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________________ सप्ततिका ३८५ चातुर्गतिकजीवेषु नामप्रकृत्युदयस्थानयन्त्रम्एकेन्द्रिये देवे नारके द्वीन्द्रियादौ सामान्य- सामान्य- तीर्थकरे मनुष्ये केवलिनि २१ २१ २१ २१ २१ २० २५ २५ २५ २६ २६ २६ २७ आहारकमनुष्ये विग्रहगतौ कार्मणे शरीरमिश्रपर्याप्तौ . mmm शरीरपर्याप्ती २६ २७ २७ २६, २८ २८ २८ २६ २७ आनपर्याप्ती २६ २८ २९ ३०, २१ २१ भाषापर्याप्ती ० २१ २१ ३१,३०३० इति नामप्रकृत्युदयस्थानानि मार्गणासु समाप्तानि । भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्यजीवोंमें ओघके समान सभी उदयस्थान जानना चाहिए। अभव्योंमें मिथ्यादृष्टिके समान नौ और आठ प्रकृतिक उदयस्थानोंको छोड़कर शेष नौ उदयस्थान होते हैं । सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अपनेअपने गुणस्थानोंके समान उदयस्थान जानना चाहिए । तथा उपशमसम्यक्त्व आदिमें भी अपनेअपने संभव गुणस्थानोंके समान उदयस्थान होते हैं। संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा संज्ञीके ओघके समान सभी उदयस्थान होते हैं। असंज्ञीके मिथ्यात्वगुणस्थानके समान भंग जानना चाहिए । आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारकोंके ओघके समान भङ्ग जानना चाहिए । अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगके समान चार गुणस्थानोंमें संभव उदयस्थान जानना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो अवशिष्ट विधिविशेष है, वह आगमके अनुसार यथाक्रमसे जान लेना चाहिए ॥२०५-२०७॥ अब मूलसप्ततिकाकार नामकर्मके सत्त्वस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०२३] 'ति-दु-इगिणउर्दि णउदि अड-चउ-दुगाहियमसीदिमसीदिं च । उणसीदि अत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता' ॥२०॥ ६३।१२।११।६०1८८/८२१८२१८०1७६७८1७७।१०।। अथ नामप्रकृतिसत्त्वस्थानप्रकरणं गाथाद्वादशकेनाऽऽह-['ति-दु-इगिणउदि' इत्यादि । त्रिनवतिः १३ द्वानवतिः १२ एकनवतिः ११ नवतिः १० अष्टाशीतिः ८८ चतुरशीतिः ८४ द्वाशीतिः ८२ अशीतिः८० एकोनाशीतिः ७६ अष्टसप्ततिः ७८ सप्तसप्ततिः ७७ दश १० नव ६ च प्रकृतयः नामकर्मसत्त्वस्थानानि त्रयोदश भवन्ति ॥२०॥ १३१२।११1१०1८८1८11८०1७६७८७७।१०।। नामकर्मके तेरानबै, बानबै, इक्यानबै, नब्बै, अठासी, चौरासी, बियासी, अस्सी, उन्यासी, अट्ठहत्तर, सतहत्तर, दश और नौ प्रकृतिक तेरह सत्त्वस्थान होते हैं ।।२०८॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-६३, ६२, ६१, ६०, ८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७, १०, ६ अब भाष्यगाथाकार क्रमशः इन सत्त्वस्थानोंकी प्रकृतियोंका वर्णन करते हैं-- गइआदियतित्थंते सव्वपयडीउ संत तेणउदि। वजित्ता तित्थयरं वाणउदि होंति संताणि ॥२०९॥ १३।१२। 1. सं० पञ्चसं० ५, २२२-२२३ । 2. ५, २२४ । १. सप्ततिका २६ । तत्रेहक पाठः तिदुनउई उगुनउई अटुच्छलसी असीइ उगुसीई। अट्ट य छप्पणत्तरि नव अट्ट य नामसंताणि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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