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________________ सततिका ४८३ तस्येव मिश्रगुणस्थानस्य सत्वस्थानद्वयं द्वानवतिक-निवतिकद्वयमिति जानीहि १२।१०। तीर्थकरसत्कर्मा जीवो मिश्रगुणस्थानं न प्रतिपद्यते, तेन तस्य मिश्रस्य त्रिनवतिकमेनवतिकं च न सम्भवति । असंयतसम्यग्दृष्टौ नामबन्धस्थानानि त्रीणि-अष्टाविंशतिक-नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि २८।२६॥३०॥४०६॥ उसी मिश्र गुणस्थानमें बानबै और नब्बै प्रकृतिक दो ही सत्त्वस्थान जानना चाहिए । अविरत सम्यक्त्वगुणस्थानमें बन्धस्थान अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक तीन होते हैं ॥४०६।। तीर्थङ्करप्रकृतिकी सत्तावाला जीव मिश्रगुणस्थानको प्राप्त नहीं होता है। इसलिए उसके तेरानबै और इक्यानबै प्रकृतिक सत्त्वस्थान सम्भव नहीं है । शेष ६२ और ६० प्रकृतिक दो सत्त्वस्थान उसके होते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिके २८, २६, ३० प्रकृतिक तीन बन्धस्थान होते हैं। तस्सेव होंति उदया उवरिम दो वजिदूण हेडिल्ला । चउवीसं वजित्ता हिट्ठिमचदुरेव संताणि ॥४०७॥ अविरए उदया २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । संता ६३।१२।११।१०। तस्यासंयतस्योदयस्थानानि उपरिमद्वथमष्ट कनवकद्वन्द्व अधःस्थचतुर्विशतिकं च वर्जयित्वा तस्य चतुर्विशतिकस्यकेन्द्रियेष्वेवोदयात् एकविंशतिकादीन्यष्टौ २१२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । असंयते सत्वस्थानानि अधःस्थितानि चत्वारि, अद्यानि चत्वारि १३।१२।११।१० ॥४०७॥ उसी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदयस्थान उपरिम दो और अधस्तन चौबीसको छोड़कर शेष आठ होते हैं । तथा उसीके सत्त्वस्थान अधस्तन चार होते हैं ॥४०७।। अविरतमें उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक आठ होते हैं। सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, ६० प्रकृतिक चार होते हैं। 'विरदाविरदे जाणे ऊणत्तीसढवीसबंधाणि । तीसेकतीसमुदया हेट्टिमचत्तारि संताणि ॥४०८॥ देसे बंधा २८।२९। उदय ३०।३१। संता ६३!६२।६१।३० । देशसंयते बन्धस्थाने द्व-अष्टाविंशतिकैकोनत्रिंशत्कद्वयं जानीहि २८।२६ । उदयस्थाने द्वप्रिंशत्केकत्रिंशत्कद्वयम् ३०।३१ । सत्वस्थानानि अधःस्थानि चत्वारि ६३।१२।६१।६० ॥४०८॥ विरताविरत गुणस्थानमें अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक दो बन्धस्थान जानना चाहिए । तीस और इकतीस प्रकृतिक दो उदयस्थान तथा अधस्तन चार सत्त्वस्थान होते हैं ।।४०८।। देशविरतमें बन्धस्थान २८, २६, उदयस्थान ३०, ३१ और सत्त्वस्थान ६३, ६२, ६१, प्रकृतिक ६० होते हैं। "उगुतीसठ्ठावीसा पमत्तविरयस्स बंधठाणाणि । पणुवीस सत्तवीसा अडवीसुगुतीस तीसुदया ॥४०६॥ पमत्ते बंधा २८।२६। उदया २५।२७।२८।२६।३०। प्रमत्तविरतस्थमुनेः अष्टाविंशतिक नवविंशतिकद्वयं बन्धस्थानम् २८।२६ । उदयस्थानानि पञ्चविंशतिक सप्तविंशतिकाष्टाविंशतिक नवविंशतिक-त्रिंशत्कानि पञ्च २५२७।२८।२६।३० ॥४०॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२० । 2. ५, ४२१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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