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________________ पञ्चसंग्रह अस्थि अनंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसत्तपरिणामो । भावकलंकसुपउरा णिगोयवासं ण मुंचति ॥८५॥ नित्य निगोद में ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं, जिन्होंने त्रस जीवोंकी पर्याय आजतक भी नहीं पाई है और जो प्रचुर कलंकित भावोंसे युक्त होनेके कारण निगोद-वासको कभी भी नहीं छोड़ते ॥८५॥ १८ सजीवोंके भेद - 'विहिं तिहिं चऊहिं पंचहिं सहिया जे इंदिएहिं लोयहि | ते तसकाया जीवा णेया वीरोवएसेणं ॥८६॥ लोक में जो दो इन्द्रियोंसे, तीन इन्द्रियोंसे, चार इन्द्रियांसे और पाँच इन्द्रियोंसे सहित जीव दिखाई देते हैं, उन्हें वीर भगवान्‌ के उपदेशसे त्रसकायिक जीव जानना चाहिए ॥ ८६ ॥ अकायिक जीवोंका स्वरूप 'जहां कंचणमग्गिमयं मुच्चइ किट्टेण कलियाए य । तह कायबंधमुका अकाइया झाणजोएण || ८७ ॥ जिस प्रकार अग्निमें दिया गया सुवर्ण किट्टिका ( बहिरंगमल ) और कालिमा ( अन्तरंगमल) इन दोनों प्रकारके मलोंसे रहित हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानके योगसे शुद्ध हुए और काय के बन्धन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए ||८७ इस प्रकार काय मार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ अब योगमार्गणाका वर्णन प्रारम्भ करते हुए पहले योगका स्वरूप कहते हैं'मणसा वाया कारण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्स |प्पणिओगो जोगो त्ति जिणेहिं णिदिट्ठो ॥ ८८ ॥ मन, वचन और काय से युक्त जीवका जो वीर्य परिणाम अथवा प्रदेश-परिस्पन्द रूपप्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥८॥ मनोयोगके भेद और उनका स्वरूप Jain Education International "सब्भावो सचमणो जो जोगो सो दु सचमणजोगो । aforaओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस त्ति ॥८॥ सद्भाव अर्थात् समीचीन पदार्थ के विषय करनेवाले मनको सत्य मन कहते हैं और उसके द्वारा जो योग होता है, उसे सत्यमनोयोग कहते हैं । इससे विपरीत योगको मृषामनोयोग कहते हैं । सत्य और मृषारूप योगको सत्यमृषामनोयोग कहते हैं ||८|| 1. सं० पञ्चसं० १, ११० । 2. १, १६० । ३. १, १६४ । 4. १, १६५ । 5. १६७ । १. ध० भा० १ पृ० २७१ गा० १४८ । गो० जी० १६६ । २. ध० भा० १ पृ० २७४ गा० १६७ । ३. ६० भा० १, पृ० २६६ मा २०२ । १४० गा० ८८ । स्था० सू० पृ० १०१ ५. ध० १५४ १५४ । गो० जी० ४. ६० भा० १ पृ० भा० १ पृ० २८१ मा * द सपउरा + प्रतिपु 'जिह' पाठः । ब द य निय० । १४४ । गो० जी० । गो० जी० २०७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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