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________________ सप्ततिका ३२७ बाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें सातको आदि लेकर दश तकके उदयस्थान होते हैं । इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें सातको आदि लेकर नौ तकके उदयस्थान होते हैं। सत्तरहप्रकृतिक बन्धस्थानमें छहको आदि लेकर नौ तकके उदयस्थान होते हैं। और तेरहप्रकृतिक बन्धस्थानमें पाँचको आदि लेकर आठ तकके उदयस्थान होते हैं। नौ प्रकृतियोंका बन्ध करने वाले जीवोंके चार प्रकृतिक उदयस्थानको आदि लेकर उत्कर्षसे सातप्रकृतिक तकके उदयस्थान होते हैं। इस प्रकार इन पाँच बन्धस्थानों मोहप्रकृतियोंके उदयस्थान चालीस होते हैं ॥४०-४१॥ विशेषार्थ-बाईस, इक्कीस, सत्तरह, तेरह और नौ प्रकृतिक बन्धस्थानों में जितने उदयस्थान पाये जाते हैं, उनमेंसे दशप्रकृतिक उदयस्थान एक है, नौप्रकृतिक उदयस्थान छह हैं, आठप्रकृतिक उदयस्थान ग्यारह हैं, सातप्रकृतिक उदयस्थान दश हैं, छहप्रकृतिक उदयस्थान सात हैं, पाँचप्रकृतिक उदयस्थान चार हैं और चारप्रकृतिक उदयस्थान एक है । इस प्रकार इन सबका योग (१+६+११+१०+७+४+१=४०) चालीस होता है। यह बात ऊपर मूलमें दी गई संदृष्टिमें स्पष्ट दिखाई गई है। अब उपर्युक्त ४० भंगोंको वक्ष्यमाण २४ भंगोंसे गुणित करने पर जितने भंग होते हैं उनका निरूपण करते हैं 'जुगवेदकसाएहिं दुय-तिय-चउहिं भवंति संगुणिया । चउवीस वियप्पा ते उदया सव्वे वि पत्तेयं ॥४२॥ *एवं पंचसु बंधट्ठाणेसु चत्तालं उदया चउवीसभंगगुणा हवंति । एयावंतो उदयवियप्पा ६६० । अमूनि सर्वप्रकृत्युदयस्थानानि ४० प्रत्येकं चतुविंशितिगुणितानि भवन्तीति तरसम्भवगाथामाह [ 'जुगवेदकसाएहिं' इत्यादि । हास्यादियुग्मेन २ वेदत्रिकेण ३ कषायचतुष्केण ४ परस्परं संगुणिताश्चतुविशतिविकल्पाः २४ भवन्ति । तानि सर्वाणि चत्वारिंशत्प्रकृत्युदयस्थानानि ४० प्रत्येक चतुर्विशतिविकल्पा भङ्गा भेदा भवन्ति ॥४२॥ तदाह-[ 'एवं पंचसु' इत्यादि । ] एवं पञ्चसु नवकादिद्वाविंशतिपर्यन्तबन्धस्थानेषु चत्वारिंशत् ४० प्रकृत्युदयस्थानानि चतुर्विशतिः२४ गुणितानि एतानि एतावन्त उदयविकल्पाः ३६० षष्ठ्यधिकनवशतप्रकृत्युदयस्थानभङ्गा भवन्ति । हास्यादि दो युगल, तीन वेद और चार कषाय इनके परस्पर संगुणित करने पर चौबीस भङ्ग होते हैं । इनसे उपर्युक्त चालीस भगोंको गुणित कर देने पर उदयस्थानोंके सर्व भङ्गोंका योग आ जाता है ॥४२॥ __इस प्रकार पाँच बन्धस्थानोंके चालीस उदयस्थानोंको चौबीस भङ्गोंसे गुणा करने पर (४०x२४ =६६०) सर्व उदयस्थान विकल्प नौ सौ साठ उपलब्ध होते हैं । अब पाँच आदि शेष प्रकृतिक उदयस्थानोंके भंगोका निरूपण करते हैं वेदाहया कसाया भवंति भंगा दुवारदुगउदए । चउ-तिय-दुग एगेगं पंचसु एगोदएसु तदो ॥४३॥ भणियहिम्मि २ २ १ १ १ १ सुहुमे १ एवं सब्वे भंगा मेलिया ३५ । पुव्वु तेहि सह एदावंतो १६५। 1. सं० पञ्चसं०५, ५१ । 2. ५, 'चतुर्विंशत्या' इत्यादिगद्यांशः। 3.५, ५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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