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________________ सप्ततिका ४१३ शेष अपर्याप्त जीवसमासोंके इक्कीस और छब्बीसप्रकृतिक दो ही उदयस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। अब इससे आगे सातों अपर्याप्तक जीवसमासोंके सत्तास्थान कहेंगे॥२७२॥ शेष अपर्याप्तकोंके उदयस्थान २१ और २६ प्रकृतिक दो होते हैं । 'तेसु य संतवाणा वाणउदी णवदिमेव जाणाहि । अडसीदी चेव तहा चउ वासीदी य संतया होंति ॥२७३॥ संते १२।१०।८८८८२। 'सत्त अपजत्तएसु' त्ति गयं । तयोर्नामप्रकृतिबन्धोदययोर्वा अपर्याप्तकसप्तके वा नामप्रकृतिसत्वस्थानं द्वानवतिकं १२ नवतिक १० अष्टाशीतिकं ८८ चतुरशीतिक ८४ द्वयशीतिकं १२ चेति सत्तायाः पञ्च सस्वस्थानानि भवन्तीति जानाहि ॥२७३॥ १२६०८८४८२ इति सप्तम् अपर्याप्तेषु व्याख्यानं गतं पूर्ण जातम् ।। ___ उन्हीं सातों अपर्याप्तक जीवसमासोंमें बानबै, नब्बै, अट्ठासी, चौरासी और बियासीप्रकृतिक पाँच सत्तास्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥२७३॥ सातों अपर्याप्तकोंमें ६२, ६०,८८,८४, ८२ प्रकृतिक पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। श्ते चिय बंधट्ठाणा संता वि तहेव सुहुमपज्जत्त । चत्तारि उदयठाणा इगि चउ पणवीस छन्वीसा ॥२७४॥ सुहुमपजत्ते बंधा २३।२५।२६।२६।३०। उदया २१।२४।२५।२६। संता ६२।६०।८८८४।८२ । तान्येव पूर्व अपर्याप्तसप्तकोक्तनामबन्धस्थानानि तथैव सत्वस्थानानि च सूचमैकपर्याप्तकेषु बन्धस्थानानि २३।२५।२६।२६।३०। सरवस्थानानि १२८८८४२ भवन्ति । एकविंशतिक २१ चतुविशतिकं २४ पञ्चविंशतिकं २५ पडविंशतिकं २६ इत्युदयस्थानानि चत्वारि भवन्ति-२१॥२४॥२५॥ २६ ॥२७॥ सूचमपर्याप्तके जीवसमासे बन्धाः २३१२५२६।२६।३०। उदया: २१॥२४॥२५२६ । सत्त्वानि १२।०1८८८४८२ । सूक्ष्मपर्याप्तक जीवसमासमें वे ही पूर्वोक्त पाँच बन्धस्थान और पाँच सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु उदयस्थान इक्कीस, चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक चार होते हैं ।।२७४॥ सूक्ष्मपर्याप्तमें बन्धस्थान २३, २५, २६, २६, ३०, उदयस्थान २१, २४, २५, २६ और सत्त्वस्थान २२, ६०, ८८,८४, ८२ होते हैं। 'बायर पज्जत्त सु वि ते चेव य होंति बंध-संतठाणाणि । इगिवीसं ठाणादी सत्तावीसं ति ते उदया ॥२७॥ बायर-एइंदियपज्जत्ते बंधा २३।२५।२६।२६।३०। उदया २१।२४।२५।२६।२७। संता २०६०। ८८1८1८२ तान्येव सूक्ष्मपर्याप्तोक्तबन्ध-सत्वस्थानानि बादरैकेन्द्रियपर्याप्तकजीवसमासे भवन्ति २३१२५॥२६॥ २६।३०। सत्त्वस्थानानि ६२।०1८८८४८२। एकविंशतिकादि-सप्तविंशतिपयतोदयस्थानानि २१॥२४॥२५।२६।२७ भवन्ति ॥२७५॥ 1. सं०पञ्चसं० ५, २६८ । 2. २६६ । 3. ५, 'सूक्ष्मे पूर्णे बन्धाः ' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १६५) ___4. ५, ३०० । 5. ५, 'पूर्णे बन्धाः' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १६५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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