________________
११२
पञ्चसंग्रह अब मोहनीयकर्मके बीस भुजाकार बन्धोंका निरूपण करते हैं---
'एकाई पणयंतं ओदरमाणो दुगाइणवयंतं ।
बंधंतो बंधेइ सत्तरसं वा सुरेसु उववण्णो ॥२५२।। ___ अल्पप्रकृतिकं बध्नन् अनन्तरसमये बहुप्रकृतिकं च बध्नाति, तदा भुजाकारबन्धः स्यात् । मोहनीयस्य विंशतिः भुजाकारबन्धाःकथ्यन्ते-एकादिपञ्चान्तं अधोऽवतरन् अनिवृत्तिकरणः बध्नन् द्विकादि-नवान्तं बध्नाति । वा अथवा सुरे देवलोके वैमानिकेऽसंयतदेव उत्पन्नः सप्तदश बध्नाति ॥२५२॥
___ उपशमश्रेणीसे उतरनेवाला अनिवृत्तिकरणसंयत एकको आदि लेकर पाँच प्रकृतिपर्यन्त स्थानोंका बन्ध करता हुआ दो को आदि लेकर नौ प्रकृतिपर्यन्त स्थानोंका बन्ध करता है, अथवा देवों में उत्पन्न होता हुआ सत्तरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है ।।२५२॥
अणियट्टी एवं बंधंतो हेट्ठा ओदरिय दुविहं बंधइ । तत्थेव कालं काऊण देवेसुप्पण्णो सत्तरसं वा बंधइ । एवं सव्वत्थ उच्चारणीयं ।
मोहभुजयारा-२
३
४
५
६
__ अनिवृत्तिकरणः एकं बध्नन् अधः उत्तीर्य द्विविधं २ बध्नाति । वा अथवा तत्रैवैकबन्धस्थानकेऽधोऽवरतन् संज्वलनले भ-मायाद्वयं बनन् कालं कृत्वा मरणं प्राप्य वैमानिकदेवे उत्पन्न: सप्तदशकं १७ बध्नाति । एवं सर्वत्रोच्चारणीयम् ।
मोहभुजाकाराः-
२
३
४
५
६
अनिवृत्तिकरणसंयत एक संज्वलन लोभका बन्ध करता हुआ नीचे उतरकर संज्वलन माया और लोभरूप दो प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है । अथवा यदि वह बद्धायुष्क है और यदि आयुका क्षय हो जाता तो यहीं पर मरण कर वैमानिक देवोंमें उत्पन्न होता हुआ सत्तरह प्रकृतिकस्थानका बन्ध करता है। इस प्रकार एकका बन्ध कर दो प्रकृतिकस्थानके बाँधनेपर एक भुजाकार बन्ध हुआ, तथा सत्तरह प्रकृतिक स्थानके बाँधने पर दूसरा भुजाकार बन्ध हुआ। इस प्रकार एक प्रकृतिक स्थानके दो भुजाकार बन्ध होते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र उच्चारण करना चाहिए । अर्थात् दो, तीन, चार और पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता हुआ अनिवृत्तिकरणसंयत क्रमशः तीन, चार, पाँच और नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है, अथवा मरणकर देवोंमें उत्पन्न होके सत्तरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करता है। अतएव दो, तीन, चार और पाँच प्रकृतिक स्थानके भी दो-दो भुजाकार बन्ध होते हैं। इस प्रकार ये सर्व मिलकर दश भुजाकार हो जाते हैं । इनकी अकसंदृष्टि मूलमें दी गई है। अब आधी गाथाके द्वारा शेष भुजाकारोंका वर्णन करते हैंणवगाई बंधंतो सव्वे हेट्ठाणि बंधदे जीवो।
१६३ १७ २१
भुजयारा-१७ २१ २२
२१ २२ २२ .
1. सं० पञ्चसं० ४, १२४.१२६३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org