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पञ्चसंग्रह
सूक्ष्म जीवोंको इन्द्रियोंसे देख नहीं सकते, तथापि आगमप्रामाण्यसे उसकी प्रासुकताका वर्णन किया जाता है । इस प्रकारके पापवर्ज वचनको भावसत्य कहते हैं । दूसरे प्रसिद्ध-सदृश पदार्थको उपमा कहते हैं । उपमाके आश्रयसे जो वचन बोले जाते हैं, उन्हें उपमासत्य कहते हैं; जैसे पल्योपम । पल्य नाम गरेका है, उसकी उपमासे पल्योपमका व्यवहार होता है। अनुभय भाषाके नौ भेद होते हैं, आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, आपृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, संशयवचनी, इच्छानुलोम्नी और अनक्षरगता । 'हे देवदत्त, यहाँ आओ', इस प्रकारसे बुलानेवाले वचनोंको आमंत्रणी-भाषा कहते हैं । 'यह काम करो' ऐसे आज्ञारूप वचनोंको आज्ञापनी भाषा कहते हैं 'यह मुझे दो', ऐसे याचना-पूर्ण वचनोंको याचनी-भाषा कहते हैं। यह क्या है। ऐसे प्रश्नात्मक वचनोंको आपृच्छनी भाषा कहते हैं । 'मैं क्या करूँ' ऐसे सूचनात्मक वचनोंको प्रज्ञापनी भाषा कहते हैं। मैं इसे छोड़ता हूँ' ऐसे त्याग या परिहाररूप वचनोंको प्रत्याख्यानी भाषा कहते हैं । 'यह वकपंक्ति है या ध्वजपंक्ति' ऐसे संशयात्मक वचनोंको संशयवचनी भाषा कहते हैं । 'मुझे भी ऐसा ही होना चाहिए' ऐसी इच्छाके व्यक्त करनेवाले वचनोंको इच्छानुलोम्नी भाषा कहते हैं । द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञिपंचेन्द्रिय तकके जीवोंकी बोलीको अनक्षरगता भाषा कहते हैं । ये नौ प्रकारकी भाषा अनुभयवचनरूप हैं, क्योंकि इनके सुननेसे व्यक्त और अव्यक्त दोनों अंशोंका बोध होता है, सामात्य अंशके व्यक्त होनेसे इन्हें असत्य भी नहीं कह सकते
और विशेष अंशके व्यक्त न होनेसे सत्य भी नहीं कह सकते । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि सत्य और अनुभय वचनयोगका मूल कारण भाषापर्याप्ति और शरीरनाभकर्मका उदय है। तथा मृषा और अनुभयवचनयोगका भूल कारण अपना-अपना आवरणकर्म है ।।६१-६२।। काययोगके सात भेदों से औदारिककाययोगका स्वरूप
'पुरु महमुदारुरालं एय8 तं वियाण तम्हि भवं ।
ओरालिय त्ति वुत्तं ओरालियकायजोगो सो ॥६३।। पुरु, महत् , उदार और उराल ये सब शब्द एकार्थ-वाचक हैं । उदार या स्थूलमें जो उत्पन्न हो, उसे औदारिक जानना चाहिए । ( यहाँ पर भव-अर्थमें ठण् प्रत्यय हुआ है । ) उदार में होने वाला जो काययोग है, वह औदारिककाययोग कहलाता है । अर्थात् मनुष्य और तियेचोंके स्थूल शरीरमें जो योग होता है, उसे औदारिककाययोग कहते हैं ॥३॥ औदारिकमिश्रकाययोगका स्वरूप
अंतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति । __ जो तेण संपओगो ओरालियमिस्सकायजोगो सो ॥१४॥
औदारिकशरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त तक मध्यवर्ती कालमें जो अपरिपूर्ण शरीर है, उसे औदारिकमिश्र जानना चाहिए। उसके द्वारा होनेवाला जो संप्रयोग है, वह औदारिकमिश्र काययोग कहलाता है । अर्थात् शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेसे पूर्व कार्मणशरीरको सहायतासे उत्पन्न होनेवाले औदारिककाययोगको औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं ॥४॥
1-2. सं० पञ्चसं०, १, १७३ । १. ध० भा० १ पृ० २६१ गा० १६० । गो० जी० २२६ । २. ध० भा० १ पृ० २६१ गा.
१६१ । गो० जी० २३०, परन्तूभयत्रापि प्रथमचरणे 'ओरालिय उत्तथं' इति पाठः । *"ब एयह, द एयहा।
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