता, किन्तु पृ०३८३ गाथा २०५-२०७ में गुरणस्थानवत् जाननेकी सूचना की है। इससे ज्ञात होता है कि गुणस्थानकी अपेक्षा नामकर्मके उदयस्थानोंका पाठ छूटा हुआ है। ३७५ ३५) तीर्थकरके केवलिसमुद्घातमें नामकर्मका २२ प्रकृतिक उदयस्थान कहा है, जो ठीक नहीं ३७६ है। प्रतर लोकपूरण अवस्थामें २१ प्रकृतिक उदयस्थान कहा है। उसके पश्चात् कपाट समुद्घातमें औदारिक मिश्र होनेपर औदारिकद्विक २, वज्रवृषभनाराच संहनन ३, उपघात ४, समचतुरस्रसंप्थान ५, प्रत्येकशरीर ६, के मिलनेपर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । परघात, प्रशस्तविहायोगतिके मिलनेपर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। पृ० ४२२ पर समुद्घात केवलीके २२ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं कहा है। सामान्य केवलीकी अपेक्षा २०,२६ व तीर्थंकर केवलीकी अपेक्षा २१,२७ का उदयस्थान कहा है। ३८८ ३०-३१ "तिर्यग्गतिको मनुष्यो वा मिथ्यादृष्ठिः देवगति-तदानुपूर्व्यद्वयं उद्वेल्लयति, तदा अष्टाशीतिक ८८ । तथा नारकचतुष्कमुद्वेल्लयति, तदा चतुरशीतिक ८४ ।" पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्य देवगतिद्विक या नरकचतुष्ककी उद्वेलना नहीं करता। अतः यह पाठ इस प्रकार होना चाहिए-"तिर्यग्गतिको मनुष्यो वा मिथ्यादृष्टिः देवगति-तदानुपूर्व्यद्वयं पूर्वभवे उद्वेल्य तस्य अष्टाशीतिकं ८८। तथा नरकचतुष्कमुल्य तस्य चतुरशीतिकं ८४॥". या 'मनुष्यो वा' पाठ निकाल दिया जावे। (गो० के० गाथा ६१४,६१६,६२४ ।) Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७८७ पृष्ठ पृष्ठ पंक्ति ४०२ १६,१७,१८ "तु पुनश्चतुर्गतिजीवानां त्रिंशत्क-बंधे ३० पञ्चविंशतिकोदये २५ द्वानवतिक-नवतिक सत्त्वस्थानद्वयं ९२१९०। तिर्यङमनुष्येषु त्रिंशत्कबंधे ३० पञ्चविंशतिकोदय २५ अष्टाशीतिकचतुरशीतिसत्त्वस्थानद्वयम् ८८1८४ ।" नोट-मनुष्यमें २५ का उदयस्थान आहारकसमुद्घातके समय होता है। वहाँपर देवगति-सहित २८ का या तीर्थकर-सहित २९ का बंधस्थान संभव है । प्रमत्तगुणस्थान होनेके कारण आहारकद्विकका बंधस्थान संभव नहीं। प्रमत्तगुणस्थानमें ८८ ८ ८४ का सत्त्वस्थान भी संभव नहीं है। अत: 'चतुर्गतिजीवानां' के स्थानपर 'त्रिगतिजीवानां' पाठ होना चाहिए। तथा 'तिर्यङ्-मनुष्येषु' के स्थानपर 'तिर्यक्षु' पाठ होना चाहिए । ४१८ २६,२७ "सूक्ष्म अपर्याप्तकोंके इक्कीस प्रकृतिक एक उदयस्थान जानना चाहिए। बादर अपर्याप्तकोंके चौबीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान जानो ॥२७१॥" सूक्ष्म अपर्याप्तकोंके विग्रहगतिमें नामकर्मका २१ प्रकृतिक उदयस्थान और शरीर ग्रहण करनेपर २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसी प्रकार बादर अपर्याप्तकोंके भी ये दोनों उदयस्थान होते हैं। अतः पाठ इस प्रकार होना चाहिए-'सूक्ष्म अपर्याप्तकों और बादर अपर्याप्तकोंके २१ प्रकृतिक और २४ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं ॥२७१॥' पृ० ४१७ मूलगाथा ३१ व ३२ में सातों अपर्याप्त जीव समासोंमें प्रत्येकके दो-दो उदयस्थान कहे हैं। गाथा ४३४ २२६ "मिच्छाई देसंता पण चदु दो दोणि भंगा ह!" इसमें 'दो दोण्णि' का अर्थ 'दो, दो और दो' किया गया है किन्तु इसका अर्थ 'दो दो बार' होता है। अत: 'दो तिण्णि' पाठ होना चाहिए। ४५१ ३३४] प्रमत्त गुणस्थानमें ९ योग तो तीनों वेदोंके उदयमें होते हैं। किन्तु पाहारक-द्विक काय४५९ ३५२ । योगमें मात्र पुरुषवेद होता है अत: भंग लाते समय ९ योगसे गुणाकर २४ (४ कषाय x३ वेद ४२ हास्यादि युगल ) से गुणा करना चाहिए। आहारक और आहारक मिश्र इन दो योगोंसे पृथक् गुणाकर ८ (४ कषाय x १ वेद x २ हास्यादि युगल ) से गुणा करना चाहिए । एक साथ ग्यारह योगसे गुणा कर, गुणनफलको पुनः २४ से गुरणा करना ठीक नहीं है। ४८४ ३९६-३९७ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें एक प्रकृतिक सत्त्वस्थान मोहनीय कर्मका क्यों नहीं कहा ? मायाके क्षय होनेपर मात्र बादर लोभका सत्त्व रहता है। ४८६ ३९९ 'छण्णव छत्तिय सत्त य एग दुयं तिय तियट्ठ चहुँ ।' अर्थ-६ ९ ६, ३ ७ १, २ ३ २, ३ ८४ । '२३२' में से दुसरे '२' के लिए गाथामें कौन शब्द है ? गाथाका पाठ इस प्रकार होना चाहिये-'छण्णव छत्तिय सत्त य एग दुयं तिय [दुयं] तिय? चदु।' ४३७ 'पणुवीसाई पंच य बंधा वेउन्विए भणिया ।' वैक्रियिक काययोगमें २५।