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________________ सप्ततिका बन्धोदयसत्त्वकर्मणां अर्थाः वाच्यरूपाः तत्स्वरूपरूपाः अनुसतव्या आश्रयणीया अङ्गीकर्तव्याः भव्यः । कुतः ? दुरधिगमनिपुणपरमार्थरुचिरबहुभङ्गादप्टिवादाङ्गात् ॥५०६॥ तथा च दृष्टिवादमकराकरादिदं प्राभृतैकलवरत्नमुद्धृतम् । ज्ञानदर्शनचरित्रवृहकं गृह्यतां शिवनिवासकाङ क्षिभिः ॥३६।। बन्धं पाकं कर्मणां सत्त्वमेतद्वक्तुं शक्त दृष्टिवादप्रणीतम् । शास्त्रं ज्ञात्वाऽभ्यस्यते येन नित्यं सम्यक् तेन ज्ञायते कर्मतत्त्वम् ॥४॥ दुरधिगम, सूक्ष्मबुद्धिके द्वारा गम्य, परम तत्त्वका प्रतिपादक, रुचिर (आह्लाद-कारक) और अनेक भेद-युक्त दृष्टिवादसे कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वका विशेष अर्थ जानना चाहिए ॥५०६॥ भावार्थ-गाथासूत्रकारने इस ग्रन्थका प्रारम्भ करते हुए यह निर्देश किया था कि मैं दृष्टिवादके आश्रयसे बन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोंका निरूपण करूँगा। अब ग्रन्थको समाप्त करते हुए वे यह कह रहे हैं कि बारहवाँ दृष्टिवाद अङ्ग अत्यन्त गहन, विस्तृत और सूक्ष्मबुद्धि पुरुषोंके द्वारा ही जानने योग्य है। अतएव मेरेसे जितना भी संभव हो सका, प्रस्तुत अर्थका प्रतिपादन किया । जो विशेष जिज्ञासु जन हों, उन्हें दृष्टिवादसे प्रकृत अर्थका अनुसरण या अध्ययन करना चाहिए। अब मूलसप्ततिकाकार अपनी लघुता प्रकट करते हैं[मूलगा०७२] जो एत्थ अपडिपुण्णो अत्थो अप्पागमेण रइओ त्ति । पंखमिऊण बहुसुया पूरेऊणं परिकहिंतु ॥५०७॥ इदि पंचसंगहो समत्तो। अत्र अस्मिन् ग्रन्थे यः अपरिपूर्णः अर्थो मया कथितः अल्पागमेन लेशसिद्धान्तज्ञायकेन रचित इति तं अर्थ भो बहुश्रुताः अनेकसिद्धान्तवेदिनः ममोपरि मां कृत्वा भपरिपूर्णमर्थ पूरयित्वा पूर्ण कृत्वा परिकथयन्तु प्रकाशयन्तु ॥५०७॥ मुझ अल्प आगम-ज्ञानीने इस प्रकरणमें जो अपरिपूर्ण अर्थ रचा हो, उसे बहुश्रुत ज्ञानी आचार्य मुझे क्षमा करके और छूटे हुए अर्थकी पूर्ति करके जिज्ञासु जनों को प्रस्तुत प्रकरणका व्याख्यान करें ।।५०७॥ इस प्रकार सभाष्य सप्ततिका-प्रकरण समाप्त हुआ। २. सं० पञ्चसं० ५,४८३ । १. सं० पञ्चसं० ५, ४८२ । १. सप्ततिका ७२ । *ब इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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