SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चसंग्रह पाँच बन्धस्थान, दो उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी सातों ही अपर्याप्तक जीवसमास हैं । पाँच बन्धस्थान, चार उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक हैं । पाँच बन्धस्थान, पाँच उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी बादर एकेन्द्रियपर्या तक हैं। पाँच बन्धस्थान, छह उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी तीनों विकलेन्द्रिय हैं। छह बन्धस्थान, छह उदयस्थान और पाँच सत्तास्थानके स्वामी असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक हैं। तथा आठ बन्धस्थान, आठ उदयस्थान और ग्यारह सत्तास्थानके स्वामी संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जीव हैं ॥२६८-२६॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूल और टीकामें दी हुई है। अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं 'सत्तेव य पज्जत तेवीसं पंचवीस छव्वीसं । ऊणत्तीसं तीसं बंधवियप्पा हवंति ति ॥२७॥ सत्त अपजत्तेसु बंधटाणाणि २३।२५।२६।२६३० तानि कानीति चेदाह-[ 'सत्तेव य पजत्ते' इत्यादि ] सप्तसु अपर्याप्तेषु जीवसमासेषु नामप्रकृतिबन्धस्थानानि पञ्च-त्रयोविंशतिकं २३ पञ्चविंशतिक २५ षडर्विशतिकं २६ नवविंशतिक २६ त्रिंशत्कं ३० चेति । बन्धविकल्पाः पञ्च भवन्ति ॥२७०॥ २३।२५२६।२६।३०॥ __ सातों ही अपर्याप्तक जीवसमासोंमें तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीसप्रकृतिक पाँच बन्धस्थान होते हैं ॥२७०॥ सातों अपर्याप्तकोंमें २३, २५, २६, २६, ३० प्रकृतिक पाँच बन्धस्थान होते हैं। 'सुहुम-अपज्जत्ताणं उदओ इगिवीसयं तु बोहव्यो । बायरपज्जत्तेदरउदओ च उवीसमेव जाणाहि ॥२७॥ ___ उदया २१॥२४॥ . एकेन्द्रियसुचमापर्याप्तानां स्थावरलब्ध्यपर्याप्तकानां नामप्रकृत्युदयस्थानमेकविंशतिकं २१ ज्ञातव्यम् । एकेन्द्रियबादरापर्याप्तानां चतुर्विंशतिकं नामप्रकृत्युदयस्थानं २४ जानीहि ॥२७॥ एकेन्द्रियसूक्ष्म-बादरपर्याप्तयोः उदयस्थानद्वयम् २१०२४ । सूक्ष्म अपर्याप्तकोंके इकोसप्रकृतिक एक उदयस्थान जानना चाहिए । बादर अपर्याप्तकोंके चौबीसप्रकृतिक एक ही उदयस्थान जानो ।।२७१।। सूक्ष्म अपर्याप्तकके २१ प्रकृतिक और बादर अपर्याप्तकके २४ प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । सेस-अपज्जत्ताणं उदओ दो चेव होंति णायव्वा । इगिवीसं छव्वीसं एत्तो सत्तं भणिस्मामो ॥२७२॥ २१।२६ शेषाणां पन्चानामपर्याप्तानां ब्रसलन्ध्यपर्याप्तानां वे उदयस्थाने भवतः। किं तत् नामप्रकृत्युदयस्थानम् ? एकविंशतिकं २१ षड्विंशत्तिकं च । अतः परं तत्र सत्वस्थानानि वयं भणिष्यामः ॥२७२॥ पञ्चानामप्यपर्याप्तानामुदये २१॥२६॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, २६५ । 2. ५, २६६ । 3. ५, २६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy