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________________ पञ्चसंग्रह जुगुप्सामेंसे किसी एकका उदय न हो, तो आठ प्रकृतिक उदयस्थान होगा। और यदि भय और जुगुप्सा इन दोनोंका ही उदय न रहे, तो सात प्रकृतिक उदयस्थान होगा। इस प्रकार बाईस प्रकृतिक बन्धस्थानमें दश, नौ, नौ, आठ और सात प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं। इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थान दूसरे गुणस्थानमें होता है। वहाँपर अनन्तानुबन्धीका उदय तो रहता है, परन्तु मिथ्यात्वका उदय नहीं रहता, इसलिए नौ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। तथा भय-जुगुप्सामेंसे किसी एकके उदय न रहनेसे आठप्रकृतिक और दोनोंका उदय न रहनेसे सात प्रकृतिक उदयस्थान होता है । सत्तरह प्रकृतिके बन्धवाले गुणस्थानसे लेकर नौ प्रकृतियोंके बन्धवाले गुणस्थान पर्यन्त तीन स्थानोंमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहता भी है और नहीं भी रहता है, इसलिए सत्तरह प्रकृतिक बन्धस्थानमें सम्यक्त्वप्रकतिका उदय न रहनेपर आठका उदयस्थान होता है। तथा भय और जुगुप्सामेंसे किसी एकके उदय न रहनेपर सातका उदयस्थान होता है और दोनोंके ही उदय न रहनेपर छहका उदयस्थान होता है। तेरह प्रकृतिक बन्धस्थानमें सम्यक्वप्रकृतिके उदय रहनेपर आठका उदयस्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय न रहनेपर सातका उदयस्थान होता है। भय और जुगुप्सासे किसी एकके उदय न रहनेपर छहका तथा दोनोंके उदय न रहनेपर पाँचका उदयस्थान होता है। नौप्रकृतिक बन्धस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहने पर सातका उदयस्थान होता है । सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय न रहने पर छहका उदयस्थान होता है। जुगुप्सामेंसे किसी एकके उदय न होने पर पाँचका उदयस्थान और दोनोंके उदय न रहने पर चारका उदयस्थान होता है । मूलमें दी गई अंकसंदृष्टिका यह अभिप्राय समझना चाहिए । अब मोहके बन्धस्थानोंमें संभव उदय स्थानोंका निरूपण करते हैं 'दस वावीसे णव इगिवीसे सत्तादि उदय-कम्मंसा । छादी णव सत्तरसे तेरे पंचादि अद्वेव॥४०॥ चत्तारि-आदिणवबंधएसु उक्कस्स सत्तमुदयंसा । चत्तालमिमेसुदया बंधट्ठाणेसु पंचसु वि ॥४१॥ ।४। [अथ ] गुणस्थानेषु मोहप्रकृतिबन्धकेषु उदयस्थानानि प्ररूपयति-[ 'दस वावीसे णव इगि' इत्यादि । ] द्वाविंशतिबन्धके सप्ताद्याः दशान्ताः अष्टौ मोहप्रकृत्युदयकमांशा उदयांशा उदयप्रकृतिस्थान २११४ विकल्पा भवन्ति ८ । एकविंशतिकबन्धके सप्ताद्या नवप्रकृत्युदयस्थानचतुष्टयरूपा: ८ ८८ हा ____ सप्तदशकबन्धके षडाद्या नवोत्कृष्टपर्यन्ताः प्रकृत्युदयस्थानरूपाः द्वादश भवन्ति १७।१२। त्रयोदशबन्धके पञ्चाद्यष्टोत्कृष्टस्थानपर्यन्तं प्रकृत्युदयस्थानानि अष्टौ भवन्ति १३८ । नवकबन्धके चतुरादिसतोत्कृष्टान्ताः मोहप्रकृत्युदयस्थानान्यष्टौ भवन्ति । इत्यमीषु पञ्चसु बन्धस्थानेषु प्रकृत्युदयस्थानानि चत्वारिंशद्भवन्ति ॥४०-४१॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'द्वाविंशतेर्बन्धे सप्ताद्या' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १२६)। . १. श्वे० सप्ततिकायामियं गाथा मूलगायारूपेण विद्यते । २. श्वे० सप्ततिकायामियमपि गाथा मूलरूपेणास्ति । परं तत्रोत्तरार्ध पाठोऽयम्--'पंचविहबंधगे पुण उदओ दोण्हं मुणेयव्वो' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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