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________________ जीवसमास ण य सच्चमोसजुत्तो जो हु मणो सो असच्चमोसमणो । जो जोगो तेण हवे असमच्चमोसो दु मणजोगो ॥१०॥ जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो, उसे असत्यमृषामन कहते हैं। उस असत्यमृषामनके द्वारा जो योग होता है, उसे असत्यमृषामनोयोग कहते हैं ॥१०॥ वचनयोगके भेद और उनका स्वरूप 'दसविहसच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो । तव्विवरीओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस ति ॥११॥ जो णेव सच्चमोसो तं जाण असच्चमोसवचिजोगो । अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणीयादी ॥२॥ दश प्रकारके सत्य वचनमें वचनवर्गणाके निमित्तसे जो योग होता है उसे सत्यवचनयोग कहते हैं। इससे विपरीत योगको मृषावचनयोग कहते हैं। सत्य और मृषा वचनरूप योगको उभयवचनयोग कहते हैं । जो वचनयोग न तो सत्यरूप हो और न मृषारूप ही हो, उसे असत्यमृषावचनयोग कहते हैं । असंज्ञी जीवोंकी जो अनक्षररूप भाषा है और संज्ञी जीवोंकी जो आमंत्रणी आदि भाषाएँ हैं, उन्हें अनुभय भाषा जानना चाहिए ।।६१-६२॥ विशेषार्थ-जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, संभावनासत्य, भावसत्य और उपमासत्य ये दश प्रकारके सत्य वचन होते हैं। विभिन्न देशवासी लोगोंके व्यवहारमें जो शब्द रूढ हो रहा है, उसे जनपदसत्य कहते हैं; जैसे भक्त नाम अग्निसे पके हुए चावलका है, उसे कहीं 'भात' और कहीं 'कुलु' कहते हैं। बहुतसे लोगोंकी सम्मतिसे जो सत्य माना जाय, अथवा कल्पनासे जो सत्य हो, उसे सम्मतिसत्य या संवृतिसत्य कहते हैं, जैसे पट्टरानीके सिवाय किसी सामान्य स्त्रीको भी देवी कहना । भिन्न वस्तुमें भिन्न वस्तुके समारोप करनेवाले वचनको स्थापनासत्य कहते हैं; जैसे प्रतिमाको चन्द्रप्रभ कहना । दूसरी कोई अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहारके लिए जो नाम रखा जाता है, उसे नामसत्य कहते हैं, जैसे जिनदत्त । यद्यपि उसको जिनभगवान्ने नहीं दिया है तथापि व्यवहारके लिए उसे जिनदत्त कहते हैं । पुद्गलके रूपादिक अनेक गुणोंमेंसे रूपकी प्रधानतासे जो वचन कहा जाय, उसे रूपसत्य कहते हैं। जैसे किसी मनुष्यके केशोंको काला कहना, अथवा उसके शरीरमें रसादिकके रहनेपर भी उसे श्वेत, धवल, गौर आदि कहना । किसी विवक्षित पदार्थकी अपेक्षा दूसरे पदार्थके स्वरूप-वर्णनको प्रतीत्यसत्य या आपेक्षिक-सत्य कहते हैं, जैसे किसीको दीर्घ, स्थूल आदि कहना । नैगमादि नयोंकी प्रधानतासे जो वचन बोला जाय, उसे व्यवहार सत्य कहते हैं; जैसे नैगमनयकी अपेक्षासे 'भात पकाता हूँ' आदि वचन बोलना। असंभवताका परिहार करते हुए वस्तुके किसी धर्मके निरूपण करने में प्रवृत्त वचनको संभावनासत्य कहते हैं; जैसे इन्द्र जम्बूद्वीपको उलट-पलट कर सकता है आदि । आगम-वणित विधि-निषेधके अनु अतीन्द्रिय पदार्थों में संकल्पित परिणामको भाव कहते हैं, उसके आश्रित जो वचन बोले जाते हैं, उन्हें भावसत्य कहते हैं; जैसे सूखे, पके और अग्निसे तपे या नमक, मिर्च, खटाई आदिसे संमिश्रित द्रव्यको प्रासुक माना जाता है । यद्यपि प्रासुक माने जानेवाले द्रव्यके तद्र प अन्तर्वर्ती 1.सं० पञ्चसं० १,१६८-१७१ । १. ध० भा० १ पृ० २८६ गा० १५६ । गो० जी० २१८ । २. ध० भा० १ पृ० २८६ गा. १५६ । गो० जी० २१६ । ३. ध० भा० १ पृ. २८६ गा० १५७ । गो० जी० २२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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