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________________ ४६० पञ्चसंग्रह प्रमत्तविरतके बन्धस्थान अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक दो तथा गुणस्थान पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक पाँच होते हैं ॥४०६। . प्रमत्तसंयतके बन्धस्थान २८, २६ और उदयस्थान २५, २७, २८, २६, ३० प्रकृतिक होते हैं। 'तस्स य संतट्ठाणा हेट्ठा चउरेव णिहिट्ठा । इगिबंधं वजित्ता हेहिमचउ अप्पमत्तस्स ॥४१०॥ पम संता १३।१२। १ ०। अपमत्ते बंधा २८।२६।३०॥३१॥ तस्य प्रमत्तस्याऽऽद्यचतुःसत्त्वस्थानानि १३१२।११1१0 । अप्रमत्तस्य एक बन्धस्थानं यशःकीर्तिकं १ वर्जयित्वा अधःस्थचतुर्बन्धस्थानानि २८।२६।३०।३१ ॥४०॥ उसी प्रमत्तविरतके सत्त्वस्थान अधस्तन चारों ही कहे गये हैं। अप्रमत्तविरतके एकप्रकृतिक बन्धस्थानको छोड़कर अधस्तन चार बन्धस्थान होते हैं ॥४१०॥ प्रमत्तसंयतके सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं। अप्रमत्तसंयतके २८, २६, ३०, ३१ प्रकृतिक चार बन्धस्थान होते हैं । तीसं चेव उदयं ति-दु-इगि-णउदी य णउदिसंताणि । जाणिज्ज अप्पमत्ते बंधोदयसंतकम्माणं ॥४११॥ अप्पमत्ते उदयं ३०। संता ६३।१२।११।१०। अप्रमत्ते त्रिंशत्कमुदयस्थानमेकमुदयति ३० । सत्त्वस्थानानि त्रिनवतिक-द्विनवतिककनवतिक-नवतिकानि चत्वारि १३।१२।११।१० । अप्रमत्ते इत्येवं बन्धोदयसत्त्वकर्मणां स्थानानि जानीयात् ॥४॥ उसी अप्रमत्तसंयतमें तीनप्रकृतिक एक उदयस्थान होता है, तथा तेरानबै, बानबै, इक्यानबै और नब्बैप्रकृतिक चार सत्त्वस्थान जानना चाहिए ॥४११॥ _ अप्रमत्तमें ३० प्रकृतिक एक उदयस्थान और ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार सत्त्वस्थान होते हैं। उवरिमपंचट्ठाणे अपुव्वकरणस्स बंधंतो। उदयं तीसट्टाणं हेट्ठिम चत्तारि संतठाणाणि ॥४१२॥ अपुग्वे बंधा २८।२६।३०।३१।१। उदयं ३०। संता ६३।१२।११।६० । अपूर्वकरणस्य उपरिमपञ्चस्थानानि--अष्टाविंशतिक-नवविंशतिक-त्रिंशत्केकत्रिंशत्कैककानि २८।२।। ३०।३१।१ बन्धतः त्रिंशत्कमुदयं याति ३० । अधःस्थचत्वारि सत्त्वस्थानामि २३।१२।६।।१० भवन्ति ॥४१२॥ उपरिम पाँच बन्धस्थानोंको बाँधनेवाले अपूर्वकरणसंयतके तीसप्रकृतिक एक उदयस्थान और अधस्तन चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥४१२।। अपूर्वकरणमें बन्धस्थान २८, २९, ३०, ३१, १ प्रकृतिक पाँच; उदयस्थान ३० प्रकृतिक १ और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं । 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२२। 2.५, ४२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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