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ससतिका
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'अणियट्टिस्स दुबंधं जसकित्ती उदय तीसगं चेव ।
ति-दु-इगि-णउदि णउदिं णव अड सत्ताधियसत्तरिमसीदिं ॥४१३॥ "एदाणि चेव सुहुमस्स होंति बंधोदयाणि संताणि ।
उवसंते तीसुदए हेहिमचत्तारि संताणि ॥४१४॥ अणियटि-सुहुमाणं बंधो १ उदओ ३० । संता १३.६२।६११६०८०७६७८७७। उबरदबंधे उवसंते उदया ३० संता १३।१२।११।१०।
अनिवृत्तिकरणस्य एकं यशस्कीर्तिनाम बन्धतः त्रिंशत्क ३० मुदयं याति । त्रिनवतिक ६३ द्विनवतिकै १२ कनवतिक ११ नवतिका १० शीतिक ८० नवसप्ततिका ७६ टसप्ततिक ७८ सप्तसप्ततिकानि ७७ सत्त्वस्थानान्यष्टौ भवन्ति । सूचमसाम्परायस्यैतानि बन्धोदयसत्वस्थानानि भवन्ति । अनिवृत्तिकरणसूचमसाम्पराययोः बन्धस्थान मेकम् ।। उदये ३० । सत्वस्थानानि ६३।१२।११।१०।८०७६७८७७ । उपशान्तकपाये बन्धरहिते उदये स्थानं त्रिंशत्कं ३० त्रिनवतिकादीनि चत्वारि सत्त्वस्थानानि १३।१२।११। १० ॥४१३-४१४॥
अनिवत्तिकरण गुणस्थानमें एक यश कीर्त्तिका बन्ध होता हैं। तीसप्रकृतिक एक उदयस्थान है। तेरानबै, बानबै, इक्यानबै, नब्बै, अस्सी, उन्यासी, अठहत्तर और सतहत्तरप्रकृतिक आठ सत्त्वस्थान होते हैं । ये ही बन्ध, उदय और सत्त्वस्थान सूक्ष्मसाम्परायसंयतके भी होते हैं। उपरतबन्धवाले उपशान्तमोहमें तीसप्रकृतिक उदयस्थान और अधस्तन चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥४१३-४१४।।
अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके बन्धस्थान एकप्रकृतिक एक, उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८०, ७६, ७८, ७७ प्रकृतिक आठ हैं। मोहके बन्धसे रहित उपशान्तमोहमें उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक है और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं।
तह खीणेसु वि उदयं उवरिमद्गमुज्झिऊण चउसंता । तीसेकतीसमुदयं होंति सजोगिम्भि णियमेण ॥४१॥
खीणे उदओ ३० संता ८०७१।७८७७॥ तथा क्षीणकपाये उदयस्थानं त्रिंशत्कं ३०। उपरितः दशक-नवकद्वयं वर्जयित्वा अशीतिकादीनि चत्वारि सत्त्वस्थानानि ८६७६७८७७ । सयोगकेवलिनि त्रिंशत्कैकत्रिंशत्कद्वयमुदयस्थानं ३०॥३१ नियमेन भवन्ति ॥४१५॥
क्षीणकषाय-गुणस्थानमें उदयस्थान तीसप्रकृतिक एक ही है। तथा उपरिम दोको छोड़कर चार सत्त्वस्थान होते हैं। सयोगिकेवलीमें नियमसे तीस और एकतीसप्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं ॥४१५॥ __क्षीणकषायमें उदयस्थान ३० प्रकृतिक एक है और सत्त्वस्थान ८०, ७६, ७८, ७७ प्रकृतिक चार होते हैं।
'तस्य य संतवाणा उवरिम दो वजिदूण चउ हेट्ठा । णव अट्ठव य उदयाऽजोगिम्हिा हवंति णेयाणि ॥४१६॥
सजोगे उदया ३०।३१ । संता ८०।७१।७८७७। 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२४ । 2.५, ४२५ । 3. ५, ४२६ । 4. ५, ४२७ । व 'जोगीहिं' इति पाठः।
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