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पञ्चसंग्रह
तियगायु
देवायु
मनुष्यायुके उक्त भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैकाल
बन्ध अबन्धकाल
मनुष्यायु
मनुष्यायु बन्धकाल नरकायु
मनुष्यायु नरकायु तिर्यगायु मनुष्यायु
मनुष्यायु
देवायु उपरतबन्धकाल
नरकायु तिर्यगायु मनुष्यायु
देवायु अब देवायुके भङ्गोका निरूपण करते हैं
देवाउस्स य उदये तिरिय-मणुयाऊणऽबंध बंधे य । देवाउयं च संतं देवाई दोणि संताणि ॥२४॥
५ ४२ ४.२ ४.३ ४३ देवायुष उदये भुज्यमाने तिर्यग्मनुष्यायुषोरबन्धके बन्धके च देवायुः-सत्त्वं बन्धकादिचर्तुषु भङ्गेषु देवायुस्तिर्यगायुयं सत्वं २, देवायुधमनुष्यायु३ ईयं सत्त्वं च [ इति पञ्च भङ्गाः ५।] ॥२४॥
ति२
म३
बं०
स०
दे ४
दे ४ार
दे
२
दे ४३
दे ४।३
इति देवायुषः पञ्च भङ्गाः समाप्ताः ।
देवायुके उदयमें और तिर्यगायु तथा मनुष्यायुके अबन्ध और बन्धकालमें क्रमशः देवायुकी सत्ता और देवायु-मनुष्यायु तथा देवायु-तिर्यगायुकी सत्ता पायी जाती है ॥२४॥
विशेषार्थ-देवगतिमें नरकगतिके समान ही पाँच भङ्ग होते हैं, इसका कारण यह है कि जिस प्रकार नारकियोंके नरकायु और देवायुका बन्ध नहीं होता है, उसी प्रकार देवोंके भी इन्हीं दोनों आयुकर्मोका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि स्वभावतः देव मरकर देव और नारकियोंमें, तथा नारकी मरकर नारकी और देवोंमें जन्म नहीं लेते हैं। देवगतिके पाँच भङ्गोंका विवरण इस प्रकार है-अबन्धकालमें देवायुका उदय और देवायुका सत्त्वरूप एक ही भङ्ग होता है। बन्धकालमें १ तिर्यगायुका बन्ध, देवायुका उदय और देव-तिर्यगायुकी सत्ता; २ मनुष्यायुका बन्ध, देवायुका उदय और देव-मनुष्यायुकी सत्ता; ये दो भङ्ग होते हैं। उपरत बन्धकालमें देवायुका १ उदय और देव-तिर्यगायुकी सत्ता; तथा २ देवायुका उदय और देव-मनुष्यायुकी सत्ता, ये दो भङ्ग होते हैं । इस प्रकार देवगतिमें कुल पाँच भङ्ग होते हैं।
1. सं०पञ्चसं०५, ३० ।
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