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________________ पञ्चसंग्रह आदिके चार जानना चाहिए । अब इससे आगे इन्द्रियमार्गणामें बन्धादिस्थानोंका निरूपण करेंगे ॥४२४-४२५॥ देवगतिमें बन्धस्थान २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक चार होते हैं। उदयस्थान २१, २५, २७, २८, और २६ प्रकृतिक पाँच होते हैं। तथा सत्तास्थान ६३, ६२, ६१ और ६० प्रकृतिक चार होते हैं। ___ अब मूल सप्ततिकाकार इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा नामकर्मके बन्धादि स्थानोंका निर्देश करते हैं[मूलगा०४७]'इगि-वियलिंदिय-सयले पण पंचय अट्ठ बंधठाणाणि । पण छक्क दस य उदए पण पण तेरे दु संतम्मि ॥४२६॥ ए० वि० स० बं० ५ ५८ एइंदिय-वियलिंदिय-पंचिदिएसु बंधाइ-उ० ५ ६ १० स० ५ ५ १३ एकेन्द्रिये विकलत्रये च पञ्चेन्द्रिये च क्रमेण नामबन्धस्थानानि पञ्च ५ पञ्च ५ अष्टौ ८। नामोदयस्थानानि पञ्च ५ पट ६ दश १० । नामसत्त्वस्थानानि पञ्च ५ पञ्च ५ त्रयोदश १३ ॥४२६॥ एके० विक० सक० बन्ध० ५ ५ ८ उद० ५ ६ १० सत्व० ५ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय जीवोंके क्रमशः पाँच, पाँच और आठ बन्धस्थान; पाँच, छह और दश उदयस्थान; तथा पाँच, पाँच और तेरह सत्त्वस्थान होते हैं ॥४२६॥ भावार्थ-एकेन्द्रिय, जीवोंके ५ बन्धस्थान, ५ उदयस्थान और ५ ही सत्त्वस्थान होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवोंके ५ बन्धस्थान, ६ उदयस्थान और पाँच सत्तास्थान होते हैं। सकलेन्द्रिय जीवोंके ८ बन्धस्थान, १० उदयस्थान और १३ सत्त्वस्थान होते हैं। इनकी संदृष्टि मूल और टौकामें दी हुई है। अब भाष्यगाथाकार मूलगाथासूत्रसे सूचित अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए पहले एकेन्द्रिय जीबोंके बन्धादिस्थानोंका निर्देश करते हैं तेवीसं पणुवीसं छव्वीसं ऊणतीस तीसं च । बंधा हवंति एदे उदया आदी य पंचेव ॥४२७॥ तेसिं संतवियप्पा वाणउदी णउदिमेव जाणाहि । अड-चदु-वासीदी वि य एत्तो वियलिदिए वोच्छं ॥४२८॥ "एई दिएसु बंधा २३।२५।२६।२६।३०। उदया २९१२४।२५।२६:२७। संता १२।१०।८८८४।२। 1. सं० पञ्चसं० ५, ४३७ । 2. ५, ४३८ । 3. ५, 'बन्धे २३' इत्यादिद्यांशः (पृ० २१६)। १. सप्ततिका० ५२ । परं तत्रोत्तरार्धे पाठभेदोऽयम् 'पण छक्ककारुदया पण पण बारस य संताणि ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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