२६।२८।२९।३० ये पांच बंधस्थान नामकर्मके कहे हैं। किन्तु वैक्रियिक काययोगमें २८ प्रकृतिक बंधस्थान कैसे संभव है ? क्योंकि २८ का बंधस्थान देवगति या नरकगति सहित होता है । वैक्रियिक काययोग देव व नारकियोंके होता है जो देव या नरकगतिका बंध नहीं करते । ५०१ ४३९ आहारक काययोगियोंके नामकर्मका ९१ व ९० का सत्त्वस्थान कैसे सम्भव है ? क्योंकि पाहारक काययोगके प्राहारक द्विकका सत्व अवश्य होगा। ५०३, ४४४ व टीका "अडवीस" के स्थानपर 'णव वीस' होना चाहिए। क्योंकि २८ प्रकृतिक नामकर्म उदय स्थान चारों गतियोंमें छहों पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेसे पूर्व होता है और विभंगज्ञान मन: Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ पृष्ठ ५०६ ५०७ ५१२ ५१३ गाथा पञ्चसंग्रह पर्याप्ति पूर्ण होनेके पश्चात् होता है तथा विभंग ज्ञानियोंके ८ ४ ८२ का सत्वस्थान भी नहीं होना चाहिए ( गो० क० गाथा ७२४ ) । ४५२ संयमोंके नामकर्मका ८० प्रकृतिक सस्वस्थान सम्भव नहीं है, क्योंकि अनिवृत्तिकरण क्षपक गुणस्थान में सम्भव है । किन्तु देवद्विककी उद्वेलना होनेपर ८८ प्रकृतिक सस्वस्थान सम्भव है । अतः गाथा ४५२ में ८० के स्थानपर पद होना चाहिए । ४५६ तेज पश्यामें 'नामकर्मका २६ प्रकृतिक उदयस्थान भी सम्भव है। जो सम्यग्दृष्टि देव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होता है उसके शरीर ग्रहण करनेपर २६ प्रकृतिक उदयस्थान तेज व पद्म लेश्यामें होता है। ( पृ० ३८२ गा० २०४, पृ० ३७९ गाथा १९५ ) ४६८ असंज्ञी जीवोंमें नामकर्मका २४ प्रकृतिक भी उदयस्थान है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवोंमें शरीर ग्रहण करनेपर २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । ४७१ अनाहारकोंमें नामकर्मके ३० व ३१ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होते। १४ वें गुणस्थानमें भी ९ व ८ प्रकृतिक नामकर्मका उदयस्थान होता है। १४ वे गुणस्थानवाले अनाहारक है। (देखो, पृ० ३८३ व पृ० ५०८ गा० ४५८) अतः गाथा ४७१ में 'चउ उपर' के स्थानपर 'इयं उबर' होना चाहिए। विद्वान् पाठकगण उक्त सुझाये गये पाठोंके ऊपर विचारकर आगमानुकूल अर्थका अवधारण करें । -सम्पादक Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र पृ० पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ८ २९-३० और अप्रतिष्ठित ये के पर्याप्त और अपर्याप्त ये ४-५ में बादर चतुर्गति "सप्रतिष्ठितके चार में, इतरनिगोदके बादर सूक्ष्म पर्याप्त तथा अपर्याप्त अर्थात् बादर इतरनिगोद पर्याप्त, बादर इतरनिगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म इतरनिगोद पर्याप्त, और सूक्ष्म इतरनिगोद अपर्याप्त, ये चार १० २१ ये प्राण ये द्रव्य प्राण १० २३-२४ आदिकी "तथा वचन १० ३३ वीइंदियादि एइंदियादि १२ ५ वा तीव्र उदय १३ २७-२८ और युगके आदिमें मनुओंसे उत्पन्न हुए हैं ३२ गो० जी० २०७ गो० जी० २१५ ५ भी आच्छादित करे भी दोषसे आच्छादित करे ३२ पृ० २४१ पृ० ३४१ ३० पृ० ३५४ पृ० ३५१ १२ पहले और आठवें पहले और सातवें २७ द्रव्यसंयम संयम १ भावसंयमका स्वरूप ४ विरत होना, सो भावसंयम २७ कर, कोई ३५-३६ ध० १, ३,२ गो. २० ११॥ ३३ उच्छ्वास, उद्योत ५० १२-१३ उदय १४-१५ २८ जानेपर नाम और गोत्रको छोड़कर २४ तत्र सत्त्वम् १६। जो विरतिभाव है सो संयम कर, कोई शाखाको काटकर, कोई ध० भा० ४ पृ० २९ गो० १३॥ उच्छ्वास, आतप, उद्योत बन्ध MAM जानेपर मोहनीयको छोड़कर तत्र तासां व्युच्छेदः १६॥ ६९ २३,२४, उवसंते १०१ २५ १९ चौंतीसका सत्त्व है। चौंतीसका असत्त्व है ७० २८-३० उपशान्तमोह.....''व्युच्छित्ति नहीं होती २ पञ्चकं ५ पञ्चकं ५ [ औदारिकादिशरीरबन्धनपञ्चकं ५] ७४ १ स्वात्मलामं स्यात्मलाभं ७५ २७ अप्रत्याख्यानचतुष्टयस्य देशविरते अप्रत्याख्यानचतुष्टयस्याविरते युगपद् बन्धोदयौ विच्छेदी भवतः । प्रत्याख्यानचतुष्टयस्य देशविरते Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पृ० शुद्ध भवतः । पंक्ति प्रशुद्ध २९ भवतः २ १९ संहननस्य ५ २१ अस्थिरस्य १३ अशुभस्य २३ तीर्थविधायितायाः १३ संहननस्य १ अस्थिरस्य १३ [शुभस्य३] अशुभस्य तीर्थविधायितायाः १४ २२ मनुष्यद्विकं २ औदारिक२३ समचतुरस्रसंस्थानं २ ४ णिरय मनुष्यद्विकं २ तिर्यरिद्वकं २ औदारिकसमचतुरस्रसंस्थानं १ मणिरय1सं० पञ्च सं०४ 'श्वभ्रमानवदेवेसु' इत्यादि गद्यभागः ( पृ० ७४) अपर्याप्तक जीवसमास केव० एव । १२, २२ पर्याप्तक जीवसमास २१ केव० २ ५ एव । ८८ २०-२१ मिथ्यादृष्टि संज्ञी'चार, तथा ८ १०, २८ २ चेति ३० ९ स्युः २२ कार्मणकाययोग २५ १० योगा २५ दश गुणस्थानानि भवन्ति १० । १०२ १९ मि० सा० दे० ३ चेति ६ स्युः वैक्रियिकमिश्रकाययोग १५ योगा द्वादश गुणस्थानानि भवन्ति १२ । मि० अ० दे० १०२ १०४ १०७ ३३ १,११७। १,१७७ २१ मध्ये असत्यमुषायोगौ मुक्त्वा अन्ये अनुभय- मध्ये मुक्त्वा अन्ये असत्यमृषायोगौ अनुभय१०-१२। बादरलोभः ११ संज्वलनमायां विना सप्तमे भागे दश १०॥ बादरलोभः २५ न० १०७ १०७ प० २८ ५० २२ ४ द्वाविंशति: २२। आहारकद्विकके सिवाय शेष नाईस २० विशतिः २०॥ आहारकद्विक, स्त्री तथा नपुंसक वेदके सिवाय शेष बीस अनि० सू० अनि० सू० २२ २ १८ मिथ्यात्वं खमिन्द्रियं १२० मिथ्यात्वं १ खमिन्द्रियं Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र ७६१ पु० १२१ पंक्ति २० अशुद्ध ५।६।६।४।३।२।२।१० ५।६।६।४।३।२।१० १२१ १२३ १३० १३७ १२२ २४१ १२३ २६ ४।४।३ १२५ ३६ २।२ इनका १२६ २४ एक, काय पाँच १२७ १२ २।२।१० १२७ २० २।२।१३ १२९ २९ २।२।१३ २ २।२ . १३१ ९ २ योगत्रयोदशक ५ ४।२।२।२ एदे - -१३५ ६ ३।२।१२ १३५ २७ ३।२।२।१२ ३६ ६।२०।४।३ १३६ ७ ३।२। वै० मि० ८ ४।२।२।१। एते १३७ २३ ४।२।२।१ एए १३८ २३ ३।२।२।१२ . १३९ ४ २१५२ १४४ १५ ३।२।१० १४९ ३० रहिताः १५० १२ ६।१५।४।२।२ परस्परेण १५० १८ ६।६।४।२।२।२। परस्परेण १५१६ और ७के बीचमेंx १५१ १८ हास्यादि २ भय २ योगाः १५२ ९ हास्यादि २ भययुग्म २ गुणिताः ९६०॥ १५२ १२ ३।२।१० १५२ १२ और १३ के बीचमें x १५२ २४ १०८००० १५३ ४ वैक्रियिकमिश्रेण १५४ १५४ १५४ २७ १।५।३।१।२।१......."६।४।४ १५६ ८ २० अंशे तथाकृत द्वि २ त्रि ३ हारेण भक्ते १५८ ११ ६।१०।४।२।२।९। । १५८ ३३ २५९६० २+१ ४।३ २।२।१० इनका एक, इन्द्रिय एक, काय पांच २।१० २।१३ २०१३ २।२।१३ २ एकभययुग्मं १ योगत्रयोदशक ४।२।२:१ एदे ३।२।३।१२ ३।२।१२ ६।२०१४ ३।२।१२ वै० मि. ४।२।२।२।१। एते ४।२।२।२।१ एए ३।२।१२ ११५२ ३।२।२।१० हताः ६।१५।४ परस्परेण ६।६।४ परस्परेण दसयोग-तिवेदभंगा-८०६४० हास्यादि २ योगाः हास्यादि २ गुणिताः ९६० भययुग्म३।२।२।१० ३६०।१।२।१ परस्परं गुणिताः ७२० १००८०० औदारिकमिश्रण १।५।३।१।२।२।१......"६।६।४ २० त्रि अंशे ६० तथाकृत द्वि २ त्रि ३ हारेण ६ भक्ते ६।१०।४।३।२।९ २५९२० Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ पञ्चसंग्रह पंक्ति अशुद्ध १५९ ३० काय तीन १५९ ३२ १+ + २ १६० ९ १२९६९ १६७ ५ उप० १११ १६७ २० २४१४९ = १८ १६७ २० और २१के बीच में x १६८ १५ खंति ण१७५ १३ व१४ ७ ७ काय दो १+२ १२९६० उप० ११९ उपशान्तकषाय गुणस्थानमें ९ ९ भंग होते हैं। खंति-दाण ८८ सप्तविध-षड्विधकर्मरहनेपर, मिश्रगुणस्थानवी जीवके अतिरिक्त, १७६ ३ सप्तविध कर्म१७७ ५ रहनेपर मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव १७८ ५ ६६ ६ ५ ५ ५ ०२ २२ १८२ तत्रानाद्यनन्तत्वात् । १८४ सुस्वरद्वयं २ आदेय१८५ ११ अप्पयरा ८ ६१ ० ५ २ २ तत्रानाद्यनन्तत्वात् ३ । सुस्वरद्वयं २ सुभगद्वयं २ आदेयअप्यपरा ८ ७६ १९० १३ २ १९१ २८ अंकसंदृष्टि इस प्रकार है अंकसंदृष्टि इस प्रकार है६।४।२।२।२।२।११।११।१। ६।४।२।२।२।१।१।१।१११॥ १९४ २६-२७ वा प्रमत्तो भूत्वा वाप्रमत्तो भूत्वा २०२ ३२ (६४६x२x२x२x२x२x२ (६४६x२x२x२x२x२x२x२ = ६४०८) ___ = ६४०८) २०६ १९ २।४ अयश: ४। अयशः २०७ ३ हुण्डकसंस्थानं हुण्डकसंस्थानं १ १८ २।२।२।२।२।५ २।२।२।२।२।२।५ २११ १३ वर्णचतुष्कं १ वर्णचतुष्कं ४ १४ दुर्भगं अनादेयं दुर्भगं १ अनादेयं २१५ अप्र० अप्र० २८ २९ २१० २११ -७ १६ (१+१+१+ ८+१+ ८ = २०) (१+१+१+८+ ८ = १९ ) २१५ १७. (तिर्यग्गति ) . (नरकगतिका १ तिर्यग्गति ) २१५ १८ २० = १३९५५ १९ = १३९४५ २२५६ विना तथा सासादन विना सासादन २२५ २२ ।३६॥ २२६ ११ ६४ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र ७६३ पंक्ति प्रशुद्ध १६ ६२ ९० १०७ ११९ २३ ६५ शुद्ध ६२ ९८ १०३ ११९ له لم لم له २२७ २२७ २२८ २२९ २३० २३० لم له ९ मि० अ०७२। . ४ ।७१। ११ हुण्डकासम्प्राप्त १ ७ मि. सा० . १५ २९ १०५ ९४ १०३ मि० ७०। अ०७२। ७२। हुण्डकासम्प्राप्त २ मि० सा० १५ २४ १०९ ९४ له १५ २३२ २३२ २३५ २३५ २३६ कुतः ? २३६ २३६ ३३७ ४३ २३७ २३८ २४० २४० २४१ ११ गुणस्थानानि १४। गुणस्थानानि १३॥ ३० तीर्थञ्च तीर्थङ्करञ्च २१ ७२ २४ कुतः २ ८ सुक्षमलोभस्य बन्धोऽस्ति सूक्ष्मलोभस्य [बन्धाभावात्सप्तदशप्रकृतीनां] बन्धोऽस्ति १३ अठारह प्रकृतियों अठारह तथा सूक्ष्मसाम्परायके सतरह प्रकृतियों ३१ ९ ४ ४२ २८ मत्यादि चार..। केवलज्ञानमें मत्यादि तीन." मनःपर्यय ज्ञानमें प्रमत्तादि सात गुणस्थान होते हैं । केवलज्ञानमें १७ ११७ ७४ ७४ ७७ ११७ १०१ ७४ ७७ २६ १६ ० ० ० १६ ० ० १ ३० मनुष्यायु, तिर्यगायु, मनुष्यद्विक, नरकायु, तिर्यगायु, नरकद्विक २१ औदारिक-तङ्गोपाङ्गद्वयं औदारिक-तदङ्गोपाङ्गद्वयं २५ प्रकृती २ प्रमत्तोपशम प्रकृतीरप्रमत्तोपशम३२ तिर्यग्द्विकं २ तिर्यग्मनुष्यायुर्वयं २ २५ ३०००।२००० ३०००१७०००१२००० १८ साग० ३२ साग० ३३ ३६ जघन्य अजघन्य २३ अनादि १८ सप्तदशोत्तरसर्व सप्तदशोत्तरशतसर्व२० उत्कृष्टविशुद्ध"तद्विपरीतेनोत्कृष्टमविशुद्ध उत्कृष्टं विशुद्ध तद्विपरीतेन अविशुद्ध ३२ तद्देवायुबन्धान्निरतिशये तद्देवायुरबन्धान्निरतिशये ८ अप्रमत्तसंयतके प्रमत्तसंयतके गाथा ४३२ के अर्थके नीचे दिये गये उत्थानिका वाक्यको इसी गाथाके ऊपर पढ़ें। २३ निर्बध्नाति ३। मुनिर्बध्नाति ३। २३ सेणाणं पयडीणं सेसाणं पयडीणं . २२ जघन्योत्कृष्टबन्धा जघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टबन्धा१०० २४१ x २४२ २४४ २४७ २५३ २५४ २५६ २५६ २५६ २५७ २५८ २५८ २५९ २६१ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ पञ्चसंग्रह पृ० पंक्ति अशुद्ध २९ ० ध्रुव अध्रुव ३० ३१ ० ० अध्रुव • ध्रुब , ० ० " " " " २६१ २६१ २६१ २६२ २६३ ११ ५ उत्कृ० २३ साद्यध्रुवाभ्यां अजघन्या ل اللہ له سے اس لم له २७१ २७४ २५ ४३ जघ० २६ ४३ अज० अना० २७ ४३ उत्कृ० ० २६३ २८ ४३ अनु० ० २९ आदेयं १ २७० ३१ दण्णचउक्क पसत्थं १० उपघातः १ प्रशस्तवर्ण२७१ २२ और प्रशस्त वर्ण २७४ ४ यद्य परिवर्तमान२७४ १६ संस्थानं १, संहननं १ १७ मनुष्यद्विकं ५ २७४ १७ देवद्विकं २ २७४ ३० वरणं १ निद्रानिद्रा २७५ कुतः १ . २७७ ४ तासु घातिन्यः १५ । ११ ये सर्व ६१ २८० २३ सूक्ष्मचतुः २८३ ८ णाणंतरायदययं २९ मिश्रगुणस्थानको २८८ ४ और प्रकृतियोंका अल्पतर बन्ध २८८ ६ तथा प्रकृतियोंका अधिकतर बन्ध २८८१७ देवगति-नरकगति २८९ २७ ये ३७ २९१ २८ पल्यस्याविभागप्रतिच्छेदाः ८७७६ २९७ १६,१७,१८८८८८ ८८८८ २९७ २६ अष्टधाऽष्टधा सप्तधा २९७ २९ ८८७७७ २९७ ३६ तथा आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान; ० ध्रुव, ४ उत्कृ० साद्यध्रुवाभ्यां जघन्यानुभागबन्धः साद्यध्रुवभेदाभ्यां अजघन्या४३ जघ० सादि ४३ अज० अना० ४३ उत्कृ० ४३ अनु० अनादेयं १ वण्णचउक्कापसत्थं . उपघातः १ अप्रशस्तवर्णऔर अप्रशस्त वर्ण यदा परिवर्त्तमानसंस्थानं ६, संहननं ६ मनुष्यद्विकं २ स्वरद्विकं २ -वरणं १ [ निद्रा १ प्रचला १] निद्रानिद्रा कुतः ? तासु अघातिन्यः ७५ । ये सर्व ६२ रूक्षचतुः णाणंतरायदसयं चौथे गुणस्थानको और अल्प प्रकृतियोंका बन्ध तथा अधिक प्रकृतियोंका बन्ध नरकगति ये २७ तस्याविभागप्रतिच्छेदाः ८७६ ८८८ ८८८ अष्टधाऽष्टधा अष्टधा ८८८७७ २७९ २८६ २९८२२,२३,२४ भवतः ८८ भवतः ८८ ८८ ८७ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति अशुद्ध ३०२२४, २५, २६ सत्ता ४ ४ ६ ६ पु० ३०३ ३०३ ३११ ३१३ ३१३ ३२२ ३२२ ३२३ ३२३ ३७ ३१५ ११ ३१६ १९ ३१६ २० ३२१ १४ २ ३२४ ३२४ ३२४ ३२८ ३२८ ३२९ ३२९ ३२९ ३३३ ३३३ ३३४ ३३८ ३४० ३४० ३४३ ३४४ ३४४ २४५ ३ ४|४ २६ ४१ ६ २२ नो बन्ध ३।२१। २२ सासणे २० पत्वारो पुनः मध्यमप्रत्याख्यान उदयस्था० १२ २१, १२ २१ ९ ३ १७ 2 J ६ १४ भङ्गाः । पञ्च ति २१ ति २३ २२ ८ २० १४ मिश्रसहितमष्टकं १७ १२ ९ ५ ४ २ ५४ २४ १९ २७ ३२ ३ २६ ५ १ १२ सुहमे । १२।१२।४।३।२।१ ( यथा - २२|१|१|१|१| ) १४ सत्ताईस २९-३२ किन्तु जिस स्थान होता है । २५ तेईस और १५ नारको पर्याप्तं १ स्थिरादुभंग और यशस्कोति सुस्वर और यशःकीति २x२x - ८ ) १२२४१५ १२११ शुद्धि-पत्र सत्ताईस प्रकृतिक सत्व सत्ता ४५ ६ ६ ४१५ भङ्गाः पञ्च ति २१ ति २।१२।२ शुद्ध ३।२ नौ भङ्ग ३।२।१। २ २ सासणे २१. पत्थारो पुनः मध्यमाप्रत्याख्यान उदयस्था ० २१, १३, १२ २१ २२ मिश्ररहितमष्टकं १३ ९ ५ ४ १ २ २ १२ सुमे १। १२।१२।४।३।२।१।१ ( यथा-२/२|१|१|१|१|१| ) X तेईस बाईस और X पर्याप्तं १ प्रत्येकं १ स्थिरादुर्भग, यशस्कीति सुस्वर, यशः कीर्त्ति ( २x२x२-८ ) १२/२/५ १1१1१ = ७६५ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पृ० ३४५ ३४७ ३४९ ३४९ ३४९ ३५० ३५२ ३५३ ३५५ ३५५ ३६७ ३६८ ३७६ ३८० ३८० ३८१ ३८१ ३८१ ३८२ पंक्ति प्रशुद्ध शुद्ध ११ (६x६x२x२x२x२x (६x६x२x२x२x२x२x २४२) २४२ = ) २३ प्रमत्तसंयत ३ प्रमत्त २ १+१+१+८+१+ ८ = २० १+१+८+८+१ = १९ ३ (तिर्यग्गति ( नरकगति-सम्बन्धी १ + तिर्यग्गति ४ २० = १२ संयुक्त उदयस्थान संयुक्त पच्चीसप्रकृतिक उदयस्थान १८ ३०। ३०, ३१॥ १४ ९ दुर्भगं १ २ दुर्भगं १ १७ वर्षसहस्राणि १०००। द्वाविंशतिः वर्षसहस्राणि द्वाविंशतिः ३१ स्थानं भवति । स्थानं न भवति । २३ उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य है। २४ अनन्तमुहूर्त अन्तर्मुहूर्त १७ षड्विंशतिकं २७ षड्विंशतिकं २६ १६ स्थानके ३ आठ प्रकृतिक व नौ प्रकृतिक स्थानके ३ २३ मिश्रकायनोग मिथकाययोग २९ -कायकोगमें काययोगमें १२ २९।३० २९।३०।३१ २२ उनतीस और तीस प्रकृतिक और आठ उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक नौ ३७ केवलज्ञानमें इकतीस,"तीन केवलज्ञानने तीस, इकतीस,'चार १३ २०२१।२४।२६।२७ २०।२१।२६।२७ २ २७।२८।३०।३१ २७।२८।२९।३०।३१ ४ २५।२७ २५।२६।२७ ५ २१।२५।२७।२८."२०।२१।२५ २११२५।२६।२७।२८""२०१२११२५।२६ १३ और छवीस १४ शेष सात शेष आठ २९ २१।२४।२६।२७।२८। २१२५॥२६॥२७॥२८॥ २२ स्वशरीरेषु सुस्वरेषु २९ शरीरमिश्रे २४/२५। शरीरमिश्रे २४॥ ३० २६।२७। उच्छ्वासपर्याप्तौ २६ उदयागतं २५।२६। उच्छ्वासपर्याप्तौ २६।२७। उदयागतं ३३ शरीरपर्याप्तौ २७ उदेति । शरीरपर्याप्ती २८।२९। उदेति । ५ शरीरमिश्रपर्याप्तौ २१ शरीरमिश्रपर्याप्ती २४ ६ शरीरपर्याप्ती २६ शरीरपर्याप्तौ २५, २६ २२ ६३।९२।९११९०८८।८२।८२ ९३।९२।९११९०1८८८४१८२ ८ मनुष्यद्विक नरकद्विक २२ ९३६२।६११९०। ९३१९२।९११९०॥ ३० ८१ तिर्यग्गतिको ८२। तिर्यग्गतिको ७ मिस्से ९२॥६॥ मिस्से ९२।