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________________ ३८६ पञ्चसंग्रह तेषामुपपत्तिमाह-['गइभादियतित्थंते' इत्यादि । गत्यादि-तीर्थान्ताः सर्वप्रकृतयः गति ४ जाति ५ शरीरा ५ ङ्गोपाङ्ग निर्माण १ बन्धन ५ संघात ५ संस्थान ६ संहनन ६ स्पर्श न रस २ वर्णा ५ नुपूर्व्या ४ गुरुलघू १ पघात १ परघाता १ तपो १ धोतो१च्छवास १ विहायोगतयः २ प्रत्येकशरीर २ स २ सुभग २ सुस्वर २ शुभ २ सून्म २ पर्याप्ति २ स्थिराऽऽ२ देय २ यशःकीर्ति २ सेतराणि तीर्थकरत्वं १ चेति सर्वनामप्रकृतयः विनवतिः । इति प्रथमसत्त्वस्थानं ९३ भवति । तन्मध्यात्तीर्थकरत्वं वर्जयित्वाऽन्याःद्वानवतिः प्रकृतयः, इति द्वितीयसत्वस्थानं १२ भवति ॥२०॥ ६३।१२। गतिनामकर्मको आदि लेकरके तीर्थकर प्रकृतिपर्यन्त नामकर्म की जो तेरानबै प्रकृतियाँ है, उन सबका जहाँ सत्त्व पाया जावे, वह तेरानबै प्रकृतिकसत्त्वस्थान है इसमेंसे तीथकरप्रकृतिको छोड़ देनेपर बानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है ।२०६।। ६३ तेरानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान सर्वप्रकृतियाँ । तीर्थकर बिना ६२ । तेणउदीसंतादो आहारदुअं वजिदूण इगिणउदी । आहारय-तित्थयरं वजित्ता वा हवंति णउदिसंताणि ॥२१०॥ १११०। त्रिनवतिकसत्वादाहारकद्वयं वर्जयित्वा एकनवतिकं सत्वस्थानं ६१ भवति । तथा त्रिनवतिकप्रकृतिसत्वतः आहारकद्वयं तीर्थकरत्वं च वर्जयित्वा नवतिकं सत्वस्थानं भवति ॥२१॥ तेरानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे आहारकशरीर और आहारक-अंगोपांग, इन दोके निकाल देनेपर इक्यानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा उसी तेरानबैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें से तीर्थङ्कर और आहारकद्विक; इन तीन प्रकृतियोंके निकाल देनेपर नब्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है।॥२१॥ आहारकद्विक विना ६१ । तीर्थकर और आहारकद्विक विना १०० णउदीसंतेसु तहा देवदुगुधिल्लिदे य अडसीदेिं। णिरयचईं उन्वेल्लिदे य चउरासी दीय संतपयडीओ ॥२११॥ ८८८४। नवतिसत्त्वप्रकृतिपु १० देवगति-देवगत्यानुपूर्व्यद्वये उद्वेल्लिते अष्टाशीतिकं सत्वस्थानं भवति । अतः नारकचतुप्के उद्वल्लिते चतुरशीतिकं सत्वप्रकृतिस्थानं ८४ भवति ॥२१॥ नब्बैप्रकृतिक सत्त्वस्थानमें से देवद्विक अर्थात् देवगति और देवगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियोंके उद्वेलन करनेपर अठासीप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है । तथा इसी अठासीप्रकृतिक सत्त्वस्थानमेंसे नरकचतुष्क अर्थात् नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक-अंगोपांग, इन चार प्रकृतियोंको उद्वेलना करनेपर चौरासीप्रकृतिक सत्त्वस्थान हो जाता है ।।२१।। देवद्विक विना ८८ । नरकचतुष्क विना ८४ । मणुयदुयं उव्वेल्लिए वासीदी चेव संतपयडीओ। तेणउदीसंताओ तेरसमवणिज णवमखवगाई ॥२१२॥ ८२८० 1. सं० पञ्चसं० ५, २२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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