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सप्ततिका
३१५
देवायुके भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैभङ्ग काल बन्ध उदय
सत्ता १ अबन्धकाल . देवायु देवायु २ बन्धकाल तिर्यगायु , देवायु तिर्यगायु
मनुष्यायु , , मनुष्यायु ४ उपरतबन्धकाल
तिर्यगायु
मनुष्यायु अब मोहनीयकर्मके बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०१०] 'बावीसमेक्वीसं सत्तारस तेरसेव नव पंच ।
चउ-तिय-दुयं च एयं बंधट्ठाणाणि मोहस्स ॥२५॥
२२।२१।१७।१३।६।५।४।३।२१॥ अथ मोहनीयस्य बन्धस्थानानि, तथा तानि गुणस्थानेषु गाथापञ्चकेनाऽह-[ 'वावीसमेकवीसं' इत्यादि । ] मोहस्य बन्धस्थानानि द्वाविंशतिकं २२ एकविंशतिकं २१ सप्तदशकं १७ त्रयोदशकं १३ नवकं ६ पञ्चकं ५ चतुष्कं त्रिकं ३ द्विकं २ एककं १ चेति दश स्थानानि भवन्ति ॥२५॥
२२।२१।१७।१३।६।५।४।३।२११ बाईसप्रकृतिक, इक्कीसप्रकृतिक, सत्तरप्रकृतिक, तेरहप्रकृतिक, नौप्रकृतिक, पाँचप्रकृतिक, चारप्रकृतिक, तीनप्रकृतिक, दोप्रकृतिक और एकप्रकृतिक; इस प्रकार मोहनीयकर्मके दश बन्धस्थान होते हैं ॥२॥ .
इनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है-२२।२१।१७।१३।६।।४।३।२।१।
विशेषार्थ-मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं उनमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिका बन्ध नहीं होता है, अतएव बन्धयोग्य शेष छब्बीस प्रकृतियाँ रहती हैं। इनमें भी तीन वेदोंका एक साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु एक कालमें एक वेदका ही बन्ध होता है। तथा हास्य-रति और अरति-शोक; इन दोनों युगलोंमें से एक कालमें किसी एक युगलका ही बन्ध होता है। इस प्रकार छब्बीस प्रकृतियोंमेंसे दो वेद और किसी एक युगलके कम हो जानेपर बाईस प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, जिनका बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थानमें होता है। मिथ्यात्वप्रकृतिका बन्ध पहले गुणस्थान तक ही होता है, अतः दूसरे गुणस्थानमें उसके बन्ध न होनेसे शेष इक्कीस प्रकतियोंका बन्ध होता है। नपुंसकवेदका भी बन्ध यद्यपि दूसरे गुणस्थानमें नहीं होता है, तथापि उसके न बँधनेसे इक्कीस प्रकृतियोंकी संख्यामें कोई अन्तर नहीं पड़ता। हाँ, भङ्गोंमें अन्तर अवश्य हो जाता है। अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्कका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अतएव उक्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे चार प्रकृतियोंके कम कर देनेपर तीसरे और चौथे गुणस्थानमें सत्तरह प्रकृतिकस्थानका बन्ध होता है। यद्यपि इन दोनों गुणस्थानोंमें स्त्रीवेदका भी बन्ध नहीं होत
होताहै, तथापि उससे सत्तरह प्रकृतियाकी संख्या कोई अन्तर नहीं पड़ता। हों, भंगोंमें भेद अवश्य हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कका बन्ध चौथे गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अतः सत्तरह प्रकृतिस्थानमें से उनके कम कर देनेपर पाँचवें गुणस्थानमें तेरहप्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्कका बन्ध् पाँचवें गुणस्थान
1, सं० पञ्चसं० ५, ३१.३२ । १. सप्ततिका० १०।
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