९० ३८३ ३८३ ३८३ ३८३ ३८३ ३८३ ३८४ ३८४ ३८४ ३८५ ३८५ ३८५ ३८७ ३८८ ३८८ ३८९ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र पृ० पंक्ति प्रशुद्ध ३८९ ८ देवेसु ९३१९२१९११६०। देवेसु ९३१९२१९११९०। ३८९ १० द्विनवतिकं ९० द्विनवतिकं ९२ ३८९ १५-१६ तीर्थयुतं ९२ न आहारयुतं चास्ति ९०; तीर्थयुतं न, आहारयुतं चास्ति ९२।९०; ३८९ २६ मि० ९२ ९१ ८८ ८४ ८२ मि० ९२ ९१ ८८ ८४ ३९० ३ सू० ९३ ९२ ६१ ९० सू० ९३ ९२ ९१ ९० ३९० १८ ८८ ८४ ८२ ८८८४ ३९० १० ९ ३९१ ९ ३०१९।८ ३०।३१।९।८। ३९१ १० ७८।१०।९। ७८1७७।१०।९। ३९२ २७ ९९, ९०, ८८, ८४ ९२, ९०, ८८, ८४ १ १ प्रथमसंस्थानं १ १ वैक्रियिकशरीरं १ प्रथमसंस्थानं १ ३९७ ३६ २५२-२५१ २५०-२५१ ३९८ २३ ९११९२। ९११९३। ३९८ २९-३१ जो असंयतसम्यग्दृष्टि आदि..."देवलोकको जो असंयत सम्यग्दृष्टि देव या नारकी तीर्थंकरजाते हए कामणकाययोग प्रकृतिका बंध कर रहा है, वह मरण करके मनुष्यगतिको जाते हुए विग्रहगतिमें तीर्थंकर प्रकृति सहित देवगति युत २९ प्रकृतिक स्थानका बंध करता है, उसके कार्मणकाययोग ३९९ २८ ८८ द्वयशीतिक ८८ चतुरशीतिक ८४ द्वयशीतिक ४०१ २२ २७।२८। ४०१ २४ बन्धः १९ मः। बन्धः २९ म०। ४०१ २५ २७।२८। ४०१ २६ स० ९३।९०। स० ९२।९। ४०३ २७ मनुष्यगतियुत ४०३ २८ प० म० म० ती० प० उ०म० ती० २९ पं० ति०ाउद० २१...."पं. ति०।। पं० ति० उ०/उद० २१...... "पं० ति०४०३ ३१ सत्ता ११वंशा सत्ता ९३१९१वंशा १ २११२४।२६।३०।३१।स० १०॥ २१।२४।२५।२६।२७।२८।२९।३०।३१ १० ९२१९०1८८।८४८२। ४०४ १६ ८२, ९० ९२, ९० ४०८ ३६ स०६ ४ ४०८ ३७ ४ ४०९ ४ ४।५ ४।५ ४।५ ४५४।५४।५ ४।५ ४५ ४।५ ४५ ४५ ४।५ ४।५ ४ ४०९ ४०९ २७ और पाँचप्रकृतिक और छहप्रकृतिक ४११ २२ अयोगिकेवलीमें भी ये ही दो भङ्ग अयोगिकेवलीमें भी ये ही दो भङ्ग बन्ध विना ४११ २३ वेदनीय कर्मके बन्धका अभाव वेदनीय कर्मकी किसी एक प्रकृतिकी मनाका अभाव ४११ २४ बंधके विना x ० س ४०३ ० و Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसंग्रह पृ० पंक्ति प्रशुद्ध म ३ म ३ ४१३ १-२-३ ति २ ति२ ति २ ति २ ति २ ति२ म२ ति २ ति २ ति २ म३ ति २ म३ ति २ म ३ ४१३ १७ स० २ २।२३।२२।२२।३ स० २ २।२२।२ २।३ २।३ म ३ म ३ म ३ ३.२ ३.३ ३३ तिर्यंचोंमें आयुसम्बन्धी मनुष्योंमें आयुसम्बन्धी केवलीके १ भङ्ग बतलाया गया है। २८+१) सप्ततिकाकार अपज्जत्ते ४१८ ४१८ बादरापर्याप्तयोः ९२, ९०, ३१११। उदयाः २३ २११२४ ९२ ४१३ २४-२५-२६ म ३ ३।२ ४१३ ३५ तिर्यगायुसम्बन्धी ४१३ ३५ मनुष्यायुसम्बन्धी ४१३ ३८ केवलीके ६ भङ्ग बतलाये गये हैं। ४१३ ३९ २८+९) ४१५ २० सप्तिकाकार १० य पज्जत्ते ४१८ २५ बादरपर्याप्तयोः २६ २२, ९०, ४२१ १८ ३१। उदयाः ४२१ २४ २३ २११२१ ९२ ४२१ २६ ८२ ४२१ २८ २० ४२३ १८ ५ ५ ० ० ० ४२४ १८ ६। एता ४२७ ४२७ १० ४।५।४ ४।५।४ ४।५।४ ४२७ ४२८ १९ बं०११११ ४२८ २२ बं००० ३४ णिरयाउगं उदयं बंधं मणुयाउगं ५ । १ दो वि संता तिरियाउगं ४३३ ८ षष्ठः ५ । ४३३ २३-२८ मि० ८८ . ६। षट् प्रकृतयः सत्त्वरूपाश्च ६। एता ४५ ४५ ४।५।४ له WW बं० ११०० बं० ११ णिरयाउगं बंधं मणुयाउगं उदयं दो वि संता ५ । तिरियाउगं षष्ठ: ६। मि० له ک لا m33M لا لا لا ४३४ WWW २६ २ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ३० २२२२२२ ३६ २२२ २१ १ १ १ १ १ १ १ २ २२२२११ २२ २११ ४३७ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र ७88 शुद्ध ४।२। पृ० पंक्ति अशुद्ध ४३८ ४ ४।३।२। ४४० २९ ९९ ७ ९ ४४१ ३२ शेषाः अपूर्वकरणस्य ४४२४ क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी शेषाः अनिवृत्तिकरणस्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्व भी होता है, अतः ४५० ९-१० चतुर्भङ्गा ८१८ चतुर्भङ्गा ४५१ ४५२ ४५५ ३१ मिथ्यादृष्टौ ८०।१२। सासादने २६ (२२०८४११५२ १७ भवन्ति १४। ३२ २६ भङ्ग ३३ २६ = ) १४४ १६ अनि० ९९ १२ १०८ मिथ्यादृष्टी ८०।१२।गु० २४। सासादने ( २२०८+ ११५२ भवन्ति १७॥ ३६ भङ्ग ३६ = ) १४४ अनि० ९१ १२ १०८ ४५५ ४५५ ४५६ ४५६ ४५७ १८ सूक्ष्म० ९ ९१ २ चालीस और सूक्ष्म ९११९ चबालीस और ४६१ २६-२८ सासणे उदया ८८ सासणे उदया ८1८ ५ १९१६।५१२ २४ सासादन १३ ४६४ ४६७ ४६७ ४६७ ४६७ ४६८ ४७० ४७० ४७१ ४७५ ४७५ ४७५ ४७५ ४८४ २२ सासादन ५ ८ २४ २४ अविरत ६८२५ ३१ सूक्ष्मसाम्प० ७११ १४ इस प्रकार हैं-६८, ३२ ८ दे० ५२६ २१२ २४ २८ अपूर्वकरण ७२०२४ ३६६० २१ ८८८८८ ९२१६।५१२ सासादन १२ अ० ८६०६ सासादन ५४ २४ अविरत ६८ २४ सूक्ष्मसाम्प० ७ १७ इस प्रकार हैं-६८, ३२, ३२ दे० ५२ ६ ३१२ २४ अपूर्वकरण ७ २०२४ ३३६० ८८८८४ १९२ ३६० १९ १६० २३ २ ४८४ ४८९ २४ १२ ४४ १ १२ २४१ १५ सासादनमें २, सासादनमें २८, ( इस पंक्तिको पंक्ति ७ के पश्चात् पढ़ें) २१ अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें २८, १४, २३, अप्रमत्तविरतगुणस्थानमें २८, २४, २३, २८ प्रकृतिक ९० होते हैं । ९० प्रकृतिक होते हैं। १ गुणस्थान उदयस्थान २६ ८९७९ ८०७९ ३ उपरिम दो दो छोड़कर उपरिम दो छोड़कर ४९० ४९१ ४९२ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.. पञ्चसंग्रह पंक्ति ४९४ ५०७ ५०९ ५०९ ५११ प्रशुद्ध ३३ क्षी० ० २ ३० क्षी० ०१३० ३ ८०२९७८ ७२ १० ८० ७९ ७८ ७७ १० ३ २८२९ २७।२८।२९ ४९५ ४ यियासीको बियासीको ४९५ २७ तिर्य० ६ २२, २५, २६, २७, २९, तिर्य० ६ २३, २५, २६, २८, २९, ४९५ ३२ देव० ४ २५, २६, २८, २९, ३०। देव० ४ २५, २६, २९, ३० । ४९५ २५ टौकामें टीकामें ४९८ १६ । अष्टाविशतिकवजितानि उदयस्थानान्याद्यानि अष्टाविंशतिकवर्जितानि । उदयस्थानान्याद्यानि ४९८ १८-२० स्थावरकायिकोंमें "प्रारम्भके स्थावरकायिकोंमें २८ को छोड़कर प्रारम्भके ४९८ तथा अट्ठाईसको छोड़कर आदिके तथा आदिके ५०० ७ उदयस्थाने द्वे चतुर्विशतिके उदयस्थाने द्वे षविंशतिक-चतुर्विशतिके । ५०२ २ २८।२९।३०।३१। २७।२८।२९।३०॥३१॥ ५०६ २० २१।२४।२५।२६ २१।२५।२६ १४ ८८।८४। ८८1८४१८२ ३ ये दश बन्धस्थान ये छह बन्धस्थान ५०९ नोभव्याभव्ये अयोगे नोभव्याभव्य सयोगे अयोगे २४ नवतिकादीनि त्रिनवतिकादीनि २ एकोनत्रिंशत्वैकत्रिंशत्कानि एकोनत्रिंशत्कत्रिंशत्कैकत्रिंशत्कानि ५१३ २४ बं० ६ २३, २४, २६ बं०६ २३, २५, २६ ५१४ ४ बं० ८ २२, २५ बं० ८ २३, २५ ३६ बं० ५ २५, २६, २८, २९, ३०। बं० ४ २५, २६, २९, ३० । ५१५ ६ व ९ स०४ ९३, ९२, ९१, ९०। स० २ ९३, ९२ । ५१५ २६ उ० ३ २८, ३०, ३१ । उ०३ २९, ३०, ३१ । ५१५ २७ स० ६ ९२, ९१, ९०, ८८, ८४, ८२ । स० ३ ९२, ९१, ९० । ३८ उ०७ २१,२५,२७,२८,२९,३०,३१ । उ० ८ २१,२५,२६,२७,२८,२९,३०,३१ । २ , ५१८ २ उ०६ २१,२६,२८,२९,३०,३१।। उ०७ २१, २४, २६, २८, २९, ३०, ३१ । ५१८ १२ उ० ५ २१, ३०, ३१, ९, ८। उ० ३ २१, ९,८। ५२१ १० इन इक्कीस इन इकतालीस ५२४ १ (४७) ५२५ ५ अ०४३ अ० ४३ अ०४६ अ०४३ १२ तिरेपन तिरेसठ ५२६ १०-११ गुणस्थानके अन्तिम समयमें गुणस्थानमें १२ भाष्यगाथाकार मूल सप्ततिकाकार ५३१ ६ ऊणसंजोजणविहि अणसंजोजणविहि ५३५ ३ देवगतिके साथ नियमसे बँधनेवाली दश जीवविपाकी दश ५३५ १५ ११ ५३५ १७ १४४ ११४ ४१ 'रभ्रदेव' 'श्व भ्रदेव' ५२९ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र पृ० शुद्ध अपूर्वकरणमें असत्त्व प्रकृतियाँ ३४ ४४ जाणुग-भविय १० पंक्ति अशुद्ध ५३६ १६ असत्त्व प्रकृतियाँ ५३६ १९ २४ २३ ४० ५४२ १४ जागुण-भविय ५४६ ४ पुण्य पाप ५५० ११ १०० ५५२ २८-२९ जसकित्तिणाम [ अजसकित्तिणामं ] ५६४ ९ दंसण चउ ५६४ ११ णिरयाऊ तिरियाऊ ५६४ २१ आवरणमंतराए चउ पण ५६४ २७ णिरियाउग"मणुवगइमेव । ९ छक्केक्केक्केक्क ३३ पज्जत्तेयसरीर १३ लोभ तिरिक्खगदि १९ इत्थीवेदाणं ५६७ २६ जाव ५६७ २७ प्पहुडि ५६७ ३२ 'पण मिच्छत्तस्स' ५७० १८ कम्मसंध ५७० २५ साणण दंसण णव णिरय-तिरिय-मणुयाउ आवरणमंतराए णव पण तिरियाउग"मणवतिरिगइमेव । छक्केक्केक्केक्क पत्तैयसरीर लोम[तिरिक्खाउग]तिरिक्खगदि इत्थी-पुंवेदाणं ५६७ ५६७ x एदे ६०० ६०२ ६०३ ६०५ ६०६ प्पहुडि जाव 'पण' मिच्छत्तस्स कम्मखंध सासण [ भय दुगुंछा च तेरसण्हं जोगाणमेक्कदरं ] एदेछक्केक्क अपज्जत्त अपज्जत्त सम्मामिच्छादिट्टी ९६१९११७०७०। ६९/७०1 देवीसु सम्मामिच्छादिट्ठी मणुसाउगं[तित्थयरं] पक्खित्ते ७२। णिच्चागोदाणं अजहण्णअजहण्णं [ सण्णि ".. अट्ठवीसअणाहारक अणाहारक अणाहारक ६०७ छक्कक्क २५ पज्जत्त १८ पज्जत्त १२ मिच्छादिट्ठी १६ ९६१९२।