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________________ पञ्चसंग्रह तक ही होता है, आगे नहीं। अतः तेरह प्रकृतिकस्थानमेंसे उनके कम कर देनेपर छठे गुणस्थानमें नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। अरति और शोकप्रकृतिका बन्ध यद्यपि छठे गुणस्थान तक ही होता है, तथापि हास्य और रति प्रकृतिके बन्ध होनेसे सातवें और आठवें गुणस्थानमें भी नौ प्रकृतिक स्थानके बन्ध होनेमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। हास्य-रति और भय-जुगुप्साका बन्ध आठवें गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अतः नौ प्रकृतिक स्थानमेंसे इन चार के कम हो जानेसे शेप पाँच प्रकृतिक स्थानका बन्ध नवें गुणस्थानके प्रथम भाग तक होता है। नवें गुणस्थानके दूसरे भागमें पुरुषवेदका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ पर चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। तीसरे भागमें संज्वलन क्रोधका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ पर तीन प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। चौथे भागमें संज्वलनमानका बन्ध नहीं होता है, अतः वहाँ पर दो प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है । पाँचवें भागमें संज्वलन मायाका बन्ध नहीं होता, अतः वहाँ पर एक प्रकृतिक स्थानका बन्ध होता है। इस प्रकार नवें गुणस्थानके पाँच भागोंमें क्रमसे पाँच प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक ये पाँच बन्धस्थान होते हैं । दशवें गुणस्थानमें एक प्रकृतिक बन्धस्थानका भी अभाव है। क्योंकि वहाँ पर मोहनीयकर्मके बन्धका कारणभूत बादर कषाय नहीं पाया जाता। अब भाष्यगाथाकार उक्त अर्थका ही स्पष्टीकरण करते हैं 'मिच्छम्मि य वावीसा मिच्छा सोलह कसाय वेदो य । हस्सजुयलेकणिंदाभएण विदिए दु मिच्छ-संदूणा ॥२६॥ २२ मिच्छे २२ पत्थारो-- १११ । सासणे २० पत्थारो-२२ मिथ्यात्वे मिथ्यात्वं १ षोडश कषायाः १६ वेदानां त्रयाणां मध्ये एकतरवेदः १ हास्यरतियुग्माऽरतिशोकयुग्मयोर्मध्ये एकतरयुग्मं २ भययुग्मं २ सर्वस्मिन् मिलिते द्वाविंशतिकं मोहनीयबन्धस्थानं मिथ्यादृष्टी मिथ्यादृष्टिबंधातीत्यर्थः । मिथ्यादृष्टौ बन्धकूटे एकस्मिन् मिथ्यादृष्टिजीवे द्वाविंशतिकं बन्धस्थानं सम्भवति । २ भ० जु २ । २ हा १११ वे तगङ्गाः हास्यारतिद्विकाभ्यां २ वेदत्रये ३ हते पट । सासादनगुणस्थाने मिथ्यात्व-पण्ढवेदोना १ मि २ एते २१ । प्रस्तारः कूट वा २॥२ पोडश का र पोडश कपाया १६ भयद्वयं २ वेदयोकियोर्मध्ये १ हास्यदियुग्मं २ मिलिते एकविंशतिकं २१ । तद्भङ्गा वेदद्वय-युग्मद्वयजाश्चत्वारः ॥२६॥ मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल, तथा भय और जुगुप्सा, इन बाईस प्रकृतियोंका बन्ध होता है। दूसरे गुणस्थानमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके विना शेष इक्कीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है।॥२६॥ उक्त दोनों गुणस्थानोंके बन्धप्रकृतियोंकी प्रस्तार-रचना मूलमें दी है। 1. सं० पञ्चसं० ५, ३३-३४ । 2. ५, 'मिथ्यादृष्टौ' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० १५५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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