६७।६७। २० ७४।७६। २७ देवेसु २० मिच्छादिट्ठी १५ मणुसाउगं पक्खित्ते १६ ७१। १२ उच्चागोदाणं १९ य जहण्ण२१ य जहण्णं २८ [ असण्णि ' ३२ णववीस१२ आहारक१५ आहारक १८ आहारक ६०८ ६०८ لي ६१५ میں ६२६ ६२८ ६२८ ६२८ १०१ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ पञ्चसंग्रह पृ० ६३० ६३७ ६४४ ६४६ ६४६ ६४६ पंक्ति प्रशुद्ध १५ तिहुयणसहिदो १२ चउवीसं ५ असादं १ एगणतीस २ वाणउदि ४ एगूणतीस ७ एक्कतीस ३१ चत्तारि ३१ तिरियाउगं संतं; १० हाससहियाओ ३५ सत्त उदयट्ठाणं । ३६ चउवीस भंगो। एदाओ ६४७ ६४९ शुद्ध तिहुयणमहिदो चउवीसं इगिवीसं सादासादं एगूणतीस तीस वाणउदि णउदि एगूणतीस तीस तीस एक्कतीस चत्तारिबंध, चत्तारि तिरिय-तिरियाउगं संतं; भयसहियाओ अट्ठ उदयट्टाणं । चउवीस भंगो। एदाओ [ सम्मत्त वज्ज दुगुंछ सहियाओ घेतूण अट्ठ उदयट्ठाणं । एदस्स तदिओ चउवीस भंगो। एदाओ चेव भयरहियाओ पगडीओ घेत्तूण सत्त उदयट्ठाणं । एदस्स इक्को चउवोस भंगो । एदाओ चेव पगडीओ दुगुंछार: हियभयसहियाओ घेत्तूण सत्त उदयट्ठाणं । एदस्स विदिओ चउवीस भंगो। ] एदाओ ६४९ ६५० WA ६५५ ६५६ __ अट्ठ भय-दुगुंछरहियाओ सत्तावीस ८ वाण उदि णउदि अट्ठासीदि ९ चउरासीदि वासीदि एदाणि पंच १२ चत्तारि २४ ८।४।४ भयसहियाओ दुगुंछरहियाओ चउवीस वाणउदि इक्काणउदि णउदि एदाणि त्रीणि पंच ७।४।४ ६५६ ६७६ ७ ७२ ६७९ ८५ ८५ अष्टानां पुरा ११।१०। सूक्ष्मादिषु ४२।५७॥ ४३।४३॥ १२॥१२॥ ६८० २८ इष्टानां पुरा ६८४ १२ ११। सूक्ष्मादिषु ६८४ १९ ४२१७॥ ६८४ २० ४३॥१२॥१२॥४३॥ ६९३ ३० ६२२१० ७०१ __१८ स्थितिः । ३२ ६४। ७०४ ६ दशसंयतः १ शतकाख्यः ७१११ शतकाख्यः स्थितिः २। ७०३ ७०९ देशसंयतः सप्ततिकाख्यः सप्ततिकारुयः Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र ८०३ पृ० ७१२ पंक्ति २-६ अशुद्ध २२ २१ वे० शुद्ध २२ २१ १७ वे० ૮૮ ૮૮ ૮૮ ૮૮ - ૮ ૮૮ ૮૮ ९।९ ९ ९ १० ७१६ ७१७ ७२२ ७२५ ७२६ २९ २९।३०१३१ २४ २९।३०।३१। सोद्योतोदये ९ उदये ११ २१ २६१२७१३०॥ १८ च ४ ४ २९:३०। २९।३०। सोद्योतोदये उदये २१॥ २६॥२९॥३०॥ च ४ ४ ९९ ७२६ ७२६ ७२७ ७२८ ७३४ ७३४ ७३४ ७३५ ७३५ m २१ ४१।११३॥२५॥ ४२१११३।२५ २८ निथ्यादृष्टयादिषु मिथ्यादृष्ट धादिषु १३ तिर्यगायुरुदये द्वे अपि सती। तिर्यगायुरुदये द्वे अपि सती ४॥ १८ ९,८1८, ७७, ६७, ६॥ ६।८, ८1७, ७१६, ७५६ १२ २६।२७।३०॥३१॥ २६॥३०॥३१॥ १८ ८२६८०७९१७७। पुवेदे ८२१७९१७७। पुंवेदे २१ ८२।८०१७९१७७। ८२१७९७७। चक्षुर्दर्शने बन्धाः चक्षुर्दर्शने बन्धाः ८८ उदये ८-२११२५।२६।२८।२९।३० उदये ८-२१।२५।२६।२७।२८।२९।३०॥३१॥ ३१।१। १२ षटसु त्रिषु १ उदयाः ६-२१।२६।२८।२९।३०।३१ उदयाः ९-२१।२४।२५।२६।२७।२८।२९। ३०॥३१॥ २० ११ १ ० १११० ० ० १ ० ९ भागेषु २ भागेषु २ ७३५ ७३६ ०००० ७३८ ७४० २३ ७५। तथौदारिकमिश्रे ७४५ ३० सैंतीस जीवसमास ७४७ ३६ अनुष्यानु० ७५१ २१ २२ ९०५ ७५१ २२ १७ १०७ १६ ७५१ २८ ईशानकालकी ७५१ ३१ १०३ १८ ७५३६ अविरत ७५ ७५४ ५ बन्ध १०५ ७० तथौदारिकमिश्रे अड़तीस जीवसमास मनुष्यानु० २२ ९८५ १७ १०३ १६ ईशान कल्पको १०३ १ ७ अविरत ७० बन्ध १०८ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ पञ्चसंग्रह प० पंक्ति अशुद्ध ७५४६ अबन्ध ३७ ३४ ३१ ४१ ४५ ४९ अबन्ध ३ १०३७ ३४ ४४ ४८ ५२ ७५४ ७ बन्धन्यु० ४ बन्धव्यु. ७ ७५४ २८ बं० व्यु०९४६०३६ ५ १६ १० बं० व्यु० ९.४६०३६ ५ १६० यह शुद्धिपत्र भी श्री० व. पं० रतनचन्द्रजी मुख्तारने ही तैयार करके भेजा है, इसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। -सम्पादक Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________